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विसमावत्थहिँ
पत्तउ
14.
ह
तुव
सरणि
विएसें
पत्ती
करहि
गंपि
महु
पुत्तहु
तत्ती
15.
महु
मणु
अच्छइ
बहुदुक्खायरु
इय
कंदंति
णिवारइ
भायरु
16.
अच्छहि
कलुणु
म
1.
313
[(विसम) + (अवत्थहिँ ) ] [(विसम) वि - (अवत्था ) 7 / 1]
( पत्तअ ) भूक 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
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( अम्ह ) 1 / 1 स
( तुम्ह ) 6 / 1 स
(सरण) 7/1
(विएस) 7/1
(पत्त - (स्त्री) पत्ती) भूकृ 1 / 1 अनि
(कर) विधि 2 / 1 सक
(गम + एप्पि) संकृ
( अम्ह) 4 / 1 स
(पुत्त ) 5 / 1
(afa) 1/1
( अम्ह) 6 / 1 स
(मण) 1/1
( अच्छ) व 3 / 1 अक
[ ( बहु) + (दुक्ख ) + (आयरु) ] [ ( बहु) वि - (दुक्ख ) - (आयर) 1 / 1 ]
अव्यय
(कंद - कंदंत-कदंती) वकृ 2/1
(णिवार) व 3 / 1 सक
( भायर) 1 / 1
( अच्छ) विधि 2 / 1 अक
(कलुण) 1/1 वि
अव्यय
कठिन (विषम) अवस्था में
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पड़ा हुआ
मैं
तुम्हारी
शरण में
विदेश में
पड़ी हुई
करो
जाकर
मेरे लिए
पुत्र से
सन्तोष
मेरा
मन
c
बहुत दुःखों की खान
इस प्रकार
रोती हुई को
रोकता है
भाई
ठहरो
करुणा-जनक
गम्
के साथ सम्बन्धक कृदन्त के प्रत्यय 'एप्पिणु' और 'एप्पि' जोड़ने पर 'ए' का विकल्प से लोप हो जाता है। (गम - गमेप्पि - गंप्पि - गंपि) (हेम प्राकृत व्याकरण 4-442)
मत
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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