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________________ न २०८ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह शतक-4.-उदेशक ६. कारण ते अविरत परिणाम न होवाथी कर्मबंध थशे नहि. अने जे जीवोनां शरीरथी पात्र वगेरे बने छे ते जीवोमां- पुण्यबन्धन कारण विवेक वगेरे न होवाथी ते जीवोने पुण्यबंधन हेतुपणुं नथी. वळी, (एम कंह नहि पण) सर्वज्ञना वचनमा प्रमाणता होवाथी जे जेम तेओए कद्युछे ते तेम श्रद्दधq.ज. शर, पत्रण अने फलनो समुदाय ते इषु. [ अहे णं से उसु' इत्या दि. ] यद्यपि अहीं कोइपण रीते. धनुष्मत् वगेरे पदार्थो सर्व क्रियामा निमित्तरूप छे तो पण अहीं प्रस्तुत वध प्रत्ये तेओनां अमुख्य प्रवृत्तिकपणाथी विवक्षित वधक्रिया तेओए.करी छे' एमन 'विवक्ष्यु होवाथी अने बीजी क्रियाओमां तेओनो मात्र निमित्त भाव होवाथी पण ते क्रियाओ तेओए करी छ' एम विवक्षण होवाथी चार क्रिया कहेली छे, जे जीवना शरीरथी बाण वगेरे बन्यां छे ते जीवने तो पांच किया लागे, कारण के, बाणादिरूप जीव-शरीरो तो साक्षात्-मुख्यपणे-वध क्रियामा प्रवर्तेलां छे. अन्यतीर्थिको. . १२. प्र०-अन्नउत्थिया णं भंते ! एवं आतिक्खंति, जाव- १२. प्र०--हे भगवन् ! अन्यतीथिको ए प्रमाणे कहे छे परूवत से जहा नामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, यावत् प्ररूपे छे के, जेम कोइ युवतिने युवान हाथमां हाथ चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता-सिया एवामेव जाव-चत्तारि पंच ग्रहीने, (उभेला) होय अथवा जेम आराओथी भीडाएली चक्रनी जोयणसयाई बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणस्सहिं-कहमेयं मं! नाभी होय ए प्रमाणे ज यावत् चारसें पांचसे योजन सुधी मनुष्य एवं? लोक, मनुष्य थी खीचोखीच भरेलो छे, हे भगवन् ते ए प्रमाणे केम होई शके? १२. उ०-गोयमा। जं णं ते अन्नउस्थिया, जाव- - १२. उ०. हे गौतम! ते अन्यतीर्थिको जे यावत् मनुष्योथी, मणुस्सेहिंतो-जें तें एवं आहंसु, मिच्छा. अहं पुण गोयमा! एवं जे तेओ ए प्रमाणे कहे छे ते खोटुं छे, हे गौतम! हुं .वळी आ आइक्खामि एवामेव जाव-चत्तारि, पंच जायणसयाई बहुसमा- प्रमाणे कहुं छु के, ए ज प्रमाणे यावत् .चारसे पांचसो योजन इने निरयलोए नेरइएहि. सुधी निरय लोक, नैरयिकोथी खीचो खीच भरेलो छे. १३. प्र०–नेरइयाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए, १३. प्र०-हे भगवन् ! शु नैरयिको एकपणुं विकुर्ववा पुहुत्तं पभू विउव्वित्तए ? समर्थ छे के बहुपणुं विकुवा समर्थ छे ? १३. उ०-जहा जीवाभिगमे आलावगो : तहा नेयूव्वो, १३. उ०-जेम जीवाभिगम सूत्रमा आलापक छे ते आलाजाव-दुरहियासे. पक यावत् 'दुरहियास' शब्द सुधी अहिं जाणवो. ५. अथ सम्यकप्ररूपणाऽधिकाराद् मिथ्याप्ररूपणानिरासपूर्वक सम्यक्प्ररूपणामेव दर्शयन्नाहः - अनउत्थिया' इत्यादि. 