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२९४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ६.-उद्देशक ४. 'जोग' त्ति सयोगाः-मन-आदियोगिनः, अयोगिनश्च तथैव. 'उवओगे' त्ति साकारा-ऽनाकारोपयोगास्तथैव. 'वेदे' त्ति सवेदाःस्त्रीवेदादिमन्तः, अवेदाश्च तथैव. 'ससरीर' त्ति सशरीरा औदारिकादिमन्तः, अशरीराश्च तथैव. 'पज्जत 'त्ति आहारादिपर्याप्तिमन्तः, तदपर्याप्तिकाश्च तथैवोक्ता इति.
१. आगळना उद्देशकमा जीवन निरूपण कर्यु छे. अने हवे आ चोथा उद्देशकमां पण ते ज जीवने बीजे प्रकारे निरूपता [ जीवे णं' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. [ कालादेसणं' ति] कालना प्रकार वडे, कालने आश्रीने अर्थात् कालनी अक्षाए, [' सपएसे' ति] विभाग सप्रदेश. सहित. [ नियमा सपएसे 'त्ति ] अनादिपणाने लीधे जीवनी अनंत समयनी स्थिति होवाथी तेने ( जीवने ) सप्रदेशपणुं छे–जे एक
समयनी स्थितिवाळो होय ते काळनी अपेक्षाए अप्रदेश छे अने जे एकथी वधारे एटले बे वगरे समयनी स्थितिवाळो होय तो ते कालनी गाथा. अपेक्षाए सप्रदेश छे. अहिं आ गाथावडे मावना करवी अर्थात् सप्रदेश अने अप्रदेश- स्वरूप आ गाथाने अनुसार जाणवुः " जे जीव प्रथम
समये जे भावमां वर्ततो होय ते जीव अप्रदेश कहेवाय अने प्रथम सिवायना समयमां-बीजा, त्रीजा वगरे समयमां-वर्ततो ते ज जीव कालादेशवडे सप्रदेश कहेवाय " जे नैरयिक जीवने उत्पन्न थयां प्रथम (एक ) ज समय थयो छेते कालादेशवडे अप्रदेश कहेवाय अने
वळी प्रथम पछीना बे वगेरे समयमा वर्ततो ते ज नैरयिक जीव, कालादेशवडे सप्रदेश कहेवाय, माटे का छे के, [ · सिय सप्पएसे, सिय छब्बीश-दंडक, अप्पएसे' ] एटले कोइ सप्रदेश होय अने कोइ अप्रदेश होय. ए प्रमाणे जीवथी मांडीने सिद्ध सुधीना छब्बीश दंडकमा आवता दरेक जीव
माटे एक संख्याने आश्री-एक वचनथी-कालनी अपेक्षाए सप्रदेशत्वादिभावे विचार कर्यो, हवे तेम ज, ए ज छब्बीश दंडक परत्वे पृथक्त्वभावे बहुत्व. -बहुपणे—विचार करीए छीएः [ ' सव्वे वि ताव होज्जा सपएस' ति ] उपपात-उत्पत्ति-ना विरह काळमां पूर्वोत्पन्न जीवोनी संख्या,
असंख्यात होवाथी बधा पण सप्रदेश होय, तथा पूर्वोत्पन्न नैर यकोमा ज्यारे बीजो एक पण नैरयिक उत्पन्न थाय त्यारे प्रथम समयना उत्पन्नपणाने नैररिक. लइने तेनुं अप्रदेशपणुं होवाथी ते अप्रदेश कहेवाय अने ते सिवायना बाकीना नैरयिकोर्नु बे वगरे समयमां-पेला समय पछी । समयोमां
हयातपणुं होवाथी तेओना सप्रदेशपणाने लइने तेओ सप्रदेश कहेवाय, माटे कहेवाय छे के, [' सप्परसा य, अपएसे' यत्ति ] केटलाक सादेश अने एकाद अप्रदेश. ए प्रमाणे ज्यारे घणा जीवो उत्पद्यमान होय त्यारे एम कहेवाय के ['सप्पएसा य अपएसा य'त्ति ] एटले केटलाक
सप्रदेश छे अने केटलाक अप्रदेश छे, अने एक काळे एकादि नैरयिको उत्पन्न पण थाय छे, कहां छे के " एक, बे, त्रण, संख्याता अने पृथिवी. असंख्याता जीवो एक समयमा उत्पन्न थाय छे अने एटला ए ज प्रमाणे उद्वर्ते छे-मरे छे." [ 'पुढविक्काइया णं' इत्यादि.] पूर्वोत्पन्न
अने उत्पद्यमान एकेंद्रियो धगा होवाथी [ ' सपएसा वि, अप्पएसा वि'] एटले 'केटलाक सप्रदेश छे अनें केटलाक अप्रदेश छे' एम के हेवाय छे. वेइंद्रियादि. [ सेसा जहा नेरइया' इत्यादि.] जे प्रमाणे त्रण अभिलापथी नैरयिको कला ते प्रमाणे बाकीना बेइंद्रिय वगेरे सिद्ध सुधीना जीवो जाणवा, हारक-अनहारक. कारण के ए वधाने विरहनो संभव होवाथी एओनी एकादिनी (एक, बे, त्रण, चार वगैरेनी) उत्पत्ति छे. ए प्रमागे आहारक अने अनाहारक
शब्दथी विशेषित थएला जीवोना एकवचनथी एक, अने बहुवचनथी एक ए प्रमाणे बे दंडक कहेवा, कहेवानो क्रम आ प्रमाणे छे:-'हे भगवन् ! शुं आहारक जीव कालादेशथी सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? हे गतिम ! कदाच सप्रदेश छे अने कदाच अप्रदेश छे' इत्यादि-ते क्रम पोतानी बुद्धि अनुसार कहवो, तेमा जे जीव ज्यारे विग्रहमां अथवा केवलि-समुद्घातमां अनाहारक थइने फरीथी आहारकपणुं प्राप्त करे त्यारे आहारकपणाना प्रथम समयमा वर्ततो ते जीव अप्रदेश कहेवाय अने बीजा वगरे समयमां तो वर्ततो ते आहारक जीव सप्रदेश कहवाय माटे कहवाय छे के, [ सिय सपएसे, सिय अपएसे 'त्ति ] एटले कदाच कोइ सप्रदेश अने कोइ अप्रदेश. ए प्रमाण बधा य पण आदिवाळा भावोमां-पदार्थोमां,
-एकवचनमा जाणी लेवु अने अनादिवाळा भालोमां तो [ ' नियमा सपएसे ' त्ति ] एटले । चोक्कस सप्रदेश छे' एम समजी लेवु. अभिलाप. बहुवचनवाळा दंडकमां तो आ प्रमाणे अभिलाप जाणवोः-'हे भगवन् ! शु आहारक जीवो कालादेशथी सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? हे गौतम !
