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समाधान. तकवा राता समाज
६८ औरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ३.-उद्देशक २. ५. अथ कथं सूत्रे संख्यातभागमात्रग्रहणे सति इदं नियतभागव्याख्यानं क्रियते ? उच्यते, जावइ खेत्तं. चमरे असरदे. असुरराया अहे उवयइ एक्कणं समएणं, तं सके दोहिं ' तथा 'सकस्स उप्पयणकाले, चमरस्स य उवयणकाले, ते दोणि वि तल्ला... इति वचनतो निश्चीयते-शको यावदधो द्वाभ्यां समयाभ्यां गच्छति, तावद् ऊर्वमेकेन-इति द्विगुणमधःक्षेत्राद्-ऊर्यक्षेत्रम् , एतयोश्चापान्तराल. वर्ति तिर्यकक्षेत्रम् , अतोऽपान्तरालप्रमाणेनैव तेन भवितव्यमिति अधःक्षेत्रापेक्षया तिर्यक्षेत्रं सार्धं योजनं भवतीति व्याख्यातम् . आह च चूर्णिकार:-"ऍगेणं समएणं उपयइ अहे णं जोयणं, एगेणेव समयणं तिरियं दिवडूं गच्छइ, उई दो जोयणाणि सको"त्ति 'चमरस्स णं इत्यादि. 'सव्वत्थो खत्तं चमरे असुरिदे असुरराया उर्छ उप्पयइ एगेणं समएणं' ति ऊर्ध्वगतौ मन्दगतित्वात् तस्य, तच्च किल कल्पनया त्रिभागन्यूनं गव्यूतत्रयम् . 'तिरियं संखेज्जे भागे' त्ति तस्मिन्नेव पूर्वोक्ते त्रिभागन्यूने गव्यूतत्रये द्विगणिते ये योजनस्य संध्ययभागा भवन्ति, तान् गच्छति, तिर्यग्गती शीघ्रतरगतित्वात् तस्य. 'अहे संखेजे भागे गच्छइ 'त्ति पूक्ति विभागद्वयन्यने गव्यूतषटके त्रिभागन्यूनगव्यूतत्रये मीलिते ये संख्येयभागा भवन्ति, तान् गच्छति-योजनद्वय मिल्यर्थः. अथ कथं संख्यातभागमात्रोपादाने नियतसंख्येयभागत्वं व्याख्यायते ? उच्यते, शक्रस्योधगतेश्चमरस्य चाधोगतेः समत्वमुक्तम् , शक्रस्य चोर्ध्वगमनं समयेन योजनद्वयरूप कल्पितम् , अतश्चमरस्याधोगमनं समयेन योजनद्वयमुक्तम् , तथा 'जावइ सक्के देविंदे देवराया उर्छ उप्पयइ एगणं समएणं तं वज दाहिजं बज दोहिं तं चमरे तिहिं ' इति वचनसामर्थ्यात् प्रतीयते-शक्रस्य यदूध गतिक्षेत्र तरय त्रिभागमात्ररूपं चमरस्य ऊर्चगतिक्षत्रम् , अतो व्याख्यातं त्रिभागन्यून त्रिगव्यूतमान तदिति. ऊम्वक्षेत्र-अधोगतिक्षेत्रयोश्च अपान्तरालयात तिर्थक् क्षेत्रमिति कृत्वा त्रिभागद्वयन्य नपदव्यतमानं तद व्याख्यातमिति. यच्च चूर्णिकारेण उक्तम् "चमरो उडूं जोयणं" इत्यादि. तन्न अवगतम् , 'वज्ज जहा सकस्स तहेव, त्ति वज्रमाश्रित्य गतिविषयस्याल्पबहुत्वं वाच्य यथा शकस्य तथैव. शेपद्योतनाथं त्याह-'नवरं विसेसाहि अं कायचं "ति तचैवम्
जस्स णमंते! उड, अहे, तिरियं च गइसियस्स कयरे कयरेहितो अपा वा, बहु आ वा, तुल्ला बा, विसेसाहिआ वा? गोयमा। सम्वत्थोवं खेत्तं बजे अहे उक्यइ एकेणं समएणं, तिरियं विसेसाहिए भागे गच्छइ, उडु विसे साहिए भागे गच्छइ” इति. वाचनान्तरे तु एतत् साक्षादेवोक्तमिति,
५. शं०-समांतो मात्रा संख्यात भाग' एकुंज लख्यु छे, पण कांइ नियमित काळ देखाइयो नथी तो पण पूर्व प्रमाणे काळनी जे नियतता देखाडी छे ते केवीरीत? समा०-'असुरंद्र असुरराज चमर, एक समये जेटलुं क्षेत्र नीचे जाय छे, तेटलुंज नीचे जवामां शक्रन वे समय लागे छे' तथा शक्रनो उपर जबानो काळ अने चमरनो नोचे जवानो कार, ए बन्ने सरखा छे' ए वचनथी निश्चित थाय छे के-शक्र, जेटलं नीचे वे समये जाय छ तेटलं ज उंचे एक समय जाय छे अर्थात् नीचेना क्षेत्र करतां उचेनुं क्षेत्र बमणु छ अने उचेना तथा नीचेना क्षेत्रनी बचगाळ तिरछ क्षेत्र के माटे तेनं प्रमाण
वचगाळा प्रमाणे ज हो जोइए अने एम छ माटे नीचेना क्षेत्रनी अपेक्षाए तिरछु क्षेत्र दोढ योजन थाय छ एम व्याख्या करी छे. चेर्णिकारे का छे चूर्णिकार.
