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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ३.-उद्देशक ३. ८. प्र०-अस्थि णं मंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया ८. प्र०-हे भगवन् ! श्रमण निग्रंथोने क्रिया होय?
कज्जइ ?
।
८. उ०--हंता, अस्थि.
८. उ०-हे मंडितपुत्र! हा होय. ९. प्र०-कहं णं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कजइ ? ९. प्र.भगवन् ! श्रमण निग्रंथोने केवी रीते क्रिया
होय-श्रमण निग्रंथो कया प्रकारे क्रियाओ करे? ९.30-मंडिअपुत्ता! पमायपञ्चया, जोगनिमित्तं च एवं ९. उ०--हे मंडितपुत्र! प्रमादने लीधे अने योगना-शरीराखलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया कजइ.
दिकनी प्रवृत्तिना-निमित्ते श्रमण निग्रंथोने पण क्रियाओ होय छे. २. उक्ताः क्रियाः, अथ तज्जन्यं कर्म, तद्वेदनां चाधिकृत्य आह-' पुच भंते' इत्यादि. क्रिया करणम् , तज्जन्यत्वात् कर्म अपि क्रिया, अथवा क्रियत इति क्रिया-कर्म एव. वेदना तु कर्मणोऽनुभवः, सा च पश्चादेव भवति, कर्मपूर्वकत्वात् तदनुभव(नस्य इति. अथ क्रियामेव स्वामिभावतो निरूपयन्नाह--' अस्थि णं' इत्यादि. अस्त्ययं पक्षः, यदुत क्रिया क्रियते-क्रिया भवति ? प्रमादप्रत्ययात्, यथा-दुष्प्रयुक्तकापक्रियाजन्यं कर्म. योगनिमित्तं च, यथा-ऐर्यापथिक कर्म.
२. आगळ्ना प्रकरणमा क्रिया संबंधी हकीकत कही छे. हवे क्रियाजन्य कर्म संबंधी अने कर्मजन्य वेदना संबंधी हकीकत कहे छ:-- -कर्म, ['पुव्वं भंते !' इत्यादि.] करवू ते क्रिया. कर्म क्रियाथी पेदा थाय छ माटे ( जन्य अने जनकमां अभेद कल्पवाथी) कर्म पण क्रिया कहेवाय • छे. अथवा क्रिया शब्दनो ज अर्थ 'कर्म' एम करवो-कराय ते क्रिया-कर्म. कर्मनो अनुभव ते वेदना. ते वेदना, पाछळ ज थाय छे. कारण के
वेदना कर्मपूर्वक छे-कर्मनी हाजरी पहेलो होय त्यार बाद ज वेदना (कर्मनो अनुभव ) थाय छ. हवे क्रियान ज स्वानिभावे निरूपता कहे छे:-- अने क्रिया [ 'अत्यि णं' इत्यादि. ] आ वात होइ शक के, श्रमण निर्गथोने क्रियानो होय ? (हा, होय. तेनु कारण दर्शाये छे-) प्रमादने लीधे, जेमके -योग. दुष्पयुक्त शरीरनी चेष्टा जन्य कर्म. योगने लीधे ईर्यापथिकी क्रियाधी-मार्गमा हालवा चालवानी क्रियाथी-उपजतुं कर्म.
जीवनां एजनादि. १०. प्र०-जीणं भंते ! सया समिअं एअइ, वेअइ, १०.प्र.- हे भगवन् ! जीप, हमेशा मापपूर्वक कंपे छे, चलइ, फंदइ, घा, खुभइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ? विविध रीते को छे, एक ठेकाणेथी बीजे ठेकाणे जाय छे, स्पंदन
क्रिया करे छे-थोड़े चाले छे, बधी दिशाओमां जाय छे, क्षोभ पागे छे, उदीरे ----प्रबळतापूर्वक प्रेरणा करे छे अने ते ते
भावने परिणमे छे? १०. उ०--हंता, मंडिअपत्ता ! जीवे णं सया समिअं १० उ०-हे मंडितपुत्र! हा, जीव हमेशा मापपूर्वक कंपे एयति, जाव-तं तं भावं परिणमइ. .
छे अने यावत्-ते ते भावने परिणमे छे. ११. प्र०-जावं च णं भंते ! से जीवे सया समिजाव- ११. प्र०—हे भगवन् ! ज्यां सुधी ते जीव, हमेशा मापपूपरिणमइ, तापं च णं तस्स जविस्स अंते अंतकिरिया भवद? बैंक को छे यावत्-ते ते भावने परिणमे छे, त्यां सुधी ते
जीवनी मरण सगये अंतक्रिया (मुक्ति) थाय ? ११. 30-नो इणढे समढे.
११. उ०-हे मंडितपुत्र ! ए अर्थ समर्थ नथी-सक्रिय जीव
नी मुक्ति न थाय. १२.३०-केणदेणं एवं बच्चइ-जावं च णं से जीवे १२. प्र०--हे भगवन् ! 'ज्यां मुधी ते जीव, हमेशा मापपूर्वक सया समिअंजाव-अंते अंतकिरिया न भवति?
कंपे त्यां सुधी यावत्-तेनी मुक्ति न थाय' एम कहेवार्नु शुं कारण ? १२. उ०-मंडिअपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सपा समिअं १२: उ०-हे मंडितपुत्र! ज्यां मुधी ते जीव, हमेशा मापपूजाव-परिणमइ, तावं च णं से जीवे आरंभइ, सारंभइ, समा- बैंक कंपे छे अने यावत्-ते ते भावने . परिणमे छे त्या सुधी ते रंभइ; आरंभे वहइ, सारंभे वट्टा, समारंभे वट्टइ; आरंभमाणे, जीव, आरंभ करे छे, संरंभ करे छे, समारंभ करे छे, आरंभमां
१. मूलच्छामा:-अस्ति भगवन् ! धमनिग्रन्थः क्रिया क्रियते? हन्त, अस्ति, कथं भगवन् ! श्रमणनिग्रन्थैः क्रिया क्रियते ? मण्डितपुत्र! प्रमादप्रत्ययात् , यागनिमित्तं च; एवं खलु धमनिग्रन्थैः किया क्रियते. ०. जीवो भगवन् ! सदा समितम्-एजते, व्येजते, चलति, सन्दते, घटते, शुभ्यति, उदारयति, तं तं भावं परिणमति हन्त, मण्डितपुत्र ! जीवः सदा समितम्-एजते, यावत्-तं तं भावं परिणमति. यावच भगवन्! स जीवः सदा समितम् यावत्-परिगमति, तावच तस्य जीवस्य अन्ते अन्तकिया भवति ! नायमर्थः समर्थः तत् केनाधन एवम्-उच्यते-यावश्च स जीवः सदा समितम् यारत्-अन्ते अन्तकिया न भवति ? मण्डितपुत्र ! यावच्च स जीवः सदा समितम् यावत्-परिणगति, तावच स जीव आरभते, संरभते, समारभते, भारम्भ को, संरकी बीते, समारमो वर्तते भारभ गाणः--अमुक
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