सप्रदेश पण छे अने अप्रदेश पण छे, कारण के, ते आहारकपणामां रहेला घणा जीवो होवाथी तेओर्नु सप्रदेशपणुं छे तथा घणाओने विग्रहगति पछी तरत ज प्रथम समयमा आहारकपणानो संभव होवाथी तेओर्नु अप्रदेशप' पण छे-ए प्रमाणे आहारक जीवोमां सप्रदेशपणुं अने अप्रदेशपणु- ए बन्ने लामे छे माटे ज ' सप्रदेशो पण अने अप्रदेशो पण ' एम कर्तुं छे, ह प्रमाणे पृथिवी वगरे पण कहेवा. अने नारकादि तो बळी त्रण विकल्पवडे कहेवा, ते जेमके; 'हे भगवन् ! शुं आहारक नैरयिको ( कालादेशथी ) सप्रदेश छे के अप्रदेश छे ? हे गौतम ! बवा पण १ सप्रदेश होय, अथवा २ केटलाक सप्रदेश होय अने एकाद अप्रदेश होय ३ अने केटलाक सप्रदेश होय तथा केटलाक अप्रदेश होय, ए ज वातने को छ:[ ' आहारगाणं जीव-एगिदियवज्जो तियभंगो' ] एटले एक जीवपदने अने एकेंद्रियनां पांच पदने वर्जीने त्रण भांगा कहेवा, आ स्थळे 'सिद्धपद ' तो न कहे, कारण के, तेओ (सिद्धो ) अनाहारक ज छे, ए प्रमाणे अनाहारक जीवोने लगता पण (एकत्वनो एक अने बहुत्वनो एक एम ) बे दंडक अनुसरवा, तेमां विग्रहगतिरे प्राप्त जीव, समुद्घातगत केवली, अयोगी अने सिद्ध-ए बधा अनाहारक छे, अने तेओ वधा अनाहारकपणाना प्रथम समये वर्तता होय तो अप्रदेश कवाय अने बीजा वगेरे समयमा वर्तता होय तो सप्रदेश कहेवाय, माटे कयुं छे के, कदाच सप्रदेश होय ' वगरे. बहुपणाना दंडकमां विशेषता कहे छे के, [ ' अपाहारगाणं ' इत्यादि.] जीवोने अने एकेन्द्रियोने वर्जे ते 'जीवकेन्द्रिय वर्ज' कहेवाय-तेओने वर्जीने, जीवपदमा अने एकेन्द्रियपदमां [ ' सपएसा य अपएसा य ' ] एटले 'केटलाक सप्रदेशो अने केटलाक अप्रदेशो' -ए प्रमाणे एक ज मांगो थशे, कारण के, ते बन्ने पदमा विग्रहगतिने प्राप्त एवा अनेक सप्रदेश जीवो अने अनेक अप्रदेश जीवो लाभे के. नैरयिक बगेरेनो तथा बेइंद्रिय वगेरेनो थोडाओनो उत्पाद थाय छे अने तेमां एक, बे वगरे अनाहारको होवाथी छ भंगो थवानो संभव छे, ते छ भागामां बे भांगा तो बहुवचनांत छे अने बीजा चार भांगा तो एकवचन अने बहुवचनना संयोगथी थया छे, ठेकाणे केवल एकवचनना बे भांगा नथी, कारण के, अहिं बहुपणानो अधिकार छे. [ सिद्धहिं तियभंगो' ति ] एटले सिद्धोमां त्रण भांगा थाय, कारण के, तेमां सप्रेदश पद
१. सप्रदेशो (१). अप्रदेशो (२). २. सप्रदेश अनदेश (३). सनदेश अप्रदेशो (४). सप्रदेशो अप्रदेश (५). सप्तदेशो अप्रदेशो (६):-अनु.
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