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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ३.-उद्देशकः४, ४. उ०--चउभंगो. एवं-किं मूलं पासइ, कंदं पासइ ? .. ४. उ०-- हे गौतम ! अही पण चार भांगा कहेवा. ए ज चउभंगो. मूलं पासइ, खधं पासड़ ? चउभंगो. एवं मूलेणं रीते शु मूळने जूए छे ? कांदाने जूए छे? हे गौतम! पूर्व प्रमाणे बीअं संजोएअव्वं, एवं कंदेण वि समं संजोएअव्वं जाव-बीअं. चार भांगा करवा. मूळने जूए छे? स्कंधने जूए. छ? हे गौतम! एवं जाव-पुप्फण समं बीअं संजोएअव्वं.
अही पण चार भांगा करवा. अने एज प्रमाणे ' मूळनी साथे बीजनो संयोग कबो, ए रीते कंदनी साथे पण जोडq यावत्
बीज. ए प्रमाणे यावत्-पुष्पनी साथे बीजनो संयोग करयो. ५. प्र०-अणगारे णं भन्ते ! भाविअप्पा रुक्खस्स किं ५. प्र०-हे भगवन्! भावितामा अनगार, शुं वृक्षन फळ फलं पासइ, बीअं पासइ ?
जूए के बीज जूए? ५. उ०-चउभंगो.
५. उ०--हे गौतम ! अहीं चार भांगा करवा.
१. 'अनन्तरोद्देशके क्रिया उक्ता, सा च ज्ञानवतां प्रत्यक्षा' इति तदेव क्रियाविशेषमाश्रित्य विचित्रतया दर्शयंश्चतुर्थोद्देशकमाह, तस्य चेदं सूत्रम्:-' अणगारे णं' इत्यादि. तत्र 'भाविअप्प 'त्ति भावितात्मा संयम-तपोभ्याम् , ' एवंविधानामनगाराणां हि. प्रायोऽवधिज्ञानादिलब्धयो भवन्ति ' इति कृत्वा भावितात्मा इत्युक्तम्. 'वेउब्बियसमुग्घाएणं समोहयं ' ति विहितोत्तरशरीरमित्यर्थः. 'जाणरूवेणं 'ति यानप्रकारेण शिबिकाद्याकारवता वैक्रियविमानेन इत्यर्थः. 'जायमाणं 'ति यान्तं गच्छन्तम् , ' जाणइ 'त्ति ज्ञानेन, 'पासह 'त्ति दर्शनेन. उत्तरमिह-चतुर्भङ्गी, विचित्रत्वादवधिज्ञानस्येति. ' अंतो' ति मध्ये काठसारादि, 'बाहिं 'ति बहिर्वति त्वक्पत्रसंचयादि, एवं मूलेणं' इत्यादि. एवमिति मूल-कन्दसूत्रामिलापेन मूलेन सह कन्दादिपदानि वाच्यानि यावद् बीजपदम्, तत्र च मूलम् , कन्दः, स्कन्धः, त्वक, शाखा, प्रवालम् , पत्रम् , पुष्पम् , फलम् , बीजं चेति दश पदानि, एषां च पञ्चचत्वारिंशद् द्विकसंयोगाः, एतावन्त्येव इह चतुर्भङ्गीसूत्राणि अध्येयानि. एतदेव दर्शयितुमाह-' एवं कंदेण वि' इत्यादि. .
१. आगळना उद्देशकमा क्रिया संबंधे हकीकत कही छे. अने ते क्रिया, ज्ञानी मनुष्योने प्रत्यक्ष होय छे माटे ते ज क्रियाविशेषने आश्रीने
तेने विचित्रपणे देखाडता चोथो उद्देशक कहे छे. अने तेनुं प्रथम सूत्र आ छे:-[अणगारे णं' इत्यादि.] तेमां [ भाविअप्प ' ति] संयम भावितआत्मा. अने तपवडे भावित आत्मा, झाझे भागे एवा प्रकारना साधुओने ज अवधिज्ञानादिक लब्धिओ होय छे माटे ए हेतुथी अहीं 'भावितात्मा' शब्दनो
प्रयोग कर्यो छे. [ ' वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं ' ति ] अर्थात् जेणे उत्तर शरीर बनान्यु छे-तेने. [ 'जाणरूवेणं' ति ] शिविका (डोटी)
वगेरेना आकारवाळा वैक्रिय विमानने रूपे. [ 'जायमाणं ' ति ] गति करता-जता-तेने [ 'जाणइ ' ति ] ज्ञानवडे जाणे छे. [ 'पासइ 'त्ति ] भवधिशान, दर्शन वडे जूए छे. अहीं उत्तरमा चतुर्भगी जाणवानी छे, कारण के अवधिशन विचित्र छे. [ अंतो' त्ति ] वच्चे रहेल लाकडानो गरभ वगेरे.
[ बाहिं । ति ] बहार रहेनारी छाल अने पांदडां वगेरे. ['एवं मूलेणं' इत्यादि.] मूल अने कंदना सूत्राभिलापपूर्वक-मूलनी साथे कंदथी
मांडीने यावत्-बीज सुधीनां पदो कहेबां. ते पदो आ छ:-गूळ, कांदो स्कंध ( मोटी डाळी) छाल, डाळी, प्रवाळ ( अंकुर ), पांदडं, फुल, फळ ४५ मांगा. अने बीज. ए रीते ए दश पदो छे. ए दशे पदोना द्विकसंयोगी ४५ भांगा थाय छे तो एटलांज अहीं चतुर्भेगी सूत्रो कहेबां. एज वातने
देखाडवा कहे छे के, [ ' एवं कैदेण वि ' इत्यादि. ]
२. ३.
, स्कंध. , .छाल.
१. मूलच्छाया:-चतुर्भगः, एवं किं मूलं पश्यति, कन्दं पश्यति ? चतुर्भगः, मूलं पश्यति, स्कन्धं पश्यति ? चतुर्भगः. एवं मूलेन बीज संयोजयितव्यम् , एवं कन्देनाऽपि सम संयोजयितव्यम् यावत्-बीजम्, एवं यावत्-पुष्पेण समं बीजं संयोजयितव्यम्. अनगारो भगवन् ! भावितात्मा वृक्षस्य किं फलं पश्यति, बीज पश्यति ? चतुर्भगः-अनु.
१. जूओ-भगवती प्र० ख० पृ. १३९-अवधिज्ञानः-अनु० २. ते ४५ भांगा आ प्रमाणे छे:---- १. मूळ कंद. १२. , शाखा. .. २३. , फळ,
३४. , फळ. १३. , प्रवाळ. २४. , बीम.
३५. ,, वीज. १४. , पत्र. २५. छाल शाखा.
३६. प्रवाळ पत्र. शाखा. १५. .. पुष्प. २६. , प्रवाळ.
३७. , पुष्प. प्रवाळ. १६. , फळ. २७. , पत्र.
३८. , फळ. पत्र. १७. , वीज. २८. , पुष्प.
३९. , चीज. पुष्प. १८. स्कंध छाल.
४०. पत्र पुष्प. शाखा.
३०, , वीज. बीज.
, प्रवाळ. ३१. शाखा प्रवाळ.
४२.., बीज. स्कंध. २१, ., पत्र.
३२. , पत्र.
४३. पुष्प फळ. छाल. २२. , पुष्प. ३३. , - पुष्प.
४४. , बीज. ४५, फळ बीजः-अनु०,
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