SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बहुए पलावें पुहइ ण लब्भइ मिच्छागावें 5. तं 1. णिसुवि कुमारगणु घोसइ HEATR जइ वाहि ण दीसइ 6. तो पणवहुं जइ TE सुसुइ कलेवरु ཤྲཱ ༔ ྂ བྷྲ ཝ पहुं जइ जीविउ सुंदरु 7. 207 Jain Education International ( बहुअ ) 3 / 1 वि ( पलाव ) 3 / 1 (पुहई) 1/1 अव्यय (लब्भइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि [(मिच्छा) वि- (गाव) 3 / 1 ] (त) 2 / 1 स ( णिसुण + एवि) संकृ [ (कुमार) - ( गण ) 1 / 1 ] (घोस) व 3/1 सक अव्यय (पणव) व 1 / 2 सक अव्यय (anfe) 1/1 अव्यय ( दीसइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि अव्यय (पणव) व 1 / 2 सक अव्यय (सु-सुइ) 1/1 वि ( कलेवर) 1 / 1 अव्यय ( पणव) व 1 / 2 सक अव्यय (जीविअ ) 1/1 (सुंदर) 1/1 वि अव्यय For Private & Personal Use Only बहुत प्रलाप से पृथ्वी नहीं प्राप्त की जाती है। मिथ्या गर्व से उसको सुनकर कुमारगण कहता है ( कहा ) तब प्रणाम करते हैं यदि व्याधि नहीं देखी जाती है। तब (तो) प्रणाम करते हैं यदि अत्यन्त पवित्र शरीर तब (तो) प्रणाम करते हैं यदि जीवन सुन्दर तब (तो) अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy