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7.
जीविउ कासु न वल्लहउं धणु पुणु कासु न इछु। दोण्णि वि अवसर-निवडिअई तिण-सम गणइ विसिट्ठ॥
8.
बलि अब्भत्थणि महु-महणु लहुई हूआ सोइ। जइ इच्छहु वडुत्तणउं देहु म मग्गहु कोइ॥
9.
कुञ्जर! सुमरि म सल्लइउ सरला सास म मेल्लि। कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरि माणु म मेल्लि।।
10.
दिअहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छि। जं अच्छइ तं माणिअ इं होसइ करतु म अच्छि॥
11.
सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कन्तहो बलि कीसु। तसु दइवेण वि मुण्डियउं जसु खल्लिहडउ सीसु॥
12. तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवडु वित्थारु।
तिसहे निवारणु पलुवि नवि पर धुटुअइ असारु॥
13. किर खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रुअडउ।
इह किवणु न जाणइ जइ जमहो खणेण पहुच्चइ दूअडउ॥
14.
कहिं सहसरु कहिं मयरहरु कहिं बरिहिणु कहिं मेहु । दूर-ठिआहं वि सज्जणहं होइ असड्ढलु नेहु॥
98
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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