Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह भगवत्सुधर्मखामिप्रणीतं श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (व्याख्याप्रज्ञप्तिः) पञ्चमाङ्गे द्वितीयखण्डम् । श्रीमद्-अभयदेवसूरिविरचितविवरणसहितम् । श्रीयुत पुंजाभाई हीराचन्दद्वारा संस्थापितायाः श्रीजिनागमप्रकाशकसभाया मानदकार्यभारिमनसुखलाल-रवजीभाई मेहता प्रेरितेन न्याय-व्याकरणतीर्थेन श्रीजीवराजतनुज-पण्डित-बेचरदासेन अनुवादितम् , संशोधितं च । राजकोटस्य सनातन जैनमुद्रणालये मुदितम्. वि० सं० १९७९ मूल्यमू-१२-०-० Jain Education international Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रायचंद्र-जिनागम संग्रहनी योजनामा प्रथम जैनधर्मने सुप्रसिद्ध पूज्य ग्रंथ श्रीमद्भगवतीसूत्र प्रकट करवानुं ठ हतुं. ते अनुसार भगवतीसूत्रने प्रथम भाग आजथी त्रण वर्ष उपर प्रगट थयो हतो. जिनागम संग्रहनी योजनाना सर्व ग्रंथे। मुबइना 'निर्णयसागर ' मुद्रणालयमां छपाववानी कार्यवाहकोनी इच्छा हती; परंतु ए मुद्रणालये प्रथम भाग छापी आप्या पछी बीजा भागा पोताने खां छापी आपयानी सपडताना अभाव दर्शावयाची कार्यवाहकाने स्वतंत्र गोठण करवी पड़ी. राजकोटमा एक स्वतंत्र मुद्रणालय स्थाप पदयुं के जेनी अंदर भगवतीसूत्रने आ बीजो भाग छपाइ बहार पढे छे. आ भगवती सूत्रा आविद्वतामय अनुवाद जैनचममा एक भूषणरूप पंडित बहेचरदास जीवराजे कर्यो छे. नाग बे बहार पढी चूक्या छे. बीजा प्रण भागो जेटली स्मराथी बनी शके तेटली स्मराधी बहार पाडवा सर्व प्रथाना करवामां आवशे. प्रथम भागमां पाछळ शब्दकोष आपवामां आव्यो हतो, पण अनुभवथी एम जणायुं के, दरेक विभागना जूदेा जूदेा कोष आपवा करतां पांचे भागना कोष एकत्रीत आपवाथी एक उत्तम प्रकारने साहित्य सहायक ग्रंथ तैयार थइ शकशे एटला माटे आ भागमा प्रथम भागनी जे कोष आप्या नथी तो पण आ बीजा भागनुं कद प्रथम भाग जेटलुंज राखवामां आव्युं छे. आ बीजा भागम प्रणधी छ शतक आपवामां आव्यां ले. 1 अजिनागम संग्रहनी योजना मूळ पुरुष श्रीयुत पुंजाभाइ हीराचंदनी या ग्रंथ त्वराधी बहार पडेला जोबानी. इच्छा छतां छापखानानी मुश्केलीओधी विलंब थाय छे; जे मुश्केलीओ अमारी सत्तानी बहार होइ असे लाचार छीए. पंडित बेचरदासनी विद्वता माटे जैनसमाजे अवश्य अभिमान घरवा जेवुं छे ए वात आ वे बहार पडेला विभागोथी अवश्य प्रतीत धया विना नहीं रहे. राजकोट, सनातन जैनमुद्रणालय, आशाढ शुक्ल द्वितीया १९८० हालारी. मनसुखलाल खजीभाइ महेता. / Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. उद्देशक १. पू० १-४६. मोका नगरी. - नंदन चैत्य. श्रीमहावीर प्रभुनुं आगमन अने अग्निभूतिनी पर्युपासना विकुर्वणा (रूपो फेरववानी शक्ति). चमरेंद्र, त्रायस्त्रिंशो, सामानिको अने पहराणीओ अभिभूति अने वायुभूति वायुभूतिने संदेह वायुभूति अने श्रीमहावीर. - संदेहनुं निवारण वायुभूतिनी अझिभूति प्रत्ये क्षमानी याचना वायुभूति, अमित भने श्रीमहार दक्षिशे अने अभिभूति उत्तरेंदो अने वायुभूति तिष्नी विना अभिभूतियो विहार, मायुभूति ईशानेंद्र दस अने विकुर्वणा यावत् अच्युत देवलोक [श्रीमदावीर प्रभुनो विहार राजगृहमां आगमन उत्तरार्धना इंड प्राणामा आगमन, देवर्द्धि दर्शन अने संहरण. देवर्द्धि संबंधे प्रश्न. कूटाकार शाळानुं दृष्टांत. देवर्द्धिनी प्राप्तिनो उपाय. मैर्यपुत्र तामली. प्रज्या द्रमा बलिचा देव संमेलन देवोनो सामलीने पोताना दवा मासाह, निवाणु न करणाची तामसी ईनेंद्रपणे थवं. ते वातनी बलिचंचामां जाण. क्रोधेला बलिचंचावासीओए तामलीना शबनी करेली अवगणना. ईशानवासीओ द्वारा ईशानेंद्र ( तामली) ने जाण. कोपेला ईशानेंद्रनी दृष्टिनो प्रभाव. बलिचंचानुं बळवं. देवोनी नाशभाग. ईशानेंद्रनी बलि वेचावासीओए करेली प्रार्थना. हिरण ईशा आशामली ) मुश्कि उत्तरार्धमा अने दक्षिणार्थना इदोनो मेलाप, वासी स विवाये समरकुमारचं स्मरण निवेडो सनत्कुमारचं भव्य उद्देश समाप्ति भने बिहार शतक ३. उद्देशक २० पृ० ४७-७२. राजगृह - पर्षत् महावीर अने गौतम असुरो क्यों रहे छे ? रत्नप्रभा पृथिवीनी बच्चे. असुरोनुं नीचली तृतीय ( वालुकाप्रभा ) पृथिवी सुधी थएलं गगन भने साते पृथिवी सुभी असुरो जवानुं सामर्थ्य गमननो हेतु पूर्वादेरिने सीकर के पूर्वनामित्री करवो. असुरो तिरछे नंदीश्वर द्वीप सुभी ए गमन भने तिरछे अस्य द्वीप समुद्रो मुधी या समन तिरका गमन हेतु अनि मनो निष्क्रमणमोहनोत्पादन अने परिनिर्वाणनो महिमा अनुरोध देवलोक सुधी थए मत देवलोक सुधी जवानुं सामर्थ्य ऊर्ध्वगमननो हेतु देव अने असुरोनुं वैर असुरोनुं चोरपणं. असुरोने देवीए करेली सजा. असुरो अने अप्सराओ. असुरों ऊर्ध्वगमन केटलो काळ वील्या पछी थाय छे ! अनंत उत्सर्पिणी अने अनंत अवसर्पिणी. शबर बर्बर ढंकण. भत्तुअ. पण्ह. पुलिंद अरिहंत विगेरेना आशराधीन असुरो अधुरो मन कच्वंगमन माडे चगरनी बात पर पूर्वजन्म जम्बूद्वीप भारतपने विध्यगिरिपादमूळ. वेमेल संनिवेश, पूरण गृहपति. मुंड थडं. दानामा प्रव्रज्या. चार खानावालुं काष्ठपात्र. मळेल भिक्षावडे वटेमार्ग, कागडा, कूतरा अने माछला, काचवा वगेरेनुं आतिथ्य. पूरणनो उग्रतप. पूरणनुं पादपोपगमन अनशन. छद्मस्थ तरिके महावीरनां अग्यार वर्ष. सुसमारपुर नगर. इंद्र विनानी चमरचंचा नगरी तपस्वी तरीके पूरणनां बार वर्ष मासिक संलेखना. साठ टंक अनशन, चमरचंचामां इंद्र. चमर तरीके पूरणनो जन्म. चमरे करेलो सौधर्म देवलोकनो साक्षात्कार. मघवा, पाकशासन, शतक्रतु, सहस्राक्ष, वज्रपाणि अने पुरंदर, शक्रेंद्रना विलासा जाई चमरने थएली ईर्ष्या, शक्र प्रति चमरनुं गालिप्रदान, चमरना भयावह ईर्ष्यानल छद्मस्थ महावीरने चमरे सीधेल आश्रय परिध आयुधने लइने एकला (क) प्रति करेतुं प्रयाग प्रदान पूर्वे चमरे राम र उपर जज चमरे करेल उत्पात, वानव्यंतर देवानी भागनाश ज्येतिषिकाना विभाग. आत्मरक्षक देवानुं पलायन, चमरनुं शकपासे पहचवु शकता दरवाजा बच्चे रहेल इन्द्रकीलनुं चमरे करेल आकुट्टन शक्राश्रित देवाने देखा डेल भय. चमर उपर शकना काप. चमरनुं भागवुं महावीरना पगमां पडवुं वज्र मूक्या टछी शक्रने थएल विचार- पश्चात्ताप वज्रनी पाछळ थएल शक्र. शक्रे महावीरथी चार आंगळ छेटे रहेल वज्रने पकडयुं शक्रनुं महावीरने वंदन अने क्षमाप्रार्थन, महावीरना प्रभावे चम ने बचाव. गौतमप्रश्न. फेंकेल पुगलनी पाछळ जइने देव तेने पकडी शके ? पुल गतिविश्वार. शक्रनी, चमरनी अने वज्रनी गमनशक्ति, तेनी परस्पर तुलना तथा तेनुं काळमान. चमरना शेक शोकना कारणना चमरना देवाना प्रश्न. चमरनी महावीर प्रति भक्ति. चमरनी स्थिति अने सिद्धि. - 2 ०७३-८४. राम मंदिरापुगात किया काविी प्रधी पारितानिकी प्राणातिपातकियाप्रमेद पैके पछी अनुभव. श्रमणाने कर्म होय ? होय. प्रमाद. योग. जीवनां एजन अने परिणमन विगेरे. जीवनी अंतक्रिया (मुक्ति). आरंभ. संरंभ. समारंभ. जीवनी अक्रियता. तृणपूलक अने अभि जलबिंदु अने अमि. नाव अने तेनां छिद्रा. अनगारनी सावधानता प्रमत्तता अने अप्रमत्ततानी स्थितिनुं प्रमाण, विहार. गौतम, लवण समुद्रमां भरती आट थवानुं शुं कारण ? लोक स्थिति, विहार. - शतक ३. उद्देशक २. / Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. उद्देशक ४. पृ० ८५-९४. अनगार यानरूपे जता देवने देवरू जूवे के यानरूपे? चतुर्भगी. एवा देवी अने देव-देवी संबंधेना प्रश्ना. वृक्षने जाना। अनगार तेना अंदरना के बहारना भागने जवे? चतुर्भगी. ए रीते मूल, कंद स्कंध, छाल, डाळ, पत्र, फुल, फळ तथा बीजना प्रश्नो..पीस्ता लीश भांगा. मनुष्य तिर्यंच, वाहन अने पताकाने आकारे वायु बाय? मात्र पताकाने आकारे वाय. कारण, पताकाने आकारे अनेक योजन जाय? हा., आत्मऋद्धि. परऋद्धि. आत्म प्रयोग, पर प्रयोग, वायु पताका छे? ना. तेवे ज आकारे जनारी वादळाओ. कारण, मरण पूर्षेनी लेश्यावाळो नैरयिक. ज्योतिषिक तथा वैमानिकानी लेश्या. लेश्याव्या. अनगार, बहारनां पुद्गले ने लीधा विना वैभारने ओळंगे? ना. लइने ? हा. विकुर्वणा करनारो मायी. कारण, प्रणीत भोजन. अप्रणीत भेजिन. आहारपरिणाम-प्रणीत मेजिनथी मांस अने लाहीनी प्रतनुना-अस्थि. ओनी घनता. अप्रणीत भोजनथी मांस अने लोहीनी घनता-अस्थिओनी प्रतनुता. माया विराधक अमायी आराध - शतक ३. उद्देशक ५. पृ० ९५-१००. अनगार वाह्य पुद्गलाने लीधा विना स्त्री किरेनों रूपो करे ? ना. लईने. हा. एवां रूपोबडे जंबूद पने भरी देवार्नु मात्र सामर्थ्य. युवक-युवति. असिचर्मपात्र. एकतः पताका. पर्यस्तिका. पर्यक. अभियोग. घोडो, हाथी, सिंह, वाघ, रू, दी डो, रीछ अने अष्टापद विगेरेने रूपे अनगार. पुद्गलपर्यादान. आत्मऋद्धि. परऋद्धि विगेरे. - श्व के साधु ? सांधु. विकुर्वणा. माी. तेनी गति-आभियोगिक. अमायी. तेनी गति. अनाभियोगिक. गाथा. शतक ३. उद्देशक ६. पृ० १०१-१०८. मिथ्यादृष्टि अनगारनुं विकुर्वण.-वाराणसी. राजगृह. तथाभावने स्थाने अन्यथाभाव. राजगृहने बदले वाराणसी अने वाराणसीने बदले राजगृह समज. वानो भ्रम. जनपदवर्गर्नु विकुर्वण. ते विकुर्वणने स्वाभाविक मानवाना न सम्यग्दृष्टि अनगारनुं विकुर्वग. तथाभाव. अन्यथाभाव नहि. वीर्यलब्धि. वैकियलब्धि. अवज्ञानलब्धि, अने पुरुषकारपराक्रम. पुद्गलनु पर्यादान अने अपर्यादान. विकुर्वण. ग्रामरूप. संनिवेशरूप. युवक-युवति. चमर. आत्मरक्षक देवो. इंद्रोना आत्मरक्षक देवो. विहार. शतक ३. उद्देशक ७. पृ० १०९-१२०. राजगृह.-शकना लोकपालो केटला ? चार-सोम. यन. वरुण वैश्रवग. एमनां विमानो केटला ? चार. संध्याप्रम. वरशिष्ट. स्वयंज्वल. वल्गु. सेमिना दिमान विगेरेनो पूर्ण परिच य. सेमिना ताबाना देवो. से मना नावानी अनातिक प्रवृ िओ. अपत्या. यमना विमान विगेरेनो परिचय. यमना ताबाना देवो. यमना ताबाना रोगो दुःखा. यमना आत्यो. वरुणना विमान विगेरेनो परिचय. बरुगना ताबाना देवो. वरु णना ताबानी पाणाने लगती प्रवृत्तिओ. वरुणनां अपत्यो. वैश्रवणना विमान विगेरेनो परिचय. वगना ताबाना देवो. वैश्रवण-कुबेर-ने हस्तक रहेली लक्ष्मी अने लक्ष्मीवृष्टि. वैश्रवणनां अपत्यो. शतक ३. उद्देशक ८. पृ० १२१-१२४. राजगृह.-असुरकुमारना उपरि केटला? दश. नामनिर्देश. नागकुमारना उपरिओ. सुवर्णकुमारना, विद्युत्कुमारना, अग्निकुमारना, दीपकुमारना, उदघि कुमारनी, दिकुमारना अने स्तनितकुमारना उपरिओ. पिशाचना-वानव्यंतरना उपरिओ. सौधर्म-ईशानना उपरिओ. सर्व स्वर्गना उप रिओ. विहार. शतक ३. उद्देशक ९. पृ० १२५-१२६. राजगृह.-ईदियविषयना केटला प्रकार ? पांच. जीवामिगम. विहार. शतक ३. उद्देशक १०. पृ० १२७-१२८. राजगृह.-चमरनी सभाओ केटली? त्रण. शमिका, चण्डा, जाता, यावत् अच्युतसभा. विहार. शतक ४. उद्देशक १-२-३-४-५-६-७-८. पृ० १२९-१३२. संग्रहगाथा.-ईशानना लोकपालो केटला? सोम, यम, वरुण अने वैश्रमण. लोकपालोनां विमानो केटलां? सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु भने सुवल्गु. सुमन क्यां आव्युं ? ईशानावतंसकनी पूर्वे. चारे विमानना चार उद्देश. स्थितिभेद. राजधानी. शतक ४. उद्देशक ९. पृ० १३३-१३४. नैरयिकोमा जे पेदा थाय ते नैरयिक के अनरयिक ? प्रज्ञापनाना लेश्यापदना त्रीजा उद्देशनी वकव्यता. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४. उदेशक १०. पृ० १३५-१४२, कृष्णलेश्या नीललेइयाने पामीने तद्रूपपणे अने तद्वर्णपणे परिणमे?-प्रज्ञापनाना लेश्यापदगे चतुर्थ उद्देशक.-लेश्यानां परिणाम-वर्ण-रस-गंध-शुद्धअप्रशस्त-संहिष्ट-उष्ण-गति-परिणाम-प्रदेश-अवगाह-वर्गणा-स्थान-अल्पबहुत्व. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. शतक ५. उदेशक १. पृ. १४३--१५६. विषयसंप्रहगाथा-चण. रवि. अनिल. ग्रंथिका. शब्द, छद्मस्थ, आयु, एजन, निर्मथ, राजगृह. चंपा. चंद्र, उद्देशकारभ. पूर्णभद्र चैत्य, संपान उद्ग मनादि. दिवस-रात्रिविचार. जंबूद्वीपर्नु दक्षिणार्ध अने उत्तरार्ध. मंदर पर्यतर्नु उत्तर दक्षिण. अढार मुहूर्तनो दिवस. बार मुहूर्तनी रात्री. दिवस अने रात्रीना मापमां वधघट, बार मुहूर्तनो दिवस. अढार मुहूर्तनी रात्री. वर्षाऋतु हेमंत ऋतु विगेरेना प्रथम समयनो विचार. प्रथम समयादिकाल संख्या. शतक ५. उदेशक २. पृ० १५७--१६४. राजगृह.-ईषत्पुरोवात. पश्चात्वात. मंदवात. महावात. ए वायु संबंधे दिशाओने आधीने पृच्छा. द्वीपमा वाता वायु. समुद्रमा वाता वायु. ए बन्ने वायुओनो परस्पर व्यत्यास. ए गयुओने गवानां कारणो. वायुनी यथारीति गति. वायुनी उत्तरक्रिया. वायुकुमारादि द्वारा वायुकायर्नु उदी. रण, वायओ श्वास प्रश्वास ले छे? हा. वायु मरी मरी अनेक चार फरीधी वायुमा अवे? हा. स्पृष्ट वायु मरे के अम्पृष्ट? स्पृष्ट वाय. वाय शरीरसहित नीक के शरीररहिन ? बन्ने रीते नीकळे. ओदन कुल्माष अने सुरानां अणुओ कोनां शरीर कहे वाय? अपेक्षाए वनस्पतिनां अग्मिनां पाणीनां अने अग्निनां शरीर कहेवाय. अय लोढुं तांबु कलाई सीसु पाषाण अने कषट्टिका-काट-नां अणुओ कोनां शरीर कहेवाय ? पृथिवीनां अने अगिनां. हाइकुं, बळेलु हाडकुं, चामडु, बळेलं चामडु, शिंगडुं, बळेलुं शिंगडु, खरी, बळेली खरी, नख अने बळे लो नख ए बधानां अणुओ कोनां हरीर कहेवाय ? वसजीवनां अने अग्निनां. अंगारो राख, भुसो अने छाण कोनां शरीर कहेवाय? एकेंद्रियनां यावत् पंचेद्रियनां अने अमिना. लवणसमुद्रनो चक्रीवाल किकंभ केटलो? यावत् लोकस्थिति, विहार, शतक ५. उदेशक ३. पृ० १६५--१६८. अन्यतीथिको.-जालग्रंथिकानुं उदाहरण. एक समये आ भव अने परमवना आयुष्यनुं वेदन. ५ विषे अन्यतीथिकोनो मत. ए मत मिन्या-भिन्न भिन्न समये ते बन्ने आयुष्योन वेदन एवो जिनमत. नैरथिकोमा संक्रमनारो अयुष्यसहित संक्रमे के आयुपरहित संक्रमे ? आयुष्यसहित संक्रमे. ए भायुष्प, एणे क्या करेलु ? पूर्व भवमा. यावत् वैमानिक. जीवनापने उद्दशी योनि अने आयुष्य संमंधे विचार. शतक ५. उदेशक ४. पृ० १६९-१९२. छद्मस्थ मनुष्य, शब्दो सांभळे ?-हा. शंख, शृंग. शंखिका. खरमुखी. पोता. परिप रिया. पणव, पडह. भंभा. होरंभ. मेरि. झल्लरी, दुंदुभि. तत. वितत. धन. शुषिर. स्पर्शाए ला शब्दो संभळाय के अस्पर्शाएला ? स्पीएला. आरगत अवागत शब्दो संभळाय के पारगत शब्दो संभकाय? मनुष्य ने आरगत शब्दो संभळ'य. केवळिने बधा शब्दो संभळाय. केवली मित पण जाणे, अमित पण जाणे. सर्वत्र, सदा अने सबैथा केवळी सर्व भावोने जाणे. छप्रस्थ इसे ? उताबको थाय! हा. केवळी हसे? उनाबको थाय ? ना. हसवाचं कारण मोहनीयनो उदय, हसता केटली कर्मप्रकृति बंधाय? सात के आठ. यावत् वैमानिक, छद्मस्थ उंघे ? उभो उभो उघे? हा. निद्रा करतां केटलां कर्म बंधाय ? सात के आठ. यावत् वैमानिक. हरिणेगमेषी शकदूत स्त्रीनो गर्भ शी रीते अदलाबदल करे! योनि वाटे गभने बहार काढ़ाने वीजा गर्भाशयमा मूके. नख वाटे के रेवाडा वाटे. गर्भने फेरवी शके? हा. गर्भने बाइ बाधा न थाय. गर्भने बदलनारो काकूर करे अने गर्भने सूक्ष्म करीने बदलावे. अतिमुक्तक श्रमणनो वृत्तांत. महावीर पासे आवेला बे देवो. महावीरना सातसो अंतेवासिओ सिद्ध थशे. गौतम अने महावीर बच्चे थएली ए देवं ने लगती वातचीत. देवो संयत के असंयत कहेवाय? नोसंयत कहेवाय. देवोनी विशिष्ट भाषा अर्धभागधो. केबली अंतकरने जाणे जए ? हा. छद्मस्थ अंतकरने जाणे जूए ? सांभळाने के प्रमाण द्वारा जाणे जूए. केवळिना धावक विगेरे. प्रमाण केटलां? चार-प्रत्यक्ष. अनुमान, उपमा के आगम, केवळी. चरमकर्म अने चरमनिर्जराने जाणे जूा? हा. केवळी, प्रणीत मन अने वचनने धरे ? धरे. केवळिना ए मन अने वचनने वैमानिको जाणे? कोइ जाणे कोइ न जाणे. वमानिकोना बे भेद-मायी मिथ्या दृष्टि, अमायी सम्यग्दृष्टि, अनन्तरोपपत्रक-परंपरोपपत्रक, पर्याप्त अपर्याप्त. उपयुक्त अनुपयुक्त. अनुत्तपिपातिक देवो पोताने आसने रक्षा रक्षा केवळी साधे वातचित करे? हा. अहीं रहेगे केवळी जे काइ कहे तेने त्यां रहेला अनुत्तरोपपातिको जाणे जूए? हा, अनुत्तरोपपातिक देवो उपशांतमोह क्षीणमोह. केवकी आदलो-इंद्रियो द्वारा जाणे जूए ? ना. केवली जे आकारप्रदेशोमा स्थित होय पछी पण त्यांज स्थित होय के केम? ना. सथोग सदव्यता. चौदपूर्वी एक घडामाथी हजार घडा करे ? हा. उत्करिका भेद. विहार. शतक ५. उदेशक ५. पृ० १९३-१९८. मात्र संयमथी सिद्धि थाय?-प्रथम शतक चतुर्थ उद्देशक. अन्यतीर्थिकवक्तव्यता. ते मिथ्या. स्वमत. एवंभूत वेदना. अनेवंभूत वेदना, नैरयिकादि वैमा. निक. संसारमंडळ. कुलकरो केटला? सात. तीथिकरनी माताओ. पिताओ. शिष्याओ. चक्रतिनी माताओ. कीरत्न, बलदेवो. वासुदेवो. वासुदेवनी माताओ. पिताओ, प्रतिशत्रओ. विगेरे समवायसूत्र. विहार, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. उदेशक ६. ० १९९-२१२. जीवोनी अल्पायुष्यतानो हेतु. -हिंसा. मृषावाद. भ्रमण ब्राह्मणने अनुचित दान. जीवोनी दीर्घायुष्यतानो हेतु अहिंसा सत्य. उचित 'द थंनुं दान. अशुभदीर्घायुष्य हे घुमानीदेउ करिया अनेने ती वेचनार नारने लगती किया चार अनि माकिया विगेरे. पुरुष अने धनुष्यने लगती क्रियाओ. अन्यतीथिकोनुं मत. तेनी असल्यता. जीवाभिगम अधाकर्म दि आहार लेनारने थती हानि, कोतकृत, स्थापित. कान्तारभक्त. दुर्भिक्षभक्त. वादेलिकाभक्त ग्लानभक्त. शय्यापिंड. राजपिंड. आराधना अने विराधना. आचार्य उपाध्यायनी गति. खोटा बोलानां कर्मों. हे भगवन् । ते ए प्रमाणे. शतक ५. उदेशक ७. पृ० २१३-२३०. हे भगवन् ! परमाणु कंपे ? ते ते भावे परिणमे ? कदान कंपे, परिणमे; कदाच न कंपे, न परिणमे ए प्रमाणे द्विप्रदेशिक स्वध देशतः बंपन, अकंप त्रिप्रदेशिक स्कंध. चतुष्प्रदेशिक स्कंध पंच प्रदेशिक स्कंध यावत् अनंतप्रदेशिक स्कंध. देशात विकल्पो परमाणु अने असिधारा, परमाणु छेदाय ? ना. ए प्रमाणे यावत् असंख्यं प्रदेशिक स्कंध अनंत प्रदेशिक स्कंध अने असिधारा. ते छेदाय? हा ना. ए प्रमाणे अनि अने परमाणु . बिगो पुष्कर संवर्तक मेघ अने परमाणु विगेरे. गंगा महानदी अने परमाणु विगेरे. परमाणु अर्ध सहित छे ? मध्य सहित छे ? प्रदेश सहित छे ? तेम नथी. ए प्रमाणे द्विप्रदेशिक संघ. त्रिदेशिक स्कंध द्विप्रदेशिक स्कंपनी पेठे सम प्रदेशवाळा अने त्रिप्रदेशिक स्कंधनी पेठे विषम प्रदेशवाळा. संख्येय प्रदेशिक स्कंध. असंख्येय प्रदेशिक स्कंध अने अनंत प्रदेशिक स्कंध प माणु परमाणुनी परस्पर स्पर्शना नव विकल्प. प·माणु अने द्विप्रदेशिवनी ईना. परमाणु अने त्रिदेशिवनी स्पर्शना. ए प्रमाणे यावल परमाणु अने अनन्तप्रदेशिकनी स्पर्शना. द्विप्रदेठिक भने परमाणुनी पक्षमा द्विप्रवेदिक अने द्विपदेशियनी स्पर्शना डिधिक अशी स्पर्शना शिदेशिक भने परमाणुमी स्पर्शमा प्रवेशिक अशी स्पर्धाना त्रिदेशिक भने देशमा एया अनंत प्रदेशिकनी स्पर्शना *परमाणु पुनलनी कालतः स्थिति एक समय अने असंख्य काल. सकंप एक प्रदेशा६गाढ पुद्गलनी कालतः स्थिति एक समय अने आवलिकानो असंख्य भाग. ए प्रमाणे यावत् असंख्य प्रदेशावगढ. एक प्रदेशावगाढ निष्कंप पुद्गलनी कालतः स्थिति. एक समय अने असंख्य बाल. एक गुण काळा एगुल्नी कालतः स्थिति. एक समय अने असंख्य काल. ए प्रमाणे यावत् अनंत गुण वा पुद्गल. वर्ण, गंध, रस, स्पर्श. सूक्ष्म परिणाम बादर परिणाम. द.ब्द परिणत. पुहलनी चालतः स्थिति एक समय अने अवलिकानो असंख्य भाग. अशब्दपरिणत पुद्गल परमाणु पुलको अंतरकाल. एक समय अने असंख्य काल हिप्रदेशिक स्कंधनो अंतरकाल. एक समय अने अनंत काल, अनंत प्रदेशिक. एक प्रदेशावर..ढ रकंप पुगल अंतरकाल. एक समय अने असंख्य काल. ए रीते असंख्य प्रदेशादगाह एक प्रदेशावगाढ निष्कंप पुनसमो अंतरकाल, एक समय अने आधलिकाको असंख्य भाग. ए रीते असंख्य प्रदेशावगाढ. वर्णदिनों अंतरकाल. शब्दपरिणत पुद्गलनो अंतरकाल. एक समय अने असंख्यकाल. अशब्द परिणत पुल. द्रव्यस्थानायु, क्षेत्रस्थानायु, अवगाहनास्थानायु अने भावस्थानायुनी अल्प बहुता. कैदिको आरंभी पारंभ पृथिवीवादिन आरंभ कर्म भवन देवो देव ओ मनुष्यो मधुपणीको तिबंध, निर्यचणीओ, आसन, सदम, मां मात्र, उपकरण रेगे यदि आरंभ पंचेंद्रिय परिग्रह. टंक कूट वापी अने वन विगेरे. देवकुल आश्रम प्रपा स्तूप अने गोपुर विगेरे, प्रासाद गृह शरण लेण आपण शृंगाटक त्रिक चतुष्क अने महापथ विगेरे. शकट रथ यान भने मेना विगेरे. लोढी कडा अने कहछी दिगेरे. वानव्यंतरो ज्योतिषिको वम निको. पांच हेतु अने पांच अहेतु. हे भगवन् । ते ए प्रमाणे. शतक ५. उदेशक ८. पृ० २३१-२४४. महावीरन। अंतेवासी नारदपुत्र अने निर्बंथी पुत्र. पुद्गल शुं सार्ध छे? समध्य छे? सप्रदेश छे ? नारदपुत्रना मते सर्व पुद्गला सार्धं समध्य अने प्रदेश के ए नारदपुत्रनाम निधीनी सविस्तर चर्चा धेनुं पोत सेनी सख जागवानी इच्छा निर्वी मारने आपली सविस्तर समजले कि मार निर्मधीपुत्र पासे पोताना अजाणपणाने लगती म गेली क्षमा विहार. गौतम बोल्या- जीवे। वधे छे ? हीना थाय छे ? अवस्थित है ? जीवा वधता नथी, घटता नथी, अवस्थित छे. नैरयिकोथी यावत् वैमानिका सुधीक विचार, सिद्धोनी वध ष्ट स्थिरता दिषे विचार. जीवानुं अअस्थान वयां सुधी ? सर्व काल. नरयिकानुं वधवापणुं क्यां सुधी ? एक समय आवलिकाना असंख्य भाग. ए रीते घटवापणुं, नैरयिकेानुं अवस्थान क्यों सुधी ? एक समय- चोवीश मुहूर्त. एम साते नारकी तेने लगती विशेषता ए रीते असुरकुमारी बेदियनीयादी जमाती अद्याद वध घट-स्थिरतानी विचारणा ए जारुनी सिद्धोने लगती विचारणा. शुं जीवा सेोपचय छे? सापचय छे। सेोपचय-सापचय छे ? निरुपचय-निरपचय छे ? जीवा निरुपचय-निरपचय छ ? ए प्रमाणे सिद्धोने लगती विचारणा कालनी अपेक्षाए जीव मात्रने लग्ग ती ए जातनी विचारणा. हे भगवन्! ते ए प्रमाणे. शतक ५. उदेशक ९. पृ० २४५ - २५२. राजगृह नगर ए शुं कहेवाय ? पृथिवी विगेरे राजगृह नगर कहेवाय ? एना कारणनी नांध. दिवसे प्रकाश अने रात्रे अंधारं हाय ! हा. एवं शुं कारण ? शुभ पुद्गल भने अशुभ पुद्गल, नैरयिकाने प्रकाश होय के अंधकार ? अंधकार. तेनुं कारण अशुभ पुद्गल, असुरकुमारेने प्रकाश. पृथिवीकाय यावत् इंद्रियाने अंधकार- चउरिंद्वियाने प्रकाश अने अंधकार ए रोते यावत् मनुष्याने असुरकुमारनी पेठे भुवनपति बगेरे देनेने प्रकाश. नारकिमां रहेला नैरयिकाने 'काळ' नो ख्याल होय ? ना. एम केम ? 'काळ' नो ख्याल / Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अही मत्र्यलोकमा छ माटे ए रीते रावत् पंचेंद्रियतियंचयोनिको विषे पण जाणवू. मनुष्याने तो काळनो ख्याल हाय छे. देवाने काळनो ख्याल नथी होतो. पावापत्य स्थविरे। अने श्रमण भगवंत महानीर, असंख्य लोकमां अनंत रात्री दिवसो शी रीते ? पुरुषादानीय पार्श्व अर्थतनी साक्षी. लोकस्वरूप. पाश्वापरयोने थएली श्रमण भगवंत महावीरनी 'सर्वज्ञ अने सर्वंदी' तरीकेनी अळखाण. चार याम मूकी पांच यामनो स्वीकार. सिद्धत्व प्राप्ति. देवलोकानी गणत्री. संग्रहगाथा विहार. शतक ५. उदेशक १०. पृ० २५३-२५४. चंपा. पंचम शतकनो प्रथम उद्देशक. चंद्रनिरूपण. शतक समाप्ति. शतक ६. उदेशक १. पृ० २५५-२६०. वेदनावालो? मवाळा ? ना. एना कारमा पोचा- सूका पूळो अने पचद्रियेने ए चारे कर वेदना. आहार. महाश्रव, सप्रदेश. तमस्काय. भव्य. श.लि. पृथिवी. कर्म. अन्यतीर्थिक. महावेदनावाळो, महानिर्जरावाळो? के महानिर्जरावाळो. महावेदनावाळो ? ए बेमा कोण उत्तम! प्रशस्त निर्जरावाळो. छट्ठी सारमामा रहेना- रयिका महावेदनावाळा छे ? हा. ते नरयि को श्रमणो करता मोटी निर्जरावाळा? ना. एना कारणमा चोक्ख। अने मेला वस्त्रनुं उदाहरण. कर्दमराग. खंजनराग. नैरपिकेमा पापो ची कणां. लोहारनी एरणने! दाखला. श्रमणानां कर्मे पोचा- सूको पूळो अने अग्नि. पाणीनुं टीपु अने उनुं धगधगतुं ले.ढार्नु कडायु. करण। केटलां? चार-मनकरण, वचनकरण, काय करण, कर्मकरण. न.यिकाने, पंचेंद्रिये ने ए चारे करण, एकेंद्रियाने बे करण-कायकरण, कर्मकाण. विकलेंद्रियाने त्रण करण:-वचनकरण. काय करण. कर्मकरण. करण अने शातावेदना. ए रीते असुरकुमार यावत् स्तनित. कुमार. पृथिवीकाय औदारिक शरीरवाळा अने देवा विषे विचार महावेदना अने महानिर्ज1. मदावेदना अमे अल्पनिर्जरा. अल्पवेदना अने महानिरा. अल्पवेदना अने अल्पनिरा. प्रतिगाधारक मुने महा वेदनावासो अने महानिर्जरावाळो. छट्ठी सातमीना नरयिका महावेदना अने अलनिरा. शैलेशोवाळो अनगार अल्पवेदना अने महानिर्जरा. अनुत्तरापातिक देवा अल्पवेदना अने अल्पनिर्जरा. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. संप्रगाथा. उदेशकं समाप्ति. शतक ६. उदेशक २. पृ० २६१-२६८. राजगृह. प्रज्ञापनानो आहार उद्देशक. विहार. शतक ६ उदेशक ३. पृ० २६९-२८६. परवल पक्षल. प्रयोग, विस्रसा. सादिक. कर्मस्थिति, स्त्री. संयत सम्यग्दृष्टि. संझी. भव्य. दर्शन, पर्याप्त. भाषक. परित्त. ज्ञान. ये ग. उायोग. आहारक. सूक्ष्म, चरम. पंध, अ म्ल, दे भगवन् ! महा मवाळाने सर्वतः पुरले। चें।टे? सर्वतः पुद्गलेना चय थाय? निरंतर पद्गलो चोटे? यावत् निरंतर पुगलानो उपचय थाय? अने एनो आत्मा दूरूपणे, अनुभग्णे अने अनिष्टपणे वारंवार परिणमे ? हा. तेना हेतु. अहत, धात अने तन्त्रोद्गत (ताजा) ननु उदाहरण. अल्पकर्मवाउने सर्वतः पुद्गलेा भेदाय? यावत् परिविधंस पामे ? अने एना आत्मा सुरूपपणे, शुभरणे अने इष्टपणे वारंवार परिणमे ? हा. तेने। हेतु. जलिन, पङ्कित, मलिन अने रजवाळा पण पाणीथी धे।वाता वरना दाखला, वस्त्र अने पुद्दलाना उपचय, श्ये ग. वि. सा. जीव अने कीना उपचय, ए उपचय प्रयोगसा, पण विखसा नहि. मनप्रयोग, वचनप्रयोग, कार प्रयोग, सर्व पंचेंद्रियो ने एत्रणे प्रयोग. पृथिवी यावत् वनसति ने एक (काय) प्रयोग. विकले. नियोने बे प्रयोग, बचन प्रयोग अने काय येग, देवाने त्रणे प्रये ग. वस्रने लातो पद्लेोपचय सादि सांत? सादि अनंत? अनादि सांत? के अनादि अत? ए ता सादि सांत एज प्रकारे जीवोने लगता पुद्गोपचय विषे पृच्छा. ईयपथबंधकना कर्मपुद्गलापचय सादि सांत. भव्यना अनादि सांत. अभव्य ना अनादि अनंत. को कर्म दलोपचय सादि अनंत नथी. 'वन स.दि सात छे ? सादि अनंत छे ? अनादि सांत छ ? अनादि अनंत छ। वखता सादि सांत छ ? ए प्रमाणे जी विषे पृच्छा. नरयिक तिर्यच मनुष्य अने देवो सादि सांत. सिद्धो सादि अनंत. भव्य। अनादि सांन श्रव्ये। अनादि अनंत, व.र्मप्रकृति केटली? आठ ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय यावत् अंतराय. ए आटेनी अबाधाकाळसहित बंधस्थिति. ए कम स्व। बांधे पुरुष बांधे ? के नपुंसक बांधे ? एत्रणे बांधे. जे स्त्री, पुरुष के नपुंसक न हेय ते ए कमें। बांधे अनेन बांधे अययकमने स्त्री पुरुष के नपुंसक बधे? बांधे अने न पण बांधे. संपत अपंगा अने संयवासयतकृर्तक ए कर्म. बंधने लगता प्रो. एज प्रमाणे सम्प, दृष्टि मिथ्यादृष्टि सम्पमिथ्या दृटि संझी अशी नोसंधी असेही भासिद्धिक अभवसिद्धिरु नोभव. सिद्धिकनोअभव सिद्धिक चक्षुदर्शनी अचक्षदर्शी अवधिदर्शनी केवलदर्शनी पर्याप्त आर्याप्त नो यतअपर्याप्त भाषक अभाषक परित्त अपरित्त नोपरित्तनोअप रित्त मतिज्ञानी अतज्ञानी अवधिज्ञानी मनःपर्यायज्ञानी केवलज्ञानी मति अज्ञानी श्रुतअज्ञानी अवधिअज्ञानी (विभंगी) मनोये.गी वचोये गी जायेगी अयोगी आ.पियेगी निराकारोपयोगी आहारक अनाहारक सूक्ष्म वादर नीसूक्ष्मनोवादर चरम अरम ए बधाने उद्देशीन कर्मबंधने लगतो विचार. स्त्रीवेदक पुरुषवेदक नपुंसकवेदक अने अवेदक जीवो।। अलाचहुना हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. शतक ६. उदेशक ४. पृ० २८७-३००. हे भगवन् ! शु जीव कालादेशथी सप्रदेश छे के अप्रदेश छे? नियमेन सप्रदेश. " मणे नै यि अने काला देश. जीवो अने कालादेश, नैरयिका अने कालादेश. ए रीते यावत स्त नितकुमारो. पृथिवीकायिका अने कालादेश ए रीते यावत् वनस्पतिकालिके, बाकीना सिद्धो सुधीना जीवो नैरयिकानी पेठे. आहारक अने कालादेश, भंगत्रय, अनाहारक अने कालादेश, भंगषटू सि अने कालादेश, भगत्रिक, भवसिद्धिक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभवसिद्धिक अने कालादेश. औघिकनी प्रेठे. नोभवसिद्धिक नोअभवसिद्धिक अने कार'देश. भंगत्रिक. संज्ञी अने कालादेश. भंगत्रय. असंशी अने कालादेश, भंगत्रिक. नैरयिक देव मनुष्य. भंगषटक, नोसंशी नोअसंशी. भंगत्रिक. औधिकनी पेठे लेश्यावाळा. कृष्णलेश्या नीललेश्या कापातलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या अलेश्या सम्यग्दृष्टि विकलेंद्रिय मिथ्या दृष्टि सम्यग मिथ्यादृष्टि असंयत संया. संयत नोसंयत नोअसंयत नोसंयतासंयत सकपायी एकेंद्रिय क्रोधकषायी देव मानकषायी मा याकपायी नैरयिक देव लेभकषायो औधिक ज्ञान आभिनिबाधिकज्ञान श्रुतज्ञान अघिज्ञान मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान औविकअज्ञान मति ज्ञान श्रुतअज्ञान विभंगज्ञान सयोगी मनयोगी वचन योगी काययोगी अयोगी साकारोपयुक्त अनाकारोपयुक्त सवेदक स्त्रीवेदक पुरुषवेदक नपुंसकवेदक अवेदक सशरीरी औदारिक बैक्रिय आहारक तेजस कर्मग अशरीर आहारपर्याप्ति शरीरपर्याप्ति इंद्रियपर्याप्ति आनप्राणपर्याप्ति भाषा मनःपर्याप्ति आहारअपर्याप्ति शरीरअपर्याप्ति इंद्रिय अपर्याप्ति आनप्राणअपर्याप्ति भाषा मनअपर्याप्ति ए बधांगी स थे कालादेशथी विचारणा संग्रहगाथा सप्रदेश आहारक भव्य संशी लेश्या दृष्टि संयत कषाय योग उपयोग वेद शरीर अने पर्याप्ति. हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानी छे ? अप्रत्याख्यानी छ के बन्ने जातना छे? वधा प्रकारना छे. ए ज प्रमाणे नैरयिक यावत् चरिंद्रिय. पंचेंद्रियतिर्थग्यानिक अने मनुष्य ए वधा साथे प्रत्याख्याननी विचारणा. जीवो प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान अने ए बनेने जाणे छे? पंचेद्रियो जाणे छे अने बीजा नथी जाणता, जीवो प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान अने ए बनेने करे छे? पूर्व प्रमाणे. प्रत्याख्यान अने आयुष्य. अप्रत्याख्यान अने आयुष्य, ए बन्ने अने आयुष्य ए रीते प्रत्याख्यानने लगता चार दंडक. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. शतक ६. उद्देशक ५. पृ०३०१-३१४. तमस्काय ए शुं पृथिवी कहेवाय? पाणी कहेवाय ? पाणी कहेवाय. तेनुं कारण ? तमस्काय अने पाणीनी समानखभावता. तमस्कायनी शरूआत क्याथी? एनी समाप्ति क्यों ? अरुणोदय समुद्रथी एनी शरूआत. ब्रह्मलोकमा एनी समाप्ति. तमस्कायनो आकार केवो. नीचे रामपा तरना मूलनी जेवो अने उपर कुकडाना पांजरा जेवो. तमस्कायनो विष्कंभ अने परिक्षेप केटले ? तमस्कायना बे प्रकार संख्येययोजन विस्तृत अने असंख्येययोजन विस्तृत. तमस्काय केवडो मोटो छे? शीघ्र गतिवाळो देव छ मास सुधी चालतां पण एना पारने न पहांची शके एवडे। मोटो. तमस्कायमां घर, हाट, गाम के संनिवेशो छे? ना. तमस्कायमा मोटा मेघो संस्वेदे छे? संमूठे छे? वरसे छे ? हा. ते देव करे ? असुर करे ? के नाग करे? त्रणे पण करे, तमस्कायया बादर स्तनित अने बादर विद्युत् छ ? हा देवकृत छे. तमस्कायमा बादर पृथिवी अने बादर अग्नि छ ! ना विग्रहगनिने अप्राप्त सिवाय. तमस्कायमा सूर्य चंद्र विगेरे छे ? ना. तेनी पडखे छे. तमस्कारमं सूर्यदिनी प्रभा छ ? ना अर्थात् ए प्रभा छ पण तमरक यरूपे परिणमेली छे. तमस्कायनो वर्ण केवो छ ? काळो कालामा कालो. वधारेमां वधारे काळो. तमस्काय भयंकर छे. एथी देवो पण क्षोभ भय पामे, तमस्कायना नाम केटलां? तेर तम. तमस्काय. अंधकार. महांधकार, लोकांधकार, लोकतमिस्र. देवारण्य. देवव्यूह. देवपरिघ. देवप्रतिक्षांभ, अरुणोदय (क) समुद्रः तमस्काय शेनो परिणाम छ ? पृथिवीनो? पाणीनो ? के जीव वा पुगलनो? ए पाणीनो परिणाम छे. जीव अने पुद्गल नो परिणाम छे. निवीनो परिणाम नधी. तमस्कायमा जीव मात्र अनेकवार पेदा थएला छे पण बादर पृथिवीपणे अने यादर अमिपणे नहि. कृष्णराजिओ केटली कही छे ? आठ, ए आठे क्यां छे ? रानाकुमार अने माद्रकल्पनी उपर, नीचे ब्रह्मलोकना अरिष्ट विमानना पाथडामां. एनो आकार अखाडानी जेवा समचोरस छे. पूर्वमा बे पश्चिममां बे दक्षिणमां बे अने उत्तरमा बे एबघी परस्पर स्पर्शली छे, एना आयाम अने विष्कंभ विषे विचार. एनी मोटाई विषे प्रश्न, ए कृष्णराजिओमा घर बगेरे छे के नहि ? इत्यादि बधो तमस्कायनी जेवो ज विचार, विशेषमा देव करे. कृष्णराजिनां आठ नाम कृष्णराजि. मेघराजि. मघा. माघवती. वातपरिघ वातप्रतिक्षोभा. देवपरिघा. देवप्रतिक्षोभा. ए कृष्णराजि पृथिवीनो परिणाम छे, पाणीनो परिणाम नथी. एमां बादर पाणीपणे बादर अग्निपणे अने बादर वनस्पतिपणे जीवो उत्पन्न थता नथी. बाकी बीजे कोइ पण प्रकारे उत्पन्न भएला छ. कृष्णराजिओना आठ अवक शांत रोमां लोकांतिक विमानो अची अचिमाली वैरोचन प्रमंकर केंद्राम सूर्याभ शुक्राभ सुप्रतिष्ट भ. ए अठे विमानोनी वच्चे रिष्टाभ विमान नवमुं. ए विमानोने लगती बीजी हकीकत. आठ लोकांतिक देवो सारस्वत आदित्य वरुण गर्दतोय तुषित अव्याबाध आग्नेय वरिष्ठ ए आठे देवोने लगती सविस्तर हकीकत, एओनां विमानो शेनी उपर प्रतिष्ठित छे ? वायु उपर. जीवाभिगम. बधा जीवो, ए विमानोमां पण उत्पन्न थएला छे मात्र देवपणे नहि. लोकांतिकनी स्थिति, आठ सागोपमलोकांतिक विमानोथी लोकनो छेडे। केटलो छेटे। छे? असंख्येय योजन. शतक ६. उदेशक ६. पृ० ३१५-३१८. पृथिवीओ केटली? सात. अनुत्तर विमानो केटला ? पांच. मारणांतिक समुद्धात. रत्नप्रभामा उत्पन्न थवाने योग्य जीव, त्यां पहोंचीने ज आहार करे? शरीरने रचे? केटलाक त्यां पहोंचीने करे अने केटल क त्यां पहेांची, त्यांची पाछा फरी, फरी वार त्यां पहेचीने तेम करे. ए ई ते साते पृथिवी असुरकुमारावासमा अने पृथिकायावासमां उत्पन्न थवाने योग्य जीव विषे पण ए ज विचार. मंदर पर्वत. अंगुल, वालाग्र. लिक्षा. यूका. यव. यावत् योजनकोटि ए रीते बधा एकेंद्रियो बेद्रियो यावत् अनुत्तरदेवो. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. शतक ६. उदेशक ७. पृ० ३१९-३२६. शालि-त्रीदिगोधूम यव यवयव ए धान्योनी योनिनो बीजोत्पत्तिकाळ केटलो ? अन्तर्मूहुर्त.-वधारेमा वधारे प्रण वरस, कलाय मसूर तल मग अडद बाल कलथी चोला तुवेर चणा ए धान्योनी योनिनो बीजोत्पत्तिकाळ केटलो? वधारेमा वधारे पांच वरस. ए प्रमाणे अळसी कुसंभक कोद्रया कांग बंटी राळ कोदूसग शण सरसव अने मूलनीजनी योनि विषे प्रश्न, वधारेमां वधारे सात वरस. मुहूर्तना उच्छवास केटला ? ३७७३ . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवलिका उच्छवास निःश्वास प्राण स्तोक लव मुहूर्त अहोरात्र पक्ष मास ऋतु अयन संवत्सर युग वर्षशत वर्षसहस्र वर्षशतसहस्र पूर्वाग पूर्व त्रुटितांग त्रुटित अटटांग अटट अववांग अथव हूहूकांग हूहूक उत्पलांग उत्पल पद्मांग पद्म नलिनांग नलिन अर्थनुपूर ग अर्थनुपूर अयुतांग अयुत प्रयुतांग प्रयुत नयुतांग नयुत चूलिकांग चूलिका शीर्षप्रहेलिकांग एवधा काळनां प्रमाणोनुं स्वरूप. एटलो ज गणितनो विषय. औपमिककाळ पल्योपम. सागरम परमाणनुं स्वरूप. उच्छलक्ष्णश्लक्ष्णिका ऋक्षण क्षणका ऊर्ध्वरेणु त्रसरेणु रथरेणु बालाप्र लिक्षा यूका यवमध्य अंगुल पाद वितस्ति-चैत- रत्नि कुक्षि दं धनुष् युग नालिका अक्ष मुसल गव्यूत योजन. ए बधानुं स्वरूप पत्यो।पमनु स्वरू सागरोपमनुं स्वरूप उत्सर्पिणी अवस. पंणीनुं प्रमाण. सुषमसुषमान्ा भरतनुं स्वरूप. जीवा निगम, ही भगवन्! ते ए प्रमाणे. शतक ६. उद्देशक ८. पृ० ३२७-३३६. पृथिवीओ केली ? आम्, रत्नप्रभानी नीचे गृह ग्राम वगेरे छे ? ना. त्यां उदार बलादक अने स्तनितशब्द छे ? हा तेने देव असुर के नाग करे. त्यां बादर अनिकाय छे ? विग्रहगति सिवाय नही. त्यां चन्द्र के चन्द्र वगेरेनी कान्ति छे ? ना, एज प्रकारना प्रश्नोत्तर बधी नरको संबंधे. त्रीजीमां नाग न करे. चोथमां अने ते पछीनी बधमां एको देव ज करे. एश ज प्रश्न सोध दि देवोको सांधे, उत्तरो पर ग्वाज, विशेषमां मात्र नाग न करे. सनत्कुमार दि स्वर्गेमां देव ज करे. संग्रहगाथा. आयुष्यना बंधना प्रकार केटला ? छ, छपना नाम ए प्रमाणे यावत् त्रैमानिकों जीव संबंध बंधविक प्रश्नो अने उत्तरो. लवण समुद्र संबंधी विचार. जीवाभिगम, असंख्यद्वीप समुद्रो. एनां नामो केवां होय ? जे जेटलां शुभ नामो होय ते वधां द्वीप समुद्रोनां जाणवां, विहार. शतक ६. उदेशक ९. पृ० ३३७-३४२. ज्ञानावरणीय कर्म बांधतां साथ बीजी केटली कर्मप्रकृति बंधाय ? सात आठ के छ. बंधे देशक प्रज्ञापना. महर्षिक देव बहारनां पुद्गलोने, लीवा सिवाय विकुर्वण करे ? ना. बहारन पुगेने लग्ने विकुर्वण करे. इहगत तत्रगत अभ्यन्त्रगत पुगलोमांना तत्रगत पुगलोने लइने विकुर्वण. एक वर्ण अने अनेक रूपना चारकिल्प. देव, काळा पुनको नीलरूपे वा नीलपुद्गलने काळारूपे परिणत करे ? पुगलने लहने तेवो परिणाम करे. ए रीते गंध रस अन स्पर्शनो पण परिणामांतर, वर्णना १० विकल्प. गंधनो १ रसना १० अने स्पर्शना चार विकल्प. अविशुद्ध लेश्यः वाळो देव असमवदत आत्मा द्वारा अविशुद्ध श्यावाळा देवने, देवीने के बेमांना कोइ एकने जाणे ? ना. ए त्रणे पदना वार विकल्प आठमा न जाणे अने छेल्ला चारमा जाणे, शतक ६. उदेशक १०. पृ० ३४३ - ३४८. अन्यतीथिको कोलास्थिकमात्र निष्पावमात्र कलममात्र. माषमात्र मुद्रमात्र यूका मात्र लक्षा मात्र भगवान् महावीरनुं प्ररूपण, देवनुं अने गंधनां सूक्ष्मतम पुत्रलोनुं उदाहरण, जीव ए चैतन्य छ ? के चैतन्य ए जीत्र छे ? बन्ने परस्पर एकरूप छे. वैमानिको सुधी ए जातना विचार जीवे छे ए जीव छे ? के जीव छे ते जीवे छे ? जीवे छे ते तो जीव ज छे अने जीव तो जीवे पण अने न पण र्ज वे प्राण धारण करे सिद्धजीव वैमानिको सुधी ए विचार नैरविक अने भव द्विक. वधा जीवो एकांत दुःखने वेदे छे एवो अन्यतीर्थिकमत. भगवान् महावीरनुं प्ररूपण. कोर जीवो एकांत दुःखने, कोइ एकांत सुखने अने कोर सुखदुःखमिश्र वेदनाने वेदे छे. ते ते जीवोनो नामग्रह निर्देश. नैर यक अने तेनां आहारपुद्गलो. ए प्रमणे यावत वैमानिक केवली आदानो - इंद्रियो द्वारा जाणे जूए ? ना. केवलीनुं अमित शान निवृत दर्शन. गाथा. पष्ट शतक समाप्त. / Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. श्रीअभयदेवसूरिविरचितवृत्तिसहित. खण्ड २. शतक ३.-उद्देशक-१. मोका नगरी.-नंदन चैत्य.-श्रीमहावीर प्रभुनु आगमन अने अग्निभूतिनी पर्युपासना.-विकुर्वणा-(रूपो फेरववानी शक्ति ).-चमरेंद्र, त्रायस्त्रिंशो, सामानिको अने पट्ट राणीओ.-अभिभूति अने वायुभूति.-वायुभूतिने संदेह.-वायुभूति अने श्रीमहावीर.-संदेहर्नु निवारण.-वायुभूतिनी अग्निभूति प्रत्ये क्षमानी याचना.-वायुभूति, अग्निभूति अने श्रीमहावीर.-दक्षिणेद्रो अने अग्निभूति, उत्तरेंद्रो अने वायुभूति.-तिष्यकनी विकुर्वणा.-अग्निभूतिनो विहार--वायुभूति.-ईशानेंद्र, कुरुदत्त अने विकुर्वणा.-यावत्-अच्युत देवलोक.-श्रीमहावीर प्रभुनो विहार.-राजगृहमा आगमन.-उत्तरार्धना इंद्रनु आगमन, देवर्द्धि-दर्शन अने संहरण.देवर्द्धि संबंधे प्रश्न ?-कूटाकार शाळानुं दृष्टांत. देवर्धिनी प्राप्तिनो उपाय.-मौर्यपुत्र तामली.-प्राणामा प्रव्रज्या.-चंद्र माटे बलिचंचामां देवोनुं संमेलन.देवोनो तामलीने पोताना इंद्र थवा माटे अत्याग्रह.-नियाणु न करवाथी तामलीनुं ईशानेंद्रपणे थवं. ते वातनी बलिचंचामां जाण.-क्रोधेला बलिचंचा. वासीओए तामलीना शबनी करेली अवगणना.-ईशानवासीओ द्वारा ईशानेंद्र (तामली)ने जाण.-कोपेला ईशानेंद्रनी दृष्टिनो प्रभाव.-बलिचंचानुं बळवू.देवोनी नाशमाग.-ईशानेंद्रनी बलिचंचावासीओए करेली प्रार्थना.-दृष्टिनुं संहरण.-ईशानेंद्रनुं आयुः.-ईशानेंद्र ( तामली )नुं मुक्तिस्थळ.-उत्तरार्थना अने दक्षिणार्थना इंद्रोनो मेलाप, वार्तालाप, सह कार्यक्रम.-विवादे सनत्कुमारनुं स्मरण.-निवेडो.-सनत्कुमारनुं भव्यपणुं.-उद्देशक समाप्ति अने विहार.१.-गोहाः १.-आ त्रिजा शतकमां दश उद्देशको छे. तेमां प्रथम केरिसी विउव्वणा चमर किरिय जाणित्थि नगरपाला य, अहिवइ उद्देशकमां चमरनी विकुर्वणा शक्ति विषे प्रश्नोत्तरो छे. चमरना उत्पात विषे हक कहेवा सारु बीजो उद्देशक छे. क्रिया संबंधे इंदिय परिसा ततियाम्मि सए दस उद्देसा. प्ररूपण करवा त्रिजो उद्देशक छे. 'देवे विकुर्वेल यानने साधु जाणे?' इत्यादि वातना निर्णय माटे चोथो उद्देशक छे. 'साधु, बहारनां पुद्गलोनुं ग्रहण करीने स्त्रीवगेरेनां रूपो करी शके छे' ए संबंधी निर्णय माटे पांचमो उद्देशक छे. नगर संबंधे छट्ठो उद्देशक छे. लोकपालो विषे सातमो उद्देशक छे. अधिपतिओ विषे आठमो उद्देशक छे. इंद्रियो संबंधे नवमो उद्देशक छे अने चमरनी सभा संबंधे दशमो उद्देशक छे. १. मूलच्छायाः कीदृशी विकुर्वणा चमरः क्रिया जानीयाद् नगरपालाश्च, अधिपतिः इन्द्रियं पर्षत् तृतीये शते दश उद्देशाः-अनु. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक ?. २.-'ते णं काले णं, ते णं समए णं, मोया नामं नयरी २.–ते काळे, ते समये मोक. नामनी नगरी हती, वर्णक. ते होत्था. वण्णओ. तीसे णं मोयाए नगरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे मोका नगरीनी बहार उत्तर-पूर्वना दिग्भागमां नंदन नामर्नु चैत्य हतुं, दिसीभागे णंदणे नामं चेइए होत्था. वण्णओ. ते णं काले णं, ते वर्णक. ते काळे, ते समये श्रीमहावीर स्वामी पधार्या. सभा निळे णं समए णं सामी समोसढे. परिसा निग्गच्छइ, पडिगया परिसा. छे अने धर्म सांभळीने सभा पाछी चाली गई. १. मूलच्छायाः-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये मोका नाम नगरी अभवत्. वर्णकः. तस्या मोकाया नगर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे नन्दनं नाम चैत्यम् अभवत्. वर्णकः. तस्मिन् काले, तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः, पर्षद् निर्गच्छति, प्रतिगता पर्षत:-अनु. १. परमात्मा श्रीमहावीर प्रभुनो घणी वार चेइय-चैत्य-मां समोसानो वर्णक अंगादिमां अवलोकाय छे, एथी 'चैत्य' ए शब्द कोना माटे वपरायो छे, एवा प्रश्न- उत्थान बुद्धिमानो माटे अस्थाने न गणाय. यद्यपि शब्दना कोश, जाति अने देशादिने आधारे अर्थों घणा थई शके, तो पण तेना मुख्य अने संगत अर्थों तरफ सौ कोईनु दृष्टिबिंदु स्थिराय ए उचित छे. 'चैत्य' शब्दनो व्युत्पत्ति आदि बडे आवो अर्थ जणाय छ:-"चयनं चितिः, चितेविकारचैत्यम्" चितिः-चिता-चे, तेनो विकार-तेनी उपर जे (स्तूपादिनी) आकृति-ए 'चैत्य.' परमात्मा आदिनी हैयातिनी यादी माटे आवी निशानीओ करवानी प्रथा पूर्वेथी आपणामा चालु हती, दृष्टांत रूपे आजे पण मथुराना जैन-स्तूपो हैयाती धरावे छे. आवी रीति बौद्धोमां पण हती, एथी ज काशी(सारनाथ पासे), गया वगेरे स्थळे बौद्ध-स्तूपोनीहाळाय छे. अने आवी पुराणी वस्तुओ ऐतिहासिक रीतिए महान् आत्माओनी हैयाती माटे अत्युपकारी गणायी छे. हवे 'चैत्य'ना जूदा जूदा अर्थो तरफ दृष्टि करीए, चैत्य अने श्रीअभयदेवसूरिः-"चैत्यं व्यन्तराऽऽयतनम्" चैत्य-व्यन्तरोनुं आयतन-घरः(उव. टीका, क. आ० पृ. १०). ___ "'चेइए'त्ति चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः, कर्म वा इति चैत्यम् ; संज्ञा- “'चेइए'त्ति-लेप्य आदि पदार्थना चयने 'चिति' कहे छे, चितिर्नु शब्दवाद् देवबिम्बम् , तदाऽऽश्रयत्वात् तद्गृहमपि चैत्यम् ; तच इह व्यन्त- चितिपणुं, अथवा चितिर्नु कर्म ते 'चैत्य.' ए संज्ञाशब्द छे, माटे तेनो अर्थ राऽऽयतनम् , न तु भगवताम् अर्हताम् आयतनम्:-" (भ० ख०१,पृ०१९). देवनुं बिंब करवो, प्रतिमार्नु आश्रयरूप होवाथी ते घर पण चैत्य; अहीं चैत्यनो अर्थ व्यंतरचं गृह करवौ, पण अर्हतोनुं आयतन नं करवोः-" (भ. खं० १, पृ. १९). ' ' चैत्य अने कोशकारोः-श्रीहेमचंद्राचार्य (अभि. चिं. य०० पृ. ३९६ मां) आ प्रमाणे कहे छ:-"चैत्य-विहारौ जिनसद्मनि" 'चैत्य' अने 'विहार' जिनालय-( देरासर ) अर्थमां वपराय छे. (अ० को० मुं० आ० पृ० ४७४ मां) श्रीअमरे तेने आवे अर्थ जणाव्यो छ:-" चैत्यम्-आयतनं तुल्ये"'चैत्य' ने 'आयतन' समान अर्थे छे, आयतननो अर्थ यज्ञालय कर्यो छे. (श. म. क. आ० पृ. १८६ मा) तेनो अर्थादि आवे रूपे कह्यो छे:"चित्याया इदम्"-(चितार्नु आ.) आयतन, चितानी उपर रचेलं चिन्ह, जनसभा, यज्ञस्थान. माणसोनुं विसामानुं स्थळ, देवस्थान. (श. चिं. पृ. ४७०) चैत्यनी " चित्याया इदम् " एवी व्युत्पत्ति करी, अर्थो आवा जणाव्या छः-यज्ञ- स्थान, देवालय, देव राखवानुं स्थळ, जिनालय, जिन, वा बुद्धनी मूर्ति, सीमाडो देखाडनार पत्थर वगेरे निशान, गाम वगेरेनी पासेनुं महावृक्ष अने जित तरु. श्रीउववाईजीना मूळमां चैत्य संबंधे आवो उल्लेख छ, अने तेमा चैत्य प्रत्येनो लोकोनो प्रेम, चैत्य माटे उचित गणातुं स्थळ, चैत्यनी अंदरनी तथा बहारनी रचना, चैत्यमा थनारो लोकोनो भेटो, पूजानी सामग्रीओ, यागादिनुं महत्त्व आदि घणां महत्त्वना विषयोनो समावेश थाय छे: "तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसिभाए पुण्णभद्दे णामं “ते चंपा नगरीनी बहार उत्तर अने पूर्व दिशाना मध्य भागे-ईशान चेइए होत्था | चिराईए, पुवपुरिसपण्णत्ते, पोराणे, सदिए, वित्तिए, कित्तिए, कोणमा-पूर्णभद्र नामर्नु चैत्य हतुं. ते चैत्य चिरकाळ पूर्वे बनेलं, पूर्वजो वडे णाए, सच्छत्ते, सज्झए, सघंटे, सपडागे, पडागाइपडागमंडिए, सलोमहत्थे, जणाएलं, पुराणु, शब्दित, आश्रय दाता, कीर्तिवाळु अने ज्ञात हतुं. वळी कयवेयहिए, लाउल्लोइयमंडिए, गोसीस-सरसरत्तचंदण-दद्दरदिण्णपंचंगुलितले, छत्र, ध्वज, घंट, ध्वजा तथा नानी नानी पताकाओ बडे शणगारेखें अने उवचियचंदणकलसे, चंदणघडसुकरातोरणपडिदुवारदेसभाए, आसत्तो-सत्त- रूवांवाळां प्रमार्जन युक्त हतुं. तेमा वेदिकानी रचना, गार अने धोळनी विउल-व-वग्धारियमलदामकलावे, पंचवण्ण-सरस-सुरहिमुक्कपुप्फपुंजोवयार- मंडना, गोशीर्ष, रक्तचंदन, दर्दर आदिना थापां अने चंदन कळशो वगेरे कलिए, कालगुरु-पवरकुंदुरुक-तुरुकधूवमघमघतगंधुझ्याभिरामे, सुगंधवर- हता. तेनो प्रतिद्वार भाग चंदन घटो अने सुरचित तोरणोवाळो हतो. तथा गंधगंधिए, गंधवहिभूए,णड-गट्टक-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबय-पवग-कहक-लसक- ते भोंयथी ऊंचे सुधी बांधेली, पहोळी, गोळाकार, लटकती माळाओना आइक्खक-लंख-मंख-तूणइल-तुंबवीणय-भुयग-मागहपरिगए, बहुजण-जाणव- समूहो, पंचवर्णी सारां सुगंधवाळां पुष्पोना पुंजो अने पूजननी सामग्रीओ यस्स विस्सुयकित्तिए,बहुजणस्स आहु(य)स्स आहुणिज्जे, पाहुणिज्जे, अच्चणिजे, युक्त हतुं. तथा काळो अगर, सारं कुंदुरुक, ने तगरना धूपनथी मघमघतावंदणिज्जे, नमसणिज्जे, पूणिज्जे, सकारणिज्ने, संमाणणिज्जे; कल्लाणं, मंगलं, बहेकता-गंधना प्रसरथी अभिराम; गंधवाळा पदार्थोना योगे सुगंधी तथा देवयं, चेइयं विणएणं पजुवासणिज्जे; दिव्वे, सचे, सच्चोवाए, सच्चप्पभावे, गंधना पिंड जेवू तुं. वळी त्यां नटो, नाचनारा, बजाणीआ, मल्लो, सणिहियपाडिहेरे, जागसहस्सभागपडिच्छिए, बहुजणे अचेइ आगम्म मौष्टिको-मुठी बडे लडनारा. विदूषको, कूदनारा, कथर्व लासको रास पुण्णभदं चेयः-" ( उव. क. आ० पृ. ९-१४). लेनारा, अथवा भांडो; आइक्ख-आख्यायिकाओ कहेनार, ख-वहिवंचा, मंख-चित्रपट देखाडी मागनारा, तूण वाद्यवाळा, तुंबडानी वीणावाळा, भोगीओ अने भट्टारको बगेरे भराता. ते चैत्य, ते देशना अने बीजा देशोना जनोमां ख्यातिपात्र हतुं. तेम ज आहूति आपनारा घणा लोकोनुं आहूति तथा प्राहूतिनुं स्थान हतुं. तथा तेओनी अर्चा, स्तुति, नमस्कार, पूजा, सत्कार अने सन्मानने योग्य हतुं. कल्याण तथा मंगळने करनारूं, दिव्य प्रभाववाढुं, इष्ट देवनी प्रतिमा युक्त, अने विनीत भावे पूजा]; दिव्यता, सत्यता अने सत्य । उपायवाळु, साचा प्रभाववाढू, स्थपाएला प्रातिहार्यवाळु, हजारो यागोना भागोनी प्राप्तिवालु, ते चैत्य हतुं. अने तेने-पूर्णभद्र चैत्यने-घणां लोको आवीने उपासताः-" (उव० क. आ० पृ. ९-१४):-अनु. २.श्रमण भगवंत महावीर समोसर्या छे, ए वातनी जाण थता जनसमूह स्नानादि कृत्यो करी, चोक वगरे स्थळे साथे मळी, साथे प्रभु पासे आवे छे; आवी कया कया नियमो केवी रीतिए पाळे छे, वगेरे वर्णन माटे जूओः-(भ० खं० १, पृ. २८ पे० ११ मो अने पृ. ३० नुं १ अंकवाळु टिप्पण):-अनु. ३. परमात्मा पासेथी धर्मनुं श्रवण करी केवी रीतिए पाछा फरी, यावत्-ख ख स्थाने आवे छे, ते माटे पण जूओः-(भ. खं०१, पृ. ३३ पे० १३ मो):-अनु० . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. भगवती (अं०५) मां चमरेंद्र माटे घणां स्थळो दर्शनीय छे. अने ते बधा स्थको अवगाहतां ते संबंधेनो घणो वर्णक जणाय तेम छे. जेम केः(श. २ उ० ८ थी) जंबूद्वीपना मंदर पर्वतथी चमरचंचा सुधीनो मार्ग अने चमरचंचाना किल्ला वगेरेनो. (श० ३ थी) चमरेंद्रनी ऋद्धि, द्युति, वैभव, विकुर्वणा-रूपो फेरववानी शक्ति, उपपात, क्रिया; तथा त्रायस्त्रिंशो, सामानिको, पट्टराणीओनी विकुर्वणा, अने लोकपाल, सभा आदिनो. (श० १० उ. ५ थी ) अप्रमहिषीओनो अने (श. १३ उ०६ थी) चमरचंचा इत्यादिनो. श्रीप्रज्ञापना ( उपा० ४) मां तेना स्थलादिनो अधिकार आ रीतिए उल्लेखायो छेः "कहिं णं भंते ! दाहिणिल्ला णं असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा! “हे भगवन् । दाक्षिणात्य असुरकुमारो कये स्थळे वसे छे ? हे गौतम ! जंबूद्दीवे द्दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जंबूद्वीप नामना द्वीपना मेरू पर्वतनी दक्षिणे एक लाख, ऐसी हजार योजअसीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, नना बाहल्यवाळी आ रत्नप्रभा पृथिवीना उपरनो एक हजार योजन भाग हेहा वि एग जोयणसहस्सं वज्जित्ता; मज्झे अट्ठहत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं अवगाही अने नीचेनो एक हजार योजन भाग छोडी, मध्यना एक लाख, दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणां देवाणं, देवीण य चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा अठ्योतेर हजार (१,७८०००) योजन प्रमाण भागनी मध्ये दाक्षिणात्य हवंति इति अक्खायं. ते णं भवणा बाहिं वहा, अंतो चउर्रसा; सो चेव असुरकुमार देवोना अने देवीओना चोत्रीस लाख भवनो कयां छे. ते वण्णओ, जाव-पडिरूवा. एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं पज्जत्ताप- भवनो बहारथी गोळ अने अंदरथी चोखंडां छे. तेओनो प्रतिरूप सुधीनो नत्ताणं ठाणा पण्णत्ता. तिसु वि लोगस्स असंखेजइभागे, तत्थ णं बहवे वर्णक आ प्रमाणे छः-(कमळनी कर्णिकाना आकारवाळां, तळे सांकडी दाहिणिला असुरकुमारदेवा, देवीओ परिवसंति. काला, लोहियक्खा, तहेव अने मुखे पहोळी, विशाळ, गंभीर खाइओवाळां; अटारीओ, सतोरण जाव-भुजेमाणे विहरति. एवं सव्वत्थ भाणियव्वं भवणवासीणं. चमरे इत्थ शेरीना द्वारो, प्रतिद्वारो तथा कोटवाळा; यंत्रो, शतनिओ-महाशिलाओ, असुरकुमारिंदे, असुरकुमारराया परिवसइ काले, महानीलसरिसे, जाव- मुसंढिओ आदि अनोथी पूर्ण, शत्रूओथी नहीं लडाय तेवां, जयवाळां, बीजापहासेमाणे. से णं तत्थ चउत्तीसाए भवणावाससयसहस्सीणं, चउसट्ठीए ओथी अजेयो, अडतालीस ( अथवा सारा) कोठाओनी रचनावाळां, अडसामाणियसाहस्सीणं, त्तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, पंचण्हं तालीस ( सारी) वनमाळाओ युक्त, क्षेम कुशळतावाळों, डंड-डांग-धारक अग्गम हिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणि- रक्षक देवोथी रक्षाएलां, लींपण, उल्लेचो अने गोशीर्ष, तथा रक्त चंदनना याहिवईणं, चउण्हं च चउसट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं; अन्नेसिं बहूणं थापा-वाळां, चंदन घटोए शोभता तोरण सहित प्रतिद्वारवाळां. अने नीचेथी दाहिणिल्लाणं देवाणं, देवीण य आहवेचं, पोरेवचं, जाव-विहरंतिः-" (क. उंचे सुधी बांधली पहोळी, गोळ, लटकती माळाओ, पंचरंगी सुगंधी पुष्पोना आ० पृ० १०२-३.) पुंजो, काळो अगर, किन्नरु तथा तगरादि धूपोना महमहता उत्तम गंधथी सुगंधवाळा; गंधना पिंडो जेवां छे. तेमां अप्सराओनी संकीर्णता अने दिव्य वाद्योना नादो छे. तेओनी रचना सर्व जातिना रत्नोवडे छे. तेओ खच्छ, घळकता, कोमळ, सुंवाळां, घडेल, ओपेल, रज, मेल अने कचरा विनाना होवाथी खुल्ली कांति, प्रभा अने शोभाए उद्योततां छे. यावत्-मनोहर, दर्शनीय, वधारे सोहामणां अने प्रतिरूपो छे:-पृ. ९४-९६.) आ वर्णक माटे बीजं स्थळ आ-( स० क. आ. पृ० २०९-११) छे. त्यां प्राप्त, अपर्याप्त दाक्षिणात्य असुरकुमार देवोना स्थानो छे. अने ते लोकना असंख्येय भागे छे. अहीं घणां दाक्षिणात्य असुरकुमार देवो अने देवीओ वसे छे. तेओ वर्षे काळां, राती आंखोवाळां, यावत्-(भोगोने) भोगवता विहरे छे. (तेओना शरीरना वर्णक माटे जूओ:-भ. खं० १, पृ० २७, पहेलं गुजराती टिप्पण.) तेओनो अवशेष वर्णक भवनवासीओना जेवो कहेवो. अहीं असुरकुमारोनो इंद्र, असुरराज चमर रहे छे. ते पण वर्णे काळो, महानीलमणी जेवो; यावत्-प्रकाशतो छे. ('यावत् ' शब्दथी जाणी लेवा जणावेलो पाठ असुरकुमारोना बन्ने इंद्रोना समान वर्णनमा प्र० सू० क. आ० पृ० १.१-२ मां छे.) त्यां चमरेंद्र चोत्रीस लाख भवनोनुं, चोसठ हजार सामानिकोर्नु, तेत्रीस त्रायस्त्रिंशो--('त्रायस्त्रिंशत् ' शब्दनी सार्थकता घडवा माटे आ रीति छे:- श्रीश्यामहस्ती' अनगार चमरेंद्रना त्रायस्त्रिंशतो संबंधे आ प्रमाणे पूछे छः हे भगवन् ! चमरेंद्रने त्रायस्त्रिंशतो छ ? हे श्यामहस्ति ! जंबूद्वीपना भारत वर्षमां 'काकंदी' नगरीमा तेत्रीस तत्त्वज्ञो, गृहस्थो-श्रमणोपासको असाधारण मित्रो हता. तेओ पहेला संविज्ञो-सारी रीतिने जाणनारा, संविज्ञविहारिओ-ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति करनारा हता; पण पाछळथी शिथिल परिणामवाळा, यावत्-स्वेच्छाचारीओ थया हता. तेथी तेओ बधा अडधा मासनी संलेखना करी चमरेंद्रना त्रायस्त्रिंशो-३३, संख्यावाळा सहायक देवो-थया.) (भ० श० १०, उ० ४.) चार लोकपालोनु, परिवार युक्त पांच पट्टराणीओ, त्रण परिषदोगें, सात प्रकारनी सेनाओनु, सात सेनापतिओनु; बे लाख, छप्पन हजार आत्मरक्षकोर्नु; अने बीजा घणा दाक्षिणात्य देव देवीओनं आधिपत्य, तथा पालकत्वने करतो, यावत्-विहरे छे:-" (क० आ० पृ० १०२-३.) ज्यारे देवोने, के इंद्रने बीजे स्थळे जq होय त्यारे पहेला पोताना उपपात पर्वत उपर आवे छे, अने त्यां मूळ रूपनो बदलो करी बीजे रूपे इष्ट स्थाने जाय छे. तेथी ते ते पर्वतोना नामो साथे उपपात-(उप-सामे, पात-पडवू-जq) शब्द योजाय छे. तेनो वर्णक स्थानांग (अं० ३) मां आ रीतिए छ: "चमरस्स असुरिंदस्स, असुरकुमाररन्नो तिगिच्छिकूडे उप्पायपव्वए “असुरेंद्र, असुरकुमारोना राजा चमरनो तिगिच्छक उपपात पर्वत दश सो मूले दस-बावीसे जोयणसए विक्खंभेणं पण्णत्ते, चमरस्स णं असुरिंदस्स, बावीस (१०२२) योजन विष्कमे कह्यो छे. असुरेंद्र, असुरकुमारना राजा असुरकुमाररनो सोमस्स महारण्णो सोमप्पभे उप्पायपव्वए दस जोयणसयाई चमरना लोकपाल सोम महाराजनो सोमप्रभ उपपात पर्वत उंचाइमां एक उड्ढं उच्चत्तेणं, दस गाउय-सयाइं उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं हजार योजन, उद्वेधे एक हजार गाउ, अने मूळमा एक हजार योजननी पण्णत्ते. चमरस्स णं असुरिंदस्स जमस्स महारण्णो जमप्पभे उप्पायपव्वए एवं पहोळाइवाळो छे. असुरेंद्र चमरना यम महाराजनो उपपात पर्वत यमप्रभ चेव. एवं वरुणस्स वि-,एवं वेसमणस्स वि:-" (क. आ.पृ०५४८-४९.) उक्त प्रमाणे करो छे. तथा तेना लोकपाल वरुण अने वैश्रमणना उपपात पर्वतोनुं माप पण ते ज प्रमाणे छ:-" (क. आ० पृ. ५४८-४९.) त्यां तेनी पांच सभाओना नामो आ प्रमाणे छे: "चमरचंचाए राजधाणीए पंच सभाओ पण्णत्ता, तं जहाः-सभा “चमरेंद्रनी चमरचंचा राजधानीमा पांच सभाओ कही छे, ते आ छे:सुहम्मा, उववायसभा, अभिसेयसभा, अलंकारियसभा, ववसायसभाः-" सुधर्मा सभा, उपपात सभा, अभिषेक सभा, अलंकारिका सभा अने व्यव(क. आ० पृ०४०६.) साय सभाः-" (क. आपृ० ४०६.) ए अंगमां चमरेंद्रने लडायक सैन्यो अने सेनापतिओ पांच कहां छे: उच्चत्तेणं, दस गासजमस्स महार आ.पृ.' Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. अदत्तरं च णं गोयमा! प्रभू चमरे असुरिंदे, असुरराया तिरियमसंखेने काकडा वाळेला होवाथी जेम ते बन्ने व्यक्तिओ संलग्न जणाय छे दीवसमुद्दे बहूहिं असुरकुमारोहिं देवेहि, देवीहिं य आइण्णे, विति- अथवा जेम पैडानी धरीमा आराओ संलग्न-सुसंबद्ध-आयुक्त-होय, किण्णे, उवत्थडे, संथडे, फुडे, अवगाढावगाढे करेत्तए, एस णं एवी ज रीते असुरेंद्र, असुरराज चमर घणा असुरकुमार देवो अने - घणी असुरकुमार देवीओवडे आखा जंबूद्वीप नामना द्वीपने आकीर्ण गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो अयमेयारूवे विसए, पणा असुरकुमार दवा करी शके छे, तेम ज व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट अने विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा, विकुव्वति वा अवगाढावगाढ करे छे अर्थात् ते चमर बीजां रूपो एटलां बधां विकुव्विस्सति वा. विकुर्वी शके छे, के जेने लइने पूर्वप्रमाणे आ आखो जंबूद्वीप पण भराइ जाय छे. वळी हे गौतम ! असुरेंद्र, असुरराज चमर घणा असुरकुमार देवो अने घणी असुरकुमार देवीओवडे आ तिरछा लोकमां पण असंख्य द्वीप अने समुद्र सुधीनुं स्थळ आकीर्ण करे छे, तथा व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट अने अवगाढावगाढ करी शके छे अर्थात् ते (चमर ) एटलां बधां रूपो विकुर्वी शके छे के जेनाथी असंख्य द्वीप समुद्रो सुधीनुं स्थळ भराइ जाय छे. हे गौतम! - पूर्वे कह्या प्रमाणे एटलां रूपो करवानी असुरेंद्र, असुरराज चमरनी मात्र शक्ति छे-विषय छे-विषयमात्र छे, पण कोइ वखते ते चमरे पूर्व प्रमाणे (संप्राप्तिवडे ) रूपो कयां नथी, करतो नथी अने करशे पण नहीं. ४. प्र०—जइ णं भंते ! चमरे असुरिंदे, असुरराया एमहिड्डीए, ४. प्र०—हे भगवन् ! जो असुरेंद्र, असुरराज चमर एवी मोटी जाव-एवइयं च णं पभू विउवित्तए, चमरस्स णं भंते ! असुरिं- ऋद्धिवाळो छे अने यावत्-ते एटलं बधुं विकुर्वण करी शके छे, तो दस्स, असुररण्णो, सामणिया देवा केमहिडीया, जाव-केवइयं हे भगवन् ! असुरेंद्र, असुरराज चमरना सामानिक देवो केवी मोटी च णं पभू विउवित्तए ? ऋद्धिवाळा छे, यावत्-तेओनी विकुर्वणा शक्ति केटली छे ? एणं अबसुहम्मस्स अणगार भते ! श्रीजंवू नामना अवान् महावीरे छट्टा अंगना पहेला अर्थ कह्यो छे ? हे ___“चमरस्स असुरिंदस्स, असुरकुमारनो पंच संगामिया अणिया, पंच “असुरेंद्र, असुरराज चमरने पांच लडायक अनीको-सैन्यो-अने संगामिया अणियाहिबई पण्णत्ताः-पायत्ताणीए, पीढाणीए, कुंजराणीए, पांच लडायक सेनापतिओ कह्यां छः-पदाति अनीक, घोडेखार अनीक, महिसाणीए, रहाणिए. दुमे पायत्ताणियाहिवई, सोदामी आसराया पीढाणी- कुंजरानीक, महिषानीक अने रथानीक. पायदळनो सेनापति दुम छे, घोडेयाहिवई, वेकुंथुहत्थिराया कुजराणीयाहिवई, लोहियक्खे महिसाणीयाहिवई, खारोनो अधिपति अश्वराज सौदामी छे, कुंजरानीकनो खामी वैकुंथु हस्तिकिंनरे रथाणीयाहिवई:-" ( क. आ० पृ० ३५७.) राज छे, महिषानीकनो सेनापति लोहिताक्ष छे अने रथसैन्यनो सेनापति किन्नर छ:-" ( क. आ० पृ० ३५७.) ए अंगमां चमरेंद्रनी पांच पट्टराज्ञीओना नामोनो पाठ आ प्रमाणे छे: “चमरस्सणं असुरिंदस्स,असुरकुमाररन्नो पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, "असुरेंद्र, असुरकुमारोना राजा चमरने पांच अप्रमहिषीओ कही छे, तं जहाः-काली, राई, रयणी, विज्जू, मेहा":-( क. आ० पृ. ३५६.) ते आ प्रमाणे:-काली, रात्री, रत्नी, विद्युत् अने मेधा":- ( क. आ. पृ० ३५६.) आ पांचे अग्रमहिषीओना पूर्वभवादि माटे ज्ञाताधर्मकथा (अं. ६) मां, श्रुतस्कंध बीजाना पहेला वर्गना पांच अध्ययनो दर्शनीय छे. जेम के:___“ते गं काले णं, ते णं समए णं अबसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी “ते काळे, ते समये आर्य श्रीसुधर्मखामी अनगारना अंतेवासी आर्य अज्जजंबू णाम अणगारे, जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासीः-जइ णं भंते! श्रीजंबू नामना अनगार पर्युपासता यावत्-आ प्रमाणे बोल्याः-जो हे समणेणं भगवया महावीरेणं छहस्स अंगस्स पढमसुयखंधस्स अयं अट्ठे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीरे छट्ठा अंगना पहेला ध्रुतस्कंधनो ए अर्थ पण्णत्ते, दोचस्स णं भंते ! सुयखंधस्सxx के अढे पण्णत्ते? एवं खलु जंबु। कह्यो छे, तो हे भगवन् ! बीजा श्रुतस्कंधनोxxकयो अर्थ कह्यो छे? हे समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं दस वग्गा पण्णत्ताxxचमरस्स णं जंबु! ए निश्चित छे, के श्रमण भगवान् महावीरे धर्मकथाना दश वर्गों अग्गमहिसीणं पढमे वग्गे पण्णत्तेxx पढमस्स बग्गस्स पंच अज्झयणा कयां छxx तेमां चमरेंद्रनी अन महिषीओनो पहेलो वर्ग कह्यो छेxxअने ते पण्णत्ता, तं जहाः-काली, राई, रयणी, विज्जू, मेहा."xx (क. आ. पहेला वर्गमां आ प्रमाणे ( अनुक्रमे) पांच अध्ययनो कयां छे:-काली, पृ. १४७८-१५०७.) रात्री, रत्नी, विद्युत् अने मेधा."xx आ पांचे अध्ययनोमा क्रमथी ते ते महिषीनो पूर्व भव, ते भवना माता पिता, स्थळ, राजा वगेरे तथा तेनो बाळभाव, धर्मश्रवण, दीक्षा अने तपश्चर्याथी यावत्-चमरेंद्रनी पट्टराणीपणु, ऋद्धि, परिवार, आयुः वगेरेनो वर्णक छः-(क. आ• पृ. १४७८-१५०७):-अनु० १. मूलच्छायाः-अयोत्तरं च गौतम ! प्रभुश्चमरः असुरेन्दः, असुरराजस्तिर्यग् असंख्येयान् द्वीप-समुद्रान् बहुभिः असुरकुमारैः देवैः, देवीभिश्च आकीर्णान् , व्यतिकीर्णान् , उपस्तीर्णान् , संस्तीर्णान् , स्पृष्टान् , अवगाढावगाढान् कर्तुम् । एष गौतम ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य अयम् एतद्रूपो विषयः, विषयमात्रम् उदितम्, नो चैव संप्राप्त्या व्यकुर्वी वा, विकुर्वति वा, विकुर्विष्यति वा. यदि भगवन् । चमरः असुरेन्द्रः, असुरराजः एवं महर्द्धिकः, यावत् एतावच्च प्रभुः विकुर्वितुम्, चमरस्य भगवन् ! असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य सामानिका देवाः किंमहर्द्धिकाः, यावत्-कियच्च प्रभुर्विकुर्वितुम् !:-अनु. . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे ४. उ० – गोमा ! मरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो सामाणिया देवा महिडीया जाय - महाणुभागा. ते णं तस्थ साणं साणं भवगाणं, साणं साणं सामाणियाणं, खाणं साणं अग्गमहिसीणं, जाबदिव्या भोगभोगाई भुंजमाणा विहति, एवं महिडीया, जाव एव इयं चणं प विचित्र से जहा नामए जुवर्ति जुवाणे हत्येनं हत्थे गेहेज्ज, चक्क वा णाभी अरयाउत्ता-सिया, एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे उपसमुपायेणं समाहण्णइ, जाय- दोचं पि वेउच्चियसमुग्धा येणं समोहण, पभू णं गोयमा ! चमरस्त असुरिंदरस, असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे केवलकप्पं जंबूदीपं बहूहिं असुरकुमा रेहिं देवेहिं य, देवीहि य आइणं, चितिकिष्णं, उपत्थढं, संथ अवगाढावगाढं करेत्तए; अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो एगमेगे सामाणियदेवे तिरियमसंखेज्जे दीव - समुदेवहूहिं असुरकुमारेहि देवेहि, देवीहिं य आइण्णे, विति किणे, उपत्थडे, संघडे, फुढे, अवगाढावगाडे करेचए, एस णं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदरस, असुररण्णो एगमेगस्स सामाणियदेवरस अयमेयारूवे विसये, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विकुव्विसुवा, विकुव्वंति वा, विकुव्विस्संति वा. फुटं ५. प्र० जणं मंते ! चमरस्स असुर्रिदस्सा, असुररण्णो सामाविदेवा एमहिडिया, जाब- एवतियं चणं पमू पिकुव्वित्तए, चमरस्स णं भंते ! असुरिंदरस असुररण्णो तावतीसया देवा केमहिंडिया ५. उ०तायचीसया जहा सामाणिया तहा णेयच्या. लोयपाला तहेव, णवरं - संखेज्जा दीव - समुद्दा भाणियव्वा. ( बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि व आइये, जाय-विकुव्विस्त्रेति वा) शतक ३. उदेशक १. " ४. उ०- हे गौतम! अमुरेंद्र, असुरराज चमरना सामानिक देवो मोटी ऋद्धिवाळा छे अने यावत्-महाप्रभावळा छे. मोत्यां पोत पोतानां भवनो उपर पोत पोताना सामानिको उपर अने पोत पोतानी पट्टराणीओ उपर सत्ताधीशपणुं भोगवता यावत्- दिव्य भोगोने भोगवता बिहरे छे. अने एम एवी मोटी ऋद्धिवाला छे. तथा तेओनी विकुर्वणशक्ति आटली छे. - हे गौतम ! विकुर्वण करवा माटे तेओ-असुरेंद्र, असुरराज चमरना एक एक सामानिक देवो वेक्रियसमुद्घातकडे समवहत थाय छे अने यावत्-बीजी बार पण वैक्रियसमुद्घातवढे समवहत थाय छे. तथा हे गौतम! जेम कोइ गुपान पुरुष पोताने हाये जुबान खीना हाथने पकडे, अर्थात् परस्पर काकडा वाळेला होवाथी जेम से बने व्यक्तिओ संलग्न जणाय छे; अथवा जेम पैडानी घरीमां आराओ संलग्न -सुसंबद्ध - आयुक्त - होय एवी ज रीते असुरेंद्र, असुरराज चमरना सामानिक देवो आखा जंबूद्रीपने घणा असुरकुमार देवो तथा घणी असुरकुमार देवीओरडे आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट अने अवगाढावगाढ करी शके छे. बळी हे गौतम! असुरेंद्र, असुरराज चमरनो एक एक सामानिक देव आ तिरछा लोकमां असंख्येय द्वीप समुद्रो सुधीनुं स्थळ घणा अमुरकुमार देवो अने चणी असुरकुमार देवीओ वडे आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट अने अवगाढावगाढ करी शके छे. हे गौतम! असुरेंद्र, असुरराज चमरना प्रत्येक सामानिकमां पूर्व प्रमाणे विकुर्वण करवानी शक्ति छे-विषय छे, विषयमात्र छे - पण तेओए संप्राप्तिवडे कोई वार विकु नथी, विकुर्वता नथी अने विकुर्वशे नहीं. ५. प्र० - हे भगवन् ! जो असुरेंद्र, असुरराज चमरना सामानिक देवो एवी मोटी ऋद्धिवाला छे अने यावत् एट विकुण करवा समर्थ छे तो हे भगवन् ! असुरेंद्र, असुरराज चमरना त्रायखिशक देवो केषी मोठी दिवाळा हे ! ५. उ०- हे गौतम! जेम सामानिको कह्या तेम त्रास्त्रिशको पण कहेवा. तथा लोकपालो संबंधे पण एम कहे. विशेष ए के, तेओ पोताना बनावे रूपोथी अनेक असुरकुमार अने असुरकुमारी ओथी-संख्येय द्वीप समुद्रोने भरी शके छे. (ए तो मात्र तेनो विषय छे. पण यावत् - ओ ए प्रमाणे विकुर्वशे नहीं . ) · १. मूलच्छायाः -- गौतम ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य सामानिका देवा महर्द्धिकाः, यावत्-महानुभागाः ते तत्र स्वेषां स्वेषां भुवनानाम्, स्वेषां स्वेषां सामानिकानाम्, खातां खातो अग्रमहिषीणाम्, वाद- दिव्यानि भोगभोग्यानि भुञ्जाना विहरन्ति एवं महर्दिकाः, याबद एतायच प्रभुर्विकुर्वितुम्, तद्यथा नाम युवतिं युवा हस्तेन हस्तं गृह्णीयात्, चक्रस्य वा नाभी अरकायुक्ता ( उत्तासिता) स्यात्, एवमेव गौतम ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य एकैका सामानिकदेवो वैकियसमुद्घातेन समवहन्ति यावत् द्वितीयमपि वैयियातेन समवहन्ति, प्रभुर्गोतम । चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य एकैकः सामानिकदेवः केवलकल्पं जम्बूद्वीपं बहुभिरसुरकुमारैः देवैश्च, देवीभिश्व आकीर्णम्, व्यतिकीर्णम्, उपस्तीर्णम्, संस्तीर्णम्, स्पृष्टम्, अवगाढाया कर्तुम अयोसर च भीतम प्रभुमरस्य अनुरेन्द्रस्य, अनुरराजस्य एकैकः सामानिकदेवः तिर्यगसंख्येयान् द्वीप समुद्रान् बहुभिरसुरकुमारैः देवेश, देवीमि आकीर्णान् व्यतिकीर्णान् उपस्तीर्णान् संस्तीगीन स्टान् अपगाडागादान् कर्तुम् एष गौतम । चमरख असुरेन्द्रख, अगुरराजस्य एकैकस्य सामानिकदेवस्य अयम् एतद्रूपो विषयः विषयमात्रम् उदितम् गो चैव संप्राप्य व्यकुर्विष विकुर्वन्ति वा विकुर्विभ्यन्ति वा. यदि भगवन् ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य सामानिकदेवा एवं महर्द्धिकाः, यावत् एतावच्च प्रभुर्विकुर्वितुम्, चमरस्य भगवन् ! असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य त्रायस्त्रिंशकाः देवाः किंमहर्द्धिकाः ? त्रायस्त्रिंशकाः यथा सामानिकास्तथा ज्ञातव्याः. लोकपालास्तथैव, नवरम् - संख्येयाः द्वीपसमुद्राः भणितव्याः. ( बहुभिः असुरकुमार देव, देवीभित्र आकीर्णान् यावत् विकुर्विष्यति वा ) :- अनु० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३:-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ६.प्र०—जई णं भंते । चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो - ६. प्र०-हे भगवन् ! जो असुरेंद्र, असुरराज चमरना लोकलोगपाला देवा एमहिडीया, जाव-एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, पाल देवो एवी मोटी ऋद्धिवाळा छे अने यावत्-तेओ एटलुं विकुर्वण चमरस असरिंदस्स. असररण्णो अग्गमहिसीओ देवीओ केम- करी शके छे, तो असुरेंद्र, असुरराज चमरनी पट्टराणी देवीओ केवी हिडीयाओ, जाव-केवइयं च णं पभू विकुवित्तए ? मोटी ऋद्धिवाळीओ छे अने तेओ केटलुं विकुर्वण करे छे ? ६. उ०-गोयमा! चमरस्स णं असुरिंदस्स, असुररणो अग्गम- ६. उ०--हे गौतम ! असुरेंद्र, असुरराज चमरनी पट्टराणी हिसीओ महिडीयाउ, जाव-महाणुभागाओ, ताओ णं तत्थ साणं देवीओ मोटी ऋद्धिवाळीओ छे अने यावत्-मोटा प्रभाववाळीओ छे. साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं महत्त- तेओ त्यां पोत पोताना भवनो उपर, पोत पोताना हजार सामानिक रियाणं, साणं साणं परिसाणं, जाव-एमहिडीयाओ; अण्णं जहा देवो उपर, पोत पोतानी मित्ररूप महत्तरिका देवीओ उपर अने लोगपालाणं अपरिसेसं. पोत पोतानी समितिनुं स्वामिपणुं भोगवती रहे छे यावत्-ते पट्टराणीओ एवी मोटी ऋद्धिवाळीओ छे. ते संबंधेनी बीजी बधी हकी कत लोकपालोनी पेठे कहेवी. ७. प्र०--सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति. भगवं दोचे गोयमे समणं - ७. प्र०-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ. जेणेव तचे गोयमे वायुभूती अण प्रमाणे छे. एम कही द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगारे श्रमण भगगारे. तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता, तचं गोयमं वायुभूति वं महावीरने वांदी. नमी जे तरफ तृतीय गौतम वायुभूति अनगार अणगारं एवं वदासि: हता ते तरफ जवानुं कर्तुं अने त्यां जइने ते अग्निभूति अनएवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे, असुरराया एवं गारे वायुभूति अनगारने आ प्रमाणे कयुं के:-हे गौतम ! महिडीए, तं चेव एवं सव्वं अपुट्ठवागरणं णेयव्वं अपरिससियं 4 ए प्रमाणे निश्चित छे के, असुरेंद्र असुरराज चमर, एवी मोटी जाव-अग्गमहिसीणं जाव-वत्तव्वया सम्मत्ता. तेणं से तचे गोयमे ऋद्धिवाळो छे, इत्यादि बधुं चमरथी मांडीने तेनी पट्टराणीओ. वायुभूती अणगारे दोचस्स गोयमस्स अग्गिभूतिस्स अणगारस्स सुधी- अपृष्ट व्याकरण ( अणपूछये उत्तर ) रूप वृत्तांत अहीं एवमाइक्खमाणस्स, भासमाणस्स, पण्णवेमाणस्स, परूवेमाणस्स एय-' एक- कहे. त्यार पछी अग्निभूति अनगारे पूर्व प्रमाणे कहेली, भाषेली, मह नो सदहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, एयमढे असद्दहमाणे, जणावेली अने प्ररूपेली ए वातमा ते तृतीय गौतम वायुभूति अनअपत्तियमाणे, अरोएमाणे, उद्वाए उद्वेइ, उद्वेइत्ता जेणेव समणे गारने श्रद्धा बेसती नथी, विश्वास आवतो नथी अने ए वात भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासी:- तेओने रुचती नथी. हवे ए वातमां अश्रद्धा करता, अविश्वास एवं खलु भंते ! मम दोचे गोयमे अग्गिभूई अणगारे ममं एव- आणता अने ए वात तरफ अणगमावाळा ते तृतीय गौतम वायुमाइक्खइ, भासइ, पण्णवेइ, परूवेइ–एवं खलु गोयमा ! चमरे भूति अनगार पोताना आसनथी उठी-उभा थइ-श्रमण भगवंत असुरिंदे,. असुरराया महिडीए, जाव-महाणुभागे, से णं तत्थ महावीर तरफ गया अने त्यां जइ तेओनी पर्युपासना करता आ चोत्तीसाए.भवणावाससयसहस्साणं, एवं तं चेव सव्वं अपरिसेसं रीते बोल्या के:-हे भगवन् । द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगारे मने भाणियव्वं, जाव-अग्गमहिमीणं वत्तव्वया सम्मत्ता, से कहमेयं सामान्य प्रकारे का. विशेष प्रकारे का, जणाव्युं अने प्ररूप्यु मंते ! एवं? के,-" असुरेंद्र, असुरराज चमर एवी मोटी ऋद्धिवाळो छ अने यावत्-एवा मोटा प्रभाववाळो छे के, ते त्यां चोत्रीश लाख भवनावासो उपर स्वामिपणुं भोगवे छे, इत्यादि बधुं पट्टराणीओ सुधीर्नु वृत्तांत अहीं पूरेपूरूं कहे." तो हे भगवन् ! ते ए ते ज प्रमाणे केवी रीते छे ? १. मूलच्छायाः-यदि भगवन् ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य लोकपालाः देवा एवंमहर्द्धिकाः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम, चमरस्य असुरेनस्य,असुरराजस्य अप्रमहिन्यो देव्यः किंमहर्द्धिकाः, यावत्-कियच प्रभर्विकवितुम? गौतम | चमरस्य असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य अग्रमहिष्यो महर्द्धिकाः, यावत्-महानुभागाः, तास्तत्र खासां खासा भुवनानाम् , स्वासां स्वासी सामानिकसाहस्रीणाम्, स्वासां स्वासां महत्तरिकाणाम्, स्वासां स्वासा पर्षदाम्; यावत्-एवमहद्धिकाः, अन्यद् यथा लोकपालानाम् अपरिशेषम, तदेवं भगवन् !. तदेवं भगवन्! इति. भगवान् द्वितीयो गीतमः श्रमणं भगवन्तं महावीर न्दित, नमस्यति. येनैव तृतीयो गौतमो वायुभूतिरनगारस्तेनैव उपागच्छति, तेनैव उपागम्य तृतीयं गौतमं वायुभूतिरनगारम् एवम् अवादीत:-एवं खलु मातम ! चमरः असुरेन्द्रः, असुरराजः एवंमहर्धिकः, तञ्चव एवं सर्वम् अपृष्टव्याकरणं ज्ञातव्यम् अपरिशेषं यावत्-अग्रमहिषीणां यावत्-वक्तव्यता समाप्ता; ततः स तृतीयो गौतमो वायुभूतिरनगारो द्वितीयस्य गौतमस्य अग्निभूतेः अनगारस्य एवम् आख्यातः, भाषमाणस्य, प्रज्ञापयतः, प्ररूपयत एतदर्थ नो अधात, ना प्रत्यात, नो रोचयति, एतदर्थम् अथधत् , अप्रत्ययन् , अरोचयन, उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय येनैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तेनैव उपागच्छति, यावत्-पर्युपासीनः एवम् अवादीतू:-एवं खलु भगवन् । मम द्वितीयो गौतमोऽग्निभूतिः अनगारो माम् एवम् आख्याति, भाषते, प्रज्ञापयति. प्ररूपयति-एवं खलु गीतम | चमरः असुरेन्द्रः, असुरराजो महर्द्धिकः, यावत्-महानुभागः, स तत्र चतुस्त्रिंशद्भवनावासशतसहस्राणाम्, एवं तचैव सर्वम्, अपरिशेष भणितंव्यम्, यावत्-अप्रमहिषीणां वक्तव्यता समाप्ता, तत् कथमेतद् भगवन् ! एवम् :-अनु० Jain Education international . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे ७. उ०- गोमादी, समणे भगवं महावीरे त गोव वायुभूतिं अणगारं एवं वयासी :- जं णं गोयमा ! दोचे गोयमे अग्गिभूई अणगारे तब एवमाइक्सर, सासर, पण्णवेद, परूबेड़-"एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिदै, असुरराया महिडीए, एवं तं चैव सव्वं जाव—अग्गमहिसीणं वत्तव्वया सम्मत्ता” सच्चे णं एसमट्ठे, अहं पि णं गोयमा ! एवमाइक्खामि, भासामि, पण्णवेमि, परूवेमि - एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे, असुरराया जाय-महिदीए, सो चैव बीतिओ गमो भाणियव्वो, जाव - अग्गमहिसीओ, सच्चे णं एम. , सेवं भंते 1 सेनं भते ! तिथे गोवमे वावुभूई गरे समणं भगयं महावीरं चंदर, नमसर, जेणेव दोगे गोयमे अग्गिभूई अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता दोचं गोयमं अग्गिभूई अणगारं बंदर, नमसर, एयम सम्मं विणणं भुजो भुलो खामेइ. - " शतक ३. - उद्देशक १. ७. उ० – पछी 'हे गौतम! वगेरे,' एम आमंत्री श्रमण भगवंत महावीरे ते त्रीजा गौतम वायुभूति अनगारने आ प्रमाणे कयुं के:हे गौतम! ते द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगारे तने जे सामान्य प्रकारे कशुं विशेष प्रकारे कर्छु, जणान्युं अने प्ररूप्यं के, " हे गौतम ! असुरेंद्र, असुंरराज चमर मोटी ऋद्धिवाको छे, इत्यादि बधुं तेनी पट्टराणीओ सुधीनुं वृत्तांत अहीं कहेवुं." ( हे गौतम! ) ए बात साची छे अने हे गौतम! हुं पण एम कहुं हुं, भानु हुँ, जणावुं हुं अने प्ररूपं छं के असुरेंद्र, असुरराज चमर मोटी ऋद्धिवाळो छे इत्यादि ते ज रीते यावत् - पट्टराणीओ सुधीनी हकीकतवाळो बीजो गम कहेवो. अने ए वात साची छे. १. व्याख्यातं द्वितीयशतम्, अथ तृतीयशतं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसंबन्धः - अनन्तरशतेऽस्तिकाया उक्ताः, इह तु द्विशेषभूतस्य जीवास्तिकायस्य विविधधर्मा उच्यन्ते इत्येवं संबन्धस्यास्य तृतीयशतस्योद्देशकार्य संग्रहायेयं गाथा - 'केरिस' इत्यादि. तत्र 'रिस विउव्वण' त्ति कीदृशी चमरस्य विकुर्वणाशक्तिः ? इत्यादि प्रश्ननिर्वचनार्थः प्रथम उद्देशकः. 'चमर' ति चमरोत्पाताऽभिधानार्थे द्वितीय:'किरिय' त्ति कायिक्यादि क्रियाद्यर्थाभिधानार्थः तृतीयः 'जाण' त्ति यानं देवेन वैक्रियं कृतं जानाति साधुरित्याद्यर्थनिर्णयार्थश्चतुर्थः. ' इत्थि ' त्ति साधुर्बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः स्त्र्यादिरूपाणि वैक्रियाणि कर्तुमित्याद्यर्थनिर्णयार्थः पञ्चमः. 'नगर' त्ति वाराणस्यां नगर्यां कृतसमुद्घातोऽनगारो राजगृहे रूपाणि जानातीत्याद्यर्थनिश्चयपरः षष्ठः पालय' चि सोमादिलोकपालचतुष्टयत्वरूपाभिधायक: सप्तमः, 'अहिवर' त्ति असुरादीनां कति देवा अधिपतयः इत्याद्यर्थपरोऽष्टमः. 'इंदिय' चि इन्द्रियविषयाभिधानार्थी नवमः 'परिस' त्ति चमरपरिषदाभिधानार्थो दशमः इति. ८ , हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे अने पछी जे तरफ बीजा गौतम अग्निभूति अनगार छे त्यो आवी, तेओने बांदी, नमी, 'तेओनी बातने न मानी ते माटे तेओनी पासे वारंवार विनयपूर्वक सारी रीते क्षमा मांगे छे. ' वे १. बीजा शतकमी व्याख्या करी. हने त्रिजा शतकनी व्याख्यानो प्रारंभ धाय छे. बीजा शतक अने त्रिजा शतकलो परस्पर संबंध आ रीते छे:आगळना शतकर्मा सामान्य अस्तिकाय संबंधे हकीकत कही के अने हवे विशेष अस्तिकाय संबंध हकीकत जगावाय ए स्थानोचित छे, माटे आ शतकमां अस्तिकायोगां विशेषरू जीवास्तिकायना विविध धर्मों कहेबाना है. ए प्रमाणे बीना अने बिना शतकनो संकलनारूप संबंध छे. पिजा शतकना दशे उद्देशकमां कया कया विषयो संबंधे निरूपण थवानुं छे ते वातने सूचबवा सारु आ संग्रह गाथा छे: - [ 'केरिस' इत्यादि . ] तेमां ['रि विव्वण 'सि ] चमर नामना इंद्रमां विकुर्वशक्ति- जूदां जूदां रूपो फेरवानी शक्ति केसी छे इत्यादिना निर्वचन माटे प्रथम उद्देशक छे. [+ चमर 'सि ] चमरनो उत्पात जणाववा बीजो उद्देशक किरियत्ति ] कायिकी ( शरीरथी थती) वगेरे कियाओने जणाचचा त्रिजो उद्देशक छे. छे. ['जागति] 'देवे विकुर्वे यानने साधु जाणे ' इत्यादि अर्थना निर्णय सारु पोयो उद्देशक छे. [ 'इत्थि 'सि ] साधु बहारनां पुलोनेलहने स्त्री वगेरेनां वैक्रियरूपो करी शके ?' इत्यादि अर्थना निर्णय सारु पांचमो उद्देशक छे. ['नगर 'त्ति ] जेणे वाराणसी (बनारस) शहेर मां समुद्घात कर्यो छे एवो साधु, राजगृह नगरमा रहेलां रूपोने जाणे छे ? इत्यादि वातना निश्चय माटे छट्टो उद्देशक छे. ['पालय 'त्ति ] सोम वगेरे चार लोकपालोना स्वरूपने कहेनारो सातमो उद्देशक छे. [ 'अहिवइ 'त्ति ] 'असुर वगेरेना इंद्रो केटला छे ?' ए वातने जणाववा माटे आठमो उद्देशक छे. [ 'इंदिय 'त्ति ] इंद्रियोना विषयो संबंधे नवमो उद्देशक छे अने [ 'परिस 'त्ति ] चमरनी सभा संबंधी हकीकत जणाववा दशमो उद्देशक छे. " २. तत्र कीदृशी विकुर्वणा ? इत्याद्यर्थस्य प्रथमोद्देशकस्य इदं आदि सूत्रम् - " ते णं काले णं' इत्यादि सुगमम् नवरम् -' केमहि - डीए' ति केन रूपेण महर्षिकः किंरूपा वा महर्षिरस्येति किंमहर्धिकः, "कियन्महर्धिकः" इत्यन्ये सामाणियसाहस्तीर्ण' ति 6 " १. मूलच्छायाः गीतमादे श्रमणो भगवान् महावीरस्तुतीर्थ गौतमं वावुभूतिम् अनगारम् एवम् अवादीदः यद् गौतम, द्वितीयो गीतम अग्निभूतिः अनगारः स्याम् एवम् आख्याति, भाषते प्रज्ञापयति, रूपयति-"एवं खल गौतम चमराः अनुरेन्द्र, असुरराजो महर्दिका एवं तचैव सर्वं यावत् अग्रमदिषीणां वक्तव्यता समाप्ता" एयः एषोऽर्थः अहमपि गौतम एवम् आख्यामि भाषे, महापयामि, प्ररूपयामि एवं ख गौतम च असुरेन्द्रः, असुरराजो यावत्-महर्द्धिकः, स एव द्वितीयो गमो भणितव्यः यावत् - अग्रमहिष्यः सत्यः एषोऽर्थः तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् । इति तोयदीमा अनगारः भ्रमणं भगवन्तं महाबीर वन्दते नमस्यति येनैव द्वितीयो गीतमोऽग्निभूतिः अनगारखेनेव उपागच्छति, उपागम्य द्वितीयं गौतमम् अग्निभूतिम् अनगारं वन्दते नमस्वति एतद सम्यग् विनवेन भूयो भूयः क्षमयतेः-अनु / Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक.३.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. समानया इन्द्रतुल्यया ऋद्ध्या चरन्ति इति सामानिकाः. 'तायत्तीसाए' त्ति त्रयस्त्रिंशतः, तायत्तीसगाणं' ति मन्त्रिकल्पानाम यावत्करणाद इदं दृश्यम्:-"चउण्हं लोगपालाणं, पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाडिवईणं. चउण्डं चउसढीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अनेसिं च बहूणं चमरचंचारायहाणिवत्थब्वाणं देवाणं य, देवीणं य आहेवचं. पोवनं. सामित्तं. भट्टित्तं, आणा-ईसर-सेणावचं कारेमाणे, पालेमाणे महयाहयनट्ट-गीअ-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिअ-धणमइंगपड़प्पयाइयरवेणं दिव्याई भोगभोगाई भुंजेमाणे." त्ति तत्र आधिपत्यम्-अधिपतिकर्म, पुरोवर्तित्वम अग्रगामित्वम् , स्वामित्वम्-वस्वामिभावम् , भवम-पोषकत्वम् , आज्ञेश्वरस्य आज्ञाप्रधानस्य सतो यत्सेनापत्यं तत्तथा तत्कारयन् , अन्यैः पालयन् स्वयमिति तथा महता रवेणेति योगः. 'आहय' त्ति-"आख्यानकप्रतिबद्धानि" इति वृद्धाः. अथवा 'अहय' त्ति-अहतानि-अव्याहतानि नाट्य-गीत-वादितानि, तथा तन्त्रीवीणा, तलतालाः-हस्ततालाः, तला वा हस्ताः, ताला:-कसिकाः; 'तुडय'त्ति-शेषतूर्याणि, तथा घनाकारो ध्वनिसाधाद यो मृदङ्गोः-मर्दलः पटना दक्षपुरुषेण प्रवादितः इति, एतेषां द्वन्द्वः, अत एषां यो रवः स तथा तेन. 'भोगभोगाई' ति-भोगार्हान् शब्दादीन् ‘एवं महिडीए'त्ति एवं महर्द्धिक इव महर्द्धिकः, "इयन्महर्द्धिकः" इत्यन्ये, 'से जहां नामए'. त्ति इत्यादि. यथा युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गहाति-कामवशाद गाढतरग्रहणतो निरन्तरहस्ताङ्गुलितयेत्यर्थः. दृष्टान्तान्तरमाहः-'चकस्स' इत्यादि. चक्रस्य वा नाभिः, किंभूता ? 'अरगाउत्त' त्ति अरकैरायुक्ता-अभिविधिनाऽन्विता अरकायुक्ता, 'सिय' त्ति स्यात्-भवेत् , अथवा अरका उत्तासिता-आस्फालिता यस्यां सा अरकोत्तासिता. 'एवमेव' ति निरन्तरतयेत्यर्थः, प्रभुर्जम्बूद्वीपं बहुभिर्देवादि भिराकीर्ण कर्तुमिति योगः, वृद्वैस्तु व्याख्यातम्:-"यथा यात्रादिषु युवतियूनो हस्तेन लग्ना प्रतिबद्धा गच्छति बहुलोकप्रचिते देशे, एवं यानि रूपाणि विकुर्वितानि तानि एकस्मिन् कर्तरि प्रतिबद्धानि, यथा वा चक्रस्य नाभिरेका बहुभिररकैः प्रतिबद्धा घना निश्छिद्रा, एवमात्मशरीरप्रतिबद्धैरसुरदेवैर्देवीभिश्च पूरयेदिति. 'वेउब्वियसमुग्घाएणं' ति वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशेषेण, 'समोहण्णई' ति समुपहन्यते-समुपहतो भवति, समुपहन्ति वा प्रदेशान् विक्षिपतीति; 'संखेज्जाई इत्यादि., तत्स्वरूपमेवाहः-दण्ड इव दण्ड:-ऊर्ध्वाऽधः आयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेश:-कर्मपुद्गलसमूहः, तत्र च विविधपुद्गलान् आदत्ते इति दर्शयन्नाह, तद्यथाः-रत्नानां कर्केतनादीनाम् , इह च यद्यपि रत्नादिपुद्गला औदारिकाः, वैक्रियसमुद्घाते च वैक्रिया एव ग्राह्या भवन्ति, तथापीह तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारताप्रतिपादनाय रत्नानामित्याद्युक्तम् , तच्च 'रत्नानामिव' इत्यादि व्याख्येयम्. अन्ये त्याहुः"औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैक्रियतया परिणमन्ति" इति. २. हवे 'विकुर्वणा शक्ति केवी छ ? ' ए वातने सूचवनार प्रथम उद्देशकनुं आ सूत्र छ:-['ते णं काले णं' इत्यादि.] ए बधु सुगम छे. विशेष ए के, केमहिड्डीए'त्ति ] ते चमर, केवे रूपे मोटी ऋद्धिवाळो छ, अथवा ते चमरनी केवी मोटी ऋद्धि छ ? “ते चमर, केवडो मोटो ऋद्धिवाळो चमरेंद्रनी - छे" ए प्रमाणे बीजाओ अर्थ करे छे. ['सामाणिअसाहस्सीणं 'ति] सामानिक एटले सरखाइवाळा-इंद्रनी सरखी ऋद्धिवडे चरनार (रहेनार) ते सामानिक तेओ उपर, ['तायत्तीसाए 'त्ति] तेत्रीस ['तायत्तीसगाणं'ति] त्रायस्त्रिंशक देवो अर्थात् प्रधाननी जेवा देवो तेओ उपर, अहीं यावत्! शब्द मूक्यो छे माटे आ प्रमाणे जाणवु:-" चार लोकपालो उपर, परिवारवाळी पांच पट्टराणीओ उपर, त्रण सभाओ उपर, सात सेनाओ उपर, सात सेनाधिपतिओ उपर, बे लाख, छप्पन हजार (२, ५६०००) आत्मरक्षक देवो उपर अने बीजा घणा चमरचंचामा रहेनारा देवो तथा देवीओ उपर अधिपतिपणुं, पुरपतिपणुं, खामिपणुं, भर्तृपणुं-पालकपणुं अने आज्ञानी प्रधानतापणे सेनाधिपतिपणुं करावतो, बीजा द्वारा पोते पळावतो-रखावतो तथा मोटा अवाजपूर्वक अहत-अखंड-निरंतर थतां नाटको, गीतो तथा वाजांओना शब्दो वडे, वीणा, ताळोटा, हाथो, कांसिओ अने बीजां अनेक जातिनां वाजांओना शब्दोवडे तथा डाह्या पुरुष द्वारा वगाडाता अने मेघ जेवा गभीर मृदंगना शब्दवडे दिव्य-भोगववा योग्य शब्द वगेरे भोगोने दिव्य-भोग. भोगवतो ते इंद्र विहरे छे. ['एवं महिड्डीए'ति] एटले मोटा ऋद्धिवाळानी जेवो. बीजा पुरुषोए आ शब्दनो" एटलो मोटो ऋद्धिवाळो" ए प्रमाणे अन्यमत. अर्थ कर्यो छे. [ से जहा नामए' इत्यादि.] जेम कोइ एक जुवान पुरुष, कामने वशवर्ती रहीने जुवान स्वीना हाथने पोताना हाथवडे जोरथी विकुर्वणाना काकडावाळवा पूर्वक पकडे. बीजुं उदाहरण कहे छः-['चक्कस्स' इत्यादि.] पैडानी धरी, केवी धरी ? तो कहे छे के, ['अरगाउत्त'त्ति ] जे धरी बभी बाजुए आराओथी युक्त [ 'सिय'त्ति] होय. अथवा जे धरीमा आराओ अफळाएली होय ते. ["एवामेव 'त्ति] एवी रीते ज निरंतरपणे जंबूद्वीपने देवादिकवडे आकीर्ण (भरी देवा) करवा ते समर्थ छे, एम संबंध करवो. वृद्ध पुरुषोए तो आ प्रमाणे व्याख्या करी छ:-"जेम यात्रा वृद्धो. बंगरेनी धामधूममां ज्यां घणां लोकोनो मेळो जामेलो होय एवा भागमा जुवान पुरुषने हाथे वळगेली जुवान बाइ (स्त्री) गति करे छे. अर्थात् जेम १. प्र. छायाः-चतुर्णा लोकपालानाम्, पञ्चानाम् अग्रमद्दिषीणां सपरिवाराणाम्, तिसूणां पर्षदाम्, सप्तानाम् अनीकानाम् , सप्तानाम् अनीकाऽधिपतीनाम्, चतसूणां चतुष्षष्टीनाम् आत्मरक्षकदेवसहस्रीणाम्, अन्येषां च बहनां चमरचञ्चाराजधानीवास्तव्यानां देवानां च, देवीना चाधिपत्यम्, पारपत्यम्, खामिलम्, भट्टेलम्, आज्ञेश्वर-सेनापत्यं कारयन, पालयन् महताहत-नाव्य-गीत-वादित्र-तत्री-तल-ताल-त्रुटित-घनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यानि भोगभोगानि भुञान इतिः-अनु० १. अहीं श्रीटीकाकारे ‘यावत्' शब्दथी जणावेलो 'पोरेवचं' सुधीनो बधो पाठ “प्रज्ञापना-" (उपा. ४ ना क० आ० पृ०१०३) मां भाधरराव चमरेंद्रना अधिकारमा छे, ते अहीं चमरेंद्रना (भ० सं० २, पृ० १३ ना) टिप्पणमा उद्धरेल छे, पण टिप्पणमांनो 'जाव' शब्दथी अध्याहायें पाठ बने इंद्रो-चमर, बलि-ना सह वर्णनमा आ स्थळे (प्रज्ञा. क. आ.पृ० १००-१) छ:-अनु० १, वृद्ध पुरुषी 'अहत ने बदले 'आय'-'आख्यात' एवो अर्थ करे छे अने आख्यात एटले जेमा वार्ताओ पण चाली रही छे एवां नाटको बगेरे:-श्रीअभय. २ भ• सू० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. ते स्त्री, जुवान पुरुषने हाथे वळगेली पण जूदी देखाय छे तेम जे रूपो ते देवे विकुर्वेलां छे ते रूपो एक मूळ पुरुष ( रूपोने विकुर्वनार पुरुष ) मां वळगेला पण जूदां देखाय छ; अथवा जेम घणी आराओथी प्रतिबद्ध एवी पैडानी धरी धन-जरा पण पोलाण विनानी-काणां विनानी-जणाय छे तेम (ते देव,) पोताना शरीर साथे प्रतिबद्ध अनेक असुरदेव अने असुरदेवीओ वडे जंबूद्वीपने भरी दे छे." [ वेउब्वियसमुग्धाएणं 'ति] वैक्रिय रूपो करवा माटे एकजातनो प्रयत्न ते वैक्रियसमुद्घात ते बडे [ 'समोहन्नइ 'त्ति] समुपहत थाय छे, अथवा प्रदेशोने फेंके छे. तेनुं ज स्वरूप कहे छेः-[ 'संखेज्जाई' इत्यादि.] जे दंडनी जेवो होय ते ' दंड ' कहेवाय. उंचे, नीचे-लांबो अने शरीरनी जेटली जाडाइवाळो जीवप्रदेशोनो तथा कर्मपुद्गलोनो समूह ते दंड. ते वखते विविध-जूदी जूदी जातिनां-पुद्गलोनू ग्रहण करे छे. ते वातने दर्शावतां कहे छे के, कर्केतन वगेरे रत्नोनां पुद्गलोनुं ग्रहण करे छे. शं०-रत्न वगेरेनां पुद्गलो औदारिक होय छे. अने वैक्रियसमुद्घातमां तो ते ज पुद्गलो काम आवे छे जे पुद्गलो वैक्रिय होय छे. ज्यारे एम छे त्यारे अहीं रत्नादि पुद्गलोनुं ग्रहण शा माटे कर्यु ? समा०-जे पुद्गलो वैक्रियसमुद्घातमां लेवाय छे ते पुद्गलो रत्नो जेवां सारवाळां छे ए वातने जणाववां अहीं रत्न वगेरेनुं ग्रहण कर्यु छे. माटे 'रत्न पुद्गलो'नो अर्थ 'रत्ननी जेवां पुद्गलो' करवो अने एम करवाथी कांइ हरकत नथी. बीजाओ तो कहे छे के,-"ज्यारे वैक्रियसमुद्घात द्वारा औदारिक पुद्गलोनुं ग्रहण थाय छे त्यारे ते औदारिक पुद्गलो पण वैक्रिय पुद्गलो बनी जाय छे." ३. यावत् करणादिदं दृश्यम्:--"वइराणं, वेरुलियाणं, लोहियक्खाणं, मसारगल्लाणं, हंसगब्भाणं, पुलयाणं, सोगंधियाणं, जोतीरसाणं, अंकाणं, अंजणाणं, रयणाणं; जायरूवाणं, अंजणपुलयाणं, फलिहाणं" ति. किम् ? अत आहः-'अहाबायरे'त्ति यथाबादरान् असारान् पुद्गलान् परिशातयति दण्डनिसर्गगृहीतान्, यञ्चोक्तं प्रज्ञापनाटीकायाम्:-"यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्रागबद्धान् शातयति" इति, तत् समुदघातशब्दसमर्थनार्थमनाभोगिकं वैक्रियशरीरकर्मनिर्जरणमाश्रिय इति. 'अहासुहुमे' ति यथासूक्ष्मान् सारान् 'परियाएइ' त्ति पर्यादत्ते-दण्डनिसर्गगृहीतान् सामस्येनादत्ते इत्यर्थः. 'दोचं पि' त्ति द्वितीयमपि वारं समुद्घातं करोति चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थम्, ततश्च 'पभुत्ति समर्थः, केवलकप्पं' ति केवलः-परिपूर्णः, कल्पत इति कल्पः-स्वकार्यकरणसामोपेतः, ततः कर्मधारयः, अथवा केवल. कल्पः केवलज्ञानसदृशः परिपूर्णतासाधर्म्यात् , संपूर्णपर्यायो वा केवलशब्द इति. 'आइन्न' इत्यादय एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्शनायोक्ताः. 'अदत्तरं च णं' ति अथापरं च, इदं च सामर्थ्यातिशयवर्णनम्. 'विसए' त्ति गोचरो वैक्रियकरणशक्तेः, अयं च तत्करणयुक्तोऽपि स्यात्, इत्यत आहः-विसयमेत्ते ति विषय एव विषयमानं क्रियाशन्यम् 'बुइए' ति उक्तम् , एतदेवाहः-संपत्तीए' त्ति यथोक्तार्थसंपादनेन विकस्विस वा विकुर्वितवान् वा; विकुर्वति वा, विकुर्विष्यति वा, 'विकुर्व' इत्ययं धातुः सामयिकोऽस्ति, 'विकुर्वणा' इत्यादिप्रयोगदर्शनाद् इति. 'नवरं संखेज्जा दीव-समुद्द' त्ति लोकपालाद.सामानिकेभ्योऽल्पतरर्द्धिकत्वेनाल्पतरत्वाद् वैक्रियकरणलब्धरिति. 'अपट्टवागरणं' ति अपृष्टे सति प्रतिपादनम्. ३. अहीं यावत्' शब्द मूक्यो छे माटे आ प्रमाणे जाणवु:-'वज्रना, वैडुर्यनां, लोहिताक्षना, मसारगल्लना, हंसगर्भनां, पुलकनां, सौगंधिकना, ज्योतिरसनां, अंकोनां, अंजनोनां, रत्नोनां, जातरूपोना, अंजनपुलकोनां अने स्फटिकोनां. ' एथी शं? तो कहे छे के, ['अहाबायरे'त्ति] दंडना निसर्ग द्वारा लीधेला असार पुद्गलोने खंखेरी नाखे छे. शं०-आ ठेकाणे एम कह्यु छ के, 'दंडना निसर्ग द्वारा लीधेला असार पुद्गलोने खंखेरी नाखे छे' अने प्रज्ञापना सूत्रनी टीकामां कयुं छे के, 'पूर्वे बांधेलां वैक्रियशरीरनामकर्मनां यथास्थूल पुद्गलोने खंखेरी नाखे छे' अर्थात् १. 'वैक्रियसमुद्घात'नी ओळख माटे उपयोगी रीति आ छे:-नैरयिको, देवो, पवन, केटलाक मनुष्यो अने पंचेंद्रिय तिर्यंचो पोताना शरीरने ट्रॅकुं, लावू, जाडु, पातळ, उंचं, नीचं अने सुंदर करवाने जे क्रिया करे छे तेने जैन परिभाषा “विक्रिया' कहे छे, अने ते वडे तैयार थता शरीरने 'वैक्रिय-शरीर' कहे छे. आत्माए पोताना आत्मप्रदेशोने कार्य विशेष माटे शरीरथी बहार प्रसारी पाछां संकोचवां तेनुं नाम ए शैलीए 'समुद्घात' छे. आवा समुद्घातोनी गणना श्रीसमवायांगमां आ प्रमाणे छे: “सत्त समुग्धाया पण्णता, तं जहाः-वेयणासमुग्धाए, कसायसमुग्याए, “समुद्घातो सात कह्या छे, ते आ प्रमाणेः-वेदनासमुद्घात, कषायमारणांतियसमुग्घाए, वेउव्वियसमुग्घाए, तेयससमुग्घाए,आहारअसमुग्याए, समुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात, 'वैक्रियसमुद्घात,' तैजससमुद्घात, केवलिसमुग्धाए:-" (क० आ० पृ० १९). ____ आहारकसमुद्घात अने केवलिसमुद्घात":-(क० आ० पृ. १९). आ सात समुद्घातोमानो चोथो समुद्घात ज्यारे जूना अने स्थूल पुद्गलोवाळा शरीरने, नवां अने सूक्ष्म पुद्गलो युक्त करवू होय त्यारे योजवामां आवे छे. जेमः-पक्षी पोतानी उपर जामेली धुलीने दूर करवा पांखो पहोळी करी धुलीने खंखेरी पाछी संकोचे छ, तेम उक्त आत्माओ पण कहेल कारण माटे आत्मप्रदेशोनो जाडाइ अने पहोळाइमां देह जेवो अने लंबाइमां असंख्येय योजन लंबाणवाळो दण्डाकार दंड रचे छे. आ स्थिति अंतर्मुहूर्त मात्र होय छे, अने तेटला हूंका समयमां पण आत्मा पोताने लागेला पुद्गलोमा इष्टपणे फेरफार करे छे. आ समुद्घातनी उत्पत्ति वैक्रियशरीरनामकर्मथी थाय छे. आ संबंधेना विशेष ज्ञान माटे (भ० ख० १, पृ० २६२ नुं १ अंकवाळु गुजराती टिप्पण गवेषq.) अने तेथी पण वधारे ज्ञानार्थीओए तेमां जणावेलां स्थळो जोवा:-अनु० १. प्र. छायाः-वज्राणाम्, वैडुर्याणाम्, लोहिताक्षाणाम्, मसारगल्लानाम्, हंसगर्भाणाम्, पुलकानाम्, सौगन्धिकानाम्, ज्योतीरसानाम्, अङ्कानाम्, अजनानाम्, रत्नानाम्, जातरूपाणाम्, अञ्जनपुलकानाम्, स्फटिकानाम् इतिः-अनु० १. आ पाठने मळतो पाठ श्रीरायपसेणी-राजप्रश्नीय-नामना बीजा उपांगमा सूर्याभ देवना अधिकारमा (क. आ. पृ० २९ मां) छे. २. श्रीप्रज्ञापना-पनवणाजी-उपांगनो टीका गत पाठ अने तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे:-अनु० Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३:-उद्देशक ?. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. नकाणे कडेला खंखेरी नाखवानां पुद्गलो जूदां जूदां छे तेथी परस्पर विरुद्धता केम न आवे ? समा०-ए बन्ने वातो जूदी जूदी छे माटे कोइ पण समाधान. नातिनी विरुद्धतानो अवकाश नथी. कारण के प्रज्ञापना सूत्रनी टीकामां जे हकीकत कही छे ते, समुद्घात शब्दनुं समर्थन करवा अनाभोगिक (अजाजता नारा) वैक्रियशरीरनामकर्मनां पुद्गलोना निर्जरणने आधीने कही छे. ['अहासुहुमे 'त्ति ] सारवाळां पुद्गलोर्नु [ 'परियाएइ 'त्ति ] ग्रहण करे छे; अर्थात दंडना निसर्ग द्वारा ग्रहण करेल पुद्गलोने सर्व प्रकारे ले छे. ['दोचं पि'त्ति] इच्छेल रूपोने बनाववा सारु बीजी वार पण समुद्घात करे छे. अने, देसी भिति। अनेक रूपोने बनाववा समर्थ छे. ['केवलकप्पं 'ति] केवल–पूरेपूरो, कल्प-पोतानुं कार्य करवाने शक्तिमान: केवलकल्प. अवकल्प-पोतानं कार्य करवाने पूरेपूरो शक्तिमान् ; अथवा केवलकल्प-केवलज्ञाननी जेवो संपूर्ण, अथवा केवलकल्प-संपूर्ण. [ 'आइन्नं'] साह अनेक शब्दो सरखा अर्थवाळा छे अने अहीं 'अत्यंत भरावो' जणाय ते माटे तेनो प्रयोग कर्यो छे. ['अदुत्तरं च णं' ति] आवधं जे कप छे ते, सामर्थ्यना अतिशयर्नु वर्णन छे-सामर्थ्यना गौरवनुं सूचक छे. [ 'विसए 'त्ति ] वैक्रियशक्तिनो विषय छे-बैक्रियशक्तिथी विकुर्वणा-विषय बह वह तो एटलां रूपो बनावी शकाय छे. आटलं कहेवाथी ते देव, एटलां वधां रूपो बनावी शकतो पण होय' एवं जणाय माटे कडे के के. विसयमेत्तेत्ति एटलां वां रूपो करवां ए विषयमात्र छे, अर्थात् एटलां वर्धा रूपो बनी शकतां नथी, पण ते क्रिया विनानु विषयमात्र छे, एम बडए 'त्ति] का छे. [ संपत्तीए'त्ति ] पूर्वे कहेली वातने करवा वडे. ['विकुबिसु वा'] विकुर्वणा करी, विकुर्वे छे अने विकर्वशे. नवरं संखेजा दीव-समुद्दत्ति ] विशेष ए के, संख्येय द्वीप अने संख्येय समुद्रोने. सामानिक देवो करतां लोकपालो वगेरे ओछी ऋद्धिवाळा होय छे माटे तेओनी वैक्रिय करवानी शक्ति पण ओछी होय छे. एथी ज पूर्व प्रमाणे कयुं छे. ["अपुट्ठवागरणं 'ति] जे, पूछ्या सिवाय कहेवामां आवे ते अपृष्टव्याकरण. वैरोचनराज बलि. ८. प्र तएणं से तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे दोघेणं गोय- ८. प्र०—त्यार पछी ते त्रीजा गौतम वायुभूति अनगार, बीजा मेणं अग्गिभइणामेणं अणगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे, गौतम अग्निभूति नामना अनगारनी साथे ज्यां श्रमण भगवंत महावीर जाव-पजुवासमाणे एवं वयासीः-जइ णं भंते ! चमरे असुरिंदे, छे त्यां आव्या; अने त्यां तेओनी पर्युपासना करता आ प्रमाणे बोल्या के:-हे भगवन् ! जो असुरेंद्र, असुरराज चमर एवी मोटी असुरराया एवं महिडीए, जाव-एवतियं च णं पभू वि ऋद्धिवाळो छे अने यावत्-एटलुं विकुर्वण करी शके छे, तो हे पली णं भंते ! वइरोयणिंदे, वइरोयणराया केमहिड्डीए, जाव भगवन् ! वैरोचनेंद्र, वैरोचनराज बैलि, केवी मोटी ऋद्धिवाळो छ, केवइयं च णं पभू विकुवित्तए ? यावत्-ते केटलुं विकुर्वण करवा समर्थ छे ? अशान बहिनिष्काष्य शर, निस्मृज्य इमां क्रियशरीरनामकर्मोनाय समुद्यातवडे समवय "वैक्रियसमदघातगतः पुनर्जीवः प्रदेशान् बहिनिष्काष्य शरीरविष्कम्भ- “वैक्रिय समुद्घातने करतो जीव पुद्गलोने बहार काढी, तेनो पहोळाबाहल्यमानम् , आयामतः संख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निःसृजति, निस्सृज्य इमां शरीर प्रमाणे अने लंबाइमा' संख्येय योजनो प्रमाणे दंड रचे छे. अयथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्वच्छातयति, तथा च रचीने वैक्रियशरीरनामकर्मोना स्थूल पुद्गलोनो पूर्व प्रमाणे नाश करे छे. उक्तमः-"वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई ते प्रमाणे कयुं छे के:-" वैक्रिय समुद्घातवडे समवहत थाय छे, समवहत दंड निसिरइ, निसिरेत्ता अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइः"-(क. आ० पृ० थइने संख्येय योजनो सुधी दंडने रचे छे, रचीने यथावादर पुद्गलोर्नु परि७९३-९४). शाटन करे छे:-(क. आ० पृ. ७९३-९४). उपरोक्त स्थळ जेवू श्रीस्थानांग, अंग विजार्नु (क० आ० पृ. ४६९ नु) “वेउब्वियसमुग्याए” परनुं श्रीअभयदेवसूरिनु अक्षरशः तेवू विवरण ए बीजुं स्थळ छे, तेथी ते माटे पण उक्त समाधान जाणवु:-अनु० १. आ क्रियापदोमां 'विकुर्व' एवो अखंड धातु छे अने ते मात्र आगममां प्रसिद्ध छे. 'विकुर्वणा' वगेरे प्रयोगो, ए धातु होवार्नु पुष्ट प्रमाण छे:--श्रीअभय १. मूलच्छायाः-ततः स तृतीयो गौतमो वायुभूतिरनगारो द्वितीयेन गौतमेन अग्निभूतिनाना अनगारेण सार्थ येनैव श्रमणो भगवान् महावीरः, यावत्पर्युपासीन एवम् अवादीत:-यदि भगवन् ! चमरः असुरेन्द्रः, असुरराज एवंमहर्द्धिकः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम्, बलिर्भगवन् ! वैरोचनेन्द्रः, बैरोचनराजः किंमहर्दिकः, यावत्-कियच प्रभुर्विकुर्वितुम् ?-अनु० १. वायुभूतिः-काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवंत महावीरना त्रीजा गणधर हता. तेओनो जन्म खाति नक्षत्रमां, मगध देशना गोबर गामना विष श्रीवसुभूतिनां पत्नी पृथिवी देवीनी कुखे थयो हतो, अर्थात्-तेओ पहेला तथा बीजा गणधरना सहोदर भाई हता. तेओ वेद संबंधेनी चौदे विद्याना निधान हता, पण 'शुं आ देह ज आत्मा छे ?' एवा संशयालु हता. तेओनो शिष्यगण पांचसे (५००) नो हतो. एक समये तेओ आर्य श्रीसोमिल ब्राह्मणना अपापाना यज्ञस्थळे पोताना भाइओ तथा शिष्यो बगेरे साथे आव्या हता. त्यांथी, पराजित थएला पोताना भाइओने मूकाववा साटोप शिष्यो साथे भनवंत महावीर पासे आव्या; पण अहीं भगवंत द्वारा पोतानो संशय नष्ट थवाथी तेमना शिष्य थया. आ समये तेमनुं वय बेंतालीस (४२) वर्षनें हतुं. त्यार वाद दश (१०) वर्ष छद्मस्थ अने अढार (१८) वर्ष केवळीपणे हता. तेओर्नु पूरूं आयुष्य (४२४१०x१८७०) सित्तेर वर्षर्नु शं. वेओनुं निर्वाण राजगृहमा प्रभुनी हैयातीए थयुं हतुं. आ संबंधेना विशेष ज्ञान माटे ( अभि• रा०पृ० ८१६-८१८.) 'विशेषावश्यक भाष्य' (य. ग्रं० पृ. ७७५-८३४.) 'आवश्यक सूत्र' (आ० स० पृ. २४५-२५७.) अने (भ० खं०-१. पृ. १६ टि. १ लु) वगेरे स्थळो गोषवा; तथा श्रीसमवाय नामना चोथा अंगमा श्रीवायुभूतिनी त्रीजा गणधर तरीकेनी ओळख आ प्रमाणे छे: समणस्स भगवओ महावीरस्स एकारस गणा, एकारस गणहरा होत्था, “श्रमण भगवंत महावीरने अगियार गणो अने अगियार गणधरो हता. तंबहाः-इंदभूई, भग्गिभूई, 'वायुभूई" xx (क. आ० पृ० ३१). जेम केः-इंद्रभूति, अग्निभूति, 'वायुभूति' वगेरे" (क• आ• पृ. ३१.):-अनु. २. नैरोचनेन्द्रः-(बलि)-(वि-विशिष्टम् , रोचनम्-दीपनं येषां ते वैरोचनाः, तेषाम् इन्द्रः.) दाक्षिणाय असुरकुमारो करतां जेओनी कांति अधिक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १० ८. उ०-गोयमा ! बली णं वइरोयणिंदे, वइरोयणराया महि- ८. उ०—हे गौतम ! वैरोचनेंद्र, वैरोचनराज बलि मोटी डीए, जाव-महाणुभागे; से णं तत्थ तीसाए भवणावाससयसह- ऋद्धिवाळो छे. यावत्-महानुभाग छे; वळी ते त्यां त्रीस लाख स्साणं, सवीए सामाणियसाहस्सीणं, सेसं जहा चमरस्स तहा बलिस्स भवनोनो, तथा साठ हजार सामनिकोनो अधिपति छे. जेम चमर विणेयव्यं, नयरं-सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवं भाणियव्वं, सेसं तं ' के संबंधे हकीकत कही तेम बलि विषे पण जाणवू. विशेष ए के, 'ते चेव गिरवसेसं णेयव्वं, नवरं नाणत्तं जाणियव्वं भवणेहिं, सामाण पोतानी विकुर्वण शक्तिथी आखा जंबुद्वीप करतां वधारे भागमा पोतानां रूपो भरी शके छे' बाकी बधुं ते ज प्रमाणे कहेवू. विशेष एहिं य. ए के, भवनो अने सामानिको विषे जूदाई जाणवी. सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति तचे गोयमे वायुभूई जाव-विहरइ. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे; एम कही यावत्-त्रीजा गौतम वायुभूति अनगार विहरे छे. छोय तेओ वैरोचनो, अने तेओनो इंद्र ते वैरोचनेंद्र. तेमना निवास, उपपात पर्वतो, पांच लडायक सैन्यो, पांच अग्रमहिषीओ-नो उपयोगी अधिकार आ प्रमाणे छे: “कहिं णं भंते ! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा! जंबुद्दीवे "हे भगवन् । उत्तर दिशाना असुरकुमारो देवो कये स्थळे वसे छे ? दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए xx एत्थ हे गौतम ! जंबूद्वीप नामना द्वीपना मंदर-मेरू-पर्वतनी उत्तरे आ रत्नप्रभा णं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं, देवीण य तीसं भवणावाससयसहस्सा पृथिवीमां (दाक्षिणात्य असुरकुमारोनां भवनोनी उत्तरे) अहीं, उत्तर भवंति त्ति अक्खायं. ते णं भवणा बाहिं वहा, अंतो चउरंसा; सेसं जहा दिशाना असुरकुमार देवो अने देवीओना त्रीस लाख (३०,००,०००) दाहिणिल्लाणं जाव-विहरति. बली इत्थ वइरोयणिंदे, वइरोयणराया परिवसइ भवनो कयां छे. तेओनो आकार बहारथी गोळ अने अंदरथी चोखंडो छे. काले, महानीलसरीसे, जाव-पभासेमाणे. से णं तत्थ तीसाए भवणावास- बाकीनो 'यावत्-विहरति' सुधीनो बधो वर्णक दाक्षिणात्य असुरकुमारोनी सयसहस्साणं, सहीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं समान छे. अहीं वैरोचन इंद्र, वैरोचन राजा वली पण वसे छे. ते वर्णे लोगपालाणं, पंचण्डं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिण्डं परिसाणं, सत्तण्हं काळो, महानीलमणीना जेवो, यावत्-प्रकाशतो छे. त्यां ते बलि राजा त्रीस अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहीवईणं, चउण्हं सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, लाख भवनोना, साठ हजार सामानिकोना, तेत्रीस त्रायस्त्रिंशोना, चारअण्णेसिं च बहूर्ण उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाण य, देवीण य आहेवचं, सोम, यम, वरुण, कुबेर-लोकपालोना, सपरिवार पांच-शुंभा, निशुंभा, पोरेवच्चं, जाव-कुब्वेमाणे विहरतिः” (प्र. क० आ० पृ० १०३). रंभा, निरंभा, मदना-अप्रमहिषीओना, त्रण पर्षदोना, सात-पदाति, घोडेखार, हस्ती, रथ, पाडा, नाट्य, गांधर्व,-अनीकोना; सात-महाद्रुम, महासौदाम, माल्यंकर, महालोहिताक्ष, किंपुरुष, महारिष्ट, गीतयशासेनापतिओना; बे लाख, चालीस हजार आत्मरक्षकोना अने बीजा घणा उत्तर दिशावासी असुरकुमार देवो, तथा देवीओना आधिपत्यने, पुरपतिपणाने, यावत्-करतो विहरे छे:” (क. आ० पृ. १०३). "बलिस्स वइरोयणिंदस्स, वइरोयणरन्नो रुयगिंदे उप्पायपव्वए मूले दस "वैरोचन इंद्र, वैरोचन राज बलीनो उपपात पर्वत रुचकेंद्र मूळमां दस सो बावीसे जोयणसए विक्खंभेणं पन्नत्ते, बलिस्स णं वइरोयणरन्नो सोमस्स एवं बावीस योजन पहोळो कहेलो छे, वैरोचनराज बलीना सोमनो उपपात पर्वत चेव,जहा चमरस्स लोगपालाणं तं चेव वलिस्स वि"(स्था०क०आ पृ०५५०). एवो ज छे. जे प्रमाणे चमरेंद्रना लोकपालोना उपपात पर्वतो कह्या तेम बलीना लोकपालोना पण जाणवा.” (स्था० क० आ• पृ० ५५०). "बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स, वइरोयणरन्नो पंच संगामिया अणिया, पंच "वैरोचन इंद्र, वैरोचन राज बलीने पांच संग्राम करनारा सैन्यो अने संगामिया अणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहाः-पायत्ताणिए, जाव-रह गए. पांच सांग्रामिक सेनाध्यक्षो कहां छः, ते आप्रमाणे:-पायदा, यावत्-रथानीक. महदुमे पायत्ताणियाहिवई, महासोदामे आसराया पीढाणियाहिवई, मा- पायदा-पाळा-सैन्यनो अधिपति महाद्रुम, पीठानीकनो नायक अश्वराज महाकरे हत्थिराया कुंजराणियाहिवई, महालोहिअक्ने महिसाणियाहिवई, किंपु. सौदाम, हस्ती सैन्यनो नायक हस्तिराज माल्यंकर, महीष सेनानो खामी महारिसे रहाणियाहिवईः" (स्था० क० आ० पृ० ३५७). लोहिताक्ष अने रथानीकनो अग्रगामी किंपुरुष छेः" (स्था० क०आ० पृ०३५७). "बलिप्स णं वइरोयर्णिदस्स, वइरोयणरन्नो पंच अग्गमहिसीओ पण्णताओ, "वैरोचन इंद्र, वैरोचन राज बलीने पांच अग्रमहिषीओ कही छे, ते आ तं जहाः-सुंभा, णिसुंभा, रंभा, पिरंभा, मयणा." (स्था०क०आ०पृ०३५७). प्रमाणे:-शुंभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा अने मदना."(स्था०क आ पृ०३५७). आ पांचे अग्रमहिषीओना पूर्व भवथी आरंभी चालु जीवनना अंत सुधीना वर्णक माटे 'ज्ञाताधर्मकथा' (अं०६,श्रुत०२)ना बीजा वर्गमां पांच महिषीओने नामे पांच अध्ययनो छेः___“xx बलिस्स वइरोयाणिंदस्स, वइरोयणरण्णो अग्गमहिसीणं बीइए "वैरोचन इंद्र, वैरोचन राज बलीनी अग्रमहिषीओनो बीजो वर्ग कह्यो वग्गे." ( क. आ० पृ० १४७९.)xxx “जइ णं भंते । समणेणं भग- छे." (क. आ० पृ. १४७९.) "हे भगवन् ! श्रमण भगवंत महावया महावीरेणं जाव-संपत्तेणं, दोचस्स वग्गस्स उवक्खेवओ? एवं जाव- वीरे, यावत्-संप्राप्ते, बीजा वर्गनो केवी रीतीए प्रारंभ कर्यों छे ? ए प्रमाणे संपत्तेणं दो चस्स वग्गस्स प. अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहाः-सुभा, णिसुंभा, निश्चित छ के, श्रमण भगवंत महावीरे, यावत्-संप्राप्ते बीजा वर्गना पांच रंभा, णिरभार मदणा."-(क० आ० पृ० १५११-१३). अध्ययनो कह्यां छे, ते आ प्रमाणेः-शुंभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा अने मदना." ( क.आ० पृ०१.११-१३). तेज बली इंद्रनो पांच सभाओ आदि बाकीनो बधो वर्णक लगभग चमरेंद्रनी तुल्य छे. तथा आ बन्ने इंद्रो अने बधा असुरकुमारो रक्त वस्त्रोने धारे छः-अनु० १. मूलच्छश्याः-गौतम ! बलिवैरोचनेन्द्रः, वैरोचनराजो महर्द्धिकः, यावत्-महानुभागः; स तत्र त्रिंशतां भवनावासशतसहस्राणाम् , षष्टीनां सामानिकसहस्रीणाम, शेषं यथा चमरस्य तथा बलेरपि नेतव्यम्, नवरम्-'सातिरेक केवलकल्पं जम्बूद्वीपम्' (इति) भणितव्यम्, शेषं तुबैटनिरवशेषं नेतव्यम्, नवरा-नानात्वं ज्ञातव्यं भुवनैः, सामानिकैश्च. तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् ! इति तृतीयो गौतमो वायुभूतिर्यावत्-विहरति Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · शतक ३. - उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामंप्रणीत भगवती सूत्र २३ ४. ' पइरोयणिंदे 'ति दाक्षिणात्याऽनुरकुमारेभ्यः सकाशाद् विशिष्टं रोचनं दीपनं येषामस्ति ते वैरोचना सौदीच्याऽसुराः, तेषु मध्ये इन्द्रः परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः साइरेगे केवल 'ति औदीप्येन्द्रत्वेन बलेर्विशिष्टतराद् इति. ४. [ ‘वइरोयणिंदे’त्ति ] दाक्षिणात्य असुरकुमारो करतां जेओनुं विरोचन ( कांति) वधारे छे ते वैरोचन, अर्थात् जेओ दाक्षिणात्य असुरकुमारो करतां विशेष प्रकारे दीपे छे ते वैरोचन-उत्तर दिशामा रहेनारा असुरकुमारो, ते वैरोचन असुरकुमारोनो ने इंद्र ते वैरोचनेन्द्र [ 'साइरेमं केवलकणं 'ति । वैरोचनेंद्र, उत्तर दिशामां वसता अमुरोनो इंद्र छे माठे चमरेंद्र करता ते इंद्रनीलन्धि विशेष होय छे. J گے ९. प्र० - मंते चि भगवं दोथे गोयमे अन्गिभूई अणगारे समर्ण भगवे महावीरें पंदर, नमसह, नर्मसित्ता एवं वयासी: जह णं ते! थली परोयणिंदे, वइरोयणराया एमहिडीए, जाव भंते एवइयं च णं पभू चिउब्लिचए; घरणे णं मंते ! नानकुमारिदे, नागकुमारराया केमहिडीए, जाव - केवइयं च णं पभू विकुव्वित्तए ? १. मूलच्छायाः भगवन् इति भगवान् द्वितीयो गौतमोऽग्निभूतिः अनवार श्रम भगवन्तं महावीरं मन्दते, नमस्यति, नमस्विरया एनम् अवादी:यदि भगवन् । बति वैरोचनेन्द्रः, वैरोचनराज एवं बाबद एतावच प्रभुर्विवितुम् परमो भगवन्नागकुमारेन्द्रः, नागकुमारराजः किमहार्दिक नागराज धरणेंद्र. यावत्-कियच्च प्रभुर्विकुर्वितुम् ? - अनु० १. नागकुमारोगा आ रीतिए छे: "कहिं भंते दाहिना मागकुमारदेवा परिवति गोषमा जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए, पुढवीए असी उत्तरजोयणसय सहस्सबाहल्लाए उवरिं एवं जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेट्ठा एवं जोयमसहस्वमिता, मन्छे अट्टत्तरिजोवणसयसहस्ते एत्थ में दाहि जिल्ला नागकुमाराणं देवाणं चोयालीसं भवणावाससय सहस्सा हवंति ति अक्खायं. ते णं भवणा बाहिं वहा, जाव- पडिरूवा. एत्थ णं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं पणत्तापयता ठाना गण्णत्ता तिसु वि लोगस्स असेनाए भागे एत्व बहने दाहिमा के नामकुमारा देवा परिवर्धति महिडीया, जाविति भरणे एथ नागकुमारिंदे, नागकुमाररावा परिवति मद्दि डीए, जाव- पभासेमाणे. से णं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससय सहस्साणं, छ सामाणियसाहसी, तायत्तीसाए तामत्तीसवाणं, उई लोगपाळा छहं अग्गमहिसीनं सपरिवाराणं, विन्दं परिसार्ण, सत्सहं अनिदानं सत्त अणिमाहव चवीसाए आयरक्लदेव साहस्तीर्ण, अमेशि व बहू दाहि जिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं य, देवीणं य आहेवचं, पोरेवचं, जाव-कुब्वे माणे विहरति " ( प्र० क० आ० पृ० १०५ -६).. आ० पृ० १०५ -६ ). , 588 " धरणस्स णं नागिंदस्स, नागकुमाररण्णो पंच संगामिआ अणीभ, पच संगामिआ अणीयाहिवई पण्णता, तं जहा:- पायत्ताणीए, जाव-रहाबीए मंद पायताणीवाहिवई जसोयरे आसराया पीढाणीयादिवई, सुई संहत्यिराया कुंजराणीयाहिवई, नीलकंठे महिसाणीयाहिवई, आणंदे राणीवादिवई" ( स्था० ० ० ० २५०). · धरना निवास, सोकपालोना उपपात पतो, पांच सहायक सैम्यो, पांच सेनापति, अममहिषीओ आदिनो वर्णक << 'धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स, नागकुमाररनो धरणप्पने उप्पायपव्वए दस जोगणसगाई उई उत्ते दस गाउवसगाई उम्देहेणं, मूळे दस जीव सयाई विक्खंभेणं. धरणस्स णं जाव-नागकुमाररनो कालवालस्स महारनो कालप्पभे उप्पायपव्वए दस जोयणसयाई उङ्कं उच्चत्तेणं एवं चेव, एवं जाव, संखवालस्स, एवं भूयाणंदस्स वि, एवं लोगपालाणं वि से जहा धरणस्स” x x ( स्था० क० आ० पृ० ५५० ). धरणेंद्रना उपपात पर्वतनी प्रमाणे छेः x x ” ( स्था० क० आ० पू० ५५० ). ९. प्र०र बाद ते बीजा गौतम अग्निभूति अनगार श्रमण भगवंत महावीरने यदि छे, नमे छे, नमीने तेओ आ प्रमाणे बोल्या के: है भगवन् ! जो वैरोचन इंद्र, वैरोचन राज बलि एवी मोटी दिवालो के अने यावत्-एटलं विकुर्वण करवा शक्त छे तो नागकुमारनो इंद्र अने नागकुमारनो राजा धरण केवी मोटी ऋद्धिवाको छे अने यावत्-ते केटलं विकुर्वण करी शके छे ? धरणसामकुमारिदस्त, पामकुमाररण्यो छ अगामहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहाः- अल्ला, सका, सतेरा, सोदामिणी, इंदा, घणविज्जुया," ( स्था० क० आ० पृ० ४१८ ). "हे भगवन् दाक्षिणा नागकुमार देवो कवे स्थळे बसे ? हे गौतम! जंबुद्वीप नामना द्वीपना मंदर पर्वतनी दक्षिणे आ एक लाख, ऐसी हजार योजनना बाहल्यवाळी रत्नप्रभा पृथिवीनो उपरनो एक हजार योजन प्रमाण भाग अवग्राही अने नीचेनो एक हजार योजन भाग व बाकी र मध्यवा एक लाख, अयोतेर हजार योजन जेटला भागमा. अहीं दाक्षिणात्य नागकुमार देवोना चुमालीस लाख भवनो कह्यां छे. ते भवनो बहारथी गोळ, यावत् प्रतिरूप के अहीं जे स्थानमा दाक्षिणा पापर्यास नागकुमारोना भवनो का छे, ते स्थान लोकना अवश्य भागमा छे; तेमां पण मह दिंक नागकुमार देवो से छे, बावत् विहरे छे. अने अहीं मामकुमार नागकुमार राजा धरणेंद मोटी ऋद्धिबाळो, यावत् - प्रकाशतो परिवसे छे. ते परवेंद्र सां पुमालीस लाख भवनोना, छ हजार सामानिकोना, क्षेत्रीय प्रावत्रिंशोना, चार लोकपालोना, परिवार सहित छ अग्रमहिषीभोना, प्रण सभाओना सात प्रकारना सैन्योना, सात सेनापतिओोना, चोवीस हजार आत्मरक्षक देवोना अने बीजा पण घणा दाक्षिणात्य नागकुमार देवो तथा देवीओना आधिपत्यने, पालकपणाने यावत्- करतो विहेरे छेः " ( प्र० क० , "नागकुमार इंद्र, नागकुमार राजा धरणेंद्रनो उपपात पर्वत 'घरणप्रभ' उचाइमां एक हजार योजन अने पेरायमा एक दजार गाड डे. पण वेना मूळ भागनो घेरावो एक हजार योजननो छे. अने यावत्-नागकुमारराज धरणेंद्रना लोकपाल कालवाल महाराजनो 'कालप्रभ' नामनो उपपात पर्वत उंचाइमां एक हजार योजन छे, यावत्-पूर्व प्रमाणे छे. एम ज लोकपाल संखपाळ, तथा भूतानंद अने यावद-बधा छोकपाखोना उपपात पर्वतो 2 “नागेंद्र, नागकुमारराज परपने पांच युद्ध करनारों सैम्यो अने पांच लडनारा सेनापतिओ कलां छे, ते आ प्रमाणे :- पायदळ सैन्य यावत्रथानीक पदाति सेनानो नायक भद्रसेन पोडेखार सेनानी नेता अपरान यशोधर, हस्ती सेनानो खामी हस्तीराज सुदर्शन, महिष सेनानो सेनापति नीलकंठ अने रथानीकनो अधिपति आनंद छे.” (स्था० क० आ० पृ० ३५७). " नागकुमारेंद्र, नागकुमारराज धरणेंइने छ अप महिषीओ कही छे, ते आ छे:- अल्ला, शक्रा, सतेरा, सौदामिनी, इंद्रा अने धनविद्युता. " ( स्था० क० आ० पृ० ४१८ ): - अनु० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक :-उद्देशक ?९. उ०—गोया ! धरणे णं नागकुमारिंदे, नागकुमारराया ९. उ०—हे गौतम ! ते नागकुमारोनो इंद्र, नागकुमारोनो महिडीए, जाव-से णं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं, राजा धरण मोटी ऋद्धिवाळो छ, अने ते यावत्-त्यां चमाछण्हं सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोग- ळास लाख भवनावासो उपर, छ हजार सामानिक देवो उपर, तेत्रीस त्रायस्त्रिंशक देवो उपर, चार लोकपालो उपर, परीपालाणं, छण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं वारवाळी छ पट्टराणीओ उपर, त्रण सभाओ उपर, सात सेना उपर, अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउव्वीसाए आयरक्खदेवसाह सात सेनाधिपति उपर अने चोवीस हजार आत्मरक्षक देवो, तथा स्सीणं, अनेसिं च जाव-विहरइ. एवतियं च णं पभू विउवित्तए, , अपए, बीजाओ उपर खामिपणुं भोगवतो यावत्-विहरे छे. तथा तेनी से जहा नाम ए जुवई जुवाणे जाव-पभू केवलकप्पं जंबूदीवं, विकुर्वणा शक्ति आटली छे:-जेम कोइ जुवान पुरुष जुवान स्त्रीना जाव-तिरियं संखेज्जे दीव-समुद्दे बहूहिँ नागकुमारीहिं जाव-विउ- हाथने पकडे, अर्थात् परस्पर काकडा वाळेला होवाथी जेम ते बन्ने व्विस्सति वा, सामाणिया, तायत्तीस-लोगपाला, अग्गमहिसीओ य. व्यक्तिओ संलग्न जणाय छे तेम ते यावत्-पोताना रूपोवडे-घणां तहेव जहा चमरस्स, नवरं-संखेजे दीवे समुद्दे भाणियव्वे, एवं जाव- नागकुमार अने घणी नागकुमारीओवड-आखा थणियकमारा, वाणमंतरा, जोईसिया वि, नवरं-दाहिणिल्ले सव्वे तिरछे संख्येय द्वीप समुद्रोने भरी शके छे. पण यावत्-ते तेवं अग्गिभूई पुच्छइ, उत्तरिल्ले सव्वे वायुभूई पुच्छइ. कोइ दिवस करशे नहीं. तेना सामानिको, त्रायस्त्रिंशक देवो, लोकपालो अने अग्रमहिषीओ विषे चमरनी पेठे कहे. विशेष ए के, तेओनी विकुर्वणा शक्ति माटे संख्येय द्वीप, समुद्रो कहेवा. अने ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो, वानत्यंतरो तथा ज्योतिषिको पण जाणवा. विशेष ए के, दक्षिण दिशाना बधा इंद्रो विषे अग्निभूति पूछे छे अने उत्तर दिशाना बधा इंद्रो विषे वायुभूति पूछे छे. ५ एवं जाव-थणियकुमार'त्ति धरणप्रकरणमिव भूतानन्दादि-महाघोषान्तभवनपतीन्द्रप्रकरणानि अध्येयानि, तेषु च इन्द्रनामानि तयाथाऽनसारतो वाच्यानि-“चमरे धरणे तह वेणुदेव-हरिकंत-अग्गिसीहे य, पुणे जलकंते वि य अमिय-विलंबे (विलेबे ) य घोसे य." एते दक्षिणनिकायेन्द्राः, इतरे तु “बलि-भूयाणंदे वणुदालि-हरिस्सहे अग्गिमाणव-वसिढे, जलप्पभे अमियवाहणे पहंजणे महाघोसे." एतेषां च भवनसंख्याः-'चउत्तीसा, चउचत्ता' इत्यादि पूर्वोक्तगाथाद्वयादवसेया. सामानिकात्मरक्षसंख्या सट्टी खलु छच्च सहस्साओ असुरवज्जाणं, सामाणियाओ एए चउग्गुणा आयरक्खा उ' अग्रमहिष्यस्तु प्रत्येकं धरणादीनां षट्, सूत्राभिलापस्तु धरणसूत्रवत् कार्यः. 'वाणवंतर-जोइसिया वित्ति व्यन्तरेन्द्रा अपि धरणेन्द्रवत् सपरिवारा वाच्याः, एतेषु च प्रतिनिकायं दक्षिणोत्तरभेदेन द्वौ द्वौ इन्द्रौ स्याताम् , तद्यथाः-"काले य महाकाले सुरूव-पडिरूव-पुण्णभद्दे य, अमरवइमाणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे." किंनरकिंपरिसे खल सप्परिसे चेव तह महापुरिसे, अइकाय-महाकाए गीयरई चेव गीयजसे." एतेषाम् , ज्योतिष्काणां च त्रायस्त्रिंशाः, लोकपालाश्च न सन्ति, इति ते न वाच्याः, सामानिकास्तु चतुःसहस्रसंख्याः, एतच्चतुर्गुणाश्चात्मरक्षाः, अग्रमहिष्यश्चतस्र इति, एतेषु च सर्वेष्वपि दाक्षिणात्यान् इन्द्रान् , आदित्यं च अग्निभूतिः पृच्छति, उदीच्यान्, चन्द्रं च वायुभूतिः. तत्र च दाक्षिणात्येषु आदित्ये च केवलकल्पं जम्बूद्वीपं संस्तृतमित्यादि. औदीच्येषु, चन्द्रे च सातिरेकं जम्बूद्वीपमित्यादि च वाच्यम् , यच्चेहाधिकृतवाचनायामसूचितमपि व्याख्यातम् , तद्वाचनान्तरमुपजीव्य इति भावनीयमिति. तत्र कालेन्द्रसूत्राभिलाप एवम्:-"कोले णं भंते । पिसायइंदे, पिसायराया केमहिडीए, केवइयं च णं पभू विउवित्तए ? गोयमा ! कालेणं महिडीए,से णं तत्थ असंखेज्जाणं नगरावाससयसहस्साणं, चउण्हं सामाणिय १. मूलच्छायाः- गौतम ! धरणो नागकुमारेन्द्रः, नागकुमारराजो महर्द्धिकः, यावत्-स तत्र चतुश्चत्वारिंशतां भवनावासशतसहस्राणाम् , षण्णां सामानिकसहस्रीणाम् , त्रयस्त्रिंशतः त्रायस्त्रिंशकानाम्, चतुर्णा लोकपालानाम् , षण्णाम् अग्रमहिषीणां सपरिवाराणाम्, तिसृणां पर्षदाम् , सप्तानाम् अनीकानाम् , सप्तानाम् अनीकाधिपतीनाम् , चतुर्विशतेः आत्मरक्षदेवसहस्रीणाम् , अन्येषां च यावत्-विहरति. एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम्, तद्यथा नाम युवतिं युवा यावत्-प्रभुर्केवलकल्पं जम्बूद्वीपम् , यावत्-तिर्यक् संख्येयान् द्वीप-समुद्रान् बहीभिर्नागकुमारीभिः यावत्-विकुर्विष्यन्ति वा, सामानिकाः, त्रायत्रिंशाः, लोकपालाः, अप्रमहिष्यश्च तथैव यथा चमरस्य, नवरम्-'संख्येयान् द्वीपान्, समुद्रान् भणितव्यम् , एवं यावत्-स्वनितकुमाराः, वानव्यन्तराः, ज्योतिष्का अपि, नवरम्-दाक्षिणात्यान् सर्वान् अग्निभूतिः पृच्छति, उत्तरीयान् सर्वान् वायुभूतिः पृच्छतिः-अनु० ___१. प्र० छायाः-चमरो धरणस्तथा वेणुदेवो हरिकान्तोऽग्निशिखश्च, पूर्णो जलकान्तोऽपि च अमितो विलम्बः (विलेबः) च घोषश्च. २.बलिभूतानन्दो वेणुदालिः हरिस्सहोऽग्निमाणवो वशिष्टः, जलप्रभोऽमितवाहनः प्रभजनो महाघोषः. ३. चतुःषष्टिः षष्टिः खलु षट्-च सहख्योऽसुरवर्जानाम्, सामानिका एते चतुर्गुणा आत्मरक्षास्तु. ४. कालश्च महाकालः सुरूपः प्रतिरूपः पूर्णभद्रश्च, अमरपतिमाणिभद्रो भीमश्च तथा महाभीमश्च. ५. कालो भगवन् । पिशाचेन्द्रः, पिशाचराजः किंमहर्द्धिकः, कियञ्च प्रभुर्विकुर्वितुम् ? गौतम ! कालो महर्द्धिकः, स तत्र असंख्येयानां नगरावासशतसहस्राणाम् , चतुर्णा सामानिकसाहस्रीणाम् , षोडशाम् आत्मरक्षदेवसाहस्रीणाम् , चतसृणाम् अप्रमहिषीणां सपरिवाराणाम् , अन्येषां च बहूनां पिशाचानां देवानाम् , देवीनां चाऽऽधिपत्यम् , यावत्-विहरति. एवं महर्द्धिकः, एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम् , यावत्-केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपम् , यावत्-तिर्यक् संख्येयान् द्वीपसमुद्रान:-अनु. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. पसी सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गमाहिसीणं सपरिवाराणं, अण्णेसिं च बहणं पिसायाणं देवाणं, देवीणं य आहेवणं, जाव-विहरइ; एवं महिड्डीए, एवइयं च णं पभू विउवित्तए जाव-केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं जाव-तिरियं संखेजे दीवसमुद्दे”. इत्यादि एवं जाव-थणियकुमार'त्ति ] धरणना प्रकरणनी पेठे भूतानंदथी मांडी महाघोष सुधीना भवनपतिना इंद्रो संबंधी प्रकरणो कहेवा. तेमां धरण आदि जदोन नामो आ गाथाने अनुसारे कहेवानां छ:-"चमेर, धरण, वेणुदेव, हरिकांत, अग्निशिख, पूर्ण, जलकांत, अमित, विलंब-(विलेब) परिवार. ने घोष." ए (दशे) बधा दक्षिणनिकायना इंद्रो छे. अने “ बैलि, भूतानंद, वेणुदालि, हरिस्सह, अग्निमाणव, वशिष्ट, जलप्रम, अमितवाहन, प्रभंजन अने महाँघोष." ए (दशे) बधा उत्तरनिकायना इंद्रो छे. एओनी भवन संख्या 'चउत्तीसा चउचत्ता' इत्यादि आगळ डेली बेगाथाओथी जाणवी. तथा एओना सामानिकोनी अने अंगरक्षकोनी संख्या आ प्रमाणे छ:-"चमरेंद्रनों चोसठ हजार सामानिको छे, बलि इंद्रना साठ हजार सामानिको छे अने असुर सिवाय बीजा बधाना छ हजार सामानिको छे. जेटला सामानिको छे एनाथी चार गणा दरेकने अंगरक्षको धरण वगेरे दरेकने छ छ पट्टराणीओ छे. पट्टराणी विषेना सूत्रनो अमिलाप तो धरणसूत्रनी पेठे करवो. [ 'वाणवंतर-जोइसिआ वित्ति ] धरणेंद्रनी पटे व्यंतरेंद्रो पण परिवारसहित कहेवा. ए व्यंतरोमां प्रत्येक निकाये-एक दक्षिणनो अने एक उत्तरनो-एम बेबे इंद्रो होय छे. ते आ प्रमाणे:--"काल अने महाकाल, सुरूप अने प्रतिरूप, पूर्णभद्र अने अमरपति-(इंद्र) मणिभद्र, भीम अने महाभीम, किंनर अने किंपुरुष, सत्पुरुष अने महापुरुष, अतिकाय अने महाकाय, गीतरति अने गीतर्यश." ए व्यंतरोने अने ज्योतिपिकोने त्रायस्त्रिंशो तथा लोकपालो नथी होता, माटे ते अहीं न कहेवा. तेओने चार हजार ( ४०००) सामानिक देवो होय छे, अने एनाथी चारगणा (१६०००) आत्मरक्षक देवो होय छे. दरेकने चार चार पट्टराणीओ होय छे. ए बधाओमा दक्षिणना इंद्रो संबंधे अने सूर्य संबंधे अग्निभूति पूछे छे; तथा उत्तरना इंद्रो संबंधे अने चंद्र संबंधे वायुभूति पूछे छे. तेमां दक्षिणना देवो अने सूर्य संपूर्ण जंबूद्वीपने पोतानां रूपोथी भरी शके छे अने उत्तरना देवो तथा चंद्र आखा जंबूद्वीप करतां वधारे भागने पोतानां रूपोथी भरी शके छे, एम कहे. आ वाचनामां जे वातनी सूचना करवामां आवी नथी ते वातनी पण टीका-व्याख्या करवामां आवी छे तो ते भाग, बीजी वाचनानो बीजी वाचा आश्रय लईने कह्यो छे एम समजवं. तेमां कालेंद्रना सूत्रनो अभिलाप आ प्रमाणे छ:-"काले णं भंते ! पिसायइंदे, पिसायराया केमहिड्डीए, (इत्यादि अने) केवइअंच णं पभू विउवित्तए ? गोयमा ! काले णं महिड्डीए, (इत्यादि) से णं तत्थ असंखेज्जाणं नगरावाससयसहस्साणं, चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं, सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, अन्नसिं च बहूणं पिसायाणं देवाणं, देवीण य आहेवचं, जाव-विहरइ. एवं महिड्डीए. (इत्यादि) एवइयं च णं पभू विउवित्तए, जाव-केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं जाव-तिरियं संखेजे दीव-समुद्दे" इत्यादि. देवराज शकेंद्र. १०. प्र०-भंते !'त्ति भगवं दोचे गोयमे अग्गिभई अणगारे १०. प्र०—'हे भगवन् ! एम कही भगवान् गौतम बीजा समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ,नमंसित्ता एवं वयासी:-जइ णं अग्निभूति अनगार श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे अने भंते ! जोइसिंदे, जोइसराया एमहिडीए, जाव-एवइयं च णं पभू नमीने तेओ आ प्रमाणे बोल्या केः-हे भगवन् ! जो ज्योतिषिविकन्वित्तए, सके णं भंते । देविंदे, देवराया केमहिडीए, जाव- केंद्र, ज्योतिषिक राजा एवी मोटी ऋद्धिवाळो छे अने यावत्केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ? एटलं विकुर्वण करी शके छे, तो देवेंद्र, देवराज शक्र केवी मोटी ऋद्धिवाळो छे अने यावत्-केटलुं विकुर्वण करी शके छ ? ६, ५, ५). 4.०० १०८ मां ) छ. प्रभंजन, महाघोष, अलारण, हरि, वेणुदेव, अमिशित १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रमा चोथा अध्यायना छट्ठा सूत्रमा आ नामो आवी रीते छे:-चमर, धरण, हरि, वेणुदेव, अग्निशिख, वेलंब, सुघोष, जलकांत, पूर्ण, अने अमित. २. तथा बलि, भूतानंद, हरिसह, वेणुदारी, अग्निमाणव, प्रभंजन, महाघोष, जलप्रभ, वशिष्ट अने अमितवाहन. ३. आ बन्ने गाथाओ अंसुरादिना इंद्रोनी गणनामां (प्र. सू. क. आ० पृ. १०८ मां) छे. ४. आ गाथा पण प्रज्ञापना सूचना ए ज स्थळे छे, अने आ त्रणे गाथाओनो अनुक्रम त्यां आ. रीतिए छे. (६,७,५). ५. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रमा चोथा अध्यायना छटा सूत्रमा आ नामो आवी रीते छे:-किंनर-किंपुरुष, सत्पुरुष-महापुरुष, अतिकाय-महाकाय, गीतरति-गीतयश, पूर्णभद्र-मणिभद्र, भीम-महाभीम, प्रतिरूप-अतिरूप अने काल-महाकाल. ६. आ बे संग्रह गाथाओ व्यतरोनी वर्णनाना अधिकारमा (प्र. सू० मू. क. आ० पृ. ९१ मां) समनताए जोवामां आवे छे. ७. आने समान पाठ-प्र. क. आ. पृ० ११२ मां) ए स्थळे पिशाचंद्रना चालु अधिकारमा छः-अनु. . १. मूलच्छायाः-भगवन् ! इति, भगवान् द्वितीयो गौतमोऽग्निभूतिरनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, नमस्यित्वा एवम् अवादीत:अदि. भगवन् । ज्योतिषेन्द्रः, ज्योतिषराजः, एवंमहर्द्धिकः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम्, शक्रो भगवन् । देवेन्द्रः, देवराजः किंमहर्द्धिकः, यावत्-कियच प्रभुर्विनुर्वितुम् ?–अनु० १. शकेंद्रः-ए सौधर्म देवलोकनो इंद्र छे. सौधर्म देवलोक जैन गणनाए एटले उंचे छे:-जंबूद्वीपना मेरु पर्वतनी पासेनी समतला भूमिथी ८०० 'योजनो उपर सूर्यदेवनी राजधानी, एथी ८० योजनो उपर चंद्र देवनी राजधानी, एथी २० योजनना अंतरमा ग्रहो, नक्षत्रो, अने ताराओनां विमानों; अने तेथी असंख्य योजनो उपर सौधर्म देवलोक छ तेनी स्थिति घनोदधिने आधारे छे, त्यांना विमानोनी संख्या बत्रीस लाखनी छे. (जी० सू० क. भा० पृ. ९२६ थी तेनो वर्णक आवो छे.)"तेओमांना आवलिकामा रहेलां' विमानो-गोळ, त्रिकोण ने समचोरस छे; त्यारे बीजांओ नानां आकरना, वर्ण, काळा, नीलां, लोहितो, हालिदो अने धोळा; गंधे-सुगंधो, अने स्पर्शे-अत्यंत कोमळो छे. त्यांना वतनीओने वैमानिक देवो कहे छे. तेओने भवधारणाय न उत्तरवकिय वे शरीरो होय छे, तेमांनुं भवधारणीयः-आंमळना असंख्याता भागथी यावत्-सात हाथर्नु, कांतिपूर्ण अने छए संघयणी, साते "तुला, तथा वन-आभूषणो विनानुं प्राकृत, दिव्य शोभाए शोभतुं होय छे. अने' उत्तरवैक्रियः-आंगळना असंख्यातमा भागथी यावत्-लाख योजनो मनारस, क.नाना संस्थानोवाळू, कनकवर्णी, सुगंधी ने कोमळ होय छे. तेओनां श्वासोच्छ्वासमा अने आहारमा इट, कांत अने प्रिय अणुओ हाय. तआन-केवळ तेजोलेश्याः सम्यक, मिथ्या ने सम्यग्मिथ्या भावोः बे. केत्रण ज्ञानोः त्रण अज्ञानो; साकार अने निराकार उपयोगी; वेदना, • पृ० बानो उपर सौधर्मपाजनो उपर चंद्र देवनाए एटले उंचे को Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. १०. उ०—गोयो ! सक्के णं देविंदे, देवराया महिड्डीए, १०, उ०हे गौतम ! देवेंद्र, देवराज शक्र मोटी ऋद्धिजाव-महाणुभागे, से णं बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं, चउ- वाळो छे अने यावत् मोटो प्रभावशाळी छे. ते त्यां बत्रीस लाख रासीए सामाणियसाहस्सीणं, जाव-चउण्हं चउरासीणं आयरक्ख- विमानावासो उपर, चोरासी हजार सामानिक देवो उपर, यावत्साहस्सीणं, अन्नसिं जाव-विहरइ, एवंमहिडीए, जाव-एवतियं च चार चोरासी हजार-(३,३६०००) आत्मरक्षक देवो उपर अने णं पभू विउवित्तए, एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियव्वं, नवरं-दो बीजाओ उपर सत्ताधीशपणुं भोगवतो यावत्-विहरे छे. अर्थात् कषाय, मारणांतिक, वैक्रिय तथा तेजः-समुद्घातो; एक पल्योपमथी वे सागरोपम प्रमाणे आयुष्य वगेरे होय छे. तेओने मध्ये 'सौधर्मावतंसक' नामना अवतंसकमां शकेंद्र निवसे छे. तेनो प्रासाद अत्यंत उन्नत, सोहामणो अने सुखनां दिव्य साधनोथी परिपूर्ण छे. शकेंद्रनो व्युत्पत्तिए अर्थ आवो छ:-"शकलंट्-शक्तौ' ए शक्ति-सामर्थ्य-अर्थवाळा धातु उपरथी 'शक्नोति इति शक्रः' एवी व्युत्पत्तिए 'शक' शब्द उपजे छे. तथा 'इदु-परमैश्वर्ये' एथी 'इन्दनाद् इन्द्रः' एवी व्युत्पत्तिए 'इंद्र' शब्द बने छे. एथीः-असुरेंद्रो, देवो, तथा सामानिको वगेरे करता परम सामर्थ्य अने ऐश्वर्यवाळो ते शकेंद्र." शकेंद्र माटे श्रीपन्नवणा (उ०४) मा आवो उल्लेख छः "xx सके इत्थ देविंदे, देवराया परिवसइ वनपाणी,पुरंदरे, सयकऊ, “xx देवेंद्र, देवराज 'शक' अहीं वसे छे. ते-वज्रने धारनार, पुरंदरसहस्सक्खे, मघवं, पाकसासणे, दाहिणलोगाहिवई, बत्तीसविमाणावाससय- (शत्रुना पुरने दारनार ), शतक्रतु-( कार्तिक शेठवाळा पोताना पूर्व भवे सहस्साहिवई, एरावणवाहणे, सुरिंदे, अरयंबरवत्थधरे, आलइयमालमउडे, शत-सो, ऋतु-प्रतिमाओ-ने वहनार), सहस्राक्ष-(पांचसे मंत्रिओ होवाथी नवहेमचारु-चित्त-चंचलकुंडलविलिहिजमाणगंडे, महिड्डीए, जाव-पभासेमाणे. हजार आंखोवाळो), पाकशासन-(पाक नामना शत्रुने शिक्षा करनार), सेणं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं, चउरासीए सामाणियसाह- दक्षिण(अर्ध)लोकनो स्वामी, बत्रीस लाख विमानोनो अधिपति, ऐरावण स्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तिसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, सत्तण्हं अणियाणं, वाहनवाळो, देवोनो इंद्र छे. वळी ते निर्मळ दिव्य वस्त्रोने पहेरे छे, मनोहर सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं; अन्नोर्स देव संबंधी माळा तथा मुकुटने धारे छे, नवा सुवर्णना सुंदर, जडाऊ, चालता च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य, देवीण य आहेवच्चं, कुंडलोवडे गंडस्थलने आलेखे छे; मोटी ऋद्धिवाळो, यावत्-प्रभासतो छे. पोरेवचं कुब्वेमाणे, जाव-विहरइ." ( क. आ० पृ० १२०-१). वळी ते त्यांना बत्रीस लाख विमानोना, चोरासी हजार सामानिकोना, तेत्रीस त्रायस्त्रिंशोना, चार-सोम, यम, वरुण, कुबेर-लोकपालोना, सात सैन्योना, सात सेनापतिओना, त्रण लाख, छत्रीस हजार आत्मरक्षक देवोना अने बीजा अनेक सौधर्मवासी देवो तथा देवीओना अधिपतिपणाने, पुरपतिपणाने यावत्-करतो (सुखे) विहरे छे. (क० आ० पृ० १२०-१).ए सिवायना बीजां पण अंगादिनां घणां स्थळो तेना वर्णक माटे रोकाएला छे. तेमांनां थोडां उपयोगी स्थळोनो सार आ प्रमाणे छ:-ते अयोनिज छे.. तेनुं आयुः बे सागरोपमर्नु छे. तने घणां परिवारवाळी पद्मा, शिवा, सेवा, अंजू, अमला, अप्सरा, नवमिका अने रोहिणी नामे आठ पट्टराणीओ-इंद्राणीओ-छे. तेनी सुधर्मा नगरी चार दिग्नायकोना हाथ नीचे चार विभागे वहेंचाएली छे. तेना नामादि आ प्रमाणे छे: दिशा. लोकपाल. नगरी. मुख्यविमान, आयुः सोम. सोमा. सांध्यप्रभ, एक पल्योपम. दक्षिण. यम. यमा. वरश्रेष्ठ. | एक पल्योपम त्रिभाग अधिक. पश्चिम. वरुण. वारुणी. खयंज्वल. कांइक ऊणां वे पत्योपम. उत्तर. वैश्रमण. । वैश्रमणी. वल्गु. वे पल्योपम. तेनुं सैन्य सात विभागे वहेंचाएलं छ; तेमांनुं पांच प्रकार लडायक छे. ते पांचे सैन्योना तथा तेना नायकोना नामो अनुक्रमे आ प्रमाणे छः-पदातिपायदळ, पीठानीक-घोडेखार, गजसैन्य, वृषभ-बळद-सैन्य अने रथानीक. हरिणेगमेषी, (अश्वराज ) वायु, ऐरावण, (वृषभराज ) दामास्ति अने माढर. बाकीना बे-नाट्यानीक, गांधर्वाऽनीक-सैन्यो अने तेना बन्ने-श्वेत, तुंबर-नायको मोज शोख माटे छे. ते असुरराज चमरेंद्र वगरे करतां स्थिति प्रभाव, सुख, कांति, लेश्या (शुद्धि ), इंद्रियो ( नी तृप्तिमा) तथा अवधि-( अमूक हद सुधीनी वस्तुओने जणावनारा)-ज्ञानमां वधतो छे. अने गति (नीचेनी), शरीर, परिग्रह तथा अभिमानमां ऊणपवाळो छे. तेनुं क्रियालाघव अद्भूत प्रकारचं छेः-कोइ एक माणसना मस्तकने छेदी, यावत्-चूरेचूरा करी पार्छ पूर्व प्रमाणे गोठवी आपे, तो पण ते माणस दुःखना लेशमात्रने पण न वेदे. वर्षा वर्षाववी ए तेने आधीन छे, ज्यारे शकेंद्र वर्षा कराववा इच्छे सारे अंतर सभावासीओने आदेशे, तेओ मध्यम सभावासीओने, तेओ बाह्य सभाना सभ्योने, (तेनी मुख्य सभा त्रण विभागे वहेंचाएली छे.) तेओ ते कार्यने करनाराओना अधिपतिओने अने यावत्-तेओ पोताना किंकर वर्गोंने आदेश करे छे. अने ते रीतिए इंद्रनी आज्ञा पूर्ण थाय छे. कोइक वार देवोनो अने असुरोनो, अथवा तेओना नायकोनो महा संग्राम थाय छे. तेमां देवो तृण, काष्ठ, पत्थर वगरे जे जे वस्तुओने ग्रहे छे ते ते हथियाररूपे थाय छे सारे असुरोने ते ते वस्तुओ शस्त्ररूपे थती नथी, पण तेओनां शनी हम्मेशाने माटे विकुर्वेलां ज होय छे, तेनो उपयोग करे छः-अनु० १. मूलच्छायाः-गौतम ! शक्रो देवेन्द्रः, देवराजो महर्द्धिकः, यावत्-महानुभागः, स द्वात्रिंशतो विमानावासशतसहस्राणाम् , चतुरशीतेः सामानिकसाहस्रीणाम् , यावत्-चतुर्णा चतुरशीत्याः आत्मरक्षसाहस्रीणाम्, अन्येषां यावत्-विहरति, एवंमहर्द्धिकः; यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम्, एवं यथैव चमरस्य तथैव भणितव्यम् , नवरम्-द्वौः-अनु० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेतक-३:-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, अवसेसं तं चेच; एस णं गोयमा ! सक्कस्स शक इंद्र एवी मोटी ऋद्धिवाळो छे. ( ते शक्र केटलुं विकुर्वण करी देविंदस्स, देवरण्णो इमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते णं बुइए, नो शके छे ? तो कहे छे के,) तेनी विकुर्वणा शक्ति संबंधे चमरनी पेठे चेवणं संपत्तीए विकुंब्दिसु वा, विकुव्वंति वा, विकुन्धिस्संति वा. कहेवू. विशेष ए के, ते एटलां बर्षा रूपो विकुर्वी शके छे, के जे रूपोथी आखा बे जंबुद्वीप भराइ शके छे. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे जाणवू. वळी हे गौतम ! देवेंद्र, देवराज शक्रनो मात्र ए विषय छे, विषयमात्र छ अर्थात् पूर्वे जणावेली विकुर्वणा शक्ति ते मात्र शक्तिरूप ज छे; पण संप्राप्तिवडे तेणे तेम विकुयु नथी, विकुर्वतो नथी अने विकुर्वशे पण नहीं; अर्थात् पूर्वे बतावेली विकुर्वणा शक्तिनी अजमायश नथी. .११. प्र०-जइ णं भंते ! सक्के देविंदे, देवराया एवंमहि- ११. प्र०-हे भगवन् ! जो देवेंद्र, देवराज शक्र एवी मोटी डीए, जाव-एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, एवं खलु देवाणुप्पि- ऋद्धिवाळो छे अने यावत्-एटलुं विकुर्वण करवा शक्त छे तो ख ए नामं अणगारे पगइभद्दए, जाव-विणीए, भावे भद्र अने यावत्-विनीत, तथा निरंतर छह छहना तपस्कर्मपूर्वक छळछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहपडि- आत्माने भावतो, पूरेपूरां आठ वर्ष सुधी साधुपणुं पाळीने मासिक पुण्णाइं अट्ठ संवच्छराइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संले- संलेखनावडे आत्माने संयोजीने तथा साठ टंक सुधीनुं अनशन हणाए अत्ताणं झूसेत्ता, सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आलो- पाळीने, आलोचन तथा प्रतिक्रमण करीने, समाधि पामीने, काळइयपडिक्कते, समाहिपत्ते, कालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे मासे काळ करीने आप देवानुप्रियनो शिष्य तिष्यक नामनो अनसयांस विमाणसि, उववायसभाए देवसयाणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगु- गार, सौधर्म कल्पमा पोताना विमानमां, उपपात सभाना देवशलस्स असंखेजड़भागमेत्ताए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो यनीयमां-देवनी पथारीमा, देवदूष्य-देववस्त्र-थी ढंकाएल अने सामाणियदेवत्ताए उववन्नो, तए णं से तीसए देवे अहुणोववन्नमेत्ते आंगळना असंख्य भागमात्र जेटली अवगाहनामा (ते तिष्यक अनसमाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ,तं जहा:-आहारपज- गार) देवेंद्र, देवराजना सामानिकपणे उत्पन्न थयो छे. पछी ताजो त्तीए, सरीर-इंदिय-आण-पाणपज्जत्तीए, भासा-मणपज्जत्तीए; तए उत्पन्न थएलो ते तिष्यक देव पांच प्रकारनी पर्याप्तिवडे पर्याप्तपणाने णं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गयं समाणं सामा- पामे छे अर्थात् ते आहारपर्याप्तिवडे, शरीरपर्याप्तिवडे, इंद्रियपर्याणियपरिसोववन्नया देवा करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए तिवडे, आनप्राणपर्याप्तिवडे अने भाषामनःपर्याप्तिवडे पोताना शरी अंजलिं कटु जएणं, विजएणं वद्धाविति, बद्धावित्ता एवं वयासी:- रने संपूर्णपणे रचे छे. ज्यारे ते तिष्यक देव पूर्वोक्त पांच पर्याप्ति'अहो !! णं देवाणुप्पियेहिं दिव्वा देविड़ी, दिव्वा देवज्जई, दिव्वे वडे पोताना शरीरनी बनावट पूरेपूरी करी ले छे त्यारे सामानिकदेवाणुभावे लद्धे, पत्ते, अभिसमण्णागए; जारिसिया णं देवाणुप्पि- समितिना देवो तेनी पासे आवी, हाथ जोडवापूर्वक दशे नखने येहि दिव्या देविड़ी, दिव्वा देवज्जई, दिव्वे देवाणुभावे लद्धे, पत्ते, भेगा करी माथे अडाडी, माथे अंजली करीने जय अने विजयथी पण्णागए तारिसिया णं सक्केण वि देविदेण, देवरण्णा दिव्वा वधावे छे अने पछी आ प्रमाणे कहे छे केः-अहो!! आप देवादेविड़ी,. जाव-अभिसमण्णागया जारिसिया णं सक्केणं देविदेणं, नुप्रिये दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकांति, अने दिव्य देवप्रभाव लब्ध देवरण्णा दिव्वा देविड़ी, जाव-अभिसमण्णागया, तारिसिया णं को छे, प्राप्त कर्यो छे अने सामे आण्यो छे. वळी जेवी दिव्य देवदेवाणुप्पियेहिं वि दिव्या देविड़ी, जाव-अभिसमण्णागया: से णं ऋद्धि, दिव्य देवकांति, दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिये लब्ध कर्यो भंते ! तीसए देवे केमहिडीए, जाव-केवतियं च णं पभ विक- छे, प्राप्त कर्यो छे अने सामे आण्यो छे तेवी दिव्य देववित्तए ? ऋद्धि, दिव्य देवकांति देवेंद्र, देवराज शके पण यावत्-सामी १. मूलच्छायाः-केवलकल्पौ जम्बूद्वीपौ द्वीपौ, अवशेष तचैव; एष गौतम ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य अयम् एतद्रूपो विषयः, विषयमात्रम् उदितम् , नो चैव संप्राप्त्या व्यकुर्विषुर्वा, विकुर्वन्ति वा, विकुर्विष्यन्ति बा. यदि भगवन् ! शक्रो देवेन्द्रः, देवराजः एवंमहर्द्धिकः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुवितुम्, एवं खलु देवाऽनुप्रियाणाम् अन्तेवासी तिष्यको नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः, यावत्-विनीतः षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपस्कर्मणा आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूणोनि अष्ट संवत्सराणि श्रामण्यपर्यायं पालयिला मासिक्या संलेखनया आत्मानं जूषित्वा, षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा, आलोचितप्रतिकान्तः, समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे खस्मिन् विमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदूष्याऽन्तरितोऽङ्गुलस्य असंख्येयभागमात्रायाम् अवगाहनायां शक्रस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य सामानिकदेवतया उत्पन्नः, ततः स तिष्यको देवोऽधुनोपपन्नमात्रः सन् पञ्च विधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं गच्छति, तद्यथाः-आहारपर्याप्या, शरीर-इन्द्रिय-आन-प्राणपर्याप्या, भाषा-मनःपर्याप्त्या. ततस्तं तिष्यकं देवं पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावंगतं सन्तं सामानिकपणेदुपपनका देवाः करतलपरिगृहीतदशनखं शीर्षाऽऽवर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जयेन, विजयेन वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा एवम् अवादिषुः-अहो । देवानुप्रियः दिव्या देवद्धिः, दिव्या देवद्युतिः, दिव्यो देवानुभावो लब्धः, प्राप्तः, अभिसमन्वागतः; यादृशिकी देवानुप्रियैः दिव्या देवद्धिः, दिव्या देवद्युतिः, दिव्यो देवाऽनुभावा लब्धः, प्राप्तः, अभिसमन्वागतः तादृशिकी शक्रेणाऽपि देवेन्द्रेण, देवराजेन दिव्या देवर्द्धिः, यावत्-अभिसमन्वागता, यादृशिकी शक्रेण देवेन्द्रेण, देवराजन दिव्या देवर्द्धिः, यावत्-अभिसमन्वागता ताशिकी देवानुप्रियैरपि दिव्या देवर्द्धिः, यावत्-अभिसमन्वागता; स भगवन् । तिष्यको देवः किंमहद्धिकः, यावत्-कियच प्रभुर्विकुर्वितुम्?-अनु० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. आणी छे; अने जेवी दिव्य देवऋद्धि देवेंद्र, देवराज शके लब्ध करी छे, प्राप्त करी छे, यावत्-सामी आणी छे तेवी दिव्य देवऋद्धि आप, देवानप्रिये यावत-सामी आणी छे: तो हे भगवन् ! ते तिष्यक देव केवी मोटी ऋद्धिवाळो छ भने यावत्केटलुं विकुर्वण करी शके छ ? ११. उ०-गोयमौ ! महिडीए, जाव-महाणभागे; से णं ११. उ०-हे गौतम ! ते तिष्यक देव मोटी ऋद्धिवाळो छ तत्थ सयस्स विमाणस्स, चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं, चउण्हं अग्ग- अने यावत्-मोटा प्रभावबाळो छे. ते त्यां पोताना विमान उपर.चार महिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं. सत्तण्ड अणियाणं. सत्तण्हं हजार सामानिक देवो उपर, परिवारवाळी चार पट्टराणीओ उपर अणियाहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिं च त्रण सभाओ उपर, सात सेना उपर, सात सेनाधिपति उपर. सोळ हजार आत्मरक्षक देवो उपर अने बीजा घणां वैमानिक देवो तथा बहूणं वेमाणियाणं देवाणं, देवीणं य जाव-विहरइ; एवंमहिड्डीए, . देवीओ उपर सत्ताधीशपणुं भोगवतो, यावत्-विहरे छे. ते एवी मोटी जाव-एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, से जहा णामए जुवई जुवाणे ऋद्धिवाळो छे अने यावत्-ते आटलुं विकुर्वण करी शके छ:-जेम कोई - हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा; जहेव सकस्स तहेव जाव-एस णं गोयमा ! जवान पुरुष, जुवान स्त्रीने हाथे काकडा वाळी पकडे, अर्थात् ते बन्ने तीसयस्स देवस्स अयमेयारूवे विसये, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं जेम संलग्न जेवा लागे छे तेम ते बीजां रूपो करी शके छे; ते संपत्तीए विकुविसु वा, विकुव्वंति वा, विकुव्विस्संति वा. यावत्-शक्रनी जेटली विकुर्वणा शक्तिवाळो छे. वळी हे गौतम ! तिष्यक देवनी जे विकुर्वणा शक्ति कही छे ते तेनो विषय छे, विषयमात्र छे, पण तेणे संप्राप्तिवडे विकुयु नथी, विकुर्वतो नथी अने विकुर्वशे पण नहीं. १२. प्र०—जइ णं भंते ! तीसए देवे महिड्डीए, जाव-एव- १२ प्र०—हे भगवन् ! जो तिष्यक देव एटली मोटी ऋद्धिइयं च णं प विकुवित्तए, सकस्स गं भंते ! देविंदस्स. देवरण्णो वाळो छे अने यावत्-एटलुं बधुं विकुर्वण करी शके छ तो देवेंद्र, अवसेसा सामाणिया देवा कंमहिड्डीया ? देवराज शक्रना बाकीना-बीजा बधा सामानिक देवो केवी मोटी ऋद्धिवाळा छे ? ( इत्यादि पूछq.) १२. उ०—तहेव सव्वं, जाव-एस णं गोयमा ! सकस्स १२. उ०—हे गौतम ! ते ज प्रमाणे बधुं जाणवू, यावत्देविंदस्स, देवरण्णो एगमेगस्स सामाणियस्स देवस्स इमेयारूवे हे गौतम ! देवेंद्र, देवराज शक्रना प्रत्येक सामानिक देवनो ए विसये, विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकविंस वा, विक- विषय छे, विषयमात्र छे, पण संप्राप्तिथी कोइए विकुव्यु नथी, व्वंति वा, विकुन्निस्संति वा तायत्तीसा य, लोगपाल-अग्गम- विकुवता न Cam विकुर्वतो नथी अने विकुर्वशे पण नहीं. शक्रना त्रायस्त्रिंशक देवो विषे, लोकपालो विषे अने पट्टराणीओ विषे चमरनी पेठे कहेवू. हिसी णं जहेव चमरस्स, नवरं-दो केवलकप्पे जंबूदीचे दीवे, अण्णं विशेष ए के, तेओनी विकुर्वणा शक्ति आखा बे जंबुद्वीप जेटली कहेवी तं चेव. अने बाकी बीजुं बधुं ते ज प्रमाणे कहेg. सेवं भंते !, संवे भंते ! त्ति दोचे गोयमे जाव-विहरइ. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही बीजा गौतम यावत्-विहार करे छे. १. मूलच्छायाः-गौतम! महर्द्धिकः, यावत्-महानुभागः, स तत्र खकस्य विमानस्य, चतुर्णा सामानिकसाहस्रीणाम् , चतसृणाम् अप्रमहिषीणां सपरिवाराणाम् , तिसूणां पर्षदाम् , सप्तानाम् अनीकानाम् , सप्तानाम् अनीकाऽधिपतीनाम् , षोडशीनाम् आत्मरक्षदेवसाहस्रीणाम् , अन्येषां च बहूनां वैमानिकानां देवानाम् , देवीनां च यावत्-विहरति एवंमहर्द्धिकः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम् , तद्यथा नाम युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गृह्णीयात् , यथैव शक्रस्य तथैव यावत्-एष गौतम! तिष्यकस्य देवस्य अयम् एतद्रूपो विषयः, विषयमात्रम् उदितम् , नो चैव संप्राप्त्या व्यकुर्विषुर्वा, विकुर्वन्ति वा. विकुर्विष्यन्ति वा. यदि भगवन् ! तिष्यको देवो महर्द्धिकः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम् , शक्रस्य भगवन् ! देवेन्द्रस्य, देवराजस्य अवशेषाः सामानिका देवाः किंमहर्द्धिकाः ? तथैव सर्वम् , यावत्-एष गौतम | शक्रस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य एकैकस्य, सामानिकस्य देवस्य अयम् एतद्रूपो विषयः, विषयमात्रम् उदितम् , नो चैव संप्राप्त्या व्यकुर्विपुर्वा, विकुर्वन्ति वा, विकुर्विष्यन्ति वा; त्रायस्त्रिंशाथ, लोकपाला-ऽप्रमहिष्यो यथैव चमरस्य, नवरम्-द्वौ केवलकल्पौ जम्बूद्वीपौ द्वीपौ, अन्यत् तश्चैव. तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् ! इति द्वितीयो गौतमो यावत्-विहरतिः-अनु० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारकाम-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, Pe ६. शक्रस्य प्रकरणे 'जाव-चउण्हं चउरासीणं' इत्यत्र यावत्-करणादिदं दृश्यम्:-" अढण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, चउण्हं लोंगपालाणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं" ति. शक्रस्य विकुर्वणा उक्ता, अथ तत्सामानिकानां सा व्या. तत्र च स्वप्रतीतं सामानिकविशेषमाश्रित्य तच्चरितानुवादतस्तां प्रश्नयन् आहः-‘एवं खलु' इत्यादि, एवमिति वक्ष्यमाणन्यायन सामानिकदेवतयोत्पन्न इति योगः. 'तीसए' त्ति तिष्यकाभिधानः, 'सयंसि' त्ति खके विमाने 'पंचविहाए पंजचीए' ति पर्याप्तिः-आहारशरीरादीनामभिनिर्वृत्तिः, सा चान्यत्र षोढा उक्ता; इह तु पञ्चधाः-भाषा-मनःपर्याप्त्योर्बहुश्रुताऽभिमतेन केनाऽपि कारणेन पकत्वविवक्षणात. लद्धे' त्ति जन्मान्तरे तदुपार्जनापेक्षया, 'पत्ते' ति प्राप्ता देवभवाऽपेक्षया, 'अभिसमनागए' त्ति तद्भोगाऽपेक्षया, 'जहेव चमरस्स' त्ति अनेन लोकपाला-ऽप्रमहिषीणां तिरियं संखेजे दीवसमुद्दे' त्ति वाच्यम् इति सूचितम्. . ६. शक्रना प्रकरणमा ['जाव-चउण्हं चउरासीणं'] ए ठेकाणे जे यावत्-शब्द मूक्यो छे तेथी आम जाणवु:-अट्ठण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, चउण्हं लोगपालाणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं"ति. आगळ शक्रनी विकुर्वणा कही छे अने हवे तेना सामानिक देवोनी विकर्वणा कहेवी ए प्रसंगप्राप्त छे. तो हवे पूछनार पुरुष पोताना ओळखिता एक कोइ सामानिकने आश्रीने तेना चरितानुवादपूर्वक तेनी विकर्वणा संबंधे प्रश्न करतां कहे छे केः-[एवं खलु' इत्यादि.] 'जे रीति हमणां कहेवानी छे ते रीतिवडे सामानिक देवपणे उत्पन्न थएलो' ए प्रमाणे संबंध करवो. ['तीसए 'त्ति] तिष्यक नामनो, ['सयंसि 'त्ति] पोताना विमानमां, ['पंचविहाए पजत्तीए'त्ति] पांच प्रकारनी पर्याप्तिवडे, पर्याप्ति एटले आहार तथा शरीर वगेरेनी पूरेपूरी बनावट. शं०-बीजे स्थळे पर्याप्तिना छ प्रकार कया छे तो आ स्थळे तेना पांच प्रकार केम कया ? समा०बहश्रत पुरुषोने इष्ट कोइ पण कारणथी भाषापर्याप्ति अने मनःपर्याप्ति ए बन्ने जूदी जूदी नथी गणी, किंतु ते बन्नेने एक जगणी छे माटे अहीं पांच पर्याप्तिओ कही छे. 'लद्धे 'त्ति] बीजा जन्ममां तेनु उपार्जन कर्यु छे माटे मेळवी-लाभी-छे. ['पत्ते' त्ति] देव भवनी अपेक्षाए प्राप्त करेली, अभिसमन्नागए'त्ति] प्राप्त करेल भोगादिकना अनुभववडे सामे आणली. ['जहेव चमरस्स'] आ सूत्रथी एम सूचब्यु के, लोकपाल अने पट्टराणीओनी विकुर्वणा शक्ति माटे [ 'तिरियं संखेजे दीव-समुद्दे 'त्ति] एम कहे. १. समस्त विश्वरूप रंग उपरना आ बे पात्रो-आत्मा, शरीर-देह-मुख्य छे. तेमा- पहेलु पात्र अजर, अमर, अविनाशी आदि गुणोवाल छबीजं नाशवंत-रूपांतर पामनारूं-छे. तेनो विद्वानोए अर्थ आवो कर्यों छ:-"शीर्यते इति शरीरः, शुxईर शरीरः" जे, उत्पत्तिनी अनंतर शीर्ण-जीर्ण-थाय ते शरीर. शरीरनी आवी अवस्था विश्वने विदित छे. अने संसार, होवापणुं शरीरने आभारी छे. कारण के "शरीर छ त्यो संसार छे अने शरीर नथी त्या संसार पण नथी." आम छे, तो पण तेनी रचनाना संबंधे विद्वानोमां घणां मतो छ कोइ:-देहने पांच महाभूतोना -पृथिवी, पाणी, तेजः, वायु, आकाशना-अमूक प्रमाणना मेळाप मात्रथी रचातुं गणे छे. कोड:-पांच महाभूतो साथे ईश्वरी लीलाने पण कारणरूपे जणावे छः त्यारे जैनमहर्षिओ तेने कर्मों वडे बद्ध आत्मा तेवां प्रकारनो पुद्गलो द्वारा रचे छ एम जणावे छे. तेनुं पोषण अनुकूळ आहारवडे थाय छे. एटले आहारनो लोही, मांस, यावत्-शुक्रपणे परिणाम थाय छे, अने तेनो अंतिम विकास इंद्रियोरूपे थाय छे. आम थवामां कोइ:-शरीरनी एवा प्रकारनी यंत्ररचनाने ज मान आपे छे. तो बीजाओ ते माटे शक्ति विशेषना महत्त्वने स्वीकारे छे. सारे जैन महर्षिओ तेम थवामां खास एक पुद्गलजा शक्तिने खीकारे छे, अने तेने 'पर्याप्ति' कहें छे. ते आ रीतिए:-"परि आफूक्ति-पर्याप्तिः" बने छे. तेनो सामान्य अर्थ संपूर्ण निर्माण थाय छे, तो पण तेनो विशेष अर्थ तेओए आ प्रमाणे कर्यों छ:-"पुद्गलोपचयजः पुद्गलग्रहण-परिणमनहेतुः शक्तिविशेषः"-'पुदलोना समूहथी थनार, अने पुदलोने लेवामा तथा परिणामवामां हेतुभूत शक्ति विशेष ते 'पर्याप्ति' तेनी संख्या अहीं पांचनी छे. एटले:-भाषा, तथा मनःपर्याप्तिने भेगी गणेली छे. पण कर्मग्रंथ चोथामा ( भा. आ० पृ. ९६ मा) तेनी गणना छनी छे. ए गणना, अने तेना अर्थादि आ प्रमाणे छे:___“सा च विषयभेदात् षोढाः-आहारपर्याप्तिः, शरीरपर्याप्तिः, इन्द्रिय- “ते ( पर्याप्ति) विषयोना भेदवडे छ प्रकारनी छे:-आहारपर्याप्ति, पर्याप्तिः, उच्छ्वासपर्याप्तिः, भाषापर्याप्तिः, मनःपर्याप्तिश्च इति. तत्र यया शरीरपर्याप्ति, इंद्रियपर्याप्ति, उच्छ्वासपर्याप्ति,भाषापर्याप्ति अने मनःपर्याप्ति. बाह्यम् आहारम् आदाय खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्याप्तिः, यया जेना द्वारा बहारना आहारने लइने खल रसपणु पमाडाय ते आहारपर्याप्ति रसीभूतम् आहार रसा-ऽसगू-मांस-मेदो-ऽस्थि-मज्जा-शुक्रलक्षणसप्तधातुरूप- रसरूप थएलो आहार जेना वडे रसा, रक्त, मांस, चरबी, हाडकां, मजातया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः, यया धातुरूपतया परिणमितम् आहा- हाडकानी चरबी-रस, वीयरूप एम साते धातुपणु पमाडाय ते शरीरपर्याप्ति; रम् इन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपयोप्तिः, यया पुनरुवासप्रायोग्य- धातुपणु पामेलो आहार जेनाथी इंद्रियो रूपे थाय ते इंद्रियपर्याप्तिः बळी वर्गणादलिकम आदाय उच्छवासरूपतया परिणमय्य, आलम्ब्य च मुञ्चति जेनी सहायथी उच्छासने योग्य वर्गणा दलिको-अणुओना समदाय-ने ग्रही. सा उछ्वासपर्याप्तिः, यया तु भाषाप्रायोग्यवर्गणाद्रव्यं गृहीला भाषात्वेन उच्छ्वासरूपने पमाडी, धारीने मूकाय ते उछ्वासपर्याप्तिः तथा जेना बळपरिणमय्य, अवलम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः, यया पुनर्मनोयोग्यवर्ग- वडे भाषाना रूपने पामवाने योग्य वर्गणा-द्रव्यो ने लेवाय, अने तेने भाषाणादलिकं गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्य, अवलम्ब्य च मुञ्चति सा मनः- रूपे रची, धारी, भाषारूपे मूकाय-बोलाय-ते भाषापर्याप्ति; तेम ज जेनी पर्याप्तिः." सहाये मननी रचनाने योग्य अणुओना-वर्गणाओना-समूहने मनोभाव आपी, ते रूपे धारी, मुकाय ते मनःपर्याप्ति." आ बधी पर्याप्तिओ-पुद्गलोथी उपजनारी शकिओ-जड छे, तो पण आत्माने ते ते कार्योमां सहायिकाओ थइ देहतंत्रने निभावे छे. शरीरना-(इन्द्रियोना वधारारूप)-विकास प्रमाणे पर्याप्तिओनो पण विकास क्रमे होय छे; जेमः___“आहार-सरीरिं-दिय-पज्वत्ती आणपाण-भास-मणे, चत्तारि- पंच छप्पि य “आ छ पर्याप्तिओमाथी एकेंद्रियोने-पृथिवी, जळ, अग्नि, वायु, वनएगिदिय-विगल-संनीणं." स्पतिओना देहधारीओने, चार-आहार, शरीर, इन्द्रिय, उच्छ्वास-पर्याप्तिओ होय छे. (एटले तेओ आहार लइ तेने रसरूपे रची, पुनः तेने विशेष रूपांतरे पमाडी, यावत्-शरीररूपे घडे छे, तथा श्वासोच्छ्वासने धारे छे.) अने विकल -ऊणी-बे,त्रण, चार-इंद्रियोवाळाने एक भाषापर्याप्ति वधारे होय छे. (एटले तेओ तेओना करता बोलवा, काम वधारे करे छे.) अने संज्ञीओ-मनुष्यो. तिर्यचो, नारकीओ, असुरो, देवो ने पूर्व करता एक वधारे-छए-होय छे. (एटले पूर्वना देहधारीओ करता आ आत्माओ मान सज्ञानने वधारामां Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अराियचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १: . ईशानेंद्रनी विकुर्वणा. १३. प्र०—'भंते' !' त्ति, भगवं तचे गोयमे वायुभूई अण- १३. प्र.-'हे भगवन् !,' एम कही भगवान् त्रिजा गौतम गारे समणं भगवं जाव-एवं वदासी:-जइ णं भंते । सके देविंदे, वायुभूति अनगार श्रमण भगवंत महावीरने नमीने यावत्-आ प्रमाणे देवराया महिडीए, जाव-एवइयं च णं पभ विउवित्तए: ईसाणे गं बोल्या के:-हे भगवन् ! जो देवेंद्र, देवराज शक यावत्भंते ! देविंदे, देवराया केमहिड्डीए ? एवी मोटी ऋद्धिवाळो छे अने यावत्-एटलं विकुर्वण करी शके छे; तो हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज ईशान केवी मोटी ऋद्धिवाळो छे ? ( इत्यादि पूछq.) १३. उ०-एवं तहेव, नवरं-साहिए दो केवलकप्पे जंबूदीवे १३. उ०-हे गौतम ! ते संबंधे बधुं तेम ज जाणवं. दीवे; अवसेसं तहेव एवं. . विशेष ए के, तेनी विकुर्वणा शक्ति आखा बे जंबुद्वीप करतां पण वधारे जाणवी अने बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे ज जाणवू. . आहार, शरीरथी: अनुवन्तं यावत-एव एवं न आकारे छे. माकडालो, बाधिकधारे उंचा भने महा अवतंसानै धारे छे.) एम; योग्यता प्रमाणेनी बधी पर्याप्तिओने केटलाक आत्माओ पूरी करीने मरे छे, त्यारे केटलाको तेम करता नथी. एमांथी पहेलाओने 'पर्याप्तको,' अने बाकीनाओने 'अपर्याप्तको' कहे छे. 'अपर्याप्तको' वे प्रकारनां छे, जेम के: "xx ये पुनः खयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्तकाः, ते च “वळी जेओ पोताने योग्य पर्याप्तिओनी पूर्णतामा विकलो होय तेओं द्विधाः-लब्ध्या, करणैश्च. तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते, न पुनः 'अपर्याप्तको,' तेओ 'लब्धि' अने 'करण' बडे वे प्रकारना छे. तेमा जेओ खयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, ये पुनः कर- अपर्याप्तो ज थईने मरे, पण पोताने योग्य बधी पर्याप्तिओने न भोगवे तेओ णानि-शरीरे-न्द्रियादीनि-न तावद् निर्वर्तयन्ति, अथवा अवश्य पुरस्ताद् निर्वर्त- 'लब्धि-अपर्याप्तको.' तथा जेओ करण-शरीर, इद्रियादि-पर्याप्तिओनी पूरी यिष्यन्ति ते करणाऽपर्याप्तकाः इह च एवम् आगमः-"लब्ध्यपर्याप्तका अपि बनावटने न करे, अथवा अवश्य भविष्यमा बनावशे तेओ ‘करण-अपर्यानियमाद् आहार-शरीरे-न्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तौ एव म्रियन्ते, नाऽर्वाग्; सको.' एमां आगम आम जणावे छे:-लब्धि-अपर्याप्तको पण नियमथी यस्माद् आगामिभवाऽऽयुर्बवा म्रियन्ते सर्वे एव देहिनः, तच्चाऽऽहार- आहार, शरीर, अने इद्रिय-पर्याप्तिओनी पूर्णतामा ज मरे छे, नहीं के पहेला; शरीरे-न्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानाम् एव बध्यते इति." कारण के, आवता भवतुं आयुः बांधीने ज देहीओ मरे छे. (जो आम न थाय तो बधा आत्मा मुक्त थाय.) अने ते-भवांतरचें आयु:-आहार, शरीर, अने इंद्रियपर्याप्तिओनी पूरणतामां बंधाय छे." (आथी एम स्पष्ट जणाय छे के, देहीओ 'लब्धि-अपर्याप्तको' होय छे, पण 'करण-अपर्याप्तको' होतां नथीः-अनु० १. मूलच्छायाः-'भगवन् ।' इति, भगवान् तृतीयो गौतमो वायुभूतिरनगारः श्रमणं भगवन्तं यावत्-एवम् अवादीतः-यदि भगवन् ! शक्रो देवेन्दः, देवराजो महार्द्धिकः, यावत्-एतावच्च प्रभुर्विकुर्वितुम्, ईशानो भगवन् ! देवेन्द्रः, देवराजः किंमहर्धिकः? एवं तथैव, नवरम्-साधिकौ द्वौ केवलकल्पौ जम्बूद्वीपौ द्वीपौ, अवशेषं तथैव एवम्:-अनु. १. जे स्थळे ‘सौधर्म' देवलोक छे, तेनी सम रेखाए बीजो ‘ईशान' नामनो देवावास छे. ते स्थिति वगेरेमां सौधर्मने मळतो छ. ए पूर्वथी पश्चिममा लांबो, अने उत्तरथी दक्षिणमा पहोळो; मेरू पर्वतनी उत्तरे पूर्ण चंद्रमंडळने आकारे छे. तेमा बधी जातिनां स्फटिकोथी रचाएलां अट्ठावीस लाख विमानो छे. तेमांनुं प्रत्येक विमान अपूर्व शोभावाळु, रचना पूर्ण; सुखविहारो, वनो, उपवनो, क्रिडाशैलो, वापिकाओ आदिथी पूर्ण छे. तेमांनां बधां विमानोनी सुखादिमां विषमता छे. तेमां योग्यता प्रमाणे देवो पोताना बधा परिवारो साथे रहे छे. तेनी मध्ये वधारे उंचां अने सोहमणां चारअंक, स्फटिक, रत्न, सुरूप-अवतंसको छे. ए बधानी मध्ये सौथी वधारे उन्नत, विशेष रचना पूर्ण, कांतिपूंज जेवो ईशान नामनो महा अवतंसक छे. एमां ईशानवासीओनो इंद्र-ईशानेंद्र-वसे छ:-"ईशxशानच्-ईशानः, स चासौ इन्द्रश्च-ईशानेंद्रः." समर्थ, किंवा स्वामित्ववाळो जे इंद्र ते-ईशानेंद्र. प्रज्ञापना (क. आ० पृ. १२२) मां ते संबंधे वर्णक आ प्रमाणे छे:___"xx तेसिं णं बहुमज्झदेसभाए पंच वडिंसगा पण्णत्ताः-अंकवडिंसए, “xx तेना बहुमध्यदेशे पांच अवतंसको कयां छः-(ईशानावतंसकनी फलिहवडिंसए, रयणवडिंसए, जातरुववडिंसए; मज्झे इत्थ ईसाणवडिंसए. पूर्वे ) अंकावतंसक, ( दक्षिणे ) स्फटिकावतंसक, (पश्चिमे ) रत्नावतंसक, ते णं वडिंसया सव्वरयणामया, जाव-पडिरूवा. एत्थ णं ईसाणाणं पज्जताऽ- यावत्-(उत्तरे) जातरूपावतंसक; तेओनी वच्चे ईशानावतंसक छे. ते अवपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता. तिसु वि लोगस्स असंखेजइभागे, सेसं जहा सोह- तंसको बधी जातिनां रत्नोवडे रचाएला, यावत्-प्रतिरूपो छे. अहीं पर्याप्तो म्मगदेवाणं, जाव-विहरति. ईसाणे अत्थ देविंदे, देवराया परिवसति सूल- अने अपर्याप्तो ईशानवासी देवोना स्थानो कयां छे. ते लोकना असंख्येय पाणी, वसभवाहणे, उत्तरड्डलोगाहिवई, अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहि- भागे छे. बाकीनो यावत्-विहरे छे, सुधीनो वर्णक सौधर्मवासी देवोनी वई, अरयंबरवत्थधरे; सेसं जहा सकस्स, जाव-पभासेमाणे. तत्थ अठ्ठावी- समान जाणवो. ए स्थळे देवेंद्र, देवराज ईशान हाथमा त्रिशूळने धारनार, साए विमाणावाससयसहस्साणं, असीतीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए बळदना वाहनवाळो, उत्तरार्ध लोकनो अधिपति, अट्ठावीस लाख विमानोनो तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, खामी, निर्मळ दिव्य वस्त्रोने पहेरनार वसे छे. तेनो बाकीनो यावत्तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणीयाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं; चउण्हं असीतीणं प्रभासतो सुधीनो सर्व वर्णक शकेंद्रनी तुल्य जाणवो. त्यां ते अठ्ठावीस लाख आयरक्खदेवसाहस्सीणं; अन्नेसिं च बहूणं ईसाणकप्पवासीणं वैमाणियाण विमानोना, ऐसी हजार सामानिकोना, तेत्रीस त्रायस्त्रिंशोना, चार-सोमदेवाण य, देवीण य आहेवचं, पोरेवचं कुब्वेमाणे जाव-विहरइ." यम, वरुण, कुवेर-लोकपालोना, परिवार साथे आठ-कृष्णा, कृष्णराजी, रामा, रामरक्षिता, वसू, वसुगुप्ता, वसुमित्रा, वसुंधरा-महाराणीओना; त्रण-अंतर, मध्य, बाह्य-सभाओना, सात-पायदळ, खार, गज, बळद, रथ, नाट्य, गांधर्व-सैन्योना, सात-लघुपराक्रम, महावायु, पुष्पदंत, महादामास्थी, महामाडर, महासेन, नारद-सेनानायकोना, त्रण लाख, वत्रीस हजार आत्मरक्षक देवोना; अने बीजा पण अनेक ईशान देवलोकमां वसता वैमानिक देवोना, तथा देवीओना आधिपत्यने, पुरपतिपणाने करतो, यावत्-(सुखे ) विचरे छे." ईशानेंद्रनी राज्य-व्यवस्था, सेना-विभाग, वगेरे वगेरेनी वर्णनाओमा शकेंद्रनी समानता जाणवी. पण ईशान इंद्रना अन्य वर्णक माटे 'रायपसेणी' सूत्रांनो सूर्याभदेवनो अधिकार, तथा भगवतीनो चालु उद्देशक वगेरे दर्शनीय छे:-अनु. . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३:-उद्देशक . भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. प्र०—जहणं भंते! ईसाणे देविंदे, देवराया एमहि- १४. प्र०-हे भगवान् ! जो देवेंद्र, देवराज ईशान, एवी दीए, जाव-एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, एवं खलु देवाणुप्पि- मोटी ऋद्धिवाळो होय अने एटलुं विकुर्वण करी शकतो होय तो याणं अंतेवासी करुदत्तपुत्ते नाम पगतिभदए, जाव-विणीए, अट्ठम- स्वभावे भद्र, यावत्-विनीत, तथा निरंतर अट्ठम अहम अने उपरअट्टमेणं आणि क्खित्तेणं, पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं पारणं-आंबिल, एवा आकरा तपवडे आत्माने भावतो. उंचे हाथ राखी, सूर्यनी सामे उभो रही आतापनभूमिमां आतापना लेतो-तडकाने उड़े बाहाओ पगिझिय पगिझिय सूराभिमुहे आयावणभूमिए । सहतो, पूरेपूरा छ मास साधुपणुं पाळी, पन्नर दिवसनी संलेखनाआयावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणत्ता, अद्ध वडे आत्माने संयोजी, त्रीस टंक सुधी अनशन पाळी, आलोचन मसिआए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, तीसं भत्ताई अणसणाई छेदत्ता, अने प्रतिक्रमण करी, समाधि पामी, काळमासे काळ करी आप आलोडयपडिकंते, समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे देवानुप्रियनो शिष्य-कुरुदत्तपुत्र नामनो अनगार-ईशान कल्पमा, मयंसि विमाणांस, जा तीसए वत्तव्वया सा सव्वेंव अपरिसेसा कुरु- पोताना विमानमा ईशानेंद्रना सामानिकपणे देव थयो छे. जे वक्तदत्तपुत्ते ? व्यता तिष्यक देव संबंधे आगळ कही छे ते बधी अहीं कुरुदत्तपुत्र देव विषे पण कहेवी. तो ते कुरुदत्तपुत्र देव केवी मोटी ऋद्धि वाळो छे ? ( इत्यादि पूछq.) १४. उ०—नवरं-सातिरेगे दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अव- १४.उ०—(हे गौतम! ते संबंधे बधु पूर्व प्रमाणे ज जाणवू.) सेसं तं चेव, एवं सामाणिय-त्तायत्तीसग-लोगपाल-अग्गमहिसीणं, विशेष एके, कुरुदत्तपुत्रनी विकुर्वणा शक्ति आखा बे जंबुद्वीप जेटली छे जाव-एस णं गोयमा ! ईसाणस्स देविंदस्स, देवरण्णो एवं एगमेगाए अने बाकी बधुं ते ज प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे बीजा सामानिक देवो, अग्गमहिसीए देवीए अयमेयारूवे विसये, विसयमेचे बुइए, नो त्रायस्त्रिंशक देवो, लोकपालो तथा पट्टराणीओ संबंधे पण समजवं. वेव णं संपत्तीए विकुविसु वा, विकुव्वंति वा, विकुब्बिस्सति वा. वळी हे गौतम ! देवेंद्र, देवराज ईशाननी प्रत्येक पट्टराणीनी ए विकुर्वणा शक्ति, ते विषयरूप छे अने विषय मात्र छे, पण कोइए संप्राप्तिवडे विकुयु नथी, विकुर्वता नथी अने विकुर्वशे पण नहीं. एवं सणंकुमारे वि, नवरं-चत्तारि केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, ए प्रमाणे सनत्कुमार देवलोक संबंधे पण जाणवू. विशेष ए अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेज्जे, एवं सामाणिय-त्तायत्तीस-लोगपाल- के, तेनी विकुर्वणा शक्ति आखा चार जंबुद्वीप जेटली छे. अने तिरछे अग्गमहिसीणं असंखेज्जे दीव-समुद्दे सव्वे विकुव्वंति, सणंकमाराओ तना विकुवणा शाक्त असल्यय (द्वाप समुद्र सुधा) छ. ए प्रमाण आरद्धा उवरिल्ला लोगपाला सव्वे वि असंखेजे दीव-समझे विकत सामानिक देवो, त्रायस्त्रिंशक देवो, लोकपालो अने पट्टराणीओ: ए बधा असंख्येय द्वीप, समुद्रो सुधी विकुर्वी शके छे. सनत्कुमारएवं माहिंदे वि, नवरं-सातिरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबूदीवे दीवे, एवं . थी मांडीने उपरना बधाय लोकपालो असंख्येय द्वीप समुद्रो सुधी भलाए वि, नवरं-अट्ट केवलकप्पे, एवं लंतए वि, नवरं-सातिरेगे तरग विकुर्वण करी शके छे. ए प्रमाणे माहेंद्रमा पण जाणवू. विशेष अट्ट केवलकप्पे, महासके सोलस केवलकप्पे, सहस्सारे सातिरेगे एके. आखा चार जंबदीप करतां पण वधारे विकर्वण शक्ति छे. सोलस, एवं पाणए वि, नवरं-बत्तीसं केवलकप्पे, एवं अचुए वि, ए प्रमाणे ब्रह्मलोकमां पण जाणवं. विशेष ए के, तेओनी विकर्वणा नवरं सातिरेगे बत्तीसं केवलकप्पे जंबदीवे दीवे, अण्णं तं चेव. शक्ति आखा आठ जंबूद्वीप जेटली छे. ए प्रमाणे लांतकमां पण समजवू. विशेष ए के, आखा आठ जंबूद्वीप करतां पण वधारे विकुर्वणा शक्ति छे. महाशुक्रना देवोनी विकुर्वणा शक्ति सोळ जंबु द्वीप जेटली छे. सहस्रारना देवोनी विकुर्वणा शक्ति सोळ जंबुद्वीप १. मूलच्छायाः यदि भगवन् ! ईशानो देवेन्द्रः, देवराजः एवंमहर्द्धिकः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम् , एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी कुरुदत्तपुत्रो नाम प्रकृतिभद्रकः, यावत्-विनीतः, अष्टममष्टमेन अनिक्षिप्तेन, पारणके आचाम्लपरिग्रहेण तपस्कर्मणा ऊर्ध्व बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूर्याऽभिमुखे आतापनभूमौ आतापयन् बहुप्रतिपूर्णान् षण्मासान् श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा, अर्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जूषित्वा, त्रिंशद् भक्तानि अनशनानि छित्त्वा, आलोचितप्रतिकान्तः, समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा ईशाने कल्पे खीये विमाने; या तिष्यके वक्तव्यता सा सर्वा एव अपरिशेषा कुरुदत्तपुत्रे०१ नवरम्-सातिरेको द्वौ केवलकल्पौ जम्बूद्वीपौ द्वीपौ, अवशेषं तचैव, एवं सामानिक-त्रायस्त्रिंशक-लोकपाल-अग्रमहिषीणाम्, यावत्-एष गौतम ! ईशानस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य एवम् एकैकस्या अग्रमहिष्या देव्या अयम् एतद्रूपो विषयः, विषयमात्रम् उदितम्, नो चैव संप्राप्त्या व्यकुर्विषुर्वा, विकुर्वन्ति वा, विकुर्विष्यन्ति वा. एवं सनत्कुमारेऽपि, नवरम्-चत्वारः केवलकल्पाः जम्बूद्वीपाः द्वीपाः, अथोत्तरं च तिर्यगसंख्येयान् , एवं सामानिक-त्रायस्त्रिंशलोकपाल-अग्रमहिषीणाम् असंख्येयान् द्वीप-समुद्रान् सर्वान् विकुर्वन्ति, सनत्कुमाराद् आरब्धाः उपरितनाः लोकपालाः सर्वेऽपि असंख्येयान् द्वीप-समुद्रान् विकुर्वन्ति, एवं माहेन्द्रेऽपि, नवरम्-सातिरेकाः चत्वारः केवलकल्पाः जम्बूद्वीपाःद्वीपाः, एवं ब्रह्मलोकेऽपि, नवरम्-अष्ट केवलकल्पाः, एवं लान्तकेऽपि, नवरम्-सातिरेकाः अष्ट केवलकल्पाः, महाशुक्र षोडशः केवलकल्पाः, सहस्रारे सातिरेकाः षोडशः, एवं प्राणतेऽपि, नवरम्-द्वात्रिंशतः केवलकल्पाः, एवम् अच्युतेऽपि, नवरम्-सातिरेका द्वात्रिंशतः केवलकल्पाः जम्बूद्वीपाः द्वीपाः, अन्यत् तदेवः-अनु. महिण्या देव्या अयम् एतापावापा द्वीपाः, अथोत्तरं च तियेगसमऽपि असंख्येयान् द्वीप-समुद्रान Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. करतां पण वधारे छे. प्राणतना देवोनी विकुर्वणा शक्ति बत्रीस जंबूद्वीप जेटली छे. अने अच्युतना देवोनी विकुर्वणा शक्ति आखा बत्रीस जंबूद्वीप करतां पण कांइक वधारे छे. बाकी बधुं ते ज प्रमाणे जाणवू. • सेव' भंते 1, सेवं भंते ! त्ति तचे गोयमे वायुभूई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, जाव-विहरइ. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही त्रिजा गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे अने यावत्-विहरे छे. ७. ईसाणे गं भंते !' इत्यादि. ईशानेन्द्रस्य प्रकरणम् . इह च 'एवं तहेव' त्ति अनेन यद्यपि शक्रसमानवक्तव्यम् ईशानेन्द्रप्रकरणं सूचितम् , तथाऽपि विशेषोऽस्ति, उभयसाधारणपदापेक्षत्वादतिदेशस्येति, स चायम्:-" से णं अट्ठावीसाए विमाणावाससयसहस्साणं, असीईए सामाणियसाहस्सीणं, जाव-चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं" ति ईशानवक्तव्यत निकवक्तव्यतायां स्वप्रतीतं तद्विशेषम् आश्रित्य तच्चरिताऽनुवादतः प्रश्नयन्नाहः-'एवं खलु' इत्यादि. 'उड़ बाहाओ पंगिझिय' त्ति प्रगृह्य विधाय इत्यर्थः. 'एवं सणंकुमारे वि' त्ति अनेनेदं सूचितम्:-" सणंकुंमारे णं भंते ! देविंदे, देवराया केमहिडीए, केवइयं च णं पम् विउवित्तए ? गोयमा ! सणंकुमारे णं देविंदे, देवराया महिडीए, से णं बारसण्हं विमाणावाससयसाहस्सीणं, बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं ति, जाव-चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं" इत्यादि इति. 'अग्गमहिसीणं' ति यद्यपि सनत्कुमारे स्त्री तथापि याः सौधर्मात्पन्नाः समयाधिकपल्योपमादिदशपल्योपमान्तस्थितयोऽपरिगृहीतदेव्यः, ताः सनत्कुमारदेवानां भोगाय संपद्यन्त इति कृत्वा अग्रमहिष्य इत्युक्तमिति. एवं माहेन्द्रादिसूत्राण्यपि गाथानुसारेण विमानमानम् , सामानिकादिमानं च विज्ञाय अनुसंधानीयानि, गाथाश्चैवम्:-" बत्तीस अट्ठावीसा बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा, आरणे बंभलोया विमाणसंखा भवे एसा. पन्नासं चत्त छ चेव सहस्सा लंतक-सुक्क-सहस्सारे, सय चउरो आणय-पाणएसु तिण्णि आरण्ण-चुयओ." सामानिकपरिमाणगाथा:-"उरासीई असीई बावत्तरी सत्तरी य सट्टी य, पन्ना चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा." इह च शक्रादिकान् पञ्चैकान्तरितान् अग्निभूतिः पृच्छति, ईशानादींश्च तथैव वायुभूतिरिति. ईशान- ७. [* ईसाणे णं भंते !' इत्यादि.] ए ईशानेंद्रनुं प्रकरण छे. जो के अहीं [ 'एवं तहेव 'त्ति] ए सूत्रथी एम सूचव्युं छे के, ईशानेंद्रनुं प्रकरण साम्य. शक्रनी पेठे वक्तव्यत्तावाळु छे. तो पण आ ईशानेंद्रना प्रकरणमां शक्रना प्रकरण करतां काइक विशेषता छे. शं०-ज्यारे ए बन्ने प्रकरणोमा समानपणुं नथी, तो अहीं ते बन्नेने समान शा माटे कां ? समा०-केटलांक प्रकरणो केटलाक भागमा मळतां होय छे अने केटलाक भागमां जूदां होय छे तो पण ते प्रकरणो कोइ रीते समान कहेवाय छे ए रीते अहीं पण पूर्वोक्त बन्ने प्रकरणनी समानता गणी छे. कारण के, अतिदेश-सरखाइनुं सूचक-वाक्य हो मेद. बन्ने प्रकरणोनी साधारण बाबत लइने वापरी शकाय छे. जे विशेष छे ते आ छ:-"अट्ठावीस लाख विमानो उपर, एंशी हजार सामानिक देवो उपर अने यावत्-चार एंशी हजार-(३,२००००) अंगरक्षक देवो उपर ते ईशानेंद्र स्वामिपणुं भोगवे छे." ईशान इंद्रनी वक्तव्यता पछी तेना सामानिक ता माटे देवनी वक्तव्यता स्थानापन्न छे अने ते कहेवा माटे पूछनार पोताना ओळखिता कोइ सामानिकने आश्रीने तेना चरितानुवादपूर्वक पूछता कहे छे केः ['एवं खलु' इत्यादि.] [ 'उड़े बाहाओ पगिज्झिय'त्ति] अर्थात् बन्ने हाथने उंचा राखीने. ['एवं सणंकुमारे वित्ति ] आ सूत्रथी आ प्रमाणे सूचव्युं छ:-"सणंकुमारे णं भंते ! देविंदे, देवराया केमहिड्डीए, (इत्यादि) केवइअं च णं पभू विउन्वित्तए ? गोयमा ! सणंकुमारे गं देविंदे, देवराया महिड्डीए, (इत्यादि ) से णं बारसण्हं विमाणावाससयसाहस्सीणं, बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं ति, जाव-चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं" देवीओनो इत्यादि. [ 'अग्गमहिसीण'ति ] जो के सनत्कुमार देवलोकमां स्त्रीओनी उत्पत्ति नथी, तो पण समयाधिक पल्योपमथी मांडी दस पल्योपम सुधीनी गोग. आवरदावाळी अने कोइने पण नहीं परणली जे स्त्रीओ सौधर्म देवलोकमां थाय छे ते स्वीओ सनत्कुमारोना भोग माटे काममां आवे छे, माटे अग्र महिषी' एम कर्दा छे. ए प्रमाणे माहेंद्रादि संबंधी सूत्रो पण, नीचली गाथाने अनुसारे तेना विमानोनुं मान अने सामानिकादिकनी संख्या जाणीने ती संख्या. अनुसंधानीय छे. ते गाथाओ आ छ:-" सौधर्ममा बैत्रीस लाख, ईशानमा अट्ठावीस लाख, सनत्कुमारमां बार लाख, माहेंद्रमा आठ लाख अने १. मूलच्छायाः-तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् ! इति तृतीयो गौतमो वायुभूतिरनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति, यावत्विहरतिः-अनु० - १.प्र. छायाः-सोऽष्टाविंशतेर्विमानाऽऽवासशतसहस्राणाम् , अशीतेः सामानिकसाहस्रीणाम् , यावत्-चतुर्णाम् अशीतीनाम् आत्मरक्षकदेवसाहस्रीणाम इति. २. सनत्कुमारो भगवन्! देवेन्द्रः, देवराजः किंमहर्द्धिकः, कियच प्रभुर्विकुर्वितुम्? गौतम! सनत्कुमारो देवेन्द्रः, देवराजो महर्दिकः, स द्वादशानां विमानाऽऽवाससाहस्रीणाम् , द्वासप्ततीनां सामानिकसाहस्रीणाम् इति; यावत्-चतुर्णा द्वासप्ततीनां आत्मरक्षकदेवसाहस्रीणाम्. ३. द्वात्रिंशद् अष्टाविंशतिः द्वादश अष्ट चत्वारि शतसहस्राणि, आरणे ब्रह्मलोके. विमानसंख्या भवेद् एषा. पञ्चाशत् चत्वारिंशत् षट् चैव सहस्राणि लान्तक-शुक्र-सहस्रारे, शतं चत्वारि आनत-प्राणतयोः त्रीणि आरणा-ऽच्युतयोः. ४. चतुरशीति-रशीतिः द्वासप्ततिः सप्ततिश्च षष्टिश्च, पञ्चाशत् चत्वारिंशत् त्रिंशद द्वादश दश सहस्राणिः-अनु० १. आ पाठने मळतो पाठ ईशानेंद्रना वर्णकमां प्रज्ञापना (क. आ० पृ. १२२) मां पुरो छे. ते प्रथमना 'ईशानेंद्र' ना टिप्पनमां उद्धरेलो छे. २. आ पाठना 'सर्णकुमारे णं देविंदे' भागने मळतो पाठ प्रज्ञापना (क. आ० पृ० १२३) मां छे. ३. आ घे गाथाओना सरखा भाववाळी बे गाथाओ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामानिको गणना. शतक ३.-उद्देशक . भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. लोकमां चार लाख विमानो छे. अर्थात् ब्रह्मलोक सुधी पूर्व प्रमाणेनी संख्यावाळां विमानो छे. लांतकमां पचास हजार, महाशुक्रमां चाळीस हजार, सहस्रारमा छ हजार, आनत, प्राणत, आरण अने अच्युतमा सातसें; अर्थात् आनत अने प्राणतमा चारसें अने आरण तथा अन्यतमा ऋणसें विमानो " सामानिकोनी संख्या सुचक आ गाथा छ:-"चोरीसी हजार, एसी हजार, बहोतर हजार, सित्तर हजार, साठ हजार, पचास हजार, चाळीस हजार, त्रीस हजार, वीस हजार अने दश हजार सामानिक देवो छे.” अहीं शक वगेरे एकांतरित पांच इंद्रो संबंधे अग्निभति पलेले अने ईशान वगेरे इंद्रो संबंधे वायुभूति पूछे छे. ईशानेंद्रनी दिव्य देव-ऋद्धि. १५. प्र०—तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाई १५. प्र०-यार पछी कोइ एक दिवसे श्रमण भगवंत महावीर यात्रा प र पति मोका नगरीना नंदन नामना चैत्यथी बहार नीकळी जनपदविहारे निक्खमइत्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ. ते णं काले विहरे छे. ते काळे, ते समये राजगृह नामर्नु नगर हवं. (वर्णक०) यावत्-सभा पर्युपासे छे. ते काळे, ते समये देवेंद्र, देवराज, णं, ते णं समये णं रायगिहे नाम नगरे होत्या. (वण्णओ०) हाथमां शूळने धारण करनार, बळदना वाहनवाळो, लोकना उत्तजाव–परिसा पन्जुवासइ. ते णं काले णं, ते णं समये णं , रार्धनो धणी, अट्ठावीस लाख विमाननो उपरी ईशान इंद्र, आकाश ईसाणे देविंदे, देवराया, सूलपाणी, वसहवाहणे, उत्तरडलोगा- जेवा निर्मळ वस्त्रने पहेरी, माळाथी शणगारेला मुकुटने माथे मूकी, हिवई, अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई, अरयंबरवत्थघरे, नवा सोनाना सुंदर, विचित्र अने चंचळ कुंडळोथी गालोने झगआलइयमालमउडे, नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे, झगावतो, यावत्-दशे दिशाओने प्रकाशित करतो ते (ईशानेंद्र) जाव-दस दिसाओ उज्जोवेमाणे, पाभासेमाणे, ईसाणे कप्पे, ईशानकल्पमा, ईशानावतंसक विमानमा राजप्रश्नीय-रायपसेणीयईसाणवडिंसए विमाणे, जहेव रायप्पसेणइज्जे जाव-दिव्वं देविड़ेि उपांगमा कह्या मुजब यावत्-दिव्य देवऋद्धिने अनुभवतो, यावत्जांव-जामेव दिसिं पाउभए, तामेव दिसिं पडिगए. भते, जे दिशामाथी प्रकव्यो हतो, ते ज दिशामा पाछो चाल्यो गयो. हवे ति, भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, एवं वदासी: 'हे भगवन् !', एम कही भगवान् गौतम श्रमण भगवंत महावीरने वांदे छे, नमे छे अने तेओ ( नमीने) आ प्रमाणे बोल्या के:-हे अहो !! णं भंते ! ईसाणे देविंदे, देवराया महिड्डीए, ईसाणस्स भगवन् ! अहो !! देवेंद्र, देवराज ईशान मोटी ऋद्धिवाळो छे. ण भंते ! सा दिव्या देविड्डी कहिँ गया, कहिं अणुपविट्ठा ? हे भगवन् ! ईशानेंद्रनी ते दिव्य देवऋद्धि क्यां गई अने क्या पेसी गई? १५. उ०—गोयमा ! सरीरं गया. १५. उ०—हे गौतम ! ते दिव्य देवऋद्धि शरीरमां गई अने शरीरमा पेसी गई. १६. प्र०-से केणट्टेणं एवं वुच्चइ-सरीरं गया ? १६. प्र०—हे भगवन् ! 'ते दिव्य देवऋद्धि शरीरमा गई' एम कहेवानुं शुं कारण ? १६. उ०-गोयमा ! से जहा नामए कूडागारसाला सिया १६. उ०-हे गौतम ! जेम कोइ एक कूटाकार-शिखरना दुहओ लित्ता, गुत्ता, गुत्तदुवारा, णिवाया, णिवायगंभीरा, तीसे णं आकार--घर होय, अने ते बन्ने बाजुथी लिपेलु होय, गुप्त होय, कूडागारसालाए दिलुतो भाणिअव्वो. गुप्त बारणावाळु होय, पवन विनानुं होय, जेमां पवन न पेसे एबुं उंडं होय; एवा कुटाकारशाळानुं दृष्टांत कहेQ. प्रज्ञापना (क. आ०पृ० १२८) मां आवे आकारे अवलोकाय छ:-"बत्तीस-5ढावीसा वारसा-58-चउरो सयसहस्सा, पन्ना-चत्तालीसा छच सहस्सा सहस्सारे. आणय-पायणकप्पे चत्तारि सया आरणा-उच्चुए तिण्णि, सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएसु कप्पेसु." ४. सामानिकोनी गणनाने गणनारी आ गाथानी तुल्य गाथा प्रज्ञापना (क. आ० पृ० १२८) मा छे:-अनु. १. मूलच्छायाः-ततः श्रमणो भगवान् महावीरोऽन्यदा कदाचिद् मोकाया नगर्याः नन्दनात् चैत्यात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदविहारं विहरति. तस्मिन् काले, तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरम् अभवत्. (वर्णकः०) यावत्-पर्षत् पर्युपास्ते. तस्मिन् काले, तस्मिन् समये इशानो देवेन्द्रः, देवराजः, शूलपाणिः, वृषभवाहनः, उत्तरार्धलोकाऽधिपतिः, अष्टाविंशतिविमानाऽऽवासशतसहस्राधिपतिः, अरजोऽम्बरवनधरः, आलगि तमालमुकुटः, नवहेमचारुचित्रचञ्चलकुण्डलविलिख्यमानगण्डः, यावत्-दश दिशाः उद्योतयन्, प्रभासयन्, ईशाने कल्पे ईशानावतंसके विमाने, यथैव राजप्रश्नीये यावत्-दिव्यां देवर्द्धिम्, यावत्-यामेव दिशं प्रादुर्भूतः, तामेव दिशं प्रतिगत: 'भगवन् !' इति, भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्तं महावीर बन्दते, नमस्य ति, एवम् अवादीत:-अहो । भगवन् ! ईशानो देवेन्द्रो देवराजो महर्द्धिकः, ईशानस्य भगवन् । सा दिव्या देवर्द्धिः कुत्र गता, कुत्र अनुप्रविष्टा ! गौतम ! शरीरं गता. तत् केनाऽर्थेन एवम् उच्यते-शरीरं गता ? गौतम | तद्यथा नाम कुटाकारशाला स्याद् द्विधा लिप्ता, गुप्ता, गुप्तद्वारा, निर्वोता, निवर्वोतगम्भीरा, तस्याः कुटाकारशालायाः दृष्टान्तो भणितव्यः-अनु. १. ए संबंधेना वर्णक माटे (भ० ख० १, पृ. १३ तथा १९ ना १ ने ७ अंकवाळा टिप्पणो गवेषो ):-अनु. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे १७. प्र० -- ईसीणेणं भंते ! देविंदेणं, देवरण्णा सा दिव्या देवडी, दिव्या देवजुई, दिव्ये देषाणुभागे किण्णा लदे, किण्णा परो, फिण्णा अभिसमण्णागये ? के पा एस आसि पुण्यभचे, किंणाभए वा ; कंगवा, सिवा गामंसि वा, नगरंसि वा, जावसंनिवेसंसि वा, किंवा सोचा, किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा, किंवा किचा, किं या समायरिया, कस्स वा तहारूवरस वा समणस्स ना माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरिअं, धम्मियं सुवयणं सोचा, निसम्म जं णं ईसाणेणं देविंदेणं, देवरण्णा सा दिव्या देवडी, जावअभिसमचागया ? णं १७. उ०- एवं खलु गोयमा ! ते णं काले णं, ते समए णं इहेब जंबूदीचे दीवे, भारहे वासे, तामलिती नाम नगरी होत्या. (पण्णओ० ) तत्थ णं तामलिचीए नगरीए तामली नामे १. मूलच्छायाः ईशानेन भगवन् देवेन्द्रेण देवराजेन सा दिव्या देवदि, दिव्या देवद्युतिः, दिव्यो देवानुमानः केन सम्या, केन प्राप्तः, केन अभिसमन्वागतः ? को वा एष आसीत् पूर्वभवे, किंनामको वा, किंगोत्रो वा कतरस्मिन् वा ग्रामे वा नगरे वा, यावत्-संनिवेशे वा; किं वा खा, किंवा दत्त्वा किं वा भुक्त्वा, किंवा कृत्वा किं वा समाचर्य, कस्य वा तथारूपस्य वा श्रमणस्य वा, माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्यम्, धार्मिकं सुवचनं श्रुत्वा, निशम्य यद् ईशानेन देवेन्द्रेण देवराजेन सा दिव्या देवर्द्धिः यावत् - अभिसमन्वागता ! एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले, तस्मिन् समये व जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे ताम्रलिसी नाम नगरी अभवद (वर्णका० ) राम ताम्रलियां नगर्यां तामली ( वामवितो ) नाम: - अनु , “से किं तं खेत्तारिया ? अद्धछन्वीस तिविहा पण्णत्ता, तं जहा:-रायगिढ़ मगह पंचा अंगात 'वामडिसी' बंगा ब." (आ० स०५५). 'तालिसी' बंगदेश (वगेरेना)" ० ( ० ० ० ५५ अनु० शतक २. उदेशक १. १७. प्र० - हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज ईशाने ते दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकांति अने दिव्य देवप्रभाव केवी रीते उब्ध कर्मों, केवी रीते प्राप्त कर्यो अने केवी रीते सामे आण्यो ! तथा ते ( ईशानेंद्र ) पूर्वभवमां कोण हतो ! तेनुं नाम अने गोत्र शुं हतुं ? अने ते कया गाममां, कया नगरमां, तथा यावत्-कया संनिवेशमां रहेतो हतो तथा तेणे शुं सांभळ्युं हतुं, शुं दीधुं हतुं, शुं खाधुं हतुं, शुं कर्तुं हतुं, शुं आचयुं हतुं अने तथा प्रकारना कया श्रमण या ब्राह्मणनी पासे एवं एक पण क आर्य अने धार्मिक वचन सांभळी अवधार्युं हतुं के जेने लइने देवेंद्र, देवराज ईशाने ते दिव्य देवऋद्धि यावत् - सामे आणी ? " १७. उ० हे गौतम! ते काळे, ते समये भा ज जंबूद्वीप नामना द्वीपमां भारत वर्षमां ताम्रेलिसी नामनी नगरी हती. (वर्णक०) ते ताम्रलिसी नगरीमा तामली नामनो मीर्यपुत्र ( मौर्यना वंशम " १. ' ताम्रलिप्ती : - ए बंग- ( बंगाळ ) - देशनी मुख्य राज्यधानी तरीके श्रीमहावीर प्रभुनी पूर्वे पण जाणिती हती, एम अहीं मूळमां चालतो गृहपति सामठीनो अधिकार जगाने है. बीजे समये आ नगरी ते देशनी राजधानी हवी, खारे पण ते देवनुं गौरव पूर्ण अवस्था पहोचे. 'बंगनी, 'अंग' अने 'कलिंग' देशोनी साथे घणो घाडो संबंध हतो, एथी ए त्रणे देशोनी त्रिपुटी इतिहासमां गणाएली छे. ते पूर्वे पण उन्नतिनी पराकाष्टाए पहोंचेको हो, तेनुं कारण एव के, लेना विकास माटे मार्ग तथा स्वमार्ग, एम बने मार्गों हर्ता, एवी देवो खाम से देखना भने अन्य देशोना व्यापारीओ वगेरे उत्साह लेतां. ते समयनी देशनी अने राज्यधानीनी रसाळता, धन, धान्य पूर्णता, फळदरूपता आदिनी झांखप माटे श्रीउववाइ जीवी तो पानी वर्गक उपयोगी . जे भगवती (सं० १ ० १५) मां आपेसो छे. अल्पारे पण आा देश 'बंगाळ'ने नाने प्रसिद्ध छे, पण तेनी राजधानी 'ताम्रलिप्ती' ने बदले ते देशनुं गंगाने किनारे बसेलं पाट नगर 'कलकत्ता' छे. श्रीपन्नवणा- प्रज्ञापना ( प ०१) मां आर्य-अनार्यना भेदना प्रसंगमां क्रमे प्राप्त क्षेत्रार्यनी गणनामां तेने आर्य देश बंगनी राज्यधानी गणावी छे: "हे भगवन् ! क्षत्र- आर्यों कोण छे ! हे गौतम | क्षेत्र आर्यो साडी पश्चीस कां छे, ते आ प्रमाणेः- राजगृह मगधदेश, चंपा अंगदेश अने 2 २. 'मौर्यपुत्र तामली : - एमां मौर्यपुत्र ए विशेषण छे. जे बंग देशनी प्रसिद्ध राजधानी ताम्रलिप्तीना गृहपतिओमां ख्याती पामेला मौर्यवंश द्वारा अपाएलं जणाय छे. त्यारे तामली ए नाम छे, ते तेनी उत्पत्ति नगरी ताम्रलिप्तीने आधारे अपाए जणाय छे. एथी श्रीमहावीर प्रभुनी पूर्वेथी बंगाळनी राजधानी ताम्रलिप्तीना गृहपतिओमां ए वंश घणो प्रसिद्ध हतो एवं अहींना कथानकथी स्पष्ट जणाय छे, त्यारे बीजा साहित्यो तरफ दृष्टि-पात करता तेनी प्रतिष्ठापक चाणाक्य, ते वंशगो आदि महाराजा चंद्रगुप्त अने तेनुं उत्पत्ति स्थळ पाटलीपुत्र एम ए जूज जगाय छे. बळी, एं धनी उत्पत्ति माडे इतिहासोनी आनी आची तगाओ पण महाराजा चंद्रगुप्तनी माता नाम श्रीमुरादेवी जैने आधारे ए वंश मौर्यना नामथी प्रसिद्धि पाम्यो. अथवा मुर नामनी पूर्वे प्रसिद्ध जाति हृती जेने आधारे ए वंश मौर्यने नामे इतिहासमां गवायो. ) मौर्य वंशनी उत्पत्तिनुं स्थळ'पाटलीपुत्र' पूर्वे घणुं प्रसिद्धि पामेलं शहेर हतुं अने ते पूर्व देशमां गंगा नदीने किनारे लंबाणे वसेला 'पटणा' नी आसपासमां हतुं एवी मान्यता छे; सेनी सत्यता पुराणा वोदकामथी ते शहेरन घोडो पर्णाम मिहोखंडे, पावाशी, लूनी वस्तुओं, वे समयना सिकाली भने कारिगरी जणावे छे. आ वंशनी उत्पत्ति माटे श्रीविशेषावश्यक भाष्य - ( य० नं० पृ० ४०९-१० ) मां आवो उल्लेख छे: cc " चंदगुत्तपपुतो उ बिंदुसारस्स नत्तुओ, असोगसिरिणो पुत्तो अंधो जायइ कागणिं. " x x पाटलीपुत्रनगरे चाणाक्यप्रतिष्ठितो मौर्यः, प्रथमं किल चन्द्रगुप्तो राजा बभूव ततस्तत्पुत्रो बिन्दुसारः समभूत्, तदनन्तरंतरता तस्य चान्योऽसी कुणालः पुत्रः एवं च सत्येष चन्द्रगुप्तस्य प्रपीत्रः बिन्दुसारस्य तु ममृकः-पौत्रः, अशोकधीभूपए तेस्तु पुत्रः, 'काका'क्षत्रियभाषया राज्यं वाचते इति ततो यदि कामं कारविला किश्चित् सकोतुकेन राज्ञा सविशेषं , " दृष्टः सर्वमपि स्वव्यतिकरं कुणालः कथयामास ततः पृथिवीपतिना पृष्टः - अन्धः, स्वं ? वर्तते. राज्येन किं करिष्यति तेन प्रकम् देव, मम राज्या पुत्र उत्पन्नो पर्त "चंद्रगुप्तन प्रपौत्र, बिंदुसारो पीत्र, अशोकीनो पुत्र अंध- (कुमा कागणि राज्य ने याचे छे." x x “ पूर्वे पाटलीपुत्र नगरमां चाणाक्य प्रतिष्ठित 'मौर्य' वंश हृतो. तेनो आदि राजा चंद्रगुप्त थयो, तेनो पुत्र बिंदुसार तो खार बाद तेनो पुत्र अशोकली - ( वादीए) लाग्यो. कुणाल, देनो अंधपुत्र हतो. तेना पापाचं कारण ते स्थळेशी जाप) आधी कुणाल ए प्रपत्र- पोनो पुत्र बिंदुसारो पौत्र अने अशोकधी राजानो पुत्र वाय. ते कुत्रिय भाषाए राज्य अंध काकणि ने याचे छे. ए वाताथी राजाना मनमां कौतुक थवाथी पडदाने दूर करावी देनी संपूर्ण वृत्तांत पूछो कुना पातानी बनी बनाव को सत्य कह्यो. . Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकर.-उदेशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. मोरियपुत्ते. गाहावई होत्था, अड्डे, दित्ते, जाव-बहुजणस्स अपरि- थएलो ) गृहपति रहेतो हतो. ते तामली गृहपति धनाढ्य अने भा या वि होत्था, तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलित्तस्स गाहा- दीप्तिवाळो हतो, तथा यावत्-घणा माणसोथी पण ते गांज्यो जाय नावातकालसमांकजागरियं जाग- तेवो न हतो. हवे एक दिवसे ते मौर्यपुत्र तामली गृहपतिने रमाणस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए, जाद-समुप्पजित्था, अत्थि ता मे रात्राना आगळना अन पाछळना भागमां-मधराते-जागता जागता कुटुंबनी चिंता करता एवा प्रकारनो संकल्प उत्पन्न थयो के पुरा, पोराणाणं, सुचिण्णाणं, सुपरकंताणं, सुभाणं, कल्लाणाणं, कडाणं . पूर्वे करेलां, जूनां, सारी रीते आचरेलां, सुपराक्रमयुक्त, शुभ अने कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसो, जेणाहं हिरण्णेणं वड्डामि, सुव - कल्याणरूप मारा कर्मोनो कल्याणफळरूप प्रभाव हजु सुधी जागतो गणेशं वड़ामि, धणेणं वड्डामि, धण्णेणं वड्डामि, पुत्तेहिं वड्डामि, छे के जेथी मारे घरे हिरण्य वधे छे, सुवर्ण वधे छे, रोकड नाj पसहि वडामि, विपुलधण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवा- वधे छे, धान्यो वधे छे, पुत्रो वधे छे, पशुओ वधे छे, अने पुष्कळ ल-रत्तरयणसंतसारसावएज्जेणं अईव अईव अभिवडामि, तं किं णं धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चंद्रकांत वगेरे पत्थर, प्रवाळां, अहं परा पोराणाणं, सचिण्णाणं, जाव-कडाणं कम्माणं एगंतसो तथा माणेकरूप सारवाळु धन मारे घरे घj घणुं बधे छे. तो शं हूं खयं उवेहमाणे विहरामि, तं जाव-ताव अहं हिरण्णेणं वडामि, पूर्वे करेलां, सारी रीते आचरेला, यावत्-जूनां कर्मोनो तद्दन नाश जाव-अतीव अतीव अभिवडामि, जावं च णं मे मित्त-नाइ-नियग- थाय त जाइ रहु-त नाशना उपक्षा करता रहु, अथात् मने संबंधि-परियणो आढाति, परियाणाइ, सक्कारेइ सम्माणेड, कल्लाणं आटल सुख वगेरे छ एटले बस छे एम मानी भविष्यत्-भाविलाभ तरफ उदासीन रहुँ ? (ए रीते उदासीन रहे ठीक नथी) पण मंगलं, देवयं, विणएणं चेइयं पज्जुवासइ, तावता मे सेयं कल्लं पाउ हुँ ज्यां सुधी हिरण्यथी वधु छु अने यावत्-मारे घरे घj घj प्पभायाए रयणीए जाव-जलंते, सयमेव दारुमयं पडिग्गहं करेत्ता, वधे छे, तथा ज्यां सुधी मारा मित्रो, मारी नात, मारा पित्राइओ, विउलं असणं, पाणं, खाइम, साइमं उवक्खडावेत्ता , मित्त-णाइ- मारा मोसाळिआ के मारा सासरिआ अने मारो नोकरवर्ग मारो नियग-सयण-संबंधि-परियणं आमतेत्ता, तं मित्त-गाइ-नियग-संबंधि- आदर करे छे, मने स्वामी तरीके जाणे छे, मारो सत्कार करे छे, परियणं विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं, वत्थ-गंध-मल्ला-लं. मारुं सन्मान करे छे अने मने कल्याणरूप, मंगळरूप अने देवरूप कारेणं य सकारेत्ता, सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-णाइ-नियग-संबंधिजाणी चैत्यनी पेठे विनयपूर्वक मारी सेवा करे छे त्यो सुधी मारे मारूं कल्याण करी लेवानी जरूर छ; अर्थात् आवती काले प्रकाशवाळी परियणस्स पुरओ जेदुपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता, तं मित्त-णाइ-नियग-संबंधि- रात्री थया पछी-मळसकू थया पछी-यावत्-सूर्य उग्या पछी मारे परियणं, जेद्वपत्तं च आपच्छित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय मारी पोतानी ज मेळे लाकडा- पातरं करी, पुष्कळ खाणुं, पी', राज्ञा प्रोक्तम्-कदा? कुणालः प्राह-संप्रति. तत् 'संप्रतिः' इत्येव तस्य त्यारे पृथिवीनाथे कां-हे अंध 1-(पुत्र कुणालI), तुं राज्यने शु 'नाम प्रतिष्ठितम् . राज्यं च तस्मै प्रदत्तम् इति." करीश ? तेणे कधु-हे देव ! (बापु! ) मारे राज्यने योग्य पुत्र थयो छे. राजाए पूछ्यु-(पुत्र कुणाल!) तने पुत्र क्यारे थयो ? कुणाले संप्रति-हमणां-थयो छ एम का. एथी कुणालना पुत्रनुं नाम 'संप्रति' प्रसिद्ध थयु. राजाए तेने पोतार्नु राज्य आप्यु." आ गणनाने आधारे मौर्य वंशमां थएला राजाओनी गणना आवी छे: चंद्रगुप्त. बिंदुसार. अशोकश्री. संप्रति. (संप्रति ए अशोकश्री राजानो पौत्र हतो, तेना पुत्रो कुणाल वगेरे हता; तेमां कुणाल अंध होवाथी गादीए न आव्यो. पण कुणालने वचन आपवाथी अशोकश्रीनी गादीए बीजो पुत्र न आवता पौत्र आव्यो):-अनु० १. मूलच्छायाः-मौर्यपुत्रो गृहपतिरभवत्, आन्यः, दीप्तः, यावत्-बहुजनैरपरिभूतश्चापि अभवत् , ततस्तस्य मौर्यपुत्रस्य ताम्रलिप्तस्य गृहपतेः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्राऽपररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रतः अयम् एतद्रूपः आध्यात्मिकः, यावत्-समुदपद्यत, अस्ति तावद् मम पुरा पुराणानां सुचीर्णानाम् , सुपराक्रान्तानाम्, शुभानाम् , कल्याणानाम् , कृतानां कर्मणां कल्याणफलवृत्तिविशेषः, येनाऽहं हिरण्येन वर्धयामि, सुवर्णेन वर्धयामि, धनेन वधयामि, धान्येन वर्धयामि, पुत्रैः वर्धयामि, पशुभिर्वर्धयामि, विपुल-धन-कनक-रत्न-मणि-मौक्तिक-शङ्ख-शिला-प्रवाल-रक्तरत्नसत्सारखापतेयेन अतीव अतीव अभिवधेयामि, तत् किम् अहं पुरा पुराणानां सुचीर्णानाम्, यावत्-कृतानां कर्मणाम् एकान्तशः क्षयम् उपेक्षमाणो विहरामि, तद् यावत्-तावद् अहं हिरण्येन वधेयामि, यावत्-अतीव अतीव अभिवर्धयामि, यावच मम मित्र-ज्ञाति-निजक-संबन्धि-परिजनाः आद्रियते, परिजानाति, सत्कारयति, सन्मानयति कल्याण मगलं दैवतं विनयेन चैत्वं पर्युपास्ते, तावद् मम श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत्-ज्वलति, खयम् एव दारुमय प्रतिग्रहं कृत्वा, विपुलम् अशनम्, 'पानम्, खादिमम्, खादिमम् उपस्कार्य, मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबन्धि-परिजनम् आमन्त्रय, तं मित्र-ज्ञाति-निजक-संबन्धि-परिजनं विपुलेन अशन-पान खादिम-खादिमेन, वन-गन्ध-माल्या-ऽलंकारेण च सत्कार्य, सन्मान्य तस्यैव मित्र-ज्ञाति-निजक-संवन्धि-परिजनस्य पुरतो ज्येष्ठपुत्रं च कुटुम्बे स्थापयित्वा, तं मित्र-ज्ञाति-निजक-संबन्धि-परिजनम्, ज्येष्ठपुत्रं च आपृच्छ्य खयमेव दारुमयं प्रतिग्रहं गृहीत्वाः-अनु. . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. मुंडे' भवित्ता, पाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए, पव्वइए विय णं समाणे मेवा, मिठाइ अने मशाला वगेरे तैयार करावी, मारा मित्र, नातं, इमं एयारुवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामिः-'कप्पइ मे जावज्जीवाए .पित्राइ, मोसाळिआ के सासरिआ अने मारा नोकर चाकरने नोतरी. छ@छद्रेणं आणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उडं बाहाओ पगिझिय ते मित्र, नात, पित्राइ, मोसाळिआ के सासरिआ तथा नोकर पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, चाकरने ते पुष्कळ खाणुं, पीj, मेवा, मिठाइ अने मशाला वगेरेने जमाडीने, कपडा, अत्तर वगेरे सुगंधी वस्तु, माळाओ अने घरेणां छहस्स वि य णं पारणंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुभित्ता सयमेव वडे तेओनो सत्कार करीने, तेओर्नु सन्मान करीने तथा ते ज दारुमयं पडिग्गहयं गहाय तामलित्तीए नयरीए उच्च-नीअ-मज्झिमाई मित्र, ज्ञाति, पित्राइ, मोसाळिआ के सासरिआ अने नोकर चाककलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए, अडित्ता सुद्धादण पडिगाहत्ता, रोनी समक्ष मारा मोटा पत्रने कटंबंमा स्थापीने तेना उपर कटंतं तिसत्तक्खत्तो उदएणं पक्खालेत्ता तओ पच्छा आहारं आहरित्तए' बनो भार मूकीने ते मित्र, नात, पित्राइ, मोसाळिआ के सासत्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहिता, कल्लं पाउप्पभायाए जाव-जलंते, रिआ अने नोकर वर्गने पूछीने मारी पोतानी मेळे ज लाकडानुं सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं करेइ, करित्ता विउलं असण-पाण- पातरं लइने, मुंड थइने, 'प्राणामा' नामनी दीक्षावडे दीक्षित थाउं. खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उव- वळी हुँ दीक्षित थयो के तुरत ज आ अभिग्रह धारण करीश केसमावेजा नतोका किसे करा . 'हुँ जीव॑ त्यां सुधी निरंतर छह छट्ठ-चे बे उपवास-करीश, तथा . सूर्यनी सामे उंचा हाथ राखी तडको सहन करतो रहीश-आतायच्छित्ते, सुद्धपावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए, अप्पमह पना लइश, वळी छट्ठना पारणाने दिवसे ते आतापना लेवानी ग्घाभरणालंकियसरीरे, भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए, जग्याथी नीचे उतरी पोतानी मेळे ज लाकडार्नु पात्र लइ ताम्रलिप्ती तए णं मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं सद्धिं तं विउलं नगरीमा उंच, नीच अने मध्यम कुळोमांथी मिक्षा लेवानी विधिअसण-पाण-खाइम-साइमं आसाएमाणे, वीसाएमाणे, परिभाएमाणे, पूर्वक शुद्ध ओदन-डाळ, शाक वगेरे विनाना एकला चोखापरिभंजेमाणे विहरइ, जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते, लावी तेने पाणीवडे एकवीस वार धोइ त्यार पछी तेने खाईश' (ए चोक्खे, परमसुइब्भए, तं मित्तं जाव-परियणं विउलेणं असण-पाण- प्रमाणेनो अभिग्रह करवानो तेणे विचार राख्यो छे.) ए प्रमाणे खाइम-साइम-पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्ला-ऽलंकारेण य सक्कारेइ, सम्माणेइ, विचारी काले मळसकू थया पछी यावत्-सूर्य जळहळतो थया पछी तस्सेव मित्त-णाइ-जाव-परियणस्स पुरओ जेट्टपत्तं कुटुंबे ठावेइ, पाताना मळ ज लाकडानु पात्र करावान, पुष्कळ खाणु, पाणु, ठावेत्ता तं मित्त-माइ-जाव-परियणस्स, जेद्वं पुत्तं च आपुच्छइ, मेवा, मिठाई अने मशाला वगेरेने तैयार करावीने, पछी स्नान करी, बलिकर्म करी, कौतुक, मंगळ अने प्रायश्चित्त करी, शुद्ध अने पहेआपुच्छित्ता, मुंडे भवित्ता, पाणामाए पव्वज्जाए पव्वइए, रवा योग्य मांगलिक उत्तम वस्त्रोने सारी रीते पहेरी, वजन विनाना अने महामूल्य घरेणांओथी शरीरने शणगारी भोजननी वेळाए ते तामली गृहपति भोजनना मंडपमा आवी सारा आसन उपर सारी रीते बेठो. त्यार पछी मित्र, नात, पित्राइ. सासरिआ के मोसाळिआ अने नोकर चाकरोनी साथे (बेसी) ते पुष्कळ खाणुं, पी', मेवा मिठाई अने मशाला वगेरेने चाखतो, वधारे स्वाद लेतो, परस्पर देतो-जमाडतो-अने जमतो ते तामली गृहपति विहरे छे-रहे छे. ते तामली गृहपति जम्यो अने जम्या पछी तुरत ज तेणे कोगळा कर्या, चोक्खो थयो अने ते परम शुद्ध बन्यो. पछी तेणे पोताना मित्र यावत्-नोकर चाकरने पुष्कळ वस्त्र, अत्तर वगेरे सुगंधी द्रव्य, १. मूलच्छायाः-मुण्डो भूत्वा, प्राणामिक्या प्रव्रज्यया प्रव्रजितुम् , प्रत्रजितोऽपि च सन् इमम् एतद्रूपम् अभिग्रहम् अभिग्रहीष्यामि :-कल्पते मम यावज्जीवं षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपस्कर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूर्याभिमुखस्य आतापनभूमौ आतापयतो विहर्तुम् , षष्ठस्याऽपि च पारणे आतापनभूमेः प्रत्यवरुह्य खयमेव दारुमयं प्रतिग्रहकं गृहीत्वा ताम्रलिप्यां नगर्याम् उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यया अटित्वा शुद्धोदनं प्रतिगृह्य, तं त्रिसप्तकृत्वः उदकेन प्रक्षाल्य ततः पश्चाद् आहारम् आहर्तुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां यावत्-ज्वलति, खयमेव दारुमयं प्रतिग्रहकं करोति, कृत्वा विपुलम् अशन-पान-खादिम-खादिमम् उपस्कारयति, विपुलम् अशन-पान-खादिम-खादिमम् उपस्कार्य, ततः पश्चात् सातः, कृतबलिकर्मा, कृतकौतुक-महल-प्रायश्चित्तः, शुद्धप्रवेश्यानि मङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः अल्पमोऽऽभरणाऽलंकृतशरीरो भोजनवेलायां भोजनमण्डपे सुखासनवरगतः, ततो मित्र-ज्ञाति-निजक-खजन-संबन्धि-परिजनेन सार्धं तं विपुलम् अशन-पान-खादिम-खादिमम् आखादयन्, विखादयन् , परिभोगयन् , परिभुजानो विहरति; जिमित्वा भुक्तोतराऽऽगतोऽपि च सन् आचान्तः, चोक्षः, परमशुचिभूतस्तं मित्रम् , यावत्-परिजनं विपुलेन अशन-पान-खादिम-खादिम-पुष्प-वस्त्र-गन्ध-माल्या-ऽलंकारेण च सत्कारयति, सन्मानयति, तस्य एव मित्र-ज्ञातेः, यावत्-परिजनस्य पुरतो ज्येष्ठपुत्रं फुटुम्बे स्थापयति, स्थापयित्वा तं मित्र-ज्ञातिम्, यावत्-परिजनम् , ज्येष्ठं पुत्रं च आपृच्छति, आपृच्छ्य, मुण्डो भूत्वा प्राणामिक्या प्रव्रज्या प्रव्रजितः-अनु. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. उद्देशक १. पैव्यइए वि व णं समाणे इर्म एवारूवं अभिग्गई अभिगves : - 'कप मे जावज्जीवाए छछद्वेणं, जाव-आहारि तर तिकट्टु' इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हर, अभिगिहिता जावजीवाए छछद्वेगं अनिक्सित्तेनं तयोकम्पेणं उर्दू बाहाओ परिशिय परिशिय सूराभिमुद्दे आवारणभूमीए आया बेमाणे विहरह, छस्स वियणं पारणयंसि आयारणभूमीओ पचोरुहर, पचोरुहित्ता सयमेव दारुमयं परिग्यहं गहाय तामलितीए नगरीए उच्च-नीअ-मज्झिमाई फुलाई घरसमुदाणस्स मिक्लायरियाए अडर, सुद्धोषणं पढिग्गाहर, तिसत्तक्खुत्तो उदरणं पक्खालेइ, तओ पच्छा आहारं आहरेइ. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. . १७. ४० से केणद्वेणं भंते ! एवं सुबह पाणामा पञ्चना ! १७. उ० – गोयमा ! पाणामाए णं पम्बजाए पञ्च समाने जं जस्थ पास-देवा, संदे या रुईया, सिर्व वा, येसमणं वा, अज्जं वा, कोट्टकिरियं वा, रायं वा, जाव - सत्थवाहं वा, रायं वा जाव सत्यवाहं वा, कावा, साणं पापा या उयं पास उच पणामं करे, नीवं पास नी प्रणामं करे, जं जहा पास, तंतहा प्रणामं करे से तेणद्वेणं गोवमा ! एवं बुचर पाणामा पञ्चवा. , तणं से तामली मोरियपुत्ते तेणं ओरालेणं, विपुलेणं, पचचेणं, पग्गाहिएणं चालतोकम्मेणं सुके, लुक्से, पाप-धमणिसंतए जाए यावि होत्था, तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्तिस्त अन्नया कयाइं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूपे अस्थिर, चितिए, जाय समुप्यवित्था एवं सलु अहं इमेणं जरालेणं, विपुलेणं, जाब-उदग्गेणं, उदरोणं, उत्तमेणं, महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुके, तुमसे, जाय- घमणिसंतए जाएं, ते अस्थि जा मे उड्डाणे, कम्मे, पले, वीरिये, पुरिसकारपरकमे २७ माळा अने घरेणांओयी सत्कारी तथा ते मित्र, नात यावत्-नोकर चाकरनी समक्ष पोताना मोटा पुत्रने कुटुंबमां स्थापी अने ते मित्र, नात यावत्-नोकर चाकरने तथा पोताना मोटा पुत्रने पूछ ताली गृहपति मुंड थइ 'प्राणामा' नामनी दीक्षावडे दीक्षित थयो. हवे ते तामली गृहपतिए 'प्राणामा' नामनी दीक्षा लिधी अने साथै ज तेने आवो अभिग्रह कर्यो के:- 'हुं ज्यां सुधी जीवुं त्यां सुधी छट्ठ छट्ठनुं तप करीश अने यावत् - पूर्व प्रमाणेनो आहार करीश' ए प्रमाणे अभिग्रह करी यावज्जीय निरंतर छ छढना तप फर्मपूर्वक उंचे हाथ राखी सूर्यनी सामे उभा रही तडकाने सहता ते तामली तपस्वी विहरे छे, छडना पारणाने दिवसे आतापनभूनियी नीचे उतरी, पोतानी मेळे ज ते खाकडानुं पात उद्द ताम्रडिसी नगरीमा उच्च नीच अने बचलावर्गमा कुलोगांधी भिक्षा लेबानी विधिपूर्वक भिक्षा माटे फरी ते, एकला चोखाने उद आवे छे अने ते चोखाने एकवीस वार धोइ पछी तेनो आहार करे छे. " १७. प्र० - हे भगवन् ! तामलिए कीवेळी प्रवज्या 'प्राणामा' कहेवाय तेनुं शुं कारण ! १७. उ०—हे गौतम ! जेणे 'प्राणामा' प्रव्रज्या लोधी होय ते, जेने ज्यां जोवे तेने अर्थात् इंद्रने, स्कंदने, रुखने, शिवने, कुबेरने, आर्या पार्वती ने महिषासुरने कुटती चंडिकाने, राजाने, पावत्सार्थवाहने; कागडाने, कुतराने तथा चांडाळने प्रणाम करे छेउंचाने जोड्ने उंची रीते प्रणाम करे छे, नीचाने जोड़ने नीची रीते प्रणाम करे छे-जेने जेवी रीते जूए छे तेने तेवी रीते प्रणाम करे छे. ते कारणथी ते प्रव्रज्यानुं नाम 'प्राणामा' प्रव्रज्या छे. यार पछी ते मौर्यपुत्र तामली से उदार, विपुल, प्रदत अने प्रगृहीत बालतपकर्मकडे सुकाइ गया, लुखा थया, यावत्तेनी बधी नाडीओ बहार तरी आवी एवा ते दुबळा थया. यार पछी कोई एक दिवसे मघराते जागता जागता अनित्यता संबंधे विचार करतां ते तामली बालतपखिने आए प्रकारनो यावत्विकल्प उत्पन्न भयो केहुंआ उदार, विपुल, यावत् उदम, उदात्त, उत्तम अने महाप्रभावशालि तपकर्मवडे सुकाइ गयो हुं, रुक्ष भयो हुं भने यावत्-मारी वधी नसो पशरीर उपर देखाइ आवी छे. , १. मूलच्छायाः - प्रब्रजितोऽपि च सन् इमम् एतद्रूपम् अभिग्रहम् अभिगृहातिः - 'कल्पति मम यावज्जीवं षष्ठंषष्ठेन यावत् - आहर्तुम् इति कृत्वा,' इमम् एतद्रूपम् अभिग्रहम् अभिगृहाति, अभिगृह्य यावज्जीवं षष्ठंषष्टेन अनिक्षिप्तेन तपस्कर्मणा ऊर्ध्व बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूर्याभिमुख आताप मभूमी आतापयन् विहरति पयाऽपि च पारण के आतापनभूमितः प्रवरोदति प्रसवस्वयम् एव दारमयं प्रतिगृहीला ताजिया नमः उच-नीच मध्यमानि कुलानि मुदानसमिक्षाचा अति दनं प्रतिगृहाति त्रिः प्रलपति, ततः पवाद आहारम् आहारयति तत् केनाऽर्थेन भगवन् । एवम् उच्यते प्राणामी प्रत्रज्या ? गौतम । प्राणामिक्या प्रत्रज्यया प्रत्रजितः सन् यं यत्र पश्यति इन्द्रं वा, स्कन्दं वा, रुद्रं वा, शिवं वा वैश्रमणं वा, आर्या वा, कुट्टनक्रियां वा, राजानं वा, यावत् सार्थवाहं वा; काकं वा, श्वानं वा, प्राणं वा उच्चं पश्यति उच्च प्रणामं करोति, नीचं पश्यति नीचं प्रणामं करोति, यं यथा पश्यति तं तथा प्रणामं करोति, तत् तेनाऽर्थेन गौतम ! एवम् उच्यते प्राणामी प्रत्रज्या. तामतिर्यपुत्रः तेन उदारेण विपुखेन प्रयत्नेन प्रग्रीवेन बालतपस्कर्मणा शुष्क, रुक्ष, यावद धमनीत जातथापि अभवत् ततस्तस्य साथ सातपखिनः अन्यदा कदाचित् पूर्वराजाराम जामतः अयम् एवद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः यावत् समुद पयत एवं अहम् अनेन उदारेण विपुलेन, बाव-उमेश उदात्तेन, उत्तमेन महानुभागेन तपस्कर्मणा शुकः, रूक्षी याद-चमनीसन्ततो जातः। तद् अस्ति यावद् मम उत्थानम्, कर्म, बलम्, वीर्यम्, पुरुषकारपराक्रमः - अनु० ततः स 2 , Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. तावता मे सेयं, कलं जाव-जलंते, तामलित्तीए नगरीए दिट्टाभट्टे माटे ज्यां सुधी मने उत्थान छे, कर्म छे, बळ छे, वीर्य छे अने य, पासंडत्थे य, निहत्थे य, पुव्वसंगतिए य, पच्छासंगतिए य, पुरुषकारपराक्रम छे त्यां सुधी मारुं श्रेय एमां छे के, हुं काले परियायसंगतिए य आपच्छित्ता तामलित्तीए नगरीए मज्झमजोणं यावत्-ज्वलंत सूर्यनो उदय थया पछी ताम्रलिप्ती नगरीमा जड में देखीने बोलावेला पुरुषोने, पाखंडस्थोने, गृहस्थोने, मारा आगळना निग्गच्छित्ता पाउगं, कंडियामादीयं उवगरणं, दारुमयं च पडिग्ग ओळखिताओने, तपस्वी थया पछीना मारा जाणिताओने मारी हि अं एगंते एडित्ता तामलित्तीनगरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए णिय जेटला दीक्षापर्यायवाळाओने पूछीने, ताम्रलिप्ती नगरीनी वचोवच त्तणियं मंडलं आलिहित्ता संलेहणा-जूसणाजूसिअस्स भत्त-पाणपडि नीकळीने, चाखडी, कुंडी वगेरे उपकरणोने अने लाकडाना पातराने याइक्खिअस्स, पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए एकांते मूकी ताम्रलिप्ती नगरीना उत्तरपूर्वना दिग्भागमां-ईशान त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कलं जाव-जलते, जाव-आपु- खुणामां, निर्वर्तनिक मंडळने आळेखी संलेखनातपवडे आत्माने सेवी. च्छइ, आपुच्छित्ता तामलित्तीए एगंते जाव-एडेइ, जाव-भत्त-पाण- खावा पीवानो त्याग करी, वृक्षनी पेठे स्थिर रही, काळनी अवकांक्षा पंडियाइविखए पाओवगमणं निवणे. सिवाय विहरवु ए उचित छे. एम विचारी काले यावत्-ज्वलंत सूर्यनो उदय थया पछी, यावत्-पूछे छे, तेओने पूछी ते तामली तपखिए पोताना उपकरणोने एकांते मूक्यां, यावत्-तेणे आहार पाणीनो त्याग कर्यो अने पादपोपगमन नामर्नु अनशन कयु. ते णं काले णं, ते णं समये णं बलिचंचा रायहाणी ते काळे, ते समये बलिंचंचा राजधानी इंद्र अने पुरोहित अणिंदा, अपुरोहिया या वि होत्था, तए णं ते बलिचंचा- रहित हती. त्यारे ते बलिचंचा राजधानीमा वसनारा घणा रायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य तामलिं असुरकुमार देवोए अने देवीओए ते तामली बालतपस्वीने अवधि बालतवस्सि ओहिणा आभोएंति, अण्णमण्णं सद्दावेंति, अण्ण- वडे जोयो, जोया पछी तेओए एक बीजाने बोलावी आ प्रमाणे कडं मण्णं सद्दावेत्ता एवं वयासिः-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचा के, हे देवानुप्रियो ! अत्यारे बलिचंचा राजधानी इंद्र अने पुरोहित रायहाणी अणिंदा, अपुरोहिआ, अम्हे य णं देवाणुप्पिया ! इंदा- विनानी छे. तथा हे देवानुप्रियो ! आपणे बधा इंद्रने ताबे रहेनारा धीणा, इंदाधिविया, इंदाधीणकज्जा, अयं च देवाणुप्पिया! तथा अधिष्ठित छीए, आपणुं बधुं कार्य इंद्रने ताबे छे अने हे तामली बालतवस्सी तामलित्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे देवानुप्रियो ! आ तामली बालतपस्वी ताम्रलिप्ती नगरीनी बहार दिसिभागे नियत्तणियमंडलं आलिहिता संलेहणाजसणाजसिए, भत्त- ईशान खूणामां निवर्तनिक मंडळने आळेखी, संलेखनावडे आत्माने पाणपडियाइक्खिए, पाओवगमणं णिवण्णे, तं सेयं खलु अम्हं देवाणु- जोषी-सेवी, खावा पीवानो त्याग करी अने पादपोपगमन अनशनने प्पिया! तामलिं बालतवस्सिं बलिचंचाए रायहाणीए ठितिं पकरावेत्तए धारण करीने रह्यो छे. तो आपणे ए श्रेयरूपछे के, हे देवानुप्रियो ! त्ति कट्टु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढे पडिसुणेति, बलिचंचारायहा- ते तामली बालतपस्विने बलिचंचा राजधानीमां इंद्र तरीके आववानो णीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, जेणेव रुयगिंदे उप्पायपव्वए तेणेव संकल्प करावीए, एम करीने-(विचारीने) परस्पर एक बीजानी पासे उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वेउब्वियसमुग्घायेणं समोहण्णति, जाव- एवातने मनावीने ते बधा असुरकुमारो बलिचंचाराजधानीनी वचोवच . उत्तरवेउवियाई रूवाइं विकुव्वंति, ताए उकिट्टाए, तुरियाए, नीकळी जे तरफ रुचकेंद्र उत्पातपर्वत छे ते तरफ आवे छे, आवी चवलाए, चंडाए, जइणाए, छेयाए, सीहाए, सिग्घाए, उद्धृयाए, वैक्रियसमुद्घातवडे समवहणीने यावत्-उत्तरवैक्रिय रूपोने विकुर्वी दिव्वाए देवगईए तिरियं असंखेज्जाणं दीव-समुद्दाणं मझमझेणं उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चंड, जयवती, निपुण, सिंह जेवी, शीघ्र, उद्धृत जेणेव जंबूदीवे दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव तामलित्ती नगरी, अने दिव्य देवगतिवडे तिरछा असंख्येय द्वीप समुद्रोनी वचोवच जे १. मूलच्छायाः-तावद् मम श्रेयः, कल्यं यावत्-ज्वलति, ताम्रलिया नगर्याः दृष्टभाषितांश्च, पाखण्डस्थांश्च, गृहस्थांश्च, पूर्वसंगतिकांश्च, पश्चात्सअतिकांश्च, पर्यायसङ्गतिकांश्च आपृच्छ्य ताम्रलिप्त्या नगर्याः मध्यंमध्येन निर्गय पादुकाम् , कुण्डिकादिकम् उपकरणम् , दारुमयं च प्रतिग्रहकम् एकान्ते एडयित्वा ताम्रलिप्तीनगर्याः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे निवर्तनिक मण्डलम् आलिख्य संलेखना-जूषणाजूषितस्य भक्त-पानप्रत्याख्यातस्य, पादपोपगतस्य कालम् अनचकाइतो विहर्तुम् इति कृखा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्यं यावत्-ज्वलति, यावत्-आपृच्छति, आपृच्छय ताम्रलिप्याः एकान्ते यावत्-एडयति, यावत्-भक्तपानप्रत्याख्यातः पादपोपगमनं निष्पन्नः तस्मिन् काले,तस्मिन् समये बलिचचा राजधानी अनिन्द्रा, अपुरोहिता चाऽपि अभवत्, ततस्ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवोऽसुरकुमाराः देवाश्च, देव्यश्च तामलिं बालतपस्विनम् अवधिना आभोगयन्ति, अन्योन्यं शब्दयन्ति, अन्योन्यं शब्दयिता एवम् अवादीत्:एवं खलु देवानुप्रियाः। बलिचचा राजधानी अनिन्द्रा, अपुरोहिता, वयं च देवानुप्रियाः1 इन्द्राधीनाः, इन्द्राधिष्ठिताः, इन्द्राधीनकार्याः, अयं च देवानुप्रियाः 1 तामलिः बालतपस्वी ताम्रलिप्त्या नगर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे निर्वर्तनिकमण्डलम् आलिख्य संलेखना-जूषणाजूषितः प्रत्याख्यातभपानः, पादपोपगमनं निष्पन्नः, तत् श्रेयः खलु अस्माकं देवानुप्रियाः। तामलिं बालतपस्विनं बलिचञ्चायां राजधान्यां स्थिति प्रकारयितुम् इति फुला अन्योन्यस्य अन्तिके इमम् अर्थ प्रतिशृण्वन्ति, बलिचञ्चाराजधान्याः मध्यंमध्येन निर्गच्छन्ति, येनैव रुचकेन्द्रः उत्पातपर्वतस्तेनैव उपागच्छन्ति, उपागम्य वैकियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति, यावत्-उत्तरवैक्रियाणि रूपाणि विकुर्वन्ति, तया उत्कृष्टया, बरितया, चपलया, चण्डया, जयिन्या, छेकया, सिंह(तुल्य)या, शीघ्रया, उद्धतया, दिव्यया देवगत्या तिर्यग् असंख्येयानां द्वीप-समुद्राणां मध्यमध्येन येनैव जम्बूद्वीपो द्वीपः, येनैव भारतं वर्षम, येनैव ताम्रलिप्ती नगरी:-अनु. Jain Education international . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक.३.-उद्देशक . भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. मनाली मोरियपत्ते तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छेत्ता तरफ जंबूद्वीप नामे द्वीप छे, जे तरफ भारत वर्ष छे. जे तरफ ताम्रसामलिस्स बालतवस्सिस्स जाप्प, सपक्खि, सपाडादास ठिच्चा दिव्वं लिप्ती नगरी छे अने जे तरफ मौर्यपत्र वासी टेलि दिव्वं देवज्जतिं. दिव्वं देवाणभागं, दिव्वं बत्तीसविह आव्या,आवी तामली बालतपस्विनी उपर.सपक्ष अने सप्रतिदिश अर्थात नविहं उवदंसेति, तामलिं बालतवस्सि तिक्खुत्तो आयाहिण- तामली बालतपस्विनी बराबर सामे उभा रही दिव्य देवऋद्धिने, दिव्य म कति वंदंति, नमसंति, एवं वयासी:-एवं खलु देवाणु- देवकांतिने, दिव्य देवप्रभावने अने बत्रीस जातिना दिव्य नाटकविधिने प्पिया! अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देखाडी, तामली बालतपखिने त्रण वार प्रदक्षिणा करी, वांदी अने देवीओ य देवाणप्पियं वंदामो, नमसामो, जाव-पज- नमी ते असुरकुमार देवो आ प्रमाणे बोल्या के-हे देवानुप्रिय ! बासामो. अम्हाणं देवाणप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अणिंदा, अपु- अमे बलिचंचा राजधानीमा रहेनारा घणा असुरकुमार देवो अने रोहिआ. अम्हे वि य णं देवाणप्पिया ! इंदाहीणा, इंदाहिद्विआ, घणी असुरकुमारदेवीओ आपने वांदीए छीए, नमीए छीए अने इंदाहीणकज्जा, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिं यावत्-आपनी पर्युपासना करीए छीए. हे देवानुप्रियो ! हाल आढाह, परियाणह, सुमरह, अटुं बंधह, निदाणं पकरेह, ठिति- अमारी बलिचंचा राजधानी इंद्र अने पुरोहित विनानी छे अने हे पकप्पं पकरेह, तए णं तुम्मे कालमासे कालं किचा बलिचंचाराय- देवानुप्रिय ! अमे बधा इंद्रने ताबे रहेन हाणीए उववजिस्सह, तए णं तुम्भे अम्हें इंदा भविस्सह, तए णं अमारं कार्य पण इंद्रने ताबे छे. तो हे देवानुप्रिय ! तमे बलिचंचा तुम्भे अम्हेहिं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरिस्सह, तए राजधानीनो आदर करो, तेनुं स्वामिपणुं स्वीकारो, तेने मनमा लावो, णं से तामली बालतवस्सी तेहिं बलिचंचारायहाणिवत्थव्वेहिं बहूहिं ते संबंधे निश्चय करो, निदान ( नियागुं) करो अने बलिचंचा असुरकुमारेहिं देवेहि, देवीहिं य एवं वुत्ते समाणे एयमद्वं नो राजधानीना स्वामी थवानो संकल्प करो. जो तमे अमे कह्यं तेम आढाइ, नो परियाणेइ, तुसिणीए संचिट्टइ, तए णं ते बलिचंचारा- करशो तो अहींथी कालमासे काळ करी तमे बलिचंचा राजधानीमा यहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य तामलिं उत्पन्न थशो, त्या उत्पन्न थया पछी तमे अमारा इंद्र थशो, मोरियपुत्तं दोचं पि, तच्चं पि, तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, तथा अमारी साथे दिव्य भोग्यभोगने भोगवता तमे आनंद अनुजांव-अगं च णं देवाणुप्पिया । बलिचंचारायहाणी अणिंदा, भवशो. ज्यारे ते बलिचंचा राजधानीमा रहेनारा घणा असुरकुमार जाव-ठितिपकप्पं पकरेह, जाव-दोचं पि, तचं पि, एवं वुत्ते देवो अने देवीओए ते तामली बालतपखिने पूर्व प्रमाणे कयुं अने समाणे जाव-तुसिणीए संचिट्टइ, तए णं से बलिचंचारायहाणिवत्थ- ते वातने ते बालतपस्विए आदरी नहीं, स्वीकारी नहीं, पण तेणे व्वया बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य तामलिणा बालतव- चुपकी पकडी, सारे ते बलिचंचा राजधानीमा रहेनारा घणा स्सिणा अणाढाइज्जमाणा, अपरियाणिज्जमाणा, जामेव दिसिं पाउ- असुरकुमार देवो अने देवीओए ते तामली मौर्यपुत्रने बीजी वार भूआ तामेव दिसिं पडिगया. ते णं काले णं, ते णं समये णं अने त्रीजी वार पण त्रण वार प्रदक्षिणा करीने पूर्वनी बात कही. ईसाणे कप्पे अणिंदे, अपुरोहिये या वि होत्था, तए णं से तामिली अर्थात् हे देवानुप्रिय ! हाल अमारी बलिचंचा राजधानी इंद्र अने बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई सद्धिं वाससहस्साई परियागं पाउणित्ता, पुरोहित विनानी छे अने यावत्-तमे तेना स्वामी थवानुं स्वीकारो. दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं जसित्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणार ते असरकमारोए पूर्व प्रमाणे बे. त्रण वार या छेदित्ता, कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे, ईसाणवडिंसए विमाणे, तामली मौर्यपुत्रे काइ पण जवाब न दीधो अने मौन धारण उववायसभाए देवसयणिज्जसि, देवसंतरिए अंगुलस्स असंखेजमा- कयु. पछी छेवटे ज्यारे तामली बालतपखिए ते बलिचंचा राजधागमेचीए ओगाहणाए ईसाणे देविंदविरहकालसमयंसि ईसाणे नीमा रहेनारा घणा असुरकुमार देवोनो अने देवीओनो अनादर १. मूलच्छायाः-येनैव तामलिौर्यपुत्रः तेनैव उपागच्छन्ति, तेनैव उपागत्य तामले: बालतपखिनः उपरि, सपक्षम् , सप्रतिदिशिं स्थित्वा दिव्यां देवर्दिम् , दिव्यां देवद्युतिम्, दिव्यं देवानुभागम् , दिव्यं द्वात्रिंशदुविधं नाट्य विधम् उपदर्शयन्ति; तामलिं बालतपस्विनं निकलः आदक्षिणप्रदक्षिणां कुर्वन्ति, वन्दन्ते, नमस्यन्ति, एवम् अवादिषुः-एवं खल देवानप्रियाः। वयं बलिचचाराजधानीवास्तव्याः बहवोऽसुरकुमारा: देवाच, देव्यश्च देवानुप्रियं वन्दामहे, नमस्यामः, यावत्-पर्युपास्महे; अस्माकं देवानुप्रियाः! बलिचचा राजधानी अनिन्द्रा, अपुरोहिता, वयम् आप ऐनानुप्रियाः1 इन्द्राऽधीनाः, इन्द्राधिष्ठिताः, इन्द्राधीनकार्याः, तद् यूयं देवानुप्रियाः! बलिचचाराजधानीम् आद्रियध्वम्, परिजानीत, स्मरत, अथ वनीत, निदानं प्रकुरुत, स्थितिप्रकल्पं प्रकुरुत, ततो यूयं कालमासे कालं कृखा बलिचञ्चाराजधान्याम् उत्पत्स्यथ, ततो यूयम् अस्माकम् इन्द्रा भावप्यथ, ततो यूयम् अस्माभिः सह दिव्यानि भोग्यभोगानि भुजाना बिहरिष्यथ, ततः स तामलिः बालतपस्वी तैः बलिचचाराजधानीवास्तव्यः बहुभिः अमुरकुमारैः देवैः, देवीभिश्च एवम् उक्तः सन् इममर्थ नो आद्रियते, नो परिजानाति, तुष्णिकः संतिष्ठते. ततस्ते बलिचचाराजधानीवास्तव्याः बहवोछमारा दवाध, देव्यश्च तामलि मौर्यपुत्रं द्वितीयमपि.तृतीयमपि, त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां कुर्वन्ति, यावत्-अस्मार्क देवानुप्रियाः बलिचचाराजधानी आनन्द्रा, यावत्-स्थितिप्रकल्पं प्रकुरुत, यावत्-द्वितीयमपि, तृतीयमपि एवम् उक्तः सन् यावत्-तुष्णिकः संतिटते, ततस्ते बलिचचाराजधानीवास्तव्याः वह वाऽसुरकुमारा देवाथ, देव्यश्च तामलिना बालतपखिना अनाद्रियमाणाः, अपरिज्ञायमानाः,यामेव दिशं प्रादुर्भूताः तामेव दिशिं प्रतिगताः. तस्मिन् काले, तस्मिन् समय इशानः कल्पोऽनिन्द्रः, अपुरोहितवाऽपि अभवत ततः स तामलिः बालतपस्वी बहप्रतिपूर्णानि पष्टिवैषसहस्राणि पर्यायकं पालयित्वा, द्विमासिक्या सलखनया भात्मानं जूषित्वा, सविंशं भकशतम् अनशनेन छित्त्वा, कालमासे कालं कृत्वा ईशाने कल्पे, ईशानावतंसके विमाने, उपपातसभायां देवशयनीये देषरूप्याऽन्तरिते अमुलस्य असंख्येयभागमात्रायाम् अवगाहनायाम् ईशाने देवेन्द्र विरहकालसमये ईशान:-अनु. . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रराियचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३:-उद्देशक १. देविदत्ताए उववण्णे, तए णं से ईसाणे देविंदे, देवराया अहुणोव- कर्यो, तेओर्नु कथन मान्युं नहीं त्यारे ते देवो जे दिशामांथी बने पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तीभावं गच्छइ, तं जहा:-आहारपज्ज- प्रकव्या हता ते ज दिशामा पाछा चाल्या गया. ते काळे, ते समये सीए, जाव-भासा-मणपज्जत्तीए. ईशान कल्प इंद्र अने पुरोहित विनानो हतो. ते वखते तामली बालतपस्विए पूरेपूरां साठ हजार वर्ष सुधी साधु पर्यायने पाळीने, बे मास सुधीनी संलेखनावडे आत्माने सेवाने, एकसोने वीस टंक अनशन पाळीने काळमासे काळ करी ईशान कल्पमा, ईशानावतंसक विमानमां, उपपात सभामां, देवशय्यामा, देववस्त्रथी ढंकाएल अने आंगळनी असंख्येय भाग जेटली अवगाहनामा ईशान कल्पमा देवेंद्रनी गेरहाजरीमा ईशान देवेंद्र पणे जन्म धारण कर्यो. हवे ते ताजा उत्पन्न थएल देवेंद्र, देवराज ईशान पांच प्रकारनी पर्याप्तिवडे पर्याप्तिपणाने पामे छे. अर्थात् आहारपर्याप्तिवडे अने यावत्-भाषामनःपर्याप्तिवडे ते देवेंद्र, देवराज ईशान पर्याप्तपणाने पामे छे. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्यया बहवे असुरकुमारा हवे, बलिचंचा राजधानीमा रहेनारा घणा असुरकुमार देवो देवा य, देवीओ य तामलिं बालतवस्सि कालगतं जाणित्ता, अने देवीओए एम जाण्यु के, तामली बालतपस्वी काळधर्मने ईसाणे य कप्पे देविंदत्ताए उववण्णं पासित्ता महया आसु- पाम्यो, अने ते, ईशान कल्पमां देवेंद्रपणे उत्पन्न थयो. तेथी रुत्ता, कुविया, चंडिकिया, मिसिमिसेमाणा बलिचंचारायहाणीए तेओए घणो क्रोध कर्यो, कोप कर्यो, भयंकर आकार धारण कर्यो गच्छंति, ताए उकिटाए, जाव-जेणेव भारहे अने तेओ बहु गुस्से भराणा. पछी तेओ बधा बलिचंचा राजधावासे, जेणेव तामलित्ती(ए) (नयरीए), जेणेव तामलिस्स बालतव- नीनी वचोवच नीकळ्या अने ते यावत्-उत्कृष्ट गतिवडे जे तरफ स्सिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छंति, वामे पाए सुंबेण बंधइ, भारत वर्ष छे, जे तरफ ताम्रलिप्ती नगरी छे अने जे तरफ तामली तिक्खुत्तो मुहे उद्दहति, तामलित्तीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क- बालतपस्विनुं शरीर छे ते तरफ आवीने ते देवो ते तामली मौर्यचचर-चउम्मुहमहापहेसु आकड़-विकड्रिं करेमाणा, महया महया पुत्रना मुडदाने डाबे पगे दोरडी बांधी, पछी तेना मोढामा त्रण सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयासिः-के सणं भो! से वार थुकी. अने ताम्रलिप्ती नगरीमा सिंगोडाना घाटवाळा मार्गमां, तामली बालतवस्सी सयंगहियलिंगे, पाणामाए पव्वज्जाए पव्वइए ? त्रण शेरी भेगी थाय तेवा मार्गमां-त्रिकमां, चोकमां, चतुर्मुखके स णं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविंदे, देवराया ति कट्टु तामलिस्स मार्गमां, मार्गमा अने महामार्गमां, अर्थात् ताम्रलिप्ती नगरीना बधी बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलति, निंदति, खिसंति, गरिहंति, जातिना मार्गो उपर ते मुडदाने ढसडता ढसडता अने मोटा अवाजे अवमन्नति, तज्जति, तालेति, परिवहति, पव्वहेति, आकडु-विकडिं उद्घोषणा करता ते देवो आ प्रमाणे बोल्या केः-हे !, पोतानी करेंति, हीलेता जाव-आकड़-विकड़ि करेत्ता एगते एडंति, जा- मेळे तपखिनो वेष पहेरनार अने 'प्राणामा' नामनी दीक्षाथी दीक्षित मेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसि पडिगया. तए णं ते ईसाणक- थनार ते तामली बालतपस्वी कोण ? तथा ईशान कल्पमां थएल प्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य, देवीओ य बलिचंचारायहाणिव- देवेंद्र, देवराज ईशान कोण ? एम करीने तामली बालतपस्विना त्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि, देवीहिं य तामलिस्स बाल- शरीरनी हीलना करे छे, निंदा करे छे, खिंसा करे छे, गर्दा तवस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं, निंदिज्जमाणं जाव-आकड़-विकड्रिं करे छे, अपमान करे छे, तर्जना करे छे, मार मारे छे, कीरमाणं पासंति, पासित्ता आसुरुत्ता, जाव-मिसिमिसेमाणा जेणेव कदर्थना करे छे, तेने हेरान करे छे अने आई अवलुं जेम ईसाणे देविंदे, देवराया तेणेव उवागच्छंति, करयलपरिग्गहियं दस- फावे तेम ढसडे छे तथा तेम करीने तेना शरीरने एकांते १. मूलच्छायाः-देवेन्द्रतया उपपन्नः, ततः स ईशानो देवेन्द्रः, देवराजोऽधुनोपपन्नः पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं गच्छति, तद्यथाः-अहारपर्याप्या, यावत्-भाषा-मनःपर्याप्त्या. ततस्ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवोऽसुरकुमाराः देवाश्च, देव्यश्च तामलिं बालतपखिनं कालगतं ज्ञात्वा, ईशाने च कल्पे देवेन्द्रतया उपपन्नं दृष्ट्वा महता आसुरुप्ताः, कुपिताः, चण्ड किताः, मिसमिसयन्तो बलिचञ्चाराजधान्याः मध्यमध्येन निर्गच्छन्ति, तया उत्कृष्टया, यावत्-येनैव भारतं वर्षम् , येनैव ताम्रलिप्ती नगरी, येनैव तामलेः बालतपखिनः शरीरकं तेनैव उपागच्छन्ति, वामं पादं शुम्बेन बध्नन्ति, त्रिकृत्वो मुखे अवष्ठीव्यन्ति, ताम्रलिप्ताया नगर्याः नाटक-त्रिक-चतुष्क-चलर-चतुर्मुखमहापथेषु आकर्षविकर्षिकां कुर्वन्तः, महता महता शब्देन उद्घोषयन्तः उद्घोषयन्तः एवम् अवादिषुः कः एष भोः। स तामलिः बालतपस्वी स्वयंगृहीतलिङ्गः, प्राणामिक्या प्रव्रज्यया प्रव्रजितः, कः एष स ईशाने कल्पे ईशानो देवेन्द्रः, देवराज इति कृखा तामलेः बालतपखिनः शरीरकं हीलयन्ति, निन्दन्ति, कुत्सन्ति, गर्हन्ते, अवमन्यन्ते, तर्जयन्ति, ताडयन्ति, परिव्यथन्ते, प्रव्यथन्ते, आकर्षविकर्षिकां कुर्वन्ति, हीलयिला यावत्-आकर्षविकर्षिकां कृत्वा एकान्ते एडयन्ति, याम् एव दिशिं प्रादुर्भूताः तामेव दिशिं प्रतिगताः. ततस्ते ईशानकल्पवासिनो बहवो वैमानिका देवाश्च, देव्यश्च बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्यैः असुरकुमारैः देवैः, देवीभिश्च तामलेः बालतपखिनः शरीरकं हील्यमानम् , निन्द्यमानं यावत्-आकर्ष विकर्षकं क्रियमाणं पश्यन्ति, दृष्ट्वा आसुरुप्ताः, यावत्-मिसमिसयन्तो येनैव ईशानो देवेन्द्रो देवराजस्तेनैव उपागच्छन्ति, करतलपरिगृहीतं दशनखम्:-अनु० . Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंतक ३.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. नहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं, विजएणं वद्धाति, एवं नाखी जे दिशामाथी ते देवो प्रकव्या हता ते ज दिशामां वयासी:-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे पाछा ते देवो चाल्या गया. हवे ते ईशान कल्पमा रहेअसुरकमारा देवा य, देवीओ य देवाणप्पिये कालगए जाणित्ता नारा घणा वैमानिक देवो अने देवीओए आ प्रमाणे जोयं के. ईसाणे कप्पे इंदत्ताए उववने पासेत्ता आसुरुत्ता, जाव-एगते बलिचंचा राजधानीमा रहेनारा घणा असुरकुमार देवो अने देवीओ एडेंति, जामेव दिसिं पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया; तए णं से बालतपस्वी तामलिना शरीरने हीले छे, निंदे छे, खिसे छे अने ईसाणे देविंदे. देवराया तेसिं ईसाणकप्पवासीणं बहणं वेमाणियाणं यावत्-तेना शरीरने आडं अवळं जेम फावे तेम ढसडे छे. त्यारे ते देवाण य, देवीण य अंतिए एयमटुं सोचा, निसम्म आसुरुत्ते, वैमानिक देवो पूर्व प्रमाणे जोवाथी अतिशय गुस्से भराणा जाव-मिसिमिसेमाणे तत्थेव सयणिज्जवरगये तिवलियं भिउडिं नि- अने यावत्-क्रोधथी मिसमीसाट करता ते (वैमानिक) देवोए डाले साहट्टु बलिचंचारायहाणिं अहे, सपक्खि, सपडिदिसिं सम- देवेंद्र, देवराज ईशाननी पासे जइने बन्ने हाथ जोडवापूर्वक दशे भिलोएइ. तए णं सा बलिचंचा रायहाणी ईसाणेणं देविंदेणं देव- नखने भेगा करी-शिरसावर्त करी-माथे अंजलि करी ते इंद्रने जय रण्णा अहे, सपक्खि, सपडिदिसिं समभिलोइआ समाणी तेणं दिव्व- अने विजयथी वधाव्यो. पछी तेओ आ प्रमाणे बोल्या के:-हे प्पभावेणं इंगालब्भूआ, मुम्मुरब्भूआ, छारियभूआ, तत्तकवेल्लक- देवानुप्रिय !, बलिचंचा राजधानीमा रहेनारा घणा असुरकुमार देवो भूआ, तत्ता समजोइब्भूआ जाया या वि होत्था; तए णं ते बलि- अने देवीओ, आप देवानुप्रियने काळने प्राप्त थएला जाणी, तथा चंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य तं ईशान कल्पमां इंद्रपणे उत्पन्न थएला जोइ ते असुरकुमारो घणा गुस्से बलिचंचारायहाणिं इंगालब्भूयं, जाव-समजोइब्भूअं पासंति, भराणा अने यावत्-तेओए आपना मृतक शरीरने ढसडीने एकांपासित्ता भीआ, उत्तत्था, ससिआ, उविग्गा, संजायमया, सव्वओ तमां मूक्यु. पछी तेओ ज्यांथी आव्या हता, पाछा त्यां चाल्या समंता आधाति, परिधावेंति, अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा गया. ज्यारे देवेंद्र, देवराज ईशाने ते ईशानकल्पमा रहेनारा चिट्ठति, तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा बहु वैमानिक देवो अने देवीओ द्वारा ए वातने सांभळी अने अवधारी, देवा य, देवीओ य ईसाणं देविंद, देवरायं परिकुब्वियं जाणित्ता, त्यारे तेने घणो गुस्सो थयो अने यावत्-क्रोधथी मिसमिसाट करतो, ईसाणस्स देविंदस्स, देवरण्णो तं दिव्वं देविडि, दिव्वं देवज्जुई, त्यां ज देवशय्यामां सारी रीते रहेला ते ईशान इंद्रे कपाळमां त्रण दिव्वं देवाणुभागं, दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा सव्वे सपक्खि आड पडे तेम भवां चडावी, ते बलिचंचा राजधानीनी बराबर सपडिदिसं ठिच्चा करयलपरिगहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए सामे-नीचे-सपक्षे अने सप्रतिदिशे जोयुं. जे समये देवेंद्र, देवराज अंजलिं कट्टु जएणं, विजएणं वद्धाविंति, एवं वयासी:-अहो ! णं ईशाने पूर्व प्रमाणे बलिचंचा राजधानीनी बराबर सामे-नीचेदेवाणुप्पिएहिं दिव्या देविड़ी, जाव-अभिसमण्णागया, तं दिव्वा सपक्षे अने सप्रतिदिशे जोयुं ते ज समये ते दिव्य प्रभाववडे बलिणं देवाणप्पियाणं दिन्वा देविड़ी, जाव-लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णा- चंचा राजधानी अंगारा जेवी थइ गई, आगना कणिया जेवी थइ गया, तं खामेमो देवाणुप्पिया !, खमंतु देवाणुप्पिया !, खमंतुमरिं- गई, राख जेवी थइ गई, तपेली वेळुना कणिया जेवी थइ गई अने हंत णं देवाणप्पिया 1, णाई भुज्जो भुज्जो एवं करणयाए णं ति खूब तपेली लाय जेवी थइ गई. हवे ज्यारे ते बलिचंचा राज कट्ट एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो भुज्जी खामेंति, तए णं से ईसाणे धानीमा रहेनारा घणा असुरकुमार देवो अने देवीओए ते बलिदेविंदे, देवराया तेहिं बलिचंचारायहाणिवत्थव्वेहिं बहूहिं असुर- चंचा राजधानीने अंगारा जेवी थएली अने यावत्-खूब तपेली कुमारोहं देवेहिं, देवीहि य एयमद्वं सम्मं विणएणं भुजो भुज्जो लाय जेवी थएली जोइ, तेवी जोइने असुरकुमारो भय पाम्या, त्रास खामिए समाणे तं दिव्वं देविडिं, जाव-तेयलेस्सं पडिसाहरइ, पाम्या, सुकाइ गया उद्वेगवाळा थया अने भयथी व्यापी गया १. मूलच्छायाः-शीर्षावर्त मस्तके अजलिं कृत्वा जयेन, विजयेन वर्धापयन्ति, एवम् अवादिषुः-एवं खलु देवानुप्रियाः! वलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवोऽसुरकुमाराः देवाश्र, देव्यश्च देवानुप्रियं कालकृतं ज्ञात्वा ईशाने कल्पे इन्द्रतया उत्पन्नं दृष्ट्वा आसुरुप्ताः, यावत्-एकान्ते एडयन्ति, यामेव दिशिं प्रादुर्भूतास्ताम् एव दिशि प्रतिगताः; ततः स ईशानो देवेन्द्रः, देवराजस्तेषाम् ईशानकल्पवासिना बहूनां वैमानिकानां देवानां च, देवीनां च अन्तिके इमम् अर्थ श्रुत्वा, निशम्य आसुरुप्तः, यावतू-मिसमिसयन् तत्रैव शयनीयवरगतस्त्रिवलिको भृकुटी ललाटे संहृत्य बलि चञ्चाराजधानीम् अधः, सपक्षम्, सप्रतिदिर्शि समभिलोकयति. ततः सा बलिचचा राजधानी ईशानेन देवेन्द्रेण, देवराजेन अधः, सपक्षम्, सप्रतिदिशिं समभिलोकिता सती तेन दिव्यप्रभावेण अङ्गारभूता, मुम्मुरभूता, भस्मीभूता, तप्तकटाहकभूता, तप्ता समज्योतिर्भूता जाता चाऽपि अभवत्। ततस्ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्या बहवोऽसुरकुमाराः देवाश्च, देव्यश्च तां वलिचचाराजधानीम् अङ्गारभूताम् , यावत्-समज्योतिर्भूतां पश्यन्ति, दृष्ट्वा भीताः, उन्नस्ताः, शुष्काः, उद्विग्नाः, संजातभयाः, सर्वतः समन्ततः आधावन्ति, परिधावन्ति, अन्योन्यस्य कायं समाश्लिष्यन्तस्तिष्ठन्ति, ततस्ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवः असुरकुमारा देवाश्च, देव्यश्च ईशानं देवेन्द्र देवराजं परिकुपितं ज्ञात्वा, ईशानस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य तां दिव्यां देवर्द्धिम् , दिव्यां देवद्युतिम् , दिव्यं देवानुभागम् , दिव्यां तेजोलेश्याम् असहमानाः सर्वे सपक्षम् , सप्रतिदिशं स्थित्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शीर्षावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जयेन, विजयेन वर्धापयन्ति, एवम् अवादिषुः-अहो ! देवानुप्रियः दिव्या देवर्द्धिः, यावत्-अभिसमन्वागता, सा दिव्या देवानुप्रियाणां दिव्या देवर्द्धिः, यावत्-लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता, तत् क्षमयामो देवानुप्रियाः, क्षमन्तां देवानुप्रियाः 1, क्षमितुम् अर्हन्तु देवानुप्रियाः1; नैव भूयो भूयः एवं करणतया इति कृला इमम् अर्थ सम्यग् विनयेन भूयो भूयः क्षमयन्ति, ततः स ईशानो देवेन्द्रः, देवराजः तैः बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्यैः बहुभिः असुरकुमारैः देवैः, देवीभिश्च एतम् अर्थ सम्यग् विनयेन भूयो भूयः क्षमितः सन् तां दिव्यां देवर्द्धिम् , यावत्-तेजोलेश्यां प्रतिसंहरतिः-अनु० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ तेप्पभि चणं गोयमा ! ते वलिचंचारायहाणिवत्थव्वा बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य ईसाणं देविंद, देवरायं आढंति, जाव- पज्जुवासंति, ईसाणस्स देविंदस्स, देवरण्णो आणा - उववायवयण–निद्देसे चिट्टंति, एवं खलु गोयमा ! ईसाणेणं देविंदेणं, देवरण्णा सा दिव्वा देवडी जाव - अभिसमण्णागया. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे १८. प्र० - ईसाणस्स भंते ! देविंदस्स, देवरण्णो केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? १८. उ० – गोयमा ! सातिरेगाई दो सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता. १९. प्र० - ईसाणे णं भंते ! देविंदे, देवराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, जाव- कहिं गच्छिहिति, कहि उववज्जिहिति ? १९. उ० -- गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जावअंतं काहिइ. शतक २. - उद्देशक १. तथा तेओ बघा चारे बाजु दोडवा लाग्या, भागवा लाग्या, अने एक बीजानी सोडमां भरावा लाग्या. ज्यारे ते बलिचंचा राजधानीमां रहेनारा असुरकुमार देवो अने देवीओए 'देवेंद्र, देवराज ईशान कोप्यो छे' एम जाण्यं त्यारे तेओ-( ते बधा असुरकुमारो ) देवेंद्र, देवराज ईशाननी ते दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकांति, दिव्य देवप्रभाव अने दिव्य तेजोलेश्याने नहीं सहता, बराबर देवेंद्र, देवराज ईशाननी सामे, उपर, सपक्षे अने सप्रतिदिशे बेसी, दशे नख भेगा थाय ते बन्ने हाथ जोडवापूर्वक शिरसावर्तयुक्त माथे अंजलि करी ईशान इंद्रने जय अने विजयवडे वधामणी आपी आ प्रमाणे बोल्या के:- अहो ! आप देवानुप्रिये दिव्य देवऋद्धि यावत् प्राप्त करेली, अने आप देवानुप्रिये लब्ध करेली; प्राप्त करेली अने सामे आणेली एवी दिव्य देवऋद्धि अमे जोई. हे देवानुप्रिय ! अमे आपनी पासे क्षमा मागीए छीए, हे देवानुप्रिय ! आप अमने क्षमा आपो, हे देवानुप्रिय ! तमे क्षमा करवाने योग्य छो; वारंवार - फरी वार- अमे ए प्रमाणे नहीं करीए, एम करी ए अपराध बदल तेनी पासे विनयपूर्वक सारी रीते क्षमा मागे छे. हवे ज्यारे ते बलिचंचा राजधानीमां रहेनारा घणा असुरकुमार देवों अने देवीओए पोताना अपराध बदल ते देवेंद्र, देवराज ईशाननी पासे विनयपूर्वक सारी रीते वारंवार क्षमा मागी त्यारे ते ईशान इंद्रे ते दिव्य देवऋद्धिने अने यावत्-मूकेली तेजोलेश्याने पाछी खेंची लीधी. अने हे गौतम ! सारथी ज मांडीने ते बलिचंचा राजधानीमा रहेनारा अनेक असुरकुमार देवो अने देवीओ ते देवेंद्र, देवराज ईशानो आदर करे छे, यावत्-तेनी सेवा करे छे, तथा व्यारथी ज देवेंद्र, देवराज ईशाननी आज्ञामां, सेवामां, आदेशमां अने निर्देशमां ते असुरकुमार देवो तथा देवीओ रहे छे. हे गौतम! देवेंद्र, देवराज ईशाने ते दिव्य देवऋद्धि यावत्-ए प्रमाणे मेळवी. १८. प्र० - हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज ईशाननी स्थिति केटला काळ सुधी कही छे ! १८. उ० - हे गौतम । तेनी स्थिति बे सागरोपम करतां कांक अधिक कही छे. १९. प्र०—हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज ईशान पोताना आयुष्यनो क्षय - पोतानी आवरदा पूरी - थया पछी ते देवलोकथी च्यवीने क्यां जशे अने क्या उत्पन्न थशे ! १९. उ० -- हे गौतम! ते, महाविदेह क्षेत्रमां जइने सिद्ध थशे अने यावत् - पोताना समस्त दुःखोनो अंत करशे. १. मूलच्छायाः -- तत्प्रभृति च गौतम ! ते बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्याः बहवोऽसुरकुमाराः देवाथ, देव्यश्व ईशानं देवेन्द्रम् देवराजम् आद्रियन्ते, यावत् पर्युपासते, ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य आज्ञा- उपपात वचननिर्देशे तिष्ठन्ति एवं खलु गौतम | ईशानेन देवेन्द्रेण, देवराजेन सा दिव्या देवर्द्धिः यावत् - अभिसमन्वागता. ईशानस्य भगवन् ! देवेन्द्रस्यं देवराजस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम । सातिरेके द्वे सागरोपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता. ईशानो भगवन् ! देवेन्द्रः, देवराजस्तस्माद् देवलोकाद् आयुः क्षयेण यावत्- कुत्रं गमिष्यति इति, कुत्र उत्पत्स्यते इति ? गौतम | महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति इति यावत्-अन्तं करिष्यतिः - अनु० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २०. प्र० सैकस्स णं भंते ! देविंदस्स, देवरण्णो विमाणे- २०. प्र०-हे भगवन् ! शुं देवेंद्र, देवराज शक्रनां विमानो तो ईसाणस्स देविंदस्स. देवरण्णो विमाणा ईसिं उच्चयरा चेव, करतां देवेंद्र, देवराज ईशाननां विमानो जराक उंचां . जराक ईसि उन्नयतरा चेव, ईसाणस्स वां देविंदस्स, देवरण्णो विमाणे- उन्नत छे ? अने देवेंद्र, देवराज ईशाननां विमानो करतां देवेंद्र. हितो सकस दोविंदस्स, देवरण्णो विमाणा ईसिं णीययरा चेव, देवराज शकनां विमानो जराक नीचां छे. जराक निम्न छे ? ईसिं निण्णयरा चेव ? २०. उ०—हता, गोयमा ! सक्कस्स तं चेव सव्यं नेयव्वं. २०. उ०-हे गौतम! हा, ते ज प्रमाणे छे-अहीं उपरना सूत्रनो पाठ उत्तररूपे समजवो. २१.प्र०–से केणटेणं ? २१. प्र०-हे भगवन् ! तेम कहेवार्नु शुं कारण ! २१. उ०-गोयमा ! से जहा नाम ए करयले सिया-देसे २१. उ०-हे गौतम ! जेम कोइ एक हाथर्नु तळिउंबजे से उन्नए, देसे पीए, देसे निण्णे : से तेणद्वेणं गोयमा! हथेळी-एक भागमा उंचुं होय, एक भागमा उन्नत होय तथा एक सकस्स देविंदस्स, देवरण्णो जाव-ईसि निण्णयरा चेव. भागमां नीचुं होय अने एक भागमां निम्न होय ते ज रीते विमानो संबंधे पण समजवु अने ए ज कारणथी पूर्व प्रमाणे का छे. २२ प्र०-पभ णं भंते ! सके देविंदे, देवराया ईसाणस्स २२. प्र०-हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज शक्र देवेंद्र, देवराज देविंदस्स, देवरण्णो अंति पाउभवित्तए ? ईशाननी पासे प्रकट थवाने-पासे आववाने-समर्थ छे ? २२. उ०—हन्ता, पभू. २२. उ०—हे गौतम ! हा. २३. प्र०-से णं भंते ! किं आढायमाणे पभू, अणाढाय- २३. प्र०—हे भगवन् ! ज्यारे ते, तेनी पासे आवे त्यारे तेनो माणे पभू ? आदर करतो आवे के अनादर करतो आवे? २३. उ०-गोयमा ! आढायमाणे पभू, नो अणाढायमाणे पभू. २३. उ०—हे गौतम ! ज्यारे ते (शक ), ईशाननी पासे आवे त्यारे तेनो आदर करतो आवे पण अनादर करतो न आवे. २४. प्र०—पभू णं भंते ! ईसाणे देविंदे, देवराया सक्कस्स २४. प्र०—हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज ईशान देवेंद्र, देवदेविंदस्स देवरण्णो अंतिअंपाउब्भवित्तए ? राज शक्रनी पासे आववाने समर्थ छे ? २४. उ०—हन्ता, पभू. २४. उ०--हे गौतम ! हा. २५. प्र०--से णं भंते ! किं आढायमाणे पभू, अणाढायमाणे २५. प्र०—हे भगवन् ! ज्यारे ते-(ईशानेंद्र), तेनी पासे आवे पभ ? त्यारे ते (शकेंद्र) नो आदर करतो आवे के अनादर करतो आवे ? २५. उ०-गोयमा ! आढायमागे वि पभू, अणाढायमाणे २५. उ०—हे गौतम ! ज्यारे ते-(ईशानेंद्र ), शक्रंदनी पासे. वि पभू. आवे त्यारे ते, तेनो आदर करतो आवे अने अनादर करतो पण आवे. २६. प्र०—पभू णं भंते ! सक्के देविंदे, देवराया ईसाणं २६. प्र०—हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज शक्र देवेंद्र, देवराज देविंद, देवरायं सपक्खिं, सपडिदिसिं समभिलोइत्तए ? ____ ईशाननी सपक्षे (चारे बाजुए) सप्रतिदिशे (बधी तरफ) जोवाने समर्थ छे २६. उ०—जहा पादुभवणा, तहा दो वि आलावगा नेयव्वा. २६. उ०—हे गौतम ! जेम पासे आववा संबंधे बे आलापक कह्या, तेम जोवा संबंधे पण बे आलापक कहेवा.. . .. २७. ५०-पभू णं भंते ! सके देविंदे, देवराया ईसाणेणं २७. प्र०-हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज शक्र, देवेंद्र, देवदेविदेणं, देवरण्णा सद्धिं आलावं वा, संलावं वा करेत्तए ? राज ईशाननी साथे आलाप संलाप-वातचित करवा माटे समर्थ छ? १. मूलच्छायाः शक्रस्य भगवन् ! देवेन्द्रस्य, देवराजस्य विमानेभ्य ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमानानि ईषद् उच्चतराणि एत्र, ईषद् उन्नततराणि एव; ईशानस्य वा देवेन्द्रस्य, देवराजस्य विमानेभ्यः शकस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य विमानानि ईषद् नीचतराणि चैव, ईषद् निम्नतराणि एव ? हन्त, गौतम शकस्य तचैव सर्व ज्ञातव्यम्. तत् केनाऽर्थन? गीतम! तद्यथा नाम करतलं स्याद्-देशे उच्चम् , देशे उन्नतम् , देशे नोचम् , देशे निम्नं तत् तेनाऽर्थेन गौतम ! शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य यावत्-ईषद् निम्रतराणि चैव. प्रभुभंगवन् ! शको देवेन्द्रः, देवराजः ईशानस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य अन्तिकं प्रादुर्भवितुम् ! हन्त, प्रभुः स भगवन् ! किम् आद्रियमाणः प्रभुः, अनाद्रियमाणः प्रभुः? गीतम! आद्रियमाणः प्रभुः, नोऽनाद्रियमाणः प्रभुः प्रभुभगवन् ! ईशानो देवेन्द्रः, देवराजः शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य अन्तिकं प्रादुर्भवितुम् ? हन्त, प्रभुः. स भगवन् । किम् आद्रियमाणः प्रभुः, अनाद्रियमाणः प्रभुः ? गौतम ! आद्रियमाणोऽपि प्रभुः, अनाद्रियमाणोऽपि प्रभुः. प्रभुभगवन् ! शको देवेन्द्रः, देवराजः ईशानं देवेन्द्रम् , देवराजं सपक्षं सप्रतिदिशं सममिलोकयितुम् ! यथा प्रादुर्भावना, तथा द्वौ अपे आलापको ज्ञातव्यो. प्रभुभगवन् ! शक्रो देवेन्द्रो देवराजः ईशानेन देवेन्द्रेण देवराजेन सार्धम् आलापं वा, संलापं वा कतम् ?:-अनु. . ५भ. सू. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक ? २७. उ०-हन्तो, गोयमा ! (पभू) जहा पादुभवो. २७. उ०-हे गौतम ! हा, ते वातचित करवा माटे समर्थ छे-जेम पासे आववा संबंधे जणाव्युं तेम वातचित करवा संबंधे पण समजवू. २८. प्र०-अस्थि णं भंते ! तेसिं सक्की-साणाणं देविंदाणं, २८. प्र०-हे भगवन् ! ते देवेंद्र, देवराज शक अने ईशादेवराईणं किच्चाई, करणिज्जाइं समप्पजति ? न वचे प्रयोजन के विधेय-कार्य-होय छे ? २८. उ०—हन्ता, अत्थि. २८. उ०—हे गौतम ! हा, होय छे. २९. प्र०-से कहमिदाथि पकरति ? २९. प्र०-हे भगवन् ! हमणां तेओ पोतपोताना कार्यने केवी रीते करे छे? २९. उ०-गोयमा! ताहे वे णं से सके देविंदे, देवराया २९. उ०—हे गौतम ! ज्यारे देवेंद्र, देवराज शक्रने कार्य होय ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतिअंपाउन्भवइ, ईसाणे वा देविदे, त्यारे ते देवेंद्र, देवराज ईशाननी पासे प्रादुर्भवे छे-आवे छे अने, देवराया सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो अंतिअंपाउन्भवइ-इति भो। ज्यारे देवेंद्र, देवराज ईशानने कार्य होय त्यारे ते देवेंद्र, देवराज सक्का । देविंदा ! देवराया ! दाहिणलोगाहिवई; इति भो । शक्रनी पासे प्रादुर्भवे छे. तेओनी परस्पर बोलवानी रीति आवी ईसाणा ! देविंदा ! देवराया। उत्तरडुलोगाहिवई!. इति भो । छ:-हे दक्षिण लोकार्धना धणी देवेंद्र देवराज शक ! अने हे उत्तर इति भो । त्ति ते अण्णमण्णस्स किच्चाई, करणिज्जाइं पचणुब्भव- लोकार्थना धणी देवेंद्र देवराज ईशान!-ए प्रमाणे संबोधनें संबोधी माणा विहरंति. तेओ पोतपोतानुं कार्य करता रहे छे. ३०. प्र०-अत्थि णं भंते ! तेसि सक्की-साणाणं देविंदाणं, ३०. प्र०—हे भगवन् ! ते बन्ने देवेंद्र, देवराज शक अने देवराईणं विवादा समुप्पज्जति ? देवेंद्र, देवराज ईशान-वच्चे विवादो थाय छे ? ३०. उ०-हंता, अत्थि. ३०. उ०—हे गौतम ! हा, ते बन्ने वच्चे विवादो थाय छे. ३१.प्र०—से कहमिदाणिं पकरेंति ? ३१. प्र०-हे भगवन् ! ज्यारे ते बे वच्चे विवाद थाय छे स्यारे तेओ शुं करे छ ? ३१. उ०-गोयमा ! ताहे चेव णं ते सकी-साणा देविंदा, ३१. उ०—हे गौतम ! ज्यारे ते बे वच्चे विवाद थाय छे देवरायाणो सणंकुमारं देविंद, देवरायं मणसी-करति, तए णं से सारे तेओ, देवेंद्र देवराज सनत्कुमारने संभारे छे अने संभारतां सणंकमारे देविंदे, देवराया तेहिं सक्की-साणेहिं देविंदेहि, देवराईहिं ज ते देवेंद्र, देवराज सनत्कुमार, देवेंद्र देवराज शक्र अने ईशामणसी-कए समाणे खिप्पामेव सकीसाणाणं देविंदाणं, देवराईणं ननी पासे आवे छे. तथा ते आवीने जे कहेले तेने तेओ माने - अंतिअंपाउब्भवइ, जं से बदइ तस्स आणा-उववाय-वयण-निद्देसे ते बन्ने इंद्रो तेनी आज्ञामां, सेवामां, आदेशमां अने निर्देशमा रहे छे. चिन्ति. ३२.प्र०—संणंकमारे भंते ! देविंदे, देवराया किं भव- ३२. प्र०—हे भगवन् ! शुं देवेंद्र, देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिए, अभवसिद्धिए ? सम्मदिट्टी, मिच्छदिट्ठी ? परित्तसंसारए, सिद्धिक छे. अभवसिद्धिक छे. सम्यग्दृष्टि छ, मिथ्यादृष्टि छे, मित अणंतसंसारए ? सलभबोहिए, दल्लभवोहिए ? आराहए, विराहए? संसारीले अमित अनंत सारी मलम बोधिवालो के वर्लभ चरिमे, अचरिमे ? बोधिवाळो छे, आराधक छे, विराधक छे, चरम छे के अचरम छे ? ३२. उ०-गोयमा ! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए, ३२. उ०—हे गौतम ! देवेंद्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक १. मूलच्छायाः-हन्त, गौतम! (प्रभुः)यथा प्रादुर्भवः. अस्ति भगवन् ! तयोः शके-शानयोः देवेन्द्रयोः देवराजयोः कृत्यानि, करणीयानि समुत्पद्यन्ते ? हन्त, अस्ति. तत् कथम् इदानी प्रकुरुतः ? गौतम ! तदैव स शको देवेन्द्रो देवराजः ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकं प्रादुर्भवति, ईशानो वा देवेन्द्रो देवराजः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकं प्रादुर्भवति-इति भोः शक्र ! देवेन्द्र! देवराज ! दक्षिणार्धलोकाधिपते !. इति भोः ईशान ! देवेन्द्र ! देवराज ! उत्तरार्धलोकाधिपते!. इति भोः ! इति भोः! इति तो अन्योन्यस्य कृयानि, करणीयानि प्रत्लनुभवन्तौ विहरतः. अस्ति भगवन् ! तयोः शके-शानयोः देवेन्द्रयोः, देवराजयोः विवादाः समुत्पद्यन्ते ? हन्त, अस्ति. तत् कथम् इदानीं प्रकुरुतः ? गौतम ! तदैव तौ शकेशानौ देवेन्द्री देवराजौ सनकुत्मार देवेन्द्रम् , देवराज मनसि कुरुतः, ततः स सनत्कुमारो देवेन्द्रो देवराजस्ताभ्यां शके-शानाभ्यां देवेन्द्राभ्यां देवराजाभ्यां मनसि कृतः सन् क्षिप्रम् एव शके-शानयोः देवेन्द्रयोः देवराजयोः अन्तिकं प्रादुर्भवति, यत् स वदति तस्य आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठतः, सनत्कुमारो भगवन् ! देवेन्द्रो देवराजः किं भवसिद्धिकः, अभवसिद्धिकः ? सम्यग्दृष्टिः, मिथ्यादृष्टिः ? परीतसंसारकः, अनन्तसंसारकः ? सुलभबोधिकः, दुर्लभबोधिकः ? आराधकः, विराधकः ? चरमः, अचरमः ? गौतम ! सनत्कुमारो देवेन्द्रो देवराजो नवसिद्धिकः-अनु. . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. नो अभवसिद्धिए. एवं सम्मद्दिट्टी, परित्तसंसारए, सुलभबोहिए, छे, पण अभवसिद्धिक नथी. ए रीते ते सम्यग्दृष्टि छ, मिथ्यादृष्टि आराहए, चरमे-पसत्थं नेयव्वं. नथी. मित संसारी छे, अनंत संसारी नथी. सुलभ बोधिवाळो छे, दुर्लभ बोधिवाळो नथी. आराधक छे, विराधक नथी. चरम छे अने अचरम नथी-अर्थात् ते संबंधे बधुं प्रशस्त जाणवू. ३३. प्र०—से केणद्वेणं भन्ते !? ३३. प्र०—हे भगवन् ! तेम कहेवानुं शुं कारण ? ३३. उ०-गोयमा ! सणंकुमारे देविंदे देवराया बहूणं सम- ३३. उ०-हे गौतम ! देवेंद्र, देवराज सनत्कुमार घणाश्रमण, गाणं, बहूणं, समणीणं; बहणं सावयाणं, बहूर्ण साविआणं हिअ- घणी श्रमणीओ-साध्वीओ, घणा श्रावक अने घणी श्राविकाओनो कामए, सुहकामए, पत्थकामए, आणुकंपिए, निस्सेयसिए, हिअ-सुह- हितेच्छु छे, सुखेच्छु छे, पथ्येच्छु छे, तेओना उपर अनुकंपा करनार (निस्सेयसिए निस्सेसकामए.) से तेणटेणं गोयमा ! सणंकुमारे णं छे, तेओर्नु निःश्रेयस इच्छनार छे तथा तेओना हितनो, सुखनो अने भवसिद्धिए, जाव-नो अचरिमे. निःश्रेयसनो अर्थात् ए बधांनो इच्छुक छे, माटे हे गौतम ! ते सन त्कुमार इंद्र भवसिद्धिक छे यावत्-ते चरम छे, पण अचरम नथी. ३४. प्र०-सणं कुमारस्स णं भंते ! देविंदस्स, देवरण्णो ३४. प्र०--हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज सनत्कुमारनी स्थिति केवइयं कालं ठिई (ती) पण्णचा ? केटला काळ सुधीनी कही छे ? ३४. उ०-गोयमा ! सत्त सागरोवमाणि ठिई पण्णत्ता. ३४. उ०—हे गौतम ! तेनी स्थिति सात सागरोपमनी कही छे ३५. प्र०-से णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खयेणं ३५. प्र०-भगवन् ! तेनी आवरदा पूरी थया पछी ते, जाव-कहिं उववजिहिइ ? देवलोकथी च्यवी यावत्-क्यां उत्पन्न थशे? ३५. उ०---गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिड, जाव- ३५. उ०-हे गौतम! ते महाविदेह क्षेत्रमा सिद्ध थशे, यावत् अंतं करेहिइ. तेनां सर्व दुःखोनो नाश करशे. सेवं भंते !, सेवं भंते !. __ हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. गाहाओ: (एम कही यावत्-विचरे छे.) छट्ठ-द्वम मासो उ अद्धमासो वासाई अट्ट छम्मासा, गाथा:-तिष्यक श्रमणनो तप छह अने एक मासन अनशन तीसग-कुरुदत्ताणं तव-भत्तपरिण्णा-परियाओ. छे. कुरुदत्त श्रमणनो तप अट्ठम अने अडधा मासर्नु अनशन छे. तिष्यक श्रमणनो साधुपर्याय आठ वर्षनो अने कुरुदत्त श्रमणनो उच्चत्त विमाणाणं पाउभव पेच्छणा य संलावे, साधुपर्याय छ मासनो छे अर्थात् ए बे श्रमणोने लगती बीना आ किचि विवादुप्पत्ती सणंकुमारे य भवियत्तं (ब) उद्देशकमां आवी छे अने बीजी बीना-विमानोनी उंचाई, इंद्रन इंद्रनी पासे जवू, जोवू, संलाप, कार्य, विवादनी उत्पत्ति, तेनो निवेडो अने सनत्कुमारमा भव्यपणुं; ए बीनाओ पण आ उद्देश कमां कही छे. मोया सम्मत्ता. 'मोका समाप्त. भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते ततिअसये पढमो मोआ-उद्देसो सम्मत्तो. ८. इन्द्राणां वैक्रियशक्तिप्ररूपणप्रक्रमाद् ईशानेन्द्रेण प्रकाशितस्य आत्मीयस्य वैक्रियरूपकरणसामर्थ्यस्य, तेजोलेझ्यासामर्थ्यस्य चोपदर्शनाय इदमाहः–'ते ण' इत्यादि, 'जहेव रायप्पसेणइज्जे'त्ति यथैव राजप्रश्नीयाख्येऽध्ययने सूरियाभदेवस्य वक्तव्यता, तथैव चेह ईशानेन्द्रस्य. किमन्ता? इत्याहः-'जाव दिव्वं देविडिंति, सा चेयमर्थसंक्षेपतः-सभायां सुधर्मायाम् , ईशाने सिंहासने अशीत्या सामानिक १. मूलच्छायाः-नो अभवसिद्धिकः, एवं सम्यग्दृष्टिः, परीतसंसारकः, सुलभबोधिकः, आराधकः, चरमः-प्रशस्तं ज्ञातव्यम्. तत् केनार्थेन भगवन् !? गौतम ! सनत्कुमारो देवेन्दो देवराजो बहूनां श्रमणानाम् , बहीनां श्रमणीनाम् ; बहूनां श्रावकाणाम्, बहीनां श्राविकाणां हितकामुकः, सुखकामकः पथ्यकामुकः, अनुकम्पितः, नैश्रेयसिकः, हित-सुख-(नैश्रेयसिकः) निःश्रेयसकामुकः, तत् तेनार्थेन गौतम! सनत्कुमारो भवसिद्धिकः, यावत्-नो अचरमः. सनत्कुमारस्य भगवन् । देवेन्द्रस्य देवराजस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गौतम ! सप्त सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता. स भगवन् ! तस्माद् देवलोकाद् आयुःक्षयेण यावत्-कुत्र उत्पत्स्यते ? गौतम | महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति, यावत्-अन्तं करिष्यति. तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् !. गाथाः-पष्ठा-5टमा मासस्तु अर्धमासो वर्षाणि अष्ट षण्मासाः, तिष्यक-कुरुदत्तयोः तपो-भक्तपरिज्ञा-पर्यायः. उच्चत्वं विमानानां प्रादुर्भवः प्रेक्षणा च संलापः, कृत्यं विवादोत्पत्तिः सनत्कुमारे च भव्यत्वम्(भवितव्यम् ). मोका समाप्ता:--अनु. १. आ वात (उद्देशक) मोका नगरीमा कहेवाएल होदाथी चालु उद्देशक- नाम पण मोका राख्युं छ:-अनु. . Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. सहौः, चतुर्भिर्लोकपालैः, अष्टाभिः सपरिवाराभिरग्रमहिषीभिः, सप्तभिरनीकैः, सप्तभिरनीकाधिपतिमिः, चतसृभिश्चाशीतिभिरात्मरक्षदेवसहस्राणाम् , अन्यैश्च बहुभिर्देवैः, देवीभिश्च परिवृतो महता आहतनाट्यादिरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति स्म. इतश्च जम्बूद्वीपमवधिनाऽऽलोकयन् भगवन्तं महावीरं राजगृहे ददर्श, दृष्ट्वा च ससंभ्रममासनादुत्तस्थौ, उत्थाप च सप्ताष्टानि पदानि तीर्थकराभिमुखमाजगाम. ततो ललाटतटघटितकरकुड्मलो ववन्दे, वन्दित्वा चाभियोगिकदेवान् शब्दयांचकार. एवं च तानवादीत्:-गच्छत भो राजगृहं नगरम् , महावीरं भगवन्तं वन्दध्वम् , योजनपरिमण्डलं च क्षेत्रं शोधयत, कृत्वा चैवं मम निवेदयत. तेऽपि तथैव चक्रः, ततोऽसौ पदायनीकाधितिं देवमेवमवादीत:-भोः ! भोः ! देवानां प्रिय ! ईशानावतंसके विमाने घण्टामास्फालयन् घोषणां कुरु-'यदुत गच्छति भोः ! ईशानेन्द्रो महावीरस्य वन्दनाय, ततो यूयं शीघ्रं महा तस्यान्तिकमागच्छत'. कृतायां च तेन तस्यां बहवो देवाः कुतूहलादिभिः तत्समीपमुपागताः. तैश्च परिवृतोऽसौ योजनलक्षप्रमाणयानविमानारूढोऽनेकदेवगणपरिवृतः, नन्दीश्वरे द्वीपे कृतविमानसंक्षेपो राजगृहनगरमाजगाम. ततो भगवन्तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य चतुर्भिरङ्गुन्डैर्भुवमप्राप्तं विमानं विमुच्य भगवत्समीपमागत्य भगवन्तं वन्दित्वा पर्युपास्ते स्म. ८. आ चालु प्रकरण इंद्रोनी वैक्रियशक्तिना प्ररूपण परत्वे छे, तो हवे इंद्रे प्रकाशेल-पोतानां वैक्रियरूपो करवाना सामर्थ्यने तथा तेना तेजोलेश्या संबंधी सामर्थ्यने देखाडवा आ सूत्र कहे छः-[ 'ते ण' इत्यादि.] [ 'जहेव रायपसेणइजेत्ति ] राजप्रश्नीय (रायपसेणी) नामना अध्य १. आराजप्रश्नीय' नामर्नु एक सूत्र छे, जे उपांगरूप छे. अने बार उपांगोमां तेनुं स्थान बीजं आवे छे. जैन संप्रदायमा १२ अंगसूत्रो छे अने १२ उपांग सूत्रो छे-कयु सूत्र कया अंगर्नु उपांगरूप छे, ते विषे नीचे प्रमाणे समजवान छ : “अनानि द्वादश, उपानानि अपि अझैकदेशप्रपञ्चरूपाणि प्रायः प्रत्यग- अंगो बार छे अने एक एक अंगर्नु उपांग एक एक होवाथी उपांगो पण मेकैकभावात् तावन्ति एव. तत्र अङ्गानि आचाराजादीनि प्रतीतानि, बार छे. ते आ प्रमाणे:तेषाम् -उपाङ्गानि क्रमेण अमूनि: अंगसूत्र-उपांगसूत्र. १. आचाराङ्गस्य आपपातिकम्. २ सूत्रकृदग्नस्य राजप्रश्नीयम्. ३ स्था- आचारांग-औपपातिक. सूत्रकृतांग-राजप्रश्नीय (8) रायपसेगी. नाङ्गस्य जीवा (जीवा) भिगमः, ४ समवायाजस्य प्रज्ञापना. ५ भगवत्याः स्थानांग-जीवाजीवाभिगम. समवायांग-प्रज्ञापना-पनवणा. भगसूर्यप्रज्ञप्तिः, ६ ज्ञाताधर्मकथाशस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः, ७ उपासकदशाहस्य बती-सूर्यप्रज्ञप्ति. ज्ञाताधर्म-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उपासकदशा-चन्द्रप्रज्ञप्ति. चन्द्रप्रज्ञप्तिः- ८ अन्तकृद्दशाझास्य कल्पिका. ९ अनुत्तरोपपातिकस्य कल्पवत- अंतकृद्दशा--कल्पिका. अनुत्तरौपपातिक-कल्पवतंसिका. प्रश्नव्याकरणसिका. १. प्रश्नव्याकरणस्य पुष्पिता(का). ११ विपाकश्रुतस्य पुष्पचूलिका. पुष्पिता(का). विपाक-पुष्पपूलिका. दृष्टिवाद-वण्हिदशा. १२ दृष्टिवादस्य वृष्णिदशा-वहिदशा. ( अन्धकवृष्णिदशा) -(जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति पृ० १ बा.) उपर जणावेलो अंग अने उपांगोनो आनुक्रमिक उल्लेख कोई प्राचीन ग्रंथमा मळी शकतो नथी. नंदीसूत्रना मूळमां श्रुतज्ञानना विभागो दर्शावतां आ जातनो क्रमिक उल्लेख दर्शाव्यो नथी. जो के ते उलेखमां आ १२ उपांगोनो नामनिर्देश करेलो छे, परंतु उपांग तरीके नहि, तेम अमुक अंगर्नु अमुक उपांग छ ए रीते पण नहि अर्थात् नंदीसूत्रना मूळमां तेम टीकामां कोई प्रकारे उपांगनो तेम तेना क्रमनो उल्लेख मळी शकतो नथी. तेमा जे उल्लेख मळे छे ते आ प्रमाणे छे :___ "तं समासओ दुविहं पण्णतं, तं जहा:-अंगपविटुं, अंगबाहिरं. से किं “संक्षेपथी विचारीए तो श्रुतज्ञान बे प्रकारचं छ:--अंगरूप अने अंग तं अंगबाहिरै? अंगवाहिरं दुविहं पण्णतं, तं जहाः-आवस्सयं, आवस्सय- सिवायन. अंग सिवायर्नु श्रुतज्ञान के प्रकारर्नु छ:--आवश्यक अने आव. वइरितं च. से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं छब्बिई पणतं, तं जहा:-सा. श्यक सिवायर्नु आवश्यकना छ प्रकार छ:--सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, माइअं, चउवीसत्थओ, वंदणय, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो, पञ्चक्खाणं. से वंदनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, अने पञ्चक्वाण. आवश्यक सिवायन श्रुतकिं तं आवस्सयवहरितं? आवस्सयवइरितं दुविहं पण्णतं, तं जहा:-कालिअं ज्ञान बे प्रकारचं छ:---कालिक अने उत्कालिक x उत्कालिक श्रुत अनेक च, उक्कालिअंच. से किं तं उक्कालिअं? उक्कालिअं अणेगविहं पण्णत्तं, तं प्रकारनुं छे:--दशवैकालिक, कल्पिताकल्पित (कल्पाकल्प), क्षुद्र कल्पश्रुत, जहाः-दसवेआलिअं, कप्पिआकप्पिअं, चुल्लकप्पसुअं, महाकप्पसुअं, उववा- महाकल्पश्रुत, औपपातिक, राप्रश्नीय (2), जीवाभिगम, प्रज्ञापना, महाइअं, रायपसेणिअं, जीवाभिगमो, पणवणा, महापण्णवणा, पमायप्पमायं, प्रज्ञापना, प्रमादाप्रमाद, नंदी, अनुयोगद्वार, देवेंद्रस्तव, तंदुलवैचारिक, नंदी,अणुओगदाराई, देविंदत्थओ, तंदुलवेआलिअं, चंदा विज्झयं, सूरपण्णत्ती, चंद्रवेध्यक (१) सूर्यप्रज्ञप्ति, पौरुषीमंडल, मंडलप्रवेश, विद्याचरणविनिश्चय, पोरिसिमंडलं, मंडलपवेसो, विजाचरण विनिच्छओ, गणिविज्जा, शाण विभत्ती, गणि विद्या, ध्यानविभक्ति, मरण विभक्ति, आत्मविशोधि, वीतरागश्रुत, संलेमरणविभत्ती, आयविसोही, बीयरागसुअं, संलेहणासुअं, विहारकप्पो, चर- खनाश्रुत, विहारकल्प, चरणविधि, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रयाख्यानण विही, आउरपच्चक्खाणं, महापचक्खाणं-एवमाई.x से किं तं कालिअं? इत्यादि. ४ कालिक बुत अनेक प्रकारर्नु छे:-उत्तराध्ययनो, दशा, कल्प, कालिअं अणेगविहं पण्ण तं, तं जहाः-उत्तरज्झयणाई, दसाओ, कप्पो, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋषिभाषित, जंबूदीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रववहारो, निसीहं,महानिसीह, इसिभासिआई,जबूंदीवपन्नत्ती, दीवसागरपन्नती, ज्ञप्ति, चंप्रज्ञप्ति, क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति, महती विमानप्रविभक्ति, अंगचंदंपन्नत्ती, खुशिआ विमाणपविभत्ती, महलिआ विमाणविभत्ती, अंगचूलिआ, चूलिका, वर्गचूलिका, व्याख्याचूलिका, (व्याख्याप्रज्ञप्तिचूलिका), अरुणोपवग्गचूलि आ, विवाहचूलिआ, अरुणोववाए, गरुलोववाए, धरणोववाए, वेस- पात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलंधरोपपात, देवेंद्रोपपात. मणोववाए, वेलंधरोववाए, देविंदोववाए, उट्ठाणसुए, समुट्ठाणसुए, नागप- उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, नागपरिज्ञा (नागपरिज्ञापनिका ) निरयावलि, रिआवणिआओ, निरयवालियाओ, कपिआओ, कप्पैवडिसिआओ, पुफि. कल्पिका, कल्पावत सिका, पुष्पिका, पुपचूलिका अने वृष्णिदशा (अंधक आओ, पुष्पैचूलिआओ, वण्हीदेसाओ-एवमाइय.." णिदशा) इत्यादि. -नंदीसूत्र पृ. २०२ (स) . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३:- उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३७ अनमाजेव सूर्यामदेवनी वक्तव्यता कही छे तेन न अहीं ईशान इंद्रनी वक्तव्यता कवी. ते वन्यता क्यां सुधी कद्देची तो कहे छे के, ['जाब राज दिव्यं इत] ते वक्तव्यतानो को अर्थ आवो सुधर्मा सभामां, ईशान नामना सिंहासनमां बेसी देवेंद्र देवराज ईशान, मोटा अखंड नाटक वगेरेना शब्दवडे दिव्य अने भोगवया योग्य भोगोने भोगवतो विहरे छे. ते ईशानेंद्र त्यां एकलो नथी पण परिवारसहित बेठो छे. तेनो उपर जगावेला नंदीसूत्रवाळा उलेखमां बराबर क्रमवार ए बारे सूत्रोनां नामो आपेलां छे, परंतु तेमांना केटांक कालिक श्रुत तरीके अने केटलांक उत्कालिक भुत तरीके, उपांग तरीके तो नहि ज. [ए नामोना विशेष विवेचन माटे नंदीमूत्रने जोई लेवानी जरूर छे. जे जे नामो उपर अंको लगाड्या के ते ए उपांगनां नामो छे. बळी समवायांग (जूओ० भ० प्र० सं० पृ० ९-१० ) सूत्रमां ज्यां बारमा समवायनो उल्लेख करेलो छे त्यां घणा खरा बार बार पदार्थांनी नोंध करी छे, किंतु आ वार उपांगोनुं नाम पण लीधुं नथी. मात्र जाणवानी खातर ज त्यांनी नोंधनो केटलोक भाग नीचे आपेलो छे: बारमाओ पन्नताओ. २ दुबो २.xxx सारा पुढची दुवालस नामजा पण्णत्ता ५ तेसि णं देवाणं वारसहिं वाससहस्सेहिं थाहार समुप्पज्जइ. – समवायांग पृ० २१ (ख) था प्रकारे आ बारमा सगवायना प्रकरणमां घणा घणा वार वार पदार्थोंनी नोंध करी छे, पण क्यांय 'उपांगो बार छे' एम जणान्युं नथी. किंतु ए सूत्रमां पण अन्यत्र आ प्रमाणे तो स्पष्टपणे सूचव्युं छे केः :1 पातंजावरे, स मनाए वापसी, जावाधम्मक हाओ वासगदसाओ, अंतगदाओ अगुताइयगाओ पहारा विबाग, दिडवाए समवाय > १०६ (स) - " ६८ अश्रोत् समवायांग सूत्रमां पण प्रसंग होवा छतां उपांगोनी संख्या तेम ज तेनो पूर्वोक्त अनुक्रम जणाव्यो नथी.. वळी कुमारपाळना समसमयी अने बेगनादी पोताना कोशमां अग्यारे अंगोमा भने चोदे पूर्वनां नामो तथा अर्थी आया छे (जुओकाण्ड १५४-१५८ १५९-१६०-१६१-१६२) किंतु आ उपांगोना क्रमिक उल्लेखने तेमां संभारवामां आव्यो नथी. जो के मूळमां अने टीकामां “साङ्गोपाङ्गानि अज्ञानि" मूळसापालिकादिभिर्त सोपाशानि टीका. एनी सामान्य करी है, किंतु अने तेनां नामो अनुक्रमे भा एवो स्पष्ट उल्लेख तो कर्यो ज नथी - समवायांग सूत्रमां उपांगो वा तेनी संख्यानी नोध करी नथी. मात्र अंगो, तेनी संख्या अने तेमां आवेला विषयो वर्णवेळ छे. नंदीसूक्ष्मां पण तेम ज छे, मात्र तेमां उपांग तरीके जणावाता ए वारे ग्रंथोनां नामो नाघेलां छे, पण उपांग तरीके नहि. एथी इतिहास एम कल्पी के खरो के, ए वारे ग्रंथोनी उपांग तरीकेनी अने तेनी क्रमिक संख्यानी कल्पना प्रायः अवीचीन होय. कारण के, ए ग्रंथोने उपांगरूपे सूचवता जे मीना (एना उम एक श्रीमती बीजो तस्वानो (०६४ अमदाबाद ) भने श्रीको प्रथम जगावेली चिनी टीकानो श्रीहीर विजयजीना समयनो-एम प्रण उठेखो मजे के) जे बीजो लेख तत्त्वार्थमि नपाएको तेम तो "राजवेन की औपपातिक-आदीनि एम सखेलं एटले आगळ जणावेला अनुकनिक उद्यान के उपनाम सीधी प्रथम गणाम् छे रोने आ वृद्धि भी जगाये के भने बीजानामने पहले बनाये छे. ए प म उनी कल्पनाने शिपाया जे थे. मी दिगंबर संप्रदायमा (राजदार्तिक पृ० ४९ थी ५४ सू० २० ) ज्यां श्रुतज्ञान अने तेना भेद प्रभेोनो सविस्तर निर्देश करेलो छे त्यां उपांग नामक भेदनो वा तेनी संख्यानो देश पण उल्लेख नधी मन तेमज तेओना तस्कंध नामना नाम सविस्तर न होना छतां उपर जानेको उपांगोनो पा लेना अनुक्रमनोउनी मळतो. अने आ रीते आगळ जणावेली इतिहासनी कल्पना कदाच खरी पण पडी शके. 32 2 33 ८ * राजीयनुं प्राकृत नाम 'रापणीय' छे. ये व्याकरणी विचार करत 'नीय' नुं तद्दन सीधी रीते, 'पगीय' या छे. प्राकृतमां ' प्रश्न ' शब्दनां ' पण्ह' अने 'पसिण एवा बे रूपो बने छे तेथी ' राजप्रश्नीय' शब्दनुं प्राकृत रूप ' रायपण्हीय' वा 'रायपसिणीय थवं शक्य लागे छे. बळी तत्त्वार्थवृत्तिना उल्लेखानुसार आगळ जणाव्या प्रमाणे आनुं संस्कृत नाम 'राजप्रसेनकीय ' मालूम पडे छे अने ए नामनुं बराबर प्राकृत ' रायपसेणईअ ' थवा जाय छे. आ प्रकारे वे जातनेा नामोल्लेख मळवाथी एवो चोक्कसं निर्णय थई शकतो नथी के, राजप्रश्नीय बराबर छे के राजप्रमेनीय बराबर ए मां राजा प्रदेशीने लगती हकीकत आने के एथी कदाच राजप्रश्नमधिकृत्य कृतं पार्थ राजधानीम् एवी व्युत्पति आधारे ' राजप्रश्नीय' नाम वराबर होय. आ संबंधे विचार करतां एक जर्मन पंडित श्रीयुत वेवर महाशय जणावे छे के, ' राजप्रश्नीय ' नामने बदले राजप्रदेशीय ' नाम आ सूत्रने बराबर लागु थाय छे. कारण के, ए नाम, एना विषयने अनुकूळ होवाथी अन्वर्थ-नाम छे. आथी कदाच एम पण कल्पी शकाय खरं के, ‘राजप्रदेशीय ' ना प्राकृतरूप 'रायपएतीय' ने बदले भ्रमवशे 'रायपसेणीय' थई गयुं होय अने परापूर्वथी एवं ए ज चाल्युं आवतुं होय. < , आचार्य सीरम वा प्रामाणिक एवं एक भोस धोरण घडी धरणीत त भने उपस्थिविरप्रणीत छे. ए विषे तेओए आवश्यकवृत्तिमां जणाव्युं छे के: १ भिक्षुओनी प्रतिमाओ वार छे. २ संभोग बार प्रकारनो छे. ३ कृतिकारवाई ४ पाभारा पृथिवीमा पार नाम छे. ५ ते देवोने बार हजार वर्ष पछी खावानो अभिलाष थाय छे. — गणधरकृतम् आधारादि अनहिं तु स्वरितम्" "गणिपिटक, द्वादश अंगरूप छे, जेम के : - आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रइति ज्ञाताधर्म या उपायकदा अंतकमा अनुस पपातिकदशा व्याकरण, विपाक अने दृष्टिवाद." ', "गणदेव द्वय पुनः स्थविरैः + विरचितं तद् अनङ्गप्रविष्टम् " – ( नन्दीटीका, मलयगिरीया पृ० २०३ स० ) "गगर-वेरकयं वा ( ५५० ) - (विशेषायकटकामधारीयाश्रुतज्ञानविचार ) के आवश्यकादि . - ( आ० वृ० पृ० २५ स० ) उपरनी हकीकतने आचार्य श्रीमलयगिरि अने आचार्य श्रीमलधारी विगेरे पण टेको आपे छे. ए विषे तेओ आ प्रमाणे जणावे छे के : " जे श्रुत गगधरकृत छे ते अंगप्रविष्ट है-अने जे, स्थविरकृत छे ते अंग सिवायनुं छे.” " अंगगत श्रुत गणधरकृत छे अने ते सिवायनुं स्थविरकृत छे." , " जे श्रुत अंगप्रविष्ट छे ते गणधरकृत छे अने जे, ते सिवायनुं छे ते स्थविर : Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. परिवार. परिवार आ प्रमाणे छे:-एंशी हजार सामानिक देवो, चार लोकपालो, परिवारवाळी आठ पट्टराणीओ, सात सेनाओ, सात सेनाधिपतिओ, ३, ३२००० अंगरक्षक देवो अने बीजा अनेक वैमानिक देवो तथा देवीओ. हवे ते ईशानेंद्रे जंबूद्वीपने अवधिज्ञानवडे जोयो अने तेने जोतां राजमहाबीर. गृह नगरमा पधारेल भगवंत महावीरने पण जोया. भगवंतने जोइने ते इंद्र एकाएक आसनधी उभो थयो अने आसनथी उठी सात आठ पगलां तीर्थकरनी सामे गयो. पछी कपाळमां पद्मना कोशनी पेठे हाथ जोडी तेणे श्रमण भगवंतने वांद्या. अने त्यार बाद पोताना आभियोगिक देवोने तेणे राजप्रश्नीय सूत्र उपांगरूप होवाथी तेना कर्ता कोई स्थविर ( साधु ) होय तेम उपरना वधा उल्लेखो स्पष्टपणे सूचित करे छे. एथी आपणे पण ते ज खोना संवादने प्रामाणिक मानवानो छे. राजप्रश्नीय सूत्र, बीजा अंग-सूत्रकृतांग-र्नु उपांग छे, तेथी ए बे वचे रहेलो अंगोपांगीभाव तपासवो जरूरनो छे. सूत्रकृतांगमा जे जे विषयो आवेला छे ते विषे आगळ (प्र०ख०पृ०९-१०) अपेलुं निरूपण जोई लेवार्नु छे. जे सूत्रकृतांग वर्तमानमा मळे छे तेमा कुल २३ अध्ययनो छे. तेनां नाम अने तेमां आवेला विषयो आ प्रमाणे छे: १ ला समय नामना अध्ययनमां वीतरागना मंतव्यनु स्वरूर छे. २ जा वैतालीय अध्ययनमां-वैराग्यनो सर्व साधारण उपदेश छे अने ते वैतालीय छंदमां गवाएलो छे. नियुक्तिकारे ए उपदेशने “आदीश्वरे आपेलो उपदेश" कहेलो छे. ३ जा उपसर्गपरिज्ञा अध्ययनमा अने ४ था स्त्रीपरिज्ञा अध्ययनमा संयमनी साधनामां आडे आवती अनुकूळता अने प्रतिकूळतानुं खरूा दाव्युं छे. ५ मा निरयविभक्तिमां नरकोना विभागो बताव्या छ. ६ वीरस्तुतिमां स्तुतिद्वारा श्रीवीरनी चर्या नोंधेली छे. ७ मा कुशीलपरिभाषामा कुशीलोनी स्थितेि-दशा-जणावी छे. ८ मा वीर्य, ९ मा धर्म, १० मां समाधि, ११ मा मार्ग, १२ मा समवसरण ( दार्शनिकोनी सभा,) १३ मा याथातथ्य, १४ मा ग्रंथ १५ मा आदान अने १६ मा गाथा अध्ययनमा संयमने लगता साधारण विषयो निरूपेला छे अने मात्र एक बारमा अध्ययनमा मतवादिओना विनयवादादिनी चर्चा करी छे. १७ मा अध्ययनमा पण उपनयनी पद्धतिए बारमा अध्ययन जेवी चर्चा करेली छे. १८ मा क्रियास्थान, १९ मा आहारपरिज्ञा, २० मा प्रत्याख्यान अने २१ मा अनाचारश्रुतमां अनुक्रमे कायिकी विगेरे क्रियाओगें, आहारर्नु, प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) नुं अने अनाचारनुं वर्णन आपेलुं छे. २२ मा आईकीय अध्ययनमा हस्तितापस, गोशालक अने बुद्ध विगेरेने आर्द्र कुमारनी साथे शास्त्रार्थमा जोडीने उपहासपूर्वक पाछा पाड्या छे. अने छेल्या २३ मा नालंदीय अध्ययनमा गैातम अने पावापत्य उदक वचे नालंदामां थएली चर्चाने नोंधेली छे. आ प्रकारे वर्तमान सूत्रकृतांग सूत्रमा मळता विषयोमा राजा प्रदेशी के तेने लगती हकीकतनुं नीशान सुद्धा जणातुं नथी अने आ सूत्रना उपांगभूत कहेवाता 'राजप्रश्नीय' सूत्रमा तो राजा प्रदेशीनो सूर्याभ देव तरीकेनो अवतार, तेनी देवऋद्धि, देवद्युति अने दिव्य भोगविलासो तथा तेणे करेलुं दिव्यनाटक विगेरे वर्णवाएला छे अने निथश्रमण साथे थएला राजा प्रदेशीना जीवविषयक प्रश्नो तथा गैातम अने पार्थापत्य केशीनो आलाप संलाप पण सूचवाएलो छे. आ रीते ए बन्ने सूत्रोनो विषय जोतां सूत्रकृतांग अने राजप्रश्नीय वच्चे जणावेलो अंगोपांगीभाव घटी शकतो होय एम मने लागतुं नथी. कदाच एम कहेवामां आवे के, सूत्रकृतांग अने राजप्रश्नीयमां आवती जीवविषयक चर्चा एक सरखी जणाय छे, एने लीधे ए बन्ने बच्चे रहेलो अंगोपांगीभाव शा माटे न घटी शके ! भाना समाधानमा जणाववायूँ के, एनी (राजप्रश्नीयनी) ए चर्चा जेटली सूत्रकृतांगगत चर्चा साथे मळती आवे छे तेटली ज आचारांगादिगत चची साथे मळती आवे छे, एथी ए चर्चा ते ये वचेना अंगोपांगीभावनी नियामक होई शके नहि-शकती नथी. छेवट आ तपासना परिणामे लभ्यमान सूत्रकृतांग अने लभ्यमान राजप्रश्नीयना संबंध माटे जणावातो "सूत्रकृतानस्य राजप्रश्नीयम्"ए जातनो उल्लेख विघटता जणाय छे. आ जातनो कांई आ एक ज उझेख नथी. परंतु एवा बीजा अनेक उल्लेखोने हुं तो प्रत्यक्ष करी रह्यो छउं. जेमके; “ उपासकदशाङ्गस्य चंद्रप्रज्ञप्तिः ॥ "ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः" " दृष्टिवादस्य वृष्णिदशा" -उपासकदशांग सत्रमा वर्धमानना दश श्रमगोपासकोनो वृत्तांत आवे छ अने चंद्रपन्नत्ति सूत्रमा चंद्रने लगतुं सविस्तर ज्योतिष आवे छे. ज्ञाताधर्म कथा सूत्रमा केवळ कथाओ आवे छे अने जंबूद्वीपपन्नत्तिमा जंबूद्वीपने लगती ए जातनी हकीकत आवे छे, जे प्रायः वाचकोने माटे तद्दन परोक्ष जेवी छे, दृष्टिवादमां दर्शनशास्त्रनी चर्चा आवे छे अने वृष्णिदशामां अंधकवृष्णिवंशनी कथाओ भरेली छे-ए रीते १ ला, २ जा अने वीजा उल्लेखमा जणावेला ते ते उपासक. दशा, ज्ञाताधर्मकथा अने दृष्टिवाद-सूत्रोनो अनुक्रमपूर्वक चंद्रप्रज्ञप्ति, जंबूदीपप्रज्ञप्ति अने वृष्णिदशा साथे जणाला अंगोपांगीभाव पण शी रीते घटी शके ? ए राजप्रश्नीयमाथी जे हकीकतने अही जाणवानी छे, तेने स्वयं टीकाकारे संक्षेपपूर्वक टीकामां जगावेली होवाथी अहीं तेनो मूळ पाठ आपवो अनावश्यक जणाय छे. ए हकीकतनो मूळ पाठ अर्थात् सूर्याभदेवनो अधिकार राजप्रश्नीय सूत्रमा (क.आ.पृ०१८ थी २०५) सुधी छे. प्रस्तुत टिप्पण लखाइ रह्या पछी जैनधर्मना एक पेटा संप्रदायना (मूर्तिने नहि माननारा संप्रदायना) अंग अने उपांगना क्रम विषे जे विचारो जणाया छ तेने पण अहीं दर्शाववानी जरूर जणाय छे. जे स्थळे जंबूद्दीपप्रज्ञप्तिमा (पृ.१) अंग अने उपांगना कमनो उल्लेख कर्यों छे त्यां ज एम जणाव्यु छे के:- अत्र च उपाङ्गक्रमे सामाचार्यादौ कश्चिद् भेदोऽप्यस्ति " अधीत् अहीं जणावेला उपांगना क्रमथी कोइ संप्रदाय जुदो पण पडे छे एटले बीजो कोई जैन संप्रदाय उपांगनो क्रम जुद्दी रीते पण जणावे छे. एम धारी शकाय छे के, आ उल्लेख, ए मूर्तिने नहि माननार जैन-संप्रदायने उद्देशीने पण करायो होय. कारण के, ते दो नीचे प्रमाणे उपांगनो क्रम जणावे छे (जे अहीं जणावेला क्रमथी जुदो पडे छे.):अंग. उपांग, ५. भगवती जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति. ६. ज्ञाता चंद्रप्रज्ञप्ति अने सूर्यप्रज्ञप्ति. ७. उपासकदशा निरयावलिका. अंतकृद्दशा कल्पवतंसिका. ९. अनुत्तरौपपातिक पुष्पिका.. १०. प्रश्नव्याकरण पुष्पचूलिका. ११. विपाकश्रुत वृष्णिदशा. आ लोको दृष्टिवाद के तेना उपांगनो निर्देश करता नथी. ए सिवायनो बीजो क्रम तो पूर्व प्रमाणे छे. आवी नहि जेवी वावतमा जे आ जातनो संप्रदाय-भेद छ ते पण उपांगना सुनिश्चित क्रमनुं शैथिल्य जणावे छे.:-अनु० १. आ विषयनी सविस्तर हकीकत प्रज्ञापना सूचना स्थान पदमां अने जीवाजीवाभिगम सूत्रना देववर्णनाधिकारमा आवेली छे :-अनु. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.--उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. बोलाव्या. तेओने बोलावीने तेगे आ प्रमाणे कयुं केः-हे देवो! तमे राजगृह नगरमां जाओ अने भगवंत महावीरने वांदो. ही अने भगवंत महावीरन वादो. तथा एक योजन राजगृह जेटलं विशाळ क्षेत्र ( जमीन ) साफ करो अने ए प्रमागे करीने मने तुरत जणावो. पछी ते देवोए तेम करीने पोताना धणी इंद्रने पणा इद्रने जणाव्यु. त्यार बाद ते इंद्रे पोताना सेनाधिपतिने ( देवने ) आ प्रमाणे कथु के, हे देवोने वल्लभ ! तुं आ ईशानावतंसक नामना विमानमां घंटाने, बटाने वगाड अने बधा इंदनो। देव तथा देवीओने ए प्रमाणे जाहेर कर के, हे देवो! ईशानेंद्र, श्री महावीर भगवंतने वांदवा माटे जाय छे माटे तमे शीघ्र तमारी थइ तेनी पासे जाओ. ते जाहेर कर्या पछी अनेक देवो कुतूहलादि कारणने लइने ते ईशानेंद्रनी पासे गया. ते बधा देवोथी पनि देवोथी युक्त थरलो अने लाख योजनना प्रमाणवाळा यान-विमान-मां बेठेलो ते ईशान इंद्र श्रीमहावीरने वांदवा निकळ्यो. रस्तामां अ द्वीपनां तेगे पोतार्नु मोटुं विमान टुंकुं कर्यु. अने पछी ते राजगृह नगरमा गयो. भगवंतने त्रग प्रदक्षिणा करी, पोताना विमा ताना विमानने जमीनथी चार आंगळ उंचं राखी, भगवंतनी पासे जइ, भगवंतने बांदी तेनी पर्युपासना करे छे. पर्युपास ९. ततो धर्म श्रत्वा एवमवादीतः-भदन्त ! यूयं सर्वं जानीथ, पश्यथ. केवलं गौतमादीनां महर्षीणां दिव्यं नाध्यविधि मिच्छामि-इत्यभिधाय दिव्यं मण्डपं विकुक्तिवान् . तन्मध्ये मणिपीठिकाम् , तत्र च सिंहासनम् . ततश्च भगवन्तं प्रणम्य तत्रोप तस्य दक्षिणाद् भुजाद् अष्टोत्तरं शतं देवकुमाराणाम् , वामाच देवकुमारीणां निर्गच्छति स्म. ततश्च विविधातोद्य (वर) वगीत मानसं द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधिमुपदर्शयामास-इति. 'तए णं से ईसाणे देविंदे, देवराया तं दिव्यं देविडि' यावत्-करणाद इटमा यदत-"दिव्वं देवज्जुई, दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता खणेणं जाए एगभूए. तए णं ईसाणे देविंदे देवराया , महावीरं वंदित्ता, नमंसित्ता णियगपरियालसंपरिबुडे" ति. 'परियाल' त्ति-परिवारः, 'कूडागारसालादिवतो' त्ति कुटाकार ऽऽकृत्या उपलक्षिता शाला या सा तथा तया दृष्टान्तो यः स तथा, स चैवम्:-भगवन्तं गौतम एवमवादीत:-ईशाने देवर्षि व गता? क्व अनुप्रविष्टा ? गौतम ! शरीरं गता-शरीरकमनुप्रविष्टा. अथ केनार्थेन एवम् उच्यते ? गौता । कूटाकारशाला स्यात् , तस्याश्चाऽदूरे महान् जनसमूहस्तिष्ठति, स च महाभ्रादिकमागच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा च तां कुटाकारशाला एवमीशानेन्द्रस्य सा दिव्या देवर्द्धिः शरीरं गता-शरीरकानुप्रविष्टा इति. 'किण्णा' इति केन हेतुना ? किं वा दचा हनि अशनादि, भुक्त्वा अन्त-प्रान्तादि, कृत्वा तपः-शुभध्यानादि, समाचर्य च प्रत्युपेक्षा-प्रमार्जनादि. 'कस्स वा' इत्यादिवा 'पण्यमपार्जितम्' इति वाक्यशेषो दृश्यः. 'जं गं'ति यस्मात् पुण्यात् 'ण' इति वाक्यालंकारे. 'अत्थि ता मे परा , इत्यादि पुरा-पूर्वम् 'कृतानाम्' इति योगः. अत एव 'पोराणाणं'ति पुराणानाम् , 'सुचिण्णाणं'ति दानादिसुचरितरूपाणाम ति सुष्ठ पराक्रान्तं पराक्रमस्तपःप्रभृतिकं येषु तानि तथा तेपाम् , शुभानामथोवहत्वेन, कल्याणानामनर्थोपशमहेतुत्वेन-इति. नाना इत्याहः-'जेणाहं' इत्यादि, ९. त्यार पछी भगवंतनी पासेथी धर्म सांभळी ते इंद्र आ प्रमाणे बोल्यो केः-हे भगवन् ! तमे तो बधु जाणो छोरो जाणा छो अने जूओ छो. गौतमा मात्र गौतमादिक महर्पिओने दिव्य नाट्यविधिने देखाडवा इच्छु छु. एम कहीने ते इंद्रे दिव्य मंडप (मांडवा ) नी विकर्वणा ना पिकुवणा करी. ते मंडपनी देखाडवा वच्चे मणिपीठिका तथा सिंहासननी पण विकुर्वणा करी. पछी भगवंतने प्रणाम करी ते इंद्र ते सिंहासन उपर बेळो. त्यार बाद तेना एकसोने आठ देवकुमारो नीकळ्या अने डाबा हाथथी एकसोने आठ देवकुमारीओ नीकळी. पछी अनेक जातिनां वाजांओना अनेक एकमो माणसोना मनने खुश करनारं, बत्रीश जातिनुं नाटक ते इंद्रे श्रीगौतमादिने देखाड्यु. [ 'तए णं से ईसाणे देविंदे, देवराया । अहीं यावत्' शब्द मूक्यो छे माटे बीजुं आ प्रमाणे जाणवू-दिव्य देवकांतिने, दिव्य देवप्रभावने संकेली ले छे अने एक तेवो एकलो थइ जाय छे. पछी पोताना परिवार सहित देवेंद्र, देवराज ईशाने श्रमण भगवंत महावीरने वांद्या अने नमस्कार ज्यांथी ते आव्यो हतो त्यां ते पाछो चाल्यो गयो. [ 'कूडागारसालादिढतो 'त्ति ] शिखरना आकारवाळु घर ते कुटाकारशाला 18 परत कुटाकारशाला, तेनु दृष्टांत कूटाकार कहेवू. ते दृष्टांत आ प्रमाणे छे:-गौतमे भगवंतने आ प्रमाणे कडं के, ईशानेंद्रे देखाडेली ते दिव्य देवऋद्धि क्यां गई? १. जैन आगम साहित्यमा ठेक ठेकाणे इंद्रो (इंद्रादिदेवो ) पासे आ जातनी अनेक आज्ञाओ अपावेली छे. ए प्रकारे चौद्ध साहित्य आव्यु-आवे-छे. जो के ए जातना अनेक उल्लेखो सर्वथा सुलभ अनेसष्ट छे तो पण अहीं तो मात्र जाणवानी खातर तेमांना एकाद लोग लेवानुं छे. जेमके:__“अथ भिक्षवः। शक्रो देवानामिन्द्रो देवांस्त्रयस्त्रिंशान् आमन्त्रयते स्म, "हे भिक्षुओ! हवे देवोनो इन्द्र शक, प्रयस्त्रिंश (आ शब्द अद्य मार्षाः! बोधिसत्त्वोऽभिनिष्क्रिमिष्यति । तत्र युष्मामिः पूजाकर्मणे त्रायस्त्रिंश-साथे मळतो आवे छे.) देवोने आमंत्रण आपे औत्सुक्येनावितव्यम् "--(ललितविस्तर पृ० २४८ ) (हे आर्यों !) आजे बोधिसत्वन अभिनिष्क्रमण थनार छे.ते पूजा माटे उत्सुक थर्बु जोइए" तात्पर्य ए छे के, उपरना उलेखमा भगवान् बुद्धना अभिनिष्क्रमण-दीक्षा-नो निर्देश करी ते अर्थे इंद्र अने देवोना आगमननी सूचना करी छे. ज्यारे तीनो दीक्षा दिवस हतो त्यारे इंद्रो अने देवोए अहीं आवीने ए उत्सवमा विशेष भाग लीधो हतो, ए हकीकतथी कोई जैन शिशु पण आगळ जणावेल ईशान इंद्रना अहीं आगमनना उल्लेख साथे आ उल्लेखनु साम्य एटलं ज छे के, जेम श्रीमहावीर पासे ए इंद्र आवतो हो पासे पण आवत हतोः-अनु. १.प्र.छो०-दिव्यां देवद्युतिम्, दिव्यं देवाऽनुभावं प्रतिसंहरति, प्रतिसंहृत्य क्षणेन जातः-एकभूतः. तदा ईशानः देवेन्द्रः टेक भगवन्तं महावीरे वन्दित्वा, नमस्थित्वा निजकपरिवारसंपरिवृत इतिः- अनु. ... . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्रजिनागमसंग्रहे-- शतक ३.-उद्देशक ? के,) हे गौतम ! ते तेना शरीरमा मळी गई. हे भगवन् ! तेम कहेवानुं शुं कारण ? हे गौतम ! जेम कोइ एक शिखरना आकारवाळ घर ( कूबो ) होय, अने ते घरनी पासे घणा माणसो उभा रहेला होय. एटलामां जो खूब वरसाद चडेलो के आवतो तेओना जोवामां आवे तो जेम ते बधा माणसो पेला कूबामां पेसी जाय छ. ए प्रमाणे ईशान इंद्रनी ते दिव्य देवऋद्धि तेना शरीरमां मळी गई. [ किण्णा' इति ] कया कारणथी. [ 'किं वा दचा' इत्यादि.] आ स्थळे 'दइने' एटले खान, पान दइने, 'खाइने' एटले लुखं सुखं खाइने, 'करीने' एटले शुं दी ? तप तथा शुभध्यान वगेरेने करीने, 'आचरीने' एटले पडिलेहण के प्रमार्जन वगेरेने आचरीने. [ 'कस्स वा' इत्यादि.] ए आखा वाक्यने छेडे 'पुण्यनु उपार्जन कर्यु' एटलो अध्याहार छे. [ 'जंणं' 'ति ] जे पुण्यथी. [ 'अस्थि ता मे पुरा पोराणाणं' इत्यादि.] 'पूर्वे करेला पुण्योनो' एम पुण्य. संबंध करवो. पूर्वे करेला छे माटे ज ['पोराणाणं' ति ] जूनां, [ 'सुचिण्णाणं 'ति ] दान वगेरे सुचरितरूप, [ 'सुपरकंताणं 'ति ] सारा तप वगेरेथी युक्त, अर्थावह होबाथी शुभ, अनर्थने शमाववामां कारणरूप होवाथी कल्याणरूप. एम शाथी छे ? तो कहे छे के, [जेणाह' इत्यादि.] १०. पूर्वोक्तमेव किञ्चित् सविशेषमाहः-'विउलधण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिअ-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणसंतसारसावएजेणं'ति धनं गणिमादि. रत्नानि कर्केतनादीनि, मगयश्चन्द्रकान्ताद्याः, शिलाप्रवालानि विद्रुमाणि, अन्ये त्वाहुः-"शिलाः राजपट्टादिरूपाः. प्रवालं विद्मम्" रक्तरत्नानि पद्मरागादीनि, एतद्रूपं यत् , 'संत'ति विद्यमानम् सारं प्रधानम् , खापतेयं द्रव्यं तत् तथा तेन. एगंतसो क्खय'ति एकान्तेन क्षयम्-नवानां शुभकर्मणामनुपार्जनेन. 'मित्त-' इत्यादि. तत्र मित्राणि सुहृदः, ज्ञातयः सजातीयाः, निजका गोत्रजाः, संबन्धिनो मातृपक्षीयाः, श्वशुरकुलीना वा, परिजनो दासादिः, 'आढाइ' त्ति आद्रियते, 'परिजाणइ'त्ति परिजानाति स्वामितया, 'पाणामाए'त्ति प्रणामोऽस्ति विधेयतया यस्यां सा प्राणामा, तया 'सुद्धोअणं'ति सूप-शाकादिवर्जितं कूरम् , 'तिसत्तक्खत्तो' त्ति त्रिःसप्तकृत्वः-एकविंशतिवारान् इत्यर्थः 'आसाएमाणे' ति ईषत् स्वादयन् , 'विसाएमाणे' त्ति विशेषेण स्वादयन् स्वाद्यविशेषम् , 'परिभाएमाणे त्ति ददत. परिभंजेमाणे त्ति भोज्यं परिभुञ्जानः, 'जिमिय भुत्तत्तरागए'त्ति जिमिय'त्ति प्रथमैकवचनलोपाद जिमितः-भुक्तवान. 'भुत्तुतर' त्ति भुक्तोत्तरम्-भोजनोत्तरकालम् , 'आगए'त्ति आगतः-उपवेशनस्थाने, भुक्तोत्तरागतः. किंभूतः सन् ? इत्याहः-'आयते'त्ति आचान्तः-शुद्धोदकयोगेन, 'चोक्खे'त्ति चोक्ष:-लेपसिक्थाद्यपनयनेन अत एव परमशुचिभूतः इति. १०. आगळ कहेली वातने ज जराक विशेषता साथे कहे छ के, [' विउलधण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-पवाल रत्तरयणसंतसारसावएजेणं 'ति ] गणवामां आवे ते धेन, कर्केतन वगेरे रत्न, चंद्रकांत वगरे मणि ओ, परवाळां ते शिलाप्रवाल, बीजाओ रत्न-मणि. तो कहे छे के:-" राजपट्ट बगेरे ते शिला अने परवाळां ते प्रवाल " माणेक वगेरे ते रक्तरत्न; एवा प्रकारचें प्रधान जे द्रव्य-तेवडे, एर्ग तसो क्खयंति] नवां शुभ कर्मोने मेळव्या विना जूनां सत्कर्मोनो सर्वथा नाश थाय तेनी दरकार न करवी. ['मित्त' इत्यादि.] मित्रो ति-विगेरे. र एटले भाइबंधो, ज्ञाति एटले नातीला, निजक एटले पित्राइ-एक गोत्रमा थएला, संबंधी एटले मोसाळिआं के सासरिआं, परिजन एटले नोकर चाकर वगरे. [ 'आढाइ 'त्ति ] आदर करे छे, ['परिजाणइ 'त्ति ] धणी-मालीक-तरीके जाणे छे. [ 'पाणामाए 'त्ति ] जेमा वारंवार प्राणामा. प्रणाम करवाना ह प्रणाम करवानो होय ते 'प्राणामा'-तेवडे. ["सुद्धोअणं' ति] डाळ अने शाक विनाना एकला चोखा-भात-ने, ['तिसत्तखुत्तो'त्ति ] एक १. 'ण' आ अलंकारसूचक छे:-श्रीअभय० २. आगममा ज्यां ज्यां'धन 'शब्दनो प्रयोग थएलो छे त्या त्या प्रायः करीने तेनो व्याख्या आ प्रमाणे समजवानो छे:"धनं गणिम-धरिम-मेय-परिच्छेद्यभेदाचतुर्विधम् . तदुक्तम्-“ग- “धनना चार प्रकार छ, ते आ प्रमाणे:-गणिम, धरिम, मेष अने णिमं जाईफल-पुफ्फलाई, धरिमं तु कुंकुम-गुहाई। मिजं चोप्पड-लोणाई, परिच्छेद्य. गणि म एटले गणवा योग्य-जाईफल अने फोफल (सोपारी) रयण-वत्थाइ परिच्छिज्ज"-कलासूत्र सुबोधिनी, चतुर्थ क्षण, पृ. विगेरे. धरिम एटले धरी राखवा लायक-कंकु अने गोळ विगेरे. मेय एटले ११२-११३ मापया लायक चोपड (१) अने लवण विगेरे अने परिच्छेद्य एटले परिच्छेद करवा लायक-रत्नो अने वस्त्रो विगेरे:-कल्प सु.च.क्ष. पृ० ११२ १२३:-अनु. ३. रत्नोनी जूदी जूदी जातो नीचे प्रमाणे समजवानी छे:.--"कर्केतन, वज्र, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारमल, हंसगर्भ, पुलक, सागन्धिक, पोतास, अंजन, अञ्जन पुलक, रजत, जातरूप, अङ्क, स्फटिक, अने रिष्ट-जी बाजीवाभिगम ( स.पृ०२४४ ) वाराही संहितामां-बृहत्संहितामा रत्नोनी २२ जातो आ प्रमाणे गणावी छे:"वप्रे-न्द्रनील-मरकत-कर्कतर-पद्मराग-रुधिराख्याः । __वज्र, इन्द्रनील, मरकत, कर्केतर (जैनसूत्रमा कर्केतन) पद्मराग, रुधिर, वैदूर्य-पुलक-विमलक-राजमणि-स्फटिक-शशिकान्ताः ॥ ४ वैदुर्थ, पुलक, विमलक, राजमणि, स्फटिक, शशिकान्त, सौगन्धिक, गोमेसौगन्धिक-गोमेदक-शक्ष-महानील-पुष्परागाख्याः। दक, शङ्ख, महानील, पुष्पराग, ब्रह्ममणि,ज्योतीरस, सस्यक, मुक्का-मोती, ब्रह्ममणि-ज्योतीरस-सस्यक-मुक्का-प्रवाला नि" ॥ ५ अने प्रवाल":-अध्याय-७९ पृ०९८४ :-अनु. ४. प्रज्ञापना सूत्रमा मणिना जूदा जूदा प्रकारो आ प्रमाणे जणाव्या छे:"मणिविहाणाः-गोमेजए यरुयए, अंके, फलिहे, य लोहियक्खे य। “गोमेजक, रुवक, अंक, स्फटिक, लोहिताक्ष, मरकत. मसारगल. मरगय, मसारगडे, भुयमोयग, इंदनीले य ।। ३ चंदण, गेल्य, हेसगम्भ, भुजनोचक, इन्द्रनील, चन्दन, गैरिक, हंसगर्भ, पलक. सौगायक पुलए, सोगंधिए य योद्धव्ये । चन्दप्पभ, वेरुलिए, जलंकते, सूरकंते य ॥ ४ वैडूर्य, जलकान्त अने सूर्यकान्तः-प्रज्ञा०पृ०२७ (स ) प्रतापनामी जणावेला मणिओनां नामोमा केटलांक नामो रत्नोनां आवे छे. एथी एम जणाय छे के, मणि अने रत्न-ए कोई ये जूदा जूदा पदार्थ नथी. अमरकोशमां पण “रत्नं मणिः" (द्विका० ९३) एम कहीने मणि अने रत्ननी एकता जणावी छे:-अनु. ५. वर्तमान समयमां पण वैदिक लोको 'प्राणामा' दीक्षानी जेवु व्रत लेता जगाय छे. ए व्रतमा दीक्षित थएला एक जग विषे नीचे प्रमाणेनी बीना प्रकट थई छे: Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७६२f. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. माश घार, { आसाएमाणे 'त्ति ] थोई चाखतो, ['वीसाएमाणे'त्ति ] कोइ पण चाखवानी वस्तुने विशेष चाखतो, ['परिभाएमाणे 'त्ति ] आखादमान देतो, परिभुजेमाणे 'त्ति ] खावानी वस्तुने खातो, ['जिमि भुत्तुत्तगगए 'त्ति ] जम्यो अने [ 'मुत्तोत्तर'गि जम्या पछी तुरत ज आगएत्ति बेसबाने ठेकाणे आव्यो. ते केवो? तो कहे छ के, ['आयते 'त्ति ] चोक्खा पागीथी तगे आचमन (कोगळा ) कयें अने आपांत. पछी ते [ 'चोक्ख 'त्ति ] मोढामां लागेली चिकाश अने रद्धं वगेरेने दूर करी तद्दन चोक्खो थयो. ११. जं जत्थ पासइ 'त्ति यमिन्द्रादिकम् , यत्र देशे काले वा पश्यति, ‘तस्य तत्र प्रणाम करो ते' इति वाक्यशेषो दृश्यः. वंदं वत्ति स्कन्द वा कार्तिकेयम् , 'रुदं वा' रुदं वा महादेवम् , सिवं वत्ति व्यन्तरविशेषम् , आकारविशेषवरं वा रुद्रमेव. समवति उत्तरदिक्पालम् , 'अजं वत्ति आर्याम्-प्रशान्तरूपां चण्डिकाम्, 'कोट्टकिरियं वत्ति चण्डिकामेव रौद्ररूपां महिषकटनकियावतीमित्यर्थः. 'रायं वा' इत्यत्र यावत्-करणाद् इदं दृश्यम्:-'ईसरं वा, तलवरं वा, माडंबियं वा, कोडुबियं वा, सेष्टिं वाइति. पाणं व' ति चण्डालम् , 'उच्चंति पूज्यम् , 'उचं पणाम'ति अतिशयेन प्रणमतीत्यर्थः. 'नीति अपूज्यम् 'मीअं पणाम'ति अनत्यर्थ प्रणमतीत्यर्थः. एतदेव निगमयन्नाह-'जं जहा' इत्यादि. यं पुरुष-पश्वादिकम् , यथा यत्प्रकार-पूज्यापूज्यस्वभावम्-तस्य परुषादेः तथा-प्रज्यापूज्योचिततया. 'अणिचजागरियं' ति अनित्यचिन्ताम् , 'दिद्वाऽऽभट्टे य' त्ति दृष्टाभाषितान्, 'पुष्वसंगतिए' त्ति पूर्वसंगतिकान्-गृहस्थत्वे परिचितान् 'निअत्तणियमंडलं' ति निवर्तनं क्षेत्रमानविशेषः, तत्परिमाणं निवर्तनिकम्, "निजतनप्रमाणम, इत्यन्ये. पाओवगमणं निवण्णे' त्ति पादपोपगमनम्-निष्पन्नः-उपसंपन्न आश्रित इत्यर्थः. 'अणिंद' त्ति इन्द्राऽभावात् , 'अपुरोहिअ' त्ति शान्तिकर्मकाररहिता अनिन्द्रत्वादेव, पुरोहितो हि इन्द्रस्य भवति, तदभावे तु नासाविति. 'इंदाहीण' त्ति इन्द्राधीना इन्द्रवश्यत्वात. 'इंदाहिद्विअ' त्ति इन्द्राधिष्ठिता तयुक्तत्वात्-अत एवाह-'इंदाहीणकज' त्ति इन्द्राधीनकार्या. 'ठितिपकप्पं ति स्थिती अवस्थाने बलिचञ्चाविषये, प्रकल्पः-संकल्पः-स्थितिप्रकल्पः, तम् . 'ताए उकिट्टाए' इत्यादि. तया-विवक्षितया उत्कृष्टया उत्कर्षव या-देवगत्या-इतियोगः. त्वरितया आकलया-न स्वभावजयेत्यर्थः. अन्तराकूततोऽप्येषा स्यात् , इत्यत आह-चपलया-कायचापलोपेतया, चण्डया-रौद्रया तथाविधोत्कर्षयोगेन, जयिन्या-गत्यन्तरजेतृत्वात्, छेकया निपुणया-उपायप्रवृत्तितः, सिंहया-सिंहगतिसमानया श्रमाभावेन, शीघ्र दिव्यया प्रधानया, उद्धृतया-वस्त्रादीनामुद्भूतत्वेन, उद्धतया वा सदर्पया. 'सपक्खिं' ति समाः सर्वे, पक्षाः पार्था:-पूर्वापरदक्षिणोत्तरा यत्र स्थाने तत् सपक्षम् , इकारः प्राकृतप्रभवः. समाः सर्वाः, प्रतिदिशो यत्र तत्सप्रतिदिक्. 'बत्तीसइविहं नट्टविहिं' ति द्वात्रिंशद्विधम नाट्यविधि-नाव्यविषयवस्तुनो द्वात्रिंशद्विधत्वात् , तच्च यथा राजप्रश्नीयाऽध्ययने तथाऽवसेयम्-इति. 'अटुं बंधह' त्ति प्रयोजननिश्चयं करतेत्यर्थः. निदानम् -प्रार्थनाविशेषम् , एतदेवाह-ठिइपकप्पं' ति प्रागवत. ११. जत्थ पासह त्ति ] जे ठेकाणे के जे समये इंद्र वगेरेने जूए, 'तेने त्यां प्रणाम करे' एटलो अध्याहार जाणवो. [ 'खंदं वे' स्कंद. त्ति ] कार्तिकेयने, [ 'रुदं वा'] महादेवने, [ 'सिवं' व 'त्ति ] एक जातना व्यंतरने, अथवा अमुक जातना आकारने धारण करना करना " इसके बाद, सब प्राणियों में भगवान् की भावना दृढ करने आर अहंकार छोडने के इरादेसे प्राणिमात्र को ईश्वर समझ कर आपने साष्टांग पणाम करना शुरू किया। जिस प्राणी को आप आगे देखते उसी के सामने उस के पैरों पर आप जमीन पर लेट जाते। इस प्रकार ब्राह्मण से लेकर तक और गी से ले कर गधे तकको आप साष्टांग नमस्कार करने लगे:-( सरस्वती मासिक, भाग-१३-अंक-१ पृ० १८.) उपर जणावेली 'प्राणामा' दीक्षा (सरखावो विनयवाद ) अने आ प्रकट थएली बीना ए बन्ने सरखां जणाय छे:-अनु. १. जिमिय' ए शब्दां प्रथमा विभक्तिना एक वचननो लोप थयो छे, तेथी तेनो अर्थः- जिमितः'-'जमे ठो' करबोः-श्रीअभय. २. शिव शब्दनो मूल भाव अने पौराणिक भाव 'शिव' शब्द उपरना (हवे पछीना) टिप्पणमा सूचव्यो छे एटले 'शिव'नी एक व्यक्ति तरिकेनी पानी कविकल्पना सिवाय बीजु कोइ न होय एम स्पष्ट जणाय छे. पुराणोमा 'स्कंद'ने शिवना पुत्ररूले कलेल छ, ए उपरथी कोशकारोए पोतोताना कोशमां स्कन्दने शिवनो आत्मज अने पार्वतीनो तनय वर्णव्यो छ-स्कन्दना नामो अमरकोशमां आ प्रमाणे छे: कालिया महासेनः, शरजन्मा षडाननः । पार्वतीनन्दनः स्कन्दः सत्तर नाम स्कन्दना छः-१ कार्तिकेय. २ महासेन. ३ शरजन्म. सेनानीरनिभर्गहः ॥ ३९ ॥ बाहुलेयस्तारकजिद्विशाखः शिखिवाहनः । ४ षडानन. ५ पार्वतीनन्दन. ६ स्कन्द. ७ सेनानी. ८ अग्निभू. ९ गुह. पाण्मातुरः शक्तिधरः कुमारः क्रौञ्चदारणः ॥ ४० ॥ १० बाहुलेय. ११ तारकजित्. १२ विशाख. १३ शिखिवाहन. १४ -अमरकोशे प्र. का. पाण्मातुर. १५ शक्तिधर. १६-१७ कुमार अने कोचदारण. पण 'शिव' शब्द- उपरर्नु टिप्पण विचारता स्पष्ट जणाय छे के, ज्यारे 'स्कन्द'ना पिता तरिके शिवनामक कोइ वास्तविक व्यक्तिनी हयाती जणाती नथी त्यारे तेनी माता पार्वतीनी हयाती शी रीते होय? जे कांइ असारे स्कन्दना अने पार्वतीनां आख्यानो ते मात्र पुराणोना चमकार छे. ए चमकारने ली स्कन्दनी पूजा प्रचरी अने 'स्कन्द' शब्द 'स्कन्द'नी मूर्तिनो सूचक वन्यो. अहीं भगवतीजीना मूलमां जगावेल 'स्कन्द' शब्द 'स्कन्दनी मूर्तिने सूचवे छे एम श्रीअभयदेव (टीकाकार) पण जणावे छे:-अनु. ३. 'रुद्र' शब्द 'रुद रोवू' धातु उपरथी आवेल छे एटले 'रुद्र' नो खरो भाव-मूल आशय-रोवानी क्रियामां-छे-जे द्वारा रोगुं आवे वा जे रोवरावे ते 'रुद्र' छे-रोवरावनारर्नु नाम 'रुद्र' छ अर्थात् भयोत्पादक-रोदनोत्पादक-शकिनुं नाम वैदिक आर्योए गुगानुसारे 'रुद' पाडयुं छे. 'रुद्र' संबंधे उल्लेख करतां शतपथब्राह्मणमा जणाव्युं छे के: "कतमे रुद्राः ? इति दश इमे पुरुषे प्राणाः, आत्मा एकादशः, ते "रुद्रो केटला छे ? ( अग्यार छे.) पुरुषमा रहेला दश प्राणो अने यदा अस्माद् मात् शरीराद् उत्क्रानन्ति, अथ रोदयन्ति-तद् यद् रोद- अग्यारमो आत्मा ते अग्यार रुद्र छे. ( पुरुषना दश प्राण अने अग्यारमो यन्ति तस्माद् रुद्रा इतिः"-(शतपथब्राह्मणे अजमेर-आवृत्तौ पृ. ४८४). आत्मा, ए बधाने रुद्र कहेवानुं शुं कारण ! ) ज्यारे आ मनुष्यना देहथी ६भ० सू० Jain Education international Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक.? वैश्रमण. ['वेसमणं व 'त्ति] उत्तर दिशाना पालकने-वैश्रमणने-कुबेरने, [अजं वत्ति ] प्रशांतरूप आयीने--चंडिकाने, [ · कोट्टकिरियं वत्ति ] महि___ चंडी. षासुरने कुटती भयंकर चंडिकाने ज, [ 'रायं वा'] अथवा राजाने. ए स्थळे 'यावत् ' शब्द मूकवाथी आ प्रमाणे जाणवु:-'युवराजने, तलबरने, चंडाळ, माडंबिकने, कौटुंबिकने, शेठने, ['पाणं व 'त्ति ] चांडाळने, [ 'उचं'] पूज्यने, [ 'उच्चपणाम 'ति] अतिशयपूर्वक प्रणाम करे छे, ['नीअं'ति ] अपूज्यने, [ 'नीअं पणाम'ति ] वधारे नहीं पण साधारण रीते प्रणाम करे छे. एज वातनो उपसंहार करतां कहे छे के, [जं उचितता. जहा' इत्यादि.] पूज्य अने अपूज्य स्वभाववाळा पुरुष पशु वगेरेने जेवी रीते उचित लागे तेम-पूज्य अने अपूज्यने उचित लागे ते-प्रणाम करे छे. [ 'अणिचजागरिअंति] अनित्य संबंधी चिंताने. [ 'दिट्ठाभटे य'त्ति ] देखेला एवा बोलावेला तथा ['पुव्वसंगतिए 'त्ति ] जूनी नेवर्तनिक, ओळखाणवाळाओने-गृहस्थपणामा परिचित थएला जूना मित्रोने, ['नित्तणिअमंडलं'ति निवर्तन' एटले एक जातनु क्षेत्रनुं माप, तेनी जेटला परिमाणवाळु ते निवर्तनिक. "पोताना शरीर जेटली जग्या ते निवर्तनिक" एम बीजाओ कहे छे. [ 'पाओवगमणं निवण्णे'त्ति ] तेणे पादपोप पुरुषना दश प्राणो अने अग्यारमो आत्मा उत्क्रमे छे-जूदा थाय छे-त्यारे ते एकादशगण-(अग्यारनो जत्थो) मरनारना ममविओने रोवरावे छे माटे ते अग्यारनुं अन्वर्थ नाम 'रुद्र' होवू सुघटित छे. (श. ब्रा० अ० आवृ० पृ० ४८४). वैदिक संप्रदायमा दश प्राणनी गणनामा दश वायुओ गोठव्या छे ते आ छ :“प्राणो-ऽपानः समानश्चो-दान-व्यानौ च वायवः, प्राणाख्याः पञ्च कर्णादौ “शरीरमा कर्ण वगेरे इंद्रियोमा संचरनारा मुख्य पांच वायुओ नाममुख्या वेदे प्रकीर्तिताः-(१३९). नागकूर्मस्तथा देव-दत्तश्चाऽथ धनंजयः, वार आ छे:-प्राण, अपान, समान, उदान अने व्यान. आ वात वेदना कृकलश्चेति विज्ञेया-स्तथा पञ्चोपवायवः” (१४० )- वेदान्तसिद्धान्ता- गवाएली छे. तेम ज बीजा पांच उपवायुओ पण छे, जेओ शरीरना वीजा ऽऽदर्शगतसंज्ञादर्शप्रकरणे). भागमा संचरे छे. तेनां नामः-नाग, कूर्म, देवदत्त, धनंजय अने कृकल छे. आ वायु ते दश प्राण अने अग्यारमो आत्मा, ए मळी अग्यार 'रुद्र' छे. जैन संप्रदायनी अपेक्षाए अग्यारनी व्याख्या आ रीतिए संभवे छे:"पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्चास-निःश्वासमथाऽन्यदायुः, प्राणा "पांच इंद्रियो-( स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु अने श्रोत्र). त्रण वळदशैते भगवद्भिक्ता-स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा"-(जीवविचारवृत्तौ). ( मनोवळ, वचनबळ अने शरीरबळ). श्वासोच्छ्वास अने आयुष्य (५४३४१४१-१0). एम कुल दश प्राण छे अने तेमां तेनो संचालक आत्मा भेळववाथी अग्यारनो गण थाय छ:"-(जी. वृ०). ते पुराणोना आख्यानने अवलंबीने ज अमरकोशमां रुद्र संबंधे अमरसिंह आ प्रमाणे जणावे छे:"आदित्य-विश्व-वसवस्तुषिता भाखराऽनिलाः, महाराजिक-साध्याश्च “नव देवगणो छ, एटले ताराना समुदायनी जेम देवोना पण नव रुदाश्च गणदेवताः" १० आदित्यादयः प्रत्येकं गणदेवताः-समुदायचारिण्यो समुदायो छे:-आदित्यनो, विश्वदेवनो, वसुनो, तुषितनो, भास्वरनो, अनिदेवताः. “आदित्या द्वादश प्रोक्ता विश्वदेवा दश स्मृताः, वसवश्चाष्ट- लनो, महाराजिकनो, साध्यनो अने रुद्रनो. ते प्रत्येक समुदायमा देवोनी संख्याकाः षट् त्रिंशत् तुषिता मताः आभाखराश्चतुष्पष्टिवाताः पञ्चाशदूनकाः, संख्या अनुक्रमे आ रीतिए छः-बार आदित्य, दश विश्वदेव, आठ वसु, महाराजिकनामानो द्वे शते विंशतिस्तथा. साध्या द्वादश विख्याता रुद्राश्च- छत्रीश तुषित, चोसठ आभाखर, पचासथी ओछा वात-वायु, बसेंने वीश कादश स्मृताः"-(अमर-प्र० काण्ड ). महाराजिक, बार साध्य अने 'अग्यार रुद्र' छ"-( एटले नवे देवगणनी संख्या ४२२ नी थाय छे). ए अग्यार रुद्रने रूपकरूपे बनावी पुराणी लोकोए-अग्यार देवना रूपमां गोठव्या छे-तेनां सरस आख्यानो घडी शतपथब्राह्मणनी सादी वातने मोटुं रूप आपी विचित्र पण आलंकारिक वर्णन आप्यु छे. आ पुराणनीज वर्णनाने लोकोए टेको आपेल होवाथी संसारमा रुद्रपूजा पण प्रवर्ती छे अने एने लइने भगवतीजीनां आवेल आ रुद्र शब्द 'रुद्र'नी मूर्तिनो सूचक बन्यो छे. कालान्तरे पुराणनी मान्यता विशेष दृढीभूत थवाथी 'रुदे''शिव'ने सूचववार्नु पण कार्य स्वीकारी एक ईश्वरतरिके प्रसिद्धि मेलवी छे. आ ज कारणथी रसशास्त्रिओए पोताना रसग्रन्थोमां 'रुद्र'ने रौद्ररसनो अधिष्ठाता बनाव्यो छआ बधार्नु मूळ शतपथबाहाणनो ज रुद्र छे. ___४. श्रीयास्कमुनिजी शिव शब्दने 'सुख'ना पर्यायरूपे निघंटुमां आ प्रमाणे जणावे छे: "शिंबाता, शतरा, शातपंता, शर्म, स्यूमकम् , शेवृधम् , मयः, सुरम्य- "वैदिक आर्योए नीचेना वीश शब्दो 'सुख'ना पर्याय तरीके सूचव्या म् , सुदिनम् , शुषम् , शुनम् , शम्मम् , भेषजम् , जलाशम् , स्योनम् , छ:---शिंबाता, शतरा, शातपंता, शर्म, स्यूमक, शेवृध, मय, सुरम्य, सुन्नम् , शेवम् , शिवम् , शम् , कम् , इति विंशतिः सुखनामानिः"-निघण्टु. सुदिन, शूष, शुन, शग्म, भेषज, जलाश, स्योन, सुन्न, शेव, शिव, श अने पृ० २१५). क; ए नामोमां शिव शब्द पग आवे छेः"-(नि.पृ. २१५). ___पुराणकारो जेने अवताररूपे खीकारी, 'शिवपुराण' जेवा ग्रंथने रची, जगतमा खुल्लो मूके छे ते कोइ व्यक्ति तरीके विश्वमा थएल नथी. पण सर्व कोइने इष्ट एवा 'सुख'नो विशेष महिमा दर्शावचा 'सुख'ने ईश्वरात्मक सूचवनारुं ते जातनुं वर्णन पौराणिक होवाथी ते शिवावतारना शिव, काल्पनिक पात्र छे-एवं निरुक्तकार श्रीयास्कजीन मत छे. अहीं मूळमां जणावेल 'शिव' शब्द ए शिवावतारनी मूर्तिने सूचवे छे. जैनोमां तेवु (शिवावतारनी जेवू) आख्यान 'सत्यकि' नामना विद्याधरनुं छे, जे भावी चोविशीमां तीर्थंकर थशे :-अनु. १. 'प्रस्तुत सूचना पुनः संकलन समये शाक्त संप्रदायनी हयाती हती' एम आ हकीकत सूचवे छे. ____२. गणितशास्त्रमा सो हाथना मापने निवर्तन' कहुं छे, एथी निवर्तनिक शब्दनो अर्थ, एटला मापवाळी जमीन थाय छे:-(अमारी प्रति संभव छे के, प्रस्तुतप्रकरणमा तेनो ए अर्थ न घटी शकतो होय. कारण के, ज्यारे तामली तपस्वी तद्दन अंतिम अनशननो स्वीकार करे छे त्यारे ते पोताना स्थान माटे अमुक परिमाणवाळी जग्यान मंडळ आळेखे छे. जेम अत्यारे पण घणा तपस्वीओ अमुक प्रमाणर्नु कुंडाडु काढीने तेमा ज स्थिर बेसवानो मर्यादित संकल्प करे छे तेम ए तामली तपस्वीए ते आळेखेला मंडळमां रहीने (अर्थात् ए मंडळथी क्यांय बहार न जईने) पोतानो अंत आणवानो निश्चय कर्यो छे. एथी कदाच एने सो हाथ जमीननी जरूर न होय-किंतु पोतार्नु शरीर जेटलामा माई शके तेटली ज जग्यानी जरूर होय-ए कल्पना विशेष संभवित लागे छ भने एम होवाथी 'निवर्तनिक' शब्दनो पूर्वोक्त अर्थ अहीं न पण घटे:-अनु० | Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक १. भगवत्सधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. गमन नामना अनशननो आश्रय कर्यो. [ 'अणिंद 'त्ति] इंद्र विनानी होवाथी अनिंद्र, [ 'अपुरोहिअ'त्ति] शांतिकर्म करे ते पुरोहित, ज्यां आनंद्रा. इंद्र होय त्यां पुरोहित होय छे अने अहीं इंद्र नथी माटे ज पुरोहित नथी अने एवं छे माटे अपुरोहित, [ 'इंदाहीण 'त्ति ] इंद्रने तावे छे माटे अपुरोहिता. इंद्राधीन, [ 'इंदाहिट्ठिअ'त्ति ] इंद्रथी युक्त होवाथी इंद्राधिष्ठित, एम छे माटे ज कहे छे के, ['इंदाहीणकजत्ति जेनु कामकाज इंद्रने ताबे छ एवी. ठितिपकप्पंति ] बलिचंचा राजधानीमा रहेवा माटेनो संकल्प ते स्थितिप्रकल्प-तेने. ['ताए उक्विट्ठाए 'त्ति ] 'उत्कर्षवाळी ते देवगतिवडे' एम स्थिति प्रकल संबंध करवो, आकुलता होवाथी उतावळी, परंतु स्वाभाविक उतावळी नहीं. एवी गतिमां मानसिक चपलतानो संभव छ माटे कहे छे के, चपल गतिवडे अर्थात् शरीरनी चंचळतावाळी गतिवडे, चंड-रौद्र-भयानक-गतिवडे, एवा प्रकारना उत्कर्षवाळी छे माटे जयिनी (बीजी गतिओने जिती लेनार ) गतिवडे, उपायमा प्रवृत्ति करनारी होवाथी निपुण गतिवडे, श्रम रहित होवाथी सिंहनी जेवी गतिवडे, वेगवती गतिवडे, दिव्य गतिवडे, चालता चालतां वस्त्र वगेरे उडतां होवाथी उद्धृत गतिवडे अथवा उद्धत-दर्पवाळी-गतिवडे. ['सपक्खिं 'ति] जे स्थळे उत्तर, दक्षिण, पूर्व अने पश्चिमनां बधां पडखां सरखां होय ते सपक्ष, जे स्थळे बधी प्रतिदिशाओ सरखी होय ते सप्रतिदिक्. [ 'बत्तीसइविहं नट्टविहिं 'ति ] नाटकने लगती वस्तु बत्रीशजातः बत्रीश जातनी होबाथी बत्रीश जातनां नाटक. जेम राजप्रश्नीय (रायपसेणी) नामे अध्ययनमा नाटक-संबंधे जे कर्तुं छे तेम ज अहीं जाणवू. [ अटुं। बंधह 'त्ति ] प्रयोजन संबंधे निर्णय करो. निदान एटले एक जातनी प्रार्थना. ए ज वातने कहे छे के, ['ठिइपकप्पं 'ति ] ए बधुं पूर्वनी पेठे राजप्रश्नीर समजवू. - - - -- --- १. प्राकृतशैलीने लीधे अहीं 'इ'कार लागेलो छे अने तेथी ज 'सपखं'ने बदले 'सपक्खि' थयुं छे:-श्रीअभय २ राजप्रश्नीय ( रायपसेणी ) सूत्रमा नाटकना यत्रीशे प्रकारर्नु सविस्तर वर्णन आपेलुं छे अने ते ( क.आ.) पृ० ८५ थी ९५ सुधीमा तेमा ___ वर्णवाएलुं छे. ए वर्णनने मळतुं वर्णन, जीवाजीवाभिगम सूत्रमा ३ जी प्रतिपत्तिमां विजयदेवना अधिकारमा पण विस्तारपूर्वक आवेलं छे--(पृ. २४६२४७ समिति०) विस्तारना भयथी ते बधुं अहीं न जणावतां मात्र तेनां ३२ नामाने ज जणावीए छीए:-[अहीं जणावेला अभिनयोमाना जे जे अभिनयो महर्षिभरतना नाव्यशास्त्र साथे मळता आवे छे ते, नाम अने स्वरूप साथे सामेनी वाजुमां जण्याव्या छ.] रायपसेणी: भरतनुं नाट्यशास्त्रःभरते पोताना नाट्यशास्त्रमा अभिनयना चार प्रकार जणाव्या छः आंगिक, वाचिक, आहार्य, अने सात्विक. (" आशिको वाचिक व आहार्यः सात्विकस्तथा। शेयस्खभिनयो विप्राश्चतुर्धा परिकल्पितः-" ५। अध्याय-4) आंगिक एटले अंगनो अभिनय. वाचिक एटले वाचानो अभिनय. आहार्य एटले वेषनो अभिनय. सात्विक एटले सामान्य अभिनय. १ अष्ट मंगलना आकारोनो अभिनय. (१) स्वस्तिकाभिनय. नाट्यशास्त्रमा ससंयुत हस्तनो अभिनय तेर प्रकारनो दाव्यो छे. तेमा (२) श्रीवत्साभिनय. चोथो अभिनय स्वस्तिक छ अने तेरमो अभिनय वर्धमान छे. ते बनेनु ख(३) नन्दावताभिनय. रूप आ प्रमाणे छ:-" ज्यारे स्त्री, पोताना बन्ने हाथोने वांका अने उंचा (४) वर्धमानक-अभिनय. राखीने तथा डावा पडखामा लई जई मणिबंधमा विन्यस्त करे छे ते जा(५) भद्रासनाभिनय. तना शारीरिक अभिनयनुं नाम खस्तिक अभिनय छे.” १२८ (भना०अ० (६) कलशाभिनय. ९)" परामुख एवा बे हंसपक्षोना आकारनुं नाम वर्धमान-अभिनय छे. (७) मत्स्याभिनय. ज्यारे जाळीयान के झरुखानुं विघाटन करयुं होय छे त्यारे ए अभिनय (८) दर्पणाभिनय. करवामां आवे छे:” १४३ (भ. ना० अ०९) २. आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रतिश्रेणि, स्वस्तिक, पुष्प, माणवक, वर्धमा- सामे जणावेला स्वस्तिक अने वर्धमान-ए बन्नेनु खरूप उपर आवी गएवं नक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागरतरंग, छे. नाट्यशास्त्रमा मकर अने पद्म-नामक-हस्ताभिनयनो उल्लेख छे. कदाच वासंतीलता अने पद्मलताना चित्रनो अभिनय. नामसाम्बने लीधे सामे जणावेला मकराण्डक अने पद्मलताना अभिनय साथे ते मळता होय एबुं धारी अहीं तेनु स्वरूप आपीए छीए:-" नीचे नमेला, उंचा अंगुठावाळा, उपरा उपर विन्यस्त अने प्रलंबित थएला बन्ने हाथने-ए जातमा हस्ताकारनुं नाम मकराभिनय छे.” (१३७ भ०मा००१) "पडखे पडसे आवेली, छूटी रहेली अने हाथना तकियामा फरती आंगळी ओने--ए जातना हस्ताकारनु नाम पद्माभिनय छे.' ८७-(भना०अ०९) ३. ईहामृग, ऋषभ, तुरग, नर, मकर, विहग,व्याल, किन्नर, रुरु, शरभ, नाव्यशास्त्रमा गजदत नामक कराभिनयनो उल्लेख छे, कदाच ए सामेना चमर, कुंजर, वनलता अने पद्मलताना चित्रनो अभिनय. 'कुंजर' मा अभिनय साथे मळतो होय. एनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे:"सर्पना माथा जेबा एटले फेणना घाटना? अने कोणी सुधी संचित थएला बन्ने हाथने-ए जातना कराभिनयने 'गजदंत' कहेवामां आवे छे." १३८ (भ० ना० अ० ९) ४. एकतश्चक्र, द्विधा चक्र, एकतश्चक्रवाल, द्विधा चक्रवाल, चक्रार्थ अने चक्रवालनो अभिनय. ५. चंद्रावलिप्रविभाग, सूर्यावलिप्रविभाग, वलयावलिप्रविभाग, हंसावलि- एक हंसवक्त्र अने वीजो हंसपक्ष-ए बने कराभिनय छे. सामे आपेला प्रविभाग, तारावलिप्रविभाग, मुक्तावलिप्रविभाग, रत्नावलिप्रविभाग अने “हंसावलि' साथे कदाच ते मळता होय. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे छ:पुष्पावलिप्रविभागनो अभिनय. " तर्जनी अने वचली आंगळी तथा अंगुठो निरंतर अग्निस्थित होय अने Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीरायचन्द्र-जिनाग़मसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक । १२. 'आसुरुत्त'त्ति आसुरुप्ताः-शीघ्रं कोपविमूढबुद्धयः, अथवा स्फुरितकोपचिह्नाः, 'कुविअ'त्ति जातकोपोदयाः 'चंडक्किा'त्ति प्रकटितरौद्ररूपाः, 'मिसमिसेमाण'त्ति देदीप्यमानाः-क्रोधज्वलनेनेति. 'सुंबेणं'ति रज्ज्वा 'उद्गृहति'त्ति अवष्ठीव्यन्ति-निष्ठीवनं कर्वन्ति. 'आकडयिकर्डि'ति आकर्षविकर्षिकाम् , 'हीलेंति'त्ति जात्यायुद्घाटनतः कुत्सन्ति, 'निन्दति'त्ति चेतसा कुत्सन्ति, 'खिंसंति'त्ति स्वसमक्षं वचनैः कत्सन्ति, 'गरहंति'त्ति लोकसमक्षं कुत्सन्त्येव, 'अवमनंति'त्ति अवमन्यन्ते-अवज्ञास्पदं मन्यन्ते, 'तजिति'त्ति अङ्गली-शिरश्चालनेन. 'तालेंति ति ताडयन्ति हस्तादिना, 'परिव्वहति त्ति सर्वतो व्यथन्ते-कदर्थयन्ति, 'पव्वहंति'त्ति प्रव्यथन्ते-प्रकृष्टव्यथामिवोत्पादयन्ति. 'सत्थेव सयणिज्जवरगए'त्ति तत्रैव शयनीयवरे स्थित इत्यर्थः. 'तिवलि अंति त्रिवलिकाम्-भृकुटिं-दृष्टिविन्यासविशेषम् . 'समजोइभूअत्ति समा ज्योतिषाऽग्निना भूता समज्योतिर्भूताः, 'भीअ'त्ति जातभयाः, 'उत्तत्थ'त्ति उत्त्त्रस्ता-भयाज्जातोत्कम्पादिभयभावाः, 'सुसिय'त्ति शुषिताऽऽनन्दरसाः, 'उविग्ग'त्ति तत्त्यागमानसाः. किमुक्तं भवतीत्याह-संजातभया आधावन्ति-ईषद् धावन्ति, परिधावन्ति-सर्वतो धावन्ति. 'समतरंगमाणे'त्ति समाश्लिष्यन्तः, "अन्योन्यमनुप्रविशन्तः" इति वृद्धाः. 'णाई भुज्जो भुज्जो एवं करणयाए'त्ति नैव भूयः, एवं करणाय संपत्स्यामहे' इति शेषः, 'आणा-उववाय-बयण-निदेसे'त्ति आज्ञा 'कर्तव्यमेवेदम्' इत्याद्यादेशः, उपपातः सेवा, वचनमभियोगपूर्वक आदेशः, प्रश्निते कार्ये नियतार्थमुत्तरम् , तत एषां दुन्दुस्ततस्तत्र. बाकीनी बन्ने आंगळीओ फेलाएली होय-ए जातना कराभिनयर्नु नाम 'हंसयक्त्र' छे” १०० (भ० ना० अ० ९)“बधी आंगळीओ फेलाएली होय, कनिष्ठा उंची होय तथा अंगुठो कुंचित ( वळेलो) होय-ए जातना कराभिनयनुं नाम हंसपक्ष छे” १०३-(भ. ना. अ. ९) ६. उद्गमनोद्गमनपविभाग. ७. आगमनागमनप्रविभाग. ८. आवरणावरणप्रविभाग. ९. अस्तगमनास्तगमनप्रविभाग, १०. मंडलप्रविभाग. aicket, क्रांत, आ. अध्यर्थ, पिवत छ के, नाट्यशास्त्रमा मंडलना २० प्रकार दशाव्या छे, ते आ प्रमाणे:-"अति. क्रांत, विचित्र, ललितसंवर, सूचीविद्ध, दण्ड, परिवृत, अलातक, वामविद्ध, सललित, कांत, आकाशगामी, भ्रमर, आस्कंदित, समोसरित, एलकाक्रीडित अण्डित, शकटास्य, अध्यर्ध, पिष्टकुट, चाषगत. ए वीशेर्नु खरूप ११ मा अध्यायमा सविस्तर आपेलं छे. संभवित छ के, मंडलपविभागमां आ मंडलो आवतां होय. ११. हुतविलंबित. १२. सागर-नागप्रविभाग. १३. नंदा-चंपाप्रविभाग. १४. मत्स्याण्डक-मकराण्डक-जार-मारप्रविभाग. १५. कवर्गप्रविभाग-( कप्रविभाग, खपविभाग, गप्रविभाग, घप्रविभाग अने प्रविभाग) १६. चवगेप्रविभाग. १७. टवर्गप्रविभाग. १८. तवर्गप्रविभाग, १९. पवर्गप्रविभाग. २०, पल्लवप्रविभाग. २१. लताप्रविभाग, २२. द्रुत. नाट्यशास्त्रमा 'द्वत:' नामनो 'लय' अने द्रुता नामनी गति ( चाल ) जणावी छे." ५१-१२-(भ० ना० अ० १२) २३. विलंबित. २४. द्रुतविलंबित. २५. अंचित. माथाने लगता कुल १३ अभिनयो छे, तेमां आ ' अंचित' अभिनय आठमो आवे छे. "कोई चितांतुर मनुष्य, हाथ उपर हडपची टेकवीने पोतार्नु माथु नमर्नु राखे-ए जातना मस्तकाकारनुं नाम 'अंचित' अभिनय छे.” आ अभिनय व्याधिना, मूछीना अने दुःखनी चिंताना प्रसंगे करवामां आवे छे. २९-(भ० ना० अ० ८) तथा पगना छ अभिनयोमां पण आ अंचित अभिनय चोथो आवे छे. एनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे:-जे पगनी बधी आंगळीओ अंचित ( उंची) होय तेनुं नाम 'अंचित पाद' छे२४२ (म० ना० अ०९) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, ४५ १२. [ 'आसुरुत्त'त्ति ] शीघ्र क्रोध करवाथी मुंझाएल बुद्धिवाळा अथवा जेओमां कोपना निशानो स्फुर्या छ तेओ, ['कुविय'त्ति ] जेओने आसुरुप्त कोपनो उदय थयो छे ते, ['चंडक्किअति ] जेओए भयानक रूपने प्रकट्युं छे ते, [ 'मिसमिसे 'त्ति ] क्रोधना भडकाथी देदीप्यमान. [ 'सुंबेणं ति] दोरडीवडे. [ 'उछुहंति 'त्ति थुके छे, [ 'आकडविकड्ढेि 'ति] जेम फावे तेम आई अवलु खेच छे, [हीलेंति 'त्ति ] एनी जानि वगेरेने शुब. उघाडी पाडी तेनी निंदा करे छ, [ 'निंदंति 'त्ति ] मनवडे निंदा करे छ, [ 'खिंसंति 'त्ति ] पोतानी समक्ष वचनोरडे निंदा करे छे, [गरहंति त्ति ] लोकोनी समक्ष निंदा करे छ, । 'अवमन्नंति 'त्ति ] तेने अपमाननुं पात्र माने छ, ['तजिति 'त्ति] आंगळी अने माथु वगेरे शरीरना अवय- निंदा. वोने हलावी तेनी तर्जना करे छ, ['तालेति 'त्ति हाथ वगेरेवडे मारे छ, [ 'परिव्वहेंति 'त्ति ] चारे बाजुथी कदर्थना करे छे, [ 'पव्वहंति 'त्ति] जाणे खूब व्यथा उत्पन्न करे छे. ['तत्थेव सयणिजवरगए 'त्ति ] त्यां ज उत्तम शय्यामां रहेलो, [ 'तिवलिअंति] कपाळमां त्रण वळी-आड-पडे तेम शयनीय भवां चडाववां ते त्रिवलिका-तेने. [ 'समजोइभूअत्ति ] अग्निनी समान थएली. ['भीअ'त्ति ] भयवाळा थएला, [उत्तत्थ 'त्ति ] भयथी कंप त्रिवलिः वगेरेने पामेला-त्रासेला, [ 'सुसिय'त्ति ] जेओनो आनंदरस सूकाइ गयो छे एवा [ 'उब्विग्ग 'त्ति ] पोतार्नु रहेठाण छोडी देवू एवी इच्छावाळा· उद्वेगने पामेला, तात्पर्य शुं? तो कहे छे के, भयने पामेला तेओ थोडं दोडे छे, वधारे दोडे छे, ['समतुरंगेमाण 'त्ति ] एक बीजाने चोंटता, सम"एक बीजामां भराइ जता-एक बीजानी सोडमा भराता" ए प्रमाणे वृद्धोए अर्थ कयों छे. [णाई भुज्जो एवं करणयाए'त्ति ] वारं वार एम करवा तुरंगमा माटे 'अमे तैयार नहीं थाइए' एटलो अध्याहार छे. ['आणा-उववाय-वयण-निदेसे 'त्ति ] 'आ करवानुं ज छे' ए प्रमाणेनो आदेश ते आज्ञा, उपपात एटले सेवा, आज्ञापूर्वक आदेश ते वचन, पूछेला कार्य संबंधे नियमित जवाब ते निर्देश अर्थात् इंद्रनी आज्ञा वगेरेमां ते देवो रहे छे. आशा. १३. ईशानेन्द्रवक्तव्यताप्रस्तावात् तद्वक्तव्यतासंबद्धमेवोद्देशकसमाप्तिं यावत् सूत्रवृन्दमाहः-'सक्कस्स' इत्यादि. 'उच्चतरा चेव'त्ति उच्चत्वं प्रमाणतः, 'उन्नयतरा चेव'त्ति उन्नतत्वं गुणतः, अथवा उच्चत्वं प्रासादापेक्षम् , उन्नतत्वं तु प्रासादपीठापेक्षमिति. यच्चोच्यते-"पंचसय उच्चत्तेणं आइमकप्पेसु होति विमाण"त्ति, तत् परिस्थूलन्यायमङ्गीकृत्यावसेयम् , तेन किञ्चिदुच्चतरत्वेऽपि तेषां न विरोध इति. 'देसे उच्चे, देसे उन्नये'त्ति प्रमाणत:, गुणतश्च. 'आलावं वा, संलावं वत्ति आलाप: संभाषणम् , संलापः तदेव पुनः पुनः, 'किच्चाईति प्रयोजनानि, 'करणिज्जाइंति विधेयानि, 'से कहं इआणि पकरेंति'त्ति अथ कथम् इदानीम्-अस्मिन् काले कार्यावसरलक्षणे प्रकुरुतः 'कार्याणि' इति गम्यम् , 'इति भो'त्ति इति-एतत् कार्यमस्ति, भोः-शब्दश्चामन्त्रणे. 'इति भो!, इति भो तित्ति परस्परालापानुकरणम् . 'जं से वयइ तस्स आणा-उववाय-वयण-निदेस'त्ति यत्-आज्ञादिकम् , असौ वदति, तत्र आज्ञादिके तिष्ठत इति वाक्यार्थः, तत्र आज्ञादय पूर्वं व्याख्याता एवेति. 'आराहए'त्ति ज्ञानादीनामाराधयिता, 'चरमे'त्ति चरम एव भवो यस्याप्राप्तस्तिष्ठति, देवभवो वा चरमो यस्य सः, चरमभवो वा भवेष्यति यस्य स चरमः. 'हि अकामए'त्ति हितं सुखनिबन्धनं वस्तु, 'सुहकामए'त्ति सुखं शर्म, 'पत्थकामए'त्ति २६. रिभित. २७. अंचितरिभित. २८, आरभट नाव्यशास्त्रमा “ एक प्रकारनी वृत्तिने 'आरभटी' कही छे" १४ (भ. ना० अ० २०) २९. भसोल(?) [भसल] ___ 'भ्रमर' शब्दनुं प्राकृतरूप 'भसल' थाय छे एथी नाव्यशास्त्रमा जणावेली 'भ्रमर' अभिनयनी हकीकत, कदाच 'भसल' अभिनयनी जेवी होय. (सामे आपेलं 'भसोल' रूप अशुद्ध लागे छे.) एक प्रकारना हस्ताभिः नयन ज नाम 'भ्रमर' अभिनय छे. " वचली आंगेळी अने अंगुठानो संदेश होय, प्रदेशिनी बांकी हीय अने बीजी बे उंची तथा प्रकीर्ण होय-ए जातना हत्ताभिनयनुं नाम भ्रमर छे" ९७ (भ० ना० अ०९) ३० आरभट भसोल (2) . ३१ १ उत्पात, (२) निपात, (६) प्रसक्त, (४) संकुचित, (५) प्रसारित, (६) रेक, (७) रचित (2) [ रेचित ] (८) भ्रान्त अने (९] नाट्यशास्त्रमा वे प्रकारे । रेचित' अभिनयनो उल्लेख छे. एक तो भवांना संभ्रान्ताभिनय. अभिनयमां अने बीजो कटीना अभिनयमां. “ सुंदरता पूर्वक कोई एक भवांना उत्क्षेपने रेचित कहेवाय छे” ११६-( भ०ना०अ०८) "चारे बाजुथी नमी गएली कटी-कड-ने 'रेचित कटी कहेवाय छे” २१७-(भ. ना .अ ९) ३२. चरमचरम अने अनिवद्ध नाम. [बत्रीशमा 'चरमचरम' नामनो अभिनय करतां ए सूर्याभदेवे जे अभिनयो खेल्या हता, तेनुं वर्णन आ प्रमाणे छे:-वर्धमाननो आगळनो कोई छेलो मनुष्य भव-एमां एणे एमना ए आखा भवनी चाओ जूदा जूदा वेषो लईने बतावी हती. एज प्रकारे एमनो छेल्लो देवभव, एमर्नु च्यवन, गर्भसंहरण, जन्माभिषेक, बालक्रीडा, यावनदशा, कामभोगदशा, प्रव्रज्या, तपश्चरण, ज्ञाने।त्पाद, तीर्थप्रवर्तन अने निर्वाणगमन ए बधा भावोने खेली वताव्या हता.-(जीवाजीवाभिगम, पृ०२४७ स.)अहीं जे जे अभिनयोनो, भरतनाट्य शास्त्रनी साथे तुलनात्मक उल्लेख करेलो छे ते ते अभिनयो विषेनी विशेष हकीकत ए ज शास्त्रना ते ते अध्यायो उपरथी जाणी लेवानी छ. ए विषे जैनग्रंथोमां कोई जाणवा जोग उल्लेख मळतो जणायो-तो-नथी. सूत्रोक्त बत्रीश प्रकारमा केटलाक प्रकारो एवा छे के,जे, समजमा आवी शकता नथी, कारण के, तेमा केटलाक नामोतो अशुद्ध ज लखाएला लागे छे. परंतु साधनाभावने लीधे तेनो निर्णय थई शके तेम नथी. टीकाकारोए पण एवां ज नामो लखी दीधा छे अने स्वरूप के विवेचन तो आप्या ज नथी]:-अनु० १. अहीं द्वंद्व समास करवानो छेः-धीअभय. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे " शतक - उदेशक १ पथ्यं दुःखत्राणम्. कस्मादेवम् ? इत्यत आह- ' आणुकंपिए 'त्ति कृपावान्, अत एवाह - 'निस्सेयसिए'त्ति निश्रेयसं मोक्षः, तत्र नियुक्त इव नेयसिकः, 'हिज-सुह- निस्सेसकामए' ति हितं यत् मुखम् अदुःखानुबन्धमित्यर्थः सन्निःशेषाणां सर्वेषां कामयते वाञ्छति यः स तथा पूर्वीकार्थसंग्रहाय गाथे– 'छ' इत्यादि. इह आयगाथायां पूर्वापदानां पश्चार्धपदैः सह यथासंख्यं संबन्धः कार्यः तथाहि विध्यक- कुरुदचसाध्वोः क्रमेण पष्ठम्, अष्टमं च तपः तथा मासः, अर्धमासा 'भरापरिणति अनशनविधिः एकस्य मासिकमनशनम् अन्यस्य चार्धमातिकमिति भावः तथैकस्याष्टवर्षाणि पर्यायः, अन्यस्य च षण्मासा इति द्वितीया गाथा गतार्था. 'मोया सम्मत्त 'त्ति मोकाऽभिधाननगर्या - मस्योदशेकार्थस्य 'किटी विकुर्वणा' इत्येतावद्रूपस्योक्तत्वात् 'मोका' एवायमुदेशक उच्यते इति " भगवत्स्वामिनी श्रीभगवती सूत्रे लीयते प्रथम उद्देश श्रीमभयदेवसूरिविरचितं विचरण समाप्तम् C १३. अत्यार सुधी ईशानेंद्र संबंधी वक्तव्यता कही छे अने हवे पण आखा उद्देशक सुधी ते ज संबंधे कहेवानुं छे तो ते माटे सुत्रवृंद कहे विमानोनां छे: - [ 'सक्कस्स' इत्यादि. ] [ 'उच्चतरा चेव 'त्ति ] प्रमाणथी उंचा, [ उन्नयतरा चेव 'त्ति ] गुणथी उन्नत अथवा प्रासादनी अपेक्षाए उच्चपणं अने भाप प्रासादमा पीठनी अपेक्षाए उन्नतपणुं जे कहवा के के, "पेला कल्पोमा रहेलां विमानोगी उचाइ पांचसे योजन छे" ते स्थूलपने का छे एम जाणवुं. तेथी जणावेल प्रमाण करतां जराक वधारे उंचाइ होय तो पण कांइ विरोध जेवुं नथी. [ 'देसे उच्चे, देसे उन्नए'त्ति ] प्रमाणथी अने कृत्य. गुणथी. [' आलावं वा संलावं व 'त्ति ] आलाप एटले संभाषण अने संलाप एटले वारंवार संभाषण. [' किच्चाई 'ति ] कृत्य एटले प्रयोजनो, [ 'करणिजाई 'ति ] करणीय एटले कार्यो. [ 'से कहमिआणि पकरेंति'त्ति ] हवे ज्यारे कार्यनो प्रसंग पडे त्यारे तेओ केवी रीते कार्य करे छे. [इति भो 'ति ] ए कार्य छे, [भो इति भो ! ति सि ] ए शब्दो एक बीजाना आलापना अनुकरणरूप . [ 'जं से या तरस आणाये रहे उपाय वयण-निदेस 'ति ] जे कां आशादिक ए करे, तेने तेओ ताने रहे छे, ए प्रमाणे वाक्यनो अर्थ छे. तेमां आशा बगेरे शब्दोनी व्याख्या आगळ उपर थइ गइ छे. [ 'आराहए 'त्ति ] ज्ञान वगेरेनो आराधक छे [ 'चरमे 'त्ति ] जेने हवे मात्र छल्लो एक ज भव बाकी छे ते, अथवा जे हितैषी बालु भव-देवनो भइछे तेज जेनो छेो भव हे ते, अथवा जेनो परम भय से चरम [हिजकामर 'ति ] सुखना कारणरूप वस्तु ते हित, वयइ " , चरम. [' सुहकामए 'त्ति ] सुख एटले सुख, [ 'पत्थकामए 'त्ति ] दुःखथी बचवुं ते पथ्य. एम शा माटे तो कहे छे के, [' आणुकंपिए 'त्ति ] कृपाळु एवो छे माटे ज कहे छे के, [ ' निस्सेयसिए 'ति ] जाणे निश्रेयस - मोक्ष- मां नियुक्त न होय एवो [' हिअ सुह - निस्सेसकामए 'त्ति ] जेमां दुःखनो संबंध न होय ते सुख हित, सुख बगेरे बधाने इच्छनार ते. आगळ कडेला अर्थने संक्षेपधी सूचनारी से गाथा कहे छे:-['' इत्यादि. ] - कुरुदत्त अहीं पहेली गाथामां आवेल पूर्वार्धनां पदोनो उत्तरार्धनां पदो साथै अनुक्रमे संबंध करवोः तिष्यक अनगारनुं छट्ठ तप अने कुरुदत्त अनगारनुं अम तप समज. बळी भत्तपरिष्ण 'त्ति ] एटले अगसनो विधि ते एकनो मास सुधी जने भीजा अननारनो पखवाडिया सुधी जाणयो अर्थात् तिष्यको मास सुची अने कुरुदत्तनो पसवालिया सुधी अणसण विधि जागो तथा एकनो-तिष्यकनो-आठ परसनो अने बीजानो-कुरुदत्तनो-छ मासनो (दीक्षा) पर्याय जागयो. मीजी गावानो अर्थ स्पष्ट छे. [मोया सम्मत 'ति] 'विकुर्वणा केवा प्रकारनी छे ए संबंधेनी वधी हकिकत 'मोका' नगरीमां कहेवाएली होवाथी ए हकिकतने जणावनार प्रकरण ( उद्देशक ) पण ( मोका) ना नामे कहेवाय छे-ओळखाय छे. 6 भोका. वेडारूपः समुद्रेऽखिल चरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दापी यः सगुणानां परकृतिकरणात जीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशियमुखं मारहा चामुख्यः ॥ १. जीवाजीवाभिगम सूत्रनी वृत्तिमां (स० पृ० ३९७ ) वैमानिक उद्देशकमा आवेली देववर्णनामां क के, प्रथमना वे कलमां-सौधर्म ( जूओ भ० प्र० खं ० पृ० २९६ ) ईशान कल्पमां आवेला विमानो पांच योजन उंचां छे " अर्थात् एथी ए बन्ने कल्पनां विमानोनी उंचाई एक सरखो जणाय छे अने अहीं मूळसूत्रमां जणाव्या प्रमाणे तो सौधर्म कल्प करतां ईशान कल्पनां विमानो उचां लागे छे अने ईशान कल्प करतां सौधर्म कल्पनां बिमानो नीचां लागे छे ए रीते आ सूत्र साथै उपर जणावेला ग्रंथांतरना वचननो विरोध आवे छे तेनुं केम ? समा० ग्रंथांतरमां जणावेलं विमाननी उंचाईनुं माप साधारण छे तेथी ए विमानो परस्पर थोडा घणां उंचा नाचां होय, तो पण तेनो बाध गणातो नथी अर्थात् एक विमान तो पूरा पांचसें योजन उंच होय अने बीजुं तेथी चार छ आंगळ वधारे होय, तो पण ए विमानो उंचाईमां सरखां गणाय छे. एथी ग्रंथांतरनुं ए वचन अने प्रस्तुत सूत्रनुं आ कथन परस्पर विरोधी थई शकतुं नथी, कारण के, ए बन्ने कथनो भिन्न भिन्न अपेक्षाए जणावेलां छे एक कथन साधारण अपेक्षाए छे अने वीर्जु कथन विशिष्ट अपेक्षाए - अनु० .२ आ शब्द आमंत्रण सूचक छे:- श्री अभय० 66 / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक १. भगवत्सुधमेस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, ४७ शतक ३.-उद्देशक-२. राजगृह.-पर्षत.-महावीर अने गौतम.-असुरो क्यों रहे छ ?-रत्नप्रभा पृथिवीनी वचे.-असुरोनुं नीचली तृतीय-(वालुकाप्रमा)-पृथिवी सुधी थएटुं गमन अने साते पृथिवी सुधी . जवानु सामर्थ्य गमननो हेतु.-पूर्वना वैरिने दुःखी व.रयो के पूर्वना भित्रने सुखी करवो.-असुरोनुं तिरछे नंदीश्वर द्वी' सुधी थएलुं गमन अने तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रो सुधी जबानु सामर्थ्य.-तओनो तिरछा गमननो हेतु.-अरिहंतोना जन्मनो, निष्क्रमणनो, ज्ञानोत्पादनो अने परिनिर्वाणनो महिमा.-असुरोनु उचे सौधर्म देवलोक सुधी थएलु गमन अने उंचे अच्युत देवलोक सुधी जवानुं सामर्थ्य.-ऊर्ध्वगमननो हेतु.देव अने असुरोनुं वैर.-असुरोनुं चोरपणु-असुरोने देवोए करेली सजा.-असुरो अने अप्सराओ.-असुरोनु ऊर्ध्वगमन केटलो काळ बीत्या पछी थाय छे ? अनंत उत्सपिणी अने अनंत अवसर्पिणी.-शबर.-बबर.-ढंकण.-भुत्तुअ.-पण्ह.-पुलिद.-अरिहंत विगेरेना आशराथी ज असुरोनुं ऊर्ध्वगमन -महद्धिक असुरोर्नु ऊर्ध्वगमन.-उर्ध्वगमन माटे चमरनी वात.-चमरनो पूर्वजन्म.-जम्बूद्वीप.-भारतवर्ष,-विंध्यगिरिपादमूळ.-वेभेल संनिवेश.-पूरण गृहपति.मुंड यq.-दानामा प्रव्रज्या.-चार खानावाकुं काष्ठपात्र.-मळेल भिक्षावडे वटेमा, कागडा, कूतरा अने माछला, काचवा वगेरेनुं आतिथ्य.-पूरणनो उग्रतप.-पूरणनुं पादपोपगमन अनशन,-छमस्थ तरिके महावीरनां अग्यार वर्ष.-सुसमारपुर नगर.-इंद्र बिनानी चमरचंचा नगरी.-तपखी तरीके पूरणनां बार वर्ष.-मासिक संलेखना.-साठ टंक अनशन.-चमरचंचमां इंद्र-चमर-तरीके पूरणनो जन्म.-चमरे करेलो सौधर्म देवलोकनो साक्षात्कार.मघवा, पाकशासन, शतक्रतु, सहस्राक्ष, वज्रपाणि अने पुरंदर.-शकेंद्रना विलासो जोई चमरने थपली ईया.-शक प्रति चमरनुं गालिप्रदान.-चमरनो भयावह या नळ.-छमस्थ महावीरनो चमरे लीधल आश्रय.-परिघ आयुधने लईने एकला चमरे सौधर्म देवलोक (शक) प्रति करेलुं प्रयाण.-प्रयाण पूर्व चमरे रचेलु बीहामणुं शरीर.-उपर जतां जतां चमरे करेल उत्पात.-बानध्यंतर देवोनी भागनाश.-ज्योतिपिकोना विभाग.-आत्मरक्षक देवोर्नु पलायनचमरनुं शक्रपासे पहोंचवू.-शकना दरवाजा बच्चे रहेल इन्द्रकीलन चमरे करेल आकुट्टन:-शक्राश्रित देवोने देखाडेल भय.-चमर उपर शक्रनो कोप.चमरजें भागवू.-महावीरना पगमां पडवू.-वज्र मूक्या पछी शक्रने थएल विचार-पश्चात्ताप.-वज्रनी पाछळ थएल शक्र.-शके महावीरथी चार आंगळ छेटे रहेल वनने पकड्यं.-शक- ‘महावीरने वंदन अने क्षमाप्रार्थन.-महावीरना प्रभावे चमरनो बचाव-गौतमप्रश्न.-फेंकेल पुद्गलनी पाछळ जइने देव तेने पकडी शके १-पुद्गलगतिविचार.-शक्रनी, चमरनी अने वज्रनी गमनशक्ति, तेनी परस्पर तुलना तथा तेनु काब्मान.-चमरनो शोक.-शोकना कारणनो चमरना देवोनो प्रश्न.-चमरनी महावीर प्रति भक्ति.-चमरनी स्थिति अने सिद्धि.-- १.प्र०-ते' णं काले णं, ते णं समए णं रायागहे नामं नगरे १. प्र०-ते काळे, ते समये राजगृह नामर्नु नगर हतुं. होत्था, जाव-परिसा पज्जुवासइ. ते णं काले णं, ते णं समए णं यावत्-सभा पर्युपासना करे छे. ते काळे, ते समये चोसठ हजार चमरे असरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुह- सामानिक देवोथी विटाएलो अने चमर नामना सिंहासनमा बेठेलो म्माए. चमरंसि सीहासणंसि, चउसठ्ठीए सामाणियसाहस्सीहि असुरेंद्र, असुरराज चमर, चमरचंचा नामनी राजधानीमां, सुधर्मा जाव-नट्टविहिं उवदंसेत्ता, जामेव दिसं (सिं) पाउन्भूए तामेव सभामां, यावत्-नाट्यविधिने देखाडीने जे दिशामांथी आव्यो हतो दिसिं पडिगए. ते दिशामां पाछो चाल्यो गयो. १. मूलच्छायाः-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरम् अभवत् , यावत्-पर्षत् पर्युपास्ते. तस्मिन् काले, तस्मिन् समये चमरो सुरेन्द्रः, असुरराजश्चमरचञ्चाया राजधान्याः, सभायाः सुधर्मायाः, चमरे सिंहासने, चतुःषष्टया सामानिकसाहस्रीभिः यावत् नाट्य विधिम् उपदय, यामेव 'दिशं प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः-अनु० Jain Education international Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक ३.-उद्देशक ? भंते' 'त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ (ति), 'हे भगवन् !' एम कही भगवान् गौतम, श्रमण भगवंत मनमंसइ (ति), एवं वया (दा) सी:-अस्थि णं भन्ते ! इमीसे हावीरने वांदे छे, नमे छे अने वांदी, नमी तेओ आ प्रमाणे रयणप्पभाए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति ? बोल्या:-हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीनी नीचे असुरकुमारदेवो रहे छ ? १. उ०-गोयमा ! णो इणहे समझे १. उ०—हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी-एम नथी.-ए प्रएवं जाव-अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव. माणे यावत्-सातमी पृथिवीनी नीचे पण असुरकुमारदेवो रहेता नथी. तथा ए ज रीते सौधर्मकल्पनी अने यावत्-बीजा कल्पोनी पण नीचे असुरकुमारदेवो रहेता नथी. २. प्र०-अस्थि णं भन्ते ! ईसिप्पभाराए पुढवीए अहे २. प्र०—हे भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथिवीनी नीचे असुरअसुरकुमारा देवा परिवसंति ? कुमारदेवो रहे छे ? २. उ०-नो इणहे समढे. २. उ०—हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी-एम नथी. ३. प्र०--से कहिं खाइ णं भंते ! असुरकुमारा देवा परिव- ३. प्र०—हे भगवन् ! त्यारे कयु एवं प्रसिद्ध स्थान छे के, संति ? ज्यां असुरकुमारदेवो निवास करे छे ? ३. उ०-गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीओ- ३. उ०-हे गौतम ! एक लाख अने एंशी हजार योजननी (उ)त्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए, एवं असुरकुमारदेववत्तव्वया, जाडाई वाळी आ रत्नप्रभा पृथिवीनी वचगाळे ते असुरकुमारदेवो जाव-दिव्वाइं भोगभोगाइं भुजमाणा विहरंति, रहे छे. अहीं असुरकुमारो संबंधी बधी वक्तव्यता कहेवी अने यावत्- तेओ दिव्यभोगोने भोगवता विहरे छे. ४. प्र०-अस्थि णं भन्ते ! असुरकुमाराणं देवाणं अहेगति- ४. प्र०-हे भगवन् ! ते असुरकुमारोमां एवं सामर्थ्य छे के विसये? तेओ पोताना स्थानथी नीचे जइ शके ? ४. उ०-हंता, अत्थि. ४. उ०—हे गौतम ! हा, तेओमां पोताना स्थानथी नीचे जवानुं सामर्थ्य छे. १. मूलच्छायाः-'भगवन् !' इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्य ति, एवम् अवादीत:-अस्ति भगवन् ! अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः अधोऽसुरकुमारा देवाः परिवसन्ति ? गौतम ! नाऽयम् अर्थः समर्थः. एवं यावत्-अधः सप्तम्याः पृथिव्याः सौधर्मस्य कल्पस्य अधो यावत्. अस्ति भगवन् ! ईषत्प्राग्भारायाः पृथिव्याः अधोऽसुरकुमाराः देवाः परिवसन्ति ? नाऽयम् अर्थः समर्थः. अब कुन पुनर्भगवन् ! असुरकुमाराः देवाः परिवसन्ति ? गौतम! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायाः-एवम् असुरकुमार देववक्तव्यता, यावत्-दिव्यानि भोगभोग्यानि भुञ्जाना विहरन्ति. अस्ति भगवन् ! असुरकुमाराणां देवानाम् अधोगतिविषयः ? हन्त, अस्ति :-अनु० २. उपरना सूत्रमा आवेली चची असुरकुमारोने लगती छे. एमां आवेलो ' असुर' शब्द विशेष विचारणीय छ. ए शब्दनो प्रयोग पाराणिक कविओए 'दानव' अर्थमां करेलो छे तेम अहीं पण ए, ए ज अर्थने सूचवे छे. आ चर्चामा आगळ जतां एवं पण जणाव्यु छ के, असुरकुमारो अने उपरना (सौधर्मादि) सुरो वच्चे अहिनकुलनी जेवू जातिवैर छे (2) अने ते मात्र एक कारणने लीधे ज तेओ उपर जईने तोफान करे छे-चोरी करे छे अने उपरनी सुरप्रजाने त्रास आप छे. पौराणिक साहित्यमा प्रसिद्धि पामेलो सुराऽसुरनो संग्राम, आ चर्ची साथे मळनो आवे छे. महर्षि यास्के सुराऽसुरना संग्राम विषे जणावतां पोताना निरुक्तमां नीचे प्रमाणे जणाव्यु छे: "अपां च ज्योतिषश्च मिश्रीभावकर्मणाः वर्षकर्म जायते, तत्रोपमाथेन युद्ध- "वादळांनां पेटमा रहेलां पाणी त्यारे ज झरे छे, ज्यारे ते पाणी वायुथी वर्षा भवन्ति "-(निरुक्तमूल.) " अपां च मेघोदरान्तर्गतानाम्, ज्योतिषश्च विटाएलां वैद्युत (विजळीना) प्रकाशथी उपताडित थाय छे. आ रीते पाणो वैद्युतस्य उद्भूतवृत्तेः, मिश्रीभावकर्मणो वर्षकर्म जायते-तेन हि वैधुतेन ज्यो. अने प्रकाशनी प्रतिद्वन्द्विताथी थती क्रियाने वर्षकर्म-वरसाद-कहेवामां आवे तिषा वाय्वावेष्टितेन इन्द्राख्येन उपताज्यमाना आपः प्रस्यन्दन्ते-वर्षभावाय छे. ए ज प्रतिद्वन्द्विताने रूपकनी कल्पनामा ढाळी युद्धरूपे वर्णवी छे. वस्तुतः कल्प्यन्ते, तत्र एवं सति उदक-तेजसेारितरेतरप्रतिद्वन्द्वभूतयोः उपमार्थेन ते जातर्नु (देवासुरनुं) युद्ध नथी, तेम इन्द्रना कोई शत्रुओं नथी" इत्यादि रूपकल्पनया युद्धवी भवन्ति-युद्ध रूपकाणि इत्यर्थः । न हि अत्र यथाभूतं (निरुक्तभा० पृ. १४४-१४५) युद्धमस्ति, न हि इन्द्रस्य शत्रवः केचन सन्ति" इत्यादि (निरुक्तभाष्य-पृ० १४४-१४५) निरुक्तना आ अभिप्रायथी आपणे कही शकीए छीए के. वरसादने प्रसंगे थता गडगडाट अने झबकारानी बीनाने पौराणिक कविओए सुरासुरसंग्रामना रूपकमां ढाळीने वर्णवेली छे. आ रूपक घणुं प्राचीन थएलं होवाथी हवे तो एक इतिहासरूप पण प्रसिद्धि पाम्युं छे. मने लागे छे ते प्रमाणे आ प्रस्तुत सूत्रमा आवेली असरचीन मूळ पण आ ज रूपक छ अने हुं धारूं छउं तेम तो ए रूपक जैनसाहित्यमा आवीने विशेष पुष्ट बन्युं छे-जैनऋषिओए तो एक प्रजानी व्यवस्थानी जेम असुरोनां घरो, स्त्रीओ, सरसामान, घरेणां गाठां, जघन्य अने उत्कृष्ट आयुष्यो, विलासक्रीडा, वैषयिकविनोद, सेना, सेनाधिपतिओ अने लंटफाट विगेरेन रीतसर अने आबेहब संगठन करी ते रूपकात्मकभावने ऐतिहासिक थवानो विशेष प्रसंग आप्यो छे. यास्कनुं निरुक्त हुं धारूं छउँ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५. प्र०—केवतियं च णं पभू ते असुरकुमाराणं देवाणं अहेग- ५. प्र०—हे भगवन् ! ते असुरकुमारो पोताना स्थानथी तिविसए पण्णत्ते ? केटला भाग सुधी नीचे जइ शके छ ? ५. उ०-गोयमा ! जाव-अहे सत्तमाए पुढवीए, त पुण ५. उल-हे गौतम ! ते असुरकुमारो पोताना स्थानथी नीचे यावत्-साती पृथिवी सुधी नी वे जइ श के छे. तेओनी नीचे पुढविं गया य, गमिस्संति य. जवानी मात्र आटली शक्ति छे. परंतु तेओ त्यां सुधी कोइ बार ६. प्र०—किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तचं पुढविं गया नथी. जशे नहीं अने जता पण नथी. किंतु त्रीजी पृथिवी गया य, गमिस्सति य ? सुधी जाय छे, गया छ अने जशे पग खरा. ६. प्र०-हे भगवन् ! ते असुरकुमारो त्रीजी पृथिवी सुधी जाय छे, गया छे अने जशे तेनुं शुं कारण ? तेम विशेष प्राचीन छे. वर्धनानना समयन साहित्य वर्णतां घगे स्थळे जे निरुक शब्दनो उल्लेख आवेलो छे ते आने ज लगतो होय ते पण संभव छे. (निरुक्त' ना उल्लेख माटे जूओ भगवती सूत्र प्रथमखंड, द्वितीयशतक, प्रथम उद्देशक पृ० २३१ अने टीका पृ० २४६ ) एमां 'असुर' शब्दनो अर्थ आपतां जणान्यु छ के । "अद्रिः, ग्रावा, गोत्रः, वलः, अश्नः, पुरुभोजाः, बलि शानः, अमा, पर्वतः, मेघनां त्रीश नामो छे. ते आ प्रमाणे छे:-अद्रि, ग्रावा, गोत्र, बल, गिरिः, ब्रजः, चरुः, वराहा, शंबरः, रौहिणः,रेवतः, फलिगः, उपरः, उपलः, अश्न, पुरुभोजा, वलि शान, अश्मा, पर्वत, गिरि, व्रज, चरु, वराह, शंबर, चमसः, अहिः, अन्नम् , वलाहकः, मेघः, ओदनः, वृान्धिः , वृत्रः, असुरः, रोहिण, रैवत, फलिग, उपर, उपल, चमस, अहि, अभ्र, दलाहक, मेघ, कोशः, इति त्रिंशद् मेघनामानि" ॥१।१०।-निष्क्ते निघण्टुकाण्डे पृ० १५४) ओदन, वृषन्धि, वृत्र, असुर अने कोश-(निरुक्त निघण्टुकांड पृ० १५४) आमां 'असर' शब्दने 'मेघ' अर्थमा योजेलो छ अने तेनो ए अर्ध बराबर होय, ए तेनी व्युत्पत्ति उपरथी पण जाणी शकाय छ:-" असून प्राणान्, गति ददाति-इति असुरः" अर्थात् प्राणोने आपे ते असुर. मेघमा रहेली प्राणदात्री शक्ति तो सर्व प्रतीत छे, एथी ' असुर' अने · मेघ 'ए बन्नेनी समानार्थकता, उपर प्रमाणे निरुक्तमा जणावेली छे ते विशेष दृढ थती जणाय छे:-अनु. १. मूलच्छाया:-कियच प्रभुस्तेषाम् असुरकुमाराणां देवानाम् अधोगति विषयः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! यावत्-अधः स तम्यां पृथिव्याम्, तृतीया पुन पृथिवीं गताच, गमिष्यन्नि च. किंप्रत्ययं भगवन् ! असुरकुमाराः देवास्तृतीयां पृथिवीं गताच, गमिष्यन्ति च ?:-अनु० २. एक लाख, एंशी हजार योजनना दळवाळी रत्नप्रभा पृथिवीना, उर अने नीचेना एक एक हजार योजनप्रमाण भागने बाद करता याकी रहेला स्थळनी अंदर भुवनपति मोनां अने वानव्यंतरानां रहेठाणो छे. तेमां भुवनपतिओना दश भेद छे. तेमांना प्रथम भेदने 'असुरकुमारावास' कहेवामा आवे छे. ते आवास दक्षिणे अने उत्तरे एम बे दिशामां आवेलो छे. तेमा एकनां 'चमर' अने बीजामा 'बी' ए नागना बे इन्द्रो छे. चारनी राजधानीने चमरचंचा अने वलिनी राजधानीने बलिचंचा कहेवामां आवे छे. चमरचंचामां चोत्रीरालाख घर (असुरकुनारावास) छे अने वाले चंचामा ३० लाख छबन्नेमां महीने ६४ लाख असरकुमारावासो छे. तेमा रहेनारामोनी आवरदा, ओछामा ओली दश हजार वर्षनी अने वधारेमा वधारे एक सागरोपमथो अधिक होय छे. उपर आवेला त्रीजा प्रतिवच :-सूत्रमा असुरकुमारोनी वक्तव्यता विषे जे भलामण थएली छे तेनो सविस्तर वर्णनात्मक परिचय प्रज्ञापना' उपांगमा ( आ० स० पृ० ८९-९१) आप्रमाणे छे:___ “कहिं णं भंते । असुरकुनारा देवा परिवसंति? गोयमा ! इमीसे “हे भगवन् ! असुरकुमार देवो कये स्थळे रहे छे! हे गौतम! एक रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयण- लाख, एंशी हजार योजन जाडी रत्नप्रभा पृथिवीनो, एक एक हजार योसहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता, मज्झे अहहुत्तरे जननो उपरनो अने नीचेनो भाग वाद करी, बाकि रहेला-मध्यना एक जोयणसयसहस्से; एत्थ णं अनुरकुनाराणं देवाणं च उसद्धिं भवणावाससय- लाख अने अठ्योतेर हजार योजन प्रमाणना-भागमा असुरकुमार देवोना ६४ सहस्सा भवंति-त्ति अखाय, ते णं भवगा बाहिं वहा, अंतो चउरंसा, लाख आवासो आबेला छे, ते आवासेा, बहारथी गोळ, वचे चोखंडा अने अहे पुक्खरवरकणियासंठाणसंठिया, उकिंतरविउल-गंभीरखाइयफलिहा, पुष्कर-कमळ-गी कर्णिकाना घाटना छे, प्रत्येक आवासोनी फरती एक खाई पागार-द्वालय-कवाड-तोरण-पडिदुवारदेसभागा, जंत-सयग्घि-मुसल-मुसंढि. अने परिखा, जे चोक्खी (गाळ विनानी) उंडी अने वचे पहोळी छे, प्रति परियारिया, अउज्झा, सदाजया, सदागुत्ता, अडयालकोटुगरइया, अड. आवास, एक गढ अने तेमा आवेली अटारी, वारणा, तोरण तथा बारीओ यालकयवणमाला, खेमा, सिवा, किंकरामरदंडोवरक्खिया, ला(इय) उल्हा- संयुक्त छे. ते भवनो (आवासो), यंत्र, शतघ्नी, मूसक अने मुमुंढी विगेरे इयमहिया, गोसीस-सरस-रत्तबंदणदद्दर दिनपंचंगुलितला, उवचितचंदण- शत्रोथी परिवेष्टित छे. एवां मजबूत होवाथी ज ए, अयोध्य छे, अजय्य छ, कलसा, चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवार देसभामा, भासत्तो-सित्त-विउल-व- अने सुरक्षित रहेला छे. तेना अउताळीश कोठा छे, अडताळोश जातना वग्घारियमलदामकलाबा, पंचवन-सरस-सुरभिमुकप्फपुञ्जोवयारकलिया, तोरणो-वनमाला-छे. तथा ते निरुपद्रव अने मंगळला छे. दंडधारी किंकर कालागुरु-पवर कुंदरुकडझंतधूवमघमघतगंधुधुयाभिरामा, सुगंधवरगंधिया, देवो, ते भवनोनी चोकी करे छे, तेमां गोमयादि द्वारा गार लिंपेली छे, गंधव टिभूया, अच्छरगणसंघसं विगिन्ना, दिब्बतुडियसहसंपणादिया, सबर- खडी विगेरेधी धोळ करेलो छे अने गोशीर्ष चंदन तथा लाल चंदनना थापा यणामया, अच्छा, सण्डा, लण्हा, घट्ट', मट्ठा, पीरया, निम्मला, मारेला छे, तेना शिखर उपर मंगल कळ शो स्थापेला छे ओ वारणा उर निप्पंका, निकंकडच्छाया, सप्पभा, सरिसरीया, समिरीया, सउज्जोया, पण चंदन कलशोनां तोरणो शोभी रह्यां छे, तेमां वांधेला चंदरवाथी ते पासादीया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा; एत्थ णं असुरकुमाराणं नीचे ( भोय तळी या ) सुधी लटकती गोळाकार माळाओनी श्रेणी झूली देवाणं पज्जत्ता-उपजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, तत्थ णं बहवे असुरकुमारा देवा रही छे, सुंदर, सुगंधी अने पंचवर्णी पुष्ो वेरा एला छे, काळो अगर, उत्तम परिवसति-काला, लोहियक्त्र-बिंबोट्ठा, धवलपुष्पदंता, असिय केसा, वामे किन्न अने सेलारस तो सुगंधी धूम मघनधी रह्यो छे, चोमेर सुगंध फेलाई एगकुंडलधरा, अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता, ईसीसिलिंधपुप्फपगासाई, असंकिलि- रयो छे अने जाणे गंधनी गुटिका न होय? एवा ए भवनो बहेंकी रह्यो छे. हाई, हुमाई, वत्थाई, पवरपरिहिया, वयं च पढम समइकंता-बिइयं वयं एमां अप्सरामोनो समूह रहेतो होवाथी घणी संकडाश जणाय छ, दिव्य Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक २ ६. उ०-गोयमा ! पुववेरियस्स वा वेदणउदीरणयाए, ६. उ०—हे गौतम ! पोताना जूना शत्रुने दुःख देवा, पोपुव्वसंगइस्स वा वेदणउवसामणयाए, एवं खलु असुरकुमारा देवा ताना जूना मित्रने सुखी करवा-ए कारणथी असुरकुमार देवो त्रीजी तचं पुडविं गया य, गमिस्संति य. पृथिवी सुधी गया छे, जाय छे तथा जशे. असंपत्ता, भद्दे जोवण्णे वठ्माणा, तलभंगय-तुडिय-पवरभूसण-निम्मल- वाजाओना नादो गाजी रहेला छे, सर्व जातनां रत्नो भरेला छे तेथी ए गणि-रयणमंडितभुया, दसमुद्दामंडिय-गहत्था, चूडामणि विचित्तचिंधगया, भवनो स्वच्छ अने सुंवाळा छे, चव.चकतां (चीकणां) अने ओपेला छे, सुरूवा,म हिडिया, मह जुइया, महायसा, महब्बला, महाणुभागा, महासोक्खा, मार्जित अने नीरज छे, निर्मळ अने निष्पंक छे, एमां आरती प्रभा अनावृत हारविराइयवच्छी, कडय-तुडियर्थभियभुया, अंगय-कुंडलगट्टगंडयल-कन्नपी- छे, ए प्रभावाळ, श्रीवाळां, झगमगतां, उयोतकाळा, प्रसन्नता पमाडे तेवां, ठधारी, विचित्तहत्याभरणा, विचित्तमालामउली, कल्लाणग-पवरयस्थपरिहिय, दर्शनीय, अभिरूप अने प्रतिरूप छे. एवा ए भवनोमा पर्याप्त अने अपर्याप्त कहाणगमहाऽणुलेवणधरा, भासुरबोंदी, पलंवमाणवणमालधरा, दिवेग वजेणं, असुरकुमार देवोनों स्थानो वह्यां छे. xxx तेमा घणा असुर कुमार देवो दिवेणं गंधेणं, दिवेण फासेणं, दिशेणं संघयणेणं, विवेणं संठाणेणं, दिवाए रहे छे, तेओ वर्ण काळा, लोहिताक्ष अने बिंबसम होठवाळा छे, तेओना इड्डीए, दिवाए जुईए, दिवाए पभाए, दिवाए छायाए, दिवाए अचीए, दिव्वेगं दांत धुंदनी कळी जेया घोळा छे अने केश काका छे. तेओ डाबा कानमा तेएणं, दिवाए लेस्साए दरा दिसाओ उजोवेमाणा, पभासेमाणा, तेणं एक कुंडल पहेरेछ, शरीरे भीर्नु चंदन चोपडे छे, सिलिंध्रना पुष्पनी जेवी तत्थ साणं साणं भवणाबाससयसहस्साणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीण, प्रभावाळा, आछां, राता, कोमळ, सूक्ष्म अने हलका (बजन विनानां) तथा साणं साणं तायतीसगाणं, साणं साणं लोगपालाणं, साणं साणं अग्गमहि- उत्तम दरोने पहेरे छे, तेओनी जुबानी हमेशा खोलती रहे छे. तलभंगक, सीणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साण अणिया, साणं साणं अणियाहि- बहेरखां अने बीजां पण घरेणामां जडेला मणि अने रत्नोथी तेभोना हाथो वईणं, साणं साणं आयरयखदेवसाहस्सीणं, अग्नेसि च बहणं भवणवासी शोभी रघर छ, दशे आंगीलोमां पहेरेली वीटीओथी तेओना पोचा सुशोदेवाण य, देवीण य आहेवचं, पोरेवचं, सामितं, भट्रित महत्तरगतं, मित छे, चूडामणि नामना विचित्र रत्नना चिन्हथी तेओनो मुकुट दीपी आणा.डसर-सेणाव कारेमाणा. पालेगाणा: महताSSEतन-गीत-वाइय- रखो छे, तेओ सुरूप, महाधक, महाद्युतिक, महायशस्वी, महावळवाळा, तंती-तल-ताल तुडिय-घणमुइंगपडणवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई मुंज- महामभावबाळा अन महासुखवाळा छ, तआना हृदयो हारबडे विराजित छ, माणा विहरति. कडां अने बहेरखांधी तेओनी भुजाओ शोभी रही छे, अंगद अने कुंडळ पहेरेला, तेओना गालो कर्णपीठनामना आभरणथी झगमगी रह्या छे, अनेक प्रकारनां घरेणाथी तेओना हाथो चळकी रह्या छे, तेओना माथा उपर माळा अने मुकुट पण विचित्र छे, तेओ कल्याणकर वस्त्रने पहेरे छे, माला अने विलेपनने वापरे छे, शरीरे भास्वर छे, झूलती गाळा पहेरे छे अने दिव्य एवा वणे, गंधे, स्पर्श, संहनने, संस्थाने, ऋद्धिए, द्युतिए, प्रभाए, छायाए, तेजे अने शरीरना झगमगाटे तथा लेश्याए करीने दशे दिशाओने उयोतित करे छे-प्रभासित करे छे. तथा तेओ पोत पोताना लाखो भवनावासो उपर, त्रायाबिश देवो उपर, लोकपालो उपर, पट्टराणीओ उपरा सभाओ उपर, सेनाओ उपर, सेनाधिपतिओ उपर, आरक्षक देवो उपर अने बीजा पण भवनवासी देवो तथा देवीओ उपर अधिपतिपणुं, पुरपतिपर्ण खामिपणु, भर्तपणुं अने वडिलपणुं मोगवे छे, तेओने आज्ञामा राखे छे, सरदारी भोगवे के अने वीजाओ पासे पण पोताना उपरिपणानुं पालन करावे छे तथा तेओ नित्य चालता नाट्य, गीत, वाजा-वीणा, हथेली, कांसी, शुटित अने मेघ जेवो गंभीर मृदंग ए यधाना दिव्यनाद वडे दिव्य अने भोग्य भोगोने भोगवतां लहेर करे छे. उपर आपेला असुर-परिचयमां जणावेली केटलीक हकीकतो तो मानवी क्रियाओने मळती आवे तेम छे, जेमके, त्यां हथीयारो होवानं. चोकीदारो होचानु, छाण विगेरेथी लिंपवा, खडी विगेरेथी धोळवन अने सुगंधी धून बळतो होबार्नु जणाव्युं छे तथा तेओने कपडां पहेरवान, शरीरे चंदन चोपडवान आगे हाथ भने कानमा घरेण परवान जणान्यु आ वधी रीतो मानवसमाजमा प्रचलित छे ते वात प्रत्यक्ष सिद्ध छे. आ विपे आवा प्रश्नो थाय छे के सारे सां-असुरलोकमां-सांप्रदायिक रीते झाडपान न्थी, धातुनी खाणो गथी, अग्नि नथी तेम नदीओ नथी, तो पछी त्यां हथीयारो शेनां बन्यां? कोणे घड्यां? छाण क्याथी आव्यु ? खडी क्याथी आवी? रुजी खेती थया विना कपडा शी रीते बन्यां ? केोगे वण्यां? वणवानो यन्त्रो क्याथी आव्यां! कोणे बनाव्यो ? अग्नि विना धाशी रीते वक्या? धा पण क्याथोआव्यो? धातुओ विना परेणां शेना थयो ? अने ते काणे घड्यां? वळी । परिचयमा लत्यु छ के, 'तेओने दिव्य संहनन छे' जैनपरिभाषामा 'संहनन' शद हाडकांनी रचना विशेषनो घोतक छे (-जूओ भगवती प्र० ख० पृ. ३४-२ टिप्पण) देयोने हाडका होय ए, तो जैन ऋषिओ पण मानता नथी, तो पछी तेओने दिव्य संहनन होवानुं शी रीते घटे? 'आर्षमनुसंदधीत' नी दृष्टीए आ बावतर्नु समाधान करतां श्रीमलय गिरिजीए (प्रज्ञापना टीका पृ०६८ मां) जणाणूछ के, आ स्थळे 'संहनन' शब्दनो मुख्य अने समय प्रसिद्ध अर्थ न करतां लाक्षणिक एवो शक्ति अर्थ करवो. हुं तो मार्नु छठ के. ए देव परिचयना उलेखमा आ रीते जो ते आखा वर्णननोज लाक्षणिक अर्थ करवामां आये तो ते वधु वरावर संगत थई शके छे, अन्यथा आगळ जणावेला एक पक्ष प्रश्नसमाधान थर्बु अशक्य जणाय छे. वळी एक परिचय आपना। पोते आपलं वधु य वर्णन लाक्षणिक शब्दामा ज करे ए पण घटतुं नथी, तेथी आशिसुर' पाब्दनो मूळ भाव विशेष विचारणीय छे, एम मने लागे छ भने ए माटे आगळ पण एक टिप्पण, जेमां यास्कना निरुकनुं प्रमाण टांकी बताव्यु छे-सापळ छ:-अनु.] १. मूलपटाया:-गौतम ! पूर्ववैरिक स्य वा वेदनोदीरणतया, पूर्वसंगतस्य वा वेदनोपशमगाया, एवं खळ असुरकुमाराः देवास्तृतीयां पृथिवीं हाताच, गमिष्यन्ति च:-अनु. . Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसत्र. १ ७. प्र०-अंथि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियगति- ७. प्र०—हे भगवन् ! ते असुरकुमारोमा एवं सामर्थ्य ठेके विसएं पण्णत्ते ? तेओ, पोताना स्थानथी तिरछे जइ शकें? ७. उ०—हंता, अस्थि. ७. उ०---हे गौतम! हा, तेओमा पोताना स्थानथी तिरछे जवानुं सामर्थ्य छे. ८. प्र०-केवइ (ति)यं च णं भन्ते ! असुरकुमाराणं देवाणं ८. प्र०—हे भगवन् ! ते असुरकुमारो पोताना स्थानथी केतिरियं गइविसए पण्णत्ते ? टला भाग सुधी तिरछा जइ शके छे ? ८. उ०-गोयमा ! जाव-असंखेजा दीव-समुद्दा, नंदिस्स- ८. उ०-हे गौतम ! पोताना स्थानथी यावत्-असंख्य द्वीप वररं पुण दीयं गया य, गमिस्सन्ति य. समुद्रो सुधी तिरछा जवान तेओर्नु मात्र सामर्थ्य छे. पण तेओ नंदीश्वर द्वीप सुधी तो गया छे, जाय छे अने जशे पण खरा. ९. प्र०-किंपत्तियं णं मंते ! असुरकुमारा देवा नंदिस्सरवरं ९. प्र०—हे भगवन् ! ते असुरकुमारो नंदीश्वर द्वीप सुधी दीपं गया य, गमिस्सति य ? जाय छे, गया छे अने जशे तेनुं शुं कारण ? । ९. उ०--गोयमा ! जे इमे अर(रिहंता भगवंता, एएसि ९. उ०—हे गौतम! जे आ अरिहंत भगवंतो छे, एओना जन्म. णं जम्मणमहेसु वा, निक्खमणमहेसु वा, णाणप्पायमहिमास वा, उत्सवमा, दीक्षा-उत्सवमा, ज्ञानोत्पत्तिमहोत्सवमा अने परिनिर्वाणना परिनिव्वाणमहिमासु वा, एवं खलु असुरकुमारा देवा नंदीसरवरं उत्सवमा ए असुरकुमार देवो नंदीश्वर द्वीप सुधी जाय छे, गया छे दवं गया य, गमिस्संति य. अने जशे-अरहतना जन्म वगेरेना उत्सवो, असुरकुमार देवोने नंदीश्वर द्वीप जवान कारण छे. १०. प्र०-अस्थि णं असुरकुमाराणं देवाणं उडुं गतिविसए ? १०. प्र०-हे भगवन् ! ते असुरकुमारोमां एवं सामर्थ्य छे के तेओ, पोताना स्थानथी उंचे जइ शके ? १०. उ०-हंता, अस्थि. १०. उ०—हे गौतम! हा, तेओमां पोताना स्थानथी उंचे जवानुं सामर्थ्य छे. ११. प्र०-केवइ (ति)यं च णं भन्ते । असुरकुमाराणं देवाणं ११. प्र०-हे भगवन् ! ते असुरकुमारो पोताना स्थानथी उ गतिविसए ? केटला भाग सुधी उंचे जइ शके छ ? ११. उ०-गोयमा! जावऽचए कप्पे, सोहम्मं पुण कप्पं ११. उ०-हे गौतम ! तेओ पोताना स्थानथी यावत्-अच्युत गया य, गमिस्सति य. कल्प सुधी उपर जइ शके छे-तेओनी उंचे जवानी मान आटली शक्ति छे. परंतु तेओ त्यांसुधी कोईवार गया नथी, जशे नहीं अने जता पण नथी. किंतु सौधर्म कल्प सुधी तो तेओ जाय छे, गया छे अने जशे पण खरा. १२. प्र०-किंपत्तियं णं भन्ते ! असुरकुमारा देवा सोहम्म १२. प्र०—हे भगवन् ! ते असुरकुमारो उंचे सौधर्मकल्प सुधी कप्पं गया य, गमिस्सति य? जाय छे, गया छे अने जशे तेनुं शुं कारण ? १२. उ०-गोयमा ! तसि णं देवाणं भवपचइअवराणुबंधे, १२. उ० ----हे गौतम ! ते देवोने जन्मथी ज वैरानुबंध (भवते णं देवा विकव्वेमाणा, परियारेमाणा, वा आयरवखे देवे वित्ता- प्रत्ययिक वैर) छे. वैक्रियरूपोने बनावता तथा भोगोने भोगवता ते सेंति, अहालहुसगाई रयणाई गहाय आनए एगंतमंतं अवक- देवो आत्मरक्षक देवोने त्रास उपजावे छे तथा यथोचित नानां नानां (का)मंति. रत्नोने लई पोते उज्जड भागमा चाल्या जाय छे. १३. प्र०-अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं अहालहुसगाई १३. प्र०—हे भगवन् ! ते देवो कने यथोचित नानां नान रत्नो होय छे ? रयणाई? १. मूलच्छाया:-अस्ति भगवन् ! असुरकुमाराणां देवानां तिर्यग्गतिविषयः प्रज्ञतः ? हन्त, अस्ति. कि पच्च भगवन् ! असुरकुमाराणां देवानां तिर्यग्गतिविषयः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! यावत्-असंख्येया द्वीप-समुद्राः, नन्दीश्वरवरं पुनीतं गताच, गमिष्यन्ति च. किंमत्य भगवन् ! असुरकुमारा: देवाः नन्दीश्वरवरं द्वीपं गताश्च, गमिष्यन्ति च ? गौतम | ये इमे अन्तो भगवन्तः, एतेपां जन्मगहे पु दा, निष्क्रमणमहेषु वा, शानोत्पादमहिमासु वा, परिनिवाणन हिमासु वा, एवं खलु असुरकुमाराः देवाः नन्दीश्वरवर द्वीपं गताथ, गमिष्यन्ति च. अस्ति असुरकुमाराणां देवानाम् ऊर्य गतिविषयः ? हन्त, अस्ति. कियच भगान् ! असुरकुमाराणां देवानाम् ऊर्य गतिविषयः ? गौतम! यावत्-अच्युतः कल्पः, सौधर्म पुनः कलंगताश्च, गमिष्यन्ति च. किंप्रत्ययं भगवन् ! असुरकुमाराः देवाः सौधर्म कल्यं गतःश्च, गमिष्यन्ति च? गौतम | तेषां देवानां भवप्रययवैरानुवन्धः, ते देवाः विकुर्वन्तः, परिचारयन्तो वा आत्मरक्षकान् देवान् वित्रासयन्ति, यथाल घुरूकानि रत्नानि गृहीत्वा भारमना एकान्तम् गन्तम् अवक्रामन्ति. सन्ति भगवन् ! तेषां देवानाम् यथालघुखकानि रत्नानि ?:-अनु. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक २. १३. उ०-हतो, अस्थि. १३. उ०—हे गौतम ! हा, तेओनी पासे नानां नानां रत्नो होय छे. १४. प्र०—से कहमिआणि पकरेंति ? १४. प्र०—हे भगवन् ! ज्यारे ते असुरो, वैमानिकोनां रत्नो उपाडी जाय त्यारे वैमानिको तेओने शुं करे ।। १४. उ०—(तओ) से पच्छा कार्य पव्वहति. १४. उ०-हे गौतम ! रत्नो लीधा पछी ते असुरोने (वै मानिको द्वारा) शारीरिक व्यथा भोगवयी पडे छे. १५. प्र.-पभू णं भंते ! असुरकुमारा देवा तत्थ गया चेव १५. प्र०—हे भगवन् ! उपर गया एवा ज ते असुरकुमार समाणा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा देवो त्यां रहेली अप्सराओ साथे दिव्य अने भोगववा योग्य भोगोने विहरित्तए. भोगवी शके खरा-भोगवता रही-विहरी शके खरा ? १५. उ०—णो इणढे समडे, से (ते) णं तओ पडिनियत्तंति, १५. उ०-हे गौतम ! ए प्रमाणे करवाने ते असुरकुमार ततो पडिनियत्तित्ता इहमागच्छंति, जइ णं ताओ अच्छराओ देवो समर्थ नथी. किंतु तेओ त्यांथी पाछा वळे छे अने अहीं आढायंति, परियाणंति, पभ णं ते असरकमारा देवा ताहि अ- (पोताने स्थाने) आवे छे. जो कदाच ते अप्सराओ तेओनो आदर च्छराहिं सद्धिं दिव्याई भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरित्तए : अहण कर, तेओने स्वामी तरीके स्वीकारे तो ते असुरकुमार देवो, ते त्यां रहेली-उपरनी-अप्सराओ साथे दिव्य अने भोगववा योग्य ताओ अच्छराओ नो आढायति, नो परियाणंति, णो णं पभू ते भोगोने भोगवी शके छे-भोगवता रही-विहरी-शके छे. हवे कअसरकमारा देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाई भागभागाइ दाच ते अप्सराओ तेओनो आदर न करे तथा तेओने स्वामी भुंजमाणा विहरित्तए, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा सो- तरीके न स्वीकारे तो ते असुरकुमार देवो, ते अप्सराओ साथे सोर हम्म कप्पं गया य, गमिस्सति य. दिव्य अने भोगवत्रा योग्य भोगोने भोगवी शकता नथी. हे गौतम । असुरकुमार देवो, सौधर्म कल्प सुधी गया छे, जाय छे अने जशे' तेनुं पूर्व प्रमाणे कारण छे. १६. प्र०-केवइअकालस्स णं भंते । असुरकुमारा देवा उडू १६. प्र०—हे भगवन् ! केटले समये-केटलो समय वीत्या उप्पयंति, जाव-सोहम्म कप्पं गया य, गमिस्संति य? पछी-असुरकुमार देवो उंचे उत्पते छे-जाय छे तथा यावत्-सौधर्म कल्प सुधी-गया छे अने जशे? १६. उ०-गोयमा ! अणंताहिं उस्स प्पिणीहिं, अणंताहि १६. उ०-हे गौतम ! अनंत उत्सर्पिणी अने अनंत अवअवसाप्पिणीहि समतिकंताहिं, अस्थि णं एस भावे लोयच्छेरयभूए सर्पिशी वीत्या पछी लोकमां अचंचो पमाडनार ए भाव उत्पन्न थाय समुप्पज्जइ, जंणं असरकमारा देवा उडु उप्पयंति, जाव-सोहम्मो छ के, असुरकुमार देवो उंचे उसो छे अने यावत-सौधर्म कल्प कप्पो. सुधी जाय छे. १७. प्र०-किं णिस्साए णं भंते । असुरकुमारा १७. प्र०-हे भगवन् ! कइ निश्रावडे-कोनो आश्रय करीनेउप्पयन्ति, जाव-सोहम्मो कप्पो ? ते असुर कुमार देवो यावत्-सौधर्म कल्प सुधी जाय छे ? १७, उ०-गोयमा! से जहा नाम ए सबरा इवा, बब्बरा १७. उ-हे गौतम ! जेम कोइ एक शबरजातिना लोको. इ वा, ढं (टं) कणा इ वा, भुत्तुआ इ वा, पण्हया (पल्हया)इ बब्बरजातिना लोको, ढंकणजातिना लोको, भुत्तुअजातिना (1) लोको. वा, पलिंदा इ वा एगं महं रगं वा, ख (ग).टुं वा, दग्गं वा, पहजाति (?) ना लोको अने पुलिंद लोको एक मोटा जंगलनो, दरिं वा, विसमं वा, पव्वयं वा णीसाए सुमहल्लमवि आसबलं खाडानो, जलदुर्गनो के स्थलदुर्गनो, गुफानो, खाडा अने वृक्षोथी १. मूलच्छायाः-हन्त, सन्ति. अथ कथम् इदानीं प्रकुर्वन्ति ? तेषां पश्चात् कायं प्रव्यथन्ते. प्रभो भगवन् ! असुरकुमारा देवास्तत्र गताश्चैव समानास्तामिरप्सरोभिः सार्धं दिव्यानि भोगभोग्यानि भुञ्जाना विहर्तुम् ? नाऽयम् अर्थः समर्थः. अथ ततः प्रतिनिवर्तन्ते, ततः प्रतिनिवृत्त्य अत्राऽऽगच्छन्ति, यदि ता अप्सरसः आद्रियन्ते, परिजानन्ति, प्रभवस्ते असुरकुमारा: देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्ध दिव्यानि भोगभोग्यानि भुझाना विहर्तुम्, अथ ताः अप्सरसो नो आद्रियन्ते, नो परिजानन्ति नो प्रभवस्ते असु'कुमारा देवास्ताभिः-अप्सरोभिः सार्धं दिव्यानि भोगभोज्यानि भुञ्जानाः विहर्तुम् , एवं खलु गौतम! असुरकुमाराः देवा सैधिर्म कल्पं गताच, गमिष्यन्ति च, कियत्कालेन भगवन् ! असुरकुमाराः देवाः ऊर्ध्वम् उत्सतन्ति, यावत्-सौधर्म कल्पं गताच, गमिष्यन्ति च ? गौतम! अनन्ताभिः उत्सर्पिणीभिः, अनन्ताभिः अवसर्पिणिभीः समतिकान्ताभिः, अस्ति एष भावो लोकाश्चर्यभूतः समुत्पद्यते, यद् असुरकुमारा देवाः ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति, यावत्-सौधर्मः कल्पः. किं निधाय भगवन् । असुरकुमारा देवा ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति, यावत्-साधर्मः कल्पः? गौतम ! स यथा नाम शबरा वा, बर्बरा वा, ढकणा वा, भुत्तुका वा, प्रश्नका वा, पुलिन्दा वा, एकं महद् अरण्यं वा, गर्ता वा, दुर्ग वा, दरी वा, विषम वा पर्वतं वा निश्राय सुमहद् अपि अश्वबलम्:-अनु. १. शबर, बबर, ढंकण, भुत्तुअ, पल्ह अने पुलिंद-ए छ ए शब्दो जूदी जूदी अनार्य जातिना सूचक छे. एमांना केटलाक शब्दो तो अनार्य देशना पण वाचक छे. अनार्य देशोनी अने अनार्य जातिनी गणत्रीने प्रसंगे ए विषे सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण अने प्रापना उपांगा नीचे प्रमाणे जणाव्यु : . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक- २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, वो, हत्थिबलं वा, जोहबलं वा धणुबलं वा आगलति, एवामेव गीच थएल भागनो अने पर्वतनो आश्रय करी एक सारा अने असुरकुमारा वि देवा णण्णत्थ अरिहंते वा, अरिहंतचेइआणि वा, मोटा पण घोडाना लश्करने, हाथिना लश्करने, योधाओना लश्कअणगारे वा भाविअपणो निस्साए उड़े उप्पयति, जाव-सोहम्मो रने, धनुष्य (धनुष्यधारी) ना लश्करने हंफावधानी हिंमत २.रे कप्पो. छे, ए ज प्रमाणे असुरकुमार देवो पण अरिहंतोनो, अरिहंतनां चैत्योनो अने भावित आत्मा साधुओनो आश्रय करी उंचे यावत्.सौधर्म कल्प सुधी उत्पते-जाय-छे. पण ते सिवाय (अरिहंत विगेरेना आश्रय सिवाय) जता नथी. १८. प्र-सव्वे वि णं मंते ! असुरकुमारा देवा उ उ- १८. प्र०—हे भगवन् ! शुं बधा य असुरकुमारो यावत्प्पयंति, जाव सोहम्मो कप्पो ? सौधर्म कल्प सुधी उंचे उत्पते-जाय-छे ? १८. उ०-गोयमा ! णो इणद्वे समढे, महिड्डिया कं असु- १८. उ०—हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी-बधा य असुररकुमारा देवा उडु उप्पयंति, जाव-सोहम्मो कप्पो. कुमार देवो उंचे अता नथी. किंतु मोटी ऋद्धिवाळा असुरकुमार १९..प्र०—एस वि णं भंते ! चमरे असुरिंदे, असुरकुमार- देवो उंचे यावत्-सौधर्म कल्प सुधी जाय छे. राया उडु उप्पड़अपुर्वि जाव-सोहम्मो कप्पो ? १९. प्र०--हे भगवन् ! शुं ए असुरेंद्र, असुरराज चमर पण १९. उ०-हंता, गोयमा!. कोइ वार पूर्वे उपर यावत्-सौधर्म कल्प सुधी गएलो छ ? २०. प्र०—अहो णं भंते! चमरे, असुरिदै, असुरकुमारराया १९. उ०—हे गौतम! हा, (पूर्वे ए चमर पण उपर गएलो छे.) महिड्डीए, महज्जुईए, जाव- काह पपिट्टा ? २०. प्र०.-हे भगवन् ! नीचे रहेतो असुरेंद्र, असुरराज चमर केवो मोटो ऋद्धिवाळो छे; केवो मोटो कांतिवाळो छे अने यावत्तेनी ते ऋद्धि क्यां गइ? " सग-जवण-सबर-बब्बर-काय-मुरंडो-दुगोण-पकणया। "शक, यवन, शबर, बर्बर, काय, मुरंड, दुगोळ (1) पक्वणक, भा. अक्खाग-हूण-रामस-पारस-खस-खासिया चेव ॥ १ ख्याक, हूण, रोमस, पारस, खस, खासिक, दुविल, यल, (?) बोस (1) दुविल-यल-वास-बोकस-भिल-उद-पुलिंद-कोंच-भमर-रूया । बोकस, भित, अंध, पुलिंद, काच, भ्रमर , रूय, कांबोज, चीन, चुंचुक, कोंबायचीण-चुय-मालय-दमिल-कुलक्खा य ॥ २ मालय (१) मिल अने कुलाक्ष" ए बधा अनार्यदेशो छे:-सूत्रकृ. पृ० सूत्रकृतांग पृ० १२३. १२३. "सक-जवण-सबर-बब्बर-गाय-मुरुड-उद-भडग-तित्तिय-पक्कणिय-कुलक्ख- "शक, यवन, शबर, बर्बर, काय, मुरुंड, उद, भडक, तित्तक, गोड सीहल-पारस-कोंच अंद-दविल-बिल्लल-पुलिंद- अरोस-डोंब-पोकण गंधहा- पकणिक, कुलाक्ष, गोड, सिंहल, पारस कोच, अंध्र, (अंध) द्राविड, रंग-बहलीय-जा-रोम-मास बउस-मलया-चुचुया य चूलिया कोकणगा मेत्त- बिल्वल, पुलिन्द, अरोष, डेब, पोकण, गंधहारक, बहलीक, कल. रोम पाहव-मालव महुर-आभासिय-अणक चीण-ल्हासिय खस-खासिया नेहुर- माष, बकुश, मलय, चुंचुक, चूलिक ( चोल ?), कोंकण, भेद, पडव. सहमटिश-आरब-डोबिलग कण-केकय हूण-रोमग-रुरु-मरुगा चिलायवि- मालवा, महुरा, आभाषिक, अनक (अनर्क), चीन, हासिक. खस. खासिय. सयवासी य"-प्रश्नव्याकरण पृ० १४. मेहर, महाराष्ट्र, मौष्टिक, आरब डोबिलक, कुहण, केकय, हूण, रोमक, रुरु, मरुक, अने किरात देशना रहीश"-ए बधी अनार्य प्रजा छे: प्रश्नव्या० पृ० १४. "सगा जवणा चिलाया सबर-बब्बर-मुरंड-उद-भडग-निण्णग- पाणिया __ "शक, यवन, किरात, शबर, बर्षर, मुरड, उट्ट, भटक, निम्रक कुलक्ख-गोड-सिंहल-पारस-गोधा कोंच अंबडा-द मिल-चिल्लल-पुलिंद-हार पकणिक, कुलाक्ष, गोड, सिंहल, पारस, गोध, काच, अंबड (१) द्रमिल, ओस-दोव-योकण अणग अंधा हारवा पहलिय अज्झल-रोम मास बउसा चिलल, पुलिंद, हार (1), ओस (?), डोंब, वोकण, अनक, अंथ (ध), हारवमलया य बंधुया य सूय लि-कोंकणग-मेय पदव-मालव-मग्गर-आभा सिआ पहलिक, अध्यल-अध्वर, गेम, भाष, बकुश, मलय, बंधुक, सूयलि (?) कणवीर ल्हसिय-खसा खासिय-णेहूर-मोढ-.बिल.गलओस-पओस-कफेयग कोंकण, मेद, पल्हव, मालव, मग्गर (?), आभाषिक, कणवीर, ल्हासिक, हण-रोमग-हूण-रोमग-भरु मस्य-चिलाय विसयवासी य"-प्रज्ञ पना उपांग खस, खासिक, नेहूर, मूढ, डोविल, गलआस (2) प्रदेष, कतक, पृ० ५५. हण, रोमक, हूण, रोमक (?) भरु, मरुक, अने किरात" ए बधी भनार्यजातिओ छे:-प्रज्ञापना. पृ० ५५. मा बधा नामोमा पाठ-वैषम्यने लीधे खरां नामोर्नु पृथकरण थई शकतुं नथी. तो पण उपर आवेलां (शबर, बर्बर पल्हय वा पण्हय, पुलिंद)ए चार नामो तो ए त्रणे पायेमा नाधाएला छे-अनु० १. मूलच्छायाः-वा, हस्तिबरम् वा, योधबलम् वा, धनुर्बलं वा आकलयन्ति, एवमेव असुरकुमारा अपि देवाः नान्यत्र (नन्वत्र ) अर्हतो वा, अर्हचैत्यानि वा, अनगारान् या भ वितात्मनो निधाय ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति, यावत-सौधर्मः कल्पः. सर्वेऽपि भगवन् । असुरकुमाराः देवा ऊर्वम् उत्पतन्ति यावत्-सौधर्मः कल्पः ? गातम ! नाऽयम् अर्थः समर्थः, मह धकाः असुरकुमाराः देवा ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति, यावत्-सौधर्मः कल्पः. एषोऽपि भगवन् ! चमरः असुरेन्द्रः, असुर कुमारराज ऊर्ध्वम् उत्पतितपूर्वः यावत्-साधर्मः कल्पः १ हन्त, गातम!. अधो भगवन् । चमरोऽसुरेन्द्रः, असुरकुमारराजो 'महर्धिकः, महाद्युतिकः यावत्-कुत्र प्रविष्टा ?:-अनु . Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. उ०—कूडागारसालादिइन्तो भाणिअन्वो. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे - शतक ३.-उद्देशक २. २०. उ०—हे गौतम! पूर्वे कह्या प्रमाणे कूटाकार शालानु उदाहरण कहे. १. प्रथमोद्देशके देवानां विकुर्वणा उक्ता, द्वितीये तु तद्विशेषाणामेवाऽसुरकुमाराणां गतिशक्तिप्ररूपणाय इदमाहः ‘ते णं' इत्यादि. 'एवं असुरकुमार'--इत्यादि. एवमनेन सूत्रक्रमेणेति, स चवम्:-" उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहिता, हट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता, मज्झे अट्ठहत्तरे, जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चउसाद भवण वाससयसहस्सा भवंतीति अक्खायं" इत्यादि. 'वेउव्वेमाणा व त्ति संरम्भेण महद् वैक्रियशरीरं कुर्वन्तः, 'परियारेमाणा व त्ति परिचारयन्तः-परकीयदेवीनां भोगं कर्तुकामा इत्यर्थः. 'अहालहुस्सगाई' ति यथा-उचितानि, लघुस्वकानि अमहास्वरूपाणि, महतां हि तेषां नेतुम् , गोपयितु वा अशक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि, "अथ अलघूनि-महान्ति–वरिष्ठानि" इति वृद्धाः. 'आयाए' त्ति आत्मना स्वयमित्यर्थ:. 'एगंतं' ति विजनम् , 'अंतं' ति देशम् , 'से कह इआणि पकरेंति' अथ किम् इदानीम्-रत्नग्रहणानन्तरमेकान्तापक्रमणकाले प्रकुर्वन्ति वैमानिका रत्नाऽऽदातृणामिति. 'तओ से पच्छा कायं. पव्वहंति त्ति ततो रत्नादानात् , 'पच्छ' त्ति अनन्तरम् , 'से' त्ति एतेषां रत्नादातृगाम्-असुराणां कायम्-देहम् , प्रव्यथन्ते-प्रहारैमध्नन्ति वैमानिका देवाः. तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् , उत्कृष्टतः षण्मासान् यावत्. 'सबरा इवा' इत्यादौ शबरादयोऽनार्यविशेषाः. 'खड्डे व त्ति गर्ताम् , 'दुग्गं व' त्ति जलदुर्गादि, 'दरिं व' त्ति दरीम्-पर्वतकन्दराम् , 'विसमं व' ति विषमम्-गर्ता--तर्वाद्याकुलभूमिरूपम् , 'निस्साए' त्ति निश्रया--आश्रित्य, 'धणुबले व त्ति धनुर्धरबलम् , 'आगलति' त्ति आकलयन्ति 'जेष्यामः' इत्यध्यवस्यन्ति-इति 'नण्णस्थ' त्ति ननु निश्चितम् 'अरिहंते वा-निस्साए उडूं उप्पयति' अत्र इहलोके, अथवा नान्यत्र तद निश्राय अन्यत्र न.-न तां विनेत्यर्थः. असुरकुमार:- १. प्रथम उद्देशकमां देवोनी विकुर्वणा--शक्ति संबंधे हकीकत कहेवाई. आ बीजा उद्देशकमां पण देवोनी-असुरकुमारोनी-ज गतिशक्ति संबंधे प्ररूपण थशे. अने ते माटे कहे छ के, ['ते णं' इत्यादि.] ['एवं असुरकुमार'--इत्यादि.] आ सूत्रक्रमवडे कहे. ते आ प्रमाणे:-"उपर एक हजार योजन अवगाहीने अन नीचे एक हजार योजन छोडी दईने वचे एक लाख अने अठ्ठयोतेर हजार योजन जेटला भागमा असुरकुमार परिचारणा. देवोना चोसठ लाख भवनावासो छ, एम कयुं छे-इत्यादि." [ वेउव्धेमाणा व ' त्ति ] संरंभ पूर्वक मोटा वैक्रिय शरीरने करता. [' परियारेमाणा वत्ति ] परिचारणा करता-बीजानी देवीओ साथे भोग करवानी इच्छावाळा. [' अहाल हुरसगाई त्ति ] यथोचितपणे नाना स्वरूपवाळां अर्थात् बोन असामर्थ्य, नानां. ते असुरो नानां रत्नोने ज उपाडी जाय छे, कारण के, तेओ मोटा रत्नोने लई जई शकता नथी तेम तओने संताडी पण शकता नथी माटे वृद्धो. उपर नानां नानां रत्नो कह्यां छे. ['अहाऽल हुस्सगाई'] आ शब्दनो बृद्ध पुरुषोए आ प्रमाणे अर्थ कयों छे:-अथाऽलघु-स्वकानि अर्थात् नानां नहीं पण मोटा एटले उत्तम जातनां रत्नो." [' आयाए ' त्ति ] पोतानी जाते. [ 'एगंतं ' ति ] निर्जन-उजड [ 'अंत'ति ] भागमा. [से कह इआणि पकरेंति ' ] हवे-रत्नोनुं ग्रहण का पछी-एकांत जग्याए जवाने समये ते रत्नोने लेनार असुरोने वैमानिको शुं करे छ ? [तओ से असोने पच्छा कार्य पव्वहंति 'ति ] रत्नोनुं ग्रहण कर्या [ पच्छ ' ति] पछी रत्नोने लेनारा अथवा रत्नोने पाछां नहि देनारा एवा असुरोना शरीर उपर मार भने पीडा, प्रहार द्वारा वैमानिको पीडा उत्पन्न करे छे. पीडा पामेला असुरोने वेदना थाय छे अने ते वेदना ओछामां ओछु अंतर्मुहुर्त सुधी अने वधारमा अब दिवधारे छ महिना सुधी रह-थाय छे. ['सबा इ वा '] इत्यादि सूत्रमा शबर वगरे एक प्रकारना अनायों छे. [ 'खटुं व ' ति] खाडानो, [ दुग्गं व 'त्ति] जळदुर्ग के स्थळदुर्गनो, [' दरिं व ' ति पर्वतनी गुफानो, [विसमं व 'त्ति खाडा अने वृक्षोथी गीच जमीननो, निस्साए। त्ति ] आशरो लइने ['धणुबल व' त्ति ] धनुर्धरना लश्करने, [' आगलेति ' ति आकळे छ अर्थात् ' अमे तेने जीती ले|' एवो निश्चय करे छे. की नण्णत्थ ति ] नन्दत्र-आ लोकमां अरिहंतनो ज आश्रय-आशरो-लइने ( असुरो) उंचे जाय छे अथवा नान्यत्र-अरिहंतनो आशरो लीधा निश्रा. विना तओ उंचे जद शकता ज नथी. २१. प्र०-चैमरेणं भंते ! असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्वा २१. प्र०-हे भगवन् ! असुरेंद्र, असुरराज चमरे ते दिव्य देविड़ी, तं चेव जाव-किण्णा लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया ? देवऋद्धि अने यावत्-ते बधु केवी रीते लब्ध कयु, केवी रीते प्राप्त कर्यु अने केवी रीते सामे आण्युं ? २१. उ०—एवं खलु गोयमा ! ते गं काले णं, ते णं समए २१. उ०—हे गौतम ! ते काळे, ते समये आ ज जंबूद्वीप णं इहेक जंबूदीवे दीवे, भारहे वासे विंझगिरिपायमूले बेभेले नाम नामना द्वीपमां, भारत वर्षमा विध्य नामे पहाडनी तळेटीमां १. मूलच्छाया:-कूटाकारशालादृष्टान्तो भणितव्य :-अनु० २.प्र. छायाः-उपर्येक योजनसहस्रम् अवगाह, अधश्चकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा, मयेऽष्टसप्ततियोंजनशतसइस्र णि, अत्राऽसुरकुमाराणां देवानां चतुष्पष्टिर्भवनाऽऽवासशतसहस्राणि भवन्ति इति -आख्यातम्. ३. अस्य सूत्रस्य अवचूर्णों अयं पाठः- अनु. १. आने मळतो पाठ असुरकुमारोना वर्णकमां प्रज्ञापना ( क. आ० पृ० ९९) मां छ. २. अब चूर्णिकार महाशयोए:-अनु. १. मृलच्छाय:-चमरेण भगवन् ! असुरेन्द्रण असुरराजेन सा दिव्या देवधिः, तचैव यावत्-केन लब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता? एवं खल गैातम ! तस्मिन् काले, तस्मिन् समये दव जम्मूद्वीपे द्वीपे, भारते वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले वेमेलेनाम-अनु० . Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.देशक २. सनियेसे होत्या. बणओ तत्थ णं वेमेले सर्विसे पूरणे नामं गाहाय परिवस अड्डे, दिये, जहा तामहिस्स वव्या वहा गेयला, नवरं पडयं दारुमयं पडिग्गहि करेता जाव विपुलं असणं, पाणं, साइमं साइमं जाय सयमेव चाप्युदयं दारुमयं पडिग्गहिअं गहाय मुंड भवित्ता दाणामः ए पव्वज ए पयिणं समाने तं वाणभूमीओ पचोरु कित्ता सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहिअं गहाय वेभेले संनियेसे उथ-नी मज्झिमाई कुलाई परममुदाणम्स निपखायारंवाए अडेगा, जं मे पुडमे पुढये पद कम्प्पड़ मे तं पआिण दलइत्तए, जं मे दोचे पुडए पडड़ कप्पड़ में तं काग - सुणयाणं दलड़तर, जं मे तचे पुडये डड़ कप्पड़ मे तं मच्छ - कच्छभाणं दलइत्तए, जं मे चउत्थे पुडये पडड़ में कप्पड़ तं अप्पणा अहारेत्तए त्ति कट्टु एवं संपेes, कलं पाउप्पभाए रयणीए तं देव निरवसेसं जाव - जं मे चउत्थे पुडये पडइ तं अप्पणा आहारं आहारेइ. तए णं से पूरणे बालतवस्ती तेणं ओरालेणं, विउलेणं, पयत्तेणं पग्गहिएणं, बालतपोम्मेणं तं चैव जाव-पेमेटर सचिवेसरस मज्झं मज्झेणं निग्गच्छति, पाउअ - कुंडिअमादीअं उवकरणं, चउप्पुडयं दारुमयं पदिग्गहिये एर्गतमते एडेड वेमेलम्स संनिवेसस्स दाहिण पुरस्थिमे दिसीमागे अनियमिंटलं आलिहिता संलहणाजूस माजूसिए, भाषाणपडियाइविसए पाउनगमणं निवणे, भगवंत्सुधर्मस्वमिप्रणीत भगवतीसूत्र. १. मूलच्छायाः - संनिवेशोऽभवत् वर्णकः तत्र वेमेले संनिवेशे पूरणेो नाम गृहपतिः परिवसति - आढ्यः, दीप्तः, यथा तामलेः वक्तव्यता तथा ज्ञातव्या, नवरम् - चतुष्पुटकं दारुमयं प्रतिग्रहं कृत्वा, यावत्- विपुलम् अशनम्, पानम् खादिमम्, स्वादिमं यावत् खयमेव चतुष्पुटकं दारुमयं प्रतिप्र गृहीत्वा मुण्डो भूत्वा दानमय्या प्रव्रज्यया ध्वजितोऽपि च सन् तत् चैव यावत्- आतापनभूमितः प्रत्यवरुथ स्वयभेव चतुष्पुटकं दारुमयं प्रतिग्रहं गृहीत्वा वेभेले संनिवेशे उच्च-नीच मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यया अटित्वा यद् मम प्रथमे पुटके पतति कल्पते मम तत् पथि पथिकानां दातुम्, यद् मम द्वितीये पुटके पतति कल्पते मम तू वाव शुनवानां दातुम्, यद् गम तृतीये पुटके पतति कल्पते मम तद् मत्स्य-कच्छानां दातुम् यद् मम चतुर्थे पुटके पतति मम कल्पते तद् आत्मना आहर्तुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां तच्चैव निरवशेषं यावत्-यद् मम चतुर्थे पुटके पति तद् आत्मना आहारम् आहारयति ततः स पूरणो बालतपस्वी तेन उदारेण, विपुलेन, प्रयत्नेन प्रगृहीतेन बालतपस्कर्मणा तच्चैव यावत्-वेमेलस्य सन्निवेशस्य मध्ममध्येन निर्गच्छति, पादुका- कुण्डिकादिकम् उपकरणम्. चतुष्पुटकं दारुमयं प्रतिग्रहम् एकान्तम् अन्तं स्थापयति, वेभेलस्य सन्निवेशस्य दक्षिण-पौरस्त्ये दिग्भागे अर्धनिवर्तनिकमण्डलम् आलिख्य संलेखना - जूषणाजूपितः, प्रत्याख्यातभक्त पानः पादपोपगमनं निपन्नः --- अनु० 2 ५५ " " 3 येमेल नामनो संनिवेश हतो. वर्णक ते वेमेल नामे संनिवेशर्मा रण नामनो गृहपति रहे तो हतो. ते आढ्य अने दीप्त हतो. ग्रामदितपस्वीनी पेठे आ पूरणनी पण वक्तव्यता कहेवी विशेष ए के चार खानावा लाकड नुं पात्र फरीने यावत् —– त्रिपुल खान, पान, खादिम - मेवा वगेरे अने स्त्रा दिन मशाखा यगेरे ( भात भातना पदार्थोथी ज्ञातिने भोजन आपी) यावत् - पोतानी मेळे ज ते चार खानावालुं लाकदानुं पात्र उड्ने मुंड थइने 'दानामा नामनी प्रमज्य बडे ते पूरण गृहपत्ति प्राजित थयो (अधुं पूर्वप्रमाणे ज कहेतुं.) यावत्-ते पूरण तपस्वी आतापन भूमिधी नीचे आवी, पोतानी मेळे ज ते चार खानावाळु लाकडानुं पात्र लई ते वेभेल नामना सन्निवेशमां उंचा नीचा अने मध्यम कुळोमां भिक्षा लेवानी विधि पूर्वक भिक्षा माटे फर्यो, अने भिक्षाना नीचे प्रमाणे चार भागो कर्या-जे कांइ मारा पात्रना पेला खानामां आवे ते मारे वाटमां मळता वटेमागुओने देनुं पण खावुं नहीं, जे काइ मारा पाना बीजा सानामां आवे ते मारे कागडा अने कुतराओने खवरायतुं, जे कांइ मारा पात्रना बीजा खानामां पडे ते मारे माछलांओने अने काचाओने परायी देवु अने के कांइ मारा थेषा नाम पडे ते मारे लावाने माठे कल्प छे. एम करीने, एम विचारीने काले प्रकाशवाळी रात्री या पछी अहीं वधुं पूर्व प्रमाणे ज कहे. यावत् — जे मारा चोथा खानामां पडे छे तेना पोते आहार करे छे. पछी पूरण नामे वाढतपस्वी, ते उदार, विपुल, प्रदत्त अने प्रगृहीत बालतपकूर्मवडे अहीं वधुं पूर्व प्रमाणे ज कहेनुं यावत् ते वेभेल नामना संनिवेशनी वच्चोवच नीकळे छे, नीकळी पावडी तथा कुंडी वगेरे उपकरणने तथा चार खानावाळा डाकडाना पात्रने एकांते मुकी ते वेभेल संनिवेशथी अग्निखूणे अर्धनिवर्तनिक मंडळने आळेखे छे. आळेखी, संलेखना भूषणाथी जूषित धइ, खान तथा पाननो त्याग करी से पूरण तपस्वी पाइपोपगमन नामनुं अनशन स्वीकारी ' देवगत ' थया. - १. दोन पिटकमा बुद्धदेवना समसमयी छ धर्मेोपदेशकाने ( तीर्थकरोना) नामग्राह उहे मी आवे छे. जेनां नम आ :- पुरण काश्यप, मस्करी गोशालक ( मस्करी एटले साधु, जुओ अमरकाश जैनभाषामां मंखली गोशाल ) अजित केशकंबल, प्रकुद कात्यायन, संजय वेलारिथपुत्र अने निग्रंथ नातपुत्र ( जैन भाषामा - ज्ञातपुत्र- महावीर ) सूत्री उपर लखेली बात उपरथी आ पूरण तपस्वी महावीरना समसमयी जणाय. छे एटले ( तेओ ) बुद्धना पण समसमयी होय ए संभवित छे. माटे आ पूरण तपस्वी अने बौद्ध ग्रंथेमां निर्देशेला तपस्वी पूरण काश्यप-ए बच्ने एक ज व्यक्ति छे के जूदी जूदी छे ? ए विषे तपास करवानी जरूर छे. मज्झिमनिकाय ( मध्यम निकाय ) मां ए विषे जणायुं छे: - " एवं मे सुतं । सावत्थियं... अथ हो पिंगलकोच्छो ब्राह्मणो येन भगवा "में आ प्रमाणे सांभ वस्ती (सायाची ) नगरीमा तेनुपसंकमि, उपसंकटमा भएको सो विंगस पिगलको नामनामा गंगामी पार्टी आयो भने एथे आधीने Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक २. ते' णं काले णं, ते णं समए गं अहं गोयमा! छउमत्थका- (हवे श्रीमहावीर, पोतानी हकीकत माटे कहे छे)-हे लिआए एकारसवासपरियाए छदैछद्रेणं अणिक्खित्तेणं तयाकम्मेणं गौतम! ते काळे, ते समये हुँ छद्मस्थावस्थामा हता अने .. मने दीक्षा लीधां अगीयार वर्ष थयां हता. तथ. हुं निरंतर संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे, पुव्वाणुपुर्वि चरमाणे, गामाणु __ छ? छट्टना तपकर्मपूर्वक संयम अने तपवडे आत्माने भावतो. गाम दुइज्जमाणे जेणेव सुसुमार पुरे नगरे जेणेव असोयवणसंडे पूर्यानपूर्वीए चरतो अने गामे गाम फरतो जे तरफ संसमार उज्जाणे, जेणेव असोयवरपायवे, जेणेव पुढवीसिलापट्टओ तेणेष (सुसुमार) पुर नगर छे, जे तरफ अशोकवनखंड छे, जे उवागच्छामि, असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढवीसिलावट्टयंसि अट्ठम- तरफ उत्तम अशोकनुं झाड छे अने जे तरफ पृथिवीशिलापट्टक . छे ते तरफ आव्यो अने पछी ते अशोकना उत्तम वृक्षनी हेठळ भत्तं परिगण्हामि, दो वि पाए साहटु वग्धारियपाणी, एगपोग्ग पृथिवी शिलापट्टक उपर में अट्टमनो तप आदर्यो. तथा हुँ बन्ने लनिविट्ठादट्टी, अणिमिसणयणे ईसिंपन्भारगएणं कारणं, अहाप- पगने भेळा करीने, हाथने नीचे नमता लांबा-करीने अने मात्र णिहिएहिं गत्तेहिं, (सवदिशाह) गुत्ते एगराइअं महापडिमं एक पुद्गल उपर नजर मांडीने, आंखोने फफडाव्या सिवाय, जरा उपसंपज्जेत्ता णं विहरामि. ते गं काले णं. ते गं समये गं. शरीरने आगळना भागमा नमतुं मेलीने, यथास्थित गात्रोवडे (सर्व चमरचंचा रायहाणी अजिंदा, अपुरोहिआ या वि होत्था. तर , इंद्रियोथी) गुप्त थइने, एक रात्रीनी मोटी प्रतिमाने स्वीकारीने विहरतो हतो. ते काळे, ते समये चमरचंचा राजधानीमा इंद्र न णं से पूरणे बालतबस्सी वहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई परियाणं __ हतो, पुरोहित न हतो, हवे ते पूरण नामे बालतपस्वी, पूरेपूरी बार तो पाउणित्ता मासिआए संलेहणार अत्ताणं जूसेत्ता साई भत्ताई वर्ष सुधी पर्यायने पाळीने, मासिक संलेखनावडे आत्माने सेवीने. अणसणाए छेदेत्त। कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए साठ टंक सुधी अनशन राखीने, काळमासे काळ करी चमरचंचा वोच्छो भगवतं एतदवोच:-ये इमे भो गोतम | समणब्राह्मणा संघिनो, भगवानी साथे संमोद की. पछी ते. एक ठेकाणे बेसीने आ प्रमाणे गणिनो, गणाचरिया, माता, यसस्सिना, तित्थकरा, साधु, सम्मता बहुजनस्स- बोल्यो:-हे गै'तम | जे प्रसिद्ध तीर्थकरो छे ते आटला छे:-पूरण काश्यप, सेय्य थीद-पूरणो कस्सपो, मक्खलिगोसालो, अजितो केसकंबली, पकुधो मस्करि गोशालक, अजित केशवंबल, पकुध कात्यायन, संजय वेलास्थिपुत्र कच्चायनो, संजयो वेलपुत्तो निगंठो नातपुत्तो."-चूळसारोपमसुत्त ३०- अने निग्रंथ हातपुत्र. ए बधा संघी, गणी, गणाचार्य, साधु अने बहुजनपृ० १३९) संमत यशस्वी श्रमणब्राह्मणो छे." ए ज ग्रंथमां बीजे ठेकाणे महासत्यक “पूरणं कस्सपं, x मक्खलि - गोसालं, अजितं केसकंबलं, x पकुधं सूत्रमां-पण पूरण काश्यपनुं नाम आवे छे ए नामवाळो पाली उडेख आ कच्चायनं, x संजयं चैलपुत्त, x निगंठं नातपुत्तं-(महासचकसुत्त ३६- सामे ज आप्यो छे. पृ० १७२) तथा बौद्धपर्व नामक मराठी ग्रंथमा 'पूरणकाश्यप' विषे लखतां आ प्रमाणे जणाव्यु छे के: " पूरणकाश्यप-आ एक प्रतिष्ठित गृहस्थनो पुत्र हतो. एना मालिके एने एक दिवसे द्वारपालन काम सोप्यु तेथी पोतानी मान-हानी थएली समजी ते विरक्त थयो. अने त्यांथी ते तुरत सीधो अरण्यमी गयो. रस्तामा चोरोए तेनां लुगडां विगेरे लुटी लीधुं, त्यारथी ते नग्न रहेवा लाग्यो. पछी ते एकवार गाममा गयो त्यारे लोकोए तेने पहेरवा माटे वसो आप्यां. पण तेणे कर्जा के, ' वस्त्र प्रयोजन लज्जा निवारवार्नु छ अने लज्जार्नु मूळ पापमय प्रवृत्ति छे, में तो पापमय प्रवृत्तिने दूर करी छे एथी मारे वसोनुं शुं काम होय?' तेभी ए प्रकारनी निस्पृहता अने असंगता जोईने लोको तेना अनुयायी थया अनेक हेवामां आवे छे के, एना ८० हजार शिष्यो हता-(बौद्धपर्व प्र० १० पृ० १२७):-अनु. १. मूलच्छायाः- तस्मिन् काले, तस्मिन् समये अहं गातम! छद्मस्थकालिकायाम् एकादशवर्षपर्यायः षष्ठंषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपस्कर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् , पूर्वाऽनुपूर्व चरन्, प्रामानुग्राम द्रवन् येनैव संसुमारपुर नगरम् , येनैव अशोकवनखण्डमुद्यानम् , येनैव अशोकवर पादपः, येनैव पृधिवी शिलापट्टकः तेनैव उपागच्छामि, अशोकवरपादपस्य अधः पृथिवीशिलापट्टके अष्टमभक्तं परिगृह्वा मि, द्वा अपि पादा संहृत्य प्रलम्बित ाणि: एकपुद्गल निविष्टदृष्टिः अनिमिषित नयनः, ईषत्प्राग्भारगतेन कायेन, यथा प्रणि हितैः गात्रैः ( सर्वेन्द्रियैः ) गुप्तः, एकरात्रिकी महाप्रतिमाम् उपसंपद्य विहरामि. तस्मिन् काले, तम्मिन् समये चमरचडचा राजधानी अनिद्रा, अपुरोहिता चाऽपि अभवत्, ततःस पूरणो बालतपस्वी बहुप्रति पूर्णानि द्वादशवर्षाणि पर्याणं प्राप्य-पालयित्वा-मासिक्या संलेखनया आत्मानं जूषित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा कालमासे कालं कृत्वा चमरचञ्चाया राजधान्या:-अनु. १. बौद्धोना पिटक ग्रंथोमा सुसुमारपुरनो नहि, पण 'सुसुमारगिरि '-नो उल्लेव मळी आवे छे. एउख उपरथी जाणी शकाय छे के, 'सुसुमारगिरि' “भग्ग' देशमा आवेलो छे. परंतु आ हकीकत नथी कळी शकाती के, ए'भग्ग' देश कयो छे अने क्या आवेलो छे ? 'सुसुमारगिरि 'नी साथे आ सूत्रमा आवेला 'सुंसुमारपुर ' नुं विशेष साम्य होवाथी कदाच सुसुमारपुर अने गिरि बन्ने पासे पासे आवेला होय अने 'भग्ग' देशमा आवेला होय. मज्झिमनिकायमा 'सुसुमारगिरि ने लगता बे उडेखो मळी आवे छे, जे आ प्रमाणे छे: १. "एवं मे सुतं । एक समयं आयस्मा महामोग्गल्लानो भग्गेसु विहरति १. में आ प्रमाणे सांभळयुं छे:- एक वखत आयुष्मान् महामादसुंसुमारगिरे मेसकळावने मिगदाये"-(अनुमानसुत्त १५-पृ०७०) ल्यायन भग्ग देशमा आवेला सुंसुमारगिरि नी पासे रहेला मिगदाय - मेस ___कळावनमा विहरे छे." ___ "२. एवं मे सुतं । एक समय आयस्मा महामोग्गलानो भग्गेषु विहरति २. वीजा उलेखनो अनुवाद पण एवो ज छे:-अनु. संसमारगिरे मेसकळावने मिगदाये" (मारतज्जनियसुत्त ५० पृ० २२४ ) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. - उदेशक २. ५७ ★ उपवासभाए आप इंदाए उणे तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया अहुणोवने पंचविहार पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तं जहा :- आहारपज्जत्तीए, जाव-भात-मणपजत्तीए, तए णं से चमेरे असुदे, असुरराया पंचविहार पती पजतिभानं गए समाणे उडूं वीससाए ओहिणा आभोएइ जाव- सोहम्मो कप्पो, पासइ य तत्थ सकं देविंद, देवरा, मध्यं, पाकसाराणं, सबकउं, सहसापलं, वञ्चपाणि पुरंदरं, जाय-दस दिखाओ उज्जोवेमाणं, पभासे माणं सौहम्मे कप्पे सौहम्मे वडिंसए विमाणे सर्कसि सीहासणंसि, जाप - दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणं पास, इमेयारूपे अज्झखिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था: - के स णं एस अपथपत्थर, दुरंतपंतलवखणे, हरिसिरिपरिवञ्जिए, हीणपुण्ण राजधानीमा उपपात सभामां यावत्-इंद्रपणे उत्पन्न भयो हवे ते ताजो ज उत्पन्न थलो असुरेंद्र, असुरराज चमर पांच प्रकारनी पर्याप्तिवडे पर्याप्तपणाने पामे छे. ते पांच प्रकारनी पर्याप्त आ छे:- आहारपर्याप्ति अने यावत् भाषा मनः पर्याप्ति, हवे ते असुरेंद्र, असुरराज चमर, पांच प्रकारनी पर्याप्तिथी पर्याप्तपणाने पाम्या पछी अवधिज्ञानवडे स्वाभाविक रीते उंचे यावत् सार्थमकल्पमां, देवेंद्र, देवराज मंचचा, पाकशासन, शतक्रतु सहस्राक्ष हजारळा वज्रपाणि- हाथमां वज्रने धारण करनार, पुरंदर शक्रने यावत् दशे दिशाभने अजयाळतो तथा प्रकाशित करतो अने सौधर्मकल्पमा सौधर्मावतंसक नामना विमानमां, शक्र नामना सिंहासन उपर बेसी यावत् दित्र्य अने भोगववा योग्य भोगोने भोगवतो जुए छे. तेने उसे जंणं ममं इमाए एवारूपाए दिव्याए देवीए जाय ते प्रकारे जोइ ते चमरना मनमा आए प्रकारनो अध्यात्मिक, दिव्वे देवाणुभावे लद्धे, पत्ते, अभिसमण्णागए उपि अप्पुस्सुए चिंतित, प्रार्थित मनोगत संकल्प थयो :- अरे ए मरणनो इच्छुक, दिवाई भोगभोगाई मुंबमाणे विहर, एवं संपेहेंद, संपेहिचा नठारी क्षणपाळो, खाज अने शोभा विनानो तथा हीणी पुण्य सामाणि अपरिसोय देने सायेद एवं वासी: केस णं चौदशने दहाडे जन्मेल (ए) कोण छे ? जे, मारी पाखे आ ए 'एस देशगुप्पिया ! अपत्थि अपत्थर, जाब- भुंजमाणे विहर ? प्रकारनी दिव्य देवद्धि यावत् दिव्य देवानुभाव होना 'छतातणं ते सामाणिअपरिसोचचचगा देवा चमरेणं असुरिंदेणं असुर में दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवानुभाव उच्च प्राप्त अने अभिस रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ठ-तट्ठ जाव - हयहियया करयलपरिग्ग- मन्वागत कर्या छतां पण मारी उपर विना गभराटे ओछी उतावळेहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं, विजएणं दिव्य अने भोगववा योग्य भोगोने भोगवतो विहरे छे. एम विचारी वृद्धावेंति, एवं वयासी:- एस णं देवाणुप्पिया ! सक्के देविंदे, ते चमरे सामानिकसभामां उत्पन्न थएल देवाने बोलावी आ' प्रमाणे देवराया जाय-पिहर तए गं से चमरे असुरिंदे असुररावा तेसिंक:- हे देवानुप्रियो ! अरे ए मरणनो इच्छुक यावत्-भोगोने 1 " " भोगवतो कोण छे उपारे असुरेंद्र, असुरराज चमरे, ते देयोने पूर्व प्रमाणे फधुं व्यारे ते सामानिकसभामा उत्पन्न थल देवो ते चमरनुं कथन सांभळी हर्षवाळा, तोषवाळा यावत्-हृतं हृदयवाळा था अने बने हाथ जोडवापूर्वक दशे नखने भेळा करी शिरसावर्ते सहित मायामां अंजलि करी ते देवोर ते चमरने जयं भनें विज यथी वधाव्यो, पछी तेओ आ प्रमाणे बोल्या केः -- हे देवानुप्रियं । ए देवेंद्र, देवराज शक्र यावत्-भोगोने भोगवतो विहरे छे. पछी असुरेंद्र, असुरराज चमर, ते सामानिकसभामां उत्पन्न थएल देवोना भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसून, 2 १. मूलच्छायाः – उपपातसभायां यावत्-इन्द्रतया उपपन्नः ततः स चमरोऽसुरेन्द्रः, असुरराजः अधुनोपपन्नः पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं गच्छति, तययाः आहारपला, यात भाषा-मनः पततः स चमरोऽसुरेन्द्रः, अघुरराजः पचविधा पर्या पर्याप्तिमा यतः सन् विसा अवधिना आभोगगृति यावत् साधर्मः कल्पः पश्यति च तत्र शक्रं देवेन्द्रम्, देवराजम्, मघवानम्, पाकशासनम्, शतक्रतुम् सहस्राक्षम् वज्रपाणिम्, पुरंदरम् यावत्-दश दिशाः उद्द्योतयन्तम्, प्रभासयन्तं सौधर्मे कल्पे सौधर्भेऽवतंस के विमाने शक्रे सिंहासने, यावत्-दिव्यानि भोग्यभोगानि भुञ्जानं पश्यति, अयम् एतद्रूपः आध्यात्मिकः, चिन्तितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः समुदपद्यतः कः स एष अप्रार्थित प्रार्थकः, दुरन्तप्रान्तलक्षणः, द्दीश्रीपरिवर्जितः, हीनपुण्यचातुदशो यद् मम अस्याम् एतद्रूपायां दिव्याय देव, यावत् दिव्ये देवानुभागे लब्धे, प्राप्ते, अभिसमन्वागते उपरि अल्पत्सुक्यो दिव्यानि भोग्यभोगानि भुञ्जानो विहरति, एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य, सामानिकपर्षदुपपन्नकान् देवान् शब्दायते, एवम् अवादीतः कः स एष देवानुप्रिया ! अप्रार्थित प्रार्थकः यावत् भुञ्जानो बिहाते ततस्ते सामानिकपदुपपद्मका देवामरेय अनुरेन्द्रे, अनुराजेन एवम् उक्ताः समानाः यायाः करतलपद मस्त कृत्वा जयेन, विजयेन वपन्ति एवम् अवादिपुः एष देवानुप्रियाः । शको देवेन्द्रः, देवराज, यावत्-विहरति ततः स पर असुरेन्द्र, असुरराजस्य अनु · - , १. प्रस्तुत सूत्रमां आवेला इन्द्र, मघवन, पाकशासन, शतक्रतु सहस्राक्ष, वज्रपाणि अने पुरंदर शब्दो खास विचारवा जैवा छे. मारा धारवा प्रमाणे विभएका भने पराणिकोए करेलो भने बहुसार अहीं पटावेलो ए शब्दोनो अर्थ साक्षणिक औपचारिक या आलंकारिक धाई छ तेम ए शब्दोना खास अर्थमां विशेष घालमेल थवाथी रजनुं गज थवा पाम्युं छे अने एथी साहित्य अने तत्वज्ञानमां भीषण गोटाळो उभो थयो - एलो छे. वर्तमानमां तो आज घणा समयथी ए ज गोटाळो इतिहासने नामे पूजाई रह्यो छे. आ विषेना स्पष्टीकरण माटे यास्कना निरुक्तनो विशेष मननपूर्वक अभ्यास करवो अगस्यनो छे. एमां एमणे आवा अनेक शब्दोना अर्थ विषे सप्रमाण अने विगतवार खुलासा आपला छे. आ नातमा 'असुर' शब्द विये एक टिप्पण भागळ आपी गयो बुद्धं, ते, भा शब्दाने पण काय प्रादी शकाय ते छे:--- - अनु• Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिभणीत भगवतीसूत्र. भौग अवकमेड. येउबिअसमग्घाएणं समोहणति, जाव-दोचं पि करीने ते चमर उत्तरपूर्वना दिग्भाग तरफ चाल्यो गयो. पर्छ। तेगे वेउन्विअसमग्घाएणं समोहणइ, एगं, महं, घोरं, घोरागारं, भीम, क्रियसमुद्धात कर्यो यावत्-फरी वार पण ते वैकि समुद्घातथी भीमागार, भासरं, भयाणीयं, गंभीरं, उत्तासणयं, कालडुरत्त-मास- समवहत थयो. तेम करीते चमरे एक मोटं, घोर, घोर आकारवलं रासिसंकासं जोयणसयसाहस्सीयं महाबोंदि विउव्वइ, विउवित्ता भयंकर, भयंकर आकारवाळु, भास्वर, भयानक, गंभीर, त्रास अप्फोडेइ, वग्गइ, गज्जइ, हयहेसिअं करेइ, हस्थिगुलगुलाइअं उपजावे एवं, काळी अडधी रात्री अने अडदना ढगला जेवू कालु करेइ, रहघणघणाइअं करेइ, पायदद्दरगं करेइ, भूमिचवेडयं दलयइ, तथा एक लाख योजन उंचं मोटुं शरीर बनाव्यु. तेम करी ते चमर सीहणादं नदइ, उच्छोलेइ, पच्छोलेइ, तिवई छिदइ, वामं भुरं पोताना हाथने पछाडे छे, कूदे छे, मेधनी पेठे गाजे छे, घोडानी ऊसवेइ, दाहिणहत्थपदेसिणीए अंगुट्ठणहेण य वि तिरिच्छमुहं पेठे हणणे छे, हाथीनी पेठे किलकिलाट करे छे, रथनी पेठे विडंबेइ, महया महया सद्देण कलकलरवं करेइ, एगे, अबीए घणघणे छे, भय उपर पग पछाडे छे, भोय उपर पाटु (चोटा) फलिहरयणमायाय उड़ वेहासं उप्पइए. खोभंते चेव अहोलोअं, लगावे छे, सिंहनी पेठे अवाज करे छे, उछळे छे, पछाडा मारे छे, कंपेमाणे च मेइणीयलं, आकड़ते व तिरियलोअं, फोडेमाणे व त्रिपदीनो छेद करे छे, डाबा हाथने उंचो करे छे, जमणा हाथनी अंबरतलं, कत्थइ गज्जते, कत्थइ विजुयायन्ते, कत्थइ वासं वास- तर्जनी आंगळीवडे अने अंगुठाना नखवडे पण पोताना मुखने माणे, कत्थई रयुग्घायं पकरेमाणे, कत्थइ तमुक्कायं परमाणे, विडंबे छे-बांकुं पहोळं करे छे अने मोटा मोटा कलकलरवरूप वाणमंतरे देवे वित्तासमाणे, जोइसिए देवे दुहा विभयमाणे, आयर- शब्दाने करे छे. एम करतो ते चमर, एकलो, कोइने साथे लीधा क्खे देवे विपलायमाणे, फलिहरयणं अंबरतलंसि वियट्टमाणे, वि. विना परिघ रत्नने लइने उंचे आकाशमा उत्पत्यो-उड्यो-गयो. जाणे यद्रमाणे. विउभाएमाणे, विउभाएमाणे ताए उकिट्ठाए जाव- अधोलोकने खळभळावतो न होय, भूमितळने कंपावतो न होय. तिरियमसंखेजाणं दीव-समदाणं मझमझेण वीइवयमाणे जेणेव तिरछा लोकने खेचतो न होय, गगनतळने फोडतो न होय ए सोहम्मे कप्पे, जेणेव सोहम्मवडेंसये विमाणे, जेणेव सभा सुहम्मा प्रमाणे करतो ते चमर, क्याय गाजे छे, क्याय विहीनी पेठे तेणेव उवागच्छइ, एगं पायं पउमवरवेइआए करेइ, एगं पायं - झबके छे, क्याय बरसादनी पेठे यरसे छे. क्याय धूळनो वरसाद सभाए सहम्माए करेइ, फलिहरयणेणं महया महया सद्देणं ति- वरसावे छे, क्यांय अंधकारने करे छे, एम करतो करतो ते चमर क्खुत्तो इंदकीलं आउडेए, एवं वयासी:-कहि णं भो ! सक्के देविंदे उपर चाल्यो जाय छे. जतां जतां तेणे वानव्यंतर देवोमा त्रास देवराया ? कहिणं ताओ चउरासीइसामाणिअसाहस्सीओ ? जाव- उपजाव्यो, ज्योतिषिक देवोना तो बे भाग करी नाख्या अने कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ ? आत्मरक्षक देवोने पण भगाडी मूक्या, एम करतो ते चमर, परिघ कहि णं ताओ अणेगाओ अच्छराकोडीओ? अज्ज हणामि, अज्ज रत्नने आकाशमां फेरवतो, शोभावतो ते उत्कृष्ट गतिवडे यावत्वहेमि, अज ममं अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतु त्ति कटु तिरछे असंख्य द्वीप अने समुद्रोनी बच्चोषच नीकळ्यो. नीकळीने तं आणि8 अकंतं, अप्पियं, असुभं, अमणुष्णं, अमणाम, फरुसं ज्या सौधर्मकल्प छे, ज्यां सौधीवतसक नामे विमान छे अने ज्यां सुधी सभा छे त्यां आव्यो. आवीने तेणे पोतानो एक पग पद्मवरवेदिका उपर मूक्यो अने बीजो एक पग सुधर्मा सभामां मूक्यो. तथा पोताना परिघ रनवडे मोटा मोटा होकारापूर्वक तेणे इंद्रकीलने अण वार कुट्यो. त्यार बाद ते चमर आ प्रमाणे बोल्यो के:--भो! देवेंद्र, देवराज शक क्या छ ? ते चोराशी हजार सामानिक देवो क्या छ ? यावत्-ते चार चोराशी हजार (३,३६०००) १. मूलच्छायाः-भागम् अपकासति, वैक्रियसमुद्घातेन समवहम्ति, यावत्- द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति, एकाम् महतीम्, घोराम्, घोराकाराम्, भीमाम्, भीमाकाराम, भास्वराम् , भयानीकाम्, गम्भीराम्, उत्त्रासनिकां कालार्धरात्र-माषराशिसंकाशां योजनशतसाहतिका महाबोन्दी विकुर्वति, विकुळ आस्फोटयति, वल्गति, गर्जति, हय हेषितं करोति, हस्तिगुलगुलायितं करोति, रथघनघनायितं करोति, पाददर्दरकं करोति, भूमिचपेटा ददाति, सिंहनादं नदति, उच्छलति, प्रच्छलति, त्रिपदी छिनत्ति, वामं भुज उच्छ्यति, दक्षिणहस्तप्रदेशिकया अगुष्ठनखेन चापि तिर्यग्मुख विडम्बयति, महता महता शब्देन कलकलरवं करोति, एकः, अद्वितीयः परिघरत्नम् आदाय ऊवं विहायः उत्पतितः, क्षोभयन् चैव अधोलोकम्, कम्पयंश्च,मेदिनीतलम्, आकर्षयन् इव तिर्यग्लोकम् , स्फोटयन् इव अम्बरतलम्, कुत्रचिद् गन्, कुत्रचिंद् विधुत्यमान:, कुत्रचिदू वर्षी वर्षन्, कुत्रचिद् रजउद्घातं प्रकुर्वन् , कुत्रचित् तमस्कायं प्रकुर्वन् , वानव्यन्तरान् देवान् वित्रासयन् , ज्योतिषिकान् देवान् द्विधा विभजन , आत्मरक्षकान् देवान् विपलाययमानः, परिचरत्नम् अम्बरतले व्यावर्तयन् , व्यावर्तयन् , विभ्राजयन्, विभ्राजयन् , तया उत्कृष्टया यावत्-तियंगसंख्येयानों द्वीप-समुद्राणां मध्यंमध्येन व्यतित्रजन् येनैव सौधर्मः कल्पः, येनैव सौधमीऽवतंसक विमानम्, येनैव सभा सुधमी तेनैव उपागच्छति, एक पादं पद्मवरवेदिकायां करोति, एकं पाद सभार्या सुधमीयां कति, परिषरत्नेन महता महता शब्देन त्रिवारम् इन्द्रकीलम् आकुट्टयति, एवम् अवादीत:-कुत्र भोः। शक्रो देवेन्द्रो देवराजः ? कुत्र ताश्चतुरशीतिसामानिकसारख्यः? यावत्-कुत्र तावतस्त्रः चतुरशीत्यः आत्मरक्ष देवसाहरुयः कुत्र ता अनेकाः अप्सरःकोट्यः अद्य हन्मि, अद्य व्यथयामि ,अथ मम अशा भाकरसोगशमुपनमन्तु इति कृत्वा ताम् भनिराम, भकान्ताम्, भप्रियाम्, भमनोज्ञाम, अमनामाम्, परुषाम:-भनु० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. भौगं अवक्कमेइ, वेडबिअसमुग्घाएणं समोहणति, जाव-दोचं पि करीने ते चमर उत्तरपूर्वना दिग्भाग तरफ चाल्यो गयो. पर्छ। रोगे वेउन्विअसमुग्घाएणं समोहणइ, एगं, महं, घोरं, घोरागारं, भीमं, वैक्रियसमुद्घात को यावत्-फरी वार पण ते वैकि समुद्घातथी भीमागारं, भासुरं, भयाणीयं, गंभीर, उत्तासणयं, कालडरत्त-मास- समवहत थयो. तेम करीते चमरे एक मोटुं, घोर, घोर आकारख , रासिसंकासं जोयणसयसाहस्सीयं महाबोंदि विउव्वइ, विउवित्ता भयंकर, भयंकर आकारवाळं, भास्वर, भयानक, गंभीर, त्रास अप्फोडेइ, बग्गा, गज्जइ, हयहेसिअं करेइ, हथिगुलगुलाइअं उपजावे एवं, काळी अडधी रात्री अने अडदना ढगला जेवू काळ करेइ, रहघणघणाइअं करेइ, पायददरगं करेइ, भूमिचवेडयं दलयइ, तथा एक लाख योजन उंचं मोटुं शरीर बनाव्युं. तेम करी ते चमर सहिणादं नदइ, उच्छोलेइ, पच्छोलेइ, तिवई छिंदइ, वाम भुभं पोताना हाथने पछाडे छे, कूदे छे, मेघनी पेठे गाजे छ, घोडानी ऊसवेह, दाहिणहत्थपदसिणीए अंगुट्टणहेण य वि तिरिच्छमुहं पेठे हणहणे छे, हाथीनी पेठे किलकिलाट करे छे, रथनी पेठे विडंबेइ, महया महया सद्देण कलकलरवं करेइ, एगे, अबीए घणघगे छे, भय उपर पंग पछाडे छे, भोंय उपर पाटु ( चोटा) फलिहरयणमायाय उई वेहासं उप्पइए. खोभते चेव अहोलोअं, लगावे छे, सिंहनी पेठे अवाज करे छे, उछळे छे, पछाडा मारे छे, कंपमाणे च मेइणीयलं, आकड़ते व तिरियलोअं, फोडेमाणे व त्रिपदीनो छेद करे छे, डाबा हाथने उंचो करे छे, जमणा हाथनी अंबरतलं, कत्थइ गज्जते; कत्थइ विज्जुयायन्ते, कत्थइ वासं वास- तर्जनी आंगळीवडे अने अंगुठाना नखबडे पण पोताना मुखने माणे, कत्थई रयुग्घायं पकरमाणे, कत्थइ तमुक्कायं परमाणे, विडंबे छे-बांकुं पहोळं करे छे अने मोटा मोटा कलकलरवरूप वाणमंतरे देवे वित्तासमाणे, जोइसिए देवे दुहा विभयमाणे, आयर- शब्दाने करे छे, एम करतो ते चमर, एकलो, कोइने साथे लीधा क्खे देवे विपलायमाणे, फालिहरयणं अंबरतलंसि वियदृमाणे, वि- विना परिघ रत्नने लइने उंचे आकाशमा उत्पत्यो-उड्यो-गयो. जाणे यहमाणे, विउब्भाएमाणे, विउभाएमाणे ताए उकिट्ठाए जाव- अधोलोकने खळभळावतो न होय, भूमितळने कंपावतो न होय, तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुदाणं मझमझेण वीइवयमाणे जेणेव तिरछा लोकने खेचतो न होय, गगनतळने फोडतो न होय ए सोहम्मे कप्पे, जेणेव सोहम्मवडेंसये विमाणे, जेणेय सभा सुहम्मा प्रमाणे करतो ते चमर, क्यांय गाजे छे, क्यांय विहीनी पेठे तेणेव उवागच्छइ, एगं पायं पउमवरवेइआए करेइ, एगं पायं - झबके छे, क्याय वरसादनी पेठे वरसे छे, क्यांय धूळनो वरसाद सभाए सुहम्माए करेइ, फलिहरयणेणं महया महया सद्देणं ति- वरसावे छे, क्याय अंधकारने करे छे, एम करतो करतो ते चमर क्खत्तो इंदकीलं आउडेए, एवं वयासी:-कहि णं भो ! सक्के देविंदे उपर चाल्यो जाय छे. जता जतां तेणे वानव्यंतर देवोमा त्रास देवराया ? काहि णं ताओ चउरासीइसामाणिअसाहस्सीओ ? जाव- उपजाव्यो, ज्योतिषिक देवोना तो बे भाग करी नाख्या अने कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ ? आत्मरक्षक देवोने पण भगाडी मूक्या, एम करतो ते चमर, परिघ कहिणं ताओ अणेगाओ अच्छराकोडीओ? अज्ज हणामि, अज्ज रत्नने आकाशमां फेरवतो, शोभावतो ते उत्कृष्ट गंतिवडे यावत्वहेमि, अज्ज ममं अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतु त्ति कटु तिरछे असंख्य द्वीप अने समुद्रोनी यच्चोषच नीकळ्यो. नीकळीने तं अणिटुं अकंतं, अप्पियं, असुभं, अमणुण्णं, अमणामं, फरुसं ज्या सौधर्मकल्प छे, ज्यां सौधीवतसक नामे विमान छे अने ज्यां सुधर्मा सभा छे त्यां आव्यो. आवीने तेणे पोतानो एक पग पद्मवरवेदिका उपर मूक्यो अने बीजो एक पग सुधर्मा सभामां मूक्यो. तथा पोताना परिघ रनवडे मोटा मोटा होकारापूर्वक तेणे इंद्रकीलने त्रण वार कुट्यो. त्यार बाद ते चमर आ प्रमाणे बोल्यो केः-भो! देवेंद्र, देवराज शक्र क्यां छे? ते चोराशी हजार सामानिक देवो क्यां छे ? यावत्-ते चार चोराशी हजार (३,३६०००) १. मूलच्छाग्राम, भीमाकाराम, भास्वरमति, यहेषितं करोति उच्छ्यति, दक्षिणहस्तपदा भयन चैव अ १. मूलच्छायाः-भागम् अपकासति, वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति, यावत्-द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति, एकाम् महतीम्, घोराम्, घोराकाराम, भीमाम्, भीमाकाराम, भास्वराम् , भयानीकाम्, गम्भीराम्, उत्त्रासनिकां कालार्धरात्र-माषराशिसंकाशां योजनशतसाहतिका महाबोन्दी विकुर्वति, विकुळ आस्फोटयति, वल्गति, गर्जति, हय हेषितं करोति, हरितगुलगुलायितं करोति, रथघनघनायितं करोति, पाददर्दरकं करोति, भूमिचपेटां ददाति, सिंहनादं नदति, उच्छलति, प्रच्छलति, त्रिपदी छिनत्ति, वामं भुजं उच्छ्यति, दक्षिणहस्तप्रदेशिकया अश्गुष्ठनखेन चापि तिर्यग्मुख विडम्बयति, महता महता शब्देन कलकलरवं करोति, एकः, अद्वितीयः परिघरत्नम् आदाय ऊवं विहायः उत्पतितः. क्षोभयन् चैव अधोलोकम्, कम्पयंश्च मेदिनीतलम् , आकर्षयन् इव तिर्यग्लोकम् , स्फोटयन् इव अम्बरतलम्, कुत्रचिद् गैजन, कुनचिंद् विद्युत्यमानः, कुत्रचिद् वर्षों वर्षन् , कुत्रचित् रजउद्घातं प्रकुर्वन् , कुत्रचित् तमस्कायं प्रकुर्वन् , वानव्यन्तरान् देवान् वित्रासयन् , ज्योतिषिकान् देवान् द्विधा विभजन , आत्मरक्षकान् देवान् विपलाययमानः, परिधरत्नम् अम्बरतले व्यावर्तयन् , व्यावर्तयन् , विभ्राजयन्, विभ्राजयन् , तया उत्कृष्टया यावत्-तिर्यगसंख्येयाना द्वीप-समुद्राणां मध्यमध्येन व्यतिव्रजन् 'येनैव सौधर्मः कल्पः, येनैव सौधमीऽवतंसकं विमानम्, येनैव सभा सुधमी तेनैव उपागच्छति, एकं पादं पद्मवरवेदिकायां करोति, एक पाद सभायां सुधमीयां करोति, परिघरत्नेन महता महता शब्देन त्रिवारम् इन्द्रकीलम् आकुट्टयति, एवम् अवादीत:-कुत्र भोः! शक्रो देवेन्द्रो देवराजः कुत्र ताश्चतुरशीति Jain Education international Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक २. गिरं' निसिरइ. तए णं से सके देविंदे, देवराया तं अणिटुं जाव- अंगरक्षक देवो क्या छ ? तथा ते क्रोडो अप्सराओ क्या छ ? आजे अमणामं असुअपुव्वं फरुसं गिरं सोचा, निसम्म आसुरुत्ते, जाव- हणुं ठं, आजे वध करूं छु, ते बधी अप्सराओ, जेओ मारे ताबे मिसिमिसेमाणे तिवलिअंभिर्ड निडाले साहद्द चमरं असुरिंद, नथी, आजे तावे थइ जाओ, एन करीने तेवा प्रसारनां अनेट , असुररायं एवं वदासि:-हं भो ! चमरा !, असुरिंदा !, असुर- अकांत अप्रिय, अशुभ, अमुंदर, मनने न गमे तेवां अने कानमा राया ।, अपत्थिअपत्थआ ! जाव-हीणपुण्णचाउद्दसा ! अन खटके तेवां बचनो ते चमरे काव्या. हवे ते देवेंद्र, देवराज शक न भवसि, न हि ते सुहमत्थीति कट्टु तत्थेव सीहासणवरगए वजं तेवा प्रकारनी अनिष्ट य.वन्-मनने अगगमती तथा कोई वार नहीं परामुसइ, तं जलंत, फुडतं, तडतडन्त, उक्कासहस्साई विणिमुः सांभळेली अने कानमा खटके एवी ते चमरनी वाणी सांभळी, भमाणं, जालासहस्साई पमुंचमाणं, इंगाल सहस्साई पविक्खिरमाणं अबधारी रोये भराणो अने यावत्-क्रोधथी धमधम्यो, तथा कपाळमा पविविखरमाणं, फुलिंगजालामालासहस्से हिं चक्खु विक्खेवदिडिप- अण आइ पडे तेन भवां पडावीने ते शके असुरेंद्र, अमुरराज विघायः पि परमाणं, हुअवह अहरेगतेअदिप्पंत, जइणवेगं, चमरने आ प्रमाणे कामु के:-हं भो! मरणना इच्छुक अने पुल्लकिंसुअसमाणं, महब्भयं, भयंकरं चमरस्स असुरिंदस्स यावत्-हीणी पुण्य चौदशने दिवसे जन्मेल असुरेंद्र, असुरराज असुररणो वहाए वज निसिरइ. .तएणं से असुरिंदे, असुर- चमर ! आजे तुं न हइश-आजे तुं हतो न हतो थइ जइश, आज राया तं जलंतं, जाव भयंकरं वजमभिमुहं अ.वयमाणं पासइ, तने सुख नथी, एम व.री, त्यां ज उत्तम सिंहासनमा बेठां बेठां ते शियाइ, पिहाइ; पिहाइ, झियाइ; झियायित्ता पिहाइत्ता शक इंद्रे वज्रनुं ग्रहण कयु. अने जळहळतुं, स्फुटतुं, तडतडाट तहेव रांभग्गमउडचिडए, सालंबहत्थाभरणे, उडुपाए, अहोसिरे, करतुं, हजारो उल्कापातने मूकतुं, हजारो (आगनी) जाळोने छोडतु, कपखागयसअं पित्र विणिम्मु अमाणे ताए उक्किट्ठाए, जाव-तिरियम- हजारो अंगारोने खेरवतुं, आगना कणिआ अने जाळाओनी माळाओथी संखेमागं दीव-समद्दाणं मज्जमझे गं वीईवयमाणे जेणे जंबूदीवे, भमावतुं तथा आंखोने अंजावी देवें, आग करतां पण घणुं वधारे तेजथी भाव-जेणेव असोगवरपायवे, जेगेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छइ, दीप्तुं, सौथी सारा वेगवालु, फुलेला केसुडा जेवू लाल, मोटा भीए भयगग्गरसरे ‘भगवं सरणं' इति वुयमाणे ममं दोण्ह वि भयने उलन करनारुं अने भयंकर वज्र, असुरेंद्र, असुरराज चमरना पाया अंतरंसि झत्ति वेगेण समोवडिए. तए णं तस्स सकस्स देवि- वध माटे मूक्युं. हवे ते जळहळता यावत्-भयंकर वजने सामे दस्स देउरण्णो इभे आरूवे अज्झथिए, जाव-समुप्पजित्थाः-नो आवतुं जोइ, ते असुरेंद्र, असुरराज चमर, आ शु? एम चिंतन खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असु- करे छे तथा ' आq शस्त्र मारे होत तो केवु. ठीक थात' एम स्पृहा रिदे असुरराया, नो खलु विसए चमररस असुरिंदरस, असुररण्णो अ. करे छे, फरीने पण पूर्व प्रमाणे स्पृहा करे छे अने चिंतन करे छे. प्पणो निस्साए उडु उप्पइत्ता जाव-सोहम्मो कप्पो, णण्णत्थ अरिहंते एम करीने तुरत ज ते,, मुकुटथी खरी गएल छोगावाळो, आलंबवा, अरिहंतचेइआणि वा, अणगारे वा माविअप्पणो णीसाए उडू वाळां हाथनां घरेणांवाळो, असुरेंद्र असुरराज चमर, पगने उंचा राखीने, माथाने नीचे करीने, जाणे काखमां परसेवो न वळयो होय एम परसेयाने झरावतो झरावतो, ते उत्कृष्ट गतिवडे यावत्-तिरछे असंख्य द्वीप तथा समुद्रोनी वचोवच जतो जतो जे तरफ जबुद्वीप छे ने यावत्-जे तरफ उत्तम अशोकनुं झाड छे तथा जे तरफ हुँ (श्रीमहावीर) छु ते तरफ आवी बीनेलो अने भयथी गगळा स्वरवाळो 'हे भगवन् ! तमे मारुं शरण छो' एम बोलतो ते चमर १. मूलच्छाया:-गिरं निःसृजति. ततः स शको देवेन्द्रः, देवराजस्लाम् अनिष्टां यावत्-अमनामाम् अर्थतपूर्वो परुषां गिरे श्रुत्वा, निशम्य आसुरुप्तः, यावत् मिस मिसयन् त्रिवलिको भृकुटी ललाटे संहत्य चमरम् असुरेन्द्रम्, असुरराजम् एवम् अवादीत:-हं भोः1 चमर ! असुरेन्द्र ! असुरराज | अप्रार्थितप्रार्थक ! यावत-हीनपुण्य चातुश! अद्यान भवसि, न हि ते सुखमस्ति इति कृत्वा तत्रैव सिंहासनवरगतो वजं परामृश ति, तद् ज्वलन्तम्, स्फुटन्तम् तडतडन्तम् उल्कासहस्राणि विनिमुश्चन्तम् , ज्वालासहस्र णि प्रमुञ्चन्तम्, अनारसहस्र णि प्रावक्षरन्तम् प्रविक्षरन्तम्, स्फुलि ज्यालामालासहौः चक्षुर्वक्षेप-दृष्टिप्रविघातम् अपि प्रकुर्वन्नम्, हुनबहातिरेकते जो दीप्यमानम्, जयिवेगम्, फुकशु समानम्, महाभयन् , भयंकर चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराजस्म वधाय वजं निःसूत्रति, ततः स चमरोऽसुरेन्द्रः, असुरराजस्तं पलन्तम्, यावत्-भयंकर रकम् अभिमुखम् आपतन्तं पश्यति, ध्यायति, स्पृहयति (पिधत्ते); सहयति ध्यायति; ध्यारवा, पिधाय तथैव संभग्नमुकुट विटपः सालम्महस्ताभरणः ऊर्वरादः, अध.शिराः कक्षागतस्वेदमिव विनिमुच्चन् तया उत्कृष्ट पा, यावत्-तिर्यगसंख्येयानां द्वीप-समद्रागां मध्य येन व्यतिव जन् येनैव जम्बूद्वीपः, यावत्-येनैव अशोकवरपादपः, येनैव मम अन्तिकहतेनैव आगच्छति, भीतः, भयगद्यस्परः • भगवान् शरण।' इति ब्रुवन् मम द्वयोर पे पादयोः अन्तरे झटिति वेगेन समवपरितः, ततस्तस्य शकस्य देवेन्द्र स्य देवराजस्य अयम् एतद्रूप आध्यात्मिका, यावत्-समुदपद्यतः-नो खलु प्रभुश्चमरोऽसुरेन्द्रः, असुरराजः, ना रूल समर्थः चमरोऽसुरेन्द्रः असुरराजः, नो खलु विषयः चमरस्य असुरेन्द्रस्य, असुररामस्य आत्मनो निश्रया ऊर्वम् उत्पत्य, यावत्-सौधर्मः कल्पः, नान्यत्र अईन्तं वा, अर्हचैल्यानि वा, अनगारान् वा भावितात्मनो निभाय का-मनु Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. उप्पयइ जाव-सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्ख खलु तहारूवाणं अ- मारा बन्ने पगनी बच्चे शीघ्रपणे वेगपूर्वक पडयो. हवे आ वखते रहताणं भगवंताणं, अणगाराण य अबासायणाए ति कट ओहिं ते देवेंद्र, देवराज शकने आ ए प्रकारनो यावत्-संकलन पउंजइ, ममं ओहिणा आभाएइ, हा ! हा! अहो । हतो अह- थयो के, अमुरेंद्र, असुरराज चमर, प्रभु-शक्तिवाळो-नथी, असुरेंद्र मंसि त्ति कटु ताए उकिट्टाए जाव-दिवाए देवगईए वज्जस्स वीहिं असुरराज'चमर, 'समर्थ नथी तेम असुरेंद्र, असुरराज चमरनो विषय अणुगच्छमाणे तिरियमसंखेजाणं दीव - समुदाणं मसंमज्झेणं, जाव- पण नथी के, ते पोताना बळथी यावत्-सौधर्मकल्प सुधी उंचे आवी जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, ममं शके. परंतु हा, जो तेणे अरिहंत, अरिहंतनां चैत्यो के भावितचउरगुलमसंपत्तं वजं पडिसाहरइ, अवि या ई मे गोयमा! मुहिवाएणं आत्मा अनगारोनो आशरो लीधो होय तो ते उपर आवी शके छे, केसग्गे वीइत्था. तए णं से सके देविंदे देवराया वजं पडिसाहरित्ता पण ते सिवाय उपर • आयवा तेनुं सामर्थ्य नथी. जो ते चमर ममं क्खुित्तो आयाहिणपयाहिणं करइ, वंदइ,नमसइ, एवं क्यासि:- कोइ तथारूप अरहंत भगवंत के भावित-आत्मा अनगार-महापुरुषनो एवं खलु भंते ! अहं तुझ नीसाए चमरेणं असुरिंदेण, असुररण्णा आशरो लइने उपर आव्यो होय तो तो मारा फेंकेल बज दूर ते सयमेव अचासाइए, तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स अरहंत भगवंत के महापुरुषनी आशातना थशे, अने एम ५g ते असुरिदस्स, असुररण्णो वहाए वज्जे निसद्वे, तए णं ममं इमेआरूवे मने मोटा दुःखरूप छ, एम विचारी ते देवेंद्र, देवराज शके पोताना अज्झथिए जाव-समुप्पाजत्था:-नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असु- अवधिज्ञाननो प्रयोग को अने ते द्वारा तेणे मने (श्रीमहावीरेन) रराया, तहेव जाव-ओहिं पउंजामि, देवाणुप्पिए ओहिणा आभो- जोयो. मने जोइने तुरत ज 'अरे! रे! अहो !!! हुँ मराइ गयो' एमि, हा हा। अहो। हओ म्हि त्ति कह ताए उकिटाए जाव- एम करी ते उत्कृष्ट यावत्-दिव्य देवगतिवडे (वज्रने लइ लेवाने) वचनी पाछळ नीकळ्यो, ते शक इंद्रे तिरछे असंख्य द्वीप अने समुद्रोनी वच्चे यावत्-जे तरफ उत्तम अशोकनुं झाड हतुं अने जे तरफ हुं (श्रीमहावीर) हतो ते तरफ आवीने माराथी मात्र चार १. मूलच्छाया:-उत्पतति यावत्-सौधर्मः कल्पः, तद् महादुःखं खल तथारूपाणाम् अर्हता भगवताम्, अनगाराणां च शत्याशातनया इति कृत्व अवधि प्रयुड़े, माम् अवधिना आभोगयति, हा! हा! अहो हतोऽहम् अस्मि इति कृला तया उत्कृष्टया यावत्-दिव्यया देवगल्या वज्रस्य वीथिम् अनुगच्छन् तिर्यगसंख्येयानां द्वीप-समुद्राणां मध्यमध्येन, यावत्-येनैव अशोकवरपादपः,येनैव मम अन्तिक स्तेनैव उपागच्छति, मम चतुरगुलम् असंप्राप्तं वजं प्रतिसंहरति, अपि च मम गौतम! मुष्टियातेन केशाम्राणि वीजितवान्, ततः स शको देवेन्द्रः, देवराजो वजं प्रतिसंहृत्य मम त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां करोति, वन्दते,नमस्य ति; एवम् अवादीत:-एवं खलु भगवन् । अहं त्वा निश्राय चमरेण असुरेन्द्रेण, असुरराजेन खयमेव अत्याशातितः, ततो मया परिकुपितेन समानेन चमरस्य असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य वधाय वजं निसृष्टम्, ततो मम अयम् एतदूपः आध्यात्मिकः, यावत्-समुदपद्यतः-नो खलु प्रभुश्चमरोऽसुरेन्द्रः, असुरराजस्तथैव यावत्-अवधिं प्रयुजे, देवानुप्रियान् अवधिना आभोगयामि, हा ! हा! अहो ! हतोऽस्मि इति कृत्वा तया उत्कृष्टययावत्:-अनु. १. आ चमरना उत्पात विषेनो उल्लेख, सिद्धसेन दिवाकरजीए पोतानी बीजी द्वात्रिंशिकामा, नेमिचंद्रसूरिए अने हेमचंद्रसूरिए पोतपोताना महावीर चरितमा पण आपेलो छे अने ते आ प्रमाणे छ:" कृत्वा नवं सुरवधूभयरोमहर्ष आ श्लोक द्वारा दिवाकरजीए श्रीमहावीरनी स्तुति करी छे:दैत्याधिपः शतमुखभ्रकुटीवितानः। "कोपे करीने जेना कपाळमां भवाओनी शतमुख रेखाओ-करचलीओ स्वत्पादशान्तिगृहसंश्रयलब्धचेता पडी गएली छे एवा दैत्याधिपे ( चमर इन्द्रे ) पोतानी बीहामणी आकृतिथी लज्जातनुश्रुति हरेः कुलिशं चकार-॥ ३ ॥ देववधूओने बीबराववानो अपराध को हतो, परंतु फक्त एने तारा चरणरूप शांतिस्थाननो आश्रय मळवाथी जरा पण आंच आवी न हती अने उलटुं एणे इंदना ( ईशान इंदना ) वज्रने पण शरमावी दी, हतुं." ३. नेमिचंद्र सूरिए ( ११४० विक्रममा ) रचेला ' महावीर चरिय' मा पृ० ५० थी ५३ सुधीमा चमरोल्पात वर्णवाएलो छ- ( आत्मानंदसभा० ) भने कुमारपालना समसमयी हेमचंद्रसूरिए रचेला ' महावीरचरित्र' मा पृ० ५४ थी ५७ सुधीमा एज हकीकत नर्नोधाएली छे. ए बन्ने सरिओना ए उलेखा एक वात एवी पण आवेली छे, जे, प्रस्तुत सूत्रमा जणावेली हकीकतथी तहन नदी पहे छे. आ भगवती सत्रमा जणाव्यु छ के, "ए पूरण गृहपतिए दानामा नामनी दीक्षा लीधी हती" अने ए बनेना उल्लेखमा एम जणाव्यु छ के, “ए पूरण गृहपतिए 'प्राणामा' (पाणायाम-प्राकृत) नामनी वीक्षा झीधी हती" ते उल्लेखो आ प्रमाणे छे: “पडिवन्नो पध्वजं पाणायाम अभिग्गहं गेण्हे " ९२ (नेमि. पृ०५१) पाणायाम' नामनी प्रव्रज्या ( अभिप्रह) लीधी" ९२ " स्वयं तु नाना प्राणामं तापसनतमाददे" ३४० (हेम. पृ०५४) “पोते तो 'प्राणाम' नामनुं तापसवत ली " ३८० मने तो आ बन्ने सूरिओनो आ उलेख तद्दन विपर्यस्त लागे छे. सूत्रोक्त ' दानामा ' प्रव्रज्यानो अर्थ दानमयी वा दानिमा ( दानेन निर्वृत्ता) याय छे अथात् जे प्रवज्यामा दान देवानी क्रिया मुख्य होय तेनुं ज नाम 'दानामा' के अने 'पूरण' नी प्रवृत्तिमा दाननो ज भाग विशेष आवतो होवायी तेनी 'प्राणामा 'प्रवज्या संभवी शकती नथी. ए (प्राणामा) तो आगळ आवेला 'तामली ' तापसे लीधी हती. एना प्रकरणमा 'प्राणामा 'नो अर्थ तथा खरूप आपेला छे ए उपरथी स्पष्ट जाणी शकाय छे के, ए प्रमज्याने लगतुं कोई अनुष्ठान भा पूरणे कर्यु नथी. वळी, ए चने सरिओए पूरणनी चर्यानुं वर्णन करतो पण 'दानामा 'तुं ज अनुष्ठान वर्णव्यु छ, किंतु तेमा 'प्राणामा' नुं एक पण अनुष्ठान जणाव्यु नथी. तेम छतां मने लागे छे के, तामली तापमनी 'प्राणामा' प्रमज्या स्मरण पई नवापी एमओए ए जातनो विपर्यस्त उछेस करेलो होयः-अनु. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उपागच्छामि देवाणुपियाणं चउरंग लमसतं वज्जं पडसाहरामि वज्जपडिसाहरणट्टयाए णं इहमागए, समोस इह संपते, हे उपसंपविता णं विहरामि तं खाणं देवाणु प्पिया !, खमंतु मं देवाणुप्पिया ! - खंमतुमरहंति र्ण देवाणुपिया !, गाद मुख एवं पकरणाए किम चंद, नमसड़, उत्तरपुरस्थिमयं दिसीमागं अपकमद, पामेणं पादेणं ति खुतो भूमिं दले, चमरं असुरिंदे असुररावं एवं वदासि:-मुको सिणं भो चमरा बसुंरिंदा असुरराया | समणस्स भगवओ ! महावीरस्स प्रभावेणं- न हि ते इदाणिं ममाओ भयं अस्थि ति कट्टु जामेव दिसि पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए. 1 / श्रीरामचन्द्र-जिनागमरीमहे - शतक ३. उद्देशक २. भांगळ छेटे रहे वन इ डी अने हे गौतम! ज्यारे ते श वज्र लीधुं त्यारे तेणे एवा वेगथी मुठि वाळी हती के ते मुठिना वायुधी मारा केशाम वीजाय हवे देवेंद्र, देवराज के बचने उड़ने, मने त्रण प्रदक्षिणा करी पछी तेणे मने नमन करी आ प्रमाणे हे भगवन्! समारों आशरो लड्ने असुरेंद्र, असुरराज चमरे मने मारी शोभावी भ्रष्ट करवो धार्यों इतो. तेथी में कुपित थर अमुरेंद्र अमुरराज चमरने मारवा तेनी पाछळ वन मूक्यु. स्यार पछी मने आए प्रकारको आध्यात्मिक या संकल्प उत्पन्न थयो के, अमुरेंद्र, असुरराज चमर पोताना बळथी उपर न आ शके ( इत्यादि बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवुं ) यावत्-पट्टी में अवधिज्ञाननो प्रयोग कर्यो अने ते द्वारा में आप देवानुप्रियने जोया. जोगा के तुरत ज हा हा! अहो !! मराइ गयो एम विचारी ' ! ढुं ते दर दिव्यगतिवडे ज्यां आप देवानुप्रिय विराजो छो सां आव्यो अने आप देवानुप्रियथी चार आंगळ छेटे रहेलुं वज्र में इ धुं वने वा माटे नहीं जम्यो हुं, अहीं समयसयों से नहीं संप्राप्त भयो छु अने अहीं ज उपसंपन्न थइने विहरं छं. तो हे देवानुप्रिय ! हुं क्षमा मागुं. हे देवानुप्रिय ! आप क्षमा आपो, हे देवानुप्रिय ! आप क्षमा करवाने योग्य छो. डुं वारंवार एम नहीं करुं -एम करीने मने वांदी, नमी ते शक्र इंद्र उत्तरपूर्वना दिग्भागमा चाल्यो गयो. त्यां जइने तेणे (शके) पृथ्वी उपर प्रण बार दावो पग पछायो अने असुरेंद्र असुरराज चमरने आ प्रमाणे कथं के:हे असुरेंद्र, असुरराज, चमर! श्रमण भगवंत महावीरना प्रभावधी बची गयो छे, अव्यारे माराधी तने जरा पण भय नधी, एम करी से शक्र, जे दिशामांथी आव्यो हतो ते ज दिशामां पाछो चाल्यो गयो. 6 ' ', २. दाणामाए 'त्ति दानमय्या, 'छउमध्यकालिआए 'ति छद्मस्थकाल एवं कालिका, तस्याम् ' दो विपाए साहहु 'ति संहत्य संहृतौ कृाया-जिनमुद्रया इत्यर्थः यग्परियाणि च प्रवम्बितमुजः, 'ईसिपमारगएणं 'ति प्रागभार:-अप्रतो मुखम् अवनतत्वम् 'अहापणिहिएहिं गत्तो 'ति यथाप्रणिहितै: - यथास्थितैः. 'साए 'त्ति स्वभावत एव पास गतस्थ 'ति पश्यति च तत्र सोचमें कम 'तिमा महामेघाः, ते यस्य वशे सन्यासी मघवान् अतस्तम् पाकशासनं 'ति पाको नाम पठान् रिपुः, तुं यः शास्ति निराकरोति, असौ पाकशासनः, अतस्तम्, सबक ति शतं कतूनां प्रतिमानाम् अभिग्रहविशेषाणाम्, श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कार्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्यासी शतक्रतुः, अतस्तम्, 'सहस्सक्खं 'ति सहस्रमक्ष्णां यस्यासौ सहस्राक्षः, अरास्तम् - इन्द्रस्य किख मन्त्रिणां पथ शतानि सन्ति तदीयानां चाणां इन्द्रप्रयोजनव्यापृततया इन्द्रसंगन्धित्वेन विवक्षणात् तस्य सहस्राक्षलमिति, 'पुरंदरं ति असुरादिपुराण दारणात् पुरंदरः तम् जाय-दस दिखाओ 'त्ति इह यावत् करणात्-" दक्षिणलोग हिप, पतीस विमाणसयस इस्सा हिवई, एरावणवाहणं, सुरिंदें, अरवरवश्यपरं " अरजांसि च तानि अम्वरवस्त्राणि च स्वच्छताऽऽकाश वयसनानि भरजोऽवखाणि तानि धारयति यः सः तथा त मलहमालमउडे "विङ्गितमा मुकुटं यस्य सः, तथा तम्, नैहेमचारु चित्त चञ्चल कुण्डलविली हजमाणगण्डम् ”नाम्यामिव हेम्नः सत्काभ्यां चारुचित्राभ्यां चाभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिएयमानौ गण्डौ यस्य सः, तथा तम् इत्यादि तावद् वाच्यम्, यावत् दिव्वेण तेणं, दिव्वाए लेसाए ति अथ पत्र , " , " ፡ ४ 6 १. येनैव देवानुत्रिमस्तेनैव उपायच्छामि देवानुप्रियाणां तुम्प्राप्तं वर्ष प्रतिसंहरा प्रतिया (मा) म् इ भागतः, इइ समवस्रुतः, इह संप्राप्तः, इहैव अद्य उपसंपद्य विहरामि, तत् क्षमयामि देवानुप्रिय ! क्षमन्तां मां देवानुप्रिय ! क्षमितुम् अर्हन्ति देवा-. यिनै भूयः एवं प्रकरण उमाम् इति कृत्वा मां बन्दते नमस्त उत्तरपौरस्त्यं दिमागम् अपक्रामति वागेन पादेन रियो भूमिं दयति मरम् अनुरेन्द्रम्, अनुरराजम् एवम् अवाद-मुक्तोऽसि भोः ! अनुरेन्द्र अनुरराज भ्रमणस्य भागवतो महावीरस्य प्रभावेण न्नहित इदानीं मम सम् अस्ति इति कृत्वा यामेव दिशे प्राभूतस्तामेव दिधे प्रतिगतः अनु० १० छाया दक्षिणाडोकाऽपि पति द्वात्रिंशद्विमानशतसहस्राधिपतिम् ऐम् सुरेन्द्रम् अरजोऽम्बरधरम्.१. आजहि माकमुकुटम् ३. नवहेमचा चित्रचचलकुण्डरु विलियमा नगण्डम् : अनु - · Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देशक ३. शतक २. भगवत्सुधर्मेस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. यत्परिवारम् , यत्कुर्वाणं च तं पश्यति तथा दर्शयिनुमाह-' सोहम्मे' इत्यादि. 'अपत्थिअपत्थए 'त्ति अप्रार्थित प्रार्थयते यः स तथा, 'दुरंतपंतलक्खणे 'त्ति दुरन्तानि दुष्टावसानानि, अत एव प्रान्तानि अमनोज्ञानि लक्ष गानि यस्य स तथा 'हीणपुण्णचाउद्दसे 'त्ति हीनायां पुण्य चतुर्दश्यां जातो हीनपुण्य वातुर्दश:, किल चतुर्दशी तिथिः पुण्या जन्माश्रित्य भवति, सा च पूर्णा अत्यन्तभाग्यवतो जन्मनि भवति, अत आक्रोशत उक्तम्-' हीगपुण्गचाउद्दसे 'त्ति जणं मम' इत्यादि. ममं अस्याम् एतद्पायाम् दिव्य तथा दिव्ये देवानुभागे लब्धे, प्राप्ते, अभिसमन्वागते सति 'उप्पिं "ति ममैव ' अप्पुस्सुए 'ति अल्पौत्सुक्यः, ' अचासाइत्तए 'ति अत्याशातयितुम् छायाया भ्रंशयितुमिति. 'उसिणे 'त्ति उष्णः कोपसंतापात् , कोपसंतापजं चोष्णत्वं कस्यचित् स्वभावतोऽपि स्यात् , इत्याह-'उसिणभूए 'त्ति अस्वाभाविकमौष्ण्यं प्राप्त इत्यर्थः, “एगे' त्ति सहायाभावात् , एकत्वं च बहुपरिवारभावेऽपि विवक्षितसहायाभावाद् व्यवहारतो भवति, इत्यत आह-'अबीए 'त्ति अद्वितीयः, डिम्भरूपमात्रस्याऽवि द्वितीयस्याभावादिति. 'एगं महं 'ति एकाम् महतीम् , बोन्दीमिति योगः. २.[ 'दाणामाए 'त्ति ] दानमय-जेमां दान- प्रधानपणुं छे तेवी दीक्षा-तेवडे. [ 'छउमत्थकालिआए 'त्ति ] छद्मस्थ अवस्थावाळा समये दा मा [ 'दो वि पाए साह8 'त्ति ] बन्ने पगने भेगा करीने-जिनमुद्रापूर्वक रहीने. [ 'वग्धारिअयाणि 'त्ति ] बन्ने हाथने नमता मूकीने. [ · ईसिंपन्भारगएणं'ति ] प्राग्भार एटले आगळ अवनतपणु. ['अहापणिहिए हिं गत्तेहिं 'ति] यथास्थित गात्रोवडे. [ 'बीससाए 'त्ति ] स्वभावे ज. [ 'पासइ य तत्थ 'त्ति ] त्यां सौधर्मकल्पमां जूए छे. [ 'मघवं 'ति ] मोटा मेघोने वश राखनार ते मघवा तेने, [ 'पाकसासणं'ति ] पाक नामना बळुका शत्रुने मायाशिक्षा करनार ते पाकशासन-तेने, [ 'सयक्कउंति ] जेणे कार्तिक शेठना जीवनमा (पोताना आगळना जीवनमा ] एक जातना अभिग्रहरूप सो सिन प्रतिमाओने (ऋतुओने ) अथवा श्रावकनी पांचमी प्रतिमारूप सो प्रतिमाओने (क्रतुओने ) वही हती ते शतक्रतु-तेने, [ 'सहस्सक्खं 'ति ] हजार शक्रन आंखवाळो ते सहस्राक्ष-तेने, इंद्रने पांचसे मंत्रिओ छे अने पांचसे य मंत्रिओनां नेत्रो इंद्रना काममा वपराय छे माटे ते नेत्रो, औपचारिक रीते इंद्रना पण कहेवाय छे अने तेने लइने इंद्रने हजार आंखो छ एम कल्पाय छे. [ 'पुरंदरं'ति ] असुरादिकना नगरोनो नाश करनार ते पुरंदर-तेने, [ 'जाव पुरंदर, दस दिसाओ'त्ति ] अहीं यावत् ' शब्द मूक्यो छे माटे " दक्षिणार्ध लोकनो धणी, बत्रीश लाख विमाननो उपरी, ऐरावण हाथिना वाहनवाळो, सुरोनो इंद्र, रज विनानां अने आकाश जेवां निर्मळ वस्रोने पहेरनार, माळावाळा मुकुटने माथे मूकनार, जाणे नवां ज न होय एवां सुंदर अने विचित्र तथा चंचळ सुवर्ण कुंडळो द्वारा जेना गालो चळके छे एवो, " इत्यादि-अर्थात् एवा प्रकारना इंद्रने चमरराज जूए छे. ए बधी हकीकत " दिव्य तेजवडे, दिव्य लेश्यावडे " आ अर्थ सुधी कहवी. हवे, ज्यारे चमरराजे इंद्रने जोयो त्यारे सौधर्मकल्पमां इंद्र, केटला परिवार साथे बेठो छे अने शुं करे छे, ते वातने दर्शावबा कहे छ के, [ 'सोहम्मे' इत्यादि. ] [ 'अपस्थिअपत्थो 'त्ति ] अप्रार्थित-अनिष्ट-वस्तुनी प्रार्थना करनार-मरणनो इच्छुक, [ 'दुरंतपंतलक्खणे 'त्ति ] एना लक्षणो नठारां परिणामवाळां छे माटे ज ते खराब लक्षणोवाळो कहेवाय. [ 'हीणपुन्नचाउद्दसे 'त्ति ] हीणी पुण्य चादशने दिवसे जन्मेल-जन्मने माटे चौदश तिथि पवित्र मनाय छे, अने अत्यंत भाग्यवंतना जन्म समये ज ते चौदश पूर्ण होय छे. अहीं चमरराजे शक इंद्रने 'हीणी पुण्य चौदशने दिवसे जन्मेल' एवं विशेषण आपवाथी ते उपर ए विशेषण द्वारा पोतानो आक्रोश दर्शाव्यो छे. [जं णं मम' इत्यादि. ] मारे आ आवी जातनी दिव्य देवऋद्धि होवा छतां तथा में दिव्य देव प्रभावने लब्ध, प्राप्त अने सामे आण्या छता, [ 'उप्पिं 'ति ] मारा ज उपर, [ 'अप्पुस्सुर 'त्ति ] गभराट विना-शांतिपूर्वक-ओछी उतावळे. [ 'अच्चासाइत्तए 'त्ति] शोभाथीभ्रष्ट करवाने. ['उसिणे 'त्ति कोपना संतापथी उनो थयो, कोपसंतापजन्य उनाप' कोइने' स्वाभाविक पण होय माटे कहे छे के, [ 'उसिणभूए 'त्ति ] अस्वाभाविक उकळाटने पामेलो.. [ 'एगे'त्ति ] कोइनी सहाय न होवाथी एकलो, घणो परिवार होय, पण जो जोइए तेवी सहायता न होय तो कार्य करनार मनुष्य, व्यवहारथी एकलोज गणाय छे माटे कडं छे के, [ 'अबीए 'त्ति ] एक बाळक पण जेनी साथे नथी एवो अर्थात् एकलो ज. [ 'एग मह 'ति ] एक मोटा 'शरीरने ' एम संबंध करवो. ३. 'घोरं हिंस्राम् , कथम् !, यतो घोराकारां हिंस्राकृतिम् , 'भीमं 'ति भीमाम्-विकरालत्वेन भयजनिकाम् , कथम् !, यतो भीमाकारां भयजनकाकृतिम् , 'भासुरं'ति भास्वराम् , 'भयाणीअं'ति भयम्-आनीतं यया सा भयानीता, अतस्ताम् , अथवा भयं भाहे खाद्, अभी प्-ितपरेवारभूतम् , उल्का-स्फुलिङ्गादिसैन्यं यस्याः सा भयानीका, अतस्ताम् ' गंभीरं'ति गम्भीराम्-विकीर्णावयवत्वात् 'उत्तासणयं "ति उत्त्रासनिकाम्, 'त्रसी उद्वेगे' इति वचनात् स्मरणेनाप्युद्वेगज निकाम्, 'महाबोदि 'ति महाप्रभावतनुम् 'अप्फोडेई 'त्ति करःस्फोटं करोति, 'पायदद्दरगं'ति भूमेः पादेन आस्फोटनम् , 'उच्छोलेइ 'त्ति अग्रतो मुखां चपेटा ददाति 'पच्छोलेइ 'त्ति पृष्ठतो मुखां चपेटां ददाति, 'तिवई छिदइ 'त्ति मल्ल इव रङ्गभूमौ त्रिपदीच्छेदं करोति, 'ऊसवेइ 'त्ति उच्छृतं करोति, 'विडंबेइ 'त्ति विवृत करोति, 'आकडन्ते व 'त्ति समाकर्षयन्निव, 'विउन्माएमाणे 'त्ति व्युद्धाजमानः शोभमानः, विजम्भमाणो वा, व्युद्भाजयन् वाऽम्बरतले परिघरत्नमिति योगः. 'इंदकीलं 'ति गोपुरकपाटयुगसंधिनिवेशस्थानम्', 'न हि ते 'त्ति नैव तव 'फुलिंगजाला' इत्यादि. स्फुलिङ्गानाम् , ज्वालानां च या मालाः तासां यानि सहस्राणि तानि, तथा तैः, चक्षुर्विक्षेपश्च चक्षुर्भमः,दृष्टिप्रतिघातश्च दर्शनाभावः, चक्षुर्विक्षेप-दृष्टिप्रतिघातम् , तदपि कुर्वत्-अपि विशेषणसमुच्चये. 'हुअवह '-इत्यादि. हुतवहातिरेकेण यत् तेजः, तेन दीप्यमानं यत् तत् तथा, ' जइणवेगं "ति जयी शेषवेगवद्वेगजयी वेगो यस्य तत् तथा, 'महन्मयं 'ति महा भयमस्मादिति महद्भयम् , कस्मादेवम् ? इत्याह-भयकर भयकर्त, 'झियाइ 'त्ति ध्यायति-किमेतत् ! इति चिन्तयति, तथा 'पिहाइ 'त्ति स्पृहयति-यद्येवंविधं प्रहरणं मम अपि स्यादित्येवं तदभिलषति, स्वस्थानगमनं वाऽभिलषति, अथवा 'पिहाइ 'त्ति अक्षिणी पिधत्ते निमीलयति, 'पिहाइ झियाइ 'त्ति पूर्वोक्तमेव क्रियाद्वयं व्यत्ययेन करोति, अनेन च तस्यातिव्याकुळता उक्ता. 'तहेव 'त्ति यथा ध्यातवान्, तथैव तक्षण एवेत्यर्थः, 'संभग्गमउडविड, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो उत्पात. ६४ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ३ - उदेशक २. 6 " ! वे 'त्ति संभो मुकुटविटपः शेखरकविस्तारो यस्य स तथा 'सालबहत्थाभरणे 'त्ति सह आलम्बेन प्रलम्बेन वर्तन्ते सालम्बानि तानि हस्ताभरणानि यस्य अधोमुखगमनमारसी सालम्बहस्ताभरणः, फक्सागयसे अं पिन 'त्ति भयाऽतिरेकात् कक्षागतखेदमिक मुखयन्, देवानां कि खेदो न भवतीतिदर्शनार्थ 'पत्र' शब्दः, 'सचि वेगण'ति वेगेन समपपतितः कथम् गिति झटिति कृत्या, 'प्रभु'ति शक्तः, 'समत्ये' त्ति संगतप्रयोजनः, * हा हा इत्यादेः संस्कारोऽपम् हा हा! अहो ! हतोऽहमस्मि इति कृत्वा व्यक्तं चैतत् 'अनि या " त्रि, अपिच इति अभ्युचये 'आ' इति वाक्पाउंफारे मुट्टियाएणं ति अतिवेगेन पन्नग्रहणाय यो मुष्टिबन्धने बात उत्पनोसो ' ' मुष्टिपातस्तेन मुष्टिपातेन, केसरगे ति सुसगारपुरे इह संपचे 'ति उद्याने अर्थ वा सान् उपसंपविता में ति एवं प्रकरणतायां वर्तिष्ये इति शेषः , • ' ' ' 6 वीजितवान् इहमागए ति तिर्यग्छोके, इह समोस 'ति ' असे 'ति अथ अस्मिन्नहनि अथवा हे आर्य पापकर्मवहिर्भूत! भूषा, विहरामि वर्ते, माइति नैव भूयः, पकरणयाए इदानि ति इदानीम् (संप्रति इत्यर्थः ) सांप्रतम् इस ' 'ति उपसंपद्य उपसंपन्नो C 6 : आकुळता. " 4 2 , कनुं वज्र. ३. शरीर केवुं छे? तो कहे छे - [ 'घोरं 'ति ] हिंस-क्रूर, एवं कम ? तो कहे छे के, घोर आकारवाळु छे माटे. वळी [ 'भीमं 'ति ] विकराळ होपानी गय उत्पन्न करना, एवं डेम तो कड़े छे के भयंकर करवा के माटे. [मासुरं 'ति ] भाखर, [ भयाणी 'ति ] मयने आजमाई अथवा भय कारणरूप परिवार ( उसका भने अधिना कणियारूप सैन्य) बा [गंभीर 'ति ] विकीर्ण अवयवोवा होवाची गंभीर, 'उसासयं' ति ] संभारवाथी पग उद्वेग पैदा करना, ['महाबोंदि 'ति ] मोटा प्रभाववाळा शरीरने. [ 'अप्फोडेइ 'त्ति ] हाथ पछाडे छे, [ 'पायदद्दरगं ति] जमीन उपर पग पांडे के [ 'उच्छोले 'ति ] आगळना भागमो पाटु मारे छे छे, [[पच्छोलेद 'त्ति ] पाउळा मागमां पाटु मारे - पछडाय छे, [ 'तियई छिंदर' चि] गलनी पेठे रंगभूमि मैदान मां शिपदीनो छेद करे छे, [ 'असवे 'ति ] उचो करे छे, [[ विडंबे 'ति ] मुखने पहोलुं करे छे, [ 'आकडुंते व'त्ति ] जाणे खेचतो न होय, [ 'विउब्भाएमाणे व 'त्ति ] शोभतो अथवा 'आकाशमां परिघ रत्नने' उलाळतो एम संबंध करवो. [ 'इंद्रकीलं 'ति ] दरवाजाना (बे कमाडना ) संधिने राखवानुं स्थान ते इंद्रकील अर्थात् दरवाजो वे कमाड-बंध थतां तेने अटका बनारो जमीन बच्चे खोडलो खीलो. [ 'नहि ते 'त्ति ] तने ( सुख ) नथी ज. [ 'फुलिंगजाला' इत्यादि. ] अभिना तणखाओनी अने जाळोनी हजार माळा-तेवडे आं मां भ्रमने करतुं अने [ ' दिट्ठिपडिघायं 'पि ] आंखने अंजावी नाखतुं आंखनी जोवानी शक्तिनो नाश करतुं [ 'हुअवह ' इत्यादि. अधि करत बधारे तेजयदीप [जइणवेगं 'ति ] बधी वेगवाळी वस्तुमोना बेगने जीतनाएं तथा ['महरमयं 'ति ] मोटा मनुष्योने भीवरावना एवंम तो कड़े के के भयंकर हे माटे. [ 'शिवाई 'त्ति ] आ ? एम चितवे छे तथा [पिहाइ सि ] जो गावी जातनुं हथियार मारी पाये होत तो पाती हा करे छे अथवा पोसाने ठेकाणे जवानी अभिलाषा राखे है, अथवा [पिहाद 'ति ] आंखोने मींची जाय छे, [ 'पिहाइ, झियाइ 'त्ति ] आगळ कहेली बन्ने क्रियाओने पूर्व करतां उलटी रीते करे छे. आ बात कहेवाथी ते चमरनी घणी व्याकुळता जणावा. [स] समये चिंतते स समये. ['संगम' सि जेना मुकुटनुं छोगुं मांगी गधुं छे-से, [ सावहत्याभरणे परसेव.] जेना हाथनां घरेणां सालंब-लटकता - छे ते, तेम थवानुं कारण- ते नीचे मुख राखीने गति करे छे ए छे. [ 'कक्खागयसेअं पिर्वे 'त्ति ] जाणे कामां आवे परवाने न गूरुती होय. [शति वेगेणं ति] वेगपूर्वक पढ्यो, केवी रोते है तो कहे छे के, शीघ्रता. [पशु चि] शक्तिवाको [समत्ये 'ति ] संगत प्रयोजना ['हा हा ] इत्यादिनो संस्कार आहे हा हा! अहो ! हतोऽहम् अस्मि हाय हाय हो । ! 1 हुं मा गयो एम करीने. ए पाटनो अर्थ स्पष्ट छे. ['अवि या 'ति ] [ 'मुडियारणं 'ति ] घणा वेगथी वज्रने ग्रहण करवा माटे गुठि वाळत 5 बींजाय उत्पन्न थएल पवन ते मुष्टिबात तेवडे - [ 'केसग्गे 'त्ति ] केशना आगळना भागोने-वाळनी टोचोने [ ' वीइत्था ' ] वींज्या. [' इहमागए 'त्ति ] अहीं तिर्यग्लोकमां आव्यो, [ 'इह सगोसढे 'त्ति ] आ सुसमार पुरंमां समवसर्यो, [ 'इह संपत्ते 'ति ] आ उद्यानमा आव्यो, [ 'इहेव 'त्ति | आज उद्यानउसे वित्ताणं ति] उपसंपन्न बने. [ 'इदाणिं ति ] हम आ वखते. " " , , T! मां अजे 'चि ] आज दिवसे अथवा हे आर्य पापकर्मरहित पुरुष अथवा हे स्वामिन्! [ [ [' नाइ मुखो 'सि ] वारंवार [ 'पकरणयाए 'त्ति ] एम करवाने वर्ती नहीं यारंवार एम नहीं करूं 6 ' केशामाणि हित्वा 6 इहेरे 'ति इहैवाने 3 २२. प्र० भंते चि भगवं गोयने समणं भगवं महावीरं बंदर, नमसइ एवं पदासीः देवे णं मंते । महिद्दीए, जाव - महाणुभागे पुन्वामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेव अणुपरि महिता णं सिर 2 २२. उ० - हंता, पभू. २३. प्र० --- से केणद्वेणं जाव- गिण्हित्तए ? 6 १. ' त्रस्' धातु ' उद्देग' अर्थवाळो छे. २ आ शब्द, विशेषणना समुचयनो दर्शक छे. आ शब्द वाक्यमां अलंकाररूप छे. ४. देवोने परसेवो नथी होतो. ए वानो दर्शक ए शब्द छे: ' २२. प्र०-हे भगवन् !' एम कही भगवान् गौतमे भ्रमण भगवंत महावीरने बांधा, नमस्कार कर्यो अने ते ओए आ' प्रमाणे कधुं केः - हे भगवन् ! देव मोटी ऋद्धिवाळो छे, मोटी कांतिवाळो छे अने यावत्-मोटा प्रभाववाळो छे के, जेथी ते पूर्वे- पहेलां - ज पुछने फेंकने पछी तेनी पाछळ जइने तेने ग्रहण करना समर्थ छे २२. उ०- गौतम हा देव तेम करवा समर्थ छे. २३. प्र० - हे भगवन् । पहेलां फेंकेल पुद्गलने, देव, पाछ जइने लइ शके छे, तेनुं शुं कारण ? ३. ' अपिच' ए शब्द समुचयदर्शक छे. अने 'आ श्री अभय० १. मूलच्छायाः --गवन् ! इति भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति एवम् अवादीत्ः - देवो भगवन् ! महर्षिकः, यावत्प्रभुतमे अनुपम हुन्, प्रभु वद केला यावद-भ• . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतफ ३.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३. उ०—'गोयमा! पोग्गले णं विक्खिते समाणे पब्वामेव २३. उ०---हे गौतम! ज्यारे पुद्गल फेंकवामां आवे छे त्यारे सिग्धगई भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, देवे णं महिडीए तेनामां शरुआतमा ज शीघ्रगति होय छे अने पछी ते मंदगतिवाळू पुबि पि य, पच्छा वि सीह, सीह गई चेव, तुरिए तुरिअगई चेव, थइ जाय छे. तथा मोटी ऋद्धिवाळो देव तो पहेलो पण अने पछी से तेणटेणं जाव-पभू गेण्हित्तए. पण शीघ्र होय छे, शीघ्र गतिवाळो होय छे, त्वरित होय छे अने त्वरित गतिवाळो होय छे, माटे-ए कारणथी ज यावत्-देव, फेंकेल पुद्गलने पण तेनी पाछळ जइने लइ शके छे. २४. प्र०—जइ णं भंते ! देवे महिडीए, जाव-अणुपरिय- २४. प्र०-हे भगवन् ! जो मोटी ऋद्धिवाळो देव, यावत्हिता णं गेण्हित्तए, कम्हा णं भंते ! सकेणं देविदेण देवरण्णा पाछळ जइने लइ शके छे तो पछी हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज चमरे असुरिंदे असुरराया नो संचाइए साहत्थि गेण्हित्तए ? शक्र, पोताना हाथे असुरेंद्र, असुरराज चमरने पकंडवा केम न समर्थ निवड्यो? २४. उ०-गोयमा! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गइविसए २४. उ०-हे गौतम! असुरकुमार देवोनो नीचे जवानो सीहे सीहे चेव, तुरिए तुरिअगई चेव; उडूं गइविसए अप्पे अप्पे विषय शीत्र, शीत्र तथा त्वरित,त्वरित होय छे अने उंचे जवानो चेव, मंदे मंदे चेव: वेमाणिआणं उड़े गइविसए सीहे सीहे चेव, विषय अल्प, अल्प तथा मंद, मंद होय छे. वैमानिक देवोनो उचे तुरिए तुरिए चेव, अहे गइविसए अप्पे अप्पे चेव, मंदे मंदे चेव- जवानो विषय शीघ्र, शीघ्र तथा त्वरित, त्यरित होय छे अने नीचे जावतियं खेत्तं सके देविंद, देवराया उड़े उप्पयइ एक्केणं समएणं, जवानो विषय अल्प, अल्प तथा मंद, मंद होय छे-एक समयमा तं वजे दोहिं; जं वजे दोहि, तं चमरे तिहिं; सव्वत्थोवे सकस्स देवेंद्र देवराज शक्र, जेटलो भाग उपर जइ शके छे तेटलं ज उपर दविंदस्स देवरण्णो उडलोअकंडए, अहोलोअकंडए संखेज्जगुणे. जवाने वज्रने बे समय लागे छे अने तेटलु ज उपर जनाने चमरने जावातयं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे उवयइ एकेणं त्रण समय लागे छे अर्थात् देवेंद्र देवराज शक्रनु ऊर्ध्वडोककंडकसमयेणं, तं सके दोहिं; जं सके दोहि, तं वजे तीहिं, सव्वत्थोवे उंचे जबाने थतुं काळमान-सौथी थोडुं छे अने अधोलोककंडक चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो अहेलोगकंडए, उडुलोअकंडए तेना करतां संख्येयगणुं छे. एक समयमां अमुरेंद्र असुरराज चमर, संखेज्जगुणे; एवं खलु गोयमा ! सकेणं देविदेणं, देवरण्णा चमरे जेटलो भाग नीचे जइ शके छे तेटलं ज नीचे जवाने शक्रने बे असुरिंदे, असुरराया नो संचाइए साहत्थि गेण्हित्तए. समय लागे छे अने तेटलुं नीचे जयाने वजने त्रण समय लागे छे अर्थात् असुरेंद्र असुरराज चमरनुं अधोलोककंडक सौथी थोडं छे अने ऊर्ध्वलोककंडक तेना करतां संख्येयगणुं छे. हे गौतम! ए कारणने लइने देवेंद्र, देवराज शक्र पोताना हाथे असुरेंद्र, असुरराज चमरने पकडवा समर्थ न निवड्यो. २५. प्र०-सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो उडू, अहे, २५. प्र०—हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज शक्रनो ऊर्ध्वगतिविषय, तिरियं च गइविसयस्स कयरे कयरोहितो अप्पे वा, वहुए वा, तुल्ले अधोगतिविषय अने तिर्यग्गतिविषय; ए बधामा कयो विषय कया वा, विसेसाहिए वा ? विषयथी अल्प छे, बहु छ, सरखो छे के विशेषाधिक छे ? २५. उ०-सव्वत्थोवं खेत्तं सक्के देविंदे, देवराया अहे २५.० हे गौतम! एक समये देवेंद्र, देवराज शक साथी उवयइ एकेणं समएणं, तिरियं संखेज्ने भागे गच्छइ, उ संखेज्जे थोडो भाग नीचे जाय छे, तिरहुँ, ते करतां संख्येय भाग जाय भागे गच्छइ. छे अने उपर पण संख्येय भाग जाय छे. १. मूलच्छायाः-गौतम ! पुद्गलं विक्षिप्तं सत् पूर्वमेव शीघ्रगति भूत्वा ततः पश्चाद् मन्दगति भवति, देवो महर्धिकः पूर्वमपि च, पश्चादपि शीघ्रः शीघ्रगतिव. त्वरितः, स्वरितगतिश्चव, तत् तेनार्धन यावत्-प्रभुग्रहीतुम्. यदि भगवन् ! देवो महाधिकः, यावत्-अनुपयुदर प्रीतुम्, कस्माद् भगवन् ! शकेग देवेन्द्रेण देवराजेन चमरोऽसुरेन्दः, असुरराजो नो शकिनः स्वहस्तेन ग्रहीतुम् ? गौतम ! अमुरकुमाराणां देवानाम् अधोगतिविषयः शीघ्रः शीघ्रः एव, त्वरितः स्वरितगतिश्चैव; ऊर्च गति विषयोऽल्पः, अल्पवैव, मन्दः, मन्दश्चैव; वैमानिकानां देवानाम् उर्व गति विषयः शीघ्रः, शीघ्रश्चैव, त्वरितः त्वरितश्चव; अधोगति विषयः अल्पः अल्पश्चैव मन्दः, मन्दश्चैव--यावत्कं क्षेत्र शको देवेन्द्रः, देवराजः ऊर्ध्वम् उत्पतति एकेन समयेन, तद् वजं द्वाभ्याम् , यद् वजं द्वाभ्यां तत् चमरखिभिः; सर्वत्तोकं शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य ऊर्यलोककाण्डकम्, अधोलोककाण्डक संख्येय गुणम् ; यावत्कं क्षेत्रं चमरोऽसुरे. न्द्रः, असुरराजः अधोऽवपतति एकेन समयेन, तत् शत्रो द्वाभ्याम् ; यत् शक्रो द्वाभ्याम् तद् वर्ग त्रिभिः, सर्वस्तीकं चमरस्य असुरेन्दस्य , असुरराजस्य अधोलोककाण्डकम्, ऊर्च लोककाण्ड कम् संख्येय गुणम् एवं खलु गौतम! शक्रेण देवेन्द्रण, देवराजेन नो चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः शकितो हस्तेन प्रहीतुम, शक्रस्य भगवन् ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य ऊर्ध्वम्, अधः, तिर्यक् च गतिविषयस्य कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा बहुवा, तुल्यो वा, विशेषाऽधिको वा ? सर्वस्तोक क्षेत्र शको देवेन्द्रः, देवराजः अधोऽवपतति एकेम समयन, तिर्यक संख्येयान भागान गच्छति, ऊर्ध्व संख्येयान् भागान गच्छतिः-अनु. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक २. २६.५०-चमरस्स णं भंते । असुरिंदस्स, असररण्णो २६. प्र०-हे भगवन् ! असुरेंद्र, असुरराज चमरनो ऊर्ध्वगतिउडूं, अहे तिरियं च गइविसयस्स' कयरे कयरेहिंतो अप्पे वा, विषय, अधोगतिविषय अने तिर्यग्गतिविषय; ए बधामा कयो विषय बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा ? कया विषयथी अल्प छे, बहु छे, सरखो छे के विशेषाधिक छे? २६. उ०-गोयमा ! सव्वत्यो खेत्तं चमरे असुरिंदे, असुर- २६. उ०-हे गौतम! असुरेंद्र, असुरराज चमर, एक समये राया उर्दू उप्पयइ एकेणं समएणं, तिरियं संखेज्जे भागे गच्छइ, साथी थोडो भाग उपर जाय छे, तिरछु, ते करता संख्येय भाग जाय अहे संखेज्जे भागे गच्छइ. छे अने नीचे पण संख्येय भाग जाय छे. -वजं जहा सकस्स तहेव, नवरं-विसेसाहि अंकायव्वं. –बज्र संबंधी गतिनो विषय शक्रनी पेठे जाणवो. विशेष ए के गतिनो विषय विशेषाधिक करवो. २७. प्र०-सकस्स ण भंते ! देविंदस्स देवरणो उवयण- २७. प्र०-हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज शक्रनो नीचे जघानो कालस्स य, उप्पयणकालस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, काळ अने उपर जवानो काळ; ए बे काळमां कयो काळ कोनाथी बहुआ वा, तुल्ला वा, विसेसाहिआ वा ? थोडो छे, वधारे छे, सरखो छे अने विशेषाधिक छे ? २७. उ-गोयमा ! सव्वत्थोवे सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो २७. उ०--हे गौतम ! देवेंद्र, देवराज शक्रनो उपर जवानो उडु उप्पय काले, उवयणकाले संखेज्जगुणे. _____ काळ सौथी थोडो छे अने नीचे जवानो काळ संख्येयगुण छे. --चमरस्स वि जहा सकस्स, नवरं-सव्वत्थोवे उवयणकाले, -चमर संबधे पण शक्रनी पेठे जाणवू. विशेष ए के, तेनो उप्पयणकाले संखजगणे. नीचे जवानो काळ सौथी थोडो छे अने उपर जवानो काळ संख्येयगुण छे. २८. प्र०-वजस्स पुच्छा ? २८.प्र०-भगवन् ! वज्रना ए बन्ने काळमां कयो काळ थोडो छे, वधारे छे, सरखो छे अने विशेषाधिक छे? २८. उ०- गोयमा ! सव्वत्थोवे उप्पयणकाले, उवयणकाले २८. उ०—हे गौतम! वज्रनो उंचे जवानो काळ सौथी विसेसाहिए. थोडो हे अने नीचे जवानो काळ विशेषाधिक छे. २९. प्र०-एयस्स णं भंते ! वजस्स, वज्जाहिवहस्स, चम- २९. प्र०-हे भगवन् ! ए वज्र, वज्राविपति-इंद्र-अने असुरेंद्र रस्स य, असरिंदस्स असुररण्णो उवयणकालस्स य, उप्पयणका- असुरराज चमर; ए बधानो नीचे जवानो काळ अने उंचे जवानो लस्सं य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुआ वा, तुल्ला वा विसे- काळ; ए बेमां कयो कोनाथी अत्य छे, वधारे छे, सरखो छे के साहिआ वा ? विशेषाधिक छे! २९. उ०-गोयमा ! सक्कस्स य उप्पयणकाले, चमरस्स य २९. उ०-हे गौतम! शक्रनो उपर जवानो काळ अने उवयणकाले, एए णं दोणि वि तुल्ला सव्वत्थोवा; सक्कस्स य चमरनो नीचे जवानो काळ, ए. बन्ने सरखा छे अने सौथी थोडा छे. उवयणका ले, वज्जरस य उप्पयणकाले एस णं दोण्ह वि तल्ले शक्रनो नीचे जवानो काळ अने वज्रनो उपर जबानो काळ, ए संखेज्जगुणे; चमरस्स य उप्पयणकाले, वजस्स य उवयणकाले बन्ने सरखा छे अने संख्येयगणा छे. चमरनो उंचे जवानो काळ एस दोण्ह वि तुल्ले विसेसाहिए. अने वजनो नीचे जवानो काळ, ९ बन्ने सरखा अने विशेषाधिक छे. ४. इह लेष्ट्वादिकं पुद्गलं क्षिप्त गच्छन्तं क्षेपकमनुष्यस्तावद् ग्रहीतुं न शक्नोतीति दृश्यते, देवस्तु किं शक्नोति ? येन शक्रेण वनं क्षिप्त संहृतं च, तथा वज्रं चेद् गृहीतम् , चमरः कस्मान्न गृहीतः? इत्यभिप्रायतः प्रस्तावनोपेतं प्रश्नोत्तरमाह-'भंते' इत्यादि. 'सीहे' ति शीघ्रो वेगवान् , स च शीघ्रगमनशक्तिमात्रापेक्षयाऽपि स्यात् अत आह-'सहिगई चेव' त्ति शीघ्रगतिरेव-नाऽशीघ्रगतिरपि, एवंभूतश्च कायापेक्षयाऽपि स्यात् , अत आह-'तुरिय 'त्ति त्वरित:.-त्वरावान् , स च गतेरन्यत्राऽपि स्यात् , इत्यत आह-तुरिअगइ 'त्ति स्वरितगतिः, मानसौत्सुक्यप्र १. मूलच्छाया:-चमरस्य भगवन् ! असुरेन्द्रस्य, असुरराजस्य ऊर्ध्वम् , अधा, तिर्यक् च गति विषयः कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा, बहुको वा तुल्यो धा, विशेषाऽधिको वा? भातम ! सर्वस्तोकं क्षेत्रं चमरोऽसुरेन्द्रः, असुरराज ऊर्ध्वम् उत्पतति एकेन समयेन, तिर्यक् संख्येयान् भागान् गच्छति, अधः संख्येयम् भागान् गच्छति. वनं यथा शकस्य तथैव, नवरम्-विशेषाऽधिकं कर्तव्यम्. शक्रस्य भगवन् ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य अवपतनकालस्य च, उत्पसनकालस्य च कतरे कतरेभ्योऽल्या वा, बहुका वा, तुल्या वा, विशेषाधिका वा गौतम ! सर्वरतोकः शक्रस्य देवेन्द्रस्य. देवराजस्य ऊर्ध्वम् उत्पतनकालः, अवपतनकालः संख्येयगुणः, चमरस्याऽपि-यथा शक्रस्य, नवरम्-सर्वस्तोकोऽवपतनकालः, उत्पतनकालः संख्येयगुणः, ञस्य पृच्छा, गीतम! सस्तोकः उत्पतनकालः, शवपतनकालो विशेषाधिका. एतत्य भगवन्! वज्रस्य, वज्राऽधिपस्य, चमरस्य च असुरेन्द्र स्य, असुरराजस्य अवपतनकालस्य च, उत्पतनका. लस्य च कतरे कतरेभ्योऽल्या वा, बहुका वा, तुल्या वा, विशेषाऽधिका वा ? गौतम ! शक्रस्य च उत्पतनकालः, चमरस्य च अवपतनकालः, एता द्वा अपि तुल्या सवेस्तोका; शत्रस्य च अवपतनकालः, वज्रस्य च उत्पतनकाल: एता दैा अपि तुल्या संख्येयगुणा; चमरस्य च उत्पतनकालः बज्रस्य च अवपतनकाल एता है अपि तुल्या विशेषाधिकौ:-अनु० Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतुधर्मस्वामिप्रणीत भगपतीतून. ६७ शतक ३. - उद्देशक २. " वर्तितवेगवद्गतिरिति, एकार्था चैते शब्दा:. 'संचाइए 'ति शक्ति: ' साहत्थिं 'ति स्वहस्तेन. ' गइविसए 'त्ति इह यद्यपि गतिगोचरभूतं क्षेत्र गतिविषयशब्देनोच्यते, तथापि गतिरेव इह गृह्यते, शीघ्रादिविशेषणानां क्षेत्रेऽयुज्यमानत्वाद् इति 'सीहे' त्ति शीघ्रो वेगवान्, स चाऽनैकान्तिकोऽपि स्यात्, अत आह- 'सीहे चेव' त्ति शीघ्र एव एतदेव प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय पर्यायान्तरेणाह - त्वरितः 'वरितश्चेति. 'अति अतिशयेन अश्वोऽतिस्तोक इत्यर्थः मंदे गंदे चैव ति असन्तमन्दः एतेन च देवानां गतिस्वरूपमात्रमुक्तम्, एतस्मिंथ गतिस्वरूपे सति शक्र पण चमराणामेकमाने ऊदो क्षेत्रे गन्तव्ये यः काउमेदो भवति तं प्रत्येकं दर्शयन्नाह' जाइय इत्यादि. अथेन्द्रस्य ऊर्ध्वा ऽधः क्षेत्र गमने कालभेदमाह - ' सव्वत्थोवे सक्कस्त' इत्यादि. सर्वस्तोकं स्वल्पम्, शक्रस्य ऊर्ध्वलोकगमने कण्डकं कालखण्डम्-ऊर्ध्वलोककण्डकम् ऊर्व्वलोकगमनेऽतिशीघ्रत्वात् तस्य अधोलोकगमने कण्डकं कालखण्डम् अधोलोककण्डकं संख्यातगुणम्-ऊर्ध्वलोककण्डकापेक्षया द्विगुणमित्यर्थः, अधोलोकगमने शक्रस्य मन्दगतित्वाद्, द्विगुणत्वं च ' सक्कस्स उप्पयणकाले, चमरस्स य उवयणकाले एए णं दोणि वि तु तथा जावतियं से चमरे असुरिंदे असुरराया आहे उपयह इसे समयेणं तं सके दोहिति इक्केगं वक्ष्यमाणवचनद्वयसामर्थ्यात् लभ्यमिति 'जावइयं ' इत्यादिसूत्रद्वयमधः क्षेत्रापेक्षं पूर्ववद् व्याख्येयम् ' एवं खलु ' इत्यादि च निममदम् . अथ शक्रादीनां प्रत्येकं गतिक्षेत्रस्य अल्प बहुपदर्शनाय सूत्रत्रयमाह सकस्स इत्यादि सत्र ऊयम् अधः, तिर्यक् च यो गतिविषयः गतिविषयभूतं क्षेत्रमनेकविधम् तस्य मध्ये कतरो गतिविषयः कतरस्माद् गतिविषवात् सकाशात् अल्यादिरिति प्रश्नः. उत्तरं तु सर्वस्तोकमधः क्षेत्रम् समयेनावपतति - अधोमन्दगतित्वात् शक्रस्य. ' तिरियं संखेज्जे भागे गच्छइ ' त्ति कल्पनयां किल एकेन समयेन योजनमथो गच्छति शक्रः, तत्र च योजने द्विधाते ही भागा भवतः, तयोश्चैकस्मिन् विभागे मीलिते त्रयःसंख्येया भागा द्वौ भवन्ति, अतस्तान् तिर्यग् गच्छति - सार्धं योजनमित्यर्थः - तिर्यग्गतौ तस्य शीघ्रगतित्वात्. 'उडुं संखेज्जे भागे गच्छइ 'त्ति यान् किल कल्पनया श्रीन् द्विभागांस्तिर्यग् गच्छति तेषु चतुर्थेऽप्यस्मिन् द्विभागे मीलिते चत्वारो द्विभागरूपाः संख्शतभागाः संभवन्ति, अतस्तान् ' ' " गच्छति " د अपेक्षाए 7 3 , " 4 , 6 ४. ' कोइ पुरुष ढेफुं के दडा वगेरेने फेंकी, पछी ते जता ढेफा के दडानी पाछळ जइ, तेने पकडी शकतो नथी 'ए प्रमाणे जगतमां देखाय छे अर्थात् ए रीते मनुष्योमां देखाय छे. तो शुं देवमां पाए ज रीत छे ? के शुं देव, फेंकेल वस्तुने, तेनी पाछळ जइ पकडी शके छे? जेथी शक्र इंद्रे फेंकेला वज्रनी पाछळ जइ तेने पकडी लीधुं तथा जो इंद्र वजनुं ग्रहण करवा समर्थ हतो तो, तेणे चरने शामाटे न पकड्यो ? ए अभिप्रायथी प्रस्तावनावाळु प्रश्न अने उत्तर सूत्र कड़े छे -[ 'भंते!-' इज्यादि. ] [ 'सीहे 'ति ] वेगवाळो' कोइ वेगवाळो एवो पण होय के जेनामां मात्र सत्ता तरीके शीन गमनशक्ति न होय, माटे कड़े छेके, [[" सोइगई चेति ] ए शोत्र गालो न छे, पन अशीगतिवाळो नयी. कोइ शीघ्र गतियाळ शरीरनी अपेशा पत्र होव माटे कहे छे के, [तुरिति ] बालो को स्ववाळो गति सिहाय बीजे ठेकाणे पण होव माटे कड़े छे के, [ 'तुरिअगइ 'त्ति ] त्वरावाळी गतिवाळो - मानसिक उत्सुकतापूर्वक प्रवर्तली वेगवाळी गतिवाळो - ए बधा शब्दो सरखा अर्थवाळा छे. [ 'संचाइए ' ति] समय भयो, [+ साइरिथं 'ति ) पोताने हावे. [गइसिए 'ति) जो के आ स्थळे 'गतिविषय' ए शब्दनो अर्थ 'गतिनुं क्षेम भाव है तो पन 'गतिनुं क्षेत्र एवो अर्थ करतां शीघ्र स्खरित' वगेरे विशेषणनां यह जाय छे, कारण के ए विशेषणो गतिना क्षेत्रने लागी शकत नथी, माटे ए विशेष सफळ धाय ते सारु गतिविषय शब्दनो अर्थ गति करवो अने एम अर्थ करवाथी ए वर्षा विशेषणो गति ने सारी गति रीते लागी शके छे. [ 'सीहे 'त्ति ] वेगवाळो, कोइनुं वेगवाळापणुं अनिर्णीत पण होय माटे कहे छे के, [, 'सीहे चेव 'त्ति ] वेगवाळो जं छे. ए ज वातने प्रक्रर्मपूर्वक कहेवा माटे बीजी रीते कहे छे, के ते त्वरित छे-त्वरावाळो छे. [ 'अप्पे अप्पे चैव 'त्ति ] घणो थोडो छे. [मंदे मंदे 'व' त्ति ] घणो जमंद. ए सूत्रथी मात्र देवोनी गतिओनुं स्वरूप कयुं. हवे ज्यारे देवोनी गतिओनुं स्वरूप आयुं छे त्यारे एक सरखा मापवाळा उंचा, नीचा, के तिरछा क्षेत्र तरफ जतां शक्र, वज्र अने चमरने जे जूदो जूदो काळ लागे छे ते प्रत्येक काळने दर्शावतां कहे छे के [ 'जावईओ' इत्यादि. ] शक्र बज्र अने वे इंद्रने उंचे अन नीचे क्षेत्र जतां जे जूदो जूदो काळ लागे छे तेने कहे छे - [ ' सव्वत्थोवे सक्करस ' इत्यादि. ] शक्रने उंचे जतां सौथी थोडो काळ लागे छे, कारण के ते उंचे जवामां अतिशीघ्र होय छे. ' ऊर्ध्वलोककंडक ' शब्दनो अर्थ आ छेः ऊर्ध्वलोक एटले उपरनुं क्षेत्र अने 'कंडक' एटले वखतनो भाग. शक्रनुं अधोलोककंडक, संख्यातगणुं छे - ऊर्ध्वलोककंडक करतां बमणुं छे. कारण के नीचाणवाळा क्षेत्र तरफ जतां शक्रनी मंद गति होय. 'शको डंबे जवानो काळ अने चमरमो नीचे जवानो काळ ए बन्ने सरखा तथा एक समय असुरेंद्र, असुरराज चमर नीचे जाय छे तेटलं ज नीचे जवाने शकने वे समय लागे छे ? ए बात आगळ कहेबानी घे अने ए बात उपरथी ज आगळ कहेलं बमणापणुं लब्ध थाय छे. [' नावइअं ' इत्यादि . ] ए वे सूत्र अधःक्षेत्रनी अपेक्षाए छे अने तेनी व्याख्या पूर्वनी पेठे करवी. [ ' एवं खलु ' इत्यादि. ] ए निगमनसूत्र छे. हवे शक्रादिकमांना एक एकनी गतिक्षेत्र संबंधी अल्लबहुता दर्शाववा त्रण सूत्र कहे छे -[ 'सक्कत्स' इत्यादि. ] ते. सूत्रमां आ बात छे-उंचे, नीचे अने तिरछे जे गतिनो विषय-गतिनुं क्षेत्र- छे ते अनेक प्रकारनो छे तो तेमां कया गतिविषय करतां कयो गतिविषय अल्प वगेरे छे ? ए प्रश्न छे. उत्तर तो आछेशक, एक सम सीधी थोडं क्षेत्र नीचे जाये छे, कारण के तेती गति, नीचे जवानां मंद छे. [' तिरिने संखेजे भांगे गच्छद 'चि ] आपने कल्पना करीए के, शक्र, एक समय एक योजन नीचे जाय छे. ते योजनना भाग करवाथी तेना बे भाग थाय छे अने ते वे भागमां एक द्विभाग ( पाडेल भाग जेटलो बीजो भाग) मेळाची संख्येष भाग थाय छे अने शक, एटलं तिरछे जांय हे अर्थात् शक्र दो योजन तिरछे जाय - कारण के जिवामां ते शीघ्र गतिवाळो छे. [ 'उनुं संखेजे भाग गच्छइ 'त्ति ] पूर्वनी कल्पना प्रमाणे जे ऋण द्विभागो जेटलं क्षेत्र तिरछे जाय छे ते प्राण हियागोमा एक चोथो विभाग मेवपाभी चार विभागरूप संख्यातभाग संभव छ भने तेरा भागो जेट मे योजन) क्षेत्र उपर जाय है. चमरनी गतिने समय. , 6 " फेंक्या पछी पा जइने पकडी शकाय. / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान. तकवा राता समाज ६८ औरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक २. ५. अथ कथं सूत्रे संख्यातभागमात्रग्रहणे सति इदं नियतभागव्याख्यानं क्रियते ? उच्यते, जावइ खेत्तं. चमरे असरदे. असुरराया अहे उवयइ एक्कणं समएणं, तं सके दोहिं ' तथा 'सकस्स उप्पयणकाले, चमरस्स य उवयणकाले, ते दोणि वि तल्ला... इति वचनतो निश्चीयते-शको यावदधो द्वाभ्यां समयाभ्यां गच्छति, तावद् ऊर्वमेकेन-इति द्विगुणमधःक्षेत्राद्-ऊर्यक्षेत्रम् , एतयोश्चापान्तराल. वर्ति तिर्यकक्षेत्रम् , अतोऽपान्तरालप्रमाणेनैव तेन भवितव्यमिति अधःक्षेत्रापेक्षया तिर्यक्षेत्रं सार्धं योजनं भवतीति व्याख्यातम् . आह च चूर्णिकार:-"ऍगेणं समएणं उपयइ अहे णं जोयणं, एगेणेव समयणं तिरियं दिवडूं गच्छइ, उई दो जोयणाणि सको"त्ति 'चमरस्स णं इत्यादि. 'सव्वत्थो खत्तं चमरे असुरिदे असुरराया उर्छ उप्पयइ एगेणं समएणं' ति ऊर्ध्वगतौ मन्दगतित्वात् तस्य, तच्च किल कल्पनया त्रिभागन्यूनं गव्यूतत्रयम् . 'तिरियं संखेज्जे भागे' त्ति तस्मिन्नेव पूर्वोक्ते त्रिभागन्यूने गव्यूतत्रये द्विगणिते ये योजनस्य संध्ययभागा भवन्ति, तान् गच्छति, तिर्यग्गती शीघ्रतरगतित्वात् तस्य. 'अहे संखेजे भागे गच्छइ 'त्ति पूक्ति विभागद्वयन्यने गव्यूतषटके त्रिभागन्यूनगव्यूतत्रये मीलिते ये संख्येयभागा भवन्ति, तान् गच्छति-योजनद्वय मिल्यर्थः. अथ कथं संख्यातभागमात्रोपादाने नियतसंख्येयभागत्वं व्याख्यायते ? उच्यते, शक्रस्योधगतेश्चमरस्य चाधोगतेः समत्वमुक्तम् , शक्रस्य चोर्ध्वगमनं समयेन योजनद्वयरूप कल्पितम् , अतश्चमरस्याधोगमनं समयेन योजनद्वयमुक्तम् , तथा 'जावइ सक्के देविंदे देवराया उर्छ उप्पयइ एगणं समएणं तं वज दाहिजं बज दोहिं तं चमरे तिहिं ' इति वचनसामर्थ्यात् प्रतीयते-शक्रस्य यदूध गतिक्षेत्र तरय त्रिभागमात्ररूपं चमरस्य ऊर्चगतिक्षत्रम् , अतो व्याख्यातं त्रिभागन्यून त्रिगव्यूतमान तदिति. ऊम्वक्षेत्र-अधोगतिक्षेत्रयोश्च अपान्तरालयात तिर्थक् क्षेत्रमिति कृत्वा त्रिभागद्वयन्य नपदव्यतमानं तद व्याख्यातमिति. यच्च चूर्णिकारेण उक्तम् "चमरो उडूं जोयणं" इत्यादि. तन्न अवगतम् , 'वज्ज जहा सकस्स तहेव, त्ति वज्रमाश्रित्य गतिविषयस्याल्पबहुत्वं वाच्य यथा शकस्य तथैव. शेपद्योतनाथं त्याह-'नवरं विसेसाहि अं कायचं "ति तचैवम् जस्स णमंते! उड, अहे, तिरियं च गइसियस्स कयरे कयरेहितो अपा वा, बहु आ वा, तुल्ला बा, विसेसाहिआ वा? गोयमा। सम्वत्थोवं खेत्तं बजे अहे उक्यइ एकेणं समएणं, तिरियं विसेसाहिए भागे गच्छइ, उडु विसे साहिए भागे गच्छइ” इति. वाचनान्तरे तु एतत् साक्षादेवोक्तमिति, ५. शं०-समांतो मात्रा संख्यात भाग' एकुंज लख्यु छे, पण कांइ नियमित काळ देखाइयो नथी तो पण पूर्व प्रमाणे काळनी जे नियतता देखाडी छे ते केवीरीत? समा०-'असुरंद्र असुरराज चमर, एक समये जेटलुं क्षेत्र नीचे जाय छे, तेटलुंज नीचे जवामां शक्रन वे समय लागे छे' तथा शक्रनो उपर जबानो काळ अने चमरनो नोचे जवानो कार, ए बन्ने सरखा छे' ए वचनथी निश्चित थाय छे के-शक्र, जेटलं नीचे वे समये जाय छ तेटलं ज उंचे एक समय जाय छे अर्थात् नीचेना क्षेत्र करतां उचेनुं क्षेत्र बमणु छ अने उचेना तथा नीचेना क्षेत्रनी बचगाळ तिरछ क्षेत्र के माटे तेनं प्रमाण वचगाळा प्रमाणे ज हो जोइए अने एम छ माटे नीचेना क्षेत्रनी अपेक्षाए तिरछु क्षेत्र दोढ योजन थाय छ एम व्याख्या करी छे. चेर्णिकारे का छे चूर्णिकार. के. "शक्र, एक समये नीचे एक योजन जाय छ तिरछु दोढ योजन जाय छे, अने उंचे ये योजन जाय छे."['चाररसणं' इत्यादि. 1 असरेंद्र असरराज चमर, एक समये सौथी थोडं क्षेत्र उपर जाय छे. कारण के उंचे जवामा तेनी मंद गति छे. ते क्षेत्र, कल्पना प्रमाणे विभागन्यून त्रण गाउ संभव तिरियं संखेजे भागे ति ] आगळ कहेल त्रिभागन्यून त्रण गाउ जेटला क्षेत्रने बमणुं करवाथी योजनना जे संख्येयभागो आवे तेटलं विभागययन छ गाउ क्षेत्र तिरछे जाय छे. कारण के तिरछे जवामां चमरनी शीघ्रतर गति छे. [ 'अहे संखज्जे भागे गच्छइ' त्ति आगळ कडेल विभागद्यन्यून छ गाउमा, त्रिभागन्यून त्रण गाउ मेळ्ववाथी जे संख्येय भागो आवे छे तेटलं-वे योजन-क्षेत्र नीचे जाय छे. शं०-सूत्रमा तो मात्र संख्यातभाग' एवं जलस्यु छे, पण काइ नियमित काळ देखाइयो नथी तो पण पूर्व प्रमाणे काळनी ज नियतता देखाडी छे ते केवी रीत ? समा-. की ऊर्ध्वगतिनी अने चमरनी अघोगतिनी सरखाइ कही छे. बळी शकर्नु ऊर्ध्वगमन एक समये ये योजन जेटलुं कलूप्युं छे त्यारे चमरन अधोगमन पण एक समये ये योजन जेटलं ज कहेQ ए उचित छ. तथा 'देवेंद्र, देवराज शक्र, एक समये जेटलु उपर जाय छे, तेटलं ज उपर जवाने वज्रने बे समय अने चमरने त्रण समय लागे छे' ए वचनथी जाणी शकाय छे के शक- जेटलुं ऊर्ध्वगतिक्षेत्र छे तेना विभाग जेटलुं चमरनु ऊर्ध्वगतिक्षेत्र छ अने एम माटे पूर्व प्रमाणे नियततावाळी ('विभागन्यून त्रण गाउ' एटलुं ऊर्ध्वगति क्षेत्र छे एवी) हकीकत कही छे. ऊर्ध्वक्षेत्र अने अधक्षेत्रनी वचगाळानु तिर्यक् क्षेत्र छ माटे तेनुं प्रमाण विभागद्वयन्यून छ गाउ क युं छे. आ स्थळे चूर्णिकारे जे कयुं छे “ चमर, उंचे एक योजन" इत्यादि. समजात नथी. ते अवगत थतुं नथी-ते समजातुं नथी. [ 'वज्जं जहा सक्कस्स तवे त्ति ] जेम शक संबंधे गतिविषयनी अल्पबहुता कही छे तेम वज्रने आश्रीने ---- - -- ---- - -. - . १. प्र. छायाः-यावत्कं क्षेत्रं चमरः, असुरेन्द्रः, असुरराजोऽधोऽवपतति एकेन समयेन, तत् शक्रो द्वाभ्याम् . २. शक्रस्य उत्पतनकालः, चमरस्य चाऽवपतनकालः, तो द्वावपि तुल्या. ३. एतद्विषयश्चर्णिगतः पाठ एवंरूपेण दृश्यते:-" उवरि गति यथाः-एगेण समएण सक्को, दोहि वज, तिहिं चमरी न खेतं कम्नतिः सिध्ध-मंद-मंदतरजोयणगमणं दिवसपुरिस इव (2) अहे एगेण समएण चमरो, दोहि सको, तिहिं वर्ण; तहेव मंदग (त) मनवत् . (?) सट्राणपरिहाणे अप्प-बहु भाणियब्ध. कडगं कालो, खेत्तं पडुच सहाणे अप्प-बहुमग्मणा भिन्नकालो, उहूं, अहे, तिरिय एगेणं समएण उपतति औ जोयणे, तंणेव समएण तिरिया दिवढू गच्छति, उड़े दो जोयणाणि सक्को. चमरो उ९ जोयणं, तिरिय दिवढं, अहे दो जोयणाणि. वज्जम वि अहे जोयणं निरिय दिव इदं विसेसा य अप-बहु एत्थ पाडेजा. जहा वा समया सक्कादीगं तहा वा वुड्ढी-हाणिहि तहेव खेतं पि.” ४, एकेन समयेन अवपतति अधो योजनम . एक व समयेन तिर्यग द्वय छति, अध्यम् द्वे योजने शक्र इति. ५. यावत्कं शक्रः, देवेन्द्रः, देवराज ऊध्वम् उत्पतति एकेन समयेन बचो द्वाभ्याम् , यद् वनो द्वाभ्यां तत् चमर त्रिभिः. ६.६ज्रस्य भगवन् ! ऊचम् , अधः, तिर्यक् च गतिविषयस्य कतरः कतरेभ्योऽल्पा वा, बहुका वल्याबा, विशेषाधिका वा गीतमा सर्वलोक क्षेत्र बञम् अधोऽवपतति एकन समयेन, निर्मग विशेषाधिकानूभागानु मच्छति, ऊ विशेषाधिकान भाविकाश पाउस बगायो बहुमजोयणं, तिरिय दिवस पि." ४, एकेन एकेन समयेन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्षक ३. उद्देशक २: भगवत्सुध मेंस्वामिनीत भगवती सूत्र, जयगतिविपयनी असबहुला कड़वी. बाकी रहेल वःतने अंगावया कहे छे के नवरं विससाहिरं कायव्वं तिते जा प्रमाणे:- । यसपण मी भी उहे, तिरियं गतिमयत करो कपाहि नो बना वा, बहुभा या, तुला या, विलसाहिआ वा ? गोयमा ! सन्यत्यो खत बजे अह उपयह एकेगं समरग, तिरियं विससाहिए भागे गच्छड, उर्ल्ड विसेसाहिए भाग गच्छद ति' अर्थात् 'हे भगवन् ! वजनो ऊर्ध्वगतिविषय, अधोगतिविषय अने तिम्गनिविषयः ए मां कयो कोनाथी अल्प छ, वधारे छ, तुल्य छ अनं सुरखो छे ? हे गौतम ! वज्र एक समय साथी थोडं क्षेत्र नीचे जाय छे, तिरछे वंशयाविक भागो जाय के अने उंने पग विशमायिक भागो जाय छे' बीवी वाचनामां तो आ पाउ मूळ ज लख्यो छे. बीजी वाचना ६. अस्यायमर्थः-स्तो क्षेत्र बनमधो ब्रजति एवेन समरेन, अधोमन्दगतित्यात् तस्य, तच्च विल कल्पनया त्रिभागन्यूनं योज विशेषाधिको भागो गच्छते, शंत्रतरगतित्वात् , तौ च किल योजनस्य द्वी भागो विशेषाधिकी-सत्रिभागं गन्यूनत्रयमित्यर्थः. तथा ऊर्य विशेषाधिको भागी गच्छति, या किल तिर्यग विशेषाधिको भानो गच्छति, तापबोर्ध्वगतो किश्चिद विशेषाधिकौ, ऊर्ध्वगतौ शीनतमगनित्वात्-परिपूर्ण योजननियर्थ:. अथ कथं सामान्यतो विशेषाधिकत्येऽभिहिते नियतभागत्वं व्याख्यायते? उच्यते, "जाबइअं चमरे असरिंदे असरराया अहे उबयइ एकेणं समयेणं तावइसके दो, तं बजे ताहिं" इतिवचनतामात् मकाधे गत्यपेक्षया वज्रस्य त्रिभागन्यूना अधोगतिलब्धा इति त्रिभागन्युनं योजनमिति सा व्याख्याता. तथा "सकस्स उवयणकाले, बजरस य उप्पयणकाले, एस णं दोषणवि तल्ले" इति वचनादवसीपते-यावदेकेन समयेन शकऽधोगति, तावद् वनमूर्ध्व , शवाश्चै फेनावः किल योजनम् , एवं वजमर्थ योजनमिति कृत्वा उर्व योजनं तस्योक्तम् . ऊर्जा-उधोगत्याथ तिम्गतरपान्तरालयातत्वात् तदपान्तरालवयैव सत्रिभागगव्यतत्रयलक्षणं तिर्यग्गतिप्रमाणमुक्तमिति, अनन्तर गतिविषयस्य क्षेत्रस्याल्प--बहुत्वमुक्तम् , अथ गतिकालस्य तदाह-'सकालणं' इत्यादि सूत्रत्रयम् . शक्रादीनां गतिकालस्य प्रत्येकाल्प-बहुत्वमुक्तम् , अथ परस्परापेक्षया तदाह-'एयस्स णं भन्ते! वजस्त' इत्यादि. 'एए णं दोनि वि तलु' ति शक्र-चमरयोः स्वस्थाननमनं प्रति वेगस्य समत्वाद् उत्पतनावपतन कालौ तयोः तुल्यो परस्परेण 'सव्यत्यावत्ति वक्ष्यमाणापेक्षया इति. तथा 'सकस' इत्यादी 'एस णं दोण्ह वि तुल्ले' ति उभयोरपि तुल्यः-शक्रावपतनकालः बजोत्पातकालस्य तुल्यः, वज्रोत्पातकालश्च शक्रावरतनकालत्य तुल्य इत्यर्थः, 'संखजगुणे'त्ति शक्रोत्पात-चमरावपातकालापेक्षया, एवमनन्तरसमभावनीयम्, ६. उपरनी वातनुं तात्पर्य आ छेः-- बन, एक समये नीचे थोडं क्षेत्र जाय छे, कारण के नीचे जयामां ते मंद गतिवानं छे. वज्रनं अधोगमनन क्षेत्र कल्पना प्रमाणे त्रिभागन्यून योजन थाय छे. ते वज्र, तिरछु विशेषाधिक वे भाग जाय छे. कारण के ते, तिरछु जवामां शीघ्रतर गतिबालं छ. विशेषाधिक बे भाग एटले योजनना विशेषाधिक वे विभाग-त्रिभागसहित प्रण गाउ. तथा ते वज्र, उंचे पण विशेषाधिक बे भाग जाय छे. विशेषाधिक वे भाग एटले जे वे विशेषाधिक भाग तिरछा क्षेत्रमा कह्या छे ते वे गागने ज कांइक विशेषाधिक समजवा-बज्र, उंचे एक योजन जाय छे. कारण के वज्र उंचे जवामां शीश्रतम गतिवाळु छे. शं०- मूळ सूत्रमा तो सामान्यपणे विशेषाधिकता कही छे, तेथी अहीं नियततावाळी विशेषाधिकता केवी रीते जाणवी? समा०-' एक समये असुरेंद्र, असुरराज चमर, जेटलुं नीचे जाय छे, तेटलुंज नीचे जवामां समाधान, इंद्रने बे समय अने वजने प्रण समय लागे छे' ए वात कहेवाथी शक्रना अधोगमननी अपेक्षाए वज्रनी अधोगति त्रिभागन्यून छ माटे ते त्रिभागन्यून योजन कही छे. तथा शिक्नो नीचे जवानो काळ अने वजनो उपर जवानो काळ, ए बन्ने तुल्य छे' ए वचनथी जणाय छे के, एक समये शक्र, जेटलुं नीचे जाय छे तेटलुंज वज्र, एक समये उपर जाय छे. शक्र, एक समये नीचे एक योजन जाय छे अने वज्र, एक ममये उपर एक योजन जाय छे माटे वजनी ऊर्ध्वगति एक योजन कही छे. ऊर्ध्वगति अने अधोगतिनी वचनाळे तिर्यग्गति रहेती होवाथी तेनुं प्रमाण पण वचगाळे रहेनार ज होवू जोइए माटे ज तेनुं प्रमाण त्रिभागसहित त्रण गाउ जेटलुं कयुं छे.' हमणां गतिविषयक क्षेत्रनी अल्पबहुता कही, अने हवे गतिना काळनी अल्पबहुता कहे छे:--[ ' सक्कस णं' इत्यादि.] ए संबंधे ए जण सूत्रो छे. शक्र वगेरेना प्रत्येकना गतिकाळनी अल्पवहुता कही, हवे परस्परनी अपेक्षाए ए यातने कहे छे:-[ 'एअस्स गं भंते ! वजस्स' इत्यादि.] [ 'एए ण दोनि वितुल्ल 'त्ति शक्र पर गतिमान १. इंद्र वगेरेनी गतिने लगतो कोठो आ प्रमाणे छ: समय. (जवानो काळ) ऊवं. तिर्यक्. अधः. आठ कोश. कोश. (दोढ योजन) चार कोश. (एक योजन) त्रिभागन्यून त्रण कोश. त्रिभागद्यन्यून छ कोश. (दोड योजन) आठ कोश. (बे योजन) चार कोश. (एक योजन) त्रिभागसहित त्रण कोश. ग्रिभागन्यून चार कोश. (एक योजन) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .७० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३. उद्देशकः २. अने चमरने पोताने स्थाने जवानो वेग सरखो होवाथी (अनुक्रमे) तेनो उंचे जवानो अने नीचे जवानो काळ, परस्परपणे सरखो को छे. [ 'सव्वत्थोव.' त्ति ] ए वातनो संबंध हबे पछी छे. तथा [ 'सक्कारस' ] इत्यादि सूत्रमा [एस दोण्ह वि तुझे 'त्ति] बन्नेनो सरखो छे. अर्थात् शक्रनो नीचे जवानो काळ, वज्रना उंचे जवाना काळनी सरखो छे अने वज्रनो उंचे जवानो काळ, शक्रना नीचे जवाना काटनी सरखो छे. [संखेन प्रमाणे. जागुणे 'त्ति ] शक्रना उंचे जवाना समयनी अने चमरना नीचे जबाना समयनी अपेक्षाए संख्येयगुण छ. ए ज प्रमाणे आगळना सूत्र संबंधे पण विचारवं. . तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया वज्जभयविप्पमुके, सकेणं हवे, वजना भयथी मुक्त थएलो, देवेंद्र, देवराज शक द्वारा देविंदेणं, देयरण्णा महया अवमाणेणं अवमागिए 'समाणे चमरचं- मोटा अपमानथी अपमानित थएलो, हणाएल मानसिक संकल्पबाळो, चाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरसि सीहासणं से ओहयम- चिंता अने शोकरूप दरियामां पेटेलो, मुखने हथेळी उपर टेकवी णसंकर्ष चितासांअसागरसंपविट्टे, करयलपल्हत्यमुहे अट्टज्झाणा- रखनार, आतथ्य.नने पामेलो अने नीचे मांडल नजरवाळो ते वगए भूमिगयाए दिट्टीए झियाति, तए णं चमरं असुरिंदं, असुरेंद्र, असुररान चमर, चमरचंचा नामनी राजधानीमा सुधर्मा असुररायं सामाणिअपरिसोववनया देवा ओहयमणसंकप्पं जाय- सभामां, चमर नामना सिंहासनमा बसी विचार करे छे. पछी झियायमाणं पासंति, करयल-जाय एवं चयासिः-किणं देवा- हणाएल मानसिक संकल्पबाळा अने यावत्-विचारमा पडेला ते णप्पिया ! ओहयमणसंकप्पा जाव-झियायह ? तए णं से चमरे असुरेंद्र, अनुरराज चमरने जोइ सामानिकसभामा उत्पन्न थएल असुरिंदे, असुरराया ते सामाणिअपरिसोवयनए देवे एवं वयासिः- देवोए हाथ जोडीने यावत्-तेने आ प्रमाणे का केः-हे एवं खल देवाणप्पिया ! मए समणं भगवं महावीरं नीसाए सके, देवानुप्रिय! तमे आज हण.एल मानसिक संकल्पवाळा.थइ यावतदेविंदे, देवराया सयमेव अचासाइए, ततो तेणं परिकविएणं शुं विचार करो छो? त्यारे असुरेंद्र असुरराज चमरे ते सामानिकसमाणेणं ममं वहाए वज्जे निसिद्वे. तं भदं णं भवत देवाणपिया! सभामा उत्पन्न थएल देवोने आ प्रमाणे का के:-हे देवानुप्रियो ! समणस्स भगवओ महावीरस्त, जस्स म्हि पभावेणं अकिडे, में मारी पोतानी मेळे ज श्रमण भगवंत महावीरनो आशरो लइ अव्वहिए, अपरिताविए, इहमागए, इह समोसढे, इह संपत्ते, देवेंद्र देवराज शक्रने तेनी शोभाथी भ्रष्ट करखो धार्यो हतो. त्यारे इहेव अज उपसंपज्जित्ता णं बिहरामि. तं गच्छामो णं देवाण- तेणे ( शके) मारा उपर कोप करी मने मारवा माटे मारी पाछळ प्पिया । समग भगवं महावीर वंदामो. नमसामो जाव-पज्जया- वज्र फेंक्यु. पण, हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवंत महावीरनं भलं सामो त्ति कट्ट चउसट्टीए सामाणिअसाहस्साहि, जाव सबिडीए, थाओ, के जेना प्रभावथी हुँ अक्लिष्ट रह्यो लं, अव्यथित-पीडा जाव-जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, विनानो-रह्यो र्छ तथा परिताप प.म्या सिवाय अही आव्यो छउवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाय-नमंसित्ता अहीं समवसयों छु-अहीं संप्राप्त थयो र्छ अने अहीं ज उसंपन्न एवं वयासि:-एवं खलु भन्ते ! मर तभं नीसाए सक्के देविंदे, थइने विहरु छ, तो हे देवानुप्रियो ! आपणे बघा जइए अने श्रमण देवराया सयमेव अचासाइए, जाप-भद्दे णं भवत देवाणप्पियाणं भगवंत महावीरने बांदीर, ननीए यावत्-तेओनी पर्युपासना करीए, एम करी ते, चोसठ हजार सामानिक देवो साथे थावत्-सर्थ ऋद्धिपूर्वक यावत्-जे तरफ अशोरुनु उत्तम वृक्ष छे अने जे तरफ हुँ (श्रीमहावीर ) छु ते तरफ आवी मने त्रण वर प्रदक्षिणा दइ यावत्-नमस्कार करी ते आ प्रमाणे बोल्यो के:-हे भगवन् ! में मारी पोतानी जाते ज तमारो आशरो लइने देवेंद्र, देवराज शक्रने तना शभाथी भ्रष्ट करवो धार्यों हतो यावत्-आर देवानुप्रियनु भलु थाओ के जेना प्रभावे हुँ क्लेश पाभ्या सिवाय यावत्-विहरु ;. तो हे देवानुप्रिय! हुं ते संबंधे आपनी पासे क्षमा मागुं छु, यावत् सनस्तान् सागानिकरर्षदुत्प १. मूलच्छायाः-ततः स चमराऽसुरेन्द्रः, असुरराजो बसमय विप्रमुकः शक्रेग देवेन्द्रण, देवराजेन महता अपमानेन अपमानितः सन् चमरचचाया राजधान्याः, सभायाः सुधीयाः, चमरे सिंहासने अपहतमनस्संकाः, चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्टः, करतलपर्यस्तमुखः आतच्यानोपगो भूमिगतया दृष्टया ध्यायति, ततश्चमरम् असुरेन्द्रम्, असुरराज सामानिकपर्ष टानका देवाः अपहतमनस्कलं यावत्-ध्यायन्तं पश्यन्ति, करतलं यावत्-एवम् अवादिषुः-किं देवानुप्रियाः ! अपहतमनत्संकल्पाः यायत्-ध्यावत ? ततः स चमरः असुरेन्द्रः असुरराजस्तान् सागानिकरर्षदुत्पन्न कान् देवान् एवम् अबादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाः! मया श्रमण भगवन्तं महावीरं निधाय दाको देवेन्द्रः, देवराजः स्वयमेव असाशातितः, ततस्तेन परिकुपितेन सता मम वधाय वजं निःसृष्टम् , तद् भद्रं भवतु देवानुप्रियाः! अनणस्य भगवतो महावीर स्य, यस्याऽस्मि प्रभावेग अकृष्टः, अव्यथितः, अपरितापितः, इह आगतः, इह समवस्तः, इह संप्राप्तः, इहैव अद्य उपसंपद्य विहरामि. तद् गच्छामो देवानुप्रियाः! श्रमणं भगवन्तं महावीरं चन्दामहे, नमस्यामो यावत्-पर्युपास्महे इति कृत्वा चतुःपठ्या सामानि कसाहस्रीभिः, यावत्-सर्वव्या यनैव अशोकबरपादपः, येनैव मम अन्तिकस्तेनैव उपागच्छति, उपागम्य माम् त्रिकृत्य आदक्षिग प्रदक्षिण यावत्-मस्थित्वा एवम् अवादीत:-एवं खलु भगवन् , मया त्वां निभाय शको देवेन्द्रः, देवराजः खयमेव अत्यातितः, यावत्-तद् भदं भवतु देवानुनियाणाम्:--अनु० सृष्टम् , तद् भदं भवतु देवान महावीर निधाय को देवेन्दः . Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक ३.उदेशक २. अगवन स्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. जेन्स म्हात्रे कि जाय विहरामि तं सामेोमे णं देवाणु एम कही ते ईशान ग्राम चाहो गयो यात् बीश जावनो पिया ! जाय उत्तरपुरथिगं दिसीमागं अपकमद, जायपत्तीस नव्यध देखाइयो भने पछी ते जे दिशामांची आध्यो हतो, ते इदं न उसे यामेव दिसि पाउए, तामेव दिखि ज दिशामा चाल्यो गो. हे गौतम! अमुरेंद्र, असुरराज चमरे डिगए. एवं 'गोमा ! चमरेणं असुरिदेणं, असुररण्णा सा ते दिव्य देवऋदि ए प्रमाणे करी प्रत परी अने यावत्लब्ध दिव्या देपिट्टी ला पत्ता जाब- जनसमण्णागचा, दिई सागरोवनं, साने आणी से चमर इंद्रनी आवरा सागरोपमनी छे अने ते महामहादेवासहिइ, जाव- अंतं काहिइ. विदेह क्षेत्रमां सिद्ध थो यावत् सर्व दुःखोनो नाश परसे थशे ७. 'ओह यमगसंकप्पे ' त्ति उपहतो ध्वस्तः, मनसः संकल्पो दर्प- हर्षादिप्रभवो विकल्पो यस्य स तथा, 'चिंतासोग सागरमणुप्पविट्टे ' त्ति चिन्ता पूर्वकृतानुस्मरणम्, शोको दैन्यम्, तावेव सागर इति विग्रहः, अतस्तम्, 'करयलपल्हत्थमुहो 'त्ति करतले पर्यस्तम्अधोमुखतयान्यस्तं मुखं येन स तथा' जस्स न्हि पभावेण 'ति यस्य प्रभावेण इहागतोऽस्मि भवामी योगः किंभूतः सन्याह‘अकिट्टे ’ त्ति अकृष्ट:-अविलिखितः, अविलष्टो वा अबाधितो निर्वेदनमित्यर्थः एतदेव कथम्? इत्याह- 'अव्वहिए त अव्यथितःअताडितः, अताडितत्वेऽपि ज्वलन कल्पकुलिशसन्भिकर्णात् परितापः स्यात् अतस्तं निषेधयन्नाह - - ' अपरितारिए' त्ति, 'इहम गए ' इत्यादि विवचया पूर्वयद् व्याख्येयम्. 