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________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे. शतक ३.-उद्देशक ४. ४. परिणामाधिकाराद् इदमाहः- जीवेणं ' इत्यादि. 'जे भविए' त्ति यो योग्यः, 'किलेसेसु 'त्ति का कृष्णादीनामन्यतमा लेश्या येषां ते तथा-तेषु किलेश्येषु मध्ये, 'जल्लेसाई' ति या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्लेश्यानि-यस्या लेश्यायाः संबद्धानि इत्यर्थः, 'परियाइत्त 'त्ति पर्यादाय परिगृह्य भावपरिणामेन, कालं करोति-म्रियते, तलेश्येषु नारकेषु उत्पद्यते. भवन्ति चात्र गाथा:-" सवाहिं लेसाहिं पढमे समयम्मि संपरिणयाईि, नो कस्स वि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स. सव्वाहिं लेसाहिं चरिमे समयम्मि संपरिणयाहिं, न वि कस्स वि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स. अंतमुहत्तम्मि गए अंतमुहत्तम्मि सेसए चेब, लेसाहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं." चतुर्विंशतिदण्डकस्य शेषपदानि अतिदिशन्नाहः-'एवं' इत्यादि. एवम्-इति नारकसूत्राभिलापेन इत्यर्थः, 'जस्स'त्ति असुरकुमारादेः या लेश्या कृष्णादिका, सा लेश्या तस्याऽसुरकुमारादेः भणितव्या इति. ननु एतावतैव विवक्षितार्थसिद्धेः किमर्थं भेदेनोक्तम्-'जाव-जीवे णं भंते!' इत्यादि ? उच्यतेः-दण्डकपर्यवसानसूत्रदर्शनार्थम् . एवं तर्हि वैमानिकसूत्रमेव वाच्यं स्यात् , न तु ज्योतिष्कसूत्रम् इति ? सत्यम्, किन्तु ज्योतिष्क-वैमानिकाः प्रशस्तलेझ्या एव भवन्ति-इत्यस्याऽर्थस्य दर्शनार्थं तेषां भेदेनाऽभिधानम् , विचित्रत्वाद् वा सूत्रगतेरिति..। परिणाम. ४. परिणमन--परिवर्तन-परिणाम-नो अधिकार चालतो होवाथी, हवे आ एने ज लगती बीजी वात कहे छे के, [जीवे णं' इत्यादि.]. ['जे भविए 'त्ति] योग्य. [' किंलेसेसु' त्ति ] जेओने कृष्ण वगेरे लेश्याओमाथी कोइ एक लेश्या होय ते 'किलेश्य 'तेमा. [जिल्लेसाई 'ति] कश्या-द्रव्य. जे द्रव्योनी जे लेश्या होय ते द्रव्यो ' यल्लेश्य ' कहेवाय अर्थात् जे कोइ लेश्या संबंधी द्रव्यो. [' परियाइत्त ' ति] भावपरिणामपूर्वक ग्रहण करीने अर्थात् आत्मामां अमुक नियत लेश्यानी असर थया पछी ज-मरण पामे छे-जे लेश्यावाळां द्रव्यो लीधेला होय ते लेश्यावाळा नारकोमा उत्पन्न थाय छे. आ संबंधे केटलीक गाथाओ आ प्रमाणे छ:-" ज्यारे लेश्याना संपरिणामनो पहेलो समय होय त्यारे कोइ पण जीवनो, परभवमा गाथाओ उपपात-जन्म-थतो नथी. ज्यारे लेश्याना संपरिणामनो छेल्लो समय होय त्यारे पण कोइ जीवनो, परभवां जन्म थतो नथी. लेश्यानो संपरिणाम थयाने अंतर्मुहुर्त वीत्या पछी के अंतर्मुहूर्त बाकी रह्या पछी ज जीवो परलोकमा जाय छे." चोवीश दंडकना बाकीनां पदोनो अतिदेश करता कहे छे के, [' एवं ' इत्यादि.] ' एवं ' एटले नारकसूत्रना अभिलाप प्रमाणे. [' जस्स ' ति] असुरकुमारादिकने कृष्ण वगेरे जे लेश्या होय ते शंका. लेश्या, असुरकुमारादिकने कहेवी. शं०-आटलं कहेवाथी ज कहेवानी बात कहेवाइ शके छे तो ['जाव-जीवे गंभंते !'