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जिणिन्दहो
दसरहेण
2.
पट्ठवियइँ जिण-तणु-धोक्याइँ
देविहिँ
दिव्वइँ
गन्धोदयाइँ
3.
सुप्प
णवर
कञ्चुइ
ण
पत्तु
पहु
पभणइ
रहसुच्छलिय-तु
4.
कहे
काइँ
नियम्विणि
मणे
विसण्ण
चिर- चित्तिय
भित्ति
2.
123
(farfora) 6/1
( दसरह) 3 / 1
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( पट्ठव) भूकृ 1 / 2
[(जिण) - (तणु) - (धोवय ) 1 / 2 वि ]
(देवी) 4/2
(दिव्व) 1/2 वि (गन्धोदय) 1/2
( सुप्पहा ) 6/1
अव्यय
(कञ्चुइ) 1 / 1
अव्यय
( पत्त ) भूकृ 1 / 1 अनि
(पहु) 1 / 1
( पभण) व 3 / 1 सक
[ (रहस) + (उच्छलिय) + (गत्तु ) ] [[ (रहस) (उच्छल - उच्छलिय) भूक - (गत्त) 1 / 1 ] वि]
[(चिर) वि- (चित्तिय ) भूकृ 1 / 1 अनि ]
(fufa) 1/1
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151
( कह ) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
(णियम्विणी ) 8 / 1
(मण) 7/1
(विसण्ण- (स्त्री) विसण्णा)
भूकृ 1 / 1 अनि
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जिनेन्द्र का
दशरथ के द्वारा
भेजा गया
जिनेश्वर के तन को
धोनेवाला
देवियों के लिए
दिव्य
गन्धोदक
सुप्रभा के
केवल
कञ्चुकी
नहीं
पहुँचा
स्वामी (राजा)
कहता है
हर्ष से पुलकित शरीरवाले
कहो
क्यों
हे स्त्री
मन में
दुःखी
पुरानी चित्रित
भीत
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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