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शतफ ३.-उद्देशक २.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२३. उ०—'गोयमा! पोग्गले णं विक्खिते समाणे पब्वामेव २३. उ०---हे गौतम! ज्यारे पुद्गल फेंकवामां आवे छे त्यारे सिग्धगई भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, देवे णं महिडीए तेनामां शरुआतमा ज शीघ्रगति होय छे अने पछी ते मंदगतिवाळू पुबि पि य, पच्छा वि सीह, सीह गई चेव, तुरिए तुरिअगई चेव, थइ जाय छे. तथा मोटी ऋद्धिवाळो देव तो पहेलो पण अने पछी से तेणटेणं जाव-पभू गेण्हित्तए.
पण शीघ्र होय छे, शीघ्र गतिवाळो होय छे, त्वरित होय छे अने त्वरित गतिवाळो होय छे, माटे-ए कारणथी ज यावत्-देव,
फेंकेल पुद्गलने पण तेनी पाछळ जइने लइ शके छे. २४. प्र०—जइ णं भंते ! देवे महिडीए, जाव-अणुपरिय- २४. प्र०-हे भगवन् ! जो मोटी ऋद्धिवाळो देव, यावत्हिता णं गेण्हित्तए, कम्हा णं भंते ! सकेणं देविदेण देवरण्णा पाछळ जइने लइ शके छे तो पछी हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज चमरे असुरिंदे असुरराया नो संचाइए साहत्थि गेण्हित्तए ? शक्र, पोताना हाथे असुरेंद्र, असुरराज चमरने पकंडवा केम न
समर्थ निवड्यो? २४. उ०-गोयमा! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गइविसए २४. उ०-हे गौतम! असुरकुमार देवोनो नीचे जवानो सीहे सीहे चेव, तुरिए तुरिअगई चेव; उडूं गइविसए अप्पे अप्पे विषय शीत्र, शीत्र तथा त्वरित,त्वरित होय छे अने उंचे जवानो चेव, मंदे मंदे चेव: वेमाणिआणं उड़े गइविसए सीहे सीहे चेव, विषय अल्प, अल्प तथा मंद, मंद होय छे. वैमानिक देवोनो उचे तुरिए तुरिए चेव, अहे गइविसए अप्पे अप्पे चेव, मंदे मंदे चेव- जवानो विषय शीघ्र, शीघ्र तथा त्वरित, त्यरित होय छे अने नीचे जावतियं खेत्तं सके देविंद, देवराया उड़े उप्पयइ एक्केणं समएणं, जवानो विषय अल्प, अल्प तथा मंद, मंद होय छे-एक समयमा तं वजे दोहिं; जं वजे दोहि, तं चमरे तिहिं; सव्वत्थोवे सकस्स देवेंद्र देवराज शक्र, जेटलो भाग उपर जइ शके छे तेटलं ज उपर दविंदस्स देवरण्णो उडलोअकंडए, अहोलोअकंडए संखेज्जगुणे. जवाने वज्रने बे समय लागे छे अने तेटलु ज उपर जनाने चमरने जावातयं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे उवयइ एकेणं त्रण समय लागे छे अर्थात् देवेंद्र देवराज शक्रनु ऊर्ध्वडोककंडकसमयेणं, तं सके दोहिं; जं सके दोहि, तं वजे तीहिं, सव्वत्थोवे उंचे जबाने थतुं काळमान-सौथी थोडुं छे अने अधोलोककंडक चमरस्स असुरिंदस्स, असुररण्णो अहेलोगकंडए, उडुलोअकंडए तेना करतां संख्येयगणुं छे. एक समयमां अमुरेंद्र असुरराज चमर, संखेज्जगुणे; एवं खलु गोयमा ! सकेणं देविदेणं, देवरण्णा चमरे जेटलो भाग नीचे जइ शके छे तेटलं ज नीचे जवाने शक्रने बे असुरिंदे, असुरराया नो संचाइए साहत्थि गेण्हित्तए. समय लागे छे अने तेटलुं नीचे जयाने वजने त्रण समय लागे छे
अर्थात् असुरेंद्र असुरराज चमरनुं अधोलोककंडक सौथी थोडं छे अने ऊर्ध्वलोककंडक तेना करतां संख्येयगणुं छे. हे गौतम! ए कारणने लइने देवेंद्र, देवराज शक्र पोताना हाथे असुरेंद्र,
असुरराज चमरने पकडवा समर्थ न निवड्यो. २५. प्र०-सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो उडू, अहे, २५. प्र०—हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज शक्रनो ऊर्ध्वगतिविषय, तिरियं च गइविसयस्स कयरे कयरोहितो अप्पे वा, वहुए वा, तुल्ले अधोगतिविषय अने तिर्यग्गतिविषय; ए बधामा कयो विषय कया वा, विसेसाहिए वा ?
