Book Title: Acharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य तुलसी साहित्य एक पर्यवेक्षण समणी कुसुम प्रज्ञा www.jalinews COILS Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यमेव जयते आचार्य तुलसी का अणुव्रत आंदोलन व्यक्ति की नैतिक शक्ति को सुदृढ़ करके उसकी सृजनात्मक क्षमता के विकास का आंदोलन है। इस आंदोलन में व्यक्ति और राष्ट्र दोनों का हित निहित है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि समणी कुसुमप्रज्ञा ने आचार्य तुलसी के विचारों को सूचीबद्ध किया है। इससे उनके साहित्य पर शोध का सरल मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। शंकरदयाल शर्मा राष्ट्रपति भारत गणतंत्र te & Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण समणी कुसुमप्रज्ञा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स समणी कुसमप्रज्ञा जैन विश्व भारती प्रकाशन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनं (राजस्थान) ISB No. 81-7195-032-9 श्रीमती झमकू देवी भंसाली मेमोरियल ट्रस्ट, सुजानगढ़-कलकत्ता ___/o फतेहचन्द चैनरूप भंसाली, 8 B, लाल बाजार स्ट्रीट, कलकत्ता-700001 के सौजन्य से प्रथम संस्करण : सन् १९९४ पृष्ठ : ७०० मूल्य : १८०.०० रुपये मुद्रक : जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयमेव जयते राष्ट्रपति भारत गणतंत्र PRESIDENT REPUBLIC OF INDIA आचार्य तुलसी का अणुव्रत आंदोलन व्यक्ति की नैतिक शक्ति को सुदृढ़ करके उसकी सृजनात्मक क्षमता के विकास का आंदोलन है । इस आंदोलन में व्यक्ति और राष्ट्र दोनों का हित निहित है । नई दिल्ली 24 फरवरी, 1994 संदेश मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि समणी कुसुमप्रज्ञा ने आचार्य तुलसी के विचारों को सूचीबद्ध किया है । इससे उनके साहित्य पर शोध का सरल मार्ग प्रशस्त हो सकेगा । इस कार्य के लिए मेरी शुभकामनाएं । शंकरदयाल शर्मा शंकर दयाल शर्मा 8 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यम् - साहित्य एक ऐसी विधा है, जिस पर जितना श्रम किया जाए उतना ही लाभ है । स्वयं का ही नहीं, दूसरों का लाभ इसमें ज्यादा निहित है, पर श्रम करना कितना कठिन है ! वह भी पूरे मनोयोग से करना और भी कठिन है। मैंने अपना साहित्य लिखा या लिखाया, उस समय ऐसी कोई कल्पना नहीं की थी कि इस साहित्य का इतना मंथन किया जाएगा, पर नियति है कि इस साहित्य पर इतना मंथन हुआ है। समणी कुसुमप्रज्ञा दुबली-पतली है, पर बड़ी श्रमशील है। वह श्रम करती अघाती ही नहीं, करती ही चली जाती है। उसने कुछ ऐसे अपूर्व ग्रन्थ तैयार कर दिए हैं, जो युग-युगान्तर तक लाखोंलाखों लोगों के लिए लाभकारी एवं उपयोगी सिद्ध हो सकेंगे। 'एक बंद : एक सागर' (पांच खंडों में) एक ऐसा ही सक्ति-संग्रह है, जिसकी मिशाल मिलना मुश्किल है। यह दूसरा ग्रन्थ तो और भी अधिक श्रमसाध्य है । इसमें समूचे साहित्य का अवगाहन कर उसको विषयवार वर्गीकृत कर दिया गया है। इसके माध्यम से सैकड़ों शोध-विद्यार्थी आसानी से रिसर्च कर सकते हैं। समणी कुसुमप्रज्ञा श्रम के इस क्रम को चालू रखे । केवल यही नहीं, अध्यात्म के क्षेत्र में जितनी गहराई में उतर सके, उतरने का प्रयत्न करे । हमारे धर्मसंघ की सेवा का जो अपूर्व अवसर मिला है, उससे वह स्वयं लाभान्वित हो तथा दूसरों को भी लाभान्वित करे । समणी उभयथा स्वस्थ रहे, यही शुभाशंसा है। मागचा जयपुर २५-३-९४ शुक्रवार अणुव्रत अनुशास्ता गणाधिपति तुलसी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवम् 'अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी' यह नाम किसी व्यक्ति का वाचक नहीं, व्यापक धर्म की अवधारणा का प्रतिनिधि है। अणुव्रत अनुशास्ता ने धर्म को व्यापक बनाकर उसे सत्य के सिंहासन पर आसीन किया है। ____ 'वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी' यह नाम विशाल ज्ञान-राशि का प्रतिनिधि है । जो कहा, वह श्रुत बन गया। जो लिखा, वह वाङ्मय बन गया। दृष्ट, श्रुत और अनुभूति की संयोजना का एक दीर्घकालिक इतिहास है। समणी कुसुमप्रज्ञा ने विशाल ज्ञानराशि की संकेत पदावलि को प्रस्तुत पुस्तक में संदर्शित करने का प्रयास किया है। इससे पाठक को उस विशाल श्रुत से परिचित होने का अवसर मिलेगा। समणी कुसुमप्रज्ञा का प्रयास अपने आप में अर्थवान् है । वनीपार्क, जयपुर १९-३-९४ आचार्य महाप्रज्ञ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरम् गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य रूप में जितने प्रख्यात हुए हैं, 'अगुव्रत अनुशास्ता' के रूप में उससे भी अधिक प्रसिद्धि आपने अजित की है । आपका कर्तृत्व अमाप्य है । उसे मापने का कोई पैमाना दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। आपके कर्तृत्व का एक घटक है-आपका साहित्य । हिन्दी, राजस्थानी और संस्कृत में आप द्वारा लिखे गए गद्यात्मक और पद्यात्मक ग्रंथ साहित्यभंडार की अमूल्य धरोहर हैं। हिन्दी भाषा में आपके प्रवचनों और निबन्धों की बहुत पुस्तकें हैं । विषयों की दृष्टि से वे बहुआयामी हैं। उनका अनुशीलन किया जाए तो बहुत ज्ञान हो सकता है। अहिंसा, आचार, धर्म, अणुव्रत आदि सैकड़ों विषयों में आपके अनुभव और चिन्तन ने विचारों के नए क्षितिज उन्मुक्त किए हैं। कोई शोधार्थी किसी एक विषय पर काम करना चाहे तो विकीर्ण सामग्री को व्यवस्थित करना बहुत श्रमसाध्य प्रतीत होता है। समणी कुसुमप्रज्ञा ने इस क्षेत्र में एक नया प्रयोग किया है । निष्ठा और पुरुषार्थ को एक साथ संयोजित कर उसने आचार्य तुलसी के साहित्य का एक व्यवस्थित पर्यवेक्षण किया है और प्रायः सभी पुस्तकों के लेखों एवं प्रवचनों को विषयवार प्रस्तुति देने का कठिन काम किया है। इसके साथ कुछ परिशिष्ट जोड़कर शोध का मार्ग सुगम बना दिया है। उसके द्वारा की गई साहित्य की मीमांसा भी पठनीय है । समणी कुसुमप्रज्ञा का श्रम पाठकों और शोध विद्यार्थियों के श्रम को हल्का करेगा, ऐसी आशा है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जयपुर २४-३-९४ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय गणाधिपति तुलसी बहुआयामी साहित्य के सजनकार हैं। अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक तुलसीजी एक महान् साधक एवम् आध्यात्मिक युगपुरुष भी हैं। अपने साहित्य के माध्यम से वे मानवीय मूल्यों के प्रति जनचेतना का सृजन अनेक वर्षों से अपनी लेखनी एवम् व्यवहार द्वारा कर रहे हैं। यहां तक कि उनका डायरी-लेखन भी उनके आत्मवादी विचारदर्शन का सांगोपांग अभिलेख है। उनके व्यापक साहित्य का पर्यवेक्षण करना कोई सहज कार्य नहीं है, बल्कि अत्यन्त दुष्कर भी है। आदरणीया समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने गणाधिपति तुलसीजी के साहित्य का पर्यवेक्षण कर एक बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है। उनकी इस प्रस्तुति से अध्यात्म एवं साहित्यजगत् समग्र रूप से उपकृत होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। जैन विश्व भारती इस कृति का प्रकाशन कर गौरव की अनुभूति कर रही है । 44-17 ature लाडनूं (राजस्थान) दि० ५-४-१९९४ श्रीचन्द बैंगानो अध्यक्ष जैन विश्व भारती Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ২নংfীলন কা নিঃনি आचार्य तुलसी एक तपस्वी और साधक पुरुष हैं। इस शताब्दी में जो बहुत बड़े-बड़े साधक और आचार्य हुए हैं, आचार्य तुलसी का नाम उनमें लिया जाएगा। आचार्य तुलसी के अनेक रूप मैंने देखे हैं। वे एक ओर जहां श्रमणपरंपरा में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने प्रवचनों से जीवन को सार्थक और संयमित बनाने का उनका प्रयास रहता है । उनके व्यक्तित्व का तीसरा आकर्षण है-सृजनशीलता । वे एक सृजनशील लेखक हैं । उनकी कहानयिां, लेख, कविताएं, पत्र और आत्मकथ्य इत्यादि में इसकी पहचान सहज ही की जा सकती है। आचार्यजी प्रतिदिन डायरी लिखते हैं। 'डायरी-लेखन' विश्व साहित्य में एक महान् उपादेय रचना समझी जाती है, क्योंकि दिन भर जो कुछ बीतता है, उसे ईमानदारी से उसी दिन लिख देना, साहित्य की किसी विधा में आता हो या न आता हो, अपने आसपास के परिवेश और परिचय को पहचानने के लिए वह एक प्रामाणिक दस्तावेज है। यह प्रमाणित दस्तावेज उद्बोधकता के साथ-साथ भौगोलिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों को भी उजागर करता है । मैंने आचार्य तुलसी को बहुत निकटता से देखा है. उनसे कई बार चर्चाएं की हैं । उनके व्यस्त जीवन को देखने और परखने का सुअवसर मुझे मिला है। प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक निरंतर क्रियाशील बने रहना आचार्यजी की प्रतिभा और क्षमता का जीवंत इतिहास है। इतनी अधिक आयु में पहुंचने के उपरांत शायद ही कोई व्यक्ति चिर युवा बना रहे और अपनी श्रमशीलता तथा क्षमता को जीवंत और प्राणवान् बनाए रखे । आचार्यजी दिन भर व्यस्त रहते हैं-श्रमण-श्रमणियों को उपदेश देने में, आगंतुकों और अतिथियों से मिलने में, विशिष्ट व्यक्तियों से वार्तालाप करने में और समाज के बहुत बड़े वर्ग को उद्बोधन देने में। ऐसे व्यक्ति को स्वयं लिखने का समय कहां से मिलेगा? लेकिन जो उद्बोधन आचार्य तुलसी देते हैं, उन्हें नियमित रूप से रिकार्ड किया जाता है और फिर उनका पुस्तकों के रूप में प्रकाशन होता है। उनके ये सारे उद्बोधन किसी सृजनशील लेखन से कम नहीं हैं। उनकी भाषा-शैली जितनी सहज और सरल Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरह है, उतनी ही सरलता से वह बड़े-से-बड़े दार्शनिक पक्ष को उजागर करने में सफल होती है । यदि मैं कहूं कि आचार्यजी ध्रुव तारे की तरह केंद्र बिंदु हैं तो यह अनुचित नहीं होगा । आज भी श्रमण परंपरा का पालन करते हुए वे केवल पदयात्रा ही करते हैं । यह अपने आपमें इतिहास रहेगा कि इतनी आयु में एक महापुरुष हर थकान के बावजूद एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक पैदल चलकर ही पहुंचता हो । आचार्यजी ने हाल ही में समय की विशेषता को समझते हुए कुछ ऐसी समणियों की नियुक्ति की है, जिन्हें उन्होंने विमान और कार द्वारा यात्रा करने की अनुमति दी है । यह सचमुच आचार्यजी की वास्तविक समझ और बीसवीं शताब्दी के बढ़ते हुए संचार माध्यमों के साथ अपने आप को मिलाये रखने का प्रयास है । आचार्य तुलसी के नाम से लगभग सौ से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इन पुस्तकों में उनके प्रवचन हैं, उद्बोधन हैं, निजी विचार हैं और उनका अपना दर्शन है । दर्शन के क्षेत्र में आचार्यजी का विवेक एकदम अलग है । यह आवश्यक नहीं है कि उससे सहमत हुआ जाय लेकिन महापुरुषों की विशेषता इसी में है कि वे सहमति और असहमति के द्वार निरंतर खुले रखते हैं ताकि प्रत्येक दूसरा चिंतनशील व्यक्ति अपने आपको उनमें खोज सके या उनसे अलग जा सके । ज्ञान का मूल विचार - बिंदु यह है कि एक सृजनशील व्यक्ति दूसरे से भिन्न हो । यदि विचारों के मूल तंत्र में यह गुण नहीं होगा तो वह मात्र श्रोताओं तक ही सीमित रह जाएगा । समणी कुसुमप्रज्ञा ने 'आचार्य तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण' शीर्षक से लगभग चार सौ पृष्ठों की एक निर्देशिका तैयार की है । इस निर्देशिका में आचार्य तुलसी द्वारा विभिन्न स्थानों पर दिये गये प्रवचनों और उद्बोधनों की जानकारी है । ये प्रवचन किस तिथि को और किस स्थान पर दिये गये, इसका उल्लेख भी है । इस पुस्तक में यह भी दरसाया गया है कि प्रवचन की विषय-वस्तु क्या है, उसका शीर्षक क्या है और आचार्यजी की किस पुस्तक के कौन से पृष्ठ पर इसे प्राप्त किया जा सकता है । चार सौ पृष्ठों के समग्र ग्रंथ में ये सारे संकेत हैं। इसके साथ ही जब आचार्य तुलसी के साहित्य और प्रवचनों के लिए चार सौ पृष्ठों का मात्र निर्देशन खंड हो तो इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका समूचा साहित्य कितना विशाल और विस्तृत होगा । समणी कुसुमप्रज्ञा से मुझे ज्ञात हुआ कि इसमें एक विस्तृत भूमिका भी रहेगी, जिसमें उनके गद्य साहित्य का पर्यालोचन और मूल्यांकन रहेगा । वह भूमिका भी लगभग ३०० पृष्ठों की होगी । निर्देशिका को शुरू से अंत तक देखने के बाद कुसुमप्रज्ञा के धैर्य और कार्यक्षमता से मैं बहुत प्रभावित हुआ । इतनी सामग्री विभिन्न Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह स्थानों से क्रमशः एकत्रित करना बहुत बड़ा दुस्साहस है। विश्व की सर्वोच्च पर्वत श्रेणी पर पहुंचन। संभवतः सरल होगा लेकिन इतना बड़ा कार्य करना अत्यंत दुष्कर है । इस दुष्कर कार्य को समणी कुसुमप्रज्ञा ने जिस मनोयोग के साथ किया है, उसके संबंध में कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं तो यह कहूंगा कि अपने आचार्य की इससे बड़ी सेवा और दूसरी नहीं हो सकती। मैं समणी कुसुमप्रज्ञा को कोटिशः धन्यवाद देना चाहूंगा और उनकी स्वयं तथा आचार्य के प्रति विनम्र सेवा के लिए प्रशंसा करूंगा। ___ आचार्य तुलसी के अनेक सहकर्मियों से मैं मिला हूं। मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि आचार्यजी के प्रायः सभी सहकर्मी काव्य, लेख, कहानी और दर्शन में से किसी न किसी विधा में पारंगत हैं। अर्थ यह हुआ कि जो भी आचार्यजी के साथ चल रहा है, वह स्वयं विज्ञ है और श्रमण परंपरा के दुष्कर संस्कारों के साथ अपनी सृजनशीलता को भी जीवित रखे हुए है। मैं समणी कुसुमप्रज्ञा के बहाने आचार्यजी के उन सभी अनुयायियों को अपनी विनम्र शुभकामनाएं देना चाहूंगा। इत्यलम् ?" ( 12.1244 7.4 --- राजन्द्र अवस्थी संपादक, "कादम्बिनी', हिंदुस्तान टाइम्स, नयी दिल्ली-११०००१ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रतिम कार्य पूज्यपाद आचार्य श्री तुलसीजी ने समग्र भारतवर्ष में प्रचार करके लोगों को जो उपदेश दिया, वह इतना विशाल है कि एक संदर्भ ग्रंथ में पूरा छप नहीं सकता। समणी कुसूमप्रजाजी ने उनके विस्तृत साहित्य से चुन-चुनकर विविध विषयों की सूक्तियों का अनुपम संग्रह “एक बूंद : एक सागर' पांच खंडों में तैयार कर दिया है, वह छप भी चुका है। अब उनका प्रस्तुत प्रयत्न पूज्यश्री के समग्र साहित्य का परिचय देकर अहिंसा, समाज, अध्यात्म, संस्कृति, नीति, राजनीति आदि से सम्बन्धित लेखों की सूची बनाकर, वे विषय कहां, किस पुस्तक में आए हैं, इसकी निर्देशिका तैयार करना है। ___ जब मैं 'लेख' शब्द का प्रयोग करता हूं, तब पूज्य आचार्यश्री के प्रवचनों एवं लिखित लेखों से अभिप्राय है। अब तो टेपरिकार्डर का साधन भी उपस्थित हो गया है। उनके व्याख्यान को टेप करके कोई लेख तैयार कर दे तो वह भी लेख में शामिल है। आचार्य तुलसी केवल नाम के आचार्य नहीं हैं। शास्त्रों में आचार्य के जो लक्षण दिए हैं, उनमें अनुशासन एक है। आचार्यश्री अपने संघ के अनुशासन के विषय में सदा जागरूक रहे हैं । साधक की आचार-विचार की जो मर्यादाएं हैं, उनकी सुरक्षा करना उनका कर्तव्य है और इस कर्त्तव्य को आचार्यश्री ने बखूबी निभाया है। आज के जमाने में आचार्य कहलाने वाले तो बहुत हैं किंतु अपने संघ के अनुशासन की सुरक्षा तो कुछ ही कर सकते हैं। उनमें से एक आचार्य श्री तुलसी हैं । आचार्यश्री के लेखों में न केवल धार्मिक चर्चाएं हैं बल्कि समाजधर्म, राजधर्म, नीतिधर्म आदि सब मानवधर्मों की चर्चा उनके लेखों में होती है। वे तथाकथित धर्माचरण की चर्चा कहीं नहीं करते। प्रस्तुत पुस्तक में आए लेखों के विषयमात्र पढ़ने से प्रतीत हो जाएगा कि वे किसी सांप्रदायिक धर्म की व्याख्या नहीं करते किंतु मानवधर्म को समग्र भाव से नजर के सम्मुख रखकर व्रतों की चर्चा करते हैं । जैनों के आचार्य होकर भी राजनैतिक सूझबूझ जितनी आचार्य तुलसी में है, अन्यत्र दुर्लभ है। राजनीति में जब अणुबम की विशद चर्चा होने लगी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह और सभी देश अणुबम बनाने की होड़ करने लगे तब आचार्यश्री ने आदेश दिया कि अणुबम नहीं, किंतु अणुव्रत आवश्यक है । यह उनकी राजनैतिक सूझ है, जो अपने आंदोलन में साम्प्रत राजनीति से लाभ कैसे उठाया जाए, इस बात की पूरी प्रतीति कराती है । पूज्य आचार्यश्री के लेखों का वर्गीकरण करके समणी कुसुमप्रज्ञा ने अप्रतिम कार्य किया है । वाचकों एवं शोध - विद्यार्थियों के लिए यह सामग्री अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं है । इस ग्रंथ से पूज्य आचार्य श्री के साहित्य का सामान्य परिचय तो मिलेगा ही, उपरांत उनके विराट् साहित्यिक व्यक्तित्व का परिचय भी प्रस्तुत पुस्तक से होगा । इसके लिए समणी कुसुमप्रज्ञा बधाई की पात्र हैं, वंदनीय हैं । किंतु एक बात मैं उनसे कहना चाहता हूं कि गांधीजी के लेखों का जिस प्रकार संग्रह हुआ है, वैसा संग्रह करना भी आवश्यक कार्य है। आशा करता हूं कि समणीजी इस कार्य को पूरा करके इस महत् कार्य में लग जाएंगी । अहमदाबाद दल gel भाउ प्रwिan হথ। ও/ যও - दलसुख मालवणिया Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकीयम् भारतीय संस्कृति की साहित्यिक परम्परा में संत-साहित्य का अपना विशिष्ट स्थान है। संत-साहित्य का महत्त्व केवल वर्तमान में ही नहीं, भविष्य के लिए भी होता है, क्योंकि इस साहित्य ने कभी भोग के हाथों योग को नहीं बेचा, धन के बदले आत्मा की आवाज को नहीं बदला तथा शक्ति और पुरुषार्थ के स्थान पर कभी अक्षमता और अकर्मण्यता को नहीं अपनाया। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि संत अध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा के संवाहक होते हैं। आचार्य तुलसी बीसवीं सदी की संत परम्परा के महान् साहित्य स्रष्टा युगपुरुष हैं। उनका साहित्य परिमाण की दृष्टि से ही विशाल नहीं, अपितु गुणवत्ता एवं जीवन-मूल्यों को लोकजीवन में संचारित करने की दृष्टि से भी इसका विशिष्ट स्थान है । गिरते सांस्कृतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का संकल्प इस साहित्य में पंक्ति-पंक्ति पर देखा जा सकता है। आचार्य तुलसी ने सत्यं, शिवं और सौन्दर्य की युगपत् उपासना की है, इसलिए उनका साहित्य मनोरंजन एवं व्यावसायिकता से ऊपर सृजनात्मकता को पैदा करने वाला है। उनके लेखन या वक्तव्य का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति, प्रशंसा या किसी को प्रभावित करना नहीं, अपितु स्वान्तः सुखाय एवं स्व-परकल्याण की भावना है। इसी कारण उनके विचार सीमा को लांघकर असीम की ओर गति करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं । उनका साहित्य हृदयग्राही एवं प्रेरक है, क्योंकि वह सहज है। वह भाषा-शैली का मोहताज नहीं, अपितु उसमें हृदय एवं अनुभव की वाणी है, जो किसी भी सहृदय को झकझोरने एवं आनंदविभोर करने में सक्षम है। आचार्य तुलसी के साहित्यिक व्यक्तित्व की दो विशेषताओं ने मुझे अत्यन्त प्रभावित किया है ---- __. मौलिक विचारों की प्रस्तुति के बाद भी उन्होंने यह गर्वोक्ति कहीं नहीं की कि वे किसी मौलिक तत्त्व का प्रतिपादन कर रहे हैं। ० प्रतिदिन हजारों की भीड़ में घिरे रहकर, लाखों पर अनुशासन करते हुए भी उन्होंने निर्बाध गति से साहित्य-सृजन किया है । मूड या एकान्त हो, तब लिखा या सरजा जाए, इस बात को वे जानते ही नहीं। जब कलम लेकर बैठे, कागज पर विचार अंकित हो गए। जो भी विषय सामने आया, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारह वाणी मुखर हो गयी। बीसवीं सदी के भाल पर अपने कर्तत्व की जो अमिट रेखाएं उन्होंने खींची हैं, वे इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगी। साहित्यस्रष्टा के साथसाथ वे धर्मक्रांति एवं समाजक्रांति के सूत्रधार भी कहे जा सकते हैं । जैन विश्वभारती संस्थान के कुलपति डा. रामजीसिंह कहते हैं... "आचार्य तुलसी ने धर्मक्रान्ति को जन्म दिया है, उसका नेतृत्व किया है। वे उसके पर्याय बन चुके हैं। इसलिए आगे आने वाली सदी को समाज आचार्य तुलसी की सदी के रूप में जाने-माने तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।" आचार्य तुलसी के विराट् व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करना उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना है। उनके लिए तो इतना ही कहा जा सकता है कि वे अनिर्वचनीय हैं । आचार्य मानतुंग के शब्दों में यह कहना पर्याप्त होगा---'यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति। बालवय में संन्यास के पथ पर प्रस्थित होकर क्रमशः आचार्य, अणुव्रत अनुशास्ता, राष्ट्रसंत एवं मानव-कल्याण के पुरोधा के रूप में वे विख्यात हुए हैं। काल के अनंत प्रवाह में ८० वर्षों का मूल्य बहुत नगण्य होता है, पर आचार्य तुलसी ने उद्देश्यपूर्ण जीवन जीकर जो ऊंचाइयां और उपलब्धियां हासिल की हैं, वे किसी कल्पना की उड़ान से भी अधिक हैं । अपने जीवन के सार्थक प्रयत्नों से उन्होंने इस बात को सिद्ध किया है कि साधारण पुरुष वातावरण से बनते हैं, किन्तु महामानव वातावरण बनाते हैं । समय और परिस्थितियां उनका निर्माण नहीं करतीं, वे स्वयं समय और परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । साधारण पुरुष जहां अवसर को खोजते रहते हैं, वहां महापुरुष नगण्य अवसरों को भी अपने कर्तृत्व की छेनी से तराश कर उसे महान् बना देते हैं। उम्र के जिस मोड़ पर व्यक्ति पूर्ण विश्राम की बात सोचता है, उस स्थिति में वे नव-सजन करने एवं दूसरों को प्रेरणा देने में अहर्निश लगे रहते हैं । विरोध को समभाव से सहक र वे जिस प्रकार उसे विनोद के रूप में बदलते रहे हैं, वह इतिहास का एक प्रेरक पृष्ठ है । उनके व्यक्तित्व के इस कोण को कवि की निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत किया जा सकता है अविकृत वदन निरंतर तुमने, पिया अमृत सम विष जो। हुआ नहीं निःशेष अभी वह, तुम्ही पिओगे इसको। उनके विराट् व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पहलू साहित्य-सृजन है । जब वे तेरापन्थ के आचार्य रूप में प्रतिष्ठित हुए, तब हिंदी में लिखना तो दूर, बोलना भी कठिन था । पर उनकी प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से आज सैकड़ों साहित्यिक प्रतिभाएं उभर रही हैं। तेरापंथ संघ में साहित्य की अनेक विधाएं प्रस्फुटित हुई हैं, फिर भी उन्हें संतोष नहीं है। वे इस क्षेत्र में और Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीस अधिक विकास देखना चाहते हैं । इसीलिए इस विकास यात्रा के हर पड़ाव पर वे अपनी साहित्यिक प्रतिभाओं को अग्रिम सफलता के लिए प्रेरणा देते रहते हैं | अपने अनुयायी वर्ग को अपने मन की बात कहते हुए वे कहते हैं"अनेक विधाओं में साहित्य का निर्माण हुआ है, हो रहा है और विद्वज्जगत् में उसका उचित समादर भी हो रहा है, पर मेरी स्वप्न यात्रा का आखिरी पड़ाव यही नहीं है । मैं बहुत दूर तक देख रहा हूं और अपने धर्मसंघ को वहां तक पहुंचाना चाहता हूं । क्योंकि अब तक जितना साहित्य सामने आया है, उसमें मौलिकता अधिक नहीं है ।" पर आचार्यश्री की अभीप्सा के अनुरूप मौलिक साहित्य का सृजन सहज कहां ? इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि 'आचार्य तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण' कोई मौलिक कृति नहीं है, मात्र संयोजन है । वर्गीकरण की प्रक्रिया किसी भी लेखक के लेखों का विषय- वर्गीकरण कठिन कार्य है । उसमें भी समाज सुधारक धर्मनेता के प्रवचनों का विषय वर्गीकरण तो और भी अधिक दुष्कर कार्य है । क्योंकि इस कोटि का कोई भी व्यक्ति देश, काल, परिषद् एवं परिस्थिति के अनुकूल अपना प्रवचन देता है । उनमें क्रमबद्धता एवं एकसूत्रता की कल्पना ही नहीं की जा सकती । इस परिप्रेक्ष्य से आचार्य तुलसी के प्रवचन काफी विषयबद्ध एवं क्रमबद्ध कहे जा सकते हैं । विषय- वर्गीकरण : एक अनुचितन विषय- वर्गीकरण के समय मैंने किन-किन बातों को अपनी दृष्टि के मध्य में रखा, उनका संक्षिप्त आकलन यहां प्रस्तुत कर रही हैं, जिससे पाठकों को कहीं विसंगति प्रतीत न हो । वर्गीकरण में मैंने लेखों को बहुत ज्यादा विषयों में नहीं बांटा है । और ऐसा मैंने सलक्ष्य किया है । यदि पर्यायवाची या उनके निकट के विषयों अलग-अलग विभाजन होता तो विषय बिखर जाते और शोधार्थी को भी असुविधा रहती । अतः मुख्य शीर्षक २१ ही रखे हैं । उनके अन्तर्गत कुछ उपशीर्षक भी हैं । जैसे संग्रह और विसर्जन से संबंधित लेखों को अपरिग्रह में ही अन्तर्गभित कर दिया है । परिग्रह का मूल संग्रह वृत्ति है तथा अपरिग्रह का मूल विसर्जन, क्योंकि अपरिग्रह का विकास हुए बिना न संग्रह छूट सकता है और न विसर्जन की भावना का विकास हो सकता है । 'अनुभव के स्वर' वर्गीकरण के अन्तर्गत आचार्य तुलसी की व्यक्तिगत साधना, नेतृत्व तथा यात्रा आदि से संबंधित अनुभवपरक लेखों एवं प्रवचनों का समाहार किया गया है । इसके अतिरिक्त उनके जीवन से संबंधित विशेष अवसर जैसे पट्टोत्सव ( आचार्य पदारोहण दिवस), o Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीस जन्मोत्सव ( जन्मदिन) आदि पर प्रदत्त प्रवचनों का भी समावेश है । विशेष व्यक्तियों से हुई वार्ताएं तथा संस्मरण आदि भी इसी में समाविष्ट हैं । जैसे लोंगोवालजी, विनोबाजी के मिलन- प्रसंग आदि । उत्तराधिकारी के मनोनयन एवं साध्वीप्रमुखाजी के चयन के संबंध में जो विशेष लेख हैं, वे अनुभूतिप्रधान एवं उनके व्यक्तिगत जीवन के बहुत बड़े निर्णय होने से 'अनुभव के स्वर' में रखे हैं । जहां आचार्य तुलसी ने अपने जीवन से संबंधित इतिहास को स्वयं मुखर किया है, उनका समाहार भी इसी में किया गया है । ● 'अध्यात्म' और 'योगसाधना' दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं पर मैंने इनको सलक्ष्य अलग-अलग किया है । 'अध्यात्म' में आत्मदर्शन या आत्मोन्मुख होने की प्रेरणा देने वाले प्रवचनों का समावेश है तथा ' योगसाधना' में ध्यान एवं प्रेक्षाध्यान के विविध रूपों को स्पष्ट करने वाले लेखों, प्रवचनों एवं वार्ताओं का समावेश है । फिर भी अध्यात्म के विषय में जानने वाले पाठक 'योगसाधना' तथा योगसाधना के बारे में जानकारी प्राप्त करने वाले पाठक 'अध्यात्म' में आए लेखों को देखना नहीं भूलेंगे । ● 'आगम' वर्गीकरण में आगम से संबंधित लेखों का संकलन है । साथ ही आगम-सूक्तों या आगम अध्यायों की व्याख्या करने वाले प्रवचनों का भी समावेश किया गया है । आगमसूत्र की व्याख्या होने पर भी विषय - गत व्याख्या करने वाले प्रवचनों को तद् तद् विषयों के अन्तर्गत भी रखा है । जैसे योगक्षेमवर्ष के प्रवचन लगभग आगम पर आधारित हैं । पर वे विषयबद्ध अधिक हैं, अत: उनको 'आगम' में न रखकर प्रतिपाद्य विषय के आधार पर अन्य शीर्षकों में भी रखा है । टिप्पण में आगमस्थल एवं पद्य का निर्देश करना आवश्यक था पर विस्तारभय के कारण ऐसा नहीं हो सका । • नैतिकता और अणुव्रत एक दूसरे के पर्याय हैं । अतः अभिन्नता के आधार पर इन दोनों विषयों से संबंधित प्रवचनों एवं लेखों को संयुक्त कर दिया है । मानवता एवं नैतिकता में भी चोली-दामन का सम्बन्ध है अतः मानवता से संबंधित शीर्षकों को भी 'नैतिकता और अणुव्रत' में समाविष्ट किया है । • 'मर्यादा महोत्सव' के अवसर पर प्रदत्त लेखों एवं प्रवचनों में मर्यादा और अनुशासन का वैशिष्ट्य उजागर हुआ है, अतः इसके कुछ लेखों को अनुशासन के अन्तर्गत रखा जा सकता था, पर 'मर्यादा महोत्सव' तेरापंथ का विशिष्ट उत्सव है अतः उन्हें 'तेरापंथ' के उपशीर्षक 'मर्यादा महोत्सव' में ही रखा है । इसके पीछे दृष्टि यही थी कि तेरापंथ पर शोध करने वाले विद्यार्थी को सारी सामग्री एक ही स्थान पर मिल जाए। इसी दृष्टि के कारण इस उपशीर्षक को समाज के अन्तर्गत 'पर्व और त्योहार' में भी नहीं रखा । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीस ० शिक्षा और स्वाध्याय में शाब्दिक ही नहीं, अर्थगत भेद भी है। अतः मैंने स्वाध्याय से संबंधित लेखों एवं प्रवचनों को शिक्षा और संस्कृति' वर्गीकरण के अन्तर्गत न रखकर 'विविध' वर्गीकरण में रखा है। किंतु कहीं कहीं इसमें व्युत्क्रम भी किया है। जैसे आचार के उपशीर्षक 'ज्ञानाचार' में संकलित अनेक प्रवचन ज्ञान के सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक स्वरूप का विश्लेषण करने वाले हैं पर उनको 'जैनदर्शन' में न रखकर 'ज्ञानाचार' में ही रखा है, जिससे विद्यार्थी को ज्ञानसंबंधी सारी सामग्री एक ही स्थान पर मिल जाए। • अणुव्रत आंदोलन को गति देने एवं उसे जनव्यापी बनाने हेतु आचार्य तुलसी के प्रारम्भिक प्रवचनों में अणुव्रत की चर्चा प्रायः सभी प्रवचनों में मिलती है । पर जहां मुख्यता किसी दूसरे विषय की है, उन प्रवचनों एवं निबन्धों को अणुव्रत के अन्तर्गत न रखकर तद्-तद् विषयों में समाहार किया ० कहीं-कहीं ऐसा भी हुआ है कि जिस प्रवचन या निबन्ध में दो मुख्य विषयों की व्याख्या हुई है, यदि वही प्रवचन दो पुस्तकों में है तो मैंने उन दोनों को एक ही शीर्षक में न रखकर सलक्ष्य अलग-अलग शीर्षकों में रखा है, जिससे पाठक को दोनों विषयों के बारे में आचार्यश्री के विचारों को जानने की सुविधा हो सके । जैसे- 'लोकतंत्र और नैतिकता' यह आलेख अमृत संदेश तथा मंजिल की ओर, भाग-१ दोनों पुस्तकों में है। इनमें एक को 'नैतिकता और अणुव्रत' तथा दूसरे को राष्ट्र-चिंतन के अन्तर्गत लोकतंत्र में रखा है। इसी प्रकार 'मानव स्वभाव की विविधता, प्रवचन को आगम एवं मनोविज्ञान दोनों में रखा है। ___० 'नयी पीढी : नए संकेत' पुस्तक में ७ प्रवचन हैं, जो दिल्ली में समायोजित 'युवक प्रशिक्षण शिविर' में प्रदत्त हैं। यद्यपि सातों प्रवचन युवकों को संबोधित करके दिए गए हैं लेकिन विविध विषयों से संबंधित होने के कारण तद् तद् विषयक वर्गीकरण में उनका समावेश कर दिया है। जैसे 'जैन दर्शन में ईश्वर' को 'जैन दर्शन' के उपशीर्षक 'ईश्वर' के अन्तर्गत रखा है। ० 'प्रवचन डायरी' के नए संस्करण 'भोर भई' 'संभल सयाने !' 'सूरज ढल ना जाए' 'घर का रास्ता' आदि पुस्तकों में कुछ प्रवचन अत्यन्त संक्षिप्त हैं, पर उनका समावेश भी मैंने इस वर्गीकरण में किया है। ऐसे छोटे प्रवचनों को मैं 'उद्बोधन' शीर्षक के अन्तर्गत रखना चाहती थीं, पर इससे विषय की स्पष्टता एवं वर्गीकरण नहीं हो पाता। ० 'नैतिकता के नए चरण' पुस्तिका में पृष्ठ संख्या नहीं है। मैंने Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईस इसके लेखों को वर्गीकरण में सम्मिलित तो किया है किंतु पृष्ठ संख्या नहीं दी है। ० आचार्य तुलसी की कुछ पुस्तके वार्ता रूप में हैं । इसी प्रकार कुछ निबंधों की पुस्तकों में भी वार्ताओं का समावेश हुआ है। मैं उन सबका संकेत करना चाहती थी पर विस्तारभय से ऐसा संभव नहीं हुआ। पर स्थूल रूप से साहित्य-परिचय में इसका संकेत दे दिया है। आचार्य तुलसी की सन्निधि में अब तक सैकड़ों अधिवेशन-कार्यक्रमों का समायोजन हो चुका है। उनमें अणुव्रत अधिवेशन, महिला अधिवेशन एवं युवक अधिवेशन से संबंधित समायोजन विशेष उल्लेखनीय हैं। पर खेद की बात यह है कि उन कार्यक्रमों में प्रदत्त प्रवचनों की ऐतिहासिक दृष्टि से सुरक्षा नहीं हो सकी। फिर भी जितनी कुछ सुरक्षा हो सकी है और जो कुछ जानकारी मिल सकी है, उसे मैंने स्थान एवं दिनांक के उल्लेख के रूप में ऐतिहासिक क्रम से रखने का प्रयत्न किया है। इस प्रयत्न के कारण अधिवेशन के प्रवचनों को विषयवार वर्गीकृत नहीं किया गया है। साथ ही इस बात का ध्यान भी रखा है कि इन अधिवेशनों से संबंधित प्रवचनों में यदि मुख्यता दूसरे विषय की है तो भी उसे अधिवेशन के क्रम में रखा है। यह स्पष्टीकरण इसलिए है कि पाठक को विरोधाभास प्रतीत न हो । शीर्षक वर्गीकरण : एक अनुचिंतन यद्यपि यह सत्य है कि शीर्षक किसी भी लेख का दर्पण होता है पर आचार्य तुलसी के साहित्य में प्रवचन अधिक हैं। प्रवचनकार को सभा के अनुरूप विषय को अनेक धाराओं में मोड़ना होता है, अतः हमने विषयवर्गीकरण केवल शीर्षक के आधार पर नहीं, बल्कि प्रतिपाद्य विषय-वस्तु के आधार पर किया है । जैसे 'समाधान का मार्ग हिंसा नहीं' तथा 'अध्यात्म : भारतीय संस्कृति का मौलिक आधार' इन दोनों शीर्षकों को 'अहिंसा एवं 'अध्यात्म' के अन्तर्गत न रखकर 'अनुभव के स्वर' में रखा है, क्योंकि प्रथम में सन्त लोंगोवालजी के साथ हुई अन्तरंग वार्ता के संस्मरण हैं और दूसरे में जन्मदिन पर प्रदत्त उनका विशिष्ट प्रवचन है। इस प्रकार और भी अनेक स्थलों पर पाठक को शीर्षक पढ़कर भ्रम हो सकता है। १. कहीं-कहीं शीर्षक इतने रहस्यमय एवं साहित्यिक हैं कि उनके आधार पर प्रतिपाद्य का ज्ञान नहीं हो सकता। वहां भी हमने विषय-वस्तु के आधार पर ही वर्गीकरण किया है, जैसे 'कागज के फूल', 'सबसे बड़ी त्रासदी', 'कालिमा धोने का प्रयास' आदि। २. कहीं-कहीं वर्गीकरण के समय द्वन्द्व की स्थिति से भी सामना करना पड़ा क्योंकि एक ही प्रवचन, लेख या वार्ता को अनेक विषयों में Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईस अन्तभित किया जा सकता था। पर अंततः हमने प्रतिपाद्य की प्रमुखता के आधार पर उनका विषय-वर्गीकरण किया है। जैसे-'अहिंसा और श्रावक की भूमिका' तथा 'अहिंसा का सिद्धांत : श्रावक की भूमिका' ये दोनों अहिंसा के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को उद्घाटित करते हैं पर श्रावक के आचार से संबंधित होने के कारण इन्हें 'आचार' के अन्तर्गत 'श्रावकाचार' में रखा है। और भी अनेक स्थलों पर ऐसा हुआ है। जैसे ..'श्रावक के मनोरथ' 'श्रावक के विश्राम' आदि को 'आगम' के अन्तर्गत भी रखा जा सकता था पर 'श्रावकाचार' में रखा है। ___० 'धर्म : एक कसौटी, एक रेखा' पुस्तक में कुछ शीर्षक स्थान से सम्बन्धित हैं, जैसे -- पालघाट-केरल, बेंगलोर आदि। इन शीर्षकों में प्रतिपाद्य बहुत संक्षिप्त किन्तु मार्मिक है, इसलिए इन्हें विषय के आधार पर वर्गीकृत किया है । जैसे ... 'पालघाट-केरल' 'जातिवाद' से तथा 'त्रिवेन्द्रम्-केरल' 'धर्म और जीवन व्यवहार' से सम्बन्धित है, इसी पुस्तक के 'नैतिक सन्दर्भ' खण्ड में एक, दो से लेकर पांच तक शीर्षक हैं। प्रेरक विचार होने से इन शीर्षकों को भी इसमें विषय के आधार पर समाविष्ट किया है। __० 'प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा' पुस्तक के विवेचक एवं व्याख्याता यद्यपि युवाचार्य महाप्रज्ञ हैं पर यह कार्य आचार्य तुलसी की पावन सन्निधि में हुआ है अतः इसे उन्हीं की कृति मानकर इसके शीर्षकों को इसमें समाविष्ट किया ० 'तुलसी-वाणी' मुनि दुलीचंदजी 'दिनकर' की संकलित कृति है। यद्यपि पूरी पुस्तक अनेक शीर्षकों में विभक्त है पर इसमें प्रवचनांशों के उद्धरण हैं अतः इस पुस्तक के शीर्षकों को इसमें समाविष्ट नहीं किया है। 'नवनिर्माण की पुकार' पुस्तक यद्यपि आचार्य तुलसी के नाम से प्रकाशित है, पर इसमें प्रारम्भ में लगभग १२८ पृष्ठों तक कार्यक्रमों की रिपोर्ट के साथ प्रासंगिक रूप में आचार्य तुलसी के विचारों को संकलित किया गया है, अतः स्वतन्त्र प्रवचन या लेख न होने से उसके शीर्षकों को हमने वर्गीकरण में सम्मिलित नहीं किया है। प्रश्न और समाधान' कृति यद्यपि कृतिकार मुनि सुखलालजी के नाम से प्रकाशित है, पर इसमें समाधायक आचार्य तुलसी हैं, अत: इसके शीर्षकों को हमने इस वर्गीकरण में सम्मिलित किया है। यों 'अणुव्रत अनुशास्ता के साथ' पुस्तक भी ऐसी ही वार्तारूप कृति है, पर उसके शीर्षक वर्गीकरण के अनुकूल नहीं हैं इसलिए उन्हें इसमें सम्मिलित नहीं किया है। . ० 'भगवान् महावीर' यद्यपि जीवनीग्रन्थ है, पर इसमें महावीर के विचारों एवं सिद्धांतों की बहुत सरल एवं सरस प्रस्तुति है। इस आधार पर इसके अनेक शीर्षकों को इस वर्गीकरण में समाविष्ट किया है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीस ० 'धर्म : एक कसौटी, एक रेखा' पुस्तक में 'पत्र प्रतिनिधि तथा 'मत-अभिमत' इन दो खण्डों के शीर्षकों को इसमें समाविष्ट नहीं किया है। क्योंकि इनमें साहित्यिक विचार न होकर विशेष अवसरों, संस्थानों आदि से संबंधित सन्देशों का संकलन है। ० प्रवचन डायरी के तीन भाग सन् १९६० में प्रकाशित हुए थे। उनका जैन विश्वभारती प्रकाशन से नाम-परिवर्तन के साथ परिवधित एवं परिष्कृत संस्करण के रूप में पुनर्मुद्रण हो चुका है । यद्यपि हमने पुनर्मुद्रण की लगभग सभी पुस्तकों के शीर्षकों को इस पुस्तक में समाविष्ट किया है, पर इन प्रवचन डायरियों में सैकड़ों प्रवचन हैं, यदि उन सबका भी समावेश किया जाता तो इस ग्रन्थ का कलेवर और अधिक बढ़ जाता। अतः हमने प्रवचन डायरी के प्रवचनों की सूची को विषय वर्गीकृत कर लेने पर भी सलक्ष्य इस संकलन में समाविष्ट नहीं किया है। 'व्यक्ति और विचार' के अन्तर्गत 'विशिष्ट व्यक्तित्व' उपशीर्षक में अनेक स्थलों पर शीर्षक से यह स्पष्ट नहीं है कि किस व्यक्ति के बारे में विचार व्यक्त किए गए हैं । वहां हमने पाठकों की सुविधा के लिए ब्रेकेट में उस व्यक्ति का नाम दे दिया है । जैसे --- १. स्वतन्त्र चेतना का प्रहरी (लोकमान्य तिलक) २. सूक्ष्म दृष्टि वाला व्यक्तित्व (जैनेन्द्र कुमार जैन) ३. एक सुधारवादी व्यक्तित्व (रामेश्वर टांटिया) कहीं-कहीं 'जिज्ञासा के झरोखे से' या 'समाधान के स्वर' शीर्षक में विविध प्रश्नोत्तर हैं। वार्ता में जिस विषय से सम्बन्धित प्रश्न अधिक हैं, उसको उसी विषय के अन्तर्गत रख दिया है। कहीं-कहीं विषय को प्रमुखता न देकर शीर्षक को प्रमुखता देकर भी वर्गीकरण किया है। जैसे—'अणुव्रत : एक सार्वजनिक मंच' इसमें मुख्यतः अस्पृश्यता और जातिवाद पर प्रहार हुआ है पर हमने इसे 'नैतिकता और अणुव्रत' वर्गीकरण के अन्तर्गत रखा है। इसी प्रकार 'पच्चीससौवां निर्वाण महोत्सव कैसे मनाएं ?' तथा 'निर्वाण शताब्दी के सन्दर्भ में' इन दोनों लेखों में भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी के सन्दर्भ में समाज के समक्ष भावी योजनाओं का प्रारूप रखा गया है। इनमें विशेष रूप में महावीर के जीवन एवं दर्शन की चर्चा नहीं है, पर महावीर के निर्वाणदिन से सम्बन्धित होने के कारण तथा शीर्षक की प्रधानता से इन्हें 'व्यक्ति और विचार' के उपशीर्षक 'महावीर : जीवन-दर्शन' में रखा है। कहीं-कहीं शीर्षक व्यापक होने के कारण अनेक बार पुनरावृत्त हैं, पर उनमें निहित विषय-वस्तु भिन्न है, अत: सभी स्थानों पर पाठक एक ही शीर्षक को देखकर लेख या प्रवचन को पुनरावृत्त न मान लें । जैसे अनेकांत, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस अहिंसा, अक्षय तृतीया, मानवधर्म आदि। कहीं-कहीं असावधानी से भी एक ही पुस्तक में शीर्षक की पुनरावृत्ति हो गई है। परिशिष्ट परिशिष्ट किसी भी ग्रन्थ में पूरक का कार्य करते हैं। इस पुस्तक में चार परिशिष्ट जोड़े गए हैं । प्रथम परिशिष्ट में पुस्तकों में आए लेखों की अनुक्रमणिका है । इससे किसी भी लेख को ढूंढने में पाठक को सुविधा हो सकेगी। दूसरे परिशिष्ट में पत्र-पत्रिकाओं के लेखों की सूची है। यद्यपि इन लेखों एवं प्रवचनों का भी विषय-वर्गीकरण अनिवार्य था, पर विस्तार-भय से ऐसा सम्भव नहीं हो सका। इसके अतिरिक्त आचार्यश्री के सैकड़ों लेख राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। उन सबका निर्देश करना भी महत्त्वपूर्ण कार्य है। पर सारी सामग्री एक स्थान पर सुलभ न होने से यह कार्य नहीं हो सका । उस कमी का अहसास बारबार होता रहा है। द्वितीय परिशिष्ट में हमने केवल संघीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों एवं प्रवचनों की सूची ही इस ग्रन्थ में दी है। उसमें भी सन् १९८४ तक की पत्र-पत्रिकाओं के लेख ही इसमें संकेतित हैं, क्योंकि बाद के वर्षों की पत्रिकाओं में छपे लगभग लेख पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके हैं अतः पुनरुक्ति से बचने के लिए उनका समावेश नहीं किया है। सन् ८४ से पूर्व की पत्रिकाओं में छपे लेख या प्रवचन यदि पुस्तकों में है तो उनको हमने पत्र-पत्रिकाओं की सूची में नहीं दिया है, पर अनेक स्थलों पर पत्र-पत्रिकाओं के लेख शीर्षक-परिवर्तन के साथ पुस्तकों में प्रकाशित हैं, अतः वहां पुनरुक्ति होना सहज है । जैसे-जैन भारती (१३ जून ५४) में जो लेख 'अहिंसा' शीर्षक से प्रकाशित है, वही 'प्रवचन डायरी' में 'अहिंसा की शाश्वत मान्यता' इस शीर्षक से है। जैन भारती में (५ सित० ५४) में जो लेख 'समन्वय की दिशा अनेकान्तवाद' से है वही 'भोर भई' में 'अनेकांत' शीर्षक 'युवादृष्टि' के अनेक लेख पुस्तकों में शीर्षक-परिवर्तन के साथ संकलित हैं। जहां मुझे ज्ञात हुआ कि यह लेख या प्रवचन शीर्षक-परिवर्तन के साथ पुस्तक में प्रकाशित है उसे मैंने पत्र-पत्रिका की सूची में संलग्न नहीं किया है। जैसे, अणुव्रत में 'भारतीय आचार विज्ञान : एक पर्यवेक्षण' इस शीर्षक से शृंखलाबद्ध लगभग ३६ से अधिक वार्ताएं छपी हैं। वे सब 'अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी' पुस्तक में शीर्षक-परिवर्तन के साथ प्रकाशित हैं अतः हमने उनका इस परिशिष्ट में उल्लेख नहीं किया 'जैन भारती' में अनेक स्थलों पर 'आचार्य तुलसी का मंगल प्रवचन' Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीस तथा 'आचार्य तुलसी का ओजस्वी प्रवचन' शीर्षक से भी कुछ प्रवचन प्रकाशित हैं । उनको हमने इस संकेत-सूची में सम्मिलित नहीं किया है, क्योंकि इनमें विषयगत स्पष्टता नहीं है। तीसरा परिशिष्ट ऐतिहासिक एवं भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें प्रवचन-स्थलों के नामों की सूची, विशेष प्रवचनों के संकेत तथा विशिष्ट व्यक्तियों के साथ हुई वार्ताओं के स्थान एवं समय का संकेत है । यदि आचार्य तुलसी के प्रवचनों का सारा इतिहास सुरक्षित रहता तो यह परिशिष्ट ही इतना विशाल होता कि उसे प्रकट करने के लिए एक अलग सन्दर्भ-ग्रन्थ की आवश्यकता रहती। चौथे परिशिष्ट में 'सन्दर्भ ग्रन्थ सूची' तथा 'पुस्तक संकेत सूची' का उल्लेख किया गया है। इसे दो भागों में बांटने का मुख्य कारण यह है कि भूमिका में पुस्तक का नाम या संकेत न देकर पाठक की सुविधा के लिए पूरा नाम दिया है, पर विषय-वर्गीकरण में पुस्तकों के संकेत की पुनरुक्ति होने से उनका पूरा नाम न देकर मात्र संकेत दे दिया है। शोधविद्यार्थी आचार्य तुलसी के विचार-विकास के क्रम को जान सकें, इसलिए ऐतिहासिक क्रम से पुस्तकों की सूची भी दे दी गयी है। ___यद्यपि विषय वर्गीकरण में ही लेखों एवं प्रवचनों को ऐतिहासिक क्रम से देना ज्यादा अच्छा रहता पर सब प्रवचनों एवं लेखों की दिनांक सुरक्षित न रहने से हमने परिशिष्ट में ही पुस्तकों के ऐतिहासिक क्रम की सूची दे दी है। अंत में आचार्य तुलसी द्वारा लिखी काव्य-कृतियों एवं संस्कृत भाषा में निबद्ध ग्रन्थों का नामोल्लेख भी किया गया है। गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन भूमिका में उनके गद्य साहित्य का संक्षिप्त पर्यालोचन प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें चार मुख्य विषयों-अहिंसा, धर्म, राष्ट्र और समाज पर आचार्य तुलसी के विशेष चिन्तन को प्रस्तुत किया है, जिससे भविष्य में कोई भी पाठक या शोध-विद्यार्थी उनके विचारों को जानकर अपने शोध-विषय के निर्धारण में रुचि जागत कर सके । यद्यपि उन चारों विषयों पर उन्होंने व्यापक चिंतन प्रस्तुत किया है । पर इस पुस्तक में तो मात्र कुछ विचार ही पाठक के समक्ष प्रस्तुत हो सके हैं। इसी प्रकार अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी उन्होंने मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं, पर उन सबका आकलन प्रस्तुत ग्रंथ में संभव नहीं था। आचार्यश्री के गद्य साहित्य की संक्षिप्त जानकारी के साथ अन्य लेखकों द्वारा उनके बारे में लिखी पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय भी दे दिया है, जिससे शोधार्थी को उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को जानने के स्रोतों का ज्ञान हो सके। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सताईस प्रयास इतना ही है कि आचार्य तुलसी के विचारों पर शोध करने वाले विद्यार्थी उनके इन विचारों को पढ़कर उनमें अन्तनिहित रहस्यों को आत्मसात् कर उनको जनभोग्य बनाने का प्रयत्न करें। पुनरुक्ति एवं पुनर्मुद्रण आचार्यश्री के वाङमय में अनेक स्थलों पर पुनरुक्ति हुई है। एक ही लेख या प्रवचन शीर्षक-परिवर्तन के साथ दो पुस्तकों में भी प्रकाशित हो गया है। जैसे ---'धर्म : एक कसौटी, एक रेखा' में जो वार्ता 'सेठ गोविंददासजी के प्रश्न : आचार्य तुलसी के उत्तर' नाम से है वही 'अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत' पुस्तक में 'जिज्ञासा के झरोखे से' शीर्षक से है। 'शांति के पथ पर' पुस्तक में जो प्रवचन 'नियम का अतिक्रम क्यों ?' शीर्षक से है, वही कुछ परिवर्तन के साथ प्रवचन पाथेय भाग-९ में 'क्या भारत स्वतन्त्र है ?' शीर्षक से है, यद्यपि यह पुनरुक्ति सलक्ष्य नहीं हुई है, पुस्तक की संख्या का व्यामोह भी नहीं है, पर अनेक संपादकों के होने से ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं था। क्योंकि पत्र-पत्रिकाओं से अलग-अलग व्यक्तियों ने लेखों एवं प्रवचनों का संकलन कर उनका अपने ढंग से सम्पादन किया है। यद्यपि शोधार्थियों की सुविधा एवं ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसी पुनरुक्तियों का उल्लेख करना आवश्यक था, पर इतने विशाल वाङ्मय पर यह कार्य करना समयसापेक्ष ही नहीं, स्मृतिसापेक्ष और श्रमसाध्य भी है अतः ऐसा सम्भव नहीं हो सका । पर मुख्य रूप से पुनर्मुद्रण में नाम-परिवर्तन के साथ निकली पुस्तकों की सूची तथा कुछ पुनरुक्त लेखों के पुस्तकों की सूची नीचे प्रस्तुत की जा रही है। आचार्यश्री की कुछ पुस्तकें पुनर्मुद्रण में नाम-परिवर्तन या संशोधन एवं परिवर्धन के साथ प्रकाशित हुई हैं। उनकी मुख्य सूची इस प्रकार है --- पुराना संस्करण नया संस्करण १. मुक्तिपथ गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का २. अमृत संदेश सफर : आधी शताब्दी का ३. उद्बोधन समता की आंख : चरित्र की पांख ४. अणुव्रत के संदर्भ में अणुव्रत : गति-प्रगति १. 'अणुव्रत के सन्दर्भ में' पुस्तक के अनेक लेख शीर्षक-परिवर्तन के साथ अणुव्रत : गति-प्रगति में समाविष्ट हैं । जैसे- 'अणुव्रत के सन्दर्भ में पुस्तक में जो शीर्षक "पर्यटकों को भारतीय संस्कृति से परिचित कराया जाए" तथा "राजनीति के मंच पर उलझा राष्ट्रभाषा का प्रश्न और दक्षिण भारत' से है, वे ही अणुव्रत : गति प्रगति में “पर्यटकों का आकर्षण : अध्यात्म" तथा "राष्ट्रभाषा का प्रश्न और दक्षिण भारत" के नाम से है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठाईस ५. प्रगति की पगडंडियां ६. विचारदीर्घा, विचार वीथी ७. मुक्ति इसी क्षण में इसके अतिरिक्त 'दोनों हाथ : एक साथ' संकलित कृति है, पर इसमें कुछ नए लेख भी समाविष्ट हैं । 'नैतिक संजीवन', 'शांति के पथ पर ' ( दूसरी मंजिल ) के कुछ प्रवचन कुछ अन्तर के साथ 'संभल सयाने !' तथा प्रवचन पाथेय भाग - ९ में समाविष्ट हैं । आचार्य तुलसी के अमर संदेश राजपथ की खोज मंजिल की ओर भाग - २ 'राजधानी में आचार्य तुलसी के संदेश' पुस्तक के कुछ प्रवचन 'आचार्य तुलसी के अमर सन्देश' से मेल खाते हैं । आचार्य तुलसी के कुछ महत्त्वपूर्ण लेख स्वतन्त्र रूप से पुस्तिका के रूप में भी छपे हैं। जैसे- 'अशांत विश्व को शांति का सन्देश', 'भ्रष्टाचार की आधारशिलाएं' आदि । यद्यपि ये लेख पुस्तकों में प्रकाशित हैं, पर महत्त्वपूर्ण होने के कारण उनका अलग से परिचय भी दिया गया है । 'अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी', 'धर्म एक कसौटी, एक रेखा' तथा 'दायित्व का दर्पण : आस्था का प्रतिबिम्ब' इन तीन पुस्तकों के लेखों का विषयबद्ध एवं व्यवस्थित रूप से नया संस्करण 'अतीत का विसर्जन अनागत का स्वागत' है । यह मात्र स्थूल जानकारी मैंने पाठकों के समक्ष रखी है, जिससे उनको पुनरुक्ति की भ्रांति न हो । पुनर्मुद्रण में नाम परिवर्तन वाली पुस्तकों के लेखों एवं आपस में पुनरुक्त लेखों को भी इस पुस्तक में अन्तगर्भित करने के निम्न उद्देश्य थे १. इतिहास की सुरक्षा । २. एक पुस्तक न मिलने पर शोध विद्यार्थी दूसरी पुस्तक से अपना कार्य सम्पन्न कर सके । ३. कहीं-कहीं एक ही लेख जो दो भिन्न-भिन्न पुस्तकों में प्रकाशित है यदि उनमें दो मुख्य विषयों का विवेचन है तो उनको अलग-अलग विषय में रख दिया गया है । सम्पादन आचार्य तुलसी एक विशाल धर्मसंघ के अनुशास्ता हैं। समाज एवं राष्ट्र का नेतृत्व करने में भी उन्होंने अपनी शक्ति एवं कर्तृत्व का उपयोग किया है, इसलिए स्वतन्त्र रूप से लिखने का समय उन्हें बहुत कम मिल पाता है । अत: उनके विचारों के संकलन एवं सम्पादन में अनेक हाथों का श्रम लगा है। इन वर्षों में मुख्यतया उनके साहित्य का सम्पादन महाश्रमणी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीस साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी कर रही हैं । इतने विशाल साध्वी समाज का नेतृत्व करते हुए भी कई दर्जन पुस्तकों का सम्पादन आश्चर्य का विषय है । प्रवचन - साहित्य का संपादन मुनिश्री धर्मरुचिजी निष्ठापूर्वक कर रहे हैं । इसके अतिरिक्त मुनिश्री मधुकरजी, मुनिश्री गुलाबचंदजी 'निर्मोही', साध्वीश्री जिनप्रभाजी तथा श्रीचंदजी रामपुरिया आदि ने भी उनके प्रवचनों एवं लेखों का सम्पादन किया है। प्रस्तुत कार्य की प्रेरणा सन् १९८५ की बात है । मैं लाडनूं में आगमकार्य में संलग्न थी । व्यवहार भाष्य के संशोधन का कार्य चल रहा था । चातुर्मास के दौरान एक शोधविद्यार्थी, जो भारतीय नीति दर्शन पर पी. एच. डी. का कार्य कर रहा था, मार्ग-दर्शन प्राप्त करने लाडनूं पहुंचा । वह शोध विद्यार्थी आचार्य तुलसी के अणुव्रत दर्शन के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहता था । मैंने उस भाई को वर्द्धमान ग्रन्थागार में आचार्य तुलसी की अनेक पुस्तकें सुझाईं । पर मेरे मन को संतोष नहीं हुआ, क्योंकि सामग्री विकीर्ण थी । शोधविद्यार्थी होने के नाते तत्काल मेरे मन में विकल्प उठा कि आचार्य तुलसी की वाणी एक द्रष्टा की वाणी है। उनकी तपःपूत साधना से निःसृत वाणी अनेक धाराओं तथा अनेक विषयों में प्रवाहित हुई है । अत: उनकी कृतियों में आये विषयों का यदि वर्गीकरण कर दिया जाए और एक स्थान पर ही निदेश कर दिया जाए तो अनेक शोध - विद्यार्थियों को आचार्य तुलसी पर पी. एच. डी. करने में सुविधा हो सकती है । इस श्रमसाध्य कार्य को करने के पीछे एक दृष्टिकोण यह भी था कि आचार्य तुलसी का अनुशास्ता रूप जितना उभर कर सामने आया है, उतना साहित्यकार का रूप नहीं, जबकि उन्होंने एक नहीं, अनेक कालजयी कृतियों से साहित्य भंडार को समृद्ध किया है। शोध विद्यार्थी तो मात्र निमित्त बना। मुनिश्री दुलहराजजी का सकारात्मक समर्थन एवं गुरुदेव के मंगल आशीर्वाद से मेरी चेतना में हल्का-सा साहित्यिक स्पंदन हुआ । पूज्यपाद गुरुदेव का नाम स्मरण कर कार्य प्रारम्भ किया और सन् १९८६ में 'अमृत महोत्सव' के अवसर पर विषय - वर्गीकरण का कार्य सम्पन्न कर हस्तलिखित पत्रिका 'वातायन' के रूप में यह कार्य गुरु चरणों में उपहृत किया । कार्य करते समय इसके प्रकाशन की तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी, बस स्वान्तः सुखाय और समय का सही नियोजन इन उद्देश्यों के साथ यह कार्य किया नियति थी । । पर प्रकाशन इसकी जब प्रकाशन की बात चली, तब पहले किया हुआ कार्य इतना उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि अनेक नई पुस्तकें भी प्रकाश में आ गई थीं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीस तथा कई पुस्तकों के नए संस्करण भी निकल चुके थे, अत: पुनः १९९३ के जून मास में यह कार्य प्रारम्भ किया और आज सम्पन्न है।। __शोध विद्यार्थी होने के कारण कार्य करते समय अनेक बार यह विकल्प उठा कि आचार्यश्री के साहित्यिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक विचारों का महावीर, बुद्ध, कृष्ण, गांधी, विवेकानंद, अरविंद, टालस्टाय, रस्किन तथा अन्य अनेक प्राच्य एवं पाश्चात्य विद्वानों के साथ तुलनात्मक अध्ययन क्यों न किया जाए। क्योंकि अनुभूति के स्तर पर निकली हुई वाणी किसी भी काल या देश में प्रस्फुटित हो, उसमें सामंजस्य एवं समानता मिल ही जाती है । किन्तु समस्या यह थी कि आचार्यश्री द्वारा सजित विशाल श्रतराशि का अवगाहन श्रम एवं स्मृतिसापेक्ष ही नहीं, समयसापेक्ष भी था, अतः चाहकर भी ऐसा सम्भव नहीं हो सका । दूसरी कठिनाई यह थी यह ग्रंथ अपने-आप में इतना बड़ा हो गया कि तुलनात्मक अध्ययन का अवकाश ही नहीं रहा। पर इस दिशा में भविष्य में बहुत काम हो सकता है, यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है। ___ एक साल का लम्बा समय लगने पर भी ऐसा बार-बार प्रतीत हो रहा है कि यह मात्र प्रारम्भिक प्रयास है। यह दावा करना तो निरा अहंकार प्रदर्शन ही होगा कि यह वर्गीकरण बिल्कुल सही हुआ है। लेकिन यह सामान्य प्रयास भी अनेक शोधार्थियों की विचार-यात्रा में सहयोगी बनेगा, ऐसा विश्वास है ।। __ पाठक आचार्य तुलसी को एक सम्प्रदाय-विशेष के आचार्य के रूप में नहीं, अपितु मानवता के मसीहा या सांस्कृतिक नेता के रूप में पढ़ने का प्रयत्न करेंगे तो उन्हें अवश्य नया आलोक मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। एक बात पर पाठक विशेष ध्यान देंगे कि आचार्य तुलसी वर्तमान में गणाधिपति अणुव्रत अनुशास्ता तुलसी के रूप में प्रसिद्ध हैं। क्योंकि उन्होंने आचार्य पद का विसर्जन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य बना दिया है। चूंकि यह घटना सुजानगढ़ १९९४ के फरवरी मास में घटित हुई और तब तक इस पुस्तक का काफी अंश प्रकाशित हो चुका था, अतः मैंने एकरूपता बनाए रखने की दृष्टि से आचार्य तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञ शब्द का ही प्रयोग किया है। आचार्य तुलसी के प्रति अनन्त आस्था होने पर भी मैंने तटस्थ समालोचक की दृष्टि से इस बात की पूरी सतर्कता रखी है कि कहीं उन्हें तेरापन्थ के आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित कर उनके व्यक्तित्व को सीमित न कर दूं। इस पुस्तक में मुख्यतः उनके इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व का एक ही पहल उजागर हुआ है । वह है -सृजनशील साहित्यकार । - आचार्य तुलसी के सम्पूर्ण वाङमय को केवल भक्तहृदय से नहीं, Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीस अपितु तटस्थ समालोचक की दृष्टि से पढ़ा है। उनके साहित्य के बारे में मैं अपनी अनुभूति गांधीजी के इन शब्दों में प्रकट करना चाहूंगी--'पुस्तकें अच्छी मित्र हैं। जितना ही मैं इन पुस्तकों का अध्ययन करता गया, उतना ही अधिक मुझे उनकी विशेषताएं/उपयोगिताएं मालूम होती गयीं ।" ___भूमिका लेखनकाल में मेरे कानों में आचार्य तुलसी की ये पंक्तियां सदैव गूंजती रहीं- 'मैं अपनी समालोचना सुनना पसंद करता हूं, प्रशस्ति नहीं । मैंने अपने अनुयायियों को यह भी कह दिया है कि मेरे सम्बन्ध में जो साहित्य लिखा जाए, वह भी समालोचनात्मक हो, ताकि उससे मुझे कुछ प्रेरणा मिले और मैं अपने को देख सकू ।' मेरी अग्रिम साहित्यिक यात्रा अभी गुरुदेव के इंगित की प्रतीक्षा में है । उनके द्वारा सौंपे गए नियुक्ति एवं भाष्य के संपादन के कार्य में मुझे लगना है और इस प्राचीनतम श्रुतराशि को व्यवस्थित रूप से सुसंपादित कर श्रुत की सेवा के ब्याज विद्वदवर्ग को उस श्रतनिधि का परिचय देना है। वह विशाल श्रुतराशि अभी भी अप्रकाशित पड़ी है पर इतना निश्चित संकल्प है कि अवकाश-प्राप्त क्षणों में आचार्यवर के गद्य साहित्य की भांति पद्य साहित्य का विवेचन, विश्लेषण एवं समालोचन भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना है। यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि गद्य की अपेक्षा उनका पद्य अधिक सहज, सरल, सशक्त, प्रभावी, मार्मिक एवं हृदयग्राही है। आचार्य तुलसी सृजन के देवता हैं। उन्होंने मेरे जीवन-पथ पर प्रेरणा के दीपे जलाए हैं। उनका चिंतन था कि नियुक्ति और भाष्य साहित्य जल्दी प्रकाश में आये। इस दृष्टि से वे नहीं चाहते थे कि मैं अपनी शक्ति इस कार्य में नियोजित करूं । पर नियति का योग है कि यह कार्य पहले संपन्न हुआ है। प्रस्तुत कार्य के संपादन में मैंने पूज्य गुरुदेव को सदैव अपने निकट पाया है, यह बात अनुभूतिगम्य है । वे मेरी हर प्रवृत्ति में ऊर्जा के स्रोत रहे हैं, अतः उनके प्रति अहोभाव ज्ञापित करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है । पूज्य आचार्य महाप्रज्ञजी, महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी एवं महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी का मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद भी इस कार्य में योगभूत बना है । अस्वस्थ होते हुए भी साध्वीश्री सिद्धप्रज्ञाजी ने आद्योपान्त प्रूफ रीडिंग एवं अनेक सुझाव प्रदान कर इस पुस्तक को रमणीयता प्रदान की है। समणी सहजप्रज्ञाजी एवं मुमुक्षु प्रेम (वर्तमान साध्वी परिमलप्रभाजी) का प्रेस-कापी तैयार करने में अल्पकालिक सहयोग भी बहुत मूल्यवान् रहा है । मुनिश्री श्रीचंदजी 'कमल' ने इसके प्रथम परिशिष्ट की अनुक्रमणिका का निरीक्षण कर मेरे कार्य को हल्का किया है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीस इस विचारयात्रा में मुनिश्री मधुकरजी, श्री कन्हैयालालजी फूलफगर तथा डॉ० आनन्द प्रकाश त्रिपाठी आदि के अमूल्य सुझाव भी मेरे लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहे हैं। नियोजिका समणी मधुरप्रज्ञाजी, सहयोगी समणीवृद एवं समस्त समणी परिवार के प्रति भी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं। महामहिम राष्ट्रपति 'शंकरदयाल शर्मा ने अपना संदेश प्रेषित करके इस ग्रंथ की मूल्यवत्ता स्थापित की है । हिन्दी जगत् के ख्यातनामा साहित्यकार एवं संपादक डा० राजेन्द्र अवस्थी ने बहुत कम समय में इस पुस्तक पर पूर्व पीठिका लिखने का महनीय कार्य किया है। मैं उनके प्रति हृदय से मंगल कामना करती हूं। अंत में गुरुदेव का कर्तृत्व उन्हीं के कर-कमलों में अर्पित करते हुए मुझे असीम प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है। समणी कुसुमप्रज्ञा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य का स्वरूप साहित्य की कसौटी साहित्य का उद्देश्य साहित्यकार साहित्य का वैशिष्ट्य साहित्य के भेद साहित्यिक विधाएं ० निबंध ० कथा • संस्मरण ० जीवनी ० पत्र ० डायरी ० संदेश • गद्यकाव्य • भेंटवार्ता ० यात्रावृत्त ० प्रवचन - साहित्य अनुक्रम गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन भाषा-शैली चिंतन के नए क्षितिज अहिंसा दर्शन अहिंसा का स्वरूप अहिंसा की मौलिक अवधारणा • अहिंसक कौन ? O ० o o हिंसा के विविध रूप अहिंसा का क्षेत्र १ ७ १५ १८ १९ १९ २५ २७ २८ २९ ३० ३० ३१ ३२ ३२ ३३ ५६ ७८ ७८ ८० ८२ ८३ ८४ ८८ अहिंसा की शक्ति अहिंसा की प्रतिष्ठा अहिंसा का प्रयोग हिंसक क्रांति ० अहिंसा का सामाजिक ० o ० ० स्वरूप • वैचारिक अहिंसा ० ० अहिंसा सार्वभौम ० अहिंसा और वीरता • लोकतंत्र और अहिंसा ० ० अहिंसात्मक प्रतिरोध अहिंसा और युद्ध अहिंसा और विश्वशांति ० निःशस्त्रीकरण • आचार्य तुलसी के अहिंसक प्रयोग धर्म-चिंतन ० धर्म का स्वरूप • धार्मिक कौन ? • धर्म और राजनीति ७ • धर्म और विज्ञान • धर्म और संप्रदाय • धार्मिक सद्भाव असांप्रदायिक धर्म : अणुव्रत ८८ ८९ ९१ १३ ९४ ९६ ९८ १०० १०१ १०२ १०३ १०६ १०८ १०९ ११७ ११७ ११८ १२० १२२ १२३ १२६ १२५ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीस २०२ २०२ २०३ २०४ २०५ ० अतीत का विसर्जन : ___ अनागत का स्वागत ० अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी ० अमृत-संदेश ० अर्हत् वंदना ० अशांत विश्व को शांति का संदेश ० अहिंसा और विश्वशांति ० आगे की सुधि लेइ ० आचार्य तुलसी के अमर संदेश ० आत्मनिर्माण के इकतीस सूत्र ० आह्वान ० उद्बोधन ० कुहासे में उगता सूरज ० क्या धर्म बुद्धिगम्य २०५ २०६ २०६ १६३ २०७ १६७ ० धार्मिक विकृतियां १३१ ० धर्मक्रांति १३५ राष्ट्र-चिंतन १३९ ० राष्ट्रीयता १३९ ० भारतीय संस्कृति १४१ ० राष्ट्रीय विकास १४६ ० राजनीति १४९ ० संसद १५० ० चुनाव १५१ ० सांसद एवं विधायक १५३ ० लोकतंत्र • राष्ट्रीय एकता समाज-दर्शन ० परिवार ० सामाजिक रूढियां ० दहेज • जातिवाद ० सामाजिक क्रांति १७२ • नया मोड़ • नारी १७९ ० युवक ० समाज और अर्थ १८७ ० व्यवसाय १९० ० स्वस्थ समाज-निर्माण १९३ साहित्य-परिचय १९७ • अणुव्रत आंदोलन १९८ • अणुव्रत के आलोक में १९९ ० अणुव्रत के संदर्भ में १९९ • अणुव्रत : गति-प्रगति २०० • अणुव्रती क्यों बनें ? २०० ० अणुव्रती संघ २०१ ० अतीत का अनावरण २०१ २०७ २०८ १७० २०८ २०९ १८४ २१० २११ २१२ ० खोए सो पाए ० गृहस्थ को भी अधिकार है-धर्म करने का ० घर का रास्ता ० जन-जन से ० जब जागे तभी सवेरा ० जागो ! निद्रा त्यागो !! ० जीवन की सार्थक दिशाएं २१३ २१३ २१४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीस २३३ २३४ ० जैन तत्त्व प्रवेश - भाग १,२ २१४ ० जैन तत्त्व विद्या २१५ ० जैन दीक्षा २१५ ० ज्योति के कण ० ज्योति से ज्योति जले २१६ ० तत्त्व क्या है ? २१६ • तत्त्व-चर्चा २१७ ० तीन संदेश २१७ ० तेरापंथ और मूर्तिपूजा २१८ ० दायित्व का दर्पण : आस्था का प्रतिबिम्ब २१८ • दीया जले अगम का २१९ ० दोनों हाथ : एक साथ २१९ ० धर्म : एक कसौटी, ___ एक रेखा २२० ० धर्म और भारतीय दर्शन ० धर्म : सब कुछ है, कुछ भी नहीं ० धर्म-सहिष्णुता २२१ ० धवल समारोह २२२ • नया मोड़ ० नयी पीढ़ी : नए संकेत २२३ ० नवनिर्माण की पुकार २२३ • नैतिकता के नए चरण २२४ ० नैतिक-संजीवन भाग १ २२४ ० प्रगति की पगडंडिया २२५ ० प्रज्ञापर्व ० प्रज्ञापुरुष जयाचार्य २२६ ० प्रवचन डायरी भाग १-३ २२७ ० प्रवचन-पाथेय, भाग १-११ २२८ ० प्रश्न और समाधान २२९ ० प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा २२९ प्रेक्षाध्यान:प्राणविज्ञान २३० ० बीति ताहि विसारि दे २३० ० बूंद-बूंद से घट भरे ___ भाग १,२ २३० ० बूंद भी : लहर भी २३१ ० बैसाखियां विश्वास की २३२ ० भगवान् महावीर २३३ ० भोर भई ० भ्रष्टाचार की __ आधारशिलाएं २३४ ० मंजिल की ओर, भाग १,२ • महामनस्वी आचार्य श्री कालूगणी : जीवनवृत्त २३५ ० मुक्ति : इसी क्षण में २३६ ० मुक्तिपथ ० मुखड़ा क्या देखे दरपन में ० मेरा धर्म : केन्द्र और परिधि २३७ ० राजधानी में आचार्य श्री तुलसी के संदेश २३८ • राजपथ की खोज २३९ ० लघुता से प्रभुता मिले २४० ० विचार दीर्घा ० विचार-वीथी २४१ ० विश्व शांति और उसका मार्ग २२१ २२१ २३६ २२२ २३७ २२५ २४० २४१ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीस २४३ २४३ दर्शन २४६ ० व्रतदीक्षा २४१ जीवनी-साहित्य २५३ ० शांति के पथ पर ० आचार्यश्री तुलसी (दूसरी मंजिल) २४२ (जीवन पर एक दृष्टि) २५४ ० श्रावक आत्मचिंतन २४२ ० आचार्यश्री तुलसी : ० श्रावक सम्मेलन में २४३ जीवन और दर्शन २५४ ० संदेश ० धर्मचक्र का प्रवर्तन २५४ ० संभल सयाने ! ० आचार्यश्री तुलसी ० सफर : आधी _ 'जैसा मैंने समझा' २५५ शताब्दी का २४४ ० आचार्य तुलसी जीवन ० समण दीक्षा २४४ २५५ ० समता की आंख : ० आचार्य तुलसी : __ चरित्र की पांख २५६ जीवन यात्रा २४५ ० अमृत-पुरुष २५६ ० समाधान की ओर ० आचार्य श्री तुलसी : ० साधु जीवन की __ जीवन झांकी उपयोगिता २४६ २५६ ० सूरज ढल ना जाए २४६ ० एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व : आचार्य श्री तुलसी ० सोचो ! समझो !! भाग १,३ • आचार्यश्री तुलसी : कलम २४७ संकलित एवं संपादित साहित्य २४८ के घेरे में २५७ ० युगप्रधान आचार्यश्री ० अणुव्रत अनुशास्ता तुलसी के साथ २४८ यात्रा-साहित्य २५८ ० अनमोल बोल आचार्य ० दक्षिण के अंचल में २५९ तुलसी के २४८ • पांव-पांव चलने वाला ० एक बूंद : एक सागर सूरज २६० (भाग १-५) ० जब महक उठी मरुधर ० तुलसी-वाणी २५० माटी २६० ० पथ और पाथेय २५० • बहता पानी निरमला २६० ० सप्त व्यसन २५० ० परस पांव मुसकाई घाटी २६० ० सीपी सूक्त २५१ ० अमरित बरसा अरावली ० हस्ताक्षर २५१ ० शैक्ष-शिक्षा २५२ • जनपद विहार २६१ आचार्य तुलसी के जीवन से ० जन-जन के बीच आचार्य । ___ संबंधित साहित्य २५३ तुलसी, भाग-१,२ २६२ २५७ २६१ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैंतीस ४ ४९ س ० बढ़ते चरण २६२ ० आचार्य तुलसी ० पदचिह्न २६२ अभिनन्दन ग्रन्थ २६४ ० जोगी तो रमता भला २६२ ० आचार्यश्री तुलसी षष्टि० आचार्य तुलसी पद पूर्ति अभिनंदन पत्रिका २६५ यात्रा-मान-चित्रावली २६३ ० अणुविभा २६५ संस्मरण साहित्य २६३ ० अमृत महोत्सव २६६ अभिनन्दन ग्रन्थ एवं ० आचार्य तुलसी के जीवन पत्र-पत्रिका विशेषांक २६४ की महत्त्वपूर्ण तिथियां २६७ विषय-वर्गीकरण अध्यात्म १ अपरिग्रह अनुभव के स्वर ९ आहार और स्वास्थ्य ४५ अहिसा १५ जीवन-सूत्र अहिंसा १७ जीवन-सूत्र अहिंसक शक्ति २१ अनासक्ति अहिंसा : विविध संदर्भो में २१ अनुशासन युद्ध और अहिंसा २३ क्षमा और मैत्री हिंसा २४ त्याग आगम २५ पुरुषार्थ आचार २९ मानव जीवन आचार ३१ शांति सम्यग्ज्ञान ३१ संकल्प सम्यग्दर्शन ३३ संयम सम्यक्चारित्र ३४ संस्कार निर्माण श्रमणाचार ३५ समता ५८ श्रावकाचार ३७ सेवा तप ३८ स्वतंत्रता रात्रि-भोजन विरमण ३८ जनदर्शन समाधिमरण ३८ भारतीय दर्शन मोक्ष-मार्ग ३९ दर्शन के विविध पहलू प्रायश्चित्त ४० तत्त्व-मीमांसा सत्य ४० द्रव्य गुण पर्याय अस्तेय ४१ सृष्टि ४१ ईश्वर ل द السلہ ५४ or mro 9 m ५९ M Mr ६४ ब्रह्मचर्य Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अड़तीस आत्मा कर्मवाद शरीर ७२ कालचक्र ७३ अनेकांत ६३ तेरापंथ ७५ तेरापंथ ७७ तेरापंथ के मौलिक सिद्धान्त ७९ तेरापंथ : मर्यादा और अनुशासन ८० मर्यादा महोत्सव ८० योगक्षेम वर्ष ८ १ ८३ ८५ धर्म धर्म धर्म और जीवन व्यवहार धर्म और राजनीति धर्मसंघ धर्म और सम्प्रदाय धर्मक्रान्ति धर्म : विभिन्न संदर्भों में धार्मिक संन्यास साधु-संस्था पंचपरमेष्ठी नैतिकता और अणुव्रत व्रत अणुव्रत अणुव्रत अणुव्रत के विविध रूप ७० ७१ ९१ ९२ ९२ ९२ ९३ ९३ ९४ ९४ ९५ ९६ ९७ ९९ ९९ १०९ १०९ अणुव्रत अधिवेशन १११ नैतिकता ११३ नैतिकता : विभिन्न संदर्भों में १९६ मनोविज्ञान ११७ मनोविज्ञान लेश्या भाव इन्द्रिय योगसाधना ध्यान साधना प्रेक्षाध्यान दीर्घश्वास प्रेक्षा शरीरप्रेक्षा चैतन्यकेंद्र प्रेक्षा लेश्याध्यान अनुप्रेक्षा राष्ट्रचितन राष्ट्रचिंतन संसद राष्ट्रीय चरित्र (विधायक) चुनावशुद्धि लोकतंत्र / जनतंत्र राष्ट्रीय एकता नागरिकता विज्ञान पर्यावरण विविध विविध प्रतिमा पूजा स्वाध्याय समन्वय सुख-दुःख सुधार स्वागत एवं विदाई संदेश व्यक्ति एवं विचार तीर्थंकर ऋषभ एवं पार्श्व ११९ १२० १२१ १२१ १२३ १२५ १२६ १३० १३१ १३१ १३१ १३२ १३२ १३३ १३५ १३६ १३६ १३६ १३७ १३७ १३८ १३९ १३९ १४१ १४३ १४३ १४४ १४४ १४५ १४६ १४६ १४९ १५१ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनचालीस १८६ १९१ गुरु २९३ महावीर : जीवन-दर्शन १५१ जातिवाद १८४ आचार्य भिक्षु : जीवन-दर्शन १५३ व्यसन १८५ जयाचार्य १५४ व्यवसाय १८५ अन्य आचार्य १५५ कार्यकर्ता विशिष्ट संत १५५ साहित्य १८७ महात्मा गांधी : जीवन-दर्शन १५५ साहित्य विशिष्ट व्यक्तित्व १५९ भाषा शिक्षा और संस्कृति १५९ हिन्दी १८९ शिक्षा १६१ संस्कृत १८९ शिक्षक १६३ काव्य १९० शिक्षार्थी १६४ परिशिष्ट संस्कृति १६६ १. पुस्तकों के लेखों की भारतीय संस्कृति अनुक्रमणिका श्रमण संस्कृति १६७ २. पत्र-पत्रिका के लेखों की सत्संगति अनुक्रमणिका २९२ ० जैन भारती पर्व ० अणुव्रत दीपावली ० युवादृष्टि ३३४ होली ० प्रेक्षाध्यान एवं अक्षय तृतीया तुलसी प्रज्ञा ३३६ पर्युषण पर्व ३ प्रवचन स्थलों के नाम एवं पन्द्रह अगस्त विशेष विवरण समसामयिक ० विशेष प्रवचन ३६२ १७३ ० विशिष्ट व्यक्तियों से समाज १७५ ___ भेटवार्ताएं ३७२ सामाजिक रूढ़ियां ४. पुस्तक संकेत सूची संस्थान १७६ • भूमिका में प्रयुक्त संदर्भ परम्परा और परिवर्तन १७७ सूची ३८२ परिवार १७७ ० विषय-वर्गीकरण में प्रयुक्त । नारी ___ ग्रन्थ संकेत सूची ३८४ स्त्रीशिक्षा १८१ • पुस्तकों का ऐतिहासिक ३८७ युवक ० पद्य एवं संस्कृत साहित्य ३९१ ३२२ orror.orror or or orwaza urururururrrr समाज १७६ १७८ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकृत विषयों की अनुक्रमणिका अक्षय तृतीया अणुव्रत अणुव्रत- अधिवेशन अणुव्रत के विविध रूप अणुव्रती अध्यात्म अनासक्ति अनुप्रेक्षा अनुभव के स्वर अनुशासन अनेकांत अन्य आचार्य अहिंसा अहिंसा अपरिग्रह अस्तेय १६९ काव्य ९९ कार्यकर्ता १११ कालचक्र १०९ क्षमा और मैत्री १०९ गुरु चुनाव शुद्धि चैतन्यकेंद्र प्रेक्षा १ ५१ १३२ अहिंसक शक्ति अहिंसा : विविध संदर्भों में आगम आचार २९ आचार ३१ आचार्य भिक्षु : जीवन दर्शन १५३ आत्मा ७० आहार और स्वास्थ्य ४५ इंद्रिय १२१ ईश्वर ७० कर्मवाद ७१ ११ ५१ जीवन-सूत्र ७३ जीवन-सूत्र १५५ जैन दर्शन १५ १७ ४२ ४१ २१ २१ जयाचार्य जातिवाद २५ तत्त्व मीमांसा तप तीर्थंकर ऋषभ एवं पार्श्व तेरापंथ तेरापंथ तेरापंथ के मौलिक सिद्धांत तेरापंथ : मर्यादा और अनुशासन त्याग दर्शन के विविध पहलू दीपावली दीर्घश्वास प्रेक्षा द्रव्य गुण पर्याय धर्म धर्म १९० १८६ ७३ ५२ १६९ १३६ .