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शतक्त ४.-उद्देशक १०.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. लेश्याने, कापोत लेश्या तैजसी लेश्याने, तैजसी लेश्या पद्म लेश्याने अने पद्म लेश्या शुक्ल लेश्याने पामीने तेना रूपादिरूपे परिणमे छे' इत्यादि कहे. हवे आ उद्देशक क्यां सुधी कहेवो? तो कहे छे के, ['जाव' इत्यादि ] [ परिणाम '] इत्यादि द्वार गाथामां कहेलां द्वारोनी समाप्ति परिणाम. सुधी ए उद्देशक कहेवो. तेमां परिणाम संबंधे हकीकत हमणां ज जणावी छे. तथा [ ' वन्न ' ति] कृष्णलेश्यादिक लेश्यानो वर्ण कहेवो. वर्ण. ते आ रीते:-" हे भगवन् ! कृष्णलेश्यानो वर्ण केवो कह्यो छे ? इत्यादि. उत्तर-मेघ विगेरेनी जेवी कृष्णलेश्या काळी छे, भमरा विगेरेनी जेवी नीललेश्या नीली छे, खरसार विगेरेनी जेवी कापोत लेश्या कापोती छे, ससलाना लोही विगेरेनी जेवी तैजसी लेश्या लाल छे, चंपकविगेरेनी जेवी पीत लेश्या पीळी छे, शंखविगेरेनी पेठे शुक्ललेश्या धोळी छे. तथा [ 'रस' त्ति ] लेश्याओनो रस कहेवो. ते आ प्रमाणेः-लिंबडा विगेरेनी रस.
(महावीर अने गौतमना प्रश्नोत्तरवाळी शैली )“ कहि णं भंते | बादरपुढवीकाइयाणं पजतगाणं ठाणा पण्णता? "हे भगवन् । पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिकोनां रहेठाणो क्या कहां छे ? गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु ४ कहि णं भंते । बादरपुढवीकाइयाणं हे गौतम ! स्वस्थाननी अपेक्षाए आठे पृथ्वीओमांxहे भगवन् | अपर्याप्त अपनत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरपुढवीकाइयाणं बादरपृथ्वीकायिकोनां रहेठाणो क्या कह्यां छे ! हे गौतम | ज्या बादर पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता तत्थेव "xxx -(प० पृ० ५१) पृथ्वीकायिकोनां स्थानो कयां छे त्यां ज तेओनां पण स्थानो कह्यां छे."
आ प्रकारनी बे शैली माटे टीकाकार महाशय जणावे छे के-" न सर्वमेव सूत्रं गणधरप्रश्न-तीर्थकरनिर्वचनरूपम् , किन्तु किंचिद् अन्यथाऽपि, बाहुल्येन तु तथारूपम् "-(प. पृ०७) अथीत् “ आ संकलनामांनो घणो खरो भाग. महावीर अने गौतमना प्रश्नोत्तररूप छे अने थोडो भाग बीजी रीते-सामान्य प्रश्नोत्तररूप-पण छ. " आ प्रकारनी बे शैली जोइने साधारण रीते एवो संदेह थवो संभवित छे के, ज्यारे आ ग्रंथमां घणो खरो भाग महावीर अने गीतमना प्रश्रोत्तररूप आवेलो छे अने मात्र "किंचिद् अन्यथाऽपि" छे तो पछी आना रचनार महावीर भने गौतम जशा माटे न होय ? अथवा आर्यश्यामसूरि केम होय ? आ प्रश्ननुं समाधान श्रीयुत टीकाकारजीए घणुं सरळ, स्पष्ट अने युक्तियुक्त आपेलु छे अने ते आ प्रमाणे छे:__" एवं गौतमखामिना प्रश्न कृते भगवान् आह-वर्धमानखामी- “ए प्रमाणे गातमखामिए पूछया पछी वर्धमानखामी उत्तर आपे छे. गोयमा ! + इत्यादि. ननु गौतमोऽपि भगवान् उपचित-कुशलमूलो गण- कदाच एम कहेवामां आवे के, गौतम खामी चौद पूर्वना धरनार छे, . धरः तीर्थकरभाषितमातृकापदभ्रवणमात्राऽवाप्तप्रकृष्टश्रुतज्ञानावरणक्षयो-पश- तीर्थकरे कहेलांत्रण पदोने सांभळवा मात्रथी ज जेओए उत्कृष्टश्रुतज्ञानमश्चतुर्दशपूर्व वित् साक्षरसन्निपाती-इति विवक्षितार्थप्रतिज्ञानसमन्वित एव, नी प्राप्ति करी छे अर्थात् तीर्थकरे कहेला मात्र त्रण पदो उपरथी जजे ततः किमर्थ पृच्छतिन हि चतुर्दशपूर्व विदः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसमन्वि- बारे अंगो जेवां महाभूतनी रचना करे छे एवा ए गौतमखामिने वळी हवे तस्य किंचित् प्रज्ञापनीयमविदितमस्ति. x सत्यमेतत् , केवलं जाननेव पूछवार्नु शु बाकी होय ! ए वधारेमा वधारे धृतज्ञाननी लधिवाळा एवा गौतमखामी भगवान् अन्यत्र विनेयेभ्यः प्रतिपाद्य