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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ३.-उद्देशक २ ६. उ०-गोयमा ! पुववेरियस्स वा वेदणउदीरणयाए, ६. उ०—हे गौतम ! पोताना जूना शत्रुने दुःख देवा, पोपुव्वसंगइस्स वा वेदणउवसामणयाए, एवं खलु असुरकुमारा देवा ताना जूना मित्रने सुखी करवा-ए कारणथी असुरकुमार देवो त्रीजी तचं पुडविं गया य, गमिस्संति य.
पृथिवी सुधी गया छे, जाय छे तथा जशे.
असंपत्ता, भद्दे जोवण्णे वठ्माणा, तलभंगय-तुडिय-पवरभूसण-निम्मल- वाजाओना नादो गाजी रहेला छे, सर्व जातनां रत्नो भरेला छे तेथी ए गणि-रयणमंडितभुया, दसमुद्दामंडिय-गहत्था, चूडामणि विचित्तचिंधगया, भवनो स्वच्छ अने सुंवाळा छे, चव.चकतां (चीकणां) अने ओपेला छे, सुरूवा,म हिडिया, मह जुइया, महायसा, महब्बला, महाणुभागा, महासोक्खा, मार्जित अने नीरज छे, निर्मळ अने निष्पंक छे, एमां आरती प्रभा अनावृत हारविराइयवच्छी, कडय-तुडियर्थभियभुया, अंगय-कुंडलगट्टगंडयल-कन्नपी- छे, ए प्रभावाळ, श्रीवाळां, झगमगतां, उयोतकाळा, प्रसन्नता पमाडे तेवां, ठधारी, विचित्तहत्याभरणा, विचित्तमालामउली, कल्लाणग-पवरयस्थपरिहिय, दर्शनीय, अभिरूप अने प्रतिरूप छे. एवा ए भवनोमा पर्याप्त अने अपर्याप्त कहाणगमहाऽणुलेवणधरा, भासुरबोंदी, पलंवमाणवणमालधरा, दिवेग वजेणं, असुरकुमार देवोनों स्थानो वह्यां छे. xxx तेमा घणा असुर कुमार देवो दिवेणं गंधेणं, दिवेण फासेणं, दिशेणं संघयणेणं, विवेणं संठाणेणं, दिवाए रहे छे, तेओ वर्ण काळा, लोहिताक्ष अने बिंबसम होठवाळा छे, तेओना इड्डीए, दिवाए जुईए, दिवाए पभाए, दिवाए छायाए, दिवाए अचीए, दिव्वेगं दांत धुंदनी कळी जेया घोळा छे अने केश काका छे. तेओ डाबा कानमा तेएणं, दिवाए लेस्साए दरा दिसाओ उजोवेमाणा, पभासेमाणा, तेणं एक कुंडल पहेरेछ, शरीरे भीर्नु चंदन चोपडे छे, सिलिंध्रना पुष्पनी जेवी तत्थ साणं साणं भवणाबाससयसहस्साणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीण, प्रभावाळा, आछां, राता, कोमळ, सूक्ष्म अने हलका (बजन विनानां) तथा साणं साणं तायतीसगाणं, साणं साणं लोगपालाणं, साणं साणं अग्गमहि- उत्तम दरोने पहेरे छे, तेओनी जुबानी हमेशा खोलती रहे छे. तलभंगक, सीणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साण अणिया, साणं साणं अणियाहि- बहेरखां अने बीजां पण घरेणामां जडेला मणि अने रत्नोथी तेभोना हाथो वईणं, साणं साणं आयरयखदेवसाहस्सीणं, अग्नेसि च बहणं भवणवासी शोभी रघर छ, दशे आंगीलोमां पहेरेली वीटीओथी तेओना पोचा सुशोदेवाण य, देवीण य आहेवचं, पोरेवचं, सामितं, भट्रित महत्तरगतं, मित छे, चूडामणि नामना विचित्र रत्नना चिन्हथी तेओनो मुकुट दीपी आणा.डसर-सेणाव कारेमाणा. पालेगाणा: महताSSEतन-गीत-वाइय- रखो छे, तेओ सुरूप, महाधक, महाद्युतिक, महायशस्वी, महावळवाळा, तंती-तल-ताल तुडिय-घणमुइंगपडणवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई मुंज- महामभावबाळा अन महासुखवाळा छ, तआना हृदयो हारबडे विराजित छ, माणा विहरति.
