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________________ २४४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शंतक ५.-उद्देशक ८. -चोवीश मुहूर्तनी संख्या-साथे मळवाथी द्विगुण थयो छतो अडतालीश मुहूर्तादिनो अवस्थित काळ थयो, अने ए सूत्रोक्त छे, अने विरहकाल तो दरेकपदे अवस्थान काळ करतां अडधो, स्वयमेव जाणवो. [ ' एगिदिया वखंति वि' त्ति ] तेओमां विरह नथी, तो पण घणा उत्पन्न एकेंद्रियो वधे छे. थता होवाथी अने थोडा- मरण थतुं होवाथी · तेओ वधे पण छे' एम कयुं छे. [ ' हायंति वि ' ति] घणानुं मरण थवाथी अने ओछानी र उत्पत्ति होवाथी तेओ हीन पण थाय छ' एम कयुं छे. [ ' अवढ़िया वि ' त्ति ] सरखानी उत्पत्ति होवाथी अने सरखार्नु मरण होवाथी 'तेओ अवस्थित पण छे' एम कधु छे. [ ' एतेहिं तिहि वि' त्ति ] ए त्रणेमां एटले एकेन्द्रियोनी वृद्धिमा, हानिमां अने अवस्थितिमा एकेद्रियो अवस्थित छे. आवलिकानो असंख्यय भाग काळ छे, कारण के, त्यार पछी यथायोग वृद्धि वगेरे थती नथी. [ ' दो अंतोमुहुत्त ' त्ति ] एक अन्तर्मुहूर्त विरह काल अने बीजो अंतर्मुहूर्त तो सरखी संख्यावाळाओना उत्पादनो अने मरणनो समय छे. [ 'आणय-पाणयाण संखेजा मासा, आरण-चुयाणं संखेज्जा वास' ति ] अहिं संख्यात मास अने संख्यात वर्षरूप विरह काळने बमणो करीए तो पण तेनुं संख्यातपणु ज रहे छे माटे 'संख्यात मास' आनत विगेरे स्वों. इत्यादि कयुं छे. [' एवं गेवेजदेवाणं ' ति ] जो के अहिं, अवेयकना नीचला त्रण भागमां संख्यात शत वर्षो, मध्यम त्रण भागमा संख्यात हजार वर्षों अने उपरना त्रण भागमा संख्यात लाख वरस विरह काळ छे तो पण तेने बमणो का बाद तेमां संख्यात वर्षपणानो विरोध नथी संख्यात-असंख्यात आवतो तथा विजयादिमां तो असंख्यात काळ विरह छ, पण तेने बमणो करीए तो पण तेनो ते ज-असंख्यात काळ रूप-रहे छे, सर्वार्थसिद्धमा काळ. पल्योपमनो संख्यय भाग विरह काळ छे, ते पण बमणो थइने संख्येय भाग रूप ज रहे छे, माटे कयुं छे के, · विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजितोनो असंख्य वर्ष सहस्रो छे' इत्यादि. हवे बीजी रीते जीवोने ज कहे छे:-[ ' जीवा णं' इत्यादि.] सोपचय-वृद्धि सहित अर्थात् पहेलाना जीवोमां-जेटला जीवो पहेला होय-तेमां-बीजा नवा जीवोना उत्पादथी-आववाथी-संख्यानी वृद्धिने लीधे वृद्धि सहित, पहेलाना सोपचय. जीवोमांथी केटलाक जीवोना उद्वर्तन--मरण-थी संख्यानी घट थवाथी हानिसहित, उत्पाद अने उद्वर्तन द्वारा एक साथे वृद्धि अने हानि थवाथी सोपचय अने सापचय, उत्पादना अने उद्वर्तनना अभावने लइ वृद्धि अने हानि न थवाथी निरुपचय अने निरपचय. शं.निरुपचय-निरपचय. मूळ शास्त्रकारे पूर्वमा वृद्धि, हानि अने अवस्थितिनां सूत्रो कह्यां छे अने अहिं उपचय, अपचय, उपचयापचय अने निरुपचय निरपचयनां सूत्रो कह्यां छे. तो ते प्रमाणे वे सूत्रो कहेवानी शी अगत्य छे ? कारण के, उपचय एटले वृद्धि, अपचय एटले हानि अने एक साथे उपचय के अपचय अथवा निरुपचय के निरपचय ते अवस्थिति ए प्रमाणे उपचयादि शब्दोनो वृद्धयादि शब्द साथे समान अर्थ होवाथी शब्दभेद विना आ बे सूत्रमा शुं भेद छ ? समा०--प्रथमना सूत्रमा परिमाण अभिप्रेत छे एटले वृद्धि वगेरेना प्रश्न सूत्रमा परिमाण कथन इष्ट छे अने आ समाधान. उपचयादि सूत्रोमां तो परिमाणनी अपेक्षा विना मात्र उत्पाद अने उद्वर्तना विवक्षित छे, तेथी अहिं त्रीजा भांगामा पूर्वे कहेल वृद्धयादिना त्रणे विकल्पो थाय छे, ते जेमके, ज्यारे घणानो उत्पाद होय त्यारे वृद्धि, घणानुं मरण थाय त्यारे हानि अने ज्यारे समान उत्पाद अने उद्वर्तन होय त्यारे अवस्थित पणुं होय छे, ए प्रमाणे पूर्वसूत्र तथा आ सूत्रमा भेद छे. [ ' एगिंदिया तइअपए ' ति] अर्थात् एक साथे उत्पाद अने उद्वर्तन एकेंद्रियो. थवाने लीधे वृद्धि तथा हानि थवाथी एकेंद्रिय जीवो सोपचय अने सापचय छे, बाकीना भांगाओमां तो ते एकेन्द्रियो संभवता नथी, कारण के, तेओमा प्रत्येकनो उत्पाद, उद्वर्तन अने तेना विरहनो अभाव छे. [ ' अवट्ठिएहिं ' ति ] निरुपचय अने निरपचयोमा [' वकंतिकालो विरहकाल, भाणियव्वो ति ] पूर्वे कहेलो विरह काल कहेवो. शका वेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सद्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी। अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शारयोः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः॥ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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