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دیگر
शतक ५. - उद्देशक ४.
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- अमित अंत विनाना शब्दने. [' मियं वि 'त्ति ] मापवाळु - गर्भज मनुष्य अने जीव द्रव्य वगेरेने-जाणे छे- इत्यादि [ 'अमियं पिंत्ति ] माप विनानुं - अनंत अथवा असंख्य एवा वनस्पति तथा पृथिवीना जीव द्रव्यादिकने जाणे छे. [सय्यं जाण इत्यादि ] ए हकीकत द्रव्यादिकनी अपेक्षाए कली जी जाने छे तेनुं हुं कारण ? समा० [ अनंते इत्यादि. ] केवल ज्ञान अनंत पदार्थने ग्रहण करतं होवाथी वान अनंत छे, [निच्युडे नागे केवल शुद्ध छे, बीजी वाचनामां तो निल्युडे वितिमिरे विमुखे एवं आवरणया एवं माटे मं विशुद्ध.
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ति] कर्मनो तद्दन नाश घया पही धनुं के माठे केवल शान आवरण विनां विशेष पाठ, तेमां निष्युड निईत पूरे पूरुं दिमिर नाश
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसे पहे
६. प्र० -- छैउमत्थे णं भंते ! हसेज्ज वा, उस्सुयाएज वा !
६. उ०- हंता, (गोयमा 1 ) हसेज्ज वा, उस्सुयाएब्ज वा.
छद्मस्थ अने केवलिनुं इस अने उंध.
७. प्र० जहां मंते ! छमत्थे मणुस्से हसेज, जावउस्सुयाएज तहा णं केवली वि हसेज्ज वा, उस्सुयाएज वा ? ७. उ०- गोयमा ! णो ण समड़े.
८. प्र० - से केणद्वेणं भंते ! जाव-नो णं तहा केवली रोज था, जाव-उस्सुवाएज वां ?
८. उ०- गोषमा ! जंणं जीवा परितमोहनजरस कंम्मस्सं उदरणं हसति वा उस्युपायति वा से णं केवलिस नस्थि से तेणट्टेणं जाव-नो णं तहा. (केवली) हसेज बा, उस्सुयाएज्ज वां.
९. प्र० – जीवे णं मते ! इसमाणे वा, उस्सुयमाणे पा कड़ कम्मपयडीओ बंध
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९. उ० गोयमा ! सचनिच या अद्वविध ना. एवं जाय बेमाणिए पोहतएहिं जीवेगिदियो तियभंगो,
१०. १० छउमरये णं भंते! मणुस्से निहाएन वा पपलाएज वा ?
१०. उ० - हंता, निदाएज्ज वा, पयलाएज वा.
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६. प्र० - हे भगवन् ! छद्मस्य मनुष्य हसे अने कांइ पण लेवाने उतावळो थाय ?
६. उ०- हे गौतमं ! हा, ते हसे अने उतावळो पण धाय खरो.
७. प्र०—हे भगवन् ! जेम छद्मस्थ मनुष्य हसे अने उतावळा थाय ते केवळी पण हसे अने उतावळो थाय ?
७. ८० - हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नयी छम्रस्य मनुष्यनी पेठे यावत् -- केवळी न हसे अने उतावळो पण न थाय.
८. प्र० - भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्यनी पेठे केवळी हसे नहीं अने उतावळो थाय नहीं तेनुं शुं कारण ?
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८. उ०- हे गोतम ! दरेक जीवो चारित्रमोहनीय क उदयपी से छे अने उतावळा थाय छे अनेकेालन ता चारित्रमोहनीय कर्मनो उदय ज नथी माटे ते कारणची छद्मस्थ मनुध्वानी पेठे यावत् केवळी हसता नथी ते उतावळा. पण पता नथी.
९. प्र० - हे भगवन् ! हसतो भने उतावळो थतो जीव प्रकारनां कर्मोने बांधे
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९. उ०—हे गौतम! तेवा प्रकारनो जीव सात प्रकारना कंर्मोने बांधे के आठ प्रकारनां कर्मोने बांधे ए प्रमाणे यावत्वैमानिक सुधी समज़वुं तथा ज्यांरे घणा जीवोने आश्रीने उपो प्रश्न पूछाप सारे तेमां कर्माबंध संबंधी त्रण भांगा आवे; पण तेमां जीव अने एकेंद्रियो न लेवा.
१०. भगवन् ! उस मनुष्य निद्रा ले-उंचे अने उभोउम्र ?
१०. उ० - हे गौतम ! हा, ते उंधे अन उभो उभो पण उंचे.
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१. मूलच्छायाः - संस्थो भगवन् ! मनुष्यो हसेद् वा, उत्सुकायेत वा ? हन्त, गौतमं । इसेद् वा, उत्सुकायेत वा यथा भगवन् ! छद्मस्थ सेवा अपि इद या उत्सुकायेत वा गीतमनाऽयम् अर्थः समर्थः तत् केनायेन भगवन् यावदनी तथा केवली हसेद्वा, यावत्-उत्सुकायेतं वा. गौतम ! यद् जीवाः चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः उदयन इसन्ति वा उत्सुकायन्ते वा तत् केवलिनः नास्ति, तेत् तेनाऽर्थन यावत्-नो तथा केवली इसेद् वा, उत्सुकायेत वा जीवो भगवन् ! हसन् वा, उत्सुकायमानो वा कति कर्मप्रकृतीः बध्नाति ? गौतम धन्धको वाया एवं वैमानिक पृथक जीव एकेन्द्रियनर्जः त्रिभःस्थो भगवत् मनुष्योत ? इति वा प्रात
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