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शतक ५.-उद्देशक ८. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२३९ क्षेत्रादि विशेष परिवृद्धि छे" आ बधो विचार हवे पछी मूकवामां आवनारी स्थापनाथी जाणवो. "मिश्रोना संक्रम प्रत्ये सप्रदेशो, क्षेत्रथी असंख्यगुण कह्या छे, बळी, ते पोताना स्थानमा थोडा ज ग्रहण करवा " तात्पर्य ए छे के, मिश्र एटले साथे मळेला अप्रदेश अने संप्रदेशपुद्गलो, तेना संक्रम प्रत्ये-अप्रदेशो करतां सप्रदेशो विषेना अल्प बहुत्वना विचाररूप संक्रममा-क्षेत्रथी ‘सप्रदेशो, क्षेत्रथी अप्रदेशो करतां असंख्यगुण छे. वळी, पोताना स्थानमा मात्र सप्रदेशना विचारमां-त-क्षेत्रथी सप्रदेश पुद्गलो-थोडा ज छे. ए ज कहीए छीए:----" क्षेत्रथी सप्रदेश पुद्गलो थोडा छे, द्रव्य, काळ अने भावनी अपेक्षाए सप्रदेश पुद्गलो अधिक छे अने स्वस्थानमां--कोइनी अपेक्षा विना-सप्रदेश पुद्गलोर्नु अल्प बहुत्व छे, ए प्रमाणे अर्थथी जाणवं. अर्थथी एटले व्याख्याननी अपेक्षाए. “ पहेलु अप्रदेशोनुं, बीजु सप्रदेशोनुं, वळी, त्रीजु मिश्रोतुं ए प्रमाणे अर्थथी त्रण अल बहुत्व छे” अर्थथी एटले व्याख्यानद्वारा-ग अल्प बहुत्व छे, पण सूत्रमा तो एक ज मिश्रोतुं अल्प बहुत्व कयुं छे, " स्थाने स्थाने जे भावादिक अप्रदेशोनी वृद्धि थाय छे, ते ज भावादिक सप्रदेशोनी हानी थाय छे" जेमके, कल्पना वडे सर्व पुद्गलो एक लाखनी संख्यावाळा छे, तेमां भावथी अप्रदेश पुद्गलो १००० छे, कालथी अप्रदेश पुद्गलो २००० छे, द्रव्यथी अप्रदेश पुद्गलो ५००० छे अने क्षेत्रथी अप्रदेशपुद्गलो १०००० छे अने भावथी सप्रदेश पुद्गलो ९९००० छे, कालथी सप्रदेश पुद्गलो ९८००० छे द्रव्यथी सप्रदेश पुद्गलो ९५००० छे अने क्षेत्रथी सप्रदेश पुद्गलो ९०००० छे, अने तेम होवाथी भाव अप्रदेशो करतां काल अप्रदेशोमा १००० वधे छे अने ते ज हजार संख्या भाव सप्रदेशो करतां काल सप्रदेशोमा ओछी थाय छे, एम बीजे पण जाणी लेवू, तेनी स्थापना-आकृति-आ छ:---
भावतः
कालतः
व्यतः
क्षेत्रतः
समजाववा माटे कल्पेली स्थापना.
अप्रदेश-
१००० |
अप्रदेश- २००० |
अप्रदेश- ५.००
अप्रदेश- १००००
सप्रदेश- ९९००० ।
सप्रदेश- ९८०००
सप्रदेश- ९५००० ।
सप्रदेश- ९००००
" अथवा क्षेत्रादि-अप्रदेशोनी क्रमथी जे-जेटली-हानी थाय छे ते ज-तेटली ज-क्षेत्रादि-सप्रदशोनी परिवृद्धि थाय छे " " अप्रदेश अने सप्रदेश बन्ने पुद्गलोनी पण परस्पर हानी अने वृद्धि स्खलक्षण-पोताना लक्षण-थी प्रसिद्ध थाय छे" " " जेथी, ते बन्ने प्रकारना पुद्गलो ते चार वडे उपचरित थाय छे तेथी तो ते पुदलोनी परस्पर वृद्धि अने हानि संसिद्ध छे" चार वडे एटले भाव, काल, द्रव्य अने क्षेत्र वडे, उपचरित थाय छे एटले विशेषित थाय छे " ए राशिओनुं प्रत्यक्ष आ उदाहरण कहुं छुः-बुद्धिए एम कल्पो के, जेटलां पुद्गलो छे ते बधां मळीने एक लाख संख्याबाळां छे" कल्पनावडे, जेटलां पुद्गलो छे तेटलांनी एक लाख संख्या कल्पवी. “ क्रमपूर्वक एक, बे, पांच अने दस हजार पुद्गलो यथोपदिष्ट भावादिक चारेनी पग अपेक्षाए अप्रदेशिक छे" " नेवू, पंचा', अट्ठाणुं तेम ज नवाणुं-एटलां हजार पुद्गलो भावादिक चारेनी अपेक्षाए विपरीत रीते-उलटे क्रमे-सप्रदेशिक छे" "जेम संभवे तेम ए राशिओनो अर्थोपनय करवो, अने सद्भावथी खरी रीते-एम जाणवू के, श्रीजिनोए ते (राशि) अनंत कही छे."
जीवोनी वधघट. ४.प्र०-भते !' त्ति भगवं गोयमे समणं जाव-एवं ४.प्र.--हे भगवन् ! एम कही भगवंत गौतमे श्रमण पदासी:-जीवा णं भंते ! किं वडति, हायंति, अवविया ! भगवंत महावीरने एम कयुं के, हे भगवन् । जीवो शु वधे छे,
घटे छे के अवस्थित रहे छे ? ४. उ०-गोयमा ! जीवा ण णो हायति, अव. ४. उ०-हे गौतम ! जीवो वधता नथी, घठता नथी पण ट्ठिया.
अवस्थित रहे छे. ५.प्र०--नेरझ्या णं भंते ! किं बड़ांत, हायंति, अव- . ५. प्र.--हे भगवन् ! नैरयिको हुँ वधे छे, घटे छ के द्विया ?
अवस्थित रहे छे ? ५. उ०-गोयमा ! नेरइया वडति वि, हायंति वि, अव- ५. उ०-हे गौतम | नैरयिको वधे पण छे, घटे पण छे द्विया वि-जहा नेरइया वि एवं जाव-वेमाणिया.
अने अवस्थित पण रहे छे. जेम नैरयिको माटे कथु एम यावत्
वैमानिक सुधीना जीवो माटे जाणवू. ६. प्र०-सिद्धा णं भंते ! पुच्छा ?
६. प्र०-हे भगवन् ! सिद्धोनो प्रश्न करवो अर्थात् तेओ वधे छे, घटे छे के अवस्थित रहे छे ?
१. मूलच्छाया:--भगवन् ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं यावत्-एवम् अबादीत्-जीवा भगवन् । किं वर्धन्ते, हीयन्ते अवस्थिताः ? गौतम ! बीवा नो वर्धन्ते, नो हीयन्ते, अवस्थिता. नैरयिका भगवन् ! किं वर्धन्ते, हीयन्ते, अवस्थिताः ? गौतम ! नैरयिका वर्धन्तेऽपि, हीयन्तेऽपि, अवस्थिता अपि. यथा नैरयिकाः अपि एवं यावत्-वैमानिकाः. सिद्धा भगवन् ! पृच्छा:-अनु. "
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