के. "शक्र, एक समये नीचे एक योजन जाय छ तिरछु दोढ योजन जाय छे, अने उंचे ये योजन जाय छे."['चाररसणं' इत्यादि. 1 असरेंद्र असरराज चमर, एक समये सौथी थोडं क्षेत्र उपर जाय छे. कारण के उंचे जवामा तेनी मंद गति छे. ते क्षेत्र, कल्पना प्रमाणे विभागन्यून त्रण गाउ संभव तिरियं संखेजे भागे ति ] आगळ कहेल त्रिभागन्यून त्रण गाउ जेटला क्षेत्रने बमणुं करवाथी योजनना जे संख्येयभागो आवे तेटलं
विभागययन छ गाउ क्षेत्र तिरछे जाय छे. कारण के तिरछे जवामां चमरनी शीघ्रतर गति छे. [ 'अहे संखज्जे भागे गच्छइ' त्ति आगळ कडेल विभागद्यन्यून छ गाउमा, त्रिभागन्यून त्रण गाउ मेळ्ववाथी जे संख्येय भागो आवे छे तेटलं-वे योजन-क्षेत्र नीचे जाय छे. शं०-सूत्रमा तो मात्र संख्यातभाग' एवं जलस्यु छे, पण काइ नियमित काळ देखाइयो नथी तो पण पूर्व प्रमाणे काळनी ज नियतता देखाडी छे ते केवी रीत ? समा-.
की ऊर्ध्वगतिनी अने चमरनी अघोगतिनी सरखाइ कही छे. बळी शकर्नु ऊर्ध्वगमन एक समये ये योजन जेटलुं कलूप्युं छे त्यारे चमरन अधोगमन पण एक समये ये योजन जेटलं ज कहेQ ए उचित छ. तथा 'देवेंद्र, देवराज शक्र, एक समये जेटलु उपर जाय छे, तेटलं ज उपर जवाने वज्रने बे समय अने चमरने त्रण समय लागे छे' ए वचनथी जाणी शकाय छे के शक- जेटलुं ऊर्ध्वगतिक्षेत्र छे तेना विभाग जेटलुं चमरनु ऊर्ध्वगतिक्षेत्र छ अने एम माटे पूर्व प्रमाणे नियततावाळी ('विभागन्यून त्रण गाउ' एटलुं ऊर्ध्वगति क्षेत्र छे एवी) हकीकत कही छे. ऊर्ध्वक्षेत्र अने अधक्षेत्रनी
वचगाळानु तिर्यक् क्षेत्र छ माटे तेनुं प्रमाण विभागद्वयन्यून छ गाउ क युं छे. आ स्थळे चूर्णिकारे जे कयुं छे “ चमर, उंचे एक योजन" इत्यादि. समजात नथी. ते अवगत थतुं नथी-ते समजातुं नथी. [ 'वज्जं जहा सक्कस्स तवे त्ति ] जेम शक संबंधे गतिविषयनी अल्पबहुता कही छे तेम वज्रने आश्रीने
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१. प्र. छायाः-यावत्कं क्षेत्रं चमरः, असुरेन्द्रः, असुरराजोऽधोऽवपतति एकेन समयेन, तत् शक्रो द्वाभ्याम् . २. शक्रस्य उत्पतनकालः, चमरस्य चाऽवपतनकालः, तो द्वावपि तुल्या. ३. एतद्विषयश्चर्णिगतः पाठ एवंरूपेण दृश्यते:-" उवरि गति यथाः-एगेण समएण सक्को, दोहि वज, तिहिं चमरी न खेतं कम्नतिः सिध्ध-मंद-मंदतरजोयणगमणं दिवसपुरिस इव (2) अहे एगेण समएण चमरो, दोहि सको, तिहिं वर्ण; तहेव मंदग (त) मनवत् . (?) सट्राणपरिहाणे अप्प-बहु भाणियब्ध. कडगं कालो, खेत्तं पडुच सहाणे अप्प-बहुमग्मणा भिन्नकालो, उहूं, अहे, तिरिय एगेणं समएण उपतति औ जोयणे, तंणेव समएण तिरिया दिवढू गच्छति, उड़े दो जोयणाणि सक्को. चमरो उ९ जोयणं, तिरिय दिवढं, अहे दो जोयणाणि. वज्जम वि अहे जोयणं निरिय दिव इदं विसेसा य अप-बहु एत्थ पाडेजा. जहा वा समया सक्कादीगं तहा वा वुड्ढी-हाणिहि तहेव खेतं पि.” ४, एकेन समयेन अवपतति अधो योजनम . एक व समयेन तिर्यग द्वय छति, अध्यम् द्वे योजने शक्र इति. ५. यावत्कं शक्रः, देवेन्द्रः, देवराज ऊध्वम् उत्पतति एकेन समयेन
बचो द्वाभ्याम् , यद् वनो द्वाभ्यां तत् चमर त्रिभिः. ६.६ज्रस्य भगवन् ! ऊचम् , अधः, तिर्यक् च गतिविषयस्य कतरः कतरेभ्योऽल्पा वा, बहुका वल्याबा, विशेषाधिका वा गीतमा सर्वलोक क्षेत्र बञम् अधोऽवपतति एकन समयेन, निर्मग विशेषाधिकानूभागानु मच्छति, ऊ विशेषाधिकान भाविकाश पाउस बगायो
बहुमजोयणं, तिरिय दिवस पि." ४, एकेन
एकेन समयेन
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