१३१ १५४ १८४ ૪૭ ४९ ६१ ६७ ३८ १५१ ७७ ७५ ७९ το ५२ ६४ १६९ १३१ ६८ ८३ ८५ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीस धर्म और जीवन व्यवहार ९१ महावीर : जीवन दर्शन धर्म और राजनीति ९२ मां धर्म और संप्रदाय ९२ मानव-जीवन धर्मक्रांति ९३ मोक्ष मार्ग धर्म : विभिन्न संदर्भो में ९३ युद्ध और अहिंसा धर्मसंघ ९२ युवक धार्मिक योगक्षेम वर्ष ध्यान १२५ योगसाधना नागरिकता १३८ रात्रि-भोजन विरमण नारी १७८ राष्ट्र-चितन नैतिकता ११३ राष्ट्र-चिंतन नैतिकता और अणुव्रत राष्ट्रीय एकता नैतिकता : विभिन्न संदर्भो में ११६ राष्ट्रीय चरित्र/विधायक पंचपरमेष्ठी लेश्या पन्द्रह अगस्त १७१ लेश्या ध्यान परम्परा और परिवर्तन १७७ लोकतंत्र जनतंत्र परिवार विज्ञान पर्यावरण १३९ विविध पर्यषण पर्व १७० विविध पर्व १६९ विशिष्ट व्यक्तित्व पुरुषार्थ विशिष्ट संत प्रतिमापूजा व्यक्ति एवं विचार प्रायश्चित्त ४० व्यवसाय प्रेक्षाध्यान १३० व्यसन ब्रह्मचर्य ४१ व्रत भारतीय दर्शन शरीर भारतीय संस्कृति शरीर प्रेक्षा भाव १२१ शांति भाषा १८९ शिक्षक मनोविज्ञान ११७ शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा और संस्कृति मर्यादा महोत्सव ८० शिक्षार्थी महात्मागांधी : जीवन दर्शन १५५ श्रमण संस्कृति xx rrrr M4-MarMroommon mom or or 9 Mmm १३५ १७७ १५६ १४३ १५५ १४९ १८५ १८५ १६० १६४ १६७ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बयालीस ३१ mm १२६ ९५ १७६ १८७ १८९ १४५ १४६ श्रमणाचार श्रावकाचार संकल्प संन्यास संयम संसद संस्कार निर्माण संस्कृत संस्कृति संस्थान सत्य सत्संगति समता समन्वय समसामयिक समाज समाज समाधिमरण सम्यक्चारित्र ३५ सम्यग् ज्ञान ३७ सम्यग् दर्शन ५६ साधना ९४ साधु-संस्था ५६ सामाजिक रूढ़ियां १३६ साहित्य ५८ साहित्य १८९ सुख-दुःख १६६ सुधार १७६ सृष्टि ४० सेवा १६८ स्त्री-शिक्षा ५८ स्वतंत्रता १४४ स्वागत एवं विदाई संदेश १७२ स्वाध्याय १७३ हिंसा १७५ हिन्दी ३८ होली ५९ १८१ १४६ १४४ २४ १८९ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन साहित्य का स्वरूप साहित्य मानव की अनुभूतियों, भावनाओं और कलाओं का साकार रूप है । इसमें भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति होती है इसीलिए मैथ्यू आर्नोल्ड आदि पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य को जीवन की व्याख्या एवं आलोचना माना है। जहां तक जीवन की पहुंच है, वहां तक साहित्य का क्षेत्र है। जीवन-निरपेक्ष साहित्य अपना महत्त्व खो देता है अतः विद्वानों ने सत्साहित्य की यही कसौटी बताई है कि वह जीवन से उत्पन्न होकर सीधे मानव जीवन को प्रभावित करता है । दो और दो चार होते हैं, यह चिर सत्य है पर साहित्य नहीं है क्योंकि जो मनोवेग तरंगित नहीं करता, परिवर्तन एवं कुछ कर गुजरने की शक्ति नहीं देता, वह साहित्य नहीं हो सकता अतः अभिव्यक्ति जहां आनंद का स्रोत बन जाए, वहीं वह साहित्य बनता है। प्रेमचंद अपने समय के ही नहीं, इस शताब्दी के प्रख्यात कथाकारों में से एक रहे हैं । उन्होंने साहित्य का जो स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उसे एक अंश में पूर्ण कहा जा सकता है। वे कहते हैं---"जिस साहित्य से हमारी सुरुचि नहीं जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति व गति पैदा न हो, हमारा सौंदर्यप्रेम और स्वाधीनता का भाव जागृत न हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश उपलब्ध न हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करे, वह हमारे लिए अर्थपूर्ण नहीं है, उसे साहित्य की कोटि में परिगणित नहीं किया जा सकता।' उन्होंने साहित्य को समाज रूपी शरीर के मस्तिष्क के रूप में स्वीकार किया है। ___ साहित्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भर्तृहरि ने नीतिशतक में किया है । साहित्य को हमारे प्राचीन मनीषियों ने सुकुमार वस्तु कहा है। रवीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य के स्वरूप को दार्शनिक परिधान देते हुए कहते हैं--- "भाव का भाषा से, प्रकृति का पुरुष से, अतीत का वर्तमान से, दूर का निकट से तथा मस्तिष्क का हृदय से जो अंतरंग मिलन है, वही साहित्य है।" हजारी प्रसाद द्विवेदी का मंतव्य है-मनुष्य की सबसे सूक्ष्म और महनीय १. प्रेमचंद के कुछ विचार, पृ० २५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण साधना का प्रकाश साहित्य है। अतः साहित्य का मर्म वही समझ सकता है, जो साधता और तपस्या का मूल्य समझे। ऐसा साहित्य कभी पुराना नहीं हो सकता क्योंकि विज्ञान, समाज तथा सांस्कृतिक तत्त्व समय की गति के अनुसार बदलते हैं, पर साहित्य हृदय की वस्तु है। जो साहित्य नामधारी वस्तु लोभ और घृणा पर आधारित है, वह साहित्य कहलाने के योग्य नहीं है, वह हमें विशुद्ध आनंद नहीं दे सकता। प्रसिद्ध समालोचक बाबू गुलाबराय कहते हैं - "जहां हित और मनोहरता की युति है, वहीं सत्साहित्य की सृष्टि होती है। "हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः"- साहित्य इसी दुर्लभ को सुलभ बनाता है ।"२ साहित्य की कसौटी ___ "जो साहित्य मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, हृदय को 'परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है"-हजारीप्रसाद द्विवेदी की ये पंक्तियां साहित्य की कसौटियों को समग्र रूप से हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। ये साहित्य के भावतत्त्व को प्रकट करने वाली हैं पर बाह्य रूप से टालस्टॉय ने तीन प्रकार के नकारात्मक साहित्य का उल्लेख किया है 1 Borrowed-कहीं से उधार लिया हुआ । 2. Imitated-कहीं से नकल किया हुआ। 3. Countefiet - खोटा साहित्य । इन तीनों प्रकार के साहित्य में मौलिकता एवं प्रभावोत्पादकता नहीं होती अतः उन्हें साहित्य की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। प्रसिद्ध साहित्यकार नवीनजी का कहना है कि मेरे समक्ष सत्साहित्य का एक ही मापदण्ड है वह यह कि किस सीमा तक कोई साहित्यिक कृति मानव को उच्चतर, सुन्दरतम, अधिक परिष्कृत एवं समर्थ बनाती है।" __वही साहित्य प्रभविष्णु हो सकता है, जिसमें निम्न चार तत्त्वों का समावेश हो--१. जीवंत सत्य, २. स्वतंत्रता, ३. यथार्थ ४. क्रांति । आचार्य तुलसी का साहित्य इन सभी विशेषताओं को अपने भीतर समेटे हुए है। जीवंत सत्य उन्होंने साहित्य की सामग्री एवं विषय रेक में रखी पुस्तकों से नहीं १. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, भा० ७, पृ० १३९,१६० २. वही, पृ० १६८ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन अपितु उन जीवित व्यक्तियों से ली है जो प्रतिदिन हजारों की संख्या में उनके चरणों में उपस्थित होते हैं। यही कारण है कि उनके साहित्य में जीवंत सत्य का दर्शन होता है । यह सत्य कभी-कभी उनकी स्वयं की अनुभूति में भी प्रकट हो जाता है० मैंने अपने छोटे से जीवन में गुस्सैल व्यक्ति बहुत देखे हैं पर उत्कृष्ट कोटि के क्षमाशील कम देखे हैं। गर्वित व्यक्तियों से मेरा आमनासामना बहुत हुआ है पर विनम्र व्यक्ति कम देखे हैं। लोगों को फंसाने के लिए व्यूह रचना करने वाले मायावी व्यक्ति बहुत मिले पर ऋजुता की विशेष साधना करने वाले कितने होते हैं ? लोभ के शिखर पर आरोहण करने वाले अनेक व्यक्तियों से मिला हूं पर संतोष की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए व्यक्ति कम देखे हैं। इसी प्रकार पढ़े-लिखे लोगों से मेरा सम्पर्क आए दिन होता है पर बहुश्रुत व्यक्तियों से साक्षात्कार करने का प्रसंग कभी-कभी ही मिल पाता है।' ० स्याद्वाद से मैं यह सीख पाया हूं कि सत्य उसी व्यक्ति को प्राप्त ___ होता है जिसके मन में अपनी मान्यताओं का आग्रह नहीं होता। ० मैं आचार की समता लेकर चलता हूं अतः दो विरोधी विचार भी मेरे सामने एक घाट पानी पी सकते हैं। ० अति हर्ष और विषाद, अति श्रम और विश्राम आदि अतियों से बचे रहने के कारण मैं आज भी अपने आपको तारुण्य की दहलीज पर खड़ा अनुभव कर रहा हूं। ० विरोधों से डरने वालों को मैं उचित परामर्श देना चाहता हूं कि वे एक तटस्थद्रष्टा की भांति उसे देखते रहें और आगे बढ़ते रहें, भविष्य उन्हें स्वतः बतला देगा कि बढ़े हुए ये कदम प्रगति को किस प्रकार अपने में समेटे हुए चलेंगे। जीवन के ये अनुभूत सत्य हर किसी को प्रेरणा देने में पर्याप्त हैं। स्वतंत्रता साहित्य के परिवेश में स्वतंत्रता का अर्थ है-मौलिकता। आचार्य तुलसी के साहित्य की मौलिकता इस बात से नापी जा सकती है कि उन्होंने समाज के उन अनछुए पहलुओं का स्पर्श किया है जिसकी ओर आम साहित्यकार का ध्यान ही नहीं जाता। उन्होंने अनेक शब्दों को नया अर्थ भी प्रदान किया है । स्वतंत्रता का अर्थ प्राय: विदेशी सत्ता से मुक्ति या नियम की पराधीनताओं से मुक्ति माना जाता है पर उन्होंने उसे एक मौलिक अर्थवत्ता प्रदान की है१. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६९१ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण "यदि व्यक्ति स्वतंत्र है तो किसी क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं करेगा। वह एक क्षण में प्रसन्न और एक क्षण में नाराज नहीं होगा, एक क्षण में विरक्त और एक क्षण में वासना का दास नहीं बनेगा। __ पदार्थवादी दृष्टिकोण ने व्यक्ति को इतना भौतिक और यांत्रिक बना दिया है कि उसके सामने जीवन का मूल्य नगण्य हो गया है। वे वैज्ञानिक प्रगति के विरोधी नहीं पर विज्ञान व्यक्ति पर हावी हो जाए, इसके घोर विरोधी हैं तथा इसमें भयंकर दुष्परिणाम देखते हैं। विज्ञान पर व्यंग्य करता हुआ उनका निम्न वक्तव्य अनेक लोगों की मौलिक सोच को जागृत करने वाला है-“१० अगस्त १९८२ का धर्मयुग देखा। उसके तीसरे पृष्ठ पर एक विज्ञापन छपा है नोविनो सेल का । विज्ञापन के ऊपर के भाग में एक आदमी का रेखाचित्र है और उसके निकट ही रखा हुआ है एक कैल्क्युलेटर। कैल्क्युलेटर सेल से काम करता है। उस रेखाचित्र के नीचे दो वाक्य लिखे हुए हैंकैलक्युलेटर लगातार काम करेगा इसका आश्वासन तो हम दे सकते हैं पर ये महाशय भी ऐसे ही काम करेंगे, इसका आश्वासन भला हम कैसे दे सकते हैं ? एक आदमी का आदमी के प्रति कितना तीखा व्यंग्य है ? कहां विद्युतघट के रूप में काम करने वाला सेल और कहां ऊर्जा का अखूट केंद्र आदमी ? सेल का निर्माता आदमी है वही आदमी अपने सजातीय का ऐसा क्रूर उपहास करे, कितनी बड़ी विडम्बना है ! १२ युगधारा को पहचानने के कारण इस प्रकार के अनेक मौलिक चिन्तन उनके साहित्य में यत्र-तत्र मिल जाएंगे। यह वेधकता और मौलिकता उनके साहित्य की अपनी निजता है। यथार्थ हिंदी साहित्य में आदर्श और यथार्थ के संघर्ष की एक लम्बी परम्परा रही है। इसी आधार पर साहित्य के दो वाद प्रतिष्ठित हैं- आदर्शवाद और यथार्थवाद । यथार्थवादी जीवन की साधारणता का चित्रण करता है जबकि आदर्शवादी जीवन के असाधारण व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति देता है। आदर्श केवल गुणों का चित्रण उपस्थित करता है जबकि यथार्थ गुण और अवगुण दोनों को अपने अंचल में समेट लेता है। आदर्श कहीं-कहीं अवगुण को भी गुण में परिवर्तित कर देता है । आचार्य तुलसी में आदर्शवाद और यथार्थवाद की समन्वित छाया परिलक्षित होती है इसलिए उनके साहित्य को आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का प्रतीक कहा जा सकता है। वे इस तथ्य को मानकर चलते हैं कि यथार्थ को उपेक्षित करने वाला आदर्श केवल उपदेश या कल्पना हो सकती है, ठोस के धरातल पर उतरने की क्षमता उसमें नहीं होती। १. जैन भारती, २६ जून, ५५ २. कुहासे में उगता सूरज, पृ० ३७ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन आदर्श के बारे में उनकी अवधारणा यथार्थ के निकट है पर संतुलित है - "आदर्श वह नहीं होता, जिसके अनुसार कोई व्यक्ति चल ही नहीं सके और आदर्श वह भी नहीं होता जिसके अनुसार हर कोई आसानी से चल सके। आदर्श वह होता है जो व्यक्ति को साधारण स्तर से ऊपर उठाकर ऊंचाई के उस बिंदु तक पहुंचा दे जहां संकल्प की उच्चता और पुरुषार्थ की प्रबलता से पहुंचा जा सकता है । आदर्श और यथार्थ की अन्विति होने से उनका साहित्य अधिक जनभोग्य, प्रेरक तथा आकर्षक हो गया है । जीवन के हर क्षेत्र में यहां तक कि प्रशासनिक अनुभवों में भी यथार्थ और आदर्श के समन्वय की पुट देखी जा सकती है। उनका कहना है - "अनुशासन एक कला है । इसका शिल्पी यह जानता है कि कब कहा जाए और कहां सहा जाए । सर्वत्र कहा होजाए तो धागा टूट जाता है और सर्वत्र सहा ही जाए तो वह हाथ से छूट जाता है ।" क्रांति नेपोलियन बोनापार्ट कहते थे - क्रांति अति हानिकारक कूड़े के ढेर के सदृश है, जिसमें अति उत्तम वानस्पतिक पैदावार होती है। आचार्य तुलसी क्रांति को उच्छृंखलता, उद्दंडता और अशांति नहीं मानते। उनकी दृष्टि में इन तत्त्वों से जुड़ी क्राति, क्रांति नहीं, भ्रांति है । वे क्रांति का अर्थ करते हैं" सामाजिक धारणाओं, व्यवस्थाओं और व्यवहारों का पुनर्जन्म । इसका सूत्रपात वही कर सकता है जो स्वयं विषपान कर दूसरों को अमृत पिलाता है ।" उनके साहित्य का हर पृष्ठ बोलता है कि उनकी विचारधारा एक अहिंसक क्रांतिकारी की विचारधारा है । वे स्वयं अपनी अनुभूति को लिखते हुए कहते हैं- "यदि मैंने समय के साथ चलने की समाज को सूझ नहीं दी तो मैं अपने कर्त्तव्य मे च्युत हो जाऊंगा । इसलिए समाज की आलोचना का पात्र बनकर भी मैंने समय-समय पर प्रदर्शनमूलक प्रवृत्तियों, धार्मिक अंधपरंपराओं और अंधानुकरण की वृत्ति पर प्रहार करके समाज में क्रांति घटित करने का प्रयत्न किया है।' 103 उनके साहित्य में मुख्यतः सामाजिक एवं धार्मिक क्रांति के बिंदु मिल हैं । सामाजिक क्रांति के रूप में उन्होंने समाज की आडम्बरप्रधान विकृत प्रवृत्तियों को बदलने के लिए रचनात्मक उपाय निर्दिष्ट किए हैं । दहेज प्रथा के विरोध में युवापीढ़ी में अभिनव जोश भरते हुए तथा उसके प्रतिकार का मार्ग सुझाते हुए उनकी क्रांतवाणी पठनीय ही नहीं, मननीय भी है - अपनी पीढ़ी की तेजस्विता और यशस्विता के पहरुए बनकर एक साथ सैकड़ों-हजारों युवक-युवतियां जिस दिन बुलंदी के साथ दहेज के विरुद्ध १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७२७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आवाज उठाएंगे, अहिंसात्मक तरीके से समाज की इन घिनौनी प्रवृत्ति पर अंगुलिनिर्देश करेंगे तो दहेज की परम्परा चरमराकर टूट पड़ेगी। समाज में क्रांति पैदा करने का उनका दृढ़ संकल्प समय-समय पर मुखरित होता रहता है-"समाज के जिस हिस्से में शोषण है, झूठ है, अधिकारों का दमन है, उसे मैं बदलना चाहता हूं और उसके स्थान पर नैतिकता एवं पवित्रता से अनुप्राणित समाज को देखना चाहता हूं। इसलिए मैं जीवन भर शोषण और अमानवीय व्यवहार के विरोध में आवाज उठाता रहूंगा।" धर्मक्रांति का स्वरूप उनके शब्दों में इस प्रकार है-"धर्मक्रांति का स्वरूप है-जो न धर्मग्रंथों में उलझे, न धर्मस्थानों में । जो न स्वर्ग के प्रलोभन से हो और न नरक के भय से । जिसका उद्देश्य हो जीवन की सहजता और मानवीय आचारसंहिता का ध्रुवीकरण । धर्मक्रांति द्वारा उन्होंने धर्म को मंदिर-मस्जिद के कटघरे से निकाल कर आचरण के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है । उन्होंने धर्मक्रांति के पांच सूत्र दिए हैं१. धर्म को अन्धविश्वास की कारा से मुक्त कर प्रबुद्ध लोक-चेतना के साथ जोड़ना। २. रूढ़ उपासना से जुड़े हुए धर्म को प्रायोगिक रूप देना । ३. परलोक सुधारने के प्रलोभन से ऊपर उठाकर धर्म को वर्तमान जीवन की शुद्धि में सहायक बनाना । ४. युगीन समस्याओं के संदर्भ में धर्म को समाधान के रूप में प्रस्तुत करना। ५. धर्म के नाम पर होने वाली लड़ाइयों को आपसी वार्तालाप के द्वारा निपटाकर सब धर्मों के प्रति सद्भावना का वातावरण निर्मित करना। तथाकथित धार्मिकों के जीवन पर व्यंग्य करती उनको ये पंक्तियां कितनी क्रांतिकारी बन पड़ी हैं पानी को भी छानकर पीने वाले, चींटियों की हिंसा से भी कांपने वाले, प्रतिदिन धर्मस्थान में जाकर पूजा-पाठ करने वाले, प्रत्येक प्राणी में समान आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करने वाले धार्मिकों को जब तुच्छ स्वार्थ में फंसकर मानवता के साथ खिलवाड़ करते देखता हूं, धन के पीछे पागल होकर इन्सानियत का गला घोंटते देखता हूं तो मेरा अन्तःकरण बेचैन हो जाता है। १. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० १७८ २. कुहासे में उगता सूरज, पृ० १४६ ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७०१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन यह क्रांतवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं, वरन् धार्मिक, सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन की प्रेरणा भी है। इस संदर्भ में नरेन्द्र कोहली की निम्न पंक्तियां उद्धरणीय एवं मननीय हैं- "मदिरा की भांति केवल मनोरंजन करने वाला साहित्य मानसिक समस्याओं को भुलाने में सहायता देकर मानसिक राहत दे सकता है पर इसमें उनके निराकरण के प्रयत्न की उपेक्षा होने से समस्या समाप्त नहीं होती, वरन् भुला दी जाती है। ......."किसी की पीड़ा का उपचार इंजेक्शन देकर सुला देना नहीं है अतः किसी राष्ट्र में समस्याओं की चुनौती स्वीकार करने के लिए जो क्षमता होती है-इस प्रकार के साहित्य से वह क्षीण होकर क्रमश: नष्ट हो जाती है । सक्रियता का लोप राष्ट्र में असहायता का भाव उत्पन्न करता है, जो अंततः राष्ट्र के पतन का कारण होता है । जो साहित्य किसी राष्ट्र को महान् नहीं बनाता, वह महान् साहित्य कैसे माना जा सकता है ?' इस प्रकार जीवंत सत्य, स्वतन्त्रता, यथार्थ एवं क्रांति इन चारों कसौटियों पर आचार्य तुलसी का साहित्य स्वर्ण की भांति खरा उतरता है। साहित्य का उद्देश्य जीवन में सत्यं, शिवं और सुन्दरं की स्थापना के लिए साहित्य की आवश्यकता रहती है। यद्यपि यह सत्य है कि साहित्य का उद्देश्य या संप्रेषण भिन्न-भिन्न लेखकों का भिन्न-भिन्न होता है किंतु जब-जब साहित्य अपने मूल उद्देश्य से हटकर केवल व्यावसायिक या मनोरंजन का साधन बन जाता है, तब-तब उसका सौन्दर्यपूरित शरीर क्षत-विक्षत हो जाता है। साहित्य मानसिक खाद्य होता है अतः वह सोद्देश्य होना चाहिए। महावीर प्रसाद द्विवेदी साहित्य के उद्देश्य को इन शब्दों में अंकित करते हैं –'साहित्य ऐसा होना चाहिए, जिसके आकलन से दूरदर्शिता बढ़े, बुद्धि को तीव्रता प्राप्त हो, हृदय में एक प्रकाश की, संजीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जाएं और आत्म गौरव की उद्भावना तीव्र होकर पराकाष्ठा तक पहुंच जाए।' कथा मनीषी जैनेन्द्र आत्माभिव्यक्ति को साहित्य का प्रयोजन मानते हैं। उनके अनुसार विश्वहित के साथ एकाकार हो जाना अर्थात् बाह्य जीवन से अंतर जीवन का सामंजस्य स्थापित करना ही साहित्य का परम लक्ष्य है। आचार्य शुक्ल साहित्य का उद्देश्य एकता मानते हुए लिखते हैं-'लोक-जीवन में जहां भिन्नताएं हैं, असमानताएं हैं, दीवारें हैं, साहित्य वहां जीवन की एकरूपता स्थापित करता है।" १. प्रेमचंद, पृ० १०-११ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा केवल विषय प्रतिपादन या तथ्यों के प्रस्तुतीकरण को ही साहित्य का उद्देश्य मानने को तैयार नहीं हैं। वे तो लिखने की सार्थकता तभी स्वीकारते हैं जब लिखे तथ्य को कोई याद रखे, तिलमिलाए, सोचने को बाध्य हो जाए, गुनगुनाता रहे तथा ऊभ-चूभ करने को विवश हो जाए । अतः साहित्य का उद्देश्य यही होना चाहिए कि यथार्थ को इतने प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी ढंग से व्यक्त किया जाए कि पाठक उस सोच को क्रियान्वित करने की दिशा में प्रयाण कर दे। अतः साहित्य समाज का दर्पण या एक्सरे ही नहीं, कुशल मार्गदर्शक भी होता है। लोकप्रवाह में बहकर कुछ भी लिख देना साहित्य की महत्ता को संदिग्ध बना देना है । संक्षेप में लेखन के उद्देश्य को निम्न बिंदुओं में प्रकट किया जा सकता है ० अंधकार से प्रकाश की ओर चलने और दूसरों को ले चलने के लिए लिखा जाए। ० जड़ता, अंधविश्वास और अज्ञान से मुक्ति पाने के लिए लिखा जाए। ० शोषण और अन्याय के विरुद्ध तनकर खड़ा होने की प्रेरणा देने के लिए लिखा जाए। ० व्यक्ति और समाज को बदलने और दायित्वबोध जगाने के लिए लिखा जाए। • अपनी वेदना को दूसरों की वेदना से जोड़ने के लिए लिखा जाए। ० पाशविक वृत्तियों से देवत्व की ओर गति करने के लिए लिखा जाए। आचार्य तुलसी के साहित्य में इन सब उद्देश्यों की पूर्ति एक साथ दृष्टिगोचर होती है क्योंकि उन्होंने कलम एवं वाणी की शक्ति का उपयोग सही दिशा में किया है। उनका लेखन एवं वक्तव्य लोकहित के साथ आत्महित से भी जुड़ा हुआ है । वे अनेक बार इस बात की अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं“आत्मभाव का तिरस्कार कर यदि साहित्य का सृजन या प्रकाशन होता है तो वह मुझे प्रिय नहीं होगा।"१ इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि साहित्यकार कहलवाने के लिए कोई कलात्मक चमत्कार प्रस्तुत करना उन्हें अभीष्ट नहीं है। यही कारण है कि उनके साहित्य में सत्य का अनुगुंजन है, मानवीय संवेदना को जागृत करने की कला है, तथा युग की अनेक ज्वलंत समस्याओं के समाधान का मार्ग है। उनका साहित्य सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध आवाज ही १. जैन भारती, २६ जनवरी, १९६४ । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन नहीं उठाता बल्कि उनका समाधान तथा नया विकल्प भी प्रस्तुत करता है, जिससे पाठक सहजतया मानवीय मूल्यों को अपने जीवन में स्थान दे सके । बुराई को देखकर वे कहीं भी निलिप्त द्रष्टा नहीं बने प्रत्युत् हर त्रुटि के प्रति अंगुलिनिर्देश करके समाज का ध्यान आकृष्ट किया है। उनका साहित्य संघर्ष करते मानव में शांति तथा न्याय के प्रति अदम्य उत्साह और उल्लास पैदा करता है। संक्षेप में आचार्य तुलसी के साहित्य के उद्देश्यों को निम्न बिंदुओं में समेटा जा सकता है ० कांता सम्मत उपदेश द्वारा व्यक्ति-व्यक्ति का सुधार ० मन में कल्याणकारी भावों की जागृति • जीवन के सही लक्ष्य की पहचान तथा मानवीय आदर्शों की प्रतिष्ठा । ० भावचित्र द्वारा पाठक के मन में सरसता पैदा करना। ० किसी विचार या सिद्धांत का प्रतिपादन । ० पुराने साहित्य को नवीन शैली में युगानुरूप प्रस्तुत करना जिससे साहित्य की मौलिकता नष्ट न हो, नई पीढ़ी का मार्गदर्शन हो सके तथा स्वाध्याय की प्रवृत्ति भी बढ़े। ० समाज में गति एवं सक्रियता पैदा करना । ० भौतिकवाद के विरुद्ध अध्यात्म एवं नैतिक शक्ति की प्रतिष्ठा । निष्कर्षतः उनके साहित्य का मूल उद्देश्य यही है कि जन-जीवन को चरित्रनिष्ठा, पवित्रता, मानवता, सदभावना और जीवनकला का सक्रिय प्रशिक्षण मिले। साहित्यकार साहित्यकार किसी भी देश या समाज का अग्रेगावा होता है । वह समाज और देश को वैचारिक पृष्ठभूमि देता है, जिसके आधार पर नया दर्शन विकसित होता है । वह शब्द शिल्पी ही साहित्यकार कहलाने का गौरव प्राप्त करता है, जिसके शब्द मानवजाति के हृदय को स्पंदित करते रहते हैं। साहित्यकार के स्वरूप का विश्लेषण स्वयं आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में यों उतरता है- "साहित्यकार सत्ता के सिंहासन पर आसीन नहीं होता, फिर भी उसकी महत्ता किसी सम्राट या प्रशासक से कम नहीं होती। शासक के पास दंड होता है, कानून होता है, जबकि साहित्यकार के पास लेखनी होती है और होता है मौलिक चिंतन एवं पैनी दृष्टि । कहा जा सकता है कि साहित्यकार के शब्द समाज की विसंगतियों एवं विकृतियों के विरुद्ध वह क्रांति पैदा कर सकते हैं, जो बड़े से बड़ा कुबेरपति या सत्ताधीश भी नहीं कर सकता। विनोबाभावे साहित्यकार को देर्वा केष रूप में स्वीकार करते हैं, जिसके Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण दिल में समष्टिमात्र के प्रति प्रेम और मंगलभाव भरा हुआ होता है । पाश्चात्य विद्वान् साहित्यकार को सामान्य मनुष्य से कुछ भिन्न कोटि का प्राणी मानते हैं। वे सच्चे साहित्यकार में अलौकिक गुण स्वीकार करते हैं, जिससे वह स्वयं को विस्मृत कर मस्तिष्क में बुने गये ताने-बाने को कागज पर अंकित कर देता है। युगीन चेतना की जितनी गहरी एवं व्यापक अनुभूति साहित्यकार को होती है, उतनी अन्य किसी को नहीं होती। अतः अनुभूति एवं संवेदना साहित्यकार की तीसरी आंख होती है। इसके अभाव में कोई भी व्यक्ति साहित्य-सृजन में प्रवृत्त नहीं हो सकता क्योंकि केवल कल्पना के बल पर की गयी रचना सत्य से दूर होने के कारण पाठक पर उतना प्रभाव नहीं डाल सकती। प्रेमचंद भी अपनी इसी अनुभूति को साहित्यकारों तक संप्रेषित करते हुए कहते हैं- "जो कुछ लिखो, एकचित्त होकर लिखो। वही लिखो, जो तुम सोचते हो । वही कहो, जो तुम्हारे मन को लगता है । अपने हृदय के सामंजस्य को अपनी रचना में दर्शाओ, तभी प्राणवान् साहित्य लिखा जा सकता है ?' आर्याप्रसाद त्रिपाठी इस बात को निम्न शब्दों में प्रकट करते हैं- साहित्यकार अपने समय और समाज का प्रतिनिधि होता है । उसका यह दायित्व है कि समाज और देश की नाड़ी को परखे, उसकी धड़कन को समझे और फिर सृजन करे । सृजन की वेदना को स्वयं झेले पर समाज को मुस्कान के फूल अर्पित करे । विद्वानों द्वारा दी गई साहित्यकार की कुछ कसौटियां निम्न बिंदुओं में व्यक्त की जा सकती हैं साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं है। बल्कि उनसे भी आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है। प्रेमचंद सच्चे साहित्यकार का यही लक्षण है कि उसके भावों में व्यापकता होती है। वह विश्वात्मा से ऐसी हारमनी प्राप्त कर लेता है कि उसके भाव प्रत्येक प्राणी को अपने ही भाव मालम देने लगते हैं इसलिए साहित्यकार स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक होता है।.. दुनिया के दुःख दर्द से आंख मूंदने वाला महान् साहित्यकार नहीं हो सकता। हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्यकार की सबसे बड़ी कसौटी है कि वह अपने प्रति सच्चा रहे । जो अपने प्रति सच्चा रहकर साहित्य सृजन करता है, उसका साहित्य स्वतः १. साहित्य का उद्देश्य, पृ० १४२ २. कबीर साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ही लोकमंगल की भावना से संलग्न हो जाता है । जैनेन्द्र जो अपने पथ की सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बाधाओं को चुनौती देता हुआ सभी आघातों को हृदय पर झेलता हुआ लक्ष्य तक पहुंचता है, उसी को युगस्रष्टा साहित्यकार कह सकते हैं । महादेवी वर्मा "लेखकों की मसि शहीदों की रक्त बिन्दुओं से अधिक पवित्र है"हजरत मुहम्मद की ये पंक्तियां ऐसे ही प्रेरक एवं सजीव साहित्यकारों के लिए लिखी गयी हैं। डॉ० प्रभुदयाल डी० वैश्य ने समाज की दृष्टि से साहित्यकार को तीन वर्गों में बांटा है-१. प्रतिक्रियावादी २. सुधारवादी ३. क्रान्तिकारी। प्रथम वर्ग का साहित्यकार समाज की सम्पूर्ण मान्यताओं एवं व्यवस्थाओं को ज्यों की त्यों स्वीकार कर लेता है। सामाजिक त्रुटि को देख कर भी उसकी उपेक्षा करना हितकर समझता है। दूसरे वर्ग के अंतर्गत वे साहित्यकार आते हैं जो सामाजिक त्रुटियों को देखते अनुभव करते हैं पर उन्हें विनष्ट न करके सुधार का प्रयत्न करते हैं। सुधार में उनकी समझौतावादी वृत्ति होती है। तीसरे वर्ग के अन्तर्गत वे साहित्यकार हैं जो कांतद्रष्टा तथा परिवर्तनवादी हैं। वे न केवल सामाजिक विषमताओं एवं त्रुटियों की तीव्र आलोचना करते हैं, अपितु उन्हें मिटाने का भी भरसक प्रयत्न करते हैं। ऐसे व्यक्तियों का सदा समाज द्वारा विरोध होता है। आचार्य तुलसी को तीसरी कोटि के साहित्यकारों में परिगणित किया जा सकता है। उन्होंने अपनी लेखनी से समाज में फैले विघटन, टूटन, अनास्था एवं अविश्वास के स्थान पर नया संगठन, एकता, आस्था और आत्मविश्वास भरने का प्रयत्न किया है। समाज की विकृतियों एवं परम्परा पोषित अंधरूढ़ियों को केवल दर्शाया ही नहीं, उसे मांजकर, निखारकर परिष्कृत एवं व्यवस्थित रूप देने का सार्थक प्रयत्न किया है। इस क्रांतिकारी परिवर्तन के पुरोधा होने से उन्हें स्वत: युगप्रवर्तक का खिताब मिल जाता है। उन्होंने सामाजिक जीवन के उस पक्ष को प्रकट करने की कोशिश की है, जो नहीं है पर जिसे होना चाहिए । वे इस बात को मानकर चलते हैं कि साहित्यकार मात्र छायाकार या अनुकृतिकार नहीं होता है वरन् स्रष्टा होता है । स्रष्टा होने के कारण अनेक संघर्षों को झेलना भी उसकी नियति होती है। उनकी निम्न पंक्तियां इसी सचाई को उजागर करने वाली हैं-- १. साहित्य : समाज शास्त्रीय संदर्भ, पृ० १४५-१४६ hchcho Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण " साहित्य-सृजन का मार्ग सरल नहीं, कांटों का मार्ग है । आलोचना और निन्दा की परवाह न करते हुए साहित्यकार को जीवन शुद्धि के राजमार्ग पर जनता को ले जाना होता है, स्वार्थपरता, भोगलिप्सा और आडम्बर के विषैले वातावरण से आकुल लोक-जीवन में निःस्वार्थता, त्याग और सादगी का मृत ढालना होता है, तभी उसका कर्तृत्व, साधना और सृजन सफल है ।" आ० तुलसी की लेखनी यथार्थ का पुनसृजन करती हैं अतः वे क्रांतद्रष्टा साहित्यकार तो हैं ही पर अध्यात्म-योगी एवं अप्रतिबद्ध बिहारी होने के कारण साहित्यकार से पूर्व अध्यात्म के साधक भी हैं । इसी कारण उनके साहित्य को बहुत व्यापक परिवेश मिल गया है । आचार्य तुलसी जैसे साहित्यकार आज कम हैं जिनके साहित्य से भी अधिक भव्य, विशाल, आकर्षक एवं तेजस्वी उनका वास्तविक रूप है तथा जो केवल अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में ही सारी चर्चाएं करते हैं और अध्यात्म को मध्यबिंदु रखकर ही सारा ताना-बाना बुनते हैं । जीवन के प्रति प्रबल आत्मविश्वास, सत्य के प्रति अटूट आस्था और निरन्तर अध्यात्म में रहने का अभ्यासजीवन की ये विशेषताएं उनके साहित्य में जुड़ने के कारण वे पठनीय एवं सक्षम साहित्यकार बन गए हैं। प्रसिद्ध उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली का मंतव्य है कि पठनीयता के लिए लेखक की सरलता, सहजता एवं ऋजुता एक अनिवार्य गुण है । यदि लेखक के मन में ग्रंथियां नहीं हैं, कहीं दुराव- छिपाव नहीं है, कहीं अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं है, तो निश्चित रूप से वह लेखक सहज और ऋजु होता है । पाठक उसकी योग्यता तथा ईमानदारी पर विश्वास करता है, शंका बीच में रह नहीं पाती अतः वह उसे पढ़ता चला जाता है ।' आचार्य तुलसी सहजता और ऋजुता के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं । साहित्य सृजन उनके लिए न जीविकोपार्जन का साधन है न व्यसन बल्कि वह उसे अपनी साधना का ही एक अंग मानते हैं । इसी कारण उनका साहित्य सहजता एवं ऋजुता से पूरी तरह ओतप्रोत है । अ० वैसे ही तेरापंथ धर्मसंघ वे स्वयं न केवल सफल साहित्य स्रष्टा हैं बल्कि उन्होंने अनेकों को इस मार्ग में प्रस्थित करके प्रेरक एवं प्रभावी साहित्यकारों की एक पूरी श्रृंखला खड़ी की है । जैसे पाश्चात्य जगत् में होमर साहित्य के आदिस्रष्टा माने जाते हैं। में आचार्य तुलसी को हिन्दी साहित्य सृजन का आदि है । उनकी प्रेरणा ने साहित्य की जो अविरल धार बहाई है, समाज के लिए आश्चर्य एवं प्रेरणा की वस्तु हो सकती है। साल पहले उठने वाला प्रश्न कि 'क्या पढ़ें' अब 'क्या-क्या पढ़ें' प्रेरक कहा जा सकता वह किसी भी आज से ४० में रूपायित हो १. प्रेमचंद पृ. ३९ - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन गया है। वे अपनी साहित्य सृजन की अनुभूति को इस भाषा में प्रकट करते हैं"साहित्य सृजन की प्रेरणा देने में मुझे जितना आत्मतोष होता है, उतना ही आत्मतोष नया सृजन करते समय होता है ।" अपने शिष्य समुदाय को साहित्य के क्षेत्र में नयी परम्परा स्थापित करने की प्रेरणा-मंदाकिनी उनके मुखारविंद से समय-समय पर प्रवाहित होती रहती है-"आज समाज की चेतना को झकझोरने वाला साहित्य नहीं के बराबर है। इस अभाव को भरा हुआ देखने के लिए अथवा साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जो शुचितापूर्ण परम्पराएं चली आ रही हैं, उनमें उन्मेषों के नए स्वस्तिक उकेरे हुए देखने के लिए मैं बेचैन हूं। मेरे धर्मसंघ के सुधी साधु-साध्वियां इस दृष्टि से सचेतन प्रयास करें और कुछ नई संभावनाओं को जन्म दें, यह अपेक्षा है।" इसी संदर्भ में उनकी दूसरी प्रेरणा भी मननीय है - "साहित्य वही तो है जो यथार्थ को अभिव्यक्ति दे। वह कृत्रिम बनकर अभिव्यक्त हो तो उसमें मौलिकता सुरक्षित नहीं रहती । मैं अपने शिष्यों से यह अपेक्षा रखता हूं कि वे इस गुरुतर दायित्व को जिम्मेवारी से निभायेंगे।" आचार्य तुलसी एक बृहद् धार्मिक समुदाय के आध्यात्मिक नेता हैं । उनके वटवृक्षीय व्यक्तित्व के निर्देशन में अनेकों प्रवृत्तियां चालू हैं अतः वे साहित्य सृजन में अधिक समय नहीं निकाल पाते किन्तु उनके मुख से जो भी वाक्य निःसृत होता है, वह अमूल्य पाथेय बन जाता है। आचार्य तुलसी के साहित्यिक व्यक्तित्व का आकलन उनके साहित्य की कुशल संपादिका महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी इन शब्दों में करती हैं.-"उनका कवित्व हर क्षण जागृत रहता है, फिर भी वे काव्य का सजन कभी-कभी करते हैं। उनका लेखन हर क्षण जागरूक रहता है, किन्तु कलम की नोक से कागज पर अंकन यदा कदा ही हो पाता है। इसका कारण कि वे कवि और लेखक होने के साथ-साथ प्रशासक भी हैं, आचार्य भी हैं।" फिर भी उन्होंने सरस्वती के अक्षय भंडार को शताधिक ग्रंथों से सुशोभित किया है। प्रसिद्ध साहित्यकार सोल्जे नोत्सिन साहित्यकार के दायित्व का उल्लेख करते हुए कहते हैं-मानव-मन, आत्मा की आंतरिक आवाज, जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष, आध्यात्मिक पहलुओं की व्याख्या, नश्वर संसार में मानवता का बोलबाला जैसे अनादि सार्वभौम प्रश्नों से जुड़ा है साहित्यकार का दायित्व । यह दायित्व अनन्त काल से है और जब तक सूर्य का प्रकाश और मानव का अस्तित्व रहेगा, साहित्यकार का दायित्व भी इन प्रश्नों से जुड़ा रहेगा।' ___ आचार्य तुलसी के साहित्यिक दायित्व का मूल्यांकन भी इन कसौटियों पर किया जाए तो उपर्युक्त सभी प्रश्नों के उत्तर हमें प्राप्त हो जाते १. जैन भारती, १७ सित० १९६१ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण हैं । आंतरिक आवाज वही प्रकट कर सकता है जो दृढ़ मनोबली और आत्मविजेता हो । उनकी निम्न अनुभूति हजारों-हजारों के लिए प्रेरणा का कार्य करेगी-“मेरे संयमी जीवन का सर्वाधिक सहयोगी और प्रेरक साथी कोई रहा है तो वह है-संघर्ष । मेरा विश्वास है कि मेरे जीवन में इतने संघर्ष न आते तो शायद मैं इतना मजबूत नहीं बन पाता। संघर्ष से मैंने बहुत कुछ सीखा है, पाया है। संघर्ष मेरे लिए अभिशाप नहीं, वरदान साबित हुए हैं।' इसो प्रसंग में उनका एक दूसरा वक्तव्य भी हृदय में आध्यात्मिक जोश भरने वाला है -"मैं कहूंगा कि मैं राम नहीं, कृष्ण नहीं, बुद्ध नहीं, महावीर नहीं, मिट्टी के दीए की भांति छोटा दीया हूं। मैं जलूंगा और अंधकार को मिटाने का प्रयास करूंगा।" आचार्य तुलसी ने भौतिक वातावरण में अध्यात्म की लौ जलाकर उसे तेजस्वी बनाने का भगीरथ प्रयत्न किया है। उनकी दृष्टि में अपने लिए अपने द्वारा अपना नियन्त्रण अध्यात्म है। वे अध्यात्म साधना को परलोक से न जोड़कर वर्तमान जीवन से जोड़ने की बात कहते हैं। अध्यात्म का फलित उनके शब्दों में यों उद्गीर्ण है-अध्यात्म केवल मुक्ति का पथ ही नहीं, वह शांति का मार्ग है, जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और रूपांतरण की सजीव प्रक्रिया है। कहा जा सकता है कि आचार्य तुलसी ऐसे सृजनधर्मा साहित्यकार हैं जिन्होंने प्राचीन मूल्यों को नए परिधान में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने साहित्य सृजन के लिए लेखनी उस काल में उठायी जब मानवीय मूल्यों का विघटन एवं बिखराव हो रहा था। भारतीय समाज पर पश्चिमी मूल्य हावी हो रहे थे। उस समय में प्रतिनिधि भारतीय सन्त लेखक के दायित्व का निर्वाह करके उन्होंने भारतीय संस्कृति के मूल्यों को जीवित रखने एवं स्थापित करने का प्रयत्न किया है । वे केवल अपने अनुयायियों को ही नहीं, सम्पूर्ण साहित्य जगत् को भी समय-समय पर सम्बोधित करते रहते हैं । आज के साहित्यकारों की त्रुटिपूर्ण मनोवृत्ति पर अंगुलि-निर्देश करते हुए वे कहते हैं- "आज के लेखक की आस्था शृंगार रस प्रधान साहित्य के सृजन में है क्योंकि उसकी दृष्टि में सौन्दर्य ही साहित्य का प्रधान अंग है । लेकिन मैं मानता हूं कि सौन्दर्य से भी पहले सत्य की सुरक्षा होनी चाहिये । सत्य के बिना सौन्दर्य का मूल्य नहीं हो सकता। प्रेमचंद्र ने सत्य को साहित्य के अनिवार्य अंग के रूप में ग्रहण किया १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७३० २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७१२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन है। उनकी दृष्टि में यदि लेखक में सत्यजन्य पीड़ा नहीं है तो वह सत्साहित्य की रचना नहीं कर सकता। आचार्य तुलसी ने भी साहित्य की गुरुता का अंकन करते हुये अपने साहित्य में सत्य और सौन्दर्य का सामंजस्य स्थापित किया है। उनकी यह प्रेरणा एवं साहित्यिक आदर्श साहित्यकारों की चेतना को झंकृत कर उन्हें युगनिर्माण की दिशा में प्रेरित करते रहेंगे। साहित्य का वैशिष्ट्य राष्ट्र, समाज तथा मनुष्य को प्रभावित करने वाले किसी भी दर्शन और विज्ञान की प्रस्तुति का आधार तत्त्व है- साहित्य । सत्साहित्य में तोप, टैक और एटम से भी कई गुना अधिक ताकत होती है । अणुअस्त्र की शक्ति का उपयोग निर्माणात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों रूपों में हो सकता है, पर अनुभवी साहित्यकार की रचना मानव-मूल्यों में आस्था पैदा करके स्वस्थ समाज की संरचना करती है । साहित्य द्वारा समाज में जो परिवर्तन होता है। वह सत्ता या कानून से होने वाले परिवर्तन से अधिक स्थायी होता है। अतः दुनिया को बदलने में सत्साहित्य की निर्णायक भूमिका रही है। हजारीप्रसाद द्विवेदी तो यहां तक कह देते हैं कि साहित्य वह जादू की छड़ी है, जो पशुओं में, ईंट-पत्थरों में और पेड़-पौधों में भी विश्व की आत्मा का दर्शन करा देती है।" सत्साहित्य की महत्ता को लोकमान्य गंगाधर तिलक की इस मात्मानुभूति में पढ़ा जा सकता है-“यदि कोई मुझे सम्राट बनने के लिए कहे और साथ ही यह शर्त रखे कि तुम पुस्तकें नहीं पढ़ सकोगे तो मैं राज्य को तिलाञ्जलि दे दूंगा और गरीब रहकर भी साहित्य पढूंगा।" यह पुस्तकीय सत्य नहीं, किन्तु अनुभूति का सत्य है । अतः साहित्य के महत्त्व को वही मांक सकता है, जो उसका पारायण करता है। फिर वह साहित्य पढ़े बिना वैसी ही दुर्बलता एवं मानसिक कमजोरी की अनुभूति करता है, जैसे बिना भोजन किए हमारा शरीर । साहित्य ही वह माध्यम है, जो हमारी संस्कृति की सुरक्षा कर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी संक्रांत करता है । महावीर, बुद्ध, व्यास और वाल्मीकि ने साहित्य के माध्यम से जिन आदर्शों की सृष्टि की, वे आज भी भारतीय संस्कृति के गौरव को अभिव्यक्त करने में पर्याप्त हैं। जहां साहित्य नहीं, वहां जीवन सरस एवं रम्य नहीं हो सकता। जीवन में जो भी आनन्दबोध, सौंदर्यबोध और सुखबोध है, उसकी अनुभूति साहित्य द्वारा ही संभव है। साहित्य द्वारा प्राप्त आनंद की अनुभूति द्विवेदीजी के साहित्यिक शब्दों में पढ़ी जा सकती है-"साहित्य वस्तुतः एक ऐसा आनंद है जो अंतर में अंटाए नहीं अंट सकता । परिपक्व दाडिम फल की भांति वह अपने रंग और रस को Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अपने भीतर बंद नहीं रख पाता । मानव का अंतर भी जब रस और आनंद से आप्लावित हो जाता है तो वह गा उठता है, काव्य करने बैठता है, प्रवचन देता है तथा तथ्यात्मक जगत् से सामग्री एकत्रित करके छंदों में, स्वरों में, अनुच्छेदों में, परिच्छेदों में, सर्गों में, अंकों में अपना उच्छलित आनंद भर देता है और श्रोता तथा पाठक को भी उस आनन्द में सराबोर कर देता है।" हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा अनुभूत यह आनंद आचार्य तुलसी के साहित्य में पदे-पदे पाया जाता है। उनका काव्य साहित्य तो मानो आनंद का सागर ही है जिसमें निमज्जन करते-करते पाठक अलौकिक अनुभूति से अनुप्रीणित हो जाता है। आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में ऐसे चिरन्तन सत्यों को उकेरा है, जिसके समक्ष देश और काल का आवरण किसी भी प्रकार का व्यवधान उपस्थित करने में अक्षम और असफल रहा है। उन्होंने मानव-मन और बाह्य जीवन में बिखरे संघर्षों का चित्रण इतनी कुशलता से किया है कि वह साहित्य सार्वजनिक एवं सार्वकालिक बन गया है। विजयेन्द्र स्नातक उनके साहित्य के बारे में अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए करते हैं-'मैं निःसंकोच भाव से कह सकता हूं कि आचार्य श्री की वाणी सदैव किसी महत्त्वपूर्ण अर्थ का अनुगमन करती है।' उनका साहित्य इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं कि वह विपुल परिमाण में है बल्कि इसलिए उसका महत्त्व है कि मनुष्य को सच्चरित्र बनाने का बहुत बड़ा लक्ष्य उसके साथ जुड़ा हुआ है । वे ऐसे सृजनधर्मा साहित्य स्रष्टा हैं, जिनके अंतःकरण में करुणा का स्रोत कभी सूखता नहीं। समाज को बदलकर उसे नए सांचे में ढालने की प्रेरणा उनके सांससांस में रमी हुई है। समाज की विसंगतियों की इतनी सशक्त अभिव्यक्ति शायद ही किसी दूसरे लेखक ने की हो । वे इस बात में आस्था रखते हैं कि यदि समाज की बुराइयों और विकृत परम्पराओं में परिवर्तन नहीं आता है तो उसमें साहित्यकार भी कम जिम्मेवार नहीं है। आचार्य तुलसी ने केवल उन्हीं तथ्यों या समस्याओं को प्रस्तुति नहीं दी है, जिसे समाज पहले ही स्वीकृति दे चुका हो। उन्होंने अनेक विषयों में समाज को नया चिंतन एवं दिशादर्शन दिया है अतः बार-बार पढ़ने पर भी उनका साहित्य नवीन एवं मौलिक प्रतीत होता है । कहीं-कहीं तो समाज की विकृतियों को देखकर वे अपनी पीड़ा को इस भांति व्यक्त करते हैं कि पाठक उसे अपनी पीड़ा मानने को विवश हो जाता हैमैं बहुत बार देखता हूं कि मुझे थोड़ा-सा जुखाम हो जाता है, ज्वर हो जाता है, श्वास भारी हो जाता है, पूरे समाज में चिंता की लहर दौड़ १. एक बूंद : एक सागर, भा० १, भूमिका पृ० १८ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १७ 1 जाती है । मेरी थोड़ी सी वेदना से पूरा समाज प्रभावित होता है। किंतु मेरे मन में कितनी पीड़ाएं है क्या इसकी किसी को चिन्ता है ? "" वे उसी साहित्य के वैशिष्ट्य को स्वीकारते हैं जो साम्प्रदायिकता, पक्षपात एवं अश्लीलता आदि दोषों से विहीन हो । यही कारण है कि सम्प्रदाय के घेरे में रहने पर भी उनका चिंतन कहीं भी साम्प्रदायिक नहीं हो पाया है । लोग जब उन्हें एक सम्प्रदाय के कटघरे में बांधकर केवल तेरापंथ के आचार्य के रूप में देखते हैं तो उनकी पीड़ा अनेक बार इन शब्दों में उभरती है — "लोग जब मुझे संकीर्ण साम्प्रदायिक नजरिए से देखते हैं तो मेरी अंतर आत्मा अत्यंत व्यथित होती है । उस समय मैं आत्मालोचन में खो जाता हूंअवश्य मेरी साधना में कहीं कोई कमी है, तभी तो मैं लोगों के दिलों में विश्वास पैदा नहीं कर सका।" उनकी लेखनी एवं वाणी धर्म और संस्कृति के सही स्वरूप को प्रकट करने के लिए चली है । उनके सार्थक शब्द मृतप्रायः नैतिकता को पुनरुज्जीवित करने के लिए निकले हैं। उनका साहित्य समाज में समरसता, समन्वय और एकता लाने के लिए जूझता है । सस्ती लोकप्रियता, मनोरंजन एवं व्यवसायबुद्धि से हटकर उन्होंने वह आदर्श साहित्य-संसार को दिया है, जो कभी धूमिल नहीं हो सकता । उनके साहित्य में प्रौढ़ता एवं गहनता का कारण है-गंभीर ग्रंथों का स्वाध्याय । वे स्वयं अपनी अनुभूति बताते हुए कहते हैं- " मेरा अपना अनुभव यह है कि जिसको एक बार गंभीर विषयों के आनंद का स्वाद आ जाए वह छिछले, विलासी एवं भावुकतापूर्ण साहित्य में कभी अवगाहित नहीं हो सकता ।" कल की दृष्टि से उनके साहित्य का वैशिष्ट्य है - त्रैकालिकता । युग समस्या को उपेक्षित करने वाला, उसकी मांग न समझने वाला साहित्य अनुपादेय होता है । केवल वर्तमान को सम्मुख रखकर रचा जाने वाला साहित्य युग - साहित्य होने पर भी अपना शाश्वत मूल्य खो देता है । वह जितने वेग से प्रसिद्धि पाता है उतने ही वेग से मूल्यहीन हो जाता है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने साहित्य में युगसत्य और चिरन्तन सत्य का समन्वय करके अतीत के प्रति तीव्र अनुराग, वर्तमान के उत्थान की प्रबल भावना, भविष्य के प्रतिबिम्ब तथा उसको सफल बनाने हेतु करणीय कार्यों की सूची प्रस्तुत की है । जैसे इक्कीसवीं सदी का जीवन (बैसाखियां पृ० १५) इक्कीसवीं सदी के निर्माण में युवकों की भूमिका ( सफर १६१) आदि १. आह्वान पृ० सं० २२ २. एक बूंद : एक सागर पृ० १७३० Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण लेख भावी जीवन की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि ५० साल पूर्व का साहित्य भी उतना ही प्रासंगिक एवं मननीय है जितना वर्तमान का। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि आचार्य तुलसी ने विनाश के स्थान पर निर्माण, विषमता के स्थान पर समता, अव्यवस्था के स्थान पर व्यवस्था, अनक्य के स्थान पर ऐक्य, घृणा के स्थान पर प्रेम तथा भौतिकता के स्थान पर अध्यात्म के पुनरुत्थान की चर्चा की है। अत: उनके साहित्य को हर युग के लिए प्रेरणापुंज कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। साहित्य के भेद काल की दृष्टि से साहित्य के दो भेद किए जा सकते हैं-सामयिक और शाश्वत । सामयिक साहित्य में वार्तमानिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा धार्मिक आदि अनेक युगीन समस्याओं का चिन्तन होता है पर शाश्वत साहित्य में जीवन की मूल वृत्तियों तथा शाश्वत मूल्यों का विवेचन होता है, जो कालिक होते हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने विषय की दृष्टि से साहित्य के तीन भेद किये हैं' : १. सूचनात्मक साहित्य २. विवेचनात्मक साहित्य ३. रचनात्मक साहित्य । १. कुछ पुस्तकें हमारी जानकारी बढ़ाती हैं । उनको पढ़ने से हमें अनेक नई सूचनाए मिलती हैं। लेकिन ऐसे साहित्य से व्यक्ति की बौद्धिक चेतना उत्तेजित नहीं होती। २. विवेचनात्मक साहित्य हमारी जानकारी बढ़ाने के साथ-साथ बोधन शक्ति को भी जागरूक एवं सचेष्ट बनाये रखता है। जैसे दर्शन, विज्ञान आदि । ३. रचनात्मक साहित्य की पुस्तकें हमें सुख-दुःख, व्यक्तिगत स्वार्थ एवं संघर्ष से ऊपर ले जाती हैं । यह साहित्य पाठक की दृष्टि को इस तरह कोमल एवं संवेदनशील बनाता है कि व्यक्ति अपने क्षुद्र स्वार्थ एवं व्यक्तिगत सुख-दुःख को भूल कर प्राणिमात्र के प्रति तादात्म्य स्थापित कर लेता है तथा सारी दुनिया के साथ आत्मीयता का अनुभव करने लगता है। इस साहित्य को ब्रह्मानन्द सहोदर की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि यह साहित्य हमारे अनुभव के ताने-बाने से एक नये रसलोक की रचना करता है। इसे ही मौलिक साहित्य की कोटि में रखा जा सकता है। आचार्य तुलसी का अधिकांश साहित्य रचनात्मक साहित्य में परिगणित किया जा सकता है। क्योंकि उनकी सत्यचेतना परिपक्व एवं संस्कृत है। उन्होंने जो कुछ कहा या लिखा है वह सांसारिक क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर १. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-७ पृ० १६३-६४ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन होकर लिखा है अत: उनका साहित्य निर्मलता एवं प्रेरणा का स्रोत बहाता है । उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा की है साथ ही प्रगतिशील विचारों का समावेश भी किया है । साहित्यिक विधाएं साहित्यकार के मन में जो भाव या संवेग उत्पन्न होते हैं, उनकी afroofक्त नाना विधाओं में होती है । जैसे भीतर के हर्ष को विविध अवसरों पर कभी गाकर, कभी गुनगुनाकर तथा कभी अश्रुमोचन द्वारा प्रकट किया जाता है वैसे ही भावों और मनःस्थितियों को व्यक्त करने के लिये साहित्य की विविध विधाओं का आविष्कार तथा प्रयोग किया जाता है । हिन्दी साहित्य में मुख्यतः निम्न विधाएं प्रसिद्ध हैं - ( १ ) निबन्ध (२) रेखाचित्र ( ३ ) संस्मरण (४) रिपोर्ताज (५) डायरी (६) साक्षात्कार (भेंट वार्ता ) (७) गद्यकाव्य ( ८ ) जीवनी ( ९ ) आत्मकथा (१०) यात्रा-वृत्त (११) एकांकी ( १२ ) कहानी (१३) उपन्यास (१४) पत्र आदि । आचार्य तुलसी का साहित्य मुख्यत: निबंध, संस्मरण, डायरी, साक्षात्कार, गद्यकाव्य, जीवनी, कहानी, पत्र, आत्मकथा आदि विधाओं में मिलता है फिर भी उनके साहित्य में प्रवचन की गंगा, निबन्धों की यमुना और काव्य की सरस्वती - यह त्रिवेणी ही अधिक प्रवाहित हुई है । आचार्य तुलसी ने अपनी प्रत्येक साहित्यिक विधा में सत्य और शिव के साथ सौन्दर्य को समाहित करने का प्रयत्न किया है । उनका साहित्य श्रोता एवं पाठक को कुछ सोचने एवं करने को बाध्य करता है क्योंकि उनकी अभिव्यक्ति तीखी, धारदार एवं प्रभावी है । उनकी साहित्यक विधाओं में मानव के अन्तर्मन में होने वाली हलचल को अभिव्यक्ति मिली है, समाज की विद्रूपता को उद्घाटित करने का सार्थक प्रयास हुआ है, परिस्थिति एवं घटना को कथ्य का माध्यम बनाया गया है तथा प्राचीन के साथ युगीन मूल्यों की प्रस्तुति हुई है । यही कारण है कि उनका विशाल साहित्य त्रैकालिक होते हुये भी उपयोगी और सामयिक बन पड़ा है । यह साहित्य सामयिक समस्याओं को छिन्न-भिन्न करने, उनको तरासने तथा व्यक्ति-व्यक्ति में अनाकुल रहकर उनको सहन करने की क्षमता पैदा करता है । उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ साहित्यिक विधाओं का परिचय नीचे दिया जा रहा है निबंध १९ हिंदी गद्य साहित्य में निबंध का अपना एक विशिष्ट स्थान है । आधुनिक निबंध के जन्मदाता पाश्चात्य विद्वान् मौनतेन का मंतव्य है कि निबंध विचारों, उद्धरणों एवं कथाओं का मिश्रण है । बाबू गुलाबराय के शब्दों में " निबंध वह गद्यात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें एक सीमित आकार के भीतर Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन किसी विशेष निजीपन, सौष्ठव, सजीवता, रोचकता तथा अपेक्षित संगति एवं संबद्धता से किया जाता है।" इस विधा में प्रतिभा निर्दिष्ट रूप से विषय के साथ बंधकर अपने विचार एवं भाव प्रकट करती है अतः विशेष रूप से बंधी हुई गद्य रचना निबंध के रूप में जानी जाती है। परन्तु पाश्चात्य विद्वान् जानसन के विचार इससे भिन्न हैं। वे कहते हैं-"मुक्त मन की मौज, अनियमित, अपक्व और अव्यवस्थित रचना निबंध है । इसी प्रकार केबल ने भी इसे सस्ती एवं हल्की रचना के रूप में स्वीकार किया है । किन्तु ये विचार सर्वमान्य नहीं हैं क्योंकि निबंध को गद्य की कसौटी माना गया है। प्रसिद्ध साहित्यकार विजयेन्द्र स्नातक का अनुभव है कि भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंध में ही सबसे अधिक संभव है।' आचार्यश्री तुलसी के लगभग सभी निबंधों के विचार सुसंबद्ध तथा प्रभावकता के साथ प्रस्तुत हुए हैं। निबंध में लेखक के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य उजागर होता है अतः उसमें आत्माभिव्यंजना आवश्यक है। जीवन की अवहेलना का दूसरा नाम निबंधकार की मृत्यु है। आचार्य तुलसी के प्रायः सभी निबंध जीवन्त एवं प्रेरक हैं इसी कारण उनमें भावों को तरंगित कर व्यक्तित्वरूपान्तरण की क्षमता उत्पन्न हो गई है । उनके निबंध एक नई सोच के साथ प्रस्तुत है अत: आदमी के भीतर एक नया आदमी पैदा करने की उनमें क्षमता है। उनके निबंध मौलिक विचारों, नवीन निष्कर्षों एवं सूक्ष्म तार्किकता से संवलित हैं अतः वे पाठक के हृदय को गुदगुदाते हैं, आंदोलित करते हैं। अधिकांश निबंधों में सर्वेक्षण की सूक्ष्मता और विश्लेषण की गंभीरता के गुण समाविष्ट हैं। इन निबंधों में गंभीरता के साथ सरसना, प्राचीनता के साथ नवीनता एवं विज्ञान के साथ अध्यात्म का भी अद्भुत समावेश हुआ है। मानव मन की मनोवृत्तियाँ एवं सामाजिक बुराइयों का विश्लेषण बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से उनके निबंधों में उजागर है। आश्चर्य होता है कि वे अपने निबंधों में एक साथ मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री, धार्मिक नेता, अर्थशास्त्री और इनसे ऊपर साहित्यकार के रूप में समान रूप से प्रतिबिम्बित हो गए हैं। इन सबसे ऊपर उनके निबंधों का यह वैशिष्ट्य है कि प्राय: निबंधों का प्रारम्भ इतनी रोचक शैली में है कि उसे पढ़ने वालों की उत्सुकता बढ़ती जाती है और पाठक उसे पूरा पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। वे पाठकों से उदासीन नहीं हैं। अपने दिल की बात पाठक के दिल तक पहुंचकर करते हैं १. समीक्षात्मक निबंध पृ० ३२ २. आधुनिक निबंध पृ० ३ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २१ अतः पाठक के साथ उनका सीधा तादात्म्य स्थापित हो जाता है । सादगी, संयम एवं त्याग से मंडित उनका व्यक्तित्व इन निबंधों में सर्वत्र उपस्थित है, अतः ये उच्च कोटि के निबंध कहे जा सकते हैं । डा० जानसन या क्रेबल के सामने यदि ये निबंध रहते तो संभव है उन्हें निबंध के बारे में अपनी परिभाषा बदलनी पड़ती । उनके निबंधों की आलोचना इस रूप में की जा सकती है कि उनमें पुनरुक्ति बहुत हुई है पर ऐसा होना अनिवार्य था क्योंकि किसी भी धर्मनेता को समाज में परिवर्तन लाने के लिए बार बार अपनी बात को कहना पड़ता है और तब तक कहना होता है जब तक कि पत्थर पर लकीर न खिच जाए, पानी बर्फ के रूप में न जम जाए या यों कहें कि व्यक्ति या समाज बदलने की भूमिका तक न पहुंच जाए । निबंध की विकास-यात्रा निबंध की विकास-यात्रा को विद्वानों ने चार युगों में बांटा है -- (१) भारतेन्दु युग (२) द्विवेदी युग (३) प्रसाद युग ( ४ ) प्रगतिवादी युग । कुछ विद्वान् अंतिम दो को क्रमशः शुक्ल युग एवं शुक्लोत्तर युग के नाम से भी अभिहित करते हैं । भारतेन्दु युग भारतीय समाज के जागरण का काल है । उन्होंने अपने निबंधों में धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं को उजागर किया है । महावीरप्रसाद द्विवेदी के निबंध विचार प्रधान हैं । साथ ही उन्होंने निबंध में भाषा-संस्कार पर भी अपेक्षित ध्यान दिया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध नए विचार, नयी अनुभूति एवं नवीन शैली के साथ पाठकों के समक्ष उपस्थित हुए हैं अतः उनके युग में विचारप्रधान, समीक्षात्मक एवं भावात्मक निबंधों का चरम विकास हुआ । शुक्लोत्तर युग में हजारीप्रसाद द्विवेदी, जैनेन्द्रकुमार, डा० नगेन्द्र, अमृतराय नागर, महादेवी वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । आचार्य तुलसी के निबंध विचारों की दृष्टि से इन विद्वानों की तुलना में कहीं कम नहीं उतरते हैं । मेरे अपने विचार से तो निबंध का अगला अर्थात् पांचवां युग आचार्य तुलसी का कहा जा सकता है, जिन्होंने साहित्य में व्यक्तित्व रूपान्तरण की चर्चा करके भारतीय संस्कृति को पुनरुज्जीवित करने का प्रयत्न किया है । तथा बेहिचक आज की दिशाहीन राजनीति, धर्मनीति, एवं समाजनीति की दुर्बलताओं की ओर इंगित करते हुए उन्हें परिष्कार के लिए नया दिशादर्शन दिया है । आचार्यश्री के निबंध में रूक्षता एवं शुष्कता के स्थान पर रोचकता एवं सहृदयता का गुम्फन प्रभावी है । निबंध के भेद यद्यपि विषय की दृष्टि से विद्वानों ने निबंध के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सामाजिक आदि अनेक भेद किए हैं पर शैली की दृष्टि से उसके मुख्यतः चार भेद हैं : १. भावात्मक २. विचारात्मक ३. वर्णनात्मक या विवरणात्मक ४. आख्यानात्मक या कथात्मक भावनात्मक निबन्ध इसमें लेखक का हृदय बोलता है । इन निबंधों में निजी अनुभूति की गहनता एवं सघनता इस रूप में अभिव्यक्त होती है कि कोई भी विचार लेखक की भावना के रंग में रंगकर बाहर निकलता है । इनमें तर्क-वितर्क को उतना महत्व नहीं होता जितना भावों के आवेग को दिया जाता है। आचार्य तुलसी की अनेक रचनाओं को इस कोटि में रखा जा सकता है। 'अमृत संदेश', 'दोनों हाथ : एक साथ', 'सफर आधी शताब्दी का' 'मनहंसा मोती चुगे', 'जब जागे तभी सवेरा' आदि पुस्तकों के निबंधों को इस कोटि में रखा जा सकता है। विचारात्मक निबंध ___ इन निबंधों में किसी सामाजिक, राजनैतिक या धार्मिक समस्या का अथवा किसी नवीन तथ्य का प्रतिपादन या विश्लेषण होता है। ये निबंध बौद्धिकता प्रधान होते हैं। इनमें तर्क, चिन्तन, दर्शन आदि का भी यथास्थल समावेश होता है पर विषय गांभीर्य बना रहता है । इन निबंधों में भाषा कसी रहती है। 'क्या धर्म बुद्धिगम्य है' ? 'कुहासे में उगता सूरज, 'बैसाखियां विश्वास की' आदि पुस्तकों के निबंधों/प्रवचनों को इस कोटि में रखा जा सकता है। विचारात्मक निबंधों में विचार भाव के आगे आगे चलता है पर भावात्मक निबंध में भाव विचार के आगे चलता है । अतः इन दोनों को ज्यादा भिन्न नहीं किया जा सकता । क्योंकि साहित्य में भावशून्य विचार बौद्धिक व्यायाम है साथ ही विचारशून्य भाव प्रलापमात्र हैं। वर्णनात्मक या विवरणात्मक इनमें किसी स्थिर दृश्य या घटना का चित्रण होता है तथा विस्तार से किसी बात का स्पष्टीकरण होता है । कुछ विद्वान वर्णनात्मक एवं विवरणात्मक को भिन्न-भिन्न भी मानते हैं। आचार्य तुलसी के प्रवचन बहुलता से इसी कोटि में रखे जा सकते हैं। आख्यानात्मक या कथात्मक इस कोटि के निबंधों में कथा को माध्यम बनाकर विचाराभिव्यक्ति की Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन जाती है । 'बूंद-बूंद से घट भरे' 'मंजिल की ओर' तथा 'प्रवचन पाथेय' आदि पुस्तकों के प्रवचनों को इस कोटि में रखा जा सकता है। निबंधों में प्रयुक्त शैली निबंध व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। हर व्यक्ति की अपनी अलग शैली होती है । रामप्रसाद किचलू कहते हैं कि किसी निबंधकार की शैली सागर सी गंभीर, किसी की उच्छल तरंगों सी गतिशील एवं किसी की धुंआधार यौवन सी रंगीली एवं सलोनी सुरभि बिखेरकर सुबक-सुबक खो जाने वाली होती है।' निबंध में मुख्यतः पांच शैलियों का प्रयोग होता है१. समास २. व्यास ३. धारा ४. तरंग ५. विक्षेप । आचार्य तुलसी के निबंधों में स्फुट रूप से पांचों शैलियों के दर्शन होते हैं। कहीं वे समास शैली में अभिव्यक्ति देते हैं तो कहीं व्यास शैली में पर इन दोनों शैलियों में भी उनकी सारनाही प्रतिभा का दर्शन पाठक को प्रायः मिल जाता है । जहां भाव प्रधान निबंध हैं, वहां धारा, तरंग एवं विक्षेप शैली का निदर्शन भी उनके साहित्य में मिलता है। आचार्यश्री की शैली में वैयक्तिकता, भावनात्मकता, सरसता, सरलता, सहजता एवं रोचकता के गुण प्रभूत मात्रा में विद्यमान हैं। कहीं-कहीं व्यंग्य का पुट भी दर्शनीय है । कहा जा सकता है कि उनके व्यक्तित्व की सजीवता एवं जीवटता उनके निबन्धों में भी समाविष्ट हो गई है अतः उनकी शैली उनके व्यक्तित्व की छाप से अंकित है। यही कारण है दीप्ति, कांति, भव्यता एवं विशदता आदि गुण सर्वत्र दृग्गोचर होते हैं । निबंधों के शीर्षक शीर्षक किसी भी निबंध का आईना होता है, जिसमें से निबंध की विषय वस्तु को देखा जा सकता है । प्रायः शीर्षक पढ़कर ही पाठक के मन में निबंध लेख पढ़ने की लालसा उत्पन्न होती है अतः पाठक की उत्कंठा उत्पन्न करने में शीर्षक का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।। आचार्य तुलसी के निबंधों और लेखों के प्रायः शीर्षक इतने जीवन्त, आकर्षक और रोचक हैं कि शीर्षक पढ़ते ही उस निबंध को पूरा पढ़ लेने की सहज ही इच्छा होती है । जैसे-१. “एक मर्मान्तक पीड़ा : दहेज" २. "धार्मिक समस्याएं : एक अनुचिंतन" ३. “संतान का कोई लिंग नहीं होता" आदि । उनका साहित्य अनेक हाथों से संपादित होने के कारण उसमें शीर्षक, भाषा आदि दृष्टियों से वैविध्य होना बहुत स्वाभाविक है। कहीं कहीं एक ही लेख भिन्न भिन्न संपादकों द्वारा संपादित पुस्तक में भिन्न-भिन्न शीर्षक से आया है। १. आधुनिक निबंध पृ० ११ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जैसे 'प्रवचन डायरी' के अनेक प्रवचन 'नैतिक संजीवन' में शीर्षक परिवर्तन के साथ प्रस्तुत हैं । कहीं-कहीं एक ही शीर्षक भिन्न-भिन्न सामग्री के साथ भी आया है । जैसे "अहिंसा" तथा "अक्षय तृतीया,' आदि शीर्षक अनेक बार पुनरुक्त हुए हैं, पर सामग्री भिन्न है । कुछ शीर्षकों ने सहज ही सूक्ति वाक्यों का रूप भी धारण कर लिया है । जैसे : १. जो चोटों को नहीं सह सकता, वह प्रतिमा नहीं बन सकता । २. जहां विरोध है, वहां प्रगति है । ३. सतीप्रथा आत्महत्या है । ४. युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है । अनेक शीर्षक लोकोक्ति, कहावत एवं विशिष्ट घोषों के साथ जुड़े हुए भी हैं: १. सबहु सयाने एकमत २. पराधीन सपनेहुं सुख नाही ३. जितनी सादगी : उतना सुख ४. बीति ताहि विसारि दे ५ . निंदक नियरे राखिए । अनेक शीर्षक आगमसूक्त तथा विशिष्ट धर्मग्रंथों के प्रेरक वाक्यों से संबंधित हैं । जैसे :- १. णो हीणे णो अइरिते, २. तमसो मा ज्योतिर्गमय ३. पढमं णाणं तओ दया ४. जो एगं जाणई सो सव्वं जाणइ ॥ कुछ शीर्षक अपने भीतर रहस्य एवं कुतूहल को समेटे हुए हैं, जिनको पढ़ते ही मन कोतूहल और उत्सुकता से भर जाता है १. जो सब कुछ सह लेता है २. ऐसी प्यास, जो पानी से न बुझे ३. जब सत्य को झुठलाया जाता है, ४. जहां उत्तराधिकार लिया नहीं, दिया जाता है । अनेक शीर्षक साहित्यिक एवं बौद्धिक हैं । साथ ही आनुप्रासिक एवं पमिक छटा से संपृक्त हैं : १. समस्या के बीज : हिंसा की मिट्टी २. निज पर शासन : फिर अनुशासन ३. संसद खड़ी है जनता के सामने ४. पूजा पाठ कितना सार्थक : कितना निरर्थक | कुछ प्रवचनों के शीर्षक वर्ग विशेष को संबोधित जैसे -- १. महिलाओं से, २. व्यापारियों से, (युवकों से ) शांतिवादी राष्ट्रों से, ४. विद्यार्थियों से । अनेक शीर्षक औपदेशिक हैं, जो वर्ग विशेष को उद्बोधन देते हुए प्रतीत होते हैं :: :-- १. युवापीढ़ी स्वस्थ परम्पराएं कायम करे २. महिलाएं स्वयं जागें करते हुए भी हैं ३. कार्यकर्त्ताओं से, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ३. न स्वयं व्यथित बनो, न दूसरों को व्यथित करो। कई शीर्षक प्रश्नवाचक हैं, जो पाठक को सोच की गहराई में उतरने को विवश कर देते हैं, जिससे पाठक अपने परिपार्श्व का ही नहीं, दूरदराज की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में भी समाधान प्राप्त करता है ० कैसे मिटेगी अशांति और अराजकता ? ० कौन करता है कल का भरोसा ? ० क्या आदतें बदली जा सकती हैं ? ० क्या है लोकतंत्र का विकल्प ? इस प्रकार प्रायः शीर्षक विषय से संबद्ध तथा रोचक हैं । कथा साहित्य की सबसे सरस एवं मनोरंजक विधा है-कथा । बहुत विवेचन एवं विश्लेषण के बाद भी जो अकथ्य रह जाता है, उसे कथा बहुत मार्मिकता से प्रकट कर देती है अतः प्राचीन काल से ही कथा के माध्यम से गूढतम रहस्य को प्रकट करने का प्रयत्न होता रहा है। वेद, उपनिषद्, महाभारत तथा आगमों में आई कथाएं इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है । बाण ने कथा की तुलना नववधू से की है, जो साहित्य-रसिकों के मन में अनुराग उत्पन्न करती है। कादम्बरी में वे कहते हैं "स्फुरत् कलालापविलासकोमला, करोति रागं हृदि कौतुकाधिकम् । रसेन शय्या स्वयमभ्युपागता, कथा जनस्याभिनवा वधूरिव ॥ प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी का मानना है कि साहित्य के माध्यम से डाले जाने वाले जितने प्रभाव हो सकते हैं, वे कथा विधा में अच्छी तरह उपस्थित किये जा सकते हैं । चाहे सिद्धान्त प्रतिपादन अभिप्रेत हो, चाहे चरित्र चित्रण की सुंदरता इष्ट हो, चाहे किसी घटना का महत्व निरूपण करना हो अथवा किसी वातावरण की सजीवता का उद्घाटन ही लक्ष्य हो या क्रिया का वेग अंकित करना हो या मानसिक स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण करना होसभी की अभिव्यक्ति इस विधा द्वारा संभव है। कहानी की कला इसी बात में प्रकट होती है कि संक्षेप में सीधी एवं सरल बात कहकर अपने कथ्य को पाठक तक पहुंचा दिया जाए। एडगर एलेन आदि पाश्चात्य विद्वानों का मानना है कि कथा ऐसी गद्यकला है जिसको घटने में आधा घंटा से दो घंटे तक के समय की आवश्यकता रहती है। प्रेमचंद का मानना है कि वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है । एक क्षण में चित्र को इतने माधुर्य से परिपूरित कर देता है कि जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।' १. साहित्य का उद्देश्य पृ० ३७-३८ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आज कथा साहित्य ने कुछ विकृत रूप धारण कर लिया है क्योंकि उसमें कुंठा, विकृति, संत्रास तथा आवेगों को उत्तेजित करने के ही स्वर अधिक मिलते हैं, प्रसन्न अभिव्यक्ति के नहीं । साथ ही उनमें सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन, जीवन की विशृंखलता एवं विसंगतियां भी उभरी हैं किंतु आचार्य तुलसी ने जो कथाएं लिखी हैं या उपदेशों में कही हैं, वे एक विशिष्ट प्रभाव को उत्पन्न करने वाली हैं क्योंकि उनमें समग्र जीवन के अनेक पहलुओं की अभिव्यक्ति है । २६ उन्होंने केवल मनोरंजन के लिए कथा का सहारा नहीं लिया बल्कि जटिल से जटिल विषय को कथा के माध्यम से सरल करके पाठक के सामने प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उनके द्वारा प्रयुक्त कथाओं में चिन्तन एवं मनन से प्राप्त दार्शनिक एवं सामाजिक तथ्यों की प्रस्तुति के साथ ही साथ प्रत्यक्ष जीवन से निःसृत तथ्यों का प्रगटीकरण भी हुआ है । यही कारण है कि जब वे अपने प्रवचन में कथा का उपयोग करते हैं तो उसका प्रभाव वक्ता के हृदय तक पहुंचता है । यहां उनके द्वारा प्रयुक्त एक कथा प्रस्तुत की जा रही है जिसके द्वारा उन्होंने राजनेताओं को मार्मिक ढंग से प्रतिबोधित किया हैएक व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से बहुत सम्पन्न था; पर था कंजूस । अपना और अपने परिवार का पेट काटकर उसने करोड़ों रुपये एकत्रित किये । उन सब रुपयों को उसने हीरों- पन्नों में बदल लिया। सारे जवाहरात एक पेटी में रखकर उसने ताला लगा दिया । उसे अपने बाल-बच्चों का भी भरोसा नहीं था । इसलिए पेटी की चाबी वह अपने सिरहाने रखकर सोने लगा । एक बार की बात है। रात्रि के समय उसके घर में चोर घुस गए । उन्होंने तिजोरी तोड़ी और जवाहरात की पेटी निकाली । उसी समय घर के लोग जाग गए। चोर पेटी लेकर भाग गए। लड़कों ने पिता को संबोधित कर कहा - 'पिताजी! आपके जीवन भर की इकट्ठी की गई सम्पत्ति चोर ले जा रहे हैं।' पिता निश्चिन्तता से बोला- 'पुत्रो ! ये चोर मूर्ख हैं । पेटी ले जा रहे हैं, पर चावी तो मेरे पेटी कैसे खोलेंगे और कैसे जवाहरात निकालेंगे ? तुम चिन्ता मत करो । पास है । बिना चाबी आज के हमारे राजनेता भी सोचते हैं कि जब पास है तो हमारे चरित्र के आभूषणों की पेटी कोई क्या अन्तर पड़ेगा ? पर वे नहीं जानते कि पेटी का चाबी का क्या उपयोग होगा ? जब किसी व्यक्ति के जाती है, तब उसके पास सत्ता की चाबिया भी कौन सत्ता की चाबी हमारे चुराकर ले भी जाए तो ताला टूट जाएगा । तब चरित्र की धज्जियां उड़ रहने देगा ?" 'बूंद भी : लहर' भी पुस्तक उनका कथा संकलन है । यद्यपि उनकी १. समता की आंख : चरित्र की पांख पृ० ९ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन कथाओं में साहित्यिक शैली नहीं है पर दिल तक पहुंचकर बात कहने की शक्ति है इसलिए ये जनभोग्य हैं । आज की सस्ती कथाओं के सामने आचार्य तुलसी ने इन कथाओं के माध्यम से एक आदर्श प्रस्तुत किया है । इतना अवश्य है कि उन्होंने गद्य में स्वतंत्र कथा लेखन कम किया है । प्रवचनों में विषय को स्पष्ट करने के लिए ही कथाओं का आश्रय लिया है । कहीं कहीं विषय की गंभीरता एवं जटिलता को सरस बनाने हेतु कथाओं का उपयोग हुआ है । काव्य साहित्य में उन्होंने अनेक कथाओं को अपनी रचना का आधार बनाया है तथा उन कथाओं को अपनी कल्पना के रंग में रंगकर कमनीय एवं पठनीय बना दिया है। जैन कथाओं को काव्य के माध्यम से प्रस्तुति देकर आचार्य तुलसी ने उन कथानकों को प्राणवान् बनाया है । 'चंदन की चुटकी भली' काव्यकृति में १८ आख्यानों का संकलन है । संक्षेप में उनकी कथा में प्रेमचन्द की सहजता, प्रसाद की भावुकता, जैनेन्द्र की मनोवैज्ञानिकता एवं अज्ञेय की समाज-सुधार दृष्टि का सुन्दर समन्वय हुआ है । संस्मरण } साहित्य की सबसे अधिक जीवन्त रोचक और मधुर विधा है-संस्मरण । क्योंकि न इसमें भाषा की दुरूहता होती है और न अति कल्पना लोक में विचरण । घटना प्रधान आकलन होने से यह साहित्य की सरस विधा मानी जाती है, जो पाठक पर सीधा प्रभाव डालती है । डा० त्रिगुणायत इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं- " भावुक कलाकर जब अतीत की अनंत स्मृतियों में से कुछ रमणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित कर व्यञ्जनामूलक शैली में अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं से विशिष्ट बनाकर रोचक ढंग से यथार्थ रूप में व्यक्त करता है, तब उसे संस्मरण कहा जाता है ।" २७ संस्मरण गद्य की आत्मनिष्ठ विधा है पर उसमें सचाई की सौरभ होती है । आचार्य तुलसी समय-समय पर अपने संस्मरणों को अभिव्यक्ति देते रहते हैं पर पिछले डेढ़ साल से वे इस विधा में अनवरत लिख रहे हैं । बचपन से लेकर आचार्यपदारोहण तक के संस्मरणों का सुंदर आकलन किया जा चुका है । वे संस्मरण साप्ताहिक केन्द्रीय विज्ञप्ति के माध्यम से प्रकाशित हो चुके हैं । इन संस्मरणों में भाषा का जाल नहीं, अपितु आत्माभिव्यक्ति है । अतः ये सहज, सरल, सुबोध और आकर्षक हो गए हैं। इन संस्मरणों को पढ़कर पाठक यह अनुभव करता है कि आचार्य तुलसी बीते क्षणों को पुनः जीने का सशक्त उपक्रम कर रहे हैं तथा पाठक को भी अतीत के प्रेरक क्षणों से साक्षात्कार करने का अवसर मिल रहा है। यहां हम उनके मुनि जीवन में गुरु के अपार वात्सल्य का एक संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं "मैं जब कभी अस्वस्थ होता, पूज्य गुरुदेव की कृपा इतनी अधिक Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण स्फुरित होती कि बार-बार बीमार होने की इच्छा जाग जाती। बीमारी के क्षणों में गुरुदेव इतना वात्सल्य उंडेलते कि उसमें सराबोर होकर मैं सब कुछ भूल जाता। उस समय आप मुझे अपने निकट बुलाते, नब्ज देखते, स्थिति की जानकारी करते, औषधि एवं पथ्य के बारे में निर्देश देते और कई बार दिन में भी अपने पास ही सुलाते। कभी दूसरे कमरे में होता तो बार-बार साधुओं को भेजकर स्वास्थ्य के बारे में पूछते । कहां एक बाल मुनि और कहां संघ के शिखर पुरुष आचार्य ! कहां जुखाम, बुखार जैसी साधारण घटनाएं और कहां पूरे धर्मसंघ का प्रशासन । पर गुरुदेव का वह अमृत-सा मीठा वात्सल्य एक बार तो रोग जनित पीड़ा का नाम-निशान ही मिटा देता। एक बार मुझे ज्वर हो गया। ज्वर के कारण रात को बेचैनी बढ़ी, मैं जितना बेचैन था, गुरुदेव की बेचैनी उससे भी अधिक थी । उस रात आप नींद नहीं ले सके । आपने मेरा हाल चाल जानने के लिए कई बार साधुओं को मेरे पास भेजा । गुरुदेव के इस अनुग्रह से साधु-साध्वियों पर अतिरिक्त प्रभाव हुआ। इस प्रसंग को मैं जब भी याद करता हूं, अभिभूत हुए बिना नहीं रहता।” जीवनी जीवनी वह गद्यविधा है जिसमें लेखक किसी अन्य व्यक्ति का वस्तुनिष्ठ जीवन वृत्त प्रस्तुत करता है। उसमें किसी महान व्यक्ति की जीवन घटनाओं का उल्लेख होता है। पाश्चात्य विद्वान लिटन स्ट्रेची ने जीवनी लेखन की कला को सबसे सुकोमल एवं सहानुभूतिपूर्ण कहा है। इस विधा का समाजनिर्माण में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि एक महापुरुष की बिखरी हुई प्रेरक घटनाओं को इसमें एकसूत्रता प्रदान की जाती है। इस विधा में कोरा तथ्य निरूपण या कोरी कल्पना नहीं होती बल्कि किसी व्यक्ति का आंतरिक एवं बाह्य व्यक्तित्व उजागर किया जाता है। आचार्य तुलसी ने इस विधा में तीन चार ग्रन्थ लिखे हैं । 'भगवान् महावीर', 'प्रज्ञापुरुष जयाचार्य' 'महामनस्वी कालूगणी का जीवनवृत्त' आदि पुस्तकें जीवनी साहित्य के अन्तर्गत रखी जा सकती हैं। इनमें क्रमशः भगवान महावीर, तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जीतमलजी तथा अष्टमाचार्य कालूगणी के व्यक्तित्व को सजीव अभिव्यक्ति दी है। संस्मरणात्मक जीवन लेखन से ये जीवनी ग्रन्थ बहुत रोचक एवं जनसामान्य के लिए हृदयग्राह्य बन गए हैं। भाषा की सरलता एवं वर्णन क्षमता की उच्चता इन जीवनी ग्रन्थों में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रही है। साथ ही व्यक्ति के विशेष विचारों एवं सिद्धान्तों का समावेश करने से ये वैचारिक दष्टि से भी महत्वपूर्ण हो गये हैं। १. विज्ञप्ति संख्या ११४३ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन पत्र पत्र लेखन की परम्परा बहुत प्राचीन है पर इसे साहित्यिक रूप आधुनिक युग ( भारतेन्दु युग) में दिया गया है। पत्र केवल प्रगाढ़ आत्मीय संबंधों की सरस अभिव्यक्ति ही नहीं होते, अनौपचारिक शिक्षा का जो सजीव चित्र इनमें उभर पाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । डा. शिवमंगल सिंह सुमन कहते हैं कि 'कागज पे रख दिया है कलेजा निकाल के" उक्ति इस विधा पर पूर्णतया घटित होती है । दिनकर इस विधा को कला के लिए कला का साक्षात् प्रमाण मानते थे । उनका कहना था कि निबंधों की शैली में लेखक के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य उजागर होता है, परन्तु पत्र लेखन में तो लेखक का स्वभाव, चिंतन-मनन, उत्पीड़न, उल्लास, उन्माद और अन्तर्द्वन्द्व सभी नितान्त सहज भाव से मुखर हो उठते हैं । ' जैसे पंडित नेहरू के 'पिता के पत्र पुत्री के नाम' तथा गांधीजी के अनेक पत्र साहित्यिक एवं राजनैतिक दृष्टि से अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं वैसे ही आचार्य तुलसी के अनेक पत्र ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं । उन्होंने साधुसाध्वियों को संबोधित करके हजारों पत्र लिखे हैं, जो अध्यात्म जगत् की अमूल्य थाती हैं | राजस्थानी भाषा में मां वदनाजी एवं मंत्री मुनि मगनलालजी को लिखे गए पत्रों में संवेदना का ऐसा निर्भर प्रवाहित है; जिसकी कल-कल ध्वनि आज भी पाठक को बांधने में सक्षम हैं। अपने हाथ से दीक्षित मां वदनाजी को लिखे पत्र की कुछ पंक्तियां यहां उद्धृत हैं - "यह पत्र स्वान्तः सुखाय' या ' त्वच्चेतः प्रसत्तये' लिख रहा हूं। आपके शान्त, सरल एवं निष्काम जीवन के साथ किसी भी साधक के मन में स्पर्धा हो सकती है । मितभाषिता, मधुर मुस्कान, स्वाध्याय तल्लीनता, सहृदयता, बाह्याभ्यन्तर एकता, सबके प्रति समानता, ये सब ऐसी विशेषताएं हैं जो बरबस किसी को आकृष्ट किए बिना नहीं रहतीं । मैं अपने आपको धन्य मानता हूं सहज भोली-भाली सूरत में अपनी माता को संयम - साधना में तल्लीन देखकर । २९ आचार्य तुलसी के पत्र सादगी, संयम और सृजन के संदेश हैं। पत्रों के माध्यम से उन्होंने हजारों व्यक्तित्वों को प्रेरणाएं दी हैं । तथा उनके जीवन में नव उत्साह का संचार किया है । उनके पत्र केवल समाचारों के वाहक ही नहीं होते उनमें संयम को परिपुष्ट करने, कषायों को शांत करने तथा अध्यात्म पथ पर आरोहण के लिए आवश्यक उपायों के निर्देश भी प्राप्त होते हैं । पत्रों की भाषा और भावाभिव्यक्ति इतनी सरल और सशक्त है १. दिनकर के पत्र भूमिका पृ० ११ २. मां वदना पृ० ८७ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कि पढ़ने वाला उन भावों में उन्मज्जन निमज्जन किए बिना नहीं रह सकता । डायरी इस विधा में लेखक अपने अनुभवों को लिखता है । अत: यह नितान्त वैयक्तिक सम्पत्ति होती है किन्तु प्रकाश में आने के बाद यह सार्वजनिक हो जाती है । यथार्थता और स्वाभाविकता ये दो गुण इसके आधार होते हैं । हर्ष, विषाद, उल्लास, निराशा आदि भावनाओं को उत्पन्न करने वाली घटनाएं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में रोज ही घटित होती हैं, किन्तु सामान्य व्यक्ति उन्हें भूल जाता है जबकि साहित्यकार या साधक व्यक्ति के संवेदनशील हृदय में उनके प्रति अपनी प्रतिक्रिया या मानसिक स्थिति को व्यक्त करने की आतुरता जाग जाती है, उद्वेलन के इन्हीं क्षणों में डायरी लिखी जाती है । आचार्य तुलसी प्रायः प्रतिदिन डायरी लिखते हैं पर अभी तक डायरी के पन्ने प्रकाशित नहीं हुए हैं। उनकी अप्रकाशित डायरी की निम्न पंक्तियां उनके समत्व साधक का रूप प्रस्तुत करती हैं- "आज के युग के मकान साधुसंतों के अनुकूल कम पड़ते हैं । सब कुछ कृत्रिम हो गया है । अतएव प्रकृति में चलने वालों के लिए कठिनाइयां आती हैं फिर भी हम जैसे-तैसे सामंजस्य बिठा लेते हैं। संतुलन नहीं खोते हैं, यह अच्छी बात है ।' 119 'खोये सो पाए' पुस्तक के कुछ लेखों में डायरी विधा के दर्शन होते हैं क्योंकि उसमें हिसार में २१ दिन के एकान्तवास में चैतन्य की अनुभूति के क्षणों में प्रतिदिन के विचारों को लिपिबद्ध किया गया है । इन विचारों को पढ़कर लगता है कि वे साहित्यकार के समनन्तर साधक हैं। आचार्य तुलसी की डायरी कितनी स्पष्ट, सरल व सहज है, यह इन लेखों को पढ़ने से अनुभव हो सकता है। इसी पुस्तक का एक अंश उनके साधनात्मक अनुभव की अभिव्यक्ति देता हुआ सामान्य जन को भी प्रेरणा देता है- "हमारा वर्तमान का अनुभव बताता है कि इन्द्रियों और मन की मांग को समाप्त किया जा सकता है । अपने जीवन में पहली बार एक प्रयोग कर रहा हूं । इस समय इन्द्रियां निश्चित हैं और मन शांत है । खान, पान, जागरण, देखना, बोलना, किसी भी प्रवृत्ति के लिए मन पर बाध्यता नहीं है ।" संदेश शब्दों में प्रवाहित भाव और विचार कमजोरों को ताकत देने, दुष्टों को दुष्टता से मुक्त करने, मूर्खों को प्रतिबोध देने और मानव में मानवता का संचार करने का सामर्थ्य रखते हैं, इसलिए शब्द ही टिकता है, न सिंहासन, न कुर्सी, न मुकुट, न बैंक - बैलेस और न धनमाल । शब्द जब किसी आत्मबली १. अप्रकाशित डायरी, २६ जून १९९०, पाली Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन साधक के मुख से निःसत होते हैं तब वे और अधिक शक्तिशाली बन जाते हैं । आचार्य तुलसी का प्रत्येक शब्द सार्थकता लिए हुए है, अतः प्रेरक है। धर्मनेता होने के कारण अनेकों अवसरों पर वे अपने संदेश प्रेषित करते रहते हैं। कभी पत्रिका में आशीर्वचन के रूप में तो कभी किसी कार्यक्रम के उद्घाटन में, कभी मृत्युशय्या पर लेटे किसी व्यक्ति का आत्मविश्वास जगाने तो कभी किसी शोक संतप्त परिवार को सांत्वना देने, कभी राष्ट्रीय एकता परिषद् को उदबोधित करने तो कभी-कभी सामाजिक संघर्ष का निपटारा करने । सैंकड़ों परिस्थितियों से जुड़े हजारों संदेश उनके मुखारविंद से निःसृत हुए हैं, जिनसे समाज को नई दिशा मिली है । उन सबको यदि प्रकाशित किया जाय तो कई खंड प्रकाशित हो सकते हैं । इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार' की घोषणा होने पर अपने एक विशेष संदेश में वे कहते हैं "मैं केवल आत्मनिष्ठा और अहिंसा की साधना की दृष्टि से काम कर रहा हूं। न कोई आकांक्षा और न कोई स्पर्द्धा । मेरे कार्य का कोई मूल्यांकन करता है या नहीं, इसकी भी कोई चिन्ता नहीं। मैंने विरोधों में कभी हीनभावना का अनुभव नहीं किया और प्रशस्तियों में कभी अहंकार को पुष्ट नहीं किया दोनों स्थितियों में सम रहने की साधना ही मेरी अहिंसा है ?" उनके संदेश व्यक्ति, संस्था, समाज या उत्सव से संबंधित होते हुए भी पूरी तरह से सार्वजनीन हैं, इसीलिए बाम व्यक्ति को उन्हें पढ़ने में कहीं अरुचि प्रतीत नहीं होती अपितु उसे अपनी समस्या का समाधान नितरता हुआ प्रतीत होता है। उनके संदेशों का वैशिष्ट्य यह है कि उनमें व्यक्ति, समाज या संस्था की विशेषताओं का अंकन है तो साथ ही साथ विसंगतियों का उल्लेख कर उन्हें मिटाने का उपाय भी निर्दिष्ट है । इन संदेशों में प्रेरणा सूत्र, आलंबन सूत्र तथा अध्यात्म-विकास के सूत्र उपलब्ध होते हैं, जिन्हें सुन-पढ़कर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर समाज और संस्थानों को भी लाभ पहुंचा सकता है। गद्यकाव्य हिन्दी में भावात्मक निबन्ध गद्यकाव्य कहलाते हैं । डा० भगवतीप्रसाद मिश्र का मंतव्य है कि किसी कथानक, चरित्र या विचार की कल्पना और अनुभूति के माध्यम से गद्य में सरस, रोचक और स्मरणीय अभिव्यक्ति गद्यकाव्य है । यह सामान्य गद्य की अपेक्षा अधिक अलंकृत, प्रवाहपूर्ण, तरल एवं माधुर्यमंडित रचना होती है । इस विधा में दर्शन की गहराई को जिस चातुर्य के साथ प्रस्तुत किया जाता है, वह पठनीय होता है। 'अतीत का विसर्जनः १. २५ अक्टूबर, १९९३, राजलदेसर Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अनागत का स्वागत' पुस्तक में 'युवापीढी का उत्तरदायित्व' लेख को गद्यकाव्य का उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है। इसमें कसी मंजी शैली में रूपक के माध्यम से इतनी मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है कि हर युवक एक बार स्पंदित हो जाए। यद्यपि आचार्य तुलसी ने सलक्ष्य इस कोटि के निबन्धों की रचना बहुत कम की है। पर 'समता की आंख चरित्र की पांख' जैसी कृतियों को गद्यकाव्य की कोटि में रखा जा सकता है। भेंट-वार्ता यह हिन्दी गद्य की सर्वथा नवीन विधा है । साहित्य, राजनीति, दर्शन, अध्यात्म, विज्ञान आदि किसी भी क्षेत्र की महान विभूति से मिलकर किसी समस्या एवं प्रश्नों के संदर्भ में उनके विचार या दृष्टिकोण को जानने या उन्हीं की भाषा-शैली तथा भाव-भंगिमा में व्यक्त करने की साहित्यिक रचना भेट-वार्ता है । भेंट-वार्ता महान् और लघु के बीच ही शोभा देती है । लघु के हृदय की श्रद्धाभावना देखकर महान् के हृदय में सब कुछ समाहित करने की भावना जाग उठती है । पर कभी-कभी दो भिन्न क्षेत्रों की विभूतियों के मध्य वार्तालाप भी इस विधा के अंतर्गत आता है। कभी-कभी काल्पनिक इन्टरव्यू भी इस विधा में समाविष्ट होते हैं। इसमें अपनी कल्पना से किसी साहित्यकार को अवतीर्ण कर उनसे स्वयं ही प्रश्न पूछकर उत्तर देना बड़ा ही रोचक होता यद्यपि आचार्य तुलसी ने किसी व्यक्ति का इन्टरव्यू नहीं लिया पर उनके साथ हुए विशिष्ट व्यक्तियों के साक्षात्कार उनके साहित्य में प्रचुर मात्रा में है । लगभग सभी राष्ट्रनेताओं एवं बुद्धिजीवियों के साथ उनकी वार्ताएं हुई हैं, कुछ प्रकाशित हैं तथा कुछ अभी भी अप्रकाशित हैं। 'जैन भारती' में राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तियों के बीच हुई लगभग ५० वार्ताएं प्रकाशित हैं। पर वे अभी पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हुई हैं। यात्रा-वृत्त __ यात्रा का अर्थ है-एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। यात्रा वृत्तांत में यात्रा के दौरान अनुभूत प्राकृतिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक तथ्यों का चित्रण किया जाता है । यात्रावृत्त की दृष्टि से कुछ ग्रंथ काफी प्रसिद्ध हैं। जैसे राहुल सांकृत्यायन का 'मेरी तिब्बत यात्रा', डा० भगवतीशरण उपाध्याय का ‘सागर की लहरों पर', धर्मवीर भारती का 'ढेले पर हिमालय' तथा नेहरू का 'आंखों देखा रूस' और रामेश्वर टांटिया का 'विश्व यात्रा के संस्मरण' आदि। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ___ आचार्य तुलसी महान् यायावर हैं। वे कहते हैं- "यात्रा में मेरी अभिरुचि इतनी है कि एक स्थान पर रहकर भी मैं यात्रायित होता रहता हूं।" उन्होंने देश के लगभग सभी प्रांतों की यात्राएं की हैं पर स्वयं कोई स्वतंत्र यात्रा ग्रंथ नहीं लिखा है फिर भी उनके कुछ लेख जैसे 'मेरी यात्रा' 'मैं क्यों घूम रहा हूं' आदि यात्रावृत्त के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं। इसके साथ उनके प्रवचन साहित्य में यात्रा के संस्मरणों का उल्लेख भी स्थान-स्थान पर हुआ है । उन्होंने अपने काव्य ग्रन्थों में स्फुट रूप से यात्रा का वर्णन किया है पर उसे यात्रावृत्त नहीं कहा जा सकता। आचार्य तुलसी की यात्राओं का रोचक एवं मार्मिक चित्रण महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने किया है। अब तक उनकी यात्राओं के छह ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं - (१) दक्षिण के अंचल में (दक्षिण यात्रा) (२) पांव पांव चलने वाला सूरज (पंजाब यात्रा) (३) बहता पानी निरमला (गुजरात यात्रा) (४) जब महक उठी मरुधर माटी (मारवाड़ यात्रा) (५) अमृत बरसा अरावली में (मेवाड़ यात्रा) (६) परस पांव मुसकाई घाटी (मेवाड़ यात्रा)। इन यात्रा ग्रन्थों में तथ्यपरकता, भौगोलिकता, रोचकता, सरसता तथा सहजता आदि यात्रावृत्त के सभी गुण समाविष्ट हैं। ये ग्रन्थ इतनी सरस शैली में यात्रा का इतिहास प्रस्तुत करते हैं कि पाठक को ऐसा लगता है मानो वह आचार्य तुलसी के साथ ही यात्रायित हो रहा हो। इन यात्रा ग्रन्थों को पढ़कर ही प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने लेखिका साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा जी को कहा 'लिखना तो हमें आपसे सीखना पड़ेगा'। इस एक वाक्य से इन यात्रा ग्रंथों की गरिमा अभिव्यक्त हो जाती है। (विद्वानों ने प्रवचन साहित्य को साहित्यिक विधा के अंतर्गत नहीं माना है पर आचार्य तुलसी ने इस विधा में नए प्रयोग किए हैं तथा विपुल परिमाण में इस विधा में अभिव्यक्ति दी है। अतः स्वतंत्र रूप से . उनके प्रवचन साहित्य के वैशिष्ट्य को यहां उजागर किया जा रहा है।) प्रवचन साहित्य भारतीय परम्परा में आत्मद्रष्टा ऋषियों एवं धर्मगुरुओं के प्रवचनों का विशेष महत्त्व है क्योंकि शब्दों का अचिन्त्य प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर पड़ता है। 'मा भै': उपनिषद् की इस वाणी ने अनेकों को निर्भय बना दिया। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण 'खणं जाणाहि' महावीर के इस उद्बोधन ने लाखों को अप्रमत्त जीवन जीने का दिशा बोध दे दिया तथा 'अप्पदीवो भव' बुद्ध की इस अनुभवपूत वाणी ने हजारों के तमस्मय जीवन को भालोक से भर दिया। आचार्य तुलसी की वाणी आत्मिक अनुभूति की वाणी है। उनके शब्दों में अध्यात्म की वह तेजस्वी शक्ति है, जो क्रूर से क्रूर व्यक्ति का हृदयपरिवर्तन करने में सक्षम है। उन्होंने अपने ७० साल के संयमी जीवन में हजारों बार प्रवचन किया है । लम्बी पदयात्राओं में युवावस्था के दौरान तो उन्होंने दिन में चार-चार या पांच-पांच बार भी जनता को उद्बोधित किया है । एक ही तत्त्व को अलगअलग व्यक्तियों को बार-बार समझाने पर भी उनका मन और शरीर कभी थकान की अनुभूति नहीं करता। उनके प्रवचन करने का उद्देश्य आत्मविकास एवं स्वानंद है । वे प्रवचन करके किसी पर अनुग्रह का भार नहीं लादते वरन् उसे साधना का ही एक अंग मानते हैं। इस बात की अभिव्यक्ति वे अनेकों बार देते हैं कि मेरे उपदेश और प्रवचन को यदि एक भी व्यक्ति ग्रहण नहीं करता है तो मुझे किचित् भी हानि या निराशा नहीं होती क्योंकि उपदेश देना मेरा पेशा नहीं वरन् साधना है, वह अपने आप में सफल है। उनकी प्रवचन साधना मात्र वस्तुस्थिति की व्याख्या नहीं अपितु साधना एवं दर्शन से व्यक्ति और समाज को परिवर्तित कर देने की चेष्टा है। इसी कारण अन्यान्य अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त रहने पर भी उनका प्रतिदिन प्रवचन का क्रम नहीं टूटता । एक संत के मन में निहित समष्टि-कल्याण की भावना का निदर्शन निम्न वाक्यों में पाया जा सकता है-"मैं चाहता हूं जन-जन में सद्गुण भर जाएं, पापों से घुटती हुई दुनिया को प्रकाश मिले । मुझे जो जागृति मिली है, वह औरों को भी दे सकूँ ऐसी मेरी हार्दिक इच्छा है । इसके लिए मैं सतत प्रयत्नशील हूं।'' वे केवल अपने श्रद्धालुओं के लिए ही प्रवचन नहीं करते, मानव मात्र की मंगल, भावना से ओतप्रोत होकर ही उनके प्रवचनों की मंदाकिनी प्रवाहित होती है । वे बार-बार इन विचारों की अभिव्यक्ति देते हैं कि केवल जैन या केवल ओसवालों में बोलकर मैं इतना खुश नहीं होता, जितना सर्वसाधारण में बोलकर होता हूं।" एक बार उनकी प्रवचन सभा में कुछ हरिजन भाई भी अग्रिम पंक्ति में आकर बैठने लगे। परिपार्श्व में बैठे महाजनों ने उन्हें संकेत से दूर बैठकर सुनने की बात कही । आचार्य तुलसी का करुणा प्रधान मानस उस भेद को १. जैन भारती, १४ अक्टू० १९६२ २. जैन भारती, १९ नवम्बर १९५३ ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६९२ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन सह नहीं सका । तत्काल उस कृत्य की तीखी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा-"धर्मस्थान हर व्यक्ति के लिए खुला रहना चाहिए । जाति और रंग के आधार पर किसी को अस्पृश्य मानना, उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित रखना मानवता का अपराध है। धर्म के क्षेत्र में जातिजन्य उच्चता नहीं, कर्मजन्य उच्चता होती है । धार्मिक उच्चता हरिजन या महाजन सापेक्ष नहीं है । मेरे प्रवचनस्थान पर किसी भी जाति के लोगों को प्रवचन सुनने का निषेध नहीं हो सकता। यदि कोई अनुयायी हरिजन को प्रवचन सुनने का निषेध करता है, इसका अर्थ यह है कि वह मुझे प्रवचन करने का निषेध करता है । मैं तो देश के हर वर्ग, जाति और सम्प्रदाय के लोगों से इंसानियत और भाईचारे के नाते मिलकर उन्हें जीवन का लक्ष्य परिचित कराना चाहता इस प्रकार वर्गभेद, जातिभेद, रंगभेद और सम्प्रदायभेद के बढ़ते उन्माद को रोककर भावात्मक एकता की स्थापना भी उनके प्रवचन का मुख्य उद्देश्य रहा है। उन्होंने अपने प्रवचन में समाज सेवा और राष्ट्र की विषम स्थितियों एवं विसंगतियों पर दुःख प्रकट किया है पर कहीं भी निराशा का स्वर नहीं है । इस संदर्भ में उनकी निम्न उक्ति अत्यन्त मार्मिक है-"कई लोग संसार को स्वर्ग बनाना चाहते हैं किंतु वह बनता नहीं । मैं ऐसी कल्पना नहीं करता यही कारण है कि मुझे निराशा नहीं होती। मैं चाहता हूं कि मनुष्य लोक कहीं राक्षसलोक या दैत्यलोक न बन जाए। उसे यदि प्रवचन द्वारा मनुष्यलोक की मर्यादा में रखने में सफल हो गए तो मानना चाहिए हमने बहुत कुछ कर लिया।" उनके इस संतुलित दृष्टिकोण के कारण यह प्रवचन साहित्य जीवन के साथ ताजा सम्बन्ध स्थापित करता है। वे हर तथ्य का प्रतिपादन इतनी मनोवैज्ञानिकता के साथ करते हैं कि उसे पढ़ने और सुनने पर लगता है कि वह पाठक व श्रोता की अपनी ही अनुभूति है। प्रवचन की विषयवस्तु उनके प्रवचनों के विषय न तो इतने गहन गंभीर है कि उन्हें समझने के लिए किसी दूसरे की सहायता लेनी पड़े और न इतने उथले हैं कि उनमें बच्चों का बचकानापन झलके । चाहे धर्म हो या दर्शन, मनोविज्ञान हो या इतिहास, राजनीति हो या सिद्धान्त, अध्यात्म हो या विज्ञान लगभग सभी विषयों पर कलात्मक प्रस्तुति उनके प्रवचनों में हुई है। अत: उनके प्रवचनों में विषय की विविधता है। वे नदी की धारा की भांति प्रवहमाद १. जैन भारती, ३० अप्रैल १९६१ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण और नवीनता लिए हुए हैं। उनके प्रवचनों को ऐसी दीपशिखाएं कहा जा सकता है जो युग-युग तक पीड़ित एवं शोषित जनता का पथदर्शन कर सकती हैं । प्रवचन का वैशिष्ट्य किसी भी प्रवचनकार की सबसे बड़ी विशेषता उसकी अभिव्यक्ति की क्षमता है । यद्यपि यह क्षमता एक राजनेता में भी होती है पर नेता जहां ऊपर से चोट करता है, वहां आत्मसाधक प्रवचनकार का लक्ष्य अन्तर्मानस पर चोट करना होता है। आचार्य तुलसी के प्रवचन राजनेता की भांति कोरी भावुकता नहीं बल्कि विवेक को जागृत करते हैं । भांति केवल स्वार्थ पर नहीं बल्कि परमार्थ पर रहती है । उनकी दृष्टि नेता की आचार्य तुलसी सत्यं शिवं सुन्दरं के प्रतीक हैं । यही कारण है कि उनके प्रवचनों में केवल सत्य का उद्घाटन या सौन्दर्य की सृष्टि ही नहीं हुई है अपितु शिवत्व का अवतरण भी उनमें सहजतया हो गया है। उनके प्रवचनों सार्वभौम वैशिष्ट्य को कुछ बिन्दुओं में व्यक्त किया जा सकता है । व्यावहारिक प्रस्तुति उनके प्रवचन की सर्वभौमिकता का सबसे बड़ा कारण है कि वे गहरे विचारक होते हुए भी किसी विचार से बंधे हुए नहीं हैं । उनका आग्रहमुक्त / निर्द्वन्द्व मानस कहीं से भी अच्छाई और प्रेरणा ग्रहण कर लेता है । उनकी प्रत्युत्पन्न मेधा हर सामान्य प्रसंग को भी पैनी दृष्टि से पकड़ने में सक्षम है । घटना को श्रोता के समक्ष इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि वे उससे स्वतः उत्प्रेरित हो जाते हैं। सामान्य घटना के पीछे रहे गहरे दर्शन को वे बातों ही बातों में बहुत सहजता से चित्रित कर देते हैं । विशेष क्षणों में उपजा हुआ चिन्तन बड़े-बड़े विचारकों के लिए भी चिन्तन की एक खुराक दे जाता है। इस तथ्य का स्वयंभू साक्ष्य है— बंगला देश के शरणार्थियों के संदर्भ में की गयी आचार्य तुलसी की निम्न टिप्पणी" आप अपने को शरणार्थी मानते हैं पर मेरी दृष्टि में आधुनिक युग का सबसे बड़ा शरणार्थी सत्य है । वह निःसहाय है उसे कहीं सहारा नहीं मिल रहा है। जब तक सत्य शरणार्थी रहेगा, तब तक मनुष्य को सुख-शांति कैसे मिल सकती है ?" कर्मवाद का दार्शनिक तथ्य उनकी प्रतिभा के पारस से छूकर किस प्रकार सामान्य घटना के माध्यम से उद्गीर्ण हुआ है, यह द्रष्टव्य हैपंजाब यात्रा का प्रसंग है । एक ट्रक ढकेला जा रहा था । आचार्य तुलसी ने उसे देखकर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा - " किसी भी व्यक्ति के दिन सदा समान नहीं होते । सबको सहयोग देकर चलाने वाला Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन व्यक्ति भी भाग्य ठंडा हो जाने पर दूसरों के सहयोग का मुंहताज बन जाता है। ट्रक का इंजन प्रतिदिन कितने लोगों को अपने गंतव्य तक पहुंचा देता है, कितने भारी भरकम सामान को कहां से कहां पहुंचा देता है पर ठंडा होने पर उसे ढकेलना पड़ता है । वह परापेक्षी हो जाता है । प्रस्तुत प्रसंग की स्पष्टता के लिए एक प्रवचनांश को उद्धृत करना भी प्रासंगिक नहीं होगा । 'आत्मा' गांव में पदार्पण करने पर अपने प्रवचन का प्रारम्भ करते हुए आचार्य तुलसी ने कहा - "आज हम आत्मा में आए हैं । आज क्या आये हैं हम तो पहले से ही यहीं थे । आज तो वे लोग भी यहां पहुंच गये हैं जो सामान्यतः बाहर घूमते हैं। बाहर घूमने वाले लोग भटक जाएं यह बात समझ में आती है पर जो वर्षों से 'आत्मा' में वास करते हैं, वे क्यों भटकें ? १ अनेक घटनाओं एवं कथाओं के प्रयोग से उनके प्रवचन में सजीवता एवं रोचकता आ गयी है । इस कारण से उनके प्रवचन बाल, वृद्ध एवं प्रौढ़ सबके लिये ग्रहणीय बन गये हैं । इसके साथ आगम, गीता, महाभारत, उपनिषद्, पंचतंत्र आदि के उद्धरण भी वे अपने प्रवचनों में देते रहते हैं । वर्तमानिक खोज एवं नयी सूचनाओं के उल्लेख उनके गम्भीर एवं चहुंमुखी ज्ञान की अभिव्यक्ति देते हैं । ३७ उनके प्रवचन साहित्य की अनेक पुस्तकें आगम सूक्तों एवं अध्यायों की व्याख्या रूप भी हैं । उन प्रवचनों को पढ़ने से ऐसा लगता है कि महावीर वाणी को आधुनिक संदर्भ में नई प्रस्तुति देने का सशक्त उपक्रम किया गया है । महावीर वाणी के माध्यम से आज की समस्याओं का समाधान होने से इस साहित्य में दृढ़ चरित्रों को उत्पन्न करने की क्षमता पैदा हो गयी है तथा - बुराइयों को कुचलकर अच्छाई की ओर बढ़ने की प्रेरणा भी निहित है । 'बूंदबूंद से घट भरे' 'मंजिल की ओर' आदि पुस्तकें आगमिक व्याख्या रूप ही हैं । निर्भीकता आचार्य तुलसी के प्रवचनों में क्रांति के स्फुलिंग उछलते रहते हैं । उनकी क्रांतिकारिता इस अर्थ में अधिक सार्थक है कि वे अपनी बात को निर्भीक रूप से कहते हैं । वर्ग विशेष की बुराई के प्रति कभी-कभी वे बहुत प्रचंड एवं तीखी आलोचना करने से भी नहीं चूकते। वे इस बात से कभी भयभीत नहीं होते कि उनकी बात सुनकर कोई नाराज हो जायेगा । उनका स्पष्ट कथन है- " मैं किसी पर व्यक्तिगत रूप से प्रहार करना नहीं चाहता पर सामूहिक रूप में बुराई पर प्रहार करना मेरा कर्त्तव्य | वह चाहे व्यापारी वर्ग में हो, राजकर्मचारी में हो या किसी दूसरे वर्ग में । राजनेताओं की १. पांव पांव चलने वाला सूरज, पृ० ३४९ २. जैन भारती, ७ सित० १९७९ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सत्तालोलुप दृष्टि पर कड़ा प्रहार करते हुए उनका कहना है-"जिस समय मत के साथ प्रलोभन और भय जुड़ जाये, वह खरीदफरोख्ती की वस्तु बन जाये, उसके साथ मार-पीट, लूट-खसोट और छीना-झपटी के किस्से बन जाए, इससे भी बड़े हादसे घटित हो जाये। यह सब क्या है ? क्या आजादी की सुरक्षा ऐसे कारनामों से होगी ? ...." "ऐसे घिनौने तरीकों से विजय पाना और फिर विजय की दुन्दुभि बजाना, क्या यह लोकतंत्र की विजय है ? ऐसी विजय से तो हार भी क्या बुरी है ?" केवल विज्ञान पर आश्रित रहकर यांत्रिक एवं निष्क्रिय जीवन जीने वाले देशवासियों को प्रतिबोधित करते हुये उनका कहना है-"जिस देश के घर-घर में कम्प्यूटर और रोबोट उतर आये, रेडियो और टी० वी० का प्रभाव छा जाए, मनुष्य का हर काम स्वचालित यन्त्रों से होने लगे, मनुष्य यन्त्र की भांति निष्क्रिय होकर बैठ जाए, क्या वह देश विकसित या विकासशील बन सकता है ? ___केवल बुराईयों के प्रति अंगुलिनिर्देश ही नहीं, वर्ग-विशेष की विशेषताओं को सहलाया भी गया है अतः उनके प्रवचनों में संतुलन बना हुआ है । सदियों से शोषित एवं पिछड़ी महिला जाति के गुणों को प्रोत्साहन देते हुए वे कहते हैं --"मैं देखता हूं आजकल बहिनों का साहस बढ़ा है, आत्मविश्वास जागृत हुआ है, चितन की क्षमता भी विकसित हुई है और उनमें जातीय गौरव की भावना प्रज्वलित हई है।"२ । वेधकता आचार्य तुलसी के प्रवचन इतने वेधक होते हैं कि अनायास ही अन्तर में झांकने को विवश कर देते हैं । सम्भवतः दर्शन और अध्यात्म के सैकड़ों ग्रंथ पढ़ने के बाद भी व्यक्ति के मस्तिष्क में वह विचार किरण फूटे या न फूटे जो आचार्यश्री के प्रवचन की कुछ पंक्तियों में स्फुरित हो जाती है। उनकी निम्न पंक्तियां कितनी अन्तर्भेदिनी बन गयी हैं ० "मैं पूछना चाहता हूं कौन नहीं है दास ? कोई मन का दास है, कोई इंद्रियों का दास है, कोई वासना का दास है, कोई वृत्तियों का दास है तो कोई सत्ता का दास है। पहले तो क्रीत होने के बाद दास माना जाता था पर आज तो अधिकांश लोग बिना खरीदे दास हैं।" • "एक शेर या दैत्य पर नियन्त्रण करना सरल है, पर उत्तेजना के क्षणों में अपने आप पर नियन्त्रण कर पाना बहुत बड़ी उपलब्धि है।"३ १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० ८८ २. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० २८ ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० ३२१ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन यही कारण है कि उनके प्रवचनों में शब्दों का आडम्बर नहीं, अपितु हृदय को झकझोरने वाली प्रदीप्त सामग्री होती है। प्रायोगिकता प्रवचन में केवल सैद्धांतिक पक्ष की प्रस्तुति ही उन्हें अभीष्ट नहीं है वे उसे प्रयोग से बराबर जुड़ा रखना चाहते हैं। वे बात-बात में ऐसा प्रशिक्षण दे देते हैं, जिसे श्रोता या द्रष्टा जीवन भर नहीं भूल सकता। लाडनूं का प्रसंग है। प्रवचन के बाद एक युवक ने सूचना देते हुए कहा- 'एक घड़ी (समय सूचक यन्त्र) की प्राप्ति हुई है। जिस किसी भाई की हो वह आकर ले जाए।' इतना सुनते ही आचार्यश्री ने स्मित हास्य बिखेरते हुए कहा- 'एक घड़ी मैंने भी आप लोगों के बीच खोई है। देखता हूं कौनकौन लाकर देता है ? सारा वातावरण हास्य से मुखरित ही नहीं हुआ वरन् अभिनव प्रेरणा से ओतप्रोत हो उठा । श्रोताओं को यह प्रशिक्षण मिल गया कि जो सुना है उसको आत्मसात् करके ही हम गुरुचरणों में सच्ची दक्षिणा समर्पित कर सकते हैं। संस्मरणों की मिठास __उनके प्रवचनों में अध्यात्म एवं नीतिदर्शन का गूढ़ विश्लेषण ही नहीं होता, संस्मरणों एवं अनुभवों का माधुर्य भी होता है, जो कथ्य को इस भांति संप्रेषित करता है कि वर्षों तक के लिए वह घटना स्मृति-पटल पर अमिट बन जाती है। रायपुर के भयंकर अग्नि-परीक्षा-कांड के विरोध के पश्चात् चूरू चातुर्मास में स्वागत समारोह के अवसर पर वे कहते हैं --"लोग कहते हैं कि अन्तरिक्ष में जाने पर चंद्रयात्री भारहीनता का अनुभव करते हैं पर हम तो पृथ्वी पर ही भारहीन जीवन जी रहे हैं।" इतने विशाल संघ के नेता की यह प्रसन्न अभिव्यक्ति निश्चित रूप से उन लोगों के लिए प्रेरक है, जो अपने परिवार के कुछ सदस्यों का नेतृत्व करने में ही खेदखिन्न एवं तनावयुक्त हो जाते हैं। उन्हीं की भाषा में प्रस्तुत उनके जीवन का निम्न संस्मरण छोटी सी बात पर प्रतिक्रिया करके आपा खो देने वालों को प्रेरणा देने में पर्याप्त होगा- "सन् १९७२ की बात है। हमने रतनगढ़ से प्रस्थान किया। जून-जुलाई की तपती दोपहरी थी। विरोधी वातावरण के कारण स्थान नहीं मिला । हमारे विरोध में भ्रांतिपूर्ण बातें कही गयीं, अतः विरोध भड़क उठा। पर हमें आचार्य भिक्षु के जीवन से सीख मिली थी-"जो हमारा हो विरोध, हम उसे समझे विनोद ।" रतनगढ़ गांव की सीमा पर जैन दर्शन में घड़ी समय के एक विभाग/४८ मिनिट को कहते हैं । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण गोशाला के सामने बड़े-बड़े वृक्ष थे। हमने उन्हीं की छाया में पड़ाव डाल दिया। लगभग दो तीन घंटे हम वहां रहे। वहां बैठकर आगम का काम किया, साहित्य की चर्चा की और भी आवश्यक काम किए। हमारी इस घटना के साक्षी थे-प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी। उन्हें महत आश्चर्य हुआ कि इस प्रतिकूल वातावरण में भी हम पूरी निश्चिन्तता से काम कैसे कर सके ?' अनुभूत सत्यों की अभिव्यक्ति उनके प्रवचनों की सरसता का हेतु संस्मरणों की पुट तो है ही, साथ ही वे समय-समय पर अपने जीवन के अनुभूत सत्यों को भी प्रकट करते रहते हैं जिससे यह साहित्य जीवन्त एवं जीवट हो गया है । बट्टेड रसेल अपने जीवन के अनुभवों को इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं- "अपने लम्बे जीवन में मैंने कुछ ध्रुव सत्य देखे हैं - पहला यह कि घृणा, द्वेष और मोह को पल-पल मरना पड़ता है। दूसरा यह कि सहिष्णुता से बड़ी कोई प्रेम-प्रीति नहीं होती। तीसरा यह कि ज्ञान के साथ-साथ विवेक को भी पुष्ट करते चलो, भविष्य की हर सीढ़ी निरामय होगी"। आचार्य तुलसी ने ऐसे अनेक मार्मिक भनुभूत सत्यों को समय-समय पर अभिव्यक्त किया है । आचार्य काल के २५ वर्ष पूरे होने पर वे अपने अन्तर्मन को खोलते हुए कहते हैंमैंने अपने जीवन में कुछ सत्य पाए हैं, उन्हें मैं प्रयोग को कसौटी पर कसकर जनता के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूं० विश्व केवल परिवर्तनशील या केवल स्थितिशील नहीं है । यह परिवर्तन और स्थिति का अविकल योग है। ० परिस्थिति-परिवर्तन व हृदय-परिवर्तन का योग किए बिना समस्या का समाधान नहीं हो सकता । केवल सामाजिकता और केवल वैयक्तिकता को मान्यता देने से समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। ० वर्तमान और भविष्य-दोनों में से एक भी उपेक्षणीय नहीं है। ० भौतिकता मनुष्य को विभक्त करती है। उसकी एकता अध्यात्म के क्षेत्र में ही सुरक्षित है। कोई भी धर्म-संस्थान राजनीति और परिग्रह से निलिप्त रहकर ही अपना अस्तित्व कायम रख सकता है। आध्यात्मिक एकता का विकास होने पर ही सह-अस्तित्व का सिद्धांत क्रियान्वित हो सकता है तथा जातिवाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद, प्रांतवाद और राष्ट्रवाद की सीमाएं टूट सकती हैं। १. दीया जले अगम का, पृ० १८-१९ २. अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत, पृ० १४१-४३ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ४१ आचार्यकाल के पचास वर्ष पूर्ण होने पर वे संगठन मूलक १३ सूत्रों को जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं । उनमें से कुछ अनुभव-सूत्र इस प्रकार हैं९. वही संगठन अधिक कार्य कर सकता है, जो अनुशासन, ज्ञान और चरित्र से सम्पन्न होता है । २. व्यापक क्षेत्र में कार्य करने के लिए दृष्टिकोण को उदार बनाना जरूरी है | संकीर्ण दृष्टि वाला कोई बड़ा कार्य नहीं कर सकता । ३. प्रगति के लिए प्राचीन परम्पराओं को बदलना आवश्यक है। किंतु विवेक उसकी पूर्व पृष्ठभूमि है । ४. प्रगति और परिवर्तन के साथ संघर्ष भी आता है । उसे झेलने के लिए मानसिक संतुलन आवश्यक है | असंतुलित व्यक्ति संघर्ष में विजयी नहीं हो सकता । ५. संगठन की दृष्टि से संस्था का मूल्य निश्चित है । पर उससे भी अधिक मूल्य है गुणात्मकता का। मैंने प्रारंभ से ही व्यक्ति-निर्माण पर ध्यान दिया । उसमें मुझे कुछ सफलता मिली। इसका मुझे संतोष है । ६. केवल विद्या के क्षेत्र में आगे बढ़ने वाला संघ चरित्र की शक्ति के बिना चिरजीवी नहीं हो सकता, तो केवल चरित्र को मूल्य देने वाला जनता के लिए उपयोगी नहीं बन सकता । ७. सुविधावादी दृष्टिकोण मनुष्य को कर्तव्यविमुख, सिद्धांतविमुख और दायित्व विमुख बनाता है ।" ये अनुभव उनके जीवन की समग्रता एवं आनंद को अभिव्यक्त करते हैं। इस प्रकार के अनुभूत सत्यों का संकलन यदि उनके साहित्य से किया जाए तो एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन सकता है । ये अनुभव सम्पूर्ण मानव जाति का दिशादर्शन करने में समर्थ हैं । पुरुषार्थ की परिक्रमा आचार्य तुलसी पुरुषार्थ की जलती मशाल हैं । उनके व्यक्तित्व को एक शब्द में बन्द करना चाहें तो वह है- पौरुष । उनके पुरुषार्थी जीवन ने अनेक विरोधियों को भी उनका प्रशंसक बना दिया है। इसके एक उदाहरण हैं -- ख्यातिप्राप्त विद्वान् पं० दलसुखभाई मालवणिया । वे आचार्यश्री के पुरुषार्थी व्यक्तित्व का शब्दांकन करते हुए कहते हैं चौकसी रखनी होती है और निरन्तर अप्रमत्त बने आचार्य तुलसी में मैंने इस पुरुषार्थ की झांकी पाई है। हैं और न लेने देते हैं ।" उनका प्रवचन साहित्य श्रम की संस्कृति को " प्रमाद के प्रवेश के लिए जीवन में असंख्य भाग हैं । उन सबकी रहना होता है । वह न चैन लेते सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ५०-५३ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण उज्जीवित करने का महत प्रयत्न है। पुरुषार्थहीन एवं अकर्मण्य जीवन के वे घोर विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में तलहटी से शिखर तक पहुंचने का उपाय पुरुषार्थ है । पुरुषार्थी के द्वार पर सफलता दस्तक देती है, वह हारी बाजी को जीत में बदल देता है । इसके विपरीत अकर्मण्य व्यक्ति की क्षमताओं में जंग लग जाता है और वह कुछ न करने के कारण उम्र से पहले ही बूढ़ा हो जाता है । समाज की अकर्मण्यता को झकझोरती हुई उनकी यह उक्ति कितनी वेधक है-“यह एक प्रकार की दुर्वलता है कि व्यक्ति खेती के लिए श्रम तो नहीं करता पर अच्छी फसल चाहता है। दही मथने का श्रम नहीं करता, पर मक्खन पाना चाहता है । व्यवसाय में पुरुषार्थ का नियोजन नहीं करता, पर धनपति बनना चाहता है। पढ़ने में समय लगाकर मेहनत नहीं करता, पर परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होना चाहता है। ध्यान-साधना का अभ्यास नहीं करता, पर योगी बनना चाहता है।'' इसी सन्दर्भ में उनकी निम्न अनुभूति भी प्रेरक है - "मेरे मन में अनेक बार विकल्प उठता है कि सूरज आता है, प्रकाश होता है। उसके अस्त होते ही फिर अंधकार छा जाता है। प्रकाश और अन्धकार की यात्रा का यह शाश्वत क्रम है । ये काम करते-करते नहीं अघाते तो फिर हम क्यों अघाएं ?" शताब्दियों से दासता के कारण जर्जर देश की अकर्मण्यता को झकझोरने में उनका प्रवचन साहित्य अहंभूमिका रखता है। उनकी हार्दिक अभीप्सा है कि पूरा समाज पुरुषार्थ के वाहन पर सवार होकर यात्रा करे और जीवन के सीधे सपाट रास्ते में सृजन का एक नया मोड़ दे। 'चरैवेति, चरैवेति' का आर्षवाक्य उनके कण-कण में रमा हुआ है अतः अकर्मण्यता और सुविधावाद पर जितना प्रहार उनके साहित्य में मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ अडोल आत्मविश्वास । उनका प्रवचन साहित्य हमारे भीतर यह आत्मविश्वास जागृत करता है कि समस्या से घबराना कायरता है । समस्याएं मनुष्य की पुत्रियां हैं अत: वे हर युग में रहती हैं, केवल उनका स्वरूप बदलता है। उनका कहना है कि "समस्या न आए तो दिमाग निकम्मा हो जाएगा । मैं चाहता हूं कि समस्याएं आएं और हम हंसते-हंसते समाधान करते रहें। मनुष्य द्वारा उत्पादित समस्याओं का समाधान करने के लिए आकाश से कोई देवता नहीं आएगा, १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १३६३ २. वही, पृ० १६९३ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ४३ पड़ेगा वे इस बात को अपने पृथ्वी पर ही किसी को भगवान् बनना प्रवचनों में बार-बार दोहराते रहते हैं कि किसी भी समस्या या प्रश्न को इसलिए नहीं छोड़ा जा सकता कि वह जटिल है । विबेक इस बात में है कि हर जटिल पहेली को सुलझाने का प्रयत्न किया जाए। इसी अडोल आत्मविश्वास के कारण उन्होंने अपने साहित्य में हर कठिन समस्या को समाधान तक पहुंचाने का तीव्र प्रयत्न किया । वे अनेक बार यह प्रतिबोध देते हैं"संसार की कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान न किया जा सके । आवश्यकता है अपने आपको देखने की और किसी भी परिस्थिति में स्वयं समस्या न बनने की ।" उनके साहित्य में देश, समाज, परिवार एवं व्यक्ति की हजारों समस्याओं का समाधान है। उनके कदमों में कहीं लड़खड़ाहट, शंका, थकावट या बेचैनी नहीं है । यही कारण है कि उनके हर कदम, हर श्वास, हर वाक्य तथा हर मोड़ में नया आत्म-विश्वास झलकता है । मनोवैज्ञानिकता 119 आचार्य तुलसी महान् मनोवैज्ञानिक हैं । वे हजारों मानसिकताओं से परिचित हैं इसलिए उनके प्रवचन में सहज रूप से अनेकों मनोवैज्ञानिक तथ्य प्रकट हो गए हैं । हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना है कि जो साहित्यकार मानव मन को fe और चलित करने वाली परिस्थितियों की उद्भावना नहीं कर सकता तथा मानवीय सुख-दुःख को पाठक के समक्ष हस्तामलक नहीं बना देता, वह बड़ी सृष्टि नहीं कर सकता ।" dea बड़े मनोवैज्ञानिक हैं इसका अंकन निम्न घटना से गम्य हैएक बार पदयात्रा के दौरान रूपनगढ़ गांव में सेवानिवृत्त एक सेना के अफसर से आचार्य श्री वार्तालाप कर रहे थे। इतने में एक जैन भाई वहां आया और कान में धीरे से बोला यह आदमी शराब पीता है अतः आपके साथ बात करने लायक नहीं है । पर आचार्यश्री उस अफसर से बात करते रहे । आचार्यश्री की प्रेरणा से उस भाई ने दस मिनिट में शराब छोड़ दी। थोड़ी देर बाद आचार्यश्री उस जैन भाई की ओर उन्मुख होकर पूछने लगे । 'आप व्यापार तो करते होंगे ?' वह बोला -- 'यहां मेरी दुकान है । मैं घी तेल का व्यापार करता हूं ।' यह बात सुन मैंने पूछा- 'आप तो जैन हैं। घी तेल में मिलावट तो नहीं करते हैं ?' वह बोला- 'महाराज ! हम गृहस्थ हैं ।' मेरा दूसरा प्रश्न था --- ' तोल -माप में कमी - बेशी तो नहीं करते ?' वह बोला'महाराज ! आप जानते हैं । व्यापार में यह सब तो चलता है ।' मैंने १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४९१-९२ २. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, भाग ७, पृ० १७७ - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कहा-'भाई ! मिलावट पाप है, तोल-माप में कमी-बेशी करना ग्राहकों को धोखा देना है। एक धार्मिक व्यक्ति यह सब करे, उसका क्या प्रभाव होता होगा ?' वह बोला-'आपका कहना सही है। पर क्या करूं ? गृहस्थ को सब कुछ करना पड़ता है।' मैंने उस भाई को समझाने के लिए सारी शक्ति लगा दी। पर वह टस से मस नहीं हुआ। न उसने मिलावट छोड़ी न और कुछ। ___ मैंने उस भाई को स्पष्टता से कहा-'आपके गुरु किसी शराबी व्यक्ति से बात करते हैं तो आपको खराबी का अन्देशा रहता है, जबकि उस व्यक्ति ने पूरी शराब छोड़ दी। आप जैसे व्यक्तियों के साथ बात करने में हमारी गरिमा कैसे बढ़ेगी? आप जैन होकर भी अपने व्यवसाय में ईमानदार नहीं हैं। शराब पीने वाला तो केवल अपना नुकसान करता है, जबकि व्यापार में की जाने वाली हेराफेरी से तो हजारों का नुकसान होता है । आप अपने गुरुओं पर तो अंकुश लगाना चाहते हैं, पर स्वयं पर कोई अंकुश नहीं है। ऐसी धार्मिकता से किसका कल्याण होगा ?' मेरी बात सुन उस भाई को अपनी भूल का अहसास हो गया।' आचार्य तुलसी ने जनसामान्य के मन में उठने वाले संदेहों, संकल्पोंविकल्पों एवं मानसिक दुर्बलताओं को उठाकर उसका सटीक समाधान प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। विषय के प्रतिपक्ष में उठने वाले तर्क उठाकर उसे समाहित करने से उनकी वर्णन शैली में एक चमत्कार उत्पन्न हो गया है तथा विषय की स्पष्टता भी भलीभांति हो गई है। इस प्रसंग में निम्न उदाहरण को रखा जा सकता है-- "कुछ व्यक्ति कहा करते हैं हम त्याग तो करलें लेकिन भविष्य का क्या पता ? कभी वह टूट जाए तो? यह तो ऐसी बात हुई कि कोई भोजन करने से पहले ही यह कहे कि मैं तो भोजन इसलिए नहीं करूंगा कि कहीं अजीर्ण हो जाए तो? क्या उस अप्रकट अजीर्ण के डर से भोजन छोड़ा जा सकता है ? इसी प्रकार व्रत लेने से पहले ही टूटने की आशंका करना व्यर्थ है।" नवीनता और प्राचीनता का संगम उनके प्रवचन साहित्य को नवीनता भोर प्राचीनता का संगम कहा जा सकता है। उनका चिन्तन है कि "पुराणमित्येव न साधु सर्व" यह सत्य है तो "नवीनमित्येव न साधु सर्व" यह भी सत्य है । अतः दोनों का समन्वय अपेक्षित है। इस सन्दर्भ में वे अपनी अनुभूति इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं_ "मैं अतीत और वर्तमान दोनों के सम्पर्क में रहा हूं। पुरानी स्थिति का मैंने १. मनहंसा मोती चुगे, पृ० ९०-९१ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन अनुभव किया है और नई स्थिति में रह रहा हूं। मैंने दोनों को साथ लेकर चलने का प्रयत्न किया है । इसलिए मैं रूढ़िवाद और अति आधुनिकता इन दोनों अतियों से बचकर चलने में समर्थ हो सका हूं ।" प्राचीन को अपनाते समय भी उनका विवेक एवं मौलिक चिंतन सदैव जागृत रहा है । वे अनेक बार लोगों की सुप्त चेतना को झकझोरते हुए कहते हैं- "तीर्थंकरों ने कितना ही कुछ खोज लिया हो, आपकी खोज बाकी है । आपके सामने तो अभी भी सवन तिमिर है । आप प्रयत्न करें, किसी के खोजे हुए सत्य पर रुकें नहीं, क्योंकि वह आपके काम नहीं आएगा ।"" आचार्य तुलसी डा० राधाकृष्णन् के इस अभिमत से कुछ अंशों में सहमत हैं कि "आज यदि हम अपनी प्रत्येक गतिविधि में मनु द्वारा निर्दिष्ट जीवन पद्धति को ही अपनाएं तो अच्छा था कि मनु उत्पन्न ही नहीं हुए होते।" एक संगोष्ठी में लोगों की विचार चेतना को जागृत करते हुए वे कहते हैं- "महावीर ने जो कुछ कहा वही अन्तिम है, उससे आगे कुछ है ही नहीं - इस अवधारणा ने एक रेखा खींच दी है । अब इस रेखा को छोटा करने या मिटाने का साहस कौन करे ?"* उनके साहित्य को पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है कि प्राचीन संस्कारों एवं परम्पराओं से बंधे रहने पर भी युग को देखते हुए उसमें परिवर्तन लाने एवं नवीनता को स्वीकारने में वे कहीं पीछे नहीं हटे हैं । उनका स्पष्ट कथन है कि "प्राचीनता में अनुभव, उपयोगिता, दृढ़ता और धैर्य का एक लंबा इतिहास छिपा है तो नवीनता में उत्साह, आकांक्षा, क्रियाशक्ति और प्रगति की प्रचुरता है अतः अनावश्यक प्राचीनता को समेटते हुए आवश्यक नवीनता को पचाते जाना विकास का मार्ग है । एक को खंडित करके दूसरे को प्रस्तुत करना सत्य के प्रति अन्याय है । 113 उन्होंने नवीन और प्राचीन के सन्धिस्थल पर खड़े होकर दोनों को इस रूप में प्रस्तुति दी है कि नवीन प्राचीन का परिवर्तित रूप प्रतीत हो न कि ऊपर से लपेटी या थोपी वस्तु । यही कारण है कि उनके प्रवचनों में प्रतिपादित तथ्य म रूढ़ हैं और न अति आधुनिक बल्कि अतीत और वर्तमान दोनों का समन्वय है । इसी कारण उन्हें केवल प्रवचनकार ही नहीं अपितु युगव्याख्याता भी कहा जा सकता है । आस्था और तर्क का समन्वय ४५ प्रवचनकार के साथ आचार्य तुलसी एक महान् दार्शनिक भी हैं । १. बीती ताहि विसारि दे, पृ० ७८ २. बहता पानी निरमला, पृ० ९३ ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० ७८५ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आस्था और तर्क के सम्बन्ध में उनकी मौलिक विचारणा इस विषय का एक निदर्शन है। वे कहते हैं-'उत्तम तर्क वही होता है, जो श्रद्धा के प्रकर्ष में फूटता है।" उनके चिंतन में सत्य दृष्टि यही है कि जहां तक काम करे, वहां तर्क से काम लो और जहां तर्क काम नहीं करे, वहां श्रद्धा से काम लो, क्योंकि आस्था में गतिशीलता है पर देखने-विचारने की क्षमता नहीं है। तर्क शक्ति हर तथ्य को सूक्ष्मता से देखती है पर चलने की सामर्थ्य नहीं रखती। . वे अपने जीवन का अनुभव बताते हुए एक प्रवचन में कहते हैं-'यदि हम कोरे आस्थावादी होते तो पुराणपन्थी बन जाते। यदि हम कोरे तार्किक होते तो अपने पथ से दूर चले जाते । हमने यथास्थान दोनों का सहारा लिया, इसलिए हम अपने पूर्वजों द्वारा खींची हुई लकीरों पर चलकर भी कुछ नई लकीरें खींचने में सफल हुए हैं ।'. धर्म की व्यावहारिक प्रस्तुति आचार्य तुलसी आध्यात्मिक जगत् के विश्रुत धर्मनेता हैं। उनके प्रवचनों में धर्म और अध्यात्म की चर्चा होना बहुत स्वाभाविक है। पर उन्होंने जिस पैनेपन के साथ धर्म को वर्तमान युग के समक्ष रखा है, वह सचमुच मननीय है। जीवन की अनेक समस्याओं को उन्होंने धर्म के साथ जोड़कर उसे समाहित करने का प्रयत्न किया है । ईश्वर, जीव, जगत् पुनर्जन्म आदि आध्यात्मिक चिन्तन बिन्दुओं पर उन्होंने व्यावहारिक प्रस्तुति देकर उसे जनभोग्य बनाने का प्रयत्न किया है । धर्म की रूढ़ परम्पराओं एवं धारणाओं का जो विरोध उनके साहित्य में प्रकट हुआ है, उसने केवल बौद्धिक समाज को ही आकृष्ट नहीं किया वरन् प्रधानमन्त्री से लेकर मजदूर तक सभी वर्गों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। कहा जा सकता है कि उनका प्रवचन साहित्य धर्म के व्यापक एवं असाम्प्रदायिक स्वरूप को प्रकट करने में सफल रहा है। वे अपनी यात्रा के तीन उद्देश्य बताते हैं--१. मानवता या चरित्र का निर्माण । २. धर्म समन्वय । ३. धर्मक्रांति । यही कारण है कि उन्होंने केवल धर्म को व्याख्यायित करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मानी बल्कि धार्मिक को सही धार्मिक बनाने में भी उनके चरण गतिशील रहे हैं। क्योंकि उनका मानना है "धर्म को जितनी हानि तथाकथित धार्मिकों ने पहुंचाई है उतनी तो अधार्मिकों ने भी नहीं पहुंचाई।" २१ अक्टू० १९४९ को डा० राजेन्द्रप्रसाद आचार्यश्री से मिले । उनके ओजस्वी विचार सुनकर वे अत्यन्त प्रभावित हुए। राष्ट्रपतिजी ने पत्र द्वारा अपनी प्रतिक्रिया इस भाषा में प्रेषित की-"उस दिन आपके दर्शन पाकर मैं १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १३५९ २. वही, पृ० ४११ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन बहुत अनुगृहीत हुआ। ... जिस सुलभ रीति से आप धर्म के गूढ़ तत्त्वों का प्रचार कर रहे हैं उन्हें सुनकर मैं बहुत प्रभावित हुआ और आशा करता हूं कि इस तरह का शुभ अवसर मुझे फिर मिलेगा।" आचार्यश्री तुलसी अपने प्रवचनों में अनेक बार इस बात को दोहराते हैं कि धर्म सादगी और संयम का संदेश देता है। वहां भी यदि आडम्बर, दिखावा एवं विलासिता का प्रदर्शन होता है तो फिर संयम की संस्कृति को सुरक्षित कौन रखेगा ? धर्म की स्थिति का विश्लेषण उनकी दृष्टि में इस प्रकार है-"धर्म का क्रांतिकारी स्वरूप जनता के समक्ष तभी आएगा, जब वह जनमानस को भोग से त्याग की ओर अग्रसर करे किन्तु आज त्याग भोग के लिए अग्रसर हो रहा है । यह वह कीटाणु है जो धर्म के स्वरूप को विकृत बना रहा है।' उनका स्पष्ट कथन है कि धर्म कहने, सुनने और समझाने का तत्त्व नहीं, अपितु अनुभव करने और जीने का तत्त्व है। वे तो निर्भीकतापूर्वक यहां तक कह देते हैं- "आज के चन्द्रयान व राकेट के युग में केवल मन्दिरों, मस्जिदों एवं धर्मस्थानों की शोभा बढ़ाने वाला धर्म अब बहुत दिनों तक चलने वाला नहीं है । "२ यदि धर्म और अध्यात्म को प्रयोगात्मक नहीं बनाया तो एक दिन वह अमान्य हो जाएगा। धर्म के क्षेत्र में उनकी यह दृष्टि कितनी वैज्ञानिक और व्यावहारिक है। धर्म और विज्ञान का समन्वय एक सम्प्रदाय के गुरु एवं धर्मनेता होते हुए भी उनके प्रवचन केवल धर्म की व्याख्या ही नहीं करते वरन् विज्ञान का समावेश भी उनमें है। व्यवहार में दोनों की दिशाएं भिन्न-भिन्न हैं क्योंकि साहित्य में भावनाओं और संवेगों को प्राथमिकता दी जाती है जबकि विज्ञान के लिए ये काल्पनिक हैं। उनकी पैनी दृष्टि ने दोनों के बीच पूरकता को देखा ही नहीं उसे समझने का भी प्रयत्न किया है। उनकी दृष्टि में कोरा विज्ञान विध्वंसक तथा कोरा अध्यात्म रूढ़ है, अतः "आध्यात्मिक-वैज्ञानिक-व्यक्तित्व" की कल्पना ही नहीं की उसे प्रयोग की धरती पर उतार कर इतिहास में एक नए अध्याय का सृजन भी किया है। धर्मशास्त्र के विरुद्ध विज्ञान की नयी खोज का प्रसंग उपस्थित होने पर भी उनका बौद्धिक, उदार एवं अनाग्रही मानस वैज्ञानिक सत्य को स्वीकारने में हिचकिचाता नहीं और न ही धर्मशास्त्र के प्रति अनास्था व्यक्त करता है। चन्द्रयात्रियों ने चांद का जो स्वरूप व्यक्त किया उसे सुनकर आचार्य तुलसी ने १. जैन भारती, २४ जुलाई १९६६ . २. जैन भारती, १० अक्टू० १९७१ ३. जैन भारती, जन० १९६८ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अपनी सन्तुलित एवं सटीक टिप्पणी व्यक्त करते हुए कहा-"यह अच्छा ही हुआ, जिस सत्य से हम आज तक अनजान थे वह आज अनावृत हो गया । हो सकता है, सत्य का यह अनावरण हमारी परम्पराओं पर चोट करने वाला हो, हमारे लिए प्रिय नहीं हो, फिर भी वे लोग बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने अथक परिश्रम से एक महान् तथ्य का उद्घाटन किया है । हम न तो प्रत्यक्ष तथ्यों को असत्य या अप्रामाणिक बनाने की चेष्टा करें और न ही अध्यात्म के प्रति अपनी आस्था को शिथिल करें।" दो विरोधी तथ्यों में तराजू के पलड़े की भांति निष्पक्ष मध्यस्थता करने वाला व्यक्ति ही महान हो सकता है, सत्यद्रष्टा हो सकता है । उनकी यह उदार टिप्पणी निश्चित ही रूढ़ धर्माचार्यों के लिए एक चुनौती है। आचार्यश्री तुलसी के चिन्तन एवं कर्तृत्व ने डा० वी० डी० वैश्य की निम्न पंक्तियों को सार्थक किया है-"भारत की जीनियस (प्रतिभा) के सच्चे प्रतिनिधि वैज्ञानिक नहीं, अपितु सन्त हैं।' जीवन-मूल्यों का विवेचन आचार्य तुलसी की अवधारणा है कि इस धरती का सबसे महत्त्वपूर्ण प्राणी मानव है । यदि उसका सही निर्माण नहीं होगा तो निर्माण की अन्य योजनाएं निरर्थक हो जाएंगी। सामाजिक दृष्टि से भी इकाई को पृथक रख कर निर्माण की बात करना असम्भव है। निर्माण की प्रक्रिया में आचार्य तुलसी व्यक्ति-सुधार से समाज-सुधार की बात कहते हैं। वे अपने विश्वास को इस भाषा में दोहराते हैं - "जब तक व्यक्ति-निर्माण की ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक समष्टि निर्माण की बात का महत्त्व दिवास्वप्न से ज्यादा नहीं होगा।"२ वे मानते हैं मैत्री, प्रमोद, करुणा और अहिंसा की पौध से मनुष्य के मन और मस्तिष्क को हरा-भरा बनाया जाए, तभी इस धरती की हरियाली अधिक उपयोगी बनेगी।" ___ जीवन-निर्माण के सूत्रों का सहज, सरल भाषा में जितना उल्लेख आचार्य तुलसी ने अपने प्रवचन साहित्य में किया है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी भाषा में जीवन-कला का व्यावहारिक सूत्र सन्तुलन है"जो व्यक्ति थोड़ी-सी खुशी में फूल जाता है, और थोड़े से दुःख में संतुलन खो देता है, आपा भूल जाता है, वह जीवन-कला में निपुण नहीं हो सकता।" उनके विचार में जीवन के सम्यक निर्माण के लिए आवश्यक है कि मानव को जीवन के उद्देश्य से परिचित कराया जाए। उनकी दृष्टि में जीवन का १. साहित्य और समाज, पृ० ३० १. जैन भारती, ३० नव० १९६९ २. तेरापंथ दिग्दर्शन, पृ० १३५ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ४९ उद्देश्य भौतिक धरातल पर नहीं, आध्यात्मिक स्तर पर निर्धारित करना आवश्यक है । जीवन के उद्देश्य से परिचित कराने वाली उनकी निम्न उक्ति अत्यन्त प्रेरक है --'' जीवन का उद्देश्य इतना ही नहीं है कि सुख-सुविधापूर्वक जीवन व्यतीत किया जाए, शोषण और अन्याय से धन पैदा किया जाए, बड़ी-बड़ी भव्य अट्टालिकाएं बनायी जाएं और भौतिक साधनों का यथेष्ट उपयोग किया जाए । उसका उद्देश्य है— उज्ज्वल आचरण, सात्त्विक वृत्ति और प्रतिक्षण आनंद का अनुभव ।" सामयिक सत्यों की प्रस्तुति एक धर्माचार्य द्वारा सामयिक संदर्भों से जुड़कर युग की समस्याओं को समाहित करने का प्रयत्न इतिहास की दुर्लभ घटना है । पर्यावरण प्रदूषण आज की ज्वलंत समस्या है। मानव के यांत्रिकीकरण और प्रकृति से दूर जाने की बात देखकर वे लोगों को चेतावनी देते हुए कहते हैं- "आदमी जितना प्रबुद्ध और सम्पन्न होता जा रहा है, प्रकृति से वह उतना ही दूर होता जा रहा है । न वह प्राकृतिक हवा में सोता है, न प्राकृतिक ईंधन से बना खाना खाता है और न प्रकृति के साथ क्रीड़ा करता है । शायद इसी कारण प्रकृति अपने तेवर बदल रही है और मनुष्य को प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है ।' प्रचुर मात्रा में प्रकृति का दोहन असंतुलन की समस्या को भयावह बना रहा है । प्रकृति के अनावश्यक दोहन एवं उपयोग के बारे में वे मानव जाति का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहते हैं- " सूखी धरती को भिगोने की क्षमता मनुष्य में हो या न हो, वह पानी का दुरुपयोग क्यों करे ? पांच किलो पानी से जो काम हो सके, उसमें सांवर खोलकर पचास किलो पानी नालियों में बहा देना पानी के संकट को बढ़ाने की बात नहीं है क्या ? वे तो वैज्ञानिकों को यहां तक चेतावनी दे चुके हैं - 'जब से मनुष्य ने पदार्थ की ऊर्जा में हस्तक्षेप शुरू किया, उसी दिन से मनुष्य का अस्तित्व विनाश के कगार पर खड़ा है । ३ 13 ܙܙ वर्तमान क्षण के सुख में डूबा मनुष्य भविष्य की कठिनाइयों की ओर से आंख मूंद रहा है । उनकी यह अभिप्रेरणा अनेक प्रसंगों में मुखर होती है । वे जन-साधारण को संयम का संदेश देते हुए कहते हैं- "जब तक मानव संयम की ओर नहीं मुड़ेगा, पिशाचिनी की तरह मुंह बाए खड़ी विषम समस्याएं उसका पीछा नहीं छोड़ेंगी । "" १२. अणुव्रत, १६ अप्रेल ९० ३. कुहासे में उगता सूरज, पृ. ३८ ४. एक बूंद : एक सागर, पृ. १४०९ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण संस्कृति के स्वर संतता संस्कृति की वाहक होती है अतः संत ही अधिक प्रामाणिक तरीके से सांस्कृतिक तत्त्वों की सुरक्षा कर सकते हैं। आचार्य तुलसी के प्रवचन माहित्य में भारतीय संस्कृति का आलोक सर्वत्र बिखरा मिलेगा। भारतीय चिंतनधारा में उनकी विचारणा एक नया द्वार उद्घाटित करने वाली है । उनकी दृष्टि में संस्कृति कोई अनगढ़ पाषाण का नाम नहीं अपितु चिंतन, अनुभव और लगन की छनियों से तराशी गयी सुघड़ प्रतिमा संस्कृति है। उनके विचारों में संस्कृति पहाड़ों, तीर्थक्षेत्रों और विशाल भवनों में नहीं अपितु जन-जीवन में होती है । इसी सूक्ष्म एवं विशाल दृष्टि के कारण उनके प्रवचनों में लोकसंस्कृति को उन्नत एवं समृद्ध बनाने के अनेक तत्त्व निहित हैं । भारतीय संस्कृति में पनपी जड़ता को उन्होंने प्रवचनों के माध्यम से तोड़ने का भरसक प्रयत्न किया है। उनका स्पष्ट चिंतन है कि पाश्चात्त्य संस्कृति की नकल करके हम न तो उन्नत बन सकते हैं और न ही अपने अस्तित्व की रक्षा करने में समर्थ हो सकते हैं । वे अनेक बार अपने प्रवचनों में इस खतरे को प्रकट कर चुके हैं कि भारतीय संस्कृति को विदेशी लोगों से उतना खतरा नहीं, अपितु इस संस्कृतिमें जीने वालों से है क्योंकि वे अपनी संस्कृति को महत्त्व न देकर दूसरों को महत्त्व प्रदान कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाने के सूत्र वे समय-समय पर अपने प्रवचनों में प्रदान करते रहते हैं--"अणुव्रतों के द्वारा अणुबमों की भयंकरता का विनाश हो, अभय के द्वारा भय का विनाश हो, त्याग के द्वारा संग्रह का ह्रास हो, ये घोष सभ्यता, संस्कृति और कला के प्रतीक बनें तभी जीवन की दिशा बदल सकती है।" संस्कृति के संदर्भ में संकीर्णता की मनोवृत्ति उन्हें कभी मान्य नहीं रही है । वे हिन्दू संस्कृति को बहुत व्यापक परिवेश में देखते हैं । हिन्दू शब्द की जो नवीन व्याख्या आचार्यश्री ने दी है, वह देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में पर्याप्त है। वे कहते हैं-'यदि हिंदू शब्द की गरिमा बढ़ानी है तो उसे वैदिक विचारों के संकीर्ण घेरे से निकालना होगा। हिंदुत्व के सिंहासन पर जब तक वैदिक विचार छाया रहेगा, तब तक जैन, बौद्ध और अन्य धर्म उनके निकट कैसे जा सकेंगे ? अतः हिन्दू शब्द को धर्म विशेष के साथ जोड़ना उसे साम्प्रदायिक और संकीर्ण बनाना है।"२ संस्कृति को व्याख्यायित करती उनकी निम्न पंक्तियां कितनी वेधक बन पड़ी हैं- "हिंदू होने का अर्थ यदि मुसलमान के विरोध में खड़ा होना हो १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४२० २. अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत, पृ० ८०,८१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन तो मैं उसे संस्कृति की संज्ञा नहीं दे सकता । मुसलमान होने का अर्थ यदि हिंदू के विरोध में खड़ा होना हो तो उसे भी मैं संस्कृति की संज्ञा देना नहीं चाहूंगा।' उनकी दृष्टि में संस्कृति की श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता ही किसी संस्कृति का मूल्य-मानक है । इससे हटकर साम्प्रदायिकता, जातीयता आदि के बटखरों से उसे तोलना यथार्थ से परे होना है । ___ आचार्य तुलसी शिक्षा को संस्कृति के पूरक तत्त्व के रूप में ग्रहण करते हैं । उनकी दृष्टि में शिक्षा संस्कृति को परिष्कृत करने का एक अंग है। इस क्षेत्र में उनका स्पष्ट कथन है कि शिक्षा का सम्बन्ध आचरण के परिष्कार के साय होना चाहिए। यदि आचरण परिष्कृत नहीं है तो शिक्षित और अशिक्षित में कोई अंतर नहीं हो सकता है । शिक्षा के संदर्भ में उनकी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी है--- "शिक्षा प्राप्त करने का उद्देश्य केवल बौद्धिक विकास या डिग्री पाना ही हो, यह दृष्टिकोण की संकीर्णता है । क्योंकि शिक्षा का सम्बन्ध शरीर, मन, बुद्धि और भाव सबके साथ है। एकांगी विकास की तुलना शरीर की उस स्थिति के साथ की जा सकती है, जिसमें सिर बड़ा हो जाए और हाथ पांव दुबले-पतले रहें। शरीर की भांति व्यक्तित्व का असंतुलित विकास उसके भौंडेपन को प्रदर्शित करता है। वे शिक्षा के साथ नैतिक विकास का होना अत्यन्त आवश्यक मानते हैं। यदि शिक्षा का आधार नैतिक बोध नहीं हुआ तो वह अशिक्षा से भी अधिक भयंकर हो जाएगी। वे मानते हैं जिस शिक्षा के साथ अनुशासन, धैर्य, सहअस्तित्व, जागरूकता आदि जीवन-मूल्यों का विकास नहीं होता, उस शिक्षा की जीवंत दृष्टि के आगे प्रश्नचिह्न उभर आता है । अतः शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है, जीवन मूल्यों को समझना, यथार्थ को जानना तथा उसे पाने की योग्यता हासिल करना।' आज की यांत्रिक एवं निष्प्राण शिक्षापद्धति में जीवन विज्ञान के माध्यम से उन्होंने नव प्राणप्रतिष्ठा की है तथा इसके अभिनव प्रयोगों से शिक्षा द्वारा अखंड व्यक्तित्व निर्माण की योजना प्रस्तुत की है। जीवन विज्ञान के साथ-साथ वे शिक्षा में क्रांति लाने हेतु त्रिआयामी चर्चा प्रस्तुत करते हैं। वे मानते हैं शिक्षा तभी प्रभावी बनेगी जब विद्यार्थी, शिक्षक और अभिभावक तीनों को प्रशिक्षित और जागरूक बनाया जाए। शिक्षा संस्थान में पवित्रता बनाए रखने के लिए वे तीन बातें आवश्यक मानते १. साम्प्रदायिकता से मुक्ति १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४२२ २. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?, पृ० १३७ ३. जैन भारती, २२ जून ८६ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ २. दलगत राजनीति से मुक्ति ३. अनैतिकता से मुक्ति ।" उन्होंने अपने साहित्य में शिक्षा के सबका समाकलन किया जाए तो अनायास सकता है । भविष्य की चेतावनी आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आचार्य तुलसी ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जो वर्तमान में जीते हैं और भविष्य पर अपनी गहरी नजरें टिकाए रखते हैं। यही कारण है कि उनकी पारदर्शी दृष्टि आने वाले कल को युगों पूर्व पहचान लेती है । अपने प्रवचनों में वे भविष्य में आने वाले खतरों एवं बाधाओं से आगाह करते हुए उससे बचने का संदेश भी समाज को बराबर देते रहते हैं । सन् १९५०, दिल्ली के टाउन हाल में प्रबुद्ध एवं पूंजीपति लोगों को भविष्य की चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा -- "एक समय था जबकि हिंदुस्तान के बहुत बड़े भाग में राजाओं का एक छत्र शासन था किन्तु समय के अनुकूल न चलने के कारण जनता ने उन्हें पछाड़ दिया । राजाओं के बाद धनिकों पर भी युग का नेत्रबिंदु टिक सकता है और उसका सम्भावित परिणाम भी स्पष्ट है । ऐसी स्थिति में उन्हें सोचना चाहिए कि जो बड़प्पन और आत्मगौरव स्वेच्छापूर्वक त्याग में है, डंडे के बल से छोड़ने में नहीं है ।"" आज आसाम और बंगाल की विषम स्थितियां तथा धनिकों को दी जाने वाली चेतावनियां उनकी ४३ साल पूर्व कही बात को सत्य साबित कर रही हैं । आज राजनीतिज्ञ लोग निःशस्त्रीकरण और अहिंसा के विकास की बात सोच रहे हैं पर आचार्य तुलसी ने सन् १९५० में दिल्ली की विशाल सभा में अहिंसा के भविष्य की उद्घोषणा करते हुए कहा - " वह दिन आने वाला है, जब पशुबल से उकताई दुनिया भारतीय जीवन से अहिंसा और शांति की भीख मांगेगी ।" १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १३४६ २ १९५०, टाउन हाल, दिल्ली १. सन १९५०, दिल्ली इतने पहलुओं को छुआ है कि उन ही पूरा शोधप्रबन्ध लिखा जा प्रवचन को भाषा शैली आचार्य तुलसी की प्रवचन साधना किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं है। उन्होंने समाज के लगभग सभी वर्गों को सम्बोधित किया है, इसलिए पात्र - भेद के अनुसार संप्रेषणीयता की दृष्टि से उनके प्रवचनों की भाषा-शैली में अन्तर आना स्वाभाविक है, साथ ही समय की गति के अनुसार भी उन्होंने अपनी भाषा में परिवर्तन किया है। वे स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ---"जब जैसी जनता सामने होती है, मैं अपने प्रवचन का विषय, भाषा और शैली बदल लेता हूं।' आचार्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में उनके प्रवचन प्रायः राजस्थानी भाषा में होते थे किन्तु आज वे सुरक्षित नहीं हैं । बाद में जन-जन तक अपनी क्रांत वाणी को पहुंचाने के लिए उन्होंने राष्ट्र-भाषा हिन्दी को प्रवचन का माध्यम बनाया । हिन्दी प्रवचनों की उनकी पचासों पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी हैं तथा अनेक पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। उनकी विद्वत्ता भाषा में उलझकर जटिल एवं बोझिल नहीं, अपितु अनुभूति की उष्णता से तरल बन गयी है। आस्तिक हो या नास्तिक, विद्वान् हो या अनपढ़, धनी हो या गरीब, स्त्री हो या पुरुष, बालक हो या वृद्ध सभी एक रस, एकतान होकर उनकी वाणी के जादू से बंध जाते हैं। उनकी वाणी में वह आकर्षण है कि जो प्रभाव रोटरी क्लब और वकील ऐसोसिएशन के सदस्यों के बीच पड़ता है, वही प्रभाव संस्कृत और दर्शन के प्रकाण्ड पण्डितों के मध्य पड़ता है। पूरे प्रवचन साहित्य में भाषागत यही आदर्श दिखलाई पड़ता है कि वे अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं । अतः उनके प्रवचन साहित्य में कठिन से कठिन दार्शनिक विषय भी व्यावहारिक, सहज, सरस, सजीव, सुबोध एवं अर्थपूर्ण भाषा में व्यक्त हुए हैं। लांग फेलो की निम्न उक्ति उनके प्रवचन की भाषा-शैली में पूर्णतया खरी उतरती है-''व्यवहार में, शैली में और अपने तौर तरीकों में सरलता ही सबसे बड़ा गुण है। नरेन्द्र कोहली कहते हैं --- 'पाठक सब कुछ क्षमा कर सकता है, पर लेखक में बनावट, दिखावा, लालसा को क्षमा नहीं कर सकता।" अनुभूति की सचाई अभिव्यक्त होने के कारण उनके प्रवचन साहित्य की भाषा साहित्यक न होने पर भी सरल और प्रवाहमयी है। उसमें आत्मबल और संयम का तेज जुड़ने से वह प्रभावी बन गयी है । यही कारण है कि वे अपनी वाणी के प्रभाव में कहीं भी संदिग्ध नहीं हैं "मैं जानता हूं, मेरे पास न रेडियो है, न अखबार है और न आज के प्रचार योग्य वैज्ञानिक साधन हैं। ...... लेकिन मेरी वाणी में आत्मबल है, आत्मा की तीव्र शक्ति है और मुझे अपने संदेश के प्रति आत्मविश्वास है फिर कोई कारण नहीं, मेरी यह आवाज जनता के कानों से नहीं टकराए। प्रवचन शैली के बारे में अपना अभिमत व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-"प्रवचन शैली का जहां तक प्रश्न है, मैं नहीं जानता उसमें कोई विशिष्टता है । न मैं दार्शनिक लहजे में बोलता हूं और न मेरी भाषा पर कोई साहित्यिक प्रभाव ही होता है । मैं तो अपनी मातृभाषा (राजस्थानी) अथवा १. प्रेमचन्द्र, पृ० १९३ २. १५ अगस्त १९४७, प्रथम स्वाधीनता दिवस पर प्रदत्त Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण राष्ट्रभाषा में अपने मन की बात जनता के सामने रख देता हूं। उससे यदि जनता आकृष्ट होती है तो यह उसकी गुणग्राहकता है । मैं तो मात्र निमित्त उनकी प्रवचन शैली का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य चित्रात्मकता है । प्रवचन के मध्य जब वे किसी कथा को कहते हैं तो ऐसा लगता है मानो वह घटना सामने घट रही है। स्वरों का उतार-चढ़ाव तथा शरीर के हाव-भाव सभी उस घटना को सचित्र एवं सजीव करने में लग जाते हैं । उनकी प्रवचन शैली में चमत्कार आने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि वे सभा के अनुरूप अपने को ढाल लेते हैं । डाक्टरों की एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए वे कहते हैं "माज मैं डाक्टरों की सभा में आया हूं तो स्वयं डाक्टर बनकर आया हूं । जो व्यक्ति जहां जाये उसे वहीं का हो जाना चाहिए। आप डाक्टर हैं तो मैं भी एक डाक्टर हूं। आप देह की चिकित्सा करते हैं, तो मैं आत्मा की चिकित्सा करता हूं । आप विभिन्न उपकरणों से रोग का निदान करते हैं तो मैं मनुष्यों के हृदय को टटोलकर उसकी चिकित्सा करता हूं। आप प्रतिदिन नये-नये प्रयोग करते रहते हैं तो मैं भी अपनी अध्यात्म प्रचार पद्धति में परिवर्तन करता रहता हूँ। आचार्य तुलसी ने अपने प्रवचनों में अनेकांत शैली का प्रयोग किया है। अनेक स्थानों पर तो वे जीवन के अनुभवों को भी अनेकांत शैली में प्रस्तुत करते हैं । अनेकांत शैली का एक अनुभव निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है.---"मैं अकिंचन हूं। गरीब मानें तो सबसे बड़ा गरीब हूं और अमीर माने तो सबसे बड़ा अमीर हूं। गरीब इसलिए हूं क्योंकि पूंजी के नाम पर मेरे पास एक नया पैसा भी नहीं है और अमीर इसलिए हूं क्योंकि कोई चाह नहीं है।" उनकी प्रवचन शैली का वैशिष्ट्य है कि वे समय के अनुसार अपनी बात को नया मोड़ दे देते हैं। उनके प्रवचनों की प्रासंगिकता का सबसे बड़ा कारण यही है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सबको देखते हुए वे अपनी बात कहते हैं । होली के पर्व पर लोगों की धार्मिक चेतना को झकझोरते हुए वे कहते हैं. "आज होली का पर्व है । लोग विभिन्न रंग घोलते हैं, तो क्या मैं कह दूं कि आज का मानव दुरंगा है । क्योंकि उसके पास दो पिचकारियां हैं । दीखने में कुछ और है और कहने में कुछ और। वह बातों में इतना चिंतनशील लगता है मानो उससे अधिक धार्मिक कोई और है या नहीं। मन्दिर में जब १. बहता पानी निरमला, पृ० १२० २. जैन भारती, २८ अक्टू० १९६५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन वह पूजन करता हे तब लगता है मानो उसमें देवत्व का निवास है, किन्तु बाजार में वह यमराज बन जाता है । पाठ पूजा करते समय वह प्रह्लाद को भी मात करता है, पर जब उसे अधिकार की कुर्सी पर देखो तो शायद हिरणांकुश वही है। ..."उस मानव को दुरंगा नहीं कहूं तो क्या कहूं।'' विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए उनकी वाणी कितनी हृदयस्पर्शी एवं सामयिक बन पड़ी है-"विद्यार्थियों ! मैं स्वयं विद्यार्थी हूं और जीवन भर विद्यार्थी बने रहना चाहता हूं।".... विद्यार्थी रहने वाला जीवन भर नया आलोक पाता.है, विद्वान् बन जाने के बाद प्राप्ति का मार्ग रुक जाता है । प्रवचन साहित्य : एक समीक्षा उनके विशाल प्रवचन साहित्य में विषय की गम्भीरता, अनुभवों की ठोसता एवं व्यावहारिक ज्ञान की झांकी स्पष्ट देखी जा सकती है। फिर भी इस साहित्य की समालोचना निम्न बिन्दुओं में की जा सकती है जनभोग्य होने के कारण इसमें नया शिल्पन एवं साहित्यिक भाषा के प्रयोग कम हुए हैं पर जीवन की सचाइयों से यह साहित्य पूरी तरह संपृक्त है। उनके इस साहित्य का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि यह निराशा में आशा की ज्योति प्रज्वलित करता है तथा जन-जन में नैतिकता की अलख जगाता है । वे मानते हैं कि यदि मैं अपने प्रवचन में नैतिकता की बात नहीं कहूंगा तो मेरे प्रवचन की सार्थकता ही क्या है ? . एक ही प्रवचन में पाठक को विषयान्तर की प्रवृत्ति मिल सकती है। अनेक स्थलों पर भावों की पुनरावृत्ति भी हुई है पर जिन मूल्यों की वे चर्चा कर रहे हैं, उन्हें जन-जन में आत्मसात करवाने के लिए ऐसा होना बहुत आवश्यक है । उनकी विशाल प्रवचन सभा में भिन्न-भिन्न रुचि एवं भिन्न वर्गों के लोग उपस्थित रहते हैं। अतः उन सबको मानसिक खुराक मिल सके यह ध्यान रखना प्रवचनकर्ता के लिए आवश्यक हो जाता है । इसीलिए अनेक स्थलों पर अवान्तर विषयों का समावेश मूल विचार में आघात करने के स्थान पर उसके अनेक पहलुओं को ही स्पष्ट करता है। साहित्य का सत्य देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलता है अतः इस साहित्य में भी कहीं-कहीं परस्पर विरोधी बातें मिलती हैं पर यह विरोधाभास उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों का जीवन्त रूप है तथा आग्रह मुक्त मानस का परिचायक है। सहजता, सरलता, प्रभावोत्पादकता, भावप्रवणता एवं व्यावहारिकता से संशिलष्ट उनका प्रवचन साहित्य युगों-युगों तक विश्व चेतना पर अपनी अमिट छाप छोड़ता रहेगा। १. जैन भारती, १८ मार्च १९६१ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण भाषा शैली सत्य की अभिव्यंजना तथा अन्तर्जगत् को प्रकट करने का एकमात्र साधन भाषा है। यदि इसके बिना भी हम अपने भावों को एक-दूसरे तक पहुंचा सकें तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं रहती पर यह हमारे भावों का अनुवाद दूसरों तक पहुंचाती है अतः मनुष्य के हर प्रयत्न के अध्ययन में भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है । भाषा के बारे में आचार्य तुलसी का अभिमत है-- "भाषा के मूल्य से भी अधिक महत्त्व उसमें निबद्ध ज्ञान राशि का है, जो मानवीय विचार धारा में एक अभिनव चेतना और स्फूर्ति प्रदान करती है। भाषा अभिव्यक्ति का साधन है, साध्य नहीं।" भाषा के बारे में जैनेन्द्रजी का मंतव्य बहुत स्पष्ट एवं मननीय है"मेरी मान्यता है कि भाषा स्वयं कुछ रहे ही नहीं, केवल भावों की अभिव्यक्ति के लिए हो। भाव के साथ वह इतनी तद्गत हो कि तनिक भी न कहा जा सके कि भाव उसके आश्रित हैं। अर्थात् भाव उसमें से पाठक को ऐसा सीधा मिले कि बीच में लेने के लिए कहीं भाषा का अस्तित्व रहा है, यह अनुभव न हो।'' अतः भाषा की सफलता बनाव शृंगार में नहीं, अपितु भावानुरूप अर्थाभिव्यक्ति में है। आचार्य तुलसी की भाषा इस निकष पर खरी उतरती है । वे जनता के लिए बोलते या लिखते हैं अतः हर स्थिति में उनकी भाषा सहज, सरल, व्यापक, हार्दिक, सुबोध एवं सशक्त है । भाषा की बोधगम्यता के पीछे उनकी साधना की शक्ति बोलती है-निर्ग्रन्थ व्यक्तित्व मुखर होता है। उनकी भाषा मात्मा से निकलती है और दूसरों को भी आत्मदर्शन की ताकत देती है। इस बात की पुष्टि हजारीप्रसाद द्विवेदी भी करते हैं-- "गहन साधना के बिना भाषा सहज नहीं हो सकती। यह सहज भाषा व्याकरण और भाषाशास्त्र के अध्ययन से भी प्राप्त नहीं की जा सकती, कोशों में प्रयुक्त शब्दों के अनुपात में इसे नहीं गढ़ा जा सकता।" कबीर, रहीम, राजिया और आचार्य भिक्षु आदि को यह भाषा मिली और इसी परंपरा में आचार्य तुलसी का नाम भी स्वतः जुड़ जाता है। उनकी भाषा आकर्षक एवं प्रसाद गुण-सम्पन्न है। इसका कारण है। कि जो उनके भीतर है, वही बाहर आता है । मैथिलीशरण गुप्त इस मत की १. साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० १४७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन पुष्टि यों करते हैं-'मन यदि उलझनों से भरा है तो भाषा की गति अत्यन्त धीमी, दुर्बोध और चकरीली हो जाती है।' आचार्य तुलसी का मन तनाव और उलझनों से कोसों दूर रहता है अतः उनकी भाषा में विसंगति का प्रसंग ही नहीं आता । साधना की आंच में तपा हुआ उनका मानस कभी कथनी और करणी में द्वैत नहीं डालता।। "जिस दिन मानव को वस्तु की अभिव्यक्ति में विलक्षणता लाने की गति मति जागी, उसी दिन से शैली का विवेचन तथा विचार प्रारम्भ हुना।" आचार्य क्षेमचंद्र सुमन की यह अभिव्यक्ति शैली के प्रारंभ की कथा कहती है पर जब से भादमी ने किसी विषय में सोचना या लिखना प्रारंभ किया तभी शैली का प्रादुर्भाव हो गया क्योंकि शब्दों की कलात्मक योजना ही शैली है । "शैली भाषा की अभिव्यंजना शक्ति की परिचायक है।' अंग्रेजी कवि पोप शैली को व्यक्ति के विचारों की पोशाक मानते हैं किन्तु शैली विचारक मरे इससे भी आगे बढ़कर कहते हैं कि शैली लेखक के विचारों की पोशाक नहीं, अपितु जीव है, जिसके अन्दर मांस, हड्डी और खून है ।" शैली के परिप्रेक्ष्य में ही उनका एक अन्य उद्धरण भी मननीय है-'शैली भाषा का वह गुण है, जो लाघव से रचयिता के मनोभावों, विचारों अथवा प्रणाली का संवहन करती है। शैली किसी से उधार मांगी या दी नहीं जाती क्योंकि वह किसी भी साहित्यकार के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग होती है। यही कारण है कि किसी भी रचना को पढ़ते ही यह ज्ञान किया जा सकता है कि यह अमुक व्यक्ति की रचना है । शैली साहित्य की उच्चतम निधि है । पाश्चात्त्य एवं प्राच्य विद्वानों की सैकड़ों परिभाषाएं शैली के बारे में मिलती हैं पर प्रसिद्ध समालोचक बाबू गुलाबराय ने दोनों मतों का समन्वय करके इसे मध्यम मार्ग के रूप में ग्रहण किया है । वे शैली को न नितान्त व्यक्तिपरक मानते हैं और न वस्तुपरक ही। उनका मानना है कि शैली में न तो इतना निजीपन हो कि वह सनक की हद तक पहुंच जाए और न इतनी सामान्यता हो कि नीरस और निर्जीव हो जाए । शैली अभिव्यक्ति के उन गुणों को कहते हैं, जिन्हें लेखक या कवि अपने मन के प्रभाव को समान रूप से दूसरों तक पहुंचाने के लिए अपनाता है। __ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार उपयुक्त शब्दों का चुनाव, स्वर और व्यंजनों को मधुर योजना, वाक्यों का सही विन्यास तथा विचारों १. साहित्य विवेचन, पृ० ४४ २. आधुनिक गद्य एवं गद्यकार, पृ० १ ३-४. M. Murra, Problems of style, पृ० ७१,१३६ ५. सिद्धांत और अध्ययन, पृ० १९० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण का विकास शैली के मौलिक तत्व हैं। यही कारण है कि कोई भी साहित्यकार केवल सुन्दर भावों से युक्त होने पर ही अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता, उसमें प्रतिपादन शैली का सौष्ठव होना भी अनिवार्य है। यदि शैली सुघड़ है तो वक्तव्य वस्तु में सार कम होने पर भी वह ग्रहणीय बन जाती है । पाश्चात्त्य विद्वानों के अनुसार अच्छी शैली के लिए लेखक के व्यक्तित्व में विचार, ज्ञान, अनुभव तथा तर्क इत्यादि गुणों की अपेक्षा होती है। जो व्यक्तित्व जितना सप्राण, विशाल, संवेदनशील और ग्रहणशील होगा, उसकी शैली उतनी ही विशिष्ट होगी क्योंकि शैली को व्यक्तित्व का प्रतिरूप कहा जाता है (स्टाइल इज द मैन इटसेल्फ) । समर्थ व्यक्तित्व अपनी प्रत्येक रचना में अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ प्रतिबिम्बित रहता है। लेखक का प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक पद, प्रत्येक शब्द उसके नाम का जयघोष करता सुनाई देता है। - यद्यपि शैली व्यक्तित्व से प्रभावित होती है फिर भी कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो उसे विशिष्ट बनाते हैं १. देश और काल की स्थितियां शैली को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं । अगर तुलसी, सूर, बिहारी या आचार्य भिक्षु इस युग में आते तो उनके कहने या लिखने का तरीका बिलकुल भिन्न होता । २. वक्तव्य विषय को हृदयंगम कराने हेतु विविध रूपकों, कथाओं, दोहों एवं सोरठों का प्रयोग । ३. विविध शास्त्रीय तत्त्वों का उचित सामंजस्य । ४. विषय और विचार में तादात्म्य । ५. सत्यस्पर्शी कल्पना। ६. लेखक के मन और आत्मा, बुद्धि और भावना तथा हृदय और मस्तिष्क का सामंजस्य एवं संतुलन । ७. व्यंजना ऐसी हो, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म स्थिति में ले जाने के लिए पाठक को चुनौती दे, जिसे पढ़े बिना पाठक प्रसंग छोड़ने में असमर्थ हो जाए। ८. वाक्य विन्यास जटिल न होकर सरल हो, जिसको पढ़कर हर वर्ग के पाठक को वही आनन्द हो जो किसी कठिनाई पर विजय पाने वाले को होता है। आचार्य तुलसी की लेखनशैली की अपनी विशेषताएं हैं। उन्होंने अपने हर मनोगत भावों की अभिव्यक्ति इतने रमणीय, आकर्षक और प्रभावोत्पादक ढंग से दी है कि उनकी रचना पढ़ते ही पाठक के भीतर अभिनव हर्ष एवं शक्ति का संचार होने लगता है। शैलीगत नवीनता उनको प्रिय है इसलिए वे अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं---"नए रूप, नयी विधा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन और नए शिल्पन से मेरा व्यामोह है, यह बात तो नहीं है फिर भी नवीनता मुझे प्रिय है क्योंकि मेरा यह अभिमत है कि शैलीगत नव्यता भी विचार संप्रेषण का एक सशक्त माध्यम है । सृजन की अनाहत धारा स्रष्टा और द्रष्टा दोनों को ही भीतर तक इतना भिगो देती है कि लौकिक शब्दों में लोकोत्तर अर्थ की आत्मा निखरने लगती है।" शैली लेखक के सोचने और देखने का अपना तरीका है अतः प्रत्येक साहित्यकार की शैली के कुछ विशिष्ट गुण होते हैं । आचार्य तुलसी की भाषा-शैली की कुछ निजी विशेषताओं का अंकन निम्न बिन्दुओं में किया जा सकता है प्राचीन जीवन-मूल्यों की सीधी-साधी भाषा में प्रस्तुति किसी सोए मानस को झकझोर कर नहीं जगा सकती। उन्होंने प्राचीन मूल्यों को आधुनिक भाषा का परिधान पहनाकर उसकी इतनी सरस और नवीन प्रस्तुति दी है कि उसे पढ़कर कोई भी आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता। पांच महाव्रत के स्वरूप को अनुभूति के साथ जोड़ते हुए वे कहते हैं- "मैं शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहता हूं क्या अहिंसा इससे भिन्न है ? मैं यथार्थ जीवन जीना चाहता हूं, क्या सत्य इससे भिन्न है ? मैं प्रामाणिक जीवन जीना चाहता हूं, क्या अस्तेय इससे पृथक् चीज है ? मैं शक्ति-सम्पन्न और वीर्यवान जीवन जीना चाहता हूं, क्या ब्रह्मचर्य इससे भिन्न है ? मैं संयमी जीवन जीना चाहता हूं क्या अपरिग्रह इससे भिन्न है ?" काव्य की भांति उनके गद्यसाहित्य में भी कहीं-कहीं ऐसी भाषा का प्रयोग हुआ है, जिसमें कलात्मकता एकदम मुखर हो उठी है तथा उसमें आलंकारिता की छवि भी निखर भायी है। प्रस्तुत वाक्यों में यमक एवं श्लेष का चमत्कार दर्शनीय है-- १. 'हमने तो टप्पे को टाल दिया था किन्तु टप्पे वालों की भावना इतनी तीव्र थी कि टप्पा लेना ही पड़ा।' २. 'आज इतवार है पर एतबार है क्या ? ३. 'यदि जीवन पाक नहीं है तो पाकिस्तान बनाने से क्या होने वाला है ?' गद्य साहित्य में भी उनका उपमा वैचित्य अनुपम है। अनेक नई उपमाओं का प्रयोग उनके साहित्य में मिलता है। निम्न उदाहरण उनके उपमा प्रयोग के सफल नमूने कहे जा सकते हैं___० 'बच्चे-बच्चे के मुख पर झूठ और कपट ऐसे हैं मानो वह ग्रीष्म ऋतु की लू है। जो कहीं भी जाइए, सब जगह व्याप्त मिलेगी।"3 १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७०६ २. राजस्थान में 'टप्पा' चक्कर खाने को कहते हैं । ३. जैन भारती, २१ मई ५३ पृ० २७४ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ० 'बीच में भौतिकता का विशालकाय समुद्र पड़ा है अब आपको बुराई रूपी रावण की हत्या कर अशांति युक्त शत्रु सेना को मारकर शांति सीता को लाना है।' ___ लोकोक्तियों को सामाजिक जीवन का नीतिशास्त्र कहा जा सकता है क्योंकि वे लोकजीवन के समीप होती हैं। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से उनकी भाषा व्यंजक एवं सजीव बन गई है। अनेक अप्रचलित लोकोक्तियों को भी उन्होंने अपने साहित्य में स्थान दिया है। राजस्थानी लोकोक्तियों का तो उन्होंने खुलकर प्रयोग किया है, जिससे उनके साहित्य में अर्थगत चमत्कार का समावेश हो गया है १. जहां चाह, वहां राह १ जाओ लाख, रहो साख २. पेंडो भलो न कोस को, बेटी भली न एक ३. तीजे लोक पतीजे। साहित्यिक मुहावरे नहीं अपितु जन-जीवन एवं ग्राम्य जीवन के बोलचाल में आने वाले मुहावरों का प्रयोग उनकी भाषा में अधिक मिलता हैं। क्योंकि उनका लक्ष्य भाषा को अलंकृत करना नहीं अपितु सही तथ्य को जनता के गले उतारना है । भारतीय ही नहीं विदेशी कहावतों का प्रयोग भी उनके साहित्य में यत्र-तत्र हुआ है। 'अरबी कहावत है कि गधा दूसरी बार उसी गड्ढे में नहीं गिरता-- गधे की यह समझ मनुष्य में आ जाए तो अनेक हादसों को टाला जा सकता लोकोक्तियों के अतिरिक्त शास्त्रीय उद्धरण एवं महापुरुषों के सूक्तिवाक्यों के प्रयोग उनकी बहुश्रुतता का दिग्दर्शन कराते हैं १. मरणसम नत्थि भयं । २. नो हरिसे, नो कुज्झे। ३. इयाणि णो जमहं पुवमकासी पमाएणं । ४. न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । कबीर, राजिया, रहीम, आचार्य भिक्षु आदि के सैकड़ों दोहे तो उनको अपने नाम की भांति मुखस्थ हैं अतः समय-समय पर उनके माध्यम से भी वे जन-चेतना को उद्बोधित करते रहते हैं, जिससे उनकी भाषा में चित्रात्मकता, सरसता एवं सरलता आ गई है। प्राच्य के साथ साथ पाश्चात्त्य विद्वानों के विचार एवं घटना-प्रसंग भी प्रचुर मात्रा में उनके साहित्य में देखे जा सकते हैं--- ० लेनिन का अभिमत रहा है कि प्रथम श्रेणी के व्यक्तियों को चुनाव १. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ६७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन में नहीं जाना चाहिए। ० गांधीजी ने कहा था-'वह दुर्भाग्य का दिन होगा, जिस दिन राष्ट्र में संत नहीं होंगे।' ० नेपोलियन कहा करता था-'मैं जिस मार्ग से आगे बढ़ना चाहता हूं, वहां बीच में पहाड़ आ जाएं तो एक बार हटकर मुझे रास्ता दे देते हैं।' वे भाषा को गतिशील धारा के रूप में स्वीकार करते हैं। यही कारण है कि उन्होंने अपने साहित्य में अन्य भाषा के शब्दों का भी यथोचित समावेश किया है। हिन्दी में प्रचलित अरबी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, गुजराती, बंगाली आदि भाषाओं के अनेक शब्दों को उन्होंने अपनी भाषा का अंग बना लिया है जैसे ____ मजहब, बरकरार, बेगुनाह, फुरसत, चंगा, जमाना, बुनियाद, तूफान, गुंजाइश, बियावान, टेंशन, टाईम, यंग, करेक्टर, मेन, गुड, प्रोग्रेस, रिजर्व एकला आदि। राजस्थानी मातृभाषा होने के कारण हिंदी साहित्य में भी अनेक विशुद्ध राजस्थानी शब्दों का प्रयोग उनके साहित्य में मिलता है--ठिकाना' (स्थान) सीयालो (शीतकाल) जाणवाजोग (जाननेयोग्य) टाबर आदि । __ कहीं-कहीं प्रसंग वश अंग्रेजी के वाक्यों का प्रयोग भी उनके साहित्य में हुआ है __ "लोग स्टेण्डर्ड ऑफ लिविंग को गौण मानकर स्टेण्डर्ड ऑफ लाइफ को ऊंचा उठाए।" संस्कृत कोश एवं व्याकरण के प्रकाण्ड पण्डित होने के कारण हिन्दी में संधियुक्त एवं समस्त पदों का प्रयोग भी बहुलता से उनके साहित्य में मिलता है-हर्षोत्फुल्ल, समाकलन, अभिव्याप्त, चिताप्रधान, फलश्रुति तीर्थेश आभिजात्य, दुरभिसंधि आदि । कहा जा सकता है कि उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशी एवं विदेशी इन चारों शब्दों का प्रयोग यथायोग्य हुआ है। उन्होंने अपनी भाषा में युग्म शब्दों का भी भरपूर प्रयोग किया है । इससे भाषा में बोलचाल की पुट आ गई है मार-काट, अक-बक, लूट-खसोट, नौकर-चाकर, ठाट-बाठ, कर्ताधर्ता, साज-बाज, टेढ़ा-मेढ़ा, उथल-पुथल, आदि । __ शब्दों के चाल अर्थ के अतिरिक्त उनमें नया अर्थ खोज लेना उनकी प्रतिभा का अपना वैशिष्ट्य है। भाषागत इस वैशिष्ट्य के हमें अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। उदाहरण के लिए यहां एक प्रसंग प्रस्तुत किया जा १. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५१ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सकता है-- पत्रकारों की एक विशेष गोष्ठी में एक पत्रकार ने आचार्य तुलसी के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए कहा ---'आचार्य जी! आपने समाज के हर वर्ग के उत्थान की बात कही है। आप कायस्थों के लिए भी कुछ कर रहे हैं क्या?' आचार्य तुलसी ने कायस्थ शब्द की दार्शनिक व्याख्या करते हुए कहा - "हम कायस्थों के लिए सदा से करते आ रहे हैं। क्योंकि आपकी तरह मैं भी कायस्थ हूं । कायस्थ अर्थात् शरीर में स्थित रहने वाला। संसार का कौन प्राणी कायस्थ नहीं है ?" हिन्दी में प्रायः क्रिया वाक्यान्त में लगती है पर भाषा में प्रभावकता लाने के लिए उनके साहित्य में अनेक स्थलों पर इस क्रम में व्यत्यय भी मिलता है-- __ "कैसे हो सकती है वहां अहिंसा जहां व्यक्ति प्राणों के व्यामोह से अपनी जान बचाए फिरता है ?" __ आचार्य तुलसी शब्द को केवल उसके प्रचलित अर्थ में ही ग्रहण नहीं करते । प्रसंगानुसार कुछ परिवर्तन के साथ उसे नवीन संदर्भ भी प्रदान कर देते हैं। इस संदर्भ में निम्न वार्तालाप द्रष्टव्य है-- ___ एक बार एक राष्ट्रनेता ने निवेदन किया-'आचार्यजी ! यदि आपको अणुव्रत का कार्य आगे बढ़ाना है तो प्लेन खोल दीजिए । आचार्यश्री ने स्मित हास्य बिखेरते हुए कहा-~-'आप प्लेन की बात करते हैं, हमारे प्लान (योजना) को तो देखो।' इस घटना से उनकी प्रत्युत्पन्न मेधा ही नहीं, शब्दों की गहरी पकड़ की शक्ति भी पहचानी जा सकती है । ___ इसी प्रकार प्रसंगानुसार एक शब्द के समकक्ष या प्रतिपक्ष में दूसरे सानुप्रासिक शब्द को प्रस्तुत करके प्रेरणा देने की कला में तो उनका कोई दूसरा विकल्प नहीं खोजा जा सकता। वे कहते हैं ___० प्रशस्ति नहीं, प्रस्तुति करो, व्यथा नहीं, व्यवस्था करो, चिंता नहीं चिंतन करो। ० मुझे दीनता, हीनता नहीं, नवीनता पसंद है। लाडनं विदाई समारोह में विश्वविद्यालय के सदस्यों को प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं- "जीवन में संतुलन रहना चाहिए। न अहं न हीनता, न आवेश न दीनता, न आलस्य और न अतिक्रमण ।" .. सूक्तियों में जीवन के अनुभवों का सार इस भांति अभिव्यक्त होता है कि मानव का सुषुप्त मन जग जाए और वह उसे चेतावनी के रूप में ग्रहण कर सके । उनके साहित्य में गागर में सागर भरने वाले हजारों सूक्त्यात्मक वाक्य हैं, जिनसे उनकी भाषा चुम्बकीय एवं चामत्कारिक बन गयी है Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ० अनुशासन का अस्वीकार जीवन की पहली हार है। ० हम सहन करें, हमारा जीवन एक लयात्मक संगीत बन जाएगा। ० स्वतंत्रता का अर्थ होता है-अपने अनुशासन द्वारा संचालित - जीवन यात्रा। • अविश्वास की चिनगारी सुलगते ही सत्ता से गरिमा के साथ हट जाना लोकतंत्र का आदर्श है। ० वह हर प्राणी शस्त्र है, जो दूसरे के अस्तित्व पर प्रहार करता ० साम्प्रदायिक उन्माद इंसान को भी शैतान बना देता है । ० जो व्यक्ति कांटों की चुभन से घबराकर पीछे हट जाता है, वह फूलों की सौरभ नहीं पा सकता। भाषा में प्रवाह लाने के लिए या कथ्य पर जोर देने के लिए वे कभीकभी शब्दों की पुनरावृत्ति भी कर देते हैं । युवापीढ़ी को रूपक के माध्यम से प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं--- "तुम्हारा हर चिन्तन, तुम्हारी हर प्रवृत्ति, तुम्हारी हर प्रतिभा, तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी शक्ति, सामर्थ्य और तुम्हारी हर सांस इस भुवन को सींचने के लिए, सुरक्षा के लिए सम्पूर्ण रूप से सुरक्षित रहे। ० 'युद्ध बरबादी है, अशांति है, अस्थिरता है और जानमाल की भारी तबाही है । इस वाक्य को यदि यों कहा जाता कि युद्ध बरबादी, अशांति, अस्थिरता और जानमाल की तबाही है तो वाक्य प्रभावक नहीं बनता।' उन्होंने लगभग छोटे-छोटे बोधगम्य वाक्यों का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं काफी लम्बे वाक्य भी प्रयुक्त हैं पर शृंखलाबद्धता के कारण उनमें कहीं भी शैथिल्य नहीं आया है। उनके साहित्य में भाषा की द्विरूपता के दा कारण हैं १. अनेक सम्पादकों का होना । २. लेखन और वक्तव्य की भाषा में बहुत बड़ा अन्तर होता है आचार्यश्री इन दोनों भूमिकाओं से गुजरे हैं इसलिए कहीं-वहीं इनमें सम्मिश्रण भी हो गया है।। छायावादी एवं रहस्यवादी शैली प्रायः काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने हेतु अपनायी जाती है । पर आचार्य तुलसी ने गद्य साहित्य में भी इस शैली का प्रयोग किया है । संसद को मानवाकार रूप में प्रस्तुत कर उसकी पीड़ा को उसी के मुख से कहलवाने में वे कितने सिद्धहस्त बन पड़े हैं १. अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत, पृ० ५२-५३ २. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५१ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण "संसद जनता के द्वार पर दस्तक देकर पुकार रही है-प्रजाजनों । आपने अच्छे-अच्छे लोगों का चयन कर मेरे पास भेजा। पर न जाने क्यों ये सब मेरी इज्जत लेने पर उतारू हो रहे हैं । इस समय मैं घोर संकट में हूं। मुझे बचाओ । मेरी रक्षा करो।"......... तीन प्रकार के व्यक्तियों को मुझसे दूर रखो । एक वे व्यक्ति जो केवल विरोध के लिए विरोध करते हैं। दूसरे वे जो गलत तरीकों से वोट पाकर सत्ता के गलियारे तक पहुंचते हैं और तीसरे वे व्यक्ति, जो असंयमी हैं। ऐसे लोग न तो अपनी वाणी पर संयम रख सकते हैं और न अपने व्यवहार में सन्तुलन रख पाते हैं। इन लोगों का असंयत आचरण देखकर मेरा सिर शर्म से नीचा हो जाता है । इसलिए आप दया करो और ऐसे लोगों को मुझ तक पहुंचने से रोको।१। आचार्य तुलसी की शैली का यह वैशिष्ट्य है कि वे किसी भी विषय का स्पष्टीकरण प्रायः स्वयं ही गम्भीर प्रश्न उठाकर करते हैं। श्रोता या पाठक को ऐसा लगता है मानो वे भी उसमें भाग ले रहे हों। तत्पश्चात् समाधान की मोर विषय को मोड़ते हैं, इससे विषय प्रतिपादन के साथ पाठक का तादात्म्य हो जाता है। तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक शैली में की गयी उनकी इक्कीसवीं सदी की चर्चा कितनी हृदयस्पर्शी बन गयी है "कैसा होगा इक्कीसवीं सदी का जीवन ? यह एक प्रश्न है। इसके गर्भ में कुछ नई सम्भावनाएं अंगड़ाई ले रही हैं तो कुछ आशंकाएं भी सिर उठा रही हैं। एक ओर सुविधाभोगी संस्कृति को पांव जमाने के लिए नई जमीन उपलब्ध करवाई जा रही है तो दूसरी ओर पुरुषार्थ जीवी संस्कृति को दफनाने के लिए नई कब्रगाह की व्यवस्था सोची जा रही है। कुछ नया करने और पाने की मीठी गुदगुदी के साथ कुछ न करने का दंश भी इसी सदी को भोगना होगा। इसमें इतनी बारीकी से सत्य अभिव्यक्त हुआ है कि विषय वस्तु का आरपार संक्षेप में एक साथ प्रकाशित हो उठा है। कहीं-कहीं उनके प्रश्न समाज की विसंगति पर तीखा व्यंग्य भी करते हैं । ये व्यंग्यात्मक प्रश्न किसी भी व्यक्ति के हृदय को तरंगित एवं झंकृत करने में समर्थ हैं। सतीप्रथा पर व्यंग्य करती उनकी निम्न उक्ति विचारणीय है "दाम्पत्य सम्बन्ध तो द्विष्ठ है। स्त्री के लिए पतिव्रता होना और पति के साथ जलना गौरव की बात है तो पुरुष के लिए पत्नीव्रत का आदर्श कहां चला जाता है ? उसके मन में पत्नी के साथ जलने की भावना क्यों नहीं जागती ? पति की मृत्यु के बाद स्त्री विधवा होती है तो क्या पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष विधुर महीं होता ? स्त्री के लिए पति परमेश्वर है तो पुरुष १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० ७६-७७ २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७३६ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ६५ के लिए पत्नी को परमेश्वर मानने में कौन-सी बाधा है ?" ___ आज के मनुष्य की जीवन-शैली पर व्यंग्य करते ये प्रश्न किसी भी सचेतन प्राणी को झकझोरने में समर्थ हैं "आज मनुष्य की जीवन-शैली कैसी है ? वह उसे किधर ले जा रही है ? वह किसी के लिए नीड़ बुनता है या बुने हुए नीड़ों को उजाड़ता है ? वह किसी को जीवन देता है या जीने वाले की सांसों को छीनता है ? वह किसी को जोड़ता है या पीढ़ियों से जुड़े हुए रिश्तों में दरार डालता है ? वह किसी के आंसू पोंछता है या बिना ही उद्देश्य चिकोटी काटकर रुलाता है ? वह जीवन को संवारने के लिए धर्म की शरण में जाता है या उसकी बैसाखियों के सहारे लड़ाई के मैदान में उतरता है ? वह किसी की बात सुनता है या अपनी ही बात मनवाने का आग्रह करता है ? इन सवालों के चौराहों पर फैलते जा रहे गुमनाम अंधेरों को रास्ता कौन दिखाएगा? समाधान की ज्योति कौन जलाएगा?' जहां उन्हें किसी बात पर जोर डालना होता है तब भी वे इसी शैली को अपनाते हैं क्योंकि निषेध के साथ जुड़े उनके प्रश्नों में भी एक बुनियादी सन्देश ध्वनित होता है। उदाहरण के लिए देश के समक्ष प्रस्तुत किए गये निम्न प्रश्नों को देखा जा सकता है ---- "यदि इस देश के लोग गरीब हैं तो वे श्रम से विमुख क्यों हो रहे हैं ? यदि देश की जनता को भर पेट रोटी भी नहीं मिलती तो करोड़ों रुपये प्रसाधन-सामग्री में क्यों बहाए जाते हैं ? देश में सूखे की इतनी समस्या है तो विलासिता का प्रदर्शन किस बुनियाद पर किया जा रहा है ? यदि भारतीय लोगों में कर्तव्यनिष्ठा है तो राष्ट्रीय, सामाजिक एवं पारिवारिक दायित्वों से आंखमिचौनी क्यों हो रही है ? यदि उनमें ईमानदारी है तो ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार क्यों छा रहा है ? यदि उन्हें स्वच्छता का आकर्षण है तो गन्दगी क्यों फैल रही है ?'' ___ कभी-कभी प्रश्न उपस्थित करके ही वे अपने वक्तव्य को पाठक तक संप्रेषित करना चाहते हैं। उनके ये प्रश्न इतने मार्मिक, वेधक और सटीक होते हैं कि पाठक के मन में हलचल उत्पन्न किए बिना नहीं रहते । युवापीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत किए गए प्रश्नचिह्नों की कुछ पंक्तियां मननीय हैं "क्या हमारी प्रबुद्ध युवापीढ़ी शून्य को भरने की स्थिति में है ? क्या वह किसी बड़े दायित्व को ओढ़ने के लिए तैयार है ? क्या वह परिवार से भी पहला स्थान समाज को देने की मानसिकता बना सकती है ?" १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० ६२ २. चुनाव के संदर्भ में प्रदत्त एक विशेष संदेश : Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण भाषा-शैली का यह वैशिष्ट्य आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद आचार्य तुलसी के साहित्य में ही प्रचुर मात्रा में देखा जा सकता है। इस शैली में व्यक्त तथ्य को पाठक पढ़ता ही नहीं, अपितु मन-ही-मन उसका उत्तर भी सोचता है। प्रश्नों के माध्यम से मानव-मन के अन्तर्द्वन्द्वों को प्रस्तुत करने से पाठक और लेखक के बीच संवाद-शैली जैसी जीवन्तता बनी रहती है। पाठक केवल मूक ही नहीं बना रहता । निषेध में विधेय को व्यक्त करने की उनकी अपनी शैलीगत विशेषता hcho "मैं नहीं मानता कि संयम और समर्पण दो वस्तु हैं।" आचार्य तुलसी धर्माचार्य होते हुए भी एक महान् ताकिक हैं। वे अपनी बात को सहेतुक प्रस्तुत करते हैं । अतः उनकी भाषा में प्रायः कारण एवं कार्य की लम्बी श्रृंखला रहती है। उदाहरण के लिए भगवान् महावीर के व्यक्तित्व को प्रस्तुति देने वाली निम्न पंक्तियों को देखा जा सकता है---- "वे यथार्थवादी थे, इसलिए अति कल्पना की चौखट में उनकी आस्था फिट नहीं बैठती थी। वे अनेकांतवादी थे, इसलिए किसी भी तत्त्व के प्रति उनके मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं था। वे सत्य के साक्षात् द्रष्टा थे, इसलिए उनकी अवधारणाओं का आधार आनुमानिक नहीं था। वे भरे हुए अमृतघट थे, इसलिए किसी उपयुक्त पात्र की प्रतीक्षा करते रहते थे। उनके साहित्य में केवल कारण एवं कार्य की ही चर्चा नहीं रहती, परिणाम का स्पष्टीकरण भी रहता है। उनका शैलीगत चातुर्य निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है, जहां कारण, कार्य एवं परिणाम-तीनों को एक ही वाक्य में समेट दिया गया है--- ____ 'आर्थिक क्रांति हुई, अर्थ-व्यवस्था बदली पर अर्थ के प्रति व्यामोह कम नहीं हुआ । सैनिक क्रांति हुई, शासन बदला पर जनता सुखी नहीं हुई। सामाजिक क्रांति हुई, समाज को बदलने का प्रयत्न हुआ, जातीय बहिष्कार जैसी घटनाएं भी घटीं पर स्वस्थ समाज की संरचना नहीं हुई।"२ किसी भी तथ्य के निरूपण में वे ऐकान्तिक हेतु प्रस्तुत नहीं करते। यद्यपि सुख की धारणा के बारे में पाश्चात्य एवं प्राच्य अनेक चिंतकों ने पर्याप्त चिंतन किया है, पर इस बिन्दु पर आचार्य तुलसी का चिंतन संतुलित होने की प्रतीति देता है __"सुख का हेतु अभाव भी नहीं है और अतिभाव भी नहीं है, क्योंकि अतिभाव में विलासिता का उन्माद बढ़ता है, जिसके पीछे संरक्षण का रौद्र भाव रहता है तथा अभाव में अन्य अपराध बढ़ते हैं क्योंकि उसके पीछे प्राप्ति १. बीती ताहि विसारि दे, पृ० ४९ २. नैतिक संजीवन, पृ० ५० Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन की आर्त्तवेदना है। अतः सुख का हेतु स्वभाव है। इसी प्रसंग में धर्म के संदर्भ में उनकी निम्न पंक्तियां भी पठनीय हैं “किसी ने धर्म को अमृत बताया और किसी ने अफीम की गोली । ये दो विरोधी तथ्य हैं । पर इन दोनों ही तथ्यों में सत्यांश हो सकता है। प्रेम और मैत्री की बुनियाद पर खड़ा हुमा धर्म अमृत है तो साम्प्रदायिक उन्माद से ग्रस्त धर्म अफीम का काम करने लग जाता है।" इसी शैली में उनका निम्न वक्तव्य भी उद्धरणीय है ___ "मेरा अभिमत है कि बाहर भी देखो और भीतर भी। अन्तर्जगत् से उपेक्षित रहना अपने विकास को नकारना है । बाह्य जगत् के प्रति उपेक्षा करना, जो कुछ हम जी रहे हैं, उसे अस्वीकार करना है। जितनी अपेक्षा है, उतना बाहर देखो। जितनी अपेक्षा है, उतना आत्मदर्शन करो।" _ प्रवचनकार होने के कारण दे प्रसंगवश एक साथ जुड़ी हुई अनेक बातों को धाराप्रवाह कह देते हैं। इस कारण कहीं-कहीं उनकी भाषा और शैली बहुत दुरूह हो गयी है । इस परिप्रेक्ष्य में निम्न उद्धरण द्रष्टव्य है-- "जब तक व्यक्ति व्यक्ति रहता है, तब तक उसके सामने महत्त्वाकांक्षा, महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए परिग्रह या संग्रह, परिग्रह या संग्रह के लिए शोषण या अपहरण, शोषण के लिए बौद्धिक या कायिक शक्ति का विकास, बौद्धिक और दैहिक शक्ति-संग्रह के लिए विद्या की दुरभिसंधि, स्पर्धा आदिआदि समस्याएं नहीं होतीं।" उनके अनुभूतिप्रधान एवं व्यक्तिप्रधान निबंधों में प्रथम पुरुष का प्रयोग हुआ है। 'मैं' सर्वनाम का प्रयोग करके उन्होंने अपनी अनुभूतियों एवं अभिमतों को उपन्यस्त किया है । जैसे-‘ऐसे मिला मुझे अहिंसा का प्रशिक्षण', 'मेरी यात्रा' आदि । अनुभूत घटनाएं या संवेदनाएं उन्होंने आत्माभिव्यंजन के प्रयोजन से नहीं, बल्कि पाठक के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए लिखी हैं । व्यक्तिवादी शैली में निबद्ध निम्न वाक्य तनावग्रस्त एवं गमगीन व्यक्तियों को अभिनव प्रेरणा देने वाला है--- ___ "मैं कल जितना खुश था, उतना ही आज हूं। मेरे लिए सभी दिन उत्सव के हैं, सभी दिन स्वतंत्रता के हैं।" ० मेरा स्वागत ही स्वागत होता तो शायद अहंभाव बढ़ जाता । मुझे पग-पग पर विरोध ही विरोध झेलना पड़ता तो हीनता का भाव भर जाता । मैं इन दोनों स्थितियों के बीच रहा । न अहं, न हीनता । इसलिए मैं बहुत बार अपने विरोधियों को बधाई देता हूं।" हिन्दी साहित्य में इस शैली का दर्शन रामचन्द्र शुक्ल के निबंधों में मिलता है । १. विज्ञप्ति संख्या ८०७ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण किसी भी साहित्यकार के सामर्थ्य की परीक्षा इससे होती है कि वह अपने अनुभव को सही भाषा में व्यक्त कर पाया या नहीं । आचार्य तुलसी की सृजनात्मक क्षमता इतनी जागृत है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अन्तराल नहीं है । भाषा पर उनका इतना अधिकार है कि अपने हर भाव को वे सही रूप में अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं । यही कारण है कि लेखन में ही नहीं, वक्तृत्व में भी उन्होंने अक्षरमंत्री का विशेष ध्यान रखा है। वैसे तो आचार्य तुलसी बहुत सीधी-साधी भाषा में अपनी बात पाठक तक संप्रेषित कर देते हैं, पर जहां उन्हें सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करना होता है, वहां वे व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं, जिससे उनका कथ्य तीखा और प्रभावी होकर लोगों को कुछ सोचने, भीतर झांकने एवं बदलने को मजबूर कर देता है। धार्मिकों की रूढ़ एवं परिणामशून्य उपासना पद्धति पर किए गये व्यंग्य-बाणों की बौछार की एक छटा दर्शनीय है ___ 'सत्तर वर्ष तक धर्म किया, माला फेरते-फेरते अंगुलियां घिस गई पर मन का मैल नहीं उतरा । चढ़ते-चढ़ते मंदिर की सीढ़ियां घिस गईं पर जीवन नहीं बदला । संतों के पास जाते-जाते पांव घिस गए पर व्यवहार में बदलाव नहीं आया। क्या लाभ हुआ धार्मिकों को ऐसे धर्म से ?' दान देकर अपने अहं का पोषण करने वाले लोगों के शोषण को शोषित वर्ग के मुख से कितनी मार्मिक एवं व्यंग्यात्मक शैली में कहलवाया है "हमारा शोषण और उनका अहं पोषण, इसमें पुण्य कैसा ? वे दानी बनें और हम दीन, यह क्यों ? वे हमारा रक्त चूसें और हमें ही एक कण डालकर पुण्य कमाएं, यह कैसी विडम्बना । धर्म के क्षेत्र में होने वाले भ्रष्टाचार पर किया गया व्यंग्य सोच की खिड़की को खोलने वाला है ० 'ब्लैक के प्लेग ने भगवान के घर को भी नहीं छोड़ा। घूस देने पर उनके दरवाजे भी रात को खुल जाते हैं।' राजनीति स्वच्छ या अस्वच्छ नहीं होती। पर भ्रष्ट एवं सत्तालोलुप राजनेता उसकी उजली छवि को धूमिल बना देते हैं । राजनीति की अर्थवत्ता पर की गयी उनकी टिप्पणी व्यंग्यमयी प्रखर शैली का एक निदर्शन है-- "जनता को सादगी और शिष्टाचार का पाठ पढ़ाने वाले नेता जब तक स्वयं अपने जीवन में सादगी नहीं लायेंगे, फिजूलखर्ची से नहीं बचेंगे तो वे जनता का पथदर्शन कैसे कर सकेंगे ?" आचार्य तुलसी का जीवन अनेक विरोधी युगलों का समाहार है। वे १. आचार्य तुलसी के अमर संदेश, पृ० ३६ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन सूर्यसम प्रखर तेजस्वी हैं तो चांद की भांति सौम्य भी हैं। सागर के समान गंभीर हैं तो आकाश की ऊंचाई भी उनमें समाविष्ट है। चट्टान की भांति भडिग, अचल हैं तो रबड़ के समान लचीले भी हैं। वज्रवत् कठोर हैं तो फूल से अधिक कोमल भी हैं। इसी भावना का प्रतिनिधित्व करने वाला संस्कृत साहित्य में एक मार्मिक श्लोक मिलता है वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि । लोकोत्तराणां चेतांसि, को नु विज्ञातुमर्हति ।। उनके व्यक्तित्व की यह विशेषता साहित्य की शैली में भी प्रतिबिम्बित हुई है। दो विरोधों का समायोजन साहित्य का बहुत बड़ा वैशिष्ट्य है। उन्होंने प्रकृतिकृत एवं पुरुषकृत विरोध का सामंजस्य कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है । महावीर के विरोधी व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का निम्न उदाहरण दर्शनीय है ___ "वे जीवन भर मुक्त हाथों से ज्ञानामृत बांटते रहे, पर एक बूंद भी खाली नहीं हुए।" धर्म और विज्ञान के विरोधी स्वरूप में सामंजस्य करते हुए उनका कहना है "धर्म और विज्ञान का ऐक्य नहीं है तो उनमें विरोध भी नहीं है। पदार्थ-विश्लेषण और नई-नई वस्तुओं को प्रस्तुत करने की दिशा में विज्ञान आगे बढ़ता है तो आंतरिक विश्लेषण की दिशा में धर्म की साधना चलती - जहां वे एक उपदेष्टा की भूमिका पर अपनी बात कहते हैं, वहां उनकी भाषा बहुत सीधी-सपाट एवं अभिधा शैली में होती है। उनका उपदेश भी पाठक को उबाता नहीं, वरन् मानस पर एक विशेष प्रभाव डालकर जीने का विज्ञान सिखाता है। उपदेशात्मक ध्वनि के वाक्यों की कुछ कड़ियां इस प्रकार हैं--- • 'युवापीढ़ी का यह दायित्व है कि वह संघर्ष को आमंत्रित करे, मूल्यांकन का पैमाना बदले, अहं को तोड़े, जोखिम का स्वागत करे, स्वार्थ और व्यामोह से ऊपर उठे तथा इस सदी के माथे पर कलंक का जो टीका लगा है, उसे अगली सदी में संक्रांत न होने दे।' . . 'मैं देश के पत्रकारों को आह्वान करना चाहता हूं कि वे जन-जीवन को नयी प्रेरणाओं से ओत-प्रोत कर, लूट-खसोट, मार-काट आदि संवादों को महत्त्व न देकर निर्माण को महत्त्व दें। जातीय, सांप्रदायिक आदि संकीर्ण विचारों को उपेक्षित कर व्यापक विचारों का प्रचार करें।' १. बीती ताहि विसारि दे, पृ० ४९ २. एक बूंद : एक सागर, पृ० ७४१ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण एक बात की सिद्धि में उसके समकक्ष अनेक उदाहरणों को प्रस्तुत कर देना उनकी अपनी शैलीगत विशेषता है, जिससे कथ्य अधिक स्पष्ट एवं सुबोध हो जाता है । सत्य का यात्री कभी लकीर का फकीर नहीं होता, इस बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने अनेक उदाहरण साहित्यिक भाषा में प्रस्तुत किए "प्रकाश की यात्रा करने वाला कोई भी मनुष्य अपनी मुट्ठी में सूरज का बिम्ब लेकर जन्म नहीं लेता। अमृत की आकांक्षा रखने वाला कोई भी आदमी अगम्य लोकों में घर बसाकर नहीं रहता। ऊर्जा के अक्षय स्रोतों की खोज करने वाला व्यक्ति विरासत में प्राप्त टेक्नालॉजी को ही आधार मानकर नहीं चलता। इसी प्रकार सत्य की यात्रा करने वाला साधक पुरानी लकीरों पर चलकर ही आत्मतोष नहीं पाता।" किसी विशिष्ट शब्द की व्याख्या भी वे अनेक रूपों में करते हैं, जिससे पाठक को वह हृदयंगम हो जाए। उस स्थिति में शब्द या वाक्यांश की पुनरुक्ति अखरती नहीं, अपितु एक विशेष चमत्कार और प्रभाव को उत्पन्न करती है। इसे भी एक प्रकार से समानान्तरता का उदाहरण कहा जा सकता अणुव्रती, अकाल मौत, महावीर की स्मृति तथा युवा आदि शब्दों को स्पष्ट करने वाली पंक्तियां द्रष्टव्य हैं अणुव्रती बनने का अर्थ है-अहिंसक होना, शोषण न करना। अणुवती बनने का अर्थ है-नए सामाजिक मूल्यों की प्रस्थापना करना। अणुव्रती बनने का अर्थ है-अणु से पूर्ण की ओर गति करना । अणुव्रती बनने का अर्थ है-मनुष्य बनना। अकाल मौत का अर्थ है--प्रसन्नता में कमी। अकाल मौत का अर्थ है----मैत्री भाव में कमी। अकाल मौत का अर्थ है--स्वास्थ्य में कमी। महावीर की स्मृति का अर्थ है-पराक्रमी होना। महावीर की स्मृति का अर्थ है-विषमता के विषवृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकना। महावीर की स्मृति का अर्थ है-सत्यशोध के लिए विनम्र और उदार दृष्टिकोण अपनाना । महावीर की स्मृति का अर्थ है--संयम की शक्ति का स्फोट करना युवा वह होता है, जो तनावमुक्त होकर जीना जानता है। युवा वह होता है, जो प्रतिस्रोत में चलना जानता है । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन युवा वह होता है, जो वर्तमान में जीना जानता है। युवा वह होता है, जो परिस्थितियों में जीना जानता है । युवा वह होता है, जो पुरुषार्थ का प्रयोग करना जानता है । युवा वह होता है, जो आत्मविश्वास को बढ़ाना जानता है। युवा वह होता है, जो अनुशासित होकर रहना जानता है।' लोकप्रसिद्ध धारणा का निषेध वे उस धारणा को प्रस्तुत करके करते हैं । उनके इस शैलीगत वैशिष्ट्य के कारण वक्तव्य तो प्रभावी बनता ही है, पाठक की भ्रान्त धारणा का निराकरण भी हो जाता है तथा कथ्य के साथ वह सीधा सम्बन्ध भी स्थापित कर पाता है। शैली के इस वैशिष्ट्य के बारे में 'व्यावहारिक शैली विज्ञान' में भोलानाथ तिवारी कहते हैं कि एक बात का निषेध कर दूसरी बात कहना शैली को आकर्षक बनाता है। इसमें बड़े सहज रूप से दूसरी बात रेखांकित हो उठती है। हिंदी में कुछ ही लेखक इस शैली का प्रयोग करते हैं, जिनमें प्रेमचंद और हजारीप्रसाद द्विवेदी मुख्य हैं। प्रेमचंद 'मानसरोवर' में कहते हैं---"खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है । जीवन नाम है सदैव आगे बढ़ते रहने की लालसा का।" साधु-संस्था के बारे में लोगों की अनेक धारणाओं का निराकरण करके नई अवधारणा को प्रस्तुत करने वाली उनकी निम्न पंक्तियां पठनीय हैं.--"साधु भिखमंगे नहीं, भिक्षु हैं। बोझ नहीं, बल्कि संसार का बोझ उतारने वाले हैं । अभिशाप नहीं, बल्कि जगत् के लिए वरदानस्वरूप हैं। वे कलंक नहीं, बल्कि जगत के शृगार हैं। इसी प्रकार शब्द के अर्थ का स्पष्टीकरण भी कभी-कभी वे इसी शैली में करते हैं-- ० विनय का अर्थ दीनता, हीनता या दब्बूपन नहीं, वह तो आत्म विकास का मार्ग है। ० अपरिग्रह का अर्थ यह नहीं कि भूखे मरो, उत्पादन या क्रय-विक्रय मत करो। इसका वास्तविक अर्थ है कि दूसरों के अधिकार छीनकर, प्रामाणिकता और विश्वासपात्रता को गंवाकर, एक शब्द में, अन्याय द्वारा संग्रह मत करो। ७ समर्पण का अर्थ किसी दूसरे के हाथ में अपना भाग्य सौंप देना नहीं, अपितु समर्पित होने का अर्थ है-~-सत्य को पाने की दिशा में प्रस्थान करना। १. बीती ताहि विसारि दे, पृ० ८५ २. अणुव्रती संघ का चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन, पृ० १२ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्मनेता होने के कारण वे कर्तव्य की एक लम्बी शृखला व्यक्ति या वर्गविशेष के सम्मुख रख देते हैं, जिससे कम-से-कम एक विकल्प तो व्यक्ति अपने अनुकूल खोज कर उसके अनुरूप स्वयं को ढाल सके। यह शैलीगत वैशिष्टय उन्हें अन्य साहित्यकारों से विलक्षण बना देता है । युगों से प्रताड़ित अवहेलित नारी जाति के सामने करणीय कार्यों की सूची प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं--- "महिलाएं अपनी क्षमताओं का बोध करें, स्वाभिमान को जागृत करें, युगीन समस्याओं को समझे, समस्याओं को समाज के सामने रखें, उन्हें दूर करने के लिए सामूहिक आवाज उठाएं और आगे बढ़ने के लिए स्वयं अपना रास्ता बनाएं।" 'स्त्री को अपने व्यक्तित्व को उजागर करने के लिए चारित्रिक सौंदर्य को निखारना होगा, आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा, आत्मनिर्भरता की भावश्यकता का अनुभव करना होगा, चितन एवं अभिव्यक्ति को नया परिवेश देना होगा, स्वाभिमान को जगाना होगा, निरभिमानता का विकास करना होगा, अनासक्ति का अभ्यास करके संग्रहवृत्ति को नियंत्रित करना होगा, युगीन समस्याओं को समझना होगा, प्रदर्शनप्रियता से ऊपर उठकर आत्माभिमुख बनना होगा, अनाग्रही वृत्ति को विकसित करना होगा तथा सहिष्णुता, मृदुता एवं विनम्रता को आत्मसात् करना होगा।" __यद्यपि समानान्तरता का प्रयोग काव्य में अधिक मिलता है, पर हिंदी साहित्य में रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद एवं हजारीप्रसाद द्विवेदी ने गद्य साहित्य में भी इसका प्रचुर प्रयोग किया है। इसी क्रम में आचार्य तुलसी की भाषा में भी प्रचुर मात्रा में लयात्मकता एवं समानान्तरता प्रवाहित होती दृग्गोचर होती है। समानान्तरता का आशय है कि समान ध्वनि, समान शब्द, समान पद एवं समान उपवाक्यों की पुनरुक्ति । जैसे बेकन अपने निबंधों में तीन शब्द, तीन पदबंध तथा तीन वाक्य समानान्तर रखते थे कुछ पुस्तकें चखने की होती हैं, कुछ निगलने की होती हैं और कुछ चबाकर खाने और पचाने की। रूपीय समानान्तरता के प्रयोग आचार्यश्री के साहित्य में अधिक मिलते ० कुछ लोग निराशा की खोह में सोये रहते हैं। वे अतीत में जाते हैं, भविष्य में उड़ान भरते हैं । जो नहीं किया, उसके लिए पछताते हैं। नयी आकांक्षाओं के सतरंगे इन्द्रधनुष रचते हैं। कभी समय को कोसते हैं। कभी परिस्थिति को दोष देते हैं और कभी अपने भाग्य का रोना रोते हैं। ऐसे लोग निषेधात्मक भावों के खटोले में बैठकर जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं।' १. मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, पृ० ९ - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ___० दिनभर दुकान पर बैठकर ग्राहकों को धोखा देना, रिश्वत लेना, झूठे केस लड़ना, चोरी, झूठ आदि में लगे रहना और इनके दुष्परिणामों से बचने के लिए मंदिर में प्रतिमा की परिक्रमा करना, साधु-संतों के चरण स्पर्श करना, भजन-कीर्तन में भाग लेना वास्तव में धार्मिकता नहीं है । आचार्य तुलसी का शब्द-सामर्थ्य बहुत समृद्ध है । मत: समतामूलक अर्थीय समानान्तरता के प्रयोग उनके साहित्य मे प्रचुर मात्रा में मिलते हैं । भोलानाथ तिवारी का अभिमत है कि अर्थीय समानान्तरता आंतरिक है और इसका बाहुल्य शैली में अपेक्षाकृत गंभीरता का द्योतक होता है।' आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का एक प्रयोग है 'मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है।' आचार्यश्री के साहित्य में अर्थीय समानान्तरता के उदाहरण द्रष्टव्य . 'अकर्मण्य व्यक्ति में कैसा साहस ! कैसी क्षमता ! कैसा उत्साह !' यह अर्थीय समानान्तरता का ही एक रूप है कि किसी भी बात या भाव पर बल देने के लिए वे शब्द के दो तीन पर्यायों का एक साथ प्रयोग करते हैं.-.. ० 'कोई भी बाधा, रुकावट या मुसीबत आपके सत्यबल और आत्मबल के समय टिक नहीं पाएगी।' . ओजस्विता और जीवन्तता उनकी शैली के सहज गुण हैं इसीलिए बेलाग और स्पष्ट रूप से कहने में वे कहीं नहीं हिचकते। शैलीगत यह वैशिष्ट्य उनके सम्पूर्ण साहित्य में छाया हुआ है। वे वर्गविशेष पर अंगुलि-निर्देश करते समय निर्भीक होकर अपनी बात कहते हैं। यह वैशिष्ट्य उनके अपने फक्कड़पन, मस्ती एवं दुनियावी स्वार्थ से ऊपर उठने के कारण है । राजनैतिकों ने सामने प्रस्तुत प्रश्न इसी शैली के उदाहरण कहे जा सकते हैं __ "राष्ट्र को स्थिर नेतृत्व प्रदान करने के नाम पर क्यों सिद्धांतहीन समझौते और स्तरहीन कलाबाजियां दिखाई जा रही हैं ? सम्प्रदायवाद, जातिवाद, भाषावाद और प्रान्तवाद को भड़का करके क्यों सत्ता की गोटियां बिठाई जा रही हैं ? राष्ट्रपुरुष की छवि निखारने के नाम पर क्यों अपने स्वार्थों की पूर्ति की जा रही है ? उनकी कथन शैली का यह अनन्य वैशिष्ट्य है कि वे केवल समस्या को प्रस्तुत ही नहीं करते, उसका समाधान एवं दूसरा विकल्प भी दर्शाते हैं ! इससे उनके साहित्य में पाठक को एक नयी खुराक मिलती है। देश के १. एक बूंद : एक सागर, पृ०६२ २. व्यावहारिक शैली विज्ञान, पृ० ८६ ३. जैन भारती, १६ दिस. ७९ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ नागरिकों को आह्वान करते हुए वे कहते हैं "संयम का मूल्यांकन होता तो बढ़ती हुई आबादी की समस्या जटिल नहीं होती । अपरिग्रह का मूल्य समझा जाता तो गरीबी की समस्या को पांव पसारने का अवसर नहीं मिलता । पुरुषार्थ को महत्त्व मिलता तो बेरोजगारी की समस्या नहीं बढ़ती । अहिंसा की मूल्यवत्ता स्थापित होती तो आतंकवाद की जड़ें गहरी नहीं होतीं । एकता और अखंडता का मूल्यांकन होता तो धर्म, भाषा, जाति आदि के नाम पर देश का विभाजन नहीं होता । मानवीय एकता या समता का सिद्धांत प्रतिष्ठित होता तो जातीय भेदभावों को पनपने का अवसर नहीं मिलता, छुआछूत जैसी मनोवृत्तियों को अपने पंख फैलाने के लिए खुला आकाश नहीं मिलता । ۱۱۹ आ० आचार्य तुलसी को आत्मविश्वास का पर्याय कहा जा सकता है । वे प्रवचन में तो अपनी बात पूरे आत्मविश्वास से कहते ही हैं, लेखन में भी उनका आत्मविश्वास प्रखरता से अभिव्यक्त हुआ है • " में विश्वासपूर्वक कहता हूं कि दृढ़ संकल्प शक्ति के साथ प्रामाणिकता स्वीकार कर, नैतिकता पर डटकर खड़े हो जाओ तो देखोगे तुम ही सुखी हो।"" • हमारा भविष्य हमारे हाथ में है यह आस्था मजबूत हो जाए तो समस्याओं की सौ-सौ आंधियां भी व्यक्ति के भविष्य को अंधकारमय नहीं बना सकतीं 13 ० मेरा दृढ़ विश्वास है कि जब तक हिंदुस्तान के पास अहिंसा की सम्पत्ति सुरक्षित है, कोई भी भौतिकवादी शक्ति उसे परास्त नहीं कर सकेगी । O तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण "मुझे उस दिन की प्रतीक्षा है, जब समस्त मानव समाज में भावात्मक एकता स्थापित होगी और बिना किसी जातिभेद के मानव-मानव धर्म के पथ पर आरूढ होंगे ।" १. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० १०४ २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १५९२ ३. वही, पृ० १४८८ नकारात्मक साहित्य समाज में विकृति, संत्रास एवं घुटन पैदा करता है | आचार्य तुलसी ने कहीं भी निराशा एवं निषेध का स्वर मुखर नहीं किया है । उनके सम्पूर्ण साहित्य में इस वैशिष्ट्य को पृष्ठ- पृष्ठ में देखा जा सकता है, जहां उन्होंने अंधकार में भी प्रकाश की ज्योति जलाई है, निराशा में भी आशा के गीत गाए हैं तथा दुःख में से सुख को प्राप्त करने की कला बताई है Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन • मैं सोचता हूं थोड़े-से अंधेरे को देखकर ढेर सारे प्रकाश से आंख नहीं मूंद लेनी चाहिए । आज समाज में उल्लुओं की नहीं, हंसों की आवश्यकता है, जो क्षीर और नीर में भेद कर सकें । ० मैं हर क्षण उत्साह की सांस लेता हूं, इसलिए सदा प्रसन्न रहता हूं ० " बचपन से ही अहिंसा के प्रति मेरी आस्था पुष्ट हो गयी । आस्था की वह प्रतिमा आज तक कभी भी खंडित नहीं हुई ।" कभी सफलता मिली, कभी न भी मिली, पर सुधार के क्षेत्र में मैं कभी निराश होता ही नहीं, निराश होना मैंने सीखा ही नहीं । मैं जिंदगी भर आशावान् रहकर अडिग आत्मविश्वास के साथ काम करता रहूंगा ।" अन्य साहित्यकारों की भांति वे किसी भी लेख में लम्बी भूमिका नहीं लिखते हैं । सीधे कथ्य की अभिव्यक्ति ही करना चाहते हैं। भूमिका में अनेक बार पाठक केवल शब्दों के जाल में उलझ जाता है, उसे कुछ नई प्राप्ति का अहसास नहीं होता | 0 है ।' प्रवचन साहित्य में ही नहीं, निबंधों में भी उन्होंने पौराणिक, ऐतिहासिक तथा काल्पनिक घटनाओं से अपने कथ्य की पुष्टि की है । अनेक स्थानों पर तो उन्होंने छोटे-छोटे कथा - व्यंग्यों एवं संस्मरणों के माध्यम से भी अपनी बात का समर्थन किया है। यह शैलीगत वैशिष्ट्य उनके सम्पूर्ण साहित्य में छाया हुआ है। यही कारण है कि उनका साहित्य केवल विद्वद्भोग्य ही नहीं, सर्वसाधारण के लिए भी प्रेरणादायी है । उनके निबंधों में वार्तालाप शैली का प्राधान्य है । इससे पाठक के साथ निकटता स्थापित हो जाती है । वार्तालाप का एक उदाहरण द्रष्टव्य ७५ एक बार मोरारजी भाई ने कहा - 'आचार्यजी ! नेहरूजी के साथ आपके अच्छे संबंध हैं | आप उन्हें अध्यात्म की ओर मोड़ सकें तो बहुत लाभ हो सकता है ।' मैंने उनसे पूछा - 'यह प्रयत्न आप क्यों नहीं करते ?' वे बोले - 'हम नहीं कर सकते। आप चाहें तो यह काम हो सकता हमने सलक्ष्य प्रयत्न किया। तीन वर्षों के बाद मोरारजी भाई फिर मिले । वे बोले - 'हमारा काम हो गया ।' मैंने पूछा- 'क्या नेहरूजी बदल रहे हैं ? ' वे बोले-'हां, उनके चिन्तन में ही नहीं, व्यवहार में भी बदलाव आ रहा है ।' Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कहीं-कहीं वे अपने कथ्य को इतनी भावुकतापूर्ण शैली में कहते हैं कि पाठक उसमें बहने लगता है । ग्रामीणों के बारे में वे कितनी भावपूर्ण अभिव्यक्ति दे रहे हैं--- "जब मैं इन भोले-भाले, सहज, निश्छल और फटे-पुराने कपड़ों में लिपटे ग्रामीणों को देखता हूं तो मेरा मन पसीज उठता है। ये मेरी छोटी-सी प्रेरणा से शराब, तम्बाकू आदि नशीली वस्तुओं को छोड़ देते हैं तथा अपनी सादगीपूर्ण जिन्दगी और भक्ति-भावना से मेरे दिल में स्थान बना लेते हैं।'' युवापीढ़ी के प्रति अपने आंतरिक स्नेह को अभिव्यक्त करते हुए उनका वक्तव्य कितना संवेदनशील और हृदयग्राह्य बन गया है "युवापीढ़ी सदा से मेरी भाशा का केन्द्र रही है। चाहे वह मेरे दिखाए मार्ग पर कम चल पायी हो या अधिक चल पायी हो, फिर भी मेरे मन में उसके प्रति कभी भी अविश्वास और निराशा की भावना नहीं आती । मुझे युवक इतने प्यारे लगते हैं, जितना कि मेरा अपना जीवन । मैं उनकी अद्भुत कर्मजा शक्ति के प्रति पूर्ण आश्वस्त हूं।" उनकी प्रतिपादन-शैली का वैशिष्ट्य है कि वे शब्द और विषय की आत्मा को पकड़कर उसकी व्याख्या करते हैं। किसी भी शब्द या विषय की रूढ़ व्याख्या उन्हें पसंद नहीं है। अहिंसा की मूल आत्मा को व्यक्त करती उनकी कथन-शैली का चमत्कार दर्शनीय है.--. "जो लोग अहिंसा को सीमित अर्थों में देखते हैं, उन्हें चींटी के मर जाने पर पछतावा होता है, किन्तु दूसरों पर झूठा मामला चलाने में पछतावा नहीं होता । अप्रामाणिक साधनों से पैसा कमाने में हिंसा का अनुभव नहीं होता । अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति में दूसरों का बड़े से बड़ा अहित करने में उन्हें हिंसा की अनुभूति नहीं होती।" धर्म की सीधी व्याख्या उनके अनुभव में इस प्रकार है "मेरा धर्म किसी मंदिर या पुस्तक में नहीं, बल्कि मेरे जीवन में है, मेरे व्यवहार में है, मेरी भाषा में है।" उनके प्रवचनों में ही नहीं, लेखन में भी यह विशेषता है कि वे किसी भी विषय या व्यक्ति के विविध रूपों को एक साथ सामने रख देते हैं । यह उनकी स्मृति-शक्ति का तो परिचायक है ही, साथ ही पाठक के समक्ष उस विषय को स्पष्टता भी हो जाती है। नारी के अनेक रूपों को प्रकट करने वाली निम्न पंक्तियां उनके इस शैलीगत वैशिष्ट्य को उजागर करती हैं "कभी नारी सुघड़ गृहिणी के रूप में उपस्थित होती है तो कभी पूरे १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७१३ २. वही, पृ० १७११ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन घर की स्वामिनी बन जाती है । बगीचे में पौधों को पानी देते समय वह मालिन का रूप धारण करती है तो रसोईघर में अपनी पाक-कला का परिचय देती । कपड़ों का ढेर सामने रखकर जब वह धुलाई का काम शुरू करती है तो उसकी तुलना धोबिन से की जा सकती है तो बच्चों को होम वर्क कराते समय वह एक ट्यूटर की भूमिका में पहुंच जाती है। कभी सीनापिरोना, कभी बुनाई करना, कभी झाडू-बुहारी करना तो परवरिश में खो जाना ।" कभी बच्चों की अनुशासन के विविध पक्षों की साहित्यिक एवं क्रमबद्ध अभिव्यक्ति का उदाहरण पढ़िये- "अनुशासन वह कला है, जो जीवन के प्रति आस्था जगाती है । अनुशासन वह आस्था है, जो व्यवस्था देती है । अनुशासन वह व्यवस्था है, जो शक्तियों का नियोजन करती है। अनुशासन वह नियोजन है, जो नए सृजन की क्षमता विकसित करता है। अनुशासन वह सृजन है, जो आध्यात्मिक चेतना को जगाता है। अनुशासन वह चेतना है, जो अस्तित्व का बोध कराती है । अनुशासन वह बोध है, जो कलात्मक जीवन जीना सिखाता है ।" ७७ इसी सन्दर्भ में अध्यात्म की व्याख्या भी पठनीय है "अध्यात्म केवल मुक्ति का ही पथ नहीं, वह शांति का मार्ग है, जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और है रूपान्तरण की सजीब प्रक्रिया । " आचार्य तुलसी जीवन की हर समस्या के प्रति सजग हैं। अनेक स्थलों पर वे एक क्षेत्र की अनेक समस्याओं को प्रस्तुत करके एक ऐसा समाधान प्रस्तुत करते हैं, जो उन सब समस्याओं को समाहित कर सके । शैलीगत यह वैशिष्ट्य उनके साहित्य में अनेक स्थलों पर देखने को मिलता है " समाज में जहां कहीं असंतुलन है, आक्रमण है, शोषण है, विग्रह है, असहिष्णुता है, अप्रामाणिकता है, लोलुपता है, असंयम है, और भी जो कुछ वांछनीय है, उसका एक ही समाधान है- संयम के प्रति निष्ठा ।" निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि उन्होंने गद्य साहित्य की लेखन - शैली में अनेक नयी दिशाओं का उद्घाटन किया है । उनकी भाषा अनुभूतिप्रधान है, इस कारण उनका साहित्य केवल बुद्धि और तर्क को ही पैना नहीं करता, हृदय को भी स्पंदित करता है । उनका शब्द चयन, वाक्यविन्यास तथा भावाभिव्यक्ति -- ये सभी विषय की आत्मा को स्पष्ट करने में लगे हुए दिखाई देते हैं । कहा जा सकता है कि उनकी भाषा-शैली स्वच्छ, स्पष्ट, गतिमय, संप्रेषणीय, गम्भीर किन्तु बोधगम्य, मुहावरेदार तथा श्रुतिमधुर है । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण चिन्तन के नए क्षितिज आचार्य तुलसी एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्हें चिन्तन का अक्षय कोष कहा जा सकता है । उनके चिंतन की धारा एक ही दिशा में प्रवाहित नहीं हुई है, बल्कि उनकी वाणी ने जीवन की विविध दिशाओं का स्पर्श किया है । यही कारण है कि कोई भी महत्त्वपूर्ण विषय उनकी लेखनी से अछूता रहा हो, ऐसा नहीं लगता । उनके चिन्तन की खिड़कियां समाज को नई दृष्टि देने के लिए सदैव खुली रहती हैं । उन्होंने हजारों विषयों पर अपने मौलिक विचार व्यक्त किए हैं पर उन सबको प्रस्तुत करना असम्भव है । फिर भी अहिंसा, धर्म और राष्ट्र के सन्दर्भ में उन्होंने जो नई सूझ और नई दृष्टि समाज को दी है, उसका आकलन हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। यहां उन विषयों पर उनके उद्धरणों एवं विचारों को ही ज्यादा महत्त्व दिया गया है, जिससे एक शोध - विद्यार्थी को उन पर थीसिस लिखने की सुविधा हो सके । अहिंसा दर्शन अहिंसा मानवीय जीवन की कुञ्जी है । अत: इसका सामयिक और इहलौकिक ही नहीं, अपितु सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक महत्त्व है । 'अहिंसा एक अखण्ड सत्य है | उसे टुकड़ों में नहीं बांटा जा सकता । एशिया, यूरोप और अमेरिका की अहिंसा अलग-अलग नहीं हो सकती ।' महावीर अहिंसा के सन्दर्भ में कहते हैं कि ज्ञानी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह किसी की हिंसा न करे । यदि करोड़ों पद्यों का ज्ञाता होने पर भी व्यक्ति हिंसा में अनुरक्त है तो वह अज्ञानी ही है । "पुरिसा ! तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि" - पुरुष जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही हैयह ऐसा मंत्र महावीर ने मानव जाति को दिया है, जिसके आधार पर विश्व की सभी आत्माओं में समत्व प्रतिष्ठित हो सकता है । यों तो अहिंसा सभी महापुरुषों के जीवन का आभूषण है, किन्तु कुछ कालजयी व्यक्तित्व ऐसे अमिट हस्ताक्षर छोड़ जाते हैं, जो स्वयं ही अहिंसक जीवन नहीं जीते, वरन् समाज को भी उसका सक्रिय एवं प्रयोगात्मक प्रशिक्षण देते हैं । इस दृष्टि से बीसवीं सदी के महनीय पुरुष आचार्य तुलसी को मानव जाति कभी भूल नहीं पाएगी, क्योंकि उन्होंने अहिंसा के प्रशिक्षण की बात कहकर अहिंसक शक्ति को संगठित करने का भागीरथ प्रयत्न १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० २६ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन किया है। उनके अहिंसक विचारों की विशदता और विपुलता का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि उनकी प्रकाशित पुस्तकों में अहिंसा से सम्बन्धित लगभग २०० लेख हैं। उनके अहिंसक व्यक्तित्व के सन्दर्भ में प्रसिद्ध साहित्यकार यशपालजी का कहना है- "आचार्य तुलसी के पास कोई भौतिक बल नहीं, फिर भी वे प्रेम, करुणा एवं सद्भावना के द्वारा अहिंसक क्रांति का शंखनाद कर रहे हैं । विनोबा तो अन्तिम समय में ऐकांतिक साधना में लग गए पर आचार्य तुलसी के चरण ८० वर्ष में भी गतिमान् हैं। उनकी अहिंसक साधना अविराम गति से लोगों को सही इन्सान बनाने का कार्य कर रही है।" आचार्य तुलसी के कण-कण में अहिंसा का नाद प्रस्फुटित होता रहता है । किसी भी विषम परिस्थिति में हिंसा की क्रियान्विति तो दूर, उसका चिन्तन भी उन्हें मान्य नहीं है। लोक-चेतना में अहिंसा को जीवन-शैली का अंग बनाने के लिए उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के साथ ही अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया । कृतज्ञ राष्ट्र ने उनकी चार दशकों की तपस्या का मूल्यांकन किया और उन्हें (सन् १९९३ में) 'इन्दिरा गांधी पुरस्कार' से सम्मानित किया। पुरस्कार समर्पण के अवसर पर वे राष्ट्र को उद्बोधित करते हुए कहते हैं-“मैं अपने समूचे संघ एवं राष्ट्र से यही चाहता हूं कि सब जगह एकता और सद्भावना का विस्तार हो तथा देश में जितने भी विवादास्पद मुद्दे हैं, उन्हें अहिंसा के द्वारा सुलझाया जाए। अहिंसा के प्रचार-प्रसार में उनके आशावादी दृष्टिकोण की झलक निम्न पंक्तियों में देखी जा सकती है __ "कई बार लोग मुझसे पूछते हैं, आप अहिंसा का मिशन लेकर चल रहे हैं तो क्या आप सारे संसार को पूर्ण अहिंसक बना देंगे? उन्हें मेरा उत्तर होता है-- अब तक के इतिहास में ऐसा कोई युग नहीं आया, जबकि सारा संसार अहिंसक बना हो। फिर भी युग-युग में अहिंसक शक्तियां अपने-अपने ढंग से अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्न करती रही हैं । आज हम लोग भी वही प्रयास कर रहे हैं । पर मैं इस भाषा में नहीं सोचता कि हमारे इस प्रयास से सारा संसार अहिंसक या धार्मिक बन जाएगा। वस्तुतः सारे संसार के अहिंसक और धार्मिक बनने की वात कर्णप्रिय और लुभावनी तो है ही पर व्यावहारिक और सम्भव नहीं है। व्यावहारिक और सम्भव इतनी ही है कि हमारे प्रयास से कुछ प्रतिशत लोग अहिंसक और धार्मिक बन जाएं । पर इसके बावजूद भी हम अपने कार्य में सफल हैं। मैं तो यहां तक भी सोचता हूं कि यदि एक व्यक्ति भी हमारे प्रयत्न से अहिंसक या धार्मिक नहीं बनता है तो भी हम असफल नहीं हैं।' १. भोर भई, पृ० ३२-३३ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण · अहिंसक शक्ति के संगठन के सन्दर्भ में उनकी यह प्रस्थापना कितनी मौलिक एवं प्रेरक है-''अहिंसा और धर्म की शक्ति में तेज नहीं आ रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि दो डाकू, चोर या उपद्रवी मिल जाएंगे किन्तु दो अहिंसक या धार्मिक नहीं मिल सकते। मेरा निश्चित अभिमत है कि हिंसा में जितनी शक्ति लगाई गई, उस शक्ति का लक्षांश भी यदि अहिंसा की सृष्टि में लगता तो ऐसी विलक्षण शक्ति पैदा होती, जिसके परिणाम चौंकाने वाले होते।" उनका आत्म-विश्वास अनेक अवसरों पर इन शब्दों में अभिव्यक्त होता है-"जिस दिन सामूहिक रूप से अहिंसा के प्रशिक्षण एवं प्रयोग की बात सम्भव होगी, हिंसा की सारी शक्तियों का प्रभाव क्षीण हो जाएगा।" अहिंसा के प्रशिक्षण हेतु उनकी सन्निधि में दो अन्तर्राष्ट्रीय कांफेन्सों का आयोजन भी हो चुका है। प्रथम सम्मेलन दिसम्बर १९८८ में हुआ, जिसमें ३५ देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन फरवरी १९९१ में हुआ। इन दोनों सम्मेलनों का मुख्य उद्देश्य था बढ़ती हुई हिंसा की विविध समस्याओं का समाधान तथा अहिंसा का विधिवत् प्रशिक्षण देकर एक अहिंसावाहिनी का निर्माण करना। अहिंसक शक्तियों को संगठित करने में यह लघु किन्तु ठोस उपक्रम बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। इन सम्मेलनों में ऐसी प्रशिक्षण प्रणाली प्रस्तुत की गयी, जिससे मनुष्य की शक्ति ध्वंस में नहीं, अपितु रचनात्मक शक्तियों के विकास में लगे तथा अहिंसा की सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन किया जा सके । अहिंसा का स्वरूप भारतीय संस्कृति अध्यात्मप्रधान संस्कृति है। अध्यात्म की आत्मा अहिंसा है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने अहिंसा का जो शाश्वत गीत गाया है, वह आज भी हमारे समक्ष आदर्श प्रस्तुत करता है। अहिंसा चिरन्तन जीवन-मूल्य है, अतः यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसकी खोज किसने की, पर महात्मा गांधी कहते हैं कि इस हिंसामय जगत् में जिन्होंने अहिंसा का नियम ढूंढ निकाला, वे ऋषि न्यूटन से कहीं ज्यादा बड़े आविष्कारक थे । वे वैलिंग्टन से ज्यादा बड़े योद्धा थे, उनको मेरा साष्टांग प्रणाम है। महावीर ने अहिंसा को जीवन का विज्ञान कहा है । वेद, उपनिषद्, स्मृति, महाभारत आदि अनेक ग्रन्थों में इसका स्वरूप विश्लेषित हुआ है। पर इसके स्वरूप में आज भी बहुत विप्रतिपत्ति है । यही कारण है कि अनेक १. अमृत सन्देश, पृ० ४४ । २. मेरे सपनों का भारत, पृ० ८२ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन परिभाषाएं भी इसको व्याख्यायित करने में असमर्थ रही हैं । आचार्य तुलसी ने इसे आधुनिक परिवेश में परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। ___ अहिंसा के विषय में उनका चिन्तन न केवल भारतीय चिन्तन के इतिहास में नया चिन्तन प्रस्तुत करता है, अपितु पाश्चात्य विचारधारा में भी नई सोच पैदा करने की सामर्थ्य रखता है। उनके वाङ्मय में अहिंसा की सैकड़ों परिभाषाएं बिखरी पड़ी हैं, जो अहिंसा के विविध पहलुओं का स्पर्श करती हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं ० सत्, चित् और आनन्द की अनुभूति ही अहिंसा है। ० सब प्राणियों के प्रति आत्मीय भाव होने का नाम अहिंसा है। ____ अर्थात् सबके दर्द को अपना दर्द मानना अहिंसाभाव है। ० मन, वाणी और कर्म इन तीनों को विशुद्ध और पवित्र रखना ही अहिंसा है। ० शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक-- हर प्रवृत्ति में भावक्रिया रहे, यही अहिंसा की साधना का फलित रूप है। ० अहिंसा का अर्थ है-स्वयं निर्भय होना और दूसरों को अभयदान देना। ० प्राप्त कष्टों को समभाव से सहन करना अहिंसा का विशिष्ट रूप ० अहिंसा का अर्थ है-बाहरी आकर्षण से मुक्ति तथा स्व का विस्तार । ० जहां भोग का त्याग हो, उन्माद का त्याग हो, आवेग का त्याग हो, वहां अहिंसा रहती है। • यदि छोटी-छोटी बातों पर तू-तू मैं-मैं होती है तो समझना चाहिए, अहिंसा का नाम केवल अधरों पर है, जीवन में नहीं। ० अहिंसा का अर्थ अन्यायी के आगे दबकर घुटने टेकना नहीं, बल्कि अन्यायी की इच्छा के विरुद्ध अपनी आत्मा की सारी शक्ति लगा देना है। • हम किसी दूसरे को न मारें, न पीट, इतनी ही अहिंसा नहीं है। हम अपने आपको भी न मारें, न पीटें और न कोसें-यही अहिंसा का मूल हार्द है। ० जो निष्काम कर्म है, वही तो आंतरिक अहिंसा है। ० अहिंसा के जगत् में इस चिन्तन की कोई भाषा नहीं होती कि मैं १. मुक्तिपथ, पृ० १३ । २. जैन भारती, २६ नव० ६१। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ही रहूं, मैं ही बचूं या अन्तिम जीत मेरी ही हो। वहां की भाषा यही होती है - अपने अस्तित्व में सब हों और सबके अस्तित्व का विकास हो । ' इतने व्यापक स्तर पर अहिंसा की व्याख्या इतिहास का दुर्लभ दस्तावेज है । अहिंसा की मौलिक अवधारणा अहिंसा के विषय में तेरापन्थ के आद्य गुरु आचार्य भिक्षु ने कुछ मौलिक अवधारणाओं को प्रतिष्ठित किया। उन नयी अवधारणाओं को तत्कालीन समाज पचा नहीं सका, अतः उन्हें बहुत संघर्ष एवं विरोध झेलना पड़ा। पर वर्तमान में आचार्य तुलसी ने उनको आधुनिक भाषा एवं आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुत करने का प्रशस्य प्रयत्न किया है । उनमें कुछ अवधारणाओं को बिंदु रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है- ० • शुद्ध अहिंसा है—- हृदय परिवर्तन के द्वारा किसी को अहिंसक बनाना । जब तक हिंसक का हृदय परिवर्तन नहीं होता, तब तक वह किसी न किसी रूप में हिंसा कर ही लेगा । अतः साधन -शुद्धि अहिंसा की अनिवार्य शर्त है । बड़ों की रक्षा के लिए छोटों को मारना, बहुमत के लिए अल्पमत का उत्सर्ग कर देना हिंसा नहीं है यह मानना अहिंसा को लज्जित करना है । हिंसा न छोड़ सकें, यह मानवीय कमजोरी है, पर उसे अहिंसा मानने की दोहरी गलती क्यों करें ? • अनिवार्य हिंसा को अहिंसा मानना उचित नहीं । आकांक्षाओं के लिए होने वाली हिंसा, जीवन की आवश्यकता पूर्ति करने वाली हिंसा अनिवार्य हो सकती है, पर उसे अहिंसा नहीं कह सकते । " ● किसी को अहिंसक बनाने के लिए हिंसा का प्रयोग करना अहिंसा का दुरुपयोग है । • आप लोग न मारें तो मैं भी आपको नहीं मारूं, आप यदि गाली न दें तो मैं भी गाली न दूं, ऐसा विनिमय अहिंसा में नहीं होता o आ० अहिंसक बनने का उद्देश्य यह नहीं कि कोई न मरे, सब जिन्दा रहें, उसका उद्देश्य यही है कि व्यक्ति अपना आत्मपतन न होने १. मेरा धर्म : केन्द्र और परिधि, पृ० ६५ । २. शांति के पथ पर, पृ० ४७ । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० २७० । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन दे । कोई किसी को जिला सके, यह सर्वथा असम्भव बात है । पर कोई किसी को मारे नहीं, यह अहिंसा और मैत्री का व्यावहारिक एवं सम्भावित रूप है।' इसी बात को रूपक के माध्यम से समझाते हुए वे कहते हैं-पड़ोसी को दुगंध न आए, इसलिए हम घर को साफ-सुथरा बनाये रखें, यह सही बात नहीं है । दूसरों को कष्ट न हो इसलिए हम अहिंसक रहें, अहिंसा का यह सही मार्ग नहीं है। आत्मा का पतन न हो, इसलिए हिंसा न करें, यह है अहिंसा का सही मार्ग । कष्ट का बचाव तो स्वयं हो जाता अहिंसक कौन ? __ अहिंसक कौन हो सकता है, इस विषय में भारतीय मनीषियों ने पर्याप्त चिन्तन किया है। आचार्य तुलसी मानते हैं कि अहिंसा की जय बोलने वाले तथा उसकी महिमा का बखान करने वाले अनेक अहिंसक मिल जाएंगे पर वास्तव में अहिंसा को जीन वाले कम मिलेंगे। अतः अनेक बार दृढ़तापूर्वक वे इस तथ्य को दोहराते हैं-"अहिंसा को जितना खतरा तथाकथित अहिंसकों से है, उतना हिंसकों से नहीं। अहिंसकों का वंचनापूर्ण व्यवहार तथा उनकी कथनी और करनी में असमानता ही अहिंसा पर कुठराघात है।' आचार्यश्री ने विभिन्न कोणों से अहिंसक की विशेषताओं का आकलन किया है, उनमें से कुछ यहां प्रस्तुत हैं--- ० मौत के पास आने पर जो धैर्य से उसका आह्वान करे, वही सच्चा अहिंसक हो सकता है। ० अहिंसक व्यक्ति हर परिस्थिति में शांत रहता है ! उसका अन्तःकरण शीतलता की लहरों पर क्रीड़ा करता रहता है। ० अहिंसक वही है, जो मारने की क्षमता रखता हुआ भी मारता नहीं है। ० अहिंसक वही हो सकता है, जिसकी दृष्टि बाह्य भेदों को पार कर आंतरिक समानता को देखती रहती है। ० अहिंसक सच्चा वीर होता है । वह स्वयं मरकर दूसरे की वृत्ति ___ बदल देता है, हृदय परिवतित कर देता है ।। ० यदि हिंसक शक्तियों का मुकाबला करने में अहिंसा असमर्थ है तो मैं इसे अहिंसकों की दुर्बलता ही मानूंगा । १. प्रवचन पाथेय, भाग ८, पृ० २९,३० । २. आचार्य तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ९८ ! Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ० निम्न सात सूत्रों से जिसका जीवन परिवेष्टित है, वही अहिंसक है। व्यक्ति स्वयं को तोले कि उसका जीवन किसकी परिक्रमा कर रहा है(१) शांति की अथवा क्रोध की। (२) नम्रता की अथवा अभिमान की। (३) संतोष की अथवा आकांक्षा की। (४) ऋजुता की अथवा दंभ की। (५) अनाग्रह की अथवा दुराग्रह की। (६) सामंजस्य की अथवा वैषम्य की। (७) वीरता की अथवा दुर्बलता की। आचार्य तुलसी द्वारा उद्गीत अहिंसक की ये कसौटियां उसके सर्वांगीण व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने वाली हैं। हिंसा के विविध रूप हिंसा ऐसी चिनगारी है, जो निमित्त मिलते ही भड़क उठती है । हिंसा के बारे में आचार्य तुलसी का मन्तव्य है कि किसी को मार देने तक ही हिंसा की व्याप्ति नहीं है। अहिंसा को समझने के लिए हिंसा के स्वरूप एवं उसके विविध रूपों को समझना आवश्यक है। आचार्य तुलसी हिंसा के जिस सूक्ष्म तल तक पैठे हैं, वहां तक पहुंचना हर किसी व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है । वे हिंसा को बहुत व्यापक अर्थ में देखते हैं। हिंसा के स्वरूप-विश्लेषण में उनके मंथन से निकलने वाले कुछ निष्कर्ष इस भाषा में प्रस्तुत किए जा सकते हैं ० राग-द्वेष युक्त प्रवृत्ति से किया जाने वाला हर कार्य हिंसा है।' • हिंसा मात्र तलवार से ही नहीं होती, मिलावट और शोषण भी हिंसा है, जिसके द्वारा लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। संक्षेप में कहें तो जीवन की हर असंयत प्रवृत्ति हिंसा • किसी से अतिश्रम लेने की नीति हिंसा है। ० अपने विश्वास या विचार को बलपूर्वक दूसरे पर थोपने का प्रयास करना भी हिंसा है, फिर चाहे वह अच्छी धार्मिक क्रिया ही क्यों न हो। ० जैसे दूसरों को मारना हिंसा है, वैसे ही हिंसा को रोकने के लिए आत्म-बलिदान से कतराना भी हिंसा है। १. मुक्तिपथ, पृ० २१ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ० मैं तोड़-फोड़ करने वालों और घेराव डालने वालों को ही हिंसक नहीं मानता, किन्तु उन लोगों को भी हिंसक मानता हूं, जो अपने आग्रह के कारण वैसी परिस्थिति उत्पन्न करते हैं तथा मानवीय संवेदनाओं का लाभ उठाकर उन्हीं से अपना जीवन चलाते हैं। ० युद्ध करना ही हिंसा नहीं है, घर में बैठी औरत यदि अपने पारिवारिक जनों से कलह करती है तो वह भी हिंसा है। ० किसी के प्रति द्वेष भावना, ईर्ष्या, उसे गिराने का मनोभाव, किसी की बढ़ती प्रतिष्ठा को रोकने के सारे प्रयत्न हिंसा में अन्तर्गभित हैं। आचार्य तुलसी मानते हैं कि हिंसा और आत्महनन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हिंसा हमारे सामने कितने रूपों में प्रकट हो सकती है, उसका उन्होंने मानसिक एवं भावनात्मक स्तर पर सुन्दर विवेचन किया है। यहां उनके द्वारा प्रतिपादित विचारयात्रा के कुछ सन्दर्भ मननीय हैं-- स्व हिंसा का अर्थ है-आत्मपतन। जहां थोड़ी या ज्यादा मात्रा में आत्मपतन होगा, वहीं हिंसा होगी। वास्तव में आत्मपतन ही हिंसा है। ० व्यक्ति कहता कुछ है और करता कुछ है। यह कथनी-करनी की असमानता अप्रामाणिकता है। इससे आत्महनन होता है, जो हिंसा का ही एक रूप है। ० स्वामी की अनुमति के बिना किसी की कोई वस्तु लेना चोरी है। चोरी आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है। ० अखण्ड ब्रह्मचर्य का संकल्प लेकर चलने पर भी यदि व्यक्ति को वासना सताती हो तो यह स्पष्ट रूप से उसका आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है। • सम्पूर्ण अपरिग्रह का व्रत लेकर चलने पर भी यदि मन की मूर्छा नहीं टूटी है तो यह उसका आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक ० प्रतिकूल परिस्थिति एवं प्रतिकूल सामग्री के कारण किसी के मन में अशांति हो जाती है तो यह उसका आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है। • व्यक्ति अपने आपको ऊंचा और दूसरों को हीन मानता है। यह उसका अभिमान है, आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है। • काय, भाषा एवं भाव की ऋजुता के अभाव में किसी के साथ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रवंचना करना मायाचार है। यह आत्महनन है, जो हिंसा का ही एक रूप है। आचार्य तुलसी की दृष्टि में हिंसा के पोषक तत्त्व पूर्वाग्रह, भय, अहं, सन्देह, धार्मिक असहिष्णुता, साम्प्रदायिक उन्माद आदि हैं।' उनकी स्पष्ट अवधारणा है कि हिंसा जीवन के लिए जरूरी हो सकती है, पर जीवन का साध्य नहीं बन सकती । समस्या वहीं होती है, जहां उसे साध्य मान लिया जाता है। हिंसा वैभाविक प्रतिक्रिया है, अतः वह जीवन-मूल्य नहीं बन सकती, क्योंकि कोई आदमी लगातार हिंसा नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त हिंसा की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि वह निश्चित आश्वासन नहीं बन सकती। वह पारस्परिक संघर्षों, विवादों एवं समस्याओं को सुलझाने में असफल रही है इसलिए उस पर विश्वास करने वाले भी संदिग्ध और भयभीत रहते हैं। पूर्ण अहिंसक होते हुए भी आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण सन्तुलित है। वे मानते हैं कि यह सम्भव नहीं कि सर्वसाधारण वीतराग बन जाए, अपने स्वार्थों की बलि कर दे, भेदभाव को भुला दे और जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक हिंसा को छोड़ दे।' __अनावश्यक हिंसा के विरोध में जितनी सशक्त आवाज आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में उठाई है, इस सदी में दूसरा कोई साहित्यकार उनके समकक्ष नहीं ठहर सकता। उनका मानना है कि युद्ध जैसी बड़ी हिंसाओं से सभी चिंतित हैं पर वास्तव में छोटी हिंसाएं ही बड़ी हिंसा को जन्म देती हैं। अतः उन्होंने अपने साहित्य में हिंसा के अनेक मुखौटों का पर्दाफाश करके मानवीय चेतना को उद्बुद्ध करने का प्रयास किया है । अरब देशों में अमीरों के मनोरंजन के लिए ऊंट-दौड़ के साथ शिशुओं की होने वाली हत्या के सन्दर्भ में वे अपनी तीखी आलोचना प्रकट करते हुए कहते हैं “एक ओर क्षणिक मनोरंजन और दूसरी ओर मासूम प्राणों के साथ ऐसा क्रूर मजाक ! क्या मनुष्यता पर पशुता हावी नहीं हो रही है ? कहा तो यह जाता है कि बच्चा भगवान् का रूप होता है पर बच्चों की इस प्रकार बलि दे देना, क्या यह अमीरी का उन्माद नहीं है। इसे दूर करने के लिए जनमत को जागृत करना आवश्यक है। बीसवीं सदी में वैज्ञानिक परीक्षणों के दौरान एक नयी हिंसा का दौर और शुरू हो गया है । वह है- कन्या भ्रूण की हत्या। इसके लिए वे १. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५४ । २. लघुता से प्रभुता मिले, पृ० २११ । ३. २१ अप्रैल, ५० दिल्ली, पत्रकार सम्मेलन । ४. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ६२ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गय साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ८७ बहिनों को भारतीय संस्कृति की गरिमा से अवगत कराते हुए उन्हें मातृत्वबोध देना चाहते हैं "क्या मां की ममता का स्रोत सूख गया ? पाषाण खण्ड जैसे बच्चे को भी भार न मानने वाली मां एक स्वस्थ और संभावनाओं के पुंज शिशु का प्राण ले लेती है, क्या वह क्रूर हिंसा नहीं है ?" व्यक्ति प्राणी जगत् के प्रति संवेदनशील नहीं है, इसलिए आज हिंसा प्रबल है। प्राचीनकाल में प्रसाधन के रूप में प्राकृतिक चीजों का प्रयोग होता था। लेकिन आज अनेक जीवित प्राणियों के रक्त और मांस से रंजित वह सौन्दर्य-सामग्री कितने ही बेजुबान प्राणियों की आहों से निर्मित होती है। इस अनावश्यक हिंसा का समाधान व्यंग्य भाषा में करते हुए वे कहते हैं "प्रसाधन सामग्री के निर्माण में निरीह पशु-पक्षियों के प्राणों का जिस बर्बरता के साथ हनन होता है, उसे कोई भी आत्मवादी वांछनीय नहीं मान सकता। जिस प्रसाधन सामग्री में मूक प्राणियों की कराह घुली है, उनका प्रयोग करने वाले अपने शरीर को भले ही सुन्दर बना लें पर उनकी आत्मा का सौन्दर्य सुरक्षित नहीं रह सकेगा। आज की घोर हिंसा एवं आतंक को देखकर भी उनका मन कम्पित या निराश नहीं होता । उनका विश्वास कभी डोलता नहीं, अपितु इन शब्दों में स्फुटित होता है-“समूची दुनिया अहिंसा अपना नहीं सकती, इसलिए हमें निराश, चिन्तित या पीछे हटने की आवश्यकता नहीं है। हमें तो इसी भावना से अहिंसा को लेकर चलना है कि कहीं अहिंसा की तुलना में हिंसा बलवान्, स्वच्छन्द और अनियंत्रित न बन जाए।"3 अहिंसा की तुलना में हिंसा शक्तिशाली हो रही है। अतः मात्रा के इस असन्तुलन को मिटाने की प्रेरणा एवं भविष्य की चेतावनी देते हुए उनका कहना है-"यदि अहिंसा के द्वारा हिंसा का मुकाबला नहीं किया गया तो निश्चित समझिए कि एक दिन मन्दिर, मठ, स्थानक, आश्रम और हमारी संस्कृति पर धावा होने वाला है। हिंसा की इस समस्या को समाहित करने के लिए वैज्ञानिकों को सुझाव देते हुए वे कहते हैं कि पहले अन्वेषण किया जाए कि मस्तिष्क में हिंसा के स्रोत कहां विद्यमान हैं ? क्योंकि स्रोतों की खोज करके ही उन्हें परिष्कृत करने और बदलने की बात सोचकर हिंसक शक्ति को नियंत्रित तथा अहिंसा को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। १. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ५९ । २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ९५ । ३. प्रवचन पाथेय भाग-९, पृ० २६६ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० २६७ । ५. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ५८ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रायः धर्मग्रन्थों में हिंसा के दुष्परिणामों का करुण एवं रोमांचक वर्णन मिलता है पर आचार्य तुलसी ने आधुनिक मानसिकता को देखकर हिंसा को नरक से नहीं जोड़ा पर अहिंसा के प्रति निष्ठा जागृत करने के लिए उसका मनोवैज्ञानिक पथ प्रस्तुत किया है ० हिंसा करने वाला किसी दूसरे का अहित नहीं करता बल्कि अपनी आत्मा का अनिष्ट करता है-अपना पतन करता है।' • हम किसी के लिए सुख के साधन बनें या न बनें, कम से कम दुःख का साधन तो न बनें । सन्तापहारी बनें या न बनें, कम से कम सन्तापकारी तो न बनें। निरपराध प्राणियों को मौत के घाट उतारने वाले आतंकवादियों की अन्तश्चेतना जागृत करते हुए वे कहते हैं- “यदि कत्ले-आम करना चाहते हो तो आत्मा के उन घोर अपराजित शत्रुओं का करो, जिनसे तुम बुरी तरह जकड़े हुए हो, जो तुम्हारा पतन करने के लिए तुम्हारी ही नंगी तलवारें लिए हुए खड़े हैं। अहिंसा का क्षेत्र .. अहिंसा का क्षेत्र आकाश की भांति व्यापक है। आचार्य तुलसी मानते हैं कि अहिंसा को परिवार, कुटुम्ब, समाज या राष्ट्र तक ही सीमित नहीं किया जा सकता । उसकी गोद में जगत् के समस्त प्राणी सुख की सांस लेते हैं। उसकी विशालता को व्याख्यायित करते हुए आचार्य तुलसी का कहना है-अहिंसा में साम्प्रदायिकता नहीं, ईर्ष्या नहीं, द्वेष नहीं, वरन् एक सार्वभौमिक व्यापकता है, जो संकुचितता और संकीर्णता को दूर कर एक विशाल सार्वजनिक भावना लिए हुए है। उनके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा कितनी व्यापक एवं विशाल है, यह निम्न उक्ति से जाना जा सकता है-"किसी भी विचार या पक्ष के विरोध में प्रतिरोध होते हुये भी अहिंसा यह अनुमति नहीं देती कि हमारे दिलों में विरोधी के प्रति दुर्भाव या घृणा का भाव हो।" अहिंसा की शक्ति ____ अहिंसा की शक्ति अपरिमेय है, पर आवश्यकता है उसको सही प्रयोक्ता मिले । आचार्य तुलसी इसकी शक्ति को रूपक के माध्यम से समझाते १. अहिंसा और विश्व शांति, पृ०८। २. शांति के पथ पर, पृ० ६१ । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० ४७७ । ४. अणुव्रत : गति-प्रगति, पृ० १५६ । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन ८९ हुये कहते हैं - "माटी का एक दीया भी अंधकार की सघनता को भेदने में सक्षम है । इसी प्रकार अहिंसा की दिशा में उठा हुआ एक-एक पग भी मंजिल तक पहुंचाने में कामयाबी दे सकेगा" पर अहिंसा की शक्ति की थाह पाना उनके लिए असंभव है, जो हिंसा की शक्ति में विश्वास करते हैं तथा इंसानियत की अवहेलना करते हैं । अहिंसा के अमाप्य व्यक्तित्व में योगक्षेम की जो क्षमता है, वह अतुल और अनुपमेय है। इसी भावना को आचार्य तुलसी समाज के हर वर्ग की चेतना को झकझोरते हुए कहते हैं-"अगर नेता, साहित्यकार, दार्शनिक, कलाविद् और कवि हिंसा के वातावरण को फैलाना छोड़कर अहिंसा के पुनीत वातावरण को फैलाने में जुट जाएं तो संभव है कि अहिंसक क्रांति की शक्ति का उज्ज्वल आलोक कण-कण में छलक उठे।" अहिंसा की शक्ति के प्रति अपना अमित विश्वास व्यक्त करते हुये वे कहते हैं-“अहिंसा में इतनी शक्ति है कि हिंसक यदि अहिंसक के पास पहुंच जाए तो उसका हृदय परिवर्तित हो जाता है पर इस शक्ति का प्रयोग करने हेतु बलिदान की भावना एवं अभय की साधना अपेक्षित है।" अहिंसा की प्रतिष्ठा ___ भारतीय संस्कृति के कण-कण में अहिंसा की अनुगूंज है। यहां राम, बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर और गांधी जैसे लोगों ने अहिंसा के महान् आदर्श को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है। उस महान् भारतीय जीवनशैली में हिंसा की घुसपैठ चिन्तनीय प्रश्न है। अहिंसा की प्रतिष्ठा प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मंच से भी आज अहिंसा की प्रतिष्ठा का चिन्तन चल रहा है। राजीव गांधी एवं गोर्बाच्योव ने विश्व शांति और अहिंसा के लिए दस प्रस्ताव पारित किये, उनमें अधिकांश सुझाव अहिंसा से संबंधित हैं। आचार्य तुलसी का गहरा आत्मविश्वास है "हिंसा चाहे चरम सीमा पर पहुंच जाये पर अहिंसा की मूल्यस्थापना या प्रतिष्ठा कम नहीं हो सकती, क्योंकि हिंसा हमारी स्वाभाविक अवस्था नहीं है । तूफान और उफान किसी अवधिविशेष तक ही प्रभावित कर सकते हैं, वे न स्थायी हो सकते हैं और न ही उनकी प्रतिष्ठा हो सकती है । आचार्य तुलसी देश की जनता को झकझोरते हुए कहते हैं-"प्रश्न अब अहिंसा के मूल्य का नहीं, उसकी प्रतिष्ठा का है। मैं मानता हूं, यह अहिंसा का परीक्षा-काल है, अहिंसा के प्रयोग का काल है। इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाते हुए १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० २७ २. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १४१ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० अ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अहिंसा यदि इन समस्याओं का समाधान देती है तो उसका तेजस्वी रूप स्वयं प्रतिष्ठित हो जायेगा, अन्यथा वह हतप्रभ होकर रह जायेगी ।' अहिंसा को तेजस्वी और शक्तिशाली बनाए बिना उसकी प्रतिष्ठा की बात आकाश - कुसुम की भांति व्यर्थ है । इसको स्थापित करने के लिये वे भावनात्मक परिवर्तन, हृदय परिवर्तन या मस्तिष्कीय प्रशिक्षण को अनिवार्य मानते हैं । ' आचार्य तुलसी की दृष्टि में अहिसा की प्रतिष्ठा में मुख्यतः चार बाधाएं हैं १. साधन - शुद्धि का अविवेक । २. अहिंसा के प्रति आस्था की कमी । ३. अहिंसा के प्रयोग और प्रशिक्षण का अभाव । ४. आत्मौपम्य भावना का ह्रास | अहिंसा की प्रतिष्ठा में पहली बाधा है-साधन-शुद्धि का अविवेक । साध्य चाहे कितना ही प्रशस्त क्यों न हो, यदि साधन-शुद्ध नहीं है तो अहिंसा का शांति का अवतरण नहीं हो सकता। क्योंकि हिंसा के साधन से शांति कैसे संभव होगी ? रक्त से रंजित कपड़ा रक्त से साफ नहीं होगा । आचार्यश्री कहते हैं- " किसी भी समस्या का समाधान हिंसा, आगजनी और लूट-खसोट से कभी हुआ नहीं और न ही कभी भविष्य में होने की संभावना है ।" अहिंसा की प्रतिष्ठा में दूसरी बाधा है- अहिंसा के प्रति आस्था की कमी । इस प्रसंग में वे अपने अनुभव को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं"अहिंसा की प्रतिष्ठा न होने का कारण मैं अहिंसा के प्रति होने वाली ईमानदारी की कमी को मानता हूं। लोग अहिंसा की आवाज तो अवश्य उठाते हैं, किन्तु वह आवाज केवल कंठों से आ रही है, हृदय से नहीं । अहिंसा की प्रतिष्ठा में तीसरी बाधा है -अहिंसा के प्रशिक्षण का अभाव । अहिंसा की परम्परा तब तक अक्षुण्ण नहीं बन सकती, जब तक उसका सफल प्रयोग एवं परीक्षण न हो । अहिंसा की प्रतिष्ठा हेतु प्रयोग एवं परीक्षण करने वाले शोधकर्त्ताओं के समक्ष वे निम्न प्रश्न रखते हैं • शस्त्र की ओर सबका ध्यान जाता है, पर शस्त्र बनाने और रखने वाली चेतना की खोज किस प्रकार हो सकती है ? अहिंसा का संबंध मानवीय वृत्तियों के साथ ही है या प्राकृतिक ० १. अणुव्रत : गति - प्रगति, पृ० १४० २. अमृत-संदेश, पृ० - २३ ३. अणुव्रत : गति - प्रगति, पृ० १४५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन वातावरण के साथ भी है ? • आतंक या हिंसा की स्थिति को शांत करने के लिए कहीं अहिंसा का प्रयोग हुआ ? अहिंसा को न मारने तक ही सीमित रखा गया है अथवा उसकी जड़ें अधिक गहरी हैं । o • कहा जाता है कि अहिंसक व्यक्ति के सामने हिंसक व्यक्ति हिंसा को भूल जाता है, यह विश्वसनीय सचाई है या मिथ्या ही है ? • हिंसा के विकल्प अधिक हैं, इसलिए उसके रास्ते भी अधिक हैं | अहिंसा के विकल्प और रास्ते कितने हो सकते हैं ? शस्त्र - हिंसा में परम्परा चलती है तो फिर अशस्त्र अहिंसा में परम्परा क्यों नहीं चलती ? किसी व्यक्ति को अपने विरोध में शस्त्र का प्रयोग करते देख प्रतिरोध की भावना जागती है इसी प्रकार o अहिंसक व्यक्ति की मैत्री भावना का भी प्रभाव होता है क्या ? इसी प्रकार के तथ्यों को सामने रखकर अहिंसा के क्षेत्र में शोध हो तो कुछ नयी बातें प्रकाश में आ सकती हैं और अहिंसा की तेजस्विता स्वतः उजागर हो सकती है । ' अहिंसा की प्रतिष्ठा में चौथी बाधा आत्म-तुला की भावना का विकास न होना है । वे अपनी अनुभवपूत वाणी इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं - "अहिंसा के जगत् में इस चिन्तन की कोई भाषा ही नहीं होती कि मैं ही बचूंगा या अंतिम जीत मेरी ही हो। वहां की भाषा यही होती है - अपने अस्तित्व में सब हों और सबके अस्तित्व का विकास हो । " अहिंसा की प्रतिष्ठा के विषय में उनके विचारों का निष्कर्ष इस भाषा में प्रस्तुत किया जा सकता है- "जब तक मस्तिष्क प्रशिक्षित नहीं होगा, वहां रहे हुए हिंसा के संस्कार सक्रिय रहेंगे उन संस्कारों को निष्क्रिय किए बिना केवल संगोष्ठियों और नारों से अनंत काल तक भी अहिंसा की प्रतिष्ठा नहीं हो सकेगी। यदि अहिंसक शक्तियां संगठित होकर अहिंसा के क्षेत्र में रिसर्च करें, अहिंसा प्रधान जीवन-शैली का प्रशिक्षण दें और हिंसा के मुकाबले में अहिंसा का प्रयोग करें तो निश्चित रूप से अहिंसा का वर्चस्व स्थापित हो सकता है ।" મ अहिंसा का प्रयोग ९१ धर्मशास्त्रों में अहिंसा की महिमा के व्याख्यान में हजारों पृष्ठ भरे १. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ५९ २. मेरा धर्म : केंद्र और परिधि पृ० ६५ ३. अणुव्रत पाक्षिक १६ अग०, ८८ ४. कुहासे में उगता सूरज पृ० २६ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण पड़े हैं। वर्तमान काल में गांधी के बाद आचार्य तुलसी का नाम आदर से लिया जा सकता है, जिन्होंने अहिंसा को प्रयोग के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया है । यद्यपि आचार्य तुलसी पूर्ण अहिंसक जीवन जीते हैं, पर उनके विचार बहुत सन्तुलित एवं व्यावहारिक हैं । अहिंसा के प्रयोग एवं परिणाम के बारे में उनका स्पष्ट मन्तव्य है कि दुनिया की सारी समस्याएं अहिंसा से समाहित हो जाएंगी, यह मैं नहीं मानता पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह निर्बल है । अहिंसा में ताकत है पर उसके प्रयोग के लिए उचित एवं उपयुक्त भूमिका चाहिए । बिना उपयुक्त पात्र के अहिंसा का प्रयोग वैसे ही निष्फल हो जाएगा जैसे ऊषर भूमि में पड़ा बीज ।' अहिंसा का प्रयोग क्षेत्र कहां हो ? इस प्रश्न के उत्तर में उनका चिन्तन निश्चित ही अहिंसा के क्षेत्र में नयी दिशाएं उद्घाटित करने वाला है - " मैं मानता हूं अहिंसा केवल मन्दिर, मस्जिद या गुरुद्वारा तक ही सीमित न रहे, जीवन व्यवहार में उसका प्रयोग हो । अहिंसा का सबसे पहला प्रयोगस्थल है - व्यापारिक क्षेत्र, दूसरा क्षेत्र है राजनीति । " वर्तमान में अहिंसक शक्तियों के प्रयोग में ही कोई ऐसी भूल हो रही है, जो उसकी शक्तियों की अभिव्यक्ति में अवरोध ला रही है । उसमें एक कारण है उसका केवल निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करना । आचार्य तुलसी कहते हैं कि विधेयात्मक प्रस्तुति द्वारा ही अहिंसा को अधिक शक्तिशाली बनाया जा सकता है । जो लोग अहिंसा की शक्ति को विफल मानते हैं, उनकी भ्रान्ति का निराकरण करते हुए वे कहते हैं- " आज हिंसा के पास शस्त्र है, प्रशिक्षण है, प्रेस है, प्रयोग है, प्रचार के लिए अरबों-खरबों की अर्थ-व्यवस्था है । मानव जाति ने एक स्वर से जैसा हिंसा का प्रचार किया वैसा यदि संगठित होकर अहिंसा का प्रचार किया होता तो धरती पर स्वर्ग उतर आता, मुसीबतों के बीहड़ मार्ग में भव्य एवं सुगम मार्ग का निर्माण हो जाता, ऐसा नहीं किया गया फिर अहिंसा की सफलता में सन्देह क्यों ? वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- " मैं तो अहिंसा की ही दुर्बलता मानता हूं कि उसके अनुयायियों का संगठन नहीं हो पाया। कुछ अहिंसा-निष्ठ व्यक्तियों का संगठन में इसलिए विश्वास नहीं है कि वे उसमें हिंसा का खतरा देखते हैं। मैं अहिंसा की वीर्यवत्ता के लिए संगठन को उपयोगी समझता हूं। हिंसा वहां है, जहां बाध्यता हो । साधना के सूत्र पर चलने वाले प्रयत्न व्यक्तिगत स्तर पर १. प्रवचन पाथेय भाग-९, पृ० २६५ । २. जैन भारती, १७ सित० ६१ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन जितने शुद्ध होते हैं, समूह के स्तर पर भी उतने ही शुद्ध हो सकते हैं। सामूहिक अभ्यास से उस शुद्धता में तेजस्विता और अधिक निखर आती है।" अहिंसा को प्रायोगिक बनाने के लिए वे अपनी भावना प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-"मैं चाहता हूं कि एक शक्तिशाली अहिंसक सेना का निर्माण हो । वह सेना राजनीति के प्रभाव से सर्वथा अछूती रहे, यह आवश्यक है।" मेरी दृष्टि में इस अहिंसक सेना में पांच तत्त्व मुख्य होंगे-- १. समर्पण--अपने कर्तव्य के लिए जीवन की आहुति देनी पड़े तो __ भी तैयार रहें। २. शक्ति--परस्पर एकता हो। ३. संगठन--संगठन में इतनी दृढ़ता हो कि एक ही आह्वान पर हजारों व्यक्ति तैयार हो जाएं। ४. सेवा--एक दूसरे के प्रति निरपेक्ष न रहें। ५. अनुशासन--परेड में सैनिकों की तरह चुस्त अनुशासन हो।' अहिंसक क्रांति संसार में अन्याय, शोषण एवं अनाचार के विरुद्ध समय-समय पर क्रांतियां होती रही हैं पर उनका साधन विशुद्ध नहीं रहने से उनका दीर्घकालीन परिणाम सन्दिग्ध हो गया। आचार्य तुलसी स्पष्ट कहते हैं कि क्रांति की सफलता और स्थायित्व मैं केवल अहिंसा में ही देखता हूं। हिंसक क्रांति से शांति और समता आ जाएगी, यह दुराशामात्र है। यदि आ भी जाएगी तो वह चिरस्थायी नहीं होगी। उसकी तह में अशांति और वैमनस्य की ज्वाला धधकती रहेगी। अहिंसक क्रांति से उनका तात्पर्य है बिना कोई रक्तपात, हिंसा, युद्ध और शस्त्रास्त्र के सहयोग से होने वाली क्रांति । उनका यह अटूट विश्वास है कि भौतिक साधनों से नहीं, अपितु प्रेम की शक्ति से ही अहिंसक क्रांति सम्भव है। अहिंसक क्रांति के सफल न होने का सबसे बड़ा कारण वे मानते हैं कि हिंसात्मक क्रांति करने वालों की तोड़-फोड़ के साधनों में जितनी श्रद्धा होती है, उतनी श्रद्धा अहिंसात्मक क्रांति वालों को अपने शांति-साधनों में नहीं होती ।......"अहिंसात्मक क्रांति को सफल होना है तो उसमें प्रतिरोधात्मक शक्ति पैदा करनी होगी। इस दृढ़ निष्ठा से ही अहिंसा तेजस्वी एवं सफल हो सकती है। १. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५५ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७३४ । ३. बेंगलोर १६-९-६९ के प्रवचन से उद्धृत। ४. प्रवचन पाथेय भाग-९, पृ० २६५ । ५. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० २५ । . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अहिंसा का सामाजिक स्वरूप अहिंसा कोई नारा नहीं, अपितु जीवन का शाश्वत दर्शन है । समय की आंधी इसे कुछ धूमिल कर सकती है पर समाप्त नहीं कर सकती ।" अहिंसा केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही नहीं, अपितु सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसकी उपयोगिता निर्विवाद है । आचार्य तुलसी के अनुसार अहिंसा वह सुरक्षा कवच है, जो घृणा, वैमनस्य, प्रतिशोध, भय, आसक्ति आदि घातक अस्त्रों के प्रहार को निरस्त कर देता है तथा समाज में शांति, सह-अस्तित्व एवं मैत्रीपूर्ण वातावरण बनाए रख सकता है । वे मानते हैं। अहिंसा का पथ जटिल एवं कंकरीला हो सकता है पर महान् बनने हेतु इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है । अहिंसा ही वह शक्ति है, जो समाज में मानव को पशु बनने से रोके हुए है ।" आचार्य तुलसी ने अहिंसा को समाज के साथ जोड़कर उसे जनआन्दोलन या क्रांति का रूप देने का प्रयत्न किया है। अहिंसा के सन्दर्भ में नैतिकता को व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं - " अहिंसा का सामाजिक जीवन में प्रयोग ही नैतिकता है। जिसमें दूसरों के प्रति मैत्री का भाव नहीं होता, करुणा की वृत्ति नहीं होती और दूसरों के कष्ट को अनुभव करने का मानस नहीं होता, वह नैतिक कैसे बन सकता है ? " अहिंसा को सामाजिक सन्दर्भ में व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं दूसरों की सम्पत्ति, ऐश्वर्य और सत्ता देखकर मुंह में पानी नहीं भर आता, यह अहिंसा का ही प्रभाव है । "अहिंसा के द्वारा जीवन की आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं, इसलिए वह असफल है— चिन्तन की यह रेखा भूल भरे बिन्दुओं से बनी है और बनती जा रही है ।" समाज के सन्दर्भ में अहिंसा की उपयोगिता स्पष्ट करते हुए उनका मन्तव्य है - व्यक्ति निरंकुश न हो, उसकी महत्त्वाकांक्षाएं दूसरों को हीन न समझें, उसकी प्रतिस्पर्धाएं समाज में संघर्ष न करें - इन सब दृष्टियों से अहिंसा का सामाजिक विकास होना आवश्यक है । ૪ अहिंसा और समाज के सन्दर्भ में प्रतिप्रश्न उठाकर वे सामाजिक प्राणी के लिये अहिंसा की सीमारेखा या इयत्ता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - " सामाजिक प्राणी के लिये यह कैसे सम्भव हो सकता है कि वह खेती, व्यवसाय या अर्जन न करे और यह भी कैसे सम्भव है कि वह अपने अधिकृत १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० १४ । २. प्रवचन डायरी, पृ० २३ । ३. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० ९ । ४. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० ११ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन पदार्थों या अधिकारों की सुरक्षा न करे । अर्थ और पदार्थ का अर्जन और संरक्षण हिंसा के बिना नहीं हो सकता।..."इस सन्दर्भ में महावीर ने विवेक दिया तुम अहिंसा का प्रारंभ उस बिन्दु पर करो, जहां तुम्हारे जीवन की अनिवार्यताओं में भी बाधा न आए और तुम क्रूर व आक्रामक भी न बनो।' इस दृष्टिकोण से प्रत्येक सामाजिक प्राणी समाज में रहते हुए अहिंसा का पालन कर सकता है तथा इस व्यावहारिक दृष्टिकोण से उसकी सामाजिकता में भी कहीं अन्तर नहीं आता। आचार्य तुलसी एक सामाजिक प्राणी के लिए मध्यम मार्ग प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-"हिंसा जीवन की अनिवार्यता है और अहिंसा पवित्र जीवन की अनिवार्यता। हिंसा जीवन चलाने का साधन है और अहिंसा आदर्श तक पहुंचने या लक्ष्य को पाने का साधन है।""हिंसा जीवन की शैली बन जाए, यह खतरनाक बिंदु है।" अहिंसक समाज रचना आचार्य तुलसी का चिरपालित स्वप्न है । इस दिशा में अणुव्रत के माध्यम से वे पिछले पचास सालों से अनवरत कार्य कर रहे हैं । २२ अप्रैल १९५० दिल्ली में पत्रकारों के बीच एक वार्ता में आचार्य तुलसी ओजस्वी वाणी में अपनी अन्तर्भावना प्रकट करते हैं- "मैं सामूहिक अशांति को जन्म देने वाली हिंसा को मिटाकर अहिंसा प्रधान समाज का निर्माण करना चाहता हूं। उसकी आधारशिला में निम्न नियम कार्यकारी बन सकते हैं ० जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण आदि का भेद होने के कारण किसी मानव की हत्या न करना। ० दूसरे समाज या राष्ट्र पर आक्रमण न करना। ० निरपराध व्यक्ति को नहीं मारना, सब प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य भाव का विकास । ० जीवन-यापन के लिए आवश्यक सामग्री के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का संग्रह न करना । ० मद्यपान और मांसाहार नहीं करना। ० रक्षात्मक युद्ध में भी शत्रुपक्षीय नागरिकों की हत्या न करना। ० बड़प्पन की भावना का अन्त करना, किसी के अधिकार का हनन न करना। ० व्यभिचार न करना। १. एक बूंद : एक सागर, पृ० २७८ । २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ५७ ३. २१ अप्रैल ५०, दिल्ली, पत्रकार वार्ता । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ___..इसके साथ ही वे अहिंसक समाज की प्रतिष्ठा में निम्न प्रवृत्तियों का होना आवश्यक मानते हैं १. वर्तमान शिक्षा प्रणाली की पुनर्रचना-वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बुद्धि-पाटव और तर्कशक्ति का विकास हो रहा है पर चरित्र शील व्यक्ति पैदा नहीं हो रहे हैं । २. संयमी एवं त्यागी पुरुषों को महत्त्व देना। सत्ताधारी एवं पूंजीपतियों को महत्त्व देने का अर्थ है--जन-साधारण को पूंजी एवं सत्ता के लिए लोलुप बनाना । संयम को प्रधानता देने से पूंजीपति भी संयम की ओर अग्रसर होंगे। जहां संयम होगा, वहां हिंसा नहीं हो सकती। ३. इच्छाओं का अल्पीकरण-'आज आर्थिक असमानता चरम सीमा पर है। कोई धनकुबेर धन का अंबार लगा रहा है तो उसका पड़ोसी भूख से मर रहा है। यह असमानता हिंसा को जन्म दे रही है। इसे मिटाये बिना समाज में अहिंसा का विकास कम सम्भव है।" इस स्थिति में परिवर्तन के लिए आचार्य तुलसी का सुझाव है कि व्यक्ति, आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था-इन तीनों में सापेक्ष और संतुलित परिवर्तन हो, तभी स्वस्थ समाज या अहिंसक समाज की परिकल्पना की जा सकती है। आचार्य तुलसी का दृढ़ विश्वास है कि समाज की अनेक कठिन समस्या का हल अहिंसा द्वारा खोजा जा सकता है। पर उसके लिये हिंसा के स्थान पर अहिंसा, शस्त्र-प्रयोग के स्थान पर निःशस्त्रीकरण तथा क्रूरता की तुलना में करुणा का मूल्यांकन करना होगा। वैचारिक अहिंसा महावीर ने वैचारिक एवं मानसिक हिंसा को प्राण-वियोजन से भी अधिक घातक माना है। इस सन्दर्भ में आचार्य तुलसी का मन्तव्य है कि प्राणी की हत्या करने वाला शायद उसी की हत्या करता है पर विचारों की हत्या करने वाला न जाने कितने प्राणियों की हत्या का हेतु बन जाता है। अपने एक प्रवचन में आश्चर्य व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-"व्यक्ति धन के लिए लड़ सकता है, पत्नी के लिए भी संघर्ष कर सकता है, यह सम्भव है। पर विचारों के लिए लड़े, बड़े-बड़े महायुद्ध करे, लाखों व्यक्तियों के खून १. ५ अगस्त ७०, पत्रकार वार्ता, रायपुर। २. अमृत सन्देश, पृ० ४५ । ३. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० १७ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन से होली खेले. यह तो आश्चर्यचकित करने वाली बात है । ' वैचारिक हिंसा को स्पष्ट करते हुए उनका कहना है- “किसी की असत् आलोचना करना, किसी के विचारों को तोड़-मरोड़कर रखना, आक्षेप लगाना, किसी के उत्कर्ष को सहन न करके उसके प्रति घृणा का प्रचार करना तथा अपने विचारों को ही प्रमुखता देना वैचारिक हिंसा है । इसी सन्दर्भ में उनका निम्न वक्तव्य भी वजनदार है - " घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, वासना और दुराग्रह – ये सब जीवन में पलते रहें और अहिंसा भी सती रहे, यह कभी सम्भव नहीं है ।' 113 आज की बढ़ती हुई वैचारिक हिंसा का कारण स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं -- " वैचारिक हिंसा में प्रत्यक्ष जीवघात न होने से वह जन-साधारण बुद्धिगम्य नहीं हो सकी । यही कारण है कि आज लोग जितना जीव मारने से घबराते हैं, उतना परस्पर विरोध, अप्रामाणिकता, ईर्ष्या, क्रोध, स्वार्थ आदि से नहीं घबराते । * महावीर ने अनेकांत के द्वारा वैचारिक अहिंसा को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया | अनेकांत के माध्यम से उन्होंने मानव जाति को प्रतिबोध दिया कि स्वयं को समझने के साथ दूसरों को भी समझने की चेष्टा करो । अनेकांत के बिना सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता । आचार्य तुलसी ने न केवल उपदेश से बल्कि अपने जीवन के सैकड़ों घटना प्रसंगों से वैचारिक अहिंसा का सक्रिय प्रशिक्षण भारतीय जनमानस को दिया है । सन् १९६२ के आसपास की घटना है। अणुव्रत गोष्ठी के कार्यक्रम में नगर के लब्धप्रतिष्ठ वकील को भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए निमंत्रित किया गया । उन्होंने वक्तव्य में अणुव्रत के सम्बन्ध में कुछ जिज्ञासाएं एवं शंकाएं उपस्थित कीं। उन्हें सुनकर अनेक श्रद्धालुओं ने उनको उपालम्भ दे डाला । शाम को कार्यक्रम की समाप्ति पर वकील साहब ने अपने प्रात:कालीन वक्तव्य के लिए क्षमायाचना करने की इच्छा व्यक्त की । इसे सुनकर आचार्यश्री ने कहा - " आपके विचार तो बड़े प्राञ्जल और प्रभावोत्पादक थे। मैंने बहुत ध्यान से आपकी बात सुनी है । मैं तो आपके विचारों की सराहना करता हूं कि कोई समीक्षक हमें मिला तो सही ।' "" आचार्यवर के इन उदार विचारों को सुनकर वकील साहब अभिभूत हो गए और बोले १. प्रवचन पाथेय भाग-९, पृ० ५१ । २. पथ और पाथेय, पृ० ३२, ३३ । ३. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० १५ । ४. पथ और पाथेय, पृ० ३३ । ५. जैन भारती, २५ फरवरी १९६२ । 2 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ - आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण "अपने से विरोधी विचारों को सुनना, पचा लेना, एवं ग्राह्य की प्रशंसा करना-यह कार्य आचार्य तुलसी जैसे महान व्यक्ति ही कर सकते हैं । सचमुच आप स्वस्थ विचार एवं स्वस्थ मस्तिष्क के धनी हैं।" अहिंसात्मक प्रतिरोध __ प्रतिरोध हिंसात्मक भी होता है और अहिंसात्मक भी। हिंसात्मक प्रतिरोध क्षणिक होता है किन्तु अहिंसात्मक प्रतिरोध का प्रभाव स्थायी होता है । महावीर ने प्रतिरोधात्मक अहिंसा का प्रयोग दासप्रथा के विरोध में किया। उसी कड़ी में गांधीजी ने भी इसका प्रयोग सत्याग्रह आंदोलन के रूप में किया, जो काफी अंशों में सफल हुआ। आचार्य तुलसी अपने दीर्घकालीन नेतृत्व के अनुभवों को बताते हुए कहते हैं-"जन-जन के लिए अहिंसा तभी व्यवहार्य और ग्राह्य हो सकती है, जब उसमें प्रतिरोध की शक्ति आए। इसके बिना अहिंसा तेजहीन हो जाती है । निर्वीर्य अहिंसा में आज के युग की आस्था नहीं हो सकती।" ___ जब तक प्रतिरोधात्मक शक्ति जागृत नहीं होती, व्यक्ति अन्याय के विरोध में आवाज नहीं उठा सकता। इसी बात पर टिप्पणी करते हुये वे कहते हैं—“समाज या परिवार में जो कुछ भी गलत घटित होता है, उस समय यदि आप यह सोचें कि उससे आपका क्या बिगाड़ता है ? बुराई के प्रति यह निरपेक्षता या तटस्थता बहुत घातक सिद्ध हो सकती है। इसलिए अपने भीतर सोई प्रतिवाद की शक्ति को जागृत करना बड़ा जरूरी है। इससे अहिंसा का वर्चस्व बढ़ेगा और समाज में बुराइयों का अनुपात कम होगा। आचार्य तुलसी मानते हैं कि तटस्थता और विनम्रता अहिंसात्मक प्रतिरोध के आधार स्तम्भ हैं। उनकी दृष्टि में किसी भी विचार के प्रति पूर्वाग्रह या अहंभाव टिक नहीं सकता। पक्ष विशेष से बन्धकर प्रतिरोध की बात करना स्वयं हिंसा है। वहां अहिंसात्मक प्रतिरोध सफल नहीं होता। प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति की चारित्रिक विशेषताओं के बारे में उनका मन्तव्य है कि अहिंसात्मक प्रतिकार के लिए व्यक्ति में सबसे पहले असाधारण साहस होना नितांत अपेक्षित है । साधारण साहस हिंसा की आग देखकर कांप उठता है। जहां मन में कम्पन होता है, वहां स्थिति का समाधान हिंसा में दिखाई पड़ता है। दर्शन का यह मिथ्यात्व व्यक्ति को हिंसा की प्रेरणा देता है। हिंसा और प्रतिहिंसा की यह परम्परा बराबर चलती रहती है। इस परंपरा का अन्त करने के लिये व्यक्ति को सहिष्णु बनना पड़ता है। १. अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत, पृ० १३३ । २. बीती ताहि विसारि दे, पृ० १११ । ३. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५६ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन सहिष्णता के अभाव में मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। मन सन्तुलित न हो तो अहिंसात्मक प्रतिकार की बात समझ में नहीं आती, इसलिये वैचारिक सहिष्णुता की बहुत अपेक्षा रहती है।' मृत्यु से डरने वाला तथा कष्ट से घबराने वाला व्यक्ति थोड़ी-सी यातना की सम्भावना से ही विचलित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति हिंसात्मक परिस्थिति के सामने घुटने टेक देते हैं। इस विषय में आचार्य तुलसी का अभिमत है-- “जो व्यक्ति कष्टसहिष्णु होते हैं, वे विषम स्थिति में भी अन्याय और असत्य के सामने झुकने की बात नहीं सोचते। ऐसे व्यक्ति अहिंसात्मक प्रतिकार में अधिक सफल होते हैं । उनकी कष्ट-सहिष्णुता इतनी बढ़ जाती है कि वे मृत्यु तक का वरण करने के लिये सदा उद्यत रहते हैं। जिन व्यक्तियों को मृत्यु का भय नहीं होता, वे सत्य की सुरक्षा के लिए सब-कुछ कर सकते हैं। प्रतिरोधात्मक अहिंसा का प्रयोग इन्हीं व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। कुछ व्यक्ति हड़ताल, घेराव आदि साधनों को अहिंसात्मक प्रतिकार के रूप में स्वीकार करते हैं किन्तु इस विषय में आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण कुछ भिन्न है । वे स्पष्ट कहते हैं-"घेराव में हिंसात्मक उपकरणों का सहारा नहीं लिया जाता, यह ठीक है, फिर भी वह अहिंसा का साधन नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें उत्सर्ग की भावना विलुप्त है। अपनी शक्ति से किसी को बाध्य करना अहिंसा नहीं हो सकती क्योंकि बाध्यता स्वयं हिंसा है। इस प्रकार सविनय अवज्ञा आन्दोलन, सत्याग्रह, घेराव आदि साधनों की भूमिका में विशुद्धता, तटस्थ दृष्टिकोण, देशकाल और परिस्थितियों का सही विचार और आत्मोत्सर्ग की भावना निहित हो तो मैं समझता हूं कि अहिंसा को इन्हें स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होता।" इस कथन का तात्पर्य यह है कि अन्याय से अन्याय को परास्त करना दुर्बलता है तथा अन्याय को स्वीकार करना भी बहुत बड़ी कायरता और हिंसा है। उनका अपना अनुभव है कि यदि मांग में औचित्य है तो उसे स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं रहनी चाहिए अन्यथा हिंसा के सामने झुकना सिद्धांत की हत्या करना है।" सद्भावना, मैत्री, प्रेम, करुणा की वृत्ति से हिंसा को पराजित किया जा सकता है। बलप्रयोग, दबाव या बाध्यता चाहे अहिंसात्मक ही क्यों न हो, उसमें सूक्ष्म हिंसा का भाव रहता है। अहिंसात्मक प्रतिरोध की शक्ति बलिदान की भावना तथा अभय की साधना से ही सफल हो सकती है। क्योंकि स्वयं हिंसा भी बलिदान के १. अणुव्रत के आलोक में, पृ० ५० २. अणुव्रत के आलोक में, पृ० ५० । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अभाव में सफल नहीं हो सकती। अतः अहिंसात्मक प्रतिरोध हेतु ईमानदार और बलिदानी व्यक्तियों की आवश्यकता है अन्यथा इसकी आवाज का मूल्य अरण्य रोदन से अधिक नहीं होगा। अनुशास्ता होने के कारण आचार्य तुलसी ने अपने जीवन में अहिंसात्मक प्रतिरोध के अनेक प्रयोग किए, जो सफल रहे। कलकत्ता की धार्मिक सभाओं में मनोमालिन्य चरम सीमा पर पहुंच गया। जयपुर चातुर्मास के दौरान आचार्य तुलसी ने एकासन तप प्रारम्भ कर दिया, साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैंने जो संकल्प किया है, वह दबाव डालने हेतु नहीं है। मैं दबाव को हिंसा मानता हूं। यदि इससे भी हृदय परिवर्तन नहीं हुआ, तो मैं और भी तगड़ा कदम उठा सकता हूं।' आचार्यश्री के इस अहिंसात्मक प्रतिरोध से पारस्परिक सौहार्द एवं सामंजस्य का सुन्दर वातावरण निर्मित हुआ और उलझी हुई गुत्थी को एक समाधायक दिशा मिल गई। अहिंसा सार्वभौम द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से त्रस्त होकर अहिंसा और शांति के क्षेत्र में कार्य करने वाली कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का उदय हुआ। जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ, इन्स्टीट्यूट फोर पीस एण्ड जस्टीस, इंटरनेशनल पीस रिसर्च. कोपरेशन फोर पीस तथा गांधी शांति सेना आदि । उसी परम्परा में आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन के अन्तर्गत 'अहिसा सार्वभौम' की स्थापना करके अहिंसा के इतिहास में एक नयी कड़ी जोड़ने का प्रयत्न किया है। उन्होंने अहिंसा का ऐसा सर्वमान्य मंच उपस्थित किया है, जहां से अहिंसा की आवाज दिगन्तों तक पहुंच सकती है। एक ओर मनुष्य की शांति प्राप्त करने की चाह तो दूसरी ओर घातक परमाणु अस्त्रों का निर्माण---इस विसंगति को तोड़कर अहिंसा को प्रयोग से जोड़ने एवं उसके प्रति आस्था निर्मित करने में अहिंसा सार्वभौम ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेंद्रजी आदि अनेक विद्वान् इस कार्यक्रम के साथ जुड़े । आचार्य तुलसी अहिंसा सार्वभौम को एक बहुत बड़ी क्रांति मानते हैं । इसकी व्याख्या करते हुए वे कहते हैं-"अहिंसा सार्वभौम में अहिंसा के गुणगान नहीं हैं, अहिंसा की परिभाषा नहीं है, अहिंसा की व्याख्या नहीं है, इसमें है अहिंसा का अनुशीलन, शोध और उसके प्रयोग । प्रायोगिक होने के कारण यह एक वैज्ञानिक प्रस्थापना है। 'राजस्थान विद्यापीठ' उदयपुर के संस्थापक जनार्दन राय नागर ने १. जैन भारती, २८ दिसम्बर, १९७५ २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ६१। . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १०१ इस नए अभियान के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा- " आज की विषम परिस्थितियों में आवश्यक है कि अहिंसा का स्वर उठे, लोक- चेतना जागे और हिंसा के विरुद्ध लोकशक्ति अपना मार्ग प्रशस्त करे । अहिंसा सार्वभौम इसी का प्रतीक है। गांधीजी के बाद अहिंसा के क्षेत्र में आचार्य तुलसी द्वारा महत्त्वपूर्ण कार्य हो रहा है । आचार्य तुलसी मजहब से दूर भारतीय संस्कृति को एक शुद्ध, ठोस एवं आध्यात्मिक आधार प्रदान कर रहे हैं । " अहिंसा सार्वभौम की एक अंतरंग परिषद् को सम्बोधित करते हुए आचार्य तुलसी इसका उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "मेरा यह निश्चित अभिमत है कि संसार में हिंसा थी, है और रहेगी । हिंसा की तरह अहिंसा का भी कालिक अस्तित्व है । हिंसा की प्रबलता देखकर अहिंसा की निष्ठा शिथिल हो जाए या समाप्त हो जाए, यह चिन्तन का विषय है। हिंसा का पड़ा अहिंसा से भारी न हो, ऐसी जागरूकता रखनी है । यह काम निराशा और कुण्ठा के वातावरण में नहीं होगा । प्रसन्नता, उत्साह और लगन के साथ काम करना है, अहिंसा की शक्ति को उजागर करना है । अहिंसा सार्वभौम की सफलता का पहला कदम यही होगा ।' अहिंसा और वीरता आचार्य तुलसी कहते हैं - " अहिंसा का पथ तलवार की धार से भी अधिक तीक्ष्ण है । इस स्थिति में कोई भी कायर और दुर्बल व्यक्ति इस पर चलने का साहस कैसे कर सकता है ? " कुछ लोग अहिंसा का सम्बन्ध कायरता से जोड़ते हुए कहते हैंजैनधर्म की अहिंसा ने हमें कायर बना दिया है। इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य तुलसी का स्पष्ट मन्तव्य है - " कायरता अहिंसा का अंचल तक नहीं छू सकती । सोने के थाल बिना सिंहनी का दूध कहां रह सकता है ? उसी प्रकार अहिंसा का वास वीर हृदय को छोड़कर अन्यत्र असम्भव है । यह अटल सत्य है | अहिंसा और कायरता का वही सम्बन्ध है, जो ३६ के अंकों में तीन और छः का है ।' अहिंसा तो साहस और पुरुषार्थ का पर्याय है । वह कभी नहीं कहती कि हम अपनी सुरक्षा ही न करें । जिस प्रकार भय दिखाना हिंसा है, उसी तरह भयभीत होना भी हिंसा ही है । जो लोग स्वयं की कमजोरी पर आवरण डालने के लिये अहिंसा का सहारा लेते हैं, ऐसे तथाकथित 113 १. अमरित बरसा अरावली में, पृ० २८१ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० २७३ | ३. शांति के पथ पर, पृ० ५७ । ४. २५-४-६५ के प्रवचन से उद्धृत । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अहिंसक ही अहिंसा को कमजोर बनाते हैं।" वे मानते हैं--"अहिंसा व्यक्ति या समाज को कमजोर बनाती है-यह भ्रम इसलिये उत्पन्न हुआ कि सही अर्थ में अहिंसा में विश्वास रखने वाले धार्मिकों ने अपनी दुर्बलता को अहिंसा की ओट में पाला-पोसा। इसी बात को वे व्यंग्यात्मक भाषा में प्रस्तुत करते हैं- "शेर के सामने खरगोश कहे कि मैं अहिंसक हूं, इसलिए तुमको नहीं मारता तो क्या वह अहिंसक हो सकता है ?' इसी सन्दर्भ में उनकी दूसरी टिप्पणी भी महत्त्वपूर्ण है--- "मैं कायरता को अहिंसा नहीं मानता। डर से छुपने वाला यदि अपने को अहिंसक कहे तो मैं उसे प्रथम दर्जे की कायरता कहूंगा। वह दूसरों को क्या मारे जो स्वयं ही मरा हुआ है।" आचार्य तुलसी अहिंसक को शक्ति सम्पन्न होना अनिवार्य मानते हैं अतः खुले शब्दों में आह्वान करते हैं.---"जिस दिन अहिंसक मौत से नहीं घबराएगा। वह दिन हिंसा की मौत का दिन होगा। हिंसा स्वतः घबराकर पीछे हट जायेगी और अपनी हार स्वीकार कर लेगी।"3 लोकतंत्र और अहिंसा "लोकतंत्र से अहिंसा निकल गयी तो वह केवल अस्थिपंजर मात्र बचा रहेगा"-आचार्य तुलसी की यह उक्ति राजनीति में अहिंसा की महत्ता को प्रतिष्ठित करती है। अहिंसा को तेजस्वी और वर्चस्वी बनाने हेतु उनका चिन्तन है कि एक शक्तिशाली अहिंसक दल का निर्माण किया जाए, जो राजनीति के प्रभाव से सर्वथा अछुता रहे पर राजनीति को समय-समय पर मार्गदर्शन देता रहे। हिंसा में विश्वास रखने वाले राजनीतिज्ञों को वे चेतावनी देते हुए कहते हैं--"मैं राजनीतिज्ञों को एक चेतावनी देता हूं कि हिंसात्मक क्रांति ही सब समस्याओं का समुचित समाधान है वे इस भ्रांति को निकाल फेंके । अन्यथा स्वयं उन्हें कटु परिणाम भोगना होगा। हिंसक क्रांतियों से उच्छृखलता का प्रसार होता है। आज के हिंसक से कल का हिंसक अधिक क्रूर होगा, फिर कैसे शांति रह सकेगी ?" लोकतंत्र अहिंसा का प्रतिरूप होता है, क्योंकि उसमें व्यक्ति स्वातंत्र्य को स्थान है। पर आज की बढ़ती हिंसा से वे अत्यंत चिंतित ही नहीं, आश्चर्यचकित भी हैं-"दिन है और अंधकार है---इस उक्ति में जितना १. एक बूंद : एक सागर, पृ० २५२ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० २७४ । ३. पथ और पाथेय, पृ० ३६ । ४. जैन भारती, ३१ मार्च १९६८ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन अन्तविरोध है, उतना ही अंतविरोध इस स्थिति में है कि लोकतंत्र है और हिसा की प्रबलता है।" अभय, समानता, स्वतंत्रता, सहानुभूति आदि तत्त्व लोकतंत्र को जीवित रखते हैं। लोकतंत्र में अहिंसा के विकास की सर्वाधिक सम्भावनाएं होती हैं। यदि लोकतंत्र में अच्छाइयों का विकास न हो तो इससे अधिक आश्चर्य की बात क्या होगी?' अहिंसक लोकतंत्र की कल्पना गांधीजी ने रामराज्य के रूप में की पर वह साकार नहीं हो सकी क्योंकि गांधीवाद के सिद्धांतों एवं आदर्शों ने वाद का रूप तो धारण कर लिया पर उनका जीवन में सक्रिय प्रशिक्षण नहीं हो सका। आचार्य तुलसी ने अहिंसक जनतंत्र की कल्पना प्रस्तुत की है, उसके मुख्य बिंदु निम्न हैं १. व्यक्ति स्वातंत्र्य का विकास । २. मानवीय एकता का समर्थन । ३. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व । ४. शोषण मुक्त व नैतिक समाज की रचना । ५. अंतर्राष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना । ६. सार्वदेशिक निःशस्त्रीकरण के सामूहिक प्रयत्न । ७. मैत्री व शांति संगठनों की सार्वदेशिक एकसूत्रता।' अहिंसा और युद्ध युद्ध की विभीषिका का इतिहास अति-प्राचीन है। प्राचीनकाल से ही आवेश की क्रियान्विति युद्ध के रूप में होती रही है। जिस देश में युद्ध के प्रसंग जितने अधिक उपस्थित होते थे, वह देश उतना ही अधिक शौर्य सम्पन्न समझा जाता था। युद्ध के बारे में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ईसा पूर्व ३६०० वर्ष से लेकर आज तक मानव जाति कुल २९२ वर्ष ही शांति से रह सकी है। इस बीच छोटे बड़े १४५१४ युद्ध लड़े गए। उन युद्धों में तीन अरब से भी अधिक लोगों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। वर्तमान युग के नाभिकीय एवं अणु रासायनिक युद्ध का परिणाम विजेता और विजित दोनों राष्ट्रों को सदियों तक समान रूप से भोगना पड़ता है। युद्ध भौतिक हानि के अतिरिक्त मानवता के अपाहिज और विकलांग होने में भी बहुत बड़ा कारण है। इससे पर्यावरण इतना प्रदूषित हो जाता है कि सालों तक व्यक्ति शुद्ध सांस और भोजन भी प्राप्त नहीं कर सकता । वैज्ञानिक इस बात की घोषणा कर चुके हैं कि भविष्य में युद्ध में १. अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत, पृ० ११७ । २. जैन भारती, २८ दिस० १९६५ । ३. अणुव्रत, १ दिस० १९५६ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रत्यक्ष रूप में भाग लेने वाले कम और दुष्परिणामों का शिकार बनने वाले संसार के सभी प्राणी होंगे । युद्ध के भयावह परिणामों की उद्घोषणा करते हुए आचार्य तुलसी का कहना है--"युद्ध वह आग है, जिसमें साहित्यकारों का साहित्य, कलाकारों की कला, वैज्ञानिकों का विज्ञान, राजनीतिज्ञों की राजनीति और भूमि की उर्वरता भस्मसात् हो जाती है। इसी सन्दर्भ में उनके काव्य की निम्न पंक्तियां भी पठनीय हैं साथ उनके हो गईं कितनी कलाएं लुप्त हैं। युद्ध से उत्पन्न क्षति भी क्या किसी से गुप्त है। देखते ही अमित जन-धन का हुआ संहार है। हाय ! फिर भी रक्त की प्यासी खड़ी तलवार है ॥ वैयक्तिक अहंकार, सत्ता की महत्त्वाकांक्षा, स्वार्थ तथा स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने की इच्छा आदि युद्ध के मूल कारण हैं। आचार्य तुलसी मानते हैं कि युद्ध मूलतः असन्तुलित व्यक्ति के दिमाग में उत्पन्न होता है। युद्ध और अहिंसा के बारे में भारतीय मनीषियों ने गहन चिंतन किया है । भारत-पाक युद्ध के समय रामधारीसिंह दिनकर आचार्य तुलसी के पास आकर बोले- "आचार्यजी ! आप न तो युद्ध को अच्छा समझते हैं, न समर्थन करते हैं और न ही युद्ध में भाग लेने हेतु अनुयायियों को आदेश देते हैं। देश के ऊपर आए ऐसे संकट के समय में आपकी अहिंसा क्या कहती है ? आचार्य तुलसी ने इस प्रश्न का सटीक एवं सामयिक उत्तर देते हुए कहा--- "मैं युद्ध को न अच्छा मानता हूं और न समर्थन ही करता हूं-यहां तक इस कथन में अवश्य सचाई है किन्तु युद्ध में भाग लेने का निषेध करता हूं, यह कहना सही नहीं है। क्योंकि जब तक समाज के साथ परिग्रह जुड़ा हुआ है, मैं हिंसा और युद्ध की अनिवार्यता देखता हूं। परिग्रह के साथ लिप्सा का गठबंधन होता है। लिप्सा भय को जन्म देती है और भय निश्चित रूप से हिंसा और संघर्ष को आमंत्रण देता है। समाज में जीने वाला और समाज की सुरक्षा का दायित्व ओढ़ने वाला आदमी युद्ध के अनिवार्य कारणों को देखता हुआ भी नकारने का प्रयत्न करे----इसे मैं खण्डित मान्यता मानता हूं।" युद्ध की परिस्थिति अनिवार्य होने पर समाज के कर्तव्य का स्पष्टीकरण करते हुए उनका निम्न कथन न केवल चौंकाने वाला, अपितु करणीय की ओर यथार्थ इंगित करने वाला है-"जहां व्यक्ति युद्ध के मैदान से भागता १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ११४२ । २. भरतमुक्ति, पृ० १०० ३. जैन भारती, १८ अग० १९६८ । ४. अणुव्रत : गति प्रगति पृ० १४७ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य ; पर्यालोचन और मूल्यांकन १०५ है, समाज पर आई कठिन घड़ियों के समय घरों में छिपकर अपनी जान बचाने का उपाय करता है, वहां भले ही वह स्थूल रूप से हिंसा से बच रहा है किंतु सूक्ष्मता से और गहरे में वह हिंसक ही है। वहां हिंसा ही होती है, अहिंसा नहीं। क्योंकि जहां व्यक्ति प्राणों के व्यामोह से अपनी जान बचाए फिरता है, वहां कायरता है, भय है, मोह है, इसलिए हिंसा है। युद्ध में मारना भी हिसा है, भागना भी हिसा है, किंतु जहां व्यक्ति सर्वथा अभय है, निर्भय है, वहां अहिंसा है।'' इसी सन्दर्भ में उनकी दूसरी टिप्पणी भी मननीय है---व्यक्ति समाज में जीता है अतः समाज और राष्ट्र की सुरक्षा का दायित्व ओढ़ने वाला व्यक्ति युद्ध के अनिवार्य कारणों को देखता हुआ भी उसे नकार नहीं सकता। जहां युद्ध की स्थिति को टाला न जा सके वहां अहिंसा का अर्थ यह नहीं कि कायरतापूर्वक युद्ध के मैदान से भागा जाए। साथ ही वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु युद्ध अनिवार्य हो सकता है, एक सामाजिक प्राणी उससे विमुख नहीं हो सकता पर युद्ध में होने वाली हिंसा को अहिंसा की कोटि में नहीं रखा जा सकता। अनिवार्य हिंसा भी अहिंसा नहीं बन सकती।" युद्ध की स्थिति में भी अहिंसा को जीवित रखा जा सकता है, हिंसा का अल्पीकरण हो सकता है. इस बारे में आचार्य तुलसी ने पर्याप्त चितन किया है । वे कहते हैं-. "युद्ध में होने वाली हिसा को अहिंसा नहीं माना जा सकता किंतु उसमें अहिंसा के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र खुला है । जैसे- आक्रांता न बनें, निरपराध को न मारें, अपाहिजों के प्रति क्रूर व्यवहार न करें, अस्पताल, धर्मस्थान, स्कूल, कालेज आदि पर आक्रमण न करें, आबादी वाले स्थानों पर बमबारी न करें आदि नियम युद्ध में भी अहिंसा की प्रतिष्ठा करते हैं। क्या युद्ध का समाधान अहिंसा बन सकती है ? इस प्रश्न के समाधान में उनका मंतव्य है-“युद्ध का समाधान असंदिग्ध रूप से अहिंसा और मैत्री है। क्योंकि शस्त्र परम्परा से कभी युद्ध का अंत नहीं हो सकता । शक्ति सन्तुलन के अभाव में बंद होने वाले युद्ध का अंत नहीं होता । वह विराम दूसरे युद्ध की तैयारी के लिये होता है। इस सन्दर्भ में उनका निम्न प्रवचनांश उद्धरणीय है - "मनुष्य कितना भी युद्ध करे, अंत में उसे समझौता १. दायित्व का दर्पण : आस्था का प्रतिबिम्ब, पृ. १३-१४ । २. शांति के पथ पर, पृ० ७० । ३. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५१ । ४. अणुव्रत : गति प्रगति, १५०-१५१ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण करना पड़ता है । मैं चाहता हूं मनुष्य की यह अन्तिम शरण प्रारंभिक शरण बने।" __ आचार्य तुलसी के चिंतन में युद्ध में अहिंसक प्रयोग के लिए समुचित भूमिका, प्रभावशाली नेतृत्व, अहिंसा के प्रति अनन्य निष्ठा तथा उसके लिये मर मिटने वाले बलिदानियों की अपेक्षा रहती है। आक्रमण एवं युद्ध का अहिंसक प्रतिकार करने वाले में आचार्य तुलसी तीन विशेषताएं आवश्यक मानते हैं १. वह अभय होगा, मौत से नहीं डरेगा। २. वह अनुशासन और प्रेम से ओत-प्रोत होगा, मानवीय एकता में __ आस्था रखेगा। ३. वह मनोबली होगा-अन्याय के प्रति असहयोग करने की भावना किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ेगा। युद्ध अनिवार्य हो सकता है, फिर भी युद्ध के बारे में उनका अंतिम सुझाव या निर्णय यही है कि युद्ध में जय निश्चित हो फिर भी वह न किया जाए क्योंकि उसमें हिंसा और जनसंहार तो निश्चित है पर समस्या का स्थायी समाधान नहीं है""""युद्ध आज के विकसित मानव समाज पर कलंक का टीका है।'४ वे कहते हैं- "युद्ध परिस्थितियों को दबा सकता है पर शांत नहीं कर सकता। दबी हुई चीज जब भी अवसर पाकर उफनती है, दुगुने वेग से उभरती है।" लोगों को मस्तिष्कीय प्रशिक्षण देते हुए वे कहते हैं-"युद्ध करने वाले और युद्ध को प्रोत्साहन देने वाले किसी भी व्यक्ति को आज तक ऐसा कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रोत्साहन नहीं मिला, जो उसे गौरवान्वित कर सके । युद्ध तो बरबादी है, अशांति है, अस्थिरता है और जानमाल की भारी तबाही है। अहिंसा और विश्वशांति ____ आचार्य तुलसी की दृष्टि में शांति उस आह्लाद का नाम है, जिससे आत्मा में जागृति, चेतनता, पवित्रता, हल्कापन और मूल-स्वरूप की अनुभूति होती है। आज सारा संसार शांति की खोज में भटक रहा है पर आणविक अस्त्रों के निर्माण ने विश्व शांति के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। पूरी १. तेरापंथ टाईम्स, १८ फरवरी १९८१ । २. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५१ । ३-४. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० ७३ । ५. कुहासे में उगता सूरज, पृ० २७ । .. ६. अणुव्रत, १५ अक्टूबर १९५७ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १०७ । दुनिया में प्रति मिनिट एक करोड़ चालीस लाख से भी अधिक रुपये हथियारों के निर्माण में खर्च हो रहे हैं । स्वयं परमाणु अस्त्र निर्माता भी अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिये भयभीत हैं । आचार्य तुलसी की अहिंसक चेतना आज की इस स्थिति से उद्वेलित है । अणुशक्ति पर विश्वास रखने वालों को वे व्यंग्य में पूछते हैं- “शांति के लिए सब कुछ हो रहा है—ऐसा सुना जाता है युद्ध भी शांति के लिए, स्पर्धा भी शांति के लिए, अशांति के जितने बीज हैं, वे सब शांति के लिए - यह मानसिक झुकाव भी कितनी भयंकर भूल है। बात चले विश्वशांति की और कार्य हों अशांति के तो शांति कैसे सम्भव हो ? विश्वशांति के लिये अणुबम आवश्यक है, यह घोषणा करने वालों ने यह नहीं सोचा कि यदि यह उनके शत्रु के पास होता तो । " यद्यपि आचार्य तुलसी व्यक्तिगत चिंतन के स्तर पर शांति एवं सद्भाव की स्थापना के लिए अणुशस्त्रों के निर्माण के कट्टर विरोधी हैं । फिर भी भारत के बारे में उनकी निम्न टिप्पणी चिन्तन की नयी दिशाएं उद्घाटित करने वाली है- "भारत विज्ञान और एटमबम का देश नहीं, अध्यात्म और अहिंसा का देश है । अहिंसा और अध्यात्म के देश में विज्ञान न हो, बम न हो, ऐसी बात नहीं, किन्तु हम इन चीजों को प्रधानता नहीं देते हैं, यह इस संस्कृति की विशेषता है ।" आचार्य तुलसी का चिन्तन है कि शांति और सद्भाव को प्रतिष्ठित करने से पूर्व अशांति और असद्भाव के कारणों को जान लेना जरूरी है । उनकी दृष्टि में संयमहीन राष्ट्रीयता की भावना, रंगभेद और जातिभेद की भित्ति पर टिकी हुई उच्चता और नीचता की परिकल्पना, अधिकार- विस्तार की भावना और अस्त्रों की होड़- ये सभी विश्वशांति के लिये खतरे हैं । " वे स्पष्ट कहते हैं जब तक जीवन में दम्भ रहेगा, क्षोभ रहेगा, तब तक शांति का अवतरण हो सके, यह कम सम्भव है । ३ वे अनेक बार इस सत्य को अभिव्यक्त करते हैं कि इच्छाओं का विस्तार ही विश्वशांति का सबसे बड़ा खतरा है । अत: दूसरों के अधिकारों पर हाथ न उठाना ही विश्वशांति का मूलस्रोत है ।' १४ हिंसक क्रांति द्वारा विश्व शांति लाने वाले लोगों को आचार्य तुलसी की चेतावनी है कि हिंसा की धरती पर शांति की पौध नहीं उगायी जा सकती । अहिंसा की विशाल चादर के प्रयोग से ही विश्वशांति की १. जैन भारती, २३ जून १९६८ । २. जैन भारती, ६ जुलाई १९५८ । ३. प्रवचन डायरी, भाग १, पृ० १५७ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० १२६७ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कल्पना सार्थक की जा सकती हैं क्योंकि शांति के सारे रहस्य अहिंसा के पास हैं । अहिंसा से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, शस्त्र भी नहीं है।' उनके दिमाग में यह प्रत्यय स्पष्ट है कि अहिंसा और अनेकांत की आंखों में ही विश्वशांति का सपना उतर सकता है पर वह बलप्रयोग से नहीं, हृदयपरिवर्तन द्वारा ही सम्भव है। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने अणुव्रत का रचनात्मक उपक्रम मानव जाति के समक्ष उपस्थित किया। न्यूनतम मानवीय मूल्यों के प्रति वैयक्तिक वचनबद्धता प्राप्त कर विश्व को हिंसा से मुक्ति दिलाने का यह अनूठा प्रयोग है। व्रतों को आन्दोलन का रूप देकर उनके द्वारा शांति स्थापित करने का यह विश्व के इतिहास में पहला प्रयास है। अणुव्रत के कुछ नियम जैसे--मैं निरपराध प्राणी की हिंसा नहीं करूंगा, तोड़-फोड़ मूलक प्रवृत्तियों में भाग नहीं लूंगा। मैं किसी पर आक्रमण नहीं करूंगा। आक्रामक नीति का समर्थन नहीं करूंगा। विश्वशांति तथा निःशस्त्रीकरण के लिए प्रयत्न करूंगा। साम्प्रदायिक उत्तेजना नहीं फैलाऊंगा । मानवीय एकता में विश्वास करूंगा। जाति रंग के आधार पर किसी को ऊंच-नीच नहीं मानूंगा। अस्पृश्य नहीं मानूंगा-ये सभी नियम विश्वशांति के आधारभूत स्तम्भ हैं। यदि हर व्यक्ति इन नियमों को स्वीकार कर अणुव्रती बन जाए तो विश्व-शांति की स्थापना बहुत सम्भव है। प्रकाशित रूप से आचार्य तुलसी का सबसे प्राचीन सन्देश है-- 'अशांत विश्व को शांति का सन्देश।' इस पूरे सन्देश में उन्होंने विश्वशांति के लिए १३ सूत्रों का निर्देश किया है, जिसे पढ़कर महात्मा गांधी ने अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए कहा--- "क्या ही अच्छा होता जब सारी दुनिया इस महापुरुष के बताए मार्ग पर चलती।" कोरियन पर्यटक एक प्रोफेसर ने जब आचार्य तुलसी से अहिंसा, शांति और अणुव्रत का सन्देश सुना तो वह आश्चर्य मिश्रित दुःखद स्वरों में बोला--- "काश ! हम पश्चिम वालों को यह सन्देश कोई सुनाने वाला होता तो हम निरन्तर महायुद्धों में पड़कर बर्बाद नहीं होते।" निःशस्त्रीकरण - शस्त्रीकरण के भयावह दुष्परिणामों से समस्त विश्व भयाक्रांत है इसीलिए आज निःशस्त्रीकरण की आवाज चारों ओर से उठ रही है। महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व इस सत्य को अभिव्यक्त किया था कि शस्त्र परम्परा का कहीं अन्त नहीं होता। इसके लिए व्यक्ति के मन में जो शस्त्र बनाने की चेतना है, उसे मिटाना आवश्यक है। आचार्य तुलसी की १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० १७३ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १०९ अवधारणा है कि ये भौतिक शस्त्र उतने खतरनाक नहीं जितना सचेतन शस्त्र मनुष्य है। सचेतन शस्त्र को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं-'शस्त्र वह बनता है, जो असंयत होता है । शस्त्र वह बनता है, जो क्रूर होता है। शस्त्र वह बनता है, जो प्राणी-प्राणी में भेद समझता है।"" उनका मानना है कि केवल कुछ प्रक्षेपास्त्रों को कम करने से निःशस्त्रीकरण का नारा बुलन्द नहीं किया जा सकता। शक्ति सन्तुलन के लिए भी वे शस्त्र-निर्माण की बात से सहमत नहीं हैं क्योंकि इससे अपव्यय तो होता ही है साथ ही किसी के गलत हाथों से दुरुपयोग होना भी बहुत सम्भव है। आज से ३३ साल पूर्व भारत के सम्बन्ध में कही गयी उनकी यह उक्ति अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरणादायी है--- "आज हमारे पास राकेट नहीं, बम नहीं। मैं कहूंगा यह भारत के पास न हो। भारत इस माने में दरिद्र ही रहे । कारण यह कि डर तो न रहे। डर तो उनको है, जिनके पास बम है । हमारे पास तो सबसे बड़ी सम्पत्ति अहिंसा की है । जब तक हमारे पास यह सम्पत्ति सुरक्षित है, कोई भी भौतिकवादी हमारे सामने देख नहीं सकेगा। अगर हमने यह सम्पत्ति खो दी तो हमारा बचाव होना मुश्किल है। उनका स्पष्ट मन्तव्य है कि जिस राष्ट्र की नीति में दूसरे राष्ट्रों को दबाने के लिए शस्त्रों का विकास किया जाता है, वह राष्ट्र विश्वशांति के लिए सबसे अधिक बाधक है। अहिंसक विश्व रचना की उनके दिल में कितनी तड़प है, यह उनकी निम्न उक्ति से पहचानी जा सकती है---"जिस दिन अणु-अस्त्रों पर सम्पूर्ण प्रतिबन्ध लगेगा, क्रूर हिंसा रूपी राक्षसी को कील दिया जायेगा, वह दिन समूची मानव जाति के लिए महान् उपलब्धि का दिन होगा। यह मेरा व्यक्तिगत सपना है । वे कहते हैं सामंजस्य और समन्वय के बिना कोई रास्ता नहीं कि शस्त्र-निर्माण के स्थान पर अहिंसा की प्रतिष्ठा हो सके क्योंकि अभय, सद्भाव और सहिष्णुता निःशस्त्रीकरण के बीज हैं।" आचार्य तुलसी के अहिंसक प्रयोग "अहिंसा में मेरा अंधविश्वास नहीं है। वह मेरे जीवन की प्रकाशरेखा है। मैंने इससे अपने जीवन को आलोकित करने का प्रयत्न किया है। मैं इससे बहुत सन्तुष्ट और प्रसन्न हूं'--''आचार्य तुलसी की यह अनुभवपूत वाणी उनके अहिंसक व्यक्तित्व की प्रतिध्वनि है। उनके साये में आने १. लघुता से प्रभुता मिले, पृ० ३७ । २. जैन भारती, १७ जुलाई १९६० । ३. कुहासे में उगता सूरज, पृ० २४ ।। ४. कुहासे में उगता सूरज, पृ० २८-२९ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण वाला हिंसक व्यक्ति भी अहिंसा की भावधारा से अनुप्राणित हो जाता है । उनके जीवन के सैंकड़ों ऐसे प्रसंग है, जहां तीव्र हिंसात्मक वातावरण में भी अहिंसात्मक प्रयोग करते रहे । । वे कभी अपनी समता, सहिष्णुता और धृति से विचलित नहीं हुए । उनकी इसी क्षमता ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रतिष्ठित कर दिया है । अपने अनुभवों को वे इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं - "मेरे जीवन में अनेक प्रसंग आए हैं, जहां कुछ लोगों ने मेरे प्रति हिंसा का वातावरण तैयार किया। वे लोग चाहते थे कि मैं अपनी अहिंसात्मक नीति को छोड़कर हिंसा के मैदान में उतर अन्तःकरण ने कभी भी उनका साथ नहीं दिया और मैंने प्रहार का प्रतिकार अहिंसा से किया ।"" जाऊं, पर मेरे हर हिंसात्मक आचार्य तुलसी हर विरोधी एवं विषम स्थिति को विनोद कैसे मानते रहे, इसका अनुभव बताते हुए वे कहते हैं -- "अहिंसा का साधक कटु सत्य भी नहीं बोल सकता, फिर वह कटु आक्षेप, प्रत्याक्षेप या प्रत्याक्रमण कैसे कर सकता है ? इसी बोधपाठ ने मुझे हर परिस्थिति में संयत और सन्तुलित रहना सिखाया है ।" समाचार-पत्रों में जब वे आतंकवादियों की हिंसक वारदातों के विषय में सुनते या पढ़ते हैं तो अनेक बार अपनी अन्तर्भावना इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- "मेरे मन में अनेक बार यह विकल्प उठता है कि उपद्रवी और हिंसक भीड़ के बीच में खड़ा हो जाऊं और उन लोगों से कहूं कि तुम कौन होते हो निरपराध एवं निर्दोष प्राणियों को मौत के घाट उतारने वाले?" आचार्यश्री ने अपने जीवन में विष को अमृत बनाया है, संघर्ष की अग्नि को समत्व के जल से शांत करने का प्रयत्न किया है, उनके जीवन की सैकड़ों ऐसी घटनाएं हैं, जो उनके इस अहिंसक व्यक्तित्व की अमिट रेखाएं हैं। पर उन सबका यहां संकलन एवं प्रस्तुतीकरण सम्भव नहीं है। यहां उनके जीवन के कुछ अहिंसक प्रयोग प्रस्तुत किए जा रहे हैं साम्प्रदायिक उन्माद आचार्य बनने के बाद आचार्य तुलसी का प्रथम चातुर्मास बीकानेर में था । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा के मध्याह्न में उन्होंने विहार किया। पूर्व निर्धारित मार्ग पर अभी कुछेक कदम ही आगे बढ़े थे कि अप्रत्याशित रूप से सहसा एक अन्य सम्प्रदाय के आचार्य का जुलूस उन्हें सामने की दिशा से आता हुआ दिखाई दिया । संकरे मार्ग से एक जुलूस भी मुश्किल से गुजर रहा था, वहां दो जुलूसों का एक साथ गुजरना तो सम्भव ही नहीं था । सामने वाले जुलूस से 'हटो' 'हटो' का १. अणुव्रत के आलोक में, पृ० ५० । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १११ स्वर प्रखरता से मुखर हो रहा था । आचार्य श्री ने स्थिति की गंभीरता का आकलन किया और बिना इसे प्रतिष्ठा का बिन्दु बनाए पास के चौक में एक ओर हटते हुए सामने वाले जुलूस के लिए रास्ता छोड़ दिया। हालांकि आचार्यश्री का यह निर्णय जुलस में सम्मिलित गर्म खून वाले अनुयायियों को बहुत अप्रिय लगा पर तेरापन्थ संघ के अनुशासन की ऐसी गौरवशाली परम्परा रही है कि आचार्य का कोई भी प्रिय अप्रिय निर्णय बिना किसी ननुनच के स्वीकार्य होता है। इसलिए जुलूस में सम्मिलित सभी सन्त तथा हजारों लोग भी आचार्य श्री का अनुगमन करते हुए एक तरफ हट गए। सामने वाले जुलूस के गुजर जाने के पश्चात् ही उन्होंने अपने गन्तव्य के लिए प्रस्थान किया। पूरे शहर में इस घटना की तीव्र प्रतिक्रिया हुई। प्रतिपक्ष के समझदार लोगों ने भी यह महसूस किया कि आचार्यश्री ने सूझ-बूझ एवं अहिंसक नीति के आधार पर सही समय पर सही निर्णय लेकर शहर को एक सम्भावित रक्तरंजित संघर्ष से बचा लिया। तत्कालीन बीकानेर नरेश महाराज गंगासिंहजी ने कहा--"आचार्यश्री भले ही अवस्था में छोटे हों, पर उनकी यह सूझ-बूझ वृद्धों की सी है। उन्होंने बड़ी समझदारी एवं शांति से काम लिया।" यह उनकी अहिंसा एवं शांतिवादिता की प्रथम विजय थी। सन् १९६१ के आसपास की घटना है। आचार्यश्री बाडमेर, बायतू होते हुए जसोल पधार रहे थे। विरोधियों ने ऐसे पेम्पलेट निकाले की कहीं धर्मवृद्धि के स्थान पर सिरफोड़ी न हो जाए । इससे भी आगे उन्होंने नियत प्रवचनस्थल पर वंचनापूर्वक अड्डा जमा लिया । इससे श्रद्धालुओं के मन में रोष उभर आया । आचार्यश्री इस विरोधी विष को भी शंकर की तरह पी गए । वे शहर के बाहर ही किसी के मकान में ठहर गए। पर लोग तो वहां भी पहुंच गए। __ उनमें कुछ श्रद्धालु थे तो कुछ आचार्यश्री की आंखों में रोष की झलक देखने आए थे । आचार्य वर ने दोनों ही पक्षों के लोगों की मनःस्थिति को ध्यान में रखते हुए कहा- "हमें विरोध का उत्तर शांति से देना है। मुझे ताज्जुब हुआ जब मैंने यह पढ़ा कि धर्मवृद्धि के स्थान पर कहीं सिरफोड़ी न हो जाए। क्या हम आग लगाने आते हैं ? संन्यस्त होकर भी क्या हम रोटी, कपड़ा और स्थान के लिए झगड़ें ? हममें क्रांति के भाव जागें कि गाली का उत्तर भी शांति से दे सकें। मैंने सुना है कि कुछ अनुयायी कहते हैं ---आचार्यश्री को जाने दो फिर देखेंगे । यदि मेरे जाने के बाद उनकी आंखों में उबाल आ गया तो मैं कहना चाहता हूं कि तुम लोगों ने केवल नारे लगाए हैं आचार्य तुलसी को नहीं पहचाना है। 'शठे शाठ्यं समाचरेद्' यह राजनीति का सूत्र हो सकता है; धर्मनीति का नहीं। हमें तो बुरों के दिल Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण को भी भलाई से बदलना है । जो अड़ता है, उनसे हमें टल जाना है । दूसरा जलता है तो हमें जल बन जाना है।' यद्यपि आए हुए उभार को रोकना समूद्र के ज्वार को रोकना है पर आचार्यश्री के इस ओजस्वी वक्तव्य ने न केवल श्रद्धालु लोगों को शान्त कर दिया, वरन् विरोधियों को भी सोच की एक नयी दृष्टि प्रदान की। __ आचार्यश्री के जीवन में जब-जब विरोध के क्षण आए, वे इसी बात को बार-बार दोहराते रहे-"विरोधी लोग क्या करते हैं इस ओर ध्यान न देकर, हमें क्या करना चाहिए, यही अधिक ध्यान देने की बात है। हमें विरोध का शमन विरोध और हिंसा से नहीं, अपितु शान्ति और अहिंसा से करना है। अपना अनुभव डायरी में लिखते हुए वे कहते हैं- “अहिंसा का जोश आज मेरे हृदय में रह-रहकर उफान पैदा कर रहा है, मेरा सीना इससे तना हुआ है और यही मुझमें अहिंसा को जनशक्ति में केन्द्रित करने की एक अज्ञात प्रेरणा जागृत कर रहा है।" विधायक दृष्टिकोण ____ आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण विधायक है। यही कारण है कि वे हर बुराई में अच्छाई खोज लेते हैं। वे मानते हैं-"जहां तक अहिंसा का प्रश्न है, वहां हमारा आचरण और व्यवहार अलौकिक होना चाहिए-इस सिद्धांत में मेरी गहरी आस्था है।'' आचार्य तुलसी के जीवन की सैकड़ों घटनाएं इस आस्था की परिक्रमा कर रही हैं। जोधपुर (सन् १९५४) में अणुव्रत का अधिवेशन था । साम्प्रदायिक लोगों ने विरोध में अनेक पर्चे निकाले । दीवारें ही नहीं, सड़कों को भी पोस्टरों से पाट दिया। मध्याह्न में आचार्यवर पादविहार कर अधिवेशन स्थल पर पहुंचे। वहां अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा..... साम्प्रदायिक लोग कभी-कभी अनजाने में हित कर देते हैं। यदि आज सड़कों पर ये पोस्टर बिछे नहीं होते तो पैर कितने जलते ? दुपहरी के समय में डामर की सड़कों पर नंगे पैर चलना कितना कठिन होता ? इन पोस्टरों ने हमारी कठिनाई कम कर दी इस अवसर पर आचार्यश्री ने यह घोष दिया "जो हमारा हो विरोध, हम उसे समझें विनोद ।"3 जहां दृष्टिकोण इतना विधायक और उदार हो वहां विरोध की कोई भी स्थिति व्यक्ति को विचलित नहीं कर सकती। उस व्यक्तित्व के सामने अभिशाप वरदान में तथा शत्रुता मित्रता में परिणत हो जाती है। १. जैन भारती १७ सित० १९९१ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६३७ । ३. धर्मचक्र का प्रवर्तन, पृ० २६४ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन _कानपुर का प्रसंग है । स्थानीय अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आचार्यश्री के विरोध में तरह-तरह की बातें छपी। इस स्थिति से उद्वेलित होकर एक वकील आचार्यवर के उपपात में पहुंचा और बोला--"अमुक पत्र का सम्पादक मेरा किराएदार है । आप विरोध का प्रत्युत्तर लिखकर दे दें, मैं उसे वैसा ही छपवा दूंगा।" आचार्यवर ने उत्तर दिया--"कीचड़ में पत्थर डालने से क्या लाभ ? आलोचना का उत्तर में कार्य को मानता हूं। यदि स्तर का विरोध या आलोचना हो तो उसके उत्तर में शक्ति लगायी जाए अन्यथा शक्ति लगाना व्यर्थ है । निरुद्देश्य और निरर्थक विरोध अरण्य प्रलाप की तरह एक दिन स्वयं शांत हो जाएगा। मुझे तो विरोध देखकर दुःख नहीं, बल्कि नादानी पर हंसी आती है। ये विरोध तो मेरे सहयोगी हैं । इनसे मुझे अधिक कार्य करने की प्रेरणा मिलती है । यदि विरोध से घबराने लगे तो कुछ भी कार्य नहीं कर सकेंगे।'' बाल वीक्षा का विरोध जयपुर में जब बाल-दीक्षा के विरुद्ध में विरोध का वातावरण बना तो तेरापंथी लोगों में भी कुछ आक्रोश उभरने लगा। संगठित संघ होने के कारण अनेक स्थानों से हजारों-हजारों लोग उसका प्रतिकार करने के लिए पहुंच गए। यद्यपि उन्हें शांत रखना कोई सहज कार्य नहीं था, पर अहिंसा की तेजस्विता प्रकट करने के लिए यह हर स्थिति में आवश्यक था। उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने अनुयायियों को प्रतिबोध देते हुए कहा"हिंसा को हिंसा से जीतना कोई मौलिक विजय नहीं होती। हिंसा को अहिंसा से जीतना चाहिए। हम साधन-शुद्धि पर विश्वास करते हैं, अतः पथ की समस्त बाधाओं को स्नेह और सौहार्द से ही पार करना होगा। उत्तेजित होकर काम को बिगाड़ा ही जा सकता है, सुधारा नहीं जा सकता। मैं यह नहीं कहता कि आप विरोधों के सामने झुक जाएं। यह तो उन्हीं की सफलता मानी जाएगी। किन्तु आप यदि उस समय भी शांत रहें तो यह आपकी सफलता होगी । मैं आशा करता हूं कि कोई भी तेरापंथी भाई न उत्तेजित होगा और न उत्तेजना बढ़े, वैसा कार्य करेगा। दूसरा क्या कुछ करता है, यह उसके सोचने की बात है। पर हमारा मार्ग सदैव शांति का रहा है और इसी में हमारी सफलता के बीज निहित हैं।" आचार्यश्री का उपर्युक्त प्रतिबोध सचमुच ही अत्यन्त प्रभावी सिद्ध हुआ। लोगों के मनों में उफन रहे आक्रोश को शान्त करने में उसने जल के छींटे का सा काम किया । अहिंसा की तेजस्विता मूर्त हो उठी। अग्नि-परीक्षा बनाम अहिंसक-परीक्षा _____ आचार्य तुलसी का चातुर्मास रायपुर में था। वहां उनका अभूतपूर्व Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण स्वागत हुआ । किन्तु उस चातुर्मास के दौरान कुछ लोग उनकी लोकप्रियता को सह नहीं सके । उनके खण्डकाव्य 'अग्नि-परीक्षा' को आधार बनाकर कुछ गलत तत्त्वों ने साम्प्रदायिक हिंसा का वातावरण तैयार कर दिया । उन्होंने आचार्य श्री पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने सीता को गाली दी है। जनता इस बात को सुनकर भड़क उठी । स्थान-स्थान पर आचार्यश्री के पुतले जलाए गये, पथराव हुआ तथा और भी हिंसात्मक वारदातें होने लगीं । इस वातावरण को देखकर पत्रकारों को संबोधित करते हुए आचार्यश्री ने अपना संक्षिप्त वक्तव्य दिया- "मैं अहिंसा और समन्वय में विश्वास करता हूं । मेरे कारण से दूसरों को पीड़ा पहुंची, इससे मुझे भी पीड़ा हुई । प्रस्तुत चर्चा के दौरान कुछ विद्वानों के मूल्यवान् सुझाव मेरे सामने आए हैं । अग्रिम संस्करण में उन पर मैं गंभीरतापूर्वक विचार करूंगा ।" इसके बावजूद भी विरोधी सभाओं का आयोजन हुआ, जुलूस आदि निकाले गये । स्थिति जटिल एवं गंभीर बन गई। उस स्थिति में भी वे वीर अहिंसक की भांति अडोल रहे तथा शांति स्थापना हेतु अपना मंतव्य व्यक्त करते हुए कहा – “मेरे लिए प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा का प्रश्न मुख्य नहीं है । यदि शांति के लिए मेरा शरीर भी चला जाए तो भी मैं उसे ज्यादा नहीं मानता। प्रतिष्ठा की बात पहले भी नहीं थी, किन्तु परिस्थिति कुछ दूसरी थी । आज स्थिति उससे भिन्न है । मुझे निमित्त बनाकर हिंसा का वातावरण उभारा जा रहा है । मैं नहीं चाहता कि मैं हिंसा का कारण बनूं, पर किसी प्रकार बना दिया गया हूं। मैं इसके लिए किसी को दोष नहीं देता । मैंने अपने मिशन को चलाने का बराबर प्रयत्न किया है और आगे भी करता रहूंगा । ऐसी स्थिति केवल मेरे लिए ही बनी है, ऐसा नहीं है । महावीर, गांधी और विनोबा के साथ भी ऐसा ही हुआ है ।' 1 "१ उनकी करुणा और अहिंसा की पराकाष्ठा तो उस समय देखने को मिली, • जब हिंसा के दौरान कुछ विरोधी व्यक्ति पुलिस के द्वारा पकड़े गये तब उनके प्रति अधिकारियों से अपना आत्मनिवेदन उन्होंने इस भाषा में रखा -- "आज जो लोग गिरफ्तार हुए, उसकी मुझे पीड़ा है। मुझे उनके प्रति सहानुभूति है । मेरे मन में उनके प्रति किसी प्रकार का रोष नहीं है । मैं आप लोगों से अनुरोध करता हूं कि यदि संभव हो सके तो आज रात्रि में ही गिरफ्तार लोगों को मुक्त कर दिया जाए ।" विरोधी लोगों द्वारा पंडाल जलाने पर भी वे वहीं स्थिरयोगी बनकर बैठे रहे । आचार्य श्री का यह स्पष्ट मंतव्य है कि अहिंसक कायर नहीं हो सकता । जो मरने से डरता है, वह अहिंसा का अंचल भी नहीं छू सकता । लोगों के निवेदन करने पर भी वे दृढ़तापूर्वक कहते हैं मैं यहीं बैठा हूं देखता हूं क्या होता है ? उस भयावह स्थिति में भी वे प्रकम्पित नहीं हुए । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन उनकी इस दृढ़ता और मजबूती को देखकर आग लगाने वालों ने भी अपने मन में लज्जा और कायरता का अनुभव किया । इस विषम एवं हिंसक वातावरण में भी वे लोगों को ओजस्वी स्वरों में कहते रहे .--"आज मैं इस अवसर पर अपने शुभचिन्तकों को पूर्णरूप से संयमित रहने का निर्देश देता हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे किसी भी स्थिति में अहिंसा को नहीं भूलेंगे। हमारी विजय शांति में है। शांति नहीं थकती, थकता है विरोध ।" इस घटना से उनकी अहिंसा के प्रति गहरी निष्ठा और शांतिप्रियता की स्पष्ट झलक मिलती है ।। उदार दृष्टिकोण - यह निर्विवाद सत्य है कि उदार व्यक्ति ही अहिंसा का पालन कर सकता है। बिना उदारता के व्यक्ति विपक्ष को सह नहीं सकता। आचार्य तुलसी उदारता की प्रतिमूर्ति हैं। इसका ज्वलन्त निदर्शन है- मेवाड़ और कलकत्ता का घटना प्रसंग । कानोड़ गांव से विहार कर आचार्य वर आगे पधार रहे थे। उनके साथ में सैकड़ों लोग नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे । आचार्यवर को ज्ञात हुआ कि जुलूस जिस मार्ग से आगे बढ़ रहा है, उस मार्ग में अन्य मुनियों का व्याख्यान हो रहा है। आचार्य तुलसी दो क्षण रुके और निर्देश की भाषा में श्रावकों से कहा--"नारे बंद कर दिए जाएं । श्रद्धालुओं ने प्रश्न उपस्थित किया-हम किसी को बाधा नहीं पहुंचाना चाहते पर अपने मन के उत्साह को कैसे रोकें ? सदा से ही ऐसा होता रहा है । फिर आज यह नयी बात क्यों उठी ? आचार्यवर ने उनके मानस को समाहित करते हुए कहा--"आगे मुनियों का प्रवचन हो रहा है। नारे लगाने से श्रोताओं को सुनने में बाधा पहुंचेगी ।" मनोवैज्ञानिक ढंग से अपनी बात को समझाते हुए आचार्यश्री ने कहा -- "तुम्हारी धर्मसभा में साधु-साध्वियों का या मेरा प्रवचन होता है, उस समय दूसरे लोग नारे लगाते हुए वहां से गुजरें तो तुम्हें कैसा लगेगा ?" आचार्यश्री की यह बात उनके अंतःकरण को छू गयी और सभी अनुयायी शांतभाव से आगे बढ़ने लगे । शांत जुलूस को देखकर दर्शक तो आश्चर्यचकित हुए ही, दूसरे संप्रदाय के लोगों पर भी इतना गहरा असर हुआ कि वे सहयोग कि भावना प्रदर्शित करने लगे । यह समन्वय एवं सह-अस्तित्व का मार्ग हैं। . ....सन् १९५९ कलकत्ता चातुर्मास की समाप्ति पर एक पत्रकार आचार्यश्री के चरणों में उपस्थित हुआ और बोला----मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए । आचार्यश्री ने कहा- "मैंने अभिशाप और दुराशीष कब दी थी? तुमने चार महीने जी भरकर हमारे विरुद्ध लिखा, न लिखने की बात भी लिखी पर मैंने कभी तुम्हारे प्रति दुर्भावना नहीं की, क्या यह आशीर्वाद नहीं Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण है ? मैं उस समय भी अपनी साधना में था, आज भी अपनी साधना में हूं। तुम्हारे प्रति मुझे कोई रोष नहीं है। हां, इस बात की प्रसन्नता है कि किसी भी समय यदि मनुष्य में अध्यात्म के भाव जागते हैं तो वह श्रेय का पथ है।" यह घटना उनके सहिष्णु व्यक्तित्व की कथा कह रही है। आलोचनाएं सुन-सुनकर आचार्यश्री की मानसिकता इतनी परिपक्व हो गयी है कि उनके मन पर विरोधी वातावरण का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता। विनोबा भावे के छोटे भाई शिवाजी भावे महाराष्ट्र यात्रा में आचार्यश्री से मिले । मिलने का प्रयोजन बताते हुए उन्होंने कहा--"आपके विरोध में प्रकाशित साहित्य विपुल मात्रा में मेरे पास पहुंचा है । उसे देखकर मैंने सोचा, जिस व्यक्ति के विरोध में इतना साहित्य छपा है, जो विरोध का प्रतिकार विरोध द्वारा नहीं करता, निश्चय ही वह कोई प्राणवान् एवं जीवन्त व्यक्ति होना चाहिए। आपसे मिलने के बाद मन में आता है कि यदि मैं यहां नहीं आता तो मेरे जीवन में बहुत बड़ा धोखा रह जाता।" युवाचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं -- "ऐसा लगता है कि आचार्य तुलसी की जन्म कुंडली ख्याति और संघर्ष की कुंडली है। ख्याति और संघर्ष को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। ख्याति संघर्ष को जन्म देती है और संघर्ष ख्याति को जन्म देता है । यह अनुभव से निष्पन्न सचाई है।" आचार्यश्री के जीवन में अनेक बार बाह्य और अंतरंग संघर्ष आये हैं । पर उन्होंने हर संघर्ष को समताभाव से सहन किया है। आचार्यश्री देवास में प्रवचन कर रहे थे। अचानक कुछ अज्ञानी लोगों ने पत्थर फेंका । वह आचार्यश्री की पीठ पर लगा पर वे शांत रहे और इस घटना को तटस्थ भाव से देखते रहे। एक बार वे उज्जैन के रास्ते से गुजर रहे थे। एक भाई ने इत्र एवं फूलमाला से स्वागत किया। पर आचार्यश्री मुस्कराकर आगे बढ़ गए। आचार्यश्री दोनों घटनाओं में मध्यस्थ रहे। न क्रोध, न प्रसन्नता । इन दोनों घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वे स्वानुभव की चर्चा करते हुए कहते हैं ---"समय कितना विचित्र होता है । देवास में पर्वतपुत्र (पत्थर) से कुछ लोगों ने स्वागत किया तो यहां पर तरु वरपुत्र (पुष्प) से स्वागत हो रहा है। पर हम तो दोनों को ही अस्वीकार करते हैं। वे कहते है-''मैं अपने विषय में अनुभव करता हूं कि जैसे-जैसे अहिंसा का मर्म हृदयंगम हुआ है, वैसे-वैसे अधिक मध्यस्थ बना हूं।" महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी के शब्दों में उनका व्यक्तित्व निन्दा के वातूल से विचलित नहीं होता तथा प्रशंसा की थपकियों से प्रमत्त नहीं बनता, इसलिए वे महापुरुष हैं। इन घटनाओं के आलोक में आचार्य तुलसी की अहिंसा का मूर्तरूप स्वतः हमारे दृष्टिपथ पर अवतरित हो जाता है। उनकी यह तेजस्वी अहिंसा दूसरों के लिए भी अहिंसा, प्रेम और मैत्री का बोधपाठ बन सकती है। . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-चिन्तन धर्म का स्वरूप भारतीय संस्कृति की आत्मा धर्म है। यही कारण है कि यहां अनेक धर्म पल्लवित एवं पुष्पित हुए हैं। सबने अपने-अपने ढंग से धर्म की व्याख्या की है। सुप्रसिद्ध लेखक लार्ड मोर्ले ने लिखा है-"आज तक धर्म की लगभग १० हजार परिभाषाएं हो चुकी हैं; पर उनमें भी जैन, बौद्ध आदि कितने ही धर्म इन व्याख्याओं से बाहर रह जाते हैं।" लार्ड मोर्ले की इस बात से यह चिन्तन उभर कर सामने आता है कि ये सब परिभाषाएं धर्म-सम्प्रदाय की हुई हैं, धर्म की नहीं। आचार्य तुलसी कहते हैं-"सम्प्रदाय अनेक हो सकते हैं, पर उनमें निहित धर्म का सन्देश सबका एक है।" आचार्य तुलसी ने क्लिष्ट शब्दावली से बचकर धर्म के स्वरूप को सहज एवं सरल ढंग से प्रस्तुत किया है । उनके साफ, स्पष्ट, प्रौढ़ एवं सुलझे हुए विचारों ने जनता में धर्म के प्रति एक नई जिज्ञासा, नया आकर्षण और नया विश्वास जागृत किया है । वे इस सत्य को स्वीकारते हैं कि हम जिस युग में धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की बात कर रहे हैं, वह उपलब्धि की दृष्टि से वैज्ञानिक, शक्ति की दृष्टि से आणविक और शिक्षा की दृष्टि से बौद्धिक है। क्या अबौद्धिक, अवैज्ञानिक और शक्तिहीन पद्धति से धर्म का उत्कर्ष सम्भव है ? । उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म की कसौटी पर कट्टर नास्तिक भी अपने को धार्मिक कहने में गौरव का अनुभव करता है। धर्म के स्वरूप को विश्लेषित करती उनकी ये पंक्तियां कितनी वैज्ञानिक एवं वेधक बन पड़ी हैं--- "मैं उस धर्म का पक्षपाती नहीं हूं, जो केवल क्रियाकांडों तक सीमित है, जो जड़ उपासना पद्धति से सम्बन्धित है, जो अवस्था विशेष के बाद ही किया जाता है। अथवा जिसमें अन्य सब कार्यों से निवृत्त होने की अपेक्षा रहती है। मेरी दृष्टि में धर्म है--जीवन का स्वभाव । वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-"जो धर्म जीवन को परिवर्तन की दिशा नहीं देता, मनुष्य के व्यवहार में जीवन्त नहीं होता, वह धर्म नहीं, सम्प्रदाय है, क्रियाकांड है, उपासना है।" पंथ, सम्प्रदाय या वर्ग तक ही धर्म को सीमित करने वालों की विवेक-चेतना जागृत करते हुए वे कहते हैं-"धर्म न तो पंथ, मत, सम्प्रदाय, १. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?, पृ० ७७। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मन्दिर या मस्जिद में है और न धर्म के नाम पर पुकारी जाने वाली पुस्तकें ही धर्म हैं । धर्म तो सत्य और अहिंसा है । आत्मशुद्धि का साधन है ।" जिन लोगों ने सामाजिक सहयोग को धर्म का बाना पहना दिया है, उनको प्रतिबोध देते हुए उनका कहना है- "किसी को भोजन देना, वस्त्र की कमी में सहायता प्रदान करना, रोग आदि का उपचार करना अध्यात्म धर्म नहीं, किन्तु पारस्परिक सहयोग है, लौकिक धर्म है। आचार्य तुलसी एक ऐसे धर्म के पक्षधर हैं, जहां सुख-शांति की पावन गंगा-यमुना प्रवाहित होती है । इस विषय में वे कहते हैं- " मैं तो उसी धर्म का प्रचार व प्रसार करने में लगा हुआ हूं, जो त्रस्त, दुःखी व व्याकुल मानव जीवन को आत्मिक सुख-शांति व राहत की ओर मोड़ने वाला है, जो नारकीय धरातल पर खड़े जन-जीवन को सर्वोच्च स्वर्गीय धरातल की ओर आकृष्ट करने वाला है । १३ इस सन्दर्भ में उनकी दूसरी टिप्पणी भी विचारणीय है- " मैं जिस धर्म की प्रतिष्ठा देखना चाहता हूं, वह आज के भेदात्मक जगत् में अभेदात्मक स्वरूप की कल्पना है । धर्म को मैं निर्विशेषण देखना चाहता हूं। आज तक उसके पीछे जितने भी विशेषण लगे, उन्होंने मनुष्य को बांटने का ही प्रयत्न किया है । इसलिए आज एक विशेषणरहित धर्म की आवश्यकता है, जो मानव-मानव को आपस में जोड़ सके । यदि विशेषण ही लगाना चाहें तो उसे मानव-धर्म कह सकते हैं । इस धर्म का स्थान मंदिर, मठ या मस्जिद नहीं, अपितु मनुष्य का हृदय है । "३ धार्मिक कौन ? 113 धर्म और धार्मिक को अलग नहीं किया जा सकता । धर्म धार्मिक के जीवन में मूर्त रूप लेता है किन्तु आज धार्मिक का व्यवहार धर्म के सिद्धान्तों से विपरीत है । आचार्य तुलसी कहते हैं- “मेरा विश्वास अधार्मिक को धार्मिक बनाने से पहले तथाकथित धार्मिक को सच्चा धार्मिक बनाने में है । आज अधार्मिक को धार्मिक बनाना उतना कठिन नहीं, जितना कठिन एक धार्मिक को वास्तविक धार्मिक बनाना है ।" धर्मस्थान में धार्मिक और बाहर निकलते ही अन्याय, अत्याचार एवं शोषण - इस विरोधाभासी दृष्टिकोण के वे सख्त विरोधी हैं । धार्मिक के दोहरे व्यक्तित्व पर व्यंग्य करते हुए आचार्य तुलसी कहते हैं- " आज धार्मिक भगवान् से १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ७४१ । २. जैन भारती, ३० मई १९५४ । ३. हिसार, स्वागत समारोह में प्रदत्त प्रवचन से उद्धृत । ४. ५-७-८४ जोधपुर में हुए प्रवचन से उद्धृत | Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन मिलना चाहते हैं, किन्तु पड़ोसी से मिलना नहीं चाहते । वे मन्दिर में जाकर भक्त कहलाना चाहते हैं लेकिन दुकान और बाजार में ग्राहकों को धोखा देने से बचना नहीं चाहते।" . धर्म जीवन का रूपान्तरण करता है। पर जिनमें परिवर्तन घटित नहीं होता उन धार्मिकों को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं- "मैं उन धार्मिकों से हैरान हूं, जो पचास वर्षों से धर्म करते आ रहे हैं, किन्तु जीवन में परिवर्तन नहीं आ रहा है।" ___ धार्मिक की सबसे बड़ी पहचान है कि वह प्रेम और करुणा से भरा होता है। धार्मिक होकर भी व्यक्ति लड़ाई, झगड़े, दंगे-फसाद करे, यह देखकर आश्चर्य होता है। इस विषय में आचार्य तुलसी दुःख भरे शब्दों में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं---"धार्मिक अधर्म से लड़े, यह तो समझ में आता है, किन्तु एक धार्मिक दूसरे धार्मिक से लड़े, यह दुःख का विषय है।" वे धर्म और नैतिकता को विभक्त करके नहीं देखते । धार्मिक होकर यदि व्यक्ति नैतिक नहीं है तो यह धर्म के क्षेत्र का सबसे बड़ा विरोधाभास है। वे इस बात को गणितीय भाषा में प्रस्तुत करते हैं-"आज देश की लगभग ८० करोड़ की आबादी में सत्तर करोड़ जनता धार्मिक मिल सकती है पर जहां तक ईमानदारी का प्रश्न है, दो करोड़ भी सम्भव नहीं है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि बेईमान धार्मिकों की संख्या अधिक है।" वे कहते हैं- “एक धार्मिक कहलाने वाला व्यक्ति चरित्रहीन हो, हिंसा पर उतारू हो, आक्रांता हो, धोखाधड़ी करने वाला हो, छुआछूत में उलझा हुआ हो, शराब पीता हो, दहेज की मांग करता हो और भी अनेक अनैतिक आचरण करता हो, क्या वह धार्मिक कहलाने का अधिकारी है ?" सच्चे धार्मिक की पहचान बताते हुए वे कहते हैं.---"अशांति में जो आदमी शांति को ढूंढ निकालता है, अपवित्रता में से जो पवित्रता को ढूंढ लेता है, असन्तुलन में से जो सन्तुलन को खोज लेता है और अन्धकार में से प्रकाश को ढूंढ लेता है, वह धार्मिक है। वे धार्मिक की कसौटी मन्दिर या धर्मस्थान में जाना नहीं मानते अपितु उसकी सही कसौटी दुकान पर बैठकर पवित्र रहना मानते हैं । इसी बात को वे साहित्यिक शैली में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं--- १. विज्ञप्ति सं० ८२७ ।। २. एक बूंद : एक सागर, पृ० ६१ । ३. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० १२ । ४. १३-७-६९ के प्रवचन से उद्धृत । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण "अप्रमाणिक या अनैतिक जीवन में धार्मिक होने का दावा फटे टाट में रेशमी पैबन्द लगाने जितना उपहासास्पद है ।" उनके साहित्य में उन लोगों के समक्ष अनेक ऐसे प्रश्न उपस्थित हैं, जो पीढ़ियों से अपने को धार्मिक मानते आ रहे हैं । ये प्रश्न उन्हें अपने बारे में नए ढंग से सोचने को विवश करते हैं तथा अन्तर में झांकने के लिए प्रेरित करते हैं । यद्यपि ये प्रश्न बहुत सामान्य एवं व्यावहारिक हैं पर रूपांतरण घटित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। यहां कुछ प्रश्नों को उपस्थित किया जा रहा है: 1 १२० १. समता या मैत्री का व्रत लिया है, पर दूसरों के प्रति क्रूरता कम हुई या नहीं, इसकी आलोचना करें । २. सत्य के प्रति निष्ठा दरसाई है, पर ईमानदारी की वृत्ति बढ़ी या नहीं, इसका अनुवीक्षण करें । ३. सरल जीवन बिताने का संकल्प लिया है । पर वक्रता का भाव छूटा या नहीं, इसे टंटोलें । ४. संयम का पथ चुना है, पर जीवन की आवश्यकताएं कम हुई या नहीं, मुड़कर देखें ।' धर्म और राजनीति धर्म और राजनीति दो भिन्न-भिन्न धाराएं हैं। दोनों का उद्देश्य भी भिन्न-भिन्न है । धर्म व्यक्तित्व रूपान्तरण की प्रक्रिया है और राजनीति राज्य को सही दिशा में ले चलने वाली प्रक्रिया । आचार्य तुलसी के शब्दों में राजनीति का सूत्र है- दूसरों को देखो और धर्मनीति का सूत्र हैअपने आपको देखो ।" आचार्य तुलसी की यह बहुत स्पष्ट अवधारणा है कि धर्म जब अपनी मर्यादा से राज्य सत्ता में घुलमिल जाता है तो वह विष से भी अधिक जाता है ।" उनका चिन्तन है कि यदि राजनीति से धर्म का विसंबंधन नहीं रहा तो वह विरोध, संघर्ष और युद्ध का साधनमात्र रह जाएगा जहां कहीं धर्म का राजनीति के साथ गठबन्धन कर उसे जनता पर थोपा गया, वहां हिंसा और रक्तपात ने समूचे राष्ट्र में तबाही मचा दी। इसका कारण स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं- " राजनीति अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए हिंसा के कंधे पर सवारी कर लेती है पर धर्म का हिंसा के साथ दूर का भी रिश्ता नहीं है । " दूर हटकर घातक बन १. पथ और पाथेय, पृ० ९१-९२ । २. धर्म और भारतीय दर्शन, पृ० ५ । ३. जैन भारती, ८ मई १९५५ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० ७४० । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १२१ आचार्य तुलसी के उपरोक्त चिन्तन ने उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा आकर्षण पैदा किया है कि अनेक राष्ट्र नायक समय-समय पर उनके चरणों में उपस्थित होते रहते हैं पर आचार्यश्री अपना अनुभव इन शब्दों में व्यक्त करते हैं — धर्माचार्य और राजनयिक के मिलन का अर्थ यह कभी नहीं है कि धर्म और राजनीति एक हो गए । राजनीति ने बहुत बार हमारे दरवाजे पर आकर दस्तक दी है, पर हमने उसे विनम्रतापूर्वक लौटा दिया । " धर्म और राजनीति को विरोधी मानते हुए भी आचार्य तुलसी आज की भ्रष्ट, स्वार्थी, पदलोलुप और मायायुक्त राजनीति की छवि को स्वच्छ बनाने के लिए राजनीति में धर्मनीति का समावेश आवश्यक मानते हैं । उनका चिन्तन है कि निस्पृह होने के कारण धर्मनेता में ही वह शक्ति होती है कि वे राजनीति पर अंकुश रख सकें, उसे उच्छृंखल होने से बचा सकें । वे अनेक बार अपनी प्रवचन सभाओं में स्पष्ट कहते हैं - "यदि धर्म नहीं रहा तो राजनीति अनीति बन जाएगी। उसकी सफलता क्षणस्थायी होगी या फिर वह असफल, भ्रष्ट और दलबदलू हो जाएगी। पर, आचार्य तुलसी धर्म का राजनीति में हस्तक्षेप नैतिक नियन्त्रण और मार्गदर्शन तक ही उचित मानते हैं, उससे आगे नहीं । प्रसिद्ध साहित्यकार सरदारपूर्ण सिंह 'सच्ची वीरता' में यहां तक लिख देते हैं कि हमारे असली और सच्चे राजा ये साधु पुरुष ही हैं। धर्म और राजनीति में समन्वय करता हुआ उनका निम्न उद्धरण आज की दिशाहीन राजनीति को नया प्रकाश देने वाला है - "धर्म के चार आधार हैं क्षांति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव । मुझे लगता है लोकतन्त्र के भी चार आधार हैं । लोकतन्त्र के सन्दर्भ में क्षांति का अर्थ होगा- सहिष्णुता । मुक्ति का अर्थ होगा निर्लोभता या पद के प्रति अनासक्ति । ऋजुता का अभिप्राय होगा - मन, वचन और शरीर की सरलता, कुटिलता का अभाव तथा मार्दव का अर्थ होगा - व्यवहार की मृदुता, विरोधी दल पर छींटाकशी का अभाव । "" धर्म और राजनीति इन दो विरोधी तत्त्वों में सामंजस्य करते हुए उनका चिन्तन कितना सटीक है- " यद्यपि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि धर्म की विकृतियों को मिटाने के लिए राजनीति और राजनीति की विकृतियों को मिटाने के लिए धर्म का अपना उपयोग है । पर जब इन्हें एकमेक कर दिया जाता है तो अनेक प्रकार की समस्याएं खड़ी होती हैं । अभी कुछ राष्ट्रों में इन्हें एकमेक किया जा रहा है पर इस से समस्याएं भी बढ़ी हैं ।' ごゆ १. १- १२-६९ के प्रवचन से उद्धृत | २. जैन भारती, १६ अगस्त १९७० । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२, - आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ___ आचार्य तुलसी ने राष्ट्र की अनेक समस्याओं का हल राजनेताओं के समक्ष प्रस्तुत किया है क्योंकि उनकी दृष्टि में राजनैतिक वादों की समस्याओं का हल भी धर्म के पास है। साम्यवाद और पूंजीवाद का सामंजस्य करते हुए ५० वर्ष पूर्व कही गयी उनकी निम्न टिप्पणी कितनी महत्त्वपूर्ण है--- "अमर्यादित अर्थ-लालसा समस्या का मूल है। पूंजीपति शोषण की सुरक्षा दान की आड़ में चाहते हैं। पर अब वह युग बीत गया है । पूंजीपति यदि संग्रह के विसर्जन की बात नहीं समझे तो वैषम्य का चाल प्रवाह न एटमबम और उद्जनबम से रुकेगा और न अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण से । आज के त्रस्त जन-हृदय में विप्लव है।........"संग्रह की निष्ठा आज हिंसा को निमंत्रण है। आवश्यकताओं का अल्पीकरण अपरिग्रह की दिशा है । यही पूंजीवाद और साम्यवाद के तनाव को मिटाने का व्यवहार्य मार्ग है।' उनके इसी समाधायक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने हजारों की उपस्थिति में आचार्यश्री के चरणों में अपनी भावना प्रस्तुत करते हुए कहा--"आपको सरकार की नहीं, अपितु सरकार को आपकी जरूरत है।" ... धर्म और विज्ञान धर्म और विज्ञान को विरोधी तत्त्व मानकर बहुत सारे धर्माचार्य विज्ञान की उपेक्षा करते रहे हैं। यही कारण है कि अध्यात्म और विज्ञान परस्पर लाभान्वित नहीं हो सके। आचार्य तुलसी ने इस दिशा में एक नई पहल करते हुए दोनों में सामंजस्य स्थापित करने का सफल प्रयत्न किया है । वे धर्म और विज्ञान को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते हैं जिनको कि अलग नहीं किया जा सकता। वे बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि धर्म की तेजस्विता विज्ञान से ही संभव है, क्योंकि विज्ञान प्रयोग से जुड़ा होने के कारण धर्म को रूढ होने से बचाता है। साथ ही प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करके विज्ञान ने जो शक्ति मानव के हाथों में सौंपी है, उस शक्ति का सही उपयोग धार्मिक हाथों से ही संभव है। उनका अनुभव है कि धर्म और विज्ञान एक-दूसरे के पूरक और सापेक्ष होकर चलें तो भारतीय संस्कृति में नव उन्मेष संभव है। क्योंकि विज्ञान जहां बाह्य सुख-सुविधा प्रदान करता है, वहां अध्यात्म आन्तरिक पवित्रता एवं सुख-शांति देता है । सन्तुलित एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिए दोनों आवश्यक हैं। अन्यथा ये दोनों खण्डित सत्य को ही अभिव्यक्ति देते रहेंगे।"3 १. नैतिकता की ओर, पृ० ४ । २. जैन भारती, १४ सितम्बर १९६९ । ३. २७-८-६९ के प्रवचन से उद्धृत ।।.. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १२३ अपने एक प्रवचन में दोनों की उपयोगिता एवं कार्यक्षेत्र पर प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं--- "विज्ञान की आशातीत सफलता देखकर लगता है, विज्ञान के बिना मनुष्य की गति नहीं है । पर साथ ही आंतरिक शक्ति के विकास बिना बाह्य शक्ति का विकास अपूर्ण ही नहीं, विनाशकारी भी है।' एक गेय गीत में भी वे इस सत्य का संगान करते हैं... "कोरी आध्यात्मिकता युग को त्राण नहीं दे पाएगी, कोरी वैज्ञानिकता युग को प्राण नहीं दे पाएगी, दोनों की प्रीत जुड़ेगी, युगधारा तभी. मुड़ेगी।" उनका सन्तुलित दृष्टिकोण जहां दोनों की अच्छाई देखता है, वहां बुराई की भी समीक्षा करता है । विज्ञान की समालोचना करते हुए वे कहते हैं----"वर्तमान विज्ञान जड़ तत्त्वों की छान-बीन में लगा हुआ है । वह भौतिकवादी दृष्टिकोण के सहारे पनपा है अतः आत्म-अन्वेषण से उदासीन है।" इसी प्रकार धर्म के बारे में भी उनका चिन्तन स्पष्ट है -- "जिस धर्म के सहारे सुख-सुविधा के साधन जुटाए जाते हैं, प्रतिष्ठा की कृत्रिम भूख को शांत किया जाता है, प्रदर्शन और आडम्बर को प्रोत्साहन दिया जाता है, उस धर्म की शरण से शांति नहीं मिल सकती।"३ वे इस बात से चिन्तित हैं कि वैज्ञानिक आविष्कारों ने पृथ्वी का अनावश्यक दोहन प्रारम्भ कर दिया है। विश्व को पलक झपकते ही समाप्त किया जा सके, ऐसे अणुशस्त्रों का निर्माण हो चुका है। ऐसी स्थिति में उनका समाधायक मन कहता है कि अध्यात्म ही वह अंकुश है, जो विज्ञान पर नियन्त्रण कर सकता है। . धर्म और सम्प्रदाय साम्प्रदायिकता का उन्माद प्राचीनकाल से ही हिंसा एवं विध्वंस का तांडव नृत्य प्रस्तुत करता रहा है । इतिहास गवाह है कि एक मुस्लिम शासक ने अपने राज्यकाल के ११ वर्षों में धर्म और प्रान्त के नाम पर खून की नदियां ही नहीं बहाई बल्कि एक ग्रन्थालय का ईंधन के रूप में उपयोग किया, जो १० लाख बहुमूल्य ग्रन्थों से परिपूर्ण था। वे पुस्तकें पांच हजार रसोइयों के लिए छह मास के ईन्धन के रूप में पर्याप्त थीं। इस दुष्कृत्य का तार्किक समाधान करते हुए सांप्रदायिक अभिनिवेश में रंगा वह शासक बोला--- "यदि ये पुस्तकें कुरान के अनुकूल हैं तो कुरान ही पर्याप्त है। यदि कुरान के प्रतिकूल हैं तो काफिरों की पुस्तकों की कोई आवश्यकता नहीं।" धर्म और मजहब के नाम से ऐसे भीषण अत्याचारों से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं। १. जैन भारती, १४ सितम्बर १९६९ । २. खोए सो पाए, पृ० ६३ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण किसी भी महापुरुष ने धर्म का प्रारम्भ किसी सीमित दायरे में नहीं किया पर उनके अनुगामी संख्या के व्यामोह में सम्प्रदाय के घेरे में बन्ध जाते हैं तथा धर्म के स्वरूप को विकृत कर देते हैं । सम्प्रदाय के सन्दर्भ में आचार्य तुलसी का चिन्तन बहुत स्पष्ट एवं मौलिक है - "मेरी आस्था इस बात में है कि सम्प्रदाय अपने स्थान पर रहे और उसका उपयोग भी है किन्तु वह सत्य का स्थान न ले । सत्य का माध्यम ही बना रहे, स्वयं सत्य न बने । " " आचार्य तुलसी के अनुसार संप्रदाय के नाम पर मानव जाति की एकता और अखंडता को बांटना अक्षम्य अपराध है । इस सन्दर्भ में उनका चिन्तन है कि भौगोलिक सीमा, जाति आदि ने मनुष्य जाति को बांटा तो उसका आधार भौतिक था । इसलिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता पर धर्म-सम्प्रदाय ही मानव जाति को विभक्त कर डाले, यह अक्षम्य है । उनका चिन्तन है कि जो लोगों को बांटते हैं, ऐसे तथाकथित धार्मिकों से तो वे नास्तिक ही भले हैं, जो धर्म को नहीं मानते तो धर्म के नाम पर ठगी भी नहीं करते । १२४ आचार्य तुलसी का मानना है कि साम्प्रदायिक भावनाओं को प्रश्रय देने वाले संप्रदाय खतरे से खाली नहीं हैं । उनका भविष्य कालिमापूर्ण है । एक धर्म-सम्प्रदाय के आचार्य होते हुए भी वे स्पष्ट कहते हैं- "एक संप्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय पर कीचड़ उछालें और यह कहें- धर्म तो हमारे सम्प्रदाय में है अन्य सब झूठे हैं । हमारे सम्प्रदाय में आने से ही मुक्ति होगी यह संकुचित दृष्टि समाज का अहित कर रही है ।' ११५ आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में सांप्रदायिकता का जितना विरोध किया है उतना किसी अन्य आचार्य ने किया हो, यह इतिहासकारों के लिए खोज का विषय है । अपने एक प्रवचन में वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं" संप्रदायवादी बातों से मुझे चिढ़ हो गयी है । फलतः मुझे ऐसा अभ्यास हो गया है कि मैं एक महीने तक निरन्तर प्रवचन करूं, उसमें धर्म विशेष का नाम लिए बिना मैं नैतिक बातें कह सकता हूं। मैं अपनी प्रवचन सभाओं में ऐसे प्रयोग करता रहता हूं, जिससे कट्टरपन्थी विचारकों को भी मुक्तभाव से सोचने का अवसर मिले। इतना ही नहीं, जहां सांप्रदायिक संकीर्णता नहीं, वह समारोह किसी भी जाति का हो, किसी भी सम्प्रदाय द्वारा आयोजित १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७२३ । २. जैन भारती, १६ मई १९५४ | ३. बहता पानी निरमला, पृ० ९८ । ४. जैन भारती, २० अप्रैल १९५८ । ५. दक्षिण के अंचल में, पृ० ७१८ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १२५ हो, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए मैं सदैव उनके साथ हूं और रहूंगा।' आचार्य तुलसी का स्पष्ट कथन है कि सम्प्रदायों की अनेकता धर्म की एकता को खंडित नहीं कर सकती क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपमें एक सम्प्रदाय है । सम्प्रदाय को मिटाने का अर्थ है- व्यक्ति के अस्तित्व को मिटाना । साथ ही वे यह भी कहते हैं कि जिस प्रकार धूप और छांव को किसी घर के अन्दर बन्द नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार धर्म को भी किसी एक संप्रदाय या वर्ग तक सीमित नहीं किया जा सकता। धर्म तो आकाश की तरह व्यापक है, संप्रदाय तो उसमें झांकने की खिड़कियां हैं।" आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के मंच पर सब धर्म के वक्ताओं को उन्मुक्त भाव से आमन्त्रित किया है । बम्बई में फादर विलियम अणुव्रत के बारे में अपने विचार व्यक्त करने लगे। कार्यक्रम समाप्ति पर एक भाई आचार्यश्री के पास आकर बोला-.-"आपने फादर विलियम को अपने मंच पर खड़ा करके खतरा मोल लिया है। तेरापन्थी भाई उसके भाषण से प्रभावित होकर ईसाई बन जाएंगे।' आचार्यश्री ने उस भाई को उत्तर देते हुए कहा-... "एक अन्य सम्प्रदाय का व्यक्ति यदि अपने जीवन पर अणुव्रत के प्रभाव को व्यक्त करता है तो इससे अन्य लोगों को भी अणुव्रती बनने की प्रेरणा मिलती है। इस स्थिति में यदि कोई तेरापन्थी ईसाई बनता है तो मुझे कोई चिन्ता नहीं । मैं तो ऐसे अनुयायी देखना चाहता हूं जो विरोधी तत्त्वों को सुनकर भी अप्रकम्पित रहें।" इस घटना के आलोक में उनके उदार एवं असाम्प्रदायिक विचारों को पढ़ा जा सकता है। रायपुर के अशांत एवं हिंसक वातावरण में वे सार्वजनिक प्रवचन में स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-''यदि मेरे अनुयायी साम्प्रदायिक अशांति में योग देने की भावना रखेंगे तो मैं उनसे यही कहूंगा कि उन्होंने आचार्य तुलसी को पहचाना नही है।" इसी सन्दर्भ में एक पत्रकार के साथ हुई वार्ता को उद्धृत करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा । पत्रकार ..."आचार्यजी ! क्या आप अणुव्रत के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को तेरापन्थी बनाने की बात तो नहीं सोच रहे हैं ? आचार्यश्री— “यदि आप ऐसा सोचते हैं तो समझिए आप अंधकार में हैं, असम्भव कल्पना लेकर चलते हैं।' अणुव्रत की ओट में सम्प्रदाय बढ़ाने की बात सोचना क्या जनता के साथ धोखा नहीं होगा ? मेरी मान्यता है कि अणुव्रत के प्रकाश में व्यक्ति अपना जीवन देखे और उसे १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७२२ । २. जैन भारती, १२ नव० १९६१ । ३. जैन भारती, १८ नव० ६२ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१२६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सही पथ पर ले चले। फिर चाहे वह जैन, बौद्ध, मुस्लिम या ईसाई कोई भी हो । किसी भी जाति, दल या समाज का हो ।" I ऐसे हजारों प्रसंगों को उद्धृत किया जा सकता है जो अणुव्रत के व्यापक, असाम्प्रदायिक और सार्वजनीन स्वरूप को प्रकट करते हैं । त्याग साम्प्रदायिक उन्माद को दूर करने हेतु उनका चिन्तन है कि जितना बल उपासना पर दिया जाता है, उससे अधिक बल यदि क्षमा, सत्य, संयम, आदि पर दिया जाए तो धर्म प्रधान हो सकता है और सम्प्रदाय गौण । "" उनके विशाल चिन्तन का निष्कर्ष यही है कि धर्म वहीं कुण्ठित होता है, जहां धार्मिक या धर्मनेता धर्म की अपेक्षा सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा का ख्याल अधिक रखते हैं ।" धार्मिक सद्भाव आचार्य तुलसी ने धर्म के क्षेत्र में एकता और समन्वय का उद्घोष किया है। उन्हें इस बात का आश्चर्य होता है कि जो धर्म एक दिन सभी प्रकार के झगड़ों का निपटारा करता था, उसी धर्म के लिए लोग आपस में लड़ रहे हैं। साम्प्रदायिक उन्माद से होने वाली हिंसा एवं अकृत्य को देखकर वे अनेक बार खेद प्रकट करते हुए कहते हैं " धार्मिक समाज के हीनत्व की बात जब भी मेरे कानों में पड़ती है, मुझे अत्यन्त पीड़ा की अनुभूति होती है। मैं सहअस्तित्व और समन्वय में विश्वास करता हूं । इसलिए मैंने सभी समाजों और सम्प्रदायों के साथ समन्वय साधने का प्रयत्न किया है। इस संदर्भ में उनकी निम्न उक्ति मननीय है - " एक धर्माचार्य होते हुए भी मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है कि दो विरोधी राजनेता परस्पर मिल सकते हैं, शांति से विचार-विनिमय कर सकते हैं, किन्तु दो धर्माचार्य नहीं मिल सकते । धर्म गुरुओं की पारस्परिक ईर्ष्या, कलह और विद्वेष को देखकर लगता है पानी में आग लग गई । बंधुओ ! मैं इस आग को बुझाना चाहता हूं । और इसके लिए आप सबका सहयोग चाहता हूं । 3" निम्न दो उद्धरण भी उनके उदार मानस के परिचायक हैं— I "मैं चाहता हूं कि भारत के सभी धर्म फले-फूलें | अपनी बात कहता हूं कि मैं किसी धर्म पर आक्षेप करता नहीं करना चाहता नहीं और करने देता नहीं ।' 8 १४ १. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० १३ । २. विवरण पत्रिका, अप्रैल १९४७ । ३. दक्षिण के अंचल में, पृ. ३४५ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७२२ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन - “मैं नहीं मानता कि धर्म का सम्पूर्ण अधिकारी मैं ही हूं, दूसरे सब अधार्मिक हैं । मैं अपने साथ उन सब व्यक्तियों को धार्मिक मानता हूं, जिनका विश्वास सत्य में हैं, अहिंसा में है, मैत्री में है ।'' जन-जीवन में समन्वय एवं सौहार्द की प्रेरणा भरने हेतु वे अपने साहित्य में अनेक बार इस बात को दोहराते रहते हैं--"एक धार्मिक संप्रदाय, इतर धार्मिक सम्प्रदाय के साथ अमानवीय व्यवहार करता है । एक दूसरे पर आक्षेप व छींटाकशी करता है, एक के विचारों को विकृत बनाकर लोगों को भड़कने व बहकाने के लिए प्रचार करता है तो यह अपने आपके साथ धोखा है। अपनी कमजोरी का प्रदर्शन है । अपने दुष्कृत्यों का रहस्योद्घाटन है और अपनी संकीर्ण भावना व तुच्छ मनोवृत्ति का परिचायक है । उनके असाम्प्रदायिक एवं उदार दृष्टि के उदाहरण में निम्न प्रवचनांश को उद्धृत किया जा सकता है- "मुझसे कई बार लोग पूछते हैं--सबसे अच्छा कौन-सा धर्म है ? मैं कहा करता हूं-"सबसे अच्छा धर्म वही है, जो धर्मानुयायियों के जीवन में अहिंसा और सत्य की व्याप्ति लाए। जिसका पालन करने वालों का जीवन त्याग, संयम और सदाचरण की ओर झुका हो। वे स्पष्ट उद्घोषणा करते हैं-"मेरा सम्प्रदाय ही श्रेष्ठ है यह सोचना धार्मिक उन्माद का प्रतिफल है और चिंतन शक्ति का दारिद्र्य है। आचार्य तुलसी धर्म को इतना व्यापक देखना चाहते हैं कि वहां तव और मम का भेद ही न रहे। वे अपनी मनोभावना प्रकट करते हैं कि मैं उस समय का इंतजार कर रहा हूं, जब बिना किसी जातिभेद के मानवमानव धर्मपथ पर प्रवृत्त होगा। आचार्य तुलसी धार्मिक सद्भाव एवं समन्वय के परिपोषक हैं पर उनकी दृष्टि में धर्म-समन्वय का अर्थ अपने सिद्धांतों को ताक पर रखकर अपने आपका विलय करना कतई नहीं है। पांचों अंगुलियों को एक बनाने जैसी काल्पनिक. एकता को वे बहुमूल्य नहीं मानते । वे मानते हैं कि व्यक्तिगत रुचि, आस्था, मान्यता आदि सदा भिन्न रहेंगी, पर उनमें आपसी टकराव न हो, परस्पर सहयोग, सद्भाव एवं सापेक्षता बनी रहे, यह आवश्यक है ।' १. जैन भारती, ९ नवम्बर १९६९ । २. जैन भारती, २० जून १९५४ । ३. जैन भारती, ८ अप्रैल १९५६ ।। ४. एक बूंद : एक सागर, पृ. ७६४ । ५. १-१२-६४ के प्रवचन से उद्धृत । ६. राजपथ की खोज, पृ. १८२।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण समन्वय की व्याख्या उनके शब्दों में इस प्रकार है---"मेरे अभिमत से सद्भाव और समन्वय का अर्थ है-मतभेद रहते हुए भी मनभेद न रहे, अनेकता में एकता रहे।' अपने विचारों को सशक्त भाषा में रखें पर दूसरों के विचारों को काटकर या तिरस्कृत करके नहीं। स्वयं द्वारा स्वीकृत सही सिद्धांतों के प्रति दृढ़ विश्वास रहे पर दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता हो।' आचार्य तुलसी के विचार से सर्वधर्मसद्भाव का विचार अनाग्रह की पृष्ठभूमि पर ही फलित हो सकता है। __ सर्वधर्म एकता के लिए उन्होंने रायपुर चातुर्मास (सन् १९७०) में त्रिसूत्री कार्यक्रम की रूपरेखा भी प्रस्तुत की-3 १. सभी धर्म-सम्प्रदायों के आचार्य या नेता समय-समय पर परस्पर मिलते रहें। ऐसा होने से अनुयायी वर्ग एक दूसरे के निकट आ सकता है और भिन्न-भिन्न संप्रदायों के बीच मैत्री भाव स्थापित हो सकता है। २. समस्त धर्मग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन हो। ऐसा होने से धर्म सम्प्रदायों में वैचारिक निकटता बढ़ सकती है। ३. समस्त धर्मों से कुछ ऐसे सिद्धांत तैयार किए जाएं जो सर्वसम्मत हों। उनमें संप्रदायवाद की गंध न रहे, ताकि उनका पालन करने में किसी भी संप्रदाय के व्यक्ति को कठिनाई न हो। असाम्प्रदायिक धर्म : अणुव्रत एक धर्मसंघ एवं सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध होने पर भी आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक रहा है । इस बात की पुष्टि के लिए निम्न उद्धरण पर्याप्त होंगे ० जैन धर्म मेरी रग-रग में, नस-नस में रमा हुआ है, किन्तु साम्प्रदायिक दृष्टि से नहीं, व्यापक दृष्टि से । क्योंकि मैं सम्प्रदाय में रहता हूं पर सम्प्रदाय मेरे दिमाग में नहीं रहता। ० तेरापंथ किसी व्यक्ति विशेष या वर्गविशेष की थाती नहीं है बल्कि जो प्रभु के अनुयायी हैं, वे सब तेरापंथ के अनुयायी हैं और जो तेरापंथ के अनुयायी हैं, वे सब प्रभु के अनुयायी हैं। ० मैं सोचता हूं मानव जाति को कुछ नया देना है तो सांप्रदायिक दृष्टि से नहीं दिया जा सकता, संकीर्ण दृष्टि से नहीं दिया जा सकता, व्यापक १. जैन भारती, २१ अप्रैल १९६८ । २. अमृत महोत्सव स्मारिका पृ० १३ । ३. समाधान की ओर, पृ. ४२ । ४. जैन भारती, २६ जून १९५५ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १२९ दृष्टि से ही दिया जा सकता है । यही कारण है कि मैंने सम्प्रदाय की सीमा को अलग रखा और धर्म की सीमा को अलग । " इसी व्यापक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर आचार्य तुलसी ने असाम्प्रदायिक धर्म का आंदोलन चलाया, जो जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा, प्रांत एवं धर्मगत संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव जाति को जीवन-मूल्यों के प्रति आकृष्ट कर सके । इस असाम्प्रदायिक मानव-धर्म का नाम है'अणुव्रत आंदोलन ।' अणुव्रत को असाम्प्रदायिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करने वाला उनका निम्न उद्धरण इसकी महत्ता के लिए पर्याप्त है ――― " इतिहास में ऐसे धर्मों की चर्चा है, जिनके कारण मानव जाति विभक्त हुई है । जिन्हें निमित्त बनाकर लड़ाइयां लड़ी गई हैं किन्तु विभक्त मानव जाति को जोड़ने वाले अथवा संघर्ष को शान्ति की दिशा देने वाले किसी धर्म की चर्चा नहीं है । क्यों ? क्या कोई ऐसा धर्म नहीं हो सकता, जो संसार के सब मनुष्यों को एकसूत्र में बांध सके । अणुव्रत को मैं एक धर्म के रूप में देखता हूं पर किसी संप्रदाय के साथ इसका गठबन्धन नहीं है । इस दृष्टि से मुझे यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि अणुव्रत धर्म है, पर यह किसी वर्ग विशेष का धर्म नहीं है । "" अणुव्रत जीवन को अखंड बनाने की बात कहता है । अणुव्रत के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता कि व्यक्ति मंदिर में जाकर भक्त बन जाए और दुकान पर बैठकर क्रूर अन्यायी । अणुव्रत कहता है - "तुम मंदिर, मस्जिद, चर्च कहीं भी जाओ या न जाओ, अगर रिश्वत नहीं लेते हो, बेईमानी नहीं करते हो, आवेश के अधीन नहीं होते हो, दहेज की मांग नहीं करते हो, व्यसनों को निमंत्रण नहीं देते हो, अस्पृश्यता से दूर हो तो सही माने में धार्मिक हो । "" धार्मिकता के साथ नैतिकता की नयी सोच देकर अणुव्रत ने एक नया दर्शन प्रस्तुत किया है । पहले धार्मिकता के साथ देवल परलोक का भय जुड़ा था । उसे तोड़कर अणुव्रत ने इहलोक सुधारने की बात कही तथा धर्माराधना के लिए कोई खास देश या काल की प्रतिबद्धता निर्धारित नहीं की । भारत के गिरते नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों को देखकर अणुव्रत ने एक आवाज उठाई - " जिस देश के लोग धार्मिकता का दंभ नहीं भरते, वहाँ अनैतिक स्थिति होती है तो क्षम्य हो सकती है क्योंकि उनके पास कोई १. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ५ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० ४९ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आध्यात्मिक दर्शन नहीं होता, कोई रास्ता दिखाने वाला नहीं होता। किंतु यह विषम स्थिति महावीर, बुद्ध और गांधी के देश में हो रही है, जहां से सारे संसार को चरित्र की शिक्षा मिलती थी। भारत की माटी के कण-कण में महापुरुषों के उपदेश की प्रतिध्वनियां हैं। यहां गांव-गांव में मंदिर हैं, मठ हैं, धर्मस्थान हैं, धर्मोपदेशक हैं । फिर भी यह चारित्रिक दुर्बलता ! एक अनुत्तरित प्रश्न आज भी आक्रांत मुद्रा में खड़ा है।" अणुव्रत के माध्यम से आचार्य तुलसी अपने संकल्प की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं - "अणुव्रत ने यह दावा कभी नहीं किया है कि वह इस धरती से भ्रष्टाचार की जड़ें उखाड़ देगा। वह सदाचार की प्रेरणा देता है और तब तक देता रहेगा, जब तक हर सुबह का सूरज अन्धकार को चुनौती देकर प्रकाश की वर्षा करता रहेगा।"