'इ' इत्यादि खाने अचाई मनले उपप्रभूला पिगी. -- ७. [हमति] अभिमान अने हर्ष वगेरेशी उत्पन्न भएको जेन मानसिक विकल्प नाश पाम्योछे ते, 'चिंतासोगसागर मणुपविट्टे' त्ति ] पूर्वे करेल कार्यने याद करवुं ते चिंता, दीनता ते शोक, चिंता अने शोकरूप सागरपां पेठेलो, [ 'करयलपल्हत्यमुद्दो 'त्ति ] जेणे पोतानुं मुख, हाथना तळिया उपर- हथेळी उपर-अधोमुखपणे टेकव्युं छे ते, [ ' जस्त म्हि पभावेणं 'ति ] ' जेना प्रभाव अहीं आव्यो छु ' प्रमाणे संबंध करवो. केवो आव्यो धुं ? तो कहे छे के, [ 'अकिट्ठे ' त्ति ] घवाया विनानो अथवा कोइ रीते पीडाया विनानो निवेदनपूर्वक आव्यो धुंए केबी री? तो कहे छे के [अबिनानो मार खाया विनानो, जो के परे मार खाधो गधी तो पत्र आग जेवा यज्ञना संबंधी लेने परितापधाय ए सो संभवित छे कांटे ते वाने निषेधया कहे के के [ अपरिताविए वि] परिवार पाया विनानो अहीं आयो [ इमागए ] इत्यादि सूत्रो विवक्षापूर्वक पूर्वनी पेठे जाणयां [ हे अ' इत्यादि ] आ ज ठेकाणे आगे प्रशां इन बिहरु . ३०. प्र० - किंपत्तियं णं भन्ते ! असुरकुमारा देवा उडूं ३०. प्र० - हे भगवन् ! असुरकुमार देवो यात्रत् सौधर्म उप्पयंति, जाव - सोहम्मो कप्पो ? कल्प सुधी उंचे जाय छे तेनुं शुं कारण ? ३०. उ०- गोयमा ! तेसि णं देवाणं अगोवा पा चरिमभवत्था वा इमेजरूवे अज्झथिए, जाव- समुप्पज्जइअहो ! अहो दिव्या देवडी तथा पत्ता जाव अनितम ज्यागया, जारिसिआ णं अहिं दिव्या देवडी जाद- अभिसमया गया, तारिसिआ णं सकेणं देविदेण, देवरण्णा दिव्या देवडी जाब- अभिसमण्णागया. जारिसिआ णं सक्केणं देविदेण, देवरण्णा जाव अभिसमभागया, तारिसिआ णं अन्हेहि वि जाव अभिसम नागया. तं गच्छामो णं सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो अंतिअं पाउ भवामो, पासामोसा समस्त देविदस्त, देवरण्णो दिव्यं देविडि जाप अभिसमताग, पास ताव अन् वि सके देविदे, देवराया दिवं देवा अभिमतं जाणामो ताप सकस्स देविंदस्स, देवरण्णो दिव्यं देवा जाव - अभिसमन्नागयं जाणउ ताव अम्हे वि सक्के देविंदे, देवराया दिव्वं देविडिं जाव - فری ३०. उ०- हे गीतम । ते ताजा उत्पन्न घएल के मरवानी तैयारीवाळा देवोने आए प्रकारनो आध्यात्मिक यावत्-संकल्प उत्पन्न थाय छे के, अहो !! अमेदिव्य देवऋदि प्राप्त करी छे अने सामे आणी छे. जेवी दिव्य देव यात्रत् - सामे आणी छे तेवी दिव्य देवऋद्धि देवेंद्र, देवराज शक्रे पण यावत् - सामे आणी छे अने जेवी दिव्य देवऋद्धि देवेंद्र, देवराज शक्रे यावत्साने आणी छे तेवी ज दिव्य देवऋद्धि अमे पण यावत् - सामे आणी छे. तो जइए अने ते देवेंद्र, देवराज शकनी पासे प्रकट थर अने ते देवेंद्र देवराजे पावत् सामे आणली दिव्य देवऋदिने आपने जोइए तथा देवेंद्र देवराज शुक्र पर अमे सामे आणेली यावत् दिव्य देवऋदिने जूर पळी देवेंद्र देवराज शक्रे सामे आणेली यावत्-दिव्य देवऋद्धिने आप जाणी देवेंद्र, देवराज शक्र पण अमे सामे आणेली यावत्-दिव्य देवऋद्धिने - १. मूलच्छायाः - येपाम् अस्मि प्रभावेण अकृष्टः यावत् विहरामि तत् क्षमयामि देवानुप्रिय । यावत् उत्तरपौरस्त्यं दिग्नागम् अपक्रामति, यावत्-द्वात्रिंशदूबद्धं नाट्यविधिम् उपदर्शयति, यागेव दिशं प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः एवं खलु गौतम ! चमरेण असुरेन्द्रेण, अमुरराजेन सा दिव्या देवर्धिः लब्धा, प्राप्ता यावत्- अभिसमन्वागता, स्थितिः सागरोपमम्, महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत्-अन्तं करिष्यति. २. किंप्रलयं भगवन् ! असुरकुमाराः देवा ऊर्ध्वम् उत्पतन्ति यावत् धर्मः कल्पः ? गौतम ! तेषां देवानाम् अधुनोत्पन्नानां या, चरमभवस्थानां वा अयमेतद्रूपः आध्या मात्रात्पयन अहोरवासिभिमन्यगता वाशिका अनादि अभिमा देवी दिव्या देवधिः या मला अभिमन्यात वापरल देवेन्द्रेण देवराजेन दावत- अभिसमागता तादृशिका अस्माभिरपि यावत्-अभिसमन्दागता. तद् गच्छामः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकं प्रादुर्भवामः पश्यामस्तावत् शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य दिव्य देव साय अभिसमन्यागताम् पश्यतु तावत् अस्माकम् अपि देवेन्द्र, देवराज दिव्यदेवम्याप अभिसमम्बागताम् जानीमः सायद देवेन्द्रराजमाता जाता अपि शो देवे देवराज दिव्यां देवा , · करी, अमे बने शो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक २. निस भागयं. एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा उड्डे उप्पयंति, जाणे. हे गौतम ! ए कारणने लइने असुरकुमार देवो यावत्जाव - सोहम्मो कप्पो. सौधर्मकल्प मुधी उंचे जाय हे. ----सेवं भंते, भंते ! ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. चमरो सम्मत्तो. चमर संबंधी वृतांत पूरूं थयु. भगवंत-अज्जसुहम्मसाभिषणीए सिरीभगवईसुरो तति असये दुदो चमरो-सम्मत. ८. पूर्वमसुराणां भवप्रत्ययो वैरानुबन्धः सौधर्मगमने हेतुरुक्तः, अथ तत्रैव हेत्वन्तराभिधानाय आह-'किंपत्तियं णं' इत्यादि. तत्र किंपत्तियं' ति कः प्रत्ययः कारणं यत्र तत् किंप्रत्ययम्, 'अहुणोयवनाणं 'ति उत्पनमात्राणाम् , 'चरिमभात्याण व 'त्ति भवचरमभागस्थानाम्-च्यवनावसरे इत्यर्थः, भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे तृतीयशते चमराख्ये द्वितीय उद्देश के धीअभय देवसूरिविरचितं विवरण रागाप्तम्. प भणी ८. आगळना प्रकरणमा एम जणाव्यु छ के, असुरो वरने लीधे सौधर्म देवलोकनां जाय छे अर्थात् तेओना सौधर्म गगनमां बरनी कारणता दावी सुरोनो छे. हये आ बीजा प्रकरणमा तओना सौधर्मगमननुं बीजु पण कारण जणाववानुं छे. ते अर्थ जगावे छे के:--[ किंपत्तियं णं ' इत्यादि.] तेमां शुं देनु. कारण छे ? [ 'अहुगोरवनागं 'ति] हमगां ज उत्पन्न बएला, ['चरिमभवत्याण व 'त्ति ] भवने चरम भागे रहेला अर्थात् च्यवयानी--मरवानी निकट आवला. वेडारूपः समुद्रेऽखिल जलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवमुख मारहा चाप्तमुख्यः ॥ १. मुलच्छाया:-अभिसमन्वागताम्. एवं खलुतम! असुरकुमाराः देवाः ऊध्वम् उत्पतन्ति, यावत्-साधर्मः कला. तदेवं भगवन् ! भगवन् ? इति. चमरः रामाप्त:--अनु० . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ३. राजगृह.-मंडितपुत्र गैतम.-क्रिया.-कायिकी.-आधिकरणिकी.-प्रादेषिकी.-पारितापनिकी.-आणातिपात.-क्रियाप्रभेद.-पेलो अनुभव के पेलु कमै -पेली क्रिया पछी अनुभव.-श्रमणोने कम होय?-होय.-प्रमाद.-योग.-जीवना एजन अने परिणमन थिनेरे.-जीवनी अंतक्रिया (मुक्ति).-आरंभ.-सरंभ.-समारंभ.जीवनी अक्रियता.-तृगपूलक अने अग्नि-जलबिधु अने अमि.-नाब अने तेनां छिद्रो.-अनगारनी सावधानता.-प्रमत्तता अने अप्रमत्ततानी स्थितिनु प्रमाण.-विदार.गीतम.-लवण समुद्रमा भरती ओट यवानुं शु कारण ?-लोकस्थिति.-विहार. तेणं काले णं, ते णं समए णं रायगिहे नाम नयरे होत्या. ते काळे, ते समये राजगृह नामे नगर हतुं. यावत्-सभा जावं-परिसा पडिगयाः ते णं कालेणं, ते णं समए णं जाव- धर्मकथा सांभळीने पाछी गई. ते काळे, तें समये यावत्-भगवंतना . अंतेवासी मंडि अपुत्ते नाम अणगारे पगइभदए जाव-पजुवासमाणे मंडितपुत्र नामना भद्रस्वभाववाळा शिष्य यावत्-पर्युपासना करता एवं वयासी: आ प्रमाणे बोल्या के:१. प्र०-कइ णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ता ? १. प्र०-हे भगवन् ! केटली क्रियाओ कही छे ? १. मूलच्छाया:--तस्मिन् काले, तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरम्-अभवत्. यावत्-पर्षत् प्रतिगता. तस्मिन् काले, तस्मिन् समये यावत्-अन्ते. वासी मण्डितपुरो नाम अनगारः प्रकृतिभद्र को यावत्-परासीन एवम्-अमादीत:-कति भगवन् ! क्रिया प्रज्ञप्तः!-अनु. १. आ मंडितपुत्र नामना अनगार भगवंत महावीरना छठा गणधर हता. ते विषेनो विगतवार हेवाल प्रस्तुत पुस्तकमा प्रथम खंडमां (जूओ १.१३) आंवी गएलो छे. तेमनी आयुध्यगणना संबंधे जैन प्रंयकारोनां जूदां जूदा मतो छे अने ते आ प्रमाणे छे:'श्रीभद्रवाहुने नामे प्रसिद्धि पामेली आवश्यकनियुक्तिमा वधा गणधरोनो गृहवास जणावतां जणाव्युं छे के " पन्ना छायालीसा पायाला टुति पन्न पन्ना य ! तेवन पंचसट्ठी अडया- भगवंत महावीरना अग्यारे गणधरोनो गृहस्थायीय अनुक्रमे आ प्रमाणे छीसा य छायाला ॥ छत्तिसा सोलसगं अगारवापो भवे गणहराणं "- छे-पेला गणधरनो गृहस्थ पर्याय ५० वर्ष, बोजानो ४६ वर्ष, त्रीजानो ( आवश्यक नियुक्त गा-७१-७४-य. पं.) • ४२ वर्ष, चोथानो ५० वर्ष, पांचमानो ५० वर्ष, छछानो ५३ वर्ष, सातमानो ६५ वर्ष, आठमानो ४८ वर्ष, नवमानो ४६ वर्ष, दसमानो ३६ वर्ष अने अग्यारमा गणधरनो गृहस्थपर्याय १६ वर्ष छे-अर्थात् आ गणत्री प्रमाणे मंडितपुत्र अनगारनो गृहस्थवास समय ५३ वर्षको जणाय छे. . खारे श्रीमलयगिरिकृत आवश्यकटीकामां ते विषेनी नांध आ प्रमाणे :"पना छायालीसा बायाला हुँति पन्न पन्ना य । पणसट्ठी बावमा अर. ५०,४६, ४२, ५०, ५०, ६५, ५२, ४८,४३, ३६, अने १६ वर्ष ए यालीसा य छायाला ॥ छतीसा सोलसर्ग अगारवासो भवै गणहराणं ( गाथा प्रमाणे बधा गणधरोनो गृहस्थपयीय छे. एटले आ गणना प्रमाणे श्री. ७३-७४):-अभिधान रा०पृ० ८१८. मंडितपुत्र अनगारनो गृहस्थवास समय ६५ वर्षनो टरे छे एथी तेमन भायुध्य प्रथम गणना प्रमाणे ८३ वर्षनु थाय छे अने बीजी गणना प्रमाणे ९५ वर्षनु थाय छे. (अभि • रा० पृ.८१८):-अनु. २. श्रीश्यामाचार्य करेला प्रज्ञापना सूत्रमा २२ मुं‘क्रियापद'छे, तेमा तेमणे किया- सविस्तर वरूप जणाव्यु छ अने जी जूदी रीते क्रियाना भेजे पण दशाव्या छे. “क्रिया' ने लगतो आ सूत्रनो मूळ पाट अने उपर जणावेलो श्रीभगवतीगीनो मूळ पाठ ए बने अर्थनां तो तद्दन सरखा छे, तेमां जे स्थळे कांई शैलीभेद छ ते आ प्रमाणे छे:श्रीभगवतीजी-- श्रीप्रज्ञापनाजी१. पाओसियों गं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णता ? १. पादोसिया णं भंते! किरिया कतिविहा.पण्णता!. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रीरायचन्द्र-निनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक ३. १. उ०-मंडिअपत्ता! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ. तं १. उ०-हे मंडितपुत्र! क्रियाओ पांच वही छे. ते आ जहा:-काइया, अहिगरणिआ, पाओसिजा, पारिआवणिआ, प्रमाणे:-कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी पाणाइदायकिरिया. अने प्राणातिपात क्रिया.. २. प्र०-काइआ णं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता ? २. प्र.-हे भगवन्! कायिकी क्रिया केटला प्रकारनी कही छे? २. उ०---मंडिअपत्ता । विहा पण्णत्ता. तं जहा:-अणुव- २. उ०-हे मंडितपुत्र ! कायिकी क्रिया बे प्रकारनी कही रयकायकिरिया य, दुप्पउत्तकायकिरिया य. छे. ते आ प्रमाणे:--अनुपरत काय क्रया अने दुप्रयुक्त. कायक्रिया. ३. प्र०-अहिंगरणिआ णं भंते ! किरिया काविहा पण्णता? ३. प्र०---भगवन् ! आधिकरणिकी क्रिया केटा प्रकारनी कही छे? ३. उ०---मंडिअपत्ता ! दविहा पण्णत्ता. तं जहा:-संजोय- ३. उ:-हे मंडितपुत्र! आधिकरणिकी क्रिया बे प्रकारनी णाहिगरणकिरिया य, निवत्तणाहिगरणकिरिया य. कही छे. ते आ प्रमाणे:-संयोजनाधिकरणक्रिया अने निर्वीना धिकरणक्रिया. ४. प्र०-पाओसिआ णं भंते । किरिया कइविहा पण्णत्ता? ४. प्र०—हे भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया केटला प्रकारनी ४. उ०-मांडअपत्ता ! दुविहा पण्णत्ता. तं जहा:-जीवपा- ४. उ०-हे मंडितपुत्र! प्राद्वेषिकी क्रिया बे प्रकारनी कही ओसिआ य, अजीवपाओसिआ य. छे. ते आ प्रमाणेः-जीवप्राद्वेषिकी क्रिया' अने अजीवप्राद्वेषिकी क्रिया. ५. प्र०—पारिआवाणिआ णं भंते ! किरिया कइविहा ५. प्र०-हे भगवन् ! पारितापनि की क्रिया केटला प्रकारनी पण्णत्ता ? ___ कही छे? ५. उ०-मंडिअपुता ! दुविहा पण्णत्ता. तं जहा:-सहत्थ- ५. उ०-हे मंडितपुत्र! पारितापनि की क्रिया के प्रकारनी पारिआवणिआ य, परहत्थपारिआवणिआ य. कही छे. ते आ प्रमाणे:--खहस्तपारितापनिकी अने परहस्तपा रितापनिकी. ६. प्र०-पाणाइवायकिरिया णं भंते ! किरिआ का विहा६. प्र०--हे भगवन् ! प्राणातिपात क्रिया केटला प्रकारनी पण्णता? . कही छे? . ६. उ०-मंडिअपत्ता । दुविहा पण्णता. तं जहा:-सहत्थ- ६. उ०-हे मंडितपुत्र! प्राणातिपात क्रिया के प्रकारनी कही पाणाइवायकिरिया य, परहत्थपाणाइवायकिरिया य... छे. ते आ प्रमाणे:--स्वहस्तप्राणातिपात क्रिया अने परहस्तप्राणा तिपात क्रिया. १. द्वितीयोदेशके चमरोल्पात उक्तः, स च क्रियारूपः, अतः क्रियास्वरूपाभिधानाय तृतीयोदेशकः. स च-तेणं कालेणं' इत्यादि. तत्र 'पंच किरियाओ' त्ति करणं क्रिया-कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा-इत्यर्थः. 'काइय'त्ति चीयते इति काय:-शरीरम् , तत्र भवा तेन वा मंडिअपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-जीवपाओसिया, अजीवपाओ- गोयमा! ति विहा पण त', तं जहा-से गं अप्पणो या, परस्स वा, तदुसिया. भयस्स चा, असुभं मणं संपधारेति. सेतं पादोलिया किरिया.' ' २. पारियावणिचा ण भंते ! किरिया कति विहा पण्णता? २. पारियावणिया णं भंते! किरिया कति विहा पणता! मंडिअपुत्ता। दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सहत्वपारियावणिया य, गोयमा! तिविहा पण सा, तं जहा-जे ण अप्पणो वा, परस्स वा, परहत्थपारियावणिया य. तदुभयस्स वा अस्सायं बेदर्ण उदीरेति से पारियावणिया किरिया. ३. पाणाइवाय किरिया णं भंते! कति विहा पण्णता ? ३. पाणांतिवाय किरियाणं भंते! कति विहां पण्णता ? गोयमा तिविहा मंडितपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सहत्थपाणाइवायरहत्थपाणाह- पण्णत्ता; तं जहा-जे णं अप्पाणं वा, परं वा, तभयं वा जीवियाओ ववरोवें। वाय किरिया य. से तं पाणाइवाय फिरिया. आ सिवायनो बीजो पाठ तो शब्दे शब्द मळतो छ अने आ भागनी प्रज्ञापनामा करेली व्याख्या तथा आ भगवतीजीमां करेली व्याख्या-ए बने तो शब्दशः मळती छ:-जूओ प्रज्ञा० पृ० ४३५-४५३ (आगमो०):-अनु. . १. मूलच्छायाः-मण्डितपुत्र! पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः. तद्यथा:-कारिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातक्रिया. कायिकी भगवन् ! क्रिया कति विधा प्रज्ञप्ता? मण्डितपुत्र। द्विविधा प्राप्ता. तद्यथा:-अनुपरत काय क्रिया चे, दुष्प्रयुक्तकायक्रिया च.' आधिकरणिकी भगवन् ! क्रिया कति विधा प्रज्ञप्ता? मण्डितपुत्र ! द्विविधा प्रशप्ता.तद्यथाः-संयोजनाधिकरणक्रिया च, निर्वर्तनाधिकरणक्रिया च. प्राषिकी भगवन् । क्रिया कति विधा प्रज्ञप्ता? महितपुत्र। द्विविधा प्रज्ञप्ता. तद्यथाः-जीवप्राद्वेपिकी च, अजीवप्रादेपिकी च. पारितापनिकी भगवन् ! क्रिया कतिविधा प्रज्ञप्ता? मण्डितपुत्र! द्विविधा प्रज्ञप्ता. तद्यथाः-खहस्तपारितासनिकी च, परहस्तपारितापनिकी च, प्राणातिपादमिया भगवन् ! क्रिया कति विधा प्रज्ञप्ता ? मण्डित्पुत्र ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तनथा-खहस्तप्राणातिपातक्रिया च, परहस्तप्राणातिगतक्रिया चा-अनु. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. -उदेशक २. भगवत्धर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र " निर्वृत्ता-काविषी 'अहिगरज सि अविचिपते नरकादिनु आत्मा अनेन इति अधिकरणम्-अनुशनविशेषः, वयं वा रथ - खङ्गादि, तत्र भवा, तेन वा निर्वृत्ता, इति-आधिकरणिकी. ' पाओसिग' त्ति प्रद्वेषो मत्सरः, तत्र भवा, तेन वा निर्वृता, स एव वा प्राविकी 'परितावणिय' ति परितापनं परिताप:- पीडाकरणम्, तत्र भवा, तेन वा निर्वृता तदेव वा पारितानिकी. 'पाणाइवायकिरियत्ति प्राणातिपातः प्रसिद्धः, तद्विषया क्रिया, प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणातिपातक्रिया. 'अणुवरयकायकिरिया यति अनुपरतोऽविरतः, तस्य कापक्रिया अनुपरतकायकिया, इयम् अवरतस्य भवति दुप्पउतकायाकरिया यदि दुष्टं प्रयुक्तो दुष्प्रयुक्तः, स चासो कायश्च दुष्प्रयुक्तकाषः तस्य क्रिश दुकान अथवा बुद्धं प्रयुक्तं प्रयोगो यस्य स दुग्ययुक्तः, तस्य कायक्रिश दुष्प्रयु क्तकायक्रिया. इयं प्रमत्तसंयतस्याऽपि भवति, विरतिमतः प्रमादे सति का दुष्टप्रयोगस्य सद्भावात् ' संजोयणाहिगरण किरिया य' ति संयोजनम् - हल - गर - विप- कूटयन्त्राद्यङ्गानां पूर्वनिर्वर्तितानां मीउनम्-तदेव अधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया. 'निव्यत्तणाहिगरणकिरिया व ति निर्वर्तनम् असि शक्ति तोमरादीनां निधादनम्, तदेय अधिकरणक्रिया निर्वर्तनविकरणक्रिया. 'जीनपाओसआय' ति जीवस्य आमनः परस्य तदुभयरूपस्य उपरि प्रपाद या क्रिया नपकरणमेत्र था. सहत्वपरितापनि यति खफोन पस्य -- 6 , , " परस्य तदुभयस्य वा परितापनाद् असातोदीरणादू या क्रिया, परितापनाकरणमेव या सा स्वहस्तपारितापनिकी एवं पारिवापनिकी " अपि एवं प्राणातिपातक्रिया ऽपि C क्रिया. , काविही अ. भिकरणिकी. १. बीजा उद्देशकमां चमरना उत्पात विषे हकीकत जगावी छे. अने ते 'उसात उंचे जत्रुं ' एक प्रकारनी क्रिया गणाय छे. माटे हवे याचक वर्ग सहज शंका भाव के क्रियाए ? तो अहिं किया 'नुं स्वरूप जंगापीने से देने का वीजा उदेवरुनी शहगात मायके से आ प्रमाणे [से का इल्यादि ] तेमां [पंच फिरियाओ 'त्ति ] करते किया अर्थात् कर्मवो बंद पाण पेट किया. [ काइयति ] संगृहीत धायचयरूप धाद ते खाय शरीर, काय शरीर मां एली के कार शरीर द्वारा ब‍ड़ी जे किया ते कायिकी क्रिया. [' अहिगरणिअत्ति ] जे द्वारा आत्मा, नरक वगेरे दुर्गतिओमां जवानो अधिकारी थाय ते अधिकरण- एक ज.तनुं अनुठान अवा बहारनी वस्तु, जेपी के चक, रथ अने तरवार वगेरे. ते अधिकरणमा थएटी के अधिकरण द्वारा बनेली ने किया से अधिकनिकी भी क्रिया. [ 'पाओसिअ 'त्ति ] प्रद्वेष एटले मत्सर, प्रद्वेष - मत्सर- मां- एटले मत्सररूप निमित्तने लईने-थएली के प्रद्वेष - मत्सर द्वारा थएली जे क्रिया ते प्राद्वेषिकी क्रिया अथवा द्वेष मत्सर रूप व जे किया ते माद्वेषिकी क्रिया. [परितावनिअ ' ति ] पीडा उपजावधी -रित्राव से परिताप, बे लने के ते द्वारा एली क्रिया अथवा परितापरूप ज जे क्रिया ते पारितिापनिकी. ['पाणाइवायकिरिय 'ति ] 'प्राणातिपात' शब्दनो अर्थ प्रसिद्ध छे. प्राणोनुं तद्दन पडी जबुं - (५) पांच इंद्रिय, (३) शारीरिक, मानसिक अने वाचिक एम त्रण बळ, (१) उच्छ्वास अने निःश्वास तथा (१) आयुष्य एम दस प्राणो . तेओने आत्माथी तद्दन जूदा पाडवा ते प्राणातिपात. प्राणातिपातने लगती ने किया अथवा प्राणातिपातरूप व जे क्रिया वे प्राणातिपात किया. [ अणुचरवकायन्हिरिया यत्ति ] विरति त्यागइति विनाना प्राणीनी जे शारीरिक किया ते अनुपरत काय किया. आ फिया बिरति विमाना ग्राणीने होय छे. ['दुप्पउक्तकाय किरिया यचि ] दुष्ट रीते प्रयोजेल से दुष्प्रयुक्त दुष्ययुक्त शरीर द्वारा थरी ने किया ते दुष्प्रयुक्तकाय क्रिया अथवा दुट प्रयोगवाळा मनुष्यना शरीर द्वारा थरली जे क्रिया ते दुष्प्रयुक्तकायक्रिया. आ क्रिया प्रमत संयतने पण होय छे. कारण के पिरतिचाळा प्राणीने प्रनाद घाची तेनुं शरीर दुष्ययुक्त थ जाय . [ संजोयगादिगरण फिरेपा य 'चि] संयोजन एटले जो मेळ. ना जू जूदा भागोने जोडीने (मेळवीने) हळ तैयार कर कोई पण पदार्थमां शेर (विष) मेळवीने एक मिश्रित पदार्थ बनाय तथा पक्षिओ अने मृगोने पकडवा माटे तैयार थता यंत्रना जूदा जूदा भागोने जोडीने एक ( पक्षिने पकडनाएं ) यंत्र तैयार कर एवधी शिओनो समास संयोजन' शब्दना अनाथाय छे. तो संयोजनरूप नवे अधिकरणक्रिया ते संयोजन. धिकरण फिरा. [निव्यचगाहिणकिरिया य'त्ति ] तरवार, वरछी के भालुं; इत्यादि शस्त्रोनी बनावट ते निर्वर्तन अने निर्वर्तनरूप ज जे अधिकरण किंवा ते निर्वर्तनाधिकरण किना. [[जी]पाओसिया यति] [फोटा (जीव ) उपर अने पोता तथा बीजा उपर करेल द्वेष द्वारा घटी ने किया अथवा पंता उपर अनेसा तथा बीजा उपर जे द्वेष करवो तेज जीवप्राद्वेषिकी क्रिया. [ 'अजीवदाओसिया य' त्ति ] अभी उपर करेल द्वेष द्वारा थरली जे क्रिया अथवा अजीब उपर जे द्वेष करतो तेज अजीवप्राद्वेषिकी क्रिया. [ 'सहत्यवारितावणिया य' चि ] पोताना हाथ पोताना, बीजाना के बन्नेना परितापन - दुःखना उदीरणद्वारा एली जे क्रिया अथवा जे परितापन व ते सरितापनि की. ए व प्रमाणे परहस्तपारितापनिकी अने प्राणातिपातक्रिया संबंधे पण समजवं. 6 क्रिया अने. वेदना. ७. प्र० वं मेते फिरिया, पच्छा पेमणा ? पुष्यं घेअणा, पच्छा किरिया ? - ७. उ० – मंडिअपुत्ता ! पुव्वि किरिया, पच्छा वेदणा. जो पुपि वेदणा पच्छा किरिया. لی ७. प्र० - हे भगवन् ! पंहेलां क्रिया धाय अने पछी वेदना थाव के पहेड वेदना धाप अने पछी किया थाप १. मूलः पूर्व भगवन् किया, पचादु वेदना पूर्व वेदना पथाद किया पूर्व प्रधामापूर्व - नित्या:-अनु ७. उ०- हे मंडितपुत्र ! पहेलां किया थाय अने पछी वेदना याय, पण हे वेदना वाय अने पछी किया था एम न " 4 थाय. द्वेष पारेतापनिकी. प्राण. तिपात. अनुररत. दुष्प्रयुक्त. संरोजन, निर्वर्तन. 34. अमीर. परिवार अने प्राप Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक ३. ८. प्र०-अस्थि णं मंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया ८. प्र०-हे भगवन् ! श्रमण निग्रंथोने क्रिया होय? कज्जइ ? । ८. उ०--हंता, अस्थि. ८. उ०-हे मंडितपुत्र! हा होय. ९. प्र०-कहं णं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कजइ ? ९. प्र.भगवन् ! श्रमण निग्रंथोने केवी रीते क्रिया होय-श्रमण निग्रंथो कया प्रकारे क्रियाओ करे? ९.30-मंडिअपुत्ता! पमायपञ्चया, जोगनिमित्तं च एवं ९. उ०--हे मंडितपुत्र! प्रमादने लीधे अने योगना-शरीराखलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया कजइ. दिकनी प्रवृत्तिना-निमित्ते श्रमण निग्रंथोने पण क्रियाओ होय छे. २. उक्ताः क्रियाः, अथ तज्जन्यं कर्म, तद्वेदनां चाधिकृत्य आह-' पुच भंते' इत्यादि. क्रिया करणम् , तज्जन्यत्वात् कर्म अपि क्रिया, अथवा क्रियत इति क्रिया-कर्म एव. वेदना तु कर्मणोऽनुभवः, सा च पश्चादेव भवति, कर्मपूर्वकत्वात् तदनुभव(नस्य इति. अथ क्रियामेव स्वामिभावतो निरूपयन्नाह--' अस्थि णं' इत्यादि. अस्त्ययं पक्षः, यदुत क्रिया क्रियते-क्रिया भवति ? प्रमादप्रत्ययात्, यथा-दुष्प्रयुक्तकापक्रियाजन्यं कर्म. योगनिमित्तं च, यथा-ऐर्यापथिक कर्म. २. आगळ्ना प्रकरणमा क्रिया संबंधी हकीकत कही छे. हवे क्रियाजन्य कर्म संबंधी अने कर्मजन्य वेदना संबंधी हकीकत कहे छ:-- -कर्म, ['पुव्वं भंते !' इत्यादि.] करवू ते क्रिया. कर्म क्रियाथी पेदा थाय छ माटे ( जन्य अने जनकमां अभेद कल्पवाथी) कर्म पण क्रिया कहेवाय • छे. अथवा क्रिया शब्दनो ज अर्थ 'कर्म' एम करवो-कराय ते क्रिया-कर्म. कर्मनो अनुभव ते वेदना. ते वेदना, पाछळ ज थाय छे. कारण के वेदना कर्मपूर्वक छे-कर्मनी हाजरी पहेलो होय त्यार बाद ज वेदना (कर्मनो अनुभव ) थाय छ. हवे क्रियान ज स्वानिभावे निरूपता कहे छे:-- अने क्रिया [ 'अत्यि णं' इत्यादि. ] आ वात होइ शक के, श्रमण निर्गथोने क्रियानो होय ? (हा, होय. तेनु कारण दर्शाये छे-) प्रमादने लीधे, जेमके -योग. दुष्पयुक्त शरीरनी चेष्टा जन्य कर्म. योगने लीधे ईर्यापथिकी क्रियाधी-मार्गमा हालवा चालवानी क्रियाथी-उपजतुं कर्म. जीवनां एजनादि. १०. प्र०-जीणं भंते ! सया समिअं एअइ, वेअइ, १०.प्र.- हे भगवन् ! जीप, हमेशा मापपूर्वक कंपे छे, चलइ, फंदइ, घा, खुभइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ? विविध रीते को छे, एक ठेकाणेथी बीजे ठेकाणे जाय छे, स्पंदन क्रिया करे छे-थोड़े चाले छे, बधी दिशाओमां जाय छे, क्षोभ पागे छे, उदीरे ----प्रबळतापूर्वक प्रेरणा करे छे अने ते ते भावने परिणमे छे? १०. उ०--हंता, मंडिअपत्ता ! जीवे णं सया समिअं १० उ०-हे मंडितपुत्र! हा, जीव हमेशा मापपूर्वक कंपे एयति, जाव-तं तं भावं परिणमइ. . छे अने यावत्-ते ते भावने परिणमे छे. ११. प्र०-जावं च णं भंते ! से जीवे सया समिजाव- ११. प्र०—हे भगवन् ! ज्यां सुधी ते जीव, हमेशा मापपूपरिणमइ, तापं च णं तस्स जविस्स अंते अंतकिरिया भवद? बैंक को छे यावत्-ते ते भावने परिणमे छे, त्यां सुधी ते जीवनी मरण सगये अंतक्रिया (मुक्ति) थाय ? ११. 30-नो इणढे समढे. ११. उ०-हे मंडितपुत्र ! ए अर्थ समर्थ नथी-सक्रिय जीव नी मुक्ति न थाय. १२.३०-केणदेणं एवं बच्चइ-जावं च णं से जीवे १२. प्र०--हे भगवन् ! 'ज्यां मुधी ते जीव, हमेशा मापपूर्वक सया समिअंजाव-अंते अंतकिरिया न भवति? कंपे त्यां सुधी यावत्-तेनी मुक्ति न थाय' एम कहेवार्नु शुं कारण ? १२. उ०-मंडिअपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सपा समिअं १२: उ०-हे मंडितपुत्र! ज्यां मुधी ते जीव, हमेशा मापपूजाव-परिणमइ, तावं च णं से जीवे आरंभइ, सारंभइ, समा- बैंक कंपे छे अने यावत्-ते ते भावने . परिणमे छे त्या सुधी ते रंभइ; आरंभे वहइ, सारंभे वट्टा, समारंभे वट्टइ; आरंभमाणे, जीव, आरंभ करे छे, संरंभ करे छे, समारंभ करे छे, आरंभमां १. मूलच्छामा:-अस्ति भगवन् ! धमनिग्रन्थः क्रिया क्रियते? हन्त, अस्ति, कथं भगवन् ! श्रमणनिग्रन्थैः क्रिया क्रियते ? मण्डितपुत्र! प्रमादप्रत्ययात् , यागनिमित्तं च; एवं खलु धमनिग्रन्थैः किया क्रियते. ०. जीवो भगवन् ! सदा समितम्-एजते, व्येजते, चलति, सन्दते, घटते, शुभ्यति, उदारयति, तं तं भावं परिणमति हन्त, मण्डितपुत्र ! जीवः सदा समितम्-एजते, यावत्-तं तं भावं परिणमति. यावच भगवन्! स जीवः सदा समितम् यावत्-परिगमति, तावच तस्य जीवस्य अन्ते अन्तकिया भवति ! नायमर्थः समर्थः तत् केनाधन एवम्-उच्यते-यावश्च स जीवः सदा समितम् यारत्-अन्ते अन्तकिया न भवति ? मण्डितपुत्र ! यावच्च स जीवः सदा समितम् यावत्-परिणगति, तावच स जीव आरभते, संरभते, समारभते, भारम्भ को, संरकी बीते, समारमो वर्तते भारभ गाणः--अमुक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र, ৩৬ सौरभमाणे, समारंभमाणे; आरंभे वट्टमागे, सारंभे वट्टमाणे, समारंभे वर्ते छ, संरंभमां वर्ते छे, समारंभमां वर्ते छे अने ते आरंभ करतो, वहमाणे वरणं पाणाणं, भूआणं, जीवाणं, सत्ताणं दुक्खावणयाए, संरंभ करतो, समारंभ करतो तथा आरंभमां वर्ततो, सरंभमा वर्त विणयाए, तिप्पावणयाए, पिट्टावणयाए, परिया- तो अने समारंभमां वर्ततो जीव, घणा प्राणोने, भूतोने, जीवोने वणयाए वइ, से तेणद्वेणं मंडिअपुत्ता! एवं युचइ-जावं च णं अने सत्त्वोने दुःख पमाडबामां, शोक करावधामां, जूरावयामां, से जीवे सया समिअं एयह जाय-परिणमइ, तावं च णं तस्स टिपाववामां, पिटाववामा, उत्त्रास पंमाडवामां अने परिताप फरावजीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति. वामां वर्ते छे-कारण थाय छे. हे मंडितपुत्र! ते कारणने लइने एम कर्दा छ के, ज्यां सुधी ते जीव, हमेशा मापपूर्वक कंपे छे यावत्-ते ते भावने परिणमे छे त्यां सुधी ते जीवनी मरण सम मुक्ति थइ शक्ति नधी. १३. प्र०---जीवे णं भंते ! सया समिणो एअइ जाव- १३. प्र०-हे भगवन् ! जीव, हमेशा समित न कंप अने नो तं तं भावं परिणमइ ? यावत्-ते ते भावने न परिणमे ? अर्थात् जीव, निजिर पण होय ? १३. उ०~~-हंता, मंडिअपुत्ता ! जीवे णं सया समिअं १३. उ०-हे मंडितपुत्र ! हा, जीव, हमेशा समित न कंपे जाव-नो परिणमइ. अने यावत्-ते ते भावने न परिणमे अर्थात् जीव, निष्क्रिय होय. १४. प्र०-जावं च णं भंते ! से जीवे नो एअइ जाव- १४. प्र.--हे भगवन् ! ज्यां सुधी ते जीव, न कंपे यावत्नो तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतफि- ते ते भावने न परिणमे त्यां सुधी ते जीवनी मरण समये मुक्ति रिया भवइ ? थाय? १४. उ०-हंता, जाव-भवइ. १४. उ०--हे मंडितपुत्र! हा, एवा. जीवनी मुक्ति थाय. १५. प्र०-से केणद्वेणं जाव-भवइ ? १५. प्र०- हे भगवन् ! एवा जीवनी यावत्-मुक्ति थाय तेनु शु कारण? १५. उ०-मंडिअपुत्ता ! (मंडिआ ! ) जावं च णं से १५. उ०-हे मंडितपुत्र! ज्यां सुधी ते जीव, हमेशा समित न जीवे सया समिणो एयइ, जाव-नो परिणमइ, तावं च णं से कंप यावत्-ते ते भावने न परिणमे त्यां सुधी ते जीव, आरंभ जीचे नो आरंभइ, नो सारंभड, नो समारंभइ, नो आरंभ वट्टइ, करतो नथी, संरंभ करतो नथी, समारंभ करतो नथी, आरंभमां नो सारं वट्टइ, नो समारंभे वट्टइ, अणारंभमाणे, असारंभमाणे, वर्ततो नथी, संरंभमां वर्ततो नथी, समारंभमां वर्ततो नी अने असमारंभमाणे; आरंभे अवट्टमाणे, सारंभे अवमाणे, समारंभे ते आरंभ न करतो, संरंभ न करतो, समारंभ न करतो तथा अवट्टमाणे बहूणं पाणाणं, भूआणं, जीवाणं, सत्ताणं अदुक्सावण- आरंभमां न वर्ततो, संरंभमां न वर्ततो अने समारंभमां ग वर्ततो याए, जाव-अपरितावणयाए वट्टइ. जीव बहु प्राणोने, भूतोने, जीवोने अने सत्त्वोने दुःख पमडवामा यावत्-परिताप उपजाववामा निमित्त थतो नथी. से जहा नाम ए केइ पुरिसे सुकं तणहत्थयं जायतेअंसि जेम कोइ एक पुरुष होय अने दे सूका घासना पूळाने अग्निमा पक्खिवेजा. से णणं मंडिअपत्ता ! से सके तणहत्थये जायतेजसि नाखे. तो हे मंडितपुत्र! अग्निमां न पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? हंता, मसमसाविज्जइ. घासनो पूळो बळी जाय, ए खरुं के नहीं ? हा, ते बळी जाय. __ से जहा नाम ए केइ पुरिसे ततंसि अयकवलंस उदयविंदं वळी, जेम कोइ एक पुरुष होय, अने ते, पाणीना टीपाने तपेला पक्खिवेज्जा, से णणं मंडिअपना! से उदयबिंद तत्तंसि अयकवल्लासि लोढाना कडाया उपर नाखे. तो हे मंडितपुत्र! तपेला लोढाना १. मूलच्छायाः-संरभमाणः, समारभमाणः; आरम्भे वर्तमानः, संरम्भे वर्तमानः, समारम्भे वर्तमानो बहूनां प्राणानाम् , भूतानाम् , जीवानाम् , सत्त्वानां दुःखापनतया, शोचापनतया, जूगपनतया, तेपापनतया, पिट्टापनतया, परितापनतया वर्तते, तत् तेनायेंन मण्डितपुत्र! एवम्-उच्यते-यावध स जीवः सदा समितम् एजते यावत्-परिणमति, तावच तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया न भवति, जीवो भगवन् । सदा समितं नो एजते, यावत्-नो तं तं भावं परिणमति ? हन्त, मण्डितपुत्र ! जीवः सदा सनितम् , यावत्-नो परिणमति. यावच भगवन् ! ‘स जीवो नो एजते, यावत्-नो तं तं भावं परिणमति, तावच तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया भवति ? हन्त, यावत्-पवति. तत् केनार्धन यावत्-भवति ? मण्डितपुत्र : (मण्डित !) यावश्च स जीवः सदा समितं नो एजते, यावत्-नो परिणमति, तावच स जीवो नो आरभते, नो संरभते, नो समारभते; नो आरम्भ वर्तते, नो संरम्मे वर्तते, नो समारम्भे वर्तते, अनारभमाणः, असंरभमाण;, असमारम्भमाणः; आरम्भेऽवर्तमानः, संरम्भेऽवर्तमानः, समारम्भेऽवतैमानो बहूनां प्राणानाम् , भूतानाम् , जीवानाम् , सत्वानाम्-अदुःखापनतया, यावत्-अपरितापनतया वर्तते. तद्यथा नाम कथित् पुरुषः शुष्कं तृगहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिपेत् , तद् नूनं मण्डितपुत्र ! तत् शुष्कं तृणहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिप्तं सत् क्षिप्रमेव ममस्यते ? हन्त, मस्सस्य ते. तद्यथा नाम कश्चित् पुरुषः तप्ते अयस्कपाले उदकविन्दं. प्रक्षिपेत् , तद् नूनं मण्डितपुत्र! स उदकबिन्दुः तप्ते-अयस्कपाले:-अनु. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक ३, छइ. पक्खिते समाणे खिप्पामेव विद्धसमागच्छ? हंता विद्धंसमाग- कडाया उपर नाख्यु के तुरत ज ते पाणीनुं टीपुं नाश पामे-छम थइ जाय, ए खरं के नहीं ? हा, ते नाश पामी जाय. से जहा नाम ए हरए सिया, पुण्णे, पुण्णप्पमाणे, बोलट्टमाणे, वळी, जेम कोइ एक धरो होय अने ते, पाणीथी भरेलो होय, वोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठइ. अहे णं के इ परिसे तंसि पाणीथी छलोछल भरेलो होय, पाणीथी छलकातो होय, पाणीथी हरयसि एगं महणावं सयासवं, सयच्छिदं ओगाहेजा, से णणं ववतो होय तथा ते भरेल घडानी पेठे बधे ठेका मंडिअपुत्ता। सा नावा तेहिं आसवदारोहिं आपूरेमाणी आपूरे- होय अने तेमां-ते धरामां-कोइ एक पुरुष, सेंकडो नानां माणी, पुण्णा, पुण्णप्पमाणा, वोलट्टमाणा, वोसट्टमाणा समभरघ- काणावाळी अने सेंकडो मोटा काणावाळी, एक मोटी नावने डताए चिट्ठति. अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वओ समंता प्रवेशावे. हवे हे मंडितपुत्र! ते नाव, ते काणांओ द्वारा पाणीथी आसवदाराई पिहेइ, पिहित्ता णावा-उस्सिचणएणं उदयं उस्सि- भराती भराती पाणीथी भरेली थइ जाय, तेमां पाणी छलोटल चिज्जा, से णणं मंडिअपुत्ता ! सा नावा तसि उदयसि उस्सित्तंसि भराइ जाय, पाणीथी छलकती थइ जाय अने ते नाव पाणीथी समाणंसि खिप्पामेव उई उद्दाइ ? हंता, उद्दाइ. बध्ये ज जाय तथा छेवटे ते झरेला घडानी पेठे बधे ठेकाणे पाणीथी व्याप्त थइ जाय, हे मंडितपुत्र! ए खरुं के नहीं ? हा, खरं. हवे कोइ एक पुरुष, ते नावनां बधां काणां बूरी दे अने नौकाना उलेचणावती तेमांनु पाणी सिंची ले-पाणी बहार काढी नाखे. तो हे मंडितपुत्र! ते नाका, तेमांनु बधुं पाणी उलेचाया पछी शीघ्र ज पाणी उपर आवे ए खरूं के नहीं? हा, ते खरं-तुरत ज पाणी उपर आवे. एवामेव मंडिअपुत्ता ! अत्तत्तासंचुडस अणगारस्स ईरिआस- हे मंडितपुत्र! एज रीते आत्मा द्वारा आत्मामां संवृत मिअस्स जाव-गुत्तभयारिस्स, आउत्तं गच्छमाणस्स, चिट्ठमाण- थएल, ईसिमित अने यावत्-गुप्त ब्रह्मचारी तथा सावधानीथी स, निसीअमाणस्स, तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थ-पडिग्गह- गमन करनार, स्थिति करनार, बेसनार, सूनार तथा सावकंवल-पायपुंछणं गेण्हमाणस्स, णिक्खिवमाणस्स, जाव-चक्खुप- धानीथी वस्त्र, पात्र, कंबल अने रजोहरणने ग्रहण करनार अने म्हनिवायमवि वेमाया सुहुमा ईरिआवहिआ किरिआ कन्जइ, सा. मूकनार अनगारने यावत् आंखने पटपटावतां पण विमात्रापूर्वक पढमसमयबद्धपट्ठा, वितियसमयवेइआ, तइ असमयनिअरिआ, सा सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया थाय छे अने प्रथम समयमां बद्धस्पृष्ट वद्धा, पुडा, उदीरिआ, वेइआ, निजिण्णा, सेयकाले अकम्मं थएली, बीजा समयमां वेदाएली, श्रीजा समयमा निर्जराने पामेली वा वि भवति. से तेणद्वेणं मंडिअपत्ता ! एवं पञ्चइ-जावं च णं अर्थात् बद्धस्पृष्ट, उदीरित, वेदित अने निर्जराने पामेली ते क्रिया से जीवे सया समिनो एअइ, जाव-अंते अंतकिरिया भवति. भविष्यत्काळे अकर्म पण थइ जाय छे. माटे हे मंडितपुत्र! 'ज्यां सुधी ते जीव, हमेशा समित कंपतो नथी यावत्-तेनी मरण समये मुक्ति थाय छे' ए वात जे कही छे तेनुं कारण उपर कडुं ३. क्रियाधिकारादिदमाह-'जीवेणं' इत्यादि. इह जीवग्रहणेऽपि सयोग एवाऽसौ ग्राह्यः, अयोगस्य एजनादेरसंभवात. सदा नित्यम्, 'समि' ति सप्रमाणम्, 'एयइ' त्ति एजते कम्पते, " एज कम्पने" इति वचनात् . 'वेयइ ' त्ति व्येजते विविधं कम्पते, 'चलइ' त्ति स्थानान्तरं गच्छति, 'फंदइ' त्ति स्पन्दते किञ्चिच् चलति. " स्पदि किञ्चिच चलने" इति वचनात्. " अन्यमवकाशं गत्वा पुनस्तत्रैव आगच्छति" इति अन्ये. 'घट्टइ' त्ति सर्वदिक्षु चलति, पदार्थान्तरं वा स्पृशति. 'खभइ' त्ति क्षुभ्यति-पृथिवीं प्रविशति, क्षोभयति वा पृथ्वीम् , बिभेति वा. 'उदीरइ' ति प्राबल्येन प्रेरयति, पदार्थान्तरं प्रतिपादयति वा. शेषक्रियाभेदसंग्रहार्थमाह-' तं तं भावं परिणमइ' त्ति उत्क्षेपणा-ऽवक्षेपणा-5ऽकुञ्चन-प्रसारणादिकं परीणामं यातीत्यर्थः. एषां च एजनादिभावानां १. मूलच्छाया:-प्रक्षिप्तः सन् क्षिप्रमेव विध्वंसमागच्छति ? हन्त, विध्वंसमागच्छतेि. तद्यथा नाम हुदः स्यात्, पूर्णः, पूर्णप्रमाणः, व्यपलोटपन् , विकसन, समभरघटतया तिष्ठति, अथ कश्चित् पुरुषः तस्मिन् हदे एकां महती नावं शतालवाम् , शतच्छिद्राम्-अवगाहयेत् , तद् नूनं मण्डितपुत्र ! सा नास्तरालवद्वारेरापूर्यमाणा आपूर्यमाणा, पूर्णी, पूर्णप्रमाणा, व्यपलोट्यन्ती, विकसन्ती समभरघटतया तिष्ठति. अथ कश्चित् पुरुषस्तस्या नावः सर्वतः समन्ताद् आनवद्वाराणि पिदधाति, पिधाय नावुत्सेचनकेन उदकमुत्सिचेत् , तद् नूनं मण्डितपुत्र ! सा नौः तस्मिन् उदके उत्सिते सति क्षिप्रमेव ऊर्ध्वमुद्याति ? हन्त, उद्याति. एवमेव मण्डितपुत्र । आत्मात्मसंवृतस्य अनगारस्य ईर्यासमितस्य यावत्-गुप्तत्रहाचारिणः, आयुक्तं गच्छमानस्य, तिष्ठतः (चेष्टमानस्य) निषींदमानस्य, स्वरवर्तयमानस्य, आयुक्त वन-प्रतिग्रह-कम्बल-पादोञ्छनं गृह्णानस्य, निक्षिपमाणस्य, यावत्-चक्षुःपक्ष्मनिपातमपि विमात्रा सूक्ष्मा ईयोपथिकी क्रिया क्रियते, सा प्रथमसमयबद्ध-स्पृष्टा, द्वितीयसमयवेदिता, तृतीयसमयनिजरिता, सा बद्धा, स्पृष्टा उद्दीरिता, वेदिता, निजीणा, पुण्यरकाले अकर्म वाऽपि भवति तत् तेनार्थेन मण्डितपुत्र। एवमुच्यते-यावन स जीवः सदा समितं नो एजते, यावत्-अन्ते अन्तक्रिया भवतिः-अनु०. ( उद्याति. एवमेव मण्डितपुन उदकमुत्सिचेत् , तद् नूनमा समभरघटतया तिष्ठति. अथ काम Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसत्र. कसभावित्वेन सामान्यतः सदेति मन्तव्यम् , न तु प्रत्येकापेक्षया-क्रमभा वनां युगपदभावादिति. 'तस्स जीपस्त अंते' ति मर गान्ते. अंतकिरिय'त्ति सकलकर्मक्षयरूपा. 'आरंभइ' ति आरभते पृथिव्यादीन् उपवयति. 'सारंभइ' ति संरभते तेषु विनाशसंकला करोते, समारंभ शिसमारभते तानेव परितापयति. आह च-" संकप्पो संरंभो परितावकरो भये समारंभो। आरंभो उहवओ सम्बनयाणं विमाणं " इदं च क्रिया-क्रियायतोः कथंविद् अभेदः' इत्यभिधानाय तयोः समानाधिकरणतः सूत्रमुक्तम् . अथ ' तयोः कथंचिद् सोयति ति दर्शयित पूर्वोक्तमेवार्थ व्यधिकरणत आह-आरंभे' इत्यादि. आरम्ने अधिकारणभूते वर्तते जीवः, एवं संरम्भ, समारम्भे च. अनन्तरोक्तवाक्यार्थद्वयानुवादेन प्रकृते योजनामाह-'आरभमाणः, संरभमाणः, समारभमाणो जीवः' इत्यनेन प्रथमो वाक्यार्थोऽनूदितः. 'आरम्भे वर्तमानः' इत्यादिना तु द्वितीयः. 'दुक्खावणयाए' इत्यादी 'ता' शब्दस्य प्राकृतप्रभक्त्वाद-दुःखापनायां मरणलक्षणदुखःप्रापणायाम, अथवा इष्टवियोगादिदुःखहेतुपापणायां वर्तते-इति योगः. तथा शोकाऽऽपनायाम्-दैन्यप्रापणायाम् . 'जरावणयाए' ति शोकातिरेकात शरीरजीर्णताप्रापणायाम्, 'तिप्पावणयाए' त्ति तेपाऽऽपनायाम् , “हिपृऐपृक्षरणार्थी" इति वचनात् शोकातिरेकादेव अश्रलालादिक्षरणप्रापणायाम् . 'पिट्टावणयाए' ति पिट्टनप्रापणायाम् . ततश्च परितापनायां शरीरसंतापे वर्तते.. क्वचित पट्यो-'दक्खणयाए' इत्यादि. तच्च व्यक्तमेव, यच्च तत्र 'किलामणयाए ' ' उद्दावणयाए' इत्यधिकमधीयते तत्र 'किलामणयाए ' त्ति ग्लानिनने. 'उद्दावणयाए 'त्ति उत्वासने. ३. क्रियाना अधिकारथी हवे आ सूत्र कहे छे के, [जीये णं' इत्यादि.] जो के अहीं सामान्य प्रकारे जीव 'नुं ग्रहण कर्यु छेतो पण तो ते जीव, योग (शरीरयोग, मनयोग अने वचनयोग ) वाळो ज लेवो. कारण के योग विनाना जीवने एजन वगरे क्रियाओ होइ शकती नथी. सदा हमेशा, [ 'समियं ' ति ] प्रमाण सहित, [ 'एयइ ' त्ति ] कंपे छे, [ 'वेअइ' त्ति ] विविध रीते कंपे छ, [ चलइ ' ति] एक स्थानथी बीजे एजनादि. स्थाने जाय छे. [ 'फंदंइ 'त्ति ] कांइक चाले छे, " वीजे अवकाशे जइने वळी त्यां ज आवे छे" एम वीजाओ कह छे. [ 'घट्टर त्ति सर्व दिशाओमां चाले छ अथवा बीजा पदार्थनो स्पर्श करे छे, [ 'खुम्भइ ' त्ति ] क्षोभ पामे छे-पृथिवीमा पसे छे--अथवा पृथिवीने क्षोभावे छ वा बीवे छ. उदीरइति प्रबळतापूर्वक प्रेरे छ अथवा बीजा पदार्थनुं प्रतिपादन करे छे. बाकीना किया संबंधी बधा भेदोनो राह करवा कहे छ के. तं तं भावं परिणमइति ] उत्क्षेपण, अवक्षेपण आकुंचन अने प्रसारण वगरे पर्यायोने पामे छे. ए एजन ( कंपन) वगेरे किया क्रमपूर्वक थाय छे माटे ते हमेशा थाय छे' ए वात सामान्य प्रकारे समजबी. परंतु प्रत्येकनी अपेक्षाए न समजवी. कारण के क्रमपूर्वक थनारी क्रिया एक ज काळे पद शकती नथी. तस्स जीवस्स अंते 'त्ति ] अंत एटले मरणांत, [ 'अंतकिरिय 'त्ति ] सकट कर्गना नाशरूप जे क्रिया ते 'अंतक्रिया'. अन्तक्रिया. [ 'आरंभइ ' त्ति ] आरंभ करे छे अर्थात् पृथिवी वगेरेना जीवोने उपद्रव करे छ, [ ' सारंभइ' त्ति ] संरंभ करे छ.---पृथिवी वगरेना जीवोना नाशनो संकल्प करे छे, [ समारंभइ ' त्ति ] समारंभ करे छ अर्थात् पृथिवी वगेरेना जीवोने दुःख उपजावे छे. कछे के-" संरंभ एट ले हिंसानो संकल्प, समारंभ एटले परिताप उपजावनार प्रवृत्ति अने उपद्रव ए आरंभः ए प्रमाणे सर्व विशुद्ध नयोनुं मत छे. "क्रिया भने क्रियानो करनार' ए बने नोखा नोखा नथी, ए वातने जगाववा माटे आ सूत्र समानाधिकरणपूर्वक कयु छे. वळी 'क्रिया अने क्रियानो करनार' ए वन्ने कोइ रीते नोखा समानाधिकरण नोखा पण, ए वातने जणावया, पूर्वोक्त हकीकतने ज व्यधिकरणपूर्वक कहे छे के, [ 'आरंमे' इत्यादि.] अधिकरणरूप आरंभमां जीव वर्त छ. न्यनिकरण. प्रमाणे संरंभ अने समारंभमां पण समजवू. आरंभ करतो, संरंभ करतो अने समारंभ करतो जीव' ए वास्यवडे किया अने निपा करनारनो अभेद । एकता] सुचवाय छे. अने आरंभमां वर्ततो' इत्यादि वाक्य वडे क्रिया अने क्रिया करनारनो भेद (जूदाई ) सूचवाय छे. शं०-किया ... अने क्रिया करनारना अभेदने सूचववा माटे मूळमां जणावेलो 'आरंभइ, सारंभइ अने समारंभइ ' नो उल्लेख पूरतो छे, छतां फरीने ते माटे आ बीजो आरभमाणः' विगेरेनो उल्लेख शा माटे कयों छे ? समा०-आ बीजो उल्लेख तो मात्र पहेला उल्लेखनो अनुवाद छे अने तेने पहेला उलेखना उलखना समाधान. समर्थन माटे जणावलो छ. आ ज प्रकारे 'आरंभे वट्टइ' अने 'आरंभे वट्टमाणे' ए बन्ने उल्लेखो विषे पण समजवानुं छे-प बन्ने उल्लेखो त्रिया अने क्रिया करनारना भेदने सूचवे छे. [दुक्खावणयाए'] मरणरूप दुःख पमाड, अथवा इष्टवियोग वगेरे दुःखना हेतुओ पमाड्या-पदा करवा, तमां व छे. एम संबंध करवो. तथा शेकापना-दीनता पमाडवी, तेमां बर्ते हे, [ 'जूगवगयाए 'त्ति शोकना व शराथी शरीरने जीगता पमाडवी, तेमां वर्त छ, तिपोवणयाए ति शोकनो वधारो थवाथी ज रोवराव अथवा लाळ झराववी, तेमां व छ, 'पिहाव गयाए'त्ति] पीटाववामां अने पछी शरीरने संताप देवामां वर्ते छे. कोइ ठेकाणे [ 'दुश्वमयार' इलादे. ए प्रमाणे पाठ देखाय छ अने ते सट ज छे, .[ 'किलामणयाए, उद्दवणयाए'] ए प्रमाणे , जे अधिक पाठ देखाय छे तेमां [किलामणयाए एटले ग्लानि पमाडवी तेमां. अने [ उद्दावणयाए-त्ति] एटले त्रास उपजाववो तेगां. १. उक्तार्थविपर्ययमह-जीवेणं' इत्यादि, ‘णो एयइ' त्ति शैलेशीकरणे योगनिरोधाद् नो एजते इति-एजनादिरहितस्त नारम्भादिषु वर्तते. तथा च न प्राणादीनां दु:खापनादिपु. तथा च योगनिरोधाभिवानशुक्लध्यानेन सकलकर्मध्वंसरूपा अन्तक्रिया भवति. तत्र दृष्टान्तद्वयमाह-से जहा' इत्यादि. 'तणहत्वयंति तृणपूटकम्, 'जायतेअंसि' ति बहनौ, 'मसमसाविजा' त्ति शीघ्र दह्यते, इह च दृष्टान्तद्वयस्याऽपि उपनयनार्थः सामर्थ्यगभ्यः, यथा-एवम् एजनादिरहितस्य शुक्लध्यानस्य चतुर्थभेदानलेन कर्मदाह्य १. प्र. छायाः-संकल्पः संरम्भः परितापको भवेत् समारम्भः । आरम्भ उद्वकः सर्वनयानां विशुद्धानाम:--अगु० २. सरसावो-तत्त्वार्थसूत्रअ.६ सू० ९ “ रम्भः सकपायः संकलाः) परितापनया भवेत् समारम्भः । आरम्भः प्राणि वधः त्रिविधी योगस्ततो शेयः--माप्यः--- अनु. १. ' एज' आ धातु कंपन अर्थमां वपराय छ. २. आ धातु ( स्पंद् ) बाइक चालवू ' अर्थमां दः-श्रीअभय० ३. 'दुःखापनता' विगेरेमा जे 'ता' शब्द छे ते भावसूचक प्रत्यय छे, किंतु टीकाकारे' तो ए 'ता' दादने प्राकृतभव तरीके जणाव्यो :-अनु० ४ 'ति' अने 'ऐपृ' धातु 'खरवा' अर्थमां छ:-श्रीअभय Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक ३. दहनं स्यादिति. अथ निष्क्रियस्यैव अन्तक्रिया भवति-इति नौदृष्टान्तेन आह-'से जहा नाम ए' इत्यादि. इह शब्दार्थः प्राग्वत् . नवरम्- उद्दाइ' त्ति उद्याति-जलस्योपरि वर्तते. 'अत्तत्तासंवुडस्स' आत्मनि आत्मना संवृतस्य प्रतिसंलीनस्य-इत्यर्थः. एतदेव 'इरियासमिअस्स' इत्यादिना प्रपञ्चयति. 'आउत्तं 'ति आयुक्तम्-उपयोगपूर्वकमित्यर्थः. 'जाव चक्खपम्हनियायमवि' ति किं बहुना आयुक्तगमनादिना स्थूलक्रियाजालेनोक्तेन ? यावच्चक्षुःपक्ष्मनिपातोऽपि-प्राकृतत्वाल लिङ्गव्यत्ययः-उन्मेप-निमेषमात्रक्रियाऽप्यस्ति, आस्तां गमनादिका तावदिति शेषः, 'माय' ति विविधमात्रा अन्तर्मुहतीदेर्देशोनपूर्वकोटीपर्यन्तस्य क्रिया, कालस्य विचित्रत्वात. वृद्धाः पुनरेवमाहु:--" यावता चक्षुषोनि मेषोन्मेषमात्राऽपि क्रिया क्रियते, तावताऽपि कालेन विगात्रया-स्तोकयाऽपि मात्रया-इति. क्वचित् — विमात्रा' इत्यस्य स्थाने 'सपेहाए' त्ति दृश्यते. तत्र च स्वप्रेक्षया-स्वेच्छया चक्षुःपक्ष्मनिपातः, न तु परकृत:. 'सुहुम' त्ति सूक्ष्मबन्धादिकाला, 'इरियावहिय' त्ति र्यापथो गमनमार्गः, तत्रभवा ऐर्यापयिकी-केवलयोगप्रत्यया इति भावः. 'किरिय'त्ति कर्म सातवेदनीयमित्यर्थः. 'कजइ' त्ति क्रियते भवति-इत्यर्थः. उपशान्तमोह-क्षीणमोह-सयोगिकेवलि-लक्षणगुणस्थानकत्रयवर्तिवीतरागोऽपि हि सक्रियत्वात् सातवेद्यं कर्म बध्नाति-इति भावः. 'से' त्ति ईर्यापथिकी क्रिया, 'पढमसमयबद्धपुट्ट' त्ति बद्धा कर्मतापादनात् , स्पृष्टा जीवप्रदेशैः सर्शनात् , ततः कर्मधारये, तत्पुरुषे च सति-प्रथमसमयबद्धस्पृष्टा. तथा द्वितीयसमये वेदिता अनुभूतत्वरूपा-द्वितीयसमयवेदिता. एवं तृतीयसमये निर्णा-अनुभूतस्वरूपत्वेन जीवप्रदेशेभ्यः परिशाटिता-इति. एतदेव वाक्यान्तरेणाऽऽह -सा बद्धा स्पृष्टा प्रथमे समये, द्वितीये तु उदीरिता-उदयमुपनीता, किमुक्तं भवति? वेदिता, नहि एकस्मिन् समये उदीरणा उदयश्च संभवति-इत्येवं व्याख्यातम् . तृतीये तु निर्जीर्णा, ततश्च 'सेअकाले' त्ति एज्यत्काले, 'अकम्मं वा वि' त्ति अकर्म अपि च भवति. इह च यद्यपि तृतीयेऽपि समये कर्म अकर्म भवति, तथापि तत्क्षण एव अनीतभावकर्मत्वेन द्रव्यकर्मत्वात् तृतीये निर्जीर्ण कर्म-इति व्यपदिश्यते, चतुर्थादिसमयेषु तु अकर्म-इति. 'अत्तत्तासंवुडस्स' इत्यादिना च इदमुक्तम्- यदि संयतोऽपि साश्रवः कर्म बध्नाति, तदा सुतरामसंयतः. अनेन च जीवनावः कर्मजलपूर्यमाणतयाऽर्थतोऽधोनिमज्जनमुक्तम् , सक्रियस्य कर्मबन्धभणनाच अक्रियस्य तद्विपरीतत्वात् कर्मबन्धाऽभाव उक्तः. तथा च जीवनावोऽनाश्रवतायामूर्ध्वगमनं सामर्थ्यादुपनीतमवसेयमिति. ४. कहेली वातथी विपरीत यातने कहे छ अर्थात् हवे अक्रियपणाने लगती हकीकत कहे छे-'जीवे णं' इत्यादि. 1 णो कंपतो नथी. एयइ 'त्ति ] शैलेशी करण करती वखते योगनो निरोध थवाथी कंपतो नथी अने एजनादिक्रिया रहित होबाथी आरंभादिकमां वर्ततो नथी. तेम ले माटे ज प्राण वगेरेने दुःखादिनुं कारण यतो नथी. तेथी योगनिरोध नामना शुक्ल ध्यानवडे अक्रिय आत्मानी सकल कर्मना नाशरूप पळो. अंतक्रिया थाय छे. ते संबंधे वे उदाहरणो दर्शावे छे:-[ से जहा' इत्यादि. ] [ ' तणहत्थयं 'ति] तृणनो पूळो [ 'जायतेयंसि 'त्ति ] आगममसमसाविजइत्ति शीन बळी जाय. अहीं बन्ने उदाहरणनो सार सामथ्र्यगम्य छ. एम एजनादिरहित मनुष्यना, शुक्ल ध्यानना चोथा भेदरूप अग्निवडे कर्मरूप दाह्य ( वळवा योग्य वस्तु ) - दहन थाय छे. हवे निष्क्रिय मनुष्यनी ज अंतक्रिया थाय छे' ए वातने नावना उदाहरणथी न कहे क से जहा णाम ए' इत्यादि.] आ स्थळे शब्दार्थ पूर्वनी पेठे करवो. विशेष ए के, [' उद्दाइ 'त्ति ] पाणीनी उपर वर्ते छे-तरे छ, ... असत्तासंवुडस्स 'त्ति आत्मामां आत्मावडे संघृत-प्रतिसंलीन-तेनुं. ए ज वातने ['इरियासमियस्स'] इत्यादि सूरवडे सविस्तर कहे छे. आउत्तं' ति ] उपयोग पूर्वक-सावधानीथी. [ 'जाव-चक्खुपम्ह-निवायमवि 'ति ] वधारे तो शुं? अर्थात् गमन वगेरे स्थूल क्रियाओ सावधानीथी थाय एमां शुं पण, आंखनी उन्मेष अने निमेप क्रिया पण सावधानीथी थाय छे. [ 'वेमाय 'त्ति ] विमात्रा एटले विविध मात्रा न अर्थात अंतर्गहतथी मांडी देशोन पूर्वकोटि पर्वतनी क्रिया. कारण के काळ विचित्र छे. बळी वृद्धो तो आ प्रमाणे कहे छे-"जेटला समये आंखनी मोडा उन्मेष अने निमेष मात्र पण क्रिया थाय छे तेटला समये पण-विमात्रावडे-थोडी मानावडे पण". कोइ ठेकाणे 'विमात्रा' ए पदने स्थाने ('सपेहाए') एपद देखाय छे. ( सपेहाए') एटले स्वप्रेक्षावडे-खेच्छाबडे-चक्षुनी पापणन ढळबु थाय छे, पण ते परकृत नथी. ['सुहुम 'त्ति ] सूक्ष्मबंधादि काळवाळी, इरियाव हिय ' ति] ईर्यापथ एटले जबानो मार्ग, तेमां थएली जे क्रिया ते ऐर्यापथिकी अर्थात् केवल शरीरहेतुक क्रिया. [किरिय'त्ति ] क्रिया एटले कर्म---सातावेदनीय कर्म. [ 'कज्जइ 'त्ति ] थाय छे. उपशांतमोह, क्षीणमोह अने सयोगिकवली; ए त्रण गुणस्थानक उपर वर्ततो वीतराग पण सातावेदनीय कर्म बांधे छे, कारण के ते सक्रिय-क्रियावाळो----छे. [' से 'त्ति ] ते---ईर्यापथिकी क्रिवा. ढमसमयबद्धपुढ' ति ] प्रथम समये कर्मपणे उत्पन्न करी माटे बांधी-जीवना प्रदेशो साथे तेनुं स्पर्शन थयु माटे स्पर्शाई, बीजे समये अनुभव र थयो-वेदन थयु, ए प्रमाणे त्रीजे समय प्रदेशोथी छुटी पडी गई.---अनुभवाइ रही माटे जीवना प्रदेशोथी नोखी थइ गई. एज वातने बीजा वाक्यथी कहे छे, प्रथम समय बंधाइ अने स्पर्शाइ. बीजा समये तो उदयमा आणी-वेदी-अनुभवाइ गई. 'एक काळे उदीरणा अने उदय संभवतो नथी' एम छे माटे उदीरित' शब्दनु उपर प्रमाणे विवेचन कर्यु छ अर्थात् 'उदीरित' शब्दने अहीं वेदित अर्थमा योज्यो छे. त्रीजे अकर्म. समये तो निर्जराणी अने तेथी ['सेयकाले 'त्ति ] भविष्यकाळ्मां ते [ 'अकम्मं या वि 'त्ति ] अकर्म पण थइ जाय छे. जो के अहीं श्रीजे समये पण कर्म अकर्म थाय छे तो पण ते ज वखते भावकर्मनी रहितता होवाथी अने द्रव्यकर्मनी हाजरी होवाथी बीजे समये कर्म निर्जीण थयुं' एम व्यवहार थाय छे अने चोथा वगेरे समयोमां तो ' कर्म अकर्म थाय छे' एम व्यवहार थाय छे. [ ' अत्तत्तासंडवुस्स' इत्यादि.] ए सूत्र एम सूचवे छे के, जो आनववाळो संयत पण कर्मनो बंध करें, तो असंयत जीव कर्मनो बंध करे ते तो सुतर ज छे. कर्मात्मक पाणीधी भराती १. निवायो' ने बदले ‘निवार्य' थवानुं कारण प्राकृतमा लिंगनी अनियतता छ. २. प्रथम 'प्रथम' अने 'समय' नो तथा ' बद्ध' अने स्पृष्टनो कर्मधारय समास करवो, पछी ए वने पदोनो एकमेक साथे तत्पुरुष समास करवोः-भीअभय० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतका उदेशक ३. - भगवंत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ८? जीवरूप नौकानुं नीचे डबवू, आधी कयुं छे. क्रियावाळाने कर्मनो बंध होय छ एम छे माटे किया चिनाना मनुष्यने कर्मनो बंध नथी होतो. ए वात सूचवाय छे अने ए उपरथी ज एम समजाय छे के, जो जीवरूप नौका आस्रव [ काणा-कर्न आश्वानो मार्ग ] रहित होय तो तेनुं ऊर्दन । ऊर्ध्वगमन-पाणी उपर तरवु-थाय छे. प्रात्त अने अप्रमत्त संयतनो समय. १६. प्र०-मत्तसंजयस्सणं भंते ! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स १६ प्र०---हे भगवन् ! प्रमत्त संयमने , पाळता प्रमत्त सव्वा चिय.णं पमत्तद्धा कालओ केवचिरं होइ? संयमिनो बधो मळीने प्रमत्तसंयम -काळ केटलो थाय छे ? १६. उ०—मंडिअपुत्ता ! एगजीव पडुच जहणणं एकं १६. उ०--हे मंडितपुत्र ! एक जीयने आश्रीने जघन्ये एक समयं, उकोसेणं देसूणा पुचकोडी: णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा. समय अने उत्कृष्टे देशोन पूर्वकोटि, एटलो प्रमत्तसंयम काळ- थाय छे. अने अनेक. जातना जीवोने आश्रीने सर्व काल, प्रमत्तसंयम काळ छ. १७. प्र०-- अप्पमत्तसंजयस्स णं भते! अप्पमत्तसंजमे वट्ट- १७ प्र०--हे भगवन् ! अप्रमत्त संयमने पाळता अप्रमत्त माणस्स सव्वा विणं अप्पमत्तद्धा कालओ केवाचरं होइ? संयमिनो बधो मळीने अप्रमत्तलंयम-काळ केटलो थाय छे? १७. उ०.. मण्डि अपुत्ता ! एगजीवं पञ्च जहनेणं अंतोम्- १५ उ०--हे मंडितपुत्र ! एक जीवने आश्रीने जघन्ये हुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुचकोडी. णाणाजीचे संबद्धं. अंतर्महत अने उत्कृष्टे देशोन पूर्वकोटि, एटलो अप्रमत्तसंयम-काळ थाय छे. अने अनेक जातना जीवोने आश्रीने सर्व काळ, अप्रम संयम-काळ छे. -सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे मण्डिअपने -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नराइ; बंदित्ता नमंसित्ता एम की भगवान्, गौतम मंडितपुत्र सनगर श्रमण गवंत महासंजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति. वीरने वांदे छे, नमे छे अने तेम करीने संयम तथा तपवडे आत्माने भावता विहरे छे. . ५. अथ यदुक्तम्-'श्रमणानां प्रमादप्रत्यया किया भवति' इति. तत्र प्रमादपरत्वम् , तद्विपक्षत्वात् तदितरत्वं संयतस्य कालतो निरूपयन् आह-'पमत्त' इत्यादि. 'सव्वा वि य णं पमत्तद्ध' ति सी अपि च-सर्वकालसंभवाऽपि च प्रमत्ताद्धा प्रमत्तगुणस्थानककालः कालत' प्रमताद्धा-समूहलक्षणं कालमाश्रित्य, कियच्चिरं कियन्तं कालं यावद् भवति ?--इति प्रश्नः. ननु 'कालतः' इति न वाच्यम् , ' कियचिरम् ' इत्यनेनैव गार्थत्वात् . नैवम् , ' क्षेत्रतः' इत्यस्य व्य पच्छेदार्थत्वात् . भवति हि 'क्षेत्रतः कियचिरम् ?' इत्यपि प्रश्नः. यथा-अवधिज्ञानं क्षेत्रतः कियचिरं भवति ? त्रयस्त्रिंशासागरोपमाणि, काल तस्तु सातिरेका षट्पष्टि:- इति. 'एकं समय' कथम्? उच्यते-प्रमत्तसंयमप्रासप्रत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणात्. देसणा पुवकोडि' त्ति किल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्नप्रमाणे एव प्रमत्ता-ऽप्रमत्तगुणस्थानके, ते च पर्यायेण जायमाने देशानपूर्वकोटिं यावद उत्कण भवन., . यमवतो हि पूर्वकोटिरव परनायुः, स च संयममष्टासु वर्षेषु गतेषु एव लभते, महान्ति च अप्रमत्तान्तर्मुहूर्तापेक्षया प्रमत्तान्त हूता ने कल्प्यन्ते, एवं च अन्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्रमत्वाद्धानां सर्वासां मील नेन देशोनपूर्वकोटि कालमानं भवति. अन्ये त्याहुः- अष्टवर्षोनां पूर्व कोटं यावद् उत्कर्पतः प्रमत्तसंयतता स्यात्" इति. एवम्--अप्रमत्तसूत्रमपि. नवरम्-- जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ति किल अप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्य . अन मुहूर्नमध्ये मृत्युनं भवति-इति. चूर्णिकारमतं तु-" प्रमत्तसंयतवर्ज: सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त : उच्यते, प्रमादाभावात. स च उपशमश्रणी प्रतिपद्यमानो मुहर्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्यकालो लभ्यते-इति. देशोनपूर्वकोटी तु केवलिनमाश्रित्य" इति. . ५. हमणां जे कडं के, श्रमणोने प्रमादने लीधे क्रिया होय छे. तो हवे प्रमादपरता, तथा तथी विपरीततावाटी, अप्रमादपरता; ते बन्ने १. मूलच्छाया:-प्रमत्तसंयतस्य भगवन् । प्रमत्तसंयमे वर्तमानस्य सीऽपि च प्रमत्तादा कालतः किचिरं भवति? गण्डितपुर! एकजीव प्रतीत्य जघन्येन एक समयम् , उत्कृष्ठेन देशाना पूर्व पोटी. नानाजीवान् प्रतीत्व सबीखा. अप्रमतमयतस्य भगवन् ' अप्रमत्तने वर्तमानस्य सवी असे अप्रमत्ताद्वा कालत: फियांचरं भवति? मण्डितपुत्र! एकजीव प्रतीत्य जघन्न अन्तर्मुहूर्तम, उत्कृष्टन देशोना पृषकोती. नानाजीवान् प्रतीत्य सवीद्धम्. तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् । हाते भगवान् गौतमो नन्तिपत्रोनगारधनणं भगवन्त महावीर बन्दो, न स्यात, चन्दित्वा, नमस्थिला संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरतिः-अनु०.. १. चूर्णिगतः पाठो यथा:--पमत्तस्स जहण्यो कालो समओ, एमो य अप्पमत्ताणतो चवमाणो पमत्ततंजतो कार करेजा तत्थ लाभति देशुगं पुरुषको भिताए अप्पमत्तो जहण कालो उवसमसेढी पडिवज्जमाणो मुहत्ते अभिंतरतो कालं करेज्जमाणो होति केवली देसूर्णः-अनु० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 मारायचन्द्र-बिमागमसंग्रहे शतक ३. उद्देशक ३. प्रमताहा. संयतने केटला बाळ सुधी रहे, ए यातनुं निरूपण करवा कहे छ के, [ 'पमत्त' इत्यादि.] [ सव्वा वि य गं पमत्त 'ति] सर्व काळे संभयतो शंका. प्रमत्ताद-प्रमत्तगुणवानकनो बधो य काळ, काळथी-प्रमत्तादा समूहरूप काळने आश्रीने-केटला काळ सुधी रहे ! ए प्रमाणे प्रश्न छे. शं०-आ सूत्रमा कालो-काळथी' अने कियश्चिरं-क्या सुधी' ए बन्ने मूकवानी अगत्य नधी. कारण के 'कालओ'ए शब्दनो अर्थ कियचिरम् ' : समाधान. शब्दना ज अर्थमा आवी जाय छे माटे सूत्रमा 'कालओ' शब्द कहेवानी शुं जरूर छे ? समा -- कालो'ए शब्द पना व्यवच्छेदने सारु मूक्यो छे. कारण के क्षेत्रविषयक प्रयोग कियश्चिरम् ' शब्द पण प्रयोजाय छे. जेम के, अनधिज्ञान, क्षेत्रथी कियश्चिरम् '- क्यासुधी छे? तेत्रीश समय. सागरोपम. अने काळयी तो अवधिज्ञान, छासठ सागरोपम करतां वधारे छे. ["एक समयं '] ते केवी रीते? तो कई छे के, प्रमत्त संयमने प्राप्त कर्या पछी तुरत ज एक समय वीत्या पछी--मरण थाय तो एक समय घटे छे. ['देसूणा पुब्बकोडि ' त्ति ] प्रमत्तगुणस्थानक अने अपमतगुणस्थानक, पटोरी ए बनेनो प्रत्येकनो समय, अंतर्मुहूर्त छे. ते अंतर्मुहूर्त प्रमाण काळयामा बन्ने गुणस्थानक पण, पर्याय (जूदे जूरे समये कमवार ) भवाथी दशोन पर्वकोटि सुधी उत्कृषपणे होय छे. कारण के संयमवाळा मनुष्यनु वधारमा वधारे आयुष्य पूर्वकोटि-जटलं जहोय छे. तेयो मनुष्य, आठ घरस गया पछीज संयमनो लाभ करे छे. अपमत्तनां अंतर्मुहूर्तो करतां प्रमतना अंतर्नुहूर्तो नोटां के एम कलाय छे. अने एवी रीते अंतर्मुहूर्त प्रमाण वधा बाजाओ. प्रमत्तादाने मेळवतां तनो काळ देशोन पूर्वकोटि थाय छे. बीजाओ तो कहे छेके, " बारेमां वधारे आ5 से ऊणी पूर्वकोटि सुधी प्रमत्तसंयतपणु टके छ." एपमाणे अप्रमत्त संबंधी पण सूत्र कहे. विशेष एक, 'जनेणं संतोमुहुत्तं 'ति ] अप्रमत्ताद्वामा एटले अप्रमत्त गुणस्थानकने समये वर्तमान मनुष्य अंतर्मुहुर्तनी बचा मरतो नधी. चूर्णिकारनो मत तो अ'.: ..... प्रात्त संयत सिवाय बाकीना बधा य सर्व पिरतिवाब मनुष्यो, प्रसाद नहीं होवाने लीधे अप्रमत कहवाय छे. एवो कोइ उपशम श्रेणिने मतो मनुष्य, मुहूर्तनी वब काळ करे तो ते गाटे जवन्य काळ लन्ध थड शकेले अने देशोन पूर्वकोटि तो केवळज्ञानिने आधीने छ" चूगिकार लषणसमुद्रनो भरती-ओट. १८. प्र०-भते । ति भगवं गोयमे समणं मगवं महावीरं १८. १०--'हे भगवन् ! ' एम कही भगवान् गौतम, श्रमण चंदह, नम: बंदिता, नमंमित्ता एवं धयागी:----कहाणं मन्तं ! भगवतं महावीरने वादे छे, नमे छे अने नेम करी तेयो आ प्रमाणे लवासमहे चाउस-पम-दिड-पुण्णमासिणीस अतिरेगं वह वा! बोल्या के:--हे भगवन् ! लयण समुद्र, चौदशने दिवसे, बाठमने हायडू या! दिवसे, अमासने दिवसे अने पूनमने दिवसे बवारे केम वधे छे अने पधारे केम घटे छे? . १८. उ०-जहा जीवामिगमे लवणसमुहवत्ताया नेयव्वा, १८. उ०-हे गौतम! जेम जीवाभिगम सूत्रमा स्वण समद माय-लोअधिई, लोषाणुभावे, संबंधे कहुं छे तेम अही जाणवु अने यावत्-ते 'टोफस्थिति' अने 'लोकानुभाव ' ए शब्द सुधी जाणवु. -सेपं मंते !, भंते ! वि जाप विहरह. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही यावत्-विहरे छे. भगवंत-अजसुहम्मसामिपप्पीए सिरीभगवईसुत्ने ततिअसये तइओ किरमा-उदेसो सम्मो . ६. 'णाणा जीवे पडुच सव्वद्धं' इत्युक्तम् , अथ सर्वाद्धाभाविभावान्तरप्ररूपणाय आह-'भंते' त्ति इत्यादि. 'अतिरेगं 'ति तिथ्यन्तरापेक्षया अधिकतरमित्यर्थः, 'लवणसमुहवत्तव्वया नेयव्व' ति जीवाभिगमोक्ता. कियद् दूरं यावत् ? इत्याह-'बाव लोअट्टिई' इत्यादि. सा चैवमर्थत:-"कस्माद् भदन्त लवणसमुद्रश्चतुर्दश्यादिषु अतिरेकेण वर्धते वा? हीयते पा? इह प्रश्ने उत्तरम्-लवणसमुद्रस्य मध्यभागे दिक्षु चत्वारो महापातालकलशा योजनलक्षप्रमाणाः सन्ति, तेषां चाऽधस्तने त्रिभागे वायुः, मध्यमे वायूदके, उपरितने तूदकमिति. तथाऽन्ये क्षुदपातालकलशा योजनसहस्रप्रमाणाश्चतुरशीति उत्तराष्टशताधिकसप्तसहस्रसंख्याः पावादियुक्तत्रिभागवन्तः सन्ति. तदीयवातविक्षोभवशाद जलवृद्धि हानी अष्टम्यादिपु स्याताम्. था लयणशिखाया दश योजनानां सहस्राणि विष्कम्भः, पोडश उच्छ्यः , योजनार्धमुपरि वृद्धि-हानी इत्यादि. अथ कस्माल् लवणो जम्बूद्वीपं नोपाययति ? अहंदादिप्रभावात् , लोकस्थितिर्वा एषा इति. एतदेवाह-"लोअहिह' त्ति लोकव्यवस्था, 'लोआणुभाव' इति लोकप्रभावः. मावरसुधर्मसामिप्रणीते श्रीभगवतीस्त्रे तृतीयशते कियाख्ये तृतीय उद्देश के श्रीअभय देवसूरिविरचित विवरण समाप्तम्. १. दूर्णिनो मूळ पाठ आगळ जगावेको छः-अनु० १. मूलछाया:-मगवन् । इति भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्तं महावीरे वन्दते, नमस्यति, वन्दिवा, नमस्थिता एवमयादी :-स्माद भयषन्। सयपसमुनः चतुर्दशी-अवगी-उद्दिध-पूर्णमासिनीपू अतिरेक वर्धते वा! हीयते चा? यथा जीदाभिगमे लवणसमुदायता ज्ञातव्या, यावत्-सोकस्थितिः, सोकानुगावः, तो भगवन् ! भनान् ! इति यावत्-विहरतिः-अनु. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ..भगवत्सुधर्मस्वामित्रणीत भगवतसूत्र. :३ C लवण समुद्र भरती ओ ६. [ बाणा जीवे पहुंच सम्बद्धं की ] सूपां सर्वाद्वाभाषी प्रमादपरता अने अप्रमादपरताने सूची है. हमे सदा माथी या मीना * पदार्थोंनुं निरूपण करवा कहे छे के, [ मंते' इत्यादि. ][ अतेरे ' [ बीजी तिथिनी अपेक्षा बधारे, [सदेवता यत्ति ] जीवाभिगमः सूत्रमां कहली लवण समुद्र संबंधी वक्तव्यता कहेवी. क्यां सुधी ? तो कहे छे के, [' जाब-लोयट्टिई ' इत्यादि. ] ए जीवाभिगम सूत्रमां कहली लवणसमुद्र संबंधी वक्तव्यता आ प्रमाणे छे:-" हे भगवन् ! चतुदेशी विगेरे तिथि ओमां लवण समुद्र वधारे कम वधे छे ? अथवा बचारे के घंटे (उत्तर) समुद्री व चारे दिशाओ चार मोटा पाताळ शो के अने ते माप ताम्र योजन (प्रमाण) छे. तनी मीचला त्रिभागमां वायु छे, बचलामां पाणी अने वावु छे अने उपरना भागमां तो पाणी है तथा बीजा पाताळ फळ पण छे गेलो नाना यवनुं कार (इ) छे, तेनुं माप हजार योजननुं छे तथा तेती संख्या ७८८४ के. ते बना पण बायु गरेधी युक्त त्रिभागवाळा हे तंत्रना बावोमीण समुद्रम पाणीनो वधारो अने घटाडो अष्टमी वगेरे तिथिओमां थाय छे. तथा लवण समुद्रनी शिखानो विष्कंभ दश हजार योजन छे अने तेनी उंचाइ सोळ हजार योजन छे तथा उपर अडयो योजग पाणीमो बधाशे अने घटाडो थाय छे " इत्यादि. पण समुद्र, जंबुद्वीप के पावतो थी ?. ( उत्तर-) अर्हत वगेरेना प्रभावथी अथवा एवी ज लोकनी स्थिति छे. ए ज वातने कहे छे के, [' लोयडिइ 'त्ति ] लोकनी व्यवस्थ एवीज छे. [' लोयाणुभावे 'त्ति ] लोकनो प्रभाव एवो छे. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवरोऽनुगतनरवरो बाहको दान्ति शान्योः दयात् श्रीदेवः खं मारा चामुख्यः ॥ १. श्रीजीवाभिगमसूत्रमां लवणसमुद्र विषेनी हकीकत आ प्रमाणे :कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे चाउद्दस मुद्दि - पुण्णिमा सिणीसु अतिरेगं वति वा? हायति वा ? > 3 गोवमा बुद्दीवर उदिखि बाहिरिहाओ तास पंचाणउर्ति जोयणसहस्साई ओगाहिता एत्थ णं चत्तारि महालिंजर ( महा रंजर ) संटाणसंठिया, महइनहालया महापायाला पण्णत्ता. तं जहा:बलयामुद्दे, केतूए, जूवे, ईसरे. ते णं महापाताला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उब्वेहेणं, मूले दस जोयणसहस्याई विक्संभणं, मज्जे एगपदेलियाए सेडीए एमेजण उपरिं मुदमुजे दसजोयस हस्साइं विक्लमेणं. तेसि णं महापायालाणं कुड्डा सम्वत्थ समा दसजोयण सतबादला पण्णत्तः सव्वन इरामया, अच्छा जाव पडिवा. तत्थ णं बहवे जीवा, पोग्गलाय अवक्कनंति, विउक्कमंति, चयंति, उपचयंति - सासया णं ते कुड्डा दव्बट्टयाए, वण्ण-पज्जवेहि असासया. तत्थ णं चत्तारि देवा मदिढोया जान पलिशोषमडिया परिवर्तति से जड़ा फासे महाकाले वेलने, पभंजणे. तैसि णं महापायालाणं तओ तिभागा पण्णत्ता, तं जहा-देहिले तिभागे, मज्झिले तिभागे, उपरि तिभागे. ते णं तिभागा तेत्ती जोयणसहस्सा, तिष्णि य तेत्तीस जोयणसतं जोयणतिभागं च बाइलेणं. तत्थ णं जे से देद्रिले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ संचिट्ठति, तत्थ णं जे से मझिले तिभागे एत्थ णं वायुकाए य, आउकाए य संच्छिति, तत्थ णं जे से उबरिले तिभागे एत्थ णं आउकाए संचिद्धति, अदुत्तरं चणं गोयमा ! लवणसमुद्दे तत्थ तत्थ देसे बहवे खुड्डा लिंजरसंठाणसंटिया खुट्टपायाल कलसा पण्णत्ता, ते णं खुट्टा पाताला एममेयं कोणसदस्से एमेजोमेण म एमपदेसियाए सेडिए, एमे जोगणसदस्से मे रोसि खुड्डागपायालाणं कुड्ढा सव्वत्थ समा-दस जोयणाई बाहलेणं पण्णत्ता-सन्न वइरामया अच्छा जाव - पडिवा. तत्थ णं वहवे जीबा, पोग्गला य जावअसासया वि. प प अतिमहतया देवतादिपरिमाहिया तेतिथे पाताला रातो तिभागा पाता से जहादेविमाने मजिसने तिभागे, उवरिले तिभ गे. ते णं तिभागा तिण्णि तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं पण सत्य जेसे द्विले विभागे एध वाउकाओ, मझिले तिभागे बाउआए, आउयाते च, उवरिले आउकाए एवामेव सपुव्यावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अ य चुलसीता पातालसता भवतीति मक्खाया. तेसि णं महापायालाणं, खडगपायालाण य हेडिम - मज्झमि सुतिभागेसु बहवे ओराला वाया संसेयंति, संमुच्छिमंति, एवंति चति, कंति शुम्भंति, पति, फंईति तं तं भावं परिणति तथा गं उद उणाधिनति तथा देवि महानाया पायाला हे भगवन् ! चादश, आटम, अनास अने पूनमना दिवसोमां लवण समुद्रमां भरती आववानुं अने ओट थवानुं शुं कारण ? हे गौतम! जंबूदीपनी वेदिकाना चारे दिशाना बहारना छेडाथी पंचाणुं पंचाणु हजार योजन जेटला लवणसमुद्रना भागने एकीने मोटामां मोटर्स चार महापातालो रह्यां छे, जेभोनो आकार मोटा कुंडा जेबो छ अने जेओ नां नाम आ प्रमाणे छे:- वडवामुख, केयूर यूप अने ईश्वर. ते महापातालोनो उद्वेध एक लाख योजननो छे, तेओनां मूळनो विष्कंभ दस हजार जनो एक प्रदेशनी पूर्वको मध्य विमा योजन छे. तेओना मुखभागनो विष्कंभ दस हजार योजननो छे, ते महावातालोनी भींत बधे ठेकाणे सम छे अने तेनी जाडाई दस हजार योजननी छे. ते भींतो वज्रमय छे अने सुंदर यावत् प्रतिरूप छे. तेमां गा जीव अने घणा पुलो अपकमे छे, पेदा थाय छे, चय पाने छे अने उपचय पाने छे. ते भाँती अनेक तथा पनी अपेक्षा अशा श्वती छे. त्यां पल्योपमना आयुश्यवाळा अने यावत्-मोटी ऋद्धिवका चार देवो रहे छे. तेमांनो एक काल, बीजो महाकाल, व्रजो वेलत्र अने चोथो प्रभंजन छे. ते महापातालोना त्रण विभाग छे, जेमके नीचेनो, बचलो अने उपरनो त्रिभाग, ते विभागोनी जाडाइनुं माप तेत्रीस हजार प्रणसे तेत्रीस योजन उपरांत एक योजन विभाग ( एक तृतीयांश योजन) छे. तेमां जे नीचेनो विभाग छे तेनां वायुकाय रहे छे, वचला त्रिभागमा वायुकाय अने जलकाय रहे छे अने उपरना विभागम जलकाय रहे छे. वळी, हे गौतम! लवणसमुद्रमा घणी जग्याए नाना नाना कुंडानी जेना वीजा पम पमा शुपाताल छे ते क्षुद्रतास फलशोनों उप एक एक हजार योजनको मनो मूलन विष्कंभ सो नोजननो छे अने एक प्रदेशनी श्रेणिपूर्वक तेना मध्यनो विष्कंभ हजार योजननो छे तथा तेना उपला भागनो विष्कंभ सो योजननो छ. से क्षुद्रपातालोनी भी थे पासमा द योजननी से बीभतो वजनी छे अने यावत् सुंदर तथा प्रति छे. तेमां घणा जीवो अने पुनको अपक्रने छे, पेदा थाय छे, चय पामे छ भने उपप पाने छ भने यावत् छे ते क क्षुपाताल देवाधिष्ठित छे. ते देवनुं आयुष्य अडधा पत्योपमनुं छे. ते क्षुद्रपातालना त्रण त्रिभाग हे. जेमके; नीचेनो, वचलो अने उपरनो. ते प्रत्येक विभागनी जाडाई व्रणसे तेत्रीस योजन अने एक योजन विभग छे नीचेना विभागमां वायुकाय छे, बचला त्रिभागमां वायुकाय अने जलकास पत्रे छे सने उपरना विभागमा का पूर्व पश्चिम मुभीगा पणसमुद्रना भागमा सात हजार आउने चाराशा दि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ शतक ३.उदेशक ३. पाताल कलशो छे. ते महापाताल अने क्षुद्रपातालोना नीचला तथा वचला त्रिभागोमां ऊर्ध्वगमनशील ( उदार) एवा घणा वायुओ संस्वेदे छ, संमूछें छे, कंपे छे, चाले छे, क्षोभवळा थाय छे, परस्पर संघट्ट करे छे, स्पंदे छे अने ते ते स्थितिए परिणमे छ. ज्यारे एम थाय छ त्यारे ते पाणी उंचुं यति उकेरे खारे पानी पण नी वचे पण ज्यारे ते पत्रनो उदीराय छे त्यारे पाणी उचुं उछळे छे अने ज्यारे एम थतुं नथी त्यारे पाणी उंचं उछळतुं नथी. हे गौतम! ए रीते लवण समुद्रमां थता भरती ओटना कारणनी हकीकत छेः -- जीवाभिगम, पृ० ३०४ - ३०५ ( आगगो० ): -- अनु० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे यहेट्ठिल-मज्झिलेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला जाव तं तं भावं न परिणमंति तया णं से उदए नो उन्नामिज्जइ, अंतरा बि य णं ते चायं उदीरेंति, अन्तरा वि य णं से उदगे उण्णामिज्जइ, अंतरा वि य ते वाया ना उदीरंति, अंतरा वि य णं से उदगे णो उण्णामिज्जइ ; एवं खलु गोयमा ! लवणसमुद्द चाउदपुण्मः सिणो भइरे अरे तथा वाशीवाभिगम पृ० ३०४ २०५ ( आगमो० ):- अनु० / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ४. अनगार यानरूपे जता देवने देवरूपे जूवे के यानरूपे-चतुर्भगी.-एवा देवी अने देव-देवी संबधेना प्रश्नो.-वृक्षने जोनारो अनगार तेना अंदरना के बहारना भागने जूवे ?-चतुर्भगी.-ए रीते मूळ, कंद, स्कंध, छाल, डाळ, पत्र, फुल, फळ तथा बीजना प्रश्नो.-पी तालीश भांगा -मनुष्य, तिच, वाहन अने पताकाने आकारे वायु बाय?-मात्र पताकाने आकारे वाय.-कारण.-पताकाने आकारे अनेक योजन जाय ?-हा.-आत्मा -पर ऋद्धि-आरमप्रयोग.-परप्रयोग.-वायु पताका छ?-ना-तेवे ज आकारे जनारी वादळीओ.-कारण -मरण पूर्वेनी लेश्यामळो नैरयिक.-ज्यो तेपिक तथा वैमानिकोनी लेश्या-लेश्याद्रव्यो.-अनगार, बहारनां पुद्गलोने लीधा विना वैभारने ओळंगे ?-ना.-लईने ?-हा.-विकुर्वणा करन रो मायी.-सारण.-प्रणीत भोजना-अप्रणीत भोजन.-आहारपरिणाम-प्रणीत भोजनधी मांस अने लोहीनी प्रतनुता-अस्थिओनी पनता.-अप्रणीत भोजनथी मांस अने लोहीनी घनता-अस्थिओनी प्रतनुता.-मायी विराधक.-अमायी आराधक. १.प्र०-अणगारे णं भन्ते ! भावियप्पा देवं वेउब्विय- १. प्र०—हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ, पासइ ? द्घातथी समवहत थएला अने यानरूपे गति करता देवन ..., जूए? १. उ०-गोयमा ! अत्थेगईए देवं पासइ, नो जाणं १. उ०--हे गौतम! कोई तो देवने जूए एण यानने न पासइ; अत्थेगईए जाणं पासइ, नो देवं पासइ; अत्थेगईए देवं जूए. कोई यानने जूर पण देवने न जूए. कोई देव अने यान, पि पासइ, जाणं पिपासइ, अत्थेगईए णो देवं पासइ, नो ए बन्नेने जूए अने कोई तो देव अने यान, ए बेमांथी कोइ जाणं पासइ. वस्तुने न जूए. २. प्र०-अणगारे णं भन्ते ! भाविअप्पा देविं वेउधिअ- २. प्र.----हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुदघासमुग्घायणं समोहयं जाणरूवेण जायमाणं जाणइ, पासइ ? तथी समवहत थएली अने यानरूपे गति करती देवीने जाणे, जूए ? २. उ०-गोयमा ! एवं चेव. २. उ०---हे गौतम! पूर्व प्रमाणे ज जाणवू. ३. प्र०----अणगारे गं भन्ते ! भाविअप्पा देवं सदेवी अं ३. प्र०-- हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुदघावेउविअसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ, तथी समवहत थएला अने यानरूपे गति करता एवा देवीवाळा पासइ ? देवने जाणे, जूए ? ३. उ०—गोयमा ! अत्थेगईए देवं सदेवी अंपासइ, नो ३. उ०--हे गौतम! कोई तो देवीवाळा देवने गए, पण यानने जाणं पासइ, एएणं अभिलावेणं चत्तारि भंगा. न जूए. ए अभिलापथी अहीं पूर्व प्रमाणे चार भांगा करी लेवा. ४. प्र०-अणगारे णं भन्ते ! भाविअप्पा रुक्खस्स किं ४. प्र०- हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, शुं झाडना अन्तो पासइ, बाहिं पासइ ? अंदरना भागने जूए के बहारना भागने जूए ? १. मूलच्छायाः-अनगारो भगवन् ! भावितात्मा देवं वैक्रियसमुद्घातेन समवहतं यानरूपेण यान्तं जानाति , पश्यति ? गौतम! अस्त्येकको देवं पश्यति, ना यानं पश्यति; अस्त्येकको यानं पश्यति, नो देवं पश्यति; अस्त्येकको देवम् अपि पश्यति, यानम् अपि पश्यति; अस्त्येकको ना देवं पश्यति, नो यानं पश्यति. अनगारो भगवन् । भावितात्मा देवीं वैक्रियसमुदुघातेन समबहतां यानरूण यान्ती जानाति, पश्यति ? गातम ! एवं चैव. अनगारे। भगवन् ! भावितात्मा देवं सदेविकं वैक्रियसमुद्घातेन समवहतं यानरूपेण यान्तं जानाति, पश्यति ? गौतम ! अस्त्येकको देवं सदेविकं पश्यति, नो यानं पश्यति; एतेन अमिलापेन चत्वारो भङ्गाः, अनगारो भगवन् ! भावितात्मा वृक्षस्य किम् अन्तः पश्यति, बहिः पश्यति :-अनु. १. जूओ-भगवती प्र० ख० पृ. २६२-समुद्घातः-अनु. Jain Education international Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशकः४, ४. उ०--चउभंगो. एवं-किं मूलं पासइ, कंदं पासइ ? .. ४. उ०-- हे गौतम ! अही पण चार भांगा कहेवा. ए ज चउभंगो. मूलं पासइ, खधं पासड़ ? चउभंगो. एवं मूलेणं रीते शु मूळने जूए छे ? कांदाने जूए छे? हे गौतम! पूर्व प्रमाणे बीअं संजोएअव्वं, एवं कंदेण वि समं संजोएअव्वं जाव-बीअं. चार भांगा करवा. मूळने जूए छे? स्कंधने जूए. छ? हे गौतम! एवं जाव-पुप्फण समं बीअं संजोएअव्वं. अही पण चार भांगा करवा. अने एज प्रमाणे ' मूळनी साथे बीजनो संयोग कबो, ए रीते कंदनी साथे पण जोडq यावत् बीज. ए प्रमाणे यावत्-पुष्पनी साथे बीजनो संयोग करयो. ५. प्र०-अणगारे णं भन्ते ! भाविअप्पा रुक्खस्स किं ५. प्र०-हे भगवन्! भावितामा अनगार, शुं वृक्षन फळ फलं पासइ, बीअं पासइ ? जूए के बीज जूए? ५. उ०-चउभंगो. ५. उ०--हे गौतम ! अहीं चार भांगा करवा. १. 'अनन्तरोद्देशके क्रिया उक्ता, सा च ज्ञानवतां प्रत्यक्षा' इति तदेव क्रियाविशेषमाश्रित्य विचित्रतया दर्शयंश्चतुर्थोद्देशकमाह, तस्य चेदं सूत्रम्:-' अणगारे णं' इत्यादि. तत्र 'भाविअप्प 'त्ति भावितात्मा संयम-तपोभ्याम् , ' एवंविधानामनगाराणां हि. प्रायोऽवधिज्ञानादिलब्धयो भवन्ति ' इति कृत्वा भावितात्मा इत्युक्तम्. 'वेउब्बियसमुग्घाएणं समोहयं ' ति विहितोत्तरशरीरमित्यर्थः. 'जाणरूवेणं 'ति यानप्रकारेण शिबिकाद्याकारवता वैक्रियविमानेन इत्यर्थः. 'जायमाणं 'ति यान्तं गच्छन्तम् , ' जाणइ 'त्ति ज्ञानेन, 'पासह 'त्ति दर्शनेन. उत्तरमिह-चतुर्भङ्गी, विचित्रत्वादवधिज्ञानस्येति. ' अंतो' ति मध्ये काठसारादि, 'बाहिं 'ति बहिर्वति त्वक्पत्रसंचयादि, एवं मूलेणं' इत्यादि. एवमिति मूल-कन्दसूत्रामिलापेन मूलेन सह कन्दादिपदानि वाच्यानि यावद् बीजपदम्, तत्र च मूलम् , कन्दः, स्कन्धः, त्वक, शाखा, प्रवालम् , पत्रम् , पुष्पम् , फलम् , बीजं चेति दश पदानि, एषां च पञ्चचत्वारिंशद् द्विकसंयोगाः, एतावन्त्येव इह चतुर्भङ्गीसूत्राणि अध्येयानि. एतदेव दर्शयितुमाह-' एवं कंदेण वि' इत्यादि. . १. आगळना उद्देशकमा क्रिया संबंधे हकीकत कही छे. अने ते क्रिया, ज्ञानी मनुष्योने प्रत्यक्ष होय छे माटे ते ज क्रियाविशेषने आश्रीने तेने विचित्रपणे देखाडता चोथो उद्देशक कहे छे. अने तेनुं प्रथम सूत्र आ छे:-[अणगारे णं' इत्यादि.] तेमां [ भाविअप्प ' ति] संयम भावितआत्मा. अने तपवडे भावित आत्मा, झाझे भागे एवा प्रकारना साधुओने ज अवधिज्ञानादिक लब्धिओ होय छे माटे ए हेतुथी अहीं 'भावितात्मा' शब्दनो प्रयोग कर्यो छे. [ ' वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं ' ति ] अर्थात् जेणे उत्तर शरीर बनान्यु छे-तेने. [ 'जाणरूवेणं' ति ] शिविका (डोटी) वगेरेना आकारवाळा वैक्रिय विमानने रूपे. [ 'जायमाणं ' ति ] गति करता-जता-तेने [ 'जाणइ ' ति ] ज्ञानवडे जाणे छे. [ 'पासइ 'त्ति ] भवधिशान, दर्शन वडे जूए छे. अहीं उत्तरमा चतुर्भगी जाणवानी छे, कारण के अवधिशन विचित्र छे. [ अंतो' त्ति ] वच्चे रहेल लाकडानो गरभ वगेरे. [ बाहिं । ति ] बहार रहेनारी छाल अने पांदडां वगेरे. ['एवं मूलेणं' इत्यादि.] मूल अने कंदना सूत्राभिलापपूर्वक-मूलनी साथे कंदथी मांडीने यावत्-बीज सुधीनां पदो कहेबां. ते पदो आ छ:-गूळ, कांदो स्कंध ( मोटी डाळी) छाल, डाळी, प्रवाळ ( अंकुर ), पांदडं, फुल, फळ ४५ मांगा. अने बीज. ए रीते ए दश पदो छे. ए दशे पदोना द्विकसंयोगी ४५ भांगा थाय छे तो एटलांज अहीं चतुर्भेगी सूत्रो कहेबां. एज वातने देखाडवा कहे छे के, [ ' एवं कैदेण वि ' इत्यादि. ] २. ३. , स्कंध. , .छाल. १. मूलच्छाया:-चतुर्भगः, एवं किं मूलं पश्यति, कन्दं पश्यति ? चतुर्भगः, मूलं पश्यति, स्कन्धं पश्यति ? चतुर्भगः. एवं मूलेन बीज संयोजयितव्यम् , एवं कन्देनाऽपि सम संयोजयितव्यम् यावत्-बीजम्, एवं यावत्-पुष्पेण समं बीजं संयोजयितव्यम्. अनगारो भगवन् ! भावितात्मा वृक्षस्य किं फलं पश्यति, बीज पश्यति ? चतुर्भगः-अनु. १. जूओ-भगवती प्र० ख० पृ. १३९-अवधिज्ञानः-अनु० २. ते ४५ भांगा आ प्रमाणे छे:---- १. मूळ कंद. १२. , शाखा. .. २३. , फळ, ३४. , फळ. १३. , प्रवाळ. २४. , बीम. ३५. ,, वीज. १४. , पत्र. २५. छाल शाखा. ३६. प्रवाळ पत्र. शाखा. १५. .. पुष्प. २६. , प्रवाळ. ३७. , पुष्प. प्रवाळ. १६. , फळ. २७. , पत्र. ३८. , फळ. पत्र. १७. , वीज. २८. , पुष्प. ३९. , चीज. पुष्प. १८. स्कंध छाल. ४०. पत्र पुष्प. शाखा. ३०, , वीज. बीज. , प्रवाळ. ३१. शाखा प्रवाळ. ४२.., बीज. स्कंध. २१, ., पत्र. ३२. , पत्र. ४३. पुष्प फळ. छाल. २२. , पुष्प. ३३. , - पुष्प. ४४. , बीज. ४५, फळ बीजः-अनु०, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हातक ३.-उमेशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिनीव भगवतीसूत्र, वायुकाय. ६ प्र०. पैम णं भन्ते । पाउकाए एग महं इत्थिरूर वा, ६.प्र०--हे भगवन ! वायुकाय, एक मोठं धीरूप, पुरुषरूप, पुरिसरू या, हथिरूवं वा, वाणरूवं वा; एवं बुग्ग-गिल्लि- हस्तिरूप, यानरूप, ए प्रमाणे गुग्य गिल्लि, थिल्ल, शिक्षिका थिल्ल-सीअ-संदमाणिअरूषं वा विउवित्तए ? (डोळी) अने खंदमानिका (मेनो) ए बधार्नु रूप विकुषी शके छ? ६. 30--गोयमा । नो इणढे समहे, याउकाए णं विकु- ६.३०-हे गीतम! ए अर्थ समर्थ नथी. पण विकुर्वणा बेमाणे एगं महं पडागासंटिगं सूपं पिफुव्यइ. करतो वायुकाय, एक मोटु पताकाना आकार जेवू का विकुर्वे छे. ७.५०- पभू णं भन्ते ! वाउकाए एगं महं पडागासंठिअं ७. प्र०--हे भगवन् ! वायुकाय, एक मोटुं पताकाना आकार खवं विउवित्ता अणेगाई जोअणाई गमित्तए ? जे, रूप विकुर्या अनेक योजनो मुधी गति करवाने शत छ ? ७. उ०--हन्ता, पमू. ____७. उ०--हे गौतम! हा, ते तेम करवाने हाक . ८..:०-से भंते ! किं आयडीए गच्छइ, परिडीए ८. प्र०-- हे भगवन् ! शुं ते यायुकाय, आत्मचिथी गति गच्छद? करे छे के परनी ऋद्धिथी गति करे छ? ८.३०-गोयमा ! आयडीए गच्छह, नो परिड्डीए गच्छइ ८. उ०-हे गौतम ! ते आत्मऋद्धिधी गति करे छ पण परनी जहा आबीए, एवं चेन आयकम्मुणा दि, आयप्पयोगेण वि ऋद्धिथी गति करतो नथीं. ' जेम ते आत्मऋद्धिधी गति करे छे भाणिजव्यं. तेम ते भात्मकर्मधी अने आत्मप्रयोगथी पण गति करे छे, ए प्रमाणे कहेवू. ९.५०–से भंते ! कि असिओदयं गच्छइ, पयोदयं ९. प्र०-हे भगवन्! शुं ते वायुकाय, उंची पताकानी पेठे गच्छा । रूप करी गति करे छ के पडी गएली पताकानी पेठे रूप करी गति करे छे! ९. उ०-गोयमा ! असिओदयं पि गच्छद, पयोदयं पि ९. 3०-हे गौतम! ते, उंची पताकानी पेठे अने पडी गच्छइ. गएली पताकानी पेठे-ए बन्ने प्रकारे-रूप करी गति करे छे. १०. प्र०-से भंते ! कि एगओपडागं गच्छद, दुहओपडाग १०. प्र०-हे भगवन् ! शुंते एक दि.मां (एक) पताका होय एतुं रूप करी गति करे छ के बे दिशामा (एक साथे बे) पताका होय एवं रूप करी गति करे छे? १०. उ०-गोयमा ! एगोपडागं गच्छद, नो दुहो- १० उ०-हे गौतम! ते, एक दिशामां पताका होय ए, रूप पडागं गच्छइ. करीने गति करे छे, पण वे दिशामां पताका होय एवं रूप करीने गति करतो नथी. ११.५०---से गं भंते ! कि पाउकाए पडागा? ११. प्र०.-हे भगवन् ! तो शं ते वायुकाय पताका छ ! ११. उ०-गोयमा ! पाउकाए णं से, नो खलु सा पठागा. ११. उ०-हे गौतम! ते वायुकाय, पताका नथी. पण घायुकाय छे. १. मूलच्छाया:-प्रभुभगवन् ! वायुकायः एक महत् लोकां वा, पुष्परू या, हरितही वा, यानरूवा; एवं युग्ब-नि-थिलि -शिविका-ना. न्दमानिकारू वा मिकुवतुम् ? गानम! नाऽयम् अयः समर्थः, वायुकायो विनमाणः ए. महत् पताकासंस्थित रूपं बिकुर्वते. प्रभुभगवन् । वायुझायः एकं महत् पताकासस्थितं का विकुळ अनेकानि योजनानि गन्तुम् ! हन्न, प्रभुः स भगवा । किन् आत्मा गरपर गर ? गातम ! मात्मा गच्छतेि, ना परदा गच्छति. यथा आत्मदर्य, एव चैच आत्मकर्म गाडगे, धामप्रयोगणारे भगिताम्. स नगवन् । कि उरिष्ट्रवाद गच्छति, पतदुदयं गच्छति ! गैातम उच्छ्रितोदयम् अपि गच्छति, पतरदयम् अपि गच्छति. स भगवन्! फिर एकता गति, विधाता गच्छति ? गौतम! एकतःपता गच्छति, नो दिखापता गति. रूभगवन् । वायुसरा पता गासम! वायुझायः सः, ने। बलु या पताका:-अनु. १. पायुनुं पहन पताकाना आकारे थाय छ, एमपीमूळ कार अणावे छे, पण ते विषे विशेष स्पष्ट यानी जरूर छे. कदाच काढाना फाफडाट उपरथी वायुना आकार- आधुपारप कलामा आठ होय तो भने, पम वायु पता'ने आहार ज बहे छु-बाद छे, मरने नेम या पहला से विषे विशेष खुलासो पानी जहर छे. सखेदाचर्य साथै जणाव पडे , आ अने आवा बोजा केटलाक विविध उसेनेमा टीकाकार तो एक अक्षर पण बोलता नबी एपी म भनुवादक आवा विषयाने शष्ट करी सकते नमी. हवे पछीना प्रकरणमा यलाइकता एटले मेवना ( वादळांना) जे आवारो जवाव्या छे से कदाच समुचित पण गणाय. कारण के, आकाशमा बादशानां जातजातना को आपणे प्रत्यक्ष करीए छोर अने थोडी भी सरखाइची थाप ने अनुक प्राणी के पदार्थ साये सरसावीए डीए. परंतु वायुको पताका-आकार अप्रत्यक्ष हे, तेन ते विषे विशेष काई जमावधी माटेज पत्युमा साकारने लगता ए भन्न खास विचारणीय है-अनु. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरयचन्द्र-जिनागमसंग्नहे. शतक-३-उद्देशक २. 'देवं वेउविअसमुग्घाएणं समोहयं ति' इति प्रागुकम्, अता क्रियाधिकारादिदमाह-'पभू णं' इत्यादि. 'जाणं' ति शकटम् , ' जुग्गंत गोल्लविषयप्रसिद्ध जम्पानं द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभितम् , 'गिल्लि 'ति हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिटतीव गिल्लि:, 'थिल्लि' त्ति लाटानां यदश्वपल्यानम् , तदन्यविषयेषु थिल्लि' इत्युच्यते सीज' ति शिबिका-कूटाकाराच्छादिता म्पान विशेषः, 'संदमाणिज' त्ति पुरुषप्रमाणोऽध्यामा जम्पान विशेषः, 'एगं महं-पडागासंटि' ति महत् पूर्वप्रमाणापेक्षया, पताकासंस्थितम्-स्वरूपेणैव वायोः पताकाऽऽकारशरीरत्वाद् वैक्रियावस्थायामपि तस्य तदाकारस्यय भावादिति, 'आयडीए 'त्ति आत्मा आत्मशक्त्या-आत्मलब्ध्या वा, ' आयकम्मण' ति आत्मक्रिपया, ' आयप्पओगेणं' ति न परप्रयुक्त इत्यर्थः. 'ऊसिओदयं ' ति उच्छित ऊर्ध्वम्-उदय आयामा यत्र गमने तद् उच्छितोदयम्-ऊर्यपताकमित्यर्थ:-क्रियाविशेषणं चेदम्. 'पयोदयं' ति पतदुद्रयम्-पतितपताकं गच्छति. ऊध्र्वपताकास्थापना इयम्, पतितपताकास्थापना तु इयम्. 'एगओपडागं 'ति एकातः एकस्यां दिशि: पताका यत्र तद् एकतःपताकम्. स्थापना तु इयम्, 'दुहओपडागं ' ति. द्विधापताकम्. स्थापना चैवम्. २. 'देवं वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं ' ति अर्थात् वैक्रिय शक्तिने लगती हकीकत आगळ कहेवाई छे माटे हवे पण ते ज वात संबंधे युग्य, आ सूत्र कहे छे:--['पभू णं' इत्यादि.] [ 'जाणं' ति] याज-शकट-गाडं.[' जुग' ति] वेदिकाथी उपयुक्त अने वे हाथ लांबुं जे वाहन गोल. ते युग्य. आ वाहननी प्रसिद्धि गोल्लदेशमा छे. ( रिक्सा गाडी ?) गिल्लि ' ति] हाथी उपर रहेती अंबाडी-मनुप्यने गळी जाय-जेमां बेसगिली-थिछी. वाथी मनुष्य देखाय नहीं ते-गिल्लि. [:थिल्लि ' ति] लाटोनुं जे घोड़ाखें पलाण ते वीजा दशोमांथिल्लि' तरीके प्रसिद्ध छे. [ 'सी'ति शिविका-शिखरना आकारथी ढांकलं एक जातनुं वाहन-पालखी. [ संदमाणिति ] पुरुष जेटली. लंबाइवालं वाहन विशेप-मेनो. एगं महं पडागासंठियं ' ति ] पूर्व प्रमाण करतां मोटुं अमें पताकाने आकारे रहेलं, कारण के पासुनुं शरीर स्वरूपे करी पताकाना आकार जेधुंज छे अने अलप्रयोग. चैक्रियअवस्थामां पण वायु पताकाने आकारे ज रहे छे. 'आयड्डीए 'त्ति ] आत्मानी शक्तिवङ अथवा आत्मानी लब्धियडे. ['आय कम्मुण' त्ति ] आत्मानी क्रियावडे, [ 'आयप्पओगेणं ' ति आत्माना प्रयोगथी-बीजाना प्रयोगथी नहीं. [ 'ऊसिओदयं ' ति] जे गतिमा लांवपण उंचे देखाय ते उच्छितोदय अर्थात् उंची धजाने आकारे. . उच्छ्रितोदय ' ए क्रियाविशषण छे. [ ' पयोदयं ' ति ] पडी गएल धजानी पेठे-गति करे छे. उंची धजानो आकार आ रीते छे: पडी गएल धजानो आकार आ रीते छे.--- [ एगओपडाग' ति] ज्यां एक दिशामां पताका होय ते एकतःपताक' कहेवाय. तेनो घाट आ रीते छ: ['दुहओपडागं ' ति ] ज्या बन्ने तरफ पताका होय ते .. 'द्विधापताक' कहेवाय. तेनो. आकार आ रीते छ:- . वलाहक १२.प्र०-पम णं भंते ! बलाहगे 'एग महं इत्थिरुवं. १२० प्र०--हे भगवन् ! वलाहक, एक मोटुंस्त्रीरूप यावत् वा, जाव-संदमाणिअरूवं वा परिणामेत्तए ? स्पंदमानिकारूप, परिणमाक्वा समर्थ छे ? १२. उ०-हंता पभू. १२. उ०-हे मौतम ! हा, ते, तेम.करवा समर्थ छे. आ बधी स्थापनाओ टोकाना भाषांतरमा आपेली छे:-अनु० .. ५. वर्तमानमा सिंहलद्वीप ( सीलोन-कोलम्बो ) मां ' गोले' नामना तालुका छे तेने'ज अहीं गेलं विषय ' शब्दथी जणाव्या लागे -ते. तरफ विशेषे करीने आ युग्य-रिक्सागाडी-नो ज प्रचार जोएलो छे:--अनु. १. मूलच्छाया:-प्रभुभगवन् ! बलाहकः एक महन स्त्रारूप वा, यावत्-स्पन्दनानि कारूपं वा परिणमायतुम् । हन्त, प्रभुः-अनु० Jain Education international Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. - उद्देशक ४. १३. प्र० - पंभू णं भंते ! बलाहए एवं महं इथिरूवं परिणामेता अणेगाई जोअणाई गमित्तएं ? १३. उ० - हंता, पभू. १४. प्र० - से मंते कि आयडीए गन्छ, परिए ! गन्छ ? भगवाणीत भगवती सूत्र. १४. उ० – गोयमा ! नो आयडीए गच्छद्द, परिडीए गछ एवं नो आवकम्मुणा, परकम्पुणा नो आवपयोगेगं, परप्पयोगेणं; ऊसिओदयं वा गच्छइ, पययोदयं वा गच्छ. १५. प्र० से मं । किं बलाहए इस्थी ? १५. उ० - गोयमा ! बलाहए णं से, नो खलु सा इत्थी, एवं पुरिसे, आसे, हत्थी. १६. प्र० प णं भंते! सलाहए एवं महं जागरूपरिणामेता अगाई जोअणाई गमेत्तए ? . १६. उ० - जहा इत्थिरूवं तहा भाणिअव्वं. नवरं - एगओचकवापि दुहओोचकपालं पि गच्छद्माणिजन्यं जुग्गगिल्लि - थिल्लि - सीआ - संदमाणिआणं तहेव. " १३. प्र० - हे भगवन् ! बलाहक, एक मोहुं स्त्रीरूप करीने (परिणमापीने) अनेक योजनो सुधी जया समर्थ छ ? ܕ १३. उ० - हे गौतम! हा, ते, तेम करवा समर्थ छे. १४. प्र० - हे भगवन् ! शुं ते बलाहक, आत्मऋद्धिश्री गति करे छे के परऋद्धिथी गति करे छे ? १४. उ०- हे गौतम! ते, आत्मऋद्धिथी गति करतो नथी, पण परनाद्विधी गति करे छे ९ प्रमाणे आत्मकर्म थने आत्मए प्रयोगधी पण गति करतो नथी पण परकर्म अने परप्रयोगधी ते, गति करे छे, अने ते उंची एडी के पी गएली बजानी पेठे गति करे छे. , ' ' ३. रूपान्तर क्रियाऽधिकाराद् बलाहकसूत्राणि: - ' बलाहए ' त्ति मेघः, ' परिणामेत्तए ' त्ति बलाहकस्याऽजीवत्वेन विकुर्वणाया असंभवात् परिणामचितुमित्युक्तम्, परिणामश्चाऽस्य विस्तारूपः 'नो आयडीए ति अचेतनत्वाद मेघस्य विवक्षितायाः शक्तेरभावाद् न आत्मद्धर्दा गमनमस्ति वायुना, देवेन या प्रेरितस्य तु स्यादपि गमनम् अतेोऽभिधीयतेः परिकीए ति एवं पुरिसे, जसे, हत्थि ' त्ति स्त्रीरूपसूत्रमिव पुरुषरूपाऽश्वरूप- हस्तिरूपसूत्राणि अध्येतव्यानि यानरूपसूत्रे विशेषोऽस्ति इतद् दर्शयतिपभू णं भंते ! बलाहए एवं महं जाणरूवं परिणामेत्ता' इत्यादि - ' पयओदयं पि गच्छइ' इत्येतदन्तं स्त्रीरूपसूत्रसमानमेव विशेषः पुनरयम्:• से भंते ! किं एगओचक्कवालं गच्छइ, दुहओचक्कवालं गच्छइ ? गोयमा ! एगओचक्कवालं पि गच्छइ, दुहओचक्कवालं पि गच्छ 'सि. अस्यैवोत्तररूपम् अंशमाहः 'नवरम् एगओ इत्यादि. इह यानं शकटम् चक्रया चक्रम् शेपसूत्रेषु तु अयं विशेषो नास्ति, शकट एवं चक्रवाखभावात् ततक्ष युम्प गिलि पिलि-शिविका-स्पन्दमानिका रूपसूत्राणि श्रीरूपसूत्रवद् अध्येयानि एतदेवाहः-जुग्ग- - गिल्लि थिल्लि - सीआ- संदमाणिआणं तहेव 'त्ति. , - 6 १५. प्र०-हे भगवन्! हुं ते बलाहक स्त्री छ छे. १५. उ० है गौराम से बाइक, स्त्री नथी, पण बलाहक ए प्रमाणे पुरुष, घोडो तथा हाथी बगेरे दिये पण जाणवु १६. प्र०—हे भगवन् ! शुं ते बलाहक, एक मोटा याननुं रूप परिणमावी ( करी ) अनेक योजनो सुधी गति करी शके छ ? , ८ 3. , 1 ३. रूप बदलवानी क्रियानुं प्रकरण अधिकार चालतुं होवाथी हवे बलाहक - मेघ-नां आकाशमां जे अनेक रूपो थाय देखाय-छे ते विषे सूत्रो कहे [ह] मेच [ परिणामेत्तए ति ] बलाहक अजीव होवाची तेने विकुर्वणा शक्ति संभवती मी गा नहीं विकुर्वण करवाने बदले परिणगावाने एम कनुं छे. कारण के, तेने (नेपने) खवरूप परिणाम तो होय . नो आयडीए परिणा चिj] मेघ अचेतन के माटे लेने विवक्षित शक्ति न होवाने सीधे ते आत्माद्विधी गति करतो नथी. परंतु वायु के देव द्वारा प्रेरित भए गमन पण करे छे माठे धुंके, [परिडीए ति] परनी ऋद्धिथी गमन करे छे. [एवं पुरिसे, आंस, हल्थिति ] स्त्रीरूप संबंधी सूचनी पेठे पुरुषरूप, अश्वरूप अने हतिरुप संबंधी सूत्रो जाणयां. मात्र वानरूप संबंधी सुत्रमां विशेष के तो तेने दर्शवला कहे दे के पते मलाहए एवं मई जाणवं परिणामेत्ता इत्यादि त्यांची मांडीने पवओदयं गच्छ त्वां सुधी सूत्र वीरूप संबंधी सुपनी पेठे शेष तो आ छेके से मंते किं एमओचा गच्छद, दुदञोचडवा गच्छदए प्रनो जवाब आपता कहे छ के, गोवना एगो वायुदा , 6 6 " १६. उ० -- हे गौतम! जेम स्त्रीरूप संबंधे करूं तेम याचना रूप संबंधे पण समज विशेष ए के से ए६ तफ पेडुं राखीने पण चाले अने बन्ने तरफ पैडुं राखीने पण ते चाले. तथा ते ज रीते जुग्ग, गिलि पिलि शिविका अने दमानिकाना रूप संबंधे पण समजवं. 3 १. मूळच्छायाः प्रभुर्भगवन् बलाहक एवं महत् खरूपं परिणम अनेकानि यानि चन्तुम् इन्त प्रभुः भगवन् किम् भागद गच्छते पर गच्छति गौतम आत्मदच्छति पर मच्छति एवं नो आत्मकमेचा रोग, पर उच्छ्रितोदयं वा गच्छति, पतदुदयं वा गच्छति स भगवन् ! किं बलाहकः स्त्री ? गौतम ! बलाहकः सः, नो खलु सा स्त्री, एक पुरुषः, अश्वः, हस्ती. मुवन् बाइक एवं महद यानक परिणमध्य अनेकानि योजनानि गन्तुम् यथा लोक तथा भवितव्यम् नरम एकलमपि, द्विकालम् अपि गच्छति' भणितव्यम्, युग्य - गिल्लि थिद्धि - शिविका-स्पन्दमानिकानां तथैवः -- अनु० SR 2 स्वभ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायपन्द्र-बिनागमसंग्रहे शत्तक ३.-उद्देशक .. चक्कवालं पि गच्छद, दुहओचछवालं पि गच्छइ 'त्ति' अर्थात् ए मेघ, एकतश्चक्रवाल पण चाले छे अने द्विधा चक्रवाल पण चाले छे. ए ज बकर, हकीकतने मूळ सूत्रमा पण जणावी छे के [' नवरं एगओ' इत्यादि.] अहीं 'यान' एटले 'शकट-गाडं-' समजवु अने चक्रवाल' एटले पैडु' समजबु. बाकी बीजां सूत्रोमां तो आ विशेष नथी. कारण के पैटुं तो गाडाने ज होय छे माटे युग्य, गिल्लि, थिलि, शिविका अने स्पंदमानिका, ए बधानां रूप संबंधी सूत्रो, स्त्रीरूप संबंधी सूत्रनी पेठे कहेवां. एज वातने कहे छे के, ['जुग्ग-गिल्लि-थिलि-सीआ-संदमाणिआणं तहेव' ति]. लेश्यानां द्रव्यो.. - १७. प्र०—जीवे णं भंते । जे भविए नेरइएसु उववजित्तए १७. प्र०-हे भगवन् ! जे जीव, नैरयिकोमा उत्पन श्ववाने से गं भंते ! किंलेसेसु उववजइ ? योग्य छे ते, हे भगवन् ! केवी लेश्यावाळाओमा उत्पन थाय ! १७. उ०-गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाइं परिआइत्ता कालं १७. उ०--हे गौतम! जीव, जेवी लेश्यावाळा द्रव्योनुं ग्रहण करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा:---कण्हलेसेसु वा, नीललेसेसु करी काळ करे छे तेवी लेश्यावाळामां ते, उत्पन थाय छे. ते वा, काउलेसेसु वा; एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणिअव्वा. आ प्रमाणे:--कृष्णलेश्यायाळामा, नीललेश्यावाळामां अने कपोत लेश्यावाळामा अर्थात् जे जेनी लेश्या होय, तेनी ते लेझ्या कहेवी, ए प्रमाणे बीजा पण प्रश्नो करवा यावत्१८. प्र०-जाव-जीवे णं भंते ! जे भविए जोइसिएसु १८. प्र०-हे भगवन् ! जे जीव, ज्योतिषिकोमा उत्पन्न थवाने उपवजित्तए पुच्छा ? योग्य छे ते, केवी लेश्यावाळाओमा उत्पन्न थाय ? १८. उ०-गोयमा ! जल्लेसाई दवाई परिआइत्ता कालं १८. उ०--हे गौतम! जीव, जेवी लेश्यावाळा द्रव्योनुं ग्रहण करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा:-तेउलेसेसु. करी काळ करे छ तेवी लेश्यावाळामां ते, उत्पन्न थाय छे. ते आ प्रमाणे:-तेजोलेश्यायाळाओमां. १९. प्र०--जीवे गंमत! जे भविए वेमाणिएसु उववजित्तए १९. प्र०--हे भगवन् ! जे जीव वैमानिकोमा उत्पन्न थवाने । से णं भंते ! किलेसेसु उववजइ ? योग्य छ ते, हे भगवन् ! केवी लेश्यावाळाओमा उत्पन्न थाय ? १२. उ०--गोयमा ! जल्लेसाई दवाई परिआइत्ता कालं १९. उ०---हे गौतम! जीव, जेवी लेश्यावाळा द्रव्योनुं ग्रहण करेइ तल्लेसेसु उववजड़, तं जहा:-तेउलेसेसु वा, पम्हलेसेसु वा, करी काळ करे छे तेवी लेश्यावाळामां ते, उत्पन्न थाय छे. ते आ १. मूलच्छायाः-जीवो भगवन् ! यो भव्यो नैरयिकेषु उपपत्तुं स भगवन् ! किलेश्येषु उपपद्यते ? गौतम ! यहेश्यानि द्रव्याणि पादाय कालं करोति, तश्ये पु उपपद्यते, तद्यथा:-कृष्णलेझ्येषु वा, नीललेश्येषु वा, कापोतलेश्येषु वा; एवं यस्य या लेश्या सा तस्य भणितव्या. यावत्-जीवो भगवन् । यो भन्यो ज्योतिष्केषु उपपत्तुं पृच्छा ? गौतम | यझ्यानि द्रव्याणि पादाय कालं करोति तल्लेदयेषु उपपद्यते, तद्यथा:-तेजोलेश्येषु. जीवो भगवन । यो भव्यो वैमानिकेषु उपपत्तुं स भगवन् । किलेश्येषु उपपद्यते? गौतम ! यलेश्यानि द्रव्याणि पर्यादाय कालं करोति तश्येषु उपपयते, तद्यथाः-तेजोलेइयेषु बा, पालेश्येषु वाः-अनु. १. जे द्वारा कर्मनी साथे आत्मा क्लिष्ट थाय-लिश्यते-तेने शास्त्रकारोए लेश्या कही छे. अहीं आ वात विचारवा जेवी छे के, लेश्या ए शु लागणी के वृत्तिरूप छे के अणुरूप ठे? आ प्रश्ननुं समाधान करता प्रज्ञापनानी टीकामां (पृ. ३३०, पद १७ स०) श्रीमलयगिरिजीए अणाव्य छ के, लेइया ए अणुरूप छे-परमाणुसमूहरूप छे. जैनदर्शनमां पुद्रलोनी फक्त आठ जातो जणावी छे. ( जेमके आदारिकपुद्गल, वैकियपुद्गल, आहारकपुद्गल, जर्सेपुद्गल, कॉर्मणपुद्गल, भाषापुद्गल, मनःपुद्गल अने श्वासोच्छासपुद्गल.) तेमांनी कई जातमा ए लेश्यानां अणुओनो समावेश थई शके छ? ए पण विचार घटे छे. श्रीमलयगिरिजीए तो ए विपे पट जणाव्यु छ के, लेश्यानां अणुओ, योगान्तर्गतदव्यरूप छे अर्थात् जे अणुओ मानसिक, वाचिक अने कायिक छ तेमा ज आ लेश्यानां अणुओनो समावेश थई जाय छे. जेम बदाम के व्राह्मी, ज्ञानावरणना क्षयोपशमने, मद्यपान, ज्ञानाबरणना उदयने, दधिभोजन, निवाने अने पित्तवृद्धि, प्रकोपने उत्तेजे छे तेम ए लेश्यानां परमाणुओ कषायोदयनां उत्तेजक छे-बळता अग्निमां घी होमवाथी जेम ते विशेष प्रज्वलित थाय छे तेम आपणा शरीरमा रहेला लेझ्यानां अणुओ उद्भूत थएला कषायने विशेष उत्तेजित करे छे, ज्यांसुधी आपणामां जरा पण काषायिक पृत्ति विद्यमान होय छे त्यां सुधी तेने, ए लेश्यानां अणुओ टेको आप छे अने ए वृत्तिनो समूळ नाश धये ए अणुओ अकिंचित्कर थाय छ अर्थात् लेश्याना अणुओ रयां रखा असत् वषायने पेदा करी शकतां नथी. किंतु एनुं काम तो उद्भूत कषायने ज टेको आपवानुं छे. आटला उपरथी समजाई शके तेम छे के, लेश्या ए अणुरूप छे अने ए अणुओ पण मानसिक, वाचिक अने कायिक परमाणुओमांना छे. शास्त्रकारोए ए अणुरूप लेश्याओना मुख्य छ प्रकार दाव्या छे. एमांना पेला त्रण प्रकार अशुभ, अशुभतर अने अशु-तम छे अने छेल्ला अण प्रकार शुभ, शुभतर अने शुभतम छे. ते प्रत्येक लेश्यानां अणुओमां केवो रंग, केवो रस, केवो गंध अने केवो स्पर्श रहेलो छे ते पण जणाव्युं छे अने कई लेश्यावाळा मनुष्यनी कई वृत्ति होय ते पण सूचा छे अने छेवटे ले त्यानी स्थितिमयादानो वधारे ओछो समय जणावी तेनुं भावी परिणाम पण प्रकट कयु छे. ज्यारे ज्यारे मनुष्यमां कोई जातनी कापायिक वृत्तिनो उदय थतो होय सारे तेना लोहीनो रंग, रस, गंध अने स्पर्श पण बदलतो होय छे, ए वात शरीरशास्त्र अने मानसशास्त्रना गंभीर अभ्यासिथी अप्रतीत नथी. स्थूलदृष्टिए आपणे पण एटलं तो जाणी शकीए छीए के, उग्र क्रोध करता मनुष्यन लोही विकृत थई जाय छे, शरीर लाल थई जाय छे अने धगधगी जाय छे, नीचे आपेला कोटा उपरथी लेश्यानां रंगादिकनी माहिती मळी शके तेम छे, ते आ प्रमाणे: . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. उद्देशक ४. مر؟ झुक्कलेसेसु वा. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. प्रमाणे:--तेजोलेश्यावाळाओमां, पद्मटश्यावाळाओमा अने शुक्लले. श्यावाळाओमां. १.. मूलच्छायाः-शुक्ललेश्येषु, वाः-अनु० लेश्याओ. 1+परि स्थिति लेश्या . 1. कोने होय? | वर्ण. | रस. गंध. | स्पर्श. " णाम.. लक्षण. | *स्थान. __=पुनर्जन्म. धन्य, उत्कश गात. घणो पानी उत्पत्ति नैयिक, तिर्यंच, अने ३३ साग या पछी १ मुहूत अनंत गुण खराव1. कृष्ण. - मनुष्य, भुवनपति | काळो. | कडयो. दुर्गध. कर्कश घणा कूरतम वृत्ति. असंख्य. अर्ध मुहूर्त.रोपम अने दुर्गति वा देश्यानो अन्त अने वानव्यंतरोने. १ मुहूर्त. धवाने १ मुहूर्त बाकी होय त्यारे प्रका | नैरथिक, तिथंच, . | अनंत गुण २-नील. मनुष्य, भुवनपति, नीलो. । तीनो अने व्यंतरोने. १० सागरोपम अने पल्योपमनो असंख्यातमो " " !" कूरतर वृत्ति.] , भाग. ३. कापोत. पारेवानी अनंत गुण डोक जेवो खाटो. "I" " । करदात " ३ सागरोपम,पल्यन, अ० भाग. " | तेजः. तिर्यच, मनुष्य अने देवने. रातो अनंत गुण सुरभि. कोमळ., शुभ-वृत्ति. २ सागरी पम,पल्य० सुगति | अ. भा० । -तिर्थच, मनुष्य अने वैमानिकोने. दम. भांगेली | ... अनंत गुण जेवो. 1१० सागरोपम, अने, हळदर । मधुर. " शुभतर-वृत्ति. . | मधुर.." |" | १ मुहूर्त. |- निर्यच, मनुष्य | ३३ साग रोपम अने ६. शुक्ल. | धोळो. अनंत गुण |" , "शुभतम-वृत्ति , , ' अने धैमानिकोने. या , स्वादु. + परिणाम-शब्द, लेश्यानी न्यूनाधिकताने वा तीव्रमन्दताने सूचवे छे. * स्थान-२०द लेश्याना निमित्तोने सूचवे छे. = पुनर्जन्म-शब्द जन्मांतरनो सूचक छे. मनुष्य अने तिर्यचोनी कांई आखी जींदगी सुधी एक ज लेश्या रहेती नथी. ते तो निमितवशे घगी दखत बदलाया करे छे. हषे ज्यारे तेओना पर्यवसाननो समय आवे छे त्यारे तेओं एवी कोई पण लेश्यामा वर्तता होय छे के, जेनी साथे तेओए एक मुहूर्त तो गाळे होय अर्थात् तेओर्नु मृत्यु अमुक एक निश्चित लेश्यामां ज थाय छे. आथी विपरीत-देव अने नारकोनी लेश्या तेओनी आखी जींदगी सुधी बदलाती नथी. जे लेश्यामां तेओ वर्तता होय छे तेनु अवसान धवाने मात्र एक ज मुहूर्त वाकी रहे छे त्यारे ज तेओ मरवानी अणी उपर होय छे-तेओ जे लेश्यामा छ तेज लेश्यामा पुनर्जन्म ग्रहण करे छे:-अनु. . Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे. शतक ३.-उद्देशक ४. ४. परिणामाधिकाराद् इदमाहः- जीवेणं ' इत्यादि. 'जे भविए' त्ति यो योग्यः, 'किलेसेसु 'त्ति का कृष्णादीनामन्यतमा लेश्या येषां ते तथा-तेषु किलेश्येषु मध्ये, 'जल्लेसाई' ति या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्लेश्यानि-यस्या लेश्यायाः संबद्धानि इत्यर्थः, 'परियाइत्त 'त्ति पर्यादाय परिगृह्य भावपरिणामेन, कालं करोति-म्रियते, तलेश्येषु नारकेषु उत्पद्यते. भवन्ति चात्र गाथा:-" सवाहिं लेसाहिं पढमे समयम्मि संपरिणयाईि, नो कस्स वि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स. सव्वाहिं लेसाहिं चरिमे समयम्मि संपरिणयाहिं, न वि कस्स वि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स. अंतमुहत्तम्मि गए अंतमुहत्तम्मि सेसए चेब, लेसाहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं." चतुर्विंशतिदण्डकस्य शेषपदानि अतिदिशन्नाहः-'एवं' इत्यादि. एवम्-इति नारकसूत्राभिलापेन इत्यर्थः, 'जस्स'त्ति असुरकुमारादेः या लेश्या कृष्णादिका, सा लेश्या तस्याऽसुरकुमारादेः भणितव्या इति. ननु एतावतैव विवक्षितार्थसिद्धेः किमर्थं भेदेनोक्तम्-'जाव-जीवे णं भंते!' इत्यादि ? उच्यतेः-दण्डकपर्यवसानसूत्रदर्शनार्थम् . एवं तर्हि वैमानिकसूत्रमेव वाच्यं स्यात् , न तु ज्योतिष्कसूत्रम् इति ? सत्यम्, किन्तु ज्योतिष्क-वैमानिकाः प्रशस्तलेझ्या एव भवन्ति-इत्यस्याऽर्थस्य दर्शनार्थं तेषां भेदेनाऽभिधानम् , विचित्रत्वाद् वा सूत्रगतेरिति..। परिणाम. ४. परिणमन--परिवर्तन-परिणाम-नो अधिकार चालतो होवाथी, हवे आ एने ज लगती बीजी वात कहे छे के, [जीवे णं' इत्यादि.]. ['जे भविए 'त्ति] योग्य. [' किंलेसेसु' त्ति ] जेओने कृष्ण वगेरे लेश्याओमाथी कोइ एक लेश्या होय ते 'किलेश्य 'तेमा. [जिल्लेसाई 'ति] कश्या-द्रव्य. जे द्रव्योनी जे लेश्या होय ते द्रव्यो ' यल्लेश्य ' कहेवाय अर्थात् जे कोइ लेश्या संबंधी द्रव्यो. [' परियाइत्त ' ति] भावपरिणामपूर्वक ग्रहण करीने अर्थात् आत्मामां अमुक नियत लेश्यानी असर थया पछी ज-मरण पामे छे-जे लेश्यावाळां द्रव्यो लीधेला होय ते लेश्यावाळा नारकोमा उत्पन्न थाय छे. आ संबंधे केटलीक गाथाओ आ प्रमाणे छ:-" ज्यारे लेश्याना संपरिणामनो पहेलो समय होय त्यारे कोइ पण जीवनो, परभवमा गाथाओ उपपात-जन्म-थतो नथी. ज्यारे लेश्याना संपरिणामनो छेल्लो समय होय त्यारे पण कोइ जीवनो, परभवां जन्म थतो नथी. लेश्यानो संपरिणाम थयाने अंतर्मुहुर्त वीत्या पछी के अंतर्मुहूर्त बाकी रह्या पछी ज जीवो परलोकमा जाय छे." चोवीश दंडकना बाकीनां पदोनो अतिदेश करता कहे छे के, [' एवं ' इत्यादि.] ' एवं ' एटले नारकसूत्रना अभिलाप प्रमाणे. [' जस्स ' ति] असुरकुमारादिकने कृष्ण वगेरे जे लेश्या होय ते शंका. लेश्या, असुरकुमारादिकने कहेवी. शं०-आटलं कहेवाथी ज कहेवानी बात कहेवाइ शके छे तो ['जाव-जीवे गंभंते !'इत्यादि.] ए सूत्र जूदं शा माटे कयुं ? समा०--दंडकना अंतिम सूत्रने देखाडवा माटे पूर्वोक्त सूत्र कयुं छे. शं०--जो एम छे तो एकलुं वैमानिकोर्नु ज सूत्र कहे, हतुं, पण समाधान. ज्योतिषिक संबंधी सूत्र शा माटे कयुं ? समा०-- वैमानिको अने ज्योतिषिको सारी लेश्यावाळा होय छे ए वातने देखाउबा ते बन्ने सूत्रो जूदां विचित्रगति. जूदां कर्या छे. अथवा तेम करवानुं कारण सूत्रनी विचित्र गति छे. विकुर्वणा. २०. प्र०- अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले २०प्र०-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बहारनां पुद्गअपरिआइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा, पल्लंघेत्तए वा? लोनुं ग्रहण कर्या सिवाय वैभार पर्वतने ओळंगी शके छे, प्रलंघी शके छ ? २०. उ०—गोयमा । नो इणडे समढे. २० उ०-हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. २१. प्र०-अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले २१. प्र०-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बहारना परिआइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा, पल्लंघेत्तए वा? पुद्गलोर्नु प्रहण करीने वैभार पर्वतने ओळंगी शके छे. प्रलंधी शके छ ? १. प्र. छायाः-सर्वाभिलेश्याभिः प्रथमे समये संपरिणताभिः, नो कस्याप्युपपातः परे भवेऽस्ति जीवस्य. सर्वाभिर्लेश्याभिश्वरमे समये संपरिणताभिः, माऽपि कस्याप्युपपातः परसिन् भवेऽस्ति जीवस्य. अन्तर्मुहूर्ते गते, अन्तर्मुहूर्ते शेषकै चैव, लेझ्याभिः परिणताभिर्जीवा गच्छन्ति परलोकम्:-अनु. २. लेश्या 'संबंधे' अहीं एक संक्षिप्त टिप्पण आपेलुं छे, परंतु ते विषेनी वधारे विगतो प्रज्ञापना सूत्रना १७ मा लेश्यापदमा तथा उत्तराध्ययन सूत्रना ३४मा लेश्या अध्ययनमा नोंधाएली छे. आ उपर जे गाथाओ आपेली छे ते, उत्तराध्ययनना लेश्या अध्ययननी छे. तेनो स्पष्ट अर्थ भा प्रमाणे छे: आ बन्ने गाथाओ मरणोन्मुख-त्रियमाण-मरवानी अणी उपर आवेला-प्राणीने लागु पाडवानी छे. जे देहधारी मरणोन्मुख छे तेनुं मरण तद्दन छवटनी एवी लेश्यामां थई शके छे के जे लेश्या साथे एनो संबंध ओछामा ओर्छ अंतर्मुहूर्त सुधी तो रह्यो होय अर्थात् कोई पण म्रियमाण प्राणी, लेश्याना संपर्कनी पहेली पळे ज मरी शकतो नथी. किंतु ज्यारे एनी अमुक कोई लेश्या निश्चित थाय छे त्यारे ज ए, एना जूना देहने छोडी मूतन देह तरफ जई शके छे अने लेश्याने निश्चित थता ओछामा ओछु अंतर्मुहूर्त तो लागे छे गाटे ज गाथामा अंतर्मुहूर्बनी मर्यादा नौधेली छे. आ हकीकत मात्र मनुष्य अने तिर्यचोने ज बंध बेसती छे अने देव तथा नारको माटे तो आ प्रमाणे छे:-देव अने नारकोनी कोई पण वेश्या आखी जीदगी सुधी एक सरखी ज रहे छे अर्थात् कोई देवनी कापोत लेश्या हेाय तो ते, एनी जींदगी सुधी वदलाती नथी. तेम कोई नैरयिकनी कृष्ण लेश्या होय ते पण, एनी जींदगी सुधी बदलाती नथी-मात्र मनुष्य अने तिर्यंचोनी ज लेश्याओ बदलाया करे छे. माटे एओने देव अने नैरयिकोने-उपर्युक्त गाथा लागु थई शके तेम नथी. तेओ तो ज्यारे मरणोन्मुख होय छे सारे एओनी लेश्यानो अंत आववाने ( बदलो थवाने ) अंतर्मुहूर्त ज बाकी रहेलं होय छे माटे कोई पण देव वा नैरयिक पोतानी लेझ्यानुं छेवटन अंतर्मुहूर्त वाकी रोज काळ करी शके छे-ते पहेला तो नहि जः-अनु० १. मूलच्छायाः-अनगारो भगवन् ! भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् अपादाय प्रभुर्वैभार पर्वतं उल्लरपयितुं वा, प्रलययितुं वा? गौतम । माश्यम् अर्थः समर्थः, अनगारो भगवन् । भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुर्वैभार पर्वतम् उलयितुं वा, प्रलयितुं वा ?:-अनु. . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतकारः-- ६ शफ ४. २१: ०ता, पभू. २२. ५० - अंगगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पो वर्गले अपरिआइत्ता जाबइआई रायगिहे नगरे रुवाई, एवइआई विकुव्वित्ता वैभारं पञ्चयं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं या विसमं करेत्तए, विसमं वा समं करेत्तए ? २२. उ०- गोयमा ! नो इण सम, एवं चैव चितिओ विं आलापगो, नवरं परिआइचा प.. भगवस्तुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २२. प्र० से मंते । किं माई विकुब्वद, अमाई विकुन ? २२. उ०- गोयमा ! नाई विकुव्यइ, नो अमाई विकुप्पड़. ९. २४. प्र० -- से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ, जाव-नो अमाई विकुला ? २४. उ० --- गोयमा ! माई णं पणीअं पाण- भोअणं भोच्चा भोया वामेति, तस्स णं तेणं पणीएणं पाण-भोअणेणं अट्ठि - अट्ठमिंजा बहलीभवति, पयणुए मंस-सोणिए भवति; जे विय से अहाबायरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा:- सोईदियत्ताए, जाव - फासिंदियत्तार; अट्टि - अट्ठिमिंज केस मंसु- रोमनहत्ताए, सुकत्ता, सोणियत्ताए. अमायी णं लूहं पाण-भोअणं भोचा भोया णो वामेइ, तस्स णं तेणं लूहेणं पाण-भोअणेणं अ- अट्टिमिंजा पयणुभवति, बहले मंस सोणिए जे वि व से अहाबारा पोग्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा :- उच्चारचाए, पासवणत्ताए, जाप सोणिअचार, सेते जानो अमाई विकुप्पर. -माई णं तस्स ठाणस्स अणालोइजपडिक्कंते कालं करेइ, नत्थि तस्स आराहणा. अमाई णं तस्स ठाणस्स आलोइअ २३ २१. उ०- हे गौतम! हा ते, तेवी रीते तेग करणा समर्थ छे. २२. प्र० - हे भगवन् । भावितामा अनगार, बहारनां पुद्गलोनुं ग्रहण कर्या सिवाय, जेटलां रूपो राजगृह नगरमां छे तेलां रूपोने विकुर्वी वैभार पर्वतमा प्रवेश करी ते सम पर्वतने विषम करी शके ? के ते विषम पर्वतने सम करी शके ? २२. उ०- हे गौतम ए अर्थ समर्थ नधी ते ए प्रमाणे न करी शके. ए ज रीते बीजो आलापक पण कहेवो. विशेष ए के, 'पुद्रछोनुं ग्रहण करीने पूर्व प्रमाणे करी शके छे ए प्रमाणे कहे. " २३. प्र० - हे भगवन् ! शुं मायी ( प्रमत्त ) मनुष्य विकुर्वण करे के अमायी ( अप्रमत्त) मनुष्य विकुर्वण करे ? २३. उ० - - हे गौतम! मायी मनुष्य विकुर्वण करे, पण अमायी मनुष्य विकुर्वण न करे. G -- २४. प्र० ] भगवन् मायी मनुष्य विकुर्पण करे अने अमायी मनुष्य विकुर्वण न करे' तेनुं शुं कारण ? २४. उ०- हे गौतम! माथी मनुष्य, प्रणीत (धी वगेरेची खूब चिकाशदार ) एवं पान अने भोजन करे छे, एवं भोजन करी करीने वमन करे छे. ते प्रणीत पान भोजन द्वारा तेना हाड भने हाडमां रहेली मज्जा ते घन थाय छे तथा तेनुं मांस अने लोही प्रतनु थाय छे. वळी तेना ( ते भोजनना) जे यथाबादर पुलो छे तेनुं तेने ते ते रूपे परिणमन थाय छे, ते आ प्रमाणे:श्रोत्रइंद्रिययणे यावत् - स्पर्शइंद्रियपणे तथा हाडपणे, हाडनी मजापणे, केशपणे मधुपणे, रोमपणे, मखपणे वीर्यपणे अने लोहिपणे ( ते पुलो ) परिणमे छे अने अमायी मनुष्य तो एवं पान भोजन करे छे, एवं भोजन करीने से चमन करतो नथी. ते खा पान भोजन द्वारा तेनां हाड, हाडनी मज्जा प्रतनु थाय छे अने तेनुं मांस अने लोही घन थाय छे तथा तेना जे यथाबादर पुद्गलो छे तेनुं पण तेने परिणमन थाय छे. ते आ प्रमाणे: -- उच्चारपणे, मूत्रपणे अने यावत्-लोहिपणे. तो ते कारणथी यावत् - अमायी मनुष्य विकुर्वण करतो नथी (?) --मायी, ते करेली प्रवृत्तिनुं आलोचन अने प्रतिक्रमण कर्या. सिवाय काळ करे छे माटे देने आराधना नथी अने अमायी, , 3 १. मूच्छान्त प्रभुः नाभ भावितात्मा बाह्यान् पुखान् अपयादाय यावन्ति राजनगरे तिमि बेभार पर्वतम् अन्तोऽनुपविश्य प्रभुः समं वा विष विषयास कर्तगत नाम एवं द्वितीय, नवरम्पर्यादाय प्रभुः स भगवन् कि मायी विकुर्वते अमायी मते मायी ने नो अनायते नाग एवम् उच्यते यावत् मो मायी विकुर्वतेातमान भोजनं भुक्वा भुवमवति स तेन प्रणीतेन पान-भोगने - अस्थिमजा बहलीभवन्ति, प्रतनुकं मांस-शोणितं भवति, येऽपि च तस्य यथाबादराः पुद्गलास्तेऽपि च तस्य परिणमन्ति तद्यथाः-श्रोत्रेन्द्रियतया, यावत् स्पर्शेन्द्रियतया, अस्थि-अस्थिमज्जा - केश श्मश्रु-रोम नसतया, शुकतया, शोणिततया. अमायी रूक्षं पान-भोजनं मुक्या भुक्तानो वमयति, तस्य तेन रूक्षण पान - भोजनेन अस्थि-अस्थिमज्जाः प्रतनूभवन्ति, बहलं मांस- शोणितम्; येऽपि च तस्य यथावादराः पुद्गल. स्खेऽपि च तस्य परिण मन्ति, तद्यथाः - उच्चारतया, प्रखवणतया, यावत् शोणिततया, तत् तेनार्थेन यावत्-नो अमायी विकुर्वते. मायी तस्व स्थानस्य अनारोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति, नास्ति तस्य आराधना भमायीं तस्य स्थानस्य आलोचितः -- अनु० १. जूओ भ० प्र० ख० पृ० २४४. टिप्पण १: -- अनु० 3 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ -श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३बद्देशक ४. पैडिक्कते कालं करेड, अत्थि तस्स आराहणा. ते पोतानी भूलवाळी प्रवृत्तिनु आलोचन अने प्रतिक्रमण करीने काळ करे माटे तेने अराधना छे. -सेवं भंते ! सेवं भंते !-त्ति.. , . हे भगवम् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे. ‘भगवंत-अज्जसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते ततिअसये. चउत्थो-उदेसा:सम्मत्तो. ५. देवपरिणामाधिकाराद् अनगाररूपद्रव्यदेवपरिणामसूत्राणि:- बाहिरए.' त्ति औदारिकशरीरव्यतिरिक्तान् वैक्रियान् इत्यर्थः. वेमारं 'ति वैभाराभिधानं राजगृहक्रीडापर्वतम् , ' उल्लंपित्तए वा' इत्यादि. तत्रोल्लङ्घनं सकृत् , प्रलङ्घनं पुनः पुनरिति. 'नो इणद्वे समढे 'त्ति वैक्रियपुद्गलपर्यादानं विना वैक्रियकरणस्यैवाभावात्. बाह्यपुद्गलपर्यादाने तु सति पर्वतस्योल्लङ्घनादौ प्रभुः स्यात् , महतः पर्वतातिक्रामिणः शरीरस्य संभवादिति. 'जावइआइ.' इत्यादि. यावन्ति रूपाणि पशु-पुरुषादिरूपाणि, एवइआई 'ति एतावन्ति, 'विउवित्त 'त्ति वैक्रियाणि कृत्वा, वैभारं पर्वतं समं सन्तं विषमम् , विषमं तु समं कर्तुमिति सम्बन्धः, किं कृत्वा ? इत्याहः-अन्तर्मध्ये वैभारस्यैव अनुप्रविश्य. 'मायी 'ति मायावान् , उपलक्षणत्वादस्य सकषायः-प्रमत्त इति यावत् . अप्रमत्तो हि न वैक्रियं कुरुत इति. 'पणीअंति प्रणीतं गलत्स्नेहबिन्दुकम् , ' भोचा भोचा वामेति 'त्ति वमनं करोति, विरेचनं वा करोति वर्ण-बलाद्यर्थम् , यथा प्रणीतभोजनम्, तद्वमनं च विक्रियास्वभावं. मायित्वाद् भवति, एवं वैक्रियकरणमपि इति तात्पर्यम् , ' बहलीभवांत, घनीभवन्ति प्रणीतसामर्थ्यात् . 'पयणुए 'त्ति अघनम् , ' अहाबायर 'त्ति यथोचितबादराः आहारपुद्गला इत्यर्थः. 'परिणमंति' श्रोत्रेन्द्रियादित्वेन, अन्यथा शरीरस्य दायसंभवात् . 'लूहं 'ति रूक्षमप्रणीतम्, 'नो वामेड़ 'त्ति अकषायितया विक्रियायामनर्थित्वात् . 'पासवणत्साए' इह ' यावत् ' करणाद् इदं दृश्यम्:-' खेलत्ताए, सिंघाणत्ताए, वंतताए, पित्तत्ताए, पूअत्ताए 'त्ति, रूक्षभोजिनः उच्चारादितयैव आहारादिपुद्गलाः परिणमन्ति, अन्यथा शरीरस्य असारताऽनांपत्तेरिति. अथ' मायि-अमायिनोः फलमाहः-माई णं.' इत्यादि. 'तस्स ठाणस्स "त्ति तस्मात् स्थानाद् विकुर्वणाकरणलक्षणात् , प्रणीतभोजनलक्षणाद् वा. 'अमायी णं' इत्यादि. पूर्व मायित्वाद् वैक्रियम्, प्रणीतभोजनं वा कृतवान् , पश्चाद् जातानुतापोऽमायी सन् तस्मात् स्थानाद् आलोचितप्रतिक्रान्तः सन् कालं करोति यत् तस्य अस्ति आराधना-इति. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे तृतीयशते चतुर्थ उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरंचित विवरणं समाप्तम्. ५. आगळy प्रकरण देव-लेश्यांपरिणामपर्यवसायी होवाथी एनी पछी आवतुं आ प्रकरण पण एवं ज मूकेलं छे अर्थात् आगळना प्रकरणनी पेठे द्रव्यदेव. आ प्रकरणमां पण छेवट सुधी, भविष्यमा देवरूपे अवतार लेनारा एटले देव थवाने योग्य-द्रव्यदेव-अनगारोए करेलां पुद्गलपरिणमनोने सूचववानां छे. ते विषेनां सूत्रो आ प्रमाणे छ:-['बाहिरए ' ति] औदारिक शरीरथी भिन्न अर्थात् वैक्रियपुद्गलोने. [ 'वेभारं' ति] ' वैभार' नामना वैभार. राजगृह नगरना क्रीडापर्वतने, [.' उलंपित्तए वा ' इत्यादि.] ते बेमान एकवार ओळंगवू ते उल्लंघन 'अने वारंवार ओळंगवु ते प्रलंघन. [नो ... . इणटे सम? 'त्ति ] ए वात बनती नथी. कारण के वैक्रिय पुद्गलोनुं ग्रहण कर्या सिवाय वैक्रिय शरीरनी बनावट थइ शकती ज नथी अमे पर्वतर्नु वैक्रिय- उल्लंघन करनार मनुष्य, पर्वतातिकामी (पर्वतने वटी जाय) एवा.मोटा वैक्रिय शरीर सिवाय, पर्वतने ओळंगी शकतो नथी., अने. एवडं मोठे पुद्गलग्रहण. वैक्रिय शरीर, बहारनां वैक्रिय पुट्ठलोनुं ग्रहण कर्या सिवाय बनी शकतुं नथी. तेथी बहारनां पुद्गलोनुं ग्रहण कर्या पछी.ज ए पर्वतने ओळंगवा (विगेरे )मां समर्थ थई शके छ तो मोटुं शरीर बनाववा माटे बहारनां (वैक्रिय ) पुद्गलोर्नु ग्रहण करवं ज जोईए. [जावइआई इत्यादि.1 जेटलां पशु अने पुरुष वगेरेनां रूपो. [ ' एवइआई ' ति ] एटलां रूपोने [ — विकुवित्त ' त्ति ] वैक्रिय करीने समत्ववाळा वैभार पर्वतमे विषम करे अने विषमने तो सम करे-एम संबंध छे. शुं करीने ? तो कहे छे के, वैभार पर्वतनी वचे पेसीने. [ 'मायी' ति] मायावाळो. आ सूत्र, मायी. सुचक होवाथी 'मायी' शब्दथी । कषायवाळो' अर्थात् 'प्रमत्त' मनुष्य एम समजवू. कारण के अप्रमत्त मनुष्य तो वैक्रियरूप करतो नथी. प्रणीत- [पणी तिचीकाशना झरतां बिंदुवालं.[ भोचा भोच्चा वामेति 'त्ति ] वमन करे छे अथवा विरेचन करे छे. ते मनुष्य मायी छे माटे वर्ण भोजन. तथा बल विगेरेने माटे विक्रियास्वभावरूप प्रणीत भोजन अने तेनुं वमन करे छे अने ए प्रमाणे ए द्वारा वैक्रियकरण पण थाय छे-ए तात्पर्य छे. [ बहलीभवंति ' त्ति ] कठण थाय छे. [पयणुए 'त्ति ] पातळु-कठा नहीं..[.. अहाबायर ' त्ति] यथोचित बादर अर्थात् आहारनां पुद्गलो श्रोत्रइंद्रिय वगेरेपणे परिणमे छे. जो एम न थाय तो शरीरनी दृढता थवी असंभषित छे. [ 'लूह ' ति ] लू. [ 'नो वामेड़' तिअकषाविपणाने लीधे विक्रियानो इच्छुक न होवाथी बमन करतो नथी. [ 'पासवणत्ताए ' ] अहीं ' यावत् ' शब्द मूक्यो छे माटे आ रीते जाणवु:--- " श्लेष्मपणे, नासिकाना मळपणे, वमनपणे, पित्तपणे अने पूतिपणे." लू जमनारने आहार वगेरेनां पुद्गलो, उचार (विष्टा) विगेरेपणे परिणमे छे. जो एम न होय तो तेनुं शरीर दुर्बळ न थर्बु जोईए. हवे मायी अने अमायीनी ए'प्रवृत्तिनुं फळ कहे छः ['माईणं' इत्यादि.] विकुर्वणा करवारूप अथवा प्रणीत भोजनरूप स्थानथी. [' अमाई णं' इत्यादि. ] पहला मायी होवाने लीधे वैक्रियरूप कर्यु हतुं अथवा प्रणीत भोजन कर्यु ___ पश्चात्ताप. हतुं. पण पछी ते बाबतनो पश्चात्ताप थवाथी ते अमायी थयो अने तेणे आलोचन तथा प्रतिक्रमण कर्या पंछी काळ कों, तो तेवाने आराधना छे. बेडारूपः, समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुख मारहा चाप्तमुख्यः॥ १. मूलच्छायाः-प्रतिकान्तः कालं करोति, अस्ति तस्य आराधनाः- तदेवं भगवन् ! तदेवं-भगवन् ! इतिः-- अनु. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक.३.-उद्देशक ५. अन गार वाम पुद्गलोने लीधा विना स्त्री विगेरेनां रूपो करे ?-ना.-लईने.-हा.-एवा रूपोवडे जंबूद्वीपने भरी देवानुं मात्र सामर्थ्य.-युवक-युवति.-असिनर्मपात्र एकतः पताका.-पर्यस्तिका.-पर्यक.-अभियोग.-घोडो, हाथी, सिंह, वाघ, वरू, दीपडो, रीछ अने अष्ट पद विगेरेने रूपे अनगार.-पुद्गलपयादान, आत्मऋद्धि-परऋद्धि विगेरे.-अश्व के साधु-साधु.-विकुर्वणा.-मायी.-तेनी गति-आभियोगिक.-अमायी.-तेनी गति.-अनाभियोगिक.-गरथा, - १.प्र०-अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले १. प्र०-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बहारनां' अपरिआइत्ता पम एग महं इत्थीरूवं वा, जाव-संदमाणिअरूवं पुद्गलोने लीधा सिवाय एक मोटा स्त्रीरूपने यावत्-संदमानिका. वा विउवित्तए ?". __रूपने विकुर्ववा समर्थ छ ? । १. उ०-नो इणहे समढे. १. उ०-हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. . २. प्र०-अणगारे भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले २. प्र०-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बहारनां "परिआइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा, जाव-संदमाणिअरूवं पुद्गलोने लईने एक मोटा स्त्रीरूपने यावत्-स्पंदमानिकारूपने वा विउवित्तए ? विकुर्ववा समर्थ छे ? २. उ०-हंता, पभू. २. उ०-हे गौतम ! हा, ते तेम करवा समर्थ छे. ३. प्र०-अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइआई पभू ३. प्र०-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार केटलां स्त्रीरूपोने त्थिरूवाई विउवित्तए ? विकुर्ववा समर्थ छ ? ३.उ.0--गोयमा ! से जहा नामए जुवई जुवाणे हत्थेणं ३. उ०-हे गौतम ! जेम कोई एक युवान, युवतिने हत्थे गेण्हेजा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव काकडा वाळवापूर्वक पकडे अथवा जेम पैडानी धरी आराओथी अणगारे विभाविअप्पा वेउब्विअसमुग्घायेणं समोहणइ, जाव- व्याप्त होय तेम भावितात्मा अनगार पण क्रियामुद्घातथी पभू णं, गोयमा ! अणगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं समवहत थई यावत्-हे गौतम ! भा तात्मा . अनगार आखा दीवं बहहिं इत्थिरूवेहिं आइण्णं, वितिकिण्णं, जाव-एस णं जंबूद्वीपने घणां स्त्रीरूपोवडे आकीर्ण, व्य.कीर्ण यावत् -करी शके गोंयमा ! अणगारस्स गाविअप्पणो अयमेयारूवे विसये, विस- छे. हे गौतम ! भावितात्मा अनगारनो आए प्रकारनो मात्र यमेत्ते बइए, णो चेव णं संपत्तीए विउब्बिसु वा, विटाविंति वा, विषय छे, पण ९ प्रकारे कोईवार विकु!ण थयु नथी, तुं नथी विउन्विस्तांति वा-एवं परिवाडीए णेयव्यं, जाव-संदमाणिआ. अने थशे नहि. ए ज प्रमाणे क्रमपूर्वक यावत्-संदमानका संबंधी रूप सुधी समजq. १. मूलच्छायाः-अनगारो भगवन् ! भावितात्मा बायान पुदलान् अपादाय प्रभुः एक महत् स्त्रीरूपं वा, यावत्-सन्दमानिकारू वः विकुर्वितुम् ? नाऽयम् अर्थः समर्थः. अनगारो भगवन् ! भावितात्मा याह्यान् पुगलान् पयादाय प्रभुः एकं महत् स्त्रीरूपं वा, यावत्-स्पन्दमानिकारावा विकुक्तुिम् । हन्त, प्रभुः. अन्गारो भगवन् ! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः नीरूपाणि विकुर्षितुम् ? गौतम ! स यथा नाम युवति युवा हस्तेन हस्ते गुडीयात्, चक्रस्य वा नाभिः अरकांयुक्ता स्यात् , ' एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा वैनियसमुद्घातेन. समवहन्ति, या त् अभुगौतम ! अनगारो भावितात्मा केवलकम जम्बूदीपं द्वीपं बहुभिः नोकरः आकीर्णम् , व्यतिकीर्णम् , यावत्--एप गातम ! अनगारस्य भावितातोऽम् ए दूने विषय., विषयमात्रम उक्तम. नो चैव संप्राप्त्या व्यकुवींद् वा, विकुर्वात वा, विकुर्विष्यति वा-एवं परिपाच्या कातव्यम्, यावत्-पन्दमानका:-अनु० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३. उद्देशक ५. ४. प्र०-से जहा नामए केड़ पुरिसे असि-चम्मपायं ४. प्र०-हे भगवन् ! जेम कोइ एक पुरुष तरवार अने गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा असि-चम्म- ढाल लइने गति करे, ए ज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण तरवार पायहत्थ-किच्चगएणं अप्पाणेणं उर्ल्ड वेहासं उप्पइज्जा ? अने ढालवाळा मनुष्यनी पेठे कोइ पण कार्यने अंगे पोते उंचे आकाशमा उडे ? ४. उ०-हंता, उप्पइज्जा. ___४. उ०—हे गौतम ! हा, उडे. ५.प्र०-अणगारे णं भंते ! भाषिअप्पा केवइआई पभू, ५. प्र०—हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, तरवार अने असि-चम्महत्थकिचगयाइं रूवाई विउवित्तए ? ढालवाळा मनुष्यनी जेवां केटलां रूपो विकुर्वी शके ? ५. उ०--गोयमा ! से जहा नामए जुवई जुवाणे हत्थेगं ५ उ०-हे गौतम ! जेम कोइ एक युवान युवतिने काकडा हत्थे गेण्हेज्जा, तं चेव जाव-विउविसु वा, विउव्वंति वा, वाळवापूर्वक पकडे यावत्-(बधुं पूर्वनी पेठे जाणवू ) विकुर्वणा विउव्विस्संति वा. थइ नथी, विकुर्वणा थती नथी अने विकुर्वणा थशे पण नहि. ६. प्र०-से जहा नामए केइ पुरिसे एगओपडागं काउं ६. प्र०--हे भगवन् । जेम कोइ एक पुरुष (हाथमां) गच्छेज्जा, एवामेय अणगारे वि भाविअप्पा एगओपडागाहत्थ- एक पताका करीने गति करे ए ज प्रमाणे भावितात्मा अनगार किचगएणं अप्पाणणं उई वेहायसं उप्पएज्जा ? पण, हाथमा एक ( एक तरफ धजावाळी ) पताका धरीने चाल नार पुरुषनी पेठे पोते कोई कार्यने लौधे उंचे आकाशमा उडे ? ६. उ०-हंता, गोयमा ! उप्पएज्जा. ६ उ०--हे गौतम ! हा, उडे. ७. प्र०-अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइआई पभू ७. प्र०--हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, हाथमा एक एगजोपडागाहत्थकिचगयाइं रूवाइं विकुवित्तए ? (एक तरफ धजावाळी ) पताका धारण करी चालनार पुरुषनी जेवा केटलां रूपो करी शके ? ७. उ०-एवं चेव जाव-विकुब्बिसु वा, विकुव्बंति वा, ७. उ०-हे गौतम ! पूर्वनी पेठे ज जाणवु अने यावत्विकुविस्सति वा. एवं दुहओपडागं पि. विकुर्वण थयुं नथी, थतुं नथी अने थशे नहि, ए प्रमाणे बे तरफ धजावाळी पताका संबंधे पण समजवु. ८. प्र--से जहा नामए केइ पुरिसे एगओजण्णोवइ (तं) ८. प्र०—हे भगवन् ! जेम कोई एक पुरुष एक तरफ काउं गच्छेजा, एवामेव अणगारे णं भाविअप्पा एगओजण्णो- जनोइ करीने गति करे, ए ज प्रमाणे भावित.त्मा अनगार पण, वइअकिञ्चगएणं अप्पाणेणं उडु वेहासं उप्पएज्जा ? एक तरफ जनोइ करीने चालनार पुरुषनी पेठे पोते कोई कार्यने लीधे उंचे आकाशमा उडे ? ८. उ०-हंता, उप्पएज्जा. ८. उ०-हे गौतम ! हा उडे. ९. प्र०-अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवइआई पभू ९. प्र०-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार पोते, कार्य एगओजण्णोवइअकिचगयाइं रूवाइं विकुवित्तए ? परत्वे एक तरफ जनोइवाळा पुरुषनी जेबा केटलां रूपो विकुर्वी शकें? ९. उ०-तं चेव जाव-विकुग्विंसु वा, विकुब्यति वा, ९. उ०-हे गौतम ! तेज प्रमाणे जाणवू अने यावत्विकुब्बिस्संति वा. एवं दुहओजण्णोवइयं पि. विकुर्वण कर्यु नथी, विकुर्वण करता नथी अने विकुर्वण करशे पण नहि. ए प्रमाणे बे तरफ जनोइवाळा पुरुषनी जेवां रूपो संबंधे पण समजq. - १. मूलच्छायाः-स यथा नाम कोऽपि पुरुषोऽसि-चर्मपात्रं गृहीत्वा गच्छेत् , एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा असि-चर्मपात्रहस्तेकृयगतेन आत्मना ऊर्ध्व विहायः उत्पतेत् ? हन्त, उत्पतेत् . अनगारो भगवन् । भाषितात्मा कियन्ति प्रभुः असि-चर्महस्तकृयगतानि रूपाणि विकुर्वितुम् ? गैातम ! स यथा नाम युवति युवा हस्तेन हस्ते गृलीयात् , तञ्चैव यावत्-व्यकुर्वीद वा, विकुर्वीत वा, विकुर्विष्यति वा. स यथा नाम कोऽपि पुरुषः एकतःपताकं कृत्वा गच्छेत् , एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा एकतःपताकाहस्तकृत्यगतेन आत्मना ऊर्च विहायः उत्पतेत् ? हन्त, गौतम ! उत्पतेत्. अनगारो भगवन् । भावितात्मा कियन्ति प्रभुः एकतःपताकाहस्तकृत्यगतानि रूपाणि विकुवितुम् ? एवं चैव यावत्-व्यकुर्वीद् वा, विकुर्वीत चा, विकुर्विष्यति वा. एवम् द्विधापताकम् अपि. स यथा नाम कोऽपि पुरुषः एकतोयज्ञोपवीतं कृत्वा गच्छेत् , एवमेव अनगारो भावितात्मा एकतोयशोपवीतकृत्यगतेन आत्मना ऊवं विहायः उत्पतेत् ? हन्त, उत्पतेत् . अनगारो भगवन् ! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः यज्ञोपवीत कृत्यगतानि रूपाणि विकुचितम् ? तचैव यावत्-व्यकुर्वी वा, विकृर्वति वा, विकुर्विष्यति वा एवं द्विधायज्ञोपवीतम् अपि:-अनु. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंतक: ३:-उद्देशकः ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १०. प्र०-से' जहा नामए केइ पुरिसे एगओपल्हथिअं १० प्र०--हे भगवन् ! जेम कोई एक पुरुष एक तरफ काउं चिढेजा, एचामेव अणगारे विभाषियप्पा.? पलोंठी करीने से, ए ज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण एनौ जेवू रूप करीने आकाशमा उडे ! १०. उ0---एवं चेव जाव-विकुनिसुवा, विकुव्वंति वा, १०. उ०--हे गौतम ! ए ज प्रमाणे जाणवू अने यायत्विकुन्निस्संति वा; एवं दहओपल्हथिअंपि. विकुर्वण कर्यु नथी, विकुर्वता नथी अने विकुशे पण नहि ए प्रमाणे बे तरफ पलोंठी संबंधे पण समजवं. ११. प्र०—से जहा न.मए केइ पुरिसे एगओपलियंक ११. प्र०--हे भगवन् ! सेम कोई एक पुरुष एक तरफ काउं चिडेजा? पर्यकासन करीने बेसे, ए ज प्रमाणे भावितात्मा अनगार पण एनी जेवू रूप करीने आकाशमा उडे ? । ११. उ०-तं चेव जाव-विकुविखु दा, चिकुवंति वा, ११. उ०-हे गौतम ! ए ज प्रमाणे जाणवु अने यावत्विकुब्विस्सांत वाई एवं दुहओपलियंक पि. विकुर्वण थयुं नथी, विकुर्वण थतुं नथी अने विकुर्वण थशे पण नहि; ए प्रमाणे बे तरफना पर्यकासन संबंधे पण समजवु. न चर्मपात्र एटले ढाल अथवा पाण' ति] जेना हाथमां असि अने संघ विगेरेना प्रयोजननी सिद्धिने आश्रीने १. चतुर्थोद्देशके विकुर्वणा उक्ता, पञ्चमेऽपि तामेव विशेषत आह-'अणगारे णं ' इत्यादि. 'असिचम्मपायं गहाय ' त्ति असिचर्मपात्रं स्फुरकः, अथवा असिश्च खड्गः, चर्मपात्रं च रफुरकः, खड्गकोशो वा असिचर्मपात्रम् , तद् गृहीत्वा. 'असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं' ति असिचर्मपात्रं हस्ते यस्य स तथा, कृत्यं संघादिप्रयोजनम् , गत आश्रितः कृत्यगतः, ततः कर्मधारयःअतस्तेनात्मना, अथवा असिचर्मपात्रं कृत्वा-हस्ते कृतं येनासौ असिचर्मपात्रहस्तकृतः तेन, प्राकृतत्वाच्चैवं समासः. अथवा असिचनपात्रस्य हस्तकृत्यं हस्तकरणम् , गतः प्राप्तो यः स तथा तेन. 'पलिमकं ' ति आसनविशेषः-प्रतीतश्च. १. चोथा उद्देशकमां विकुर्वणा संबंधे हकीकत कही छे अने पांचमा उद्देशकमां पण ते ज हकीकतने विशेषताथी कहे छ:-[ अणगारे गं' इत्यादि. ] [ 'असिचम्मपायं गहाय ' त्ति ] असिचर्मपात्र एटले स्फुरक-ढाल. अथवा असि एटले तरवार अने चर्मपात्र एटले ढाल अथवा असि वर्मपात्र म्यान-तेने लइने. [ · असिचम्मपायहत्थकिञ्चगएणं अप्पाणेणं ' ति ] जेना हाथमा असि अने चर्मपात्र छे ते ' असिचर्मपात्रहस्त' कहेवाय. संघ विगेरेना प्रयोजननी सिद्धिने आश्रीने गएलो ते कृत्यगत ' कहेनाय तेणे-ते आत्माए. अथवा जेणे असिचर्मपात्रने हाथमा कर्यु छ ते-तेणे. अथवा असिचर्मपात्रनुं जे हाथमा करवू (ध ), तेने पामेल-तेणे. [ 'पलियंकं ' ति ] एक जात, प्रसिद्ध आसन-पर्येकासन. पर्यक. अभियोग अने आभियोगिक. १२.३०-अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले १२. प्र०--हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार बहारमा अपरिआइत्ता पभू एगं महं आसरूवं वा, हस्थिरूवं वा, सीह- पुद्गलो ग्रहण कर्या सिवाय एक मोटा घोडाना रूपन, हाथिना रूवं वा, वग्घरूवं या, विगरूवं वा, दीविअरूवं वा, अच्छ- रूपने, सिंहना रूपने, वाघना रूपने, नारना रूपने, दीपडाना रूवं वा, तरच्छरूवं वा, परासररूवं वा अभिजुजिचए ? रूपने, रिना रूपने, नाना वाघना रूपने अने शरभना रूपने अभियोजवा समर्थ छे ? १२. उ०-नो इणट्टे समढे. १२. उ०--हे गौतम ! ए वात समर्थ नथी. १३. प्र०--अणगारे णं? १३. प्र०--हे भगवन् ! भावितात्मा अनसार बहारवां पुद्गलोने लईने पूर्व प्रमाणे करवा समर्थ छ ? । १३. उ०-एवं बाहिरए पोग्गले परिआइत्ता पभू. १३. १०-हे मौतम ! बहारनां पद्गलोने लईने ते अनगार पूर्व प्रमाणे करी शके छे. १. मूलच्छायाः-स यथा नाम कोऽपि पुरुषः एकतःपयस्तिकां कृत्वा तिष्ठेत् , एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा० ! एवं चैव यावत्-व्यकुर्वीट् वा, विकुर्वति वा, विकुर्विष्यति वा; एवं द्विधापर्यस्तिकाम् अपि.स यथा नाम कोऽपि पुरुषः एकतःपयक कृत्वा तिष्टेत् ? तचैव यावत्-व्यकुर्षांद्य, विकुर्वति वा, विकुर्विष्यति वा; एवं द्विधापर्यम् अपि. २. अन गारो भगवन् ! भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् अपादाय प्रभुः एकं महद् अश्वरूपं वा, हस्तिरूपं वा, सिंहरूपं वा, व्याघ्ररूप वा, वृकरूपं वा, द्वीपिकरूपं वा, वृक्षरूपं वा, तरक्षरूपं वा, पराशररूपं वा अभियोक्तुम् ! नाअम् अर्थ: समर्थः, अनगारः ? एवं बाह्यान् पुद्गलान् पनीदाय प्रभुः-अनु० १.अहीं ' असिचर्मपात्रहस्त ' अने ‘कृत्यगत ' आ बे शब्दोनो कर्मधारय समास करवो. २. अहीं प्राकृतंनी शैलीने अनुसरीने पूर्वनिपातनो विपीत थएलों छ:-श्रीअभय Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे १४. प्र० -- अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा एगं महं आसरूपं या अभिर्जुनिता अनेगाई जोअणाई पभू गमिचए ? १४. उ०- हंता, पभू. १५. प्र० से मंते कि आयडीएछ, परिडीए गच्छ ? १५. उ०- गोमा ! आयडीए गच्छद, नो परिट्टिए एवं आवकम्मुणा, मो परकम्मुणा आयप्ययोगेणं, नो परप्पयोगेणं. ओदागच्छंद, पमओदयं वा गच्छा. १६. प्र० - से णं भंते । किं अणगारे आसे ? १६. उ०- गोवमा ! अणगारे णं से, नो खलु से आसे; एवं जाव- परासररूवं वा. १७. प्र से भंते कि माथी विकुव्य, जमावी विवि कुव्वइ ? १७. उ०- गोयमा ! मागी विकु नो अमायी विकुष्य. १८. प्र० - माई णं भंते ! तरस ढाणस्स अणालोइ अपरिकंते. कालं करे, का उववज्जइ ? १८. उ०- गोवमा ! अण्णवरेसु आभिभोगेसु देवलांगेसु देवत्ताए उववज्जइ. १९. प्र० - अमायी णं भंते । तस्स ठाणस्स आलोइअप - डिकं कालं करे, कहिं उववज्जइ ? १९. उ०— गोयमा ! अण्णयरेसु अणाभियोगिएसु देवलो - एस देवता उपज - सेवं भंते ! सेनं भंते । ति गाहा :- इत्थी असी पडागा जण्णोवइओ य होड़ बोधव्वे, पल्हरिथ पलियं अभियोग विकुव्यणा मायी. शतक ३. - उद्देशक ५. १४. प्र० - हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, एक मोटा घोडाना रूपने अभियोजी अनेक योजना सुधी जवाने समर्थ छे! १४. उ०- हे गौतम! हा, ते, तेम करवा समर्थ छे. १५. प्र० - हे भगवन् ! शुं ते आत्मऋद्धिथी जाय छे के पारकी श्रविधी जाय छे ! १५. उ०- हे गौतम! आत्मविधी जाय छे, पण पारकी ऋद्धिथी जतो नथी, ए प्रमाणे पोताना कर्मची जाय छे, पण पारकाना कर्मथी जतो नथी; पोताना प्रयोगथी जाय छे पण पारकाना प्रयोगथी जतो नथी. तथा ते सीधो पण जई शके छे अने विपरीत पण जई शके छे. १६. प्र० - हे भगवन् शुं ते अनगार अश्व-घोडोकहेवाय ? १६. उ०—हे गौतम! से अनगार छे, पण घोडो नथी. ए प्रमाणे यावत् - शरभना रूप सुधीनां बधां रूपो संबंधे जाणवुं. १७. प्र० - हे भगवन् ! शुं ते विकुर्वण मायी अनगार करे, के अमायी अनगार पण करे ? १७. उ०- हे गौतम! ते विकुर्वण माथी अनगार करे, अगायी अनगार न करे. १८. प्र० -- हे भगवन् ! ते प्रकारनुं विकुर्वण कर्या पछी ते संबंधी आलोचन के प्रतिक्रमण कर्या सिवाय जो ते विकुर्वण करनार मायी साधु काळ करे, तो ते क्यों उत्पन्न थाय ? १८. उ० - हे गौतम! ते साधु, कोई एक जातना आभियोगिक देवलोकोमां देवपणे उत्पन्न थाय. १९. प्र० हे भगवन् से किया संबंधी आलोचन अने प्रतिक्रमण करीने जो अमायी साधु काळ करे, तो क्यां उत्पन्न धाय ? १९. उ०- हे गौतम! ते साधु कोई एक जातना अनाभियोगिक देवलोकोमां देवपणे उत्पन्न थाय. - हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. गाथा - स्त्री, तरवार, पताका, जनोइ, पलोंठी अने पर्यंकासन; ए बधां रूपोनो अभियोग अने विकुर्वणा संबंधी हकीकत आ उद्देशकमा छे तथा ए प्रमाणे मायी साधु करे छे एम पण जणान्युं छे. भगवंत अचम्मसामिपणीए सिरीभगवई तविअसदे पंचमो उरेसा सम्मणे. १. मूळच्छायाः अनगारो भगवन् । भावितात्मा एक मदद अधरूपं या अभियुज्य अनेकानि योजनानि प्रभुतुम्हन्त प्रभुः स भगवन् किम् आत्म गच्छति पर गछति गोतम आरन गच्छति तो परदर्थ एवम् आश्मकर्मया, मो परर्मणा, आत्मप्रयोगेण, नो परप्रयोग, उच्छ्रितोदयं वा गच्छति, तदुदयं वा गच्छति स भगवन् ! किम् अनगारोऽश्वः ? गौतम ! अनगारः सः, नो खलु सोऽश्वः एवं यावत्-पराशररूपं वा. स भगवन् ! किं मायी विकुर्वति, अमायी अपि विकुर्वति ? गौतम ! मायी विकुर्वति, नो अमायी विकुर्बति मायी भगवन् । तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति, कुत्र उपपद्यते ? गौतम | अन्यतरेषु आभियोगिकेषु देवलोकेषु देवतया उपपद्यते अमायी भगवन् ! तस्य स्थानस्य आलोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति, कुत्र उपपद्यते ? गौतम ! अन्यतरेषु अनाभियोगिकेषु देवलोकेषु देवतया उपपद्यते तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् । इति गाथाः - स्त्री असिः पताका यज्ञोपवीतं च भवति बोद्धव्यम्, पर्यंस्तिका पर्यङ्कः अभियोगो विकुर्वणा. मायीः- अनु० : Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक.३. उद्देशकः५: ..... भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीता भगवतीसूत्र, २. विग 'त्ति वृकः, 'दीविअ.' ति चतुष्पदविशेषः, अच्छ,' न्ति त्ररक्षः, 'बरच्छ ति व्यायविशेषः, : पससर 'ति शरभः इह अन्यायी शृगालादिपुदानि वाचनान्तरे दृश्यन्ते. ' अभिजित्तए 'ति-अभियोक्तुं विद्यादिसामर्थ्यतः, तद-गुम्नवेशेन व्यापारयितुम् , यच्च स्वस्यानुप्रवेशेन अभियोजनं तद्विद्य:दिसामोपात्तबाह्यपुद्गलान् विना न स्याद् इति कृत्वा उच्यते:- नो बाहिरए पुग्गले अपरिआइत्त 'त्ति. 'अणगारे णं से' ति अनमार एवासौ-तत्त्वतोऽनगारस्यैव अश्वाद्यनुप्रवेशेन व्याप्रियमाणत्वात्. " मायी अभिमुंबइ त्ति कषायवान् अभियुक्ते इयर्थः, अधिकृतवाचनायां 'मायी विकवड़ति दृश्यते, तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्वणा इति मन्तव्यमेंविक्रियारूपत्वात् तस्य. ' अन्नयरेसु' त्ति आभियोगिकदेवा अच्युतान्ता भवन्ति इति कृावा अन्यतरेषु इत्युक्तम्-केपुचिद् इत्यर्थः, • उत्पद्यते चाभियोगभावनायुक्तः साधुराभियोगिकदेवेषु. करोति च विद्या दिलब्ध्युपजीवकोऽभियोगभावनाम् . यदाहः- मंता-जोगं काउं भूइकम्म, तु जे पउंजेति, साय-रस-इड्डिहेउं अभियोगं भावणं कुणइ. " " इत्थी' इत्यादि. संग्रहगाथा गतार्था. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे तृतीयशते पञ्चम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम् २..[विग."त्ति नार, [ 'दीविअ ' ति] एक आतं, चारपगुं जनावर-दीपंडो, [ · अच्छ 'त्ति ] रिंछ, तर ' ति ] एक वृका दि. 'जातनो वाध-नामो वाघ, [' परासर ' ति] सिंहने मारनार शरम-अटापद, बौनी वाचनामां आ ठेकाणे शियाळ ' वगरे बीजा जनावरोनां बीजी वार पण नामो आवे-देखाय-छे. [ अभिमुंजित्तए ' ति] अभियोग करवाने विद्या विगेरेना बळथी अंश्व-घोडा-विगेरेना रूपमा प्रवेश करीने ते अभियोग... 'द्वारा क्रिया करवाने रूपमा प्रवेश करीने ते द्वारा जे क्रिया करवानी छे ते, विद्या विगेरेना बळथी ग्रहण करेला बहारनां पुद्गलो सिवाय थई शंकती नथी माटे कयुं छे केः---[ नो बाहिरए पुग्गले अपरिआइत्त ति.][ अणगारे णं से ' ति] ए अनगार-साधु -ज छे. कारण के खरी रीते तो अश्व विगेरेमा पेठलो साधु ज वपराशमां आवे छे अर्थात् जवादिना रूपमा पण साधु ज पठेलो छ माटे ते साधु,ज छे. पण अश्वादि नथी. [मायी अमिजुजइ ' ति] जे कषायवाळो साधु होय ते-अभियोग करे छे. चालु वाचनामा ['मायी विकुब्वइ !] एवो पाठ देखाय छे. शं०- पाठभेद, अभिजुंजइ -अभियोग करे छे अने — विकुब्बइ '-विकुर्वण करे छे, ए क्रियापदोनो भिन्न भिन्न अर्थ छे, तो चालु वाचना अने वीजी वाचनामां ते भिन्न अर्थोनुं संघटन केम थइ शके ? समा०-अभियोग अने विकुर्वण क्रियानुं फळ जोतां तो ए बन्ने शब्दोनो जूदो अर्थ संभवतो नथी. समाधान. कारण के अभियोग करमार पण नवा नवां रूपो बनावे छे अमे विकुर्वण करमार पग नवां नवां रूपो बनावे छे माटे अभियोग विकुर्वणरूप होवाथी : अभियोग ' अने विकुर्वण ' ए बन्ने शब्दोना अर्थमां पण मळतापणुं छे अने तेम होवाथी बन्ने वाचनामा संघटन थई जाय छे. [ अन्नयरेसु ' ति] आमियोगिक देवो अच्युत देवलोक सुधी होय छे माटे कोइ एक जातना' ए प्रमाणे कयुं छे. विद्या विगेरेनी लब्धिथी उपजीवन करनार साधु अभियोगनी भावगाने करे छे. अने ए अभियोगनी भावनावाळो साधु आभियोगिक देवोमां उत्पन्न थाय छे. कयुं छे के- कह्यु छ के. " जेओ मात्र वैषयिक सुखने माटे अने खादु आहारनौ प्राप्तिने माटे मंत्र साधना करे छे अने भूतिकर्मने प्रयोजे छे तेओ अभियोगनी भावनाने करे छे. " [ ' इत्थी' इत्यादि.] ए संग्रहगाथा गतार्थ छे-स्पष्ट अर्थवाळी छे. बडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परक्रतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥ . १. प्र. छायाः-मन्त्रा-ऽऽयोग कृला भूतिकर्म तु यः प्रयुङ्क्ते, सात-रस-चिहेतुम् आभियोगिकी भावना करोतिः-अनु. १. आ गाथा उत्तराध्ययन सूचना ३३ मा अध्ययनमा २६२ मी छे. त्यां जणावेलो तेनो अर्थ आ प्रमाणे छ:“मंता-जोग काउं भूइकम्मं च जे पति , साय-रस-इडिहेउं अ- “जे पुरुष, सुख, स्वाद अने ऋद्धिने लोभे मंत्रसाधना करे छे, औषभिओगं भावणं कुणइ-२६२" यः पुरुषः सात-रस-चिहेतवे मन्त्रा- धीसंयोग करे छे अने भूतिकर्मने प्रयोजे छे ते, आभियोगिकी भावनाने ऽऽयोगं कृखा-मन्त्रश्च आयोगश्च मन्त्रायोगम् . मधः-आँकारादिस्वा- करे छ"-२६२. जे वाक्यनी आदिमा 'ॐ' अने अंते 'स्वाहा' हान्तः, आयोगः-औषधीमीलनम् अथवा मन्त्राणाम् आयोगः-साधनं शब्द आवे तेनु नाम मंत्र. आयोग एटले साधना वा औषधीसंयोग. मन्त्रा-ऽऽयोगः-तं कृखा. तथा भूत्या-भस्मना, मृत्तिकया, सूत्रेण वा यत् मनुष्योगी, पशुओनी अने घर विगेरेनी रक्षा माटे भस्म, मृत्तिका वा सूतर कर्म तद् भूतिकर्म -मनुष्याणाम् , तिरश्चाम् , गृहाणां वा रक्षाद्यर्थ कौतुका- द्वारा कराता प्रयोगने भूतिकर्म कहेवामां आवे छे-भभूती नाखवी, मंत्रीने दिकरणं भूतिकरणं कर्म. एतानि सुखार्धम् , सरसाऽऽहारार्थम् , वनादिप्रा. धूळनी मूठी आपवी वा दोरो करी देशो-ए विगेरे भूतिकर्म कहेवाय छे. ए प्त्यर्थं यः साधुः कुर्यात् स आभियोगिकी भावनां करोति. आभियोगिकी जातना मंत्र के भूतिकर्मनो उपयोग जे साधु पोताना अंगत लाभने साहभावनां चोत्पाश्च स आभियोगित्वे देवत्वे मृत्वा उत्पश्चते-इत्यर्थः. आभि- सारो आहार मळे वा सारा कपडा मळे वा वेषयिक सुख मळे ए हेतुधी योगदेवा हि देवानाम् आज्ञाकारिणः किक्करप्रायाः, दासप्रायाश्च." (क. करे छे, ते, मरीने आभियोगिक देवमा अवतरे छे. स्वर्गमा जे देवो मोटा आ० पृ० ११.३.) संपत्तिशाली श्रीमंतो जेवा छे तेओनी आज्ञामा रहेवानुं काम आभियोगिक देवोर्नु छ अर्थात् आभियोगिक देवो, एक जातना दास देवो छ. आ विषे वधू हकीकत उत्तराध्ययन सूचना ३६ मा अध्ययनमा आवेली छे अने प्रज्ञापनासूत्रना २० मा पदमां (पृ. ४००-४०६ स.) पण ए नातनो उल्लेख मळी आवे छे. प्रस्तुत सूत्र (भगवती)ना प्रथम खंड (पृ० ११०) मां पण आभियोगिकनी माहिती आपेली छे. त्या आपेली गाथाओ उत्तराध्ययनना ३६ मा अध्ययनमा अने प्रज्ञापनाना उपर्युक्त स्थळमां पण टांकेली छे, Jain Education international Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायपन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ई.-उद्देशक ५ भा संबंधे “गच्छाचारपयना' भने 'हरकल्पवृति'मा पण नीचे जणावेलो उल्लेख मळी आवे छे:"मंताजोगं फार भूइकम्मं च जे पउजति, "मुख, स्वाद अने संपत्तिने अर्थे जे मंत्र, भायोग के भूतिकर्मने साय-रस-हडिहे अंमिओगभावणं कुणह." प्रयोजे छे ते अभियोगभावनाने करे है." " मन्त्राणाम्-आयोगो व्यापारी मन्त्रायोगः-तम् . यदि वा मन्त्राध, "मंत्रायोग एटले मंत्रनो आयोग अर्थात् मंत्रनो उपयोग. अथवा मंत्री आयोगाच-तथाविधाब्यसंयोगा: xx तत् कृत्वा विधाय-व्यापाये वा. अने आयोगो-आयोगो एटले ते ते प्रकारना ग्यना संयोगो. भूति एटले भल्या भस्सना, उपलक्षणवाद मृदा, सत्रेण कमरक्षार्थ वसत्यादिपरिवेष्टनं भस्म-ख. माटी के दोरो-ते द्वारा वसति विगेरेर्नु परियेष्टन एटले कर्मरक्षा भूतिकर्म. च-शब्दात् कौतुकादि च यः प्रयुझे-किमर्थम् ! सातं सुखम्, माटे घर फरती राख नाखवी, माटी रवी के घर फरतो दोरो विंटयो. रसा माधुयादयः, ऋद्धिः उपकरणादिसंपत्-एते हेतवो यस्मिन् प्रयोजने सात एटले सुख, रस एटले मधुर विगेरे रसो भने ऋदि एटळे उपकरण तत् सात-रस-ऋबिहेतु-को भावः ! साताद्यर्थ मन्त्र-योगादि प्रयु - विगेरेनी संपत्ति. ते त्रणेना उद्देशथी जे मंत्र विगेरेनो उपयोग करे छेते एवम् आभियोगी भावनां करोति. इहच सातादिहेतोरभिधानम् , निस्पृहस्य आभियोगी भावनाने करे छे. अहीं मंत्र विगेरेना उपयोग करषानो जे हेतु अपवादत एतत्प्रयोग:-प्रत्युत गुण-इति ख्यापनार्थम्:"-10 द्वि० अ० अणाव्यो छे तेथी एम कळी काय छे के, निस्पृह साधु, ए हेतुथी ( उपर "एआणि गारवट्ठा कुणमाणो आभियोगि बंधद अणावेला हेतुथी) मंत्रादिनो उपयोग करे नहि. (निस्पृह साधु तो पीरं गारवरहिओ कुठवं आराहगतं च." मंत्रादिनो उपयोग ज करे नहि ) कदाच ते, अपवादवशे मंत्रादिनो उप"एतानि कौतुकादीनि ऋद्धि-रस-सात-गौरवार्थ कुर्वाणः प्रधानः योग करे तो ते उपयोग द्वारा तेने हानि थती नथी-उलटो गुण थाय डेसन् आभियोगिकं देवादिप्रेष्यकर्म व्यापारफलं कर्म बनाति-द्वितीयमपवाद. आ वातने जणाववा माटे ज मंत्रादिना उपयोगने लगता से मुखादि पदमत्र भवति. गौरवरहितः सन् अतिशयज्ञाने सति निःस्पृहवृत्त्या प्रवचन- हेतुओनो अहीं उल्लेख करेलो छ. ग.द्वि. अ. प्रभावनार्थम् एतानि कौतुकादीनि कुर्वन् आराधको भवति-उच्चगोत्रं च “जे, गौरवने माटे ए मंत्रादिनो उपयोग करे छे ते. आभियोगिक कर्म बनाति-तीर्थोप्रतिकरणात्-इति गता याभियोगिकी भावनाः-१० देवने लगतुं कर्म बांधे छे अने जे निस्पृहपणे ए मंत्रादिनो उपयोग करे मा० द्वा० अभिधानराजेन्द्र-आभियोगिकभावना शब्द. छे ते आराधकपणाने पामे छे." । “जे ऋद्धि, रस अने सुखादिनी प्राप्ति माटे ए कौतुक विगेरेनो उपयोग करे छे ते देवोना नोकर थाने लायक कर्म बांधे थे. अने जे निस्पृह छेअतिशय ज्ञानी छे ते ए कौतुक विगेरेनो उपयोग प्रयचननी प्रभावना माटे करे छे अने एम करवाथी ते उच्च गोत्र यांधे छे-आराधक थाय छे” :-अनु. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतंक ३. - उद्देशक ६. मिष्यनिगः कुवेग वाराणसी-रामगृहावने खाने अन्यानाम राजगृहने बदले वाराणसी बने वाराणसीने सराय समजवान भ्रम. - जनपदवर्गनुं विकुर्वण - ते विकुर्वणने स्वाभाविक मानवानो भ्रम. - सम्यग्दृष्टि अनगारनुं विकुर्वण. - तथाभाव. - अन्यथाभाव नहि. - पीर्यलब्धि. - वैकियसन्धि जनविज्ञान-अने पुरुषकारंपराकमान ने पान - विकुलंग, मामरूपसंनिवेशक बुक्क तिचंमरआत्मरक्षक देवो.- इंद्रोना आत्मरक्षक देवो. -विहार. १. प्र० अणगारे णं भेते ! भावियया मायी, मिच्छदिट्टी परिगलदीए, बीए, विभंगणाणलदीए वाणारा नगरि समोहंए, समोहणिता रावगिदे नगरे रूपाई जागर, पासर २. उ०ता, जाण, पासद. ३. प्र० - से भंते ! किं तद्दाभावं जाणह, पासर; अचहाभाने जागा पास ? २. उ०- गोषमा ! णो तहामा जागर, पासर अण्ण हाभावं जगह, पासई. ३. प्र० के भत । एवं बुमइमो तहाभावं जागर, पास, अमहाभाव जागर, पासई 1 ३. उ०- गोयमा ! तरस णं एवं भवड़ एवं खलु आहे tris नगरे सiter, समोहणित्ता वाणांरसीए नयरीएं रूपाई जाणामि, पासामि; से से दंसणे विवचासे भवइ, से तेणद्वेणं जाव- पासति. - - १. प्र० - हे भगवन् ! राजगृह नगरमा रहेको मिष्यादृष्टि अने मायी कषायी भावितात्मा अनगार वीर्यतन्धिथी, बैंकिप लब्धी अने विभंगज्ञानलब्धिथी वाणारसी नगरीनुं विकुर्वण करीने (तगत ) रूपोने जाणे, जूए १. उ०- हे गौतम! हा, ते, ते रूपोने जाणे अने जूंए. २. प्र० - हे भगवन् ! शुं ते तथाभावे - जेतुं छे तेवुंजाणे अने जूए के अन्यथाभावे - जेवुं छे तेथी विपरीत रीतेजागे भने जूर ! २. उ०- हे गौतम ! ते तथाभावे न जाणे अने न जूए, पण अन्यथाभावे जाणे अने जूए. - ३. प्र० - हे भगवन् ! तेम थवानुं शुं कारण के, ते तथाभावे न जाणे अने न जूए; पण अन्यथाभावे जाणे अने जूए ? ३. उ० -- हे गौतम । ते रााधुना मनमां एम थाय छे केवाराणसीमां रहेलो हुं राजगृह नगरनी विकुर्वणा करीने ( तहत ) रूपोने जाणुं हुं अने जोउं बुं. एवं तेनुं दर्शन विपरीत होय छे माटे - आकारणथी - यावत् ते, ( अन्यथाभावे जाणे के अने ) भू छ. 1 १. मूलच्छायाः - अनगारो भगवन् ! भावितात्मा मायी मिध्यादृष्टिः वीर्यलब्ध्या, वैकियलब्ध्या, विभङ्गज्ञानलब्ध्या वाराणसी नगरी समवहतः, सेन राजगृहे नगरे रूपाणि जानाति पश्यति इन्त जानाति पश्यति स भगवन् किं तथाभावं जानाति पश्पति अन्यथाभावं जानाति पपति गौतम मो तमाभावं जानाति पश्यति, अन्यथाभावं जानाति पश्यति तत् केनार्थेन भगवन् । एवम् उच्यतेो तथाभावं जानाति, पपतिः शुन्यवाभावं जानाति पश्यति । गीतम । उस एवं भवति एवं स अहं राजगृहे नगरे समग्रतः जानामि ति तस्य दर्शने पिस (निवास) भवति तं तेनार्थेन यावत्-पस्पतिः अनु० , 2 समबद्दल वाराणस्य नगयो का / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३. उद्देशक ६. १.प्र०-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा मायी, मिच्छदिट्टी ४. प्र०-हे भगवन् । वाराणसीमा रहेलो मायी, मिथ्यादृष्टि जा-रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए भावितात्मा अनगार यावत्-राजगृह नगरनुं विकुर्वण करीने रूवाई जाणइ, पासइ ? (तद्गत ) रूपोने जाणे अने जूए ? ___४. उ०-हंता, जाणइ, पासइ; त पेव जाव-तस्स णं ४. उ०-हे गौतम ! हा, ते, ते रूपोने जाणे अने जूए, एवं हवइ-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए समोहए, समोह- यावत्-ते साधुना मनमा एम थाय छे के, राजगृह नगरमा रहेलो णित्ता रायगिहे नगरे रूवाई जाणामि, पासामि; से से दंसणे हुं वाराणसी नगरीनी विकुर्वणा करीने (तद्गत ) रूपोने जाणुं छु विवच्चासे भवति, से तेणढणं नाव-अनहामावं जाणइ, पासइ. अने जोउं छु; एवं तेनुं दर्शन विपरीत होय छे माटे-आ कारणथी ___ यावत् ते अन्यथाभावे जाणे छ अने जूए छे. ५. प्र०-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा मायी, मिच्छदिट्ठी ५प्र०-हे भगवन् ! मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार वीरियलदिए, वेउवियलद्धीए, विभंगणाणलद्धीए वाणारसी नयार, (पोतानी) वीर्यलब्धिथी, वैक्रियलब्धिथी अने विभंगज्ञानलब्धिथी रायगिहं च नयरं अंतरा एगं महं जणवयवगं समोहए, समोह- वाराणसी नगरी अने राजगृह नगरनी बच्चे एक मोटा जनपद णित्ता वाणारसिं णयरिं, रायगिहं च नगरं अंतरा एगं महं जण- वर्गनी विकुर्वणा करे अने तेम कर्या पछी ते वारणसी नगरी अने वयवरगं जाणति, पासइ? राजगृह नगरनी बच्चे एक मोटा जनपद वर्गने जाणे अने नए ? ५. उ०-हंता, जाणइ, पासति. ५. उ०-हे गौतम! हा, ते, तेने जाणे अने जूए. ६.प्र०-से भंते । किं तहाभावं जाणइ, पासइ; अनहा- ६.प्र०-हे भगवन् ! शु.ते, तेने तथाभावे जाणे जूए; के भावं जाणह, पासइ ?. अन्यथाभावे जाणे.जूए.? - ६. उ०-गोयमा !.णो तहाभावं. जाणइ पासइ, अनहा- ६. उ०—हे गौतम! ते, तेने तथाभावे न जाणे अने न भावं जाणइ, पासइ. जूए; पण अन्यथाभावे जाणे अने जूए. . . ७. प्र०-से केणद्वेणं जाव-पासइ.? __“७. प्र०-हे भगवन् ! ते प्रकारे जाणे अने जूए, यावत् तेनुं शुं कारण ? - ७. उ०-गोयमा । तस्स खलु एवं भवति-एस खलु . ७. उ०-हे गौतम! ते साधुना मनमा एम थाय छे के, वाणारसी नगरी, एस खल रायगिहे नयरे; एस खलु अंतर आ वाराणसी नगरी छे अने आ राजगृह नगर छे, तथा ए बेनी एगे महं जणवयवरगे; नो खलु एस महं वीरियलद्धी, वेठब्धिय- वच्चे आवेलो आ एक मोटो जनपद. वर्ग छे; पण ते मारी, वीर्यलब्धि, लद्धी, विभंगनाणलदी; इडी, जुत्ती, जसे, बले, वीरिए, पुरि- वैक्रियलब्धि के विभंगज्ञानलंब्धि नथी तथा में मेळवेलां, प्राप्त सक्कारपरक्कमे लद्धे, पत्ते, अभिसंमणागए; से से दंसणे विवचासे करेला अने मारी पासे रहेलां ऋद्धि, द्युति, यश, बळ, वीर्य के भवति, से तेणद्वेणं जाव-पासति. पुरुषकार पराक्रम नथी; ते ते साधुन दर्शन विपरीत थाय छे ते कारणथी यावत्-ते, ते प्रमाणे जाणे छे अने जुए छे, 6. प्र-अणगारे णे भंते ! भावियप्पा अमायी सम्मदिवी .. प्र०—हे भगवन् ! वाराणसी नगरीमा रहेलो अमायी, वीरियलद्धीए, वेउवियलद्धीए, ओहिनाणलद्धीए रायगिहं नगरं सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार वीर्यलब्धिथी, वैक्रियलब्धिथी 'अने समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणइ, पासइ ? अवधिज्ञानलब्धिथी:राजगृह 'नगरनुं विकुर्वण करीने (तद्गत) रूपोने जाणे अने जूए ? . ८. उ०-हता, जाणइ. पासइ.. ८. ०.-हे गौतम् ! हा, ते, ते रूपोने जाणे अने ए... १. मूलच्छायाः-अनगारो भगवन् ! भावितात्मा मायी मिथ्यादृष्टिः यावत्-राजगृहे नगरे.समवहतः, समवहत्य वाराणस्यां नगया रूपाणि जानाति, पश्यति ! हन्त, जानाति, पश्यति; तचैव यावत्-तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं वाराणस्यों नगया समवहतः, समवहत्य राजगृहे नगरे रूपाणि जानामि, पश्यामि; तत् तस्य दर्शने.विपर्यासो भवंति, तत् तेनाऽर्थेन यावत्-अन्यथाभावं जानाति, पश्यति. अनगारो भगवन् ! भावितात्मा मायी मिथ्यादृष्टिः वीर्यलब्ध्या, वैक्रियलब्ध्या, विभज्ञानलब्ध्या वाराणसी नगरीम् , राजगृहं च नगरम् , अन्तरा एकं महान्तं जनपदवर्ग समवहतः, समवहत्य वाराणसी नगरीम् , राजगृहं च नगरम् , अन्तरा एक महान्तं जनपदवर्ग जानाति, पश्यति ? हन्त, जानाति, पश्यति. स भगवन् ! किं तथाभावं.जानाति, पश्यतिः अन्यथाभावं जानाति, पश्यति ? गौतम !- नो तथाभावं. जानाति, पश्यति; अन्यथाभावं जानाति, पश्यति. तत् केनार्थेन यावत्-पश्यति ? गौतम | तस्य खलु एवं भवति-एषा खल वाराणसी नगरी, एतत् खल राजगृहं नगरम् , एष खलु अन्तरा एको महान् जनपदवर्गः, नो खलु एषा मम वीयलब्धिः, वैक्रियलन्धिः, विभाज्ञानलब्धिः, ऋद्धिः, द्युतिः, यशः, बलम् , वीर्यम् , पुरुषकारपराक्रमो लब्धः, प्राप्तः, अभिसमन्वागततः तत् तस्य दर्शने विपया सो भवति, तत् तेनार्थेन यावत्-पश्यति..अनंगारो भगवन् ! भावितात्मा.अमायी सम्यग्दृष्टिः वीर्यलब्ध्या, वैक्रियलब्ध्या, अवधिज्ञानलब्ध्या राजगृह नगरं समवहतः, समवहुल वाराणस्यां नगा रूसाणि जानाति, पश्यति । हन्त, जानाति, पश्यतिः-अनु . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. . ९. प्र०-से' भंते ! किं तहाभावं जाणइ, पासइ; अन्नहा- . ९. प्र०-हे भगवन् ! शुं ते, ते रूपोने तथाभावे जाणे भावं जाणड, पासइ ? अने जूए, के अन्यथाभावे जाणे, जूए ? ९. उ०-गोयमा ! तहाभावं जाणइ, पासइ, नो अनहा- ९. उ०—हे गौतम ! ते, ते रूपोने तथाभावे जाने अने भावं जाणइ, पासइ. जूए, पण अन्यथाभावे न जाणे अने न जूए. १०. प्र०-से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? १०. प्र०—हे भगवन् ! तेम थवानुं शुं कारण ? . १०. उ०-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं १०. उ०—हे गौतम ! ते साधुना मनमा एम थाय छे के, रायगिहे नयरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं वाराणसी नगरीमा रहेलो हुँ राजगृह नगरमी विकुर्वणा करीने जाणामि, पासामि; से से दंसणे अविवचासे भवति, से तेणढणं ( तद्गत ) रूपोने जाणुं छु तथा जोउं छु, तेवू तेनुं दर्शन विपगोयमा ! एवं वुचइ. बीओ आलावगो एवं चेव. नवरं-वाणा- रीतता विनानुं होय छे, ते कारणथी हे गौतम ! ' ते तथाभावे रसीए नयरीए समोहणावेयव्वो [ समोहणा नेयव्वा ] रायगिहे जाणे छे अने जूए छे' एम का छे. बीजो आलाप पण ए नगरे रूवाई जाणइ, पासइ. रीतिए कहेवो. विशेष ए के,-विकुर्वणा वाराणसीनी समजवी अने राजगृहमा रहीने रूपोनुं जोवू अने जाणवू समजबुं. ११.प्र०-अणगारे णं. भंते ! भावियप्पा अमायी सम्म- ११. प्र०-हे भगवन् ! अमायी, सम्यगदृष्टि भावितात्मा दिवी वीरियलद्धीए, वेउब्धियलद्धीए, ओहिनाणलद्धीए रायगिह अनगा वीर्यलब्धिथी, वैक्रियलब्धिथी अने अवधिज्ञानलब्धिथी नगरं, वाणारसिं नयरिं च अंतरा एगं महं जणवयवग्गं समोहए, राजगृह नगर अने वाराणसी नगरीनी बच्चे एक मोटो जनपद वर्ग समोहणित्ता रायगिहं नगरं, वा. रसिं नयरिं, तं च अंतरा एगं विकुर्वे अने पछी राजगृह नगर अने वाराणसी नगरीनी वच्चे एक महं जणवयवग्गं जाणइ, पासइ ? मोटा जनपद वर्गने जाणे अने जूए ? ११. उ०-हंता, जाणइ, पासइ. ११. उ०-हे गौतम ! हा, ते, तेने जाणे अने जूए. १२. प्र०-से भंते ! किं तहाभावं जाणइ, पासइ; अनहा- १२. प्र०-हे भगवन् ! शुं ते साधु, तेने तथाभावे जाणे भावं जाणइ, पासड़? अने जूए, के अन्यथाभावे जाणे अने यूए? १२. उ०-गोयमा ! तहाभावं जाणइ, पासड़; नो अन्न- १२. उ०—हे गौतम | ते, तेने तथाभावे जाणे भने जूए, हाभावं जाणइ, पासइ. पण अन्यथाभावे न जाणे अने न जूए. १३. प्र०—से केणदेणं ? १३. प्र०-हे भगवन् ! तेनुं शुं कारण ? १३. उ०—गोयमा ! तस्स णं एवं भवति-नी खलु एस १३. उ०—हे गौतम ! ते साधुना मनमा एम थाय छे के, रायगिहे णगरे, णो खलु एस वाणारसी नगरी, णो खलु एस ए राजगृह नगर मथी, ए वाराणसी नगरी नथी अने ए बेनी बच्चेनो अंतरा एगे जणवयवग्गे; एस खलु ममं वीरियलद्धी, वेउविय- एक मोटो जनपद वर्ग नधी; पण ए मारी वीर्यलब्धि, वैक्रियलद्धी, ओहिनाणलद्धी, इड्डी, जुत्ती, जसे, बले, वीरिये, पुरिस- लब्धि, के अवधिज्ञानल ब्धि छ; ए में मेळवेला, प्राप्त करेला अने कारपरक्कमे लद्धे, पत्ते, अभिसमवागए; से से दसणे अविवञ्चासे मारी पासे रहेलां ऋद्धि, यति, यश. बळ. वीर्य अने पुरुषकार भवइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुश्चइ-तहाभावं जाणह, पासइ, पराक्रम छे; तेनुं दर्शन अविपरीत होय छे. ते कारणथी हे गौतम! नो अनहाभावं जाणइ, पासइ. एम कहेवाय छे के, ते साधु तथाभावे जाणे छे अने जूए छे, पण अन्यथाभावे जाणतो नथी तेम जोतो नथी. १. मूलच्छायाः-स भगवन् । किं तथाभावं जानाति, पश्यप्ति; अन्यथाभावं जानाति, पश्यति? गौतम ! तथाभावं जानाति, पश्यति नोऽन्यथाभावं जानाति, पश्यति. तत् केनाऽर्थेन भगवन् ! एवम् उच्यते ? गौतम । तस्य एवं भवति-एवं खलु अहं राजगृहे नगरे समवहतः, समवहत्य वाराणस्यां नगया रूपाणि जानामि, पश्यामि. तत् तस्य दर्शने अविपयासो भवति, तत् तेनाऽथेन गौतम ! एवम् उच्यते. द्वितीयः आलापकः एवं चैव. नवाम्। वाणारस्यां नगया समवघातयितव्यः [ समवहति तव्या ] राजगृहे नगरे रूपाणि जानाति, पश्यति. अनगारो भगवन् ! भाविताऽऽत्मा अमायी सम्यग्दृष्टिः वीर्यलब्ध्या, व क्रियलब्ध्या. अवधिज्ञानलब्ध्या राजगृहं नगरम् , वाराणसी नगरीम् चाऽन्तरा एक महान्तं जनपदवर्ग समवहतः, समबहत्य राजगृहं नगरम्, वाराणसी नगरीन, तं चान्तरा एकं महान्तं जनपदवर्ग जानाति, पश्यति ? हन्त, आनाति, पश्यति. स भगवन् ! कि तथाभावं जानाति, पश्यति; अन्यथाभावं जानाति, पश्यति ? गौतम ! तथाभावं जानाति, पश्यति; नोऽन्यथाभावं जानाति, पश्यति. तत् केनाऽर्थन ? गौतम ! तस्य एवं भवति-नो खलु एतद् राजगृहं नगरम् , नो खलु एषा वाराणसी नगरी, नो खलु एप अन्तराएको जनपदवर्गः, एष खलु मम वीर्यलब्धिः , बैंक्रियलन्धिः, अवधिज्ञानलब्धिः, ऋद्धिः, द्युतिः, यशः, बलम् , वीर्यम्, पुरुषकारपराकगो लब्धः, प्राप्तः, अभिसमन्वागतः, तत् तस्य दर्शने अविपर्यासों गवति, तत् तेनार्थेन गौतम! एवम् उच्यते-तथाभावं जानाति, पश्यति; नोऽन्यथाभावं जानाति, पश्यतिः-अनु० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ १४. प्र० - अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरिवाइयां पभू एवं महं गाम नगरख्वं पा जायसंनिवेसरूवं वा विउब्वित्तए ? वा १४. उ०- णो तिणट्टे समट्ठे; एवं बितीओ वि आलावगो, णवरं - बाहिरए पोग्गळे परियाइत्ता पभू. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे १५. प्र० - अनगारे णं भंते! भावियप्पा केवइयाई पभू गामरूबाई विकुव्वित्तए ? १५. उ०- गोधमा ! से जहा नामए जुपतिं जुवाणे हत्थे हत्थे गेण्हेज्जा, तं चैव जाव - विकुव्विसु वा, चिकुव्वंति वा, विकुव्विस्संति वा; एवं जाव - संनिवेसरूवं. वा. शतक ३-उद्देशक- ६० १४. प्र० -- हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार बहारनी पुद्रलो नेळव्या सिवाय एक मोटा गामना रूपने, नगरना रूपने, यापत् संनिवेशना रूपने समर्थ छे १४. उ०- हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी.. ए प्रमाणे बीजो आलापक पण कहेवो. विशेष ए के, बहारनां पुद्गलोने मेळवीने ते साधु तेवां रूपोने विकुर्वयाने समर्थ छे. 6 , " G · , " १. विकुर्वणाधिकारसंबन्ध एवं पष्ठ उदेशकः, तस्य चादिसूत्रम्:- अणगारे णं इत्यादि अनगारो गृहवासल्यागात् भावि ताऽऽामा स्वसमयानुसारिप्रशमादिभिः माथी ' इत्युपलक्षणाचात् कषायान् सम्यग्दृष्टिरप्पेत्रं स्याद् इत्यत आह-मिथ्यादृष्टिरन्यतीथिंक इसी वीर्यलध्यादिभिः करणभूताभिः बाणारसी नगरी समोइए त्ति विकुर्वितवान् राजगृहे नगरे रूपाणि पशु-पुरुषप्रासादप्रभृतीनि जानाति, पश्यति विभङ्गज्ञानलब्ध्या. ' णो तहाभावं ' ति यथा वस्तु तथा भावोऽभिसन्धिर्यत्र ज्ञाने तत् तथाभावम्, अथवा यचैव संवेद्यते तथैव भावो याचं वस्तु यत्र तत् तथाभावम् अन्यथा भावो यत्र तदन्यथाभावम् क्रियाविशेषणे इमे स हि मन्यते:- अहं राजगृहं नगरं समवहतो वाराणस्यां रूपाणि जानामि, पश्यामि इत्येवं ' से त्ति तस्य अनगारस्य इति, ' से त्ति असौ दर्शने विपर्यासो विपर्ययो भवति, अन्यदीयरूपाणाम् अन्यदीयतया विकल्पितत्वाद् दिग्मोहाद् इव पूर्वाम् अपि पश्चिमां मन्यमानस्य इति. क्वचित् - 'से से दंसणे विवरीए विवद्यासे' त्ति दृश्यते, तत्र च तस्य तद् दर्शनं विपरीतम्, क्षेत्रव्यत्ययेनेति कृत्वा विपर्यासो मिथ्या इत्यर्थः. एवं द्वितीयसूत्रमपि. तृतीये तु 'वाराणसिं नगरिं, रायगिहं नयरं, अंतरा य एवं महं जणवयवग्गं समोहए' त्ति वाराणसीम्, राजगृहम्, तयोरेव चान्तरावर्तिनं जनपदवर्गम्- देशसमूहम् समयतो विकुर्वितवान् तथैव च तानि विभङ्गतो जानाति, पश्यति केवढं नो तथाभावम्, यतोऽसौ वैक्रियाण्यपि तानि मन्यते स्वाभाविकानि इति. ' जसे ' त्ति यशोहेतुत्वाद् यशः, • नगर वा इद यावत्करणाद् इदं दृश्यम् "निगमरुवं वा रावहानिरूवं वा, खेडरूमा वा रूपं या दोणहरूपं वा, पट्टणरुतं ना, आगररुवं वा, आसमरूवं वा, संवाहरूवं व "त्ति. , " १५. प्र०-हे भगवन् ! भावितामा अनगार के ग्रामरूपोने विकुर्वयाने समर्थ छे १५. ४० हे गौतम | प्रेम कोइ एक युवान पुरुष पोताना हाथे युवति स्त्रीना हाथने पकडे मजबूत काकडा वाळे ( ए बधुं पूर्व प्रमाणे कहे. ) यावत्-ए रीते ते साधु ग्रामरूपाने यावत्संनिवेशरूपोने विकुर्वे. ( ते साधुनुं ए मात्र सामर्थ्य छे, पण विकुर्वेण नथी. ) " ते णं काले णं, ब्रेणं समए णं वाराणसी णामं णयरी होत्या, वण्णओ० सीसे में वाराणसीए जयरीए बहिया उत्तरपुरथिने दितिमाए मंगाए महाए मयंगती रहे णामं दहे होत्था • " क० आ० ० ५०७ ). , " , १. पांचमा उद्देशकनी पेठे आ छट्टो उद्देशक पण विणा संबंधी हकीकतने लगतो जछे से पहे सूत्र आछे: अणगारे अनगार इत्यादि ] घरवासनो त्यागी के मांडे अनगार, स्वशाखमां कहेला शम, दम विगेरेना नियमोने परनार ते भावितात्मा, मायी ए सूचक शब्द होवाथी' गायी एटले क्रोधादि कषायवाले ए प्रकार विशेषगोवाळो तो सम्यक्ची जी पण होय, अने तेनुं ग्रहण अहीं नथी कर मांडे कहे है के, एवा प्रकारनो मिथ्यादृष्टि - अन्यमतवाळो जीव, क्रिया करवामां साधनरूप वीर्यलब्धि वगेरे निमित्तोथी [' वाराणसीं नगरीं समोहए ' " सम्ममानी. १. मूकच्छायाः - अनगारो भगवन् । भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एकं महद् ग्रामरूपं वा, नगररूपं वा, यावत् - संनिवेशरूपं वा विकुर्वितुम् ? नाऽयम् अर्थः समर्थः, एवं द्वितीयोऽपि आलापकः, नवरम् - बाह्यान् पुद्गलान् पर्याय प्रभुः अनगारी भगवन् ! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः प्रमाणनिगम स यथा नाम पति या हरतेन हस्ते दि राचैनवा विकुर्वन्ति मा निकुर्विष्यति वा, एवं यावत् - संनिवेशरूपं वाः - अनु० و , १. वाराणसी नगरी, पूर्वे फाशी देशनी राजधानी हती. अत्वारै ए नगर काशी प्रांत - (जिल्ला) - नुं मुख्य शहेर गणाय छे. तेनेा वसवाट वरुणा ... अने अशी नामी गंगाने ती नामी ओपचे महानदी गंगा किनारे के अने हतो एवीज से नगरी वाराणसी एव यौगिक (पता)माना प्रभावे ज्यारे बीजी अनेक पवित्र पुरीनामप्राय यह स्वारे या नगरीनुं अस्तित्व जळवा तेमां ए स्थल सर्व धर्मि पुण्यवान से एक कारण है. आपनी मान्यताए एस्थळप पवित्र दोवाणी अंगादिसूत्रोम पथके नाम मते'' (० आ०पृ०५४४.) 'ज्ञातांग', - (० ० ० ५०८.) पादशांग' - पियानो अधिकार) तथा आर्य, अनार्थना निमेदवा प्रथम पद प (स०५५.) आदि स्थळो मुख्य छे. तेनी पूर्वनी उज्ज्वळताने जणावनाएं श्रीपार्श्वनाथ प्रभु विगेरेना कल्याणकोनां स्थळो; (काशी पासेनो ) सारनाथनो इदा भने हिंदुभोनां धर्मधाम आने दाती घराने छे ते ये श्रीज्ञातासूत्रमां को परिचय आरूपे आये - " ते काळे, ते समये वाणासी नामनी नगरी हती, वर्णक० ते बाणा: रखी नमी बद्दार उत्तर भने पूर्व दिशाना मध्य कोषमां गंगा महानदी किनारे मयंगतीरद्रद्द नामानो द्रह - हूद-हतो० " ( क० आ० ०. ५०७ 6 . Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. त्ति] समोहए ' एटले विकुर्बग करे छे-राजगृहमा रो रह्यो वाराणसी नगरीनी विकुर्वणा करीने तद्गत पशु, पुरुष तथा महेल विगेरे वस्तुओने राजगृह, विभंगज्ञान द्वारा जाणे छे अने जूए छे. ['नो तहाभावं ति] जेबी वस्तु छे एवा भाववाळु जे ज्ञान ते-तथाभाव, अथवा जेवू जगाय तेवा ज बाष तथाभाव. अनुभवतालुसन ते तथाभाव, तेथी उलटा अनुभववालुं ज्ञान ते-अन्यथाभाव. तथाभाव अने अन्यथाभाव ए बन्ने क्रियाविशेषण छे. ते विकुर्बणा अन्वधानाव. करनार विभंगज्ञानी जाणे छ के, में राजगृह नगरनी विकुर्मणा करी छ अने हुं वाराणसीमां रूपोने जाणुं छु अने जोउं छु, तेनो (ते अनगारनो) वाराणसी. [से ' ति] ए अनुभव उभो छे, कारण के एणे बीजां रूपोने वीजी रीते कल्पेलां छे-जाणेला छे-जेम दिग्मूढ मनुष्य पूर्व दिशाने पण पश्चिम, दिशा माने छे ते रीते ते अनगारनो अनुभव छ माटे ते विपरीत अनुभव छ. [ ' से से दंसणे विपरीए, विवच्चासे 'त्ति] कोई प्रतिमा पूर्व प्रमाणे पाठभेद. श्रीउववाईसूत्रमा आवेलं 'चंपा' नगरीचं वर्णन आ 'वाराणसी'ने पण लागु पठे छे (भ.सं.१,पृ.१) प्रसिद्ध वैयाकरण महाभाष्यकारनो आ-" अनुगङ्गं वाराणसी "-(वाराणसी गंगाने किरे लंबाणे छे) प्रसिद्ध प्रयोग जणावे छे के, एमने समये पण वाराणसी गंगाने पने हती. ए हकीकतने मध्यकाळना पंडितोए पण टेको आपेलो छे. काशी देशनी राजधानी तरीकेन तेनुं गौरव पनवणाजीमां आ रीतिए जणावेलु छे:-- "++ वाराणसी चेव कासी य."-( क. आ० पृ. ९.). "वाराणसी, ए आर्य देश काशीनी राजधानी छे-देश काशी भने मुख्य नगरी पाराणसी" (क. भा०पृ. १०). . हेमचंद्राचार्यजी ए यौगिक नामनो अर्थ आ प्रमाणे जणावे : " + + वरणा च असिश्च वरणाऽसी नद्यौ, तयोरदूरभवा नगरी + + “xx वरणा भने असी ए बे नदीओ छे, तेनी पासे रहेली-थएलीवाराणसी. यद्वा वराणो बीरणाभिधानम् , वराणाः सन्ति अत्र वराणसा नगरीxxते : वाराणसी' अथवा, जेमा पराण होय ते नवीन नाब नदी, + + तस्या अदूरभवा इति वा; देशो वा वराणः, तत्र भवा बा.” राणा (वराण एटले एक जातनुं घास) तेनी पासे रहेली नगरी (अ.चिं. य. ग्रं० पृ. ३८९). वाराणसी. अथवा वराण-ए, देशर्नु नाम छे, तेमा रहेली मगरी ए ' वाराणसी'. (अ.वि. य०प्र० पृ० ३८९). आ कोशमा वर्तमान बनारसनां आ चार नामो जणाव्यां छ:-काशि, वराणसी, वाराणसी अने शिवपुरी. ए उपरपी जगाय छे के, प्रज्ञापनामा, जणावेला देशसूचक 'काशी' शब्दने, एक नगर-वाचक थयो आज घणो समय वीती गयो छे. तथा छेवट संवत १६६९मो रचाएला' सम्मेतशिखराम'-मां वाराणसी' नगरीने त्रिवेणी-संगम तीर्थ-प्रयाग-(अल्हाबाद)-थी ३५ कोश उपर महानदी गंगाने किनारे बसेली, तथा धन-धान्य आदिथी पूर्ण जणावी छे: " कोस पत्रिीस वाराणसी ए गंगतीर पवित्र तउ, परतषी (खी ) अलका पुरी जसी ए दीसह जहां बहु वित्त तउ. . इण नयरिंदो जिनवरु ए जनम्या पास सुपास तउ, वेणि ठामि दोइ जिणहरु ए पुर्वि करइ प्रकास तउ":-अनु. १. जैन अंग-सूत्र-मां विशेषे करीने राजगृहनो उल्लेख धणे ठेकाणे मळी आवे छे अने कैटलेक ठेकाणे वापारसीनो निर्देश पण सुलभ जणाय के. बौद्धोना सूत्रपिटकना · मज्झिमनिकाय' नामना ग्रंथमां श्रीबुद्धना विहारोनी नोंध जोतां घणे स्थळे 'काशी''पाणारसी "अने 'राजगृह'नो उल्लेख पण मळी आवे छे अने ते आ प्रमाणे है: [वास्तविक सत्य शोधाया पछी भगवान युद्धदेव तेने प्रकाशित करवा काशी तरफ पधारता हता, तेवामा रस्तामा तेमने आजीविक संप्रदायनो उपक नामे तपस्वी मळ्यो. तेणे तेमने-श्रीबुद्धदेवने-पूछयु के, तमारो शासक-गुरु-कोण छे ? तमने कोनो धर्म इचे छ ! सेना जवाबमां बीजु केटलुक जणाव्या पछी ते भगवाने आ गाथा कहेली है: १." धम्मच; पवत्तेतुं गच्छामि कासिनं पुरै, अंधभूतस्मिं लोकरिम १." अंध थएला लोकमां अमृतनुं पार्जु वगाडवाने अने धर्मचकने आहञ्चुं अमतदुंदुभिं" ति-मज्झिमनि० (सू० २६-पृ० १२०.) प्रवतीवव.ने माटे काशी नगर तरफ जाउ छु." २." असं खो अहं भिक्खवे दिव्वेन चवखुना विसुद्धेन अतिकंतमा- २. आ सामेना उखमा चाराणसी' नगरीनो भने तेमा भावेला नुसकेन पंचवग्गिये भिवखू वाराणसियं विहरते इसिपतने मिगदाये"- 'इसिपतन' तथा 'मिगदाय' नामनां स्थळोनो पण उल्लेख करेलो. मज्झिमनि० (सू. २६-पृ० १२१). ३. “अथ ख्वाहं भिक्खवे अनुपुब्वेन चारिक चरमानो येन वाराणसी, ३. आ सामेना पाठमां पण 'घाणारसी'नो निर्देश मळी आवे छे. इसिपतनं, मिग दायो ४ तेनुपसंकर्मि"-म०नि०-(सू० २६-पृ० १२२) १." अथ स्वाई आधुसो पुठवण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरं आदाय १." हे आयुष्मन् ! हवे हुँ पूर्व छनो वखत जवा दइने, पात्र अने राजगह पिंडाय पाविसिं"-म० नि० (सू०५-पृ. २३) चीवरने लइने राजगृहमा भिक्षा माटे पेठो" २. “एकमिदा है महानाम समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे २. “एक वखत महानाम नामनो हुँ राजगृह नगरमा गिध्रकूट पव्यते"-म०f.(सू० १४-पृ० ६८ तथा सू० २९-पृ० १३५) पर्वतमा विहरू छु" आ उल्लेखमा ज्ञातपुत्रना अनुगामी निथोनी आकरी तपश्चर्यानो पण निर्देश करेलो छे. अहीं जणावेलो ‘महानाम' नामनो तपस्वी श्रीवुद्धनो काकानो दीकरो भाइ थाय. ३." एवं मे सुतं-एक समयं भगवा राजगहे विहरति वेलुबने ३." में एम स!भळ्धु छ-एक वक्षत भगवान् (बुद्धदेव) राजगृह कलंदकनिवापे"-म०नि०(सू. २४ पृ०१०४ तथा स्० ४४ पृ. २०२) नगरमा वेणुवन-(वांसडान वन) मा फलंदकना निवाप पासे निदरे छे."-आ प्रणे उखमा • राजगृह'नो निर्देश करेलो छे. . आ प्रकारे बौद्धग्रंथमा ठेठेकाणे काशी, वाराणसी, राजगृह अने तेनी आसपामनां वन, पर्वत तथा निवाप (खेतर ) नो उल्लेत पण मी भावे छे आ ग्रंथमा मगर तरीके पण 'काशी 'नो निर्देश करेलो छे:-मनु. १४ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरांयचन्द्र-जिनागमसंग्रहे सत्तक ३:-उदेश६. पाठ छे. तेनो अर्थः-तेनुं ते दर्शन विपरीत छे, कारण-के ते दर्शन क्षेत्रनी अदलावदलीवालु छे-माट ज मिथ्या-खोटुं-छे. ए प्रमाणे बीजं सूत्र पण जाणवू. त्रीजा सूत्रमा तो [ ' वाणारसिं नगरिं, रायगिहं नगरं, अंतरा य एग महं जणवयवगं समोहए ' त्ति ] वाराणसी ( बनारस ) अने राजगृह ( राजगिर ) नगानी वच्चे देशना समूहनी विकुर्वणा करी अने ते ज प्रमाणे तेने विभंगथी जाणे छे अने जूए छे, मात्र ते जे जाणे छे अने जूए छे ते तथाभावे ( सत्यपणे ) नथी. कारण के ते विमंगज्ञानी अनगार, ते वैक्रियरूपोने पग स्वामाविक रूपो माने छे. [' जसे 'त्ति ] यशर्नु कारण होवाथी यश, [ 'नगररूवं वा'] ए ठेकाणे ' यावत् ' शब्द मूक्यो छे माटे नीचनी हकीकत यधारे जाणवी:-निगमना रूपने, राजधानीना रूपने, खेटना रूपने, कर्यटना रूपने, मडंबना रूपने, द्रोणमुखना रूपने, पट्टनना रूपने, आकरना रूपने, आश्रमना रूपने अने संवाधना रूपने अर्थात् जेम नगरना रूपनी विकुर्वणा करी तेम ए बधानां रूपोनी पण विकुर्वणा करी समजवी. ओणमुख- संबाप, चमर. १६. प्र०--चैमरस्स गं भंते ! असुरिंदस्स, असुररण्गो कइ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? १६. प्र०--हे भगवन् ! असुरेंद्र, असुरगज चमरना आत्मरक्षक देवो केटला हजार कह्या छे ! १६. उ०--गोयमा। चत्तारि चउसडीओ आयरक्खदेव- १.. उ०—हे गौतम ! चमरना आत्मरक्षक देवो २५६ साहस्सीओ पण्णत्ताओ; ते णं आयरक्खा वण्णओ, एवं सवसि सहस्र छे-(२,५६,००० ) कह्या छे. अहीं आत्मरक्षक देवोर्नु इंदाणं जस्स जत्तिा आयरक्खा ते भाणिअव्वा. वर्णन समजवू अने बधा य इंद्रोमां जेने जेटला आत्मरक्षक देवो होय ते बधा पण समजवा. १. अहीं उपर जणावेला 'ग्राम' विगेरेना अर्थाने श्रीअभयदेव सूरिए आगळना कोई प्रकरणमा ( भ. सं. १, पृ. ८६ ) जणावी दोधा छे; तेम भीमलयगिरि आचार्ये पोतानी ‘रायपसेणी ' ( उपा. २) नी टीकामां पण अणावेला छे; किंतु पनवणा ( उ० ४) नी वृत्तिनां श्रीमलयगिरि भाचार्ये प्रामादि शरोना अर्थाने जणावतां आ जातनी विशेषता जणावेली छे: "xx प्रसति बुयादीन् गुणान् इति ग्रामः. यदि वा गम्यः शास्त्रप्र. 'ग्राम एटले बुद्धि आदि गुणोने प्रसनारं-खाद जनारं-स्थल. अथवा सिद्धानाम् अष्टादशकराणाम् इति प्राम.'.xx शास्त्रमा प्रसिद्धि पामेला अढार करो, जे स्थळे लागु थई शकता होय वे माम." " क्षुल्लकप्राकारवेष्टितं कर्यटम्." "कवट एटले नाना किल्लाथी घेराएवं स्थान" "" अर्धतृतीयगव्यूताऽन्तामरहितं मडम्बम्." "फरतां आसपास अडी गव्यूत-पांच कोश-सुधीमां अंतर प्रामो विनानुं स्थान ते मडंब." ".पण 'ति-पट्टाम् , पत्तनं वा. उभयत्राऽपि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य "पग'- निर्देश, प्राकृत होताथी तेनां संस्कृतमा 'पहन', अथवा समानत्वात्, नत्र यन्नाभिरेव गम्यं नत् पट्टनम्. यत्पुनः शकट-घटक- पत्तन 'एमा बेशद्धा बनी शके छ. नेमा जे स्थळे नाव द्वाराए ज नाभिवा गम्यं तत् पत्तनम् , यथा- भृगु के छम्'. उचः -" पत्तनं शक- जवाय तेने 'हा' कहेवाय, जेन द्वारिका. ) तथा जे स्थळे नाव, टैगम्य घोटकनौभिरेव च, नाभिरेव तु यद् गम्य पहन तत् प्रचक्षते." गाडा अने घाडा विगेरे द्वारा पण जई शकाय तेने पतन-(बंदर) कहेवाय, जेम-भृगुकच्छ -(भरूच). बीजाओनो पण एज मत छे के:"गाडा, घोडाओ तथा नाव द्वाराए जवाता स्थळने 'पत्तन' कहेवाय भने केवळ नाव वाटे ज जवाय तेवा स्थळने 'पट्टन' कहेवाय." " द्रीणमुखम्:-बाहुल्येन जलनिर्गमप्रवेशम्." "घणे भागे जळ मार्ग द्वारा ज्यांथी बहार नीकळाय के अंदर पेसाय तेवा स्थळने ' द्रोणमुख' कहेवाय. " संपाधः-यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः." • “ यात्राए नीकळेला घणा माणसोना निवास स्थानने-पडावने 'संबाध' कहेवाय." वळी हेमचंद्राचार्यजीना जणाववां प्रमाणे श्रीवाचस्पति, तो तेना अर्थे ने तद्दन जूरी रीते ज जणाये छ:" स्यात् स्थानीयं तु अतिलम्बः, ग्रामो ग्रामशताष्टके, तदर्ध तु द्रोणमुखं “घणा लंबाईवाळ' स्थळने 'स्थानीय' कहे छ, एक सो आठ गामना तच कर्बटमस्त्रियाम्. कर्बटाऽर्धे कटकं स्यात् तदर्धे तु कार्वटम् , तदर्धे समुदायने 'ग्राम' कहवाय छ, तेना अडधा भागने माटे 'द्रोणमुख' पत्तनं तच्च पत्तनं पुटभेदन. निगमस्त पत्तगाधे तदर्थे तु निवेशनम्, वा कट र् वप.नय छ ( अ. कर्वट शब्द स्त्रीलिंगी नथ ) ' कर्वट ना कर्यटादधमो नः पत्तनाद् उत्तमश्च स:. उद्रङ्गश्च निवेशश स ए। दश अधा भागने 'वुटि । 'कारवाय, तेना अडघा भागने 'कावट 'कहे वाय इत्यपि-" अवि० प्र० पृ० ३८८). अने 'पतन' या पुटभेदन, एना अडधा भाग जेवडा स्थानने कहे छे. पत्तनना अर्ध प्रमाण भागने 'निगम' कहे छे. तथा निगमना अडधा भागने ' निवेशन' कहे छ. दंग, उद्ग अने निवेश ए बधा एक सरखा छे":-(अ. चिं. य. ग्रं० पृ. ३८८) अनु. १. मूलच्छायाः-वमरस्य भगवन् ! अमुरेन्द्र स्य, असुरराजस्य कति आम्मरक्ष देवताहरूयः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! चतनश्चतुष्यष्ट्य आत्मरक्षऐवसारख्यः प्राप्ताः ते आत्मरक्षा-वर्णकः, एवं सर्वेषाम् इन्द्राणां यस्यं पायन्त आरमरक्षकास्ते मणि व्याः-अनु. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक:३. उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. -सेव' मंते !, भंते ! ति. --हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विहरे छे. भगवंत-अजसुहम्गसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ने ततिशसये छट्ठो उद्देसे सम्मत्तो. - . २. विकुर्वणाऽधिकारात् तत्समर्थदेवविशेषप्ररूपणाय सूत्राणि:--'वण्णओ' त्ति आत्मरक्षदेवानां वर्णको वाच्यः, स चायम: " सन्नद्धवद्ध--वम्मिअकवया, उप्पीलिअसरासणपट्टिा, विणगेवेजा, बद्धआबिद्धविमलवरचिंधपट्टा, गहिआउहपहरणा, तिण्णयाई, तिसंधिआई वइरामयकोडीणि धणूई अभिगिज्झ पयओ परिमाइअकंडकलावा, नीलपाणिणो, पीअपाणिणो, रत्तपाणिणो, एवं चारुचाव-चम्म-दंड-खग्ग -पासपाणिणो, नील-पीअ-रत्तचारुचाव-चम्म-दंड-खग्ग-पासवरधरा, आयरक्खा, रक्खोयगया, गुत्ता, गत्तपालिआ, जुत्ता, जुत्तपालिमा, पत्तेयं पत्तेयं समयओ, विणयओ, किंकरभूआ इव चिट्ठति "चि. अस्य अयम् अर्थ:--सन्नाहनिकया कृतसन्नाहाः बद्धः कशाबन्धनतः, वर्मितश्च वर्मीकृतः शरीराऽऽरोपणतः, कवचः कङ्कटो से तथा, ततः सन्नद्धशब्देन कर्मधारयः, तथा उत्पीडिता प्रत्यञ्चाऽऽरोपणेन शरासनपष्टिका धनुर्यष्टियस्ते तथा, अथवा उत्पीडिता-बाही बद्धा शरासनपहिका धनुर्धरप्रतीता यैस्ते तथा, पिनद्धं परिहितम् , अवेयकं ग्रीवाभरणं यैस्ते तथा, तथा बद्धो ग्रन्थिदानेन, आविद्धश्च शिरसि आरोपणेन विमलो वरश्च चिह्नपट्टो योधतासूचको नेत्रादिवत्ररूपः, सौवर्णो घा पट्टो यैस्ते तथा; तथा गृहीतानि आयुधानि प्रहरणाय यैस्ते तथा, अथवा गृहीतानि आयुधानि क्षेप्यास्त्राणि, प्रहरणानि च तदितराणि यैस्ते तथा, त्रिनतानि-मध्य-पार्श्वद्वयलक्षणे स्थानत्रयेऽवनतानि, नितंधितानि'त्रिषु स्थानकेषु कृतसंधिकानि नैकाङ्गिकानि---इत्यर्थः; यजमयकोटीनि धनूंषि अभिगृह्य पदतः-पदे मुष्टिस्थाने तिष्ठन्तीति सम्बन्धः. पारमात्रिकः-सर्वतो मात्रावान् , काण्डकलापो येषां ते तथा, नीलपाणयः-इत्यादिषु नीलादिवर्णपुर वाद् नीलादयो बाणभेदाः संभाव्यन्ते, चारुचापपाणय:-इत्यत्र च चापं धनुरेव अनारोपितज्यम् , अतो न पुनरुक्तता, चर्मपाणय:-इत्यत्र चर्मशब्देन स्फुरकः उच्यते दण्डादयः प्रतीता:. उक्तमेवार्थ संग्रहणेन आहः-'नील-पीअ' इत्यादि; अथवा नीलादीन् सर्वानेव युगपत् केचिद् धारयन्ति देवशक्तेरिति दर्शयन्नाहः-'नील-पीअ' इत्यादि. ते चाऽऽमरक्षा न संज्ञामात्रेणैव इत्याहः-आत्मरक्षाः-स्वाम्यात्मरक्षा.इत्यर्थः, ते एव विशिष्यन्तेरक्षोपगता:-रक्षाम् उपगता:-सततं प्रयुक्तरक्षा इत्यर्थः. एतदेव कथम् ? इत्याहः-गुप्ता अभेदवृक्त्यः, तथा गुप्तपालीकास्तदन्यतो व्यावृत्तमनोवृत्तिकाः, (मण्डलीका) युक्ताः परस्परसंबद्धाः, युक्तपालीकाः निरन्तरमण्डलिकाः, प्रत्येकम् एकैकशः, समयतः पदातिसमा. चारेण, विनयतः-विनयेन, किंकरभूता इव-प्रेष्यत्वं प्राप्ता इव इति. अयं च पुस्तकान्तरे साक्षाद् दृश्यते एव इति. 'एवं सब्वेसिं इंदाणं 'ति एवमिति चमरवत् सर्वेषाम् इन्द्राणाम् आत्मरक्षा वाच्याः, ते चार्थत एवम्:-सर्वेषामिन्द्राणां सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षाः, तत्र चतुःपष्टिः सहस्राणि चमरेन्द्रस्य सामानिकानाम् , बलेस्तु पष्टिः; शेषभवनपतीन्द्राणां प्रत्येकं षट् सहस्राणि, शक्रस्य चतुरशीतिः, ईशानस्य अशीतिः, सनत्कुमारस्य द्विसप्ततिः, माहेन्द्रस्य सप्ततिः, ब्रह्मगः पष्टिः, लान्तकस्य पञ्चाशत् , शुक्रस्य चत्वारिंश, सहस्रारस्य त्रिंशत्, प्राणतस्य विंशतिः, अच्युतस्य दश सहस्राणि सामानिकानामिति. यदाहः-" चउँसट्ठी सट्ठी खलु च्च सहस्सा ओ अनुरवजाणं, सामाणिआ उ एए चउग्गुणा आयरक्खा ओ. चउरासीइ असाई बाबत्तरि सत्तरिय सट्टी य, पन्ना चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सै " त्ति. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे तृतीयशते पष्ठ उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचित विवरणं समाप्तम्. २. आगळना प्रकरणमा विकुर्वणा संबंधी हकीकत जणावी छे अने हवे एज विकुर्वण करवामां समर्थ एवा देव विशेषो संबंधे निरूपण करवानुं छे. [ 'दण्णओ'त्ति ] अहीं आत्मरक्षक देवोनुं वर्णन कहे अने ते आ प्रमाणे छ:-" बराबर सज, दोरीथी मजबूत रीते बांधला आत्मरक्षक देवो अने शरीर उपर चडाबेला बख्तरवाळा, ओए दोरी चडावीने तीरकामठाने (धनुष्टिने ) तैयार कथु छ एवा, अथवा जेओर बाणावळीओने- तेनो वर्णक. धनुर्धरोने-जाणीती परासनपट्टिकाने हाथमां बांधेली छे एवा, डोकमां घरेणांने पहेरनारा, जेओए शूरवीरतानो सूबक, नेतर वगेरेना तंतुथी बनेलो अथवा सोनानो बनेलो, पवित्र अने उत्तम तमगो गांठ वाळीने माथामां आरोप्यो छे एवा, जेओए प्रहार करवा माटे आयुधोनुं ग्रहण कर्यु छे एवा अथवा फेंकवानां अने फेंक्या सिवाय काममा आवतां शस्त्रोने धारण करनारा, बच्चे अने बने पडखे-त्रण ठेकाणे-दमी गएला, त्रण ठेकाणे सांधा - १. मूठच्छायाः-तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन ! इतिः-अनु. १.प्र.छाया:-सन्नद्ध-बद्ध-यर्मितकवचाः, उत्पीडितशरासनपट्टिकाः, पिनद्धप्रवेयकाः, पद्ध-आविद्ध-विमलवरचिहपट्टाः, गृहीताऽऽयुधप्रहरणाः,त्रिनतानि, त्रिसन्धितानि वज्रमयकोटीनि धपि अभिष्य पदतः परिमात्रिक काण्डकलापाः, नीलशणयः, पीतपाणयः, रक्तपाणयः, एवं चारुचाप-चर्म-३०-सा-नाशपाणयः, नील-गीत-रक्तचारचाप-वर्म-२ण्ड-खा-पाशवरधराः, अमरक्षाः, रक्षोपगताः, गुप्ताः, गुप्तपालिकाः, युक्ताः, युकालिकाः, प्रत्येक प्रत्येक समयतः, विनयतः किरभूता इव तिष्ठन्ति-इतिः, २ चतुःषष्टिः पष्टिः खलु पद च सहस्राणि तु अमुरवजीणाम् , मामा निकास्तु पते चतुर्गुणा आत्मरक्षास्तु. चतुरशीतिः अशीतिःद्वासप्ततिः सप्ततिश्च पष्टिश्च, पञ्चाशत् चत्वारिंशत् त्रिंशद् शितिर्दश सहस्राणि इति. ३. इयं गामा प्रज्ञापमा स्थानपदे १३४-(पृ. ९४ स.). १. इयमपि तत्रव पदे १४८-(पृ० १०४):-अनु० . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३-उद्देशक ६. बाळा-सळंग नहीं बनेला-अने वज्रथी बनेली कोटि-आगला भाग-वाळी धनुषोने हाथमा ग्रहण करीने उभा रहेनारा, मर्वतः मात्रा -मर्यादावाळा तीरना समूहने धारण करनारा, हाथमां नीलने ( केटलाक वाणोनो पाछलो भाग नीलादि वर्णवाळो होय छे माटे अहीं नील, पीत अने रक्त विगेरे-ए-बधा-एक जातिना वाणना भेदो होय, एम संभवे छे.) धरनारा, पीतने अने रक्तने हाथमा धरनारा, ए प्रमाणे सुंदर चापने हाथमा चाप-धनुप, धरनारा, (शं०-चाप अने धनुष् ए बन्ने एक ज वस्तुना नाम छे तो आगळ 'धनुषने धारण करनारा ' एम कहेबाथी 'चापने धरनारा ' ए अर्थ पण आवी जाय छे तेम छतां ( अहीं ) फरीवार ' चापने धरनारा' एम शा माटे कथु ? स०--आ स्थळे पुनरुक्ति दूपण आवयानो संभव नथी, कारण के 'चाप ' अने धनुष् ' ए बन्ने शब्दना अर्थमा थोडो फेर छे:--- दोरी नहीं चडावेलुं धनुष ते 'चाप' अने दोरी चडावीने सज करेलुं धनुष ते धनुष. आ रीतिए ए बन्ने शब्दना अर्थमां थोडो पण भेद छे.) तथा सुंदर ढालने, दंडने, तरवारने अने पासलाने हायमां धारण करनारा. दिव्य शक्तिना धारक होवाथी केटलाक देवो नील, पीत, रक्त एयां सुंदर चाप, तरवार, ढाल अने पासला वगेरेने एक साथे हाथमां धरनारा छे. तथा पोताना धणिर्नु रखोपुं करनारा छे माटे पोताना 'आत्मरक्षक ' नामने दीपावनारा छे, रखोपाना काममा योजेला, अभेद वृत्तिवाळा, स्वामिनी रक्षा करवामां ज मनने जोडनारा-बीजे जती मनोवृत्तिने रोधनारा, परस्पर संबंधवाळा अने परस्पर जोडाएला मंडळवाळा. पुस्तकांतर. ए वधा देवो वारा फरती एक एक, उचित काळे पगीनी पेठे विनयपूर्वक आगे छे अर्थात् तेओ चाकरनी जेम रहे छे" बीजा पुस्तका तो आ बधो पाठ मूळमां ज मांडेलो जणाय छे. [ ' एवं सम्बेसि इंदाणं' ति ] ए रीते-चमरेंद्रनी पेठे-बधा इंद्रोना आत्मरक्षक देवो संबंधी हकीकत सामानिक अने जाणवी. ते आत्मरक्षक देवोनी संख्या आ रीतिए छ:-हर एक इंद्रदेवने सामानिक देवो करता आत्मरक्षक देवो चार गणा होय छे. चरमेंद्रने नरक्षकोनी संख्या. चोसठ हजार सामानक देवो छे, बलि इंद्रने साठ हजार सामानिक देवो छ; अने भुवनपतिना बाकीना प्रत्येक इंद्रदेवने छ छ हजार सामानिक देवो होय छे. शक इंद्रने चोरासी हजार सामानिक देवो छे, ईशान इंद्रने एंशी हजार सामानिक देवो छे, तथा सनत्कुमारने वोंतेरे हजार, माहेंद्रने सित्तर हजार, ब्रहेंद्रने साठ हजार, लांतकेंद्रने पचास हजार, शुक्रने चालीस हजार, सहस्रारने त्रीश हजार, प्राणतने वीस हजार अने अच्युतेंद्रने दश हजार सामानिक देवो होय छे.. कयुं छे के:---" असुरेंद्र सिवायना इंद्रोने चोराठ हजार, साठ हजार अने छ हजार सामानिक देवो होय छे अने आत्मरक्षक देवो तेथी चारगणा होय छे. ८४ हजार, ८०.हजार, ७२ हजार, ७० हजार, ६. हजार, ५० हजार, ४० हजार, ३० हजार, २० हजार अने १० हजार सामानिक देवो अनुक्रमे शकेंदधी अच्युतेंद्र सुधीना इंद्रोने होय छे,'' अने तेथी चार गणा आत्मरक्षक देवो तेओने होय छे. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः--दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ।। Jain Education international Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ७. रागगृह.-शझना लोकप लो केटला?-चार-सोम.-म.-वल्ग.-वैश्रवण.-एमनां विमानो केटलां ?-चार.-संध्याप्रभ.- वरशिष्ट, स्वयंचल.-वल्गु.-तोमना विमान विगेरेनो पूर्ण परिचय.-सोमना तावाना देवो.-सोमना तापानी आटपातिक प्रतियो-सेननां अयो. यमना विमान विगेरेनो परिचय. यमना साबाना देवो.-यमना ताघाना रोगो-दुःखो.--धमना अपत्यो.-वरुणना विमान विगैरेनो परिचय,-वरुणना सावाना देयो.-वरुणगा साबानी पाणीने लगवी प्रवृत्तिओ.-वरुणनां अपत्यो.-वैश्रवणना विमान विगेरेनो परिचय, वैश्रवणना ताबाना देवो.-प्रवण-कुमेर-ने हस्तक रहेली लक्ष्मी अने लक्ष्मीवृष्टि.-वैश्रवणनां अपत्थो.-- १. १०-रायागहे णगरे जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासी:- १. प्र.-राजगृह नगरमां यावत्-पर्युपासना करता आ सफस्स णं भंते ! देविंदस्स, देवरण्णो कति लोगपाला पण्णता ? प्रमाणे बोल्या के:-हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज शक्रने केटला लोकपालो कह्या छे? .. १. उ०-गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहा:- १. उ०-हे गौतम ! तेने चार लोकपालो कह्या छे. ते आ सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे. प्रमाणे:- सोम, यम, वरुण अने वैश्रमण. २. प्र०—एएस भंते ! चउण्हं लोगपालाणं कति २. प्र०-हे भगवन् ! ए चारे लोकपालोने केटलां विमानो विमाणा पण्णता ? ___ कह्यां छे ? २. उ०--गोयमा ! चत्तारि विमाणा पत्ता, तं जहा:- २.उ.-हे गौतम ! एओने चार विमानो कहां छे. ते आ संझप्पभे, वरसिढे, सयंजले, वग्गू. प्रमाणे:-संध्याप्रभ, वरशिष्ट, स्वयंज्वल अने वल्गु. - ३. प्र०—कहिं णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो सो- ३. प्र०-हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज शक्रना लोकपाल मस्स महारण्णो संझप्पभे णामं महाविमाणे पण्णत्ते ? सोम नामना महाराजानुं संध्याप्रभ नामर्नु मोटुं विमान क्या रहेलं . कडुं छे ? ३. उ०--गोयमा ! जंबुद्दीचे दीघे मंदरस्स पव्वयस्स दा- ३. उ०-हे गौतम ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमां मंदर पर्वतनी हिणे णं इमीसे राणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभा- दक्षिणे आ रत्नप्रभा पृथिवीना बहुलन रमणीय भूमिभागी उंचे गाओ उड़े चंदिम-सूरिय-गहगण-नफसत्त-तारारूवाणं बहूई चंद्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराको आवे छे. अने त्यांथी जोअणाई, जाव-पंच वडेंसिया पण्णत्ता, तं जहा:-असोगव.सए, बहु योजन उंचे यावत्-पांच अवतंसको कह्या छे. ते आ प्रमाणे:-अशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चंपकावतंसक, चता १. मूलच्छायाः-राजगृहे नगरे गावत्-पर्युपासीनः एवम् अवादीत:-शक्रस्य भगवन् ! देवेन्द्रस्य, देवराजस्य कति लोकपालाः समाः? गातम ! चत्वारो लोकपालाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:- सोमः, यमः, वरुणः, वैश्रवणः. एतेषां भगवन् । चतुर्णा लोकपालानां कति विमानानि प्रतानि ? गौतम ! चत्वारि विमानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा:-सन्ध्याप्रभम् , वरशिष्टम् , खयंज्वलम् , वस्गु. कुत्र भगवन् ! शकस्य देवेन्दस्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सम्ध्याप्रभं नाम महाविमानं प्राप्तम् ! गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेऽस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमामणीयाद भूमिभागावर्षे पन्दम: सूर्य-महगण-नक्षत्र-तारारूपाणां बहनि योजनानि यावत्-पय अवतंसकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-अशोकावतंसकः Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३. उद्देशक ७. सत्तवण्णव.सए, चंपयव.सए, चूअव.सए, मज्झे सोहम्मवडें- वतंसक अने वच्चे सौधर्मावतंसक छे. ते सौधर्मावतंसक महाविमासए; तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरत्थिमे णं ननी पूर्वे सौधर्म कल्प छे, तेमा असंख्य योजन दूर गया पछीसोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई जोअणाई वीइवइत्ता एत्थ णं सक्करस अही-देवेंद्र, देवराज शक्रना लोकपाल सोम नामना महाराजानुं देविंदस्स, देवरण्णो सोमस्स महारष्णो संझप्पभे णामं महावि. संध्याप्रभ नामनु महाविमान आवे-का-छेः-तेनी-विमाननीमाणे पण्णचे:-अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, लंबाइ अने पहोळाइ साडा बार लाख योजननी छे. तेनो घेरावो उणयालीसं जोयणसयसहस्साइं, बावन्नं च सहस्साई, अट्ट य ओगणचाळीश लाख, बावन हजार, आठसेंने अडताळीशअडयाले जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खवेणं पण्णत्ते, जा ३९५२८४८-योजन करतां कांइक वधारे छे. ए संबंधे सूर्याभसरियामविमाणस्स वत्तव्वया सा अपरिसेसा भाणिअब्बा, जाव- देवनी विमानवक्तव्यतानी पेठे ववी हकीकत कहेवी अने ते अभिसेओ; नवरं-सोमो देवो. संझप्पभस्सणं महाविमाणस्स प्रमाणे यावत्-अभिषेक मुधी कहे,. विशेष ए के, अहीं सूर्याभअहे, सपक्खि, सपडिदिसिं असंखेजाइं जोयण (सय) सहस्साई देवने बदले सोम देव कहेवो. संध्याप्रभ महाविमाननी बराबर नीचे ओगाहित्ता एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो सोमस्स महा- (सपक्षे अने सप्रतिदिशे) असंख्य योजन आगळ अवगाह्या रण्णो सोमा नाम रायहाणी पण्णत्ताः-सगं जोयणसयसहस्सं पछी-अही-देवेंद्र, देवराज शक्रना सोम महाराजांनी सोमा नामनी आयामविक्खंभेणं जंबुद्दीवप्पमाणा; माणिआणं पमाणस्स अद्धं राजधानी छे. ते राजधानीनी लंबाइ अने पहोळाई एक लाख णेयव्वं, जाव-उवरियलेणं, सोलस जोयणसहस्साई आयाम- योजननी छै-ते राजधानी जंबूद्वीप जेटली छे. आ राजधानीमां विक्खंभेणं, पण्णासं जोयणसहस्साई, पंच य सत्ताणउए जोयणसये आवेटा किल्ला वगेरेनुं प्रमाण वैमानिकोना किल्ला वगेरेना प्रमाण किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते; पासायाणं चत्तारि परिवा- करतां अडधुं कहे, अने ए प्रमाणे यावत्-घरना पीठबंध सुधी डीओ णेयवाओ, सेसा णत्थि. सकस्स णं देविंदस्स, देवरण्णो जाणवू. घरना पीठबंधनो आयाम अने विष्कम सोळ हजार सोमस्स महारण्णो इमे देवा. आणा-उववाय-वयण-निदेते योजन छे अने तेनो घेरावो पच्चास हजार, पांचसेने सत्ताणु योजन चिट्ठति, तं जहा:-सोमकाइया इवा, सोमदेवयकाइया इवा, करतां कांइक विशेपाधिक छे. प्रासादोनी चार परिपाटिओ कहेवी विजुकुमारा, विजकुमारीओ; अग्गिकुमारा, अग्गिकुमारीओ; अने बाकीनी नथी. देवेंद्र देवराज शकना सोम महाराजानी वायकमारा, वायुकमारीओ; चंदा, सूरा, गहा णक्खत्ता, तारारूवा आंज्ञामा, उपपातमां, कहेणमां अने निर्देशमा आ देवो रहे छे::-जे यावणे. तहप्पंगारा सव्वे ते तभत्तिआ, तप्पक्खिया, त- सोमकायिको, सोमदेवकायिको, विद्यत्कुमारो विद्यत्कुमारीओ, भारिया सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो सोमस्स'महारण्णो आणा- अग्निकुमारो, अग्निकुमारीओ, वायुकुमारो, वायुकुमारीओ, चंद्रो, वाय-वयण-निद्देसे चिट्ठति, जीव दीव मदरस्स पन्धयस्स सूर्यो, ग्रहो, नक्षत्रो, तारारूपो अने तेवा ज.प्रकारना बीजा पण दाहिणेणं जाइं इमाइं समुप्पज्जति, तं जहा:-गहदंडा इ वा, बधा देवो तेनी भक्तिवाळा, तेना पक्षवाळा अने तेने ताबे रहेनारा गहमसला इवा, गहगजिआ इवा, गहजुद्धा इ वा, गह- छे-ए बधा देवो तेनी आज्ञामा उपपातमां, कहेणमां अने निर्देशमा सिंघाडगा इवा, गहायसव्वा इवा, अन्मा इवा, अब्भरुक्खा रहे छे. जंबूद्वीप नामना द्वीपमां मंदर पर्वतनी दक्षिणे जे आ पेदा थाय छे:-प्रेहदंडो, ग्रहमुसलो, ग्रहगर्जितो, ए प्रमाणे ग्रहयुद्धो, १. मूलच्छाया:--सप्तपणावतंसकः, चम्पकावतंसकः, चूतावतंसकः, मध्ये साधावतंसकः तस्य साधावतंसकस्य महाविमानस्य पौरस्त्ये साधर्म कल्पेऽसंख्येयानि योजनानि व्यतिव्रज्य अत्र शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सन्ध्याप्रभं नाम महाविमानं प्रज्ञप्तम्:-अर्धत्रयोदशयोजनशतसहस्राणि आयाम-विष्कम्भेण, एकोनचत्वारिंशद् योजनशतसहस्राणि, द्विपञ्चाशच सहस्राणि, अटैा च अष्टचत्वारिंशद् योजनशतानि, किश्चिद् विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रक्षप्तम् ; या सूर्या(सूरिका)भविमानस्य वक्तव्यता सा अपरिशेषा भणितव्या, यावत्-अभिषेकः नवरम्-सोमो देवः, सन्ध्याप्रभस्य महाविमानस्य अधः, सपक्षम्, सप्रतिदिशम् असंख्येयानि योजन-(शत)-सहस्राणि अवगाह्य अत्र शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सोमा नाम राजधानी प्रज्ञप्ता:-एक योजनशतसहस्रम् आयाम विष्कम्भेण जम्बूद्वीपप्रमाणा; वैमानिकानां प्रमाणण्याऽर्थ ज्ञातव्यम् , यावत्-उपरितने(ले)न, षोडश योजनराहस्राणि आयाम विष्कम्भेण, पञ्चाशद् योजनसहसागि, पञ्च च सप्तनवतिया जनशतानि किञ्चिद् विशेषोनानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् ; प्रासादानां चततः परिपादयो ज्ञा(ने)तव्याः, शेषा नास्ति. शक्रय देवेन्द्र स्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य इमे देवा आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठन्ति, तद्यथाः-सोमकायिका इति वा, सोमदेवताकायिका इति वा, विद्युत्कुमाराः, विद्युत्कुमार्यः; अग्निकुमाराः, अग्निकुमार्यः; वायुकुमाराः, वायुकुमार्यःचन्द्राः, सूर्याः, ग्रहाः, नक्षत्राणि, तारारूपा:-ये चाऽपि अन्ये तथाप्रकाराः सर्वे ते तद्भक्तिकाः, तत्पाक्षिकाः, तद्भायाः शक्रस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य आज्ञा-उपपात-वचन-निर्देशे तिष्ठन्ति. जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन यानि इमानि समुर द्यन्ते, तद्यथाः-ग्रहदण्डा इति वा, प्रदमुसलानि इति वा, प्रहगर्जितानि इति वा, ग्रहयुद्धानि इति वा, ग्रह नाटकानि इति वा, ग्रहापसव्यानि इति पा. अभ्राणि इति वा, अभ्रवृक्षाः-अनु. १. अभिषेक सुधीनो बधो वर्णक रायपसेणी उपांगना-(क० आ० पृ० १०१-२०४ ) ए पृष्ठो मां साबस्तर नोंधेलो छे:-अनु० । २.. चालता सूत्रमा जणाब्यु छ के, अंतरिक्षमा जे जे उत्पात थाय छे ते वधा, लोकपालोना यश. छ. ( लोकपालो पण शक्राश्रित छे ) -तेओनी रजा सिवाय तदाश्रित कर्मकरो एमांनो एक पण उत्पात करी. शकता नथी. आवी ज हकीकत, गर्गसंहिता अने वाराहीसंहितामां 'आ.प्रमाणे नोधी छे:-- Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३ -उद्देशक ७. भगवसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. "खात्राणि संरअन्ति-एते शुभाशुननिवेदिनः, लोकपाला महात्मानो" "शुभ अने अशुभने जाण नारा महात्मा लोकपाको पोताना अयोने गर्गः. सजे छ.-गर्गः. "अस्त्राणि लोकपाला लोकाभावाय संत्वजन्ति-उल्का:-घरादः “लोकना संहारमाटे लोकपालो उल्का-अस्रोने छोटे छे"-वराह. (वृहत्संहिता, पृ० ४५६) (य. ए.पृ० ४५६) ए उत्तातोमा जे जे नानो अहीं जगावेला छे, ने ना पांखरां बृहत्संहितानां आ प्रमाणे जगाव्यां - प्रहयु :-(० स० पृ. ३२१) " वियति चरतां ग्रहाणाम्-उपर्युप.रे आत्ममार्गसंस्थानाम् । "आकाशमा गति करता, पोत पोताना मार्गमा उपराउपर रहेला अने अतिदूगद् ग् विषये समतामिव संप्रयातानाम्"। २ घणु दूर होवाने लीधे आपणने एक साथे थई गएला देखाता प्रहोर्नु युद्ध आसन्न-क्रनयोगाद् भेदो-लेखां-शुमर्दना-ऽअसव्यैः । आसन्न अने कमने लीधे चार प्रकारचें कडं छः--भेदयुद्ध, उल्लेखयुद्ध, युद्ध चतुष्पकार पराशराधमुनिभितर"। ३-प्रहयुद्धाध्यायः अंशुमर्दनयुद्ध अने अपसव्ययुद्ध." आ विषेनी विशेष विगत जाणवा माटे प्रहयुद्ध-अध्याय जोई लेवो जोइए. . प्रहशंगाटक--प्रहदंड--ग्रहमुशल-(पृ०-३४९-४३१) "चक-धनुः-शनाटक-दण्ड-पुर-प्रास-वनसंस्थानाः । “चक (१९), धनुष, सिंगोडु, दंड, नगर, प्रास अने वन ए पर्धा क्षुदवृष्टिकग लोके समराय च मानवेन्द्राणाम्"-ग्रहांगाटकाध्याय, प्रहोना संस्थानो (घाटो) छे अने ए अशुभसूच छे." प्रहापसव्य-(पृ. ३२२) "दक्षिणेनापसव्यं स्याद् उत्तरेण प्रद क्षणम् । " ज्यारे चंद्र, प्रदो अने नक्षत्रोनी दक्षिणे गति करतो होय सारे प्रहाणां चन्द्रमा यो नक्षत्राणां तथैव च--प्रहयुद्धाध्यायः 'अपसव्य ' कहेवाय अने ज्यारे एज उत्तरे गति करतो होय त्यारे 'प्रदक्षिण ' कहेवाय." अभ्रवृक्ष-(पृ. ४१२) • "दधिसदृशाम्रो नीलो भानुच्छादी खमध्यगोऽध्रतरुः"। "वादळाना-झाड जेवा घाटने अम्रवृक्ष के मेघनह कसो . ए वृक्ष, “ अभ्रवृक्ष मेघतरी"-संध्यालक्षगम्. नीलो होय छे अने तेनो अग्र भाग दहिना जेवो होय छे अने ए सूर्यने ढांकनारो भने आकाशनी बच्चे होय छे." संध्या-(पृ. ४२६) "अर्धास्त मितानुदितात् सूर्यादस्पष्टभ नभो यावत् । “अध्धा आथमेला अने अधा उगेला सूर्यने लीधे ज्या सुधी भाकाश सावत् संध्याकालश्चिहरेतः फल चास्सिन्" १ अस्पष्ट रहे छे तेटलो समय 'संध्याकाल' कहेवाय छे." " अहोरात्रस्य यः संधिः सा च संध्या प्रकीर्तिता। " दिवस अने रात्रीनी संधि (सांधा )ना भागने संध्या कहेवामा .. द्विनाडिका भवेत् साधुविदाज्योतिदर्शनम् "-संध्यालक्षणम् . आवे छे. तेनुं प्रमाण वे नाडिका छे अने ए, ज्योति ( ताराओ ) नुं दर्शन थतां पूरी थाय छे." गांधर्वनगर-(पृ. १७८) " गन्धर्वनगरमुत्थितमापाण्डुरं" वादळो उपर पडतां सूर्यना किरणोने लीधे आकाशमा थता मगरना "खपुर सिन-रक्त-पीत-कृष्णम्" देखावने गांधर्वनगर' कहेवामां आवे छे. ते धोछु, लाल, पीलु अने " अनेकवर्णाकृति खे प्रकाशवे पुरं पताका-ध्वज-तोरणान्वितम्"। काई होय छे-अनेक वर्ण अने आकारवाळु होय छे तथा पताका, धजा "बहुवर्णाताकाव्यं गन्धर्वन गरे महत्"-गन्धर्वनगरलक्षणम्, भने तोरणोथी मंडित पण होय." उल्काप त-(पृ. ४५५) " दिवि भुक्तशुभफलानो पतत रूपाणि यानि तान्युल्काः । "स्वर्गना सुखोने भोगवीने पडता आस्माओना स्पोने 'उहका' “धिष्ण्य-उल्का-अशनि-वद्युत्-तारा इति पञ्वधा भिनाः" ॥१ कहेवामां आवे छे. ते पाच प्रकारनी छे:-विष्ण्य, उल्का, अशनि, विद्युत् -उकालक्षणम्. अने तारा" दिग्दाह-(पृ. ४३९) " दाहो दिशां राजभयाय पीतो देशस्य नाशाय हुताशवर्णः । " भडका जेवी दिशाओगें नाम 'दिग्दाह ' छे-ते पीळो, अग्नि जेषो यश्वारुणः स्यादपसव्यवायुः सस्यस्य नाशं स करोति दृष्टः "॥१ अने लाल एम अनेक प्रकारनो होय हे-तेना रंगो प्रमाणे जूदा जर्दा -दिग्दाइलक्षणम्. फळो पण जणाव्यां छे" परिवेष-(पृ. ४६६) " सम्मूछिना रवीन्द्व': किरणाः पवनेन मण्डलीभूताः । 'थोडा वादळावाळा आकाशमा प्रतिबिंब पामेला सूर्य भने चंद्रना नानावण कृलय स्तम्। व्योम्नि परिवेषाः "-परिवेषलक्षणम्. किरणो वायुद्वारा मंडलीभूत थयो छनौ जे अनेक वर्ण भने आकारने धारण करे छे-एर्नु नाम परिवेष 'छे" प्रतिसूर्य-(पृ. ४८०) " उदयात् प्रभृति दिनप्रहरैक यावत् तनुघनोऽर्कसमीपे यदा भवति “ केटलीएक वार ज्य रे सूर्यना उदय थी मांडी एक प्रहर सुधी सूर्यनी सदा अरविनवशात् तत्र द्वितीयोऽक इ' लक्ष्यते स प्रतिसूय उच्यते. आसपास थोडा वादळां जामेलो होय छे स्यारे ते वादळ नु र्छ, सूर्यन: एवमस्तायेऽपि संभवति."-अर्क वार:--प्रतिस्पलक्षणम्. किरणोने लीधे बीजा सूर्य जेयं देवाय छे अने एनुं ज नाम प्रतिसूर्य छे. भाव। प्रतिसूर्य, सर्झना अखसमये पण जोई शकाय.? मिरको वायुमार मंडलीमूल भवानी मायाजक सार्थ जो कहना . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ३.-उद्देशक. ७. ३ वा, संझा इ वा, गंधव्वनगरा इ वा, उक्कापाया इ वा, दिसि- ग्रहशृंगाटको, महापसव्यो, अभ्रवृक्षो, संध्या, गांधर्वनगरो, उल्कादाहा इ वा, गजिआ इ वा, विजू इ वा, पंसुवुट्ठी इ वा, ज्वे पातो, दिग्दाहो,गर्जारवो. विजळीओ, धूळनी वृष्टिओ, यूपो, इ वा, जक्खालित्तये त्ति वा, धूमिआ इ वा, महिआ इ वा, यक्षोद्दीप्तो, धूमिका, महिका रजनो उद्घात, चंद्रग्रहणो, सूर्यरयुग्घाए त्ति वा, चंदोवरागा इ वा, सूरोवरागा इ वा, चंदप- ग्रहणो, चंद्रपरिवेपो, सूर्यपरिवेषो, प्रतिचंद्रो, प्रतिसूर्यो, इंद्रधनुप् , रिवेसा इ वा, सूरपरिवेसा इ वा, पडिचंदा इ वा, पडिसूरा इ उदकमत्स्य, कपिहसित, अमोध, पूर्व दिशाना पबनो, पश्चिमना पा, इंदधणू इ वा, उदगमच्छ-कपिहसिअ-अमोह-पाईणवाया पवनो, यावत्-संवर्तक पवनो, ग्रामदाहो यावत्-संनिवेशदाहो, इवा, पईणवाया इ वा, जाव-संवट्टयवाया इ वा, गामदाहा प्राणक्षय, जनक्षय, धनक्षय, कुलक्षय, यावत्-व्यसनभूत अनार्य है.वा, जाव-संनिवेसदाहा इ वा, पाणक्खया, जणक्खया, (पापरूप) तथा तेवा ज प्रफारना बीजा पण बधा, ते बधा, धणक्खया, कुलक्खया, वसणभूया अणारिआ-जे यावण्णे दवेंद्र देवर.ज शक्रना सोम महाराजाथी अजाण्या नथी, अणजोएला तहप्पगारा ण ते सकस्स देविंदस्स, देवरण्णो सोमस्स महारण्णो नथी, अणसांभळेला नथी, अणसमरेला नथी अने अविज्ञात नथी अन्नाया, अदिवा, असुआ, अस्सु (मु) आ अविण्णाया; तेसिं अथवा ते बधा सोमकायिक देवोथी अजाण्या नथी. देवेंद्र, देवराज या सोमकाइआणं देवाणं. सकस्स णं देविंदस्स, देवरण्णो सोमस्स शकना सोम महाराजाने आ देवो अपत्यरूप अभिमत छ:महारण्णो इमे अहावचा अभिण्णाया होत्था, तं जहाः-इंगालए, अंगारक-मंगल, विकोलिक, लोहिताक्ष, शनैश्चर, चंद्र, सूर्य, वियालए, लोहि अक्खे, सणिचरे, चंदे, सूरे, सुक्के, बुहे, वह- शुक्र, बुध, बृहस्पति अने राहु. देवेंद्र, देवराज शक्रना सोम स्सई; राहू. सकस्स णं देविंदस्स, देवरणो सोमेस्स महारणो महाराजानी आवरदा त्रण भाग सहित पल्योपमनी छे अने तेना सत्तिभागं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, अहावचा-ऽभिन्नायाणं देवाणं अपत्यरूप अभिमत देवोनी आवरदा एक पल्योपानी कही छे,एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता. एवं महिडीए, जाव-महाणुभागे ए प्रकारनी मोटी ऋद्धिवाळो अने यावत् मोटो प्रभावशाळी सोम सोमे महाराया. महाराजा छे. .. १. षष्ठोदेशके इन्द्राणामात्मरक्षा उक्ताः, अथ सप्तमोदेशके तेषामेव लोकपालान् दर्शयितुमाह:-रायगिहे, इत्यादि. 'बहूई जोयणाई' इह ' यावत् ' करणाद् इदं दृश्यम्:-" बहूई जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साई, बहूई जोयणसयसहस्साई, बहूओ जोयणकोडीओ, बहूओ जोयणकोडाकोडीओ, उद्धं, दूरं वीईवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पण्णत्ते, पाईण-पीईणायए, उदाणदाहिणवित्थिने, अद्धचंदसंठाणसंठिए, अचिमालिभासरासिवण्णाभे असंखेज्जाओ जोयगकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं, असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवणं; एत्थ णं सोहम्माणं देवाणं बत्तीसं विमाणावाससयसहस्साई भवंतीति अक्खाया, ते णं विमाणा सव्वरयणामया, अच्छा, जाव-पडिरूवा; तस्स णं सोहम्मकप्पस्स बहुमज्झदेसभाए " इति । ' वीईवइत्त 'त्ति व्यतिघ्रज्यव्यतिक्रम्य, 'जा सूरियाभविमाणस्स' त्ति सूरिकाभविमानं राजप्रश्नीयोपाङ्गोक्तखरूपम् , तद्वक्तव्यता इह वाच्या; तासमानलक्षणत्वाद् स्थ णं सोहोडाकोडीओ त अक्खाया, " उदकमत्स्य-(पृ. ४२९) ." मत्स्या मत्स्याकारा एव मेघाः "-संध्यालक्षणम्. “ माछला आकारना मेघोने 'उदकमत्स्य' कहेवामां आवे छे" अमोघ-(पृ० ४२९) "शुक्लाः कराः दिनकृतो दिवादिमध्यान्तगामिनः स्निग्वाः । " सूर्यनां जे किरणो, आकाशमां सर्वत्र व्यापेला होय छे, धोळां होय अब्युच्छिन्ना ऋजवो दृष्टिकरास्ते तु अमोघाख्याः " छे, सरळ-सीधा-अने अखंड होय छे तथा स्निग्ध होय छे ते 'अमोद्य' ___ कहेवाय छे-ए किरणो वृष्टिना सूचक छे" उपर सूचवेला उल्लेखो वाराहीसंहिता के बृहत्संहितामा छे. एनो प्रणेता महापंडित वराह के वराहमिहिर छे. एनो समय ईसवीय ५मो-६छो सैको लेखाय छे. आ ज वराहने, जैनसंप्रदाय भद्रयाहुनो भाई (?) होवानुं सूचवे छे:-अनु० १. मूलच्छायाः-इति वा, सन्ध्या इति वा, गान्धर्वनगराणि इति वा, उल्कापातः इति वा, दिग्दाहा इति वा, गर्जितानि इति वा, विद्युद् इति वा, पांशुवृष्टिः इति वा, यूपा इति वा, यक्षोद्दीप्तानि इति वा, धूमिका इति वा, महिका इति बा, रजउद्घातं इति वा, चन्द्रो रागा इति वा, सूर्योपरागा इति या, चन्द्रपरिवेशा इति वा, सूर्यपरिवेशा इति वा, प्रतिचन्द्र। इति वा, प्र.तसूर्या इति वा, इन्द्रधनः इति वा, उदकमत्स्य-कपिदसित-अमोघप्राचीनपाता इति वा, प्रतिचीनवाता इति वा; यावत्-संवर्तकवाता इति वा, ग्रामदाहा इति वा, यावत्-संनिवेशदाहा इति वा प्राणक्षयाः, जनक्षयाः, धनक्षयाः, कुलक्षयाः, व्यसनभूता अनाथः, ये चाप्यन्ये तथाप्रकारा न ते शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य अज्ञाताः, अदृष्टाः, अनुताः, अस्मृताः, अविज्ञाताः, तेषां वा सोमकायिकानां देवानाम् . शक्रस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य इमे यथाऽपत्याः, अभिज्ञाता अभवन् । तद्यथाः-अङ्गारकः, विचालकः, लोहिताक्षः, शनिश्चरः, चन्द्रः, सूर्यः, शुकः, बुधः, वृहस्पतिः, राहुः शक्रस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सत्रिभागं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, यथाऽपत्याऽभिज्ञातानां देवानाम् एक पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता; एवं महर्धिकः, यावत्-महानुभाग: सोमो महाराजः-अनु० १. प्र. छाया:-बहूनि योजनशतानि, बहूनि योजनसहस्राणि, बहूनि योजनशतसहस्राणि, बहवो योजनकोट्यः, बहवो योजनकोटाकोव्यः ऊर्ध्वम् , दूर व्यतित्रज्याऽत्र सोधर्मो नाम कल्प: प्रज्ञप्तः-प्राचीन-प्रतीचीनायतः, उदीचीन-दक्षिणविस्तीर्णः, अर्धचन्द्र संस्थानसस्थितः, अधिर्मालिभासराशिवणीभः; असंख्येयाः योजनकोटाकोट्यः आयाम-विष्कम्भेण, असंख्येया योजनकोटाकोव्यः परिक्षेपेण, अत्र सौधर्माणां देवानां द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्राणि भवन्तौति आख्याताः, ते विमानाः सर्वरत्नमयाः, अच्छाः, यावत्-प्रतिरूपाः; तस्य सै धर्मकल्पस्य यामध्यदेशभागे" इतिः-अनु. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र, अस्येति. कियती सा वाच्या? इत्याहः-यावदभिषेक:- अभिनवोत्पन्नस्य सोमस्य राज्याभिषेकं यावद् इति, सा च इहातिबस्वाद न लिखितेति. 'अहे' ति तिर्यगलोके, 'माणिआणं पनाणस' ति वैमानिकानां सौधर्मविन:नसत्कप्रसाद-प्राकार द्वारादीनां प्रमाणस्य इह नगर्याम् अधं ज्ञातचन्. 'सेसा णति' ति सुधर्मादिकाः सभा इह न सन्ति, उत्पतिस्थानेषु एव तासां भावात्, 'तोगकाइय'ति सोमस्य कायो निकायो येपामस्ति ते सोनकायिका:-सोनपरिवारभूताः, 'सोमदेवयकाइय'त्ति सोमदेवता: तत्सामानिकादयः, तासां कायो येषामस्त्रि ते सोमदेवताकायिका:-सोमसामानिकादिदेवपरिवारभूता इत्यर्थः. 'तारा' ति तारकरूताः. तब्मत्तिज' ति तत्र सोमे भक्तिः सेवा, बहुमानो वा येषां ते तद्भक्तिकाः, ' तप्पक्खिय' ति सोमपाक्षिकाः--सोमस्य प्रयोजनेषु सहायाः, 'तभारिय' त्ति तद्भार्याः-तस्य सोमस्य भार्या इव भार्या:-अत्यन्तं वश्यत्वात् , पोपणीयत्वाच्चेति तद्भार्याः; तद्भारोवा येषां व ढव्यायाऽस्ति ते तद्भरिकाः. १. छठा उद्देशकमां इंद्रोना आत्मरक्षा देवो संबची हकीकत जणावी छ अने हो सातमा उद्देशकनां इंद्रोना लोकपालो संबंधी हकीकतने लोकमाल. जगावया ( देखाडवा ) कहे छे केः--[ 'रायमिहे ' इत्यादि.] [बहूई जोयगाई' ] ए ठेकाणे ' यावत् ' शब्द मूक्यो छे तेथी आ प्रमाणे वबारे जाग:-..." धगां सेंकडो योजनो, घगां हजार योजनो, घगां लाज योजनो, घणां क्रोड योजनो अने घणां कोटाकोटि योजनो सुधी उंचे दूर गया पछी-अही-सौधर्म नाम कल्प करो छे, ते कला, पूर्व अने पश्चिममा लांबो छे अने उत्तर तथा दक्षिणमा विस्तीर्ण-विस्ता वाळो -पहोळो छे, अउधा चांदानी जेवो तेनो घाट ठे, सूनी कांतिना समूह यो तेनो वर्ण छे, तेनो आयाम अने वि कंभ असंख्य योजन केटाकोटि छ, तेनो घेरावो पंग असंख्य योजन कोटाकोटि छे. अही-सौवर्ग कल्लमां-देवोना-सौवर्म देवोना-बत्रीश लाख विनानो-विमानावासो-छे, एम कछु छ. ते वां विनानो साव वजनां बोला छे, निर्मल अने यावत्-प्रतिरूप छे, ते सौधर्म कसनी वचोवच ( बहु मध्ये ।भागनां ) [ 'बीइयइत्त' त्ति ] जइने." [जा सूरि पाभावेमागस्स' ति] राजपनीय (रायासेगी ) नागना उपांगमां वील सूरिफाभ नामना विनाननी वक्त-यता अहीं कहेवी. कारण के, आ अने ते सूरिकाम विमान, ए बने सरखां छे. ते वक्तव्यता अही केटली कहेवी ? तो कहे छ के, अभिषेक सुधीनवा उत्पन्न थरल सोमना राज्याभिषेक सुधी-ते वक्त यता कहेवी. ते वक्तव्यता घणी लांबी होबाथी अहीं लखी नथी. [ · अहे ' त्ति ] एटले तिर्यग्-तिरछा-लोकमां, [वेणियागं पमाणस्म' ति] वैमानिकोना सौधर्म विमानमा रहेल महेल, किडा अने बारणां विगेरेना माप करतां अही-सोम लोकपालनी नगरीमां-अडधुं माप जाणवू. [ सेसा णस्थि' त्ति ] आ नगरीमा सुधर्मा सभा वगरे स्थानो नथी, कारण के ते वयां स्थानो, सोमनी उत्पत्तिना स्थाने ज होय छे. [ ' सोमकाइय' त्ति ] सोमना निकायना देवो-सोमना परिवाररूप देवो ते सोमकायिक देवो, सोगकायिक. सोमदेवयकाइय' ति ] सोग महाराजाना जे सामानिक देवो ते सोमदेवता अने तेना परिवाररूप देवो (तेना निकायना देवो) ते सोमदेवता०सोमदेवताकामिक देयो, [ ' तारारूव 'त्ति ] तारक रूप देवो, [ तब्मतिम 'त्ति ] सोममां भक्तिवाळा-सोमनुं बहु मान वर सारा देवो ते तारा. तद्भक्तिक देवो, [ ' तप्पक्खिय' ति ] सोमना पक्षवाळा देवो-कांइ काम पडे तो सोमने सहायता आपनारा देवो ते तत्पाक्षिक देवो, [तभारिय' ति ] जेम सोननी राणी सर्व प्रकारे सोमने अधीन छ तेम ते देवो सर्व प्रकारे सोमने तात्रे रहे छे माटे तद्भार्य देवो, अथवा सोम ते पोषण करे छ माटे ते तद्भार्य देवो, अथवा जओने माथे सोमनो भार ( कारभार ) वहेवानो छे ते देवो तारिक देवो. गहदंड'त्ति दण्डा इव दण्डास्तिर्यगाऽऽयताः श्रेगयः, ग्रहागां मङ्गलादीनां त्रि-चतुरादीनां दण्डा ग्रहदण्डा:. एवं प्रमुसलानि, नवरम्:-ऊर्वायताः श्रेणयः. 'गहगजिभ 'त्ति ग्रहसंचालादौ गर्जितानि-स्तनितानि प्रहगर्जितानि. 'ग्रहयुद्धानि '-ग्रहयोरेका नक्षत्रे दक्षिणोतरेण समणिनया अबस्थानानि. ' प्रहराङ्गाट कानि'-ग्रहाणां शङ्गाटकफलाकारेण अवसानानि. 'ग्रहापसव्यानि 'ग्रहाणामपसव्य 'मनानि प्रतीपगमनानि इत्यर्थः. अभ्रात्मका वृक्षा:-अभ्रवृक्षा:. 'गन्धर्वनगराणि '-आकाशे व्यन्तरकृतानि नगराकारप्रतिबिम्बानि. ' उल्कापाताः '-सरेवाः, सोयोता वा तारकरयेव पाताः. 'दिग्दाहाः '--अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकाराः, उपरि च प्रकाशात्नकाः दह्यमानमहानगरप्रकाश कल्या:. 'जूचे 'त्ति शुक्लपक्षे, प्रतिपदादिदिनत्रयं याबद् यैः संध्या च्छेदा आत्रियन्ते ते यूपकाः. 'जक्खालित्तय 'त्ति यक्षेदीतानि आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि. धूमिका -महिकयोर्वर्णकृतो विशेषः, तत्र धूमिका धूम्रवर्णा धूसरा इत्यर्थः, महिका तु आपाण्डुरा इति. 'उग्घाय 'त्ति दिशां रजस्वलवानि, ' चंदोवरागा, सूरोवरागा' चन्द्र सूर्यग्रहणानि, 'पडिचंद ' त्ति द्वितीयचन्द्राः, 'उदगमच्छ' ति इन्द्रधनुष्खण्डानि, 'कविहासिअ' ति अनभ्रे या विद्युत् सहसा तत् कापिहसितम्, अन्ये त्याहु:-" कहिसितं नाम यदाऽऽकाशे वानरमुख सदृशस्य, विकृतमुग्वस्य हसनम् " : अमोह ' त्ति अमोघाः आदित्योदयाउन्तसमययोरादित्यकिरण विकारजनिता आताम्राः, कृष्णाः, सामा वा शकटोद्धिसंस्थिता दण्डा इति. 'पाईणवाय' ति पूर्वदिग्वाताः, 'पईणवाय ' त्ति प्रतीचीनवाताः, 'यावत् '-करणादिदं दृश्यम्:--" दाहिणवाया इ वा, उदीणनाया इ व', उड़वाया इ वा, अहोवाया इचा, तिरियवाया इ वा, विदिसीवाया इ वा, वाउभामा इ वा, घाउकलिआ इ वा, वायमंडलिआ इ वा, उक्कलिआवाया इ वा, मंडलि आवाया इ वा, गुंजावाया ह या, झंझावाना इ या" ति. इह ' वातोड्रामाः'-अनवस्थितवाताः, वातोत्कलिकाः समुदोत्कलिफावत्, 'वातमण्डलिकाः'-वातोल्पः(ऽल्पः), उत्कलिकायाताः-उस्कालेकाभिर्ये वान्ति, 'मण्डलिकावाता:'-मण्डलिकाभिर्ये वान्ति, 'गुजायाताः '-गुअन्तः सशब्दं ये वानित, ' झंझावाता:'-अशुभनिराः, 'संवर्तकवाताः '-तृणादिसंवर्तनस्वभावा इति. १. जूओ आगळ पाने ११०-टि.१. १. प्र० छायाः-दक्षिगवाता वा, उदीची नवाता चा, ऊवाताव, अधोवाता वा, तिर्यग्वाता वा, विदिग्वाता वा, वातोद्भाना चा, -बातोत्कसिका वा, बातामण्डलिका वा, उत्कलि कावाता वा, मण्डलिकावाता वा, गुजावाता वा, झञ्झावाता वा इतिः-अनु० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक ७. उ.-मुसल,- [गहदंड ' त्ति ] मंगळ वगैरे त्रण चार ग्रहोनी जे तिरछी दंडनी पेठे लांबी हारो ते ग्रहदंड, ए प्रमाणे ग्रहमुसल शब्दनो पण अर्थ -शुद्ध,-शंगा. जाणवो. विशेष ए के, त्यां उभी श्रेणीओ (हारो) कहेवी. [गहगजिअ ' ति] ज्यारे ग्रहो गति करे छ त्यारे जे कडाका-गाज-थाय छे ते अभ्रवृक्ष-गंध. ( ग्रहगर्जित' कहेवाय. एक नक्षत्रमां-एक दक्षिणमां अने एक उत्तरमा एवी रीते सामसामी हारमा बे ग्रहोर्नु जे रहेधुं ते 'ग्रहयुद्ध', सिंगो--उक्का-दि. डाना आकारे ग्रहोर्नु जे रहेवू ते ' ग्रहशंगाटक', ग्रहोनी जे डाबी-प्रतीप-प्रतिकूळ-वांकी- चाल ते ' महापसव्य ' आमरूप -वाइळांनां-वृक्षो ते -यूपक-यक्ष अभ्रवृक्ष, आकाशमा व्यंतरोए करेली नगरीनी जेवी जे आकृतिओते गंधर्वनगर, रेखा अने प्रकाशवाळु तारानी पेठे जे खर ते उल्कापात, बता न--थूमिका-म मोटा नगरना उजासनी जेवा कोइ एक दिशामां नीचे अंधकार अने उपर प्रकाशरूप जे देखायो ते दिग्दाह, ['ज्वे 'त्ति ] अजवाळियाना -रजउद्घात-- दिवसोमां पडवो, बीग अने त्रीज सुधी जेवडे संध्याना छेडा ढंकाय छे ते यूपक, [ ' जक्खालित्तय 'त्ति ] आकाशमां व्यंतरोए करेला भडका ते प्रतिचंद्र-उदक यक्षज्वालित-यक्षोद्दीप्तक, धूमिका अने महिकाना रंगमां भेद छः धूमिका धून जेवी धूसर होय छे. अने महिका तो आपांडर होय छे. रिउग्धापति -कपिहसित दिशाओगें रजस्खलपणुं ते रजउद्घात, [' चंदोवरागा, सूरोवरागा'] चंद्र अने सूर्यनुं घरण (ग्रहण) ते चंद्रोपराग अने सूर्योपराग, पिडिचंद 'त्ति ] बीजा चंद्रो ते प्रतिचंद्र, [ ' उदगमच्छ ' त्ति ] काचवीना (इंद्रधनुषना ) खंडो-भागो ते उदकमत्स, [' कविहसिय'त्ति वादळा विनाना आकाशमां एकदम विजळीनो जे झबकारो ते कपिहसित, बीजाओ तो कहे छे के-" आकाशमां वानरानी मुखाकृति जेवी बगडेल मुखाकृतिनुं हसवू ते कपिहसित" [' अमोह ' ति] सूर्यना उगवाना अने आथमवाना वखते दंड लेवा लांबा, साधारण लाल के काळा अने उंचा करेल गाडाने घाटे आकाशमा रहेला सूर्यना किरणना विकारथी थएला जे मोटा मोटा लिंसोटा ते अमोध, 'पाईणवाय 'त्ति ] पूर्व दिशाना पवनो, [ 'पईणवाय ' त्ति ] पश्चिम दिशाना पवनो, अहीं ' यावत् ' शब्द मूक्यो छे माटे आ प्रमाणे वारे जाणवु:-" दक्षिण दिशाना पचनो, उत्तर दिशाना पवनो, ऊर्ध्व दिशाना पवनो, अधोदिशाना पहनो, तिरछा पवनो, वायव्य वगेरे सूगा (विदिशा ) ना पवनो-बातोभामो-ठेकाणा नेक प्रकरना विनाना पवनो, समुद्रना कालो टोनी पठे वानार-वातोत्कलिका-पवनो, पवननी ओळीओ-मंडलिकावात, उत्कलिकाओ-लहेरो-बडे वान रा पवनोपवनो. उत्कलिकाबातो, ओळीओ-मंडळीओ-बडे वानारा पवनो मंडलिकायातो, गुंजतां गुंजतां वानारा पवनो-गुंजाबातो, खराब निष्ठुर (वावाझोडा वखते वानारा) पवनो-इंझिावातो, तणखलं वगेरेने फेरवनारा पवनो-संवर्तक पवनो. अथाऽनन्तरोक्तानां ग्रहदण्डादीनां प्रायिकफलानि दर्शयन्नाहः-'पाणक्खय' त्ति बटक्षयाः,' जणक्खय'त्ति लोकमरणानि, निगमयन्नाह-वसणभूया अणारिआ जे यावण्णे तहप्पगार' ति इहैवमक्षरघटनाः-न वेवलं प्राणक्षयादयं एव, ये चाऽन्ये एतव्यतिरिक्तास्तत्रकाराः प्राणक्षयादितुल्या व्यसनभूता:-आपद्रूपाः अनार्य::-पापात्मकाः, न ते अज्ञाता इति योगः. 'अण्णाय 'त्ति अनुमानतः, 'अदिट्ट 'वि प्रत्यक्षाऽपेक्षया, 'असुय'त्ति परवचनद्वारेण 'अमुय' ति अस्मृता मनोऽपेक्षया, 'अविण्णाय'त्ति अवध्यपेक्षया इति; 'अहावच ' ति यथा अपत्यानि तथा ये ते यथापला देवाः-पुत्रस्थानीया इत्यर्थः, ' अभिण्णाय 'ति अभिमताः, अभिमतवस्तुकारित्वादिति, 'होत्य' ति अभवन् , उपलक्षगत्वाचास्य भवन्ति, भविष्यन्ति इति द्रष्टव्यम् ; ' अहाववामिनायाणं ति यथाऽपत्यम् एवम् अभिज्ञाता:-अवगता यथापत्याभिज्ञाताः; अथवा यथापत्यश्च ते अभिज्ञाताश्च इति कर्मधारयः. ते चाङ्गारकादयः पूर्वोक्ताः, एतेषु च यद्यपि चन्द्र-सूर्ययोर्वर्षलक्षाद्यधिकं पल्योपमम् , तथाऽप्पाऽऽधिक्यस्याऽविवक्षितत्वाद् अङ्गारकादीनां च ग्रहत्वेन पल्योपमस्यैव सद्भावात् पल्योपमम् इत्युक्तम् इति, गक्षय किंगरे. हवे हमपां कहेल ग्रहदंड वगरेना अनिश्चित फळो देखाडतां कहे छ के, [ 'पाणखय' ति] वलना क्षयो, [जणालय' ति] माणसोना नाशो, हवे छेवटे उपसंहार करता कहे छे के, [ ' वसणभूया अगारिआ जे यावणे तहप्पगार' ति ] अही अक्षरनी घटना-शब्दार्थ आ प्रमाणे छः-तेना फळरूपे प्रागक्षय वगेरे ज छे एटलं ज नहीं किन्तु जे बीजा पणा :यादिनी समान छे.-आपत्तिरूप अने पापरूप छे-ते वधा उपद्रवो पण तेना फळरूपे छे. 'ते बधा उपद्रवो सोग महाराजाथी अजाण्या नथी' एम वाक्यनो संबंध करवो. [' अण्णाय ' त्ति] अज्ञात -अनुमानथी अजाण्या, [' अदिट्ठ' त्ति ] अ-प्रत्यक्षनी अपेक्षार नहीं जोरल, [' अनुय' ति] बीज,थी अणसांभळेला, [ 'अमुय ' ति] मननी अपेक्षाए नहीं याद करेल, [ अविण्णाय' त्ति ] अवधिनी अपेक्षार अविज्ञात, [ ' अहावच 'त्ति ] अपत्य-पुत्र-नी जेवा ज देवो ते यथापत्य देवो-पुत्रने ठेकाणे रहेला देवो, [ ' अभिन्नाय ' ति] अभिमत वस्तु करनारा होवाथी अभिज्ञात, [ ' होत्थ 'त्ति ] हता, 'हता ' ए क्रिया पद सूचकरूप होवाथी होय छे अने होशे ' ए पग जाणवू. [ ' अहावचा भिन्नायाणं' ति ] पुत्रनी पेठे ज जाणेला-गणेला-ते यथापत्याभिज्ञात आवरदा. अथवा पुत्रनी जेवा अने अभिज्ञात. आगळ कहेला अंगारक वगरे देवो पुत्रनी जेवा छे. ए बधामा जो के चंद्र अने सूर्यनी आवरदा पल्योपम करता एक लाख वरस वधारे छे, तो पण ते वधाराने अहीं गण्यो नथी अने अंगारक वगेरे ग्रहो होवाथी ( ग्रहोनी आवरदा एक पल्योपमनी ज होय छे माटे ) तेओनी आवरदा पल्योपमनी कही छे. यम. ४.प्र०-कहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो ४. प्र०-हे भगवन् ! देवेंद्र देवराज शकना यम महाराजानु जमस्स महारण्णो वरसिटे नामं महाविमाणे पण्णत्ते ? वरशिष्ट नामर्नु महाविमान क्या आव्यु कह्यं छे ? १. आ स्थळे कर्मधारय समास करवोः-श्रीअभय. १. मूलच्छाया:-कुत्र भगवनू । शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य यमस्य महाराजस्य वरशिदं नाम महाविमानं प्रज्ञप्तम् :-अनु० . Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. उदेशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, .. ४. उ०-गोयमा । सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स ४. उ०--हे गौतम ! सौधावतंसक नामना गहाविभीन दाहिणे सोहम्मे कप्पे असंखेन्जाइं जोयणसहस्साई वीईवइत्ता दक्षिणे सौधर्म कल्प छे. त्यांथी असंख्य हजार योजनो मुका एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो जमरस महारो वरसिट्टे पछी-अही-देवेंद्र, देवराज शक्रना यम महारामानुं यरशिष्ट नामर्नु नामं विमाणे पण्णत्ते:-अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइं, जहा महाविमान का छे. तेनी लंबाई अने पहोळाई सारा बार लाख सोमस्स विमाणं तहा जाव-अभिसेओ; रायहाणी तहेव, जाव- योजननी छे, इत्यादि वधुं सोमना विमाननी पेठे जाण अने पासायपंतीओ; सकस्स णं देविंदस्स, देवरण्णो जमस्स महारण्णो यावत्-अभिषेक, राजधानी अने प्रासादनी पंक्तिओ संबंधे पण इमे देवा आणा, जाव-चिट्ठति; तं जहा-जमकाइया इवा, ते ज रीते समजg, देवेंद्र देवराज शक्रना यम महाराजानी आजमदेवकाइया इ वा; पेयकाइया इ वा, पेयदेवयकाइआ इ वा; ज्ञामां यावत् आ देवो रहे छे:-यमकायिक, यमदेवकायिक असुरकुमारा, असुरकुमारीओ; कंदप्पा, निरयवाला, आभियोगा, प्रेतकायिक, प्रेतदेवकायिक, असुरकुमार, असुरकुमारीओ, कंदर्पो, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिगा, तप्पक्खिया, तभा- नरकपालो, अभियोगो अने तेवा प्रकारना बीजा पश बधा देवो रिया सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो जमस्स महारण्णो आणाए तेनी भक्तिवाळा, तेना पक्षवाळा अने तेने तात्रे रहेनारा छेजाव-चिट्ठति; जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई ते बधा देवेंद्र देवराज शक्रना यम महाराजानी आज्ञामां यावत् इमाई समुप्पज्जति, तें जहा:-डिबा इवा, डमरा इवा, कलहा रहे छे. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मदर पतनी इ वा, बोला इवा, खारा इवा, महाजुद्धा इवा, महासंगामा उत्पन्न थाय छे:--डियो, डमरो, कलहो, बोलो, खरो, महायुद्धो इ वा, महासत्थनिवडणा इवा, एवं महापुरिसनिवडणा इवा, 'महासंग्रामो, महाशस्त्रनिपतनो, ए प्रमाणे हापुरुषनां मरणो, महारहिरनिवडणा इवा, दुभआ इवा, कुलरोगा इवा, महारुधिरनां निपतनो, दुर्भूतो, कुलरोगो, ग्रामरोगो, मंडलरोगो, गामरोगा इवा, मंडलरोगा इवा, नगररोगा इवा, सीस- नगररोगो, माथानो दुखावो, आंखनी पीडा, काननी वेदना, वेअणा इ वा, अच्छिवेअणा इ वा, कण्णवेअणा इ वा, नहवेअणा नखनो रोग, दांतनी पीडा, इंद्रग्रहो-इंद्रना वळगाडो, स्कंदग्रहो, इ वा, दंतवेअणा इ वा, इंदग्गहा इ वा, खंदग्गहा इवा, कुमारग्रहो, यक्षग्रहो, भूतग्रहो, एकांतरिओ ताव, बेआंतरिओ कुमारग्गहा इ वा, जक्खग्गहा इ वा, भूअग्गहा इवा, एगाहिआ ताव, त्रण आंतरिओ ताव, चोथीओ ताव, उद्वेगो, खांसी. श्वानइ वा, बेयाहिआ इ वा, तेयाहि आ इ वा, चाउत्थहि आ इ वा; दम, बळनाशक ताव, दाह, शरीरना अमुक भागोनुं सडवू, अजी. उबेयगा इवा, कसा इवा, सासा इ वा, जरा इ वा, दाहा रण, पांडुरोग, हरस, भगंदर, छातीनुं शूळ, माथानुं शूळ, योनिनु इ वा, कच्छको हा इ वा, अजीरया, पंडुरोगा, हरिसा इ वा, शूळ, पडखानुं शूळ, काखनुं शूळ, गामनी मरकी, खेट, कर्बट, भगंदरा इ चा, हि अयसूला इ वा, मत्थयसूला इवा, जोणिसूला द्रोणमुख, मडंब, पट्टन, आश्रम, संबाध, अने सन्निवेशनी मरकी, इ वा, पग्ससूला इ वा, कुच्छिसूला इ वा, गाममारी इ वा, प्राणक्षय, जनक्षय, कुलक्षय, व्यसनभूत अनार्य (पापरूप) नगरमारी इ वा, खेडमारी इ वा, कव्वडमारी इ वा, दोणमुह- अने तेवा ज प्रकारना बीजा बधा पण-ते बधा, देवेंद्र देवराज मारी इवा, मडम्बमारी इवा, पट्टणमारी इ वा, आसममारी इवा, संवाहमारी इ वा, सण्णिवेसमारी इवा, पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, वसणभूआ अणारिया, जे यावि अने तहप्पगारा ण ते सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो जमस्स देवेन्द्रस्य, देवराजस्य बाल तथैव, यावत्-प्रासादायका इति वा; प्रतय १. मूलच्छायाः-गौतम ! साधाऽवतंसकस्य महाविमानस्य दक्षिणेन सौधर्मे कल्पे भसंख्येयानि योजनसहस्राणि न्यतिव्रज्य अत्र शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य यमस्य महाराजस्य वरशिष्टं नाम विमानं प्रज्ञप्तम्:-अर्धत्रयोदशयोजनशतसहस्राणि, घथा सोमस्य विमानं तथा यावत्-अभिषेकः, राजधानी तथैव, यावत्-प्रासादपतयः शक्रस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य यमस्य महाराजस्य इमे देवा आज्ञायां यावत्-तिष्ठन्ति, तद्यथा:-यमकायिकाः इति वा, यमदेवकायिका इति वा; प्रेतकायिका इति या, प्रेतदेवताकायिका इति वा; अमुरकुमारा:, असुरकुमायः, कन्दपीः, निरयपालाः, आभियोगाः; ये चाप्यऽन्ये तथाप्रकाराः सवें ते तद्भक्तिकाः, तत्पाक्षिकाः, ताथः शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य यमस्य महाराजस्य आज्ञायां यावत्-तिष्ठन्ति. जम्बूदीपेद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन यानि इमानि समुत्पद्यन्ते, तद्यथा:-डिम्बा इति वा, डमरा इति वा, कलहा इति वा, बोला इति वा, क्षारा इति वा, महायुद्धानि इति वा, महासंग्रामा इति वा, महाशन नियतनानि इति वा, एवं महापुरुषनिपतनानि इति वा, महारुधिरनिपतनानि इति वा, दुभूता इति वा, कुलरोगा इति वा, प्रामरोगा इति वा, मण्डलरोगा इति वा, नगररोगा इति वा, शीर्षवेदना इति वा, अक्षिवेदना इति वा, कर्णवेदना इति वा, नस वेदना इति वा, दन्तवेदना इति वा, इन्द्रग्रहा इति षा, स्कन्दप्रदा इति वा, कुमारग्रहा इति वा, यक्षग्रहा इति वा, भूतग्रहा इति वा, एकाहिका इति वा, यहिका इलि वा, व्यहिका इति वा, चतुरहिका इति वा; उद्वेजका इति वा, कासा इति बा, श्वासा इति वा, ज्वरा इते वा, दाहा इति वा, कक्षाकीचा इति चा, अजीर्णकाः, पाण्डुरोगाः, अर्शा-हसा इति षा, भगन्दरा इति वा, हृदयशूलानि इति वा, मस्तकशूलानि इति वा, योनिशूलानि इति वा, पार्श्वशूलानि इति वा, कुक्षिशूलानि इति वा प्राममारी इति वा, नगरमारी इति वा, खेटमारी इति वा, कीटमारी इति वा, द्रोणमुखमारी इति वा, मडम्बमारी इति वा, पट्टनमारी इति वा, भाषममारी इति वा, संबाधमारी इति वा, संनिवेशमारी इति वा; प्राणक्षयाः, जनक्षयाः, धनक्षयाः, कुलक्षयाः, व्यसनभूता अनार्याः, ये चाऽपि अभ्ये तथाप्रकारा न ते पास देवेन्द्रस, देवराजस्य यमसः-अनु० Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • श्रीरायचंन्द्र - जिनागमसंग्रहे हरिणो अन्नाया, सिं वा जमकाइयाणं देवाणं. सकस्स देविं दस्त, देवरण्णो जमस्त महारण्णों इमे देवा अहावच्चा अभिण्णायां होत्था; तं जहा : अंबे अंबरचे सामे सबले ति यावरे, रुद्दो-वरुद्दे काले य महाकाले त्ति यावरे. असी य असिपत्ते कुंभे (असिपत्ते धणू कुंभे) वालू वेयरणी त्तिय, एम ए पन्नर छे. खरस्सरे महाघोसे एमेए पन्नरसाऽऽहिया. संक्कस्स णं देविंदस्स, देवरण्णो जमस्स. महारण्णो सत्तिभागं पलिओ मं ठिई पण्णत्ता, अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, एवं गहिडीए, जाव- जमे महाराया. शतक - ३. उद्देशक- ७ शकना यम महाराजाथी अथवा यमकायिक देवोथी यावत्अजाण्या नथी. देवेंद्र देवराज शकना यम महाराजाने आ देवो अपत्यरूप अभिमत छे: अंब, अंबरिष, श्याम, सबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असिपत्र, धनुष्, कुंभ, वालु, वैतरणी, खरवर अने महाघोष देवेंद्र देवराज शकना यम महाराजानी आवरदा त्रण भाग सहित पल्योपमनी छे अने तेना अपयरूप अभिमतं देवोनी आवरदा एक पल्योपमनी छे -एवी मोटी ऋद्धिवाको यावत् ए यम महाराजा छे. 6 २. ' पेयकाइय ' त्ति प्रेतकायिका व्यन्तरविशेषाः, ' पेयदेवयकाइअ ' त्ति प्रेतसत्कदेवतानां सम्बन्धिनः, कंदप्प "त्ति ये कन्दर्पभावनाभावितत्वेन कान्दर्पिकदेवेषु उत्पन्नाः, कन्दर्पशीलाच - कन्दर्पश्चाऽतिकेलिः. ' आभियोग ' ति ये अभियोगभावनाभावि - तत्वेन आभियोगिकदेवेषु उत्पन्नाः, अभियोगवर्तिनश्च-अभियोगश्चाऽऽदेश इति ' डिंबा इ व ' त्ति डैम्बा विघ्नाः, ' डमर 'त्ति एकराज्ये एव राजकुमारादिकृतोपद्रवाः, ' कलह ' त्ति वचनराटयः, 'बोल ' त्ति अव्यक्ताऽक्षरध्वनिसमूहाः, 'खार' त्ति परस्परमत्सराः, महा 'त्ति महायुद्धानि व्यवस्थाविहीनमहारणाः, ' महासंग्राम 'ति सव्यवस्थचक्रादिव्यूहरचनोपेतमहारणाः, महाशस्त्रनिपातनादयस्तु यो महायुद्धादिकार्यभूताः, 'दुब्भूअ ' त्ति दुष्टा जन-धान्यादीनामुपद्रवहेतुत्वात् भूताः सत्राः - यूका-मुक्कुणो दुर-तिडुप्रभृतयो दुर्भूता इत इत्यर्थः इन्द्रग्रहादय उन्मत्तताहेतवः, एकाहिकादयो ज्वरविशेषाः, 'उब्बेयगत्ति ' उद्वेगकाः ' - इष्ट वियोगादिजन्या उद्वेगाः, ' उद्वेजकाः ' वा ठोकोद्वेगकारिणचौरादयः. ' कच्छकोह ' त्ति कक्षाणां शरीरावयवविशेषाणाम्, वन - गहनानां वा कोथाः - कुथितवांनि, शटितानि वा कक्षाकोथाः, कक्षकोथा वा, ' अंब ' इत्यादयः पञ्चदश असुरनिकायाऽन्तर्वर्तिनः परमाधार्मिकनिकायाः, तत्र यो देवो नारकान् अम्बरतले नीत्वा विमुञ्चति असौ ' अम्ब: ' इत्यभिधीयते यस्तु नारकान् कल्पनिकाभिः खण्डशः कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोति इति असौ अम्बरीषस्य-भ्राष्ट्रस्य संबन्धाद् 'अम्बरीषः ' एव उच्यते यस्तु तेषां शातनादि करोति, वर्णतस्तु श्यामः, स ' श्यामः ' इति. ' सबले त्ति यावरे 'ति शबल इति चाऽपरो देव इति प्रक्रमः, स च तेषां अन्त्र - हृदयादीन् उत्पाटयति, वर्णतश्च ' शबल: ' - कंर्बुर इत्यर्थः यः शक्ति - कुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद् ' रौद्रः ' इति यस्तु तेषाम् एवाऽङ्गो - पाङ्गानि भक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वाद् ' उपरौद्रः ' इति यः पुनः कण्ड्वादिषु पचति, वर्णतश्च काल: स ' काल:' इति. ' महाकाले ति यावरे ' त्ति ' महाकाल: ' इति चाऽपरो देवः इति प्रक्रमः, तत्र यः श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा स्वा ( खा ) दयति वर्णतश्च महाकाल: स ' महाकाल : ' इति . ' असी य' त्ति यो देवोऽसिना तान् छिनत्ति सः ' असिः एव असिपत्ते ' त्ति अस्याऽऽकारपत्रवद्वनविकुर्वणाद् ' असिपत्रः '' कुंभे त्ति कुम्भादिषु तेषां पचनात् ' कुम्भः '; कचित्पठ्यते-' असिपत्ते धणू कुंभे ' ति तत्राऽसि - पत्र - कुम्भौ पूर्ववत्, 'धणु ' त्ति यो धनुर्विमुक्ताऽर्ध चन्द्रादिभिर्बाणैः कर्णादिनां छेदन-भेदनादि करोति स 6 धनुः ' इति • वालु 'त्ति कदम्बपुष्पाद्याकारवालुकासु यः पचति स ' वालुकः ' इति ' वेयरणी त्तिय 'त्ति वैतरिणीति च देव इति प्रक्रमः, तत्र पूय- रुधिरादिभृतवैतरणी- अभिधाननदी विकुर्वणाद् ' वैतरणी ' इति ' खरस्सरे ' त्ति यो वज्रकण्टकाकुलशाल्मलीवृक्षमारोप्य नारकं खरस्वरं कुर्वन्तम्, कुर्वन् वा कर्षत्यसौ ' खरस्वरः ' ' महाघोसे ' ति यस्तु भीतान् पलायमानान् नारकान् पशून् इव वाटकेषु महाघोषं कुर्वन् निरुणद्धि स ' महाघोषः' इति ' एमेए पनरसाहिय ' त्ति एवम् उक्तन्यायेन एते यमयथापत्यदेवाः पञ्चदश इ. कायिकादि. २. [ पेयकाइय ' त्ति ] प्रेतकायना एक जातना व्यंतर विशेषो, [' पेयदेवयकाइअ ' त्ति ] प्रेत संबंधी देवोना संबंधी ते प्रेतदेवताकायिक देवो, [' कंदप त्ति ] कंदर्प भावनाथी वासित होवाने लीधे जेओ कंदर्प देवोमां उपन्या छे-जेओनी प्रकृति कंदर्प - अतिक्रीडा-मां ज आभियोग. रमनारी होय छे - ते कंदर्प देवो, [' आभियोग ' त्ति ] अभियोग भावनाथी भरपूर होवाने लीघे जेओ आभियोगिक देवोमां उपन्या छे-जेओनी प्रकृति अभियोग- आदेश- मां वर्तनारी छे-ते आभियोगिक देवो, ['डिंबा इ वत्ति ] डिंबो - विघ्नो, [' डमर ' त्ति ] एक राज्यमां ज - कलहादि राजकुमार वगेरेए करेला उपद्रवो- डमरो, [' कलह ' त्ति ] क्लेश माटे राडो पाडवी – कलहो [' बोल ' त्ति ] नहीं समजाय तेवा (अक्षरवाळा) १. मूलछायाः - महाराजस्य अज्ञाताः, तेषां वा यमकायिकानां देवानाम् शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महाराजस्य इमे देवा यथाऽपत्या अभिज्ञाता अभवन्; तद्यथाः- अम्बः, अम्बरिषश्चैव श्यामः सबल इति योऽपरः, रुद्रो-परुद्रः कालच महाकाल इति योऽपरः. असिश्च असिपत्रः कुम्भः ( असिपत्रो धनुः कुम्भो ) वालुः वैतरणी इति च, खरखरो महाघोषः एवमेते पञ्चदशाऽऽख्याताः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य यमस्य महाराजस्य सत्रिभागं पल्यो स्थितिः प्रज्ञप्ता, यथाऽपत्याऽभिज्ञातानां देवानाम् एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवं महर्द्धिकः, यावत्-यमो मद्दाराजः - अनु० . Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शशक:-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत अगवतीसूत्र. शब्दना समूहो-वणवणाटो-बोलो, [सार ' चि] परस्पर मत्सर-खार, [' महाजुद्ध ' त्ति ] व्यवस्था विनानी मोटी लडाइओ-महा, [महासंगाग' त्ति ] व्यवस्थावाळी अने चक्र वगेरेना व्यूहनी रचनावाळी मोटी लडाइओ---महासंग्रामो, 'मोटो शर, पडवू ' मोट परुपोनं रणमां पडवू' अने रुधिरना मोटा प्रवाहो' एणे तो महायुद्ध विगेरेना परिणामरूप छ. [ 'दुभूअ 'त्ति ] माणसोने अने अन.ज वगेरेने नुकशानी पहोंचाडनारा नठारा जीवो-जू, माकड, उंदर अने तीड वगेरे ते दुर्भूतो-दुष्ट जीवो, इंद्रग्रह वगेरे गांडपणना कारणो-एक जातना वळगाडो-छे, एकाहिक--एकांतरिओ-वगेरे एक जातना तावो छ, [ ' उच्वेयग ' त्ति ] ' वहालानो वियोग' विगरे कारणोथी थएला उद्वेगो-ते उद्वेगको अथवा लोकोने उच्चाट करावनारा चोर बंगरे नटारा लोको ते-उद्वेजको, [ 'कच्छ कोह ' ति] काखलीओनो-एक जातना शरीरना भागोनो-सडो ते कक्षाकोथ के वन अने झाडिओनो सडो ते कक्षकोथ. असुरना निकायोमा रहेनारा । अंब' वगरे पन्नर परमाधामिना अंब विगेरे पर निकायो छे. तेमा जे देव नारकोने आकाशमां लई जईने नीचे पडता मूके ते 'अंब' कहेवाय छे, जे देव कातरोबडे ( कातरणिओवडे ) नारकोना माधामी-निट कटका करीने तेने भाठामा पकववाने योग्य बनाये ते अंबरीष' कहेवाय छे, कारण-जे अंबरीष-भाठा--गी साथे संबंध धरावतो होय ते पण उपचारथी अंबरीष-भाठो-कहेवाय ते काइ खोटुं नथी. जे देव नारकोने शातन--पीडा--विगेरेथी त्रास आपे छ अने रंगे काळो छे ते 'श्याम' कहेवाय छे, [ ' सबले त्ति यावरे' ति] शबल नामनो बीजो देव छे, ते नारकोना आंतरडाओ अने हृदय वगेरेने फाडी नांखे छे अने रंगे काबर चितरो छे तेथी ' शबल' कहेवाय छे, जे देव बरछी अने कुंत-भाला-विगरेमा नारकोने परोवे छे ते रौद्र-भयंकर होवाथी रौद्र' कहेवाय छे. जे देव नारकोनां अंग अने उपांगोने चीरी नाखे छे ते बहु भयंकर होवाथी 'उपरौद्र' कहेवाय छे. वळी जे देव कडाया वगेरेमा नारकोने रांधे छे अने रंगे काळो छे ते ' काल ' कहेवाय छे, [ 'महाकाले त्ति यावरे " ति ] महाकाल नामनो बीजो देव छे, जे देव नारकोना चिकाशदार मांसना टुकडाओने खांडीने स्वाद ले छे अने रंगे घणो काळो छे माटे ते 'महाकाल ' कहेवाय छे. [' असी य 'त्ति ] जे देव नारकोने तरवारथी छेदे ते · असि' कहेवाय छे, [' असिपत्ते ' त्ति ] जे देव तरवारना घाटनी जेवा पांदडाओवाढं वन विकुर्वे-बनावे-ते 'असिपत्र' कहेवाय छे. [ ' कुंभे' ति] जे देव नारकोने घडा वगेरेमा नाखीने रांधे ते ' कुंभ ' कहेवाय छे. [' असिपत्ते धणू कुंभे ' त्ति ] पाठभेद. कोइ प्रतिमा र प्रकारनो पाठ छे, तेमां' असिपत्र ' अने · कुंभ ' नो अर्थ पूर्वनी पेठे जाणवो अने [ 'धणु 'त्ति ] एटले जे देव धनुष् द्वारा फेंकेला अर्धचंद्रादि बाणोवडे ते नारकोना कान विगेरेने छेदे, भेदे अने बीजी पण पीडा करे ते 'धनुप् ' कहेवाय छे. [' वालु' त्ति ] जे देव नारकोने कदंबना फुल विगेरेनी आकृति जेवी वेळुओमां रांधे ते ' वालुक' कहेवाय छे, [ 'वेयरणी ति य 'त्ति ] ' वैतरणी' नामे देव छे-जे, पूय अने रुधिर विगेरेथी भरेली वैतरणी नामनी नदी बनावे छे ते देव 'वैतरणी' कहेवाय छ, [ • खरस्सरे ' त्ति ] जे देव वज्र जेवा कांटावाळा शाल्मलिना झाड उपर चडावीने नारकोने चीस पडावे के चीस पाडता नारकने खेंचे ते 'खरस्वर'. कहेवाय छे. [' महाघोसे ' त्ति ] वळी जे देव. मोटी त्राडो मारतो बीनेला अने पलायन करता नारकोने पशुओनी पेठे वाडाओमा रोकी राखे ते महाघोष' कहेवाय छे. ['एमए पन्चरसाऽऽहिय ' त्ति ] ए प्रमाणे-पूर्व जणाव्या प्रमाणे-यम महाराजाने पुत्रस्थानीय-पुत्रनी जेवा-पन्नर देवो कह्या छे.. वरुण. ५.