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________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ४.-उद्देशक ९, १. आगळना उद्देशकोमा देवो संबंधे हकीकत कही छे अने हवे आ नवमा उद्देशकमा नारको संबंधी हकीकत जणाववानी छे. कारण के जेम देवो वैक्रिय शरीरने धारण करे छे तेम नारको पण वैक्रियशरीरना धारक छ माटे देव पछी नारकोनी वक्तव्यता कहेवी ए ठीक जणाय छे. श्यापद. तेमां आदि सूत्र आ छ:-[ 'नेरइए णं' इत्यादि.][लेस्सापए ' ति] लेश्या नामना सत्तरमा पदमा [तईओ उद्देसओ भाणियव्यो 'त्ति ] बोटं छे. आवेलो त्रीजो उद्देशक अहीं कहेवो. कोई ठेकाणे " बीजो उद्देशक" एम देखाय छे ते खोटुं छे. ते त्रीजा उद्देशकनो पाठ आ रीते छ:-"हे शंका, गौतम ! नैरयिक होय ते नैरयिकोमा उत्पन्न थाय छ, पण जे अनैरयिक छे, ते नैरयिकोमा उपजतो नथी." इत्यादि. शं०-साधारण बुद्धिथी विचार करतां जणाय छे के, मनुष्य अने पशु विगरे नारकिमां उत्पन्न थाय छे, त्यारे अहीं कहेवामां आव्यु छ के, जे नैरयिक-नारकी-होय ते, नरकमा उत्पन्न थाय छे अर्थात् अहीं कहेली वात अने सर्वना अनुभवमा आवती बात, ए बन्ने वातोमा विरोध आवे छे अने अनुभवली वातने माधान, खोटी करवान साधन जणाव्या सिवाय बिन अनुभवेली हकीकतने साची ठराववी ए केवी रीते ? समा०-ज्यारे मनुष्य के पशु विगेरे अहींथी मरीने नरकमां उत्पन्न थाय छे त्यारे तेओए मर्या पहेलां-मनुष्य के पशुनी जींदगीनी हाजरी हती त्यारे-नरकमां जवाने योग्य आयुष्य कर्म बांध्यु ज होय छे-ते सिवाय तेओ नरकना अधिकारी बनी शकतां नथी. हवे आपणे विचारीए के अहींथी कोइ पण मनुष्य के पशु नरकमां जवाने रवाना थयो त्यारे तेने त्यां पहोंचतां थोडामां थोडा पण वखतनी जरूर रहे छे. जेटलो समय तेने त्यां पहोंचतां लागे छे तेटला समय सुधी ते ( नरक भणी ) जनार जीवने आपणे कइ गतिनो कहेवो जोइए ? तेना जवाबमा विचारतां जणाय छे के, हवे ते जीव जे गतिने छोडीने चाल्यो छे ते गतिनो-मनुष्य के पशु गतिनो-तो नथी ज, तेम देव गतिनो पण नथी ज. कारण के जीव पासे जे गतिने योग्य आयुष्यनी हाजरी होय तेज गतिनो ते गणाय छे, तो आ जनार जीव पासे देव, मनुष्य के पशु गतिनुं आयुष्य तो नथी-जो ते आयुष्य, तेनी पासे होत तो तेने स्वमे पण आ रस्तो लेवानी जरूर न रहेत, मात्र तेनी पासे एक नरक गतिर्नु आयुष्य छे अने तेने लीधे ज ते नरकने पंथे पढ्यो छे, आपणे आगळ जोई गया के, जे जीव पासे जे गतिनुं आयुष्य होय ते जीव तेज गतिनों कहेवाय छे, तो हवे आपणो जवाब मळी गयो के, ए जनार जीव नरक गतिनो-नारकी-छे, कारण-तेनी पासे अत्यारे मात्र एक नारकिने योग्य आयुष्यनी ज हाजरी छे, माटे ते जनार जीव नारकिनो ज छे अने ए रीते शास्त्रमा जे कयु छ के, 'जे नारकी होय ते ज नरकमा जाय छे' ते काई खोटुं नथी. जो के आपणो स्थूल अनुभव एवो छ के, अमुक मनुष्य मरीने नारकिमा गयो, पण तेमां खरी हकीकत ए छे के, ज्यां सुधी जीवनी साथे मनुष्यना आयुष्यनो संबंध होय छे त्यां सुधीज ते.