SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रह • शतक ५.-उद्देशक ७. द्रव्यविशेषो द्रव्यविपरिणामः. “विप्परिणयम्मि दव्वे कम्मि गुणपरिणई भवे जुगवं, काम्म वि पुण तदवत्थे वि होइ गुणविपरीणामो. भन्नइ सचं किं पुण गुणवाहल्ला न सव्वगुणनासो, दव्वस्स तदण्णत्ते वि बहुतराणं गुणाण ठिइ" त्ति. ६. 'परमाणुपोग्गलरस इत्यादि. ] ज्यारे परमाणुगें परमाणुपणुं चाल्युं जाय त्यारथी मांडीने फरीवार परमाणुपणे परिणमन थवा सुधी -भूतपूर्वपरमाणुने जे अपरमाणुपणे रहे पडे छ अर्थात् प्रथम परमाणु-अवस्था अने बीजी भाविनी परमाणु-अवस्था ए बेनो जे वचलो काळ छे स्कंसंबंधकाम ते । स्कंध-संबंध-काळ ' कहेवाय, ते वधारेमां वधारे असंख्यात छे. बे प्रदेशवाळा स्कंधने तो बाकीना स्कंधरूपे थवानो काळ अने परमाणुरूपे अंतरकाल, थवानो काळ ते अंतरकाळ छे अने, ते अंतरकाळ अनंत छे, कारण के, बाकीना सर्व स्कंधो अनंत छे तथा ते प्रत्येक स्कंधनी वधारेमां वधारे असंख्येयकाळ स्थिति छ, तथा जे निष्कंपनो काळ छे ते सकंपनो अंतरकाळ छे, एम धारीने कयूं छे के, सकंपने वधारेमां वधारे असंख्यात काळ । अंतर छे अने जे सकंपनो काळ छे ते निष्कंपनो अंतर काळ छे एम धारीने क छ के, निकाने ववारेमा वधारे आवलि कानो असंख्यात भाग वचनप्रामाण्य. अंतरकाळ छे. एकगुणकालकत्वादिनुं अंतर एकगुणकालकत्वादिना काळनी समान ज छे. पण वचनप्रामाण्य होवाथी द्विगुण कालत्वादिनी अनंतताने लइने ते अंतरनी अनंतता इष्ट नधी. सूक्ष्मादिपरिणतोनुं अंतर तेना अवस्थानकाळनी तुल्य ज छे, कारण के, जे एकनु अवस्थान छे ते बीजाचें अंतर छ अने तेनु मान असंख्येय काळ छे. [ ' सद्दे ' इत्यादि ] तो सूत्र सिद्ध छे-सूत्र उपरथी ज सष्ट प्रकारे ज्ञात श्राय छे. द्रव्यस्थातायु. [ 'एयस्स णं भंते ! दबट्ठाणाउयप' त्ति ] द्रव्य एटले पुद्गल द्रव्य, तेनो परमाणु, द्विपदेशिक वगरे रूपे जे भेद-तेनी जे स्थिति अथवा द्रव्यर्नु अगुत्वादिभावे जे अवस्थान, तप आयु ते ' द्रव्यस्थानायु' कहेवाय, तथा [ · खित्तट्ठाणाउयस्स ' त्ति ] क्षेत्रनो एटले आकाशनो पुद्गलोना क्षेत्रस्थानायु. अवगाहथी थएलो जे भेद, तेनी जे स्थिते अथवा एकप्रदेशादि क्षेत्रमा पुद्गलोनुं जे अवस्थान, तद्रूप जे आयु ते क्षेत्रस्थानायु कहेवाय, ए प्रमाणे अवगाहना अने . अवगाहना थानायु अने भावस्थानायु पण समजा. विशेष ए के, अमुक मापवाळा स्थानमा पुद्गलोनुं जे अवगाहिपणु-रहेg-व्यापवापणु-ते अवगाहना