________________
प्रकाशकीय (द्वितीय संस्करण)
अपभ्रंश काव्य सौरभ का द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में समर्पित कर हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। इसके प्रथम संस्करण का पाठकों ने भरपूर उपयोग किया है, अतः हम उनके आभारी हैं।
अपभ्रंश भाषा भारतीय आर्य परिवार की एक सुसमृद्ध लोकभाषा रही है । विद्वानों का मत है कि "अपभ्रंश ही वह आर्य भाषा है जो ईसा की लगभग छठी शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव - विनियम और व्यवहार की बोली रही है।" यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश की कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "हिन्दी साहित्य में अपभ्रंश की प्रायः पूरी परम्पराएँ ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।"
3
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित " जैनविद्या संस्थान" के अन्तर्गत " अपभ्रंश साहित्य अकादमी” की स्थापना सन् 1988 में की गई। वर्तमान में प्राकृत एवं अपभ्रंश का अध्यापन पत्राचार के माध्यम से किया जाता है। अपभ्रंश भाषा के सीखने-समझने को ध्यान में रखकर अकादमी द्वारा अपभ्रंश रचना सौरभ, प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में अपभ्रंश काव्य सौरभ प्रकाशित की गई थी। अब यह उसका द्वितीय संस्करण है। इसमें पूर्व की भाँति अपभ्रंश के विभिन्न ग्रन्थों से पद्यांशों का चयन किया गया है। उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ प्रस्तुत किए गए हैं। काव्यों के भावानुवाद के स्थान पर व्याकरणात्मक अनुवाद करने की
[ 1 ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org