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________________ २६२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक ६.-उदेशन. १. अनन्तरोदेशके ये एते सवेदना जीवा उक्तास्त आहारका अपि भवन्ति-इति-आहारोद्देशकः, स च प्रज्ञापनायाम् इव दृश्यः, एवं चाऽसौ:-" नेरइया णं भंते ! कि सचित्ताहारा, आचित्ताहारा, मीसाहारा ? गोयमा! नो सचित्ताहारा, अच्चित्ताहारा, नो मीसाहारा " इत्यादि. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीते श्रीभगवतीसूत्रे षष्ठशते द्वितीय उद्देशके श्रीअभयदेवसूरिविरचित विवरणं समाप्तम्. नैरयिको अने आहारःप्र०-"नेरइया णं भंते । किं सचित्ताहारा ? अचित्ताहारा! हे भगवन् । नैरयिको शुं सचित्तनो आहार करे छे, अचित्तनो आहार मीसाहारा ! करे छे के ए बने जातनो आहार करे छ ! उ०-गोयमा ! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा. हे गौतम ! नरयिको सचित्तो के सचित्त-अचित्तनो आहार करता नथी, किंतु तेओ मात्र अचित्तनो आहार करे छे. प्र०-नेरइया णं भंते । आहारट्ठी ? हे भगवन् ! शुं नैरयिको आहारना अर्थी छे ? उ०--हंता, आहारट्ठी. (हे गौतम ! ) हा, तेओ आहारना छे. प्र.-नेरइयाण भंते । केवतिकालस्स आहारहे समुप्पज्जति ! हे भगवन् | तेओने केटले वखते आहारनो अभिलाष उरर्पन्न , थाय छे ? उ.-गोयमा ! नेरइयाण दुविहे आहारे पण्णत्ते, तं-जहा-आभोगनिः हे गीतमा नैरयिकोनो आहार बे प्रकारको होय छे, ते जेम के; एक ब्वत्तिए य, अणाभोगनिव्वत्तिते य. तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिते- जाणता यतो आहार अने बीजो अजाणता धतो आहार. ते बैमा जे से ण अणुसमयम विरहिते आहाम्टे समुप्पज ते. तत्थ गं जे से आहार-अजाणता धाय छे ते होतेओने निरंतर होय छे अर्थात् नैरयिको भामोगनिवतिते-से णं असंखिजसमातिए-अंतोमुहुत्तिते आहान्टे अजाणता तो निरंतर खाधा ज करे छे अने जे आहार-जाणता थाय छे समुप्पजति. तेनो अभिलाष तेओने असंख्य समयवाळा अंतर्मुहूर्त पछी पेदा थाय छे अर्थात् एकवार मानपूर्वक-जाणता-आहार कर्या पछी बीजी.वार तेको अभिलाष नैरयिकोने, असंख्य समयवाडं अंतर्मुहूर्त वीत्या पछी पैदा थाय छे. प्र०–नेरइया णं भंते ! किमाहार आहारेंति ! हे भगवन् । नैरयिको केवां प्रकारनी पुदलोनो आहार करे छ ? उ.-गोयमा ! दवतो अशंतपदेसियाति, खेत्तओ असंखेज पदेसो- हे गौतम ! नरयिको जे जातना पुद्गलोनो आहार करे छे, ते पुदलोर्नु गाढानि, कालतो अण्णयाट्ठियांति, भावंओ वणमंताति, “गंधमंताई, स्वरूप आ प्रमाणे छ:-ए पुदूलो अनंत प्रदेश (परमाणु ) वाळा होय रसमंताई, फासमंताई-जाई भावतो वण्णमंताई ताई x एगवण्णाई पि, छे, ए पुद्रलो एवा लायां पहोळां होय छे के, एओए समावाने माटे