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२९६ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ६.-उद्देशक . विशेषित थएला जीवादिपदोमां व्रण भांगा जाणवा, कारण के, संयमने पामेला घणा होय छे अने संयमने पामता एकादि जीवो होय छे, अने अहिं
संयतद्वारमा जीवपद अने मनुष्यपद, ए बे ज कहेबां, कारण के, बीजे स्थळे संयतपणानो अभाव छे. असंयतना बीजा दंडकमां [' असंजएहिं ' असंयत. इत्यादि. ] अहिं असंयतपणाने पामेला घणा होय छे अने संयतत्वादिथी पड्या पछी ते असंयतपणाने पामता एकादि जीवो होय छे माटे तेमां त्रण
भांगा जाणवा, अने पूर्वोक्त युक्तिवडे एकेंद्रियोने लगतो तो 'सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो छ, अहिं असंयतद्वारमा · सिद्ध' संयतासंयत. पद न कहे, कारण के, सिद्धोने असंयतपणु संभवतुं नथी. संयतासंयतना बहुत्वदंडकमां [ संजयासंजएहिं ' इत्यादि. ] अहिं देशविरतिने पामेला
घणा होय छे, अने संयमथी वा असंयमथी निवर्ती ते देशविरतिने पामता एकादि जीवो होय छे माटे व भांगानो संभव छे, अने अहिं संयता
संयतद्वारमा जीव, पंचेंद्रियतिर्यच अने मनुष्य पदो ज कहेबां, कारण के, ते त्रण पदो सिवाय बीजे स्थळे संयतासंयतपणु संभवतुं नथी. [ 'नोसंजए' नो संयतादि. - इत्यादि ] सूत्रमा तेज भावना करवी, विशेष ए के, अहिं 'जीव' अने 'सिद्ध ' ए ये पद ज कहवां, माटे ज कयु छ के, [ 'जीव-सिडेहिं सकषाय. तियभंगो 'त्ति. ] [ ' सकसाईहिं जीवाईओ तियभंगो' ति] आ वाक्यनो अर्थ आ छे:-सकषायो-कपायवालाओ-हमेशा अवस्थित होवाथी
तेओ ' सप्रदेशो ' होय छे, एम एक भांगो थयो, तथा उपशमश्रेणिथी पडता होवाथी सकषायपणाने पामता एका द जीवो लाभ छे माटे 'सप्रदेशो अने अपदेश' तथा ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे बीजा बे भांगा जाणवा, नैरयिकादिमां बण भांगा छे, ते प्रतीत ज छ [एगिदिएसु अभंगयं ' ति ] घणा भांगाओनो अभाव ते अभंगक अर्थात् एकेंद्रियोमा ‘सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज विकल्प-भांगो-थाय छे,
कारण के, ते एकेद्रियोमा घणा अवस्थितो अने घणा उत्पद्यमानो लाभे छे. अहिं-कषायिद्वारमां-- सिद्ध ' पद न कहे, कारण के, सिद्धो अकषाय. कषाय रहित छे, ए प्रमाणे क्रोधादि दंडकोमा पण [' कोहकसाईहिं जीवे-गिदियवज्जो तियभंगो ' त्ति ] आ वाक्यनो अर्थ आ छे:-क्रोध कषायना
बीजा दंडकमा जीवपदमा अने पृथिवी वगैरे पदोमा ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो छे अने बाकीनाओमां तो त्रण भांगा छे. शंका. शं०-जेम उपर सकषायी जीवपदमां हमणां त्रण भांगा कह्या छे तेम ज अहीं पण--क्रोधकषायिमां-त्रण भांगा न कहेता 'सप्रदशो अने अंप्रदेशो, समाधान, एवो एक ज भांगो शा माटे कह्यो ? समा०-सकषायी जीवपदमां तो उपशमश्रेणीथी पडता एकादि जीवो संभवे छे, पण अहीं क्रोध कषारिना
अधिकारमा तो तेम संभवतुं नथी. किंतु अहीं मान, माया अने लोभथी निवतेला अने क्रोधने पामता जीवो घणा ज लामे छे, कारण के, ते प्रत्येके, क्रोध कषायिओनी राशी अनंत छे.-ए प्रकारे अहीं एकादिनो संभव न होवाथी सकषायीनी पेठे त्रण भांगा न थई शके. [ देवेहि छन्भंग 'त्ति । देवपदोमां तेरे दंडकोमा पण छ भागा कहेवा, कारण के, तेओमां क्रोधना उदयवाळाओगें अल्पपणु होबाधी एकपणाने अने बहुपणाने लइने सप्रदेशत्व अने अप्रदेशत्व नो संभव छे. मानकषायवाळाना अने मायाकषायवाळाना बीजा दंडकमां ['नरइअ-देवहिं छन्भंग 'त्ति ] अर्थात् नैरयिकोमा अने देवोमा मानना अने मायाना उदयवाळा थोडा ज होय छे माटे पूर्वोक्त न्यायथी तेमा छ भांगा थाय छे. 'लोहक
