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२५२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह
शतक है.-उद्देशक ३. अमनाम. तेपणुं एटले अमनोजता, ते पणे, [ ' अमणामत्ताए ' ति ] मनद्वारा संभारतां पण जे न रुचे ते अमनोऽम्य कहेवाय, तेपणुं ते अमनोऽम्यता अने
तेपणे अर्थात् मनथी असंस्मरणीयपणे-पामवाने अवांछितपणे, [' अणिच्छियत्ताए 'त्ति ] अनीप्सितपणे-पामवानी अभिवांछाथी रहितपणे, अभिध्यित. [' अभिज्झियत्ताए ' त्ति ] भिध्या एटले लोभ, ज्या लोभ होय ते भियित कहेवाय अने तेथी उलटुं ते अभियित, तेपणे एटले जे प्राप्त करवाने
लोभ पण न थाय तेपणे, [ ' अहत्ताए ' ति] जघन्यपणे, [ 'नो उड्डत्ताए ' त्ति ] अमुख्यपणे. [ ' अहयस्स ' ति] नहि भोगवेलु-नहि तबोस, वापरेलु-अधोतुं, [ 'धोयस्स व ' ति] भोगवीने-वापरीने पण धोएलं, [' तंतुग्गयस्स 'त्ति ] तंत्र-तुरी, वेमा वगेरे रूप सांचा-थी ताजु ज
दूर करेलु-उतारेखें: [ ' बझंति ' इत्यादि ] त्रण पदवडे अहिं वस्त्रना अने पुद्गलोना उत्तरोत्तर संबंधनी अधिकता कहीं छे. [ भिजति 'त्ति ] विध्वंसादि. प्रथमना एकप्रकारना संबंधने त्यजवाथी, [' विद्धसंति ' त्ति ] तेथी-आत्माथी-नीचे पडयाथी, ['परिविद्धस्संति ' ति] समस्तपणे-बधां य
अहित. पुद्गलोना-पडवाथी, [ ' जल्लियरस 'त्ति जवु अने लागवु एवा प्रकारना मलयुक्त, [ ' पंकियस्स ' ति ] भीना मेलथी युक्त, [ ' मइल्लिअस्स' परिकार्यमाण. त्ति ] कठण मेल सहित, [ 'रइल्लियस्स ' त्ति ] रज सहित अने [' परिकम्मिजमाणस्स ' त्ति ] जेने साफ करवानो आरंभ शरु छे तेवू वस्त्र जेम चोक्खु थई जाय छे तेम अल्पक्रियादियुक्त आत्मा पण चोक्खो थई जाय छे.
वस्त्र अने जीव तथा पुद्गलोपचय अने कर्म.
रूप सांचा-थी ताज़ुज
मारलं, ' तंतुम्गयस ' ति ] तंत्रता
पुद्गलोना उत्तरोत्तर संबंधनी
विश्वंसादि. प्रथमना ___ अहित. पदलोमा
: 'बज्झति ' इत्यादि ] त्रण पदवडे
धन त्यजवाथी, [' विद्धसंति
५.प्र०—वत्थस्सणं भंते ! पोग्गलोवचये किं पयोगसा ५. प्र०-हे भगवन् ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचय थाय के वीससा?
ते शुं प्रयोगथी-पुरुष प्रयत्नथी-थाय छे के स्वाभाविक रीते
थाय छे! ५. उ०-गोयमा ! पओगसा वि, वीससा वि. ५. उ०-हे गौतम ! प्रयोगथी थाय छे अने स्वाभाविक
रीते पण थाय छे. ६. प्र०-जहा णं भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पयोगसा ६. प्र०--हे भगवन् ! जेम वस्त्रने प्रयोगथी अने स्वाभाविक
१. अहीं मूळमां मणाम ( अमणामत्ताए ) शब्दनो प्रयोग थएलो छ. " मनसा अभ्यते गम्यते " (मनोऽम्पः ) (टीकाकार ) अर्थात् मनने गमे ते मनोऽम्य एटले सुंदर अने जे तेवु नहि ते अमनोऽम्य अर्थात् असुंदर. आ 'मणाम' इ.ब्दनी जेटली समानता 'मनोऽम्य' शब्द साथे छे ते करता विशेष समानता ' मनाप' शब्द साधे होइ शके छे. 'मनाप' शब्दनो प्रयोग पालीग्रंथोमा 'सुंदर' अर्थमां ज थएलो छे:
" अम्हाकं पि सहधम्मिका पिया मनापा"-म.पृ०४७ सू० ११ (रा.) " अभिकंतवण्णा-अभिरूपच्छवि, मनापवण्णा"-म० पृ० २४८ बुद्ध० (रा.)
२. अहीं मूळमां अभिज्झियत्ताए' एवो पाठ छे अने तेनो अर्थ करतो टीकाकार श्री जणावे छे के, “भिध्या लोभः, सा संजाता यत्र स भिध्यितः-न भिध्यितः-अभिध्यितः-तद्भावस्तत्ता-तया" अर्थात् “ महाश्रववाळाने जे पुद्गलो चोटे छे.तेनो परिणाम अभिध्यपणे-जे पुदलोने लेवा कोइने लोभ पण न थाय एवा खराबरूपे-थाय छे" तात्पर्य ए छे के, महाश्रवाळाने जे कर्म-दलोटे छे ते एवा अनिष्ट होय छे के, जेने मेळववानो कोइ लोभ पण न रावे. जेम अहीं मूळमा 'अभिज्झियत्ताए' प्रयोग वपरायो छे तेम श्रीवुद्धना सत्रपिटकना 'मज्झिम-निकाय ' नामना ग्रंथमां पण ' अभिज्झा' शब्द वपराएलो छे. त्यां तेन लगतो पाठ अने तेनो श्रीबुद्घोष आचार्यजीए करेलो अर्थ आ प्रमाणे छे:-(मूळपाठ-) "कतमे च भिक्खवे। चित्तस्स उपकिलेसा?
“हे भिक्षुओ! चित्तना उपक्लेश केटला छ ! अभिज्झा, विसमलोभो चित्तस्स उपकिलेसो, व्यापादो, कोधो, उपनाहो अभिध्या, विषमलोभ-ए चित्तनो उपक्लेश छे-ए ज रीते व्यापाद-हिंसा, मक्खे, पासो, इस्सा, मच्छरियं, माया, साठेय्यं, थंभो, सारंभो, मानो, क्रोध, उपनाह, प्रक्ष, पळाश, ईया, मात्सर्य, माया, शठता, स्तंभ, संरभ, अतिमानो, मदो पमादो-चित्तस्स उपक्किलेसो.
मान, अतिमान, मद अने प्रमाद-ए बधा चित्तना उपक्लेश छे"-म.
पृ० २६, सुत-७ (रा०) श्रीबुद्धघोषजीनो अर्थ :"अभिज्झा--विसमलोभो"-" सकभंडे छन्दरागो अभिउमा, परभंडे “पोताना भांड (पात्र विगेरे उपकरण ) मा छंदराग ते अभिध्या अने विसमलोभो. अथवा युत्तपत्तहाने छन्दरागो अभिज्झा, अयुतापत्तहाने बीजाना भांडमां छंदराग ते विषमलोभ. अथवा युक्त पात्र स्थानमा छंदरग विसमलोभो."
ते अभिध्या अने अयुक्त अपात्र-स्थानमा छंदराग ते विषमलोभ"
-म० पृ० २३८ (रा.) भहीं पण आ श्रीबुद्धघोषजीनो अर्थ घणी सुंदर रीते घटी शके तेम छे.
३. अहीं मूलमा 'जल्ल' (जल्लियस्स) शब्दनो प्रयोग भएलो छ तेनो अर्थ मेल थाय छे. एवी ज शब्द-प्रयोग मज्झिम-निकायमा पण आ प्रमाणे मळी आवे छे:
" नाऽई भिक्खवे ! संघाठिकस्स संघाटिधारणमत्तेन सामयं वदामि. "हे भिक्षुओ! संघाटिक काइ मात्र संघाटी धारण करवाथी ज (एव) अचेलकस्स अचेलकमरोन, रजोजल्लिकस्स रजोजलिकमत्तेन" इत्यादि. श्रमण थह शकतो नथी. अचेलक मात्र अचेलक रहेबाथी अने रजोजछिक
( मेलो) मात्र मेलने लीधे पण कांद श्रमण यह शको नथी-एम हुं कई.
छु" इत्यादि-म० पृ० १९० (रा.) १. मूलच्छाया:-बत्रस्य भगवन् ! पुद्गलोपचयः किं प्रयोगेण, विनसया ? गातम ! प्रयोगेणाऽपि, विलसयाऽपि. यथा भगवन् । वनस पुद्गलोपचयः प्रयोगेणः-अनु.
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