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________________ शतक ५.-उद्देशक ९. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २५१ परित्ता' प्रत्येकशरीराः अनपेक्षिता-ऽतीता-ऽनागत-संतानतया वा संक्षिप्ताः जीववना:-इत्यादि तथैव. अनेन च प्रश्ने यदुक्तम्:। अणता राइंदिया' इत्यादि. तस्योत्तरं सूचितम् , यतोऽनन्त-परीतजीवसंबन्धात् कालविशेषा अपि अनन्ताः, परीताश्च व्यादिश्यन्तेऽतो विरोधः परिहृतो भवति इति. अथ लोकमेव स्वरूपत आहः-से भूए' ति यत्र जीवधना उत्पद्य उत्पद्य विलीयन्ते स लोको भूतः-सद्भूतो भवनधर्मयोगात् , स चाऽनुत्पत्तिकोऽपि स्यात्-यथा नयमतेनाऽऽकाशम् , अत आहः-उत्पन्नः, एवंविधश्वाऽनश्वरोऽपि स्यात् यथा विवक्षितघटाऽभावः, इत्यत आह:-विगतः, स चाऽनन्वयोऽपि किल भवति, इत्यत आहः-परिणतः, पर्यायान्तराणि आपन्नः, न तु निरन्वयनाशेन नष्टः, अथ कथम् अयम् एवंविधो निश्चीयते ? इत्यत आहः- अविहिं ' ति अजीवैः पुद्गलादिभिः सत्तां बिभ्रद्भिरुत्पद्यमानैः, विगच्छद्भिः, परिणमद्भिश्च लोकाऽनन्यभूतै:-लोक्यते-निश्चीयते, प्रलोक्यते-प्रकर्षेग निश्चीयते भूनादिधर्मकोऽयम् इति, अत एव यथार्थनामाऽसौ इति दर्शयन्नाहः-'जे लोकह से लोए' ति यो लोक्यते विलोक्यते प्रमाणेन स लोको लोकशब्दवाच्यो भवति-इति. एवं लोकस्वरूपाऽभिधायकपार्श्वजिनवचनसंस्मरणेन खवचनं भगवान् समर्थितवान् इति. 'सपडिक्कमणं । ति आदिमा-ऽन्तिमजिनयोरेव अवश्यकरणीयः सप्रतिकमणो धर्मः, अन्येषां तु कादचिकप्रतिक्रमणः. आह च:-- संपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स, मज्झिमगाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं " ति. ४. काल निरूपणनो अधिकार होवाथी रात्रि-दिवसरूप काल-विशेषने निरूपवा आ-[' ते णं काले णं, इत्यादि ] सूत्र कहे छे. तेमां [' असंखेजे लोए 'त्ति ] असंख्यात प्रदेशरूप होवाथी असंख्यात लोकमां एटले चौद रज्वात्मक आधारभून क्षेत्रलोकमां [ ' अणंता राइंश्य' ति ] अनंत परिमाणवाळा अहोरात्रो-रात्रि-दिवसो-[ ' उप्पजिंसु ' इत्यादि. ] उत्ान्न थयां, उत्पन्न थाय छे के उत्पन्न थशे ? आ प्रश पूछना ते आ स्थविरोंनो आ अभिप्राय जणाय छे के, जो, लोक असंख्यात छे तो तेमां अनंत रात्रि-दिवसो शी रीते होई शके ? वा शी रीते रही शके ? कारण विनो आग के, लोकरूप आधार असंख्यात होवाथी अल्प छे, अने रात्रि-दिवसरूप आधेय अनंत होवाथी मोटुं छे माटे नाता आधारमा मोटुं आधय के.म संभवे ? तथा, परित्ता राइंदिय 'त्ति ] परित्त एटले नियत परिमाणवाळां-अमुक परिमाणवाळां-पग अनंत नहि. अहिं आ अभिप्राय छ के, जो ते रात्रिदिवसो अनंत होय तो 'परित्त' केम होइ शके ? ए प्रमाणे परस्पर विरोध छे. अहिं [ 'हंता' इत्यादि ] उतर छ, अहिं आ अभिप्राय छे के, जेम एक आश्रव-घर वगेरे--मां हजारो दीवानी प्रभा समाइ शके छ तेनी पेठे, तेवा प्रकारचें स्वरूप होवाथी असंख्य प्रदेशरूप से लोकमां पण अनंत जीवो रहे छे अने ते जीवो एक ज समय वगेरे काळमां अनंत संख्यामां उत्पन्न थाय छे, नाश पामे छे ते समयादि काळ, साधारण शरीरनी अवस्थामा रहेला अनंत जीवोमां दरेक जीवमां अने प्रत्येक शरीरनी अवस्थामा रहेला परित्त-नियत-असंख्यात-जीवोमां दक जीवमा रहे छे, कारण के, ते समयादि काळ जीवोनी स्थिति रूप-पर्याय रूप छे-ते प्रकारे काळ अनंत अने परित पण कहेवाय छे-ए प्रमाणे असंख्येय लोकमां पण रात्रिदिनो अनंत छे अने परित्त पण छे अने ए प्रमाणे होवू, ए त्रणे काळमां योग्य छे, एज वातने ते स्थविरोने सम्मत स्थ विरोना संधी जिनना मत वडे प्रश्नपूर्वक दर्शावता [' से णूणं' इत्यादि ] सूत्र कहे छे. [भे' ति] आपना संबंधी, [ · अजो !' ति] हे आर्यो ! पार्श्वजिन. [' पुरिसादाणीएणं' ति ] पुरुषोनी वचे आदेय-माननीय-ग्राह्य-ते पुरुषादानीय-तेणे [ 'सासए ' ति] (लोकने ) प्रतिक्षण रहेनार-स्थिर -- शाश्वत. ['बुइए ' ति ] कह्यो छे, केटलाक स्थिर पदार्थों एवा पण होय छे-जेओ उत्पन्न थया पछी स्थिर रहेनारा होय छे अर्थात् उत्पत्तिवाळा अने स्थिरतावाळा होय छे पण लोक तेवो नथी माटे कहे छे के, [ ' अणाइए 'त्ति ] अर्थात् लोक आदि-उत्पत्ति-विनानो छे अने स्थिर छे. केटलाक अनादिक. आदि विनाना पदार्थों अंतवाळा होय छे पण लोक तो अंत विनानो छ माटे कहे छे के, [' अणवयम्गे ' त्ति ] अनंत. [ 'परित्ते ' ति। प्रदेशथी परित्त छ, आ शब्दवडे एम दर्शाव्यु के, भगवंत पार्श्वजिनने पण लोकनी असंख्येयता सम्मत छे. तथा [ 'परिबुडे ' त्ति ] अलोकथी अनंत-परीत. पाव जिन्नी सम्म ते. परिवृत, [ 'हेट्ठा विच्छिन्ने ' ति] सात रज्जु विस्तीर्ण होवाथी नीचे विस्तीर्ण छ, 'मझे संखित्ते 'त्ति ] एक रज्जु विस्तीर्ण होवाथी वचमां लोकस्वहा. संक्षिप्त छे, [ 'उप्पि विसाले 'ति] ब्रह्मलोकनो भाग पांच रज्जु विस्तीर्ण होवाथी उपर विशाल छे, ए ज वातने उपमाथी कहे छे के, [ 'अहे पलियंकसंठिए ' ति] उपर संकीर्ण अने नीचे विस्तृत होवाथी नीचे पल्यंकना आकार जंबो छे, [ 'मझे वरवइरविग्गैहिए ' ति ] वचमां पातळो होवाथी लोकनो आकार उत्तम वजनी जेवो छे. [ उणि उद्धमुईगागारसंठिए 'ति] तीरछो-आडो-नहि पण उभो जे मृदंग, तेना आकारे लोक रहलो छ अर्थात् बे कोडियाना संपुटने आकारे रहलो छे. [ ' अणंता जीवघण ' त्ति ] परिमाणथी अनंत अथवा जीव संततिर्नु अनंत जीवो. अपर्यवसान होवाथी सूक्ष्मादि साधारण शरीरोनी विवक्षाने लीधे संततिनी अपेक्षाए अनंत, अने अनंत पर्यायना समूहरूप होवाथी तथा असंख्य प्रदेशना पिंडरूप होवाथी घन एवा जे जीव ते जीबंधन कहेवाय. आथी शुं कहे छ ? तो कहे छे के, [ ' उप्पजित ' ति ] ते जीवघन उपजी गजीने नाश झामे छे, तथा परित्ता'] प्रत्येक शरीरवाळा अने भूत, भविष्यत् काळना संतानपणानी अपेक्षा विनाना माटे ज संक्षिप्त जीवघना, इत्योंदि-पूर्वनी पेठे समजवु. आहे प्रश्नमा जे [' अर्णता राइंदिया ' इत्यादि ] कह्यु छे तेनो उत्तर आ कथन वडे सूचित थयो-अपाइ गयों. कारण के, अनंत अने परित्त जीवनासंबंधथी काल-विशेष पण अनंत अने परित, ए प्रकारे व्यपदेशाय छे माटे अमुकना संबंधथी अनंत अने अमुकना संबंधी परित्त थवामां विरोधनो परिहार थाय छे. हवे स्वरूपथी लोकने ज कहे छे, [ ' से भूए ' ति ] ज्यां जीवधनो उत्पन्न थइ नाश अमु पामे ते लोक कहेवाय अने ते लोक भवन-सत्ता-धर्मना संबंधथी । सद्भुत ' लोक कहेवाय, जेम नैयायिकना मतमा आकाश, अनुत्पत्तिक-उत्पत्तिधर्म रहित-छे तेम ते लोक पण अनुत्पत्तिक होय माटे कहे छे के, ते लोक उत्पन्न छे; जेम विवक्षित घटाभाव-घटप्रध्वंसाभाव- उत्पन्न छे अने नैयायिक, अनश्वर छ तेम उत्पन्न पदार्थ पण अनश्वर होय माटे कहे छ के, लोक विगत-नाशशील छे नाशशील पदार्थ एवो पण होय के, जे अनन्वय-- १, प्र० छाः-सप्रतिक्रमणो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य, मध्यमकानां जिनानां कारणजाते प्रतिक्रमणम्-इतिः-अनु० १. भहीं 'वरवहरविग्गहे ' ने बदले जे 'वरवहर विग्गहिए ' कयुं छे ते खाधिक 'इक' प्रत्यय लागवाने लीधे क छ:-श्रीअभय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004641
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherJinagama Prakashan Sabha
Publication Year
Total Pages358
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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