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________________ ४२ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक.? वैश्रमण. ['वेसमणं व 'त्ति] उत्तर दिशाना पालकने-वैश्रमणने-कुबेरने, [अजं वत्ति ] प्रशांतरूप आयीने--चंडिकाने, [ · कोट्टकिरियं वत्ति ] महि___ चंडी. षासुरने कुटती भयंकर चंडिकाने ज, [ 'रायं वा'] अथवा राजाने. ए स्थळे 'यावत् ' शब्द मूकवाथी आ प्रमाणे जाणवु:-'युवराजने, तलबरने, चंडाळ, माडंबिकने, कौटुंबिकने, शेठने, ['पाणं व 'त्ति ] चांडाळने, [ 'उचं'] पूज्यने, [ 'उच्चपणाम 'ति] अतिशयपूर्वक प्रणाम करे छे, ['नीअं'ति ] अपूज्यने, [ 'नीअं पणाम'ति ] वधारे नहीं पण साधारण रीते प्रणाम करे छे. एज वातनो उपसंहार करतां कहे छे के, [जं उचितता. जहा' इत्यादि.] पूज्य अने अपूज्य स्वभाववाळा पुरुष पशु वगेरेने जेवी रीते उचित लागे तेम-पूज्य अने अपूज्यने उचित लागे ते-प्रणाम करे छे. [ 'अणिचजागरिअंति] अनित्य संबंधी चिंताने. [ 'दिट्ठाभटे य'त्ति ] देखेला एवा बोलावेला तथा ['पुव्वसंगतिए 'त्ति ] जूनी नेवर्तनिक, ओळखाणवाळाओने-गृहस्थपणामा परिचित थएला जूना मित्रोने, ['नित्तणिअमंडलं'ति निवर्तन' एटले एक जातनु क्षेत्रनुं माप, तेनी जेटला परिमाणवाळु ते निवर्तनिक. "पोताना शरीर जेटली जग्या ते निवर्तनिक" एम बीजाओ कहे छे. [ 'पाओवगमणं निवण्णे'त्ति ] तेणे पादपोप पुरुषना दश प्राणो अने अग्यारमो आत्मा उत्क्रमे छे-जूदा थाय छे-त्यारे ते एकादशगण-(अग्यारनो जत्थो) मरनारना ममविओने रोवरावे छे माटे ते अग्यारनुं अन्वर्थ नाम 'रुद्र' होवू सुघटित छे. (श. ब्रा० अ० आवृ० पृ० ४८४). वैदिक संप्रदायमा दश प्राणनी गणनामा दश वायुओ गोठव्या छे ते आ छ :“प्राणो-ऽपानः समानश्चो-दान-व्यानौ च वायवः, प्राणाख्याः पञ्च कर्णादौ “शरीरमा कर्ण वगेरे इंद्रियोमा संचरनारा मुख्य पांच वायुओ नाममुख्या वेदे प्रकीर्तिताः-(१३९). नागकूर्मस्तथा देव-दत्तश्चाऽथ धनंजयः, वार आ छे:-प्राण, अपान, समान, उदान अने व्यान. आ वात वेदना कृकलश्चेति विज्ञेया-स्तथा पञ्चोपवायवः” (१४० )- वेदान्तसिद्धान्ता- गवाएली छे. तेम ज बीजा पांच उपवायुओ पण छे, जेओ शरीरना वीजा ऽऽदर्शगतसंज्ञादर्शप्रकरणे). भागमा संचरे छे. तेनां नामः-नाग, कूर्म, देवदत्त, धनंजय अने कृकल छे. आ वायु ते दश प्राण अने अग्यारमो आत्मा, ए मळी अग्यार 'रुद्र' छे. जैन संप्रदायनी अपेक्षाए अग्यारनी व्याख्या आ रीतिए संभवे छे:"पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्चास-निःश्वासमथाऽन्यदायुः, प्राणा "पांच इंद्रियो-( स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु अने श्रोत्र). त्रण वळदशैते भगवद्भिक्ता-स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा"-(जीवविचारवृत्तौ). ( मनोवळ, वचनबळ अने शरीरबळ). श्वासोच्छ्वास अने आयुष्य (५४३४१४१-१0). एम कुल दश प्राण छे अने तेमां तेनो संचालक आत्मा भेळववाथी अग्यारनो गण थाय छ:"-(जी. वृ०). ते पुराणोना आख्यानने अवलंबीने ज अमरकोशमां रुद्र संबंधे अमरसिंह आ प्रमाणे जणावे छे:"आदित्य-विश्व-वसवस्तुषिता भाखराऽनिलाः, महाराजिक-साध्याश्च “नव देवगणो छ, एटले ताराना समुदायनी जेम देवोना पण नव रुदाश्च गणदेवताः" १० आदित्यादयः प्रत्येकं गणदेवताः-समुदायचारिण्यो समुदायो छे:-आदित्यनो, विश्वदेवनो, वसुनो, तुषितनो, भास्वरनो, अनिदेवताः. “आदित्या द्वादश प्रोक्ता विश्वदेवा दश स्मृताः, वसवश्चाष्ट- लनो, महाराजिकनो, साध्यनो अने रुद्रनो. ते प्रत्येक समुदायमा देवोनी संख्याकाः