प्र०—कहिणं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स, देवरण्णो ५. प्र०—हे भगवन् ! देवेंद्र देवराज शक्रना वरुण वरुणस्स महारण्णो सयंजले नाम महाविमाणे पण्णत्ते ? महाराजानु स्वयंचल नामर्नु महाविमान क्या आव्यु कयुं छे ? ५. उ०-गोयमा ! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स विमाणस्स ५, उ०-हे गौतम ! सौधर्मावतंसक विमाननी पश्चिमे पञ्चत्थिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई, जहा सोमस्स तहा सौधर्म कल्प छे, त्यांथी असंख्येय हजार योजन मूक्या पछीबिमाण-रायहाणीओ भाणिअव्या, जाव-पासायवडेंसया. नवरं-अहीं-वरुण महाराजानं स्वयंज्वल नाम: नामनाणतं. सकस्स णं वरुणस्स महारण्णो जाव-चिट्ठति, तं संबंधी बधी हकीकत सोम महाराजानी पेठे जाणवी, तेम ज जहाः--वरुणकाइआ इ वा, वरुणदेवयकाइआ इ वा, नागकुमारा, विमान, राजधानी अने यावत्-प्रासादावतंसको संबंधे पण एज नागकुमारीओ, उदहि कुमारा, उदाहकुमारीओ, थणिअकमारा. रीते समजबुं. विशेष ए के, नामनो भेद जाणवो. देवेंद्र देवराज थणिअकुमारीओ; जे यावण्णे तहप्पगारा सम्वे ते तब्भत्तिआ, शक्रना वरुण महाराजानी आज्ञामां यावत्-आ देवो रहे छै:जाव-चिट्ठति. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाइं वरुणकायिको, वरुणदेवकायिको, नागकुमारो, नागकुमारीओ, इमाई समप्पज्जति, तं जहा:-अइवासा इवा, मंदवासा इ वा, उदविकुमारो उदधिकुमारीओ, स्तनितकुमारो, स्तनितकुमारी, सुवुट्ठी इ वा, दुवुट्ठी इ वा, उदभेदा इबा, उदप्पीला इवा, अने बीजा पण बधा तेवा प्रकारना देवो तेनी भक्तिवाळा यावत् रहे छे. जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मंदर पर्वतनी दक्षिणे जे आ उत्पन्न थाय छे:- अतिवृष्टि, मंदवृष्टि, सुदृष्टि, दुर्वृष्टि, उदकोद्भेद "१. मूलच्छाया:-कुत्र भगवन् ! शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य खयंज्यलं नाग महाविमानं प्रज्ञप्तम् ? गीतम! तस्य सीधीवतंसकस्य विमानस्य पश्चिमेन सौधर्मे कल असंख्येयानि यथा सोमस्य तथा विमान-राजधान्यो भणि तव्याः, यावत्-प्रासादावतंसकाः; नवरम्नानानात्वम् . शकस्य वरुणस्य महाराजस्य यावत्-तिष्ठन्ति, तद्यथा:-वरुण कायिका इति वा, वरंगदेवताकायिका इति वा; नागकुमाराः, नागकुमायः; उतधिकुमाराः, उदधिकुमार्यः; स्तनितकुमाराः, तनितकुमायः; ये चाप्यन्ये तथाप्रकाराः रा ते तदूभक्तिकाः यावत्-तिष्टन्ति; जम्बूदीपे दीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन यानि इमानि समुत्पद्यन्ते, तद्यथा:-अतिवी इति वा, गन्दवी इति वा, सुवृष्टिः इति वा, दुर्वृष्टिः इति वा, उदकभेदा इति पा, उदकोत्पीला इति वार-अनु. . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औरायचन्द्र-जिनागमसँग्रह शेतक ३. उदेशक ७. पाहा इवा, पव्वाहा इवा, गामवाहा इवा, जाव-संनि- ( पहाड विगेरेमांथी पाणीनी उत्पत्ति), उदकोत्पील (तळाव सवाहा इ वा; पाणक्खया, जाव-तेसिं वा वरुणकाइआणं वगेरेमां पाणीनो समूह ), अपवाह (पाणी- थोडं वहेवू), देवाणं. सक्कस्स णं देविंदस्स, देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो जाव- पाणीनो प्रव.ह, गामर्नु तणाई जवं, यावत्-संनिवेशन तणाई अहानथाऽभिण्णाया होत्था, तं जहा:-ककोडए, कद्दमए, अंजणे, जQ, प्राणक्षय, ए बधा वरुण महाराजाथी अथवा वरुणकायिक संखवालए, पुंडे, पलासे, मोए, जए, दहिमुहे, अयंपुले, काय- देवोधी अजाण्या नथी. देवेंद्र देवराज शकना वरुण महाराजाने रिए. सफस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो देसूणाई आ देवो अपत्यरूप अभिमत छे:-कर्कोटक, कर्दमक, अंजन, दो पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, अहावचाभिण्णायाणं देवाणं एगं शंखपालक, पुंड, पलाश, मोद, जय, दधिमुख, अयंपुल अने पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, एमहिडीए, जाव-वरुणे महाराया. कातरिक. देवेंद्र देवराज शक्रना वरुण महाराजानी आवरदा बे पल्योपम करतां कांइक ओछी कही छे अने तेना अपत्यरूप देवोनी आवरदा एक पल्योपमनी कही छे-एवी मोटी ऋद्धिवाळो यावत्-वरुण महाराजा छे. ३. ' अइवास' त्ति अतिशयवर्षाः-वेगवद्वर्षणानि इत्यर्थः, ' मंदवास ' ति शनैर्वर्षणानि, 'सुवट्टि 'त्ति धान्यादिनिष्पत्तिहेतुः, 'दुवुद्धि' त्ति धान्याद्यनिष्पत्तिहेतुः, 'उदभेद ' त्ति उदकोद्भेदाः-गिरितटादिभ्यो जलोद्भवाः, ' स्पीला:-तडागादिषु जलसमूहाः, 'उच्चाह 'त्ति अपकृष्टानि-अल्पानि उदकवहनानि, तान्येव प्रकर्षवन्ति प्रवाहाः. इह प्राणक्षयादयो जलकत्ता द्रष्टव्याः. 'ककोडए' त्ति कर्कोटकाभिधानोऽनुवेलंधरनागराजावासभूतः पर्वतो लवणसमुद्रे ऐशान्यां दिशि अस्ति-तनिवासी नागराजः ' कर्कोटकः ''कदमए 'त्ति आग्नेय्यां तथैव विद्युत्प्रभपर्वतः, तत्र कर्दमको नाम नागराजः. ' अंजणे 'त्ति वेलम्बाभिधानवायुकुमारराजस्य लोकपालोऽअनाभिधानः, “ संखवालए ' त्ति धरणाभिधाननागराजस्य लोकपालः शङ्खपालको नाम; शेषास्तु पुण्ड्रादयोऽप्रतीता इति. ३. [ ' अइवास' ति ] अतिवर्षा-घणो वरसाद-वेगपूर्वक वरसतो वरसाद, [ ' मंदवास' ति] धीमो वरसाद, [' सुवुद्धि' ति] विगेरे. सुवृष्टि-अनाज वगेरेनो सारो पाक थाय एवो वरसाद, ['दुवुट्टि 'त्ति ] दुर्वृष्टि-अनाज वगेरेने न पकावी शके तेवो वरसाद, [ ' उदभेद 'त्ति] उदकोद्भेद-पहाडनी तळेटी वगेरे ठेकाणेथी पाणी- निसर, [' उदप्पील' ति] उदकोत्पील (ड)-तळाव वगेरेमां भरेला पाणीना समूहो, [' उव्वाह ' ति] अपवाह-पाणीना थोडा थोडा रेलाओ, पाणीना वधारे वधारे रेलाओ ते प्रवाह, आ स्थळे प्राणक्षय ' वगेरेनुं कारण पाणी समज. [' ककोडए ' ति] लत्रण समुद्रमां ईशान खूणामां अनुवेलंधर नामे नागराजनो आवासरूप (रहेठाणरूप) कर्कोटक नामे पहाड छे तेथी ते पहाडमा रहेनार नागराज पण 'कर्कोटक' कहेवाय छे, [ 'कद्दमए 'त्ति ] ते ज प्रमाणे अग्निखूणामां विद्युत्प्रभ नामे पहाड छे, तेमां 'कर्दमक ' नामे नागराज रहे छे, [' अंजणे 'त्ति ] वेलंब नामना वायुकुमारना राजानो · अंजन' नामनो लोकपाल छे. [ संखवालए 'त्ति] नानी. धरण नामना नागराजनो 'शंखपालक ' नामनो लोकपाल छे. पुंड वगेरे बाकी वधा तो (अमारा) जाण्यामा नथी. बगेरे. वैश्रमण, ६. प्र०-काहि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स, देवरणो ६. प्र०—हे भगवन् ! देवेंद्र देवराज शक्रना वैश्रमण वेसमणस्स महारण्णो वग्गू नामं महाविमाणे पण्णत्ते ? महाराजानुं वल्गु नामनुं महाविमान क्या कह्यु छ ! ६. उ०-गोयमा । तस्स णं सोहम्मवडिसयस्स महाविमा- ६.उ.-हे गौतम ! तेनुं बिमान, सौधर्मावतंसक नामना णस्त उत्तरेणं महा सोमस्स महाविमाण-रायहाणिवत्तव्वया महाविमाननी उत्तरे छे. आ संबंधे बधी हकीकत सोम महाराजानी तहा नेयध्वा, जाव-पासायवडेंसया. सक्कस्स णं देविंदस्स, पेठे जाणवी अने ते यावत्-राजधानी तथा यावत्-प्रासादावतंसक देवरणो बेसमणस्स इमे देवा आणा-उववाय-वयण-निद्देसे संबंधे पण तेम ज जाणवु. देवेंद्र, देवराज शक्रना वैश्रमण चिट्ठति, तं जहा:-वेसमणकाइआ इ वा, वेसमणदेवयकाइआ महाराजानी आज्ञामां, उपपातमां, कहेणमां अने निर्देशमां आ देवो रहे छे:-वैश्रमणकायिक, वैश्रमणदेवकायिक, सुवर्णकुमारो, १. मूलच्छायाः-अपवाहा इति षा, प्रवाहा इति वा, प्रामवाहा इति वा, यावत्-संनिवेशवाहा इति वा प्राणक्षयाः, यावत्-तेषां वा वरुण. कायिकानां देवानाम् . शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य यावत्-यथाऽपत्याऽभिज्ञाता अभवन् , तद्यथाः-कर्कोटकः, कर्दमक, अञ्जनः, शरखपालकः, पुण्डः, पलाशः, मोदः, जयः, दधिमुखः, अयं पुलः, कातरिकः, शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्य वरुणस्य महाराजस्य देशोने के पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, यथाऽपल्याऽभिज्ञातानां देवानाम् एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवं महर्षिकः, यावत्-वरुणो महाराजः. २. कुत्र भगवन् ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रमणस्य महाराजस्य बल्गु नाम महाविमानं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! तस्य सौधर्मावतंसकस्य महाविमानस्य उत्तरेण यथा सोमस्य महाविमान-राजधानीवक्तव्यता तथा ज्ञा(ने)तन्या, यावत्-प्रासादावतंसकाः शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैश्रमणस्य इमे देवा आशा-उपपातबचन-निदेशे तिष्ठन्ति, तद्यथाः-वैश्रमणकायिका इति वा, वैधमणदेवताकायिका इति वाः-अनु. . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.देशक ७. चर्मस्वामिप्रणीत भगवधीसून, 9 " , हे या सुपष्णकुमारा, सुचण कुमारीओ दीवकुमारा, दीवकु सुवर्णकुमारीओ द्वीपकुमारो, डीनकुमारीशो, दिकुमारो दि मारीओ; दिवाकुमारा, दिसाकुमारीभोवणयंत्र यागनं ओ, वागस्यानयंतरीओ राधा या प्रकारना बजा प ओ जे या तप्पगारास ते तमचित्रा, जब विथा देवो भी भक्तिकाव्य ( तेना पक्षमा अने तेने सां दीवे मंदर पाल दाहिनेणं जाई इमाई समुप्पांति, व्हेनारा) यावत् छे जंबूईप नमना द्वीपमा मंदर पतनी तं जहाः अयागरा इवा, तयागराइबा, बागरा इवा, दक्षिणे जे आ उत्पन्न थाय छे:- लोटानी खाणो; रांगानी - कलाइनीएवं सीसागरा या हिरण्णागरा या सुपण्णागराण, खाणो, तांबानी खाणे, सीवानी खाणो, हिरण्यनी सोनानी, रयणागरा इ वा, बइरागत इया, वसुहारा इवा, हिरण्यवासा रानी, अने वज्रनी खाणो, वसुधारा, हिरण्यती, सुवर्णनी, दरवासा वा रानी, पञ्जनी घरेणांनी, पांडानी फुडनी फनी बीननी आभरणवासा इवा, पत्तवासा इवा, पुष्पवासा इवा, पल माळानी, वर्णनी, धूनी, गंधनी भने खनी पओ तथा वासा इवा, बीअवासा इवा, महवासा इवा, वण्यवासा ओही के बधरे हिरण्यनी, सुदर्शनी, रत्ननी, बज्र, अभर्णनी, इया, चुप रचातापनी पुष्पनी, फळती, बीवनी मनी चूर्णनी हिरण्डी इ या सुट्टी वा रीवा, गंवनी, वखनी, भाजननी अने क्षीरनी दृष्टि सुकाळ, दुबळ बुट्टी इवा, आभरणवुट्ठी इवा, पत्तबुट्टी इवा, पुप्फ सोंवरत, मोंवारत, मिक्षानी समृद्धि, मिक्षानी हानि, खरीदी, बुट्टी या फलबुट्टी, मी वेचाण, घी अने गोल कोरेनुं संचर, अनाजने संघर तथा वा, बुट्टी इवा, चुण्णवुड्डी इ वा, गंधवुट्ठी इ वा, वत्थवुट्ठी निविओ, निधानो, घणां जूनां नष्ट धणिवाळां, जेनी संभाळ करनारा या भावा, खीरपुडी या काला या जण बोछा छे एवं प्रहीन मार्गचाळ जेन धनिनां गोत्रोनां परो दुखाला वा अपवाद वा महया वासुभिक्सा या विर थयां छे एवं नवभितां जेनी संभाल करनार जनो दुभिपसा या कविया पा, सचिही या संनिपया नामशेष एव जैन धणिनां गोत्रोन जे नामशेष के ए इवा, नही इवा, निहाणाई वा, चिंरपोराणाई वा, पही अने सिंगोडाना घाटवाळा मार्गमां, तरभेदामां, चोकमा, चत्त्ररमां, णसामिआईं वा, पहीणसेउआई वा, पहीणमग्गाणि वा चार शेरीओ ज्यां भेगी थाप एवा मार्गमां, राजमार्गमां अने पणिगोचागाराएं या उच्छामि वा उच्छष्णसेउ सामान्य मार्गेीमां, नगरनी पाणीनी खानां गटरोमां, मसाणनों, आई वा, उच्छण्णगोत्तागाराई वा, सिंघाडग-तिग-चक्क- पहाड़ उपरना घरमां, गुफामां, शांतिघर-धर्म किया करवाना चन्चर चतुम्मुह महापह पहेसु था, नगरनिवणे वरा, सुसान ठेकाणा मां, पहाउने कोतरीने बनावे चरम, समाने स्थाने अने गिरि-कंदर-संति- सेलो-पाग-भागहेतु संनिषिखचाई चि रहेवाना घरमा राखेको टालो रूपियानां निधानो अने दाटेली इन्ति न ताई सकस्स देविंदरस, देवरगो वेसमगस्त महा- लाखो रूपियानी दोस्त, ए बधुं देवेंद्र देवराज शक्रना वैश्रमण रण्णो अन्नायाइं, अदिट्ठाई, असुआई, अस्सु (मु) आई, अवि- महाराजाथी, के वैश्रमणकायिक देवोथी अजाण्युं नथी, अगजोयुं voters; तेसिं वा वेसमण काइआणं देवाणं. सकस्स देविंदस्त, नथी, अणसांभळ्युं नथी, अणसमरेल नथी अने अविज्ञात नथी. देवरणो समस्त महारण्गो इमे देवा अहावचाऽभिण्णाया देवेंद्र, देवराज शकना वैश्रमण महाराज आ देवो अपरूप होत्था, तं जह: - पुण्णभद्दे, माणिभद्दे, सालिभद्दे, सुमगमद्दे, अभिमत छे:- पूर्णभद्र, माणिभद्र, शालिभद्र, सुमनोभद्र, चक्र, पके, रक्खे, पुण्गरक्खे, स (पं) व्वाणे, सध्वजसे, सम्यकाने, रक्ष, पूर्णरक्ष, सद्-न, सर्वेपशाः, सर्वकाम, समृद्ध, अमोच अने , , - १. छायामाराः तथाप्रकाराः सर्वे ते तद्भक्तिकाः यावत् तिष्ठन्ति पर्वतस्य दक्षिणेन यानि इमानि समुत्पद्यन्ते, तद्यथाः -अयआकरा इति वा, करा इति ना, ताम्राकरा इति वा, हिरण्याssारा इ.ते वा, सुवर्णीऽऽकरा इति वा, रत्नाकरा इति वा, वज्राऽऽकरा इति वा; वसुधाग इति वा, हिरण्यवर्षः इति वा, सुवर्णवर्ष इति वा, रत्नवी इति वा, वज्रवर्ष इति वा, आभरणवर्ष इति वा पत्र कुमाराः कुमार्यः दिक्कुमाराः दिवकुना मादयन्तराः वानम्य जम्बूई पे द्वीपे मन्दरस्य सीसकाऽऽकरा इति वा, इति वा, पुष्पवर्ष इति वा, फलवर्षी इति वा, बीजवर्ष इति वा, माल्यवर्षी इति वा, वर्णवर्ष इति वा, चूर्णवर्ष इति वा, गन्धवर्ष इति वा, वस्त्रवर्षी हावा हिरण्यः इति वा इति वा रत्नदृष्टि इति वा यष्टिः इति या, आभरण इति वा पत्रष्टि इति वा पुष्टि इते बा फंसटिइति जटिया इति यावते वा चूर्णवृष्टि इति वा गन्यदृष्टिः इति वा दृष्टिः इति वा भाजनवृष्टिः इति या वादाला इति यायाति या महाषइति वा सुनिक्षा इति वा, दुनिया इति " इति वा, संनिधयः इति वा, संनिचया इति वा, विश्रयः इति वा, निधानानि इते वा चिरपुगणानि इति वा, प्रहीणखा नेकानि इति वा, प्रहीणसेच कानि इसेवा, प्रहीणमागीणि इति दक्ष, प्रहीयगोत्रागाराणि इति वा; उत्सवस्वामिनि इति वा उारान्न से चकानि इति वा, उत्सन्नगोत्रागाराणि इति वा, शृङ्गात्रिका या मानवकन्दरा-शान्ति स्थान नगृहेषु संनिचिप्तानि विछन्ति न यानि शकस्य देवेन्द्र देवराजस्य श्रवणस्य महाराजस्य अज्ञातानि अनि अधुवानि अस्मृतानि अविज्ञातानि येषां या वैश्रवगायिकानां देवानाम् शकस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य वैधवणस्व गद्दाराजस्व इमे देवा यथाऽसाभिज्ञाता अभवन् तयाः -पूर्णमदः, मणिभद्रः, पेद्रः च रथाः पूर्णरक्ष, सद्वानः सर्वधाः सर्वकामः - अनु० २ · 1 , Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३-उद्देशक .. ,अमोहे, असंगे. सकस्स णं देविंदस्स, देवरण्णो वेसमणस्स असंग. देवेंद्र, देवराज शक्रना वैश्रमण महाराजानी आवरदा बे महारगो दो पलिओवमाणि ठिई पण्णत्ता, अहावचाऽभिण्णा- पल्योपमनी छे अने तेना अपत्यरूप अभिमत देयोनी आवरदा यागं देवाणं एगं पलिओदगं ठिई पण्णत्ता, एमहडीए, जाव- एक पल्योपम छ-ए रीते वैश्रमण महाराजा यावत्-मोटी वेसमणे महाराया. ऋद्धिवाळो छे. -सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. भगवंत-अजसुहम्मसामिपीए सिरीभगवईसुत्ते ततिअसये सत्तमो उदेसी राम्मतो. ४. 'वसुहारा इन 'त्ति तीर्थकरजन्मारिषु आकाशाद् द्रव्यवृष्टिः, 'हिरण्ययास 'ति हिरण्यं रूप्यम् , “घटितसुवर्गम् " इत्यन्ये. वर्षोऽल्पतरः, वृष्टिस्तु महती इति वर्ष-वृष्टयोर्भेदः. माल्यं तु प्रथितपुष्राणि, वर्णश्चन्दनम् , चूर्णो गन्धद्रव्यसंबन्धी, गन्धाः कोष्टपुटपाकाः. 'सुभिक्खा इ व 'सि सुकाले, दुष्काले वा भिक्षुकाणां भिक्षासमृदयः, दुर्भिक्षास्तु उक्तविपरीता:. 'संनिहि' ति घृत-गुडादिस्थापनानि, 'संनिचय ' त्ति धान्यसंचयाः, 'निही इव' ति लक्षादिप्रमाणद्रव्यस्थापनानि, 'निहागा इव' त्ति भूमिगतसहस्रादिसंख्यद्रव्यस्य संचयाः, किंवेधानि ! इत्याहः- चिरपोराणाई' ति चिरप्रतिष्टितत्वेन पुराणानि-चिरपुराणानि अत एव 'पहीणसामियाई "ति खल्पीभूतखामिकानि, 'पहीणसेउयाई 'ति प्रहीगा अल्पीभूनाः सेक्तारः-सेचका:-धनप्रक्षेप्तारो येषां तानि, तथा प्रहीणमार्गाणि वा, पहीणगोत्तागाराई' ति प्रहीणम्-विरलीभूतमानुषं गोत्रागारम्-तत्स्वामिगोत्रगृहं येषां तानि, तथा उच्छन्नसामियाई' ति निःसत्ताकीभूतप्रभूणि, नगरनिवणेसु' त्ति नगरनिर्धवनेपु-नगरजलनिर्गमने', 'सुसाण-गिरि-कंदर-संति-सेलो. बढाण-लवण-गिहेसु ' त्ति गृहशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् श्मशानगृहम्-पितृवनगृहम् , गिरिगृहम्-पर्वतोपरिगृहम् , कन्दरगृहम्-गुहा, शान्तिगृहम्-शान्तिकर्भस्थानम् , शैलगृहम्-पर्वतमुत्कीर्य यत् कृतम् , उपस्थानगृहम्-आस्थानमण्डपः, भवनगृहम्-कुटुम्बियसनगृहमिति, भगवरसुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीस्त्रे तृतीयशते राप्तम उद्देशक श्री जयदेवसूरविचिो विवरण सनातन्. वसुधारा. .['वसुहारा इ व 'त्ति] तीर्थकरना जन्मादि प्रसंगमा आकाशथी जे धनवृष्टि थाय छे तेने वसुधारा (धननी धारा) कहेवामां आवे छे. [हिरण्णवास 'त्ति ] हिरण्य एटले रू. बीजाओ हिरण्य शब्दनो अर्थ 'घडेलु सोनुं ' कहे छे. झरमर झरनर वरसतो वरसाद वर्ष' कहवाय धर्व-धि, छे. झपाटाबंध बरसतो वरसाद ' वृष्टि ' कहेवाय छ-ए रीते वर्ष' अने दृष्टि' शब्दना अर्थमा मिन्न भिन्न भात्र छे. गुथेला पुष्पोने माल्य कहेवामां आवे छे. वर्ण एटले चंदन. चूर्ण एटले सुगंधी द्रव्यनो भूको. गंधो एटले कोठपुटपाक दिगरे ['सुभिवरूाइव 'त्ति ] सुभिक्ष एटले जे 13-मुक्षिा समये भिक्षुकोने भिक्षा सारी रीते मळती होय ते समय, पछी ते गुकाळ होर या दुकाळ होय. ए गयथी विपरीततावालो समय ते दुर्भिक्ष अर्थात् जे समये भिक्षुकोने भिक्षा न मळती होय ते समय. [ 'संनिहि 'त्ति] घी अनेक विगरेनो संग्रह. [ संनिय' ति] अनाजनो संग्रह. [ निही इव' ति ] धननो संग्रह-लाख वा तेथी वधारे धननो संग्रह. [ 'निनामा इव' ति] धननो भंडार-जमीनमा दाटेला हजारो निधन, रुपियान निधान. ए बधां केवां ? तो कहे छे के:-[ 'चिरपोरागाई' ति] बहु समयथी राखेलां होबाथी जूनां थाला.-एवां होवाथी ज पंहीणसामियाई 'ति ] न धणीआतां धएलां-भाग्ये ज जनो कोइ धणी थई-मळी-शके एवां. [पहीणसे उयाई 'ति] ए बधा धन भंडारो हवे एवा अने एटला बधा जूना थई गया छे के, तेमां कोई धननो उमेरनारो पण हयात रह्यो नथी तेम कोई तेनो हिसाब लेनारो पण रह्यो नथी अर्थात् ते प्रहीणसेचक (सेचक एटले सिंचन करनार.) एटले सेचक विनाना धरला छे (अथवा ते धन भंडारो 'महीणसेतुक' छे एटले ते (धन भंडारो), एटला बघा जूना थएला छे के ते तरफ जवा आववानो मार्ग (सेतु) पण हयात-रह्यो नथी-घसाइ गयो छे तेथी ते मार्ग तरफ कोइ ज आवतुं नथी.) [ 'पहीणगोत्तागाराई 'निजे धणीए ए धन भंडारो मेरेला छे तेनुं कोई गोत्रीय सगुं वा तेवा समानुं घर पण हवे हयात रयुं नथी-ए भंडारो एटला बधा जूना छे. [ ' उच्छन्नसामियाई ' ति ] जेने लेनाग धीओ हो सताहीन थएला छे. ['नगरनिद्धनिर्धवन. वणेसु 'त्ति ] नगरनां पाणी नीकळ्यानी खाळोमां. [' सुमाण-गिरि- कंदर--संति- सेल--उबट्टाण-भवणगिहेमु 'त्ति अर्थात् श्मशानगृहभां, शानगृहादि. गिरिगृहमां, कंदरागृहमां, शांतिगृहमां, शैलगृहमां, उपस्थानगृहमां अने भवनगृहां. इनशानगृह एटले मसाग. गिरिगृह एटले पर्वत उपर रहेलु घर. कंदागृह एटले गुफा. शास्तिगृह एटले शांतिने माटे विधि विधानो क वातुं घः शैया एटले पर्वतमां कोत लुं घर. उपस्थानगृह एटले सभामंडप. भवनगृह एटले कुटुंब रही शके एवं घर. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सहुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी। अस्माकं करवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवमुखं मारहा चाप्तमुख्यः ।। १. मूलच्छाया:-समृद्धः, अमोघः, असरः शकस्य देवेन्द्रस्य, देवराजस्व वैश्रवणस्य महाराजस्य द्वे पत्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, यथाऽत्याऽभिज्ञाताता देवानाम् एक पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवं महर्दिकः, यावत्-वैश्रवणो महाराजः, तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् । इतिः-अमु.. . Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ८. राजगृह,-असुरकुमारन उपरि केटला ?-दस.-नामनिर्देश.-नागकुमारना उपरिओ.-सुवर्णकुमारना-बिगुत्कुनारना-अग्निकुमारना-द्वीपकुमारना-उदधिकुमारना -दिकुमारना अने स्तनितकुमारना उपरिओ -पिशाचना-वानव्यतरना-उपारेओ.-साधर्म-ईशानना उपरिओ.-सर्व स्वर्गना उपरिओ.-विहार. १. प्र०-रायगिहे नगरे जाव-पज्जुवासमाणे एवं पयासी:- १. प्र०-राजगृह नगरमां यावत्-पर्युपासना करता आ असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं कइ देवा आहेवचं जाव-विहरंति ? प्रमाणे बोल्या:-हे भगवन् । असुरकुमार देवो' उपर केटला देवो अधिपतिपणुं भोगवता यावत्-विहरे छ ? १. मूलच्छायाः-राजगृहे नगरे यावत्-पर्युपासीन एवम् अवादीत्:-असुरकुमाराणां भगवन् ! देवानां कति देवाः आधिपत्यं यावत्विहरन्ति ?-अनु० १. [आ भगवतीसूत्रमा आ स्थळे अने बीजे पण अनेक स्थळे देवोने लगती घणी हकीकतो मळे छे. ए विषय एटलो बधो गूढ छे के, ते विषे आपणी जेवा अाग्दृष्टिवाळा काइ कही शके वा स्पष्ट करी शके तेम नथी. परंतु ए संबंधे आ सूत्रकारनी पेठे बीजा बीजा वैदिक अने बौद्धसूत्रकारोए शुं शुं अने केवु के विचायु छे ते तो जरूर आपणे जोइ शकीए-विचारी शकीए अने ते द्वारा कोइ प्रकारनो निर्णय-जो थइ शके तो-जरूर बांधी शकीए-एवा ज एक उद्देशथी आगळ बे एक टिप्पणो आप्यां छ (जूओ-पृ. ४१.२-३-४ टि० पृ० ४८. २-टि० पृ. ५. मां आवेला टिप्पणनो अंतभाग. पृ० ५७. १-ट०) अने अहीं पण ए विषयर्नु उपयोगी टिप्पण उमेरुं छु.] बौद्धोना सूत्रपिटकना 'मज्झिमनिकाय ' नामना ग्रंथमां देवोने लगती जे हकीकत जणाय छे तेमांनी केटलीक आ प्रमाणे छ:देवनो अर्थ अने प्रकारः " देवे-दिव्यंति पयहि कामगुणेहि, अत्तनो वा इखिया ति देवा. "पांच कामगुणो द्वारा जे रहे ते देव अथवा पोतानी ऋद्धिथी जे रहे कीळंति जोतेंति वा ति-अत्थो. ते तिविधा-सम्मुतिदेवा, उप्पत्तिदेवा, ते देव अथवा क्रीडा करे वा दीपे ते देव. ते देवो त्रण प्रकारना छः १. विसुद्धिदेवा ति. सम्मुति देवा नाम राजानो, देवियो, कुमारा. उप्पति देवा सम्मुतिदेव-समृद्धिने लीधे कहेवाता देव (1) जेमकेः राजाओ, देवीओ नाम चातुम्महाराजिके देवे उपादाय ततुत्तरं देवा. विसुद्धिदेवा नाम अने कुमारो, २. उत्पत्तिद्वारा थएला देव. जेमकेः चतुर्महाराजिक देव अरहंतो खीणासवा." विगेरे. ३. विशुद्धिद्वारा थएला देव. जेमकेः जेओना आस्रवो क्षीण थएला छे एवा अरहतो. "-(म०टी० पृ० २३१-राजवाडे) अही जे उत्पत्ति-2वो जणावेला छे तेओनी साथे अहीं-जैनसूत्रमा-सूचवेला शकादिदेवोनुं समानपणुं छे. उत्पत्ति-देवोना प्रफारो। "चातुम्महाराजिकानं देषानं. तावतिसान वेवाम. यामानं देवानं. "चातुर्महाराजिक देव. तावर्तिस देव (जैन शद-बायस्त्रिंश). याम सुसितानं देवानं. निम्मानरतीनं देवानं. परनिम्मितवसवत्तीनं देवानं. देय. तुषित देव (जैनशव-तुषित. जूओ सत्यार्थ-अ० ४. सूत्र. २६). ब्रह्मकायिकानं देवानं. आभानं देवानं. परित्ताभानं देवानं. अपमाणाभान निर्माण रति ऐव. परनिर्मितवशवती देव. ब्रह्मकायिक देव (जैनशवदेवान. आभस्सरानं देवानं. सुभानं देवानं. परित्तसुभानं देवानं. ब्रह्मदेवलोक). आभ देव. परिताभ देव. अप्रमाणाभ देव. आभाखर अप्पमाणसुभानं देवानं. सुभकिष्णानं देवानं. वेहप्फलानं देवानं. अविहानं देव. शुभ देव. अप्रमाणशुभ देव. शुभकीर्ण देव. वेहफ्कल देव. अविह देवानं. अतप्पानं देवानं. सुदस्सानं देवानं. सुदस्सीनं देवानं. अकनिटानं देव. अतप्प देव. सुदर्श देव. सुदी देव. अकनिष्ठ देव. आकाशानंचाय देवानं. आकासानञ्चायतनूपगानं देवानं, बियाणचायतनूपगानं देवानं. तनोपग देव. विज्ञानंचायतनोपग देव. आकिंचन्यायतनोपग देव अने -शाकिञ्चमायतनूपगानं देवानं. नेवसजायतनूपगानं देवानं." नैवसंज्ञायतनोपग देव."-(४० पृ० १९५-राजवाडेनु) [आभाखर एटले जेओनी कांति शरीरथी छूटी छूटी पडीने फेलाय, परित्ताभा एटले परित्त-चारे तरफ, आभा-कांति-बाळो. अप्रमाणाभा १६ वान. आभस्सरानं देवानमा परित्ताभानं देवानं. अपमाणाभा देय. तुषित देव (जैन-तापतिस देव ( जैन शब्द-प्रायस्त्रिंश . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३. उद्देशक ८. १. उ०-गोयमा ! दस देवा आहेवचं जाव-विहरंति. १. उ-हे गौतम ! अधिपतिपणुं भोगवता यावत्-दस तं जहा:-चमरे असुरिंदे, असुरराया; सोमे, जमे, वरुणे, देवो रहे छे, ते आ प्रमाणे:-असुरेंद्र, असुरराज चमर, सोम, वेसमणे; बली वइरोयणिंदे, वइरोयणराया; सोमे, जमे, वरुणे, यम, वरुण, वैश्रमण; वैरोचनेंद्र, वैरोचनराज बलि; सोम, यम, वेसमणे. वरुण अने वैश्रमण. २. प्र.-नागकुमाराणं मंते ! पुच्छा ? २. प्र०-हे भगवन् ! नागकुमार देवो उपर केटला देवो अधिपतिपणुं भोगवता यावत्-विहरे छे ? २. उ०--गोयमा ! दस देवा आहे वच्चं, जाव-विहरांति: २. उ०---हे गौतम ! अधिपतिपणुं भोगवता यावत्-दस तं जहा:-धरणे णं नागकुमारिदे, नागकुमारराया; कालवाले देवो रहे छे, ते आ प्रमाणे:-नागकुमारेंद्र, नागकुमारराज धरण; कोलवाले, सेलवाले, संखवाले; भूआणंदे नागकुमारिदे, नागकु- कालवाल, कोलवाल, शैलपाल, शंखवाल; नागकुमारेंद्र, नागकुमारराया; कालवाले, कोलवाले, संखवाले, सेलवाले. मारराज भूतानंद; कालवाल, कोलवाल, शंखवाल अने शैलपाल. एटले अप्रमाण-माप विनानी-आभावाळा. शुभकीर्ण-शुभवडे कीर्ण-भरेला. परित्तशुभ-चारे तरफ शुभवाळा. अप्रमाणशुभ-माप विनाना शुभवाळा. वेहफफळ एटले विपुलफळवाळा-चतुर्थध्यानभूमिब्रह्माणोः-म० टी० पृ. २३२-रा०]. वैदिकग्रंथोमा पण उपर जणावेली हकीकतने मळती (थोडा घणा फेरफारवाळी ) जे हकीकत जडे छे तेनो संक्षेप आ छः " द्वादशाका वसवोऽष्टौ विश्वेदेवास्त्रयोदश, ___ " बार सूर्य, आठ वसु, तेर विश्वेदेव, छत्रीश तुषित (बौद्ध, जैन. पत्रिंशत् तुषिताचैव पष्टिराभासरा अपि. तुषित), साठ आभाखर (बौ० आभस्सर ), वसेंने छत्रोश माहाराजिक पत्रिंशदधिके माहाराजिकाश्च ते उभे, (बौ० दातुम्महाराजिक ), अग्यार रुद्र, ओगणपचास वायु, चौद वैकुंठ, रुदा एकादशैकोनपञ्चाशद् वायवोऽपरे. दश सुशर्म अने वार साध्य ".-(अ0 चि० देवकांड) चतुर्दश तु वैकुण्ठा सुशर्माणः पुनर्दश, साध्याश्च द्वादशेयाद्या विशेया गण देवताः" आ प्रकारे जुदी जुदी संख्यामां अने जुदा जुदा नामो द्वारा जैन, बौद्ध अने वैदिकसंप्रदाये देवना विषयमा विचार करेलो छे ते ज मात्र अत्रे टांकेलो छे. १. मूलच्छाया:--गौतम ! दश देवा आधिपत्यं यावत्-विहरन्ति. तद्यथाः-चमरोऽसुरेन्द्रः, असुरराजः; सोमः, यमः, वरुगः, वैश्रवणः; बलिवैरोचनेन्द्रः,वैरोचनराजः; सोमः, यमः, वरुणः, वैश्रवणः. नागकुमाराणां भगवन् ! पृच्छा? गातम ! दश देवा आधिपत्यं यावत्-विहरन्ति, तद्यथा:धरणो नागकुमारेन्द्रः, नागकुमारराजः; कालपालः, कोलपालः, शैलपालः. शङ्खपालः; भूनानन्दो नागकुमारेन्द्रः, नागकुमारराजः; कालपालः, कोलपालः. शङ्खपालः, शैलपाल:-अनु. १. अहीं मूबसूत्रमा सूत्रकारे सोम, यम, वरुण अने वैश्रमणने लोकपाल कला छे एटले (जेवा आपणे मनुष्य छ.ए तेवा) एक प्रकारना देव कहा छ. ए विषे अत्यंत प्राचीन निरुक्तकार ( जूओ भ. पृ. ४९ टिप्पण) श्रीयास्क जे जणावे छे ते आ छः सोमः"सोमः"... औषधि ए सोम-('सु' धातु उपरथी 'सोम' शब्द बने छे.) हे "ओषधिः समः-सुनोते:-यद् एनम् अभिपुण्वन्ति." सोम! अभिषवाएलो एवो तुं खादिष्ठ अने मदिष्ठ एवी धारा द्वारा इन्दने " स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवख सोम! धारया इन्द्राय पातवे सुनः" पीवा माटे जर-पड." आ उपरथी एम जणाय छे के, कोइ रसात्मक पदार्थने ' सोम' कहेलो छ अने वळी एम जणावेलु छ के, “न तस्य अइनाति कश्चन अदेव इति" " ए सोमने काइ अदेव-जे देव न होय ते-खाइ शकतो नथी"-(या० नि-पृ१ ७६९-७७१) यम:" यमो यच्छति-इति सतः" ___ " सर्प अने बरादि ( ताव विगेरे ) रूपे थइने जंतु मात्रनो नाश "यच्छति उपरमयति जीवितात् (तस्कर इव सर्प-ज्वरादिरूपो करे ते यम" भून्या) सर्व भूतनामम्-यमः" " अग्निरपि यम उच्यते" "अग्निने पण यम कहेवामां आवे "-(या. नि. पृ. ७३२-, ७३३.) आ उपरथी एम कळाय छे के, नाशक-शक्तिने 'यम' शब्द सूचवे छे. वरुण:"वरुणः-गोति-इति'-" स हि वियद् वृणोति मेघनालेन" “ढाके ते वरुण" मेघना समूहद्वारा आकाशने ढांकनारो वरुण". (या. नि. ७१२-७१३.) आ उपरथी एम समजाय छे के, वरसाद साथे संबंध धरावता कोइ पदार्थने 'वरुण' कहेवामां आवेले छे. 'वैश्रमण' शब्द माटे ए निरुतामा कांद जणा' नथी तेम तेनो निर्देश पण कयों नथी. जे (देव) अर्थमां आ जैनसूत्रमा ‘वैश्रमण' शब्द वपराएलो छे तेज अर्थमां चौद्धप्रधमां पण ते शब्द जडी आवे छे. जूओ मज्झिमनिकाय-सू० ३७-अंक-५ (पृ० १७४ रा.) ए ठेकाणे (ए बौद्धग्रंथमा ) वैश्रमण विष घj रमुजी वृत्तांत आपेलं छे पण अही खास उपयोगी न होवाथी पडतुं मूक्युं छे:-अनु. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३. उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. -जहा नागकुमारिंदाणं एआए बत्तव्वयाए नेयव्वं एवं इमाणं -जेम नागकुमारोना इंदो संबंधे ए वक्तव्यताथी जणाधु नेयव्वं. सुवण्णकुमाराणं-वेणुदेवे, वेणुदाली, चित्ते, विचित्ते, तेम आ देवो संबंधे पण समजवु:-सुवर्णकुमारना उपरिओचित्तपक्खे, विचित्तपक्खे. विजुकुमाराणं-हरिकंत, हरिस्सह, वेणुदेव, वेणुदालि, चित्र विचित्र, चित्रपक्ष अने विचित्रपक्ष-छे. पभ, सप्पभ, पभकंत, सुप्पभकंत. अग्गिकुमाराणं-अग्गिसीह, विद्युत्कुमारोना उपरिओ-हरिकान्त, हरिसह, प्रभ, सुप्रभ, प्रभाअग्गिमाणव, तेउ, तेउसीह, तेउकंत, तेउप्पभ. दीवकुमाराणं- कान्त अने सुप्रभाकान्त-छे. अग्निकुमारोना उपरिओ-अग्निसिंह, पुण्ण, विसिट्ट, रूअ, रूअंस, रूअकंत, रूअप्पभ. उदहिकु- अग्निमाणव, तेजस् , तेजःसिंह, तेजःकान्त अने तेजःप्रभ-छे. माराणं-जलकंते, जलप्पभ, जल, जलरूअ, जलकंत, जलप्पभ. द्वीपकुमारोना उपरिओ-पूर्ण, विशिष्ट, रूप, रूपांश, रूपकांत दिसाकुमाराणं अमिअगई, अमिअवाहणे, तुरिअगई, खिप्पगई, अने रूपप्रभ-छे. उदधिकुमारोना उपरिओ-जलकान्त, जलप्रभ, सीहगई, सीह विक्कमगई. वाउकुमाराणं, वेलंब, पभंजण, काल, जल, जलरूप, जलकान्त अने जलप्रभ-छे. दिक्कुमारोना महाकाल, अंजण, रिट्ठ. थंणिअकुमाराणं-घोस, महाघोस, उपरिओ-अमितगति, अमितवाहन, त्वरितगति, क्षिप्रगति, सिंहआवत्त, वियावत्त, नंदिआवत्त, महानंदिआवत्त. एवं भागिअव्वं गति अने सिंहविक्रमगति-छे. वायुकुमारोना उपरिओ-लंब' जहा असुरकुमारा. प्रभंजन, काल, महाकाल, अंजन अने रिष्ट-छे. स्तनितकुमारोना उपरिओ-घोष, महाघोष, आवर्त, व्यावर्त, नंदिकावर्त अने महानंदिकावर्त-छे. ए प्रमाणे बधुं असुरकुमारोनी पेठे कहे. -सो० का०चि० प० ते० रू० ज० तु. का. आ. -दक्षिण भवनपतिना इंद्रोना प्रथम लोकपालोना नामो आद्याक्षरे आ प्रमाणे छे:-सो-सोम, का-कालवाल, चि-चित्रप-प्रभ, ते-तेजस् , रू-रूप, ज-जल, तु-त्वरितगति, का, काल अने आ-आयुक्त. ३. प्र०—पिसायकुमाराणं पुच्छा ? ३. प्र०—हे भगवन् ! पिशाचकुमारो उपर अधिपतिपणुं भोगवता केटला देवो छ ? ३. उ०-गोयमा ! दो देवा आहेवचं, जाव-विहरंति, ३. उ०-हे गौतम ! तेओ उपर अधिपतिपणुं भोगवता तं जहाः यावत्-बे बे देवो छ:-काल अने महाकाल, सुरूप भने काले य महाकाले सुरूव-पडिरूव-पुण्णभदे य, प्रतिरूप, पूर्णभद्र अने अमरपति माणिभद्र, भीम अने महाभीम, अमरवई माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे. किंनर अने किंपुरुष, सत्पुरुष अने महापुरुष, अतिकाय अने किन्नर-किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे, महाकाय, गीतरति अने गीतयश, ए बधा वानव्यन्तर देवोना 'अइकाय-महाकाए गीअरई चेव गीअजसे. एए वाणमंतराणं इंद्रो छे. देवाणं. जोइसिआणं देवाणं दो देवा आहेवच्चं जाव विहरन्ति, तं -ज्योतिषिक देवोनी उपर अधिपतिपणुं भोगवता बे बे जहा-चंदे य, सूरे य. देवो यावत्-विहरे छे:-चंद्र अने सूर्य, ४. प्र०-सोहम्मी-साणेसु णं भंते ! कप्पेसु कइ देवा ४. प्र०—हे भगवन् ! सौधर्म अने ईशान करूपमा माहवचं जाव विहरंति ? अधिपतिपणुं भोगवता यावत्-केटला देवो रहे छे ? ४. उ०-गोयमा! दस देवा जाव-विहरंति, तं जहा:-. ४. उ०—हे गौतम ! त्यां अधिपतिपणुं भोगवता यावत् १. मूलच्छायाः-यथा नागकुमारेन्द्राणाम् अनया वक्तव्यतया ज्ञातव्यम् , एवम् एषां ज्ञातव्यम् , सुवर्णकुमाराणाम्-वेणुदेवः, वेणुदालिः, चित्रा, विचित्रः, चित्रपक्षः, विचित्रपक्षः, विद्युत्कुमाराणाम्-हरिकान्तः, हरिसहः, प्रभः, सुप्रभः, प्रभकान्तः, सुप्रभकान्तः; अग्निकुमाराणाम्-अग्निसिंहः, अग्निमाणवः, तेजः, तेजःसिंहः, तेजस्कान्तः, तेजःप्रभा द्वीपकुमाराणाम्-पूर्णः, विशिष्टः, रूपः, रूपांशः, रूपकान्तः, रूपप्रभः; उदधिकुमाराणाम्जलकान्तः, जलप्रभः, जलः, जलरूपः, जलकान्तः, जलप्रमः, दिक्कुमाराणाम्-अमितगतिः, अमितवाहनः, तूर्यगतिः, क्षिप्रगतिः, सिंहगतिः, सिंहविक्रमगतिः, वायुकुमाराणाम्-वेलम्बः, प्रभजनः, कालः, महाकालः, अञ्जनः, रिष्टः, स्तनितकुमाराणाम्-घोषः, महाघोषः, आवर्तः, व्यावर्तः, मन्द्यावर्तः, महानन्द्यावर्तः, एवं भणितव्यम् , यथा असुरकुमाराः, सोमः, कालपालः, चित्रः, प्रभः, तेजः, रूत(प):, जलः, तूर्यगतिः, कालः, आयुक्तः पिशाचकुमाराणां पृच्छा ? गौतम! द्वौ देवा आधिपत्यं यावत्-विहरन्ति, तद्यथा:-कालश्च महाकालः सुरूप-प्रतिरूप-पूर्णभद्राश्व, अमरपतिः मणिभद्रो भीमश्च तथा महाभीमः. किन्नरः किंपुरुषः खलु सत्पुरुषः खलु तथा महापुरुषः, अतिकायो महाकायो गीतरतिश्चैव गीतयशाः-एते वानव्यन्तराणां देवानाम् . ज्योतिष्काणां देवानां द्वौ देवी आधिपत्यं यावत्-विहरन्ति, तद्यथाः-चन्द्रश्च, सूर्यश्च. सौधर्मे-शानयोर्भगवन् ! कल्पयोः कति देवा आधिपत्यं “मावत-बिहरन्ति गौतम | दश देवा यावत्-विहरन्ति, तयथाः-अनु० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक सक्के देविंदे, देवराया; सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे. ईसाणे दश देवो रहे छे:-देवेंद्र, देवराज शक्र; सोम, यम, वरुण, देविंदे, देवराया; सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे. एसा वत्तव्वया वैश्रमण अने देवेंद्र, देवराज ईशान; सोम, यम, वरुण अने सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणिअव्वा. जे य इंदा ते य भा- वैश्रमण. ए बधी वक्तव्यता बधा य कल्पोमा जाणवी अने जे णियव्वा. इंद्रो छे ते कहेवा. -सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विहरे छे. भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते ततिअसये अट्ठमो उसे सम्मत्तो. १. देववक्तव्यताप्रतिबद्ध एव अष्टमोद्देशकः, स च सुगम एव, नवरम्:-'सो-का-चि-प-ते-रू--ज-तु-का-आ' इत्यनेनाक्षरदशकेन दक्षिणभवनपतीन्द्राणां प्रथमलोकपालनामानि सूचितानि; वाचनान्तरे तु एतान्येव गाथायाम् , सा चेयम्:-" सोमे य कालवाले चित्त-प्पभ तेउ तह रूए चेव, जल तह तुरिअगई अकाले आउत्त पढमा ओ." एवं द्वितीयादयोऽप्यन्यूह्याः, इह च पुस्तकान्तरेऽयमर्थो दृश्यतेः-दाक्षिणात्येषु लोकपालेषु प्रतिसूत्रं यौ तृतीय-चतुर्थों तौ औदीच्येषु, चतुर्थ-तृतीयौ-इति. 'एसा वत्तव्वया सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणिअव्व' ति एषा सौधर्मेशानोक्ता वक्तव्यता सर्वेष्वपि कल्पेषु इन्द्रनिवासभूतेषु भणितव्या, सनत्कुमारादीन्द्रयुग्मेषु पूर्वेन्द्राऽपेक्षया उत्तरेन्द्रसंबन्धिनां लोकपालानां तृतीय-चतुर्थयोर्व्यत्ययो वाच्य इत्यर्थः, तथैते एव सोमादयः प्रतिदेवलोकं याच्याः, नतु भवनपतीन्द्राणाम्-इव अपरापरे. 'जे य इंदा ते य भाणियन्वा' शक्रादयो दशेन्द्रा वाच्याः, अन्तिमे देवलोकचतुष्टये इन्द्रद्वयभावात्, भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे तृतीयशते अष्टम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचित विवरणं समाप्तम्. १. आठमा उद्देशकमा पण देव संबंधी ज वक्तव्यता छ अने आ (आठमो ) उद्देशक सरल ज छे. विशेष ए के, [' सो, का, चि, प, ते, रू, ज, तु, का, आ,'] आ अहीं कहेल दस अक्षरोवडे दक्षिण भवनपतिना इंद्रोना प्रथम लोकपालना नामो सूचव्यां छः सो-सोम, का कालवाल, चि-चित्र, प-प्रभ, ते-तेज, रू-रूअ, ज-जल, तु-तुरियगइ-त्वरितगति, का-काल अने आ-आउत्त-आयुक्त बीजी वाचनामां तो बीजी वाचना. तें नामोने गाथामां ज जणायां छे, ते आ छ:-[ सोमें य, कालवाले, चित्त, प्पम, तेउ, तह रूए चेव, जल तह तुरियगई य काले आउत्त बीजा पुस्तकां पढमा उ'] ए प्रमाणे बीजा वगेरे पण जाणवा. बीजा पुस्तकमां तो आ प्रमाणे अर्थ देखाय छः-दक्षिणना लोकपालोमा प्रत्येक सूत्रमा जे बीजा जदो अर्थ. अने चोथा कह्या छे, ते ज उत्तरना लोकपालोमा चोथा अने त्रीजा छे. [ ' एसा वत्तव्वया सब्बेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणिअव्व 'ति] ए-सौधर्म अने ईशान संबंधे कहेली-वक्तव्यता इंद्रना निवासवाळा बधा य कल्योमा कहेवी. सनत्कुमारादि इंद्र-युगलो विषे पूर्वना इंद्रनी अपेक्षाए उत्तरना इंद्र संबंधी लोकपालोमां त्रीजो अने चोथो उलटी रीते कहेवो. तथा दरेक देवलोकमां आ 'सोम' वगेरेने ज कहेवा, पण भवनपतिना इंद्रोनी पेठे बीजा बीजा न कहेवा. [जे य इंदा ते य भाणियव्वा'] शक्र वगेरे दस इंद्रो कहेवा, कारण के छल्ला चार देवलोकोमा बे इंद्रो छे. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्योः दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः॥ १. मूलच्छायाः-शको देिवेन्द्रः,देवराजः; सौमः, यमः, वरुणः, वैश्रवणः; ईशानो देवेन्द्रः, देवराजः; सोमः, यमः, वरुणः, वैश्रवणः; एषा वक्तव्यता-सर्वेषु अपि कल्पेषु एते चैव भणितव्याः; ये च इन्द्रास्तेऽपि भणितव्याः. तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् । इति अनु० १. प्र. छायाः-सोमश्च कालपालश्चित्रः प्रभस्तेजस्तथा रूपश्चैव, जलस्तथा खरितगतिश्च काल आयुक्तः प्रथमास्तु-अनु. . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक ९. राजगृह.-इंद्रियविषयना केटला प्रकार ?-पांच-जीवाभिगम.-विहार. १. प्र०-रायगिहे जाव--एवं वयासी:-कइविहे गं भंते! १. प्र०-राजगृह नगरमां यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के:(सो)इंदियविसर पण्णत्ते? - हे भगवन् ! इंद्रियोना विषयो केटला प्रकारना कह्या छे ? १. उ०-गोयमा । पंचविहे इंदियविसए पण्णत्ते, तं १. उ०—हे गौतम ! इंद्रियोना विषयो पांच प्रकारना जहाः--सोतिदियविसए जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ नेयव्यो कह्या छे, ते आ प्रमाणे:-श्रोत्रइंद्रियनो विषय इत्यादि. आ संबंधे अपरिसेसो. जीवाभिगम सूत्रमा कहेलो आखो ज्योतिषिक उद्देशक जाणवो. भगवंत-अज्जसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते ततिअसये नवमो उदेसो सम्मत्तो. १. देवानां चाऽवधिज्ञानसद्भावेऽपि इन्द्रियोपयोगोऽपि अस्ति, इत्यत इन्द्रियविषयं निरूपयन् नवमोद्देशकम् आहः'रायागहे' इत्यादि. 'जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ नेयवो' ति स चायम्:--" सोइंदियविसये, जाव- फासिंदियविसए; सोइंदियविसए णं भंते ! पोग्गलपरिणामे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहाः-सुभिसद्दपरिणामे य, दुभिसहपरिणामे य." शुभाशुभशब्दपरिणाम इत्यर्थः, " चक्खिदियविसए पुच्छा ? गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तं जहाः-सुरूवपरिणामे य, दुरूवपरिणामे य. घाणिंदियविसये पुच्छा ? गोयमा । दुविहे पण्णत्ते, तं जहा:-सुभिगंधपरिणामे य, दुभिगंधपरिणामे य. एवं जिभिदियविसए, सुरसपरिणामे य, दुरसपरिणामे य. फासिदियविसए पुच्छा ! सुहफासपरिणामे य, दुहफासपरिणामे य." इत्यादि वाच्यम्. वाचनान्तरे चः-"इंदियौविसए, उच्चावय-सुभिणो" त्ति दृश्यते, तत्र इन्द्रियविषयसूत्रं दर्शितमेव, उच्चावयसूत्रं त्वेवम्:"से ऐंणं भंते। उच्चावरहिं सद्दपरिणामेहिं परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्तव्वं सिया ? हंता, गोयमा!." इत्यादि, 'सुभिणो त्ति, इदं सूत्रं पुनरेवम्:--" से जूणं भंते । सुभिसद्दपोग्गला दुब्भिसदत्ताए परिणमंति ? हंता, गोयमा !." इत्यादि. . भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे तृतीयशते नवम उद्देशके श्रीअभयदेवमरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. १. मूलच्छायाः-राजगृहे यावत्-एवम् अवादीत:-कति विधो भगवन् । (श्रोत्र) इन्द्रियविषयः प्राप्तः। गौतम। पचविधः इन्द्रियविषयः प्राप्तः, तद्यथाः-श्रोत्रेन्द्रियविषयो जीवाऽभिगमे ज्योतिषिकोदेशको ज्ञातव्योऽपरिशेषः-अनु० १. प्र.छायाः-श्रोत्रेन्द्रियविषयः, यावत्-स्पर्शेन्द्रियविषयः. श्रोत्रेन्द्रियविषयो भगवन् । पुद्गलपरिणामः कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम । विविधः प्राप्तः, तद्यथा:-सुरभिशद्वपरिणामश्च, दुरभिशद्वपरिणामश्च, २. चक्षुरिन्द्रियविषये पृच्छा! गौतम! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाः-सुरूपपरिणामष, दूरूपपरिणामश्व, घ्राणेन्द्रियविषये पृच्छा! गौतम! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाः-सुरभिगन्धपरिणामथ, दुरभियन्धपरिणामथ. एवं जिवेन्द्रियविषयः सुरसपरिणामब, दूरसपरिणामश्च स्पर्शेन्द्रिय विषये पृच्छा? सुखस्पर्शपरिणामश्च, दुःखस्पर्शपरिणामश्च. ३. इन्द्रियविषयः, उच्चावच-सुरभी..४. तद् नूनं भगवन् ! उचाऽवचैः शद्वपरिणामैः परिणममाणाः पुद्गलाः परिणमन्ति इति वक्तव्यं स्यात् । हुन्त, गौतम | ५. तद् नूनं भगवन् । सुरभिशब्दपुर्ला दुरभिशब्दतया परिणमन्ति ? हुन्त, गौतम :-अनु० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक ९. १. देवोने अवधिज्ञान होवा छत पण इंद्रियोना उपयोगनी जरूर रहे छे माटे हवे इंद्रियोना विषयोनुं निरूपण करत्रा आ नवमा उद्देशकने कहे छे के, ['रायगिहे ' इत्यादि] ['जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ नेयव्यो' ति] ते आ प्रमाणे छ:-" श्रोत्रइंद्रियनो विषय अने यावत्-स्पर्शइंद्रियनो विषय. हे भगवन् ! श्रोत्रइंद्रियना विषय संबंधी पुद्गलपरिणाम केटला प्रकारनो कह्यो छे ? हे गौतम ! ते बे प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणेः-शुभ शब्दनो परिणाम अने अशुभ शब्दनो परिणाम. चक्षुइंद्रियना विषय संबंधे पूर्व प्रमाणे पूछq. हे गौतम! ते बे प्रकारनो कह्यो छे. ते आ प्रमाणेः-सारा रूपनो परिणाम अने नठारा रूपनो परिणाम. नासिका इंद्रियना विषय संबंधे पूर्व प्रमाणे पूछवं. हे गौतम ! ते बे प्रकारनो छे. ते आ प्रमाणेः-सुगंधनो परिणाम अने दुर्गधनो परिणाम. ए प्रमाणे जीभ इंद्रियनो विषयः सारा रसनो परिणाम अने नठारा रसनो परिणाम; वाचनामा स्पर्शइंद्रियनो विषयः सुखरूप-सारा-स्पर्शनो परिणाम अने दुखरूप-नठारा-स्पर्शनो परिणाम." इत्यादि कहे. बीजी वाचनामां तो [' इंदिय विसए उच्चावय-सुभिणो' त्ति ] आ प्रमाणे पाठ छे, तेनो अर्थः इंद्रियोना विषय संबंधी सूत्र, उच्चावचसूत्र अने सुरभिसूत्र एम त्रणे सूत्रो अहीं कहेवा. तेमां इंद्रियोना विषय संबंधी सूत्र तो हमणां ज उपर जणाव्युं छे. उच्चावच सूत्र तो आ प्रमाणे छः "हे भगवन् ! शुं उच्चावच शब्दपरिणामोबडे परिणाम पामता पुद्गलो परिणमे छे' एम कहेवाय ? हे गौतम ! हा, एम कहेवाय" इत्यादि कहे. [सुभिणो' ति] वळी आ सूत्र आ रीते छ:-" हे भगवन् ! सारा शब्दनां पुद्गलो नठारा शब्दपणे परिणमे छे ? हे गौतम ! हा ए प्रमाणे परिणमे छे." इत्यादि. जुं सूत्र. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥ १. जूओ जीवाभिगम (पृ० ३७३-३७४. स० ):-अनु० Jain Education international Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३.-उद्देशक १०. .राजगृह,--चमरनी सभाओ केटली ?-त्रण.-शमिका-चण्डा-जाता-यावत्-अच्युतसभा.-विहार.-- १.प्र०-रायगिहे जाव.-एवं वयासी:--चमरस्स णं भंते ! १. प्र०—राजगृह नगरमा यावत् -आ प्रमाणे बोल्या केः-- असुरिंदस्स, असुररणो कइ परिसाओ पण्णचाओ? हे भगवन् ! असुरेंद्र असुरराज चमरने केटली सभाओ कही छे ? १. उ०-- गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहाः-- १. उ०—हे गौतम ! तेने त्रण सभाओ कही छे. ते आ समिआ, चंडा, जाया. एवं जहाणुपुवीए जाव-अचुओ कप्पो. प्रमाणे शमिका (शमिता), चंडा अने जाता; ए प्रकारे क्रमपूर्वक यावत्-अच्युत कल्प सुधी जाणवू. --सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही यावत्-विहरे छे. भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते ततिअसये दसमो उद्देसे। सम्मत्तो. १. प्राग् इन्द्रियाणि उक्तानि, तद्वन्तश्च देवा इति देववक्तव्यताप्रतिवद्धो दशम उद्देशकः, सच सुगम एव. नवरम्:-'समिय'त्ति समिका उत्तमत्वेन स्थिरप्रकृतितया समवती, स्वप्रभोर्वा कोपौत्सुक्यादिभावान् शमयति उपादेयवचनतया इति शमिका, शमिता वाअनुद्धता. 'चंड ' ति तथाविधमहत्त्वाऽभावेन ईषत्कोपादिभावाचण्डा, 'जाय 'त्ति प्रकृतिमहत्त्ववर्जितत्वेनाऽस्थानकोपादिना जातत्वाद् जाता, एषा च क्रमेणाऽभ्यन्तरा, मध्यमा, बाह्या च इति; तत्राभ्यन्तरा समुत्पन्न प्रयोजनेन प्रभुणा गौरवार्हत्वादाकारितैव पार्श्वे समागच्छति, तां चाऽसौ अर्थपदं पृच्छति, मध्यमा तु उभयथाप्यागच्छति, अल्पतरगौरवविषयत्वात् , अभ्यन्तरतया च आदिष्टमर्थपदं तया सह प्रबध्नाति-प्रन्थिबन्धं करोति इत्यर्थः; बाह्या त्वनाकारितैवागच्छति, अल्पतमगौरवविषयत्वात् , तस्याश्चार्थपदं वर्णयत्येव.. तत्र आद्यायाम्:-चतुर्विंशतिर्देवानां सहस्राणि, द्वितीयायाम् अष्टाविंशतिः, तृतीयायां द्वात्रिंशद् इति; तथा देवीशतानि क्रमेणाऽध्युष्टानि, त्रीणि, सार्धे च द्वे इति. तथा तद्देवानामायुः क्रमेण अर्धतृतीयानि पल्योपमानि, द्वे, साधं चेति; देवीनां तु सार्धम् , एकम् , तदधं च इति; एवं बलेरपि. नवरम्:-देवप्रमाणं तदेव चतुश्चतुःसहस्रहीनम् , देवीमानं तु शतेन शतेन अधिकम् इति, आयुर्मानमपि तदेव, नवरम्:-- पल्योपमाधिकमिति. एवमच्युतान्तानाम् इन्द्राणां प्रत्येकं तिस्रः पर्षदो भवन्ति-नामतः, देवादिप्रमाणतः, स्थितिमानतश्च कचित् किञ्चिद् भेदेन भेदवत्यः-ताश्च जीवाभिगमाद अवसेयाः. श्रीपञ्चमाङ्गस्य शतं तृतीयं व्याख्यातमाश्रित्य पुराणवृत्ती; शक्तोऽपि गन्तुं भजते हि यानं पान्थः सुखार्थ किमु यो न शक्तः । .-मूलन्छया:-राजगृहे यावत्-एवम् अवादीत:-चमरस्य भगवन् ! असुरेन्द्र स्य, असुरराजस्ले कति पर्षदः प्रज्ञप्ताः? गीतम । तिलः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-शमिका(शमिता), चा, जाता; एवं यथाऽऽनुपूर्या यावत्-अच्युतः कल्पः, तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् ! इति:-अन. . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.--उद्देशक १०. १. आगळना उद्देशकमां इंद्रियो संबंधे हकीकत जणावी छे अने देवो पण इंद्रियोवाळा होय छे माटे हवे आ दसमा उद्देशकमां देव संबंधी समिका. वक्तव्यता कहेवानी छे. आ उद्देशक तो सरल ज छे. विशेष ए के, ['समिय' ति] समिका-पोताना उत्तमपणाने लीधे स्थिर स्वभाववाळी शमिता. होवाथी समतावाळी अथवा पोताना उपरिए करेल कोप के उतावळ वगेरे भावोने, मान्य वचनवाळी होवाथी शांत करी देनारी, अथवा शमिताचडा. तोछडाई विनानी-उद्धत नहीं ते. [ 'चंड ' त्ति ] तेवा प्रकारनी मोटाई न होबाथी साधारण कोपादिकना प्रसंगमां पण बोली नाखनारी ते चंडा. जाता. [ 'जाय ' त्ति ] मोटाईवाळो स्वभाव न होवाथी कोप वगरे भावोने अस्थाने ( अणअवसरे-वगर प्रयोजने) भजवनारी ते जाता. एवणे सभ क्रमपूर्वक अभ्यंतरा, मध्यमा अने बाह्या छे-समिका अभ्यंतर सभा छे, चंडा वचली सभा छे अने जाता बहारनी सभा छे. तेमांनी अभ्यंतर सभानी रीतभात आ छः ज्यारे उपरिने ( स्वामीने) कांड पण प्रयोजन होय अने ते आदर पूर्वक अभ्यंतरसभाने बोलावे त्यारे ज ते आवे छे अने सभानी बेठक थया पछी ते उपरि ते सभाने पोतार्नु प्रयोजन कही देखाडे छे. तेम करवानू कारण-ते सभा गौरव-मोटाइ-ने योग्य छे. वचली सभा तो उपरि बोलावे के न बोलावे. तो पण आवे छे, कारण-तेनी मोटाई थोडी ओछी छे. ते वचली सभानी बेठक थया पछी-उपरि, अभ्यंतर सभा साथे थएल वार्तालापने जणावे छे अने ते संबंधे गांठ वाले छे-नक्की करे छे. बाह्य समा तो बोलाव्या विना ज चाली आवे छे, कारण तेनी मोटाइ घणी ओछी छे. ते बाह्य सभानी बेठक थया पछी-उपरि, आगळ थयेला वार्तालापने मात्र वर्णवे छे. तेमा प्रथम सभामां सदोनी संख्या २४००० देवो सभासद छे, बीजी सभामा २८००० देवो सभासद छे अने त्रीजी सभामा ३२००० देवो सभासद छे. प्रथम सभामा ३५० ___ अने आयुष्य. देवीओ, वचली सभामा ३०. देवीओ अने छेल्ली सभामा २५० देवीओ सभासद छे. प्रथम सभाना देवोनी आवरदा २॥ पल्योपमनी, बीजी सभाना देवोनी आवरदा २ पल्योपमनी अने छेल्ली सभाना देवोनी आवरदा १॥ पल्योपमनी छे. प्रथम सभानी देवीओनी आवरदा १॥पल्योपमनी, बीजी सभानी देवीओनी आवरदा १ पल्योपमनी अने छेल्ली सभानी देवीओनी आवरदा ॥ पल्योपमनी छे. ए प्रमाणे बलि संबंधे पण जाणq. विशेष ए के, सभासद देवोनी संख्या जे उपर जणावी छे, तेमांथी चार चार हजार सभासद ओछा करी नाखवा अने देवीओनी संख्या जे उपर जणावी छे तेमा सो सो देवीओ उमेरवी. आवरदानुं प्रमाण पण पूर्व प्रमाणे ज जाणवू, विशेष ए के, पल्योपमथी वधारे जाणवू. ए प्रमाणे अच्युत सुधीना प्रत्येक इंद्रोने त्रण सभाओ होय छे, ते सभाओनां नामो, तेओमांना सभासदो-देवो अने देवीओनी संख्या तथा ते बधांनी आवरदान माप; जीवाभिगम. एवणे बानां कोइ ठेकाणे थोडा थोडां जुदां छे. ए त्रणे सभाओनी हकीकत जीवाभिगम नामना उपांगथी जाणवी. श्रीपंचमांगे शतक तृतीय व्याख्यायु आश्रीने पुराणवृत्ति, छता बळे गाडं धरे प्रवासी जावाने सौख्य नबळानुं तो शुं! तृतीय शतक समाप्त बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां पर कृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो पाहको दान्ति शान्त्योः दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ।। १. जूओ जीवाभिगम (पृ० १६४-१७४ तथा ३८८-३९०. स.):-अनु. . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४.-उद्देशक १-२-३-४-५-६-७-८. संग्रहगाथा.-ईशानना लोकपालो केटला ?-सोम, यम, वरुण अने वैश्रवण.-लोकपालोनी विमानो केटलां ?-सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु अने सुवल्गु.-सुमन ... का आयुं :-शानावतंसकनी पूर्व.-वारे विमानना चार उद्देश.-स्थितिभेद.-राजधानी. आ चोथा शतकमां दश उद्देशक छे. तेमां चार उद्देशकमा - चत्तारि विमाणेहिं चत्वारि य होति रायहाणीहिं, विमान संबंधी हकीकत छे, वीजा चार उद्देशकमां राजधानी संबंधी नेरईए लेस्साहि अ दस उद्देसा पउत्थसये.. हकीकत छे अने एक उद्देशक नैरयिको संबंधे छे तथा एक उद्देशक लेझ्या संबंधे छे--ए रीते आ शतकमा दश उद्देशक छे. गोहा: ईशान इंद्रनो परिवार. १. प्र०—रायगिहे नयरे जाव-एवं वयासी:-ईसाणस्स णं १. प्र०—राजगृह नगरमां यावत्--आ प्रमाणे बोल्या के:भंते । देविंदस्स, देवरणों कइ लोगपाला पण्णत्ता? हे भगवन् ! देवेंद्र देवराज ईशानने केटला लोक १. मूलच्छाया:-गाथा:-चत्वारो विमानैश्चत्वारश्च भवन्ति राजधानीभिः, नैरयिको लेश्याभिश्च दश उद्देशःश्चतुर्थशते. राजगृहे नगरे यावत्एवम् अवादीत:-ईशानस्य भगवन् ! देवेन्द्रस्य, देवराजस्य कति लोकपालाः प्रज्ञप्ता:-अनु०. १. आ सूत्रमां-अत्यार सुधीमा भने हवे पछीनां शतकोमा-आपणे अनेक स्थळे 'इंद्र' शब्दनो प्रयोग थएलो जोहए छीए. प्रायः सघळे ठेकाणे एइंद्रने ' देविंद'-देवोनो इंद्र अने ' देवराय ' देवोनो राजा-ए बे विशेषणो लागेलो जोवामां आवे छे. आथी वधु, ज्यारे आपणे ज्ञातनंदनयोगीश्वरनुं जीवन-चरित्र सांभळीए छीए त्यारे तेमां-जन्म, निष्क्रमण (दीक्षा) अने धर्मचक्रप्रवर्तनादिना प्रसंगोमा तथा तेमना उद्मस्थ-विहारना प्रसंगोमा अनेक स्थळे आ 'इंद्र' अने तेना देवादि परिवारने पण जोइए छीए-आपणा पाराणिक पद्धतिए ग्रंथ-रचनाराओ ए इंदने-'जैन'-जणावे छे अने ते उपरांत एने चतुर्विध संघनो रक्षक पण ठरावे छे-इंद्र संबंधे एनी लीला अने समृद्धिना उडेखोने बाद करता जैन ग्रंथोए विषे उपर जणाव्या करती विशेष प्रकाश नाखी शकता नथी-तेम वौद्ध ग्रंथो पण ए विषे (इंद्र विषे) लगभग एवं ज भलतुं वर्णन आपे छे. मात्र विशेषतामां तेने 'बौद्ध' होवान सूचचे छे. ए विषे एक टिप्पण आगळ (जुओ-पा-३९ १. टिप्पण) जणावी गयो छु अने बौद्ध ग्रंथमा आवतुं इंद्रने लगतुं केटलुक उपयोगी लखाण अहीं पण उमेरुं छुः "इति ह भिक्खवे| पटिसंचिक्खतो अप्पोस्सुकताय चितं नमति, (भगवान बुद्ध कहे छः) नो धम्मदेसनाय. अथ खो ब्रम्हुनो सहरतिस्स मम चेतसा चेतोपरिवितकं "हे भिक्षुओ। ए प्रमाणे सारी रीते समज्या पछी (मारे) चित्त अन्याय एतदहोसि-नस्सति वत भो लोकोxxx अथ खो भिक्सवे! आत्मानी उत्सुकता तरफ नमे छे-बळे छ पण धर्मना उपदेश माटे नहि. प्रम्हा सहपति एकसं उत्तरासंगं करित्वा येनाऽहं तेनऽअलि पणामेवा में हवे सहपति (जैन शब्द 'सोहम्मपति')ब्रह्माने मारो उपलो विचार एतदवोच-'देसेतु भंते ! भगवा धम्म, संति सत्ता अप्प-रजक्ख-जाति- जणाया पछी एम थयुं के ( जो भगवान धर्मनो उपदेश नहि करे ) तो का अस्सवनता धम्मस्स परिहायंति-भविस्सति धम्मस्स अज्ञातारो ति." लोकोनो नाश थशे. हवे हे भिक्षुओ। ए सहपति ब्रह्मा एक खभा तरफ खेस करीने जे तरफ हुं छु ते तरफ आवी हाथ जोडी-प्रणाम-करी आ प्रमाणे बोल्योः हे भगवन् ! आप-भगवान-धर्मनो उपदेश करो-प्रजा धर्म रहित अने अज्ञान थइ जशे" -(म.पृ० ११९. रा.) .आ'उल्लेखमा सहपति ब्रह्मे भगवान बुद्धने धमापदेश देवानी विनंती करी छे-जैनोमा पण आज जातनी विनतीनी नोंध मळी आवे छे-बानो क्षेस खिंबानो अन प्रणाम करवानो उल्लेख तो जैनोना ए आतना उडेख साथे बराबर मळी रहे छे, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४.-उद्देश -८. १. उ०-गोयमा! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहा:- १. उ०-हे गौतम | तेने चार लोकपाला कह्या छे. ते आ सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे. प्रमाणे:-सोम, यम, वैश्रमण अने वरुण. २. प्र०-एएसि णं भंते ! लोगपालाणं कइ विमाणा पण्णत्ता ? २. प्र०—हे भगवन् ! ए लोकपालोने केटला विमानो कह्यां छे ? २. उ०-गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा:- २. उ०-हे गौतम ! तेओने चार विमानो कह्यां छे. ते सुमणे, सव्वओभदे, वग्गू, सुवग्गू. __ आ प्रमाणेः-सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु अने सुवल्गु. ३. प्र०—कहिणं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स, देवरण्णो ३. प्र०-हे भगवन् ! देवेंद्र देवराज ईशानना सोम सोमस्स महारणो सुमणे नामं महाविमाणे पण्णत्ते ? महाराजानुं सुमन नामनुं महाविमान क्यां कयुं छे ? ३. उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरे ३. प्र०-हे गौतम ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमा मंदर पर्वतनी णं इमीसे रयणप्पभार पुढवीए जाव-ईसाणे णाम कप्पे पण्णत्ते, उत्तरे आ रत्नप्रभा पृथिवी यावत्-ईशान नामे कल्प कह्यो छे. तत्थ णं जाव-पंच वडेंसया पण्णत्ता, तं जहा:-अंकवडेंसये, फलि- तेमां यावत्-पांच अवतंसको कह्या छे. ते आ प्रमाणे:-अंकाव __ " यो ब्रह्मानं परिपुच्छति सुधम्मायं अभितो सभं" “सुधी सभामां जे ब्रह्माने परिपूछे छे" (म. पृ० २२८ रा.) ___आ उल्लेखमा ब्रह्माने 'सुधर्म:-सभा' होवार्नु जणाव्युं छे-जैनो पण शक इंद्रने सुधी-सभानो स्वामी कहे छे अने ए उपरथी एने 'सौधर्मपति ' पण कहेवामां आवेलो छे. ___ "एवं मे सु-एकं समयं भगवा सकेसु विहरति कपिलवत्थुरिसं निग्रोधा. “में एम सभळगुंछे (के)-एक वखत भगवान् (बुद्ध) शाक्यदेशमा रामे. अथ स्रो भगवा पुबहसमयं निवासेला पत्तचीवर आदाय कपिल- कपिलवस्तु गामना न्यग्रोधाराममां विचरता हता. हवे भगवान् पूर्वाहनो वत्थु सिंडाय पाविसि xxx येन महावनं तेनुपसंकमि - दंडपाणि पि समय बीताबी पात्र अने वस्त्रने लइने (मोडा बपोरना भागमां) कपिलवस्तु खो सको जंघाविहार अनुचंकमानो येन भगवा तेनुपसंकमि." ग:ममा भिक्षामाटे पेठा ४ पछी जे तरफ महावन हतु त्यां गया. ए वखते दंडपाणि (जै. वज्रपाणि) शक पण पगे चालतो चालतो ज्या भगवान छे त्यां आव्यो." -(म० पृ. ७७ रा.) "एवं मे सुन- एक समय भगवा सावस्थिय विहरति पुधारामे मिगा. “ में एम सांभळ्युं छे ( के )-एक वखत भगवान श्रावस्ती ( सवय ) रमातुपासादें. अर्थ खो'सको देवानामंदो येन भगवा तेनुपसंकमि." नगरमा मिगारमातु-प्रासादमां-पूर्वीराममा विचरे छे. हवे देवोनो इंद्र (जै० देविंद ) शक पण ज्यां भगवान छे त्यो आव्यो" -(म. पृ० १७२ रा.) आ बने उल्लेखोमां इंद्रनुं श्रीबुद्ध पासे जq वर्णव्युं छे. आटला थोडा उठेखो उपरथी आपणे कळी शकीरों के, जैन अने बौद्ध साहित्यने घडनारा पुरुषोए इंद्रने पोतपोताना इष्ट पुरुष पासे नन बताव्यो छे अने वारंवार तेओनी सेवामा राख्यो छे-पण आ उपरथी 'इंद्र' कोण छ ? शुंए जैन छे ? वा बौद्ध छे? ए काइ कळो शकातुं नथी-आटलं चोकस जणाय छे के, ए ए उल्लेखो लखनारा 'इंद्र' ने कोइ विशिष्ट व्यक्तिरूपे जरूर मानता जणाय छे. हवे · इंद' विषे ए बने संप्रदायना उल्लेखो करतो विशेष प्राचीन एवा श्रीयास्कनो अभिप्राय पण तपासीए. श्रीयास्क पोताना निरुतमा (पू. ४१७-१९)'इंद' शब्दनी अनेक व्युत्पत्तिओ आपे छे-जे आ प्रमाणे छे:"इरा दृणाति-इति वा" “इराम् अनं. ब्रीडादि, दृणाति विदारयति" (१) “ग एटले व्रीहि विगेरे अन्न-तेने फाडी नाखे ते इरादार-इंद्र" (१) "इर ददाति-इति वा" " यो वर्षद्वारेण इराम् अनं ददाति " (२) "वरसवावरा जे अन्नने आपे ते इराद-इंद्र" (२) " इरां दधाति-इति वा” (३) " अन्नने घारणकरे ते इराध-इन्द्र" " इरा दारयते-इति वा” (४) " इराने फाडे ते इंद्र" (४) " इरा धारयते-इति वा" (५) " इरानु धारण करे ते इंद्र" (५) "इन्दवे द्रवति--इति वा" (६) " इंदु माटे जे द्रवे-जरे-ते इंदुद्व इंद्र" (6) "इन्दौ रमते-इति वा” (७) " इन्दुमा रमे ते इन्दुर-इन्द्र" (७) "इन्धे भूतानि-इति वा (4) "भूतीने प्रदीप्त करे ते इन्ध इन्द्र " (८) " इदंकरणाद्-इति आग्रयणः " (९) "आनो करनार ते इदंकर-इंद्र " एम अप्रायण कहे छे (९) " इदंदर्शनात्-इति आपमन्यवः " (१.) " आनो जोनार ते इदंदशी इंद्र" एम आपमन्युओ कहेछ (10) "आदरयिता च यज्वनाम्” (११) " यज्वानोनो आदर करनार ते द्र" (११) आ उल्लेखोमा श्रीयास्के 'इन्द्र' शब्दनो भाव विशेष सुस्पष्ट करवा एनी अनेक प्रकारनी (पोतानी अने बीजानी पण) व्युत्पत्तिओ जणावी छेआमां क्यांय इंद्र माटे देवेंद्र, पाकशासन, दंडपाणी के वज्राणीना भावनी गंध पण आवती नथी माटे पाठको 'इन्द्र' शब्दना सुस्पष्टभावने श्रीयास्कना उल्लेखथी कदाच ओळखी शके खराः-अनु. - १. मूलच्छायाः-गौतम | चत्वारो लोकपाला: प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-सोमः यमः, वैश्रमणः, वरुणः. एतेषां भगवन् ! लोकपालानां कति विमानाः प्रज्ञा ? गौतम | चत्वारो विमानाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-सुननः, सर्वतोभद्रः, वल्गुः, सुवल्गुः. कुत्र भगवन् । ईशानस्य, देवेन्द्रस्य, देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सुमनेा नाम महाविमानं प्रज्ञप्तम् ? गौतम | जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेऽस्याः रमप्रभायाः पृथिव्याः यावत्ईशानो नाम कल्पः प्रज्ञप्तः, तत्र यावत्-पच अवतंसकाः, प्राप्ताः, तद्यथाः-अरकावतंसकः-अनु. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४.देशक १८. भगवंसुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र. १३१ डेरवणचंडेस जायरूपसमझे ईसापये; तस्स तंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक अने जातरूपायसंखफ, ए णं ईसाणवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जाई चारे अवतंसकोनी बच्चे ईशानावतंसक छे. ते ईशानावतंसक सहस्सा बीईचा तत्थ णं ईसाणरस देविंदस्स, देवरण्णो नामना महाविमाननी पूर्वे तिर असंख्येय हजार योजन मूल्या सोमस्त महारण्णो सुमणे नामं महाविमाणे पणाचे अतेरस पछी अही देवेंद्र देवराज ईशानना सोम महाराजानुं सुमन जोभण०, जहा सफरस बचव्या तद्भसमे सहा ईसाणस्स वि नामनुं महाविमान कहां छे. तेनो आयाम अने विष्कंभ साडा बार जान अपनिआ सम्मा. लाख योजन छे, इत्यादि बधी वक्तव्यता त्रीजा शतकमां कहेली शक्रनी वक्तव्यतानी पेठे अहीं ईशानना संबंधमां पण कवी. अने यावत् आली अर्चनिका सुधी कहेवी. चउण्हं वि लोगपालाणं विमाणे विमाणे उद्देसओ, चऊसुवि विमाणेसु चत्तारि उदेसा अपरिसेसा, नगरं ठिईए नागतं :---- आदि दुम विभागूणा पलिया पणयस्त होति दो चेप दो सतिभागा वरुणे पलियम हावच्चदेवाणं. 3 १. तृतीयशते प्रायेण देवाधिकार उक्त, अतः प्रायस्तदधिकारवदेव चतुर्थ शतम् तस्य पुनरुदेशकार्याधिकारसंग्रहाय गाथा' चत्तारि ' इत्यादि व्यक्तार्था; ' अचणिअ ' त्ति सिद्धायतने जिनप्रतिमाद्यर्चनम् अभिनवोत्पन्नस्य सोमाऽऽख्यलोकपालस्य इति. १. प्रीजा शतकमा घणी सरी हकीकत देवो संबंवे ज जगात्री हे, तेथी चोथा शतकमां पण घणी खरी हकीकत तेथी ज जणाववानी छे. चोथा शतकना उद्देशकोमां कया कया विषयो संबंधे चर्चा करवानी छे ए वातने जणावनारी गाथा आ हे : -- [ ' चत्तारि ' इत्यादि. ] ए चारे गाथानो अर्थ पण स्पट छे. [अबणि 'ति] अर्धनिका ताजा जन्मेला सोम नामना लोकपालद्वारा सिद्धायतन मां रहेली जिनप्रतिमा वगेरेनुं पूजन अर्थनि - १. प्र० उ० पानी पि चचारि उदेसा माणिअव्वा, जान महिदीए, जाव- वरुणे महाराया. BOLJ 66 ए रीते चारे लोकपालोना प्रत्येक विमाननी हकीकत पूरी धाय एक एक उदेशक जाणवो-चारे विमाननी हकीकत पूरी तां पूरा चारे उदेशक समजवा विशेष ए के, स्थितिआवरदा-मां भेद समजवो-आदिना बेनी-सोमनी अने यमनी - आवरदा त्रण भाग ऊणा पस्योपम जेटली छे, वैश्रमणनी आवरदा पोपनी छे अने वरुणनी आवरदा व्रण भाग सहित ये पहयोपमनी छे. तथा अपत्यरूप देवोनी आवरदा एक पल्योपमनी छे. 1 राजधानीओ. भगवंत अज्जसुम्मसामिपणीए सिरीभगवई सुते चउत्थसये पढमादिअ उदेसा सम्मत्ता. " १. रायहाणीसुविचचारि उद्देसा भाणिअच्छा' ते चैवम्:-" केहिं णं ते! ईसाणस्स देविंदरस, देवरण्णो सोमरस महारष्णो सोगा नाम रायहानी पण्णत्ता गोयमा ! सुमणस्त्र महायिमाणस्सा आहे, सपविसं० " इत्यादि पूर्वोक्तानुसारेण जीवाभिगमोक्तविजयराजधानीवर्णकानुसारेण च एकैक उदेशकोऽन्येतव्य इति ननु एता राजधान्यः किल सोमादीनां शक्रस्य, ईशानस्व सम्बन्धिनां खेोकपालानां प्रत्येकं चतत्र एकादशे कुण्डडवराभिधाने द्वीपे द्वीपसागरशयां पते उक्तं हि तत् संग्रहिण्या:कुंडेलनगर अभितरपासे होंति रायहाणीओ, सोलस उत्तरपासे सोलस पुण दक्खिणे पासे. जा उत्तरेण सोलस ताओ ईसाणलोगपालाणं, सक्कस्त लोगपालाणं दक्खिणे सोलस हवंति." १. प्र० उ०- राजधानी ओना संबंधां पण एक एक राजधानी संबंधी हकीकत पूरी थतां एक एक उद्देशक पूरो समजत्रो अने ए रीते राजधानीओना संबंधे चार उद्देशक पूरा समजवा, यावत्ए ने वरुण महाराजा मोटी व छे. १. मूलच्छायाः स्फटिकावतंसकः, रत्नावतंसकः, जातरूपावतंसकः, मध्ये ईशानावतंसकः; तस्य ईशानावतंसकस्य महाविमानस्य पौरस्त्येन तिर्यग् असंख्येयामि योजनसानि व्यतित्र तत्र ईसागस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्व सोमस्य महाराजस्य सुमनो नाम महाविमानं तम् अर्थत्रयोदशयोजनम्०, बघा शकस्य वचन्ता तथा ईशानस्यापि यावदनिका गाड़ा. चतुर्णाम् अपि छोकपालानां विमाने विमाने उद्देशकः अपि विमानेषु चत्वारः उद्देशा अपरिशेषाः, नवरम्-स्थित्याः नानात्वम्ः आयौ द्वौ त्रिभागोनौ पल्योपमौ धनदस्य भवतो द्वौ चैव द्वौ सत्रिभागों वरुणः पल्योपमं यथाऽपत्यदेवानाम्. २. राजधानीषु अपि चत्वारो उद्देशाः भणितव्याः, यावत्-महर्षिकः, याषत् - वरुणो महाराजः - अनु० १. प्र० छाया : - कुत्र भगवन् ! ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य सोना नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ! गौतम! सुमनस्य महाविमानस्याऽधः, सपक्षे० २. कुण्डलनगस्याऽभ्यन्तरपार्श्वे भवन्ति राजधान्यः, षोडश उत्तरपार्श्वे षोडश पुनर्दक्षिणे पार्श्वे. या उत्तरस्यां षोडश ता लोकपालानाम् एकस सोकपालानां दक्षिणा पो भवन्तिः अनु " m Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४. उद्देशक १-८. एताश्च सोमप्रभ-यमप्रभ-वैश्रमणप्रभ-वरुणप्रभाभिधानानां पर्वतानां प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु भवन्ति, तत्र वैश्रमणनगरीरादौ कृत्वाऽभिहितम्: " मैज्झे होइ चाउण्हं वेसमणपभो नगुत्तमो सेलो, रइकरयपव्वयसमो उन्हु-चत्त-विक्खंभे. तस्स य नगुत्तमस्स उ चउदिसिं होति रायहाणीओ, जंबदीवसमाओ विक्खंभायामओ ताओ. पुत्रेण अयलभद्दा समकसा-(समुक्कसा ) रायहाणी दाहिणओ, अवरेण ऊ कुबेरा धणप्पभा उत्तरे पासे. एएणेव कमेणं वरुणस्स होंति अवरपासम्मि, वरुणप्पभसेलस्स वि चउद्दिसिं रायहाणीओ. पुव्वेण होइ वरुणा वरुणपभा दक्खिणे दिसीभाए, अवरेण होइ कुमुआ उत्तरओ पुंडरगिणीआ. एएणेव कमेणं सोमस्स वि होंति अवरपासम्मि, सोमप्पभसेलस्स वि चउदिसिं रायहाणीओ. पुव्वेण होइ सोमा सोमप्पभा दक्खिणे दिसीभाए, सिवपागारा अवरेण होड़ नलिणा य उत्तरओ. एएणेव कमेणं अंतकरस्स वि य होंति अवरेणं, समवित्तिप्पभसेलस्स चउदिसिं रायहाणांओ. पुव्वेण ऊ विसाला अतिविसाला ओ दाहिणे पासे, सेजप्पभाऽवरेणं अ मुआ पुण उत्तरे पासे." इति. इह च ग्रन्थे सौधर्मावतंसकाद् ईशानावतंसकाच असंख्येययोजनकोटी~तिक्रम्य प्रत्येकं पूर्वी दिदिक्षु स्थितानि यानि सन्ध्याप्रभादीनि सुमनःप्रभृतीनि च विमानानि, तेषामधोऽसंख्याता योजनकोटीरवगाह्य प्रत्येकमेकैका नगर्युक्ता, ततः कथं न विरोध इति ? अत्रोच्यतेःअन्यास्ता नगर्यः, याः कुण्डलेऽभिधीयन्ते, एताश्चाऽन्या इति; यथा शके-शानागमहिषीणां नन्दीश्वरद्वीपे, कुण्डलद्वीपे च. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे चतुर्थशते प्रथमादिअष्टम-उद्देशके श्रीअभयदेवसूरि विरचितं विवरणं समाप्तम्. १.['रायहाणीसु वि चत्तारि उद्देसा भाणिअव्वा' ] राजधानीओ संबंधे चार उद्देशक कहेवा. ते आ प्रमाणे:-" हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज ईशानना सोम महाराजानी सोमा नामनी राजधानी क्या आवी-कही-छे ? हे गौतम ! (ते राजधानी) सुमन नामना महाविमाननी जीवाभिगम. बराबर नीचे छे. " इत्यादि बधुं आगळ कह्या प्रमाणे अने जीवाभिगममां कहेला विजयराजधानीना वर्णकने अनुसारे कहेQ-ते रीते एक एक द्वीपसागर- राजधानी संबवे एक एक उद्देशक एम चार उद्देशक कहेवा. शंः-द्वीपसागरप्रज्ञप्तिमा एम संभळाय छ के, शक्र अने ईशान इंद्रना सोम वगेरे प्राप्ति. लोपालोनी एक एकनी चार चार राजधानीओ अग्यारमा कुंडलवर नामना द्वीपमा छे. संग्रहणीमा ते संबंधे कथु छ के- कुंडल नामना पर्वतना अंदरना पडखामा उत्तरनी बाजुए सोळ अने दक्षिणनी बाजुए सोळ-एम वधी मळीने बत्रीश-राजधानीओ छे. जे सोळ राजधानीओ उत्तरनी बाजुए छे ते ईशान इंद्रना लोकपालोनी छे अने जे सोळ राजधानीओ दक्षिणनी बाजुए छे ते शक इंद्रना लोकपालोनी छे. "ए बधी राजधानीओ सोमप्रभ, यमप्रभ, वैश्रमणप्रभ अने वरुणप्रभ नामना पहाडोनी (एक एक पहाडनी) चार चार दिशामां छे. तेमां वैश्रमणनी नगरीओने आदिमा राखीने कह्यु छ के--" चारे राजधानीओनी वचोवच वैश्रमणप्रभ नामनो पहाड छे-ते पहाड सर्व पहाडोमा उत्तम-छे अने तेनो उद्वेध, उंचाई अने विस्तार रतिकर नामना पर्वतनी सरखो छे. ते नगोत्तमनी चारे दिशाओमा चार राजधानीओ छे-तेओनी लंबाई अने पहोळाई जंबूद्वीप जेटली छे. पूर्व दिशामां अचलभद्रा नगरी छे, दक्षिण दिशामां समुत्कर्षा नगरी छे, पश्चिम दिशामां कुबेरा अने उत्तरना पडखामा धनप्रभा नगरी छे. ए ज क्रमवडे वरुणप्रभ नामना पहाडनी बीजी बाजुर-पश्चिमे चारे दिशामा वरुणनी चार राजधानीओ छे-पूर्व दिशामा वरुणा, दक्षिण दिशामां वरुणप्रभा, पश्चिममा कुमुदा अने उत्तरमा पुंडरगिणिआ नगरी छे. ए ज क्रमवडे सोमप्रभ नामना पहाडनी बीजी बाजुर-पश्चिमे चारे दिशामां सोमनी चार राजधानीओ छे-पूर्व दिशामा सोमा, दक्षिण दिशामा सोमप्रभा, पश्चिममां शिवप्राकार। अने उत्तरमा नलिना नगरी छे. ए ज कमवडे समवर्तिप्रभ नामना पहाडनी बीजी बाजुए-पश्चिमे चारे दिशामा यमनी चार राजधानीओ छे-पूर्व दिशामां विशाला, दक्षिण दिशामां अतिविशाला, पश्चिममां शय्याप्रभा अने उत्तरमा मुदा नगरी छे" ए प्रमाणेनी हकीकत द्वीपसागर प्रज्ञप्तिमा छे त्यारे आ ग्रंथमां ए राजधानीओ संबंधे जणाव्युं छे के, सीधर्मावतंसकथी अने ईशानावतंसकथी असंख्य कोड जोजन दूर गया पछी जे, पूर्व वगरे दिशाओमां-एक एक दिशामा रहेलां संध्याप्रम विगरे अने सुमनःप्रभ विगेरे विमानो छे ते बिमानोनी नीचे असंख्य कोड जोजन अवगाया पछी ते एक एक विमाननी नीचे एक एक नगरी कही छे. समाधान. तो राजधानीओ विषेनी पूर्वनी हकीकत अने आ ग्रंथमां कहेली हकीकत मळती नथी आवती, माटे तेमा विरोध का न होय ? समा-जे नगरीओ कुंडलद्वीपमा छे ते जूदी छे अने जे नगरीओ आ ग्रंथमा जणावी छे ते पण जूदी छे, माटे विरोध आववानुं कारण नथी. जेम शक अने ईशान इंद्रनी पट्टराणीओनी नगरीओ नंदीश्वर द्वीपमा छे अने कुंडल द्वीपमां पण छे तेम अहीं पण समजवू. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ।। १. प्र. छाः-मध्ये भवति चतुर्णा वैधमणप्रभो सगोत्तमः शैलः, रति करकपर्वतसमः उद्वेधो-धत्व-विष्कम्भे. तस्य च नगोत्तमस्य तु चतुर्दिशि भवन्ति राजधान्यः, जम्बूद्वीपसमा विष्कम्भाऽऽयामतस्ताः. पूर्वस्याम् अचलभद्रा समुत्कषी राजधानी दक्षिणतः, अपरस्यां तु कुबेरा धनप्रभा उत्तरस्मिनु पार्श्वे. एतेनैव क्रमेण वरुणस्य भवन्ति अपरपावं, वरुणप्रभशैलस्याऽपि चतुर्दिशि राजधान्यः. पूर्वस्यां भवति वरुणा वरुणप्रभा दक्षिणे दिशाभागे. अपरस्यां भवति कुमुदा उत्तरतः पुण्डरिकिणी. एतेनैव क्रमेण सोमस्याऽपि भवन्ति अपरपार्वे, सोमप्रभशैलस्याऽपि चतुर्दिशि राजधान्यः, पूर्वस्यां भवति सोमा सोमप्रभा दक्षिणे दिग्भागे, शिवप्राकाराऽपरस्यां भवति नलिना चोत्तरस्याम्. एतेनैव कमेग अन्तकरस्याऽपि च भवन्ति अपरस्याम्, समवर्तिप्रभशैलस्य चतुर्दिशि राजधान्यः, पूर्वस्यां तु विशाला अति विशाला तु दक्षिणे पार्थे, शम्पाप्रभाऽपरस्याम् च मुदा पुनरुत्तरे पार्श्व-अनु० Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · शतक ४.-उद्देशक ९. नरयिकोमा जे पेदा थाय ते नरयिक के अनेरयिक ?-प्रशापनाना लेश्यापदना त्रीजा उद्देशनी वक्तव्यता. १. प्र०-नेहए णं भंते ! . नेरइएस उववज्जइ, अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ ? . १. उ०-पनवणाए लेस्सापए तइओ उद्देसओ भाणियव्यो, जाव-नाणाई. १. प्र०—हे भगवन् । नैरयिक होय ते, नैरयिकोमा उत्पन्न थाय के अनैरयिक होय ते, नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ? १. उ०-हे गौतम! प्रज्ञापना सूत्रमा कहेला लेश्यापदनो त्रीजो उद्देशो अहीं कहेवी अने ते यावत्-ज्ञानोनी हकीकत सुधी कहेवो. भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुते चउत्थसये नवमो उद्देसो सम्मत्तो. १. अनन्तरं देववक्तंव्यता उक्ता, अथ वै.क्रेयशरीरसाधाद् नारकवक्तव्यताप्रतिबद्धो नवम उद्देशक उच्यते, तत्र इदमादिसूत्रम्:* नेरइए णं' इत्यादि, 'लेस्सापए 'त्ति सप्तदशपदे, 'तइओ उद्देसओ भाणियव्यो' ति. क्वचिद् द्वितीयः' इति दृश्यते,.स चाऽपपाठ इति; स चैवम्:-" गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववजइ, नो अणेरइए णेरइएसु उववज्जद" इत्यादि. अयं चास्यार्थः'नैरेयिको नैरयिकेषु उत्पद्यते, न पुनरनैरयिकाः कथं पुनरेतत् ? उच्यतेः-यस्माद् नारकादिभवोपप्राहकम प्रथमसमयसंवेदनकाल एव नारकादिव्यपदेशो भवति ऋजुसूत्रनयदर्शनेन. यत उक्तं नयविद्भिर्ऋजुसूत्रस्वरूपनिरूपणां कुर्वद्भिः "पलालं न दहत्यग्निभिद्यते न घटः क्वचित् , न शून्याद् निर्गमोऽस्तीह न च शून्यं प्रविश्यते. नारकव्यतिरिक्तश्च नरके नोपपद्यते, नरकाद् नारकश्चाऽस्य न कश्चिद् विप्रमुच्यते" इत्यादि-इति. 'जाव-नाणाई' ति, अयमुद्देशको ज्ञानाधिकारावसानोऽध्येतव्यः, स चाऽयम्:-" कैण्हलेस्से णं भंते । जीवे कइसु (कयरेसु ) नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा, तिसु वा, चउसु वा नाणेसु होजा, दोसु होज्जमाणे आभिणिबोहिअ-सुअनाणेसु होज्जा" इत्यादि. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे चतुर्थशते नवम उद्देशके श्रीअभय देवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. १. मूलच्छायाः-नैरथिको भगवन् ! नैरयिकेषु उपपद्यते, अनैरयिको नैरयिकेषु उपपद्यते ? प्रज्ञापनायाः लेश्यापदस्य तृतीयः उद्देशको भणितव्यः, यावत्-ज्ञानानि:-अनु० १. जओ प्रज्ञापना सुत्र, पद-१७ (१० ३५२-३५६स०):-अनु० १.प्र. छा:-गौतम ! नैरयिको नैरयिकेषु उपपद्यते, नो अनैरयिको नैरयिफे षु उपपद्यतेः-अनु० २. इतः पाठात् 'विप्रमुच्यते' इत्यन्तानि अक्षराणि प्रज्ञापनाया मलयगिरिरचितटीकायामपि एतानि इव संप्राप्यन्तेः-अनु. ३. कृष्णलेश्यो भगवन् ! जीवः कतिषु (कतरेषु ) ज्ञानेषु भवेत् । गौतम ! योबी, त्रिषु वा, चतुर्पु वा ज्ञानेषु भवेत् , द्वयोर्भवन् आभिनियोधिक-श्रुतज्ञानयोर्भवेतः-अनु० Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४.-उद्देशक ९, १. आगळना उद्देशकोमा देवो संबंधे हकीकत कही छे अने हवे आ नवमा उद्देशकमा नारको संबंधी हकीकत जणाववानी छे. कारण के जेम देवो वैक्रिय शरीरने धारण करे छे तेम नारको पण वैक्रियशरीरना धारक छ माटे देव पछी नारकोनी वक्तव्यता कहेवी ए ठीक जणाय छे. श्यापद. तेमां आदि सूत्र आ छ:-[ 'नेरइए णं' इत्यादि.][लेस्सापए ' ति] लेश्या नामना सत्तरमा पदमा [तईओ उद्देसओ भाणियव्यो 'त्ति ] बोटं छे. आवेलो त्रीजो उद्देशक अहीं कहेवो. कोई ठेकाणे " बीजो उद्देशक" एम देखाय छे ते खोटुं छे. ते त्रीजा उद्देशकनो पाठ आ रीते छ:-"हे शंका, गौतम ! नैरयिक होय ते नैरयिकोमा उत्पन्न थाय छ, पण जे अनैरयिक छे, ते नैरयिकोमा उपजतो नथी." इत्यादि. शं०-साधारण बुद्धिथी विचार करतां जणाय छे के, मनुष्य अने पशु विगरे नारकिमां उत्पन्न थाय छे, त्यारे अहीं कहेवामां आव्यु छ के, जे नैरयिक-नारकी-होय ते, नरकमा उत्पन्न थाय छे अर्थात् अहीं कहेली वात अने सर्वना अनुभवमा आवती बात, ए बन्ने वातोमा विरोध आवे छे अने अनुभवली वातने माधान, खोटी करवान साधन जणाव्या सिवाय बिन अनुभवेली हकीकतने साची ठराववी ए केवी रीते ? समा०-ज्यारे मनुष्य के पशु विगेरे अहींथी मरीने नरकमां उत्पन्न थाय छे त्यारे तेओए मर्या पहेलां-मनुष्य के पशुनी जींदगीनी हाजरी हती त्यारे-नरकमां जवाने योग्य आयुष्य कर्म बांध्यु ज होय छे-ते सिवाय तेओ नरकना अधिकारी बनी शकतां नथी. हवे आपणे विचारीए के अहींथी कोइ पण मनुष्य के पशु नरकमां जवाने रवाना थयो त्यारे तेने त्यां पहोंचतां थोडामां थोडा पण वखतनी जरूर रहे छे. जेटलो समय तेने त्यां पहोंचतां लागे छे तेटला समय सुधी ते ( नरक भणी ) जनार जीवने आपणे कइ गतिनो कहेवो जोइए ? तेना जवाबमा विचारतां जणाय छे के, हवे ते जीव जे गतिने छोडीने चाल्यो छे ते गतिनो-मनुष्य के पशु गतिनो-तो नथी ज, तेम देव गतिनो पण नथी ज. कारण के जीव पासे जे गतिने योग्य आयुष्यनी हाजरी होय तेज गतिनो ते गणाय छे, तो आ जनार जीव पासे देव, मनुष्य के पशु गतिनुं आयुष्य तो नथी-जो ते आयुष्य, तेनी पासे होत तो तेने स्वमे पण आ रस्तो लेवानी जरूर न रहेत, मात्र तेनी पासे एक नरक गतिर्नु आयुष्य छे अने तेने लीधे ज ते नरकने पंथे पढ्यो छे, आपणे आगळ जोई गया के, जे जीव पासे जे गतिनुं आयुष्य होय ते जीव तेज गतिनों कहेवाय छे, तो हवे आपणो जवाब मळी गयो के, ए जनार जीव नरक गतिनो-नारकी-छे, कारण-तेनी पासे अत्यारे मात्र एक नारकिने योग्य आयुष्यनी ज हाजरी छे, माटे ते जनार जीव नारकिनो ज छे अने ए रीते शास्त्रमा जे कयु छ के, 'जे नारकी होय ते ज नरकमा जाय छे' ते काई खोटुं नथी. जो के आपणो स्थूल अनुभव एवो छ के, अमुक मनुष्य मरीने नारकिमा गयो, पण तेमां खरी हकीकत ए छे के, ज्यां सुधी जीवनी साथे मनुष्यना आयुष्यनो संबंध होय छे त्यां सुधीज ते.मनुष्य कहेवाय छे, ज्यारथी ते जीव साथेनो मनुष्यना आयुष्यनो संबंध तूट्यो त्यारथी सूक्ष्मदर्शी पुरुषो तेने ' मनुष्य ' न कहे तो ते खोटे नथी-पण जे गतिना आयुष्यनी साथे तेनो संबंध छे ते गतिनो व्यवहार ते जीव प्रति करे तो ते पण साचुं छे. माटे आपणो अनुभव सर्वथा स्थूळ छे अने शास्त्रमा कहेली वात तो अमुक अपेक्षाने अवलंबीने जणावाय छे माटे योग्यतानुसारे बेमांथी एक पण खोटुं नथी अर्थात् जे जीवनी साथे जे भवने (नारक बगेरेना भवने ) पमाडनारं आयुष्य लाग्युं होय अने ते जीव ज्यारथी ते भवना ( नारक वगेरेना भवना ) आयुष्यनुं वेदन करतो होय त्यारथी ज-आयुष्यने अनुभव करवाना पहेला समयथी ज-ऋजुसूत्र नयना मतथी (ते जीव ) ते भववाळो (नारक वगेरे भववाळो-नारकि कजुसूत्र. वगेरे ) कहेवाय छे- ऋजुसूत्र नय मात्र वर्तमान स्थिति उपरथी ज पदार्थों प्रति व्यवहार चलवे छे. तेनी दृष्टि, भूत अने भविष्यत्काळ तरफ तो औदासीन्य धारण करे छे. नयज्ञानमां प्रवीण पुरुषोए ऋजुसूत्र नयना स्वरूपर्नु निरूपण करतां कषं छे के, “पराळने अग्नि बाळतो नथी, कोई ठेकाणे घडो फुटतो नथी, शून्यमांथी कांइ नवु पेदा थतुं नथी अने शून्यमा प्रवेश पण थतो नथी. " नारकी सिवायनो कोइ बीजो जीव नरकमां पेदा थतो नथी अने नरकथी कोइ नारक छुटो पण तो नथी ए रीते ऋजुसूत्र नयनो मत छे" इत्यादि जाणवं. नरकथी कोइ नारक 'छुटो पण थतो नथी' एटले जे काळे जीव नरकथी छुटो थाय ते काळे ते, नारक-नारकी-ज शेनो? अने जे काळे जीव नारक (नारकी) होय ते काळे ते, नरकथी छुटो ज केम थइ शके ? अर्थात् ज्यां सुधी जे आयुष्य तेनी पासे होय त्यां सुधी ते आयुष्यनो धणी ते, कहेवाय माटे नारकर्नु आयुष्य पूरूं थइ रह्या पछी तेनी पासे जे गतिनुं आयुष्य होय ते गतिवाळो ते जीव नरकथी बीजे ठेकाणे जाय छे एम व्यवहार थाय, पण नरकथी नारकी (नरकना आयुष्यवाळो ) बीजे ठेकाणे जाय छे एम व्यवहार न थाय-एम ऋजुसूत्र नयनु सापेक्ष मत छ. [ 'जाव-नाणाई' ति ] आ उद्देशक अहीं ज्ञान संबंधी हकीकत सुधी जाणवो. ते आ रीते:--" हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळो जीव केटलां ज्ञानमां वर्ते-केटलां ज्ञानवाळो होय ? हे गौतम ! ते, बे ज्ञानमां, पण ज्ञानमां के चार ज्ञानमा होय. जो बे ज्ञानमा होय तो मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानमा होय, जो त्रण ज्ञानमा होय तो मति, श्रुत अने अवधिज्ञानमा होय " इत्यादि जाणवू. शान. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सर्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । . अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४.-उद्देशक १०. कृष्णलेश्या नीललेश्याने पामीने तद्रूपपणे अने तद्वर्णपणे परिणमे ?-प्रशापनाना लेइयापदनो चतुर्य उद्देशक.- लेवानां परिगाम-वर्ण-रस-गंध- शुद्ध-अप्रशस्त संकिष्ट-उल-गते-परिगाम-प्रदेश -आमाह-वर्गणा स्थान-' र 'बहु व. हे भगवन् ! ते प. प्रमाणे. - . १. प्र0-से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारू- . १. प्र० - हे भगवन् ! कृष्णलेश्या नीललेश्यानो संयोग पामी वत्ताए, तावण्णत्ताए ? ते रूपे अने ते वर्णे परिणमे?. १. उ0-एवं चउत्थो उद्देसओ पण्णवणाए चेव लेस्सापदे । १. उ०—हे गौतम ! प्रज्ञापना सूत्रमा कहेलो लेश्या पदनो णयबो, जांव चोथों उद्देशक अहीं कहेवो अने ते यावत्-'परिणाम ! इत्यादि द्वार गाथा सुधी कहेवो. १. मूलच्छायाः-तद् नूनं भगवन् ! 'कृष्णलेश्या नीललेषां प्राप्य तद्रूपतया, तपूर्णतया ? एवं चतुर्थः 'उदेशकः 'प्रज्ञापनायाश्चैव" लेश्यापदे ज्ञातव्यः, यावत्:-अनु. १. व्याख्याप्रज्ञषितां एटले.भावतीसूत्रमा अनेक स्थळे. जहा पत्राणाए' शब्द भळःया करे छे. ते नो अर्थ एम थाय छे के, जे प्रज्ञापनामां कह्यु छ तेम अहीं पण समजी लेतुं आ प्रकारे आ सूत्रम स्थळे स्थळे आवता प्रज्ञारना (पनवणा) सूत्रनो परिचय आपयो अहीं आवश्पक लागे छ. साथी प्रथम प्रज्ञापनासूत्रनु स्वरूप जणावी पछी तेना कता अने..तेनी शैली विषे जणाववान छे, प्रज्ञापना सूत्रना टीकाकार श्रीमलयगिरि जी.ए... टीकाना आरंभमां ज जणाचे छे के, “ इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थ-अस्य उपागम्-तदुक्कार्थप्रतिपादनात् " अर्थात् " आ प्रज्ञापना-पत्र चोथा समवायअंगर्नु उपांग छे. कारण के, समवाय-अंग-मों कहेला अ आ प्रज्ञापनामाँ"प्रतिपादेला छे"-(प्रज्ञापे० पृ० १ स.) टीकाकार श्रीना आ उलेखमा विश्वास राखीने भले आपणे 'प्रज्ञापना' सूत्रने चोथा समवाय- अगर्नु उपांग-मानी लंइए. तो पण तेओश्रीए ए उल्लेखनो संवादक एकाद प्राचीन उल्लेख पोताना उल्लेख पासे प्रमाण तरीके टोक्यो होत तो विशेष 'उचिंत थात; अंग अने उपांगना परस्पर-संकलननी व्यवस्था, विपयनी दृष्टिए अनेडी लागती होवाथी एने एनी दृढती माटे प्राचीन उल्लेखना टेफानी विशेष जरूर जणाय छे. (आ विषे अहीं विशेष न लखतां भगवती वि० ख०, पृ. ३६ पर आवेल 'राजप्रश्नीय'ने लगतुं टिप्पणं जवानी ज भलामण करूं') टीकाकारथी' तदुक्कार्थप्रतिपादनात् ' हेतु आपीने प्रज्ञापनाने समवायअंगर्नु उपांग जणावे छे तेज हेतुथी 'आ'प्रज्ञापना स्थान ग (ठाणांग) के भगवतीमूत्रनुं पणं आंग थइ-शके छे. माटे ज आ सूत्रना (प्रज्ञापनाना) अंगोपांगीभावनी दृढता माटे पुष्ट अने प्राचीन उल्लेखनी तथा निदोष हेतुनी गवेषणां करवी अगत्य नी छे. आ. : "प्रज्ञापना''नो ग्रंथनाम' तरीकेनो. उल्लेख नंदीसूत्रमा मळी आवे छे. नंदीसूत्रमा ध्रुतग्रंथोनो नामवार निर्देश आपेलो छे. तेमा नोभ्यु छे के;".जीवाभिगमो, पनवणा, महापनवणा। इत्यादि. (जूओ भ. द्वि० ख० पृ. ३६ टिप्पण) आ.नोधमा एउआंग तरीके नहि पण एक श्रुतग्रंथ तरीके नोधाएलं छे एथी. एनी उपांगताना प्रश्ननु निराकरण थई शव तुं नथी; तथा ए पनवणा' अने आ 'प्रज्ञापना सूत्र' एबने एक जछे के केम? : ए पण कांइ कही. शकातुः नथी. कारण केत्यां टीकाकार श्रीमलय गिरिजीए 'पनवणांविषे कोइ जातनो विशेष उखः करेलो: जणातो : नथी..जे प्रज्ञापना-पनवणा-आपणी पासे हयात छे तेमां कुल.३६ प्रकरण छे-एनी संकलना करनारे के एना रचनारे एमांनी प्रकरणने 'पद' शब्दे निर्देशेला छे.. १लं पद"प्रज्ञापना छे; तेमां जीव अने अजीवना मुख्य अने पेटा भेदो विषे सविस्तर विवेचन छे. २जं. स्थान पद छ, तेमा साधारणं जीवथी लइने सिद्ध सुधीना 'जीवोना स्थानक-रहेठाण-वर्णवेलां छे. ३जु अल्पवहुल पद छ, तेमां जीव अने अजीवना अनेक प्रकारोमा कयो प्रकार कया प्रकारथी न्यूनाधिक छे ते विगतवार जणावेलुं छे. ४धुं स्थिति पद छे, एमां दरेक प्रकारना जीवोनी ओछामां अंछी अने वधारेमा वधारे आयुष्यनी मर्यादा-सूचवेली छे. ५४ पर्याय पद छे, तेमा सर्व प्रकारना जीव अने अजीवना. पर्यायो नोंयेला छे. ६टुं उपपात-उद्वर्तना पद छे, एमां जीवोनां उपपात, उपपातनो बिरह अने उद्वर्तना जणाव्यां छे अने कयो जीव क्याथी क्या उपजे एं पण नोंधेलु'छे. मुं उच्छ्वास पद छे, एमां कयो जीव ओछामा ओछे अने वधारेमा बंधारे केटले वखते श्वास ले छे-ए हकीकतः आपेली छः ४नु संज्ञापद छे, एमां संज्ञाओनी संख्या अने कयो जीव कइ संज्ञावाळो छे-ए जणावेलु छ। मुं योनिपद छे, एमी योनि-उत्पत्तिस्थान-ना प्रकार अने कया जीवनी कइ योनि होय. छे-ए नोंघेलु 'छ. . १०मुं. चरमाचरम पद. छे, एमा पदार्थमात्र नरिअपेक्षाकृत चरमता अने अचरमतानो. सविस्तर.विचार करेलो. छे.. ११९ भाषापद., एम.भाषाना प्रकारो, कया जीवोने कया प्रकारनी Jain Education international Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ४.-उद्देशक १०. परिणाम-वण्ण-रस-गंध-सुद्ध-अपसत्थ-संकिलिगु-हा, गह-परिणाम-पएसो-गाह-वग्गणा-ट्ठाणमप्पबहुं. द्वार गाथाः-परिणाम, वर्ण, रस, गंध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान अने अल्पबहुत्व; ए बधुं लेश्याओ संबंधे कहे. भाषा होय छे, भाषानां परमाणुओर्नु प्रहण अने तेना प्रकारो, ए परमाणुओना वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, अवगाहना अने स्थिति, भाषानां अणुओना प्रहण अने मोचननो समय, ए द्रव्योनो (भाषानां अणुओनो) मेद-तुटी जवु विगेरे विशेष गंभीर विषयो चर्चेला छे. १२९ शरीरपद छ, एमां शरीरना प्रकारो अने पेटा प्रकारो विगेरे जणावेलुं छे. १३मुं परिणाम पद छ, एमां जीव अने अजीवना परिणामो अने तेना अनेक प्रकारो जणाव्या छे. १४मुं कषायपद छ, एमां कषायो, कषायवाळाओ अने कर्मना चयनो उल्लेख आवेलो छे. १५मुं इंद्रियपद छ, एमां इंद्रियोना प्रकारो, आकारो, जाडाई, पहोळाई, अवगाहना, स्पर्शी विगेरे विषे घणु तलस्पर्शी विवेचन करेलुं छे तथा कर इंद्रिय केवी रीते अने केटले छेटेयी पोताना विषयने ओळखी ले छे, कद इंद्रियने विषयने ओळखती वखते विषयनो संबंध (संस्पर्श) राखवो पडे छे अने ए संबंध कोने नथी राखवो पडतो, कार्मणपुदलोनुं देखावं, दर्पण विगेरे पारदर्शक पदार्थोमा पडतुं प्रतिबिंब अने तेनी समजण विगेरे वीजा पण अनेक विषयो चर्चेला छे. १६९ प्रयोग पद छे, एमां मन, वचन अने तनना अनेक प्रकारना प्रयोगो तथा अनेक प्रकारनी गतिओ (चालवानी रीतो) सरस रीते समजावेली छे. १७९ लेश्या पद छे, एमां लेश्याओ उपरांत बीजी पण अनेक बाबतो आवेली छे. (जूओ भ.द्वि० ख० पृ०९०-९१ टिप्पण) १८९ कायस्थितिपद छे, एमां अनेक प्रकारे कायस्थितिनुं वर्णन आपेलुं छे. १९४ सम्यक्त्वपद छे एमां सम्यक्त्वने लगती बाबत जणावी छे. २०९ अंतक्रिया पद छे, एमां अंतक्रिया अने तेने लगतुं विशेष विवेचन आपेलुं छे. २१ मुं अवगाहनापद छ, एमां अवगाहना, संस्थान अने शरीर विगेरेने लगती हकीकत जणावी छे. २२ मुं क्रियापद छ, एमां क्रिया,.क्रियाना प्रकारो तथा क्रियाने लगता बीजा अनेक विचारो पण नोधेला छे. २३ मुं कर्मप्रकृतिपद छे. एमां कर्म कर्मना स्वभाव, कर्मना प्रकार, कर्मनी स्थितिनी मयादा, अने कमैंना बंध विषे विगतवार विवेचन करेलुं छे. २४ मुं कर्मप्रकृतिबंध, २५ मुं कर्मवेद, २६ मुं कर्मबंध अने २७ मुं कर्मप्रकृति-वेदवेद-ए चारे पदोमा कर्मने लगती हकीकतो आवेली छे. २८ मुं आहार पद छे, तेमा आहार, आहारना प्रकार, क्या जीवनो क्या प्रकारनो आहार, आहारना अणुओ विगेरे अनेक विषयोनुं निरूपण छे. २९ मुं उपयोग पद छे, एमा उपयोग अने क्या जीवने क्या प्रकारनो उपयोग होय छे, ए विषे विवेचन आपेठं छे. ३० मुं पश्यत्ता पद छ, एमां 'जोवा विषे' विचार आपेलो छे. ३१ मुं संशी पद छे, एमो जीवोनी संशिता अने असंज्ञिता विगेरे विषे विवार को छे. ३२ मुं संयमपद. छे, एमा जीओनी संयमिता अने असंयमिता संबंधे विचारेनुं छे. ३३ मुं अवधिपद छे, एमा अवधिज्ञानने लगती पूरेपूरी माहिती आपेली छे. ३४ मुं प्रविचारपद छे, एमा विशेषे करीने देव अने देवीना संभोगने लगती हकीकत आपेली छे. ३५ मुं वेदना पद छे, एमा वेदनाना प्रकार अने क्या जीवने कह वेदना होय छे-ए विषय नोंधेलो छे. ३६ मुं समुद्धात पद छे, एमां समुद्धातना खरूपथी मांडीने समुद्धातने लगती सघळी हकीकतो आपेली छे.-(जुओ भ० प्र० ख० पृ. २६२) आ रीते प्रज्ञापनासूत्रना विषयोनु दिदर्शन आप्या पछी ते ना कती विषे पण विचारवं घटे छे. प्रज्ञापनासूत्रना मूळ उपरथी-तेनी शरुआतना के अंतना भाग उपरथी-तेना कतीनी माहिती मळी शकती नथी. फक्त टीकाकारना अनेक उल्लेखो उपरथी आपणे एना कती तरीके आर्यश्यामसूरिने मानी शकीए छीए. टीकाकारश्रीए ए जातना जे उल्लेखो दाव्या छे तेमांना केटलाक आ प्रमाणे छे:"भगवान् भार्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्र रचयति" "भगवान् आर्यश्याम पण आज प्रमाणे सूत्रने रचे छे" (प्र.. ७२) " भगवान् आर्यश्यामः परति" (पृ. ४७ ) "भगवान् आर्यश्याम पढे हे-कहे-छ" . " सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि भगवान् आर्यश्याम उपदिष्टवान् "बधा य प्रावनिक सरिओनां मताने भगवान् आर्यश्यामे (पृ० ३८५) उपदेशेला छ " .. " मरिराह-(पृ. ७) सूरिराह-(पृ. ८) सरिराह-(पृ० १८)सूरि. “आचार्य कहे छे-(पृ. ७-८-१८-१९-२३-२४-४१-४३-४४राह-(पृ. १८) सरिराह-(पृ. १९) हिराह-(पृ. २३) सूरिराह- ४६-५५-५८) भगवान् ( सूरि ) कहे छे-(पृ. ४२) ४७ मा पृष्ठ (पृ. २४) सूरिराह-(पृ. २४) सरिराह-(पृ. ४१) भगवानाह- उपर ' आसालिगा' नामना सर्प संबंधी विचार आवेलो छे. तेमा जणाव्यु (पृ०४२) सूरिराह-(पृ०४३) सूरिराह-(पृ. ४३) सुरिराह-(पृ०४४) छ के-" आसालिगा ए शुं कहेवाय ?" एवो प्रश्न ज्यारे शिष्ये को सरिराह-(१०४६ ) अथ का आसालिगा? एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सति त्यारे भगवान् आर्यश्याम एनो उत्तर आपे छे. जे (उत्तर) बीजा ग्रंथमांधी भगवान् आर्यश्यामो यदेव प्रन्थान्तरेषु आसालिगाप्रतिपादक गौतमप्रश्न- उद्धरेलो छे अने गीतमना प्रश्न तथा महावीरना उत्तररूप छे-अने तेने भगवनिर्वचनरूपं सूत्रमस्ति तदेव आगमबहुमानतः पठति-(पृ. ४७) अहीं आगमना बहुमानने लीधे कहेलो छे.-(पृ. ४७) ५०मा पृष्ठ उपर सूरिराह-(पृ. ४९) अत्रापि संमूर्छिममनुष्य विषये प्रवचनबहुमानतः संमूर्छिम मनुष्योने लगती हकीकत आवे छे, तेमां पण-'आ तो साक्षाद् शिष्याणामपि च ' साक्षाद् भगवता इदमुक्तम् ' इति बहुमानोत्पादनार्थम्- भगवाने कह्यं छे' एवो भाव शिष्योने उत्पन्न कराववाने सारु उपर प्रमाणेनो अनान्तर्गतमालापकं पठति-(पृ०५०) सरिराह-(पृ० ५५) सूरिराह बीजा कोइ अंग ग्रंथनो पाठ आपेलो छे.-(पृ०५०) ३८५ मा पृष्ठ उपर -(पृ०५८) सरिराह-(पृ०५८) अमीषां पञ्चानामादेशानाम् अन्यत- स्त्रीवेदनी स्थितिनी हकीकत आपेली छे. तेमा ए विषे कोई एक नकी मादेशसमीचीनतानिर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः, सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसंपनैवी कर्तु हकीकत न जणावतां पांच जुदी जुदी हकीकतो आपेली छे. मा विषे शक्यते, ते च भगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ नासीरन्. केवलं तत्कालापेक्षया टीकाकारश्री जणावे छ के, ए पांचे जुदा जुदा प्रावचनिकोना (सिद्धांत ये पूर्वतमाः सूरयः तत्कालभाविप्रन्थपावीपर्यपालोचनया यथास्वमति धुरंधरोना) मत छे. जे वखते सूरि श्रीआर्यश्याम हयात हता ते वखते स्त्रीवेदस्य स्थिति प्ररूपितवन्तस्तेषां सर्वेषामपि प्रावचनिकसूरीणां मतानि 'ए पांच मतमांथी क्यो मत सत्य छे' एवो निर्णय आफ्नार कोई अतिभगवान् आर्यश्याम उपदिष्टवान् , तेऽपि च प्रावचनिकसुरयः स्वमतेन शय ज्ञानी अथवा उत्कृष्टतम श्रुतलब्धिवाळा पुरुषनी हयाती न हती. सूत्रं पठन्तो गीतमप्रश्न-भगवनिर्वचनरूपतया पठन्ति, ततस्तदवस्थान्येव माटे श्री आर्यश्याम भगवाने पोताना समयथी पहेलांना आचार्यों ते १. मूलच्छायाः-परिणाम-वर्ण-रस-गन्ध-शुद्ध-अप्रशस्त-संक्लिटो-णाः, गति-परिणाम-प्रदेशा-ऽवगाह-वर्गणा-स्थान-अल्पबहुत्वम्:-अनु. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४- उदेशक १०. - सेवं भंते !, सेवं भंते ! ति. भगवस्तुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. " भगवंत - अनसुहम्गसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते चउत्थसये दसमो उदेसो सम्नत्तो. ' तद्वत " " 9 १. लेाऽविकारात् तता एवं दशम उदेशकस्य इदम् आदिसूत्रम्:' से णूणं इत्यादि ' तारूबचाए' चि तद्रूपतया - नीललेश्यास्वभावेन, एतदेव व्यनक्तिः - ' तावण्णत्ताए' त्ति तस्या इव नीललेश्याया इव वर्णो यस्याः सा तद्वर्णा, तद्भावस्तत्ता तयां तद्वर्णतया एवं उदेसओ इत्यादिवचनादेवं इष्टव्यम्:-" गंधवार, तारसचार, ताफासचाए मुणो भुज्जो परिणमति । हंता, गोमा ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए, तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए, ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति.' अयमस्य भावार्थ:-पदा कृष्णलेश्वापरिणतो जीवो नीडलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृहीला कालं करोति, तदा नीलेश्या परिणत उत्पयते, 'जलेसाई दनाई परिवइत्ता काल करे तलेसे उपज इति वचनात् अतः कारणमेव कार्य भवति कण्हलेसा नीललेसं पप्प' इत्यादि तु कृष्ण - नीललेश्ययोर्भेदपरमुपचारादुक्तमिति, " से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ - कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए, तìवण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए, ताफासताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ ? गोयमा ! ` से जहा नाम ए खीरे दूसिं पप्प (तक्रम् इत्यर्थः, ) सुद्धे वा वत्थे रागं पण तारूवत्ताए, तावण्णवत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताएं, ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ; से एएणद्वेगं गोयमा ! एवं बुचड़: कन्हलेसा०" इत्यादि एतेनैव अभिलापेन नीडलेया कापोतीम् कापोती तेजसी, तैजसी पद्माम्, पद्मा छ प्राप्य तद्रूपत्वादिना परिणमति इति वाच्यम् अथ कियदूरमयमुदेशको पाप्यः इत्याहः' जाव' इत्यादि, 'परिणाम' इत्यादिद्वारगाचोक्तद्वारपरिसमाप्तिं यावद् इत्यर्थः तत्र परिणामो दर्शित एव तथा वष्णति, कृष्णा दिलेश्यानां वर्णों वाच्यः, स चैत्रम्:- "कॅण्हलेस्सा णं भंते ! केरिसिआ वण्णेणं पण्णत्ता ? " इत्यादि. उत्तरम् :- कृष्णलेश्या कृष्णा जीमूतादिवत्, नीललेश्या नीला शृङ्गादिवत् कापोती कापोतवर्णा खदिरसारादिवत् तैजसी लोहिता शशकरक्तादिवत् पद्मा पीता चम्पकादिवत् शुक्छा शुक्ला शङ्खादिवद् इति तथा 'रस' त्ति - रसस्तासां वाच्यः- तत्र कृष्णा तिक्तरसा निम्बादिवत्, नीला कटुकरसा नागरवत्, कापोती कषायरसा अपक्वत्र दरवत्, तेजोलेश्या आम्डमधुरा पक्वाम्रादिकवत् पद्मया कटुकषायमधुररसा चन्द्रप्रभासुरादिवत् - " 6 - , मूत्राणि लिखता ' गोतमा' इत्युक्तम् अन्यथा भगवति गौतमाय निर्देशरि न संशयकथनमुपपद्यते भगवतः सकलसंशयातीतत्वात् " (१०२८५) १३७. - हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कांही याषत् विहरे छे. दुद्धरधरेण मुणिणा पुत्र सुसमिद्धबुद्धीण । १ पसागराणि गुण दि सोसगणस्स भगनओ तस्य णमो अब सामस्स १ - ( अन्य कर्तक) ". - पुरुष से हमे आप ही पुरुष परिवाकोशीश करिए से स्थानापासून गाथाओ मळी आवे छे अने तेमां आ आर्यश्याम सूरिजीनो कांइक परिचय मळतो लागे छे. ते गाथाओ आ छेः "बावरा देवसद्मेण धीरपुर . , उपर जणावेला टीकाकारश्रीना अनेक उल्लेखो उपरथी एवं तरी आवे छे के, आ प्रज्ञापनासूत्रना प्रणेता श्री ' आर्यश्यामसूरि' नामे कोइ असाधार कोयीजानी करेली में , समयना साहित्यनी सहायने ली परापूर्वथी जे मान्यता मानता आव्या हता तेने तेवीने तेवी ज अर्हीीं उनदेशेली छे. जो के, आ विषयने लगती सूत्रनी रचना गातमना प्रश्न अने महावीरना उत्तररूप छे. ए जोतां तो ए पांच जुदी जुदी हकीकतो न आववी जोइए. कारण के, श्रीमहावीर तो सकल संशयातीत होवाथी तेओए पोताने श्रीमुखे एक नक्की हकीकत गौतमने कहेवी जोइए, आवो संदेह आपणने थाय ए स्वाभाविक छे. एना समाधान टीकाकारी जगा के आसूत्र रचना कांद साक्षात् महावीर अने गौतमना प्रशोत्तररूप नथी. ए तो ते ते मतवाळा पोतपोताना मतने जणावतां पण गौतमना प्रश्न अने महावीरना उत्तरएलीन रचना करीने जगावे छे. माटे नहीं भी आर्यश्वावसूरिए पण तेओनी ते शैली जेवीने तेवी कायम राखीने ए शब्दो टांक्या छे माटे आ प्रस्तुत विषयमा प्रश्नोत्तरोने गौतम अने महावीरना समजवानी भूल करवानी नथी. " १. मूलच्छायाः तदेवं भगवन् !, तदेव भगवन् । इतिः - अनुः ० " १. प्रछाया०—उन्यतया सतया सत्स्वशतया भूयो भूयः परिणमति । दन्त गौतम! कृपया नयां प्राप्य तद्रूपतया सर्णतया तया तयतया तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमति २. यश्यानि इम्याणि यदाय कालं करोति तदेश्य उपयते २. तद बेलार्थेन भगवन् एवम् उच्यते कृष्णलेल्या नीलेश्यां प्राप्य तद्रूपतया गीतमा नामी प्रायशुमा रावं प्राप्य तद्रूपतया [द] तेनावन गौतम एनम् उच्यते कृष्णा ४. कृष्णलेया भगवन् Q " वाचकोना वंशमां देवीशमी पेढीए थएला, धीरपुरुष, संयमना धारक अने पूर्व श्रुतथी समृद्ध बुद्धिवाळा जे श्री आर्यश्याम भगवाने श्रुतरुस सागरमांथी वीणीने आ श्रुतरन ( प्रज्ञापना ? ) शिष्यगणने दीधुं छे तेमने नमस्कार थाओ" १-२ तया तथा तहसतया तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमति तया तद्न्यतया तया तत्पशेतया भूयो भूयः परिणमति; कीदृशी वर्णेन प्रा अनु० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ४. - उद्देशक १०. 6 6 शुक्ला लेश्या मधुररसा गुडादिवत् ' गंध' त्ति, - देश्यानां गन्धो वाच्यः- तत्राऽऽद्यास्तिस्रो दुरभिगन्धाः, अन्त्यास्तु तदितराः, ' सुद्ध' चि, अग्याः शुद्धाः, आचास्त्रितराः ' अपसरथति, आया अप्रशस्ताः, अग्यास्तु प्रशस्ताः किलिङ्गति, आया: संक्लिष्टाः, अन्त्यास्त्वितराः; ' उण्ह' त्ति, अन्त्या उष्णाः स्निग्धाश्च, आद्यास्तु शीता रूक्षाश्च; ' गइ ' त्ति आया दुर्गतिहेतवः, अन्यास्तु सुगतिहेतवः 'परिणाम' चि-देश्यानां कतिविधः परिणाम इति वाच्यम्, तत्राऽसौ जघन्य मध्यमो कृष्टमेदात् त्रिधा 6 भागाधा द्वारा आपने एट नगर समजी शकीए सीए के आश्यामसूरिजी वाचक वंशना इसा पूर्वनना हता भने बायकोना वंशम रोमनी पाठ २१ मी हती. आ उपरांत तेमनो समय तेमना गुरु के तेमना समय विद्वानो-ए दिन नंदीपनी वितीय अने खरतरगच्छनी तथा श्रीपसागरजीनी पहावली एक श्याम सूरिजीनी गोंधळी आवे छे तो वे विचार जोइए के ते आश्यांग अने वाचकाळा येश्याम ए बने एक छे के जुदा जुदा के ? नदीमा जेलीआपीछे से आ अभिजनाच कासवं पभवं कचायणं वंदे वच्छं सिजंभव तथा २३ २४ जसम भाई चपाइ लभ गोमं एलावचसगोत्तं वृंदामि महागिरिं सुहत्थि च तत्तो कोसि अगोत्तं बहुलस्स सरिव्वयं वंदे. २५ हारियगुत्तं सा च वंदिमो हारियं सामजं.” २३ श्रीमहागिरेस्तु छिप्पी बहुल सिहो यम भ्रातरी तत्र बलिस्सहस्य शिष्यः खातिः - उत्त्वार्थदयो प्रन्यास्तु तत्कृता एवं संभाव्यन्ते तच्छिष्यः श्यामाचार्यः प्रज्ञापनाकृत् श्रीवीरात् षट्सप्तत्यधिकशतत्रये (२७६) वर्गमा यः साडि जीतमादात् इति नन्दस्य विरावल्यामुक्तमस्ति परं सा परंपरा अन्या - इतिः " -- ( ध० सा० प० ) > पट्टधरः ― 1. ga २. जंबू1 ३. प्रभव I ४. शय्यंभव - ५. तुंगिक यशोभद्र - 1 ६. संभूतविजय. भद्रबाहु. स्थूलभद्र ८. महागिरि. T ९. बहुल. गुरस्वी - बलि - ( सरिव्यय ) १०. स्वातिT ११. दमा गोप्रः अग्निवायन काश्यप. कात्यायन. वारस्य. व्याघ्रापत्य. माटर- प्राचीन. (श्याम) हारित. आ स्थविरावलीमा नघाएला श्यामार्य के आर्यश्याम आर्य श्रीसुधर्माथी ११मा आवे छे अने हारित गोत्रना छे. त्यारे आ प्रज्ञापना सूत्रना कर्त्ता आर्यश्यामने टीकाकारणीए आये भगवानची २१मा जगावे छे. [" तथा च सुस्थामिन आरभ्य भगवान् श्यामः प्रयोविंशतितम एवं प्र०पु०५०)] आम होवाची कदाच आर एम कभी शकीए के, जे आवैश्यामनो निर्देश दीना देवाचक करे छे से आर्यश्याम अने श्रीधनवानी प्रेवशमी पाठ उपर एसा आर्यश्याम एक न होय जो एबने एक ज होय तो एकनो ११ मी अने बीजानी २श्मी एमरी पाठशी रीते होय बळी मंदीसूत्रनी टीका करनार श्रीमलयगिरिजीए ए पायलीनी पण टीका करी ऐ-तेमां श्रीश्रार्यश्यामनो परिचय आपतुं आ वाक्य श्रीमलयगिरिजीए निर्देश्यं हे: “ खातिशिष्यं हारितगोत्रम् - श्यामार्य वन्दे - ( पृ० ४९ ) आ उल्लेखमां 'एमणे प्रज्ञापना करी छे के, जे प्रज्ञापनाना प्रणेता वाचकवंशीय आर्यश्याम छे ते आज छे' एवा कशो स्पष्ट के अस्पष्ट निर्देश टीकाकारश्री करता नथी तेथी पण ए अग्यारमी गादीवाळा अने आ त्रेवीशमी गादीवाळा-ए बन्नेने एक मानवानी हिम्मत थती नथी. श्रीधर्मसागरजीनी पहावलीमां जे निर्देश छे ते नंदीसूत्रवाळी नोंधने अनुसरतो ज छे माटे नंदीसूत्रवाळी नोंध करतां ए श्रीधर्मसागरजीनो उल्लेख कांइ विशेष निर्णय आपी शकतो नथी. तेओए ( धर्मसा० ) तो घणुं स्पष्ट के गौतम. " श्री आर्यमहागिरिना बे शिष्य नामे- बहुल अने बलिसह जोडलाभाइ हता. तेमांना बलिसहना शिष्य नामे स्वाति थया-तत्त्वार्थ विगेरे ग्रंथो आ खातिए कयी जणाय छे अने ए खातिना शिष्य नामे श्यामाचार्य थयारोमणे प्रापना सुनी रचना करी छे अने तेओ वीरात् २०६ सर्गवासी थया. तेमना शिष्य नामे सांडिल्य थया अने एमणे जीतनी मर्यादा करीएप्रमाणे मंदीराम कहुं छे, परंतु ते परंपरा जुड़ी " ( आ पायी विषे कांदा अस्थान नथी तो पण इतिहास-अमने दूर करया माठे मारे एट अहीं जगावी देवं जोइए के, जे शब्दो नीचे आमींटी मूली से मंदीसुननी पायी नथी ज. ) उपरना श्रीधर्मसागरजीना उल्लेखथी आपणने एम मानवानुं मन थइ जाय के, ए उल्लेख द्वारा प्रज्ञापनाना कर्ता आर्यश्याम अने तेमना गुरु स्वातिए विषेनी तथा श्रीश्यामना समयनो पण निर्णय पड़ जाय छे. पण आपने उतावळ न करता आ निर्णयने ध्यानमा ती बखते प्रज्ञापनामधा ऐसाल. फौशिक, हारित. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, उत्पातादिभेदाद् वा त्रिधा इति; 'पएस' त्ति, आसां प्रदेशा वाच्या:-तत्र प्रत्येकमनन्तप्रदेशिका एता इति; ' ओगाह' ति, अवगाहना आसां वाच्या-तत्रैता: असंख्यातक्षेत्रप्रदेशावगाढाः; ' वग्गण 'त्ति, वर्गणा आसां वाच्या:-तत्र वर्गणाः कृष्णलेश्यादियोग्यद्रव्यवर्गणाः, ताश्चाऽनन्ताः औदारिकादिवर्गणावत् ; 'ठाण'त्ति, तारतम्येन विचित्राऽध्यवसायनिबन्धनानि कृष्णादिद्रव्यवृन्दानि, तानि चाऽसंख्येयानि, एलो--" वायगवरवंसाओ ते वीसइमेण धीरपुसेणं " आ उलेख भूलवो जोइतो नथी. श्रीधर्मसागरजीए जे काइ निर्णयात्मक के संभवात्मक लख्यु छे ते बधु ११ मी गादीना धणी श्रीआर्यश्यामने लागु थाय छ, नहि के, २३ मी पाटना मुखी आपणा आ श्रीआर्यश्यामने. वळी एमणे ए ११ मी पाटवाळा आर्यश्यामजीने प्रज्ञापनाना की सूचव्या छ ते विषेनो बीजो कोइ आधार आप्यो नथी-तेमणे (धर्म सा.) छेवटे लख्यु छे के,“ए प्रमाणे नंदीसूत्रनी स्थ विरावलीमा लख्यु छे" पण नंदीसूत्रनी स्थविरावलीमां, जे काइ धर्म गरजीए पोतानी आ स्थळनी पट्टावलीमा नौंध्युं छे तेवू नोंधेलु मळतुं पण नथी, तेमा (नंदीनी प.) तो मात्र खाति अने श्यामाचार्यना नाम अने गोत्रना उल्लेबो मळे छे ए सिवाय एमनो समय के एमनी कृति विषे मूळमां के टीकामां को उल्लेख जडतो नथी तेथी एकला श्रीधर्मसागरजीना उल्लेखथी आपणे एम शी रीते मानी शकीए के, ११ मी गादीवाळा श्रीश्यामसूरिजीए आ प्रज्ञापना सूत्रनी रचना करी हशे ? अने कदाच एम मानी लइए तो पण एमनी (श्यामार्यनी) नेवीशमी पाटवाळा उल्लेखनु शुं थशे? ए विचार उभो थाय छे. आ रीते नंदीमूत्रनी पडावली अने श्रीधर्मसागरजीनी पट्टावली ए बन्ने द्वारा आ सूत्रना कती विषे आपणे कोइ प्रकारना निर्णय उपर आवी शकता नथी. हवे आपणे आ बाबतने लगतो खरतरगच्छनी पटावलीनो उल्लेख तपासीए: २४. ततः श्रीवीरसरिर्जातः. पुनस्तदैव श्रीकालिकाचा जातः, “त्यार पछी चोवोशमा श्रीवीरसूरि थया. ए ज वखते कालिकाचार्य स च वीरवाक्यात् भाद्रपदशुक्लपञ्चमीतश्चतुर्थी श्रीपर्युषणापर्व आनीतवान्. थया-जेमणे श्रीवीरना वाक्यथी पांचमनी चोथ करी (1) अने ते चोराशी तत एव अद्यापि चतुरशीतिगच्छेषु चतुया सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं क्रियते. गच्छमां आज सुधी समानित थइ. ए कालिकाचार्य वीरात् ९९३ वर्षे अने अयं च वीरात् त्रिनवत्यधिकनवशतवः (९९३) संजातः-तथा विक्रम- विकनात् ५२३ वर्षे थया. संवत्सरात् त्रयोविंशत्यधिकपञ्चशतशतवः ( ५२३ ) संजातः. कालिकाचार्यद्वयम् बे कालिकाचार्य. पुनः कालिकाचार्यद्वयं प्रागजातम् , तत्र आद्यः प्रज्ञापनाकृत्-इन्द्रस्य ए उपरांत वीजा बे कालिकाचार्य पहेला थइ गया छे. जेमांना एक तो अग्रे निगोदविचारवका-यामाचा परनामा, स तु वीरात् ३७६ वीरात् ३७६ वर्षे थया छे. एर्नु बीजुं नाम श्यामाचार्य हतुं. एमणे इंद्रनी वजीतः. द्वितीयो गर्दभिल्लोच्छेदकः-स तु वीरात् ४५३ वजीतः "- पासे निगोदनुं अद्भुत विवेचन कर्यु हतुं. अने प्रज्ञापना सूत्रनी रचना पण खरतर(प.) एमणे ज करी छे. बीजा कालिकाचार्य वीरात् ४५३ वर्षे थया अने एमणे ज राजा गर्दभिलनो नाश कराव्यो. आ पटावली जणावे छे के, श्यामाचार्य के कालिकाचार्य कुल व्रण थया छे-तेमांना एक तो वीरात् ३७६ वर्षे, बीजा बीरात् ४५३ वर्षे अने जीजा वीरात् ९९३ वर्षे. एत्रणे कालिकाचार्यना कार्यनो परिचय पण आ पावलीकारे आपेलो छे-प्रज्ञापनाना कती विषे जे वात धर्मसागरजीए जणावी छे ते ज वात आमणे जणावी छे माटे आपणे वीरात् ३७६ मा थएला अने अग्यारमी पाटवाळा श्रीआर्यश्यामजीने आ यत्रता की त्यां सुधी तो न ज मानी शकीए ज्यां सुधी प्रज्ञापना सूत्रमा आवेली गाथामा जणावेली श्रीआर्यश्यामसूरिनी नेवीशमी पाट खोटी न ठरे. खरतर गच्छनी पावलीमा २४मी पाट पर श्रीवीरसूरि जणाव्या छे अने ए ज वखते एक कालिकाचार्य थयार्नु जणायुं छे तेथी एम कल्पी शकाय खरं के, आपणा त्रेवीशमी पाटवाळा श्रीआर्यश्याम अने ए श्रीवीरसूरिना समसमयी श्यामसूरि (कालकसूरि)-ए बने कदाच एक ज होयआ कल्पनामा नेवीशमी पाटना प्रश्ननो केटलोक निवेडो थइ शके छे माटे ज आवी अनाधार कल्पना करवानुं साहस थइ शके छे, वळी बीजं के, ज्यां पन्नवणामां श्रीआर्यश्यामनो परिचय आपेलो छे त्या कांद तेमना गुरु विगेरेनो परिचय आपेलो नथी तेथी आपणे एम तो शी रीते कही शकीए के, आ ज आर्यश्यामना गुरु खाति हता-उपरना उल्लेखोथी आर्यश्याम अनेक हेावानुं साबीत थइ गया पछी आ ज आर्यश्याम खातिना शिष्य छे' एम आपणे कही शकीए नहि-वळी खातिना शिष्य आर्यश्याम तो श्रीसुधमाथी अग्यारमो पाटे आवता होवाथी ते अने आ रेवीशमी पाटचा धणी आर्यश्याम ए बन्ने एक शी रीते होय ? अर्थात् आपणे पाटनी दृष्टिए तो ए स्वातिना शिष्य श्रीआर्यश्यामजीने प्रज्ञापनाना की न ज मानी शकीए. आ रीते छेवट ए त्रण आर्यश्याममांना क्या श्रीआर्यश्यामे आ सूत्र रच्यु छ ? ए प्रश्ननो नीकाल थइ शकवो अशक्य जणाय छे. . प्रज्ञापनासूत्रमा एक स्थळे स्त्रीवेदना समयनी मर्यादा विषे विचारतां मूळमां ज ए विषे आ रीते पांच अभिप्रायो दशाववामां आव्या छे:प्र.-" इस्थिवेदेणं भन्ते । इस्थिवेदे त्ति कालतो केवञ्चिरं होति ? हे भगवन् ! स्त्रीवेद 'स्त्रीवेद ' ए प्रमाणे काळथी क्या सुधी रहे ! उ.-गोयमा। एगेणं आदेसेणं जह. एग समय, उक्को० दसुतरं हे गौतम! एक आ आदेशे करीने स्त्रीवेद जघन्ये एक समय सुची अने पलिओ-वमसतं पुनकोडिपुहुत्तममहि. उत्कष्टे ११० पल्योपम अने बेथी नव पूर्वकोटि सुपी रहे. एगेणं आदेसे गं जह० एग समयं, उको. अट्ठारस-पलितोबमाई पुन एक आदेशे करीने नौवेद जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कटे १८ कोटि-पुहुत्तमभहिआई. पल्पोपम अने वेथी नव पूर्व कोटि सुधी रहे. एगेण आदेसेणं ज० एग समयं, उको. चउद्दस पलिओवमाई पुब्ब- एक आदेशे करीने स्त्रीवेद जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कष्ठे पाद कोटिपुहुत्तमम्भहिआई. पल्योपम अने वेथी नव पूर्वकोटि सुधी रहे. एगे आदेसे में ज० एग समयं, उको परिओवमसतं पुत्रकोडि पुहु. एक आदेशे करीने स्त्रीवेद जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कष्टे १०० तमभहि, पल्योपम अने बेथी नव पूर्वकोटि सुधी रहे. एगेण आदेसे जह० एगं समयं, उको. पलितोवमहतं पुवकोडि. एक आदेशे करीने स्त्रीवेद जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कष्टे बेथी पुहुत्तमम्भहियं. नव पल्योपम उपरांत बेथी नव पूर्वकोटि सुधी रहे. आ पांच अभिप्रायोमा क्यो अभिप्राय रीतसरनो छे-ए विषे श्रीआर्यश्यामजीए कोइ प्रकारनो स्पष्ट खुलासो का नथी, वेनुं कारण जणावतां श्रीटीकाकारंजी, जणावे छे के Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४.-उद्देशक १०. अध्यवसायस्थानानामसंख्यातत्वादिति, 'अप्पबहू' ति, लेश्यास्थानानामल्पबहुत्वं वाच्यम् , तचैवम् :-" एएसिणं भंते ! कण्हलेसाठाणागंजाव -सुकलेसाठाणाण य जहनगाणं दव्वद्वयाए ३ कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जहनगा काउलेस्साठाणा दव्यद्वयार, जहनगा नीललेस्साठाणा दव्वद्वयाए असंखेज्जगुणा, जहनगा कण्हलेस्साटाणा दबट्टयाए असंखेज गुणा, जहन्नगा तेउलेसाठाणा दव्वद्वयाए असंखेजगुणा, जहन्नगा पम्हलेसाठाणा दव्वट्ठयाएं असंखेज्जगुणा, जहनगा सुक्कलेस्साठाणा दव्यद्वयाए असंखेजगुणा " इत्यादि. स्वतः सुबोधेऽपि शते तुरीये व्याख्या मया काचिदियं विदब्धा, दुग्धे सदा स्वादुतमे खभावात् क्षेपो न युक्तः किमु शर्करायाः ? १. आगळना उद्देशकमां छेवटे लेश्या संबंधी हकीकत जणावी छे माटे आ दसमा उद्देशकमां पण ए संबंधे ज कहेवार्नु छे. आ उद्देशकर्नु आदि सूत्र आ छे:-['से णूणं ' इत्यादि ] [ 'तारूवत्ताए ' ति] ते रूपपणे-नीललेश्याना स्वभावे, ए ज वातने स्पष्ट करे छे के, ['तावन्न: नर्थ उदेशक. ताए ' ति] ते वर्णपणे-नीललेश्यानी जेवा वर्णपणे, [' एवं चउत्थो उद्देसओ' इत्यादि.] आ सूत्रथी आ प्रमाणे समजवु:-"ते गंधपणे, ते रसपणे, " अर्थात् कृष्णलेश्या नीललेश्याने पामीने तेना वर्णपणे, तेना गंधपणे अने तेना रसपणे वारंवार परिणमे छे ? हे गौतम ! हा, कृष्णलेश्या नीललेश्याने पामीने ते रूपपणे, ते गंधपणे अने ते रसपणे वारंवार परिणमे छे. तात्पर्य आ छे के-ज्यारे कृष्णलेश्याना परिणामवाळो जीव, नीललेश्याने योग्य द्रव्योनुं ग्रहण करी मरण पामे छे त्यारे ते नीललेश्याना परिणामवाळो थईने उत्पन्न थाय छे कारण-(जीव)" जे लेश्यानां द्रव्योन ग्रहण करीने मरण पामे, ते लेश्यावाळो थइने बीजे ठेकाणे उत्पन्न थाय छे" ए प्रमाणेनुं शास्त्रकथन छे–जे कारण होय छे, ते ज संयोगवशे कार्यरूप बनी जाय छे, जेम कारणरूप माटी कालांतरे साधनसंयोगे कार्यरूपे-घटपणे-बनी जाय छे तेमकृष्णलेश्या, पण कालांतरे साधनवशे नीललेश्यामां फेरवाइ जाय छे-नीलले.श्यारूपे बनवी सुशक्य छे. शं०-ज्यारे कार्य अने कारण, ए बन्ने पदार्थ एक ज रूपना छे तो पछी 'कृष्णलेश्या नीललेश्याने पामीने' ए रीते ए लेश्यामां भेद दर्शावत्रानुं शुं कारण ? कारण-ज्यां बे वस्तु एक ज होय त्यां भेदनी हयाती समाधान. संभवती नथी, तो पछी अहीं ए बे लेश्याओमां शा माटे भेद दर्शाव्यो ? समा०-ए बे लेश्याओमा जे भेद देखाड्यो छे ते वास्तविक रीते नथी, पण उपचारथी छे. माटे औपचारिक भेद दर्शाववाथी वस्तुना स्वरूपमां बांधो आववानुं कारण नथी. "हे भगवन् ! कृष्णलेश्या, नीललेश्याने पामीने तेना रूपपणे, तेना वर्णपणे, तेना गंधपणे, तेना रसपणे अने तेना स्पर्शपणे वारंवार परिणमे छे' एम कहवानुं शुं कारण?" "हे गौतम ! दूध-छाश. जेम दूध, छाशने पामीने-छाशना संयोगथी-छाश रूपे, छाशना वर्णे, छाशना गंधे, छाशना रसे अने छाशना स्पर्शे परिणमे-बने-छे, अथवा जेम बजरंग चोक्टुं लुगडं रंगने पामीने-रंगना संयोगथी-रंगना रूपे, रंगना वणे, रंगना गंधे, रंगना रसे अने रंगना स्पर्शे वारंवार परिणाम पामे छे. तेवी रीते हे गौतम ! कृष्णलेश्या, नीललेश्याने पामीने तेना वर्णादि परिणामरूपे बनी जाय छे" इत्यादि. ए ज अभिलापवडे । नीललेश्या कापोत निकसूरीणां मतानि भगवान श्रुतनी लघवाळा पुरुषो भगवत्-आयाशियज्ञानवाळा के सर्वोत्कृष्ट " अमीषां पञ्चानाम् आदेशानाम् अन्यतम-आदेशसमीचीनता- "आ पांच आदेशो-मतो-मां कयो अमुक एक आदेश समीचीन निर्णयोऽतिशयज्ञानिभिः, सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसंपन्नवी कर्तुं शक्यते, ते च छे-ए जातनो निर्णय अतिशय ज्ञानिओथी के सर्वोत्कृष्ट श्रुतनी भगवत्-आर्यश्यामप्रतिपत्ता नासीरन्. केवलं तत्कालापेक्षया ये पूर्वसूरयः - लब्धिवाळा पुरुषोथी थइ शके छे. तेवा अतिशयज्ञानवाळा के सर्वोत्कृष्ट तत्काल-भाविग्रन्थपावापर्ययालोचनया यथाखमति स्त्रीवेदस्य स्थिति श्रुतनी लब्धवाळा पुरुषो भगवत्-आर्य श्यामनी प्रतिपत्तिमा न हता. प्ररूपितवन्तस्तेषां सर्वेषाम् अपि प्रावच निकसूरीणां मतानि भगवान् फक्त ते समयना पूर्वीचाया ते समयना प्रथोद्वारा पूर्वीपरनी पालोचना आर्यश्याम अदिष्टवान् '-प्र०१०३८५. करीने जे खमतिप्रमाणे स्त्रीवेदनी स्थिति प्ररूपी गया हता ते बधा प्रावनिक आचार्यानो मतोने गगवान् आर्यश्यामे अहीं नोंघेलां छे" टीकाकारश्रीमा आ उलेख उपरथी आपणे विशेष तो नहि, पण एटलं तो जाणी शकीए खरा के, ज्यारे आ प्रज्ञापना सूत्रनी रचना थइ हशे सारे अतिशयज्ञानिओनो के सांस्कृष्टश्चत लब्धि धरावनारा पुरुषोनो विरह हशे अने खुद श्री आर्यश्यामजी पण ते समये स्त्रीवेदने लगतां उपरना मतांतरो विषे कोइ जातनो निर्णय आपी शके तेवा सातिशय ज्ञानी नहि होय-जैनइतिहासमा जे समयथी सातिशयशानिओनो विरह मनातो आव्यो छे ते समय आ प्रज्ञापनानो अने तेना प्रणेतानो हशे-एम उपरना टीकाकारश्रीना उल्लेख द्वारा चोखं तरी आवे छे. हवे आपणे प्रज्ञापनानी शैली विषे विचार करीने आ टिप्पण पूरु करीशु. प्रज्ञापना सूचनी रचना बे प्रकारनी छेः तेमां केट लेक ठेकाणे तो कोइ प्रकारना नाम निर्देश विना ज प्रश्न अने उत्तरो रचाया छे अने केटलेक ठेकाणे तो भगवतीमत्रनी जेम महावीर अने गौतमना प्रश्नोत्तरोनी जेवी संकलना थइ छ. ते बने जातनी शैलीना नमुना आ प्रमाणे छे: (साधारण शैली.)" से किं तं अजीवपन्नवणा ? अजीवपन्नवणा दुविहा पन्नता. ते जहा- “अजीवप्रज्ञापना ए शु? अजीवप्रज्ञापना बे प्रकारनी छे. जेम केः रूवि-अजीवपनवणा य, अरूवि-अजीवपनवणा य. से किं तं अरूवि-अजीव- रूपी अजीवप्रज्ञापना अने अरूपी अजीवप्रज्ञापना. अरूपी अजीवप्रज्ञापना पनवणा? अरूवि-अजीवपन्नवणा दसविहा पन्नत्ता."xxx- ए शु? अरूपी अजीवप्रज्ञापना दश प्रकारनी कही छे." (५० पृ० ७-८) १. प्र. छाया०-एतेषां भगवन् ! कृष्णलेश्यास्थानानां यावत्-शुक्ललेश्यास्थानानां च जघन्यकानां द्रव्याऽर्थतया (३) कतराणि कतरे. भ्योऽमानिया, बहुकानि वा, तुल्यानि वा, विशेषाधिकानि वा ? गौतम ! सर्वस्तोकानि जघन्यकानि कापोतलेश्यास्थानानि द्रव्यार्थतया, जघन्यकानि नौललेश्यास्थानानि द्रव्यातयाऽसंख्येय गुणानि, जघन्यकानि कृष्णलेश्यास्थानानि द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणानि, जघन्यकानि तेजोलेश्यास्थानानि द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणानि, जघन्य कानि पद्मलेश्यास्थानानि द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणानि, जघन्यकानि शुक्ललेश्यास्थानानि व्यार्थतयाऽसंख्येयगुणानिः-अनु. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक्त ४.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. लेश्याने, कापोत लेश्या तैजसी लेश्याने, तैजसी लेश्या पद्म लेश्याने अने पद्म लेश्या शुक्ल लेश्याने पामीने तेना रूपादिरूपे परिणमे छे' इत्यादि कहे. हवे आ उद्देशक क्यां सुधी कहेवो? तो कहे छे के, ['जाव' इत्यादि ] [ परिणाम '] इत्यादि द्वार गाथामां कहेलां द्वारोनी समाप्ति परिणाम. सुधी ए उद्देशक कहेवो. तेमां परिणाम संबंधे हकीकत हमणां ज जणावी छे. तथा [ ' वन्न ' ति] कृष्णलेश्यादिक लेश्यानो वर्ण कहेवो. वर्ण. ते आ रीते:-" हे भगवन् ! कृष्णलेश्यानो वर्ण केवो कह्यो छे ? इत्यादि. उत्तर-मेघ विगेरेनी जेवी कृष्णलेश्या काळी छे, भमरा विगेरेनी जेवी नीललेश्या नीली छे, खरसार विगेरेनी जेवी कापोत लेश्या कापोती छे, ससलाना लोही विगेरेनी जेवी तैजसी लेश्या लाल छे, चंपकविगेरेनी जेवी पीत लेश्या पीळी छे, शंखविगेरेनी पेठे शुक्ललेश्या धोळी छे. तथा [ 'रस' त्ति ] लेश्याओनो रस कहेवो. ते आ प्रमाणेः-लिंबडा विगेरेनी रस. (महावीर अने गौतमना प्रश्नोत्तरवाळी शैली )“ कहि णं भंते | बादरपुढवीकाइयाणं पजतगाणं ठाणा पण्णता? "हे भगवन् । पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिकोनां रहेठाणो क्या कहां छे ? गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु ४ कहि णं भंते । बादरपुढवीकाइयाणं हे गौतम ! स्वस्थाननी अपेक्षाए आठे पृथ्वीओमांxहे भगवन् | अपर्याप्त अपनत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं बादरपृथ्वीकायिकोनां रहेठाणो क्या कह्यां छे ! हे गौतम | ज्या बादर पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता तत्थेव "xxx -(प० पृ० ५१) पृथ्वीकायिकोनां स्थानो कयां छे त्यां ज तेओनां पण स्थानो कह्यां छे." आ प्रकारनी बे शैली माटे टीकाकार महाशय जणावे छे के-" न सर्वमेव सूत्रं गणधरप्रश्न-तीर्थकरनिर्वचनरूपम् , किन्तु किंचिद् अन्यथाऽपि, बाहुल्येन तु तथारूपम् "-(प. पृ०७) अथीत् “ आ संकलनामांनो घणो खरो भाग. महावीर अने गौतमना प्रश्नोत्तररूप छे अने थोडो भाग बीजी रीते-सामान्य प्रश्नोत्तररूप-पण छ. " आ प्रकारनी बे शैली जोइने साधारण रीते एवो संदेह थवो संभवित छे के, ज्यारे आ ग्रंथमां घणो खरो भाग महावीर अने गीतमना प्रश्रोत्तररूप आवेलो छे अने मात्र "किंचिद् अन्यथाऽपि" छे तो पछी आना रचनार महावीर भने गौतम जशा माटे न होय ? अथवा आर्यश्यामसूरि केम होय ? आ प्रश्ननुं समाधान श्रीयुत टीकाकारजीए घणुं सरळ, स्पष्ट अने युक्तियुक्त आपेलु छे अने ते आ प्रमाणे छे:__" एवं गौतमखामिना प्रश्न कृते भगवान् आह-वर्धमानखामी- “ए प्रमाणे गातमखामिए पूछया पछी वर्धमानखामी उत्तर आपे छे. गोयमा ! + इत्यादि. ननु गौतमोऽपि भगवान् उपचित-कुशलमूलो गण- कदाच एम कहेवामां आवे के, गौतम खामी चौद पूर्वना धरनार छे, . धरः तीर्थकरभाषितमातृकापदभ्रवणमात्राऽवाप्तप्रकृष्टश्रुतज्ञानावरणक्षयो-पश- तीर्थकरे कहेलांत्रण पदोने सांभळवा मात्रथी ज जेओए उत्कृष्टश्रुतज्ञानमश्चतुर्दशपूर्व वित् साक्षरसन्निपाती-इति विवक्षितार्थप्रतिज्ञानसमन्वित एव, नी प्राप्ति करी छे अर्थात् तीर्थकरे कहेला मात्र त्रण पदो उपरथी जजे ततः किमर्थ पृच्छतिन हि चतुर्दशपूर्व विदः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसमन्वि- बारे अंगो जेवां महाभूतनी रचना करे छे एवा ए गौतमखामिने वळी हवे तस्य किंचित् प्रज्ञापनीयमविदितमस्ति. x सत्यमेतत् , केवलं जाननेव पूछवार्नु शु बाकी होय ! ए वधारेमा वधारे धृतज्ञाननी लधिवाळा एवा गौतमखामी भगवान् अन्यत्र विनेयेभ्यः प्रतिपाद्य तत्संप्रत्ययनिमिक्तं विव- गातमथी वळी शें कोइ पण वात अजाणी होय? माटे खरी रीते तो क्षितमर्थ पृच्छति. यदि वा प्रायः सर्वत्र गणधरप्रश्न-तीर्थकरनिर्वचन- गीतम् प्रश्न करे' ए वात ज घटती आवे एवी नथी. आ शंका साची छे, रूपं सूत्रम्-अतो भगवान् आर्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति. तो पण गातमनो पूवानो आशय ज बीजो छे त्यांए शंका घटी शकती अथवा संभवति तस्याऽपि गणभृतो गीतमखामिनोऽनाभोगः-छद्मस्थलात् नथी. ए बीजो आशय आ प्रमाणे छे:--गौतमे पोते शिष्योने जे जे वातो + ततो जातसंशयः सन् पृच्छति-इति न कश्चिद् दोषः"-- कही होय ते बराबर कहेवाणी छे के नहि-ए वातनो निश्चय करवा माटे (५० पृ० ७२-७३) गौतमने पूलवू पडे छे माटे गौतम जेवा महाज्ञानी पण जो प्रश्न करे तो ते अयुक्त नथी, अथवा घणे भागे सूत्रनी शैली गणधरना प्रश्न अने तीर्थकरना उत्तररूपे रखाणी छे माटे ज भगवान् आर्यश्याम पोते पण ए जशैलीमा आ सूननी रचना करे छे. अथवा गौतम पोते गमे तेवा महाज्ञानी होय तो पण छमस्थ तो खरा ने-अने छद्मस्थनी भूल थवी ए काइ असंभवित नथी माटे ज गौतम संशयवाळा होइ शके छे अने ए संशय टाळवाने माटे ते पूछी पण शके छे-एमां कांइ दूषण होय नहि." उपरना उल्लेखमा टीकाकारश्रीए त्रण वात आ प्रमाणे जणावी छ:-पेली वात तो तेओए ए जणावी छे के, गौतम जेवा महाशानिने नवु जाणवा माटे कांइ पूछ्वानु बाकी न होय, पण पाते बीजाने जणावेली वातो बराबर छे के नहि ? ए वातनो निर्णय करवा माटे तेओने पूछवानी जरुर रहे छे-आ वात लखती वखते टीकाकारनो ख्याल एवो रह्यो छे के, आ सूत्रमा आवता प्रश्नोत्तरी जाणे साचे ज महावीर अने गौतम बचे न थयेला होय. बीजी वातमा तेओ एम जणावे छे के, घणे ठेकाणे गणधरना प्रश्न अने तीर्थकरना उत्तरो-ए शैलीमा सूत्रोनी संकलना थएली छे माटे आर्यश्याम भगवान् पण ए ज शैलीए आ सूत्रनी रचना करे छे. आ बीजी वातमां तो तेओए (टीकाकारश्रीए) एम साफ ज जणान्छे के, आ प्रशापना सन्न (गणधर अने तीर्थकरना प्रश्नोत्तरनी शैलीमा अने क्यांय साधारण प्रश्नोत्तरनी शैलीमा) श्रीआर्यश्यामे रचे छे. हवे छेवटनी त्रीजी वात जे, तेओए जणावी छे ते पेली वातर्नु ज समर्थन करती जणाय छे. अने वळी टीकामां अनेक स्थळे “ सूरिराह" " भगवान् आर्यश्यामः पठति" एवा एका निर्देशो करीने प्रज्ञापनानी कृति श्रीआर्यश्यामनी छे' ए वातने दृढ करी छे-प्रज्ञापनामां आवेली प्रश्नोत्तरात्मक शैली श्रीआर्यश्यामनी पोतानी ज उद्भवावेली छे एवं अनेक स्थळे श्रीटीकाकारजीए जणाव्या छतां ए शैलीने श्रीगोतम अने श्रीमहावीरना प्रश्नोत्तरात्मक मानी टीकाकारश्रीए ए विषे जे संगति करवानां समाधानो जणाव्यां छे ते द्वारा तेमनो आशय कळातो नथी-गमे तेम हो. परंतु आ शैली श्रीभगवतीजीमां आवेली शैलीनी जेवी संवादनारूपमा तेना प्रणेताए जो डेली छे एमां कशो संदेह राखवानो नथी. तात्पर्य ए के, प्रज्ञापना एक संग्रहात्मक गंभीर ग्रंथ छे, तेना प्रणेता त्रणमांना कोइ एक श्रीआयश्यामजी छे अने एमां (प्रज्ञापनामा) आवेली शैली एमणे पोते ज उपजावेली लागे छे. आ श्रीआर्यश्यामजीनो श्रीखातिसूरि साथे कशी संबंध कळातो नधी, (ए खाति सूरिने श्रीधर्मसागरजीए तत्त्वार्थ विगेरेना की मानेला छे अने असारे पण जैनो तेम ज माने छ परंतु तत्त्वार्थना की खातिजीनुं गोत्र · काभीषणि 'छे-(काभीषणिना खातितनयेन वात्सीसुतेन अयम् "-तत्वार्थ प्रशस्ति ) सारे ११ मी पाटवाळा आर्यश्यामजीना गुरु श्रीखातिजीनुं गोत्र हारित छे-माटे ए बे जुदा जुदा गोत्रवाळा आचार्य एक ज होय ए शी रीते मनाय?) आ रीते प्रज्ञापना, एंना कती अने एनी शैली विषे यथामति आळेख्यु छः-अन० Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४ उदेशक १०. कापोती लेश्या उपाय रसकाळी छे, पाफी करायली अने मधुर के अने गोळ विगेरेनी , 6 पेठे कृष्णलेश्या तिक्त (कडनी) छे, सुंठनी पेठे नीललेवया कडु ( तिखी) छे, काचा बोरनी पेठे फेरी विगेरेनी पेठे तेजोलेश्या खाटी अने गळी छे, चंद्रप्रभा वगेरे मधनी पेठे पचलेल्या तिसी, गंध. पेठे शुक्ललेश्या मधुर-गळी छे. [ 'गंध' त्ति ] लेश्याओनो गंध कहवोः आदिनी त्रण लेश्याओं दुर्गंधी छे अने छेली त्रण लेश्याओ सुगंधी शुद्ध छे [ 'सुद्ध' त्ति ] छेल्ली त्रण लेश्याओ शुद्ध छे अने पेली त्रण लेश्याओ अशुद्ध छे. [' अपसत्थ त्ति ] पेली ऋण लेग्याओ नठारी छे अने संगिट, छेली पण लेश्याओ सारी छे. [ 'किलिङ' त्ति ] पेली ऋण लेखाओ सेक्डि छे अने छेली पण लेश्याओ असंक्रिष्ट छे [ उण्ह चि ) केही त्रण लेश्याओ स्निग्ध अने उष्ण छे अने पेली ऋण लेश्याओ शीत अने रूक्ष छे. [ ' गति ' त्ति ] पेली त्रण लेश्याओ दुर्गतिनुं कारण छे अने ठेली पण याओ सुगति कारण . [ परिणाम ति] ठेश्याजोनो परिणाम केटला प्रकारनो होय एकदेवं ते आ रीतेः लेश्यानो परिणाम त्रण प्रकारनो छे: - जघन्य, उत्कृष्ट अने मध्यम अथवा उत्पात वगेरे. [' पएस ' त्ति ] लेश्याओना प्रदेशो कहेवा : ते लेश्याओमांनी एक प्रदेश- अवगाह. एक लेश्या अनंत प्रदेशवाळी छे. [ 'ओगाहे ' त्ति ] एओनी अवगाहना कहेवीः ए लेश्याओनी, असंख्य (क्षेत्र) प्रदेशमां अवगाहना छे-ए वर्गणा. लेश्याओने समाई रहेवा माटे क्षेत्रना असंख्य प्रदेशोनी जरूर पडे छे. [ ' वग्गण ' त्ति ] ए लेश्याओनी वर्गणा कहेवीः कृष्णलेश्यादिक लेश्याने योग्य " " " ( स्थान. व्यवर्गणा ओदारिकादि वर्गणानी पेठे अनंत छे. [ ठाण' ति ] तरतमपणाने लीचे विचित्र अध्यवसायनां कारणरूप कृष्ण विगेरे द्रव्यनामू असंख्य छे, कारण के अध्यवसायनां स्थानो पण असंख्य छे. [ 'अप्पबहुं ' ति ] लेश्यानां स्थानोनुं ओछावघतापणुं जणाववुं, ते आ रीतेः“ हे भगवन् ! ए कृष्णलेश्यानां जघन्य स्थानोमां अने यावत्-शुक्ललेश्यानां जघन्य स्थानोमां द्रव्यार्थपणे कयां कोनाथी ओछां छे, वधारे छो सरखां के विशेषाधिक हे गौतम! द्रव्यार्थपने कापोतलेश्यानां जयम्य स्थानो साथी थोडां छे, द्रव्यार्थपणे नीललेश्यानां जघन्य स्थानो असंख्यगणां छे, द्रव्यार्थपणे कृष्णलेश्यानां जघन्य स्थानो असंख्यगणां छे, द्रव्यार्थपणे तेजोलेश्यानां जघन्य खानो असंख्यगणां के, द्रव्यार्थपणे पद्मलेश्यानां जघन्य स्थानो असंख्यगणां हे अने हस्यार्थपणे शुक्रलेश्यानां जयम्य खानो पण असंख्यगणां हे " इत्यादि. गति - परिणाम. अल्प- बहुत्व. જોયું ત चोथे शते सर्व रीते सुबोधे सेजे हमेशा रसयुक्त दूधे व्याख्या करी में कंद आ रचेली, भेळ्युं गळ्युं शुं नथी छाजतुं ते ? चतुर्थ शतक समाप्त. बेडारूपः समुद्रेऽखिलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति- शान्त्योः - दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चामुख्यः ॥ / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. - उद्देशक १. विषयसंग्रहगाथा--चंपा - रवि. - अनिल. - ग्रंथिका. - शब्द - छमास्थ. - आयु. - एजन. - निर्गंथ. - राजगृह. - चंपा - चंद्र. - उद्देशकारंभ. - पूर्णभद्र चैत्य. -- सूर्योनुं उद्गमनादि . - दिवस - रात्रिविचार - जंबूदीपनुं दक्षिणार्ध अने उत्तरार्ध.- मंदर पर्वतनुं उत्तर-दक्षिण - अढार मुहूर्तनो दिवस.-बार मुहूर्तनी रात्री. दिवस अने राजीनामापर्मा वन दिवसा मुनीराम वर्षातुविचार-प्रथम समयादिकाल संख्या- रवि अनिल गंढिय सदे छउमाऽऽउ एयण निर्वठे, रायगिहं चंपा - चंदिमा य दस पञ्चमम्मि सये. १. मूहाः चम्परविरोधिका शब्दाद्यथाऽयुरेननं निर्धन्यः राज चम्पा चन्द्रमा शपथमेशतः अनु● , १. आपनो परिचय आपतो श्रीजिनप्रभरिए पोताना सीमखास एक चंपापुरीनों का आलो, एमानो केटोक सार अही थाप्रमाणे जीए छए: "कृतदुर्लभहानाम् अहानां जनपदस्य भूषायाः, चम्पा र स्यामस्तीपुर्वीयाः अस्य द्वादशमजिनेन्द्रस्य श्रीवासपूज्य गर्भावतार-यया केवलज्ञान-निर्वाणोपगमलक्षणानि पथ कल्याणवानिजशिरे x [अ सुभद्रा महासती पाषाणमय विकटकपाटपुटाः प्रतो शीलमाहात्म्याद् आमसूत्रतन्तुवेष्टितेन तितउना कूपाद् जलमाकृष्य तेन शनिषेध्यमांमुदाय एका तुरीया प्रतीली अन्याऽस्ति या या सिल तरी सुचरित्रा भवति तथा इयमुद्घाटनीया इति भणिसा राजानमथैव पितामेव अस्थापयद सा च तहिनाद् आरभ्य चिरकाष्टा जनता कमेण विक्रमादिषु पअिधिकत्रयोदश विकास (१३५०) लक्षणामसम्मरीमाणसमयीनः शंकर 6 , - . " हवे पांचमुं शतक शरु थाय छे अने तेमां दस उद्देशकों छेः प्रथम उद्देशकमां सूर्य संबंधी प्रश्ननो निवेडो छे - ए प्रश्न, चंपा नगरीमा छायो हतो वीजा उद्देशकमा वायु संबंधी सवालोनो निर्णय छे. श्रीजा उदेशकमा जामेथिकाना उदाहरण उपरथी जाती हकीकतनो निर्णय छे. चोथा उदेशकमा शब्द विषे पूछाएला प्रश्न अने उत्तरोनो निर्णय छें. पांचमा उद्देशकमा छद्मस्थ संबंधी हकीकत छे. छट्टा उद्देशक आयुष्यनुं ओछापनुं के बधारेपणु, ए संबंधी हकीकत छे. सातमा उदेशकर्मा पुत्रलोना कंपन संबंधी विचार कर्यो छे. आठमा उद्देशकमां निर्ग्रथीपुत्र नामना साधुए पदार्थों संबंध विचार कथ छे, नवमा उद्देशकमा राजगृह नगर संबंधी पर्यालोचन छे भने दशमा उदेशकमा चंद्र संबंधी आलोचना छे-ते आलोचना चंपा नगरीमां थइ हती. ए प्रमाणे आ पांचमा शतकमां दस उद्देशक छे. . " अंगदेशनी राजधानीरूप अने तीर्थरूप एवी 'चंपा नगरी 'नो कल्प कहीए छीएः आ नगरीमां बारमा श्रीवासुपूज्य तीर्थंकरनी पांच कल्याणक धर्मा तो आ नमरीना बंध यएता दरवाजाभोने सुमद्दा महासती पोताना सुवरिना महिमाथी का सांत चाली बांधी अने यामांची पाणी काढी अने ते पाणीने ते दरवाजाओं उपर छांटीने उघाड्या हता. तेमांनो एक चोथो दरवाजो ( पोळ ) ' हवे पछी धनारी बीजी कोइ महासती एने उधाडशे एवं धारी राजा विगेरेनी समक्षमां इतो रोम बंध राम्रो हतो अने ते बखतो ते बंध इतो-एम पा तभी लोकोए जो ई. परंतु पी एटले विक्रमसंवत् १२५० मां लक्षणावतीना हम्मीर बने सुलतान समधीने पंढरपुरना गढने माडे जोता पाया मेनना ए दरवाजांने तोड़ी सेना मारणांस की त , . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक १. १. चतुर्थशतान्ते लेश्या उक्ताः, पञ्चमशते तु प्रायो लेश्यावन्तो निरूप्यन्ते, इत्येवं संबन्धस्यास्य उद्देशक-संग्रहाय गाथेयम्:'चम्पा' इत्यादि. तत्र चम्पायां रविविषयप्रश्ननिर्णयार्थः प्रथम उद्देशकः, अनिल ' त्ति वायुविषयप्रश्ननिर्णयार्थो द्वितीयः. 'गंठिय' त्ति जालप्रन्थिकाज्ञापनीयार्थनिर्णयपरस्तृतीयः. 'सद्दे' त्ति शब्दविषयप्रश्ननिर्णयार्थश्चतुर्थः. 'छउम' ति छद्मस्थवक्तव्यतार्थः पञ्चमः. 'आउ' ति आयुषोऽल्पत्वादिप्रतिपादनार्थः षष्ठः. 'एयण ' ति पुद्गलानामेजनाद्यर्थप्रतिपादकः सप्तमः. नियंठे' त्ति निम्रन्थीपुत्राभिधानाऽनगारविहितवस्तुविचारसारोऽष्टमः, 'रायगिहं' ति राजगृहनगरविचारणपरो नवमः. 'चंपा-चंदिमा य' त्ति चम्पायां नगर्यां चन्द्रमसो वक्तव्यतार्थो दशमः. १. चोथा शतकना छेवटना भागमा लेश्याओ संबधी विचारो जणाव्या छे, माटे हवे लेख्यावाळा जीवो संबंधी कांइक जणावाय तो ते स्थानप्राप्त छे, तेथी आ पांचमा शतकमां तो प्रायः लेश्यावाळा जीवो संबंधी निरूपण करवानुं छे-ए रीते चोथा अने पांचमा शतकनो परस्पर संबंध पुरदुर्गीपयोगिपाषाणप्रहणार्थ प्रतोली पातयिता कपाटसंपुटमग्रहीत. x आ नगरीमा दधिवाहन राजानी पुत्री चंदनयालानो जन्म थयो हतोअस्यां चन्दनवाला दधिवाहननृपतिनन्दना जन्म उपलेमे, या किल भगवतः एणे कौशांबी नगरीमा सूपडाना खूणामा रहेला अडदना बाकळाओ श्रीमहावीरस्य कौशाम्ब्यो सर्पकोणस्थकुल्मायः ४ पञ्चदिनोनषण्मासावसाने आपी श्रीवीरने छ महिनाना उपवास पछी पारणु कराव्यु हतुं. पृष्ठ अभिप्रहान् अपूरयत्. अस्यां पृष्ठचम्पया सह श्रीवीरः त्रीणि वीरात्रसम- चंपानी साथे आ नगरीमा श्रीवीरे प्रण चोमासां का हता. पोताना वसरणानि चक्रे. अस्यामेव परिसरे श्रीश्रेणिकसूनुः-अशोकचन्द्रो नरेन्द्रः- पिताना अवसान-संबंधी शोकने लीधे श्रेणिक राजाना पुत्र कोणिके ( जेनें कूणिकापराख्यः श्रीराजगृहं जनकशोकाद् विहाय नवीनां राजधांनी चम्पाम् बीजं नाम अशोकचंद्र छे) राजगृहने छोडीने पोतानी राजधानी चंपा -अचीकरत्, अस्यामेव पाण्डुकुलमण्डनो दानशाण्डेषु दृष्टान्तः श्रीकर्णनृपतिः नगरीमां करी इती. पांडवकुलभूषण अने प्रसिद्ध दानवीर श्रीकर्णराजे आ साम्राज्यभियं चकार x अस्या विहरन् श्रीशय्यंभवसूरिश्चतुर्दशपूर्वधरः नगरीमांज पोतार्नु साम्राज्य स्थाप्यु हतुं. श्रीशय्यंभवसरिए आ नगरीमा खंतनयं मनकाऽभिधानं रांजगृहागतं प्रवाज्य तस्य आयुः षणमासावशेष ज राजगृहथी आवेला पोताना पुत्रने दीक्षा आपी हती अने 'तेनुं आयुष्य श्रुतज्ञानोपयोगेन आकलय्य तदध्ययनार्थ दशकालिक पूर्वगताद् नियूंढ- थोडु जाणी ते माटे तेमणे दशवैकालिक नामनाः सूत्रनी स्वना करी हतीवान्-तत्र आत्मप्रवादात् षड्जीवनिकाम् , कर्मप्रवादात् पिण्डैषणाम् , ते रचनामा तेमणे आत्मप्रवाद नामना पूर्वप्रथथी लइके षड्जीवनिका सत्यप्रवादात् वाक्यशुद्धिम् , अवशिष्ट-अध्ययनानि प्रत्याख्यानपूर्वतृतीय- प्रकरणने, कर्मप्रवाद नामना पूर्वग्रंथथी लइने पिंडैषणा प्रकरणने अने वस्तुन इति." सत्यप्रवाद नामना पूर्वग्रंथंथी लइनें वाक्यशुद्धि प्रकरणने उमेर्य हतुं अने बाकीनां अध्ययनोने प्रत्याख्यान पूर्वनी त्रीजी वस्तुमाथी उद्भवाव्या हता." या मगरी विषे श्रीहेमचंद्रसूरि पोतानां महावीर-चरित्रमा आ प्रमाणे जणावे छ:" राजा राजगृहे स्थातुम्-अभूदू भृशमनीश्वरः. १८० पोताना पिताना मृत्युना शोकने लीधे राजा कोणिक राजधानीकरिष्ये पुरमन्यत्रेत्यादिदेश विशापतिः, राजगृहमा रही शकतो न हतो तेथी तेणे बीजु नगर-राजधानी-वसाशस्तभूशोधनायाथ वास्तुविद्याविशारदान् . १८१ बवानी इच्छाथी वास्तुविद्याना पंडितोने सारी जग्या शोधवा मोकल्या. ते च वास्तुविदः शस्तां पश्यन्तः सर्वतो भुवम् , ते वास्तुशानिओनी दृष्टिए जग्या शोधता शोधता एक मोर्ड चंपा प्रदेशेद्राक्षुरेका महान्तं चम्पकमम्. १८२ झाड पडयु-जे विशाळ शाखावाळु, सुंदर पांदडांवाईं, सुगंधी पुष्पवाड अचुश्च नायमुद्याने दृश्यते नेह सारणिः, अने छत्रनी जेवी छायावालु हतुं तथा मुसाफरोने माटे एक अपूर्व विश्राममायमाबालवलयी तथाप्यस्याद्भुता लिपिः. १८३ स्थान हतुं. आम छतां खुबी तो ए हती के, ए झाड कोड बाग न हत, अहो ! बहुलशाखसमहो । पत्रलताद्भुता, त्यां कोह पाणीनो धोरियो न हतो तेम पाणीनो क्यारो पण न हतो-तो अहो ! कुसुमसंपत्तिरहो । कुसुमसौरभम्. १८४ पण ए झाड आयु सुंदरमा सुंदर हतुं. ए वास्तुशानिओए ए झाडने अहो । छायकातपश्यमातपत्राभिभाबुकम् , जोइने एवं नकी कर्यु के, आ झाड लक्ष्मीनुं धाम छे अने सहज सुंदर छे अहो । विश्रामयोग्यलमहो! सर्व किमप्यदः. १८५ माटे अहीं वसावेलु नगर पण तेवू ज लक्ष्मीनुं धाम अने संभावनुं सुंदर निसर्गरमणीयोऽयं यथा श्रीधाम चम्पकः,. थशे. एम विचारी राजा कोणिकने ए पंडितोए नगर वसाववानी ए झाड. तथाऽत्र नगरमपि भविष्यति न संशयः. १८६ वाळी जग्या बतावी अने राजाए त्यो ए झाडना नाम उपरथी 'चम्पा' चम्पकेन त्रियः सत्यकारेणैवोपशोभितम् , नामनी नगरीने वसावी. त्यारबाद राजा पोताना बंधुओ अने लावलश्कर स्थानं पुरीनिवेशाह ते तथाख्यन् महीभुजे. १८७ सहित ए चंपा नगरीमा जइने पोतानुं शासन चलाववा लाग्यो," चम्पकस्य अभिधानेन चम्पा-इति नगरी नृपः, वेगाद् अकारयत् सिद्धिर्वचसा हि महीभुजाम्. १८८ ततश्च पुर्या चम्पायां गत्वा सबलवाहनः, मीमिमा श्रेणिकसभातृभिः सहितोऽन्वशात्." १८९ -महावीरचरित्र-सर्ग-११, एज आचार्यश्री, शय्यंभवसूरि अने चंपानगरी विषे पोताना परिशिष्टपर्वमा पण आ प्रमाणे जणावे छे:" तदा शय्यंभवाचार्यश्वम्पायां विहरनभूत्, (चंपा नगरीमा थएली दशवैकालिकसननी रचना विष आगळ पालोऽपि तत्रैव ययावाकृष्टः पुण्यराशिना. ६८ xxx श्रीजिनप्रभसूरिना शब्दोमा जणावाह गहुं छे, एज वातने श्रीहेमचंद्रसूरि सर्वसावध विरतिप्रतिपादनपूर्वकम् , पण जणावे छे) " ते वखते श्रीशय्यंभवसरि चंपा नगरीमा विहरता हता. तमबालधियं बालं सूरितमजिप्रहत्. ८.xxx पुण्यराशिथी खेंचाएलो वेमनो पुत्र पण त्या ज आव्यो भने सूरिश्रीए ए सिद्धान्तसारमुद्धत्याचार्यः शय्यंभवस्तदा, बाळकने दीक्षित को अने तेना श्रेय माटे त्यां ज दशवैकालिक नामना दुशवैकालिकं नाम श्रुतस्कंधमुदाहरत, ८५-पंचमसर्गः श्रुतस्कंपनी रचना करी."-(परिविष्टपर्व ):-अनु. . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, छे. हवे आ पांचमा शतकना उद्देशकोर्नु (ते ते उद्देशकमा आवेला विषयोर्नु ) सूचन करवाने आ संग्रह गाथा जणावे छे:--[ 'चंपा' इत्यादि.] विषयमचक ते उद्देशकोमा प्रथम उद्देशक चंपा नगरीमां कहेवायो छे अने तेमां सूर्य संबंधी सवालोनो निवेडो छे. [ 'अनिल'त्ति ] वायु संबंधी प्रश्नना निर्णय गाथा माटे बीजो उद्देशक रचायो छे. [ 'गंठिय 'त्ति ] जालग्रंथिका-जाळ-ना उदाहरण उपरथी जणाती हकीकतनो निर्णय त्रीजा उद्देशकमा छे. [' सद्दे ' त्ति ] शब्द संबंधी प्रश्नोनो निर्णय चोथा उद्देशकमां छे. ['छउम ' त्ति ] छद्मस्थ जीव संबंधी हकीकत कहेवाने पांचमो उद्देशक छे. ['आउ' ति] ' आयुष्यनुं ओछापणुं' वगेरे बाबत जणाववाने छटो उद्देशक छे. [ 'एयण 'त्ति ] पुद्गलोना कंपन संबंधी विचार सातमा उद्देशकमा छे. ['नियंठे' त्ति ] आठमा उद्देशकमां पदार्थ संबंधी विचारोनो सार छे अने ते विचार निग्रंथीपुत्र नामना साधुए कर्यों छे. [ 'रायगिह । ति ] नवमा उद्देशकमां राजगृह नगर संबंधी विचार छे अने ['चंपा चंदिमा य ' ति ] दशमो उद्देशक चंपा नगरीमां कहेवायो छे तथा तेमां चंद्र संबंधी हकीकत छे. सूर्य. १. प्र०-' णं काले णं, ते णं समये णं, चंपा नाम १. प्र०-ते काले, ते समये चंपा नामनी राजधानीनी रायहाणी होत्या. वण्णओ. तीसे णं चंपाए नयरीए पुण्णभद्दे नगरी हती. वर्णक. ते चंपा नगरीनी बहार पूर्णभद्र नामर्नु नामं चेइए होत्था. वण्णओ. सामी समोसढे, जाव-परिसा चैत्य (व्यंतरायतन) हतुं. वर्णक. त्यां खामी (श्रीवीर पधार्या पडिगया. अने यावत्-(वीरनी वाणी सांभळवाने ) सभा गामनी बहार नीकळी. ते णं काले णं, ते णं समये णं, समणस्स भगवओ महावी- ते काले, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना मोटा रस्स जेढे अंतेवासी इंदभुई नाम अणगारे, गोयमगोत्ते णं जाव- शिष्य-गौतम गोत्रना-इंद्रभूति नामना अनगार यावत्-आ एवं वयासी-जंबुद्दीचे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीण-पाईणमुग्गच्छ प्रमाणे बोल्या के:-हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमा सूर्यो १. मूलच्छायाः-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये चम्पा नाम राजधानी अभवत्. वर्णकः तस्यां चम्मायां नगयां पूर्णभद्रं नाम चैत्यम् अभवत्. वर्णकः स्वामी समवसृतः, यावत्-पर्षत् प्रतिगता. तस्मिन् काले, तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिनाम अनगारः, गौतमगोत्रो यावत्-एवम् अवादीत्:-जम्बूद्वीपे भगवन् । द्वीपे सूर्यों उदीचीन-प्राचीनम् उद्गलः-अनु. १. जैनोना सूत्र साहित्यमा अनेक ठेकाणे चैत्य-शब्दनो प्रयोग थएलो छे-घणे ठेकाणे ते एकलो ज वपराएलो छे अने घणे ठेकाणे 'अरिहंत. चेय' वा 'जिणचेइय' ए रीते वपराएलो छे. ए ' चैत्य' शब्द रूढ नथी पण यौगिक एटले व्युत्पत्तिवाळो छे अने तेनो वास्तविक अर्थ आ प्रमाणे संस्कृतना 'चिति', चित्या' के 'चिता' शब्द उपरथी ए ' चैत्य' शब्दनी उत्पत्ति थएली छे अने ते-चितायाः, चितेः, चिसाया इदम् चित्या, चित्यया नितम्-चितायाः, चितेः, चियाया विकारः-चितायाः, पितेः, चित्याया भावः, कर्म वा-एम अनेक रीते थदशके छे. सूत्रना टीकाकार श्रीअभयदेवसूरिए पण 'नितेः भावः, कर्म वा' ए व्युत्पत्तिने नोंधेली छे. चिता, चिति के चित्यानो अर्थ 'चे' थाय छे, जेमां मृतदने अग्निशायी करवामां आवे छ अर्थात् जे स्थळे मृतकने संस्कारवामां आवे छे ते स्थळनी पवित्र भस्मनु नाम 'चैत्य'छे अने ते, एनो मुख्य अर्थ, प्राचीन अर्थ अने व्युत्पत्ति-अर्थ छे. प्राचीन काळमां अनेक धर्मवीर अने कर्मवीर महापुरुषोनी पवित्र भस्म सचवाती हती अने एर्नु ज नाम 'चैय' हतुं. तथा मृत महापुरुषनी यादगिरि माटे ए भस्म र मूरुवामां आवतो शिलाह, ए भरल उपर के पासे रोवामां आवतुं वृक्ष वा ए भस्म उपर चणाववामां आवतो स्तूप पण चैत्य-शब्दनो भाव हतो ['स्तूप' करवानी पद्धति माटे जूओ (शा० स० पृ० १५५ तथा जं.प्र.बा. पृ० १४०-१४.] बौद्धोना साहित्यमा पण चैत्य (पालि-चेतिय ) शब्दना आ ज भावो अत्यारे पण प्रसिद्ध छे अने त्यार पछी ए भस्म उपर यणाववामां आवता चोतरा, कबर, के देवळी पण 'चैत्य' शब्दना भावमां आव्यां. ज्यां एवा चोतरा, कवर के देवळीओ होय छे त्यो प्रायः श्मशान, अरण्य के एवो ज कोइ उज्जड प्रदेश होय छे अने त्यां भूतोनुं रहेठाण होय छे-एको लोकप्रवाद छे एने लइने 'चैत्य 'नुं बीजु नाम व्यंतरायतन प्रसिद्ध थयुं वा चैत्यनो ए बीजो अर्थ पण प्रचार पाम्यो. सूत्रमा प्रायः घणे ठेकाणे ए ज भावमा चैत्य शब्द योजायो छे अने ए, एनो अर्थ 'गङ्गामा घोषः' नी जेवो लाक्षणिक-सामीप्यजन्य-छे. सूत्रमा ज्यां 'अरिहंत चैत्य' के 'जिन चैत्य' शब्द आवे छे त्यां तेनो उपर जणावेलो व्युत्पत्ति अर्थ ज घराववानो छे अधीत् 'अरिहंतनी पवित्र भस्म के स्तूप' एवो ज अर्थ करवानो छे. वर्तमानमा तो आ शब्द यौगिक रयो नथी, पण रूढ थयो छे अने तेनी रूढतानो पायो आज घगा समयथी नखायो छे. खुद श्रीअभयदेवसूरि जेवा समर्थ पंडित अने मलयगिरि जेवा समर्थ शब्दशास्त्री पण ए'चैत्य' शब्दने रूढ जणावे छे-डिस्थनी पेठे संज्ञाशब्द जणावे छे-ए एक आश्चर्यकर घटना छे. तेओए जणाव्यु छे के, 'संज्ञाशब्दलात् देवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धम् , x तदाश्रयभूतं x गृहम्-तदपि उपचारात्-चैत्यम् "-(भगवतीटीका तथा सूर्यप्रज्ञप्तिटीका) आ महापुरुषो ए शब्दने रूढ माने छे तेनुं कारण आ छः खरी रीते तो ' चैत्य' शब्दनो मूळ भाव अने व्युत्पत्तिने अनुसरतो भाव उपर जणाव्यो छे ते ज लागे छे तो पण एमना जमानामा घणु करीने एवा स्तूपो कराववानी प्रथा ओछी थइ गइ हती अने तेने बदले धर्मवीर के कर्मवीर पुरुषोनां मंदिरो गमे ते ठेकाणे चणाववामां आवतां अने तेमा मूर्तिओ पण पधराववामा आवती-अने ते मंदिरो अने मूर्तिओने 'चैत्य' शब्दथी संबोधवामां आवतां-खरुं विचारतां तो चिता उपर चणावेला सिवायना ए मंदिरोमां के मूर्तिओमां ' चैत्य' शब्दनो भाव बंध बेसतो न आवतो, छतां मात्र एक स्मारकतानी समानताने लीधे तेमना समयनो जनसमाज । चैत्य' शब्दथी मंदिरोने संबोधतो तेथी ज एओने ' चैत्य' शब्दने रूढ के संज्ञा-शब्द ठराववानी जरूर पडी हती. तासर्य एछे के, 'चैत्य' शब्दनो मूळ भाव जुदो छे अने काळकृत तथा रूढिकृत भाव पण जुदो छ, सूत्रमा वपराएलो 'चैत्य' शब्द टीकाकारोथी विशेष प्राचीन होवाथी त्यां तेनो प्राचीन अर्थ ज समजवो युक्तियुक्त छे. केटलाको 'चैत्य' शब्दने 'चितै संज्ञाने' धातु उपरथी वा 'चित्त ' शब्द उपरथी उपजाववानी रीत जणावे छे ते शब्दशास्त्रनी दृष्टिए अप्रतीत छे-भा रीते चैत्य (चेइअ) झाब्दना अर्थनो टुको परिचय छे:-अनु० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५. उद्देशक १. १४६ पोईण दाहिणमागच्छंति, पाईण- दाहिणमुग्गच्छ दाहिणपडणिमा- ईशान खूणामां उगीने अग्नि खूणामां आथमे छे ? अग्नि खूणामां गच्छंति, दाहिण -पडीण मुग्गच्छ पडीण - उदीर्ण (चि) मागच्छंति, पडीण-उदीणमुग्गच्छ उदीचि - पादीणमागच्छन्ति : उगीने नैर्ऋत खूणामां आथमे छे! नैर्ऋत खूणामां उगीने वायव्य खूणामां आथमे छे ! अने वायव्य खूणामां उगीने ईशान खूणाम आश्रमे छे ? १. उ० - हंता, गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उदीचीपाईणमुग्गच्छ जाव - उदीच- पाईणमागच्छंति. २. प्र० – जया णं भंते ! जंबूद्दीचे दीवे दाहिणडे दिवसे हव, तथा णं उत्तरडे व दिवसे भवइ; जया णं उत्तरड्डेऽषि दिवसे भव, तथा णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स पुरत्थिमपचत्थिमे णं राई हवइ ? २. उ० - हंता, गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणडे दिवसे जाव - राई गवइ. ३. प्र० - जया णं भंते ! जम्बूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्त पुरत्थमे णं दिवसे भव तया णं पञ्चत्थिमेण वि दिवसे भदइ, जया णं पञ्चत्थिमे णं दिवसे भवइ, तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स उत्तर - दाहिणे णं राई भवइ ३. उ० - हंता, गोयमा ! जया णं जंबूदीवे दीवे मंदरपुरत्थिमे णं दिवसे, जाव - राई भवइ. ४. प्र० - जदा णं भंते ! जंबूदीवे दीवे दाहिणडे उक्कोसए अट्ठारसमुहुते दिवसे भवइ तदा णं उत्तरडे वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भव, जया णं उत्तरढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरस्थिम -पच्चत्थिमे णं जहनिआ दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? ४. ३० - हंता, गोयमा ! जया णं जम्बू० जाव- दुवाल - समुहुत्ता राई भवइ. ५. प्र० – जया पं जम्बू० मंदरस्त पुरत्थिमे उक्कोसए अट्टारसमुत्ते दिवसे भवइ तया णं जंबुद्दीचे दीवे पच्चत्थिमेण वि उक्कोसेणं अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जया णं पञ्चस्थिमे णं १. उ० - हे गौतम! हा, ए ज रीते सूर्यनुं उगवुं अने आथम थाय छे- जंबूद्वीप नामना द्वीपमा सूर्यो उत्तर अने पूर्व- ईशान खूणा - मां उगीने यावत्-ईशान खूणामां आथमे छे. २. प्र० - हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमां दक्षिणार्धमा दिवस होय छे, त्यारे उत्तरार्धमा पण दिवस होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमां पण दिवस होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे रात्री होय छे ! २. उ०- हे गौतम! हा, ए ज रीते होय छे-ज्यारे जंबूद्वीपमां दक्षिणार्धमां पण दिवस होय छे त्यारे यावत् - रात्री होत्र छे. ३. प्र० -- हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्वे दिवस होय छे यारे पश्चिममां पण दिवस होय छे अने ज्यारे पश्चिममां दिवस होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी उत्तर दक्षिणे रात्री होय छे ? ३. उ० -- हे गौतम! हा, ए ज रीते होय छे- ज्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्वे दिवस होय छे त्यारे यावत् - रात्री होय छे. ४. प्र०--हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वी मां दक्षिणार्धमा वधारेमुः वधारे मोटो अटार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे उत्तर पण वधारेमा वधारे मोटो अदार मुहूर्तनो दिवस होय के अन ज्यारे उत्तरार्धमा सौथी मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे नानामां नानी बार मुहूर्तनी रात्री होय छे ? ४. उ० -- हे गौतम ! हा, ए ज रीते होय छे-जंबूद्वीपमां यावत्-बार मुहूर्तनी रात्री होय छे. ५. प्र० - हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्वे मोटामां मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां पश्चिमे पण मोटामां मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे अने १. मूलच्छायाः - प्राचीन दक्षिणम् आगच्छतः प्राचीन दक्षिणम् उद्गत्य दक्षिण-प्रतीचीनम् आगच्छतः, दक्षिण-प्रतीचीनम् उद्गम्य प्रतीचीन-उथीचीनम् आगच्छतः प्रतीचीन- उदीचीनम् उद्गम्य उदीची- प्राचीनम् आगच्छतः ! हन्त, गौतम । जम्बूदीपे द्वीपे सूर्यो उदीचीप्राचीनम् उद्गम्य यावत् उदीची- प्राचीनम् आगच्छतः यदा भगवन् ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाऽर्धे दिवसो भवति तदा उत्तरार्धेऽपे दिवसो भवतिः यदा उत्तरार्धेऽपि दिवसो भवति तदा जम्बूदरीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वत्तस्य पौरस्त्य - पश्चिमे रात्रिर्भवति ? हन्त, गौतम ! यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धेऽपि दिवसः, यावत् - रात्रिर्भवति यदा भगवन् । जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये दिवसो भवति तदा पश्चिमेपे दिवसो भवति, यदा पश्चिमे दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतःस उत्तर-दक्षिणे रात्रिर्भरति ? हन्त, गौतम ! यदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरपौरस्त्ये दिवसः यावत्रात्रिर्भवति यदा भगवन् ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणाऽर्चे उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्ते दिवसो भवति तदा उत्तरार्धेऽपि उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, ख़ुदा उतराऽर्धे उत्कृष्टोऽष्टादशमुहू दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पौरस्त्य - पश्चिमे जयन्यिका द्वादशमुहूर्ती रानिर्भवति ? हन्त, गौतम । यंदा जम्बू• यावत्-द्वादशमुहूती रात्रिर्भवति यदा जम्बू• मन्दरस्य पौरस्त्ये उत्कृष्टोऽशदशमुहूर्ती दिवसो भवति तदा जम्बूद्दीने द्वीपे पश्चिमेऽपि उत्कृष्टको दशमुहूर्ती दिवसो भवति यदा पश्चिमेः - अनु० Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्दशेक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १४७. उक्कोसिए अट्टारसमुहुत्ते दिवसे भवड़ तया णं भंते ! जंबूदीवे ज्यारे पश्चिमे मोटामां मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे दीवे उत्तरे दुवालसमुहुत्ता जाब-राई भवइ ? हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा उत्तरार्धमां नानामां नानी बार' मुहूर्तनी रात्री होय छे? ५. उ०-हंता, गोयमा ! जाव-भवइ. ५. उ०---हे गौतम! हा, एज रीते यावत्-होय छे. ६. प्र०--जया णं भंते ! जंबूदीचे दीवे दाहिणड़े अट्ठारस- ६. प्र०--हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमा अढार मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं उत्तरे अट्ठारसमुहुत्तागंतरे दिवसे मुहूर्त करतां कांइक ऊणो-मुहूतानन्तर-दिवस होय छे त्यारे भवइ, जया णं उत्तरड़े अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ तया णं उत्तरार्धमा अढार मुहूतीनन्तर दिवस होय छे अने ज्यारे जम्बूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं पचत्थिमे णं उत्तरार्धमा अढार मुहूर्तानन्तर दिवस होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? पर्वतनी पूर्व पश्चिमे बार मुहूर्त करतां कांइक वधारे लांबी रात्री होय छे? ६. उ०--हंता, गोयमा ! जया णं जम्बू० जाव-राई ६. उ०-- हे गौतम ! हा, ए ज रीते होय छे-जबूद्वीपमा भवइ. यावत्-रात्री होय छे. ७. प्र०–जया णं भंते ! जम्बू० मंदरस्स पव्वयस्स पुर- ७. प्र०--हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्व थिमे णं अट्ठारसमहत्ताणतरे दिवसे भवइ तया णं पचत्थिमे णं अढार मुहूर्तानंतर दिवस होय छे त्यारे पश्चिमे अढार मुहृतानंतर अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवइ, जया णं पचत्थिमे णं अट्ठार- दिवस होय छे अने ज्यारे पश्चिमे अढार मुहूर्तानंतर दिवस होय समहत्ताणंतरे दिवसे भवई तदा णं जम्ब० मंदरस्स पव्ययस्स छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी उत्तर दक्षिणे बार मुहूर्त करता - उत्तरदाहिणे साइरेगदुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? कांइक वधारे लांबी रात्री होय छे ? ७. उ०–हता, गोयमा ! जाव- भवइ. ७. उ.--हे गौतम ! हा, ए ज रीते होय छे. एवं एएणं कमेण ओसारेअव्वं, सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसम- ए प्रमाणे एक्रमवडे दिवसनुं माप ओळु करवू अने रात्रीचें माप हुत्ता राई भवइ सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसें साइरेगा तेरस मुहुत्ता वधारः ज्यारे सत्तर मुहूर्तनो दिवस होय त्यारे तेर मुहूर्तनी रात्री राई, सोल समुहुत्ते दिवसे चोद्दसमुहुत्ता राई, सोलसमुहत्ताणंतरे होय, ज्यारे सत्तर मुहूर्त करतां कांइक ओछो-लांबो- दिवस होय दिवसे साइरेगचउद्दसमुहुत्ता राई, पण्णरसमुहत्ते दिवसे पन्नरस- सारे तेर मुहर्त करतां कांइक बधारे-लांबी-रात्री होय. ज्यारे सोळ मुहुत्ता राई, पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा पण्णरसमुहुत्ता मुहर्तनो दिवस होप त्यारे चौद मुहूर्तनी रात्री होय. ज्यारे सोळ राई, चोद्दसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राई, चोद्दसमुहुत्ताणंतरे मुहूर्त करता काइक ओछो दिवस होप त्यारे चौद मुहूर्त दिवसे साइरेगा सोलसमुहुत्ता राई, तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरस- करतां कांइ वधारे रात्री होय. ज्यारे पन्नर मुहूर्तनो दिवस मुहुत्ता राई, तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे साइरेगा सत्तरसमुहुत्ता राई. होय त्यारे पन्नर मुहूर्तनी रात्री होय. पारे पन्नर मुहूर्त करता कांइक ओछो दिवस होय सारे पन्नर मुहूर्त करतां कांइक बधारे रात्री होय. ज्यारे चौद मुहूर्तनो दिवस होय त्यारे सोळ मुहूर्तनी रात्री होय. ज्यारे चौद मुहूर्त करतां कांइक ओछो दिवस होय छे त्यारे सोळ मुहूर्त करतां कांइक वधारे रात्री होय छे. ज्यारे तेर मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे सत्तर मुहूर्तनी रात्री होय छे. ज्यारे तेर मुहर्तनो दिवस होय छे त्यारे सत्तरं मुहर्तनी रात्री होय छे. ज्यारे तेर महर्त करतां कांइक ओछो दिवस होय छे त्यारे सत्तर मुहूर्त करतां कांइक वधारे रात्री होय छे. १. मूलच्छायाः-उत्कृष्टकोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा भगवन् ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरे द्वादशमुहूती यावत्-रात्रिभवति । हन्त, गौतम ! यावत्-भवति. यदा भगवन् ! जम्बुद्वीपे द्वीपे दक्षिणाऽर्धेऽष्टादशमुहतीऽनन्तरो दिवसो भवति तदा उत्तरेऽष्टादशमुहूर्त नन्तरो दिवसो भवति, यदा उत्तराऽर्धेऽष्टादशमुहूतीऽनन्तरो दिवसो भवति तदा जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये, पश्चिमे सातिरेका द्वादशमुहूती रात्रिर्भवंति ? हन्त, गौतम ! यदा जम्बू० यावत्-रानिर्भवति. यदा भगवन् ! जम्वु मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्येऽष्टादशमुहूर्तानन्तरो. दिवसो भवति तदा पश्चिमेऽटादशमुहूतीऽनन्तरो दिवसो भवति, यदा पश्चिमेऽष्टादेशमुहूर्तानन्तरो दिवसो भवति तदा जम्यु० मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर-दक्षिणे सातिरेकद्वादशमुहूती रात्रिर्भवति ? हन्त, गौतम! यावत्-भवति. एवम् एतेन क्रमेण अवसारयितव्यम् , सप्तदशमुहूर्तो दिवसः त्रयोदशमुहूर्ती रात्रिर्भवति, सप्तदशमुहूर्त:ऽनन्तरो दिवसः सातिरेका त्रयोदश हूती रात्रिः, षोडशमुहूतौ दिवसञ्चतुर्दशमुहूती रात्रिः, पोडशमुहूर्ताऽननारी दिवसः सातिरेका चतुर्दशमुहूर्त। रात्रिः, पनदशमुहूर्तो दिवसः पञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः, पञ्चदशमुहूताऽनन्तरो दिवसः सातिरेका पञ्चदशमुहूती रात्रिः, चतुर्दशमुहूर्तो दिवसः पोडशमुहूर्ता रात्रिः, चतुर्दशमुहूर्ताऽनन्तरो दिवसः सातिरेका षोडशमुहूती, रात्रिः, त्रयोदशमुहूर्तो दिवसः सप्तदशमुर्ती रात्रिः, त्रयोदशमुहूर्ताऽनन्तरो दिवसः सातिरेका सप्तदशमुहूती रात्रिः-अनु. . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ८. प्र० -- जैया णं जंबूदीवे दीवे दाहिणडे जहचए दुवाल - समुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उत्तरडे वि, जया णं उत्तरडे तथा णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स पुरत्थिम- पच्चत्थि मे णं उक्कोसिआ अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ ? ८. उ० - = हंता, गोयमा ! एवं चैव उच्चारेअव्वं, जाव- राई भवइ. ९. प्र० -- जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्त पुरत्थिमे णं जहन दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तथाणं पञ्चत्थिमण वि, जया णं पच्चत्थिमे णं वि तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं उक्कोसिआ अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ ? ९. उ-हंता, गोयमा ! जाव - राई भवइ. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे - शतक ५. - उद्देशक १ ८. प्र० - हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमां दक्षिणार्धमा नानामां नानो बार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे उत्तरार्धमा पण मज होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमा तेम होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्वे, पश्चिमे मोटामां मोटी अढार मुहूर्तनी रात्री होय छे ? ८. उ०- हे गौतम! हा, ए ज रीते होय है- ए प्रमाणे ज बधुं कहेतुं यावत् - रात्री होय छे. ९. प्र० - हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्वे नानामां नानो बार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे पश्चिमे पण तेम होय छे अने ज्यारे पश्चिमे तेम होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी उत्तर दक्षिणे मोटामां मोटी अढार मुहूर्तनी रात्री होय छे ! ९. उ०—हे गौतम! हा, ए ज रीते होय छे- यावत्-रात्री थाय छे. २. तत्र प्रथमोदेशके किञ्चिल् लिख्यते:- ' सूरिय ' त्ति द्वौ सूर्यो, जम्बूद्वीपे द्वयोरेव भावात् ; 4 उदीर्ण-पाईणं ' ति उदगेव उदीचीनम्, प्रागेव प्राचीनम् उदीचीनं च तदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च तत् प्राच्याः प्रत्यासन्नत्वाद् - उदीचीन- प्राचीनं दिगन्तरम्, क्षेत्र दिगपेक्षया पूर्वोत्तरदिग् इत्यर्थः ' उग्गच्छत्ति उद्गय क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वा - इत्यर्थः • पाईण- दाहिणं ति प्राचीन दक्षिणं दिगन्तरं पूर्वदक्षिणम् -- इत्यर्थः ' आगच्छति' त्ति आगच्छतः - क्रमेण एव अस्तं यात इत्यर्थः इह चोद्गमनम्, अस्तगमनं च द्रष्टृलोकविवक्षयाऽवसेयम् तथाहि : - येषामदृश्यौ सन्तौ दृश्यौ स्याताम् ते तयोरुद्रमनं व्यवहरन्ति येषां तु दृश्यौ सन्तावदृश्यौ स्तः, ते तयोरस्तमयं व्यवहरन्ति - इति अनियतौ उदया - ऽस्तमयौ. आह चः — se जैह ह समये समये पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे, तह तह इओऽवि नियमा जायइ रयणी य भावत्थो. एवं च सइ नराणं उदय -त्थमणाई होतिऽनिययाई, सयदेसमेए कस्सइ किंची ववदिस्सर नियमा सइ चैव य निद्दिट्ठो भद्दमुहुत्तो कमेण सव्वेसिं, केसिंचीदाणिं पिय विसयपमाणे रवी जोर्सिं. " इत्यादि अनेन च सूत्रेण सूर्यस्य चतसृषु दिक्षु गतिरुक्ता ततश्च ये मन्यन्तेः - ' सूर्यः पश्चिमसमुद्रं प्रविश्य पातालेन गत्वा पूर्वसमुद्रमुदेति' इत्यादि, तन्मतं निषिद्धम् - इति इह च सूर्यस्य सर्वतो गमनेऽपि प्रतिनियतत्वात् तत्प्रकाशस्य रात्रि--दिवसविभागोऽस्ति इति तं क्षेत्रभेदेन दर्शयन्नाह :- ' जया णं ' इत्यादि. इह सूर्यद्वयभावाद् एकदैव दिग्द्वये दिवस उक्तः, इह च यद्यपि 'दक्षिणार्थे ' तथा ' उत्तरार्धे ' इत्युक्तम्, तथाऽपि ' दक्षिणभागे ' ' उत्तरभागे ' च - इति बोद्धव्यम् - अर्धशब्दस्य भागमात्रार्थत्वात्. यतो यदि दक्षिणार्धे, उत्तरार्धे च समग्रे एव दिवसः स्यात्, तदा कथं पूर्वेण, अपरेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत ! अर्धद्वयग्रहणेन सर्वक्षेत्रस्य गृहीतत्वात् इतश्च दक्षिणार्धादिशब्देन दक्षिणादिदिग्भागमात्रमेव अवसेयम्, नत्वर्धम् यतो यदाऽपि दक्षिणोत्तरयोः सर्वोत्कृष्ट दिवसो भवति, तदाऽपि जम्बूद्वीपस्य दशभागत्रयप्रमाणमेव तापक्षेत्रं तयोः प्रत्येकं स्याद् दशभागद्वयमानं च पूर्व-पश्चिमयोः प्रत्येकं रात्रिक्षेत्रं स्यात् तथाहिः - पष्ट्या मुहूर्तेः किल सूर्यो मण्डलं पूरयति, उत्कृष्टदिनं च अष्टादशभिर्मुहूर्तेःउक्तम्. अष्टादश च षष्टेर्दशभा गत्रितयरूपा भवन्ति, तथा यदा अष्टादशमुहूतों दिवसो भवति तदा रात्रिर्द्वादशमुहूर्ता भवति, द्वादश च षष्टेर्दशभागद्वयरूपा भवन्ति इति तत्र च मेरुं प्रति नवयोजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि, नव च दशभागा योजनस्य इति एतत् - ९४८६ सर्वोत्कृष्टदिवसे दशभागत्रयरूपं तापक्षेत्रप्रमाणं भवति कथम् ? मन्दरपरिक्षेपस्य किंचिन्न्यून त्रयोविंशत्युत्तरषट्शताधिकैकत्रिंशद्यो जनसहस्रमानस्य ( ३१६२३ ) दशभिर्भागे हृते यद् लब्धं तस्य त्रिगुणितत्वे एतस्य भावाद् इति तथा लवणसमुद्रं प्रति चतुर्नवतिर्योजनानां सहस्राणि, अष्टौ शतानि, अष्टषष्ट्यधिकानि चत्वारश्च दशभागा योजनस्य १. मूलच्छायाः यदा जम्बुद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे जघन्यको द्वादशमुहूतों दिवसो भतति तदा उत्तरार्धेऽपि यदा उत्तरार्धे तदा जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्य-पश्चिमे उत्कृष्टिकाऽष्टादशमुहूर्ती रात्रिर्भवति ? हन्त, गौतम ! एवं चैव उच्चारयितव्यम्, यावत्-रात्रिर्भवति यदा भगवन् ! जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये जघन्यको द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति तदा पश्चिमेऽपि यदा पश्चिमेऽपि तदा जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर-दक्षिणे उत्कृष्टिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति ? हन्त, गौतम । यावत्- रात्रिर्भवतिः - अनु० २. प्र० छाः यथा यथा समये समये पुरतः संचरति भास्करो गगने, तथा तथा इतोऽपि नियमाद् जायते रजनी च भावार्थः एवं च सदा नराणामुदया-ऽस्तम (य)नानि भवन्ति अनियतानि, खकदेशमे दे कस्यचित् किंचिद् व्यपदिश्यते नियमात् सकृदेव च निर्दिष्टः भद्रमुहूर्तः क्रमेण सर्वेषां कैषांचिदिदानीमपि च विषयप्रमाणे रविर्येषाम्ः -- अनु० Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवती सूत्र, १४९ इति एतत्-९४८६८* उत्कृष्टदिने तापक्षेत्रप्रमाणं भवति. कथम् ? जम्बूद्वीपपरिधेः किंश्चिन्यूनअष्टाविंशत्युत्तरशतद्वयाधिकषोडशसहस्रोपेतयोजनक्षत्रय-३१६२२८-मानस्य दशभिर्भागे हृते यद् लब्धं तस्य त्रिगुणितसे एतस्य भावाद् इति. जघन्यरात्रिक्षेत्रप्रमाणं चापि एवमेव, नवरम्:-परिधेर्दशभागो द्विगुणः कार्यः, तत्राऽऽयं षड् योजनानां सहस्राणि, त्रीणि च शतानि चतुर्विशत्यधिकानि षट् च दश भागा योजनस्य-६३२४६. द्वितीयं तु त्रिषष्टिः सहस्राणि, द्वे पञ्चचत्वारिंशदधिके योजनानां शते, षट् च दश भागा योजनस्य-६३२४५. सर्वलघौ च दिवसे तापक्षेत्रमनन्तरोक्तरात्रिक्षेत्रतुल्यम्. रात्रिक्षेत्रं तु अनन्तरोक्ततापक्षेत्रतुल्यमिति, आयामतस्तु तापक्षेत्रं जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणि-इति. लवणे च त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि, त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि, त्रिभागश्च योजनस्य-३३३३३३. उभयमीलने तु अष्टसप्ततिः सहस्राणि, त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजन त्रिभागश्च इति७८३३३१. 'उकोसए अट्ठारसमुह ते दिवसे भवइ ' त्ति इह कि सूर्यस्य चतुरशीयधिक मण्डलशतं भवति. तत्र किल जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चषष्टिमण्डलानि भवन्ति. एकोनविंशत्यधिकं च शतं तेषां लवणसमुदस्य मध्ये भवति. तत्र सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा वर्तते सूर्यस्तदा अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति. कथम् ? यदा सर्वबाह्ये मण्डले वर्ततेऽसौ तदा सर्वजघन्यो द्वादशमुहूर्ती दिवसो भवति. ततश्च द्वितीयमण्डलादारभ्य प्रतिमण्डलं द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां दिनस्य वृद्वौ व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले षड् मुहूर्ता वर्धन्त-इति-एवमष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति. अत एव द्वादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्य. ' अट्ठारसमुहत्ताणंतर' त्ति यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरे मण्डले वर्तते सूर्यस्तदा मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयहीनाऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति. स चाष्टादशमुहूतार्द दिवसाद् अनन्तरः ' अष्टादशमुहूर्तानन्तरः' इति व्यपदिष्टः. 'सालिरेगा दुवालसमुहुत्त ' त्ति द्वाभ्यां मुहूतेकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहर्ता 'राई भवइ ' त्ति रात्रिप्रमाणं भवतीत्यर्थः. यावता भागेन दिनं हीयते तावता रात्रिर्वर्धते-त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्पेति. 'एवं एएणं कमेणं' ति ' एवम् ' इत्युपसंहारे, एतेनाऽनन्तरोक्तेन 'जया णं भंते ! जंबुद्दीचे दीवे दाहिणड़े' इत्यनेनेत्यर्थः. 'ओसारेयव्वं' ति दिनमानं हूस्वीकार्यम् . तदेव दर्शयतिः- सत्तरस' इत्यादि. तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरमण्डलाद् आरभ्यैकत्रिंशत्तममण्डलार्धे यदा सूर्यस्तदा सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति-पूर्वोक्तहानिक्रमेण, त्रयोदशमुहूर्ता च रात्रिरिति. 'सत्तरसमुहुत्ताणतर' त्ति मुहूर्तेकषष्टिभाद्वयहीनसप्तदशमुहर्तप्रमाणो दिवसः, अयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलार्धे भवति, एवमनन्तरवमन्यत्राऽपि ऊह्यम्, 'साइरेगतेरसमुहुत्ता राइ' त्ति मुहूर्तेकषष्टिभागद्वयेन सातिरेकत्वम्, एवं सर्वत्र. 'सोलसमहुत्ते दिवसे' त्ति द्वितीयादारभ्यैकषष्टितममण्डले षोडशमुहूर्तो दिवसो भवति. 'पण्णरसमुहुत्ते दिवसे' त्ति द्विनवतितममण्डलार्धे वर्तमाने सूर्ये. 'चोदसमहुत्ते दिवसे ' त्ति. द्वाविंशत्युत्तरशततममण्डले. 'तेरसमुहत्ते दिवसे' ति सार्धद्विपञ्चाशदुत्तरशततमे मण्डले. 'बारसमुहत्ते दिवसे 'त्ति यशीत्यधिकशततमे मण्डले सर्वबाह्ये इत्यर्थः. २. तेमा पहेला उद्देशक संबंधे कांइक विवरीए छीर-[ 'सूरिय " तिबे सूर्यो, कारण के जंबूद्वीपमां बे ज सूर्यो छे. [ उदीणपादणं' बेसू, ति] उत्तर दिशानी पासेनो प्रदेश ते उदीचीन अने पूर्व दिशानी पासेनो प्रदेश ते प्राचीन-उत्तर अने पूर्व दिशानी वचेनो भाग-ईशान खूणों. [ उगच्छ ' ति] त्यां क्रमपूर्वक उगीने, [ 'पाईणदाहिणं' ति] पूर्व अने दक्षिण दिशानी वचेना भागे-अमि खूणे, ['आगच्छंति' ति] आवे छे-क्रमपूर्वक ज आथमे छे. 'अमुक समये सूर्य उगे छे अने अमुक समये सूर्य आथमे छे' ए व्यवहार मात्र लोकोनी मरजीथी ज उगवर उपज्यो छे. कारण के समग्र भूमंडळ उपर सूर्यने उगवानो अने आथमवानो समय नियत नथी. खरी रीते तो सूर्यो लोकोनी समक्ष हमेशा हाजर ज छे. पण ज्यारे कोइ पण जातनुं सूर्यनी आई आंतरं आवी जाय छे त्यारे अमुक देशना लोको तेने जोइ शकता नथी माटे तेओ सूर्य आथम्यो छे' एवो व्यवहार करे छे अने ज्यारे ते आंतरं नथी होतुं त्यारे अमुक देशना लोको सूर्यने जोइ शके छे माटे तेओ । सूर्य उग्यो छ । एवो व्यवहार करे छ अर्थात् मात्र जोनारा लोकोनी नजरथी ज सूर्यने उगवानो अने आथमवानो ब्यवहार छे-बीजं कांइ नथी. कह्यु छ के"जेम जेम समये समये सुर्य आगळ संचरे छे-आकाशमां गति करे छे-तेम तेम आ तरफ पण रात्री थाय छे ए वात चोक्कस छे" "अने एम छ माटे-सूर्यनी गति उपर ज उगवा अने आथमवानो व्यवहार निर्भर छे माटे-मनुष्योने हिसावे उगईं अने आथमवु ए बन्ने क्रियाओ अनियत छे. कारण के पोताना देशना भेदने लीधे कोइ, कोइ पण प्रकारनो व्यवहार तो करे ज छे " " एकवार ज क्रमवडे बधाओने भद्रमुहूर्त निर्देश्यो (2) छे अने केटलाकोने तो ते अत्यारे पण छे-जेओने सूर्य विषयप्रमाण छ (2) " इत्यादि. सूर्य चारे दिशाओमां गति करे छे-आकाशमां सूर्य बधी दिशाओमा फरे छे, ए वात उपरना मूळ सूत्रथी जणावी छे. जे लोको एम माने छे के “ सूर्य पश्चिम तरफना दरियामा पेसीने, पाताळमां . जइने फरीने पूर्व तरफना समुद्र उपर उगे छे " ए मतने उपरतुं मूळ सूत्र ( सूर्यनी चारे तरफ धती गतिनुं सूचक सूत्र ) निषेधे छे. शं०-उपरना म सत्रमा जणाव्यं ते रीते विचारतां एम स्पष्ट प्रतीत थाय छे के, सूर्य चारे दिशामां गति करे छे अने ज्यारे एम छे तो पछी तेनो प्रकाश हमेशा कायम फेलाया करे छे ए वात तो निर्विवाद थइ शके छ तो पछी क्याय रात्री अने क्यांय दिवस एवो विभाग जोवामां आवे छे ते केम बनी शकशे? उपरना कथन प्रमाणे तो हमेशा सघळे ठेकाणे दिवस ज रहेवो जोइए. एम छतां तेम थतुं नथी तेनु शुं कारण ? समा०-जो के सूर्य बधी समाधान. दिशाओमां गति कर्या करे छे तो पण तेनो प्रकाश मर्यादित छे-तेनो प्रकाश अमुक हद सुधी जाय अने वधारे न जाय ए रीते नियत छे-माटे जगतमा अनुभवातो रात अने दिवसनो व्यवहार बाधारहित छ अर्थात् जेटली हद सुधी सूर्यनो प्रकाश जेटला बखत सुधी पहोंचे तेटली हदमां लेटला वखत सुधी दिवस अने बाकीनी हदमा तेटला वखत सुधी रात रहे ए व्यवहार, सूर्यनो प्रकाश मर्यादित होवाथी बराबर छ अने ए ज वातने क्षेत्रना भेदपूर्वक दर्शावता कहे छे के-[ ' जया णं' इत्यादि.] जगतमां बे सूर्यनी हाजरी होवाथी एक ज वखते बे दिशामा दिवस होवानुं जणाव्युं छे. शै०--जेम एक चोरस के गोळ पदार्थ होय, हवे जो आपणे तेना उपरना अडधा भागने उत्तरार्ध अने हेठळना अडधा भागने शंका, . Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक१. दक्षिणार्धं कहीए तो ते बे भागमां आखो पदार्थ समाइ शके छे. जो कोइ ए प्रकारना पदार्थ उपर दीवो मूकी एम कहे के आ दीवानो प्रकाश ते चोरस के गोळ पाटियाना दक्षिणार्ध अने उत्तरार्धमा पोतानो प्रकाश पाडे छे तो एम रपष्टपणे समजाइ शके के दीवाना प्रकाशथी ते आखो पदार्थ अजवाळायो छे तो ए रीते अहीं पण केम न संभवे ? अहीं कयुं छे के, जंबूद्वीपना दक्षिणार्धमा अने उत्तरार्धमा दिवस होय छे तो पछी आगळ कहेल उदाहरण प्रमाणे आखा य जंबूद्वीपमा दिवस होवानो संभव छ पण कोइ पण भागमां-पूर्व के पश्चिम भागमां-रात्री होबी घटती नथी. अने ए समाधान, रीते वनतुं जणातुं नथी तेनुं शुं कारण ? समा०-आ स्थळे दक्षिणार्धनो 'आखो दक्षिण-हेठळ-नो भाग ' अने उत्तरार्धनो 'आखो उत्तर उपर-नो भाग' एवो अर्थ ज नथी, पण अहीं 'अर्ध' शव्दनो अर्थ मात्र 'अमुक भाग' गण्यो छे माटे दक्षिणार्थ एटले दक्षिण दिशामां आवेलो । भाग अने उत्तरार्ध एटले उत्तर दिशामां आवेलो भाग, एवो अर्थ थाय छे अने एम अर्थ थवाथी-दक्षिणार्ध अने उत्तरार्ध शब्दवडे ते आखो खंड लेवातो नथी-तेथी ज पूर्व अने पश्चिम दिशामा रात्री थवानुं लखाण बराबर घटी शके छे. ज्यारे पण दक्षिण अने उत्तरमा मोटामां मोटो तापक्षेत्र अने अढार मुहूर्त-१४ कलाक अने २४ मिनिट-नो दिवस होय छे त्यारे पग जंबू द्वीपना त्रण दश भाग जेटलं ज तापक्षेत्र (प्रकाशवाळो भाग) रात्रीक्षेत्र. दक्षिण अने उत्तरमा होय छे अने बे दश भाग जेटलुं रात्री क्षेत्र (प्रकाश विनानो भाग) पूर्व अने पश्चिममा होय छे. ते ज वातने स्पष्टपणे जणावे छे-सूर्य साठ मुहूर्त (४८ कलाक ) जेटला काळे मंडळने पूरे छे-एक मंडळमां सूर्य साठ मुहूर्त सुधी रहे छे. मोटामा मोटो दिवस अढार मुहूर्तनो कह्यो छे अने अढार संख्या साठना दस भाग करवाथी जे एक भाग आवे तेवा त्रण भागरूप छे तथा ज्यारे अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे बार मुहूर्त (९ कलाक अने ३६ मिनीट ) नी रात्री होय छे अने बार संख्या साठना दश भाग करवाथी जे एक भाग आवे तेना बे भागरूप छे. तेमा मेरु प्रत्ये आयाम-लंबाई-नी अपेक्षाए मोटामां मोटा दिवसमा ९४८६ योजन अने नव दशभाग जेटलुं तापक्षेत्र होय छे अने ते मेरुना परिक्षेप- जेटलुं माप छे तेना दस भाग करतां जे एक भाग आवे तेवा वण भागरूप छे. ते केवी रीते ? तो कहे छे के, मेरुनो परिक्षेप ३१६२३ योजन करतां कांइक ऊणो छे ते परिक्षेपनो दशवडे भांगाकार करता ३१६२३३, आटली संख्या आवे छे अने तेने त्रण गणी करतां ९४८६, आटली संख्या आवे छे, जे उपरनी ( उपर बतावेल तापक्षेत्रनी ) संख्या छे तथा लवण समुद्र प्रत्ये मोटागां मोटा दिवसमा ९४८६८४ योजन जेटलं तापक्षेत्र होय छे, ते केवी रीते ? तो कहे छे के, जंबूद्वीपनो घेरावो ३१६२२८ योजन करतां कांइक ओछो होय छे. ते घेरावाना मापनो दश संख्याथी भागाकार करता ३१६२२/- आटली संख्या आवे छे अने तेने त्रण गणी करतां .९४८६८ एटली तापक्षेत्रना योजननी संख्या आवे छे. जघन्य रात्रीक्षेत्रनुं माप पण ए ज प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के, घेरावाना क्षेत्रने दसे मांगीने (भांगता जे संख्या आवे तेने) बमणी करवी. जेमके, आपणे मेरुना परिक्षेप संबंधी योजन संख्याने दसे भांगी बमणी करतां जे कांइ योजनसंख्या आवे तलु मेरुनु रात्रीक्षेत्र समजवू. मेरुनो धेरावो ३१६२३ योजन करता काइक ऊणो छे. ते घेरावाने दसे भांगता ३१६२३३ आटली संख्या आवे छे अने तेने बमणी करता ६३२४, आटली योजन संख्या आवे छे अने एटलुं मेरुनु रात्रीक्षेत्र छे तथा ए ज रीते लवण समुद्रनुं रात्रीक्षेत्र काढq होय त्यारे तेना घेरावाने दुसे भांगी बम' करता जे योजनसंख्या आवे ते, तेनुं रात्रीक्षेत्र जाणवू. जंबूद्वीपनो घेरावो ३१६२२८ योजन करतां कांइक ओछो छे, ते घेरावाना मापनी संख्याने दसे भांगता ३१६२२% आटली योजन संख्या आवे छे अने तेने बमणी करतां ६३२४५, आटली योजन संख्या आवे छे अने तेटलुं लवण समुद्रना रात्रीक्षेत्रनुं माप छे. ए रीते बधे स्थळे समजबु. तात्पर्य ए के, ज्यारे कोइ पण क्षेत्रानु. तापक्षेत्र करवू ( काढq ) होय त्यारे ते क्षेत्रना घेरावाने दसे मांगी तमणो करता जे संख्या आवे तेटलुं ते क्षेत्रनुं तापक्षेत्र जाणवू अने ज्यारे कोइ पण क्षेत्रनु रात्रीक्षेत्र काढq होय त्यारे ते क्षेत्रना घेरावाने दसे मांगी बमणो करता जे संख्या आवे तेटलं ते क्षेत्रनु रात्रीक्षेत्र जाणQ. तथा वस अने रात्रीनी चार ज्यारे दिवस के रात्रीना काळनी लंबाइ, टुंकाइ जाणवी होय त्यारे सूर्य जे मंडळमां जेटला मुहूर्त रहतो होय ते मुहूर्त संख्याने दसे मांगी लंबाइ टंकाइनो (भागमा जे संख्या आवे) तेने तमणी करवाथी दिवसनी लंबाइ के टुंकाइ जणाशे अने ते ज मुहूर्त संख्याने दशे भांगी-भागनी संख्यानेविचार. बमणी करवाथी रात्रीनी लंबाई के टुंकाइ जणाशे. धारो के एक मंडळमां सूर्य ६०' मुहूर्त एटले ४८ कलाक रहे छे. तो हवे कोइने जाणवानुं होय के ज्यां सुधी सूर्य एक मांडलामा ६० मुहूर्त सुधी रहे छे त्यां सुधी रात्रीतुं माप शुं जाणवू ? उत्तर सरल ज छे-मुहूर्तनी ६० संख्याने दसे भागवाथी ६ संख्या आवे छ अने तेने तमणी करवाथी १८ संख्या आवे छे-तो ज्यां सुधी सूर्य ६० मुहूर्त सुधी एक ज मांडलामा रहे छे त्यां सुधी १८ मुहूर्त (१४ कलाक अने २४ मिनीट) नो दिवस होय छे अने रात्री बार मुहूर्तनी होय छे, ते ए रीते के, मुहूर्तनी संख्याने दसे मांगी अने बमणी करवाथी रात्रीनी लंबाइ वगेरे जणाइ जाय छे-६० मुहूतनी संख्याने दशे भांगता ६ नो भाग आवे छे अने तेने बमणुं करतां १२ संख्या आवे छे अने ते, रात्रीनी लंबाइनु माप छ ज्यारे दिवस नानो होय त्यारे ताप क्षेत्रनुं मार आगळ कहेल राषिक्षेत्र जेटलं १. कोइ महाशयने मुहूर्त शब्द अप्रसिद्ध जणातो होय तो तेने माटे चालु रूढि प्रमाणे पण दिवस अने रात्रिनुं माप जणावी शकाय छे. जूनी रीत प्रमाणे | मुहूर्त थाय त्यारे नवी रीत प्रमाणे एक कलाक थाय अर्थात् १ कलाकर्नु रावा मुहूर्त थाय छे. हवे ज्यारे सूर्य एक मंडळमा ४८ कलाक रहेतो होय त्यारे ते ४८ कलाकने दसे भांगी-भागनी संख्याने-त्रमणी करतां जेटला कलाक अने जेटली मिनीट आवे तेटली संख्या दिवसना मापनी छे अने ते ४८ कलाकने दसे भांगी-भागनी संख्यागे-बमणी करतां जेटला कलाक अने जेटली मिनीट आवे तेटली संख्या रात्रिना मापनी छ:-न्यारे सूर्य ४८ कलाक एक मांडलामा ज रहे त्यारे दिवसर्नु माप-१०)४८ (४॥ १०)३०(३ अर्थात् ४८ने ॥ अधीत् ३० मिनीट, . दसे भांगता ४॥ कलाक अने प्रण मिनीट आवे छे अने तेने त्रणे गुणतां ( ४॥३) १४। कलाक अ ९ मिनीट आवे अने ज्यां सुधी सूर्य एक मांडलामा ४८ फैलाक सुधी रहेछ त्यां सुधी एटला कलाकनो दिवस मोटो होय छे. रात्री माटे पण तेमज जाणवू. मात्र ४॥ कलाक अने ३ मिनीटने बमणा करवा अर्थात् ज्यां सुधी १४। कलाक अने नव मिनीटनो दिवस होय छे त्यां सुषी ९॥ कलाक अने ६ मिनीटनी रात्री होय छ:-अनु. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, जाणवु अने रात्रीक्षेत्रनुं माप आगळ कहेल तापक्षेत्र जेटलं समजवू. आयाम-लंबाई-नी अपेक्षाए तो जंबूद्वीपनी बच्चे तापक्षेत्र ४५००० योजन तापक्षेत्रनामा छे अने लवग समुद्रनुं ताप क्षेत्र ३३३३३० योजन छे-ते बन्ने तापक्षेत्रना मापनो सरवाळो करता ७८३३११ योजन थाय छे. [ 'उक्कोसए अट्ठारसमुहु ते दिवसे भवइ ' त्ति ] सूर्यनां बधां मळीने १८४ मंडळ-मांडलां-छे. तेमां आ जंबूद्वीपनां सूर्यनां ६५ मंडळ छे अने बाकीनां ११९ मंडळ लवण समुद्रनी बच्चे छे. तेमां-ते मंडळोमां-सौथी अंदरनां मंडळमां ज्यारे सुर्यनी हाजरी होय त्यारे अढार मुहूर्त (१४ कलाक अने २४ मिनीट ) नो सौथी मोटो दिवस होय छे. ते केवी रीते ? तो कहे छे के, आगळ कह्या प्रमाणे सूर्यनां १८४ मंडळो छे अने तेमां ज्यारे सौथी दिवस अने रात्री बहारना मंडळमां सूर्य विराजतो होय त्यारे नानामां नानो-सौथी नानो-बार मुहूर्त (९ कलाक अने ३६ मिनीट) नो दिवस होय छे अने वघटनो हेतु. ज्यारे फरतो फरतो सूर्य सौथी अंदरना-१८३ मा-मंडळमां आवे छे त्यारे वधतो वधतो दिवस १८ मुहूर्त (१४ कलाक अने २४ मिनीट) नो थई जाय छे अर्थात् आ वखते दिवसना सौथी पहेलानां मापमां ४ कलाक अने ४८ मिनीटनो वधारो थयो छे. हवे आपणे गणित द्वारा समजी शकीर छीए के, पहेलेथी बीजे मांडले, बीजथी त्रीजे अने ए रीते छेवट १८३ में मांडले (बधां मांडलानी गणत्रीमा १८४ में मांडले ) ज्यारे सूर्य आव्यो त्यारे दिवसनी लंबाइमा पूर्व प्रमाणे फार फेर थाय छे तो प्रत्येक-पहलेथी बीजे-मांडले जता दिवसनी लंबाइमां शो भेद थतो हो ? तेनो उत्तर स्पष्ट छ के, प्रत्येक मंडळे जतां आगळना दिवसनी लंबाइ करतां १॥ मिनीट अने १० सेकंड दिवस वधे छे अने ए रीते प्रत्येक मांडले वध्ये जाय छे अने ज्यारे सौथी अंदरने (१८३ में ) मांडले सूर्यदेव पधारे छे त्यारे दिवस वधीने १८ मुहूर्त-१४ कलाक अने २४ मिनीट-नो थाय छे-छेल्ले मांडले सूर्यराजनी पधरामणी थतां दिवस पोताना सोथी नाना मार करतां ४ कलाक अने ४८ मिनीट जेटलो वधी जाय छे. जेने आपणे १॥ मिनीट अने 1 सेकंड कहीर छीए तेने ज शास्त्रनी परिभाषामां एक मुहूर्तना बे ६१ मा भाग ६१ कया छे अने ए हिसावे वधतां वधतां छेवटे छ मुहूर्त जेटलो काळ दिवसना मापमा उमेराइ जाय छे-छेवटे दिवस-१८ मुहूर्तनो थाय छे. [ अहीं मुहूर्तनी गणत्री न करतां प्रसिद्ध होगाथी कलाक अने मिनीटोनी गणत्री जगावी छे ] तो ए रीते १८ मुहूर्तनो दिवस अने बार मुहूर्तनी रात्री अढारमुहूर्तनो दिव थाय छे. कारण-दिवस अने रात-बन्ने-नां बधां मळीने ३० मुहूर्त छे. तात्पर्य ए छे के, ज्यारे सूर्य देव बहारना मांडलाथी अंदरनां मांडला अने वार मुहूर्तन तरफ प्रयाण करे छे त्यारे १॥ मिनीट अने ।.१०जेटलो दिवस प्रत्येक मांडले जतां वध्या ज करे छे अने रात्री तो तेटली ज घल्या करे रात्री. 'छे तथा ज्यारे सूर्यराज अंदरनां मांडलाथी बहारनां मांडला भणी प्रयाण करेछे त्यारे--पाछा वळतां-रात्री प्रत्येक मांडले १॥ मिनीट अने १०॥ जेटलो समय वध्या करे छे अने दिवस पण तेटलो ज घट्या करे छे-ज्यारे दिवस मोटो होय छे त्यारे रात्री नानी होय छे अने ज्यारे रात्री नानी होय छे त्यारे दिवस मोटो थाय छे. [ · अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे ' त्ति ] हवे ज्यारे भास्करराय सौथी अंदरना मांडलाथी निकळी तेंनी पासेना-१८२ मा-मांडलामा पधारे छे त्यारे मुहूर्तना बे एक-सठिया भाग जेटलो ऊगो अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे. ते दिवसर्नु नाम 'अष्टादशमुहूर्तानंतर' एवं राखवामां आव्युं छे, कारण-ते दिवस, अढार मुहूर्तनो दिवस थया पछी तुरत ज आवे छे. ज्यारे ए रीते दिवसने अष्टादशमुहूर्तानंत घटवानी शरुआत थाय छे त्यारे [ सातिरेगा दुवालसमुहुत्ता राइ 'त्ति ] बार मुहूर्त अने मुहूर्तना वे एकसठिया भाग जेटली रात्री लांबी थाय छे अर्थात् ए रीते रात्रीने वधवानी पण शरूआत थइ जाय छे. मूळ वात ए छे के, दिवसनो जेटलो भाग टुको थाय छे तेटलो ज भाग रात्रीनो वधे छे, कारण के, अहोरात्रना श्रीश मुहर्त छे. [ ' एवं एएणं कमेणं' ति ] ए रीते ए-आगळ जणावेल क्रमबडे संभवपूर्वक दिवसर्नु माप [ ओसारेयव्वं ' ति घटाडी देवू. एज वातने दर्शाये छे-[ ' सत्तरस' इत्यादि. jबळी ज्यारे सूर्य १८२ मां मांडलाथी चालतो चालतो सत्तर मु० नो दिव एकत्रीसमा मांडलाने अडधे आवे छे त्यारे दिवस सत्तर मुहर्तनो थाय छे अने आगळ जणावेल घटाडाना क्रम प्रमाणे रात्री तेर मुहर्तनी थाय तेर मुनी रात्र छे. [ सत्तरसमुहुत्तागंतर' ति] हवे ज्यारे ठेठ बीजा मांडलाथी एकत्रीसमा मांडलाना अडवा रस्ताथी-सूर्य, बत्रीशमा मांडलाने अडधे भागे पहोंचे छे त्यारे दिवसनी लंबाई मुहर्तना बे एक सठिया भाग जेटली ऊगी सत्तर मुहूर्त थाय छे अने [ ' साइरेगसत्तरसमुहु ता राइ' ति] रात्रीनी लंबाई तेर मुहूर्त अने मुहूर्तना बे एक सठिया भाग जेटली वधारे थाय छे ए रीते अनंतरपणाथी थती लंबाई, टुंकाई बीजे ठेकाणे पण समजवी अने एम बधे य जाणवू [ ' सो समुहुत्ते दिवसे' ति ] वळी ठेठ वीजा मांडलाथी ज्यारे सूर्य फरतो फरतो ६१ में मांडले आवे त्यारे सोल नुदि.. सोळ मुहूर्तनो दिवस थाय छे. [ ' पन्नरसमुहुत्ते दिवसे ' ति ] ज्यारे सूर्य बाणुमा मांडलाने अडधे पहोंचे त्यारे पन्नर मुहूर्तनो दिवस थाय छे. १५ मन ['चोद्दसमुहुत्ते दिवसे' ति] ज्यारे फरतो फरतो सूर्य एकसोने बावीशमें मांडले आवे छे त्यारे चौद मुहूर्तनो दिवस थाय छे. [ तेरसमुहते .. दिवसे । ति ] ज्यारे १५२ मा मांडलानी अडव घाटे सूर्य आवे छे त्यारे तेर मुहूर्तनो दिवस थाय छे अने ज्यारे [ 'बारसमुहुत्ते दिवसे ' ति] एकसोने त्र्याशीमें बहारने मांडले सूर्य पहोंचे छे त्यारे छेक बार मुहूर्तनो दिवस थह जायछे-जेम दिवस घटतो जाय छ तेम रात्री बधती जाय दिवस. छे. जो के उपरनी हकीकतमा रात्रीना मापना वधारा संबंधी जुदुं जुएं जणाव्युं नथी, तो पण ते वात वाचकोर स्वयमेव समजवानी छे-रात्रि अने दिवसनां बधा मळीने ३० मुहूर्त छ माटे दिवसना मापमां वधारो होय त्यारे राबिना मापमा घटाडो होय अने रात्रिना माघमां वधारो होय त्यारे दिवसना मापमां घटाडो होय, पण ते बन्नेमा मळी त्रीश मुहूर्त थाय ए तो सुनिर्णीत ज छे माटे वधारा के घटाडानी रीत उपर प्रमाणे जाणवानी छे ऋतुओ विगेरे. १०. प्रd----जया ण भंते ! जंबुद्दीचे दीये दाहिणडे वासाणं १० प्र०-हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिगार्धमा वर्षा पढमे समए पडिवज्जइ तया णं उत्तरड़े विवासाणं पढमे समये (चामासा)नी मोसमनो प्रथम समय होय त्यारे उत्तराधमां पण १, मूलच्छायाः-यदा भगवन् ! जम्बूद्वीपे दीपे दक्षिणाऽर्थे वीणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा उत्तरार्धेऽपि वर्षाणां प्रथमः समयः-अनु.. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रीरायचन्द्र-जिनांगमसंग्रह शतक ५.-उद्देशक १. पतिवज्जइ, जया णं उत्तरड़े वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ वर्षानो प्रथम सयम होय अने ज्यारे उत्तरार्धमा पण वरसादनो तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिम-पञ्चत्थिमे णं प्रथम समय होय त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिभे अणंतरपुरक्खड़े समयंसि वासाणं पढमे समये पडिवज्जइ ? वर्षानो प्रथम समय अनंतर पुरस्कृत समयमा होय अर्थात् जे समये दक्षिणार्धमा वरसादनी शरुआत थाय छे ते ज समय पछी तुरत ज बीजा समये मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे वरसादनी शरुआत थाय ? १०. उ०-हता, गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दावे दाहि- १०. उ०---हे गौतम! हा एज रीते थाय-छे ज्यारे जंबूद्वीपमा णड़े वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तह चेव जाव-पडिवज्जइ. दक्षिणार्धमां चोमासानो प्रथम समय होय त्यारे ते प्रमाणे ज यावत्-थाय छे, ११. प्र०—जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स ११. प्र०-हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्वे पुरस्थिमे णं वासाणं पढमे समये पडिवज्जइ तया णं पचत्थिमे- चोमासानो प्रथम समय होय छे त्यारे पश्चिममा पण चोमासानो ण वि वासाणं पढमे समए पडिवजइ. जया णं पचत्थिमेण प्रथम समय होय छे अने ज्यारे पश्चिममा पण चोमासानो प्रथम वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं जाव-मंदरस्स पव्व- समय होय छे त्यारे यावत्-मंदर पर्वतनी उत्तर दक्षिणे वर्षानो यस्स उत्तर-दाहिणे णं अगंतरपच्छाकडसमयांस वासाणं पढमे प्रथम समय, अनंतर पश्चात्कृत समयमां होय अर्थात् मंदर पर्वतनी समए पडिवन्ने भवइ ? पश्चिमे वर्षा शरु थयाना प्रथम समय पहेलां एक समये त्यां (मंदर पर्वतनी) उत्तरे दक्षिणे वर्षा शरु थाय? ११. उ०-हंता, गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स ११. उ०-हे गौतम! हा, ए ज रीते थाय-ज्यारे पव्वयस्स पुरस्थिमे णं एवं चेव उचारेयव्यं, जाव-पडिवो भवइ. जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्वे वरसादनी शरुआत थाय ते पहेला एक समये अहीं (उत्तर दक्षिणे) वरसादनी शरुआत थाय, ए प्रमाणे यावत्-बधुं कहे. एवं जहा समएणं अभिलावो भाणओ वासाणं तहा आव- जेम वरसादना प्रथम समय माटे का तेम वरसादनी लियाए विभाणियवो; आणपाणण वि. थोवेण वि, लवेण वि, शरुआतनी प्रथम आवलिका माटे पण जाणवू अने ए प्रमाणे मुहुत्तेण वि, अहोरत्तेण वि, पक्खेण वि, मासेण वि, उऊणा आनपान, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, ए वि, एएसिं सव्वोसें जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणियवो. बधा संबंधे पण समयनी पेठे जाणवू. १२. प्र०–जया णं भंते ! जंबहीवे दीवे हेमंताणं पढमे १२. प्र०--हे भगवम ! ज्यारे जंद्वीपमा दक्षिणाधमां हेमंत समये पडिवजह? ऋतनो प्रथम समय होय त्यारे उत्तरार्धमां पण हेमंतनो प्रथम समय होय अने ज्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय त्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे हेमंतनो (प्रथम समय अनंतर पुरस्कृत समये होय? ) इत्यादि पूछq. . १२. उ0-~-जहेव वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताण वि, १२. उ०-हे गौतम् ! ए संबंधनो बधो खुलासो वर्षानी गिम्हाण वि भाणियव्यो जाव-उजए; एवं तिण्णि वि, एएसिं पेठे ज जाणवो अने एज प्रकारे ग्रीष्म ऋतुनो पण खुलासो तीसं आलावगा भाणियव्वा. समजयो. तथा हेमंत अने प्रीष्मना प्रथम समयनी पेठे तेनी प्रथम आवलिका वगेरे यावत् ऋतु-सुधी पण समजवू-ए प्रमाणे एक सर ए त्रणे ऋतुओ विषे जाणवू-ए बधाना मळीने त्रीश आलापक कहेवा. १. मूलच्छायाः-प्रतिपद्यते, यदा उत्तराऽर्थेऽपि वीणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्धरस्य पर्वतस्य पौरस्त्य-पश्चिमेs. नन्तरपुरस्कृतसमये वाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते ? हन्त, गौतम | यदा जम्बुद्वीपे दीपे दक्षिणाऽर्धे वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तथा चैव यावत्-प्रतिपद्यते. यदा भगवन् । जम्बुद्वीपे द्वीपे,मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये वीणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा पश्चिमेऽपि वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते यदा पश्चिमेऽपि वाणां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते तदा यावत्-मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तर-दक्षिणेऽनन्तरपुरस्कृतसमये वर्षाणां प्रथमः समयः प्रतिपनो भवति । हन्त, गौतम ! यदा जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्ये एवं चैव उच्चारयितव्यम् , यावत्-प्रतिपन्नो भवति. एवं यथा समयेन अभिलापो भणितो वाणां तथा आवलिकयाऽपि भणितव्यः; आन-प्राणाभ्यामपि, स्तोकेनाऽपि, लवेनाऽपि, मुहूर्तेनाऽपि, अहोरानेणाऽपि, पक्षेणाऽपि, मासेनाऽपि, ऋतुनाऽपि; एतेषां सर्वेषां यथा समयस्याऽभिलापस्तथा भणितव्यः. यदा भगवन् ! जम्बुद्वीपे द्वीपे हेमन्तानां प्रथमः समयः प्रतिपद्यते ? यथैव वीणाम् अभिलापस्तथैव हेमन्तानामपि; प्रीष्माणाम् अपि भणितव्यो यावत्-ऋतुना; एवं त्रीणि अपि, एतेषां त्रिंशद आलापका भणितव्याः-अनु० Jain Education international Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, १३. प्र०—जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्व- १३, प्र०—हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतना यस्स दाहिणड़े पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड़े वि दक्षिणधिमा प्रथम अयन होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण प्रथम पढमे अयणे पडिवज्जइ ? ___ अयन होय छे ? १३, उ०-जहा समएणं अभिलावो तहेव अयणेण वि १३. उ०—हे गौतम ! जेम समय संबंधे का, तेम अयन भाणियव्यो, जाव-अणंतरपच्छाकडसमयसि पढमे अयणे पडि- संबंधे पण समजवू यायत्-तेनो प्रथम समय, अनंतर पश्चात्कृत वण्णे भवइ. समये होय छे-इत्यादि जाणवू. जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणियध्वो, जेम अयन संबंधे कडुं छे तेम संवत्सर, युग, वर्षशत, जुएण वि, वाससरण वि, वासस हस्सेण वि, वाससयसहस्सेण वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, वि, पुव्बंगेण वि, पुत्रेण वि, तुडियंगेण वि, तुडियेण वि, एवं अटट, अवांग, अवय, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पांग, पुव्वंगे, पुवे, तुडिअंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अक्वंगे, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनूपुरांग, अर्थनूपुर, अयुतांग, अयुत, अववे, हूहूयंगे, हूहूये, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिनलिणंगे, नलिणे, अत्थणि उरंगे, अत्थणिउरे, अउअंगे, अउए, कांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, अने सागरोपम ए बधां संबंधे णउअंगे, णउए, पउअंगे, पउए, चलिअंगे, चलिए, सीसपहे- पण समजq. लिया, पलिओवमेण, सागरोवमेण वि भाणियव्वो. १४. प्र०-जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड़े पढमा १४. प्र०-हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमा प्रथम ओसप्पिणी पडिवज्जइ तया णं उत्तरड़े वि पढमा ओसप्पिणी अवसौपणी होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण प्रथम अवसर्पिणी पडिवज्जइ, जया णं उत्तरड़े वि पडियजइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमा पण तेम होय छे त्यारे जंबूद्वीपमा मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं पचत्थिमे णं णेवत्थि ओसप्पिणी, मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी नथी, तेम उत्सर्पिणी नथी. नेवत्थि उस्सप्पिणी; अवहिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो!? पण हे दीर्घजीविन् ! श्रमण! त्यां अवस्थित काळ कह्यो छे ? । १४. उ०-हंता, गोयमा । तं चेव जाव-उच्चारेयव्वं, १४. उ०—हे गौतम ! हा, ए ज रीते छे.-पूर्वनी पेठे बधुं जाव-समणाउसो! जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ एवं कहेवं यावत्-हे दीर्घजीविश्रमण ! इत्यादि. जेम अवसर्पिणी संबंधे उस्सप्पिणीए वि भाणियव्वो. कडं तेम उत्सर्पिणी विषे पण समजवु. १. मूलच्छायाः-यदा भगवन् ! जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणाऽधैं प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते तदा उत्तराऽर्धेऽपि प्रथमम् अयनं प्रतिपद्यते ? यथा समयेन अभिलापस्तथैव अयनेनाऽपि भणितव्यः, यावत्-अनन्तरपश्चात्कृतसमये प्रथमम् अयनं प्रतिपन्नं भवति. यथाऽयनेनाऽभिलापस्तथा संवत्सरेणाऽपि भणितव्यः, युगेनाऽपि, वर्षशतेनाऽपि, वर्षसहस्रेणाऽपि, वर्षशतसहनेगाऽपि, पूर्वी नेणाऽपि, पूर्वेगाऽपि, त्रुटिताङ्गेनाऽपि, त्रुटितेनाऽपि; एवं पूर्वाङ्गम् , पूर्वम् , त्रुटिताङ्गम् , त्रुटितम् , अटटाङ्गम् , अटटम् , अववाङ्गम् , अववम् , हुहुकामम् , हुहुकम् , उत्पलाङ्गम् , उत्पलम् , पद्माङ्गम् , पद्मम् , नलिनाङ्गम् , नलिनम् , अर्थनिपूराङ्गम् , अर्थनिपूरम् , अयुतानम् , अयुतम्, नयुताङ्गम् , नयुतम् , प्रयुतानम् , प्रयुतम् , चूलिकाङ्गम् , चूलिका; शीर्षप्रहेलिकया, पल्योपगेन, सागरोपमेणाऽपि भणितव्यः, यदा भगवन् ! जम्बुद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे प्रथमाऽवसर्पिणी प्रतिपद्यते तदा उत्तराऽर्धेऽपि प्रथमाऽवसर्पिणी प्रतिपद्यते; यदा उत्तरार्धेऽपि प्रतिपद्यते तदा जम्बुद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्स्ये पश्चिमे नैवाऽस्ति अवसर्पिणी, नैवाऽस्ति उत्सर्पिणी; अवस्थितस्तन्त्र कालः प्रज्ञप्तः श्रमणाऽऽयुष्मन् ! ? हन्त, गौतम ! तचैव यावत्-उच्चारयितव्यम् , यावत्-श्रमणाऽऽयुष्मन् ! यथा अवसर्पिण्या आलापको भणितः, एवम् उत्सर्पिण्याऽपि भणितव्यः-अनु. १. आ बधा शब्दो संख्या-सूचक छे. बौद्धसाहित्यमा पण आ शब्दोने मळता केटलाक संख्यासूचक शब्दो वपराएला छे अने ते आ प्रमाणे छे: कोटि-१००००००० पफोटि-१०००००००००००००० कोटिप्पकोटि-१००००००००००००००००००००० यावत्-उच्चारमित पारस्य पश्चिमे वो प्रतिपद्यते तदा महत-१०००००००००००००००००००००००००००० निन्ननहुत-१००००००००००००००००००००००००००००००००००० अक्खोभिणी-१०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० बिन्दु-१००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० मखुद-एकडा पछी ५६ मींडा. सोगंधिक-एकडा पछी ९१ मींडां. पदुम-एकडा पछी ११९ मीडां. निरब्बुद-एकडा पछी ६३ मींडां. उप्पल-एकडा पछी ९८ मींडा. कथान-एकडा पछी १२६ मींडां. भहह-एकडा पछी ७० मींडां. कुमुद-एकडा पछी १०५ मींडां. महाकथान-एकडा पछी १३३ मींडां. अवक-एकडा पछी ७७ मींडां. पुण्डरीक--एकडा पछी ११२ मींडां. असंख्येय्य-एकडा पछी १४० मींडां. अटट-एकडा पछी ८४ मींडां. -(पालीव्याकरण-तद्धितकल्पसूत्र-५२) उपर जणावेलां नामोमा अबब, अटट, उप्पल, पदुम ए चारे नामो अहींना अडड, अवय, उप्पल अने पउम-साथे बराबर मळतां आवे छे, परंतु परिभाषाना सेदुने लीधे तेना अर्थमां वैषम्य जणाय छे:-अनु० Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ५.-उद्देशक १. • ३. कालाधिकारादिदमाहः-'जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड़े वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ' इत्यादि. 'वासाणं' ति चतुर्मासप्रमाणवर्षाकालस्य संबन्धी नथमः आद्यः, समयः क्षणः प्रतिपद्यते संपद्यते-भवतीत्यर्थः. 'अणंतरपुरक्खडसमयसि ' त्ति अनन्तरो निर्व्यवधानो दक्षिणाधे वर्षा-प्रथमताऽपेक्षया स चातीतोऽपि स्यात् , अत आहः-पुरस्कृतः पुरोवर्ती भविष्यन्-इत्यर्थः, समयः प्रतीतः; ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः-अतस्तत्र. 'अगंतरपच्छाकडसमयसि ' त्ति पूर्वीपरविदेहवर्षाप्रथमसमयापेक्षया योऽनन्तरः पश्चात्कृतोऽतीतः समयस्तत्र दक्षिणोत्तरयोर्वर्षाकालप्रथमसमयो भवति-इति. 'एवं जहा समएणं' इत्यादि. आवलिकाऽभिलापश्चैवम्:'जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिगड्ढे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्डे वि, जया णं उत्तरड़े वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपचत्थिमेणं अणंतरपुरक्खडसमयांस वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ ? हंता, गोयमा !' इत्यादि. एवम्-आनप्राणादिपदेषु अपि. आवलिकाद्यर्थः पुनरयम-आवलिका असंख्यातसमयात्मिका. आनप्राण उच्छ्वासनिःश्वासकालः, स्तोकः सप्तप्राणप्रमाणः. लवस्तु सप्तस्तोकरूपः. मुहूर्तः पुनः लवसप्तसप्ततिप्रमाणः, ऋतुस्तु मासद्वयमानः, 'हेमंताणं' ति शीतकालस्य. 'गिम्हाण वि' त्ति उष्णकालस्य. ' पढमे अयणे' त्ति दक्षिणायनम् , श्रावणादित्वात् संवत्सरस्य. 'जुएण वि' त्ति युगं पञ्चसंवत्सरमानम्. 'पुव्वंगेण वि' त्ति पूर्वाङ्गं चतुरशीतिवर्षलक्षाणाम् . 'पुव्वेण वि ' ति पूर्व पूर्वाङ्गमेव चतुरशीतिवर्षलक्षेण गुणितम्. एवं चतुरशीतिवर्षलक्षगुणितमुत्तरोत्तरं स्थानं भवति. चतुर्नवतिअधिक चाङ्कशतम्अन्तिमे स्थाने भवति-इति. ' पढमा ओसप्पिणि' त्ति अवसर्पयति भावानित्येवंशीला अवसर्पिणी, तस्याः प्रथमो विभागः प्रथमावसर्पिणी. उस्सप्पिणि' चि उत्सर्पयति भावानित्येवशीला उत्सर्पिणी. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पञ्चमशते प्रथम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरि विरचितं घिवरणं समाप्तम्. . ३. आगळना प्रकरणमां काळ संबंधी हकीकत जणावी छे अने हवे तुओ विषे जणाववानी शरुआत थाय छे- ऋतु पण एक प्रकारनो काळ ज छे माटे ते संबंधीनुं निरूपण स्थानप्राप्त छे. ऋतुओ संबंधे जणावतां कहछे के, [जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए वर्षात पडिवजह' इत्यादि.] 'वासाणं ' एटले बरसादनी मोसम-चोमासाना चार महिना-नो पहेलो समय सांपडे छे. [ अणंतरपुरक्खडसमयंसि' त्ति ] दक्षिणार्घमां शरू थती चोमासानी मोसमना पहेलापणानी अपेक्षाए अनंतर-आंतरा विनानो, एवा विशेषणवाळो तो कोइ अतीत समय पण होय माटे कहे छे के, पुरोवर्ती-हवे पछी आवनार-भविष्यमा थनार समय-ए समये. [ ' अणंतरपच्छाकडसमयंसि' तिपूर्व अने पश्चिम विदेहमां शरु थती चोमासानी मोसमना प्रथम समयनी अपेक्षाए अनंतर-आंतरा विनानो अने पश्चात्कृत-अतीत थएलो-समय-ए समये दक्षिण अने उत्तरमा चोमासानी मोसमनो प्रथम समय होय छे. [' एवं जहा समएणं' इत्यादि ] आवलिका संबंधी पाठनो उच्चार आ रीते छ:-'जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे वासाणं पढमा आवलिआ पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्डे वि, जया णं उत्तरड्ढे वासाणं पढमा आवलिआ पडिवज्जइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपञ्चत्थिमेणं अणंतरपुरक्खडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवनइ ? हंता गोयमा! ' इत्यादि. ए प्रमाणे आनप्राण वगेरे पदोनो पण सूत्रपाठ समजवो. आवलिका वगेरे (शब्दो) काळना माप संबंधी शब्दो छे अने तेनो अर्थ आ छे:-असंख्यात समयनी एक आवलिका थाय छे, उच्छ्वास अने निःश्वासनो एक आनप्राण थाय छे, सात प्राणनो एक स्तोक थाय छे, सात स्तोकनो एक लव थाय छे, सत्योतेर लवनो एक मुहूर्त थाय छे, बे महिनानी एक ऋतु थाय छे. [ हेमंताणं 'ति ] शीयाळा संबंधी, गिम्हाण वि ' त्ति ] उनाळा संबंधी, [ 'पढमे अयणे' त्ति ] दक्षिणायन, कारण के, वर्षनो आदि (पहेलो) महिनो श्रावण छे. हेमन्त-ग्रीष्म जुएण वि 'त्ति ] पांच वरसनु एक युग थाय छ, [ 'पुव्वंगेण वि' ति] चोराशी लाख ८४०००००-वर्षनुं एक पूर्वाग थाय छे, पूर्वांगनी संख्याने चोराशी लाख गणी करवाथी एक पूर्व थाय छे, ए प्रमाणे पूर्वने चोराशी लाखगणुं करवाथी एक बुटितांग थाय छे अने ए रीते उत्तरोत्तर बधा मापमा समजवं. छेवटना शीर्षप्रहेलिका नामना मापमां १९४ अंको आवे छे. [ 'पढमा ओसप्पिणि ' त्ति ] पदार्थोने अवसावे मूळ स्वभावथी खसेडे-हीणा करे ते अवसर्पिणी-तेनो जे प्रथम विभाग ते प्रथमावसर्पिणी. [ उस्सप्पिणि । ति ] भावोने उत्सर्पावे-प्रकर्षवाळा करे-ते उत्सर्पिणी. लवण-समुद्रादि. १५. प्र.-लेषणे णं भंते ! समुद्दे सूरिया उदाचि-पाईण- १५. प्र०—हे भगवन् ! लवण समुद्रमा सूर्यो ईशान खूणामां मुग्गच्छ०? उगीने अग्नि खूणामां जाय इत्यादि पूछ. १५. उ०—ज चेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिया स चेव १५. 30-हे गौतम ! जंबूद्वीपमा सूर्यों संबंधे जे वक्तव्यता सव्वा अपरिसे सिआ लवणसमुदस्स वि भाणियव्वा, नवरं-अभि- कही छे ते बधी अहीं लवण समुद्र संबंधे पण कहेवी. विशेष लावो इमो णेयव्वोः जया णं भंते ! लवणे समुद्दे दाहिणड़े ए के, ते वक्तव्यतामां पाठनो · उच्चार आ प्रमाणे करवोः-'हे दिवसे भवइ तं चेव. जाव-तदा णं लवणसमुद्दे पुरथिमपञ्चस्थिमे भगवन् ! ज्यारे लवण समुद्रना दक्षिणार्धमा दिवस होय छे, १. आ शब्दमा आवेला अनन्तर, पुरस्कृत अने समय-ए त्रणे शब्दोनो कर्मधारय समास करवानो छ:-श्रीअभय०. . १. मूलच्छाया:-- लवणे भगवन् । समुद्रे सूर्यो उदिची-प्राचीनम् उद्गत्य०१ या एव जम्बुद्वीपस्य वक्तव्यता भणिता सा एव सी अपरिशेषिका ब्वणसमुद्रस्याऽपि भणितव्या, नवरम्-अभिलापोऽयं ज्ञातव्यः-यदा भगवन् । लवणे समुद्रे दक्षिणार्धे दिवसो भवति, तचैव यावत्-तदा लवणसमुद्र भारस्त्य-पक्षिमे:-अनु० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसत्र. गराई भवति. एएणं अभिलावेणं नेयव्वं, इत्यादि बधुं ते ज प्रमाणे कहेवु, यावत्-त्यारे लवण समुद्रमा पूर्व पश्चिमे रात्री होय छे. ' ए अभिलापवडे बधुं जाणवू. १६. प्र०-जया णं भंते । लवणसमुदे दाहिणड्डे पढमा १६. प्र०--हे भगवन् ! ज्यारे लवण समुद्रना दक्षिगार्धमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड़े पडमा ओसप्पिणी प्रथम अवसर्पिणी होय छे त्यारे उत्तरार्धमा प्रथम अवसर्पिणी पडिवज्जइ, जया णं उत्तरड़े पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तया होप छे अने ज्यारे उत्तरार्धमा प्रथम अवसर्पिणी होय छे त्यारे णं लवणसमुदे पुरस्थिम-पचत्थिमेणं नेवस्थि ओसप्पिणी, नेवत्थि लवण समुद्रमा पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी नथी होती, उत्सर्पिणी नथी उस्सप्पिणी समणाउसो !? होती, पण हे दीर्घजीवि श्रमण! त्यां अवस्थित (फेरफार विनानो) काळ कह्यो छे ? १६. उ०-हता, गोयमा । जाव-समणाउसो !. १६. उ०-हे गौतम ! हा, ते ज रीते छे अने ते यावत् हे श्रमणायुष्मन् ! इत्यादि. १७. प्र०-धायइसंडे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीचिपाईण- १७. प्र०-हे भगवन् ! धातकीखंड द्वीपमा सूर्यो ईशान मुग्गच्छ० खूणामां उगीने, इत्यादि पूछq. १७. उ०-जहेव जंबुद्दीवस्स बत्तव्वया भणिया स चेव १७. उ०—हे गौतम! जे वक्तव्यता जंबूद्वीप संबंधे कही छे धायइसंडस्स वि भाणियब्वा, नवरं-इमेणं अभिलावणं सव्वे ते ज वक्तव्यता बधी धातकीखंड संबंधे पण जाणवी. विशेष ए आलावगा भाणियव्वा. के, पाठन उच्चारण करती वखते बधा आलापको आ रीते कहेवा१८. प्र०—जया णं भंते । धायइसंडे दीवे दाहिणडे दिवसे १८, प्र०--हे भगवन् ! ज्यारे धातकीखंड द्वीपमा दक्षिणाभवइ, तदा णं उत्तरड़े वि, जया णं उत्तरड़े वि तया णं र्धमां दिवस होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण दिवस होय छे अने धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयागं पुरथिमपञ्चस्थिमे णं राई ज्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय छे त्यारे धातकीखंड द्वीपमा भवइ? मंदर पर्वतोनी पूर्व पश्चिमे रात्री होय छे ? । १८. उ०-हंता, गोयमा ! एवं चेव जाव-राई भवइ. १८. उ०--हे गौतम ! हा, ए ज रीते छे; यावत्-रात्री होय छे. १९. प्र०-जया णं भंते । धायइसंडे दीवे मंदराणं पच- १९. प्र०- हे भगवन् ! ज्यारे धातकी खंड द्वीपमा मंदर याणं पुरस्थिमेणं दिवसे भवइ तया णं पथरिथमेण वि! जया पर्वतोनी पूर्व दिवस होय छे त्यारे पश्चिमे पण दिवस होय छे णं पञ्चत्थिमेण वितया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्ययाणं अने ज्यारे पश्चिमे पण दिवस होय छे त्यारे धातकी खंड द्वीपमा उत्तरेणं दाहिणणं रोई भवति ? मंदर पर्वतोनी उत्तरे अने दक्षिणे रात्री होय छे ? १९. उ0--हंता, गोयमा । जाव-भवइ-एवं एएण अभि- .. १९. उ०--हे गौतम ! हा, ए ज रीते होय छे, अने ए लावणं नेयव्वं जावo अभिलापथी जाणवू, यावत्२०. प्र० - जया णं भंते ! दाहिणड़े पढमा ओसप्पिणी तया २०. प्र.--हे भगवन् ! ज्यारे दक्षिणार्धमा प्रथम अवसर्पिणी णं उत्तरड्डे ? जया णं उत्तरड्डे तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमा पन्वयाणं पुरथिम-पञ्चस्थिमेणं नत्थि ओसप्पिणी जाव-समणाउसो!? पण होय छे त्यारे धातकीखंड द्वीपमा मंदर पर्वतोनी पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी नथी होती, उत्सर्पिणी नथी होती? यावत्श्रमणायुष्मन् । १. मूलच्छायाः-रात्री भवति. एतेन अभिलापेन ज्ञातव्यम् . यदा भगवन् ! लवणसमुद्रे दक्षिणार्धे प्रथमा अवसर्पिणी प्रतिपद्यते, तदा उत्तरार्धे प्रथमा अवसर्पिणी प्रतिपद्यते ! यदा उत्तरार्धे प्रथमा अवसार्पणी प्रतिपद्यते तदा लवणसमुद्रे पारस्य-पश्चिमेन नैवाऽस्ति अवसर्पिणी. नैवास्ति उत्सर्पिणी श्रमण आयुष्मन् ! ? हन्त, गैातम ! यावत्-श्रमणाऽऽयुष्मन् !. धातकिखण्डे भगवन् ! द्वीपे सूर्यो उदिची-प्राचिनम् उद्गत्य०. यथैव जम्बुद्वीपस्य वक्तव्यता भणिता सा एव धात किखण्डस्य अपि भणितव्या, नवरम्-अनेन अभिलापेन सर्वे आलापकाः भणितव्याः. यदा भगवन् । धातकिखण्डे द्वीपे दक्षिणार्धे दिवसो भवति, तदा उतरार्धेऽपि ? यदा उत्तरार्धेऽपि तदा धातकिखण्डे द्वीपे मन्दराणां पर्वतानां परित्य-पश्चिमेन रात्री भवति !. हन्त, गौतम ? एवं चैव यावत्-रात्री भवति. यदा भगवन् ! धातकिखण्डे द्वीपे मन्दराणां पर्वतानां पौरस्त्येन दिवसो भवति. तदा पश्चिमेनाऽपि ? यदा पश्चिमेन अपि तदा धातकिखण्डे द्वीपे मन्दराणां पर्वतानाम् उत्तरेण दक्षिणेन राकी भवति ! हन्त, गौतम । यावत्-भवति. एवम् एतेन अभिलापेन ज्ञातव्यं यावत्-यदा भगवन् ! दक्षिणार्धे प्रथमा अवसर्पिणी तदा उत्तरार्धे ! यदा उतरार्धे तदा धातकिखण्डे द्वीपे मन्दराणां पर्वतानां पारस्त्य-पश्चिमेन नास्ति अक्सर्पिणी याबद-मणाऽऽयुष्मन् ! -अनु. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह । शतक ५.-उद्देशक १. २०. उ०--'हता, गोयमा ! जाव-समणाउंसो !. २०. उ०—हे गौतम ! हा ए ज रीते छे, यावत्-श्रमणा युष्मन् !. जहा लवगसमुदस्त वत्तवया तहा कालोदस्स विभाणि- -जेम लवण समुदनी हकीकत कही तेम कालोद संबंधे यव्वा, नवरं-कालोदस्स नाम भाणियव्वं. पण समजq. विशेष ए के, लवणने बदले ‘कालोद 'नुं नाम कहे. २१. प्र०--अभितरपुक्खरद्धेणं भंते ! सूरिया उदीचिपाईण. २१. प्र०—हे भगवन् ! अभ्यंतर पुष्करार्धमा सूर्यो ईशान मुग्गच्छ! खूणामां उगीने इत्यादि पूछq. २१. उ०---जहेव धायइसंडस्स बत्तव्यया तहेव अम्भितर- २१. उ०—हे गौतम ! धातकी खंडनी वक्तव्यतानी पेठे पुक्खरदस्स वि भाणियबा, नवरं-अभिलावो जाणियव्वो जाव- अभ्यंतर पुष्करार्धनी वक्तव्यता पण कहेवी. विशेष ए के, धातकी तया णं अभितरपुक्खरद्धे मंदराणं पुरथिम-पञ्चत्थिमेणं नेवत्थि खंडने बदले अभ्यंतर पुष्करानो पाठ कहेवो अने यावत्अवसप्पिणी. नेवस्थि उस्तप्पिणी-अवविए णं तत्य काले पण्णत्ते 'अभ्यंतर पुष्करार्धमां मंदरोनी पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी नथी समणाउसो!. होती, उत्सर्पिणी नथी होती, पण हे दीर्घजीवी श्रमण! त्यां अवस्थित काळ होय छे. -सेवं भंते !, सेवं भंते ! ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छ एम कही यावत्-विचरे छे. भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवई मुत्ते पंचमसये पढमो उदेसो सम्मत्तो. बेडारूपः समुद्रेऽखिल जलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः । १. मूलच्छायाः-हन्त, गौतम ! यावत्-भ्रमणाऽऽयुष्मन् ! यथा लवण समुदस्य वक्तब्धता तथा कालोदस्याऽपि भणितव्या, नवरम्-कालोदस्य नाम भणितव्यम्. अभ्यन्तरपुष्करार्थेन भगवन् ! सूर्यो उदीची-प्राचीनम् उद्य० ! यथैव धात किवण्डस्य वक्तव्यता तथैव अभ्यन्तरपुष्करार्धस्य अपि भणितव्या, नवरम्-अभिलापो ज्ञातव्यः, यावत्-तदा अन्तरपुष्कराधै मन्दराणां पौरस्त्य-धिमेन नैवाऽस्ति अवसर्पिणी, 'नवाऽस्ति उ सर्पिणी. अवस्थितः तत्र कालः प्रज्ञप्तः अमणाऽऽयुष्मन् !. तदे भगवन् ! तदेवं भगवन् ! इतिः-अनु. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५:-उद्देशक २. राजगृह-पत्पुरोवात.-१श्चात्वात.-मवात.-महावात.-7 य'यु संधेि दिशाओने आश्रीने पृच्छा.-दीपमा बाता वायु.-समुद्रमा वाता वायु.-ए वन्ने वायुओनो. परस्पर पत्तास.-ए वायुभोने बाबानां कारण.-पायुनी यधारीत गति.-वायुपी उत्तराने .-पायुकुम रादि द्वारा वायुकायर्नु उदीरण. वायुओ श्वास प्रश्वास ले ?-हा.-वायुं मरी मरीने अनेक बार फरीथी बायुमा आवे?-हा.-स्पृष्ट वायु मरे के अस्पृष्ट ?-स्पृष्ट वायु.-वायु शरीरसहित नीकळे के शरीररहित १-बन्ने रीते नीकळे.-ओदन-कुल्माष अने सुराना अणुओ कोनां शरीर कहेवाय ?-अपेक्षाए वनस्पतिना-अग्निना-पाणीनां अने अमिनां शरीर कहेवाय.-अय-लोढुं-तापुं-कला-पीसुं-पाषाण अने काट्टिका-काट-नां अणुओ कोनां शरीर काय ?-पृथिवीनां अने अग्निना.-हाडकुं'बळेकुं हाडकुं-चामडु-बळे रामद्दु-शिंगटुं-बळेलु शिंगडुं-खरी-वळेली खरी-नत्र अने बळे लो नख-ए वधानां अणुओ कोनां शरीर कहे काय ? ले जीवनां अने अमना-अंगारो-राख-भुसो अने छाण कोनां शरीर कहे गाय ?-एकेंदिपना यावत्--पद्रियनां अने अग्निना.-लवणसमुद्रनो चक्रवार विष्कम केटलो ?-यावत्-लोकस्थिति-विहार. १.प्र०-रॉयगिहे नगरे जाव एवं बयासी:-अस्थि णं १. प्र०-राजगृह नगरमां यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के-हे भंते । ईसिंपुरेवाया, पच्छा वाया, मंदा पाया, महाबाया भगवन् ! ईपत्पुरोधात--थोडा त्रेहवाळा-थोडी भीनःशवाळा-थोडा वायवि? चिकणा-वायु,वनस्पतिः वगेरेने हितकर वायु-पथ्यवात, धीने धीने वानारा वायु-मह वायुओ अने महावायुओ वाय छे ? १.30--हंता, अस्थि. १. उ०-हे गौतम ! हा, ते वायुओ वाय छे.. . २.प्र०-अस्थि णं भंते ! पुरथिमे णं ईसिंपुरेंवाया, २. प्र० -हे भगवन् ! पूर्वमा ईषत्पुरोवात, - पथ्यवात, पच्छा वाया, मंदा वाया, महावाया वायंति ? मंदवात अने महावात छे? २. उ०-हंता, अत्थि. एवं पचत्थिमे णं, दाहिणे णं २. उ०-हे गौतम ! हा, छे. ए प्रमाणे पश्चिममां, दक्षिणमां, उत्तरे णं, उत्तरपुरस्थिमे णं, दाहिणपुरस्थिमे णं, दाहिणपञ्चस्थिमे उत्तरमा, ईशान खूणामां, अग्नि खूणामां, नैर्ऋत खूणामां अने णं उत्तरपचत्थिमे णं. वायव्य खूणामां पण तेम ज समजवू. .३.प्र०-जया णं भंते ! पुरस्थिमे णं ईसिंपुरेवाया, पच्छा ३. प्र०-हे भगवन् ! ज्यारे पूर्वमा ईषत्पुरोवात, पथ्यवति, धाया, मंदा वाया, महावाया वायंति, सया णं पञ्चत्थिमेण वि मंदवात अने महावात याय छे त्यारे पश्चिममां पण ईषत्पुरोवात ईसिंपुरेवाया, अया णं पञ्चस्थिमे णं ईसिंपुरेवाया तया णं पुरथिमेण वगेरे पाय छे ? अने ज्यारे पश्चिममा ईषत्रोवात वगेरे वाय छे स्यारे पूर्वमां पण ते वायुओ वाय छे ? १. मूलच्छायाः-राजगृहे नगरे यावत्-एवम् अवादीत:-अस्ति भगवन् । ईषत्पुरोवाताः, पभ्याः वाताः, मम्बाः वाताः, महावाताः वान्ति । हन्त, अस्ति. अस्ति भगवन् ! पौरस्त्ये ईषत्पुरोवाताः, पथ्याः वाता, मन्दाः वाताः, महाबाता वास्ति ? हेन्त, अस्ति. एवं पश्चिमे, दक्षिणस्मिन् , उत्तरस्मिन, उतर-पौरस्त्ये, दक्षिण-पौरस्त्ये, दक्षिण-पश्चिमे, उत्तर-पश्चिमे. यदा भगवन् ! पौरस्ये ईषरपुरोवाताः, पथ्याः वाताः, मन्दाः वाता: महापाताः वान्ति तदा पश्चिमेऽपि ईषत्पुरोवाताः, यदा पश्चिमे ईषत्पुरोवातास्तदा पौरस्त्येऽपि :-अनु. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५. उद्देशक २. ३. उ०–हता, गोयमा ! जया णं पुरथिमे णं, तया णं ३. उ:-हे गौतम ! पारे पूर्वमा ईषत्पुरोवात वगेरे वाय पचत्थिमेण वि ईसिंपुरेवाया. जया णं पचत्थिमेण वि ईसिंपूरे- छे त्यारे ते बधा पश्चिममा पण वाय छे अने ज्यारे पश्चिममा वाया० तया णं पुरस्थिमेण वि ईसिंपुरेवाया एवं दिसासु, ईषत्पुरोवात वगेरे वाय छे त्यारे पूर्वमां पण ते बघा वाय छे. विदिसासु. ए प्रमाणे बधी दिशाओमां अने खुणाओमां पण समजQ. ४. प्र.-अत्थि णं मंते ! दीविचगा ईसिंपुरेवाया ! ४. प्र०-हे भगवन् ! ईषत्पुरोत्रात वगेरे वायुओ द्वीपमा होय छे ? ४. उ०—हंता. ४. उ०—हे गौतम ! हा, होय छे. ५.प्र.-----अस्थि णं भंते । सामुद्दगा ईसिंपुरेवाया? ५. प्र०-हे भगवन् । ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ समुद्रमा होय छे ? ५. उ०-हंता, अस्थि. . ५. उ०—हे गौतम ! हा, होय छे. ६. प्र०-जया णं भंते ! दीविचया ईसिंपुरेवाया० तया णं ६. प्र०—हे भगवन् ! ज्यारे द्वीपना ईषत्पुरोवात वगेरे सामया वि ईसिंपरेवाया० जया णं सामुद्दया ईसिंपुरेवाया०तया वायुओ वाता होय त्यारे समुद्रना पण ईचत्पुरोवात वगेरे वायुओ णं दीविचया वि ईसिंपुरवाया ? वाता होय! अने परे समुदना ते बधा वायुओ वाता होय सारे द्वीपना पण ते बधा वायुओ वाता होय ? ६. उ०-~णो इणढे समढे. ६. उ०-हे गौतम ! ए वात ठीक नथी. ७. प्र०-से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ, जया णं दीविचया ७. प्र०-हे भगवन् ! तेनुं शुं कारग के, 'ज्यारे द्वीपना ईसिंपुरेवाया०, णो णं तया सामुद्दया ईसिंपुरेवाया०, जया णं ईपत्पुरोवातादि वाता होर त्यारे समुद्रना ईषत्पुरोवातादि न वाता सामुद्दया ईसिंपुरेवाया, णो णं तया दीविचया ईसिंपुरेवाया० ? होय ? अने बारे समुद्रना ईषत्पुरोवातादि वाता होय त्यारे द्वीपना ईपत्पुरोवातादि न वाता होय ! ७. उ०-गोयमा ! तेसि णं वायाणं अनमनविवचासेणं ७. उ०—हे गौतम ! ते वायुओ अन्योन्य व्यत्यासवडे, लवणे समुद्दे वेलं नाइकमइ. से तेण टेणं जाव वाया वायंति. (एक बीजा एक साथे नहि, पण नोखा नोखा ) संचरे-ज्यारे द्वीपना ईषत्पुरोवातादि वाता होय त्यारे समुद्रना न वाय अने ज्यारे समुद्रना ईषत्पुगेवातादि वाता होय त्यारे द्वीपना न वायए रीते ए वायुओ परस्पर विपर्यय बडे वाय छे अने ते प्रकारे ते वायुओ लवण समुदनी वेळाने उलंघता नथी ते कारणथी यावत्-पूर्व प्रमाणे ' वायुओ वाय छे' ए रीते कयुं छे. १. प्रथमोद्देशके दिक्ष दिवसादिविभाग उक्तः, द्वितीये तु तास्वेव वातं प्रतिपिपादयिषुतिभेदास्तावदभिधातुमाह-रायगिहे, इत्यादि. 'अत्थि 'त्ति अस्ति-अयमर्थः-यदुत वाता वान्तीति योगः. कीदृशाः ? इत्याहः- ईसिंपुरेवाय 'त्ति मनार सस्नेह-(संत्रेह ) १. मूलच्छायाः-हन्त, गौतम ! यदा पौरस्त्ये तदा पश्चिमेऽपि ईषत्पुरोवाताः यदा पश्चिमेऽपि ईषत्पुरोवाताः तदा पौरस्त्येऽपि ईषत्पुरोवाता:० एवं दिशासु विदिशासु. अस्ति भगवन् ! द्वैप्याः ईषत्पुरोवाताः० हन्त. अस्ति भगवन् ! सामुद्रिकाः ईषत्रोवाता:- ? हन्त, अस्ति. यदा भगवन् । द्वैप्याः ईषत्पुरोवाताः० तदा सामुद्रिका; अपि ईषत्पुरोवाताः ? यदा सामुद्रिकाः० ईषत्पुरोवाताः तदा द्वैप्याः अपि ईषत्पुरोवाताः ? नाऽयम् अर्थः समर्थः तत् केनार्थेन भगवन् ! एवम् उच्यते. यदा द्वैप्याः ईषत्पुरोवाताः० नो तदा सामुद्रिकाः ईषत्पुरोवाताः० यदा सामुद्रिकाः ईषत्पुरोवाताः, नो तदा द्वैप्याः ईषत्पुरोवाताः गौतम ! तेषां वातानाम् अन्योन्य विव्यत्यासेन लवणे समुद्रे वेलां नातिकामति. तत् तेनार्थेन यावत्० वाताः वान्तिः-अनु० १. गरमीनी मोसममा जे शीत वायुओ वाय छे ते समुद्र तरफयी आवेला होय छे एटले ते वखते-ज्यारे शीत वायुओ वाता होय ते वखतेजमीनना उष्ण वायुओ वाता नथी अने ज्यारे शीआळानी मोसममा जे उष्ण वायुओ वाय छे ते जमीन तरफथी आवेला होय छे एटले ते वखतेज्यारे उष्ण वायुओ वाता होय ते वखते-समुद्रना शीत वायुओ वाता नथी. समुदना वायुओ शीत होय छे अने द्वीपना (जमीनना ) वायुओ उष्ण होय छे-आ रीते ए बने (द्वीपना अने समुद्रना) वायुमा परस्पर विरुद्ध अने एक बीजाने उपघात करनारो गुण मोजुर होवाथी ते बने वायुओ एक साथे वाइ शके नहि, किंतु ते बेमांथी एक समये एक ज वायु वाय एटले के, ज्यारे द्वीपनो वायु वातो होय त्यारे समुद्रनो वायु न वाय अने ब्यारे समुद्रनो वायु वातो होय त्यारे द्वीपनो वायु न वाय-उर जे आ बन्ने वायुना व्यत्यासपूर्वक वावानी हकीकत जणावी छे ते आ टिप्पणी भणावेली रीते घटती लागे छे:-उनु० १. त्रेहेण सहिताः सत्रेहाः, नेहो हि अवश्याय-पर्यायः. " उस्सा-इति अवश्यायः-त्रेहः "-(प्रज्ञापनाटीका, प्रथमपदगते अप्कायविचारे) * पुरोगामिषु हि वातेषु प्रायेण बेहो भवति-इति लौकिकवायुशात्रिणः, अत एव अत्र ते पुरोवाताः सनेहाः, सनेहा वा उक्का. भाषायां च बेह-पर्याया भोस' इति शब्दो युज्यतेः-अनु. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १५९ वाताः. 'पच्छा वाय' त्ति पथ्या वनस्पत्यादिहिता वायवः, 'मंदा वाय' त्ति मन्दाः शनैः संचारिणोऽमहावाता:. 'महावाय' ति उद्दण्डवाताः अनल्पा--इत्यर्थः. परस्थिमे णं, ति सुमेरोः पूर्वस्यां दिशि-इत्यर्थः. एत्रमेतानि दिग-विदिगपेक्षयाऽष्टौ सत्राणि. उक्त दिग्भेदेन वातानां बानम्, अथ दिशामेव परस्परोपनिबन्धेन तदाहः-'जया णं' इत्यादि. इह च द्वे दिक्सूत्र, द्वे विदिक्सूत्रे इति. अथ प्रकारान्तरेण वातस्वरूपनिरूपणसूत्रम्:-तत्र-दीविचग' त्ति द्वैप्या द्वीपसंबन्धिनः, सामुद्दग' त्ति, समुद्रस्यैते सामुद्रिकाः. 'अन्नमनविवच्चासेणं' ति अन्योन्यव्यत्यासेन यदैके ईषत्पुरोवातादिविशेषणा वान्ति, तदा इतरे न तथाविधा वान्तीत्यर्थः. ' वेलं नाइक्कमइ 'त्ति तथाविधवातद्रव्यसामर्थ्याद् , वेलायास्तथास्वभावत्वाचेति. १. प्रथम उद्देशकमां दिशाओने उद्देशीने दिवस विगेरेनो विभाग जगाव्यो छे अने हवे आ बीजा उद्देशकमां पग दिशाओने उद्देशीने ज. पवन संबंधी हकीकतने जणाववा सारु साथी पहेलं वायराना भेद संबंधे निरूपण करवाने कहे छे के, [रायगिहे ' इत्यादि.] ['अत्थि 'त्ति] 'पवनो छे ? ' ए प्रमाणे संबंध करवो. केवी जातना? तो कहे छे के, [ ईसिंपुरेवाय ' त्ति ] ईषत्पुरोवात-थोडा वेहवाळा-थोडी भीनाशवान-थोडी ईषत्पुरोवात-प्रे चिकाशवाळा पवनो, [ 'पच्छा वाय ' त्ति ] वनस्पति वगेरेने लाभ-कर-पथ्य-वायु ते पथ्यवात, [ · मंदा वाय ' त्ति ] धीमे धीमे संचरनारा मंद-पच्या वायुओ-मंद पवनो, [' महावाय 'त्ति ] उइंड-प्रचंड-पवनो-तोफानी वायुओ, [ 'पुरथिमेणं 'ति ] सुमेरुथी पूर्व दिशामां, ए रीते ए आठ सूत्रो मष्ठावात. दिशा अने विदिशा-खूगा-ओनी अपेक्षाए कहेवां. आगळना प्रकरणमां पवनोना वहवा (वावा) संबंधे हकीकत कही छे अने हवे ते ज हकीकतने दिशाओना परस्पर मेळापपूर्वक आ रीते कहे छः [ ' जया णं ' इत्यादि.] आ ठेकाणे बे सूत्र दिशा संबंधी छे अने बे सूत्र खूणा संबंधी छे. हवे बीजी रीते पवनना निरूपण विषे सूत्र कहे छ:-तेमां [ ' दीविञ्चग' त्ति ] द्वीप संबंधी पवनो, [' सामुद्दग' ति ] समुद्र संबंधी पवनो, ट्रेप्य-सामुद्रिक [' अन्नमन्नविवच्चासेणं' ति ] परस्पर विपर्यासपूर्वक अर्थात् ज्यारे अमुक जातना ईषत्पुरोवात वगेरे- पवनो वहे (बाय) छे त्यारे ते ज ज़ातना बीजा ईषत्पुरोवात वगेरे नथी बहता. वेलं नाइक्कमइ ' त्ति ] वेळने ओळंगतो नथी, कारण के, वायराना द्रव्योनुं सामर्थ्य ज तेवा प्रकारनु छ समर्थ-स्खभा अन वेन्नो स्वभाव पण तेवो ज छे. वायुओ. ८. प्र०—अस्थि णं भंते ! ईसिंपुरेवाया, पच्छा वाया, मंदा ८. प्र०—हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात, : पथ्यवात, मंदवात वाया, महावाया वायंति ? अने महावात छे ? ८.-उ०-हंता, अस्थि. ८. उ०--हे गौतम ! हा, छे. ९. प्र०—कया णं भंते ! ईसिंपुरेवाया० जाव-वायंति ? ९. प्र०--हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ क्यारे वाय छे ? ९. उ0-गोयमा ! जया णं वाउयाए अहारियं रियंति, ९. उ०--हे गौतम ! ज्यारे वायुकाय पोताना स्वभावपूर्वक तया णं ईसिंपुरेवाया० जाव-वायंति. गति करे छे त्यारे ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ वाय छे. १०. प्र०-अस्थि णं भंते ! ईसिंपुरेवाया? १०. प्र०--हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगैरे वायुओ छे ! १०. उ०--हंता, अस्थि, १०. उ०--हे गौतम ! हा, छे. ११. प्र०---कया णं भंते ! ईसिंपुरेवाया ? १२. प्र०-हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ क्यारे वाय छ ? ११. उ०--गोयमा ! जया णं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइ, ११. उ०—हे गौतम ! ज्यारे वायुकाय उत्तर क्रियापूर्वकतया णं ईसिंपुरेवाया जाव-वायंति. वैक्रिय शरीर बनावीने-गति करे छे त्यारे ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ वाय छे. १२. प्र०--अस्थि णं भंते ! ईसिंपुरेवाया? १२. प्र०-हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ छे ! १२. उ०-हता, अत्थि. . १२. उ०--हे गौतम ! हा, छे. १३. प्र०-~कया णं भंते ! ईसिंपुरेवाया, पच्छा वाया० ? १३. प्र.---हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ क्यारे वाय छे ? १. मूलच्छायाः-अस्ति भगवन् । ईषत्पुरोवाताः, पंथ्याः वाताः, मन्दाः वाताः, महावाताः वास्ति? हन्त, अस्ति. कदा भगवन् ईषत्पुरोवाताः० यावत्-वान्ति ? गौतम ! यदा वायुकायो यथारीतं रीयते, तदा ईषत्पुरोवाताः० यावत्-वान्ति. अस्ति भगवन् । ईषत्पुरोवाता:०? हन्त, अस्ति. कदा भगवन् ! ईषत्पुरोवाताः ? गौतम ! यदा वायुकायः उत्तरक्रिय रीयते, तदा ईषत्पुरोवाताः यावत्-वान्ति. अस्ति भगवन् ! ईषत्पुरोवाताः हन्त, भस्ति. कदा भगवन् । ईषत्पुरोवाताः, पथ्याः वाता:-अनु० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक २. १३. उ०-गोयमा ! जया णं वाउकुमारा, वाउकुमारीओ १३. उ०--हे गौतम ! ज्यारे वायुकुमारो अने वायुकुमारीओ अप्पणो वा, परस्त वा, तदुभयस्सं वा अट्टाए वाउकायं उदीरति, पोताने, बीजाने के बन्नेने माटे वायुकायने उदीरे छे त्यारे तया णं ईसिंपुरेवाया, जाप-वायंति. ईषत्पुरोधात वगेरे वायुओ वाय छे. . १४. प्र०-वाउयाए णं भंते । वाउयायं चेव आणमंति १४. प्र०--हे भगवन् ! शं. वायुकाय, वायुकायने ज वा, पाणमंति वा०? श्वासमां ले छे अने निःश्वासमां मूके छ ? १४. उ०--जहा खंदए तहा चत्तारि आलावगा नेयव्वा १४. ७०--हे गौतम ! ए संबंधे बधुं स्कंदके उद्देशकमा अणेगसयसहस्स, पुढे उद्दाइ, ससरीरी निक्खमइ. कह्या प्रमाणे जाणवू यावत्-(१)अनेक लाखवार मरीने, (२) स्पर्श पाम्या पछी, (३) मरे छे अने (४) शरीर सहित नीकळे छे, ए रीते चारे आलापक कहेवा. २. अथ वातानां वाने प्रकारान्तरेण वातस्वरूपत्रयं सूत्रत्रयेण दर्शयन्नाहः-' अस्थि णं' इत्यादि. इह च प्रथमवाक्यं प्रस्तावनार्थम्-इति न पुनरुक्तमित्याशङ्कनीयम्. 'अहारियं रियंति' त्ति रीतं रीतिः स्वभाव इत्यर्थः-तस्यानतिक्रमेण यथारीतम्-रीयते गच्छति-यथा स्वाभाविक्या गत्या गच्छतीत्यर्थः. 'उत्तरकिरियं ' ति वायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकम् , उत्तरं तु वैक्रियम्, अत उत्तरा उत्तरशरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियम् , तद्यथा भवतीत्येवं रीयते गच्छति, इह चैकसूत्रेणैव वायुवानकारणत्रयस्य वक्तुं शक्यत्वे यत् सूत्रत्रयकरणं तद् विचित्रत्वात् सूत्रगतेरिति मन्तव्यम्. वाचनान्तरे स्वायं कारणं महायातवर्जितानाम् , द्वितीयं तु मन्दवातवर्जितानाम् , तृतीयं तु चतुर्णामप्युक्तमिति. वायुकायाधिकारादेवेदमाहः- वाउयाए णं' इत्यादि ‘जहा खंदए ' इत्यादि. तत्र प्रथमो दर्शित एव. 'अणेगे' इत्यादिद्वितीयः. स चैवम्:- वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दायित्ता उदायित्वा तत्थेव भुजो भुज्जो पञ्चायाइ ? हंता, गोयमा !'. 'पुढे उदाइ ' त्ति तृतीयः स चैवम्:-' से भंते किं पुढे उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ ? गोयमा ! पुढे उद्दाइ, नो अपुढे '. 'ससरीरी' इत्यादिश्चतुर्थः. स चैवम्:-' से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ, असरीरी ? गोयमा ! सिय ससरीरी' इत्यादि. २. हवे पवनोना वह्वा ( वावा ) मां पवनोनां प्रण स्वरूप बने छे, अने ए वातने बीजे प्रकारे त्रण सूत्र द्वारा दर्शावे छः अत्थि णं' इत्यादि ] शं०-आ सुत्र तो आगळ आवी गयुं छे ते छतां फरीवार तेने अहीं शा माटे दर्शाव्यु ? समा०-चालु प्रकरणमा ए सूत्र प्रस्तावनारूपे समाधान. मूक्युं छे अने तेने फरीवार दर्शाववानुं पण ए ज कारण छे माटे अहीं पुनरुक्ति थइ छ एम गणवानुं नथी. [ अहारियं 'ति] वायुओ, पोतानी स्वाविकमा गतिथी वहे ( वाय ) छे. [ · उत्तरकिरियं ' ति ] वायुकायर्नु मूळ शरीर तो औदारिक छे अने वैक्रिय शरीर एजें उत्तर शरीर छे माटे कहे छे के, जे गमन उत्तर शरीरने आश्रीने थतुं होय-उत्तर शरीरपूर्वक थतुं होय-ते गमन 'उत्तरक्रिय' कहेवाय, अर्थात् वायुओ वैक्रिय शरीरवडे वाय छे. शं०-वायुने वावानां त्रण कारणो एक ज सूत्र द्वारा जणावी शकाय छे तो पण ते माटे त्रण सूत्रो शा माटे का ?/समा०-सूत्र करवानी -समाधान, खूबी विचित्र छे ! माटे ए रीते थयु छे. बीजी वाचनामां तो ए त्रणे कारणो जूदा जूदा वायुने बवानां दर्शाव्यां छः-पेलं कारण महावायु सिवाय अने बीजा वायुओने वहवानुं छे, बीजुं कारण मंदवायु सिवाय अन्य वायुओने वावा छे अने बीजु कारण चारे वायुओने वावार्नु छ अने ए हेतुथी त्रणे वाना. सूत्रो जूदां करवा ए व्याजबी छे. वायुकायर्नु प्रकरण होवाथी वायुकाय संबंधे एक बीजी वात जणाववाने कहे छे के, ['बाउयाए णं' इत्यादि.]['जहा खंदए ' इत्यादि.] वायुकाय संबंधे जे त्रण आलापक कहेवाना कह्या छे तेमां प्रथम आलापक तो देखाड्यो ज छे. ['अणेग'इत्यादि.] ए बीजो आलापक छे अने ते आरीते छे-'वाउयाए गंभंते ! वाउयाए चेव अणेगसय-सहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो भुज्जो पञ्चायाइ ? हंता गोयमा!'['पुढे उद्दाइ 'त्ति ] ए त्रीजो आलापक छे अने ते आ प्रमाण छ:-' से भंते ! किं पुढे उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ गोयमा! पुढे उद्दाइ, नो अपुढे'. [ ससरीरी' इत्यादि.] ए चोथो आलापक छे अने ते आ प्रमाणे छे:-से भंते ! कि ससरीरी निक्खमइ, असरीरी। गोयमा ! सिय ससरीरी' इत्यादि. ओदन विगेरे. १५. प्र०-अह भंते ! उदण्णे, कुम्मासे, सुरां एऐ णं किं- १५. प्र०--हे भगवन् ! ओदन, कुल्माष अने मदिरा, ९ सरीरा ति वत्तव्वं सिया ? | त्रणे द्रव्यो क्या जीवनां शरीरो कहेवाय ? वणे . १. मूलच्छायाः-गौतम । यदा वायुकुमाराः, वायुकुमार्यः आत्मनो वा, परस्य वा, तदुभयस्य वा अथीय वायुकायम् उदीरयन्ति, तदा ईषत्पुरोवाताः, यावत्-वान्ति. वायुकायो भगवन् । वायुकायं चैव आनन्ति वा, प्राणन्ति वा . ? यथा स्कन्दके तथा चत्वारः आलापकाः ज्ञातव्याः, अनेकशतसहस्रम् , स्पृष्टम् उद्रवति, सशरीरी निष्कामति. १. जूओ भ० प्र० ख० पृ० २२६. १. अथ भगवन् ! ओदनः, कुल्माषः, सुरा एते किंशरीरा इति वक्तव्यं स्यातूः अनु. . Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक २. भगवंत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसत्र. १५. उ०--गोयमा ! उदण्णे, कुम्मासे, सुराए य जे घणे १५. उ०--हे गौतम! ओदन, कुल्माष अने मदिरामा जे दवे एए णं पुव्वभावपन्नवगं पडुच वणस्सइजीवसरीरा, तओ घन (कठण) पदार्थ छे ते पूर्वभाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाएं वनस्पति पच्छा सत्यातीआ, सत्थपरिणामिआ, अगणिज्झामिया, अगणि- जीवनां शरीरो छे. अने ज्यारे ते ओदन वगेरे द्रव्यो (खाणीया झसिया, अगणिसेविया, अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा वगेरे) शस्त्रोधी कूटाय छे, शस्त्रोगी परिणमित-नवा आकारनां ति वत्तव्यं सिया, सुराए य जे दवे दव्वे एए णं पुव्वभावपन्नणं धारक-थाय छे अने अग्निथी तेना वर्णो (रंगो) बदलाय छे, पडच आउजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थातीआ, जाव-अगणि- अग्निथी झूषित-पूर्वना स्वभावने छोडनारां-थाय छे, अग्निथी कायसरीरा इ वत्तवं सिया. नवा आकारनां धारक बने छे त्यारे ते द्रव्यो अग्निनां शरीरो कहेवाय ले, तथा सुरा ( मदिरा )मा जे प्रवाही पदार्थ छे ते पूर्वभाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए पाणीना जीवनां शरीरो छे अने ज्यारे ते प्रवाही भाग शस्त्रथी कूटाय छे यावत्-अग्निथी जुदा रंगने धारण करे छे त्यारे ते भाग, अग्निकायनां शरीरो छे एम कहेवाय छे. १६. प्र०--अह णं भंते ! अये, तंबे, तउए, सीसये, उवले, १६. प्र०-हे भगवन् ! लोढुं, तांबु, त्रपु-कलाइ, सीसुं, कसट्टिया-एए णं किंसरीराइ वत्तव्वं सिया? बळेलो पत्थर-कोयलो अने कसट्टिका-काट, ए बधां द्रव्यो कया जीवनां शरीरो कहेवाय ? । १६. उ०--गोयमा ! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, १६. उ०—हे गौतम ! लोढुं, तांबु, कलाइ, सीखें, कोयलो कसहिआ-एए णं पुव्वभावपन्नवणं पडुच पुढवीजीवसरीरा; तओ अने काट, ए बधां पूर्व भाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए पृथिवीना पच्छा सत्थातीआ, जाव-अगणिजीवसरीरा इ वत्तव्वं सिया. जीवनां शरीरो कहेवाय अने पछी-शस्त्र द्वारा कूटाया पछी यावत्-अग्निना जीवनां शरीरो कहेवाय. १७.प्र०---अह णं भंते ! अट्ठी, अद्विज्झामे, चम्मे, चम्म- १७. प्र०-हे भगवन् ! हाडकुं, आगथी विकृत-बगडेलज्झामे, रोमे, रोमझामे, सिंगे, सिंगल्झामे, खुरे, खुरज्झामे, थएल हाडकुं, चामडुं, आगथी विकृत थएल चामडु, वाडा, नखे, नखज्झामे-एए णं किंसरीरा इ वत्तव्वं सिया ? आगथी विकृत थंएल रुंवाडां, खरी, आगथी विकृत थएल खरी, नख, अने बळेल नख; ए बधां कया जीवनां शरीरो कहेवाय ? १७. उ०--गोयमा ! अट्टी, चम्भे, रोमे, सिंगे, खुरे, १७. उ०—हे गौतम ! हाडकुं, चामडु, रुंवाडां, खरी अने नहे-एए णं तसपाणजीवसरीरा. अद्विज्झामे, चम्मज्झामे, रोम- नख, ए बगं त जीवनां शरीरो कहेवाय अने बळेल हाडकुं, ज्मामे, सिंग-खर-णहजलामे-एए णं पव्वभावपन्नवणं पडुथ तस- बळेल चामडुं, बळेल रुंघाडा, बळेल खरी अने बळेळ नख, ए पाणजीवसरीराः तओ पच्छा सत्थातीआ, जाव-अगणि त्ति बधा पूर्व भाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए त्रस जीवनां शरीरो कहेवाय वत्तव्वं सिया. अने पछी-शस्त्र द्वारा संघटित थया पछी-यावत्-अग्निना जीवनां शरीरो कहेवाय. १८. प्र०-अह भंतें ! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमए-एए . १८. प्र०—हे भगवन् ! अंगारो, राख, भुसो अने छाणु, णं किंसरीरा ह वत्तव्वं सिया ? ए बधां कया जीवनां शरीरो कहेवाय ? १८. उ०-गोयमा ! इगाले, छारिए, बुसे, गोमए-एए १८. उ०—हे गौतम ! अंगारो, राख, मुंसो अने छाणु, ए णं पुब्वभावपन्नवणं पडुच्च एगिदियजीवसरीरप्पयोगपरिणामिया बधां पूर्व भाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए एकेंद्रिय जीवनां शरीरो १. मूलच्छायाः--गौतम ! ओदने, कुल्माषे, सुयाश्च यानि धनानि द्रव्य णि एतानि पूर्वभावप्रज्ञापनों प्रतीत्य वनस्पतिजीवशरीराणि, ततः पश्चात् शस्त्रातीतानि, शत्रपरिणामितानि, अग्निध्यामितानि, अग्निजू (सू.) षितानि, अग्निसे वितानि, अग्निपरिणामितानि अमिजीवशरीराणि इति वक्तव्यं स्यात् , सुरायाश्च यानि दूगे द्रव्याणि एतानि पूर्वभावप्रज्ञापना प्रतीत्य अम्जीवशरीराणि, ततः पश्चात् शस्त्राऽतीतानि, यावत्-अनिकायशरीराणि इति वक्तव्यं स्यात् . अथ भगवन् ! अयः, ताम्रम् , त्रपुः, सीसकम् , उपलः, कहः, एते किंशरीरा इति वक्तव्यं स्यात् । गौतम ! अयः, ताम्रम् ,पुः, सीसकम् , उपलः, कहा-एते पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य पृथिवीजीवशरीराः, ततः पश्चात् शस्त्राऽतीताः, यावत्-अग्निजीवशरीराः इति वकव्यं स्यात् . अथ भगवन् ! अस्थि, अस्थिध्यामम् , चर्म, चर्मध्यामम्, रोम, रोमध्यामम् , गम् , Zाध्यामम् , धुरम् , दुरध्यामम् , नखः, नखध्यामम्, एतानि किशरीराणि इति वाव्यं स्यात् ? गौतम 1 अस्थि, चर्म, रोम, गम् , शुरः, नखः-एते त्रसप्राण जीवशरीराणि. अस्थिध्यामम् , चर्मध्यामम् , रोमध्यामम्, मृग-क्षुर-नखध्यामम्, एतानि पूर्वभावप्रज्ञापनों प्रतीत्य प्रसप्राण जीवशरीराणि ; ततः पश्चात् शस्त्रातीतानि, यावत्-अग्नि इति। वक्तव्यं स्यात् . अथ भगवन् ! अश्गारः, क्षारकम्, बुसम्, गोमयम्-एते किंशरीरा इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम ! अबारः, क्षारकम्, वुसम् , गोमयम्-एते पूर्वभाव-प्रज्ञापन प्रतीत्य एकेन्द्रियजीवशरीरप्रयोगपरिणामिता:-अनु० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक २० - वि', जाव-पंचिंदियजीवसरीरप्पओगपरिणामिया वि. तओ पच्छा कहेवाय अने यावत्-यथासंभव पंचेंद्रिय जीवनां शरीरो पण सत्यांतीया, जाव-अगणिजीवसरीरा इ वत्तव्वं सिया. कहेवाय. तथा शस्त्र द्वारा संघट्टिा धया पछी यावत्-अग्निना जीवनां शरीरो कहेवाय. ३. वायुकायश्चिन्तितः, अथ वनस्पतिकायादीन् शरीरतश्चिन्तयन् आहः-'अह' इत्यादि. 'एए णं' ति एतानि. गं' इत्यलंकारे. 'किंसरीर' त्ति केषां शरीराणि. 'सुराए य जे घणे ' त्ति सुरायां द्वे द्रव्ये स्याताम्-घनद्रव्यम् , द्रवद्रव्यं च, तत्र यद धनद्रव्यम् 'पुव्वभावपन्नवणं पडुच्च ' त्ति अतीतपर्यायप्ररूपणामङ्गीकृत्य वनस्पतिशरीराणि, पूर्व हि ओदनादयो वनस्पतयः. 'तओ पच्छ ' त्ति वनस्पतिजीवशरीरवाच्यत्वाऽनन्तरमग्निजीवशरीराणीत वक्तव्यं स्यादिति संबन्धः. किंभूतानि सन्ति? इत्याहः-'सत्यातीय त्ति शस्त्रेग उदूखल-मुशल-यन्त्रकादिना करणभूतेनातीतानि अतिक्रान्तानि पूर्वपर्यायमिति शस्त्रातीतानि. 