२ अणुव्रत की आचार संहिता से प्रभावित होकर स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहते हैं"अणुव्रत आंदोलन का उद्देश्य नैतिक जागरण और जनसाधारण को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करना है। यह प्रयास अपने आपमें इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसका सभी को स्वागत करना चाहिए। आज के युग में जबकि मानव अपनी भौतिक उन्नति से चकाचौंध होता दिखाई दे रहा है और जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों की अवहेलना कर रहा है, वहां ऐसे आंदोलनों के द्वारा ही मानव अपने संतुलन को बनाए रख सकता है और भौतिकवाद के विनाशकारी परिणामों से बचने की आशा कर सकता है।" अणुव्रत आंदोलन ने अपने व्यापक दृष्टिकोण से सभी धर्मों के व्यक्तियों को धर्म एवं नैतिक मूल्यों के प्रति आस्थावान् बनाया है। वह किसी की व्यक्तिगत आस्था या उपासना पद्धति में हस्तक्षेप नहीं करता। व्यक्ति अपने जीवन को पवित्र एवं चरित्र को उन्नत बनाए, यही अणुव्रत का उद्देश्य है। अणुव्रत आंदोलन का जन-जन में प्रचार करते हुए आचार्य तुलसी अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं-"हिन्दुस्तान की एक विशेषता मैंने देखी कि मुझे इस देश में कोई नास्तिक नहीं मिला । ऐसे लोग, जिन्होंने प्रथम बार में धर्म के प्रति असहमति प्रकट की, किन्तु अणुव्रत धर्म की असाम्प्रदायिक एवं व्यावहारिक व्याख्या सुनकर वे स्वयं को धार्मिक मानने में गौरव की अनुभूति करने लगे।' आचार्य तुलसी के शब्दों में अणुव्रत आंदोलन के निम्न फलित हैं १. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० १८० । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ४ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १३१ । १. मानवीय एकता का विकास २. सह अस्तित्व की भावना का विकास ३. व्यवहार में प्रामाणिकता का विकास ४. आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति का विकास ५. समाज में सही मानदण्डों का विकास । उच्च आदर्शों को लेकर चलने वाला यह आंदोलन जनसम्मत एवं लोकप्रिय होने पर भी आचरणगत एवं जीवनगत नहीं हो सका, इस कमी को वे स्वयं भी स्वीकार करते हैं ---"यह बात मैं निःसंकोच रूप से स्वीकार कर सकता हूं कि अणुव्रत सैद्धान्तिक स्तर पर जितना लोकप्रिय हुआ, आचरण की दिशा में यह इतना आगे नहीं बढ़ सका। इसका कारण है कि किसी भी सिद्धान्त को सहमति देना बुद्धि का काम है और उसे प्रयोग में लाना जीवन के बदलाव से सम्बन्धित है।' फिर भी आचार्य तुलसी अणुव्रत के स्वर्णिम भविष्य के प्रति आश्वस्त हैं। इसके उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा उनके शब्दों में यों उतरती है----- "इक्कीसवीं सदी के भारत का निर्माता मानव होगा और वह अणुव्रती होगा । अणुव्रती गृह संन्यासी नहीं होगा। वह भारत का आम आदमी होगा और एक नए जीवन-दर्शन को लेकर इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करेगा।" धार्मिक विकृतियां आचार्य तुलसी के अनुसार धर्मक्षेत्र में विकृति आने का सबसे बड़ा कारण धर्म का पूंजी के साथ गठबंधन होना है। वे मानते हैं-"जब-जब धर्म का गठबंधन पूंजी के साथ हुआ, तब-तब धर्म अपने विशुद्ध स्थान से खिसका है। खिसकते-खिसकते वह ऐसी डांवाडोल स्थिति में पहुंच गया है, जहां धर्म को अफीम कहा जाता है।" धन और धर्म को जब तक अलगअलग नहीं किया जाएगा तब तक धर्म का विशुद्ध स्वरूप जनता तक नहीं पहुंच सकता। धर्म का धन से सम्बन्ध नहीं है इसको तर्क की कसौटी पर कसकर चेतावनी देते हुए वे कहते हैं -- "मैं अनेक बार लोगों को चेतावनी देता हूं कि यदि धर्म पैसे से खरीदा जाता तो व्यापारी लोग उसे खरीद कर गोदाम भर लेते । यह खेत में उगता तो किसान भारी संग्रह कर लेते ।४ जो लोग धर्म के साथ धन की बात जोड़कर अपने को धार्मिक मानते हैं, उन पर तीखा व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं--- "एक मनुष्य ने लाखों रुपया १. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ. १६५ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ. ४८ । ३. जैन भारती, २६ जून १९५५। ४. हस्ताक्षर, पृ. ३ । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ब्लैक में कमाया, उसने दो हजार रुपयों से एक धर्मशाला बनवा दी, एक मंदिर बनवा दिया, अब वह सोचता है कि मानो स्वर्ग की सीढी ही लगा दी, यह दृष्टिकोण का मिथ्यात्व है । धर्म, धन से नहीं, त्याग और संयम से होता है ।" इसी संदर्भ में उनकी निम्न टिप्पणी भी मननीय है- “एक तरफ लाखों करोड़ों का ब्लैक तथा दूसरी तरफ लोगों को जूठी पत्तल खिलाकर पुण्य और स्वर्ग की कामना करना सचमुच बड़ी हास्यास्पद बात है।" धर्मस्थानों में पूंजी की प्रतिष्ठा देखकर उनका हृदय क्रंदन कर उठता है । इस बेमेल मेल को उनका बौद्धिक मानस स्वीकार नहीं करता। धर्मस्थलों में पूंजीकरण के विरुद्ध उनकी निम्न पंक्तियां कितनी सटीक हैं"तीर्थस्थान, जो भजन और उपासना के केन्द्र थे, वे आज आपसी निंदा और अर्थ की चर्चा के केन्द्र हो रहे हैं। मंदिर, मठ, उपाश्रय और धर्मस्थानों में ऊपरी रूप ज्यादा रहता है। जिसके फर्श पर अच्छा पत्थर जड़ा होता है, मोहरें और हीरे चमकते रहते हैं, वह मंदिर अच्छा कहलाता है। मूर्ति, जो ज्यादा सोने से लदी होती है, बढिया कहलाती है। वह ग्रन्थ, जो सोने के अक्षरों में लिखा जाता है, अधिक महत्वशील माना जाता है। ऐसा लगता है, मानो धर्म सोने के नीचे दब गया है।" धर्म के क्षेत्र में चलने वाली धांधली एवं रिश्वतखोरी पर करारा व्यंग्य करते हुए उनका कहना है-“यदि दर्शनार्थी मंदिर जाकर दर्शन करना चाहे तो पुजारी फौरन टका सा जवाब दे देगा कि अभी दर्शन नहीं हो सकेंगे, ठाकुरजी पोढे हुए हैं। लेकिन यदि उससे धीरे से कहा जाए कि भइया ! दर्शन करके, इतने रुपये कलश में चढाने हैं तो फौरन कहेगा--- अच्छा ! मैं टोकरी बजाता हूं, देखें, ठाकुरजी जागते हैं या नहीं ?"" इसी संदर्भ में उनकी निम्न टिप्पणी भी विचारोत्तेजक है-"लोग भगवान् को प्रसन्न रखने के लिए उन्हें कीमती आभूषणों से सजाते हैं । उनकी सुरक्षा के लिए पहरेदारों को रखा जाता है । मैं नहीं समझता कि जो भगवान् स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वह दूसरों की सुरक्षा कैसे कर सकेगा ? ___ महावीर ने अपार वैभव का त्याग करके दिगम्बर एवं अपरिग्रही जीवन जीया पर उनके अनुयायियों ने उन्हें आभूषणों से लाद दिया । दुनिया को अपरिग्रह का सिद्धांत देने वाले महावीर को परिग्रही देखकर वे मृदु १. प्रवचन पाथेय भाग ९ पृ. १६५। २. जैन भारती, २९ मार्च १९६४ । ३. विवरण पत्रिका, २७ नव० १९५२ । ४. जैन भारती, २० मई १९७१ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन कटाक्ष करने से नहीं चूके हैं—“कहीं-कहीं तो हमने महावीर को इतने ठाठबाट से सजा हुआ देखा कि उतना एक सम्राट भी नहीं सजता । लाखोंकरोड़ों की संपत्ति भगवान के शरीर पर लाद दी जाती है। महावीर स्वयं अपने इस शरीर को देखकर शायद पहचान भी नहीं सकेंगे, क्या यह मैं ही हूं ? यह संदेह उन्हें व्यथित नहीं तो विस्मित अवश्य कर देगा।" धर्म के क्षेत्र में साधन और साध्य की शुद्धि पर आचार्य तुलसी ने अतिरिक्त बल दिया है। धर्म का गलत उपयोग करने वालों पर उनका व्यंग्य पठनीय है---"तम्बाकू पीने वाला कहता है, चिलम सुलगाने को जरा आग दे दो, बड़ा धर्म होगा। भीख मांगने वाला दुआ देता है, एक पैसा दे दो, बड़ा धर्म होगा। इतना ही नहीं हिंसा और शोषण में लगा व्यक्ति भी अपने कार्यों पर धर्म की छाप लगाना चाहता है । स्वार्थान्ध व्यक्ति ने धर्म का कितना भयानक दुरुपयोग किया । धार्मिक की धर्म और भगवान से ही सब कुछ पाने की मनोवृत्ति उनकी दृष्टि में ठीक नहीं है। इससे धर्म तो बदनाम होता ही है, साथ ही साथ अकर्मण्यता आदि अनेक विकृतियां भी पनपती हैं। असत्य और अन्याय की रक्षा के लिए भगवान की स्मृति करने वालों की तीखी आलोचना करते हुए वे कहते हैं --"जब व्यक्ति न्यायालय में जाता है, तब भगवान से आशीर्वाद मांगकर जाता है और जब जीत जाता है, तब भगवान की मनौती करता है। भगवान यदि झूठों की विजय करता है तो वह भगवान कैसे होगा ? झूठ चलाने के लिए जो भगवान की शरण लेता है, वह भक्त कैसे होगा ? धार्मिक कैसे होगा ? धर्म में विकृति आने का एक कारण उनके अनुसार यह है कि धर्म के अनुकूल अपने को न बनाकर धर्म को लोगों ने अपने अनुकूल बना लिया, इससे धर्म की आत्मा मृतप्रायः हो गयी है। धर्म के क्षेत्र में विकृति के प्रवेश का एक दूसरा कारण उनकी दृष्टि में यह है कि व्यक्ति का उद्देश्य सम्यक नहीं है। धर्म का मूल उद्देश्य चित्त की निर्मलता और आत्म शुद्धि है पर लोगों ने उसे बाह्य वैभव प्राप्त करने के साथ जोड़ दिया है । गौण को मुख्य बनाने से यह विसंगति पैदा हुई है। इस बात की प्रस्तुति वे बहुत सटीक शब्दों में करते हैं- "धर्म की शरण पवित्र और शुद्ध बनने के लिए नहीं ली जाती, बुराई का फल यहां भी न मिले, अगले जन्म में कभी और कहीं भी न मिले, इसलिए ली जाती है। १. बहता पानी निरमला, पृ० ८२। २. जैन भारती, ६ अप्रैल, १९५८ । ३. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० २४० । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण तात्पर्य यह है कि बुरा बने रहने के लिए आदमी धर्म का कवच धारण करता है । यही है धर्म के साथ खिलवाड़ और आत्मवंचना।' आचार्य तुलसी अनेक बार इस बात को कहते हैं- "ऐश्वर्य सम्पदा धर्म का नहीं, परिश्रम का फल है। धर्म का फल है शांति, धर्म का फल है --- पवित्रता, धर्म का फल है-सहिष्णुता और धर्म का फल है---प्रकाश ।२ अशिक्षा, सामाजिक रूढियों एवं विकृतियों की तो जनक है ही, धर्म क्षेत्र में फैलने वाली विकृतियों में भी इसका बहुत बड़ा हाथ है। आचार्य तुलसी ने असाम्प्रदायिक नीति से धर्मक्षेत्र में पनपने वाली विकृतियों की ओर अंगुलि निर्देश ही नहीं किया, रूपान्तरण एवं परिष्कार का प्रयास भी किया है। काव्य की निम्न पंक्तियों में वे रूढ धार्मिकों को चेतावनी दे रहे हैं--- इस वैज्ञानिक युग में ऐसे धर्म न चल पाएंगे। केवल रूढिवाद पर जो चलते रहना चाहेंगे। पदयात्रा के दौरान उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर भी अनेक लोगों ने धार्मिक रूढियों का परित्याग किया है । दिनांक २८ अगस्त १९६९ की घटना है। आचार्य तुलसी कर्नाटक प्रदेश की यात्रा पर थे। एक गांव में उन्होंने देखा कि एक जुलूस निकल रहा है। वह जुलूस राजनैतिक नहीं, अपितु धर्म और भगवान् के नाम पर था। जुलूस के साथ अनेक निरीह प्राणियों का झुंड चल रहा था। जुलूस का प्रयोजन पूछने पर ज्ञात हुआ कि अकाल की स्थिति को दूर करने के लिए भगवान् को प्रसन्न करने के लिए यह उपक्रम किया गया है। आचार्य तुलसी ने सायंकालीन प्रवचन सभा में ग्रामवासियों को प्रतिबोधित करते हुए कहा--- "प्राकृतिक प्रकोप से संघर्ष करके उस पर विजय पाना तो बुद्धिगम्य है पर बेचारे निरीह प्राणियों की बलि देकर देवता को प्रसन्न करना तो मेरी समझ के बाहर है........ आज के वैज्ञानिक युग में भी ऐसे क्रूरतापूर्ण कार्य सार्वजनिक रूप से हों. और उसे शिक्षित एवं सभ्य कहलाने वाले लोग देखते रहें, इससे बड़ी चिंता एवं शर्म की बात क्या हो सकती है ? राजस्थान के अनेकों गांवों में आचार्य तुलसी की प्रेरणा से लोग इस बलि प्रथा से मुक्त हुए हैं। धर्मक्षेत्र में पनपी विकृतियों को दूर करने के लिए आचार्य तुलसी तीन उपाय प्रस्तुत करते हैं १. हमारे विचार शुद्ध, असंकीर्ण और व्यापक हों। २. विचारों के अनुरूप ही हमारा आचार हो। १. रामराज्य पत्रिका (कानपुर), अक्टू०, १९५८ । २. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० ९ । ३. जैन भारती, २३ मार्च १९६९ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १३५ ३. हम सत्य के पुजारी हों।' पर इसके लिए वे उपदेश को ही पर्याप्त नहीं मानते। इसके साथ शोध, प्रयोग और प्रशिक्षण भी जुड़ना आवश्यक है। उनका अनुभव है कि जब तक धर्म में आयी विकृतियों का अंत नहीं होगा, धार्मिकों का धर्मशून्य व्यवहार नहीं बदलेगा, देश की युवापीढ़ी धर्म के प्रति आस्था नहीं रख सकेगी।"२ वे दृढविश्वास के साथ कहते हैं--."धर्म के क्षेत्र में पनपने वाली विकृतियों को समाप्त कर दिया जाए तो वह अंधकार में प्रकाश बिखेर देता है, विषमता की धरती पर समता की पौध लगा देता है, दुःख को सुख में बदल देता है और दृष्टिकोण के मिथ्यात्व को दूर कर व्यक्ति को यथार्थ के धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है। यथार्थदर्शी व्यक्ति धर्म के दोनों रूपों को सही रूप में समझ लेता है, इसलिए वह कहीं भ्रान्त नहीं होता।" धर्मक्रांति भारत की धार्मिक परम्परा में आचार्य तुलसी ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने जड़ उपासना एवं क्रियाकाण्ड तक सीमित मृतप्रायः धर्म को जीवित करने में अपनी पूरी शक्ति लगाई है। बीसवीं सदी में धर्म के नए एवं क्रांतिकारी स्वरूप को प्रकट करने का श्रेय आचार्य तुलसी को जाता है । वे अपने संकल्प की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं.-.-."मैं उस धर्म की शुद्धि चाहता हूं, जो रूढ़िवाद के घेरे में बन्द है, जो एक स्थान, समय और वर्गविशेष में बंदी हो गया है।" धर्मक्रान्ति के संदर्भ में एक पत्रकार द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं ...."आचार को पहला स्थान मिले और उपासना को दूसरा। आज इससे उल्टा हो गया है, उसे फिर उल्टा देने को मैं धर्मक्रांति मानता हूं।" उनकी क्रांतिकारिता निम्न पंक्तियों से स्पष्ट है-'मेरे धर्म की परिभाषा यह नहीं कि आपको तोता रटन की तरह माला फेरनी होगी। मेरी दृष्टि में आचार, विचार और व्यवहार की शुद्धता का नाम धर्म है।"५ इसी संदर्भ में उनका निम्न उद्धरण भी विचारोत्तेजक है --- "मैं धर्म को जीवन का अभिन्न तत्त्व मानता हूं। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं, भले ही आप वर्ष भर में धर्मस्थान में न जाएं, मैं इसे क्षम्य मान लूंगा। बशर्ते कि आप १. जैन भारती, २१ जून १९७० । २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ८४ । ३. विज्ञप्ति सं० ८०७ । ४. जैन भारती, ३ मार्च १९६८ । ५. दक्षिण के अंचल में, पृ. १७६ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कार्यक्षेत्र को ही धर्मस्थान बना लें, मंदिर बना लें।"१ आचार्य तुलसी समय-समय पर अपने क्रांतिकारी विचारों को जनता के समक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं, जिससे अनेक आवरणों में छिपे धर्म का विशुद्ध और मौलिक स्वरूप जनता के समक्ष प्रकट हो सके। वे धर्म को प्रभावी, तेजस्वी एवं कामयाबी बनाने के लिए उसके प्रयोगात्मक पक्ष को पुष्ट करने के समर्थक हैं। इस संदर्भ में उनका विचार है- “धर्म को प्रायोगिक बनाए बिना किसी भी व्यक्ति को यथेष्ट लाभ नहीं मिल सकता। इसलिए थ्योरिकल धर्म को प्रेक्टिकल रूप देकर इसकी उपयोगिता प्रमाणित करनी है क्योंकि धर्म के प्रायोगिक स्वरूप को उपेक्षित करने से ही अवैज्ञानिक परम्पराओं और क्रियाकाण्डों को पोषण मिलता है।"२ आचार्य तुलसी ने 'प्रेक्षाध्यान' के माध्यम से धर्म का प्रायोगिक रूप जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है । जिससे हजारों-लाखों लोगों ने तनाव मुक्त जीवन जीने का अभ्यास किया है । 'चतुर्थ प्रेक्षाध्यान शिविर' के समापन समारोह पर अपने चिरपोषित स्वप्न को आंशिक रूप में साकार देखकर वे अपना मनस्तोष इस भाषा में प्रकट करते हैं ---- "मेरा बहुत वर्षों का एक स्वप्न था, कल्पना थी कि जिस प्रकार नाटक, सिनेमा को देखने, स्वादिष्ट पदार्थों को खाने में लोगों का आकर्षण है, वैसा ही या इससे बढ़कर आकर्षण धर्म व अध्यात्म के प्रति जागृत हो । लोगों को धर्म व अध्यात्म की बात सुनने का निमन्त्रण नहीं देना पड़े, बल्कि आंतरिक जिज्ञासावश और आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिये वे स्वयं उसे सुनना चाहें, धार्मिक बनना चाहें और धर्म व अध्यात्म को जीना पसंद करें। मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है कि मेरा वह चिर संजोया स्वप्न अब साकार रूप ले रहा है ।।3 आचार्य तुलसी के धर्म सम्बन्धी कुछ स्फुट क्रांत विचारों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है--. "केवल परलोक सुधार का मीठा आश्वासन किसी भी धर्म को तेजस्वी नहीं बना सकता। इस लोक को बिगाड़कर परलोक सुधारने वाला धर्म बासी धर्म होगा, उधार का धर्म होगा। हमें तो नगद धर्म चाहिए। जब भी धर्म करें, हमारा सुधार हो। वह नगद धर्म है-बुराइयों का त्याग।" केवल भगवान् का गुणगान करने से जीवन में रूपान्तरण नहीं आ सकता। सच्ची भक्ति और उपासना तभी संभव है, जब भगवान् द्वारा १. एक बूंद : एक सागर, पृ. १७११ । २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ. ८४ । ३. सोचो ! समझो !! भाग ३, पृ० १४१ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १३७ प्ररूपित आदर्श जीवन में उतरें। इस प्रसंग में धार्मिकों के समक्ष उनके प्रश्न हैं • भगवान् का चरणामृत लेने वाले आज बहुत मिल सकते हैं। उनकी सवारी पर फूल चढाने वालों की भी कमी नहीं है। पर भगवान् के पथ पर चलने वाले कितने हैं ? ० व्यापार में जो अनैतिकता की जाती है, क्या वह मेरी प्रशंसा मात्र से धुल जाने वाली है । दिन भर की जाने वाली ईर्ष्या, आलोचना एक दूसरे को गिराने की भावना का पाप, क्या मेरे पैरों में सिर रखने मात्र से साफ हो जाएंगे ? ये प्रश्न मुझे बड़ा बेचैन कर देते हैं।' धर्म मानव-चेतना को विभक्त करके नहीं देखता। इसी बात को वे उदाहरण की भाषा में प्रस्तुत करते हैं ० "जिस प्रकार कुए आदि पर लेबल लगा दिए जाते हैं 'हिन्दुओं के लिए' 'मुसलमानों के लिए' 'हरिजनों के लिए' आदि-आदि । क्या धर्म के दरवाजे पर भी कहीं लेबल मिलता है ? हां । एक ही लेबल मिलता है--"आत्म उत्थान करने वालों के लिए।"२ धर्म की सुरक्षा के नाम पर हिंसा करने वाले साम्प्रदायिक तत्त्वों को प्रतिबोध देते हुए वे कहते हैं ० "कहा जाता है-धर्मो रक्षति रक्षितः "धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।" इसका तात्पर्य यह नहीं कि धर्म को बचाने के लिए अड़गे करो, हिंसाएं करो। इसका अर्थ है कि धर्म को ज्यादा से ज्यादा जीवन में उतारो, धर्माचरण करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा, तुम्हें पतन से बचाएगा।"3 इस प्रसंग में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की मार्मिक एवं प्रेरणादायी पंक्तियों को उद्धृत करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा--- हम आड़ लेकर धर्म की, अब लीन हैं विद्रोह में, मत ही हमारा धर्म है, हम पड़ रहे हैं मोह में। है धर्म बस निःस्वार्थता ही प्रेम जिसका मूल है, भूले हुए हैं हम इसे, कैसी हमारी भूल है। धर्म के क्षेत्र में बलप्रयोग और प्रलोभन दोनों को स्थान नहीं है । इन दोनों विकृतियों के विरुद्ध आचार्य भिक्षु ने सशक्त स्वरों में क्रान्ति की। धर्म भौतिक प्रलोभन एवं सुख-सुविधा के लिए नहीं, अपितु आत्म-शांति के १. एक बूंद : एक सागर, पृ. १७०४ । २-३. प्रवचन पाथेय, भाग ९ पृ. ८ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण लिए आवश्यक है । जो लोग बाह्य आकर्षण से प्रेरित होकर धर्म करते हैं, वे धर्म का रहस्य नहीं समझते। इसी क्रांति को बुलंदी दी आचार्य तुलसी ने । वे कहते हैं---"धर्म के मंच पर यह नहीं हो सकता कि एक धनवान् अपने चंद चांदी के टुकड़ों के बल पर तथा एक बलवान् अपने डण्डे के प्रभाव से धर्म को खरीद ले और गरीब व निर्बल अपनी निराशा भरी आंखों से ताकते ही रह जाएं। धर्म को ऐसी स्वार्थमयी असंतुलित स्थिति कभी मंजूर नहीं है। उसका धन और बलप्रयोग से कभी गठबंधन नहीं हो सकता। उसे उपदेश या शिक्षा द्वारा हृदय-परिवर्तन करके ही पाया जा सकता है।" आचार्य तुलसी ने स्पष्ट शब्दों में धर्मक्षेत्र की कमजोरियों को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है । उनके द्वारा की गयी धर्मक्रान्ति ने प्रचण्ड विरोध की चिनगारियां प्रज्वलित कर दीं। पर उनका अडोल आत्मविश्वास किसी भी परिस्थिति में डोला नहीं। यही कारण है कि आज समाज एवं राष्ट्र ने उनका मूल्यांकन किया है । वे स्वयं भी इस सत्य को स्वीकारते हैं - "एक धर्माचार्य धर्मक्रान्ति की बात करे, यह समझ में आने जैसी घटना नहीं थी। पर जैसे-जैसे समय बीत रहा है, परिस्थितियां बदल रही हैं, यह बात समझ में आने लगी है। मेरा यह विश्वास है कि शाश्वत से पूरी तरह से अनुबंधित रहने पर भी सामयिक की उपेक्षा नहीं की जा सकती।" जो धार्मिक विकृतियों को देखकर धर्म को समाप्त करने की बात सोचते हैं, उन व्यक्तियों को प्रतिबोध देने में भी आचार्य तुलसी नहीं चूके हैं । इस संदर्भ में वे सहेतुक अपना अभिमत प्रस्तुत करते हैं---- "आज तथाकथित धार्मिकों का व्यवहार देखकर एक ऐसा वर्ग उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, जो धर्म को ही समाप्त करने का विचार लेकर चलता है । लेकिन यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि क्या पानी के गंदा होने से मानव पानी पीना ही छोड़ दे ? यदि धर्म बीमार है या संकुचित हो गया है तो उसे विशुद्ध करना चाहिए पर उसे समाप्त करने का विचार ठीक नहीं हो सकता । मेरी ऐसी मान्यता है कि बिना धर्म के कोई जीवित नहीं रह सकता।"२ धर्म का विरोध करने वालों को भविष्य की चेतावनी के रूप में वे यहां तक कह चुके हैं.–“जिस दिन धर्म की मजबूत जड़ें प्रकम्पित हो जाएंगी, इस धरती पर मानवता की विनाशलीला का ऐसा दृश्य उपस्थित होगा, जिसे देखने की क्षमता किसी भी आंख में नहीं रहेगी।"3 १. जैन भारती, २० जून १९५४ । २. जैन भारती, ३१ मई १९७० । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ. ७२५। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र-चिंतन किसी भी देश की माटी को प्रणम्य बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में साहित्यकार की अहंभूमिका होती है। धर्मनेता होते हुए भी आचार्य तुलसी राष्ट्र की अनेक समस्याओं के प्रति जागरूक ही नहीं रहे हैं बल्कि उनके साहित्य में वर्तमान भारत की समस्याओं के समाधान का विकल्प भी प्रस्तुत है। इसलिए राष्ट्रीय भावना उत्पन्न करने में उनका साहित्य अपनी अहंभूमिका रखता है। भारत की स्वतंत्रता के साथ अणुव्रत के माध्यम से देश के नैतिक एवं चारित्रिक अभ्युदय के लिए आचार्य तुलसी ने स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर दिया । विशेष अवसरों पर अनेक बार वे इस संकल्प को व्यक्त कर चुके हैं- "मैं देश की चप्पा-चप्पा भूमि का स्पर्श करना चाहता हूं। अपनी पदयात्राओं के द्वारा मैं देश के हर वर्ग, जाति, वर्ण एवं सम्प्रदाय के लोगों से इंसानियत और भाईचारे के नाते मिलकर उन्हें जीवन के लक्ष्य से परिचित कराना चाहता हूं।'' राष्ट्रीयता राष्ट्रीयता का अर्थ राष्ट्र की एकता एवं राष्ट्रीय चेतना से है। रामप्रसाद किचल कहते हैं कि यदि कोई कवि या साहित्यकार अपने साहित्य में देश के गौरव तथा उसकी सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना को जगाने का कार्य करता है तो यह कार्य राष्ट्रीय ही है । आचार्य तुलसी की हर पुस्तक में राष्ट्रीय विचारों की झलक स्पष्टतः देखी जा सकती है। राष्ट्र के प्रति दायित्व बोध कराने वाली उनकी निम्न पंक्तियां सबमें जोश एवं उत्साह भरने वाली हैं --- __ "प्रत्येक व्यक्ति अपने राष्ट्र से कुछ अपेक्षाएं रखता है तो उसे यह भी सोचना होगा कि जिस राष्ट्र से मेरी इतनी अपेक्षाएं है, वह राष्ट्र मुझसे भी कुछ अपेक्षाएं रखेगा। क्या मैं उन अपेक्षाओं को समझ रहा हूं ? अब तक मैंने अपने राष्ट्र के लिए क्या किया ? मेरा कोई काम ऐसा तो नहीं है, जिससे राष्ट्रीयता की भावना का हनन हो---चिन्तन के ये कोण राष्ट्रीय दायित्व का बोध कराने वाले हैं।"3 १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७३१ । २. आधुनिक निबंध, पृ० १९३ । ३. मनहंसा मोती चुगे, पृ० १८६ । - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ___ आचार्य तुलसी मानते हैं कि राष्ट्र को हम परिवार का महत्व दें, तभी व्यक्ति में राष्ट्र-प्रेम की भावना उजागर हो सकती है। इस प्रसंग में उनका निम्न वक्तव्य कितना प्रेरक बन पड़ा है-“व्यक्ति का अपने परिवार के प्रति प्रेम होता है तो वह पारिवारिक जनों के साथ विश्वासघात नहीं करता है। यदि वैसा ही प्रेम राष्ट्र के प्रति हो जाए तो वह राष्ट्र के साथ विश्वासघात कैसे करेगा? राष्ट्र-प्रेम विकसित हो तो जातीयता, सांप्रदायिकता और राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं दूसरे नम्बर पर आ जाती हैं, राष्ट्र का स्थान सर्वोपरि रहता है।" आचार्य तुलसी ने भारत की स्वतंत्रता के साथ ही जनता के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेजों के चले जाने मात्र से देश की सारी समस्याओं का हल होने वाला नहीं है। बाह्य स्वतंत्रता के साथ यदि आंतरिक स्वतन्त्रता नहीं जागेगी तो यह व्यर्थ हो जाएगी। प्रथम स्वाधीनता दिवस पर प्रदत्त प्रवचन का निम्न अंश उनकी जागृत राष्ट्र-चेतना का सबल सबूत है..."कल तक तो अच्छे बुरे की सब जिम्मेदारी एक विदेशी हुकूमत पर थी। यदि देश में कोई अमंगल घटना घटती या कोई अनुत्तरदायित्वपूर्ण बात होती तो उसका दोष, उसका कलंक विदेशी सरकार पर मढ़ दिया जाता या गुलामी का अभिशाप बताया जा सकता था । लेकिन आज तो स्वतंत्र राष्ट्र की जिम्मेदारी हम लोगों पर है। ....."स्वतंत्र राष्ट्र होने के नाते अब अच्छे बुरे की सब जिम्मेदारी जनता और उससे भी अधिक जन-सेवकों (नेताओं) पर है। अब किसी अनुत्तरदायित्वपूर्ण बात को लेकर दूसरों पर दोष भी नहीं मढ़ सकते । अब तो वह समय है, जबकि आत्मस्वतंत्रता तथा विश्वशांति के प्रसार में राष्ट्र को अपनी आध्यात्मिक वृत्तियों का परिचय देना है और यह तभी संभव है जबकि राष्ट्रनेता और राष्ट्र की जनता दोनों अपने उत्तरदायित्व का ख्याल रखें।"२ . इसी संदर्भ में स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के मिलन प्रसंग को उद्धृत करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा। पंडित नेहरू जब प्रथम बार दिल्ली में आचार्य तुलसी से मिले तो उन्होंने कहा - आचार्यजी ! आपको क्या चाहिए ? आचार्यश्री ने उत्तर देते हुए कहा.. पंडितजी ! हम लेने नहीं, आपको कुछ देने आए हैं। हमारे पास त्यागी एवं पदयात्री साधु कार्यकर्ताओं का एक बड़ा समुदाय है। उसे मैं नवोदित देश के नैतिक उत्थान के कार्य में लगाना चाहता हूं क्योंकि मेरा ऐसा मानना है १. तेरापंथ टाइम्स, २४ सित. १९९० । २. संदेश, पृ० २०,२१ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १४१ कि आज राष्ट्र राजनैतिक दासता से मुक्त हो गया है पर उसे मानसिक दासता से मुक्त करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके लिए हम अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से देश में स्वस्थ वातावरण बनाना चाहते हैं। अपनी बात जारी रखते हुए आचार्य तुलसी ने कहा-.-."मैं राष्ट्र का वास्तविक विकास बड़ेबड़े बांधों, पुलों और सड़कों में नहीं देखता। उसका सच्चा विकास उसमें रहने वाले मानवों की चरित्रशीलता, सदाचरण, सचाई और ईमानदारी में मानता हूं। मेरा मानना है कि नैतिकता के बिना राष्ट्रीय एकता परिपुष्ट नहीं हो सकती। अतः नैतिक आंदोलन अणुव्रत के कार्यक्रम की अवगति देना ही हमारे मिलन का मुख्य उद्देश्य है"। पंडित नेहरू आचार्य तुलसी के इस उत्तर से अवाक् तो थे ही, साथ ही श्रद्धा से नत भी हो गए। तभी से आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से मानवता की सेवा का व्रत ले लिया। आचार्य तुलसी अनेक बार यह भविष्यवाणी कर चुके हैं.-"जब कभी भारत को स्वर्णिम भारत, अच्छा भारत या रामराज्य का भारत बनना है, अणुव्रती भारत बनकर ही वह इस आकांक्षा को पूरा कर सकता है ।' आचार्य तुलसी की स्पष्ट अवधारणा है कि यदि व्यक्तितंत्र, समाजतंत्र या राजतंत्र नैतिक मूल्यों को उपेक्षित करके चलता है तो उसका सर्वांगीण विकास होना असंभव है। कभी-कभी तो वे यहां तक कह देते हैं- "मेरी दृष्टि में नैतिकता के अतिरिक्त राष्ट्र की दूसरी आत्मा संभव नहीं है । विशेष अवसरों पर वे अनेक बार यह संकल्प व्यक्त कर चुके हैं"मैं देश में फैले हुए भ्रष्टाचार और अनैतिकता को देखकर चिंतित हैं । नैतिकता की लौ किसी न किसी रूप में जलती रहे, मेरा प्रयास इतना ही है।" उनका विश्वास है कि नैतिक आंदोलनों के माध्यम से असत्य से जर्जरित युग में भी सत्यनिष्ठ हरिश्चन्द्र को खड़ा किया जा सकता है, जो जीवन की सत्यमयी ज्योति से एक अभिनव आलोक प्रस्फुटित कर सके।" भारतीय संस्कृति आचार्य तुलसी का मानना है कि जिस राष्ट्र ने अपनी संस्कृति को भुला दिया, वह राष्ट्र वास्तव में एक जीवित और जागृत राष्ट्र नहीं हो सकता । वे भारतीय संस्कृति की गरिमा से अभिभूत हैं अतः देशवासियो को अनेक बार भारत के विराट् सांस्कृतिक मूल्यों की अवगति देते रहते हैं। उनकी निम्न पंक्तियां हिंदू संस्कृति के प्राचीन गौरव को उजागर करने वाली हैं - "जो लोग पदार्थ-विकास में विश्वास करते हैं, वे असहिष्णु हो सकते हैं। जो लोग शस्त्रशक्ति में विश्वास करते हैं, वे निरपेक्ष हो सकते हैं । १. मनहंसा मोती चुगे, पृ० ८७ । २,३. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७०७, १७३१ । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जो लोग अपने लिए दूसरों के अनिष्ट को क्षम्य मानते हैं, वे अनुदार हो सकते हैं पर भारतीय संस्कृति की यह विलक्षणता रही है कि उसने पदार्थ को आवश्यक माना पर उसे आस्था का केन्द्र नहीं माना । शस्त्रशक्ति का सहारा लिया पर उसमें त्राण नहीं देखा । अपने लिए दूसरों का अनिष्ट हो गया पर उसे क्षम्य नहीं माना । यहां जीवन का चरम लक्ष्य विलासिता नहीं, आत्मसाधना रहा; लोभ-लालसा नहीं, त्याग-तितिक्षा रहा।" अपने प्रवचनों के माध्यम से वे भारतीय जनता के सोए आत्मविश्वास एवं अध्यात्मशक्ति को जगाने का उपक्रम करते रहते हैं। इस संदर्भ में अतीत के गौरव को उजागर करने वाली उनकी निम्न उक्ति अत्यन्त प्रेरक एवं मार्मिक है.---."एक समय भारत अध्यात्म-शिक्षा की दृष्टि से विश्व का गुरु कहलाता था। आज वही भारत भौतिक विद्या की तरह आत्मविद्या के क्षेत्र में भी दूसरों का मुंहताज बन रहा है । .."इस सदी में भी भारतीय संतों, मनीषियों और वैज्ञानिकों के मौलिक चिंतन एवं अनुसंधान ने संसार को चमत्कृत किया है । समस्या यह नहीं है कि भारतीय लोगों ने अपनी अन्तर्दष्टि खो दी। समस्या यह है कि उन्होंने अपना आत्मविश्वास खो दिया । ......"आज सबसे बड़ी अपेक्षा यह है कि भारत अपना मूल्यांकन करना सीखे और खोई प्रतिष्ठा को पुनः अजित करे।"२ इसी व्यापक एवं गहन चिन्तन के आधार पर उनका विश्वास है कि सही अर्थ में अगर कोई संसार का प्रतिनिधित्व कर सकता है तो भारत ही कर सकता है क्योंकि भारत की आत्मा में आज भी अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा है । मैं मानता हूं कि यदि भारत आध्यात्मिकता को भुला देगा तो अपनी मौत मर जाएगा।" छत्तीसवें स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए राष्ट्र-उद्बोधन में उनके क्रांतिकारी एवं राष्ट्रीय विचारों की झलक देखी जा सकती है, जो सुषुप्त एवं मूच्छित नागरिकों को जगाने में संजीवनी का कार्य करने वाला है---- "एक स्वतंत्र देश के नागरिक इतने निस्तेज, निराश और कुंठित क्यों हो गए, जो अपने विश्वास और आस्थाओं को भी जिंदा नहीं रख पाते !..." ..एक बड़ा कालखंड बीत जाने के बाद भी यह सवाल उसी मुद्रा में उपस्थित है कि एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों के अरमान पूरे क्यों नहीं हुए ? इस अनुत्तरित प्रश्न का समाधान न आंदोलनों में है, न नारेबाजी में है और न अपनी-अपनी डफली पर अपना-अपना राग अलापने में है । इसके लिए तो सामूहिक प्रयास की अपेक्षा है, जो जनता के चिंतन को बदल सके, १. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?, पृ० ५८ २. अणुव्रत, १६ मार्च, १९९१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन लक्ष्य को बदल सके और कार्यपद्धति को बदल सके । ” आचार्यश्री का चिंतन है कि भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन ही नहीं, समृद्ध और जीवन्त भी है । अतः किसी भी राष्ट्रीय समस्या का हल हमें अपने सांस्कृतिक तत्त्वों के द्वारा ही करना चाहिए अन्यथा मानसिक दासता हमें अपनी संस्कृति के प्रति उतनी गौरवशील नहीं रहने देंगी । इसी प्रसंग में उनके एक प्रवचनांश को उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा - " लोग कहते हैं भारत में कम्युनिज्म - साम्यवाद आने से शोषण मिट सकता है । मैं उनसे कहूंगा - वे अपनी भारतीय संस्कृति को न भूलें। उसकी पवित्रता में अब भी इतनी ताकत है कि वह शोषण को जड़ मूल से मिटा सकती है, अन्याय का मुकाबला कर सकती है । उसके लिये विदेशवाद की जरूरत नहीं है ! इसी प्रकार निम्न घटना प्रसंग में भी उनकी राष्ट्र के प्रति अपूर्व प्रेम की झलक मिलती है— व्यास गांव में जोरावरसिंह नामक सरदार आचार्यश्री के पास आकर बोला- भारत बदमाशों एवं स्वार्थी लोगों का देश है, अतः मैं इस देश को छोड़कर विदेश जाने की बात सोचता हूं । इसके लिए आप मुझे क्या परामर्श देंगे ? आचार्य तुलसी गम्भीर स्वरों में बोले – “तुमको देश बुरा लगा और विदेश अच्छा, वहां क्या कुछ नहीं हो रहा है ? मारकाट क्या वहां नहीं है ? ईरान में क्या हो रहा है ? वहां के कत्लेआम की बात सुनकर तुम पर कोई असर नहीं हुआ ? कम्बोडिया से ४ लाख लोग भाग गए, २० लाख निकम्मे हैं। मैं समझता हूं कि देश खराब नहीं होता, खराब होता है आदमी । "" पवित्र हिन्दू संस्कृति में गलत तत्त्वों के मिश्रण से वे अत्यन्त चिन्तित हैं । ४३ वर्ष पूर्व प्रदत्त उनका निम्न वक्तव्य कितना हृदयस्पर्शी एवं वेधक है - " भारतीय जीवन से जो संतोष, सहिष्णुता, शौर्य और आत्मविजय की सहज धारा बह रही है वह दूसरों को लाखों यत्न करने पर भी सुलभ नहीं है । यदि इन गुणों के स्थान पर भौतिक संघर्ष, सत्तालोलुपता या पद की आकांक्षा बढ़ती है तो मैं इसे भारत का दुर्भाग्य कहूंगा।" १४३ भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में उनका बार्तमानिक अनुभव कितना प्रेरणादायी एवं मार्मिक बन पड़ा है- यह भारत भूमि, जहां राम-भरत की ८८ १. बहता पानी निरमला, पृ० २४७ । २. प्रवचन पाथेय भाग ९, पृ० ३. संस्मरणों का वातायन, पृ० १-२ । १४३, १४४ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मनुहारों में चौदह वर्ष पादुकाएं राज-सिंहासन पर प्रतिष्ठित रहीं, महावीर और बुद्ध जहां व्यक्ति का विसर्जन कर विराट बन गए, कृष्ण ने जहां कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान दिया और गांधीजी संस्कृति के प्रतीक बनकर अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर एक आलोक छोड़ गए, उस देश में सत्ता के लिए छीना-झपटी, कुर्सी के लिए सिद्धांतों का सौदा, वैभव के लिए अपवित्र प्रतिस्पर्धा और विलाससने हाथों राष्ट्र-प्रतिमा का अनावरण हृदय में एक चुभन पैदा करता है।" वे पाश्चात्य संस्कृति की अच्छाई ग्रहण करने के विरोधी नहीं हैं पर सभी बातों में उनका अनुकरण राष्ट्र के हित में नहीं मानते । उनका चिंतन है कि पाश्चात्य संस्कृति का आयात हिंदू संस्कृति के पवित्र माथे पर एक ऐसा धब्बा है, जिसे छुड़ाने के लिए पूरी जीवन-शैली को बदलने की अपेक्षा है । वे विदेशी प्रभाव में रंगे भारतीय लोगों को यहां तक चेतावनी दे चुके हैं- "हिन्दू संस्कारों की जमीन छोड़कर आयातित संस्कृति के आसमान में उड़ने वाले लोग दो चार लम्बी उड़ानों के बाद जब अपनी जमीन पर उतरने या चलने का सपना देखेंगे तो उनके सामने अनेक प्रकार की मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी। भारतीय संस्कृति प्रकृति में जीने की संस्कृति है पर विज्ञान ने आज मनुष्य को प्रकृति से दूर कर दिया है। प्रकृति से दूर होने का एक निमित्त वे टेलीविजन को मानते हैं । भारतीय जीवन-शैली में दूरदर्शन के बढ़ते प्रभाव से वे अत्यंत चिन्तित हैं। इससे होने वाले खतरों की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करते हुए उनका कहना है "टी०वी० इस युग की संस्कृति है । पर इसने सांस्कृतिक मूल्यों पर पर्दा डाल दिया है और पारिवारिक संबंधों की मधुरिमा में जहर घोल दिया है । यह जहर घुली संस्कृति मनुष्य के लिए सबसे बड़ी त्रासदी है । ......."टी०वी० की संस्कृति शोषण की संस्कृति है । यह चुपचाप आती है और व्यक्ति को खाली कर चली जाती है। .... मैं मानता हूं कि टी०वी० की संस्कृति से उपजी हुई विकृति मनुष्य को सुखलिप्सु और स्वार्थी बना रही है ।13 इन उद्धरणों से उनके कथन का तात्पर्य यह नहीं निकाला जा सकता कि वे आधुनिक मनोरंजन के साधनों के विरोधी हैं। निम्न उद्धरण के आलोक में उनके संतुलित एवं सटीक विचारों को परखा जा सकता हैआधुनिक मनोरंजन के साधनों की उपयोगिता के आगे प्रश्नचिह्न लगाना १. राजपथ की खोज, पृ० १३७ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६८० । ३. कुहासे में उगता सूरज, पृ० ४२,४३ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १४५ मेरा काम नहीं है पर यह निश्चित है कि आधुनिकता के प्रयोग में यदि औचित्य की प्रज्ञा जागृत नहीं रही तो पारम्परिक संस्कारों की इतनी निर्मम हत्या हो जाएगी कि उनके अवशेष भी देखने को नहीं मिलेंगे। संस्कारों का ऐसा हनन किसी व्यक्ति या समाज के लिए नहीं, पूरी मानव-संस्कृति के लिए बड़ा खतरा है।'' भारतीय जीवन-शैली में विकृति एवं अपसंस्कृति की घुसपैठ होने पर भी वे इस संस्कृति को विश्व की सर्वोच्च संस्कृति के रूप में स्वीकार करते हैं। इस संदर्भ में उनका निम्न प्रवचनांश उल्लेखनीय है- “विश्व के दूसरे-दूसरे देशों में छोटी-छोटी बातों को लेकर क्रांतियां हो जाती हैं पर हिंदुस्तानी लोग बहत-कूछ सहकर भी खामोश रहते हैं।" विवेकानन्द की भांति भारतीय संस्कृति के गौरव को विदेशों तक फैलाने की उनकी तीव्र उत्कंठा भी समय-समय पर मुखर होती रहती है । १२ दिस० १९८९ को भारत में सोवियत महोत्सव हुआ। उस समय भारत की प्राचीन महिमामंडित संस्कृति को रूसी युवकों के सामने उजागर करने हेतु सरकार को दायित्वबोध देती हुई उनकी निम्न पंक्तियां मार्मिक एवं प्रेरक ही नहीं, उत्कृष्ट राष्ट्र-चेतना का परिचय भी दे रही हैं--- "जिस समय सोवियत संघ की सड़कों पर एक तिनका भी गिरा हुआ नहीं मिलता, उस समय भारत की राजधानी की सड़कों पर घूमने वाले रूसी युवक उन सड़कों को किस नजरिए से देखेंगे ? मिट्टी, पत्थर, कांच, कागज, फलों के छिलके आदि क्या कुछ नहीं बिखरा रहता है यहां ? और तो क्या, बलगम और श्लेष्म भी सड़कों की शोभा बढ़ाते हैं। एक ओर गन्दगी, दूसरी ओर बीमारी के कीटाण तथा तीसरी ओर केले आदि के छिलकों से फिसलने का भय । क्या हमारे देश के विकास की कसौटियां यही हैं ? ........ ... भारतीय लोग अपने जीवन के लिए और अपनी भावी पीढ़ी के लिए नहीं तो कम से कम उन आगन्तुक यायावरों के मन पर अच्छी छाप छोड़ने के लिए भी सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की सुरक्षा करें तो देश की छवि उजली रह सकती है । अन्यथा कोई विदेशी दल यहां के लोक-जीवन की उजड़ी-उखड़ी शैली को इतिहास के पृष्ठों पर उकेर देगा तो हमारी शताब्दियों-पूर्व की गरिमा खण्ड-खण्ड नहीं हो जाएगी? ...... क्या भारत सरकार और राष्ट्रीय एवं सामाजिक संस्थाओं का यह दायित्व नहीं है कि वे अपने आगंतुक अतिथियों को इस देश की मूलभूत संस्कृति से परिचित कराएं ? क्या उनके मन पर ऐसी छाप नहीं छोड़ी जा सकती, जिसे वे रूस पहुंचने के बाद भी पोंछ न सके ?" १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० १०७ । २. वही, पृ० ७-८ । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण __ आचार्य तुलसी ने भारतीय जनता के समक्ष एक नया जीवन दर्शन एवं नई जीवन-शैली प्रस्तुत की है, जिससे युगीन समस्याओं का समाधान कर सही जीवन-मूल्यों को प्रतिष्ठित किया जा सके । उस जीवन-शैली का नाम है.---'जैन जीवन-शैली' । 'जन' शब्द मात्र से उसे साम्प्रदायिक नहीं माना जा सकता। क्योंकि यह भारतीय संस्कृति के मूल्यों पर आधृत है। इस बात को उनके निम्न उद्धरण के आलोक में भी पढ़ा जा सकता है-"जैन जीवनशैली में संकलित सूत्रों में न तो साम्प्रदायिकता की गंध है और न अतिवादी कल्पना का समावेश है । जीवन-निर्माण में सहायक मानवीय एवं सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात् करने वाली यह जीवन-शैली केवल जैन समाज के लिए ही नहीं है, मानव मात्र को मानवता का मंगल पथदर्शन करने वाली है । यह जीवन-शैली जन-जीवन की सर्वमान्य शैली बन जाए, ऐसी मेरी आकांक्षा इस शैली के व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु आचार्य तुलसी की सन्निधि में अनेक शिविरों का समायोजन भी किया जा चुका है, क्योंकि वे मानते हैं कि दीपक बोलता नहीं, जलता है और प्रकाश फैलाता है। यह जीवन-शैली भी बोलने की नहीं, जीने की शैली है। यह न कोई आंदोलन है, न नियमों का समवाय है, न नारा है और न कोई घोषणा-पत्र है। यह है एक मार्ग, जिस पर चलना है और मनुष्यता के शिखर पर आरोहण करना है । जैन जीवन-शैली के निम्न सूत्र हैं..... १. सम्यग् दर्शन २. अनेकांत ३. अहिंसा ४. समण संस्कृति-सम, शम, श्रम ५. इच्छा परिमाण ६. सम्यग् आजीविका ७. सम्यक् संस्कार ८. आहारशुद्धि और व्यसनमुक्ति ९. सार्मिक वात्सल्य राष्ट्रीय विकास आचार्य तुलसी के सम्पूर्ण वाङमय में देश की जनता के नाम सैकड़ों प्रेरक उद्बोधन हैं। वे स्वयं को भारत तक ही सीमित नहीं मानते, वरन् १. लघुता से प्रभुता मिले, पृ० १८७ । २. वही, १८७ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १४७ जागतिक मानते हैं, फिर भी भारत की पावनभूमि में जन्म लेने के कारण उसके प्रति अपनी विशेष जिम्मेवारी समझते हैं । उनके मुख से अनेक बार ये भाव व्यक्त होते रहते हैं- “यद्यपि किसी देशविशेष से मेरा मोह नहीं है, तथापि मैं भारत में भ्रमण कर रहा हूं, अतः जब तक श्वास रहेगा, मैं राष्ट्र, समाज व संघ के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करता रहूंगा।' राष्ट्रीय विकास हेतु वे अनुशासन और मर्यादा की प्राण-प्रतिष्ठा को अनिवार्य मानते हैं। उनकी अवधारणा है कि अनुशासन और व्यवस्थाविहीन राष्ट्र को पराजित करने के लिए शत्रु की आवश्यकता नहीं, वह अपने आप पराजित हो जाता है। राष्ट्र-निर्माण के नाम पर होने वाली विसंगतियों को प्रश्नात्मक शैली में प्रस्तुत करते हुए वे कड़े शब्दों में कहते हैं- "क्या राष्ट्र की दूर-दूर तक सीमा बढ़ा देना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या सेना बढ़ाना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या संहारक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण व संग्रह करना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या भौतिक व वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार करना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या सोना, चांदी और रुपए-पैसों का संचय करना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या अन्यान्य शक्तियों व राष्ट्रों को कुचलकर उन पर अपनी शक्ति का सिक्का जमा लेना राष्ट्र-निर्माण है ? यदि इन्हीं का नाम राष्ट्र-निर्माण होता है तो मैं जोर देकर कहूंगा, यह राष्ट्र-निर्माण नहीं, बल्कि राष्ट्र का विध्वंस है।' देश की समस्या को व्यक्त करने वाले प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में उनके राष्ट्र-चिन्तन के गांभीर्य को समझा जा सकता है-- "जिस देश में करोड़ों व्यक्तियों को दलित समझा जा रहा है, रन्हें अस्पृश्य माना जा रहा है, उनके सामने भोजन और मकान की समस्या है, स्वास्थ्य और शिक्षा की समस्या है, क्या उस देश में अपने आपको स्वतन्त्र और सुखी मानना लज्जास्पद नहीं है ? राष्ट्र के विकास में वे तीन मूलभत बाधाओं को स्वीकार करते हैं--- "जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण का अभाव, आत्म-नियन्त्रण की अक्षमता तथा बढ़ती आकांक्षाएं--ये ऐसे कारण हैं, जो देश को समस्याओं की धधकती आग में झोंक रहे हैं।" जिस प्रकार गांधीजी ने 'मेरे सपनों का भारत' पुस्तक लिखी, वैसे ही आचार्य तुलसी कहते हैं- “मेरे सपनों में हिन्दुस्तान का एक रूप है, वह इस प्रकार है १. नैतिक संजीवन, पृ० ९ । २. जैन भारती, ९ दिस० १९७३ । ३. १६-११-७४ के प्रवचन से उद्धत । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ० देश में गरीबी न रहे । ● किसी प्रकार का धार्मिक संघर्ष न हो । ० कोई किसी को अस्पृश्य मानने वाला न हो । कोई मादक पदार्थों का सेवन करने वाला न हो । o • खाद्य पदार्थों में मिलावट न हो । कोई रिश्वत लेने वाला न हो । o ० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कोई शोषण करने वाला न हो । कोई दहेज लेने वाला न हो । ० • वोटों का विक्रय न हो ।' नए वर्ष पर सम्पूर्ण मानव-जाति को उनके द्वारा दिए गए हेय और उपादेय के बोधपाठ राष्ट्र की अनेक समस्याओं को समाहित कर उसे विकास के पथ पर अग्रसर करने वाले हैं "१. मनुष्य क्रूरता के स्थान पर करुणा का पाठ पढ़े । २. स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ का पाठ पढ़े । ३. अव्रत के स्थान पर अणुव्रत का पाठ पढ़े । ४. धर्म-निरपेक्षता के स्थान पर धर्म सापेक्षता का पाठ पढ़े । ५. अलगाववाद और जातिवाद के स्थान पर भाईचारे का पाठ पढ़े । ६. प्रान्तवाद और भाषावाद के स्थान पर राष्ट्रीय एकता और मानवीय एकता का पाठ पढ़े । ७. धर्म को राजनीति से पृथक् रखने का पाठ पढ़े । ८. राजनीति पर धर्म के नियन्त्रण का पाठ पढे । ९. अपनी ओर से किसी का अहित न करने का पाठ पढ़े । मानव को मानवता सिखाने वाले ये पाठ शैशव को सात्त्विक संस्कारों से संवारेंगे, यौवन को उद्धत नहीं होने देंगे और अनुभवप्रवण बुढ़ापे को भारभूत होने से बचाएंगे । २ आचार्य तुलसी ने केवल राष्ट्र की उन्नति एवं उत्कर्ष के ही गीत नहीं गाए, उसकी अधोगति के कारणों का भी विश्लेषण किया है । भारत की वार्तमानिक स्थितियों को देखकर अनेक बार उनके मन में पीड़ा के भाव उभर आते हैं । उनके साहित्य में अनेक स्थलों पर इस कोटि के विचार पढ़ने को मिलेंगे - ." 'स्टैण्डर्ड ऑफ लाइफ' के नाम पर भौतिकवाद, सुविधावाद और अपसंस्कारों का जो समावेश हिन्दुस्तानी जीवन-शैली में १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६७७ | २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ११ । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १४९ हुआ है या हो रहा है, वह निश्चित रूप से चिन्तनीय है । बीसवीं सदी के हिन्दुस्तानियों द्वारा की गई इस हिमालयी भूल का प्रतिकार या प्रायश्चित्त इस सदी के अन्त तक हो जाए तो बहुत शुभ है, अन्यथा आने वाली शताब्दी की पीढ़ियां अपने पुरखों को कोसे बिना नहीं रहेंगी।" आचार्य तुलसी का निश्चित अभिमत है कि राष्ट्र का विकास पुरुषार्थचेतना से ही सम्भव है । देशवासियों की पुरुषार्थ चेतना को जगाने के लिए वे उन्हें अतीत के गौरव से परिचित करवाते हुए कहते हैं-"जो भारत किसी जमाने में पुरुषार्थ एवं सदाचार के लिए विश्व के रंगमंच पर अपना सिर उठाकर चलता था, आज वही पुरुषार्थहीनता एवं अकर्मण्यता फैल रही है । मेरा तो ऐसा सोचना है कि हिन्दुस्तान को अगर सुखी बनना है, स्वतन्त्र रहना है तो वह विलासी न बने, श्रम को न भूले।" इसी सन्दर्भ में जापान के माध्यम से हिन्दुस्तानियों को प्रतिबोध देती उनकी निम्न पंक्तियां भी देश की पुरुषार्थ-चेतना को जगाने वाली हैं.... "हिन्दुस्तानी लोग बातें बहुत करते हैं, पर काम करने के समय निराश होकर बैठ जाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रगति के नए आयाम कैसे खुल पाएंगे? जिस देश के लोग पुरुषार्थी होते हैं, वे कहीं-के-कहीं पहुंच जाते हैं । जापान इसका साक्षी है। पूरी तरह से टूटे जापान को वहां के नागरिकों ने कितनी तत्परता से खड़ा कर लिया। क्या भारतवासी इससे कुछ सबक नहीं लेंगे ?"२ राजनीति किसी भी राष्ट्र को उन्नत और समृद्धि की ओर अग्रसर करने में सक्रिय, साफ-सुथरी एवं मूल्यों पर आधारित राजनीति की सर्वाधिक आवश्यकता रहती है । आचार्य तुलसी की दृष्टि में वही राजनीति अच्छी है, जो राज्य को कम-से-कम कानून के घेरे में रखती है। राष्ट्र के नागरिकों को ऐसा स्वच्छ प्रशासन देती है, जिससे वे निश्चिन्तता और ईमानदारी के साथ जीवनयापन कर सकें ।' देश की राजनीति को स्वस्थ एवं स्थिर रूप देने के लिए वे निम्न चिन्तन-बिन्दुओं को प्रस्तुत करते हैं १. शासन का लोकतांत्रिक एवं सम्प्रदायनिरपेक्ष स्वरूप अक्षुण्ण रहे। शासन की दृष्टि में यदि हिन्दू, मुसलमान, अकाली आदि भेदरेखाएं जन्मेंगी तो 'भारत' भारत नहीं रहेगा। २. सत्य एवं अहिंसात्मक आचारभित्ति बनी रहे । हिंसा और दोहरी १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६७८ । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ९५॥ ३. अमृत संदेश, पृ० ५१ । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण नीति अन्ततः लोकतन्त्र की विनाशक बनेगी। ३. व्यक्तिगत जीवन की पवित्रता एवं सिद्धांतवादी राजनीति का पुनस्र्थापन। ४. चुनाव-पद्धति एवं परिणाम को देखते हुए शासनपद्धति में भी परिवर्तन । ५. चरित्र-हनन की घातक प्रवृत्ति का परित्याग । ६. विधायक आचार-संहिता का निर्माण । ७. नैतिक शिक्षण एवं साम्प्रदायिक सौहार्द।' राजनीति के क्षेत्र में विद्यार्थियों के गलत उपयोग के वे सख्त विरोधी हैं । क्योंकि इस उम्र में उनकी कोमल भावनाओं को भड़काकर उन्हें ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों में शामिल करने से उनके जीवन की दिशा गलत हो जाती है । इससे न केवल उनका स्वयं का भविष्य ही अंधकारमय बनता हैं, अपितु पूरे राष्ट्र का भविष्य भी धुंधलाता है। इस सन्दर्भ में उनका स्पष्ट कथन है- "जिस देश में विद्यार्थियों को राजनीति का मोहरा बनाकर गुमराह किया जाता है, उनकी शिक्षा में व्यवधान उपस्थित किया जाता है, उस देश का भविष्य कैसा होगा, कल्पना नहीं की जा सकती।"२ इसी सन्दर्भ में उनका निम्न वक्तव्य भी मननीय है.---"यदि विद्यार्थियों को राजनीति के साथ जोड़ा गया तो भविष्य में यह खतरनाक मोड़ ले सकता है, क्योंकि बच्चों के कोमल मानस को उभारा जा सकता है, किन्तु उसका शमन करना सहज नहीं है । संसद संसद राष्ट्र की सर्वोच्च संस्था है । आचार्य तुलसी मानते हैं कि देश का भविष्य संसद के चेहरे पर लिखा होता है । यदि वहां भी शालीनता और सभ्यता का भंग होता है तो समस्या सुलझने के बजाय उलझती जाती है। वार्तमानिक संसद की शालीनता भंग करने वाली स्थिति का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- "छोटी-छोटी बातों पर अभद्र शब्दों का व्यवहार, हो-हल्ला, छींटाकशी, हंगामा और बहिर्गमन आदि ऐसी घटनाएं हैं, जिनसे संसद जैसी प्रतिनिधि संस्था का गौरव घटता है।"४ सांसद जनता के सम्मानित प्रतिनिधि होते हैं। संसद में उनका तभी तक सत्ता पर बने रहने का अधिकार है, जब तक जनता के मन में उनके प्रति सम्मान और विश्वास है । __ संसद में कैसे व्यक्तित्व आने चाहिए, इस बात को आचार्य तुलसी १. पांव-पांव चलने वाला सूरज, पृ० २४३ । २. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० १४४ । ३. जैन भारती, ३ जन० १९७१ । ४. तेरापन्थ टाइम्स, ३० जुलाई १९९० । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १५१ स्वयं न कहकर संसद के द्वारा कहलवा रहे हैं। संसद के मुख से उद्गीर्ण उनका वक्तव्य काफी वजनी है ---"संसद जनता को चिल्लाचिल्लाकर कह रही है कि कृपा करके तीन प्रकार के व्यक्तियों को चुनकर संसद में मत भेजिए--पहले वे, जो परदोषदर्शी हैं, जो विपक्ष की अच्छाई में भी बुराई देखने वाले हैं। "...""दूसरे वे, जो कुटिल हैं, मायावी हैं, नेता नहीं, अभिनेता हैं, असली पात्र नहीं, विदूषक की भूमिका निभाने वाले हैं ।"........"सत्ता-प्राप्ति के लिए अकरणीय जैसा उनके लिए कुछ भी नहीं है। जिस जनता के कंधों पर बैठकर केन्द्र तक पहुंचते हैं, उसके साथ भी धोखा कर सकते हैं । जिस दल के घोषणा-पत्र पर चुनाव जीतकर आए हैं, उसकी पीठ में छुरा भोंक सकते हैं।...."तीसरे उन व्यक्तियों को मुझसे दूर रखिए, जो असंयमी हैं, चरित्रहीन हैं, जो सत्ता में आकर राष्ट्र से भी अधिक महत्व अपने परिवार को देते हैं। देश से भी अधिक महत्त्व अपनी जाति और सम्प्रदाय को देते हैं । सत्ता जिनके लिए सेवा का साधन नहीं, विलास का साधन है। ...... भारतीय संसद भारतीय जनता के द्वार पर अपनी मर्मभेदी पुकार लेकर खड़ी है।"१ चुनाव जनतंत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू चुनाव है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है। जनतंत्र में स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिए चुनाव की स्वस्थता अनिवार्य है। आचार्य तुलसी का मानना है-"चुनाव का समय देश के भविष्य निर्धारण का समय है। अभाव और मोह को उत्तेजना देकर लोकमत प्राप्त करना चुनाव की पवित्रता का लोप करना है। जिस देश में वोट बेचे और खरीदे जाते हैं, उस देश का रक्षक कौन होगा ? ये दोनों बातें जनतंत्र की दुश्मन हैं।" चुनाव के समय हर प्रत्याशी का चिन्तन रहना चाहिए कि राष्ट्र को नैतिक दिशा में कैसे आगे बढ़ाया जाए ? उसकी एकता और अखण्डता को कायम रखने का वातावरण कैसे बनाया जाए ? लेकिन आज इसके विपरीत स्थिति देखने को मिलती है। भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में कुर्सी के लिए होने वाली होड़ की अभिव्यक्ति वे इन शब्दों में करते हैं- "जहां पद के लिए मनुहारें होती थीं, कहा जाता था- मैं इसके योग्य नहीं हूं, तुम्हीं संभालो, वहां आज कहा जाता है कि पद का हक मेरा है, तुम्हारा नहीं । पद के योग्य मैं हूं, तुम नहीं।" आचार्य तुलसी की दृष्टि में चुनाव में नैतिकता अनिवार्य शर्त है। १. राजपथ की खोज, पृ० १४१-४२ । २. जैन भारती, १८ फरवरी, १९६८ । ३. वही, २२ नव० १९६४ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण वे कहते हैं ..."चुनाव चाहे संसद के हों, विधान सभाओं के हों, महाविद्यालयों के हों या अन्य सभा-संस्थाओं के, जहां नीति की बात पीछे छूट जाती है, वहां महासमर मच जाता है।'' चुनाव के समय हर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोचता है तथा येन-केन-प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा वोट प्राप्त करने की तरकीबें निकालता है । आचार्य तुलसी का मंतव्य है कि जब तक शासक और जनता को लोकतंत्र के अनुसार प्रशिक्षित एवं दीक्षित नहीं किया जाएगा, तब तक लोकतंत्र सुदृढ़ नहीं बन सकता। वे अपने विशिष्ट लहजे में कहते हैं कि आश्चर्य तो तब होता है, जब कई अंगूठे छाप व्यक्ति भी जनता द्वारा निर्वाचित होकर संसद में पहुंच जाते हैं।" मतदान की प्रक्रिया में शुद्धि न आने के वे तीन कारण स्वीकारते हैं --अज्ञान, अभाव एवं मूढ़ता। इस सन्दर्भ में उनकी निम्न टिप्पणी पठनीय है--"अनेक मतदाताओं को अपने हिताहित का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे हित-साधक व्यक्ति या दल का चुनाव नहीं कर पाते । अनेक मतदाता अभाव से पीड़ित हैं । वे अपने मत को रुपयों में बेच डालते हैं। अनेक मतदाता मोहमुग्ध हैं, इसलिए उनका मत शराब की बोतलों के पीछे लुढ़क जाता है।" इसी प्रसंग में उनकी निम्न टिप्पणी जनता की आंखों को खोलने वाली है --"जो जनता अपने वोटों को चंद चांदी के टुकड़ों में बेच देती हो, सम्प्रदाय या जाति के उन्माद में योग्य-अयोग्य की पहचान खो देती हो, वह जनता योग्य उम्मीदवार को संसद में कैसे भेज पाएगी ?"४ उनके विचारों से स्पष्ट है कि स्वच्छ प्रशासन लाने का दायित्व जनता का है। चुनाव के समय वह जितनी जागरूक होगी, उतना ही देश का हित होगा। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से चुनावी वातावरण को स्वस्थ बनाने का प्रयत्न किया है। उनका मानना है कि चुनाव का माहौल तूफान से भी अधिक भयंकर होता है। उस समय अणुव्रत के माध्यम से नैतिकता का एक छोटा-सा दीप भी जलता है तो कम-से-कम वह प्रकाश के अस्तित्व को तो व्यक्त करता ही है। यदि चुनाव को पवित्र संस्कार नहीं दिया गया तो भारत की त्यागप्रधान परम्परा दुर्बल एवं क्षीण हो जाएगी।'५ १. विज्ञप्ति सं० ८९९ । २. अणुव्रत, १ फरवरी, १९९१ । ३. राजपथ की खोज', पृ० १२८ । ४. जैन भारती, १८ फरवरी, १९६८ । ५. विज्ञप्ति सं० ९७२ । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १५३ चुनाव-शुद्धि की दृष्टि से उन्होंने अणुव्रत के माध्यम से मतदाता और उम्मीदवार की एक नैतिक आचार-संहिता तो प्रस्तुत की ही है, साथ ही अपने प्रवचनों एवं निबन्धों में भी अनेक महत्त्वपूर्ण मुद्दों को उठाकर जनता को प्रशिक्षित किया है । चुनावशुद्धि के सन्दर्भ में दिए गए उनके तीन विकल्प अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैंपहला-हम विजयी बनें या न बनें, पर चुनाव में भ्रष्ट तरीकों का प्रयोग नहीं करेंगे। दूसरा--सत्तारूढ़ दल चुनाव-शुद्धि के लिए संकल्पबद्ध हो । तीसरा---जनमत जागृत हो।" सांसद एवं विधायक लोकतंत्र में शासनतंत्र की बागडोर जनता द्वारा चुने गए सांसदों और विधायकों के हाथों में होती है। लोकतंत्र की यह दुर्बलता है कि (सांसदों) विधायकों का चुनाव अर्हता, गुणवत्ता एवं योग्यता के आधार पर न होकर, दल या संस्था के आधार पर होता है । इससे राजनीति स्वस्थ नहीं बन सकती । आचार्य तुलसी का मानना है कि राष्ट्रीय चरित्र अपने चरित्र को भारतीय मूल्यों एवं आदर्शों के अनुरूप ढाले, यह अत्यन्त आवश्यक है। अतः प्रत्याशियों को प्रतिबोध देते हुए वे कहते हैं-"लोगों में चुनाव के लिए पार्टी का टिकट पाने की जितनी उत्सुकता होती है, उतनी उत्सुकता यदि योग्य बनने की हो तो कितना अच्छा काम हो सकता है। । चुनाव के माहौल में एक पत्रकार द्वारा पूछा गया प्रश्न कि हम किसको वोट दें, का उत्तर देते हुए वे कहते हैं----"इस प्रसंग में पार्टी, पक्ष, विपक्ष, सम्प्रदाय, जाति आदि के लेबल को नजरअंदाज कर सही व्यक्ति की खोज करनी चाहिए। अणुव्रत के अनुसार उस व्यक्ति की पहचान यह हो सकती है जो नैतिक मूल्यों के प्रति आस्थाशील हो, ईमानदार हो, निर्लोभी हो, सत्यनिष्ठ हो, व्यसनमुक्त हो तथा निष्कामसेवी हो ।" इसी सन्दर्भ में उनका दूसरा वक्तव्य भी स्वस्थ राजनीतिज्ञ की अनेक विशेषताओं को उजागर करने वाला है-"स्वस्थ राजनीति में ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है, जो निष्पक्ष हो, सक्षम हो, सुदृढ़ हो, स्पष्ट व सर्वजनहिताय का लक्ष्य लेकर चलने वाला हो।' सांसद और विधायक के रूप में वे ऐसे व्यक्तित्व की कल्पना करते हैं, १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ५८५ । २. उद्बोधन, पृ० १२९ । ३. जीवन की सार्थक दिशाएं, पृ० ३६ । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जो शिखर पर बैठकर भी तलहटी से जुड़ा रहे । जो देश की समस्याओं से जूझने के हिमालयी संकल्प की पूर्ति के साधन जुटाता रहे और अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को भी सड़क पर फेंके गये केले के छिलकों-सी नियति न समझे । सांसदों और विधायकों का सही चयन हो इसके लिए उनका अमूल्य सुझाव है.---"राजनीति का चेहरा साफ-सुथरा रहे, इसके लिए अपेक्षित है कि इस क्षेत्र में आने वाले व्यक्तियों के चरित्र का परीक्षण हो। आई क्यू टेस्ट की तरह करेक्टर टेस्ट की कोई नई प्रविधि प्रयोग में आए।"१ ___ आचार्य तुलसी का विचार है कि लोकतंत्र में सत्ता पाने का प्रयत्न एकान्ततः बुरा नहीं है पर नैतिकता और सिद्धान्तवादिता को दूर रखकर हिंसा, उच्छृखलता द्वारा केवल सत्ता पाने का प्रयत्न जनतंत्र का कलंक है ।'' आज की दूषित राजनीति का आकलन करते हुए वे कहते हैं --"राष्ट्रहित और जनहित की महत्त्वाकांक्षा व्यक्तिहित और पार्टीहित के दबाव से नीचे बैठती जा रही है। सत्ता के स्थान पर स्वार्थ आसीन हो रहा है। जनता के दुःख-दर्द को दूर करने के वायदे चुनाव घोषणा-पत्र की स्याही सूखने से पहले विस्मृति के गले में टंग जाते हैं ।"3 राजनेताओं की सत्तालोलुपता को उन्होंने गांधी के आदर्श के समक्ष कितने तीखे व्यंग्य के साथ प्रस्तुत किया है- "गांधी ने कहा था---'मेरा ईश्वर दरिद्र-नारायणों में रहता है ।' आज यदि उनके भक्तों से यही प्रश्न पूछा जाए तो संभवतः यही उत्तर मिलेगा कि हमारा ईश्वर कुर्सी में रहता है, सत्ता में रहता है, झोपड़ी में रहने वाला ईश्वर आज प्रासाद में रहने लगा है। इससे अधिक गांधी के सिद्धान्तों का मजाक और क्या हो सकता है ?"४ चुनाव के समय होने वाले संघर्ष तथा उसके परिणामों को प्रकट कर विधायकों की ओर अंगुलिनिर्देश करने वाली उनकी निम्न टिप्पणी यथार्थ का उद्घाटन करने वाली है..."ऐसा लगता है राजनीतिज्ञ का अर्थ देश में सुव्यवस्था बनाए रखना नहीं, अपनी सत्ता और कुर्सी बनाए रखना है। राजनीतिज्ञ का अर्थ उस नीतिनिपुण व्यक्तित्व से नहीं, जो हर कीमत पर राष्ट्र की प्रगति, विकास-विस्तार और समृद्धि को सर्वोपरि महत्त्व दे, किन्तु उस विदूषक -विशारद व्यक्तित्व से है, जो राष्ट्र के विकास और समृद्धि को अवनति के गर्त में फेंककर भी अपनी कुर्सी को १. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ९७ । २. १-३-६९ के प्रवचन से उद्धृत । ३. जैन भारती, १ फरवरी, १९७० । ४. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १८७ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन सर्वोपरि महत्त्व देता है। वे इस बात को मानकर चलते हैं कि राजनैतिक लोगों से महात्मा बनने की आशा नहीं की जा सकती, पर वे पशुता पर उतर आएं, यह ठीक नहीं है। अतः राजनीतिज्ञों को प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं---"यदि राजनीतिज्ञ स्थायी शांति चाहते हैं तो उन्हें हिंसा के स्थान पर अहिंसा, प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोगिता और हृदय की वक्रता के स्थान पर सरलता को अपनाना होगा । यदि शासक में विलासिता, आलस्य और कदाचार है तो देश को अनुशासन का पाठ कौन पढ़ाएगा ? अतः सत्ताधीशों के विलासी जीवन पर कटाक्ष करने से भी वे नहीं चूके हैं--"देखा जाता है कि एक ओर लोगों के पास चढ़ने को साइकिल भी नहीं है और दूसरी ओर नेता लोग लाखों रुपयों की कीमती कारों में घूमते हैं। एक ओर देश के लाखों-लाखों व्यक्तियों को झोंपड़ी भी उपलब्ध नहीं है और दूसरी ओर नेता लोग एयरकंडीशन बंगलों में रहते हैं। पिता मिठाई खाए और बच्चे भूखे मरें, क्या यह भी कोई न्याय है ?"३ सत्तादल और प्रतिपक्ष दोनों को ही छींटाकशी एवं विद्वेष को भुलाकर एकता एवं सामंजस्य की प्रेरणा वे कितने तीखे एवं सटीक शब्दों में दे रहे हैं --"दोनों ही दलों को यह चिन्ता कहां है कि हमारी आपसी लड़ाई से ५० करोड (वर्तमान में ८५ करोड़) जनता का कितना अहित हो रहा है ? विरोधी राष्ट्रों को इससे लाभ उठाने का कैसा अवसर मिल रहा है ?"४ वे अनेक बार यह दृढ़ विश्वास व्यक्त कर चुके हैं कि यदि चरित्रसम्पन्न व्यक्ति राजनीति के रथ को हांकते रहेंगे तो उसके उत्पथ में भटकने की संभावना क्षीण हो जाएगी।''५ लोकतंत्र वर्तमान में भारत सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। आचार्य तुलसी का मानना है कि लोकतंत्र एक जीवित तंत्र है, जिसमें सबको समान रूप से अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार चलने की पूरी स्वतंत्रता होती है। लोकतंत्र की नींव जनता के मतों पर टिकी होती है। यदि मत भ्रष्ट हो जाए तो प्रशासन तो भ्रष्ट होगा ही। इस संदर्भ में उनके निम्न उद्धरण १-२. एक बूंद : एक सागर, पृ० ११६२ । ३. जैन भारती, ५ जुलाई, १९७० । ४. वही, ३० नव० १९६९ । ५. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ९७। ६. राजपथ की खोज, पृ० १२८ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण लोकतंत्र के हृदय को छूने वाले हैं "वोटों के गलियारे में सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने की आकांक्षा और जैसे-तैसे वोट बटोरने का मनोभाव-ये दोनों ही लोकतंत्र के शत्रु हैं । लोकतंत्र में जिस ढंग से वोटों का दुरुपयोग हो रहा है, उसे देखकर इस तंत्र को लोकतंत्र कहने का मन नहीं होता ।'' सत्ता और सम्पदा के शीर्ष पर बैठकर यदि जनतंत्र के आदर्शों को भुला दिया जाता है तो वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा नहीं हो सकती। इस संदर्भ में उनका मौलिक मंतव्य है--- "तंत्र के व्यासपीठ पर जो व्यक्ति बैठता है, उसकी दृष्टि जन पर होनी चाहिए, तंत्र या पार्टी पर नहीं । आज जन पीछे छूट गया है तथा तंत्र आगे आ गया है। इसी कारण हिंसा भड़क रही है। मेरी दृष्टि में वही लोकतंत्र अधिक सफल होता है, जिसमें आत्मतंत्र का विकास हो, अन्यथा जनतंत्र में भी एकाधिपत्य, अव्यवस्था और अराजकता की स्थितियां उभर सकती हैं।। लोकतंत्र की मूलभूत समस्याओं की ओर इंगित करते हुए आचार्य तुलसी का कहना है -- "जब राष्ट्र में हिंसा और आतंक के स्फुलिंग उछलते हैं, सम्प्रदायवाद सिर उठाता है, जातिवाद के आधार पर वोटों का विभाजन होता है, अस्पृश्यता के नाम पर मनुष्य के प्रति घृणा का भाव बढ़ता है, तब लोकतंत्रीय चेतना मूच्छित हो जाती है।" लोकतंत्र के प्रासाद को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए वे चार स्तम्भों को आवश्यक मानते हैं.-."स्वतंत्रता, सापेक्षता, समानता और सह-अस्तित्व । इनके बिना लोकतंत्र का अस्तित्व टिक नहीं सकता।"3 स्वतंत्रता के संदर्भ में उनका चिन्तन है कि उसका सही उपयोग होना चाहिए। यदि स्वतंत्रता का दुरुपयोग होता है तो लोकतंत्र की पवित्रता समाप्त हो जाती है । वर्तमान में स्वतंत्रता के नाम पर होने वाली अवांछनीय बातों की ओर संकेत करते हुए वे खुले शब्दों में कहते हैं ..."