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________________ णिवसइ देउ तेहउ णिवसइ भु परु देहहँ" - देहहं मं करि भेउ 14. दिट्ठ ति लहु कम्मइँ पुव्व कियाइँ सो परु ཝཱ, བ ལླཾ, ཚ ཙྪཱ སྠཽ 1. 2. 351 ( णिवस ) व 3 / 1 अक (231) 1/1 (तेहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक ( णिवस ) व 3 / 1 अक Jain Education International (बंभ) 1/1 (पर) 1 / 1 वि (देह) 2 6/2 अव्यय (कर) विधि 2 / 1 सक (भेअ) 2/1 (ज) 3 / 1 सवि (दिट्ठ) भूक 3 / 1 अनि (तुट्ट) व 3 / 2 अक अव्यय (कम्म) 1 / 2 [(पुव्व) - ( कि - किय) भूकृ 1 / 2] (त) 1 / 1 सवि (पर) 1 / 1 सवि (जाण) विधि 2 / 1 सक ( जोइय) 8 / 1 'य' स्वार्थिक (देह) 7/1 (वस) वकृ 1 / 1 अव्यय अव्यय रहता है दिव्यात्मा For Private & Personal Use Only उस तरह का रहता है आत्मा परम देहों में मत कर भेद जिसके अनुभव किए गए होने के कारण नष्ट हो जाते हैं शीघ्र कर्म पूर्व में किए गए वह परम समझ हे योगी देह में यहाँ 'देह' का हस्व रूप बताने के लिए 'देहहँ' किया गया है। (हेम प्राकृत व्याकरण 4 - 441 ) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) बसते हुए नहीं क्यों अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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