'सत्थपरिणामिय' ति शस्त्रेण परिणामितानि कृतानि नवपर्यायाणि शस्त्रपरिणामितानि. ततश्च ' अगणिज्झामिय ' ति वह्निना ध्यामितानि श्यामीकृतान स्वकीयवर्णत्याजनात्. तथा ' अगणिझूसिय ' ति अग्निना झोषिताने पूर्वस्वभावक्षपणात्. अग्निना सेवितानि वा 'जुत्री प्रीति-सेवनयोः' इत्यस्य धातोः प्रयोगात्. ' अगणिपरिणामियाई' ति संजाताग्निपरिणामानि औष्ण्ययोगात्. अथवा 'सत्थातीआ' इत्यादी शस्त्रमग्निरेव. ' अगणिज्झामिया' इत्यादि तु तद्वयाख्यानमेवेति. 'उबले' ति इह दग्धपाणः. 'कसट्टिय'त्ति कट्टः. 'आविज्झामे' ति अस्थि च तद् ध्यामं च अग्निना ध्यामलीकृतम् -आपादितपर्यायान्तरमित्यर्थः. 'इंगाले' इत्यादि. अङ्गारो निर्जलितेन्धनम्. ' छारिए ' त्ति क्षारकं भस्म. 'भुसि ' ति बुसम् . ' गोमए ' ति छगणम्. इह च बुस-गोमयौ भूतार्यायानुवृत्त्या दग्धावस्थौ ग्राह्यौ, अन्यथा अग्निध्यामितादिवक्ष्यमाणविशेषणानामनुपपत्तिः स्यादिति. एते पूर्वभावप्रज्ञापनां प्रतीत्य एकेन्द्रियजीवैः शरीरतया प्रयोगेण स्वव्यापारेण परिणामिता येते तथा-एकेन्द्रियशरीराणि-इत्यर्थः. ' अपिः ' समुच्चये. ' यावत् ' करणाद द्वीन्द्रियजीवशरीरप्रयोगपरिणामिता अपि-इत्यादि दृश्यम्. द्वीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणतत्वं च यथासंभवमेव, न तु सर्वपदेषु-इति, तत्र पूर्वमङ्गारो भस्म च एकेन्द्रियादिशरीररूपं भवति, एकेन्द्रियादिशरीराणामिन्धनत्वात्. बुसं तु यव-गोधूमहरितावस्थायामेकेन्द्रियशरीरम्. गोमयस्तु तृणाद्यवस्थायामेकेन्द्रियशरीरम् , द्वीन्द्रियादीनां तु गवादिभिर्भक्षगे द्वीन्द्रिया दिशरीरमपि. ३. आगळना प्रकरणमा वायुकाय संबंधे चिंतन कर्यु छे अने हवे वनस्पतिकाय विगेरेना शरीर संबंधी चिंतन करतां जणावे छ के, [ अह '.इत्यादि.]['एए गं' ' ति ] ए [ किंसरीर ' ति ] कोनां शरीरो छे ? [ 'सुराए य जे घणे'.त्ति ] सुरा-दारु-मां बे जातनी चीजो छे. एक तो कठिन वस्तु-गोळ--अने बीजी प्रवाही वस्तु--पाणी. तेमां जे कठिन वस्तु छे ते, ['पुब्वभावपन्नवणं पडुच 'त्ति ] तेना 14-अज्ञापना. जूना आकारनी अपेक्षाए बनस्पतिनां शरीरो छे. कारण के, चोखा तथा गोळ वगरेनी पूर्वावस्था वनस्पतिरूप छे. [ 'तओ पच्छ ' ति] तेओ वनस्पतिनां शरीरो कहवाय त्यार पछी अग्निजीवनां शरीरो कहेवाय छे-एम संबंध करवो. तेओ (चोखा वगेरे ) केवा थया पछी अमिनां शरीरो शख.वीत. कहेवाय ? तो कहे छ के, [ ' सत्थातीय ' ति] खागीयो, सांबलं वगेरे यंत्रोवडे कूटाया पछी अर्थात् खाणीयो वगेरे यंत्रोवडे चोखा वगेरे पदार्थनी आगली अवस्था बदलाया पछी ते चोखा वगेरे ' शस्त्रातीत' कहेवाय. [ 'सत्थपरिणामिय ' त्ति ] शस्त्रवडे परिणाम--नवा आकार-ने पामेला-चोखा बगेरे 'शत्रपरिणामित 'कहेवाय, त्यार बाद [' अगणिज्झामिय ' त्ति ] तेओनो रंग छुटी गयो-बदली गयो-होवाथी अग्निवडे काळा करेला, तथा [' अगणिज्झसिय 'त्ति ] पूर्वनो खभाव खपी गएलो होवाथी · अग्निझोषित' कहेवाय अथवा अग्निजोषित-अमिथी सेवाएल कहेवाय. [ अगणिपरिणामियाई 'ति] हवे तेओ उनां थयां छे माटे अग्मिना परिणामवाळां कहेवाय अथवा 'शस्त्रातीत' विगेरे शब्दोमां अमितास. वपराएला शस्त्र शब्दनो अग्नि अर्थ ज समजवो. [ ' अगणिझामिया' ] इत्यादि शब्दो- विवेचन तो आाळ आवी गएलं जछे [' उवले' त्ति ] अहीं · उपल' शब्दनो अर्थ 'बळेलो पथरो' छे. [ ' कसट्टिय' त्ति ]: कह-काट, [ अहिज्झामे "त्ति ] अग्निवडे पर्यायान्तर-बीजा खरूप-ने पामेलुं हाडकुं अने तेनुं ध्याग-बळेलो भाग, [ ' इंगाले ' इत्यादि.] अंगार-बळेल इंधj--अंगारो, ['छारिए 'त्ति] राख, [भुसि' त्ति ] भुंसो-कुंबळ, [‘गोमए ' ति] छगण-छाण, आ स्थळे 'अँसो' अने 'छाण 'ए बन्ने बळेला लेवां, जो एम न करवामां आवे तो आगळ कहेला ' अग्निध्यामित' वगेरे विशेषणो अणघटतां-व्यर्थ-थइ जाय छे. ए बन्ने ( कुंवळ अने छाण) पूर्वनी अपेक्षाए एकेंद्रिय जीवनां शरीरो छ अर्थात् एकेंद्रिय जीवोए पोतानी क्रियावडे तेओने पोतानी साथे ['परिणामिया वि' 'त्ति ] परिणमावेला छे-एथी ज ए, एकंद्रिय परिणामित. जीवोनां शरीरो गणाय छे. अहीं । यावत् ' शब्द मूक्यो छे माटे बेइंद्रिय जीवोए पोतानी साथे परिणमावेला' इत्यादि वात पण १. मूलच्छाया:-अपि, यावत्-पश्चेन्द्रियजीवशरीरप्रयोगपरिणामिताः अपि. ततः पश्चात् शस्त्राऽतीताः, यावत्-अग्निजीव-शरीराणि इति वक्तव्यं स्यात् :-अनु० १. अत्र मूले ' कसटिय'त्ति दृश्यते, अस्यार्थः श्रीटीकाकारेण 'क.' इति कृतः, कश्च लोहादीनां मलः-यो भाषायां काट' शब्देन ख्यातः. भगवतीअवचूर्ध्या तु ' कसहिया' स्थाने सकद्विका (1) दृश्यते, अर्थश्चास्य तत्र टीकाकारवत् 'क' इति कृतः-अयमेव अर्धः सुसंगतोत्र, तथाऽपि केचित् कषपष्टिका-कसहिया-इत्येतयोः साधर्म्यम् अवलोक्य ' कह' इत्यर्थे षकार-पकारौ आरोप्य ' कष' इति लपन्ति-कषप इति चं भाषायाम् ' कसोटी' शब्देन ख्यातः पाषाणविशेषः-अनु० १.,अहीनो 'ण' शब्द,अलंकारसूचक छे. २. आ शब्दमां प्रीति अने सेवा अर्थवाळो 'जुष' धातु वपराएलो छे. ३. 'अपि' शब्दनो समुषय अर्थ छे:-श्रीअभय. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. समजवी. बेइंद्रिय जीवोए शरीररूपे परिणमावेल 'ए अर्थनो संबंध बधां पदो साथे न करवो, पण ज्यां ते घटी शके तेम होय त्यां ज करवो, तेमां अंगारो अने राख, ए बन्ने, तेनी पहेली अस्थामा एकेंद्रियनां शरीररूपे हता, कारण के, अंगारो के राख ( लीला लाकडामाथी थएल सूका ) लाकडानी बने छे अने ते लीलुं लाकई एकेद्रिय जीव होय छे माटे ते अंगारा के राखने एक इंद्रियना शरीररूये जणावी ते खोटुं नथी. भुसो पण, तेनी पहेली स्थिति एकेंद्रिय जीवना शरीररूप हतो, कारण के ते, लीला जब अने घउंमांधी बने छे अने लीला जव तथा घउं एकेद्रिय छे ए वान सुपसिद्ध ज छे, छाण ए, एकेंद्रियर्नु शरीर गगाय छे. कारण के, मारे गाय वगेर पशुओ वास, मुंमो छापा, के खाण वगैरे खाय छे त्यारे तेज चीजोमांथी छाण नीपजे छ अने ते बधी चीजो एकेंद्रिय जीवरूप छे म टे छाणने एकेंद्रियर्नु शरीर कहेवामा हरकत नथी. वळी ज्यारे गाय वगेरे पशुओ बे इंद्रियवाळा (जे जीवने चामडी अने जीभ एवी वे ज इंद्रियो छ एवा ) जीवन भक्षण करे छे त्यारे ते छाण, बेइंद्रिय जीवन शरीर कहेवाय छे. कारण के, ए छाण बेइंद्रिय जीवना शरीरतुं बनेल छे. एरीते जेटली इंद्रियवाळा जीवनो आहार गाय वगेरे पशुओ करे एटली इंद्रियवाळा जीनुं शरीर तेने (छाणने ) गणवं. लवण समुद्र. १९. प्र०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवाल- १९. प्र०-हे भगवन् ! लवण समुद्रनो चक्रवाल विष्कंभ विक्खंभेणं पण्णत्ते ? केटलो कह्यो छे ? १९. उ०-एवं णेया, जाव-लोगढिई, लोगाणुभावे. १९. उ०-हे गौतम ! ए प्रमाणे-पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवू यावत्-लोकस्थिति, लोहानुभाव, -से मंते !, सेवं मंते ! त्ति भगवं जाव-विहरइ. . -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छ एग कही भगवान् गौतम यावत्-विहरे छे, भगवंत-अजमुहम्मसामिपणीए सिरीभगवई सुत्ते पंचमसये दुइओ उद्देसो सम्मत्तो. ४ . पृथिव्यादिकायाधिकारादप्यप्कायरूपस्य लवणोदधेः स्वरूपमाहः-'लवणे गं' इत्यादि. 'एवं यवं ' ति उक्ताभिलापानुगुणतया नेतव्यं जीवाभिगमोक्तं लवणसमुद्रसूत्रम्. किमन्तम् ? इत्याहः-'ज.व लोग-' इत्यादि. तच्चेदम्: “ केवइयं १. मूलच्छाया:-लवणो भगवन् । समुद्रः कियान् चकवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः ? एवं ज्ञातव्यम् , यावत्-लोकस्थितिः, लो कानुनावः तदेवं भगवन् ! , तदेवं भगवन् ! इति भगवान् यावत्-विहरति. १. आ बाबतने लाती विगतवार हकीकत जीवाजीवाभिगम सूत्रनी त्रीजी प्रतिपत्तिमा (स. पृ. ३२४ ) नोधाएली छे अने तेमांनी केटलीक सा प्रमाणे छे:" लवणे णं भंते ! समुद्दे कि संठिए पणते ? " हे भगवन् ! लवण समुद्रनुं संस्थान (आकार ) केवु कयुं छे ! गोयमा! गोतित्थसंठिते, नावा-संठाणसंठिते, सिपि-संपुड संठिए, हे गौतम! गोतीर्थ जेवू, नौकानी जेबु, छीपना संपुटनी जेवं, आसखंधसंठिते, वलभिसंठिते-बट्टे-वलयागारसंठाणसंठिते पण्णते. अवस्कंधनी वू, वलभीनी जेवू वृत्त अने बल यना आकार- कयुं छे. लवणे ण भंते । समुद्दे केवतियं चकवाल विक्खंभेणं ? केवतियं हे भगवन् ! लवण समुद्रनो चक्रवाल विष्कंभ केटलो कह्यो छे ? परिक्खे वेण ? केवतियं उन्हेणं ? केवतिय उस्सेदेणं ? केवतियं सव्वग्गेणं परिक्षेप केटलो कह्यो छे ? उद्वेध केटलो को छे ? उत्सेध अने सीप पण्णते? केटलुं का छे ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसय-सहस्साई चकवालविकभणं, हे गौतम ! लवण समुद्रनो चकवालविकभ बे लाख योजननो छ, पण्णरस जोयणसयसहस्साई, एकासीर्ति च सहस्साई, सतं च इगु(ण)यालं पन्नर लाख, एकाशी हजार अने एकसने ओगणचाळीश योजन उपरांत किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, एग जोयणराहस्सं उब्वेधेणं, सोलस जोयणसह. थोडो घणो वधारे मेछो परिक्षा छे, एक हजार योजन उदेष छ, सोळ स्साई उस्से हेणं, सत्तरस जायणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्त. हजार योजन उत्सेध छ अने सत्तर हजार योजन सर्व ग्र कयं छ. जइ णं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसतसहस्साई चक्कचालविक्खंभेण, हे भगवन् ! जो लवणसमुद्रनो चक्रमालविष्कम बे लाख योजननो छे, पण्णरस जोयणसतसहस्साई एकासतिं च सहस्साई, सतं च इगु(ण)यालं पार लाख, एकाशी हजार अने एकसोने ओणिचाळीश योजन उपरांत थोडो किंचि विसेसूणे परिवखेवेणं, एगं जोयणराहस्सं नव्बंधेगे; सोलस जोयणस- घणो वधारे ओछो परिक्षेष छे, एक हजार योजन उद्वेध छे, सळ हजार हस्साई उस्सेधेणं, सत्तरस जोयण-सहस्साई सम्बग्गेणं पणते कम्हा णं योजन उत्सेध छे अने सत्तर हजार योजन सर्वन कयु छे तो हे भंते ! लवणसमुद्दे जंबुद्दोवं नो उवीले ति, नो उप्पीलेति नो चेव णं एकोदगं भगवन् ! ए लवण समुद्र ( एवंडो मोटो होवाथी) आ जंबू दीप नामना करेति? द्वीपने शा माटे डुबावतो नथी, शा माटे झबोळतो नथी अने शामाटे जलमय करी शकतो नी ? गोयमा ! जंबुद्दीवे ण दीवे भरहे-रवएसु वासेसु अरहंत-चक्कवट्टि- हे गौतम ! (आ) जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ऐरवत क्षेत्रोमां पलदेक, वासुदेवा, चारणा, विद्याधरा, समणा, समणीओ, सावया, अरइंतो, चक्रवर्तिओ, बळदेवो, वासुदेवो, चारणो, विद्याधरो, श्रमणो, . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र जिनागमसंग्रहे 'शतक १. उद्देशक. परिक्खेवेणं? गोयमा ! दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं. पन्नरस सयसहस्साइं, एक्कासीयं च सहस्साई, सयं च इगुणयालं किंचि विसेसूर्ण परिक्खेवेणं पण्णत्ते." इत्यादि. एतस्य चान्ते " कम्हा गं भंते ! लवणस मुद्दे जंबहीवे नो उबीलेइ!" इत्यादि-प्रश्ने " गोयमा जंबुद्दीवे दीवे भरहे-रवएस बासेसु अरहंता, चकवही" इत्यादरुत्तरगन्ध स्थाऽन्त “लांगटिइ इशादि द्रष्टव्यम् इति. भगदत्सुधर्मस्वामिप्रणात श्रीभगवतीसूत्रं पञ्चमशत द्वितीय उद्देशक श्रीअभय देवसूरि विरचित विवरण मातम्. ४. पृथिवीकाय, वनस्पतिकाय विगेरेना शरीर संबंधी हकीकत आगळना प्रकरणमा जणावी छे अने हवे अप्काथ (पाणी) रूप लवणसलवणसमुद अने मुद्रनु स्वरूप जणावतां कहे छे के, [' लवणे णं' इत्यादि..] 'एवं णेयव्वं ' ति ] जीवोभिगम नामना सूत्रमा आवेलुं लवण समुद्र संबंधी ___ जीवाभिगम. सूत्र, कहेला पाठने अनुसरतुं जाणवू. ते क्या सुधी जाणवू ? तो कहे छे के, [ 'जाव लोग-' इत्यादि.] ते आ प्रमाणे:--' तेनो घरावो केटलो कह्यो छे ? हे गौतम! बे लाख योजन तो तेनो चक्रवाल विष्कम छे अने तेनो घेरावो पन्नर लाख, एकाशी हजार अने ओगगचालीस सो (?) योजन करतां थोडो घणो वधारे कयो छे' इत्यादि. ए सूत्रनी छेवटे जणाव्यु छ के, 'हे भगवन् ! लवण समुद्र, जंबू द्वीपने नथी डुबाडतो तेनु शुं कारण ?' इत्यादि प्रश्नना जबाबमा जणावे छे के-'हे गौतम ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ऐरवत क्षेत्रमा अरहतो अने चक्रवर्तिओ महापुरुषो. विगेरे महापुरुषो थाय छे अने तेओना प्रभावथी लवण समुद्र जंबूद्वीपने डुबाडी शकतो नथी' तथा त्यार पछी जणाव्यु छ के, 'एवा प्रकारनो लोकस्वभाव छे एथी पण लवण समुद्र जंबूद्वीपने डुबाडी शकतो नथी' इत्यादि समजवू. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दयात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुख मारहा चाप्तमुख्यः ।। अलीणा, भङ्गा, विणीता एकोह-माण-माया-लाभाभदया, पगतिविण सावियाओ, मणुया एगधचा-(म्मा?), पगतिभया; पगतिविणीया, श्रमणीओ, श्रावको, श्राविकाओ अने एक धर्मवाळा (१) मनुष्यो रहे छ, पगतिउवसंता, पगतिपयणुकोह-माण-माया-लोभा, मिउ-मद्दवसंपन्ना, जेओ खभावे भद्र, विनीत, अने उपशांत होय छे, स्वभावथी ज जेओना अल्लीणा, भद्दगा, विणीता-तेसि गं पणिहाते लवणे समुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो क्रोधादि कषायो मंद होय छे, जेओ सरळ अने कोमळ होय छे तथा उवी लेति, नो उप्पीछेति, नो चेव णं एगोदगं करेति" इत्यादि. जेओ जितेंद्रिय, भद्र, अने नम्र होय हे-तेवा मनुष्योना प्रभावधी लवण समुद्र, जंबूद्वीपने डुबाडतो नथी, झबोळतो नथीं अने जलमय करी शकतो नथी" इत्यादि:-अनु० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ३. अन्यतीथिको.-जालग्रंथिकानुं उदाहरण.-एक समये आ भव अने परभवना अयुध्यनुं वेदन.-ए विषे अन्यतीथिकोनो मत.-ए मत मिथ्या -भिन्न भिन्न समये ते . बन्ने आयुष्योन वेदन एवो-जिनमत-नैरयिकोमा संक्रमनारो आयुष्यसहित संक्रमे के आयुष्यरहित संक्रमे ? अ युष्यसहित संक्रभे.-ए अायुमा, एगे क्या करेलु ? पूर्व भवमा:--याय : वैमानिक-जीवमा बने उद्देशी योनि अने आयुष्य संरचे विचार.-. १.१०-- अन्न उत्थिया णं भंते ! एकमाइवखंति, भासंति, १. प्र०--हे भगवन् ! अन्तीथिको एम कह छ, भाषे पण्णवंति, एवं परूवैतिः-से जहा नामए जालगंठिया सिया, छे, जणावे छे अने प्ररूपे छे के, जेम कोई एक.जाळ होय, ते. आणुपुगिढियो, अणं रगढिया, परंपरगढिया, अन्नमन्नगढिया, जाळमां क्रमपूर्वक गांठो दीधेली होय, एक पछी एफ एम बगर अन्नम नगरुयत्ताए, अनमनभारियताए, अनमनगरुयसंभारिय- आंतरे ते गुंथेली होय, परंपराए गुंथेली होय, परस्पर गुंथेली होप त्ताए, अन्नमनघडताए जाव-चिट्टइ, एवाव बहूणं जीवाणं एवी ते जाळ जेम विस्तारपणे, परस्पर भारपणे, परस्पर विस्तार बहुसु आजाइसहस्सेसु बढ्इं आउयसहस्साइं आणुपविगढ़ियाई, तथा भारपणे अने परस्पर समुदायपणे रहे छ अर्थात् जाळ तो जाव-चिट्ठति. एगे विय,णं जीवे एगेणं समयेणं दो आउयाइं एक छे पण तेमां जेम अनेक गांठो परस्पर वळगी रहेली छे पडिसंवेदेइ. तं जहा:-इहभवियाउयं च परभवियाउयं च. जं तेम क्रमे करीने अनेक जन्मो साथे संबंध धरावनारां एषां घणां समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ तं समयं परभावियाउयं पडिसं- आउखांओ घणा जीवो उपर परस्पर क्रमे करीने गुंथाएलां छेवेदेइ, जाव-से कहमेयं भंते ! एवं? यावत्-रहे छे अने तेम होवाथी तेमांनो एक जीव पण एक समये बे आयुष्यने अनुभवे छे. ते आ प्रमाणे:-एक ज जीव आ भवन आयुष्य अनुभवे छे तेम ते ज जीव पर भवन पण आयुष्य अनुभवे छे-जे सगये आ भनन पंण आयुष्य अनुभव के तेज सगये परं भवन पण आयुष्य अनुभवे छे. यावत्-हे भगवन् ! एते केवी रीते है १. उ०--गोयमा ! जंगं ते अनउत्थिया तं चेव पर- : उ०हे गौतम । ते अन्यतीथिको जे कोइ कहे छे भवियाउयं च. जे ते एवमाहंसु तं मिच्छा, अहं पुण गोयमा ! (ते बधुं पूर्व प्रमाणे कहे, यावत्-पर भवर्नु आयुध्य, ए प्रमाणे एवमाइक्खामि, जाव-परूवामिः-जहा नामए जालगंठिया जे तेओए कह्यु छे) ते बधुं तेओ असत्य कहे छे. हे गौतम ! १. मूलच्छायाः-अन्ययूथिकाः भगवन् ! एवम् आख्यान्ति, भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्तिः- सा यथा नाम जालेग्रन्थिका स्यात् , आनुपूर्वाग्रथिता, अनन्तरप्रथिता, परंपरप्रथिता, अन्योन्यप्रथिता, अन्योन्यगुरुकतया, अन्योन्यभारिकतया, अन्योन्यगुरुकसंभारिकतया, अन्योन्यघटतया यावत्-तिष्टति, एवम् एवं बहूनां जीवानां बहुषु आजातिसहस्रेषु बहूनि आयुष्कसहस्त्राणि आनुपूर्वीप्रथितानि, यावत्-सिष्टेन्ति. एकोऽपि च जीव एकेन समयेन द्वे आयुषी प्रतिसंवेदयति. तद्यथाः-इहभवाऽऽयुष्कं च. परभवाऽऽयुष्कं च, यं समयं इहभवाऽऽयुष्कं प्रतिसंवेदयति तं समय परभवाऽऽयुकं प्रतिसंवेदयति, यावत्-त्तत् कथम् एतद्-भगवन् ! एवम् ? गौतम ! यत् ते अन्ययूथिकाः तचैव परभवाऽऽयुष्कं च.ये ते एवम्-आहुः तदु मिथ्या अहं:पुनगौतम ! एवम् आख्यामि यावत्-प्ररूपयामिः-यथा नाम जालग्रन्थिका-अनु. द भगवन् ।ऽयुष्कं च पनि आयुष्कमहोन्यभारिकता . Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ३. सिया, 'जाव-असमनघडताए चिट्ठति, एवामेव एगमेगस्स हुं तो वळी एम कहुं छु यावत्-प्ररूपुं के, जेम कोइ एक जीवस्स बहूहिं आजाइ सहस्तेहिं बहुइं आउयसहस्साई आणुपुधि- जाळ होय अने ते यावत्-अन्योन्य समुदायपणे रहे छे ए ज गढियाइं जान चिट्ठति. एगे विय णं जीवे एगणं सम एणं एगं री। कने करीने अनेक जन्मो साथे संबंध धरावनारी एवा घणा आउयं पडिसंवेदेव. तं जहा:-इहभरियाउयं चा, परभावियाउयं आउखाओ एक एक जीव उपर सांकळीना मकोडानी पेठे वा: समयं इहावियाउयं पडिसंवेदेड नो तं समयं परभवि- परसार कमे करीने गुंथाएलां होय छे अने एम होवाथी एक जीव याउयं पडिसंदेह, जं समयं परमपियाउ पडिसोइ नो तं एक समये एक आयुष्यने अनुभवे छे. ते आ रीते:-ते जीव आ समयं हम पियाउयं पडिसंवेदेइः इहभवियाज्यस्स पडिसंवेयणाए भवतुं आयुष्य अनुभवे छे अथवा तो पर भवन आयुष्य अनुभवे दो परमायउयं पडिसंदेड, परभवियाउयस पडिसवे यणाए छे पण जे समय आ भवनु आयुष्य अनुभवे छे ते समये परभवन नोहमवियाज्यं पडि संवेदेव. एवं खल एगे जीचे एगेण समएणं आयुष्य अनुभवतो नथी अने जे समये परभवनुं आयुष्य अनुभवे एनं आउयं पडिसंवेदेह. इइभवियाउयं था, परभावियाउयं वा. छे ते समये आ भवनुं आयुष्य अनुभवतो नथी-आ भवना आयुष्यने वेदवाथी पर भवन आयुष्य वेदातुं (वेदतो) नथी अने पर भवना आयुष्यने वेदवाथी आ भवनुं आयुष्य वेदातुं (वेदतो) नथी ए प्रमाणे एक जीव एक समये एक आयुष्यने अनुभवे छे ते आ प्रमाणे:-आ भवनुं आयुष्य अनुभवे छे के पर भवन आयुष्य अनुभवे छे. १. अनन्तरोक्तं लवणसमुद्रादिकं सत्यम् , सम्यग्ज्ञानिप्रतिपादितत्वात. मिथ्याज्ञानिप्रतिपादितं तु असत्यमपि स्यादिति दर्शयंस्तृतीयोदेशकरय आदिसूत्रमिदमाहः-' अन्नउत्थिया ' इत्यादि. 'जालगंठिय' त्ति जालं मत्स्यबन्धनम् , तस्यैव ग्रन्थयो यस्यां सा जालगन्थिका. किंवरूपा सा ? इत्याहः-' आणुपुर्मिगढिय' वि. आनुपूर्व्या परिपाटया ग्रथिता गुम्फिता आधचितग्रन्थीनामादौ विधानाद् -अन्नों च नानां च क्रमेणान्त एव करणात्. एतदेव प्रपञ्च पन्नाहः-'अणन्तरगडिय' ति प्रथमग्रन्थीनामनन्त व्यवस्थापितैथिमिः सह प्रथिता अनन्तरप्रथिना. एवं परंपरेच वहि: सह प्रथिता परंपरप्रथिता. किमुक्तं भवति ? ' अन्नमनगढिय, त्ति अन्योन्यं परस्परेण एकेन ग्रन्थिना सह अन्यो पनि :- अन्येन च सह अन्यः-इत्येवं प्रथिता अन्योन्यग्रथिता. एवं च • अन्नमन गरुयत्ताए ' त्ति अन्योन्येन मन्थनाद् गुरुकता विसर्णिता अन्योन्यगुरुकता--तया, ' अन्नमनभारियत्ताए । त्ति अन्योन्यस्य यो भार. स विद्यते यत्र तदन्योन्यभारिकं तद्भावस्तत्ता तया. एतस्यैव प्रत्येक तार्थद्वयस्य संयोजनेन तयोरेव प्रकर्षमभिधातुमाहः'अचमनगरुयसंभारियत्ताए ' त्ति अन्योन्येन गुरुकं यत् संभारितं च तत् तथा, तद्भावस्तत्ता तया. । अनमनघडत्ता नि अन्योन्यं धटा समुदायरचना यत्र तदन्योन्यघटाकं तद्भावस्तता तया 'चिट्ठइ ' त्ति आते-इति दृष्टान्तः. अथ दान्तिक उच्यते:पियामेव ति अनेनैव न्यायेन बहना जीवानां संबन्धीनि 'बहुसु आजाइसहस्सेसु' त्ति अनेकेषु देवादिजन्मसु प्रतिजीवं क्रमवृतोषु अधि करणभूनेषु बहू ने आयुश्कसहस्राणि-तःस्वामिजीवानामाजातीनां च बहुसहस्रसंख्यातत्वात् ' आनुपूर्वीप्रथितानि । इत्यादि पूर्ववत् व्यारूपेयम्. नवरम्-इह भारिकत्वं कर्मपुद्गलापेक्षया याच्यन, अथैतेपाम भुषां को वेदनावविः ? इत्याहः-'एगे विय' इत्यादि. एकोऽपि च जीवः, आस्तामनेकः. 'एकेन समयेन ' इत्यादि प्रमश.वत्. अत्रोत्तरम्:-जे ते एवमाहंस ' इत्यादि, .िध्यात्वं चैषामयम्:- यानि हि बहूनां जीवानां न्हूनि आयूंषि जालग्रन्थिकावत् तिष्टन्ति तानि यथास्वं जीवप्रदेशेषु संबद्धानि स्युरसंबद्धानि वा ?, यदि संबद्धानि, तदा कथं भिन्नभिन्नजीवस्थितानां तेषां जान पत्रिकाकलपना कल्पयितुं शक्या ? तथाऽपि तत्कल्पने जवानामपि जाटग्रन्थिकाय.त्पत्वं स्यात्-तत्संबद्धत्वात् , तथा च सर्वजीवानां सर्व युः -संवेदनेन सर्वभवभवनप्रसङ्ग इति. अथ जीवानाम्--असंबद्धानि अयूंषि, तदा ' तदशाद् देवादिजन्म' इति न स्वाद- असंबह त्वादेवेति. यच्चोक्तम्:-‘एको जीव एकेन समयेन द्वे आयुषी वेदयति, ' तदपि मिथ्या. आयुर्ट्सयसंवेदनेन युगपद् भवद्वयप्रसादिति. 'अहं पुण गोयमा ! इत्यादि. इह पते जालसन्धिका संकलिकांमात्रम्. एगमेगस्स' इत्यादि. एकैकस्य जीवस्य-न तु बहूनाम्--बहुधाऽऽजातिसहस्रेषु क्रमप्रवृत्तेषु अतीतकालिकेषु तत्कालापेक्षया सासु बहू ने आयुः सहस्राणि अतीतानि वर्तमानभवान्तानि--अन्यभविकमन्यभविकेन प्रतिबद्ध मित्येवं मर्याणि परस्परं प्रतिबद्धानि भवन्ति, न पुनरेकभवे एक बहूनि 'इहमवियाज्यं व ' ति वर्तमानभवायु:. 'परमवियाउयं व 'त्ति परभवप्रायोम्यं यद् वर्तमानभत्रे निबद्धं तच्च परभवे गतो वेदयति तदा व्यपदिश्यते 'परभावियाउयं व' ति. १. मूलच्छाया:-स्यात, यावत-अन्यान्य घटतया तिघन्ति, एकमेव एकवस्य जीवस्य बहुभिराजाति सहस: बहूनि आयुकसहसाणि आनुपूर्वीप्रथितानि यातू-तिष्टन्ति. एकोऽपि च जीव एकेन समयेन एकम् आयुष्कं प्रति संवेदयति. तद्यथा:-इभवाऽऽयुकं वा, परभवायुष्कं वा; यं समयं इहभवायुष्क प्रतिसंवेदय तिगे तं समयं परभव ऽऽयुष्कं प्रतिसंवेदयति, यं समयं परमवायुष्कं प्रति संवेदयति नो तं समयं इहभवायुष्क प्रति संवेदयति इद्दभवाऽऽयुष्करय प्रतिसंवेदनायां नो परमवायुष्कं तिसंवेदयति, परभवाऽऽयु.स्य प्रति संवेदनायां नो इभवायुष्फ प्रतिसंवेदयति, iaएको जीप: एफेन समथेन एक बाइक प्रविसंघेश्यति. इएमवायुकं वा, परभवायुष्क पा-अनुक Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.- उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १६७ १. आगळ जपावेली पण समुद्र पिंगेनी हकीकत साथी छे, कारण के, ते हकीकत सम्यक ज्ञानवाला पुरुषो जणावी. अने वात मिथ्यादृष्टि पुरुषोए जणावेल होय छे ते वात खोटी पग होय छे-अड़ीं एवी एकाद खोटी वातने देखाडतां श्रीजा उद्देशकनुं आ आदिसूत्र , कहे छे के, [ ' अन्नउत्थिया णं ? इत्यादि. ] [ ' जालगंठिय' ति ] माछलांने पकडवानुं साधन ते जाळ, अने जेमां तेनी जेवी गांठो होय छे ते जालग्रंथिका अने जाळग्रंथिका अर्थात् एक जातनी गुंथेली जाळी, ते केवी जातनी ? तो कहे छे के, [' आणुपुबिंगढिय' त्ति ] क्रमवार गुंथेंली अर्थात् जेमां तेनुं वर्णन. जे गांठ पहेली जोइए लेने पहेली गेली अने ने गांड छेडे जोहतेने छेडे गुंबेली छे. एज वातने विगतवार कहे छे के ['अनंतरनदिय ति] " , 6 6 , 6 , , 6 6 जे पहेली पहेली गांठोनी अांतरे सदन पासे रहेली गांठो साधे गुंथेली के ते अनंतरग्रथित कहेबाय, ए रीते जे बबली वली गांठो साथे गुंली होय ते परंपरचित कद्देवाय तात्पर्य एछे के [ अनन्नगदियति ] जे परस्पर गुंबेली एक सांधे बीजी अने बीजी साधे त्रीजी एम एका बीजी गांठो साथ गुंथेली छे ते ' अन्योन्यप्रथित ' कहेवाय, अने (एवी जालग्रंथिका ) ए रीते [ ' अन्नमन्नगरुयत्ताए ' त्ति ] परस्प‍ गुंथणी करयाची एक विस्तारखडे, [ अन्न-नभारियतार ति ] परस्परना योजाने कहने भर भारेपणायडे, हगणां कहेल बन्ने विशेषणोनो जूदो जूदो अर्थ भेगो करवाथी जे अर्थ थाय छे तेने-ए बन्ने विशेषणोना प्रकर्षने जगावबाने कहें छे के, [ ' अन्नमन्नगस्य संभारियत्ताए 'चि ] परस्परना विस्तारपणावंडे अने भारेपणावडे, [' अन्नमन्नघडत्ताए 'त्ति ] परस्पर समुदायनी रचनावडे [ ' चिट्ठइ 'त्ति ] रहे छे-होय छे. ए रीते जालग्रंथिकानुं उदाहरण देखा है. हमे दाष्टतिक जे माटे उदाहरण दर्शान् के ते पदार्थ-ने जनाने छे के [ एवामेव ति.] एज रीतें पण जीवों संबंधी, [' बसु आजारसहस्से ति] प्रत्येक जीव प्रति क्रमवार प्रां एवां देवाविना अनेक अवतारनां पण हजार आउखाओ (आउखांओना स्वामिओ अने अवतारो घना छे माटे आउखाओ पण घण कक्ष छे.) आनुपूर्वनिधि वगैरे विशेषणोनी व्याख्या तो पूर्वनी पेठे समजश्री. विशेष ए के, आप कर्मनी अपेक्षा भारेपणुं समज. एआयुष्योने वेदवानो कयो प्रकार छे सो कहे छे के, [एगे रवं इत्यादि. अनेक जीव तो नहीं, पण एक जीव एक समये इत्यादि वधुं प्रथम शतकेंनी पंठे जाग आ स्थळे जवान आ रीते छ[जे से एवं आसु इत्यादि . ] तेओनुं कहेतुं आ रीते खोटं छे:- जे- घणां जीवोनां घणां आउखांओ जालग्रंथिकानी पेठे रहे छे ते बधां आउखांओ, जीवना प्रदेशों साये रीतसर संबंध धरावे छे के संबंध नथी घरात जो ते आउलांओ जीवना प्रदेशो साधे रीतसरनो संबंध धरावे छे तो गंधिकानी पेठे तेनी कल्पना करवी ज खोटी छे. कारण के, ते वधां भउखांओ जूदा जूदा जीवो साधे गोदाएलां छे अने भी ज ते धानुंहोवाने सीधे तेनी कल्पना जालग्रंथिका जेवी करवी ते खोटी छे. तेम छतां कदाच जालग्रंथिकानी जेवी कल्पना करवामां आवे तो बना जीवोनो संबंध पण जालग्रंथिकानी जेवो मानवो जोइए. कारण के, आयुष्योनो सीधो संबंध जीवो साथ छे तेथी ज्यां सुवी जीवोनो परस्पर संबंध जाथिका जत्रो न मानयामां आवे त्यां सुधी जालगंधिकानी कल्पना आयुष्यने घटती नथी माटे ते कल्पना आयुष्य लागु पाडतां संबंध माटे पण तेषी ज कल्पना करवी जोइए अने जोगीवो माटे पण वीज कचना करवामां आवे तो संसारना बधा जीवो द्वारा एक साधे बची जान आयुष्यो भोगवाय जोइए अने तेम थदाथी एक साथे अनेक भयो भोगदान प्रसंग आये तेम छे. माटे आयुष्य संबंधे जालग्रंथिकानी कल्पना करवी ए ज खोटुं छे. जो कदाच एम मानवामां आवे के, ते आयुष्यो, जीव साथ संबंध राव नथी तो आयुष्या कारणधी जीवोनो देवादि गतिमा जे अवतार धाय हे ते संभवी शक नहीं. कारण के, जी अने आयुष्यो कोइ पण प्रकारनो संबंध न होवाथी आयुष्य निमित्तक जरा पण असर जीवने यह शकशे नहीं-साधारण नियम प्रमाणे जे बेने परस्पर संबंध होय तेज बे परस्पर एक बीजाने असर करी शके तेम छे अने अहीं तेम न होवाथी आयुष्यथी उत्पन्न थता अवतार वगैरेनो असंभव थइ जशे. माटे जीव अने आयुष्यो बच्चे संबंध तो मानवो ज जोइए. बळी, जे कयुं छे के, 'एक जीव एक समये वे आयुष्योने अनुभवे छे ' ते पण खोढुं छे. कारण के, एम मानवाची एक साये वे भत्र भोगानो प्रयंग आवी जाय छे अने एम वतुं नयी माटे एक जीवने एक समये में आयुष्य मोगानुं मानवुं ते खोटुं छे. [ ' अहं पुण गोयमा !' इत्यादि. ] आं पक्ष ' जालग्रंथिका ' नो मात्र 'सांकळी' अर्थ करवो. [ : एगमंगस्स ' इत्यादि. ] बीजा पक्षमां. घणा जीयोने नहीं पण एक एक जीवने अनेक आयुष्योनो मात्र सांकळ नेत्रो संबंध होय के अर्थात् एक जीवयति कमवार प्रां एवां अनेक जन्मोगां आ भयना छेडा सुधीनां भूतकाळे घर गएला (भूतकाळनी अपेक्षा हयाती धराया हजारो आओ गान सांकळ जे संबंध घराचे छे एक भावना आयुष्यनी साधे बीजा मनुं आयुष्य प्रतिबद्ध छे अने तेनी साये भीड आयुष्य प्रतिवद्ध के अने ए रीते ए वर्षों प्रतिपद्ध छे एटले एक पछी एक आयुष्य अनुभवमां आध्ये जाय छे. पण एक ज भवमां ज बधां आउखांओ प्रतिबद्ध नथी. [ ' इहमवियाउयं व ' त्ति ] वर्तमान- बालु भवनुं आयुष्य, [ परभवियाउयं व' ति ] चालु भव पण परभवमा भोगचवाने योग्य बल आयुष्य ते परभविक आयुष्य ज्यारे जीव परभवे जाय छे त्यारे ते, ते आयुष्यने भोगवे छे माटे कहेवाय छे के, [' परभवियाउयं व ' त्ति. ] 6 नैरविकादि अने आयुष्य. २. प्र० – जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से कि साउए संकम २. उ० -- गोयमा ! साउए संकमइ, नो निराउए संकमइ. ३. प्र० - से णं भंते ! आउए कहिं कडे, कहिं समाइणे ? १. जूओ भ० प्र० खं० पृ० २०.४. सायुकः संमत न निरा १. मूढायाः जी कागति, भगवन् २. प्र० - हे भगवन् ! जे जीव नरके जवाने योग्य होय, हे भगवन् ! शुं ते जीव, अहींथी आयुष्य सहित थइने नरके जाय ? २. उ०- हे गीतम नरके जवाने योग्य जीव अहींची आयुष्य सहित थइने नरके जाय, पण आयुष्य विनानो न जाय. ३. प्र०-हे भगवन् से जीने ते आयुष्य क्यों बांध अने ते आयुष्य संबंधी आचरणो क्यां आचर्या ? भगवन् यो भन्यो रविके उप कुकृतम् रामाची अनु ?: 2 कि सायुकः संक्रामति म प्रथम शतक आरीत खोडं घे Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक. ३. ३. उ०--गोयमा। पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे; ३. उ०-हे गौतम ! ते जीवे, ते आयुष्य पूर्व भवमां बांध्यु एवं जाव-वेमाणियाणं दंडओ. अने ते आयुष्य संबंधी आचरणा पण पूर्व भवमा आचर्या. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी दंडक कहेवो. . ४. प्र०-से णणं भंते ! जे जं भविए जोणि उववजित्तए४. प्र०-हे भगवन् ! जे जीव, जे योनिमां उपजवाने योग्य से तमाउयं पकरेड, तं जहा-नेरड्याउयं वा, जाव-देवाउयं वा? होय, ते जीव, ते योनि संबंधी आयुष्य बांधे ? जेमके; नरक योनिमां उपजवाने योग्य जीव नरक योनिनुं आयुष्य बांधे यावत्-देवयो निमां उपजवाने योग्य जीव देवयोनिनुं आयुष्य बांधे ? ४. उ०-हंता, गोयमा! जे जं भविए जोणि उवव जित्तए ४, उ०-हे गौतम! हा, तेम करे अर्थात् जे जीव, जे से तमाउयं पकरेइ, तं जहा-नेरइयाउयं वा, तिरि-मणु-देवाउयं योनिमां उपजवाने योग्य होय, ते जीव, ते योनि संबंधी आयुष्य वा. नेरझ्याउयं पकरमाणे सत्तविहं पकरेइ. तं जहा:-रयणप्प- बांधे-नरकने योग्य जीव नरकनुं आयुष्य बांधे, तिथंचने योग्य भापढविनेरइयाउयं वा, जाव-अहेसत्तमापुढविनेरइयाउयं वा, जीव तिर्यचन आयुष्य बांधे, मनुष्यने योग्य जीव मनुष्यनु आयुष्य तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे पंचविहं पकरेड, तं जहा-एगिं- बांधे अने देवने योग्य जीव देवनुं आयुष्य बांधे. जो नरकन दियतिरिक्ख जोणियाउयं वा भेदो सव्वो भाणियबो. मणुस्साउयं आयुष्य बांधे तो ते, सात प्रकारना नरकमांथी कोइ एक प्रकारना दविह, देवाउयं च उब्विहं. नरक संबंधी आयुष्य बांधे-रत्नप्रभापृथिवी-नरकनुं आयुष्य के यावत्-अधःसप्तमपृथिवी-सातमी नरक-नुं आयुष्य बांधे. जो ते, तिथंचन आयुष्य बांधे तो पांच प्रकारना तिथंचमांथी कोइ एक तिर्यंच संबंधी आयुष्य बांधे-केंद्रिय तिर्यंचनुं आयुष्य इत्यादि-ए संबंधी बधो विस्तार-भेद-विशेष-अहीं कहेवो. जो ते, मनुष्यनुं आयुष्य बांधे तो ते बे प्रकारना मनुष्योमाथी कोइ प्रकारना मनुष्यनु आयुष्य बांधे अने जो ते, देवनुं आयुष्य बांधे तो-चार प्रकारना देवोमांथी कोइ एक प्रकारना देवोनुं आयुष्य बांधे. -सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विहरे छे. भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पंचमसमये तइओ उद्देसो सम्मत्तो. २. आयःप्रस्तावाद इदमाह:--'जीवे गं' इत्यादि. 'से णं भंते । ति अथ तद् भदन्त !.'कहिं कडे' ति का भवे बद्धम्, 'समाइण्णे' त्ति समाचरितं तद्धेतुसमाचरणात्. 'जे जं भविए जोणिं उपवजित्तए 'त्ति विभक्तिपरिणामाद यो यस्यां योनावुत्पत्तुं योग्य इत्यर्थः. 'मणुस्साउयं दुविहं' ति संमूर्छिम--गर्भव्युत्क्रान्तिकभेदाद् द्विधा. 'देवाउयं चउब्धिहं' ति भवनपत्यादिमेदादिति. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पञ्चमशते तृतीय उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्, २. आयुष्यनुं प्रकरण चालतुं होवाथी आ प्रकरणमा पण आयुष्य संबंधी बीजी बात कहेवाने सारु आ सूत्र कहे छे के, [जीवेणे, क्या कर्यु ? इत्यादि.][' से णं भंते ! ' त्ति ] हवे हे भगवन् ! ते [ 'कहिं कडे ' त्ति ] कया भवमां बांधेल छेपटीने 'समाइण्णे ' त्ति ] क्या भवमा ए आयुष्यने बांधवानां कारणोने आचरणमां मेल्यां छे? [जे जं भविए जोणिं' उववजित्तए ' त्ति] जे योनिमा जे जीव उपजबाने योग्य होय. प्यना प्रकार. [मणुस्साउयं दुविहं ' ति ] एक संमूर्छिम अने बीजा गर्भज ए रीते मनुष्यना बे प्रकार छ माटे मनुष्यनुं आयुष्य बे प्रकारचें कडं छे. ['देवाउयं चउन्विहं ' ति ] भवनपति, वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक, ए रीते देवना चार भेद होवाथी देवनुं आयुष्य चार प्रकारनु कयुं छे. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभार भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारंहा चाप्तमुख्यः ॥ १. मूलच्छायाः-गौतम ! पूर्वस्मिन् भवे कृतम्, पूर्वस्मिन् भवे समाचीर्णम् ; एवं यावत्-वैमानिकानां दण्डकः. तद् नूनं भगवन् ! यो यो भव्यो योनिम् उपपत्तुं स तद् आयुः प्रकरोति, तद्यथा:-नैरयिकाऽऽयुष्कं वा, यावत्-देवाऽऽयुष्कं वा ? हन्त, गैातम ! यो यो भव्यो योनिम् उपपत्तुं स तद् आयुः प्रकरोति, तद्यथाः-नैरयिकायुष्कं वा, तिर्यगं-मनुज-देवायुष्कं वा. नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन् सप्तविधं प्रकरोतेि. तद्यथाः-रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाऽऽयुष्कं वा, यावत्-अधःसप्तमपृथवीनैरयिकाऽऽयुष्कं वा, तिर्यग्योनिकाऽऽयुष्कं प्रकुर्वन् पञ्च विधं प्रकरोति, तद्यथाः-एकेन्द्रियति येग्योनिकाऽऽयुष्क वा भेदः सर्यो भणितव्यः. मनुष्याऽऽयुष्कं द्विविधम्, देवाऽऽयुष्कं चतुर्विधम् . तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् ! इति:-अनु. १. सही 'योनिम् ' ए बीजी विभक्तिनुं रूप छे.. पण अर्थ वशे विभक्तिनो फेर बदले करवाना नियम होवाथी ते बीजीना-रूपने सप्तमीनं कप अर्थात् 'योन्याम् ' समजीने तेनो अर्थ योनिमा ' समजवानो छः- श्रीअभय Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ४. छमस्थं मनुष्य, शब्दो सांभळे ?-हा.-शंख,-शृंग.-शंखिका.-खरमुखी.-पोता.-परिपरिया.-पणव.-पडह.-भंभा.-होरंभ.-भेरि.-झलरी.-दुंदुभि-तत.-वितत. धन.-शुषिर.-स्पशीएला शब्दो संभळाय के अस्पर्शाएला ?-स्पर्शाएला -आरगत-अग्गित-शब्दो संभळाय के पारगत शब्दो संभळाय १-मनुष्योने आरगत शब्दो संभळाय.-काळिने यथा शब्दो संभळाय.-केवली मित पण जाण-अमित पण जाणे.-सर्वत्र, सदा अने सर्वथा केवळी सर्व भायोने जाणे.-उमस्थ हसे ?-उतावळो थाय ?-हा.-केवळी हसे १-उतावळो थाय ?-ना.-हसवानुं कारण मोहनीयनो उदय.-इसता केटली कर्मप्रकृति बंधाय ?-पात के आ5.यावत्-वैमानिक.-छद्मस्थ उघे ?-उभो उभो उधे ?-हा.-निद्रा करता केटलां कर्म बंधाये ?-सात के आठ.-यावत्वैमानिक.-हरिणगमेषी शक्र, । स्त्रीनो गर्भ शी रीते अदलाबदल, करे ?-योनि बाटे गर्भने बहार काढीने बोजा गर्भाशयमा मूके.-नख वाटे के रेवाडा 'वाटे गर्भने फेरवी शके ?-हा.-गर्भने कार बाधा न थाय.-गर्भने बदलनारो कापकूप करे अने गर्भने सूक्ष्म कीने बदलावे.-अतिमुक्तक श्रमणतो पृतात.-महावीर पासे आवेला बे देवो.-महावीरना सातसो अंतेवासिओ सिद्ध थशे.-गौतम अने मेहावीर बच्चे थएली. ए देवोने लगती वातचीत.देवो संयत के असंयत कहेवाय ?-नोसंयत कहेवाय.-देवोनी विशिष्ट भाषा-अर्धमागधी.-केवली अंतकरने जाणे जूए ?-हा.-छमस्थ .अंतकरने जाणे जूए ?-सांभळीने के प्रमाण द्वारा जाणे जूए.-केवलिना श्रावक विगेरे.-प्रमाण केटला ?-चार-प्रत्यक्ष-अनुमान-उपमा के आगम.- केवळी, चरपकर्म अने चरमनिर्जर ने जाणे जूए ?-हा.-गोवळी, प्रणीत मन अने वचनने धारे?-धारे.-केवळिना ए मन अने वचनने वैमानिको जाणे ?-कोर जाणे-कोर न जाणे-मानिकोना वे भेद-मायी-मिथ्यादृष्टि-अमायी सम्यग्दृष्टि.-अनन्तरोपपन्नक-परंपरोपपन्नक.-पर्याप्त-अपर्याप्त.- उपयुक्त-अनुपयुक्त.अनुत्तरोपपातिक देवों पोताने आसने रह्या रह्या केवळी साथे वातचित करे ?-हा.-अहीं रहेलो केवळी जे कार कहे तेने सां रहेला अनुत्तरोपपातिको जाणे-जूए ?-हा.-अनुत्तरोपपातिक देवो उपशांतमोह-क्षीणमोह.-केवली आदानो-इंद्रियो द्वारा जाणे-जूए ?-ना.-केवली जे आकाशप्रदेशोमा स्थित होय पछी पण त्यांज स्थित, होय के केम ?-ना.-योग- सद्-द्रव्यता.-चौदपूर्वी एक घडामांथी हजार घडा करे ?-हा.-उत्करिका भेद.-विहार.. १.प्र-छेउमत्थे णं भंते ! मणुस्से आइडिज्जमाणाई १. प्र०—हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य, वगाडवामां आवता सहाई सुणेइ ? तं जहाः-संखसहाणि वा, सिंगसदाणि वा, शब्दोने सांभळे छे, ते आ प्रमाणे:-ते मनुष्य, शंखना शब्दोंने, संखियतदाण वा, खरमहीसदाणि वा, पोयासदाणि वा, परि- रणशिंगाना शब्दोने, शंखलीना शब्दोने, काहलीनाशब्दोने. पिरियासदाणि वा, पणवसहाणि वा, पडह सहाण वा, भंभास- मोटी काहलीना शब्दोने, डुक्करना चामडाथी मढेल मोढावाळाहाणि वा, होरंभसदाणि वा, भेरिसदाणिवा, झल्लरी सदाणि वा, एक जातना-वाजाना शब्दोने, ढोलना शब्दोने, ढोलकीना दंदभिसद्दाण वा, तयाणि वा, वितयागि वा, घणाणि वा, शब्दोने, ढका-डाक-डाकला--ना शब्दोने, होरंभना मोटी ढक्काना शब्दोने, झालरना शब्दोने, ‘दुंदुभिना शब्दोने, तंत-तांतवाळा-(वीणा वगेरे)-वाजाना शब्दोने, 'वितत-ढोल -वाज़ाना शब्दोने, नक्कर वाजाना शब्दोने अने पोलां बाज़ाना शब्दोने सांभळे छ ? झुसराणि वा? . १. मूलच्छायां:-छपस्थो भगवन् ! मनुष्यः आजोड्य (कुट्य ) मानान् शब्दान् शृणोति ? तद्यथा:-शरख शब्दान् वा शुङ्गशब्दान् वा. शरिखेकाशब्दान् वा, खरमुखीशब्दान् वा, पोताशब्दान् वा, परिपरिता (का) शब्दांन वा, पणवशब्दान् वा, पदहशब्दार वा, भम्भाशब्दानू 'वा.. होरम्भशब्दान वा, मेरिशब्दान् वा, शलरीशब्दान् वा, दुन्दुभिशब्दान् वा; ततानि वा, विततानि वा, पनानि वा, सुषिराणि वा:-अनु. Jain Education international Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ نیم वा. श्रीराय चन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५. उद्देशक ४३ - १.30.हंता, गोयमा ! छउमत्थे णं मणुस्से आउडि- १. उ.- हे गौतम ! हा, छमस्थ मनुष्य, वगाडवामां जमाणाई सहाई सणेइ. तं जहा:-संखसहाणि वा, जाव-झुसराणि आवता शब्दोने सांभळे छे.. अने ते पण पूर्व कह्या एटलां बधां वाजांओना-शंखथी यावत्-पोलां व.ज.ओना-शब्दने पण सांभळे छे. २. प्र०--ताई भो । किं पुट्ठाई सणेइ, अपढाइंसुणेई? २. प्र०---हे भगवन् ! शुं ते शब्दो कौन साथे अथडाया पछी संभळाय छे के अथडीया विना संभळाय छे ? २. उ०-गोयमा ! पुट्ठाई सुणेह, नो अपुट्ठाई सुणेइ, २. उ०—हे गौतम ! ते शब्दो कान साथे अथडाया पछी जाव-नियमा छदिरों सुणेइ. संभळाय छे, पण अथडाया विना नथी संभळाता. अने ते यावत् अथडाया पछी छ ए दिश.मांथी संभळाप छे. ३. 40-छजगत्थे णं भंते ! मणसे कि आरगयाई सहाई ३. प्र० ---हे भगवन् ! शुं उमस्थ मनुष्य, ओरे रहेला सुणेइ, पारगयाइं साणि सुणेइ ? शब्दोने सांभळे छे के परे रहेला-इंद्रियोना विषयथी दूर रहेला शब्दोने सांभळे छे ? . ३. उ०-गोयमा ! आरगयाइं सहाई सुणेइ, नो पारगयाइं ३. उ०-हे गौतम ! छमस्थ मनुष्य, ओरे रहेला शब्दोने सहाई सुणेइ. सभि छे, पण परे रहेला शब्दोने सांभळतो नथी. ४. प्र०-जहा णं भंते ! छउमत्थे मणूसे आरगयाइं सद्दाई.. ४. प्र०—हे भगवन् ! जेम रामस्थ मनुष्य ओरे रहेला सुणेइ, णो पारगयाइं सदाई सुणेइ, वहा णं भने ! केवली शब्दोने सांभळे छे अने परे रहेला शब्दोने सांभळतो नधी तेम मणुस्से कि आरगयाइं सहाई राणेह, ण पारगयाइं सहाई शु केवळी मनुष्य ओरे रहेला शब्दोने सांभळे छे अने परे रहेला सुणेइ ? ... शब्दोने नथी सांभळतो? .. ४. उ०-गोयमा ! केवली णं आरगयं वा, पारगयं वा, . ४. उ.---हे गौतम! केवळी तो ओरे रहेला अने परे सम्बदूरमूलमणतियं सदं जाणइ, पासइ. रहेला आदि अने अंत विनाना शब्दने-सर्व प्रकारना शब्दने जाणे छे अने जूए छे. ५. प्र०-से केणगुणं तं चेव केवली णं आरगयं वा, पारगयं ५. प्र०---हे भगवन् ! ' ओरे रहेला अने परे रहेला था, जाव-पासइ ? शब्दने पण यावत्-(ते ज प्रमाणे कहेवू ) केवळी जाणे छे अने जूए छे' एनुं शुं कारण ? ५. उ० - गोयमा ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, ५ उ०—हे गौतम ! केवळी जीव पूर्व दिशानी मित वस्तुने 'अमियं पि जाणइ: एवं दाहिणेणं, पचत्थिमेणं, उत्तरेणं, उड़, पण जाणे छे अने अमित वस्तुने पण जाणे छे, ए प्रमाणे अहे मियं पि जाणइ, मियं.पि जाणह; सव्वं जाणइ केवली, दक्षिण दिशानी, पश्चिम दिशानी, उत्तर दिशानी, ऊर्य दिशानी सव्वं पासइ केवली; सम्पओ जाणइ, पासइ सव्यकालं सव्वभावे सने अधो दिशानी पण मित वस्तुने तथा अमित वस्तुने केवळी जाणइ केवली, सब्बभावे पासइ केवल'; अणते गाणे केवलिस्स, जाणे छे अने जूए छे. केवळी बधुं जाणे छे अने बधुं जूर छे. अणते दंसणे केवलिस्स; मिव्वुडे नाणे केवलिस्स, निचुडे दंसणे केवळी बधी तरफ जाणे छे अने जूए छे. केवळी सर्व काळे सर्व केलिस्स से तेणद्वेणं जाव-पासइ. पदार्थो-भावो-ने जाणे छे अने जूए छे, केवळिने अनंत ज्ञान भने अनंत दर्शन छ अने केवळिनुं ज्ञान , अने. दर्शन कोइ जातना पडदा ( आवरण ) वोढुं नथी माटे ते कारणथी'.यावत् -जूए छे' एम का छे. . १. मूलच्छाया:- हन्त, गौतम! छद्मस्थो मनुष्यः आजोच्य( कुय्य )मानान् शब्दान् शृणोति. तद्यथा:-शखशब्दान् वा, यावत्-शुषिराणि वा. तान् भगवन् । किं स्पृष्टान् शणोति, अस्पृष्टान् भृणोति ? गौतम! स्पृष्टान् गोति, नो अस्पृष्टान् शृणोति; यावत्-नियमात् पइदिशं शणोति. उग्रस्थो भगवन् ! मनुष्यः किम् आरान्तान् शब्द'न् . शृणोति, पारगनान् इ.ब्दान् शृणोति ? गौतम ! अराद्गतान् इदान् शणोति, नो पारगतान शादान् शणोति. यथा. भगवन् । छद्मस्थो मनुष्यः आरादतान् शब्दान् शृगोति. नो पारगतान् शब्दान् शृणोति; तथा भगवन् ! केवली मनुष्यः किम् आरादतान् शब्दान् शृणोति, नो पारगतान शब्दान् शृणोति ? गौतम ! केवली आराद्तं वा, पारगतं वा सर्वदू मूलम् अनन्तिकं शब्दं जानाति, पश्यति. तत् केनाऽर्थेन तक केवली आराद्त वा, पारगतं वा यावत्-पपति? गौतम ! केली पौरस्त्येन मितम् अपि जानःति, अमितम् अपि जानाति एवं दक्षिणेन, पश्चिमेन, उत्तरेण, ऊर्ध्वम् , अधो मितम् अपि जानाति, अमितम् अपि जानाति;.सर्व जानाति केवली, सर्व पश्यति केवली; सर्वतो जानाति, पश्यति; सर्वकालं सर्वभावान् जानाति केवली, सर्वभावान् पश्यति केवली; अनन्तं ज्ञानं केवलिनः, अनन्त दर्शन केवलिनः, नितं मानं केवलिनः, नितं दर्शनं केवलिनः तत् तेनाथेन यावत्-पश्यतिः- अनु. पस्या मतान् शहाया भगवन् । भाराबता Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ४ः भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, १७१. . १. अनन्तरोद्देशके अन्ययूथिकछद्मस्थमनुष्यवक्तव्यता उक्ताः चतुर्थे तु मनुष्याणां छद्मस्थानाम् , केवलिनां च प्रायः सा उच्यते, इत्येवंसंबन्धस्याऽस्य इदमादिसूत्रम्-'छउमत्थे णं' इत्यादि. 'आउडिजमाणा इंति " जुड बन्धने ५ इति वचनाद् आजोडयमानेभ्यः-आसंबध्यमानेभ्यो मुख-हस्त-दण्डादिना सह शङ्क-पटह-झलर्यादिभ्यो वाद्यविशेषेभ्यः, आकुट्यमानेभ्यो वा-एभ्य एव ये जाताः शब्दास्ते आजोड्यमाना एव, आकुव्यमाना एव वा उच्यन्ते, अतस्तान् आजोड्यमानान् , आकुव्यमानान् वा शब्दान् शृणोति. इह च प्राकृतत्वेन शब्द-शब्दस्य नपुंसकनिर्देशः. अथवा 'आउडिजमाणाई' ति आकुट्यमानानि- परस्परेणाऽभिहन्यमानानि. 'सद्दाई' ति शब्दानि शब्दद्रव्याणि. शवादयः प्रतीता:. नवरम्-'संखिय' त्ति शब्लिका-हवः शङ्खः, 'खरमहि' त्ति काहला, 'पोया' महती काहला, परिपरिय' त्ति कोलिकपुटकाऽवनद्धमुखो पाद्यविशेषः. 'पणव ' ति भाण्डपटहः, लघुपटहो वा; तदन्यस्तु पटह इति. 'भंभ ' त्ति ढका. 'होरंभ ' ति रूढिगभ्या. 'भेरि' ति महाढक्का. 'झल्लरित्ति वलयाऽऽकारो वाद्यविशेषः, 'दंदहि'त्ति देववाद्यविशेषः, अथ उक्ता-ऽनुक्तसंग्रहद्वारेण आहः-'तताणि वा' इत्यादि. ततानि वीणादिवाद्यानि, तज्जनितशब्दा अपि तताः, एवम् अन्यदपि पदत्रयम् , नवरमयं विशेषस्ततादीनाम:-" ततं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकम् , धनं तु कांस्यतालादि वंशादि शुधिरं मतम्. " इति. 'पुट्ठाई सुणेई' इत्यादि तु.प्रथमशते आहाराधिकारवद् अवसेयम् इति, 'आरगयाइं' ति आराद् भागस्थितान् इन्द्रियगोचरमागतान् इत्यर्थः, 'पारगयाई' ति इन्द्रियविषयात् परतोऽवस्थितान् इति. सबदूरमलमणतियं' ति सर्वथा दूरं विप्रकृष्टम् , मूलं च निकटं सर्वदूर-मूलम् । तद्योगात् शब्दोऽपि सर्वदूरमूलः, अतस्तम्अत्यर्थ दूरवर्तिनम् , अत्यन्ताऽऽसन्नं च इत्यर्थः. अन्तिकमासनम् , तन्निषेधादनन्तिकम् , नमोऽस्पार्थवाद् नाऽत्यन्समन्तिकम् -अदूराऽऽसन्नमित्यर्थः; तद्योगात् शब्दोऽप्यनन्तिकः, अतस्तम्, अथवा 'सव्व 'त्ति अनेन ' सवओ समन्ता' इत्युपलक्षितम्. दरमलं, ति अनादिकमिति हृदयम्, 'अणतियं' ति अनन्तिकमित्यर्थः, 'मियं पि' ति. परिमाणवद् -गर्भजमनुष्यजीवद्रव्यादि-इत्यादि. 'अमियं पि' त्ति अनन्तम् , असंख्येयं वा वनस्पति-पृथिवीजीवद्रव्यादि. “ सव्वं जाणइ' इत्यादि द्रव्याद्यपेक्षया उक्तम्. अथ कस्मात् ' सर्व जानाति केवली ' इत्याधुच्यते ? इत्यत आहः-' अणते ' इत्यादि. अनन्तज्ञानमनन्तार्थविषयत्वात् ; तथा : निव्युडे नाणे केवलिस्स' त्ति निर्वृतं निराऽऽवरणं ज्ञानं केवलिनः क्षायिकत्वात्-शुद्धमित्यर्थः. वाचनान्तरे तु ' निबुडे, वितिमिरे, विसुद्धे । त विशेषणत्रयं ज्ञान-दर्शनयोरभिधीयते, तत्र च निर्वृतं निष्ठां गतम् , वितिमिरम्- क्षीणाऽऽवरणम् , अत एव विशुद्धम् इति. आगळना उद्देशकमां अन्य मतवाळा छद्मस्थ मनुष्योनी हकीकत कही छे हवे आ चोथा उद्देशकमां तो छद्मस्थ अने केवकि मनुष्य संबंधी वक्तव्यता कहेवी ए समुचित छे-ए रीते त्रीजा अने चोथा उद्देशक वच्चे संबंध छे. आ उद्देशक- प्रथम सूत्र आ छ:-[ 'छउमत्थे णं, इत्यादि.1 साउडिजमाणाई । ति] मुख साथे शंखनो संयोग थवाथी, हाथ साथे ढोलनो संयोग थवाथी अने लाकडाना कटका (दंड) संयोगवन्य शब्दो साथे झालरनो संयोग थवाथी तथा एवा कोइ बीजा पदार्थों साथे अनेक जातनां वाजांओनो संयोग थवाथी अथवा वगाडवानां साधनरूप अनेक प्रकारना पदार्थो वडे कूटाता-अथडाता-भटकाता-अनेक प्रकारनां वाजांओथी थता शब्दोने के शब्दद्रव्योने सांभळे छे. शंख वगेरे शब्दोनो अर्थ प्रसिद्ध छे. विशेष ए के, [संखिय 'त्ति ] शंखिका-नानो शंख, ['खरमुहि ' त्ति ] काहली, [ 'पोया ']-मोटी काहली, परिपिरियत्ति ] . सुब्बरना चामडाथी मढेलं मोढावाळु एक जातनुं वाजु, [ 'पणव ' त्ति ] भांडनो ढोल अथवा नानो ढोल, पणवथी जूदो ते : पटह' कहेवाय छ । [भिभ' त्ति ] ढक्का-डाकली, [ 'होरंभ ' त्ति ] ए शब्दनो अर्थ रूढिथी जाणवानो छे. ['भेरि ' त्ति ] मोटी डाक, [ 'झल्लरि ' ति] एक माटा डाकाशकार SP झालर-दुंदुभि. प्रकार- बलोयाना आकार जेवु वाजु-झालर, [ 'दुंदुहि'त्ति ] देवर्नु एक प्रकारनुं वाजूं. हवे कहेल अने नहीं कहेल बधां वाजांओने सामटां कहे छ के तताणि वा ' इत्यादि.] वीणा वगेरे तत'-तांतवाळा बाजां कहेवाय छे अने एना शब्दो पण 'तत' कहेवाय छे. ए रीते बीज पण ऋण . पदी जाणवां. किंत 'तत' वगेरेमा विशेष आ छे के, वीणा' वगेरे तत' कहेवाय, ढोल वगेरे 'वितत' कहेवाय, कांसी अने ताल वगेरे 'धन' तत विगेरे. कडेवाय अने वंश ( पावो ) वगर सुषिर-पोलुं वार्जु' कहेवाय छे. [पुछाई सुइ'] ए बधा पाठनी व्याख्या, आगळ प्रथम शतकमां प्रथम-श आवेल आहार अधिकारनी पेठे जाणवी. 'आरगयाई 'ति ] ओरे रहेलां-इंद्रियोथी लइ शकाय तेवां, [ 'पारगयाई ति ] परे रहेला-इंद्रियोथी न लह शकाय तेवां, [ ' सव्वदूरमूलमणतियं ' ति ] सर्वदूरमूल एटले सर्व प्रकारे दूर रहेल शब्दने अने तद्दन नजिक रहेल शब्दने, अनंतिक एटले बहु दूर अने बहु पासे नही रहेल अर्थात् वचगाळे रहेलकूदने, अथवा [ 'सर्च' त्ति ] सर्वदूरमूलं एटले अनादिना अने [' अणतियं ' ति]. सर्वद्रसूर. १. आ शब्द 'जुड बन्धने' अथवा 'कुट' धातु उपरथी बनेलो छे. २. आर्षताने लीधे शब्दना विशेषण तरीके पण अहीं नपुंसकलिंग वपराएलं छ:-श्रीअभय . ३. टीकाकारश्रीए तो दुंदुभिने देवर्नु वाजु जणाव्यु छे. ए विषे महर्षि यास्क आ प्रमाणे जणावे छः "दुन्दुभिः"। . " दुन्दुभिरिति शब्दानुकरणम्. मो. भिन्न इति वा, दुन्दुभ्यतेवी 'इंदुभि ' ए अवाजनुं अनुकरण छ. अथवा ते साडना एक भागने स्यात् शब्दकर्मणः" मेदीने बनाववामा आवे छे माटे 'मो भिमः'नो अर्थ पण एमां घटी शके छे अथवा ए, 'दुंदुभ' धातु उपरथी बनेलो शब्द छे: (पृ०६७७-६७८) यास्कना आ प्राचीन उख उपरथी ए वाजु लौकिक होय एम स्पष्ट जणाय छे-पण ए. पणुं ज जुनुं थएवं होवाथी एने दिव्य गणवामा आवे छे. ४. जूओ भग० प्र० खं० पृ०५८-६०:--अनु० ५.भहीं रन 'नो 'अल्प' अर्थ छ, ६. 'सम्प' एटले । सर्वतः'-श्रीअभयः Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ دیگر शतक ५. - उद्देशक ४. , 3 - अमित अंत विनाना शब्दने. [' मियं वि 'त्ति ] मापवाळु - गर्भज मनुष्य अने जीव द्रव्य वगेरेने-जाणे छे- इत्यादि [ 'अमियं पिंत्ति ] माप विनानुं - अनंत अथवा असंख्य एवा वनस्पति तथा पृथिवीना जीव द्रव्यादिकने जाणे छे. [सय्यं जाण इत्यादि ] ए हकीकत द्रव्यादिकनी अपेक्षाए कली जी जाने छे तेनुं हुं कारण ? समा० [ अनंते इत्यादि. ] केवल ज्ञान अनंत पदार्थने ग्रहण करतं होवाथी वान अनंत छे, [निच्युडे नागे केवल शुद्ध छे, बीजी वाचनामां तो निल्युडे वितिमिरे विमुखे एवं आवरणया एवं माटे मं विशुद्ध. - - ति] कर्मनो तद्दन नाश घया पही धनुं के माठे केवल शान आवरण विनां विशेष पाठ, तेमां निष्युड निईत पूरे पूरुं दिमिर नाश ' 1 श्रीरायचन्द्र-जिनागमसे पहे ६. प्र० -- छैउमत्थे णं भंते ! हसेज्ज वा, उस्सुयाएज वा ! ६. उ०- हंता, (गोयमा 1 ) हसेज्ज वा, उस्सुयाएब्ज वा. छद्मस्थ अने केवलिनुं इस अने उंध. ७. प्र० जहां मंते ! छमत्थे मणुस्से हसेज, जावउस्सुयाएज तहा णं केवली वि हसेज्ज वा, उस्सुयाएज वा ? ७. उ०- गोयमा ! णो ण समड़े. ८. प्र० - से केणद्वेणं भंते ! जाव-नो णं तहा केवली रोज था, जाव-उस्सुवाएज वां ? ८. उ०- गोषमा ! जंणं जीवा परितमोहनजरस कंम्मस्सं उदरणं हसति वा उस्युपायति वा से णं केवलिस नस्थि से तेणट्टेणं जाव-नो णं तहा. (केवली) हसेज बा, उस्सुयाएज्ज वां. ९. प्र० – जीवे णं मते ! इसमाणे वा, उस्सुयमाणे पा कड़ कम्मपयडीओ बंध - 3 ९. उ० गोयमा ! सचनिच या अद्वविध ना. एवं जाय बेमाणिए पोहतएहिं जीवेगिदियो तियभंगो, १०. १० छउमरये णं भंते! मणुस्से निहाएन वा पपलाएज वा ? १०. उ० - हंता, निदाएज्ज वा, पयलाएज वा. -- ६. प्र० - हे भगवन् ! छद्मस्य मनुष्य हसे अने कांइ पण लेवाने उतावळो थाय ? ६. उ०- हे गौतमं ! हा, ते हसे अने उतावळो पण धाय खरो. ७. प्र०—हे भगवन् ! जेम छद्मस्थ मनुष्य हसे अने उतावळा थाय ते केवळी पण हसे अने उतावळो थाय ? ७. ८० - हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नयी छम्रस्य मनुष्यनी पेठे यावत् -- केवळी न हसे अने उतावळो पण न थाय. ८. प्र० - भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्यनी पेठे केवळी हसे नहीं अने उतावळो थाय नहीं तेनुं शुं कारण ? . ८. उ०- हे गोतम ! दरेक जीवो चारित्रमोहनीय क उदयपी से छे अने उतावळा थाय छे अनेकेालन ता चारित्रमोहनीय कर्मनो उदय ज नथी माटे ते कारणची छद्मस्थ मनुध्वानी पेठे यावत् केवळी हसता नथी ते उतावळा. पण पता नथी. ९. प्र० - हे भगवन् ! हसतो भने उतावळो थतो जीव प्रकारनां कर्मोने बांधे के ९. उ०—हे गौतम! तेवा प्रकारनो जीव सात प्रकारना कंर्मोने बांधे के आठ प्रकारनां कर्मोने बांधे ए प्रमाणे यावत्वैमानिक सुधी समज़वुं तथा ज्यांरे घणा जीवोने आश्रीने उपो प्रश्न पूछाप सारे तेमां कर्माबंध संबंधी त्रण भांगा आवे; पण तेमां जीव अने एकेंद्रियो न लेवा. १०. भगवन् ! उस मनुष्य निद्रा ले-उंचे अने उभोउम्र ? १०. उ० - हे गौतम ! हा, ते उंधे अन उभो उभो पण उंचे. " 2 १. मूलच्छायाः - संस्थो भगवन् ! मनुष्यो हसेद् वा, उत्सुकायेत वा ? हन्त, गौतमं । इसेद् वा, उत्सुकायेत वा यथा भगवन् ! छद्मस्थ सेवा अपि इद या उत्सुकायेत वा गीतमनाऽयम् अर्थः समर्थः तत् केनायेन भगवन् यावदनी तथा केवली हसेद्वा, यावत्-उत्सुकायेतं वा. गौतम ! यद् जीवाः चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः उदयन इसन्ति वा उत्सुकायन्ते वा तत् केवलिनः नास्ति, तेत् तेनाऽर्थन यावत्-नो तथा केवली इसेद् वा, उत्सुकायेत वा जीवो भगवन् ! हसन् वा, उत्सुकायमानो वा कति कर्मप्रकृतीः बध्नाति ? गौतम धन्धको वाया एवं वैमानिक पृथक जीव एकेन्द्रियनर्जः त्रिभःस्थो भगवत् मनुष्योत ? इति वा प्रात अ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुतक.५.-उद्देशक-४. भगवत्सुधर्मस्वामिभणीत भगवतीसूत्र. -जैहा हसेज वा तहा, णवर-दरिसणावराणज्जस्स कम्मस्स" --जेम आगळ हसवा वगेरे विषे केवळी अने छवास्थ संबंधे उदएणं निहायति वा, पयलाइंति वा; से गं केवलिस्स नस्थि. प्रश्नोत्तरो जणाव्या हता, तेम निद्रा संबंधे पण, ते बन्ने संबंधे अनं तं चेव. प्रश्नोतरो जाणवा. विशेष ए के, छद्मस्थ मनुष्य दर्शनावरणीय कर्मना उदयथी निद्रा ले छे भने उभो उभो उंघे छे अने ते दर्शनावरणीय कर्मनो उदय केवळिने नथी माटे ते, छमस्थनी पेठे निद्रा लेतो नथी. ( इत्यादि बीजं बधुं ते ज प्रमाणे जाणवं.) ११. प्र०-जीवे णं भंते । निदायमाणे वा, पयलायमाणे ११. प्र०-हे भगवन् ! निशा लेतो के उभो उभो उघतो पा कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ ! जीव केटली कर्म प्रकृतिनो बंध करे (बांधे) ! ११. उ०-गोयमा । सत्तविहबंधए वा, 'अट्टविहबंधए ११. उ०--हे गौतम ! ते जीव सात कर्म प्रकृतिनो बंध पाः एवं जाव-वेमाणिए: पोहत्तिएस् जीवेगिंदियवजो तियभंगो. करे के आठ कर्म प्रकृतिनो बंध करे (बांधे ). ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधी जाणवू. तथा ज्यारे घणा जीवोने आश्रीने उपलो प्रश्न पूछाय त्यारे तेमां कर्मना बंध संबंधी त्रण भांगा आवे,.पण तेमां जीव अने एकेंद्रिय न लेवा. २. अथ पुनरपि छमस्थमनुष्यमेवाऽऽश्रित्याहः-'छउमत्थे' इत्यादि. : उस्सुयाएज ' ति अनुत्सुक उत्सुको भवेद् उसुकायेत विषयाऽऽदानं प्रति औत्सुक्यं कुर्याद् इत्यर्थः. 'जणं जीव ' ति यस्मात् कारणाद् जीवाः. ' से णं केवालस्स नत्थि' ति तत्पुनश्चारित्रमोहनीयं कर्म केवलिनो नास्ति इत्यर्थः. 'एवं जाव-बेमाणिए ' त्ति एवमिति जीवाऽभिलापवद् नारकादिर्दण्डको वाच्यो याबद् बैमानिक इति. स चैवम् :-" नेरइए णं भंते ! हसमाणे चा, उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपयडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधए ग, अट्टविहबंधए वा " इत्यादि. इह च पृथिव्यादीनां हासः प्राग्भविकतत्परिणामाद् अवसेय इति. 'पोइत्तिएहिं । ति पृथक्त्वसूत्रेषु बहूवचनसूत्रेषु “जीवा णं भंते । हसमाणा वा, उस्सुयमाणा वा कइ कम्मपयडिओ बंधति ? गोयमा ! सचविहबंधगा वा, अट्ठविहबंधगा वा" इत्यादिषु ' जीवे-गिदिय०' इत्यादि. जीवपदम् , एकेन्द्रियपदानि च पृथिव्यादीनि वर्जयित्वा अन्येषु एकोनविंशतौ नारकादिपदेषु त्रिकभङ्गो भङ्गात्रयं वाच्यम् , यतो जीवपदे, पृथिव्यादिपदेषु च बहुत्वाद् जीवानां सप्तविधबन्धकाश्च, अष्ट विधबन्धकाश्च .. इत्येवम्-एक एव भङ्गको लभ्यते. नारकादिषु तु त्रयम् , तथाहिः-सर्व एव सप्तविधबन्धकाः स्युरित्येकः, अथवा सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकश्च इत्येवं द्वितीयः, अथवा सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाश्च-इत्येवं तृतीय इति. अत्रैव छद्मस्थ-केवल्यधिकारे इदमपरमाहः-'छउमत्थे' इत्यादि. 'निदाएज व ' त्ति निद्राम्-सुखप्रतिबोधलक्षणां कुर्याद्-निद्रायेत, 'पयला एज्ज व ' त्ति प्रचलाम् ऊर्ध्वस्थितनिद्राकरणलक्षणां कुर्यात्-प्रचलायेत. २. हवे फरीने पण छनस्थ मनुष्य संबंधे ज कहे छ के-[' छउमत्थे ' इत्यादि ] [ ' उस्सुयाएज 'त्ति ] कोइ पण चीज़ने लेवा माटे उतावळ करे-उत्सुक थाय, [जणं जीव 'त्ति ] कारण के, जीवो. [ ' से णं केवलिस्स नत्थि 'त्ति ] वळी ते चारित्रमोहनीय कर्म केवळिने केटिने नही 'नथी. ["एवं जाव वेमाणिए ' त्ति ] जीवनी वक्तव्यतानी पेठे नारकथी मांडीने वैमानिक सुपी वक्तव्यता कहेवी. ते आ रीतेः- नेरइए णं भंते ! नारकथी देव · हसमाणे वा, उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपयडीओ बधइ ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविबंधए वा ' इत्यादि, शं०-मूळमां हसवा संबंधी सूत्रनो पाठ बधा संसारी जीवो संबंधे घटाववानो कह्यो छे तो ते केम वनी शकशे ? कारण के बधा जीवोमां पृथिवी, पाणी वगेरेना पण जीको आवी जाय छे अने तेओ तो हसी शकता ज नथी, अने एम होवाथी उपलो पाठ बधा जीवो गाटे केम घटी शके ? समा०-मूळनो-हसवा संबंधीनो-पाठ बधा जीवो माटे घटी शके छे--पृथिवी वगेरेना जीवो माटे पण संगत थइ शके छे. जो के पृथिवी वगेरेना जीवो पोतानी चालु स्थितिमा हसी शकता नथी, पण तेओ, तेओना कोइ पण पूर्व भवमां कोइ बार जरूर हस्या हशे तो तेने अपेक्षीने उपलो पाठ तेओ संबंधे घटावधो. [ 'पोहत्तिएहिं 'ति ] बहुवचन संबंधी सूत्रोमां-जीवा गं भंते ! हसमाणा वा, उस्सुयमाणा वा कइ कम्मपयडीओ. बंधंति ? गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा, अट्टविहबंधगा वा'-[ 'जीवगिंदिय-' इत्यादि.] जीव अने एकेंद्रिय-पृथिवी बंगरे-पद छोडी देवां अने. बाकीनां १९ नारक वगेरे-पदोमां त्रण भांगाओ कहेवा. कारण के, जीवो अने पृथिवी वगेरेना जीवो घणा छ माटे तेमां एकवचनवाळो भांगो संभवतो नथी, ... पण सात प्रकारना बंधको-बांधनाराओ-अने आठ प्रकारना बंधको' एवो एक ज भांगो संभवे छे. नारक वगेरेमां तो त्रण मांगा संभवे छः-पहेलो भांगो-बधा य सात प्रकार- कर्म बांधनारा, बीजो भांगो-बधा य सात प्रकारनुं कर्म बांधनारा अने एक आठ प्रकारचें कर्म बांधनार, श्रीजो भांगो-बधा य सात प्रकारनु कर्म बांधनारा अने बधा य आठ प्रकारनुं कर्म बांधनारा. अहीं छमरण अने केवलिनो अधिकार चालतो होवाथी । ते संबंधे आ एक बीजी बात कहे छे:-['छउमत्थे ' इत्यादि. ] [ 'निदाएज व ' ति] सुखे जागी शके एवी रीते ठंघे, [ 'पयलाएज व ति] उभो उभो उधे, (जे उघ उभा उभा लेवाय तेने 'प्रचला' कहे छे.) १. मूलच्छायाः-यथा हसेद् वा तथा, नवरम्-दर्शनाऽऽवरणीयस्य कर्मणः उदयन निद्रायन्ते वा, प्रचलायन्ते वा; तत् केवलिनो नास्ति.. अन्यत् तंचव, जीवो भगवन् । निद्रायमाणो वा, प्रचलायमानो वा कति कर्मप्रकृतीः बध्नाति ? गौतम ! सप्तविधवन्धको वा, अष्टविधबन्धको वा, एवं यावत्वैमानिकः पृथक्त्वेषु जीव-एकेन्द्रियवर्जः त्रिभगा-अनु. . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५:-उद्देशक, शक्रदूत हरिणेगमेषी देव. १२. प्र०-हरीणं भंते | हरिणेगमेसी सक्कदुए इत्थीगभं १२. प्र०---हे भगवन् ! इंद्रनो संबंधी शक्रनो दूत संहरमाणे किं गम्भाओ गम्भ साहरइ? गम्भाओ जोणि साहरइ? हरिनैगमेषी नामनो देव ज्य.रे स्त्रीना गर्भर्नु संहरण करे छे त्यारे जोणीओ गम्भं साहरइ ? जोणीओ जोणि साहरइ ? शुं एक गर्भाशयमांथी गर्भने लइने बीता गर्भाशयमा मूके छ ! गर्भथी लइने योनि द्वारा बीजी (स्त्री) ना उदरमा मूके छ ? योनि. द्वारा गर्भने बहार काढीने बीजा गर्भाशयमां मूके छ? के योनि द्वारा गर्भने पेटमाथी काढीने पाछो तेज रीते (योनि द्वारा ज बीजीना) पेटमा मूके छ ? १२. उ०-गोयमा ! नो गम्भाओ गभं साहरड, नो १२. उ० ---हे गौतम ! ते देव, एक गर्भशयमांथी गर्भने गम्भाओ जोणिं साहरड, नो जोणिओ जोणि साहरइ, परामसिय, लइने बीजा गर्भाशयमा मूकतो नथी, गर्भधी लइने योनि वाटे परामसिय अब्बाबाहणं अब्बाबाहं जोणिओ गभं साहरइ. . गर्भने बीजीना पेटमा मूकतो नथो, तेम योनेवाटे गर्भने बहार काढीने पाछो योनिवाटे (गर्भने ) पेटमां मूतो नथी. पण पोताना हाथ वडे गर्भने अडी अडीने अने ते गर्भने पीडा न थाय तेवी रीते योनि द्वारा बहार काढीने बीजा गर्भाशयमा मूके छे. १३. ५०-पभ णं भंते । हरिगेगमेसी सक्कस्स णं दूर १३. प्र०-हे भगवन् ! शक्रनो दूत हरिनैगमेषी देव स्त्रीना इत्थीगमं नहसिरंसि वा, रोमकूवंसि वा साहरितए वा, नीह- गर्भने नखनी टोच वाटे या ता रुंबाडाना छिद्र वाटे अंदर मूकवा रित्तए वा ! के बहार काढवा समर्थ छ ? १३. उ०-हता पभ , नो चेव णं तस्स गब्मस्स किंचि १३. उ०-हे गौतम ! हा, ते तेम करवाने समर्थ छे. वि आवाहं वा, विवाहं वा उप्पाएज्जा, छविच्छेदं पुण करेजा, उपरांत ते देव गर्भने कांइ पण ओछी के वधारे पीडा थवा देतो ए सुहमं च णं साहरेज वा, नाहरेज वा. नथी तथा ते गर्भना शरीरनो छेद-शरीरनी कापकूप-करे छ अने पछी तेने घणो सूक्ष्म करीने अंदर मूके छ के बहार काढे छे. ३. केवल्यधिकारात् केवलिनो महावीरस्य संविधानकमाश्रित्य इदमाहः -'हरी' इत्यादि. इह च यद्यपि महावीरसंविधानाऽभिधायकं पदं न दृश्यते, तथापि — हरिनैगमेषी ' इति वचनात् तदेवाऽनुमीयते, हरिनैगमेषिणा भगवतो गर्भन्तरे नयनात्. यदि पुनः सामान्यतो गर्भहरणविवक्षा.अभविष्यत् तदा 'देवे भंते !' इत्यवक्ष्यदिति. तत्र हरिरिन्द्रः, तत्संबन्धित्वाद् हरिनैगमेषी-इति नाम. 'सकदर ' त्ति शक्रदून:-शकाऽऽदेशकारी, पदाति--अनीकाऽधिपतिः, येन शकाऽऽदेशाद् भगवान् महावीरो देवानन्दागर्भात त्रिशलागर्ने संहृत इति. ' इत्थीगभं 'ति स्त्रियाः संबन्धी गर्भ:-सजीवमुद्गलपिण्डकः स्त्रीगर्भः, तम्-'संहरमाणे 'ति अन्यत्र नयन् , इह चतुर्भडिका--तत्र गर्भाद् गर्भाशयाद् अवधेः, गर्भ गर्भाशयान्तरं संहरति प्रवेशयति -गर्भ सजीवपुद्गलपिण्डलक्षणमिति तथा गर्भाद् अवधेयोनि गर्भनिर्गमद्वारं संहरति--योन्या उदरान्तरं प्रवेश पति इत्यर्थः-२. तथा योनितो योनिद्वारेण गर्भ संहरति--गर्भाशयं प्रवेशयति इत्यर्थः-३. तथा योनितो योनेः सकाशाद् योनि संहरति-नयति-योन्या उदराद् निष्काश्य योनिद्वारेणैव उदराऽन्तरं प्रवेशयति इत्यर्थः-४. एतेषु शेषनिषेधेन तृतीयमनुजाननःहः- परामुसिय' इत्यादि. परामृश्य पर मृश्य तथाविधकरणयापारेण संस्पृश्य संस्पृश्या, स्त्रीगर्भम् अव्याबाधमव्याबाधेन--सुखसुखेन इत्यर्थः, योनितो योनिद्वारेण निष्काश्य गर्ने गर्भाशयं संहरति गर्भमिति प्रकृतम्. याचेह योनितो निर्गमनं स्त्रीगर्भस्योक्तं तल्लोकव्यवहाराऽनुवर्तनात् , तथाहिः-निष्पन्नोऽनिष्पन्नो वा गर्भः स्वभावाद् योन्यैव निर्गच्छति-इति. अयं च तस्य गर्भसंहरणे आचार उक्तः. अथ तत्सामर्थ्य दर्शयन्नाह:--'पभू णं' इत्यादि. 'नहासिरंसि ' ति नखाने. ' साहरित्तए' त्ति संहत प्रवेशयितुम्, 'नीहरित्तए' त्ति विभक्तिविपरिणामेन नख--शिरसो रोमकूपाद् वा निहतु निष्काशयितुम्, 'आबाहं ' ति ईपदबाधाम्, 'विवाह' ति.विशिष्टबाधाम्, ' छविच्छेदंति शरीरच्छेदं पुनः कुर्याद्-गर्भस्य हि छविच्छेदमकृत्वा नखानादौ प्रवेशयितुमशक्यत्वात्, 'ए सुहमं च णं' इति सूक्ष्ममित्येवं लम्धिति. १. मुलच्छायाः-दरिभगवन् ! हरिनगमेषिः शक्रदूतः नियाः गर्भ संदरन् कि गर्भाद् गर्भ संहरति, गभाद् योनि संहरति, योनितो गर्भ संहरति, योनितो योनि संहति? गौतम । नो गर्मतो गर्भ संहरति, नो गभाद् योनि संदरति, नो योनितो योनि संहरति, परामृश्य, परामृश्य अव्यायाधेन अव्यायाधं योनितो गर्भ संहरति. प्रभुर्भगवन् ! हरिनैगमेषिः शक्रस्य दूतः स्त्रीगर्भ नखशिरसि वा, रोमकूपे वा, संहर्तुं वा, निहतु वा ! हन्त, प्रभुः; नो चैव तस्य गर्भस-कि.च्च अपि आवाधा वा, विशधा वा उत्पादयेत, छविच्छेदं पुनः यात्, इति सूक्ष्म व संहरे-वा, निहरे पोन-अनु. . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. - उद्देशक ४ भगवत्सु धर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. १७५. ३. आगळा प्रकरणमा केवळ संबंचे हकीकत कही है तो हवे आ प्रकरणमां पण श्रीमहावीर (वेगळी) नुं उदाहरण ने आ बात कहे छे के [ 'हरी' इत्यादि. ] शं०. -आ ठेकाणे मूळमां ' महावीर ' शब्द तो नथी तो पछी अहीं कहेवामां आवती वात महावीर शंका. संबंधे छे एम शाथी जणाय ? समा० - जो के, अहीं मूळमां ' महावीर ' नुं नाम नथी जणान्युं तो पण 'हरिनैगमेषी' देवनुं नाम आववाथी समाधान, आ बात महावीर संबंध दोष एवं अनुमान मनुं शुश्य छे. कारण के, ज्यारे महावीर गर्भावस्थामा हता त्यारे तेनी फेरते देने करी हती. जो कदाच अहींनी हकीकत महावीर संबंधे न घटाववानी होत तो सूत्रकार मूळनी अंदर हरिनैगमेपिनुं नाम न लखत, पण सामान्य रीते कोई पण देवनं निरूपण करत अने ते न करतां जे एजाज के तेथी आ की महावीरने गांठे घटावी एवं आगल अनुमान महावीर १. टीकाकारथी जणावे छे के, “आ सूत्र, श्रीमहावीरना गर्भपहारने लगतुं छे." ते बाबतना टेकामां तेओ आ एक दलील पण जणावे. छे के." सूत्रना मूळमां सामान्य देवनो उल्लेख नहि करतां शक्रदून हरिणेगमेषी देवनो गर्भना बदलावनार तरीके उल्लेख करेलो छे अने महावीरनो गर्भ बदलवा माटे एज देव आन्यो हतो तेथी आ सूत्रमां महावीरनुं न म न होवा छतां पण आ उल्लेख महावीरने ज बंध बेसते आवे छे. आ उल्लेख विषे आपणे कांदतंत्रविदारीपल ते ओखने लगती ऐतिहासिक समविचारी ते ठीकमाशे गधोना सूचना "लंदन छेपटना भाग भावना आहे. व्यापाप्रति भगवती सूत्रमा आउने उारना सूचनांचा मरसून पण हकीकत आचार-भंग, भगवती अनेकन ए की 'बीगतथी बीजा अंगोमां ए हकीकतनी नोंच जडती नथी. भाषा-शाखनी दृष्टिए आचार-अंग सूत्र बीजां सूत्रो करतां विशेष प्राचीन के अने एम *अनुभव पण थाय छे एयी कदाच आपणे आचार-अंगमां अंजने भागे आवता आ गर्भापहारना उल्लेखने विशेष प्राचीनता आपीएं पण ते करता आचार्य श्रीहेमचंद्रजी आपणने अटकावे छे अने तेओ पोताना शब्दोमां आ प्रमाणे जगावे छेः [ नीचेना उल्लेखमां आचार-अंगमां आवेली भावनाचूलिका 'क्या वखते बनी ' ? तेने लमती एक दंतकथा परिशिष्ट पर्वना नवमा सर्गमां ८३ थी १०१ लोकमां आचार्यश्रीए नोंधेली छे, ते उपरथी आपणे से चूलिकानो काळ वीरात्-बीजो सैको कल्पी शकीए छीए-अने तेथी ज तेने आचार-अंगनुं श्रीभद्रबाहुजीना समयनुं उमेरण गणी शकीए छीए..]. "I ततोऽयुस्ताः पुनस्तत्र स्वरूपस्थं निरूप्य च, वन्दिरे स्थूलभद्रं ज्येष्टा चाख्यनिजां कथाम्श्रीवकः सममस्यामिदीक्षामादत किसी क्षुधावन् सर्वदा कर्तुं नैकभक्तमपि क्षमः. मयोक्तः पर्युषणायां प्रत्याख्यालय पौरुतम् स प्रत्याख्यातवानुको मया पूर्वेऽवधा पुनः पदमतिदुर्लभम् एवं "श्रीस्थूलमनी बहेनोए तेमने-स्थूनभइने पत्र जोड़ने बांधा अने तेमाभी मोटी बने पोतानी वात प्रकही (२२) मा बीके अमारी-सादीक्षा लीची सी, किंतु ए कोई दिवस एका प न करी शके एवो क्षुत्रावान हमेश रद्देतो. (८४) में श्रीयकने कछु के आज पजुसणां पौरुषीनो नियम करतेणे पण ते नियम कया. ए निय मनी अवधि पूरी थये फरीवार में कछु के, (८५) आज तुं पूर्वार्ध - पुरिमट्ट -कर-आ पर्व घणुं दुर्लभ छ अने एडलो वखत तो चैयपरिपाटी करता पण चाल्यो जशे . ( ८६) एक पण एणे स्वीकार की. पछी वखत थये फरी वार में कह्युं के, हवे तो अपार्थ-अबट्ट ने करी नाख तेणे पण तेमज क. (८७) पछी फरीवार में कहां के वे तो रात्रीपासेज छे अने ते सूतां सूतां सुखे चाली जशे माटे उपवास ज करी नाख अने तेणे पण खरेखर उपवास कयी. (८८) त्यार पछी मधरात धये देव अने गुरु ने याद करता करतां भूखनी पीडाथी एणे देह छोड्यो अने खर्गनो आश्रय - लीधो. (८९) गने खेद थयो के, अरे रे में आ ऋषिहत्या करी अने ए माटे में श्री श्रमण संघ पासे प्रायश्चित्तनी याचना करी. (९०) संधे कथुंके, हे श्रमणि । तमो विशुद्ध भावे हतां तेथी तमारे आ माटे कांइ प्रायश्चित्त करवानुं नथी. (९१) त्यार पछी में कछु के, जो साक्षात् जिन ज आ विषे खुलासा करे तो मने निरांत थाय नहि तो नहि. (९२) आ माटे ए वखते सकळ संघे का उसग ( कायोत्सर्ग-ध्यान ) कया अने तेथी देवी आनी के बोलों काम करें (५३) संचेपण क के आ साध्वीने जिननी पासे लह जा, पछी देवीए क हुं आबुं त्यां सुधी वाउगे रहों. (९४) संधे तेम क ( ए साध्वीने ) जिननी पासे लइ गइ पछी त्यां जइ, में भगवान् सीमंधर खामिने वंदना करी. (१५) जिने, आसांनी भरतक्षेत्रयो आवेली छे अने निर्दोष छ." त्यार पछी मागे संशय टळी गयो अने देवी मनें मारे स्थाने लावी. (९६) कृपाळु सीमंधर खामिए मारा मुख द्वारा श्री संघ ने चार अध्ययनो मेट तरीके मोकल्यां छे. (३७) ते चार अध्ययनो नां नाम आछे भावना, विमुक्ति, रतिकन [ वर्तमानमां (रतिवाक्य ) ] अ] [वर्तमानमा (विधिक ) ] (९८) में ए बारे अध्ययनोने एक ज वाचना द्वारा घरी राख्यां अने जेम हृतां तेम श्रीसंघ पासे संभळावी दीघां. (१९) पेलानां बे अध्ययनोने आचार अंगनी चूला तरीके से योज्य अने बीज माफीना देने दर्शवेकालिनी सा f: - . ८३ काल-परवापास्पति. पादि सबैमा समऽमिहितः पुना, दानीमा मिसा प्रयासन्नाऽधुना रात्रिः सुखं सुप्तस्य यास्यति, तत् प्रत्यादवाद्यार्थमः सत् तथा. ९३ निशी से स्मरन् देव गुरुनी, क्षुत्पीडया प्रसरत्या विपद्य त्रिदिवं ययैा. गवाकारीताम्यन्धी उतसवदम् पुरः श्रमण संघस्य प्रायश्चित्त य है. किता. संघाद्व्यवायीदं भवत्या शुद्धभ वया, सतोमेि ततोऽचि साक्षादास्पति गि गम नान्यथा. ९२ अत्रायें सकल: कारवर्गमदादप, एय शासन देव्योकं ब्रूत कार्य करोमि किम् ? संघोऽप्येवमभाषि जिनराश्रमिमां नय, साSSख्य निर्विघ्नगत्यर्थं कायोत्सर्गेण तिष्ठत. ९४ संप्रतिपेदाने मांस जिसके ततः सीमन्धरः स्वामी भगवान् वन्दितो मया. भरतादागताऽऽन ततोऽहं छिन्नसंदेहा देव्याऽऽनीता निजाश्रयम्. ९६ प्रसादमाह श्रीमान् सीमंधरखामी चत्वार्यध्ययनानि च. भावना च विमुक्तिश्च रतिकल्पमथाs/रम, तथा विचित्रचर्या च तानि चैतानि . नामतः. अप्येकया वाचनया मया तानि धृतानि च, उगीतानि संचाय सत् तथाख्यानपूर्वकम् ९५ आभारास चूले द्वे आयमध्ययनद्वयम् य ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८९ ९० ९१ १५ ९७ ९८ - आम एवाय आजी नो के निर्विधने माटे अने देवी मने / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक ५.-उद्देशक ४. दृढ थाय छे. जे, इंद्रनो संबंधी होय ते ' हरि ' कहेवाय. हरिनैगमेषी पण इंद्रनो संबंधी छे माटे ते 'हरि ' कहेवाय छे. [ ' सक्कदूए ' ति ] शदूत. हरिनैगमेषी देव शकनी आज्ञाने माननार अने पायदळ सेनानो उपरि छे माटे ते 'शक्रदूत' कहेवाय. ते हरिनैगमेषिए इंद्रनी आज्ञाधी दा-त्रिशला. गर्भावस्थामा रहेला भगवान् महावीरनी फेरवणी करी हती-तेओन देवानंदाना गर्भमांथी त्रिशलाना गर्भमां मूक्या हता. [ 'इत्थीगभं' ति] में बदलवाना स्त्रीनो गर्भ-जीवसहित-जीववाळो-पुद्गलपिंड, तेने [ ' संहरमाणे ' त्ति ] बीजे ठेकाणे लइ जतो. आ स्थळे गर्भने फेरववाना चार प्रकार छ:--- वार प्रकार. १. गर्भाशयमांथी गर्भने लइने बीजा गर्भाशयनां मूकवो. २. गर्भाशयमांथी गर्भने लइने योनिबाटे बीजा गर्भाशयमां मूकवो. ३. योनिवाटे गर्भने बहार काढीने बीजा गर्भाशयमां मूकवो. ४. योनिबाटे गर्भने बहार काढीने योनिबाटे ज बीजा गर्भाशयमां मूकवो. आ चार रीतिमाथी मात्र एक ज श्रीजी रीत गर्भनी फेरबदली माटे अहीं उपयोगी गणी छे अने ते माटे कहे छे के, [ 'परामुसिय ' इत्यादि ] पोताना हाथनी तेवा प्रकारनी क्रियावडे पीडा न थाय तेम स्त्रीना गर्भने अडकी अडकीने योनिवाटे बहार काढीने बीजा गर्भाशयमा मूके छे. शंका. शं०--देवनी शक्ति घणी विचित्र होय छे अने तेथी ते, गमे ते ठेकाणेथी गर्भने बहार काढी शके छे तो पछी तेणे योनिवाटे ज गर्भने केम समाधान. यहार काढयो ? समा०-काचो के पाको कोइ पण प्रकारनो गर्न स्वाभाविक रीते योनिवाटे ज बहार आवे छे एवीं जातनी प्रथा लोकोमों जणाय छे तो ते प्रथाने अनुसरीने अहीं देवे पण तेम कर्यु छे. आगळना प्रकरणमा गर्भनी फेरबदली संबंधी हकीकत कही छे अने हवे ते संबंधे नत्र य. देवना सामर्थ्य नी बाबत जणावतां कहे छे के, [ 'पभू णं इत्यादि.] [ नेहसिरंसि ' ति] नखना अग्र भाग-नखनी टोच-थी ['साहरित्तर ' ति ] गर्भने प्रवेशाववा-अंदर दाखल करवा-अने ते ज वाटे [ 'नीह रित्तए ' ति ] गर्भने बहार काढवा ते देव समर्थ छे. कापर. आबाहं ' ति] थोडी पीडाने, [ 'विवाहं ' ति ] वधारे पीडाने. [छविच्छेदं ' ति] वळी शरीरनी कापकूप करीने ते देव गर्भनी अशक्य . फेरबदली करे छे. कारण के, कापकूप कर्या सिवाय नखनी टोक्ने मार्गे गर्भने दाखल करवो ए अशक्य छे. ['ए सुहमं च णं' ति] गर्भने घणो सूक्ष्म करीने तेनी फेरबदली थाय छे. . आर्य श्रीअतिमुक्तक. तेणं काले णं, ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावी- ते काले, ते समरे श्रमण भगवंत महावीरना शिष्य अतिमुरस्स अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगइभद्दए, जाव- क्तक नामना कुमारश्रमग, जेओ स्वभावे भोळा अने यावत्विणीए. तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे अन पा कयाई महावु- विनयवाळा हता. ते अतिमुक्तक कुमारश्रगण अन्य कोइ दिग्से हिकायांस निवयमाणांस कक्खपडिग्गह-रयहरणमायाए बहिया भारे बरसाद वरसतो हतो त्यारे पोतानी काखमां पात्रु अने संपट्ठिए विहाराए. तए णं अइमुत्ते कुमारसमणे वाहयं वहमाणं रजोहरण लइने बहार विहार माटे ( वडी शंकाना निवारण माटे) पासइ, पासित्ता मट्टियाए पालिं बंधइ, बंचित्ता ' णाविया मे, चाल्या. त्यार पठी बह.र जतां ते अतिमुक्तक कुमारश्रमणे वेता णाविया मे' नाविओ विव णावमयं पडिग्गहगं उदगंसि कट्ट पाणीनुं एक नानु खाबोचियुं जोयु-तेने जोया-पछी ते खाबो. पवाहमाणे, पंवाहमाणे आभिरमः, तं च थेरा अदक्खु, जेणेव चिया फरती एक माटीनी पाळ बांधी अने 'आ मारी नाव छे, समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं आ मारी नाय छे' ए प्रमाणे नाविकनी पेठे पोताना पात्रने वदासी: नावरूप करी-पाणीमा नाखी ते कुमारश्रमण प्रवाहे छे-पाणीमां तरावे छे-ए रीते ते, रमत रमे छे. हवे ए पकारना बनावने स्थविरोए जोयो अने जोया पछी तेओए जे तरफ श्रीमहावीर स्वामी छे ते तरफ आवीने आ प्रमाणे कडं केः दशकालिक स्यान्य दथ संघेन योजितम्. १.. जोडी बीधां. (१००) ए प्रमाणे कहीने श्रीस्थूल द्रनी अनुमतिथी ए साध्वी इत्याख्याय स्थूलभद्रानुकाता निजमाश्रयम्." १०१ पोताने आश्रये पाछी आवी." (101) पोहेमचंद्रजीना आ उलेखमां आपणे गभापहारने लगती दंतकथा जेवी ए हकीकतनी विचित्र उत्पत्ति जोह शकीए छीए. एमां खुशी तो एछ के. ए हकीकत श्रीवार पली बसें वरसे बहार आवी अने वळी श्रीसीमंधर तीर्थकरना श्रीमुखथी ए हकीकत प्रकट थइ (1)! दिगंबर संप्रदाय ए हकीकतने स्वीकारतो नथी तेथी अने अनेक महापुरुषोना जीवनमा एवी एवी अप्राकृतिक हकीकतो मेळाइ गद छे तेथी आ हकीकतने विशेष सिद्ध करवानो प्रयास केरवोए समयभक्षण सिवाय बीज कशु नथी. वळी आ हकीकत देवनी मारफत एक छुमंतरनी पेठे थयानो लेख मळतो होवाथी एनी अप्राकृतिकता तरी आवे छे:-अनु. १. अहीं सातमी विभक्तिने पांचमी विभक्तिना अर्थमा समजवानी छे:-श्री अभय २ देव माटे ती ' ए अशक्य छे' एम कहे गर्भापहारने पण अशक्य कहेवा बरोबर छ:-अनु० १. मूलच्छाया:--तस्मिन् काले, तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासी अतिमुक्तो नाम कुमारश्रमणः प्रकृतिभदको यावत्विनीतः, ततः स अतिमुक्तः कुमारभ्रमणोऽन्यदा कदाचिद् महावृष्टिकाये निपतमाने कक्षाप्रतिप्रह-रजोहरणम् आदाय बहिः संप्रतितो विहाराय. ततः अतिमुक्तः कुमारभ्रमणः वाहकं वहमानं पश्यति, दृष्ट्वा मृतिकया पालि यनारि; यद्ध्वा ‘नौका मम, नौका मम' नाविक इव नावम् अयं प्रतिग्रहकम् उदके कृत्वा प्रवाहयन्, प्रवाड्यन् अभिरमते, तं च स्थविराः अवाक्षुः, येनैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तेनैव उपागच्छन्ति, उपागम्य एपेम् अंवादिषुः-अनु. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. - उदेशक ४. , १४. प्र० एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते नामं कुमारसमणे भगवं, से णं मते ! अहमुत्ते कुमारसमणे भवगणेहिं सिज्झिहिति, जाव-अंतं करेहिति ? १४. उ० – अजो ! त्ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं बयासी एवं सतु अब ! ममं अंतेवासी अमुचे णामं कुमार समणे पराइभहए, जाब-दिनीए से णं अहमुचे कुमारसमणे इमेणं चैव भवग्गणेणं सिज्झिहिति, जाव अंतं करिहिति; तं मा. णं अयो! तुम्मे अमुतं कुमारसमणं हीलेह, निंदह, खिंसह, गरहह, अवमनह; तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! अइमुत्तं कुमारमणं अगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवगिण्हह, अगिलाए भरोणं, पाणेणं, विणणं वेयावदियं करेह. अमुचे णं कुमार समणे अंतरे चैव, अंतिमसरीरिए चैव; तर णं ते घेरा भगवंतो समणेणं भागच्या महावीरेण एवं बुत्ता समाना समणं मगवं महावीरं वदति, नमसंति; अइमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए सांगव्हंति, जाव- वेयावडियं करेंति. ." भगवत्स्वामिणीत भगवतीसूत्र. 6 ८ " ४. अनन्तरं महावीरस्य संबन्धि गर्भाऽन्तरसंक्रमण रक्षणमाचर्यमुक्तम् अध तच्छिष्यसंबधि तदेव दर्शयितुमाह से णं इत्यादि. ' कुमारसमणे ' त्ति षड्वर्षजातस्य प्रत्रजितत्वात् आह चः - "छेव्वरिसो पञ्चइओ निग्गथं रोइऊण पावयणं " ति. एतदेव आश्चर्यमिह, अन्यथा वर्षाऽष्टकाद् आराद् न प्रत्रज्या स्यादिति. "कक्खपडिग्गह - रयहरणमायाए ' त्ति कक्षायां प्रतिग्रहकम्, रजोहरणं च आदायेत्यर्थः णाविया मेति नौका द्रोणिका मम इयम् इति विकल्पयन् इति गम्यते माथिओपिया ति नाविक इव नौवाहक इव नावं द्रोणीम्. ' अयं ' ति असौ अतिमुक्तकमुनिः प्रतिग्रहकं प्रवाहयन्नभिरमते; एवं च तस्य रमण क्रिया बालाऽयस्थावाद् इति. ' अदस्तु 'ति अद्राक्षुष्टवन्तः ते च तदीयामत्यन्ताऽनुचित चेष्ठां दृष्ट्वा रामुपहसन्त इव भगवन्तं मच्छुः एतदेवाह एवं खलु इत्यादि. हीले 'ति जात्यायुद्घाटनतः निंदह चि मनसा सिंह , " , खिंसह त्ति जनसमक्षम् . , उपगिण्हह चि उपगृह्णीत उपष्टम्भं गरहह ' त्ति तत्समक्षम्, ' अवमन्त्रह 'त्ति तदुचितप्रतिपत्यकरणेन, ' परिभवह 'त्ति कचित्पाठस्तत्र परिभवः समस्तपूर्वोक्तपद (दा) करणेन. ' अगिलाए' चि अग्ान्या अखेदेन संगिण्हह चि संगृहीत स्वीकुरुत ( यापडियंति पापं कुरुत अस्य इति शेषः, कुरुत: एतदेवाह - स्वाद् अत आह—' अंतिमसरीरिए चेति परमशरीर इत्यर्थः अंतकरे चैव - 2 १४. प्र० - हे देवानुप्रिय भगवान् अतिमुक्तक नामे कुमारश्रमण आपना शिष्य छे तो हे भगवन् ! ते अतिमुक्तक कुमारभ्रमण केला भयो कय पछी सिद्ध वशे यावत् सर्व दुःखोनो नाश करशे १४. उ० हवे श्रमण भगवंत महावीरे से स्थविरोने आ. प्रमाणे कं कः हे आयें 1 स्वभावे भोळो पापत् विनयी एवो मारो शिष्य अतिमुक्तक नामनो कुमारभ्रमण आ भत्र पूरो करीने ज सिद्ध थशे यावत् - सर्व दुःखोनो नाश करशे. माटे हे आर्यो । तने ते अतिमुक्तक कुमारभ्रमण ही नहीं, निंदो नहीं, सिसो नहीं, वगोवो नहीं अने तेनुं अपमान पण करो नहीं. किंतु हे देवानुप्रियो ! तमे ग्लानि राख्या सिवाय ते कुमारश्रमणने साचवो, सेने सहाय करो अने तेमी सेवा करो. ( कारण के) ते अतिमुक्तक कुमारभ्रमण सर्व दुःखोनो नाश करनार छे अने आ केला शरीरवाळो छे आ शरीर छोड्या पछी सेने बीजी बार शरीरधारी थवानुं नथी. श्रमण भगवंत महावीरे ते स्थविरोने पूर्व प्रमाणे कला पछी ते स्थविरोए श्रमण भगवंत महावीरने वंदन कर्तुं अने नमन कर्तुं अने पछी ते स्थविरोए श्रीमहागोरनी आशा प्रमाणे ते अतिमुक्तक कुमारश्रमणने बिना छानिए साचव्या अने यावत्- तेओनी सेवा करी. · - - * १० प्र० छा०-- पर्षः प्रब्रजितो नैर्ग्रन्थं रोचयित्वा प्रवचनम्ः - अनु० 1 6 갤 १७७ 9 ८ ४. आगळा प्रकरणमा महावीर संबंधी गर्मनी फेरबदली थवारूप आर्यनी हकीकत अण्णायी छे तो हवे आ प्रकरणमा पण महावीरना शिष्य संबंधी अको माडनारी एक बातने देखाडयाने कहे छे के, [ते प इत्यादि. ] [ कुमारसमणे चि] छ वर्षनी उमरे दीक्षित एल छे माटे कुमारभ्रमण क छे के, " ( अतिमुक्तक कुमारमण ) निर्मेयना प्रश्चन उपर रुवि करीने छ वर्षेनी उमरे प्रमजित धरल छे " अने ए ज बात अचंबो पमाडे तेत्री छे. कारण के, आठ वरसनी उमर थया पहेलां दीक्षा होवी संभवती नथी. [' कक्खपडिग्गह-रयहरण 6 3 १. मूलच्छायाः – एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी अतिमुक्तो नाम कुमारश्रमणो भगवान् स भगवन् ! अतिमुक्तः कुमारश्रमणः कतिभिः सेत्स्वति यावत्-अन्तं करिष्यति आयः इति श्रमणो भगवान् महावीरस्थान स्थविरान् एवम् अवादी एवं साठ आयीः मम अन्वेवासो अतिमुको नाम कुमारथमणः प्रकृतिभद्रकः, बाबद विनीतः स अतिमुखः कुमारमंगः अनेन च एव भवन सेरस्पति यावत्असं करिष्यति तद् मा आायीः यूयम् अतिमुषं कुमारमहीयत निन्दत लिखत गईध्यम अवमन्यध्यम् पूर्व देवाऽनुप्रियाः ! अतिमुकं कुमारश्रमणम् अग्लानतया संगृह्णीत, अग्लानतया उपगृह्णीत, अग्लानतया भक्तेन, पानेन, विनयेन - वैयावृत्यं कुरुत. अतिमुक्तः कुमारश्रमणोन्तकरश्चैव, अन्तिमशरीरचैव; ततस्ते स्थविरा: भगवन्तः श्रमणेन भगवता महावीरेण एवम् उक्ताः सन्तः भ्रमणं भगवन्तं महावीरं कन्दन्ते, नमस्यन्ति - यतिमुकं कुमारमम् अनतिकुर्वन्तिः अनु ގ , त्ति भण्छेदकरः स च दूरतरभवेऽपि कुमारश्रमण. छ वर्षे बीक्षा. / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fac , जो मायाए ति] कानांपा अने रजोहरणने पवित्र नावं ति] नाविक नाव रमत्र. बहतु मूकतो रमत करे छे ते मालक होवाथी , श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५. - उद्देशक ४. " " ने. [णाविया मेति ] आ मारी होडी एम विकल्प करतो ए अर्थ, गम्य छे. करनार खावानी पेठे नावने. [ अर्थ ति] आमुक्तक मुनि पात्राने पाणीमां बेतुएका प्रकारनी रमत करे छे. [अदति ] स्पट तेने जोवो अने तेनी तद्दन अनुचित चेष्टाने जोइने जाणे तेनो उपहास करता न होय तेम तेंओए भगवानने पूछयुं. ए ज वातने कहे छे के, [' एवं खलु ' इत्यादि. ] [' हीलेह ' रे]ि तेनी नावनात खुड़ी करीने निंदो (नहीं), [निंदद्धति ] मनवी तेनी निंदा करो नहीं ), [जिंसह ति] माणसोनी पासे तेनुं वकुं बोलो (नहीं), [ गरहह जि] तेनी पासे तेनो अववाद कहो (नहीं) [ अमन चि] तेनी उचित शुश्रूषा नहीं करवरूप तेनुं अपमान न करो को ठेकाणे परिभवद्द एवो पाठ के तेनो अर्थ पूर्व कहेल निंदा वगेरेथी तेनो परिभव ( न करो ); ); [' अगिलाए' त्ति ] खेद कर्या सित्राय [' संगिण्हह ' त्ति ] तेनो स्वीकार करो, [' उवगिण्हह ' त्ति ] तेने सहायता टेको-आपो, ए ज सेवा करो. वातने कड़े छे के, [' वेयावडिये ' ति ] तेनुं वैयावृत्य-सेवा चाकरी करो. [' अंतकरे चैत्र ' ति ] ते अंतकर ( पोताना जन्ममरणरूप ) कर संसारनो नाश करनार छे, केटलाक अंतकरो एत्रा होय छे के, जेओ लांबे काळे जन्नमरणनो नाश करी शके छे, पण आ अंतकर एवा " " " तिमशरीरी. नथी, माटे कहे छे के, [' अंतिमसरीरिए चेत्र 'त्ति ] आ अंतकर तो चरम करवानुं नथी, पण आज तेनुं छेलुं शरीर छे. शरीरवाळो छे- जेने हवे पछी एक पण शरीर धारण वे देवो अने ते काले णं, ते गं समये णं महासुकाओ कप्पाओ, महागाओ महाविमाणाओ दो देवा महिडिया, जाव-महाणुभागा मस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउच्भूआ; तए णं ते देवा समणं भगवं महावीरं मणसा चैव वंदति, नमसंति; मणसा चैव हमे एवारूपं वागरणं पुच्छंतिः १५. प्र० णं ते! देवाणुप्पि आणं अतेपासी सगाई सिज्झिहिंति, जाव-अंतं करेहिंति ? , १५. उ० – तर णं समणे भगवं महावीरे तेहि देवेहिं मणसा पुढे वेसि देवानं मनसा ने इमं एारूपं पागरणं यागरे एवं सतु देवाचिया ममं स अतवासियाई सिव्झिहिति जाप अंत करेहिति एनं ते देवा समणं भगवया महावीरेगं मगसा पुढेणं, मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया समागा हट्ट तुट्ठा, जाव- हयहियया, समणं भगवं महावीरं वदति, णमंसंति, वंदिता, णर्मवित्ता मगसा चैव सुस्सुसमाणा, नर्मसमाणा, अभिमुहा जाव-पज्जुवासंति. ---ते णं काले णं, ते णं समये णं समणस्स भगवओ महानीरस्स जे अंतेवासी इंदमूई नामं अणगारे जाप अदूरसामंते उ जाणू, जाव विहरद तर नंतर भगवओ गोयमस्त शाणंत रियाए माणस मेगा अझथिए, जाय समुप्यनित्था: - महावीर. -ते काले, ते समये महाशुक नामना देवलोकधी महासर्ग (स्वर्ग) नामना मोठा विमानधी मोटी दिवाला यापत्-मोटा भाग्यवाळा बे देवो श्रमण भगवंत महावीरनी पासे प्रादुर्भूत था, ते देवोर श्रमण भगवंत महावीरने मनथी ज वंदन अने नमन कर्पु तथा मनथी ज आ प्रकारना प्रश्नो 'पूछ्या: १५. प्र० - हे भगवन् ! आप देवानुप्रियना केटला सो शिष्यो सिद्ध वशे यावत् सर्व दुःखनो अंत आणशे ? १५. उ०पछी ते देवो मनवीज प्रश्नो पू पछी अमण भगवंत महावीरे पण ते देवोने तेओना सपाना जवाजो मनवीज आया हे देवानुप्रियो मारा सात शिष्यो सिव थशे यावत् सर्वं दुःखोनो नाश करणे. ए रीते मनथी पूछाएल एवा श्रमण भगवंत महावीरे ते देवोने तेओना सवालना जवाबो मनथी ज आप्या तेथी ते देवो हर्षवाळा, तोषवाळा अने यावत् तदपवाळा यह गया अने तेओए श्रमण भगवंत महावीरने वंदन कर्यु नमन कर्तुं अने मनथी ज पर्युपासना करवानी इच्छाचाळा नमता यावत् ते देवो सम्मुख भइने पर्युपासना करवा खाग्या. " — ते काले, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना मोटा शिष्य इंद्रभूति नामना अनगार यावत्-श्रीमहावीरनी पासे उमडक बेसीने यावत् विहरे रहे छे. पछी ध्यानांतरिकामांप्याननी समाप्तिमां वर्तता अर्थात् पूरेपू ध्यान ध्याई रखा पछी ते भगवान् गौतम १. समिन् काले तस्मिन् समये महात्मा (स) गांडू महामिमाना हो देवा महर्षिकी, यावद-महानुभांगी भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिकं प्रादुर्भूता; ततः तौ देवौ श्रमणं भगवन्तं महावीरं मनसा चैत्र वन्देते, नमस्यतः; मनसा चैव ददम् एकरछतः कवि भगवन् देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासिशतानि चैरस्वति यावदतं करिष्यन्ति ततः श्रमण भगवान्महावीर स्वाभ्यां देवाभ्यां मनसा पृष्टः तयेाः देवयेाः मनसा चैव इदम् एतदूपं व्याकरणं व्याकरेराति, एवं खलु देवाऽनुप्रिया ! मम सप्त अन्तेवासिशतानि यातं करिष्यन्ति ततस्ता देश अमन भगवता महावीरेण मनसा न मनाइमानि एतराणि व्याकरणानि व्या " रिमन् काले शावित धनवन्तं महावीरं वन्दे नमस्यतः वन्दिया नमः मनसा मानसा रिमन् समये भगदता महावीरस्य वासी इन्द्रभूतिनाम अनगां यावत् अन्यः भगवतो यानान्तरिक वर्तमानस्य अप एरिया Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८.. श्रीरायचन्द्र-जिनागगसंग्रहे शतक ५.-उद्देश. ४. तए णं अम्हे समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा चेव पटेणं 'हे देवानुप्रियो ! मारा सातसें शिष्यो सिद्ध थशे यावत्-सर्व मणसा चेव इमं एयांरूवं वागरणं वागरिया समाणा समणं भगवं दुःखोनो नाश करशे' ए रीते अमे मनथी ज पूछेल प्रश्नोना महावीरं वंदामो, नमसामो, वंदित्ता, नमंसित्ता; जाव-पज्जुवा- जवाब पण अमने श्रमण भगवंत महावीर तरफथी मन द्वारा ज सामो त्ति कट्ट भगवं गोयमं वंदंति, नमसंति, वदित्ता, नमंसित्ता मळ्या तेथी अमे श्रमग भगवत महावीरने वांदीए छीए, नमीए जामेव दिसं पाउभया तामेव दिसिं पडिगया. छीए अने यावत्-तेओनी पर्युपासना करोए छीए, एम करीने ( कहीने ) ते देवो भगवान् गौतमने. वांदे छे, नमे छे अने पछी तेओ जे दिशामांथी प्रकट्या हता ते ज दिशामा अंतर्धान थइ गया. ५. यथाऽयम् अतिमुक्तको भगवच्छिष्योऽन्तिमशरीरोऽभवत्-एवमन्येऽपि यावन्तस्तच्छिष्या अन्तिमशरीराः संवृत्तास्तावतो दर्शयितुं प्रस्तावनामाह:-' ते णं' इत्यादि. महाशुक्रात् सप्तमदेवलोकात्. 'झाणंतरियाए ' त्ति अन्तरस्य विच ध्यानस्याऽन्तरिका ध्यानान्तरिका-आरब्धध्यानस्य समाप्तिः-अपूर्वस्याऽनारम्भणमित्यर्थः, अतस्तस्यां वर्तमानस्य 'कप्पाओ? ति देवलो. कात्. ' सग्गाओ' ति स्वर्गाद् देवलोकदेशात् प्रस्तटाद् इत्यर्थः. ' विमाणाओ' त्ति प्रस्तटैकदेशाद् इति. 'वागरणाई-ति व्याक्रियन्ते इति व्याकरणानि प्रश्नार्थाः अधिकृता एव कल्पविमानादिलक्षणाः. ५. जेम अलिमुक्तक 'नामे अनगार भगवंतना चरमशरीरी शिष्य हता तेम बीजा पण अंतिमशरीस्वाळा जेटला शिष्यो भगवंतने हता तेटलाने देखाडवाने लगतो प्रस्ताव करतां कहे छ के, .['ते णं' इत्यादि.] महाशुक्र नामना सातमा देवलोकथी, [ ' झाणंतरियाए' -त्ति ] चालु क्रियाने अटकावी देवी-विच्छेद करवो ते अंतरिका-कोइ पण क्रियानी समाप्ति करवी. ध्याननी समाप्ति ते ध्यानांतरिका अर्थात् ध्यानांतरिका. आरंभेल घ्याननी समाप्ति करी अने नवा ध्याननी शरुआत न करवी ते-ध्यानांतरिका, तेवी स्थितिमा वर्तता गौतमने. [ · कप्पाओ' ति ] देवलोकथी, [ सम्गाओ' ति] देवलोकना कोइ एक भागथी-पाथडाथी, [विमाणाओ' ति] देवलोकना पाथडाना एक भागथी. वागरणाई.' ति.] स्फुट करवा योग्य बाबतो- कया कल्पथी तेओ आव छे' 'कया विमानथी तेओ आवे छे' इत्यादि चालु ज वातो. नोसंयत देवो अने अर्धमागधी भाषा. १६. प्र०-भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं .१६. प्र०—'हे भगवन् !' एम कही भगवान् गौतमे वंदति, नमसति, जाव-एवं वयासी:--देवा णं भंते ! संजया ति श्रमण भगवंत महावीरने यावत्-आ प्रमाणे कडं के, हे भगवन् ! वत्तवं सिया? देवो संयत कहेवाय ! Arpan. १६. उ०-गोयमा ! णो तिणद्वे समढे, अब्भक्खाणमेयं. १६. उ०-हे गौतम ! ना-ए अर्थ समर्थ नथी-देवोने संयत कहेवा ए खोटुं छे. १७. प्र०-देवा णं भंते ! असंजता ति वत्तव्वं सिया ? १७. प्र०-हे भगवन् ! देवो असंयत कहेवाय ? १७. उ०-गोयमा ! णो तिणढे समढे, निदुरवयणमेयं. १७. उ०-हे गौतम ! ना-( कारण के ) ' देवो असंयत छे' ए कथन निष्ठुर वचन छे. १८. 0-देवा णं भंते ! संजयाऽसंजया ति वत्तव्वं १८. प्र०-हे भगवन् ! देवो संयतासंयत कहेवाय ! सिया ? - १८. उ०----गोयमा ! नो इणढे समढे, असब्भूयमेयं १८. उ०—हे गौतम ! ना-ए समर्थ नथी-देवोने संयतादेवाणं. संयत कहेवा ए अछतुं छतुं करवा जेतुं छे-खोटुं छे. १९. प्र०--से किं खाइ णं भंते । देवा हात वत्तव्वं सिया? १९, प्र०-हे भगवन् ! त्यारे हवे देवोने केवा कहेवा'? १९. उ०--गोयमा ! देवा णं नो संजया इ बत्तव्यं सिया. १९. उ०-हे गौतम ! देवोने नोसंयत कहेवा. १. मूलच्छायाः--ततः आवां श्रमणेन भगवता महावीरेण मनसा चैव पृष्टेन, मनसा चैव इदं एतद्रूपं व्याकरणं पाकृता सन्ती श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दावहे, नमस्यावः; वन्दित्वा, नमरियावा, यावत्-पर्युपास्वहे इति कृत्वा भगवन्तं गौतमं वन्देते, नमस्यतः, वन्दित्वा ममरियत्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता... भगवन् ! इति भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते, नमस्यति यावत्-एवम् सवादीत:-देवाः भगवन् ! संयता इति वक्तव्य स्यात् ? गौतम! नाऽयम् अर्थः समर्थः, अभ्याख्यानम् एतत्. देवा भगवन् ! असंयताः इति घक्तव्यं स्यात् । गीतम! नाऽयम् अर्थः समर्थः, निष्ठुरवचनमेतत्, देवा भगवन् ! संयताऽसंयता इति वक्तव्यं स्यात् । गौतम | नाऽयम् अर्थः समर्थः, असद्भूतम् एतद् देवानाम् तत् किं ख्यात भगवन् । देवा इति वक्तव्यं स्यात् ! गौतम | देवाः नासयता इति, वक्तव्यं स्यात्-अनु. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. - उद्देशक ४. एवं खलु दो देवा महिडिया, जाप महाणुभाना समणस्स भगओ महावीरस्स अंतियं पाउब्भूआ, तं नो खलु अहं ते देने जाणामि, कयराओ कपाओ वा, सग्गाओ वा, विमाणाओ वा कस्स या अमस्त अडाए इहं हवं आगया तं गच्छामि णं मंग महावीरं वंदामि नम॑सामि जाय-पजुवासामि इमाई णं एवाई बागरणाई पुच्छिस्सामि ति कट्टु एवं संपेहेर, संपेहित्ता उट्टाए उइ, जाव- जेणेव समणे भगवं महावीरे, - पशुवास गोयमादि । समणे भगवे महावीरे भगवं गोयमं एवं पयासी से पूर्ण तब गोवमा ! झाणंतरियाए यह माणस्स इमेवारूले अत्रि, भाव- जेणेव मर्म अंतिए तेथेन हवं आगए, से पूर्ण गोयमा अडे समहंता, अस्थि. गच्छाहिणं गोयमा। एए व देवा इमाई प्यारुवाई पागरणाई वागरेहिंति, भगवत्स्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. , ----तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे समणं भगमं महावीरं वंदर, नर्मसर, जेणेव ते देवा तेणेव पहारेत्य गमनाए. तए नं ते देवा भगवं गोयमं एनमार्ण पासंति, पाक्षित्ता हडा, जाय-हृयहिवया, खिप्यामेन अन्मुट्ठेति . सामेव परागच्छति, पचुवागच्छित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाव - णमंसित्ता एवं वयासीः-एवं खलु भंते ! अम्हे महासुकाओ कप्पाओ, महासगंगाओ विमाणाओ दो देवा महिडिया, जाय पाउन्भूआ; तर अम्हे समणं भगवं महावीरं वंदामो, नम॑सामो, वंदित्ता, नमंसित्ता मणसा चैव इमाई एयारूबाई वागरणाई पुच्छामो:-कइ णं भंते ! देवाणुपियाणं अंतेवासीसयाई सिज्झिहिंति, जावअंतं करिहिंति ? तए णं समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पुट्टे, अम्हे मणंसा चैव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ :- एवं खलु - त्यार पछी श्रमण भगवंत महावीर तरफथी एवा प्रकारनी अनुमति मळयाने लीये भगवान् गौत्तमे श्रमण भगवंतने बांदी, नमी अने जे तरफ पेडा देवो हता ते तरफ जत्रानो संकल्प कप, हने ते देवो भगवान् गौतमने पोतानी पासे आवता जोइने हर्षवाळा यावत् इतह्रदयाळा थयां अने शीघ्र ज उमा यह तेंमोनी सामे गया - ते देवो, ज्यां भगवान् गौतम हता त्यां आव्या-अने तेओने वांदी, नमी ते देवोए आ प्रमाणे कः - हे भगवन् ! महावुक नामना करपची, महास (स्व) विमानयी मोटी दिवाला यावत् - अमे वे देवो अहीं प्रादुर्भूत थया छीए अने ( पछी ) अमे श्रमण भगवंत महावीरने वांदीए छीए, नमीए छीए अने मनथी ज आ प्रकारना प्रश्नो पूछीए छीए-' हे भगवन् ! आप देवानुप्रिया केटला सो शिष्यो सिद्ध थशे यावत् - सर्व दुःखनो नाश करशे ? " आ रीते अमे श्रमण भगवंत महावीर ने मनथी पूछ्यापछ देवाणुभिया ! मम सत्त अंतेवासीसयाई, जाव-अं करेहिंति, पण ते श्रमण भगवंत महावीरे मनथी ज तेनो जवाब आप्यो के १. देवमामनुभाग एवं देवा जानामि कतरस्मात् नमस्यामि सायद भगवते महावीर अतिकं तद्न विमानावा अर्थ अवय अत्र शीघ्रम् आगत तद्गच्छामि भगवन् महावीर पन्चे मानिएपनि व्याकरणानि प्रयामि इति कृपा एवं ते विदयेन भगवान् महावीरः, यावत् पर्युपास्ते. गौतमादयः । श्रमणेो भगवान् महावीरे। भगवन्तं गतिमम् एवम् अवादीत्ः - तद् नूनं तत्र गौतम ! ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य अयम् एतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत्-येनैव मम अन्ति तेनैव शीघ्रम् आगतसद् नूनं गतम! अर्थः समर्थः इन्त अस्तित गच्छ गौतम! एता एवं देवा इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकरिष्यतः; ततेो भगवान् गौतमः श्रमणेन भगवता महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् श्रम भगवन्तं महावीर बन्दते नमस्यति देवप्रभारितवान् गमनाय ततस्तदेव भगत आयतं पश्वादया थ यावत्-हृतहृदये। क्षिप्रम् एव अभ्युत्तिष्ठतः, अभ्युत्थाय क्षिप्रम् एव प्रत्युपागच्छतः, प्रत्युपागम्य येनैव भगवान् गौतमस्तेनैव उपागच्छतः, उपागम्य यादव एवम् अवाद एवं भगवन् भय मदाशुकाद बद महास्वी माना है। देमी: सतः आम भगवन्तं महावीरं मन्दाय नमस्या दिया नमसाइमन ए यारणानि पृच्छायः कति भगवन् । देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासिशतानि सेत्स्यन्ति यावत्-अन्तं करिष्यन्ति ? ततः श्रमणेो भगवान् महावीरः आवाभ्यां मनसा पृष्टः, आव मनसा नैव इदम् एतद्रूपं व्याकरणं व्याकरोति, एवं खलु देवानुभिया ! मम सप्त अन्तेवासिशतानि यावत् - अन्तं करिष्यन्तिः- अनुव - " १७९ इंद्रभूतिने आ प्रकारनो संकल्प यावत् उत्पन्न थयोः मोदी ऋद्विवाळा यावत्-मोटा प्रभाववाळा बे देवो श्रमण भगवंत महावीरनी पासे प्रादुर्भूत थया हता तो हुं ते देवोने जाणतो नथी के, तेओ क्या करपथी, क्या स्वर्गंधी अने क्या विमानधी शा कारणे शीघ्र अही आव्या माटे जाउं भने भगवंत महावीरने बांदु, नमुं अने यावत्तेओनी पर्युपासना करूं तथा एम क पछी हुं मारा पूर्वप्रकारना आ प्रश्न पूछीश एम विचारीने, उभा थइने जे तरफ श्रमण भगवंत महावीर छे ते तरफ जइने यावत्सेभोनी सेवा करे छे हवे श्रमण भगवंत महावीरे गीतमादि साधुओ एन संबोधी भगवान् गौतमने आ प्रमाणे क के हे गौतम! ज्यारे तें ध्याननी समाप्ति करी डीभी सारे तारा मनम भ प्रकारनो संकल्प थयो हसो के हुं देवो संबंधी हकीकत जावा माटे श्रमण भगवंत महावीर पासे जाउं भने यावत्-ते ज कारणथी तुं मारी पासे अहीं शीघ्र आव्यो छे' केम हे गौतम! में कहां ए बराबर छे ने गौतमे कां के, 'हे भगवन् ! ते ? बराबर छे. ' पछी भगवंत महावीरे कह्यं के, तारी शंकाने टाळवाने सारु हे गौतम ! तुं ( ए देवोनी पासे ) जा, अने ए देवो जतने ए संबंधेनी पूरी माहिती संभळावशे. 6 " / Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, .१८१ . २०. प्राo-देवा णं भंते ! कयराए भासाए भासंति, कयरा २०. प्र०—हे भगवन् ! देवो कइ भाषामा • बोले छे ? वा भासा भासिज्जमाणी.विसिस्सइ ? अथवा देवो जे भाषानो प्रयोग करे छे ते भाषाओमां विशिष्टरूप कइ भाषा छे ? २०. उ०--गोयमा! देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति, २०. उ०—हे गौतम ! 'देवो अर्धमागधी भाषामां बोले छे सा वि य गं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सइ. अने त्यां बोलाती भाषाओमां पण ते ज भाषा-अर्धमागधी भाषा विशिष्टरूप छे. ६. देवप्रस्तावाद् इदमाहः- देवाणं' इत्यादि, ‘से किं खाइ णं भंते ! देवा इ वत्तव्वं सिय' त्ति. 'से' इति अथाऽर्थः. किं' इति प्रश्नार्थः. 'खाइ' त्ति पुनरर्थः. 'णं' वाक्यालंकारार्थः. देवा इति यद् वस्तु तद् वक्तव्यं स्यादिति. नो संजया इ वत्तव्वं सियं ' त्ति 'नो संयता' इत्येतद् वक्तव्यं स्यात् , असंयतशब्दपर्यायत्वेऽपि ' नोसंयत' शब्दस्याऽनिष्ठुरवचनत्वाद् मृतशब्दाऽपेक्षया परलोकीभूतशब्दवद् इति. देवाऽधिकारादेव इदमाहः-'देवा णं' इत्यादि. 'विसिस्सइ' त्ति विशिष्यते-विशिष्टा भवति इत्यर्थः. ' अद्धमागह ' त्ति भाषा किल षड्विधा भवति. यदाहः-- “प्राकृत-संस्कृत-मागध-पिशाचभाषा च शौरसेनी च, षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादप्रभ्रंशः" तत्र मागधभाषालक्षणम् किञ्चित् , किञ्चित् प्राकृतभाषालक्षणं यस्यामस्ति सा अर्ध मागध्या इति व्युत्पत्त्याऽर्धमागधी इति. ६. आगळना प्रकरणमां देव संबंधे हकीकत जणावी छे अने आ प्रकरणमा पण ते ज संबंधे हकीकत जणावतां आ सूत्र कहे. छ के- देवाणं' इत्यादि.] [ 'से' किं खाई ण भंते ! देवा इ वतव्वं सिय ' ति] अर्थात् हे भगवन् ! देवो ए शुं कहेचाय ? [नो संजया इ वत्तबं सिय ' ति ] देवो ‘नोसंयत' कहेवाय. शं०-' असंयत' अने 'नोसंयत 'ए' बन्ने शब्दनो ओ तो सरखो जछे तेम् छतां देवो : नोसंयत' कहेवाय अने, ' असंयत ' केम न कहेवाय ? समा०-जेा मृत-मरेल' अने ' देवगत थएल' ए बन्ने शब्दोनो अर्थ तो सरखो ज छे तो पण ' मरेलो' कहेवा करतां देवगत -थएलो' कहेवू जेम सारुं-अनिष्ठुर-लागे छे ..तेम:' असंयत । कहेवा करतां नोसंयत' कहेवू मीठं लागे छ माटे ज 'असंयत' ने बदले 'नोसंयत ' शब्द वापर्यो छे. देवनो अधिकार चालु होवाथी ज आ एक बीजी वात कहे छे के, [' देवा णं' इत्यादि.] [ ' विसिस्सइ ' ति]-विशेषरूप होय छे --- प्रमाणमां विशिष्ट-वधारे होय छे. [ अद्धमागह ' ति ] अर्धमागधी. भाषाना मुख्य छ प्रकार छे. कडुं छे के-"प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची-पिशाच भाषा, शौरसनी अने १. मूलच्छायाः-देवा भगवन् ! कतरया भाषया भाषन्ते, कतरा वा भाषा भाष्यमाणा विशिष्यते ? गौतम! देवाः अर्धमागध्या भाषया भाषन्ते, साऽपि च अर्धमागधी भाषा भाष्यमाणा विशिष्यतेः-अनु० १. ' से ' नो अर्थ हवे' छे. २. 'किम् ' नो अर्थ 'प्रश्न' छे. ३. 'खाद' नो अर्थ 'वळी' छे. ४. 'ण' वाक्यालंकार माटे छे.. ५. मागधीभाषानुं खरूप आ प्रमाणे छे: जे भाषा मगधमां चोलाती होय ते मागधी कहेवाय. पूर्व समये मगधदेशनी राजधानीचें नाम राजगृह (राजगिर ) हतुं. वर्तमानमा काशीथी गंगानी सामे कांठाना प्रिशने मगध कहेवामां आवे छे. वर्तमानमां मगधमां चालती भाषा, ग्राम्य हिंदीभाषा साये लगभग मळती जणाय के. भाचार्य श्रीहेमचंद्रे प्राकृतभाषा करता मागधीमा जे काइ विशेषता छे ते आ प्रमाणे जणावी छे: मागधीमां१. 'र'ने बदले 'ल'वपराय छे:-नर-निल, २. 'स' ने बदले 'श' वपराय छे:-हंस-हश. ३..स्व, स्त, स, स्म, स्क, स्ट, स्त अने स्फ जेवा संयुक्त अक्षरो पण मागधीमा वपराय छे. ४. “' ने बदले 'स्त' वपराय छः-अर्थ-अस्त. ५. ज','द्य' अने 'य' ने स्थाने 'य'वपरराय छे:-जनपद-यणवद. मद्य-मय्य. यथा-यधा. ६. न्य ण्य ' अने 'अ'ने स्थाने 'म' वपराय छे:-मन्यु-मञ्ज. पुण्य-पुज, प्रज्ञा-पव्या. अजलि-अलि . ७. छ' ने बदले 'श्व' वपराय छ:-गच्छ-गश्च. ८. 'क्ष' ने बदले क वपराय छे:-राक्षस-ल कश. ९. क्याय 'क्ष' ने बदले स्क' पण वपराय छ:-प्रेक्षते-पेस्कदि. ६. पैशाचीभाषानुं स्वरूप आ प्रमाणे छे: जभाषा पिशाचदेशोमा चालती होय ते पैशाची कहेवाय. पिशाचदेशोनां नाम आ छः पांड्य, केकय, वाल्हीक (अफगानीस्थान विगेरे.), सिंह, (सिंहल), नेपाल, कुंतल, सुदेष्ण, वोट, गांधार ( कंदहार), हैय अने कन्नोजन. पैशाचीमामागधीनो छट्टो फेरफार कायम रहे छे. 'ण' ने बदले 'न' वपराय छ:-गुण-गुन, 'द' ने बदले 'त' वपराय छे:-मदन-मतन. ल' ने बदले 'ळ'वपराय छ:-शील-शीला Jain Education international Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ४. भोप शना भिन्नताना कारणने लइने घणा भेदवाळी थएल-छठी अपभ्रंश भाषा " ते छ भाषामांनी मागधी भाषानुं अने प्राकृत भाषानु कांइक, कांहक जेमां लक्षण छे ते अर्धमागधी' भाषा कड़वाय अर्थात् जे भाषामां थोडं घगुं मागवी भाषानुं निशान होय अने थोई घणुं प्राकृत भाषानुं निशान अर्धमागधी. होय.ते. अर्धमागधी' भाषा कहेवाय. आ प्रमागेनो अर्थ · अर्धमागधी '-' मागधीनुं अडधुं' ए प्रकारे ' अर्धमागधी ' शब्दनी व्युत्पत्ति उपरथी तरी आवे छे. केवली अने छद्मस्थ विगेरे. २२.प्र.- केवली णं भंते !. अंतकरं वा, अंतिमसरीरियं २१, प्र० –हे. भगवन् ! केवली मनुष्य, अंतकरने वा वा जाणइ, पासई ? चरमशरीरवाळाने जाणे, जूए ? २१. उ०--हंता, गोयमा ! जाणइ, पासइ. २१. उ०—हा, गौतम ! जाणे अने जूए. ५. 'टु' ने वदले तु' पराय छे:-कुटुम्ब-कुतुंब.. ६. 'य' ने बदले 'रिय' वपराय छ:-भाया-भारियां. ७. 'न' ने बदले 'सिन' वपराय छे:--स्नान-सिनान, ८. '' ने बदले 'सट' वपराय छे:-कष्ट-कसट. चलिका-पैशाची९. वर्गना त्रीजा अक्षरने बदले पेलो वपराय छे:-नगर-नकर. १०. वर्गना चोथा अक्षरने बदले बीजो वपराय छे:-मेघ-मेख, शौरसेनी भाषानुं खरूप आ प्रमाणे छ: जे भाषा शूरसेन देशमा चालती होय ते शारसेनी कहेवाय. पूर्व समये शूरसेन देश की राजधानीनु नाम मधुरा हतु.. वतमान मथुरा अने तेनी आसपास बोलाती भाषाने 'व्रजभाषा' कहेवामां आवे छे. ए शौरसे नी भाषामा प्राकृत करता जे कांह खास मित्रता. छे ते आ के: शौरसेनीमां१. अनादिमा रहेला 'त' ने बदले 'द' वपराय छ:-तात-ताद. २. एज प्रकारे 'थ'ने स्थाने 'घ' वपराय छ:-नाथ-नाध. ३. 'य' ने बदले 'प्य' वपराय छे:-सूर्य-सुय्य. मागधी विगेरे भाषाओना विशेष परिचय माटे श्रीहेमचंद्रजीन प्राकृत-व्याकरण जोवानी भलामण छे. अहीं तो मात्र खास खास विशेषता जजणावी. १. श्रीहेमचंद्रजीना समयनी अपभ्रंश भाषानो नमुनो आ प्रमाणे छे:जस वयण विणिजिउ नं ससंकु अप्पाणु निसि हिं दंसह स-संकु, जसु नयणकंतिजियलजभरिग वणवासु पवनय नाइ हरिण.८ जसु सहहिं केसघण कसणवन्न नं छप्पय मुहपंकय पवन, भुवणिकवीरकंदप्पधणुह सुंदरिम विडंबहि जासु. भमुह. ९ जसु. अहर-हरियसोहरगसारु नं विद्दुम सेवइ जलहि खारु, जसु दंतपंति सुंदेरु रुंदु नहु सीओसहूं तु वि लइ कुंड. १० असणंगुलि पल्लव नहपसूण जसु सरलभुयाउ लयाउ नूग, घणपीणतुंगथणभारसत्तु जसु मज्झु तणुतणु नं पदत. ११ (कुमारपालप्रतिबधि 6-४४० वधू माटे जुओ श्री हेमचंद्रजीनुं आठमा अध्यायर्नु चोथु पादः-अनु. २. अर्धमागधीनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे:. मागध्या अर्थम् '-अर्धमागधी-ए व्युत्पत्ति अवनागधी शब्दनी छे-ए व्युत्पत्तिथी बनतो अर्थागधी' शब्द एन स्पागे सूबते,छे के, जे भाषामा बराबर अडधी मागधी भाषा अने वरावर अडधी बीजी बीनी भाषाओ मिश्रित थरली होय ते.ज भाषा अर्धमागधी शब्दयी संबोवी शकाय. जो आपणे शब्दोनो हिसाब लगावीए तो. एम कल्ली शकाय के, जे भाषामा सो शयोमा पचास शब्दो तो मागधी भाषाना अने पचास शब्दो बीजी बोजी भाषाना-प्राकृत, पाली, शारसेनी अने पैशाची विगेरेना मिश्रित थएला होय ते ज भाषा 'अर्धमागधो' शब्दनो अर्थ धारण करी शके छे. • अर्धमागधी' ना खरूप विषे लखता आर्य श्रीजिनदास महत्तरजीए निशीथ चूर्णिमा ( लि. भ. पृ० ३५२ ) जणाव्यु छ के-“मंगहद्धविसयभा. सानिबद्ध अद्धमागह; अहह्वा अट्टारसदेसीभासाणि पतं अद्धमागधं" अधीत् मगधदेश नी अग्धी भाषामा निबंधाएल ते अर्धमागध; अनवा. अढार प्रकारनी देशी भाषामा नियत थएल ते अर्धमागध." ए विषे पोताना 'प्राकृतसवैख"मां महर्षि माकंडेयजी जणावे छे के-शौरसेन्या अदूरत्वाद् इयमेव अर्धमागधी" (पृ० १०३) मगधदेश अने शूरसेन देश पासे पासे होवाने लीधे मगधनी (मागधी) भाषाने शूरसेन देशनी भाषानो (शारसेनीनो) संपर्क थएल होवाथी मागधी भाषाने ज अर्धमागधी समजवानी छे. शारसेनी भाषामा प्राकृतर्नु अने पाली केटलुक मिश्रण रहेतुल) होवाथी तेना संपर्कवाळी मागधीभाषामां पण ते मिश्रण संभवे छे. एटले 'मागध्या अर्धम्' वाळो व्युत्पत्तिने जरा पण आंच आवती होय तेम जणातुं नथी. ___ अहीं, जे देवोनी पण अर्धमागधी भाषा होवार्नु जणाj छे ते मात्र वर्णन वा भाषा-प्रशंसा ज लागे छे. अथवा तो एम लागे छे के, जे संप्रदायने जे चीज पूज्य के प्रिय होय ते चीज, तेओ देवोने पण पूज्य के प्रिय होवानुं लख्या सिवाय रहेला नथी-जेम 'राम' ने जैनो जैन कहे छे, बौद्धो बौद्ध कहे छे भने वैदिको वैदिक कहे छे-एज रीते इन्द्र' विषे आगळ जणावाइ गयुं छे. पांडबोने माटे पण एम ज छे. शरुआतमा जनना मूळ प्रथो ए भाषामा लखाया हशे एथी जैनो ए भाषाने विशेष पूज्य अने देवभाषा कहेवा लाग्या तेम वैदिकोने संस्कृतभाषा प्रिय होवाथो तेओए तेने (संस्कृतने) देवभाषा कही अने बौद्धोए पण एम ज कह्यु-एटले आवा उल्लेखोमा मात्र सांप्रदायिकता सिवाय बीजो कशो भास आवतो लागतो नथीः-अनु० मूलच्छाया:-केवली भगवन् ! अन्तकर वा, अन्तिमशरीरकं वा जानाति, पश्यति । इन्त, गौतम । जानाति, पश्यतिः-अनुक Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक.५.-उद्देशक, ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीस्त्र. २२. प्र०--जहा णं भंते ! केवली अंतकरं वा, अंतिम- २२. प्र०—हे भगवन् ! जे प्रकारे केवली मनुष्य, अंतसरीरियं वा जाणइ, पासह तहा णं छउमत्थे वि. अंतकरं वा, करने वा चरमशरीरवाळाने जाणे अने जूए ते प्रकारे छपस्य अंतिमसरीरियं वा जाणइ, पासइ ? मनुष्य, अंतकरने वा अंतिमशरीरवाळाने जाणे, जूए ? २२. उ०---गोयमा । णो इण समढे, सोचा जाणइ, २२. उ०-हे गौतम! ते अर्थ समर्थ नथी. तो पण.. पासति; पमाणओ वा. ___ सांभळीने अथवा प्रमाणथी छद्मस्थ मनुष्य पण अंतकरने वा चरमदेहिने जाणे अने जूए. २३. प्र०--से किं तं सोचा ? २३. प्र०—' सांभळीने ' ते शुं ? २३. उ0----सोचा णं केवलिस्स वा, केवलिसावयस्स वा, २३. उ०-सांभळीने एटले केवली पासेथी, केवलिना केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स वा, केवलिउवासियाए श्रावक पासेथी, केवलिनी श्राविका पासेथी, केवलिना उपासक वा; तप्पक्खियस्स वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तपक्खियसा- पासेथी, केवलिनी उपासिका पासेथी, केवलिना पाक्षिक-स्वयंबुद्ध -वियाए वा; तप्पक्खियउवासगस्स वा, तप्पक्खियउवासियाए वा; -पासेथी, स्वयंबुद्धना श्रावक पासेथी, स्वयंबुद्धनी श्राविका पासेथी, से तं सोचा. स्वयंबुद्धना उपासक पासेथी, स्वयंबुद्धनी उपासिका पासेथी सांभळीने. ए ' सांभळीने ' शब्दनो अर्थ थयो. २४. प्र०----से किं तं पमाणे? २४. प्र०-'प्रमाण' ते शं? २४ उ०—पमाणे चउठिवहे पण्णत्ते, तं जहा:-पञ्चक्खे, २४. उ०-प्रमाण चार प्रकारनुं छे.. ते जेमके, प्रत्यक्ष. अणुमाणे, ओषम्मे, आगमे; जहा अणुओगदारे तहा णेयव्वं अनुमान, औपम्य-उपमान अने आगम..जे प्रकारे अनुयोग पमाणं, जाव-'तेण परं नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे. परंपरागमे.' द्वार' सूत्रमा प्रमाणसंबंधे लढ्यु छे ते प्रकारे जाणवं, यावत 'त्यारबाद नो आत्मागम, नो अनन्तरागम, परंपरागम', - १. मूलच्छायाः-यथा भगवन् ! केवली अन्तकरं वा, अन्तिमशरीरकं वा जानाति, पश्यति; तथा छद्मस्थोऽपि अन्तकर वा, अन्तिमशरीरक, वा जानाति, पश्यति ? गौतम ! नाऽयम् अर्थः समर्थः, श्रुत्वा जानाति, पश्यति प्रमाणतो वा. तत् किं तत् श्रुत्वा ? श्रुत्वा केवलिनो वा, केवलिश्रावकस्य वा, केवलिश्राविकायाः वा, केवल्युपासकस्य वा, केवल्युपासिकायाः वा, तत्पाक्षिकस्य वा, तत्पाक्षिकश्रावकस्य वा, तत्पाक्षिकश्राविकायाः वा, तत्पाक्षिकोपासकस्य वा, तत्पाक्षिकोपासिकाया वा तस्य तत् स्वा. तत् किं तत् प्रमाणम् ! प्रमाण चतुर्विध प्राप्तम्, तद्यथाः-प्रत्यक्षम्, अनुमानम, औपम्यम् , आगमः; यथा अनुयोगद्वारे तथा ज्ञातव्यम् प्रमाणम्, यावत्-तेन परं नो भात्मागमः, नो अनन्तरागमः, परंपरागमः--अनु. . १. आ प्रमाणो विषे विगतवार हकीकत श्रीअनुयोगद्वार सूत्रमा (पृ० २११-२१९ स०) आ प्रमाणे छे:प्र०-“से किं तं णाणगुणप्पमाणे? प्र०-ज्ञानगुणप्रमाण ते शुं? उ.-णाणगुणप्पमाणे चउब्बिहे पण्णते, तं-जहाः पञ्चक्खे, अणु- उ.-ज्ञानगुणप्रमाणना चार प्रकार जणावेला छे, ते जेमके प्रत्यक्ष, माणे, उवम्मे, आगमे. अनुमान, उपमा अने आगम. प्र०-से किं तं पञ्चक्ट? प्र०-प्रत्यक्ष ए शुं? उ.-पञ्चक्खे दुविहे पण्णते, तं-जहाः इंदिअपञ्चक्खे अ, णोइंदिन- उ०-प्रत्यक्षना बे प्रकार जणावेला छे, ते जेमके, इंद्रियप्रत्यक्ष अने पचक्खे अ.. नोइंद्रियप्रत्यक्ष. प्र०-से किं तं इंदियपचक्खे ! प्र०-इंद्रियप्रत्यक्ष ए शुं? उ०-इंदियपचक्खे पंचविहे पण्णत्ते. x उ.-इंद्रियप्रत्यक्षना पाच प्रकार जणावेला छे. ( ए पांचे स्पष्ट छे.) प्र.-से कितं नो इंदियपच्चक्खे ? प्र०-नोइंद्रियप्रत्यक्ष ए शुं ? उ.-नोईदियपश्चक्खे तिविहे पण्णते, तं-जहाः अहिणाण. मण- उ.-नोइंद्रियप्रत्यक्षना प्रण प्रकार जणावेला छे-अवधिज्ञान, मन:पनव० केवलणाण.xxx पर्यवज्ञान, केवलज्ञान. प्र०-से किं तं अणुमाणे ? प्र०-अनुमान ए शुं! उ.-अणुमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं-जहाः पुग्ववं, सेसवं, दिवसाहम्मवं.. उ०-अनुमानना प्रण प्रकार जणावेला छे:-पूर्ववत्, शेषवत् भने दृष्टसाधर्म्यवत् प्र.-से किं तं पुववं? प्र.-पूर्ववत् ए शुं? उ.-पुत्ववं उ०-पूर्ववत्-नुं खरूप आ छ:-जेम भागीने फरी आवेला पुत्रने माया पुतं जहा नटुं जुवाणं पुणरागयं, माता कोइ जातना पूर्वना निशानथी ओळखी काढे छे-क्षतवडे, प्रणवडे, काइ पञ्चभिजाणेजा पुन्वलिंगेण केणइ. लांछनवडे, मसवडे, तलवडे-ए पूर्ववत्-अनुमान. तं-जहा-खतेण वा, वणेण वा, लंछणेण वा, मसेण वा, तिलएण वासे तं पुववं. प्र०-से कि तं सेसवं? प्र-शेषवत् ए ? उ.-सेसवं पचविहं पपणतं, तं-जहा-कज्जेणं, कारणेणं, गुणेणं, उ.-शेषवत्-जा पाच प्रकार आ रीते छ: कार्यधारा, कारणद्वारा, अवयवेणं आसएणं. गुणद्वारा, अवयवद्वारा अने आश्रयद्वारा (यतुं ज्ञान-समजण.) प्र.-से किं तं कजेणं! प्र-कार्यद्वारा (थतुं ज्ञान)एशं? . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ २५. १० फेमली मते । परिमकम्मं वा चरिमणि वा जागर, पास २५. उ० - हंता, गोयमा ! जाणइ, पासइ, जहा णं भंते ! केवली चरिमकम्मं वा वहा णं अंतकरणं वा आलायगो तहा परिमकम्मेण वि अपरिसंसि यच्यो. , - उ० – कजे - संखं सद्देणं. भेरिं ताडिएणं. वसभं ढक्किएणं. मोर केका सिदे ग गुलगुलाइए. रणपणाइए से से कले श्रीरायचन्द्र - जिनागम संग्रहे प्र०से किं तं कारणेणं ! उ०- कारणेणं-तंतवो पडस्स कारणं-न पडो तंतुकारणं. वीरणा कड इस कारणं-न को वीरणकारणं. मिप्पिंडो घदस्स कारणं न घड़ो मिप्पिंड कारण से तं कारणेणं. प्र० - से किं तं गुणेणं ? उ०- गुणं निरुपणं रसे मरे आसाएफ से गुणेनं प्र०—से किं तं अवयवेणं ! ० अवयवेगं महिसं सिंगेणं. कुकु सिहाएणं. इथं विसायेनं वराहं दाढाए. मोरे पिच्छे गं. आसं खुरेणं. वश्धं नहेणं. चमरिं वालागेणं. . वाणरं लंगूलेणं. दुपयं मणुस्सादि चउप्पयं गवमादि. बहुपयं गोमिआमादि. सोहं केसरेणं. बसहं कुक्कुहेणं. महिला वलयबाहाए. परिअरसंघेण भई जाणिजा महिलिअं निवसणेणं, पाएका एतं अ - प्र० - से किं तं आसएणं ? उ०- भसए- चूमे सहि बहाने बुद्धि विकारे कुमारे किरिया भाषितेन च नेत्रविकारं गृह्यते मनः से तं असणं-से तं सेसवं. प्र० - से किं तं दिवसादमवं ? उ०- दिसा पिसादिच, पिसेसदिच प्र० -- से किं तं सामन्न दिहं ? ॐ० सामन दिजा एगो पुरियो गंदा बहवे राजा बने पुराता एरिस जहा एयो करिनो तहा बहने करिसाचा "कहाँ बढ्ने राणा तदा एगो रिसायणो से तं सामादि प्र० - से किं तं विसेस दिहं ! ३० बसेस से जड़ा नाम के रामपु "दिन पश्चभिजाणेजा- अर्थ से पुरिसे बहू करिसावणाणं मज्झे पुरुषदि करिसावणं पथभित्रा करणे तस्य समासभी तिमि गहणं भवइ. तं जहाः अतीय कालगणं, पहुंपण्णकालगंहणं, अणागयकालगहणं.. प्र०― से किं तं अतीय कालग्रहणं ? उ०- अतीय कालगणं-उत्तणाणि वणाणि निप्पण्णसस्सं वा मेइनिं पुष्णाणि अ कुण्ड-सर-णई दीहिआ - तडागाईं पासिता तेणं साहिजइ, जहा -बुट्टी आसीसे से अतीय कालग सेकि पप्प ५. उद्देश. २५. प्र० - हे भगवन् केपी मनुष्य केला कर्मने वा छेली निर्जराने जाणे, जूए ? " २५. उ०- हे गौतम! हा जाणे, जूर. हे भगवन् ! जेम केवली छेला कर्मने जाणे ए प्रश्ननो ( आलापक ) जेम अंतकर विषेनो आलापक कह्यो तेम ' छेला कर्म ' ना प्रश्न साधे पण पूरो आापक जाणवो. उमेरका मोरनुं, हणहणाटवडे घोडानुं, गुलगुलाटवडे हाथीनुं घणघणाटवडे रथनुं ज्ञान-ते कार्यद्वारा थतुं ज्ञान. " प्र० - कारणद्वारा ( धतुं ज्ञान ) ए शुं ? उ०- तांतणाओ कपडानुं कारण छे-कपडे तांतणानुं कारण नथी. घासनी सळीओ सादडीनुं कारण छे सादडी ए सळीओनुं कारण नथी. माटीनो पिंडलो घानुं कारण छे घडो ए पिंडलानुं कारण नथी ते कार्यद्वारा थतुं ज्ञान. प्र० -- गुणद्वारा ( धतुं ज्ञान ) ए शुं ? ० निवासीना भी खावडे मदिरा अनेन गुणद्वारा भान 1 + प्र० - अवयवद्वारा (थतुं ज्ञान ) ए शुं ? उ०- शिंगडावडे पाडानुं, शिखावडे कुकडानं, दंतूशळवडे हाथिनुं, दाढावडे वराइनुं, पीछांवडे मोरनुं, खरी ( डाबला ) वडे घोडानुं, नखवडे वाघनुं, वाळना जत्थावडे चमरिनुं, पुंछडावडे वानरनुं, बे पगवडे मनुयदि चाय विगेरे पापादिकाळ वडे सिंहनुं, कोंढवडे बळदनुं, हाथना वलयवडे स्त्रीनुं, परिकर बंधवडे सुमनुं, वस्त्रवडे स्त्रीनं, एक चडेला दाणावडे आखा द्रोणपाकनुं अने एक गाथावडे कविनुं ज्ञान - ते अवयवद्वारा थतुं ज्ञान. प्र० -आश्रयद्वारा ( थतुं ज्ञान ) ए शुं ? उ०- धूमद्वारा अग्निनुं, बलाहकद्वारा पाणिनुं, वादळाना विकारद्वारा वृष्टिनुं, सदाचारद्वारा कुलपुत्रनुं ज्ञान इंगित, आकारित, शेय, क्रिया भाषित अने आंख तथा मोढाना विकारो द्वारा अंदरनुं मन समजी शकाय छे ते आश्रयद्वारा यतुं ज्ञान - ते शेषवत्. प्र० - दृष्टसाधर्म्यवत् ए शुं ? - उ०- दृष्टसाधर्म्यवत्ना ने प्रकार छेः सामान्यदृष्ट भने विशेषदृष्ट प्र० - सामान्यदृष्ट ए शुं ? उ०- सामान्यष्ट आ छे:-जेम एक पुरुष तेम घणा पुरुष. जेम घणा कापण जैन पणा पुरुष रोग एक पुरुष जेव एक कार्यपण ते कार्षीपण तेम एक कार्षीपण ते सामान्यदृष्ट. - प्र० - विशेषदृष्ट ए ? उ०- विशेषदृष्ट आ छे:--जेम कोइ पुरुष घणा पुरुषोनी बच्चे पोतामा ओळखिताने ओळखी ले आ ते पुरुष. घणा कार्षापणो वचे पूर्वे जोएला कापण ओळख आपण मजा प्रहण थाय छे:-- अतीतकालग्रहण, वर्तमानकालग्रहण अने अनागतकालग्रहण. प्र० अतीताण ए उ०- अतीतकारमण एटले पासी भरेला बनने अनाज भी जमीनने अने पाणीथी भरेला कुंड, सरोवर, नदी, वाव अने तळावोने जोने एमवायादी-कामग - प्रत्युत्पन्नकालमद्दण ए शुं ?. प्र० तम जागाति पश्यति यथा भगवन् केली १. छावा चरमनिया जानाति पश्यति चरक वा यथा अन्तकरेण वा, आलापकस्तथा चरम कर्मणाऽपि अपरिशिष्टो ज्ञातव्यः -- अनु० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २६. प्र०-केवली णं भंते ! पीयं मणं वा, वई वा २६. प्र०---हे भगवन् ! केवली मनुष्य, प्रकृष्ट मनने वा, धारेज ? प्रकृष्ट वचनने धारण करे? २६. उ०-हंता, धारेज. २६. उ०-हा, धारण करे. उ.-पडप्पण्णकालगणं-साई गोयरग्गगयं विच्छडिअपउरभत्तपाणं उ०-प्रत्युत्पनकालग्रहण एटले साधुनी गोचरीमा आवेला विस्तृत-प्रपासित्ता तेणं साहिजइ, जहा-सुभिक्खे वट्टइ, से तं पडुप्पण्णकालगहर्ण. चुर-अन्नपानने जोइने एम कहेवाय के-सुभिक्ष वर्ते छे-ते प्रत्युत्पन्नकालग्रहण, प्र०-से किं तं अणागयकालगण? प्र०-अनागतकालग्रहण ए शु? उ०-अणागयकालगण उ०-अनागतकालग्रहण एटले वादळानुं निर्मळपणुं, काळा पर्वतो, अन्भस्स निम्मलत्तं कसिणा य गिरी सविजआ मेहा, विजळीवाळा मेघो, मेघनो गगडाट, वायुभ्रमण अने राती तथा चिकणी थणिों वाउभामो संझा रत्ता पणिद्धा य. संध्या, वारुण, माहेंद्र के बीजो कोइ प्रशस्त उत्पात जोइने. एम कहेवाय वारुण वा महिंदं वा अण्णयरं वा पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिजइ, के-वरसाद सारो थशे-ते अनागतकालग्रहण. एत्रणे प्रहणो विपरीतरीते महा-सुवुढी भविस्सइ-से तं अणागयकालगहणं. एएसिं चेव विवज्जासे ति. पण थाय छे. ए प्रणे विपरीत प्रहणोनां नाम पूर्वनी जेवा जे छे.. विह गहणं भवइ. तं-जहा-अतीयका पडुप्पण्णका० अणागयका०, -प्र०-से किं तं अतीयकालगण? प्र०—विपरीत अतीतकालग्रहण ए शुं ? उ.-अतीयका नित्तिणाई वणाणि, अनिप्पण्णसस्स वा मेइणिं, उ०-तृण विनानां वनो, अनाज विनानी जमीन अने पाणी विनानामुक्काणि अ कुंड-सर-नई-दीहिअ-तडागाई पासित्ता तेणं साहिज्जद, जहा- सूकां-कुंड, सरोवर, नदी, वाव अने तळाव विगेरेने जोइने एम कहेवाय कुवुढी आसी-से तं अतीयकालगहणं. के-पूर्वे वरसाद न हतो-ते अतीतकालविपरीतग्रहण. प्र.-से कि तं पडुप्पण्णकालगणं ? प्र०—विपरीत वर्तमान कालग्रहण ए शुं? उ०-पडुपर० साहुं गोयररगगयं भिक्खं अलभमाण पासित्ता तेणं उ०-साधुनी गोचरीमा भिक्षा नहीं मळती जोईने एम कहेवाय के, साहिज्जइ, जहा दुभिक्खे वइ-से तं पडुप०. दुकाळ वर्ते छे. ते विपरीत वर्तमानकालग्रहण, प्र०-से किं तं अणागयकालगणं ? प्र०—विपरीत अनागत कालग्रहण ए शुं ? .. उ०-अणागय० उ.-दिशाओ धूम जेवी जणाय, संवृत मेदिनी अप्रतिबद्ध (1) जणाय, धूमायंति दिसाओ संविअमेइणी अपडिबद्धा, नैऋतना वायुओ जणाय तो कुवृष्टिना निशान छे. घाया नेरइया खलु कुहिमेवं निवेयंति. अग्गेयं वा, वायव्यं वा अण्णयरं वा अप्पसस्थ-उप्पार्य पासित्ता तेणं अग्मिखूणना, वायव्यखूणना के बीजा कोई अप्रशस्त उत्पातने जोइने साहिज्जइ, जहा-कुट्टी भविस्सइ-से तं अणागयकालगहणं-से तं विसेस- एम कहेवाय के, दुकाळ थशे-ते विपरीत अनागत कालग्रहण-ते विशेषदिह्र-से तंदिइसाहम्मवं-से तं अणुमाणे. दृष्ट-ते दृष्टसाधर्म्यवत्-ए रीते अनुमाननी पूरी व्याख्या छे. प्र०-से किं तं उवम्मे ? प्र०-उपमा ए शु? उ०-उवम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-साहम्मोचणीए अ, वेहम्मो. उ०-उपमा बे प्रकारनी छः साधर्म्यथी थती उपमा अने वैधयेथी वणीए अ. थती उपमा. ___प्र०-से किं तं साहानणीए ? प्र०-साधर्म्यथी थती उपमा-ए शुं! उ०-साहम्मोवणीए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-विचिसाहम्मोवणीए, उ०-साधर्म्यथी थती उपमा त्रण प्रकारनी छे:-किंचित्साधर्म्यथीथती, पायसाहम्मोवणीए, सबज्ञाहम्मोवणीए. प्रायः साधर्म्यथी थती अने सर्व साधर्म्यथी थती.. प्र०-से किं तं किंचिसाहम्मोवणीए ? प्र-किंचितसाधर्म्यथी थती उपमा ए शुं ? उ०-किंचिसाहम्मोवणीए-जहा मंदरो तहा सरिसवो, जहा सरिसवो उ.-किंचित् साधयेथी थती उपमा आ छ:-जेम मंदर तेम-सरसव तहा मंदरो. जहा समुद्दो तहा गोप्पयं, जहा गोप्पयं तहा समुहो. जहा अने जेम सरसव तेम मंदर. जेम समुद्र तेम खाबोधियुं अने जेम खाबोभाइयो तहा खज्जोतो, जहा खज्जोतो तहा आइचो. जहा चंदो तहा कुमुदो, चियुं तेम समुद्र. जेम सूर्य तेम खजूओ अने, जेम खजूओ तेम सूर्य. जैम जहा कुमुधो तहा चंदो-से तं किंचिसाहम्मोवणीए. चंद्र तेम कुमुद अने जेम कुमुद तेम चंद्र-ए बधी उपमा किंचित् साथ Hथी थएली छे. ..प्र०-से किं तं पायसाहम्मोवणीए ? प्र०-प्रायः साधर्म्यथी थती उपमा ए. शुं? ___उ०-पायसाहम्मोवणीए-जहा गो तहा गवओ, जहा गवओ तहा उ०-प्रायः साधर्म्यथी थती उपमा आ छे:-जेम गाय तेम.गवय गो-से तं पायसाहम्मो०. अने जेम गवय तेम गाय-ते प्रायः साधर्म्यथी थती उपमा. प्र०-से कि तं सव्वसाहम्मोवणीए ? . प्र.-सर्व साधर्म्यथी थती उपमा ए शुं? उ.-सब्वसाहम्मे उवम्मे नत्थि, तहावि तेणेव तस्सोवम्मं कीरइ. उ.-सर्व साधर्म्यमां उपमा नथी-तेमां ते वडे ज तेनी उमा जहा अरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं कयं. चकवट्टिणा चकवट्टिसरिसं कयं. बल- अपाय छे. जेम के-अरिहंतोए अरिहंत जेवं कर्यु. चक्रवर्तिएं चक्रवर्ति जेवं देवेण बलदेवसरिसं कयं. वासुदेवेण वासुदेवसरिसं कयं. साहुणा साहुस- कयु. बलदेवे बलदेव जेवू कर्यु. वासुदेवे वासुदेव जेवू कयु. साधुए साधु रिसं कयं-से तं सब्वसाहम्मे-से तं साहम्मोवणीए. जेवं कषु. ते सर्व साधय-ते सर्व साधर्म्यथी थती उपमा. 'प्र०-से किं तं वेहम्मोवणीए ? प्र०-वैधय॑थी थती उपमा ए शुं ? उ.-वेहम्मोवणीए तिविहे पणत्ते, तं जहा-किंचिनेहम्मे, पायवेहम्मे, उ०—वैधय॑थी थती उपमा त्रण प्रकारनी छे:-किंचित् वैधय॑थी यती सव्ववेहम्मे. उपमा, प्रायः वैधय॑थी थती उपमा अने सर्व वैधम्यैथी थती उपमा. प्र० किं तं किंचिवेहन्म ! प्र०—किंचित् वैधय॑थी पती उपगा ए शं? १. मूलच्छायाः-केवली भगवन् ! प्रणीतं मनो कावा धारयेत् ? हन्त, धारयेत् :-अनु. . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक ५.-उदेशक ४. २७. Jo-जेहा णं भंते ! केवली पीय मणं वा, वई वा २७. प्र०--हे भगवन् ! केवली मनुष्य, जे प्रकृष्ट मनने धारेज तं गं वेमाणिया देवा जाणति, पासांत ? वा, प्रकृष्ट वचनने धारण करे छे तेने वैमानिक देवो जाणे छे. जूए छे ? २७. उ.-गोयमा ! अत्थेगतिया जाणति, पासंति; अ- २७. उ०--हे गौतम | केटलाको जाणे छे, ज गतियां ण जाणंति, ण पासंति. केटलको नथी जाणता, नथी जोता. २८. प्र०-से केणद्वेणं जाव-न पासंति ? २८. प्र०--ते केवी रीते यावत्-नथी जोता ? २८. उ०-गोयमां! वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं २८. उ०--हे गौतम ! वैमानिक देवो बे प्रकारना कह्या 'जहा:-माइमिच्छादिंडीउववनगा य, अमाईसम्मदिट्टीउववनगा छे, ते जेमके: मायिमिथ्यादृष्टिपणे उत्पन्न थयेला अने अमायिस 'य; तत्व णं जे ते माइमिच्छादिवीउववनगा ते न याणंति, न म्यग्दृष्टिपणे उत्पन्न थयेला, तेओमां जे मायिमिथ्यादृष्टिपणे उत्पन्न पासति तत्थ णं जे ते अमाईसम्मदिट्टीउववनगा ते णं जाणंति, थयेला छे तेओ नथी जाणता, नथी जोता अने जेओ अमायी पासंति. [से केणद्वेणं एवं बुच्चय--अमाईसम्मदिवी जाव-पासंति? सम्यग्दृष्टिपगे उत्पन्न थयेला छे तेओ जाणे छे-जूए छे. गोयमा ! अमायीसम्मदिही दुविह। पन्नत्ता,-अनंतरोववनगा य, [अमायी सम्यग्दृष्टि यावत्-जूए छे' तेम कहेवार्नु शु कारण? परंपरोववनगा य; तत्थ णं अणंतरोवनगा न जाणत, परंपरो- हे गौतम! अम.यी सम्यग्दृष्टि देवो बे प्रकारना कहेला छे, ते ववनगा जाणंति. से केणद्वेणं भंते । एवं वचइ-परंपरोक्वनगा जेमके अनंतरोपनक अने परंपरोपपन्नक. तेमा जे अनन्तरोपपन्नक जाव-जाणंति ? गोयमा ! परंपरोक्वनगा दविहा पन्नता:-पज्ज- छे तेओ नथी जाणता अने जेओ परंपरोपपन्नक छे तेओ जाणे छे. तगा. य, अपजत्तगा य: पज्जत्ता जाणंति, अपज्जचा न हे भगवन् ! 'परंपरोपपत्रक देवो यावत्-जए छे' तेम जाणंति.] एवं अणंतर-परंपर-पज्जत्ता-जत्ता य; उवउत्ता अणुष- कहव जत्ता-जत्ता य. उवउत्ता अणव- कहेबानो शो अर्थ ? उत्ता: तत्थ -जे ते उवउत्ता ते जाणति. पासतिः से तेणदेणं हे गौतम ! परंगरोपपन्नक देवो वे प्रकारना कहेला ले. ते तं चेव. जेमके; पर्याप्त अने अपर्याप्त. तेमा जेओ पर्याप्तो छे तेओ जाणे छे अने अपर्याप्तो नथी जाणता. ] ए प्रमाणे अनन्तर उत्पन्न थयेला, परंपराए उत्पन्न थयेला, पर्याप्तरूपे उत्पन्न थयेला, अपर्याप्तरूपे उत्पन्न थयेला, उपयोगबाळा, अनुपयुक्त-उपयोग विनाना, ए प्रकारना वैमानिक देवो छे, तेमा जे उपयोगवाळा-सावधानतावाळा-छे तेओ जाणे छे, माटे ते हेतुथी ते ज-केटलाक जाणे छे अने केटलाफ नथी जाणता. ०-- किंचिवेहम्मे-जहा सामलेरो न तहा बाहुलेरो, जहा बाहुलेरो न उ-किंचित् वैधयंथी थती उपमा आ छे:-जेम शाबलेय छे तेम तहा सामलेरो-से तं किंचिवेहम्मे. बाहुलेय नथी अने जेम बाहुलेय छे तेम शाबलेय नथी. प्र.-से किं तं पायवेहम्मे ? प्र-प्रायः वैधय॑थी थती उपमा ए गुं? उ०-पायवेहम्मे-जहा वायसो न तहा पायसो, जहा पायसो न तहा उ०-प्रायः वैधय॑थी थती उपना आ छे:-जेम वायस छे तेम पायस घायसो-से तं पायवेहम्मे. नथी, जेम पायस छे तेम वायस नथी-ते प्रायः वैधय॑थी थती उपमा. 4०-से किं तं सव्ववेहम्मे ! प्र--सर्व वैधHथी थती उपमा ए शुं? उ-सव्ववेहम्मे उवम्मे नस्थि, तहा वि तेणेष तस्सोवम्म कीरइ-जहा उ०- सर्व वैधय॑थी थती उपमामा उपमा नथी. तो पण तेनी साथे जीएणं णीअंसरिसं कयं, दासेणं दाससरिसं कयं, काकेण काकसरिसं कयं, तेनी उपमा अपाय छे. जेम-नीचे नीच जेवू कयु, दासे दास जेतुं कर्य, साणेण साणसरिसं कयं, पाणेणं पाणस रिसं कयं-से तं सव्ववेहम्मे-से तं कागडे कागडा जेयुं कयु, कूतरे कूतरा जेवू कयु, चंडाळे चंडाळ जेवु कयुवेहम्मोवणीए-से तं उवम्मे. ते सर्वधार्थ-ते सर्व वैधय॑थी थती उपमा-ते उपमा, प्र:-से कि तं आगमे ? प्र०-आगम ए शुं ? उ.-आगमे दुविहे पण्णते, तं जहा-लोइए अ, लोउत्तरिए अ. उ.-आगम के प्रकारनो कहेलो छः -ला किक अने लोकोत्तर. लोइए x जहा-भारहं, रामायणं, जाव चत्तारि वेआ संगोवंगा. ला किक-भारत, रामायण यावत्-अंगोपांगसहित चार वेद. लोउत्तरिए ४ जहाँ-दुवालसंगं गणिपिडगं-आयारो जाव दिहिवाओx लोकोत्तर-द्वादशांग गणिपिटक-आचार अंग यावत्-दृष्टिवाद-ते ज्ञानसे तं मणि गुणप्पमाणे. गुणप्रमाण. (प्रमाणनी ध्याख्या पुरी..):-अनु० ५. मूल छायाः-यथा भगवन् । केवली प्रणीतं मनो वा, वचो वा धारयेत् तद् वैमानिकाः देवाः जानन्ति, पश्यन्ति ? गौतम ! अस्स्येककाः मानन्ति, पश्यन्ति; अस्त्येकका न जानन्ति, न पश्यन्ति. तत् केनार्थेन यावत्-न पश्यन्ति ? गौतम!. वैमानिका: देवाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाःमायिमिभ्यादृष्टयुपपन्नकाश्च, अमायिसम्यग्दृष्टयुपपन्नकाश्च; तत्र ये ते माथिमिथ्यादृष्टथुपपत्रकास्ते न जानन्ति, न पश्यन्ति: तत्र ये ते अमायिसम्यग्रहपशुपपन कोस्ते 'जोनन्ति, पश्यन्ति. [ तत् केनार्थेन एवम् उच्यते अमायिसम्यग्दृष्टयो यावत्-पश्यन्ति ? गैातम ! अमायिसम्यग्दृष्टयो दिविधाःप्रज्ञप्ताः-अनन्तरोपपन्नकाच, परंपरोपपन्नकाथ; तत्र अनन्तरोपपनकोः न जानन्ति, परंपरोपनका जानन्ति, तत् केनान भगवन् ! एवम् उच्यतेः* परंपरोपपस चावत्-जानन्ति ? गौतम ! परंपरोपपत्रकाः द्विविधाः प्रज्ञता:-पर्याप्तकाचाच पर्याप्ताः जानन्ति, अपर्याप्ताः न जानन्ति; एवम् अनन्तर-परंपर पर्याप्ता-ऽपर्याप्ताश्च, उपयुक्ताः, अनुपयुक्ताः तत्र ये वे उपयुक्तास्ते जो..., पश्यन्ति. तत् तेनार्थेन तवः-- अनु०, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिभणांत भगवतीसूत्र. २९. प्र०--पभू णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया २९. प्र०--हे भगवन् ! अनुत्तरविमानमा उत्पन्न थयेला चैव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं वा देवो त्यां ज रह्या छता, अहिं रहेला केवली साथे आलाप, करेत्तए ? संलाप करवाने समर्थ छे ? २९. उ0--हंता, पभू. २९. उ०--हा, समर्थ छे. ३०. प्र०--से केणद्वेणं जाव-पभू णं अणुत्तरोववाइया ३०. प्र०--ते क्या हेतुथी यावत्-अनुत्तरविमानना देवो दंवा, जाव-करेत्तए ? यावत्-करवा समर्थ छे ? ३०. उ०-गोयमा ! जंणं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया ३०. उ०—हे गौतम ! त्यां ज-पोताने स्थानके रहेला जचेव समाणा अढ वा, हेउं वा, पसिणं वा, कारणं वा, वागरणं अनुत्तर विमानना देवो जे अर्थने, हेतुने, प्रश्नने, कारणने वा वा पुच्छंति, तंणं इहगए केवली अहं वा, जाव-वागरणं वा व्याकरणने पूछे छे तेनो-ते अर्थनो, हेतुनो यावत्-व्याकरणनो' वागरेइ; से तेणटेणं०. उत्तर अहिं रहेलो केवली आपे छे, ते हेतुथी, ३१. प्र०--जं णं भंते ! इहगए चेव केवली अद्वं वा ३१. प्र०—हे भगवन् ! अहिं रहेलो केवली अर्थनो यावत्जाव-वागरेइ तं णं अणुत्तरोक्वाइया देवा तत्थगया चेव समाणा जे उत्तर आपे ते उत्तरने त्यां रहेला ज अनुत्तर विमानना जाणंति, पासंति ? देवो जाणे, जूए ? ३१. उ०--हंता, जाणंति, पासंति. . ३१. उ0--हा, जाणे, जूए. ___३२. प्र०-से केणद्वेणं जाव-पासंति ? ____३२. प्र०–ते क्या हेतुथी यावत्-जूए ? ३२. उ० - गोयमा ! तेसि णं देवाणं अणंताओ मणोदबव- ३२. उ०-हे गौतम ! ते देवोने अनंती मनोदयवर्गणाओ' . ग्गणाओ लद्धाओ, पत्ताओ, अभिसमन्नागयाओ भवति. से तेण- लब्ध छे, प्राप्त छे, विशेषे ज्ञात होय छे ते हेतुथी अहिं रहेलो. देणं जं णं इहगए केवली जाव-पासंति -त्ति. केवली जे कहे छे तेने तेओ ( जाणे छे) यावत्-जूए छे. ३३. प्र०—अणुत्तरोववाइया गं भंते ! देवा किं उदिन- ३३. प्र०—हे भगवन् ! अनुत्तरविमानना देवो शं उदीर्णमोहा, उवसंतमोहा, खीणमोहा ? ____ मोहवाळा छे, उपशांतमोहवाळा छे के क्षीणमोहवाळा छे ? ३३. उ०-गोयमा ! नो उदिनमोहा, उवसंतमोहा, णो ३३. उ०—हे गौतम! उदीर्णमोहवाळा नथी, क्षीणमोहवाळा खीणमोहा. नथी पण उपशांतमोहवाळा छे. ३४. प्र.-केवली णं मंते ! आयाणेहिं जाणइ, पासइ ? ३४. प्र. हे भगवन् ! केवली मनुष्य आदानो-इन्द्रियो वडे जाणे, जूए ? ३४. उ०-गोयमा ! नो तिणडे समढे. ३४. उ०—हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. ३५. प्र०-से केणद्वेणं जाव-केवली णं आयाणेहिं न ३५. प्र०--ते क्या हेतुथी यावत्-केवली इन्द्रियोवडे जाणइ, न पासइ ? जाणतो नथी, जोतो नथी? ३५. उ०-गोयमा ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, ३५ उ०-हे गौतम ! केवली पूर्व दिशामां मित पण अमियं पि जाणइ, जाव-निव्वुडे दंसणे केवलिस्स से तेणटेणं. जाणे छ, अमित पण जाणे छे यावत्-केवलिनुं दर्शन, आवरण रहित छे, माटे ते हेतुथी ते इन्द्रियोवडे जाणतो के जोतो नथी. ३६. प्र०-केवली णं भंते ! असि समयंसि जेस् आगास- ३६. प्र०---हे भगवन् ! केवली, आ समयमा जे आकाशपदेसेसु हत्थं वा, पायं वा, बाहं वा, अरुं वा ओगाहित्ता णं प्रदेशोमा हाथने, पगने, बाहुने अने ऊरुने अवगाही रहे, अने नया १. मूलच्छाया:-प्रभुः भगवन् ! अनुत्तरौपपातिकाः देवास्तत्रगताश्चैव सन्तः इहगतेन केवलिना सार्धम् आलापं वा, संलापं वा कर्तुम् ! हन्त, प्रभुः, तत् केनार्थेन यावत्-प्रभुः अनुत्तरोपपातिकाः देवाः यावत्-कर्तुम् ? गौतम ! यद् अनुत्तरीपपातिका : देवास्तवगताश्चैव सन्तोऽर्थ वा, हेतुं । वा, प्रश्नं वा, कारणं वा, व्याकरणं वा पृच्छन्ति, तद् इहगतः केवली अर्थ वा, यावत्-व्याकरणं वा व्याकरोति; तत् तेनार्थन. यदू भगवन् । इहगतश्चैव केवली अर्थ वा, यावत्-व्याकरोति, तद् अनुत्तरौपपातिका देवास्तत्रगताचव सन्तो जानन्ति, पश्यन्ति ? हन्त, जानन्ति, पश्यन्ति. तत् ' केनार्थेन यावत्-पश्यन्ति ? गीतम! तेषां देवानाम् अनन्ता: मनोद्रव्यवर्गणा लब्धाः, प्राप्ताः, अभिसमन्वागता भवन्ति तत् तेनार्थेन यद् इहगतः केवली यावत्-पश्यन्ति-इति. अनुत्तरोपपातिका भगवन् ! देवाः किम् उदीर्णमोहाः, उपशान्तमोहाः, क्षीणमोहाः ? गैातम ! नो उदीर्णमोहाः -उपशान्तमोक्षः, 'नो क्षीणमोहा:. केवली भगवन् ! आदानः जानाति, पश्यति! गौतम ! नाऽयम्-अर्थः समर्थः तत् केनार्धन यावत्- केवली आदानैर्न जानाति ने. पश्यति ? गौतम ! केवली पारस्त्येन मितम् अपि जानाति, अमितम् अपि जानाति, यावद्-निवृतं दर्शनं केवलिनस्तत् तेनार्थन. केवली भगवन् । भसिन् समीः येषु भाकाराप्रदेशेषु हस्तं वा, पादं वा, बाहुं वा, ऊरं वा, अवगामः-अनु० Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक चिट्ठति; प णं केवली सेयकालसि वि, तेस चेव आगासपएसेस् जे समयमां रहे ते पछीना-भविष्यकाळना-समयमां ते ज हत्थं वा, जाव-ओगाहिता णं चिट्टित्तए ? । आकाशप्रदेशोमा हाथने यावत्-अवगाहीने रहेवा केवळी समर्थ छे ? ३६. उ०—गोयमा ! णो तिगडे समढे. ३६. उ०-हे गौतम ! आ अर्थ समर्थ नथी.. ३७. प्र--से केणद्वेणं भंते ! 'जाव-ओगाहित्ता णं ३७. प्र०--हे भगवन् ! ते क्या हेतुथी, यावत्-केवली आ चिद्वित्तए? समयमा जे आकाशप्रदेशोमां यावत-रहे छे पछीना-भविष्यकाळना -समयमा ए ज आकाशप्रदेशोमां केवळी हाथने यावत्-अवगाही रहेवा समर्थ नथी? ३७. उ०-गोयमा! केवलिस्स णं वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए ३७. उ०—हे गौतम! केवलिने वीर्यप्रधान योगवाढं जीव चलाइं उवकरणाई भवंति, चलोवकरणद्वयाए य णं केवली अस्सि द्रव्य होवाथी तेना हस्तवगेरे उपकरणो-अंगो-चल होय छे अने • समयंसि जेसु आगासपएसेसु हत्थं वा, जाव-चिट्ठति; णो णं · हस्तवगेरे अंगो चल होवाथी चालु समयमा जे आकाश प्रदेशोमां पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव जाव-चिहित्तए, से तेणद्वेणं हाथने यावत् अवगाही रहे छे, ए ज आकाश प्रदेशोमा चालुजाव-युच्चइ-केवली णं असिस समयंसि जेसु आगासपदेसेसु समय पछीना भविष्यकाळना समयमां केवली हाथ वगेरेने अवजाव-चिट्ठति णो णं पभू केवली सेयकालास वि तेसु चेव आ- — गाही यावत् रहेवा समर्थ नथी. माटे ते हेतुथी एम का छे के, गासपदेसेसु हत्थं वा, जाव--चिद्वित्तए. केवली आ समयमां यावत्-रहेवा समर्थ नथी. ७. केवलि-छमस्थस्य वक्तव्यताप्रस्तावे एव इदम् आहः- केवली णं' इत्यादि. यथा केवली जानाति तथा छद्मस्थो न जानाति, कथंचित् पुनर्जानाति इत्यपि-इत्येतदेव दर्शयन्नाहः- सोचा' इत्यादि. 'केवलिस्स' त्ति केवलिनो जिनस्य अयम् अन्तकरो भविष्यति' इत्यादि वचनं श्रुत्वा जानातीति, केवलिसावंगस्स व 'त्ति जिनस्य समीपे यः श्रवणार्थी सन् शृणोति तद्वाक्यानि-असौ केवलिश्रावकः-तस्य वचनं श्रुत्वा जानाति. स हि किल जिनसमीपे वाक्यान्तराणि शृण्वन् 'अयमन्तकरो भविष्यति' इत्यादिकमपि वाक्यं शृणुयाद् , ततश्च तद्वचनश्रयणाद जानाति इति. 'केवालासगस्सव' ति केवलिनम् उपास्ते यः श्रवणाऽनाकाक्षी, तदुपासनमात्रपरः सन् असौ केवल्युपासकः-तस्य वचः श्रुत्वा जानाति, भावना प्रायः प्रागवत्, 'तप्पक्खियस्स व' त्ति केवलिपाक्षिकस्य स्वयंबुद्धस्य इत्यर्थः. इह च श्रुत्वेति वचनेन प्रकीर्णकं वचनमात्रं ज्ञाननिमित्ततयाऽवसेयम् , न तु आगमरूपम् , तस्य प्रमाणग्रहणेन ग्रहीष्यमाणत्वाद् इति. 'पमाणे 'त्ति प्रमीयते येनाऽर्थस्तत् प्रमाणम् , प्रमितिा प्रमाणम्. 'पञ्चक्खे 'त्ति अक्षं जीवम् , अक्षाणि च इन्द्रियाणि प्रति गतं प्रत्यक्षम् . ' अणुमाणे ' ति अनु-लिङ्गग्रहण-संबन्धस्मरणादेः पश्चात्-मीयतेऽनेन इत्यनुमानम्, ' ओवम्मे ' त्ति उपमीयते सदृशतया गृह्यते वस्तु अनया इत्युपमा, सैव औपम्यम्, 'आगमे ' त्ति आगच्छति गुरुपारंपर्येण इत्यागमः, एषां स्वरूपं शास्त्रलाघवार्थम् अतिदेशत आहः-' जहा' इत्यादि. एवं चैतत्स्वरूपम्-द्विविधं प्रत्यक्षम्-इन्द्रियनोइन्द्रियभेदात्. तत्र इन्द्रियप्रत्यक्षं पञ्चधाः-श्रोत्रादि-इन्द्रियभेदात् . नोइन्द्रियप्रत्यक्षं त्रिधाः-अवधि-आदिभेदाद् इति. त्रिविधम् अनुमानम्:-पूर्ववत् , शेषवत् ,. दृष्टसाधर्म्यवच्चेति. तत्र पूर्ववत्:-पूर्वोपलब्धाऽसाधारणलक्षणाद् मात्रादिप्रमातुः पुत्रादिपरिज्ञानम् . शेषवत्:-यत् कार्यादिलिङ्गात् परोक्षार्थज्ञानम् , यथा:- मयूरोऽत्र, केकायिताद् इति. दृष्टसाधर्म्यवत्:-यथा एकस्य कार्षापणादेर्दर्शनाद् अन्येऽपि एवंविधा एव इति प्रतिपत्तिः-इत्यादि. औपम्यम्:-यथा गौर्गवयस्तथा-इत्यादि. आगमस्तु द्विधाः-लौकिक-लोकोत्तरभेदात्. त्रिविधो वाः-सूत्रा-ऽर्थो-भयभेदात्. अन्यथा वा त्रिधाः-आत्मागमा-ऽनन्तरागम-परंपरागमभेदात्. तत्राऽऽत्मागमादयोऽर्थतः क्रमेण जिन-गणधर-तच्छिष्याऽपेक्षया द्रष्टव्याः, सूत्रतस्तु गणधर-तच्छिष्य-प्रशिष्याऽपेक्षया इति. एतस्य प्रकरणस्य सीमां कुर्वन्नाहः-' जाव'इत्यादि. ' तेण परं' ति गणधरशिष्याणां सूत्रतोऽनन्तरागमः, अर्थतस्तु परंपरागमः; ततः परं प्रशिष्याणाम् इत्यर्थः केवली-तरप्रस्तावे एव इदम् अपरमाह:-' केवली णं' इत्यादि. चरमकर्म यच्छलेशीचरमसमयेऽनुभूयते, चरमनिर्जरा तु यत् ततोऽनन्तरसमये जीवप्रदेशेभ्यः परिशदति-इति. 'पणीयं ' ति प्रणीतं शुभतया प्रकृष्टम्, 'धारेज ' त्ति धारयेद् व्यापारयेद् इत्यर्थः. एवं ' अणंतर' इत्यादि. अस्याऽयमर्थः-यथा वैमानिका द्विविधा उक्ताः, मायिमिथ्यादृष्टीनां च ज्ञाननिषेधः, एवम् अमायिसम्यग्रदृष्टयोऽनन्तरोपपन्नक-परंपरोपपन्नकभेदेन द्विधा वाच्याः-अनन्तरोपपन्नकानां च ज्ञाननिषेधः, तथा परंपरोपपत्रका अपि पर्याप्तका-ऽपर्याप्तकभेदेन द्विधा वाच्याः. अपर्याप्तकानां च ज्ञाननिषेधः, तथा पर्याप्तका उपयुक्ताऽनुपयुक्तभेदेन द्विधा वाच्याः. अनुपयुक्तानां च ज्ञाननिषेधश्च १. मूलच्छाया:-तिष्ठति, प्रभुः केवली एध्यत्कालेऽपि तेषु चत्र आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा, यावत्-अवगाह्य स्थातुम् ? गोतम ! नाऽयम् अर्थः समर्थः. तत् केनार्थेन भगवन् ! यावत्-अवगाह्य स्थातुम् ? गौतम ! केवलिनो वीर्यसयोगसद्व्यतया चलानि उपकरणानि भवन्ति, चलोपकरणार्थतया च केवली अस्मिन् समये येषु आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा, यावत्-तिष्ठति नो प्रभुः केवली एध्यत्कालेऽपि तेषु एव यावत्-स्थातुम्, तत् तेनाथन यावत्-उच्यते-केवली अस्मिन् समये येषु आकाशप्रदेशेषु यावत्-तिष्ठति नो प्रभुः केवली एण्यकालेऽपि तेषु एवं आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा चावद-स्थातुम:-अनु० Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिभणीत भगवतीसूत्र. इति. वाचनान्तरे तु इदं सूत्रं साक्षादेव उपलभ्यते इति. 'आलावं व' त्ति सकृजल्पम्. 'संलावं वत्ति मुहुर्मुहुल्य मानसिकमेव इति. 'लद्धाओ' ति तदवधेर्विषयभावं गताः. 'पत्ताओ' त्ति तदवधिना सामान्यत: प्राप्ताः परिच्छिन्ना इयर्थः. ' अभिसमण्णागयाओ' त्ति विशेषतः परिच्छिन्नाः, यतस्तेषाम् अवधिज्ञानं संभिन्नलोकनाडी विषयम् , यच्च लोकनाडीग्राहकं तद मनोवर्गणाग्राहकं भवत्येव, यतो योऽपि लोकसंख्येयभागविषयोऽवधिः सोऽपि मनोद्रव्यग्राही, यः पुन: संभिन्नलोकनाडीविषयोऽसौ कथं मनोद्रव्यग्राही न भविष्यति ? इध्यते च लोकसंख्येयभागाऽवधेर्मनोद्रव्यग्राहित्वम्, यदाह:-" संखेजमणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोद्धव्वो" ति. अनुत्तरसुराधिकाराद् इदमाहः- अणुत्तरा-' इत्यादि. 'उदिण्णमोह' त्ति उत्कटवेदमोहनीया:. 'उसंतमोह ' ति अनुत्कटवेदमोहनीयाः-परिचारणायाः कथंचिदप्यभावात् , नतु सर्वथा उपशान्तमोहाः, उपशमश्रेणेस्तेषामभावात. 'नो सीणमोह । ति क्षपकश्रेण्या अभावाद इति. पूर्वतनसूत्रे केवल्यधिकाराद इदमाहः- केवली' इत्यादि. ' आयाणहिं, त्ति आदीयते गृह्यतेऽर्थ एभिरिति आदानानि इन्द्रियाणि तन जानाति फेवलित्वात्. 'अस्ति समयसि' त्ति अस्मिन् वर्तमाने समये. ' ओगाहित्ता णं' त्ति अवगाह्य आक्रम्य. 'सेयकालंसि वि ' ति एष्यत्कालेऽपि. “वीरियसजोगसद्दव्बयाए ' विीर्यम्वीर्याऽन्तरायक्षयप्रभवशक्तिः, तबधान सयोगम्-मानसादिव्यापारयुक्तम् , यत् सद विद्यमानं द्रव्य जीवद्रव्यं तत् तथा-वीर्यसद्भावेऽपि जीवद्रव्यस्य योगाद् विना चलनं न स्याद इति-सयोगशब्देन सद्रव्यं विशेषितम् , 'सद्' इति विशेपणं च-तस्य सदा सत्ताऽवधारणार्थम्. अथवा स्व आत्मा, तद्रूपं द्रव्यं स्वद्रव्यम्, ततः कर्मधारयः, अथवा वीर्यप्रधानः सयोगो योगवान् वीयेसयोगः, स चासौ सद्रव्यश्च मनःप्रभृतिर्वगणायुक्तो वीर्यसयोग-सद्रव्यः-तस्य भावस्तत्ता तया हेतुभूतया, 'चलाई' त्ति अस्थिराणि, 'उवकरणाई' ति अङ्गानि. 'चलोवगरणवयाए य' ति चलोपकरणलक्षणो योऽर्थस्तभावश्चलोपकरणार्थता-तया. च शब्दः पुनरर्थः. ७. केवलिनी अने छद्मस्थनी वक्तव्यताना प्रस्तावमा ज आ [केवली '] इत्यादि सूत्र कहे छे अने जे प्रकारे केवली जाणे छे ते प्रकारे छद्मस्थ जाणतो नथी तो पण कांइक रीते जाणे छ, ए वातने दर्शावतां सूत्रकार [ ' सोचा '] इत्यादि सूत्र कहे छे. [ 'केवलिस्स व' ति] केवलिनी-जिननी-पासेथी आ अंतकर थशे' इत्यादि वचन सांभळीने जाणे छे. [ 'केवलिसावगस्स व ' त्ति ] सांभळवानो अर्थी बना थंइ जिननी पासे तेना वाक्योने जे सांभळे ते केवलिश्रावक ' तेनुं वचन सांभळीने जाणे. कारण के, ते केवलिश्रावक जिननी पासे बीजां अनेक वाक्यो सांभळतो आ-अमुक मनुष्य-अंतकर थशे' इत्यादि वाक्य पंण सांभळे अने तेथी ते-केवलिश्रावक-ना वचनने सांभळीने जाणे. ['केवलिउवासगस्स व 'त्ति ] सांभळवानी इच्छा विनानो मात्र केवलिनी उपासनामां तत्पर थई जे केवलिने उपासे ते 'केवल्युपासक 'तेनुं केवलि-उपासक वचन सांभळीने जाणे छे. प्रायः भावना पूर्व पंठे जाणवी. [ तत्पक्खियस्स व ' त्ति ] केवलिना पक्षना मनुष्यनु-स्वयंबुद्धनु. अहिं ' श्रुत्वा' स्वर एटले सांभळीने अर्थात् ते श्रवण, ज्ञान-जाणवा-तुं निमित्त होवाथी मात्र साधारण वचनरूप छे, पण ते 'वचन आगम प्रमाणरूप नथी, कारण, 'आगम प्रमाणरूप वचन विषे तो हवे पछी प्रमाणना भेदो आवशे तेमां कहेवानुं छे. [पमाणे ' ति] जेनाथी अर्थ-पदार्थ-जाणी शकाय प्रमाण, ते प्रमाण अथवा ' जाणवू ' ते प्रमाण. [ 'पञ्चक्खे' त्ति ] जीव प्रत्ये गयखें एटले जीव माथे सीधो संबंध धरावतुं अने इन्द्रियो प्रत्ये गयेलं प्रत्यक्ष. एटले इन्द्रियो द्वारा जीव साथे संबंध धरावतुं ते प्रत्यक्ष अर्थात् अक्ष-जीव, इन्द्रियोनी सहाय विना ज जीवने जे ज्ञान थाय ते प्रत्यक्ष अने अक्ष-इन्द्रियो, इन्द्रियोनी सहायता वडे ज जीवने जे ज्ञान थाय ते पण प्रत्यक्ष. [ ' अणुमाणे ' नि] अनु एटले हेतुनें ग्रहण अने संबन्धव्याप्ति-नुं स्मरण कर्या पछी जे वडे पदार्थy ज्ञान थाय ते अनुमान. [ ओवम्मे ' ति] जे वडे, सरखाइथी पदार्थनुं ग्रहण थाय ते उपमा अने जा उपमा ए ज औपम्य. [ 'आगमे ' तिजे गुरुपरंपराए आवे ते आगन. ए चारे प्रमाणोनुं स्वरूप, शास्त्रना लाघव माटे अतिदेशथी-बीजा आगम. शास्त्रनी तुल्यता वडे मूळकार जणावे छे-['जहा' इत्यादि.] अने ए वरूप आ प्रमाणे छेः ते चारे प्रमाणोमा प्रत्यक्ष प्रमाण के प्रकारनुं छे, एक भी एक अनुयोग द्वार. इन्द्रियप्रत्यक्ष अने बीजं नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष. तेमां' श्रोत्र' वगरे पांच इन्द्रियो होबाथी इन्द्रिय प्रत्यक्ष पांच प्रकारचें छे, अने नोइन्द्रियप्रत्यक्षं, तेना' अवधि, मनःपर्यव अने केवल ' एन त्रण भेद होवाथी त्रण प्रकारनु छ. अनुमान प्रमाण त्रण प्रकारचें छे, एक पूर्ववत् , बीजु शेषवत् परत अने श्रीजु दृष्टसाधर्म्यवत्. पूर्ववत् एटले पूर्व उपलब्ध मुख्य लक्षण-निशान-थी माता बगरे प्रमातृजनने पुत्र वगेरेनुं जे ज्ञान थाय ते पूर्ववत् ' अनुमान कहेवाय. शेषवत् एटले कार्य वगैरेनी निशानीओथी परोक्ष पदार्थनु ज ज्ञान थाय ते ' शेषवत् ' अनुमान कहेवाय. जेमके, अहिं केका का- साधम्यवत् . यित होवाथी-मयूरनो शब्द होवाथी-मयूर होवो जोइए. दृष्टसाधर्म्यवत् एटले एक पदार्थना स्वरूपनुं निरीक्षण करवाथी एवा स्वरूपवाळा वीजा पदार्थों पण ए प्रकारना छे एबुं जे ज्ञान ते ' दृष्टसाधर्म्यवत् ' अनुमान कहेवाय, जेमके, एक कार्षापण-एंशी रतिभारना एक, कर्ष-ने जोवाथी कापिण. एना जेवा जे बीजा ते पण कार्षापण कहवाय. जेवी गाय छे तेवो गवय छे' इत्यादि ज्ञान : औपम्य' कहेवाय. आगमना लौकिक अने गवय. लोकोत्तर एवा बे प्रकार छे अथवा सूत्र, अर्थ अने सूत्रार्थ एवा त्रण प्रकार छ अथवा, आत्माऽऽगम, अनन्तरागम अने परंपरागम एम बीजी रीते पण आगम त्रण प्रकारनो छे. अर्थनी अपेक्षाए जिनने आत्मागन, गणधरने अनंतरागम अने गणधरना शिष्योने परंपरागम करवाय, सूचनी अपेक्षाए तो गणधरने आत्मागम, गणधरना शिष्योने अनंतरागम अने गणधरना शिष्यना शिष्योने परंपरागम. अहीं साक्षी तरीके पणावेला आ प्रकरणनी हद बतायता सूत्रकार कहे छे के, [ · जाव' इत्यादि. ] [ 'तेण परं' ति ] सूत्रथी गणधरना शिष्योने अनंतरागम अने अर्थथी तेओने परंपरागम, त्यार बाद तेना प्रशिष्योने-ए पाठ सुधी. केवलिना अने बीजाना प्रस्तावमा ज आ बीलु-['केवली '] इत्यादि कहे छे. जे शैलेशीने छेले समये अनुभवाय ते चरमकर्म अने त्यार पछी लगोलगना समय जीव प्रदेशोथी जे छुटुं पडे-खरी पडे-ते तो चरम- चरम १.प्र. छा०-संख्येयमनोद्रव्ये भागा लोकपत्यस्य बोदव्यः-अनु. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहै शतक ५.-उद्देशक ४. चरम-निर्जरा. निर्जरा. ['पणीय' ति ] प्रणीत-शुभपणे प्रकृष्ट. [घारेज' ति] धारण करे-व्यापृत करे-[' एवं अणंतर-' इत्यादि] आनो आ अर्ध.छे, मायी अमायी. जेम वैमानिक देवो बे प्रकारना कडा छ, मायिमिथ्यादृष्टिओने ज्ञाननो निषेध छे--तेओ जाणता नथी. ए प्रमाणे अमायिसम्यग्दृष्टिओ, अनन्तरो पपन्नक अने परंपरोपपन्नक एम बे प्रकारे कहेवा. तेमां अनन्तरोपपन्नको नथी जाणता, तथा पर्याप्त अने अपर्याप्त एम बे प्रकारे परंपरोपपन्नकने जाणवा, अने तेमां अपर्याप्तो नथी जाणता, तथा पर्याप्तो, उपयुक्त अने अनुपयुक्त एम बे प्रकारे कहेवा अने तेमा अनुपयुक्तो नथी जाणता."बीजी बीजी वाचना. वाचनामां तो आ अर्थवाळु मूळसूत्र, मूळमां साक्षात् ज देखाय छे. [ ' आलावं व ' ति] एक वार बोलवू ए आलाप, [ ' संलावं व ' त्ति ] आलाप-संलाप.. वारंवार मानसिक बोलवू ते ज संलाप. [ 'लद्धाओ' त्ति ] तेना अवधिना विषयपणाने पामेली-तना अवधिज्ञानवडे जणाय तेवी. [ पत्ताओ' त्ति ] तेना अवधिज्ञानबडे सामान्यरूपे जाणेली. [ 'अभिसमण्णागयाओ' त्ति ] विशेषे करी परिछिन्न-ज्ञात-थयेली. कारण के, तेओना अवधि ज्ञाननो विषय संभिन्नलोकनाडी छे, अने जे अवधिज्ञान लोकनाडीनुं ग्रहण करनारं होय छे ते मनोवर्गणानुं ग्राहक होय ज छे. केमके, जे अवधिअवधिशान. ज्ञाननो विषय लोकनो संख्येय भाग होय ते अवधिज्ञान मनोद्रव्य, ग्राहक-जाणनारुं-पण होय छे. तो वळी ज अवधिज्ञाननो विषय संभिन्न समस्त-लोकनाडी छे ते अवधिज्ञान मनोद्रव्यनुं जाणनाएं होय एमां तो कहेवू ज शुं ? बळी जे अवधिज्ञाननो विषय लोकनो संख्यय भाग छ ते अवधिज्ञान मनोद्रव्यन जाणनारुं छे, ए प्रमाणे इष्ट पण छे. कधु छ जे, “ लोकना अने पल्योपमना संख्येय भागने जाणनारो अवधि मनोअनुत्तर सुर. द्रव्यनो ग्राहक-जाणनार-होय छ, एम जाणवू." अनुत्तरसुरनो अधिकार चालु होवाथी आ-[ 'अणुत्तरा-' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. [' उदिण्ण मोह ' ति] जेओने वेद मोहनीय उत्कट छ, [' उवसंतमोह ' ति ] कोइ रीते पण मैथुननो सद्भाव न होवाथी तओने बदमोहनीय अनुत्कट छे, माटे तेओ उपशमेल मोहवाळा छे पण तेओने उपशम श्रेणी न होवाथी तेओ सर्वथा उपशांतमोह नथी. ['नो खीगमोह ' ति] क्षपक वली अने इंद्रियो. श्रेणीनो अभाव होवाथी तेओ क्षीणमोह नथी. आ सूत्रथी आगळना सूत्रमा केवलिनो अधिकार होवाथी आ-[ 'केवली' इत्यादि ] सूत्र कहे छे, [आयाणेहिं' ति जेओ बडे पदार्थy आदान-ग्रहण-थाय ते आदान-इंद्रियो, तेओवडे, पोते केवली होवाथी जाणता नथी. [ अस्सिं समयसि' त्ति ] आ वर्तमान-चालु-समयमां [ 'ओगाहित्ता णं' ति ] अवगाहीने-आक्रमीने [ 'सेयकालंसि वि' ति] भविष्यत्कालमां पण. [वीरियस जोगसद्दव्वयाए 'त्ति ] वीर्यातरायना नाशथी उत्पन्न थएली शक्ति ते वीर्य, जमां वीर्य मुख्य छ एबुं मानस वगेरे व्यापारथी युक्त विद्यमान जे ही सयोग सध्य, जीव द्रव्य ते 'वीर्यसयोग सद्-द्रव्य ' कहेवाय, वीर्यनो सद्भाव होय तो पण योगो-व्यापारो-विना चलन न थइ शके माटे 'सयोग' शब्द वडे सद्-द्रव्यने विशेषित कर्यु छ अने द्रव्यतुं जे सत् ' ए विशेषग छे ते द्रव्यनी सत्ताना अवधारण माटे छे, अथवा वीर्यवान, मानसादि योगयुक्त आत्मरूप द्रव्य ते वीर्य सयोग खद्रव्य ' कहेवाय, अथवा वीर्यप्रधान योगवाळो एवो अने मन वगेरेनी वर्गणायुक्त ते 'वीर्यसयोग सव्य '. ___ चर-उपकरण. कहवाय, तेपणुं ते 'वीर्यसयोगसद्रव्यता' अने तद्रूप हेतु वडे. ['चलाई ' ति] अस्थिर. [ ' उवगरणाई 'ति] अंगो. ['चलोवगरणहयाए य' ति] अस्थिर अंग स्वरूप जे अर्थ तेपण अर्थात् अंगो अस्थिर होवाथी. चौदपूर्वी. ३८. प्र.--पभू णं. भंते ! चोद्दसपुव्वी घडाओ घडसहस्सं, ३८. प्र०—हे भगवन् ! चौदपूर्वने जाणनार-श्रुत केवली पडाओ पडसहस्सं, कडाओं कडसहस्सं, रहाओ रहसहस्स, मनुष्य, एक घडामाथी हजार घडाने, एक पटमाथी हजार पटने, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडाओ दंडसहस्सं, अभिनिव्वदे॒त्ता उवदं- एक सादरीमांथी हजार सादरीओने, एक रथमांथी हजार रथने, सेत्तए? एक छत्रमाथी हजार छत्रने अने एक दंडमांथी हजार दंडने करी देखाडवा समर्थ छे ? ३८. उ०-हंता, पभू. ३८. उ०--हा, समर्थ छे. ३९. प्र०-से केणद्वेणं पभू चउद्दसपुव्वी, जाव-उवदसेतुए? ३९. प्र०—ते केवी रीते, चौदपूर्वी यावत्-देखाडवा समर्थ छे। ३९. उं0--गोयमा ! चउद्दसव्विस्स णं अणंताई दव्वाइं ३९. उ०-हे गौतम : चौदपूर्विए, उत्करिका भेदवडे उक्करियाभएणं भिज्जमाणाई, लद्धाइं, पत्ताइं, अभिसमण्णागयाई भेदातां अनंत द्रव्यो ग्रहण योग्य कयों छे, ग्रयां छे अने ते द्रव्योने भवंति, से तेणद्वेणं जाव-उवदंसेत्तए. घटादिरूपे परिणमायया पण आरंभ्यां छे, माटे ते हेतुथी यावत् देखाडवा समर्थ छे. --सेवं भते । सेवं मंते ! ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे ले (एम कही-यावत् विहरे छे.) भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पंचमसये चउत्थो उसो सम्मत्तो. १. 'च' शब्दनो । वळी' अर्थ छ:-श्रीअभय. १. मूलच्छाया:-प्रभुः भगवन् । चतुर्दशपूर्वी घटाद् घटसहस्रम्, पटात् पटसहस्रम् , कटात् कठसहस्रम्, रथात् रथसहस्रम्, छत्रात् छत्रसहस्रम् , दण्डाद् दण्डसहस्रम् अभिनिर्वयं, उपदर्शयितुम् ? हन्त, प्रभुः. तत् केमार्थेन प्रभुः चतुर्दशपूर्ण यावत्-उपदर्शयितुम् ! गौतम ! चतुर्दशपूर्विणः अनन्तानि द्रव्याणि उत्करिकामेदेन गिद्यगानानि लब्भानि, प्राणागि, अगिरागन्यागवानि भवन्ति, तत् तेनार्थेन गाय-उपदर्श गितुग, तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् ! हतिः-अनु० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.देश ४. भगवत्स्वागिणीत भगवतीसूत्र. १९१ ८. केवल्यधिकारात् श्रुतकेवलिनम् अधिकृत्साहः पढाओ घटसहस्रांति घटादू अपचे निश्रां कृत्वा घटसहस्रम् , • अभिनिवट्टेत्ता ' इति योगः, अभिनिर्वर्त्य विधाय श्रुतसमुत्थलब्धिविशेवेण उपदर्शयितुं प्रभुरिति प्रश्नः ' उक्करियाभेएणं इह पुद्गलानां भेदः पञ्चधा भवति – खण्डादिभेदात् तत्र खण्डभेदः - खण्डशो यो भवति लोष्टादेरिवः प्रतरभेदः 'अभ्रपटलानाम् इव. चूर्णिकामे विद्यादिचूर्णयत् अनुतदिका मेदः - अंगटतटमेदवत् उत्कारिका मेदः एरण्डबीजानामिवेति तत्र उत्करिकामेदेन भिद्यमा नानि. ‘ लद्धाई ’ ति लब्धिविशेषाद् ग्रहणविषयतां गतानि ' पत्ताइं ' ति तत एव गृहीतानि. ' अभिसमण्गागयाई ति घटादिरूपेण परिणमयितुम् आरब्धानि ततस्तैटसहस्त्रादि निर्वर्तयति, आहारकशरीरवद् निर्वर्त्य दर्शयति जनानाम् इह चोक्करिकामेदग्रहणं तद्भिन्नानामेव द्रव्याणां विवक्षितघटादिनिष्पादन सामर्थ्यमस्ति -- नाऽन्येषामिति कृत्वा - इति. भगवत्खाणि श्रीभगवती सूत्रे पते चतुर्थ उद्देश के श्रीजगदेवसूरिविरचितं विवरण समाप्तम् ८. केवलिना अधिकारथी श्रुत केवलिनो अधिकार कहे छेः [' घडाओ घडसहस्सं ' ति ] एक घडामांथी - एक घटाने सहायभूत एकर्मायी करीने तेमांथी हजार घडाने. [' अभिनिवट्टेत्ता ' ] करी, श्रुतथी उत्पन्न थयेली एक प्रकारनी लब्धि वडे देखाडवा समर्थ छे ? ए प्रश्न छे.[ उरियाणं ति [ अहं पुलोखंड यंगेरे प्रकारधी पांच प्रकारनं भेदन होय छे तेग डेफ बगेरेनी पेठे टुकडे टुकडारुपे ( , 6 " 3 पुद्गलोना भेदावाने ' खंडनेद ' कहे छे, अभ्रपटलनी पेठे पुद्गलोना भेदावाने ' प्रतरभेद ' कहे छे, तल वगेरेना चूर्णनी पेठे पुद्गलोना भेदावाने खंड-प्रत चूर्णिकाभेद ' कहे छे, कूवाना कांठानी तराडोनी पेठे पुद्गलोना भेदावाने 'अनुतटिकाभेद ' कहे छे, एरडाना बीजनी पेठे पुछलोना अनुतटिका मेदाबाने उस्फेरिका भेद कहे छे सेमां उत्करिका भेदवडे भेदातां. [ लढाई ति ] लब्धिविशेष ग्रहण करवाने योग्य करेल. 'पंचाई मेद ति] तेथी ज अ [ अभिरामण्णागवाई ति ] घटादिरूपे परिणमादवाने आरंभ्यां तेथी ते वडे हजार पट वगेरे आहारकशरीरनी पेठे बनायी माणसोने देखा है. उत्करिका भेदवडे भेदाएलां द्रच्यो, इच्छेला घट मंगरे पदार्थोंने निष्पादन करवा समर्थ छे, पण बीज भेदवडे भेदाएलां द्रव्यो, इष्टकार्य करवा समर्थ नथी माटे अहिं ' उत्करिकाभेद ' नुं 6 अने ग्रहण कर्तुं छे. 6 बेडरूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपखी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो बाहको दान्ति शामयो:- दयात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारदा चामुयः ॥ १, अहीं जणावेला ' उत्करिका ' मेद विषे प्रज्ञापना सूत्रना अग्यारमा भाषापदगा ( पृ० २६६ - स० ) सविस्तर नोंध आ प्रमाणे छे: " तेसि णं भंते । दव्वाणं कतिविहे मेए पण्णत्ते ? योमा पंच ने पण जा मेरे परमे पुग्लिया मैदे, अणुतडियाभेदे, उक्करियाभेदे. से किं तं खंडभेदे ? खंडभेदे जं णं अयखंडाण वा, तउखंडाण वा, तंबखंडाण वा, सीसडाडावा जातरूपा वा मेवे भवति सेतं खंडभेदे. से कि परमे परमेदे जं णं वंसाण वा, वेताण वा नलाणं वा, कदलीर्थभाण वा अम्भपडला वा, पयरेणं मेदे भवति-से तं पयरभेदे. से किं तं चुण्णियाभेदे ? चुणिया मेदे जंणं तिलचुण्णाण वा, मुग्गघुण्णाण वा, मासचुण्णाण वा, पिप्पली चुण्णाण वा, मिरीयचुण्णाण वा, सिंगबेरचुण्णाण वा चुणियाभेदे भवदसे से पुण्य से किं तं अणुडियाभेदे ? जं णं अगडाण वा, तडागाण वा, दद्दाण वा, नदीण वा, वावीण वा, रोहिया या डालिया या सराय मा, सरसराय या गुंजालियाण संरपंतियाणवा, सरसरतियाण वा अणुडिया भेदे भवति से नं अणुविदे हे भगवन्ते नो भेद केला प्रकारनो को छे ! मदना पांच प्रकार कहाा छे. ते जे के खंभेद, प्रतरमेद, चूर्णिकामेद, अनुतटिकाभेद अनेकद खंडभेद ए लोढाना कटकाओनो, तरवाना कटकाओनो, तांबाना कटकाओनो, सीधागा पटकाओनो, रुपाना कटानो अने सोनाना कटकालोनी जे खंडे संडे भेद ते खंडभेद. प्रतरभेद ए शुं ? वांसडाओनो, नेतरोनो, नलोनो, केळनां थडोनो अने अभ्रपटलोनों जे प्रतरे प्रतरे भेद-ते प्रतरभेद चूर्णिका ए रासना पूर्णनो ( पूर्ण लोट) गगना घूर्णनो, अदना चूर्णनो पिपलीना चूर्णनो, मरीना चूर्णनो अने शृंगबेरना चूर्णनो जे भेद-ते चूर्णिकामेद. अनुतटिका भेद एं शुं ? ओन घराभोगी, पहाडी नदोनो पायो, पुष्करपीओनो सीधी मोनो, पांकी नदीओनो, सरोवरोनो दरेके दरेक सरोनदीओनो, वरोनो, सरोवरनी हारोनो अने नीकोवाळी सरोवरनी हारोनो जे भेद मे Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमर्सग्रहे शतक ५.-उद्देशक ४. से किं तं उकरियाभेदे ? उत्करिकामेद ए | जणं मूसाण वा, मंडूसाण वा, तिलसिंगाण वा, मुग्गसिंगाण वा, मूषोनो, मंडूसोनो, तलनी शिंगोनो, अडदनी शिंगोनो भने एरडाना माससिंगाण वा, एरंडबीयाण वा फूडित्ता उक्करियाभेदे भवति-से तं बीजोनो जे फूटीने मेद थाय छे-ते उत्करिकामेद. उकारियामेदे." - आं प्रकरणनी टीका करतो टीकाकार श्रीमलयगिरिजीए ने प्रमाणे संक्षेपमा जणाव्यु छे ते आ छे: " लोढाना टुकटानी पेठे जे मेद छे ते खंड मेद, भोजपत्रना मेदनी पेठे जे मेद छे ते प्रतरमेद, पडेला लोटनी पेठे जे वेराह नाय ते चूर्णिकामेद, शेरहीना छोयांनी पेठे जे मेद. छे ते अनुतटिकामेद अने संचवानी (1) पेठे जे मेद छे ते उत्करि (टि)कामेद.":-अनु० Jain Education international Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५,-उद्देशक ५. मात्र संयमथी सिद्धि थाय ?-प्रथम शतक चतुर्थ उद्देशक. अन्यतीथिकवक्तव्यता.-ते मिथ्या.-स्वमत.-एवंभूत वेदना.- अनेवंभूत वेदना.-नैरयि कादि-वैमानिक. संसारमंडल.-कुर करो केटला ?-सात.-तीर्थकरनी माताओ.-पिताओ.-शिष्याओ.-चक्रवर्तिनी माताओ.-स्त्रीरत्न.-बलदेवो.-वासुदेवो.-वासुदेवनी मा. ताओ.-पिताओ. प्रतेशत्रुओ विगेरे.-समवायसूत्र.-बिहार. १.५०--छेउमत्थे णं भंते ! मणसे तीय-मणंतं सासयं१. प्र०--हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य, बीती गयेला शाश्वता समयं केवलेणं संजमेण? अनंत काळम मात्र संयमवडे (सिद्ध थयो ?) १. 30--जहा पढमसए चउत्थुइसे आलावगा तहा १. उ०--जेम प्रथम शतकमां चतुर्थ उद्देशकमां आलापक नयव्वा, जाव-अलमत्थु त्ति वत्तव्यं सिया. .कह्या छे तेम अहिं पण ते आलापक कहेवा यावत 'अलमस्तु' एम कहेवाय ' त्यां सुधी. - १. अनन्तरोद्देशके चतुर्दशपूर्वविदो महानुभावता उक्ता. सं च महानुभावत्वाद् एव उद्मस्थोऽपि सेत्स्यति-इति कस्याऽप्याऽऽशङ्का स्यात्, अतस्तदपनोदाय पञ्चमोद्देशकस्य इदमादिसूत्रम्:-'छउमत्थे णं' इत्यादि. 'जहा पढमसए' इत्यादि. तत्र च छद्मस्थः आधोत्रधिकः, परमाधोवविकश्च केवलेन संयमादिना न सिध्यति-इत्याद्यर्थपरं तावन्ने पं यावद् ' उत्पन्न ज्ञानादिधरः केवली अलमस्तु' इति वक्तव्यं स्याद्-इति. यच्चेदं पूर्वाऽधीतमपि इहाऽधीतं तत् सम्बन्धविशेषात् . स पुनरुद्देशकपातनायाम् उक्त एवेति. १. आगळना उद्देशकमां चौदपूर्वीनी महानुभावता कही छे, अने ए महानुभावपणाथी ते चौद पूर्वी छद्मस्थ होय तो पण सिद्ध थशे एवी आशंका थाय माटे ते आशंकानो परिहार करवा पंचम उद्देशक- आ-['छउमत्थे णं' इत्यादि ] सूत्र छे. [जहा पढमसंए.' प्रथमशतक. इत्यादि.] तेमां छद्मस्थ एटले आधोबधिक अने परमावधिक, 'एकला संयमादिवडे सिद्ध न थाय ' इत्यादि अर्थ परत्वेन ते सूत्र त्यां एकवार आग सुधी लेवु, ज्यां सुधी उत्पन्नज्ञानादिनो धारण करनार केवली · अलमस्तु' एम कहेवाय.' आ वात एकवार आगळ प्रथम शतंकना आबी गयुं. चोथा उद्देशकमां आत्री गइ छ तो पण अहीं ए विपे फरीने जे कयुं छे ते संबंध विशेपथी कयुं छे. अने ते संबंध 'उद्देशकनी शरुआतगांज कह्यो. छे. अन्यतीर्थिको. २. प्र०–अन्नउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव- २. प्र०-हे भगवन् ! अभ्यतीर्थिको एम कहे छे यावत् प्ररूपे परूवति सच्चे पाणा, सव्वे भूआ, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता एवं. छे के, सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव अने सर्व सत्त्वो एवंभूतभूयं वेदणं वेदेति से कहमेयं मंते ! एवं? जेम कर्म बांध्यु छे ते प्रमाणे-वेदनाने अनुभवे छे, हे भगवन् ! ते एम केवी रीते छ ? १. मूलच्छायाः-छद्मस्थो भगवन् ! मनुष्योऽतीतम् , अनन्तम् , शाश्वतं समयं केवलेन संयमेन ? यथा प्रथमशते चतुर्थीद्देशके आलापकांस्तथा ज्ञातव्याः, यावत्-अलमस्तु इति वक्तव्यं स्यात्: १. जूओ भगवती प्रथम खंड (पृ. १३७-१३८):-अनु. २. अन्य यूथिकोः भगवन् ! एवम् भाख्यान्ति, यावत्-प्ररूपयन्ति सर्व प्राणाः, सर्वे भूताः, राजीवाः, सर्वे सत्वाः एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति, तत् कथमेतद भगवन! एवम् -अनु. Jain Education international Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायनन्द्र-जिनागमसंग्रहै शतक ५.-उद्देशक ५. २. उ०—गोयमा ! जणं ते अनउत्थिया एवं आइक्खति, २. उ०--हे गौतम ! ते अन्यतीर्थिको जे ए प्रमाणे कहे छे जाव-वेदेति, जे ते एवं आहेसु, मिच्छा ते एवं आहंसु; अहं यावत्-वेदे छे, जे तेओ ए प्रमाणे कहे छे ते एम खोटुं कहे पुण गोयमा! एवं आइक्खामि, जाव-परूवेमि अत्थेगइया पाणा, छे, वळी हे गौतम ! हुं तो एम कहुं छं यावत् प्ररूपुं छु के भूया, जीवा, सत्ता एवंभूयं वेयणं वेयंति; अत्थेगइया पाणा, केटलाक प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्वो एवंभूत-ए प्रकारेभूया, जीषा, सत्ता अणेवंभूयं वेदणं वेदेति. पोताना कर्म प्रमाणे-वेदनाने अनुभवे छे अने केटलाक प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्त्वो अनेवभूत-जेम कर्म बांध्यु छ तेथी जूदी-वेदनाने अनुभवे छे. ३.प्र०–से केणद्वेणं अत्थेगइया-तं चेव उच्चारेयव्वं ? ३. प्र०---ते क्या हेतुथी-केटलाक० इत्यादि ते ज कहे ? ३. उ०-गोयमा । जे णं पाणा, भूया, जीया, सत्ता जहा ३. उ०-हे गौतम! जे प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्त्वो कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति ते णं पाणा, भूया, जीया, सत्ता करेलां कर्मो प्रमाणे वेदना अनुभवे छे ते प्राणो, भूतो, जीवो एवंभूयं वेदणं वेदेति, जेणं पाणा, भूया, जीया, सत्ता जहा कडा अने सत्वो एवंभूत वेदनाने अनुभवे छे भने जे प्राणो, भूतो, कम्मा नो तहा वेदणं वेदेति ते गं पाणा, भूया, जीवा, सत्ता जीवो अने सत्त्वो करेलां कर्मो प्रमाणे वेदना नथी अनुभवता अनेवंभूयं वेयणं यांति; से तेणद्वेणं तहेव. ते प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्त्वो अनेवंभूत वेदनाने अनुभवे छे, ते हेतुथी तेम ज कडं छे. ४. प्र०---नेरइया णं भंते ! किं एवंभूयं वेयणं वेयति, ४. प्र०—हे भगवन् ! नैरपिको शुं एवंभूत वेदनाने वेदे अणेवंभूयं वेयणं वेयांति ? छे के अनेवभूत वेदनाने अनुभवे छे ? ४. उ०-गोयमा ! नेरइया णं एवंभूयं पि वेयणं वेदेति, ४. उ०—हे गौतम ! तेओ एवंभूत वेदनाने पण अने अणेवंभूयं पि वेयणं वेदेति. अनेवंभूत वेदनाने पण अनुभवे छे.. ५. प्र०-से केणटेणं तं चेव ? __५. प्र०-ते क्या हेतुथी ? ५. उ०-गोयमा ! जेणं नेरइया जहा कडा कम्मा तहा ५. उ0--हे गौतम! जे नैरयिको करेलां कर्म प्रमाणे वेदणं वेयंति ते ण नेरइया एवंभ्यं वेयणं वेदेति, जेणं नेरइया वेदना वेदे छे तेओ एवंभूत वेदना वेदे छे अने जे नैरयिको जहा कडा कम्मा णो तहा वेदणं वेदेति ते ण नेरतिया अणेवंभूयं करेलां कर्म प्रमाणे वेदना नथी वेदता तेओ अनेवंभूत वेदनाने वेयणं वेदेति से तेणटेणं, एवं जाव-वेमाणिया वेदे छे ते हेतुथी एम कर्तुं छे. ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधीना-- २. स्वयूथ्यवक्तव्यताऽनन्तरम् अन्ययूथिकवक्तव्यतासूत्रम् , तत्र चः-' एवंभूयं येणं' ति यथाविधं कर्मनिबन्धनम् , एवंमूताम्-एवंप्रकारतया उत्पन्नां वेदनाम् असातादिकादयं वेदयन्ति-अनुभवन्ति. मिथ्यात्वं च एतद्वादिनाम् एवम्:-नहि यथा बर्द्ध तथैव सर्व कर्माऽनुभूयते, आयुष्कर्मणा व्यभिचारात्. तथाहि:-दीर्वकालाऽनुभवनीयस्याऽपि आयुष्कर्मणोऽल्पीयसाऽपि कालेनाऽनुभवो भवति, कथनन्यथा अपमृत्युव्यपदेशः सर्वजनप्रसिद्धः स्यात् ? कथं वा महासंयुगादौ जीवलक्षाणामपि एकदा एव मृत्युरुपपद्यतइति.' अगेवभूयं पि' ति यथा वद्धं कर्म न एवंभूता अनेवभूता अतस्ताम् , श्रूयन्ते हि आगमे कर्मणः स्थितिघात-रसघातादय इति, ' एवं जाव-वेमाणिया-' एवम् उक्तक्रमेण वैमानिकाऽवसानं संसारिजीवचक्रवालं नेतव्यमित्यर्थः, . । वेदना. २. खतीर्थिकनी वक्तव्यता पछी अन्ययूथिकनी वक्तव्यताने लगतुं सूत्र छे, तेमां [एवंभूयं वेयणं' ति] जे प्रकारनुं कर्म बांध्यु छे ए प्रकारनी उत्पन्न थयेली वेदनान-अशाता वेदनीय वगेरे कर्मना उदयने अनुभवे छे. ए वादिओनी असत्यता आ प्रमाणे छः सिसता. १. मूलच्छायाः-गौतम ! यत् तेऽन्ययूथिकाः एवम् आख्यान्ति यावद् वेदयन्ति. ये ते एवम् आहुः, मिथ्या ते एवम् आहुः. अहं पुनौतम! एवम् आख्यामि, यावत्-प्ररूपयामि अस्त्येककाः, प्राणाः, भूताः, जीवाः, सत्त्वाः एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति. अत्येककाः प्राणाः, भूताः, जीवाः, सत्त्वाः अनेवभूतां वेदनां वेदयन्ति. तत् केनाऽर्थेन अस्त्येककाः तचैव उच्चारयितव्यम् ? गौतम! ये प्राणाः, भूताः, जीवाः, सत्त्वाः यथा कृतानि कर्माणि तथा वेदनां वेदयन्ति ते प्राणाः, भूताः, जीवाः, रात्वाः एवभूतां वेदना वेदयन्ति. ये प्राणाः, भूताः, जीवाः, सत्त्वाः यथा कृतानि कीणि गो तथा वेदनां वेदयन्ति ते प्राणाः, भूताः, जीवाः, सवा: अनेवभूतां वेदनां वेदयन्ति तत् तेनाऽथेन तथैव. नैरपिकाः भगवन् । किम् एवंभूतां वेदनां वेदयन्ति, अनेर्वभूतां वेदना वेदयन्ति? गौतम ! नेरयिकः एवंभूताम् अपि वेदनां वेदयन्ति, अनेवभूताम् अपि वेदना वेदयन्ति. तत् केनाऽर्थन तश्चैव ? गौतम ! ये नैरयिकाः यथा कृतानि कमाणि तथा वेदनां वेदयन्ति ते नैरयिकाः एवंभूनां वेदनां वेदयन्ति, ये नैरयिकाः यथा कृतानि कमीणि नो तथा वेदनां वेदयन्ति ते नैरयिकाः अनेवंभूनां वेदनां दयन्ति; तत् तेनाऽर्थेन एवं यावत्-वैमानिका:-अनु. १. आ हकीकत विशेष विचारणीय जणाय छे-जो के टीकाकारश्रीए आ संबंधे खुलासो करवा प्रयत्न कयों छे.तो पण ए विशेष अगम्य रुणाय -अनु. . Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ शतक ५.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. आयु कर्ममा व्यभिचार (तेना वेदनमा फारफेर थतो) होवाथी जेम बांध्या छे ते प्रकारे बधां कर्मो नथी अनुभवातां, ते ज दीवे छे लांबा काळ सुधी अनुभवया योग्य बांधेलु आयुष्य वर्ग थोडे काळे पण अनुभवी लेवाय छे, जो एम न होय तो अपमृत्यु-कमोत-नो, कमोतव्यवहार जे सर्वजनप्रसिद्ध, छे ते केम थइ शके १ अथवा भयंकर मोटा संग्राम बगेरे स्थळमा लाखो जीवोना प्राण एक ज काळे जाय ते केम बने-लाखो जीवोनुं एक काळे मृत्यु केम बने ? [ 'अणेवंभूयं पित्ति ] जे प्रकारे कर्म बांध्यु छे ते प्रकारे नहि-तेने- भनेवभूत-वेदना अनेवभूत वेदनान. कर्मनो स्थितिघात, रसघात वगरे आगममा संभळाय छे तेथी पण अनेवंभूत वेदनानो अनुभव सत्य ठरे छे. [ एवं जावं स्थितवातादि.. वेमाणिया-'] कहेली रीत प्रमाणे वैमानिकना छेडा वालुं समस्त संसारी जीवनुं चक्रवाळ जाणी लेवु. कुलकर विगेरे. -संसारमंडलं नेयव्वं --संसार-मंडळ विषे समजवान छे. ६. प्र०-जंबूद्दीवे णं भंते ! इह भारहे वासे इमीसे उस्स- ६. प्र०—हे भगवन् ! जंबूद्वीपमां आ भारत वर्षमां आ पिए समाए कइ कुलगरा होत्था ? अवसर्पिणीना काळमां केटला कुलकरो थया ? ६. उ०-गोयमा ! सत्ते. एवं चेव तित्थयरमायरो, पियरो, ६. उ०-हे गौतम ! सात कुलकर थया, ए प्रमाणे १. मूलच्छायाः-संसारमण्डलं ज्ञातव्यम्. जम्बुद्वीपे भगवन् ! इह भारते वर्षे अस्याम् अवसर्पिण्यां समायां कति कुलकराः अभवन् ? गौतम । सप्त. एवं चैव तीर्थकरमातरः, पितरः-अनु० १. आ शब्द माटे टीकाकारश्रीए जणाव्युं छे के"अथवा इह स्थाने वाचनान्तरे कुलकर-तीर्थकरादिवतव्यता दृश्यते." "अथवा बीजी वाचनामां आ ठेकाणे कुलकर अने तीर्थकर विगेरेनी वक्तव्यता कहेली छे." टीकाकारजीना आ उल्लेख उपरथी एम साफ जणाय छे के, ' संसारमंडलं नेयव्वं ' ए शब्दनो संबंध 'जाव वेमाणिया' शब्द साथे घटी शकतो नथी. कारण के, आ स्थळे के बीजे अनेक स्थळे जे हकीकतने जीव मात्रमा लागु करवाना उखो मळे छे त्यां बधे 'जाव-वेमाणिया'एशब्द छेवट आवे छे अने ए शब्द जे हकीकतने छेडे आवेलो होय ते हकीकत जीव मात्रने लागु थाय छे-कोइ स्थळे आ ग्रंथमा जीव मात्रने लगता उल्लेखोनी नोंधमां 'जाव-वेमाणिया' शब्द उपरांत बोजो कोइ शब्द नोधेलो जणातो-जणायो-गथी माटे ज अहीं अमे संसारमंडलं नेयव्यं' ए शब्दने 'जाव-वेमाणिया' शब्दथी छूटो पाडीने जणावेलो छे अने 'ए प्रमाणे वैमानिक सुधीना समस्त संसारमंडळ विषे समजवानुं छे' एवो टीकाकारश्रीए जणावेलो बीजों अर्थ बतायवा माटे पण ए बन्ने शब्दो वचे एक मोटी आडी ओळी मुकेली हे-आ जातनो फेरफार अमे मूळमां अने भाषांतरमां-बन्ने ठेकाणे जणाग्यो छे वळी वाचनाने लगता टीकाकारना आ अने बीजा अनेक उल्लेखो द्वारा एम पण कळी शकाय छे के, आ वाचनाओमा केटली बधी विचित्रता छे-जाणे नवीनता ज न होय (2):-अनु० २. कुलकर विगेरे विषे श्रीसमवायांगसूत्रमा (स.पृ० १५०-१५५) सविस्तर नोंधाएलुं छे. तेमांनु केटलुक-अहीं उपयोगी-आ प्रमाणे छे:कुलकरोः “जंबुद्दीवेणं दीवे मारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए समाए सत्त कुलगरा “जंबूद्वीपमा, भारतवर्षमां आ अवसर्पिणीमा सात कुलकर थया होत्था. तं जहाः हता. तेनां नामः पढमेत्थ विमलवाहण [चक्खुम जसमं च उत्थमभिचंदे, बिमलबाहन, चक्षुमान् , यशोमान्, अभिचंद्र, प्रसेनजित, मरुदेष तत्तो एसेणइए मरुदेवे चेव नाभी य.] " अने नाभि." कुलकरनी खीओ एतसिणं सत्तण्हं कुलगराण सत्त भारिआ होत्या. तं जहाः ए साते कुलकरोने (एक एकने एक) एम सात स्त्रीओ हती. तेनां नामः चंदजसा चंदकता [ सुरूव-पडिरूव चक्खुकंता य, चंद्रयशा, चंद्रकांता, सुरूपा, प्रतिरूपा, चक्षुकांता, श्रीकांता अने सिरिकता मरुदेवी कुलगरपत्तीण नामाई.] मरुदेवी. ३. तीर्थकरनी माताओः " जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थ- “जंबूद्वीपमां, भारतवर्षमां आ अवसर्पिणीमां चोवीश तीर्थकरोनी गराणं मायरो होत्या. तं जहाः माताओ थइ हती. तेनां नामः मरुदेवी विजया सेणा [ सिद्धत्था मंगला सुसीमा य, मरुदेवी, विजया, सेना, सिद्धार्थी, मंगला, सुसीमा, पृथ्वी, लक्ष्मणा, पुहवी लक्षणा रागा नंदा विह जया सामा. रामा, नंदा, विष्णु, जया, श्यामा, सुयशा, सुव्रता, अचिरा, श्री, देवी, सुजसा सुन्वय अइरा सिरिया देवी पभावई पउमा, प्रभावती, पद्मा, वा, शिवा, वामा अने जिनमाता त्रिशला देवी." वप्पा सिना य वामा तिसला देवी य जिणमाया."] ४. तीर्थकरना पिताओः "जीवेणं दीवे भारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थ- “जंबुद्वीपमा भारतवर्षमां आ अवसविणमा चोवीश तीर्थकरोना गराण पियरी होत्या. तं जहाः पिताओ थया हता. तेनां नामः णामी य जियसत्तु य [जियारी संवरे इय, नाभी, जितशत्रु, जितारि, संवर, मेघ, धर, प्रतिष्ठ, महसेन क्षत्रिय, मेहे परे पढे ग महोणे य खत्तिए. सुगीच, इटरश, विष्णु, वसुपूज्य क्षत्रिय, कृतवर्मा, सिंहसेन, भानु, सुगीचे दढरहे विहू वसुपुग्ने य खत्तिए, विश्वसेन, सूर, सुदर्शन, कुंभ, सुमित्र, विजय, समुद्र विजय, अश्वसेन राजा कयवम्मा सीहसेणे भाणू विरस सेणे इय. अने सिद्धार्थ क्षत्रिय." सुरे सुदंसणे कुंमे सुमिते विजए समुद्दविजये य, राया य आससेणे य सिद्धस्ये चिय खत्तिए." Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ५. पढमा सिस्सिणीओ, चक्कवैट्टिमायरो, इत्रियणं, बलदेवा, तीर्थंकरोनी माताओ, पिताओ, पहेली चेलीओ, चक्रवर्तीनी वासुदेवा, वासुदेवमायरो, पियरो; एएसिं पडिसत्तू जहा समवाए माताओ, स्त्रीरत्न, बल देवो, वासुदेवो, वासुदेवनी माताओ, नामपरिवाडीए तहा णेयव्या. पिताओ; एओना प्रतिशत्रओ-प्रतिवासुदेवो बगेरे जे प्रमाणे 'समवाय' सूत्रमा नामनी परिपाटीमा छे ते प्रमाण जाणवु. ----सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव--विहरइ. ___-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही यावत् विहरे छे. भगवंत-अज्ञसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पंचमसये पंचमो उदेसो सम्मत्तो. १. मूलच्छायाः-प्रथमाः शिष्याः, चक्रवर्तिमातरः. स्त्रीरत्नम् , बलदेवाः, वासुदेवाः, वासुदेवमातरः, पितरः, एतेषां प्रतिशत्रवः, यथा समवाये नामपरिपाच्या तथा ज्ञातव्याः . तदेवं भगवन् 1, तदेवं भगवन् । इति यावद्-विहरतिः-अनु. २. तीर्थकरोनी पहेली चेलीओः " एएसिणं चउवीसाए तिस्थगराणं च उवीसं पढम सिस्सिणी होत्या. “ए चोवीश तीर्थकरोनी साथी पहेला थएली (एवी) चोवीश तं जहा: चेलीओ हती, तेनां नामः बंभी य प.ग्गु सामा अजिया कासवी रई सोमा, __वादी, फल्गु, ३यामा, अजिता, काश्यपी, रति, सोमा, सुमना, वारुणी, सुमणा वारुणी सुलसा धारणी धरणी य धरणिधरा. सुलसा, धारणी, धरणी, धरणिधरा, प्रथम-शिवा, शुची, जुका, रक्षी, पढम-सिवा सुयी तह अंजुया भावियप्पा य रक्खी य, बंधुवती, पुष्पवती, आयी अमिला, अधिका, यक्षिणी, पुचूला अने बंधुवती पुप्फवती अजा अमिला य अहिया. आयर्या चंदना-ए बधी उत्तम कुल-वंशवाळी, विशुद्ध वंशवाळी अने जविखणी पुष्फचूला य दणऽना य आहियाउ, गुणोथी युक्त हती." + सदितोदियकुलवंसा, विमुद्धवंसा गुणेहिं उववेया, तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराणं." ३. चक्रवर्तिनी माताओः " जंबुद्दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चक्कट्टिमायरो "जबूपमा, भारतवर्षमा आ अवसांगीमा बार चकवर्तिनी माताओ होत्था. तं जहाः हती. तेना नागः सुमंगला, जसवती, भद्दा, सहदेवी, अइरा, सिरी, देवी, तारा, जाला, सुमंगला, यशोमती, भद्रा, सहदेवी अचिरा, श्री, देवी, तारा, ज्वाला, मेरा, वप्पा चुल्लणि, अपच्छिमा." मेरा, वप्रा अने अपश्चिमा चुल्लणि." ४. चक्रवर्तिनां स्त्रीरत्नो: " एएसि बारसण्हें चकवट्टीणं बारस इस्थिरयणा होत्या. तं जहा: ए बार चक्रवर्तिओने बार स्त्रीरत्नो हता. तेना नाम: पढमा होइ सुभद्दा भद्द सुगंदा जया य विजया य, सुभद्रा, भद्रा, सुनंदा, जया, विजया, कृष्णश्री, शूरधी, पद्मश्री, - किगह सिरी सूर सिरी पउमसिरी वसुंधरा देवी. वसुंधरा, देवी, लक्ष्मीपती, कुरुमती." लच्छिमई कुरुमई इत्थीरयणाण नामाई. ५. बलदेवनां नामोः [“अयले बिजये भद्दे सुप्पमे य सुदंसणे, "अचल, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनंद, नंदन, पद्म भने राम.' आणंदे णंदणे पउमे रामे या वि अपच्छिमे."-टी.] ६. वासुदेवनां नामोः [“तिविढे य दुविठू य सयंभू पुरिसुत्तमे पुरिससीहे, " त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभ, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, दत्त, तह पुरिसपुंडरीए दते नारायणे कण्हे. "-ची.] नारायण अने कृष्ण." ७. वासुदेवनी माताओः "जंबुद्दीवे ण णव वासुदेवमायरो होत्या. तं जहाः " जंबूद्वीपमा० नव वासुदेवनी माताओ हती. तेनां नामः मियावई उमा चेव पुहवी सीया य अम्मया, मृगावती, उमा, पृथ्वी, सीता, अम्मया, लक्ष्मीवती, शेषवती, केकयी लच्छिमई सेसमई केकई देवई तहा. अने देवकी." ८. वासुदेवना पिताओः “जयुद्दीये. नवबलदेव-नववासुदेव पितरो होत्या. तं जहाः " जंबूदीपमा० नव वासुदेवना पिताओ हता. तेना नाम: पयावई य वंभो । सोमो रुद्दो सिवो मह सिवो य, प्रजापति, ब्रह्म, सोम, रुद्र, शिव, महाशिव, अग्निशिख, दशरथ अने अग्गिसिहो य दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवो.] वसुदेव." ९. वासुदेवना प्रतिशत्रुओः " एएसि नवण्ह वासुदेवाणं नव पडिसत्तू होत्था तं जहाः ए नव वासुदेवना नव प्रतिशत्रुओ हता. तेन नाम: अस्सग्गीवे [ तारए मेरए महु केढवे निसुभे य, अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुकैटभ, निशुंभ, बलि, प्रभराज (१), रावण बलि पहराए तह रावणे य नवमे टी.] जरासंधे." ___ अने जरासंध." आ प्रमाणे नी अने आ रखेली हकीकतनी साथे शब्दशः मळती आवती हकीकत ( य. ग्रं० ) आवश्य कनियुक्तिना शरुआतना भागगां गण . अशावेली छे. उपर जणावेला नामो उपरांत वीजा पण अनेक नामो श्रीसमवाय-अंग सूत्रमा नोंघेला छे अने ते आ प्रमाणे छे: . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ فه.2 शतक ५.-उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीराम. ३. ' संसारमण्डलं नेयव्वं ' ति अथवा इहस्थाने वाचनाऽन्तरे कुलकर-तीर्थकरादिवक्तव्यता दृश्यते, ततश्च संसारमण्डलसब्देन पारिभाषिकसंज्ञया सा इह सूचिता इति संभाव्यते. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पञ्चमशते पञ्चम उद्देशके श्रीअभय देवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. ३. [ संसारमंडलं नेयव्य ' ति ] अथवा वाचनांतरमा आ ठेकाणे कुलकर, तीर्थकर वगैरेनी वक्तव्यता देखाय छे तेथी जैन परिभाषामां प्रसिद्ध एवा । संसारमंडल 'शब्दवडे ते अहिं सूचित करी छ एम संभवे छे. . थह गएला कुलकरोः "जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीयाए उस्सपिण ए सत्त कुलगरा जंबूद्वीपमा भारत वर्षमां वीती गएली उत्साणीमा सात कुलकरो होत्या. तं जहा थया हता. तेनां नाम: मित्तदामे सुदामे य सुपासे य सयंप, __ मित्रदाम, सुदाम, सुपाव, स्वयंप्रभ, विगलघोष, सुघोष अने सातमो विमलघोसे सुघोसे य महाघोसे य सत्तमे. महाघोष. जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीयाए ओस प्पिणोए दस कुलगरा होत्था. जंबूद्वीपमा भारतवर्षमां वीती गएली अवसपिणीमां दस कुलकरो थया तं जहा: हता. तेनां नामः सयंजले सयाऊ य अजियसेणे अणंतसेणे य, खयंजल, शतायु, अजितसेन, अनंतसेन, कार्यसेन, भीमसेन अने . कजसेणे भीमसेणे महाभीमसेणे य सत्तमे. सातमो महाभीमसेन, दृढरथ, दशरथ अने शतरथ. दढरहे दसरहे सयरहे. जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवासं तित्थगरा जंबूद्वीपमां भारत वर्षमा आ अवसर्पिणीमां चोवीश तीर्थकरो थया होत्था. तं जहा: हता. तेनां नामःउसभ-अजिय-संभव-अभिणंदण-सुमइ-पउमप्पह-सुपास-चंदप्पभ- ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाश्व, चंद्रप्रभ, सुविहि-पुप्फदंत-सीयल-सिजंस--वासुपुज्ज-विमल--अशंत-धम्म-संति- सुविधि-पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु-अर-मलि-मुणिसुव्वय-ण मि-णे मि-पास-वडमाणा य. कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, ने मि, पाच अने वर्धमान. तीर्थकरोने मळेली भिक्षाओ अने वसुधाराः " संवच्छ रेण भिक्खा [ लद्धा उसमेण लोयणाहेण, "लोकनाथ एवा श्री प्रापभदेव जीने एक वरसे भिक्षा मळो हती अने सेसेहि चीय दिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ x बाकीना बधा तीर्थकरोने बीजे दिवसे ( दीक्षाने वळते दिवसे.) मिक्षा सव्यास पि जिणा जहियं लद्धाउ पढ़मभिक्खाउ, मळी हती. बधा य जिनेश्वरोने ज्या प्रथम भिक्षा मळी छे त्यां वधे शरीर. तइयं वसुधाराओ सरीरमेतीओ वुढाओ." प्रमाण वसुधाराओ बरसी हती." तीर्थकरोनी साथे दीक्षा लेनाराः "एको भगवं वीरो [पासो गली य निहि तिहि सएहिं, भगवान वीरे एकलाए दीक्षा लीधी हती अने पार्श्वनाथ तथा मलिनाथे 'भगवं पि वासुपुज्जो छहिं पुरिससएहिं निक्खंतो. त्रणसें पुरुषो साथे दीक्षा लीधी हती, वासुपूज्य भगवाने उसे पुरुषो साथे, उरगाणं भोगाणं राइण्णाणं [च खत्तियाणं च, श्रीऋषभदेवखामिए चार हजार पुरुषो साथे अने बाकीना दरेक तीर्थकरे चउहि सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा." हजार हजार पुरुषो साथे दीक्षा लीधी हती-तीर्थकरोनी साथे दीक्षा लेनारा उग्रकुलना, भोगकुलना, राजन्यकुलना अने क्षत्रियकुलना पुरुषो हता. तीर्थकरोनां चैत्य-वृक्षोः "एएसिं च उव्वीसाए तिस्थगराणं च उवासं चेइयरुक्खा होत्या. तं जहाः जे वृक्षो पासे बेसीने तीर्थकरोने केवळबोध थयो हतो ते वृक्षोने चैत्यनग्गोह-पत्तिवणे साल-पियए पियंगु-छत्तोहे, वृक्षो कहेवामां आवे छे अने एवां चैत्यवृक्षो तीर्थ करना अनुकम प्रमाणे सिरिसे य नागरुक्खे माली य पिलक्खुरुवखे य. चोवीश होय छे तेना नाम: fiदुग-पाडल-जबू-आसत्थे खलु तहेव दहिवणे, वड, सादड, शाल, प्रियक, पियंगु, छत्राघ, शिरीष, नागवृक्ष, माली, नंदीरक्खे तिसए अंबयरक्खे असोगे य. प्लक्षy झाड-पीरको, तिदुग, पाटल, जांबुडो, अश्वत्थ, दधिपर्ण, नंदीवृक्ष, चंपय बउले य तहा वेडसरुक्म्ये या इश्को, तिलक, आम्रवृक्ष अने अशोक, चंपक, वकुल, वेतस वृक्ष, धातकी वृक्ष साले य वढमाणस्स चेइयरुकवा जिणवणं. अने छेल्ला तीर्थंकर वर्धमानने शाल वृक्षनी छायामां बेसीने केवळबोध प्रकट्यो हतो. तीर्थकरना प्रथम शिष्योः एएसिं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्धीसं पढमसीसा होत्था. ए चोवीश तीर्थकरोना प्रथम प्रथम थएल शिष्योनां चोबीश नाम जहाः आ प्रमाणे छ:पढमेऽस्थ उसभसेणे बीइए पुण होइ सीहसेणे य, पहेला अषभसेन, बीजा सिंहसेन, पछी चारु, वज्रनाभ, चमर, सुव्रत, चारू य वनणामे चमरे तह सुब्धय विदम्भे. विदर्भ, दत्त, वराह, आनंद, गोस्तुभ, सुधर्भ, मंदर, यश, अरिष्ट, चकाभ, दिप्णे य वराहे पुण आणंदे गोधुने सुहम्मे य, खयंभू, कुंभ, इंद, कुंभ, शुभ, वरदत्त, दत्त अने इंद्रभूति. ए चोगेशे गंदर जसे अरिट्टे चकाह सयंभु कुंगे य. उच्चकुल-वंशना, विशुद्धवंशना अने गुणोथी युक्त हता अने तीर्थप्रवर्तक इंदे कुंभे य सुभे वर दते दिण्ण इंदभूई य, जिनयरोना प्रथम शिष्यो हता. उदितोदितकुलसा विसुद्धवंसा गुणे हि उववेया.. तिस्थप्पवत्तयाण पढमा सिस्सा जिणवराणं. Jain Education international Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ५. बार चक्रवर्तिओः "जंबुद्दीवे बारस चक्कवट्टी होत्या. तं जहा जंबूद्वीपमा बार चक्रवर्तिओ थथा हता. तेनो नामः भरहो सगरो मघवं [ सणकुमारो य रायसङ्कलो, भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार राजशार्दूल, शांति, कुंथु, अर, कारव्य संती कुंथू य अरो य हवद सुभूओ य कोरवो. सुभूम, नवमो महापद्म, हरिषेश राजशार्दूल, जयनरपति अने बारमो नवमो य महापउमो.हरिसेणो चेव रायसङ्कलो, ब्रह्मदत चक्रपती. जयनामो य नरवई बारसमो बंभदत्तो य. भविष्यमा थनारा तीर्थकरोः "जंबुद्दीवेणं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउन्धीसं जंबूद्वीपमा भारतवर्षमा आवती उत्सपिणीमा चोवीश तीर्थंकरो थनारातित्थगरा भविस्संति. तं जहाः छे. तेनां नामः महापउमे सूरदेवे सुपासे य सयंम्मे, महापद्म, शू'देव, सुपार्श्व, खयंप्रभ, अईन् सर्वानुभूति, देवश्रुत, उदय, सवाणुभूई अरहा देवस्सुए य होक्खइ. पेढालपुत्र, पोटिल, शतकीर्ति, मुनिसुना अर्हन् , सर्वभाव वित्-जिन, अमम, उदए पेढालपुते य पोट्टिले सतकित्ति य, निष्कषाय, निष्पुलाक, निर्मम, चित्रगुप्त, समापि, संघर, अनिवृत्ति, विजय, मुणिंसुव्वए य अरहा सव्वभावविऊ जिणे. विमल, देवोपपात अने अनंत विजय, अममे निक्कसाए य, निप्पुलाए य निम्ममे, [अभिधानचितामणिकोशमां पण आ नामो केटलाक फेरफार साये चित्तउत्ते समाही य आगमिस्सेण होक्खइ. नोधाएला छे ] संवरे अणियट्टी य विजए विमलेति य, देवोववाए अरहा अणंत विजए इय. एए वुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली, ए बधा-चोवीशे-भारत वर्षमा धर्मतीर्थना देशक-केवळी थनारा छे. आगमिस्सेण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा. यनारा तीर्थकरोनां पूर्वभः नां नामोः " एएसि णं चउनीसाए तित्थ कराणं पुनमविया चउव्वीसं नामधेजा “ ए बनारा चोवीश तीर्थकरोनां पूर्वभवनां चोवीश नाम आ भविस्संति. तं जहाः । प्रमाणे : सेणिय सुवास उदए पोट्टिल्ल अणगार तहा दढाऊ य, • श्रेणिक, सुपार्श्व, उदय, पोहिल्ल अनगार, दृढायु, कार्तिक, शंख, नंद, कत्तिय संखे य तहा नंद सुनंदे य सतए य. सुनंद, शतक, देवकि, सत्यकि, वासुदेव, बळदेव, रोहिणी, सुलसी, रेवती, बोद्धव्वा देवई य सच्चइ तह वासुदेव बलदेवे, शतालि, भयालि, द्वैपायन, नारद, अंबड, दारुमड अने सुद्ध एवा खाति." रोहिणि सुलसा चेत्र तत्तो खलु रेवई चे. तत्ती हवइ सयाली बोद्धव्वे खलु तहा भयाली य, दीवायणे य कण्हे तत्तो खलु नारए चेव. अंबड दारुमडे य साई बुद्धे य होइ बोद्धव्वे, भावी-तित्थगराणं णामाई पुबभवियाई." थनारा बार चक्रवर्तिओः "जंबुद्दीवे ण दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए बारस चक- "जंबूद्वीपमा भारतवर्षमा आवती उत्सार्पणीमां बार चकवतिओ पट्टिणो भविस्संति. तं जहाः थनारा छे. तेनां नामः भरहे य दीहदंते गूढदंते य सुद्धदंते य, भरत, दीर्घदन्त, गूढ दन्त, शुद्धदन्त. श्रीयुक्त, श्रीभूति, श्रीसोम, सिरिउते सिरिभूई सिरिसोमे य सत्तमे. पद्म, महापद्म, विमलवाहन, विपुलवाहन अने वारमा भारताधिप वरिष्ठ." पउमे य महापउमे विमलवाणे विपुलवाहणे चेव, वरितु बारसमे वुते आगमिस्सा भरहाहिवा." ऐवत क्षेत्रमा थएला तीर्थकरोः "जंबुद्दीवे णं एरबए वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउव्वीसं तित्थयरा “ जंबूद्वीपमा ऐरवत वर्षमा आ अवसर्पिणीमा चोवीश तीर्थकरो हता. होत्या. तं जहाः तेनां नामः चंदाणणं सुचंदं अग्गीसेणं च नंदिसेणं च, चंद्रानन, सुचंद्र, अग्निसेन, नंदिसेन, ऋषिदत्त, व्यवहारी, सोमचंद्र, इसिदिणं ववहारि दिगो सोमचंदं च. युक्तिसेन, अजितसेन, शिवसेन, बुद्ध एवा देवशमी, निक्षिप्तशस्त्र एवा वंदामि जुत्तिसेणं अजियसेणं तहेव सिबसेणं, सतत, असंज्यल-जिनवृषभ, अमितज्ञानी अनंतक, धूरज एवा उपशांत, बुद्धं च देवसम्म सययं निविखत्तसत्थं च. गुप्तिसेन, अतिपार्श्व, सुपार्श्व, देवेश्वरवंदित-वरुदेव, निर्वाण पामेला-वर, असंजलं जिणवसहं वंदे य अणतयं अमियणाणि, क्षीणदुःख-३यामकोष्ट, जितराग-अग्निसेन, क्षीणराग-अग्रिगुप्त, वीतराग. उवसंतं च धुयरयं वंदे खलु गुत्तिसेणं च. द्वेष अने सिद्धिने पामेला एवा वारिषेण-ए बधाने अमे बांदीए छीए." अतिपासं च सुपासं देवेसरवंदियं च मरुदेवं, निवाणगयं च वरं खीणदुई सामकोर्ट च. जियरागमगिरोण पदे सीणरायमगिउतच, वोक सियपिज्जदोसं वारिसेणं गयं सिदि." भा सिवाय समवाय-सूत्रमा आ स्थळे बीजी घणी भूत-भविष्यने लगती वाणीओ नोंघेली छे-पण अमे तो आवश्यक एटली ज अहीं जणावी छे:-अनु० वेडारूपः समुदेऽखिलजलचरिते क्षारभार भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चासमुख्यः ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. उद्देशक ६. जीवोनी अस्पायुष्यतानो हेतु.-हिंसा.- मृषावाद.-श्रमण-भाह्मणने अनुचित दान.-जीवोनी दीपयुष्यतानो हेतु.-अहिंसा.-सत्य.-उचित पदार्थनुं दान,-अशुभ. दीर्घायुष्यतानो हेतु.-शुभदीर्घायुष्यतानो हेतु.-करियाणु अने तेने लगती वेचनार-लेनारने लागती क्रिया.-चार विकल्प.-अभिकायची मदाक्रिया विगेरे.-पुरुष अने धनुष्यने लागती क्रियाओ.- अन्यती धैकोनुं मत.-तेनी असत्यता.-जीवाभिगम.-आधाय मीदि आहार लेनारने ५ती हानि. '-कीतकृत.-स्थापित. कान्तारभक्त-दुभिक्षभक-वालिकाभक्त-ग्लानभक्त-शय्यातरपिंड.-राजपिंड-आराधना अने विराधना.-जाचार्य-उपाध्यायनी गति.-खोटा बोलानां कमो-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. १. प्र०-कह णं भंते ! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? १. प्र०-हे भगवन् ! जीवो, थोडा जीववानुं कारणभूत ___कर्म केवी रीते बांधे छे ? । १. उ०-गोयमा ! तिहिं ठाणहि, तं जहा:-पाणे अड़वा- १. उ०—हे गौतम ! त्रण स्थानोबडे जीवो थोडा जीववार्नु एत्ता, मुसं वत्ता, तहारूवं समणं वां, माहणं वा अफासुएणं, कारणभूत कर्म बांधे छे, ते जेमके, प्राणोने मारीने, खोटुं बोलीने अणेसणिज्जेणं असण-गाण-खाइम साइमेगं पडिलाभेत्ता; एवं खल अने तथारूर श्रमण वा ब्राह्मगने अप्रासुफ, अनेपणीय खान, जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति. पान, खादिम तथा स्व.दिम पदार्थी वडे प्रत छाभीने पूर्वोक्त कर्म बांधे छे. अर्थात एत्रण हेतुथी जीयो थोडा जीवधान कारणभूत कर्म बांधे छे. २..प्र०-कह णं भंते । जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? २. प्र०- हे भगवन् ! जीवो लांबाकाळ सुधी जीववानुं ___कारणभूत कर्म केवी रीते बांधे छे ? २..उ०-गोयमा ! तिहिं ठाणेहिं, तं जहा:-नो पाणे. २. उ०--हे गौतम ! त्रण स्थानो बडे जीवो लांबा काळ अइवाइत्ता, नो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा, माहणं वा सुधी जीववानुं कारणभूत कर्म बांधे छे, ते जेमके, प्राणोने नहि फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता; एवं मारीने, खोटुं नहि बोलीने अने तथारूप श्रमण वा ब्राह्मणने खलु जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति. प्रासुक, एपणीय खान, पान, खादिग तथा स्वादिम पदार्थों बडे प्रतिलाभीने; ए प्रमाणे प्रण हेतुथी जीवो लांबा काळ सुधी जीववानुं कारणभूत कर्म बांधे छे. १. मूलच्छायाः-कथं भगवन् । जीवाः अल्पाऽऽयुष्कताय कर्म प्रकुर्वन्ति ? गौतम । त्रिभिस्स्थानः, तद्यथाः-प्राणान् अतिपात्य, मृषा उच्वा, तयारूपं श्रमणं वा, ब्राह्मणं वा अप्रासुकेन, अनेषणीयेन अशन-पान-खादिम-खादिमेन प्रतिलाभ्यं एवं खलु जीवा अल्पाऽऽयुष्कताय कर्म प्रकुर्वन्ति. कथं भगवन् ! जीवा दीपीऽऽयुष्कतायै कर्म प्रकुर्वन्ति ? गौतम । त्रिभिः स्थानैः, तद्यथाः-नो प्राणान् अतिपात्य, नो मृषा उक्त्वा, तथारूपं श्रमणं वा, जाह्मणं वा प्रासुकै-पीयेन अशन-पान-खादिम-खादिमेन प्रतिलाभ्य, एवं खलु जीवा-दीवाऽऽयुष्कताय कर्म प्रकुर्वन्तिः-अनु० . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ६, ३. प्र०-कह णं भंते ! जीचा असुभदीहाउयत्ताए कम्म ३. प्र०-हे भगवन् ! जीवो अशुभरीते लांबाकाळ सुधी पकरति ? __ जीववानुं कारणभूत कर्म केवी रीते बांधे छे ? ३. उ०-गोयमा! पाणे अहवाएत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं ३. उ०-हे गौतम ! जीवोने मारीने, खोटुं बोलीने अने समणं वा, माहणं वा हीलित्ता, निंदित्ता, खिसित्ता, गरहित्ता, तथारूप श्रमणनी वा ब्राह्मणनी हीलना करीने, निंदा करीने, अवमन्नित्ता अन्नयरेणं अमणुनेणं, अपीतिकारएणं असण-पाण- लोक समक्ष फजेती करीने, तेनी सामे गही करीने अने तेनुं खाइम-साइमेण पडिलाभत्ता; एवं खलु जीवा असुभदीहाउयत्ताप अपमान करीने तथा एवा कोइ एक अप्रीतिना कारणरूप अमनोज्ञ कम्म पकरेंति. -खराब अशनादिवडे प्रतिलाभीने जीयो नक्की ए प्रमाणे यावत् करे छे. ४. प्र०-कह णं भंते ! जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्म ४. प्र०---हे भगवन् ! जीवो शुभप्रकारे लांबा काळ सुधी पकरेंति ? जीववानुं कारणभूत कर्म केवी रीते बांधे छे ? ४. उ०-गोयमा ! नो पाणे अइवाइत्ता, नो मुसं वइत्ता, ४. उ०—हे गौतम ! प्राणोने नहि मारीने, खोटुं नहि तहारूवं समणं था, माहणं वा वंदित्ता, नमंसित्ता, जाव-पज्जुवा- बोलीने अने तथारूप श्रमणने वा ब्राह्मणने वांदीने यावत्-तेने सित्ता; अजगरे मगु ने गं, पाइकारएणं असण पाण-खाइम-साइ- पर्युपासीने तथा एका कोइ एक कारणथी-मनोज्ञ, प्रीतिकारक मेणं पडिलाभेत्ता-एवं खलु जीवा सुभदीहाउयत्ताए पकरेति. अशन, पान, खादिम अने स्वादिम ए चार जातना आहार वडे प्रतिलाभीने; ए प्रमाणे जीवो यावत्-लांबुं सारं दीर्घायुष्य बांधे छे. १. अनन्तरोद्देशके जीवानां कर्मवेदना उक्ता, षष्ठे तु कर्मण एव बन्धननिबन्धनविशेषमाह, तस्य चादिसूत्रम् इदम्-' कह पं' इत्यादि. ' अप्पाउयत्ताए 'त्ति अल्पम् आयुर्यस्य असौ अल्पाऽऽयुष्कः, तस्य भावस्तत्ता, तस्यै अल्याऽऽयुष्कतायै-अल्पजीवितव्यनिबन्धनमित्यर्थः, अल्पाऽऽयुष्कतया या कर्म आयुष्कलक्षणं प्रकुन्ति-बध्नन्ति ? 'पागे अइवाएत ' त्ति प्राणान् जीवान् अतिपात्य-विनाश्य. 'मुसं वइत्त ' त्ति मृपावादम् उक्त्रा, ‘तहारूवं' ति तथाविधस्वभावं भक्तिदानोचितपात्रम् इत्यर्थः, 'समणं व ' त्ति श्राम्यति तपस्यति इति श्रमणोऽतस्तम् , 'माहगं व ' ति ' मा हन' इत्येवं योऽन्यं प्रति वक्ति, स्वयं हनननिवृत्तः सन् असौ मा-हनः; ब्रह्म वा ब्रह्मचर्य कुशलाऽनुष्ठानं वाऽस्याऽस्ति इति ब्राह्मणः-अतस्तम् . वाशब्दौ समुच्चये, ' अफासुएणं' ति न प्रगता असवः-असुगन्तो यस्मात् तद् अप्रासुकं-सजीवम् इत्यर्थः. 'अगेसणिजेणं' ति एष्यते इत्येषणीयं कल्प्यं तनिषेधाद् अनेषणीयम्-तेन अशनादिना प्रसिद्धन; 'पडिलाभेत्त' त्ति प्रतिल(ला)भ्य लाभवन्तं कृत्वा. अथ निगमयन्नाहः-' एवं ' इत्यादि, एवम् उत्तलक्षणेन कियात्रयेण इति. अयमत्र भावार्थ:-अध्यवसायविशेषाद् एतत् वयं जघन्यायुष्फलं भवति. अथवा इह आपेक्षिकी अल्पाऽऽयुष्कता ग्राह्या. यतः किल जिनाऽऽगमाऽभिसंस्कृतमतयो मुनयः प्रथमवयतं भोगिनं कंचन मृतं दृष्ट्वा वक्तारो भवन्तिनूनमनेन भवान्तरे किञ्चिद् अशुभं प्राणिघातादि चाऽऽसेवितम् , अकल्प्यं वा मुनिभ्यो दत्तं येनाऽयं भोग्यपि अल्पायुः संवृत्त इति. अन्ये वाहु:-" यो जीवो जिन-साधुगुणपक्षपातितया तत्पूजार्थ पृथिव्याद्यारम्भेण स्वभ.ण्डाऽसत्योत्कर्षणादिना, आधाकर्मादिकरणेन च प्राणातिपातादिषु वर्तते, तस्य वधादिविरति-निरवद्यदाननिमिताऽऽयुष्काऽक्षमा इयम् अल्पाऽऽयुष्कताऽवसेया. १. आगळना उद्देशकमां जीवोनी कर्मवेदना कही छे. हवे आ छट्ठा उद्देशामां तो कर्मना ज बंधना कारण विशेषो कहे छे, अने तेनु आ [' कह णं' इत्यादि ] आदि सूत्र छे. [ ' अप्पाउयत्ताए 'त्ति ] जेनुं थोडं आयुष्य छे ते अल्पायुष्क अने तेपणुं ते अल्पायुष्कता तेने माटे अर्थात् प्राणातिपात. अल्पजीवननु कारणरूप, अथवा थोडा समय सुधी आयुष्यपणे रहेनारं आयुष्यरूप कर्म बांधे छे. [ 'पाणे अइवाएत्त'त्ति ] जीवोनो विनाश करीने. मृषाव.द. [ 'मुसं वइत्त ' ति ] खोटुं बोलीने. [ 'तहारूवं 'ति ] भक्ति करवाने अने दान देवाने उचित-पात्र-रूप-[ समणं वेत्ति ] श्रमण-तप करनारश्रमण-त्राणह्म. ने, [ ' महिणं व ' ति ] पोते हणवाथी निवृत्त थयो छतो जे बीजा प्रत्ये 'न हण ' ए प्रमाणे बोले ते ' मा-हन ' अथवा, जे ब्रह्म-ब्रह्मचर्य अप.सक ने अथवा कुशल अनुष्ठानने धारण करे ते ब्राह्मण-तेने. [ ' अफासुएणं' ति ] अप्रासुक ( अ-नहि, प्र-प्रगत-गएला, असु-प्राण) जीवसहित भनेषणीय. तथा [ अणेसणिज्जेणं' ति ] एपणीय एटले कल्प्य, जे कल्प्य न होय-आल्य होय ते अनेषणीय एवं जे प्रसिद्ध अशनादि-ते वडे 'पडिलाभेत्त ' ति] लाभवाळो करीने अर्थात् श्रमण के ब्राागने एवं सदोष-सजीव-भोजनादि आपीने. हवे उपसंहार करता [' एवं ' इत्यादि] १. मूलच्छायाः-कथं भगवन् ! जीवा अशुभदीघाऽऽयुष्कतायै वम प्रकुर्वन्ति ? गौतम ! प्राणान् अतिपाल, मृपा उक्त्वा, तथारूपं श्रमणं वा, ब्राह्मण वा, हीलिखा, निन्दित्वा, खिसिखा, गहिखा, अवमन्य; अन्यतरेण अमनोशेन, अप्रीतिकारकेण अशन-पान-खादिम-खादिमेन प्रतिलाभ्य एवं सलु जीवा अशुभदी|ऽऽयुष्कतायै कर्म प्रकुर्वन्ति. कथं भगवन् ! जीवाः शुभदीधाऽऽयुष्कतायै कर्म प्रकुर्वन्ति ? गौतम ! नो प्राणान् अतिपात्य, नो मृषा उक्तवा, तथारूपं श्रमणं वा, ब्राह्मग वा वन्दिखा, नमरियजा, यावत्-पर्युगस्य अन्य तरेण मनोशेन प्रीतिकारकेण अशन-पान-खादिम-खादिमेन प्रतिलाभ्य एवं खल जीवाः शुभदीपाऽऽयुष्कतायै प्रकुर्वन्ति:-अनु० १.भा पन्ने स्थळे वपराएल 'या' शब्दनो 'समुचय 'अर्थ छ:-श्रीअभय. . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ शतक ५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. सूत्र कहे छ. ए प्रमाणे कहेल स्वरूपवाळी त्रण क्रियावडे. अहीं आ भावार्थ छः एक प्रकारना आत्माना परिणामवडे ए त्रणे क्रियानुं फळ भावार्थ. ओछामा ओछु आयुप्य छे, अथवा, अही अमुक अपेक्षावाळी अल्पायुष्कता लेवी, कारण के, जिनागममा अभिसंस्कृत मतिवाळा मुनिओ कोइ प्रथम क्यवाळा-नानी उमरना-भोगीने मरेलो-मृत-जोइने बोले छे के, चोक्कस ते मरनारे वीजा भवमा प्राणिघात वगेरे अशुभ काइ कयु छे-हशे. अथवा मुनिओने अणखपती वस्तुनुं दान आप्यु छे-हशे. जेथी आ भोगी मनुष्य पण टुंका आयुष्यवाळो थयो. बीजाओ तो बीजाओ. कहे छे के, “जे जीव, जिन अने साधुना गुगो तरफ पोताना पक्षपातिपणाने लीये तेओनी पूजा माटे पृथिवी वगेरेना आरंभ वडे, पोताना करियाणामां असत्य उत्कर्षण बडे अने । आधाकर्म' विगेरेना करवा वडे 'प्राणातिपात' विगेरे क्रियाओमां रहे छे तेने, वधादि क्रियाओथी विराम पामवाने लीधे मळता अने निरवद्यदान रूप निमित्तथी-निरवद्यदान देवाथी-मळता आयुष्यनी अपेक्षाए आ अल्प आयुष्यपणुं होय छे" ए प्रमाणे · जाणवू. . अथ नैवम् , निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य, अल्पाऽऽयुष्कत्वस्य च क्षुल्लकभवग्रहणरूपस्याऽपि प्राणातिपातादिहेतुतो युज्यमानत्वात्, अतः कथमभिधीयते सविशेषणप्राणातिपातादिवर्ती जीवः, आपेक्षिकी च अल्पायुष्कता इति? उच्यते, अविशेषणत्वेडी सूत्रस्य 'प्राणातिपातादेविशेषणमवश्यं वाच्यम् , यत इतस्तृतीयसूत्रे प्राणातिपातादित एव अशुभदीर्घाऽऽयुष्कतां वक्ष्यति. नहि सामान्य हेतोः कार्यवैषम्यं युज्यते, सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात् . तथा:-" समणोवास यस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा, माहणं वा अफासएणं. अणेसगिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ? गोयमा! बहुतरिया निज्जरा कज्जइ, अप्पतरे से पावे कम्मे कजह" ति-इति वक्ष्यमाणवचनाद् अवसीयते-नैवेयं क्षुलकभवग्रहणरूपाऽल्पाऽऽयुष्कता-न हि खल्पपाप बहुनिर्जरानिबन्धनस्य अनुष्ठानस्य क्षुल्लकभवग्रहणनिमित्तता संभाव्यते, जिनपूजाद्यनुष्ठानस्य अपि तथाप्रसङ्गात्. नन्वेवं धर्मार्थं प्राणातिपातमृषावादा-मासुकदानं च कर्तव्यम् आपन्नम् इति, अत्रोच्यते-आपद्यतां नाम भूमिकाऽपेक्षया, को दोषः? यतः, यतिधर्माऽशक्तस्य गृहस्थस्य द्रव्यस्तवद्वारेण प्राणातिपातादिकम् उक्तमेव प्रवचने, दानाऽधिकारे तु श्रूयते द्विविधाः श्रमणोपासकाः-संविग्नभाविताः, लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्च भवन्ति. यथोक्तम्:-" संविग्गभावियाणं लोद्धयदिÉतभाबियाणं च, मोत्तूण खेत्त काले भावं च काहिति सद्भत्थं." तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाविता आगमार्थाऽनभिज्ञत्वाद् यथाकथञ्चिद् ददति, संविग्नमावितास्तु आगमज्ञयात् साधुसंयमबाधापरिहारित्वात् , तदुपष्टम्भकत्वाच्च औचित्येन. आगमश्चैवम्:-" संथरणम्मि असुद्धं दोण्ह वि गेण्हत-देन्तयाणऽहियं, आउरेदिखतेणं तं चेव. हियं असंथरणे." तथा " नायाँगयाणं कप्पणिजाणं अन्न-पाणाइणं दव्वाणं " इत्यादि. अथवा इहाऽप्रासुकदानम् अल्पाऽऽयुष्कतायां मुख्य कारणम् , इतरे तु सहकारिकारणे इति व्याख्येयम्. प्राणातिपातन-मृषावादनयोर्दानविशेषणत्वात् , तथाहिः-प्राणान् अतिपासाऽऽधाकादिकरणतो मृषा उक्त्वा यथा-'भोः साधो! स्वार्थमिदं सिद्धं भक्तादि कल्पनीयं वः, अतो नाऽनेषणीयम् इति शङ्का कार्या' इति. ततः प्रतिलभ्य तथा कर्म कुर्वन्ति इति प्रक्रम इति. गम्भीरार्थं च इदं सूत्रमतोऽन्यथाऽपि यथागर्म भावनीयम् इति. जेम आ अन्योनुं कथन छे ए प्रमाणे न होवू जोइए, कारण के, सूत्र निर्विशेषण छे अर्थात् सूत्रमा एवं कोइ विशेषण नथी जेथी 'अमुक प्रकारना प्राणातिपातथी बीजानी अपेक्षाए अल्पायुष्कपणुं होय ' एवो अर्थ नीकळी शके तथा जो अहीं गमे ते अल्पायुष्यपणुं ज लेबु होय नही तो प्राणातिपातादि हेतुथी मळतुं क्षुल्लकभवग्रहणरूप अल्पायुष्यपणुं पण बंध बेसी शके छे. माटे ए प्रमागे केम कही शकाय के, · अमुक प्रकारना 'विशेषणवाळा प्राणातिपातादिमा रहेनारो जीव ' अने ' अपेक्षावालु अल्पायुष्कपणुं ? (समा०) कहीए छीए: जो के सूत्र विशेषण विनानुं छे तो पण तेने प्राणातिपात वगेरेनुं विशेषण चोकस रीते कहेQ जोइए, कारण के, आ सूबथी त्रीजा सूत्रमा 'प्राणातिपातादिथी ज अशुभ दीर्घ आयुष्यपणुं थाय छे' एम कहशे, वळी, सामान्य हेतुथी कार्यमां विषमतानो योग थतो नथी. जो सामान्य हेतुथी पण कार्यमां विषमतानो योग थाय तो बधे अनाश्वास थवानो प्रसंग आवशे. वळी, "हे भगवन् ! श्रमणोपासक, तथारूप श्रमणने' या ब्राह्मणने अप्रासुक अने अकल्पनीय अशनांदिवडे हे भगवान प्रतिलाभे तो तेने (श्रमणोपासकने) शुं थाय? हे गौतम ! ते श्रमणोपासकने घगी निर्जरा थाय अने थोडं पाप कर्म थाय" ए प्रमाणेना है गौतम! आगळ उपर आवनार वचनथी ज.णी शकाय छे के, अहीं कहेलुं आ अल्प आयुष्यपणुं क्षुल्लकभवग्रहणरूप नथी. वळी, जे अनुष्ठान थोडा पापन अने बहु निर्जरानुं कारण होय ते क्षुल्लक भवना ग्रहणमा निमित्त थाय ए संभवी शकतुं नथी, कदाच जो तेवा अनुष्ठानने क्षुल्लक भवना ग्रहणमा निमित्तरूप मानीए तो 'जिनपूजा' विगरे अनुष्ठानोने पण क्षुल्लक भवना ग्रहणमा निमित्तभूत थवानो प्रसंग आवशे-माटे अहीं कहेल अल्पायुष्कपणुं क्षुल्लकभवग्रहणरूप न लेतां आपेक्षिक-अपेक्षावाळु-अल्पायुष्का' लेवू-ए तात्पर्य छे. वळी कहे छे के, ए प्रकारना-पूर्वोक्त तात्पर्यथी तो एवं नीकळे छे के, धर्मने माटे प्राणातिपात करवो, मृषावाद बोलवो अने अप्रासुक दान करवु-देवू. परंतु ते णे क्रियाओ तो सारी नथी. माटे ए तात्पर्य युक्तियुक्त केम होइ शके?, अहीं कहीए छीए के, भूमिकानी-हदनी-योग्यतानी-अपेक्षाए धर्मने माटे प्राणातिपातादि 'विगेरे करवु पडे तो पण भले, तेमां शुं दोष छ ?, कारण के, यतिधर्म पाळवामां अशक्त गृहस्थन द्रव्यस्तव करवानु उपदेशेलं होवाथी ते द्वारा व्य १. प्र० छा:-धमणोपासकस्य भगवन् ! तथारूपं श्रमणं वा, ब्राह्मणं वा अप्रासुकेन, अनेषगीयेन अशन-पान-खादिम-खादिमेन प्रतिलाभयतः किं क्रियते ? गौतम ! बहुतरिका निर्जरा क्रियते, अल्पतरं तस्य पापं कर्म क्रियते-इति. २. संविग्न-भावितानां लुब्धकदृष्टान्तभावितानां च, मुक्त्वा क्षेत्र-काला भावं च कथयन्ति शुद्धार्थम्. ३. संस्करणे अशुद्धं द्वयोरपि गृहद्-ददतोरहितम् , आतुरदृष्टान्तेन तचैत्र हितम्-असंस्तरणे. ४. न्यायागताना कल्पनीयानाम्-अभ-पानादीनां द्रव्याणाम:-अनु० Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे. शतक ५.-उद्देशक ६. प्राणातिपातादि करवान प्रवचनमा कर्पु ज छे. दानना अधिकारमा तो संभळाय छे के, श्रमणोपासको बे प्रकारना छ, एक संविग्नभावित अने बीजा लुब्धकदृष्टांत भावित, जेम कयु छ के, “संविग्नभावितोना अने लुब्धकदृष्टांतभावितोना (आहारने) क्षेत्र, काल अने भावने मूकीने ममणोपासको. (मुनिओ) शुद्धार्थ कहे छे" तेमां आगमना अर्थने न जाणता होवाथी लुब्धकदृष्टांत भावित श्रमणोपासको जम तेम दान दे छे अने आगमने गमने आणता जाणता होवाथी संविग्नमावित श्रमणोपासको, मुनिओनी संयम-बाधाना परिहारक होवाथी अने तेना उपष्टंभक (टेको देनारा) होवाथी वमणोपासको. मुनिओने उचिततापूर्वक दान दे छे, आगममां आ प्रमाणे लन्यु छ के " संस्तरमाण होय-निर्वाहन थई शकतुं होय-त्यारे लेनार अने देनार ए बन्नेनु अशुद्ध छे तथा अहित छे अने आतुरना उदाहरणथी ते ज अशुद्ध, असंस्तरमाण होय त्यारे हित छे" वळी " न्यायथी आवेला अने कल्पनीय-खपता-अन्नपानादि द्रव्योनुं दान हितरूप छे" अथवा आ सूत्रनी एवी व्याख्या करवी के, अल्पआयुष्यपणानुं मुख्य कारण तो अप्रासुक दान छे अने बीजां-प्राणातिपात, मृषावाद-ए बे-सहकारी कारण-साधारण-कारण छे, कारण के, प्राणातिपात अने मृषावाद ए बन्ने दानक्रियामा विशेषणरूप छे. दानक्रियामां ते-प्राणातिपात अने मृषावाद विशेषणपणे केवी रीते छे ते दर्शावे छः प्राणोने मारीने ' आधाकर्म' वगेरे करवाथी खोटुं बोल्यो, जेमके, 'हे साधु ! आ भात वगेरे, में पोताने माटे सिद्ध-तैयार-कर्या छे माटे तमारे ते खपे तेवा छे तेथी तेमां अणखपतादिनी शंका न करवी' एम कहीने पछी ते दान देनार श्रावके साधुने प्रतिलाभ्यो, आ प्रमाणे करवाथी-तथाप्रकारना गंभीर बर्दघाडं. अल्पायुष्कना कारण रूप कर्मने करे छे--बांधे छे, ए प्रक्रम-चालु वात-छे. आ सूत्र गंभीर अर्थवाळु छे माटे आगमनी रीते बीजे प्रकारे पण तेनी भावना करवी. अथ दीर्घाऽऽयुष्कताकारणानि आहः- कह गं' इत्यादि. भवति हि जीवदयादिमतो दीर्घमायुः, यतोऽत्राऽपि तथैव भवन्ति दीर्घाऽऽयुषं दृष्ट्वा वक्तारः-जीवदयादि पूर्व कृतमनेन तेनाऽयं दीर्घाऽऽयुः संवृत्तः. तथा सिद्धमेव वधादिविरतेः दीर्घमायुः, तस्य देवगतिहेतुत्वात. आह च:--" अणुव्वय-महव्वएहि य बालतवोऽकामनिजराए य, देवाउयं निबंधइ सम्मदिट्टी य जो जीवो." देवगतौ च विवक्षया दीर्घमेवाऽऽयुः. दानं चाऽऽश्रित्य इहैव वक्ष्यति:-" समेणोवासयस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा, माहणं वा फासुएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलामेमाणस्स किं कज्जइ ? गोयमा! एगंतसो निजरा कजइ" त्ति. यच्च निर्जराकारणं तद् विशिष्टदीर्घाऽऽयुष्कारणतया न विरुद्ध महाव्रतवत्-इति व्याख्यानान्तरमपि पूर्ववद् एवेति. अथाऽऽयुष एव दीर्घस्य सूत्रद्वयेन शुभाऽशुभत्वकारणानि आहः-' कह णं' इत्यादि प्राग्वत्. नवरम्:-श्रमणादिकं हीलनादिकरणतः प्रतिलभ्य इत्यक्षरघटना. तत्र हीलनं - जात्याद्युद्घाटनतः कुत्सा, निन्दनं मनसा, खिंसनं जनसमक्षम् , गर्हणं तत्समक्षम् , अपमाननम् अनभ्युत्थानादिकरणम्, अन्यतरेण-बहूनाम् एकतमेनाऽमनोज्ञेन स्वरूपतोऽशोभनेन कदन्नादिना-अत एवाऽप्रीतिकारकेण. भक्तिमतस्तु अमनोज्ञमपि मनोज्ञमेव, मनोज्ञफलत्वात्. इह च सूत्रेऽशनादि प्रासुका-5-प्रासुकादिना न विशेषितम् , हीलनादिकर्तुः प्रासुकादिविशेषणस्य दानस्य फलविशेष प्रत्यकारणत्वेन मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानाम् एव च प्रधानतया तत्कारणत्वेन विवक्षणात्. वाचनान्तरे तु ' अफासुएणं अणेसणिज्जेणं' ति दृश्यते. तत्र च प्रासुकदानमपि हीलनादिविशेषितम् अशुभदीर्घाssयुष्कारणम् , अप्रासुकदानं तु विशेषतः इत्युपदर्शयता ' अफासुएण' इत्याद्युक्तम् इति. प्राणातिपात-मृषावादनयोर्दानविशेषणपक्षव्याख्यानमपि घटते . एव. अवज्ञादानेऽपि प्राणातिपातादेदृश्यमानत्वाद् इति. भवति च प्राणातिपातादेरशुभदीर्घाऽऽयुः, तेषां नारकगतिहेतुत्वात्, यदाहः-" मिच्छदिट्ठी महारंभ-परिग्गहो, तिव्वलोभ-निस्सीलो निरयाउयं निबंधइ पावमई रोहपरिणामो." नरकगतौ च विवक्षया दीर्घमेवाऽऽयुः, विपर्ययसूत्रं प्रागिवः नवरम्:--इहाऽपि प्रासुका--ऽप्रासुकतया दानं न विशेषितम्, पूर्वसूत्रविपर्ययत्वाद् अस्य, पूर्वसूत्रस्य च भविशेषणतया प्रवृत्तत्वात् , न च प्रासुका--ऽप्रासुकदानयोः फलं प्रति न विशेषोऽस्ति, पूर्वसूत्रयोस्तस्य प्रतिपादितत्वात्. तस्माद् इह प्रासुकै--षणीयस्य कल्पप्राप्तौ, इतरस्य चेदं फलमवसेयम्. वाचनान्तरे तु 'फासुएणं' इत्यादि दृश्यते एवेति. इह च प्रथममरूपायु स्सूत्रम् , द्वितीयं तद्विपक्ष , तृतीयमशुभदीर्घायुस्सूत्रम् , चतुर्थं तु तद्विपक्ष इति. पायुष्यना हवे लांबा आयुष्यनां कारणो कहे छः [' कह गं' इत्यादि.] जीवदया विगेरे धर्मथी जे युक्त होय तेनु लांबु आयुष्य थाय छे, कारण कारणो. के, अही पण दीर्घ आयुष्यवाळाने जोइ बोलनारा होय छे-बोले छे के, आ पुरुष भवांतरमा जीवदयादिरूप धर्म कर्यो छे-हशे-जेथी ते लांबा आयुष्यवाळो थयो छे. तो ते प्रकारे निश्चित ज थयुं के, प्राणातिपातादि अधर्मथी अटकवारूप क्रिया, जीवने देवगतिर्नु कारण होवाथी-तेथी-लांबु आयुष्य मळे छे, अने कह्यु छ के, “जे सम्यग्दृष्टि जीव होय ते अणुव्रतोबडे अने महाव्रतोबडे तथा बालतप अने अकामनिर्जरावडे देवर्नु आयुष्य बांधे छे. " अने विवक्षावडे देवगतिमा लांबु ज आयुष्य होये छे. दानने आश्रीने अहीं ज' कहेशे के, "हे भगवन् ! तथारूप श्रमण या श्राह्मणने प्रासुक अने खपता अशनादि घटे प्रतिलाभता श्रमणोपासकने शुथाय ? हे गौतम ! एकांतथी निर्जरा थायः" अने महाप्रतनी पेठे जे निर्जरानु कारण छे ते विशिष्ट दीर्घ आयुष्यना कारणपणे विरुद्ध नथी होतुं, ए प्रमाणे बीजु व्याख्यान पण पूर्वनी पेठे ज. समजी लेवु. हवे लांबा आयुष्यना ज शुभाशुभपणानां कारणोने कहे छे, [कह णं' इत्यादि ] ए बधु पूर्वनी पेठे समजवु, विशेष, श्रमणादिकने 'हीलनादिपूर्वक समान प्रतिलाभी' ए प्रमाणे अक्षरनी घटना करवी, तेमां हीलन एटले जाति वगेरेने उघाडी पाडीने निंदा करवी, निंदन एटले मनवडे निंदा करवी, १. प्र. छा:-अणुव्रत-महावतैश्च बालतपोऽकामनिर्जरया च देवायुर्निबध्नाति सम्यग्दृष्टिय यो जीवः. २. श्रमणोपासकस्य भगवन् ! तथारू श्रमण वा, ब्राह्मणं वा प्रासुकेनं अशन-पान-खादिम-खादिमेन प्रतिलाभयतः किं क्रियते ! गौतम । एकान्तशो निर्जरा क्रियते-इति. ३. मिथ्यादृष्टिर्महा. एम्भ-परिमस्सीमलोभ-निश्शीलः, निरयायुषकं निवनावि पापमती राइपरिणामा-अनु. . Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शप्तक ५.--उदेशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगक्तीसूत्र. २०३ खिंसन एटले लोकसमक्ष निंदा करवी, गहण एटले तेनी सामे निंदा करवी, अपमानन एटले अभ्युत्थान ' वगेरे न कर, ए प्रमाणे एमांना कोइ एक कारणथी. स्वरूाथी जे सारं नहिं ते अमनोज-खराब अन्नादि-ते बडे, माटे ज अप्रीति कारकवडे, भक्तिवाळा श्रमणो पासकनु कदन्न--खराब अन्न-पण मनोज्ञ-शुभ फळदायक-होबाथी गनोज्ञ-सुंदर-ज छे, अहीं आ सूत्रमा अशनादिने 'प्रासुक के अप्रासुक' ए कदन. प्रकारे विशेषित नथी कयु, कारण के, मुनिनी हीउना वगरे करनारना प्रासुक वगेरे विशेषणवाळा दानने फल विशेष प्रति अकारणपणे अने मत्सरथी उत्पन्न थयेला हीलनादि विशेषणोने ज मुख्यपणे अशुभ लांबा आयुष्यना कारणपणे विवक्षित कर्या छे. बीजी वाचनामां तो [ 'अफासुएणं बीजी वाचना. इत्यादि ] ' अशन ' विगेरेना ' अने रणीय अने अपातुक' एवां वे विशेषणो देखाय छे, तेमा जे ते विशेषणो आन्यां छे ते 'प्रासुक दान पण हीलनादिथी विशेषित होय तो अशुभ दीर्घ आयुष्यन कारण छे अने ते अनालुदान तो विशेषे करी अशुभ दीर्घ आयुष्यनु निदान--कारण-छे! एम दर्शाववा शास्त्र कारे मूक्यां छे. प्राणातिपातने अने मृराबादने दानविशेषणपशj व्याख्यान पण घटे ज छे, कारग के, अवज्ञा करीने दान देवामां पण प्राणातिपातादि क्रियाओ देखाय छे अने प्रागातिपात वगेरे नैरयिक गतिमां हेतु होपाथी तेनायी अशुभ दीर्घ आयुष्य थई शके छे, कधुं छे जे "पापमा मतियाळो, रौद्र परिणामधाळो, महारंभ परिग्रहवाळो, तीन लोभवाळो, शीलविनानो अने मिथ्यादृष्टे जीव नैरयिकर्नु आयुष्य बांधे छे" विवक्षावडे नैरयिक गतिमा लांबु ज आयुष्य होय छे. विपर्यय सूत्र पूर्वनी पठे जाणवू, विशेष ए के, अहीं पण दानने 'प्रासुक अने अप्रासुक' ए प्रमाणे विशेषित कयु नथी, कारण के, आ सूत्र पूर्व सूत्र करतां विपरीत छे तथा आ सूत्र अने पूर्व सूत्र अविशेषणपणे प्रवृत्त के. आथी एम न समजवू के प्रासुकदानना अने अप्रासुकदानना फलमा कांइ विशेष नथी, कारण के. पूर्वना बन्ने सूत्रमा ते फल विशेषने प्रतिपादित कों छे, माटे अहीं प्रासुक अने एषणीय दानथी देवलोकनी प्राप्ति थाय छे तो तेथी विपरीत--बीजा-दानथी आ पळ -अशुभ दीर्घायुष्य-नरकरूप फळ थाय छे तेम जाणवू, बीजी वाचनामां तो 'प्रासुक' वगेरे विशेषणो देखाय ज छे. अहीं पहेलं अल्पायु- सूत्र छे बीजं तेना विपक्षन- बीजी वाचना. दीर्घ आयुष्यनु-सूत्र छ, त्रीजु अशुभ दीर्घ आयुष्यनुं सूत्र छे अने चोथु तेना विपक्षनु-शुभ दीर्घआयुष्य---सूत्र छ. गृहपति अने भांड. ५. प्र०-गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विकिणमाणस्स केइ ५. प्र०-हे भगवन् ! करियाणानो विक्रय-वेचाण-करता भंडं अपहरेजा, तस्स णं भंते ! तं भंडं गवेसमागस्स किं आरं. कोइ गृहस्थर्नु कोइ माणस ते करिया' चोरी जाय तो हे भिया किरिया कज्जइ, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपचरखाण- भगवन् ! ते करियाणानु गवेषण करनार ते गृहस्थने शु आरंभिकी किरिया, मिच्छादसणवत्तिया ? क्रिया लागे के परिग्रहिकी क्रिया लागे के मायाप्रत्ययिकी क्रिया लागे के अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लागे के मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लागे? ५. उ०-गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ, परिग्ग- ५. उ०-हे गौतम! आरंभिकी, परिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी हिया, मायावत्तिया, अपञ्चवखाणकिरिया मिच्छादसण किरिया अने अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लागे अने मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी सिय कन्जइ, सिय नो कज्जइ; अह से भंडे अभिसमन्नागए भवइ, क्रिया कदाच लागे अने कदाच न लागे अने हवे गवेपण करता तओ से य पच्छा सव्वाओ ताओ पयणईभवंति. ज्यारे ते चोराएल करियाणुं पार्छ मळी आवे त्यार पछी ते बधी क्रियाओ प्रतनु थइ जाय छे. ६. प्र०-गाहापइस्स णं भी ! भंडं विकिणमाणस्त कइए ६. प्र०--हे भगवन् ! करियाणाने वेचता गृहस्थy भांड-- भंडे साइजेजा, भंडे य से अणुवणीए सिया, गाहावइस्स णं करियाणु, करिया' खरीद करनारे खरीद्यु-तेने माटे सत्यंकारभंते ! ताओ भंडाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ, जाव-मि- खात्री-बार्नु आप्युं पण हजु ते करियाणु अनुपनीत छे-लइ च्छादसणकिरिया कज्जह, कइयस्स चा ताओ भंडाओ, कि आरं- जवायु नथी अर्थात् ते वेचनारने त्यां.छे, तो ते वेचनार गृहपतिने भिया किरिया कज्जइ, जाव-मिच्छादंराणकिरिया कज्जइ ? ते करियाणाथी शुं आरंभिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लागे?, अने ते खरीदनारने ते करियाणाथी शं आरंभिकी यावत्- मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लागे ?? ६. उ०-गोयमा ! गाहावइस्स ताओ मंडाओ आरंभिया ६. उ०—हे गौतम! ते गृहपतिने ते भांड-करियाणा-थी 'किरिया कज्जइ, जाव- अपचक्खाण ०-मिच्छादसणवत्तिया किरिया आरंभिकी यावत्-अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लागे, अने मिथ्या १. मूलच्छाया:-गृहपतेभंगवन् । भाण्ड विक्रीणानस्य कोऽपि भाण्डम् अपहरेत् , तस्य भगवन् ! तदू भाण्डं गवेषयतः किम् आरम्भिकी त्रिय क्रियते, पारिप्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रयाख्यानक्रिया, मिथ्याद निप्रत्यया ? गीतम! आरम्भिकी किया क्रियते, पारिवाहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया, मिथ्यादर्शन क्रिया स्यात् क्रियते, स्याद् नो क्रियते. अतिदू भाण्डम् अभिसमन्वागतं भवति, ततस्तस्य च पश्चात् सीः ता: प्रतनुकीभवन्ति. गृहपतेभगवन् ! भाण्ड विक्रीणानस्य करिको भाडाने खादयेद् , भाण्डानि च तस्य अनुपनीतानि स्युः, गृहपतेर्भगवन् ! तेभ्यो भाण्डेभ्यः किम् आरम्भिकी -कियां क्रियते यावद् मिध्यादर्शन किया कियते ? काय कस्य वा तेभ्यो भाण्डेभ्यः किम् आरम्भिकी क्रिया क्रियते, यावद् मिथ्यादर्शनक्रिया क्रियते? मातम ! गृहपतेः वेभ्यो भाण्डेभ्यः आरम्गिकी किया क्रियते, यावद अप्रत्याख्यान-मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया:-अनु० . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्रीरायचन्द्र-जिनागम संग्रहे शतक ५.-उद्देशक ६. सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ, कइयस्स ताओ सव्वाओ दर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाच लागे अने कदाच न लागे अने पयेणुईभवति. खरीदकरनारने ते बधी क्रियाओ प्रतनु होय छे.. ७. प्र०-गाहावइस्स णं मंते ! भंडं विकिणमाणस्स, ७. प्र०—हे भगवन् ! भांडने वेचता गृहपतिने त्यांची यावत् जाव-भंडे से उवणीए सिया, कइयस्स णं भंते ! ताओ भंडाओ ते भांड उपनीत कयु-खरीद करनारे पोताने त्यां आण्यु-होय कि आरंभिया किरिया कन्जड़, जाप-मिच्छादसणवत्तिया किरिया त्यारे ते खरीद करनारने ते मांडथी शुं आरंभिकी क्रिया बगेरे कज्जइ; गाहावइस्स वा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया पांच क्रियाओ अने गृहपतिने ते भांडथी शुं आरंभिकी वगेरे कजइ, जाव-मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ ? पांच क्रियाओ लागे? ७. 30-गोयमा ! कइयस्स ताओ भंडाओ हेडिल्लाओ ७. उ.--हे गौतम! ते भांडथी ते खरीद करनारने हेठळनीचत्तारि किरियाओ कज्जति, मिच्छादसणवत्तिया किरिया भयणाए; मोटा प्रमाणवाळी-चारे क्रियाओ लगे अने मिथ्यादृष्टि होय तो गाहावइस्स णं ताओ सव्वाओ पयणुईभवति. मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लागे अने मिथ्यादृष्टि न होय तो मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया न लागे ए प्रमाणे मिथ्यादर्शन-क्रियानी भजनावडे गृहस्थने ते बघी क्रियाओ ओछा प्रमाणमा होय छे. ८. प्र०-गाहावइस्स णं भंते ! भंडे जाव-धणे य से ८.प्र०--हे भगवन् ! गृहपति-घरधणि-ने भांड यावत् अणुवीए सिया ? ___-धन न मळ्युं होय ( तो केम ? ) ..८.उ0--एयं पि जहा भंडे उवणीए तहा नेयच्वं चउत्थो ८. उ०-ए रीते पण जेम उपनीत--सोंपेल भांड-संबंधे आलावगो, धणे य से उवणीए सिया जहा-पढमो आलावगो, कयं छे तेम समजबुं-चोथो आलापक समजबो. 'जो धन भंडे य से अणुवीए सिया तहा नेयव्यो पदम-चउत्थाणं एक्को उपनीत होय तो' जेम अनुपनीत भांड विषे प्रथम आलापक गमो, बितिय-तइयागं एक्को गमो. कह्यो छे तेम समजवु-प्रथम अने चतुर्थ आलापकनो समान गम समजवो अने बीजा अने त्रीजा आलापकनो समान गम समजवो. २. अनन्तरं कमबन्धक्रिया उक्तां, अथ क्रियान्तराणां विषयनिरूपणाय आह:--'गाहावइस्स' इत्यादि. गृहपतिः-- गृही.. 'मिच्छादसणकिरिया सिय कज्जइ' इत्यादि. मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया स्यात् कदाचित् क्रियते भवति, स्याद् नो क्रियते-- कदाचिद् नो भवति. यदा मिथ्यादृष्टिः गृहपतिस्तदाऽसौ भवति, यदा तु सम्यग्दृष्टिस्तदा न भवति इत्यर्थः. अथ क्रियासु एव विशेषम् आहः-- 'अह'. इत्यादि. 'अथ' इति पक्षान्तरद्योतनार्थः. ' से भंडे ' त्ति तद्भाण्डम् , ' अभिसमन्नागए ' त्ति गवेषयता लब्धं भवति, 'तओ' त्ति तत:- समन्वागमनात् ' से ' ति तस्य गृहपतेः-पश्चात् समन्वागमनानन्तरमेव 'सव्याओ' त्ति यासां संभवोऽस्ति ता आरम्भिक्यादिक्रियाः, ‘पयणुईभवंति 'त्ति प्रतनुकीभवन्ति हस्वीभवन्ति, अपहृतभाण्डगवेषणकाले महत्यस्ताः आसन्-प्रयत्नविशेषपरत्वाद् गृहपतेः, तलाभकाले तु प्रयत्नविशेषस्योपरतत्वाद् ह्रस्वीभवन्ति इति. 'कइए भंडं साइजेज ' त्ति क्रयिको ग्राहको भाण्डं स्वादयेत् सत्यंकारदानतः स्वीकुर्यात्. 'अणुवणीए सिय ' त्ति क्रयिकायाऽसमर्पितं स्यात् , ' कइयस्स ण ताओ सव्वाओ पयणई भवंति ' ति अप्राप्तभाण्डत्वेन तद्गतक्रियाणाम् अल्पत्वाद् इति, गृहपतेस्तु महत्यः-भाण्डस्य तदीयत्वात. क्रयिकस्य भाण्डे समर्पित महत्यस्ताः, गृहपतेस्तु प्रतनुकाः, इदं भाण्डस्याऽनुपनीतोपनीतभेदात् सूत्रद्वयम् उक्तम् . एवं धनत्याऽपि वाच्यम् . तत्र प्रथमम् एवम्: -- गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स कइए भंडं साइजेज्जा, धणे य से अगुवणीए सिया, कइयस्स णं भंते ! ताओ धणाओ किं आरंभिया किरिया कज्जइ ५, गाहावइस्स णं ताओ धगाओ किं आरंभया किरिया कज्जइ ५ ? गोयमा ! कइयस्स तओ घणाओ हेडिल्लाओ चत्तारि किरियाओ कजति, गिच्छादसणाकरिया भयणाए; गाहावइस्स णं ताओ सव्वाओ पयणईभवंति." धनेऽनुपनीते क्रयिकस्य महत्यस्ताः भवन्ति, धनस्य तदीयत्वात्. गृहपतेस्तु तास्तनुकाः, धनस्य तदानीम् अतदीयत्वात. एवं द्वितीयसूत्रसमानम् इदं तृतीयम् , अत एवाऽऽहः-'एयं पि जहा भंडे उवणीए तहा णेयव्वं ' ति . द्वितीयसूत्रसमतया इत्यर्थः. चतुर्थ वेवम् अध्येयम्:-'गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विकिणमाणस्स कइए भंडं साइज्जेज्जा, धणे य से उवणीए सिया; ... १. मूलन छायाः- स्यात् क्रियते, स्याद नो नियते; ऋयिकस्य ताः सीः प्रतनुकीभवन्ति. गृहपतेभगवन् ! भाई विक्रीणानस्य याबद्-भाई तस्य उपनीत स्वात् , मयिस्यं भगवन । तस्माद् भाण्डात् किम् अ.रम्सिकी नि.या नित्यते यावत्-मिथ्यादर्शनप्रत्यया किया कियते ? गृहपतेबा तस्माद् भाण्डात् किम् आरम्भिकी निगा क्रियते यावत्-मिय्यादर्शनप्रयया किपा क्रियते ? गौतम ! कयि कस्य तस्माद् भाण्डाद् अधस्तनाश्चतस्रः क्रिया: क्रियन्ते, मिन्यादर्शनप्रत्यया किया गजनया, गृहपतेः ताः सीः प्रनंनुकीगनन्ति, गृहपतेभंगवन् ! भाण्डं यावत्-भनं च तस्य अनुनीतं स्याद् ? एतदपि शा भाडम् उपनी तथा ज्ञातव्यम्-चतुर्थः आलापकः, धनं च तस्य उपनी याद था प्रथमः आलापकः, भाई च तस्य अनुपनीतं स्यात् तदा हातव्यः प्रथम-चतुर्थयोः एको गमः, द्वितीय-तृतीययोः एको गमः-अनु. . Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २०५ गाहावइस्स णं भते! ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कजइ ५ ? कइयस्स वा ताओ धणाओ किं आरंभिया किरिया कन्नड़ ५१ गोयमा! गाहावइस्प ताओ धगाओ आरंभिया ४, मिच्छादसणपत्तिया किरिया सिय कन्जइ, सिय नो कज्जइ. कइयस्स णं ताओ सवाओ पयणुईभवंति.' धने उपनीते धनप्रत्य पत्वात् तासां गृहपतेर्महत्यः, ऋयिकस्य तु प्रतनुकाः, धनस्य -तदानीम् अतदीपत्वात्, एवं च प्रथमसूत्रसमम् इदं चतुर्थम् , इत्येतदनुसारेण च सूत्रपुस्तकाऽक्षराणि अवगन्तव्य नि. २. हमणां कर्मबंधनी क्रिया कही, हवे बीजी क्रियाओना विषयोने निरूपवा [ 'गाहावइस्स' इत्यादि.] सूत्रो कह छे, गृहपति एटले गृहपति. गृहवाळो-गृहस्थ [ 'मिच्छाइसणकिरिया सिय कजा' इत्यादि.] मिथ्या दर्शनना हेतुवाळी क्रिया कदाचित् थाय अने कदाचित् न थाय, ज़्यारे गृहपति मिथ्यादृष्टि होय त्यारे मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया लागे अने ज्यारे गृहपति सम्यग्दृष्टि होय-मिथ्यादर्शनवाळो न होय-त्यारे मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया न लागे. हवे क्रियामा ज विशेष कहे छः [ ' अह' इत्यादि.] ' अथ ' ए शब्द पक्षांतरने सूचववा मूक्यो छे. [ से भंडे' ति] ते भांड [ ' अभिसमण्णागए ' त्ति ] गवेषण करतां मन्यु होय [ 'तो' ति] मळ्या पछी, [से 'त्ति ] भांड. ते घरधणिने, ए भांड मच्या पछी तुरत ज [ 'सव्वाओ' त्ति ] जेओनो संभव छे ते वधी क्रियाओ [ 'पयणुईभवंति' ति.] टुकी थाय छे, चोराएल मांडने गोतवानी वेळाए ते गृहस्थ विशेष प्रयत्नवाळो होवाथी ते क्रियाओ मोटी होय छे अने ज्यारे ते चोराएल करियाणुं हाथ आवे त्यारे ते गृहस्थ प्रयत्नथी अटकेलो होवाथी ते क्रियाओ टुंकी-ओछी-थाय छे. [ 'कइए' ] ग्राहक [ 'भंडं साइजेज' त्ति ] ग्राहक 'भांडने-करीयाणाने पोते खरीधुं छे' ए प्रमाणे सत्यकार-बार्नु आपीने स्वीकारे. [ 'अणुवणीर' ति] ज्यां सुधी खरीदनारने सोंप्यु नथी. [' कइयस्स णं ताओ सव्वाओ पयणुईभवंति ' त्ति ] करीया' अमाप्त होवाथी ते संबंधनी क्रियाओ ओछी होय छे, अने जेने त्यां करीयाj पङ छे एवा गृहस्थने तो, तेनु पोतानुं करीयागु होबाथी ते क्रियाओ मोटारूपमा होय छे, ज्यारे ते करी कj, खरीदनारने सोंपाय छे त्यार खरीदनारने ते क्रियाओ मोटारूपमां होय छे अने घरधणीने तो ओछी होय छे. नाहि सोल अने सोपेल एम बे प्रकारर्नु भांड होवाथी आबे सूत्र ते परत्वे कयां छे, ए प्रमाणे धन संबंधे पण वे सूत्र कठेवां, तेगा पहेलुं सूत्र आ प्रमाण छ:-"हे भगवन् ! करीयाणाने वेचनार गृहस्थनुं प्रथम सूत्र. करीयाj, कोइ खरीदनार खरीद करे अने तेनु ( मूल्यरूप ) न हजु न गळ्युं होय तो खरीद करनारने ते धनथी | आरंभिकी बगेरे कियाओं लागे अन ते करीयाणाना धणी गृहपतिने ते धनथी शुं आरंभिकी वगेरे क्रियाओ लागे?, हे गौतम ! ते धनथी ते खरीदनारने हेठली मोटा प्रमाणवाळी-चार क्रियाओ लागे अने मिथ्यादर्शन क्रिया भजनाबडे-लागे अने न पण लागे, अने करीयाणावाळा घरधणीने ते बधी क्रियाओ ओछा प्रमाणमा लागे." ज्यां सुधी धन सोपायुं नथी त्यां सुधी खरीद करनारनुं धन होबाथी ते क्रियाओ तेने मोटा रूपमा लागे अने ते धन, सोंपाया पहेलां वेचनार गृहपतिनुं न होवाथी तेने ते क्रियाओ ओछा प्रमाणमा लागे. ए प्रमाणे आ त्रीजु सूत्र बीजा सूत्रनी समान समजवु, माटे ज कहे छ:---[ ' एयं पि जहा भंडे उवणीए तहा नेयव्वं ' ति ] वीजा सूत्रनी साथे समपणे समजबु. चोथु सूत्र तो ए प्रमाणे भणः- "हे च सय. भगवन् ! करीयाणाने वेचता गृहस्थ- करीयाj कोइ खरीद करनार खरीदे अने धन पण उपनीत--सोपेलुं होय तो हे भगवन् ! ते धनथी ते करीयाणाबाळा गृहपतिने शुं आरंभिकी वगरे कियाओ लागे?, अने ते धनथी ते खरीद करनारने शुं आरंभिकी वगरे क्रियाओ लागे? हे गौतम ! गृहपतिने ते धनथी आरंभिकी वगेरे क्रियाओ लागे अने मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लागे अने न पण लगे तथा ते धनधी खरीद करनारने ते बधी क्रियाओ ओछा प्रमाणमा लागे. कारण के, ते क्रियाओ धनहेतुक छे माटे धन सोंपाया वाद गृहपतिने मोटा प्रमाणमा लागे अने ते वखते -सोपाया पछी-धन, खरीदनारनुं न होवाथी तेने ते क्रियाओ ओछा प्रमागमा लागे, अने ए प्रमाणे प्रथम सूत्र-समान आ चतुर्थ सूत्र छे. अने ए अनुसारे सूत्र पुस्तकना अक्षरो अवगमवाना-जाणवाना-छे. अग्निकाय. ९.प्र०--अंगणिकाए णं भंते ! अहणोज्जलिए समाणे म- ९. प्र०-हे भगवन् ! हमणा जगवेलो अग्निकाय, महाहाकम्मतराए चेव, महाकिरिय महासव-महावेदणतराए चेव भवइ, कर्मवाळो, महाक्रियावाळो, महाआश्रयवाळो, महावेदनावाळो, अहे णं समए समए वोकास जमाणे, वोक्कासि जमाणे चरिमकाल- होय छे, हवे ते अग्नि समये समये-क्षणे क्ष.गे-ओहो थतो होय, भूए, मुम्मुरब्भूए, छारियभूए; तओ पच्छा बुझाता होय अने छल्ले क्षणे अंगाररूप थयो, मुभुररूप थयो, अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरिया-ऽऽसव-अप्पवेयणतराए चेत्र भस्मरूप थयो त्यार बाद ते अग्नि अल्पकर्मवाळो, अल्पक्रियावाको भवइ? अल्पआश्रववाळो अने अल्पवेदनायाळो थाय ९. उ०--हंता, गोयमा ! अगणिकाए णं अहणुज्जलिए ९. उ०-हा, गौतम ! हमणा जगवेलो अग्निकाय० ते ज समाणे तं चेव. कहे. ३. क्रियाऽधिकाराद् इदमाह:-' अगाण' इत्यादि. 'अहुणोजलिए 'त्ति अधुनोउज्वलितः-सद्यः प्रदीप्तः, 'महाकम्मतराए' मूलच्छाया-अग्निकायो भगवन् ! अधुनोज्ज्वलितः सन् महाकर्मतरीय चैव, महाक्रिया-महाऽऽसव-महावेदनतराय चैव भवति; अथ स्यिय समयाव्यपध्यमाणः, व्यपध्य माणश्वरमकालसमये अङ्गारभूत, मुमुरभूतः, छारिक (भस्मीभूतः, ततः पथाद् अल्पकर्मतराय चैव, अल्पक्रिया--पाऽऽस्र अल्पवेिदनतराय चैव भवति ? हन्त, गौतम अनिकायोऽधुलोज्ज्वलितः सन् तचैव:-अनु० . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५. - उद्देश. ६. " ति विध्यायमानाऽनलाsपेक्षयाऽतिशयेन महान्ति कर्माणि ज्ञामाऽऽवरणादीनि बन्धनान्त्रिय यस्याऽसौ महाकर्मतरः एवम् अन्यान्यपि. नगरम् - क्रिया दाहरूपा, आश्रयो नक्कमपादानहेतुः वेदना पीडा भाविनी सत्कर्मजन्या, परस्परशरीरसंबाध जन्या वा • वोकसिनमाणे 'ति व्यपकृष्यमाणोऽपकर्ष गच्छन्, 'अणकम्मतराए ति अङ्गारायाम् आश्रित्य अपशब्दः स्तोकार्थः, रक्षावस्थायां तु अभावार्थ: C " " २३. कियाना अधिकारी आ [ अगणी इत्यादि ] सूत्र कहे छे:-[ अनोजलिए [वि] हम जगलो. [ महाकम्मतराष्ट्र महाकमै ति ] भोलवाता अमिनी अपेक्षाए जे, बंधने आधी पण मोठा ज्ञानावरणीयादि कर्मबंधन हेतु होवाथी महाकर्मतर हे ए प्रमाणे बीज पण महातिर विशेषणो जागवा विशेष के दावा कियारूप समजयो, जेथी अभि महाकियतर के अने नवीन फर्मने ग्रहण करवामां हेतु ए आव समजयो, जेभी अभि महाप्रयतर के, हवे पछी पत्रानी अने तेनाकर्मी उपजी पीडा से बेदना अथवा परस्पर शरीरना संगावधी अल्पकर्मतर उपजती पीडा ते वेदना, जेथी अभिकाय महावेदनावाळो छे, [' बोक्कसिनमाणे 'ति ] अपकर्ष पामतो - ओटो घतो. [ अपकम्मतराए 'त्ति ] अप- अंगारादि अवस्थाने आधी अल्पकाळ छे, अहिं अस्पशब्दनो सोडधोड ए अर्थ छे भने स्यार अभिनी भरमावस्था होय लारे अनि अल्पकर्मतर - कर्मरहित छे अर्थात् अग्निना भस्मावस्थाचाळा पक्षमां ' अ ' शब्दनो' अभाव ' अर्थ करवो. L 6 , " - १०. प्र० - पेरिसे णं ते! धणुं परामुख, परामुखत्ता उसुं परामुसइ, परामुसित्ता ठाणं ठाई, ठित्ता आयतकत्राययं करेति, उर्दु पेहासं उ उध्विद, तर णं से उसुं उदुं नेहा उहिए समाणे जाई तर पाणाई, मूगाई, जीवाई, सत्ताई अभिहण, बचेति लेखेति, संघारह, संघट्टेति, परितापे, कलामेद, ठाणाओ ठाणं संकाम, जीवियाओ पपरोर, तए णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए तत्थ पुरुष अने धनुष्य. १०. उ०- गोयमा ! जावं च वं से पुरिसे पणुं परामुसद, परामुसित्ता जाव - उब्विहइ, तावं च णं पुरिसे काइयाए जावपाणाइवाय किरियाए पंचहि किरियाहि पुढे जेसिपि य णं जीवाणं सरीरेहिं च निम्बलिए विणं जीवा काइयाए जाव- पंचहि किरियाहिं पुट्टे, एवं धगु पुढे पंचहिं किरियाहिं, जीना पंच हा पंचहिं, उनू पंचाहि सरे, पचणे, फले, हारू पंचहिं. , ११. ५० अहे से उसू अपनो गुरुयत्ताए, मारियताए - णं गुरुसंभारियत्ताए, अहे वीससाए पचोवयमाणे जाई पाणाई, जावजीवियाओ क्यररोपे तार्थ च में से पुरिसे कतिफिरिए 6 १०. प्र० -- हे भगवन् ! पुरुष धनुष्यने ग्रहण करे, ग्रहण करी बाणने ग्रहण करे, तेनुं ग्रहण करी स्थान प्रत्ये बेसेधनुष्यची वाणने केली वेनुं आसन करे-तेन बेसी फेकला प्रसारेला बाणने कान सुची आयत करे-खेवे, खेची उंचे आकाश प्रत्ये वाणने फेंके, सार बाद ते उंचे आकाश प्रये फेंकाए वाण, त्यां आकाशमा जे प्राणोने, भूतोने, जीवोने, सोने, सामा आवता हणे, तेओनुं शरीर संकोची नाखे, तेओने श्लिष्ट करे, तेओने परस्पर संहत करे, तेओने थोडो स्पर्श करे, तेओने चारे कोरथी पीडा पमाडे, तेओने क्लांत करे, तेओने एक स्थानची बीजे स्थाने उड़ जाय भने तेओने जीवितथी स्त करे तो हे भगवन्! ते पुरुष टीकाळ छे ? १०. उ०- हे गीतम करे छे यावत् तेने फेंके छे, यावत् प्राणातिशति की किराने यावत् ते पुरुष धनुश्यने प्रण तावत् ते पुरुष कायिकी क्रियाने अर्थात् पांच किसने फरसे छे. भने जे जीवोना शरीरो द्वारा धनुष्य वधुं छे ते जी पण यावत् पांच क्रियाने फरसे छे, ए प्रमाणे धनुानी पीठ पांच क्रियाने फरसे छे, दोरी पांच क्रियाने, हारु पांच कपाने, बाग पांच क्रियाने, शर, पत्र, फल अने महारु पांच क्रियाने फरसे छे. ११. प्र० - अने हवे ज्यारे पोतानी गुरुता वडे, पोताना भारेपणा वडे, पोतानी गुहकता अने संभारता वडे ते बाण स्वभा यी नीचे पडतु होप त्यारे त्यां (मार्गमां आवता) प्राणोने यावत् जीवितधीत करे सारे ते पुरुष केटली क्रिया वाळो होय ! ११. उ०- हे गौतम! यापत् ते बाण पोतानी गुरुतावडे ११. उ०- गोवमा ! जावं से उसुं अपनो पुरुष भगवत्पतुः पराति परामृश्य परापश्यनेतिति खानेागतं करोति , १. ऊर्ध्वं विहायसि इषु उत्क्षिपति, ततः तस्मिन् इयौ ऊर्ध्वं विहायसि उत्क्षिप्ते सति यान् तत्र प्राणान् भूतान् जीवान् सत्त्वान् अभिहन्ति, वर्तयति, पयति, संघातयति, संघटयति, परितापयति, क्लमयति, स्थानात् स्थानं संक्रस्यति, जीविताद् व्यारोपयति ततो भगवन् । स पुरुषः कंतिक्रियः ? गौतम ! यावच्च स पुरुषो धनुः परामृशति, परामृश्य यावद् उत्क्षिपति तावच स पुरुषः कायिक्या यावत् प्राणाऽतिपातक्रिपया पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः येषामपि च जीवानां शरीरैः धनुः निर्वर्तितं तेऽपि च जीवाः कायिकया, यावत् पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः, एवं धनुः स्पृष्टं पदभिः क्रियाभिः, जीवा पश्चभिः, स्नायुः पञ्चभिः, इषुः पञ्चभिः शरः, पत्रणम् फलम्, स्नायुः पञ्चभिः अधः स इषुः आत्मनो गुरुकत्या, भारिकतया, गुरुसंभारिकता अधः विश्वसया प्रत्यवपतन् यान् प्राणान् यावत् - जीविताद् व्यपरोपयति तावच स पुरुषः कतिक्रियः ? गौतम ! गावच स इपुः आत्मनः -- अनु० Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५:-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, गुरुयत्ताए, जाव-ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए, जाव यावत् जीवोने जीवितथी च्युत करे तावत् ते पुरुष कायिकी यावत् -चउहि किरियाहिं पुढे जोर्स पिय णं जीवाणं सरीरेहिं धणू चार क्रियाने फरसे छे अने जे जीवोना शरीरथी धनुष्य बनेलुं छे निव्वत्तिए ते वि जीवा चउहि किरियाहिं, धणु पुढे चउहि, ते जीवो पण चार क्रियाने, धनुष्यनी पीठ चार क्रियाने, दोरी जीवा चउहि, हारू चउहि, उसू पंचहि, सरे, पत्तणे, फले, चार क्रियाने, हारु चार क्रियाने, बाण पांच क्रियाने, शर, पत्रण, बहारू पंचहि, जे विय से जीवा अहे पचोवयमाणस्स उवग्गहे फल अने हारु पांच क्रियाने अने नीचे पडता बाणना अवग्रहमां घट्टांत ते वि य णं जीवा काइयाए, जाव-पंचहि किरियाहि जे जीवो आवे छे ते जीवो पण कायिकी यावत् पांच क्रियाने फरसे छे. ४. क्रियाऽधिकारादेव इदमाहः-पुरिसे णं' इत्यादि. ..परामुसइ ' त्ति परामृशति-गृह्णाति, 'आयतकनाययं' ति आयतः क्षेपाय प्रसारित:-कर्णायतः-कर्ण यावद् आकृष्टस्ततः कर्मधारयाद् आयतकर्णायतः, अतस्तम् इषु बाणम्, 'उड़ वेहासं' ति ऊर्ध्वम् इति वृक्षशिखराद्यपेक्षयाऽपि स्यात् , अत आहः-विहायसि इत्याकाशे, उबिहइ ' त्ति ऊर्ध्वं विजहाति ऊर्ध्वं क्षिपतिइत्यर्थः. ' अभिहणइ' त्ति अभिमुखमागच्छतो हन्ति, 'बत्तेइ , त्ति वर्तुलीकरोति शरीरसंकोचाऽऽपादनात् , 'लेसेइ' त्ति प्लेषयति आत्मनि लिष्टान् करोति, ' संघाएइ ' त्ति अन्योऽन्यं गात्रैः संहतान् करोति, संघट्टेइ ' त्ति मनाक् स्पृशति, 'परितावेड़' त्ति समन्ततः पीडयति 'किलामेड़' त्ति मारणान्तिकादिसमुद्घातं नयति, 'ठाणाओ ठाणं संकामेइ' त्ति स्वस्थानात् स्थानान्तरं नयति, जीवयाओ ववरोवेइ' ति च्युतजीवितान् करोतीति. 