________________
पाएना.
शतक ६.-उद्देशक ३. __ भर्गवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवत सूत्र.
२७५ अपज्जवसिए तहा णं जीवाणं किं साइया सपजवासिया चउभंगो- जीयो शुं सादि सांत छ ! अहिं पूर्पना चारे भांगा वही तेमा प्रश्न पुच्छा ?
करयो. १२. उ०-गोयमा ! अत्थेगइया साइया सपज्जवसिया, १२. उ०---हे गौतम ! केटलाक जीवो सादि सांत छे, ए चत्तारि विभाणियव्या.
प्रमाणे चारे भांगा कहेवा. १३. प्र०---से केणद्वेणं ?
१३. प्र०-(हे भगवन्!) ते शा हेतुथी ? १३. उ०-गोयमा ! नेरतिय-तिरिक्ख जोणिय-मणुस्स-देवा १३. उ० --हे गौतम ! नैरपिको, तियंचयोनिको, मनुष्यो अने गतिरागतिं पडुच साइया सपजवसिया, सिद्धा (सिद्ध) गतिं देवो गति आगतिने अपेक्षी सादि अने सांत छ, सिद्धगतिने पड़च्च साइया अपज्जवसिया, भवसिद्धिया लद्धि पडुच्च अणाइया अपेक्षी सिद्धो सादि अनंत छे, भवसिद्धिको लम्बिने अपेक्षी अनादि सपज्जवसिया, अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणाइया अपज्जवासया; सांत छे अने अभवसिद्धिको संसारने अपेक्षी अनादि अनंत छे, ते से तेणद्वेणं.
हेतुथी तेम कहुं छे.
४. 'गतिरागतिं पड़च्च 'त्ति नरकादिगतौ गानमाश्रित्य सादयः, आगमनमाश्रित्य सपर्यवसिता इत्यर्थः, 'सिद्धा (सिद्ध) गई पडुच्च साईया अपज्जवसिय ' त्ति. इह आक्षेप- परिहारौ एवम्:--
"साई अपज्जवसिया सिद्धा न य नाम तीयकालम्मि, आसि कयाइ वि सुण्णा सिद्धी सिद्धेहिं सिद्धते." " सर्व साइ सरीरं न य नामाऽऽदिमय देहसमावो, कालाऽगाइत्तणओ जहा व राइं-दियाईगं."
" सव्वो साई सिद्धो न यादिमो विज्जइ तहा तं च, सिद्धी सिद्धा य सया निद्दिवा रोहपुच्छाए " ति. "तंच" ति तच सिद्धाऽनादित्वमिष्यते, यतः-“ सिद्धी सिद्धा य" इत्यादि-इति. 'भवसिद्धिया लदि' इत्यादि. भवसिद्धिकानां भव्यत्वलब्धिः सिद्धत्वेऽपैति-इति कृत्वाऽनादिः, सपर्यवसिता च इति,
४. [गतिरागतिं पडुच्च ' ति ] नरकादि गतिमां थता गमनने आश्री सादि अने त्यांथी थता आगमनने आश्री सांत छ. [ ' सिद्धा गति-आगति. (सिद्ध ) गई पडुच्च साईया अपज्जवसिय ' त्ति ] सिद्धो सिद्धगतिने आश्री सादि अने अनंत छ, अहीं आक्षेप अने. परिहार आ प्रमाणे जाणवाः- सिद्धो सादि शी री " सिद्धोने सादि अने अनंत कह्या छे, परंतु भूतकाळमां कोई वखते पण सिद्धना जीवोथी शून्य-रहित-सिद्धि न हती, एम सिद्धांतमां कर्तुं छे” होय ? अर्थात् आ गाथाथी एम आक्षेप थाय छे के, सिद्धो सादि अने अनंत केम होइ शके ? कारण के, भूतकाळे कोइ वखते पण सिद्धोथी शून्य सिद्धि रही नथी, एम सिद्धांतमां कयुं छे, अर्थात् जो कोइ एयो पण बखत होय के, जे वखते सिद्धि, सिद्धोथी रहित होय तो एम मानी पण शकाय के, ते वखते सिद्धो नवा आव्या माटे तेओ सादि अदे अनंत कहेवाय, पण तेम तो नथी माटे सिद्धो सादि अनंत छे, ए केम सिद्ध थइ शके ? ते