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शेतक -उद्देशक
भंगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, अवगाहननो नाश चोक्कस, थाय छे. कदाच कोइ कहे के, संघातथी तो पुद्गलोनो स्कंध संक्षिप्त-टुको.थतो नथी. तो तेम नथी, पण संघात थया पछी पुद्गलोन सूक्ष्मतर परिणाम थाय छे-एम सांभळ्यु छ माटें पूर्वे कयु छे के, संघातथी पुद्गलोनो टुंको स्कंध थाय छे अने तेम थवाथी अवगाहनानो नाश चोक्कस थाय छे. ते शाथी ए प्रमाणे थाय छे तो कहे छे के:-" संकोच अने विकोच सिवायनी स्थितिमां, अवंगाहनाधा द्रव्यमां संबद्ध हे एटले ज्यारे द्रव्य, संकोच अने विकोंच रहित होय त्यारे तेमां अवगाहना संबद्ध छ पण ज्यारे संकोच अने विकोच होय त्यारे द्रव्यमा अवगाना संबद्ध नथी होती. अर्थात् संकोचन अने विकोचनना अभावमां द्रव्यमा अवगाहना रहे छे अने ते संकोचनादिनी विद्यमानतामां द्रव्यमां
वगाहना नथी रहेती-ए प्रमाणे द्रव्य अने अवगाहनानुं सहचरपणुं अनियत छे पण द्रव्यं, संकोचन अने विकोचन मात्रमा संबद्ध नथी एंटले संकोचन, विकोचन होय के न होय तो पण द्रव्य तो कायम ज रहे छे" आ गाथानो निष्कर्ष आ प्रमाणे छे के, संकोचने अने विकोचने परिहरी अवगाहनाद्धा, द्रव्यमा (नियतपणे ) संबद्ध छे एटले जेम. वृक्षपणामां खदिर-खेर-पणुं रहे छे तेम ज़्यारे संकोचनो:अने विंकोचनो अभाव होय त्यारे द्रव्यमां अवगाहना रहे छे पण ज्यारे संकोचनी अने विकोचनी हाजरी होय त्यारे द्रव्यमां अवगाहना नथी रहेती, ए प्रकारे द्रव्यमां, अनियतपणे अवगाहना संबद्ध छे. हवे द्रव्य माटे तेथी उलटुं कहे छे के, वळी द्रव्य तो संकोचन अने विकोचन मात्र होय तो पण नियतपणे अवगाहनामां संबद्ध नथी अर्थात् जम खदिरपणामां वृक्षपणुं संबद्ध छे तेम संकोचन अने विकोचन द्वारा अवगाहनानो नाश थया बाद पण द्रव्यनी निवृत्ति नथी थती माटे ज अवगाहनामां द्रव्य नियतपणे संबद्ध नथी एम कहेवाय छे. हवे उपसंहार कहे छ:-"जेथी, त्यां, अन्यत्र अथवा अवगाहनामां द्रव्य तेनुं ते ज छे तेथी अवगाहनाद्धा करतां द्रव्याद्धा असंख्यगुण छे. हवे भावायुना बहुपणानो विचार करीए छीएः-संघातथी अथवा भेदथी द्रव्यनो उपरम थाय तो पण पर्यवो विद्यमान रहे छे, अने जो बधा गुणोनो उपरम थाय तो तो द्रव्य पण न रहे अने अवगाहना पण न रहे" तात्पर्य ए छे के, जम घृष्ट-साफ करेला-पटमा शुक्लादि गुणो के तेम संघातादि द्वारा द्रव्यनो उपरम थाय तो पण पर्यवोनी सत्ता रहेछ, अने जो सर्वगुणोनो उपरम थाय तो ते द्रव्य रहेतुं नथी अने अवगाहना पण अनुवर्तती नथी, आ वातथी एम स्पष्ट जणाय छे के, पर्यवोर्नु अवस्थान पर्यवोर्नु अवस्थान, चिर-लांबा-काळ सुधी छे अने द्रव्य तो अचिरकाळ सुधी अवस्थान छे, एम शाथी कही शकाय ? तो कहे छे के, " द्रव्याद्धा, हमेशा ज संघात वंधनी अने भेदबंधनी पाछळ चालनारी छे अने गुणकाल, संघाताद्धा अने भेदादा मात्रमा संबद्ध नथी " अर्थात्-संघात अने भेदरूप वे धर्मो द्वारा थतो जे संबंध, तेने अनुसंरनारी द्रव्यादा छे, कारण के, ते (द्रव्याद्धा) संघातादि न होय त्यारे ज होय छे अने ते (संघातादि ) होयत्यारे नथी होती. अने बळी गुणकाल, मात्र संघात अने भेदना काळमां संबद्ध नथी, कारण के, संघातादि होय तो पण गुणोनुं अनुवर्तन थाय छे. उपसंहार कहे छ:-"जेथी, त्यां, अन्यत्र अने द्रव्यावस्थानर्मा, क्षेत्रावस्थानमा तथा अवगाहनावस्थानमां तेना ते ज पर्यवो छ माटे भावावस्थानायु असंख्यगुण छे" कयुं छे के, " द्रव्यनो उपरम थया बाद गुणोर्नु अवस्थान रहे छे, आ अनेकांत छे अने गुणनो विपरिणाम थया बाद जे द्रव्यविशेष छे ते नैकांत छे" द्रव्यविशेष एटले द्रव्यनो विपरिणाम. “ ज्यारे द्रव्य विपरिणामने पामे त्यारे क्ये स्थळे एकी साथे गुणनी परिणति भावायुना बहुपणाथाय वळी ये तदवस्थे-तेवे-स्थळे पण गुणनो विपरिणाम थाय ? " " साचुं कहीए छीए के, वळी, द्रव्यमा गुणोनु बाहुल्य होवाथी सर्वगुणनो नो विचार. नाश थतो नथी अने तेनु अन्यत्व थाय छे तो पण घणा गुणोनी स्थिति रहे छे."
नैरयिकोनों परिग्रह. २८. प्र०-नरइया णं भंते ! किं सारंभा, सपरिग्गहा; उदाहुं २८. प्र०-हे भगवन् ! नैरयिको शुं आरंम सहित छे, अणारंभा, अपरिग्गहा ?
परिग्रह सहित छे के अनारंभी अने अपरिग्रही छे ? २८. उ०-गोयमा । नेरहया सारंभा, सपरिग्गहा; णो २८. उ०-हे गौतम ! नैरयिको आरंभवाळा छे अने अणारंभा, णो अपरिग्गहा.
परिग्रहवाळा छे पण अनारंभी अने अपरिग्रही नथी. २९. प्र०-से केण० जाव-अपरिग्गहा ?
२९. प्र०-हे भगवन् ! तेओ, क्या हेतुथी परिग्रहवाळा छे
अने यावत्-अपरिग्रही नथी ! २९. उ०-गोयमा । नेरइया णं पुढविकायं समारंभांति, २९. उ०-हे गौतम ! नैरयिको पृथिवीकायनो यावत् त्रसआव-तसकायं समारंभति; सरीरा. परिग्गहिया भवति, कम्मा कायनो समारंभ करे छे, तेओए शरीरो परिगृहीत कयों छे, कर्मो परिग्गहिया भवंति, सचित्ता-ऽचित्त-मीसियाई दव्वाई परिग्ग- परिगृहीत काँ छे अने तेओए सचित्त, अचित्त अने मिश्र द्रव्यो हियाई भवंति-से तेणटेणं तं चेव गोयमा !
परिगृहीत कों छे माटे ते हेतुथी हे गौतम! 'तेओ परिग्रही छे' इत्यादि ते ज कहे.
७. अनन्तरम् आयुरुक्तम् , अथाऽऽयुष्मत आरम्भादिना चतुर्विशतिदण्डकेन प्ररूपयन्नाहः- नेरइए' इत्यादि.
१. मुळच्छाया:-नैरयिका भगवन् ! कि सारम्भाः, सपरिप्रहाः, उताहो अनारम्भाः, अपरिप्रहाः? गौतम | नरयिकाः सारम्भाः, सपरिप्रहाः, नो अनारम्भाः, नो अपरिग्रहाः. तत् केन. यावत्-अपरिप्रहाः ? गौतम | नैयिकाः पृथिवीकार्य समारभन्ते, यावत्-प्रसकार्य समारभन्ते; शारीराणि परिगृहीतानि भवन्ति, कर्माणि परिगृहीतानि भवन्ति, सचित्ता-ऽचित्त-मिश्रितानि द्रव्याणि परिगृहीतानि भवन्ति-तत् तेनाऽर्थेन तपंप पातम!:-अनु.
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