भावस्थानायु. कहेवाय अने पुद्गलोनो शामत्वादि धर्म छे ते भाव कहेवाय. शं०-क्षेत्र अने अवगाहनामां एवो शो भेद छे ? जेथी ए बन्नेने जूदा जूदा का-समाधान, समजाववामां आवे छे. समा०-पुद्गलोथी अवगाढ-व्याप्त-होय ते ज क्षेत्र कहेवाय अने विवक्षित-अमुक खास-क्षेत्रथी बीजा क्षेत्रमा पण पुद्गलोर्नु ते क्षेत्रना माए प्रमाणे, रहे ते अवगाहना कहेवाय अर्थात् पुद्गलोनो, पोताना आधार स्थळ समान जे एक प्रकारनो आकार ते तो अवगाहना कहेवाय छे अने पुद्गलो जेमा रहे ते क्षेत्र कहेवाय, ए प्रमाणे क्षेत्रनु अने अवगाहनानुं जुदापणुं स्पष्ट जणाय छे. [ ' कयरे ' इत्यादि. ] ए मूळ भाग स्पष्ट छे. ए बधानी एक बीजा साथे जे अल्प-बहुता दर्शाववी छे ते नीचेनी गाथाओने अनुसार दर्शाववी, ते गाथाओ आ प्रमाणे छ:गाथाओ. " क्षेत्रस्थानायु, अवगाहनास्थानायु, द्रव्यस्थानायु अने भावस्थानायु ए बधाना अल्प-बहुत्वमा क्षेत्रस्थानायु सर्वथी थोडं अने बाकीना त्रण असंख्य गुण छ, एम केवी रीते जाणवू ?" तेनो उत्तर कहे छ के, "क्षेत्रनुं अमूर्तपणुं छे एटले क्षेत्र मूर्तिमान्--आकारधारी-नथी माटे ते क्षेत्रमा तेनी चौकाश. (क्षेत्रनी ) साथे पुद्गलोना बंधन कारण (चीकाश ) न होवाधी पुद्गलोनो क्षेत्रावस्थान काळ थोडो छे. आ गाथानो विगतथी अर्थ आ प्रमाणे छे:क्षेत्रला. सर्वधी क्षेत्र अमूर्तिमान् होवाथी अने तेथी ज तेमां, पुद्गलोना विशिष्ट बंधन कारण स्नेह-चीकाश-बगेरे न होवाथी ते पुद्गलो एक ज क्षेत्रमा लांबा काळ अल्प सुधी रहतां नथी, जे कारणथी ए प्रमाणे छे ते कारणथी क्षेत्रस्थानायु सर्वथी अल्प छे--इत्यादि बधुं स्पष्ट छे. हवे अवगाहनास्थानायुनी अधिकता विचारीए छीए-" एक स्थळथी अन्य क्षेत्रमा गएला पुद्गलनु पण ते ज मान, त्यां लांबो काळ रहे छे, अने वळी जो अवगाहनानो नाश बवगानी अधि. थाय तो क्षेत्र भिन्नता थाय ते स्फुट छे. " आ गाथामा पूर्वार्धवडे 'क्षेत्राद्धा करतां अवगाहनाद्धा अधिक छे' एम कह्यु, अने उत्तरार्धवडे तो 'अवगाहनाद्धा करता क्षेत्राद्धा अधिक नथी' एम कह्यु. एम केवी रीते छे ? तेना उत्तरमां कहेवाय छे केः- पुद्गलोनो क्षेत्रावस्थानकाळ-अमुक क्षेत्रमा नियत रीते स्थित रहेवानो काळ-अवगाहनाथी अने क्रियारहितपणाथी अवबद्ध छे अर्थात् पुद्गल, अमुक स्थळे नियत त्यारे ज रही शके निष्क्रिय. ज्यारे ते अमुक अवगाहनामां होय अने तद्दन निष्क्रिय-क्रिया विनानु-होय माटे पुद्गलोर्नु एकत्रावस्थान अवगाहनाथी अने