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शतक ५.-उद्देशक २.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
समजवी. बेइंद्रिय जीवोए शरीररूपे परिणमावेल 'ए अर्थनो संबंध बधां पदो साथे न करवो, पण ज्यां ते घटी शके तेम होय त्यां ज करवो, तेमां अंगारो अने राख, ए बन्ने, तेनी पहेली अस्थामा एकेंद्रियनां शरीररूपे हता, कारण के, अंगारो के राख ( लीला लाकडामाथी थएल सूका ) लाकडानी बने छे अने ते लीलुं लाकई एकेद्रिय जीव होय छे माटे ते अंगारा के राखने एक इंद्रियना शरीररूये जणावी ते खोटुं नथी. भुसो पण, तेनी पहेली स्थिति एकेंद्रिय जीवना शरीररूप हतो, कारण के ते, लीला जब अने घउंमांधी बने छे अने लीला जव तथा घउं एकेद्रिय छे ए वान सुपसिद्ध ज छे, छाण ए, एकेंद्रियर्नु शरीर गगाय छे. कारण के, मारे गाय वगेर पशुओ वास, मुंमो छापा, के खाण वगैरे खाय छे त्यारे तेज चीजोमांथी छाण नीपजे छ अने ते बधी चीजो एकेंद्रिय जीवरूप छे म टे छाणने एकेंद्रियर्नु शरीर कहेवामा हरकत नथी. वळी ज्यारे गाय वगेरे पशुओ बे इंद्रियवाळा (जे जीवने चामडी अने जीभ एवी वे ज इंद्रियो छ एवा ) जीवन भक्षण करे छे त्यारे ते छाण, बेइंद्रिय जीवन शरीर कहेवाय छे. कारण के, ए छाण बेइंद्रिय जीवना शरीरतुं बनेल छे. एरीते जेटली इंद्रियवाळा जीवनो आहार गाय वगेरे पशुओ करे एटली इंद्रियवाळा जीनुं शरीर तेने (छाणने ) गणवं.
लवण समुद्र. १९. प्र०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवाल- १९. प्र०-हे भगवन् ! लवण समुद्रनो चक्रवाल विष्कंभ विक्खंभेणं पण्णत्ते ?
केटलो कह्यो छे ? १९. उ०-एवं णेया, जाव-लोगढिई, लोगाणुभावे. १९. उ०-हे गौतम ! ए प्रमाणे-पूर्वे कह्या प्रमाणे
जाणवू यावत्-लोकस्थिति, लोहानुभाव, -से मंते !, सेवं मंते ! त्ति भगवं जाव-विहरइ. . -हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे
छ एग कही भगवान् गौतम यावत्-विहरे छे,
भगवंत-अजमुहम्मसामिपणीए सिरीभगवई सुत्ते पंचमसये दुइओ उद्देसो सम्मत्तो.
४ . पृथिव्यादिकायाधिकारादप्यप्कायरूपस्य लवणोदधेः स्वरूपमाहः-'लवणे गं' इत्यादि. 'एवं यवं ' ति उक्ताभिलापानुगुणतया नेतव्यं जीवाभिगमोक्तं लवणसमुद्रसूत्रम्. किमन्तम् ? इत्याहः-'ज.व लोग-' इत्यादि. तच्चेदम्: “ केवइयं
१. मूलच्छाया:-लवणो भगवन् । समुद्रः कियान् चकवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः ? एवं ज्ञातव्यम् , यावत्-लोकस्थितिः, लो कानुनावः तदेवं भगवन् ! , तदेवं भगवन् ! इति भगवान् यावत्-विहरति.
१. आ बाबतने लाती विगतवार हकीकत जीवाजीवाभिगम सूत्रनी त्रीजी प्रतिपत्तिमा (स. पृ. ३२४ ) नोधाएली छे अने तेमांनी केटलीक सा प्रमाणे छे:" लवणे णं भंते ! समुद्दे कि संठिए पणते ?
" हे भगवन् ! लवण समुद्रनुं संस्थान (आकार ) केवु कयुं छे ! गोयमा! गोतित्थसंठिते, नावा-संठाणसंठिते, सिपि-संपुड संठिए, हे गौतम! गोतीर्थ जेवू, नौकानी जेबु, छीपना संपुटनी जेवं, आसखंधसंठिते, वलभिसंठिते-बट्टे-वलयागारसंठाणसंठिते पण्णते. अवस्कंधनी वू, वलभीनी जेवू वृत्त अने बल यना आकार- कयुं छे.
लवणे ण भंते । समुद्दे केवतियं चकवाल विक्खंभेणं ? केवतियं हे भगवन् ! लवण समुद्रनो चक्रवाल विष्कंभ केटलो कह्यो छे ? परिक्खे वेण ? केवतियं उन्हेणं ? केवतिय उस्सेदेणं ? केवतियं सव्वग्गेणं परिक्षेप केटलो कह्यो छे ? उद्वेध केटलो को छे ? उत्सेध अने सीप पण्णते?
केटलुं का छे ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसय-सहस्साई चकवालविकभणं, हे गौतम ! लवण समुद्रनो चकवालविकभ बे लाख योजननो छ, पण्णरस जोयणसयसहस्साई, एकासीर्ति च सहस्साई, सतं च इगु(ण)यालं पन्नर लाख, एकाशी हजार अने एकसने ओगणचाळीश योजन उपरांत किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, एग जोयणराहस्सं उब्वेधेणं, सोलस जोयणसह. थोडो घणो वधारे मेछो परिक्षा छे, एक हजार योजन उदेष छ, सोळ स्साई उस्से हेणं, सत्तरस जायणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्त.
हजार योजन उत्सेध छ अने सत्तर हजार योजन सर्व ग्र कयं छ. जइ णं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसतसहस्साई चक्कचालविक्खंभेण, हे भगवन् ! जो लवणसमुद्रनो चक्रमालविष्कम बे लाख योजननो छे, पण्णरस जोयणसतसहस्साई एकासतिं च सहस्साई, सतं च इगु(ण)यालं पार लाख, एकाशी हजार अने एकसोने ओणिचाळीश योजन उपरांत थोडो किंचि विसेसूणे परिवखेवेणं, एगं जोयणराहस्सं नव्बंधेगे; सोलस जोयणस- घणो वधारे ओछो परिक्षेष छे, एक हजार योजन उद्वेध छे, सळ हजार हस्साई उस्सेधेणं, सत्तरस जोयण-सहस्साई सम्बग्गेणं पणते कम्हा णं योजन उत्सेध छे अने सत्तर हजार योजन सर्वन कयु छे तो हे भंते ! लवणसमुद्दे जंबुद्दोवं नो उवीले ति, नो उप्पीलेति नो चेव णं एकोदगं भगवन् ! ए लवण समुद्र ( एवंडो मोटो होवाथी) आ जंबू दीप नामना करेति?
द्वीपने शा माटे डुबावतो नथी, शा माटे झबोळतो नथी अने शामाटे
जलमय करी शकतो नी ? गोयमा ! जंबुद्दीवे ण दीवे भरहे-रवएसु वासेसु अरहंत-चक्कवट्टि- हे गौतम ! (आ) जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरत अने ऐरवत क्षेत्रोमां पलदेक, वासुदेवा, चारणा, विद्याधरा, समणा, समणीओ, सावया, अरइंतो, चक्रवर्तिओ, बळदेवो, वासुदेवो, चारणो, विद्याधरो, श्रमणो,
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