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भगवतुधर्मस्वामिप्रणीत भगपतीतून.
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शतक ३. - उद्देशक २.
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वर्तितवेगवद्गतिरिति, एकार्था चैते शब्दा:. 'संचाइए 'ति शक्ति: ' साहत्थिं 'ति स्वहस्तेन. ' गइविसए 'त्ति इह यद्यपि गतिगोचरभूतं क्षेत्र गतिविषयशब्देनोच्यते, तथापि गतिरेव इह गृह्यते, शीघ्रादिविशेषणानां क्षेत्रेऽयुज्यमानत्वाद् इति 'सीहे' त्ति शीघ्रो वेगवान्, स चाऽनैकान्तिकोऽपि स्यात्, अत आह- 'सीहे चेव' त्ति शीघ्र एव एतदेव प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय पर्यायान्तरेणाह - त्वरितः 'वरितश्चेति. 'अति अतिशयेन अश्वोऽतिस्तोक इत्यर्थः मंदे गंदे चैव ति असन्तमन्दः एतेन च देवानां गतिस्वरूपमात्रमुक्तम्, एतस्मिंथ गतिस्वरूपे सति शक्र पण चमराणामेकमाने ऊदो क्षेत्रे गन्तव्ये यः काउमेदो भवति तं प्रत्येकं दर्शयन्नाह' जाइय इत्यादि. अथेन्द्रस्य ऊर्ध्वा ऽधः क्षेत्र गमने कालभेदमाह - ' सव्वत्थोवे सक्कस्त' इत्यादि. सर्वस्तोकं स्वल्पम्, शक्रस्य ऊर्ध्वलोकगमने कण्डकं कालखण्डम्-ऊर्ध्वलोककण्डकम् ऊर्व्वलोकगमनेऽतिशीघ्रत्वात् तस्य अधोलोकगमने कण्डकं कालखण्डम् अधोलोककण्डकं संख्यातगुणम्-ऊर्ध्वलोककण्डकापेक्षया द्विगुणमित्यर्थः, अधोलोकगमने शक्रस्य मन्दगतित्वाद्, द्विगुणत्वं च ' सक्कस्स उप्पयणकाले, चमरस्स य उवयणकाले एए णं दोणि वि तु तथा जावतियं से चमरे असुरिंदे असुरराया आहे उपयह इसे समयेणं तं सके दोहिति इक्केगं वक्ष्यमाणवचनद्वयसामर्थ्यात् लभ्यमिति 'जावइयं ' इत्यादिसूत्रद्वयमधः क्षेत्रापेक्षं पूर्ववद् व्याख्येयम् ' एवं खलु ' इत्यादि च निममदम् . अथ शक्रादीनां प्रत्येकं गतिक्षेत्रस्य अल्प बहुपदर्शनाय सूत्रत्रयमाह सकस्स इत्यादि सत्र ऊयम् अधः, तिर्यक् च यो गतिविषयः गतिविषयभूतं क्षेत्रमनेकविधम् तस्य मध्ये कतरो गतिविषयः कतरस्माद् गतिविषवात् सकाशात् अल्यादिरिति प्रश्नः. उत्तरं तु सर्वस्तोकमधः क्षेत्रम् समयेनावपतति - अधोमन्दगतित्वात् शक्रस्य. ' तिरियं संखेज्जे भागे गच्छइ ' त्ति कल्पनयां किल एकेन समयेन योजनमथो गच्छति शक्रः, तत्र च योजने द्विधाते ही भागा भवतः, तयोश्चैकस्मिन् विभागे मीलिते त्रयःसंख्येया भागा द्वौ भवन्ति, अतस्तान् तिर्यग् गच्छति - सार्धं योजनमित्यर्थः - तिर्यग्गतौ तस्य शीघ्रगतित्वात्. 'उडुं संखेज्जे भागे गच्छइ 'त्ति यान् किल कल्पनया श्रीन् द्विभागांस्तिर्यग् गच्छति तेषु चतुर्थेऽप्यस्मिन् द्विभागे मीलिते चत्वारो द्विभागरूपाः संख्शतभागाः संभवन्ति, अतस्तान्
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गच्छति
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अपेक्षाए
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४. ' कोइ पुरुष ढेफुं के दडा वगेरेने फेंकी, पछी ते जता ढेफा के दडानी पाछळ जइ, तेने पकडी शकतो नथी 'ए प्रमाणे जगतमां देखाय छे अर्थात् ए रीते मनुष्योमां देखाय छे. तो शुं देवमां पाए ज रीत छे ? के शुं देव, फेंकेल वस्तुने, तेनी पाछळ जइ पकडी शके छे? जेथी शक्र इंद्रे फेंकेला वज्रनी पाछळ जइ तेने पकडी लीधुं तथा जो इंद्र वजनुं ग्रहण करवा समर्थ हतो तो, तेणे चरने शामाटे न पकड्यो ? ए अभिप्रायथी प्रस्तावनावाळु प्रश्न अने उत्तर सूत्र कड़े छे -[ 'भंते!