तत्संप्रत्ययनिमिक्तं विव- गातमथी वळी शें कोइ पण वात अजाणी होय? माटे खरी रीते तो क्षितमर्थ पृच्छति. यदि वा प्रायः सर्वत्र गणधरप्रश्न-तीर्थकरनिर्वचन- गीतम् प्रश्न करे' ए वात ज घटती आवे एवी नथी. आ शंका साची छे, रूपं सूत्रम्-अतो भगवान् आर्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति. तो पण गातमनो पूवानो आशय ज बीजो छे त्यांए शंका घटी शकती अथवा संभवति तस्याऽपि गणभृतो गीतमखामिनोऽनाभोगः-छद्मस्थलात् नथी. ए बीजो आशय आ प्रमाणे छे:--गौतमे पोते शिष्योने जे जे वातो + ततो जातसंशयः सन् पृच्छति-इति न कश्चिद् दोषः"-- कही होय ते बराबर कहेवाणी छे के नहि-ए वातनो निश्चय करवा माटे
(५० पृ० ७२-७३)
गौतमने पूलवू पडे छे माटे गौतम जेवा महाज्ञानी पण जो प्रश्न करे तो ते अयुक्त नथी, अथवा घणे भागे सूत्रनी शैली गणधरना प्रश्न अने तीर्थकरना उत्तररूपे रखाणी छे माटे ज भगवान् आर्यश्याम पोते पण ए जशैलीमा आ सूननी रचना करे छे. अथवा गौतम पोते गमे तेवा महाज्ञानी होय तो पण छमस्थ तो खरा ने-अने छद्मस्थनी भूल थवी ए काइ असंभवित नथी माटे ज गौतम संशयवाळा होइ शके छे अने ए
संशय टाळवाने माटे ते पूछी पण शके छे-एमां कांइ दूषण होय नहि." उपरना उल्लेखमा टीकाकारश्रीए त्रण वात आ प्रमाणे जणावी छ:-पेली वात तो तेओए ए जणावी छे के, गौतम जेवा महाशानिने नवु जाणवा माटे कांइ पूछ्वानु बाकी न होय, पण पाते बीजाने जणावेली वातो बराबर छे के नहि ? ए वातनो निर्णय करवा माटे तेओने पूछवानी जरुर रहे छे-आ वात लखती वखते टीकाकारनो ख्याल एवो रह्यो छे के, आ सूत्रमा आवता प्रश्नोत्तरी जाणे साचे ज महावीर अने गौतम बचे न थयेला होय. बीजी वातमा तेओ एम जणावे छे के, घणे ठेकाणे गणधरना प्रश्न अने तीर्थकरना उत्तरो-ए शैलीमा सूत्रोनी संकलना थएली छे माटे आर्यश्याम भगवान् पण ए ज शैलीए आ सूत्रनी रचना करे छे. आ बीजी वातमां तो तेओए (टीकाकारश्रीए) एम साफ ज जणान्छे के, आ प्रशापना सन्न (गणधर अने तीर्थकरना प्रश्नोत्तरनी शैलीमा अने क्यांय साधारण प्रश्नोत्तरनी शैलीमा) श्रीआर्यश्यामे रचे छे. हवे छेवटनी त्रीजी वात जे, तेओए जणावी छे ते पेली वातर्नु ज समर्थन करती जणाय छे. अने वळी टीकामां अनेक स्थळे “ सूरिराह" " भगवान् आर्यश्यामः पठति" एवा एका निर्देशो करीने प्रज्ञापनानी कृति श्रीआर्यश्यामनी छे' ए वातने दृढ करी छे-प्रज्ञापनामां आवेली प्रश्नोत्तरात्मक शैली श्रीआर्यश्यामनी पोतानी ज उद्भवावेली छे एवं अनेक स्थळे श्रीटीकाकारजीए जणाव्या छतां ए शैलीने श्रीगोतम अने श्रीमहावीरना प्रश्नोत्तरात्मक मानी टीकाकारश्रीए ए विषे जे संगति करवानां समाधानो जणाव्यां छे ते द्वारा तेमनो आशय कळातो नथी-गमे तेम हो. परंतु आ शैली श्रीभगवतीजीमां आवेली शैलीनी जेवी संवादनारूपमा तेना प्रणेताए जो डेली छे एमां कशो संदेह राखवानो नथी. तात्पर्य ए के, प्रज्ञापना एक संग्रहात्मक गंभीर ग्रंथ छे, तेना प्रणेता त्रणमांना कोइ एक श्रीआयश्यामजी छे अने एमां (प्रज्ञापनामा) आवेली शैली एमणे पोते ज उपजावेली लागे छे. आ श्रीआर्यश्यामजीनो श्रीखातिसूरि साथे कशी संबंध कळातो नधी, (ए खाति सूरिने श्रीधर्मसागरजीए तत्त्वार्थ विगेरेना की मानेला छे अने असारे पण जैनो तेम ज माने छ परंतु तत्त्वार्थना की खातिजीनुं गोत्र · काभीषणि 'छे-(काभीषणिना खातितनयेन वात्सीसुतेन अयम् "-तत्वार्थ प्रशस्ति ) सारे ११ मी पाटवाळा आर्यश्यामजीना गुरु श्रीखातिजीनुं गोत्र हारित छे-माटे ए बे जुदा जुदा गोत्रवाळा आचार्य एक ज होय ए शी रीते मनाय?) आ रीते प्रज्ञापना, एंना कती अने एनी शैली विषे यथामति आळेख्यु छः-अन०
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