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________________ करेवि (कर+एवि) संकृ करके कमलों को कमलई मेल्लवि छोड़कर भँवरों के अलि उलई करि-गंडाई महन्ति असुलह-मेच्छण' (कमल) 2/2 (मेल्ल+अवि) संकृ (अलि ) 6/2 (उल) 1/2 [(करि)- (गंड) 2/2] (मह) व 3/2 सक [(असुलह)+ (एच्छण)] (असुलह) 2/1 वि (एच्छण) 2/1 वि (ज) 6/2 स (भलि) 1/1 (दे) (त) 1/2 स अव्यय समूह हाथियों के गण्डस्थलों को इच्छा करते हैं, चाहते हैं असुलभ, लक्ष्य को जिनका जाह कदाग्रह नहीं बिल्कुल अव्यय दूर (दूर) 2/1 वि (गण) व 3/2 सक गणन्ति मानते हैं जीविउ जीवन किसके लिए कासु (जीविअ) 1/1 (क) 4/1 स अव्यय (वल्लहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (धण) 1/1 नहीं वल्लहउं प्रिय धणु धन पुणु अव्यय कासु (क) 4/1 स किसके लिए अव्यय नहीं (इ8) भूकृ 1/1 अनि प्रिय (दो) 2/2 वि दोनों को एच्छण (वि) लक्ष्य को (हेम प्राकृत व्याकरण, कोष सूची पृष्ठ 25) भलि-कदाग्रह। दोण्णि 1. 2. अपभ्रंश काव्य सौरभ 334 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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