________________
शतक ३.-उद्देशक २.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ५. प्र०—केवतियं च णं पभू ते असुरकुमाराणं देवाणं अहेग- ५. प्र०—हे भगवन् ! ते असुरकुमारो पोताना स्थानथी तिविसए पण्णत्ते ?
केटला भाग सुधी नीचे जइ शके छ ? ५. उ०-गोयमा ! जाव-अहे सत्तमाए पुढवीए, त पुण
५. उल-हे गौतम ! ते असुरकुमारो पोताना स्थानथी नीचे
यावत्-साती पृथिवी सुधी नी वे जइ श के छे. तेओनी नीचे पुढविं गया य, गमिस्संति य.
जवानी मात्र आटली शक्ति छे. परंतु तेओ त्यां सुधी कोइ बार ६. प्र०—किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तचं पुढविं गया नथी. जशे नहीं अने जता पण नथी. किंतु त्रीजी पृथिवी गया य, गमिस्सति य ?
सुधी जाय छे, गया छ अने जशे पग खरा.
६. प्र०-हे भगवन् ! ते असुरकुमारो त्रीजी पृथिवी सुधी जाय छे, गया छे अने जशे तेनुं शुं कारण ?
तेम विशेष प्राचीन छे. वर्धनानना समयन साहित्य वर्णतां घगे स्थळे जे निरुक शब्दनो उल्लेख आवेलो छे ते आने ज लगतो होय ते पण संभव छे. (निरुक्त' ना उल्लेख माटे जूओ भगवती सूत्र प्रथमखंड, द्वितीयशतक, प्रथम उद्देशक पृ० २३१ अने टीका पृ० २४६ ) एमां 'असुर' शब्दनो अर्थ आपतां जणान्यु छ के ।
"अद्रिः, ग्रावा, गोत्रः, वलः, अश्नः, पुरुभोजाः, बलि शानः, अमा, पर्वतः, मेघनां त्रीश नामो छे. ते आ प्रमाणे छे:-अद्रि, ग्रावा, गोत्र, बल, गिरिः, ब्रजः, चरुः, वराहा, शंबरः, रौहिणः,रेवतः, फलिगः, उपरः, उपलः, अश्न, पुरुभोजा, वलि शान, अश्मा, पर्वत, गिरि, व्रज, चरु, वराह, शंबर, चमसः, अहिः, अन्नम् , वलाहकः, मेघः, ओदनः, वृान्धिः , वृत्रः, असुरः, रोहिण, रैवत, फलिग, उपर, उपल, चमस, अहि, अभ्र, दलाहक, मेघ, कोशः, इति त्रिंशद् मेघनामानि" ॥१।१०।-निष्क्ते निघण्टुकाण्डे पृ० १५४) ओदन, वृषन्धि, वृत्र, असुर अने कोश-(निरुक्त निघण्टुकांड पृ० १५४)
आमां 'असर' शब्दने 'मेघ' अर्थमा योजेलो छ अने तेनो ए अर्ध बराबर होय, ए तेनी व्युत्पत्ति उपरथी पण जाणी शकाय छ:-" असून प्राणान्, गति ददाति-इति असुरः" अर्थात् प्राणोने आपे ते असुर. मेघमा रहेली प्राणदात्री शक्ति तो सर्व प्रतीत छे, एथी ' असुर' अने · मेघ 'ए बन्नेनी समानार्थकता, उपर प्रमाणे निरुक्तमा जणावेली छे ते विशेष दृढ थती जणाय छे:-अनु.
१. मूलच्छाया:-कियच प्रभुस्तेषाम् असुरकुमाराणां देवानाम् अधोगति विषयः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! यावत्-अधः स तम्यां पृथिव्याम्, तृतीया पुन पृथिवीं गताच, गमिष्यन्नि च. किंप्रत्ययं भगवन् ! असुरकुमाराः देवास्तृतीयां पृथिवीं गताच, गमिष्यन्ति च ?:-अनु०
२. एक लाख, एंशी हजार योजनना दळवाळी रत्नप्रभा पृथिवीना, उर अने नीचेना एक एक हजार योजनप्रमाण भागने बाद करता याकी रहेला स्थळनी अंदर भुवनपति मोनां अने वानव्यंतरानां रहेठाणो छे. तेमां भुवनपतिओना दश भेद छे. तेमांना प्रथम भेदने 'असुरकुमारावास' कहेवामा आवे छे. ते आवास दक्षिणे अने उत्तरे एम बे दिशामां आवेलो छे. तेमा एकनां 'चमर' अने बीजामा 'बी' ए नागना बे इन्द्रो छे. चारनी राजधानीने चमरचंचा अने वलिनी राजधानीने बलिचंचा कहेवामां आवे छे. चमरचंचामां चोत्रीरालाख घर (असुरकुनारावास) छे अने वाले चंचामा ३० लाख छबन्नेमां महीने ६४ लाख असरकुमारावासो छे. तेमा रहेनारामोनी आवरदा, ओछामा ओली दश हजार वर्षनी अने वधारेमा वधारे एक सागरोपमथो अधिक होय छे. उपर आवेला त्रीजा प्रतिवच :-सूत्रमा असुरकुमारोनी वक्तव्यता विषे जे भलामण थएली छे