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तं जो विसयविसरसे धिवइ परवसे तस्स किं बुहत्तं ॥1॥ कंचणकंडे जंबुउ विंधइ
मोत्तियदामें मंकडु बंधइ ॥2॥ खीलयकारणि देउलु मोडइ सुत्तणिमित्तु दित्तु मणि फोडइ॥3॥ कप्पूरायररुक्खु णिसुंभइ
कोद्दवछत्तहु वइ पारंभइ॥4॥ तिलखलु पयइ डहिवि चंदणतरु विसु गेण्हइ सप्पहु ढोयवि करु॥5॥ पीयई कसणइं लोहियसुक्कई तक्कें विक्कइ सो माणिक्कइं॥6॥ जो मणुयत्तणु भोएं णासह तेण समाणु हीणु को सीसइ॥7॥ चित्तु समत्तणि णेय णियत्तइ पुत्तु कलत्तु वित्तु संचितइ॥४॥ मरइ रसणफंसणरसदड्ढउ
मे मे मे करंतु जिह मेंढउ॥9॥ खज्जइ पलयकालसद्लें
डज्झइ दुक्खहुयासणजालें॥10॥ मंजरु कुंजरु महिसउ मंडलु होइ जीव मक्कडु माहुंडलु ।।11।।
घत्ता
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केलासहु जाइवि तवयरणु ताएं भासिउ किज्जइ। जेणेह सुदूसहतावयरि संसारिणि तिस छिज्जइ।12।।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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