-' इज्यादि. ] [ 'सीहे 'ति ] वेगवाळो' कोइ वेगवाळो एवो पण होय के जेनामां मात्र सत्ता तरीके शीन गमनशक्ति न होय, माटे कड़े छेके, [[" सोइगई चेति ] ए शोत्र गालो न छे, पन अशीगतिवाळो नयी. कोइ शीघ्र गतियाळ शरीरनी अपेशा पत्र होव माटे कहे छे के, [तुरिति ] बालो को स्ववाळो गति सिहाय बीजे ठेकाणे पण होव माटे कड़े छे के, [ 'तुरिअगइ 'त्ति ] त्वरावाळी गतिवाळो - मानसिक उत्सुकतापूर्वक प्रवर्तली वेगवाळी गतिवाळो - ए बधा शब्दो सरखा अर्थवाळा छे. [ 'संचाइए ' ति] समय भयो, [+ साइरिथं 'ति ) पोताने हावे. [गइसिए 'ति) जो के आ स्थळे 'गतिविषय' ए शब्दनो अर्थ 'गतिनुं क्षेम भाव है तो पन 'गतिनुं क्षेत्र एवो अर्थ करतां शीघ्र स्खरित' वगेरे विशेषणनां यह जाय छे, कारण के ए विशेषणो गतिना क्षेत्रने लागी शकत नथी, माटे ए विशेष सफळ धाय ते सारु गतिविषय शब्दनो अर्थ गति करवो अने एम अर्थ करवाथी ए वर्षा विशेषणो गति ने सारी गति रीते लागी शके छे. [ 'सीहे 'त्ति ] वेगवाळो, कोइनुं वेगवाळापणुं अनिर्णीत पण होय माटे कहे छे के, [, 'सीहे चेव 'त्ति ] वेगवाळो जं छे. ए ज वातने प्रक्रर्मपूर्वक कहेवा माटे बीजी रीते कहे छे, के ते त्वरित छे-त्वरावाळो छे. [ 'अप्पे अप्पे चैव 'त्ति ] घणो थोडो छे. [मंदे मंदे 'व' त्ति ] घणो जमंद. ए सूत्रथी मात्र देवोनी गतिओनुं स्वरूप कयुं. हवे ज्यारे देवोनी गतिओनुं स्वरूप आयुं छे त्यारे एक सरखा मापवाळा उंचा, नीचा, के तिरछा क्षेत्र तरफ जतां शक्र, वज्र अने चमरने जे जूदो जूदो काळ लागे छे ते प्रत्येक काळने दर्शावतां कहे छे के [ 'जावईओ' इत्यादि. ] शक्र बज्र अने वे इंद्रने उंचे अन नीचे क्षेत्र जतां जे जूदो जूदो काळ लागे छे तेने कहे छे - [ ' सव्वत्थोवे सक्करस ' इत्यादि. ] शक्रने उंचे जतां सौथी थोडो काळ लागे छे, कारण के ते उंचे जवामां अतिशीघ्र होय छे. ' ऊर्ध्वलोककंडक ' शब्दनो अर्थ आ छेः ऊर्ध्वलोक एटले उपरनुं क्षेत्र अने 'कंडक' एटले वखतनो भाग. शक्रनुं अधोलोककंडक, संख्यातगणुं छे - ऊर्ध्वलोककंडक करतां बमणुं छे. कारण के नीचाणवाळा क्षेत्र तरफ जतां शक्रनी मंद गति होय. 'शको डंबे जवानो काळ अने चमरमो नीचे जवानो काळ ए बन्ने सरखा तथा एक समय असुरेंद्र, असुरराज चमर नीचे जाय छे तेटलं ज नीचे जवाने शकने वे समय लागे छे ? ए बात आगळ कहेबानी घे अने ए बात उपरथी ज आगळ कहेलं बमणापणुं लब्ध थाय छे. [' नावइअं ' इत्यादि . ] ए वे सूत्र अधःक्षेत्रनी अपेक्षाए छे अने तेनी व्याख्या पूर्वनी पेठे करवी. [ ' एवं खलु ' इत्यादि. ] ए निगमनसूत्र छे. हवे शक्रादिकमांना एक एकनी गतिक्षेत्र संबंधी अल्लबहुता दर्शाववा त्रण सूत्र कहे छे -[ 'सक्कत्स' इत्यादि. ] ते. सूत्रमां आ बात छे-उंचे, नीचे अने तिरछे जे गतिनो विषय-गतिनुं क्षेत्र- छे ते अनेक प्रकारनो छे तो तेमां कया गतिविषय करतां कयो गतिविषय अल्प वगेरे छे ? ए प्रश्न छे. उत्तर तो आछेशक, एक सम सीधी थोडं क्षेत्र नीचे जाये छे, कारण के तेती गति, नीचे जवानां मंद छे. [' तिरिने संखेजे भांगे गच्छद 'चि ] आपने कल्पना करीए के, शक्र, एक समय एक योजन नीचे जाय छे. ते योजनना भाग करवाथी तेना बे भाग थाय छे अने ते वे भागमां एक द्विभाग ( पाडेल भाग जेटलो बीजो भाग) मेळाची संख्येष भाग थाय छे अने शक, एटलं तिरछे जांय हे अर्थात् शक्र दो योजन तिरछे जाय - कारण के जिवामां ते शीघ्र गतिवाळो छे. [ 'उनुं संखेजे भाग गच्छइ 'त्ति ] पूर्वनी कल्पना प्रमाणे जे ऋण द्विभागो जेटलं क्षेत्र तिरछे जाय छे ते प्राण हियागोमा एक चोथो विभाग मेवपाभी चार विभागरूप संख्यातभाग संभव छ भने तेरा भागो जेट मे योजन) क्षेत्र उपर जाय है.
चमरनी गतिने समय.
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फेंक्या पछी पा जइने पकडी
शकाय.
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