निष्क्रियपणाथी अवबद्ध छे पण तेथी उलटुं एटले अवगाहनाकाळ, क्षेत्रावस्थानकाळ मात्रमा संबद्ध नथी" तात्पर्य ए छे के, ज्यारे पुद्गलोनी कोइ पण अमुक जातनी अवगाहना होय अने ते पुद्गलो पोते निष्क्रिय (हलनचलनरहित ) होय त्यारे ज ते पुद्गलोनू क्षेत्रावस्थान नियत होय छे अने जो तेम न होय एटले तेओनी कोइ पण अमुक जातनी अवगाहना न होय अने तेओ (पुद्गलो) निष्किय न होय तो ते पुद्गलोंक्षेत्रावस्थान संभवी शकतुं नथी, ज्यारे पुद्गलोर्नु क्षेत्रावस्थान अवगाहना अने निष्क्रियताने आधीन छे त्यारे तेथी उलटुं एटले अवगाहना, क्षेत्रमात्रमा नियत नथी, उपसंहार. कारण के, क्षेत्राद्धाना अभावमा पण अवगाहना होय छे. हवे उपसंहार करे छ:-"जे कारणथी ते क्षेत्रमा अथवा बीजा क्षेत्रमा अवगाहना दत्यायनं बहत्व. तेनी ते ज रहे छे माटे क्षेत्राद्धा करतां अवगाहनाद्धा असंख्यगुण छे" हवे द्रव्यायुना बहुत्वनो विचार करे छे, “ संकोचवडे अने विकोच पहोळा-थवापणे जो के अवगाहना उपरत थाय छे तो पण जेटलां होय तेटला ज द्रव्योर्नु लांबा काळ सुधी अवस्थान रहे छे" तात्पर्य ए छे के, संकोच-विकोच, संकोचथी अथवा विकोचथी अवगाहना उपरत थाय तो पण जेटलां द्रव्यो पहेला हतां तेटलां ज द्रव्योतुं लांबा काळ सुधी अवस्थान संभवे छे अर्थात् अवगाहना निवर्ते-न रहे-तो पण द्रव्यो नथी निवर्ततां अने तेथी उलटुं ज्यारे द्रव्यनी अमुक प्रकारनी निवृत्ति थाय छे त्यारे अवगाहनानी संघात-मेद, निवृत्ति चोक्कस थाय छे. ए संबंधे कहेवाय छे के, " वळी, ज्यारे संघात अथवा भेदथी द्रव्य संक्षिप्त थाय छे अने तेम. थया बाद द्रव्यनो उपरम थाय छे त्यारे ते द्रव्यनी अवगाहनानो गश नियमा- चोक्कस थाय छे तेमां संदेह नथी" तत्त्व ए छे के, पुद्गलोना संघातवडे या पुद्गलोना भेदवडे ते पुद्गलोनो जे स्कंध, प्रथमनी जेवी अवगाहनावाळो नहि पण संक्षिप्त-स्तोक-टुंकी-अवगाहनावाळो थाय छे अने. तेम थया पछी ते म्यान्यथाक स्कंधमां द्रव्यान्यथात्व थाय छे एटले पूर्वे जे स्थितिए ते द्रव्य हतुं, ते स्थितिए ते स्कंधमां द्रव्यर्नु रहे, थतुं नथी अने तेम थवांथी ते द्रव्योनी १.प्र. छा०-विपरिणते द्रव्ये कस्मिन् गुणपरिणतिर्भवेद् युगपत् , करिमन्नपि पुनस्तदवस्थेऽपि भवति गुणविष रिणामः, मन्यते सत्यं किं पुनर्गुपवारल्यात् न सर्वगुणनाशः, द्रव्यस्य तदन्यत्वेऽपि बहुतराणां गुणानां स्थितिः-इतिः-अनु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy