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________________ : 76.3 जब राम, लक्ष्मण और सीता पिता की आज्ञा का पालन करते हुए चौदह वर्ष के वनवास में जाते हैं तब वहाँ रावण कपट वेश धारण कर सीता का हरण करता है। सीता को पुनः प्राप्त करने हेतु राम लंकापति रावण से युद्ध करते हैं। रावण के इस कार्य से दुःखी होकर विभीषण राम की शरण में आ जाता है । अन्त में राम की जीत होती है और रावण युद्ध में मारा जाता है। पाठ 4 पउमचरिउ रावण को मरा हुआ देखकर विभीषण मूच्छित हो जाता है । होश आने पर वह स्वयं मृत्यु की इच्छा करने लगता है । प्रस्तुत पद्यांश में उसके करुण विलाप का वर्णन किया गया है। 76.7 प्रस्तुत कडवक में रावण की मृत्यु के पश्चात् दुःखी रानियों का वर्णन किया गया है कि उन सबको किस तरह अपना अस्तित्व समाप्त होता दिखाई देता है । रावण की मृत्यु के बाद ही वे सब भी मृतप्रायः हो गई हैं। उनके भावों का आलंकारिक वर्णन कवि ने यहाँ किया है। उनको दुःख की जो अनुभूति हो रही है, प्रिय के बिछोह की जो वेदना हो रही है कवि ने उसी का विभिन्न उपमाओं के द्वारा वर्णन किया है। 77.1 राम के द्वारा रावण के मारे जाने से पूरा अन्तःपुर दुःखी है। कुम्भकरण व इन्द्र जीत को भी रावण के मारे जाने की सूचना मिलती है तो वे अत्यन्त करुण विलाप करते हुए बेहोश हो जाते हैं। होश आने पर रावण की वीरता का बखान कर विलाप करने लगते हैं और यह कहते हैं कि रावण की अनुपस्थिति में सब सुख नीरस हैं। भाई के वियोग में विभीषण विलाप करता है तो वानर - समूह भी रोता है। मरा हुआ रावण वानर-समूह को कैसा लगता है / दिखाई देता है, कवि ने इसी का ही विभिन्न उपमाओं से विभूषित वर्णन किया है। धरती पर पड़े हुए रावण को राम-लक्ष्मण भी अत्यधिक दुःखी हो अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हैं। 77.2 विभीषण को समझाते हुए राम कहते हैं कि हे विभीषण! तुम रावण के लिए क्यों रोते हो? रोया तो ऐसे पापी को जाता है जिसके बोझ से धरती दुःखी है, जिसके जीने से धरती व्याकुल है, अर्थात् जो घोर पापी है, उसे रोया जाता है। तुम रावण को क्यों रोते हो? अपभ्रंश काव्य सौरभ 77.4 राम द्वारा समझाने पर विभीषण जवाब देते हैं- हे राघव ! मैं इतना इसलिये रोता हूँ कि रावण ने अपना अपयश अधिक फैलाया है, उसने अपने इस अमूल्य जीवन को तिनके के समान बना दिया । उसका जीवन व्यर्थ ही गया, यही सोचकर मैं रोता हूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only 400 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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