मनुष्य कहेवाय छे, ज्यारथी ते जीव साथेनो मनुष्यना आयुष्यनो संबंध तूट्यो त्यारथी सूक्ष्मदर्शी पुरुषो तेने ' मनुष्य ' न कहे तो ते खोटे नथी-पण जे गतिना आयुष्यनी साथे तेनो संबंध छे ते गतिनो व्यवहार ते जीव प्रति करे तो ते पण साचुं छे. माटे आपणो अनुभव सर्वथा स्थूळ छे अने शास्त्रमा कहेली वात तो अमुक अपेक्षाने अवलंबीने जणावाय छे माटे योग्यतानुसारे बेमांथी एक पण खोटुं नथी अर्थात् जे जीवनी साथे जे भवने (नारक बगेरेना भवने ) पमाडनारं आयुष्य लाग्युं होय अने ते जीव ज्यारथी ते भवना ( नारक वगेरेना भवना ) आयुष्यनुं वेदन करतो होय त्यारथी ज-आयुष्यने अनुभव करवाना पहेला समयथी ज-ऋजुसूत्र नयना मतथी (ते जीव ) ते भववाळो (नारक वगेरे भववाळो-नारकि कजुसूत्र. वगेरे ) कहेवाय छे- ऋजुसूत्र नय मात्र वर्तमान स्थिति उपरथी ज पदार्थों प्रति व्यवहार चलवे छे. तेनी दृष्टि, भूत अने भविष्यत्काळ तरफ तो औदासीन्य धारण करे छे. नयज्ञानमां प्रवीण पुरुषोए ऋजुसूत्र नयना स्वरूपर्नु निरूपण करतां कषं छे के, “पराळने अग्नि बाळतो नथी, कोई ठेकाणे घडो फुटतो नथी, शून्यमांथी कांइ नवु पेदा थतुं नथी अने शून्यमा प्रवेश पण थतो नथी. " नारकी सिवायनो कोइ बीजो जीव नरकमां पेदा थतो नथी अने नरकथी कोइ नारक छुटो पण तो नथी ए रीते ऋजुसूत्र नयनो मत छे" इत्यादि जाणवं. नरकथी कोइ नारक 'छुटो पण थतो नथी' एटले जे काळे जीव नरकथी छुटो थाय ते काळे ते, नारक-नारकी-ज शेनो? अने जे काळे जीव नारक (नारकी) होय ते काळे ते, नरकथी छुटो ज केम थइ शके ? अर्थात् ज्यां सुधी जे आयुष्य तेनी पासे होय त्यां सुधी ते आयुष्यनो धणी ते, कहेवाय माटे नारकर्नु आयुष्य पूरूं थइ रह्या पछी तेनी पासे जे गतिनुं आयुष्य होय ते गतिवाळो ते जीव नरकथी बीजे ठेकाणे जाय छे एम व्यवहार थाय, पण नरकथी नारकी (नरकना आयुष्यवाळो ) बीजे ठेकाणे जाय छे एम व्यवहार न थाय-एम ऋजुसूत्र नयनु सापेक्ष मत छ. [ 'जाव-नाणाई' ति ] आ उद्देशक अहीं ज्ञान संबंधी हकीकत सुधी जाणवो. ते आ रीते:--" हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळो जीव केटलां ज्ञानमां वर्ते-केटलां ज्ञानवाळो होय ? हे गौतम ! ते, बे ज्ञानमां, पण ज्ञानमां के चार ज्ञानमा होय. जो बे ज्ञानमा होय तो मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानमा होय, जो त्रण ज्ञानमा होय तो मति, श्रुत अने अवधिज्ञानमा होय " इत्यादि जाणवू. शान. बेडारूपः समुद्रेऽखिलजलचरिते क्षारभारे भवेऽस्मिन् दायी यः सर्गुणानां परकृतिकरणाद्वैतजीवी तपस्वी । . अस्माकं वीरवीरोऽनुगतनरवरो वाहको दान्ति-शान्त्योः-दद्यात् श्रीवीरदेवः सकल शिवसुखं मारहा चाप्तमुख्यः ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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