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________________ 7. जणणि A छारपूंजु वरि जायउ णउ कुसीलु 8. सीलवंतु सलहिज्जइ सीविवज्जिएण किं किज्जइ 9. इय मा ए - मा सीलु परिपालिज्जए 9. वि महासइ 1. अपभ्रंश काव्य सौरभ ( जणणि) 8 / 1 अव्यय [(छार) - (पुंज) 1 / 1] अव्यय ( जा + जाअ ' -जाय) विधि 3 / 1 अक अव्यय (कुसील) 1/1 [(मयणेण) + (उम्मायउ ) ] (मयण) 3 / 1 (उम्मायअ ) 1 / 1 वि Jain Education International ( सीलवंत ) 1 / 1 वि ( बुहयण) 3 / 1 ( सलह ) व कर्म 3 / 1 सक [(सील) - (विवज्जिअ ) 3 / 1] (किं) 1/1 सवि (किज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि (इअ ) 2 / 1 स ( जाण+ + एविणु) संकृ (सील) 1 / 1 ( परिपाल + इज्ज) व कर्म 3 / 1 सक (मा) 8/1 अव्यय ( महासइ ) 8/1 अव्यय अव्यय माता हे (आमंत्रण का चिह्न) राख का ढेर अधिक अच्छा हो जाए नहीं For Private & Personal Use Only कुशील कामवासना के कारण, पागलपन पैदा करनेवाला (उन्मादक) शीलवान विद्वान व्यक्ति के द्वारा प्रशंसा किया जाता है शीलरहित होने से क्या सिद्ध किया जाता है इसको समझकर शील पालन किया जाता है माता हे अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त शेष स्वरान्त धातुओं में अ (य) विकल्प से जुड़ता है, अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 265 महा है तो 274 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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