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शतात. ६...उद्देशक ३.
भगवसुधमस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
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ए प्रमाणे कयुं छे. [ वेयणिज भासए बंधइ ' ति ] भाषक जीव वेदनीय बाधे छे. कारण के, सयोगिना अवसानवाको पण भाषक सवदनीयन बाँधे छे. [ ' अभासए भयगाए ' ति ] अयोगी अने सिद्ध ए बन्ने अभाषक होय छे, अने तेओ बांधता नथी तथा पृथिवी वगरे अभाषक तो भाषक. बांध छे माटे ए प्रमाण भजना छे. परित्तद्वारमा [ 'परित्ते भयणाए ' ति ] परीत एटले एक शीखाळो जीव अथवा अल संसारखाळो जीव ते पारना वीतराग पग होय अने तेवो परीत वीतराग, ज्ञानावरणीय कर्म बांधतो नथी अने सराग परीत तो बांधे -ए प्रमागे भजना छे. [ अपरित्ते बंधइ ' ति ] अपरित्त एटले साधारणकाय अर्थात् जे जीव अनंतजीवो साधे एक शरीरमा रहेतो होय ते अश्या अनंत सस:वाळो ते अपरित्त- अपरित्त. ते बन्ने बांधे छे. [ 'नोरित-नोआरिते न बंध' ति] परित नहि ते. परित. नहि अर्थात् .सिद्ध बांधतो नथी. [ आउयं परित्तो वि, नोपरित्त-नोअपरित,
आरित्तो वि भयणाए 'त्ति ] प्रत्येक शरीरादि जीव आयुष्यना धकाळे ज आयुष्य धेि छ पण सर्वदा नथी बांधतो माटे ' भजना' कही छे. सिद्ध तो बांधे ज नहि, माटे कगु छे के, [ 'नोपरित-' इ.यादि ] ज्ञानद्वारमा [ ' हेहिल्ला चनारि भयणार 'लि) आभिनिगेधिक ज्ञानी कोरे शानद्वार. चार ज्ञानीओ वीतरागावस्थामा ज्ञानावरणीयने बांधता नथी अने तेना तेज च र ज्ञानीओ सरागावस्थामां तो ज्ञान,वरणीय कर्मने बांध छे, ए प्रमाणे मयादि बार शानभजना छे. [ ' वेयणिजं हेहिला चत्तारि वि बंधति 'त्ति ] हे.ना चारे पण वेदनीयने बांये छे, कारग के, छद्मस्थ वीतरागो पण वेदनीयना बंधक वाळा वीतरागो. छ. [ 'केवलणाणी भयणाए 'ति] केवलज्ञानी भजनाए बांधे छे, कारण के, सयोगिकेवळी वेदनीयना बंधक छे अने अयोगिकेवळी तथा द्धि वेदनीयना अंबंधक छे मारे मजना कही छे. योगद्वारमा [ ' हेछिल्ला तिणि भय गाए ' ति] मन, वचन अने काययोगिओ, जओ उपशांतमोह गुण- योगदार. स्थानकंगळा अने क्षीगमोह गुगरथानकपाळा सयोगिक पलि भो छ तेओ ज्ञानापरण बांधता न पी अने तान्य तो बांधे छ, माटे तेमां भजना कही छे, [ 'अजोगी न बंधइ ति ] अयोगी एट अयोगिवली अने सिद्ध बांधता नथी. [ 'वेयणि हेहिला बंधाते 'त्ति ] मनोयोगी वगेरे बांधे छे, कारण के सयोग जीवो वेदनीयना बंधक छे, [ ' अजोगी ण बंधइ ' ति] अयोगी बांधता नथी, कारण के, अयोगी र्मा कोना अबंधक छे. उपयोग. द्वारमा [ · अवि भयणाए ' त्ति ] सयोग अने अयोग, ए यन्नेने साकार अने अनाकार उपयोग होय छे, ते पन्ने उपयोगनां पण सयोग जीवो उपयोगदार-7 करज्ञानावरणादि प्रकृतिओने यथायोग वांधे छे अने अयोगजीवो तो नथी बांधता, एम भजना कही छे. आहारकद्वारमा [ 'दो वि भयणाए ' ति ] अ कार उपयोग. वीतराग पण आहारक होय छे अने ए ज्ञानाधरण बांधतो नथी, सराग आहारक तो बांधे छे, ए प्रमाणे आहारक भजनावडे धि छे, तथा अनाहारक अहारका र. केवली अने विग्रहगतिने प्राप्त जीव ए बन्ने अनाहारक होय छे-तेमां केवली न बांधे अने बीजो तो धेि छे, ए प्रमाणे