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________________ शतक ६.-उद्देशक ३. बहुकर्म.-वरू.-पुद्गल.-प्रयोग.-विस्रसा.-पादिक.-कर्मस्थिति.-स्त्री.-संयत.-सम्यग्दृष्टि.-संशी.-भव्य-दर्शन.-पर्याप्त. -भाषक.-परित्त.-शान.-योग.-उपयोग. आहारक.-सूक्ष्म.-चरम.-बंध.-अल्पबहुत्व.-हे भगवन् ! महाकर्मवाळाने सर्वतः पुद्गलो चोटे ? सर्वतः पुद्गलोनो चय थाय ? उपचय सय ? निरंतर पुद्गलो ,टे ? यावत्-निरंतर पुद्गोनो उपत्य थाय ? अने एनो आता दूरूपणे, अशुभपणे अने अनिष्टपणे वारंवार परिणभे ? हा.-तेनो हेतु.-अहत, धौत अने तन्त्रोद्गत ( ताजा ) वस्त्रनुं उदाहरण.-अल्पकर्मवाळने सर्वतः पुद्गलो भेदाय ? यावत्-परिविध्वंस पामे ? अने एनो आत्मा सुरूपपणे, शुभपणे अने इष्टपणे वारंवार परिणमे ! हा.-तेनो हेतु.-जछिन, पङ्कित, मलिन अने रजव ला पण पाणीवी धोत्राता वखनो दाखलो.-वस्त्र अने पुद्गलोनो उपचय.प्रयोग.-विस्रसा.-जीव अने कमोनो उपचय.-ए उपचय प्रयोगसा, पण विस्रसाए नहि.-मनप्रयोग-वयनप्रयोग-कायप्रयोग.- 4 पंचेंद्रियोने एत्रणे प्रयोग.-पृथिवी यावत् वनस्पतिने एक (काय) प्रयोग.-विकलेंद्रियोने के प्रयोग.-बनायोग अने कायप्रयोग.-शोने त्रणे प्रयोग -वस्त्रने लगतो पुद्गलोपय सादि-सांत ? सादि-अनंत ? अनादि-सांत ? के अनादि-अनं: ?-ए तो सादि-सांत. ए ज प्रकारे जीवोने लगता पुद्गलोप वय विषे पृच्छा.-ईयोपथबंधकनो कर्मपुद्गलोपचय सादि-सांत.-यन्यनो अनादि-सांत.-अभन्यनो अनादि-अनंत -को: कर्मपुद्गोपचय सादि-अनंत नथी.-झुं व सादि-सांत छे, ?-सादि-अनंत छे ?-अनादि-सांत छे ?-अनादि-अनंत छे ?-वस्त्र तो सादि-सां। छे.-7 प्रमागे जीव विषे पृच्छा.-नैरयिकतियंच-मनुष्य अने देवो सादि-सांन.-सिद्धो सादि-अनंत.-भव्यो अनादि-सांत.-अभको अनादि-अनंत.-कर्मप्रकृति के ली-आय-शानांवरणीयदर्शनावरणीय यावन-अंतर य.-ए आटेनी अबाधाकाळसहित बंधस्थिति.-ए को स्त्री बांधे ! पुरुष बांये ? के नपुंसक बांधे ?.-ए. वणे बांधे.-जे स्त्री, पुरुष के नपुंसक न होय ते ए को वांये अने न बांधे.-आयुष्यकर्मने स्त्री-पुरुष के नपुंसक बांधे ?-वांधे अने न पण बांधे.-संयत-असंयत-अने संयतासंयतकर्तृक ए कर्मबंधने लगता प्रश्नो.-एज प्रमाणे सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि-सम्यगमिथ्यादृष्टि-संक्षी- असंशी-दोसंशीनोअसंशी-भवसिद्धिरअभवसिद्धिक-नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक-चक्षुर्दर्शनी-अचक्षुर्दर्शनी-अवधिदर्शनी-केवलदर्शनी--पर्याप्त-अपर्याप्त-नोपर्याप्तनोअपर्याप्त-भाषकअभाषक-परित्त-अपरित्त-नोपरत्तनोभपरित्त-मतिक्षानी-श्रुतशानी-अवपिशानी-मनःपर्यायशानी-केवलज्ञानी-मतिअशानी--श्रुतअशानी--अवधिअज्ञानी (विभंगी )-मनोयोगी-वचोयोगी-काययोगी-अयोगी-'कारोपयोगी-निराकारोपयोगी-आहारक-अनाहारव.-सूक्ष्म-बादर--नोसूक्ष्मनोवादर-- चरम-अचरम ए बधाने उद्देशीने कर्मबंधने लगतो विचार.- स्त्रीवेदक-पुरुषवेदक-नपुंसकवेदक अने-अवेदक जीवोनी अल्पबहुता-हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे. बहुकम्म वत्थे पोग्गल पयोगसा वीससा य सादीए, कम्मद्विति-त्थि-संजय-सम्मदिट्ठी य सन्त्री य. भविए दंसण-पज्जत्त-भासअ-परित्ते नाण-जोगे य, उवआगा-ऽऽहारग-सुहुम-चरिम-बंधे य अप्प-बहुं. बहुकर्म, वस्त्रमा पुद्गलो प्रयोगथी अने स्वाभाविक रीते, आदिसहित, कर्मस्थिति, स्त्री, संयत, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, भव्य, दर्शन, पर्याप्त, भाषक, परित्त, ज्ञान, योग, उपयोग, आहारक, सूक्ष्म, चरम, बंध अने अल्पबहुत्व; आटला विषयो आ उद्देशामां कहेवाशे. १. अनन्तरोद्देशके पुद्गला आहारतश्चिन्तिताः, इह तु बन्धादित:-इत्येवंसम्बन्धस्य तृतीयोदेशकस्य आदी अर्थसंग्रहगाथाद्वयम्:बहुकम्म-' इत्यादि. 'बहुकम्म ' ति महाकर्मणः सर्वतः पुद्गला बध्यन्ते इत्यादि वाच्यम् . 'वत्थे पोग्गला पयोगसा वीससा य' .१ मूलच्छाया:-बहुकर्म वस्त्रे पुद्गलाः प्रयोगतो विलसातश्च सादिकः, कर्मस्थिति-स्त्री-संयत-सम्यग्दृष्टिश्च संही च. भविको दर्शन-पर्याप्त-भाषकपरीतो शाम-योगी च, उपयोगा-हारक-सूक्ष्म-बन्धचा-इल्प-बहुलम:-अनु. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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