'किरियाहिं पुढे ' त्ति क्रियाभिः स्पृष्टः-क्रियाजन्येन कर्मणा बद्ध इत्यर्थः, 'धणु' त्ति धनुर्दण्डगुणादिसमुदायः. ननु पुरुषस्य पञ्च क्रियाः भवन्तु, कायादिव्यापाराणां तस्य दृश्यमानत्वात् ; धनुरादेनिर्वर्तकशरीराणां तु जीवानां कथं पञ्च क्रियाः ! कायमात्रस्याऽपि तदीयस्य तदानीम् अचेतनत्वात् , अचेतनकायमात्रादपि, बन्धाऽध्यपगमे सिद्धानामपि तत्प्रसङ्गः, तदीयशरीराणामपि प्राणातिपातहेतुत्वेन लोके विपरिवर्तमानत्वात्. किंच, यथा. धनुरादीनि कायिक्यादिक्रियाहेतुत्वेन पापकर्मबन्धकारणानि भवन्ति तज्जीवानाम् , एवं पात्र-दण्डकादीनि जीवरक्षाहेतुत्वेन पुण्यकर्मनिबन्धनानि स्युः ? न्यायस्य समानत्वाद् इति. अत्रोच्यते:-अविरतपरिणामाद् बन्धः, अविरतिपरिणामश्च यथा पुरुषस्याऽस्ति एवं धनुरादिनिर्वर्तकशरीरजीवानामपि.इति; सिद्धानां तु नास्त्यसौ इति न बन्धः. पात्रादिजीवानां तु न पुण्यबन्धहेतुत्वम् , तद्धतोविवेकादेस्तेषु अभावाद् इति. किंच, सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद् यद् यथोक्तं तत्तथा श्रद्धेयमेव-इति. इषुरिति शर-पत्र-फलादिसमुदायः, इत्यादि. इह धनुष्मदादीनां यद्यपि सर्वक्रियासु कथञ्चिद् निमित्तभावोऽस्ति, तथापि विवक्षितवधं प्रति अमुख्यप्रवृत्तिकतया विवक्षितवधक्रियायास्तैः कृतत्वेनाऽविवक्षणात् , शेषक्रियाणां च निमित्तभावमात्रेणाऽपि तत्कृतत्वेन-विवक्षणाचतस्रस्ता उक्ताः. बाणादिजीवशरीराणां तु साक्षाद् वधक्रियायां प्रवृत्तत्वात् पञ्चति, ४. क्रियानो अधिकार चालु होवाथी ज आ-[ 'पुरिसे णं इत्यादि. ] सूत्र कहे छे. [ परामुसह 'त्ति ] ग्रहण करे, [ 'आयतकन्नाययं ' ति ] फेंकवा माटे प्रसारलं ते आयत अने ते प्रसारेल, कान सुधी खेचलं मारे आयतकायत, ते बाणने ['उड्डे वेहासं ' ति] उंचे, वृक्षनी टोचनी अपेक्षाए पण उंचे कहेवाय माटे कहे छे के विहायसि ' एटले आकाशमां [ · उविहइ' ति ] उंचे फेंके छ. ['अभिहणइ' ति] अमिहणे. सामे आवताने हणे छे, [ 'वत्तेइ ' ति] बीजाना शरीरने संकोची नाखवाथी गोळ करे छे, ['लेसेइ ति] आत्मामां-पोतामां-श्लिष्ट करे छे की -एक बीजाने चोंटाडी दे छे, [ संघाएइ' ति] परस्पर गात्रोनी साथे संहत-भेगा-करे छे, [ ' संघट्टेइ 'ति ] थोडो स्पर्श करे छे, ['परितावेइ' परियार त्ति] चारे कोरथी पीडा पमाडे छे, [ 'किलामेइ' ति] मारणांतिक वगेरे समुद्घातने पमाडे छ, ['ठाणाओ ठाणं संकामेइ ' ति] पोताना स्थानथी स्थानांतरे लइ जाय छ, [ 'जीवियाओ ववरोवेइ 'त्ति ] जीवितथी च्युत करे छ, [ 'किरियाहिं पुढे 'त्ति ] क्रियाथी उत्पन्न थता कर्मवडे बद्ध जीवित-हीन करे थयो, [' घणु ' ति] दंड अने दोरा वगरेनो समुदाय ते धनुष्य. पुरुषमा फेंकवू ' वगेरे कायादिव्यापारो देखाता होवाथी पुरुषने पांच कियाओ धनुः. लागे ते भले, पण जे जीवोनां शरीरथी धनुष्य वगेरे बनेला छे ते जीवोने पांच क्रिया केम लागे ? कारण के, ते जीवन शरीर मात्र पण, फेंकवानी औ र वेळाए अचेतन छे; कदाच एम मानवामां आवे के, जे जीवनुं मात्र अचेतनशरीर पण काइ क्रिया करे तो तेथी थतो कर्मबंध ते जीवने थाय तो क्रियामा सिद्धना जीवोने पण कर्मबंधनो प्रसंग आवशे; कारण के, सिद्धना जीवोनां मृतक-शरीरो पण लोकमां-जगतमां-प्राणातिपातमा हेतुपणे विपरिवर्तमान रीते लागे.. छे. वळी, कायिकी बगेरे क्रियामां हेतुभूत होवाथी जेम धनुष्य विगेरे, तेना जीवोने पाप कर्मबंधनां कारणो छे ए प्रमाणे जीवरक्षामां हेतु होवाथी पात्र, दंडक विगेरे पदार्थो पण जे जीवना शरीरथी बनेला छे ते जीवने पुण्यबंधमां कारण श्वां जोइए; कारण के, उभयस्थळे न्यायनी समानता छे. अहिं समाधान कहीए छीए: कर्मबंध, अविरतपरिणामथी थाय छे, जेम अविरत परिणाम पुरुषने छे तेम जे जीवनां शरीरथी धनुष्य वगरे निपजेला छे ते जीवने पण अविरत परिणाम छे; माटे बन्नेने कर्मबंधन कारण अविरत स्वभाव होवाथी कर्मबन्ध थवामां बांधो नथी अने सिद्धोने तो कर्मबंधन १. मूलच्छाया:--गुरुकतया, यावत्-व्यंपरोपयति तावच स पुरुषः कायिक्या, यावत्-चतमभिः क्रियाभिः स्पृष्टः, येषामपि च जीवानां शरीरैः धनुः निर्वर्तितं तेऽपि जीवाः चतसृभिः क्रियाभिः, धनुः स्पृष्टं चतसभिः, जीवा चतसृभिः, स्नायुश्चतसभिः, इघुः पत्रभिः, शरः, पत्रणम् , फलम् , स्नायुः ' पञ्चभिः; येऽपि च तस्य जीवाः अधः प्रत्यवपततोऽवग्रहे वर्तन्ते तेऽपि च जीवाः कायिक्या, यावत्-पञ्चभिः कियाभिः स्पृष्टाः- 1. महिं 'भायत 'भने 'कायत 'शब्दनो कर्मधारय-समास करवो:-श्रीमभय. . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न २०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक-4.-उदेशक ६. कारण ते अविरत परिणाम न होवाथी कर्मबंध थशे नहि. अने जे जीवोनां शरीरथी पात्र वगेरे बने छे ते जीवोमां- पुण्यबन्धन कारण विवेक वगेरे न होवाथी ते जीवोने पुण्यबंधन हेतुपणुं नथी. वळी, (एम कंह नहि पण) सर्वज्ञना वचनमा प्रमाणता होवाथी जे जेम तेओए कद्युछे ते तेम श्रद्दधq.ज. शर, पत्रण अने फलनो समुदाय ते इषु. [ अहे णं से उसु' इत्या दि. ] यद्यपि अहीं कोइपण रीते. धनुष्मत् वगेरे पदार्थो सर्व क्रियामा निमित्तरूप छे तो पण अहीं प्रस्तुत वध प्रत्ये तेओनां अमुख्य प्रवृत्तिकपणाथी विवक्षित वधक्रिया तेओए.करी छे' एमन 'विवक्ष्यु होवाथी अने बीजी क्रियाओमां तेओनो मात्र निमित्त भाव होवाथी पण ते क्रियाओ तेओए करी छ' एम विवक्षण होवाथी चार क्रिया कहेली छे, जे जीवना शरीरथी बाण वगेरे बन्यां छे ते जीवने तो पांच किया लागे, कारण के, बाणादिरूप जीव-शरीरो तो साक्षात्-मुख्यपणे-वध क्रियामा प्रवर्तेलां छे. अन्यतीर्थिको. . १२. प्र०-अन्नउत्थिया णं भंते ! एवं आतिक्खंति, जाव- १२. प्र०--हे भगवन् ! अन्यतीथिको ए प्रमाणे कहे छे परूवत से जहा नामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, यावत् प्ररूपे छे के, जेम कोइ युवतिने युवान हाथमां हाथ चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता-सिया एवामेव जाव-चत्तारि पंच ग्रहीने, (उभेला) होय अथवा जेम आराओथी भीडाएली चक्रनी जोयणसयाई बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणस्सहिं-कहमेयं मं! नाभी होय ए प्रमाणे ज यावत् चारसें पांचसे योजन सुधी मनुष्य एवं? लोक, मनुष्य थी खीचोखीच भरेलो छे, हे भगवन् ते ए प्रमाणे केम होई शके? १२. उ०-गोयमा। जं णं ते अन्नउस्थिया, जाव- - १२. उ०. हे गौतम! ते अन्यतीर्थिको जे यावत् मनुष्योथी, मणुस्सेहिंतो-जें तें एवं आहंसु, मिच्छा. अहं पुण गोयमा! एवं जे तेओ ए प्रमाणे कहे छे ते खोटुं छे, हे गौतम! हुं .वळी आ आइक्खामि एवामेव जाव-चत्तारि, पंच जायणसयाई बहुसमा- प्रमाणे कहुं छु के, ए ज प्रमाणे यावत् .चारसे पांचसो योजन इने निरयलोए नेरइएहि. सुधी निरय लोक, नैरयिकोथी खीचो खीच भरेलो छे. १३. प्र०–नेरइयाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए, १३. प्र०-हे भगवन् ! शु नैरयिको एकपणुं विकुर्ववा पुहुत्तं पभू विउव्वित्तए ? समर्थ छे के बहुपणुं विकुवा समर्थ छे ? १३. उ०-जहा जीवाभिगमे आलावगो : तहा नेयूव्वो, १३. उ०-जेम जीवाभिगम सूत्रमा आलापक छे ते आलाजाव-दुरहियासे. पक यावत् 'दुरहियास' शब्द सुधी अहिं जाणवो. ५. अथ सम्यकप्ररूपणाऽधिकाराद् मिथ्याप्ररूपणानिरासपूर्वक सम्यक्प्ररूपणामेव दर्शयन्नाहः - अनउत्थिया' इत्यादि. 'बहुसमाइण्णे' ति अत्यन्तम् आकीर्णः, मिथ्यात्वं च तद्वचनस्य विभङ्गज्ञानपूर्वकत्वाद् अवसेयम् इति. नेरइएहिं ' इत्युक्तम् , .. १. मूलच्छायाः-अन्ययूथिका भगवन् । एवम् आख्यान्ति, यावत्-प्ररूपयन्ति स यथा नाम युवतिं युवा हस्तेन हस्तं गृली यात्, चक्रस्य वा मामी अरकाऽऽयुक्ता स्यात्, एवमेव यावत्-चत्वारि, पञ्च योजनशतानि बहुसमाकीर्णो मनुष्यलोको मनुष्यैः-कथमेतद् भगवन् ! एवम् ? गौतम ! यत् तेऽन्ययूथिका यावत्-मनुष्यैः-ये ते एवम् आहुः, मिथ्या. अहं पुनगाँतम ! एवम् आख्यामि-एवम् एव यावत् चत्वारि, पञ्च योजनशतानि बहुसमाकी नरकलोको नैरयिकैः. नैरयिकाः भगवन् ! किम् एकत्वं प्रभवो विकुर्वितुम् , पृथक्तवं प्रभवो विकुर्वितुम् ? यथा जीवाऽनिगमे आलापकस्तथा ज्ञातव्यो यावत्-दुरधिसह्यम्:-अनु: १. नैरयिको विषे अहीं जीवाभिगम-सूत्रना जे आलापकनी भलामण करवामां आवी छे ते आलापक (स०. पृ० ११७)मा आ प्रमाणे छेः" इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पु. नेरतिया किं एकत्तं पभू विउविः “हे भगवन् | आ रत्नप्रभा नरकमा नैरयिको शुं एकताने विकुर्ववा "सए, पुहुतं पि पभू विउवित्तए ? समर्थ छे के बहुताने विकुवा समर्थ छे ? . ___ गोयमा। एगत पि पभू, पुहुत पि पभू विउवित्तए..एगत्तं विउध्वेमाणा गौतम ! तेओ एकताने पण विकुर्वा शके छे अने बहुताने पण विकुीं एगं महं मोग्गररूवं वा, एवं मुसुंढि-करवत्त-असि-सत्ति-हल-ता-मुसल- शके छे. एकताने विकुर्वता एक मोटा मोघरीना, मुसंढिना, करवतना, चक-णाराय-कुंत-तोमर-सूल-लउड-भिंडमाला य जाव मिंडमालारूवं तरवारना, शक्तिना, हळना, गदाना, मुशळना, चकना, नाराचना, कुंतना, था. पहुतं विउब्वेमाणा मोग्गररूवाणि वा जाव-भिंडमालरूवाणि वा. तोमरना, शूलना, लाकडीना अने यावत्-भिंडमाळना, रूपने विकुर्वी शके ताई खजाई, णो असंखेन्नाई, संबद्धाई, नो असंबद्धाई; सरिसाई, नो. छे अने बहुताने विकुर्वता घणां मोघरीनां रूपोने यावत्-भिंडमाळनां रूपोंने अस रिसाई विउव्वंति-विउवित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा अभि- विकुर्वी शके छे. ते रूपो संख्येय होय छे-असंख्येय नभी होतां, संबद्ध हणमाणा वेयणं उदीरेंति-उज्जलं, विउलं, पगाढं, ककसं, कडयं, फरुसं, होय छे-असंबद्ध नथी होतां, सदृश होय छे-असदृश नथी होतां-ए रूपोने निहुरे, चई, तिन्वं, दुवलं, दुग्गं, दुरहियासं" ति.. विकुवीने एक बोजाना शरीरने अभिहणता अभिहणता वेदनाने उदारे छे, ते घेदना-उज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, चंड, तीन, दुख, दुर्ग भने दुरधिसह्य होय छ: "- Jain Education international Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतफ ५.-उदर्शक.६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २०९ अतो नारकवक्तव्यतासूत्रम्-'एगत्तं ' ति एकत्वं प्रहरणानाम् , 'पहत्तं ' ति पृथक्त्वं बहुत्वं प्रहरणानामेव. जहा जीवाभिगमे' इत्यादि, आलापकश्चैवम्:--" गोयमा ! एगत्तं पि पह विउवित्तए, पुहुत्तं पि पहू विउवित्तए; एगत्तं विउव्यमाणा एगं महं मोग्गररूवं वा, मुसुंदिरूवं वा" इत्यादि. “ पुत्तं विउव्वमाणा मोग्गररूवाणि वा " इत्यादि.. " ताई संखेज्जाई, नो असंखेजाई, एवं संबद्धाई-सरीराई विउविति, विउब्धित्ता अन्नमन्नस्स कायं अभिहणमाणा, अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति, उजलं, विउलं, पगाद, कक्कसं, कडुयं, फरुसं, निगुरं, चंडं, तिव्वं, दुक्खं, दुग्गं, दुरहियासं " ति. तत्रोज्वलां विपक्षलेशेनाऽपि अकलङ्किताम् , विपुलां शरीरव्यापिकाम् , प्रगाढां प्रकर्षवतीम्, कर्कशां कर्कशद्रव्योपमाम्-अनिष्टाम्-इत्यर्थः. एवं कटुकाम, परुषाम् , निष्ठुरा चेति; चण्डां रौद्राम्, तीवा झगिति शरीरव्यापिकाम् , दुःखाम् असुखरूपाम् , दुर्गा दुःखाऽऽश्रयणीयाम् अत एवं दुरधिसह्याम् इति. ५. हवे सम्यक्प्ररूपणानो अधिकार होवाथी मिथ्याप्ररूपणाना निरासपूर्वक सम्यक्प्ररूपणाने ज दर्शावता [ ' अन्नउत्थिया' इत्यादि ] सूत्र कहे छे, [ ' बहुसमाइण्णे' त्ति ]. अत्यंत आकीर्ण. तेनु-अन्यतीर्थिक--आ वचन विभंगज्ञानपूर्वक होवाथी तेमा असत्यता जाणवी. अन्यतीथिक. [ नेरहएहिं '] ए प्रमाणे कधू माटे नारकनी वक्तव्यतानुं सूत्र कहे छ:---[ 'एगत्तं ' ति ] प्रहरणो-शस्त्रो-र्नु एकप[, ['पुहुत्तं ' ति ] प्रहरणोनुं बहुपj. [ 'जहा जीवाभिगमे' इत्यादि.] जीवाभिगममा आबेलो आलापक आ प्रमाणे छ:-" हे गौतम ! एकपणुं पण विकुर्वया जीवाभिगम. समर्थ छे अने बहुप' पण विकुर्ववा समर्थ छ; एकपणानुं विकुर्वण करता तेओ एक मोटुं मुद्ररूप वा मुसुंढिरूप" इत्यादि. " बहुपणानुं विकुर्वण, चिकुर्वण करता तेओ घणां मुद्ररूपो" इत्यादि. ते वधां संख्येय होय पण असंख्येय न होय, ए प्रमाणे संबद्ध शरीरोने विकुर्वे छे, विकुर्वीने एक बीजाना शरीरने अमिधात करता तेओ वेदनाने उदीरे छे, ते वेदना उज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, चंड, तीव्र, वेदना. दुःखरूप, दुर्ग अने दुस्सह होय छे-उच्वल एटले वेदनानो विपक्ष सुख, तेना अंशथी पण अकलंकित अर्थात् लवमात्र पण सुखरहित, आखा शरीरमा व्यापेली वेदना ते विपुल वेदना, प्रगाढ-प्रकर्षवाळी, कर्कश-कर्कश पदार्थ जैवी अर्थात् अनिष्ट, ए प्रमाणे कटुक, परुष, निष्ठुर, चंड-रौद्र-भयंकर, तीव्र-शीवपणे शरीरमा व्यापनारी, दुःख-असुखस्वरूप, दुर्ग-दुःखपूर्वक आश्रय करवा योग्य माटे ज दुस्सह. . आधाकर्मादि आहार. -ओहाकम्म अणवजे 'त्ति मणं पहारेत्ता भवति, सेणं - आधाकर्म अनवद्य-निष्पाप-छ। एप्रमाणे जे, मनमा तस्स ठाणस्स अणालोतियपडिकंते कालं. करड़-नस्थि तस्स समजतो होय ते जो आधाकर्म स्थानविषयक आलोचन, अने आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोतियपडिकते कालं करेइ प्रतिक्रमण कर्या विना काल करे तो तेने आराधना नथी अने जो -अत्थि तस्स आराहणा-एएणं गमेणं नेयव्वं-कीयगडं, ठवियं, ते स्थानविषयक आलोचन अने प्रतिक्रमण करी काल करे तो रहयगं, कंतारमत्तं, दुभिक्खभत्तं, बद्दलियामत्तं, गिलाणभत्तं, तेने आराधना छे. ए गम प्रमाणे क्रीतकृत-साधु माटे मूल्य सेज्जायरापिंड. आपीने अग्णेलु भोजन, स्थापित-साधु माटे राखी मेलेलं भोजन, राचित-साधु माटे लाडवा वगेरे रूपे करेलो लाडवानो भूको वगेरे, कांतारभक्त-जंगलमा साधुंना निर्वाह माटे तैयार करेलो आहार, दुर्भिक्षभक्त-दुकाळ वखते साधुना निर्वाह माटे तैयार करेलो आहार, दुर्दिन होय-वरसाद आवतो होय-न्यारे साधु माटे तैयार करेला आहार ते वार्दलिकाभक्त, ग्लान माटे रांधलो आहार, शय्यातरापिंड, राजपिंड, ए बधी जातना आहार माटे जाणवू. १४.प्र०-आहाकम्मं 'अणवजे 'त्ति बहुजणस्स मज्झे १४. प्र०-'आधाकर्म आहार निष्पाप छे' एप्रमाणे जे भासित्ता, सयमेव परि जित्ता भवति से णं तस्स ठाणस्स जाव- घणा माणसोनी वच्चे बोले अने पोते आधाकर्मने खाय तो तेम अस्थि तस्स आराहणा? बोलनार तथा खानोर ते विषे यावत् तेने आराधना छे ? १.प्र. छा:-गौतम ! एकलमपि प्रभुर्विकुर्वितुम्, पृथक्त्वमपि प्रभुर्विकुर्वितुम् ; एकत्वं विकुर्वमाणा एकं महद् मुद्ररूपं वा, मुषुण्डिरूपं वा. २. पृथक्त्वं विकुर्वमाणा मुद्ररूपाणि वा. ३. तानि संख्येयानि, नो असंख्येयानि, एवं संबद्धानि शरीराणि विकुर्वन्ति, विकुऱ्या अन्योऽन्यस्य कायम् अभिनन्तः, अभिनन्तः वेदनाम् उदीरयन्ति, उज्ज्वलाम्, विपुलाम्, प्रगाढाम् , कर्कशाम् , कटुकाम् , परुषाम् , निष्ठुराम , चण्डाम् , तीव्राम् , दुःखाम् , दुर्गाम् , दुरधियासाम्-(दुरधिसयाम् ):-अनु. १. मूलच्छाया:-आधाकर्म, 'अनवद्यम्' इति मनः प्रधारयिता भवति स तस्मात् स्थानाद् अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति नास्ति तस्य आराधना, स तस्मात् स्थानाद् आलोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति अस्ति तस्य आराधना; एतेन गमेन ज्ञातव्यम्-क्रीतकृतम्, स्थापितम् , रचितम् , ‘कान्तारभक्कम् , दुर्भिक्षभकम् , वादलिकाभतम् , ग्लानभकम् , शय्यातरपिण्डम्. भाधाकर्म 'अनवद्यम्' इति बहुजनस्य मध्ये भाषित्वा स्वयमेव परिस्य भवति स तस्य स्थानस्य यावत्-अस्ति तस्य आराधना :-अनु० Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक.६ १४. उ०—एयं पि तह चेव, जाव-रायपिंडं. १४. उ०-ए पण ते ज प्रमाणे जाणवू यावत्-राजपिंड, .१५. प्र०--आहाकम्मं । अणवजे 'त्ति अन्नमनस्स अणु- १५. प्र०- आधाकर्म अनवद्य छ'ए प्रमाणे कही परस्पर प्पदावतित्ता भवइ, से णं तस्स ? देवरावनार होय, तेने आराधना होय ? १५. उ०-एयं तह चेव जाव-रायपिंडं. * १५ उ०-पण ते ज प्रमाणे जाणवू यावत्-राजपिंड, १६. प्र०-आहाकम्म णं 'अणवजे 'त्ति बहुजणमझे १६. प्र०-' आधाकर्म निष्पाप छे' ए प्रमाणे घण पत्रवइत्ता भवति से णं तस्स जाव-अस्थि आराहणा? माणसोने जे जणावनार होय, तेने यावत् आराधना छे ? १६. उ०-जाव-रायपिंडं. १६. उ०—यावत्-राजपिंड ( पेठे जाणी लेवु.) . .६. इयं च वेदना ज्ञानाद्याऽऽराधनाविरहेण भवति इति आराधनाऽभावं दर्शयितुमाह:-'आहाकम्म' इत्यादि. 'अणवज्जे 'त्ति अनवद्यमिति, “ मणं पहारेत्त ' त्ति मानसं प्रधारयिता स्थापयिता भवति. इयगं ' ति मोदकचूर्णादि पुनर्मोदकादितया रचितम् औद्देशिकभेदरूपम्, 'कंतारभत्तं ' त्ति कान्तारम् अरण्यम्, तत्र भिक्षुकाणां ...निर्वाहार्थ यद्विहितं भक्तं तत् कान्तारभक्तम् , एवम् अन्यान्यपि. नवरम्:--वार्दलिका मेघदुर्दिनम्, 'गिलाणभत्तं ' ति ग्लानस्य निरोगार्थ भिक्षुकदानाय यत् कृतं भक्तं तद् ग्लानभक्तम् , आधाकर्मादीनां सदोषत्वेन आगमेऽभिहितानां निर्दोषताकल्पनम्, तत एव स्वयं भोजनम् , अन्यसाधुभ्योऽनुप्रदापनम् , सभायां निर्दोपतामणनं च विपरीतश्रद्धानादिरूपत्वाद् मिथ्यात्वादि, ततश्च ज्ञानादीनां विराधना स्फुटा एच इति. . ६. आ वेदना, शनादिनी आराधना न करी होय त्यारे थाय छ माटे आराधनाना अभावने दर्शाववा आहाकम्म' इत्यादि सूत्र कहे छे, [• अणवजे' त्ति ] अनवद्य-निष्पाप,-ए प्रमाणे [ मणं पहारेत्त ' ति] मनने धारण करनार होय. [ 'रइयगं' ति ] रचितक__ रचितक. .. रचेलु-उदाहरण तरीके भांगीने भूको थइ गएला लाडवानो फरीने साधुने माटे लाडवो वाळवो--जे औद्देशिक भेदरूप छे, [ ' कंतारभत्तं ' ति] भक्त-वाद अरण्यमा भिक्षुओना निर्वाह माटे जे बनावेलु भक्त ते कांतारभक्त, ए प्रमाण बीजां पण जाणत, विशेष ए के, वादलिका एटले मेघदुर्दिन. उक्त-लान [' गिलाणभत्तं ' ति.] ग्लाननी निरोगतार्थे भिक्षुकने देवा माटे करेलु भक्त: ते ग्लानभक्त; आगममां सदोषपणे कहेला. आधाकर्मादिक आहारोनुं निर्दोषषणे कल्पवु अने तेथी ज पोते तेनुं भोजन करवू, बीजा साधुओने अनुप्रदापन करवु तथा सभामां तेनुं निर्दोषपणुं कहे, ते वधु विपरीत श्रद्धानादिरूप होवाथी.मिथ्यात्वादिरूप छे अने तेथी ज्ञान-वगरेनी विराधना स्फुटरूपे ज छे. विराधना. आचार्य-उपाध्याय. .१७.40-औयरिय-उवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि गणं १७. ३०-हे भगवन् ! पोताना विषयमा, शिष्यवर्गने खेद अगिलाए संगिण्हमाणे, अॅगिलाए उवगिण्हमाणे कहिं भषैग्ग- रहितपणे स्वीकारता, खेदरहितपणे सहाय करता आचार्य अने हणेहि सिज्झति, जाव-अंतं करोति ? उपाध्याय केटलां भवग्रहणो करी सिद्ध थाय यावत् अंतने करे? .... १७. उ०-गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भवग्गहणेणं सि- १७. उ०—हे गौतम ! के टलाक तेज भववडे सिद्ध थाय, ज्झति, अत्थेगतिए दोचेणं भवग्गहणेणं सिज्झति, तचं पुण केटलाक बे भव ग्रहण करी सिद्ध थाय-पण त्रीजा भवग्रहणने भवग्गहणं णाइक्कमति. अतिक्रमे नहि. ७. आधाकर्मादींश्च पदार्थान् आचार्यादयः सभायां प्रायः प्रज्ञापयन्ति-इत्याऽऽचार्यादीन् फलतो दर्शयन् आहः-- आयरिए" इत्यादि.. 'आयरिय-उवज्झाए णं' तिं आचार्येण सहोपाध्यायः-आचार्यो-पाध्यायः, 'सविसयांस' त्ति स्वविषयेऽर्थदान लक्षणे, 'गणं' ति शिष्यवर्गम् 'अगिलाए' त्ति अखेदेन संगृह्णन्-स्वीकुर्वन्-उपष्टम्भयन्. द्वितीयः, तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देवभवाऽन्तरितो दृश्यः, चारित्रवतोऽनन्तरो देवभव एव भवति, न च तत्र सिद्धिरस्ति इति. १. मुलच्छायाः-एतदपि तथा चैव यावत्-राजपिण्डम् . आधाकर्म, 'अनवद्यम् ' इति अन्योऽन्यस्य अनुप्रदापयिता भवति स तस्य ? एतत् तथा चैव यावत् राजपिण्डम्. आधाकर्म " अनवद्यम्' इति बहुजनमध्ये प्रज्ञापयिता भवति स तस्य यावत्-अस्ति आराधना? यावत्-राजपिण्डम्. २. आचार्योपाध्यायो भगवन् ! खविषये गणम् अग्लानतया संगृहन् , अग्लानतया, उपगृहन् कतिमिर्भवग्रहणैः सिध्यति, यावत-अन्तं करोति? गातम ! अस्त्येककस्तेनैव भवप्रहणेन सिध्यति, अस्त्येकको द्वाभ्यां भवग्रहणाभ्यां सिध्यति, तृतीयं पुनर्भवग्रहणं नाऽति कामतिः-अनु० । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक :--उद्देशक अपवस्वधर्मस्वामिषशीत भगवतीसूत्र. ७. आधाकमाविपदना अर्थाने प्रायः आचार्य वगेरे मोटा माणसो सभामा जणाव छ मोटे-हवे फलथी आचार्यादिने दर्शावता [ आयरिए' इत्यादि ]- सूत्र कहे छ, [ 'आयरिय-उवज्झाएणं' ति ] आचार्यनी साथे आध्याय ते आचार्योपाध्याय [ सविसयंसि ' ति] अर्थो देवा आचार्य-उपाय असे सूत्रो देवारूप पोताना विषयमां [ 'गणं' ति ] शिष्य वर्गने ['अगिलाए ' ति] अखेद पूर्वक स्वीकारता, सहायता करता. बीजो अने बीजो मनुष्य भव देवभवना आंतरावाळो जाणवो, कारण के, चारित्रवाळो लागलो देवभवमा ज जाय छे, त्यां सिद्धि नथी. देवभव. मृषावादी. १८. प्र०-जे णं भंते ! परं अलिएणं, असब्भूएणं, अभ- १८. प्र०--हे भगवन् ! जे बीजाने, खोटा बोलवावडे, खाणेणं अभक्खाति तस्स णं कहप्पगारा कम्मा कति? असद्भूत बोलवावडे, अभ्याख्यान-मोढे मोढ दोष प्रकाशवा-वडे दूषित कहे, ते केवा प्रकारनां कर्मो बांधे छ ? १८. उ०-गोयमा ! जे णं परं अलिएणं, असंतरयणेणं, १८. उ०--गौतम ! ते तेवा प्रकारनां ज कर्मो बांधे छे, ते अभिक्खाणेणं अभक्खाति तस्स णं तहपगारा चेव कम्मा कजति, ज्यां जाय छे त्यां ते कर्मोने वेदे छे, पछी ते कौने निर्जरे छे, जत्थेव णं अभिसमागच्छद तत्थेव णं पडिसंवेदेति तओ से पच्छा वेदेति. -सेवं भंते !, सेवं भंते । ति. - हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे, छे, (एम कही श्रमण भगवंत गौतम विहरे छे.) भगवंत-मनुहम्मसातवगीए सरीभगवई सुत्ते पंचमसये वो उसो सम्मत्तो. ८. पराऽनुग्रहस्याऽनन्तरं फलमुक्तम् , अथ परोपघातस्य तदाह:--'जे णं' इत्यादि. · अलिएणं' ति अलीकेन भूतनिनवरूपण पालितब्रह्मचर्यसाधुविषयेऽपि ' नाऽनेन ब्रह्मचर्यमनुपालितम्' इत्यादिरूपेण, ' असम्भएणं' ति अभूतोद्भावनरूपेण 'अचौरेऽपि चोरोऽयम्' इत्यादिना, अथवा अलीकेन असत्येन, तच्च द्रव्यतोऽपि भवति-लुब्धकादिना मृगादीन् पृष्टस्य जानतोऽपि नाऽहं जानामि-इत्यादि. अत एवाऽऽहः--असद्धृतेन दुष्टाऽभिसंधित्वाद् अशोभनरूपेण ' अचौरोऽपि चौरोऽयम् ' इत्यादिना, 'अभक्खाणेणं' ति आभिमुख्येन आख्यानं दोघाऽऽविष्करणम् अभ्याख्यानम्-तेन अभ्यारूपाति-ब्रते. 'कहप्पगार' ति कथंप्रकाराणि किंप्रकाराणि इत्यर्थः, 'तहप्पगारे' त्ति अभ्याख्यानफलानि इत्यर्थः, 'जत्थेवणं' इत्यादि, यत्रैव मानुषत्वादी अभिसमाग छति-उत्पद्यते तत्रैव प्रतिसंवेदयति अभ्याख्यानफलं कर्म, ततः भगवरसुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पश्चमशते षष्ठ उद्देशके श्रीमभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. ८.९ प्रमाणे बीजा उपर करेल उपकारनुं अनंतर-साक्षात्-फळ कडं, हवे बीजाने उपघातनुं फळ कहे छ:- [जेणं' इत्यादि.] [' अलिएणं' ति ] 'जे साधुए ब्रह्मचर्य पाळ्यु होय तेने विषे कहेवू के आगे ब्रह्मचर्य नथी पाळ्यु'ए प्रमाणे सत्य वातना अपलापरूप अलीक. अलीक वडे, [' असन्भूएणं ' ति ] जे चोर न होय तेने आ चोर छे' एम कहेवारूप-न थयेलर्नु उद्भावनरूप-ते असद्भत-ते वडे अथवा असद्भन. अलीक-खोटुं अने ते - कोर शीकारी वगरेथी मृगो विषे पूछाएलो अने मृगोने जाणनारो पण एम बोले के हुँ मृगोने जाणतो नथी ' एवे सो द्रव्यथी होय माटे कहे छ के, अहीं विवक्षित खोटुं एवा प्रकारचें नथी पण असद्भूतरूप छे, असद्भत एटले दुष्ट अभिवाय होवाथी अशोभनरूप, चोर न होय तेमां पण 'आ चोर छ'ए प्रमाणे आरोप करवारूप ते अलीक छ. ['अन्मक्खाणेणं' ति ] सामे, दोषोना प्रकट करवारूप अभ्याख्यान. कथन ते अभ्याख्यान-ते बडे बोले, [' कहप्पगार' त्ति ] केवां प्रकारना, ['तहप्पगार' त्ति ] अभ्याख्यान फळबाळां, [ 'जत्थेव गं' इत्यादि.] ज्यां मनुष्य वगेरे योनिमां उत्पन्न थाय त्या अभ्याख्यान फळ कर्मन प्रतिसंवेद छे, त्यार पछी निर्जरे छे. . निर्जरे छे. १. मूलच्छायाः-यो भगवन् । परम् अलीकेन, असभूतेन, अभ्याख्यानेन अभ्याख्याति तस्य किंधकाराणि कर्माणि कियन्ते ? गैतम ! यः परम् अलीकेन, असद् (असत्य ) बचनेन, अभ्याख्यानेन अभ्याख्याति तस्य तथाप्रकाराणि चैव कमीणि कियन्ते, यत्रैव अभिसगागच्छति तत्रैव अतिसंवेदयति, ततः स पचा वैदयति. तदेवं भगवन् ! , तदेवं भगवन् । इति:--अनु० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शेतक ५.उद्देशक ६. बेडरूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शास्योः - दद्यात् श्रीवीरदेवः सकर शिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५:-उद्देशक ७. ई भगवन् ! परमाणु. कंपे ? ते ते भावे परिणमे ? कदाच कंपे-परिणमे-कदाच न कंपेन परिणमे.-ए प्रमाणे द्विपदे शिवा स्कंध:-देशतः कंपन-अब पन. त्रिप्रदेशिक स्कंध.-चतुष्प्रदेशिक स्कंध.-पंच प्रदेशिक स्कंध-यावत्-अनंतप्रदेशिक रकंध.-देशाश्रित, रि.प.पो.- परमाणु अने अरिधारा-परमाणु, गाय.?-नी.-ए प्रमाणे यावत्-असंख्यप्रदेशि स्कंध,-अनंत प्रदशिक स्कंध अने असिधारा.-ते छेदाय ?-हा-ना.-ए प्रमाणे अग्नि अने परमाणु विगेरे.-पुष्करसंवर्तक मेव अने परमाणु विरे.-गंगा महानदी अने परमाणु विगेरे.-परमाणु अर्थ सहि छ ? मध्य सहित छ ? प्रदेश सहित छे ? तेम नथी.-ए प्रमाणे विप्रदेशिक स्कंध.-त्रिप्रदेशिक स्कंध.-द्विपदेशि रकंपनी पे सम प्रदेशवाळा अने त्रिप्रदेशिक स्कंधती हे विषम प्रदेशवा का.संख्येष प्रदेशिक स्कंथ-असंख्येय प्रदेशिक स्कंध अने अनंत प्रदेशिक स्कंध.-परमाणु परमाणुनी परस्पर सर्शना.-नव विकल्प.- परमाणु अने दिप्रदेशिकनी स्पर्शना.-परमाणु अने त्रिप्रदेशिकनी रपर्शना.-ए प्रमाणे यावत्-परमाणु अने अनन्तप्रदेशिकनी स्पर्शना.-रिप्रदेशिक अने परमाणुनी स्पर्शना.-द्विप्रदेशिक अने द्विप्रदेशिकनी स्पर्शना.-द्विप्रदेशिक अने त्रिप्रदेशिकनी पर्शना:-त्रिप्रदेशिक अने परमाणुनी पर्शना:-त्रिप्रदेशिक अने द्विप्रदेशिकनी स्पर्शना:-त्रिप्रदेशिक अने त्रिप्रदेशिकनी रपर्शना.-ए प्रमाणे यावत्-अनंत प्रदेशिकनी स्पर्शना.-परमाणु पुगलगी कालतः स्थिति.-एक 'समय अने असंख्य काल.-सकेप एक प्रदेशावगाढ पुद्गलनी कालत: स्थिति.-एक समय अने आवलिकानों असंख्य भाग.-'. प्रमाणे यावत्-असंख्य प्रदेशावगाढ.-एक प्रदेशावगाढ निष्क५ पुद्गलनी कालतः स्थिति.-एक समय अने असंख्य काल. एक गुण काळा पुद्गलनी कालतः स्थिति.-एक समय भने असंख्य काल.-ए प्रमाणे यावत्-अनंत गुण का कुं पुद्गल.-वर्ण-गंध-रस-रपर्श.-सूक्ष्म परिणाम. यादर परिणाम.-शब्द परिणतः पुद्गलनी कालतः स्थिति.-एक समय...अने आवलिकानो : असंख्य भाग.-अशब्दपरिणत. पुद्गल.- परमाणु पुद्रनो अंतरकाल.-एक समय अने असंख्य काल.दिप्रदेशिक स्कंधनो अंतरकाल.- एक समय अने अनंत काल.-अनंत प्रदेशिका.-एक प्रदेशावाढ सय पुगलनो अंतरकाल.-"क समय अने असंख्य काल.-ए रीते असंख्य प्रदेशावगाढ.-एक प्रदेशावगाढ़ निष्कंप पुद्गलनो.. अंतरकाल. एक समय अने आवलिकानो असंख्य भाग.-ए रोते असंख्य प्रदेशावगाढ.-वर्णादिनो अंतरकाल.-शब्दपरिणत पुद्गलनो अंतरकाल -एक रामय अने असंख्पकाल-अशब्द परिणत पुनल.-द्रव्यस्थानायु-क्षेत्रस्थानायु-अवगाहनास्थानायु अने भावस्थानायुनी अल्प बहुता -नैरयिको आरंभी अने परिग्रही ?-हा.-असुरोको परिग्रह अंगे अरंभ-पृथिवीकायादिनो आरंभ.-शरीर-कर्म-भवन-देवो-देवीओ-मनुष्यो-पनुषणीओ-तिर्यचो-तिर्य चणी-आसन-शयग-मा-मान-उपकरण--विगेरे असुरोनो परिग्रह.बेद्रिया दिनो आरंभ अने परिग्रह.-पंचेंद्रियनो परिग्रह-टंक-कूट-वापी अने वन-विगेरे.-देवचुल-आश्रम-प्रपा-रतूप अने गोपुर विगेरे.-प्रासाद-गृहशरण-लेण-आपण-शंगाटक-त्रिक-तुष्क अने महापथ विगेरे.-शकट-रथ-यान अने मेना विगेरे.-लोढी-कडायुं अने कटछी विगेरे,-वानन्यतरो. ज्योतिषिको.-वैमानिको.-पांच हेतु अने पांच अहेतु.-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. १. प्र०-परमाणुपोग्गले णं भंते ! एयति, वेयति; जाव- तं तं भाव परिणमति ? १. 30-गोयमा । सिय एयति, वेयति, जाव-परिणमति; सिय णो एयति, जाव-णो. परिणमति. १. प्र "हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल कंपे, विशेष कंपे यावत्-ते ते भावे परिणमे? १. उ०-हे गौतम ! कदाच कंपे, विशेष कापे यावत् परिणमे अने कदाच न को यावत्-न परिणमे. १. मूलच्छाया:--परमाणुपुद्गलो. भगंव। एजते, वेप (व्येज.) तेभ्याक्त-तत भाव परिणराति ? गौतम ! स्यात् एजते, वेपते, यावतूपरिणमतिः स्याद् जो एजते, यावत्-नो परिणम तिः-अनु० Jain Education international Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ भौरान-जिनागमसंग्रह शतक ५.-उद्देशक. ७, २. प्र०-दुप्पएसिए णं भंते । बंधे एयति, जाव-परिणमइ! २. प्र०-हे भगवन् ! वे प्रदेशनो स्कंध कंपे यावत् - परिणमे ! २. उ०-गोयमा ! सिय एवति, जाव-परिणमाति, सिय २. उ०-हे गौतम! कदाच कंपे यावत्-परिणमे-१. कदाच णो एयति, जाव-णो परिणमति; सिय देसे एयति, देसे नो न कंपे यावत्-न परिणमे-२. तथा कदाच एक भाग कंपे, एक एयति. भाग न कंपे-३. ३. प्र०-तिप्पएरासिए णं भंते ! खंघे एयति ? ३.प्र०-हे भगवन् ! त्रण प्रदेशवाळो स्कंध कंपे!. ३. उ० - गोयमा ! सिय एयति, सिय नो एयति, सिय ३. उ०-हे गौतम ! कदाच कंपे-१. कदाच न कंपे-२. देसे एयति-नो देसे एयति, सिय देसे एवति-नो देसा एयंति; कदाच एक भाग कंपे, एक भाग न कंपे-३. कदाच एक भाग सिय देसा एयंति-नो देसे एयति. कंपे, बहु देशो न कंपे-४. कदाच बहु भागो कंपे, एक भाग न कंपे-५. ४. प्र०-चउप्पएसिए णं भंते । खंधे एयति? ४. प्र०-हे भगवन् ! चार प्रदेशवाळो स्कंध कंपे छे? ४. उ०-गोयमा ! सिय एयति, सिय नो एयति, सिय ४. उ०-हे गौतम! १ कदाच कंपे. २ कदाच न कंपे. देसे एयति-णो देसे एयति, सिय देसे एयति-णो देसा एयंति, ३ कदाच एक भाग करे अने एक भाग न कंपे. ४ कदाच एक सिय देसा एयंति-मो देसे एयति; सिय देसा 'एयति-ना दसा भाग कैपे अने बहु भागो न कंपे. ५ कदाच बहु मागो कंपे अने एयंति. जहा-चउप्पएसिओ तहा पंचपएसिओ, तहा जाव- एक भाग न कंपे. ६ कदाच घणा भागो कंपे अने घणा भागो अणंतपएसिओ.. न कंपे-जेंम चार प्रदेशवाळा स्कंध माटे कडं तेम पांच प्रदेशवाळा स्कंधथी मांडी. यावत् अनंतप्रदेशवाळा स्कंध सुधीना दरेक स्कंधो माटे जाणवू. .. १. षष्टोदेशकान्यसूत्रे कर्मपुद्गलनिर्जरा उक्ता, निर्जरा च चलनम् इति सप्तमे पुद्गलचलनम् अधिकृत्य इदमाह:- 'परमाणु-' इत्यादि. 'सिय एयति ' त्ति कदाचिद् एजते, कादाचित्कत्वात्-सर्वपुद्गलेषु एंजनादिधमाणीम् द्विप्रदेशिके त्यो विकल्पा:-१ स्याद् एजनम् , २ स्याद् अनेजनम् , ३ स्याद् देशेन एजनम्-देशेनाऽनेजनं चेति; संशत्वात्तस्यति. त्रिप्रदेशिके पञ्च-आद्यास्त्रयः त एव, व्यणुक्रस्याऽपि तदीयस्य एकस्यांशस्य तथाविधपरिणामेन एकदेशतया विवक्षितत्वात् , तथा ४ देशस्य एजनम् , देशयोश्वाऽनेजनम्इति चतुर्थः. तथा ५ देशयोरेजनम् , देशस्य चाऽनेजनमिति पञ्चमः: एवं चतुष्प्रर्वशिकेऽपि, नवरम्:-षट् , तत्र षष्ट्रो देशयोः एजनम् , प्रदेशयोरेव चाऽनेजनमिति. १. छहा उद्देशकना छेल्ला सूत्रमा कर्मपुद्गलनी निर्जरा कही छे अने ए निर्जरा चलनरूप छ माटे हवे सांतमा उद्देशकमां पुतलोनी चलन माणु भने स्कं- क्रियानो अधिकार करी आ-['परमाणु-' इत्यादि.] सूत्र कहे छे. [ सिय एवंद 'त्ति ] कदाच कंपे, कारण के, दरेक पुद्गलोमां कंपवू गोना कंपनने ल- वगेरे धर्मो कादाचित्क छे. द्विपदेशिक स्कंध, वे भागवाळो छ माटे ते वे प्रदेशवाळा स्कंधमां त्रण विकल्प छैः-१ कदाच कंपवू, २ कदाच तो विचार, न कंपवं, ३ कदाच एक भागवडे कंपq अने एक भागे न कंपवू. प्रण-प्रदेशवाळा स्कंधमां पांच विकल्प छे. ते पांच विकल्प आ प्रमाणे : प्रण प्रदेशवाळा स्कंधमां त्रीजा परमाणुनो एक अंश-जे द्वचणुकरूप छेतेने पण एकदेशपणे विवक्षलों छे. कारण के, ते जातर्नु परिणमन पण थह शक छे माटे अहीं पूर्वेचे प्रदेशवाळा स्कंधमां कसा ते ज प्रण विकल्पो जाणवा, तथा 'एक भागनुं कंपअने बे भागनुं न कंपq । ए चोथो विकल्प छ अने 'बे भागर्नु कंपवु अने एक भागर्नु न कंपq 'ए पांचमो विकल्प छे. ए प्रमाणे चार प्रदेशवाळा स्कंधमां पण जाणी कनिका लेवू, विशेष ए के, तेमा छ विकल्प थशे, तेमां पांच विकल्प तो हमणां कहा ते जाणवा अने 'बे भागर्नु कंपन अने बे प्रदेश - भागनुंअकंपन ' ए प्रमाणे छट्ठो विकल्प छे. परमाणुपुनलादि अने असिंधारा. ५. प्र०--परमाणुंपोगलेणं भंते ! अंसिंघारं वा, खुरधारं ५.-प्र०-हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल, तरवारनी धारंनो या था ओगाहेजा? सजायानी धारनो आश्रय करे? १. मूलच्छायाः-द्विप्रदेशिको भगवन् ! स्कन्ध एजते, यांवत्-परिणमति ? गौतम! स्यात् एजते, यावत्-परिणमति; स्याद् नो एजते, यावद् मो परिणमति; स्याद् देश एजते, देशों न एजते. विप्रदेशिको भगवन् ! स्कन्धः एजते ? गौतम ! यदि एत्रते, स्याद् नो एजते, स्याद् देश एजते-नो देशः एजते, स्याद् देश एजते-नो देशा एजन्ते, स्माद् देशा एजन्ते-नो देश-एजते. चतुष्प्रदेशिको भगवन् ! सन्ध एजते ? गौतम । स्याद् एजते, स्याद् नो एजते, स्याद्-देश एजते-नो देश एजते, स्वाद देश एजते नो देशो एजन्ते, सा देशाः एजन्ते-नो देश'एजते, स्याद् देशा एजन्ते-नो देशा एजन्ते. यथा चतुष्पदेशिकत्तयां पञ्चप्रदेशिका, तथा यावत्-अमतप्रदेशिकः . २. परमाणुपुरलो(ला) भवन् । असिधारा पा, भुरधारा बाबगाहेत :-मनु. For Private & Personal use only . Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१५ ५. उ०--हता, ओगाहेजा. ५. उ०-हा, आश्रय करे. ६. प्र०--से णं भंते .! तस्य छिज्जेज्जा वा, भिज्जेज्जा वा? ६.प्र.” हे भगवन् ! ते धार उपर आश्रित परमाणु पुद्गल छेदाय, भेदाय ? ६. उ०--गोयमा ! णों तिणद्वे समढे, नो खलु तत्थ ६. उ०—हे गौतम! ते अर्थ समर्थ नथी-नकी, ते परमाणु सत्यं कमति, एवं जाव--असंखेजपएसिओ. पुद्गलमां, शस्त्र क्रमण करी शके नहि, ए प्रमाणे यावत्-असंख्य प्रदेशबाळा स्कंधो माटे समजी लेवू अर्थात् एक परमाणु या असंख्यप्रदेशवाळो स्कंध शस्त्रद्वारा छेदाय नहि तेम भेदाय नहि. ७. प्र०--अणंतपएसिए णं भंते! खंधे असिधारं वा, खुरधारं ७. प्र०-हे भगवन् ! अनंतप्रदेशवाळो स्कंध तरवारनी वा ओगाहेज? धारनो या सजायानी धारनो आश्रय करे? . ७..उ०--हंता, ओगाहेज्ज.. ७. उ०-हा, आश्रय करे. ८. प्र०--से णं तत्थ छिज्जेज वा, भिज्जेज वां ८. प्र०--ते तरवारनी या सजायानी धार उपर आश्रित अनंतप्रदेशवाळो स्कंध छेदाय, भेदाय ? ८. उं0--गोयमा। अत्थेगइए छिज्जेज बा, भिजेज वा% B ८. उ०-हे गौतम ! कोइ एक छेदाय अने भेदाय, तथा अत्यगइए नो छिज्जेज वा, नो भिज्जेज वा; एवं अगणिकायस्स कोइ एक न छेदाय अने न भेदाय. ए प्रमाणे परमाणु पुद्गलथी मझमझे, तहिं णवरं 'झियाएज' माणियवं, एवं पुक्खल- अनंत प्रदेशवाळा स्कंध सुधीना दरेक पुद्गलो परत्वे. अग्निमायनी संवास्स महामहस्स मज्झमझणं, ताहिं उल्ले सिया,' एवं वचोवच प्रवेश करे। ए प्रमाणेना प्रश्नोत्तरो क.खा, विशेष, ज्यां गंगाए महानईए पडिसोयं हव्वं आगच्छेज्जा, तहिं विणिहायं संभवे त्यां छेदाय, भेदाय ' ने बदले 'बळे ए प्रमाणे कहे. आवजेज्ज, उदगांवत्तं वा, उदगबिंदुं वा ओगाहेज्ज से णं तत्थ ए प्रमाणे 'पुष्करसंवर्त नामना मोटा मेघनी वचोवच प्रवेश 'परियावज्जेज्ज. करे' ए प्रमाणना प्रश्नोत्तरो करवा, ते स्थळे 'छेदाय, भेदाय' ने बदले ' भीनो थाय' एम कहे; ए प्रमाणे गंगा महानदीना प्रतिश्रोत-प्रवाह-मां, शीघ्र ते परमाणु पुद्गलादि आवे अने त्यां प्रतिस्खलन पामे' अने 'उदकावर्त या उदक बिंदु प्रत्ये प्रवेश करे अने ते (परमाण्वादिः) त्यां नाश. पामे',ए.संबंने प्रश्नोत्तरो करवा. २. पुद्गलाऽधिकारादेव इदं सूत्रवृन्दम्:-'परमाणु' इत्यादि. 'ओगाहेज' ति अवगाहेत आश्रयेत, छिद्येत द्विधाभावं यायात, 'भिद्यत' विदारणभावमात्रं यायात् . नो खलु तत्थ सत्थं कमति ' त्ति परमाणुत्वात् , अन्यथा परमाणुत्वमेव न ___ स्याद् इति, 'अत्थेगइए छिज्जज्ज 'त्ति तथाविधबादरपरिणामत्वात् , ' अत्थेगहए नो छिज्जेज्ज' ति सूक्ष्मपरिणामत्वात् , 'उल्ले सिय' त्ति आर्दो भवेत् , 'विणिहायं आवज्जेज्ज' त्ति प्रतिस्खलनम् आपद्यत, परियावज्जेज्ज' त्ति पर्यापद्यत विनश्येत्. २. पुद्गलनो अधिकार होवाथी ज आ [ 'परमाणु' इत्यादि ] सूत्रनो समूह कहे छे, ['ओगाहेज' ति] आश्रय करे. 'छियेत' एटले द्विधाभावने पामे-बे कटका थाय; - भिद्यत ! एटले.फक्त चीरा जेवू पडे. [ 'नो खलु तत्थ सत्थं कमति 'त्ति ] परमाणुपणाने लीधे नक्की प तेमां (परमाणुमा ) शस्त्र प्रवेश करी शके नहि, अन्यथा-जो परमाणुमां पण शस्त्र प्रवेश करे-तो ते परमाणु कहेवाय ज नहि. [ अत्थेगइए से. रिजेजति 1 तेवा प्रकारचें मोटुं परिणाम होबाथी केटलाक छेदाय अने [' अत्यगइए नो छि जेज' त्ति ] सूक्ष्म परिणाम होवाथी केटलाक न छेदाय, [' उल्ले सिय 'त्ति ] भीनो थाय. [ ' विणिहायमावजेज' त्ति ] प्रतिस्खलन पामे, [ ' परियावज्जेज ' ति ] विनाश पामे. णाम. . १. मूलच्छायाः-हन्त, अवगाहेत. तद् भगवन् ! तत्र छिद्येत वा, भिद्यत वा ? गौतम ! नाऽयम् अर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं कामति, एवं यावत्-असंख्येयप्रदेशिक:. अनन्तप्रदेशिको भगवन् ! स्कन्धः असिधारां वा, शुरधारा वा अवगाहेत? हन्त, अवगाहेत. तत् तत्र छिद्येत वा, 'मिद्यत वा? गौतम ! अरत्येकका छियेत वा, भिद्येत वा; अरत्येकको नो घिद्येत वा, नो भिद्येत वा; एवम् अग्निकायस्य मभ्यमध्यन, तत्र नवरम्ध्मायेत-भणितव्यम्,एवं पुष्कलसंवर्तवस्य महामेघस्य मध्यमध्येन, तत्राऽऽः स्यात्-एवं गङ्गायाः महानद्याः प्रतिस्रोतः शीघ्रम् आगच्छेत्, तत्र विनिघातम् सापयेतं, उदकाऽवत वा, उदकबिन्दु वा अवगाहेत तस्मात् तत्र पर्यापञ्चेतः-अनु. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ त. atreचन्द्र-जिनागमसंग्रहे ९. प्र० -- परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सअड्डे, समझे, सपएसे; उदाहु अणड्डे, अमज्झे, अपएसे ! परमाणुपुद्गलादिना विभागो. ९. उ०- - गोयमा ! अण्डे, अमज्झे, अपएसे; नो सअड्डे, नो समझे, नो सपएसे. १०. प्र० -- दुम्पएसिए णं भंते ! खंधे किं सअड्डे, समज्झे, सपएसे; उदाहु अणडे, अमज्झे, अपए से ! ११. प्र० - तिप्पएसिए णं भंते ! खंधे १०. उ०—- गोयमा ! सअड्डे, अमज्झें, सपएसे, णो अण्डे, जो समझे, जो अपर से. 'पुच्छा ! ११. उ०- गोयमा ! अणडे, समज्झे, सपएसे; नो सअड्डे, जो अमझे, णो अपएसे, जहा दुप्पएसिओ वहा जे समातें भांणियव्वा, जे विसमा ते जहा तिप्पएसिओ तहा भाणियव्वा १२. प्र० - संखेजपएसिए णं भते । किं खं सभंडे, पुच्छा ? १२. उ०- गोयमा ! सिय सअड्डे, अमज्झे, सपएसे; सिय अणड्डे, समज्झे, सपएसे; जहा संखेजपएसओ तहा असंखेजएसओ वि, अणतपएसओ वि. शतक ५. - उद्देशक ७. ९. प्र० - हे भगवन् ! शुं परमाणु पुद्गल, सार्ध - अर्ध सहित छे, मध्य सहित छे अने प्रदेश सहित छे के अर्ध रहित छे, मध्य रहित छे अने प्रदेश रहित के ? ९. उ०- हे गौतम ! परमाणु पुद्गल अन के अमध्य के अने अप्रदेश छे पण सार्ध नथी, समध्य नथी भने सप्रदेश नथी. १०. प्र०—हें भगवन् ! बे प्रदेशवाळों स्कंध, शुं सार्ध, समध्य अने सप्रदेश छे के अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश हैं ? १०. उ० - हे गौतम ! ते बे प्रदेशवाळो स्कंध, सार्ध छे, सप्रदेश अने मध्य रहित छे पण अनर्ध नथी, समध्य नथी अने अप्रदेश नथी. ११. प्र० - हे भगवन् ! त्रण प्रदेशवाळो स्कंध - ( ए विषे ) ए प्रमाणे प्रश्न करवो. ११. उ०- हे गौतम! ते त्रण प्रदेशवाळो स्कंध अनर्ध छे, समध्य छे अने सप्रदेश छे पण सार्ध नथी, अमध्य नधी अने अप्रदेश नथी. जेम, बे प्रदेशवाळा स्कंधने माटे सार्धादि विभाग दर्शाव्यो छे, तेम जेओ सम स्कंधो छे एटले समसंख्यावाळा - बेकी संख्यावाळा ( चार प्रदेशवाळा, आठ प्रदेशवाळा इत्यादि ) स्कंधो छे, तेने माटे जाणी लेवुं अने जेओ विषम स्कंधो छे- एकी संख्यावाळा ( पांच प्रदेशवाळा, सात प्रदेशवाळा इत्यादि ) स्कंधो छेतेने माटे, जेम ऋण प्रदेशवाळा स्कंध संबंधे कह्युं तेम जाणवुं. १२. प्र० - हे भगवन् ! संख्येयप्रदेशवाळो स्कंध शुं सार्व छे ? ( इत्यादि प्रश्न करवो. ] १२. उ०- हे गौतम! कदाच सार्ध होय, अमध्य होय अने सप्रदेश होय; कदाचं अनर्थ होय, समध्य होय अने सप्रदेश होय. जेम संख्येय प्रदेशवाळो स्कंध कह्यो तेम असंख्येय प्रदेशवाळो स्कंध भने अनंत प्रदेशवाळो स्कंध पण जाणी लेवो. ३. ' दुप्पएसिए' इत्यादि. यस्य स्कन्धस्य समाः प्रदेशाः स सार्घः, यस्य तु विषमाः स समभ्यः, संख्यैयप्रदेशिका दिस्तु स्कन्धः समप्रदेशिकः — इतरश्वः तत्र यः समप्रदेशिकः स सार्धोऽमेध्यः, इतरस्तु विपरीत इति. ३. [ ' दुप्पएसिए' इत्यादि. ] जे स्कंधना समसंख्यावाळा - बेकी संख्यावाळा-बे, चार छ, आठ, इत्यादि सख्यावाळा- प्रदेशो होय संख्या-अर्थ- ते स्कंध सार्ध- अर्ध सहित - कद्देवाय अने जे स्कंधना विषमसंख्यावाळा-एकी संख्यावाळा-त्रण, पांच, सात, इत्यादि संख्यावाळा- प्रदेश होय ते स्कंध समध्य-मध्यभाग सहित - कहेवाय. संख्येयप्रदेशवाळो, असंख्येयप्रदेशवाळो, अने अनंतप्रदेशवाळो स्कंध, समप्रदेशिक- समप्रदेशवाळो |संख्या-मध्य- अने विषमप्रदेशवाळो पण होय; तेमां जे समप्रदेशवाळो होय ते सार्ध छ अने अमध्य-मध्यरहित छे अने जे विषमप्रदेशवाळो होय ते समय छे त. अने अर्ध- अर्धभाग रहित छे. १. मूलच्छायाः - परमाणुपुङ्गलो भगवन् ! किं सार्धः, समध्यः, सप्रदेशः; उताहो अनर्धः, अमध्यः, अप्रदेशः ! गौतम ! अनर्धः, अमध्यः, अप्रदेशः; नो सार्धः, नो समध्यः, नो सप्रदेशः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः किं सार्धः, संमध्यः, सप्रदेशः; उतादो अनर्धः, अमध्यः, अप्रदेशः ! गौतम 1 'सार्धः, अमध्यः सप्रदेशः; नो अनर्घः, नो समध्यः, नो अप्रदेश: त्रिप्रदेशिको भगवन् ! स्कन्धः पृच्छा ? गौतम ! अनर्धः, समध्यः सप्रदेशः; नो सार्धः, नो अमध्यः, नो अप्रदेशः, यथा द्विप्रदेशिकस्तथा ये समास्ते भणितव्याः, ये विषमास्ते यथा त्रिप्रदेशिकस्तथा भणितव्याः. संख्येयप्रदेशिको शुगवन् ! स्कन्धः किं सार्थः, पृच्छा ? गौतम ! स्यात् स अर्धः, अमध्यः, समदेशः स्याद् अनर्धः, समध्यः, संप्रदेशः, यथा संख्येयप्रदेशिकस्तता संध्येय प्रदेशिकोऽपि, अनन्तप्रदेशिकोऽपिः लु० . Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१७ परमाणुपुद्गलादिनी परस्पर स्पर्शना. १३. प्र०-परमाणुपोग्गले गं भंते ! परमाणुपोग्गलं फुस- १३. प्र०-हे भगवन् ! परमाणु-पुद्गलने स्पर्श करतो माणे किं देसेणं देसं फुसइ १, देसेणं देसे फुसइ २, देसेणं सव्वं परमाणु पुद्गल, शु एक भागवडे एक भागनो स्पर्श करे १, एक कुसइ ३, देसेहि देसं फुसइ, ४ देसेहिं देसे फुसइ ५, देसेहिं भागवडे घणा भागोनो स्पर्श करे २, एक भागवडे सर्वनो स्पर्श -सव्वं फुसइ ६, सव्वेणं देसं फुसइ ७, सवेणं देसे फुसइ ८, करे ३, घणा भागो द्वारा एक देशने स्पर्शे १, धण। देशो द्वारा सव्यणं सव्वं फुसइ ९? घणा देशोने स्पर्शे ५, घगा देशोद्वारा सर्वने स्पर्श ६, सर्ववडे एक भागने स्पर्शे ७, सर्ववडे घणा भागोने स्पर्शे ८, के सर्वडे सर्वने स्पशै९? १३. उ०-गोयमा ! णो देसेणं देसं फुसइ, णो देसेणं १३. ३०-हे गौतम!.१ एक देशथी एक देशने न स्पर्श, देसे फसइ २. णो देसेणं सब्बं फुसइ ३. णो देसेहिं देसं फुसइ २ एक देशथी घणा देशोने न स्पर्शे, ३ एक देशथी सर्वने न ४. नो देसेहि देसे फुसह ५. नो देसेहिं सव्वं फुसइ ६. नो स्पर्श, ४ घणा देशोथी एकने, न परों, ५ घगा देशोथी घगा सव्वणं देसं फुसइ ७, णो सब्वेणं देसे फुसइ ८. सव्वेणं सव्वं देशोने न स्पर्श, ६ घणा देशोथी सर्वने न सर्रा, ७ सर्वथी एक फुसइ ९. एवं परमाणुपोग्गले दुप्पएसियं फुसमाणे सत्तम-णव- देशने न स्पर्श, ८ सर्वथी घगा दशोने न स्पर्श, ९ पण सर्वथी मेहिं फुसइ, परमाणुपोग्गले तिप्पएसियं फुसमाणे निपच्छिमएहिं सर्वने स्पर्श, ए प्रमाणे वे प्रदेशवाळा स्कंधने स्पर्शतो परमाणु-. तिहिं फुसई, जहा परमाणुपोग्गले तिप्पएसियं फुसाविओ एवं पुद्गल सातमा अने नवमा विकल्प वडे स्पर्शे एटले ७ सर्व वडे फुसावेअव्यो जाव-अणंतपएसिओ. एक भागने स्पर्शे यातो ९ सर्व वडे सर्वने स्पर्शे. बळी, त्रण प्रदेश वाळा स्कंधने स्पर्शतो परमाणु-पुद्गल छेल्ला त्रण-७ ना, ८ मा अने नवमा विकल्पवडे स्पर्शे एटले ७ सर्वथी एक देशने स्पर्श, ८ सर्वथी घणा भागोने स्पर्श अने ९ सर्वथी सबने स्पर्श. जे प्रकारे त्रण प्रदेशवाळा स्कंधने परमाणु पुद्गलनो स्पर्श कराव्यो ते प्रकारे चार प्रदेशवाळा, पांच प्रदेशवाळा यावत्-अनंत प्रदेशवाळा स्कंधनी साथे परमाणु-पुद्गलनो स्पर्श कराववो. .... १४. प्र०-दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे परमाणुपोग्गलं फुस- १४. प्र०- हे भगवन् ! परमाणुपुद्गलने स्पर्शतो बे प्रदेशमाणे पुच्छा ! वाळो स्कंध केवी रीते स्पर्शे ? ए प्रश्न करवो. १४. उ०-ततिय-नवमेहिं फुसइ, दुप्पएसिओ दुप्पएसियं १४. उ०-(हे गौतम ! ) त्रीजा अने नवमा विकल्प वडे फुसमाणो पढम-ततिय-सत्तम-नवमेहिं फुसइ, दुप्पएसिओ तिप्प- स्पर्श. एवी रीते बे प्रदेशवाळा स्कंधने स्पर्शतो द्विप्रदेशिकस्कंध एसियं फुसमाणो आइल्लएहि य, पच्छिलएहि य तिहिं फुसइ, प्रथम, तृतीय, सप्तम अने नवमा विकल्प वडे स्पर्शे; त्रण प्रदेशमज्झिमएहिं तिहिं विपडिसेहेयव्वं, दुप्पएसिओ जहा तिप्पएसियं वाळा स्कंधने स्पर्शतो द्विप्रदेशिकस्कंध पेला त्रण विकल्पो वडे फुसाविओ एवं फुसावेअव्यो जाव-अणंतपएसियं. अने छेल्ला त्रण विकल्पो वडे स्पर्श अने वचला त्रणे पण विकल्पो वडे प्रतिषेध करवो, जेम द्विप्रदेशिकस्कंधने त्रण प्रदेशवाळा स्कंधनी स्पर्शना करावी ए प्रमाणे चार प्रदेशवाळा, पांच प्रदेश वाळा यावत्-अनंत प्रदेशवाळा स्कंधनी स्पर्शना कराववी. १५. प्र०—तिपएसिए णं भंते । बंधे परमाणुपोग्गलं फुस- १५. प्र०—हे भगवन् ! परमाणुपुद्गलने स्पर्श करतो त्रण माणे पुच्छा। प्रदेशवाळो स्कंध केवी रीते स्पर्श ? ए प्रश्न करवो. १. मूलच्छायाः-परमाणु युद्गलो भगवन् । परमाणुपुद्गल स्पृतमानः किं देशेन देश स्पृशंति, देशेन देशान् स्पृशति, देशेन सर्व स्पृशति, देशः देशं स्पृशति, देशः देशान् स्पृशति, देशैः सर्व स्मृति; सर्वेण देश स्पृशति, सर्वेण देशान् स्पृशति, सर्वेण सर्व स्पृशति ? गौतम ! नो देशेन देश स्पृशति, नो देशेन देशान् स्पृशति, नो देशेन सर्व स्पृशति; नो देशैः देश स्पृशति, नो देशैः देश न् स्पृशति, नो देशैः सर्व स्पृशति; नो सर्वेण देशं स्पृशति, नो सर्वेण देशान् स्पृशति, सर्वेण सर्व स्पृशति; एवं परमाणुपुद्रलो द्विप्रदेशिक स्पृशमानः सप्तम-नवमाभ्यां शति, परमाणुपुद्गलो. त्रिप्रदेशिक स्पृशमानो निपश्चिमखिभिः शति, यथा परमाणुपुद्गलस्त्रिप्रदेशिक सर्शितः एवं सशयितव्यो यावत्-अनन्तप्रदेशिकः. द्विप्रदेशिको भगवन् ! स्कन्धः परमाणुपुद्गलं स्पृशमानः पृच्छा? तृतीय-नवमाभ्यां शति, विप्रदेशिको द्विप्रदेशिक :स्पृशमान:- प्रथम-तृतीय-सप्तम-नवमैः स्पृशति, द्विप्रदेशिकत्रिप्रदेशिकं स्पृशमानः आद्यैश्च, पश्चिमैश्च त्रिमिः स्पृशति. मध्यमैत्रिभिः विप्रतिषेधयितव्यम् , द्विप्रदेशिको यथा त्रिप्रदेशिकं स्पर्शितः, एवं स्पर्शयितव्यः, यावत्-अनन्तप्रदेशिकम्. त्रिप्रदेशिको भगवन् । स्कन्धः परमाणुपुलं स्पृशमानः पृच्छा:-अनु० Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक-५.-उद्देशकः ७. १५. उ0-तंतिय-छह-नवमेहि फुसइ, तिपएसिओ दुपए- १५. उ०-(हे गौतम!) त्रीजा, छहा अने नवमा विकल्प सियं फसमाणो पढमएणं, ततिएणं, चउत्थ-छह-सत्तम-नवमहिं वडे स्पर्श, द्विप्रदेशिकने स्पर्श करतो त्रिप्रदेशिकस्कंध, प्रथम फुसइ, तिपएसिओ तिपएसिअं फुसमाणो सव्वेसु वि ठाणेसु तृतीय, चतुर्थ, षष्ठ, सप्तम अने नवमा विकल्पो बड़े स्पर्श; फुसई. जहा तिपएसिओ तिपएसि अं फुसाविओ एवं तिप्पएसिओ त्रिप्रदेशिकने स्पर्श करतो त्रिप्रदेशिक स्कंध सर्व स्थानोमा - स्पर्श जाव-अणंतपएसिएणं संजोएयव्वो, जहा तिपएसिओ एवं जाव-. एटले नवे विकल्पवडे सपशे. जेम त्रिप्रदेशिकने त्रिप्रदेशिकनो स्पर्श अणंतपएसिओ भाणिअन्वो. कराव्यो ए प्रमाणे त्रिप्रदेशिकने चार प्रदेशिक, पांच प्रदेशिक यावत्-अनंत प्रदेशिक सुधीना बधा स्कंधो साथे संयोजवो अने जेम त्रिप्रदेशिक स्कंध परत्वे कडं तेम यावत्-अनंतप्रदेशिक सुधीना स्कंध परत्वे कहेवू. ४.: परमाणपोग्गले णं भंते!' इत्यादि, 'कि देसेणं देस' इत्यादयो नव विकल्पाः , तत्र देशेन स्वकीयेन, देशं तदीयं स्पृशति, देशेन इत्यनेन देशम् , देशान् , सर्वम् इत्येवंशब्दत्रयपरेण त्रयः. एवं देशैरित्यनेन देशम् , देशान् , सर्वम्-३1. सर्वेण इत्यनेन च त्रय एवेति. स्थापना-- १. देशेन देशम् . ४. देशैः देशम् . ७. सर्वेण देशम् . २. देशेन देशान् . ५. देशैः देशान् . ८. सर्वेण देशान् . ३. देशेन सर्वम् . ६. देशैः सर्वम् . ९. सर्वेण सर्वम् . अत्र च 'सर्वेण सर्वम् ' इत्येक एव घटते, परमाणोर्निरंशत्वेन शेषाणाम् असंभवात् , ननु यदि 'सर्वेण सर्व स्पृशति' इत्युच्यते तदा परमाण्वोः एकत्वाऽऽपत्तेः कथमपराऽपरपरमाणुयोगेन घटादिस्कन्धनिर्वृत्तिरिति ? अत्रोव्यते:- सर्वेण सर्व स्पृशति ' इति. कोऽर्थ: स्वात्मना तो अन्योऽन्यस्य लगतः, न पुनरर्धाद्यशेन-अर्द्धादिदेशस्य तयोरभावात् , घटाद्यभावाऽऽपत्तिस्तु तदैव प्रसज्यत यदा तयोरेकत्वा• 5ऽपत्तिः, न च तयोः सा, स्वरूपभेदात् . 'सत्तम-नवमेहिं फुसइ ' ति ' सर्वेण देशम् , ' ' सर्वेण सर्वम् । इत्येताम्याम् इत्यर्थः. तत्र यदा द्विप्रदेशिकः प्रदेशद्वयाऽवस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः । सर्वेण देशं स्पृशति,' परमाणोः तद्देशस्यैव विषयत्वात् , यदा तु द्विप्रदेशिकः परिणामसौम्याद एकप्रदेशस्थो भवति तदा तं परमाणुः ' सर्वेण सर्व स्पृशति ' इत्युच्यते. 'निपच्छिमएहिं तिहिं फसइ' ति त्रिप्रदेशिकम् असौ स्पृशंस्त्रिभिरन्त्यैः स्पृशति, तत्र यदा त्रिप्रदेशिकः प्रदेश त्रयस्थितो भवति तदा तस्य परमाणु:'सर्वेण देशं स्पृशति,' परमाणोस्तदेशस्यैव विषयत्वात् . यदा तु तस्यकत्र प्रदेशे द्वौ प्रदेशों, अन्यत्र एकोऽवस्थितः स्यात एकप्रदेशस्थितपरमाणुद्वयस्य परमाणोः स्पर्शविषयत्वेन 'सर्वेण देशौ स्पृशति' इत्युच्यते. ननु द्विप्रदेशिकेऽपि युक्तोऽयं विकल्पः, तत्राऽपि प्रदेशद्वयस्य स्पृश्यमानत्वात् ? नैवम् , यतस्तत्र द्विप्रदेशमात्र एवाऽवयवीति कस्य देशौ स्पृशति !, त्रिप्रदेशिके तु त्रयाऽपेक्षया द्वयस्य स्पर्शने एकोऽवशिप्यते, ततश्च ' सर्वेण देशौ ' त्रिप्रदेशिकस्य स्पृशती ते व्यपदेशः साधुः स्याद् इतिः यदा तु एकप्रदेशाऽवगाढोऽसौ तदा · सर्वेण सर्व स्पृशति ' इति स्यादिति. 'दुप्पएसिए णं' इत्यादि. 'तइय-नवमेहि फुसइ ' त्ति यदा द्विप्रदेशिको द्विप्रदेशस्थस्तदा परमाणुं 'देशेन सर्व स्पृशति' इति तृतीयः. यदा तु एकप्रदेशाऽयगाढोऽसौ तदा 'सर्वेण सर्वम्' इति नवमः, 'दुप्पएसिओ दुप्पएसियं' इत्यादि. यदा द्विप्रदेशिको प्रत्येक द्विप्रदेशावगाढौ तदा ' देशेन देशम् ' इति प्रथमः, यदा तु एकः एकत्र, अन्यस्तु द्वयोस्तदा देशेन सर्वम्' इति तृतीयः. तथा ' सर्वेण देशम् ' इति सप्तमः. नवमस्तु प्रतीत एवेति-अनया दिशाऽन्येऽपि व्याख्येया इति. वि.पो. ४. ['परमाणुपोग्गले णं भंते !' इत्यादि. ] [ किं देसेणं देस' इत्यादि-] नव विकल्पो छे, तेमां देशवडे एटले पोताना भागवडे, सेना-बीजा परमाणुना-देशनो स्पर्श करे. 'देशेन ' ए शब्द साथे 'देशम् , देशान् , अने सर्वम् ' ए त्रण शब्दो जोडवाथी त्रण विकल्प थाय, ए प्रकारे । देशैः ' ए शब्द साथे 'देशम् , देशान् , सर्वम् , एत्रण शब्दो जोडवाथी बीजा त्रण विकल्प थाय अने ' सर्वेण ' ए शब्द साथे देशम् , देशान् , सर्वम्, एत्रण शब्दो जोडयाथी अन्य प्रण विकल्प थाय, ए प्रकारे सर्व मळी नव विकल्प थाय. ते नव विकल्पो करवानी रीत आ प्रमाण छ:१. एक देश बीजा देशने. ४. अनेक देशो एक देशने. ७. आखो भाग एक देशने. २. एक देश बीजा देशोने. ५. अनेक देशो अनेक देशोने. ८. आखो भाग घणा देशोने. ३. एक देश आखा भागने. ६. अनेक देशो आखा भागने. ९. आखो भाग आखा भागने. १. मूलच्छायाः-तृतीय-षष्ठ-नवमैः स्पृशति, त्रिप्रदेशिको द्विप्रदेशिकं स्पृशमानः प्रथमेन, तृतीयेन, चतुर्थ-पष्ट-सप्तम-नवमैः स्पृशति, त्रिप्रदेशिकस्त्रिप्रदेशिंक स्पृशमानः सर्वेषु अपि स्थानेषु स्पृशति, यथा त्रिप्रदेशिकत्रिप्रदेशिकं स्पर्शित एवं विप्रदेशिको यावत्-अनन्तप्रदेशिकेन संयोजयितव्यः, यथा त्रिप्रदेशिकः एवं यावत्-अनन्तप्रदेशिको भणितव्यः-अनु० Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.उदेशक ७. भगवत्सु धर्मस्यापिप्रणीत भगवतीसूत्र. २१९ ते को , एक लो-नमो सर्वे सर्वम् ए एक विकल न घंटे के पत्र बीना विकल्यो घटता नही. कारण के, परमाणु, अंश -भाग- रहित छे माटे बाकीना विकल्पोनो परमाणुमा असंभव है. शं० -- जो कदाच 'सर्वेण सर्वम् एटले 'बया बड़े बवाने शंका. स्पर्श' ए विकल्प स्वीकारवामां आये तो वे परनाशुनी एकता थइ जाप छे, अने ते एकता धनाथी जुदा हुंदा परमाणुओना योगथी जे घट वगेरे स्कंधो बने छे ते केम बनशे ? समा० 'सर्वेग सर्वे स्मृति' ए विकचनो एवो अर्थ नयी के, वे परमाणुत्रो परस्सर मळी जाय, पण ते वे साधन. परमाणु परस्पर एक बीजानो स्पर्श पोते समस्त स्वात्मवडे करें, कारण के, परमाणुओनां अर्ध वगेरे विभाग नथी माटे ते परम णुओ अर्ध वगेरे भागवडे स्पर्शी शकता नथी. बळी, घटादि पदार्थता अभावती आपति तो त्यारे ज होइ शके यारे ते वे परमाणुओनी एकता थई जती होय, परंतु ते यंत्र परंमओना स्वरूपनी जुदाई होवाची मे बेनी एकता पती नवी अने ते होवाथी पूर्वोपचिनी[सम नवमेहिं फुसइ ' त्ति ] ७ ' सर्ववडे देशने ' अने ९ ' सर्ववडे सर्वने 'ए वे विकलवडे स्पर्शे छे. तेमां ज्यारे वे प्रदेशवाळो - स्कंध, आंकाशना द्विप्रदेशिक अने - वे प्रदेशनां रहेलो होय त्यारे परमाणु, ते स्कंधना देशने सर्ववडे - पोताना समस्त आलावडे - सर्वे छे (७). कारण के, परमाणुनो विषय, ते पा ना देशनोज आडनावे प्रदेशस्थितं द्विरदेशिक कंपना देने परमाणु स्पर्ती के के बने ज्यारे ते द्विपदेश स्कंध 2. " (७) ज्या i के अने विदेशि 1 परिमाणन सूक्ष्मताथी आकाशना एक प्रदेशमां स्थित होय त्यारे 'परमाणु, पोताना सर्वात्मवडे ते स्कंबनां सर्वात्मने अडे छे' (९ ) एं प्रमाणे छे.[निपन्छिम तिहिं कुसर चि ] प्रदेश कंपने स्पर्शतो परमाणु सदन ऐसा पत्र विकल अडे हे मां उपारे विदेशिने प्रदेशवाळो स्कंध आकाशना त्रण प्रदेशमां रहेंलो होय त्यारे परमाणु, पोताना सर्वात्मवडे तेना एक देशने अड़े छे, कारण के, परमाणुने तो प. माणु प्रकारे रहेला ने त्रिदेशिक स्कंधनादेशनेवासा धना मे प्रदेश एक करहेड़ा क्षेप अने बीजो एके प्रदेश अन्यत्र रहेलो होय त्यारे तो एक आकाश प्रदेशमा रहेला बे परमाणुने अडानुं सामर्थ्य एक परमाणु होवाथी "पोताना बधावडे बे देशीने अडे छे ' एम कहेवाय छे ( ८ ) . ० पोताना बवावडे बे देशोने अडे छे ? आ.विकेस जेम त्रिदेशिक स्कंधर्मा घटायो शंका. तेम से प्रदेशवाळा धमां परा घटदो लोइए, कारण के, त्या पण ते द्विदेशिक कंचना बन्ने प्रदेशोने ते परमाणु पोताना सर्ववडे आडे. छे. माटे "ते द्विदेशिक स्कंध केम दर्शाव्यो नथी समाते प्रमागे द्विपदेशिक कंपनां घटतुं नक्षी. कारण के, त्यां द्विप्रदेशिक स्कंध पोते जसमधान अवयवी छे पण कोइनो अंश नथी माटे एम केन हेवाय के बचाव वे देशोने तो देशी अपेक्षा नो स्पर्श करतां एक प्रदेश बाकी रहे छे अर्थात् तेना जे वे परमाणु- एक आकाश प्रदेशमां रहेला हे ते बन्ने, जुदा आकाश प्रदेशमां रहेंल तेना एक परमाणुना बे अंशो - देशो-छे, अने एक परमाणु ते बे देशोने अंडे ले माटे 'सर्ववडे बे देशोने अडे छे' ए प्रकारनो व्यपदेश-कहे बुं-संगत छे. उयारे ए पिपदेशिक स्कंप, आकाशना एक प्रदेशमां स्थित होय त्यारे तो (९) आत्मबडे सममाने बड़े ए मनोवि कहेवाय. [ ' दुप्पएसिए णं' इत्यादि. ] [' तश्य - नवमे हिं, फुंसइ ' त्ति ] ज्यारे द्विप्रदेशिक स्कंध, आकाशना वे प्रदेशमा रहेलो होय, त्यारे .. पोताना एक देशवडे. परमाणुना सर्वात्मने स्पर्श करे छे, माटे त्यां' एक भागवडे सर्वने अडे छे' ए बीजो विकल्प लागे अने ज्यारे ते द्विप्रदेशिक परमाणु अने द्विप्रस्कंध, आकाशमा एक प्रदेशमां विंत दोष वारे पोताना सर्वालवंडे परमाणुना सर्वालने अंडे, माटे सर्व नवम देशिक. विवस लगे. [प्पएसओ दुप्पएसियं इत्यादि. ] उपाने] वने द्विपदेशिक सांचो पांश स्थित रेशम परस्पर एक मागवडे एक माने अडे, माटे एक देश एक देशने अडे हे ए प्रथम विकल्प लागे, अने ज्यारे एक द्विप्रदेशिक दिपदेशिक, स्कंध, एक आकाश प्रदेशमां स्थित होय अने बीजो द्विप्रदेशिक स्कंध, बे आकाश प्रदेशमां होय त्यारे 'एक देशवडे सर्वने अडे छे ' ए चीजो भंग खाने के कारण के, वे आकाश प्रदेशमां स्थित द्विदेशिक संच पोताना एक भागवडे एक आकाश प्रदेशमा रहेला प्रदेशिक स्कंधना खर्च मागोने स्पर्शी के छे. तथा सर्व देश आडे सातमो विकल्प जाणो कारण के, एक आकाश प्रदेशनां स्थित द्विदेशिक बंध पोताना सर्वात्मवडे बे आकाश प्रदेशमां स्थित द्विप्रदेशिक स्कंधना एक देशने अडे छे. नवमो विकल्प तो प्रतीतः सुस्पष्ट - जेछे आ दिशावडे आ प्रकारे जाओ पण यान 1 " 6 , , परमाणुपुद्गलादिनी संस्थिति. १६. प्र० -- परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालओ केवचिरं हो १६.३० - गोवमा ! जो एवं समयं उकोसेणं अ संखेज्जं कालं, एवं जाव - अनंतपएसओ, १७. प्र० - एगपएसोगाढे णं भंते । पोग्गले सेए तम्मि अमिया ठाणे काओ केचिरं होई १६. प्र० - हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल, काळथी क्यां सुधी रहे? १६. हे गौतम! परमाणुपुछ, ओ ओ एक . समय सुधी रहे अने वधारेगा वधारे असंख्य काल भी रहे ए प्रमाणे यावत् अनंतप्रदेशिक सुधीना स्कंध गाटे समजी लेवु. १७. प्र० - हे भगवन् ! एक आकाश प्रदेशमां स्थित पुद्गल, होय ते स्थाने अथवा बीजे स्थाने काळथी क्यां सुधी सकंप रहे १. मूलच्छायाः - परम णुपुद्गलो भगवन् । कालतः कियचिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कृष्टेन असंख्येयं कालम् एवं यावत्अनन्तप्रदेशिक एकप्रदेशाला भवनमा खाने, अम्यमित्रांने मिचभवतः अनु० / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० १७. उ० गोषमा । जहोणं एवं समयं उफोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं, एवं जाव- असंखेज्जपएसो गाढे. अविचन्द्र-जिनागमसंग्रहे १८. प्र० एमएएसोगाडे णं भंते ! पोग्गले निरेए कालओ केवचिरं होइ ? १८. उ० – गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, एवं जाय- असंखेबपएसोगाडे. १९. १० एगगुणकाल मे मंते पोग्गले फालओ केमाचिरं होइ ? - १९. उ० – गोषमा ! जहणणं एवं समयं उकोसेणं असेका एवं अनंतगुणकाल एवं वण्ण-गंध-रस-फार्स जाय अनंतगुण एवं सुहुमपरिणए पोग्गले, एवं बादरय रिणए पोग्गले. २०. प्र० - सदपरिणए णं भंते ! पांगले कालओ केवाश्चिरं डोड ५.देशक ७. १७. उ० गीतम | जयम्यथी एक समय सुधी अने बधारेमा वधारे आवलिकाना असंख्य भाग सुची कंप रहे, ९ प्रमाणे यावत् आकाशना असंख्येय प्रदेशमां स्थित पुद्रछ माटे पण जाणनं. २०. उ० – गोयमा ! जहणणं एवं समयं उहोसेणं आवलियाए असंखेजड़भागं; असद्दपरिणए जहा एगगुणक'लए. १८. प्र० - हे भगवन् ! एक आकाश प्रदेशमां अवगाढ पुल काळी क्यों सुधी निष्कंप रहे.. १८. उ०- हे गौतम! जघन्य एक समय अने 'बचारेगी वधारे असंख्येय काळ सुधी निष्कंप रहे, ए प्रमाणे यावत् असंख्येय प्रदेशावगाढ पुद्गल माटे पण जाणवु. १९. ० हे भगवन् द्र एकगणुं काळं काळी सुधी रहे ? १९.४० हे गीतम । जयधी एक समय सुची अन बारेमा वधारे असंख्य काळ सुधी रहे ए प्रमाणे यावत् अनंत गुण काळा पुल माटे जाणवु ए प्रमाणे वर्ण, गंध, रस अने स्प यावत् अनंतगुण रूक्ष पुद्गल माटे जाणवुं, ए प्रमाणे सूक्ष्मपरिणत पुल माटे अने बादरपरिणत पुल माटे जान २०. प्र० -- हे भगवन् ! शब्दपरिणत पुद्गल, काळथी क्यां सुधी रहे ? २०. उ०- हे गौतम! ओछामा ओलुं एक समय सुधी अने वधारेमा वधारे आवलिकाना असंख्येय भाग सुधी रहेअशब्दपरिणत पुद्गल, जेम एकगुण काळु पुद्गल कयुं, तेम समजवुं " , • 6 ५. पुत्राऽधिकारादेव पुगलानां द्रव्य क्षेत्र-भावान् काठतश्चिन्तयति तत्र परमाणु' इत्यादि द्रव्यचिन्ता, ' उक्कोसेणं असंखेवं कालं ति असंश्येपकालात् परतः पुखानाम् एकरूपेण स्थियभावात् ' एगपएसोगाडे णं इत्यादि क्षेत्रचिन्ताए सिसेजः सकम्पः तम्मि या ठाणे ति अधिकृत एवं अचम्मि पति अधिकृत अन्यत्र उकोसेणं आवलियाए ' ' त्ति असंखेभागं ति पुलानामाऽऽकस्मिकाचायनस्य न निरेजत्वादीनामिव असंख्येयकालत्वम् प्रदेशाऽत्रगाढस्य असंभवाद् असंख्यात प्रदेशावगाढ इत्युक्तम् ' निरेए ' त्ति निरेजो निष्प्रकम्पः. " अपएसोचि अनन्त काळनी दृष्टिय पुल, " " ५. पुनो अधिकार होवाथी ज पुद्रलोनां द्रव्य क्षेत्र अने भावाने काळनी दृष्टिवी चिंतये छे, तेमां [ परमाणु ] इत्यादि इव्यनी चिंता है. उसे असंखे का त] असंख्य काळ सुची. कारण के, असंख्य काळ पछी पुइलोगी एकरूपे स्थिति भी रहेती. [एगपएसोनाडे ] इत्यादि क्षेत्रनो विचार छे. [सेए ति ] [रूप सहित [ सन्मि या ठाणे ति] आकृत स्थानमा जे खानमां होप त्यां [ अन्नमिवति] अधिकृत स्थानची बीजे स्थाने. [ उडोसे आयलियाए असंखेाभागं ति] पुइलो आवक होवाथी निष्कंपत्वादिनी पेठे कंपननो - चलननो - असंख्यय काळ होतो नथी. [' असंखेजापएसोगाढे ' त्ति ] कोइ पण पुद्गल अनंत प्रदेशावगाढ निष्कंप न होवाथी' असंख्यात प्रदेशावगाढ' एम कधुं छे. [' निरेए ' त्ति ] निष्प्रकंप कंप विनानुं. 6 , १. मूलच्छायाःतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेन आवलिकायाः असंख्येयभागम् एवं यावत् - असंख्येय प्रदेशाऽवगाढः एकप्रदे वगाढो भगवन् ! पुद्गलो निरेजः कालतः कियचिरं भवति ? गौतम । जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेनाऽसंख्येयं कालम्, एवं यावत् - असंख्येयेप्रद शावगाढः एकगुणकालको भगवन् ! पुद्गलः कालतः कियचिरे भवति ? गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कृष्टेनाऽसंख्येयं कालम् ; एवं एवं बाइपरिणतः पुनः परितो अपमानम् अवा यावत् अनन्तगुणाः एवं वन्ध-रस-स्पर्शमा _भवन पुनः कालः कियचिरं भवति ? गौतम एकगुणकासकः - भवु० अनन्तगुणः एवं सूक्ष्मपरिणत पुल जपन्येन एक समय आपका : Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ७. .. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. परमाणुपुद्गलादि अने अंतरकाल. २१. प्र०-परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! अंतरं कालओ २१. प्र०--हे भगवन् ! परमाणुपुद्गलने काळथी केटलं लांबुं केवचिरं होइ ? अंतर होय एटले के जे पुद्गल, परमाणु रूपे छे ते परमाणुपणुं त्यजी स्कंधादि रूप परिणमे अने पार्छ तेने परमाणुपणुं प्राप्त करतां काळथी केटलं लांचं अंतर होय ? | २१. उ०-गोयमा । जहणेणं एगं समय, उक्कोसेणं २१. उ०-हे गौतम ! ओछामा ओछु एक समय अंतर असंखेनं कालं. अने बधारेमा बधारे असंख्येय काळ सुधी- अंतर छे. अर्थात् परमाणुरूप पुद्गलने परमाणुपणुं छोडी फरीवार परमाणुपणुं प्राप्त करता ओछामा ओछो एक समय अने वधारेमां वधारे असंख्येय काळ लागे छे. २२. प्र०-दुप्पएसियस्स णं भंते ! खंधस्स अंतरं कालओ २२. प्र०- हे भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कंधने काळथी केटलं केवचिरं होइ ? लांबु अंतर होय ?. २२. उ०-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसणं २२. उ०-हे गौतम! जघन्य एक समय. अने. उत्कृष्टथी अणंतं कालं, एवं जाव-अणंतपएसिओ. अनंत काळजें अंतर छे, ए प्रमाणे यावत् अनंत प्रदेशिकस्कंध सुधी जाणी लेवु. २३. प्र०-एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स सेयस्स २३. प्र०-हे भगवन् ! एक प्रदेशमा स्थित सकंप पुद्गलने अंतरं कालओ केवञ्चिरं होड़ ! काळथी केटलं लांबुं अंतर होय एटले एक प्रदेशमा स्थित सकंप पुद्गल पोतानुं कंपन पडतुं मेले तो तेने फरीथी कंपन करता केटलो काळ लागे! . २३. 30-गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अ- २३. उ०-हे गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी संखेज कालं; एवं जाव-असंखेजपएसोगाढे. असंख्यकाळ सुधीनुं अंतर होय अर्थात् ते पुद्गल ज्यारे पोताना कंपथी अटके अने फरीथी कंप, शरु करे तेटलामा ओछामां ओछो एक समय अने वधारेमां वधारे असंख्य काळ लागे, ए प्रमाणे यावत् असंख्यप्रदेशस्थित स्कंधो माटे पण समजी लेवु. २४. प्र०--एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स निरेयस्स २४. प्र०--हे भगवन् ! एक प्रदेशमा स्थित निष्कंप पुद्गलने 'अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? काळथी केटल लांचं अंतर होय अर्थात् - एक निष्कंप पुद्गल पोतानी निष्कंपता छोडी दे अने तेने फरीथी निष्कंपता प्राप्त करवामां केटलो काळ लागे !. २४. उ०--गोयमा । जहणं एगं समयं, उक्कोसेणं आ- २४. उ०-हे गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी पलियाए असंखेजहभाग; एवं जाव-असंखेजपएसोगाडे, वन- आवलिकानो असंख्येय भाग, ए प्रमाणे यावत् असंख्य प्रदेश गंध-रस-फास-सुहमपरिणय-बायरपरिणयाणं-एतेसिं जं चेव संचि- स्थित स्कंधो माटे पण समजी लेबु. वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, हणा तं चेव अंतरं पि भाणियव्वं. सूक्ष्मपरिणत अने बादरपरिणतोने माटे जे तेओनो संचिट्ठणा - स्थिति-काळ कह्यो छे ते ज अंतर काळ छे, एम कहे. २५. प्र०--सहपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं २५. प्र०-हे भगवन् ! शब्दपरिणत पुद्गलने काळथी केटलं कालओ केवञ्चिरं होइ ? __ लांबं अंतर होय. १. मूलच्छायाः-परमाणुपुद्गलस्य भगवन् !, अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन एक समयम् , उत्कृष्टेनाऽसंख्येयं कालम् . द्विप्रदेशिकस्य भगवन् ! स्कन्धस्याऽन्तरं कालतः कियच्चिरे भवति ? गीतम! जयन्येन एक समयम् , उत्कृटेनाऽनन्तं कालम् , एवं यावत्-अनम्तप्रदेशिकः, एकप्रदेशावगाढस्य भगवन् ! पुर्लस्य सैजस्याऽन्तर कालतः कियच्चिरे भवति ! गौतम! जघन्येन एक समयम् , उ:कृष्टेनाऽसंख्येय कालम् । एवं.यावत्-असंख्येयप्रदेशावगांढः. एकप्रदेशावगाढस्य भगवन् ! पुलस्य निरेजस्याऽन्तर कालतः कियच्चिरं भवति ! गौतम ! जवम्येन एक समयम् , उत्कृष्टेनाऽऽवलिकाया असंख्येयभागम् ; एवं यावत्-असंख्येयप्रदेशावगाढः, वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-सूक्ष्मपरिणत-बादरपरिणतानाम्-एतेषां यच्चैव संस्थानं तच्चवाऽन्तरमपि भणितव्यम् . शब्दपरिणतस्य भगवन् ! पुलस्याऽन्तर कालतः कियचिरं भवति :-अनु० Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२२:३ २५. उ० – गोयमा ! जहन्त्रेणं एवं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे २६. प्र० - असदपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? २६. उ०- गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं आव.लियाए असंखेज्जइभागं. २७. प्र० - एयस्त णं भते ! दव्वद्वाणाउयस्स, खेतट्टाणाउस्स, ओगाहणद्वाणाउयस्स, भावद्वागाउयस्स कयरे कयरे जाब-विसेसाहिया ? २७. उ० – गोयमा ! सम्वत्थोवे खेत्तद्वाणाउये, ओगाहणवाणाउए असंखेज्जगुणे, दध्वद्वाणाउंएं असंखेज्जगुणे, भावद्वाणाउए असंखे जगुणे. -खे त्तोगाहणदव्वे, भावद्वाणाउयं च अप्प बहु, खेते सव्वत्थोवे, सेसा ठाणा. असंखेज़गुणा. शतक ५०–उद्देशक ७. २५.. उ०- हे गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी असंख्य काळ अंतर होय एटले जे पुद्गल शब्दरूपे परिणम्यं होय, पार्छु फ़रीवार तेने शब्दरूपे परिणमवामां ओछामां ओछु एक समय अने वधारेमां बधारे असंख्य काळ जोइए.. 66 २६. प्र० - हे भगवन् ! अशब्दपरिणत पुद्गलने काळधी केट लांब अंतर होय ? २६. उ० – हे गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी आवलिकानो असंख्येय भाग अंतर होय एटले अशब्दपरित पुगउने पोतानो अशब्दपरिणतपणानो स्वभाव मूकी पालुं तेज स्वभावमां आवतां ओछामां ओलुं एक समय अने वधारेमा वधारे आवलिकानो असंख्येय भाग काळ लगे. २७. प्र० - - हे भगवन् ! ए. द्रव्यस्थानायु क्षेत्रस्थ नायु, अवगाहनास्थानायु अने भास्थानायु ए बधामां कयुं कौन थी यावत् विशेषाधिक छे ? २७. उ० -- हे गौतमं ! सर्वथी थोडुं क्षेत्रस्थानायु छे, ते करतां असंख्यगुण अवगाहनास्थानायु छे, ते करता असंख्यगुण व्यस्थानायु छे अने ते करतां भावस्थानायु असंख्यगुण छे. ६. ‘ परमाणुपोग्गलस्स ' इत्यादि. परमाणोरपगते परमाणुत्वे यदपरमाणुलेन वर्तनम् अ (आ) परमाणुत्त्रपरिणतेः तदन्तरम् - स्कन्द्रसंबन्धकालः, स च उत्कर्षतोऽसंख्यात इति द्विपदेशिकस्य तु शेपस्कन्धसंबन्धकारः परमाणुकालश्च अन्तरकाल :- सच तेषामनन्तत्वात्, प्रत्येकं चोत्कर्षतोऽसंख्येयस्थितिकत्वाद् अनन्तः तथा यो निरेजस्य कालः स सैजत्य अन्तरमिति कृत्वा उक्त सैजस्याऽन्तरमुत्कर्पतोऽसंख्यातः काल इति यस्तु सैजस्य कालः स निरोजस्य अन्तरम् इति कृत्वोक्तं निरेजस्याऽन्तरमुत्कर्पत आवलिकाया असंख्यातो भाग इति, एकगुणकालकत्वादीनां चान्तरम् एव गुणकाल ( त्वादिकाल ) सम्मानमेव न पुनर्द्विगुणकालत्वादीनाम् अनन्तत्वेन तदन्तरस्य अनन्तत्वम् - वचनप्रामाण्यात् सूक्ष्मादिपरिणतानां तु अवसानतुल्यमे वाऽन्तरम्, यतो यदेव एकस्यावस्थानं तदेवाऽन्यस्याऽन्तरम् तच्च असंख्येयकालमानमिति सद्द इत्यादि तु सूत्रसिद्धम् 'एयस्प णं भंते! दव्वद्वाणाउयस्स. नि द्रव्यं पुद्गलद्रव्यम्, तस्य स्थानं भेदः - परमाणु - द्विप्रदेशिकादि, तस्य आयुः स्थितिः, अथवा द्रव्यस्याणुत्वादिभावेन यत् स्थानम् अवस्थानम्, तद्रूपमायुर्दव्यस्थानायुस्तस्य ' खेत्तठाणाउयरस त्ति क्षेत्रस्य आकाशस्य स्थानं भेदः पुद्गलावगाहकृतः, तस्य आयुः स्थितिः, अथवा क्षेत्रे एकप्रदेशादौ स्थानम् - यंत् पुद्गलानाम् अवस्थानम् - तद्रूपमायु: क्षेत्रस्थानायु::. एवम् अवगाहनास्थानायुः, भावस्थानायुश्च, नेवरम्:- अवगाहना नियत परिमाणक्षेत्राऽवगाहित्वं पुद्गलानाम् भावस्तु कालत्वादिः ननु क्षेत्रस्य, अवगाहनायाश्च को भेदः ? उच्यते - क्षेत्रमवगाढमेत्र, अवगाहना तु विवक्षितक्षत्राद् अन्यत्राऽपि पुद्गलानां तत्परिमाणाऽवगाहित्यम् इति ' कयरे' इत्यादि कण्ठ्यम्, एषां च परपरेणाऽल्प- बहुत्वव्याख्या गाथानुसारेण कार्या, ताश्च इमाः -- क्षेत्र, अवगाहना, द्रव्य अने भावस्थानायुनुं अल्प बहुत कहेनुं, तेमां क्षेत्रस्थानायु सर्वधी अल्प छे अनें 'बाकीनां स्थानो असंख्येयगुणां छे. खेतोगाहर्णदव्वे भावठाणाउ अप्प - बहुयत्ते, थोत्रा असंखगुणिया तिन्नि य सेसा कहं नेया ? खेत्ता मुत्तत्ताओ. तेण समं बंधपच्चयाभावा, तो मोग्गलाण थोवो खेत्तावद्वाणकालो ओ.. " १. मूलच्छायाः - गौतम । जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेनाऽसंख्येयं कालम् अशब्दपरिणतस्य भगवन् ! पुद्गलस्याऽन्तरं कालतः क्रियच्चिरं - भवति ? गौतम ? जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेनाऽऽालिकाया असंख्येयभागम् एतस्य गगनू । द्रव्यस्थानायुष्कस्य, क्षेत्रस्थानाऽऽयुष्कस्य, अवगाहनास्थानाऽऽयुष्कस्य, भावस्यानाऽऽयुष्कस्य, कतरः कतरो यावत् विशेाचिकः ? गौतम | सर्वतोः क्षेत्रस्थानायुकः, अवगाहनास्थान युकोऽसंख्येयगुणः, द्रव्यस्थानाऽऽयुष्कोऽसंख्येयगुणः, भावस्थानाऽऽयुष्कोऽसंख्येयगुणः. क्षेत्रा ऽगाहना- द्रव्यम्, भावस्थानाऽऽयुष्कं च अल्प बहु क्षेत्रं सर्वस्तोकम् शेषाणि स्थानानि असंख्येयगुणानिः - अनु० १. प्र० छो० - क्षेत्रा - बंगाने - द्रव्ये -भावस्थानायुरल्पबहुत्वे, स्तोका असंख्य गुणितास्त्रीणि च शेषाः कथं नेयाः ? क्षेत्रामूर्तत्वात् तेन समं पन्धप्रत्ययाभावात्, ततः- धुलाबां' स्तोकः क्षेत्रावस्थानकालस्तुः -- अनु० Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ शतक ५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. अयमर्थ:-क्षेत्रस्य अमूर्तत्वेन क्षेत्रण सह पुद्गलानां विशिष्टबन्धप्रत्ययस्य स्नेहादेरभावाद नैकत्र ते चिरं तिष्ठन्ति इति शेषः, यस्मादं एवं तत इत्यादि व्यक्तम् . अथाऽवगाहनायुर्बहुवं भाव्यो:-- "अणखेत्तगयस्स वि तं चिय माणे चिरं पि संधरइ, ओगाहणानासे पुण खेत्तन्नत्तं फुडं होइ." इह पूर्वाऽर्धन क्षेत्राद्धाया अधिका अवगाहनाद्धा इत्युक्तम्. उत्तरार्धेन तु अवगाहनादातो नाऽधिका क्षेत्राद्धा-इति. कथम् एतदेवम् ! इत्युच्यतेः " ओगाहणीवबद्धा खेत्तद्धा आकियाऽवबद्धा य, न उ ओगाहणकालो खेत्तद्धामेत्तसंबद्धो." अवगाहनायाम्-अगमनक्रियायां च नियता क्षेत्राद्धा-विवक्षित-अवगाहनासद्भाव एव, अक्रियासद्भाव एव च तस्या भावात्उक्तव्यतिरेके च अभावात्-अवगाहनाद्धा न क्षेत्रमात्रे नियता, क्षेत्राद्धाया अभावेऽपि तस्या भावादिति. अथ निगमनम्:-- ___“जम्हा तत्थ-ऽग्णत्थ य स चिय ओगाहणा भवे खेत्ते, तम्हा खेत्तद्धाओ-वगाहणद्धा असंखगुणा." अथ द्रव्याऽऽयुर्बहुत्वं भाव्यतेः-- “संकोच-विकोएण व उवरमियाए वगाहणाए वि, तत्तियमेत्ताणं चिय चिरं पि दव्वाणऽवत्थाणं." संकोचेन, विकोचेन चोपरतायाम् अपि अवगाहनायां यावन्ति द्रव्याणि पूर्वमासन् तावतामेव चिरमपि तेषाम् अवस्थानं संभवति, अनेनाऽवगाहनानिवृत्तौ अपि द्रव्यं न निवर्तते इत्युक्तम्. अथ द्रव्यनिवृत्तिविशेषेऽवगाहना निवर्तते एव इत्युच्यतेः-- " संघाय-भेयओ वा दव्वोवरमे पुणाइ संखित्ते, नियमा तद्दव्वोगाहणाए नासो न संदेहो.". संघातेन, पुद्गलानां भेदेन वा तेषामेव यः संक्षिप्तः-स्तोकावगाहनः स्कन्धः-नतु प्राक्तनाऽवगाहनः, तत्र यो द्रव्योपरमो द्रव्याऽन्यथात्वम् , तत्र सति न च संघातेन न संक्षिप्तः स्कन्धो भवति, तत्र सति सूक्ष्मतरत्वेनाऽपि तत्परिणते:-श्रवणात्-नियमात् तेषां व्याणाम् अवगाहनाया नाशो भवति, कस्माद् एवम् ? इत्यत उच्यते:-- “ओगा हद्धा दवे संकोय-विकोयओ य अवबद्धा, न उ दव्वं संकोयण-विकोयण-मित्तम्मि संबद्धं." अवगाहनाद्धा द्रव्येऽवबद्धा नियतत्वेन संबद्धा, कथम् ? संकोचाद् विकोचाच-संकोचादि परिहृत्य इत्यर्थः. अवगाहना हि द्रव्ये संकोच-विकोचयोरभावे सति भवति, तत्सद्भावे च न भवति; इत्येवं द्रव्ये अवगाहना अनियतत्वेन संबद्धा इत्युच्यते 'द्रुमः खदिरत्वम् इव' इति. उक्तविपर्ययमाह-न पुनद्रव्यं संकोचन-विकोचनमात्रे सत्यप्यवगाहनायां नियतत्वेन संबद्धम् , संकोचन-विकोचाभ्याम् अवगाहनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निवर्तते इत्यवगाहनायां तन्नियतत्वेनाऽसंबद्धम् इत्युच्यते, खदिरत्वे दुमत्ववत् ' इति. अथ निगमनम्:-- " जम्ही तत्यण्णत्थ व दव्वं ओगाहणाए तं चेव, दव्वद्धाऽ संखगुणा तम्हा ओगाहणद्धाओ." अथ भावायुर्बहुत्वं भाव्यतेः-- “संघार्य-भेयओ वा दव्योवरमे वि पज्जवा संति, तं कसिणगुणविरामे पुणाइ दव्वं न ओगाहो." संघातादिना द्रव्योपरमेऽपि पर्यवाः सन्ति, यथा घृ (म)ष्टपटे शुक्लादिगुणाः-सकलगुणोपरमे तु न तद् द्रव्यम् , न चावगाहनाऽनुवर्ततेअनेन पर्यवाणां चिरं स्थानम् , द्रव्यस्य तु अचिरम् इत्युक्तम् . अथ कस्मादेवम् ! इत्युच्यतेः-- “संघार्य-भेय-बंधाणुवत्तिणी निचमेव दवद्धा, न गुणकालो - संघाय-भेयमेतद्धसंबद्धो." संघात-भेदलक्षणाभ्यां धर्माभ्यां यो बन्धः संबन्धः, तदनुवर्तिनी तदनुसारिणी, संघाताद्यभाव एव द्रव्याद्धायाः सद्भावात् , तद्भावे चाऽभावाद्, न पुनर्गुणकालः संघात-भेदमात्रकालसंबद्धः, संघातादिभावेऽपि गुणानामनुवर्तनाद् इति. अथ निगमनम्: " जम्हा तत्थ-ऽण्णत्थ य दव्वे खेत्तावगाहणासु च, ते चेव पज्जवा संति तो तदद्धा असंखगुणा." " आह अणेगंतोऽयं दव्वोवरमे गुणाणऽवत्थाणं, गुणविप्परिणामम्मि य दव्वविसेसो य णेगतो." १. प्र. छा:-अन्यक्षेत्रगतस्यापि तदेव मानं चिरमपि संधरति, अवगाहनानाशे पुनः क्षेत्रान्यत्वं स्फुटं भवति. २. अवगाहनावबद्धा क्षेत्राद्धा अक्रियावबद्धा च, न तु अवगाहनकालः क्षेत्राद्धामात्रसंबद्धः, ३. यस्मात् तत्राऽन्यत्र च सा एव अवगाहना भवेत् क्षेत्रे, तस्मात् क्षेत्राद्धातोऽवगाहनाद्धा असंख्यगुणा. ४. संकोच-विकोचेन वा उपरतायाम् अवगाहनायामपि, तावन्मात्राणामेव चिरमसि द्रव्याणामवस्थानम् . ५. संघात-मेदतो वा द्रव्योपरमे पुनः संक्षिप्ते, नियमात् तद्न्यावगाहनाया नाशो न संदेहः. ६. अवगाहनाद्धा द्रव्ये संकोच-विकोचतश्च अवबद्धा, न तु द्रव्यं संकोचन-विकोचनमात्रे संबद्धम्. ७. यस्मात् तत्रान्यत्र वा द्रव्यम् अवगाहनायां तच्चैव, द्रव्याद्धाऽसंख्यगुणा तस्मादू अवगाह नाद्धातः. ८. संघात-भेदतो वा द्रव्योपरमेऽपि पर्यवाः सन्ति, तत् कृत्स्नगुणविरामे पुनद्रव्यं न अवगाहः. ९. संघात-भेद-वन्धानुवर्तिनी नित्यमेव द्रध्याद्धा, न गुणकालः संघात-भेदमात्राद्धसंबदः, १०. यस्मात् तत्र अन्यत्र च द्रव्ये क्षेत्रावगाहनासु च, ते एव पर्यवाः सन्ति ततस्तदद्धा असंख्य गुणा. आह अनेकान्तोऽयं द्रव्योपरमे गुणानामवस्थानम्, गुणविपरिणामे च द्रव्यविशेषश्च नैकान्तः-अनु० Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह • शतक ५.-उद्देशक ७. द्रव्यविशेषो द्रव्यविपरिणामः. “विप्परिणयम्मि दव्वे कम्मि गुणपरिणई भवे जुगवं, काम्म वि पुण तदवत्थे वि होइ गुणविपरीणामो. भन्नइ सचं किं पुण गुणवाहल्ला न सव्वगुणनासो, दव्वस्स तदण्णत्ते वि बहुतराणं गुणाण ठिइ" त्ति. ६. 'परमाणुपोग्गलरस इत्यादि. ] ज्यारे परमाणुगें परमाणुपणुं चाल्युं जाय त्यारथी मांडीने फरीवार परमाणुपणे परिणमन थवा सुधी -भूतपूर्वपरमाणुने जे अपरमाणुपणे रहे पडे छ अर्थात् प्रथम परमाणु-अवस्था अने बीजी भाविनी परमाणु-अवस्था ए बेनो जे वचलो काळ छे स्कंसंबंधकाम ते । स्कंध-संबंध-काळ ' कहेवाय, ते वधारेमां वधारे असंख्यात छे. बे प्रदेशवाळा स्कंधने तो बाकीना स्कंधरूपे थवानो काळ अने परमाणुरूपे अंतरकाल, थवानो काळ ते अंतरकाळ छे अने, ते अंतरकाळ अनंत छे, कारण के, बाकीना सर्व स्कंधो अनंत छे तथा ते प्रत्येक स्कंधनी वधारेमां वधारे असंख्येयकाळ स्थिति छ, तथा जे निष्कंपनो काळ छे ते सकंपनो अंतरकाळ छे, एम धारीने कयूं छे के, सकंपने वधारेमां वधारे असंख्यात काळ । अंतर छे अने जे सकंपनो काळ छे ते निष्कंपनो अंतर काळ छे एम धारीने क छ के, निकाने ववारेमा वधारे आवलि कानो असंख्यात भाग वचनप्रामाण्य. अंतरकाळ छे. एकगुणकालकत्वादिनुं अंतर एकगुणकालकत्वादिना काळनी समान ज छे. पण वचनप्रामाण्य होवाथी द्विगुण कालत्वादिनी अनंतताने लइने ते अंतरनी अनंतता इष्ट नधी. सूक्ष्मादिपरिणतोनुं अंतर तेना अवस्थानकाळनी तुल्य ज छे, कारण के, जे एकनु अवस्थान छे ते बीजाचें अंतर छ अने तेनु मान असंख्येय काळ छे. [ ' सद्दे ' इत्यादि ] तो सूत्र सिद्ध छे-सूत्र उपरथी ज सष्ट प्रकारे ज्ञात श्राय छे. द्रव्यस्थातायु. [ 'एयस्स णं भंते ! दबट्ठाणाउयप' त्ति ] द्रव्य एटले पुद्गल द्रव्य, तेनो परमाणु, द्विपदेशिक वगरे रूपे जे भेद-तेनी जे स्थिति अथवा द्रव्यर्नु अगुत्वादिभावे जे अवस्थान, तप आयु ते ' द्रव्यस्थानायु' कहेवाय, तथा [ · खित्तट्ठाणाउयस्स ' त्ति ] क्षेत्रनो एटले आकाशनो पुद्गलोना क्षेत्रस्थानायु. अवगाहथी थएलो जे भेद, तेनी जे स्थिते अथवा एकप्रदेशादि क्षेत्रमा पुद्गलोनुं जे अवस्थान, तद्रूप जे आयु ते क्षेत्रस्थानायु कहेवाय, ए प्रमाणे अवगाहना अने . अवगाहना थानायु अने भावस्थानायु पण समजा. विशेष ए के, अमुक मापवाळा स्थानमा पुद्गलोनुं जे अवगाहिपणु-रहेg-व्यापवापणु-ते अवगाहना भावस्थानायु. कहेवाय अने पुद्गलोनो शामत्वादि धर्म छे ते भाव कहेवाय. शं०-क्षेत्र अने अवगाहनामां एवो शो भेद छे ? जेथी ए बन्नेने जूदा जूदा का-समाधान, समजाववामां आवे छे. समा०-पुद्गलोथी अवगाढ-व्याप्त-होय ते ज क्षेत्र कहेवाय अने विवक्षित-अमुक खास-क्षेत्रथी बीजा क्षेत्रमा पण पुद्गलोर्नु ते क्षेत्रना माए प्रमाणे, रहे ते अवगाहना कहेवाय अर्थात् पुद्गलोनो, पोताना आधार स्थळ समान जे एक प्रकारनो आकार ते तो अवगाहना कहेवाय छे अने पुद्गलो जेमा रहे ते क्षेत्र कहेवाय, ए प्रमाणे क्षेत्रनु अने अवगाहनानुं जुदापणुं स्पष्ट जणाय छे. [ ' कयरे ' इत्यादि. ] ए मूळ भाग स्पष्ट छे. ए बधानी एक बीजा साथे जे अल्प-बहुता दर्शाववी छे ते नीचेनी गाथाओने अनुसार दर्शाववी, ते गाथाओ आ प्रमाणे छ:गाथाओ. " क्षेत्रस्थानायु, अवगाहनास्थानायु, द्रव्यस्थानायु अने भावस्थानायु ए बधाना अल्प-बहुत्वमा क्षेत्रस्थानायु सर्वथी थोडं अने बाकीना त्रण असंख्य गुण छ, एम केवी रीते जाणवू ?" तेनो उत्तर कहे छ के, "क्षेत्रनुं अमूर्तपणुं छे एटले क्षेत्र मूर्तिमान्--आकारधारी-नथी माटे ते क्षेत्रमा तेनी चौकाश. (क्षेत्रनी ) साथे पुद्गलोना बंधन कारण (चीकाश ) न होवाधी पुद्गलोनो क्षेत्रावस्थान काळ थोडो छे. आ गाथानो विगतथी अर्थ आ प्रमाणे छे:क्षेत्रला. सर्वधी क्षेत्र अमूर्तिमान् होवाथी अने तेथी ज तेमां, पुद्गलोना विशिष्ट बंधन कारण स्नेह-चीकाश-बगेरे न होवाथी ते पुद्गलो एक ज क्षेत्रमा लांबा काळ अल्प सुधी रहतां नथी, जे कारणथी ए प्रमाणे छे ते कारणथी क्षेत्रस्थानायु सर्वथी अल्प छे--इत्यादि बधुं स्पष्ट छे. हवे अवगाहनास्थानायुनी अधिकता विचारीए छीए-" एक स्थळथी अन्य क्षेत्रमा गएला पुद्गलनु पण ते ज मान, त्यां लांबो काळ रहे छे, अने वळी जो अवगाहनानो नाश बवगानी अधि. थाय तो क्षेत्र भिन्नता थाय ते स्फुट छे. " आ गाथामा पूर्वार्धवडे 'क्षेत्राद्धा करतां अवगाहनाद्धा अधिक छे' एम कह्यु, अने उत्तरार्धवडे तो 'अवगाहनाद्धा करता क्षेत्राद्धा अधिक नथी' एम कह्यु. एम केवी रीते छे ? तेना उत्तरमां कहेवाय छे केः- पुद्गलोनो क्षेत्रावस्थानकाळ-अमुक क्षेत्रमा नियत रीते स्थित रहेवानो काळ-अवगाहनाथी अने क्रियारहितपणाथी अवबद्ध छे अर्थात् पुद्गल, अमुक स्थळे नियत त्यारे ज रही शके निष्क्रिय. ज्यारे ते अमुक अवगाहनामां होय अने तद्दन निष्क्रिय-क्रिया विनानु-होय माटे पुद्गलोर्नु एकत्रावस्थान अवगाहनाथी अने निष्क्रियपणाथी अवबद्ध छे पण तेथी उलटुं एटले अवगाहनाकाळ, क्षेत्रावस्थानकाळ मात्रमा संबद्ध नथी" तात्पर्य ए छे के, ज्यारे पुद्गलोनी कोइ पण अमुक जातनी अवगाहना होय अने ते पुद्गलो पोते निष्क्रिय (हलनचलनरहित ) होय त्यारे ज ते पुद्गलोनू क्षेत्रावस्थान नियत होय छे अने जो तेम न होय एटले तेओनी कोइ पण अमुक जातनी अवगाहना न होय अने तेओ (पुद्गलो) निष्किय न होय तो ते पुद्गलोंक्षेत्रावस्थान संभवी शकतुं नथी, ज्यारे पुद्गलोर्नु क्षेत्रावस्थान अवगाहना अने निष्क्रियताने आधीन छे त्यारे तेथी उलटुं एटले अवगाहना, क्षेत्रमात्रमा नियत नथी, उपसंहार. कारण के, क्षेत्राद्धाना अभावमा पण अवगाहना होय छे. हवे उपसंहार करे छ:-"जे कारणथी ते क्षेत्रमा अथवा बीजा क्षेत्रमा अवगाहना दत्यायनं बहत्व. तेनी ते ज रहे छे माटे क्षेत्राद्धा करतां अवगाहनाद्धा असंख्यगुण छे" हवे द्रव्यायुना बहुत्वनो विचार करे छे, “ संकोचवडे अने विकोच पहोळा-थवापणे जो के अवगाहना उपरत थाय छे तो पण जेटलां होय तेटला ज द्रव्योर्नु लांबा काळ सुधी अवस्थान रहे छे" तात्पर्य ए छे के, संकोच-विकोच, संकोचथी अथवा विकोचथी अवगाहना उपरत थाय तो पण जेटलां द्रव्यो पहेला हतां तेटलां ज द्रव्योतुं लांबा काळ सुधी अवस्थान संभवे छे अर्थात् अवगाहना निवर्ते-न रहे-तो पण द्रव्यो नथी निवर्ततां अने तेथी उलटुं ज्यारे द्रव्यनी अमुक प्रकारनी निवृत्ति थाय छे त्यारे अवगाहनानी संघात-मेद, निवृत्ति चोक्कस थाय छे. ए संबंधे कहेवाय छे के, " वळी, ज्यारे संघात अथवा भेदथी द्रव्य संक्षिप्त थाय छे अने तेम. थया बाद द्रव्यनो उपरम थाय छे त्यारे ते द्रव्यनी अवगाहनानो गश नियमा- चोक्कस थाय छे तेमां संदेह नथी" तत्त्व ए छे के, पुद्गलोना संघातवडे या पुद्गलोना भेदवडे ते पुद्गलोनो जे स्कंध, प्रथमनी जेवी अवगाहनावाळो नहि पण संक्षिप्त-स्तोक-टुंकी-अवगाहनावाळो थाय छे अने. तेम थया पछी ते म्यान्यथाक स्कंधमां द्रव्यान्यथात्व थाय छे एटले पूर्वे जे स्थितिए ते द्रव्य हतुं, ते स्थितिए ते स्कंधमां द्रव्यर्नु रहे, थतुं नथी अने तेम थवांथी ते द्रव्योनी १.प्र. छा०-विपरिणते द्रव्ये कस्मिन् गुणपरिणतिर्भवेद् युगपत् , करिमन्नपि पुनस्तदवस्थेऽपि भवति गुणविष रिणामः, मन्यते सत्यं किं पुनर्गुपवारल्यात् न सर्वगुणनाशः, द्रव्यस्य तदन्यत्वेऽपि बहुतराणां गुणानां स्थितिः-इतिः-अनु० . Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेतक -उद्देशक भंगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, अवगाहननो नाश चोक्कस, थाय छे. कदाच कोइ कहे के, संघातथी तो पुद्गलोनो स्कंध संक्षिप्त-टुको.थतो नथी. तो तेम नथी, पण संघात थया पछी पुद्गलोन सूक्ष्मतर परिणाम थाय छे-एम सांभळ्यु छ माटें पूर्वे कयु छे के, संघातथी पुद्गलोनो टुंको स्कंध थाय छे अने तेम थवाथी अवगाहनानो नाश चोक्कस थाय छे. ते शाथी ए प्रमाणे थाय छे तो कहे छे के:-" संकोच अने विकोच सिवायनी स्थितिमां, अवंगाहनाधा द्रव्यमां संबद्ध हे एटले ज्यारे द्रव्य, संकोच अने विकोंच रहित होय त्यारे तेमां अवगाहना संबद्ध छ पण ज्यारे संकोच अने विकोच होय त्यारे द्रव्यमा अवगाना संबद्ध नथी होती. अर्थात् संकोचन अने विकोचनना अभावमां द्रव्यमा अवगाहना रहे छे अने ते संकोचनादिनी विद्यमानतामां द्रव्यमां वगाहना नथी रहेती-ए प्रमाणे द्रव्य अने अवगाहनानुं सहचरपणुं अनियत छे पण द्रव्यं, संकोचन अने विकोचन मात्रमा संबद्ध नथी एंटले संकोचन, विकोचन होय के न होय तो पण द्रव्य तो कायम ज रहे छे" आ गाथानो निष्कर्ष आ प्रमाणे छे के, संकोचने अने विकोचने परिहरी अवगाहनाद्धा, द्रव्यमा (नियतपणे ) संबद्ध छे एटले जेम. वृक्षपणामां खदिर-खेर-पणुं रहे छे तेम ज़्यारे संकोचनो:अने विंकोचनो अभाव होय त्यारे द्रव्यमां अवगाहना रहे छे पण ज्यारे संकोचनी अने विकोचनी हाजरी होय त्यारे द्रव्यमां अवगाहना नथी रहेती, ए प्रकारे द्रव्यमां, अनियतपणे अवगाहना संबद्ध छे. हवे द्रव्य माटे तेथी उलटुं कहे छे के, वळी द्रव्य तो संकोचन अने विकोचन मात्र होय तो पण नियतपणे अवगाहनामां संबद्ध नथी अर्थात् जम खदिरपणामां वृक्षपणुं संबद्ध छे तेम संकोचन अने विकोचन द्वारा अवगाहनानो नाश थया बाद पण द्रव्यनी निवृत्ति नथी थती माटे ज अवगाहनामां द्रव्य नियतपणे संबद्ध नथी एम कहेवाय छे. हवे उपसंहार कहे छ:-"जेथी, त्यां, अन्यत्र अथवा अवगाहनामां द्रव्य तेनुं ते ज छे तेथी अवगाहनाद्धा करतां द्रव्याद्धा असंख्यगुण छे. हवे भावायुना बहुपणानो विचार करीए छीएः-संघातथी अथवा भेदथी द्रव्यनो उपरम थाय तो पण पर्यवो विद्यमान रहे छे, अने जो बधा गुणोनो उपरम थाय तो तो द्रव्य पण न रहे अने अवगाहना पण न रहे" तात्पर्य ए छे के, जम घृष्ट-साफ करेला-पटमा शुक्लादि गुणो के तेम संघातादि द्वारा द्रव्यनो उपरम थाय तो पण पर्यवोनी सत्ता रहेछ, अने जो सर्वगुणोनो उपरम थाय तो ते द्रव्य रहेतुं नथी अने अवगाहना पण अनुवर्तती नथी, आ वातथी एम स्पष्ट जणाय छे के, पर्यवोर्नु अवस्थान पर्यवोर्नु अवस्थान, चिर-लांबा-काळ सुधी छे अने द्रव्य तो अचिरकाळ सुधी अवस्थान छे, एम शाथी कही शकाय ? तो कहे छे के, " द्रव्याद्धा, हमेशा ज संघात वंधनी अने भेदबंधनी पाछळ चालनारी छे अने गुणकाल, संघाताद्धा अने भेदादा मात्रमा संबद्ध नथी " अर्थात्-संघात अने भेदरूप वे धर्मो द्वारा थतो जे संबंध, तेने अनुसंरनारी द्रव्यादा छे, कारण के, ते (द्रव्याद्धा) संघातादि न होय त्यारे ज होय छे अने ते (संघातादि ) होयत्यारे नथी होती. अने बळी गुणकाल, मात्र संघात अने भेदना काळमां संबद्ध नथी, कारण के, संघातादि होय तो पण गुणोनुं अनुवर्तन थाय छे. उपसंहार कहे छ:-"जेथी, त्यां, अन्यत्र अने द्रव्यावस्थानर्मा, क्षेत्रावस्थानमा तथा अवगाहनावस्थानमां तेना ते ज पर्यवो छ माटे भावावस्थानायु असंख्यगुण छे" कयुं छे के, " द्रव्यनो उपरम थया बाद गुणोर्नु अवस्थान रहे छे, आ अनेकांत छे अने गुणनो विपरिणाम थया बाद जे द्रव्यविशेष छे ते नैकांत छे" द्रव्यविशेष एटले द्रव्यनो विपरिणाम. “ ज्यारे द्रव्य विपरिणामने पामे त्यारे क्ये स्थळे एकी साथे गुणनी परिणति भावायुना बहुपणाथाय वळी ये तदवस्थे-तेवे-स्थळे पण गुणनो विपरिणाम थाय ? " " साचुं कहीए छीए के, वळी, द्रव्यमा गुणोनु बाहुल्य होवाथी सर्वगुणनो नो विचार. नाश थतो नथी अने तेनु अन्यत्व थाय छे तो पण घणा गुणोनी स्थिति रहे छे." नैरयिकोनों परिग्रह. २८. प्र०-नरइया णं भंते ! किं सारंभा, सपरिग्गहा; उदाहुं २८. प्र०-हे भगवन् ! नैरयिको शुं आरंम सहित छे, अणारंभा, अपरिग्गहा ? परिग्रह सहित छे के अनारंभी अने अपरिग्रही छे ? २८. उ०-गोयमा । नेरहया सारंभा, सपरिग्गहा; णो २८. उ०-हे गौतम ! नैरयिको आरंभवाळा छे अने अणारंभा, णो अपरिग्गहा. परिग्रहवाळा छे पण अनारंभी अने अपरिग्रही नथी. २९. प्र०-से केण० जाव-अपरिग्गहा ? २९. प्र०-हे भगवन् ! तेओ, क्या हेतुथी परिग्रहवाळा छे अने यावत्-अपरिग्रही नथी ! २९. उ०-गोयमा । नेरइया णं पुढविकायं समारंभांति, २९. उ०-हे गौतम ! नैरयिको पृथिवीकायनो यावत् त्रसआव-तसकायं समारंभति; सरीरा. परिग्गहिया भवति, कम्मा कायनो समारंभ करे छे, तेओए शरीरो परिगृहीत कयों छे, कर्मो परिग्गहिया भवंति, सचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दव्वाई परिग्ग- परिगृहीत काँ छे अने तेओए सचित्त, अचित्त अने मिश्र द्रव्यो हियाई भवंति-से तेणटेणं तं चेव गोयमा ! परिगृहीत कों छे माटे ते हेतुथी हे गौतम! 'तेओ परिग्रही छे' इत्यादि ते ज कहे. ७. अनन्तरम् आयुरुक्तम् , अथाऽऽयुष्मत आरम्भादिना चतुर्विशतिदण्डकेन प्ररूपयन्नाहः- नेरइए' इत्यादि. १. मुळच्छाया:-नैरयिका भगवन् ! कि सारम्भाः, सपरिप्रहाः, उताहो अनारम्भाः, अपरिप्रहाः? गौतम | नरयिकाः सारम्भाः, सपरिप्रहाः, नो अनारम्भाः, नो अपरिग्रहाः. तत् केन. यावत्-अपरिप्रहाः ? गौतम | नैयिकाः पृथिवीकार्य समारभन्ते, यावत्-प्रसकार्य समारभन्ते; शारीराणि परिगृहीतानि भवन्ति, कर्माणि परिगृहीतानि भवन्ति, सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रितानि द्रव्याणि परिगृहीतानि भवन्ति-तत् तेनाऽर्थेन तपंप पातम!:-अनु. Jain Education international Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ७ गोचीश दंडक. ७. हमणां आयुष्य कल्खु, हवे आयुष्यवाळा जीवोने आरंभादि प्रश्नो द्वारा चोवीस दंडकवडे प्ररूपता [ • नेरहए '! इत्यादि सूत्र कहे छे. ___ असुरोनो अने एकेंद्रियोनो परिग्रह ३०. प्र०-भसुरकुमारा णं भंते ! किं सोरंभा पुच्छा ? ३०. प्र०—हे भगवन् ! असुरकुमारो आरंभवाळा ! इत्यादि प्रश्न करवो. - ३०. उ०-गोयमा ! असुरकुमारा सारंभा, सपरिग्गहा; ३०. उ०-हे गौतम! असुरकुमारो आरंभवाळा के परिणो अणारंभा, अपरिग्गहा. प्रहवाळा छे पण अनारंभी के अपरिग्रही नथी:-' "३१. प्र०–से केण्डेणं ? ३१.. प्र०—(हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ?'. ३१. उ०--गोयमा ! असुरकुमारा णं पुढविकायं समारंभंति, . ३१. उ०- हे गौतम !. असुरकुमारो-- पृथिवीकायनो समाजाव-तसकायं समारंभति, सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा रंभ-वध-करे छे यावत् त्रसकायनो वध करे- छै; तेओए-शरीरो परिग्गहिया भवंति, भवणा परिग्गहिया भवंति; देवा, देवीओ, परिगृहीत कां छे, कर्मों परिगृहीत कयां छे, भवनो परिगृहीत मणुस्सा, मणुस्सीओ, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ कर्या छे, देवो, देवीओ, मनुष्यो, मनुषीओ, तियचो, तियेचिणीओ परिग्गहिया भवंति; आसण-सयण-भंड-मत्तो-वगरणा परिग्ग- परिगृहीत करी छे, आसन, शयन, भांडो, मात्रको अने उपकरणो हिया भवन्ति, सचित्ता-चित्त-मीसियाई दबाई परिग्गहियाइं परिगृहीत कर्या छे अने सचित्त, अचित्त अने मिश्र द्रव्यो परिग भवति-से तेण?णं तहेव, एवं जाव-थणियकुमारा. हीत कयों छे माटे ते हेतुथी तेओने परिग्रहवाळा कह्या:छे-ए प्रमाणे. यावत्-स्तनितकुगारो माटे पण.जाणवू. --एगिदिया जहां नेरइया. ---जेम नैरयिको माटे कयुं तेम एकेन्द्रियो माटे जाणवू ८. भंडमत्तोवगरण' त्ति इह भाण्डानि मृण्मय-भाजनानि, मात्राणि कांस्यभाजनानि, उपकरणानि लौही, कडुच्छुकादीनि एकेन्द्रियाणां परिग्रहोऽप्रत्याख्यानाद् अवसेयः. माटीनी अने कांसा ८.[ भंडमत्तोवगरण ' त्ति ] भांडो-माटीनां वासणो अने मात्रो एटले कासाना वासणो तथा उपकरणो एटले लोढी, कडायु, कडछी नां वासणो. ___ यगैरे. प्रत्याख्यान न करेलु होवाथी एकेन्द्रियो परिग्रही छे, एम जाणवू.: एकेंद्रियो. बेइंद्रिय विगेरेनो परिग्रह. ३२. प्र०--बेडदिया णं भंते ! किं सारंभा, सपरिगहा ! ३२. प्र०- हे भगवन् ! वेइंद्रिय जीवो शुं सारंभ अने सपरिग्रह छे?'. ३२. उ०-तं चेव जाव-सरीरा परिग्गहिया भवति, ३२. उ०—(हे गौतम!) ते ज-कहे, यावत् तेओए शरीरी बाहिरिया भंड-मत्तो-वगरणा परिग्गहिया भवंति एवं जाव- परिगृहीत कयों छे अने बाह्य भांड, मात्र, उपकरणों परिगृहीत घडरिंदिया. कयां छे, ए प्रमाणे यावत् चरिंद्रिय जीव सुधीना दरेक जीव माटे जाणी लेवू. ३३. प्र०--पचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भते ! ! ३३. प्र०-हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिको शं आरंभी छे ? इत्यादि ते ज प्रश्न करवो. ३६. उ6--तं चैव जाव-कम्मा परिग्गहिया भवति, ३३. उ०—( हे गौतम !) ते ज कहेवू अर्थात् तेओए टंका, कूडा, सेला, सिहरी, प-भारा परिग्गहिया भवति, जल-थल- कर्मों परिगृहीत की छे, पर्वतो, शिखरो, शैलो, शिखरवाळा १. मूलच्छाया:-असुरकुमारा भगवन् ! कि सारम्भाः, पृच्छा.! गौतम ! असुरकुमाराः सारम्भः, सपरिग्रहाः; नो अनारम्भाः, अपरिग्रहाः, तत् केनाऽर्थेन ? गौतम! असुरकुमाराः पृथिवीकार्य समारभन्ते, यावत्-त्रसकार्य समारभन्ते, शरीराणि परिगृहीतानि भवन्ति, कर्माणि परिगृहीतानि भवन्ति, भुवनानि परिगृहीतानि भवन्ति, देवाः, देव्यः, मनुष्याः. मनुष्यः, तिर्यग्योनिकाः, तिर्यग्योनिमत्यः परिगृहीता भवन्ति; भासन-शयनभाण्डा-धमत्रो-पकरणानि परिगृहीतानि भवन्ति, सबित्ता-ऽचित्त-मिश्रितानि द्रव्याणि परिगृहीतानि भवन्ति-तंत् तेनाऽर्थेन तथैव, एवं यावत्-स्तनितमासः. एकेन्द्रियाः यथा नैरयिकाः. २. द्वीन्द्रिया भगवन् । किं सारम्भाः, सपरिग्रहाः ? तच्चैव यावत्-शरीराणि परिगृहीतानि भवन्ति, बामामि मौण्डा-ऽमत्रो-पकरणानि परिगृहीतानि भवन्ति, एवं यावत्-चतुरिन्द्रियाः. पथेन्द्रियतिर्यग्योनिका भगवन् ! ? तच्चैव यावत्-कर्माणि परिगृहीतानि भवन्ति, दहाः, कूटाः, शैलाः, शिखरिणः, प्रारभाराः, परिगृहीता भवन्ति, जल-स्थल-:-अनु. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ७. भगवत्सधर्मस्वाभिप्रणीत भगवतीसूत्र. ခု ဖ बिल-गह-लेणा परिग्गहिया भवंति, उज्झर-निज्झर-चिल्लल-पल्लल- पहाडो अने थोडा नमेला पर्वतो तेओए परिगृहीत कर्या छे, जल, वप्पिणा परिग्गहिया भवन्ति, अगड-तडाग-दह-नइओ, वावि- स्थल, बिल, गुहाओ अने पहाडमां कोतरेल घरो तेओए परिगृपुक्खरिणी, दीहिया, गुंजालिया, सरा, सरपंतियाओ, सरसरपं- हीत कयों छे, पर्वतथी पडता पाणीना झरा, निझरो, कचराबाळा तिया ओ, बिलपंतियाओ परिग्गहियाओ भवति; आरामु-जाणा, पाणीवाळु एक प्रकारचें जलस्थान, आनंद देनाएं जलस्थान, काणणा, वणा, वगसंडा, वणराईओ परिग्गहियाओ भवंत; क्यारावाळो प्रदेश-ए बधार्नु तेओए ग्रहण कयुं छे, कूवो, तळाव, देवउला-ऽऽसम-पवा-थूम खाइय-परिखा ओ परिग्गहियाओ भवंति, धरो, नदीओ, चोखंडी वाव, गोळ वाव, धोरीयाओ, वांका धोपागार अट्टालग-चरिय दार-गोपुरा परिग्गहिया भवति, पासाद- रीयाओ, तळावो, तळावनी श्रेणिओ, एक तळावथी बीजा तळाघर-सरण-लेण-आवणा परिग्गहिता भवति, सिंघाडग-तिग-चउक्क- मां अने बीजा तळावथी त्रीजा तळावमां पाणी जाय ए प्रकारनी चचर-चउम्मुह-महापहा परिग्गहिया भवति, सगड-रह-जाण- तळावनी श्रेणीओ अने बिलनी श्रेणीओ तेओर परिगृहीत करी छे, जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीय-संदमाणियाओ परिग्गहियाओ भवंति, आराम, उद्यान, कानन-गामनी पासेनां वनो, गामनी दूरनां वनो, लोही-लोहकडाह-कडुच्छया परिग्गहिया भवंति, भवणा परिग्ग- वनखंडो अने वृक्षनी श्रेणीओ तेओए परिगृहीत करी छे. देवकुल, हिया भवति, देवा, देवीओ, मणुस्सा, मणुस्सीओ, तिरिक्ख- आश्रम, परब, स्तूभ, खाइ अने परिखाओ परिगृहीत करी छे, जोणिया, तिरिक्ख जोणिणीओ; आसण-सयण-खंड-भंड-सचित्ता- प्राकार-किल्लो, अट्टालक-जरुखा, चरिय-घर अने किल्लानी वच्चेनो चित्त-मीसयाई दव्वाइं परिग्गहिया भवंति-से तेणद्वेणं. हस्ति विगेरेने जवानो मार्ग,-खडकी अने शहेरना दरवाजा परि गृहीत कर्या छे, देवभुवन अथवा राजभुवन, सामान्य घर, झुपडा,. पर्वतमां कोतरेलु घर, अने हाटो परिगृहीत कर्या छे, शृंगाटकसिंगोडाना आकारनो मार्ग-A, ज्यां त्रण शेरी भेगी थाय ते त्रिकमार्ग-1, ज्यां चार शेरी भेगी थाय ते चतुष्क-] मार्ग, चत्वर-ज्यां सर्व रस्ता भेगा थाय ते चोक-1, चार दरवाजावाळा देवकुल वगेरे अने महामार्गों परिगृहीत कर्या छे, शकट-गाईं,-यान, युग, गिलि-अंबाडी,-थिल्लि-घोडानुं पलाण-, डोळी अने मेना-सुखपाल परिगृहीत कर्या छे, लोढी, लोढार्नु कडायुं अने कडछानो परिग्रह को छे, भवनपतिना निवासो. परिगृहीत कर्या छे, देवो, देवीओ, मनुष्यो, मनुषणीओ, तियचो, तिर्यंचणीओ, आसन, शयन, खंड, भांड, तथा सचित, अचित अने मिश्र द्रव्यो परिगृहीत कयां छे, माटे ते हेतुथी तेओ आरंभी अने परिग्रही छे. -जहा तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि भाणियव्या, -जेम तिर्यंचयोनिना जीवो कसा तेम मनुष्यो पण कहेवा, वाणमंतर-जौहस-वेमाणिया जहा भवणवासी तहा नेयव्वा. तथा वाणमंतरो, ज्योतिषिओ अने वैमानिको, जेम भवनवासी देवो कह्या तेम जाणवा. बाहिरिया भंडमत्तोक्गरण 'त्ति उपकरणसाधाद् द्वीन्द्रियाणां शरीररक्षार्थ तत्कृतगृहकादीनि अवसेयानि. 'टंक' त्ति छिन्नटाङमाः, कूड' त्ति कूटानि शिखराणि, हस्त्यादिबन्धनस्थानानि वा. 'सेल' ति मुण्डपर्वताः, सिहरि' त्ति शिखरिणः *शिखरवन्तो गिरयः, ‘पमार ' त्ति ईषदवनता गिरिदेशाः, 'लेण ' ति उत्कीर्णपर्वतगृहम् , ' उज्झर' त्ति अवझरः पर्वततटाद् उदकस्याऽध: पतनम् , 'निज्झर' त्ति निर्झर उदकस्य स्रवणम् , ' चिल्लल' त्ति चिक्खिल्लुमिश्रोदको जलस्थानविशेषः; 'पल्लल ' त्ति प्रल्हादनशीलः स एव, वप्पिण' त्ति केदारवान् , तटवान् वा देशः, " केदार एव" १. मूलच्छाया:--बिल-गुहा-लय नानि परिगृहीतानि भवन्ति, उज्झर-निझर-चिकखान-पलवल-वीणानि परिगृहीतानि भवन्ति, सगडतडाग-द्रह-नद्यः, वापी-पुष्करिण्यः, दीर्घिकाः, गुञ्जालिकाः, सरांसि, सर. पतयः, सरस्सरःपतयः, बिलपश्यः परिगृहीता भवन्ति; आरामो-द्यानानि, काननानि, वनानि, वनखण्डानि, वनराज्यः परिगृहीता भवन्ति, देवकुला-ऽऽश्रम-प्रपा-स्तूभ-खातिका-परिखाः परिगृहीता भवन्ति, प्राकार-अहालक-चरिका-द्वार-गोपुराणि परिगृहीतानि भवन्ति, प्रासाद-गृह-शरण-लयना-ऽऽपणाः परिगृहीता भवन्ति, शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वरचतुर्मुख-महापथाः परिगृहीता भवन्ति, शकट-रथ-यान-युग्य-गिल्लि-थिल्लि-शिबिका-स्पन्दमानिकाः परिगृहीता भवन्ति, लौही-लोह कटाह-कडुच्छ..(का) यानि परिगृहीतानि भवन्ति, भवनानि परिगृहीतानि भवन्ति, देवाः, देव्यः, मनुष्याः, मनुष्यः, तिर्यग्योनिकाः, तिर्यग्योनिमत्यः, आसन-शयनखण्ड-भाण्ड-सच्चित्ता-ऽचित्त-मिश्रितानि द्रव्याणि परिगृहीतानि भवन्ति-तत् तेनाऽर्थेन. यथा तिर्यग्योनिकास्तथा मनुष्या अपि भगितव्याः, धानन्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिका यथा भवनवासिनस्तथा नेतव्याः.-अनु० Jain Education international Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ५:-उद्देशक ७. इत्यन्ये. 'अगड' ति कूपः, वावि' त्ति वापी चतुरस्रो जलाशयविशेषः, 'पुक्खरिणी' पुष्करिणी-वृत्तः स एव, पुष्करवान् वा. 'दीहिय ' त्ति सारिण्यः, 'गुंजालिय ' त्ति वक्रसारिण्यः, 'सर' ति सरांसि-स्वयंसंभूत जलाशयविशेषाः, 'सरपंतियाओ' त्ति सरःपङ्क्तयः, 'सरसरपंतियाओ' यासु सरःपङ्क्तिषु एकस्मात् सरसोऽन्यस्मिन्-अन्यस्माद् अन्यत्र एवं संचारकपाटकेन उदकं संचरति ताः सरःसरः पतयः, बिलपतयः प्रतीताः, 'आराम' ति आरमन्ति येषु माधवीलतादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः, 'उज्जाण' ति उद्यानानि पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्सवादौ बहुजनभोग्यानि, 'काणण' त्ति काननानि सामान्यवृक्षसंयुक्तानि नगराऽऽसन्नानि, 'वण' ति वनानि नगरविप्रकृष्टानि, 'वणसंडाई' ति वनखण्डा एक जातीयवृक्षसमूहात्मकाः, वणराइ त्ति वनराजयो वृक्षपङ्क्तयः, 'खाइय' ति खातिका उपरि विस्तीर्णा, अध: संकटखातरूपाः, 'परिह 'त्ति परिखाः अधः, उपरि च समखातरूपाः, 'अट्टालग ' त्ति प्राकारोपरि आश्रयविशेषाः, 'चरिय ' त्ति चरिका गृह-प्राकारान्तरो हत्यादिप्रचारमार्गः, 'दार' त्ति द्वारम्-खडकिका, 'गोउर' त्ति गोपुरं नगरप्रतोली, 'पासाय' त्ति प्रासादा देवानाम् , राज्ञां च भवनानि अथवा उत्सेधबहुलाः प्रासादाः, 'घर' ति गृहाणि सामान्यजनानाम् , सामान्यानि वा; 'सरण' ति शरणानि तृणमयाऽवसरिकादीनि, ' आवण ' ति आपणा हट्टाः, शृङ्गाटकम्-स्थापना-A त्रिकम्-स्थापना--1 चतुकम्-स्थापना-7 चत्वरम्-- स्थापना- चतुर्मुखं चतुर्मुखदेवकुलकादि, ‘महापह ' त्ति राजमार्गः, 'सगड' इत्यादि प्राग्वत् . ' लोहि ' त्ति लौही मण्डकादिपचनिका, 'लोहकडाहि' ति कवेल्ली, 'कडुच्छ्य' ति परिवेपणाद्यर्थी भाजनविशेषः, 'भवण ' त्ति भवनपतिनिवासाः, ९. [ 'बाहिरिया भंडमत्तोबगरण ' त्ति ] उपकारनी समानताथी-एटले जेम मनुष्योनां घरो मनुष्योनी रक्षा करनारां होवाथी तेओनां उपकरण, उपकरणोमा लेखाय छे तेम----शरीरनी रक्षा माटे बेइन्द्रियोए करेलां घरोने पण तेओना उपकरण समजवा. [' टंक ' त्ति ] टांकणाथी छेदाएल पर्वतो. पर्वतो, [ 'कूड' ति ] शिखरो अथवा हाथी वगेरेने बांधवानां स्थानो, [ 'सेल' त्ति ] मुंड पर्वतो-सूका पर्वतो, ["सिहरि' ति ] शिखरवाळा पर्वतो, लेण-उज्झर. [ ' पब्भार ' त्ति ] थोडा नमेला पर्वतना भागो, [ 'लेण ' त्ति ] पर्वतमा कोतरेखें घर, [उज्झर ' त्ति ] ज्यां पर्वतना तटथी पाणी नीचे पडतुं निर्जर. होय ते स्थान, [ · निज्झर 'त्ति ] ज्यां पाणी चूतुं होय ते स्थान, [ 'चिल्लल ' त्ति ] कचरावाळा पाणीवाळु एक जातनुं जलस्थान, [ पल्लल ' ति] आनंद देवाना स्वभाववाढु एक जातनुं जलस्थान, [ 'वप्पिण' ति ] क्यारावाळो प्रदेश अथवा तटवाळो प्रदेश, कोइ तो 'वप्पिण' केदार. शब्दनो " केदार " ज अर्थ कर छे, [ ' अगड ' त्ति ] कूबो, [ ' वावि ' त्ति ] चोखंडो जलाशय--चोखंडी वाव, [ पुक्खरिणि ' त्ति ] गोळ वाव-दीपिका- जलाशय-गोळवाव अथवा कमळवाळी चोखंडी वाव, [ 'दीहिय ' ति] सारणिओ-धोरियाओ, [ गुंजालिय' त्ति ] वांका धोरियाओ, [ 'सर' धोरिया- कावो. त्ति ] तळावो-जमा स्वयमेव जल उत्पन्न थयुं छे तेवा जलाशयो, [ ' सरपंतियाओ' ति] तळावनी श्रेणिओ, [ सरसरपंतियाओ' ति ] जे तळावनी श्रेणीओमा संचारक पाटकवडे एक तळावथी बीजे तळावे अने बीजेथी बीजे तळावे पाणी जतुं होय ते सरःसरपंक्ति कहेवाय, आ म. बिलनी श्रेणीओनो अर्थ प्रतीत छे, [ ' आराम ' त्ति ] जे स्थानोमां, द्राक्षालता वगेरे लताओमां दंपतीओ क्रीडा करे ते आराम, ['उजाण'त्ति ] उद्यान. उत्सवादिना समये बहु माणसो द्वारा भोगवातां अने पुष्पादिवाळा वृक्षोथी भरपूर ते उद्यान, [' काणण ' ति] नगरी नजीक रहेला साधारण कानन-वन, वृक्षो सहित ते कानन, [वण' ति] नगरथी दूर रहेला ते वन, ['वणसंडाई' ति] एक जातना वृक्षोना समूहरूप ते बनखंड, [वणराइ' खाई. त्ति ] वृक्षोनी हारो, [ 'खाइय' त्ति ] उपर पहोळी अने नीचे सांकडी खोदेली खाइ, [ 'परिह' ति] नीचे अने उपर सरखी रीते खोदेली ते परिखा, अटारी-चरिया. [ अट्टालग ' त्ति ] किल्ला उपर रहेला एक प्रकारना आशरा-झरुखा, [ ' चरिय ' ति ] चरिका एटले घर अने किल्लानी वच्चे हाथी वगेरेने पोळ-प्रासाद-घर- जवानो मार्ग, [ ' दार ' त्ति ] खडकी, [ 'गोउर ' त्ति ] नगरना दरवाजा-(पोळ ), [ 'पासाय ' त्ति ] राजानां घर के देवोनां घर अथवा छापरां. प्रासाद-उंचां घरो, [ 'घर' त्ति ] सामान्य घर अथवा साधारण माणसोनां घर, [ ' सरण ' ति ] घासमय छापरां-झुपडा,-[ 'आवण ' ति] शंगाटक-निक. हाटो, शंगाटक एटले सिंगोडं-जे रस्तो सिंगोडाने घाटे त्रिकोण जेवो होय तेने पण अहीं शृंगाटक कसो छे, ते शृंगाटकनो आकार आ प्रमा चतुष्क-चत्वर. A. तरभेटाने अहीं त्रिक कहलो छ अने तेनो आकार आ प्रमाणे छ: 1. चतुष्क एटले चोक अने ए चोक नो आकार आ प्रमाणे छः चत्वर-ए एक जातना मार्गनु नाम छे अने तेनो घाट आ प्रमाणे छः . चार मुखबाळां देवकुळ वगेरेने 'चतुर्मुख ' कहेवामां आवे छे. महापथ. [ ' महापह ' त्ति ) राजमार्ग-सरियाम रस्तो, [ ' सगड ' ] इत्यादिनो अर्थ पूर्ववत् जाणी लेबो, [ ' लोहि ' त्ति ] मांडा पकाबवानी लोढी, लोढी-छो. लोहकडाहि ' ति] लोढार्नु कडायु, [ ' कडुच्छुय ' ति] पीरसवा माटेगें एक प्रकाग्नुं भाजन-कटलो,-[ 'भवण ' त्ति ] भवनपतिनां निवास स्थानो. हेतुओ (१) -पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा:-हेउं जाणइ, हेउं पासइ, -पांच हेतुओ कया छे, ते जेम के, हेतुने जाणे छे, हेतुने हेउं बुज्झइ, हेउं अभिसमागच्छति, हेउं छउमरथमरणं मरइ. जुए छे, हेतुने सारी रीते श्रद्दधे छ, हेतुने सारी रीते प्राप्त करे छे, हेतुवालु छद्मस्थमरण करे छे. १. मूलच्छाया:-पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः, तयथाः-हेतुं जानाति, हेतुं पश्यति, हेतुं बुध्यते, हेतुम् अभिसमागच्छति, हेतुं उद्मस्थमरणं नियवेः अनु० Jain Education international Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, -पंच हेऊ पन्नत्ता, तं जहा:-हे उणा जाणइ, जाव-हेउणा . -~-पांच हेतुओ कह्या छे, ते जेम के, हेतुए जाणे छे, छउमत्यमरणं मरइ. ___ यावत् हेतुए छद्मस्थमरण करे छे. -पंच हेऊ पण्णता, तं जहा:-हेउं ण जाणइ जाव-अन्नाणं -पांच हेतुओ कह्या छे, ते जेम के, हेतुने न जाणे, यावत् मरणं मरइ. हेतुवालु अज्ञानमरण करे. -पंच हे उ. पण्णता, तं जहा:-हे उणा ण जाणइ जाव- -पांच हेतुओ कह्या छे, ते जेम के, हेतुए न जाणे यावत् हेउणा अन्नाणमरणं ति मरति. हेतुए अज्ञानमरण करे. -पंच अहेउ पण्णता, तं जहा:-अहेउं जाणइ, जाव- -पांच अहेतुओ कह्या छे, ते जेमके, अहेतुने जाणे छे यावत् अहेउं केवलिमरणं मरइ. अहेतुवालू केवलिमरण करे छे. -पंच अहेउ पण्णचा, तं जहा:-अहे उणा जाणइ, जाव- -पांच अहेतुओ कह्या छे, ते जेमके, अहेतुए जाणे यावत् अहेउणा केवलिमरणं मरइ. अहेतुए केवलिमरण करे. -पंच अहेउ पन्नत्ता, तं जहा:--अहेउं न जाणइ, जाव- --पांच अहेतु क.ह्या छे, ते जेमके, अहेतुने न जाणे यावत्. अहेउं छउमत्थमरणं मरइ. अहेतुवालु छद्मस्थमरण करे. -पंच अहेउ पन्नत्ता, तं जहा:-अहेउणा न जाणइ, जाव-- -पांच अहेतु कह्या छे, ते जेमके, अहेतु ए न जाणे, यावत् अहेउणा छउमत्थमरणं मरइ. अहेतुए छद्मस्थमरण करे, -सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाग छे ( एम कही श्रमण भगवंत गौतम विचरे छे ) भगवंत-अज्ज सुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पंचमसये सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो. १०. एते च नारकादयः छमस्थत्वेन हेतुव्यवहारिकत्वाद् हेतव उच्यन्ते इति तद्भेदान् निरूपयन् आह:-'पंच हेऊ' इत्यादि. इह हेतुषु वर्तमानः पुरुषो हेतुरेव-तदुपयोगाऽनन्यत्वात् . पञ्चविधत्वं चाऽस्य क्रियाभेदाद् इत्यत आहः-' हेउं जाणइ' त्ति हेतुं साध्याऽविनाभूतं साध्यनिश्चयार्थं जानाति-विशेषतः सम्यग् अवगच्छति-सम्यग्दृष्टित्वाद् , अयं पञ्चविधोऽपि सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः, मिथ्यादृष्टेः सूत्रद्वयात् परतो वक्ष्यमाणत्वाद्-इत्येकः. एवं हेतुं पश्यति सामान्यत एवाऽवबोधाद् इति द्वितीयः. एवं बुध्यते सम्यक श्रद्धत्ते-बोधेः सम्य श्रद्धानपर्यायवाद् इति तृतीयः. तथा हेतुम् अभिसमागच्छति साध्यसिद्धौ व्यापारणतः सम्यक् प्राप्नोति इति चतुर्थः, तथा 'हेउं छउमत्थ-' इत्यादि. हेतुरध्यवसानादिरणकारणम्-तद्योगाद् मरणमपि हेतुरतस्तं हेतुगद्- इत्यर्थः, छद्मस्थमरणम् , न केवलिमरणम् ; तस्याऽहेतुकत्वात् , नाऽपि अज्ञानमरणम् , एतस्य सम्यग्ज्ञानियात्-अज्ञानमरणस्य च वक्ष्यमाणत्वात् , म्रियते करोति इति पञ्चमः. प्रकारान्तरेण हेतून् एवाऽऽहः-'पंच' इत्यादि-हेतुना अनुमानोत्थापकेन जानाति, अनुमेयं सम्यम् अवगच्छति सम्यग्दृष्टित्वाद् एकः. एवं पश्यति इति द्वितीयः. एवं बुध्यते-श्रद्धत्ते इति तृतीय.. एवम् अभिसमागच्छति प्राप्नोति-चतुर्थः. तथाऽकेवलित्वात् , हेतुना अध्यवसानादिना छद्मस्थमरणं म्रियते इति पञ्चमः. अथ मिथ्यादृष्टिम् , आश्रित्य हेतून् आहः-पंच' इत्यादि. पञ्च क्रियाभेदात्, हेतवो हेतुव्यवहारित्वात् , तत्र हेतुं लिङ्गं न जानाति, नञः कुत्सार्थत्वाद् असम्यग् अवैति-मिथ्यादृष्टित्वात् , एवं न पश्यति, एवं न बुध्यते, एवं नाऽभिगच्छति. तथा हेतम् अध्यवसानादिहेतयुक्तम् अज्ञान रणं म्रियते करोति-मिथ्यादृष्टित्वेना. ऽसम्यग्ज्ञानत्वाद् इति. हेतून् एव प्रकारान्तरेणाऽऽहः-'पंच' इत्यादि. हेतुना लिङ्गेन न जानाति असम्यगवगच्छति. एवम् अन्येऽपि चत्वारः. अब उक्तविपक्षभूतान् अहेतून् आह 'पंच' इत्यादि. प्रत्यक्षज्ञानित्वादिनाऽहेतुव्यवहारित्वाद् अहेतवः-केवलिनः, ते च पञ्च क्रियाभेदात् , तद्यथा:- अहेउं जाणइ ' त्ति अहेतुभावेन सर्वज्ञत्वेनाऽनुमानाऽनपेक्षत्वाद् धूमादिकं जानाति, खस्याऽननुमानो. स्थापकतया इत्यर्थः- अतोऽसौ अहेतुरेव. एवं पश्यति' इत्यादि. तथा 'अहेतुं केवालमरणं मरइ ' त्ति अहेतुं निर्हेतुकम्अनुपक्रमत्वात् केवलिमरणं म्रियते करोति इत्यहेतुरसौ पञ्चम इति. प्रकारान्तरेणाऽहेतून् एवाऽऽहः-'पंच' इत्यादि तथैव, नवरम्:-अहेतुना हेत्वभावेन केवलित्वाद् जानाति योऽसौ अहेतुरेव इति. एवं पश्यति इत्यादयोऽपि. ' अहे उणा केवलिमरणं मरइ' १. मूलच्छायाः-पच हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-हेतुना जानाति, यावत्-हेतुना छप्रस्थमरणं म्रियते. पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-हेतुं न जानाति, यावत्-अज्ञानं मरणं म्रियते. पञ्च हेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-हेतुना न जानाति, यावत्-हेतुना अज्ञानमरणमिति नियते. पञ्च अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-अहेतुं जानाति, यावत्-अहेतुं केवलिमरणं म्रियते. पञ्च अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-अहेतुना जानाति, यावत्-अहेतुना केवलिमरणं म्रियते. पत्र अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-अहेतुं न जानाति, यावत्-अहेतुं छद्मस्थमरण म्रियते. पश्च अहेतवः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-अहेतुना न जानाति, यावत्-अहेतुना छद्मस्थगरणं म्रियते. तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् ! इतिः-अनु. Jain Education international Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ७. त्ति अहेतुना उपक्रमाऽभावेन केवलिमरणं म्रियते, केवलिनो निहेतुकस्यैव तस्य भावाद्-इति, अहेतून् एव प्रकारान्तरेणाऽऽह:'पंच अहेऊ' इत्यादि. अहेतवः अहेतुव्यवहारिणः, ते च पञ्च ज्ञानादिभेदात् . तद्यथाः- अहेउं न जाणइ ' ति अहेतुं न हेतुभावेन स्वस्याऽनुमानाऽनुत्थापकतया इत्यर्थः, न जानाति न सर्वथाऽवगच्छंति-कथञ्चिद् एवाऽवगच्छति इत्यर्थः-नो देशप्रतिषेधार्थत्वात , ज्ञातश्चाऽवध्यादिज्ञानत्वात् कथञ्चिद् ज्ञानम् उक्तम् , सर्वथा ज्ञानं तु केवलिन एव स्याद् इति. एवम् अन्यान्यपि. तथा 'छउमत्थमरणं मरह' त्ति अहेतुम् अध्यवसानादेरुपक्रमकारणस्याऽभावात् छद्मस्थमरणम् अकेवलित्वात् , नतु अज्ञानमरणम् , अवध्यादिज्ञानित्वेन ज्ञानित्वात् तस्येति. अहेतून् एवाऽन्यथाऽऽह:-'पंच' इत्यादि तथैव, नवरम्:-अहेतुना हेत्वभावेन न जानाति, कथञ्चिदेव अध्यवस्यति-इति गमनिकामात्रम् एवेदम् . अष्टानामप्येषां सूत्राणां भावार्थं तु बहुश्रुता विदन्ति इति. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पश्चमशते सप्तम उद्देश के श्रीअभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. १०. छद्मस्थपणाने लइने हेतुना व्यवहार करनाग होवाथी, ए बधा नैरयिक वगेरे जीवो ( पण ) हेतुओ कहेवाय, माटे हवे हेतुना भेदोने निरूपता [ 'पंच हेऊ'] इत्यादि सूत्र कहे छ, अहीं-आ सूत्रोमां, हेतुना उपयोग-ज्ञान-थी अभिन्न होवाथी, हेतुओमां वर्ततो पुरुष पण हेतु ज कहेवाय, अने क्रियानी जुदाइ होवाथी ए हेतु पांच प्रकारना छे माटे कहे छः--[ ' हे जागइ ' ति] साधना निश्चय माटे, साध्याविनाभूत-साध्यनी विना नहि रहेता-थता-साध्य साथे ज रहेनार हेतुने विशेषथी सारी रीते जाणे छे, सम्यग्दृष्टिपणुं होवाथी, आ पांचे प्रकारनो हेत पण सम्यग्दृष्टि मानवो, कारण के, बे सूत्र पछी मिथ्यादृष्टि हेतु कहेवाशे-ए एक हेतु थयो. ए प्रमाणे, सामान्यपणे अवबोध होबाथी हेतुने जए छे, ए बीजो हेतु थयो. ए प्रमाणे हेतुने सारी रीते बोधे छे-सदहे छे, कारण के 'बुध ' धातु सम्यक्श्रद्धानो पर्याय-समानार्थ-छे, ए बीजो देत थयो. तथा साध्यनी सिद्धिमा वापरवाथी हेतुने सारी रीते प्राप्त करे छे, ए चोथो हेतु थयो. तथा [ ' हेउं छउमत्थ-' इत्यादि.] हेतु एटले मरणना कारणरूप अध्यवसाय वगेरे, मरणनो, हेतु साथे संबंध होवाथी मरण पण हेतु कहेवाय, माटे ते हेतुने एटले हेतुवाळा छमस्थ मरणने रेले अहेतुक होवाथी, केवलिमरण अहीं न ले, तेम आ हेतु सम्यग्ज्ञानी होवाथी अने अशन मरण आगळ कहेवामां आवशे माटे अज्ञान मरण पण न लेवू-ए पांचमो हेतु थयो. बीजे प्रकारे हेतुओने ज कहे छे:----[ 'पंच' इत्यादि. ] अनुमानना उत्पन्न करनार हेतुबडे अनुमयवस्तुने सम्यग्दृष्टि होवाथी सारी रीते जाणे छे, ए एक. ए प्रमाणे जुए छे, ए बीजो. ए प्रमाणे बोधे छे एटले श्रद्दधे छे-ए बीजो. ए प्रमाणे सारी रीते प्राप्त करे छ, ए चोथो तथा अफेवली होवाथी अध्यवसायादिरूप हेतुर छमस्थ मरण करे छे-ए पांचमो. हो मिथ्याटिने आश्रीने हेतुओने कहे छ:--'पंच' इत्यादि ] हेतुनो व्यवहारी होवाथी जीव पण हेतु कहेवाय, क्रियानो भेद होवाथी ए हेतु पांच छे, तेमां- मिथ्यादृष्टिपणाथी हेतुने नधी जाणतो एटले नञ् ' कुत्सार्थवाळो होवाथी असम्यक् प्रकारे हेतुने जाणे छे-ए एक. ए प्रमाणे नथी जोतो २. ए प्रमाणे, श्रद्धा नथी करतो ३. ए प्रमाणे प्राप्त नथी करतो ४. तथा मिथ्यादृष्टिपणाने लीधे असम्यग् ज्ञानी होवाथी अध्यवसानादि हेतु सहित अज्ञान मरण करे छे ५. बीजी रीते हेतओने ज कहे छ:---[ 'पंच' इत्यादि. ] हेतु एटले निशान-ते वडे-हेतु बडे-सम्यक् प्रकारे जाणतो नथी, ए एक अने ए प्रमाणे बीजा पण चार हेतुओ समजवा. हवे कहेला हेतुओथी विपक्षभूत हेतुओने कहे छे:--[ 'पंच' इत्यादि.] केवलज्ञानिओने सघळु प्रत्यक्ष होय छेमाटे तेवा प्रत्यक्ष ज्ञान धरावता केवलज्ञानिओने कांइ पण जोवा के जाणवा कोइ हेतु-निशान-नी जरूर रहेती नथी तेथी तेओ (केवळज्ञानिओ) अहेतु-हेतुनी जरूर विनाना-कहेवाय छे अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञानिपणाने लीधे हेतुना व्यवहारी न होबाथी केवलज्ञानिओ अहेतु कहेवाय छे. अने क्रियानो भेद होवाथी ते पांच छे. ते जेम के, [ ' अहेउं जाणइ ' ति ] सर्वज्ञपणाने लीधे अनुमाननी जरूर न होवाथी धूमादिक पदार्थोने अहेतु ममजे छे-अग्निने जाणवा माटे तेओने (धूमादिने) हेतुभावे जाणता नथी, कारण के, सर्वज्ञने पोताने अनुमान करवापणुं होतुं नथी तेथी धूमादिक पदार्थो तेना कोठामा कोइ जातर्नु अनुमान करावी शकता नथी माटे ज ते धूमादिक हेतुनी अपेक्षा विनाना सर्वज्ञ · अहेतु ' कहेवायं. ए प्रमाणे । जुए छे' वगरे त्रण अहेतुओ जाणवा. तेम ज अनुपक्रमी एटले कोइ निमित्तथी मार्या न मरे तेवा होवाथी अहेतुक केवलिमरण करे छे-ए पांचमो अहेतु समजवो. बीजे प्रकारे अहेतुओने ज कहे छ:--[पंच ' इत्यादि.] तेम ज एटले पूर्वनी पेठे जाणवं. विशेष ए के, केवली होवाथी, हेतु न होय तो पण वस्तुने जाणे ए अहेतु ज कहेवाय, ए प्रमाणे ' जूए छे' इत्यादि ३ क्रिया पण जाणी लेवी. [अहेउणा केवलिमरणं मरइ 'त्ति ] उपक्रम न होवाथी केवलिमरण करे छे, कारण के, केवलिनु मरण निर्हेतुक होय छे. बीजे प्रकारे अहेतुओने ज कहे छः-पंच अहेऊ' इत्यादि. अहेतुना व्यवहारी जीव पण अहेतु कहेवाय, ज्ञानादिनो. जाणवू वगेरे क्रियाओनो-भेद होवाथी ते अहेतु पांच छे. ते जमके, [' अहेउं न जाणइ ' त्ति ] धूमादि पदार्थो अनुमानना प्रादुर्भावक ज छे-एवो एकान्त न होबाथी तेओने सर्वथा अहेतुभावे जाणता नथी पण कथंचित् ज जाणे छे, कारण/के, अहिं 'नन्, ' अल्प-निषेध-अर्थवाळो छे अने जाणनार अवधि वगेरे ज्ञानवाळो होवाथी तेने सर्वथा ज्ञान नथी कयुं पण कथंचिद् ज्ञान कयुं छे, सर्वधा ज्ञान तो केवलिने ज होय छे, एम बीजा पण प्रण जाणी लेवा. तथा [ ' अहेडं छउमत्थमरणं मरइ ' त्ति ] अध्यवसान वगेरे उपक्रम कारण न होबाथी अहेतु मरण अने ते ज मरण केवलिपणुं न होवाथी छनस्थ मरण कहेवाय, पण अवधि वगरे ज्ञान हे वाथी तेना ज्ञानिपणाने लीधे अज्ञानमरण न वहेवाय. अन्यथा-बीजे प्रकारे-अहेतुओने ज कहे छ:-['पंच' इत्यादि.] तो अक्षार्थ छे बधं तेम ज-पूर्वनी पेठे-जाणवू. विशेष ए के, अहेतुए कथंचित् ज जाणे छे. आ अहीं जणायेली टीका तो मात्र गमनिका- अक्षरार्थरूप-ज छे. वार्थ तो बहु वसो अने आ आठे सूत्रोनो भावार्थ तो बहुश्रुतो ज जाणे छे. जाणे. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी. यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. उद्देशक ८. महावीरा अंते सीनारदपुत्र अने निर्ग्रथीपुत्र- पुद्रलो शुं साधं छे ?-समध्य के ?- सप्रदेश छे ?- नारदपुत्रना मते सर्व पुगलो सार्थ-समध्य अने सप्रदेश छै.मनिसार पनारी जागवानी पुत्र विरमनुं जुदी जुदी पेरताना अ मागेली क्षमा-विहार - गौतम बोल्या-जीव बधे छे ?- हीणा थाय छे १ अवस्थित छे ? जीरो वधता नवी घटता नथी- अवस्थित छे. नैरविकोधी यावत्-वैमानिको सुधी पूर्वोक्त विचार - सिद्धोनी वध घट-स्थिरता दिषे विचार जी अवस्थान वयां सुधी ? - सर्व काल - नैरथिकोनुं वधवापणं क्यों नारी पाएको विशेध्यारोनी माफी देने 1.-एम सातें रोनी ज्यो यिोनी योनी .-ए - पिकोनी भने सोधर्म ईशानादिनी वध घट-स्थिरत नी विचारणा-ए जातनीं सिद्धोने लगतीं विचारणा. शुं जीवों सोपचय छे ? - सापचय छे ? - सोपचयः सापचय छे ?-- निरुपचय-निरपचय के ?- जीवो 'निरुपचय-निरपचय छे.ए प्रमाणे सिद्धोने लगती विचारणा -कालनी अपेक्षाए जीव मात्रने लगती ए जातनी विचारणा - हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे काले समए थे, जाव-परिक्षा पगिया. काले ते समए पं. समणा भाषओ महावीरस्स अंतेवासी णारयपुत्ते णामं अणगारे पराइभदए, जाव- विहरति ते णं काले णं, ते णं समय व समणस्स भगवओ महावीरा जाय अंतेवासी निडिपुचे नामे अणगारे पगइभदए, जाव विहार गए. से निपटने अणगारे वेणामेव नारयपुचे अणगारेरोगे उबागडतेव उपागच्छता, नारयपुत्तं. अणगारं एवं वयासी: . १. प्र० - सव्वपोग्ला ते अजो ! किं सअड्डा, समज्झा, संपऐसा उदाह, अण्डा, अमझा, अपएसा १. उ० अपि नारयते अणगारे नियंठिपुतं जनगारं.एवं वयासीः–सव्वपोग्गला मे अजो ! सअड्डा, समझा, - -- ते काळे ते समये यावत्-सभा पाछी वळी. ते काळे, ते समवे भ्रमण भगवंत महावीरना शिष्य नारदपुत्र नागे अनगार जेओ प्रकृतिभद थइ यावत् विहरे छे, ते काळे, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना शिष्प निर्मन्धीपुत्र नागे अनगार प्रकृतिमंद थइ यावत् विहरे के पछी ते निर्मन्धीपुत्र नामे अनगार नारदपुत्र अनगार छे यां आवे छे, अने.वो आजीने तेमणेनिग्रंथीपुत्रे - नारदपुत्र अनगारने या प्रमाणे क: 3 १. प्र० - हे आर्य ! तमारा मते सर्व पुद्गलो शुं अर्ध सहित छे, मध्यसहित छे, प्रदेशसहित छे के अनर्थ अमव्य अने अप्रदेश छे ? " १. उ०- हे भार्य एम कही नारदपुत्र अनगारे निधीपुत्र अनगारने एम कह्युं के, मारा मत प्रमाणे - मारा धारवा प्रेमाणे , १. मूलच्छायाः तस्मिन् काले तस्मिन् समये, यावत् पर्धेत् प्रतिगता तस्मिन् काले, तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तेवासी नारदपुत्रो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रत्रः यावत् विहरति तस्मिन् काले तस्मिन् समये भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्य यावत्-अन्तेवासी निर्ग्रन्थीपुत्रो नोम अनंगा प्रकृतिकः वादविरविवृतः गोरियेनैव नारदपुत्रोऽनगारखेनैव उपागच्छति नेप अनगारम् एवम् अनादीदः सर्वपुद्गलाले किस समय प्रदेश: उतादोनच भगप्याः आर्य इति नारदपुत्रोऽये निर्भयीपुत्रम् अनगारम् एवम् भवाबीदःपुद्रा मे भासा समयाअ० / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ परसा नो अण्डा, अमझा, अपरसा. श्रीरामचन्द्र विनागमसंग्रहे २. प्र० ए से नियंठिपुते अणगारे एवं बयासी-ज णं ते अब्दो ! सम्यपोग्गला सअद्रा, समझा, सपएसा; नो अण्डा, अमन्झा, अपसा कि दयादेणं अयोगता अ, समझा, सपसा नो अणदा, अमन्झा, अपएसा खेत्तादेसेणं अज्जो ! सव्यपोग्गला सअड्डा तह चेव ? कालादेसेणं तं चैव ? भावादेसेणं तं चैव ! २. उ० तर र्ण से नारवपुचे अणगारे निर्वठिपुतं अनगारं एवं पयासी दयादेवि मे अज्जो ! सव्यपोग्गला सअड़ा, समज्झा, सपएसा; नो अणड्डा, अमज्झा, अपएसा; खेत्तादेसेण वि, कालादेसेण वि, भावादेसेण वि एवं चैत्र. - तए से नियंडिपुचे अणगारे नारवपुतं अणगारं एवं क्यासी व हे अयो ! दव्यासेनं भव्यपोग्ला, सअड्डा समझा, सपा नो अपट्टा, अमरक्षा, अपएसा एवं ते परमाणुपले पिस, समझे, सपएसे णो अगड़े, अमझे, अपएसे; जइ णं अज्जो ! खेत्तादेसेण वि सव्यपोग्गला सअड्डा, समझा सपएस एवं ते एगोगादेव पोगले सभड़े, समझे, सपएसे; जति णं अजो ! कालादेसेणं सव्वपोग्गला सट्टा, समझा, सप एसा एवं ते एकसमयडिलिए पि. योग्गले सअड्डे, समज्झे, सपए से - तं चैव जइ णं अजी ! भावादेसेणं अामा, सपएस एवं से एगगुणकाल वि पोग्गले सअड्डे, समझे, सपएसे तं चैव अह ते एवं न भवतिं तो जे पयसि दव्यासेन विसम्यपोग्लास, समज्झा, सपएसानो वा अमन्झा, अपएसा एवं खेच-कालभांषादेसेण पितं मिष्ठा. ५८. बघ पुलो समर्थ, समय अने सप्रदेश के पण अनर्थ अमध्य के अप्रदेश नथी. २. प्र० र पी ते निधीपुत्र अनगार एम बेस्या के, हे आये जो सारा मतमा तारा पारवा प्रमाणे सर्व पुलो समर्थ, समय, सप्रदेश के पण अनर्थ, अमन्य के अप्रदेश नथी तो हे आर्य ! शुं द्रव्यादेशवडे सर्व पुढो सअर्थ समन्य अने सप्रदेश छे अने अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश नथी ? के हे आर्य ! क्षेत्रादेशकडे सर्व पुलो अर्थसहित वगेरे तथैव पूर्व प्रमाणे छे ! के ते ज प्रमाणे कालादेशथी छे ? के ते ज प्रमाणे भावादेशथी छे ? - २. उ० -- त्यारे ते नारदपुत्र अनगारे निर्बंधीपुत्र अनगारने एम कयुं के, हे आर्य! मारा मतमां द्रव्यादेशची पण सर्व पुलो सअर्ध, समध्य अने सप्रदेश छे पण अनर्ध, अमध्य के अप्रदेश • नथी ए प्रमाणे, क्षेत्रादेशश्री पण छे, काळादेशथी पण छे अने भावादेशथी पण छे. क • ए -प्यारे ते निधीपुत्र अनगारे नारदपुत्र अनगारने एम के, हे आर्प ! जो द्रव्यादेशची सर्व पुढो समर्थ, समध्य अने सप्रदेश छे पण अनर्थ, अमध्य अने अप्रदेश नयी तो द्वारा मतमां प्रमाणे होवाची परमाणुपुद्रल पण समर्थ, समय अने सप्रदेश होवो जोइए पण अनर्ध, अमध्य के अप्रदेश न होवो जोइए, हे आर्प ! जो क्षेत्रादेशथी पण वर्धा पुद्रको समर्थ, समध्य अने सप्रदेश छे तो तारा मतमां एम होवाथी एकप्रदेशावगाढ पुद्गल पण समर्थ, समय अने सप्रदेश होतुं जोइए, बळी, हे भार्य ! जो कालादेशधी पण सर्व पुगटो सअर्ध, समभ्य भने सप्रदेश छे यो सारा मतमां ९ प्रमाणे होवाथी एक समपनी स्थितियाळां हो पंण सअर्ध इत्यादि ते ज-ते प्रकारना होगा जोइए, बळी, हे आर्य ! जो भावादेशधी पण सर्व पुढो समर्थ, समध्य अने सप्रदेश छे तो तारा महमा एम होवाथी एकगुण का पुल पण संबर्ध इत्यादि तेज प्रकारनं होतुं जोइए, हवे जो तारा मतमा एमन होय तो तुं जे कहे छे के, " द्रव्यादेशवडे पण बधां पुद्गलो सार्व ए समध्य अने सप्रदेश छे पण अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश नथी, ए प्रमाणे क्षेत्रादेश वडे, कालादेशकडे अने मानादेशवढे पण कहे छे, " से सो थाप. " 2 १. मूलच्छायाः प्रदेशाः सोऽनर्थाः, अमध्याः, अप्रदेशाः, ततः स निर्मन्थीपुत्रोऽनवारः एवम् अवादः यदि ते आयें साथी: समस्याः सप्रदेशाः मोनी, समया, अप्रदेशाः किं इन्याऽऽदेशेनाऽयं सा समयाः सप्रदेशः, नोनी, अमच्या अप्रदेशाः ! क्षेत्राऽऽदेशेनार्य ! सर्वपुद्गलाः सार्धाः, तथा चैव ! कालाssदेशेन तच्चैव ? भावाऽऽदेशेन तच्चैव ? ततः स नारदपुत्रोऽनगारो निर्मपुत्रमनगरम् एकम् अवादीत्ः - द्रव्याऽऽदेशेनाऽपि ममाssर्य ! सर्वपुद्गलाः सार्घाः, समध्याः, सप्रदेशाः; नोऽनघाः, अमध्याः, 'अप्रदेशाः; क्षेत्राऽऽदेशेवाऽपि बालाऽऽदेवाऽपि भावाऽऽदेशेनाऽपि एवं चैव नारदपुत्रम् अनगारम् एवम् अादि हे आर्य व्याऽऽदेशेन सर्वद्र साथी: समस्याः सप्रदेशाः मोअर, अमच्या प्रदेश एवं ते परमपि सार्थः समयः सप्रदेश: मो अर्थ: अमयः, अप्रदेश यदि आयें क्षेत्राऽऽदेशेन अपि सर्वपुद्गलाः साः समयः प्रदेश एवं ते एकप्रदेशायगादोऽपि समयः, प्रदेशः, यदि आर्य ! कालाऽऽदेशेन सर्वपुलाः सार्धाः समध्याः, सप्रदेशाः; एवं ते एकसमयस्थितिकोऽपि पुलः सार्धः, समध्यः, संप्रदेश:तच्चैव यदि आर्य ! भावाऽऽदेशेन सर्वपुलाः, सार्धाः, समच्याः, सप्रदेशा:; एवं ते एकगुणकालकोऽपि पुद्गलः सार्धः, समध्यः, सप्रदेशः, तिंच्चैष * ते एवं न भवति ततो यद् वदसि द्रव्याऽऽदेशेनापि सर्वपुद्गलाः सार्धाः, समध्याः, सप्रदेशाः नोऽनर्घाः, अमध्याः, अप्रदेशाः एवं क्षेत्र सा ', 1 · बालभाषाय / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-- उद्देशक ८. तए से नारवचे अणगारे नियंठिपुढं अणगारे एवं नवासी: नोतु देपुपिया एयम जाणामो, पासामो, जड़ णं देवाणुप्पिय णों गिलायंति परिकहित्तए तं इच्छामि णं देवापियाणं अंतिर एम सोया, निसम्म जानिए. भगवतुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र " तए गं से नियंडिपुचे अणगारे नारयपुचं अणगारं एवं बयासी:- दव्वादेसेण वि मे अज्जो ! सब्वे पोग्गला सपएसा वि, अप्पएस पि अनंता खेतासेण वि एवं चेन कालदेवि, भावादेसेण वि एवं चेव; जे दव्वओ अपएसे से खेत्तओ नियमा अपएसे, फालओ सिम सपएसे सिय अपने भावभो तिय सपए से, सिय अपएसे, जे खेत्तओ अपएसे से दव्वओ सिय सपएसे, सिव अपएसे, कालओ भगाए, भावओो मयणाए जहाँ खेत्तओ एवं कालओ, भावओ. जे दव्वओ सपएसे से खेत्तओ सिय सपएसे, सिय अपएसे; एवं कालओ, भाषओ वि. जे खेराओ सपरसे से दबाओ निवमा सपएसे फालओ भवणाए, भावओ भयणाए; जहा दव्वओ तहा कालओ, भावओ वि. २. प्र० एसि भेते! पोग्गलाणं दव्यादेसेणं, सेवादेसेणं, कालादेसेणं, भावादेसेणं सपएसाणं, अपएसाणं कयरे, कयरे जाय विसेसाहिया या २. उ०- वारयता ! सम्यस्थोपा पोग्गला भाषादेसेणं अपएमा, कालादेसेणं अपना असंजगुणा, दयादेसेणं असा असंखेज्जगुणा, खेत्तादेसेणं अप्पएसा असंखेज्जगुणा, खेत्तादेसेणं चेव सपएसा असंखेज्जगुणा; दव्वादेसेणं सपएसा विसेसाहिया, कालादेसेणं सपएसा विसेसाहिया, भावादेसेणं सपएसा विसेसाहिया. - तणं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं वंदइ, नसंसइ, वंदित्ता, नपुंसित्ता एवं अहं सम्मं विणएणं भुज्जो भुजो , २३३ क सारे से नारदपुत्र अनगारे निधीपुत्र अनगार प्रति एम के है देव मुयि ए अर्थने अने जाणता नधी, जोता नथी; हे देवानुप्रिय ! जो तमे ते अर्थने कहेतां ग्लानि न पामो तो हुं आप देवानुप्रियनी पासे ए अर्थने सांभळी, अवचारी जाणवा इच्छु छु. -सार याद से निधीपुत्र अनगारे नारदपुत्र अनगारने एम कथं के, हे आर्य ! मारा धारवा प्रमाणे द्रव्यादेशवडे पण सर्व पुद्रको सप्रदेश पण छे अने अप्रदेश पण छे, तेभो अनंत छे क्षेत्रादेशवडे पण एम ज छे; कालादेश अने भावादेशवडे पण ए प्रमाणे ज छे, जे पुल द्रव्यनी अप्रदेश छे, ते नियमे करी चोक्कत क्षेत्रथी अप्रदेश होय छे, कालथी कदाचित् सप्रदेश अने कदाचित् अप्रदेश होय अने गावची पण कदाचित् सप्रदेश होप अने कदाचित् अप्रदेश होय. जे क्षेत्रथी अप्रदेश होय ते द्रव्यवी कदाच सप्रदेश होप अने कदाच अप्रदेश होय, कालथी तथा भावी पण भजनार जाग, जेम क्षेत्रथीक, रोम कालथी अने भावधी कहेवुं. जे पुद्गल द्रव्यथी सप्रदेश होय ते क्षेत्रथी कदाच सप्रदेश होय अने कदाच अप्रदेश होय, एम कालथी अने भावथी पण जाणी लेवुं. जे पुद्गल क्षेत्रथी सप्रदेश होय ते, द्रव्यथी चोक्कस सप्रदेश होय अने कालथी तथा भावधी भजनावडे होय, जेम द्रव्यथी कयुं तेम कालथी अने भावधी पण जाणवुं. ३. प्र० - हे भगवन् ! द्रव्यादेशथी, क्षेत्रादेशथी, कालादेशथी, अने भावादेशथी सप्रदेश अने अप्रदेश ए पुद्गलोमां क्या क्या पुद्गलो यावत्-थोडा छे, घणां छे, सरखां छे अने विशेषाधिक छे ! ३. उ० - हे नारदपुत्र ! भावादेशवडे अप्रदेश पुगलो सर्वश्री थोडा छे, ते करतां कालादेशची अप्रदेशो असंवगुण छे, ते करतां द्रव्यादेशची अप्रदेशो असंख्यगुण छे, ते करतां क्षेत्रादेशथी अप्रदेशो असंख्यगुण छे, ते करतां क्षेत्रादेशथी सप्रदेशो असंख्यगुण छे, ते करतां द्रव्यादेशची सप्रदेशो विशेषाधिक छे, ते करतां कालादेशी सप्रदेशो विशेषाधिक छे अने ते करतां भावादेशथी प्रदेश विशेषाधिक छे, . १. मूलच्छायाः - तदा स नारदपुत्रोऽनगारो निर्ग्रन्थीपुत्रम् अनगारम् एवम् अवादीत्ः - नो खलु देवानुप्रियाः । एतम् अर्थ जानामि पश्यामि, यदि देवोपरि व इच्छ मे देवानाम् अन्तिके, नियतः मारदपुत्रम् अनवारम् एवम् अवादीत:-इव्याऽऽदेशेन ऽपि मे आये सर्वे पुलाः सप्रदेश अपि अप्रदेश अपि-अनन्ता एवं कालाऽऽदेशेनाऽपि भावादेशेनाऽपि एवं चैव; यो द्रव्यतोऽप्रदेशः स क्षेत्रतो नियमेनाऽप्रदेशः, कालतः स्यात् सप्रदेशः स्याद् अप्रदेशः, भावतः स्यात् सप्रदेशः, स्याद् अप्रदेशः यः क्षेत्रतोऽप्रदेशः स द्रव्यतः स्यात् संप्रदेशः स्यादू अप्रदेशः, कालतो भजनया, भावतो भजनया; यथा क्षेत्रतः एवं कालतः, भावतः यो द्रव्यतः सप्रदेशः स क्षेत्रतः स्यात् सप्रदेशः स्याद् अप्रदेशः एवं कालतः, भावतोऽपि यः क्षेत्रतः सप्रदेशः स द्रव्यो नियमेन सप्रदेशः, कालतो भजनया, भावतो भजनया; यथा द्रव्यतस्तथा कालतः, भावतोऽपि एतेषां भगवन् ! पुद्गलानां द्रव्याऽऽदेशेन, क्षेत्राऽऽदेशेन, कालादेशेन, भावादेव समदेशानाम् अप्रदेशान कतरा कतरो त्या नारदपुत्र सोधः पुचः भावाऽऽदेशेनाप्रदेशा, काला देशेगादेश अगुवा, इनादेशा अपेक्षेाऽदेशेन अशा अवगुणा देशादेशेन एवं प्रदेश अध द्रव्याऽऽदेशेन समदेशा विशेषाऽविका, कालाऽऽदेशेन प्रदेश विशेषाचा भावाऽऽदेशेन देवाविशेषाऽधिकाः तथा स नारदोऽनगारो निर्धन्धीपम् अनगार बन्न नमानमर्थम् विनवेन भूयो भूयः अनु —यार पछी ते नारदपुत्र अनगार निर्माधीपुत्र अनगारने बंदे छे, नमे छे; बंदी, नमी ए अर्थने-पोते कहेल अर्थ - माटे : Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ८. खामेति, खामित्ता संजमेणं, तसा अपाणं भावेमाणे जाव- विनयपूर्वक वारंवार तेओनी पासे क्षमा मांगे छे, खमावी संयम विहरड़. अने तपवडे आत्माने भावता यावत्-विहरे छे. १. सप्तमोद्देशके पुद्गलाः स्थितितो निरूपिताः, अष्टमे तु त एव प्रदेशतो निरूप्यन्ते-इत्येवंसंबन्धस्याऽस्य इदं प्रस्तावनासूत्रम्:--' ते णं काले णं' इत्यादि.' दव्वादेसेणं' ति द्रव्य प्रकारेण द्रव्यत इत्यर्थ:--परमाणुत्वाद्याऽऽश्रित्य इति यावत्. 'खेत्तादेसेणं' ति एकप्रदेशावगाढत्यादिना इत्यर्थः. 'कालादेसेणं' ति एकादिसमयस्थितिकत्वेन. 'भावादेसेणं' ति एकगुणकालत्वादिना. 'सव्व. पोग्गला सपएसा वि ' इत्यादि. इह च यत् सविपर्ययसार्धादिपुद्गलविचारे प्रक्रान्ते सप्रदेशाः, अप्रदेशा एव ते प्ररूपिताः-तत् तेषां प्ररूपणे सार्धत्वादि प्ररूपितमेव भवति इति कृत्वा-इत्यवसेयम् . तथाहिः--सप्रदेशाः सार्धाः, समध्या वा; इतरे तु अनर्धाः, अमध्याश्चेति. ' अणंत ' त्ति तत्परिमाणज्ञापनपरं तत्स्वरूपाऽभिधानम्, अथ द्रव्यतः-अप्रदेशस्य क्षेत्राद्याश्रित्याऽप्रदेशादित्वं निरूपयन्नाहः-- 'जे दव्वओ अप्पएसे' इत्यादि. यो द्रव्यतोऽप्रदेशः परमाणुः, स च क्षेत्रतो नियमाद् अप्रदेशः, यस्माद् असौ क्षेत्रस्य एकत्रैव प्रदेशे अवगाहते. प्रदेशद्वयाद्यवगाहे तु तस्याऽप्रदेशत्वमेव न स्यात्. कालतस्तु यद्यसौ एकसमयस्थितिकस्तदाऽप्रदेशः, अनेकसमयस्थितिकस्तु सप्रदेश इति. भावतः पुनः यद्येकगुण कालकादिस्तदाऽप्रदेशः, अनेकगुणकाल कादिस्तु सप्रदेशः इति. निरूपितो द्रव्यतोऽप्रदेशः, अथ क्षेत्रतोऽप्रदेशं निरूयन्नाह:--'जे खेत्तओ अप्पएसे' इत्यादि. यः क्षेत्रतोऽप्रदेशः स द्रव्यतः स्यात् सप्रदेश:-व्यणुकादेरपि एक.प्रदेशाऽवगाहित्वात् , स्याद् अप्रदेश:--परमाणोरपि एकप्रदेशाऽवगाहित्वात्. 'कालओ भयणाए' त्ति क्षेत्रतोऽप्रदेशो यः स कालतो भजनयाऽप्रदेशादिर्वाच्यः. तथाहि:--एकप्रदेशाऽवगाढः एकसमयस्थितिक वाद् अप्रदेशोऽपि स्यात् , अनेकसमयस्थितिकत्वाच्च सप्रदेशोऽपि स्याद्-इति. 'भावओ भयगाए ' ति क्षेत्रतोऽप्रदेशो योऽसौ एकगुणकालकादित्वाद् अप्रदेशोऽपि स्यात् , अमेकगुणकालकादित्वाच्च सप्रदेशोऽपि स्याद्-इति. अथ कालाऽप्रदशम् , भावाऽप्रदेशं च निरूपयन्नाह:--' जहा खेतओ एवं कालओ, भावओ 'त्ति यथा क्षेत्रतोऽप्रदेश उक्तः, एवं कालतः, भावतश्चाऽसौ वाच्यः. तथाहि:--' जे कालओ अप्पएसे से दबओ सिय सप्पएसे, सिय अप्पएसे' एवं क्षेत्रतः, भावतश्च तथा 'जे भावओ अप्पएसे से दबओ सिय सप्पएसे, सिय अप्पएसे' एवं क्षेत्रतः, कालतश्च इति. उक्तोऽप्रदेशः, अथ सप्रदेशमाहः-- जे दबओ सप्पएसे' इत्यादि. अयमर्थः--यो द्रव्यतो द्वयणुकत्वादित्वेन सप्रदेशः, स क्षेत्रतः स्यात् सप्रदेश:--द्वयादिप्रदेशाऽगाहित्वात् , स्याद् अप्रदेश:-- एकप्रदेशावगाहित्वात्. एवं कालतः, भावतश्च. तथा यः क्षेत्रतः सप्रदेशो द्वयादिप्रदेशाऽवगाहित्वात् स द्रव्यतः सप्रदेश एव, द्रव्यतोऽप्रदेशस्य द्वयादिप्रदेशाऽवगाहित्वाऽभावात्. कालतः, भावतश्चासौ द्विधाऽपि स्याद्-इति. तथा यः कालतः सप्रदेशः स द्रव्यतः, क्षेत्रतः, भावतश्च द्विधाऽपि स्यात्. तथाऽपि यो भावतः सप्रदेशः स द्रव्य-क्षेत्र-कालैविधाऽपि स्याद्-इति सप्रदेशसूत्राणां भावार्थ इति. अथ एषामेव द्रव्यादितः सप्रदेशा-ऽप्रदेशानाम् अल्प-बहुत्व-विभागमाह:--'एएस णं' इत्यादि सूत्रसिद्धम् , नवरम् :--अस्यैव सूत्रोक्ताऽल्प-बहुत्वस्य भावनार्थं गाथाप्रपञ्चो वृद्धोक्तोऽभिधीयते:--- “वोच्छं अप्पा-बहुयं दब्ब-खेत्त-द्ध-भावओ वा वि, अपएस-सपएसाण पोग्गलाणं समासेणं. दव्वेणं परमाणू खेत्तेणेगपएसं ओगाढा, कालेणेगसमईया अपएसा पोग्गला होति. भौवणं अपएसा एगगुणा जे हवंति वनाई." वर्णादिभिरित्यर्थः. ___ " ते चिय थोवा जं गुणबाहुल्लं पायसो दव्वे." द्रव्ये प्रायेण द्वयादिगुणा अनन्तगुणान्ता: कालकत्वादयो भवन्ति. एकागुणकालवादयस्तु अल्पा इति भावः. . "एत्तो कालाएसेणं अप्पएसा भवे असंखगुणा, किं कारणं पुण भवे ? भन्नति-परिणामबाहुल्ला." अयमर्थ:--यो हि यस्मिन् समये यद्वर्ण-गन्ध-रस- स्पर्श-संघात-भेद-सूक्ष्मत्व-वादरत्वादिपरिणामान्तरमाऽऽपन्नः स तस्मिन् समये तदपेक्षया कालतोऽप्रदेश उच्यते. तत्र च एक.समयस्थिति:- इति, अन्ये परिणामाश्च बह्व इति प्रतिपरिणाम कालाऽप्रदेशसंभवात् तबहुलत्वमिति. एतदेव भाव्यतेः-- भावेणं अपएसा जे ते कालेण हुंति दुविहा वि, दुगुणादओ वि एवं भावेणं जावऽणतगुणा." भावतो ये-अप्रदेशा एकगुणकालत्वादयो भवन्ति ते कालतो द्विधाऽपि भवन्ति-सप्रदेशाः, अप्रदेशाश्च इत्यर्थः. तथा भावेन १. मूलच्छाया:-क्षमयति, क्षगयिला संयमेन, तपसाऽऽत्मानं भावयन् यावत्-विहरतिः-अनु० १. प्र. छा:-वक्ष्येऽल्प-बहुत्वं द्रव्य-क्षेत्रा-ऽद्धा-भावतो वाऽपि, अप्रदेश-सप्रदेशानां पुद्गलानां समासेन. द्रव्येण परमाणयः क्षेत्रेणएकप्रदेशमवगाढाः, कालेनैकसमयिका अप्रदेशाः पुद्गला भवन्ति २. भावेन अप्रदेशा एकगुणा ये भवन्ति वर्णादयः, ३. ते एव स्तोका यद् गुणयाहुल्यं प्रायशो द्रव्ये. ४. इतः कालादेशेन अप्रदेशा भवेयुरसंख्यगुणाः, किं कारणं पुनर्भवेत् ? भण्यते-परिणामबाहुल्यात् . ५. भावेन भनदेशा ये ते कालेन भवन्ति द्विविधा अपि, द्विगुणादयोऽपि एवं भावेन यावद्-अनन्तगुणाः-अनु० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ८. भगवत्सुधमस्वामिप्रणात भगवतासूत्र. १३५ द्विगुणादयोऽपि अनन्तगुणान्ताः--' एवं ' इति द्विविधा अपि भवन्ति. ततश्चः-- "कोलाऽपएसयाणं एवं एकेकओ हवइ रासी, एकेकगुणठाणम्नि एगगुणकालयाईसे." एकगुणकाल-द्विगुगकालादिषु गुणस्थानकेषु मध्ये एकैकस्मिन् गुणस्थानके कालाऽप्रदेशानाम् एकैको राशिर्भवति, ततश्चाऽनन्तत्वाद् गुणस्थानकराशीनाम् अनन्ता एव कालाऽप्रदेशराशयो भवन्ति. अथ प्रेरकः-- . “ओह अगंतगुणतणमेवं कालापएसयाणं ति, जं अणंतगुणठाणेसु होति रासी विहु अणंता." ' एवं ' इति-यदि प्रतिगुणस्थानकं कालाऽप्रदेशराशयोऽभिधीयन्ते इति. अत्रोतरम्:-- " भन्नइ एगगुणाण वि अणंतभागम्मि जं अगंतगुणा, तेणाऽसंखगुण चिय हवंति णाणतगुणियत्तं." अयमभिप्रायः--यद्यपि अनन्तगुणत्वादीनाम् अनन्तराशयः, तथ.पि एकगुणकालत्वादीनाम् अनन्तभाग एव ते वर्तन्ते-इति न तद्द्वारेण कालाप्रदेशानाम् अनन्तगुणत्वम् , अपि तु असंख्यात गुणत्वमेव इति. “एवं ता भावमिणं पडुच्च कालापएसिया सिद्धा, परमाणुपोग्गलाइसु दव्वे वि हु एस चेव गमो." एवं तावद् ‘भावं :-वर्णादिपरिणामं ' इमम् ' उक्तस्वरूपम् एकाद्यनन्तगुणस्थानवर्तिनमित्यर्थः. प्रतीत्य कालाप्रदेशिकाः पुद्गलाः सिद्धाः, कालाप्रदेशता वा पुद्गलानां सिद्वा प्रतिष्ठिता. द्रव्येऽपि द्रव्यपरिणाममपि अङ्गीकृय परमावादिषु एष एव भवपरिणामोक्त एव गमः-व्याख्या. __ " ऐमेव होड़ खेत्ते एगपएसावगाहणाइसु, ठाणंतरसंकति पडुच कालेण मग्गणया." एवमेव द्रव्यपरिणामवद् भवति क्षेत्रे क्षेत्रमधिकृत्य एकप्रदेशावगाढादिषु पुद्गलभेदेषु स्थानान्तरगमनं प्रतीत्य कालेन कालाऽप्रदेशानां मार्गणा, यथा क्षेत्रतः, एवम् अवगाहनादितोऽपि-इत्येतदुच्यतेः "संकोय-विकोयं पि हु पडुच्च ओगाहणाए एमेव, तह सुहम-बायर-निरेय -सेय-सदाइपरिणामं." अवगाहनायाः संकोचम् , विकोच च प्रतीय कालाप्रदेशाः स्युः, तथा सूक्ष्म--बादर-स्थिरा--ऽस्थिर-शब्द--मनः--कर्मादिपरिणाम च प्रतीत्येति. " एवं जो सव्वो चिय परिणागो पुग्गलाण इह समये, तं तं पडुच्च एसिं कालेणं अप्पएसत्तं." 'एसिं ' ति पुद्गलानाम् इत्यर्थः. " कालेण अप्पएसा एवं भावाऽपएसएहितो, होति असंखिजगुणा सिद्धा परिणामबाहुल्ला. ऐतो दव्यादेसण अप्पएसा हवंतिऽसंखगुणा, के पुण ते ? परमाण, कह ते बहुय ! त्ति तं सुणसु. अणु-संखेज्जपएसिय-असंखगुण-अणंतप्पएसिया चेव, चउरो चिय रासी पोग्गलाण लोए अणंताणं. त्थाऽणतेहितो सुत्तेऽणतप्पएसिएहितो, जेण-प्पएसद्वाए भणिया अणुओ अणंतगुणा." अनन्तेभ्यो-ऽनन्तप्रदेशिकस्कन्धेभ्यः प्रदेशार्थतया परमाणवोऽनन्तगुणाः सूत्रे उक्ताः. सूत्रं चेदम्:-" सम्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा दव्वट्ठाए, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगणा, परमाणपुग्गला दबद्वयाए पएसद्वयाए अणेतगुणा, संखेजपएसिआ खंधा दव्वद्वयाए संखेज्जगुणा, ते चेव पएसद्वयाए असंखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए असंखेजगुणा, ते चव पएसट्टयाए असंखगुण ति." “संखेजतिमे भागे संखेजपएसियाण वट्टति, नवरमसंखेज्जपएसियाण भागे असंखइमे." संख्येयतमे भागे' संख्यातप्रदेशिकानाम् , असंख्याततमे भागे असंख्यातप्रदेशिकानाम् अणवो वर्तन्ते-उक्तसूत्रप्रामाण्याद् इति. " सँइ वि असंखेज्जपएसियाणं तेसिं असंखभागत्ते, बाहुलं साहिज्जइ फुडमवसेसाहि रासीहिं." १. प्र० छा:-कालाऽप्रदेशक नामेवम् एकैकतो भवति राशिः, एकैकगुणस्थाने एकगुगकालकादिषु. २. आह अनन्तगुणत्वमेवं कालाप्रदेशकानामिति, यद् अनन्तगुणस्थानेषु भवन्ति राशयोऽपि खलु अनन्ताः. ३. भण्यते एकगुणानामपि अनन्तभागे यद् अनन्तगुणाः, तेन असंख्यगुणा एव भवन्ति नाऽनन्त गुणिकत्वम् . ४. एवं तावद् भाव मिमं प्रतीत्य कालाप्रदे शकाः सिद्धाः, परमाणुपुदूलादिषु द्रव्येऽपि खलु एष एव गमः, ५. एवमेव भवति क्षेत्रे एकप्रदेशावगाहनादिषु, स्थानान्तरसंक्रान्ति प्रतीत्य कालेन मार्गणता. ६. संकोच-विको चमपि खलु प्रतीत्य अवगाहनाया एवमेव, तथा सूक्ष्मबादर-निरेज-सेज-शब्दादि-परिणामम् . ७. एवं यः सर्वः एव परिणामः पुद्गलानामिह समये, तं तं प्रतीत्य एषां कालेन अप्रदेशत्वम् . ८. कालेन अप्रदेशा एवं भावाऽप्रदेश केभ्यः, भवन्तिः असंख्येयगुणा सिद्धाः परिणामबाहुल्यात् . ९. इतो द्रव्यादेशेन अप्रदेशा भवन्ति-असंख्यगुणाः, के पुनस्ते? परमाणवः, का ते बहुकाः ? इति तत् शृणु, १०. अणु-संख्येयप्रदेशिक-असंख्य गुण-अनन्तप्रदेशिका एव, चत्वार एव राशयः पुद्गलाना लोकेऽनन्तानाम् . ११. तथाऽनन्तेभ्यः सूत्रेऽन्तप्रदेशि केभ्यः, येन प्रदेशार्थतया भणिताः अणवोऽनन्तगुणाः. १२. सर्वतोका अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धा द्रव्यार्थतया, ते एव प्रदेशार्थतया अनन्तगुणाः, परमाणुपुद्गला द्रव्यार्थतया-प्रदेशार्थतया अनन्तगुणाः, संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धा द्रव्यार्थतया संख्यगुगाः, ते एव प्रदेशाधत या असंख्येय गुणाः. असंख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धा द्रव्यार्थतया असंख्य यगुणाः, ते एव प्रदेशार्थतया असंख्यगुणा इति. १३. संख्येयतमे भागे संख्येयप्रदेशिकानां वर्तन्ते, नवरमसंख्येयप्रदेशिकानां भागेऽसंख्यतमे. १४. सत्यपि असंख्येयप्रदेशिकानां तेषामसंख्यभागत्वे सारल्यं कथ्यते स्फटमवशेषै राशिमि:-अनु० . Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उदेशक ८. संख्यातप्रदेशिका-ऽनन्तप्रदेशिकाऽभिधानाभ्याम् , इह च संख्यातप्रदेशिकराशेः संख्यातभागवार्तत्वात् तेषां स्वरूपतो बहुत्वमवगम्यते, अन्यथा तस्याऽपि असंख्येयभागे, अनन्तभागे वा तेऽभविष्यन् इति. "जेणिकरासिगो चिय असंखभागे ण सेसरासीणं, तेणाऽसंखेजगुणा अणवो कालापएसेहिं." 'न शेषराश्योः' इत्यस्याऽयमर्थः-अनन्तप्रदेशिकराशेरनन्तगुणास्ते, संख्यातप्रदेशिकराशेस्तु संख्यातभागे, संख्यातभागस्य च विवक्षया नाऽत्यन्तम्-अल्पता, कालतः सप्रदेशेषु, अप्रदेशेषु च वृत्तिमताम् अणूनां बहुत्वात् , कालाऽप्रदेशानां च सामयिकत्वेनाऽत्यन्तमल्पत्वात् कालाऽप्रदेशेभ्योऽसंख्यातगुणत्वं द्रव्याऽप्रदेशानाम् इति. • " ऐत्तो असंखगुणिया हवंति खेत्ताऽपएसया समये, जंते तो सव्वे चिय अपएसा खेत्तओ अणवो. दुपैएसियाइएसु वि पए सपरिवुडिएसु ठाणेसु, लभइ इक्किको चिय रासी खेत्ताऽपएसाणं. ऐतो खेत्ताएसेण चेव सपएसिया असंखगुणा, एगपएसोगाढे मोतुं सेसाऽवगाहणया. ते' पुण दुपएसोगाहणाइया सव्वपोग्गला ससा, ते य असंखेजगुणा अवगाहणट्ठाणबाहुल्ला. दैव्वेण होति एत्तो सपएसा पोग्गला विसेसाहिया, कालेण य भावेण य एमेव भवे विसेसाहिया. भाँवाइया बुडी असंखगुणिया जं अपएसाणं, तो सप्पएसियाणं खेत्ताइविसेसपरिवुद्धी." एतद्भावना च वक्ष्यमाणस्थापनातोऽवसेया. “मीसाणं संकमं पइ सपएसा खेत्तओ असंखगुणा, भणिया सहाणे पुण थोच चिय ते गहेयव्वा." मिश्राणाम् इति अप्रदेश-सप्रदेशानां मीलितानां संक्रमं प्रति अप्रदेशेभ्यः, सप्रदेशेषु अल्प-बहुत्वविचारे संक्रमे क्षेत्रतः सप्रदेशाः असंख्येयगणाः क्षेत्रतोऽप्रदेशेभ्यः सकाशात् , स्वस्थाने पुनः केवलसप्रदेशचिन्तायां स्तोका एव ते क्षेत्रतः सप्रदेशा इति. एतदेव उच्यते:-- “खेतेणे सप्पएसा थोवा दव्वद्धभावाओ अहिया, सपएसप्पा-बहुयं सहाणे अत्थओ एवं." अर्थत इति व्याख्यानाऽपेक्षया. “पंढमं अपएसाणं बीयं पुण होई सप्पएसाणं, तइयं पुण मीसाणं अप्प-बहुं अत्थओ तिन्नि." अर्थतो-व्याख्यानद्वारेण त्रीणि अल्पबहुत्वानि भवन्ति, सूत्रे तु एकमेव मिश्राऽल्प-बहुत्वम् उक्तमिति. “ठाणे ठाणे वड़ई भावाईणं जं अप्पएसाणं, तं चिय भावाईणं परिभस्सति सप्पएसाणं" यथा किल कल्पनया लक्षं समस्तपुद्गल.तेषु भाव-काल-द्रव्य-क्षेत्रतोऽप्रदेशाः क्रमेण एक- द्वि-पञ्च-दशसहस्रसंख्याः, सप्रदेशास्तु नवनवति-अष्टनवति-पञ्चनवति-नवतिसहस्रसंख्याः , ततश्च भावाऽप्रदेशेभ्यः कालाप्रदेशेषु सहस्रं वर्धते, तदेव भावसप्रदेशेम्यः कालसप्रदेशेषु हीयते, इत्येवम् अन्यत्राऽपि इति, स्थापना चेयम्: भावतः-- कालतः द्रव्यत: क्षेत्रत: २००० ५००० १०००० अप्रदेशा:-- १००० सप्रदेशा:-९९००० । ९८००० ९५००० ९०००० “ अहेवा खेत्ताईण जं अप्पएसाण हायए कमसो, तं चिय खेत्ताईणं परिवइ सप्पएसाणं." "अवरो-परप्पसिद्धा वुड़ी हाणी य होइ दोहं पि, अप्पएस-सप्पएसाणं पोग्गलाणं सलक्खणओ." १. प्र. छा:-येनैकराशेरेव असंख्यभागे न शेषराशीनाम् , तेन असंख्येयगुणा अणवः कालाऽप्रदेशः. २. इतः असंख्य गुणिता भवन्ति क्षेत्राऽप्रदेशता समये, यत् ते ततः सर्व एव अप्रदेशाः क्षेत्रतोऽगवः. ३. विप्रदेशिकादिकेषु अपि प्रदेश रिवर्धितेषु स्थानेषु, लभ्यते एकैक एव राशिः क्षेत्राऽप्रदेशानाम् . ४. इतः क्षेत्रादेशेन एव सप्रदेशिका असंख्य गुणाः, एकप्रदेशावगाढान् मुक्त्वा शेषावगाहनता. ५. ते पुनर्द्विप्रदेशावगाहनादिकाः सर्वपुद्गलाः शेषाः, ते च असंख्येयगुणाः अवगाहनस्थानबाहुल्यात् . ६. द्रव्येण भवन्ति इतः सप्रदेशाः पुद्रला विशेषाधिकाः, कालेन च भावेन च एवमेव भवेयुर्विशेषाधिकाः. ७. भावादिका वृद्धिरसंख्यगुणिता यद् अप्रदेशानाम् , ततः सप्रदेशिकानां क्षेत्रादिविशेषपरिवृद्धिः, ८. मिश्राणां संक्रमं प्रति सप्रदेशाः क्षेत्रतः-असंख्यगुणाः, भणित': स्वस्थाने पुनः स्तोका एवं ते प्रहीतव्याः. ९. क्षेत्रण सप्रदेशाः स्तोकाः द्रव्या-द्धाभावाद् अधिकाः, सप्रदेशाल-बहुकं खस्थाने अर्थत एवम् . १०. प्रथमम् अप्रदेशानां द्वितीय पुनर्भवति सप्रदेशानाम् , तृतीय पुनर्मिश्राणामल्प-बहु अर्थतत्र णि. ११ स्थाने स्थाने वर्धते भावादीनां यद्-अप्रदेशानाम् , तदेव भावादीनां परिभ्रश्यति सप्रदेशानाम् . १२. अथवा क्षेत्रादीनां यद् अप्रदेशानां हीयते क्रमशः, तद् एव क्षेत्रादीनां परिवर्धते सप्रदेशानाम् . १३ अपरापरप्रसिद्धा वृद्धि निख भवति द्वयोरपि, भप्रदेश-सप्रदेशयोः पुदलयोः खलक्षणत::-अनु. . Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ शतक ५.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ___"ते' चेव य ते चाहिं वि जमुवचरिज्जति पोग्गला दुविहा, तेण उ वुड्डी हाणी तेसिं अनोन्नसंसिद्धा." चतुर्भिरिति भाव-कालादिभिः उपचर्यन्ते इति विशेष्यन्तेः एएसि रासीणं निदरिसणमिणं भणामि पञ्चक्खं, बुद्धीए (बुडीए) सव्वपोग्गला जावं तावाण लक्खाओ." कल्पनया यावन्तः सर्वपुद्गलास्तावतां लक्ष इति. "ऐवं च दो य पंच य दस य सहस्साई अप्पएसाणं, भावाइणं कमसो चउण्ह वि जहोवइटाणं." “णवई पंचणघड अट्ठाणउई तहेव नवनवई, एवइयाई सहस्साई सप्पएसाण विवरीयं." " ऐपसं जहासंभवं अत्थोवणयं करिज राणिं, सम्भावओ य जाणेजा ते अणंते जिणाभिहिए"त्ति. १. सातमा उद्देशामां स्थितिनी ओक्षाए पुद्गलो निरूप्या छे, आठमामां तो ते पुद्गलो ज प्रदेशनी अपेक्षाए निरूपाय छे' ए प्रमाणेना संबंधवाळा आ आठमा उद्देशकर्नु आ-[ ' ते णं काले णं' इत्यादि ] प्रस्तावना सूत्र छे. [' दव्वादेसेणं' ति ] द्रव्यना प्रकारे-द्रव्यथी- द्रव्यादेश. द्रव्यनी अपेक्षाए परमाणुत्त्र वगेरेनो आश्रय करीने-ए निष्कर्ष छे. [ ' खेतादेसेणं ' ति ] एकादेशावगाढव-एक प्रदेशमा रहे-इत्यादिनी क्षेत्रादेश. अपेक्षाए, [ 'कालादेसेणं' ति ] 'एक समय सुधी रहेवापY' इत्यादिनी अपेक्षाए, [ ' भावादे सेणं' ति ] ' एकगणुं काळापणुं' इत्यादिनी कालादेश अने अपेक्षाए, [ ' सबपोग्गला सपएसा वि ' इत्यादि. ] अहिं ' सार्ध अने अनर्ध ' ए प्रकारे विपर्यय सहित पुद्गलनो विचार प्रकान्त-शरू-छे तो पण भावादेश. तेमां ते पुद्गलो सप्रदेशो अने अप्रदेशो ज निरूप्या छे तो आपणे एम जाणवू के सत्रदेश अने अप्रदेशना प्ररूपणमा सार्घत्व वगेरेनुं प्ररूपण आवी गयुं छे माटे तेने जुदुं नथी कडुं. तेने ज दर्शावे छे के, जेओ सपदेश छे तेओ सार्य अथवा समध्य छे अने जेओ तो इतर-अप्रदेश-छ तेओ सार्थ-समध्य, अनर्ध अने अमध्य छे. [ ' अणंत ' ति] आ · अनंत ' शब्द, सप्रदेश अने अप्रदेश पुद्गलोर्नु परिमाण जगावे छे अर्थात् ए द्वारा परमाणुने लगता परिमाणना स्वरूपर्नु अभिधान-कथन--छे. हवे द्रव्यथी अप्रदेश पुद्गलनुं क्षेत्रादिनी अपेक्षाए अप्रदेशादिपशुं निरूपता कह छ:-[जे दव्यओ द्रव्यथी अपदेश. अपएसे' इत्यादि. ] जे पुद्गल, द्रव्यथी अप्रदेश-परमाणुरूप-छे, ते क्षेत्रथी नियमे--चोकस--अप्रदेश होय छे, कारण के, ने पुद्गल, क्षेत्रना एक ज : प्रदेशमा रहे छे, जो बे प्रदेश वगेरे प्रदेशोमा रहे तो तेमां अप्रदेशपणुं न होइ शके--ते अप्रदेश कहेवाय ज नहीं, कालथी तो जो ए, एक समयनी स्थितिवाळो छे तो अप्रदेश छे अने अनेक समयनी स्थितिवाळो होय तो सप्रदेश छे, वळी भायथी जो एकगुण काळो विगेरे प्रकारको छे तो अप्रदेश छे अने अनेकगुण-श्यामादि छे तो सप्रदेश छे-ए प्रमाणे द्र-यथी-द्रव्यनी अपेक्षाए-अप्रदेश पुद्गलनुं निरूपण कयु. हवे क्षेत्रनी अपेक्षाए अप्रदेश पुद्गलने निरूपता कहे छे:-['जे खेत्तओ अप्पएसे' इत्या.दे. ] जे पुद्गल क्षेत्रथी अप्रदेश होय ते पुद्गल द्रव्यथी कदाचित् सप्रदेश क्षेत्रथी अप्रदेश. होय अने कदाचित् अप्रदेश होय, कारण के, द्वन्यणुकादि पण क्षेत्रना एक प्रदेशमा रहेनारा होवाथी द्रव्यथी सप्रदेश छे अने क्षेत्रथी अप्रदेश छे तथा परमाणु एक प्रदेशमा रहेनार होवाथी द्रव्यथी अप्रदेश छे तेम क्षेत्रथी पण अप्रदेश छे. [ ' कालओ भयणाए' ति] जे पुद्गल क्षेत्रथी अप्रदेश छे ते कालथी भजनार कहेवू अर्थात् कदाच सप्रदेश कहे, अने कदाच अप्रदेश कहे, जेम के, कोइ पुद्गल एक प्रदेशमा रहनार अने एक समयनी स्थितिवाळु होवाथी कालनी अपेक्षाए अप्रदेश पण छे अने एवं ज कोइ बीजं पुद्गल एक प्रदेशमा रहेनारं पण अनेक समयनी स्थितिवाळु होवाथी काळनी अपेक्षाए सप्रेदश पग छे. [ ' भावओ भयणाए ' त्ति ] जे पुद्गल क्षेत्रवी अप्रदेश छे ते जो एकगुग श्यामादि होय तो भावथी पण अप्रदेश छे अने अनेकगुण श्यामादि होय तो क्षेत्रथी अपदेश पुद्गल पण भावथी सप्रदेश छे. हवे कालनी अपेक्षाए काली माती अने भावनी अपेक्षाए अप्रदेश पुद्गलने निरूपता कहे छ के, [ 'जहा खेत्तओ, एवं कालओ, भावओ' ति ] जेम क्षेत्रथी पटेल अप्रदेश पुद्गल कयूं तेम ए, कालथी अने भावथी कहे. जेमके, जे पुद्गल कालथी अप्रदेश होय ते पुद्गल द्रव्यथी कदाच सप्रदेश पण होय अने अप्रदेश पण होय.' ए प्रमाणे क्षेत्रथी अने भावथी जाणवू. तथा 'जे पुद्गल भावथी अप्रदेश होय ते द्रव्यथी कदाच सप्रदेश होय अने कदाच अप्रदेश होय. ' ए प्रमाणे क्षेत्रथी अने काळथी जाणवं. अत्यार सुधी अप्रदेश पुद्गल विषे निरूपण कयु, हवे सप्रदेश पुद्गलने निरूपवा कहे छः- [जे दब्बो सप्पएसे' इत्यादि. ] एनो आ अर्थ छः-जे पुद्गल, द्वयणुकादिपणाने लीधे द्रव्यथी सप्रदेश छे ते पुद्गल क्षेत्रथी कदाच सप्रदेश होय अने कदाच अपदेश पण होय--जो बे प्रदेशमा रहेनारुं होय तो सप्रदेश होय अने एक प्रदेशमा रहेनारुं होय तो अप्रदेश होय. ए प्रमाणे काळथी अने भावथी पण जाणवु. वळी, बे विगेरे प्रदेशमा रहेनाएं होवाथी जे पुद्गल क्षेत्रथी सप्रदेश छे ते द्रव्यथी सप्रदेश ज होय, कारण के, जे पुद्गल द्रव्यथी अप्रदेश होय ते पुदगल, बे वगेरे प्रदेशमा रही ज न शके, अने कालथी तथा भावथी ए पुद्गल द्विघा--बन्ने प्रकारे--पण होय; तथा जे पुद्गल कालथी सप्रदेश छे ते पुद्गल द्रव्यथी, क्षेत्रथी अने भावथी बन्ने प्रकारे पण होय, तथा जे पुद्गल भावथी सप्रदेश होय ते द्रव्यथी, क्षेत्रथी अने काळथी पण बन्ने प्रकारे होय--ए प्रमाणे सप्रदेशसूत्रोनो भावार्थ छे. हवे द्रव्यादिनी अपेक्षाए ए सप्रदेश--अप्रदेश पुद्गलोने लगती अल्प--बहुता विषेना विभागने दर्शावता कहे छ:-[ ' एएसि णं' इत्यादि.] ए मूळपाठ सूत्र , सिद्ध छे-स्पष्टार्थ छे, विशेष ए के, आ अल्प-बहुपणाना विचार माटे वृद्धोए कहलो गाथानो विस्तार अहिं कहीए छीए:--" द्रव्यथी, क्षेत्रथी, वृद्धो. कालथी, अने भावथी पण अप्रदेश अने सप्रदेश पुद्गलोनू अल्पत्व अने बहुत्व संक्षाथी कहीश" परमाणु, द्रव्यथी अप्रदेश छे, एक प्रदेशमा रहेनार पुद्गल, क्षेत्रथी अप्रदेश छे, एक समयनी स्थितिवाडं पुद्गल, कालयी अप्रदेश छे अने “ एकगुण कोइ पण वर्णवाळु-एकगणुं कालु या घोळ या पीळ वगरे वर्णवाढं-पुद्गल भावथी अप्रदेश छे" वण्णाई ' एटले वर्णादिवडे " अने ते.ज पुद्गलो-भावथी अप्रदेश पुद्गलो-सौथी १. प्र० छा:-ते चैव च ते चतुर्भि पि यदुपचर्यन्ते पुद्गला द्विविधाः, तेन तु वृद्धिानिस्तेषां अन्योन्यसंसिद्धा. २. एतेषां राशीनां निदर्शनमिदं भणामि प्रत्यक्षम् , बुद्धया (वृद्धया) सर्वपुद्गला यावन्तस्तावतां लक्षाणि. ३. एकं च द्वे च पञ्च च दश च सहस्र.णि, 'अबदेशानां भावादीनां क्रमशश्चतुर्णामपि यथोपदिष्टानाम् . ४. नवतिः पञ्चनवतिः अष्टानवतिः तथैव नवनवतिः, एतावन्ति सहस्राणि सप्रदेशानां विपरीतम् . ५. एतेषां यथा..संभवम्-अर्थोपनयं कुर्याद राशीनाम् , सद्भावतश्च जानीयात् तान् अनन्तान् जिनाभिहितान-इतिः-अनु. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उद्देशक ८. थोडां छे, कारण के, प्रायः करीने द्रव्यमां गुणोनु बाहुल्य रहे छे " तात्पर्य ए छे के, द्विगुणथी मांडी अनंतगुण पर्यंत मापवाळा कालकत्व-काळापणुंवगरे गुणो जाजे भागे द्रव्यमा बहुलताए होय छे.अने एकगुणकाळु बगेरे एकगणा गुणो तो अल्प होय छे, माटे द्रव्यथी अप्रदेश पुद्गलो सर्वशी थोडां कहां छे. " ए करतां कालादेशथी अप्रदेश पुथलो असंख्यगुण छे, तेम थयामां बळी कारण छे ? तो कहे छे के, परिणामनी बहुलता, तेम थवामां कारण छ " तात्पर्य आ छे के, जे समये जे पुद्गल जे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संघात, भेद, सूक्ष्मत्व अने बादरत्व वगरे रूप बीजा परिणामने पामेलुं होय, ते समये ते पुद्गल, ते अपेक्षाए कालथी अप्रदेश कहेवाय, वळी तेमां स्थिति तो एक समय नी छे अने बीजा परिणामो तो घणा छ माटे दरेक परिणामे दरेक पुद्गल कालथी अप्रदेश संभवतुं होवाथी तेनुं बहुपणुं छे, एनोज विचार करे छ:-जे पुद्गलो भावथी अप्रदेश छे ते पुद्गलो कामथी बन्ने प्रकारना पण छे एटले सपदेश पण छे अने अप्रदेश पण छे, तथा जे पुद्गलो भावथी, द्विगुणथी मांडी अनंतगुण पर्यंत वर्णादिवाळां छे ते चुगलो पण ए प्रकारे कालथी-बे प्रकारना-सप्रदेश अने अप्रदेश छे" अर्थात् एकगुण कालवादिवाळी जे पुद्गलो भावथी अप्रदेश छे ते, कालथी बन्ने प्रकारना पण होय छे एटले सप्रदेश अने अप्रदेश पग होय छे, तथा जे पुद्गलो भावथी, द्विगुणधी मांडी अनंतगुण सुधीना वर्णादिवाळां छे ते पण ' एवं' एटले ए प्रकारे बन्ने प्रकारना छ एटले सप्रदेश अने अप्रदेश छे, तेथी करीने " एकगुग कालादिरूप गुणस्थानोनी मध्ये एक एक गुणस्थानमां कालथी अप्रदेश पुद्गलोनो ए प्रमाणे एक एक ढगलो थयो तात्पर्य ए छे के, एकगुणकाळु, द्विगुणकालु इत्यादि गुणस्थानोनी मध्ये एक एक गुणस्थानमां कालथी अप्रदेश पुद्गलोनो एक एक ढगलो थयो अने तेम थवाथी गुणस्थानकनी राशिना अनंतपणाने लइने कालथी अप्रदेश पुद्गलोना अनंत ढगला थाय छे. हवे प्रेरक-प्रतिवादी-कहे छे के, शास्त्रकार तो कालथी अप्रदेश पुद्गलोनुं असंख्यगुणपणुं कहे छ पण " ए प्रकारे कालथी अप्रदेश पुद्गलोर्नु अनंतगुणपणुं थइ जशे. कारण के, अनंतगुणस्थानोमां राशिओ पण अनंत होय छे " ' एवं ' एटले ए प्रकारे-दरेक दरेक गुणस्थानके कालथी अप्रदेश - पुद्गलोनी राशिओ कहो छो-एम होवाथी अहिं उत्तर दर्शाये छ:-" कहेवाय छे के, ते अनंतराशिओ एकगुण कालत्वादिने पण अनंते भागे छ माटे ते असंख्य गुण ज थाय छे पण तेनु ( गशिओनुं ) अनंतगुणपणुं यतुं नथी." आ अभिप्राय छे के, जो के, अनंतगुण कालत्वादिनी अनंत राशिओ छे तो पण ते राशिओ एकगुण कालत्यादिने अनंते भाग ज वर्ते छे, माटे ते राशिओ द्वारा कालथी अप्रदेश पुद्गलोर्नु अनंतगुणपणुं यतुं नथी, पण असंख्यातगुणपणुं ज छे. "ए प्रमाणे आ वर्णादि परिणामरूप भावने अपेक्षी परमाणु पुद्गलादिमां कालथी अपदेशपणुं सिद्ध थथु, तेम ज द्रव्यमां पण ए ज गम जाणवो" अर्थात् ए प्रमाणे तो आ हमणां ज कहेवाएला एवा वर्णादि परिणामरूप अने एकथी मांडी अनंतगुणस्थानवर्ती भावने अपक्षी कालथी अग्रदेश पुद्गलो सिद्ध थयां अथवा पुद्गलोनू कालथी अप्रदेशपणुं प्रतिष्ठित थयु. द्रव्यमा पण, द्रव्य परिणामन अंगीकरी परमायादि पुद्गलोना ए ज भावपरिणामोक्त व्याख्यागम-समजवी. " ए ज प्रमाणे क्षेत्राधिकारने आश्री एकप्रदेशावगाहनादिमां स्थानांतरना संक्रमने अपेक्षी कालवडे मार्गणा करवी" तात्पर्य ए छे के, ए प्रमाणे ज-द्रव्यपरिणामनी पेठे-क्षेत्रने अधिकरी एकप्रदेशावगाढ वगेरे पुद्गल भेदोमां स्थानांतरगमननी-बीजे स्थाने जवानी-अपेक्षाए कालथी अप्रदेशोनी जेम क्षेत्रथी एम अवगाहनादिथी' पण मार्गणा करवी; एने ज कहे छ:-" अवगाहनाना संकोच अने विकोचने पण अपेक्षी जेम कालाप्रदेश पुद्गलो छ एम सूक्ष्म, बादर, निष्कंप, सकंप अने शब्दादि परिणामने अपेक्षी तथा प्रकारना पुद्गलो-कालाप्रदेश पुद्गलो-छे ११ तत्त्व ए छे के, अवगाहनाना संकोच अने विकोचने अपेक्षी कालाप्रदेश पुद्गलो छे तेम सूक्ष्म, बादर, स्थिर, अस्थिर, शब्द, मन अने कर्मादि परिणाम ने अपेक्षी कालापदेश पुद्गलो छे. “ए प्रमाणे आ समये पुद्गलोनो, जे कोइ बधो परिणाम थाय छे, ते ते सर्व परिणामने अपेक्षी ए पुद्गलोर्नु कालवडे अप्रदेशपणुं छे " एसिं ' एटल ए पुद्गलोन. " ए प्रमाणे भावथी अप्रदेश पुद्गलो करतां कालथी अप्रदेश पुद्गलो, परिणामना बाहुल्यथी असंख्यगुण सिद्ध थयां "" ए करतां द्रव्यादेशथी अप्रदेश पुद्गलो असंख्यगुण छे, वळी ते क्या ? तो कहे छ के, परमाणु, ते बहु केवी रीते छ ? तो कहे छ के, तेनी बहुत ने नीचे प्रमागे जाणो" " लोकमां, अणु, संख्येयप्रदेशवाळु, असंख्यगुण प्रदेशवाळु अने अनंतप्रदेशवाळु, ए चार प्रकारना अनंतपुद्गलोनी. चार राशिओ छे ” तेमां, सूत्रद्वारा एम कर्जा छ के, जेथी अनंतप्रदेशवाळा अनंतपुद्गलो करतां प्रदेशार्थनी अपेक्षाए अणुओ अनंतगुणां छे" सूत्रमां, अनंतप्रदेशवाळा अनंत स्कंधो करतां प्रदेशार्थनी अपेक्षाए परमाणुओ अनंतगुणां कयां छे, ते सूत्र आ छ:-" द्रव्यार्थनी अपेक्षाए अनंत प्रदेशवाळा स्कंधो सौथी थोडा छे अने ते ज रकंघो, प्रदेशार्थनी अपेक्षाए अनंतगुण छ, परमाणु पद्गलो द्रव्यार्थ प्रदेशार्थनी अपेक्षाए अनंतगुण छ, संख्ययप्रदेशवाळा स्कंधो द्रव्यार्थनी अपेक्षाए संख्येयगुण छे अने ते ज स्कंधो प्रदेशार्थनी अपेक्षाए असंख्येयगुण छे, असंख्येय प्रदेशबाळा स्कंधो द्रव्यार्थनी अपेक्षाए असंख्यगुण छे अन ते ज स्कंधो प्रदेशार्थनी अपेक्षाए असंख्यगुण छे"" संख्यातनदेशवाळाना संख्यातम भागे वर्ते छे, विशेष ए के, असंख्यातप्रदेशवाळाना असंख्यातमे भागे छे" पूर्वोक्त सूत्रनुं प्रामाण्य होवाथी संख्यातप्रदेशवाळाना अणुओ संख्यातमे भागे रईछे अने असंख्या प्रदेशिकना अणुओ असंख्यातमे भागे रहे छे. " ते असंख्यात प्रदेशबाळानु असंख्यभागपणुं छे तो पण बाकीनी राशिओ करतां स्फुट रीते बाहुल्य कहेवाय छे ” — संख्यात प्रदेशवाळा अने अनंत प्रदेशवाळा' ए बे राशिओ छे ते करतां अने अहीं संख्यात प्रदेशिकराशिना संख्यातभाग पिगाने लइने खरूपथी तेओनुं बहुमणुं जणाय छे, जो एम न हो तो ते, तेना असंख्येय अथवा अनंते भागे होत. " जे कारणथी एक राशिना ज असंख्यभागे छ पण बाकीनी बे राशिओना असंख्येय भागे नथी, ते कारणने लइने कालाप्रदेश करतां अणुओ असंख्यगुण छ. " बाकीनी बे राशि नहि ' एनो आ प्रमाणे निष्कर्ष छ:--अनंत प्रदेशिकराशि करतां ते अनंतगुण छ, संख्यात प्रदेशिवराशिने तो संख्यात भागे छे अने विवक्षाए संख्यात भागनी अत्यंत अल्पता नथी, कारण के, कालथी सप्रेदश अने अप्रदेशमा वृत्तिवाळा अणुओनुं बहुपणुं छे अने कालापदेशिक अणुओ मात्र एकसमयनी स्थितिबाळा होवाथी घणा ज ओछा छ तथा-तेम होवाथी-कालाप्रदेश पुद्गलो करतां द्रव्याप्रदेश पुद्गलो असंख्यातगुण छे “सिद्धांतमा, एना करतां क्षेत्राप्रदेशपुद्गलो असंख्यगुण छे, कारण के, ते बधा य अणुओ क्षेत्रथी अप्रदेश छे " " द्विप्रदेशिकादिपदोमां पण प्रदेशपरिवर्धित स्थानोमां क्षेत्रथी अप्रदेशोनो एक एक राशि प्राप्त थाय छे " दथी एक प्रदेशावगाढ पुद्गलोने मूकी बाकीनी अवगाहनाए क्षेत्रादेशबडे ज सप्रदेशपुद्गलो असंख्यगुण होय छे" "वळी, ते द्विप्रदेशावगाहनादिक सर्व शेष पुद्गलो, अवगाहनास्थाननी बहुलताने लीधे असंख्यगग छे " " एना करतां द्रव्यथी सप्रदेशपुगलो विशेषाधिक छे, ए प्रमाणे ज कालथी अने भावथी विशेषाधिक छ । जेथी करीने, अप्रदेशोनी भावादिकवृद्धि असंख्यगुण छे तेथी सप्रदेशोनी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २३९ क्षेत्रादि विशेष परिवृद्धि छे" आ बधो विचार हवे पछी मूकवामां आवनारी स्थापनाथी जाणवो. "मिश्रोना संक्रम प्रत्ये सप्रदेशो, क्षेत्रथी असंख्यगुण कह्या छे, बळी, ते पोताना स्थानमा थोडा ज ग्रहण करवा " तात्पर्य ए छे के, मिश्र एटले साथे मळेला अप्रदेश अने संप्रदेशपुद्गलो, तेना संक्रम प्रत्ये-अप्रदेशो करतां सप्रदेशो विषेना अल्प बहुत्वना विचाररूप संक्रममा-क्षेत्रथी ‘सप्रदेशो, क्षेत्रथी अप्रदेशो करतां असंख्यगुण छे. वळी, पोताना स्थानमा मात्र सप्रदेशना विचारमां-त-क्षेत्रथी सप्रदेश पुद्गलो-थोडा ज छे. ए ज कहीए छीए:----" क्षेत्रथी सप्रदेश पुद्गलो थोडा छे, द्रव्य, काळ अने भावनी अपेक्षाए सप्रदेश पुद्गलो अधिक छे अने स्वस्थानमां--कोइनी अपेक्षा विना-सप्रदेश पुद्गलोर्नु अल्प बहुत्व छे, ए प्रमाणे अर्थथी जाणवं. अर्थथी एटले व्याख्याननी अपेक्षाए. “ पहेलु अप्रदेशोनुं, बीजु सप्रदेशोनुं, वळी, त्रीजु मिश्रोतुं ए प्रमाणे अर्थथी त्रण अल बहुत्व छे” अर्थथी एटले व्याख्यानद्वारा-ग अल्प बहुत्व छे, पण सूत्रमा तो एक ज मिश्रोतुं अल्प बहुत्व कयुं छे, " स्थाने स्थाने जे भावादिक अप्रदेशोनी वृद्धि थाय छे, ते ज भावादिक सप्रदेशोनी हानी थाय छे" जेमके, कल्पना वडे सर्व पुद्गलो एक लाखनी संख्यावाळा छे, तेमां भावथी अप्रदेश पुद्गलो १००० छे, कालथी अप्रदेश पुद्गलो २००० छे, द्रव्यथी अप्रदेश पुद्गलो ५००० छे अने क्षेत्रथी अप्रदेशपुद्गलो १०००० छे अने भावथी सप्रदेश पुद्गलो ९९००० छे, कालथी सप्रदेश पुद्गलो ९८००० छे द्रव्यथी सप्रदेश पुद्गलो ९५००० छे अने क्षेत्रथी सप्रदेश पुद्गलो ९०००० छे, अने तेम होवाथी भाव अप्रदेशो करतां काल अप्रदेशोमा १००० वधे छे अने ते ज हजार संख्या भाव सप्रदेशो करतां काल सप्रदेशोमा ओछी थाय छे, एम बीजे पण जाणी लेवू, तेनी स्थापना-आकृति-आ छ:--- भावतः कालतः व्यतः क्षेत्रतः समजाववा माटे कल्पेली स्थापना. अप्रदेश- १००० | अप्रदेश- २००० | अप्रदेश- ५.०० अप्रदेश- १०००० सप्रदेश- ९९००० । सप्रदेश- ९८००० सप्रदेश- ९५००० । सप्रदेश- ९०००० " अथवा क्षेत्रादि-अप्रदेशोनी क्रमथी जे-जेटली-हानी थाय छे ते ज-तेटली ज-क्षेत्रादि-सप्रदशोनी परिवृद्धि थाय छे " " अप्रदेश अने सप्रदेश बन्ने पुद्गलोनी पण परस्पर हानी अने वृद्धि स्खलक्षण-पोताना लक्षण-थी प्रसिद्ध थाय छे" " " जेथी, ते बन्ने प्रकारना पुद्गलो ते चार वडे उपचरित थाय छे तेथी तो ते पुदलोनी परस्पर वृद्धि अने हानि संसिद्ध छे" चार वडे एटले भाव, काल, द्रव्य अने क्षेत्र वडे, उपचरित थाय छे एटले विशेषित थाय छे " ए राशिओनुं प्रत्यक्ष आ उदाहरण कहुं छुः-बुद्धिए एम कल्पो के, जेटलां पुद्गलो छे ते बधां मळीने एक लाख संख्याबाळां छे" कल्पनावडे, जेटलां पुद्गलो छे तेटलांनी एक लाख संख्या कल्पवी. “ क्रमपूर्वक एक, बे, पांच अने दस हजार पुद्गलो यथोपदिष्ट भावादिक चारेनी पग अपेक्षाए अप्रदेशिक छे" " नेवू, पंचा', अट्ठाणुं तेम ज नवाणुं-एटलां हजार पुद्गलो भावादिक चारेनी अपेक्षाए विपरीत रीते-उलटे क्रमे-सप्रदेशिक छे" "जेम संभवे तेम ए राशिओनो अर्थोपनय करवो, अने सद्भावथी खरी रीते-एम जाणवू के, श्रीजिनोए ते (राशि) अनंत कही छे." जीवोनी वधघट. ४.प्र०-भते !' त्ति भगवं गोयमे समणं जाव-एवं ४.प्र.--हे भगवन् ! एम कही भगवंत गौतमे श्रमण पदासी:-जीवा णं भंते ! किं वडति, हायंति, अवविया ! भगवंत महावीरने एम कयुं के, हे भगवन् । जीवो शु वधे छे, घटे छे के अवस्थित रहे छे ? ४. उ०-गोयमा ! जीवा ण णो हायति, अव. ४. उ०-हे गौतम ! जीवो वधता नथी, घठता नथी पण ट्ठिया. अवस्थित रहे छे. ५.प्र०--नेरझ्या णं भंते ! किं बड़ांत, हायंति, अव- . ५. प्र.--हे भगवन् ! नैरयिको हुँ वधे छे, घटे छ के द्विया ? अवस्थित रहे छे ? ५. उ०-गोयमा ! नेरइया वडति वि, हायंति वि, अव- ५. उ०-हे गौतम | नैरयिको वधे पण छे, घटे पण छे द्विया वि-जहा नेरइया वि एवं जाव-वेमाणिया. अने अवस्थित पण रहे छे. जेम नैरयिको माटे कथु एम यावत् वैमानिक सुधीना जीवो माटे जाणवू. ६. प्र०-सिद्धा णं भंते ! पुच्छा ? ६. प्र०-हे भगवन् ! सिद्धोनो प्रश्न करवो अर्थात् तेओ वधे छे, घटे छे के अवस्थित रहे छे ? १. मूलच्छाया:--भगवन् ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं यावत्-एवम् अबादीत्-जीवा भगवन् । किं वर्धन्ते, हीयन्ते अवस्थिताः ? गौतम ! बीवा नो वर्धन्ते, नो हीयन्ते, अवस्थिता. नैरयिका भगवन् ! किं वर्धन्ते, हीयन्ते, अवस्थिताः ? गौतम ! नैरयिका वर्धन्तेऽपि, हीयन्तेऽपि, अवस्थिता अपि. यथा नैरयिकाः अपि एवं यावत्-वैमानिकाः. सिद्धा भगवन् ! पृच्छा:-अनु. " Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ६. उ० गोगमा सिवा पति, तो हायति, अपडिया वि. ७. प्र० - जीवा णं भंते ! केवतियं कालं अवट्टिया ? औरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे ७. उ०- सबुद्धं. ८. प्र०रया में भंते! केवति का ८. उ०- गोषमा ! जगं एवं समयं कलियाए असंखेज्जइभागं. एवं हायंति वा. ९. प्र० ] मेरइया मते कि अपट्टिया गं ९. उ०- गोषमा ! जहणेगं एवं समयं उप पडवीसं ता. एवं सत्त वढवसु वडुंति, हायंति - भाणि यच्या; परंतु हमें पाजारचणपनाए पुढ अयालीसं मुहुता, सकरप्पभाए चउद्दत राइदिया णं, मालुमनाए मासो, पंरुणभाए दो मासो, धूमप्यभाए चचारि 1 मासा, तमाए अट्ठ मासा, तमतमाए बारस मासा, पति ? उकोसेणं आ असुरकुमाराविति हायंति जहा मेरइया. अपट्टिया जहणं एकं समयं उकोसेणं अडचचालीस मुहता. एवं दस विद्या वि. एगिदिया पति वि हायति पि, अपट्टिया चि. एहि तिहि पिजर्ण एवं समयं उसेणं आवलियाए असंखे इभागं. - वे तिंदिया बडृति, हायंति, तहेव, अवद्विया जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो अंतोमुहुत्ता एवं जात्र - चउरिदिया. अवसेसा सन्धे वति, हायंति, तहेव, अवट्ठियाणं णाणत्तं इमं तं जहा संमुच्छिमदियतिरिक्स जोगियाणं दो अंतोसुदुता, गब्भवकंतियाणं चउन्नीसं मुहुत्ता, संमुच्छिमणुस्साणं अद्वचत्ताछोसं सुहुत्ता, गव्मवतियम गुस्सा चडवी से मुहुत्ता, पाणमंतर जोइ सोइम्मी-सा अपपाठी मुदुवा, सकुवारे अट्ठारस राई दियाई चालिस मुवा, माहिदे पउपी - य मुहुत्ता, चउवीसं राईदियाई शतक ५. - उद्देशक ८. ६. उ० - हे गौतम ! सिद्धो वधे छे, घटे नहि अने अत्रस्थित पण रहे छे. ७. प्र० - हे भगवन् ! केटला काळ सुची जीवो अवस्थित रहे ७. उ०—( हे गौतम ! ) सर्वकाळ सुधी. ८. प्र०- हे भगवन् ! नैरयिको केटला काळ सुधी व छे? ८. उ०- हे गौतम! जयम्यधी एक समय सुश्री अने टाकथी आला असंख्य भाग सुधी नैरधिक जीनो बधे छे, एप्रमाणे घटवाना काळ पण तेटला जाणवा. ९. प्र० हे भगवन् ! नैरयिको केटला काळ सुधी अवस्थित रहे छे ? ९. उ०- हे गौतम! जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्टथी चावीश मुहूर्त सुधी नैरयिको अवस्थित रहे छे. ए प्रमाणे खाते पण पृथ्वीओनां व छे, घडे छे, एम कहे विशेष ए के, अवस्थितोमां आ भेद जाणो:- ते जेमके, रत्नप्रभा पृथ्वीमां अडतानीन मुहूर्त शर्कराम चंद रात्रि दिवस, बालुकाप्रथाम एक मास का मास, धूमप्रभागां चार मास, समप्रभाम बे आठ मास, अने तमतमाप्रभामां बार मास अवस्थान काळ छे. जैम नैरपिको माटे प एम अमुरकुमारो पण बधेछे, घंटे छे. अने जकये, एक समय सुधी अने उत्कृष्टधी अडताळी मुर्ती सुधी अवलित रहे छे, ए प्रमाणे इसे प्रकारना पण भवनपति कहेवा. — एकेन्द्रियो वधे पण छे, घटे पण छे अने अवस्थित पण रहे छे, एत्रणे बड़े पण अधन्ये एक समय अने उत्कृष्टे आवलिकानो असंख्य भाग, एटलो काळ जाणव 2 - वे इंद्रियो, अने त्रे इंद्रियो ते ज प्रमाणे बधे छे, घटे छे; अने तेओनुं अवस्थान जघन्ये एक समय अने उत्कृष्टे के अन्तर्मुहूर्त सुधीनुं जाणवुं. ए प्रमाणे यावत्- चउरिंद्रिय सुबीना जीवो माटे जाणवु. शकीना बधा जीयो केटो व फेटलो काळ घंटे के ए काळ ले, बधुं तथैव - पूर्वनी पेठे जाणवुं अने तेओना अवस्थान काळमां आ प्रमाणे नानाव- मेद छे-से जेमके, सम्मूर्च्छिमपंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिकोनो अवस्थान फाळके, गर्भ पंचेंद्रिय चि योगेफोनो अपस्थान फाळ कोश मुहूर्त छे, सम्मूमि मनुष्योनो १. मूलच्छायाः गतम ! सिद्धा वर्धन्ते, नो हीयन्ते, अवस्थिता अपि जीवा भगवन् ! कियन्तं कालम् अवस्थिताः ? सर्वाऽद्धा. नैरयिका भगवन! कियन्तं कालं वर्धन्ते ? गौतम । जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेनाऽऽवलिकाया असंख्येयभागम् एवं हीयन्ते वा नैरयिका भगवन् ! कियन्तं का अवस्थित रामजन्येन एवं समयम् अनति एवं सासु आदि चीते हीयन्ते मागितल्यावरअवस्थितेषु इदं नानात्वम् तद्यथाः- रत्नप्रभायां पृथिव्याम् अष्टचत्वारिंशत् मुहूर्तः, शर्कराप्रभायां चतुर्दश रात्रिंदिनानि, वालुकाप्रभायां मासः, पत्रभायां द्वैा मासा, धूमप्रभायां चत्वारो मासाः तमायाम् अष्ट मासाः तमस्तमायां द्वादश मासाः असुकुमारा अपि वर्धन्ते, हीयन्ते यथा मैरा अवस्थित जपन्वेन एवं समयम् मुती एवं दशविधा अ. एकेन्द्रिया , > अपि एमिरन एवं समय उन आलाय अश्यभागम् हि-जीन्द्रिया वर्धन्ते हीयते तथेव अवस्थितानन्देन एक समयम्, उत्कृष्टेन द्वैा अन्तर्मुहूर्त एवं यावत् चतुरिन्द्रियाः अवशेषाः सर्वे वर्धन्ते, हीयन्ते तथैव, अवस्थितानां नानात्वम् इदम् तद्यथाःसंमूर्तिमग्योनि गर्भाः मुहूर्त मूच्छिष्णाम् अस्यारिद्मुती गर्म न्तिकमनुष्याणाम् चर्तुविशतिर्मुहूर्तः, वानव्यन्तर- ज्योर्तिषिक साधर्मे शानेषु अष्टचत्वारिंशद् मुहूर्तः सनत्कुमारेऽष्टादश रात्रिंदिवानि चत्वारिंशच मारादिनामि : Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ८., भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. वीस य मुहुत्ता, बंभलोए पंचचत्तालीसं राइंदियाई, लंतए नउइ अवस्थान काळ अडतालीश मुहूर्त छ, गर्भज मनुष्योनो अवस्थान राइंदियाई, महासु के साह राइंदियसयं, सहसारे दो राइदिय- काळ चोवीश मुहूर्त छे; वानव्यंतर, ज्योतिषिक, सौधर्म अने ईशान सयाई, आगय-पाणयाणं संखेज्जा मासा, आरण-ऽचुयाणं संखेन्जाई देवलोकमां अवस्थान काळ अडतालीश मुहूर्त छे, सनत्कुमार देववासाई; एवं गेवेजदेवागं, विजय-जयंत-जयंत-अपराजियाणं लोकमां अढार रात्रिदिवस अने चालीश मुहूर्त अवस्थान काळ छे, असंखेजाई वाससहस्साई, सव्वट्ठसिद्धे पलिओवमस्स संखेनइ- माहेंद्र देवलोमा चोवीश रात्रिदिवस अने वीश मुहूर्त अवस्थान भागो; एवं भागिय वडति, हायंति जहण्गेणं एकं समयं, काळ छे, ब्रह्मलोकमां पीस्तालीश रात्रिदिवस अवस्थान काळ छे, उक्कोसेणं आवलियाए. असंखेजड्भागं, अववियाणं जं भणियं. लांतक देवलोकमां नेवु रात्रिदिवस अवस्थान काळ छे, महाशुक्र देवलोकमा एकसो साठ रात्रिदिवस अवस्थान काळ छे, सहस्रार देवलोकमां बसो रात्रिदिवस अवस्थान काळ छे, आनत अने प्राणत देवलोकमा संख्येय मासो सुधी अवस्थान काळ छे, आरग अने अच्युत देवलोकमां संख्येय वर्षो अवस्थान काळ छे, ए प्रमाणे प्रैवेयक देवोनो, विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित देवोनो असंख्य हजार वर्षों सुधी अवस्थान काळ जाणत्रो, तथा, सर्वार्थ सिद्धमा पल्योपमना संख्येय भाग सुधी अवस्थान काळ जागवो. अने एओ, जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्ट आवलिकाना असंख्य भाग सुधी वधे छे, घटे छे ए प्रमाणे कहे अने-तेओनो अवस्थान काळ तो जे कह्यो ते जाणवो. १०. प्र०—सिद्धा णं भंते ! केवड्यं कालं वड्डति ? १०. प्र०-हे भगवन् ! सिद्धो केटला काळ सुधी वधे छे !, १०. उ०-गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं १०. उ०-हे गौतम ! जघन्ये एक समय अने उत्कृष्टे आठ अट्ठ समया. समय सुधी सिद्धो वधे छे. ११. प्र०-केवइयं कालं अवडिया ? ११. प्र०-(हे भगवन् !) सिद्धो केटला काळ सुधी अवस्थित रहे छे ? ११. उ०-गोयमा ! जहणणं एक समयं, उक्कोसेणं ११. उ०-हे गौतम! जघन्ये एक समय अने उत्कृष्ट छ छम्मासा. मास सुधी सिद्धो अवस्थित रहे छे. १२.प्र०-जीवा णं भंते ! किं सोवचया, सावचया, १२. प्र०-हे भगवन् । जीवो उपचय सहित छे, अपचय सोयचय-सावचया, निरुवचय-निरवचया ? ' सहित छे, सोपचय सापचय छे अने उपचय रहित छे के अपचय - रहित छे ! १२. उ0--गोयमा । जीवाणो सोवचया, नो. सावचया, १२. उ०-हे गौतम! जीवो सोपचय-उपचय सहित-नथी, नो सोवचय-सायचया, निरुवचय-निरवचया; एगिंदया ततियपदे, सापचय-अपचय- सहित-नथी, सोच सापचय नथी, पण सेसा जीवा चाहिं पदोहं भाणियव्वा. निरुपचय अने निरपचय छे. एकेन्द्रिय जीवो वीजा पदमा छे एटले सोपचय अने सापचय छे, बाकीना जीवो चारे पदो वडे कहेवा. १३. प्र.--सिद्धाणं पुच्छा ? १३. प्र०—(हे भगवन् ! ) सिद्धो. केवा छे ? (पूर्वनी पेठे सोपचयादिनो प्रश्न करयो.) १. मूलच्छायाः-विंशतिश्च मुहूर्ताः, ब्रह्मलोके पञ्चचत्वारिंशद् रात्रिदिनानि. लान्तके नवती रात्रिंदिनानि, महाशुके षष्टी रात्रिंदिनशतम् , सहस्रारे द्वे र त्रिंदिनशते, आनत-प्राणतयोः संख्येया मासाः, आरणा-ऽच्युतयो. संख्येवानि वपीणि; एवं प्रैवयकदेवानाम् , विजय-वैजयन्तजयन्ता-ऽपराजितानाम् असंख्येयानि वर्षसहस्राणि, सर्वार्थसिद्ध पल्योगमस्य संख्येयभागः, एवं भणितव्य वर्धन्ते, हीयन्ते जघन्येन एक समयम् , उत्कृष्टेनाऽऽवलि काया असंख्येयभागम् , अवस्थितानां यद् भणितम् . सिद्धा भगवन् ! कियन्तं कालं वर्धन्ते । गौतम ! जघन्येन एक समयम् , उत्कृष्टेन अष्टा समयान् . कियन्तं कालम्-अवस्थिताः ? गौतम | जघन्यैन एक समयम् , उत्कृष्टेन पर मासान्. जीवा भगवन् । किं सोपचयाः, सापचयाः, सोपचय-सापचयाः, निरूपचय-निरपचयाः ? गौतम । जीवा नो पचयाः, नो सापचयाः, नो सोपचय-सापचयाः, निरुपचय-निरपचयाः, एकेन्द्रियास्तूतीयपदे, शेषा जीवाश्चतुर्भिः पदैर्भणितव्याः सिदाः पृच्छा:-अनु० *३१ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४.२ १३. उ० – गोयना | सिद्धा सोपपया, नो सावच्या, मो सोवचयसावचया, निरुवचय-निरवचया. १४. ५० जना भवति का निरुपचयनिरवचया ? २४. ३० गोयमा ! स श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे १५. प्र०रया णं मंते ! केवतिमं कालं सोचचया १५. उ०- गोयमा ! जहणेणं एकं समयं, उक्कोसेणं आ बलियाए अससेमइमार्ग. १६. ५० केवतिवं काले साचच्या --- १६. उ०- - एवं चैव. १७. १०वतियं कालं सोचचय-सायच्या ! १७. उ० एवं चेप. १८. २०- केवलिकाले निरुचचय-निरवच्या ! १८. उ०- गोयमा ! जहनेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता, एगिंदिया सच्चे सोया, सापचया सम्ययं सेसा सज्ये सोवचया वि, सावच्या वि, सोवचय- सावचया वि, निरुवचयनिरवद्यया पि जहणणं एवं समयं उकोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं. अवट्ठिएहिं वक्कतिकालो भाणियवो. १९. प्र० सिया गं भंते! केवलियं कालं सोचचया ! १९. उ०- गोयमा ! जहण्णेण एवं समयं उक्कोसेणं अट्ठ समया. २०. ५० केवलियं का निरुवचय-निरवपया १०. उ० – जहन एवं समयं उक्कोसेर्ण छ मासा. 3 शतक ५. - उद्देशक ८. १२. उ० हे गौतम! सिद्धो सोपचय छे, सापचय नधी, सोपचय अने सापचय नथी, निरुपचय छे, निरपचय छे, १४. प्र०—हे भगवन्! जीवो केटला काळ सुची निरुपचय अने निरपचय है ! १४. उ० - हे गौतम! सर्व काळ सुधी जीवो निरुपचय अने निरपचय छे. १५. प्र० - हे भगवन् ! नैरयिो केटला काळ सुधी सोपचय छे ? १५. उ० - हे गौतम! जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्टे आवलिकाना असंख्य भाग सुधी नैरयिको सोपचय छे. १६. प्र० - ( हे भगवन् ! ) नैरथिको केटला काळ सुधी सापचय छे ? १६. ३०- ( हे गीतम ९ प्रमाणे पूर्वोक्त सोपचयमा काळ प्रमाणे सापचयतो काळ जाणवो. १७. प्र० - (हे भगवन् ! ) नैरयिको केटला काळ सुधी सोपचय अने सापचय छे ! १७. उ०- ( हे गौतम ) ९ प्रमाणे- पूर्वोक्त प्रमाणे जाग १८. प्र०—- ( हे भगवन् ! ) नैरथिको केटला काळ सुधी निरुपचय अने निरपचय ! १८. उ० – हे गौतम ! जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्टे बार मुहूर्त सुधी नैरविको निरपचय अने निरुपच छे. बधा एकेन्द्रिय जीवो सर्वकाळ सुधी सोपचय अने सापचय छे, बाकीना बचा जीवो सोपचय पण छे, सापचय पण छे, सोपचय भने सापचय पण छे, निरुपचय छे अने निरपचय पण छे, जघन्ये एक समय अने उष्टे आवलिकानो असंख्य भाग है, अमस्थितोमां व्युत्क्रान्तिकाळ कहेवो. १९. प्र० - हे भगवन् । सिदो केला काळ सुधी ! सोपचय के ! १९. ३० - हे गौतम! जयन्ये एक समय भने उत्कृष्टे आठ समय सुधी सिद्धो सोपचय छे. २०. प्र० -- (हे भगवन् ! ) तेओ (सिद्धो) केटला काळ सुधी निरुपचय अने निरपचय छे ! २०. उ०- ( हे गौतम ! ) जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्टे छ मास सुधी सिद्धो निरुपचय भने निरपचप छे. १. मूलमायतम शिा सोपचया को सापचयाः, जो सोपचय सापचयाः, निरपचय-निरपययाः जीवा भगवन्तं कालं निरुपचय - निरपचयाः ? गौतम ! सर्वद्धा. नैरयिका भगवन् ! कियन्तं कालं सोपचयाः ? गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेनाऽऽव लिकाया असंस्येयभागम्. कियन्तं कालं सापचया: ? एवं चैव कियन्तं कालं सोपचय-सापचयाः ? एवं चैव कियन्तं कालं निरुपचय-निरपचयाः ? गौतम ! जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेन द्वादश मुहूर्तीन्. एकेन्द्रियाः सर्वे सोपचयाः, सापचयाः सर्वद्धा, शेषाः सर्वे सोपचया अपि, सापचया अपि, सोपचय- सापचया अपि पचदरिया नयायाः असंख्येयभागम् अपरासिद्धान् कियन्तं कालं सोपचयाः ? गौतम । जघन्येन एकं समयम्, उत्कृष्टेन अष्ट समयान् कियन्तं कालं निरुपचय-निरपचया: ? जघन्येन एकं समयम्, सत्कुष्टेन पणू मासानूः अनु० एवं 2 . / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. - उद्देशक ८. -- सेव' भंते !, सेयं भंते ! त्ति. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४३ - हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. ( एम कही यावत् विहरे छे. ) भगवंत - अज्ज सुम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुते पंचमसये अट्टमो उद्देसो सम्मत्तो. 4 २. अनन्तरं पुद्रा निरूपिताः, ते च जीवोपप्राहिणः, इति जीवांश्चिन्तयन्नाहः - ' जीवा णं ' इत्यादि. ' नेरइया णं भंते ! केवतयं कालं या ? गोयमा ! जहणं एकं समयं उक्कोसेगं चउवसिं मुहुत्तं ति कथम् ? सप्तसु अपि पृथिवीषु द्वादश मुहूर्तान् यावद् न कोऽपिउत्पद्यते, उद्वर्तते च उत्कृष्टतो विरहकार एवंरूपत्वाद् अन्येषु पुनर्द्वादशमुहूर्तेषु यावन्त उत्पद्यन्ते तावन्त एव उद्वर्तन्ते- इत्येवं चतुर्विंशतिमुहूर्तान् यावद् नारकाणामेकारिमाणत्वाद्-अवस्थितत्वम् - वृद्धि - हान्योरभाव इत्यर्थः एवं रत्नप्रभादिषु यो यत्रोत्पादो द्वर्तना- विरहकालश्चतुर्विंशतिमुहूर्त दिको व्युत्क्रान्तिपदेऽभिहितः स तत्र तेषु तत्तुल्यस्य, समसंख्यानाम् - उत्पादो–द्वर्तनाकालस्य मीलनाद् द्विगुणितः सन् अवस्थित कालोऽष्टचत्वारिंशमुहूर्तादिकः सूत्रोको भवति. विरहकालश्च प्रतिपदमस्थानका लार्धभूतः स्वमभ्यूह्य इति. ' एगिंदिया वडुंति वि' त्ति तेषु विरहाऽभवेऽपि बहुतराणाम् उत्पादात् अन्तराणां चोद्वर्तनात् ' हायंति वि त्ति बहुतराणाम् उद्वर्तनात्, अल्पतराणां च उत्पादात् ' अवद्विया वि' त्ति तुल्यानाम् उत्पादात् उद्वर्तनाच्च इति. ' एतेहिं तिहि वि ' चि एतेषु त्रिष्वपि एकेन्द्रियवृद्ध्यादिपु आवलिकाया असंख्येयो भागः, ततः परं यथायोगं वृद्ध्यादेरभावात् ' दो अंतोमुहुत्त ' त्ति एकमन्तर्मुहूर्त विरहकालः, द्वितीयं तु समानानाम् उत्पादो द्वर्तनकाल इति. ' आणयपाणयाणं संखेज्जा मासा, आरण-चुयाणं संखेज्जा वास त्ति ' इह विरहकालस्य संख्यातमास - वर्षास्य द्विगुणलेऽपि संख्यातत्वनेवइत्यतः संख्याता मासा इत्यादि उक्तम् . एवं वेज्ज देवाण ति इह यद्यपि मैत्रेयकाऽवतनत्रये संख्यातानि वर्षाणां शतानि, मध्यमे सहस्राणि, उपरिमे लक्षाणि विरह उच्यते तथापि द्विगुणितेऽपि च संख्यातवर्षत्वं न विरुध्यते विजयादिषु तु असंख्यात कालो विरहः, स च द्विगुणितोऽपि स एव सर्वार्थसिद्धे पल्योपमसंख्येयभागः सोऽपि द्विगुणित संख्येयभाग एव स्यात्, अत उक्तम्:---- • विजय - वेजयंत - जयंत - उपराजियाणं असंखेज्जाई वाससहस्साइं ' इत्यादीति जीवादीन् एव भङ्गयन्तरेणाऽऽह :- जीवा णं इत्यादि. सोपचयाः-सवृद्धयः- प्राक्तनेषु अन्येषाम् उत्पादात् सापचयाः -- प्राक्तनेभ्यः केपाञ्चिद् उद्वर्तनात् सहानयः, सोपचयसापचयाः -- उत्पादो- द्वर्तनाम्यां वृद्धि - हान्योर्युगपद्भावाद्, निरुपचय - निरपचयाः- उत्पादो द्वर्तनयोरभावेन वृद्धि - हान्योरभावात् ननु उपचयो वृद्धिः, अपचयस्तु हानि, युगपद् द्वयम्, अद्वयं वाऽवस्थितत्वम् एवं च शब्दभेदव्यतिरेकेण कोऽनयोः सूत्रयोर्भेदः ? उच्यतेः -- पूर्वत्र परिमाणम् अभिप्रेतम्, इह तु तदनपेक्षम् उत्पादो द्वर्तनामात्रम्, ततश्च इह तृतीयभङ्गके पूर्वोक्तवृद्ध्यादिविकल्पानां त्रयमपि स्यात्, तथाहिः - - बहुतरोत्पादे वृद्धिः, बहुतरोद्वर्तने हानिः समोलादो- द्वर्तनयोश्चाऽवस्थितत्वम्-इत्येवं भेद इति. • एगिंदिया ततियपदे ' त्ति सोपचय - सापचया इत्यर्थः युगपद् उत्पादो द्वर्तनाभ्यां वृद्धि - हानिभावात् शेषभङ्गकेषु ते न संभवन्ति, प्रत्येकम् उत्पादोद्वर्तनयोस्तद्विरहस्य चाऽभावाद् इतेि ' अवट्टिएहिं ' ति निरुपचय - निरपचयेषु ' वर्ऋतिकालो भाणियन्यो 'ति विरहकालो वाच्यः. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवती सूत्रे पञ्चमशते अष्टम उद्देशके श्री अभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. २. हमणां पुद्गलोनुं निरूपण कर्ये, ते पुद्गलो जीवोना उपग्राहक होय छे माटे हवे जीवोने चिंतवता [' जीवा णं' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. [ 'नेरइया णं भंते ! केवइयं कालं अवट्टिया ? गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुतं ' ति ] हे भगवन् ! नैरयिको केटला काळ सुधी अवस्थित रहे ?, हे गौतम ! जघन्यश्री एकसमय सुनी अने उत्कृष्टथी चोवीस मुहूर्त सूधी नैरयिको अवस्थित रहे. ते केवी रीत ? तो कहे छे के, साते पृथिवीओमां पण बार मुहूर्त सुधी कोई जीव उत्पन्न थाय नहि अने कोइनुं उद्वर्तन-मरण थाय नहि-ए प्रकारना उत्कृष्ट विरह काळ होवाथी तेटलो काळ नैरयिको अवस्थित रहे छे तथी तथा बीजा बार मुहूर्त सुधी जेटला जीव नैरयिकमां उत्पन्न या तेला ज जीव उद्वर्ते - मरे-ए पण नैरयिकनो अवस्थान काळ होवाथी ए प्रमाणे चोवीश मुहूर्त सुधी नैरयिकनी एकपरिमाणता होवाथी तेओनी अवस्थितता जाणवी वृद्धि अने हानिनो अभाव जाणवो. एम रत्नप्रभादि पृथ्वीओमां ज्यां व्युत्क्रांतिपद्मां उत्पाद, उद्वर्तना अने विरहकाळ चोवीश मुहूर्तनो कह्यो छे, त्यां रत्नप्रभा वगेरे पृथ्वीओमां, नैरयिकोमां तेनी तुल्य-चोवीश मुहूर्त जेटलो - उत्पाद अने उद्वर्तना काळ, समसंख्या १. मुलच्छायाः – तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् ! इतिः -- अनु० निरयिकोनो अस्थान Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शंतक ५.-उद्देशक ८. -चोवीश मुहूर्तनी संख्या-साथे मळवाथी द्विगुण थयो छतो अडतालीश मुहूर्तादिनो अवस्थित काळ थयो, अने ए सूत्रोक्त छे, अने विरहकाल तो दरेकपदे अवस्थान काळ करतां अडधो, स्वयमेव जाणवो. [ ' एगिदिया वखंति वि' त्ति ] तेओमां विरह नथी, तो पण घणा उत्पन्न एकेंद्रियो वधे छे. थता होवाथी अने थोडा- मरण थतुं होवाथी · तेओ वधे पण छे' एम कयुं छे. [ ' हायंति वि ' ति] घणानुं मरण थवाथी अने ओछानी र उत्पत्ति होवाथी तेओ हीन पण थाय छ' एम कयुं छे. [ ' अवढ़िया वि ' त्ति ] सरखानी उत्पत्ति होवाथी अने सरखार्नु मरण होवाथी 'तेओ अवस्थित पण छे' एम कधु छे. [ ' एतेहिं तिहि वि' त्ति ] ए त्रणेमां एटले एकेन्द्रियोनी वृद्धिमा, हानिमां अने अवस्थितिमा एकेद्रियो अवस्थित छे. आवलिकानो असंख्यय भाग काळ छे, कारण के, त्यार पछी यथायोग वृद्धि वगेरे थती नथी. [ ' दो अंतोमुहुत्त ' त्ति ] एक अन्तर्मुहूर्त विरह काल अने बीजो अंतर्मुहूर्त तो सरखी संख्यावाळाओना उत्पादनो अने मरणनो समय छे. [ 'आणय-पाणयाण संखेजा मासा, आरण-चुयाणं संखेज्जा वास' ति ] अहिं संख्यात मास अने संख्यात वर्षरूप विरह काळने बमणो करीए तो पण तेनुं संख्यातपणु ज रहे छे माटे 'संख्यात मास' आनत विगेरे स्वों. इत्यादि कयुं छे. [' एवं गेवेजदेवाणं ' ति ] जो के अहिं, अवेयकना नीचला त्रण भागमां संख्यात शत वर्षो, मध्यम त्रण भागमा संख्यात हजार वर्षों अने उपरना त्रण भागमा संख्यात लाख वरस विरह काळ छे तो पण तेने बमणो का बाद तेमां संख्यात वर्षपणानो विरोध नथी संख्यात-असंख्यात आवतो तथा विजयादिमां तो असंख्यात काळ विरह छ, पण तेने बमणो करीए तो पण तेनो ते ज-असंख्यात काळ रूप-रहे छे, सर्वार्थसिद्धमा काळ. पल्योपमनो संख्यय भाग विरह काळ छे, ते पण बमणो थइने संख्येय भाग रूप ज रहे छे, माटे कयुं छे के, · विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजितोनो असंख्य वर्ष सहस्रो छे' इत्यादि. हवे बीजी रीते जीवोने ज कहे छे:-[ ' जीवा णं' इत्यादि.] सोपचय-वृद्धि सहित अर्थात् पहेलाना जीवोमां-जेटला जीवो पहेला होय-तेमां-बीजा नवा जीवोना उत्पादथी-आववाथी-संख्यानी वृद्धिने लीधे वृद्धि सहित, पहेलाना सोपचय. जीवोमांथी केटलाक जीवोना उद्वर्तन--मरण-थी संख्यानी घट थवाथी हानिसहित, उत्पाद अने उद्वर्तन द्वारा एक साथे वृद्धि अने हानि थवाथी सोपचय अने सापचय, उत्पादना अने उद्वर्तनना अभावने लइ वृद्धि अने हानि न थवाथी निरुपचय अने निरपचय. शं.निरुपचय-निरपचय. मूळ शास्त्रकारे पूर्वमा वृद्धि, हानि अने अवस्थितिनां सूत्रो कह्यां छे अने अहिं उपचय, अपचय, उपचयापचय अने निरुपचय निरपचयनां सूत्रो कह्यां छे. तो ते प्रमाणे वे सूत्रो कहेवानी शी अगत्य छे ? कारण के, उपचय एटले वृद्धि, अपचय एटले हानि अने एक साथे उपचय के अपचय अथवा निरुपचय के निरपचय ते अवस्थिति ए प्रमाणे उपचयादि शब्दोनो वृद्धयादि शब्द साथे समान अर्थ होवाथी शब्दभेद विना आ बे सूत्रमा शुं भेद छ ? समा०--प्रथमना सूत्रमा परिमाण अभिप्रेत छे एटले वृद्धि वगेरेना प्रश्न सूत्रमा परिमाण कथन इष्ट छे अने आ समाधान. उपचयादि सूत्रोमां तो परिमाणनी अपेक्षा विना मात्र उत्पाद अने उद्वर्तना विवक्षित छे, तेथी अहिं त्रीजा भांगामा पूर्वे कहेल वृद्धयादिना त्रणे विकल्पो थाय छे, ते जेमके, ज्यारे घणानो उत्पाद होय त्यारे वृद्धि, घणानुं मरण थाय त्यारे हानि अने ज्यारे समान उत्पाद अने उद्वर्तन होय त्यारे अवस्थित पणुं होय छे, ए प्रमाणे पूर्वसूत्र तथा आ सूत्रमा भेद छे. [ ' एगिंदिया तइअपए ' ति] अर्थात् एक साथे उत्पाद अने उद्वर्तन एकेंद्रियो. थवाने लीधे वृद्धि तथा हानि थवाथी एकेंद्रिय जीवो सोपचय अने सापचय छे, बाकीना भांगाओमां तो ते एकेन्द्रियो संभवता नथी, कारण के, तेओमा प्रत्येकनो उत्पाद, उद्वर्तन अने तेना विरहनो अभाव छे. [ ' अवट्ठिएहिं ' ति ] निरुपचय अने निरपचयोमा [' वकंतिकालो विरहकाल, भाणियव्वो ति ] पूर्वे कहेलो विरह काल कहेवो. शका वेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शारयोः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः॥ Jain Education international Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. - उद्देशक ९. राजगृह नगर ए शुं हेवाय ? - पृथिवी विगेरे राजगृह नगर कहेवाय एना कारणती नों. दिवसे प्रकाश अने रात्रे अंधाएं होय ? - हा. - एनं शुं कारण ? - शुभ पुद्दल अने अशुभ पुल - नैरयिकोने प्रकाश होय के अंधकार ? - अंगर. - तेनुं कारण- अशुभ पुद्गल - असुरकुमारोने प्रकाश. - पृथिवीकाय यावत्-इंद्रियो ने अंधकार - चउरिद्रिधोने प्रकाश अने अंधकार-ए रीते यावत्-मनुष्योने. - असुरकुमारोनी पेढे वधा भुवनपति विगेरे देदोने प्रकाश. - नारकमा रहेला नैरविकोने 'काळ' नो ख्याल होय ? - ना. -एम केम ?' काळ ' नो वाल अहीं मर्त्यलोकनां छे माटे-ए रीते यावत्-पंचेंद्रियतियंचयोनिको विषे पण जाणवुं.- मनुष्योने तो काळनो ख्याल होय छे देखोने काळनो रूपाल नथी होतो. पार्श्वपस स्थविरो अने श्रमण भगवंत महावीर - असंख्य लोकमां अनंत रात्री दिवसो शी रीते ?-पुरुषादानीय पार्श्व-अवनी साक्षी लोकस्वरूप. - पार्श्वपत्योने थएली श्रमण भगवंत महावीरनी 'सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी तरीकेनी ओळखाण-चार याम मूकी पांच यामनो स्वीकार - सिद्धत्व प्राप्ति देवलोकोनी गणत्री-संग्रहगाथाविहार. - १. प्र० – ते का, ते पं समएणं जाव एवं बयासी:- किं इदं भंते! नगरं रायगिहं ति पवुच्चर, किं पुढवी नगरं रायगिहं ति पच्चर, आउ नगरं रायगिहं ति पवुचइ, जाप वणसई, जहा एयनुद्देसए पंविदियतिरिक्त गोणियाणं त्या तहा भाणियव्वा, जाव- सचित्ता ऽचित्त- मीसियाई दमाई नगरं रावहिं ति पयुचइ ! १. उ०- गोवमा ! पुढची व नगरं रायगिति पवई, जाव-सचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दव्वाईं नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ १. प्र० - ते काले, ते समये यावत्-एम बोल्या :- हे भगवन् ! आ राजगृह नगर शुं कहेवाय ? शुं राजगृह नगर पृथिवी कहेवाय, जल कहेवाय, यावत् वनस्पति जेम एजन उद्देशानां पंचेंद्रियतियचोना ( परिग्रहनी ) बव्यता कही छे तेम अहिं कहेतुं अर्थात् शुं राजगृह नगर कूट कहेवाय, शैल कवाय, यावत् सचित्त, अचित्त अने मिश्रित द्रव्यो, राजगृह नगर कहेवाय ? १. उ० - हे गौतम ! पृथिवी पण राजगृह नगर कहेवाय यात्रत् - सचित्त, अचित्त अने मिश्रित द्रव्यो राजगृह नग कवाय १. मूलच्छायाः - तस्मिन् काले तस्मिन् समये यावत् एवम् अवादीत्ः किम् इदं भगवन् । नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते, किं पृथिवी नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते, आपो नगरं राजगृहम् इति प्रोच्यते यावत्-वनस्पतिः, यथा एजनोद्देशके पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां वक्तव्यता तथा भणितव्या, यावत्-सचित्ताऽचित्त- मिश्रितानि द्रव्याणि नगरम् राजगृहम् इति प्रोच्यते ? गौतम ! पृथिव्यपि नगरं राजगृहमिति प्रोच्यते, यावत्- सच्चित्ता-चित्तमतानिइन्याणि नगर राजम् इति भड / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ५.-उदेशक १. २. प्र०-से केणद्वेणं ? २. प्र०-(हे भगवन् ! ) ते क्या हेतुथी? २. उ०-गोयमा ! पुढवी जीवा इ य, अजीवा इ य णगरं २. उ०--हे गौतम ! पृथिवी, ए जीयो छे, अजीयो छ माटे रायगिह ति पञ्चइ, जाव-सचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दव्वाई, ते राजगृह नगर कहेवाय छे यावत्-सचित्त, अचित्त अने मिश्र जीवा इ य, अजीवा इ य नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ, से तेणद्वेणं द्रव्यो पण जीवो छे, अजीयो छे माटे राजगृह नगर कहेवाय छे, तचेव. ते हेतुथी ते तेम ज छे. १. इदं किल अर्थजातं गौतमो राजगृहे प्रायः पृष्टवान् , बहुशो भगवतस्तत्र विहाराद्-इति राजगृहादिस्वरूपनिर्णयपरसूत्रप्रपञ्चं नवमोदेशकमाह:-' ते णं' इत्यादि. — जहा एयणुद्देसए' त्ति एजनोदेशकोऽस्यैव पञ्चमशतस्य सप्तमः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वक्तव्यता:-" टंका, कूडा, सेला, सिहरी" इत्यादिका या उक्ता, सा इह भणितव्या इति. अत्रोत्तरम्:--' पुढवी वि नगरं' इत्यादि. पृथिव्यादिसमुदायो राजगृहम् , न पृथिव्यादिसमुदायाद् ऋते ' राजगृह 'शब्दप्रवृत्तिः. 'पुढवी जीवा इ य, अजीवा इ य नगरं रायगिहं ति पवुच्चइ ' त्ति जीवाऽजीवस्वभावं राजगृहम् इति प्रतीतम् , ततश्च विवक्षिता पृथिवी, सचेतना-ऽचेतनत्वेन जीवाश्च अजीवाश्चेति राजगृहम् इति प्रोच्यते इति. १. आ बधो अर्थनो समूह भगवंत गौतमे भगवंत महावीरने जाजे भागे राजगृह नगरमा पूठ्यो हतो, कारण के, भगवंत महावीरनो घणो विहार राजगृहमा थयेलो छ माटे राजगृहादिना स्वरूपना निर्णय परवे आ नवमा उद्देशकमां सूत्रनो प्रपंच-विस्तार-कहे छ:-[ ' ते णं' पंचम शतकनो सप्तम इत्यादि. ] [ ' जहा एयणुद्देसए ' त्ति ] एजनोद्देशक, ए आ पांचौ शतकनो सातमो उद्देश छे, तेमां [ — टंका, कूडा, सेला, सिहरी ' इत्यादि] उद्देश. पंचेंद्रियतिर्यंचोनी वक्तव्यता छे ते वक्तव्यता अहिं कहेवी. अहिं उत्तर आपे छः [ 'पुढवी वि नगरं ' इत्यादि.] पृथिवी बगेरेनो समुदाय ते राजगृह नगर छे, कारण के, पृथिव्यादिना समुदाय विना राजगृह शब्दनी प्रवृत्ति थती नथी. [ ' पुढवी जीवा इय, अजीवा इ य, नगरं रायगिहं ति पबुच्चइ ' त्ति ] राजगृह नगर जीवाजीव-स्वभाववालु छे ए प्रतीत छे माटे [ मगधदेशमा वर्तमान — विहार' नी नजीक आवेली राजगृह. अ अने ' राजगिर ' नामथी ओळखाती जे] अमुक जमीन, पोताना सचेतनपणाने अने अचेतनपणाने लीधे जीव अने अजीवरूप छे, ते ' राजगृह । ए प्रमाणे कहेवाय छे. अंजवाळु अने अंधारूं. ३. प्र०-से पूर्ण भंते ! दिया उज्जोए, राइं अंधयारे ? ३. प्र०-हे भगवन् ! दिवसे उद्योत अने रात्रिमा अंधकार होय छे ? ३. उ०-हता, गोयमा ! जाव-अंधयारे. ३. उ०--हा, गौतम! यावत्-अंधकार होय छे. ४. प्र०-से केणद्वेणं ? ४. प्र०-ते क्या हेतुथी ? ४. उ०-गोयमा ! दिया सुभा पोग्गला, सुभे पोग्गलपरि- ४, उ०-हे गौतम! दिवसे सारां पुद्गलो होय छे अने सारो णामे, राई असभा पोग्गला, असभे पोग्गलपरिगामे-से तेणद्वेगं. पुद्गल-परिणाम होय छे. रात्रिमा अशुभ पुद्गलो होय छे अने अशुभ पुद्गल-परिणाम होय छे-ते हेतुथी एम छे. ५. प्र०–नेरइयाणं भंते ! कि उज्जोए, अंधयारे ? ५-प्र०-हे भगवन् ! शुं नैरयिकोने प्रकाश होय छे के अंधकार होय छे ! ५. उ०--गोयमा ! नेरइयाणं णो उज्जोए, अंधयारे, ५. उ०--हे गौतम ! नैरयिकोने प्रकाश नथी पर्ण अंधकार छे. ६.प्र०--से केणवणं? ६. प्र०--ते क्या हेतुथी? ६. उ०-गोयमा ! नेरइयाणं असुभा पोग्गला, असुभे ६. उ०--हे गौतम ! नैरयिकोने अशुभ पुद्गल छे. अने पोग्गलपरिणामे-से तेणद्वेणं. अशुभ-पुद्गल परिणाम छे, ते हेतुथी तेम छे. १. मूलच्छाया:-तत् केनाऽर्थेन ! गौतम ! पृथिवी जीवाश्च अजीवाश्च नगरं राजगृह मिति प्रोच्यते, यावत्-सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रितानि द्रव्याणि, जीवाश्च, अजीवाश्च नगर राजगृहमिति प्रोच्यते, तत् तेनाऽथेन तचैव. २. तद् नून भगवन् ! दिवा उद्योतः, रात्री अन्धकारः ? हन्त, गौतम । यावत्-अन्धकारः. सत् केनाऽर्थेन ? गौतम | दिवा शुभाः पुद्गलाः, शुभ. पुद्गलपरिणामः, रात्रौ अशुभाः पुद्गलाः, अशुभः पुद्गलपरिणामस्तत् तेनाऽर्थेन, नैरयिकाणां भगवन् । किम् उद्योतः, अन्धकारः ? गौतम ! नैरयिकाणां नो उद्द्योतः, अन्धकार:. तत् केनाऽर्थेन ? गौतम। रयिकाणाम् अशुभाः पुद्गलाः, अशुभः पुद्गलपरिणम का उद्योतः, अन्धकारः ? गाभ पुगउपरिणामः, रात्री मा उद्योतः, रात्री अन्धकारः ! १. जूओ भगवती खं० २, पृ० ( २१३-२३०):-अनु० . Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ९.. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २४७. ७. प्र०-असुरकुमाराणं भंते ! किं उज्जोए, अंधयारे ! ७. प्र०--हे भगवन् ! शुं असुरकुमारोने प्रकाश छे, के अंधकार छे !, ७. उ०-गोयमा ! असुरकुमाराणं उज्जोए, नो अंधयारे. ७. उ०--हे गौतम ! असुरकुमारोने प्रकाश छे पण अंधकार नथी.. . ८. प्र०-से केणटेणं ? ८.प्र०--ते क्या हेतुथी ! । ८. उ०—गोयमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला, सुभे ८. उ०--हे गौतम ! असुरकुमारोने शुभ पुद्गलो के, शुभ पोग्गलपरिणामे से तेणद्वेणं जाव-एवं वुचइ, जाव-थणियाणं. पुद्गल-परिणाम छ माटे ते हेतुथी यावत्-तेओने प्रकाश छे-एम कहेवाय छ. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवु. -पुढविक्काइया जाव-तेइंदिया जहा नेरइया. ---जेम नैरयिको कह्या तेम पृथ्वीकायथी मांडी यावत्-त्रे. इंद्रिय सुधीना जीवो जाणवा. ९.प्र०-चउरिंदियाणं भंते ! कि उज्जोए, अंधयारे ? ९. प्र०--हे भगवन् ! शुं चउरिंद्रियोने प्रकाश होय छे के अंधकार होय छ ? ९. उ०--गोयमा ! उज्जोए वि, अंधयारे वि. ..९. उ०--हे गौतम ? तेओने प्रकाश पण होय छे ने अंधकार पण होय छे. १०. प्र०-से केणदेणं ? १०. प्र०--ते क्या हेतुथी ? १०. उ०--गोयमा! चउरिंदियाणं सुभा-ऽसुभा य पोग्गला, १०. उ०--हे गौतम ! चउरिदियोने शुभ तथा अशुभ पुद्गल सुभा-ऽसुभे य पोग्गलपरिणामे-से तेणद्वेणं एवं जाव-मणुस्साणं. होय छे अने शुभ अने अशुभ पुद्गल-परिणाम होय छे. ते हेतुथी तेम छे. ए प्रमाणे यावत्-मनुष्यो माटे जाणी लेवू. --वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा. . --जेम असुरकुमारो कह्या तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक माटे जाणवू. २. पुद्गलाऽधिकाराद् इदमाह:--' से गणं' इत्यादि. 'दिवा सहा पोग्गल ' त्ति दिवा दिवसे, शुभाः पुद्गला भवन्ति. किमुक्तं भवति ? शुभपुद्गलपरिणामः, स चाऽर्ककरसंपर्कात्. 'रति' ति रात्री. 'नेरइयाणं असुभपोग्गल' ति तत्क्षेत्रस्य पुद्गलशुभतानिमित्तभूतरविकरादिप्रकाशकवस्तुवर्जितत्वात्. 'असुरकुमाराणं सुभा पागल' त्ति तदाऽऽश्रयादीनां भाखरत्वात्. 'पुढविकाइए' इलगादि. पृथिवीकायिकादयस्त्रीन्द्रियान्ता यथा नैरयिका उक्तास्तथा वाच्याः, एषां हि नास्ति उद्योतः, अन्धकारं चाऽस्ति-पुद्गलानाम् अशुभत्वात्. इह चेयं भावना:--एषाम् एतत्क्षेत्रे सत्यपि रविकरादिसंपर्के एषां चक्षुरिन्द्रियाऽभावेन दृश्यवस्तुनो दर्शनाऽभावात् शुभपुद्गल कार्याऽकरणेनाऽशुभाः पुद्गला उच्यन्ते, ततश्च एषामन्धकारमेवेति. ' चउरिदियाणं सुभा-ऽसुभे पोग्गल.' त्ति एषां हि चक्षुस्सद्भावेन रविकरादिसद्भावे दृश्यार्थाऽवबोचहेतुत्वाच्छुभाः पुद्गलाः, रविकरायभावे तु अर्थाऽवबोधाऽजनकत्वाद् अशुभा इति. २. पुद्गलोनो अधिकार होवाथी आ-[' से णूणं' इत्यादि ] सूत्र कहे छ. [ दिवा सुहा पोग्गल ' ति ] दिवसे सारां पुद्गलो होय छे, ! दिवसे सारां पुद्गल. तात्पर्य शुं कयुं ? तो कई छे के, सूर्यना किरगना संबंधथी दिवसे सारा पुद्गलोनो परिगाम होय छे, [ ' रत्तिं ' ति] रात्रिमा. [ नेरइयाणं असुभा पोग्गल ' त्ति ] कारण के, ते नैरयिकोर्नु क्षेत्र, पुद्गलना शुभपणाना निमित्तभूत सूर्यनग किरणोना प्रकाशथी रहित छे. [ ' असुरकुमाराणं रात्रिए खराब पुद्गल. नैरयिको. सुभा पोग्गल ' त्ति ] असुरकुमारोना आश्रयो-रहेवाना स्थानको-बगेरेनुं भाखरपणुं होपाधी तेओ ( असुरकुमारो) रहे छे त्यां शुभ पुद्गलो होय छे. [ 'पुढविकाइए ' इत्यादि. ] जेम नैरयिको कह्या तेम पृथिवीकायिकथी मांडी त्रींद्रिय सुधीना जीवो कहेवा, कारण के, एओने प्रकाश असुरकुमार नथी अने अशुभ पुद्गलो होवाथी अंधकार छ, अहिं आ प्रमाणे विचार करवो के, पृथिवी कायादि इंद्रियपर्यंत ना जीवो आ क्षेत्रमा अने पृथ्वी कायादि त्रीद्रिय. तेओने सूर्यना किरण वगैरेनो संबंध पण छे तो पग जे तेओने अंधकार कह्यो छे तेनुं कारण ए छे के, तओने आंख इन्द्रिय न होवाने लीधे देखवा योग्य वस्तु देखाती नथी अने तेम छे माटे तेओ तरफ शुभ पुद्गलनु कार्य न थतुं हो पाथी तेओने अपेक्षी अशुभ पुद्गलो कहेवाय छे माटे १. मूलच्छाया:-असुरकुमाराणां भगवन् ! किम् उद्द्योतः, अन्धकारः ? गौतम ! असुरकुमाराणां उद्द्योतः, नो अन्धकारः, तत् केनार्थेन ? गौतम ! असुरकुमाराणां शुभा: पुद्गलाः, शुभः पुदलपरिणामस्तत् तेनार्थेन यावत्-एवम् उच्यते, यावत्-स्तनितानाम्. पृथिवीकायिका यावत्-त्रीन्दियाः यथा नैरयिकाः. चतुरिन्द्रियाणां भगवन् । किम् उद्द्योतः, अन्धकारः ? गौतम | उद्द्योतोऽपि, अन्धकारोऽपि. तत् केनार्थेन ? गौतम | चतुरिन्द्रियाणां शुभाऽशुभाश्च पुद्गलाः, शुभा-ऽशुभश्च पुद्गलपरिणामस्तत् तेनाऽर्थेन पर्व यावत्-मनुष्याणाम्, वानव्यन्तर-ज्योतिष्क-चैमानिका यथाऽसुरकुमारा:-अनु. परिणाम तत् ते अन्धकार ? गोतमावत्-एवम् उप . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ५.-उद्देशक ए. चरिदिय जीवो. एओने अंधकार ज छे. [ ' चउरिंदियाणं सुभासुभा पोग्गल ' ति ] चउरिदिय जीवोने आंख होवाने लीधे रविकिरणादिनो सद्भाव होय त्यारे दृश्य पदार्थना ज्ञानमा हेतु होवाथी शुभ पुद्गलो कयां छे अने रविकिरणादिनो संसर्ग न होय त्यारे पदार्थज्ञानना अजनक होवाथी अशुभ पुद्गलो कखां छे. नैरयिकादिकनुं समय-ज्ञान. ११.प्र०-अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं ११. प्र०--हे भगवन् ! त्यां गएला-निरयमा स्थित रहेलापन्नायए, तं जहा:-समया इ वा, आवलिया इ वा, उस्सप्पिणी, नैरयिको एम जाणे के, समयो, आवलिकाओ, उत्सर्पिणीओ अने इ वा, ओसप्पिणी इ.वा ? अवसर्पिणीओ? ११. उ०--णो तिणद्वे समढे. ११. उ०--(हे गौतम!) ते अर्थ समर्थ नथी अर्थात् ते नैरयिको समयादिने जाणता नथी. १२. प्र०--से केणद्वेणं जाव-समया इ वा, आवलिया इ १२. प्र०--(हे भगवन् !) ते क्या हेतुथी यावत्-समयो, वा, उस्सप्पिणी इ वा, ओसप्पिणी इ वा ? आवलि हाओ, उत्सर्पिणीओ अने अवसर्पिणीओ (नथी जणातां)? १२. उ०-गोयमा ! इह तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, १२. उ-हे गौतम ! ते समयादिनुं मान अहिं मनुष्यलोकमा इहं तेसिं एवं पनायए, तं जहा:-समया इ वा, जाव--ओसप्पिणी छे, तेओर्नु प्रमाण अहिं छे, अने तेओने अहिं ए प्रमाणे जणाय वा, से तेणद्वेणं जाव -नो एवं पनायए, तं जहा:-समया इ छ, ने जेमके, समयो यावत् अवसर्पिणी श्रो, ते हेतुथी यावत् वा, जाव-उस्सपिणी । वा, एवं जाव-पंचिंदियतिरिक्खजो- नैरयिकोने ए प्रमाणे जणातुं नथी, ते जेमंके, समयो, यावत् णियाणं. अवसर्पिणीओ; ए प्रमाणे यावत् पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिको माटे समजवू. १३. प्र०-अस्थि णं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं १३. प्र०—हे भगवन् ! अहिं-मर्त्यलोकमां-गयेला-रहेलापन्नायति, तं जहा:-समया इ वा, जाव-उस्सप्पिणी इ वा ! मनुष्योने ए प्रमाणे ज्ञान छे, ते जेमके, समयो वा यावत् अवसर्पिणीओ वा ? १३. उ०---हंता, आत्थ. १३. उ०-हा, ( गौतम ! ) ए प्रमाणे ज्ञान छे. १४. प्र०–से केणद्वेणं ? १४. प्र०-(हे भगवन् ! ) ते क्या हेतुथी ? १४. उ०-गोयमा । इह तेसिं माणं, इहं तेसिं पमाणं, १४. उ०—हे गौतम ! अहिं ते समयादिनुं मानः अने एवं पत्रायति, तं जहा:-समया इ वा, जाव--ओसप्पिणी इ वा, प्रमाण छ माटे ए प्रमाणे ज्ञान छे, ते जेमके, समयो यावत् से तेणद्वेणं ०. अवसर्पिणीओ-ते हेतुथी तेम छे. -वाणमंतर-जोइस-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं. -जेम नैरयिकोने माटे कडं तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक माटे समज. ३. पुद्गला द्रव्यम् , इति तच्चिन्ताऽनन्तरं कालद्रव्यचिन्तासूत्रम्:--' तत्थगयाणं' ति नरके स्थितैः, षष्ठ्यास्तृतीयार्थत्वात्. एवं पन्नायति' त्ति एवं हि प्रज्ञायते-इदं विज्ञायते:--'समया इव' ति समया इति वा, 'इहं तेसिं' ति इह मनुष्यक्षेत्रे तेषा समयादीनां मानं परिमाणम्-आदित्यगतिसमभिव्यङ्गयत्वात् तस्य, आदित्यगतेश्च मनुष्यक्षेत्र एष भावाद् , नरकादौ तु अभावाद इति. 'इह तेसिं पमाणं' ति इह मनुष्यक्षेत्रे तेषां समयादीनां प्रमाणं प्रकृष्टमानम्-सूक्ष्ममानम् इत्यर्थः, तत्र मुहूर्तस्ताव मानम् , सदपेक्षया लवः सूक्ष्मत्वात् प्रमाणम् , तदपेक्षया स्तोकः प्रमाणम् , लवस्तु मानम्-इत्येवं नेयम्-यावत् समय इति.,ततश्च 'इह तेसिं' इत्यादि, इह मर्त्यलोके मनुजैस्तेषां समयादीनां संबन्धि एवं वक्ष्यमाणस्वरूपं समयत्वादि एवं ज्ञायते, तद्यथाः- समगाई वा इत्यादि. १. मूलच्छाया:-अस्ति भगवन् ! नैरयिकाणां तत्रगतानाम् एi प्रज्ञायते, तद्यथाः-स-या इति वा, आवलि का इति वा, उत्सर्पिणी इति वा, अवसर्पिणी इति वा ? नाऽयमर्थः समर्थः. तत् केनाऽर्थेन यावत्-समया इति वा, आवलिका इति वा, उत्सरिणी इति वा, अवसर्पिणी इति वा ? गौतम ! इह तेषां मानम् , इह तेषां प्रमाणम् , इह तेषाम् एवं प्रज्ञायते, तद्यथाः-समया इति वा, यावत्-अवसर्पिणी इति वा, तत् तेनाऽर्थेन यावत्-नो एवं प्रज्ञायते, तद्यपा:-समया इति वा, यावत्-अवसर्पिणी इति वा, एवं यावत्-पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानाम् . अस्ति भगवन् ! मनुष्याणाम् इहगतानाम् एवम् प्रज्ञायते, तद्यथाः-समया इति वा, यावत्-अवसार्पणी इति वा ? हन्त, अस्ति. तत् केनाऽर्थन ? गौतम ! इह तेषां मानम् , इह तेषां प्रमाणम्, एवं प्रज्ञायते, तद्यथाः-समया इति वा, गायत्-अवसर्पिणी इति वा, तत् तेनाऽर्थेन०. वानन्यन्तर-ज्योतिषिक-वैमानिकानां यथा नैरयिकाणाम्:-अनु. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५. उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. इह च समयक्षेत्राद् बहिवर्तिनां सर्वेषामपि समयाद्यज्ञानम् अवसेयम् , तत्र समयादिकालस्याऽभावेन तद्व्यवहाराऽभावात् . तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः, भवनपति-व्यन्तर ज्योतिष्काश्च यद्यपि केचिद मनुष्यलोके सन्ति तथापि तेऽल्पा:-प्रायस्तदव्यवहारिणश्च, इतरे तु बहव इति तदपेक्षया 'ते न जानन्ति' इत्युच्यते-इति. ३. अहीं हमणां जणावेलां पुद्गलो द्रव्य छे माटे तेनो विचार पूरो थया पछी लागलो ज काल द्रव्यनो विचार करवा माटे काल द्रव्यना विचारनुं सूत्र कहे छे-[' तत्थगयाग ' ति ] त्यां नरकमा रहेलाओ वडे [ ' एवं पन्नायति ' त्ति ] एम जणाय छे-जे आ आगळ कहेवामां नरकमा रहेला, आवनारुं छे ते जणाय छ ? [' समया' इ व ति.] ' समयो ' ए प्रमाण. [ ' इई तेसिं' ति ] ते समयादिनु आ मनुष्य क्षेत्रमा मान-परिमाण-- छे, कारण, के, ते.समयादिनी, सूर्यनी गतिथी अभिव्यक्ति थाय छे अने सूर्यनी गति तो मनुष्य लोकमां जछे पण नग्कादिमां नथी. [ ' इह तेसिं सूर्यनी गति. पाणं' ति ] आ मनुष्य क्षेत्रमा ते समयादिकर्नु प्रमाण-प्रकृष्ट मान-सूक्ष्म मान छे. तेमा मुहूर्त तो मान छे अने तेनी-मुहूर्तनी-अपेक्षाए प्रमाण-मान. सूक्ष्म होवाथी. 'लव प्रमाण छे, ते लवनी अपेक्षाए स्तोक प्रमाण छे अने लव तो मान छे-ए प्रमाणे 'समय' सुधी जाणवू. तेथी [' इहं तेर्सि' इत्यादि.] आ मर्त्यलोकमां मनुष्यो, आगळ कहेवामां आवशे तेवू ते समयादिसंबंधि समयत्वादि स्वरूप जाणे छे, ते जेमके, [ 'समया मनुष्यो. इवा' इत्यादि.] आ स्थळे समय क्षेत्र-मनुष्य-क्षेत्र-थी बहार रहेनारा सर्व जीवोने पण समयादिनुं अज्ञान छे तेम जाणवू, कारण के, मनुष्यक्षेत्रनी बहार समयादि काळ न होवाथी तेनो व्यवहार थतों नथी. तथा, जो के केटलाक पंचेंद्रिय तियचो, भवनपतिओ; व्यतो अने मनुष्य क्षेत्रनी बहार ज्योतिष्को पण मनुष्य लोकमां छे तो पण ते थोडा छे अने काळना अव्यवहारी छे अने बीजा तो घणा छे-ते घणानी अपेक्षार कपुंछे अने म के ते जाणता नथी. पार्थापत्य स्थविरो अने श्रीमहावीर. १५. प्र०—ते' णं काले णं, ते णं समये णं पासावचिजा १५. प्र०- ते काले, ते समये श्रीपार्श्वनाथ भगवंतना थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छन्ति, अपत्य-शिष्य-स्थविर भगवंत, ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते ठिचा, त्यां आवे छे, आवी श्रमण भगवंत महावीरनी अदूरसामते बेसी एवं क्यासी:-से गुणं भंते ! असंखेजे लोए अणंता राइंदिया एम बोल्याः-हे भगवन् ! असंख्य लोकमां अनंत रात्रि-दिवस उप्पजिसु वा, उप्पजति वा, उपजिस्सति वा; निगम्छिसु वा, उत्पन्न थयां ! उत्पन्न थाय छे ? के उत्पन्न थशे ? अने नष्ट थयां ? विगच्छति वा, विगच्छिस्संति वा परित्ता राइंदिया उप्पजिंसु नष्ट थाय छे ? के नष्ट थशे ? के नियत परिमाणवाळा रात्रिदिवसो वा, उप्पजति वा, उप्पजिस्संति वा ! विगच्छिसु वा, विगच्छ- उत्पन्न थयां ! उत्पन्न थाय छे ? के उत्पन्न थशे ? अने नष्ट थयां ? न्ति वा, विगच्छिस्संति वा ! नष्ट थाय छे ? के नष्ट थशे? १५. उ०---हंता, अज्जो ! असंखेजे लोए अणंता राइंदिया, १५. उ०-हा, आर्य! असंख्यलोकमां अनंत रात्रि-दिवसो, तं चेन. वगेरे ते ज कहे. १६. प्र०–से केणद्वेणं जाव-विगछिस्सांति वा ! १६. प्र०-हे भगवन् ! ते क्या हेतुथी यावत्-नष्ट थशे ? १६. उ०-से णूणं भे अज्जो ! पासेणं अरहया पुरिसादा- १६. उ० --हे आर्य ! ते निश्चयपूर्वक छे के, आपना णिएणं सासए लोए बुइए, अणादीए; अगवदग्गे, परित्ते परिवुडे, (गुरुस्वरूप) पुरुषादानीय-पुरुषोमा ग्राह्य-पार्श्व अर्हते लोकने हेट्ठा विच्छिन्ने, मज्झे संखित्ते, उपि विसाले; अहे पलियंकसंठिए, शाश्वत कह्यो छे, तेम ज अनादि, अनवदा-अनंत, परिमित, मज्झे वरवहरविग्गहिए, उपिं उद्धमुइंगाकारसंठिए; तसिं च णं अलोकवडे परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, वच्चे सांकडो, उपर सासयसि लोगंसि अणादियंसि, अणवदग्गंसि, परित्तसि, परिवु- विशाल, नीचे पल्यंकना आकारनो, बच्चे उत्तम वज्रना आकारवाळो डंसि, हेवा विच्छिन्नंसि, मज्झे संखित्तंसि, उणि विसालंसि; अहे अने उपर उंचा-उभा-मृदंगना आकार जेवो लोकने कह्यो छेपलियंकसंठियंसि, मझे वरवहरविग्गहियं स, उप्पि उद्धमुइंगाका- तेवा प्रकारना शाश्वत, अनादि, अनंत, परित्त, परिवृत, नीचे रसंठियसि अणंता जीवघणा उप्पजिता उप्पज्जित्ता निलीयंति, विस्तीर्ण, मध्ये संक्षिप्त, उपर विशाळ, नीचे पल्यंकाकारे स्थित, १. अहीं छही विभक्ति, बीजी विभक्तिना अर्थमा वपराएली छे:-श्रीअभय. १. मूलच्छायाः-तस्मिन् काले, तस्मिन् समये पाचाडात्याः स्थविरा भगवन्तो येनैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तेनैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽदूरसामन्ते स्थित्वा एवम् अवादिषुः-तद् नूनं भगवन् ! असंख्येये लोके अनन्तानि रात्रिदिवानि उत्पन्नानि वा, उत्पद्यन्ते वा, उत्पत्स्यन्ते वा; विगतानि वा, विगच्छन्ति वा, विगमिष्यन्ति वा; परी पानि रात्रिंदिवानि उत्पन्नानि वा, उत्पद्यन्ते वा, उत्पत्स्यन्ते वा ? विगतानि वा, विगच्छन्ति वा, विगमिष्यन्ति वा? हन्त, आर्य ! असंख्येये लोके अनन्तानि रात्रिंदिवानि, तञ्चैव. तत् केनाथन यावत्-विगमिष्यन्ति वा ? तद् नूनं भवताम्-आया:! पावनाऽईता पुरुषादानी येन शाश्वो लोक उक्तः, अनादिकः, अनवनताप्रः, परीतः, परिवृतः, अधो विस्तीर्णः, मध्ये संक्षिप्तः, उरि विशालः, अधः पत्यरकसंस्थितः, मध्ये वरवजविप्रहितः, उपरि ऊर्ध्वमृदंशाकारसंस्थितः, तस्मिंश्च शाश्वते लोकेऽनादिके, अनवनताप्रे, परीते, परिवृते, अधः विस्तीर्णे, मध्ये संक्षिप्ते, उपरि विशाले, अधः पल्यङ्कसंस्थिते, मध्ये वरवजविप्रहिते, उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाऽऽकारसंस्थिते अनन्ता जीवधना उत्पद्य, उत्पद्य निलीयन्तेः-अनु० Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पेरित्ता जीवघगा उप्पजित्ता, उपजित्ता निलीयंति-से णूणं भूए, उप्पत्रे, विगए, परिणए; अजीवेहिं लोक्कति, पलोक्कइ ' जे लोक्कड़ से लोए ? ' हंता, भगवं !. से तेणट्टेणं अज्जो ! एवं बुच्चइ - असंखेज्जे, तं चेव, तपाभिदं च णं ते पासावचेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं 'सव्वन्न् सव्वदरिसी' पच्चभिजाणंति. श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतके ५.- उद्देशक ९. बच्चे वर वज्रसमान शरीरवाळा अने उपर उभा मृदंगना आकारें संस्थित एवा लोकमां अनंता जीवधनो उपजी उपजीने नाश पा छे अने परित्त - नियत-असंख्य जीवधनो पण उपजी उपजीने नाश' पामे छे-ते लोक, भूत छे, उत्पन्न, छे, विगत छे, परिणत. छे. कारण के, ते अजीवो द्वारा लोकाय छे निश्चित थाय छे, अधिक निश्चित थाय छे माटे जे, प्रमाणथी लोकाय जणाय ते लोक कहेवाय ? हा - भगवन् !. ते हेतुथी हे आर्यों ! एम कहेवाय छे कें, असंख्येय लोकमां तेज कहे. त्यारथी मांडी ते पार्श्वजिनना शिष्य स्थविर भगवती' श्रमण भगवंत 'महावीरने ‘सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ' ए प्रमाणे प्रत्यभि - जाणे छे.. । -तर णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदंति, नमसंति, वंदित्ता, नमसित्ता एवं वयासी:- इच्छामि णं भंते तुभं अंतिए चाउज्जाम ओ धम्माओ पंच महव्वयाई, सपडिकमणं मंउवसंजिता णं विहरित्तर; अहासुहं-देनाणुपिया ! मा पडबंधं; तए णं ते पासावविज्जा थेरा भगवंतो जाव- चरमेहिं उस्सास निस्सा सेहिं सिद्धा, जाब- सव्यदुक्खप्पहीना; अत्थेगतिया देवलोएसु उववन्ना. —त्यार बाद ते स्थविर भगवंतो श्रमण भगवंत महावीरने वंदे छे, नमे छे, बंदी, नमी एन बोल्या के, हे भगवन् ! तमारी. पासे, चातुर्याम धर्मने मूकी प्रतिक्रमण सहित पंच महाव्रतोने स्वीकारी विहरवा इच्छीए छीए, हे देवानुप्रिय ! जेम सुख थाय तेम करो, प्रतिबंध न करो. त्यारे ते पार्श्वजिनना शिष्य स्थविर भगवंतो यावत् सर्वदुःखथी प्रहीण थया अने केटलाक देवलोकमां उत्पन्न थया. 6 ४. कालनिरूपणाऽधिकाराद् रात्रिंदिवलक्षण कालविशेषनिरूपणार्थम् इदमाहः - - ' ते णं काले णं इत्यादि. तत्र ' असंखेजे लोए ' त्ति असंख्यातेऽसंख्यात प्रदेशात्मकत्वात लोके चतुर्दशरज्ज्यात्मक क्षेत्रलोके आधारभूने 'अनंता राई - दिय 'त्ति अनन्त - परिमाणानि रात्रिंदिवानि अहोरात्राणि ' उप्पाजंसु ' इत्यादि. उत्पन्नानि वा उत्पद्यन्ते वा उत्पत्स्यन्ते वा ? पृच्छतामयम् अभिप्रायः-यदि नाम असंख्यातो लोकस्तदा कथं तत्राऽनन्तानि तानि कथं भवितुम् अर्हन्ति, अल्यत्वाद् आधारस्य, महत्त्वाच्च आधेयस्य इति . तथा ' परित्ता राइदिय ' त्ति परीतानि नियतपरिमाणानि, नाऽनन्तानि इहाऽयमभिप्रायः -- यद्यनन्तानि तानि तदा कथं परीतानि ? इति विरोध:. अत्र 'हंत ' इत्याद्युत्तरम् अत्र चाऽयम् अभिप्रायः -- असं रातप्रदेशेऽपि लोकेऽनन्ता जीवा वर्तन्ते, तथाविधस्वरूपत्वात् - एकत्राऽऽये सहस्रादिसंख्य प्रदीपप्रभा इव तेच एकत्रैव समयादिकाले अनन्ता उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च स च समयादिकालस्तेषु साधारणशरीराऽवस्थायाम् अनन्तेषु, प्रत्येकंशरीरावस्थायां च परीतेषु प्रत्येकं वर्तते, तवि तिलक्षणपर्यायरूपत्वात्तस्य, तथा च कालोऽनन्तः, परीतश्च भवति, इत्येवं चाऽसंख्येयेऽपि लोके रात्रिंदिवानि अनन्तानि, परीतानि च कालत्रयेऽपि युज्यन्ते इति एतदेव प्रश्नपूर्वकं तत्संमतजिनमतेन दर्शयन्नाहः - से णूणं इत्यादि ' भे' त्ति अवतां संबन्धिना, ' अज्जो !' त्ति हे आर्याः !, पुरिसादाणी: ति पुरुषाणां मध्ये आदानीयः - आदेयः पुरुषादानीयः - तेन 'सासए' त्ति प्रतिक्षणस्थायी स्थिर इत्यर्थः, बुइए ' ति उक्तः स्थिरश्च उत् त्तिक्षणाद् अप्यारभ्य स्याद् इत्यत आह: - ' अणाइए ' त्ति अनादिकः, स च सान्तोऽपि स्यात्भव्यवत् इत्याहः -- ' अणवयग्गे त्ति अनवदप्रोऽनन्तः परितेत्ति परिमितः प्रदेशतः, अनेन लोकस्याऽसंख्येयत्वं पार्श्वजिनस्याऽपि सम्मतम् इति दर्शितम् तथा 'परिवुडे ' त्ति अलोकेन परिवृतः, ' हेट्ठा विच्छिन्ने ति सप्तरज्जुविस्तृतत्वात्, — मज्झे संखित्ते” त्ति एकरज्जुविस्तारत्वात्, ' उपिं विसाले ' त्ति ब्रह्मलोकदेशस्य पञ्च रज्जुविस्तारत्वात् एतदेव उपमानतः प्राहः --- अहे पलियंकसंठिए ' चि उपरि संकीर्णत्वाऽधोविस्तृतत्वाभ्याम्, 'मज्झे वरवइरविग्गहिए ति वरवद्विग्रहः शरीरम् आकारो मध्यक्षामत्वेन यस्य स तथा, स्वार्थिकश्च इकप्रत्ययः, उप्पि उद्धमुइंगागारसंटिए ' त्ति ऊर्ध्वः न तु तिरचीनो यो मृदङ्गस्तस्याऽऽकारेण संस्थितो यः स तथा — मल्लकसंपुटाऽऽकार इत्यर्थः ' अणंता जीवघण' त्ति अनन्ताः परिमाणतः सूक्ष्मादिसाधारणशरीराणां विवक्षितत्वात्, सन्तत्यपेक्षया बाऽनन्तः: -- जीवसन्ततीनामपर्यवसानत्वात् जीवाश्च ते घनाश्च अनन्तपर्याय समूहरूपत्वात्, असंख्येयप्रदेशपिण्डरूपत्वाच्च जीवघनाः किम् इति ? आहः- उपज्जित्ता' इति उत्पद्य - उत्पद्य निलीयन्ते विलीयन्ते - विनश्यन्ति, तथा 6 १. मूलच्छायाः --- परीताः जीवधनाः उत्पद्य, उत्पद्य निलीयन्ते तद् नूनं भूतः उत्पन्नः, विगतः परिगत; अजीवलेाक्य ते; प्रलोक्यते' यो लोक्यते स लोकः ?' दन्त, भगवन् ! तत् तेनाऽर्थेन आयोः ! एवम् उच्यते-असंख्येये, तचैव तत्प्रभृति च ते पार्श्वीऽपत्या: स्थविरा भगवन्तः श्रमण भगवन्तं महावीरं सर्वज्ञः सर्वदशी' (इति) प्रत्यभिजानन्ति ततस्ते स्थविरा भगवन्तः श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते, नमस्यन्ति वन्दिवा, नमस्थित्वा एवम् अवादिषुः - इच्छामो भगवन् ! युष्माकम् अन्तिके चातुर्यामाद् धर्मात् पञ्च महाव्रतानि सप्रतिक्रमणं धर्मम् उपसंपद्य विहर्तुम्; यथासुखं देवाऽनुप्रियाः ! मा प्रतिबन्धम् ततस्ते पार्श्वापत्याः स्थविरा भगवन्तो यावत् चरमैः उच्छ्वास - निःश्वासैः सिद्धाः यावत् सर्व दुःख प्रहीणाः, अरत्येककाः देवलोकेषु उत्पन्नाः- अनु० Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २५१ परित्ता' प्रत्येकशरीराः अनपेक्षिता-ऽतीता-ऽनागत-संतानतया वा संक्षिप्ताः जीववना:-इत्यादि तथैव. अनेन च प्रश्ने यदुक्तम्:। अणता राइंदिया' इत्यादि. तस्योत्तरं सूचितम् , यतोऽनन्त-परीतजीवसंबन्धात् कालविशेषा अपि अनन्ताः, परीताश्च व्यादिश्यन्तेऽतो विरोधः परिहृतो भवति इति. अथ लोकमेव स्वरूपत आहः-से भूए' ति यत्र जीवधना उत्पद्य उत्पद्य विलीयन्ते स लोको भूतः-सद्भूतो भवनधर्मयोगात् , स चाऽनुत्पत्तिकोऽपि स्यात्-यथा नयमतेनाऽऽकाशम् , अत आहः-उत्पन्नः, एवंविधश्वाऽनश्वरोऽपि स्यात् यथा विवक्षितघटाऽभावः, इत्यत आह:-विगतः, स चाऽनन्वयोऽपि किल भवति, इत्यत आहः-परिणतः, पर्यायान्तराणि आपन्नः, न तु निरन्वयनाशेन नष्टः, अथ कथम् अयम् एवंविधो निश्चीयते ? इत्यत आहः- अविहिं ' ति अजीवैः पुद्गलादिभिः सत्तां बिभ्रद्भिरुत्पद्यमानैः, विगच्छद्भिः, परिणमद्भिश्च लोकाऽनन्यभूतै:-लोक्यते-निश्चीयते, प्रलोक्यते-प्रकर्षेग निश्चीयते भूनादिधर्मकोऽयम् इति, अत एव यथार्थनामाऽसौ इति दर्शयन्नाहः-'जे लोकह से लोए' ति यो लोक्यते विलोक्यते प्रमाणेन स लोको लोकशब्दवाच्यो भवति-इति. एवं लोकस्वरूपाऽभिधायकपार्श्वजिनवचनसंस्मरणेन खवचनं भगवान् समर्थितवान् इति. 'सपडिक्कमणं । ति आदिमा-ऽन्तिमजिनयोरेव अवश्यकरणीयः सप्रतिकमणो धर्मः, अन्येषां तु कादचिकप्रतिक्रमणः. आह च:-- संपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स, मज्झिमगाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं " ति. ४. काल निरूपणनो अधिकार होवाथी रात्रि-दिवसरूप काल-विशेषने निरूपवा आ-[' ते णं काले णं, इत्यादि ] सूत्र कहे छे. तेमां [' असंखेजे लोए 'त्ति ] असंख्यात प्रदेशरूप होवाथी असंख्यात लोकमां एटले चौद रज्वात्मक आधारभून क्षेत्रलोकमां [ ' अणंता राइंश्य' ति ] अनंत परिमाणवाळा अहोरात्रो-रात्रि-दिवसो-[ ' उप्पजिंसु ' इत्यादि. ] उत्ान्न थयां, उत्पन्न थाय छे के उत्पन्न थशे ? आ प्रश पूछना ते आ स्थविरोंनो आ अभिप्राय जणाय छे के, जो, लोक असंख्यात छे तो तेमां अनंत रात्रि-दिवसो शी रीते होई शके ? वा शी रीते रही शके ? कारण विनो आग के, लोकरूप आधार असंख्यात होवाथी अल्प छे, अने रात्रि-दिवसरूप आधेय अनंत होवाथी मोटुं छे माटे नाता आधारमा मोटुं आधय के.म संभवे ? तथा, परित्ता राइंदिय 'त्ति ] परित्त एटले नियत परिमाणवाळां-अमुक परिमाणवाळां-पग अनंत नहि. अहिं आ अभिप्राय छ के, जो ते रात्रिदिवसो अनंत होय तो 'परित्त' केम होइ शके ? ए प्रमाणे परस्पर विरोध छे. अहिं [ 'हंता' इत्यादि ] उतर छ, अहिं आ अभिप्राय छे के, जेम एक आश्रव-घर वगेरे--मां हजारो दीवानी प्रभा समाइ शके छ तेनी पेठे, तेवा प्रकारचें स्वरूप होवाथी असंख्य प्रदेशरूप से लोकमां पण अनंत जीवो रहे छे अने ते जीवो एक ज समय वगेरे काळमां अनंत संख्यामां उत्पन्न थाय छे, नाश पामे छे ते समयादि काळ, साधारण शरीरनी अवस्थामा रहेला अनंत जीवोमां दरेक जीवमां अने प्रत्येक शरीरनी अवस्थामा रहेला परित्त-नियत-असंख्यात-जीवोमां दक जीवमा रहे छे, कारण के, ते समयादि काळ जीवोनी स्थिति रूप-पर्याय रूप छे-ते प्रकारे काळ अनंत अने परित पण कहेवाय छे-ए प्रमाणे असंख्येय लोकमां पण रात्रिदिनो अनंत छे अने परित्त पण छे अने ए प्रमाणे होवू, ए त्रणे काळमां योग्य छे, एज वातने ते स्थविरोने सम्मत स्थ विरोना संधी जिनना मत वडे प्रश्नपूर्वक दर्शावता [' से णूणं' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. [भे' ति] आपना संबंधी, [ · अजो !' ति] हे आर्यो ! पार्श्वजिन. [' पुरिसादाणीएणं' ति ] पुरुषोनी वचे आदेय-माननीय-ग्राह्य-ते पुरुषादानीय-तेणे [ 'सासए ' ति] (लोकने ) प्रतिक्षण रहेनार-स्थिर -- शाश्वत. ['बुइए ' ति ] कह्यो छे, केटलाक स्थिर पदार्थों एवा पण होय छे-जेओ उत्पन्न थया पछी स्थिर रहेनारा होय छे अर्थात् उत्पत्तिवाळा अने स्थिरतावाळा होय छे पण लोक तेवो नथी माटे कहे छे के, [ ' अणाइए 'त्ति ] अर्थात् लोक आदि-उत्पत्ति-विनानो छे अने स्थिर छे. केटलाक अनादिक. आदि विनाना पदार्थों अंतवाळा होय छे पण लोक तो अंत विनानो छ माटे कहे छे के, [' अणवयम्गे ' त्ति ] अनंत. [ 'परित्ते ' ति। प्रदेशथी परित्त छ, आ शब्दवडे एम दर्शाव्यु के, भगवंत पार्श्वजिनने पण लोकनी असंख्येयता सम्मत छे. तथा [ 'परिबुडे ' त्ति ] अलोकथी अनंत-परीत. पाव जिन्नी सम्म ते. परिवृत, [ 'हेट्ठा विच्छिन्ने ' ति] सात रज्जु विस्तीर्ण होवाथी नीचे विस्तीर्ण छ, 'मझे संखित्ते 'त्ति ] एक रज्जु विस्तीर्ण होवाथी वचमां लोकस्वहा. संक्षिप्त छे, [ 'उप्पि विसाले 'ति] ब्रह्मलोकनो भाग पांच रज्जु विस्तीर्ण होवाथी उपर विशाल छे, ए ज वातने उपमाथी कहे छे के, [ 'अहे पलियंकसंठिए ' ति] उपर संकीर्ण अने नीचे विस्तृत होवाथी नीचे पल्यंकना आकार जंबो छे, [ 'मझे वरवइरविग्गैहिए ' ति ] वचमां पातळो होवाथी लोकनो आकार उत्तम वजनी जेवो छे. [ उणि उद्धमुईगागारसंठिए 'ति] तीरछो-आडो-नहि पण उभो जे मृदंग, तेना आकारे लोक रहलो छ अर्थात् बे कोडियाना संपुटने आकारे रहलो छे. [ ' अणंता जीवघण ' त्ति ] परिमाणथी अनंत अथवा जीव संततिर्नु अनंत जीवो. अपर्यवसान होवाथी सूक्ष्मादि साधारण शरीरोनी विवक्षाने लीधे संततिनी अपेक्षाए अनंत, अने अनंत पर्यायना समूहरूप होवाथी तथा असंख्य प्रदेशना पिंडरूप होवाथी घन एवा जे जीव ते जीबंधन कहेवाय. आथी शुं कहे छ ? तो कहे छे के, [ ' उप्पजित ' ति ] ते जीवघन उपजी गजीने नाश झामे छे, तथा परित्ता'] प्रत्येक शरीरवाळा अने भूत, भविष्यत् काळना संतानपणानी अपेक्षा विनाना माटे ज संक्षिप्त जीवघना, इत्योंदि-पूर्वनी पेठे समजवु. आहे प्रश्नमा जे [' अर्णता राइंदिया ' इत्यादि ] कह्यु छे तेनो उत्तर आ कथन वडे सूचित थयो-अपाइ गयों. कारण के, अनंत अने परित्त जीवनासंबंधथी काल-विशेष पण अनंत अने परित, ए प्रकारे व्यपदेशाय छे माटे अमुकना संबंधथी अनंत अने अमुकना संबंधी परित्त थवामां विरोधनो परिहार थाय छे. हवे स्वरूपथी लोकने ज कहे छे, [ ' से भूए ' ति ] ज्यां जीवधनो उत्पन्न थइ नाश अमु पामे ते लोक कहेवाय अने ते लोक भवन-सत्ता-धर्मना संबंधथी । सद्भुत ' लोक कहेवाय, जेम नैयायिकना मतमा आकाश, अनुत्पत्तिक-उत्पत्तिधर्म रहित-छे तेम ते लोक पण अनुत्पत्तिक होय माटे कहे छे के, ते लोक उत्पन्न छे; जेम विवक्षित घटाभाव-घटप्रध्वंसाभाव- उत्पन्न छे अने नैयायिक, अनश्वर छ तेम उत्पन्न पदार्थ पण अनश्वर होय माटे कहे छ के, लोक विगत-नाशशील छे नाशशील पदार्थ एवो पण होय के, जे अनन्वय-- १, प्र० छाः-सप्रतिक्रमणो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य, मध्यमकानां जिनानां कारणजाते प्रतिक्रमणम्-इतिः-अनु० १. भहीं 'वरवहरविग्गहे ' ने बदले जे 'वरवहर विग्गहिए ' कयुं छे ते खाधिक 'इक' प्रत्यय लागवाने लीधे क छ:-श्रीअभय. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ५.-उद्देशक ९. परिणामी लोक संबंध रहित-होय अर्थात् जनो समूल नाश होय माटे कहे छे के, लोक परिणामी छे अर्थात् अनेक बीजा पर्यायाने प्राप्त भएलो के पण तेनो निरन्वय नाश-समूळ नाश-थयो नथी. हवे आ लोक एवा प्रकारनो छे, ते केवी रीते निश्चित थाय ? तो कहे छे के, [ अजीवेहिं ' ति] सत्ताने धारण करनारां, नाश पामतां अने परिणामने प्राप्त करतां तथा जेओ ( पुद्गलादि ) लोकथी अनन्यभूत-अभिन्न छे, एवा अजीव-पुद्गलादि -पदार्थोथी लोक निश्चित थाय छे, तथा — आ भूतादिधर्मवाळो छ ' एम प्रकर्षे निश्चित थाय छे, माटे ज तेनुं । लोक ' एवं नाम यथार्थ छे, ए वातने दर्शावता कहे छे के, [जे लोक्कइ, से लोए 'त्ति ] जे प्रमाण द्वारा विलोकी शकाय ते लोक शब्दथी वाच्य होइ शके, ए प्रमाणे लोक श्रीपाजन, स्वरूपने कहेनार पार्श्वजिनना वचनने संभारवा द्वारा भगवंत महावीरे पोतानुं वचन समर्थित कर्यु. [ सपडिक्कमणं ' ति ] प्रथम अने अंतिम - जिनने प्रतिक्रमण धर्म अवश्य करणीय छे अने बीजा बावीश जिनने तो प्रतिक्रमण धर्म कोइक दिवस कारणे करवा योग्य छे. का छे के, "प्रथम जिननो अने पश्चिम-छेला-जिननो धर्म प्रतिक्रमणसहित छे अने वचला जिनोने कारण थये प्रतिक्रमण छे." देवलोको. १७. प्र०-कइविहा णं भंते ! देवलोगा पन्नता ? १७. प्र०-हे भगवन् ! केटला प्रकारना देवलोक कह्या छे ? .१७. उ०-गोयमा ! चउव्विहा देवलोगा पन्नता, तं १७. उ० हे गौतम ! चार प्रकारना देवलोक कह्या , छे जहा:-भवणवासी-वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियभेदेणं:-भवणवासी ते जेम के, १ भवनवासी, २ वानव्यं तर, ३ ज्योतिषिक अने दसबिहा, वाणमंतरा अढविहा, जोतिसिया पंचविहा, वेमाणिया ४ वैमानिक एम चार भेद वडे:-तेमां भवनवासी दस प्रकारना दुविहा. छे, वानव्यंतरो आठ प्रकारना छे, ज्योतिषिको पांच प्रकारना छे, अने वैमानिको बे प्रकारना छे. गाहा: -हवे आ उद्देशकनी संग्रह गाथा कहे छः किमियं रायगिहं ति य उज्जोए अंधयार-समए य, राजगृह ए शुं ? दिवसे उद्द्योत अने रात्रीए अंधकार केम ? पासंतिवासिपुच्छा रातिदिय देवलोगा य. समय विगेरे काळनी समजण कया जीवोने होय छे अने कया जीवोने नथी होती ? रात्री अने दिवसना प्रमाण विषे श्रीपार्श्वजिनना शिष्योना प्रश्नो अने देवलोकने लगता प्रश्नो-आ उद्देशमा एटला विषयो आवेला छे. -सेवं भंते 1, सेवं भंते । ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विहरे छे. भगवंत-अनसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पंचमसये नवमो उद्देसो सम्मत्तो. ५. अनन्तरम् ' देवलोएसु उववन्ना' इत्युक्तम् , अतो देवलोकप्ररूपणसूत्रम्:- कतिविहा ' इत्यादि. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पञ्चमशते नवम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. ५. हमणां [ देवलोएसु उबवन्ना' ] अर्थात् ' देवलोकमां गया ' ए प्रमाणे जणाव्यु छ, तो हवे ते देवलोकोने लगतुं आ सूत्र कहे छः ['कइविहाणं' इत्यादि.] बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥ १. कतिविधा भगवन् ! देवलोकाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! चतुर्विधा देवलोकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः-भवनवासि-वानव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिक मेदेन:भवनवासिनो दशविधाः, वानव्यन्तरा अष्टविधाः, ज्योतिष्काः पञ्चविधाः, वैमानिका द्विविधाः. गाथा:-किमिदं राजगृहमिति च उद्द्योतोऽन्धकारसमयच पाान्तेवासिंपृच्छा रात्रिंदिवानि देवलोकाश्च. तदेवं भगवन् । तदेवं भगवन् । इतिः-अनु० Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ५.-उद्देशक १०. चंपा.-पंचम शतकनो प्रथम उद्देशक.-चंद्रनिरूपण.-शतक समाप्ति. ते' णं काले णं, ते णं समए णं चंपा नाम नगरी, जहा ते काले, ते समये चंपा नामे नगरी हती, प्रथम उद्देशक कह्यो पढमिल्लो उद्देसओ तहा नेयव्यो एसो वि, नवरं चंदिमा भाणि- तेम आ उद्देशक समजवो, विशेष ए के, चंद्रो कहेवा. यब्बा. भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते पंचमसये दशमो उदेसो सम्मत्तो. १. अनन्तरोदेशकान्ते देवा उक्ताः, इति देवविशेषभूतं चन्द्रं समुद्दिश्य दशमोदेशकम् आह, तस्य चेदम् सूत्रम्:-' ते णं कालेणं ' इत्यादि. एतच्च चन्द्राऽभिलापेन पञ्चमशत-प्रथमोदेशकवन्नेयम् इति. श्रीरोहणादेरिव पञ्चमस्य शतस्य देशानिव साधुशब्दान् । विभज्य कुश्येव बुधोपदिष्ट्या प्रकाशिताः सन्मणिवद् मयाऽर्थाः ॥ भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पञ्चमशते दशम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचित विवरण समाप्तम्. १. अनंतर-पासेना-उद्देशामा छेवटे देवो कथा, माटे देव विशेषरूप चन्द्रने उद्देशीने आ दशम उद्देशक कहे छे, तेनु आ-[ 'ते णं कालेणं' इत्यादि ] आदि सूत्र छे, अने पांचमा शतकमां जेम प्रथम उद्देशक कह्यो छे, तेनी पेठे आ उद्देशो चंद्रना अभिलापथी जणावो. सुज्ञे जणावेली प्रथा प्रमाणे विवेच्यु आ शत पांच{ अहीं, श्रीरोहणाद्रि-खडको ज जाणे कोशे करी भांगी मणी प्रकाश्या. पंचम शतक-प्राम उद्देशक अने चन्द्र. पञ्चम शतक समाप्त. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरघरो वाहको दान्ति-शान्स्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ।। १. मूलच्छाया:-तस्मिन् काले, तरिमम् समये चम्पा नाम नगरी, यथा प्राथमिक उदंशकस्तथा ज्ञातव्य एषोऽपि, नवरम्-चन्द्रमसः भणितव्याः -अनु० १. जूओ भग० द्वि. सं. पृ० ( १४३ थी १५६ ):-भमु. Jain Educannountarnal Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शतक ६.-उद्देशक १. कारणमा चोक्खा निपाणी, टी वेदना.-आहार.-महाश्रत्र.-सप्रदेश.-तमस्काय.-भव्य.-शालि.-पृथिवी.-कर्म, अन्यतीथिक.-महावेदनावाळो, महानि जरावाळो ? के महानिर्जरावाली, महावेदना. वाळो ?-५ वेमां कोण उत्तम ?-प्रशस्तनिर्जरावाळो.--छट्ठी-सातमीमा रहेनारा नैरथिको महा वेदनावाला छे ?-हा.-ते नैरयिको श्रमणो करता मोटी निर्जरावाळा ?-ना-एना कारणमां चोक्खा अने मेला वन, उदाहरण-कर्दमराग.-खंजनराग.-नैरयिकोनां पापो ची कणां-लोहारनी एरणनो दाखलो.-श्रमणनां कर्म पोचा.-सूको पूलो अने अग्नि.-पाणीनुं टीपुं अने उनुं धगधगतुं लोढार्नु कड यु.-करणो केटलां ?-वार-मनकरण.-वचनकरण.-कायकरण.-कर्मकरण.-नरयिकोने-पंचेंद्रियोने र चारे करण -एकेद्रियोने बे करण-कायकरण.-कर्मकरण,-विकलेंद्रियोने ण करण,-वचनकरग.-कायकरण.-कर्मकरण.-करग अने अशातावेदना.-करण अने शात वेदना.-ए रीो असुर कुमार यावत्-स्तनि नकुमार.-पृथिवीकाय-औदारिक शरीराळ-अने देवो विषे-विचार,-महा वेदना अने महानिरा.-महावेदना अने अल्पनिर्जरा.-अल्पवेदना अने महानिर्जरा.-अरवेदना अने अल्पनिर्जरा.-प्रतेमाधारक नु ने महा वेदनावाळो अने महानिर्जरावाळो.-छट्ठी तिमीना नैरयिको महावेदना अने अल्मनिर्जरा.-शैलेशीवाळो अनगार अल वेदना अने महानिर्जरा.-अनुतरांपैपातिक वो अल्पवेदना अने अल्पनि रा.-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे.-संग्रहगाथा-उद्देशक समाप्ति. याने बे करण- मार यावत्-स्तान ----वेधण-आहार-महस्सचे य सपएस तमुयाए भविए, साली पुढवी कम्म-अन्नउस्थि दस छहगम्मि सए. ___--१ वेदना, २ आहार, ३ महाआश्रव, ४ सप्रदेश, ५ तमस्काय, ६ भव्य, ७ शाली, ८ पृथिवी, ९ कर्म अने १० अन्ययूथिकवक्तव्यता, ए प्रमाणे दश उद्देशा आ छट्ठा शतकमां छे. १. व्याख्यातं विचित्रार्थं पञ्चमं शतम् , अथ अवसराऽऽयातं तथाविधमेव षष्ठम् आरभ्यते, तस्य च उद्देशकार्थसंग्रहणी गाथेयम्:-'यण ' इत्यादि. तत्र वेयण ' ति महावेदनो महानिर्जर:-इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरः प्रथमः. 'आहार' त्ति आहाराद्यर्थाऽभिधायको द्वितीयः. 'महस्सवे य' 'त्ति महाश्रवस्य पुद्गला बध्यन्ते इत्याद्यर्थाऽभिधानपरस्तृतीयः. 'सपएस' त्ति सप्रदेशो जीवः, अप्रदेशो वा इत्याद्यर्थाभिधायकश्चतुर्थः. 'तमुयाए 'त्ति तमस्कायार्थनिरूपणार्थः पञ्चमः. 'भविए ' त्ति भव्यो नारकत्वादिना उत्पादस्य योग्यः-तद्वक्तव्यताऽनुगतः षष्ठः. 'सालि'. ति शाल्यादिघान्यवक्तव्यताऽऽश्रित: सप्तमः. 'पुढवि' त्ति रत्नप्रभादिपृथिवीवक्तव्यताऽर्थोऽष्टमः. 'कम्म' ति कर्मबन्धाऽभिधायको नवमः. ' अन्नउत्थि । ति अन्ययूथिकवक्तव्यतार्थो दशम इति. १. विचित्र अर्थवाळा पांचमा शतकनी व्याख्या करी, हवे अवसर प्राप्त अने ते वा ज प्रकारना छट्ठा शतकना विवेचननी शरुआत थाय छे अने ते छठा-शैतकना दशे उद्देशाना अर्थाने संग्रह करनारी आ गाया छ अर्थात् आ गाथामां, आ शतकमां जे जे विषयो आवनारा छे ते बधानो नामनिर्देश करलो छे. [ 'वेयण' इत्यादि.] तेमां [ 'वेयण ' ति] ए प्रथम शब्द छे अने तेनो अर्थ आ छ:--जे मोटी वेदनावाळो होय ते वेदना. मोटी निर्जरावाळो होय के कम ? इत्यादि अर्थना प्रतिपादन परत्वे प्रथम उद्देशक छे. [ आहार ' ति] आहार वगेरेना अर्थने कहेनारो बीजो आहार. उद्देशक छे. [ ' महस्सवे य 'त्ति ] 'महाश्रववाळाने-मोटा आश्रववाळाने-पुद्गलो बंधाय छे' इत्यादि अर्थना कथन परत्वे बीजो उद्देशक छे. महाश्रव, [.' सपएस ' ति ] जीव सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? ' इत्यादि अर्थनो अनिधायक चतुर्थ उद्देशक छे. [ 'तमुयाए ' ति ] तमस्कायने लगता सप्रदेश. विवेचनने निरूपवा माटे पंचम उद्देशक छे. [ ' भविए ' ति ] जे जीव, नारकपणे वा मनुष्यपणे-इत्यादिरूप उत्पन्न थवाने लायक होय ते तमस्काय. 'भव्य ' कहेवाय अने एवा भव्यनी वक्तव्यताने लगतो आ छट्ठो उद्देशो छे. [ ' सालि 'ति] 'शालि' वगेरे धान्यने लगता निरूपणने माटे भव्य.-शालि. १. मूलच्छायाः-वेदना-हार-महाश्रवश्च सप्रदेश-तमस्कायो भव्यः, शालिः पृथ्वी कमा-ऽन्ययूथिका दश षष्ठके शतेः-अनु. Jain Education international Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे शतक ६. - उद्देशक १. पृथिवी आ सप्तम उद्देशक छे. [' पुढवि 'त्ति ] रत्नप्रभा वगेरे पृथिवीनी वक्तव्यता माटे आठमो उद्देशक छे. [' कम्म ' त्ति ] कर्मबंधनुं निरूपण वर्मयसि करवा माटे आ नवमो उदेशक है. अने दशमा उद्देशामां अन्यतीर्थिकना मतने लगती वक्तव्यता है. वेदना, निर्जरा अने वस्त्र. १. प्र० से पूर्ण भंते! जे महावेदने से महानिबरे, जे महानिज्जरे से महावेदणे; महावेदणस्स य, अप्पवेदणस्स य से सेए वे परमनिबराए ! १. उ० - हंता, गोयमा ! जे महावेदणे एवं चैवं. २. प्र० - छट्टि -सत्तमासु णं भंते ! पुढर्वासु नेरइया महावेदणा ? २. उ० - हंता. महावेयणा. ३. प्र० - ते णं भंते ! समणेहिंतो निग्गंथेहिंतो महानिज्जरतरा ? ३. उ० - गोयमा ! णो तिणट्टे. ४. प्र० - सेकेणट्टेणं मंते ! एवं वुच्चइ: - जे महावेयणे, जाय-सत्यनिराए ४. उ० – गोयमा ! से जहा नामए दुवे वत्था सिया, एगे त्येकदमरागरचे, ए वत्ये संजणरागरचे एएस में गोगमा । दो परवाणं परे पत्थे दुदगंतराए चैव दुवामतराए चेव, दुपरिसम्मतराए चैत्र परे वा परये सुद्धोयतराए चेव, सुचायत राए चैव, सुपरिकम्मतराए चेव; जे. वा से वत्थे कद्दमरागरत्ते, मासे थे संजणरागरचे भगवं! तस्य णं जे से बस्थे कमरागरचे, से.णं (भंते!) वत्ये दुदोयराराए चेष, दुबामतराएं चैव दुष्परिकम्मतराएं चैव. एवागेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई फम्माई गाडी कवाई, चिकणीकवाई, सिलिडकियाई, खिलीभूताई भयंति संपगादं पि य णं ते वेदनं वेदेमाणा को महानिज्जरा, नो महापज्जवसाणा भवंति से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरनि आउंडेमाणे महया महया सदेने, महया मया घोसेणं, महया मया परंपराघाएणं णो संचाएइ तीसे अहिगरणीए कई अहारापरे बोगले परिसाडिवर एवामेव गोवमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, जान-णो महापज्जवसाणाई १. प्र० - हे भगवन् ! हवे एं छे के, जे महावेदनावाळो होय ते महानिर्जरावाळो होय अने जे महानिर्जरावाळो होय ते महावेदनावाळो होय अने महावेदनावाळामां तथा अस्यवेदनाचाळा ते जीव उत्तम छे जे प्रशस्त निर्जरावाळो छे ! - १. उ० हा गौतम! जे महावेदनावा छे, ते ज-ए प्रमाणे ज जाणवुं. २. प्र० - हे भगवन् ! छट्ठी अने सातमी पृथिवीमां नैरयिको मोटी वेदनावा छे! २. हा मोटी वेदनावाळा छे. ३. प्र० - हे भगवन् ! ते छ भने साथमी पृथ्वीमा रहेनारा नैरयिको, श्रमण निर्मन्थो करतां मोटी निर्जरावाळा छे ? ३. उ० – हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी अर्थात् तेम नथी. ४. प्र० - हे भगवन् ! ते एम शा हेतुथी कहेवाय छे के, महावेदनावाळो छे यावत् प्रशस्तनिर्जरावाळो ? जे ४. उ० - हे गौतम! ते जेमके; कोइ वे वस्त्रो होय, तेमांथी एक वस्त्र कर्दमना रंगधी रंगेलं होप, अने एक पत्र खंजनना रंगधी रंगेलं होप हे गौतम ए ये यत्रोयां वस्त्र दुधततरदुःखपी धोत्राय तेनुं दुश्वर-जेना डाओ दुःखेची जायते अने दुष्प्रतिकर्मतर - कष्टे करी जेमां चळफाट अने चित्रामण थाय तेनुं अर्थात् कर्दमना रंगी रंगेडा भने संजनना रंगधी रंगेला ए बे खोमां क्युं वस्त्र दुर्विशोभ्य छे अने क्युं वस्त्र सुधौतार, सुवास्यतर अने सुपरिकर्मतर छे ? हे भगवन् ! ते बेमां जे ए कर्दमना रंगथी रंम्युं छे ते यत्र दुर्खेततर, दुर्गाम्यतर अने दुष्पति मंतर छे, जो एन छे तो हे गौतम! एज प्रमाणे नैरयिकोनां पाप कर्मों गाढीहतगाढ करेला छे, चिक्कणीकृत - चिक्कणां करेला छे, श्लिष्ट करेला छे, सिलीमून-निकाचि करे छे माटे जतेक संप्रगाढ पण वेदनाने वेदता मोटी निर्जरावाळा नथी, मोटा पर्यवसानवाळा नथी; अथवा जेन कोइ पुरुष, मोठा मोठा शब्द पडे, मोटा मोटा घोष बढे, मोटा निरंतर - उपराउपर घातकडे एरणने कूटतो - एरण, उपर էլ १. भन्यो मादनः स महानिर्जरयो मानिस महावेदन, महावेदन अनवेदनस्य स यान यः प्रशस्त निर्जरा (य) कः ? हन्त, गौतम ! यो महावेदनः एवं चैव षष्ठी- सप्तम्योः भगवन् ! पृथिव्योः नैरयिका महावेदनाः ? हन्त, महावेदनाः ते भगवन् । श्रमणेभ्यो निर्ग्रन्थेभ्यो महानिर्जरतराः ? गौतम ! नो अयमर्थः तत् केनाऽर्थेन भगवन् । एवम् उच्यतेः यो महावेदनः यावत्-प्रशस्त निर्जरा( य ) कः ? गीतन 1 तद् यथा नाम द्वे वस्त्रे स्याताम् एकं वस्त्रं कर्दमरागरतम् एकं वस्त्रं खज्जनरागरतम् एतयोर्गौतम ! द्वयोः वस्त्रयोः कतर 3 दुतरम्यतर ब दुष्परिकर्मतर म कलर का तराम्यतरा मगर महानगर भगवन्तत्र यत्तव नगर सद्भगवन्) तर दुवैतर परफर्मर एकमेव पापाने कमी कृतकृतानि खीमूतानि भगवा सोसेना नो महानिर्जरानो महान भवन्ति सद्यथा वा कोऽपि पुरुषोऽविवरणम्य महता मता महता महता, महता महता परंपरापान संचिनोति तथा मचिकरण्या पान यथावादगन्लान् परिशादयितुम् एवमेव य मेमिकाणां पापानि कर्माणि तानि वादन महापसानानिःअनु - , Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५७ भवंति. भगवं! तत्थ जे से वत्ये खंजणरागरत्ते से णं-वत्थे टीपतो-होय पण ते (पुरुष) ते एरणना स्थूल प्रकारना पुद्गलोने सुद्धोयतराए चेव, सुवामतराए चेव, . सुपरिकम्मतराए चेव, परिशटित-नष्ट-करवा समर्थ थतो नथी, हे गौतम! ए ज एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबायराइं कम्माई प्रकारनां नैरयिको ना पाप कर्मो गाढ करेला यावत् महापर्यवसान सिढिलीकयाई, निद्वियाई कडाई, विप्परिगामियाई खिप्पामेव नथी अने हे भगवन् ! तेमा जे वस्त्र खंजनना रंगी रंगेलुं छे ते विद्धत्थाई भवति. जावतियं तावतियं पि ते वेदणं वेदेमाणा सुधौततर छे, सुवाम्यतर छे, अने सुप्रतिकर्मतर छे ए ज महानिज्जरा, महापज्जवसाणा भवति. से जहा नामए केइ पुरिसे प्रमाणे हे गौतम ! श्रमण निग्रंथोना स्थूलतर स्कंधरूप कर्मों, सुकं तणहत्थयं जायतेयंसि पविखवेज्जा, से नूणं गोयमा ! से शिथिलीकृत-मंदविपाकवाळा ठे, सत्ताविनानां छे, विपरिणामवाळां सुके तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसा- छे माटे शीघ्र ज विध्वस्त थाय छे अने जेटली तेटली पण विज्जति ? हता, मसमसाविज्जति. एवामेव गोयमा ! समगाणं वेदनाने वेदता ते श्रमण निग्रंथो मोटी निर्जरावाळा अंने महापर्यनिग्गंथाणं अहा वायराई कम्माई, जाव-महापज्जवसाणा भवंति. वसानवाला थाय छे, जेम कोइ एक पुरुष घासना सूका पूछाने से जहा नामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लासि उदगबिंदु, जाव- अग्निमां फेंके अने हे गौतम! ते नक्की छे के, ते अग्निमां फेंकवामा ' हंता, विद्धंसं आगच्छड़, एवामेव गोयमा ! समणाणं निगंथाणं, आवेलो घासनो सूको पूळो शीत्र ज बळी जाय ? हा, ते बळी जाव महापज्जवसाणा भवंति, से तेणद्वेणं जे महायणे से महा- जाय, ए ज प्रमाणे हे गौतम ! श्रमण निम्रन्थोना स्थूलतर स्कंधनिजरे, जाव-निज्जराए. रूप कर्मों यावत् ते श्रमणो मोटा पर्यवसानवाळ। थाय; जेम कोइ एक पुरुष धगधगता लोढाना गोळा उपर पाणी टीपु मूके यावत् ते विध्वंस पामे, ए ज प्रमाणे हे गौतम ! श्रमण निग्रंथोनां कर्मो यावत् ते श्रमण निग्रंथो महापर्यवसानवाळा छे, ते हेतुथी एम कहेवाय छे के, जे महावेदनावाळो होय ते महानिर्जरा पाळो होय यावत् प्रशस्तनिर्जरावाळो होय. २. ' से णूणं भंते ! जे महावेदणे' इत्यादि. महावेदनः-उपसर्गादिसमुद्भुतविशिष्टपीडः, महानिर्जरो विशिष्टकर्मक्षयः, अनयोश्च अन्योऽन्याऽविनाभूतत्याऽऽविभीवनाय 'जे महानिजरे, इत्यादि-प्रत्याऽऽवर्तनम्-इत्येको प्रश्नः. तथा महावेदनस्य च, अल्पवेदनस्य च मध्ये स श्रेयान् यः प्रशस्तनिजेराक:-कल्याणानुबन्धनिजेर इत्येष च द्वितीयः प्रश्नः. प्रश्नता च काकुपाठाद् अवगम्या. 'हन्त ' इत्याद्युत्तरम्. इह च प्रथमप्रश्नस्य उत्तरे महोपसर्गकाले भगवान् महावीरो ज्ञातम्. द्वितीयस्याऽपि (स) महावीर एवं -उपसर्गाऽनुपसर्गाऽवस्थायाम् इति. ' यो महावेदनः स महानिर्जरः' इति यदुक्तं तत्र व्यभिचारं शङ्कमान आहः-'छहि' इत्यादि. 'दुद्धायतराए ' त्ति दुष्करतरधावनप्रक्रियम्. 'दुवामतराए' ति दुर्गाम्यतरकं दुस्त्याज्यतरकलङ्कम्, 'दुष्परिकम्मतराए' रि. कष्टकर्तव्यतेजोजनन-भङ्गकरणादिप्रतिक्रियम्-अनेन च विशेषणत्रयेणाऽसि दुर्विशोध्यम्- इत्युक्तम्. 'गाढीकयाई' ति आमप्रदेशैः सह गाढबद्धानि-सनसूत्रगाढबद्धसूचीकलापवत् , 'चिक्कणीकयाई' ति सूक्ष्मकर्मस्कन्धानां सरसतया परस्परं गाढसंबन्धकरणतो दुर्भेदीकृतानि-तथाविधमृत्पिण्डवत्, ‘सिलिट्ठीकयाई' ति निधत्तानि सूत्रबद्धाऽग्नितप्तलोहशलाकाकलापवत्, 'खिलीभूतानि' अनुभूतिव्यतिरिक्तोपायान्तरेण क्षपयितुम् अशक्यानि-निकाचितानि इत्यर्थः-विशेषणचतुष्टयेनाऽपि एतेन दुर्विशोध्यानि भवन्तिइत्युक्तं भवति. एवं च 'एवामेव ' इत्यादि उपनयवाक्यं सुघटनं स्यात्-यतश्च तानि दुर्विशोध्यानि स्युः, ततः 'संपगाढं' इत्यादि. 'नो महापज्जवसाणा भवंति 'त्ति अनेन महानिर्जराया अभावस्य निर्वाणाऽभावलक्षणं फलमुक्तम्-इति नाऽप्रस्तुतत्वम् इत्याऽऽशङ्कनीयम् इति. तदेवं यो महावेदनः स महानिर्जरः' इति विशिष्ट जीवाऽप्रेक्षम् अवगन्तव्यम् , न पुनर्नरकादिक्लिष्टकर्मजीवाडोक्षम्, यदपि 'यो महानिर्जरः स महावेदनः' इत्युक्तं तदपि प्रायिकम् , यतो भवति अयोगी महानिर्जरः, महावेदेतस्तु भजनया-इति. 'अहिंगराण, ति अधिकरणी यत्र लोहकारा अयोधनेन लोहानि कुट्टयन्ति, 'आउडेमाणे ' त्ति आकुट्टयन् , ' देणं' हि अयोधनधातप्रभावेण ध्वनिना, पुरुषहंकृतिरूपेण वा 'घोसेणं' ति तस्यैवाऽनुनादेन, 'परंपराधाएणं' ति परंपरा निरन्तरता, ततप्रधानो घातमान परंपराघातस्तन-उपर्युपरिघातेन इत्यर्थः. ' अहाबायरे ' ति स्थूलप्रकारान्. 'एवामेव ' इत्याद्युपनये, 'गाढीकयाई' इत्यादि वेशेषगचतुकेण दुष्परिशाटनीयानि भवन्ति-इत्युक्तं भवति. 'सुद्धोयतराए' इत्यादि. अनेन सुविशोध्यं भवति-इत्युक्तं स्यात्. 'अहाबायराई। १. मलच्छायाः-भवन्ति, भगवन्! तर यत् तद् वस्त्रे खजनरागरक्तं तद् वत्र सुवतितरकं चेब, सुदाम्पतरकं चा, सुरिकर्म रक नव चमेव गौतम ! श्रमणानां निग्रन्थानाम् यथाबादराणि कर्माणि शिथिलीकृतानि, निष्ठिजानि कृतारी, विरिणामितानि क्षिप्रमेव विध्वस्त नि भवनि यावतिको तावतिकामपि वेदना वेदयमाना महानिर्जराः, महापर्यवसाना भवन्ति. तद् यथा नाम कोऽपि पुरुषः शुल्क तृणहस्तकं शाततेजसि प्रतिपेन लेटनी गौतम ! स शुष्कः तृणहस्तको जाततेजसि प्रक्षिप्तः सन् क्षिप्रमेव मसमसाऽऽप्यते ? हन्त, मसम साऽऽप्यते. एवमेव गैातम! धन गानां निग्रन्थानाम यथावादराणि कमाणि, यावत्-महापर्यवसाना भवन्ति. तद् यथा नाम कोऽपि पुरुषस्तप्ते अयस्कपाले उदकबिन्दुम् , यावत्-दन्त, विधमम आगच्छति एवमेव गौतम! श्रमणानां निग्रन्थानाम् , यावत्-महापर्यवसाना भवन्ति. तत् तेनाऽर्थेन ये महावेदना ते महानिर्जराः, यावत्-निर्जरा(य) क:-अनु० . Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक १. ति स्थूलतरस्कन्धानि असार,णि-इत्यर्थः, 'सिढिलीकयाई' ति श्लथीकृतानि मन्दविपाकीकृतानि, 'निद्वियाई कडाई' ति निस्सत्ताकानि विहितानि — विप्परिणामियाई ' ति विपरिणामं नीतानि स्थितिघात-रसघातादिभिः-तःनि च क्षिप्रमेव विध्वस्तानि भवन्ति, एभिश्च विशेषणैः सुविशोध्यानि भवन्ति-इत्युक्तं स्यात् , ततश्च 'जावतियं ' इत्यादि. २.[' से णूणं भंते ! जे महावेदणे' इत्यादि.] उपसर्ग वगरे द्वारा जने विशेष पीडा उपजी होय ते महावेदन-मोटी बेदुनाबाळो-- महावेदना अने महा. कहेवाय अने जेनां कर्मनो क्षय विशेष प्रकारे थयो होय ते महानिर्जर-मोटी निर्जरावाळो-कहेवाय, ए बन्नेनुं अन्योन्य अविनाभूतपणुं प्रकट करवा निर्जरा. माटे अर्थात् महावेदना होय त्यां महानिर्जरा होय ? अने महानिर्जरा होय त्यां महावेदना होय ?-ए हकीकतने जणाववा सारु सूत्रकारे [ 'जे महानिजेरे' इत्यादि ] सूत्रनुं पुनरुच्चारण कयु छे-ए एक प्रश्न थयो, तया महावेदनावाळो अने अल्प वेदनावाळो ए बेनी बच्चे जे प्रशस्त कल्याणना अनुबंबवाळी-निर्जरावाळो छे ते उत्तम कहेवाय ?-ए बीजो प्रश्न छ, ए प्रश्ननी प्रश्नता काकुपाठथी जाणवानी छे. 'हन्त' भगवंत महावीर. इत्यादि उत्तर सूत्र छे. जे समये भगवंत महावीरने मोटा मोटां कष्टो पड्यां ते समयना भगवंत महावीर, अहीं प्रथम प्रश्नना उत्तरमा उदाहरण -रूप छे. अने बीजा प्रश्नना उत्तरमा पण ते ज भगवंत, उपसर्गवाळी अने उपसर्ग विनानी अवस्थामा उदाहरणरूप छे. जे महावदनावाळो छे ते महानिर्जरावाळो छे, ए जे कयुं छे, ते संबंधे ' ए कथन बराबर छ के नहि ? ' ए जातनी शंका आणीने सूत्रकार कहे छे के, [ 'छट्ठी' दुयात. इत्यादि.] [ 'दुबोयतराए ' त्ति ] जेनी घोवानी प्रक्रिया दुष्कर होय अर्थात् जेने धोता-साफ- करतां-बहु मुश्केली आवती होय ते ' दु(ततर' दुर्वाम. कहेवाब, [ 'दुवामतराए'त्ति] जेनी उपरना डाघाओ महाकटे नीकळी शके ते 'दुर्वाम्यतर ' कहेवाय, [ ' दुष्परिकम्मतराए ' त्ति ] जेने चळकतुं दु प्रतिकर्म, करतां अने जेमां चित्रामण करतां घणो ज प्रयास करवो पडे ते 'दुष्पतिकर्मतर' कहेवाय. अहीं आ णे विशेषणो वस्त्रने लगतां छे अने तेथी ___एम जाणी शकाय छे के, जे वस्त्रना ए विशेषणो छे ते मेलामा मेलु-मसोता करतां पण मेलु-दाढ जेवू मेलु-हो, जोईए अर्थात् ते दुर्विशोध्य होवू गार. जोईए. [ 'गाढीकयाई' ति ] शणना सूतरथी-सूतळीथी-गाढ़-खूब मजबूत-बांधेल सोयना समूहनी पेठे आत्माना प्रदेशोनी साथै गाढ बांधला, चिकण. [ चिकणीकयाई ' ति ] जम चीकाशने लीधे माटीनो पिंडो दुर्भद्य थाय छे तेम सूक्ष्म कर्मरकंधोना रसनी साथे परस्पर गाढ संबंध करवाथी जे कर्मो दुर्भद्य थयां छे ते, 'चिक्कंगां की 'एम कहेवाय, ['सिलिट्ठीकयाई ' ति ] श्लिष्ट कर्या अर्थात् सूतरनी दोरीवती मजबूत बांधीने आगमा लिष्ट, तपावेली लोढानी सळीओ जेम परसर चोंटी जाय छे-कोई रीते नोखी थई शकती नथी तेम जे कर्मों ए रीते परस्पर एकमेक थई गयां होय-कोई रीते नोखां न पड़ी शकता होय तेओ निधत्त कर्मी-श्लिष्ट करेलां क-कहेवाय. अने जे कर्मो अनुभव्यां सिवाय बीजा कोई उपायथी खपावी निकाचित. शकाय एवां न होय निकाचित होय-ते 'खिलीभूत ' कहेवाय. अहीं आ चारे विशेषणो कर्मने लगतां छे अने तेथी एम जाणी शकाय छे के, जे कर्मनां ए विशेषणो छे ते कर्मो, ए मेलामा मेला वस्त्रनी पठे दुर्विशोध्य छे-अन ए प्रमाणे [ 'एवामेव '] इत्यादि वाक्य सुघट थाय छे. ए कर्मो, भारे दुर्विशोध्य होवाथी अत्यंत वेदनानां कारण थाय छे अने एज हकीकतने जगावे छे के, [ 'संपगाढं ' इत्यादि.][• नो महापज्जवसाणा शंका, भवंति ' ति ] अर्थात् संप्रगाढ वेदनाने अनुभवे छ पण महापर्यवसानवाळा थता नथी. शं०-अहीं शास्त्रकारे वेदना अने निर्जरानी हकीकत समाधान, कहेवा मांडी छे तेमां वच्चे ' महापर्यवसानवाला थता नथी' एबुं अप्रस्तुत कहेवानुं शुं कारण ? समा० - ' महापर्यवसानवाळा थता नथी' ए कथन काई आस्तुत नथी. कारण के, जेम वेदना अने निर्जरानो परस्पर कार्य-कारण भाव छे तेम निर्जरा अने महापर्यवमाननो पण परस्पर कार्य कारण भाव छे माटे ज मूळमां कयु के, जेओ मोटी निर्जरावाळा नथी तेओ मोटा पर्यवसानवाळा पण नधी-ए रीते, ए कथन कांद अप्रस्तुत नथी. विशिष्ट जीव. वळी, अहीं जे का छे के, जे मोटी वेदनावाळो होय ते मोटी निर्जरावाळो होय ' ए कथन कोइ एक विशिष्ट जीवनी अपेक्षाए जाणवू, पण नैरयिक वगरे क्लिष्टकर्मवाळा जीवोनी अपेक्षाए न जाणवू. ए ज रीते जे कयुं छे के, 'जे महानिर्जरावाळो होय ते महावेदनावाळो होय' ते प्रायिक. कथन पण प्रायिक जाणवं. कारण के, अयोगिकेवली मोटी निर्जरावाळो तो होय छे पण ते मोटी वेदनावाळो भजनाए होय छे-चोक्कस नथी होतो-- अर्थात् ते मोटी वेदनावाळो होय पण अने न पण होय. [ 'अहिगराणि ' ति] जेना उपर लूहारो, लोढाना घणथी लोढाने कूटे-टीपे-ते एरण, अधिकरणी- एरण ' कहवाय-तेने [ • आउडेमाणे ' त्ति ] आकुट्टन करतो--टीपतो, [ · सद्देणं । ति ] लोढानो घण मारवाथी थता शब्दवडे अथवा टीपनार पुरुषना होकारारूप शब्दवडे, [ 'घोसणं' ति ] अनुनादवडे-तेनी ज पाछळ थता पडघारूप शब्दवडे, [ 'परंपराधाएणं' ति] प्रधानपणे निरंतरतावाळा घातवडे-उपरा उपर घातबडे. [' अहाबायरे ' ति] स्थूल प्रकारनां पुद्गलोने. [' एवामेव ' इत्यादि ] वाक्य तो दुष्परिशाटनीय, · उपनय माटे छे. [ 'गाढीकयाई '] इत्यादि चार विशेषणोने मूकीने एम जणाव्यु छ के, ते नैरयिकोनां पापकर्मों, दुष्परिशाटनीय-जेओनो सुधौत. नाश महामुशीबते थइ के एवां-छे. [ ' सुद्रोयतराए ' इत्यादि.] आ सूत्रद्वारा एम जणाव्यु छ के, ते वस्त्र, सुविशोध्य छे एटले सरलताथी यथावादर. साफ थइ शके एवं छे. ['अहाबायराई' ति ] स्थूलतर स्कंधरूप-असार-पुद्गलो, [' सिढिलीकयाई' ति ] श्लथ-मंद विपाकवाळां-को छे, वि.थिल-निष्ठित- [ निहिआई कडाई '] सत्ता रहित कया छे, [ ' विपरिणामिआई । ति ] स्थितिघातथी अन रसघातथी एटले ए कर्मोनी स्थितिनो अने रसनो घात विपरिणामित. करीने तेओने विपरिणाम वाळां को छे, अने तेवां थएला ते कर्मों शीघ्र ज विध्वस्त थाय छे, ए विशेषणोथी एम सूचव्यु के, तेओ (ते कर्मो ), महापर्यवसान, सुविशोध्य छे-जेनां कर्मो एवां सुविशोध्य छे तेवा महानुभावो जेटली तेटली पण वेदनाने भोगवता महानिर्जरावोळा अने महा र्यवसानवाला थाय छे-एज हकीकतने जणाववा [' जावइयं ' इत्यादि ] सूत्र कयुं छे. जीवो अने करणो. ५. प्र०-कतिविहे गं भंते ! करणे पनत्ते ? ५. प्र०-हे भगवन् ! करणो केटला प्रकारनां कयां छ? ५.3०-गोयमा ! चउब्धिहे करणे पन्नत्ते, तं जहा:- ५. उ०-हे गौतम ! करणो चार प्रकारनां कह्यां छे, ते मणकरणे, वंइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे. जेमके, मनकरण, वचनकरण, कायकरण, अने कर्मकरण. १. मूलच्छायाः-कतिविधानि भगवन् ! करणानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! चतुर्विधानि. करणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाः-मनस्करणम् , वचस्करणम् , कायकरणम् , कर्मकरणम् :-भ. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक है.-उद्देशक . भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २५९ ६. प्र० --णेरइयाणं भंते ! कतिविहे करणे पन्नत्ते ? ६. प्र०- हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनां करणो कयां छे ! ६. उ०-गोयमा । चउब्धिहे पन ते, तं जहा:-मणकरणे, ६. उ०-हे गौतम! नैरयिकोने चार जातना करणो कयां छे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे; पंचिंदियाणं सम्बेसि चउन्विहे ते जेमके, मनकरण, वचनकरण, कायकरण अने कर्मकरण. सर्व करणे पण्णत्ते. एगिदियाणं दुविहे:-कायकरणे य, कम्मकरणे य. पंचेन्द्रिय जीवोने ए चारे जातनां करणो छे, एकेंद्रिय जीवोने बे विगलेंदियाणं तिविहे:-वइकरणे, कार्यकरणे, कम्मकरणे. जातनां करण छे ते जेमके, एक कायकरण अने बीजं कर्मकरण; विकलेन्द्रियोने वचनकरण, कायकरण अने कर्मकरण एत्रण करण होय छे. ७. प्र०–नेरहया णं भंते ! किं करणओ असायं ,वेयणं ७. प्र०-हे भगवन् ! शुं नैरयिको करणथी अशातावेदनाने वेयंति, अकरणओ असायं वेयणं वेदेति ? वेदे छे के अकरणथी अशातावेदनाने वेदे छे ! ७. उ०-गोयमा ! नेरइया ण करणओ असायं वेयणं ७.उ०-हे गौतम ! नैरयिको करणथी अशातावेदनाने यांति, नो अकरणओ असायं वेयणं वेयंति. वेदे छे पण अकरणथी-करण विना-अशाता-दुःखरूप-वेदनाने नथी अनुभवता. ८. प्र०-से केणडेणं ! ८. प्र०-(हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ! ८. उ०-गोयमा! नेरयाणं चउबिहे करणे पन्नते, ते ८. उ०-हे गौतम ! नैरयिकोने चार प्रकारचें करण कह्यं जहा:-मणकरणे, वयकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे; इचेएणं छे, ते जेमके, मनकरण, वचनकरण, कायकरण अने कर्मकरण, चडविणं असुभेणं करणेणं नेरड्या करणओ असायं वेयणं ए चार प्रकारना अशुभ करणो होवाथी नैरयिको करण द्वारा यंति, नो अकरणओ से तेणद्वेणं. अशातावेदनाने अनुभवे छे पण करण विना अशातावेदनाने अनुभवता नथी माटे ते हेतुथी एम कयुं छे. ९. प्र०--असुरकुमारा णं किं करणओ, अकरणओ! ९. प्र०-(हे भगवन् ! ) शुं असुरकुमारो करणथी के अकरणथी शाता-सुखरूप-वेदनाने अनुभवे छे ! ९. उ०-गोयमा ! करणओ, नो अकरणओ. ९. उ०—हे गौतम ! करणथी, अकरणथी नहि. १०, प्र०--से केणद्वेणं ! १०. प्र०-(हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? १०. उ०-गोयमा ! असुर कुमाराणं चउविहे करणे पनत्ते, १०. उ०-हे गौतम ! असुरकुमारोने चार प्रकारना करण तं जहा:-मणकरणे, वयकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे, इच्चेपणं कयां छे, ते जेमके, मनकरण, वचनकरण, कायकरण अने सुभेणं करणेणं असुरकुमारा णं करण ओ सायं वेयणं वेयंति, नो कर्मकरण; ए शुभ करणो होवाथी असुरकुमारो करण द्वारा सुखरूप अकरणओ; एवं जाव-थणियकुमाराणं. वेदनाने अनुभवे छे पण करण विना अनुभवता नथी-ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार सुधीना भुवनपतिमाटे समजवु. ११. प्र०-पुढवीकाइयाणं एवामेव पुच्छा ? ११. प्र०-पृथिवीकायिक जीवो माटे पण ए प्रमाणे ज प्रश्न करवो. ११. उ०-णवर:-इचेएणं सभा-ऽसभेणं करणेणं पुढवि. ११. उ०—विशेष ए के-ए शुभाशुभ करण होवाथी काइया करणओ वेमायाए वेयणं वेयतिनो अकरणओ. पृथिवीकायिक जीवो करण द्वारा विमात्रा वडे-विविध प्रकारे अर्थात कदाच सुखरूप अने कदाच दुःखरूप वेदनाने अनुभवे छे पण करण विना अनुभवता नथी. १. मूलच्छाया:-नैरयिकाणां भगवन् ! कति विधानि करणानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! चतुर्विधानि प्राप्तानि, तद्यथाः-मनस्करणम् , वचस्करणम् , कायकरणम् , कर्मकरणम् । पन्द्रियाणां सर्वेषां चतुर्विधानि करणानि प्रज्ञप्तानि, एकेन्द्रियाणां द्विविधम् :-कायकरणं च, कर्मकरणं च. विकलेन्द्रियाणां त्रिविधम् :-वचस्करणम् । कायकरणम् , कर्मकरणम् . नैरयिका भगवन् ! किं करणतोऽसातां वेदनां वेदयन्ति, अकरणतोऽसाता वेदनां वेदयन्ति ? गैातम! नैरपिकाः करणतोऽसाता वेदनां वेदयन्ति, नोकरणतोऽसाता वेदनां वेदयन्ति. तत् केनाऽर्थेन ! गौतम ! नैरयिकाणां चतुर्विधानि करणानि प्रजातानि, तद्यथा:-मनस्करणम् , वयस्करणम् , कायकरणम् , कर्मकरणम् ; इत्येतेन चतुर्विधेनाऽशुभेन करणेन नैरयिका:- करणतोऽसाता वेदना वेदयन्ति, नोऽकरणतः; तत् तेनार्थेन. असुरकुमाराः किं करणतः, अकरणतः? गौतम ! करणतः, नोऽकरणतः. तत् केनाऽर्थेन ? गौतम! असुरकुमाराणां चतुर्विधानि करणानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा:-मनस्करणम् , वचस्करणम् , कायकरणम् , कर्मकरणम् ; इ-येतेन शुभेन करणेन असुरकुमाराः करणतः साता वेदनां वेदयन्ति, नोऽकरणतः; एवं यावत्-स्तनितकुमाराणाम् . पृथिवीकायिकानाम् एवमेव पृच्छा ? नवरम्:-इत्येतेन शुभाऽशुमेन करणेन पृथिवीकायिकाः करणतो विमात्रया वेदनां वेदयन्ति, नोऽकरणतः-अनु. Jain Education international Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० - ओरालिक्सरीरां सन्ने सुपा बेमावार देना सुभेणं सायं. संग्रहगाथा. औरागचन्द्र-जिनागमसंग्रहे- ३. अनन्तरं वेदना उक्ता सा च करणतो भवतीति करणसूत्रम्: -कम्मकरणं' ति कर्मविषयं करणं जीववीर्यः बन्धन - संक्रमादिनिमित्तभूतं कर्मकरणम्, 'वेमायाए ' त्ति विविधमात्रया कदाचित् साताम्, कदाचिद् असाताम् इत्यर्थः. २. मला वेदना संबंध विचार क्यों, ते वेदना करणभी चाय के माटे हवे करण जो विचार करवा माटे आ सूत्र कहे ['कम्म कर्मकरण करणं' ति ] कर्मविषयक करण एटले कर्मनां बंधन, संक्रमण वगेरेमां निमित्तभूत जीवनुं जे वीर्य ते. [ 'वेमायाए ' त्ति ] विविध मात्रावडेदिमात्रा विचित्र प्रकारे अर्थात् कोइ वखत सुखने अने कोइ वखत दुःखने. " , वेदना अने निर्जरानी सहचरता. १२. प्र० - जीवा णं भंते ! किं महावेदणा महानिज्जरा, महावेदणा अपनियरा अणवेदणा महानिखरा, अप्पचेपणा अणनिचरा ! १२. उ० -- गोयमा ! अत्थेगतिया जीवां महावेयणा महानिज्जरा, अत्थेतिया जीवा महावेयणा अप्पनिज्जरा, अत्थेगतिया जीना अष्पवेदणा महानिचरा, अत्येगतिया जीवा अपवणा अप्पनिचरा, १२. ५० सेकेण १३. उ० – गोयमा ! पडिमा पडिवनए अणगारे महावेयणे महाणिज्जरे, छट्टि - रात्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदणा अप्प निज्जरा, सेलेसि पडिवनए अणगारे अप्पवेयणे महानिज्जरे, अदवाइया देवा वेरणा अपनियरा - सेवं मंते, सेवं भंते! ति -- महावेदणे यवत्थे कदम - खंजणकए य अहिकरणी, तणहत्थे य कल्ले करण- महावेदगा जीवा. - सेयं मंते ! सेयं भंते! चि. शतक ६. उद्देशक १. - श्रीदारिक शरीरवाळा सर्व जीवो शुभाशुभ करणद्वारा विमात्राए वेदनाने अनुभवे छे, देवो शुभ करणद्वारा सुखरूप वेदना अनुभवे छे... सामिपीए ४. " महावेदणे' इत्यादि. संग्रहगाथा गतार्था.. १२. प्र० - हे भगवन् ! शुं जीवों महावेदनावाळा अने महानिर्नाळा हे महावेदनावाला भने अस्पनिर्जरावाळा छे! अल्पवेदनावाळा अने महानिर्जरावाळा छे ? के अल्पवेदनावाळी अने अस्पनिर्जरावळा १२. उ० हे गौतम! केटलाक जीवो महावेदनावाळा अने महानिर्जरावाळा छे, केटलाक जीवो महावेदना वाळा अने अल्पनिर्जरायाळा छे, केटलाक जीवो अल्पवेदनावाला भने महानिर्जराबाळा छे अनेकेटला जीवो वेदना अनेका १३. प्र० - (हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? १३. उ०- हे गौतम! जेणे प्रतिमाने प्राप्त करी छे एपो अर्थात् प्रतिमाधारी साधु महावेदनावाळो अने महानिर्जरवाळो छे, छट्ठी अने सातमी पृथिवीमा रहेनारा नैरयिको मोटी वेदनावाळा अने अल्पनिर्जरावाळा छे, शैलेशी प्राप्त अनगार अल्पवेदनावाळो अने मोटी निजवळ छे अने अनुत्तरीपपातिक देवो अल्पवेदनावाळा अने अल्पनिर्जरावाळा छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् । ते ए ! प्रमाणे छे. ---संग्रहगाथा कहे छे - महावेदना, कर्दमथी अने खंजनथी करेलुं - रंगेलुं वस्त्र, अधिकरणी एरण, तृणनो पूळो, लोढानो गोळो, कारण अने महावेदनावाळा जीवो. हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ते ए प्रमागे ( एम कही यावत् - विहरे छे. ) भने पदो को सम्मतो. भगवत्सुधर्मं खामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे पष्ठशते प्रथम उद्देश के श्री अभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. 8. [ महावेदने इत्यादि.] अहीं जावेीनामानो अर्थ जे. ' बेडारूपः समुद्रेऽखिलजल परिते क्षारमारे भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीची तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति शान्त्योः दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चामुख्यः ॥ १. महावेदनाः अपनिर्भरा "जीवा महावेदना पनि प्रतिमाप्रतिपन्न कोनगारो महावेदनो महानिर्जरः, षष्ठी - सप्तमीषु पृथिवीषु नैरयिका महावेदनाः अलनिर्जराः, शैलेशी प्रतिपद्मक:- अनगारः अल्पवेदनः महानिर्भर अरोपपातिका देवा अपना अल्पनिर्जराः तदेवं भगवन्, तदेव भगवति महावेदन दारिशरीराः सर्वे शुभाशुभेव विमाया देवाः शुमेन साराम् २. जीना भगवन् कि महावेदनाः मानिश, अपनेदनाः- महानिर्जरा अपना अरनिर्जराः तम अश्वेककाः जीवाः महावेदनाः] महानिर्जराः अस्यैकका जीवा अवेदना महान असवेकका जीवा अावेदना अनि - केन परमवेदना जीवाः तदेवं भगवन् देवं भगवन् इति अनु० Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक २. राजगृह.-प्रशापनानो आहार-उदेशक.-विहार. --रोयगिहं नगरं. जाव-एवं वयासी:-आहारुहेसओ ज़ो पनवणाए सो 'सव्वो नेयवो. --सेवं भंते । सेवं भंते ! त्ति. -राजगृहनगर, यावत्-ए प्रमाणे बोल्या-आहार उद्देशक, जे 'प्रज्ञापना' सूत्रमा कह्यो छे ते बधो अहिं जाणवो. ' -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, (एम कही यावत् विचरे छे.) . भगवंत-अज्जमुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते छसये बीओ उसो सम्मत्तो. १. मूलच्छायाः-राजगृहं नगर यावत्-एवम् अवादीत्:-आहारोदेशको यः प्रज्ञापनायां स सा ज्ञातव्यः. तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् । इतिः-अनु० १. आ अहीं साक्षी तरीके जणावेलो आहार-उद्देशक, प्रज्ञापना-सूत्रना २८ मा आहार-पदमा प्रथम आवेलो छ. एमा जीव मात्रना आहारने लगती घणी विविध हकीकत सविस्तर आपेली छे. ते अहीं विशेष उपयोगी होवाथी संक्षेपमा आ प्रमाणे जणावीए छीए: आहारपदमा आवेला अधिकारोनो विषयवार अनुक्रम" सचित्ता-ऽऽहारट्ठी-केवैति-किं वाऽवि-सब्बती चेव, आ आहार-पदना ए प्रथम उद्देशकमां कुल अग्यार अधिकारो-विषयो कतिभाग-सब्वे खलु-परिणामे चेव बोद्धव्वे. -विषे चर्चा करेली छे अने ते. अग्यारेनो क्रमवार परिचय आ प्रमाणे एनिदियसरीरादी-लोमाहीरो-तहेव मणक्खी , छे:एतेसिं तु पदाणं विभावणा होंति कातव्वा." __१ ला अधिकारमा 'पृथिवी वगेरेना जीवो, जे पदार्थने खाय छे ते सचित्त छे, अचित्त छ के बन्ने जातनो छे ?' ए विषे विचार को छे. २ जा अधिकारमा आहारना अभिलाषी जीवोनो हेवाल आप्यो छे. ३ जा अधिकारमा 'क्या जीवने केटला केटला बखते आहारनी जरूर पडे छ' ए विषेनी विगत आपेली छे. ४ था अधिकारमा ‘आहार माटे कइ कह चीजने वापरवामां आवे छे ?' ए विषेनी समजण आपेली छे. ५ मा अधिकारमा' आहार करनारो प्राणी पोताना आखा शरीर द्वारा आहार करे छ के कोई बीजी रीते !' इत्यादि प्रश्नोना सविस्तर खुलासा आपेला छे.६ डा अधिकारमा खावा माटे लीधेला पुलोनो केटलामो भाग खवाय छे ! ए प्रश्नने लगती चर्चा करेली छे. ७ मा अधिकारमा 'खावा माटे मोढामां मूकेला बां पुद्गलो खवाय छे के केटलांक पडी पण जाय छे' ए विषेनो खुलासो आपेलो छे. ८ मा अधिकारमा 'खाधेली चीजोना केवा केवा परिणामो थाय छे' ए हकीकत जणावेली छे. ९मा अधिकारमा जे जीवो एकेंद्वियादि जीवोनां शरीरोने खाय छे' तेने लगतु विवेचन छे. १.मा अधिकारमा लोमाहार-रोमाहार-ने लगती समजण सूचवेली छे. ११ मा अधिकारमा.मनद्वारा तृप्ति पामता एवा मनोभक्षी देवोने लगती-खास समजवा जेवी हकीकत जणावेली छे." . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६.-उदेशन. १. अनन्तरोदेशके ये एते सवेदना जीवा उक्तास्त आहारका अपि भवन्ति-इति-आहारोद्देशकः, स च प्रज्ञापनायाम् इव दृश्यः, एवं चाऽसौ:-" नेरइया णं भंते ! कि सचित्ताहारा, आचित्ताहारा, मीसाहारा ? गोयमा! नो सचित्ताहारा, अच्चित्ताहारा, नो मीसाहारा " इत्यादि. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे षष्ठशते द्वितीय उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचित विवरणं समाप्तम्. नैरयिको अने आहारःप्र०-"नेरइया णं भंते । किं सचित्ताहारा ? अचित्ताहारा! हे भगवन् । नैरयिको शुं सचित्तनो आहार करे छे, अचित्तनो आहार मीसाहारा ! करे छे के ए बने जातनो आहार करे छ ! उ०-गोयमा ! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा. हे गौतम ! नरयिको सचित्तो के सचित्त-अचित्तनो आहार करता नथी, किंतु तेओ मात्र अचित्तनो आहार करे छे. प्र०-नेरइया णं भंते । आहारट्ठी ? हे भगवन् ! शुं नैरयिको आहारना अर्थी छे ? उ०--हंता, आहारट्ठी. (हे गौतम ! ) हा, तेओ आहारना छे. प्र.-नेरइयाण भंते । केवतिकालस्स आहारहे समुप्पज्जति ! हे भगवन् | तेओने केटले वखते आहारनो अभिलाष उरर्पन्न , थाय छे ? उ.-गोयमा ! नेरइयाण दुविहे आहारे पण्णत्ते, तं-जहा-आभोगनिः हे गीतमा नैरयिकोनो आहार बे प्रकारको होय छे, ते जेम के; एक ब्वत्तिए य, अणाभोगनिव्वत्तिते य. तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिते- जाणता यतो आहार अने बीजो अजाणता धतो आहार. ते बैमा जे से ण अणुसमयम विरहिते आहाम्टे समुप्पज ते. तत्थ गं जे से आहार-अजाणता धाय छे ते होतेओने निरंतर होय छे अर्थात् नैरयिको भामोगनिवतिते-से णं असंखिजसमातिए-अंतोमुहुत्तिते आहान्टे अजाणता तो निरंतर खाधा ज करे छे अने जे आहार-जाणता थाय छे समुप्पजति. तेनो अभिलाष तेओने असंख्य समयवाळा अंतर्मुहूर्त पछी पेदा थाय छे अर्थात् एकवार मानपूर्वक-जाणता-आहार कर्या पछी बीजी.वार तेको अभिलाष नैरयिकोने, असंख्य समयवाडं अंतर्मुहूर्त वीत्या पछी पैदा थाय छे. प्र०–नेरइया णं भंते ! किमाहार आहारेंति ! हे भगवन् । नैरयिको केवां प्रकारनी पुदलोनो आहार करे छ ? उ.-गोयमा ! दवतो अशंतपदेसियाति, खेत्तओ असंखेज पदेसो- हे गौतम ! नरयिको जे जातना पुद्गलोनो आहार करे छे, ते पुदलोर्नु गाढानि, कालतो अण्णयाट्ठियांति, भावंओ वणमंताति, “गंधमंताई, स्वरूप आ प्रमाणे छ:-ए पुदूलो अनंत प्रदेश (परमाणु ) वाळा होय रसमंताई, फासमंताई-जाई भावतो वण्णमंताई ताई x एगवण्णाई पि, छे, ए पुद्रलो एवा लायां पहोळां होय छे के, एओए समावाने माटे पंचवण्णाई पि-कालवण्णाई पि, सुकलाई पि-एगगुणकालाई पिं; आकाशना असंख्य प्रदेशो रोकेला होय छे अने ए पुदलो एक समयथी दसगुणकालाई पि, अणतगुणकालाई पि जाव–मुकिलाई. एवं गंधतोऽवि, मांडी गमे तेटला वखत मुधी स्थायी रहेनारा होय छे-तथा वर्णवाळी, रसतोऽवि. जाई फासमंताई ताई नो एगफासाई, नो दुफासाई, नो गंधवाळा, रसवाळां अने स्पर्शवाळा होय छे-जेओ वर्णवाळा छ तेओ तिफासाई, चउफासाई जाव अट्ठफासाई-कक्खडाई पि, जाव-लुक्खाई एक, बे, त्रण, चार के पांचे वर्णवाळा होय छे-काळां अने यावत्पि-एगगुणकक्खडाई पि, जाव-अणंतगुणकक्खडाई पि-एवं अद्र घोळ होय छे..-काळां पण एकगणां काळां, बमणां काळां, गणां काळी 'वि फासा भाणितव्वा. ताई पुट्ठाई आहारेति, नो अपुट्ठाई-जाव नियमा यावत्-दसगणां काळा अने छेवट काळामी काळा-अनंतगणां काळा छहिसिं. ओसणं कारणं पडुच काल-नीलाति, दुभिगंधाति, तित्तरस- होय छे यावत्-एज प्रकारे अने एटलांज लीलां, पीळां, लाल अने कडुयाई, कवखड-गुरुय-सीय-लुक्खाई-तेसिं पोराणे वण्णगुणे. घोळां पण होय छे. ए ज प्रकारे गंधे पण अने रसे पण एवां ज होय छे गंधगुणे, रसगुणे, फासगुणे विपरिणामइत्ता-परिविदंसइत्ता अण्णे अपुब्वे -ए पुदूलो एक ज सर्शवाळां, बेज हवाळां के ऋण ज़ स्पर्शवाळी वण्णमुणे, गंधगुणे, रसगुणे, फासगुणे उप्पाइत्ता आयसरीरखे तोगाढे नथी होता-पण चार, पांच, छ, सात के आठ स्पर्शवाळा होय छेपोग्गले सव्वप्पणयाए आहार आहारेति. कर्कश, कोमळ, हळवां, भारे, ठंडा, उनां, लूखां अने चीकणां होय हैएवा पण ते एफंगणां कर्कश अने यावत् अनंतगणां कर्कश होय छे अने एज रीते एवा कमळ दिगरे पण समजी लेवानां छे. जे पुदलोने सेओ (नैरयिको) खावामां वापरे छे ते बधा, खानार नैरयिकने अडकेला ज होय छे अर्थात् तेना आत्मप्रदेशोनी लगोलंग पडेला होय छे-जे पुरे. एवा न होय अने दूर पडेलो होय तेने, तेओ खावामा वापरता नथी. ए जातना पुद्गलोने तेओ छए दिशामांथी मेळवी शके छे. धणे भागे तो नैरयिको, जे पुद्गलोने खाय छे ते वर्धा रंगे काळी अने नीला, दुर्गधवाळा, रसे तीखां अने कडवां, स्पर्श कर्कश, भारे, टाढा अने लूखा होय छेनैरयिको, तेओना एटले ते पुद्गलोमा रहेला-जूना वर्णगुणोनो, गंध. गुणोनो, रसगुणोनो अने स्पर्शगुणोनो विपरिणाम करे छे अने परिविध्वंस करे छे तथा ते जुना गुणोने बदले बोजा अपूर्व वर्णगुणोने, गंधगुणोने, रसगुणोने अने स्पर्शगुणोने पेदा करे छे अने तेम करी तेओ-नैरयिकोपोताना आखा शरीर द्वारा पोताना आत्मप्रदेशनी लगोलग रहेला ते पुरलोनो आहार करे छे. तेसि पोराणे, तितरस- होय कासगणों काळा अन एकगणां काळां, बम . Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६. - उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २६३ C आगळा उद्देशकमा वेदनावाळा जीवो का छे, ते जीवो आहार करनाग पण होय मांटे आ बीजा आहार - उद्देशकने आहारना आहार. विवेचनमा जाय ते प्रज्ञापनाना आदार उदेशकनी पेठे जाणवते आहे भगवन्! शुं नैरविको सचित्तमा प्राप्नो भार आहारी छे, अचित्तना आहारी छे के मिश्रना - ए बन्नेना-आहारी छे ? हे गौतम! नैरयिको सचित्तना आहारी नथी, मिश्रआहारी नथी, उद्देशक. पण अविचमा आहारी " इत्यादि. प्रमेते आहात ? सम्बओ परिणाति सब्बओ ऊससंति, सब्बओ नीस मंति; अभिकखणं आहारेंति, अभिक्खणं परिणामति, अभिक्खणं ऊससंति, अभिक्खणं नीससंति, आहच आहारेंति, आइच परिणामेंति, आहच ऊरु संति, आहच नीस संति ? उ०- हंता, गोयमा ! णेरइया सव्वतो आहारैति, एवं तं चेत्र जाव आहब नौसरांति, प्र० ० - नेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारताए गिण्हंति, ते णं तेसिं पोसा सेवाससि कहाि リ उ०- गोयमा ! असंखेजतिभागं आहारैति, अनंतभागं अस्सार्पति. प्र० रामं वे पो आहारता ते गिन्हति ते किं स आहारेंति ! आहा गोवा से अपरिस आहात. प्र०-- नेरइया णं भंते ! जे पोग्गला आहारताए गिव्हंति, ते णं तेर्सि फेरफार परिणामेत? · गोपमा सोतिदिताजा फासिदि - अमला परिणामी अनुकुमारी मेरे देवो बहा - एवं असुरकुमारा जाव वैमाणिया. प्र० - असुरकुमारा णं भंवे ! आहारट्ठी ? उ०- हंता, आहारडी, - एवं जहा नेरइयाण तहा असुरकुमाराण वि भाणितव्वं जाव-तेसिं हे भगवन्! शुं नैरयिको सर्वतः पोताना आखा शरीर द्वारा आहार करे छे ! आखा शरीर द्वारा परिणमावे छे, ए ज रीते सर्वतः श्वास--- निश्वास ले छे, वारंवार आहार करे छे, वारंवार परिणमावे छे, वारंवार श्वास निश्वान ले छे, आहत्य — कदाच आहार ले छ, कदाच परिणमावे छे अनेकदाच श्वास निश्वास ले छे ? हे गौतम! हा, नैरयिको सर्वतः आहार ले छे-ए प्रमाणे ते बधुं कद्देवं यावत् - आहत्य – कदाच - श्वास निश्वास ले छ. हे भगवन्नैरनिकोलोने आधार से पछी ) ते पुद्गलोना केटला भागनो तेओ आहार करे छे अने केटला भागनो मात्र अःखाद ले छे ? हे गौतम! ए पुलोना अअंख्येय भागनो तेओ आहार करे छे अने एना अनंत भागनो मात्र आस्वाद ले छे. हे भगवन् ! नैरथिको जे पुनलोने आदारपणे ले छे- शुं ते बघांनी आहार करे छे के ते बधांनो आहार नथी करता ? हे गौतम! तेओ ते बधां य नो आहार करी जाय छे - एकेने बाकी राखता नथी. हे भगवन् द्रोने आधारपणे के छे तेओ क्या क्या प्रकारे वारंवार परिणमावे छे ? ओ - अनिष्टपणे, अकांतपणे अने अमनोज्ञपणे वारंवार परिणमावे छे.' - - ए प्रमाणे असुरकुमारोथी मांडी यावत् — वैमानिको सुधी पण जाणी लेवु. दे भगवन्! अमरकुमारो आहारना अवी छे? हा, तेओ आहारना अर्थी छे. (इच्छापूर्वक पतो) छनो अभिय छ ओछाम ओछा पूरा एक दिव(६० , . - एमतेम असुरकुमारो संबंधे पण सेवायां ने वारंवार परिणाम पाने के तेभोनो चतस्तदचे सातिरेवसदस्स्स आहार कापतोल रखने एकवार आहार रामहिति सिपोरापडी) पछी याद छ भने बारेमा बधारे एक हजार र उपप जाव फासिंदियाते जाव x इच्छियत्ताते Xx परिणमंति से जहा नेरइ या एवं कुमारारे-भोनिधि उसे दिवसपुहुतस्स आह हे समुज्जति वाणमंतरा जहा नागकुमारा. एवं जोतिसिया व मआणि दिवस उडुतख उदिन आहार सगुणबद एवं सानिया वि. नवरं आभोगनिव्वचिए जद्द० दिवसपुहुत्तस्य, उ० तेतीसाए वाससदस्याणं आहारट्ठे समुपज्नति से जहा असुकुमाराणं जाव एतोर्स भुको भुजो परिणमति -- 2 केटोक काळ वील्या पछी थाय छे. विशेषे करीने तेओना आहारमां आवतां पुलो बनै पीडा भने पोडी हो रखे अने मधुरां होय छे अने स्पर्शे कोनळ, हळवां, चीणां अने उष्ण होय छे-वे श्लोगा जुत्ते आहार यावदइच्छित परिणमा छे. बाकी नैयिोनी पेठे जाणवुं. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुश्री जागवु. विशेष ए के, लेओने अ. भोग निर्वर्तित अहारनो अभिलाप, एकवार जम्या पछी वधारेमां वधारे बे दिवसथी नव दिवस जेटलो काळ वील्या पछी एटले ए पछीना समये उपजे छे. जेम नागकुमारो विषे धुं तेम वानव्यंतरो विषे पण समज अने ए रीते ज्योतिषिको संबंधे पण जाणवुं, विशेष ए के, तेओने आभोग निर्वर्तित आहारनो अभिलाष, ओछामां अंछ अने वधारेमा वधारे बे दिवसथी नव दिवस जेटलो काळ वील्या पछी थाय छे. ए ज प्रमाणे वैमानि विषमविशेष के भने भोगनिर्तित आदारो अभिलाष, एकवार जम्या पछी ओछामां ओछो बेथी नव दिवस पछी अने मारे बारे ते दर वर्ष पछी (तेगोने खादानी वृद्धि ) वाय अरमानी पेठे जादा भार वारंवार परिणाम पाने के : Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देश. २. (आ हकीकतने टुंकी करवा माटे हवे एक कोठो आपवामां आवे छे-जे सामेना प्राकृत पाठनो शब्दशः अनुवाद छ ): स्वर्गः आभोगनिवर्तित आहार आभोगनिवतित आ हारनो वधारेमा वधारे जो ओछामा आलो समयः समयः सौधर्म. बेची नव दिवस पछ. बे हजार वर्ष पछी. ईशान. बेथी नत्र दिवस करतांबे हजार वर्ष करता वधारे समय पछी. वधारे समय पछी. सनत्कुमार. | बे हजार वर्ष पछी. सात हजार वर्ष पछी. सोहम्मे भाभोगनिव्वत्तिते ज. दिवसपुहुत्तस्स, उक्को. दोण्हं पाससहस्साणं आहाग्ढे स०. ईसाणे ज. दिवसपु. सातिरेगस्स, उ. सातिरेग दोहं वाससहस्साणं. सणंकुमाराणं ज. दोण्हं वाससहस्साणं, उ. सत्तहं वाससहस्साणं. माहिन्दे ज० दोण्इं वाससहस्साणं सातिरेगाणं, उ. सत्त०६ वाससहस्साणं सातिरेगाणं. बंभलोए ज. सत्तण्हं वाससहसपाणं, उ. दसण्हं वाससह.. लंतए ज. दसण्डं वाससह, उ० चउदसण्हं वाससह०. महामुक्के ज. चउदसण्हं वासस०, उ. सत्तरसण्डं वासस०. सहस्सारे ज. सत्तरसण्हं वासस०, उ. अठारस वाससह.. आणए ज. अट्ठारसह वासस०, उ० एगूणवीसाए वाससहस्साणं. पाणए ज० एगूणवीसाए वाससहस्साणं, उ० वीसाए वाससह०. आरणे ज. वीसाए चाससह, उको. एकवीसाए चास पह.. अचए ज. एकवीसाए वाससह, उक्को. बावीसाए वाससह .. हिटिमहिटिठमगेविजगाणं ज. बावीसाए, उ० तेवीसाए. (एवं सम्वत्थ सहस्साणि माणियब्वाणि x) हिदिठममज्झिमगाणं ज० तेवीसाए, उ. चवीसाए. हेहिमउवरिमाणं ज. चउकसाए, उ०पणवीसाए. मज्झिमहेदिमागंज. पण्णवीसाए, उ० छठवीसाए. मज्झिम-मज्झिमाणं ज. छध्वीसाए, उ. सत्तावीसाए. मज्झिम-उवरिमार्ग ज. सत्तावीसाए, उ. अट्ठावीसाए 'उपरिमहेहिमाण ज. अहावीसाए, उ. एगूणतीसाए. उरिम-मज्झिमाणं ज. एगूणतीसाए, उ. तीसाए. उरिम-उपरिमाणं ज.तीसाए, उ० एगतीसाए. विजय-वेजयत्त-जयंत-अपराजियाणं ज. एगतीसाए, उ. तेतीसाए. सध्वगसिद्ध देवाणं अजहण्णमणुकोसेण तेत्तीसाए वाससहस्साण भाहाटे समुप्पजति. माहेद. बे हजार वर्ष करतां व सात हजार वर्ष करता धारे वखत पछी. वधारे वखत पछी. ब्रह्मलोक. सात हजार वर्ष पछी. दश हजार वर्ष पछी. लांतक. दश हजार वर्ष पछी. | चाद हजार वर्ष पछी. महाशुक्र. चाद हजार वर्ष पछी. सत्तर हजार वर्ष पछी. सहस्रार. सत्तर हजार वर्ष पछी. अढार हजार वर्ष पछी. आनत. | अढार हजार वर्ष पछी./ ओगणीश हजार वर्ष पछी. प्राणत. ओगणीश हजारवर्ष पछी. वीश हजार वर्ष पंछी. आरण्य. | वीश हजार वर्ष पछी. एकवीश हजार वर्ष पछी. अच्युत. एकवंश हजार वर्ष पछी. वावीश हजार वर्ष पछी. तद्दन नीचेना अवेयक. बावीश हजार वर्ष पछी. वीश हजार वर्ष पछी. नीचेना अने वचला प्रैवेयक. वीश हजार वर्ष पछी.. चोवीश हजार वर्ष पछी. पछी. नीचेना अने उपरना चोवीश हजार वर्ष । परचीश हजार वर्ष प्रवेयक. पछी. वचला अने नीचेना पच्चीश हजार वर्ष छन्वीश हजार वर्ष प्रैवेयक. पछी. पछी. वचला वचला अवेयक. १ छब्बीश हजार वर्ष सत्तावीश हजार वर्ष पछी. पछी. वचला अने उपरना | सत्तावीश हजार वर्ष | अव्यावीश हजार वर्ष प्रैवेयक. पछी. पछी. Jain Education international Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक २. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. उपरना अने नीचेना । अव्यावीश हजार वर्ष ओगणत्रीश हजार वर्षे | वेय क. पछी. पछी. उपरना अने वचला प्रवेयक. ओगणत्रीश हजार वर्षेनी हजार वर्ष पछी.. पछी. उपर उपरना ग्रैवेयक. त्रीश हजार वर्ष पछी. एकत्रीश हजार वर्ष पछी पछी. विजय, वैजयंत, जयंत एकत्रीश हजार वर्ष तेत्रीश हजार वर्ष पछी. अने अपराजित. ___ सर्वार्थसिद्ध. | तेत्रीश हजार वर्ष पछी तेत्रीश हजार वर्ष पछी. (एकवार जम्या पछी स्वर्गमा रहेनाराओने ओछामा ओछे जे खो आहारनों अभिलाष थाय छे अने वधारेमा वधारे जे वखते (जेटलो बखत वीत्या पछी) आहारनो अभिलाष थाय छे ते उपरि-मिर्दिष्ट कोठा द्वारा सुस्पष्ट जणाइ शके तेम छे.) पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति, कीट, पतंग, पशु विगेरे तथा मनुष्य अने आहारः-ओरालियसरीरा जाव मणूसा सचित्ताहारा वि, अचित्ताहारा वि, मीसा- -औदारिक शरीरने धारण करनारा प्राणिओ यावत्-मनुष्यो ते बधा हारा वि. सचित्त, अचित्त अने मिश्र आहारवाळा पण छे. । प्र.-पुढवीकाइया णं भंते ! आहारट्ठो ? हे भगवन् ! पृथ्वीकायिको आहारना अर्थी छे ? उ.-हता, आहारट्टी. हा, तेओ आहारना अर्थी छे. प्र०-पुढवीकाइयाण भंते ! केवतिकालस्स आहारटे समुप्पजति ? हे भगवन् । पृथिवीकायिकोने केटलो केटलो वखत गया पछी आहारनो अभिलाष थाय छे? उ.-गोयमा ! अणुसमयं अविरहिते आहारठे समुप्पज्जइ. हे गौतम ! तेओने निरंतर ज आहारनो अभिलाष थया-करे छे. प्र-पुढविकाइया णे भंते ! कि आहार आहारैति ? हे भगवन् ! पृथिवीकायिको शु आहारने आहरे छे ? . उ.-एवं जहा नेरइयाण जाव (हे गौतम ! ) जेम नैरयिको संबंधे कह्यु तेम ए पृथिवीकायिको विषे पण समजी लेवानुं छे. प्र०-ताई कतिदिसि आहारेंति ? (हे भगवन् ! ) तेओ ते आहारना अणुओने कद कइ दिशामांथी लइने आहरे छे ? उ०-गोयमा ! निवाघातेण छदि से, वाघायं पडच सिय तिदिसिं, सिय हे गौतम ! जो काइ व्यवधान जेतुं न होय तो तेओ, छ ए दिशामाथी चउदिसि, सिय पंचदिसि. नवरे-ओसन्न कारणं न भण्णति. वण्णओ काल- आहारना अणुओ मेळवे छे अने जो कोई व्यवधान जे, होय तो कदाच नील-लोहित-हालिह-सुकिल्लाति, गंधतो सुम्मिगंध-दुभिगंधाति, रसतो त्रण दिशामांथी, कदाच चार दिशामांधी अने कदाच पांच दिशामाथी तित्तरस-कडुयरस-कसायरस- अंबिल-महुराई. फासतो फक्खडफास- आहारनां अणुओ मेळवे छे. विशेष ए के, अहीं 'घणु करीने' एम न कहे. - मउय-गुरुय-लहुय-सीत-उण्ह-णिद्ध-लुक्खाई-तेसिं पोराणे वण्णगुणे-से - तेओ जे अणुओने खावा माटे मेळवे छे ते, वणे काळो, नीला, लाल, पीळो जहा नेरझ्याणं जाव-आहच नीससंति. अने धोळा होय छे, गंधे सारां अने नरसा होय छे, रसे तीखा, कडवां, कषायला, खाटां अने मधुर होय छे, स्पर्श खडबचडी, सुवाळां, भारे, हळवां, ठंडा, उना, चीकणां अने लूखां होय छे-तेओ, ते अणुओना जूना गुणोने फेरवी नाखे छे-इत्यादि बधी हकीकत नैरयिकोनी पेठे समजी लेवानी छे यावत् कदाच निश्वास ले छे. प्र.-पढधिकाइयाण मंते ! जे पोग्गले आहारत्ताते गिण्हति, तेसिं हे भगवन् ! ए पृथिवीकायिको, जे अणुओने आहाररूपे प्रहे छ तेमांना भंते! पोग्गलाण सेयालंसि कतिभागं आहारैति, कतिभागं आसाएंति ? केटला भागने तेओ खाय छ केटला भागने तेओ चाखे छ? उ०-गोयमा! असंखेजहभाग आहारेंति, अर्णतभार्ग आसाएंति. हे गौतम ! तेमांना असंख्येय भागने तेओ खाय छे अने अनंत भागने तेओ चाखे छे. प्र--पुढ विकाइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताते गिव्हंति ते कि हे भगवन् ! तेओ जे अणुओने आहाररूपे ले छे तो शुं ते वधाने तेओ सब्वे आहारैति, नो सम्वे आहारेंति ? खाइ जाय छे ? के बधांने नथी खाइ जता! उ०-जहा नेरइया तहेव. (हे गौतम! ) जेम नैरयिको विषे कष्ट तेम आ पृथिवीकायिको विषे . पण समजी लेवानुं छे. प्र०-पुढविकाइया भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताते गिण्हंति ते ण हे भगवन् ! ए पृथिवीकायिको, आहाररूपे लीधेला ते अणुओने क्या तेसिं पुग्गला कीसत्ताए भुजो भुजो परिणति ? क्या रूपे वारंवार परिणमावे छे! उ०-गोयमा ! फासिंदियवेमायत्ताते भुजो भुज्जो परिणमंति, एवं हे गौतम ! तेओ, ते आहरेला अणुओने स्पर्श-इंद्रियना अनेक प्रकारना भाव-वणप्फकाइया. आकारमा परिणमावे छे. ए प्रमाणे यावत्-वनस्पतिकायिको विषे पण समजवावं छे. | Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीरायचन्द्र-जिनांगमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक. २. प्र.-बेइंदिया णं भंते ! आहारट्ठी ? हे भगवन् ! बेइंद्रियवाळा जीवो आहारना अर्थी छे ? उ०-हंता, आहारही. हा, तेओ आहारना अर्थी छे. प्र.-बेइंदियाणं भंते ! केवतिकालस्स आहारठे समुप्पजति ? हे भगवन् ! ए बेइंद्रियवाळा जीवोने केटलो केटलो वखत गया पछी ___ आहारनो अभिलाष थाय छे ? उ.-जहा नेरइयाण, नवरे-तत्थ ण जे से आभोगनिव्वत्तिते से णं -ए विषे तो जेम नैरयिकोने कह्यं तेम समजवान छे. विशेष ए के, ते असंखिजसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारठे समुप्पज्जति. से से बे इंद्रियवाळाओनो जे आहार आभोगनिवर्तित छे तेनो अभिलाष तेओने जहा पुढविकाइयाणं जाव-आहच-नीससंति. नवरं-नियमा छदिसिं. असंख्यसमयवाळा अंतर्मुह विविध रीते थया करे छे. बाकी बधु पृथिवी कायिकोनी पेठे समजवानुं छे यावत्-तेओ (बेइंद्रियो) आहत्य निश्वास ले छे. विशेष ए के, आ बेइंडियवाळा जीवो, छ ए दिशामांथी अणुओने मेळवी शके छे. प्र०-बेइंदिया ण भंते! जे पोग्गले आहारत्ताते गिव्हंति, ते णं तेसिं हे भगवन् ! बे इंद्रयवाळा जीवो जे अणुओने आहाररूपे ले छे तेओनो पुग्गलाणं सियालसि कतिभागं आहारेंति ? कतिभागं आसाएंति ? केटलो भाग तेको खाय छे अने केटलो भाग तेओ चाखे छे ? उ.-एवं जहा नेरइयाण. -ए संबंधमा जेम नैरयिको विषे कह्यं तेम बेइंद्रियो विषे पण सम जवानुं छे. प्र०-बेइंदियाणं भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताए गिण्ईति ते किं सब्वे । हे भगवन् ! बेइंद्रिय जीवो, जे अणुओने अहाररूपे मेळवे छे तो शं आहारेंति, णो सब्वे आहारेंति ? ते बधांने तेओ खाइ जाय छे, के बधांने नथी खाइ जता? . उ.-गोयमा! बेइंदियाण दुविधे आहारे पणते, तं जहाः- हे गौतम | बेइंद्रियजीवोनो आहार बे प्रकारको जणावेलो छे. ते जेम लोमाहारे य, पक्खेवाहारे य. जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गिण्हं ति, ते सब्वे के रोमाहार अने प्रक्षेपाहार-(रोमवडे लेवातो आहार ते रोमादार अने अपरिसे से आहारेंति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेण्इं ति, तेसिं असंखेज- कोळिये कोळिये लेबातो आहार ते प्रक्षेपाहार ) जे अणुओने रोमाधाररूपे निशा अारति. अणेगाई चणं भागसहस्साई अफासाइजमाणाणं तेओ मेळवे छे ते वधाने तेओ खाइ जाय छे अने जे अणओ प्रक्षेपाहाररूपे अणासाइजमाणाणं विद्धंसमागति. xxx. मेळवेला होय छे तेमांनो असंख्यभान सबाय छे अने घणा हजारो भाने स्पर्शाया विना ज अने आखादाया विना ज नाश पामी जाय छे. प्र०-बेइंदियाणं भंते ! जे पोग्गला आहारत्ताते पुच्छा ? हे भगवन् ! आहाररूपे लीधेला अणुओने ए बे इंद्रियो क्या क्या प्रकारे परिणमावे छे? उ०-गोयमा ! जिभिंदियत्ताए, फासिंदियवेमायत्ताए तेसिं भुजो हे गौतम ! तेओ बे-इंद्रियो-खाधेला अणुओने जीभपणे अने अनेक रीते भनो परिणमंति. एवं जाव-चउरिदिया. नवर-णेगाईच गं भागसहस्साई स्पर्श द्रियपणे वारंवार परिणमावे छे. ए प्रमाणे यावत्-चार इंद्रियवाळा मणाघाइजमाणाई, अणा पाइजमाणाई, अफासाइजमाणाई विद्धंसमा- जीवो सुधी समजी लेवानुं छे. विशेष ए के, तेओना-चा दियवाळानामछति.xxx खावामां आवतां अणुभेना घणा हजार भागो तुंघ,या विना, चखाया विना अने स्पीया विना ज नाश पामी जाय छे. प्र.-तेइंदियाण मंते ! जे पोग्गला पुच्छा ! हे भगवन् । त्रण द्रियवाळा जीवो, जे अणुओने खावामा ले छे-तेनो परिणाम केवो थाय छे ? जोयमा । तेण पोग्गला घाणिदिय-जिभिदिय---फासिदियवे. हे गौतम ! तेओने ए खाधेला पुद्गलो घ्राणद्रियपणे, जीभपणे अने मायत्ताए तेसिं भुजो भुज्जो परिणमंति. ___ अनेक रीते स्पर्श-इंद्रियपणे वारंवार परिणमे छे. -चउरिदियाण चक्खिंदिय-धाणिदिय-जिम्भिदिय-फासिंदियवेमायत्ताए -चार द्रियवाळाने ते खाधेला अणुओ आंखपणे, घ्राणपणे, जीभपणे तेसि भुज्जो भुज्जो परिणमंति. सेसं जहा तेइंदियोणं. अने अनेक प्रकारे स्पर्श इंद्रियपणे वारंवार परिणमे छे-ए विषे बाकी बधुं त्रण दियदाळा जीवोनी पेठे समजबुं. -पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा तेइंदिया. नवर-तताणं जे से -जेम त्रण द्रियवाळा जीवो विषे कहुं छे तेम पंचेंद्रियतिर्यंचयो. आभोगनिवत्तिते से णं जहणणं आहुत्तस्स, उकोसेणं दुभत्तस्स निको विषे पण समजी लेवानुं छे. विशेष ए के, तेओनो जे आभोगनिवर्तित आहारट्टे संमुप्पउजति. आहार होय छे, ए. अभिलाष तेओने ओछामा ओछु अंतर्मुहूर्त वीत्या पछी-थाय छे अने बधारेमां वधारे बे दिवस पछी थाय छे अर्थात् एक वार खाधा पछी ओछामा ओछु एक अंतर्मुहूर्त गया पछी अने वधारेमा वधारे बे दिवस वीत्या पछी ए पंचेंद्रिय तिर्यचोने खावानी वृत्ति थाय छे. प्र.-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! जे पोग्गला आहारताए. हे भगवन् ! जे अणुओने ए पंचेंद्रिय तिर्यचोए खाधां होय छे तेनो शों पुच्छा? परिणाम थाय छ ? उ.-गोयमा ! सोतिदिय० x ( जाव) फासिदियवेमायत्ताए भुज्जो हे गौतम ! तेओने, ते अणुओ श्रोत्रपणे अने यावत् अनेक रीते स्पर्शभुज्जो परिणमंति. इंद्रियपणे ( अर्थात् पांचे इंद्रियपणे ) वारंवार परिणमे छे. __ --मणूसा एवं चेव, नवर-आभोगनिवत्तिते जह• अंतोमुहुतस्स, -मनुष्यो विषे पण एज प्रमाणे जाणवू. विशेष ए के, तेओने, उको० अहमभत्तस्स आहार हे समुप्पजति. (मनुष्योने ) आभोगनिवर्तित आहारनो अभिलाष ओछामा ओछु एक अंतर्मुहूर्त गया पछी अने वधारेमा बधारे प्रण दिवस पछी थाय छे अर्थात् एक वार जम्या पछी मनुष्योने ओछामा ओर्छ एक अंतर्मुहूर्त पछी अने वधारेमा वधारे त्रण दिवस पछी खावानी वृत्ति थाय छे." . Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतक ६.-- उदेशक २. २० र सरीराई आहारैति ? मंते कि एसई आ. उ०- गोयमा पुग्वभावण्णवणं पडुच एगिदियसरी राई पि आहारेंति जादियामि दिवसरात • एवं जाव थणियकुमारा. स्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. कि विगेरे अने एकेंद्रियादिन प्र० पुडविकाइयाचे पुच्छा ! उ०- गोयमा ! पुत्रभावपण्णवणं पडुच एवं चेव, पडुणभात्रवण्णपच नियम एवंविसरीरात बेदिया तुम्वापच एवं चैव पडुप्पणभावपण्णवणं प० नियमा बेइंदियाणं सरीराति आ. एवं जाव चउरिंदियां ताव पुत्रभावपण्णवणं पडुच्च एवं पदुप्पण्णभाव नियमा जादा सरीरा आहारैति सेसं जहा नेरइया, जाव वेमाणिया. ० उ०- गोयमा ! लोमाहारा, नो पक्खेवाहारा. एवं एगिंदिया, सव्वदेवा दिजाब मा माहारा डिपा हे भगवन्धको एकदिवाला जीवन शारी साय यादव जीयोगां शरीखा ? देति पूर्वभावापानी छाए अर्थात् पूर्वमवनी अपेक्षाए ओरको एकदिन शरीरीने पत्र खाय के अने वा पांच इंद्रियवाळा जीवोनां शरीरोने पण खाय छे. वळी, वर्तमान भावनी अपेक्षानी अपेक्षा तो रोओ पांचवा जीयोगां शरीरो ज खाय छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी समजी लेवानुं छे. . २६७ चिनीकाविक संबंध पूर्वनोन करवान े. कोनी पूर्व दसानी अपेक्षा पेठे समान के अने वर्तमान यानी अपेक्षा तो ते एक जीयोनं शरीरोने ज खाग के ए प्रमाणे यावत् चारइंद्रियवाळा जीवो सुधी समजवानुं छे अर्थात् वे, त्रण भने चार इंद्रियवाळा जीवो, पूर्वदशानी अपेक्षा नरविकोनी पेठे समाना के भने शर्तमान दशानी अपेक्षाए बे इन्द्रियवाय जीवो ने इन्द्रियवाळा जीवोनां शरीरोने खाय हे, त्रण इंद्रियवाळा जीवो, त्रणइंद्रियवाळा जीवोनां शरीरोने खाय छे अने चार मंत्रियवाळा जीवो, चार मंद्रियवाळा जीवोनां शरीरोने खाय छे-जे जीब जेटली जीवोनां शरीराने सामछेबाकी बधुं नैरयिकोनी पेठे समजवानुं छे अने ते प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी रोमाहार, प्रक्षेपाहार, ओजआहार भने मन- आहारःसोमाद्वारा सेवाद्वारा , हे भगवन्! शुं नैरयिको रोमाहार करनारा छे के प्रक्षेपाहार करनारा छे? हे गोतम देगी, रोमाहार करनारा के प्रोपाहार करनारा नही. ए प्रमाणे एक इंद्रियवाळा जीवो अने बधा देवो विषे पण समज. बेरंद्रियवाळा जीवोथी मांडी मनुष्य पर्यंतना प्राणिओ रोमाहार करनारा छे अने प्रक्षेपाहार करनारा पण छे. प्र० - नेरइया णं भंते । किं ओयाहारा, मणभक्खी ! उ०- गोयमा ! ओयाहारा, णो मणभक्खी. एवं सव्वे ओरालिय सरीरा हे गौतम! तेओ ओजआहार करनारा छे-पण मनोभक्षी नथी. ए वि. देवास जानेमानिया ओयादारापि मणीप्रमाणे बधा भीहारिक शरीरधारी प्राणिक विधे समजवानुं वैमानिक जे ते मणभक्खी देवा, तेसि णं इच्छामणे रुमुप्पज्जति' इच्छामो णं मणभक्खणं करिए.' तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे खिप्यामेव जे पोग्ला हा कंता जाव मणामा ते, तंसि भक्खणता परिणमंति से जहा नाम एसीया पोग्गला सीयं पप्प, सीयं चैव अवतित्ताणं विट्ठति, उसिणा पोलाउन एवमेव रोहिं 1 देवेह मणीकर समाि सुधीना बधा देवो पण ओजआहार करनारा छे अने मनोभक्षी पण छे जेओ मोभक्षी देवो छे तेअं ने 'अमे मनोभक्षण करव ने इच्छए छीए' ए प्रकारनुं इच्छ मन पेदा थाय छे अने ए मन पेदा थयुं के तुरत ज जे अणुओ ते देवोने इष्ट कांत यावत्-मन गमतां होय ते बधां तेओना (ते देवेना) मक्षरूपे आये छे परिणमे के जैम के शीत शीत पदार्थाने अधिक शीत थाय छे वा उष्ण पुद्रको उष्ण पदार्थने पामीने अधिक उष्ण थाय छे एज प्रमाणे ते देवो इच्छा मनद्वारा इच्छित अणुओने मेळवीने विशेष प्रसन्न थाय छे अने ए रीते मनोभक्षण कर्या पछी तुरत ज ते इच्छामन चाल्युं जाय छे अर्थात् देवो तृप्त यह जाय छे एटले पछी तेओने खावानी वृत्ति रहेती नथी. " ( प्रज्ञापना- पृ० ४९८५११-स० ) हे भगवन्नैरविको ओजआहार (जे आहार आसा शरीर द्वारा शके ते ओजआहार ) करनारा छे के मनोभक्षी छे ? / Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६.-उद्देशक २. आ उपरांच ए आहारपदमा एक बीजो उद्देशक पण छे अने तेमां पण अनेक हकीकतो जणावेली छे-ते-(पृ. ५११-५२५-स.) सुधीमा छे-विशेष विस्तारना भयथी.तेने अहीं. जणान्यो नथी. हवे 'आहार' ना अधिकारने लगतो एक कोठो आपीए छीए, जेथी आहार संबंधी उपर जणावेली बंधी बाबतो तद्दन स्पष्ट थह जायः-. जीवना प्रकार क्यो आहार क्यारे ? एक इंद्रियवाळा जीवो अपर्याप्त दशामा ओज आहार.. पर्याप्त दशामां रोम आहार. (अपर्याप्त दशा एटले ज्यां सुधी शरीरनी पूरेपूरी रचना न थइ होय त्यां सुधीनो समय.) वे इंद्रियवाळा जीवो अपर्याप्त दशामा ओज आहार. पर्याप्त दशामा रोमाहार अने प्रक्षेपाहार. श्रण इंद्रियवाळा जीवो चार इंद्रियवाळा जीवो पांच द्रियवाळा-पशु, पक्षी अने जलवरो मनुष्यो नैरयिको अपर्याप्त दशामा भोजआहार, . पर्याप्त दशामा रोमाहार, . देवो अपर्याप्त दशामा ओज आहार. पर्याप्त दशामां रोमाहार अने मनेभिक्षण, (मनोभक्षण एटले मन द्वारा ज इष्ट अने भक्ष्य अणुओ मेळवी भक्षण करवू.) बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे. भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवारोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥ . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ३. बहुकर्म.-वरू.-पुद्गल.-प्रयोग.-विस्रसा.-पादिक.-कर्मस्थिति.-स्त्री.-संयत.-सम्यग्दृष्टि.-संशी.-भव्य-दर्शन.-पर्याप्त. -भाषक.-परित्त.-शान.-योग.-उपयोग. आहारक.-सूक्ष्म.-चरम.-बंध.-अल्पबहुत्व.-हे भगवन् ! महाकर्मवाळाने सर्वतः पुद्गलो चोटे ? सर्वतः पुद्गलोनो चय थाय ? उपचय सय ? निरंतर पुद्गलो ,टे ? यावत्-निरंतर पुद्गोनो उपत्य थाय ? अने एनो आता दूरूपणे, अशुभपणे अने अनिष्टपणे वारंवार परिणभे ? हा.-तेनो हेतु.-अहत, धौत अने तन्त्रोद्गत ( ताजा ) वस्त्रनुं उदाहरण.-अल्पकर्मवाळने सर्वतः पुद्गलो भेदाय ? यावत्-परिविध्वंस पामे ? अने एनो आत्मा सुरूपपणे, शुभपणे अने इष्टपणे वारंवार परिणमे ! हा.-तेनो हेतु.-जछिन, पङ्कित, मलिन अने रजव ला पण पाणीवी धोत्राता वखनो दाखलो.-वस्त्र अने पुद्गलोनो उपचय.प्रयोग.-विस्रसा.-जीव अने कमोनो उपचय.-ए उपचय प्रयोगसा, पण विस्रसाए नहि.-मनप्रयोग-वयनप्रयोग-कायप्रयोग.- 4 पंचेंद्रियोने एत्रणे प्रयोग.-पृथिवी यावत् वनस्पतिने एक (काय) प्रयोग.-विकलेंद्रियोने के प्रयोग.-बनायोग अने कायप्रयोग.-शोने त्रणे प्रयोग -वस्त्रने लगतो पुद्गलोपय सादि-सांत ? सादि-अनंत ? अनादि-सांत ? के अनादि-अनं: ?-ए तो सादि-सांत. ए ज प्रकारे जीवोने लगता पुद्गलोप वय विषे पृच्छा.-ईयोपथबंधकनो कर्मपुद्गलोपचय सादि-सांत.-यन्यनो अनादि-सांत.-अभन्यनो अनादि-अनंत -को: कर्मपुद्गोपचय सादि-अनंत नथी.-झुं व सादि-सांत छे, ?-सादि-अनंत छे ?-अनादि-सांत छे ?-अनादि-अनंत छे ?-वस्त्र तो सादि-सां। छे.-7 प्रमागे जीव विषे पृच्छा.-नैरयिकतियंच-मनुष्य अने देवो सादि-सांन.-सिद्धो सादि-अनंत.-भव्यो अनादि-सांत.-अभको अनादि-अनंत.-कर्मप्रकृति के ली-आय-शानांवरणीयदर्शनावरणीय यावन-अंतर य.-ए आटेनी अबाधाकाळसहित बंधस्थिति.-ए को स्त्री बांधे ! पुरुष बांये ? के नपुंसक बांधे ?.-ए. वणे बांधे.-जे स्त्री, पुरुष के नपुंसक न होय ते ए को वांये अने न बांधे.-आयुष्यकर्मने स्त्री-पुरुष के नपुंसक बांधे ?-वांधे अने न पण बांधे.-संयत-असंयत-अने संयतासंयतकर्तृक ए कर्मबंधने लगता प्रश्नो.-एज प्रमाणे सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि-सम्यगमिथ्यादृष्टि-संक्षी- असंशी-दोसंशीनोअसंशी-भवसिद्धिरअभवसिद्धिक-नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक-चक्षुर्दर्शनी-अचक्षुर्दर्शनी-अवधिदर्शनी-केवलदर्शनी--पर्याप्त-अपर्याप्त-नोपर्याप्तनोअपर्याप्त-भाषकअभाषक-परित्त-अपरित्त-नोपरत्तनोभपरित्त-मतिक्षानी-श्रुतशानी-अवपिशानी-मनःपर्यायशानी-केवलज्ञानी-मतिअशानी--श्रुतअशानी--अवधिअज्ञानी (विभंगी )-मनोयोगी-वचोयोगी-काययोगी-अयोगी-'कारोपयोगी-निराकारोपयोगी-आहारक-अनाहारव.-सूक्ष्म-बादर--नोसूक्ष्मनोवादर-- चरम-अचरम ए बधाने उद्देशीने कर्मबंधने लगतो विचार.- स्त्रीवेदक-पुरुषवेदक-नपुंसकवेदक अने-अवेदक जीवोनी अल्पबहुता-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. बहुकम्म वत्थे पोग्गल पयोगसा वीससा य सादीए, कम्मद्विति-त्थि-संजय-सम्मदिट्ठी य सन्त्री य. भविए दंसण-पज्जत्त-भासअ-परित्ते नाण-जोगे य, उवआगा-ऽऽहारग-सुहुम-चरिम-बंधे य अप्प-बहुं. बहुकर्म, वस्त्रमा पुद्गलो प्रयोगथी अने स्वाभाविक रीते, आदिसहित, कर्मस्थिति, स्त्री, संयत, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, भव्य, दर्शन, पर्याप्त, भाषक, परित्त, ज्ञान, योग, उपयोग, आहारक, सूक्ष्म, चरम, बंध अने अल्पबहुत्व; आटला विषयो आ उद्देशामां कहेवाशे. १. अनन्तरोद्देशके पुद्गला आहारतश्चिन्तिताः, इह तु बन्धादित:-इत्येवंसम्बन्धस्य तृतीयोदेशकस्य आदी अर्थसंग्रहगाथाद्वयम्:बहुकम्म-' इत्यादि. 'बहुकम्म ' ति महाकर्मणः सर्वतः पुद्गला बध्यन्ते इत्यादि वाच्यम् . 'वत्थे पोग्गला पयोगसा वीससा य' .१ मूलच्छाया:-बहुकर्म वस्त्रे पुद्गलाः प्रयोगतो विलसातश्च सादिकः, कर्मस्थिति-स्त्री-संयत-सम्यग्दृष्टिश्च संही च. भविको दर्शन-पर्याप्त-भाषकपरीतो शाम-योगी च, उपयोगा-हारक-सूक्ष्म-बन्धचा-इल्प-बहुलम:-अनु. Jain Education international Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६. उद्देशक ३. 6 त्ति यथा वस्त्रे पुद्गलाः प्रयोगतो विस्रसातश्च चीयन्ते, किम् एवं जीवानामपि वाच्यम् ? ' सादीए ' त्ति वस्त्रस्य सादिः पुद्गलचयः, एवं किं जीवानामपि असी इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं च वाच्यम्, कम्मदिति कर्मस्थितियांच्या हरियत्ति किं स्त्री, पुरुषादिर्वा धर्मबध्नाति ! इति बाध्यम्, संवयति किं संयतादिः सम्मदिट्टि ' ति किं सम्यग्दृत्यादि एवं संज्ञी भव्यः दर्शनी, पर्याप्तकः, माषकः, परीतः, ज्ञानी, योगी, उपयोगी, आहारकः, सूक्ष्मः, चरमः; 'बंधे य' त्ति एतान् आश्रित्य बन्धो वाच्यः. 'अप्प' ति एषामेत्र स्त्रीप्रभृतीनां कर्मबन्धकानां परस्परेण अल्प - बहुता वाच्या इति , " बहु बहुकर्म. १. आगळना उद्देशकमा आहारने अपेक्षीने पुद्गलोनो विचार कर्यो छे अने अहीं तो बंधा दिने अपेक्षीने पुद्गलो चितवानां छे ए प्रमाणेना संबंधवाळा आ त्रीजा उद्देशकमां, शरुआतमां बे अर्थसंग्रह गाथा छेः [' बहुकम्म ' इत्यादि. ] तेमां [' बहुकम्म 'त्ति ] एटले मोटा कर्मवारे पुल धाय, इत्यादि कहे [वरचे पोला प्रयोगसा बीसमा यति ] जैन यसमां प्रयोगद्वारा या सामाजिक रीते सादि. पुद्गलो एकठां थाय छे, शुं एवी रीते जीवोने पण थाय छे ? ए कहेवुं, [' सादीए ' त्ति ] जेम वस्त्रमां एकटां थतां पुद्गलो सादि-आदिवाळां ब.मसति छे, ए प्रमाणे शुं जीवोने पण पुद्गलसंग्रह आदिवा छे ! इत्यादि प्रश्न असे उत्तर कहेव, [' कम्पटिइ ' त्ति ] कर्मनी स्थिति कहेवी, स्त्री, संयत, सम्य [ष] श्री पुरुष पगेरे कर्मबंध करे इत्यादि कहे ['संजय' चि] संपत रे [सम्मदिद्दि सि] शं दृष्टि को गन्य सम्पति बगेरे ए प्रमाणे संशी भव्य दर्शनी, पर्याप्त, भाषक, परिस, ज्ञानी, योगी, ( योगी एटले शरीरादिकृत योगी) चिंगेरे, उपयोगी, आहारक, सूक्ष्म, चरम ए बधाने आश्रीने ['बंधे य' त्ति ] बंध कहेबो, [' अप्पबहुं ' ति ] ए बधा स्त्री वगेरे कर्मबंधकोनुं परस्पर अल्पबहुत्व. अल्पबहुत्व कहेवुं. , वना उदाहरण साधे महाकर्म अने अल्पकर्म. , १. ५० से पूर्ण मते महाकम्मरस, महाकिरियरस, १. प्र० - हे भगवन् ! ते नक्की छे के, महाकर्मकाळाने, महारावरस, महादेवणास राज्यको पोग्गला पांति सव्वओ महाक्रियावाळाने महाआश्रमवाळाने अने महावेदनावाळाने सर्वधी फैलाओ योग्गला उपभिति गया समयं सर्व दिशाओधी सर्व प्रकारे कोनो बंध थाय सर्वधी पुलोनो पति रावा समिति सया समियं चयधाय सर्वधी द्रोनो उपचय धाप हमेशा निरंतर पोग्गलां चिज्जंति, ? ? पोग्गला उवचिज्जति; सया समियं च णं तस्स आया दूरूवत्ताए, पुद्गलोनो बंध धाय, हमेशा निरंतर पुद्गलोनो चय थाय के दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ता, दूरसत्ताए, दुफासत्ताए; अणिद्वत्ताए, हमेशा निरंतर पुद्रटोनो उपचय थाय ? अने तेनो आत्मा, हमेशा अत-अपिय असुभ अम-अमणामनाए, अणिच्छिवताए, अ- निरंतर दूरूपपणे, दुर्वर्णपणे दुर्गंधपणे, दूरसपणे, दुःशपणे, मिशियाए, अचाए-नो उदुताए, दुक्खता मो सुताए अनिष्टपणे, अकांतपणे, अमनोज्ञपणे अमनामरणे- मनधी संमारी ए-नो परिणमति पण न शकाय ए स्थितिए, अनीप्सितपणे- प्राप्त करवाने अनिच्छितपणे, अभिध्यितपणे जे स्थितिने प्राप्त करवानो लोभ पण न थाय ते स्थितिपणे, जघन्यपणे, अनूर्ध्वपणे, दुःखपणे अने अमुखपणे वारंवार परिणमे छे ! १.. उ० - हा, गौतम ! महाकर्मवाळा माटे ते ज प्रमाणे छे. २. प्र० - (हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? --- २. उ० - हे गौतम! जेम कोइ अहत- अक्षत-अपरिभुक्तनहि वापरे भधोठं, चीन-पोतुं यापरीने पण पोर भने शाळ उपरथी हमणां सार्नु ज उतरेखं यख होय, ते वस्त्र ज्यारे कमे कमे पराशमां आगे सारे तेने सर्व बाजुएथी पुलो बंधा से लागे छे, सर्व बाजुएथी पुद्गलोनो वय थाय छे यावत् कालान्तरे ते वस्त्र, मसोता जेतुं मेलं अने दुर्गंधी तरीके परिण में छे, ते हेतुथी महाकर्मवाळाने उपर प्रमाणे छे. १. उ०- हँसा, गोगमा ! महाकम्मस्स तं प २. प्र० -- से केणद्वेणं ? २. ३० गोयमा से जहा नामए परथस्त महयस्स वा धोयस्य तंतुयवस्था आणुपुम्मीए परिभुजमाणसा सज्यओ पोग्लायति सम्पओ पोग्गठा चिवंति, जाव परिणमंति; - 1 सेते द्वेणं. १. भगवम् महाकर्मणः महाडियस्य माधव महावेदनस्य सः पुच्यते सतः साधीयन्ते सर्वतः पुला उपचीयन्ते; सदा समितं पुत्रलाः बध्यन्ते, सदा समितं पुलाचीयन्ते, सदा समितं पुद्गला उपचीयन्तेः सदा समितं च तस्याऽऽत्मा दूरूपतया, दुर्वर्णतया, दुर्गन्धतया, दूरसतया, दुस्स्पर्शतया, अनिष्टतया, अकान्तां -ऽप्रिया - शुभां - मनोज्ञा-मनोऽमतया, अंगीप्सिततमा, अभिभिपततया, अधस्तया नो ऊर्ध्वतया, दुःखतया नो सुखतया भूयो भूयः परिणमन्ति ? इन्त, गौतम ! महाकर्मणस्तचैव तत् केनाऽर्थेन ? गौतम | तद् यथा नाम वस्त्रस्य अहतस्य माता परिभुज्यमानस्य सर्वतः पुखाः यप्यन्ते सर्वतः परिणमन्ति तत् तेनान-अनु वा 1 · - " Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. 3 ३. प्र० से पूर्ण मते ! अप्पाssसपसा, अप्पकम्मा, अप्प किरियरस, अप्पवेदणस्स सध्यओ पोन्गला भियंति सच्चओ पोग्गला छिजंति, सव्वओ पोग्गला विद्धसंति, सव्वओ मोग्गला परिविर्द्धसंति; सया समियं पोग्गला भिज्जति, सव्यओ पांगला छिज्जति, विद्धस्संति, परिविद्धस्संति, सया समियं च णं तस्स आया सुरुवत्ताए पत्थं नेयव्वं, जाव- सुहत्ताए-नो दुक्खत्ताए भुजो भुज्जो परिणमंति ? ३. उ० - हंता, गोयमा ! जाव-परिणमंति ४. प्र० से फे ४. उ० – गोयमा ! से जहा नामए वत्थस्स जल्लियस्स वा पंकियस्स वा मइल्लियस्स वा, रइल्लियस्स वा आणुपुवीए परिकम्मिज्जमाणस्स सुद्धेणं वारिणा घोव्वेमाणस्स सव्वओ पोगाला भिज्जति, जाव- परिणमंति, से तेणट्टेणं. भगवत्स्वामितं भगवती सूत्र 6 " ', • , ' २- तत्र बहुकर्मद्वारे 'महाकम्मस्स ' इत्यादि. महाकर्मणः स्थित्याद्यपेक्षया, महाक्रियस्य अलघुकायिक्यादिक्रियस्य, महाश्रवस्य बृहन्मध्यात्वादिकर्मबन्ध हेतुकस्य, महावेदनस्य महापीडस्य, सर्वतः सर्वासु दिक्षु, सर्वान् वा जीवप्रदेशान् आश्रित्य - बध्यन्ते आसंकलनतः, चीयन्ते बन्धनतः, उपचीयन्ते निषेकरचनतः; अथवा बध्यन्ते बन्धनतः, चीयन्ते निधत्ततः, उपचीयन्ते निकाचनतः; 'सया समियं ' ति सदा सर्वदा सदा च व्यवहारतोऽसातयेऽपि स्वाद इत्यत आह- समितं सततम् ' तस्स आग 'ति यस्य जीवस्य पुखा मध्यन्ते तस्याऽऽत्मा बाखात्मा शरीरम् इत्यर्थः ' अणित्ताए ति इच्छायाः अविपपराया अनंतताए चि] अमुन्दरता, अपियताए त्ति अप्रेमहेतुतया, ' असुभत्ताए ' त्ति अमङ्गतया इत्यर्थः, 'अमणुनत्ताए' त्ति 'न मनसा - भावतः - सुन्दरोऽयम्' इति अमनोज्ञस्तद्भावस्तत्ता तया, ' अमणामचाए चिन मनसाऽम्यते गम्पते संस्मरणतोऽमनोऽभ्यः, "त्ति न मनसाऽम्यते गम्यते संस्मरणतोऽमनोऽम्यः, तद्भावस्तत्ता तया प्राप्तुमवाञ्छितत्वेन, 'अणिच्छिबताए ति अमभीप्सिततया प्राप्तुमनमियाछतलेन अभिसियत्ताए ति मिथ्या छोमः सा संजाता यत्र स भिष्यितः, न मिध्यितोऽभिध्यितः, तद्भावस्तत्ता तया अहसाए तिन्यतया • नो 'त्ति न मुख्यतया. उत् " अहयस्स अपरिभुक्तस्य, धोयस्स व ति परिमुज्याऽपि प्रक्षालितस्य तंतुग्गयस्स व सि सम्नात् तुरी पेमादेरपनीतमात्रस्य वसंत इत्यादिना पदत्रयेण इह वस्त्रस्य, पुद्गलानां च यथोत्तरं संबन्धप्रकर्षउक्तः, ' भिज्जंति ' त्ति प्राक्तन संबन्धविशेषत्यागात्, 'विद्वंसति त्ति ततोऽधःपातात्, 'परिविद्धस्सति' त्ति निःशेषतया पातात्. 'जल्लियस्स' त्ति जल्लितस्य यान लगन (अनलगत ) धर्मोपेतमळयुक्तस्य, • पंकियस्स चि आईमोपेतस्य महहियस्सति कठिनमलस्य रहलियस रजोकस्व, परिकम्पिव्यमाणस्स चि क्रियमाणशोचनार्थोपक्रमस्य. , 9 , त्ति ८ ८ , ' ' " " ८ ८ 6 २७१ 1 ३. प्र०-हे भगवन् ! ते नक्की छे के, अल्पभाश्रवाळाने, अश्यकर्मपाळाने अकाळाने अने अल्पवेदनावाळाने सबंधी पुद्गला भेदाय छे ! सर्वश्री पुद्गला छेदाय छे ! सर्वथी पुद्गला विध्वंस पामे छे? सर्वथी पुद्गला समस्तपणे नाश पामे छे ? हमेशा निरंतर पुछलो भेदाय छे? सर्वथी पुलो छेदाय छे ? विध्वंस पामे छे ? समस्तपणे नाश पाने छे ! अने तेनो आत्मा हमेशा निरंतर सुरूपपणे पूर्वमा सूत्र ने अप्रशस्त कहुं हतुं ते अहीं प्रशस्त जाग यावत् सुखपणे, दुःखपणे नहि - वारंवार परिणमे छे ? 6 ३. उ० -- हा गौतम, ! यावत् - परिणमे छे. ४. प्र० - ( हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? ४. उ०- हे गौतम! जेम कोइ जल्लित जलवालुं मेलं, पंकसहित मेलसहित अने रजसहित वस्त्र होय, अने ते व - क्रमे कमे शुद्ध धतुं होय, शुद्ध पाणीथी धोत्रातुं होय तो तेने लागेला पुलो सर्वथी भेदाय यावत् परिणाम पामे, ते हेतुथी अपकिपायाला माठे पूर्व प्रमाणे कधुं छे. - ܕ २. ते माटुकार [महाकम्मरस इत्यादि ] स्थिति वगेरेनी अपेक्षाए मोटा कर्मवाळाने अर्थात् मोटी स्थिति, रस अने , 1 प्रदेशवाल धर्मवाळाने जेनी कायिकी वगेरे क्रियाओ नानी नयी तेने मोटी काळाने माने एटले कर्मबंधना मोटा हेतुव महाकि महाभा मिध्यादियाने मोठी पडावाळाने सर्व दिशाची अथवा सर्व जीवप्रदेशोंने आधी (कर्म अशुभ) संकलनधी बंधायछे बंधनथी चव मह थाय छे अने निषेक- दलिकक्षेप करवाथी उपचय थाय छे अथवा, बंधनथी बंधाय छे, निधत्त करवाथी चय थाय छे अने निकाचन करवाथी उपचय निषेक. भाव है, [सया समिति ] स एटले हमेशा निरंतरता न होय कां पण कोरक धार व्यवहार लोकरूदि भी सदा कहेंचाव के मांडे सरा कहे छे के, [' समितं ' ]- संतत निरंतर, [' तस्स आय ' त्ति ] जे जीवने पुद्गलो बंधाय छे ते जीवनो बाह्यात्मा शरीर [' अणिट्रत्ताए ' आत्मा. त्ति ] अनिष्टपणे एटले इच्छांना अविषयपणे, [' अकंतत्ताए 'त्ति ] असुंदरपणे, [' अपियत्ताए ' त्ति ] अप्रियपणे, [' असुभत्ताए ' त्ति ] अनिष्टादिपगे. अशुभपणे अमंगल्यपणे [अमपुत्रताए सि] अमनोज्ञपणे अर्थात् के, मनने एटले भावी आ सुंदर के एमन लागे ते अमनोश अने 6 , 6 , , १. मूलच्छायाः - तद् नूनं भगवन् ! अल्पाश्रवस्य, अल्पकर्मणः, अल्लकियस्य, अल्पवेदनस्य सर्वतः पुद्गला भियन्ते, सर्वतः पुद्गलाश्छिद्यन्ते, सन्ते सर्वतः परिदाभयन्ते सर्वयन्वयन्ते परिवियन्तेः सदा समित चतस्याऽऽत्मा सुरूपतया, प्रशस्तं ज्ञातव्यम्, यावत् - सुव्रतया नो दुःखतया भूयो भूयः परिणमन्ति ? हन्त, गौतम ! यावत्-परिणमन्ति तत् केनाऽर्थेन ? गौतम ! तद् यथा ? नाम वस्त्रस्य जल्लितस्य वा, पङ्कितस्य वा, मलिनस्य वा रजस्वतो वा, आनुपूयी परिकर्म्यमाणस्य शुद्धेन वारिणा धान्यमानस सर्वतः पुरमन्ति तत् तेनानः अनु· - / Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक है.-उद्देशक ३. अमनाम. तेपणुं एटले अमनोजता, ते पणे, [ ' अमणामत्ताए ' ति ] मनद्वारा संभारतां पण जे न रुचे ते अमनोऽम्य कहेवाय, तेपणुं ते अमनोऽम्यता अने तेपणे अर्थात् मनथी असंस्मरणीयपणे-पामवाने अवांछितपणे, [' अणिच्छियत्ताए 'त्ति ] अनीप्सितपणे-पामवानी अभिवांछाथी रहितपणे, अभिध्यित. [' अभिज्झियत्ताए ' त्ति ] भिध्या एटले लोभ, ज्या लोभ होय ते भियित कहेवाय अने तेथी उलटुं ते अभियित, तेपणे एटले जे प्राप्त करवाने लोभ पण न थाय तेपणे, [ ' अहत्ताए ' ति] जघन्यपणे, [ 'नो उड्डत्ताए ' त्ति ] अमुख्यपणे. [ ' अहयस्स ' ति] नहि भोगवेलु-नहि तबोस, वापरेलु-अधोतुं, [ 'धोयस्स व ' ति] भोगवीने-वापरीने पण धोएलं, [' तंतुग्गयस्स 'त्ति ] तंत्र-तुरी, वेमा वगेरे रूप सांचा-थी ताजु ज दूर करेलु-उतारेखें: [ ' बझंति ' इत्यादि ] त्रण पदवडे अहिं वस्त्रना अने पुद्गलोना उत्तरोत्तर संबंधनी अधिकता कहीं छे. [ भिजति 'त्ति ] विध्वंसादि. प्रथमना एकप्रकारना संबंधने त्यजवाथी, [' विद्धसंति ' त्ति ] तेथी-आत्माथी-नीचे पडयाथी, ['परिविद्धस्संति ' ति] समस्तपणे-बधां य अहित. पुद्गलोना-पडवाथी, [ ' जल्लियरस 'त्ति जवु अने लागवु एवा प्रकारना मलयुक्त, [ ' पंकियस्स ' ति ] भीना मेलथी युक्त, [ ' मइल्लिअस्स' परिकार्यमाण. त्ति ] कठण मेल सहित, [ 'रइल्लियस्स ' त्ति ] रज सहित अने [' परिकम्मिजमाणस्स ' त्ति ] जेने साफ करवानो आरंभ शरु छे तेवू वस्त्र जेम चोक्खु थई जाय छे तेम अल्पक्रियादियुक्त आत्मा पण चोक्खो थई जाय छे. वस्त्र अने जीव तथा पुद्गलोपचय अने कर्म. रूप सांचा-थी ताज़ुज मारलं, ' तंतुम्गयस ' ति ] तंत्रता पुद्गलोना उत्तरोत्तर संबंधनी विश्वंसादि. प्रथमना ___ अहित. पदलोमा : 'बज्झति ' इत्यादि ] त्रण पदवडे धन त्यजवाथी, [' विद्धसंति ५.प्र०—वत्थस्सणं भंते ! पोग्गलोवचये किं पयोगसा ५. प्र०-हे भगवन् ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचय थाय के वीससा? ते शुं प्रयोगथी-पुरुष प्रयत्नथी-थाय छे के स्वाभाविक रीते थाय छे! ५. उ०-गोयमा ! पओगसा वि, वीससा वि. ५. उ०-हे गौतम ! प्रयोगथी थाय छे अने स्वाभाविक रीते पण थाय छे. ६. प्र०-जहा णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पयोगसा ६. प्र०--हे भगवन् ! जेम वस्त्रने प्रयोगथी अने स्वाभाविक १. अहीं मूळमां मणाम ( अमणामत्ताए ) शब्दनो प्रयोग थएलो छ. " मनसा अभ्यते गम्यते " (मनोऽम्पः ) (टीकाकार ) अर्थात् मनने गमे ते मनोऽम्य एटले सुंदर अने जे तेवु नहि ते अमनोऽम्य अर्थात् असुंदर. आ 'मणाम' इ.ब्दनी जेटली समानता 'मनोऽम्य' शब्द साथे छे ते करता विशेष समानता ' मनाप' शब्द साधे होइ शके छे. 'मनाप' शब्दनो प्रयोग पालीग्रंथोमा 'सुंदर' अर्थमां ज थएलो छे: " अम्हाकं पि सहधम्मिका पिया मनापा"-म.पृ०४७ सू० ११ (रा.) " अभिकंतवण्णा-अभिरूपच्छवि, मनापवण्णा"-म० पृ० २४८ बुद्ध० (रा.) २. अहीं मूळमां अभिज्झियत्ताए' एवो पाठ छे अने तेनो अर्थ करतो टीकाकार श्री जणावे छे के, “भिध्या लोभः, सा संजाता यत्र स भिध्यितः-न भिध्यितः-अभिध्यितः-तद्भावस्तत्ता-तया" अर्थात् “ महाश्रववाळाने जे पुद्गलो चोटे छे.तेनो परिणाम अभिध्यपणे-जे पुदलोने लेवा कोइने लोभ पण न थाय एवा खराबरूपे-थाय छे" तात्पर्य ए छे के, महाश्रवाळाने जे कर्म-दलोटे छे ते एवा अनिष्ट होय छे के, जेने मेळववानो कोइ लोभ पण न रावे. जेम अहीं मूळमा 'अभिज्झियत्ताए' प्रयोग वपरायो छे तेम श्रीवुद्धना सत्रपिटकना 'मज्झिम-निकाय ' नामना ग्रंथमां पण ' अभिज्झा' शब्द वपराएलो छे. त्यां तेन लगतो पाठ अने तेनो श्रीबुद्घोष आचार्यजीए करेलो अर्थ आ प्रमाणे छे:-(मूळपाठ-) "कतमे च भिक्खवे। चित्तस्स उपकिलेसा? “हे भिक्षुओ! चित्तना उपक्लेश केटला छ ! अभिज्झा, विसमलोभो चित्तस्स उपकिलेसो, व्यापादो, कोधो, उपनाहो अभिध्या, विषमलोभ-ए चित्तनो उपक्लेश छे-ए ज रीते व्यापाद-हिंसा, मक्खे, पासो, इस्सा, मच्छरियं, माया, साठेय्यं, थंभो, सारंभो, मानो, क्रोध, उपनाह, प्रक्ष, पळाश, ईया, मात्सर्य, माया, शठता, स्तंभ, संरभ, अतिमानो, मदो पमादो-चित्तस्स उपक्किलेसो. मान, अतिमान, मद अने प्रमाद-ए बधा चित्तना उपक्लेश छे"-म. पृ० २६, सुत-७ (रा०) श्रीबुद्धघोषजीनो अर्थ :"अभिज्झा--विसमलोभो"-" सकभंडे छन्दरागो अभिउमा, परभंडे “पोताना भांड (पात्र विगेरे उपकरण ) मा छंदराग ते अभिध्या अने विसमलोभो. अथवा युत्तपत्तहाने छन्दरागो अभिज्झा, अयुतापत्तहाने बीजाना भांडमां छंदराग ते विषमलोभ. अथवा युक्त पात्र स्थानमा छंदरग विसमलोभो." ते अभिध्या अने अयुक्त अपात्र-स्थानमा छंदराग ते विषमलोभ" -म० पृ० २३८ (रा.) भहीं पण आ श्रीबुद्धघोषजीनो अर्थ घणी सुंदर रीते घटी शके तेम छे. ३. अहीं मूलमा 'जल्ल' (जल्लियस्स) शब्दनो प्रयोग भएलो छ तेनो अर्थ मेल थाय छे. एवी ज शब्द-प्रयोग मज्झिम-निकायमा पण आ प्रमाणे मळी आवे छे: " नाऽई भिक्खवे ! संघाठिकस्स संघाटिधारणमत्तेन सामयं वदामि. "हे भिक्षुओ! संघाटिक काइ मात्र संघाटी धारण करवाथी ज (एव) अचेलकस्स अचेलकमरोन, रजोजल्लिकस्स रजोजलिकमत्तेन" इत्यादि. श्रमण थह शकतो नथी. अचेलक मात्र अचेलक रहेबाथी अने रजोजछिक ( मेलो) मात्र मेलने लीधे पण कांद श्रमण यह शको नथी-एम हुं कई. छु" इत्यादि-म० पृ० १९० (रा.) १. मूलच्छाया:-बत्रस्य भगवन् ! पुद्गलोपचयः किं प्रयोगेण, विनसया ? गातम ! प्रयोगेणाऽपि, विलसयाऽपि. यथा भगवन् । वनस पुद्गलोपचयः प्रयोगेणः-अनु. . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ فریام शतक ६.-उद्देशक ई. भगवत्सुधर्मस्मामिप्रणीत भगवतीसूत्र. वि', पीससा वि-तहा णं जीवाणं कम्मोवचए कि पयोगसा, रीते पुद्गलोनो उपचय थाय छे तेम जीवोने जे कर्मभुगलोनो उपचय चीससा ? थाय छे ते शु प्रयोगथी अने स्वाभाविक रीते, ए बने कारणथी थाय छे! ६. 30--गोयमा ! पयोगसा, नो वीससा. ६.उ.--हे गौतम ! जीवोने जे कर्मनो उपचय थाय छे ते प्रयोगथी थाय छे पण स्वाभाविक रीते थतो नथी, ७. प्र०—से केणटेणं ? ____७. प्र०--(हे भगवन् ) ते शा हेतुथीं ! ७. उ०-गोयमा ! जीवाणं तिविहे पयोगे पन्नत्ते, तं ७. उ.-- हे गौतम ! जीवोने त्रण प्रकारना प्रयोगो कथा जहा:-मणप्पयोगे, यइप्पयोगे, कायप्पयोगे; इचेएणं तिविहेणं छे, ते जेमके, मनप्रयोग, वचनप्रयोग, अने कायप्रयोग, ए त्रण पयोगेणं जीवाणं कम्मोवचये पयोगसा, नो वाससा; एवं सब्यसि प्रकारमा प्रयोगवडे जीवोने कर्मन्ने उपचय थाय छे, माटे जीवोने पंचिदियाणं तिबिहे पयोगे भाणियव्वेपुढवीकाइयाणं एगविहे गं कर्मनो उपचा प्रयोगथी थाय छे पण स्वभाविक रीते थतो नथी; पओगेणं, एवं जाव-वणस्सइकाइयाणं. विगदियाणं दुविहे ए प्रमाणे बधा पंचेंदियोने त्रण प्रकारनो प्रयोग कहेवो, पृथिवीकापयोगे पन्नते, तं जहा:-वइपयोगे, कायपयोगे य; इचएणं दी- पिकोने एक प्रकारनो प्रयोग कहेवो, ए प्रमाणे यावत-वनस्पतिकाहेणं पयोगेणं व.म्मोवचए पयोगसा, नो वीससा, से तेणद्वेणं यिको सुधी जाणवू, विकलेंद्रिय जीवोने बे.प्रकारनो प्रयोग कयो के. जाव-नो वीससा. एवं जस्स जो पओगो, जाव-वेमाणियाणं. ते जेमके, बचनप्रयोग अने कायप्रयोग, ए वे प्रकारना प्रयोगवडे तेओने कर्मनो उपचय थाय छे माटे तेओने प्रयोगथी कर्मोपचय थाय छे पण स्वाभाविक रीते कर्मोपचय थतो नथी, ते हेतुथी एम कडं के, यावत् स्वाभाविक रीते कर्मोपचप थतो नथी, ए प्रमाणे जे जीवने जे प्रयोग होय ते कहेवो अने ते प्रमाणे यावत्-वैमा.नेक सुधी कहेवू. ८..प्र०-वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचये कि साईए ८. प्र०-हे भगवन् ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचयं थयो छे, सपज्जवसिए, सादीए अपज्जवसिए, अणाइए सपज वसिए, अणा- ते शुं सादि सांत छे ? सादि अनंत छ ? अनादि सांत छ के -इए अपज्जवसिए? अनादि अनंत छ ? . . . ८. उ०-गोयमा ! वत्थस्स गं पोग्गलोवचए साइए ८. उ०-हे गौतम ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचय थयो छे, सपज्जवसिए, नो साइए अपज्जवसिए, नो अणाइए सपज्जवसिए, ते सादि सांत छे पण सादि अपर्यवसित-अनंत-नथी, तेम ज नो अणाइए अपजवसिए. अनादि सांत नथी अने अनादि अनंत नथी. ९. प्र०—जहाणं भंते ! वत्थस्स -पोग्गलोवचए साइए ९. प्र०-हे भगवन् ! जेम वस्त्रनो पुद्गलोपचय सादि संत रुपज्जवसिए, नो साइए अपज्जवसिए, नो अणाइए साजवासिए, छे पण स.दि अनंत, अनादि.सांत के अनादि अनंत नथी ते नो अणाइए अपज्जवसिए; तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा ? जीवोना कर्मोपचय माटे पण पृच्छा-प्रश्न-करवी अर्थात जीवोनो कर्मोपचय पण शुं सादि सांत छे ? सादि अनंत छे, अन्नदि सांत छे के अनादि अनंत छे ! ९.30-गोयमा ! अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए - ९. उ०-हे गौतम ! केटलाक जीवोनो कर्मोपचय सादि साइए सपज्जवसिए, अत्थेगतियाणं अणाइए सपज्जवसिए, अत्थे- संत छे, केटलाक जीवोनो - कर्मोपचय अनादि सांत छे अने गइयाणं अणाइए अपज्जवसिए, नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए केटलाक जीवोनो कोपचय अनादि अनंत छे. पण जीवोनो कर्मोसाइए अपज्जवसिए. पचय सादि अपर्यवसित-अनंत--नथी. १. मूलच्छ.याः-अपि विलसयाऽपि, तथा जीवानां कमोपचयः किं प्रयोगेग, विखसया ! गौतम! प्रयोगेग, न विघ्नसया. तत् केनाऽर्थन ! गौतम ! जीवानां त्रिविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा:-मनःप्रयोगः, वचःप्रयोः, कायप्रयोगः; इत्यनेन त्रिविधेत प्रयोगेग जीवानां कापचयः प्रयोगेग, न विस्रसया; एवं सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां त्रिविधः प्रयोलो भणितव्यः. पृथिवीकायिकानाम् . एकविधेन प्रयोगेग, एवं यावत्-वनस्पतिकायिकानाम्. विकले. न्द्रियाणां द्विविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथाः-वचःप्रयोगः, काय प्रयोगश्च; इत्यनेन द्विविधन प्रयोगेण, कापचयः प्रयोगेण, न विस्त्रसया, तत् तेनाऽर्थेन यावत्-गो विस्रसया, एवं यस्य यः प्रयोगः, यावत्-वैमानिकानाम्. वनस्य भगवन् ! पुगोपचयः किं सादिकः सपर्यवसितः, सादिकोऽपर्यवसितः, अनादिकः सपर्यवसितः, अनादिकोऽपर्यवसितः ? गौतम ! वस्त्रस्य पुद्गले पचयः सादिकः सपर्यवसितः, नो सादिकोऽर्यवसिंतः, नो अनादिकः सपर्यवसितः, नोऽनःदिकोऽपर्यवसितः, यथा भगवन् ! वस्त्रस्य पुद्गलोपचयः सादिकः सपर्यवसितः, गो सादिकोऽपर्यवसितः, नोऽनादिकः रापर्यवसितः, नोऽनादिकोऽपर्यवसितः; तथा जीवानां कौपचये पृच्छा ? गैतम ! अरस्येकेषां जीवानां कर्मोपचयः सादिकः सपर्यवसितः, अत्त्येषाम् अनादिकः सपर्यवसितः, अस्त्येकेषाम् अनादिकः अपर्यवसितः, नो चैव जीवानां कर्मोपचयः सादिकोऽपयवसित:--अनु० Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐर्यापथिक कर्म. 708 A १०. प्र० – से केणद्वेणं ! १०. उ० – गोयमा ! इरियाव हियबंधयस्स कम्मोचचए साइए सज्जनसिए, भवसिद्धियस्स फम्मोवचर अनाइए सपनयसिए, अनवसिदियस कम्मोपचार अगाइए अपभवसि से तेण्डेणं गोयमा ! २. " श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे इखादिद्वारे पयोगसा बसा यति छान्दसाचात् प्रयोगेण पुरुषव्यापारेण विश्वसतया स्वभावेन इति. : जीवाणं कम्मोवचए पओगसा, जो बीसस' ति प्रयोगेण एव, अन्यथाऽयोगस्याऽपि बन्धप्रसङ्गः सादिद्वारे:-' इरियावहियबंधयस्स इत्यादि, ईययोगमनमार्गमम् पवियोग कर्म इसी तन्धकस्य उधानमोह ीगोहत्य सपोगिकेवलिन इत्यर्थः ऐर्यापथिककर्मणो हि अवस्य बन्धनात् सादित्वम् अयोग्यवस्थायाम्, त्रैणिप्रतिपाले वाऽबन्धनात सपर्यवसितम् C 6 " , ३. यंत्र इत्यादिद्वारम जगावे के के, [पयोगेसा वीससा यजि] प्रयोग एटले पुरुषनो व्यापार, ते बड़े अने विससा एटले प्रयोग-विनस जीनो कर्मोपचय स्वभाव, ते वडे - [ ' जीवाणं कम्मोवचए पओगसा, णो वीसस ' त्ति ] जीवोने कर्मापचय प्रयोगधी ज थाय छें, अन्यथा जो एम नं मानीए दोषविताना तो जे योग विनाना हे प्रयोग रहित -संजोने पर कर्मनो उपचय पत्र जोनमा कम प्रयोगंधी वाय एस छे. सादिद्वारमां [इरियादियचइत्यादि , 6 6 सांतपणानी विशेष समजण एटले गमनमार्ग ते द्वारा थयेलं ते ऐक अर्थात् जे केवल शरीरादियोग ज हेतु छे एवं कर्म, तेनो बांधनार ऐर्यापथिकबंधक कहेबाय. उपशौतमोह, क्षीणमोह अने सयोगिकेवलिने ऐर्यापथिक कर्म संभवी शके छे. छोड़ पार पूर्वे एवं कर्म मन होवाने लीचे ते नवोज मंच थाय छे अने तेथी जतनुं सादिपशुं के अने अयोगिअवस्थामा अमा विना आणिधी प्रतिपात थाय त्यारे ते कर्मनो मंच न भतो होवाथी तेनुं सांतपणुं छे. [ तात्पर्य ए के ईर्या-पथ ईर्या एटले गति करवी अने पथ एटले सः दिपणा भने मार्ग अत्र्याएर गमनमार्ग मात्र वा चालवावीज बंधाया पंच मोजो कोई कपाय तो हेतु न हो-तेनुं नाम पथिक कर्मका जैनशाखनी शैलीथी जागी शकाय के कर्मबंधन मुख्य हेतु छे एक तो क्रोवादिकमाव अने बी शारीरिक अने वाचिक विगेरे प्रवृत्ति के जीवोना कमायो तदन उपशम्या नथीं या क्षीण घया नथी तेओ ने जेमतेची तेओनो बंध कापायिक के कषायजन्य कहेवाय. कषायवाळा जीवोना कपायो कांइ निरंतर प्रकटरूप नथी होता तो पण ए कषायो तद्दन उपशान्त वा क्षीण न होवाथी तेओनी बधी प्रवृत्तिओ लखवं, बोलवु वांचवं विगेरे क्रियाओ के, जेमां प्रकटरीते कारणरूप कोई कषाय जणातो न होय तो पण कापायिक जं कहेवाय अने जे जीवोना कषायो तद्दन उपशमी गंया छे वा क्षीण थई गया छे ते जीवोनी चेष्टाचाल पंगेरे किया कामाविक न बद्देवाय, किंतु शरीरजन्य के वाणीजन्य ज कद्देवाय अहीं ने ऐर्वापचिक किया जगाची ते एवा उपशान्त सह गुणस्थानके वर्तनारा वा क्षीणमो गुणस्थानके वर्तनारा जीवोनेज संभवी के छे कारण के तेया ज जीवों मात्र तद्दन कपायरहितपणे ए जानो एरले केवल शरीरलय के वाणीजन्य कर्मबंध करी शके छे. अहीं जम जा के, कर्मबंध सादि अने पति पण होय, ते आया केवळ शरीरजन्य के वाणीजन्य धता बन्धने आधीने समजवानुं छे. जो के जीव अने कर्मना संबंधी सादिता घटी शकती नथी तो पण उपर्युक्त प्रकारनो एटले जेमां कषायनी हेतुतानो जरा गंध पण नथी एवो-केवळ शरीरजन्य के वाणीजन्य कर्मबंध तो एक ज वार- अमुक स्थितिए थतो होवाथी ए, जरूर सादि-आदिवः को कहेवाय अने ज्यारे एवो पण कर्मबंध बंध पडे एटले आत्मानी अक्रियदशानी अपेक्षाए एवा बंधन अंत आवतो होवाथी ए, सपर्यवसित एटले अंतवाळो पण कहेवाय. ] 1 वस्त्र अने जीवनो सादि-सांततानो विचार.. ११. ० किं साइए सपञ्चवलिए, उमंगो ! ११. उ०- गोवमा ! बस्थे साइए सपन्नासए अबसेसा तिनि वि पडिसेहेयंव्वा. १२. प्र० - जहा णं भंते । वत्थे साइए सपज्जवसिए, नो साइए अपबसिए, जो अणाइए सपनवासिए, णो अगाइए - १०. प्र० - (हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? १०. उ० - हे गौतम! ऐयपथना बंधकनो कर्मोपचंय सादि सांत छे, मासिद्धिक जीवनो कम पचप अनादि सांता, अमपसि द्विकनो कर्मोपचय अनादि अनंत छे, ते हेतुभी हे गीसम तेम धुं छे. शतक ६. उद्देशक ३. 1 ११. प्र० - हे भगवन् ! शुं वस्त्र सादि सांत छे ! पूर्व प्रमाणे अहीं चारे भांगामां प्रश्न कहेवो. ११. उ०—हे गौतम! वस्त्र सादि छे अने सांत छे. बाकी भांगानो वस्त्रमां प्रतिषेध करवो. १२. प्र० - हे भगवन् ! जेम वस्त्र सादि सांत छें पण सादि अनंत नथी, अनादि सांत नवी अने अनादि अनंत नथी तेम १. मूलच्छायाः केाऽचैन गौतम ऐयाधिकः सादिकः पयसितः भवसिद्धिकस्य कमपचयोऽनादिकः पर्यवसितः अभवसिद्धिकस्य कर्मोपचयोऽनादिको पर्यवसितः; तत् तेनाऽर्थेन गौतम ! :- अनु० " १.व्याकरण नियमानुसारोपयोगे बनुंजोए पछांदस दोवाथी देवाचीपयोगाच :- श्रीलमय० १. मूळच्छायाः भगवन् सादिकम् पवखितम् तु केतन व सादिकं सर्वयसितम् अवशेषास्रवोऽपि प्रतिषेषवितव्या यथा भगवन् ! यसादिकं तम् नो सादिकम् अपर्यवसितम् नोऽनादिकं पतिम् [मोऽवादिकः अनु० , - , Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाएना. शतक ६.-उद्देशक ३. __ भर्गवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवत सूत्र. २७५ अपज्जवसिए तहा णं जीवाणं किं साइया सपजवासिया चउभंगो- जीयो शुं सादि सांत छ ! अहिं पूर्पना चारे भांगा वही तेमा प्रश्न पुच्छा ? करयो. १२. उ०-गोयमा ! अत्थेगइया साइया सपज्जवसिया, १२. उ०---हे गौतम ! केटलाक जीवो सादि सांत छे, ए चत्तारि विभाणियव्या. प्रमाणे चारे भांगा कहेवा. १३. प्र०---से केणद्वेणं ? १३. प्र०-(हे भगवन्!) ते शा हेतुथी ? १३. उ०-गोयमा ! नेरतिय-तिरिक्ख जोणिय-मणुस्स-देवा १३. उ० --हे गौतम ! नैरपिको, तियंचयोनिको, मनुष्यो अने गतिरागतिं पडुच साइया सपजवसिया, सिद्धा (सिद्ध) गतिं देवो गति आगतिने अपेक्षी सादि अने सांत छ, सिद्धगतिने पड़च्च साइया अपज्जवसिया, भवसिद्धिया लद्धि पडुच्च अणाइया अपेक्षी सिद्धो सादि अनंत छे, भवसिद्धिको लम्बिने अपेक्षी अनादि सपज्जवसिया, अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणाइया अपज्जवासया; सांत छे अने अभवसिद्धिको संसारने अपेक्षी अनादि अनंत छे, ते से तेणद्वेणं. हेतुथी तेम कहुं छे. ४. 'गतिरागतिं पड़च्च 'त्ति नरकादिगतौ गानमाश्रित्य सादयः, आगमनमाश्रित्य सपर्यवसिता इत्यर्थः, 'सिद्धा (सिद्ध) गई पडुच्च साईया अपज्जवसिय ' त्ति. इह आक्षेप- परिहारौ एवम्:-- "साई अपज्जवसिया सिद्धा न य नाम तीयकालम्मि, आसि कयाइ वि सुण्णा सिद्धी सिद्धेहिं सिद्धते." " सर्व साइ सरीरं न य नामाऽऽदिमय देहसमावो, कालाऽगाइत्तणओ जहा व राइं-दियाईगं." " सव्वो साई सिद्धो न यादिमो विज्जइ तहा तं च, सिद्धी सिद्धा य सया निद्दिवा रोहपुच्छाए " ति. "तंच" ति तच सिद्धाऽनादित्वमिष्यते, यतः-“ सिद्धी सिद्धा य" इत्यादि-इति. 'भवसिद्धिया लदि' इत्यादि. भवसिद्धिकानां भव्यत्वलब्धिः सिद्धत्वेऽपैति-इति कृत्वाऽनादिः, सपर्यवसिता च इति, ४. [गतिरागतिं पडुच्च ' ति ] नरकादि गतिमां थता गमनने आश्री सादि अने त्यांथी थता आगमनने आश्री सांत छ. [ ' सिद्धा गति-आगति. (सिद्ध ) गई पडुच्च साईया अपज्जवसिय ' त्ति ] सिद्धो सिद्धगतिने आश्री सादि अने अनंत छ, अहीं आक्षेप अने. परिहार आ प्रमाणे जाणवाः- सिद्धो सादि शी री " सिद्धोने सादि अने अनंत कह्या छे, परंतु भूतकाळमां कोई वखते पण सिद्धना जीवोथी शून्य-रहित-सिद्धि न हती, एम सिद्धांतमां कर्तुं छे” होय ? अर्थात् आ गाथाथी एम आक्षेप थाय छे के, सिद्धो सादि अने अनंत केम होइ शके ? कारण के, भूतकाळे कोइ वखते पण सिद्धोथी शून्य सिद्धि रही नथी, एम सिद्धांतमां कयुं छे, अर्थात् जो कोइ एयो पण बखत होय के, जे वखते सिद्धि, सिद्धोथी रहित होय तो एम मानी पण शकाय के, ते वखते सिद्धो नवा आव्या माटे तेओ सादि अदे अनंत कहेवाय, पण तेम तो नथी माटे सिद्धो सादि अनंत छे, ए केम सिद्ध थइ शके ? ते आक्षेपना उत्तरमा कहे छ के, "कालना अनादिपणाने लीधे कोइ एवो पण आदिम-साथी प्रथम-देहनो सद्भाव नथी तो पण सर्व शरीर सादि सिद्धो सादि होवानं छे ए उदाहरण प्रमाणे अथवा जेम रात्रि दिवसो थाय छे ए प्रमाणे " " सर्व सिद्ध सादि छ पण कोइ सिद्ध एवो नथी जे आदिम-सौथी प्रथम- समाधान, होय, माटे सिद्धोनुं अनादिपणुं छे अने तेथी रोहक अनगारना प्रश्नोमां सिद्धि अने सिद्धो सदा (अनादि ) निर्देश्या छे ” अर्थात् जेम काल रोहा नगार अनादि छे, अने ते काळ कोइ वखत शरीरोथी वा रात्रि दिवसोथी रहित हतो एम बन्यु नथी तेथी तेमां सौथी प्रथम क्या शरीरनो वा क्या अहोरात्रनो सद्भाव होय ते जाणी शकातुं नथी तो पण उत्पत्तिने आश्री बधा शरीरो सादि छे तथा वधा रात्रि दिवसो सादि छे एम मानवामां रात्रि दिवको अने आवे छे. तेम जो के, सिद्धि कोइ वखत सिद्धोथी रहित नथी तेथी क्यो सिद्ध साथी प्रथम छे ते कळातुं नथी तो पण उत्पत्तिन आश्री पूर्व उदाहरण शरीरो. प्रमाणे सिद्धोने सादि अने अनंत कया छे. " तं च " एटले ते-सिद्धोनुं अनादिपणुं इष्ट छ, कारण के, सिद्धि अने सिद्धोने सदा ( अवस्थित ) कह्या छे. [ 'भवसिद्धिया लाद्धं ' इत्यादि. ] भव सिद्धिक जीवोने भव्यत्व लब्धि होप छे, अने एओनी ए लब्धि सिद्धपणुं पाम्या पछी नाश पामे छे माटे भव्यत्व, ते भवसिद्धिकोने अनादि अने सांत कह्या छे. कर्म अने तेनी स्थिति. १४. प्र०-कति णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? १४. उ०-गोयमा ! अढ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ता, तं जहा:- १४. प्र०-हे भगवन् ! केटली कर्म-प्रकृतिओ कही छे ! १४. उ०-हे गौतम ! आठ कर्म प्रकृतिओ कही छे, ते १. मूलच्छायाः-आर्यवसित तथा जीवाः किं सादिकाः सपर्यवसिताः, चतुर्भ::-पृच्छा ? गौतम ! अस्त्येककाः सादिकाः सपर्यवसिताः, चत्वारोऽपि भणितव्याः, तत् केनाऽर्थन ? गोतम ! नरसिक-तिर्यग्योनिक--मनुष्य-देवा गति-आ प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिताः, तिताः (सिद्ध) गति प्रतीत्य सादिका अपर्यवसिताः, भवसिद्धिका लब्धिं प्रतीत्य अनादिकाः रूपर्यवसिताः, अभवसिद्धिकाः संसार प्रतीत्याऽनादिका अवसिताः; तत् तेनाऽर्थेन.:--अनु० १.प्र. छायाः-सादयः-अपर्यवसिताः सिद्धा न च नामाऽतीतकाले, आसीत् कदाचिदपि शून्या सिंद्धः सिद्धः सिद्धान्ते. सर्व सादि शरीरं न च नामाऽऽदिमकः देहसद्भावः, कालाऽना दिस्वाद् यथा वा रात्रिंदिवादीनाम्. सर्वः सादिः सिद्धः न चादिमो विद्यते तथा तच, सिद्धिः सिद्धाश्च सदा निर्दिष्टा रोहपृच्छायाम् :-अनु. १. जूओ भगवती प्र० सं० (पृ० १६७ ):-अनु० १, मूलच्छायाः-कति भगवन् । कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ता- तम | अष्ट कर्मप्रकृतयः प्राप्ताः, तपथा:--अनु० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक ३. णाणावरणिज, दरिसणावरणिज, जाव-अंतराइयं. जेमके, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय यावत् अंतराय. . १५. प्र०-णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं १५. प्र०-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मनी बंधस्थिति कालं बंधट्टिती पण्णत्ता ? केटला काळ सुधी कही छे ? १५. 30-गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उकोसेणं तसं १५. उ०-हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी सागरोवमकोडाकोडीओ, तिनि य वाससहस्साई अवाहा, अबाहू- त्रीश सागरोपम कोडाकोडी, अने त्रण हजार वरस अबाधा काळ, णिया कम्मविति-कम्मनिसेओ, एवं दरिसणावरणि पि, वेय- ते अबाध काळ जेटली ऊगी कर्मस्थिति-कर्मनिषेक-जाणवो, ए णिज्ज जहनं दो समया, उक्कोसणं जहा णाणावरणिज्ज, मोहणिज प्रमाणे दर्शनावर गीय कर्म परखे पण जाग. वेदनीय कर्म जघन्ये जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ, सत्त वे समयनी स्थितिवाळं अने उत्कृष्टे जेम ज्ञानावरणीय कर्म कहुं छे य वाससहस्साणि (अबाहा) अबाहणिया कम्मद्विती-कम्मनिसेओ, तेम जाणवू. मोहनीय कर्म जघन्ये अन्तर्मुहूर्तनी स्थितिव ढुं अने आउगं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेगं तेत्तीसं सागगेवमाणि उत्कृष्टे ७० सागरोपम कोडाकोडी स्थितिवाढू छे अने सात हजार पुवकोडितिभागमभहियाणि कम्मद्विती-कम्मनिसेओ, नाम- वरस तेनो अबाधा काळ छ अर्थात् कर्नस्थिति-कर्मनिपेक-काळ, गोयाणं जहण्णेणं अट्ठ महता, उकोसेणं वसं सागरोवमकोडा. ते अबाधा कळथी ऊगो जाणत्रो. (हे गौतम ! ) आथुष्प कर्मनी कोडीओ, दोणि य वाससहस्साणि अबाहा, अबाहू,णया कम्म- स्थिते जघ-ये अन्तर्मुहूर्त छे अने उत्कृष्टे पूर्व कोटिना त्रिभागथी द्विती-कम्मनिसेओ, अंतराइयं जहा णाणावराणिज्ज अधिक तेत्रीश सागरोपम कर्मस्थिति-कर्मनिषेक-छे. 'नामकर्मनो अने गोत्रकर्मनो जघन्य काळ आठ अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट काळ वीश सागरोपम छे तथा बे हजार बरस अबाधा काळ छे, ते अबाधा काळथी ऊणी कर्मस्थिति,-कनिषेक-जाणवो. जेम ज्ञानावरणीय कर्म कह्यं तेम अंतराय कर्म समजवु, ५ कर्मस्थितिद्वारे “तिनि य वाससहस्साइं अबाहा-अबाहाऊणिया कम्माति-कम्मनिसेगो" ति 'बाधू लोडने' बाधते इति बाधा-कर्मणः उदयः, न बाधा अबाधा-कर्मणो बन्धस्य, उदयस्य चाऽन्तरम्-अबाधया उक्तलक्षगया ऊनिका अबाधोनेका क ति :-कर्माऽवस्थानकाल उक्तलक्षणः कर्मनिपेको भवति, तत्र कर्मनिपको नाम कर्मदलिकस्याऽनुभवनार्थी रचनाविशेषः; तत्र च • प्रशमसमये बहुकं निषिञ्चति, द्वितीयसमये विशेषहीनम् , तृतीयसमये विशेषहीनम् एवं यावद् उत्कृष्टस्थितिकं कर्मदलिकं तावद् विशेषहीनं निषिञ्चति. तथा चोक्तम्:-" मोतूग सगमवाहं पढमाई दिईड बहुयरं दव्यं, सेसे विसेसहणिं जा उक्कोले ति सव्वासि." 1. मूलच्छायाः-ज्ञानावरणीयम् , दर्शनाऽऽवरणीयम् , यावत्-अन्तरायिकम् . ज्ञानावरणीयस्य भगवन् ! कर्म गः कियन्तं कालं बन्धस्थितिः प्रज्ञप्ता ! गौतम ! जघन्येनाऽन्तर्गहूर्तम् , उत्कृष्टेन त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्यः, णि च वर्षसहस्राणि अवाधा, अयाधोनिका कर्मस्थितिः-कर्मनिषेकः, एवं दर्शनावरणीयमपि, वेदनीयं जघन्यं द्वौ समयौ, उत्कृष्टेन यथा ज्ञानावरणीयम् , मोहनीयं जघन्येनाऽन्तर्मुहूर्तम, उत्कृटेन सप्ततिसागरोजगकोटीकोट्यः, सप्त च वर्षसहस्राणि ( अबाधा ) अबाधोनिका कर्मस्थिति:-कर्मनिपेकः, आयुष्कं जघन्येनाऽन्तर्मुहूर्तम् , उत्कृटेन जयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोटीत्रिभागाभ्यधिकानि कर्मस्थिति:-कर्मनिपेकः, नाम-गोत्रयोः जघन्येनाइट मुहूतानि, उकृष्टेन विंशतिसारोमकोट कोश्यः, द्वे च वर्षसइने अवाधा अबाधोनिका कर्मस्थितिः-कर्मनिषेकः, अन्तरायिकं यथा ज्ञानावरण यम्:-अनु० १. वेदनीयनी अही जणावेली ओछामा ओछी स्थिति, कषायरहित आत्माओने ज होय छे अने सरूपाय आरग ओने तो ते, ओछामा ओछु बार मुहर्त सुपी चोंटी रहेलं होय छे. २. आयुष्यने लगती अवाधानो काळ पूर्वकोटोना विभाग जेटलो समजवानो छे. ३. आ शब्दनी विशेष स्पष्टता थाय ते माटे आ सूत्रनी ज टीका उपर एक सविस्तर टिप्पण अपेलं छ:-अनु० १. प्र. छायाः-मुक्त्वा खकामबाधां प्रथमायां स्थिती बहुतरं द्रव्यम् , शेषे विशेषहीनं यावद् उत्कृष्टमिति सर्वेषाम् :-अनु० २. धीटीकाकारजीए जणावेली आ गाथा श्रीशिवशर्माऽऽचार्यकृत कर्मप्रकृतिमा निषेकप्ररूपणाना प्रसंगमा ८३ मी छे. तेनी टीका करता श्रीयशोविजयजी महाराजे आ प्रमाणे जणान्गुं छे:___“ सर्वस्मिनपि कर्मणि वध्यमाने खखम् अबाधाकालं मुक्त्या तद् - " दरेक कर्म बंधाया पछी-ते ते कर्मनो उदय आवता-एटले ते ते ऊर्ध्व दलिकनिक्षेपं करोति. तत्र प्रथमायां स्थिती समयलक्षाणायां बहुतरं कर्मनो अबाधा-समय पो थया पछी अर्थात् कर्मने अनुभव करवाना द्रव्य-कर्मदलिकं निषिञ्चति. इतः प्रथमस्थितेः-ऊवं द्वितीयादिस्थितिषु प्रथम क्षणथी मांडीने, ते बंधाएला कर्मना दळियामांथी वेदी शाय समय-समय प्रमाणासु विशेषहीनं विशेषहीन कर्मदलि के निषिञ्चति-एवं च एवां-बेदवाने योग्य एवा दळिगांशेनी रचना-निषेक-थाय छ-उदयना तावद् वाच्यं यावत् तत्तत्समयबध्यमानकर्मणाम् उत्कृष्टा स्थितेः-चरम- प्राम समये तेनां बहुतर-घगां वधारे-दळिवांओनो निषेक थाय छे अने समय इत्यर्थः, एष च अबाधा मुक्तया दलि कनिषेकविधिः-आयुर्व कर्मग त्यार पछीना समयोमा विशेषहीन विशेषहीन कर्म-दळि यांनो निषेक शेयः. आयुषस्तु प्रथमसमयाद् आरभ्य दलिकरचना प्रवर्तते. प्रथम समय थया करे छे-जे निषेक ठेठ त्यां सुधी थपा करे छ ज्यां सुपी ए बंधाएलं एव आयुषः प्रभूतदलिकनिषेकः, द्वितीयादि-समयेषु तु यथोत्तरे विशेषहीनो कर्म आत्मानी साथे टकवान होय अथीत ए बंधाएल कर्मनी स्थिति जेटली यावचरमसमय इति पञ्चसंग्रहोंक्तम्-इति द्रष्टव्यम् .” निमीएली होय-ए स्थितिना छेक छला समय सुधी ए.जातनुं निषेचन धया . Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ قایم शतक ६.-उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. इदमुक्तं भवतिः-बद्धमति ज्ञानावरणं कर्म त्रीणि वसहस्र.णि यावदोद्यमानम् आस्ते, तातभूगोऽनुभव हालस्तस्य, स च. वर्षसहस्रनयन्यूनस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीपान इति. अन्ये त्याहु:- 'अबाधाकालो वर्षसहस्र त्रयमानः, बाधाकारश्च सागरोपमके टी करे है. आ प्रकारनो दलिक-निषेचननो प्रसंग मात्र आयुष्य कर्म सिवाय. वीजा व कीना-सात कमी संबंधे ज समजवानो छे. आयुष्य माटे पण ए प्रसंग नथी एम नथी, पण तेमां तो ज्यारथी आयुष्य बंधाय सारथी ज ए प्रिया शरू थइ जाय छे. एटले कर्मनिपेक माटे एमां अबाधाकाळने पूरो धवानी जरूर रहेती नथी अर्थात् जो के, आयुध्यनो अवाधाकाळ तो होय छ, परंतु ए प्रसंगे अबाधाकाळने वर्जयागी जरुर रहेती नथी. वात ए छे के, आयुष्प-बंधना पहेले क्षणे ज एनां वेद्य दळियांओर्नु निपचन शरु थइ जाय छे-प्रथम समयमा जे आयुष्यनां घगां दळियां ओनो निपेक थइ जाय छे अने स्यार पछीथी ते ठे। छल्ला समय सुबी आयुष्यना दळियांओ विशेषहीन विशेषहीन निषेचायां करे छ-पंचसंग्रहमा पण आ हकीकतने जणावेली समजवानी छ,” -र्मप्र० पृ० ८० (भा०) आ'दळियानां विवरन'नी हकीकत जरा विशेष स्पष्ट थाय एवा हेतुथी जए. विषे जे काह हकीकत पंचसंग्रहमा जणावेली छे-तेने पण अहीं संक्षेपमा जणाववामां आवे छे:"मोहे सयरी कोडाकोडीओ वीस नाम-गोयाण, " मोहनी ७० कोडाकोडी सागरोग्म, नान-गोत्रनी २० कोडाकोडो तीसि-घराण चउण्हं तेत्तीसयराई आउस्स"-३१ सागरोपम, बीजां चारनी ३० कोडामोडी सागरोपम अने आयुष्य नी तेत्रीश सागरोपम." "मोहे मोहनीये-मोहनीयस्य कर्मग उत्कृष्टा स्थितिः सप्ततिसागरोपम- “कर्मनी स्थितिना बे प्रकार छः एक तो कर्मरूले रहे ओ बीजी कोटीकोट्यः. इह द्विधा स्थितिः, तद्यथा-कर्मरूपतावस्थानलक्षणा, अनुभव- अनुभव योग्य कर्मरूपे रहे. जे अहीं वध रेनां बधारे के अंछन ओडी योग्या च. तत्र कर्मरूपतावस्थानलक्षणाम्-एव स्थितिम् --अधिक य कर्म-स्थितिनी हद जगावेली छ ते-कर्मरूपे रहेवानी स्थितिने अंगे उत्कृष्टम् , जधन्यं वा प्रमाणम्-अभिधातुम्-इष्टम्-अवगन्तव्यम्. समजवी. अने र कम ज्यारथी अनुभवामां आवे स्यारनी स्थिति ने अनुअनुभवयोग्या पुन: अब धाकालहीना. येषां च कर्म गा याप यः सागरोपग- भव योग्य कर्मरूपे रहेगारी स्थिति जागवी अचान कर्मनी कूल स्थितिमाथी कोटीकोट्यः-बां तावन्ति वर्षशतानि अबाधाकालः. तथा च वक्ष्यति- तेना अनुदपनो वखत-बाधाकाल-बाद करतां जे स्थिति शेष रहे - एवइयाऽवाह वाससया'-३६. तेन मोनी यस्य उत्कृष्ट स्थितिः तेने अनुभवयोग्य कर्मरूपे रहेनारी स्थिति समजबी. जे कर्मनी स्थिति सप्ततिसागरोचमकोटीकट्य -इति तस्य सप्ततिवर्षशतानि अबाधाकालः. जेटलां कोडाकोडी सागरोपमनी होय तेटलां सो वर्ष ते, अनुभवमा तथाहि-तद् मोहनीयम्-उस्कृष्टस्थितिक बढ़ सा सप्त वर्षशतानि यावद् अव्या सिवाय आत्मा पासे एक अकिविकर जेवू थइने पब्यं रहे है. न कदाचिदपि स्वोदयतो जीवस्य ब.धामुत्पादयति-अबाधाकालहीनश्च उदाहरण तरीके जेम, मोहनीय कर्मनी ७० कोडाकोडी सागरोपमनी उकृष्ट कर्म:लिकनिषेतः किमुक्तं भवति ?-सप्ततिवर्षशतप्रमाणेषु समयेषु मध्ये स्थिति छे-तो ते १० सो वर्ष सुधी अर्थात् ७००० वर्ष सुधरे तो मात्र न वेद्यदलि कनिक्षेपं करोते, किंतु तत ऊर्ध्वम् इति. तथा नाम-गोत्रयो.- पच्चं ज रहे छ एटले के कोइ मोदी आरमाए, नगा मोहनीय कर्मनो मोटानां उकृष्टा स्थितिः-विंशतिः सागरोमकोटीकोन्यः, द्वे वर्ष पहले अबाधा, मोटी हदवाळो बंध को होय अने तेवो प्रखर बंध का पछो तुरत ज अबाधाकालहीनश्च कर्म दलिकनिषेकः, तथा इतरेषां चतुर्णीम्-ज्ञानावरण- काइ ते बंध, ए आत्माने लाभ हानि करी शकतो नथी. पण बंध काना दर्शनावरण वेदनीय-अन्तरायाणां त्रिंशत् सागरोसमकोटीको म्यः उत्कृष्टा क्षणथी ते ७००० वर्ष सुधी तो ए बंधने लगता अणुओ एक सूतेला अजस्थितिः, त्रीणि वर्षसहस्राणि अगधा-अबाधाकालहीनश्च वर्मदलिकनिषेकः. गरनी जेम मात्र पढ्यां ज रहे छ अने एटलो वखत पसार थथा पछी आयुष उत्कृष्टा स्थितिः--याविशदतराणि-सागरोग्माणि पूर्वकोटि- तुरत ज ते ७००० वर्ष पहेलां करेलो मे ह-बंब, ए बंध करनार मोही त्रिभागाभ्यधिकानि--पूर्व कोटि नभाग :- अवाधा-अबाधा कालहीनश्च आत्नाने पोतानुं विष चडाववा मांडे छे. तात्पर्य ए छे के, ७००० वर्ष कर्मदलि कनिपेकः" वी या पछी ए बांधेला मोहने लगतां अणुओमांधी, समये समये अनुक " मोत्तुमकसाइ तणु या टिई वेयणि यस्स बारस मुत्ता, प्रमाणवाळा अणुओ पोतानुं फळ आपता जाय छे-पण सार पहेला- ००० अटू नाम-गोवाण, सेसयाण मुहुर्ततो." ३२ वर्ष पहेला--ए अणुओमा एक पण अणु पोतार्नु फळ अनुभव वी शकतो " इह द्विधा वेदनीयस्य जघन्या स्थितिः प्राप्यते, तद्यथा-सकषायाणाम् , नयी-अर्थात् ए पडेलां मोहना अणुओ अत्माने कशुं पोतानुं व देखा। अकपाया च. तत्र अकपायिनो मुत्वा शेषाणां कपायिणां वेदनीय य शकत नथी. जेटला बखत ती ए अणुओ अत्माने पोनानं विर चसायी तन्वी-जघन्या स्थितेः- द्वादश मुहूना:, अन्तर्मुहूर्नम् अवाधा-अबाधाका- शकता नथी ते वखतने शास्त्र कारोए 'अबाधाकाळ 'ना नामधी जणावेलो लहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः. नाग-गोत्रयोः प्रत्यकं अौ मुहूती जघन्या है-जे काळमां आत्माने वाधा न थती हो । ते अवाधाकाळ-ए नाम स्थितिः, अन्तर्मुहूर्तम् अबाधा-अबाधाकालहीनच वर्मदलि कनिषेकः. पण वरावर छे. ज्यां सुधी वर्मो ए अवाधःकाळ होय यां सुकी एक पण या यो सभी वर्मा तथा शेषाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय-मोहनीन-आयुषा अग (दलिक) अनुभवातो नथी. ए उदययोग्य अणुओनी रचनाने जघन्या स्थितिः-गुहूतीन्तः-अन्तर्मुहूर्तम्- अत्रापि अन्तर्गहूर्तम्-अबाधा- शन कारोए धर्म दलि। निषेक अथवा कर्म.नेपेक कमानिसेओ' शब्दयी नवरम् -तद् लघुतरमासे यम् - अवाधावालहीनश्च कर्मदलि निकः" संबोधेली छे-जे जे कर्मगो जेटलो अय धःकाळ होय ते बाद करता बाकी रहेता कर्म-स्थितिना तद्दन छेक्ट सुधना समयने ' कर्मनिषेक' शब्दयी ओळखबानो छे. सागेना उखमा दरेक कर्मनों वधारेमा वधारे अने ओछामा औठो अवाधाकाळ तथा कर्मनिषेककाळ-वाधाकाळ-जणावलो छे. ते आ प्रमाणे छे: Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे ६. उदेशक है. कोटी त्रिंशलक्षणः- द्वितीयमपि च फर्मस्थितिकालः स चाचाचाकापर्जितः कर्मनिषेककालो भवति. " एवम् अम्यकर्मस्वपि अबाधाकालो व्याख्येयः, नवरम्:- आयुषि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि निषेकः, पूर्वकोटी त्रिभागश्च अबाधाकाल इति. ' वेयणिज्जं जहगं दो समय त्ति केवलयोगपबन्धाऽपेक्षया वेदनीयं द्विसमपस्थितिकं भवतिः - एकत्र बध्यते द्वितीये वैधते य उच्यतेः" वेयणियस्स जहना बारिस, नाम-गोयाण अट्ठ मुहुत्तं " ति तत् सकषायस्थितिबन्धम् आश्रित्य इति वेदितव्यम् इति, " यच प्रबाधा-काळ. C ५. कर्मस्थितिना द्वारमां [' तिन्नि य वाससहस्साई अवाहा - अवाहाऊणिया कम्मद्विति- कम्मनिसेगो' त्ति ] 'लोडन ' अर्थमां वर्तता बाधू धातु उपरथी 'बाधा' शब्द बने छे, बाधा एटले कर्मनो उदय, बाधा नहि ते अवाधा अर्थात् ज्यारथी कर्मनो बंध थयो त्यारथी ज्यां सुधी कर्मनो उदय भाय त्यां सुधीना काळने एटले के कर्मनो मंच अने उदय ए वे बेना अंतराने अथाधा कहे छे, ते पूर्शक रूपवान्य अनाधाकाळची उणी कर्मस्थिति कर्मगो अवस्थानकाळ हे अर्थात् जे कर्मखितिनो काळ श्री सागरोपम कोडाकोडी दर्शाच्यो छे ते, पण हजार कर्मनुं नाम. मोहनीय. ज्ञानावरण. दर्शनावरण कषायवाळा आ रमाए बांधलुवेदनीय. * अंतराय. नाम. गोत्र. आयुष्य. वधारेमा वधारे स्थिति. ७० कोटाकोडी सामरोपम ३० कोडाकोडी सागरोपम 33 او " २० कोड कोडी सामरोपम ३३ सागरोपम उपरांत पूर्व कोटित्रिभाग. ओछामा ओछी वधारेमा वधारे ओछामां ओछो वधारेमा वधारे बाधाकाळ - खिले कर्मनिषेक + मुं " " बार मुहूर्त. अंतर्मुहूर्त आठ मुहूर्त. अबाधाकाळ. ७००० वर्ष. ३००० वर्ष. : " २००० वर्ष. " अंतर्मुहूर्त. पूर्वकोटिप्रभाग अबाधाकाळ. " " ار अनु -- ७००० वर्षे ओछ ७० को ० सागरोपम ३००० वर्षे ओछ ३० को ० सागरोपम २००० वर्षे ओछां २० को ० सागरोपम पूर्वको माओ फक्त ३३ सागरोपम ओछामा ओछो बाधाकाळ-कर्मनिषेक. + अंतर्मुहूर्ते ओधुं अंतर्मुहूर्त. ११ अंतर्मुहूर्त ओछु अंतर्मुहूर्त. * उपर जणावेलां ए आठे कर्मोमां वेदनीय सिवायना सात कमीने बांधनारा आत्माओ कषायलिप्त ज होय छे त्यारे वेदनीय कर्मने बांधना आत्मा कषायलिप्त ज होय छे एम. कांइ नथी- ए तो अकषायी पण होय अधीत् कषायों के अकषायी ए बने प्रकारना आत्माओ वेदनीय कर्मने बांधी शके छे तो अहीं जे वेदनीयकर्म विषे जणावेलुं छे ते वेदनीय, कषायी आत्माएं बांधेलं ज गणवानुं छे. अकपायी आत्माएं बांधेला वेदनीयने लगती भबधी हकीकत तो श्रीभगवतीजीना मूळपाठमा अने टीकामां ज टीकाकारथीए जणावी दीधी छे:- अनु० अंतर्मुहूर्ते ओछां सात मुहूर्त 72 अंतर्मुहूर्तं प्रमाणे यापोभान गाज यहाँ एक सरला अंतत सब्द पण जुजुमान ( पंचसंग्रह - १० १७६ - ( गा० ३१–३२ भा० आ० ) :- अनु० १. प्र० छाया-वेदनीयस जम्पा द्वादशनामी अंतर्मुहूर्त अंतर्मुहूर्त. : Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शता ६.. उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २७४ वरसना अबाधा काळथी ऊणो जाणवो अने अबाधाकाळथी ऊणो पूर्वोक्तस्वरूपवाळो कर्मनो अवस्थीन काळ-कमीनेषेक-काळं कहेवाय छ, अनुभव करवा माटे- भोगववा माटे-कर्मनां दळियांनी एक प्रकारनी. रचना ते कर्मनिपेक कहेवाय, अने त्यां प्रथम समयमांघ निषिंचे-रचे अने बीजा समयमा कर्मनिषेक, विशेष हीन करे, ग्रीजा समयमा विशेष हीन करे ए प्रमाण जेटली उत्कृष्ट स्थितिवाळु कर्मनुं दळियु होय.तने-तेटलं विशेष हीन बनावे. तेम ज़ कह्यु छे के "पोतानी अबाधाने मूकीने प्रथम स्थितिमां-प्रथम समये- धणु द्रव्य रचे छे अने बाकीना, समयोमा (तेटल) विशेष हीन करे छे के, ते यावत् कर्मप्रकृतिनी गाथा. (जेटलं ) उत्कृष्ट (होय) ए प्रमाणे सर्व कर्म प्रकृतिओ माटे जाणवू " आनुं तार्य आ छे के, बाधेलं पण ज्ञानावरणीय कर्म त्रण हजार वरस सुधी पानावरणलो वाधा अवेद्य रहे छे, तेथी ते त्रण हजार वरस ऊगो अनुभव-काळ थयो अर्थात् तेनो-ज्ञानावरणीय कर्मनो अनुभवकाळ त्रण हजार वरस ऊणो त्रीश अने अवाधाकःल, सागरोपम कोडाकोडी थयो, बीजाओ तो कहे छे के, "त्रण हजार वरसनो अबाधा काळ अने त्रीश कोडाकोडी सागरोपम खरूप वीजाओ. बाधा काळ ते बन्ने काळ कर्मस्थिति, काळ कहेवाय अने तेमांथी अबाधा काळने वर्जता. काढी नाखता-जेटलो काळ आवे ते कर्मनिपेक काळ कहेवाय " ए प्रमाणे बीजां कर्मोमां पण अबाधा काळनी व्याख्या करवी, विशेष ए छे के, आयुष्यकर्ममा तेत्रीश सागरोपम निषेक काळ छे अने पूर्वकोटीनो त्रिभाग काळ अबाधाकाळ छे. [ 'वेयणिजं जहनेणं दो समय 'त्ति ] वेदनीय कर्मनो जघन्य काळ वे समयनों के एटले जे वेदनीय कर्मना बंधमां तद्दन कषाय हित स्थितिए ज्यारे फक्त शरीरादि योग ( योग-चेष्टा )ज निमित्तभूत होय एवा वेदनीयना बंधनी अपेक्षाए वेदनीय वेदनीय. कर्म बे समयनी स्थितिवाळु छे, एक समये बंधाय अने बीजे समये वेदाय. वळी, जे कहेवाय छे के " जघन्ये बार अंतर्मुहूर्त वेदनीयनी स्थिते छे अपाय-बंध. अने आठ अंतर्मुहूर्त नाम तथा गोत्रनी जघन्य स्थिति छे" ते सकषाय बंधनी स्थितिनी अपेक्षाए जाणवू. सकप य-बंध. कर्मने बांधनारा. जना, पुरुष १६. प्र०---णोणावरणिज्ज णं भंते ! कम्म किं इत्थी बंधई, १६. प्र०- हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शुं स्त्री बांधे ? परिसो बंधह, नपुंसओ बंधई, णोइत्थी-णोपुरिस-नोनपुंसओ पुरुष बांधे? के नपुंसक बांधे ? वा नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक एटले बंधड़ ! जे स्त्री, पुरुष के नपुंसक न होय एवो जीवं बांधे १६. उ०-गोयमा ! इत्थी वि पंधर, पुरिसो वि बंधई, १६. उ०-हे गौतम ! स्त्री पण बांधे, पुरुष पण बांधे, नसओ विबंधद; मोइत्थी-नोपुरिस-नोनपुंसओ सिय बंधइ, अने नपुंसक पण बांधे. पण जे नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक होय सं नो बंधा एवं आउगवज्जाओ सत्त कम्मणगडीओ. ते कदाच बांधे अने कदाच न बधि; ए प्रमाणे आयुष्यने वर्जीने सातें कर्म प्रकृतिओ माटे जाणवु. १७. प्र०-आउगं णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधह, पुरिसो १७. प्र०- भगवन् ! आयुष्यकर्म शुं स्त्री बांधे ! पुरुष बंधइ, नपुंसओ बंधह, पुच्छा ! बांधे ! के नपुंसक बांधे ? ९ प्रमाणे पूर्ववत् प्रश्न करवो. १७. उ०-गोयमा ! इत्थी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, १७. उ० हे गौतम! स्त्री बांधे अने न पण बांधे. ए एवं तिनि वि माणियव्या; नोइत्थी-नोपुरिस-नोनपुंसओ न बंधइ. प्रमाणे त्रणे माटे-बीजा बे माटे-पण जाणवू अने जे नो-स्त्री नोपुरुष-नोनपुंसक होय ते तो आयुष्यकर्म न बांधे. १८. प्र०-णाणावरणिज्ज णं भंते । कम्म कि संजए बंधइ, १८. प्रा–हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शु संयत बांधे ? अस्संजए, संजयाऽसंजए बंधइ; नोसंजय-नोअसंजय-नोसंजयासंजए असंयत बांधे ! के संयतासंयत बांधे ? वा जे नो-संयतबंधति ? ___ नोअसंयत-नोसंयतासंयत होय ते बांधे ? १८. उ०—गोयमा ! संजए सिय बंधइ, सिय नो बंधइ; १८. उ०—हे गौतम! कदाच संयत बांधे, कदाच न बांधे अस्संजए बंधइ, संजयासंजए वि बंधति; नोसंजय-नोअस्संजय- असंयत बांधे अने संयतासंयत पण बांधे, पण जे नोसंयतनोसंजयासंजये ण बंधति; एवं आउगवज्जाओ सत्त वि, आउगे नोअसंयत-नोसंयतासंयत होय ते तो न बांधे. ए प्रमाणे हेडिल्ला तिण्णि भयणाए, उवरिल्ले ण बंधइ... आयुष्यने वर्जीने साते कर्म प्रकृतिओ माटे जाणवू, आयुष्यकर्मना संबंधमां नीचेना त्रण-संयत, असंयत अने संयतासंयत माटे भजनाबड़े जाणवू-बांधे अने न. बांधे एम जाणवू अने उपरनो नोसंयतनोअसंयत-नोसंयतासंयत-अर्थात् सिद्ध-न बांधे. १. मूलच्छायाः-झानावरणीयं भगवन् । कर्म किं स्त्री यध्नाति, पुरुषो वध्नाति, नपुंसको बध्नाति; स्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसको बध्नाति ! गौतम! स्त्री अपि बध्नाति, पुरुषोऽपि बध्नाति, नपुंसक'ऽपि बध्नाति; नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसकः स्याद् बन्नाति, स्यात् नो बध्नाति; एवम् आयुष्कवर्जाः सप्त कर्मप्रकृतयः. आयुष्क भगवन् ! कर्म किं स्त्री बनात, पुरुषो बध्नाति, नपुंसको बध्नाति, पृच्छा ? गौतम ! स्त्री स्याद् यनाति, स्याद् नो बध्नाति, एवं त्रयोऽपि भणितव्याः, नोस्त्री-नोपुरुष- नोनपुंसको न बध्नाति. ज्ञान वरणीयं भगवन् ! कर्म कि संयतो बध्नाति, असंयतः, संयताऽसंयतो बध्नाति; नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासयतो बध्नाति ! गौतम! संयतः स्याद् बध्नाति, स्याद् न बध्नाति; असंयतो बध्नाति, संयतासंयतोऽपि बध्नाति; नोसयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयतो न बध्नाति; एवम् आयुष्कवर्जाः सप्ताऽपि, आयुष्कम् अधस्तनःस्त्रयो भजनया, उपरितनो न बध्नातिः-अनु. . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.--उद्देशक ३. २८० . १९. प्र०-णाणावरणिज्जणं भंते ! कम्मं किं सम्मदिद्वी १९. प्र०-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शुं सम्यग्दृष्टि बंधइ, मिच्छदिट्ठी बंधइ, सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ ? बांधे ? मिथ्यादृष्टि बांधे के सम्यमिथ्यादृष्टि बांये ? .१९. उ०-गोयमा ! सम्मदिट्ठी सिय बंधइ, सिय नो १९. उ०-हे गौतम! सम्यग्दृष्टि कदाच बांधे अने बंधइ, मिच्छदिट्टी बंधइ, सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ एवं आउग- कदाच न बांधे, मिध्यादृष्टि बांधे अने सम्यमिथ्या दृष्टि पण बांधे. वज्जाओ सत्त वि, आउए हेद्विला दो भयणाए, सम्मामिच्छट्टिी ए प्रमागे आयुष्य सिवायनी साले कर्म प्रकृतिओ माटे जाणवू, न बंधइ. आयुध्यमां नीचेना बे-सम्यग्दृष्टि अवे मिथ्यादृष्टि भजनावडे-कदाच न बांधे अने कदाच बांधे अने सम्पमिथ्या दृष्टि (तो सम्यगमिथ्या दृष्टिनी दशामां ) न बांधे. २०. प्र०-णाणावरणिज्जं कि सन्नी.बंधइ, असची बंध; २०.प्र०-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शुं संज्ञी जीव बांधे ? नोसनी-नोअसनी बंधइ ?. असंज्ञी जीव बधे ? के नोसंज्ञी अने नोअसंज्ञी बांधे ! २०. उ०-गोयमा ! सनी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ २०. उ०-हे गौतम ! संज्ञी कदाच बांचे अने कदाच न असन्नी बंधडनोसन्नी-नोअसनी न बंधइ, एवं वेयणिज्जा-5sउग. बांधे, असंज्ञी बांधे अने नोसंज्ञीनोअसंज्ञी जीव न बांधे. ए प्रमाणे वज्जाओ छ कम्मप्पगडीओ, वेयणिज्जं. हेडिल्ला दो बंधति, वेदनीय अने आयुष्य वीने छ कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू अने उपरिल्ले भयणाए, आउगं हडिल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले न बंधइ. वेदनीयने नीचेना वे संज्ञी अने असंज्ञी बधे अने उपरनो नोसं ज्ञीनोअसंज्ञी भजनावडे-कदाच बांधे अने कदाच न बांधे अने आयुष्यने नीचेना वे भजनाए बांधे अने उपरनो न बांधे, . २१.प्र०--णाणावरणिज्ज कम किं भवसिद्धिए बंधइ, २१. प्र०-हे भगवन् ! शुं भवसिद्धिक ज्ञानावरणीय कर्म अभवसिद्धिए बंधड़, नाभवसिद्धिअ-नोअभवसिद्धिए बंधइ ? बांधे ?, अभवसिद्धिक ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ? के नोभव सिद्धिक अने नोअभवसिद्धिक ज्ञानावरण कर्म बांधे ! २१.30-गोयमा ! भवसिद्धिए भयणाए, अभवसिद्धिए २१. उ०-हे गौतम! भवसिद्धिक भजनाए बांधे एटले बंधहः नोभवसिद्धिअ-नोअभवसिद्धिए न बंधइ, एवं आउग- कदाच बांधे अने कदाच न बांधे, अभवसिद्धिक ज्ञानावरण कर्म वज्जाओ सत्त वि, आउगं हेडिल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले न बांधे अने नोभवसिद्धिक अने नोअभवसिद्धिक न बांधे, ए प्रमाणे आयुष्य सिवायनी साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू, आयुष्य कर्मने नीचेना बे-भवसिद्धिक-भव्य-अने अभवसिद्धिक-अभव्य, ते भजनाए बांधे-कदाच बांधे अने न पण बांधे अने 'उपरनोनोभवसिद्धिक अने नोअभवसिद्धिक एटले भव्य नहि तेम अभव्य नहि अर्थात् सिद्ध, ते न बांधे. २२. प्र०--णाणावराणज्ज कम्मं किं चक्खुदंसणी, अचक्खु- २२. प्र०-हे भगवन् ! शु. चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, दसणी, ओहिदसणी, केवलदसणी? । अवधिदर्शनी अने केवलदर्शनी ज्ञानावरण कर्म बांध ! २२. उ०-गोयमो ! हडिल्ला तिण्णि भयणाए, उवरिल्ले न २२. उ०-हे गौतम ! हेठळना त्रण-चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुबंधड़, एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्त वि, वेयणिज्ज हेडिल्ला तिनि दर्शनी अने अवधिदर्शनी ए त्रण भजनाए बांधे एटले कदाच बंधति, केवलदसणी भयणाए. बांधे अने कदाच न बांधे, तथा उपरनो-केवलदर्शनी-ते न बांधे, ए प्रमाणे वेदनीय सिवायनी साते कमप्रकृतिओ माटे जाणवू, वेदनीयकर्मने नीचेना त्रण बांधे छे अने केवलदर्शनी कदाच बांधे अने कदाच न बांधे, बंधइ. १. मूलच्छायाः-ज्ञानावरणीयं भगवन् । कर्म किं सम्यग्दृष्टिर्बध्नाति, मिथ्यादृष्टिबंध्नाति, सम्यग्मिथ्याष्टिबध्नाति ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि: "स्था बध्नाति, स्याद् न बध्नाति; मिथ्यादृष्टिबध्नाति, सम्यग्मिध्यादृष्टिबध्नाति; एवम् आयुष्कर्जाः सप्ताऽपि, आयुष्कम् अधस्तना द्वा भजनया, सम्यगमिथ्यादृष्टिर्न बध्नाति. ज्ञानावरणीयं किं संशी बध्नाति, असंशी बध्नाति; नोसंशो-नोऽसंशी बध्नाति ! गौतम ! संज्ञी स्यद् बध्नाति, स्याद् न यिनाति, असंशी बध्नाति; मोसंज्ञी-मोऽसंशी न बध्नाति, एवं वेदनीया-ऽऽयुष्कवर्जाः षद कर्मप्रकृतयः, वेदनीयम् अधस्तना दी बनीतः, उपरितनो • भजनया, आयुष्क अधस्तनी द्वा भजनया, उपरितो न यध्नाति. ज्ञानावरणीयं कर्म किं भवसिद्धिको बध्नाति, अभवसिद्धिको बध्नाति; नोभवसिद्धिक• नोअभवसिद्धिको बध्नाति ? गौतम ! भवसिद्धिको भजनया, अभासिद्धिको बधाति, नोभवसिद्धिक-नोऽभवसिद्धिको न वभाति, एवम् आयुष्कवर्जाः सप्ताऽपि आयुष्कम् अधस्तना द्वा भजनया, उपरित नो न बध्नाति. ज्ञानावरणीयं कर्म किं चक्षुदर्शनी, अवक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, केवलदर्शनी ? गौतम ! . अधस्तनास्त्रयो भजनया, उपरितनो न बध्नाति, एवं वेदनीयवर्जाः सप्ताऽपि, वेदनीयम् अधस्तनास्त्रयो बन्नन्ति, केवलदर्शनी भजनयाः-अनु०. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक 8.-उदेशक ३. भगवासुधर्मस्मनिपाणीत भगवतीसूत्र, २६ २३. पृ० गावाणिज्ज, कम कि पज्जत्तओ बंधह, अ. २३. प्र हे समवन शुः पर्याप्त काशीव ज्ञानावरणीय कर्म पज्जत्तओ बंधइ, नोपज्जतय नोअपजाए बंधइ ? बांधे ! आर्याप्त जीव ज्ञानाचूरपति कर्म, संघ (फेमानोपर्याप्त अते दो अपर्याप्त जीव नानावस्या कर्म बांधे है २३. उ०-गोयमा । पज्ज़तए भयणाए, अपज्जतए बंध, २.३. ह. सातम् । सप्त जीत भजनाए ज्ञानावरणीय नोपज्जत्तय नोअपज्जत्तए न बधइः एवं आउग जाओ, आजगं कर्म बांधे, अपर्याप्त जीव ज्ञानावरग कमे बांचे अने नोपर्यात हविल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले नबंधइ तथा नोअपर्याप्त एटले सिद्ध जीव ज्ञानावरणीय कर्म न बांधे, ए प्रमाणे आयुष्यने व ने साो कर्मप्रकृतिओ माटे जाणबुं अने आयुष्यने नीचेना बे-पर्याप्त अने आर्याप्त-भजनाए बांधे. अने उपरनो-नोपर्याप्त तथा नो अपर्याप्त-सिद्ध न बांधे. २४. प्र०-णाणावरणं किं भासए बंधह, अभासए० २४. प्र०-हे भगवन् ! शु भाषक जीव ज्ञानावरण. कर्म बांधे ? के अभाषक बधेि ? २४. उ०-गोयमा । दो वि भयणाए, एवं वेदणिज- २४. उ०-है गौतम ! बन्ने-भाषक अने अभाषक ए बजाओ सत्त वि. वेदणिज भासए बंधई, अभासए भयणाए. बने-जीव ज्ञानावरण कर्म भजनाए. बांबे, ए प्रमाणे वेदनीय वृर्जीने साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवु अने वेदनीय कर्म भाषक बांधे तथा अभाषक वेदनीय कर्मने भजनाए बांधे. २५.प्र०-णाणावरणिज्ज किं परित्ते बंधइ, अपरित्ते बंधइ, २५. प्र०-हे भगवन् ! शुं परित्त-एक शरीरवाळो एक जीव, नोपरित्त-नोअपरित्ते बंधइ ! ज्ञानावरण कर्म बांधे ? अपरित्त जीव ज्ञानावरण कर्म बधे ! के - नोपरित्त तथा नोअपरित्त जीव ज्ञानावरण कर्म बंधे ! . २५. 10-गोयमा । परिते भयणाए, अपरित्ते बंधइ, २५. उ०-हे गैतम! परित्त जीव, भजनाए ज्ञानांवर ग नोपरित्तनोअपरित्ते न बंधइ; एवं आउगवजाओ सत्त कम्मण- कर्म बांधे, अपरित्त जीव ज्ञानावरण कर्म बांधे अने नो रित्त गडीओ, आउय परित्तो वि, अपरित्तओ वि भयगाए, नोपरित- तथा नोअपरित एटले सिद्ध जीव न बांधे, ए प्रमाणे आयुषने नोअपरित्तो न बंधइ. वर्जीने साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू, अने परित्त तथा अपरित ए बन्ने पण आयुष्य कर्मने भजनाए बांधे छे अने नोपरित तथा नोअपरित्त बांधतो नथी. २६. प्र०--णाणावरणिज कम्मं कि आभिणियोहियणाणी २६. प्र०—हे भगवन् ! शु आभिनिबोधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी बंधह, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवनाणी, केवलणाणी! अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी के केवलज्ञानी ज्ञानावरण कर्म बांधे ! २६. उ०--गोयमा ! हेडिल्ला चत्तारि भयगाए, केवल- २६. उ०--हे गीतम! हेठळना चार एटले मतिज्ञानी, णाणी न बंधह, एवं पेयणिजवजाओ सत्त वि, वेयणिजं हेदिल्ला श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी अने मनःपर्यवज्ञानी ए चार भजनाए चत्तारि बंधति, केवलणाणी भयणाए. बांधे छे अने केवलज्ञानी बांधतो नथी, ए प्रमाणे वेदनीयने वर्जीने बाकीनी सात कर्मप्रकृतिओ माटे जाणी लेवु अने वेदनीय कर्मने हेटळना चार बांधे छे अने केवलज्ञानी भजनाए बांधे छे.. २७. प्र०--णाणावरणिनं किं मइअनाणी बंधइ, सुयअ- २७. प्र०—हे भगवन् ! शुमतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी अने बाणि बंधह, विभंगअनाणि बंधइ ? विभंगज्ञानी ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ! २७. उ०--गोयमा! आउगवज्जाओ सत्त वि बंधति, आउगं २७. उ--हे गौतम ! आयुष्यने वर्जीने साते कर्म प्रकृतिओ भयणाए. बांधे अने आयुष्यने भजनाए बांधे. १. मूलच्छाया:-मानावरणीय कर्म कि पर्याप्तको बध्नाति, आयशप्तको बध्नाति, नोर्याप्तर-नोआर्याप्तको बध्नाति ! गातम ! पर्याप्तको भजनया, अपर्याप्तको वनाति, नोपर्याप्तक-नोऽपर्य प्तको न बघ्राति; एवम् अयुष्कवाः , आयुष्कम् अधस्तनी द्वा भजनया, उपरितनो न बन ति. भानावरणं किं भाषको बधाति, अभाषकः? गैातम ! द्वावपि भजनया, एवं वेदनी पर्जाः सप्ताऽपि. वेदनी भाषको बधाति, अभाषको भजनया. ज्ञानावरणीयं कि परीतो यनाति, अपरीतो बन्नाति, नोपरीत-नोआरी बनाति ? गौतम ! परी भत्रनया, आरीतो बनात, नोपरीत-नोऽपरी जो न बध्नाति; एवम् आयुष्कवाः सप्त कर्मप्रकृतयः, आयुष्क परीतोऽपि, आरीतोऽपि भवन या, नोरीत-नोऽपरितो न बध्नाति. मानावरणीयम् कर्म किम् आभिनिवाधिकज्ञानी बध्नाति, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यज्ञानी, केवलज्ञानी ? गैतम ! अबस्तनाश्चत्वारो भजनया, केवलज्ञानी न बध्नाति, एवं वेदनीयवर्जाः सप्ताऽपि, वेदनीयम् अधस्तनाश्चवारो बध्नन्ति, केवलज्ञानी भजनया. ज्ञानावरणीयं किं मत्यज्ञानी बनाति, श्रुताऽज्ञानी बध्नाति, 'भिरगज्ञानी बनाति ? गौतम! आयुष्कवीः सप्ताऽपि बध्नन्ति, आयुष्क भंजनया-अनु. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ २८. १० गावरण किं मणजोगी बंध, वयजोगी बंध, काययोगी बंद, अजोगी बंपर ? श्रीरामचन्द्र - जिनागमसंग्रहे २८. उ० -- गोयमा ! हिल्ला तिनि भयणाए, अजोगी न द एवं ओ पण हेडला बंधति, अभोगी नबंध. २९. प्र० - णाणावरणिभ्वं किं सागारोवडते पंधर, सणागारोव उत्ते बंधइ !. २९. उ०- गोगमा ! अव भगाए. ३०. प्र० गाणापरण कि आहारए बंध, अणाहारए पंप , ३०. उ०- गोगमा । दो भगाए एवं वणिज्जाऽऽउगाणं छह व आहारए पंप, अणाहारए मप गाए. आउ आहार भवणार, अनाहारए न पड़. ३१. प्र० णाणावर विं किं सुमे, बादरे पंप, मोहुम नोबादरे बंध ? २१. ० गोवमा डुवंपद पादरे भा एवं नि आउ हुये बांबरे याच मोनोरेन " ३२. प्र० णाणावरणवं किं चरिमें अंचरिमे बंध ३२. उ०- गोयमा ! अवि भयणाए. • शतक ६. - उद्दशेक ३. २८. प्र० - हे भगवन् ! शुं मनयोगी, बचनयोगी, काययोगी अने अयोगी ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ! २८. उ०- हे गौतम! हेठळना त्रण-मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगी, एत्रण भजनार नावरण कर्म बधि अने अयोगी ज्ञानावरणने न बांधे, एं प्रमाणे वेदनीय सिवायनी साते फर्मप्रकृतिओ माटे जामनुं अने वेदनीय कर्मने हेळना व्रण बधि अने अयोगी न बांधे. - २९. प्र० - हे भगवन् ! शुं साकार उपयोगवाळो के अनाकार उपयोगवाल्ये ज्ञानावरणीय कर्म बांधे २९. उ०- हे गौतम! आठे कर्म प्रकाओ भजनाए बांधे. ३०. प्र०-हे भगवन् ! शुं आहारक के अनाहारक जीव ज्ञानावरणीय फर्मने बचे ३०. ३० हे गीत बजे पण भजनार बांधे ए प्रमाने वेदनीय अने आयुष्य सिपनी छ कर्म प्रकृति माटे जाणवु, अते. वेदनीय कर्म, आहारक जीव बांधे तथा अनाहारक जीव भजना बांधे अने आयुष्यकर्मने आहारक जीव भजनाए बांधे तथा अनाहारक जीव न बांधे.. ३१. प्र० -- हे भगवन् ! शुं सूक्ष्म जीव, बादर जीव के नोसूक्ष्म-नोबादर जीव ज्ञानावरण कर्मने बांधे ! ए ३१. उ० - हे गौतम! सूक्ष्म जीव बांधे, बादर जीव भजनाए अनेनोप मोवादर जीवन बंधे ९ प्रमाणे आयुष्यने मूकीने साते कर्म प्रकृतिओ माटे पण जाणवुं अने आयुष्यकर्मने सूक्ष्म जीव अने बादर जीव, ए बने भा भजनाए बांधे छे, तथा नोसूक्ष्म-नोबादर जीव-सिजना जीवनी बांधता ', , , ६. खीद्वारे गाणांवरणं भंते! कम्पं कि इरथी ? इत्यादि प्रश्नः तत्र न खी न पुरुषः, न नपुंसको वेदोदवरहितः स चाऽनिवृत्तिवादर संपरायप्रभृति गुणस्थानकवर्ती भवति तचानिवृत्तिवादवराव सूक्ष्मसंपरा ज्ञानावरणीय बन्धकी सप्तविध-पविधबन्धकत्वात् उपशान्तमोहादिस्तु अवन्धकः- एकविधबन्धकत्वात्, अत उक्तम्: स्याद् बध्नाति स्यान्न बध्नाति आउगे येते इत्यादि प्रश्नः तत्र पावित्र्यमायुः स्याद् यजाति स्थान बनात-बात अवधकाले तु न बध्नाति इति - आयुषः सकृदेव एकत्र भवे बन्धात् निवृत ख्यादिवेदस्तु न बध्नाति - निवृत्तिवादर संपरायादिगुणस्थानकेषु आयुर्बन्धस्य संयतः आयसंयमचतुष्टयवृत्तिर्ज्ञानावरणं बध्नाति यथाख्यातसंयमसंयतस्तु इत्यादि असतो यायादिः संवतासंपतस्तु देशनिरतः ती चवशः ', व्यवच्छिन्नत्वात् संयतद्वारे :-' णाणावरणिज्जं ' इत्यादि उपशान्तमोहादिर्न बजाति अत उक्तम्: संजने सिव ३२. प्र० - हे भगवन् ! शुं चरम जीव के अचरम जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ? ३२. उ० हे गौतम! ए बने जीव आटे कर्मप्रकृतिओने भजनार यांचे. नाक मनोयोगात १. रोगी बजाति, काययोगी बजाति योगी बना अयोगी' न वध्नाति, एवं वेदनीयवर्णाः, वेदनीयम् अधस्तना बध्नन्ति, अयोगी न बध्नाति ज्ञानावरणीयं किं साकारोपयुक्तो बध्नाति, अनाकारोपयुक्तो बध्नाति ? गौतम | असु अपि भंजनया. ज्ञानावरणीयं किम् आहारको बध्नाति, अनाद्दारको बन्नाति ? गेोतम । द्वावsपि भजनया, एवं वेदनीयाssयुष्कवजीनां षण्णाम्, वेदनीयम् आहारको बध्नाति अनाऽऽद्दारको भजनया; आयुष्कम् आहारको भजनया, अनाहारको न बध्नाति ज्ञानावरणीयं कि सूक्ष्म बाद प्रप्नाति नसूक्ष्मजीवाद बच्चाति गोम सूक्ष्म बच्चात बाद मोबाइन एवम् आयुष्कवः सप्ताऽपि आगुडं सूक्ष्म बाद भगवा इति नोदमनोवाद नबध्नाति ज्ञानावरणी 15 चरम अपरमो बनावि गौतम ! अष्टाऽपि भजनयाः अनु० " : Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक रे. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतं सूत्र. २८३ निषिद्धसंयमादिभावस्तु सिद्धः, स च न बध्नाति-हेत्वभावाद् इयर्थः. 'आउगे हेडिल्ला तिनि भयगार' ति. संयतः, असंयतः, संयतासंयतश्च आयुर्वन्धकाले बध्नाति, अन्यदा तु न इति भजनया इत्युक्तम् . ' उवारले न बंध' ति संयतादिषु उपरितनः सिद्धः, स चाऽऽयुन बन्नाति. सम्यग्दृष्टिद्वारे:-' सम्मदिवी त्तिय बंध' त्ति सम्पदृष्टिवीतरागः, तदितरश्च स्य त् । तत्र वीतरागो ज्ञानावर गं न बध्नाति-एकविधबन्धकत्वात् ; इतरश्च बध्नाति इति स्याद् इत्युक्तम् . मियादृष्टि-मिश्रदृष्टी तु बध्नीत एव इति. 'आउए हेडिल्ला दो भयणाए ' ति सम्यग्दृष्टि-मिध्यादृष्टी आयुः स्याद् बन्नीतः, स्यान्न बध्नीत इत्यर्थः. तथाहिः-सम्यग्दृष्टिरपूर्वकरणादिरायुर्न बध्नाति, इतरस्तु आयुर्बन्धकाले तद् बध्नाति, अन्यदा तु न बध्नाति. इयेवं मिथ्यादृष्टिरपि, मिश्रदृष्टिस्तु आयुर्न बन्नाति एवं-तद्वन्धाऽध्यवसायस्थानाऽभावादिति. संज्ञिद्वारे:-'सनी सिय बंधइ' ति संज्ञी मनःपर्य:प्तियुक्तः, स च यदि वीतरागस्तदा ज्ञानाऽऽवरण न बध्नाति, यदि पुनरितरस्तदा बध्नाति; ततः स्याद् ' इत्युक्तम् . ' असन्त्री बंधइ ' त्ति मनःपर्याप्तिविकलो बध्नात्येव. 'नोसनी-नोअसनि 'त्ति केवली, सिद्धश्च न बध्नाति-हेत्वभावात् . वेयगिज्ज होल्ला दो बंधति ' ति संज्ञी, असंज्ञी च वेदनीयं बनीतः, अयोगिसिद्धवर्जानां तद्वन्धकत्वात् . ' उवरिल्ले भयणाए ' ति उपरितनो मोसंज्ञी-नोअसंज्ञी, स च सपोगा-ऽयोगकेवली, सिदश्व, तत्र यदा सयोगकेवली तदा वेदनीयं बध्नाति, यदि पुनरयोगिकेवली, सिद्धो वा तदा न ब गति, अतो भजनया इत्युकम् . * आउगं हेडिल्ला दो भयणाए' ति संज्ञी, असंज्ञी चाऽऽयुः स्याद् बनी:-अन्तर्मुहमिव तद्वन्धनात् . 'उरिल्ले न बंध. त्ति केवली, सिद्धश्चाऽऽयुर्न बध्नातीति. भवसिद्विकद्वारे- भद्धिर भयगाए ' त्ति भवसिद्धिको यो वीतरागः-स न बनाने ज्ञानावरणम् , तदन्यस्तु बध्नाति-इति भजनया इत्युक्तम् . 'नोभवसिद्धिअ-नोअभवसिद्धि 'त्ति सिद्धः स च न बध्नाति, 'आउयं होहल्ला दो भयणाए ' त्ति भव्यः, अभव्यश्च आयुर्वन्धकाले बनीतः, अन्यदा तु न बनीत इत्यो भजनया इन्युक्तम् . ' उवरिल्ले न बंधइ ' त्ति सिद्धो न बनाति-इत्यर्थः. दर्शनद्वारे:-' हेडिल्ला तिनि भयगाए ' त्ति चक्षु-रचक्षु-रवाधिदर्श नेनो यदि छमस्थवीतरागास्तदा न ज्ञानावरणं बध्नन्ति-वेदनीयस्यैव बन्धकत्वात् तेषाम् , सरागास्तु बध्नन्ति, अतो भजनया इत्युक्तम् . ' उवरिले न बंधइ ' ति केवलदर्शनी भवस्थः, सिद्धो वा न बध्नाति-हेत्वभावाद इत्यर्थः. 'वेयाणज्ज हेहिल्ला तिनि बंधति ' ति आपस्त्रयो दर्शनिनः-छप्रस्थ-वीतरागाः, सरागाश्च वेदनीयं बनन्त्येव. केवलदसणी भषणाए 'ति केवलदर्शनी सपोगी केवली बनाति. "अयोगी केवली, सिद्धश्च वेदनीयं न बध्नातीति भजनया इत्युक्तम् . पर्याप्तकद्वारे:-'पज्जत्तए भयगाए ' ति पप्तिको वीतरागः, सरागश्च स्यात् . तत्र वीतरागो ज्ञानावरणं न बनाति, सरागस्तु बध्नाीि , ततो भजनया इत्युक्तम् . ' नेपिज्ज तय-नोभाज्जतए न बंधइ ' ति सिद्धो न बनातीत्यर्थ:. ' आउगं होहल्ला दो भयणाए 'त्ति पर्याप्तका-ऽपर्याप्तको आयुस्तद्वन्धकाले बन्नीतः, अ यदा न इति भजना, ' उवरिल्ले न' इति सिद्धो न बध्नाति इत्यर्थः. भापकद्वारे 'दो वि भयगाए 'त्ति भाषको भाषालन्धिनान् , तदन्यस्तु अभाषकः. तत्र भाषको वीतरागो ज्ञानावरणीय न बनाति, सरागस्तु बध्नाति. अभाषकस्तु अयोगी, सिद्धश्च न बनाति, पृथिव्य दयः, विग्रहगयाऽऽपन्नाश्च बनतीति-दो वि भयणाए' इत्युक्तम् . 'वेयणिज्ज भासए बंधइ' ति सयोग्यवसानस्याऽपि भाषकस्य सद्वेदनीपबग्धकत्वात्. 'अभासए भयणाए 'ति अभापकरतु अयोगी, सिद्धश्च न बध्नाति. पृथिव्यादिकस्तु बध्नातीति भजना. परीत्तद्वारे:-' परित्ते भयणाए'ति परीतः प्रत्येकशरीरः, अल्पसंसारो वा-स च वीतरगोऽपि स्यात् , न चाऽसौ ज्ञानावरणीयं बध्नाति, सरागपरीतस्तु बनातीत भजना. ' अपरित्ते बंधा ' ति आरीत्तः साधारणकाय:, अनन्तसंसारो वा-स च बध्नाति. 'नोपारत्त-नो अपरित्ते न बंधड़ 'त्ति सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः. 'आउयं परित्तो वि, अपरित्तो वि भयणाए'ति प्रत्येकशरीरादिरायुर्वन्ध काले एवं आयुर्वधातीते, नतु सर्वदाततो भजना इति.सिद्धस्तु न बायेव इत्यत आहः-'नोपारेत्त-' इन्यादि. ज्ञानद्वारे:-'हेविल्ला चकारे भयणाए 'त्ति अभिनिबोधिक ज्ञानप्रभृतयश्चत्वारो ज्ञानिनों ज्ञानावरणीयं वीतरागाऽवस्थायां न बनान्त, सरागाऽवस्थःयां तु बध्नन्तीति भजना. 'वेयणिज्ज हेहिल्ला चत्तरि वि बंधति ति वीतरागाणामगि छमस्थानां वेदनीयस्य बन्धकत्वात् . ' केवल गाणी भयणाए' ति सयोगिकेवलिना वेदनीयस्य बन्धनात् , अयोगिनाम् , सिद्धानां चाऽबन्धनाद भजना इति. योगद्वारे:-'डिल्ला ताण भयणाए 'ति मनो-बाक्-काययोगिनो ये उपशान्तमोहक्षीणमोह-सयोगिकेवलिनस्ते ज्ञानावरणं न ब ति, तदन्ये तु बध्नन्तीति भजना. 'अजोगी न बंधइ 'ति अयोगी अयोगिफेवली, सिद्धश्च न बध्नाति इत्यर्थः. 'वेयणिज हेडिल्ला बंधात 'ति मनोयोग्यादयो बध्नति, सयोगानां वेदनीयस्य बन्धमत्वात् , ' अजोगी ण बंधह' त्ति अयोगिनः सर्वकर्मणाम् अबन्धकत्वाद् इति. उपयोगद्वारे:- अट्ठसु वि भयगाए ' ति साकारा-ऽनाकरी उपयोगी सयोगानाम् , अयोगानां च स्याताम्-तत्र उपयोगद्वयेऽपि सयोगा ज्ञानावरणादिप्रकृतीयथायोग बध्नन्ति, अयोगास्तु न-इति भजना इति आहारक द्वारे:-'दो वि भयेणाए' ति आहारको वीतरागोऽपि भवति, न चाऽसौ ज्ञानावरणं बध्नाति, सरागस्तु स बध्नातीति आहारको भजनया बनाति. तथा अनाहारकः केवली, विग्रहगत्याऽऽपन्नश्च स्यात्-तत्र केवली न बध्नाति, इतरस्तु बध्नातीति-अनाहारकोऽपि भजनया इति. 'यणिज्ज आहारए बंधइ ' ति अयोगिवर्जानां सर्वेषां वेदनीयस्य बन्धकत्वात् . 'अणाहारए भयगाए 'ति अनाहारको विग्रहगल्याऽऽपन्नः, समुद्घातगतकेवली च बध्नाति, अयोगी, सिद्धश्च न बध्नाति इति भजना. .' आउए आहारए भयणाए । ति आयुर्वन्धकाले एवाऽऽयुषो बन्धनात् , अन्यदा त्वबन्धनाद् भजना. इति. 'अणाहारए ण बंधइ.' ति विग्रहगतिगतानामपि . Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक ३. आयुष्कस्याऽबन्धकत्वादिति. सूक्ष्मद्वारे ‘बायरे भयणाए ' ति वीतरागबादराणां ज्ञानावरणस्याऽबन्धकत्वात् , सरागबादराणां च बन्धकत्वाद् भजना इति. सिद्धस्य पुनरबन्धकत्वाद् आह:- नोसुहम-'इत्यादि. ' आउए सहमे, बायरे भयणाए 'त्ति बाधकाले बन्धनात् , अन्यदा त्वबन्धनाद् भजना इति. चरमद्वारे:- अट्ट वि भयणाए ' ति इह यस्य चरमो भो भविष्यतीति स चरमः, यस्य तु नाऽसौ भविष्यति सोऽचरमः, सिद्धश्चाऽचरमः, चरमभवाऽभावात् , ता चामो यथायोगम् अष्टाऽगि बध्नाति, अयोगिवे तु नः इत्येवं भजना. अचरमस्तु संसारी अष्टाऽपि. बध्नाति सिद्धस्तु न इत्येवमत्राऽपि भजना इति. खीद्वार..६. स्त्रीद्वारमा [.'णाणावरणिजं णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ? ' इत्यादि.] प्रश्न छे. तेमां, वेदना उदय विनानो एटले जे जीव शरीरे न स्त्री-न पुरुष- करीने कदाच स्त्री, पुरुष के नपुंसक होय परंतु स्त्रीत्व, पुरुषत्व के नपुंसकत्वने लगता विकार (वेद) विनानो होय ते न स्वी, न पुरुष अने न न-नपुंसक. नपुंसक कहवाय अने ते, अनिवृत्तिवादरसंपरायादि गुणस्थानकमां होय छे अने तेमां अनिवृत्तिवादरसंपराय अने सूक्षासं रायने जनावरणीयना बंधक कह्या छे. कारण के, ते सप्तविध कर्मना के षड्विधर्मना बंधक छे अन उपशांतमोहादि गुणस्थानकवाळो ते न स्त्री, न पुरुष अने न न सकरूप महात्मा तो तेनो अबंधक छे, कारण के, ते एकविंध कर्मनो बंधक छे माटे ज को छे के, कदाच बाये अने कदाच न बंधे. [ आउगे णं भंते !' अ युष्य. इत्यादि ] प्रश्न छे, तेमां स्त्री वगरे ए त्रणे जीवो आयुष्य बांधे अने न बांधे एटले आयुष्य-बंधकाले बांधे अने ज्यारे आयुष्यनो बंधकाळ न होय त्यारे न बांधे, कारण के, एक भवमा आयुष्य एक ज बार बंधाय छे. अने जे ख्यादिवेद रहित छे ते तो बांधतो नथी, कारण के, निवृत्तिवादरसंपराय संयतदार, वगेरे गुणस्थानकोमा आयुष्य-बंधनो व्यवच्छेद थाय छे. संयतद्वारमा ['णागावरणिजं' इत्यादि. ] प्रथमना चार संयममां-सामायिक, छेदोमार-संयम, पस्थापनीय, परिहारविशुद्धि अने सूक्ष्मसंपराय संयममा रहेनारो संयत जीव, ज्ञानावरण बाधे छे अने यथाख्यात संयममा रहेनारो संयत तो उपशांत मोहादिवाळो होवाथी बांधतो नथी माटे कयुं छे के, [संजए सिय ' इत्यादि. ] अर्थात् संयत कदाच बांधे अने कदाच न बांधे. असंयत न संयत-न असंत एटले मिथ्यादृष्टि वगेरे अने संयतासंयत एटले तो देशविरत, ते बन्ने बांधे. जेने संयमादि भाव निषिद्ध छे अर्थात् जे संयत नथी, असंयत नथी न संप्तासंयत. अने संयतासंयत पण नथी तेवो तो सिद्ध छे ते न बांधे, कारण के, तेने कर्म बंधननो कोइ तु होतो नथी. [ ' आउगे हेहिल्ला तिन्नि भयणाए' ति] संयत, असंयत अने संयतासंयत, आयुष्यबंधकालमां-आयुष्य बांधवानी वेगए-आयुष्यने बांधे, अन्यदा-ते सिवायना काळमां-न बांधे, माटे तेओने आयुष्यनो बंध भजनाए करो छे. [' उवरिल्ले न बंधइ ' त्ति ] संयतादिमां उपरितन सिद्ध छे अने ते आयुष्य बांधतो नथी. सम्पदधिकार सम्यग्दृष्टिना द्वारमा [ ' सम्मदिट्ठी सिय बंधइ 'त्ति ] सम्यग्दृष्टि, वीतराग पण होय अने तेथी भिन्न--सराग-पण होय, ते बेमां वीतगग सम्यग्दृष्टि, ज्ञानावरण बांधतो नथी, कारण के, ते एकविध कर्मनो बंधक छे, अने सराग सम्यग्दृष्टि तो ज्ञानावरण बांधे, माटे कयु छ के, सम्यग्दृष्टि, मिथ दृष्टि मिश्रदृष्टि, ज्ञानावरण कदाच बांधे अने कदाच न बांधे. मिथ्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टि ते बन्ने तो बांधे ज. [ 'आउए हिला दो भयणाए 'ति] सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टि कदाच आयुष्य बांधे अने कदाच न बांधे, जम के, अपूर्वकरणादि सम्यग्दृष्टि आयुष्य न बांधे अने बीनो तो एटले तेथी भिन्न सम्यग्दृष्टि, • आयुष्यना बंधकाळे आयुष्य बांधे अने अन्यदा तो न बांधे अने मिध्यादृष्टि पण ए प्रमाणे एटले आयुध काळे आयुष्य बांधे अने अन्यदा न संशिद र. बांधे तथा मिदृष्टि तो आयुष्य बांधे ज नहि-कारण के, ते मिश्रदृष्टिने, आयुष्य बंशका अध्यवसाय स्थाननो अभाव छे. संज्ञिद्वारमा [' सन्नी संती. सिय बंधइ 'त्ति ] मनःपर्याप्तिवाळो-संजी-जीव, ते जो वीतराग होय तो ज्ञानावरण न बांधे अने जो तदितर-सराग-होय तो बांधे, तेथी अमरज ' खात्-कदाचित् ' एम कर्तुं छे. [ 'असन्नी बंधइ' ति ] मनःपर्याप्ति विनानो असंज्ञी जीव ज्ञानावरण बांधे ज. [ 'नोसन्नी-नोअसन्नि ' त्ति ] नोसंबी- संशी संज्ञी पण नहि अने असंज्ञी पण नहि एवो केवली या सिद्ध होय अने ते न बांधे, कारण के, तेने बंधननां कारणो नथी. [ 'वेगिज हेढिल्ला दो बंधति 'त्ति ] संज्ञी अने असंज्ञी ए बन्ने वेदनीयने बांधे छे, कारण के, अयोगी अने सिद्ध-र बन्ने सिवायना दरेक जीवो वेदनीयना बंधक होय छे. [' उवरिले भयणाए 'त्ति ] उपरनो एटले संज्ञी नहि अने असंज्ञी नहि अर्थात् सयोगिकेवली, अयोगिकेवली अने सिद्ध, ते त्रणमां जो सयोगिकेवली होय तो वेदनीय बांधे, जो वळी अयोगिकेवली अने सिद्ध होय तो न बांधे माट भिजनाए बांधे' एम कर्जा छे. [ 'आउगं हेछिल्ला दो भयणाए 'त्ति ] संज्ञी अने असंज्ञी कदाच आयुष्य बांधे, कारण के, अन्तर्मुहूर्तमा ज आयुष्य, बंधन थाय छे(?). [ ' उवरिल्ले न बंधइ ति] उपरना एकले केवली अने सिद्ध, ए बन्ने आग्रुष्य न बांधे. भवसिद्धिकद्वारमा [ ' भवसिद्धिए भयणाए ' त्ति ] जो भवसिद्धिक वीतराग होय तो ते ज्ञानावरण न बांधे अने तदन्य-उद्मस्थ-होय तो ते छद्मस्थ-भव्य बांधे माटे 'भजनाए बांधे' एम कडा . [ 'नोभवसिद्धिअ-नोनो अभ सिद्धिक अभवसिद्धिए ' वि] भवसिद्धिक नहि अने अभवसिद्धिक नहि ते तिच, अने ते न बांधे. [' आउयं हेछिल्ला दो भयणाए ' तिभव्य अने अभव्य, आयुष्य-बंध काळे आयुष्य बांधे अने बीजे काळे तो न बांधे, माटे 'भजनाए बांधे' एम का ले. [ ' उवरिले न बंधइ ' ति] सिद्ध नथी दर्शनद्वार. बांधतो. दर्शनद्वारमा [ ' हटिला तिन्नि य भयणाए ' त्ति ] चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी अने अवधिदर्शनी ए बधा जो छद्मस्थ वीतराग होय तो ज्ञानावरण नथी यांचता, कारण के, तेओ वेदनीयना ज बंधक होय छे, जो तेओ सराग होय तो बांये छ, माटे कयु छ के, भजनाए वांधे केव-दर्शनी. छ' [' उवरिले न बंधइ 'त्ति ] भवमा रहेलो केवलदर्शनी अने सिद्ध ते बन्ने नथी बांधता, कारण के, तेओने कर्म बंधना हेतुओ होता नथी. [: वेयणिज हेडिल्ला तिन्नि बंधति ' ति] प्रथम त्रण दर्शनवाळा छद्मस्थ वीतरागो अने सरागो, तेओ वेदनीय बांधे ज छे. [' केवलद'सणी भयणाए 'त्ति ] केवलदर्शनवाळो सयोगी केवली बांधे छे अने अयोगिकेवळी अने सिद्ध वेदनीय कर्म नथी बांधता, माटे । भजनाए बांधे छे' एम का छे. पर्याप्तक द्वारमा [''पज्जत्तए भयणाए ' ति] वीतराग अने सराग ए बन्ने पर्याप्त होय छे. तेमां वीतराग पर्याप्त ज्ञानावरण जोन बांधे अने सराग पर्याप्त तो बांधे माटे का छे के, भजनाए बांधे.' ['नोपजातय-नोअपज्जत्तए न बंधइ ' ति] नोपर्याप्त अने नो अपर्याप्त एटले सिद्ध न बांधे. [ ' आउग हटिला दो भयणाए 'त्ति ] पर्याप्त अने अपर्याप्त ए. बन्ने आयुष्यना बंधकाळे आयुष्य बांधे अने र अन्यदा न बांधे, माटे भजना कही छे. ['उबरिले न' इति] सिद्ध न बांधे. भाषकद्वारगां [ 'दो वि भयगाए 'त्ति ] भाषालब्धिवाळो ते भाषक अने तेथी अन्य ते तो अभाषक, ते बेमां वीतराग भाषक शनावरणीय न बांधे, अने सराग भाषक तो बांधे अने अभाषक ते तो अयोगी विग्रहगति, अने सिद्ध ते बन्ने न बांधे तथा विग्रहगतिने प्राप्त एवा अभाषक पृथिवी वगरेना जीवो बांधे माटे ['दो वि भयणाए '] ' बन्ने भजनाए बांधे। भवरितिकवार, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतात. ६...उद्देशक ३. भगवसुधमस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २८५ ए प्रमाणे कयुं छे. [ वेयणिज भासए बंधइ ' ति ] भाषक जीव वेदनीय बाधे छे. कारण के, सयोगिना अवसानवाको पण भाषक सवदनीयन बाँधे छे. [ ' अभासए भयगाए ' ति ] अयोगी अने सिद्ध ए बन्ने अभाषक होय छे, अने तेओ बांधता नथी तथा पृथिवी वगरे अभाषक तो भाषक. बांध छे माटे ए प्रमाण भजना छे. परित्तद्वारमा [ 'परित्ते भयणाए ' ति ] परीत एटले एक शीखाळो जीव अथवा अल संसारखाळो जीव ते पारना वीतराग पग होय अने तेवो परीत वीतराग, ज्ञानावरणीय कर्म बांधतो नथी अने सराग परीत तो बांधे -ए प्रमागे भजना छे. [ अपरित्ते बंधइ ' ति ] अपरित्त एटले साधारणकाय अर्थात् जे जीव अनंतजीवो साधे एक शरीरमा रहेतो होय ते अश्या अनंत सस:वाळो ते अपरित्त- अपरित्त. ते बन्ने बांधे छे. [ 'नोरित-नोआरिते न बंध' ति] परित नहि ते. परित. नहि अर्थात् .सिद्ध बांधतो नथी. [ आउयं परित्तो वि, नोपरित्त-नोअपरित, आरित्तो वि भयणाए 'त्ति ] प्रत्येक शरीरादि जीव आयुष्यना धकाळे ज आयुष्य धेि छ पण सर्वदा नथी बांधतो माटे ' भजना' कही छे. सिद्ध तो बांधे ज नहि, माटे कगु छे के, [ 'नोपरित-' इ.यादि ] ज्ञानद्वारमा [ ' हेहिल्ला चनारि भयणार 'लि) आभिनिगेधिक ज्ञानी कोरे शानद्वार. चार ज्ञानीओ वीतरागावस्थामा ज्ञानावरणीयने बांधता नथी अने तेना तेज च र ज्ञानीओ सरागावस्थामां तो ज्ञान,वरणीय कर्मने बांध छे, ए प्रमाणे मयादि बार शानभजना छे. [ ' वेयणिजं हेहिला चत्तारि वि बंधति 'त्ति ] हे.ना चारे पण वेदनीयने बांये छे, कारग के, छद्मस्थ वीतरागो पण वेदनीयना बंधक वाळा वीतरागो. छ. [ 'केवलणाणी भयणाए 'ति] केवलज्ञानी भजनाए बांधे छे, कारण के, सयोगिकेवळी वेदनीयना बंधक छे अने अयोगिकेवळी तथा द्धि वेदनीयना अंबंधक छे मारे मजना कही छे. योगद्वारमा [ ' हेछिल्ला तिणि भय गाए ' ति] मन, वचन अने काययोगिओ, जओ उपशांतमोह गुण- योगदार. स्थानकंगळा अने क्षीगमोह गुगरथानकपाळा सयोगिक पलि भो छ तेओ ज्ञानापरण बांधता न पी अने तान्य तो बांधे छ, माटे तेमां भजना कही छे, [ 'अजोगी न बंधइ ति ] अयोगी एट अयोगिवली अने सिद्ध बांधता नथी. [ 'वेयणि हेहिला बंधाते 'त्ति ] मनोयोगी वगेरे बांधे छे, कारण के सयोग जीवो वेदनीयना बंधक छे, [ ' अजोगी ण बंधइ ' ति] अयोगी बांधता नथी, कारण के, अयोगी र्मा कोना अबंधक छे. उपयोग. द्वारमा [ · अवि भयणाए ' त्ति ] सयोग अने अयोग, ए यन्नेने साकार अने अनाकार उपयोग होय छे, ते पन्ने उपयोगनां पण सयोग जीवो उपयोगदार-7 करज्ञानावरणादि प्रकृतिओने यथायोग वांधे छे अने अयोगजीवो तो नथी बांधता, एम भजना कही छे. आहारकद्वारमा [ 'दो वि भयणाए ' ति ] अ कार उपयोग. वीतराग पण आहारक होय छे अने ए ज्ञानाधरण बांधतो नथी, सराग आहारक तो बांधे छे, ए प्रमाणे आहारक भजनावडे धि छे, तथा अनाहारक अहारका र. केवली अने विग्रहगतिने प्राप्त जीव ए बन्ने अनाहारक होय छे-तेमां केवली न बांधे अने बीजो तो धेि छे, ए प्रमाणे अनाहारक पण भजनावडे बांधे छे, [ 'वेयणि आहारए बंधइ ' ति ] आहारकजीव, वेदनीय बांधे छे, कारण के, अयोगी सिवायना दरेक जीवो वेदनीयना बंधक छे. [ · अणाहारए भयणाए ' ति ] विग्रहगतिने प्राप्त जीव, समुद्घात प्राप्त केवली, अयोगी अने सिद्ध ए क्धा अनाहा'क होय छे, तेमां विग्रहगति प्राप्त जीव अने समुद्घातगत केवळी, ए वन्ने वेदनीयने वधि छे अने अयोगी अने सिद्ध नथी धिता-ए. प्रमाणे भजना छे. ['आउए आहारए भयगाए' त्ति ] कारण के, आयुप्यना बंधकाळ ज आयुष्य धाय छे अने वीजा काळे तो तेनुं बंधन थतुं नथी, माटे भजना छे. [ ' अणाहारए ण बंधइ ' ति] अनाहारक बांधतो नथी, कारण के, विग्रह गतिने प्राप्त जीवो पण आयुष्यना अधिक छे. सूक्ष्मद्वारमा [' दायरे भयणार' ति] वीतराग सूक्ष्मद्वार, हादरो, ज्ञानावरणना आंधक छे अने: सराग बादरो ज्ञानावरणना धक छे माटे भजना. कही छे. वळी, सिद्ध तो अधिक होवाथी कहे छे के, [ 'नोसुहुम-' इत्यादि.] [ 'आउए सुहुमे, दायरे भय गाए 'ति ] कारण के, काळे बंधाय छे अने वीजे काळे तो नथी धातुं माटे नोसूक्ष्म-नो बादर. भजना कही छ, चरमद्वारमा [' अढवि भयगार 'त्ति ] जनो चरम-छेलो-भव थवानो छे तेरे अहिं चरम कहेवो, अने जेनो छेहो भव थवानो चरमद्वार. वथी एटले जे चरम जेवो नथी तने अचरम कहियो तथा सिद्धने अचरम कहयो, कारण के, सिद्धने हवे-सिद्ध थया पछी-छेल्लो भव नथी तेमां अच म. चरम जीव यथायोग आठे कर्म प्रकृतिओने पण बांधे छे अन चमरजीवन अयोगिपणु हेय अर्थात् जो चरम जीव अयोगी होय तो नथी बांधतो ए प्रमाणे भजना छे, अचरम जो संसारी लइए एटले अभव्य लइए तो ते अचरम आठे पण कर्म-प्रकृतिओने बारे छे अने जो अचरम एटले . 'सिद्ध ' लइए तो ते कोई कर्म-प्रकृतिन नथी बांधतो-ए प्रमाणे अहीं पण भजना जाणवी. वेदकोनुं अल्पबहुत्व. ३३. प्र०-ऐएसिणं मंते ! जीवाणं इत्थीवेयगाणं, परिस- ३३ प्र०--हे भगवन् ! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक वेयगाणं, नपुंसगवेयगाणं, अवेयगाण य.कपरे कपरेहितो? अने अवेदक, ए बधा जीवोमां क्या क्या जीच, कोना कोनाथी अल, बहु. तुत्य अने विशेषाधिक छे! ३६. उ०-गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा परिसवेयगा, ३३ उ०-हे गौतम ! सौथी थोड। पुरुषवेदक जीवो छे, इथिवेयगा. संखेज्जगुणा, अवेदगा अणतंगणा, नसगयेयगा तेनाथी संख्येयगुण स्त्रीवेदक छे, अवेदक अनंत गुण छे अने अणंतगुणा.. नपुंसकवेदक अनंतगुण छे. --एएसि सव्वंसि पदाणं अप्प-बहुगाई उचाई गज्याई, जाव- -ए बधा पदोनों अरूपबहुत्वो कहेवां यावत् सौथी थोडा सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, चरिमा अगतगुणा. अचरम जीयो छे अने चरम जीवो अनंतगुण छे. १. मूलच्छाया:-एते भगवने ! 'जीवानां स्त्रीवेद कानाम् , पुरुषोदकाम् , नपुंसकवेदकानाम् , अवेद हानां च कतरे कतरेभ्यः ? गौतम ! स्तोका जीया पुरुषवेदकाः, स्त्रीवेद।।: संख्येयगुणाः, अवेदका अनन्तगुणाः, नपुमकवेदका अनन्तगुणाः एतेषां सर्वेषां पदानाम् अल्प- बहुल कानि उच्चारयितव्यानि, यावत्-सर्वस्त का जीवा अचरमः, घरमा अनन्तगुणा:-अनु० . Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ —सेवं'. भंते !, सेबं भंते ! त्ति. श्रीरामचन्द्र-जिनागमसंग्रहे - शतक ६.- उद्देशक ३. - हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे ( एम कही यावत् विचरे छे. ) भगवंत - अब्ज सुम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुते छहसये तइओ उद्देसो सम्मत्तो. 6 ८ " दूतमेश ७. अथ अला- बहुत्वद्वारम् ः- तत्र ' इत्थवेयगा संखेज्जगुण ' त्ति यतो देव-नर- तिर्यक्पुरुषेभ्यस्तत् स्त्रियः क्रमेण द्वात्रिंशत्सप्तविंशति- त्रिगुणा द्वात्रिंशत्-सप्तविंशति- त्रिरूपाऽधिका भवन्तीति अदगा अनंतगुणचि अनिवृतिवादरपरायादयः सिद्धाश्च अवेदाः, अतस्ते - अनन्तत्वात् स्त्रीवेदेभ्योऽनन्तगुणा भवन्ति 'नपुंसगवेयगा अनंतगुग' ति अनन्तकायिकानां सिद्धेभ्योअनन्तगुणानामिह गणनादिति एएसि सम्मेसिं इत्यादि एतेषां पूर्वोक्तानां संयतादीनां चरान्तानां चतुर्दशानां द्वारा ऽपेक्षया अल्प-बहुत्वम् उच्चारयितव्यम्, तद्यथाः " एएसि णं भंते ! संजयागं, असंजयागं, संजया संजयाण, नोसंजय - नोअसंजयनोसंजया संजयाणं कयरे, कयरोहिंतो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा विसेसा ? गोयना ! सव्वत्योवा संजया, संजया संजया असंखेज्जगुणा, नोसंजय - नो असंजय - नोसंजया संजया अनंतगुणा, असंजया अनंतगुणा. इत्यादि प्रज्ञापनाउनु नगरेण वाम्यम्-पाववरमाद्यल्प - बहुत्वम्. एतदेवाऽऽहः - ' जाब- सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा ' इत्यादि. अत्र अचरमा अभव्याः चरमाश्च ये भव्याश्चरमं भवं प्रस्यन्ति यन्ति इत्यर्थः ते चाऽचरमेम्योऽनन्तगुणाः यस्माद् अभय्येभ्यः सिद्धा अनन्तगुणा मणिता यावन्तश्च सिद्धास्ताव चरमा यस्माद् यावन्तः सिद्धाः भतीतायायां तावन्त एव सेत्स्यन्ति अनागताद्वायाम् इति. सगामिनी श्रीमती रीय उद्देश के श्रीअभयदेवसूरिविरचित विवरण समाप्तम् , अल्पबहुत्व. - ७३ हवे अल्प - बहुत्वद्वार कहे छे, तेमां [' इत्थित्रेयगा संखेज्जगुण 'त्ति ] स्त्रीवेदको संख्येय गुण छे, कारण के, देव, मनुष्य अने तिर्यंचपुरुष करतां स्त्रीओ रूप पुरुषो करतां क्रमवडे स्त्रीओ बत्रीशे वधारे बत्रीशगणी, सत्तावीश वधारे सत्तावीशगणी अने त्रण वधारे त्रणगणी हे अर्थात् देव करतां १. देवी वणी अनेत्री बधारे है, मनुष्य करतां मनुषणीओ सत्याचीशगणी अने सत्याचीश बचाने के अने निधो करत तिन श्रीओ 4 6 जीवो अने सिद्धो नपुंसक वेदवाळाओ चिणीओ गणगणी अने पण बारे छे. [ अवेद्गा अति] अनिविदा वगेरे तंत्र आवेदक अने से बचा अनंत होवाची श्रीवेदवाओ करतां अनंतगुण याय है. नपुंगवा अति अन्तगुण छे, कारण के आ स्थळे सिद्ध करत अनंतकायिक ( जेओ बचा नपुंसक है) जीवो अनंतगुणा गया है. [स इत्यादि. ] पूर्वोक्त ए बधाओनुं एटले संयतथी मांडीने चरम सुधीना चाँद द्वारोनुं अल्प बहुत्य, तद्गत भेदोनी अपेक्षाए कहेतुं जोइए, ते जेमके "हे भगवन् ! संयतो असंयतो संयतासंयतो अने नयनोपनासंपतो ए बचाओमां क्या क्या कोना कोनाथी थोडा ? बहु छे ? तुल्य छे ? के विशेषाधिक छे ? हे गौतम! संयतो साथी थोडा छे, संयतासंयतो असंख्यगुण छे, नोसंयत-दो असंयत-नोसंयतासंयतो प्रज्ञापना. अनंतगुण छे अने असंयतो एथी ए अनंतगुण छे " इत्यादि प्रशोपनाने अनुसारे चरमादिना अल्प बहुत्व सुधी सर्व अहिं कहेतुं, ए ज कहे है, या सत्याधीषां जीवा अमरिमा इत्यादि.] अहिं अचरम एटले अभय्य अने तेओ नरम मरने डेला भने पाम अर्थात् चरम जेओ सिद्ध थशे तेओ चरम कहवाय, अने तेओ अचरम करतां अनंतगुण "छे, कारण के अभव्यों करतां सिद्धो अनंतगुणा कथा छे अने जेटला सिद्धो छे तेटला ज चरम जीवो छे, कारण के, जेटला भूत काळे सिद्ध थया छे- तेटला ज भविष्यकाळे पण सिद्ध घरी. - १. मूलच्छायाः - तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् ! इतिः - अनु० १. आ हकीकत श्रीजीवाजीवाभिगमसूत्र- द्वितीय प्रतिपत्ति ( १० ८७ ) मां तथा प्रज्ञापना सूत्र - अल्पबहुत्वपद ( पृ० १२४ ) मां तथा प्रज्ञापना सूत्र - अल्पबहुत्खपद ( पृ० १६४ ) मां अने पंचसंग्रह - गा० ६५ ६८-६९ ( मा० पृ० ८२-८४-८५ ) मां मळे छे:- अनु० १९२१४३ - अनु० २ प्रापनापनाना आधी बेडारूपः समुदेऽचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दापी यः सगुणानां परकृतिकरणाई सजीवी तपखी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति शान्त्योः- दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चामुख्यः ॥ / Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ४. हे भगवन् ! शुं जीव कालादशथी सरदेश के के अप्रदेश छ ?-नियमेन सप्रदेश.-एज प्रमाणे नैरयिक अने काल देश.-जी को अने कालदेश-रविको अने कालादेश.-ए रीते यावर स्तनिता म रो-पृथिवीकायिको अने कालादेश.-ए रीत यावत्-वनरप तेक यिक -बाकी ना सिद्धो सुबीना जीयो नरयिकोगी पे".-आहारक अने कालादेश.-भंगत्रय.-अनाहारक 'अने कालादेश.-भंगप-क-सिद्ध अने कालादेश.-भगत्रिक -भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक अने काला देश.-औधिकनी पे...- नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक अने कालादेश.-भंगत्रिक-संशी ने क लादेश.-भंगत्रय-असं अने कालादेव.भंगत्रिक.-नैरयिक-दे-मनुष्य.-भंग पटक-नोसंशी-नोअसंशो.-भेग कि.-औधिकनीलेश वाळ".-कृष्णलेश्या-नीललेवा-क पोतलेश्या-ते जलेश्यापालेश्या-शुक्ललेश्य:-अलेश्या-सम्मष्ट-विकद्रिय-मिध्यादृष्ट-सम्बग्मिध्य दृष्टि-अ :-संपता संपत नोर्सयत-लोअसंयत-संता यत-सकायीएके..य-क्रोधकषायी-देव-मानकायी म य कषायी -नरयिक-देश-लोभका यी- अपायी-अधिक-शान-आभिनवोधि कशान--श्रुतलान-अवधिज्ञानमनःपर्यवंशान- केवलज्ञान-औधिक.अशान-म.लेअज्ञान-श्रुतअज्ञान-विभेगज्ञान-सयोर्ग.-मयोगी-वनयोगः-काययोगी-अयोगी-स कारे पयुक्त अनाकारेपात्त-संवेदक-सं.वेदक-पुरुषवेदक-सकवेदक-अवेदक-सशरी-औदारिक-निव-आडारक-तंत्रस-कामग-अशरीर-आह रपतिप्ति शर रपयाप्तिइंद्रियपर्याप्ति-आनप्राणपर्याप्ति-भाषा-मनःपर्यप्ति- आहारअपर्याप्त-शरीरअपर्यः - दियअपर्यप्ति-आनप्राणपाति-भा-म सभपति - वध'नी स थे कालादेशथी विचारणा.-संच गाथ-सप्रदेश-आहारक-भव्य-संशो-शा-दृष्टि-संवत -काय-योग-उपयोग-वेद-शर र अने-पप्ति. हे भगवन् ! शु जीयो प्रसाख्यानी ? अप्रत्याख्यानी छे के बन्ने भातना छे ?-बधा प्रकारना छे.-५ ज प्रमाणे नरविक-यावत्- उरिद्रिय-पद्रियतिर्यग्योनिक अने मनुष्य-ए बधा साथै प्रत्य रूप मनी विचारणा.-जीवो प्रयाख्यान-अप्रत्यापन-अने ए वन्नो जागे छ:-"दियो जाणे हे अने वीप थी ज.ता.- यो प्रत्याख्यान-अप्रत्याख्यान-अने ए वन्नेने करे ?-पूर्व प्रमाणे.-प्राख्यान अ युथ.-अप्रत्याख्यान अने आयुष्य.-५ बन्ने अने :युष्य -५ रोते प्रत्याख्यानने लग चार दंडक-हे भगमन् ! ते ५ प्रमाणे छ. १.प्र.-जीवे णं भंते ! कालादेसेणं कि सपएसे, अपएसे? १.प्र०-हे.भगवन् ! शुं जीव कालादेशवडे-कालनी अपेक्षाए-सप्रदेश छे के अप्रदेश ? १. उ०-गोयमा ! नियमा सपएसे. १. उ०-हे गौतम ! जीव नियमा-चोकस-सप्रदेश छे. ए प्रमाणे यावत् सिद्ध सुधीना जीव माटे जाणतुं. २. प्र०-नेरइए णं भंते ! कालादसणं कि सपएसे अपएसे? २. प्र०-हे भगवन् ! नैरयिक जीव कालादेशथी सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ! २. उ०-- गोयमा ! सिय रुपएरो, सिय अपएसे; एवं जाव- २. उ० - हे गौतम ! ए कदाच सप्रदेश के अने कदाच सिद्धे. अप्रदेश छे. ३. प्र०-जीवा णं भंते ! कालादेसेणं कि सपएसा, अप- ३. प्र.--हे भगवन् ! शु जीवो कालादेशथी सप्रदेश छे के एसा? __ अप्रदेश छे ? ३. उ०-गोयमा ! नियमा सपएसा. ३. उ०-हे गौतम ! चोक्कस, जीवो सप्रदेश छे. १. मूलच्छाया:-जीपो भगवन् ! कालादेशेन कि सप्रदेशः, अपदेशः । गीतम 1 नियमात् सप्रदेशः. नैरगिको भगान् ! कालादेशेन किं सप्रदेशः, अप्रवेशः ! गौतम ! स्यात् सप्रदेशः, स्याद् अप्रदेश एवं यावत्-सिद्धः, जीवा भगन् | काल. देशेन कि सप्रदेशाः, अप्रदेशाः ? गौतम ! नियमात सप्रदेशाः-अनु० Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६.-उद्देशक . ४. प्र०-नेरडया णं भंते ! कालादेसणं किं सपएसा, ४. प्र०-हे भगवन् ! शुं नैरयिक जीवो कालादेशवडे अपएसा ? सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? ४. उ०--गोयमा ! सव्ये वि ताव होजा सपएसा, अहवा ४. उ०-हे गौतम! ए नरयिकोमा १ बवा य पण सप्रदेश सपएसा य-अपएसे य, अहवा सपएर । य-अपएसा य; एवं होय, २ केटलाक सप्रदेश अने एकाद अप्रदेश अने जाव-थणियकुमारा. ३ केटलाक सप्रदेश तथा केटलाक अप्रदेश; ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार सुधीना जीवो माटे जाणवू. ५. प्र०--पुट विकाइया णं भंते । किं सापा, अपएसा ! ५. प्र०-हे भगवन् ! शुं पृथिवीकायिकजीवो सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? ५. उ०--गोयमा ! सपएर वि, अपएसा वि; एवं जाव- ५. उ०-हे गौतम! तेओ सप्रदेश पण छे अने अप्रदेश पण वणस्सइकाइयो. छे, ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिक सुधीना जीवो माटे जाणवू. --सेसा जहा नेरझ्या तहा, जाव-सिद्धा. आहारगाणं -जेम नैरयिक जीवो कह्या तेम सिद्ध सुधीना बाकीना बधा जीव-एनिदियवज्जो तियभंगो. अणाहारगाणं जीवाणं एगिदिय- जीवो माटे जाणवू. जीव अने एकेन्दिय वर्जीने बाकीना आहारक वज्जा छम्भंगा एवं भायव्वाः-१ सपएसा वा, २ अपएसा वा; जीवो माटे त्रण भांगा जाणवा, अने अनाहारक जीवो माटे ३ अहवा सपएसे य अपएसे य, ४ अहवा सपएसे य अपएसा एकेन्द्रिय वर्जीने छ भांगा आ प्रमाणे जाणवा-१ केटलाक सप्रदेश य, ५ अहवा सपएसा य अपएसे य, ६ अहवा सपएसा य होय, २ केटलाफ अप्रदेश होय, ३ अथवा कोई सप्रदेश होय अपएता य. सिद्धेहि तियभंगो. भवसिरिया, अभवसिद्धया जहा अने कोई अप्रदेश होय, ४ कोई सप्रदेश होय अने फेटलाक ओहिया. णोभवसिद्धिय-णोअभवसिद्धिय-जीवसिद्धेहिं तियभंगो. अप्रदेश होय, ५ केटलाक सप्रदेश होय अने कोइ अप्रदेश होय सन्नी हे जीवाइओ तियभंगो, असन हे एगिदियवज्जो तियभंगो. अने ६ केटलाक सप्रदेश होय तथा केटलाक अप्रदेश होय. नेरइय-देव-मणए हैं छम्भंगो. नोसनि-नोअसनि-जीवमणुयसि- सिद्धोने माटे त्रण मांगा जाणवा जेम औधिक-सामान्य-जीवो कहा दहि तियभंगो. सलेसा जहा ओहिया. कण्हलेस्सा, नीललेरसा, तेम भवसिद्धिक-भव्य-अने अभवसिद्धिक-अभव्य-जीवो जाणवा. का उलेस्सा जहा आहारओ, नवरं:-जस्स अस्थि एयाओ. नोभवसिद्धिक तथा नोअभवसिद्धिक जीव, सिद्धोमां त्रण भांगा तेउलेस्साए जीवाइओ तियभंगो, नवरः-पुढविकाइएसु, आउ- जाणवा. संज्ञिओमां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा, असंज्ञिोमां वणस्सईस छब्मंगा. पम्हलेस्स सुकलेस्साए जीवाइओ तियभंगो. एकेन्द्रियवर्जीने त्रण भांगा जाणवा. नैरयिक, देव अने मनुष्योमा अलेसेजिीव-सिद्धेहि तियभंगो. मणुएसु छन्भंगा. सम्मदिहीहि छ भांगा जाणव'. नोसंही तथा नोअसंज्ञी जीव, मनुष्य अने जीवाइओ तियभंगो. गिलिदिएसु छन्भंगा. मिच्छदिहीहें एगि- मिद्धोमां त्रण भांगा जाणवा. जेम सामान्य जीवो कह्या, तेम दिययज्जो तियभंगो. सम्मामिच्छदिहीहिं छब्भंगा. संजएहिं जीवासलेश्य-लेश्यावाळा-जीवो जाणवा. जेम आहारक जीव को इओ सियभंगो, असंजएहिं एनिदियवनो तियभंगो ति. संजयासं- तेम कृष्यलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा अने कापोतलेशाबाळा जएहि तियभंगो जीवाईओ. नोसंजय-नोअसंजय नोसंजयासंजय- जीवो जाणवा, विशेष ए के, जेने जे लेश्या होय तेने ते लेश्या जीव-सिद्धोहं तियभंगो.सकसाईहिं जीवाइ.ओतियभंगो. एगि.दएसु कहेवी. तेजोलेश्यामां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा, विशेष ए अभंगकं. कोहकसाइहिं जीव-एगिदिश्वज्जो तियभंगो. देवहि के. प्रथिवीकायिकोमा, अप्कायिकोमां अने वनस्पतिकाथिकोमा छम्भंगा. माण-कसाई-मायाकसाई जीव-एनिदियवज्जो तियभंगो. छ भांगा जाणवा, पद्मलेश्यामां अने शुक्ललेश्यामां जीवादिक त्रण नेरइय-देवेहि छन्भंगा. लोभकसाईहि व-एगिदियवजो तियभंगो. भांगा जाणवा, अलेश्योमां-जीव अने सिद्धोमा त्रण भांगा जाणवा १. मूलच्छायाः-नैरयिकाः भगवन् ! कालादेशेन किं सप्रदेशाः, अप्रदेशाः? गैतम 1 सऽपि तावद् भवेयुः सप्रदेशाः, अथवा सप्रदेशाश्च अप्रदे. ६.श्च, अथवा सप्रदेशाश्च अप्रदेशाध; एवं यावत्-स्तनितकुमाराः, पृथिवि कायिका भगवन् ! किं सप्रदेशाः, अप्रदेशाः ? गौतम : सप्रदेशा अगि, अप्रदेशा अपि; एवं यावत्-वनस्पतिकायिकाः. शेषा यथा नैरयिकास्तथा, यावत्-सिद्धाः. आहारकाणां जीव-केन्द्रियवर्गस्त्रिाभगः, अनाहारकाणी जीवानाम् एकेन्द्रियवर्जाः षड् भडगाः एवं भणितव्या :-सप्रदेशा वा, अप्रदेशां वा. अथवा सदेशव अप्रदेशश्च, अथवा सप्रदेशश्च अप्रदेशाच, अथवा सप्रदेशाध अप्रदेशच, अथवा प्रदेशाच अप्रदेशाव. सिद्धेषु निम्भगः, भासिद्धिकाः अभासिद्धिका यथा औधिकाः नोभवसिद्धिक-नोऽभवसिद्धिकजीव-सिद्धयोनिकभागःसंभिषु जीवादिकस्त्रि भागः, अमंशिषु एकेन्द्रियवर्जनिकभगः, नरयिक-देन-मनुजेषु षड्भ हगः. कोसंझिनोऽसंझि-जीव-मनुजसिद्धषु त्रिव.भगः. सलेश्या यथा ओषिकाः, कृष्णलेश्याः, नीललेल्याः, काशेतलेश्या यथा आहारतः, नवरमः-यस्य सन्ति एताः. तेजोलेश्यायां जीवादिका खिकभहगः, नवरम् :-पृथिवीकायिकेषु, अब्-वनसतिषु षड् भङ्गाः. पद्मलेश्य-शुक्ललेश्ययोः जीवादिकत्रिका.अलेश्येषु जीव-सिद्धेषु त्रिकभन्नः मनुजेषु षड् भङ्गाः सम्यग्दृष्टिषु जीदादिकस्त्रिकभङ्गः, विकलेन्द्रियेषु पर भगाः मिथ्याशिघु एकेद्रियवर्जस्त्रिकभाः सम्यगमिथ्यादृष्टिषु षड्भाः . संयतेषु जीवादिकविकभाः असंयतेषु एकेन्द्रियवर्जस्त्रिकभन्न इति. संयता-उसयतेषु त्रिभको जीवादिकः, नोर्सयत-नोऽसयत-नोसंयताऽसंयत-जीव-सिद्धेषु विकभनः सकषायिषु जीवादिकत्रिकभाः, एकेन्द्रिय अभत्रकम्-कोधकषायिषु जीवै-केन्दियवत्रिका: देवेषु षट् भा. मानकषायि-मायावसायिषु जीवैकेन्द्रियवर्जनिकभा, नैरयिक-देवेषु षर भगा लोभकषायिषु जीव-केन्द्रियव निकभाः-अनु. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६. उद्देशक ४. भगवत्सधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २८९ नेरेइएसु छम्भंगा. अकसाई-जीव-मणुएहि, सिदहिँ तियभंगो. अने अलेश्य मनुष्योमा छ भांगा जाणवा. सम्यग्दृष्टिओमा जीवादिक ओहियणाणे, आभिणियोहियगाणे, सुय गाणे जीवाइओतियभंगो. ऋण भांगा जाणवा, विकलेन्द्रियोमा छ भांगा जाणवा, मिथ्यादृष्टिविगलिदिएहि छम्भंगा. ओहिणाणे मण-केवलणाणे जीवाइओ ओमा एकेन्द्रिय व ने त्रण भांगा जाणवा. सम्परमिध्यादृष्टि ओमां तियभंगो. ओहिए अन्नाणे, महअन्नाणे, सुयअन्नाणे, एगिदि- छ भांगा जाणवा. संयत जीवोमा जीवादिक त्रण मांगा जाणवा. यवजो तियभंगो. विभंगनाणे जीवाड़ओ तियभंगो. सजोगी जहा असंयतोमा एकेन्द्रियब र्जीने त्रण भांगा जाणवा. संयतासंयतोमा ओहिओ, मणजोगी, यजोगी, कायजोगी जीवाइओ तियभंगो, जीवादिक त्रण मांगा जाणवा. नोसंयत नोअसंयत अने नोसंयनवर:-कायजोगी एगिदिया, तेस् अभंगयं. अजोगी जहा तासंपतोमां-जीव सिद्धोमां-त्रण भांगा जाणवा. सकषायोमांअलेस्सा. सागारोवउत्त-अणागारोवउत्तेहिं जीव-एगिदियवजो कषायवाळाओमा जीवादिक त्रण भांगा जाणवा, अने सकषाय तियभंगो. सवेयगा य जहा सकसाई. इथिवेयग-परिसवेयग- एकेदियोमा अभंगक-त्रण भांगा नथी पण एक भांगो-छे, क्रोध नपंसगवेयगेस जीवाइओ तियभंगो, नवरः-नपंसगवेदे एगिदिएस कपायिओमां जीव अने एकेन्द्रिय वीत्रण भांगा जाणवा. देवोमा अभंगयं. अवेयगा जहा अकसाई. ससरीरी जहा ओहिओ. छ भांगा, मानकषायवाळमां, मायाकषायवाळामां जीव ओ ओरालिय-वेउनियसरीराणं जीव-एगिदियवज्जो तियभंगो. आहा- एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. नैरयिक अने देवोमा छ रगसरीरे जीव-मणुएसु छन्भंगा, तेयग-कम्मगाणं जहा ओहिया. भांगा जाणवा. लोभ कषायवाळामां जीव अने एकेंद्रिय वर्जीने असरीरोहिं जीव-सिद्धोहिं तियभंगो. आहारपजत्तीए, सरीरपज्जत्तीए त्रण भांगा जाणवा. नैसयिकोमा छ भांगा जाणवा. अकपाथिमा इंदियपजत्तीए, आणपाणपजत्तीए जीव-एगिदिययज्जो तियभंगो. जीव, मनुज अने सिद्धोमां त्रण भांगा जाणवा. औधिक ज्ञानमां. भासा-मणपजत्तीए जहा सन्नी, आहार-अपज्जत्तीए जहा अणा- आभिनिबोधिक-ज्ञानमां, श्रुतज्ञानमा, जीवादिक त्रण भांगा हारगा, सरीर-अपज्जत्तीए, इंदिय-अपजत्तीए, आणपाण-अपजत्तीए जाणवा. विकलेंदियोमा छ भांगा जाणवा. अवधिज्ञानमां, जीव-एगिदियवज्जो तियभंगो, नेरइय-देव-मणएहिं छम्भंगा,मासा- मनःपर्यवज्ञानमां अने केवलज्ञानमां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. मणअपजत्तीए जीवाइओ तियभंगो, णेरड्य-देव-मणएहिं छम्भंगा. ओधिक अज्ञानमा, मतिअज्ञानमां अने श्रुतअज्ञानमा एकेंद्रिय वर्माने त्रण भांगा जाणवा. विभंगज्ञानमां जीवादिक त्रण भांगा जागवा, जेम औधिक कह्यो तेम सयोगी जाणवो, मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगिमा जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. विशेष ए के, एकेंद्रिय जीवो काययोगवाळा छे अने तेओमां अभंगक-जाजा भांगा नथी-पण एक भांगो-छे. जेम अलेश्यो कह्या तेम अयोगिजीवो जाणवा. साकार उपयोगवाळामां अने अनाकार उपयोग वाळामां जीव तथा एकेंद्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. जेम सकषायी-कषायपाळा-कह्या तेम सवेदक-वेदवाळा-जीवो जाणवा स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक अने नपुंसकवेदकोनां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा, विशेष ए के, नपुंसक वेदमां एकेंद्रियो माटे अभंगा-जाजा भांगा नथी-पण एक भांगो छे. जेम अकषायीकषायरहित जीवो कह्या तेम अवेदक-वेदविनाना-जीवो 'जाणवा जेम औधिक-सामान्य-जीव कह्या तेम सशरीरी-शरीरवाळा-जीवो जाणवा. औदारिक अने वैक्रिय शरीरवाळा माटे जीव तथा एकेंद्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. आहारक शरीरमां जीव अने १. मूलच्छायाः-नैरयिकेषु षड् महाः. अकष यि- जीव-मनुजेषु, सिद्धेषु त्रिकभङ्गः, अधिक ज्ञाने, आभिनिबोधिकज्ञाने, श्रुतज्ञाने जीवादिकस्त्रिकमा विकलेन्द्रियेषु षड् भन्नाः, अवधिज्ञाने, मनः-केवलज्ञाने जीवादिकस्विम्भाः , औषिकेऽज्ञाने, मयज्ञाने, श्रुताऽज्ञाने एकेन्द्रियवर्जखि भङ्गः. विभङ्गज्ञाने जीवादिकस्त्रिकमाः. सयोगी यथा अधिकः, म योगिनि, वचोयोगिनि, काययोग ने जीवादि कनिकभाः,नवरम्-काययो. गन एकेन्द्रियास्तेषु अभाकम्. अयोगनो यथाऽलेश्याः. साकारोपयुक्ता-ऽनाकारोपयुक्तेषु जीके न्द्रयवर्जस्त्रिकभङ्गः. सवेदकाश्च यथा सकषायिणः, स्त्रीवेदक-पुरुषवेदक-नपुंसकवेदकेषु जीवादिकत्रिकभङ्गः, नवरम्ः नपुंसकवेदे एकेन्द्रिये अभन्नकम् . अदेका यथाऽकषायिणः, सशरीरी यथा औधिकः, आदारिक-वक्रियशरीरेषु जीवकेन्द्रियवर्जनिकभाः, आहारकशरीरे जीव-मनुजेषु षद भागः, तेजस-कामका (णा) नां यथाषिकाः, अशरीरेषु जीव-सिद्धेषु विकभगः. आहारपर्याप्ती, शरीरपर्याप्ती, इन्द्रियपर्याप्ता, आनप्राणपर्याप्ता जीवै-केन्द्रियवर्जनिकभाः, भाषा-मनःपर्य प्ता यथा संशी, आहारअपर्याप्ता यथाऽनाहा. रकाः; शरीराऽपर्याप्ता, इन्द्रियाऽपर्याप्ती, आनप्राणाऽपर्याप्ती जीवकेन्द्रियवर्जलिकभन्नः, नैरयिक-देव मनुजेषु षड भनाः, भाषा-मनस्यामा जीवादिक स्त्रिकभङ्गः, नैयिक-देव-मनुजेषु पड् भरगाः-अनु. . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० संगईगाहा:- सपएमा आहारग-मचियसन्निसा दिट्टि संजय कमाए, गाणे जोओगे वेदे यसरी व्यती श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे f शतक 4:- उदेशक ४. मनुष्यमा छ भांगा जाणचा जेम औौषिक कथा तेन तैजस अने कार्मण (शरीरयाळा जीवो) जाणया अशरीरी जी अने सिद्ध माटे त्रण भांगा जाणवा आहारपर्याप्तिमां, शरीरपर्याप्तिमां, इंद्रियपर्याप्तिमां अने आनप्राणपर्याप्तिमां जीव अने एकेंद्रिय वर्जी ऋण भांगा जाणवा. जेम संज्ञी जीवो का तेम भाषा अने मनः पर्याप्ति संबंधे जाणवुं. जेम अनाहारक जीवो कंद्या तेम आहार पर्याप्ति विनामा जीवो विषे समज, शरीरनी अपतिमां इंद्रियनी अपप्तिमा भने आणप्राणनी अपर्याप्तमां जीव अने एकेंद्रिय वर्जी ऋण भांगा जाणवा. नैरथिक, देव अने मनुष्योमा छ भांगा जाणवा भाषानी अपर्याप्तिमा अने मननी अपतिमां जीवादिक ऋण भांगा जाणवा. गैरविक, देव अने मनुप्पोमा छ मांगा जाणवा و " , " - " १. अनन्तरोदेश के जीवो निरूपितः अथ चतुर्योदेशक्रेऽपि तमेव भङ्गयन्तरेण निरूपमा अदि. * कालादेसेणं ति काउप्रकारेण – काउम् आश्रित्येत्यर्थः ' सपएसे ति सविभागः, नियमा सपसे 'नियमा सपएसे त्ति अनादित्वेन जीवस्य अनन्तसमपस्थितिकत्वात् सप्रदेशता, यो हि एकसमपस्थितिः सोऽप्रदेश, इयादिसमपस्थितिस्तु सप्रदेश द चाइना इह गाथयां भावना कार्या" जो जस पदमसमए वह माचस्स सो उ अपरसो, अगाम्प वहमानो कालासेण सपएसो. " नारकस्तु यः प्रथमसमयोत्यमः सोऽप्रदेश, इयादिसमयोत्पन्नः पुनः सप्रदेश: अत उक्तम्: सिय सप्पएसे मिय अपएसे एप सावद् एकोन जीवादिः सिद्धाऽवसानः पविशदण्डकः फाटतः सप्रदेशला दिना चिन्तितः अथाऽयमेव सथैव पृथक्तेन ि 'हो सपन 'ति उपपारिहाले पातानां पूर्वी भावात् सर्वेऽपि सप्रदेशा भवेयुः तथा मध्ये याएको यो नारक उत्पद्यते तदा तस्य प्रथमयोत्यमानाऽप्रदेशत्वात् शेषाणां च इदादिसमयोपायेन सप्रदेशाबाद उच्यतेः ¿. एसा य, अपएसे यति एवं यदा बव उत्पद्यमाना भवन्ति तदोच्यतेः - ' सपएसा य, अपएसा यति उत्पद्यन्ते च एकदा एकादयो नारकाः, यदाहः:- " ऐगो व दो व तिनि व संखमसंखा च एगसमएणं, उववर्जते - वइया उव्वहंता वि एमेव. 3 " • • संग्रह गाथा आ प्रमाणे छे:- सप्रदेशो आहारक, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संवत, कपाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर अने पर्याप्ति ए द्वारो छे. पुढविकाइया णं इत्यादि. एकेन्द्रियाणां पूर्वोत्पन्नानाम् उत्पद्यमानानां च बहूनां सद्भावात् 6 सपएसा वि, अप्पएसा वि ' इयुच्यते ' सेसा जहा नेरवा ' इत्यादि यथा नारका अभितापत्रयेोकास्तथा शेषा द्वीन्द्रियादयः सिद्धाऽवसानः वाच्याः सर्वेषाम् एषां विरहसंमाद् एकागुपर्द्धश्चेति एवम् आहारका नाहारकशब्दविशेषितो एका पृथवदण्डको अध्यंतरी अध्यपनक्रमथाऽयम्--- 6 , " C आहारए णं भंते! जीवे कालाएसेणं किं सपएसे, अपएसे ! गोयमा ! सिय सपएसे, सिय अपएसे ' इत्यादि - स्वधिया वाच्यः, तत्र यदा विप्रहे, केवलिसमुद्घाते वाऽनाहारको भूत्वा पुनराहारकस्थं प्रतिपद्यते तदा तत्प्रथमसमयेऽप्रदेशः, द्वितीयादिषु तु सप्रदेशः ; इत्यत उच्यतेः - सिय सपएसे, सिय अपएसे 'ति एवमेकत्वे सर्वेष्वपि सादिभावेषु, अनादिभावेषु तु 'नियमा सपएसेायम् पृथक्चदण्डके तु एवमापो दृश्य आहारया गं भंते ! जीव कालाएमेगं किं सपता, अपएसा गोमा ! सपएसा वि, अपएसा वि ' त्ति तत्र बहूनाम् आहारकत्वेनावस्थितानां भावात् सप्रदेशत्वम् तथा बहूनां विग्रहगतेरनन्तरं प्रथमसमये आहारकत्वसंभवाद् अप्रदेशत्वमप्याहारकाणां लभ्यते इति ' सप्रदेशा अपि, अप्रदेशा अपि ' इत्युक्तम्. एवं पृथिव्यादयोऽपि ध्येयाः नारकादयः पुनर्विकल्पप्रयेण बाप्याः, तद्यथाः आहारयाणं भेते । नेरइया णं किं रूपएसा, अपएसा गोवमा | सध्ये विसाव होन सपएसा अहया सपएसा य अपएसे य, अहवा सपएसा य अपएसा व लि. सदेवाह:- अहारगाणं जीव - एगिंदियवज्जो तियभंगो जीवपदम् एकेन्द्रियपदपञ्चकं च वर्जयित्वा त्रिकरूपो भङ्गत्रिकभङ्गो भङ्गकत्रयं वाक्यम् इत्यर्थः, सिद्ध अनाहारकदण्डद्वयमधि एवम् अनुमरणीयम् स्वाऽनाहारको विमान समुदघातली, अयोगी सिद्धो वा स्यात् स चानाहार कावप्रथम समयेऽप्रदेशः, द्वितीयादिषु तु सप्रदेशः तेन स्यात् सप्रदेशः " , , तेपाम् अनाहारका 3 , 33 १. मूलच्छायाः - संग्रहगाथाः सप्रदेशा आहारक भव्य - संज्ञि - लेश्या दृष्टि- संयत-कषायः, ज्ञानं योगो-पयोग। वेदश्व शरीर्यप्ति. - अनु० १. प्र० छाः यो यस्य प्रथमसमये वर्तते भावस्य स तु अप्रदेशः, अन्यस्मिन् वर्तमानः कालादेशेन सप्रदेशः २. एको वा द्वौ वा त्रीणि वा संगमाच एकसमाना:- एतावन्तः गाना अपि एवमे , / Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतःसत्र. २९१ इत्याद्यच्यते. पृथक्त्वदण्डके विशेषमाह:- अणाहारगाणं' इयादि. जी गन् , एकेन्द्रियांश्च वर्जयन्तीति--जी-केन्द्रियवर्जात्तान् वर्जयित्वा इत्यर्थः. जीवपदे, एकेन्द्रियपदे च 'सपएसा य, अपएसा य ' इत्येवंरूप एक एव भङ्गकः-बहूनां विग्रहगयापनानां सप्रदेशानाम् , अप्रदेशानां च लाभात्. नारकादीनाम् , द्वीन्द्रियादीनां च स्तोतराणाम् उत्पादस्तत्र च एक-यादीनाम् अनाहारकाणां भावात् षड्भङ्गिकासम्भवः-तत्र द्वौ बहुवचनान्तौ, अन्ये तु चधार:-एकवचन-बहुवचनसंयोगात् , केवलैकवचनभगको इह न स्तःपृथक्त्वस्याऽधिकृतत्वादिति. 'सिद्धेहि तियभंगो' ति सप्रदेशपदस्य बहुवचनान्तस्यैव संभवात्. ' भवसिद्धीय, अभवसिद्धीय जहा ओहिय ति अयमर्थः-औघि ..दण्डकवद एतेषां प्रत्येक दण्डकद्वयम् , तत्र च भव्योऽभव्यो वा जीवो नियमात् सप्रदेशः, नारकादिस्तु सप्रदेशः, अप्रदेशो वा; बबस्तु जीवाः सप्रदेशा एव, नारकाद्यास्तु त्रिभङ्गवन्तः. एकेन्द्रियाः पुनः सप्रदेशाश्च, अप्रदेशाश्च इत्येकभङ्गा एवेति. सिद्धपदं तु न वाच्यम् , सिद्धानां भया-ऽभव्यविशेषणाऽनुपपतेरिति. तथा 'नोभवसिद्धिय-नोअभवसिद्धिय' त्ति एतद्विशेषगं जीवादिदण्डकद्वयम् अध्येयम् , तत्र चाऽभिलाप:-'. नोभवसिद्ध य-नोअभवसिद्धिए णं भंते ! जीवे सपएसे, अपएसे ? ' इत्यादि. एवं पृथक्त्वदण्डकोऽपि. केवलमिह जीवपदम् , सिद्धपदं च इति द्वयमेव-नारकादिपदानां 'नोभव्य-नोऽभव्य' विशेषणस्याऽनु पत्तेरिति. इह च पृथक्त्वदण्डके पूर्वोक्तं भङ्गकत्रयमनुसतव्यम् , अत एवाऽऽह:-' जीवे सिद्धेहिं तियभंगो' ति संक्षिषु यो दण्ड को तयोईितीयदण्डके जीवादिपदेषु भयकत्रयं भवति, इत्यत आहः-'सनिहि! इत्यादि. तत्र संझिनो जीवाः कालतः 'सप्रदेशाः ' भवन्ति चिरोत्पन्नानपेक्ष्य, उत्पादविरहाऽनन्तरं च एकस्योत्पतौ तत्प्राथम्मे 'सप्रदेशाश्च अप्रदेशश्च ' इति स्यात् , बहूनाम् उत्पत्तिप्राथम्ये तु 'सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्च' इति स्यात्-तदेवं भङ्गत्रयमिति, एवं सर्वपदेषु; केवलमेतयोर्दण्डकयोः एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-सिद्धपदानि न वाच्यानि, तेषु संज्ञिविशेषणस्याऽसंभव द् इति. 'असन्नी हि ' इत्यादि. अयमर्थः-असंज्ञिषु असंज्ञिविषये द्वितीयदण्डके पृथिव्यादिपदानि वर्जयित्वा भङ्गकत्रयं प्राग् दर्शितमेव वाच्यम् . पृथिव्यादिप रेषु हि ' सरदेशाच अप्रदेशाश्च' इत्येक एव, सदा बहूनाम् उत्पत्त्या तेषाम् अप्रदेशत्व-बहु वस्याऽपि संभवात्. नैरविकादीनां च व्यन्तरान्तानां संज्ञिनामपि असंज्ञित्वम्-असंज्ञिभ्यः उत्पादाद भूतभावतयाऽवसेयम् , तथा नैरपिकादिषु असंज्ञित्वस्य कादाचित् कत्वेन एकव-बहुत्वसंभव त् श्ड् भङ्गा भवन्ति, ते च दर्शिता एव-एतदेवाऽऽहः- नेरइय-देव-मणुए' इत्यादि. ज्योतिष्काः, वैमानिकाः, सिद्वास्तु न वाच्याः, तेषाम् असंज्ञित्वस्याऽसंभवात्. तथा 'नोसंज्ञि नोऽसंज्ञि'-विशेषणदण्डकयोद्वितीयदण्डके जीव-मनुज-सिद्धपदेषु, उक्तरूपं भङ्गकत्र भवति, तेषु बहूनाम् अवस्थितानां लाभात्, उत्पद्यमानानां च एकादीनां संभवाद्-इति. एतयोश्च दण्डकयो-जीव-मनुजे-सिद्धपदानि एव भवन्ति-नारका दिपदानां 'नोसंज्ञि-नोऽसंज्ञि' इति विशेषणस्याऽघटनाद-इति. सलेश्यदण्डकद्वये औधिकाण्डकवद जीव-- नारकादयो वाच्याः. सलेश्यतायां जीवत्ववद अनादित्वेन विशेषाऽनु-पादकत्वात् केवलं सिद्धपदं नाऽधीयते, सिद्धानाम् अलेश्यत्वादिति. कृष्णलेश्याः, नीललेश्या', कापोतलेयाश्च जीव--नारकादयः प्रत्येक दण्डकद्वयेनाऽऽहारकजीवादिबद् उपयुज्य वाच्वाः, केवलं यस्य जीव-नारकादेरेताः सन्ति स एव वाच्यः, एतदेवाऽऽहः- कण्हलेस्सा' इत्यादि. एताश्च ज्योतिष्क-वैमानिकानां न भवन्ति, सिद्धानां तु सर्वा न भवन्ति इति. तेजोलेश्याद्वितीयदण्डके जीवादिपदेषु त एव त्रयो भङ्गाः. पृथिव्य--वनस्पतिषु पुन. षड् भङ्गाः-यत एतेषु तेजोलेश्या एकादयो देवाः पूर्वोत्पन्नाः, उत्पद्यमानाश्च लभ्यन्ते इति हेतोः सप्रदेशानाम् अप्रदेशानां च एकत्वबहुत्वसंभव इति-एतदेवाऽऽहः- तेउलेस्साए.' इत्यादि. इह नारक-तेजो-वायु-विकलेन्द्रिय-सिद्धपदानि न वाच्यानि, तेजोलेश्याया अभावाद्-इति. पद्मलेश्या-शुक्ललेश्ययोर्द्वितीयदण्डके जीवादिषु पदेषु त एव त्रयो भङ्गकाः, एतदेवाऽऽहः'पम्हलेस्सा' इत्यादि. इह च पञ्चेन्द्रियतिर्यग-मनुष्य-वैमानिकपदान्येव वाच्यानि, अन्येषु एतयोरभावाद-इति, अलेश्यदण्डकयोजीव- मनुष्य-सिद्धपदानि एवो व्यन्ते, अन्येषाम् अलेश्यत्वस्याऽसंभवात्-तत्र च जीव-सिद्धयोर्भङ्गकत्रयं तदेव. मनुष्येषु तु षड् भङ्गाः, अलेश्यता प्रतिपन्नानाम् , प्रतिपद्यमानानां च एकादीनां मनुष्याणां संभवेन सप्रदेशत्वे, अप्रदेशवे च एकत्व-बहुत्वसंभवाद इति-इदमेवाऽऽहः- अलेसहि' इत्यादि. सम्यग्दृष्टिदण्डकयोः सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिप्रथनसमयेऽप्रदेश त्वम् , द्वितीयादिषु तु सप्रदेशत्वम् ; . तत्र द्वितीयदण्ड के जीवादिपदेषु त्रयो भङ्गास्तथैव, विकलेन्द्रियेषु तु षट् , यतस्तेषु सासादनसम्परदृष्टय एकादयः पूर्वेत्पन्नाः, उत्पद्यमानाश्च लभ्यन्ते-अतः सप्रदेशत्वा-ऽप्रदेशत्वयोरेकत्व - बहुत्वसंभव इति. एतदेवाऽऽहः-'सम्मादडीहें' इत्यादि. इह एकेन्द्रियपदानि न वाच्यानि-तेषु सम्यग्दर्शनाऽभावादिति. ' मिच्छद्दिट्ठी हैं ' इत्यादि. मिथ्यादृष्टिद्वितीपदण्डके जीवादिपदेषु त्रयो भङ्गा:-मिथ्यात्वं प्रतिपन्नाः बहवः, सम्यक्त्वभ्रंशे तत् प्रतिपद्यमानाश्चैकादयः संभवन्ति इति कृत्वा. एकेन्द्रियपदेषु पुनः 'सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्व ' इत्येक एव-तेष्ववस्थितानाम् , उत्पद्यमानानां च बहूनामेव मावाद् इति. इह च सिद्धाः न वाच्याः तेषां मिथ्यात्वाऽभावादिति. सम्यगमिथ्यादृष्टिबहुत्वदण्डके ' सम्मामिच्छदिट्टी हिँ छन्भंगा' अयमर्थः-सम्यगमिथ्यादृष्टित्वं प्रतिपन्नकाः, प्रतिपद्यमानाश्च एकादयोऽपि लभ्यन्तेइत्यतस्तेषु षड् भङ्गा भवन्ति इति. इह च एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-सिद्धपदानि न वाच्यानि, असंभवाद् इति. 'संजएहिं ' इत्यादि. संयतेषु संयतशब्दविशेषितेषु जीवादिपदेषु त्रिकभङ्गाः -संयम प्रतिपन्नानां बहूनाम् , प्रतिपद्यमानानां च एकादीनां भावात् , इह च जीवपद-मनुश्यपदे एव वाच्ये, अन्यत्र संयतत्वाऽभावाद इति, असंयतद्वितीयदण्डके ' असंज एहिं ' इत्यादि. इह असंपतत्वं प्रतिपन्नानां Jain Education international Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्दशेक ४. बहूनाम् , संयतत्वादिप्रतिपातेन तत् प्रतिपद्यमानानां च एकादीनां भावाद भङ्गकत्रयम् , एकेन्द्रियाणां तु पूर्वोक्तयुक्या 'सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्च' इत्येक एव भङ्ग इति. इह सिद्धपदं नाऽध्येयम्-असंभव. इति. संयतासंयतबहुत्वदण्डके 'संजयासंजएहिं ' इयादि. इह देशविरतिं प्रतिपन्नानां बहूनाम् , संयमाद असंयमाद वा निवृत्य तां प्रतिपद्यमानानां च एकादीनां भावाद भङ्गगकत्रयसंभवः, इह च जीवपञ्चेन्द्रियतिर्यग्-मनुष्यपदानि एवाऽध्येयानि, तदन्यत्र संयतासंयतत्वस्याऽभावादिति. 'नोसंजए' इत्यादौ सैव भावना, नवरम्:-इह जीव-सिद्धपदे एव वाच्ये, अत एवोक्तम्:-'जीव-सिद्धेहिं तियभंगो' ति 'सकसाईहिं जीवाईओ तियभंगो 'त्ति अयमर्थः-सकषायाणां सदाऽवस्थितत्वात् ते — सप्रदेशाः ' इत्येको भङ्गः, तथोपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानवे सकषायत्वं प्रतिपद्यनाना एकादयो लभ्यन्ते, ततश्च ' सप्रदेशाश्च अप्रदेशश्च, ' तथा 'सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्च' इत्यपरभाकद्वयमिति. नारकादिषु प्रतीतमेव भङ्गकत्रयम्. 'एगिदिएसु अभंगयं' ति भनकानाम्-अभावोऽभङ्गकम् , ' सप्रदेशःश्च अप्रदेशाश्व' इत्येक एव विकल्प इत्यर्थः, बहूनाम् अवस्थितानाम् , उत्पद्यमानानां च तेषु लाभादिति, इह च सिद्धादं नाऽध्येयम् , अायित्वात् . एवं क्रोधादिदण्डकेष्वपि'कोहकसाईहिं जीवे-गिदियवजो तियभंगो' ति अयमर्थः-क्रोधकषाय-द्वितीयदण्डके जीवपदे, पृथिव्यादिपदेषु च 'सप्रदेशाश्व अप्रदेशाश्च' इत्येक एव भङ्गः, शेषेषु तु त्रयः ननु सकषायिजीवपदवत् कथमिह भङ्गत्रयं न लभ्यते ! उच्यते:-इह मान-माया-लोभेभ्यो निवृत्ताः क्रोधं प्रतिपद्यमाना बहव एव लभ्यन्ते-प्रत्येकं तद्राशीनामनन्तत्वाद्, न तु एकादयः-यथा उपशमश्रेणीतः प्रच्यवमाना: सकषायित्वं प्रतिपत्तार इति. 'देवेहि छन्भंग' ति देवपदेषु त्रयोदशस्वपि षड् भङ्गाः, तेषु क्रोधोदयवतामत्यतेन एकत्वे, बहुत्वे च सप्रदेशा-ऽप्रदेशत्वयोः संभवादिति. मानकषायि-मायाकष यिद्वितीयदण्डके ' नेरइय-देवेहिं छब्भंग' ति नारकाणाम् , देवानां च मध्येऽल्पा एव मान-मायोदयवन्तो भवन्ति-इति पूर्वोक्तन्यायात् षट् भङ्गा भवन्ति-इति. 'लोह कसाईहि जीवेगिदियवज्जो तियभंगो' त्ति एतस्य क्रोधसूत्रबद् भावना. ' नेरइएहिं छभंग' ति नारकाणां लोभोदयवताम् अल्पत्व त् पूर्वोक्ताः षड् भङ्गा भान्ति-इति. आह चः-" कोहे माणे माया बोधव्वा सुरगणेहिं छब्भंगा, माणे माया लोभे नेरइएहि पि छब्भंग'." देवा लोभप्रचुराः, नारकाः क्रोधप्रचुरा इति. अकषायिद्वितीयदण्डके जीव-मनु-य-सिद्धपदेषु भङ्गत्रयम् , अन्येषाम् असंभवात् , एतदेवाऽऽहः- अकसाई' इत्यादि. 'ओहियणाणे, आभिनिबोहियणाणे, सुयणाणे जीवाईओ तियभंगो' ति अधिकज्ञानं मत्यादिभिरविशेषितम् , तत्र मतिश्रतज्ञानयोश्च बहुत्वदण्डके जीवादिपदेषुत्रयो भङ्गाः पूर्वोक्ता भवन्ति. तत्र औधिकज्ञानि-मति-श्रुाज्ञानिनां सदाऽवस्थित्वेन सप्रदेशानां भावात् 'सप्रदेशाः' इत्येकः. तथा मिथ्याज्ञानाद् मत्यादिज्ञानमात्रम् , मत्यज्ञानाद् मतिज्ञानम् , श्रुताऽज्ञानाच्च श्रुतज्ञानं प्रतिपद्यमानानाम् एकादीनां लाभात् ' सप्रदेशश्च अप्रदेशाश्च' तथा ' सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्व ' इति द्वौ, एवं त्रयमिति. 'बिगलिं दिएहिं छब्भंग 'त्ति द्वि-त्रिचतुरिन्द्रियेषु सासादनसम्यक्त्वसंभवेन आभिनिबोधिकादिज्ञानिनाम् एकादीनां संभवात् त एव षड् भङ्गाः इह च यथायोगं पृथिव्यादयः, सिद्धाश्च न वाच्याः, असंभवात् इति . एवम् अवध्यादिषु अपि भङ्गत्रयभावना, केवलम्-अवधिदण्डकयोरेकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियाः, सिद्धाश्च न वाच्याः, मनःपर्यायदण्डकयोस्तु जीवाः, मनुष्याश्च वाच्याः, केवलदण्डकयोस्तु जीव-मनुष्य-सिद्धा वाच्याः. अत एव वाचनाऽन्तरे दृश्यते--विष्णेयं जस्स जं अस्थि 'ति. ' ओहिए अनाणे ' इत्यादि. सामान्येऽज्ञाने-मत्यज्ञानादिभिरविशेषिते, मत्यज्ञाने, श्रुताज्ञाने च जीवादिषु त्रिभनी भवति-एते हि सदाऽवस्थितत्वात् 'सप्रदेशाः' इत्येकः, यदा तु तदन्ये ज्ञानं विमुच्य मत्यज्ञानादितया परिणमन्ति तदा एकादिसंभवेन 'सप्रदेशाश्च अप्रदेशश्च' इत्यादि भङ्गकद्वयम् , इत्येवं भङ्गकत्रयमिते. पृथिव्यादिषु तु 'सप्रदेशाश्व अप्रदेशाश्च' इत्येक एव इत्यत आह:-'एगिदियवज्जो तियभंगो'ति इह च त्रयेऽपि सिद्धा न वाच्याः, विभङ्गे तु जीवादिषु भङ्गत्रयम् , तद्भावना च मत्यज्ञानादिवत् , केवलमिह एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियाः, सिद्धाश्च न वाच्या इति. 'सजोई जहा ओहिय' त्ति सयोगी जीवादिदण्डकद्वयेऽपि तथा वाच्यो औधिको जीवादिः, स च एवम्:-सोगी जीवो नियमात् सप्रदेशः, नारकादिस्तु सप्रदेशः, अप्रदेशो वा, बहवस्तु जीवाः सप्रदेशा एव, नारकाद्यास्तु त्रिभङ्गवन्तः, एकेन्द्रियाः पुनस्तृतीयभङ्गवन्त इति. इह सिद्धपदं नाऽध्येयम् . ' मणजोई ' इत्यादि. मनोयोगिनो योगत्रयवन्तः-संज्ञिन इत्यर्थः, वाग्योगिन एकेन्द्रियवर्जाः, काययोगिनस्तु सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयः-एतेषु च जीवादिषु त्रिविधो भङ्गः, तद्भावना चः-मनोयोग्यादीनामवस्थितत्वे प्रथमः, अमनोयोगित्वादित्यागाच मनोयो गत्वाद्यत्पादेनाऽप्रदेशत्वलाभेऽन्यभङ्गकद्वयमिति. नवम्:-काययोगिनो ये एकेन्द्रियास्तेषु अभङ्गकम्-' सप्रदेशाः अप्रदेशाश्व' इत्येक एव भङ्गक इत्यर्थः, एतेषु च योगत्रयदण्डकेषु जीवादिपदानि यथासंभवम् अध्येयानि, सिद्धपदं च न वाच्यम् इति. 'अजोगी जहा अलेस' त्ति दण्डकद्वयेऽपि अलेश्यसमवक्तव्यत्वात् तेषाम् , ततो द्वितीयदण्डके अयोगिषु जीव-सिद्धपदयोर्भङ्गकत्रयम् , मनुष्येषु च षभङ्गी इति. ' सागार' इत्यादि. साकारोपयुक्तेषु, अनाकारोपयुक्तेषु च नारकादिषु त्रयो भङ्गाः, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु ' सप्रदेशाश्व अप्रदेशाश्च' इत्येक एव. तत्र चाऽन्यतरोपयोगाद् अन्यतरगमने प्रथमे-तरसमयेषु अप्रदेशत्व-सप्रदेशत्वे भावनीये; सिद्धानां त्वेकसमयोपयोगित्वेऽपि साकारस्य, इतरस्य चोपयोगस्याऽसकृत् प्राप्या सप्रदेशत्वम् , सकृत् प्राप्या चाऽप्रदेशत्वम् अवसेयम् ; एवं चाऽसकृदवाप्तसा. कारोपयोगान् बहूनाऽऽश्रित्य 'सप्रदेशाः' इत्येको भङ्गः, तानेव, सकृदवाप्तसाकारोपयोगं च एकमाश्रित्य द्वितीयः, तथा तानेव, सकृदवाप्तसाकारोपयोगांश्च बहून् अधिकृत्य तृतीयः; अनाकारोपयोगे तु असकृतप्राप्ताऽनाकारोपयोगान् आश्रित्य प्रथमः, तानेव, १.५० छा:-क्रोघे माने मायायां योद्धव्याः सुरगणैः पर महाः, माने मायायां लोमे नैरयिकैरपि षन भङ्गाः-अनु . Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. सकृत्प्राप्ताऽनाकारोपयोगं चैकम् आश्रित्य द्वितीयः, उभयेषामपि एकत्वे तृतीय इति. 'सवेयगा य जहा सकसाइ' ति सवेदानामा, जीवादिपदेषु भङ्ग त्रयभावात् एकेन्द्रियेषु चैकभङ्गकसद्भावात् , इह च वेदप्रतिपन्नान् बहून् , श्रेणिभ्रंशे च वेदं प्रतिपद्यमानक.न् एकादीनपक्ष्य भद्गकत्रयं भावनीयम्:-- इवेयगा' इत्यादि. इह वेदाद् वेदान्तरसंक्रन्तौ प्रथमे समयेऽप्रदेशत्वम् , इतेषु च सप्रदेशत्वम् अवगम्य भङ्गकत्रयं पूर्ववद् वाच्यम् . नसकवेददण्डकयोस्तु एकेन्द्रियेषु एको भाक:- सप्रदेशाश्च अप्रदेशाच' इत्येवरूपः प्रागुक्तयुक्तरेवेति. स्त्रीदण्डक पुरुषदण्डकेषु देव-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्-मनुभ्यपदान्येव, नपुंसकदण्डकयोस्तु देववानि वाच्यानि; सिद्धपदं च सर्वेष्वपि न वाच्यमिति. ' अयगा जहा अकसाइ' ति जीव-मनुष्य-सिद्धपदेषु भङ्गकत्रयम् अकषायिवद् वाच्यमित्यर्थः. 'ससरीरी जहा ओहिओ'त्ति औधिकदण्डकवत् सशरीरिदण्डकयोजीवपदे सप्रदेशता एव वाच्या, अनादित्वात् सशरीरत्वस्य नारकादिषु तु बहुवे भागकत्रयम् . एकेन्द्रियेषु तृतीयभग इति. 'ओरालिय-वेउन्धिय-सरीराणं जीवे-गिदियवज्जो तिभंगो' त्ति औदारिकादिशरीरसत्वेषु, जीवपदे, एकेन्द्रियपदेषु च बहुत्वे तृतीयभङ्ग एव, बहुनां तेषु प्रतिपन्नानाम् , प्रतिपद्यमानानां चाऽनुक्षणं लाभात् , शेषेषु भङ्गकत्रयम् . बहूनां तेषु प्रतिपन्नानाम् , तथा औदारिक-बैक्रियत्यागेन औदारिकम् , वैक्रियं च प्रतिपद्यमानानाम् एकादीनां लभात् . इह औदारिकदण्डकयो रकाः, देवाश्च न वाच्याः; वैक्रियदण्डकयोस्तु पृथिव्य-प्-तेजोवनस्पति-विकलेन्द्रिया न वाच्याः. यश्च वैक्रियदण्ड के एकेन्द्रियपदे तृतीयभङ्गोऽभिधीयते स वायूनामसंख्यातानां प्रतिसमपं वैक्रियकरणमाश्रित्य, तथा यद्यपि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च वैक्रियलब्धिमन्तोऽत्ये, तथापि भङ्गकत्रयवचनसमा बहूनां वैक्रियाऽवस्थानसंभवः, तथैकादीनां तत् प्रतिपद्यमानता च अवसेया. 'आहारगार इत्यादि. आहारकशरीरे जीव-मनुष्ययोः षड् भङ्ग हाः पूति एव, आहारकशरीरिणाम् अल्पवात्-शेषजीवानां तु तन्न संभवतीति. 'तेयग।' इत्यादि. तैजस-कार्मणशरीरे समाश्रित्य जीवादयस्तथा वाच्याः यथा औधिका:-ते एव, तत्र च जीवाः सप्रदेशा एव वाच्याः; अनादित्वात् तैजसादिसंयोगस्य, नारकादयस्तु त्रिभङ्गाः, एकेन्द्रियास्तु तृतीयभङ्गाः. एतेषु च शरीरादिदण्डकेषु सिद्धपदं नाऽध्येयम् इति. ' असरीरा' इत्यादि. अशरीरेषु जीवादिपु सप्रदेशतादित्वेन वक्तव्येषु जीव-सिद्धपदयोः पूर्वोक्ता त्रिभङ्गी वाच्या, अन्यत्र अशरीरत्वस्याऽभावाद् इति. ' आहारपज्जतीए 'इयादि. इह च जीवपदे, पृथिव्यादिपदेषु च बहूनाम् आहारादिपर्याप्तीः प्रतिपन्नानां तदपर्याप्तित्यागेनाऽऽहारपर्याप्त्यादिभिः पर्याप्तिभावं गच्छता च बहूनामेव लाभात् ' सप्रदेशाश्च अप्रदेश.श्च' इत्येक एव भङ्गः, शेषेषु तु त्रयो भङ्गा इति. 'भाता-मण-' इत्यादि. इह भाषामनसोः पर्याप्तिः-भाषा--मनःपर्याप्तिः, भाषा-मनःपर्याप्योस्तु बहुश्रुताऽभिभतेन केनाऽपि कारणेन एकत्वं विवाक्षतम् , ततश्च तया पर्याप्तका यथा संज्ञिनस्तथा सप्रदेशादितया वाच्याः, सपदेषु भङ्गकत्रयमित्यर्थः. पञ्चेन्द्रियपदान्येव चेह वाच्यानि. पर्याप्तीनां च इदं स्वरूपमाहु:-येन करणेन भुक्तमाहारं खलम् , रसं च कर्तुं समर्थो भवति तस्य कर गस्य निष्पत्तिराहारपर्याप्तिः, करणम् , शक्तिरिति पर्यायौ. तथा शरीरपर्याप्तिर्नाम येन करणेन औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारकाणां शरीराणां योग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा औदारिकादिभावेन परिणमयति, तस्य करणस्य निर्वृत्तिः शरीरपर्याप्तिरिति. तथा येन करणेन एकादीनाम् इन्द्रयाणां प्रायोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा आत्मीयान् विषयान् ज्ञातुं समर्थो भवति, तस्य करणस्य निर्वृत्तिरिरिन्द्रियपर्याप्तिः. तथा येन करणेनाऽऽन-प्राणवायोग्यानि द्रव्याणि अवलम्ब्य अवलम्ब्य आन-प्राणतया निःस्रष्टुं समर्थो भवति, तस्य करणस्य निर्वृत्ति:-आन-प्राणपर्याप्तिरिति. तथा येन करणेन स .यादिभाषायाः प्रायोग्यानि द्रव्याणि अवलम्ब्याऽवलम्ब्य चतुधभाषया परिणमय्य भाषानिसर्जनसमर्थो भवति, तस्य करणस्य निष्पत्तिर्भाषापर्याप्तिः. तथा येन करणेन चतुर्विधमनोयोग्यानि द्रव्यःणि गृहीत्वा मननसमर्थो भवति, तस्य करणस्य निष्पतिर्मनःपर्याप्तिरिति. 'आहारअपज्जत्तीए' इत्यादि. इह जीवपदे, पृथिव्य दिपदेषु च 'सप्रदेशाश्च अप्रदेशाश्च इत्येक एव भङ्गकः-अनवरतं विग्रहगतिमतामहाराऽपर्याप्तिमतां बहुना लाभात्. शेषेषु च षड् भङ्गाः पूर्वोक्ता एव-आहारापर्याप्तिमतामल्पत्य.त्. ' सरीरअपज्जत्तीए ' इत्यादि. इह जीवेषु, एकेन्द्रियेषु, च एक एव भङ्गः, अन्यत्र तु त्रयम्-शरीराद्यपर्याप्तिकानां कालतः सप्रदेशानां सदैव लाभात् , अप्रदेशानां च कदाचिद् एकादीनां च लाभात् . नारक-देव-मनुष्येषु च षड् एव इतेि. 'भासा' इत्य.दि. भाषा-मनोऽपर्याप्या अपर्याप्तकाते येषां जातितो भाषा-मनोयोग्यत्वे सति तदसिद्धिः-ते च पञ्चेन्द्रिया एव, यदि पुनर्भापा-मनसोर भावनात्रेण तदपर्याप्त का अभ वेध्यस्तदा एकेन्द्रिया अपि तेऽभविष्यस्ततश्च जीवपदे तृतीय एव भङ्गः स्यात् , उच्यते चः- जीवाइओ तियभंगो 'त्ति तत्र जीवेषु, पञ्चन्द्रियतियक्षु च बहूनां तदपतिं प्रतिपन्नानाम् , प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां लाभात् पूर्वोक्तमेव भङ्गत्रयम् . ' नेरइय-देव मणुएसु छम्भंग ' ति नैरयिकादिषु मनोऽपर्याप्तकानाम् अल्पतरत्वेन सप्रदेशा-ऽप्रदेशानाम् एकादीनां लाभ.त् त एव षड् भङ्गाः एषु च पर्याप्य-पर्यप्तिदण्डकेषु सिद्धपदं नाऽध्येयम्-असंभवाद-इति. पूर्वोक्तद्वाराणां संग्रहगाथा:-'सपएसा ' इत्यादि. 'सपएस 'त्ति कालतो जीवाः सप्रदेशाः, इतरे च एकत्व-बहुत्वाभ्यामुक्ताः. 'आहारग' त्ति आहारकाः, अनाहारकाश्च तथैव. ' भग्यि'ति भव्याः, अभव्याः, उभयनिषेधाश्च तथैव. 'सन्नि' त्ति संज्ञिनः, असंज्ञिनः, द्वनिषेधवन्तश्च तथैव. ' लेस' सलेश्या:-कृष्णादिलेश्याः, अलेक्याश्च तथैव, दिहि' त्ति दृग् दृष्टिः-सम्यग्दृष्ट्यादिका, तद्वन्तस्तथैव. संजय ' त्ति संयताः, असंयताः, मिश्राः, त्रयनिषेधिनश्च तथैव. ' कसाइ' त्ति कषायणः क्रोधादिमन्तः, अकषायाश्च तथैव. नाणे ' ति ज्ञानिन:-आभिनिबोधिकादिज्ञानिनः, अज्ञानिनो मत्यज्ञानादिमन्तश्च तथैव, Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक ४. 'जोग' त्ति सयोगाः-मन-आदियोगिनः, अयोगिनश्च तथैव. 'उवओगे' त्ति साकारा-ऽनाकारोपयोगास्तथैव. 'वेदे' त्ति सवेदाःस्त्रीवेदादिमन्तः, अवेदाश्च तथैव. 'ससरीर' त्ति सशरीरा औदारिकादिमन्तः, अशरीराश्च तथैव. 'पज्जत 'त्ति आहारादिपर्याप्तिमन्तः, तदपर्याप्तिकाश्च तथैवोक्ता इति. १. आगळना उद्देशकमा जीवन निरूपण कर्यु छे. अने हवे आ चोथा उद्देशकमां पण ते ज जीवने बीजे प्रकारे निरूपता [ जीवे णं' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. [ कालादेसणं' ति] कालना प्रकार वडे, कालने आश्रीने अर्थात् कालनी अक्षाए, [' सपएसे' ति] विभाग सप्रदेश. सहित. [ नियमा सपएसे 'त्ति ] अनादिपणाने लीधे जीवनी अनंत समयनी स्थिति होवाथी तेने ( जीवने ) सप्रदेशपणुं छे–जे एक समयनी स्थितिवाळो होय ते काळनी अपेक्षाए अप्रदेश छे अने जे एकथी वधारे एटले बे वगरे समयनी स्थितिवाळो होय तो ते कालनी गाथा. अपेक्षाए सप्रदेश छे. अहिं आ गाथावडे मावना करवी अर्थात् सप्रदेश अने अप्रदेश- स्वरूप आ गाथाने अनुसार जाणवुः " जे जीव प्रथम समये जे भावमां वर्ततो होय ते जीव अप्रदेश कहेवाय अने प्रथम सिवायना समयमां-बीजा, त्रीजा वगरे समयमां-वर्ततो ते ज जीव कालादेशवडे सप्रदेश कहेवाय " जे नैरयिक जीवने उत्पन्न थयां प्रथम (एक ) ज समय थयो छेते कालादेशवडे अप्रदेश कहेवाय अने वळी प्रथम पछीना बे वगेरे समयमा वर्ततो ते ज नैरयिक जीव, कालादेशवडे सप्रदेश कहेवाय, माटे का छे के, [ · सिय सप्पएसे, सिय छब्बीश-दंडक, अप्पएसे' ] एटले कोइ सप्रदेश होय अने कोइ अप्रदेश होय. ए प्रमाणे जीवथी मांडीने सिद्ध सुधीना छब्बीश दंडकमा आवता दरेक जीव माटे एक संख्याने आश्री-एक वचनथी-कालनी अपेक्षाए सप्रदेशत्वादिभावे विचार कर्यो, हवे तेम ज, ए ज छब्बीश दंडक परत्वे पृथक्त्वभावे बहुत्व. -बहुपणे—विचार करीए छीएः [ ' सव्वे वि ताव होज्जा सपएस' ति ] उपपात-उत्पत्ति-ना विरह काळमां पूर्वोत्पन्न जीवोनी संख्या, असंख्यात होवाथी बधा पण सप्रदेश होय, तथा पूर्वोत्पन्न नैर यकोमा ज्यारे बीजो एक पण नैरयिक उत्पन्न थाय त्यारे प्रथम समयना उत्पन्नपणाने नैररिक. लइने तेनुं अप्रदेशपणुं होवाथी ते अप्रदेश कहेवाय अने ते सिवायना बाकीना नैरयिकोर्नु बे वगरे समयमां-पेला समय पछी । समयोमां हयातपणुं होवाथी तेओना सप्रदेशपणाने लइने तेओ सप्रदेश कहेवाय, माटे कहेवाय छे के, [' सप्परसा य, अपएसे' यत्ति ] केटलाक सादेश अने एकाद अप्रदेश. ए प्रमाणे ज्यारे घणा जीवो उत्पद्यमान होय त्यारे एम कहेवाय के ['सप्पएसा य अपएसा य'त्ति ] एटले केटलाक सप्रदेश छे अने केटलाक अप्रदेश छे, अने एक काळे एकादि नैरयिको उत्पन्न पण थाय छे, कहां छे के " एक, बे, त्रण, संख्याता अने पृथिवी. असंख्याता जीवो एक समयमा उत्पन्न थाय छे अने एटला ए ज प्रमाणे उद्वर्ते छे-मरे छे." [ 'पुढविक्काइया णं' इत्यादि.] पूर्वोत्पन्न अने उत्पद्यमान एकेंद्रियो धगा होवाथी [ ' सपएसा वि, अप्पएसा वि'] एटले 'केटलाक सप्रदेश छे अनें केटलाक अप्रदेश छे' एम के हेवाय छे. वेइंद्रियादि. [ सेसा जहा नेरइया' इत्यादि.] जे प्रमाणे त्रण अभिलापथी नैरयिको कला ते प्रमाणे बाकीना बेइंद्रिय वगेरे सिद्ध सुधीना जीवो जाणवा, हारक-अनहारक. कारण के ए वधाने विरहनो संभव होवाथी एओनी एकादिनी (एक, बे, त्रण, चार वगैरेनी) उत्पत्ति छे. ए प्रमागे आहारक अने अनाहारक शब्दथी विशेषित थएला जीवोना एकवचनथी एक, अने बहुवचनथी एक ए प्रमाणे बे दंडक कहेवा, कहेवानो क्रम आ प्रमाणे छे:-'हे भगवन् ! शुं आहारक जीव कालादेशथी सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? हे गतिम ! कदाच सप्रदेश छे अने कदाच अप्रदेश छे' इत्यादि-ते क्रम पोतानी बुद्धि अनुसार कहवो, तेमा जे जीव ज्यारे विग्रहमां अथवा केवलि-समुद्घातमां अनाहारक थइने फरीथी आहारकपणुं प्राप्त करे त्यारे आहारकपणाना प्रथम समयमा वर्ततो ते जीव अप्रदेश कहेवाय अने बीजा वगरे समयमां तो वर्ततो ते आहारक जीव सप्रदेश कहवाय माटे कहवाय छे के, [ सिय सपएसे, सिय अपएसे 'त्ति ] एटले कदाच कोइ सप्रदेश अने कोइ अप्रदेश. ए प्रमाण बधा य पण आदिवाळा भावोमां-पदार्थोमां, -एकवचनमा जाणी लेवु अने अनादिवाळा भालोमां तो [ ' नियमा सपएसे ' त्ति ] एटले । चोक्कस सप्रदेश छे' एम समजी लेवु. अभिलाप. बहुवचनवाळा दंडकमां तो आ प्रमाणे अभिलाप जाणवोः-'हे भगवन् ! शु आहारक जीवो कालादेशथी सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? हे गौतम ! सप्रदेश पण छे अने अप्रदेश पण छे, कारण के, ते आहारकपणामां रहेला घणा जीवो होवाथी तेओर्नु सप्रदेशपणुं छे तथा घणाओने विग्रहगति पछी तरत ज प्रथम समयमा आहारकपणानो संभव होवाथी तेओर्नु अप्रदेशप' पण छे-ए प्रमाणे आहारक जीवोमां सप्रदेशपणुं अने अप्रदेशपणु- ए बन्ने लामे छे माटे ज ' सप्रदेशो पण अने अप्रदेशो पण ' एम कर्तुं छे, ह प्रमाणे पृथिवी वगरे पण कहेवा. अने नारकादि तो बळी त्रण विकल्पवडे कहेवा, ते जेमके; 'हे भगवन् ! शुं आहारक नैरयिको ( कालादेशथी ) सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? हे गौतम ! बवा पण १ सप्रदेश होय, अथवा २ केटलाक सप्रदेश होय अने एकाद अप्रदेश होय ३ अने केटलाक सप्रदेश होय तथा केटलाक अप्रदेश होय, ए ज वातने को छ:[ ' आहारगाणं जीव-एगिदियवज्जो तियभंगो' ] एटले एक जीवपदने अने एकेंद्रियनां पांच पदने वर्जीने त्रण भांगा कहेवा, आ स्थळे 'सिद्धपद ' तो न कहे, कारण के, तेओ (सिद्धो ) अनाहारक ज छे, ए प्रमाणे अनाहारक जीवोने लगता पण (एकत्वनो एक अने बहुत्वनो एक एम ) बे दंडक अनुसरवा, तेमां विग्रहगतिरे प्राप्त जीव, समुद्घातगत केवली, अयोगी अने सिद्ध-ए बधा अनाहारक छे, अने तेओ वधा अनाहारकपणाना प्रथम समये वर्तता होय तो अप्रदेश कवाय अने बीजा वगेरे समयमा वर्तता होय तो सप्रदेश कहेवाय, माटे कयुं छे के, कदाच सप्रदेश होय ' वगरे. बहुपणाना दंडकमां विशेषता कहे छे के, [ ' अपाहारगाणं ' इत्यादि.] जीवोने अने एकेन्द्रियोने वर्जे ते 'जीवकेन्द्रिय वर्ज' कहेवाय-तेओने वर्जीने, जीवपदमा अने एकेन्द्रियपदमां [ ' सपएसा य अपएसा य ' ] एटले 'केटलाक सप्रदेशो अने केटलाक अप्रदेशो' -ए प्रमाणे एक ज मांगो थशे, कारण के, ते बन्ने पदमा विग्रहगतिने प्राप्त एवा अनेक सप्रदेश जीवो अने अनेक अप्रदेश जीवो लाभे के. नैरयिक बगेरेनो तथा बेइंद्रिय वगेरेनो थोडाओनो उत्पाद थाय छे अने तेमां एक, बे वगरे अनाहारको होवाथी छ भंगो थवानो संभव छे, ते छ भागामां बे भांगा तो बहुवचनांत छे अने बीजा चार भांगा तो एकवचन अने बहुवचनना संयोगथी थया छे, ठेकाणे केवल एकवचनना बे भांगा नथी, कारण के, अहिं बहुपणानो अधिकार छे. [ सिद्धहिं तियभंगो' ति ] एटले सिद्धोमां त्रण भांगा थाय, कारण के, तेमां सप्रेदश पद १. सप्रदेशो (१). अप्रदेशो (२). २. सप्रदेश अनदेश (३). सनदेश अप्रदेशो (४). सप्रदेशो अप्रदेश (५). सप्तदेशो अप्रदेशो (६):-अनु. Jain Education international Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसत्र. बहुवचनवाळु ज संभवे छे. [ ' भवसिद्धीय अभवसिद्धीय जहा ओहिय ' त्ति ] आ वाक्यनो अर्थ आ प्रमाणे छ:-भवसिद्धिक अने अभवसिद्धिक भन्य-भव्य, -एओना प्रत्येकना बे दंडक छे-ते औधिक-सामान्य जीव-ना दंडकी पेठे जाणवा, अने तेमां भव्य अने अभव्य जीव चक्कस सप्रदेश छे अने नैरयिकादि जीव तो सप्रदेश अथवा अप्रदेश छे, घणा जीवो तो सप्रदेश ज होय छे, नैरयिकादि जीवो तो त्रण मांगावाला छे, अने वळी, एकेन्द्रिय जीवो ' सप्रदेशो अने अग्रदंशो'ए प्रमाणे एक ज भांगावाळा छ, अहिं भव्य अने अभव्यना प्रकरणमा · सिद्धपद ' न कहे, कारण के, सिद्धोमां 'भव्य ' अने अभव्य ' ए बन्ने विशेषणोनी उपपत्ति थती नथी अर्थात् सिद्धा, भव्य के अभव्य कहेवाता नथी, तथा [ ' नोभवसिद्धिय- नोभव्य-नोअभव्य. नोअभवसिद्धिय 'त्ति] अर्थात् ' भव्य नहि ' अने ' अभव्य नहि ' एवा विशेषणवाळा जीवादिक बे दंडक कहेवा-तेने लगतो अभिलाप आ प्रमाणे छ:-- हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक जीव अने नोअभवसिद्धिक जीव सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? '. इत्यादि. ए प्रमाणे पृथक्त्व-बहुपणानोदंडक पण कहेवो, मात्र अहिं जीवपद अने सिद्धपद, ए पद ज कहेवां, कारण के, नैरयिकादिने ‘नोभव्य ' के 'नोअभव्य ' ए विशषणनी अनुपपत्ति छे एटले ए बे विशेषण नैरयिकादिने लागी शकतां नथी, अने पृथक्त्वदंडकमां पूर्वोक्त त्रण भांगा अनुसरवा, माटे ज कां छे के, [ 'जीवसिद्धेहिं तियभंगो' ति. ] संज्ञिओमा जे बे दंडक छे तेमां बीजा दंडकमां जीवा दिपदोमां त्रण भांगा थाय छे माटे क छ के, ['सन्निहि , संशी. इत्यादि.] तेमां चिरोत्पन्नोनी-लांबा काळथी उत्पन्न थएलानी-अपेक्षाए संज्ञिज.वो कालथी 'सरदेशो 'छे अने उत्पाद विरहनी पछी ज ज्या एक जीवनी उत्पत्ति थाय त्यारे सेना प्रथमपणामां 'सप्रदेशो अने अप्रदेश 'ए प्रमागे कहेवाय तथा ज्यारे घणाओनी उत्पत्तिनुं प्रथमपणुं हत्य त्यारे तो ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो' एम कहेवाय, ते ए प्रमाणे त्रण मांगा जागवा, ए प्रमाण वधा पदोमां जाणवू. मात्र ए ब दंडकमा एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय अने सिद्ध पदो न कहवां, कारण के, तेओमां · संज्ञी ' ए विशेषणनो असंभव छे. [ ' असन्नीहि ' इत्यादि. ] आ वाक्यनो अर्थ आ असशी.. छे:-असंज्ञिओमां एटले पृथिव्यादिपदोने वर्जीने असंझिओ परत्वे बीजा दंडकमां प्रथम दर्शायला ज पण भांगा जाणवा अने पृथिव्यादिपदोमां 'सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो जाणवो, कारण के, ते पृथिवीकायादिमां हमेशा घणा जीवोनी उत्पत्ति होवाथी तेओना अप्रदेशपणानुं बहुत्व पण संभवे छे. नैरयिकोथी मांडी व्यंतर सुधीना संज्ञी जीवोनुं पण असंज्ञीपणु जाणवू, कारण के अनेक असंज्ञिओ पण मरण पामीने नैरयिकादि व्यंतर सुधीना जीवोमा उत्पन्न थाय छे माटे भूतभावनी अपेक्षाए-भूतकाळे ' असंज्ञी हता' ते अपेक्षाए-नैरयिकादि व्यंतरांत जीवो, भूतभाव. जेओ संज्ञी छे तो पण असंज्ञी जाणवा, तथा नैरयिकादिमां असंज्ञिपणुं कादाचिल्क होवाथी एकपणानो अने बहुपणानो संभव छे माटे छ भांगा थाय छे अने ते छ भांगा दर्शाच्या ज छे, ए ज कहे छ के, [' नेरइअ-देव-मणुए -इत्यादि.] आ असजिप्रकरणमां ज्योतिष्क, वैमानिक अने सिद्धो न कहेवा, कारण के, तेओने असंज्ञिपणानो संभव नथी. तथा ' नोसंज्ञी · अने 'नोअसंज्ञी ' विशेषणवाळा बे दंडकमां बहुत्वरूप बीजा दंडकमां जीव, मनुष्य अने सिद्धपदमा उक्तरूप-प्रथमनी जेवा-त्रण भांगा थाय छे, कारण के, तेओमां घणा अवस्थितो लाभे छे अने उत्पद्यमान एकादिनो तेओमां संभव छ, ए बे दंडकमा जीव, मनुष्य अने सिद्धपदो ज कहेवां, कारण के नैरयिकादिपदोने · नोसंज्ञी' अने ' नोअसंज्ञी' ए बन्ने विशेषणो घटतां नथी. सलेश्य-लेश्यावाळा-ना बे दंडकमां जीव अने नैरयिको औधिक-सामान्य-दंडकनी पेठे कहेवा, कारण के, जीवत्वपणानी लेश्या. पठे सलेश्यपणुं पण अनादिनु ज छे-तथी ए बन्नेमां कोई प्रकारनी विशेषता जणाती नथी, मात्र रालेश्य अधिकारमा सिद्धाद न कहे, कारण के, तेओ-सिद्धो-लेश्या विनाना छे. कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा अने कापोतलेश्यावाळा जीवो अने नैरयिकोना-प्रत्येकना बे दंडक आहारक जीवादिनी पेठे उपयोग पूर्वक-सावधानता पूर्वक कहेवा, मात्र जन-जे जीव, नैरयिकादिने-ए लेश्या-कृष्णादि लेश्या-होय ते ज अहिं कहवो, एज कहे छे:[कण्हलेस्सा' इत्यादि.] ए कृष्णादि-लेश्याओ, ज्योतिष्कोने अने वैमानकोने नधी होती अने सिद्धोने तो ते बधीमांनी कोइ पण लेश्या नधी ज होती. तेजोलेश्याना वीजा दंडकमां जीवादिपदोमां ते ज श भांगा कहवा, अने बळी पृथिवी, जल अने वनस्पतिओमा छ भांगा कहवा, कारण के, ते पृथिवी वगरेमा तेजोलेश्यावाळा एकादि देवो, जेओ पूर्वोत्पन्न होय छे, तेम उत्पद्यमान होय छे, तेओ लामे छे, माटे सप्रदेशन अने अप्रशोनु एकपणुं अने बहुपणुं संभवे छे, ए ज कहे छ:-[ 'तेउलेस्साए ' इत्यादि.] आ स्थळे-तंजॉलस्याना प्रकरणमां नरयिक, तेज-अग्नि,वायु, विकलेन्द्रिय अने सिद्ध, एटलां पदो न कहेबां, कारण के, एओने तेजोलेश्या नथी होती अने पद्मलेश्याना तथा शुक्ललेल्याना बीजा दंडकमां जीवादिपदोमां तेज बण भांगा कहेवा, एज कहे छ:-[ 'पझलेस्सा' इत्यादि.] ८ळी, आ पद्मलेश्याना अने शुक्ललेश्याना प्रकरणमा पंचेंद्रियतियेच, मनुष्य अने वैमानिकपदो ज कहेवां, कारण के, बीजाओमां ते बे लेश्याओ नथी होती, अलेश्य-लेश्यारहित-जीवना एकत्व अने अने बहुत्वरूप वे दंडकमां जीव, मनुष्य अने सिद्ध पदो ज कहेवां, कारण के, बीजाओने लेश्यारहितपणानो संभव नथी, अने तेमां जीव अने सिद्धना ते जत्रण भांगा जाणवा, मनुष्योमां तो छ भांगा जाणवा, कारण के, अलेश्यपणाने प्रतिपन्न-पामला-अने अलेश्यपणाने प्रतिपद्यमानपामता-एकादि मनुष्योनो संभव होवाथी सप्रदेश णामां अने अप्रदेशपणामां एकत्वनो अने बहुत्वनो संभव छे-आ ज वातने कहे छः-['अलेसेहि अलग्या. इत्यादि. ) सम्यग्दृष्टिना व दंडकमा, सम्यग्दर्शननी प्राप्तिना प्रथम समये अप्रदेशपणु छ अन पछीना वीजा बगेरे समयोमा सप्रदेशपणुं छे, तेमां बीजा दंडकमां जीवादिपदोनों तथैव- पूर्वोक्तानुसार-त्रण भांगा जाणया अने विकलेंद्रियोमा तो छ भांगा जाणवा, कारण के, ते विकलेंद्रियोनां पूर्वोत्पन्न अने उत्पद्यमान एकादि सासादनसम्यग्दृष्टिओ लाभ छे माटे सप्रदेशत्वमा अने अग्रदेशत्वमा एकत्वनो अने बहुत्वनी संभव छे. ए ज कहे है:-[ ' सम्मदिट्ठीहिं ' इत्यादि.] आ सम्यग्दृष्टिद्वारमा एकेंद्रिय पदो न कहत्रां, कारग के, तेओनां सम्यग्दर्शन नथी होतु. [ 'मिच्छदिट्टीहि सम्यग्दृष्टि-मिथ्य दृष्टि. इत्यादि. ] मिथ्यादृष्टिना बीजा दंडकमां जीवादि पदोमा त्रण भांगा कहेवा, कारण के, मिथ्यात्यने प्रतिपन्न घणा छे अने सम्यस्वथी भ्रष्ट थया पछी मिथ्यात्वने प्रतिपद्यमान एकादि जीवो संभवे छे-एम करीने त्रण भांगा जाणवा; अने वळी, अहीं मिथ्यादृष्टिना अधिकारमा एकेन्द्रियपदोमा 'सप्रदेशो अने अप्रदेशो' ए प्रमाणे एक ज भांगो छे, कारण के, ते एकद्रियोमा अवस्थितो अन उत्पद्यमानो घणा होय छे, अहिं सिद्धो न कहेवा, कारण के, तेओने मिथ्यात्व नथी होतुं. सम्यमिथ्याष्टिना बहुपणाना दंडकमां [ ' सम्मामिच्छदिट्ठीहिं छन्भंगा'] ए सूत्र के अने एनो अर्थ आ छ:- सम्यगमिथ्यादृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टिपणाने पामेला अने पामता एकादि जीवो पण लाभे छ, माटे तेओमा छ भांगा छे. अहिं एटले सम्यमिध्यादृष्टिद्वारमा एकेंद्रियो, विकलेंद्रियो अने सिद्धो न कहेवा, कारण के, तेओमा सम्यमिथ्याष्टिपणानो असंभव छे. [ 'संजएहिं ' इत्यादि.] संयतोमा एटले संयतशब्दथी संयत, १. सप्रदेशो (१). सप्रदेशो अप्रदेश (२). सप्रदेशो अप्रदेशो (३):-अजुक Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक . विशेषित थएला जीवादिपदोमां व्रण भांगा जाणवा, कारण के, संयमने पामेला घणा होय छे अने संयमने पामता एकादि जीवो होय छे, अने अहिं संयतद्वारमा जीवपद अने मनुष्यपद, ए बे ज कहेबां, कारण के, बीजे स्थळे संयतपणानो अभाव छे. असंयतना बीजा दंडकमां [' असंजएहिं ' असंयत. इत्यादि. ] अहिं असंयतपणाने पामेला घणा होय छे अने संयतत्वादिथी पड्या पछी ते असंयतपणाने पामता एकादि जीवो होय छे माटे तेमां त्रण भांगा जाणवा, अने पूर्वोक्त युक्तिवडे एकेंद्रियोने लगतो तो 'सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो छ, अहिं असंयतद्वारमा · सिद्ध' संयतासंयत. पद न कहे, कारण के, सिद्धोने असंयतपणु संभवतुं नथी. संयतासंयतना बहुत्वदंडकमां [ संजयासंजएहिं ' इत्यादि. ] अहिं देशविरतिने पामेला घणा होय छे, अने संयमथी वा असंयमथी निवर्ती ते देशविरतिने पामता एकादि जीवो होय छे माटे व भांगानो संभव छे, अने अहिं संयता संयतद्वारमा जीव, पंचेंद्रियतिर्यच अने मनुष्य पदो ज कहेबां, कारण के, ते त्रण पदो सिवाय बीजे स्थळे संयतासंयतपणु संभवतुं नथी. [ 'नोसंजए' नो संयतादि. - इत्यादि ] सूत्रमा तेज भावना करवी, विशेष ए के, अहिं 'जीव' अने 'सिद्ध ' ए ये पद ज कहवां, माटे ज कयु छ के, [ 'जीव-सिडेहिं सकषाय. तियभंगो 'त्ति. ] [ ' सकसाईहिं जीवाईओ तियभंगो' ति] आ वाक्यनो अर्थ आ छे:-सकषायो-कपायवालाओ-हमेशा अवस्थित होवाथी तेओ ' सप्रदेशो ' होय छे, एम एक भांगो थयो, तथा उपशमश्रेणिथी पडता होवाथी सकषायपणाने पामता एका द जीवो लाभ छे माटे 'सप्रदेशो अने अपदेश' तथा ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे बीजा बे भांगा जाणवा, नैरयिकादिमां बण भांगा छे, ते प्रतीत ज छ [एगिदिएसु अभंगयं ' ति ] घणा भांगाओनो अभाव ते अभंगक अर्थात् एकेंद्रियोमा ‘सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज विकल्प-भांगो-थाय छे, कारण के, ते एकेद्रियोमा घणा अवस्थितो अने घणा उत्पद्यमानो लाभे छे. अहिं-कषायिद्वारमां-- सिद्ध ' पद न कहे, कारण के, सिद्धो अकषाय. कषाय रहित छे, ए प्रमाणे क्रोधादि दंडकोमा पण [' कोहकसाईहिं जीवे-गिदियवज्जो तियभंगो ' त्ति ] आ वाक्यनो अर्थ आ छे:-क्रोध कषायना बीजा दंडकमा जीवपदमा अने पृथिवी वगैरे पदोमा ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो छे अने बाकीनाओमां तो त्रण भांगा छे. शंका. शं०-जेम उपर सकषायी जीवपदमां हमणां त्रण भांगा कह्या छे तेम ज अहीं पण--क्रोधकषायिमां-त्रण भांगा न कहेता 'सप्रदशो अने अंप्रदेशो, समाधान, एवो एक ज भांगो शा माटे कह्यो ? समा०-सकषायी जीवपदमां तो उपशमश्रेणीथी पडता एकादि जीवो संभवे छे, पण अहीं क्रोध कषारिना अधिकारमा तो तेम संभवतुं नथी. किंतु अहीं मान, माया अने लोभथी निवतेला अने क्रोधने पामता जीवो घणा ज लामे छे, कारण के, ते प्रत्येके, क्रोध कषायिओनी राशी अनंत छे.-ए प्रकारे अहीं एकादिनो संभव न होवाथी सकषायीनी पेठे त्रण भांगा न थई शके. [ देवेहि छन्भंग 'त्ति । देवपदोमां तेरे दंडकोमा पण छ भागा कहेवा, कारण के, तेओमां क्रोधना उदयवाळाओगें अल्पपणु होबाधी एकपणाने अने बहुपणाने लइने सप्रदेशत्व अने अप्रदेशत्व नो संभव छे. मानकषायवाळाना अने मायाकषायवाळाना बीजा दंडकमां ['नरइअ-देवहिं छन्भंग 'त्ति ] अर्थात् नैरयिकोमा अने देवोमा मानना अने मायाना उदयवाळा थोडा ज होय छे माटे पूर्वोक्त न्यायथी तेमा छ भांगा थाय छे. 'लोहक साईहिं जीवगिदियवज्जो तियभंगो' त्ति ] आ सूत्रनी भावना क्रोधसूत्रनी पेठे करवी. [ ' नेरइएहि छन्भंग ' त्ति ] लोभना उदयवाळा नैरयिको गाथा. अल्प होवाथी पूर्वोक्त छ भांगा थाय छे, कमु छ के, "क्रोधमां, मानमा अने मायामां देवगणना छ भांगा जाणवा तथा मानमा, मायामां अने लोभी देवो अने लोभमां नैरयिकोना छ भांगा जाणवा." देवोने लोभ घणो छ अने नैरयिकोने कोध घणो छे. अकषायिना बीजा दंडकमा जीव, मनुष्य अने क्रोधी नारको. सिद्धपदमा त्रण भांगा जाणवा, कारण के, बीजा भांगाओनो असंभव छे, ए ज कहे छे, [ ' अकसाई' इत्यादि.] ['ओहियणाणे आभिऔधिक शान. निबोहियणाणे सुयणाणे जीवाईओ तियमंगो' त्ति ] मत्यादिना भेदथी अविशेषित ज्ञान ते ओधिक ज्ञान, तेमां, तथा मतिज्ञानमा अने श्रुतज्ञानमा बहुत्व दंडक संबंधे जीवादिपदोने लगता पूर्वोक्त त्रण भांगा थाय छे, तेमां औधिकज्ञानिओ, मतिज्ञानिओ, अने श्रुतज्ञानिओ सदा अवस्थित होवाथी तेओ सप्रदशो छ, माटे 'सप्रदेशो'ए प्रमाणे एक भांगो थयो तथा मिथ्याज्ञानथी निवर्तता अने मात्र मत्यादिज्ञानने पामता तथा मति अज्ञानथी निवर्तता अने मतिज्ञानने पामता अने श्रुत अज्ञानथी निवर्तता अने श्रुतज्ञानने पामता एकादि जीवो लाभ छे, माटे 'सप्रदेशो अने अप्रदेश, ' तथा ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो, ' ए प्रमाणे बे भांगा थाय छे, ए प्रमाणे प्रथमनो एक तथा आ बे मळी ऋण मांगा जाणवा. [' विगलिंदिएहिं छब्भंग ' त्ति ] बेइंद्रियमां, तेइंद्रियमां अने चउरिंद्रियमा सासादनसम्यक्त्व होवाथी आभिनिबोधिकादि ज्ञानवाळा एकादि जीवो संभवे छे माटे ते ज छ भांगा जाणवा, अहिं यथायोग पृथिव्यादि जीवो अने सिद्धो न कहेवा कारण के, तेओनो असंभव छे, ए प्रमाणे अवधि वगरेमां पण त्रण भांगानी भावना करवी, मात्र अवधि ज्ञानना बन्ने दंडकमां एकेंद्रियो, विकलेंद्रियो अने सिद्धो न कहेवा. मनःपर्याय बीजी वाचना. ज्ञानना बन्ने दंडकमां तो जीवो अने मनुष्यो कहेवा अने केवलज्ञानना बन्ने दंडकमां तो जीवो, मनुष्यो अने सिद्धो कहेबा, माटे ज बीजी वाचनामां आ प्रमाणे देखाय छे के, 'विण्णेयं जस्स ज अस्थि ' ति एटले जे ज्ञान जेने होय ते तेने जाणवू. [ ओहिए अन्नाणे ' इत्यादि. ] मति वगरे अशान. अज्ञानथी अविशेषित सामान्य अज्ञानमा, मति अज्ञानमा अने श्रुत अज्ञानमा जीवादिपदोमां त्रिगी थाय छे, एओ सदा अवस्थित होवाथी 'सप्रदेशो 'ए प्रमाणे प्रथम भंग थाय छे, ज्यारे तो ए अवस्थित सिवायना बीजा जीवो ज्ञानने मुकीने मतिअज्ञानादिपणे परिणमे छे त्यारे तओमां एकादिनो संभव होवाथी 'सप्रदेशो अने अप्रदेश' इत्यादि बीजा बे भांगा जाणवा अने ए प्रमाणे त्रण भांगा जाणवा, पृथिवी वगेरेमां तो 'सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो थाय छे, माटे ज कहे छे के, [ 'एगिदियवजो तियभंगो ' त्ति. ] अहिं त्रणे अज्ञानमां सिद्धो न कहेवा, विभंगमां तो जीवादिपदोमा वण भांगा जाणवा अने तेनी भावना मतिअज्ञानादिनी पेठे जाणवी, मात्र अहिं एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय अने सिद्धो न कहेवा. [ ' सजोई जहा ओहिय ' त्ति ] जेम औधिक जीवादि कह्या तेम जीवादिने लगता बन्ने दंडकमां पण सयोगी कहेवी, ते योग. आ प्रमाणे छे। --सयोगी जीव चोकस सप्रदेश छे, नैरयिकादि तो सप्रदेश पण छे अने अप्रदेश पण छे, घणा जीवो तो सप्रदेशो न छे अने नैरयिकादि जीवो तो त्रण भांगावाळा छे. वळी, एकेंद्रियादि जीवो त्रीजा भांगावाळा छ, अहिं । सिद्ध ' पद न कहेवं, [ ' मणजोई ' इत्यादि. ] मनोयोगी एटले त्रण योगवाळा अर्थात् संज्ञिजीवो, वचनयोगी एटले एकेंद्रियोने बर्जीने बाकीना जीवो अने काययोगी एटले बधा य पण एकेंद्रियादि जीवो, ए जीवादिकमां त्रिविध भंग छे, तेनी भावना आ प्रमाणे छ:--मनोयोगिओ वगेरेनुं अवस्थितपणुं होय त्यारे प्रथम भांगो जाणवो अने अमनोयोग्यादिपणुं त्यजी मनोयोग्यादिपणे उत्पाद होवाथी अप्रदेशपणाना लाभने लइने बीजा बे भांगा जाणवा, विशेष ए के, जे काययोगी एकेंद्रियो छे, तेजोमा अभंगक एटले घणा भांगा नहि पण सप्रदेशो अने अप्रदेशो 'ए प्रमाणे एक ज भांगो जाणवो, ए णे योगना दंडकोमा Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६:-उदेशक ४. स्वामी भगवतीसूत्र. C यथासंभव जीवो यां J अने सिद्ध पद न क [ अयोगी जहा लेख 'ति ] ते अयोगिनी तानी-लेयारहित जोगी समान होवाथी बने कम अयोगीनी वक्ता अनी पेठे जागावी, तेथी बीजा दंडक योग जो अने दि भांगा कश्या अने अयोगी मनुष्योगां मां का [' सागार इत्यादि ] साकार उपयोगवाव्य अनं अनाकार उपयोग गैरवाप दिमां त्रण भांगा जाणवा, जीवपदमां अने पृथिव्यादि पदोमां ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो' ए प्रमाण एक ज भांगो जाणवो अने तेओमां, बेमांथी कोइ उपयोगथी कोइ उपयोगमां जतां प्रथमतर समयोमां अपदेशत्वनी अने सप्रदेशत्वनी भावना करवी सिद्धोने तो एकसमयोपयोगिपणुं छे तो एकसमये पयेोग पण साकार उपयोगनी अने इतर - निराकार - उपयोगनी वारंवार प्राप्ति होवाथी सप्रदेशपणुं अने एकवार प्राप्ति होवाथी अप्रदेशपशुं जाणवु, अने ए प्रमाणे साकार उपयोगने वारंवार प्राप्त एवा घणा सिद्धोने आश्री ' सप्रदेशो' ए प्रमाणे एक मांगो जाणवो, अने तेओने ज तथा एकवार साकार साकार उपयोग प्राप्त एवा एक सिद्धंन आधी बी से मांगो जागो तथा तेजोगे अने एकवार साकार उपयोग प्राप्त एवा वथा सिद्धोने आधीने श्रीगो भांगो जावो. अनाकार उपयोगमां तो वारंवार अनाकार उपयोगने प्राप्त एवा घगाने आश्री प्रथम भांगो जाणवो, अने तेओने ज तथा एकवार अनाकार. अनाकार उपयोग प्राप्त एवा एक सिद्ध जीवने आश्री बीजो भांगो जाणवो अने बन्नेना पण एटले अनाकार उपयोगने एकवार प्राप्त अने वारंवार भात एना पण अमीनो भांगो जागो [सगाव जहा सकता ति] जैम सकायो का रोग वेदको पण जाणवाद. कारण के, वेळाने पण जीयादिपदम श्रग भांगा था के अने एसेंद्रियोगां एक मांगो थाय छे तेन अहं वेदने पामेला घणाने तथा अभिय , [ या साद वेदनेपासता एकादि जीवोने अपेक्षी व भांगा जाणवा. [ इत्थीय दत्यादि] बळी यार एक बेदधी बीमा वेदमा परे संक्रमण थाय त्यारे प्रथम समये अप्रदेशपणुं अने बीजा समयोमां सप्रदेशपशुं समजी पूर्वनी पेठे त्रण भांगा कहेवा, नपुंसक वेदना बन्ने दंडक मां तो एकेंद्रियोमा ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो 'ए प्रकारनो एक ज भांगो पूर्वोक्तयुक्तिथी जाणवो. स्त्रीदंडकमां अने पुरुष दंडकमां देव, पंचेद्रियतिर्यच अने मनुष्य दो ज कवां अने नपुंसकदंडकमां तो देवोने वर्जीने बीजां पदो कहेवां, अने 'सिद्ध' पद तो सर्व वेदमां पण न कहेयुं. [ 'अयगा अवेद.. हा असाच ] जीव मनुष्य अने शिद्ध ए पदोमा अदकताने आधीने अकवायिनी पेठे प्रण मांगा 6 " हेवा, समरी का अनादि, अरवि " ओहियो ति] औपिकदंबकनी पेठे सरीरीना ने डकर्मा जीवपदां सप्रदेश न कहें- कारण के, सरी कादिमां तो सरीरपणानुं बहुल्य होयी अंग मांगा हेवा अने एकेन्द्रियोग तो भी जो मांगो को [ ओरालि गिदियो तिर्मगोति औवारिकादिशरीरी एटले ओदारिकशरीरवाळा भने वैकिपरीवाळा जीओ लड़नेत्रीओ एक भागधा छे, कारण के जीवन अने एकदम अनुएले J ज 7 अने माफीनामांण भांगा यांव, कारथ के माफीना से मिले तथा औदारिकने अने बैकियने छोडी दह ( बीजा) औदारिकने अने क्रियने पामता एकादि जीवो. अऔदारिडंना व दंडकमा नरयिको अने देवो न देवा ने बेडिया ने 4 सोमपी पाणी, तेज, वनस्पति अने विकलेदियो न या अनेक बैंकिगडकमा एकेंद्रियपदमां से भीगो मांगो को छे ते, अर्थस्यात वायुओनी प्रतिक्षणे थती वैकियक्रियाने अपेक्षीने को तथा अने मनुष्यो, जो के वैश्यला थोडा तो पण ओम जे भांग का है, ने उड़ने से पंद्रियो भने मनुष्यो- जोशी संख्यामा देकियावस्थायाळा होना जोइए एम संभवे के तथा पंचेंद्रियसिचो भने मनुष्योमा एकादि जीवोने तेमी (डिवसरीरनी) प्रतिपद्यमानता जाची. [ आहार इत्यादि ] आहारक शरीरने आश्री जीवमां अने मनुष्योमां पूर्वोक्त छ मांगा जांणवा, कारण के, आहोरकशरीरवाळा थोडा छे अने बाकीना जीवोने ते आहारकशरीर संभवतुं नथी. [ ‘तेयग '- इत्यादि. ] जम औधिक कथा छे तेवी रीते तेजस अने कार्मण शरीरने आश्री जीवादि कहेवा, अने तेमां ते अधिक जीवो ज सादेशोज का कारण के जादिशरीरनो संयोग अनादि छे, अने नारकादि तो भांगावाडा हेवा तथा एडियोमा श्रीजो भांगो कहबो अने आ सशरीरादिदंडको मां सिद्ध पद न कहे. [' असुरीर - इत्यादि. ] सप्रदेशत्वादिपणे कहेवाने योग्य अशरीर जीवा. दमां अशरीर. जीवपदां अने सिद्धांत जिसंगी कवी, कारण के, जीव अने विद्ध सिवाय बीजें खळे अशरीरसंगी 'आहारती इत्यादि ] ने अहिं जीवदमां तथा पृथिव्यादिपदोमां आहारादिपर्याप्तिने पामेला धमा जीवो के तथा तेनी (आहारादिनी) अपने पी आहारादिपर्यापिडे पर्यासिभावने पामता एवज जीओ टेपदेशो अने अप्रदेशो ए प्रमाण एक ज मांगो जामको अने माफीना योगांत गाया. [भासा-रुण इत्यादि] भाषानी अने मननी जे पाक्षिकदेवाय जो के भाषानी अने मननी, एम बे पर्यातिओ छे तो पण बहुधुतोने संमत कोइ पण कारणने लइने ते बनने अहीं एक जेवी विवक्षेली छे अर्थात् ते प-बहु प्तिओने अहीं एकरूप गणेली छे, ते भाषा - मननी पर्याहिंबडे पर्याप्त जीवो जेम संज्ञी जीवो कह्या तेम सप्रदेशादिपणे कहेवा, बधा पदोमां त्रण भंग आहारादेप , या अने अहिं पंचेंद्रिय पोज आखपतनुं खरूप आ प्रमाणे समजवानुं हे आत्मा ने करण द्वारा मुक्तखाखरुप आहारनो खट अने रस का समर्थ वाय छे से करनी विपत्ति से आहारपछि कदेवाय करण अने शक्ति, ए बने , पर्याय शब्दो के एटले अजीज करण द्वारा औदारिकशरीरने किशरीरने अने आहारशरीरने योग्य द्रच्यो ( अणुओं ) ग्रहण करी ते गृहीत द्रव्योने औदारिकादि भावे परिणमावे छे ते करणनी निष्पत्ति ते शरीरपर्याप्ति, तथा आत्मा जे करण द्वारा स्पर्शादि इंद्रियोने योग्य द्रव्यो ग्रहण करीने पोताना विषयोने जाणवा समर्थ थाय छे ते करणानी निष्पत्ति ते इंद्रियपर्याप्ति, तथा, जे करण द्वारा आनप्राण योग्य द्रव्योने अवलंबी, अबलंबी ते वने आना महार वाढवा समर्थ वाय ते करपनी नियति ते आनापति तथा जे करण द्वारा सलादिभाषाने योग्य ने अपनी बीते इत्यो चार प्रकारनी भाषामा परिणमायी भाषा सिर्जनमा समर्थाय ते करणनीति ते भाषापति तथा जे करणद्वारा पार प्रकारमा गनने योग्य द्रव्योग करी आत्मा ममन करयामां समर्थ थाय ते करमनी निष्पत्ति ते मनःपर्याप्ति. [ आहारअपजती अहिं जीवपदमां अने पृथिव्यादिपदोमां ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो कहेवो, कारण के, आहारपर्याप्ति विनाना विग्रहगतिवाळा घणा जीवो निरंतर मळे छे अने बाकीना जीवोमां पूर्वोक्त ते ज छ भांगा कहेवा, कारण के बाकीनाओमां आहारपर्याप्ति विनाना थोडा जीवो होय छे. [' सरीर अपज्जतीए ' इत्यादि.] अहिं जीवोमां अने एकेंद्रियोमां एक ज भांगो कहवो अने बीजे तो एटले जीव अने एकेंद्रिय सिवायना इत्याद] आहाराविनी २९७ बेडसिरीज मेरे जने एकेद्रिय पदोनने शरीरो अपन , / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शेतक६-उद्देश. अपर्याप्त. जीवोमांसो पग सांगा पड़ेगा, कारण के, शरीरादिभी अपर्वात जीवो डालनी अपेक्षाए हमेशा जसो म हे अने अप्रदेशो कदाचित् एकादि भाषा अने मनना मळे छे, नैरयिक देव अने मनुष्योमा छ भांगा ज जाणवा. [' भासा इत्यादि. ] भाषानी अने मनती अपर्याप्तिथी अपर्याप्त ते जीवो कहेवाय के, जे जीवोने जन्मथी भाषानी अने मननी योग्यता होय तो पण तेनी असिद्ध होय, अने तेवा तो पंचेंद्रियो ज छे, जो वळी, जेओने भाषापर्यासिनो अने मनःपर्याप्तिनो मात्र अभाव होय तेओ भाषानी अने मननी अपर्यातिथी अपति कहलाता होय तो तेमां एकेंद्रिय पण होवा जोइर अ े जो मूळकार एकेंद्रियो होय तो जीव दमां श्रीजो ज भांगो थवो जोइए, पण तेम नथी, कारण के मूळकार कहे छे के, ['जीवाइओ तियमगो 'ति ] एटले जीवादिक ऋण मांगा कद्देवा, अर्थात् तात्पर्य ए के, जे जीवोने जन्म्थी भाषानी अने मननी योग्य होय पण तेनी असिद्धि होय ते ज जीवो अहीं भाषानी अने मनी अपायो भने पद्रियते तेनी भाषानी अने ममी) अपने पा नैरयिक- देव- मनुष्य घणा मळे छे अने तेनी अपर्याप्तिने पामता एकादि मळे छे माटे तेमां पूर्वीक जत्रण भांगा जाणवा. [' ने इ-देव- मणुएस छन्भंग ' त्ति ] नैरयिकादिमां मनअपर्याप्तकोनी अल्पतरता होवाथी तेओ एकादि सप्रदेशो अने अपदेशो मळे छे मारे तेमां ते ज छ भांगा जाणवा. आ पर्याहिना अने संनाया अपना दंडको सिद्धपद न कहे, कारण केोभव हे पूड द्वारोनी संग्राम कहे अर्थात् आ प्रकरणां आपेला सप्रदेश विषयोनी यादीने कामां जगावे छे. [' सपएसा ' इत्यादि. 1 [' सपएस ति'] आ प्रकरणमां कालनी अपेक्षाए अने एकत्व तथा बहुत्वने आश्रीने आहारक भव्य अने जीवोनी सप्रदेशता अने अप्रदेशता कही छे तथा [' आहारगति ] ते ज रीते आहारक अने अनाहारक कला छे, भव्यो, अभव्यो अने उभय संक्षी वगेरे, निषेधवाळा एटले भय नहि तेम अभव्य नहि एवा जीवो पण ते ज प्रकारे जगाया छे, संज्ञी, असंज्ञी अने बन्ने निषेधवाळा एटले संज्ञी नहि तेम लेश्या असंज्ञी नहि एवा जीवोने पण ए रीते ज समजाव्या छे, [ 'लेस ' त्ति ] लेश्या बाळा-कृष्णा दिलेदयाळा ६ अने अलेश्या - लेश्या विनाना जीवोने दृष्टि पण पूर्वी पेठे खाडे, [ दिडि सि ] हग् एटले दृष्टि से सम्म् बगेरेने ते एटले सम्या वगेरे पण पूर्व प्रमाणे का पछे, [संजय चि] संगतो असंवतो, संपतात अनेटले संपत नहि असंपत अने संवतासंवत नहि एकाने प कपाय पूर्व प्रकारे प्ररूप्या छे. [ ' कसाइ त्ति ] कयवाळा-क्रोध दिवाळा ४ अने अकषाय-कवाय रहित जीवोने पण कालादेशनी अपेक्षाए विचायी [] ज्ञानवाला आमिनिविकाविज्ञान भने अशानामाळा जीवन पण ते व रीते पाया [ओगति] योगाला मन वगेरे बोगवाय अने योगओने पण पूर्वी रीते सूचया [] साकार ने अकर वेद उपयोगपाळा २ जीवोने पण एज ते संध्या के [वंदे वि] यात्री अने वेद विनाना जी ने पूर्व जा शरीर पर्याप्त छे, [' ससरीर 'त्ति ] शरीरवाळा-औदारिकादि शरीरवाळा ५ तथा शरीर विनाना जीवोने अने छेवट [ 'पजत ' त्ति ] आहार वगेरेनी पर्याप्ति. बाळा ५ अने तेनी अपर्याप्तिबाळा ५ जीवोने पण कालादेशनी अपेक्षाए पूर्वनी ज पेठे समजाच्या छे. 4 3 ३ " ३ प्रत्याख्यान अने आयुष्य. ६. प्र० -- जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी पदखाणापचखाणी ६. उ० गोयमा ! जीवा पचपखाणी वि, अपाणी वि, पञ्चक्खाणापचक्खाणी वि. ७. प्र० - सव्वजीवाणं एवं पुण्छा ? ७. उ० – गोषमा ! मेरइया अपयखाणी जाब-पढ रिर्दिया, सेसा दो पहिया पंचिदियतिरिक्स जोगिया नो पञ्चक्खाणी, अपचक्खाणी वि, पञ्चक्खाणापचक्खाणी वि; मणूसा तिमि पि सेसा जहानेरड्या. - ८. प्र० - जीवा णं भते । किं पच्चक्खाणं जाणंति, अपच्चपाणं जाणंति, पचपखाणापचराणं जाणति है - ! ६. प्र०-हे भगवन् जीवो प्रत्य एवनी - रूपानी छे ! के प्रयापानावानी छे! ? ६. उ० -- हे गौतम! जीवो प्रत्याख्यानी पग छे, अप्रत्याख्यानी पण छे अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी पण छे. ७. प्र० प्रमाणे बघा जीयो गाठे प्रश्न करो ! ७. ४० हे गौतम! नैरविको अपव्याख्यानी छे एप्रमाणे यावत् चरिद्रय सुधीना जीनो अप्रत्यायनी कहेगा अर्थात् तेओने माटे बाकीना बे-प्रत्याख्यानी अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी- भांग प्रतिपना पंचेंद्रियवियोनिको पानी नथी पण अ रूपानी छे भने प्रत्याख्यानाप्रापानी छे अने मनुष्योने प्रणे भांगा होय छे तथा बाकीना जीवो, जेम नैरयिको कहाा तेम कहवा. ८. प्र० - हे भगवन्! शुं जीवो प्रत्याख्यान जाने छे ! अप्रत्याख्यानने जाणे छे ? के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानने जाणे छे ! १. मूलच्छायाः -- जीवा भगवन् ! कि प्रत्याख्यानिनः, अप्रत्याख्यानिनः, प्रत्याख्यानाऽप्रत्याख्यानिनः । गोतम ! जीवाः प्रत्याख्यानिनोऽपि, अप्रत्याख्यानिनोऽपि प्रत्याख्यानाडाल्याख्यानिनोऽपि सर्वजीवानाम् एवं पृच्छा ! गौतम | नैरयिकाः अप्रत्याख्यानिनः, यावत् चतुरिन्द्रियाः शेषो द्वौ प्रतिषेधः विश्वादयानिनोऽपि प्रानपि मनुष्य वा किं प्रजानन्दिया प्रायन्ति प्रानायानं जागति J / Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ ८. उ०- हे गौतम! जे पंचेंद्रियो छे ते त्रने पण जागे छे, बाकीना जीयो प्रत्यारूपानने जाणता नथी. (अप्रत्यास्थानने जाणता नथी अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानने जाणता नथी. ) ९. प्र० - हे भगवन् ! झुं जीवो प्रत्याख्यानने करे छे अप्रत्याख्याने करे छे ? के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानने करे छे ? ९. उ०- हे गौतम! जैम अधिक दंडक को तेम प्रयारूपाननी क्रिया - प्रत्याख्याननुं कर पण जाणी लेवुं. १०. प्र० - हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानथी निर्वर्तित आयुष्यवान् छे एटले शुं जीवोनुं आयुष्य प्रापानी चाय छे! अप्रत्याख्यानथी बंधायछे ? के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानथी बंधाय छ ? १०. उ०- गोयमा ! जीवा य, वेमाणिया यं पचक्खाणणि- १०. ३० हे गौतम जीवो अने वैमानिको प्रत्यायनी व्वत्तिया-(उया), म्यशिया (उया), तिथि वि; अवसेसा अपयशाणनिष्यतियाडया निर्वर्तित आयुष्याला छे, ६.