________________
शतक ४.-उद्देशक १०.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, उत्पातादिभेदाद् वा त्रिधा इति; 'पएस' त्ति, आसां प्रदेशा वाच्या:-तत्र प्रत्येकमनन्तप्रदेशिका एता इति; ' ओगाह' ति, अवगाहना आसां वाच्या-तत्रैता: असंख्यातक्षेत्रप्रदेशावगाढाः; ' वग्गण 'त्ति, वर्गणा आसां वाच्या:-तत्र वर्गणाः कृष्णलेश्यादियोग्यद्रव्यवर्गणाः, ताश्चाऽनन्ताः औदारिकादिवर्गणावत् ; 'ठाण'त्ति, तारतम्येन विचित्राऽध्यवसायनिबन्धनानि कृष्णादिद्रव्यवृन्दानि, तानि चाऽसंख्येयानि,
एलो--" वायगवरवंसाओ ते वीसइमेण धीरपुसेणं " आ उलेख भूलवो जोइतो नथी. श्रीधर्मसागरजीए जे काइ निर्णयात्मक के संभवात्मक लख्यु छे ते बधु ११ मी गादीना धणी श्रीआर्यश्यामने लागु थाय छ, नहि के, २३ मी पाटना मुखी आपणा आ श्रीआर्यश्यामने. वळी एमणे ए ११ मी पाटवाळा आर्यश्यामजीने प्रज्ञापनाना की सूचव्या छ ते विषेनो बीजो कोइ आधार आप्यो नथी-तेमणे (धर्म सा.) छेवटे लख्यु छे के,“ए प्रमाणे नंदीसूत्रनी स्थ विरावलीमा लख्यु छे" पण नंदीसूत्रनी स्थविरावलीमां, जे काइ धर्म गरजीए पोतानी आ स्थळनी पट्टावलीमा नौंध्युं छे तेवू नोंधेलु मळतुं पण नथी, तेमा (नंदीनी प.) तो मात्र खाति अने श्यामाचार्यना नाम अने गोत्रना उल्लेबो मळे छे ए सिवाय एमनो समय के एमनी कृति विषे मूळमां के टीकामां को उल्लेख जडतो नथी तेथी एकला श्रीधर्मसागरजीना उल्लेखथी आपणे एम शी रीते मानी शकीए के, ११ मी गादीवाळा श्रीश्यामसूरिजीए आ प्रज्ञापना सूत्रनी रचना करी हशे ? अने कदाच एम मानी लइए तो पण एमनी (श्यामार्यनी) नेवीशमी पाटवाळा उल्लेखनु शुं थशे? ए विचार उभो थाय छे. आ रीते नंदीमूत्रनी पडावली अने श्रीधर्मसागरजीनी पट्टावली ए बन्ने द्वारा आ सूत्रना कती विषे आपणे कोइ प्रकारना निर्णय उपर आवी शकता नथी. हवे आपणे आ बाबतने लगतो खरतरगच्छनी पटावलीनो उल्लेख तपासीए:
२४. ततः श्रीवीरसरिर्जातः. पुनस्तदैव श्रीकालिकाचा जातः, “त्यार पछी चोवोशमा श्रीवीरसूरि थया. ए ज वखते कालिकाचार्य स च वीरवाक्यात् भाद्रपदशुक्लपञ्चमीतश्चतुर्थी श्रीपर्युषणापर्व आनीतवान्. थया-जेमणे श्रीवीरना वाक्यथी पांचमनी चोथ करी (1) अने ते चोराशी तत एव अद्यापि चतुरशीतिगच्छेषु चतुया सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं क्रियते. गच्छमां आज सुधी समानित थइ. ए कालिकाचार्य वीरात् ९९३ वर्षे अने अयं च वीरात् त्रिनवत्यधिकनवशतवः (९९३) संजातः-तथा विक्रम- विकनात् ५२३ वर्षे थया. संवत्सरात् त्रयोविंशत्यधिकपञ्चशतशतवः ( ५२३ ) संजातः. कालिकाचार्यद्वयम्
बे कालिकाचार्य. पुनः कालिकाचार्यद्वयं प्रागजातम् , तत्र आद्यः प्रज्ञापनाकृत्-इन्द्रस्य ए उपरांत वीजा बे कालिकाचार्य पहेला थइ गया छे. जेमांना एक तो अग्रे निगोदविचारवका-यामाचा परनामा, स तु वीरात् ३७६ वीरात् ३७६ वर्षे थया छे. एर्नु बीजुं नाम श्यामाचार्य हतुं. एमणे इंद्रनी वजीतः. द्वितीयो गर्दभिल्लोच्छेदकः-स तु वीरात् ४५३ वजीतः "- पासे निगोदनुं अद्भुत विवेचन कर्यु हतुं. अने प्रज्ञापना सूत्रनी रचना पण
खरतर(प.) एमणे ज करी छे. बीजा कालिकाचार्य वीरात् ४५३ वर्षे थया अने एमणे
ज राजा गर्दभिलनो नाश कराव्यो. आ पटावली जणावे छे के, श्यामाचार्य के कालिकाचार्य कुल व्रण थया छे-तेमांना एक तो वीरात् ३७६ वर्षे, बीजा बीरात् ४५३ वर्षे अने जीजा वीरात् ९९३ वर्षे. एत्रणे कालिकाचार्यना कार्यनो परिचय पण आ पावलीकारे आपेलो छे-प्रज्ञापनाना कती विषे जे वात धर्मसागरजीए जणावी छे ते ज वात आमणे जणावी छे माटे आपणे वीरात् ३७६ मा थएला अने अग्यारमी पाटवाळा श्रीआर्यश्यामजीने आ यत्रता की त्यां सुधी तो न ज मानी शकीए ज्यां सुधी प्रज्ञापना सूत्रमा आवेली गाथामा जणावेली श्रीआर्यश्यामसूरिनी नेवीशमी पाट खोटी न ठरे.