षट् त्रिंशत् तुषिता मताः आभाखराश्चतुष्पष्टिवाताः पञ्चाशदूनकाः, संख्या अनुक्रमे आ रीतिए छः-बार आदित्य, दश विश्वदेव, आठ वसु, महाराजिकनामानो द्वे शते विंशतिस्तथा. साध्या द्वादश विख्याता रुद्राश्च- छत्रीश तुषित, चोसठ आभाखर, पचासथी ओछा वात-वायु, बसेंने वीश कादश स्मृताः"-(अमर-प्र० काण्ड ). महाराजिक, बार साध्य अने 'अग्यार रुद्र' छ"-( एटले नवे देवगणनी संख्या ४२२ नी थाय छे). ए अग्यार रुद्रने रूपकरूपे बनावी पुराणी लोकोए-अग्यार देवना रूपमां गोठव्या छे-तेनां सरस आख्यानो घडी शतपथब्राह्मणनी सादी वातने मोटुं रूप आपी विचित्र पण आलंकारिक वर्णन आप्यु छे. आ पुराणनीज वर्णनाने लोकोए टेको आपेल होवाथी संसारमा रुद्रपूजा पण प्रवर्ती छे अने एने लइने भगवतीजीनां आवेल आ रुद्र शब्द 'रुद्र'नी मूर्तिनो सूचक बन्यो छे. कालान्तरे पुराणनी मान्यता विशेष दृढीभूत थवाथी 'रुदे''शिव'ने सूचववार्नु पण कार्य स्वीकारी एक ईश्वरतरिके प्रसिद्धि मेलवी छे. आ ज कारणथी रसशास्त्रिओए पोताना रसग्रन्थोमां 'रुद्र'ने रौद्ररसनो अधिष्ठाता बनाव्यो छआ बधार्नु मूळ शतपथबाहाणनो ज रुद्र छे. ___४. श्रीयास्कमुनिजी शिव शब्दने 'सुख'ना पर्यायरूपे निघंटुमां आ प्रमाणे जणावे छे: "शिंबाता, शतरा, शातपंता, शर्म, स्यूमकम् , शेवृधम् , मयः, सुरम्य- "वैदिक आर्योए नीचेना वीश शब्दो 'सुख'ना पर्याय तरीके सूचव्या म् , सुदिनम् , शुषम् , शुनम् , शम्मम् , भेषजम् , जलाशम् , स्योनम् , छ:---शिंबाता, शतरा, शातपंता, शर्म, स्यूमक, शेवृध, मय, सुरम्य, सुन्नम् , शेवम् , शिवम् , शम् , कम् , इति विंशतिः सुखनामानिः"-निघण्टु. सुदिन, शूष, शुन, शग्म, भेषज, जलाश, स्योन, सुन्न, शेव, शिव, श अने पृ० २१५). क; ए नामोमां शिव शब्द पग आवे छेः"-(नि.पृ. २१५). ___पुराणकारो जेने अवताररूपे खीकारी, 'शिवपुराण' जेवा ग्रंथने रची, जगतमा खुल्लो मूके छे ते कोइ व्यक्ति तरीके विश्वमा थएल नथी. पण सर्व कोइने इष्ट एवा 'सुख'नो विशेष महिमा दर्शावचा 'सुख'ने ईश्वरात्मक सूचवनारुं ते जातनुं वर्णन पौराणिक होवाथी ते शिवावतारना शिव, काल्पनिक पात्र छे-एवं निरुक्तकार श्रीयास्कजीन मत छे. अहीं मूळमां जणावेल 'शिव' शब्द ए शिवावतारनी मूर्तिने सूचवे छे. जैनोमां तेवु (शिवावतारनी जेवू) आख्यान 'सत्यकि' नामना विद्याधरनुं छे, जे भावी चोविशीमां तीर्थंकर थशे :-अनु. १. 'प्रस्तुत सूचना पुनः संकलन समये शाक्त संप्रदायनी हयाती हती' एम आ हकीकत सूचवे छे. ____२. गणितशास्त्रमा सो हाथना मापने निवर्तन' कहुं छे, एथी निवर्तनिक शब्दनो अर्थ, एटला मापवाळी जमीन थाय छे:-(अमारी प्रति संभव छे के, प्रस्तुतप्रकरणमा तेनो ए अर्थ न घटी शकतो होय. कारण के, ज्यारे तामली तपस्वी तद्दन अंतिम अनशननो स्वीकार करे छे त्यारे ते पोताना स्थान माटे अमुक परिमाणवाळी जग्यान मंडळ आळेखे छे. जेम अत्यारे पण घणा तपस्वीओ अमुक प्रमाणर्नु कुंडाडु काढीने तेमा ज स्थिर बेसवानो मर्यादित संकल्प करे छे तेम ए तामली तपस्वीए ते आळेखेला मंडळमां रहीने (अर्थात् ए मंडळथी क्यांय बहार न जईने) पोतानो अंत आणवानो निश्चय कर्यो छे. एथी कदाच एने सो हाथ जमीननी जरूर न होय-किंतु पोतार्नु शरीर जेटलामा माई शके तेटली ज जग्यानी जरूर होय-ए कल्पना विशेष संभवित लागे छ भने एम होवाथी 'निवर्तनिक' शब्दनो पूर्वोक्त अर्थ अहीं न पण घटे:-अनु० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org|
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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