तेनो सविस्तर वर्णनात्मक परिचय प्रज्ञापना' उपांगमा ( आ० स० पृ० ८९-९१) आप्रमाणे छे:___ “कहिं णं भंते । असुरकुनारा देवा परिवसंति? गोयमा ! इमीसे “हे भगवन् ! असुरकुमार देवो कये स्थळे रहे छे! हे गौतम! एक रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयण- लाख, एंशी हजार योजन जाडी रत्नप्रभा पृथिवीनो, एक एक हजार योसहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजित्ता, मज्झे अहहुत्तरे जननो उपरनो अने नीचेनो भाग वाद करी, बाकि रहेला-मध्यना एक जोयणसयसहस्से; एत्थ णं अनुरकुनाराणं देवाणं च उसद्धिं भवणावाससय- लाख अने अठ्योतेर हजार योजन प्रमाणना-भागमा असुरकुमार देवोना ६४ सहस्सा भवंति-त्ति अखाय, ते णं भवगा बाहिं वहा, अंतो चउरंसा, लाख आवासो आबेला छे, ते आवासेा, बहारथी गोळ, वचे चोखंडा अने अहे पुक्खरवरकणियासंठाणसंठिया, उकिंतरविउल-गंभीरखाइयफलिहा, पुष्कर-कमळ-गी कर्णिकाना घाटना छे, प्रत्येक आवासोनी फरती एक खाई पागार-द्वालय-कवाड-तोरण-पडिदुवारदेसभागा, जंत-सयग्घि-मुसल-मुसंढि. अने परिखा, जे चोक्खी (गाळ विनानी) उंडी अने वचे पहोळी छे, प्रति परियारिया, अउज्झा, सदाजया, सदागुत्ता, अडयालकोटुगरइया, अड. आवास, एक गढ अने तेमा आवेली अटारी, वारणा, तोरण तथा बारीओ यालकयवणमाला, खेमा, सिवा, किंकरामरदंडोवरक्खिया, ला(इय) उल्हा- संयुक्त छे. ते भवनो (आवासो), यंत्र, शतघ्नी, मूसक अने मुमुंढी विगेरे इयमहिया, गोसीस-सरस-रत्तबंदणदद्दर दिनपंचंगुलितला, उवचितचंदण- शत्रोथी परिवेष्टित छे. एवां मजबूत होवाथी ज ए, अयोध्य छे, अजय्य छ, कलसा, चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवार देसभामा, भासत्तो-सित्त-विउल-व- अने सुरक्षित रहेला छे. तेना अउताळीश कोठा छे, अडताळोश जातना वग्घारियमलदामकलाबा, पंचवन-सरस-सुरभिमुकप्फपुञ्जोवयारकलिया, तोरणो-वनमाला-छे. तथा ते निरुपद्रव अने मंगळला छे. दंडधारी किंकर कालागुरु-पवर कुंदरुकडझंतधूवमघमघतगंधुधुयाभिरामा, सुगंधवरगंधिया, देवो, ते भवनोनी चोकी करे छे, तेमां गोमयादि द्वारा गार लिंपेली छे, गंधव टिभूया, अच्छरगणसंघसं विगिन्ना, दिब्बतुडियसहसंपणादिया, सबर- खडी विगेरेधी धोळ करेलो छे अने गोशीर्ष चंदन तथा लाल चंदनना थापा यणामया, अच्छा, सण्डा, लण्हा, घट्ट', मट्ठा, पीरया, निम्मला, मारेला छे, तेना शिखर उपर मंगल कळ शो स्थापेला छे ओ वारणा उर निप्पंका, निकंकडच्छाया, सप्पभा, सरिसरीया, समिरीया, सउज्जोया, पण चंदन कलशोनां तोरणो शोभी रह्यां छे, तेमां वांधेला चंदरवाथी ते पासादीया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा; एत्थ णं असुरकुमाराणं नीचे ( भोय तळी या ) सुधी लटकती गोळाकार माळाओनी श्रेणी झूली देवाणं पज्जत्ता-उपजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, तत्थ णं बहवे असुरकुमारा देवा रही छे, सुंदर, सुगंधी अने पंचवर्णी पुष्ो वेरा एला छे, काळो अगर, उत्तम परिवसति-काला, लोहियक्त्र-बिंबोट्ठा, धवलपुष्पदंता, असिय केसा, वामे किन्न अने सेलारस तो सुगंधी धूम मघनधी रह्यो छे, चोमेर सुगंध फेलाई एगकुंडलधरा, अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता, ईसीसिलिंधपुप्फपगासाई, असंकिलि- रयो छे अने जाणे गंधनी गुटिका न होय? एवा ए भवनो बहेंकी रह्यो छे. हाई, हुमाई, वत्थाई, पवरपरिहिया, वयं च पढम समइकंता-बिइयं वयं एमां अप्सरामोनो समूह रहेतो होवाथी घणी संकडाश जणाय छ, दिव्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org