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________________ भवदुक्खलक्ख [(भव)-(दुक्ख)-(लक्ख) 1/2] संसार के लाखों दु:ख खण क्षण में (खण) 7/1 (भंगुर) 1/1 (सयल) 1/1 वि भंगुरु सयलु नाशवान सब (प्रत्येक) अव्यय मत करहि सोउ शोक मह मुझको पूणु (कर) विधि 2/1 सक (सोअ) 2/1 (अम्ह) 6/1 स अव्यय (पेच्छ) विधि 2/1 सक (संजण) भूक 1/1 (मोअ) 1/1 फिर देख पेच्छहि संजणिय मोउ उत्पन्न हुआ हर्ष सद्दहहि श्रद्धा कर जिनागम को (का) जिणायमु सरिवि स्मरण करके अज्जु (सद्दह) विधि 2/1 सक [(जिण) + (आयमु)] [(जिण)-(आयम) 2/1] (सर+इवि) संकृ अव्यय (हुअ) भूकृ 1/1 [(पढम) वि-(सग्ग) 7/1] (सुर) 1/1 [(देव)-(पुज्ज) 1/1 वि] आज पढम-सग्गि हुआ प्रथम स्वर्ग में देव देवों द्वारा पूज्य सुर देवपुज्जु 8. अवधि-ज्ञान से अवहिए जाणिवि (अवहि) 3/1 (जाण+इवि) संकृ जानकर अकारान्त पुल्लिंग, सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'शून्य' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन. पृष्ठ 147) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) अपभ्रंश काव्य सौरभ 328 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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