अनाहारक पण भजनावडे बांधे छे, [ 'वेयणि आहारए बंधइ ' ति ] आहारकजीव, वेदनीय बांधे छे, कारण के, अयोगी सिवायना दरेक जीवो वेदनीयना बंधक छे. [ · अणाहारए भयणाए ' ति ] विग्रहगतिने प्राप्त जीव, समुद्घात प्राप्त केवली, अयोगी अने सिद्ध ए क्धा अनाहा'क होय छे, तेमां विग्रहगति प्राप्त जीव अने समुद्घातगत केवळी, ए वन्ने वेदनीयने वधि छे अने अयोगी अने सिद्ध नथी धिता-ए. प्रमाणे भजना छे. ['आउए आहारए भयगाए' त्ति ] कारण के, आयुप्यना बंधकाळ ज आयुष्य धाय छे अने वीजा काळे तो तेनुं बंधन थतुं नथी, माटे भजना छे. [ ' अणाहारए ण बंधइ ' ति] अनाहारक बांधतो नथी, कारण के, विग्रह गतिने प्राप्त जीवो पण आयुष्यना अधिक छे. सूक्ष्मद्वारमा [' दायरे भयणार' ति] वीतराग सूक्ष्मद्वार, हादरो, ज्ञानावरणना आंधक छे अने: सराग बादरो ज्ञानावरणना धक छे माटे भजना. कही छे. वळी, सिद्ध तो अधिक होवाथी कहे छे के, [ 'नोसुहुम-' इत्यादि.] [ 'आउए सुहुमे, दायरे भय गाए 'ति ] कारण के, काळे बंधाय छे अने वीजे काळे तो नथी धातुं माटे नोसूक्ष्म-नो बादर. भजना कही छ, चरमद्वारमा [' अढवि भयगार 'त्ति ] जनो चरम-छेलो-भव थवानो छे तेरे अहिं चरम कहेवो, अने जेनो छेहो भव थवानो चरमद्वार. वथी एटले जे चरम जेवो नथी तने अचरम कहियो तथा सिद्धने अचरम कहयो, कारण के, सिद्धने हवे-सिद्ध थया पछी-छेल्लो भव नथी तेमां अच म. चरम जीव यथायोग आठे कर्म प्रकृतिओने पण बांधे छे अन चमरजीवन अयोगिपणु हेय अर्थात् जो चरम जीव अयोगी होय तो नथी बांधतो ए प्रमाणे भजना छे, अचरम जो संसारी लइए एटले अभव्य लइए तो ते अचरम आठे पण कर्म-प्रकृतिओने बारे छे अने जो अचरम एटले . 'सिद्ध ' लइए तो ते कोई कर्म-प्रकृतिन नथी बांधतो-ए प्रमाणे अहीं पण भजना जाणवी.
वेदकोनुं अल्पबहुत्व.
३३. प्र०-ऐएसिणं मंते ! जीवाणं इत्थीवेयगाणं, परिस- ३३ प्र०--हे भगवन् ! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक वेयगाणं, नपुंसगवेयगाणं, अवेयगाण य.कपरे कपरेहितो? अने अवेदक, ए बधा जीवोमां क्या क्या जीच, कोना कोनाथी
अल, बहु. तुत्य अने विशेषाधिक छे! ३६. उ०-गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा परिसवेयगा, ३३ उ०-हे गौतम ! सौथी थोड। पुरुषवेदक जीवो छे, इथिवेयगा. संखेज्जगुणा, अवेदगा अणतंगणा, नसगयेयगा तेनाथी संख्येयगुण स्त्रीवेदक छे, अवेदक अनंत गुण छे अने अणंतगुणा..
नपुंसकवेदक अनंतगुण छे. --एएसि सव्वंसि पदाणं अप्प-बहुगाई उचाई गज्याई, जाव- -ए बधा पदोनों अरूपबहुत्वो कहेवां यावत् सौथी थोडा सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा, चरिमा अगतगुणा.
अचरम जीयो छे अने चरम जीवो अनंतगुण छे.
१. मूलच्छाया:-एते भगवने ! 'जीवानां स्त्रीवेद कानाम् , पुरुषोदकाम् , नपुंसकवेदकानाम् , अवेद हानां च कतरे कतरेभ्यः ? गौतम ! स्तोका जीया पुरुषवेदकाः, स्त्रीवेद।।: संख्येयगुणाः, अवेदका अनन्तगुणाः, नपुमकवेदका अनन्तगुणाः एतेषां सर्वेषां पदानाम् अल्प- बहुल कानि उच्चारयितव्यानि, यावत्-सर्वस्त का जीवा अचरमः, घरमा अनन्तगुणा:-अनु० .
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