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________________ शतक ६.-उद्देशक ४. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसत्र. बहुवचनवाळु ज संभवे छे. [ ' भवसिद्धीय अभवसिद्धीय जहा ओहिय ' त्ति ] आ वाक्यनो अर्थ आ प्रमाणे छ:-भवसिद्धिक अने अभवसिद्धिक भन्य-भव्य, -एओना प्रत्येकना बे दंडक छे-ते औधिक-सामान्य जीव-ना दंडकी पेठे जाणवा, अने तेमां भव्य अने अभव्य जीव चक्कस सप्रदेश छे अने नैरयिकादि जीव तो सप्रदेश अथवा अप्रदेश छे, घणा जीवो तो सप्रदेश ज होय छे, नैरयिकादि जीवो तो त्रण मांगावाला छे, अने वळी, एकेन्द्रिय जीवो ' सप्रदेशो अने अग्रदंशो'ए प्रमाणे एक ज भांगावाळा छ, अहिं भव्य अने अभव्यना प्रकरणमा · सिद्धपद ' न कहे, कारण के, सिद्धोमां 'भव्य ' अने अभव्य ' ए बन्ने विशेषणोनी उपपत्ति थती नथी अर्थात् सिद्धा, भव्य के अभव्य कहेवाता नथी, तथा [ ' नोभवसिद्धिय- नोभव्य-नोअभव्य. नोअभवसिद्धिय 'त्ति] अर्थात् ' भव्य नहि ' अने ' अभव्य नहि ' एवा विशेषणवाळा जीवादिक बे दंडक कहेवा-तेने लगतो अभिलाप आ प्रमाणे छ:-- हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक जीव अने नोअभवसिद्धिक जीव सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? '. इत्यादि. ए प्रमाणे पृथक्त्व-बहुपणानोदंडक पण कहेवो, मात्र अहिं जीवपद अने सिद्धपद, ए पद ज कहेवां, कारण के, नैरयिकादिने ‘नोभव्य ' के 'नोअभव्य ' ए विशषणनी अनुपपत्ति छे एटले ए बे विशेषण नैरयिकादिने लागी शकतां नथी, अने पृथक्त्वदंडकमां पूर्वोक्त त्रण भांगा अनुसरवा, माटे ज कां छे के, [ 'जीवसिद्धेहिं तियभंगो' ति. ] संज्ञिओमा जे बे दंडक छे तेमां बीजा दंडकमां जीवा दिपदोमां त्रण भांगा थाय छे माटे क छ के, ['सन्निहि , संशी. इत्यादि.] तेमां चिरोत्पन्नोनी-लांबा काळथी उत्पन्न थएलानी-अपेक्षाए संज्ञिज.वो कालथी 'सरदेशो 'छे अने उत्पाद विरहनी पछी ज ज्या एक जीवनी उत्पत्ति थाय त्यारे सेना प्रथमपणामां 'सप्रदेशो अने अप्रदेश 'ए प्रमागे कहेवाय तथा ज्यारे घणाओनी उत्पत्तिनुं प्रथमपणुं हत्य त्यारे तो ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो' एम कहेवाय, ते ए प्रमाणे त्रण मांगा जागवा, ए प्रमाण वधा पदोमां जाणवू. मात्र ए ब दंडकमा एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय अने सिद्ध पदो न कहवां, कारण के, तेओमां · संज्ञी ' ए विशेषणनो असंभव छे. [ ' असन्नीहि ' इत्यादि. ] आ वाक्यनो अर्थ आ असशी.. छे:-असंज्ञिओमां एटले पृथिव्यादिपदोने वर्जीने असंझिओ परत्वे बीजा दंडकमां प्रथम दर्शायला ज पण भांगा जाणवा अने पृथिव्यादिपदोमां 'सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो जाणवो, कारण के, ते पृथिवीकायादिमां हमेशा घणा जीवोनी उत्पत्ति होवाथी तेओना अप्रदेशपणानुं बहुत्व पण संभवे छे. नैरयिकोथी मांडी व्यंतर सुधीना संज्ञी जीवोनुं पण असंज्ञीपणु जाणवू, कारण के अनेक असंज्ञिओ पण मरण पामीने नैरयिकादि व्यंतर सुधीना जीवोमा उत्पन्न थाय छे माटे भूतभावनी अपेक्षाए-भूतकाळे ' असंज्ञी हता' ते अपेक्षाए-नैरयिकादि व्यंतरांत जीवो, भूतभाव. जेओ संज्ञी छे तो पण असंज्ञी जाणवा, तथा नैरयिकादिमां असंज्ञिपणुं कादाचिल्क होवाथी एकपणानो अने बहुपणानो संभव छे माटे छ भांगा थाय छे अने ते छ भांगा दर्शाच्या ज छे, ए ज कहे छ के, [' नेरइअ-देव-मणुए -इत्यादि.] आ असजिप्रकरणमां ज्योतिष्क, वैमानिक अने सिद्धो न कहेवा, कारण के, तेओने असंज्ञिपणानो संभव नथी. तथा ' नोसंज्ञी · अने 'नोअसंज्ञी ' विशेषणवाळा बे दंडकमां बहुत्वरूप बीजा दंडकमां जीव, मनुष्य अने सिद्धपदमा उक्तरूप-प्रथमनी जेवा-त्रण भांगा थाय छे, कारण के, तेओमां घणा अवस्थितो लाभे छे अने उत्पद्यमान एकादिनो तेओमां संभव छ, ए बे दंडकमा जीव, मनुष्य अने सिद्धपदो ज कहेवां, कारण के नैरयिकादिपदोने · नोसंज्ञी' अने ' नोअसंज्ञी' ए बन्ने विशेषणो घटतां नथी. सलेश्य-लेश्यावाळा-ना बे दंडकमां जीव अने नैरयिको औधिक-सामान्य-दंडकनी पेठे कहेवा, कारण के, जीवत्वपणानी लेश्या. पठे सलेश्यपणुं पण अनादिनु ज छे-तथी ए बन्नेमां कोई प्रकारनी विशेषता जणाती नथी, मात्र रालेश्य अधिकारमा सिद्धाद न कहे, कारण के, तेओ-सिद्धो-लेश्या विनाना छे. कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाळा अने कापोतलेश्यावाळा जीवो अने नैरयिकोना-प्रत्येकना बे दंडक आहारक जीवादिनी पेठे उपयोग पूर्वक-सावधानता पूर्वक कहेवा, मात्र जन-जे जीव, नैरयिकादिने-ए लेश्या-कृष्णादि लेश्या-होय ते ज अहिं कहवो, एज कहे छे:[कण्हलेस्सा' इत्यादि.] ए कृष्णादि-लेश्याओ, ज्योतिष्कोने अने वैमानकोने नधी होती अने सिद्धोने तो ते बधीमांनी कोइ पण लेश्या नधी ज होती. तेजोलेश्याना वीजा दंडकमां जीवादिपदोमां ते ज श भांगा कहवा, अने बळी पृथिवी, जल अने वनस्पतिओमा छ भांगा कहवा, कारण के, ते पृथिवी वगरेमा तेजोलेश्यावाळा एकादि देवो, जेओ पूर्वोत्पन्न होय छे, तेम उत्पद्यमान होय छे, तेओ लामे छे, माटे सप्रदेशन अने अप्रशोनु एकपणुं अने बहुपणुं संभवे छे, ए ज कहे छ:-[ 'तेउलेस्साए ' इत्यादि.] आ स्थळे-तंजॉलस्याना प्रकरणमां नरयिक, तेज-अग्नि,वायु, विकलेन्द्रिय अने सिद्ध, एटलां पदो न कहेबां, कारण के, एओने तेजोलेश्या नथी होती अने पद्मलेश्याना तथा शुक्ललेल्याना बीजा दंडकमां