इत्यादि.] ए सूत्र जूदं शा माटे कयुं ? समा०--दंडकना अंतिम सूत्रने देखाडवा माटे पूर्वोक्त सूत्र कयुं छे. शं०--जो एम छे तो एकलुं वैमानिकोर्नु ज सूत्र कहे, हतुं, पण समाधान. ज्योतिषिक संबंधी सूत्र शा माटे कयुं ? समा०-- वैमानिको अने ज्योतिषिको सारी लेश्यावाळा होय छे ए वातने देखाउबा ते बन्ने सूत्रो जूदां विचित्रगति. जूदां कर्या छे. अथवा तेम करवानुं कारण सूत्रनी विचित्र गति छे. विकुर्वणा. २०. प्र०- अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले २०प्र०-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बहारनां पुद्गअपरिआइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा, पल्लंघेत्तए वा? लोनुं ग्रहण कर्या सिवाय वैभार पर्वतने ओळंगी शके छे, प्रलंघी शके छ ? २०. उ०—गोयमा । नो इणडे समढे. २० उ०-हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. २१. प्र०-अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले २१. प्र०-हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बहारना परिआइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा, पल्लंघेत्तए वा? पुद्गलोर्नु प्रहण करीने वैभार पर्वतने ओळंगी शके छे. प्रलंधी शके छ ? १. प्र. छायाः-सर्वाभिलेश्याभिः प्रथमे समये संपरिणताभिः, नो कस्याप्युपपातः परे भवेऽस्ति जीवस्य. सर्वाभिर्लेश्याभिश्वरमे समये संपरिणताभिः, माऽपि कस्याप्युपपातः परसिन् भवेऽस्ति जीवस्य. अन्तर्मुहूर्ते गते, अन्तर्मुहूर्ते शेषकै चैव, लेझ्याभिः परिणताभिर्जीवा गच्छन्ति परलोकम्:-अनु. २. लेश्या 'संबंधे' अहीं एक संक्षिप्त टिप्पण आपेलुं छे, परंतु ते विषेनी वधारे विगतो प्रज्ञापना सूत्रना १७ मा लेश्यापदमा तथा उत्तराध्ययन सूत्रना ३४मा लेश्या अध्ययनमा नोंधाएली छे. आ उपर जे गाथाओ आपेली छे ते, उत्तराध्ययनना लेश्या अध्ययननी छे. तेनो स्पष्ट अर्थ भा प्रमाणे छे: आ बन्ने गाथाओ मरणोन्मुख-त्रियमाण-मरवानी अणी उपर आवेला-प्राणीने लागु पाडवानी छे. जे देहधारी मरणोन्मुख छे तेनुं मरण तद्दन छवटनी एवी लेश्यामां थई शके छे के जे लेश्या साथे एनो संबंध ओछामा ओर्छ अंतर्मुहूर्त सुधी तो रह्यो होय अर्थात् कोई पण म्रियमाण प्राणी, लेश्याना संपर्कनी पहेली पळे ज मरी शकतो नथी. किंतु ज्यारे एनी अमुक कोई लेश्या निश्चित थाय छे त्यारे ज ए, एना जूना देहने छोडी मूतन देह तरफ जई शके छे अने लेश्याने निश्चित थता ओछामा ओछु अंतर्मुहूर्त तो लागे छे गाटे ज गाथामा अंतर्मुहूर्बनी मर्यादा नौधेली छे. आ हकीकत मात्र मनुष्य अने तिर्यचोने ज बंध बेसती छे अने देव तथा नारको माटे तो आ प्रमाणे छे:-देव अने नारकोनी कोई पण वेश्या आखी जीदगी सुधी एक सरखी ज रहे छे अर्थात् कोई देवनी कापोत लेश्या हेाय तो ते, एनी जींदगी सुधी वदलाती नथी. तेम कोई नैरयिकनी कृष्ण लेश्या होय ते पण, एनी जींदगी सुधी बदलाती नथी-मात्र मनुष्य अने तिर्यंचोनी ज लेश्याओ बदलाया करे छे. माटे एओने देव अने नैरयिकोने-उपर्युक्त गाथा लागु थई शके तेम नथी. तेओ तो ज्यारे मरणोन्मुख होय छे सारे एओनी लेश्यानो अंत आववाने ( बदलो थवाने ) अंतर्मुहूर्त ज बाकी रहेलं होय छे माटे कोई पण देव वा नैरयिक पोतानी लेझ्यानुं छेवटन अंतर्मुहूर्त वाकी रोज काळ करी शके छे-ते पहेला तो नहि जः-अनु० १. मूलच्छायाः-अनगारो भगवन् ! भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् अपादाय प्रभुर्वैभार पर्वतं उल्लरपयितुं वा, प्रलययितुं वा? गौतम । माश्यम् अर्थः समर्थः, अनगारो भगवन् । भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुर्वैभार पर्वतम् उलयितुं वा, प्रलयितुं वा ?:-अनु. 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SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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