पंचवण्णाई पि-कालवण्णाई पि, सुकलाई पि-एगगुणकालाई पिं; आकाशना असंख्य प्रदेशो रोकेला होय छे अने ए पुदलो एक समयथी दसगुणकालाई पि, अणतगुणकालाई पि जाव–मुकिलाई. एवं गंधतोऽवि, मांडी गमे तेटला वखत मुधी स्थायी रहेनारा होय छे-तथा वर्णवाळी, रसतोऽवि. जाई फासमंताई ताई नो एगफासाई, नो दुफासाई, नो गंधवाळा, रसवाळां अने स्पर्शवाळा होय छे-जेओ वर्णवाळा छ तेओ तिफासाई, चउफासाई जाव अट्ठफासाई-कक्खडाई पि, जाव-लुक्खाई एक, बे, त्रण, चार के पांचे वर्णवाळा होय छे-काळां अने यावत्पि-एगगुणकक्खडाई पि, जाव-अणंतगुणकक्खडाई पि-एवं अद्र घोळ होय छे..-काळां पण एकगणां काळां, बमणां काळां, गणां काळी 'वि फासा भाणितव्वा. ताई पुट्ठाई आहारेति, नो अपुट्ठाई-जाव नियमा यावत्-दसगणां काळा अने छेवट काळामी काळा-अनंतगणां काळा छहिसिं. ओसणं कारणं पडुच काल-नीलाति, दुभिगंधाति, तित्तरस- होय छे यावत्-एज प्रकारे अने एटलांज लीलां, पीळां, लाल अने कडुयाई, कवखड-गुरुय-सीय-लुक्खाई-तेसिं पोराणे वण्णगुणे. घोळां पण होय छे. ए ज प्रकारे गंधे पण अने रसे पण एवां ज होय छे गंधगुणे, रसगुणे, फासगुणे विपरिणामइत्ता-परिविदंसइत्ता अण्णे अपुब्वे -ए पुदूलो एक ज सर्शवाळां, बेज हवाळां के ऋण ज़ स्पर्शवाळी वण्णमुणे, गंधगुणे, रसगुणे, फासगुणे उप्पाइत्ता आयसरीरखे तोगाढे नथी होता-पण चार, पांच, छ, सात के आठ स्पर्शवाळा होय छेपोग्गले सव्वप्पणयाए आहार आहारेति. कर्कश, कोमळ, हळवां, भारे, ठंडा, उनां, लूखां अने चीकणां होय हैएवा पण ते एफंगणां कर्कश अने यावत् अनंतगणां कर्कश होय छे अने एज रीते एवा कमळ दिगरे पण समजी लेवानां छे. जे पुदलोने सेओ (नैरयिको) खावामां वापरे छे ते बधा, खानार नैरयिकने अडकेला ज होय छे अर्थात् तेना आत्मप्रदेशोनी लगोलंग पडेला होय छे-जे पुरे. एवा न होय अने दूर पडेलो होय तेने, तेओ खावामा वापरता नथी. ए जातना पुद्गलोने तेओ छए दिशामांथी मेळवी शके छे. धणे भागे तो नैरयिको, जे पुद्गलोने खाय छे ते वर्धा रंगे काळी अने नीला, दुर्गधवाळा, रसे तीखां अने कडवां, स्पर्श कर्कश, भारे, टाढा अने लूखा होय छेनैरयिको, तेओना एटले ते पुद्गलोमा रहेला-जूना वर्णगुणोनो, गंध. गुणोनो, रसगुणोनो अने स्पर्शगुणोनो विपरिणाम करे छे अने परिविध्वंस करे छे तथा ते जुना गुणोने बदले बोजा अपूर्व वर्णगुणोने, गंधगुणोने, रसगुणोने अने स्पर्शगुणोने पेदा करे छे अने तेम करी तेओ-नैरयिकोपोताना आखा शरीर द्वारा पोताना आत्मप्रदेशनी लगोलग रहेला ते पुरलोनो आहार करे छे. तेसि पोराणे, तितरस- होय कासगणों काळा अन एकगणां काळां, बम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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