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________________ रात रयणि सइँसई (रयणि) 1/1 अव्यय (सुक्ख) 3/1 स्वयं सुख के कारण सुक्खें रत्त-पत्त सुहावने हुए, पत्ते वृक्ष के तरु पवणाकम्पिय पवन से हिले डुले किसके द्वारा केण [(रत्त) भूकृ अनि-(पत्त) 1/2] (तरु) 6/1 [(पवण)+(आकम्पिय)] [(पवण)(आकम्पिय) भूकृ 1/1] (क) 3/1 स अव्यय (वह-वहिअ) भूकृ 1/1 (गिम्भ) 1/1 अव्यय (जम्प जम्पिय) भूक 1/1 पादपूरक नष्ट किया गया (मारा गया) वहिउ गिम्भु ग्रीष्म मानो जम्पिय बोला गया तेहए उस जैसे काले समय में भयाउरए भयातुर वेण्णि दोनों वासुएव-वलएव तरुवर-मूले स-सीय (तेहअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक (काल) 7/1 [(भय)+ (आउरए)] [(भय)-(आउरअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक (वे) 1/2 वि अव्यय (वासुएव)-(वलएव) 1/2 [(तरु)-(वर) वि-(मूल) 7/1] [(स) वि-(सीया) 1/1] (थिय) भूकृ 1/2 (जोग) 2/1 [(लअ)+(एविणु) संकृ] [(मुणि)-(वर) 1/1 वि] अव्यय राम और लक्ष्मण वृक्ष के नीचे के भाग में सीता-सहित बैठ गये योग ग्रहण करके महामुनि की भाँति जोगु लएविणु मुणिवर जेम 169 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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