विषयथी अल्प छे, बहु छ, सरखो छे के विशेषाधिक छे ? २५. उ०-सव्वत्थोवं खेत्तं सक्के देविंदे, देवराया अहे २५.० हे गौतम! एक समये देवेंद्र, देवराज शक साथी उवयइ एकेणं समएणं, तिरियं संखेज्ने भागे गच्छइ, उ संखेज्जे थोडो भाग नीचे जाय छे, तिरहुँ, ते करतां संख्येय भाग जाय भागे गच्छइ.
छे अने उपर पण संख्येय भाग जाय छे.
१. मूलच्छायाः-गौतम ! पुद्गलं विक्षिप्तं सत् पूर्वमेव शीघ्रगति भूत्वा ततः पश्चाद् मन्दगति भवति, देवो महर्धिकः पूर्वमपि च, पश्चादपि शीघ्रः शीघ्रगतिव. त्वरितः, स्वरितगतिश्चव, तत् तेनार्धन यावत्-प्रभुग्रहीतुम्. यदि भगवन् ! देवो महाधिकः, यावत्-अनुपयुदर प्रीतुम्, कस्माद् भगवन् ! शकेग देवेन्द्रेण देवराजेन चमरोऽसुरेन्दः, असुरराजो नो शकिनः स्वहस्तेन ग्रहीतुम् ? गौतम ! अमुरकुमाराणां देवानाम् अधोगतिविषयः शीघ्रः शीघ्रः एव, त्वरितः स्वरितगतिश्चैव; ऊर्च गति विषयोऽल्पः, अल्पवैव, मन्दः, मन्दश्चैव; वैमानिकानां देवानाम् उर्व गति विषयः शीघ्रः, शीघ्रश्चैव, त्वरितः त्वरितश्चव; अधोगति विषयः अल्पः अल्पश्चैव मन्दः, मन्दश्चैव--यावत्कं क्षेत्र शको देवेन्द्रः, देवराजः ऊर्ध्वम् उत्पतति एकेन समयेन, तद् वजं द्वाभ्याम् , यद् वजं द्वाभ्यां तत् चमरखिभिः; सर्वत्तोकं शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य ऊर्यलोककाण्डकम्, अधोलोककाण्डक संख्येय गुणम् ; यावत्कं क्षेत्रं चमरोऽसुरे. न्द्रः, असुरराजः अधोऽवपतति एकेन समयेन, तत् शत्रो द्वाभ्याम् ; यत् शक्रो द्वाभ्याम् तद् वर्ग त्रिभिः, सर्वस्तीकं चमरस्य असुरेन्दस्य , असुरराजस्य अधोलोककाण्डकम्, ऊर्च लोककाण्ड कम् संख्येय गुणम् एवं खलु गौतम! शक्रेण देवेन्द्रण, देवराजेन नो चमरः असुरेन्द्रः असुरराजः शकितो हस्तेन प्रहीतुम, शक्रस्य भगवन् ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य ऊर्ध्वम्, अधः, तिर्यक् च गतिविषयस्य कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा बहुवा, तुल्यो वा, विशेषाऽधिको वा ? सर्वस्तोक क्षेत्र शको देवेन्द्रः, देवराजः अधोऽवपतति एकेम समयन, तिर्यक संख्येयान भागान गच्छति, ऊर्ध्व संख्येयान् भागान गच्छतिः-अनु.
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