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ऐर्यापथिक
कर्म.
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१०. प्र० – से केणद्वेणं !
१०. उ० – गोयमा ! इरियाव हियबंधयस्स कम्मोचचए साइए सज्जनसिए, भवसिद्धियस्स फम्मोवचर अनाइए सपनयसिए, अनवसिदियस कम्मोपचार अगाइए अपभवसि से तेण्डेणं गोयमा !
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
इखादिद्वारे पयोगसा बसा यति छान्दसाचात् प्रयोगेण पुरुषव्यापारेण विश्वसतया स्वभावेन इति. : जीवाणं कम्मोवचए पओगसा, जो बीसस' ति प्रयोगेण एव, अन्यथाऽयोगस्याऽपि बन्धप्रसङ्गः सादिद्वारे:-' इरियावहियबंधयस्स इत्यादि, ईययोगमनमार्गमम् पवियोग कर्म इसी तन्धकस्य उधानमोह ीगोहत्य सपोगिकेवलिन इत्यर्थः ऐर्यापथिककर्मणो हि अवस्य बन्धनात् सादित्वम् अयोग्यवस्थायाम्, त्रैणिप्रतिपाले वाऽबन्धनात सपर्यवसितम्
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३. यंत्र इत्यादिद्वारम जगावे के के, [पयोगेसा वीससा यजि] प्रयोग एटले पुरुषनो व्यापार, ते बड़े अने विससा एटले प्रयोग-विनस जीनो कर्मोपचय स्वभाव, ते वडे - [ ' जीवाणं कम्मोवचए पओगसा, णो वीसस ' त्ति ] जीवोने कर्मापचय प्रयोगधी ज थाय छें, अन्यथा जो एम नं मानीए
दोषविताना
तो जे योग विनाना हे प्रयोग रहित -संजोने पर कर्मनो उपचय पत्र जोनमा कम प्रयोगंधी वाय एस
छे. सादिद्वारमां [इरियादियचइत्यादि
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सांतपणानी विशेष समजण
एटले गमनमार्ग ते द्वारा थयेलं ते ऐक अर्थात् जे केवल शरीरादियोग ज हेतु छे एवं कर्म, तेनो बांधनार ऐर्यापथिकबंधक कहेबाय. उपशौतमोह, क्षीणमोह अने सयोगिकेवलिने ऐर्यापथिक कर्म संभवी शके छे. छोड़ पार पूर्वे एवं कर्म मन होवाने लीचे ते नवोज मंच थाय छे अने तेथी जतनुं सादिपशुं के अने अयोगिअवस्थामा अमा विना आणिधी प्रतिपात थाय त्यारे ते कर्मनो मंच न भतो होवाथी तेनुं सांतपणुं छे. [ तात्पर्य ए के ईर्या-पथ ईर्या एटले गति करवी अने पथ एटले सः दिपणा भने मार्ग अत्र्याएर गमनमार्ग मात्र वा चालवावीज बंधाया पंच मोजो कोई कपाय तो हेतु न हो-तेनुं नाम पथिक कर्मका जैनशाखनी शैलीथी जागी शकाय के कर्मबंधन मुख्य हेतु छे एक तो क्रोवादिकमाव अने बी शारीरिक अने वाचिक विगेरे प्रवृत्ति के जीवोना कमायो तदन उपशम्या नथीं या क्षीण घया नथी तेओ ने जेमतेची तेओनो बंध कापायिक के कषायजन्य कहेवाय. कषायवाळा जीवोना कपायो कांइ निरंतर प्रकटरूप नथी होता तो पण ए कषायो तद्दन उपशान्त वा क्षीण न होवाथी तेओनी बधी प्रवृत्तिओ लखवं, बोलवु वांचवं विगेरे क्रियाओ के, जेमां प्रकटरीते कारणरूप कोई कषाय जणातो न होय तो पण कापायिक जं कहेवाय अने जे जीवोना कषायो तद्दन उपशमी गंया छे वा क्षीण थई गया छे ते जीवोनी चेष्टाचाल पंगेरे किया कामाविक न बद्देवाय, किंतु शरीरजन्य के वाणीजन्य ज कद्देवाय अहीं ने ऐर्वापचिक किया जगाची ते एवा उपशान्त सह गुणस्थानके वर्तनारा वा क्षीणमो गुणस्थानके वर्तनारा जीवोनेज संभवी के छे कारण के तेया ज जीवों मात्र तद्दन कपायरहितपणे ए जानो एरले केवल शरीरलय के वाणीजन्य कर्मबंध करी शके छे. अहीं जम जा के, कर्मबंध सादि अने पति पण होय, ते आया केवळ शरीरजन्य के वाणीजन्य धता बन्धने आधीने समजवानुं छे. जो के जीव अने कर्मना संबंधी सादिता घटी शकती नथी तो पण उपर्युक्त प्रकारनो एटले जेमां कषायनी हेतुतानो जरा गंध पण नथी एवो-केवळ शरीरजन्य के वाणीजन्य कर्मबंध तो एक ज वार- अमुक स्थितिए थतो होवाथी ए, जरूर सादि-आदिवः को कहेवाय अने ज्यारे एवो पण कर्मबंध बंध पडे एटले आत्मानी अक्रियदशानी अपेक्षाए एवा बंधन अंत आवतो होवाथी ए, सपर्यवसित एटले अंतवाळो पण कहेवाय. ]
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वस्त्र अने जीवनो सादि-सांततानो विचार..
११. ० किं साइए सपञ्चवलिए, उमंगो !
११. उ०- गोवमा ! बस्थे साइए सपन्नासए अबसेसा तिनि वि पडिसेहेयंव्वा.
१२. प्र० - जहा णं भंते । वत्थे साइए सपज्जवसिए, नो साइए अपबसिए, जो अणाइए सपनवासिए, णो अगाइए
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१०. प्र० - (हे भगवन् ! ) ते शा हेतुथी ?
१०. उ० - हे गौतम! ऐयपथना बंधकनो कर्मोपचंय सादि सांत छे, मासिद्धिक जीवनो कम पचप अनादि सांता, अमपसि द्विकनो कर्मोपचय अनादि अनंत छे, ते हेतुभी हे गीसम तेम धुं छे.
शतक ६. उद्देशक ३.
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११. प्र० - हे भगवन् ! शुं वस्त्र सादि सांत छे ! पूर्व प्रमाणे अहीं चारे भांगामां प्रश्न कहेवो.
११. उ०—हे गौतम! वस्त्र सादि छे अने सांत छे. बाकी भांगानो वस्त्रमां प्रतिषेध करवो.
१२. प्र० - हे भगवन् ! जेम वस्त्र सादि सांत छें पण सादि अनंत नथी, अनादि सांत नवी अने अनादि अनंत नथी तेम
१. मूलच्छायाः केाऽचैन गौतम ऐयाधिकः सादिकः पयसितः भवसिद्धिकस्य कमपचयोऽनादिकः पर्यवसितः अभवसिद्धिकस्य कर्मोपचयोऽनादिको पर्यवसितः; तत् तेनाऽर्थेन गौतम ! :- अनु०
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१.व्याकरण नियमानुसारोपयोगे बनुंजोए पछांदस दोवाथी देवाचीपयोगाच :- श्रीलमय० १. मूळच्छायाः भगवन् सादिकम् पवखितम् तु केतन व सादिकं सर्वयसितम् अवशेषास्रवोऽपि प्रतिषेषवितव्या यथा भगवन् ! यसादिकं
तम् नो सादिकम् अपर्यवसितम् नोऽनादिकं
पतिम् [मोऽवादिकः अनु०
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