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________________ शता ६.. उद्देशक ३. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २७४ वरसना अबाधा काळथी ऊणो जाणवो अने अबाधाकाळथी ऊणो पूर्वोक्तस्वरूपवाळो कर्मनो अवस्थीन काळ-कमीनेषेक-काळं कहेवाय छ, अनुभव करवा माटे- भोगववा माटे-कर्मनां दळियांनी एक प्रकारनी. रचना ते कर्मनिपेक कहेवाय, अने त्यां प्रथम समयमांघ निषिंचे-रचे अने बीजा समयमा कर्मनिषेक, विशेष हीन करे, ग्रीजा समयमा विशेष हीन करे ए प्रमाण जेटली उत्कृष्ट स्थितिवाळु कर्मनुं दळियु होय.तने-तेटलं विशेष हीन बनावे. तेम ज़ कह्यु छे के "पोतानी अबाधाने मूकीने प्रथम स्थितिमां-प्रथम समये- धणु द्रव्य रचे छे अने बाकीना, समयोमा (तेटल) विशेष हीन करे छे के, ते यावत् कर्मप्रकृतिनी गाथा. (जेटलं ) उत्कृष्ट (होय) ए प्रमाणे सर्व कर्म प्रकृतिओ माटे जाणवू " आनुं तार्य आ छे के, बाधेलं पण ज्ञानावरणीय कर्म त्रण हजार वरस सुधी पानावरणलो वाधा अवेद्य रहे छे, तेथी ते त्रण हजार वरस ऊगो अनुभव-काळ थयो अर्थात् तेनो-ज्ञानावरणीय कर्मनो अनुभवकाळ त्रण हजार वरस ऊणो त्रीश अने अवाधाकःल, सागरोपम कोडाकोडी थयो, बीजाओ तो कहे छे के, "त्रण हजार वरसनो अबाधा काळ अने त्रीश कोडाकोडी सागरोपम खरूप वीजाओ. बाधा काळ ते बन्ने काळ कर्मस्थिति, काळ कहेवाय अने तेमांथी अबाधा काळने वर्जता. काढी नाखता-जेटलो काळ आवे ते कर्मनिपेक काळ कहेवाय " ए प्रमाणे बीजां कर्मोमां पण अबाधा काळनी व्याख्या करवी, विशेष ए छे के, आयुष्यकर्ममा तेत्रीश सागरोपम निषेक काळ छे अने पूर्वकोटीनो त्रिभाग काळ अबाधाकाळ छे. [ 'वेयणिजं जहनेणं दो समय 'त्ति ] वेदनीय कर्मनो जघन्य काळ वे समयनों के एटले जे वेदनीय कर्मना बंधमां तद्दन कषाय हित स्थितिए ज्यारे फक्त शरीरादि योग ( योग-चेष्टा )ज निमित्तभूत होय एवा वेदनीयना बंधनी अपेक्षाए वेदनीय वेदनीय. कर्म बे समयनी स्थितिवाळु छे, एक समये बंधाय अने बीजे समये वेदाय. वळी, जे कहेवाय छे के " जघन्ये बार अंतर्मुहूर्त वेदनीयनी स्थिते छे अपाय-बंध. अने आठ अंतर्मुहूर्त नाम तथा गोत्रनी जघन्य स्थिति छे" ते सकषाय बंधनी स्थितिनी अपेक्षाए जाणवू. सकप य-बंध. कर्मने बांधनारा. जना, पुरुष १६. प्र०---णोणावरणिज्ज णं भंते ! कम्म किं इत्थी बंधई, १६. प्र०- हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शुं स्त्री बांधे ? परिसो बंधह, नपुंसओ बंधई, णोइत्थी-णोपुरिस-नोनपुंसओ पुरुष बांधे? के नपुंसक बांधे ? वा नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक एटले बंधड़ ! जे स्त्री, पुरुष के नपुंसक न होय एवो जीवं बांधे १६. उ०-गोयमा ! इत्थी वि पंधर, पुरिसो वि बंधई, १६. उ०-हे गौतम ! स्त्री पण बांधे, पुरुष पण बांधे, नसओ विबंधद; मोइत्थी-नोपुरिस-नोनपुंसओ सिय बंधइ, अने नपुंसक पण बांधे. पण जे नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक होय सं नो बंधा एवं आउगवज्जाओ सत्त कम्मणगडीओ. ते कदाच बांधे अने कदाच न बधि; ए प्रमाणे आयुष्यने वर्जीने सातें कर्म प्रकृतिओ माटे जाणवु. १७. प्र०-आउगं णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधह, पुरिसो १७. प्र०- भगवन् ! आयुष्यकर्म शुं स्त्री बांधे ! पुरुष बंधइ, नपुंसओ बंधह, पुच्छा ! बांधे ! के नपुंसक बांधे ? ९ प्रमाणे पूर्ववत् प्रश्न करवो. १७. उ०-गोयमा ! इत्थी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, १७. उ० हे गौतम! स्त्री बांधे अने न पण बांधे. ए एवं तिनि वि माणियव्या; नोइत्थी-नोपुरिस-नोनपुंसओ न बंधइ. प्रमाणे त्रणे माटे-बीजा बे माटे-पण जाणवू अने जे नो-स्त्री नोपुरुष-नोनपुंसक होय ते तो आयुष्यकर्म न बांधे. १८. प्र०-णाणावरणिज्ज णं भंते । कम्म कि संजए बंधइ, १८. प्रा–हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शु संयत बांधे ? अस्संजए, संजयाऽसंजए बंधइ; नोसंजय-नोअसंजय-नोसंजयासंजए असंयत बांधे ! के संयतासंयत बांधे ? वा जे नो-संयतबंधति ? ___ नोअसंयत-नोसंयतासंयत होय ते बांधे ? १८. उ०—गोयमा ! संजए सिय बंधइ, सिय नो बंधइ; १८. उ०—हे गौतम! कदाच संयत बांधे, कदाच न बांधे अस्संजए बंधइ, संजयासंजए वि बंधति; नोसंजय-नोअस्संजय- असंयत बांधे अने संयतासंयत पण बांधे, पण जे नोसंयतनोसंजयासंजये ण बंधति; एवं आउगवज्जाओ सत्त वि, आउगे नोअसंयत-नोसंयतासंयत होय ते तो न बांधे. ए प्रमाणे हेडिल्ला तिण्णि भयणाए, उवरिल्ले ण बंधइ... आयुष्यने वर्जीने साते कर्म प्रकृतिओ माटे जाणवू, आयुष्यकर्मना संबंधमां नीचेना त्रण-संयत, असंयत अने संयतासंयत माटे भजनाबड़े जाणवू-बांधे अने न. बांधे एम जाणवू अने उपरनो नोसंयतनोअसंयत-नोसंयतासंयत-अर्थात् सिद्ध-न बांधे. १. मूलच्छायाः-झानावरणीयं भगवन् । कर्म किं स्त्री यध्नाति, पुरुषो वध्नाति, नपुंसको बध्नाति; स्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसको बध्नाति ! गौतम! स्त्री अपि बध्नाति, पुरुषोऽपि बध्नाति, नपुंसक'ऽपि बध्नाति; नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसकः स्याद् बन्नाति, स्यात् नो बध्नाति; एवम् आयुष्कवर्जाः सप्त कर्मप्रकृतयः. आयुष्क भगवन् ! कर्म किं स्त्री बनात, पुरुषो बध्नाति, नपुंसको बध्नाति, पृच्छा ? गौतम ! स्त्री स्याद् यनाति, स्याद् नो बध्नाति, एवं त्रयोऽपि भणितव्याः, नोस्त्री-नोपुरुष- नोनपुंसको न बध्नाति. ज्ञान वरणीयं भगवन् ! कर्म कि संयतो बध्नाति, असंयतः, संयताऽसंयतो बध्नाति; नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासयतो बध्नाति ! गौतम! संयतः स्याद् बध्नाति, स्याद् न बध्नाति; असंयतो बध्नाति, संयतासंयतोऽपि बध्नाति; नोसयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयतो न बध्नाति; एवम् आयुष्कवर्जाः सप्ताऽपि, आयुष्कम् अधस्तनःस्त्रयो भजनया, उपरितनो न बध्नातिः-अनु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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