जीवादिपदोमां तेज बण भांगा कहेवा, एज कहे छ:-[ 'पझलेस्सा' इत्यादि.] ८ळी, आ पद्मलेश्याना अने शुक्ललेश्याना प्रकरणमा पंचेंद्रियतियेच, मनुष्य अने वैमानिकपदो ज कहेवां, कारण के, बीजाओमां ते बे लेश्याओ नथी होती, अलेश्य-लेश्यारहित-जीवना एकत्व अने अने बहुत्वरूप वे दंडकमां जीव, मनुष्य अने सिद्ध पदो ज कहेवां, कारण के, बीजाओने लेश्यारहितपणानो संभव नथी, अने तेमां जीव अने सिद्धना ते जत्रण भांगा जाणवा, मनुष्योमां तो छ भांगा जाणवा, कारण के, अलेश्यपणाने प्रतिपन्न-पामला-अने अलेश्यपणाने प्रतिपद्यमानपामता-एकादि मनुष्योनो संभव होवाथी सप्रदेश णामां अने अप्रदेशपणामां एकत्वनो अने बहुत्वनो संभव छे-आ ज वातने कहे छः-['अलेसेहि अलग्या. इत्यादि. ) सम्यग्दृष्टिना व दंडकमा, सम्यग्दर्शननी प्राप्तिना प्रथम समये अप्रदेशपणु छ अन पछीना वीजा बगेरे समयोमा सप्रदेशपणुं छे, तेमां बीजा दंडकमां जीवादिपदोनों तथैव- पूर्वोक्तानुसार-त्रण भांगा जाणया अने विकलेंद्रियोमा तो छ भांगा जाणवा, कारण के, ते विकलेंद्रियोनां पूर्वोत्पन्न अने उत्पद्यमान एकादि सासादनसम्यग्दृष्टिओ लाभ छे माटे सप्रदेशत्वमा अने अग्रदेशत्वमा एकत्वनो अने बहुत्वनी संभव छे. ए ज कहे है:-[ ' सम्मदिट्ठीहिं ' इत्यादि.] आ सम्यग्दृष्टिद्वारमा एकेंद्रिय पदो न कहत्रां, कारग के, तेओनां सम्यग्दर्शन नथी होतु. [ 'मिच्छदिट्टीहि सम्यग्दृष्टि-मिथ्य दृष्टि. इत्यादि. ] मिथ्यादृष्टिना बीजा दंडकमां जीवादि पदोमा त्रण भांगा कहेवा, कारण के, मिथ्यात्यने प्रतिपन्न घणा छे अने सम्यस्वथी भ्रष्ट थया पछी मिथ्यात्वने प्रतिपद्यमान एकादि जीवो संभवे छे-एम करीने त्रण भांगा जाणवा; अने वळी, अहीं मिथ्यादृष्टिना अधिकारमा एकेन्द्रियपदोमा 'सप्रदेशो अने अप्रदेशो' ए प्रमाणे एक ज भांगो छे, कारण के, ते एकद्रियोमा अवस्थितो अन उत्पद्यमानो घणा होय छे, अहिं सिद्धो न कहेवा, कारण के, तेओने मिथ्यात्व नथी होतुं. सम्यमिथ्याष्टिना बहुपणाना दंडकमां [ ' सम्मामिच्छदिट्ठीहिं छन्भंगा'] ए सूत्र के अने एनो अर्थ आ छ:- सम्यगमिथ्यादृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टिपणाने पामेला अने पामता एकादि जीवो पण लाभे छ, माटे तेओमा छ भांगा छे. अहिं एटले सम्यमिध्यादृष्टिद्वारमा एकेंद्रियो, विकलेंद्रियो अने सिद्धो न कहेवा, कारण के, तेओमा सम्यमिथ्याष्टिपणानो असंभव छे. [ 'संजएहिं ' इत्यादि.] संयतोमा एटले संयतशब्दथी संयत, १. सप्रदेशो (१). सप्रदेशो अप्रदेश (२). सप्रदेशो अप्रदेशो (३):-अजुक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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