आक्षेपना उत्तरमा कहे छ के, "कालना अनादिपणाने लीधे कोइ एवो पण आदिम-साथी प्रथम-देहनो सद्भाव नथी तो पण सर्व शरीर सादि सिद्धो सादि होवानं छे ए उदाहरण प्रमाणे अथवा जेम रात्रि दिवसो थाय छे ए प्रमाणे " " सर्व सिद्ध सादि छ पण कोइ सिद्ध एवो नथी जे आदिम-सौथी प्रथम- समाधान, होय, माटे सिद्धोनुं अनादिपणुं छे अने तेथी रोहक अनगारना प्रश्नोमां सिद्धि अने सिद्धो सदा (अनादि ) निर्देश्या छे ” अर्थात् जेम काल रोहा नगार अनादि छे, अने ते काळ कोइ वखत शरीरोथी वा रात्रि दिवसोथी रहित हतो एम बन्यु नथी तेथी तेमां सौथी प्रथम क्या शरीरनो वा क्या अहोरात्रनो सद्भाव होय ते जाणी शकातुं नथी तो पण उत्पत्तिने आश्री बधा शरीरो सादि छे तथा वधा रात्रि दिवसो सादि छे एम मानवामां रात्रि दिवको अने आवे छे. तेम जो के, सिद्धि कोइ वखत सिद्धोथी रहित नथी तेथी क्यो सिद्ध साथी प्रथम छे ते कळातुं नथी तो पण उत्पत्तिन आश्री पूर्व उदाहरण शरीरो. प्रमाणे सिद्धोने सादि अने अनंत कया छे. " तं च " एटले ते-सिद्धोनुं अनादिपणुं इष्ट छ, कारण के, सिद्धि अने सिद्धोने सदा ( अवस्थित ) कह्या छे. [ 'भवसिद्धिया लाद्धं ' इत्यादि. ] भव सिद्धिक जीवोने भव्यत्व लब्धि होप छे, अने एओनी ए लब्धि सिद्धपणुं पाम्या पछी नाश पामे छे माटे भव्यत्व, ते भवसिद्धिकोने अनादि अने सांत कह्या छे.
कर्म अने तेनी स्थिति.
१४. प्र०-कति णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? १४. उ०-गोयमा ! अढ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ता, तं जहा:-
१४. प्र०-हे भगवन् ! केटली कर्म-प्रकृतिओ कही छे ! १४. उ०-हे गौतम ! आठ कर्म प्रकृतिओ कही छे, ते
१. मूलच्छायाः-आर्यवसित तथा जीवाः किं सादिकाः सपर्यवसिताः, चतुर्भ::-पृच्छा ? गौतम ! अस्त्येककाः सादिकाः सपर्यवसिताः, चत्वारोऽपि भणितव्याः, तत् केनाऽर्थन ? गोतम ! नरसिक-तिर्यग्योनिक--मनुष्य-देवा गति-आ प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिताः, तिताः (सिद्ध) गति प्रतीत्य सादिका अपर्यवसिताः, भवसिद्धिका लब्धिं प्रतीत्य अनादिकाः रूपर्यवसिताः, अभवसिद्धिकाः संसार प्रतीत्याऽनादिका अवसिताः; तत् तेनाऽर्थेन.:--अनु०
१.प्र. छायाः-सादयः-अपर्यवसिताः सिद्धा न च नामाऽतीतकाले, आसीत् कदाचिदपि शून्या सिंद्धः सिद्धः सिद्धान्ते. सर्व सादि शरीरं न च नामाऽऽदिमकः देहसद्भावः, कालाऽना दिस्वाद् यथा वा रात्रिंदिवादीनाम्. सर्वः सादिः सिद्धः न चादिमो विद्यते तथा तच, सिद्धिः सिद्धाश्च सदा निर्दिष्टा रोहपृच्छायाम् :-अनु. १. जूओ भगवती प्र० सं० (पृ० १६७ ):-अनु०
१, मूलच्छायाः-कति भगवन् । कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ता- तम | अष्ट कर्मप्रकृतयः प्राप्ताः, तपथा:--अनु०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org