साईहिं जीवगिदियवज्जो तियभंगो' त्ति ] आ सूत्रनी भावना क्रोधसूत्रनी पेठे करवी. [ ' नेरइएहि छन्भंग ' त्ति ] लोभना उदयवाळा नैरयिको गाथा. अल्प होवाथी पूर्वोक्त छ भांगा थाय छे, कमु छ के, "क्रोधमां, मानमा अने मायामां देवगणना छ भांगा जाणवा तथा मानमा, मायामां अने लोभी देवो अने लोभमां नैरयिकोना छ भांगा जाणवा." देवोने लोभ घणो छ अने नैरयिकोने कोध घणो छे. अकषायिना बीजा दंडकमा जीव, मनुष्य अने क्रोधी नारको. सिद्धपदमा त्रण भांगा जाणवा, कारण के, बीजा भांगाओनो असंभव छे, ए ज कहे छे, [ ' अकसाई' इत्यादि.] ['ओहियणाणे आभिऔधिक शान. निबोहियणाणे सुयणाणे जीवाईओ तियमंगो' त्ति ] मत्यादिना भेदथी अविशेषित ज्ञान ते ओधिक ज्ञान, तेमां, तथा मतिज्ञानमा अने श्रुतज्ञानमा
बहुत्व दंडक संबंधे जीवादिपदोने लगता पूर्वोक्त त्रण भांगा थाय छे, तेमां औधिकज्ञानिओ, मतिज्ञानिओ, अने श्रुतज्ञानिओ सदा अवस्थित होवाथी तेओ सप्रदशो छ, माटे 'सप्रदेशो'ए प्रमाणे एक भांगो थयो तथा मिथ्याज्ञानथी निवर्तता अने मात्र मत्यादिज्ञानने पामता तथा मति अज्ञानथी निवर्तता अने मतिज्ञानने पामता अने श्रुत अज्ञानथी निवर्तता अने श्रुतज्ञानने पामता एकादि जीवो लाभ छे, माटे 'सप्रदेशो अने अप्रदेश, ' तथा ' सप्रदेशो अने अप्रदेशो, ' ए प्रमाणे बे भांगा थाय छे, ए प्रमाणे प्रथमनो एक तथा आ बे मळी ऋण मांगा जाणवा. [' विगलिंदिएहिं छब्भंग ' त्ति ] बेइंद्रियमां, तेइंद्रियमां अने चउरिंद्रियमा सासादनसम्यक्त्व होवाथी आभिनिबोधिकादि ज्ञानवाळा एकादि जीवो संभवे छे माटे ते ज छ भांगा जाणवा, अहिं यथायोग पृथिव्यादि जीवो अने सिद्धो न कहेवा कारण के, तेओनो असंभव छे, ए प्रमाणे
अवधि वगरेमां पण त्रण भांगानी भावना करवी, मात्र अवधि ज्ञानना बन्ने दंडकमां एकेंद्रियो, विकलेंद्रियो अने सिद्धो न कहेवा. मनःपर्याय बीजी वाचना. ज्ञानना बन्ने दंडकमां तो जीवो अने मनुष्यो कहेवा अने केवलज्ञानना बन्ने दंडकमां तो जीवो, मनुष्यो अने सिद्धो कहेबा, माटे ज बीजी वाचनामां
आ प्रमाणे देखाय छे के, 'विण्णेयं जस्स ज अस्थि ' ति एटले जे ज्ञान जेने होय ते तेने जाणवू. [ ओहिए अन्नाणे ' इत्यादि. ] मति वगरे अशान. अज्ञानथी अविशेषित सामान्य अज्ञानमा, मति अज्ञानमा अने श्रुत अज्ञानमा जीवादिपदोमां त्रिगी थाय छे, एओ सदा अवस्थित होवाथी
'सप्रदेशो 'ए प्रमाणे प्रथम भंग थाय छे, ज्यारे तो ए अवस्थित सिवायना बीजा जीवो ज्ञानने मुकीने मतिअज्ञानादिपणे परिणमे छे त्यारे तओमां एकादिनो संभव होवाथी 'सप्रदेशो अने अप्रदेश' इत्यादि बीजा बे भांगा जाणवा अने ए प्रमाणे त्रण भांगा जाणवा, पृथिवी वगेरेमां तो 'सप्रदेशो अने अप्रदेशो ' ए प्रमाणे एक ज भांगो थाय छे, माटे ज कहे छे के, [ 'एगिदियवजो तियभंगो ' त्ति. ] अहिं त्रणे अज्ञानमां सिद्धो न कहेवा, विभंगमां तो जीवादिपदोमा वण भांगा जाणवा अने तेनी भावना मतिअज्ञानादिनी पेठे जाणवी, मात्र अहिं एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय
अने सिद्धो न कहेवा. [ ' सजोई जहा ओहिय ' त्ति ] जेम औधिक जीवादि कह्या तेम जीवादिने लगता बन्ने दंडकमां पण सयोगी कहेवी, ते योग. आ प्रमाणे छे। --सयोगी जीव चोकस सप्रदेश छे, नैरयिकादि तो सप्रदेश पण छे अने अप्रदेश पण छे, घणा जीवो तो सप्रदेशो न छे अने
नैरयिकादि जीवो तो त्रण भांगावाळा छे. वळी, एकेंद्रियादि जीवो त्रीजा भांगावाळा छ, अहिं । सिद्ध ' पद न कहेवं, [ ' मणजोई ' इत्यादि. ] मनोयोगी एटले त्रण योगवाळा अर्थात् संज्ञिजीवो, वचनयोगी एटले एकेंद्रियोने बर्जीने बाकीना जीवो अने काययोगी एटले बधा य पण एकेंद्रियादि जीवो, ए जीवादिकमां त्रिविध भंग छे, तेनी भावना आ प्रमाणे छ:--मनोयोगिओ वगेरेनुं अवस्थितपणुं होय त्यारे प्रथम भांगो जाणवो अने अमनोयोग्यादिपणुं त्यजी मनोयोग्यादिपणे उत्पाद होवाथी अप्रदेशपणाना लाभने लइने बीजा बे भांगा जाणवा, विशेष ए के, जे काययोगी एकेंद्रियो छे, तेजोमा अभंगक एटले घणा भांगा नहि पण सप्रदेशो अने अप्रदेशो 'ए प्रमाणे एक ज भांगो जाणवो, ए णे योगना दंडकोमा
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