'बहुसमाइण्णे' ति अत्यन्तम् आकीर्णः, मिथ्यात्वं च तद्वचनस्य विभङ्गज्ञानपूर्वकत्वाद् अवसेयम् इति. नेरइएहिं ' इत्युक्तम् , .. १. मूलच्छायाः-अन्ययूथिका भगवन् । एवम् आख्यान्ति, यावत्-प्ररूपयन्ति स यथा नाम युवतिं युवा हस्तेन हस्तं गृली यात्, चक्रस्य वा मामी अरकाऽऽयुक्ता स्यात्, एवमेव यावत्-चत्वारि, पञ्च योजनशतानि बहुसमाकीर्णो मनुष्यलोको मनुष्यैः-कथमेतद् भगवन् ! एवम् ? गौतम ! यत् तेऽन्ययूथिका यावत्-मनुष्यैः-ये ते एवम् आहुः, मिथ्या. अहं पुनगाँतम ! एवम् आख्यामि-एवम् एव यावत् चत्वारि, पञ्च योजनशतानि बहुसमाकी नरकलोको नैरयिकैः. नैरयिकाः भगवन् ! किम् एकत्वं प्रभवो विकुर्वितुम् , पृथक्तवं प्रभवो विकुर्वितुम् ? यथा जीवाऽनिगमे आलापकस्तथा ज्ञातव्यो यावत्-दुरधिसह्यम्:-अनु: १. नैरयिको विषे अहीं जीवाभिगम-सूत्रना जे आलापकनी भलामण करवामां आवी छे ते आलापक (स०. पृ० ११७)मा आ प्रमाणे छेः" इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पु. नेरतिया किं एकत्तं पभू विउविः “हे भगवन् | आ रत्नप्रभा नरकमा नैरयिको शुं एकताने विकुर्ववा "सए, पुहुतं पि पभू विउवित्तए ? समर्थ छे के बहुताने विकुवा समर्थ छे ? . ___ गोयमा। एगत पि पभू, पुहुत पि पभू विउवित्तए..एगत्तं विउध्वेमाणा गौतम ! तेओ एकताने पण विकुर्वा शके छे अने बहुताने पण विकुीं एगं महं मोग्गररूवं वा, एवं मुसुंढि-करवत्त-असि-सत्ति-हल-ता-मुसल- शके छे. एकताने विकुर्वता एक मोटा मोघरीना, मुसंढिना, करवतना, चक-णाराय-कुंत-तोमर-सूल-लउड-भिंडमाला य जाव मिंडमालारूवं तरवारना, शक्तिना, हळना, गदाना, मुशळना, चकना, नाराचना, कुंतना, था. पहुतं विउब्वेमाणा मोग्गररूवाणि वा जाव-भिंडमालरूवाणि वा. तोमरना, शूलना, लाकडीना अने यावत्-भिंडमाळना, रूपने विकुर्वी शके ताई खजाई, णो असंखेन्नाई, संबद्धाई, नो असंबद्धाई; सरिसाई, नो. छे अने बहुताने विकुर्वता घणां मोघरीनां रूपोने यावत्-भिंडमाळनां रूपोंने अस रिसाई विउव्वंति-विउवित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा अभि- विकुर्वी शके छे. ते रूपो संख्येय होय छे-असंख्येय नभी होतां, संबद्ध हणमाणा वेयणं उदीरेंति-उज्जलं, विउलं, पगाढं, ककसं, कडयं, फरुसं, होय छे-असंबद्ध नथी होतां, सदृश होय छे-असदृश नथी होतां-ए रूपोने निहुरे, चई, तिन्वं, दुवलं, दुग्गं, दुरहियासं" ति.. विकुवीने एक बोजाना शरीरने अभिहणता अभिहणता वेदनाने उदारे छे, ते घेदना-उज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, चंड, तीन, दुख, दुर्ग भने दुरधिसह्य होय छ: "- Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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