खरतर गच्छनी पावलीमा २४मी पाट पर श्रीवीरसूरि जणाव्या छे अने ए ज वखते एक कालिकाचार्य थयार्नु जणायुं छे तेथी एम कल्पी शकाय खरं के, आपणा त्रेवीशमी पाटवाळा श्रीआर्यश्याम अने ए श्रीवीरसूरिना समसमयी श्यामसूरि (कालकसूरि)-ए बने कदाच एक ज होयआ कल्पनामा नेवीशमी पाटना प्रश्ननो केटलोक निवेडो थइ शके छे माटे ज आवी अनाधार कल्पना करवानुं साहस थइ शके छे, वळी बीजं के, ज्यां पन्नवणामां श्रीआर्यश्यामनो परिचय आपेलो छे त्या कांद तेमना गुरु विगेरेनो परिचय आपेलो नथी तेथी आपणे एम तो शी रीते कही शकीए के, आ ज आर्यश्यामना गुरु खाति हता-उपरना उल्लेखोथी आर्यश्याम अनेक हेावानुं साबीत थइ गया पछी आ ज आर्यश्याम खातिना शिष्य छे' एम आपणे कही शकीए नहि-वळी खातिना शिष्य आर्यश्याम तो श्रीसुधमाथी अग्यारमो पाटे आवता होवाथी ते अने आ रेवीशमी पाटचा धणी आर्यश्याम ए बन्ने एक शी रीते होय ? अर्थात् आपणे पाटनी दृष्टिए तो ए स्वातिना शिष्य श्रीआर्यश्यामजीने प्रज्ञापनाना की न ज मानी शकीए. आ रीते छेवट ए त्रण आर्यश्याममांना क्या श्रीआर्यश्यामे आ सूत्र रच्यु छ ? ए प्रश्ननो नीकाल थइ शकवो अशक्य जणाय छे. .
प्रज्ञापनासूत्रमा एक स्थळे स्त्रीवेदना समयनी मर्यादा विषे विचारतां मूळमां ज ए विषे आ रीते पांच अभिप्रायो दशाववामां आव्या छे:प्र.-" इस्थिवेदेणं भन्ते । इस्थिवेदे त्ति कालतो केवञ्चिरं होति ? हे भगवन् ! स्त्रीवेद 'स्त्रीवेद ' ए प्रमाणे काळथी क्या सुधी रहे !
उ.-गोयमा। एगेणं आदेसेणं जह. एग समय, उक्को० दसुतरं हे गौतम! एक आ आदेशे करीने स्त्रीवेद जघन्ये एक समय सुची अने पलिओ-वमसतं पुनकोडिपुहुत्तममहि.
उत्कष्टे ११० पल्योपम अने बेथी नव पूर्वकोटि सुपी रहे. एगेणं आदेसे गं जह० एग समयं, उको. अट्ठारस-पलितोबमाई पुन एक आदेशे करीने नौवेद जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कटे १८ कोटि-पुहुत्तमभहिआई.
पल्पोपम अने वेथी नव पूर्व कोटि सुधी रहे. एगेण आदेसेणं ज० एग समयं, उको. चउद्दस पलिओवमाई पुब्ब- एक आदेशे करीने स्त्रीवेद जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कष्ठे पाद कोटिपुहुत्तमम्भहिआई.
पल्योपम अने वेथी नव पूर्वकोटि सुधी रहे. एगे आदेसे में ज० एग समयं, उको परिओवमसतं पुत्रकोडि पुहु. एक आदेशे करीने स्त्रीवेद जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कष्टे १०० तमभहि,
पल्योपम अने बेथी नव पूर्वकोटि सुधी रहे. एगेण आदेसे जह० एगं समयं, उको. पलितोवमहतं पुवकोडि. एक आदेशे करीने स्त्रीवेद जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कष्टे बेथी पुहुत्तमम्भहियं.
नव पल्योपम उपरांत बेथी नव पूर्वकोटि सुधी रहे. आ पांच अभिप्रायोमा क्यो अभिप्राय रीतसरनो छे-ए विषे श्रीआर्यश्यामजीए कोइ प्रकारनो स्पष्ट खुलासो का नथी, वेनुं कारण जणावतां श्रीटीकाकारंजी, जणावे छे के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org