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श्रीरायचन्द्र - जिनागमसंग्रहे
शतक ४. - उद्देशक १०.
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शुक्ला लेश्या मधुररसा गुडादिवत् ' गंध' त्ति, - देश्यानां गन्धो वाच्यः- तत्राऽऽद्यास्तिस्रो दुरभिगन्धाः, अन्त्यास्तु तदितराः, ' सुद्ध' चि, अग्याः शुद्धाः, आचास्त्रितराः ' अपसरथति, आया अप्रशस्ताः, अग्यास्तु प्रशस्ताः किलिङ्गति, आया: संक्लिष्टाः, अन्त्यास्त्वितराः; ' उण्ह' त्ति, अन्त्या उष्णाः स्निग्धाश्च, आद्यास्तु शीता रूक्षाश्च; ' गइ ' त्ति आया दुर्गतिहेतवः, अन्यास्तु सुगतिहेतवः 'परिणाम' चि-देश्यानां कतिविधः परिणाम इति वाच्यम्, तत्राऽसौ जघन्य मध्यमो कृष्टमेदात् त्रिधा
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भागाधा द्वारा आपने एट नगर समजी शकीए सीए के आश्यामसूरिजी वाचक वंशना इसा पूर्वनना हता भने बायकोना वंशम रोमनी पाठ २१ मी हती. आ उपरांत तेमनो समय तेमना गुरु के तेमना समय विद्वानो-ए दिन नंदीपनी वितीय अने खरतरगच्छनी तथा श्रीपसागरजीनी पहावली एक श्याम सूरिजीनी गोंधळी आवे छे तो वे विचार जोइए के ते आश्यांग अने वाचकाळा येश्याम ए बने एक छे के जुदा जुदा के ? नदीमा जेलीआपीछे से आ
अभिजनाच कासवं
पभवं कचायणं वंदे वच्छं सिजंभव तथा २३
२४
जसम भाई चपाइ लभ गोमं एलावचसगोत्तं वृंदामि महागिरिं सुहत्थि च तत्तो कोसि अगोत्तं बहुलस्स सरिव्वयं वंदे. २५ हारियगुत्तं सा च वंदिमो हारियं सामजं.” २३
श्रीमहागिरेस्तु छिप्पी बहुल सिहो यम भ्रातरी तत्र बलिस्सहस्य शिष्यः खातिः - उत्त्वार्थदयो प्रन्यास्तु तत्कृता एवं संभाव्यन्ते तच्छिष्यः श्यामाचार्यः प्रज्ञापनाकृत् श्रीवीरात् षट्सप्तत्यधिकशतत्रये (२७६) वर्गमा यः साडि जीतमादात् इति नन्दस्य विरावल्यामुक्तमस्ति परं सा परंपरा अन्या - इतिः " -- ( ध० सा० प० )
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पट्टधरः
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1. ga
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२. जंबू1
३. प्रभव
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४. शय्यंभव -
५. तुंगिक यशोभद्र -
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६. संभूतविजय. भद्रबाहु.
स्थूलभद्र
८. महागिरि.
T ९. बहुल.
गुरस्वी
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बलि - ( सरिव्यय )
१०. स्वातिT ११. दमा
गोप्रः अग्निवायन
काश्यप.
कात्यायन.
वारस्य.
व्याघ्रापत्य.
माटर- प्राचीन.
(श्याम)
हारित.
आ स्थविरावलीमा नघाएला श्यामार्य के आर्यश्याम आर्य श्रीसुधर्माथी ११मा आवे छे अने हारित गोत्रना छे. त्यारे आ प्रज्ञापना सूत्रना कर्त्ता आर्यश्यामने टीकाकारणीए आये भगवानची २१मा जगावे छे. [" तथा च सुस्थामिन आरभ्य भगवान् श्यामः प्रयोविंशतितम एवं प्र०पु०५०)] आम होवाची कदाच आर एम कभी शकीए के, जे आवैश्यामनो निर्देश दीना देवाचक करे छे से आर्यश्याम अने श्रीधनवानी प्रेवशमी पाठ उपर एसा आर्यश्याम एक न होय जो एबने एक ज होय तो एकनो ११ मी अने बीजानी २श्मी एमरी पाठशी रीते होय बळी मंदीसूत्रनी टीका करनार श्रीमलयगिरिजीए ए पायलीनी पण टीका करी ऐ-तेमां श्रीश्रार्यश्यामनो परिचय आपतुं आ वाक्य श्रीमलयगिरिजीए निर्देश्यं हे: “ खातिशिष्यं हारितगोत्रम् - श्यामार्य वन्दे - ( पृ० ४९ ) आ उल्लेखमां 'एमणे प्रज्ञापना करी छे के, जे प्रज्ञापनाना प्रणेता वाचकवंशीय आर्यश्याम छे ते आज छे' एवा कशो स्पष्ट के अस्पष्ट निर्देश टीकाकारश्री करता नथी तेथी पण ए अग्यारमी गादीवाळा अने आ त्रेवीशमी गादीवाळा-ए बन्नेने एक मानवानी हिम्मत थती नथी. श्रीधर्मसागरजीनी पहावलीमां जे निर्देश छे ते नंदीसूत्रवाळी नोंधने अनुसरतो ज छे माटे नंदीसूत्रवाळी नोंध करतां ए श्रीधर्मसागरजीनो उल्लेख कांइ विशेष निर्णय आपी शकतो नथी. तेओए ( धर्मसा० ) तो घणुं स्पष्ट
के
गौतम.
" श्री आर्यमहागिरिना बे शिष्य नामे- बहुल अने बलिसह जोडलाभाइ हता. तेमांना बलिसहना शिष्य नामे स्वाति थया-तत्त्वार्थ विगेरे ग्रंथो आ खातिए कयी जणाय छे अने ए खातिना शिष्य नामे श्यामाचार्य थयारोमणे प्रापना सुनी रचना करी छे अने तेओ वीरात् २०६ सर्गवासी थया. तेमना शिष्य नामे सांडिल्य थया अने एमणे जीतनी मर्यादा करीएप्रमाणे मंदीराम कहुं छे, परंतु ते परंपरा जुड़ी "
( आ पायी विषे कांदा अस्थान नथी तो पण इतिहास-अमने दूर करया माठे मारे एट अहीं जगावी देवं जोइए के, जे शब्दो नीचे आमींटी मूली से मंदीसुननी पायी नथी ज. )
उपरना श्रीधर्मसागरजीना उल्लेखथी आपणने एम मानवानुं मन थइ जाय के, ए उल्लेख द्वारा प्रज्ञापनाना कर्ता आर्यश्याम अने तेमना गुरु स्वातिए विषेनी तथा श्रीश्यामना समयनो पण निर्णय पड़ जाय छे. पण आपने उतावळ न करता आ निर्णयने ध्यानमा ती बखते प्रज्ञापनामधा
ऐसाल.
फौशिक,
हारित.
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