उदेशक ४. ८. उ०- गोवमा जे पंचिदिया तिथि व जागति अवसेसा पञ्चवखाणं न जाणंति. ९. प्र० - जीवा णं भंते ! किं पञ्चक्खाणं कुव्वंति, अपचक्खाणं कुव्वंति, पचक्खाणापचक्खाणं कुव्वंति ? ९. उ० - जहा - ओहियो तहा कुब्वणा. मधर्मस्वामिनीत भगवती सूत्र १०. ५० जीवाणं मंते ! कि पचवाणनिम्पत्तिगाउया, अपापयतियाना पचवाणः पचमाणनिचियाया! चाणं जाणवत आउन सपएसुसम्मिय एमेए दंडगा चउरो. सेवं मते, सेनं भंते चि. 9 14 गतसामिपणीए सिरीभगवईमुते उसने चाय उसोसम्मत्तो. , , " २. जीवाऽधिकारादेव आह जीवा इत्यादि पचक्याणि ति सर्वविरताः, अपचक्याणि ति अविरता, परवाणासागि ति देशविस्ता इनि, सेसा दो पढिसेहेयव्यति प्रत्याख्यान-देशस्य रूपाने प्रतिषेधनीये, अतिवाद नारादीनाम् इति प्रत्याख्यानंचज्ञाने सति स्यादिति न च पंचिदिया वे तिण विरादयः दण्डवोक्तपञ्चेन्द्रियाः समनस्कत्वात् सम्यग्दृष्टिले सति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानादित्रयं जानन्ति इति ' अवसेसा ' इत्यादि. एकेन्द्रियविकलेन्द्रियः प्रत्याख्यानादित्र न जानन्ति अमनस्यात्वाद् इति कृतं च प्रयाख्यानं भवतीति तत्करणसूत्रम् प्रत्यास्थानम् आयुबन्धहेतुरपि भवति इत्यासूत्रम्: तत्र च जीवाय इत्यादि जीवपदे जीना प्रत्यास्थानादित्रपनिवाऽऽयुधाः पच्याः, वैमानि कपदे च वैमानिका अपि एवम् प्रत्याख्यानादित्रयवतां तेषूत्पादात् ' अवसेस त्ति नारकादयोऽप्रत्याख्यान निर्वृत्ताऽऽयुषः - यतस्तेषु तस्तेनादिता एवोपयन्ते इथपाइयादि प्रसाध्यानम् इत्येतदर्श एको दण्डकः, एवम् अन्ये अप 6 - - 4 त्रयः. " पण पानी निर्तत अने प्रत्यानी निर्तत आयुष्य बाळा छे अने बाकीना अप्रत्यास्यानची निर्वार्तित आयुष्याला जे. - संग्रहगाथा कहे छेः प्रत्यास्थान, प्रत्याशनने जाणे, ( प्रत्याख्यानने ) करे, त्रणेने ( जाणे अने करे ) आयुष्वनी निर्वृत्ति, सप्रदेश उद्देशकमा ए प्रमाणे ए चार दंडको छे. - हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे ( एम कही यावत् विहरे छे. ) श्रीमतीले चतुर्थ उद्देशके श्रीदेव २. जीवमो अधिकार चालतो होपाची ज[ ] इत्यादि सूत्र कहे छे, [[पचवखाणि ति] प्रत्ययानी एड प्रात्यायनी पसर्पति [अपचखाणि सि] अप्रयारूयानी एटले अविरतो-पिरति विनाना [ पथनापति प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी एटले कोई अंशे प्रत्याख्यानवाळा अने कोई अंश प्रयाख्यान विनाना अर्थात् देशाविरतिवाव्य [ ऐसा दो पडिसंहे- त्यख्यानाप्रत्याख्यानी. 6 " ; यव ति ] प्रायान अने देश प्रत्याख्यान ए वेनो निषेध करलो, कारण के, नरविकादि अविरत विति पिनाना होवाची तेने प्रत्याख्यान अविसावैरपि - १. मूलच्छायाः . तम । ये पञ्चेन्द्रियास्ते श्रीण्यऽपि जानन्ति, अवशेषाः प्रयाख्यानं न जानन्ति जीवा भगवन् । किं प्रत्याख्यान कुर्वन्ति, अप्रत्याख्यानं कुर्वन्ति, प्रत्याख्यानाऽप्रत्याख्यानं कुर्वन्ति ? यथा अधिकस्तथा क्रिया ( कुर्वणा. ) जीवा भगवन् किं प्रत्याख्याननिर्वर्तितायुकाः, अप्रत्याख्याननिर्वर्तितायुष्काः प्रत्याख्याना प्रत्याख्याननिर्वर्तितायुष्का ? गातम! जीवाश्थ, वैमानिकाच प्रत्याख्याननिर्वर्तितायुष्काः त्रीण्यऽपि, सनशेषाः अस्पास्वाननिवर्तितजानाति प्रदेश व एकमेकात्या तदेवं तदेवं भगवन् । इतिः -- अनु० भगवन् !, / Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६.-उद्देशक४. अमनस्क. प्रत्याख्यानमानसूत्र, अने देश प्रत्याख्याननो संभव नथी. प्रत्याख्यान त्यारे ज वइ शके ज्यारे तेनु-प्रत्याख्यान--ज्ञान होय, माटे हये प्रत्याख्यानना ज्ञानन समस्क . सूत्र कहे छे, अने तेमां [जे पंचिंदिया ते तिणि वि ' ति] नैरयिकादि अने दंडकमां कहेला पंचेंद्रियो समनरक-मनसाहत-होवाथी सम्यग्दृष्टिपणुं होय तो शपारशावडे प्रत्याख्यानादि त्रणने जाणे छे अने [' अवसेसा' इत्यादि.] बाकाना एकेंद्रियो अने विकलेंद्रियो अमनस्क प्रत्याख्यानकरणमूत्र होवाथी प्रत्याख्यानादि त्रणने जाणता नथी. प्रत्याख्यान त्यारे ज थाय ज्यारे ते कर्य होय, ते माटे हवे तत्करण-प्रत्याख्यान-करण-सूत्र कह्यु प्रत्याख्यान अने छे. तथा प्रत्याख्यान, आयुष्यना बंधमां कारण पण छे माटे प्रत्याख्यान-करण सूत्र पछी आयुष्यनुं सूत्र कहे छे, अने ते आयुष्यना सूत्रमा आयुष्य. ['जीवा य ' इत्यादि.] जीवपदमां जीवो प्रत्याख्यानादि त्रण वड़े निबद्ध आयुष्य वाळा कहेवा अने वैमानिकपदमां वैमानिको पण ए प्रमाणे कहेवा, कारण के, प्रत्याख्यानादि त्रणवाळाओनो वैमानिकोमा उत्पाद-उत्पत्ति-छे. [ 'अवसेस' ति] नैरयिकादि अप्रत्याख्यामथी बद्ध आयुष्यवाळा छे, कारण के, खरी रीते नैरायकोमा अविरतो-विरति रहित जीवो-ज उत्पन्न थाय छे, हवे उपर कहेल अर्थनी संग्रह गाथा संग्रहगाथा. कहें छे, ['पच्चरखाणं' इत्यादि.] प्रत्याख्यानने माटे एक दंडक छे, ए प्रमाणे बीजा पण त्रण एटले कूल चार दंडक समजवा. वेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६ - उद्देशक ५. तमस्काय पशुं पृथिवी कहे बाय? - पाणी कहेवाय ? - पाणी कहेवाय तेनुं कारण? तमर काय अने पाणीनी समानस्वभावता. - तमरकायनी शरूआत क्या थी?-धनी समाप्ति क्या?अरुणोदय समुद्रधी- एनी शरुआत - ब्रह्मलोकमां एनी समाप्ति - तमस्कायनो आक र केवोनीने रामप तरना मूलनी जेवो अने उपर कुकडाना गांज जियो.- तमस्कापनो विष्कंभ अने परिक्षेप वेटलो ?- तमस्कायना चे प्रकार-संख्येययोजन विस्तृत भने भसंस्वेदयोजन विस्तृत समस्काय को भोटो छ ?- शीघ्र गतिवाळो देव छ मास सुधी चाटतां पण एना पारने न पहोंची शके एवडो मोटो.-तमस्कायमां घर, हाट, गाम के संनिवेशो छ!ना. - तमस्का मां मो- मेघो संवेदे छे ? संमूछे छे ?-बरसे छे ?-हा. ते देव-करे ? असुर करे ? के नाग करे ?-१णे पण करे. - तमस्कायम बादर स्तनित अने बादर विद्युत् छे !-हा-देवकृत छे -तमस्कायमां बादर पृथिवी अने बादर अनि छे? - ना-विग्रहगतिने अप्राप्त सिवाय. - तमस्कायमां सूर्य-चंद्र विगेरे छे!ना-तेनी पडखे छे. - तमरकायम सूर्यादिनी प्रभा छे ? ना अर्थात् ए प्रभा छे पण तमस्कायरूपे परिणमेली छे. तमस्कायनो वर्ण केवो १ क ळेकाळा मां काळो वारेमा वधारे काळो तमस्काय भयंकर छे. - एथी देवो पण क्षोभ-भय- पामे- तमस्कायनां नाम केटी तेर-तम-तमस्काय. - अंधक र. - महोपकार-कार-देवदेवारोदय (क) समुद्रसेनो परिणाम - छे ? - पृथिवी नो ? पाणीनो १ के जीव वा पुद्रलनो ?-ए पाणीनो परिणाम छे-जीव भने पुलनो परिणाम छे पृथ्वीनो परिणाम नथी. तमस्कायमां जीव मात्र अनेकवार पैदा थरला छे-पण बादर पृथ्वीपणे अने बादर अग्निपणे नहि. कृष्ण जिओ केटली कही छे ?-आर.-ए ठेक्यां छे १- सनत्कुमार अने महेंद्र कल्पनी उपर अने नीचे ब्रह्मलोकना अरिष्ट विमानना पाथडामा एनो आकार अखाडानी जे समचोरस छे. पूर्वम ने पश्चिममां वे दक्षिणमां बे अने उत्तरमां बे-ए बधी परस्पर स्पर्शेली छे. - एना आयाम अने विष्कंभ विषे विचार. - एनी मोटाई विषे प्रश्न. - ए कृष्णराजिओमां घर वगेरे छे के नहि ? इत्यादि बधो तम कायनी जेवो ज विचार-विशेषमां देव करे- कृष्णराजिनां आठ नाम-कृष्णराजि - मेघराज - -मघा. म. घवती - वातपरेध-वातप्रतिक्षोभादेवपरिघा. - दवे प्रक्षोभा - ए कृष्णराज पृथिवीनो परिणाम हे पाणीनो परिणाम नथी. - एमां बादर पाणीपण- बादर अग्निपणे अने बादर वनस्प हेपने जीवो उत्पन्न थता नथी. - बाकी बीजे कोइ पण प्रकारे उत्पन्न थपला के. ए. कृष्णराजिओना आठ अवकाशांतर मां लोकांतिक विमानो-अर्ची-अर्चिमाली - वैरोचनप्रभेकर - चंद्र, भ-सूर्याभ-शुक्राभ- सुप्रतिष्ठाभ - ए आठे विमानोनी बच्चे रिष्टाभ विमान नवमुं.-ए विमानोने लगती बीजी हकीकत- आठ लोकांतिक देवोसारस्वत - आदित्य - वरुण-गर्दतोय तुषित- आव्याबाध-आग्नेय वरिष्ठ ए आठे देवोने लगती सविस्तर हकीव त. एआ विमानो शेनी उपर प्रतिष्ठित छे? वायु उपर. - जीवाभिगम. -बधा जीवो, ए विमानोमां पण उत्पन्न थरला छे मात्र देवपणे नहि - लोकांतिकनी स्थिति-आठ सागरे। पम. लोकांतिक विमानोथी लोकनो छेडो केटलो छेटो ? - असंख्येय योजन. - १.५० मते तमुक्काए ति पचति, कि - !" पुढवी तमुका ति पचति आजका पति ! " १. उ० गोपमा । नो पुडपि तमुका चि पचति, आउ तमुका ति पयति. १. प्र० - हे भगवन् । आ तमस्काय शुं कहेवाय !ॐ पृथिवी तमस्काय ए प्रमाणे कहेवाय ? शुं पाणी तमस्काय ए प्रमाणे कहेवाय १. उ०- हे गौतम! पृथिवी, ' तमस्काय ' ए प्रमाणे न कहेवाय, पण पाणी, ' तमस्काय ' ए प्रमाणे कहेवाय. १. मूलच्छायाः किम् अयं भगवन् ! तमस्काय इति प्रोच्यते, किं पृथिवी तमस्काय इति प्रोच्यते, आपः तमस्काय इति प्रोच्यते गौतम! नो पृथिवी तमस्काय इति प्रेोध्यते, आपः तमस्काय इति प्रोष्यतेः - अनु० / Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ २. प्र०--से केणद्वेणं ? २. उ० – गोगमा । पुढपिकाए णं अश्येगइए सुभे देसं पकासेइ, अत्थेगइए देसं नो प्रकासेइ-से तेणद्वेणं. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे २. २० तमुका मंते कई समुट्टिए, कहिँ समिि २. उ०- गोगमा जंबूदीवस दीपरस बहिया तिथिमसंसेले दीप-समुद्दे बीईपत्ता, अरुणवरस्स दविसा बाहिरि लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं जोयणसहस्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एगपएसियाए सेढीए - एत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए. सत्तरस-एक्कवीसे जोयणसए उड्डुं उप्पइत्ता तो पच्छा तिरियं पविश्यरमाणे, पविश्वरमाणे सोहम्मी-साण सर्णकुमार-माहिंदे चत्तारि विकप्पे आवरित्ता, णं उडूंपि य णं मलोगे कप्पे रिट्ठनिमाणपत्थढं संपते-एरथ गं समुकार ण सन्निविट्ठिए. ४. प्र० - तमुक्काए णं भंते ! किंसंठिए पत्ते ? : ४. उ०- गोवमा आहे मलगमूलठिए उड पंजरगटिएप 2 ५. प्र० तमुका मंते केलिये विक्संमेणं, केवलिय परिक्खवेणं पत्ते ? ५. उ०- गोयमा ! दुविहे पत्ते, तं जहा :- संखेज्ज वित्थडे य, असंखेज्जबित्थडे य; तत्थ णं जे से संखेज्जवित्थडे से णं संखेज्जाई जोयणसहस्साइं विक्खभेणं, असंखेज्जाई जोयणतहस्साइं परिक्वेयेणं पचते; तस्म नं से से अलवर से मे असं ज्जाई जोयणसहस्साइं विक्खंमेणं, असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्लेवेणं पचते. ६. प्र० -- तमुक्काए णं भंते ! केमहालए पत्ते ! ६. उ० – गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुदाणं सव्यध्यंतराए जा परिक्लेवेन पचते देवे में महिदीए, पत्रत्ते. २. प्र० - ( भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? २. ३० - हे गौतम! केटोक पृथिवीकाय एयो शुभ छे, देश - भागने प्रकाशित करे छे अने केटलोक पृथिवीका वोछे, जे देशने प्रकाशित नवी करतो, ते हेतुथी पूर्वोक्त प्रमाणे कहेवाय. शतक ६.-- उदेश ५. ३. प्र०-हे भगवन् ! शरू छे भने क्यों संनिष्ठित छेप सेनो अंत छे! काय क्यों समुत्थित तमस्काय छे- क्यांची २. उ०- हे गौतम! अंबुद्वीप सामना ईपनी बहार तिरछे असंल्प द्वीप समुोने उद्देश्य पछी अरुणवर द्वीप आवे छे ते द्वीपनी बहारनी वेदिकाना अंतथी अरुणोदय समुद्रने ४२ हजार योजन अवगाहीए त्यारे उपरेतन जलांत आत्रे छे, ते उपरितन जलांतथी एक प्रदेशनी श्रेणीए - अहीं तमस्काय समुत्थित छे, ते त्यांची समुत्थित थइ १७२१ योजन उंचो जई यांची पाछो तिरछो-विस्तार पामतो विस्तार पामतो सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार अने महेंद्र ए चारे कल्पोने पण आच्छादीने उंचे पण ब्रोक कल्पमा रिष्टविमानना- पाथडा सुघी संप्राप्त - पहोंच्यो के अने त्यां तमस्काय संनिविष्ट छे. ४. प्र०-हे भगवन् । संमस्काय किंसंस्थित छे एटले तमस्कायनुं संस्थान आकार-केतुं छे. ४. उ०—हे गौतम! समस्ताय, नीचे, मल्लकमूल- कोटी आना नीचेना भागना आकारमा पो छे अने उपर कुकडाना पांज राना वा अकारवाळले. " ५. प्र०-हे भगवन् ! तमस्काय विष्कंभवडे केटोको छे अने परिक्षेपवडे केटो को छे ? ५. उ० - हे गौतम! तमस्का । बे प्रकारनो को छे: एक तो संख्प्रेय विस्तृत अने बीजो असंख्येय विस्तृत तेमां जे ते संख्येय विस्तृत छे ते विष्कंभ वडे संोय योजन सहस्र को छे अने परिपपडे असंख्येय योजन सहस्र को छे अने तेमजे ते असंख्येय विस्तृत छे ते असंख्येय योजन सहस्र विष्कंभवडे को छे अने असंख्येय योजन सहस्र परिक्षेप बडे को छे. ६. प्र० - हे भगवन् ! तमस्काय केटलो मोटो कह्यो छे ? ६. उ०- हे गौतम! सर्वद्वीप अने समुद्रोनी सर्वाभ्यंतर आ जंबुद्वीप नामनो द्वीप पायत् परिक्षेप बढेको छ कोइ मोटी छे १. मूलच्छायाः -- तत् केनाऽर्थेन ? गौतम ! पृथिवीका थोऽस्त्येककः शुभः देशं प्रकाशयति, अस्येकको देश को प्रकाशयति तत् तेनाऽर्थेन. समस्कायो भगवन्तः सरितः त्रनिष्ठितः गीराम जम्बूदीप निगवान् समुद्रन् व्यस्थि द्वीपसा बाझा वैदिकमाद अमोद समुद्रास्वारिंशद् योजनानि अवापरतात एकप्रदेशिका - समा समुत्थितः सदतिया कम्पख ततः पश्चात् विप्ररिन्दानकुमार 2 कल्पान् आवृत्य ऊर्ध्वमपि च ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टविमानप्रस्तटं संप्राप्तः अत्र तमस्कायः संनिविष्टः तमस्कायो भगवन् । किंसंस्थितः प्रज्ञप्तः ! गौतम 1 अभी मा उपप्रशमस्कायो भगवन् किन् वरित गीतमा प्र यथारा अवश्येव विस्तृत तत्र यः स वेदवितुनः संवेधानिकेोजनाविष्टम्भेग अपन भोग परिक्षेत्र ः सोऽविस्तृत सोऽगनियोजनानि विष्ठम्भेग, स्पानि योजना परिक्षेपेच अतः समस्कायो भगवन् हिमालय सर्वद्वीपसमुद्रसम्यन्तारक यावत्परिक्षेव प्रदतः देवो मर्धिका - अनु० 2 7 / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. जीव- महाणुभावे इणामेव, दीपं तिहि अच्छा आग आगच्छिना, , इणामेव त्ति कटु केवलकप्पं जंबूदीवं विसवो अणुपरिपट्टिया गं हवं से देता उहिए, तुरिवाए, आव देई पीयमाणे पीयमाणे आएका या दुदाहं वा तिपाई वा; उक्कोसेणं छम्मासे वीई इजा, अत्थेगतियं तमुकायं वीईवइज्जा, अत्थेगतियं नो तमुका वीजा एमहालए णं गोयमा ! तमुकाए पत्र. ७. प्र० रोहाणा - अस्थि णं भंते ! तमुकाए गेहा इ वा, इथा ? ७. उ० णो तिपट्टे सम. ८. प्र० - सचिनेसा इवा ! ८. उ० - णो तिणट्टे सम. ९. प्र० अ णं भंते! तमुकाए उसला बढाइया संसेयंति, सम्मुच्छंति, वासं वासति ? भगवलुधर्मस्वामिंग भगवतीसूत्र, मंते तमुका गामापा जा ९. उ० हंता, अस्थि. १०. प्र० तं भंते ! किं देवो प्रकरेति, पकरेति, नागो पकरेति ? असुरो १०. उ० गोमा देवो वि पकरेति असुरो पि परेति, जागो वि पकरेति, ११. प्र० – अस्थि णं भंते ! तमुका बादरे थणियस दे, बादरे विज्जुए ? ११. उ०- हंता अस्थि, १२.१० ते किं देशे पकरेति० १२. उ० - तिनि वि करेंति, १२. प्र० अस्थि बादरे अगणिकाए ? १३. उ० - णो तिणद्वे समद्वे णण्णत्थ विग्गहगतिसमाचचएणं भंते तमु चादरे पुढविकाए, १४. पं० भंते! तमुकाए पंदिन सूरिय-गण णक्खत्त- तारारूवा ? १४. उ० णोति समझे पलिया ओ युग (अस्थि). -- ३०३ ऋद्धिको यावत् महानुभाव देव ' आ चाल्यो ' एम करीने त्रण चपटी वागतां एकवीसवार से संपूर्ण अंबूद्दीपने फरीने शीघ्र आवे, ते देव तेगी टक्कर ने या देवगडे जो जो यावत् एक दिवस वे दिवस या त्रण दिवस चाले अने वारेमा वघारे छ महीना चाले तो कोइ एक तमस्काय सुधी पहोंचे अने कोइ एक तमस्काय सुधी न पहोंचे हे गौतम! एटलो मोटो समस्यायो छे. ७. प्र०—हे मंगवन्! सगघर के के गृहापण छे ! ७. उ०- ( हे गौतम! ) ते अर्थ समर्थ नथी. ८. प्र०-हे भगवन् समस्कायम गाम छे के यात् संनिवेशो छे ? ८. उ० - - ( हे गौतम ) ते अर्थ समर्थ नथी. 1 ९. प्र०- हे भगवन् समस्कायमा उदार मोटा मेघ संस्त्रेद पामे छे ? संमूछें छे ? अने वर्षण वरसे छे ? ९. उ० ( हे गीतम1) हा, तेम छे. १०. प्र० - हे भगवन् ! शुं तेने देव करे छे ? असुर करे छे ? के नाग करे छे ? -- १०. उ० - हे गौतम ! देव पण करे छे, असुर पण करे छे, अने नाग पण करे छे. ११. प्र० - हे भगवन् ! तमस्कायमां बादर स्तनितशब्द छे.? अने बादर विजळी छे ? ११. उ० हा, छे. १२. प्र० - हे भगवन् ! शुं तेने देव या असुर या नाग करे छे ? - १२. उ० ( हे गौतम ) त्रणे पण करे छे. १३. प्र० - हे भगवन् ! तमस्कायमां बादर पृथिवीकाय छे ? अने बादर अग्निकाय छे ? १३. उ०- ( हे गौतम! ) ते अर्थ समर्थ नथी, अने आ जे निषेध छे ते विग्रह गतिसमापन सिवाय समजो अर्थात्त समापन्न बादर पृथिवी अने अग्नि होइ शके छे. १४. प्र० - हे भगवन् ! तमस्कायमां चंद्र, सूर्य, महगण, नक्षत्र अने तारारूपो छे ? 1 १. मुलच्छायाः पाचत् महावदमेव इदमेवम् द्वीपं तिसृभिःप् आगच्छति, स देवस्तया उत्कृष्टया स्वरितया, यावत् देगया व्यदेववन् व्यक्तित्रजन् यावत- एकाई वा, द्वय वा व्यहवा, उत्कृष्टं षण्मासान् व्यतिप्रजेत, अत्येककं तमस्कायं व्यतिव्रजेत् अस्त्येकं नो तमस्कायं व्यतिव्रजेद् - इयद्मद्दालयो गतम | तमस्कायः प्रज्ञप्तः अन्ति भगवन् ! तमस्काये गेहानि वा, गेहारणा वा ? जो अयमर्थः समर्थः अस्ति भगवन् । तमस्कावे ग्रामा इति वा, यावत् सनिवेशा इति वा ? नो अयमर्थः समर्थः, अस्ति भगवन् ! तमस्काय उदारा बलाहकाः संस्त्रियन्ति, संमूर्च्छन्ति, वर्षा वर्षात ? हन्त, अस्ति तं भगवन् ! किं देवः प्रकरोति, असुर: प्रकरोति, नागः प्रकरोति ? गौतम | देवोऽपि प्रकरोति, असुरोऽपि प्रकरोति, नागोऽपि प्रकरोति. अस्ति भगवन् ! नमस्काये बादर स्तनितशब्दः बादरा विद्युत् ! हन्त, अस्ति. तं भगवन् ! किं देवः प्रकरोति० १ त्रोऽपि कुर्वन्ति अस्ति भगवन् ! तमस्काये बादरः पृथिवीकायः, बादरोऽग्निकायः ?, नो अयमर्थः समर्थः - नान्यत्र विग्रहगतिसमाऽऽपन्नकेन. अस्ति भगवन् । तमस्काये चन्द्र-सूर्य-प्रद्गग-नक्षत्र - तारारूपाः ? तो अयमर्थः समर्थ () () १४. उ०- ( हे गौतम! ) ते अर्थ समर्थ नधी, पण ते चंद्रादि समस्या पनी पडले. : Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे-- शतक ६.-उद्देशक ५. १५. प्र०-अस्थि णं भंते । तमुकाए चंदाभा तिवा, १५. प्र०-हे भगवन् ! तमस्कायमां चंद्रनी प्रभा के सूर्यनी सूराभा ति वा ? प्रभां होय छे ? १५. उ०-णो तिणढे समढे-कादसाणया पुण सा. १५. उ०-(हे गौतम ! )ते अर्थ समर्थ नथी, कारण के, ते प्रभा तमस्कायमा छे पण कादूषणिका-पोताना आत्माने दूषित करनारी-छे. १६. प्र०-तमुकाए णं भंते ! केरिसए वन्नएणं पन्नत्ते ! १६. प्र०-हे भगवन् ! तमस्काय वर्णथी केवो कह्यो छे __ अर्थात् तमस्कायनो वर्ण केवो कह्यो छे ? १६. उ०-गोयमा ! काले कालावभासे, गंभीर-लोमहरिस. १६. उ.---हे गौतम ! वर्णवडे तमस्काय काळो, काळी जणणे, भीमे, उत्तासणए, परमकिण्हे वण्णे पन्नत्ते. देवे णं अत्ये- कांतिबालो, गंभीर, रुवाटा उभा करनार, भीम, उत्कंपनी हेतु गतिए जेणं तप्पढमयाए पासित्ता णं खुभाएज्जा, अहे णं अने परमकृष्ण कह्यो छे, अने ते तमस्कायने जोइने, जोतां वार ज अभिसमागच्छेज्जा, तओ पच्छा सीहं सीहं, तुरियं तुरियं खिप्पामेव केटलाक देव पण क्षोभ पामे, अने कदाच कोइ. देव तमस्कायमा वीतीवएजा.. प्रवेश करे तो पछी शरीरनी त्वराथी अने मननी त्वरायी जलदी ते तमस्कायने उल्लंघी जाय. १७. प्र०-तमुक्कायस्स णं भंते ! कृति नामधेज्जा पत्नत्ता ? १७. प्र०--हे भगवन ! तमस्कायनां नामधेय-नामो-केटला कह्यां छे! १७. उ०-गोयमा ! तरस नासधेजा पत्नत्ता, तं.जहा:- १७. उ०—हे गौतम! तमस्कायनां तेर नाम कह्यां छे, ते तमे ति वा, तमुकाए ति वा, अंधकार इवा, महांधकारे इ वा, जेमके १ तम, २ तमस्काय, ३ अंधकार, ४ महांधकार, ५ लोगंधकारे इ वा, लोगतमिसे इ वा, देवंधकारे इवा, देवतपिसे लोकांधकार, ६ ठोकतमिस्र, ७ देवांधकार, ८ देवतमिस्र, इ वा, देवरणे इ या, देववूहे इ वा, देवफ़लिहे इ खा, देव- ९ देवारण्य, १० देवव्यूह, ११ देवपरिघ, १२ देवप्रतिक्षोभ पडिक्खोभे इ वा, अरुणोदए इ वा समुद्दे. अने १३ अरुणोदक समुद्र.. १८. प्र०-तमुक्काए णं भंते । किं मुढधिपरिणामे, आंउप- १८. प्र०—हे भगवन् ! तमस्काय शुं पृथिवीनो परिणाम छ ? रिणामे, जीवपरिणामे, पागलपरिणामे ? पाणीनो परिणाम छे ! जीवनो परिणाम छ ? के पुद्गलनो परि णाम छे ? १८. उ०-गोयमा! नो पुढविपरिणामे, आउपरिणामे वि, १८. उ०-हे गौतम ! तमस्काय पृथिवीनो परिणाम नथी, जीवपरिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि. पाणीनो पण परिणाम छे, जीवनो पण परिणाम छे अने पुद्गलनो पण परिणाम छे. १९. प्र०-तमुक्काए णं भंते ! सव्वे पाणा, भूया, जीवा १९. प्र० हे भगवन् ! तमस्कायमा सर्व प्राणो, भूतो, सत्ता पुढवीकाइयत्ताए, जाव-तसकाइयत्ताए उपवनपुव्वा ? जीवो अने सत्त्वो पृथिवीकायिकपणे यावत् सकायिकपणे उप पन्नपूर्व-पूर्वे-पहेलां-उपज्यां छे ? १९. उ०-हंता, गोयमा । असति, अदुवा अणंतक्खुत्तो १९. उ०-हे गौतम! हा, अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे णो चेव णं बादरपुढविकाइयत्ताए, बादर अगणिकाइयत्ताए वा. उत्पन्न थया छे पण बादर पृथिवीकायिकपणे अने बादर अग्नि कांयिकपणे नथी थया. १. अनन्तरोदेशके सप्रदेशा जीवा उक्ताः, अथ सप्रदेशमेव तमस्कायादिकं प्रतिपादयितुं पञ्चमोदेशकमाह:-'किमिय' १. मूलच्छायाः-अस्ति भगवन् ! तमस्काये चन्द्रामेति वा, सूर्यामेति वा ? नो अयमर्थः समर्थः- कादूषणिका पुनः सा. तमस्कायो भगवन् ! कीदृशको वर्णकेन प्रज्ञप्तः ? गैतम | कालः, कालावभासः, गम्भीर-रोमहर्षजननः, भीमः, उत्तासनकः, परमकृष्णो वर्णः (में) प्रज्ञप्तः देवोऽस्त्येकको यस्तत्प्रथमतया दृष्ट्वा क्षुभ्येत् (स्कुन्नीयात् ), अथाऽभिसमागच्छेत्, ततः पचात् शीघ्रं शीघ्रम्, त्वरितं त्वरितं क्षिप्रमेव व्यतिव्रजेत्. तमस्कायस्य भगवन् ! कति नामधेयानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम । त्रयोदश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाः-तम इति वा, त्मस्काय इति वा, अन्धकार इति वा, महान्धकार इति वा, लोकान्धकार इति वा, लोकत मित्रम् इति वा, देवान्धकार इति वा, देवतमिलम् इति वा, देवारण्यम् इति वा, देवव्यूह इति भ, देवपरिघ इति वा, देवप्रतिक्षोभ इति वा, अरुणोदय इति वा समुद्रः, तमस्कायो भगवन् ! किं पृथिवीपरिणामः, अप्परिणामः, जीवपरिणामः, हुदलपरिणाम: ? गौतम ! को पृथिवीपरिणामः, अप्परिणामोऽपि, जीवपरिणामोऽपि, पुद्गलपरिणामोऽपि. तमस्काये भगवन् ! सर्वे प्राणाः भूताः जीवाः सत्वाः पृथिवीकायिकतया, यावत्-यसकायिकतया उपपन्नपूर्वाः! हन्त, गौतम! असत, अथवाऽनन्तकृरवः, नो चैव बादरपृथिवींचायिकतया, सावराऽमिकायिकतगावाः-अनु० Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उदेशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवर्तासूत्र, ३०५ इत्यादि. 'तमुक्काए' ति तमसां तमिश्रपुद्गलानां कायो राशिस्तमस्कायः, स च नियत एव इह स्कन्धः कश्चिद विवक्षिाः ; स च तादृशः पृथ्वीरजस्कन्धो वा स्यात् , उदकरजस्कन्धो वा, न तु अन्यः; तदन्यस्य अतादृशत्व द इति-पृथिव्य-विषयसंदेहाद आहः'किं पुढवी' इत्यादि व्यक्तम् . 'पुडकिए गं' इत्यादि. पृथिवीकायोऽस्येककः कश्चित् शुभो भास्वरः, यः किंविध. ? इगहःदेशं विवक्षितक्षेत्रस्य प्रकाशयति-भास्वरत्वात , मण्यादिवत्. तथाऽस्त्येककः पृथिवीकायो देशं पृथिवीकायाऽन्तरं प्रकाश्यमपि न प्रका. शयति-अभास्वरत्वान, अधोपलवत् . नैवं पुनरकायः, तस्य सर्वस्याऽप्यप्रकाशकत्वात् । ततश्च तमस्कायस्य सर्वथैवाऽप्रकाशकास्वाद अका. यपरिणामता एव. 'एगपएसियाए' त्ति एक एव च-न यादयः, उत्तरा-ऽध प्रति-प्रदेशो यस्यां सा तथा तया-समभित्तितया इत्यर्थः, न च वाच्यम् (कप्रदेशप्रमागया इनि, असंख्यातप्रदे२ विगाहस्वभावत्वेन जीवानां तस्यां जीवाऽवगाहाऽभात्र सङ्गात् , तमस्कायस्य च स्तिबुकाऽऽकाराऽप्कायिकजीवात्मकत्वात् , बाहल्यमानस्य च प्रतिपादयिष्यमाणत्व द इति. 'एत्थ णं' ति प्रज्ञापकाऽऽलेख्यलिखितस्याऽरुणोदसमुद्रादेरधिकरणतोपदर्शन:र्थमुत्तवान् . 'अहे' इत्यादि, अधः-अधस्ताद् मल्लकालसंस्थित:-शराबबुध्नसंस्थानः -समजलान्तस्योपरि सप्तदशयोजनशतानि, एकविंशत्यधिकानि यावद वलयसंस्थानत्वात् , स्थापना. 'केवइयं विखंभेणं ति विस्तारण, क्वचिद आयाम-विक्खंभेणं' ति दृश्यते, तत्र च आयाम उच्चत्वम् इति. 'संखेजवित्थडे ' इत्यादि. संख्यातयोजनविस्तृतः, आदित आरभ्य ऊर्च संख्येययोजनानि यावत् , ततोऽसंख्यातयोजनविस्तृतः-उपरि तस्य विस्तारगामित्वेन उक्तत्वात् . ' असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं' ति संख्यातयोजनविस्तृतोऽपि तमस्कायस्य अल्याततमद्वीपपरिक्षेपनो बृहत्तरत्वा परिक्षेपस्य असंख्यातयोजनसहस्रप्रमाणत्वम् . आन्तर-बहिःपरिक्षेपविभ गस्तु नोक्तः, उभपस्याऽपि असंख्पाततया तुल्यत्वाद् इति. 'देवे णं' इत्यादि. अथ किमिदंपर्यमिदं देवस्य महादिकं विशेषणम् ? इत्याह:--' जाव-इणामेव' इत्यादि. इह यावच्छब्द ऐदंपर्यार्थः, यतो देवस्य महर्यादिविशेषणानि गमनसामर्थ्यप्रकर्षप्रतिपादनाऽभप्रायेणैव प्रतिपादितानि. 'दणामेव इणामेव' त्ति कट्ट' इदंगमनमेवम्-अतिशीघ्रवाऽsवेदकचप्पुटिकारूपहस्तव्यापारोपदर्शनपरम् , अनुस्वागऽश्रवणं च प्राकृतत्वात् , द्विर्वचनं शीघ्रत्वाऽतिशयोपदर्शनपरम् . 'इतिः' उपप्रदर्शनार्थः, कृत्वा विधाय-इति. 'केवलकप्पं ' ति केवलज्ञानक परिपूर्णम् इत्यर्थः. वृद्धयाख्या तु "केवल: संपूर्णः, कल्पते इति कल्पः, खार्यकरणसमर्थो वस्तुरूप इति यावत्-केवलश्चासौ कल्पश्चेति केवलकल्पस्तम् ." 'तिहिं अच्छरानिव्वांएहिं ' ति तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरित्यर्थः. तिसत्तखुत्तो ' ति त्रिगुणा: सप्त, त्रिसप्तवारान्-त्रिसप्तकृत्व-ए। विंशतिवारान् इत्यर्थः. 'हवं' ति शीत्रम् , 'अत्थेगइयं' इत्यादि. संख्यातयोजनमानं व्यतिव्रजेत् , इतरं तु न इति. 'उराला बलाहय' ति महान्तो मेघः, 'संसेयंति ' त्ति संविद्यन्ति तजनकपुद्गलस्नेहसंपत्या, संमूर्च्छन्ति तत्पुद्गलमीलनात् तदाकारतया उत्पत्तेः. ' तं भंते !' ति तत् संस्वेदनम् , संमूर्छनम् , वर्षणं च. 'बायरे विजुयारे ' त्ति इह न बादरतेजस्कायिका मन्तव्याः, इहैव तेषां निषेत्स्यमाणत्वात् , किं तु देवप्रभावजनिताः भास्वगः पुद्गलास्ते इति. णण्णस्य विग्गहगइसमावण्णएणं ' ति न इति योऽयं निषेधो बादरपृथिवी-तेजसोः-सोऽन्यत्र विग्रहगतिसमापन्नत्वाद-विग्रहगत्या एव बादरे ते भवतः. पृथिवी हि बादरा रत्नप्रभाद्यामु अष्टासु पृथिवीषु. गिरि-विमानेषु; ते जन्तु मनु नक्षत्र एवेति. तृतीया चेह पञ्चम्यर्थे प्राकृतत्वाद इति. पलियरस ओ पुण अत्यि'त्ति परिपार्श्वत: पुन: सन्ति तमस्कायस्य चन्द्रोदय इत्यर्थः. 'क दूसणिया पुण साइ' ति ननु तत्पार्श्वतश्चन्द्रादीनां सद्भावात् तत्प्रभाऽपि तत्राऽस्ति ? सत्यम् , केवलं कम् आत्मानं दूषयति-तमस्कायपरिणामेन परिणमनात् , दूपणा सैव दूषणिका, दीर्घता च प्राकृतत्वात् , अत: सती अप्यसी असतीति. 'काले ' त्ति कृष्णः, 'कालोभासे' त्ति कालोऽपि कश्चित् कुतोऽपि कालो नाऽवभासते, इत्यत आह:-कालाऽवभासः, कालदीप्तिर्वा. 'गंभ र-लोमहरिसजणणे ' ति गम्भीरश्वासी भीषणत्वात्-रोमहर्षजननश्चेति.- गम्भीररोमहर्षजननः. जनकत्वे हेतुमाहः-' भीमे' ति भीमः, ' उत्तासणए' ति उत्कम्पहेतुः, निगमयन्नाहः- परम' इत्यादि. यत एवम् अत एवाह:-'देंवे विं णं' इ.यादि. ‘तप्पडमयाए 'त्ति दर्शनप्रथमतायाम् , 'खुभाएज' त्ति स्कुन्नीय त्-क्षुभ्येत् , ' अहे गं' इत्यादि, अथैनं तमस्कायमभिसमागच्छेत् प्रविशेत् , ततो भयात् 'सीहं सहिं । ति कायगतेरतिवेगेन, ' तरिय तुरियं' ति मनोगतेरतिवेगात् , किमुक्तं भवति-क्षिप्रमेव. वीइवएज' त्ति व्यतिबजेद इति. 'तम इतिवा' इत्यादि, तम:-अन्धाररूपत्व द इति एतत् , 'वा' विकल्यार्थः. तमरक य इति वा-अन्धकारराशिरूपत्वात् , अन्धकारम्-इति वा तमोरूपत्वात् , महान्धकारम्-इति वा महातमोरूपत्वात् , लोकान्धकारम्-इति वा लोकमध्ये तथाविधस्य अन्यस्य अन्धकारस्य अभावात् , एवं लोकतमिश्रम् इलि वा, देवान्धकारम्-इति वा-देवानामपि तत्र उद्योताऽभावेन अन्धकारात्मकत्वात् , एवं देवतमित्रम्-इति वा, देवाऽरण्यम्-इति वा-बलवदेवभयाद नश्यतां देवानां तथाविधाऽरण्पमिव शरणभूतत्वात्. देवव्यूह इति वा-देवानां दु:दत्वाद् व्यूह इव चक्रादिव्यूह इव देवव्यूहः. देवपरिघ इति वा-देवानां भयोत्पादकत्वेन मनोविघातहेतुत्वात्. देवप्रतिक्षोभ इति वा-तर भहेतुत्वात् , अरुणोदक इति वा समुद्रः-अरुणोदकसमुद्र जलविकारत्यादिति. पूर्व पृथिव्यादेस्तमस्कायशब्दवाच्यता पृष्ट', अथ पृथव्य-प्के पर्यायताम् , पृथव्य-कायौ च जीव-पुद्गलरूपाविति तत्पर्यायतां च प्रश्नानाहः-'तमुक्काए णं' इत्यादि. बादखायुवनस्पतयः, साश्च तत्र उत्पद्यन्ते-अप्काये तदुत्पत्तिसंभवात् , नतु इतरे-अस्वस्थानत्वात् , अत उक्तम्:-'नो चेव णं' इत्यादि. १. स्थापमा अनुवादे दर्शयिष्यतेः- अनु Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक ५. १. आगळना उद्देशकमां सप्रदेश जीवो कहा, हवे सप्रदेश एवा ज तमस्कायादिकने कहेवा पंचम उद्देशक कहे छ:-"किमियं' इत्यादि.] तमस्काय. [ 'तमुकाए ' ति] तमस-तमिस्र-अंधकार-पुद्गलोनो काय एटले राशि ते तमस्काय, अहिं ते तमस्कायनो अमुक ज के द स्कंध विवक्षित छ, अने तेवो ते स्कंध, पृथ्वीरजनो स्कंध होय के पाणिनी रजनो स्कंध होय, पण बीजो तो न होय, कारण के, पृथ्वीनी अने पाणीनी रजना स्कंध सिवाय बीजो स्कंध तादृश-तमस्कायनी जेवो- नथी होतो, माटे तमस्कायना स्वरूप संबंधे पृथिवी अने जल विषयक संदेह थतो होवाथी कहे छः [' किं पुढवी ' लादि.] ते व्यक्त छे. [ 'पुढवीकाए णं ' इत्यादि.] कोइ एक शुभ-भास्वर-दीप्तिवाळो-पृथिवीकाय छे-जे भाखर होवाथी अमुक क्षेत्रना भागने मणि वगेरेनी पेठे प्रकाशित करे छे, तभा कोइ एक एको पृथिवीकाय छे के, जे अभावर होवाथी प्रकाश्य-प्रकाशी शकाय तेवा-वीजा पृथिवीकायने पण अंध पत्थरनी पेठे प्रकाशतो नथी अने अप्काय-पाणी-तो एवो नथी, कारण के, ते बधी जातनो पण अकाय तमक य अने पाणीनी अप्रकाशक छे, तथा आ तमस्काय पण अप्रकाशक छे -ए रीते अप्वाय अने तमस्काय ए बन्नेनो एक सरखो-मन-तो-स्वभाव होवाथी तमस्कायना समानता. परिणामी कारण तरीके अप्काय ज होइ शके छ अर्थात् तमस्काप ए, अमायनो परिणाम ज छे. [ ' एगपएसियाए 'ति] बे, त्रण वगेरे नहि पण उपर अने हेठळ जमा एक ज ( सरखा ? ) प्रदेश छ ते 'एकप्रदेशिका श्रेणी' कहवाय, ते अणिवडे एटले समभित्तिपणे. अहीं 'एकप्रदेशिका श्रेणी' नो अर्थ ' समभित्तिपणे ' करतो, किंतु ' एक प्रदेशिका श्रेणी' एटले 'प्रमाणे करीने एक प्रदेशबाळी श्रेणी' एवो अर्थ न करवो. कारण जलजीव, के, 'प्रमाणे करीने एक प्रदेशवाळी श्रेणी' एवो अर्थ अहीं तमस्कायनी शेणीने घटी शके तेम नथी-तमस्काय स्तिबुकाकारे जल जीवरूप छे अने जीवोने पोतानी स्थिति माटे असंख्यात प्रदेशोने रोकवा पडे छे एथी जो अहीं तमस्क यनी श्रेणिने 'प्रमाणे करीने एक प्रदेशवाळी श्रेणी' मानवामां आवे तो ए घणी ज टुंकी होवाथी एमां ए जलजीवो शी रीते रही शके ? त| तमस्कायनी विस्तीर्णताना संबंधमां पण हवे पछी कहेवाबार्नु छे-एम ए बन्ने निमित्ताने लइने अहीं 'प्रमाणे करीने एकप्रदेशवाळी श्रेणी' अर्थ घटी सके ज नहि. [ 'एत्थ णं 'त्ति] प्रज्ञापकना आलेख्यनां आळंखेला एटले जणावनारे चितरेला चित्रमा जणाता अरुणसमुद्रागिनुं अधिकरणपणुं दविवा 'एत्थ ' एटले “ अत्र'-अहीं-एम कमु छे. [' अहे' इत्यादि.] नीचे मलकमूळ संस्थित छे एटले तमस्कायनो नीचनो अकार शराव--बुध्ननी · जेवो के, कारण स्थापना. के, समजलांतनी उपर १७२१ योजन सुधी ते तमस्काय वलय संस्थाने छे. तेनी स्थाना-आकृति-आ प्रमाणे छे:-- विष्कंभ. [ 'केवइयं विक्खंभेणं' ति ] विष्कंभ एटले विस्तार, ते वडे, कोइ प्रतिम [ 'आयाम-विक्खंभेणं ' त्ति ] एवो पाठ देखाय तमस्कायको विस्तार, छे, तेमां · आयाम ' एटले ' उंचाइ ' समजवी. [ · संखेजवित्थडे' इत्यादि.] संख्यात योजन विस्तारवाळो अर्थात् /शराबबुध्न शरुआतथी मांडी उंचे संख्येय योजन सुधी तो ए संख्येय योजन विस्तारको छे अने त्यार बाद असंख्येय योजन विस्तार वाळो हे, कारण के, उपर, ते तमस्कायने विस्तारगामिपणे कह्यो छे. [' असंखेजाई जोयशमसाई परिक्खवेणं' ति ] जो के, परिक्षेप. तमस्कायतुं विस्तृतपणु संख्यात योजन छे तो पण ते तगस्कायने असंख्याततम द्वीपनो परिक्षेप होवाथी तेनी बृहत्तरता छ माटे । ज तेना परिक्षेपर्नु प्रमाण असंख्यात योजन सहस्र कल्यु छ, अने अंदरना अने बहारना परिक्षेपनो विभाग तो कह्यो नथी, कारण के, असंख्यान पणाने राइने वन्ने परिक्षेपर्नु पण तुल्यपणुं छ. [ देवेण' इत्यादि. ] हो देव आ महर्षिक वगेरे विशेषणो अहीं शा प्रसंगे कह्यां छे? तो कहे छे के, [जाब इणामेव ' इत्यादि. ] अहिं ' यावत् ' शब्द ' ऐदपर्य ' अर्थवालो छ अर्थात् ' अमुकथी अमुक सुधी' ना भावने ए, दाब्द सूचवे छे. कारण के, गमनसागर्थ्यनो प्रवर्ष जणाबवाना अभिप्रायथी ज देवन ए 'महर्षिक' वगरे विशेषगो कह्यां छे. [: इणामेव इणामेव त्ति कट्ट] ए वाक्य, 'आ गमन आ प्रमाणे छे' अर्थात् ' आ चाल्यो ज' ए प्रमाणे अतिशीघ्रपणुं जगावनार चपटीरूप हाथनी क्रियाने दर्शावया केवलयल्प, कह्य छे. 'आ चाल्यो ज' एग करीन, [ 'केबलकप्पं ' ति ) कवकल्प एटले केवल ज्ञानसमान अर्थात् परिपूर्ण, वृद्धव्याख्या प्रमाणे तो केवल वृद्धग्याख्या. कप' शब्दनो 'आ प्रमाणे अर्थ थाय है:-" केवल एटले संपूर्ण अने कल्प एटले खकार्य करवामी समर्थ वस्तुरूप, अर्थात् केवलकल्स एटले संपूर्ण-समर्थ-तेने," [लिहिं अच्छरानिवाएहिं ' ति ] त्रण चपटीओ वडे, [ 'तिसत्तखुत्तो ' त्ति ] जण गणा सात ते त्रिसप्त एटले एकवीशवार, [ 'हवं 'त्ति ] शीत्र. [ ' अत्थेगइयं ' इत्यादि.] संख्यात योजन प्रमाण तमस्काय सुधी पहोंचे, अने इतर-बीजा-असंख्यात योजन प्रमाण-तमस्काय. सुधी तो न पहोंचे. [ · उगला बलाहय ' त्ति ) मोटा मेघो, [ ' संसेयंति ' त्ति ] संखद पामे छे एटले तजनक पुद्गलोना स्नेहनी संपत्तिथी समूझे छे, कारण के, मेघनां पुद्गलो मळवाथी तेनी तदाकारपणे उत्पत्ति थाय छे. [ ' तं भंत ! ' ति. ] ते संखेदन-समूठन-ने विद्यत. अने वर्षणने. [ ' बायर विज्जुयारे ' ति ] अहिं । बादर विद्युत् ' शब्दथी बादर तेजस्कायिको न समजवा, कारण के, अहिं ज तेओनो निषेध करवानो छे, पण देवना प्रभावथी उत्पन्न थएला ते भास्वर-दीप्तिवाळां-गुद्गलोने अहीं बादर तेजरूपे समजवानां छे, [ 'णण्णत्व विग्गहगइबादर पथिवी ने समावण्णएणं ' ति ] अर्थात् ज्यां तमस्काय छे त्यां वादर पृथिवी अने बादर अभि-तेज-नथी होतां-बादर पृथिवी तो रत्नप्रभादि आठ पृथिवी तेज, ओमां, गिरिओमा अने विमानोमा ज होय छे तथा बादर अग्नि (तेज) मनुष्य-क्षेत्रमा ज होय छे माटे तमस्कायवाळा प्रदेशमा बादर पृथिवी १. खरी रीते तो इनमेव इणामेव 'त्ति ने बदले व्याकरणनी दृष्टिए 'इणामेवं इणामेवं ' ति थर्बु जोइर-पण आ प्रयोगनी अर्षनाने लीधे 'एवं ' नो अनुखार लोपायो छे. तथा शीघ्राणाना अतिशयने जणाववा 'इणामेव ' ए शब्दनो द्विभव ( बेवडो उच्चार ) करेलो छे अने 'इति' शब्द 'उपप्रदर्शन'ना अर्थने सूचवे छे:-धीअभय. २. · केवलकप्प' शब्दनो अर्थ मज्झिमनिकाय (युद्धना सूत्र पिटक संबंधी ) ग्रंथमां आ प्रमाणे करेलो छे:" केवलकप्पं अनवसेसं समंततो." " केवलकल्प एटले कोइ बाकी नहि-चारे बाजुनु-बधुं." "आरो अज्जतरा देवता अभिकन्ताय रतिया अभिवंतवण्णा "हवे अभिकांत वर्णवाळी कोइ एक देवता अभिकत राबीमा केवल. केवलकप्पं अन्धवनं ओभासेत्वा ४ तेनुप संकमि." . कल्प ( आखा ) अंधवनने अवभासित करीने ते तरफ गई." -मज्झिमनिकाय, वम्मीक सुत्त-२३ ( रा.पृ०१०१):अनु. ३. भहीं ' केवल ' अने कल्प ( कप्प) शब्दनो कर्मधारयसमास करयानो छ:-श्रीअभय० ४. भी पापमी विभकिमा अर्थमा श्रीजी विभक्ति नपराएली -एन धारण मा प्रयोग प्राकृतपणु के-धीअभय . Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ५. भगवत्सुधमेस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, अने बादर अग्निनी हयाती नथी होती. पण जे बादर, पृथिवी अने बादर अग्नि विग्रहगतिमां वर्तता होय छे तेओ ज त्यां-तमस्कायवाळा प्रदेशमा पण होइ शके छ माटे ज अहीं । विग्रहगतिने प्राप्त सिव यना' अर्थात् — विग्रह गतिने अप्राप्त ' एवा बादर पृथिवी अने बादर तेजनी हयातीने निषेधेली छे. [ " पलियरस ओ पुण अस्थि ' ति ] वळी, तमस्कायनी पडखे तो चंद्र वगेरे छे. [ ' कसिणि पुण सा' इति | ते तमस्कायनी क दूषणिका. पडखे चंद्र वगेरेनो सद्भाव होवाथी तेओनी प्रभा पण तेमां छे-ए सत्य छे, पण मात्र ते प्रभा तमस्कायना परिणामे परिणमवाथी पोताना के एंटले आत्माने दूषित करे छे, माटे ते प्रभा-छे पण नहि जेवी छे. [ • काले 'ति] काळो, [ 'कालोभासे' ति ] वोइ काळो पण पदार्थ कोई कारणथी काल. काळो अवभासे नहि माटे कहे छे के, ते तमस्काय काळो छे अने कालो अवभासे छ अथवा काळी क तिवाळो छ, [गंभीरलोमहरिसजणणे' ति] तथा गंभीर अने भयानक होवाथी ते तमस्काय, रोग हर्षनो जनक-रुंबाडाने उभा करनार-छे. हवे तमस्कायनी रोमहर्षजनकता अने भयानकताना कारणो कहे छः [ भीमे' त्ति ] ए तमस्काय भीष्म, [ ' उत्तासणए ' ति] अने उत्कंपनो हेतु छे. छेवट उपसंहार करता कहे थे के, भीम, 'परम' इत्यादि. ] तमस्कायर्नु स्वरूप पूर्वोक्त प्रमाणे छे, माटे ज बहे छे के, [ ' देवे विणं' इत्यादि.] [ 'तप्पढमयाए ' ति ] देव पण ए देव पण क्षोभ पामे. तमस्कायने जीतां वैत-जीतांवार-ज [सुभाएज' ति] क्षोभ पामे-[ 'अहे ' इत्यादि.] हवे कदाच ते देव, तमस्कायमा प्रवेश को तो पण भयथी [' सीहं सीहं ' ति ] कायगतिना अतिगयी अने' [ ' तुरियं तुरियं ' ति ] मनोगतिना अतिवेगथी अर्थात् जलदीथी ज [' वीइबइज' ति ] तमस्कायने-व्यतिनजे-उल्लंघे-तमस्कायमाथी जलदी बहार नीकली जाय. [ 'म इति वा इत्यादि.] अंधकाररूप होवाची तम. तमस्कायर्नु ' तम' ए १ नाम छे, अंधकारना ढगलारूप होवादी ' तमस्कार ' ए बीजु नाम छे, तमोरूप होवाथी · अंधकार ' ए बीजु नाम छ, तमस्काय-अंधक र. महातमोरूप होवाथी ' महांधकार ' ए चोथु नाम छे, लोफमा तथाप्रकारनो बीजो अंधकार न होबाथी ' लोकांधकर ' ए पांचमु नाम छे, ए प्रमाणे महांधकार-लोकांधक र. 'लोकतमिस्र 'ए छटुं नाम छे, त्यां उद्योत न होवाथी देवोने पण ए अंधकाररूप होबाने लीधे 'देवांधकार ' ए सातमुं नाम छे, ए प्रमाणे लोकत मेस्र-देवांधव र. 'देवतमिस्र ' ए आठमुं नाम छे, बलवान् देवना भयथी भागता देवोने तथाविध जंगल जैवं होबाने लीधे शरणभूत होवाथी ए तमस्कायर्नु दे तमिस्र. 'देवारण्य ' ए नवमुं नाम छे, व्यूह एटले चक्रादिव्यूहनी पेठे देवोने दुर्भेद होवाथी · देवव्यूह ' ए एन दशमुं नाम छे, देवोने भयर्नु उत्पादक देवारण्य-देव यूड, होइ तेओना गमनमा विघातनुं कारण होवाथी. ' देवपरिघ ' ए अग्यारमुं नाम छे, देवोने क्षोभर्ने कारण होवाथी "देवप्रतिक्षोभ ए बार, नाम छे देवपरिष-देवप्रतिक्षोभ, अने ए तमस्काय, अरुणोदक समुद्रना पाणिनो विकार होवाथी एजें 'अरुणोदक समुद्र ' ए तेर मुं नाम छे. पूर्वे पृथिव्यादि संबंधे तमस्काय शब्दन अरुणोदक वांच्या पल्यं अर्थात प्रथिवी ए तमस्काय कहेवाय' इत्यादि पूछ्यु, हवे ते तमस्काय, क्या पदार्थनो परिणाम छे--शुं पृथिवीकाय-पृथिवी-नो तमस्काय कोनो परिणाम के के अकाय-पाणी-नो परिणाम छ वा पृथिवी अने पाणी-ए बन्ने जीव अने पुद्गल.ना परिणामरूप होवाथी ए. तम काय, जीव अने परिणाम ? पुगलनो परिणाम छे-ए विषे पूडतां-[' तमुक्काए णं' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. तें तमस्कायमा बादरवायु, बादर वनसति अने सो उत्पन्न थाय .. छे, कारण के, वायुनी अने वनस्पतिनी उत्पत्ति अकायमा संभवे छे पण त्यां एटले तमस्कायमां बीजा जीवोनी उत्पत्ति संभवती नथी. कारण के, बीजाओगें ते स्वस्थान नथी. मांटे ज क्रमु छे के, [ 'नो चेवण इत्यादि.] कृष्णसजिओ. २०.५०-कई णं भंते ! कण्हराईओ पनत्ता? २०. प्र०-हे भगवन् । कृष्णराजिओ केटली कही छे ? २०. उ०-गोयमा ! अट्ट कण्हराईओ पनचाओ.. २०. उ०-हे गौतम ! आठ कृष्णराजिओ कहेली . २१. प्र०-कहि णं भंते ! एयाओ अट्ठ कण्हराईओ २१. प्र०—हे भगवन् ! ए आठ कृष्णराजिओ क्या आवेली पनत्ताओ? कही छे ? २१.३०-गोयमा.! उाप्पिं सणंकुमार-माहिंदाणं कप्पाणं, २१. उ०--हे गौतम ! उपर सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पमा अने. हिटिं बंभलोए कप्पे (ओरिद्वे विमाणपत्थडे-एत्थ णं अक्खाडगसम- नीचे ब्रह्मलोक कल्पमा (अ)रिष्ट विमानना पाथडामा छ अर्थात् ए चउरससंठाणसंठियाओ अट्ट कण्हराईओ पन्नत्ताओ, तं जहा:- ठेकाणे अख डानी पेठे समचतुरस्र-चोखंडे-संस्थाने संस्थित एवी पुरस्थिमेणं दो, पञ्चस्थिमेणं दो, दाहिणेणं दो, उत्तरेणं दो; आठ कृष्णराजिओ कहेली छे, ते जेमके; बे कृष्णराजि पूर्वमां, परस्थिमऽभतरा कण्हरीई दाहिण-बाहिरं कण्हराई पुट्ठा, दाहिण- बे कृष्णराजि पश्रिममां, बे कृष्णराजि दक्षिणमां अने बे कृष्णराजि ऽन्भतरा कण्हराई पचाथिम बाहिरं कण्हराई पुट्ठा, पञ्चात्थम- उत्तरमां, ए प्रमाणे आठ कृष्णराजिओ कही छे, पूतिर कृष्णऽभतरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हराई पुट्टा, उत्तरमऽभतरा गजि दक्षिणबाह्यं कृष्णराजिने स्पर्शेली छे, दक्षिणाभ्यंतर कृष्णकण्हर ती पुरस्थिमबाहिरं कण्हराई पुता; दो पुरस्थिम-पचत्थिमाओ राजि पश्चिमबाह्य कृष्णराजिने स्पर्शेली है, पश्चिमाभ्यंतर कृष्णराजि १. अहिं प्राकृत शैली थी दीर्घ थयो छे एटले 'क' ने बदले ' का 'थयो छे अने ' दूषणा' शब्दथी खार्थमा 'क' प्रत्यय आवाथी 'दूषणिका' शब्द बन्यो छे:-श्रीअभय २. ' इति ' एटले ए अने ' वा ' एटले विकल्प:-श्रीअभय. १. मूलच्छायाः कति भगवन् ! कृष्णराजयः प्रज्ञप्ता: ? गौतम ! अष्ट कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः. कुत्र भगवन् ! एता अष्ठ कृष्णराजयो प्रज्ञता! गौतम ! उपरि सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः कल्पयोः, अधो ब्रह्मलोके कल्पे रिष्टे विमानप्रस्तटेऽत्राऽक्षपाटकसमचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थिता अष्ट कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-पौरस्त्येन द्वे, पश्चिमेन द्वे, दक्षिणेन द्वे, उत्तरेण वे पौरस्त्याऽभ्यन्तरा कृष्णराजिः दक्षिणबस कृष्णराजि स्पृष्टा, दक्षिणाऽभ्यन्तरा कृष्णराजिः पश्चिमबाह्यां कृष्णराजि स्पृष्टा, पश्चिमाऽभ्यन्तरा कृष्णराजिः उत्तरबाझा कृष्णराजि स्पृष्टा, उत्तराऽभ्यन्तरा कृष्णराजिः पौरस्त्यवाह्यां कृष्णराजि' ला; हे पौरस्स्य-पश्चिमे:-अनु. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहेबाहिराओ कण्हराइओ छलसाओ, दो उत्तर-दाहिणवाहि- उत्तरबाह्य कृष्जराजिने स्पर्शेली छे अने उत्तराभ्यंतर कृष्णराजि पूर्वबाट राओ कण्हराईओ तंसाओ, दो पुरस्थिम -पञ्चत्थिमाओ कृष्णराजिने स्पर्शली छे, पूर्वनी अने पश्चिमनी बे बाह्य कृष्णराअम्भिंतराओ कण्हराइओ चरंसाओ, दो उत्तर-दाहिणाओ जिओ षडंशा छ खुणी-छे, उत्तरनी अने दक्षिणनी बे बाघ कृष्णअभिंतराओ कण्हराइओ चउरंसाओ. राजिओ त्रांसी-त्रिखणी-छे, पूर्वनी अने पश्चिमनी बे अभ्यंतर -पुव्वाऽवरा छलंसा तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा, कृष्णराजिओ चटरंस-चो.स-चोखंडी छे अने उत्तरनी अने दक्षिणनी अभिंतर चउरम सव्वा वि य कण्हरातीओ. बे अभ्यंतर कृष्णराजिओ पण चउरंस-चोखंडी-छ. -(कृष्णराजिओना आकारोने लगती गाथा कहे छे:-) पूर्वनी अने पश्चिमनी कृष्णराजि छ खूणी छे, वळी, दक्षिगनी अने उत्तरनी बाह्य कृष्णराजि त्रिखूणी छे, अने बीजी बधी पण अभ्यंतर कृष्णराजि चोरस छे. २२. प्र०-कण्हराईओणं भंते ! केवतियं आयामणं, केवड़यं २२. प्र.--हे भगवन् ! वृ.प्राजि, आयामबडे केटली कही विवखंभेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पन्नत्ता ? विभवडे केटली कही छे अने परिक्षेपवडे केटली कही छे ! २२. उ०-गोयमा! असंखेजाई जोयणसहस्साई आयामेणं, २२. उ.--हे गौतम ! कृष्णराजिओनो आयाम, असंख्येय संखेज्जाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, असंखेजाई जोयणसहस्साई योजन सहस्र छ, विष्कम, संख्येय योजन सहस्र छे अने परिक्षेप परिक्खेवेणं पन्नचाओ. तो असंख्येय योजन सहस्र छे. २३. प्रकण्हराईओ णं भंते! केमहालियाओ पत्नत्ताओ! २३. प्र०-हे भगवन् ! कृष्णराजिओ केटली मोटी कही ? २३. उ०-गोयमा! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे, जाव- अद्धमासं २३. उ०-हे गौतम ! एक विपळ जेटला वखतमा पण कोई वीईवएना, अत्थेगइयं कण्हराई वीईवइज्जा, अत्थेगइयं कण्हराई देव जंबूद्वीपने एकवीश वार फरी आवे अने एवीज शीघ्रतम णो वीईवएज्जा; एमहालियाओणं गोयमा ! कण्हराईओपन्नत्ताओ. गतिवडे जो लागलागट अडघो मास चालवानां आवे तो पण (ए देवथी ) कोइ कृष्णराजि सुधी पहोंचाय अने कोइ कृष्णराजि सुधी न पहोंचाय अर्थात् हे गौतम ! कृष्णराजि एटली मोटी कही छे. २४. प्र०--अस्थि गं भंते ! कण्हराईसु गेहा इ वा, गेहायणा २४. प्र०-हे भगवन् ! कृष्णराजिओमा गृहो भने गृहापणो २४. उ०--णो इणहे समद्वे. २४. उ०—( हे गौतम !) ९ अर्थ समर्थ नथी अर्थात् गृहो विगेरे नथी. २५. प्र०--अस्थि णं भंते ! कण्हराइसु गामा इ वा ? २५. प्र०—हे भगवन् ! कृष्णराजिओमां गामो वगेरे छे ? २५. उ०---णो तिणढे समवे. २५. उ०--(हे गौतम !) ए अर्थ समर्थ नथी अर्थात् नथी. २६. प्र०--अस्थि णं मंते ! कण्हराईणं उराला बलाहया २६. प्र०--हे भगवन् ! कृष्णगजिओमां मोटा मेघो संस्वेदे छे, संसेयंति, सम्मुच्छंति, वासं वासंति ? संमूर्छ छे अने वरसाद वरसे छे ? २६. उ०--हंता, अत्थि. २६. उ०—(हे गैतम !) हा, छे अर्थात ए प्रमाणे-प्रश्नमा कह्या प्रमाणे-थाय छे. २७.७०--तं भंते । किं देवो पकरेति, असुरो पकरेति, २७. प्र०--हे भगवन् ! शुं तेने देव, असुर के नाग करे नागो पकरेति ? -- १. मूलच्छाया:-धाधे कृष्णराजी षडलेदे उत्तर-दक्षिणवः कृष्णराजी श्यने, द्वे पौरस्त्य-पश्चिमे आभ्यन्त रिके कृष्णराजी चतुरने, द्वे उतरदक्षिणे आभ्यारिके कृष्णराजी चतुर-पूर्वारै पसे व्यस्ले पुनर्दशिगोतरे बाये, आभयन्तर चतुरस्राः सर्वा अपि च कृष्णराजयः. कृष्णराजयो भगवन् ! की यत्य आयामेन, कोयत्यो विष्कम्मेण, कीयत्यः परिक्षेपेग प्रज्ञता ? गतम ! अस्येवानि योजनसहरूाणि आयामेन, संख्येयानि भोजनसहस्त्राणि विष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेषेण प्रज्ञप्ताः. कृष्णराजयो म.गवन् ! किंमदत्यः प्राप्ताः । गीतम! अयं जम्बूरीपो.द्वीपः, यावत्-अर्धमा व्यतिबजेत, अस्त्येकका कृष्णराजी व्यतिव्रजेत् , अस्त्येकका कृष्णराजी नो व्यतिबजेत् ; इयद्महत्यो गतम! कृणराजयः प्राप्ताः सन्ति भगवन् । कृष्णराजिषु गेहनि इति, गेहापणा इति वा ? नो तदर्थः समधः. सन्ति भगवन् । कृष्णराजिषु प्रामा इति वा ? नो तदर्थः समर्थः. सन्ति भगवन् ! कृष्णराजीनाम् उदारा पलाहकाः सखियन्ति, संमून्छन्ति, वर्षा वर्षन्ति ? हन्त, अस्ति.तं भगवन् ! किं देवः प्रकरोति, असुरः प्रकरोति, नागः प्रकवि : Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६. - उद्देशक ५. २७. उ०मा ! देव पचति नो असुरो, नो नागो , पकड. २८. १० -- अस्थि भंते! फहराई बादरेणवस ? २८. उ० – जहा उराला तहा. धर्मगती सूत्र २९. प्र० – अत्थि णं भंते ! कण्हराईसु बादरे आउकाए, बादरे अगणिकाए, बादरे वणस्सइकाए ? २९ - उ० - णो तिणट्ठे समट्टे, गण्णत्थ विग्गहगतिसमावनएणं. ३०. प्र० अवि चंदिमसूरिय गहनतारारूवा ? ३०. उ० जो विट्टे सम. - ३१. प्र० – अत्थि णं कण्हराईणं चंदाभा ति वा, सूराभा ति वा ? ३१. उ० णो तिणट्टे सम. ३२. प्र० पत्ताओ ? कण्हराईयो णे येते | केरिसियाओ ३२.४० - गोयमा ! कालाओ, जाय, खिणामेव वीतीवएज्जा. ३३. ५० कम्हराइओ भंते! कतिनामधेना पक्षता ३३. उ०- गोपमा ! अनामभेवा पचत्ता, तं जहा कण्हराई वा मेहराई वा मघा इवा, माई पाहावा, यायपलिक्सोमा पा देवफलिहावा, देवपलिखोगा. , ३४. प्र० कव्हराइओ णं भंते । किं पुढपरिणामाओ, आउपरिणामाओ, जीवपरिणाम ओ, पोग्गलपरिमाणाओं ? ३१.३० – गोपमा ! पुडविपरिणागाओ, नो आउपरिणामा ओ वि, जीवपरिणामाओ वि, पुग्गलपरिणामाओ. ३५. ० सच्चे पाणा, भूषा जीवा, सत्ता उववण्णपुव्वा ? २०२ २७. उ० गीत ! देव करे छे, असुर के नाग मधी करतो. २८. प्र०-हे भगवन् कृष्णराजिओमा बादर स्तनित शब्दो छे ? २८. २०- ( हे गौतम! ) जेम मोठा मेघो कथा रोम जावं. २९० हे भगवन् कृष्णराजको बादर अकाय, बादर अनिकाय अने दादर वनस्पतिकाय छे ! २९.४० ( हे गीत !) ते अर्ध समर्थ मधी अने आ निषेध हिति समापन जीव सिराप बीजा जी माठे जावो. ३०. प्र०-हे भगवन्! हष्णराजमां चंद्र, सूर्य ग्रहगण, नक्षत्र भने ताराभो छे ! ३०. उ०- ( हे गीतम) से अर्थ समर्थ नथी. ३१. प्र०-हे भगवन् कृष्णराजयोग चंदनी कांति छे ! सूर्यनीति ? ३१. ० है गीतम!) वे अर्थ समर्थ मधी ३२. प्र०-हे भगवन् कृष्णराजिओ वर्णवडे केली कहीं छ ३२. उ०- हे गौतम! काळी यावत् (तमस्कायनी पेठे भयंकर होवाथी देव पण एने) जसदी ज उल्लंघी जाय. ३३. प्र० - हे भगवन् ! कृष्णराजिनां केटला नामधेय ३३. उ० -- हे गौतम ! कृष्णराजिनां आठ नाम कलां छे, ते जेमके, १ कृष्णराज २ मेघराज ३ मघा, ४ मापती ६ वातपरिक्षोभा, ७ देवपरिघा अने ८ देवपरि५ वातपरिघा, क्षोभा. ३४. प्र०-हे भगवन्! शुं कृष्णराज पृथ्वीनो परिणाम छे! जलनो परिणाम छे! जीवनो परिणाम है ! के पुटनो परिणाम हे! ३४. उ० -- हे गौतम! कृष्णराज पृथ्वीनों परीणाम छेपण 'जलनो परिणाम नथी तथा जीवनो पण परिणाम के अनं पुछो पण परिणाम छे. ३५. ५० हे भगवन् ! कृष्णराजमां सर्व प्राणो, भूणे, जीवो अने सत्र पूर्वे उत्पन्न थयेला छे ! १. देवरो मायरोभिराजिषु बादरः शब्दा अस्ति भगवन् छपराच वाद दायः बाद वनस्पतिया मोसमर्थ सम्पद्र-सूर्यग्रहगण- नक्षत्र - तारारूपाः ? नो तदर्थः समर्थः अस्ति दृष्णरजिषु चन्द्राऽऽभेति वा, सूर्यामेति वा ? नो तदर्थः समर्थः कृष्णराजयो भगवन ! कीदृश्यो वर्णेन प्रहृप्ताः ! गौतम ! कृष्णाः, यादत् क्षिप्रमेव व्यतित्वजेत्. कृष्णराजयो भगवन् ! कतिनामधेयाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अष्टनामधेया प्रज्ञप्ताः, तद्यथाः कृष्णराजिव मेघराज, मघा इति वा, माधयतीति वा, वातपरिधा इति वा, वातपरिक्षोभा इति वा, देवपरिधा इति वा, देवपरिक्षोभा इति वा, कृष्णराजयोगवन् ! किं पृथिवीपरिणामाः, अप्परिणामाः, जीवपरिणामाः, पुद्गलपरिणामः ? गौतम | पृथिवीपरिणामाः, नो:प्परिणामा अनि परिणाम ge / Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक है.-उद्देशक ५. ३५. उ०-हता, गोयमा! असई, अदुवा अणंतक्खुत्तो; नो चेव ३५. उ०--हे गौतम ! अनेकवार अथवा अनंतबार उत्पन्न णं बादरआउका इयत्ताए, बादरअगाणकाइयत्ताए वा, बायरवण- थया छे, पण बादर अप्कायपणे, बादर अग्निक यपणे, अने 'बादर स्सईकाइयत्ताए वा. वनस्पतिकायिकपणे उत्पन्न थया नथी. २. तमस्कायसादृश्यात् कृष्णराजिप्रकरणम् . कण्हराइओ' सि कृष्णवर्णपुद्गलरेखाः, 'हव्वं ' ति समम् , “किले "ति वृत्तिकारः प्राह. 'अक्खाडग'-इत्यादि. इह आखाटकः प्रेक्षास्थाने आसनविशेषलक्षगस्तत्संस्थिताः, स्थापना चेयम् .-'नो असुरो' इत्यादि. असुर-नागकुमाराणां तत्र गमनाऽसंभवाद् इति. 'कण्हराइ इ व' ति पूर्ववन, 'मेघराइ' इति वा कालमेघरेख तुल्यत्वात् , 'मघा इ वा ' तमिश्रतया षष्ठनारकपृथ्वीतुल्यत्वात् , ' मॉघाई इवा' तमिश्रतया एव सप्तमनारकपृथवीतु त्यत्वात् , 'वाय-फलिहा इव' ति वातोऽत्र वाया तद्वत्-या तमिश्रत्वात् , परिधश्च दुर्लयत्वात् स (सा) वातपरिघः, 'वायपरिक्खोभा द्रवत्ति वातोऽत्राती वात्या तद्वत्-या तमिश्रत्वात् , परिक्षोभश्च परिक्षोभहेतुत्वात् स(सा) वातपरिक्षोभ इति. 'देवफलिहा इव' ति देवानां परिघा इव अर्गला इव दुर्लध्यत्वाद देवपरिघ इति. 'देवपलिक्खोभा इव' त्ति देवानां परिक्षोभहेतुत्गद इति. कृष राजि. २. कृष्णराजि अने तमस्कायर्नु साध्य होवाथी हवे कृष्णराजितुं प्रकरण शरु थाय छे. [' कण्हराइओ' त्ति ] कृष्णराजि एटले काळ अखाडो पुगलोनी रेखा, [ : हेव् ' ति ] साथे, वृत्तिकारे तो : हव्व ' नो किउ-चोक्कस-एवो अर्थ कयों छे. [ ' अक्खाडग'-इत्यादि. ] अहिं आखाटक स्थापना एटले अखाडो अर्थात् नाटकादि जोवाना स्थानमा एक प्रकारना आसनरूप, तेने संस्थाने ए कृष्णराजिओ संस्थित छे, तेनी स्थापना-आकृतिआ प्रमाणे छे: पूर्वी. खूणी कृष्णराजी. २. आचमोली. चोरस कृष्णराजी. ३. वैरीनन. उत्तरा. त्रिकोणी कृष्णराजी.. ८ सुप्रतिष्ठाभचोरस कृष्णराजी. अचि. १ . ४. प्रभंकर. त्रिकोणी कृष्णगजी. दक्षिणा. चोरस कृष्णराजी. ५. चंद्राभ. Uplos: Henna the "ltaja [नो असुरो' इत्यादि.] त्यां-कृष्णराजिने ठेकाणे-असुरकुमारोनुं अने नागकुमारोनु गमन संभवतुं नथी [' कण्हराइ इ व 'त्ति ] कृष्णराजि मेघराजी-मा. शब्दनो अर्थ पूर्वनी पठे जाणवो, [ मेघराइ इति वा' ] काळा मेघनी रेखानी तुल्य होवाथी । मेघराजि 'ए माम छ, [' मघा इ वा ] माधवती, तमिस्रपणे छट्ठी नारक पृथ्वीनी तुल्य होवाथी ' मघा' ए नाम छे, [ ' माघबई इ वा '] तमिस्रपणे ज सप्तम मारक पृथ्वीतुल्य होयाशी 'माघवती ' ए नाम छे, [ 'वायफलिह इ व 'त्ति ] अहिं वात एटके वात्या-वातनो समूह-र अर्थ जाणवो-जे कृष्णराजि वायुना समूहनी पैठे बातपरवा घट्ट अंधकारवाळी छे अने दुर्लय होवाथी परिधनी पेठे छे ते. 'वातपरिघ' कहेवाय, [वायपरिक्खोम' ति] अहिं पण वात एटले वातपरिक्षोभा. 'वात्या ' ए अर्थ करयो, जे कृष्णराजि, वायुना समूहनी पेठे गाढ अंधकारवाळी छे अने परिक्षोभना हेतुरणार्थी परिक्षोभरूप छे ते वातपरिक्षोभ देवपरिषा-देवपरेक्षोभा. कहेवाय, [ ' देवफलिहा इ व 'त्ति ] दुर्लध्यपणाथी जे कृष्णराजि देवोने परिष-अर्गला-भोगळ-नी पेठे छे ते 'देवपरिध' कहेवाय अने [ 'देवप लिक्खोभा इ व' त्ति ] देवोने परिक्षोभाववामा हेतु होवाथी ए कृष्णराजि - देवपरिक्षोभ ' पण कहेवाय.. १. मूलच्छायाः-हन्त, गौतम । असकृत् , अथवा अनन्तकृत्वः, नो चैव पदराकायिकतया, बादराग्नि कायिकतया वा, बादरवनस्पति कायिकतया वा:-अनु. १. स्थापना अनुवादे दर्शयिष्यवः-अनु. . Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६. - उद्देशक ५. ऐसणं हराई असु उतरे लोगंति गयिमाणा पत्रता से जहां अथी, अमिली बरोपणे पर्म करे, पंदाने, सूगने, सुकामे, सुपट्टामे, मन्झे विद्वाने. ३८० ३८. उ०- गोवमा लोगतिमा लोकांतिक देवो. ३६. ० ते अधिमा प्रचा ३६. ३० गोवमा उत्तर-पुर. मेगं ३७. प्र० - कहि णं भंते ! अचिमाली विमाणे पचत्ता ? ३७. ४० गोवमा पुरस्थमेणं, एवं परेवाडीए ने मि बहुमप्रदेसमाए, एएस णं असु लोगतिया देवा परिवति, तं जहा सारसय माइच्चा वण्हीवरुणाय गद्दतोया य, तुझिया आयावह अव दे ४०. प्र० कहि मं भंते! आइया देना परिक्रांति ! ४०. उ०- गोवमा अमलपि विमाने एवं नेव जहाऽऽणुपुए. ३९. प्र० - कहि णं मंते ! सारस्सया देवा परिवसंति ? ३९. उ०- गोयमा ! अचिम्मि विमाणे परिवसंति, ४२. प्र० - सारस्सय माइच्चाणं भंते । देवाणं कति देवा, कति देवसया पण्णत्ता ? ४२. उ० गोवमा ! सच देवा, सच देवसया परिवारो पन्नत्तो, वण्ही-वरुणाणं देवाणं चउद्दत देवा, चउद्दस देवसहस्सा पाहतोय तुनिया देश सच देवा, सत देवसहस्सा परिवारो पत्रत्तो अवसेसाणं नव देवा, नव देवसया पण्णत्ता. भगवतीसू - आठ कृष्णविना आठ अवकाशान्तरमां आठ लो फांतिकवान (आवे) चांछे, ते जेमके १ अर्ची, २ अर्चिर्माली, ३ वैरोचन, ४ प्रभंकर, ५ चन्द्राम, ६ सूर्यभ ७ शुक्राभ, आठमुं सुप्रतिष्टाम अने वचमां रिष्टाभ विमान छे. ३६. अर्थी विमान क्यो छे ! २६. उ० गीतम उत्तरी अमे पूर्वी बचे अर्थी विमान कह्युं छे. ४१. प्र० - जाव कहि णं- संते ! रिट्ठा देश परिवसनिन्? : ४१. उ० – गोयमा ! रिट्ठम्मि विमाणे, २०३ ३७. प्र० - हे भगवन् ! अर्चिमाली विमान क्या कह्युं छे ? ३७. उ०- हे गौतम! पूर्वमां अर्चिमाली विमान कं छ, ९ प्रमाणे कमी व विमानो माटे जाणधुं यावत्३८. हे भगवन् रिमान क्यों क प्र. मे १८. ३० हे गौतम! बहुमध्यभागमा रिष्ठविमान क छे, आहे सोनिक विमानोयां आठ जाना हो देवो रहे छे, ते जेमके, १ सारस्वत, २ आदित्य, ३ वहि, ४ वरुण, ५ गर्दतोय, ६ तुषित, ७ अन्याबाध, अने ८ आग्नेय तथा वचमां रिष्ठ देव छे. ३९. प्र० - हे भगवन् ! सारस्वत देवो क्या रहे छ ? ३९. उ० --- हे गौतम ! सारस्वत देवो अर्ची विमानमा रहे छे. ! ४० प्र०-हे भगवन् आदित्य देवो रहे छे! ४०. ० है गौतम ! आदित्य देवो अर्थमा नि रहे छे. ए प्रमाणे यथानुपूर्वीए यावत् रिष्ट विमान सुधी जाणवु. ४१: प्र० --हे भगवन् ! रिष्ट देवो क्या रहे छे ! ४१. ३० हे गीत रिष्ठ देवो रिष्ठ विमानमा रहे छे. ४२. प्र० -- हे भगवन् ! सारस्वत अने आदित्य, ए बे देवोनो बेला देवो अने केटला देवना ढाओ परिवार को ४२. उ०- हे गीत ! सात देवो अने देवना सात कडाओ एटले सातसो देयो, सारस्वत अने आदिल देगेनो परिवार छे, बहिन अने वरुणं ए से देखोनो चोद देन अने बीद हजार देव परिवार को छे, गर्दतोय अने तुषित ए के देयोनो सात देव अने सात हजार देव परिवार कह्यो छे, अने बाकीना देवोनो नव देव अने नवसो देव परिवार व ह्यो छे. ( परिवारनी संख्या ने १. मूलच्छायाः - एतासाम् अष्टानो कृष्णराजीनाम् अष्टसु अवकाशान्तरेषु अष्ट लोकान्तिकविमानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाः- अर्चिः, अर्चिमालिः, "वैरोचनः, प्रभङ्करः, चन्द्रागः, सूर्याभः, शुक्ला (का) भः, सुप्रतिष्ठाभः, मध्ये रिटाभः कुत्र भगवन् ! अर्पिः विमानं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! उत्तर - पौरस्त्येन, कुत्र भगवन् ! अर्चिमालिर्विमानं प्रज्ञप्तम् गौतम ! पौरस्त्येन, एवं परिवाच्या ज्ञातव्यम्. यावत् कुत्र भगवन् ! रिटं विमानं प्राप्त ? गौतम ! बहुमध्यदेशभागे, एतेषु अष्टसु लोकान्तिक विमानेषु अटयेधाः लोकान्तिकाः देवा परिवसन्ति तद्यथाः सारखना दिया वह तो वरुणाच गर्दतोयाथ, तुषिता अव्याबाधा आग्नेयाश्चैव रिटाश्च कुत्र भगवन् ! सारखताः देवाः परिवसन्ति ! गौतम ! अर्धिष विमाने परिवसन्ति कुत्र भगवन् ! आदित्या देवाः परिवसन्ति ! गांवम ! अर्थिमाला' विमाने, एवं ज्ञातव्यं यथाऽऽनुपूर्व्या. यावत्-कुन भगवन् ! रिटा देवाः परिवसन्ति ? गौतम ! रिष्टे विमाने. सारस्वतादित्यानां भगवन् ! देवानां कति देवाः, कति देवशतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! सप्त देवाः सप्त देवशतानि परिवारः प्रज्ञप्तः वढि वरुणानां देवादेवाचा , देवा देव परिवार / Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ पढेम - जुगलम्मि सत्तओ सयाणि बीयम्मि चउद्दससहस्सा, लहान व सयाणि सेसेसु. ४३. १० - डोगंतिगविमाणा णं भंते किपट्टिया पण्णत्ता श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे ४३. उ० गोवमा ! वाउपडिया पण्णत्ता एवं नेप विमााण पहाणं पाहुतमेव संडा मोयतया यया जहा जीवाभिगमे देवुद्देसए, जाव- हंता, गोयमा ! असति, अदुवा असतो; तो पेत्र देवताए सोतियविमाणे. ४४. प्र० - लोगंतिय विमाणेसु णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पचत्ता ? ४४. उ०- गोयमा ! अट्ठ सागरोवमाई ठिती पत्ता. ४५. प्र० सोगंतियामाहितो भवति अथाहाए छोगते पचते ? ४५. उ० -- गोयमा ! असंखंज्जाई जोयणसहस्साईं अबाहाए लोग - मंते, सेते. ६ ५. सूचवनारी गाथा कहे छे: ) प्रथम युगलमां सातसोनो परिवार छे, बीजामा चौद हजारनो परिवार छे, त्रीजामां सात हजारनो परिवार छे अने बाफीनामा नक्सोनो परिवार है. , ४३. प्र० - हे भगवन् ! लोकांतिक विमानो क्यां प्रतिष्ठित हे एटले लोकांतिक विमानो कोने आधारे छे ? ४३. ४० हे गौतम! लोकांतिक निवायुप्रतिष्ठित छे, ए प्रमाने विमान नुं प्रतिष्ठान, विमानोनुं बाहुल्य विमानोनी उंचाई अने विमानोनुं संस्थान जेन ' जीवाभिगम सूत्रां देव उद्देशकमां ब्रह्मलोकनी वक्तव्यता कही छे तेम अहिं जाणवुं यावत् -हा, गौतम ! अहिं अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे जीवो उत्पन्न थया छे, पण लोकांतिक विमानोमा देवपणे अनंतवार नधी उत्पन्न थवा. ४४. प्र० - हे भगवन् ! लोकांतिक विमानोमां केटला काळनी स्थिति कही है ! ४४. उ०- हे गौतम! लोकांतिक विमानोमा आठ सागरोमनी स्थिति कही है. ४५. प्र० भगवन् ! ठोकांतिक विमानोथी केटले अंतरे लोकांत को छे ? ܕ ४५. उ०- हे गौतम! असंख्य हजार योजनने अंतरे डोकांतिक विमानोथी लोकांत को छं. भगवंत - सम्मसामिप्रणीए सिरीभगवईते सये पंचम असो सम्मतो. .. हे भगवन् से ए प्रमाणे छे से ए प्रमाणे छे. ( एम कही यावत् विहरे छे.) 3 " २. असु उासंतरेषु चिन्ताकाशान्तरम् तत्राऽन्यतरोत्तर-पूर्वयोरेकम् पूर्वयोर्द्वतीयम् अम्यतरपूर्वदक्षिणयतृतीयम् दक्षिणवोचतुर्थम् अम्यन्तरदक्षिण पश्चिमयोः पञ्चमम् पश्चिम अभ्यन्तरपचिगो-पोः समन् पठम्, उत्तरयोरष्टमम् ' लोगंतिय विमाण' त्ति लोकस्य ब्रह्मलोकस्य अन्ते समीपे भवानि लोकान्तिकानि तानि च तानि विमानानि चेति समासः, लोकान्तिका वा देवास्तेषां विमानानीति समासः इह चाऽवकाशान्तरवर्तिषु अष्टःसु आर्चःप्रभृतिषु विमानेषु वाच्येषु यत् कृष्णराजीनां मध्यमभागवर्ति रिष्टं विमानं नवमम् उक्तम् तद्विमान प्रस्तावद् अवसेयम्:- " सारस्सयमाइचा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य या अन्याचा अग्गिन चेव रिट्टा य." इह सारस्वताऽऽदित्यगोः समुदितः सप्त देवाः सप्त च देवतानि परिवारइअक्षरानुसारेणाऽवसीयते एवम् उत्तरत्राऽपि अवसे साणं ति अन्याय धाऽऽग्नेवरिष्टानाम् एवं नेति पूर्वोकोमसापेन कान्तिकविमानमव्याज्ञाने नेयम् सदेव पूर्वोक्तेन सह दर्शयति विमाणाणं इयदि गाथार्धम् तत्र विमानप्रतिष्ठानमेव बाहल्यं तु विमानानां पृथिवीवाल्यम् तच पशविंशतियोजनशतानि उसत्यं तु ससयोजनशतानि संस्थानं पुनरेषां नानाविधम् अनाऽऽवलिकाप्रविष्टत्वात्, आवलिकाप्रविष्टानि हि वृत्त - यत्र चतुरस्रभेदात् त्रिसंस्थानान्येव भवन्तीति. • बंभल ए' इत्यादि. ब्रह्मलोके या विमानानाम्, देवानां च जीवाभिगमोक्ता वक्तव्यता सा तेषु नेतव्या अनुसर्तव्या, कियद् दूरम् ! " 6 , 6 " 1 1 , - खना ', 1. मूलच्छायाः प्रथम द्विचतुर्दशखाणि भगवन् । किंप्रतिष्ठितानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! वायुप्रतिष्ठितानि प्रज्ञप्तः नि, एवं ज्ञातव्यं विमानानां प्रतिष्ठानम्, बाहुल्ये चत्वमेव संस्थानम; ब्रह्मलोकवक्तव्यता ज्ञातव्या, दथा जीवाभिगमे देवोदेश के, यावत्-हन्त, गौतम ! असकृत अथवाऽनन्तकृत्वः, नो चैव देवत्तया लोकान्तिक विमानेपु. लोकान्तिकविमानेषु भगवन् ! क्रियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! अष्ट सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता. लोकान्तिक विमानेभ्यो भगवन् ! कियत्याऽबाधया छोकान्तः महानतम ध्येयानि योजना वान्तःप्रसः सबै भगवन् तदेवं भगवन् इतिअनु · / Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६. - उद्देशक ५. भगवत्सुधर्मस्वामिणीत भगव इत्याह-जाय ? इत्यादि साचेलेतः" होयंतियविमाणाते! तिचा पता ? गोवमा ! तिपादन हालिद्दा, सुकिल्ला, एवं पभाए निच्चालोया, गंधेणं इट्ठगंधा, एवं इट्ठफासा, एवं सव्वरयणामया; तेसु देवा समचउरंसा, अल्लमहुगयथा, पम्हलेस्सा. लोयतियविमा व भंते । राज्ये पाणा, भूज, जीवा, सत्ता विचार भाइयत्ताए, लेखकाइयाए बाउफाइबताए, वणस्सइकाइयसाए देवताए, देविचार उपवधपुच्या 'ह' इत्यादि लिखितमेचयति छान्दसत् ? हन्त' किपत्या अवाचया अन्तरेण लोकान्तः प्रज्ञप्त इलि. भगवत्सुधर्मस्वामित्री श्रीभगवतीचे शते पथम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचितमाम् ३. [ असु उपासंतरे चिनी 6 " अन्तर ते पहले अभ्यंतर उत्तरमी अने पूर्वनी बचे एक विमान के बास पने पूर्वनी बच्चे बीजुं विमान छे, अभ्यंतर पूर्वनी अने दक्षिणनी वच्चे श्रीजुं विमान छे, बाह्य बन्ने दक्षिणनी वच्चे चोथुं विमान है, अभ्यंतर दक्षिणनी विमान अने पश्चिमनीचे पांच विमान के मजे माझ पश्चिम विभाग अभ्यंतर पश्चिम अने उत्तरनी व सात विभाग अने य 6 , अंते पहले समीपे जी रहे ते लोक वाय अनेकগিफ अथवा लोकांतिक जे देवो अने तेओना जे विमानो ते अर्चि बगेरे आठे विमानोनी हकीकत कहेबाना - उत्तरमा आठ विमान छे. [ लोगंतियविमाण चि] लोक एटले लोकांतिकरूप जे विमानो ते लोकांतिक विमानो ( ए प्रमाणे समास करवो ) कहवाग, लोकान्तिक विमानो (ए प्राणे समास करयो) काय अहं अवकाशांतरमा रहनार संगम पण जे कृष्णजिओना मध्यम पचले भागे रहेना रिट भाग नवसुं विमान जगान्युं हे ते फक्त विमानना प्रस्तावधी व समय छे. १ सारस्वत, २ आदित्य, ३ वह्नि, ४ वरुण, ५ गद्दतोय, ६ तुसिय, ७ अव्याबाध, ८ आग्नेय अने नवमा रिष्ट, अहिं अक्षरीने अनुगारे- सरखतदेव लख्याने अनुसारे-एम जणाय छे के, सारस्वत देव अने आदित्य देव ए बन्ने समुदित देवोनो सात देव अन मातसो देवो परिवार हे अर्थात् ए बने देवोनो भेगो परिवार एटलो छे, ए प्रमाणे आगळ पण जाणी लेवुं, [' अवससाणं ' ति ] अव्यावाध देवनो, आग्नेय देवो अने रिदेवनोप परिवार जागी मो. [ एवं मेवंति ] ए मात्र पूर्वोक्त प्रधनना अनं उत्तरमा अभिलापभी ठोकांतिक मानोनीत परिवार, , 2 १. प्र० छा:- लोकान्तिक विमाना भगवन्! कतिवर्णः प्रज्ञप्ताः ? गोतम ! त्रिवणी: लोहिताः, हारिद्राः, शुक्ला:; एवं प्रभया नित्यालोकाः, गन्धेन इष्टगन्धा एवम् स्पर्श एवं सर्वषु देवाः साः आईवीले सोकान्तिवानेषु भगवन्सर्वे प्राणाः, भूना, जीवाः, सच्चाः पृथिवी कायिकतया, अप्कायिकतया, तेजःकायिकतया, वायुकायिकतया, वनस्पतिकायिकतया देवतया, देवितया उपपन्नपूर्वीः !:- अनु० १. आ उपरना आ टीकाना मूळ सूत्रमां देवोने लगती हकीकत आपेली छे. जैनसंप्रदायने अभिमत एवी- देवोने लगती घणी हकीकत आ सूत्रमा अनेक ठेकाणे आवी गइ छे अने हवे पछी पण आवशे तो ए बधी हकीकतोनी साधे तुलना करवा सारु जो वैदिक संप्रदायने अभिमत एवी देवोने लगती हकीकत आपवामां आवे तो ठीक गणाय एम मानीने अहीं श्रीपातंजलसूत्रमां आवेली ए देवानी हकीकत अक्षरशः जणावी दइए छीए: "ए पातासस्थानमी उपर की उपर मुक्तक (अंतरिक्षसो . पृथ्वीमा जे अजीम हे ए अंतरिक्ष- लोकमां पण असंख्य जीवो रहे छे, भुवर्लोकनी उपर स्वर्लोक रहे छे; एने महेंद्रलोक पण कहे छे. एमां असंख्य उत्तमोत्तम प्राणिओ रहे छे. ए १ महेंद्रलोकमां जे देव-जातिनो वासो छे तेना छ प्रकार छः १ त्रिदश, २ अग्निष्वात्त ३ याम्य, ४ तुषित, ५ अपरिनिर्मितवशी अने ६ परिनिर्मितयशी ए बधा देवो संकल्पसिद्ध सामर्थ्य वाळा, अणिमादि ऐश्वर्य संपन्न, कल्ल पर्यंत आयुष्यवाळा अने ओपपादिक देहवाळा छ ( ओपपादिकदेह एटले जे शरीर, माता पिताना संयोगवडे उत्पन्न थयुं नथी, किंतु पूर्वे करेला धर्मना प्रभावथी उत्पन्न थएल छे ) अर्थात् धर्मना तेजथी सुसंस्कृत अने पवित्र भांतिक अणुओं द्वारा तेओनो देह 'बनेलो होय छे. ए देह, निर्मळ, लघु वर्लोकनी उपर २ महर्लोक छे, तेमां पांच प्रकारना देवो वास एवधा महाभूतवशी छे एटले एओने स्थूल तथा सूक्ष्मभूतो संपूर्ण. काळे तेमने ए महाभूतो ते ते पदार्थने हाजर करे छ अर्थात् परिणाम पाने छे तेओ आपणी पेठे आहार करता नथी. भाग्य . अने सूक्ष्मतम होय छ, एने मलिनदेहवाळा माणसो जोइ शकता नथी. ए करे छेः १ कुमुद, श्रभव, ३ प्रतर्धन, ४ अजनाभ अने ५ प्रचिताभ रूपे वश रहेला होय छे. तेओ (ज्यारे तेनी ) इच्छा करे छे, ते ज एमनी अमोघ इच्छाना प्रभावथी ए महाभूतो ते ते पदार्थने आकारे वस्तुनुं ध्यान तथा परिदर्शन करीने ज तेओ तृप्त तथा परिपुष्ट थाय छे. एमनुं आयुष्य हजार कल्प सुधीनुं छे. तेनी उपर ३ ' जनलोक' नामे ब्रह्मानो प्रथम लोक छे. ए लोकमां चार प्रकारनी देवजाति रहे छेः १ ब्रह्मपुरोहित, २ ब्रह्मकायिक, ३ ब्रह्ममहाकायिक अने ४ अमर. ए सघळा, महाभूत अने इंद्रियशेने वश करीने अपार आनंदमां रहे छे. एमनुं आयुष्य बे हजार कल्पनुं छे. तेना उपर ४ 'तप' नामे ब्रह्मानो बीजो लोक छे. एमां त्रम प्रकारनी देव जाति रहे छेः १ आभाखर, २ महाभाखर, ३ सत्य महाभाखर. महाभूतो इंद्रियो अने महत्-तत्व एटले मनः एमने वशीभूत छे. एमनुं आयुष्य चार हजार कल्पनुं छे. ए बधा ध्यानतृप्त अने अन्या - इतज्ञान संपन्न छे, सत्यलोकना विषय सिवायना अन्यलोकना सर्व विषयो तेमना जाणवामां छे. ए लोकनी उअर ब्रह्मानो नोजो ५ सत्य - लोक छे. एमां चार प्रकारनी देवजाति रहें छेः १ अच्युत, २ शुद्धनिवास, ३ सत्यभ्रा अने ४ संज्ञासंज्ञी. केटलाक तेओने १ अकृतभवनंन्यास, २ स्वप्रतिष्ठ, ३ उपरिस्थ अने ४ प्रधानवशी - एवा नानथी पण ओळखे छे. एमनुं आयुष्य अने सामर्थ्य ब्रह्माना जेटलं छेएओ बधा महाप्रलय पर्यंत जीवता रहे छे अने ब्रह्मानी पेठे नवी नवी सृष्टि करवामां समर्थ छे:- पातंजल योगदर्शन, विभूतिपाद, सू० २६ ( पृ० १७१–१७२ - १७३ नथुरामशर्मा ) [ आ उल्लेखमां 'कल' शब्दनो प्रयोग वारंवार भएको छे तो तेनी समजण माढ़े जिज्ञासुओए मनुस्मृतिमांनुं मन्वंतरनुं प्रकरण जोह लें | :- अनु० / Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६.-उद्देशक ५. तेज पूर्वोक्तनी साथै दर्शावे छे के, [' विमाणाणं' इत्यादि ] गाथार्ध-अडधी गाथा, तेमां विमाननुं प्रतिष्ठान दर्शव्यु ज छे अने बाहल्य एटले विमानोनी पृथिवी स्थूलपणुं तो दर्शाववानुं छे, ते बाहल्य २५०० योजन छे अने तेनी उंचाइ तो ७०० योजन छे. वळी, एओ आवलिकामा विमानोना आकार, प्रविष्ट न होबाथी जुदा जुदा प्रकारना आकारे रहेला छे अने जेओ आवलिकामां प्रविष्ट होय तेओ तो गोळ, त्रिकोण के चतुष्कोण एवा आकारना जीवाभिगम, भेदथी त्रण आकारवाळां ज होय छे. [ 'बंभलोए ' इत्यादि. ] ब्रह्मलोकमां रहेनारां विमानो परत्वे अने देवो परत्वे जे वक्तव्यता ' जीवाभिगम' सूत्रमा कही छे ते वक्तव्यता ते लोकांतिक देवोमा जाणवी-अनुसरवी, ते वक्तव्यता क्यां सुधी जाणवी ? तो कहें छे के, [' जाव' इत्यादि.] कांइक थोडी ते वक्तव्यता-आ प्रमाणे छ:-" हे भगवन् ! लोकांतिक विमानोना केटला वर्णो कह्या छ ? हे गौतम! लोकांतिक विमानो त्रण वर्णोवाळो कसा छे, लाल वर्णवाळां, हरिदा-हलदर-ना वर्णवाळां अने शुक्ल वर्णवाळां, ए प्रमाणे प्रभावडे नित्य आलोक-प्रकाश-वान छे, गंधवडे इष्ट गंधवानां छ, ए प्रमाणे इष्ट स्पर्शवाळां, ए प्रमाणे सर्व रत्नमय ते विमानो छे, ते विमानोमा देवो समचतुरस्रसंस्थानवान, आई मधूक-लीलामहुडा-जेवा वर्णवाळा अने पद्मलेश्यावाळा छे, हे भगवन् ! ते लोकांतिक विमानोमां सर्व प्राणो, भूनो, जीवा, अने सत्त्वो पूर्व पृथिवीकायिकपणे, जलकायिकपणे, अमिकायिकपणे, वायुकायिकपणे अने वनातिकायिकपण तथा देवपणे, देवीपणे पूर्व उत्पन्न थयां छ?" 'हा' इत्यादि तो र मूळमा लखेलं ज छ [ ' केवईयं ' ति ] केटली अबाधावडे एटले केटला अंतरवडे लोकांत कह्यो छे. १.जूओ, जीवाजीवाभिगम सूत्र, बीजो वैमानिक उद्देशक पृ० ३९४ थी ४०६ (दे० ला०) तथा जूओ प्रशापना सूत्र, बीजु स्थानपद, ब्रह्मलोक-देवस्थानाधिकार-पृ० १०३ (आ० स०):-अनु० २. 'केवदयं ' रूप आर्ष छे, कारण के, एने ' केवयाए ' ने बदले मूकबामां आवेलं छे:-श्री अभय बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो बाहको दान्ति-शान्त्योः-दयात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ।। . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ६. पृथिवीओ केदली ?-सात.-अनुत्तर विमानो केटलां -पांच, म.रणांतिक समुद्धात.-रत्नप्रभामा उत्पत्र थवाने योग्य जीव, त्यां पहोंचीने ज आहार करे ?-शरीरने ने १-के.लाक त्या पक्षाचीने करे ने वेटल.क त्यां पहों वी, त्यांची पाछा फी, फरी कार त्यां पहोंचीने तेम करे.-५ रीते साते पृथिवी-असुरकुमारावासमा अने पृथिवीकायाासमा उत्पन्न यवाने योग्य जीव विवे पण एज विचार.-मंदर पर्वत.-अंगुल.-वालाग्र.-लिक्षा.-यूका.-यनः-यावत् योजनकोटि -ए रोते यथा एकेंद्रियो-बेरंद्रियो यावत् अनुत्तरदेषो.-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे १. प्र०-कति णं भंते ! पुढवीओ पचत्ताओ? १. प्र०-हे भगवन् ! पृथ्वीओ केटली कही छे ! १. उ०-गोयमा ! सत्त पुढवी पन्नत्ता, तं जहाः-रयणप्प- १. उ०-हे गौतम ! सात पृथ्वीओ कही छे, ते जेमके, भा, जाव-तमतमा; रयणप्यभाईणं आवासा भाणियव्वा, जाव- रत्नप्रभा यावत् तमतमाप्रभा, रत्नप्रभा वगेरे पृथ्वीथी शरु करी अहे सत्तमाए, एवं जे जत्तिया आवासा ते भाणियब्वा. यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी सुधीना जे पृथ्वीना जेटला आवासो होय यावत् तेटला कहेवा यावत्- ' २.५०-जाव-कति णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता ! २. प्र०-हे भगवन् ! अनुत्तरविमानो केटलां कयां छे ? २. उ०-गोयमा ! पंच अणुतरा पनत्ता,तं जहा:-विजए, २. उ०-हे गौतम ! पांच अनुत्तर विमानो कहां छे, ते जाव-सबसिदे. जेभके, विजय यावत् सर्वार्थसिद्ध. १. व्याख्यातो विमानादिवक्तव्यताऽनुगतः पञ्चमोद्देशकः, अथ षष्टस्तथाविध एव व्याख्यायते, तत्र:-'कइ णं' इत्यादि सूत्रम् , इह पृथिव्यो नरकपृथिव्यः, ईषत्प्राम्भाराया अनधिकरिष्यमाणत्वात्. इह च पूर्वोक्तमपि यत् पृथिव्यादि उक्तम् , तत् तदपेक्षमारणान्तिकसमुद्घातवक्तव्यताऽभिधानार्थम्-इति न पुनरुक्तता. १. पंचम उद्देशकमां विमान वगैरेने लगती हकीकत कही छ.हवे आ छट्ठा उद्देशकमां पण ए अ जातमी हकीकत कहेवानी छे. आ उद्दे"शकमां [' करणं'] इत्यादि प्रथम सूत्र छे. अहीं (आ प्रकरणमा) · पृथिवी' शब्दमा अर्थ तरीके सात नैरयिक पृथिवीओ समजवानी छे. कारण के, आ स्थळे आठमी ईषत्यागभारा पृथिवीने लगती चर्चानो अधिकार नथी. आ पृथिवी संबंधी हकीकत समुद्घातोनी हकीकत साधे विशेष संबंध धरावे छे, अने आ पछीमा प्रकरणमा समुद्घातोने लगती चर्चा करवानी छे माटे ज ए पृथिवीओ विषेनी चचीने-जे चर्चा आगळ आबी गइ छ तो पण-अहीं फरीवार चर्चवी पडी छे-तेमां पुनरुक्ति जेवू कशं नथी. पुनरुक्ति नयी १. मूतच्छायाः-कति भगवन् । पृथिव्यः प्राप्ताः ? गौतम 1 सप्त पृथिव्यः प्राप्ताः, तद्यथा:-रत्नप्रभा, यावत्-तमस्तमा; रस्नप्रभ दीनाम् आवासाः भणितव्याः, यावत्-अधः सप्तम्याः, एवं ये यावत्का आवासास्ते भणितव्याः. यावत्-कति भगवन् । अनुत्तर विमानानि प्राप्तानि? गीतम। पचायतराणि प्रहप्तानि, तथथा:-नियम् , यावत्-सथपिरम्:-मनु० . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शेतक ६.-उदेना. मारणांतिक समुद्घात अने जीवो. ३.प्र०-जीवेणं भंते ! मारणंतियसमग्घाएणं समोहए, स- ३.प्र०-हे भगवन् ! जे जीव मारणांतिक समुदघातथी मोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तासाए निरयावा- समवहत थयो अने समवहत थइ आ रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीश लाख ससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावाससि नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, निरयावासमांना कोई पण एक निरयावासमां नैरयिकपणे उत्पन्न से ण मंते ! तत्थगए चेव आहारेज वा, परिणामेज वा, सरीरं वा थवाने योग्य छे ते जीव हे भगवन् ! त्या जइने ज आहार करे ? बंधेज वा ? ते आहारने परिणभावे अने शरीरने बधे ! ३. उ०-गोयमा ! अत्थेगतिए तत्थगए चेव आहारेज वा, ३. उ०--हे गौतम ! केटलाक जीव त्यां जइने ज आहार परिणामज वा, सरीरं वा बंधेज वा; अत्यंगतिए तओ पडिनिय- करे, परिणमावे अने शरीरने बाधे अने केटलाक जीव त्यांची त्तति, ततो पडिनियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता दोचं पि पाछा बळे छे, पाछा वळीने अहिं आवे छे अने अहिं आवी मारगंतियस मुग्घाएणं समोहणड़, समोहणित्ता इमीसे रंयणप्पभाए फरीवार मारणांतिक समुद्घात बडे समवहत थाय छे, समवहत पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अण्णयरांस निरयावाससि थइ आ रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीश लाख निरयावासमांना कोइपण एक नेरइयत्ताए उववजित्ता ए, तओ पच्छा आहारेज वा, परिणामेज निरयावासमां नैरयिकपणे उत्पन्न थाय छे अने त्यार पछी आहार वा, सरीरं वा बंधेजा, एवं जाव-अहे सत्तमा पुढवी. करे छे, परिणमावे छे अने शरीरने बांधे छे, ए प्रमाने यावत् अधः - सप्तमी पृथ्वी सुधी जाणवू. ४. प्र०-जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए. जे ४. हे भगवन् ! मारणांतिक समुदधातथी समवहत भविए चउसडीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि असरक- थएलो जे जीव अमुरकुमारोना चोसठलाख आवासोमांना कोइपण मारावासंसि असुरकुमारत्ताए उववजिराए ? एक असुरकुमारावासमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते जीव,हे भगवन् ! त्यां जइने ज आहार करे ? ते आहारने परिणमावे ? अने शरीरने बांधे ! ४. उ०-जहा नेरइया तहा भाणियन्वा, जाव-थणियकुमारा. . उ.---जेम नैरयिको संबंध का तेम असुरकुमारो माटे यावत् स्तनितकुमारो सुधी कहेवू.. ५. प्र०-जीवे णं भंते ! मारणंतियसमग्घाएणं समोहए, ५. प्र०-हे भगवन् ! मारणांतिक समुद्घातवडे समवहत समोहाणत्ता, जे भविए असंखेजेस पुढविकाइयावाससयसहस्सेस, थइने जे जीव असंख्येय लाख पृथिवीकायना आवासमांना अन्यअन्नयरसि वा पुढविकाइयावासांस पुढविकाइयत्ताए उववाजित्तए, तर पृथिवीकायना आवासमा पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य से णं भंते ! मंदरस्स पव्ययस्स पुरस्थिमणं केवड्यं गच्छेजा, छे ते जीव हे भगवन् ! मंदर पर्वतनी पूर्वे केटलं जाय ? अने केवतियं पाउणिज्जा ? केटलं प्राप्त करे ! ५. उ०-गोयमा ! लोयतं गच्छेज्जा, लोयंत पाउणिज्जा. ५. उ०—हे गौतम ! लोकांत सुधी जाय अने लोकांतने प्राप्त करे. . ६. प्र० से ण भंते ! तत्थगए चेव आहारेज वा, परि- ६. प्र०-हे भगवन् ! ते त्या जइने ज आहार करे ? परिणामेज वा, सरीरं वा बंधेज्जा ? णमात्रे ! अने शरीरने बांधे ? ६. उ०- गोयमा ! अत्थेगतिए तत्थगए चेव आहारेज ६. उ०-हे गौतम ! केटलाक त्या जइने ज आहार करे, वा, परिणामेज वा, सरीरं वा बंधेजा; अत्यंगतिए तओ पडि- परिणमावे अने शरीरने बधे-तैयार करे. अने केटलाक त्याथी १. मूलच्छायाः-जीवो भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः, समबहत्य यो भव्यः-अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहनेषु अन्यतरस्मिन् निरयावासे नैरयिकतया उपपत्तुम, स भगवन् ! तत्रगत एव आहरेद् वा ? परिणमयेद् वा, शरीरे वा बनी याद् वा ? गौतम ! अस्त्येककः तत्रगत एव आहरेद् वा, परिणमयेद् वा, शरीरे वा बध्नीयाद् वा; अस्त्येककः ततः प्रतिनिवर्तते, ततः प्रतिनिवृत्त्य इह आगच्छति, आगत्य" द्वितीयमपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहन्ति, समवहत्य अस्यां रत्नप्रभायां पृथ्व्यां त्रिंशति निरयावासशतसद्दनेषु अन्यतरस्मिन् निरयावासे. नैरयिकतया उअपद्य, ततः पथात् आहरे वा, परिणमयेद् वा, शरीरं वा, बध्नी याद्-एवं यावत्-अधः, सप्तमी पृथ्वी. जीवो भगवन् ! मारणान्ति-: कारागुदातेन समवहतः—यो भव्यः चतुष्पष्टयाम्-असुरकुमारावासशतसहस्रेषु अन्यतस्मिन् असुरकुमारावासे असुरकुमा-तया उपपत्तुम् यथा नैरपिकास्तथा गणितव्या', यावत् नितकुमारा:- जीवो भगवन् 'मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतः, समवहृत्य यो भव्यः-असंख्य येषु पृथिवीकायिकावासशतसहतेषु अन्यतरस्मिन् वा पृथिवीकायिकावासे पृथिवीकायिकनया उपपत्तुम् , स भगवन ! मन्दरस्य पर्वतस्य पारस्त्येन किय गच्छेत् ? कियत् प्राप्नुयात् ? गैतम | लोकान्तं गच्छेत् , लोकान्तं प्राप्नुयात् स भगवन् ! तत्रगत एव आहरे वा, परिणमयेद् वा, शरीर वा ब नीयात् । ग.तम ! अस्त्येककः तत्रगत एव आहरे वा, परिणमयेद् वा, शरीरे पा पनीयात् । अस्त्येककः ततः प्रतिः-अनु० . Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक देश है. भगवाधर्मात भगवतः 1 1 नियत, पड़िनियुत्तित्ता इहं हव्वं आगच्छई, दोघं पि मारणंांति पाछा बळे छे अने पाछा वळी अहं शीघ्र आवे छे अने फरवार यसमुग्धाएवं समोहण समोहूणहत्ता मंदरस्त पय्ययता पुर मारणांतिक समुद्घातथी समग्रत थाप के समपहत थ मंदरथिमेणं अंगुलरस असंखे घज्जइभ इभागमेतं वा, संखेजड़भागमेतं वा पर्यंतनी पूर्वे अंगुनो असंख्य भागमात्र, संख्येय भागमात्र, बाहुवा एवं लिक्सं सूर्य जब अंगुल-मारवाड पक्व (बेथी नत्र वासा) र प्रमागे लिखा, जोयणकोडिं वा, जोयुगकोडा कोडिं वा, संखेज्जेसु या, असंखे मेसु यूका, यत्र, अंगुल यावत् क्रोडयोजन, कोडाकोडी योजन, संख्येय वा जोयसोगं पाएगएनि सेटिं मोनू अ हजार योजन अने असं हजार योजने अथवा छोतम एक जेसु पुढविकाइय वाससय तहस्सेसु अनयरंसि पुढविक्क/इया वासंसि प्रदेशिक श्रेणिने मूकीने असंख्येय लाख पृथिवीकायिकना आवासपुढविकाइयत्ताए उववज्जेत्ता, तओ पच्छा आहारेज्ज वा, परिणामांना कोइ पृथिवीकायना आवासमां पृथिवीकायपणे उत्तन्न थाय अने पछी आंहार करें, परिणमा भने पारीने बांध, जैम मंदर पर्यंतनी पूर्व दिशा पर कर्बु भाछापक वयो- तेमए प्रमाणे दक्षिणे, पश्चिमे उत्तरे, ऊर्ध्व अने अधोदिशा माटे पण जाग पुं. जेम पृथिवीकायिको माटे काँ तैमं सर्व एकेंद्रियो माटे एक एकना छ आप कहेवा. मेजया, सरीरं पाया जहा पुरस्मे मंदरस्य यस्स आलाओ मणिओ, एवं दाहिणे, पर्यात्थिमेगं उतरे, उट्टे अहे. जहा पुढविकाइया तहा.एगिंदियाणं सव्वेसिं एकेकस्स छ आलावा भाणियचा.. ७. प्र० - जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहण, समोहणित्ता जे भविए असंखेज्जेसु बेइंदिया वाससयस हस्सेसु अनयसि बेइंदियावासंसि बेइंदियत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! तत्थ - गए चेव ? ७. उ० – जहा नेरइया, एवं जाव - अणुत्तरोषवाइया. ८. प्र० जीवे ते मारणंतियसमुपाएणं समोहए, समो. हणिचा पिंच अणुचरभु महतिमहालए महापिमा अत्रयरंसि अणुत्तरविमाणस अणुतरोपपादयदेवताएं उपज से णं मते । तरथगए चेय ? ८. उ० तंज- आहारेज्य का परिणामेन पा सरीरं वा बंधेज्ज वा. — सेयं मंते, सेवं मंते - शि.. 3 ७. २०-हे भगवन् ! मारणांतिक समुद्घातथी सम जे जीव असंख्येय लाख बेइंद्रियोना आवासमांना कोइ एक वेइंद्रियावासमां बेइंद्रियपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते जीव, हे भगवन् ! यो जने आहार करे सेने परिणायें ! भने शरीरने तैयार करे ! واطر شم ७. उ०- ( हे गौतम! ) जेम नैरयिको कला तेम बेइंद्रियथी मांडी अनुत्तरोपपातिक विमान सुधीना सर्व जीवो कहेवा. ८. प्र०-हे भगवन् ! मारणांतिक समुद्धाराची समपत गइ जे जीव मोठागां मोटा महा विमानरूप पांच अनुतर विमानो मांना कोई एक अनुत्तरविमानमा अनुत्तरोपपातिक देवपाप योग्य छे से जीव हे भगवन् ! त्यां जइने अ आहार करे परमा अने शरीरने तैयार करे ? भगतमसामिपीए गिरीभग सये छट्टो उसी सम्मो " 6 3 २. गए पति नरकाऽऽयासप्राप्त एव आहारेज वा पुद्रान् आदयात् परिणामेव वत्ति तेषामेव चेव खल - रसविभागं कुर्यात्, ' सरीरं वा बंधेज्ज व ' त्ति तैरेव शरीरं निष्पादयेत्. ' अत्थेगइए ' त्ति यस्तस्मिन्नेव समुद्घाते म्रियते, ततो पदिनियत चि ततो नारावासात् समुयाता व दहे आगच्छति स्वशरीरे 'ति किप दूरं , 6 ८. उ०- ( हे गौतम ! ) ते ज कहेवुं यावत् आहार करे, रण भने शरीरने तैयार करे. - हे भगवन् ! ते ९ प्रमाणे छे. हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे. 6 १. मूलच्छायाः निर्तत प्रतिनिवृत्य इद शीघ्रम् आगच्छति, द्वितीयम पे मारणान्तिकसमुद्ध तेन रामबहन्ति, समाहृत्य मन्दरस्य पर्वत य फौरान अभागा संख्येयमागम बाया बाया एवं कामया मा जनकोटाकोटिं का संदेषु वा अस्येयेषु वा यसो वा प्रदेशका मुक्या वेदेषु पृथिवीचाविका अन्यतरस्मिन् पृथिवीकायिकावासे पृथिवीकायिकतया उपपद्य, ततः पश्चाद् आहरेद् वा, परिणमयेद् वा, शरीरं वा वध्नीयाद्यथा पौरस्त्येन मन्दरस्य पर्वतस्य आलापको भणितः, एवं दक्षिणेन, पश्चिमेन, उत्तरेण, ऊर्ध्वम्, अधः यथा पृथिवी कायिकास्तथा एकेन्द्रियाणां सर्वेषाम् एकैकस्य षड् आलापका भणितव्य::. जीवो भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घातेन समवद्दन्ति, समबद्दल यो भव्यः - असंख्येयेषु द्वन्द्रियावा सशतसहस्रेषु अन्यतरस्मिन् द्वीन्द्रियावा से द्वीन्द्रियतया उपपत्तुम् स भगवन् ! तत्रगत एव १ यथा नैरयिकाः एवं यावत् - अनुत्तपपातिकाः जीवो भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घातेन समपहृतः समवद्दय यो अन्य अनुरेषु महाटिमानेषु अन्यतमम् अरमाने पतिदेवतया उपय मामा सदेव भगभग 3 / Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरामचन्द्र विना गम संग्रहे ३१८ शतक ६६. गच्छेद् गमनम् आश्रित्य • केवइयं पाउणेज्ज' त्ति कियद् दूरं प्राप्नुयाद् अवस्थानमाश्रित्य ' अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेतं वा ' इत्यादि. इह द्वितीया सप्तम्यर्थे द्रष्टव्यां ' अंगुलं ' इह यावत्करणादिदं दृश्यम् - 'विहतिथं वा, रयणिं वा, कुच्छि वा, धणुं वा, कोसं वा, जोयणं वा, जोयणसयं वा, जोयणसहस्सं वा, जोयणसयसहस्सं वा इति. ' लोगंते व ' त्ति अत्र 'गत्वा' इति शेषः; ततश्चाऽयमर्थः उत्पाद स्थानाऽनुसारेण मंजाऽसंख्येयमागमात्रादिके क्षेत्रे समुद्घाततो गत्या कथम् इत्याह- एमएस सेवि मोण 'त्ति यद्यपि असंख्येयप्रदेशाऽवगाहस्वभावो जीवस्तथापि नैक प्रदेशश्रेणीवर्ती असंख्य प्रदेशाऽवगाहनेन गच्छति, तथास्वभावस्वात् इत्यतस्तामुक्त्वा इत्युक्तमिति. , भगाखामि भी उसके श्री अभयदेवसूविरचितं विमा " २. [' तत्थगए चैव त्ति ] त्यां गया पछी अर्थात् नरकावासने पाम्या पछी ज, ['आहारेज वा '] पुनलोने ग्रहण करे, [' परिणामेज व 'त्ति ] आहार अने परिणाम. ते ग्रहण करेलां पुद्गलोने ज पंचावीने तेनो खलरूप अने रसरूप विभाग करे, ['सरीरं वा बंधेज व 'त्ति '] ते पुद्गलोवडे ज शरीरने तैयार करेनिष्यादे. [अगणि] कोई एक अर्थात् ते समुद्घातमां ज जे मरण पाते, ['ततो परिनियत'सि] ते नरकावासी अथवा समुद्वाती पाबळे, ['हुमागच्छति ] अहं पोताना शरीरमां आवे छे. [' केवश्यं गच्छेन्न' चि] गममने आधीने केले दूर जाय, [केय पाउस' चि] अपस्थानने आधीने केलं दूर प्राप्त करे, [[अंगुल असंलेज्जभाग वाइदि] अंगुल अहिं यावत् शब्दको होवाथी आ प्रमाणे जाण] तने, रजिने, कुक्षिने, वने, कोशने योजनने सो योजनने, हजार योजने अने लास योजनने " [ 'हो गंते व [च] [लोकान्मां जहने, अहीं 'जाने' ए अभ्याहार है, तेथी आ जातको अर्थ राजन उत्पाद स्थान अनुसारे अंगुलमा अर्थसेटिं मोनू ति] जो के जीव असंस्थेय प्रदेशम जीप समान, अवगाहवाना स्वभाववाळो छे तो पण ज्यारे ते एकप्रदेशनी श्रेणीमां वर्ततो होय छे त्यारे तो असंख्य प्रदेशावगाहन द्वारा तेनी गति नथी होती. कारण के, जीवनो एवो ज स्वभाव छे माटे ज अहीं 'एकप्रवेशनी श्रेणीने एटले विदिशाने मूकीने. ' ए हकीकत जणावेली छे. -- भागमायादिकां समुपात द्वारा जइने, केवी रीते तो कई छे के [ए -- १. प्र० च्छायाः - वितस्ति वा रनिं वा, कुक्षि वा, धनुर्वा, कं वा योजनं वा, योजनशतं वा योजनसहस्त्र वा योजनशतसहन्न वाः - अनु० १. हामी अद्वितीय वैज-म० टापः समुद्रेऽतिरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सगुणानां परकृतिकरणासजीची तपस्वी अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरोबारको दान्ति शानयोः दयात् श्रीचीरदेवः शिवमुखं मारा चामुख्यः || - / Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशकः ७. शालि-बोहि-गोधूम-यव-यवयव-ए धान्योनी योनिनो बीजोत्पत्तिकाळ 'केटलो ?-अन्तर्मुहूर्त -वधारेमां वधारे त्रण वरस.-कलाय-मसूर-तलं-मग-अडद-वाल कळथी-चोळा-तुवेर-वणा-ए धान्योनी योनिनो बीजोत्पत्ति काळ केटलो ?-वध रेमां वधारे पांच बरस.-ए प्रमाणे अळसी-कुसुंभक-कोद्रवा-कांग-बंटी -राळ-कोदूसग-शण-सरसव अने मूलबीजनी योनि विधे प्रश्न-वधारेमा वधारे सात वरस.-मुहूर्तना उच्छवास केटला ?-३७७.३-आ 'लिक'उच्छवास-निःश्वास-प्राण-स्तोक-लव-मुहूर्त-अहोरात्र-पक्ष-मास-अतु-अयन-संवत्सर-युग-वर्षशत - वर्षसहस्र-वर्षशतसहस्र-पूर्वाग-पूर्व-त्रुटितांगत्रुटित- अटटांग-अटट-अवांग-अवव-हूहूक ग-हूहूक-उत्पलांग-उत्पल-पांग-पत्र-नलिनांग-नलिन-अर्थनु पूरांग-अथनुपूर-अयुतांग-अयुत-प्रयुतांग -प्रयुत-नयुतांग-नयुत-चूलिकांग-चूलिका-शीर्षप्रहेलिकांग-शीर्षप्रहेलिका-५ बयां काळनां प्रमाणोनुं स्वरुप.-एटलोज गणितनो विषय.-औपमिककाळपल्योपम.---सागरोपम.-परमाणनुं स्वरूप.-उच्छरक्ष्णलक्ष्णिका-क्ष्णश्वक्षिणका-ऊर्ध्वरेणु-त्रसरेणु-रथरेणु-बालान-लिक्षा-यूका-यवमध्य-अंगुल-पादवितस्ति-वेत-रनि-कुक्षि-दंड-धनुष्-युग-नालिका-अक्ष-मुसल-गव्यूत-योजन.-८ बधार्नु स्वरूप.-पल्यो।पमर्नु स्वरूप,-सागरोपमर्नु स्वरूप.उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीनुं प्रमाण.-सुषमसुषमाना भरत स्वरूप.- जीवाभिगम.-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. १.५०-अहे भंते ! सालणिं, वीहीणं, गोधूमाणं, जवाणं, १. प्र०—हवे हे भगवन् ! शाली, व्रीहि, गोधूम, यव अने जवजवाणं-एएसि णं घनाणं कोट्टाउत्ताणं, पल्लाउत्ताणं, मंचाउ- यवयव, ए बधां धान्यो कोठलामां होय, वांसडाना पाला-डाला-मां ताणं, मालाउत्ताणं, उलित्ताणं, लिताणं, पिहियाणं, मुदियाणं, होय, मांचामा होय, मालमां होय, छाणथी उंलिप्त होय, लिप्त होय, लंछियाणं केवतियं कालं जोणी संचिट्ट ? . . . ढांकेला होय, माटी वगेरे वडे मुद्रित-महोरवाळां-चांदेला होय अने लांछित करेलां होय, तो तेओनी योनि-अंकुरनी उत्पत्तिमा हेतुभूत शक्ति-केटला काळ सुधी कायम रहे ! १. उ०-गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि १. उ०-हे गौतम ! तेओनी योनि, ओछामा ओछु अन्तर्मुहूर्त संवच्छराई, तेण परं जोणी पमिलायइ, नेण परं जोणी पविद्धंसइ, सुधी कायम रहे अने वधारेमां वधारे त्रण वास सुधी कायम रहे. तेण परं बीये अपीये भवति, तेण परं जाणीवोच्छेदे पनत्ते सार बाद ते योनि म्लान थाय छे, प्रविध्वंस पामे छे, पछी ते समणाउसो! बीज अबीज थाय छे अने यार बाद हे श्रमणायुप्मन् ! ते योनिनो व्युच्छेद थयो कहेवाय छे. २.६०-अह भंते ! कलाय-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निप्पाव. २.प्र०-हवे हे भगवन् ! कलाय, मसूर, तल, मग, अडद, फलत्थ-आलिसंदग-सतीण-पलिमंथगमाइणं-एएसि णं घनाणं? वाल, कळथी, एक जातना चोळा, तुबेर अने गोळ चणा-एओ बधां धान्यो पूर्वोक्त विशेषणवाळा होय तो ते घान्योनी योनि केटला काळ सुधी कायम रहे ! १ मूलच्छायाः अथ भगवम् ! शालीनाम् , बीहीणाम् , गोधूमानाम् , यवानाम् , यवयवानाम्-एतेषां धान्यानां कोष्ठागुप्तानाम् , पल्यागुतानाम् , मश्चाsगुप्तानाम् माला गुप्तानाम् , अवलिप्तानाम् , लिप्तानाम् , पिहितानाम् , मुद्रितानाम् , लाञ्छितानां कियन्तं कालं योनिः संतिधते ? गोतम ! जघन्येन अन्तर्मुहुर्तम् , उत्कृष्टेन त्रीणि संवत्सराणि, ततः परं योनिः प्रम्लायति, ततः परे योनिः प्रविघसते, ततः परं बीजम् अबीजं भवति, ततः परं योनिम्युरन्दः प्र श्रमणाऽऽयुध्यनू अथ भगवनू/कलाय-मसूर-तिल-मुन्द-माष-निष्पाव-कुलत्थ-आलिसंदग-प्रतीण-परिमन्यफ-आधीनाम् एतेषां धान्यानाम :-अनुक । छलाय-मसूर-तिल-मालापति, ततः परं योनिः प्रविमानानां क्रियन्त कालं योनिः तानाम् , पल्या गुप्तानाम् Jain Education international Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसैग्रहे शतक ६.-उद्देश६७. २. उ०—जहा सालणिं तहा एयाणं पि, नवरं-पंच संवच्छ- राइं,सेसं तं चेव. २. उ०-(हे गौतम !) जेम शालीओ माटे का तेम ए धान्योने माटे पण जाणवू, विशेष ए के, पांच बरस जाणवां, बाकीनुं ते ज प्रमाणे जाणवू. ३. प्र०-अह भंते ! अयसि-कुसुंभग-कोदव-कंगु-वरग-रालग- ३. प्र०-हवे हे भगवन् ! अलसी, कुसुंभ, कोद्रवा, कांग, कोदूसग-सण-सरिसव-मूलगबीयमाईणं-एएसि णं धनागं ? वरट-बंटी, एक प्रकारनी कांग, एक प्रकारना कोवा, शण, सर सब अने एक जातनां शकनां बीआं-ए पूर्वोक्त विशेषणवाळां धान्योनी योनि केटला काळ सुधी साबीत रहे ? ३. उ० --एयाण वि तहेव, नवरं-सत्त संवच्छराई, सेसं ३. उ०-(हे गौतम ! ) एओने माटे पण तेम ज जाणवू, तं चेव. विशेष ए के, सात वरस जाणवां, बाकीनुं ते ज जाणवू. १. षष्ठोद्देशके जीववक्तव्यता उक्ता, सप्तमे तु जीवविशेषयोनिवक्तव्यतादिरर्थ उच्यते, तत्र चेदं सूत्रम्:-'अह भंते !' इत्यादि. 'सालीणं' ति कलमादीनाम्, 'वीहीणं' ति सामान्यतः, 'जवजवाणं' ति यवविशेषाणाम् 'एतेसि गं' इति उक्तत्वेन प्रयक्षाणाम्, 'कोट्टाउत्ताणं' ति कोष्ठे कुशूले, आगुप्तानि तत्प्रक्षेपणेन संरक्षितान-कोष्टागुप्तानि, तेष म् ; 'पल्लाउत्ताणं' ति इह पल्यो वंशादिमया धान्याऽऽधारविशेषः, 'मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं' इत्यत्र 'मञ्च-मालयाद: अकुडो होइ मंचो मालो य घरोवरि होति." 'उल्लित्ताणं' ति द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिनाऽवलिप्तानाम् , लित्ताणं' ति सर्वतो गोमयादिना एव लिप्तानाम् , 'पिहियाणं' ति स्थगितानां तथाविधाऽऽच्छादनेन, 'मुद्दियाणं' ति मृत्तिकादिमुद्रावताम् , 'लंछियाण' ति रेखादिकृतलाञ्छनानाम्, 'जोणि' त्ति अङ्करोत्पत्तिहेतुः. 'तेण परं' ति ततः परम् , 'पमिलायइ' त्ति प्रम्लायति-वर्णादिना हीपते, 'पविद्धंसइ' त्ति क्षीयते,एवं च बीजमबीजं भवति, उप्तमपि नाङ्कुरमुत्पादयति, किमुक्तं भवति ? तेणं परं जोगीवोच्छेए पन्नत्ते त्ति. 'कलाय' ति कलायाः, "वृत्त चनकाः" इत्यन्ये. 'मसूर' त्ति भिलङ्गाः, "चनकिका" इत्यन्ये. 'निष्पाव' त्ति वल्लाः, 'कुलत्थ' त्ति चवलिकाऽऽकाराः चिपिटिका भवन्ति, 'आलिसंदग' त्ति चवलकप्रकाराः, " चबलका एव" अन्ये. 'सईण' ति तुबरी, 'पलिमंथग' त्ति वृत्तचनकाः, "कालचनका" इत्यन्ये. 'अयसि ' त्ति भङ्गी, 'कुसुंभ' ति लहा, 'वरग' त्ति वरट्टः, 'रालग' त्ति कङ्गविशेषः, 'कोदूराग' त्ति कोद्रवविशेषः, 'सण' तित्वप्रधाननालो धान्यविशेषः, 'सरिसव' ति सिद्धार्थकाः, 'मलाबीय' त्ति मूलकबीजानि, शाकविशेषबीजानि इत्यर्थः. १. छछा उद्देशकमां जीवनी वक्तव्यता कही छे, सातमा उद्देशकमां तो एक प्रकारना जीवनी योनिने लगती वक्तव्यत्ता कहेबानी छे, तेमां आ सूत्र शालि वगेरे ध.न्योनां छे:-[ 'अह भते!' इत्यादि. ] [ 'सालीणं' ति ] जेनी 'कलमी' वगेरे अनेक जातो छ एवा चोखानी, [ 'वीहीणं' ति ] सामान्य प्रकारना ब्रीहिनाग. डांगर-नी, [' जवजवाणं '] एक प्रकारना यवोनी, [ 'एतेसिणं' ति ] अर्थात् प्रत्यक्षरूप ए धान्योनी, [ ' कोट्ठाउत्ताणं ' ति ] कोठलामा भरीने संघरेला ते धान्योनी, [ 'पलाउत्ताणं ' ति ] अहिं पल्य एटले बांसडा विगेरेनुं एक प्रकारचें धान्य राखबार्नु पात्र-डालु-समज. [ ' मंचाउत्ताण माला उत्ताणं '] आर्हि मंच अने मालना अर्थमां आ प्रमाणे भद छः- " कुड्य-भीत--विनानो होय ते मंच कहेवाय अने घर उपर होय ते माल कहेवाय." [उलित्ताणं' ति ] बारगाना भागमा ढांकणनी साथे छाण वगेरेथी अवलिप्त, [: लित्ताणं' ति ] सर्व प्रकारे छाण वगेरेथी ज लिप्त-चांदेला, [ ' पिहियाणं ' ति ] तेवा प्रकारना ढांकणाथी ढोकेला, [ ' मुहिआणे ' ति ] माटी वगैरेनी मुद्रा-महोर-बाळा, [ 'लंछियाणं' मोन ति ] रेखादि वडे करेल लांछनवाळा. [ 'जोणि ' ति ] अंकुरनी उत्पत्तिमां हेतु ते योनि [ ' तेण परं ' ति ] त्यार बाद, [ 'पमिलायइ 'त्ति ] वर्णादिवडे हीन थाय छ, [ 'पविद्धसइ ' ति ] क्षीण थाय छे अने ए प्रमाणे बीज अबीज थाय छे एटले बावेलुं बीज पण अंकुरने उत्पन्न करतुं नथी. शुं तात्पर्य काय ? तो कह छ के, [ 'तेण परं जोणीबोच्छेए पन्नत्ते ' त्ति ] त्यार बाद योनिनो विच्छेद कह्यो छे. [ 'कलाय ' ति ] कलाय, कलाय वगैर धान्योनां वीजाओ कहे छे के, " कलाय एटले गोळ चणा." [ ' मसूर 'त्ति ] मसूर-भिलंग, बीजाओ कहे छे के " मसूर एटले चनकिका " [ 'निनाम अने मतांतर. पाव ' त्ति ] निष्पाव एटले वाल, [ ' कुलत्थ ' त्ति ] चोळाना आकारवाळु चपटुं धान्य-कळथी, [ आलिसंदग' त्ति ] एक जातना चोळा, बीजाओ तो कहे छ के, “ आलिसंदग एटले चोळा ज" [' सईण 'त्ति ] तुवेर, [ 'पलिमंथग' ति] गोळ चणा, बीजाओ तो कहे छे के " पलिमंथग एटले काळा चणा" [' अयसि ' ति] अतसी-अलसी-मंगी, [ ' कुसुंभ' तिलट्टा (), [ 'वरग' त्ति ] वरट्ट-बंटी;" [ · रालग' त्ति ] एक जातनी कांग, [ ' कोदूसग ' त्ति ] एक जातना कोदवा, [ 'सण ' त्ति ] जेना नाळमां छालनी प्रधानता छे एवो एक प्रकारनो धान्य विशेष-शण-, [ ' सरिसव ' ति] सिद्धार्थक-सर्षप-सरसव, [ ' मूलाबीय' त्ति ] मूलकबीज एटले एक जातना शाकनां बीआं. १. मूलच्छायाः-यथा शालीनां तथा एतेषामपि, नवरम्:-पञ्च संवत्सराणि, शेषं तच्चैत्र, अथ भगवन् ! अतसि-कुसुम्भक--कोद्रव-दस-१रालक-कोदूषक-सण-सर्पप-मूलकबीज-आदीनाम् एतेषां धान्यानाम् ? एतेषामपि तथैव, नवरम्:-सप्त संवत्सराणि, कोयं तचैव : -- नु. १. प्रछाया:--"अज्यो भवति मधः मालध गृहोपरि भवति":-अनु० . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ७. भगवत्सुधमस्वामिप्रणात भगवतीसूत्र. ३२१ गणनीय काळ. ४. प्र०-ऐगमेगस्स णं भंते ! मुहुत्तस्स केवतिया ऊसा. ४. प्र०-हे भगवन् ! एक एक मुहूर्तना केटला उच्छ्वासाद्धा सद्धा वियाहिय' ? कह्या छे ? ४. उ०---गोयमा । असंखेजाणं समयाणं समुदयसमिति- ४. उ०-हे गौतम ! असंख्येय समयना समुदायनी समितिना समागमेणं-सा एगा 'आवलिय' त्ति पवुबइ, संखेज्जा आवलिया समागम्थी जेटलो काळ थाय ते एक आवलिका कहेवाय छे अने उसासो, संखेज्जा आवलिया निस्सासो संख्येय आवलिकानो एक उच्छ्वास, संख्येय आवलिकानो एक 'हस्स अणवगलस निरुवकिट्ठस्स जंतुणो, निःश्वास, 'तुष्ट, अनवकल्य-घडपण विनाना अने व्याधिरहित एगे ऊसास-नीसासे एस पाणु त्ति वुच्चइ. एक जंतुनो एक उच्छ्वास अने निःश्वास ते एक प्राण कहेवाय 'सत्त पाणणि से थोवे, स त थोभाई से लवे, छे.' 'सात प्राण ते स्तोक कहेवाय छे, सात स्तोक ते लव कहेवाय लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुहुत्ते वियाहिए' छे, सत्योतेर (७७ ) लव, ते एक मुहूर्त कहेवाय छे,' ३७७३ 'तिनि सहस्सा सत्त सयाई, तेवत्तरिं च ऊसासा, 'उच्छवास, ए एक मुहूर्त, एम अनंतज्ञानिओए दीर्छ छे.' ए एस मुहुत्तो दिवो सब्दोह अणंतनाणीहि. गुहूर्त प्रमाणे त्रीश मुहूर्तनो एक अहोरात्र थाय छे, पंदर अहोरात्रनो एएणं मुहत्तपमाणेणं तीसमुहुत्तो अहोरत्तो, पन्नरस अहोरत्ता एक पक्ष थाय छे. बे पक्षनो एक मास थाय छे, बे मासनो एक पक्खो, दो पक्खा मासे, दो मासा उड़, तिनि य उड़ अयणे, ऋतु थाय छे, त्रण ऋतुनुं एक अयन थाय छे, बे अपनन एक दो अयणे संवच्छरे, पंचसंवच्छरिए जुगे, वीसं जुगाई वाससयं, संवत्सर थाय छे, पांच संवत्सरचें एक युग थाय छे, वीश युगनां दस वाससयाई वाससहस्सं, सयं वाससहस्साणं वाससयसहस्स, १०० वरस थाय छे दशसो बरसनां एक हजार वर्ष थाय छे, चउरासीई वाससयसहस्साणि से एगे पुव्वंगे, चउरासीई पुच्वंगा सो हजार वर्षनां एकलाख वरस थाय छ चोराशी लाख वर्ष, ते सयसहस्साई से एगे पुव्वे; एवं तुडिअंगे, तुडिए; अडडंगे, एक पूर्वांग थाय छे, चोरासी लाख पूर्वांग, ते एक पूर्व थाय छ-ए अडडे; अबवंगे, अबवे; हहअंगे, हहए; उप्पलंगे, उप्पले पउमगे प्रमाणे त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अवांग अबव, पउमे; नलिणंगे, नलिणे; अत्थान उरंगे, अत्थनिउरे; अतअंगे, हूहूआंग, हूहूअ, उत्पलांग, उत्पल,पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अतुए; पउअंगे, पउए या नवुअंगे, नवुए य; चूलिअंगे, चलिआय; अर्थनिउरांग, अर्थनिउर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग प्रयुत, नयुतांग, सीसपहेलि अंगे, सीसपहेलिया-एतार ताव गणिए, एताव ताव नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग अने शीर्षप्रहेलिका; गणियस्स विसए; तेण परं उवमिए. अहिं सुधी गणित छे-अहिं सुधी गणितनो विषय छे अने त्यार बाद औपमिक एटले अमुक संख्यावडे नहि पण मात्र उपमावडे जे जणावी-जाणी-शकाय एवो काळ छे. २. अनन्तरं स्थितिरुक्ता, अतः स्थितेरेव विशेषाणां मुहर्तादीनां स्वरूपाऽभिधानार्थम् आहः-'उसासद्धा वियाहिय' त्ति उच्छ्वासाद्धा उच्छ्वासप्रमितकालविशेषाः, व्याख्याता उक्ता भगवद्भिरिति. अत्रोत्तरम् :-' असंखेज' इत्यादि. असंख्यातानां समयानां सम्बन्धिनो ये समुदाया वृन्दानि, तेषां याः समितयो मीलितानि, तासां यः समागमः संयोगः समुदयसमितिसमागमः; तेन यत् कालमानम् , 'भवति' इति गम्यते, सा एका आवलिका इति प्रोच्यते. 'संखेज्जा आवलिय' ति किल षट्पञ्च शदधिकशतद्वयेनाSSबलि कानां क्षुलकभवग्रहणं भवति, तानि च सप्तदशसातिरेकाणि उच्छ्वास-निःश्वासकाले, एवं च संख्याता आवलिका उच्छ्वासकालो भवति. 'हदुस्स' इत्यादि. हृष्टस्य तुष्टस्य, अनवकल्यस्य जरसाऽनभिभूतस्य, निरुपक्लिष्टस्य व्याधिना प्राक्, सांप्रतं चाऽनभिभूतस्य जन्तोर्मनुष्यादेरेक:-उच्छ्वासेन सह निःश्वासः उच्छ्वासनिःश्वास: 'यः' इति गम्यते, एषः प्राण इत्युच्यते. 'सत्त' इत्यादि-गाथा. 'सत्त पाणूइं ' ति प्राकृतत्वात् सप्त प्राणा उच्छ्वास-निःश्वासाः, 'ये' इति गम्यते, ‘स स्तोक इत्युच्यते' इति वर्तते, एवं सप्त स्तोका ये स लवः, लवानां सप्तसप्तत्या एषोऽधिकृतो मुहूतों व्याख्यात इति. 'तीन सहस्सा' ग हा अस्या भावार्थोऽयम्-सप्तभिरु १. मूलच्छाया:- एककस्य भगवन् ! मुहूर्तस्य कियन्तः उच्छ्वासाद्धा व्याख्याताः ? गौतम ! असंख्य पानां समयानां समुदयसमितिसमागमेन सा एकाऽऽवलिका इति प्रोच्यते, संख्येया आवलिका उच्छवासः, संख्येथा आवलि का नि:श्वासः- दृष्टस्याऽनवकल्यस्य निरु क्लिष्टय जन्तोः, एक उच्छवासनिःश्वास एष प्राण इत्युच्यते. 'सप्त प्राणाः स स्तोकः, सप्त स्तोकाः स लवः, लवानां सप्तसप्ततिः-एष मुहूती व्याख्यातः 'त्रीणि सहस्राणि, सत शतानि त्रिसप्ततिश्चोच्छ्वासा एष मुहूता दृष्टः सर्वजैः अनन्त ज्ञानिमिः.' एतेन मुहूर्तप्रमाणेन त्रिंशद्मुहूती होरात्रः, पञ्चदश अहोरात्राः पक्षः, दो पक्षा मासः,दा मासा ऋतुः, त्रयश्च ऋतवोऽयनम्, द्वे अयने संवत्सरम् , पश्चसंवत्सरिको युगः, वंशतिर्युगानि वर्षशतम् , दश वर्षशतानि वर्षसहनम् , श वर्षसहस्राणां वर्षशतसहस्रम्, चतु शीतिवर्षशतसहस्रणि तदेकं पूर्व गम् , चतु शीतिः पूर्वाङ्गानि शतसहस्राणि तद् एकं पूम्। एवं त्रुटितागम् , त्रुटितम्; अटटाङ्गम्, अटटम्, अववागम् , अवयम् ; हूहूकाङ्गम् , हूहूकम् ; उत्पलाङ्गम् ; उत्पलम् ; पद्माकम् , पद्मम् ; मलिन ङ्गम् , नलिनम् ; अर्थनिपूराङ्गम् , अर्थ निपूरम् ; अयुतासम्, अयुतम् ; प्रयुताङ्गम् ; प्रयुतम् । नयुताशम् , नयुतम् ; धूलि काङ्गम् , चूलिका च; शीर्षप्रहेलिकासम्, शीर्षप्रहेलिका-एतावद् ताव गणितम् , एतवान् ताव गणित विषयः, ततः परम् औपमिकम् ।-अ. .' Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे सतक उद्देश ७ 3 C , ' हवासैः स्तोकः स्तोका सवे सप्त, ततो जयः सप्तभिर्गुणितो जाता एकोनपञ्चाशत् मुहर्ते च सहसातिया इति सा एकोनाशता गुणिता इति जातं यथोक्तं मानमिति एता साथ गणिवस्त्र सिए ति एतावान् शीर्षप्रहेलिकाप्रवरिपरिमाण तावत् इति क्रमार्थः गणितविषय गणितगोचर:- गणितप्रमेय इत्यर्थः उपमिति उपमया प्रमाणम् अनतिशायिना ग्रहीतुं न शक्यते तदौपमिकमिति भावः उपमान्तरेण यत् २. आगळा प्रकरणां धान्योनी योनिनी काळस्थित बही के माटे हवे आ प्रकरण फाळस्थितस्वरूप रूपया साठे कहे छे के, [ ' ऊसासद्धा वियाहिय ' त्ति ] भगवंतोए कहेलुं छे के, उच्छ्वासाद्वा एटले उच्छ्वासो द्वारा मपाएला एक प्रकारना काल विशेषो. अहिं उत्तर दर्शावे छे, [' असंखेज्ज ' इत्यादि . ] असंख्यात समयोना जे समूहो, तेनी ज समितिओ ( मीलनो ) अने तेओनो जे समागम - संयोग-ते ८ , आपलिका. समुदयसमितिसमागम काय ते बड़े ने कालमान पाये ते एक आयलिका हेवा [सेजा आवलिय ]ि आ पोस से के, लकमत्र. २५६ आवलिकाओनुं एक क्षुल्लकभवग्रहण थाय छे, तवां १७ थी वधारे क्षुल्लकभवग्रहणो एक उच्छ्वासनिःश्वास काळमां थाय छे एटले ए प्रमाणे उच्छवास संख्याता आवलिका ते एक उच्छवास काल कहेवाय. [ 'हट्ठस्स' इत्यादि. ] हृष्ट एटले तुष्ट, अनवकल्य एटले घडपणथी नहि गांजेला अने निरुपमटि एटले वर्तमानकाले अने पूर्वे पण व्यापि विराना मनुष्यादिनो जे' एक उच्छवास निवास-अर्थात् उच्छवास सानो निश्वास ए प्राग स्व.क. कहेवाय छे, [' सत्त ' इत्यादि ] गाथा कहे छे, [' सत्त पाणूई 'ति ] सात प्राण एटले जे' सात उच्छ्वासनिश्वास ते स्तोक कहेबाय छ, ए प्रमाणे भजे सात स्तोक ते एक उप ७७ सब से, एक मुस्तु वाले छे. 'तिमि सहस्सा ] गाहा, आ गाथानो मावार्थ: 6 3 प्राण. लव. [ सात उच्छ्वासनो एक स्तोक थाय छे, एक लवमां सात स्तोक होय छे मांट लवने सातगणो करवाथी एक लवना ओगणपच्चास उच्छवास थया मुहूर्त. अने एक मुहूर्तमां ७७ लव होय छे माटे ते सत्योतेर लवनो ४९ उच्छवास साथे गुणाकार करवाथी गाथामां कहेलं एक मुहूर्तना उच्छवासोनुं 6 आ प्रमाण ३७७३ - बराबर थाय छे, [' एताव ताव गणियस्स विसए' त्ति ] अहीं जणावेली 'आत्रलिका ' थी मांडी तद्दन छेली काळसूचक सुपीनो-एले कने करीने ए डेली संख्या सुधी जगणितनो विषय हेरेवारे कदा मांडीने अहीं सुधी ज संख्याशी ' कानुं प्रमाण गणी शकाय छे अने त्यार पछीना काळ माटे आंकडानुं गणित काम नथी आवतुं, पण अमुक उपमाओ द्वारा ज ते पछीनो काळ औमिक. मापी शकाय छे. [' उबमिए 'त्ति ] उपमाथी जणाय ते औरमिक अर्थात् अतिशय ज्ञानी सिवायना साधारण लोको जे काल-प्रमाणने उपमा विना न ग्रही शके ते काल प्रमाण ' औपमिक ' कहेवाय - ए तात्पर्य छे. उपमेय काळ - पल्योपम, सागरोपम ५. प्र०से कि उभिए ५. उ० -- उभिए दुविहे पत्ते, तं जहाः - पलिओ मे य, सागरोपमे व. ६. प्र० - से किं तं पलिओवमे, से किं तं सागरोवमे ? ६. प्र० - ( हे भगवन् ! ) पल्योपम ते शुं कहेवाय ? अने सागरोपम ते शुं कहेवाय ? ६. उ० ६. उ० --- (• हे गौतम! ) सुतीक्ष्ण शस्त्र वडे पण जेने • सत्येण सुतिपय विछेतुं भेतुं च फिर न सका, छेदी, मेदी न न शकाय ते परम अणुने केवलिओ सर्व प्रमाणोनी सुतिक्खेण जं तं परमाणु सिद्धा यंति आई पमाणाणं. ' पा, अनंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा ओहिया सहसण्डिवा इवा, उरे तसरेणू इषा, रहरेणुतिया, सालग्गा पा, लिखा इ यूवा, जनमज्झेथा, अंगुले या अह उस्सम्हस हियाओ साएगा सहसहिया, अट्ठ सहसहियाओ मा एगा उडुरेणू, अट्ठ उड्डुरेणूओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरु - उत्तरकुरुगाणं मस्साणं वालग्गे; एवं हरिवास- रम्मूग हेगवय - एरनवयाणं, पुव्यपदेहार्ण मणूसाणं जग्गा सा एनालिसा, ५. प्र० - (हे भगवन् ! ) ते औपमिक शुं कहेवाय ? ५. उ०- ( हे गौतम ! ) ते औपमिक बे प्रकारनुं कह्युं छे, ते जेम, एक पल्योपम अने बीजुं सागरोपम 5. आदिभूत प्रमाण कड़े छे. अनंत परमाणुओना समुदायनी समि तिओना समागमवडे ते एक उच्छलक्ष्णलक्ष्णिका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णका ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बासाघ्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य अने अंगुल थाय छेपारे आठ उच्छा मळे त्यारे ते एक लक्षणलक्ष्णिका धाय आठ मणिका मळे त्यारे से एक ऊर्ध्वरेणु; आठ ऊर्ध्वरेणु मळे त्यारे ते एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणु मळे त्यारे ते एक रथरेणु अने आठ रपरेणु मळे त्यारे ते देवकुरुना अने उत्तरकुरुना मनुष्योनुं एक वला थाय छे. ए प्रमाणे देवकुरुना अने उत्तरकुरुना मनुष्पनां आठ वाला ते हरिवर्षना अने रम्यकला मनुष्य एक वाडाम, हरिवर्षना अने रम्यकना मनुष्यन + १ अहीं था' अने' जे' ए बन्ने अर्थ अध्याहारंगम्य छे. २. ' कहेवाय छे' ए अर्थ, आ गाथाना आगळना भागनां आवेलो छे, अने तेने अहीं पण घटाववानो छे:--श्री अभय० 024 १. मूलच्छायाः अथ किं तद् और्मिकम् ? औपमिकं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा पहयोग व सागरोपमं च अथ किं तत् पल्योपमम्, तदापति आना , किं पुंगलानां समुदय समितिसमागमेन सा एका उत्श्वणका इति वा श्लक्ष्णश्लक्ष्णकेति वा, ऊर्ध्वरेणुः इति ना, प्रसरेणुः इति वा, रथरेणुः इति वा वालाप्रम् इति वा, लिक्षा इति वा, थूका इति वा, यवमध्यम् इति वा अङ्गुल इति वा; अष्ट उत्श्लक्ष्णकाः सा एका श्लक्ष्णश्लक्ष्णका, अष्ट श्लक्ष्णश्वषिणकाः सा एका ऊर्ध्वरेणुः, अष्ट ऊर्ध्वरेणवः सा एका त्रसरेणुः, अष्ट त्रसरेणवः सा एका रथरेणुः, अष्ट रथरेणवः सा एक देवकुरु- उत्तरकुरुकानां मनुष्याणां बालाप्रम् एवं हरिवर्ष- रम्यक हेमवत - ऐक्तकानामू, पूर्वविदेहान मनुष्याणाम् अद्य वाचामाणिक . Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ७. भगवत्सुधर्मस्वामिमणीत मगयीसूत्र. लिक्खाओ साएगा जूया, अह जयाओ से एगे जवमझे, अट्ट आठ वालाग्र ते हैमवतना अने ऐवतना मनुष्यनो एक वालाग्र जवमझाओ से एगे अंगले; एएर्ण अंगलपमाणेणं छ अंगलागि अने हैमवतना अने ऐरवतना मनुष्यनां आठ वालाग्रते पूर्व विदेहना पादो, बारस अंगुलाई विहत्यी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, मनुष्यनो एक बालान, पूर्वविदेहना मनुष्योनां आठ वालाग्र ते अध्यालीसं अंगुलाई कुच्छी, छन्नति अंगुलांणि से एगे दंडे इ एक लिक्षा, आठ लिक्षा ते एक यूंका, आठ यूँका ते एक यवमध्य वा, धणू इबा, जूए इवा, नालिया इवा, अक्खे हवा, आठ यवमध्य ते एक अंगुल, ए अंगुलना प्रमाणे छ अंगुलनो मुसले ति वा; एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउय, एक पाद, बार अंगुलनी एक वितस्ति-वेत-चोवीश अंगुलनी चत्तारि गाउयाई जोयणं; एएणं जोयणप्पमागेणं जे पल्ले जोयणं एक रस्नि-हाथ-अडतालीश अंगुलनी एक कुक्षि, छन्नु अंगुलनो आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उड़ें उच्चत्तेणं, तंतिओणं सविसेसं एक दंड, धनुष् , युग, नालिका, अक्ष अथवा मुसल थाय, ए परिरयेणं-से णं एगाहिय-बेहिय-तहिया, उक्कोसं सत्तरत्तप्प. धनुष्ना प्रमाणे बे हजार धनुष्यनो एक गाउ थाय, चार गाउनु रूढाणं संमद्वे, संनिचिए, भारए वालग्गकोडीणं; ते णं वालग्गे एक योजन थाय, ए योजनना प्रमाणे जे पल्प, आयाम वडे अने नो अग्गी दहेजा, नो वाउ हरेज्जा; नो कुत्थेज्जा, नो परिवि- विष्कंभवडे एक योजन होर्य, उंचाइमां एक योजन होय अंग इंसेज्जा, नो पूतित्ताए हव्वं आगच्छेज्जा; तओ णं वाससए, जेनो परिधि सविशेष त्रिगुण-त्रण योजन-होय, ते पल्यमा एक वाससए एगमेगं वालग्गं अवहाय जापतिएणं कालेणं से पल्ले दिवसना उगेला, बे दिवसना उगेला, त्रण दिवसना उगेला अने खीणे, निरए, निम्मले, निडीए, निलवे, अवहडे, विसुद्ध भवइ बधारेमा वधारे सात रातना उगेला कोडो वालाग्रो कोठा सुधी से तं पलिओवमे. भर्या होय, संनिचित कर्या होय, खच भर्या होय अने ते वालापो गाहा:-'एएसिं पल्लाणं कोडाकोडीणं हवेज दसगणिया, एवी रीते भर्या होय के जेने अग्नि न बाळे, वायु न हरे, जेओ तं सागरोवमस्स उ एक्कस्स भवे परिमाणं, कोहाइ न जाय, नाश न पामें अने जेओ कोइ दिवस सडे नहि, एएणं सागरोधमपमाणेणं चत्तारि सागरोषमकोडाकोडीओ कालो त्यार बाद ते प्रकारे वालापना भरेला ते पल्यमाथी सो सो बरसे सुसमसुसमा, तिनि सागरोवमकोंडाकोडीओ कालो सुसमा, दो साग- एक एक वालापने काढवा गं आवे, एवी रीते ज्यारे-जेटले काळे रोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमदुसमा, एगसागरोयमकोडाकोडी, -ते पल्प क्षीण थाय, निरज थाय, निर्मल थाय, निष्ठित थाय, बायालीसाए वाससहस्सेहिं अणियां कालो दुसमसुसमा; एकवीस निर्लेप थाय, अपहृत थाय अने विशुद्ध थाय त्यारे ते काळ वाससहस्साई कालो दुसमा, एकवीसं वाससहस्साई कालो दुस- पल्योपम काळ कहेवाय. सागरोपमनुं प्रमाण दीववा गाथा कहे मदुसमा, पुणरवि उस्सप्पिणीए एकवीसं वाससहस्साई कालो छे: ' एवा कोटाकोटी पस्योपमने ज्यारे दसगणा करीए स्यारे ते दुसमदुसमा, एकवीसं वाससहस्साई, जाव-चतारि सागरोपम. काळर्नु प्रमाण, एक सागरोपम थाय छ.' ए सागरोपम प्रमाणे कोडाकोडी कलो सुसमसुसमा; दस सागरोपमकोडाकोडीओ चार कोडाकोडि सागरोपम काळ ते एक सुषमसुषमा कहेवाय, कालो ओसप्पिणी, दस सागरोपमकोडाकोडीओ कालो उस्स- त्रण कोडाकोडि सागरोपमं काळ ते एक सुषमा कहेवाय, बे प्पिणी, वीस सागरोपमकोडाकोडीओ अवसप्पिणी, उ(व) कोडाकोडि सागरोपम काळ ते एक सुषमदुःषमा कहेवाय, जेमां रसप्पिणी य. बेंताळीश हजार वरस ऊणां छे एवो एक कोडाकोडि सागरोपम काळ ते एक दुषमसुषमा कहेवाय, एकवीश हजार वरस काळ ते दुषमा कहेवाय, एकवीश हजार वरस काळ ते दुःषमदुःषमा कहेवाय, बळी पण उत्सर्पिणीमा एकवीश हजार वरस काळ ते दुःषमदुःषमा कहेवाय, एकवीशहजार वरस यावत् चार कोडाकोंडी सागरोपम काल ते सुषमसुषमा, दस कोडाकोडी सागरोपम काळ १. मूलच्छाया:-लिक्षाः सैका यूका, अष्ट यूकाः सके यवमध्यम् , अष्ट यवमध्यानि सैकोलिः; अनेन अङ्गुलप्रमाणेन षडङ्गुलानि पादः,द्वादश अगुलानि वितस्तिः, चतुर्विशतिरकुलानि रनिः, अष्टाचत्वारिंशद अगुलानि कुक्षिः, षण्णव तिरगुलानि स एको दण्ड इति वा, धनुः इति वा, युगम् इति बा, नालिका इति पा, अक्ष इति वा, मुसलमिति वा, अनेन धनुष्प्रमाणेन दे धनुःसहरने गव्यूतम्-क्रोशः, चखारा गब्यूना:-कोशा योजनम् ; अनेन योजनप्रमाणेन यः पल्यो योजनम् आयाम-विष्कम्मेण, योजनम् ऊर्य उच्चत्वेन तत् विगुणं सविशेष परित्येण स एकाऽहिक-द्वयाहिक-याहिकाणाम् , उत्कर्षतः ससराअप्रढानां संमृष्टः, संनिचितः, मृतो बालाप्रकोटी भः; तानि वालांप्र.णि नोऽमिदहेत , नो वायुः हरेत् , नो कुश्येयुः, नो परिविश्वंसेरन , नो पूति त्या शीघ्रम् आगच्छेयुः; तृतो वर्षशते, वर्षशते एकैकं वालाऽप्रम् अपहाय यावता कालेन स पस्यः क्षीणः, नीरजाः, निर्मलः, निष्ठितः, निलपः, अपहृतः, विशुद्धो भवति स तद् पल्योपमम्. गाथा:- एतेषां पल्याना कोटीकोटीनां भवेद् दशगुणिता, तत् सागरोपमस्य त्वेकस्य भवेत् परिमाणम्. अनेन सागरोपमप्रमाणेन चतस्रः सागरोपमकोटीकोव्यः कालः सुषमसुषमा, तिमः सागरोपमकोटीक व्यः कालः सुषमा स.गोषमकोटीकोव्यो कालः सुषमदुःपमा, एकसागरोपमकोटीकोटी, द्वाचत्वारिंशता वर्षसह नेरूना-कालो दु:षम सुषमा; एकविंशतिवर्षसहस्राणि कालो दुःषमा, एकविंशतिर्वर्यसहस्राणि कालो दुःषमदुःषमा, पुनरपि उत्सपिण्याम् एकविंद तिवर्षसहस्त्राणि कालः दुःषमदुःषमा; एकविंशतिवर्षसहस्राणि, यावत्-चतमः सांगरोपमकोटीकोव्यः कालः सुषमसुषमाः दश सागरोपाकोटीकोट्यः कालोऽसर्पिणी, दश सागरोपमकोटीकोटयः काल उत्सर्पिणी; विंशतिः सागोषमकोटीवोदयोऽवसर्पिणी उत्सर्पिणी :-अनु. Jain Education international Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ श्रीरायंपन्द्र-जिनागमसैग्रहे शतक ६.-उदेश ७. "ते अवसर्पिणीकाळ, दस कोडाकोडी सागरोपम -काळ . ते उत्सर्पिणी काळ अने वीश कोडाकोडि सागरोपम काळ ते अवस विणी-उत्सर्पिणी काळ. ३. अथ पल्योपमादिप्ररूपणाय परमाण्यादिस्वरूपमभिधित्सुराहः- सत्थेण ' इत्यादि. ' छेत्तुं' इति खड्गादिना द्विधाकतुर्म, 'मेत्तुं' सूच्यादिना सच्छिदं कर्तुम् , 'वा' विकल्पे, 'किल ' इति ' लक्षणमेवाऽस्येदमभिधीयते न पुनरतं कोऽपि छेतुम् , भेत्तुं बाऽऽरभते ' इत्यर्थसंसूचनार्थः. 'सिद्ध' त्ति ज्ञानसिद्धाः केवलिन इत्यर्थः, नतु सिद्धाः सिद्धिं गता:-तेषां बदनस्याऽसंभवादिति. आदि प्रथमं प्रमाणानां वक्ष्यमाणोलक्षणश्लक्ष्णिकादीनामिति. यद्यपि च नैश्चयिकपरमाणोरपि इदमेव लक्ष गम् , तथापीह प्रमाणाऽधिकाराद् व्यावहारिकपरमाणुलक्षणमिदम् अवसेयम्. अथ प्रमाणान्तरलक्षणमाह:-'अणंताणं' इत्यादि. अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां समुदया द्वयादिसमुदयाः, तेषां समितयो मीलितानि, तासां समागमः. परिणामवशाद् एकीभवनं समुदयसमितिसमागमः, तेन ‘या परिमाणमात्रा' इति गम्यते; सा एका अत्यन्तं श्लक्ष्णा श्लशलक्षणा सैव श्लक्ष्णश्लक्षिणका; उत् प्राबल्येन. लक्ष्णश्लक्षिणका-उत्श्लक्ष्णश्लदिणका. ' इतिः ' उपदर्शने, ' वा ' समुच्चये, एते च उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणकादयोऽङ्गुलान्ता दश प्रमाणभेदा यथोत्तरमष्टगुणाः सन्तोऽपि प्रत्येकम् अनन्तपरमाणुत्वं न व्यभिचरन्ति इत्यत, उक्तम्-उस्सहसण्हिया. इवा' इत्यादि. 'सण्हसाव्हिय! त्ति प्राकनप्रमाणाउपेक्षयाऽष्टगुणत्वात् , ऊर्ध्वरेण्यपेक्षया तु अष्टभागत्वात् लक्ष्णश्ल दिणका, इत्युच्यते. 'उडरेणु 'त्ति ऊर्जा-ऽघ-स्तिर्यक् चलनधर्मोपलभ्यो रेणुः ऊर्ध्वरेणुः. ' तसरेणु ' त्ति त्रस्यति पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः. 'रहरेणु' त्ति रथगमनोत्खातो रेणू रथरेणुः. वालाग्र-लिक्षादयः प्रतीताः. ' रयाणि ' त्ति हस्तः, 'नालिय ' त्ति यष्टिविशेषः, ' अक्खे' त्ति शकटाऽवयवविशेषः. ' तं तिउणं सविसेसं परिरएणं' ति तद्योजनं त्रिगुणं सविशेषम् वृत्तपरिधेः किञ्चिन्यूनषड्भागाऽधिकत्रिगुणत्वात्. ' से गं एक्काहिय-बेहिय-तेहिय' त्ति षष्ठीबहुवचनलोपाद एकाहिक-द्वयाहिक-त्र्याहिकाणाम् , 'उकोस' त्ति उत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढानां भृतो वालाग्रकोटीनामिति. तत्र एकाहिक्यो मुण्डिते शिरसि एकेनाऽहना यावत्यो भवन्तीति, एवं शेषास्त्रवि भावना कार्या. कथंभूतः ? इत्याहः-संमृष्टः आकर्णभृतः, संनिचितः प्रचयविशेषानिबिडम् , किंबहुना ? श्वंभृतोऽसौ येन ते णं'. ति तानि वालाग्राणि, 'नो कुत्थेज ' ति न कुथ्येयुः प्रचयविशेषात्-शुषिराऽभावात्-वायोरसंभवाच्च नाऽसारतां गच्छेयुरित्यर्थः, अत एव 'नो परिविद्धंसज्ज ' त्ति न परिविध्वंसेरन् , कति यपरिशाटमपि अङ्गीकृत्य न विध्वंसं गच्छेयुः. अत एव च ‘नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज ' ति न पूतितया न पूतिभावं कदाचिदागच्छेयुः. . ' तओ णं ' ति तेभ्यो वालाग्रेभ्यः । एगमेगं वालग्गं अवहाय! ति एकैकं वालाग्रमपनीय (ते)-कालो मीयते इति शेषः, ततश्च ‘जावतिएणं' इत्यादि., यावता कालेन स पल्यः, ‘खीगे' त्ति वालाग्राप कर्षणात् क्षयमुपगतः, आकृष्टधान्यकोष्ठागारवत्. तथा ' नीरए.' त्ति निर्गतरजःकल्पसूक्ष्मवालाग्रः, अपकृष्टधान्यरजःकोप्ठागारवत. तथा 'निम्मले' ति विगतमल ल्पसूक्ष्मतरवालाग्रः, प्रमानिकारमृष्टकोष्ठागारवत्. तथा निद्विय' ति अपनेयद्रव्याऽपनयनमाश्रित्य निष्ठां गतः, विशिष्टप्रयत्नप्रमार्जितकोष्ठागारवत्. तथा 'निलेव ' त्ति अत्यन्तसंश्लेषात् तन्मयतां गतः बालाग्रापहारा अपनीतभित्त्यादिगतधान्यलेपकोष्ठागारवत्. अथ कस्माद् निर्लेपः ? इत्यत आहः-'अवहडे ' त्ति निःशेषवालाग्रलेपाऽपहारात , अत एव 'विसुद्धे 'त्ति रजोमलकल्पवाला प्रविगमकृतशुद्धत्वाऽपेक्षया लेपकल्पवालाग्राऽपहरणेन विशेषतः शुद्धो विशुद्धः, एकार्थाश्च एते शब्दाः. व्यावहारिक चेदमद्धापल्योपमम् . इदमेव यदाऽसंख्येयखण्ड कृत-एकैकवालामभृतपल्या वर्षशते, वर्षशते खण्डशोऽपोद्धारः क्रियते तदा सूक्ष्मम्उच्यते, समये समयेऽपोद्धारे तु. द्विधः एव उद्धारपल्योपमं भवति; तथा तैरेव वालाग्रेय स्पृष्टाः प्रदेशास्तेषां प्रतिसमयाऽपोद्धारे यः कालः तद् व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपमम्. यः पुनस्तैरेवाऽसंख्येयखण्डीकृतैः स्पृष्टाऽस्पृष्टानां तथैवोपोद्धारे कालस्तत् सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपमम्. एवं सागरोपममपि विज्ञेयमिति. परमाणु ३. हवे ते-उपमाथी ज जाणी शकाय तेवा पल्योपमादि-काळनु प्ररूपण करवा छे, ते माटे प्रथमोपयोगी परमाणु वगरेनु स्वरूप छे. तो तेने कहेवाने मूळकार कहे छे के, [ ' सत्थेण' इत्यादि.] खड्न वगरे शनद्वारा छेदवा-बे टुकडा करवा अथवा सोय वगेरे द्वारा छिद्रवाळु करवा. सिद्धो. [ 'सिद्ध ' त्ति ] अहीं सिद्ध एटले ज्ञानसिद्ध केवलिओ समजवा, पण मुक्तिप्राप्त सिद्धो न लेवा, कारण के, तेओने मुख होवानो असंभव होवाथी 'तेओ बोले छे' एम न कहेवाय. तात्पर्य ए के, जे 'अणु ' गमे तेवा पाणीवाळा शस्त्रथी पण छेदी के भेदी न शकाय ते 'अणु ' ने केवली पुरुषो 'परमाणु' कहे छे अने आ ज परमाणु, बीजां बधां प्रमाणोमां-उच्छलक्ष्णश्लक्षिणका वगेरे प्रमाणोमां-जे बघां अहीं हवे पछी कहेवानां छआदि प्रमाण छे अर्थात् सर्व प्रमाणोमां आदि प्रमाण आ परमाणु ज छे. जो के, नैश्वयिक परमाणुर्नु पण आ ज लक्षण छे, तो पण अहिं प्रमाणनो अधिकार होयाथी आ-कहेलं-लक्षण व्यावहारिक परमाणुन समजवु. हवे बीजां प्रमाणोनुं लक्षण कह छे, [ 'अणंताणं' इत्यादि.] अनंत सक्ष्णमणिका, ध्यावहारिक परमाणु पुद्गलोना समुदायो-यादि (अनेक ) समुदायो, तेनी समितिओ (मीलन ), ते समितिओन परिणामवश त् गमागन (एकीभवन ) ते समुदयसमितिसमागम, ते वडे जे परिमाणमात्रा थाय ते एक अत्यंत श्लक्ष्ण एवी लक्ष्णश्लक्षिणका कहेवाय. अने उत् एटले प्रबलता परमाणुने छेदवा वा भेदचा कोइ पण आरंभतो नथी, पण आ प्रमाणे तेनुं खरूप ज कहेवाय छे' ए अर्थने सूचवा गाथामां किल' शब्दनो प्रयोग करेलो है, २. 'परिमाणमात्रा' अर्थ अभ्याहारगम के. १. ' शक्षणा' शब्दने स्वार्थमा 'क' प्रत्यय आयवाची शिक्षणदिणका" शब्द बने छेती गमय. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक.६.-उदेशक ७. ... भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, अर्थात जे लक्षणलक्ष्णिका प्रबळतावाळी होय ते ' उच्छलक्ष्णश्लक्ष्णिका' एम कहेवाय, ए उच्छलक्ष्णश्लशिकाथी मांडी अंगुल सुधीना प्रमाणना जे उच्छलशालविणका. दश भेदो छे ते उत्तरोत्तर आठगुणा थया सता पण तेमा प्रत्यकमां-एक एकमां-अनंतपरमाणुपगु व्यभिचरतुं नथी एटले तमां अनंतपरमाणुपणुं कायप रहे छ, माटे कपंछ के, [ ' उस्मण्हसण्हिया इ वा ' इत्यादि. ] [ ' सहसण्हिय ' ति] पूर्वना प्रमाणनी अपेक्षाए आठगुणी होवाथीं अन ऊर्ध्वरेणुनी अपेक्षाए तो आठमा भागरूप होवाथी त 'लक्ष्मरूशिका ' ए प्रमाण कहवाय छ, [ उड्डेरणु ' ति ] उंच, नीच अन तीरछे उध्वरेणु. चलन ( चालवा ) रूप धर्मधी जे रेणु उपलभाय-जणाय-ओळखाय-ते 'ऊर्ध्वरेणु ' ए प्रमाण कहवाय, [ ' तसरणु 'त्ति ] पूर्वादि दिशाना सरेणु. यायुनी प्रेरणाधी जे रेणु स-गति कर ते 'मंग्णु ' कहवाय, [ 'रहरणु ' ति] स्थनी गतिथी उखडलो-उडलो-जे रेणु ते 'रथरणु' रथरेणु. कहेवाय. वालाग्र अने लिक्षा-लीख-वगैरे प्रतीत छ. [ 'रयणि 'त्ति ] रत्नि एटल हाथ, [ 'नालिय' ति ] एक प्रकारनी लाकडी-नाळ, रति-नलिका. अक्ख शि] अक्ष-एक प्रकारनो गाडानो अवयव. [तं तिउणं सविससं परिरएणं' ति] ते योजन, विशेष सहित त्रिगुण, कारण के, वृत्त अक्ष. परिधि काइक न्यून छ भागाधिक त्रिगुण छे. [ से णे एकाहिअ-बहिअ-तेहिअति'] एक दिवसना उगला, ब दिवसना उगेला अनेत्रण पल्यनुं स्वरूप. दिवसना उगला अन [ ' उक्कोस ' ति] वधारमा वधारे सात रातना उगेला क्रोडो वाळायभागोथी भरेलो, ए प्रमाणे वाक्य संबंध छ. तमा 'ऐकाहिकी'-'एक दिवस उगेली वाळकोटी'-एटले माथु मुंडाव्या पछी जेटला (कोडो) वाळो एक दिवसे उगला होय ते ऐकाहिकी वालकोटि कहवाय, ए प्रमाणे बाकीनामां पण भावना करवी. ते पल्य केवो छ ? तो कह छ के, संमृष्ट एटले आकर्णभृत-कांठो कांठ भालो, संनिचित एटले एकप्रकारना प्रचयथी निबिड-खीचोखीच, वधारे शुं ? ए पल्य एवी रीते भरलो छे, जेथी [ 'तेणं' ति] ते वालासो, वालामो. नो कुत्थेज 'त्ति ] कोहाय नहि एटले एक प्रकारना प्रचयथी छिदना अभावन लइन तेमां वायुना संचारनो असंभव होवाथी ते बाळायो असारपणाने पामतां नथी माटे ज [ 'नो परिविद्धंसेज' त्ति ] परिविध्वंसने पण पामता नथी एटले के तेमांनो थोडो भाग पण सडतो नथी. तेश्रो विध्वंस नथी पामतां माटे ज [ 'नो पूइत्ताए हबमागच्छेज 'त्ति ] कदाचित् पूतिभावने पामता नथी. [ 'तओ णं' ति] ते भरेलां वालाग्रोमांथी। एगमगं वालग्गं अवहाय ' त्ति ] एक एक वालना अग्र भागने दूर करी ( काढी) ' कोलनुं मान थाय छ' अने तेथी [ 'जावतिएणं' इत्यादि. जेटला काले ते पल्य, [ ' खीणे' त्ति ] जेमांथी अनाज काढी लीधुं छे तेवा कोठारनी पेठे वालना अग्रभागना काढवाथी क्षीण थाप, क्षीण. तथा नीरए ' ति] जमांथी धान्यनी रज काढी लीघी छे तेवा कोठारनी पेठे रज समान सूक्ष्म वालाग्रो काढी लीधां पछी जे पल्य ज्यारे निरज निरज, थाय, तथा [ निम्मले ' ति ] सावरणीथी साफ करेल कोठारनी पेठे जे पल्य ज्यारे मल समान सूक्ष्मतर वालाग्रथी रहित थाय तथा [ निष्ट्रिय' निर्मल. त्ति ] दूर करवा योग्य द्रव्यना अपनयनने आश्री जे पल्य, ज्योरे विशिष्ट प्रयत्नथी प्रमाणित कोठारनी पेठे निष्ठाने पामेलो थाय, तथा .[ 'निलय' निष्ठित-निलंप, त्ति भीत वगेरेमा रहेला धान्यना लेपने जे कोठारमाथी अपगत कयों छे तेवा कोठारनी पेठे, अत्यंत संश्लेष होवाथी तन्मयताने-वालाग्रमयतानेपामेला पल्यमांथी वालाग्रनुं अपहरण करवाथी ए पल्य ज्यारे निर्लेप थाय, निलेप शाथी थाय ? तो कहे छ के, [ : अवहडे' त्ति ] समस्त अपहत. वालाग्रोना लेपन दूर करवाथी ते पल्य निर्लेप थाय-अपहृत कहेवाय अने अपहृत होवाथी ज [: विसुद्ध' त्ति ] रजना मेल समान वालाग्रना विशुद्ध. विगमथी थयेल शुद्धपणानी अपेक्षाए लेप समान वालाग्रना दूर करवाथी विशेष शुद्ध ते विशुद्ध, अथवा ए बधा पल्यनां विशेषणो सरखा अर्थबाळां कहेबां. आ अद्धापल्योपम व्यावहारिक पल्योपम छे. ज्यारे असंख्येय टुकडावाळा बाळना अग्रभागोथी भरेला ते पल्यमांथी सो सो बरस खंडथी .-एक खंड खंड करीने-अपोद्धार कराय त्यारे आ ज पल्योपम सूक्ष्म पल्योपम कहेव य, अने जो समये साये अपोद्धार करे तो बन्ने प्रकार ज परये पगा. उद्धार पल्यापम कहेवाय, तथा ते वालाग्रोनी "साधे ज स्पर्शला जे प्रदेशो होय, तओना प्रतिसमय अपोद्धारमा जे काल लाग ते व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम कहेवाय. बळी, ते ज असंख्य टुकडावाळा चालायो साथै स्पशेला अने अस्पर्शला प्रदेशोना ते प्रमाण ज अपोद्वारमा जे काल लागते सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम कहेवाय. ए प्रमाणे सागरोपम पण जागवू. सुषमसुषमार्नु भरत. ७. प्र. जंबद्दीवे णं भंते । दीवे इमीसे उस्सप्पिणीए ७. प्र०-हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमा उत्तमार्थ प्राप्त सुसमसुसमाए समाए उत्तमद्वपत्ताए, भरहस्स वासस्स केरिसिए आ अवसर्पिणीमां-सुषमसुषमा काळमां भारत वर्षना केवा आकार आगारभावपडायोरे होत्था ? भावप्रत्यवतार-आकारोना अने पदार्थोना आविर्भावो-हता ? ७. उ०—गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से ७. उ०—हे गौतम ! भूमिभाग बहुसम होवाथी रमणीय जहा नामए आलिंगपुक्खरे ति वा एवं उत्तरकुरुवत्तव्वया नेयव्वा हतो, ते जेम के, आलिंगपुष्कर-मुरजना मुखर्नु पुट-होय तेको जाव-आसपंति, सयंति; तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ भारत वर्षनो भूमिभाग हतो, ए प्रमाणे अहिं भारत वर्ष परत्वे तत्थ-देसे देसे, तहिं तहिं बहवे उराला कुदाला, जाव-कुस- उत्तरकुरुनी वक्तव्यता जाणवी यावत्-बेसे छे, सुवे छे, ते काळमां विकुसविसुद्ध रुक्खमूला, जाव-छब्धिहा मणुस्सा अणुसज्जित्था. भारत वर्षमा ते ते देशोमा त्या त्यां स्थळे घगा मोटा उद्दालक तं जहा:-पम्हगंधा, मियगंधा, अममा, तेयतली, सहा, यावत् कुश अने विकुशथी विशुद्ध वृक्षमूलो यावत् छ प्रकारना सणिचारा. माणसो हता, ते जेम के, १ पद्म समान गंववाळा, २ प.स्तूरी . समान गंधवाळा, ३ ममत्व विनाना, ४ तेजस्वी अने रूपाळा, १. आवाक्य, षष्ठीना बहुवचनवगळूछे, किंतु अहीं षष्ठीन बहुवचन लोपाएलु छे. २. आभाव, अभ्याचारगम्य छ:----श्री अभय १. मूलच्छायाः-जम्बूद्वीपे भगवन् ! द्वीपे अस्याम् उत्सपिप्यां सुषमसुषमायां समायाम् उतमार्थप्रातायाम् , भारतस्य वर्षय कीदृशः आकार-माव. प्रत्यवतारोऽभवत् । गैतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागोऽभवत् , तद्यथा नाम आलिशपुष्कर इति वा; एवम् उत्तरकुरुवक्तव्यता ज्ञातव्या, यावत् आसी. दन्ति, शेरते; तस्यां समायां भारते वर्षे तत्र तत्र देशे देशे, तत्र तत्र बहन उदाराः कहालाः यावत्-कुश-विकुश विशुद्धक्षमूलानि, यावत्-पहविषा मनुष्या अनुषफवन्तः, तथाः-पर्वगन्धयः, गगन्धयः, अमेमाः, तेजस्त छिनः, सहाः, शनवारिणः-अनु. Jain Education international Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरामनाम-चिनागरासप्रह- . शतका ६.-उद्देशक . .५ सहनशील तथा ६ शनवारी-उतावळ विनाना-ए प्रमाणे छ प्रकारना मनुष्यो हता. -सेवं भंते ! , सेवं भंते ! ति. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे ( एम कही यावत् विहरे छे ). भगवंत-अन्त मुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते छहसये सत्तमो उदेसो सम्मत्तो. ४. कालाऽधिकाराद् इदमाह:-'जंबुद्दीवे ण' इत्यादि. 'उत्तमढपत्ताए' ति उत्तमस्तित्कालाऽपेक्षया उत्कृष्टान् अर्थान्आयुष्कादीन् प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ता, उत्तमकाष्ठा प्राप्ता वा प्रकृष्ठाऽवस्थां गता-तस्याम्, 'आगारभावपडोयारे' ति आकारस्य आकृतेर्भावाः पर्यायाः, अथवा आकाराच भावाच आकार-भावाः, तेषां प्रत्यवतारोऽवतरणम् -अविर्भावः-आकार-भावप्रयवतारः. 'बहुसमरमणिजे ' त्ति बहुसमोऽत्यन्तसमः, अत एव रमणीयो यः स तथा. 'आलिंगपुक्तरे' त्ति आलिङ्गपुष्कर मुरजमुख मुटम् , लाघवाय सूत्रनतिदिशन्नाहः-एवं- इत्यादि. उत्तरकुरुवक्तव्यता च जीवाऽभिगमोक्ता एवं दृश्या:-"मुइंगपुक्खरे इ वा सरतले इवा" सरस्तलं सर एव, 'करतले वा करतलं कर एवं" इत्यादि-एवं भूमिसमतायाः, भूमिभागगततृण-मणीनां वर्णपश्चकस्य, सुरभिगन्धस्य, मृदुस्पर्शस्य, शुभशब्दस्य, वाप्यादीनाम् , वाप्याद्यनुगतोत्पातपर्वतादीनाम् , उत्पातपर्वताद्याश्रितानां हंसाऽऽसनादीनाम् , लतागृहादीनाम् , शिलापट्टकादिनां च वर्णको वाच्यः. तदन्ते च एतद दृश्यम्:-" तत्थ णं वहवे भारिया मणुस्सा, मणुसीओ य आसयंति, सयंति, चिट्ठति, निसीयंति, तुयदृति" इत्यादि. ' तत्थ तत्थ' इत्यादि. तत्र तत्र भारतस्य खण्डे खण्डे, देशे देशे-खण्डांसे खुण्डांसे, 'तहिं ' ति देशस्यांशे देशस्यांशे उद्दालकादयो वृक्षविशेषाः, यावत्करणात:- कयमाला नहमाला' इत्यादि दृश्यम्.' कुसविकुसविसुद्धरुवखमूल' ति कुशाः दर्भाः, विकुशा वल्वजादयस्तृणविशेषास्तविशुद्धानि तदपेतानि वृक्षमूलानि-तदघोभागा येषां ते तथा. यावत्- करणाद “ मूलमन्ती, कन्दमन्तो" इत्यादि दृश्यम्. 'अणुसजित्थ' त्ति अनुभक्तवन्तः पूर्वकालात् कालान्तरमनुवृत्तवन्तः, 'पम्हगंध' ति पद्मसमगन्धयः, 'मियगंध' ति मृगमदगन्धयः, 'अमम' ति ममकाररहिताः, 'तेय-तालि' त्ति तेजश्च, तलं च रूपं येषामस्ति ते तेजस्तलिनः. 'सह' ति सहिष्णवः समः , 'सणिचारे' त्ति शनैर्मन्दम् उत्सुकत्वाऽभावात् चरन्तीत्येवंशीलाः शनैश्चारिणः. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे षाशते सप्तम उद्देशके श्रीअभयदेवरिविरचित विवरणं समाप्तम्. ४. कालनो अधिकार चालतो होवाथी हवे आ वात कहे छ:-[ 'जंबूद्दीवे णं' इत्यादि.] [ 'उत्तमद्वपत्ताए ' ति ] ते कालनी अपेक्षाने लइने आयुष्क वगेरे उत्तम अर्थोने पामेली ते उत्तमार्थ-प्राप्त कहेवाय अथवा उत्तम अवस्थाने पामेली ते उत्तमकाष्ठा प्राप्त कहेवाय, तेमा ['आगार भावपडोयार' ति] आकार एटले आकृति, तेना जे भावो एटले पर्यायो ते आकारभाव, अथश, आकारो अने भावो ते आकारभाव, तेओनो मूमिभागनुं वर्णन. जे प्रत्यवतार एटले आविर्भाव ते आकारभावप्रत्यवतार कहेवाय, [ 'बहुसमरमणिजे ' ति] घणो सम माटे ज रमणीय जे भूमिभाग ते बहुसम रमणीय भूमिभाग कहेवाय, [ 'आलिंगपुक्खरे' ति] आलिंगपुष्कर एटले मुरजर्नु- तबलान-मुखपुट, लावबने माटे विशेष न जणावतां बीजा सूत्रनी भलामण करतां कहे छे के, [' एवं ' इत्यादि.] उच्चरकुरुनी वक्तव्यता, जीवाभिगम सुत्रमा कहेली छ, ते अहीं आ प्रमाणे जाणवी:" मृदंग- पुष्कर, सरतल एटले सरोवर- तल अथवा सरोवर ज, करतल एटळे हाथर्नु तळीयु-हाथ ज, ए प्रमाणे भूमिना समपणानु, भूमिभागमा रहेला तृण अने मणिओना पांच वर्णन, सुरभिगंधमुं, कोमळ स्पर्शन, सारा शब्दनु, वाव वगेरेनु, वाव वगेरेमा अनुगत उत्पातपर्वतादिन, उत्पातपर्वजीवामिगम. तादिने आश्रित हंसासनादिनु, लतागृहादिनुं अने शिलापट्टकादिनु वर्णन कहे. अने त्यांना-जीवाभिगमना-ते वर्णननी अते आ अर्थ देखाय छे: "तेमां घणा मनुष्यो अने मनुषणीओ बेरो छे, उधे छे, रहे छ, निषीदे छे अने सुवे छे, इत्यादि. [ 'तत्थ तत्थ ' इत्यादि.] भारतना ते ते खंडमां, देश देशगां, [ 'तहिं ' ति ] देशना अंश अंशमा एक प्रकारना उद्दालक वगेरे वृक्षो हता. ' यावत् ' करवाथी [' कयमाला, नट्टमाला' इत्यादि ] समजवू, [' कुस-विकुसविसुद्धरुवखमूल ' ति] कुश-डाभ, विकुश एटले वल्वज वगेरे एक प्रकारनां तृणो, जे भरतभूमिनां वृक्षमूलो -(वृक्षगलो- वृक्षना नीचला भागो)-ए कुश, विकुशथी रहित छे अर्थात् विशुद्ध छे. यावत् ' करवाथी ' मूलबाळा अने कांदाबाळा ' इत्यादि पदाधि वगैरे जाणवू. ['अणुसजित्थ ' त्ति ] अनुसक्त थएला छे एटले पूर्वकाळथी बीजा काळे अनुवतेला छ, [ 'पम्हगंध' ति] पद्म समान गंधवाळा, मनुष्योना प्रथा र. मियगंध ' ति] कस्तूरी समान गंधवाळा, ['अमम 'त्ति ] ममत्व विनाना, [ 'तेय-तलि' ति] जेओ तेज वाळा अने तल एटले रूपवाळा छ अर्थात् जेओ तेजस्वी अने रूपाळा छे. [ ' सह ' त्ति जेओ सहनशील- समर्थ-छे, [ ' सणिचारे ' त्ति ] अने उतावळ न होवाथी जेओ धीमे धीमे चालवाना स्वभाववाळा अर्थात् गजगतिनी जेम गति करनारा छे. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽसिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपखी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुर्ख मारहा चासमुख्यः॥ १. मूलच्छायाः-तदेवं भगवन् ! तदेवं भगवन् ! इति:-अनु. १. जूओ जीवाजीवाभिगम पत्र, नीजी प्रतिपत्ति-उत्तर-कतर्णन (पृ०-६२ थी २८४- ३० ला० ):-अनु० Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ८. पृथिवीओ केटली ?-आठ.-रत्नप्रभानी नीचे गृह-ग्रम वगेरे छे ?-ना.-त्या उदार बलाइक अने स्तनितशब्द छ ?-हा.-तेने देव-असुर के नाग करें. त्यां बादर अग्निकाय छे ?-विग्रहगति सिपाय नथी.-त्यां चन्द्र के चन्द्र वगैरेनी कान्ति छ ।-ना.-एज प्रकारना प्रश्नोत्तरो बधी नरको संबंधे-बीजीमा नाग न करे.-चौथीमां अने से पछीनी यधीमा एकलो देव ज करे-एवा ज प्रश्नो सौधर्म दि देवलोको संबंधे.-उत्तरो पण श्वाज.-विशेषमा मात्र-न ग न करे.सनत्कुमारादि स्वोभा देव ज प.रे.-संग्रहगाथा.- आयुष्यना बंधना प्रकार केटला ?-छ-छएना नाम.-५ प्रमाणे यावत् वैमानिको.-मीनो संबंधे वविषयक प्रश्नो अने उत्तरो.-रवण समुद्र संबंधी विचार.-जीवाभिगम.-असंख्यद्वीप समुद्रो.-एना नामो केवा होय ?-जे जेटलो शुभ नामो होय ते वर्धा द्वैप-समुद्रोना जाणवां.-विहार.१. प्र०—कइ णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ ? १. प्र०-हे भगवन् ! केटली पृथिवीओ कही छे ?. १. उ०-गोयमा! अट्ठ पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा:- १. उ०—हे गौतम! आठ पृथिवीओ कही छे, ते जेमके, रयणप्पभा, जाव-ईसीपब्भारा. रत्नप्रभा यावत् ईषत्प्रारभारा. २.प्र०-अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए २.५०-हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीनी नीचे ग्रहो अहे गेहा ति वा, गेहावणा इ वा ? के गृहापणो छे ! २. उ०-गोयमा ! णो तिणढे समढे. २. उ०-हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. ३. प्र०-अस्थि णं भंते ! इमासे रयणप्पभाए अहे गामा ३. प्र०-हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीनी नीचे प्रामो इवा, जाव-सनिवेसा इ वा ? | ___ यावत् संनिवेशो छ ! ३. उ०---णो इणट्टे समढे. ३. उ०--(हे गौतम !) ते अर्थ समर्थ नथी. ४. प्र०--अस्थि णं भंते । इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे ४. प्र०-हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीनी नीचे मोटा उराला बलाहया संसेयति, संमुच्छंति, वसं वासंति ? मेघो संस्वेदे छे, सम्मूठे छे, वरसाद वरसे छे ? ४. उ०-हता, अस्थि. तिन्नि विपकरोति, देवो वि पत्र.रेति, ४. उ०—हा, वरसे छे, ते वरसादने प्रणे पग करे छे-देव असुरो विपकरेति, नागो विपकरे त. पण करे छे, असुर पण करे छे, नाग पण करे छे. ५. प्र०-अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाइ- पुढवीए ५.प्र.-हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा बादर स्तनित बादरे थणिय सद्दे ? शब्दो छे? ५. उ०-हता अस्थि, तिनि विपकति. ५. उ०—(हे गौतम!) हा, छे, ते शब्दने त्रणे पण करे छे. १.मूल च्छायाः-कति भगवन् ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अष्ट पृथव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-त्नप्रभा, यावत्-ईयत्प्रारभारा. अस्ति भगवन् । अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधो गेहा इति वा, गेहापणा इति वा ? ग:तम ! न तदर्थः सर्थः अस्ति भगवन् ! अस्थाः रसप्रभाया अधो ग्रामा इंति वा यादत्-संनिवेशा इति वा ? न'ऽयमर्थः समर्थः. 'अस्ति भगवन् ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधः उदारा बलाईगः संस्विद्यन्ति, संमूर्च्छन्ति, व वर्षन्ति ? इन्त, अस्ति, त्रीण्यपि प्रकुन्ति, देवोऽपि प्रकोति, अगुरोऽपि प्रकरोति, नागो-पि प्रकरोति अस्ति भगान ! अस्वाः रत्नपानी पृथित्रा बादरः स्तनित शब्दः १ इन्त, अस्ति, त्रीण्यपि प्रकुर्वन्तिः-अनु० . Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ६. प्र० गरि णं मंते! इसीसे रमणय्यभाए पुडीए अहे बादरे अगणिकाए ! श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे ६. उ० – गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, ननत्थ विग्गहगतिसमायचएणं. ७. प्र० ! इसीसे रणयभाए अहे चंदिम, जाव- तारारूवा ? ७. उ०—णो तिणट्टे सम. ८. प्र० अगं भंते । इसीसे रमणयभाए पुरीए चंदामा ति वा सूरामा विषा ? ८. उ०- णो इणट्ठे समट्ठे, एवं दोच्चार पुढवीए भाणियव्वं, एवं तच्चाए वि भाणियन्त्रं, नवरं देवो वि पकरेति, असुरो वि पकरेति, णो णागो पकरेति चउत्थीए वि एवं नवरं देवो एक्को पकरेति, नो असुरो, नो नागो पकरेति एवं हेडिलासु सम्यासु देवो एक विप ९. प्रo - अस्थि णं भंते ! सोहम्मी-साणाणं कप्पाणं आहे गेहा इवा, गेहावणा इवा ? ९. उ०- नोहण सम १०. प्र० अस्थि णं भंते ! उराला बलाया ? १०. ४०- हंता, अथि देवो पकरेति असुरो व परेड, नो नाओ पकरेइ, एवं थगियसदे वि. ११. प्र० -- अस्थि णं भंते ! बादरे पुढवीकाए, बादरे अगणिकाए ? ११. उ०- णो इणद्वे समद्वे, नण्णत्थ विग्गह गतिसमवा नणं. १२. प्र० – अस्थि णं भंते ! चंदिम - ०१ १२. उ० –ो तिट्टे सम. १३. प्र०- अत्थि णं भंते ! गामा इवा ? १३. उ० को तिगड़े सम. १४. प्र - अस्थि णं भंते ! चंदाभा ति० वा ? १४. उ०- गोवमा ! णो निगडे समझे, एवं सर्णकुमारमाहिदेसु, नपरं देवो एगो पसरेति एवं बंगलोए पि एवं , शतक ६. उद्देश ८. ६. प्र - - हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां नीचे बादर अग्निकाय छे ? ६. उ० हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नधी, अने ए निषेध विग्रहगतिसमापन जीवो सिवाय बीजा जीयो परले जाणो. ७. प्र०—– हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां नीचे चंद्र यावत् तारारूपो छे ? ७. उ०- ( हे गौतम! ) ए अर्थ समर्थ नथी. ८. प्र० - हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां नीचे चंद्राभा, सूर्याभा वगेरे छे ? ८. उ०- ( हे गौतम! ) ए अर्थ समर्थ नथी, ए प्रभागे बीजी पृथिवीमां कहेनुं, ए प्रमाणे त्रीजीमां पण कहेवुं, विशेष ए के, त्रीजी पृथिवीमां देव पण करे, असुर पण करे अने नाग न करे. चोथी पृथिवीमां पग एम ज कहेनुं विशेष ए के व्यां एको देव करे पण असुरकुमार के नागकुमार कोइ न करे, ए प्रमाणे बधी नीचेनी पृथियीओमा एको देव करे छे. , ९. प्र० - हे भगवन् ! सौधर्मकल्पनी अने ईशानकल्पनी नीचे गृहो, गृहापणो हे ? ९. उ०- ( हे गौतम ! ) ते अर्थ समर्थ नथी. १०. प्र० - हे भगवन् ! सौधर्म कल्पनी अने ईशान कल्पनी नीचे मोटा मेघो छे! १०. उ०- (हा, गौतम !) मोटा मेघो छे, अने ते मेघो देव करे, असुर पण करे, पण नाग न करे, ए प्रमाणे स्तनित शब्द परवेपण जाणवुं. ११. प्र०-हे भगवन् ! त्यां बादर पृथिवीकाय के बादर अनिका छे! ११. उ० -- (हे गौतम! ) ए अर्थ समर्थ नथी अने आ निषेध विग्रहगतिसमापन्नक सिवायना बीजा माटे जाणवो. १२. प्र० - हे भगवन् ! त्यां चंद्र वगेरे छे ? १२ उ०- ( हे गौतम! ) आ अर्थ समर्थ नथी. १३. प्र० - हे भगवन् ! त्यां ग्रामादि छे ? १३. उ०- ( हे गौतम ! ) ए अर्थ समर्थ नथी. १४. प्र० भगवन्! त्यां चंद्रनो प्रकाश वगेरे छे ! १४. उ० - हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी, ए प्रमाणे सनकुमार भने महेंद्र देवको हम जाण, विशेष ए के व्यां एकलो 3 2 १. मूलच्छायाः - अस्ति भगवन् । अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधो बादरोऽग्निकायः ? गौतम ! नाऽयमर्थः समर्थः, नाऽन्यत्र विग्रहगतिसमा पद्मकेन, अस्ति भगवन् ! अस्याः रत्नप्रभाया अधचन्द्रमाः यावत्-तारारूपाः ! न तदर्थः समर्थः अस्ति भगवन् ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याचन्द्राभाइते वा सूर्याभा इति वा ? नायम् अर्थः समर्थः एवं द्वितीयायाः पृथिव्या भणितव्यम्; एवं तृतीयाया अपे भणितव्यम्, नवरम्: - देवोऽपि प्रकरोति अरोऽपि प्रतिमाः प्रकरोति नवरदेव एकः प्रकरोति न न नामः करोति एवमानस देव एकोऽपि प्रकरोति, अस्ति भगवन् ! सौधर्मेशानयोः कल्पयोरधी गेहा इति वा, गेहापणा इति वा ? नाऽयमर्थः समर्थः, अस्ति भगवन् ! उदारा बलाहकाः ? हन्त, अस्ति, देवः प्रकरोति, असुरोऽपि प्रकरोति, न नागः प्रकरोति, एवं स्तनितशब्देऽपि अस्ति भगवन् ! बादरः पृथिवीकायः, बादरोऽनिकायः ?- नाऽयमर्थः समर्थः, अन्यत्र विग्रहगतिसमापनकेन. अस्ति भगवन् ! चन्द्रमाः ? न तदर्थः समर्थः अस्ति भगवन् ! प्रामा इति वा ? म उदयः समर्थः अस्ति भगवान दृष्टि वा गीतम न तदर्थः समर्थः एवं कुमारमादेवी, नवरा एवं / Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. बंभलागेस्स उवरिं सव्वहि देवोपकरतिः पच्छियव्यो य बायरे देव करे छ, ए प्रमाणे ब्रह्मलोकमा पण जाणवू, ए प्रमाणे ब्रह्मलोकनी आउकाए, बायरे अगणिकाए, वायरे वणस्सइकाए; अन्नं तं चैव. उपर सर्वस्थळे देव करे छे तथा बधे ठेकाणे बादर अप्काय, बादर अग्निकाय अने वादर वनस्पतिकाय संबंधे प्रश्न करवो, बीजं तेज प्रमाणे छे-पूर्व प्रमाणे छे. गाहा: ___ गाथा:-तमस्कायमां अने पांच कल्पमा अग्नि अने पृथिवी 'तमुकाए कप्पपणए अगणि-पुढवी य अगणि पुढवीस, संबंधे प्रश्न, पृथिवीओमां अग्नि संबंधे प्रश्न अने पांच कल्पनी उपर 'आऊ तेऊ वणस्सई कप्पुवरिमकण्हराईसु. रहेलां स्थानोमां तथा कृष्णराजिमां अप्काय, तेजस्काय अने वनस्पतिकाय संबंधे प्रश्न करवो. १. सप्तमोद्देशके भारतस्य स्वरूपम् उक्तम् , अष्टमे तु पृथिवीनां तदुच्यते, तत्र चाऽऽदिसूत्रम् :-' कइ णं' इत्यादि. 'बादरे अगणिकाए' इत्यादि. ननु यथा बादराग्नेर्मनुष्यक्षेत्रे एव तद्भावाद् निषेध इहोच्यते, एवं बादरपृथिवीकायस्याऽपि निषेधो वाच्यः स्यात्, पृथिव्यादिष्वेव स्वस्थानेषु तस्य भावादिति? सत्यम् , किंतु नेह यद् यत्र नास्ति तत्र सर्व निषिध्यते मनुष्यादिवत् , विचित्रत्वात् सूत्रगतः, अतोऽसतोऽपीह पृथिवीकायस्य न निषेध उक्तः, अप्काय-वयु-वनस्पतीनां विह घनोदध्यादिभावेन भावाद निषेधाऽभावः सुगम एवेति. 'नो नाओ' ति नागकुमारस्य तृतीयायाः पृथिव्या अधोगमनं नास्ति- इत्यत एवाऽनुमीयते. 'नो असुरो, नो नागो' त्ति इहाऽपि अत एव वचनाच्चतुर्थ्यादीनामघोऽसुरकुमार-नागकुमारयोर्गमनं नास्ति-इत्यनुमीयते. सौधर्मे-शानयोस्तु अधोऽसुरो गच्छति चमरवत्, न नागकुमारोऽशक्तत्वात् , अत एवाहः- 'देवो पकरई' इत्यादि. इह च बादरपृथिवी-तेजसोनिषेधः सुगम एव, अस्वस्थानत्वात्. तथाऽप्काय-वायु-वनस्पतीनामनिषेधोऽपि सुगम एव, एतयोरुदधिप्रतिष्टितत्वेन बनस्पतिसंभवात् , बायोश्च सर्वत्र भावादिति. एवं सणंकमार-माहिंदेस' ति इहाऽतिदेशतो बादराऽप्-वनस्पतीनां संभवोऽनुमीयते, स च तमस्कायसदभावतोऽवसेय इति. 'एवं बभलोयस्स उवरिं सव्वेहि ति अच्युतं यावदित्यर्थः, परतो देवस्याऽपि गमो नास्तीति न तत्कृतबलाहकादेभीवः. 'पुच्छियव्यो यत्ति बादरोऽप्कायः, अग्निकायः, वनस्पतिकायश्च प्रष्टव्यः, 'अन्नं तं चेवत्ति वचनात्-निषेधश्च, यतोऽनेन विशेषोक्ताद् अन्यत् सर्व पूर्वोक्तमेव वाध्यमिति सूचितम् , तथा अवेयकादि-ईषत्प्रारभारान्तेषु पूर्वोक्तं सर्व गेहादिकम् अधिकृतवाचनायाम् अनुक्तमपि निषेधतोऽध्येयमिति, अथ पृथिव्यादयो ये यत्राऽध्येतव्यास्तान् सूत्रसंग्रहगाथयाऽऽह:-'तमुक्काए गाहा.' 'तमुक्काए' त्ति तमस्कायप्रकरणे प्रागुक्ते, 'कप्पपगए' त्ति अनन्तरोक्तसौधर्मादिदेवलोकपञ्चके ' अगणि-पुढवी य' त्ति अग्निकाय-पृथिवीकायौ अध्येतव्यो. 'अस्थि णं भंते ! बादरे पुढाविकाएं, बादरे अगणिकाए ? नो इणद्वे समढे, नण्णत्थ विंगहगतिसमावन्नएणं' इत्यनेनाऽभिलापेन. तथा ' अगणित्ति अग्निकायोऽध्येतव्यः, 'पुढवीसु' त्ति रत्नप्रभादिपृथिवीसूत्रेषुः ‘अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे बादरे अगणिकाए ? ' इत्याद्यभिलापेन इति, तथा 'आउ-तेउ-वणस्सइ 'त्ति अकाय-तेजो-वनस्पतयोऽध्येतव्याः अस्थि णं भंते ! बादरे आउकाए, बायरे तेउकाए, बायरे वणस्सइकाए ? णो इणढे समढे' इत्यादिनाऽभिलापेन, केषु ? इत्याहः- कप्पुवरिमि' त्ति कल्पपञ्चकोपरितनकल्पसूत्रेषु, तथा 'कण्हराईसु' त्ति प्रागुक्ते कृष्णराजीसूत्रे इति, इह च ब्रह्मलोकोपरितनस्थानानाम्-अध्येयोऽप्-वनस्पतिनिषेधः, स-यानि अप्-वायुप्रतिष्ठितानि तेषामघः आनन्तर्येण वायोरेव भावात् , आकाशप्रतिष्ठितानामाकाशस्यैव भावाद-अवगन्तव्यः, अग्नेन्तु अस्वस्थानादिति. १. आगळ आवेला सातमा उद्देशकमां भारत-वर्षनुं स्वरूप जणावेलुं छे, हवे आ शरु थता आठमा उद्देशकमां पृथिवीआनुं स्वरूप पृथिविमो. कहेवावान छे. अहीं [ ' कइ णं' ] इत्यादि-आदि सूत्र छे. [ 'बायरे अगणिकाए' इत्यादि.] foबादर अग्निकाय, मनुष्य क्षेत्रमा ज छे शंका. बीजे क्यांय नथी, तेथी ज अहीं रत्नप्रभानी मीचे तेनी हयातीने निषेधेली छे, तेग अहीं यादर पृथिवीकायनी हयातीने पण निषेधवी जोइए, १. मूलच्छायाः-ब्रह्मलोकस्योपरि सर्वैः (सर्वत्र ) देवः प्रकरोति; प्रष्टव्यश्च यादरोऽप्कायः, बादरोऽग्निकायः, बादरो बनस्पतिवायः; अन्यत् तचैव. गाथाः-'तमस्कायः कल्पपश्चकेऽग्नि-पृथिवी चाऽग्निः पृथिषीषु, आपस्तेजो वनस्पतिः कल्पोपरिमकृष्णराजीपु:-अनु. १. आ उद्देशकमा जे सात पृथिवीओनो अधिकार छे ते साते नरक-पृथिवीओ छे. ते नरक पृथिवीओमां केवां केवो दुःखो सहवानां होय . ए विषेनुं सविस्तर वर्णन 'सूत्रकृतांग' सूत्रना पांचमा अध्ययन-'निरयविभक्ति' मां करवामां आव्यु छे. अने 'तत्त्वार्थ' सूत्रना श्रीज्ञा अध्यायमा पण ए विषे जणाघवामां आवेलुं छे. 'तत्त्वार्थ' सूत्रवाळी हकीकत संक्षिप्त होवाथी जेवीने तेवी अहीं उतारी लइए छोए: । ____ " रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा अने महातमः (तमस्तमः) प्रभा-ए, सात नरकनां साल नाम छे. पेली नरक करतां बीजी नरक अधिक विस्तारवाळी छे अने ए रीते उत्तरोत्तर ए साते नरको अधिकाधिक विस्तारवाळी छे. तद्दन नीचे आकाश छे, ते उपर घनवात-एक प्रकारनो घट्ट वायु रहेलो छे, एनी उपर घनजल-एक प्रकारचें जामी गएलुं--पाणी हेलुं छे अने एनी उपर ए साते नरको रहेली छे. (जूओ भ० प्र० ख० पृ० १७०) पहेली नरक पृथ्वीनी जाडाइ (दळ) एक लाख एशी हजार योजननी , बीजीनी जाडाइ एक लाख बत्रीश हजार योजन नी छे अने ए प्रमाणे त्रीजीनी एक लाख अट्ठावीश हजार, चोथीनी एक लाख वीश हजार, पांचमीनी एक लाख अठार हजार, छट्ठीनी एक लाख सोळ हजार अने सातमीनी जाडाइ एक लाख आठ हजार योजननी छे. पेली पृथ्वीगां १३ प्रतर, बीजीमां ४२. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६.-उद्देशक ८. कारण के, ए बादर पृथिवीकाय पण त्यां रत्नप्रभानी नीचे नथी-एं तो पृथिव्यादिरूप पोताना स्वस्थानी ज छे-एम छतों अहीं बादरं अग्निसमाधान. कायनी पेठे बादर पृथिवीकायनो पण निषेध केम कों नथी ? समा०-सूत्रनी एवी शैली नथी के, ज्यां जे जे बधुं न होय ते ते सर्वनी नामवार यादी करीने ते बधानो निषेध करवो-रत्नप्रभानी नीचे मनुष्यो पण नथी अने ए रीते आपणा तीरछा लोकमा रहेनारा घणा जीवो अने भावो 'त्यो नर्थी, तो पण ते बधानो कोइ अहीं नामवार निषेध कयों नथी, कारण के, सूत्रनी शैली, गति वा संकलना विचित्र प्रकारनी छे माटे ज रत्नप्रभानी नीचे मनुष्योनी गेरहाजरीनी ज जेम बादर पृथिवीनी पण गेरहाजरी छे, छतां ए विषे अहीं कांइ कहेवामां आव्यु नथी अने अहीं रत्नप्रभा पृथिवीमां-'घनोदधि' वगेरे जलमय भावो छे तेथी ज त्यां अप्काय-पाणी-नी वायु, ( पवन ) नी अने वनस्पतिनी हयाती होय-ए नाग-असुर. हकीकत न कहेवा छतां समजाय तेवी सुगम ज छ [ 'नो नाओ' त्ति ]. आ उल्लेखथी एम कळाय छे के, नागकुमार, श्रीजी नरकपृथिवीथी वधारे आगळ जइ शकतो नहि होय. [ 'नो असुरो, नो नागो' ति] अहीं पण आपेला आ पाठ उपरथी एबुं तरी आवे छे के, चोथी नरक पृथिवीथी वधारे नीचे असुरकुमारनु अने नागकुमारनुं गमन नहि थइ शकतुं होय. सौधर्मनी अने ईशाननी नीचे तो चमरनी पेठे असुरकुमार जाय छे अने अशक्त होवाथी नागकुमार जतो नथी माटे ज कहे छः [ 'देवो पकरेइ ' इत्यादि.] अहीं बादर पृथिवीक य अने बादर अग्निपृथिवी वगेरे. .कायर्नु स्वस्थान नथी एटले उत्पत्तिस्थान नथी माटे ज ते बन्नेनो-बादर पृथिवीकायनो अने बादर तेउकायनो-अहीं जे निषेध दर्शाव्यो छे ते सुगम ज छे. तथा अप्कायनो, वायुकायनो अने वनस्पतिकायनो जे अनिषेध दर्शाव्यो छे ते पण सुगम ज छे, कारण के, सौधर्म अने ईशान तो उदधिप्रतिष्ठित होवाथी-उदधिने आधारे रहेला होवाथी-त्यां अप्काय अने वनस्पतिकाय संभवे छे तथा वायु तो बधे ठेकाणे होय छे माटे ते सनत्कुमारादि. त्यां पण होय ज. [' एवं सणंकुमार-माहिदेसु 'त्ति ] 'ए प्रमाणे एटले पूर्वे कया प्रमाणे सनत्कुमार अने माहेंद्रमा पण जाणवु ' ए जातनी भलामण करेली होवाथी एम अटकळी शकाय छे के, पूर्वनी पेठे ज अहीं पण-एटले सनत्कुमार अने माहेद्रमां पण, बादर अप्कायनो अने बादर वनस्पतिकायनो संभव छे अने ते, त्यां तमस्कायनी हयाती होवाथी सुसंगत पण थइ शके छे. [ ' एवं बंभलोयस्स उवरि सव्वेहिं ' ति] ए प्रमाणे ब्रह्मलोकनी उपर सर्वत्र एटले ठेठ अच्युत-स्वर्ग सुधी समजवू. अच्युत पछी तो आगळ देव पण जइ शकतो नथी, माटे ज तेणे करेला मेघ वगरेनी त्यां विद्यमानता पण नथी. [ 'पुच्छियव्वो 'त्ति ] बादर अप्काय, बादर अग्निकाय अन बादर वनस्पतिकाय संबंधे प्रश्न करवो, [ 'अन्नं तं चेव' ति ] ' बाकी बधुं ते ज प्रमाणे छ ' एम कहेवाथी आ प्रमाणे जाणी शकाय छ के, पूर्व जेनो जेनो निषेध करवामां अव्यो छ, तेनो अहीं पण निषेध समजवो अने अहीं जे विशेष हकीकत कही छे, ते सिवायनी बधी हकीकत पण पूर्वनी पेठे समजी लेवी. तथा अधिकृत वाचना द्वारा वेयकथी मांडी ईषत्प्राग्भारा पृथिवी सुधीमां, पूर्वोक्त सर्व गृहादिकन निषेधन नथी कयु, तो पण तेने ( गृहादिने ) अहीं निषेधेलं ज समजी लेवं. संग्रहगाथा हवे पृथिवी वगेरे भावोनी ज्या ज्या हयाती जणाववानी छे-ते हकीकतने सूचववा संग्रहगाथा कहे छ: [' तमुक्काए' गाहा. ] [ तमुक्काए ' ति] प्रथम कहेवाएला तमस्कायना प्रकरणमा [' कप्पपणए 'त्ति ] अने हमणां कहला सौधर्मादि पांच देवलोकोमा [ अगणि-पुढवी यत्ति] अग्निकांय अने पृथिवीकाय संबंधे आ प्रमाणे प्रश्न करवोः "हे भगवन् ! बादर पृथिवीकाय अने बादर अग्निकाय छे ? (हे गौतम ! ) आ अर्थ समर्थ नथी अने आ निषेध, विग्रहगतिसमापनक सिवायना बादर पृथिवीकाय अने बादर अग्निकाय माटे जाणवो. ""हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमनीचे बादर अग्निकाय छे?" इत्यादि अभिलाप बडे [ ' अगणि ' त्ति ] अग्निकाय विषे [ ''पुढवीसु 'त्ति ] रत्नप्रभा वगेरे पृथिवीओना सूत्रोमा प्रश्न करचो. तथा " हे भगवन् ! बादर अप्काय, बादर तेजकाय अने बादर वनस्पतिकाय छे ? (हे गौतम ! ) आ अर्थ समर्थ नथी" ११, त्रीजीमा ९, चोथीमा ७, पांचमीमां ५, छट्ठीमा ३ अने सातमीमा एक प्रतर छे. ए सातेमां मळीने कूल ४९ प्रतरो छ तथा पेली पृथ्वीमां त्रीश लाख नरकावासो (नारकिओने रहेवानां ठेकाणां) छे, बीजीमां पच्चीश लाख, त्रीजीमा पन्नर लाख, चोथीमां दस लाख, पांचमीमांत्रण लाख, घटीमा ९९९९५ अने सातमीमां पांच नरकावास छे-ए बधा मळीने कूल ८४००००० नरकावासो थाय थे. उपरना प्रथम प्रतरतुं नाम 'सीमंतक' अने छल्ला प्रतरतुं नाम 'अप्रतिष्ठान' छे. पहेली बे नरकमा रहेनारा जीवोनी 'कापोत' लेश्या हाय छ, त्रीजीमा रहेनाराओनी 'कापोत' तथा 'नील' लेश्या होय छे, चोथीमा 'नील', पांचमीमां 'नील' तथा कृष्ण भने छट्ठी, सातमीमां कृष्ण लेश्या हाय छ-नीचे नीचेनी पृथ्वीओमा ए लेश्याओ वधारे वधारे संक्लिष्ट होय छे. जे जीवो पहेली नरकमा पड्या होय तेओना शरीरनी उंचाइ ७॥ धनुष अने छ आंगळ छे अने त्यार पछीनी नरकमां कमे क्रमे एथी बमणी बमणी उंचाइ होय छे. पहेलेथी त्रण नरक सुधी उष्ण वेदना, चोथीमा उष्ण अने शीत, पांचमीमां शीत अने उष्ण अने छटी, सातमीमां शीत वेदना होय छे-ए वेदनाओ पण नीचे नीचेनी पृथ्वीओमा वधारेने वधारे तीव्र होय छे. ए नरकमा रहेला जीवोने अवधिज्ञान अथवा विभंगज्ञान होय छे. पहेलेथी प्रण नरक सुधीनी ए नरकोमां, संसारस्थ कोटवाळ के फोजदारनी पेठे शिक्षा करनारा जुदा होय छे अने बाकीनी बीजी बधीमा तो त्या त्या रहेला ए जीवो ज पोत पोतानी में एटले परस्पर लडीने ज शिक्षाने उभी करे छे. पहेली नरकमा रहेला जीवोनुं वधारेमां वधारे आयुष्य एक सांगरोपमनु ( सागरोपम माटे जूओ भ. 'बी. खं. पृ. ३२२-३५५) होय छे, बीजीमांत्रण सागरोपमनु, त्रीजीमां सात सागरोपमनु, चोथीमा दश सागरोपमनु, पांचमीमां सत्तर सागरोपमन, छटोमा बावीस सागरोपमनुं अने सातमीमां तेत्रीश सागरोपमर्नु वधारेमा वधारे आयुष्य छे. असंशी जीवो जो नरके जवाना होय तो पहेली नरकमां जाय. एज प्रमाणे भुजपरिसी ( नोळिया वगेरे) बीजी नरक सुधी, पक्षिओ श्रीजी नरक सुधी, सिंहो चोथी नरक सुधी, उरपरिसर्पो (नाग वगेरे) पांचमी नरक सुधी, सीओ ट्री नरक सुधी अने मनुष्यो सातमी नरक सुधी जइ शके छ अर्थात् ए ए जीवोमा पापनो प्रकृष्टमां प्रकृष्ट परिणाम ते ते नरक सुधी पहोंचवा जेटलो होइ शके छे. नरकमांथी पाछा आवेला केटलाक तिर्यच के मनुष्य थाय छ, पण फरीने तुरत ज पाछा नरकमां जता नथी. नरकमांथी नीकळेला केटलाक मनुष्य थएला तीर्थकर पण थाय छ, पहेलो नरकथी नीकळेलो जीव मुक्तिने पण मेळवी शके छ, बीजी चार नरकथी नीकळेलो जीव मात्र संयमने लाभी शके छे, छट्ठीथी नीकळेलो जीव देश-संयमने मेळवी शके छ भने सातमीथी नीकळेलो 'जीव मात्र सम्यक्त्वने पामी शके छे अर्थात् ए ए नरकमाथी नीकळ्या पछी प्राप्त यती तरतनी जींदगीमां ए ए जीवो एटलो एटलो ज विकास करी शके छ:-जूओ, तत्वार्थसूत्र, अध्याय त्रीजो, सूत्र १-२-३-४-५ अने ६ (मेसाणा) जेम उपर सात नरकोना नामो जणाव्यां छे ते रीते नहि तो बीजी रीते महर्षि पतंजलिजीए पण चौद भुवनोनी व्याख्या करता आ. सात महापाताळो जणाव्यां छ: “१ पाताळ, २ रसातल, ३ महाराळ, ४ तळातळ, ५ सुतळ, ६ वितळ अने अतळ " जओ, पातंजलयोगदर्शन, विभूतिपाद. सू०६६ (नथुराम पार्मा : Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक . भगवत्स्थमस्वामिप्रणीत भगवतीसत्रं, ३३१ इत्यादि अमिलाप वडे [ 'आऊ तेऊ वणस्सइ ' त्ति ] अप्काय, तेजस्काय अने वनस्पतिकाय-ए बधो कहवा, क्या कहेवा ? तो कह छे के, अकाय वगरेनी हयाती 'कापुवरिमि' त्ति ] पांच कल्पोनी : उपर रहेनारा कलोनां सूत्रोमां तथा ['कम्हाईसु' ति] पहेला व हवाएला कृष्णराजिना सूत्रमा, अने अहीं ब्रह्मलोकनी उपरनां स्थनोमां पाणी अने वनस्पतिनो निषेध जाणवो, कारण के, जे स्थानो पाणीने अने वायुने आधारे-आशरे-रहेलां छे तेओनी नीचे लागलो ज वायु छ अने जे स्थानो आकाशने आधारे रहेला छे ते स्थानोनी नीचे पाएं आकाश छे माटे त्या पाणी. अने वनस्पति संभवतां नथी तथा त्यां अग्नि पण नथी-होतो, कारण के, अग्निनु पोतार्नु तो त्यां स्थान नथी... आयुष्यनो बन्ध. १५. प्र० केहविहे गं भंते ! आउयबंधए पन्नत्ते ? १५. प्र०---हे भगवन् ! आयुष्यनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? १५. उ०-गोयमा ! छब्बिहे आउयवधे पन्नत्ते, तं जहाः- १५. उ०-हे गौतम ! आयुप्यनो बंध छ प्रकारनो व ह्यो जातिनामनिहत्ताउए, गतिनामनिहत्ताउए, ठितिनामनिहत्ताउए, छे, ते जेमके, १ जातिनामनिधतायु, २ गतिनामनिधत्त यु, ओगाहणानामनिहत्ताउए, पएसनामनिहत्ताउए, अणुभागनाम- ३ स्थितिनामनिधत्तायु, ४ अवगाहनानामनिधत्तायु, ५ प्रदेश नामनिहत्ताउए; दंडओ जाव-वेमाणियाणं. निधत्तायु अने ६ अनुभागनामनिधत्तायु, यावत् वैमानिको सुधी दंडक कहतो. १६. प्र०-जीवाणं भंते ! किं जाईनाम निहत्ता, जाव- १६. प्र०-हे भगवन् ! शुं जीवो जातिनामनिधत्त छे यावत् अणुभागनामनिहत्ता ? अनुभागनामनिधत्त छे ? १६. उ०-गोयमा ! जातिनामनिहत्ता वि, जाव-अणुभा- १६. उ० - हे गौतम ! जातिनामनिधत्त पण छे यावत् अगनामनिहत्ता वि; दंडओ जाव-वेमाणियाणं. नुभागनामनिधत्त पण छे, आ दंडक यावत् वैमानिक सुधी कहको. १७. प्र०-जीवा णं भंते ! किं जांतिनामनिहत्ताउया, १७. प्र०—हे भगवन् !'शुं जीवो जातिनामनिधत्तायुष छे जाव-अणुभागनामनिहत्ताउया ? . यावत् अनुभागनामनिधतायुप छे ? १७. उ०-गोयमा । जाइनामनिहत्ताउया वि. जाव- १७. उ०-हे गौतम! जातिनामनिधतायुष पण छे यावत् अणुभागनामनिहत्ताउया वि; दंडओ जाव-वेमाणियाणं; एवं एए अनुभागनामनिधत्तायुष पण छे, आ दंडक यावत् वैमानिको दुवालस दंडगा भाणियया. सुधी कहेवो, ए बार दंडक आ प्रमाणे कहेवा:१८.प्र०-जीवाणं भंते! किं १ जातिनामनिहत्ता,रेजाइनाम- १८. प्र०-हे भगवन् ! जीवो शुं १ जानिनामनिधत्त छ, निहत्ताउया; जीवा णं मंते! किं ३ जाइनामनिउत्ता, ४ जातिनाम- २ जातिनामनिधत्तायुष्क- छे, ३ जातिनामनियुक्त छे, ४ जातिनिउत्ताउया; ५ जाइगोय.नहत्ता, ६ जाइगोयनिहत्ताउया ७ जाति- नामनियुक्तायुप्फ छे, ५ जातिगोत्रनिधत्त छे ६ जातिगोत्रनिधगोयनिउत्ता, ८ जाइगोयनिउत्ताउया; ९ जाइणाम गोयनिहता, तायुष्क छे ७ जातिगोत्रनियुक्त छे, ८ जातिगोत्रनियुक्तायुष्फ छे, १० जाड़गामगोयनिह ताउया; ११ जाइनामगोयनिउत्ता, जीवाणं ९ जातिनामगोत्रनिधत्त छे, १० जातिनामगोत्रनिधत्तायुप्फ छे, भंते ! किं १२ जाइनामगोयनि उत्ताउया; जाव- अणुभागनाम- ११ जातिनामगोत्रनियुक्त छे के १२ जातिनामगोत्रनियुक्तायुष्क छे गोयनिउत्ताउया ? यावत्-अनुभागनामगोत्रनियुक्तायुष्क छ ? १८. उ.-.-.-गोयमा ! जाइनामगोयनिउत्ताउया वि, जाव- १८. उ०-गौतम ! जातिनामगोत्रनियुक्तायुष्क पण छे, अणुभागनामगोयनिउत्ताउया वि; दंडओ जाय-माणियाणं. यायतु अनुभागनामगोत्रनियुक्तायुक पण छे, यावत् वैमानिक सुधी दंडक कहेवो.. १. मूलच्छा या:-कतिविधो भगान् ! आयुर्वन्धकः प्रशप्तः ? गौतम ! पइविध आयुर्वन्धः प्राप्तः, तद्यथाः-जातिनामनिधत्ताऽऽयुः, गतिनामनिधत्त युः, स्थिति नामनिधत्तायुः, अवगहनानामनिधतायुः, प्रदेशनामनिधत्तायुः, अनुभ-गनामनिधतायुः; द०३को यावत्-वैमानिकानाम्. जीवा भगवन् ! किं जातिनामनिधत्तः, यावत्-अनुभ गनामनिधत्ताः ? गातम ! जातिनामनिधताः अपे, यावत्-अनुभागनामनिधत्ता अपि; दण्डको यावत्-वैमानिकानाम् . जीवा भगवन् ! कि जातिनामनिधत्ताऽऽयुप्कः, गवत् अनुभागनामनिधत्ताऽऽयुधकाः ? गौतम | जातिनामनिपत्ताऽऽयुष्का अपि, यावत्अनुभ गनामनिधत्तायुष्का अपि; दण्डको यावत् वैमानिकान'म ; एवम् एते द्वादश द०का भणितव्याः. जीवा भग-न् ! कि जातिनामनिधत्ताः, जातिमामनिधत्तायुकः, जीवा भगवन् ! कि जातिनामनियुकः, जातिनामनियुक्तायुष्काः; जातिगोत्रनिधत्ताः, जातिगोत्र निधत्तायुष्काः; जातिग'चनियुक्ताः, जातिगंत्रनियुक्तायुष्काः, जातिनामगोत्रनिधत्ताः, जातिनामगोत्रनिवत्तायुष्का; जतिनामगेत्र नेयुक्ताः, जीया भगवन् । किं जाति नाम गोत्र नियुक्तायुष्काः, यावत् - अनुभागनाम गोत्रनियुक्तायुष्काः ? गैतम ! जातिनामगोत्र नियुकायुष्का अपि, यावत्-अनुभगनाम गोत्र नियुक्तायुका अ.पे; दण्डको यावत्वैमानिकानाम्:-अनु० . Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६:-उद्देशन ८. २. अनन्तरं बादराप्कायादयोऽभिहिताः, ते चाऽऽयुर्बन्धे सति भवन्ति-इत्यायुर्बन्धसूत्रम् , तत्र:-'जातिनामनिहत्ताउए' ति जतिः-एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चधा, सैव 'नाम' इति नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषः, जीवपरिणामो या; तेन सह निधत्तं निषिक्तं यद आयुस्तजातिनामनिधत्ताऽऽयु'; निषेकश्च कर्मपुद्गलानां प्रतिसमयमनुभवनाथ रचना-इति. 'गतिनामनिधताउए ' त्ति गतिर्नारकादिका चतुर्धा, शेषं तथैव. 'ठिइनाम निधत्ताउए ' त्ति स्थितिरिति यत् स्थातव्य क्वचिद् विवक्षितभवे जीवेन, आयुःकर्मणा वा; सैव नाम:परिणामो धर्मः स्थितिनामः, तेन विशिष्टं निधत्तं यदाऽऽयुर्दलिकरूपं तत् स्थितिनामनिधत्ताऽयुः अथवा इह सूत्रे जामिनाम गतिनामा5वगाहनानामग्रहणाजाति-गय-वगाहनानां प्रकृतिमात्रमुक्तम् . स्थिति-प्रदेशा ऽनुभागनामग्रहणात् तु तासागेव स्थित्यादय उक्तः, ते च जात्यादिनामसंबन्धित्वाद् नामकर्मरूपा एव-इति नामशब्दः सर्वत्र कमीर्थो घटते इति-स्थितिरूपं नामकर्म स्थितिनाम; लेन सह निवत्तं यद् आयुस्तत् स्थितिनामनिधत्ताऽऽयुरिति. ' ओगाहणानामनिहत्ताउए' त्ति अवगाह ते यस्यां जीवः सा अवगाहना-शरीरम् औदारिकदि, तस्या नाम औदारिकादिशरीरनामकर्म-इत्यवगाहनानाम, अवगाहनारूपो वा नामः परिणामोऽगाहनानामः, तेन सह यनिधत्तमायुस्तद अवगाहनानामनिधत्तायुः. 'पएसनामनिघत्ताउए' त्ति प्रदेशानाम् आयुःकर्मव्याणां नामः तथाविधा परिणतिः प्रदशेनामः, प्रदेशल वा नाम-कर्मविशेष: इत्यर्थ:-प्रदेशनाम; तेन सह निधत्तमायुः-तत् प्रदेशनामनिधत्तायुः इति. 'अणुभागनामनिधताउए' त्ति अनुभागः आयुईव्याणामेव विपाकः-तल्लक्षण एव नामः परिणामः अनुभागनामः, अनुभागरूपं वा नामकर्म अनुभागनाम, तेन सह निधत्तं यद् आयुस्तदनुभागनामनिधत्तायुरिति. अथ किमर्थ जात्यादिनामकर्मणा आयुर्विशेश्यते ? उच्यते:-आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थम्, यस्माद नारकाद्य युरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोषग्राह चाऽऽयुरेव. यस्मादुक्तमिहवः-'मेरहरणं भंते! नेरइएस उववजह, अनेरइए नेरइयेसु उववजह ? गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उवरजइ, नो अनेरहए नेरइएसु उबवजह' त्ति. एतदुक्तं भवतिः-नारकाऽऽयुःप्रथम. समयसंवेदन एवं नारका उच्यन्ते, तत्सहचारिणां च पञ्चन्द्रियजासादिनामकर्मणामप्युदय इति. इह चाऽऽयुर्बन्धस्य षड्विधित्वे उपक्षिप्ते यद् आयुषः पड्विधित्वम् उक्तम् , तदाऽऽयुषो बन्धाऽव्यतिरेकाद-बद्धस्यैव चाऽऽयुर्व्यपदेशविषयायादिति. 'दंडओ' ति नेरइयाग भंते ? फरविहे आउयबन्धे पत्ते !' इत्यादिमानिकान्तश्चतुर्विशतिदण्डको वाच्यः, अत एवाहः-'जाब-वेमाणियाणं ति. अथ कर्मविशेषाधिकारात् तद्विशेषितानां जीवादिपदानां द्वादश दण्डकानाहः- जीया भो' इत्यादि. 'जातिनामानिहत्त ' त्ति जातिनाम निधतं निषिक्तम् , विशिष्टबन्धं वा कृतं यैस्ते ज.तिनामनिधताः. एवं गतिनामनिधत्ताः. यावत् - करणात् 'ठितिनामनिहत्ता, ओगाहणानामनिहत्ता, पएसनामनिहत्ता, अणुभागनामनिहत्ता' इति दृश्यम् , व्याख्या तथैव, नवरम्:जात्यादिनाम्नां या स्थितिः, ये च प्रदेशाः, यश्चाऽनुभागस्तत् स्थित्यादिनाम-----अवगाहनानाम-----शरीरनाम-इति अयमेको दण्डको वैमानिकान्तः, तथा जातिनामानहत्ताउय' ति जातिनाम्ना सह निधत्तनायुयस्ते जातिनामनिधत्ताऽऽयुषः, एवमन्यान्यपि पदानिः अपमन्यो दण्डका. एकमेते दुवालसदंडग , शि अमुना प्रकारेण द्वादश दण्डका भवन्ति, तत्र द्वौ आयौ दर्शितावनि संख्यापूरणाय पुनदेवति:- जातिनामनिधता' इत्यादिरेकः, ' ज इनाम निधत्तःउया ' इत्यादि द्वितीयः, 'जीवा णं भंते ! किं जाइन:मनिउत्ता' इत्यादिस्तृतीयः, तत्र जातिनाम नियुक्तं नितरां युक्तं संबद्धं निकाचितम् , वेदने वा नियुक्त यैस्ते जातिनामनियुक्ताः, एवमन्यान्यपि. 'जाइनामनिउत्ताउया' इत्यादिश्चतुर्थः, तत्र जातिनाम्ना सह नियुक्तं निकाचितम् , वेदयितुमारब्धं वा आयुर्यरते तथा, एवमन्यान्यपि. 'जाइगोयनिहता' इत्यादिः पञ्चमः, तत्र जाति:-एकेन्द्रियादिकाया, यदुचितं गोत्रम् , नीचैर्गोत्रादि तज्जातिगोत्रम् ; तन्निधत्तं यैस्ते जातिगोत्रनिधत्ताः; एवमन्यान्यपि. 'जाइगोयनिहत्ताउया' इत्यादिः षष्ठः, तत्र जातिगोत्रेण सह निधत्तमायुर्थस्ते जातिगोत्रनिधत्ताऽऽयुषः, एवमन्यान्यपि. 'जाइगोयनिउत्ता' इत्यादिः सप्तमः, तत्र जातिगोत्रं नियुक्तं यैस्ते तथा; एवमन्यान्यपि. 'जाइगोयनिउत्ताउया' इत्यादिरष्टमः, तत्र जातिगोत्रेण सह नियुक्तमायुयस्ते तथा; एवमन्यान्यपि. 'जातिनामगोयनिहत्ता' इत्यादिर्नवमः, तत्र जातिनाम, गोत्रं च निधतं यैस्ते तथा; एवमन्यान्यगि'जीवा मते ' किं जाइनामगोयनिहत्ताज्या ?' इत्यादिर्दशमः, तत्र जत्निाम्ना, गोत्रेण च सह निधत्तमायुयैस्ते तथ'; एवमन्यान्यपि. 'जाइनामगोयनिउत्ता' इत्य दिरेकादशः, तत्र जातिनाम, गोत्रं च नियुक्तं यैस्ते तथा; एवमन्यान्यपि. जीवा मंते ! किं जाइनाम-गोयानि उत्ताउया' इत्यादिद्वादशः, तत्र जातिनाम्ना, गोत्रेण च सह नियुक्तमायुर्वस्ते तथा, एवमन्यान्यपि. इह च जात्यादिनाम-गोम्योः, भयुषश्च भवोपप्राहे प्राधान्यख्यागनार्थ यथायोगं जीवा विशेषिताः; वाचानान्तरे आधा एयाऽटौ दण्डका दृश्यन्ते इति. २. हमणां बादर अप्काय वगेरे कन्या, तेओ, आयुष्यनो बंध थाय त्यारे ज होई शके छे माटे हवे आयुष्यना बंध संबंधी सुत्र कहे थे, तेमाः जाति जाइ-नामनिहत्ताउए ' ति ] जाति एटले एकेद्रियादि पांच प्रकारनी जाति, तेरूप ज जे [' नाम ' इति ] नाम ते जातिनाम, जातिनाम, नाम ए नामकर्मनी एक प्रकारनी उत्तर प्रकृति छ अथवा एक प्रकारनो जीवनो परिणाम छे, तेनी साथै निधत्त-निषिक्त- निषेकने प्राप्त-जे आयु ते निर जातिनामनिधत्तायु' कहेवाय अने प्रतिसमये अनुभववा माटे कर्म पुदलोनी जे रचना ते निषेक केहवाय. [ 'गइनामनिधत्ताउए 'ति] गति एटले नैरयिक वगेरे चार प्रकारनी गति, बाकीनी व्युत्पत्ति पूर्वनी पेठे ज जाणवी. (ठिश्नामनिधताइए 'ति] कोर पण एक विवक्षित. स्थिति, अमुक-भवमां जीवन रहे, वा कर्मवेडे रहेg ते स्थिति कहेवाय, तेरूप जे नाम-एटले परिणाम-धर्म- तद्विशिष्ट-ते सहित--जे दलिकरूप निधत्व आयु ते स्थितिनामनिधत्तायु कहेवाय, अथवा आ सूत्रगां जाति नामर्नु, गति नाननु, अने अवगाहना नामर्नु ग्रहण करवाथी जातिनी, गतिनी १. जूओ भगवती सूत्र, खंड पीने (पृ. २७५-२७८):-अनु० . Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिमणीत भगवतीसूत्र, अने अवगाहनानी मात्र प्रकृति कही छे अने स्थितिनु, प्रदेशन तथा अनुभागनुं ग्रहण होवाथी तेओनी ज स्थिति यगेरे कही छे, ते स्थिति वगेरे जात्यादिनामनी संबंधी होवाथी नाम-कर्मरूप ज कहेवाय माटे बधे स्थळे कर्म अर्थमाळो 'नाम' शब्द घटे छे, तेथी स्थितिरूप नाम कर्म ते स्थितिनाम, तेनी साथे निधत्त जे आयु ते स्थितिनाम निधत्तायु कहेवाय. [ ' ओगाहणानामनिहत्ताउ 'त्ति ] जेमां जीव अवगाहे ते अवगाहना अवगाहना. एटले औदारिक वगेरे शरीर, तेनु नाम एटले (ते औदारिकादि शरीर नाम कर्म-) ते अवगाहना नाम अथवा अवगाहनारूप जे नाम एटले परिणाम त अवगाहनानाम, तेनी साथे जे निधत्त आयु ते अवगाहनानाम निधत्तायु. [ 'पएसनामनिधत्ताउए ' ति] प्रदेशोनु एटले आयुष्कर्मना प्रदेश. द्रव्योनु तेवा प्रकारने जे नाम-परिणमन ते प्रदेशनाग अथवा प्रदेशरूप जे एक प्रकारचें नामकर्म ते प्रदेशनाम, तेनी साथ निधत्त जे आयु ते प्रदेशनामनिधत्तायु. [ 'अणुभागनामनिवत्ताउए ' ति] अनुभाग एटले आयुष्कर्मना. द्रव्योनो विपाक, तेरूप ज जे नाम एटले परिणाम ते अनुभ ग. अनुभागनाम अथवा अनुभागरूप जे नामकर्म ते अनुभागनाम, तनो साथे निधत्त जे आयु ते अनुभागनामनिधत्तायु. शं०-आयुप्यने जात्यादिनाम शंका. कर्मवडे शा माटे विशेषित को को ? समा०-आयुष्कनी प्रधानता दर्शाववा माटे ज अहीं आयुषने विशेष्य राखीए छीए अने जात्यादि नामने समाधान, तेना विशेषण रूपे वापरीए छीए, अहीं आयुष्कनी प्रधानता दर्शाश्वानुं कारण ए छे के, नारकादि आयुष्नो उदय थ.य, त्यारे ज जात्यादि नामकानो उदय थाय छे अने एकलं आयुकर्म ज नैरिकादिना भवनु उपग्राहक होय छे, आ ज हकीकतने आ ग्रंथमा आगळ आप्रग जगावली छः "हे भगवन् ! नैरयिक, नैरयिकोमा उपजे छ ? के अनैरयिक नैरयिकोमा उपजे छे ? हे गौतम ! जे नैरयिक होय ते ज नैरयिकोगां नरमिक, उपजे छ पण अनेरयिक, नैरयिकमा उपजतो नथी. " आनुं तात्पर्य आ छे के, नैरयिक संबंधी आयुष्यने संवेदवाना प्रथम समये ज संवेदन करनारा ते ते जीयो-जेभो हजु नरकने पंथे पडेला छे-नरयिको कहेवाय छे, अने ए संवेदन समय ते नरयिक आयुष्यना सहचर पंचंद्रिय जात्यादि नामकोनो पण उदय थइ जाय हे, अहीं मूळमां प्रश्नकारे आयुष्ना बंधना छ प्रकार संबंधे पूलधुं छे तो पण उत्तरकारे जे आयुषना छ प्रकार कह्या आयुष्य अने तनो बंध. छे, तेनुं कारण मात्र ए ज के, आयुष अने बंध ए बन्ने बच्चे अन्यतिरेक-अमेर-छे एट ए वे बच्चे अहीं भेदभावने कल्प्यो नथी अने बंधा लं होय तो ज ' आयुष् ' ए प्रमागे व्यवहार थतो होवाथी — आयुष् ' शब्दना भावनी साथे ज ' बंध ' नो पण भाव भळलो छे. [ ' दंडओ' ति] "हे भगवन् ! नरयिकोने केटलाप्रकारनो आयुषबंध करो छ ? ” ए रीते नैरयिकथी मांडी मानिक सुधी चोवीश दंडक कहेबाना छे, माटे ज चोवीश दंडक. कहे छ के, आव वेमाणियाणं ' ति ] अहीं एक प्रकारना कर्मनो अधिकार होवाथी ते कर्मथी विशषित धरला जीवादिपदोना बार दंडकोने कार दंडकः हवे कहे छ:-[ जीवा णं भते' इत्यादि. ] [ ' जातिनामनिहत्त ' ति ] ओए जातिनाम निषिक्त कर्यु छ वा विशिष्ट बंधवारों को छ ते 'जातिनामनिधत्त' कहेवाय, ए प्रमाणे गतिनामनिधत्त, यावत् करवाथी · स्थितिनामनिधत्त, अवगाहनानामनिघत्त, प्रदेशनामनिधत अने अनुभागनामनिधत्त' एटलं अधिक जाणवू अने तेनी व्याख्या पण तेम ज जाणवी, विशेष ए के, जात्यादि नामोनी जे स्थिति, जे प्रदेशो तथा जे अनुभाग ते स्थित्यादिनाम, अवगाहनानाम अन शरीरनाग, आ एक दंडक वैमानिको सुधी जाणवो, तथा [ 'जातिनामनिहत्ताउय ' ति] प्रथम. जेओए जातिनाम साथ आयुने निधत. कयु छे ते जातिनामनिधत्तायुध कहेवाय, ए प्रमाणे बीजां पो पण जाणी लेवां, आ बीजो दंडक. [ 'एव- द्वितीप. मते दुवालस दंडग' ति] आ प्रकारे ए बार दंडक थाय छ, तेमा प्रथमना बे दंडक दाव्या छे तो पण संख्यापूर्ति माटे तेने फरीथी पण अहीं दर्शावे छः [ 'जातिनामनिधत्ता' इत्यादि.] एक दंडक, [जाइनामनिधचाउया' इत्यादि ] बीजो, 'हे भगवन् ! जीवो अ॒ जातिनामनियुक्त आयुषवाळा छ ?' इत्यादि चीजो, जातिनामनियुक्त एटले ओए ज.तिनामने नियुक्त-संबद्ध-यु- छ, निकाचित कयु छ अथवा तृतीच. वेदवामां नियोज्यु छ ते 'जातिनामनियुक्त :-ए प्रमाणे बीजां दो पण जाणयां, [जाइनामनिउत्ताउया' इत्यादि ] चोयो, तमां जेओए चतुर्व. जातिनामनी साथे आयु ने संबद्ध कवु छ, निकाचित कयु छ अथवा वेदवु शर कयु छ ते ' जातिनामनियुक्तायु' कहेवाय, ए प्रमागे वीजा पग पदो जाणी लेवां [ ' जाइगोयनिहत्ता' इत्यादि ] पांचो, तेमा जाति एटले एवं द्रियादिकायने लगती जाति अन गोत्र एटल ते एकेद्रियादि पचग. जातिने उचित नीच गोत्र वगरे; ते जाति अने गोत्र जेओए निधत्त कयु छे ते 'जातिगोत्रनिधत्त' कहेवाय, ए प्रमाणे बीजां पण पदो जाणी लेवा. [जाइगोयनिहत्ताउया' इत्यादि ] छटो, तेमां, जातिगोत्रनी साथे जेमओए आयुने निधत्त कयु छे ते आतिगोत्रनिधत्तायुष ' कहेवाय, ष४. एम अन्यपदो पण जाणवां. [ 'जाइगोयनिउत्ता' इत्यादि ] सातमो, तेमां जेओए जाति अने गोत्रने नियुक्त कर्यु छ तओ जातिगोत्रनियुक्त' सप्तम. कहेवाय, ए प्रमाण बीजा पण पदो जागी लेवा. [ ' जाइगोयनिउत्ताउया' इत्यादि ] आठमो, तेगा जोए जाति भने गोवनी सार्थ आयुएने अष्टन. नियुक्त कयु छे ते · जातिगोत्रनियुक्तायुष' कहवाय, एम बीजा पण पदो जाणवां. [ 'जाइनामगोयनिहत्ता' इत्यादि ] नवमो, तेमां जेओए नवम. जातिनाम अने गोत्रने निधत्त कर्यु छ ते । जातिनामगोत्रनिधत्त ' कहेवाय, 'ए प्रमाणे बीजां पण पदो जाणी लेया. 'हे भगवन् ! शुं जीवो जातिनामगोत्रनिधत्तायु छ ? ' इत्यादि द. मो, तेमां जेओर जातिनाम अने गोत्रनी साथे आयुने निधत्त कर्यु छ तेओ · जातिनामगोत्र- दशम. निधत्तायुष ' दाईवाय, ए प्रमाणे बीजां पण जाणवां. [ 'जाइनागगोयनिउत्ता' इत्यादि ] अग्यारमो, तेमा जेओए जातिनाम अने गोत्रने एकादशतम. नियुक्त कर्यु छ त । जातिनामगोत्र नियुक्त' कहेवाय, ए प्रमाण वीजा पण जागवां, । हे भगवन् ! जीवो शुं जातिनामगोबनियुत्तायुश्क हे?" इत्यादि बारमो दंडक, तेमां ओर जातिनाम अने गोवनी साथे आयुष्कने नियुक्त कर्य छे तेओ .जातिनामगोत्रनियुक्तायुष्क' कहेवाय, द्वादसतम. ए प्रमाण बीजां पण जागत्रा, अहिं जात्यादि. नागनुं अंने गोत्रनुं तथा आयुष्यन भवना उपग्रहमा प्रधानपणुं जणाववा माटे यथायोग जीवोंने विशेषित कर्या छ. बीजी वाचनाभां तो प्रथमना आठ दंडको ज देखाय छ. बीजी वाचना, लवण समुद्र. १९. प्र०-लवणे ण मंते ! समुद्दे कि उमिओदए, पत्य. १९. प्र--हे भगवन् ! शुं लवणसमुद्र उच्छळता पाणी डोदए; खुभियजले, अखुभियजले ? वाळो छ, समजल्याळो छ, क्षुब्धपाणीवाळो छे के अक्षुब्धपाणी वाळो छ। १. जओ भगवतीसूत्र, खंड बीजो (पृ.१३३-३४) अनु. १. मूलच्छाया:--लवणो भगवन् । समुद्रः किम् उचिनोदकः, प्रस्तृतोदक क्षुब्धजलः, अक्षुब्धजलः अनु० Jain Education international Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक -उदेशक-द. १९. उ०-गोयमा! लवणे णं समुदे उसिओदए, नो पत्थ- १९. उ०—हे गौतम ! लवणसमुद्र उच्छता पाणीवाळो डोदए; खुभियजले नो अखुभियजले; एतो आढत्तं जहा जीचा- छे पण समजळवाळो नथी अने क्षुब्धपाणिवाळो छ पण अक्षुब्ध भिगमे; जाव-से तेण गोयमा ! बाहिरिया णं दीव-समृदा पुना, पाणी वाळो नथी, अहिंथी शरु करी जेम जीवाभिगम सूत्रमा कर्जा पुचषमाणा, वोलट्टमाणा, पोसट्टमाणा, समभरघडताए चिट्ठति; छे तेम जाणवू यावत् ते हेतुथी हे गीतन! वहारना समुद्रो पूर्ण, संठाणओ एगविहंविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा: दगणा, पूर्णप्रमाणवाळा, वोलट्टता, छलकता अने समभर घटपणे रहे छे, दगणप्पमाणाओ, जाव-अस्सि तिरियलोए असंखेजा दीव-समदा संस्थानी एक प्रकारना स्वरूपवाळा छे, विस्तारथी अनेक प्रकारना सयंभरमणपजवसाणा पन्नत्ता समणाउसो ! स्वरूपवाळा छे, द्विगुण, द्विगुण प्रमाण यावत् आ तिर्यग्लोकमां असंख्येय द्वीप समुद्रो, स्वयंभूरमण समुद्रना अवसान-छेडा-वाळा, हे श्रमणायुप्मन् ! कह्या छे. २०. प्र०-दीव-समुद्दा णं भंते ! केवतिया नामधेज्जेहिं २०. प्र०—हे भगवन् ! द्वीपोनां अने समुद्रोनां केटलां नामपन्नत्ता ? धेय कहां छे ? २०. उ०-गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा, सुभा २०. उ०-हे गौतम! लोकमां जेटलां शुभ नाम, शुभ रूप, रूवा, सुभा गंधा, सुभा रसा, सुभा फासा एवतिया णं दीव- शुभ गंव, शुभ रस अने शुभ स्पर्श छे एटला, द्वंपिोनां अने समुद्दा नामधेजोहि पन्नत्ता; एवं नेयव्वा सुभा नामा, उद्धारो, समुद्रोनां नाम कह्यां छे, ए प्रमाणे शुभ नामो जाणवां, उद्धार परिणामो सव्वजीवाणं. जाणवो, परिणाम जाणवो अने सर्व जीयोनो द्वीपोमा अने सम् द्रोमां उत्पाद जाणवो. -सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे (एम कही यावत् विचरे छे.) भगवंत-अज्जसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते छहसये अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो. ३. पूर्व जीवा; स्वधर्मतः प्ररूपिताः, अथ लवणसमुद्रं स्वधर्मत एष प्ररूपयन्न हः-..'लवणे णं' इत्यादि. 'उरिसओदए ! त्ति उच्छितोदकः ऊर्ध्वं वृद्धिगतजलः, तद्धिश्च साधिकषोडशयोजनसहस्राणि. ' पत्थडोदए । त्ति प्रस्तृतोदकः-समजल इत्यर्थः. ' खुभियजले' ति वेलावशात् , वेला च महापातालकटशगतवायुक्षोभ.दिलि. 'एत्तो आढत्तंइत्यादि. इंतः सूत्रादारब्धम् , रद यथा जीवाभिगमे तथाऽध्येतव्यम्. तंचदम्: 'जहा णं भंते ! लवणसमुहे जासओदए, नो पत्थडोदए। खुभियजले, नो अखुभियजले; तहा णं वा हरगा समुदा कि उस्सिओदगा ? गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो उस्सिओदगा,, पत्थडोदगा,'नो खुभियजला, अखुभियजला; पु-णा, पुण्णप्पमाणा, वोलट्टमाणा, पोसट्टमाणा, समभरघडताए चिट्ठति. आत्थि गंमते ! लवणसमुद्दे बहवे उराला बलाहया संसेयंति, संमुच्छांत, वासं वासंति ? हंता, अत्थि. जहाणं भंते ! लवणे समुद्दे बहवे उराला, तहा णं बाहिरेसु वि समुद्देसु उराला ? णो इणढे समढे. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुथहः- बाहिरगा गं समुदा पुना, जाव-घडताए चिट्ठति ? गोयमा ! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहये उदगजोणाया जीवा य, पागला य उदगत्ताए पक्कमति, विउक्कमंति चयांत, उववज्जति. ' शेषं तु लिखितमेवास्ते, व्यक्तं चेदमिति. · संठाणओ' इत्यादि. एकेन विधिना प्रकारेण चक्रवाललक्षणेन विधान खरूपस्य करगं येषां ते एकविधविधानाः, विस्तारतोऽनेक विधिविधानाः; कुतः, इत्याहः-'दुगुण' इत्यादि. इह यावत्करणाद् इदं दृश्यम् " पवित्थरमाणा पवित्थरमाणा बहुउप्पल-पउम-कुमुय-नलिण-सुभग-सोगंधिय-पुंडरीय-महापुंडरीय--सयपत्त-सहस्सपत्त-केसरफुल्लोवइया " उत्पलादीनां केशरैः, फुल्लैश्चोपपेता इत्यर्थः. 'उब्भासमाणवड़िय' त्ति. 'सुभा नाम ' त्ति स्वस्तिक-श्रीवत्सादीने, 'सुभा रूवं त्ति शुक्ल-पीतादीनि, देवादीनि वा. 'सुभा गंध' त्ति सुरभिगन्धभेदाः, गन्धवन्तो वा कर्पूरादयः. 'सुभा रस' ति मधुरादयः, रसवन्तो वा शर्करादयः. 'सुभा फास' त्ति मदुप्रभृतयः, स्पर्शवन्तो वा नवनीतादयः. 'एवं नेयव्वा सुभा नाम ' त्ति एवमिति द्वीप १. मूलच्छायाः- गौतम ! लवणः समुद्र उच्छितोदकः, न प्रस्तृतोदकः; क्षुब्धजलः, न अक्षुब्धजलः; इत आरब्धम् यथा जीवाभिगमे, यावत् -तत् तेन गौतम ! बाद्या द्वीप-समुद्राः पूर्णाः, पूर्णप्रमाणाः, व्यपलोव्यमानाः, विकासमानाः, समभ घटतया तिष्ठन्ति; संस्थानत एकविधविधानाः, विस्तारतोऽनेकविधविधानाः; द्विगुणाः, द्विगुणप्रमाणाः, यावत्-अस्मिन् तिर्यग्लोके असंख्ये या द्वीप-ससुद्राः खयंभूरमणपर्यवसानाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् !. द्वीप-समुद्रा भगवन् ! कियन्तो नामधेयैः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! यावन्ति लोके शुभानि नामानि, शुभानि रूपाणि, शुभा गन्धाः, शुभा रसाः, शुभाः स्पर्शाः-एतावन्तो द्वीप-समुद्रा नामधेयैः प्राप्ताः, एवं ज्ञातव्यानि शुभानि नामानि, उद्धारः, परिणामः सर्वजीवानाम् तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् । इतिः-अन० . Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, समुद्राऽभिधायकतया नेतव्यानि शुभनामानि पूर्वोक्तानि, तथा 'उद्धारो'त्ति द्वीप-समुद्रेषु उद्धारो नेतव्यः. स च एवम्:-दीवसमुद्दा णं भंते ! केवइया उद्धारसमएणं पन्नत्ता ? गोयमा ! जावइया अडाइजाणं उद्धारसागरोवमाणं उद्धारसमया, एवइया दीव-समुदा उद्धारसमएणं पन्नत्ता.' येन एकैकेन समयेन एकैकं वालाप्रमुद्रियतेऽसौं उद्धारसमयः, अतस्तेन. तथा ' परिणामो' त्ति परिणामो नेतव्यः द्वीप-समुद्रेषु, स च एवम्:-' दीव-समुद्दा णं भंते ! किं पुढविपरिणामा, आउपरिणामा, जीवपरिणामा, पोग्गलपरिणामा ? गोयमा ! पुढविपरिणामा वि.' इत्यादि. तथा 'सव्वजीवाणं' ति सर्वजीवानां द्वीप-समुदेषु उत्पादो नेतव्यः, स चैवम्:-दीवसमुद्देमु णं भंते ! सचे पाणा, भूआ, जीआ, सत्ता पुढाविकाइयत्ताए, जाव-तसकाइयत्ताए उववनपुब्बा ? हता, गोयमा ! असह, अदुवा अणंतखुत्तो' ति. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे षछाते अष्टम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचितं विचरणं समाप्तम्, ३. पूर्वे जीवोर्नु प्ररूपण स्वधर्मथी-पोताना धर्मथी-कर्यु छे, हये ए स्वधर्मथी ज लवण समुद्रने प्ररूपता कहे छे: [ 'लवणे णं' इत्यादि.] लवण समुद्रनुं [' उस्सिओदए ' ति] उच्छितोदक-ऊर्ध्व वृद्धिप्राप्त पाणीवाळो-छलकतो, ते लवण समुद्रनी जलवृद्धि अधिकता साथे १६००० योजन छे. उच्छन्तुं पाणी. ["पत्थडोदए ' ति] प्रस्तृतोदक-समजलवाळो, [ 'खुभिअजले 'त्ति ] वेला-वळ-ना आववाथी लवण समुद्र क्षुब्धपाणीवाळो है. अने तमा ए वेळ तो महापाताळकलशमा रहेला वायुना क्षोभथी आवे छे. [ 'एतो आढत्तं ' इत्यादि.] आ सूत्रथी मांडीने जम : जीवाभिगम ' स्त्रमा जीवाभिगम. का छे तेम ते जाणवू. ते आ छे:-हे भगवन् ! जेम लवण समुद्र उठळता उदकवाळो छे पण समजल नथी अने क्षुब्धजलवाळो छ पण अक्षुब्धजळवाळो नथी तेम बहारना समुद्रो शुं उच्छळता जळयाळा छे ? समजळ्वाळा छ ? ; क्षुब्धपाणीवाळा छ ? के अक्षुब्ध पाणीवाळा छ ?, हे गौतम ! बहारना समुद्रो उच्छळता पाणीवाळा नथी पण समजळवाळा छे अने क्षुब्धजळवाळा नथी पण अक्षुब्धजलवाळा छे. पूर्ण, पूर्णप्रमाण, वोलट्टमान, वोसट्टमान अने समभर घटपणे रहे छे. हे भगवन् ! लवण समुद्रमा घणा मोटा मेघो संस्वेदे छे, संमूछे छे अने वर्षण वर्षे छ ?, हा, (गौतम ! ) तेम थाय छे; हे भगवन् ! जेम लवण समुद्रमा घणा मोटा मेघो छ तेम बहारना समुद्रोमां पण मोटा मेघो छ ?, (हे गौतम ! ) आ बहारना समुद्रो. अर्थ समर्थ नथी, हे भगवन् ! ते क्या हेतुथी दम कहो छो के, बहारना समुद्रो पूर्ण यावत् समभर घटपणे रहे छे ?, हे गौतम ! बाहिरना समुद्रोमा घणा उदकयोनिक जीवो अने पुद्गलो उदकपणे अपक्रम छ, व्युत्क्रम छे, च्यवे छे, अने उत्पन्न थाय छे" बाकी- तो लखेलुज छे, अने आ बधुं स्पष्ट छे. [ ' संठाणओ' इत्यादि.] जेओनु स्वरूप-विधान-एक चक्रवालरूपे छे ते 'एकविधविधान ' कहेवाय, ए समुद्रो विस्तारथी चक्रवाल. अनेक प्रकारना स्वरूपवाळा छ, शाथी छ ? तो कहे छे के [ 'दुगुण-इत्यादि. ] अहिं यावत्-शब्द मूकवाथी अधिक पाठ आ प्रमाणे जाणवोः- द्विगुण. "ए समुद्रो प्रविस्तरता प्रविस्तरता छ, घणां उत्पल, पन, कुमुद, नलिन, सुंदर अने सुगंधिवाळा पुंडरीक महापुंडरीक, शतपत्र अने सहस्रपत्रना केसरोवडे अन फुल्लोवंडे उपपेत छ अर्थात् उत्पलादिना केसरोवडे अने फुल्लोबडे ते समुद्रो युक्त छ, [' उन्भासमाणवीइय' ति] अर्थात् ए समुद्रोना तरंगो-वीचिओ--अवभासमान छ, [ 'सुभा नाम 'त्ति ] स्वस्तिक अने श्रीवत्स वगेरे सुंदर शब्दो, [ 'सुभा रूव ' त्ति ] शुक्ल अने शभ नाम-रूप. पीत वगेरे सुंदर रूपना सूचक शब्दो, अथवा देवादिना सुंदर रूप वाचक शब्दो, [ 'सुभा गंध ' त्ति ] सुरभि-सारा गंधना वाचक शब्दो अथवा शुभ गंध. सारा गंधवाळा कपूर वगैरे पदार्थोना वाचक शब्दो [ ' सुभा रस 'त्ति ] मधुर-गळ्यो-वगेरे रसना सूचक शब्दो अथवा साकर वगेरे रसवाळा शभ रस. पदार्थीना वाचक शब्दो, [ 'सुभा फास ' ति] अने मृदु-पोचो-बंगरे स्पर्शाना सूचक शब्दो अथवा मृदु स्पर्शवाळा नवनीत वगैरे पदार्थोना शभ स्पर्श. वाचक शब्दो समुद्रोनां नाम तरीके वपराय छ अर्थात् संसारमा जेटलां सारां सारां नामो छे ते बघांनो उपयोग समुद्रोनां नाम तरीके थाय छे. ['एवं नेयव्वा सुभा नाम 'त्ति ] ए प्रमाणे ए बधां पूर्वोक्त शुभ नामोने द्वीपना अने समुद्रनां वाचकपणे जाणवा. तथा, [ ' उद्धारो' चि] उद्धार. द्वीपोमां अने समुद्रोमां उद्धार लेवो-कहेवो,-ते उद्धार आ प्रमाणे छे:-हे भगवन् ! द्वीपो अने समुद्रो द्धार समयवडे केटला कह्या छे ?, हे गौतम!' अड्डी उद्धार सागरोपमना जेटला उद्धारसमयो थाय एटला द्वीपो अन समुद्रो उद्धार समयवडे कह्या छे." जे एक एक समये एक एक वाळनो अग्रभाग उद्धराय-बहार कढाय ते समय उद्धार समय कहेवाय, ते वडे, तथा, [ 'परिणामो ' त्ति ] द्वीपोमा अने समुद्रोमा परिणाम जाणवो, परिणाम, ते आ प्रमाणे छ:-" हे भगवन् ! द्वीपो अने समुद्रो शुं पृथिवीना परिणामवाळा छे ? पाणीना परिणामवाळा छे ? जीवना परिणामवाळा छ ? के पुदलना परिणामवाळा छे ? हे गौतम | पृथिवीना परिणामबाळा पण छे, इत्यादि. तथा ['सव्वजीवाणं' ति] द्वीपोमां अने समुद्रोमां सर्वजीवोनो उत्पाद कहेवो, ते आ प्रमाणे छ:-" हे भगवन् ! द्वीपोमा अने समुद्रोमां सर्व प्राणो, भूतो, सत्त्वो अने जीवो पृथिवीकायिकपणे यावत्- उत्पाद. घसकायिकपणे पूर्व उत्पन्न थएला छे ? हा, गौतम ! अनेकवार अथवा अनंतवार उत्पन्न थएला छे." बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिषसुखं मारहा चासमुख्यः॥ १. जूमो जीवाजीवाधिगम नमी प्रतिपत्ति बीजी-(५० ३२०-३२१-७० ) अनु. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ९. ण . -एक वर्ण अने अनेक न, दवीने के येमांना कोसना १० अने स्पर्शनापुद्गलो ने लइने ते प शानावरणीय कर्म बांधतां साथे बीजी केटली कर्मप्रकृति बंधाय ? सात-आठ के छ.-बंधोद्देशक-प्रज्ञापना.-महर्षिक देव बहारनां पुद्गलोने लीधा सिवाय विकुर्वण करे -ना.-बहारनां पुद्गलोने लइने विकुर्वण करे.-इहगत-तत्रगत-अन्यत्रगत पुद्गोमांना तत्रगत पुद्गलोने लइने विकुर्वण. - एक वर्ण अने अनेक रूपना चार विकल्प.- देव, काळा पुद्गलने नील रूपे वा नीलपुद्गलने काळ को परिगत परे ?-पुद्गलो ने लइने तेरे परिणाम करे.-रीते गंध-रस भने स्पर्शनी पण परिणामांतर.-वर्णना १० विकल्प.-गंधना १-रसना १० अने स्पर्शना चार विकरा.-अविशुद्ध लेश्यावाळो देव असमव हत आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाळा देवने, देवीने के बेमांना कोइ एकने जाणे-ना.-ए त्रणे पदना बार विकल्प.-आटमा न जाणे अने छेछा चारमा जाणे.१. प्र०-जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणे १.प्र०-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मने बांधतो जीव कति कम्मप्पगडीओ बंधति ? केटली कर्म प्रकृतिओने बांधे छे ? १.उ०-गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अढविहबंधए वा, १. उ०-हे गौतम ! सात प्रकारे बांधे छे, आठ प्रकारे छविहबंधए वा; बंधुद्देसो पन्नवणाए नेयब्वो. बांधे छे अने छ प्रकारे पण बांधे छे, अहिं 'प्रज्ञापना' उपांगमां कहेलो बंध उद्देशक जाणवो. ..दीपादिषु जीवाः पृथिव्यादित्वेन उत्पन्नपूर्वाः '-इत्यष्टमोद्देशके उक्तम् , नवमे तु उत्पादस्य कर्मबन्धपूर्वकत्वाद असावेव प्ररूप्यते-इत्येवंसंबन्धस्याऽस्य इदमादिसूत्रम्:-' जीवे णं' इत्यादि. ' सत्तविहबंधए ' त्ति आयुरबन्धकाले, ' अट्टविहबंधए ' त्ति आयुबन्धकाले, 'छ.वहबंधए ' ति सूक्ष्मसंपरायाऽवस्थायां मोहा-ऽऽयुषोरबन्धकत्वात्. ' बंधुआँसो' इत्यादि. बन्धोदेशकः प्रज्ञापनायाः संबन्धी चतुर्विंशतितमपदात्मकोऽत्र स्थाने नेतन्योऽध्येतव्यः, स चायम्:- नेरईए णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणे कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ ? गोयमा ! अहरिहबंधगे वा, सत्तविहबंधगे वा, एवं जाव-वेमाणिए, नवरं-मणुस्से जहा जीवे.' इत्यादि. १. जीवो द्वीपोमां अने समुद्रोमां पृथिव्यादिपणे पूर्व उत्पन्न थएला छ' ए हकीकत आगळना आठमा उद्देशकमां जणावी छे. जीवो जे जूदे जूदे रूपे भिन्न भिन्न गतिमां उपज्या करे छे तेनुं कारण तो तेओए करेलो कर्मबंध छे, माटे हवे आ नवमा उद्देशकमां ए कर्मबंध संबंधे कर्मबंध. निरूपण करवानुं छे. आ उद्देशकनु आदि सूत्र आ छेः-[ ' जीवे णं' इत्यादि. ] [ ' सत्तविहबंधए ' त्ति ] ज्यारे आयुष्यनो बंघकाळ न होय सप्तविधबंध. त्यारे सात प्रकारे कर्मने बांधे छ, [ अट्टविहबंधए ' त्ति ] आयुष्यना बंधकाळमां आठ प्रकारे कर्मने बांधे छे, [छविहबंधए ' ति] अष्टविध भने षड्विध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकनी अवस्थामां मोहनीयकर्मने अने आयुष कर्मने बांधतो न होवाथी छ प्रकारे कर्मने बांये छे. [* बंधुद्देसो' इत्यादि.] बंध. आ बंधोद्देशक श्रीप्रज्ञापना' सूत्रना चोवीशमा पदमां आयेलो छे, ते आखाने अहीं समजवान' छे अने तेनो टुकसार आ प्रमाणे प्रज्ञापना. छ:-" हे भगवन् । ज्ञानावरणीय कर्मने बांधतो नै यिक केटली कर्मप्रकृतिने बांधे छ । हे गौतम ! आठ प्रकारे कर्मने बांधे छे वा सात प्रकारे कर्मने बांधे छे, ए ऽमाणे यावत् वैमानिक सुधी जाणवू, विशेष ए के, जेम जीवो माटे कयुं तेम मनुष्यो माटे जाणवू" इत्यादि. .. मूलच्छायाः-जीवो भगवन् ! ज्ञानावरणीयं कर्म बनन् कति कर्मप्रकृतीः बध्नाति ? गौतम । सप्तविधयन्धको वा, अष्टविधयन्धको षा, 'षड् विधगन्धको वा; बन्धोद्देशः प्रज्ञापनायाः ज्ञातव्यः-अनु० १.प्र. छाया:-नैरयिको भगवन् ! ज्ञानावरणीयं कर्म बध्नन् कति कर्मप्रकृतीबंध्नाति ? गौतम ! अष्टविधवन्धको वा, सप्तविधबन्धको वा, एवं यावतू-वैमानिकः, नवरम्-मनुष्यो यथा जीव:-अनु. 1. आ बंधोदेशक, प्रज्ञापना सूत्रमा पृ० ४९१-४९४ सुधीमां ( स०) आवेलो छ:-अनु० Jain Education international Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक ९. महर्द्धिक देव अने विकुर्वण. २. प्र० --'देवे णं भंते ! महिड्डीए, जाव-महाणुभागे बाहि- २. प्र. - हे भगवन् ! महर्षिक यावत् महानुभागवाळो देव रए पोग्गला अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं, एगरूवं विउवित्तए? बहारनां पुद्गलोने ग्रहण कर्या सिवाय एकवर्णवाळा अने एक आकार वाळा स्वशरीर वगेरेनुं विकुर्वण करवा समर्थ छे ? २. उ०-गोयमा ! णो तिणढे समझे. २. उ०-हे गौतम ! आ अर्थ समर्थ नथी. ३. प्र०-देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू ? ३. प्र०—हे भगवन् ! ते देव बहारनां पुद्गलोने ग्रहण करीने तेम करवा समर्थ छे ? ३. उ०-हंता, पभू. ३-उ०—(हे गौतम!) हा, समर्थ छे. ४. प्र -से ण भंते । किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता वि- ४. प्र०-हे भगवन् ! ते देव शुं इहगत-अहिं रहेलाउव्वति, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वति, अन्नत्थगए पुद्गलोनुं ग्रहण करीने विकुर्वण करे छे ? तत्रगत-त्यां (देवलोकमां) पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति ? रहेला-पुद्गलोन ग्रहण करीने विकुर्वण करे छे ? के अन्यत्रगतकोइ. बीजे ठेकाणे रहेलां-पुद्गलोनू ग्रहण करीने विकुर्वण करे छे ? ४. उ०-गोयमा! नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउ. ४. उ०—हे गौतम ! अहिं रहेलां पुद्गलोनुं ग्रहण करीने विकुवर्ण व्वति, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्यति, नो अन्नत्थगए करतो नथी अने बीजे ठेका गे रहेलां पुद्गलोर्नु ग्रहण करीने विकुवर्ण पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति एवं एएणं गमेणं जाव-एगवन करतो नथी पण त्यां देवलोकमा रहेलां पुगनुं ग्रहण कारीने एगरूवं, एगवन्नं अणेगरूवं, अणेगवन्नं एगरूवं, अणेगवनं अणेग- विकुवर्ण करे छे. ए प्रमाणे ए गमवडे यावत् १ एकवर्णवाळा एक रूवं-चउभंगो. आकारने, २ एकवर्णवाळा अनेक आकारने, ३ अनेकवर्णवाळा एक आकारने अने ४ अनेकवर्णवाळा अनेक आकारने विकुवैत करवा शक्त छे-ए प्रमाणे चार भांगा जाणवा. ५. प्र०-देषे णं भंते ! महिडीए, जाव-महाणुभागे बा- ५. प्र०—हे भगवन् ! महर्धिक यावत् नहानुभागवाळो देव हिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पम् कालगपोग्गलं नीलयपोग्गलत्ताए बहारनां पुद्गलोने ग्रहण कर्या सिवाय काळा पुद्गलने नीलपुद्गलपणे परिण,मेत्तए, न लग ग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? परिणमाववा अने नील.पुगलने काळापुद्गलपणे परिणमावत्रा समर्थ छे? ५. उ०-~गोयमा ! णो तिणद्वे समढे. परियाइत्ता पभू. ५. उ०-हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी, पण पुद्गलोन ग्रहण करीने तेम करवा समर्थ छे. ६. प्र०-से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले० ? ६. प्र०—हे भगवन् ! शुं ते देव इहगतादिपुद्गलोने ग्रहण करीने तेम करवा समर्थ छे ? ६. उ०-तं चेव, नवरं-परिणामेति त्ति भाणियव्वं; एवं ६. उ०-(हे गौतम!) पूर्व प्रमाणे ते ज समजवु, विशेष ए कालगपोग्गलं लोहियपोग्गलत्ताए, एवं कालगएणं जाव- के 'विकुर्वे छे' ने बदले ‘परिणमावे छे' एम कहे, ए प्रमाणे सुकिल्लं, एवं णीलएणं जाव-सुक्किलं, एवं लोहियपोग्गलं काळा पुद्गलने लालपुद्गलपणे, ए प्रमाणे काळापुद्गलनी साथे यावत् सुकिल्लत्ताए, एवं हालिदएणं जाव- सुकिल्लं, तं एवं एयाए परिवा- शुक्ल, ए प्रमाणे नीलनी साथे यावत् शुक्ल, ए प्रमाणे लालपुद्गलने डीए गंध रस-पास कक्खडफासपोग्गलं मउय-फासपोग्गलत्ताए, यावत् शुक्लपणे, ए प्रमाणे हारिद्रपुद्गल साथे यावत् शुक्ल, ते ए १. मूलच्छायाः-देवो भगवन ! महर्षिकः, यावत्-महानुभागो याह्यान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुरेकवर्णम् , एकरूपं विकुर्वितुम् ? गौतम ! न तदर्थः समर्थः. देवो भगवन् ! बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः ? हन्त, प्रभुः. स भगवन् ! किम् इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति, तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्चति, अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुति ! गौतम ! न इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति, तत्रगतान पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति, न अन्यत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वतिः एवम् एतेन गमेन यावत्-एकवर्णम् एकरूपम्, एकवर्णम् अनेकरूपम् , अनेकवर्णम् एकरूपम् , अनेक वर्णम् अनेकरूपम् , चतुर्भङ्गः देवो भगवन् ! महर्धिकः, यावत्- महानुभागो बाह्यान् पुर्लान् अपर्यादाय प्रभुः कालक् पुद्गलं नीलकपुद्गलतया परिणमयितुम् , नीलकपुद्गलं वा कालकपुद्गलतया परिणमयितुम् ? गौतम ! न तदर्थः समर्थः. पर्यादाय प्रभुः. स भगवन् । किम् इहगतान पुगलान ०? तचैव, नवरम्:-परिणमयति-इति भणितव्यम् ; एवं कालकपुद्गलं लोहित पुद्गलतया, एवं कालककेन यावत्-शुक्लम्, एवं नीलकेन यावत्-शुक्लम् , एवं लंहितपुरलं यावत् - शुक्लतया, एवं हारिद्रकेण यावत्-शुक्लम् । तदेवम् अनया परिपाट्या गन्धरस-स्पर्श०फर्कशस्पर्शपुद्गलं मृदुकस्पर्शपुकूलतयाः-अनु. Jain Education international Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३३९ एवं दो दो गरुयलहुय-सीयउसिण-णिद्धलुक्खवन्नई सव्वत्थ प्रमाणे ए क्रमवडे गंध, रस अने स्पर्श संबंधे समजवु यावत् कर्कशपरिणामेइ. आलावगा दो दो-पोग्गले अपरियाइत्ता, परियाइत्ता. स्पर्शवाळा, कोमळ स्पर्शवाळा पुद्गलपणे (परिणमावे.) ए प्रमाणे बे बे विरुद्ध गुणोने-गुरुक अने लघुक, शीत अने उष्ण, स्निग्ध अने रूक्ष-वर्णादिने सर्वत्र 'परिणमावे' छे. परिणमावे छे ए कियाना अहीं बबे आलापक कहेवाः एक तो, पुद्गलोनुं ग्रहण करीने परिणमावे छे, अने बीजो पुद्गलोनुं ग्रहण नहि करीने नथी परिणमावतो. २. जीवाऽधिकाराद देवजीवमधिकृत्याहः-'देवे णं' इत्यादि. 'एगवनं' ति कालादि-एकवर्णम्, एकरूपम्-एकविधाऽऽकार स्वशरीरादि. ' इहगए 'त्ति प्रज्ञापकाऽपेक्षया इहगतान् प्रज्ञापकप्रत्यक्षा-ऽऽसन्नक्षेत्रस्थितान् इत्यर्थः. 'तत्थगए। ति देवः किल प्रायो देवस्थान एव वर्तते इति-तत्र गतान् देवलोकादिगतान् ; ' अण्णस्थगए' ति प्रज्ञापकक्षेत्रात् , देवस्थानाचाऽपरत्र स्थितान् ; तत्र च स्वस्थान एवं प्रायो विकुर्वते, यतः कृतोत्तरवैक्रियरूप एव प्रायोऽन्यत्र गच्छतीति · नो इहगतान् पुद्गलान् पर्यादाय ' इत्यायुक्तमिति. 'कालयं पोग्गलं नीलपोग्गलत्ताए' इत्यादी काल-नील-लोहित-हारिद्र--शुक्ललक्षणानां पञ्चानां वर्णानां दश द्विकसंयोगसूत्राणि अध्येयानि. 'एवं एयाए परिवाडीए गंध-रस-फास-' ति इह सुरभि-दुरभिलक्ष गगन्धद्वयस्य एकमेव, तिक्त-कटु कषाया ऽम्ल-मधुररसलक्षणानां पञ्चानां रसानां दश द्विकसंयोगसूत्राणि अध्येयानि, अष्टानां च स्पर्शानां चत्वारि सूत्राणि-परस्परविरुद्धेन कर्कश-मद्वादिना द्वयेन एकैकसूत्रनिष्पादनाद् इति. २. जीवनो अधिकार चालतो होवाथी देवना जीवने ज उद्देशीने कहे छः [ देवे णं' इत्यादि.] ['एगवन्नं ' ति ] 'काळो' वगेरे एकवर्ष. अनेक वर्षों छे तेमांना कोइ एक वर्णवाळू, एक रूप-- एक प्रकारना आकारवाढं-पोतानुं शरीर वगेरे. [' इहगए' ति] प्रश्न करनारनी अपेक्षाए एकरूप. इहगत-प्रश्न करनारने प्रत्यक्ष एवा नजीकना क्षेत्रमा रहेलां-पुद्गलोने, [' तत्थगए 'त्ति ] जाजे भागे देवो देवस्थानमां ज रहे छे माटे देवलोक वगेरेमा रहेलां पुद्गलोने, [ 'अण्णत्थगए' ति] प्रज्ञापकनुं क्षेत्र अने देवर्नु स्थान, ए वे स्थानोथी बीजे स्थाने हेला पुद्गलोने. देवो जाजे भागे पोताना स्थानमा ज विकुर्वणा करे छे, कारण के, जेणे उत्तरवैक्रिय रूप कर्यु छ एवो ज देव घणुं करीने बीजे स्थाने जाय छ, माटे एम को छे के, 'अहिं रहेलां पुद्गलोनुं ग्रहण करीने विकुर्वण न करी शके. ' [ 'कालयं पोग्गलं नीलपोग्गलत्ताए ' इत्या दे. ] आ सुत्रमा काल, नील, पुद्गलनो परिणाम. लोहित, हारिद्र अन शुक्ल खरूप पांच वर्णानां द्विक संयोगवाळा दश सूत्रो कहेबां. [' एवं एयाए परिवाडीए गंध-रस-फास-'त्ति ] आह सुरभि वर्णसूत्र-१०. अने दुरभि स्वरूप बे गंधेनुं एक ज सूत्र छे, तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल अने मधुर रसरूप पांच रसोनां द्विकसंयोगना दश सूत्रो कहेवां, आठ गंधसूत्र-१-रसभूत्र १० स्पर्शीनां चार सूत्रो कहेवां, कारण के, परस्पर विरुद्ध कर्कश अने मृदु वगेरे बे स्पर्शो वडे एक एक सूत्रनुं निष्पादन थाय छे अर्थात् बे स्पर्शन मन एक सूत्र थतुं होवाथी आठ स्पर्शनां चौर सूत्र थाय छे. १. मूलच्छायाः-एवं द्वौदी-गुरुकलघुक-शीतोष्ण-स्निग्धरूक्षवादीन् सर्वत्र परिणमयति, आलापका द्वै दा-पुद्गलान् अपादाय, पादायः-अनु० १. पांच वर्णना दस विकल्प आ प्रमाणे छः १ काळाने नील रूपे. ६ नीलने हारिद्र रूपे. २ , लोहित, ३ , हारिद्र ८ लोहितने हारिद्र रूपे. १० हारिद्रने शुक्ल रूपे. ६ कटुने अम्ल रूपे. ५ नीलने लोहित रूपे. २. बे गंधनो एक विकल्पः १ सुगंधने दुर्गधरूपे अथवा दुर्गधने सुगंधरूपे. ३. पांच रसना दस विकल्पः तिक्तने कटु रूपे. , कषाय,. ३ , अम्ल ,. ४ , मधुर,. ५ कटुने कषाय रूपे. ४. आठ स्पर्शना चार विकल्पः १ गुरुने लघु रूपे. २ शीतने उष्ण रूपे. अथवा ३ स्निग्धने रूक्षरूपे. है कर्कशने कोमळ रूपे. ८ कषायने अम्ल रूपे. ९ , मधुर,. १० अम्लने मधुर रूपे. १ लधुने गुरु रूपे. २ उष्णने शीत रूपे. ३ रूक्षने स्निग्ध रूपे. ४ कोमळने कर्कश रूपे:-अनु० . Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० शतक ६.-उद्देशक ९. श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहेदेव जाणे अने जूए. ७. प्र०- आदिसुद्धलसे गं भंते! देव असम्मोहएणं अप्पा- ७. प्र०-हे भगवन् ! अविशुद्ध लेश्यावाळो देव अनुपयुक्त णएणं अविसुद्धलेसं देवं, देविं, अन्नयरं जाणति, पासति ? आत्मावडे अविशुद्ध लेश्याबाळा देवने, वा देवीने, वा अन्यतरने ते बेमांना एकने-जाणे छे ? जूए छे ? ७. उ०-णो तिणद्वे समढे; एवं २ असुद्धलेसे असम्मोह- ७. उ०—(हे गौतम !) ए अर्थ समर्थ नथी. ए प्रमाणे २ एणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं, ३ अविसुद्धलेसे सम्मोहएणं अ- अशुद्ध लेश्यावाळो देव अनुपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं, ४ अविसुद्धलेसे देवे सम्मोहएणं देवने, देवीने, वा अन्यतरने जागे, जूए ? ३ अविशुद्धलेश्यावाळो अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं, ५ अविसुद्धलेसे समोहया-उसम्मोहप- देव उपयुक्त आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देवने इत्यादि, ४ अप्पाणेणं अविसुद्धलेसे देवं, ६ अविसुद्धलेसा समोहया-ऽसम्मो- अविशुद्ध लेश्यावाळो देव उपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा हएणं विसुद्धलेसं देवं, ७ विसुद्धलेसे असम्मोहएणं अविसुद्धलेसे देवने इत्यादि, ५ अविशुद्ध लेश्यावाळो देव उपयुक्तानुपयुक्त देवं, ८ विसुद्धलेसे असम्मोहेणं विसुद्धलेसं देवं. आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देवने इत्यादि, ६ अविशुद्ध लेश्यावाळो उपयुक्तानुपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा देवने इत्यादि, ७ विशुद्ध लेश्यावाळो अनुपयुक्त आत्मावडे अविशुद्ध लेश्याबाळा देवने इत्यादि, ८ विशुद्ध लेश्यावाळो अनुपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा देवने इत्यादि. ८. प्र०-९ विसुद्धलेसे णं भंते ! देवे समोहएणं अवि- ८. प्र०—हे भगवन् ! विशुद्ध लेश्यावाळो देव उपयुक्त सुद्धलेसं देवं जाणइ ? आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे ? ८. उ०—हंता, जाणइ. ८. उ०—(हे गौतम ! ) हा, जाणे. ९. प्र०–एवं १० विसुद्धलेसे समोहएणं विसुद्धलेसं देवं ९. प्र०-ए प्रमाणे, (हे भगवन् ! ) १० विशुद्ध लेश्याजाणइ ? वाळो देव उपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे? ९. उ०–हता, जाणइ. ९. उ०-(हे गौतम ! ) हा, जाणे. १०. प्र०-११ विसुद्धलेसे समोहयाऽसमोहएणं अविसुद्ध- १०. प्र०-११ विशुद्ध लेश्यावाळो, देव उपयुक्तानुपयुक्त लेसं देवं ? १२ विसुद्धलेसे समोह याऽसमोहएणं विसुद्धलसं देवं ? आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देव वगेरेने इत्यादि, तथा १२ विशुद्ध लेश्यावाळो देव उपयुक्तानुपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे ! जूए ? १०. उ०—एवं हेडिल्लएहिं अट्टाहिं न जाणइ, न पासइ; उवरिल्लएहिं चाहिं जाणइ, पासह, १०. उ०-ए प्रमाणे नीचला आठ एटले शरुआतना आठ भांगा वडे जाणे नहि, अने जूए नहि अने उपरना चार एटले पाछळना चार भांगा वडे जाणे अने जूए. --हे भगवन्! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे (एम कही यावत् विहरे छे.) --सेवं भंते !, सेवं भंते ! त्ति. भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते छसये नवमो उद्देसो सम्मत्तो. १. मूलच्छायाः-अविशुद्धलेइयो भगवन् ! देवोऽसमवहतेनाऽऽत्मनाऽविशुद्धलेश्यं देम , देवीम् , अन्यतरं जानाति, पश्यति ? न तदर्थः समर्थः, एवम् अशुद्धलेश्योऽसमवहतेनाऽऽत्मना विशुद्धलेश्यं देवम् , अविशुद्धलेश्यः समवह तेनाऽऽत्मनाऽविशुद्धलेश्वं देवम, अविशुद्धलेश्यो देवः समवहतेनाऽऽत्मना विशुद्धलेइयं देवम , अविशुद्धलेश्यः समवद्दता-ऽसमवह तेनाऽत्मना अविशुद्धलेश्यं देवम् , अविशुद्धलेश्यः समवहता-ऽसमवहतेन विशुद्धलेश्यं देवम् , विशद्धलेइयोऽसमवहतेनाऽऽश्मनाऽविशुद्धलेश्यं देवम् , विशुद्धलेश्योऽसमवहनेन (आत्मना) विशुद्धलेश्गं देवम् . विशुद्धलेश्यो भगवन् । देवः समवहतेन (आत्मना ) अविशुद्धलेश्यं देवं जानाति ? हन्त, जानाति. एवम्-विशुद्धलेश्यो देवः समवहतेन (आत्मना) विशुद्धलेश्वं देवं जानाति ! हन्त, जानाति. विशुद्धलेश्यः समवहताऽसमवहतेन (आत्मना) अविशुद्धलेश्यं देवम् ? विशुद्धलेश्यः र.मबहता- समवहतेन विशुद्धलेश्यं देवम् ? एवम् अधस्तनरष्टभिर्न जानाति, न पश्यति; उपरितनश्चतुर्भिर्जानाति, पश्यति. तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् । इतिः-अनु० . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, ३४१ ३. देवाधिकाराद् इदमाह:--' अविसुद्ध-' इत्यादि. अविसुद्धलेसे गं' ति अविशुद्धलेश्यो विभङ्गज्ञानी देवः, 'असम्मोहएणं अप्पाणणे ' ति अनुपयुक्तेन आत्मना, इहाऽविशुद्धलेश्यः, असमवहतामा देवः, अविशुद्धलेश्यं देवादिकम्-इस्यस्य पदत्रयस्य द्वादश विकल्पा भवन्ति, तद्यथाः- 'अविसुद्धलेसे णं देवे असम्मोहएणं अप्पाणएण अविसुद्धलेस्सं देवं जाणह, पासइ ? णो इणद्वे समढे, इत्येको विकल्पः. 'अविसुद्धलेसे असम्मोहएणं विसुद्धलप्तं देवं ? णो इणव समद्वे' इति द्वितीयः. 'जविसुद्धलेसे समोहएणं आविसुद्धलेसं देवं ? णो इणढे समढे ' ति तृतीयः. ' अविसुद्धलेसे सम्मोहएणं विसुद्धलेसं देवं ? नो इणढे समढे ' ति चतुर्थः. ' आविसुद्धलेसे सम्मोहया-ऽसम्मोहएणं अप्पाणेणं मषिसुद्धलेसं देवं ? णो इणढे समढे ' ति पञ्चमः. अविसुद्धलेसे सम्मोहयाऽसंमोहेणं विसुद्धलेसं देवं ? णो इणढे समढे' ति षष्ठः. विसुद्धलेसे असम्मोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ? नो इणद्वे समष्टे' ति सप्तमः. 'विसुद्धलेसे असम्महिएणं विसुद्धलेस्सं देवं ? णो इण? समढे' ति अष्ठमः. एतैरष्टभिर्विकल्पैने जानाति, तत्र षड्भिमिथ्यादृष्टित्वात्, द्वाभ्यां तु अनुपयुक्तत्वाद् इति. ' विसुद्धलसे सम्मोहएणं अयिसुद्धलेसं देवं नाणइ ? हंता, जाणइ ' इति नवमः, 'विसुद्धलेसे सम्मोहएणं विखुद्धलेसं देवं जाणइ ? हंता, जाणड़' इति दशमः. ' विसुद्धलेसे समोहया- संमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं जाणइ ? हंता, जाणइ' त्ति एकादशः. 'विसुद्धलेसे समोहया-समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं जाणइ ? हंता, जाणड़' चि द्वादशः. एभिः पुनश्चतुर्भिर्विकल्पैः सम्यग्दृष्टित्वाद् उपयुक्ता-ऽनुपयुक्तत्वाच्च जानाति, उपयोगा-अनुपयोगपक्षे उपयोगांऽशस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादिति. एतदेवाहः---' एवं हेडिलोहि' इत्यादि. वाचमान्तरे बु सर्वमेवेदं साक्षाद दृश्यते इति. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीते श्रीभगवती सूत्रे षष्ठशते नवम उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचितं विवरणं समाप्तम्. ३. देवनो अधिकार होवाथी हवे आ सूत्र कहे छः [ ' अविसुद्ध-' इत्यादि.][ अविसुद्धलेसे णं' ति ] विशुद्ध लेश्या विनानो विभंग ज्ञानी देव, [ ' असम्मोहएणं अप्पाणेणं ' ति ] अनुपयुक्त आत्मावडे, अहिं १ अविशुद्धलेश्य, २ असमवहतात्मा देव अने ३ अविशुद्धलेश्य देवादिक, ए त्रण पदना बार विकल्प थाय छ, ते जेमके; १ अविशुद्धलेश्यावाळो देव अनुपयुक्त आत्मावडे अविशुद्धलेश्यावाळा देवन, देवीन बार विकल्प. वा बेमांथी कोइने जाणे ? जूए ? ए अर्थ समर्थ नथी-ए एक विकल्प थयो, अविशुद्धलेश्यावाळो अनुपयुक्त आत्मावडे विशुद्धलेश्याबाळा देवने देवीने वा बेमांथी कोइने जाणे ! जूए ! ए अर्थ समर्थ नथी-ए प्रमाणे बीजो विकल्प, अविशुद्धलेश्यावाळो उपयुक्त आत्माबडे अविशुद्धलश्यावाळा देव वगेरेने जाणे ? जूए ? ए अर्थ समर्थ नथी-ए बीजो विकल्प, अविशुद्धलश्यावाळो उपयुक्त आत्मावडे विशुद्धलेल्यावाळा देव वगेरेने नाणे ? जूए ? ए अर्थ समर्थ नथी-ए चोथो विकल्प थयो, अविशुद्धलेश्यावाळो उपयुक्तानुपयुक्त आत्मावडे अविशुद्धलेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे ? जूए ? ए अर्थ समर्थ नथी, ए पांचमो विकल्प थयो, अविशुद्धलेश्यावाळो उपयुक्ताऽनुपयुक्त आत्मावडे विशुद्धलेश्यावाळा देव वगैरेने जाणे ? जूए ? ए अर्थ समर्थ नथी-ए छट्ठो विकल्प थयो, विशुद्धलेश्यावाळो अनुपयुक्त आत्मावडे अविशुद्धलेश्यावाळा देव वगेरेने ज.णे ? जूए ? ए अर्थ समर्थ नथी-ए प्रमाणे सातमो विकल्प थयो, विशुद्धलेश्यावाळो अनुपयुक्त आत्मावडे विशुद्धलेश्यावाळा देव वगेरेने आणे ? जूए ? आ अर्थ समर्थ नथीए आठमो विकल्प थयो. आ आठ विकल्पोबडे जाणतो नथी, कारण के, ते आठ विकल्पोमांना छ विकल्पोमां आवता देवर्नु मिथ्याटिपणुं छ मिथ्यादृष्टि, अने बाकीना छेल्ला बे विकल्पमा आवता देव- अनुपयुक्तपणुं छे. विशुद्धलेश्यावाळो उपयुक्त आत्मावडे अविशुद्धलेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे ? जूए ? हा, जाणे, जूए-ए नवमो विकल्प, विशुद्धलेश्यावाळो उपयुक्त आत्मावडे विशुद्धलेश्यावाळा देव वगेरेने जाण मूए ? हा, जाणे-ए दशमो विकल्प, विशुद्धलेश्यावाळो उपयुक्तानुपयुक्त आत्मावडे अविशुद्धरेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे ? जूए ? हा, जाणे-ए अग्यारमो विकल्प थयो अने विशुद्धलेश्यावाळो उपयुक्तानुपयुक्त आत्मावडे विशुद्धलेश्यावाळा देव वगैरेने जाणे ? जूए ? हा, जाणे-ए बारमो विकल्प थयो. आ चार विकल्पोवडे जाणे, कारण के, आ चार विकल्पोमां जाणनारनुं सम्यग्दृष्टिपणुं छः ए, उपयुक्तानुपयुक्त-एम बे प्रकारनो छे तेथी म एनो उपयोगांश, एना उपयोगांश. सम्यग्ज्ञाननी प्रतीति करावे छे–उपयोग अने सम्परान बच्चे परस्पर कार्य-कारणनो संबंध होवाथी ज ए उपयोग, सम्यग्ज्ञान, एंधाण होइ शके छे. ए ज वातने कहे छे के, [ 'एवं हेटिलेहि ' इत्यादि. ] बीजी' वाचनामां तो आ बधो पाठ साक्षात् मूळमां ज देखाय छे. बीजी वाचना. घेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणामा परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥ १. टीकाकारश्रीना कहेवा प्रमाणे अहीं ३४० मा पृष्ठ उपर जणावेलं मूळ-ते बीजी वाचनानु होवू जोईए:-अनु० . Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक १०. अन्यतोथिंको.-कोलास्थिकमात्र.-निष्पावमात्र.-कलममात्र.-माषमात्र.-मुद्गमात्र,-यूकामात्र.-लिक्षामात्र.-भगवान् महावीरनुं प्ररूपण.-देवतुं अने गंधनां सूक्ष्मतम पुद्गलोर्नु उदाहरण.-जीव ए चैतन्य छ ? के चतन्य ए जीय छे ।-बन्ने परस्पर एकरूप हे.- वैमानिको सुधी ए जातनो विचार-जीवे छे ए जीव छे ? के जीव छे त जीवे छ ?-जीवे छे ते तो जीव ज छ अने जीव तो जीवे पण अने न पण जीवे-प्राण धारण करे. सिद्धजीव.-वैमानिको सुधी ए विचार.नरयिक अने भवसिद्धिक.-वधा जीवो एकांत दुःसने वेदे छे-एको अन्यतीथिकमत.-भगवान् महावीरनुं प्ररूपण-कोइ जीवो कांत दुःखने, कोइ एकांत सुखने अने कोइ सुखदुःखमिश्र वेदनाने वेदे छे. ते ते जीवोनों नामग्राह निर्देश.-नरयिक अने तना आहारपुद्गलो.- ए प्रमागे यावत्-वैमानिक.केवली आदानो-मंद्रियो-द्वारा जाणे-जूए ?-ना.-केयलिनुं अमित शान.-निर्वृत दर्शन -संग्रहगाथा -षष्ठ शतक समाप्त. १.प्र०—अन्नउस्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव- १. प्र०-हे भगवन् ! अन्यतीथिको ए प्रमाणे कहे छे यावत् परूवात जावंतिया राय गहे नयरे जीवा, एवइयाणं जीवाणं प्ररूपे छे, के राजगृहनगरमा जेंटला जीवो छे, एटला जीवाने कोई नो चकिया के इ सुहं वा, दुहं वा; जाव-कोलढिगमायमवि, बारना ठळीया जेटलु पण, वाल जेटलं पण, कलाय के चोखा जेटलं निप्प वमायमवि, कल(म)मायमवि, मासमायमवि, मुग्गमायमधि, पण, अडद जेटलं पण, मग जेटलं पण,जू जेटलं पण अने लीख जेटलु जयामायमवि, लिक्खामायमवि अभिनिवत्ता उवदंसित्तए-से पण सुख या दुःख काढीने देखाडवा समर्थ नथी, हे भगवन् ! कहमेयं भंते ! एवं ए ते केवी रीते एम होइ शके ? १.८०-गोयगा! जनं ते अन्नउत्थिए एवं आइक्खइ, १. उ०—हे गौतम! ते अन्यतीर्थको जे ए प्रमाणे कहे छे, जाव-मिच्छं ते एवं आहिंसु, अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, यावत् प्ररूपे छे ते ए प्रमाणे मिथ्या, खाटुं कहे छे, हे गैःतम! हुं जाव-परूवेमि सदलोए वियणं सबजविाणं णो चकिया, के वळी आ प्रमाणे कहुं छं यावत् प्ररूपुंछु के सर्व लोकमां पण सर्वए: सुहं वा, तं चेव, जाव- उवदसित्तए. जीवोने कोइ सुख वा दुःख ते ज यावत् काढीने दर्शाववा समर्थ नथी. २. प्र०-से केणटेणं ! २. प्र०-(हे भगवन् !) ते शा हेतुथी ? २. उ०-गोयमा ! अयं न जंबुद्दीवे दीवे, जाव-विसेसा- २: उ०—हे गौतम ! आ जंबूदीप नामनों द्वीप यावत् परिहिया परिवखवेण पन्नत्ता; देवे णं महिडीए, जाव-महाणुभागे क्षेपवडे विशेषाधिक कह्यो छे, महर्धिक यावत् महानुभावबाळे देव एगं महं, सविलेवणं, गंधस मुग्गगं, गहाय तं अवद्दालेति, तं एक, मोटो, विलपनवाळा गंधवाळा द्रव्यना डाबडा लइने उघाडे अवद्दालेता जाव-इणामेव कटु केवलकप्पं जबुद्दीवं दीवं तिहिं अने तेने उघाडी यावत् 'आ जाउं छु' एम कही संपूर्ण जंबूद्वीपने अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियहित्ता णं हव्वं आगच्छेज्जा, त्रण चपटीवडे २१ बार फरी शीघ्र पाछा आवे, हे गोतम ! ते ." १. मूलच्छायाः -अन्ययूथिका भगवन् !.एम् आख्यान्ति, यावत्-प्ररूपयन्ति यावन्तो राजगृहे नगरे जीवाः, एतावतां जीवानां न शक्नुयात् कोऽपि सुखं वा, दुःखं वा; यावत्-कुवल स्थिकमात्रमपि, निष्पावमात्रमपि, कलाय लम)मात्रमपि, माषमात्रमपि, मुद्गमात्रमपि, यूकामात्रमपि, लिक्षामात्रमपि अभिनिर्वृत्य उपदर्शयितुम्-तत् कथमेतद् भगवन् ! एवम् ? गौतम ! यत् ते अन्ययूथिका एवम् आख्यान्ति, यावत्-मिथ्या ते एवम् आहुः, अहं 'पुनौतम ! एवम् आख्यामि, यावत्-प्ररूपयामि सर्वलोकेऽपि च सर्वजीवानां न शक्नुयात् , कोऽपि सुखं वा, तच्चव, यावत्-उग्दर्शयितुम्. तत् केनाऽर्थेन ? गैतम-1 अयं जम्बूद्वीपो द्वीपः, यावत्-विशेषाऽधिकः परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, देवो महर्षिकः, यावत्-महानुभाग एक- महत् , सविलेपनम्', गन्धसमुद्गकं गृहीत्वा तम् अवदारयति, तम् अवदार्य, यावत्-इदमेवं कृत्वा केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं . त्रिभिश्चप्पुटिकानिपातैत्रिसप्तवारम् अनुपर्यट्य शीघ्रम् आगच्छेत् :-अनु. Jain Education international Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि निष्पाव-कलाय यूका. सार. ३४४ श्रीरामचन्द्र - विनागमसंग्रहे शतक ६.- उद्देशक १०. ! से पूर्ण गोयमा से केवलकन्ये अंपूदीचे दीये तिहि पाणपोगलेहिं संपूर्ण जंबूद्दीपनामनेो द्वीप, (ते देवनी आवी शीप्रगतिथी उडेला ) फुडे हंता, फुढे चक्रिया गं गोयमा केपति तेसिं पाणपोग्गलाण से गंध पुद्गलोना स्पर्शयाळो थयो के नहि हा स्पर्शपयो कोलट्ठिमायमवि जाव-उवदंसित्तए ! णो तिणद्वे समट्टे से तेणट्टे णं हे गौतम! कोइ ते गंधपुद्गलोने बोरना ठळीया जेटला पण यावत् जाव-उवसेत्तए. दर्शी समर्थ छे! ए अर्थ समर्थ नथी. ते हेतुश्री मुखादिने पण यावत् दर्शाववा समर्थ नथी. " , , १. प्रागविशुद्धलेश्पस्य ज्ञानाभाव उक्तः, अथ दशमोदेशकेऽपि समेव दर्शयन् इदमाह-अस्थि इत्यादि नो पक्षिय ति न शक्नुयात 6 जाव - कोलट्ठियमायमवि' ति आस्तां बहु, बहुतरं वा; यावत् कुत्रलाऽस्थिकमात्रमपि तत्र कुत्रलास्थिकं ' वल्लः, त्ति कलायः, बदरफुकम् निप्पाच ति वह कल ति काय जूस चि यूका, अयं णं इत्यादि दृष्टान्तोपनय एवम्:- यथा गन्धपुखानाम् अतिसूक्ष्मत्वेनाऽमूर्तकस्यायात् कुपास्थिकमात्रादिकं न दर्शयितुं शक्यते, एवं सर्व जीवानां मुखस्य दुःखस्य चेति " " ' १. गलनामा उद्देशकां विशुद्धयाळाने शनो अमाय को छे, हवे आ] दशम उद्देशक्रमां पण ते ज ज्ञानमा अभावने लगती वातने दर्शाता आ-- ' अन्नउत्थि ' इत्यादि ] सूत्र कहे छे, [ 'नो चैकिय ' त्ति ] शक्तिमान् न थाय, [' जाव कोलद्वियमायम बि ' त्ति ] पशुं अथवा बारे जानुं रहो अर्थात् पानी तो बात जशी करवी पण यावत्पलास्विक जलं पण ते कुलास्थित एटले बोरगो उलीयो [शिवाय चि] निप्पायरले बाल. 'कल' चि] बस पटले कलाय. [ जूप चि] वूफा एट जू. [ अर्थ पं इत्यादि इतनसार आप्रमाणे मी गंधनांद्रो अमूर्त तुल्य होवाथी मोरना उठीचा बंगरे जेटली पण ते पुद्गलोने दर्शाववा कोइ शक्त नथी ए प्रमाणे सर्व जीवोने सुख अने दुःख दर्शाववा कोइ शक्त नथी. 3 " " जीव. २. प्र० ] संतें जी जी जी ? ३. उ०- गोयमा ! जीवे, ताव नियमा जीवे, जीवे वि, नियमा ज ४. प्र० - जीवे णं भंते ! नेरइए, नेरइए. जीवे ? ४. उ०- गोवमा । नेरहए ताच नियमा जीने जीने पुण सिय नेरइए, सिय अनेरईए. ५. प्र० - जीणं भवे ! असुरकुमारे, असुरकुमारे जीये ५. उ०- गोयमा ! असुरकुमारे नाव नियमा जीव जीवे पुण सिव असुरकुमारे, लिय जो असुरकुमारे; एवं दंडओ भाणि यत्रो, जाव- वेमाणियाणं. ३. प्र० - हे भगवन् ! शुं जीव जीव ( चैतन्य ) छे ? के चैतन्य जीव छे ! ३. उ०- हे गौतम! जीव तो नियमे चैतन्य-जीव छे अने जीव-चैतन्य पण नियमे जीव छे. ४. २०-हे भगवन् ! जीव नैरथिक छे के नैरविक जीव रहे हैं ४. उ० - हे गौतम! नैरयिक तो नियमे जीव छे अने जीव तो नैरविक पण होय तथा अनैरविक पण होय. ५. प्र०-हे भगवन्! जीव असुरकुमार हे के अमुर? कुमार जीव छे ? ५. उ० - हे गौतम! असुरकुमार तो नियमे जीव छे अने जीप तो असुरकुमार पण होय तथा असुरकुमार न पण होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. १ मूलच्छाया:- तद् नूनं गौतम ! स केदलको जम्बूदीपो द्वीपस्तेघ्राणपुद्गलेः स्पृष्टः ? हन्त, स्पृष्टः शक्नुयात् गौतम! कश्चित् तेषां प्राणपुलानां साविकमामपि यावद-उपदर्शवितदर्थ समर्थन या उपदर्शवितुम् अनु० १. आ 'चडिया' रूप, ' सक्किया' नुं रूपांतर छे. सूत्रोनी छेली वाचना वलभीपुर-वळा - ( साराष्ट्र) मां थएली होवाथी ए संभव छे के, ए वाचनानी भाषा उपर, ए बलभीनी वा तेनी आसपासना प्रदेशनी असर थाय, अने ए असरना परिणामे ज ' सक्किया' नुं ' चक्किया श्रयुं जणाय छे. वर्तमानमा पण वलभीपुर अने तेनी आसपासना प्रदेशना रहेवासिओ ' स' ने बदले 'च' नो उच्चार करे छे:- अनु० १. छावा जोग जीवाम अरकुमारो जीवः गौतम यापद वैमानिकानाम् जीवा, जीव, जीवः १ गीतम! जीवस्ताब [नियमाजीव, जीयोऽपि नियमाद जीवः जीव भगवन्! [रविस्टा नियमाद्वनवाद नैरविकः स्याद् अनैरवि भगवन् कुमारः कुमारखाविसमा जीव जीवः पुनराअरमान असुकुमारः एवं दण्डको तिम्यः ', Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ६.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३४५ ६.प्र०—जीवति भंते ! जीवे, जीवे जीवति ? ६.प्र०—हे भगवन् ! जीवे-प्राणघारण करे-ते जीव कहेवाय ? के जीव होय ते प्राणधारण करे? ६. उ०-गोयमा ! जीवति ताव नियमा जीवे, जीवे पुण ६. उ०-हे गौतम ! प्राणधारण करे ते नियमे जीव कहेवाय सिय जीवति, सिय नो जीवति. अने जे जीव होय ते प्राणधारण करे पण खरो अने न पण करे. ७. प्र०-जीवति भंते । नेरइए, नेरइए जीवति ? ७.प्र०--हे भगवन् ! प्राणधारण परे ते नैरयिक कहेवाय ? के नैरयिक होय ते प्राणघारण करे ? । . ७. उ0-गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवति, जीवति पुण ७. उ०.हे गौतम! नैरयिक तो नियमे प्राण धारण करे सिय नेरइए, सिय अनेरइए; एवं दंडओणेयव्यो, जाव-वेमाणियाणं. अने प्राण धारण करनार तो नैरयिक पण होय अने अनैरयिक पण ... होय, ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. ८.प्र०-भवसिद्धिए णं भंते | नेरइए, नेरइए भवसिद्धिए? ८.प्र०—हे भगवन् ! भवसिद्धिक नैरयिक होय ? के नर यिक भवसिद्धिक होय ? . ८. उ०-गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अने- ८. उ०-हे गौतम ! भवसिद्धिक नैरयिक पण होय अने अरइए; नेरहए वि य सिय भवसिद्धीए, सिय अभवसिद्धीए; एवं नैरयिक पण होय तथा नैरयिक भवसिद्धिक पण होय अने अभवदंडओ, जाव-वेमाणियाणं. सिद्धिक पण होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. २. जीवाधिकाराद एव इदमाह:-'जीवे णं भंते । जीवे? जीवे जीवे ?' इह एकेन जीवशब्देन जीव एव गृह्यते, द्वितीयेन च चैतन्यमित्यतः प्रश्नः. उत्तरं पुनः जीव-चैतन्ययोः परस्परेणाऽविनाभूतत्वाद जीवश्चैतन्यमेव, चैतन्यमपि जीव एव-इत्येवमर्थम् अवगन्तव्यम्. नारकादिषु पदेषु पुनर्जीवत्वम् अव्यभिचारि, जीवेषु तु नारकादित्वं व्यभिचारि-इत्यत आहः-'जीवे णं भंते ! नेरइए ? ' इत्यादि. जीवाधिकाराद् एव आह:-'जीवति भंते ! जीवे, जीवे जीवड़ ? त्ति जीवति प्राणान् धारयति यः स जीवः, उत यो जीवः स जीवति ? इति प्रश्नः. उत्तरं तु यो जीवति स तावनियमाजीवः. अजीवस्य आयुष्कर्माऽभावेन जीवत्वा(ना)ऽभावात् , जीवस्तु स्याज्जीवति स्यान्न जीवति, सिद्धस्य जीवनाऽभावादिति. नारकादिस्तु नियमाज्जीवति-संसारिणः सर्वस्य प्राणधारणधर्मकत्वात्. जीवतीति पुनः स्यान्नारकादिः, स्यादनारकादिरिति; प्राणधारणस्य सर्वेषां सदभावादिति. २. जीवनो अधिकार चालु होवाथी ज आ सूत्र कहे छः [ 'जीवे णं भंते जीवे जीवे जीवे ?' ] अहिं बे वार जीव शब्दनो प्रयोग थयो छे, तेमां एक जीव ' शब्दथी जीव ज ग्रहवो अने बीजा जीव' शब्दथी चैतन्यनुं ग्रहण करवू, एम करवाथी जीव ए चैतन्य छे?' जीव, के ' चैतन्य ए जीव छ ? ए जातनो प्रश्न थाय छे अने उत्तर तो आ प्रमाणे जाणवानो छे के, जीव चैतन्यरूप ज छे अने चैतन्य पण जीव ज छे, कारण के, जीव अने चैतन्य परस्पर अविनाभूत-एक विना बीजु न होइ शके-रही शके एवां-छ. नैरयिक वगेरे पदोमां तो जीवत्व अव्यभिचारि-कायम रहेनालं-छे पण जीवोमां नैरयिकादिपणुं व्यभिचारि-होय पण अने न पण होय एवं-छ माटे कह छ, जीवे भंते ! नेरइए ?' इत्यादि.] जीवनो अधिकार चालु होवाथी ज आ सूत्र कहे छे, [जीवइ भंते ! जीवे, जीवे जीवइ ?' ति] जे जीव-प्राणाने धारण करे-ते जीवति. जीव ? के जे जीव छ त प्राणोने धारण करे ? ए प्रमाण प्रश्न छ, उत्तर तो आ प्रमाणे छ के, ज प्राणोने धारण कर ते नियमे जीव कहेवाय, पण अजीव तो जीव न कहवाय, कारण के, अजीवने आयुष्कर्म नथी होतुं तेथी ज ते प्राणर्नु धारण नथी करतो अने जे जीव छ ते तो कदाच प्राणोने धारण करे अने कदाच प्राणोने धारण न करें, कारण के, सिद्धपदप्राप्त व्यक्ति पण जीव छे अने तेने जीवन-प्राणर्नु धारण-नथी. तथा नैर-नि यिकादिपदप्राप्त व्यक्ति पण जीव छे अने ते नियमे प्राणनुं धारण करे छे, कारण के, सर्व संसारिओनो धर्म प्राण धारण करवानो छे. वळी, जे जीवे-प्राण धारण करे-ते नैरयिकादि होय पण खरो अने न पण होय एटले अनरयिकादि पण होय, कारण के सर्व जीवोने प्राण प्राणधारण, धारणनो सद्भाव छे. अन्ययथिको ९.प्र०-अन्नउत्थिया णं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव- ९.प्र०—हे भगवन् ! अन्यतीथिको ए प्रमाणे कहे छे यावत् परूवति एवं खलु सब्वे पाणा, भया, जीवा, सत्सा एगंतदुक्खं प्ररूपे छे के, ए प्रमाणे निश्चित छे के, सर्व प्राणो, भूतो, जीवा वेयणं वेयंति, से कहमेयं भंते । एवं ! अने सत्त्वो एकांत दु.खरूप वेदनाने वेदे छे, हे भगवन् ! ते ए एवी रीते केम होय? १. मूलच्छाया:-जीवति भगवन् ! जीवः, जीवो जीवति ? गौतम ! जीवति तावद् नियमाद् जीवः, जीवः पुनस्स्याद् जीवति, स्याद् न जीवति. जीवति भगवन् ! नैरयिकः, नैरयिको जीवति ? गौतम ! नर यिकस्तावद् नियमाद् जीवति, जीवति पुनस्याद् नैरयिकः, स्याद् अनैरयिक , एवं दण्डको ज्ञातव्यः, यावत्-वैमानिकानाम्. भवसिद्धिको भगवन् ! नैरयिकः, नैरयिको भवसिद्धिकः ? गीतम! भवसिद्धिकस्स्याद् नैरयिकः, स्याद् अनैरयिकः, नरयिकोऽपि च स्याद् भवसिद्धिकः, स्याद् अभवसिद्धिकः, एवं दण्डकः, यावत्-वैमानिकानाम्. २. अन्य यूथिका भगवन् ! एवम् आख्यान्ति, यावत् .. प्ररूपयस्ति-एवं खल सर्वे प्राणाः, भूताः, जीवाः, सत्त्वा एकान्तदुःखां वेदनां वेदयन्ति, तत् कथमेतद् भगवन् ! एवम् ! :-अनु० Jain Education international Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ६.-उद्देशक १०. ९. उ०-गोयमा ! जनं ते अन्नउत्थिया, जाव-मिच्छं ९. उ०—हे गौतम! ते अन्यतीर्थिको जे काइ यावत् कहे छे ते एवं आहिंसु, अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि, जाव- ते ए प्रमाणे मिथ्या कहे छे, हे गौतम! वळी, हुं आ प्रमाणे कहुं छु परूवेमि-अत्यंगइया पाणा, भूया, जीवा, सत्ता एगंतदुक्खं वेयणं यावत् प्ररूपुंछ के, केटलाक प्राणा, भूतो, जीवो अने सत्वो एकांत वेयंति, आहच सायं; अत्थेगतिया पाणा, भूया, जीवा सत्ता दुःखरूप वेदनाने वेदे छे अने कदाचित् सुखने वेदे छे, तथा केटएगंतसायं वेयणं वेयंति, आहच अस्सायं वेयणं वेयंति; अत्थे- लाक प्राणा, भूता, जीवा अने सत्त्वो एकांत सुखरूप वेदनाने वेदे छे गइया पाणा, भूया, जीवा, सत्ता वेमायाए वेयणं वेयंति, आहञ्च अने कदाचित् दुःखने वेदे छे, बळी, केटलाक प्राणा, भूतो, जीवो सायमसायं. अने सत्त्वो विविध प्रकारे वेदनाने वेदे छे एटले छे कदाचित् सुखने अने कदाचित् दुःखने वेदे छे. १०. प्र०-से केणद्वेण । १०. प्र०--(हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? १०. उ०-गोयमा ! नेरइया एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति- १०. उ०-हे गौतम ! नैरयिको एकांत दुःखरूप वेदनाने आहच सायं, भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया एगंतसायं वेदणं वेदे छे अने कदाचित् सुखने वेदे छे, भवनपतिओ, वानव्यतरो, वयी, आहच असाय; पुढविक्काइया, जाव-मणुस्सा वेमायाए ज्योतिप्को अने वैमानिको एकांत सुखरूप वेदनाने वेदे छे अने कदावेयणं वयंति, आहच सायमसायं-से तेणद्वेणं. चित् दुःखने वेदे छे. पृथिवीकायथी मांडी यावत् मनुष्यो सुधीना जीवो विविधप्रकारे वेदनाने वेदे छे एटले कदाचित् सुखने अने दुःखने वेदे छे, ते हेतुथी पूर्वे ए प्रमाणे कर्जा छे, ३. जीवाऽधिकारात् तद्गतामेव अन्यतीर्थिकवक्तव्यतामाहः-' अन्नउत्थिया' इत्यादि. ' आहच सायं' ति कदाचित् साता वेदनाम् , कथम् इति चेत् ! उच्यते:-" उववारण व सायं नेरइओ देवकम्मुणा वा वि." 'आहच्च असायं' ति देवा आहनन-प्रियविप्रयोगादिषु असातां वेदनां वेदयन्तीति. 'मायाए 'त्ति विविधया मात्रया कदाचित् साताम् , कदाचिद असाताम् इत्यर्थः. ३. हवे जीवनो अधिकार होवाथी ते जीव परत्वे ज अन्यतीर्थिकोनी वक्तव्यता कहे छ, [ 'अन्नउत्थिया' इत्यादि.] आहन्च सुख. सायं ' ति ] कदाचित् सुखने-शाता वेदनाने, ए प्रमाणे केवी रीते छ ? तो कहे छ के, “ नैरयिक जीव उपपातवडे-तीर्थकरना जन्मादि देवनो प्रयोग. प्रसंगने लीधे-तथा देवना प्रयोगद्वारा कदाचित् सुखने वेदे छे." [' आहच्च असायं' ति ] देवो परस्परना आहननमा अने प्रिय दुःख. वस्तुना वियोगादिमां असाता-दुःखरूप वेदनाने कदाचिद् वेदे छ, [ 'वेमायाए ' त्ति ] विविधमात्राए एटले कोइ दिवस सुखने अने कोइ दिवस दुःखने वेदे छे. नैरयिकादिनो आहार. ११. प्र०-नैरइया! णं भंते ! जे पोग्गले अत्तमायाए आ- ११. प्र० -- हे भगवन् ! नैरयिको आत्मद्वारा ग्रहण करी हाति त कि आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहाति, जे पुद्गलोने आहरे छे ते शुं आत्मशरीर क्षेत्रावगाढ पुदगलोने अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति; परंपरखेत्तोगाढे आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरे छे ? के अनंतरक्षेत्रावगाढ पुदगलोने पोग्गले अत्तमायाए आहारति ? आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरे छे ! के परपर क्षेत्रावगाढ पुद्गलाने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरे छे ? ११. 30-गोयमा ! आयसरीरखेत्तोगाढे पोरगले अत्तमायाए ११. उ०-हे गौतम ! आत्मशरीर क्षेत्रावगाढ पुदगलाने आहारैति, नो अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारोति, आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरे छे अने अनंतरक्षेत्रावढि पुदगलाने नो परंपरखेत्तोगाढे; जहा नेरइया तहा जाव-वेमाणियाणं दंड ओ. आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरता नथी, तेम ज परंपर क्षेत्रावगाढ १. मूलच्छायाः-गौतम ! यत् ते अन्ययूथिकाः, यावत्-मिथ्या ते एवम् आहुः, अहं पुनगौतम ! एवम् आख्यामि, यावत्-प्ररूपयामिअस्त्येककाः प्राणाः, भूताः, जीवाः, सवा एकान्तदुःखां वेदनां वेदयन्ति-आहत्य - सातम्, अस्येककाः प्राणाः, भूताः, जीवाः, सवा एकान्तसाता वेदनां वेदयन्ति-आहत्य असातं वेदना, वेदयन्ति; अस्त्येककाः प्राणाः, भूताः, जीवाः, सत्या विमात्रया वेदना वेदयन्ति आहत्य साता-ऽसातमू. तत् केनाऽर्थन ? गौतम ! नैरयिका एकान्तदुःखां वेदनां वेन्यन्ति, आहत्य सातम् , भवनपति-बानव्यन्तर-जोतिष्क-वैमानिका एकान्तसातां वंदनां वेदयन्ति, आहत्याऽसातम् । पृथिवीकायिकाः, यावत् - मनुष्या विमात्रया वेदनां वेदयन्ति, आहत्य साता-5सातम्-तत् तेनाऽर्थनः-अनु० १. प्र. छाया:-उपपातेन वा सात नैरयिको देवकर्मणा वाऽपिः-अनु० १. मूलच्छाया:-रयिका भगवन् ! यान् पुद्गलान् आत्मना आदाय आहरन्ति ते किम् आत्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आत्मना आदाय आहरन्ति, अनन्तरक्षेत्रावगाढान् पुद्गलान् आत्मना आदाय आहरन्ति; परंपराक्षेत्रावगाढान् पुद्गलानात्मना आदाय आहरन्ति ! गौतम ! आत्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुगलान् आत्मना आदाय आहरन्ति, न अनन्तरक्षेत्रावगाढान् पुगलान् आत्मना आदाय आहरन्ति, न परंपराक्षेत्रावगाढान यथा नैरयिकास्तथा यावतू-वैमानिकानां. दण्डकः-अनु० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ पण शतक ६.-उद्देशक १०. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरता नथी. जेम · नैरयिको परत्वे कयुं तेम यावत् वैमानिको सुधी दंडक कहेवो. ४. जीवाधिकाराद एवेदमाहः-' नेरइया णं' इत्यादि. ' अत्तमायाए ' त्ति आत्मनाऽऽदाय गृहीत्वा इत्यर्थः. 'आयसरीरखेत्तोगाढे' ति स्वशरीरक्षेत्रेऽवस्थितान् इत्यर्थः, ' अणंतरखेत्तोगादे' ति आत्म-शरीरावगाहक्षेत्राऽपेक्षया यदनन्तरं क्षेत्र तत्राऽवगाढान इत्यर्थः. 'परंपरखेत्तोगाढे' ति आत्मक्षेत्राद यत्परं क्षेत्रं तत्रावगाढान् इत्यर्थः. ४. जीवनो अधिकार होवाथी ज आ सूत्र कहे छः [' नेरइया णं' इत्यादि. ] [ ' अत्तमायाए ' त्ति ] आत्मद्वारा ग्रहण करीने. . ['आयसरीरखेत्तोगाढे ' ति] पोताना शरीरक्षेत्रमा रहेलां पुद्गलोने, [ 'अणंतरखेत्तोगाढे ' त्ति ] आत्मशरीरावगाह क्षेत्रनी आत्मशरोरक्षेत्र. अपेक्षाए जे अनंतर क्षेत्र-तेमां रहेल पुद्गलोने, [ ' परंपरनेत्तोगाढे ' त्ति ] आत्मक्षेानी अनंतरना क्षेत्रथी जे पर क्षेत्र ते परंपरक्षेत्र, तेमां अनंतर अने परंपर क्षेत्र. अवगाढ-रहलां-पुद्गलोने. केवली अने इंद्रियो. १२. प्र०-केवली णं भंते ! आयाणेहि जाणति, पासति ? १२. प्र०—हे भगवन् ! केवलिओ इंद्रियोद्वारा जागे? जूए ! १२. उ०-गोयमा! नो तिणद्दे समढे. १२. उ.-हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. १३. प्र०-से केणड्डेणं ! १३. प्र०-हे ( भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ? १३. उ०-गोयमा। केवली णं पुरथिमणं मियं पिजाणइ, १३. उ०—हे गौतम ! केवली पूर्वमा मितने पण जाणे अने अमिय पि जाणइ, जाव-निव्वुडे दंसणे केवलिस्स, से तेणद्वेणं. अमितने पण जाणे यावत् केवलिनुं दर्शन निवृत छे, ते हेतुथी एम छे. गाहा: 'जीकाण य सुहं दुक्खं जीधे जीवति तहेव भविया य, -गाथा:-जीवानुं सुख अने दुःख, जीव, जीवनुं प्राणधारण, तेम एगंतदुक्खं वेयण-अत्तमायाय केवली.. ज भव्यो, एकांत दुःखवेदना, आत्मद्वारा पुद्गलोनुं ग्रहण अने केवली (आटला विषय संबंधे आ दशम उद्देशामां विचार को छे.) -सेवं भते 1, सेवं भंते ! त्ति. -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. ( एम कही विहरे छे.) भगवंत-अजसुहम्मसामिपणीए सिरीभगवईसुत्ते छट्ठसये दसमा उद्देसो सम्मत्तो. ५. 'अत्तमायाए ' इत्युक्तम् , अत आदानसाधात् केवली णं' इत्यादि सूत्रम् , तत्र च ' आयाणेहिं ' ति इन्द्रियैः. दशमोदेशकार्थसंग्रहगाथा:-'जीवाण' इत्यादि-गतार्था. प्रतीत्य भेदं किल नालिकेरं षष्ठं शतं मन्मतिदन्तभञ्जि, तथापि विद्वत्सभसच्छिलायां नियोज्य नीतं स्व-परोपयोगम्. ५. [' अत्तमायाए '] एटले ' आत्मद्वारा आदान-ग्रहण-करी ' एम कयुं छे माटे आदानना साधर्म्यथी ( केवलिना आदानने लगतुं) [' केवली णं' इत्यादि ] सूत्र का छे अने तेमां [' आयाणेहिं ' ति ] आदान-इंद्रियो-वडे, [ ' जीवाण' इत्यादि ] गापा दशम उद्देशना केवली अने आदान. अर्थनी संग्राहिका छे अने ते गतार्थ छे. शिलाए योजी जेम नालिएर खवाय होंशे तेम आकरूं आ, विद्वत्सभारूप शिलाए योजी छटुं विवेच्यु शत खान्यहेतु. १. मूलच्छायाः-केवली भगवन् ! आदानैः-आयतनैर्जानाति, पश्यति ? गौतम ! न तदर्थः समर्थः, तत् केनाऽर्थेन ? गौतम ! केवली पौरस्त्येन मितमपि जानाति, अमितमपि जानाति, यावत्-निर्वृतं दर्शनं केवलिनः, तत् तेनाऽर्थेन. गाथा-'जीवानां ' च सुखं दुःखं जीवो जीवति तथैव भव्याश्च एकान्तदुःखं वेदनाऽऽत्मना आदाय केवली'.तदेवं भगवन् !, तदेवं भगवन् । इति.-अनु० षष्ठ शतक समाप्त. घेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकलशिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः । Jain Education international Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education international