कडां अने बहेरखांधी तेओनी भुजाओ शोभी रही छे, अंगद अने कुंडळ पहेरेला, तेओना गालो कर्णपीठनामना आभरणथी झगमगी रह्या छे, अनेक प्रकारनां घरेणाथी तेओना हाथो चळकी रह्या छे, तेओना माथा उपर माळा अने मुकुट पण विचित्र छे, तेओ कल्याणकर वस्त्रने पहेरे छे, माला अने विलेपनने वापरे छे, शरीरे भास्वर छे, झूलती गाळा पहेरे छे अने दिव्य एवा वणे, गंधे, स्पर्श, संहनने, संस्थाने, ऋद्धिए, द्युतिए, प्रभाए, छायाए, तेजे अने शरीरना झगमगाटे तथा लेश्याए करीने दशे दिशाओने उयोतित करे छे-प्रभासित करे छे. तथा तेओ पोत पोताना लाखो भवनावासो उपर, त्रायाबिश देवो उपर, लोकपालो उपर, पट्टराणीओ उपरा सभाओ उपर, सेनाओ उपर, सेनाधिपतिओ उपर, आरक्षक देवो उपर अने बीजा पण भवनवासी देवो तथा देवीओ उपर अधिपतिपणुं, पुरपतिपर्ण खामिपणु, भर्तपणुं अने वडिलपणुं मोगवे छे, तेओने आज्ञामा राखे छे, सरदारी भोगवे के अने वीजाओ पासे पण पोताना उपरिपणानुं पालन करावे छे तथा तेओ नित्य चालता नाट्य, गीत, वाजा-वीणा, हथेली, कांसी, शुटित अने मेघ जेवो गंभीर मृदंग ए यधाना दिव्यनाद वडे दिव्य
अने भोग्य भोगोने भोगवतां लहेर करे छे. उपर आपेला असुर-परिचयमां जणावेली केटलीक हकीकतो तो मानवी क्रियाओने मळती आवे तेम छे, जेमके, त्यां हथीयारो होवानं. चोकीदारो होचानु, छाण विगेरेथी लिंपवा, खडी विगेरेथी धोळवन अने सुगंधी धून बळतो होबार्नु जणाव्युं छे तथा तेओने कपडां पहेरवान, शरीरे चंदन चोपडवान आगे हाथ भने कानमा घरेण परवान जणान्यु आ वधी रीतो मानवसमाजमा प्रचलित छे ते वात प्रत्यक्ष सिद्ध छे. आ विपे आवा प्रश्नो थाय छे के सारे सां-असुरलोकमां-सांप्रदायिक रीते झाडपान न्थी, धातुनी खाणो गथी, अग्नि नथी तेम नदीओ नथी, तो पछी त्यां हथीयारो शेनां बन्यां? कोणे घड्यां? छाण क्याथी आव्यु ? खडी क्याथी आवी? रुजी खेती थया विना कपडा शी रीते बन्यां ? केोगे वण्यां? वणवानो यन्त्रो क्याथी आव्यां! कोणे बनाव्यो ? अग्नि विना धाशी रीते वक्या? धा पण क्याथोआव्यो? धातुओ विना परेणां शेना थयो ? अने ते काणे घड्यां? वळी । परिचयमा लत्यु छ के, 'तेओने दिव्य संहनन छे' जैनपरिभाषामा 'संहनन' शद हाडकांनी रचना विशेषनो घोतक छे (-जूओ भगवती प्र० ख० पृ. ३४-२ टिप्पण) देयोने हाडका होय ए, तो जैन ऋषिओ पण मानता नथी, तो पछी तेओने दिव्य संहनन होवानुं शी रीते घटे? 'आर्षमनुसंदधीत' नी दृष्टीए आ बावतर्नु समाधान करतां श्रीमलय गिरिजीए (प्रज्ञापना टीका पृ०६८ मां) जणाणूछ के, आ स्थळे 'संहनन' शब्दनो मुख्य अने समय प्रसिद्ध अर्थ न करतां लाक्षणिक एवो शक्ति अर्थ करवो. हुं तो मार्नु छठ के. ए देव परिचयना उलेखमा आ रीते जो ते आखा वर्णननोज लाक्षणिक अर्थ करवामां आये तो ते वधु वरावर संगत थई शके छे, अन्यथा आगळ जणावेला एक पक्ष प्रश्नसमाधान थर्बु अशक्य जणाय छे. वळी एक परिचय आपना। पोते आपलं वधु य वर्णन लाक्षणिक शब्दामा ज करे ए पण घटतुं नथी, तेथी आशिसुर' पाब्दनो मूळ भाव विशेष विचारणीय छे, एम मने लागे छ भने ए माटे आगळ पण एक टिप्पण, जेमां यास्कना निरुकनुं प्रमाण टांकी बताव्यु छे-सापळ छ:-अनु.]
१. मूलपटाया:-गौतम ! पूर्ववैरिक स्य वा वेदनोदीरणतया, पूर्वसंगतस्य वा वेदनोपशमगाया, एवं खळ असुरकुमाराः देवास्तृतीयां पृथिवीं हाताच, गमिष्यन्ति च:-अनु.
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