आज लोकतंत्र के नाम पर बोलने की स्वतंत्रता का उपयोग गाली-गलोच में हो रहा है । लिखने की स्वतंत्रता का उपयोग किसी के मर्मोद्घाटन और किसी पर आरोपों की वर्षा से किया जा रहा है। चिन्तन और आचरण की स्वतंत्रता ने लोगों को अपनी संस्कृति, सभ्यता और नैतिक मूल्यों से दूर धकेल दिया है । पीड़क दुश्चक्र तो यह है कि अधिकांश व्यक्तियों को इस स्थिति की चिन्ता भी नहीं है ।४ लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता १. मनहंसा मोती चुगे, पृ० ८६ । २. जैन भारती, २२ जून, १९८६ । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० ११९५ । ४. अणुव्रत पाक्षिक, १ फर, १९९१ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १५७ को लिखने, बोलने, सोचने और करने की स्वतंत्रता होती है। जनता के स्वतंत्र अधिकारों का हनन करने वाले शासकों के समक्ष आचार्य तुलसी चेतावनी की भाषा में प्रश्न उपस्थित करते हैं- "जिस देश के शासक यह कहते हैं कि जनता को सोचने की जरूरत नहीं है, सरकार उसके लिए देखेगी। जनता को बोलने की अपेक्षा नहीं है, सरकार उसके लिए बोलेगी और जनता को कुछ करने की जरूरत नहीं है, सरकार उसके लिए करेगी । क्या शासक इन घोषणाओं के द्वारा जनता को पंगु, अशक्त और निष्क्रिय बनाकर लोकतंत्र की हत्या नहीं कर रहे हैं ?"१ समानता लोकतंत्र का हृदय है । आचार्य तुलसी कहते हैं—'कुछ लोग कोठियों में रहें, कुछ को फुटपाथ पर रात बितानी पड़े, यह विषमता आज के विश्व को मान्य नहीं हो सकती क्योंकि इसकी अंतिम परिणति हिंसा और संघर्ष है।"२ लोकतंत्र के संदर्भ में समानता को स्पष्ट करने वाली डा० अम्बेडकर की निम्न पंक्तियां उल्लेखनीय हैं-"प्रत्येक बालिग स्त्री पुरुष को मतदान का अधिकार देकर संविधान ने राजनीतिक समता तो ला दी किंतु आर्थिक और सामाजिक समता अभी आयी नहीं है। यदि इस दिशा में भारत ने सफल प्रयत्न नहीं किया तो राजनीतिक समता निकम्मी सिद्ध होगी, संविधान टूट जाएगा।" आचार्य तुलसी अनेक बार इस चितन को अभिव्यक्ति दे चुके हैं कि यदि देश के लोकतंत्र को मजबूत और संगठित बनाना है तो मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को प्रशिक्षित करना होगा। इसी बात की प्रस्तुति व्यंग्यात्मक शैली में पठनीय है- "मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि इन मंत्रियों, विधायकों आदि को कोई प्रशिक्षण नहीं मिलता, जबकि एक वकील, इंजीनियर या डाक्टर को पहले प्रशिक्षण लेना पड़ता है। मैं सोचता हूं कि विधायकों के लिए भी एक प्रशिक्षण केन्द्र होना आवश्यक है । "बिना प्रशिक्षण चुनाव में कोई उम्मीदवार के रूप में खड़ा न हो । मेरा विश्वास है ---अणुव्रत यह प्रशिक्षण देने में समर्थ है।'' राष्ट्रीय एकता अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति का आदर्श रहा है। यहां अनेक धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ण, प्रान्त एवं राजनैतिक पार्टियां हैं, पर भिन्नता और अनेकता होने मात्र से सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकता को विघटित नहीं किया जा सकता । आचार्य तुलसी का मंतव्य है कि भिन्नताओं का लोप कर १. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ९८ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १२७२ । ३. जैन भारती, ३० नवम्बर, १९६९ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सबको एक कर देना असंभव है । ऐसी एकता में विकास के द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं । अनेकता भी वही कीमती है, जो हमारी मौलिक एकता को किसी प्रकार का खतरा पैदा न करे ।" इसी बात को उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुति देते हुए वे कहते हैं- " एक वृक्ष की अनेक शाखाओं की भांति एक राष्ट्र के अनेक प्रांत हो सकते हैं, पर उनका विकास राष्ट्रीयता की जड़ से जुड़कर रहने में है, जब भेद में अभेद को मूल्य देने की बात व्यावहारिक बनेगी, उसी दिन राष्ट्रीय एकता की सम्यक् परिणति होगी । वे कहते हैं" जहां विविधता एकता को विघटित करे, उसमें बाधक बने, को समाप्त करना आवश्यक हो जाता है । शरीर में कोई अवयव शरीर को नुकसान पहुंचाने लगे तो उसे काटने या कटवाने की मानसिकता हो जाती है । 112 उस विविधता 113 राष्ट्र की विषम स्थितियों एवं विघटनकारी तत्त्वों के विरुद्ध आचार्य तुलसी ने सशक्त आवाज उठाई है । राष्ट्रीय एकता को उन्होंने अपनी श्रम की बूंदों से सींचा है। अपने अठहत्तरवें जन्मदिन पर वे लाडनूं में देश की हिंसक स्थितियों को अहिंसक नेतृत्व प्रदान करने हेतु अपने दायित्व - बोध का उच्चारण इन शब्दों में करते हैं- " मैं राष्ट्रीय एकता परिषद् के एक सदस्य के नाते अपना दायित्व समझता हूं कि अपनी शक्ति देश की समस्याओं को सुलझाने में लगाऊं । मुझे लगता है कि हिंसा, आतंक, अपहरण और क्रूरता आदि समस्याओं से भी बड़ी समस्या है - मानवीय मूल्यों के प्रति अनास्था । इस दिशा में मुझे अणुव्रत के माध्यम से लोकतंत्र की शुद्धि हेतु और भी तीव्र गति से कार्य करना है ।" उनकी इसी सेवा का मूल्यांकन करते हुए भारत सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य के रूप में मनोनीत किया है । राष्ट्रीय एकता के अनेक घटकों में एक घटक है-भाषा । इस संदर्भ में आचार्य तुलसी का मंतव्य है - " यदि देश की एक भाषा होती है तो हर प्रांत के व्यक्ति का दूसरे प्रांत के व्यक्ति के साथ सम्पर्क जुड़ सकता है । मैं मानता हूं कि देश की एकता के लिए राष्ट्र में एक भाषा का होना अत्यन्त आवश्यक है । "४ आचार्य तुलसी इस सत्य से परिचित हैं कि केवल भौगोलिक एकता के नाम पर राष्ट्रीय एकता को चिरजीवी नहीं बनाया जा सकता, फिर भी प्रांतवाद देश की अखंडता को विघटित करने में मुख्य कारण बनता है । वे अलगाववादी तत्त्वों को स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- "हरेक प्रांत जब अपने १. विज्ञप्ति सं० ९९३ । २- ३. अणुव्रत पाक्षिक, १६ मई १९९० । ४. रश्मियां पृ० ८ । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १५९ ही हित की बात सोचता है, तब राष्ट्र की एकता खतरे में पड़ जाती है। उत्तर के लोग उत्तर की चिन्ता करते हैं, दक्षिण के लोग दक्षिण की, लेकिन भारत की चिन्ता कौन करे ? भारत सलामत है तो सब सलामत हैं । भारत ही नहीं रहा तो उत्तर और दक्षिण का क्या होगा ?' आचार्य तुलसी मानते हैं कि प्रांतीय व्यवस्था देश के शासनसूत्र में स्थिरता लाने के लिए थी पर आज चंद स्वार्थों के पीछे एक जटिल पहेली बनकर रह गयी है। जब तक राष्ट्र के लिए स्वतत्त्व को विसर्जित करने की भावना पुष्ट नहीं होगी, राष्ट्रीय एकता का नारा सार्थक नहीं हो सकता ।२ आचार्य तुलसी जब दक्षिण यात्रा पर थे तब दो प्रांतों के वैचारिक वैषम्य में समन्वय करती निम्न उक्ति उनके गंभीर चिंतन की साक्षी है.--- "केरल और तमिलनाडु एक-दूसरे से सटे हुए होने पर भी प्रकृति से भिन्न हैं । एक भक्तिप्रधान है तो दूसरा तर्कप्रधान । तमिलनाडु में तर्क है ही नहीं और केरल में भक्ति है ही नहीं, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। मैं दोनों के मध्य हूं. दोनों का समन्वय करना चाहता हूं।" ___ साम्प्रदायिक उन्माद में उन्मत्त व्यक्ति कृत्य-अकृत्य के विवेक को खो देता है । इस संदर्भ में आचार्य तुलसी का सापेक्ष चिन्तन है --"व्यक्ति अपनेअपने मजहब की उपासना में विश्वास करे, इसमें कोई बुराई नहीं, पर जहां एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय के प्रति द्वेष और घृणा का प्रचार करते हैं, वहां देश की मिट्टी कलंकित होती है, राष्ट्र शक्तिहीन होता है तथा व्यक्ति का मन अपवित्र बनता है।"४ धर्मगुरु होते हुए भी वे साम्प्रदायिकता से कोसों दूर हैं । वे अनेक बार इस बात की अभिव्यक्ति दे चुके हैं कि मैं जैन शब्द को भी वहीं तक पकड़े रहना चाहता हूं, जहां तक वह सम्पूर्ण मानवहितों से विसंगत नहीं होता।" साम्प्रदायिक उन्माद के बारे में वे स्पष्ट उद्घोषणा करते हैं --- "साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाने में असामाजिक तत्त्वों का तो हाथ रहता ही है, कहीं-कहीं धर्मगुरु भी इस आग में ईंधन डाल देते हैं ।"५ आचार्य तुलसी कभी-कभी तो साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों को यहां तक कह देते हैं-.--"कांच के महल में बैठकर पत्थर फेंकने वाला क्या कभी सुरक्षित रह सकता है ?" १. जैन भारती, २३ मार्च १९६९ । २. वही, १० मार्च १९६३ । ३. त्रिवेन्द्रम्, १५-३-६९ के प्रवचन से उद्धृत । ४. विज्ञप्ति सं० ९८८ ।। ५. एक बूंद : एक सागर, पृ० १५६५ । ६. मनहंसा मोती चुगे, पृ० ८५ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्म और राजनीति की समस्या को सुलझाने के लिए वे राजनयिकों को भी अनेक बार सुझाव दे चुके हैं-- "यदि धर्मनिरपेक्षता को सम्प्रदायनिरपेक्षता के रूप में मान्यता देकर मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाया जाय तो राष्ट्रीय एकता की नींव सशक्त हो सकती है। मेरा विश्वास है कि हिंदुस्तान सम्प्रदायनिरपेक्ष होकर अपनी एकता बनाए रख सकता है किंतु धर्महीन होकर अपनी एकता को सुरक्षित नहीं रख सकता।'' राष्ट्रीय एकता को सबसे बड़ा खतरा उन स्वार्थी राष्ट्र-नेताओं से भी है, जो केवल अपने हित की बात सोचते हैं। देश-सेवा के नाम पर अपना घर भरते हैं; तथा धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग आदि के नाम पर जनता को बांटने का प्रयत्न करते हैं। इस संदर्भ में आचार्य तुलसी का उन लोगों के लिए संदेश है-- ० पूरे विश्व को चरित्र की शिक्षा देने वाला भारत आज इतना दीनहीन क्यों होता जा रहा है ? स्वार्थ का कौन सा ऐसा दैत्य उसे इस प्रकार नचा रहा है ? क्या इस देश की जनता परार्थ और परमार्थ की भूमिका पर खड़ी होकर नहीं सोच सकती ? २ ० राष्ट्रीय धरा से जुड़कर रहने में ही सबकी अस्मिता सुरक्षित रह सकती है तथा सबको विकास का अवसर मिल सकता है । राष्ट्रीय एकता परिषद् की दूसरी संगोष्ठी के अवसर पर प्रेषित अपने एक विशेष संदेश में वे खुले शब्दों में कहते हैं-दलगत राजनीति और चुनाव समस्याओं को उभारने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। अपने-अपने दल की सत्ता स्थापित करने के लिए कभी-कभी वे काम भी हो जाते हैं, जो राष्ट्र के हित में नहीं हैं । ....... सत्ता को हथियाने की स्पर्धा होना अस्वाभाविक नहीं है पर स्पर्धा के वातावरण में जैसे-तैसे बहुमत और सत्ता पाने पर ही ध्यान केन्द्रित रहता है । यह एक समस्या है, जो राष्ट्रीय एकता की बहुत बड़ी बाधा है। वे भारत के राजनैतिक दलों की बदतर स्थिति का जिक्र करते हुए कहते हैं - "भारत में एक-दो दल नहीं, दल में भी उपदल हैं । उपदल में भी और दलदल हैं । सभी में ऐसे दुर्दान्त कलह पनप रहे हैं कि भाड़ में चने की भांति एक एक ओर भागता है तो दूसरा दूसरी ओर । ... ... कभी-कभी तो वे बच्चों के खेल से भी ज्यादा घटिया हो जाते हैं । इस प्रकार अपने ही १. युवादृष्टि, फर० १९९४ । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ८७ । ३. अणुव्रत पाक्षिक, १६ मई १९९० । ४. बैसाखियां विश्वास की, पृ० १०५ । ५. विज्ञप्ति सं० ९४४ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन हित का चश्मा चढ़ाकर चारों ओर देखने वाले व्यक्ति राष्ट्रीय चरित्र से कोसों दूर हैं । ऐसे लोग ही देश की भावात्मक एकता में दरार डालते हैं। राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए वे जनता को प्रतिबोध देते हुए कहते हैं- "राष्ट्रीय एकता की शुभ शुरुआत हर व्यक्ति अपने से करे, यह अपेक्षित है । यदि राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक यह संकल्प कर ले कि वह अपने किसी भी आचरण और व्यवहार से राष्ट्रीय एकता को नुकसान नहीं पहुंचाएगा तो यह उसका इस क्षेत्र में बहुत बड़ा सहयोग होगा। साथ ही वे कुछ आचरणीय बिंदु एवं विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं, जिससे राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्त्वों को अलग कर एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ किया जा सके"१. भारतीय जनता के बड़े भाग में राष्ट्रीयता की कमी महसूस हो रही है । राष्ट्रीयता के बिना राष्ट्रीय एकता की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए सर्वप्रथम राष्ट्रीय चेतना को जगाने की दिशा में शक्ति का नियोजन हो। २. राष्ट्रीयता के प्रशिक्षण शिविरों की आयोजना तथा शिक्षा के साथ राष्ट्रीयता के प्रशिक्षण की व्यवस्था हो। ३. लोकतंत्र में सबको समान अवसर और अधिकार प्राप्त हैं। इस स्थिति में बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक जैसी विभक्त करने वाली व्यवस्थाओं पर पुनर्विचार किया जाए। ४. जातीयता तथा साम्प्रदायिकता को राष्ट्रीयता के साथ न जोड़ा जाए। ५. केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और केन्द्रित शासन-व्यवस्था अव्यवस्था और संघर्ष को जन्म देती हैं। इसलिए उनके विकेन्द्रीकरण पर चिन्तन किया जाए।"२ इन विकल्पों के अतिरिक्त वे तीन मुख्य बिंदुओं पर सबका ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं- "मैं मानता हूं अध्यात्म का अभाव, अर्थ की प्रधानता और मौलिक चिन्तन की कमी --- इन तीन बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाए तो देश की अखंडता और स्वतंत्रता सार्थक हो सकती है तथा देश के भविष्य को स्थिरता दी जा सकती है।' राष्ट्र की एकता में भेद डालने वाली स्थितियों को समाहित करने के लिए आचार्य तुलसी राजनेताओं को आह्वान करते हुए कहते हैं ---"कानून के १. विज्ञप्ति सं० ९८८1 २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० १०५,१०६ । ३. जीवन की सार्थक दिशाएं, पृ० ४६ । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण नियमों द्वारा एकता प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। इसके लिए हृदय-परिवर्तन, समता और मैत्री तो अपेक्षित है ही, साथ ही यह भी आवश्यक है कि सत्ता से अलिप्त कोई ऐसा पराक्रम जागे, जो राष्ट्र का मार्गदर्शन कर सके तथा जनता को वास्तविक स्वतन्त्रता का अहसास करा सके । डा० के. के. शर्मा ने 'हिन्दी साहित्य के राष्ट्रीय काव्य' में राष्ट्रीय भावनाओं से सम्बन्धित निम्न विषयों का वर्णन किया है १. जन्मभूमि के प्रति प्रेम । २. स्वर्णिम अतीत के चित्र । ३. प्रकृति प्रेम। ४. विदेशी शासन की निंदा । ५. वर्तमान दशा पर क्षोभ । ६. सामाजिक सुधार - भविष्य निर्माण । ७. वीर पुरुषों या नेताओं की स्तुति । ८. पीड़ित जनता का चित्रण । २. भाषा-प्रेम। आचार्य तुलसी के साहित्य में लगभग इन सभी विषयों का विस्तृत विवेचन हुआ है। अनेक वक्तव्य एवं निबंध तो इतने भावपूर्ण हैं कि पढ़कर व्यक्ति के मन में राष्ट्र के लिए सब कुछ न्यौछावर करके उसके नव-निर्माण की भावना जाग जाती है। आचार्य तुलसी की राष्ट्रीय भावनाएं भौगोलिक सीमा में आबद्ध नहीं हैं । यद्यपि वे अपने को सार्वजनीन मानते हैं, अत: उनके विचार विशाल एवं व्यापक हैं, फिर भी भारत में जन्म लेने को वे अपना सौभाग्य मानते हैं। अपने सौभाग्य एवं दायित्वबोध को वे निम्न शब्दों में प्रकट करते हैं--- "मैं सौभाग्यशाली हूं कि भारत जैसे पवित्र देश में मुझे जन्म मिला, उसमें भ्रमण किया, उसके अन्न-जल का उपयोग किया और श्रद्धा एवं स्नेह को पाया। इसलिए मेरा फर्ज है कि समस्याओं के निदान और समाधान में त्याग और बलिदान द्वारा जितना बन सके, मानवता का कार्य करूं। मैंने अपने सम्पूर्ण सम्प्रदाय को इस दिशा में मोड़ने का प्रयास किया है। सचमुच, जिस महाविभूति का हर श्वास, हर वाणी राष्ट्रभक्ति के भावों से अनुप्राणित हो, उनके द्वारा किए जा रहे राष्ट्रीय एकता के कार्यों का सम्पूर्ण आकलन अनेकों लेखनियों से भी संभव नहीं है। १. हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय काव्य, पृ० १९ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ. १७१५ । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-दर्शन साहित्य समाज की चेतना में सांस लेता है, अतः साहित्यकार समाज की चेतना को तो प्रतिध्वनित करता ही है, साथ ही साथ वह अपने मौलिक एवं क्रांत चिन्तन से समाज को नया विचार एवं नया दिशादर्शन भी देता है । डॉ० वी० डी० वैश्य कहते हैं "समाज का यथार्थ ऊपर-ऊपर नहीं तैरता, उसकी कई परतें होती हैं । साहित्यकार की सूक्ष्म दृष्टि ही परतों को भेदकर उस यथार्थ को जनता के समक्ष प्रस्तुत करती है । " प्राचीन मनीषियों ने भी साहित्य और समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध माना है । नरेन्द्र कोहली कहते हैं -- “यदि साहित्य में दु:ख, वेदना या निराशा होगी तो समाज में भी निराशा एवं दुःख की वृद्धि होगी । साहित्य में उच्च गुणों की प्रशंसा होगी तो समाज में भी उसका सम्मान बढ़ेगा । साहित्य समाज से कहीं अधिक शक्तिशाली है क्योंकि समाज का निर्माण साहित्यकार के हाथों होता है । अतः साहित्यकार समाज का महत्त्वपूर्ण सदस्य है ।" समाज धनी - निर्धन, पूंजीपति मजदूर, शिक्षित-अशिक्षित आदि अनेक वर्गों में बंटा हुआ है । इन दोनों वर्गों में सन्तुलन का कार्य साहित्यकार ही कर सकता है । प्रेमचन्द इस बात को स्वीकार करते हैं कि समाज स्वयं नहीं चल सकता । उसका नियन्त्रण करने वाली सदा ही कोई अन्य शक्ति रही है । उसमें धर्माचार्य और साहित्यकार महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । आचार्य तुलसी धर्माचार्य के साथ साहित्यकार भी हैं अतः उनके साथ सहज ही मणिकांचन योग हो गया है । जिस प्रकार कबीर ने जो कुछ लिखा वह किताबी ज्ञान से नहीं, अपितु आंखों देखी बात लिखी, वैसे ही आचार्य तुलसी ने सामाजिक चेतना को अपनी अनुभव की आंखों से देखकर उसे संवारने का प्रयत्न किया है। उनके समाजदर्शन की विशेषता है कि उन्होंने सब कुछ स्वीकारा नहीं है, गलत मान्यताओं को फटकार एवं चुनौती भी दी है तथा उसके स्थान पर नए मूल्य निर्माण का संदेश दिया है । धर्माचार्य होने के नाते वे स्पष्ट शब्दों में अपने सामाजिक दायित्व को स्वीकारते हैं---" धर्मगुरुओं का काम सामायिक, ध्यान, तपस्या, कीर्तन १. प्रेमचन्द, पृ० १७२, १९० । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आदि की प्रेरणा देना ही नहीं है । समाज के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के साथ सामाजिक मूल्यों के परिष्कार का दायित्व भी उन्हीं पर होता है क्योंकि किसी भी समाज में धर्मगुरु के निर्देश का जितना पालन होता है, अन्य किसी का नहीं होता।" आचार्य तुलसी के उद्बोधन से समाज ने एक नयी करवट ली है तथा उसने युग के अनुसार अपने को बदलने का प्रयास भी किया है। दक्षिण यात्रा की एक घटना इसका बहुत बड़ा निदर्शन है--कन्याकुमारी के बाद जब आचार्य तुलसी केरल जाने लगे तब उन्होंने सोचा कि केरल में साम्यवादी सरकार है। यात्रा में इतनी बहिनें चूंघट और आभूषणों से लदी हैं, यह ठीक नहीं होगा। कोई मुसीबत खड़ी हो सकती है अतः रात्री में यात्रा-संघ की गोष्ठी बुलाई गई। महिलाओं को निर्देश दिया गया कि या तो चूंघट और आभूषणों का मोह त्यागें अथवा मंगलपाठ सुनकर राजस्थान की ओर रवाना हो जाएं। बहिनों के मन में उथल-पुथल मच गयी । वर्षों के संस्कार को एक क्षण में छोड़ना कठिन था। आचार्यश्री को भी विश्वास नहीं था कि बहिनें वैसा कर पाएंगी क्या ? पर आश्चर्य ! दूसरे ही दिन सभी बहिनें अपने धर्मगुरु के एक आह्वान पर परिवर्तन कर चुकी थीं। उनके उद्बोधनों ने समाज की अनेक रूढ़ियों को इसी प्रकार विदाई दी है। समाज के सम्यक् विकास एवं गति हेतु वे नारी जाति को उचित सम्मान देने के पक्षपाती हैं। उन्होंने अनेक बार इस स्वर को मुखर किया है-"जो समाज नारी को सम्मानपूर्वक जीने, स्वतन्त्र चिंतन करने और अपनी अस्मिता को पहचानने का अधिकार नहीं देता, वह विकास नहीं कर सकता । वे समाज को प्रतिबोध देते हैं कि स्त्री होने के कारण महिला जाति की क्षमताओं का समुचित अंकन और उपयोग न हो, इस चितन के साथ मेरी सहमति नहीं है। समाज में उचित व्यवस्था एवं सामंजस्य बनाए रखने के लिए आचार्य तुलसी नारी और पुरुष- समाज के इन दोनों वर्गों को सावधान करते हुए कहते हैं - "यदि पुरुष नारी बनने की कोशिश करेगा एवं नारी पुरुष बनने का प्रयत्न करेगी तो समाज और परिवार रुग्ण बने बिना नहीं रह सकेगा।" उसकी स्वस्थता का एक ही आधार है कि दोनों की विशेषताओं का पूरा-पूरा समादर किया जाए। प्रगतिशील एवं आधुनिक कहलाने का दम्भ भरने वाले नारी समाज १. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० ४२ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४९५ । ३. अणुव्रत अनुशास्ता के साथ, पृ० २७ । । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन को वे विशेष रूप से प्रतिबोध देते हैं-"नारी के मुख से जब मैं समानाधिकार की बात सुनता हूं तो मुझे जचता नहीं। कैसा समानाधिकार ? नारी के तो अपने अधिकार ही बहुत बड़े हैं। वह परिवार, समाज और राष्ट्र की निर्मात्री है। वह समान अधिकार की नहीं, स्व-अधिकार की अधिकारिणी है। कभी-कभी मुझे लगता है नारी पुरुष के बराबर ही नहीं, उसके विरोध में खड़ी होने का प्रयत्न कर रही है पर यह प्रतिक्रिया है; उसके विकास में बाधा है।" आचार्य तुलसी के इस चितन का यही निष्कर्ष है कि समाज तभी विकसित, गतिशील एवं सचेतन रह सकता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करते रहें। परिवार परिवार समाज की महत्त्वपूर्ण एवं बुनियादी इकाई है । पाश्चात्त्य देशों में परिवार पति-पत्नी पर आधारित हैं पर भारतीय परिवारों के मुख्य केन्द्र बालक, माता-पिता एवं दादा-दादी होते हैं। आचार्य तुलसी संयुक्त परिवार के पक्षपाती हैं क्योंकि इसमें निश्चिन्तता और स्थिरता रहती है । उनका मानना है कि परिवार के टूटने का प्रभाव केवल वर्तमान पीढ़ी पर ही नहीं पड़ता उससे भावी पीढ़ियां भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहतीं। ....... वर्तमान पीढ़ी की थोड़ी-सी असावधानी आने वाली कई पीढ़ियों को मानसिक दृष्टि से अपाहिज या संकीर्ण बना सकती है।"२ ।। आज संयुक्त परिवारों में तेजी से बिखराव आ रहा है। समाजशास्त्रियों ने पारिवारिक विघटन के अनेक कारणों की मीमांसा की है। आचार्य तुलसी की दृष्टि में व्यक्तिवादी मनोवृत्ति, असहिष्णुता, सन्देह, अहंकार, औद्योगीकरण, मकान तथा यातायात की समस्या आदि तत्त्व परिवार-विघटन में मुख्य निमित्त बनते हैं। पर सबसे बड़ा कारण वे पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव को मानते हैं-"पश्चिमी सभ्यता की घुसपैठ ने परिवार में बिखराव तो ला दिया, पर अकेलेपन की समस्या का समाधान नहीं किया ।" ' पारिवारिक विघटन से उत्पन्न कठिनाइयों को प्रस्तुत करते उनके ये सटीक प्रश्न आज की असहिष्णु पीढ़ी को कुछ सोचने को मजबूर कर रहे हैं-"स्वतन्त्र परिवार में कुछ सुविधाएं भले ही हों, पर उनकी तुलना में कठिनाइयां अधिक हैं। सबसे बड़ी कठिनाई है विरासत में प्राप्त होने वाले १. जैन भारती, १६ मार्च १९५८ । २. बीति ताहि विसारि दे, पृ० ६८ । ३. मनहंसा मोती चुगे, पृ० १०३ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण संस्कारों की। लड़की ससुराल जाते ही सास-ससुर आदि के साये से दूर रहने लगेगी तो उसे संस्कार कौन देगा ? पति के ऑफिस चले जाने पर सुबह से शाम तक अकेली स्त्री क्या करेगी ? बीमारी आदि की परिस्थिति में सहयोग किसका मिलेगा? कहीं आने-जाने के प्रसंग में घर और बच्चों का दायित्व कौन ओढ़ेगा? ऐसे ही कुछ और सवाल हैं, जो संयुक्त परिवार से मिलने वाली सुविधाओं को उजागर कर रहे हैं।" ___ अच्छे संस्कारों का संक्रमण संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी उपयोगिता है । इस तथ्य को आचार्य तुलसी अनेक बार भारतीय जनता के समक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं । भारत की प्राचीन संस्कृति की अवगति देते हुए वे आज की युवापीढ़ी को प्रतिबोध दे रहे हैं.-"प्राचीनकाल में बूढ़ी नानियों-दादियों के पास संस्कारों का अखूट खजाना हुआ करता था। सूर्यास्त के बाद बच्चों का जमघट उन्हीं के आस-पास रहता था। वे मीठी-मीठी कहानियां सुनाती, लोरियां गातीं, बच्चों के साथ संवाद स्थापित करतीं और बातों ही बातों में उन्हें संस्कारों की अमूल्य धरोहर सौंप जातीं। जिन लोगों को अपना बचपन नानियों-दादियों के साये में बिताने का मौका मिला है, वे आज भी उच्च संस्कारों से सम्पन्न हैं।" अलगाववादी मनोवृत्ति वाली युवापीढ़ी को रूपान्तरण का प्रतिबोध देते हुए उनका कहना है-- "जो व्यक्ति परिवार में बढ़ते हुए झगड़ों के कारण अलग रहने का निर्णय लेते हैं, उन्हें स्थान के बदले स्वभाव बदलने की बात सोचनी चाहिए '' इसी प्रकार परिवार की बुजुर्ग महिलाओं को भी मनोवैज्ञानिक तरीके से स्वभाव-परिवर्तन एवं व्यवहार परिष्कार की बात सुझाते हैं... "जिस प्रकार महिलाएं अपनी बेटी की गलती को शांति से सह लेती हैं, उसी प्रकार बहू को भी सहन करना चाहिए। अन्यथा उनके जीवन में दोहरे संस्कार और दोहरे मानदण्ड सक्रिय हो उठेंगे।" __ परिवार में शान्त सहवास का होना अत्यन्त अपेक्षित है। आचार्य तुलसी तो यहां तक कह देते हैं-... "जहां एक सदस्य दूसरे के जीवन में विघ्न बने बिना रहता है, जहां सापेक्षता बहुत स्पष्ट होती है, वहीं सही अर्थ में परिवार बनता है।'५ संयुक्त परिवार में शांत एवं सौहार्दपूर्ण सहवास के लिए आचार्य तुलसी चार गुणों का होना अनिवार्य मानते हैं- १. सहनशीलता, १. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० ५। २. आह्वान, पृ० ४। ३. बीती ताहि विसारि दे, पृ० ६७ । ४. अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत, पृ० १४२ । ५. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? , पृ० ६६ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १६७ २. स्नेहशीलता, ३. श्रमशीलता, ४. पारस्परिक विश्वास । उनका विश्वास है कि ये चार तत्त्व जिस परिवार के सदस्यों में हैं, वहां सैकड़ों सदस्यों की उपस्थिति में भी विघटन एवं तनाव की स्थिति घटित नहीं हो सकती । पाश्चात्त्य विद्वान् मैकेंजी कहते हैं- "यदि परिवार को छोटा राज्य कहें तो शिशु उसका वास्तविक सम्राट् है ।" बालकों के निर्माण में परिवार की अहं भूमिका रहती है। जिस परिवार में बच्चों के संस्कार - निर्माण की ओर ध्यान नहीं दिया जाता, कालान्तर में उस परिवार में सुख समृद्धि एवं विकास के द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं । आज समाज शास्त्री यह स्पष्ट उद्घोषणा कर चुके हैं कि जैसा परिवार होगा, वैसा ही बालक का व्यक्तित्व निर्मित होगा । आचार्य तुलसी की निम्न प्रेरणा अभिभावकों को दायित्वबोध कराने में सक्षम है..." आश्चर्य है कि रोटी कपड़े के लिए मनुष्य जब इतने कष्ट सह सकता है तो सन्तान को संस्कारी बनाने की ओर उसका ध्यान क्यों नहीं जाता ? "3 सामाजिक रूढ़ियां अंधविश्वास और रूढ़ियां किसी न किसी रूप में सर्वत्र रहेंगी । यदि उसके विरोध में आवाज उठती रहे तो समाज जड़ नहीं बनता । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं- " साहित्य सामाजिक मंगल का विधायक है । यह सत्य है कि वह व्यक्ति विशेष की प्रतिभा से रचित होता है किन्तु और भी अधिक सत्य यह है कि प्रतिभा सामाजिक प्रगति की ही उपज है ।"* आचार्य तुलसी ने समाज से पराङमुख होकर अपनी लेखनी एवं वाणी का उपयोग नहीं किया। समाज की किसी भी रूढ़ि या गलत परम्परा को अनदेखा नहीं किया । यही कारण है कि उनके पूरे साहित्य में समाज के सभी वर्गों की सामाजिक एवं धार्मिक कुरूढ़ियों पर प्रहार करने वाले हजारों वक्तव्य हैं । समाज की समस्याओं के बारे में आचार्य तुलसी नवीन सन्दर्भ में सोचने, देखने व परखने में सिद्धहस्त हैं । उन्होंने समाज की इस विवेक दृष्टि को खोलने का प्रयत्न किया कि सभी पूर्व मान्यताओं को नवीन कसौटियों पर नहीं कसा जा सकता । पुरानी चौखट पर नवीन तस्वीर को नहीं मढा जा सकता । उसमें भी कुछ युगीन एवं अपेक्षित संशोधन आवश्यक हैं । कहा जा सकता है कि उनके साहित्य में प्राचीन परम्परा और युगचेतना एक साथ साकार देखी जा सकती है । सामाजिक परम्पराओं के बारे में उनका चिन्तन स्पष्ट है कि १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४१९ । २. विचार और तर्क, पृ० २४४ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सामाजिक परम्पराएं एवं रीति-रिवाज एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रांत होते हैं और समाज को जोड़कर रखते हैं । पर जब उन परम्पराओं और रीति-रिवाजों में अपसंस्कृति का मिश्रण होने लगे, आडम्बर और प्रदर्शन होने लगे तो वे अपनी सांस्कृतिक गरिमा खो देते हैं ।"" इन क्रांत विचारों के कारण आचार्य तुलसी को रूढ़ि किसी भी क्षेत्र में प्रिय नहीं है । अच्छी से अच्छी बात में भी उनको यह आशंका हो जाए कि यह आगे जाकर रूढ़ि या देखादेखी का रूप ले सकती है तो वे स्थिति आने से पूर्व ही समाज को सावचेत कर उसमें नया उन्मेष लाने की बात सुभा देते हैं । आचार्य तुलसी हर परम्परा को अंधविश्वास या रूढ़ि नहीं मानते, क्योंकि वे मानते हैं कि सत्य अनन्त है अतः बुद्धिगम्य भाग को छोड़कर शेष विपुल सत्य को अन्धविश्वास कहना उचित नहीं है । पर जब उसमें अवांछनीय तत्त्व प्रवेश कर जाते हैं, तब समाज को दिशादर्शन देते हुए उनका कहना है -- "जिस परम्परा की अर्थवत्ता समाप्त हो जाए, जो रूढ़ि का रूप ले ले, जिसके कारण व्यक्ति या समाज पर आर्थिक दबाव पड़े और जो बुद्धि एवं आस्था के द्वारा भी समझ का विषय न बने, उस परम्परा का मूल्य एक शव से अधिक नहीं हो सकता ।" १६८ परिवर्तन एवं अनुकरण के बारे में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की निम्न उक्ति अत्यन्त मार्मिक है - " लज्जा प्रकाश ग्रहण करने में नहीं, अन्धानुकरण में होनी चाहिए । अविवेक पूर्ण ढंग से जो भी सामने पड़ गया उसे सिर माथे चढा लेना, अन्धभाव से अनुकरण करना जातिगत हीनता का परिणाम है। जहां मनुष्य विवेक को ताक पर रखकर सब कुछ ही अंधभाव से नकल करता है, वहां उसका मानसिक दैन्य और सांस्कृतिक दारिद्र्य प्रकट होता है। जहां सोच समझकर ग्रहण करता है" "वहां वह अपने जीवन्त स्वभाव का परिचय देता है ।"" आचार्य तुलसी की निम्न उक्ति रूढ़ एवं अन्धविश्वासी चेतना को परिवर्तन की प्रेरणा देने में पर्याप्त है - "समाज सदा परिवर्तनशील है अतः समय-समय पर उपयुक्त परिवर्तन के लिए हमें सदैव तैयार रहना चाहिए अन्यथा जीवन रूढ़ बन जाएगा और अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा । 13 आचार्य तुलसी समाज को अनेक बार चुनौती दे चुके हैं -- सामाजिक कुरूढ़ि एवं अन्धविश्वासों से समाज इतना जर्जर, दुःखी, निष्क्रिय, जड़ और सत्त्वहीन हो जाता है कि वह युग की किसी चुनौती को फेल नहीं १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ८५२ । २. हजारीप्रसाद द्विवेदी - ग्रन्थावली - भाग ७, पृ० १३८ । ३. जैन भारती, १६ अग० १९६९ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १६९ सकता । यही कारण है कि वे समाज में व्याप्त दुर्बलता, कुरीति एवं कमजोरी की तीखी आलोचना करते हैं पर उस आलोचना के पीछे उनका प्रगतिशील एवं सुधारवादी दृष्टिकोण रहता है, जो कम लोगों में मिलता है। निम्न वार्तालाप उनके व्यक्तित्व की उसी छवि को अंकित करता है एक कवि ने आचार्य तुलसी से पूछा- आप धर्मगुरु हैं ? राजनीतिज्ञ हैं या समाज सुधारक ? आचार्य तुलसी ने उत्तर दिया – “धर्मगुरु तो आप मुझे कहें या नहीं, पर मैं साधक हूं, समाज सुधारक भी हूं।" साधक होने के कारण उनका सुधारवादी दृष्टिकोण किसी कामना या लालसा से संपृक्त नहीं है, यही उनके सुधारवादी दृष्टिकोण का महत्त्वपूर्ण पहलू है । दहेज दहेज की परम्परा समाज के मस्तक पर कलंक का अमिट धब्बा है । इस विकृत परम्परा से अनेक परिवार क्षत-विक्षत एवं प्रताड़ित हुए हैं । अनेक कन्याओं एवं महिलाओं को असमय में ही कुचल दिया गया है । आचार्य तुलसी की प्रेरणा ने लाखों परिवारों को इस मर्मान्तक पीड़ा से मुक्त ही नहीं किया वरन् सैकड़ों कन्याओं के स्वाभिमान को भी जागृत करने का प्रयत्न किया है, जिससे समाज की इस विषैली प्रथा के विरुद्ध वे अपनी विनम्र एवं शालीन आवाज उठा सकें । राणावास में मेवाड़ी बहिनों के सम्मेलन में कन्याओं के भीतर जागरण का सिंहनाद करते हुए वे कहते हैं"दहेज वह कैंसर है, जिसने समाज को जर्जर बना दिया है । इस कष्टसाध्य बीमारी का इलाज करने के लिए बहिनों को कुर्बानी के लिए तैयार रहना होगा । आप लोगों में यह जागृति आए कि जहां दहेज की मांग होगी, ठहराव होगा, वहां हम शादी नहीं करेंगी । आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर जीवन व्यतीत करेंगी, तभी वांछित परिणाम आ सकता है ।" दहेजलोलुप लोगों की विवेक चेतना जगाते हुए आचार्य तुलसी कहते हैं—“कहां तो कन्या का गृहलक्ष्मी के रूप में सर्वोच्च सम्मान और कहां विवाह जैसे पवित्र संस्कार के नाम पर मोल तोल ! यह कुविचार ही नहीं, कुकर्म भी है ।"" आचार्य तुलसी ने समाज की इस कुप्रथा के विविध रूपों को पैनेपन के साथ उकेरकर वेधक प्रश्नचिह्न भी उपस्थित किए हैं "दहेज की खुली मांग, ठहराव, मांग पूरी करने की बाध्यता, प्राप्त दहेज का प्रदर्शन और टीका-टिप्पणी -- इससे आगे बढ़कर देखा जाए तो नवोढा के मन को व्यंग्य बाणों से छलनी बना देना, उसके पितृपक्ष पर टोंट कसना, बात-बात में उसका अपमान करना आदि क्या किसी शिष्ट और संयत मानसिकता की १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ८५३ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण उपज है ? दहेज की इस यात्रा का अन्त इसी बिन्दु पर नहीं होता.... .... अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक यातनाएं, मार-पीट, घर से निकाल देना और जिन्दा जला देना, क्या एक नारी की नियति यही है" । पिशाचिनी की भांति मुंह बाए खड़ी इस समस्या के उन्मूलन के प्रति आचार्य तुलसी आस्थावान् हैं। दहेज उन्मूलन हेतु प्रतिकार के लिए समाज को दिशाबोध देते हुए वे कहते हैं-"जहां कहीं, जब कभी दहेज को लेकर कोई अवांछनीय घटना हो, उस पर अंगुलि निर्देश हो, उसकी सामूहिक भर्सना हो तथा अहिंसात्मक तरीके से उसका प्रतिकार हो । ऐसे प्रसंगों को परस्मैपद की भाषा न देकर आत्मनेपद की भाषा में पढ़ा जाए, तभी इस असाध्य बीमारी से छुटकारा पाने की सम्भावना की जा सकती है।'' जातिवाद "मेरा अस्पृश्यता में विश्वास नहीं है। यदि कोई अवतार भी आकर उसका समर्थन करे तो भी मैं इसे मानने को तैयार नहीं हो सकता । मेरा मनुष्य की एक जाति में विश्वास है"--आचार्य तुलसी की यह क्रांतवाणी जातिवाद पर तीखा व्यंग्य करने वाली है। आचार्य तुलसी समता के पोषक हैं अतः उन्होंने पूरी शक्ति के साथ इस प्रथा पर प्रहार कर मानवीय एकता का स्वर प्रखर किया है। लगभग ४५ वर्षों से वे समाज की इस विषमता के विरोध में अपना आंदोलन छेड़े हुए हैं। इस बात की पुष्टि निम्न घटना प्रसंग से होती है सन् १९५४,५५ की बात है। आचार्यश्री के मन में विकल्प उठा कि मानव-मानव एक है, फिर यह भेद क्यों ? यह विचार मुनिश्री नथमलजी (युवाचार्य महाप्रज्ञ) के समक्ष रखा। उन्होंने एक पुस्तिका लिखी, जिसमें जातिवाद की निरर्थकता सिद्ध की गयी। पुस्तिका को देखकर आचार्यप्रवर ने कहा- अभी इसे रहने दो, समाज इसे पचा नहीं सकेगा। दो क्षण बाद फिर दृढ़ विश्वास के साथ उन्होंने कहा- "जब इन तथ्यों की स्थापना करनी ही है तो फिर भय किसका है ? ऊहापोह होगा, होने दो। किताब को समाज के समक्ष आने दो। इससे मानवता की प्रतिष्ठा होगी। हमारे सामने उन लाखों-करोड़ों लोगों की तस्वीरें हैं, जिन्हें पददलित एवं अस्पृश्य कहकर लोगों ने ठुकरा दिया है। ऐसे लोगों को हमें ऊंचा उठाना है, सहारा देना है।" इस घटना में आचार्य तुलसी का अप्रतिम साहस बोल रहा है। उच्चता और हीनता के मानदंडों को प्रकट करने वाली उनकी ये १. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० १७७ । २. अमृत सन्देश, पृ० ७० ।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १७१ पंक्तियां कितनी सटीक बनकर श्रीमंतों और महाजनों को अंतर में झांकने को प्रेरित कर रही हैं-"जाति के आधार पर किसी को दीन, हीन और अस्पृश्य मानना, उसको मौलिक अधिकारों से वंचित करना सामाजिक विषमता एवं वर्गसंघर्ष को बढ़ावा देना है। मैं तो मानता हूं जाति से व्यक्ति नीच, भ्रष्ट या घृणास्पद नहीं होता । जिनके आचरण खराब हैं, आदतें बुरी हैं, जो शराबी हैं, जुआरी हैं, वे भ्रष्ट हैं, चाहे वे किसी जाति के हों।" जातिवाद पनपने का एक बहुत बड़ा कारण वे रूढ़ धर्माचार्यों को मानते हैं । समय आने पर सामाजिक वैषम्य फैलाने वाले धर्माचार्यों को ललकारने से भी वे नहीं चूके हैं..."देश में लगभग पन्द्रह करोड़ हरिजन हैं । उनका सम्बन्ध हिन्दू समाज के साथ है। उनकी जो दुर्दशा हो रही है, उसका मुख्य कारण है-धर्मान्धता। ये धर्मान्ध लोग कभी उनके मन्दिर प्रवेश पर रोक लगाते हैं और कभी अन्य बहाना बनाकर अकारण ही उन्हें सताते हैं। क्या ऐसा कर उन्हें धर्म-परिवर्तन की ओर धकेला नहीं जा रहा है ? क्या ऐसा होना समाज के हित में होगा ? कुछ धर्मगुरु भी बेबुनियादी बातों को प्रश्रय देते हैं, जातिवाद का विष घोलते हैं और हिन्दु-समाज को आपस में लड़ाकर अपनी अहंवादी मनोवृत्ति का परिचय देते हैं। उनका यह कथन इस बात का संकेत है कि सभी धर्माचार्य और धर्मनेता चाहें तो वे समाज को टूटन और बिखराव की स्थिति से उबार सकते हैं। धर्मगुरुओं को वे विनम्र आह्वान करते हुए कहते हैं --- “देश के धर्मगुरुओं और धर्मनेताओं को मेरा विनम्र सुझाव है कि वे अपने अनुयायियों को नैतिक मूल्यों की ओर अग्रसर करें। उन्हें हिंसा, छुआछूत एवं साम्प्रदायिकता से बचाएं । पारस्परिक सौहार्द एवं सद्भावना बढ़ाने की प्रेरणा दें तथा इन्सानियत को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करें तो अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता आचार्य तुलसी ने जातिवाद के विरुद्ध आवाज ही नहीं उठाई, जीवन के अनेक उदाहरणों से समाज को सक्रिय प्रशिक्षण भी दिया है। सन् १९६१ के आसपास की घटना है। आचार्यवर कुछ साधु-साध्वियों को अध्ययन करवा रहे थे । सहसा प्रवचन सभा में बलाई जाति के लोगों को दरी छोड़ देने को कड़े शब्दों में कहा गया, देखते ही देखते उनके पैरों के नीचे से दरी निकाल ली गयी । आचार्यश्री को जब यह ज्ञात हुआ तो तत्काल अध्यापन का कार्य छोड़कर प्रवचनस्थल पर पधारे और कड़े शब्दों में समाज को ललकारते हुए कहा-"जाति से स्वयं को ऊंचा मानने वाले जरा सोचें तो १. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० १४३ । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ७९ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण 119 सही ऐसा कौन-सा मानव है, जिसका सृजन हाड़-मांस या रक्त से न हुआ हो ? ऐसी कौन-सी माता हैं, जिसने बच्चे की सफाई में हरिजनत्व न स्वीकारा हो ? भाइयो ! मनुष्य अछूत नहीं होता, अछूत दुष्प्रवृत्तियां होती हैं ।' ऐसे ही एक विशेष प्रसंग पर लोक चेतना को प्रबुद्ध करते हुए वे कहते हैं- " मैं समझ नहीं पाया, यह क्या मखौल है ? जिस घृणा को मिटाने के लिए धर्म है, उसी के नाम पर घृणा और मनुष्य जाति का विघटन ! मन्दिर में आप लोग हरिजनों का प्रवेश निषिद्ध कर देंगे पर यदि उन्होंने घर बैठे ही भगवान् को अपने मनमंदिर में बिठा लिया तो उसे कौन रोकेगा ? १२ लम्बी पदयात्राओं के दौरान अनेक ऐसे प्रसंग उपस्थित हुए, जबकि आचार्यश्री ने उन मंदिरों एवं महाजनों के स्थान पर प्रवास करने से इन्कार कर दिया, जहां हरिजनों का प्रवेश निषिद्ध था । १ जुलाई १९६८ की घटना है । आचार्य तुलसी दक्षिण के वेलोर गांव में विराज रहे थे । अचानक वे मकान को छोड़कर बाहर एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। पूछने पर मकान छोड़ने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा - "मुझे जब पता चला कि कुछ हरिजन भाई मुझसे मिलने नीचे खड़े हैं, उन्हें ऊपर नहीं आने दिया जा रहा है, यह देखकर मैं नीचे मकान के बाहर असीम आकाश के नीचे आ गया । इस विषम स्थिति को देखकर मेरे मन में विकल्प उठता है कि समाज में कितनी जड़ता है कि एक कुत्ता मकान में आ सकता है, साथ में खाना खा सकता है किंतु एक इन्सान मकान में नहीं आ सकता, यह कितने आश्चर्य की बात है ?" आचार्य तुलसी मानते हैं - "जाति, रंग आदि के मद से सामाजिक विक्षोभ पैदा होता है इसलिए यह पाप की परम्परा को बढ़ाने वाला पाप है ।" आचार्य तुलसी के इन सघन प्रयासों से समाज की मानसिकता में इतना अन्तर आया है कि आज उनके प्रवचनों में बिना भेदभाव के लोग एक दरी पर बैठकर प्रवचन का लाभ लेते हैं । सामाजिक क्रान्ति देश में अनेक क्रांतियां समय-समय पर घटित होती रही हैं, उनमें सामाजिक क्रांति की अनिवार्यता सर्वोपरि है क्योंकि रूढ़ परम्पराओं में जकड़ा समाज अपनी स्वतंत्र पहचान नहीं बना सकता । आचार्य तुलसी को सामाजिक क्रांति का सूत्रधार कहा जा सकता है। समाज को संगठित करने, उसे नई दिशा देने, जागृत करने तथा अच्छा-बुरा पहचानने में उनका १. जैन भारती, ३० अप्रैल १९६१ । २. २४-९-६५ के प्रवचन से उद्धृत । ३. जैन भारती, २१ जुलाई १९६८ । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १७३ क्रांतिकारी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आया है। क्रांति के संदर्भ में आचार्य तुलसी का निजी मंतव्य है कि क्रांति की सार्थकता तब होती है, जब व्यक्ति - चेतना में सत्य या सिद्धांत की सुरक्षा के लिए गलत मूल्यों या गलत तत्त्वों को निरस्त करने का मनोभाव जागता है ।' वे रूढ़ सामाजिक मान्यताओं के परिवर्तन हेतु क्रांति को अनिवार्य मानते हैं पर उसका साधन शुद्ध होना आवश्यक मानते हैं । 719 आचार्य तुलसी सामाजिक क्रांति की सफलता में मुख्य केन्द्र-बिन्दु युवा समाज को स्वीकारते हैं । इस सन्दर्भ में उनकी निम्न टिप्पणी पठनीय है - "क्रांति का इतिहास युवाशक्ति का इतिहास है। युवकों के सहयोग और असहयोग पर ही वह सफल एवं असफल होती है ।"" युवकों को अतिरिक्त महत्त्व देने पर भी उनका संतुलित एवं समन्वित दृष्टिकोण इस तथ्य को भी स्वीकारता है - " मैं मानता हूं समाज की प्रगति एवं परिवर्तन के लिए वृद्धों का अनुभव तथा युवकों की कर्तृत्व शक्ति दोनों का उपयोग है। मैं चाहता हूं वृद्ध अपने अनुभवों से युवकों का पथदर्शन करें और युवक वृद्धों के पथदर्शन में अपने पौरुष का उपयोग करें ।"3 आचार्य तुलसी की दृष्टि में सामाजिक क्रांति का होना चाहिए, समाज से नहीं । वे अनेक बार इस तथ्य चुके हैं कि व्यक्ति-परिवर्तन के माध्यम से किया गया समाज - परिवर्तन ही चिरस्थायी होगा । व्यक्ति-परिवर्तन की उपेक्षा कर थोपा गया समाजपरिवर्तन भविष्य में अनेक समस्याओं का उत्पादक बनेगा ।"* आचार्य तुलसी व्यक्ति-सुधार के माध्यम से समाज-सुधार करने में अधिक लाभ एवं स्थायित्व देखते हैं । 'अणुव्रत गीत' में भी वे इसी सत्य का संगान करते हैं सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, राष्ट्र स्वयं सुधरेगा । 'तुलसी' अणुव्रत सिंहनाद सारे जग में पसरेगा ।। सामाजिक क्रांति की सफलता के संदर्भ में आचार्य तुलसी का मानना है कि जब तक परिवर्तन और अपरिवर्तन का भेद स्पष्ट नहीं होगा, तब तक सामाजिक क्रांति का चिरस्वप्न साकार नहीं होगा ।" " सामाजिक संकट की विभीषिका को उनका दूरदर्शी व्यक्तित्व समय से पहले पहचान लेता है । इसी दूरदृष्टि के कारण वे परिवर्तन और स्थिरता १. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ८३ । २. भोर भई, पृ० २० । ३. धर्मचक्र का प्रवर्तन, पृ० २१७ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४९७ । ५. वही, पृ० १५५९ प्रारम्भ व्यक्ति से को अभिव्यक्ति दे Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण के बीच सेतु का काम करते रहते हैं । आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में अंधरूढ़ियों के विरोध में क्रांति की आवाज ही बुलन्द नहीं की अपितु उनके संशोधन एवं परिवर्तन की प्रक्रिया एवं प्रयोग भी प्रस्तुत किए हैं क्योंकि उनकी मान्यता है कि परिवर्तन और क्रांति के साथ यदि नया विकल्प या नई परम्परा समाज के समक्ष प्रकट नहीं की जाए तो वह क्रांति या परिवर्तन सफल नहीं हो पाता है। आचार्य तुलसी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का अंकन करते हुए राममनोहर त्रिपाठी कहते हैं ---"क्रांति की बात करना आसान है पर करना बहुत कठिन है। इसके लिए समग्रता से प्रयत्न करने की अपेक्षा रहती है । आचार्य तुलसी जैसे तपस्वी मानव ही ऐसा वातावरण निर्मित कर सकते हैं।" आचार्य तुलसी के समक्ष यह सत्य स्पष्ट है कि परम्परा का व्यामोह रखने वाले और विरोध की आग से डरने वाले कोई महत्त्वपूर्ण कार्य संपन्न नहीं कर सकते ।" जब आचार्य तुलसी ने सड़ी-गली मान्यताओं के विरोध में अपनी सशक्त आवाज़ उठाई, तब समाज में होने वाली तीव्र प्रतिक्रिया उनकी स्वयं की भाषा में पठनीय है---''मैंने समाज को सादगीपूर्ण एवं सक्रिय जीवन जीने का सूत्र तब दिया, जब आडम्बर और प्रदर्शन करने वालों को प्रोत्साहन मिल रहा था। इससे समाज में गहरा ऊहापोह हुआ। धर्माचार्य के अधिकारों की चर्चाएं चलीं। सामाजिक दायित्व का विश्लेषण हुआ और मुझे परम्पराओं का विघटक घोषित कर दिया गया। मेरा उद्देश्य स्पष्ट था इसलिए समाज की आलोचना का पात्र बनकर भी मैंने समय-समय पर प्रदर्शनमूलक प्रवृत्तियों, अंधपरम्पराओं और अंधानुकरण की वृत्ति पर प्रहार किया । वे प्रवचनों एवं निबंधों में स्पष्ट कहते रहते हैं - "मैं रूढ़ियों का विरोधी हूं, न कि परम्परा का। समाज में उसी परम्परा को जीवित रहने का अधिकार है, जो व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की धारा से जुड़कर उसे गतिशील बनाने में निमित्त बनती है। पर मैं इतना रूढ़ भी नहीं हूं कि अर्थहीन परम्पराओं को प्रश्रय देता रहूं।''3 वे इस सत्य को जीवन का आदर्श मानकर चल रहे हैं - "मैं परिवर्तन के समय में स्थिरता में विश्वास बनाए रखना चाहता हूं और स्थिरता के लिए परिवर्तन में विश्वास करता हूं । वह परिवर्तन मुझे मान्य नहीं, जहां सत्य की विस्मृति हो जाए । १. एक बंद : एक सागर, पृ० ८५१ । २. राजपथ की खोज, पृ० २०१ । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० ८५२,८५३ । ४. वही, पृ० ८६१ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १७५ सामाजिक क्रांति को घटित करने के कारण वे युगप्रवर्तक एवं युगप्रधान के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं। उन्होंने सदैव युग के साथ आवश्यकतानुसार स्वयं को बदला है तथा दूसरों को भी बदलने की प्रेरणा दी है। नया मोड़ . आडम्बर, प्रदर्शन एवं दिखावे की प्रवृत्ति से सामाजिक परम्पराएं इतनी बोझिल हो जाती हैं कि उन्हें निभाते हुए सामान्य व्यक्ति की तो आर्थिक रीढ़ ही टूट जाती है और न चाहते हुए भी उसके कदम अनैतिकता की ओर अग्रसर हो जाते हैं। आचार्य तुलसी सामाजिक कुरीतियों को जीवनविकास का सबसे बड़ा बाधक तत्त्व मानते हैं। समाज के बढ़ते हुए आर्थिक बोझ तथा सामाजिक विकृतियों को दूर करने हेतु उन्होंने सन १९५८ के कलकत्ता प्रवास में अणुव्रत आंदोलन के अन्तर्गत 'नए मोड़' का सिंहनाद फूंका। आचार्य तुलसी के शब्दों में 'नए मोड़' का तात्पर्य है-"जीवन दिशा का परिवर्तन । आडम्बर और कुरूढ़ियों के चक्रव्यूह को भेदकर संयम, सादगी की ओर अग्रसर होना । विषमता और शोषण के पंजे से समाज को मुक्त करना । अहिंसा और अपरिग्रह के माध्यम से जीवन-विकास का मार्ग प्रस्तुत करना । जीवन की कुण्ठित धारा को गतिशील बनाना।"" दहेज प्रथा को मान्यता देना, शादी के प्रसंग में दिखावा करना, मृत्यु पर प्रथा रूप से रोना, पति के मरने पर वर्षों तक स्त्री का कोने में बैठे रहना, विधवा स्त्री को कलंक मानना, उसका मुख देखने को अपशकुन कहना --आदि ऐसी रूढ़ियां हैं, जिनको आचार्य तुलसी ने इस नए अभिक्रम में उनको ललकारा है। आज ये कुरूढ़ियां उनके प्रयत्न से अपनी अन्तिम सांसें ले रही हैं। इस नए अभिक्रम की विधिवत् शुरुआत राजनगर में तेरापंथ की द्विशताब्दी समारोह (१९५९) की पुनीत बेला में हुई। आचार्य तुलसी ने 'नए मोड़' को जन-आंदोलन का रूप देकर नारी जाति को उन्मुक्त आकाश में सांस लेने की बात समझाई। बहिनों में एक नयी चेतना का सचार किया। नए मोड़ के प्रारम्भ होने से राजस्थानी बहिनों का अपूर्व विकास हुआ । जो स्त्री पर्दे में रहती थी, शिक्षा के नाम पर जिसे एक अक्षर भी नहीं पढ़ाया जाता था, यात्रा के नाम पर जो स्वतन्त्र रूप से घर की दहलीज भी नहीं लांघ सकती थी, उस नारी को सार्वजनिक मंच पर उपस्थित कर उसे अपनी शक्ति और अस्तित्व का अहसास करवा दिया। १. जैन भारती, १७ सित० १९६१ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अपने प्रयाण गीत में वे क्रांतिकारी भावनाओं को व्यक्त करते हुए वे कहते हैं १७६ " "नया मोड़ हो उसी दिशा में, नयी चेतना फिर जागे, तोड़ गिराएं जीर्ण-शीर्ण जो अंधरूढ़ियों के धागे । आगे बढ़ने का अब युग है, बढ़ना हमको सबसे प्यारा ॥' जन्म, विवाह एवं मृत्यु के अवसर पर लाखों-करोड़ों रुपयों को पानी भांति बहाया जाता है । इन झूठे मानदंडों को प्रतिष्ठित करने से समाज की गति अवरुद्ध हो जाती है । 'नए मोड़' अभियान के माध्यम से आचार्य तुलसी ने समाज की प्रदर्शनप्रिय एवं आडम्बरप्रधान मनोवृत्ति को संयम, सादगी एवं शालीनता की ओर मोड़ने का भागीरथ प्रयत्न किया है। आचार्य तुलसी का चिन्तन है कि मानव अपनी आंतरिक रिक्तता पर आवरण डालने के लिए प्रदर्शन का सहारा लेता है । उन्होंने समाज में होने वाले तर्कहीन एवं खोखले आडम्बरों का यथार्थ चित्रण अपने साहित्य में अनेक स्थलों पर किया है । यहां उसके कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं, जिससे समाज वास्तविकता के धरातल पर खड़ा होकर अपने आपको देख सके | निम्न विचारों को पढ़ने से समझा जा सकता है कि वे समाज की हर गतिविधि के प्रति कितने जागरूक हैं ? जन्म दिन पर होने वाली पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण आचार्य तुलसी की दृष्टि में सम्यक् नहीं है । इस पर प्रश्नचिह्न उपस्थित करते हुए वे कहते हैं – " केक काटना, मोमबत्तियां जलाना या बुझाना आदि जैन क्या भारतीय संस्कृति के भी अनुकूल नहीं है । फिर भी आधुनिकता के नाम पर सब कुछ चलता है । कहां चला गया मनुष्य का विवेक ? क्या यह आंख मूंदकर चलने का अभिनय नहीं है ?" शादी आज सादी नहीं, बर्बादी बनती जा रही है। विवाह के अवस पर होने वाले आडम्बरों एवं रीति-रिवाजों की एक लम्बी सूची प्रस्तुत करते हुए वे समाज को कुछ सोचने को मजबूर कर रहे हैं "विवाह से पूर्व सगाई के अवसर पर बड़े-बड़े भोज, साते या बींटी में लेन-देन का असीमित व्यवहार, बारात ठहराने एवं प्रीतिभोजों के लिए फाइव स्टार (पंचसितारा ) होटलों का उपयोग, घर पर और सड़क पर समूहनृत्य, मण्डप और पण्डाल की सजावट में लाखों का व्यय, कार से उतरने के स्थान से लेकर पण्डाल तक फूलों की सघन सजावट, बिजली की अतिरिक्त जगमगाहट, कुछ मनचले लोगों द्वारा बारात में शराब का प्रयोग, एक-एक खाने में सैंकड़ों किस्म के खाद्य, अनेक प्रकार के पेय, प्रत्येक दस मिनट के १. आह्वान पृ० १३ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १७७ बाद नए-नए खाद्य-पेय की मनुहार - क्या यह सब धार्मिक कहलाने वाले परिवारों में नहीं हो रहा है ? समाज का नेतृत्व करने वाले लोगों में नहीं हो रहा है ? एक ओर करोड़ों लोगों को दो समय का पूरा भोजन मयस्सर नहीं होता, दूसरी ओर भोजन-व्यवस्था में लाखों-करोड़ों की बर्बादी । समझ में नहीं आता, यह सब क्या हो रहा है ?' " शादी की वर्षगांठ को धूमधाम से मनाना आधुनिक युग की फैशन बनती जा रही है । इसकी तीखी आलोचना करते हुए वे समाज का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं " प्राचीनकाल में एक बार विवाह होता और सदा के लिए छुट्टी हो जाती । पर अब तो विवाह होने के बाद भी बार-बार विवाह का रिहर्सल किया जाता है। विवाह की सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली, षष्टिपूर्ति आदि न जाने कितने अवसर आते हैं, जिन पर होने वाले समारोह प्रीतिभोज आदि देखकर ऐसा लगता है मानो नए सिरे से शादी हो रही है ।' मृतक प्रथा पर होने वाले आडम्बर और अपव्यय पर उनका व्यंग्य कितना मार्मिक एवं वेधक है – “आश्चर्य है कि जीवनकाल में दादा, पिता और माता को पानी पिलाने की फुरसत नहीं और मरने के बाद हलुआ, पूड़ी खिलाना चाहते हैं, यह कैसी विडम्बना और कितना अंधविश्वास है ! 113 इसके अतिरिक्त 'नए मोड़' के माध्यम से उन्होंने विधवा स्त्रियों के प्रति होने वाली उपेक्षा एवं दयनीय व्यवहार को भी बदलने का प्रयत्न किया है । इस संदर्भ में उन्होंने समाज को केवल उपदेश ही नहीं दिया, बल्कि सक्रिय प्रयोगात्मक प्रशिक्षण भी दिया है। हर मंगल कार्य में अपशकुन समझी जाने वाली विधवा स्त्रियों का उन्होंने प्रस्थान की मंगल बेला में अनेक बार शकुन लिया है तथा समाज की भ्रांत धारणा को बदलने का प्रयत्न किया है । विधवा स्त्रियों की दयनीय स्थिति का चित्रण करती हुई उनकी ये पंक्तियां समाज को चिन्तन के लिए नए बिन्दु प्रस्तुत करने वाली हैं - "विधवा को अपने ही घर में नौकरानी की तरह रहना पड़ता है । क्या कोई पुरुष अपनी पत्नी के वियोग में ऐसा जीवन जीता है ? यदि नहीं तो स्त्री ने ऐसा कौन-सा अपराध किया, जो उसे ऐसी हृदय विदारक वेदना भोगनी पड़े । समाज का दायित्व है कि ऐसी वियोगिनी योगिनियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण वातावरण का निर्माण करे और उन्हें सचेतन जीवन जीने का अवसर दे ।" १. आह्वान, पृ० ११,१२ । २. वही, पृ० १३ । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० ९ । 2 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सती प्रथा के विरोध में भी उन्होंने अपना स्वर प्रखर किया है । वे स्पष्ट कहते हैं- "समाज और धर्म के कुछ ठेकेदारों ने सती प्रथा को धार्मिक परम्परा का जामा पहना कर प्रतिष्ठित कर दिया। यह अपराध है, मातृ जाति का अपमान है और विधवा स्त्रियों के शोषण की प्रक्रिया है।" समाज ही नहीं, धार्मिक स्थलों पर होने वाले आडम्बर और प्रदर्शन के भी वे खिलाफ हैं । धार्मिक समारोहों को भी वे रूढ़ि एवं प्रदर्शन का रूप नहीं लेने देते । उदयपुर चातुर्मास प्रवेश पर नागरिक अभिनन्दन का प्रत्युत्तर देते हुए वे कहते हैं-- “मैं नहीं चाहता कि मेरे स्वागत में बैंड बाजे बजाए जाएं, प्रवचन पंडाल को कृत्रिम फूलों से सजाया जाए। यह धर्मसभा है या महफिल ? कितना आडम्बर ! कितनी फिजूल खर्ची !! मैं यह भी नहीं चाहता कि स्थान-स्थान पर मुझे अभिनन्दन-पत्र मिलें। हार्दिक भावनाएं मौखिक रूप से भी व्यक्त की जा सकती हैं, सैंकड़ों की संख्या में उनका प्रकाशन करना धन का अपव्यय है। माना, आपमें उत्साह है पर इसका मतलब यह नहीं कि आप धर्म को आडम्बर का रूप दें।"१ बगड़ी में प्रदत्त निम्न प्रवचनांश भी उनकी महान् साधकता एवं आत्मलक्ष्यी वृत्ति की ओर इंगित करता है-..... .."प्रवचन पंडालों में अनावश्यक बिजली की जगमगाहट का क्या अर्थ है ? प्रत्येक कार्यक्रम के वीडियो कैसेट की क्या उपयोगिता है ?"२ वे कहते हैं - "धार्मिक समाज ने यदि इस सन्दर्भ में गम्भीरता से चिन्तन नहीं किया तो अनेक प्रकार की जटिलताओं का सामना करना पड़ सकता है।" आचार्य तुलसी समाज की मानसिकता को बदलना चाहते हैं पर बलात् या दबाव से नहीं, अपितु हृदय-परिवर्तन से । यही कारण है कि अनेक स्थलों पर उन्हें मध्यस्थ भी रहना पड़ता है । अपनी दक्षिण यात्रा का अनुभव वे इस भाषा में प्रकट करते हैं- "मेरी दक्षिण-यात्रा में ऐसे कई प्रसंग उपस्थित हुए, जिनमें बैंड बाजों से स्वागत किया गया। हरियाली के द्वार बनाए गए । तोरणद्वार सजाए गए । पूर्ण जलकुंभ रखे गये। फलों, फूलों और फूल-मालाओं से स्वागत की रस्म अदा की गई। चावलों के साथिए बनाए गए। कन्याओं द्वारा कच्चे नारियल के जगमगाते दीपों से आरती उतारी गई। कुंकुम-केसर चरचे गए। शंखनाद के साथ वैदिक मंत्रोच्चारण हुआ। स्थान-स्थान पर मेरी अगवानी में सड़क पर घड़ों भर पानी छिड़का गया । उन लोगों को समझाने का प्रयास हुआ, पर उन्हें मना नहीं सके । वे हर मूल्य १. जैन भारती, १० जून १९६२ । २. जीवन की सार्थक दिशाएं, पृ० ८८ । ३. आह्वान, पृ० १६ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १७९ पर अपनी परम्परा का निर्वाह करना चाहते थे। ऐसी परिस्थिति में मैं अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर सकता हूं, किन्तु किसी पर दबाव नहीं डाल सकता । " 2 सामाजिक क्रांति से आचार्य तुलसी का स्पष्ट अभिमत है- "जहां क्रांति का प्रश्न है, वहां दबाव या भय से काम तो हो सकता है, पर उस स्थिति को क्रांति नाम से रूपायित करने में मुझे संकोच होता है ।" उनकी दृष्टि में क्रांति की सफलता के लिए जनमत को जागृत करना आवश्यक है । हजारीप्रसाद द्विवेदी का मंतव्य है "सिर्फ जानना या अच्छा मानना ही काफी नहीं होता, जानते तो बहुत से लोग हैं, परन्तु उसको ठीक-ठीक अनुभव भी करा देना साहित्यकार का कार्य है ।"" 113 आचार्य तुलसी के सत्प्रयासों एवं ओजस्वी वाणी से समाज ने एक नई अंगड़ाई ली है, युग की नब्ज को पहचानकर चलने का संकल्प लिया है तथा अपनी शक्ति का नियोजन रचनात्मक कार्यों में करने का अभिक्रम प्रारम्भ किया है । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आचार्य तुलसी द्वारा की गयी सामाजिक क्रांति का यदि लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाए तो एक स्वतंत्र शोधप्रबंध तैयार किया जा सकता है । " नारो पुरुष हृदय पाषाण भले ही हो सकता है, नारी हृदय न कोमलता को खो सकता है । पिघल - पिघल अपने अन्तर को धो सकता है, रो सकता है, किंतु नहीं वह सो सकता है || आचार्य तुलसी द्वारा उद्गीत इन काव्य पंक्तियों में नारी की मूल्यवत्ता एवं गुणात्मकता की स्पष्ट स्वीकृति है । आचार्य तुलसी मानते हैं कि महिला वह धुरी है, जिसके आधार पर परिवार की गाड़ी सम्यक् प्रकार से चल सकती है । धुरी मजबूत न हो तो कहीं भी गाडी के अटकने की संभावना बनी रहती है ।" उनकी दृष्टि में संयम, शालीनता, समर्पण, सहिष्णुता की सुरक्षा पंक्तियों में रहकर ही नारी गौरवशाली इतिहास का सृजन कर सकती है । आचार्य तुलसी के दिल में नारी की कितनी आकर्षक तस्वीर है, १. राजपथ की खोज, पृ० २०२ । २. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० १९३ । ३. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली भाग ७, १० २०६ | ४. दोनों हाथ एक साथ, पृ० ४६ । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० . आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण इस बात की झांकी निम्न पंक्तियों में देखी जा सकती है- "मैं महिला को ममता, समता और क्षमता की त्रिवेणी मानता हूं। उसके ममता भरे हाथों से नई पीढ़ी का निर्माण होता है, समता से परिवार में संतुलन रहता है और क्षमता से समाज एवं राष्ट्र को संरक्षण मिलता है। आचार्य तुलसी की प्रेरणा से युगों से आत्मविस्मृत नारी को अपनी अस्मिता और कर्तृत्वशक्ति का तो अहसास हुआ ही है, साथ ही उसकी चेतना में क्रांति का ऐसा ज्वालामुखी फूटा है, जिससे अंधविश्वास, रूढसंस्कार, मानसिक कुंठा और अशिक्षा जैसी बुराइयों के अस्तित्व पर प्रहार हुआ है। आचार्य तुलसी अनेक बार महिला सम्मेलनों में अपने इस संकल्प को मुखर करते हैं -- "शताब्दियों से अशिक्षा के कुहरे से आच्छन्न महिला-समाज को आगे लाना मेरे अनेक स्वप्नों में से एक स्वप्न है । ......."मैं महिला-समाज के अतीत को देखता हूं तो मुझे लगता है, उसने बहुत प्रगति की है । भविष्य की कल्पना करता है तो लगता है कि अभी बहुत विकास करना है।" यह कहना अत्युक्ति या प्रशस्ति नहीं होगा कि यह सदी आचार्य तुलसी को और अनेक रूपों में तो याद करेगी ही पर नारी उद्धारक के रूप में उनकी सदैव अभिवन्दना करती रहेगी। नारी के भीतर पनपने वाली हीनता एवं दुर्बलता की ग्रंथि को आचार्य तुलसी ने जिस मनोवैज्ञानिक ढंग से सुलझाया है, वह इतिहास के पृष्ठों में अमर रहेगा। वे नारी को संबोधित करते हुए कहते हैं --"पुरुष नारी का सम्मान करे, इससे पहले यह आवश्यक है कि नारी स्वयं अपना सम्मान करना सीखे । महिलाएं यदि प्रतीक्षा करती रहेंगी कि कोई अवतार आकर उन्हें जगाएगा तो समय उनके हाथ से निकल जाएगा और वे जहां खड़ी हैं, वहीं खड़ी रहेंगी।" इसी संदर्भ में उनकी निम्न प्रेरणा भी नारी को उसकी अस्मिता का अहसास कराने वाली हैं - "पुरुषवर्ग नारी को देह रूप में स्वीकार करता है, किंतु वह उसके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय दे, तभी वह पुरुषों को चुनौती दे सकती है।"४. नारी जाति में अभिनव स्फूर्ति एवं अट आत्मविश्वास भरने वाले निम्न उद्धरण कितने सजीव एवं हृदयस्पर्शी बन पड़े हैं --- ० केवल लक्ष्मी और सरस्वती बनने से ही महिलाओं का काम नहीं १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १०६६ । २. वही, पृ० १७३२ । ३. वही, पृ० १०६६ ।। ४. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० ८५। . Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन चलेगा, उन्हें दुर्गा भी बनना होगा। दुर्गा बनने से मेरा मतलब हिंसा या आतंक फैलाने से नहीं, शक्ति को संजोकर रखने से है ।" ० नारी अबला नहीं, सबला बने । बोझ नहीं, शक्ति बने। कलहकारिणी नहीं, कल्याणी बने। • आज का क्षण महिलाओं के हाथ में है। इस समय भी अगर महिलाएं सोती रहीं, घड़ी का अलार्म सुनकर भी प्रमाद करती रहीं तो भी सूरज को तो उदित होना ही है। वह उगेगा और अपना आलोक बिखेरेगा। • स्त्री में सृजन की अद्भुत क्षमता है। उस क्षमता का उपयोग विश्वशांति या समस्याओं के समाधान की दिशा में किया जाए तो वह सही अर्थ में विश्व की निर्मात्री और संरक्षिका होने का सार्थक गौरव प्राप्त कर सकती है।"२ आचार्य तुलसी ने नारी जाति को उसकी अपनी विशेषताओं से ही नहीं, कमजोरियों से भी अवगत कराया है, जिससे कि उसका सर्वांगीण विकास हो सके । महिला-अधिवेशनों को संबोधित करते हुए नारी समाज को दिशादर्शन देते हुए वे अनेक बार कह चुके हैं--"मैं बहिनों को सुझाना चाहता हूं कि यदि उन्हें संघर्ष ही करना है तो वे अपनी दुर्बलताओं के साथ संघर्ष करें । उनके साहित्य में नारी जाति से जुड़ी कुछ अर्थहीन रूढियों एवं दुर्बलताओं का खुलकर विवेचन ही नहीं, उन पर प्रहार भी हुआ है तथा उसकी गिरफ्त से नारी-समाज कैसे बचे, इसका प्रेरक संदेश भी है। सौन्दर्य-सामग्री और फैशन की अंधी दौड़ में नारी ने अपने आचारविचार एवं संस्कृति को भी ताक पर रख दिया है। इस संदर्भ में उनके निम्न उद्धरण नारी जाति को कुछ सोचने, समझने एवं बदलने की प्रेरणा देते हैं० मातृत्व के महान् गौरव से महनीय, कोमलता, दयालुता आदि अनेक गुणों की स्वामिनी स्त्री पता नहीं भीतर के किस कोने से खाली है, जिसे भरने के लिए उसे ऊपर की टिपटॉप से गुजरना पड़ता है। मैं मानता हूं कि फैशनपरस्ती, दिखावा और विलासिता आदि दुर्गुण स्त्री समाज के अन्तर् सौन्दर्य को ढकने वाले आवरण ० अपने कृत्रिम सौन्दर्य को निखारने के लिए पशु-पक्षियों की निर्मम १. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० २१ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १९१४ । ३. वही, पृ० १६१३ । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण हत्या को किस प्रकार बर्दाश्त किया जा सकता है, यह प्रश्नचिह्न मेरे अंतःकरण को बेचैन बना रहा है।"१ उनका चितन है कि यदि वैज्ञानिक संवेदनशील यंत्रों के माध्यम से वायुमंडल में विकीर्ण उन बेजुबान प्राणियों की करुण चीत्कारों के प्रकम्पनों को पकड़ सके और उनका अनुभव करा सके तो कृत्रिम सौन्दर्य सम्बन्धी दृष्टि बदल सकती है। आज कन्याभ्रूणों की हत्या का जो सिलसिला बढ़ रहा है, इसे वे नारी-शोषण का आधुनिक वैज्ञानिक रूप मानते हैं तथा उसके लिए महिला समाज को ही दोषी ठहराते हैं। नारी जाति को भारतीय संस्कृति से परिचित कराती हुई उनकी निम्न प्रेरणादायिनी पंक्तियां पठनीय ही नहीं, मननीय भी हैं--. "भारतीय मां की ममता का एक रूप तो वह था, जब वह अपने विकलांग, विक्षिप्त और बीमार बच्चे का आखिरी सांस तक पालन करती थी। परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा की गई उसकी उपेक्षा से मां पूरी तरह से आहत हो जाती थी। वही भारतीय मां अपने अजन्मे, अबोल शिशु को अपनी सहमति से समाप्त करा देती है। क्यों ? इसलिए नहीं कि वह विकलांग है, विक्षिप्त है, बीमार है पर इसलिए कि वह एक लड़की है । क्या उसकी ममता का स्रोत सूख गया है ? कन्याभ्रूणों की बढ़ती हुई हत्या एक ओर मनुष्य को नृशंस करार दे रही है, तो दूसरी ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी से मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है। वे नारी जाति के विकास हेतु उचित स्वातंत्र्य के ही पक्षधर हैं, क्योंकि सावधानी के अभाव में स्वतंत्रता स्वच्छंदता में परिणत हो जाती है तथा प्रगति का रास्ता नापने वाले पग उत्पथ में बढ़ जाते हैं। विकास के नाम पर अवांछित तत्त्व भी जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। इस दृष्टि से वे भारतीय नारी को समय-समय पर जागरूकता का दिशाबोध देते रहते हैं। - आचार्य तुलसी पोस्टरों तथा पत्र-पत्रिकाओं में नारी-देह की अश्लील प्रस्तुति को नारी जाति के गौरव के प्रतिकूल मानते हैं। इसमें भी वे नारी जाति को ही अधिक दोषी मानते हैं, जो धन के प्रलोभन में अपने शरीर का प्रदर्शन करती है तथा सामाजिक शिष्टता का अतिक्रमण करती है । नारी के अश्लील रूप की भर्त्सना करते हुए वे कहते हैं-- "मुझे ऐसा लगता है कि एक व्यवसायी को अपना व्यवसाय चलाने १. विचार वीथी, पृ० १७० । २. कुहासे में उगता सूरज , पृ० ९७ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १८३ की जितनी आकांक्षा होती है, शायद उससे भी अधिक आकांक्षा उन महिलाओं के मन में ढेर सारा धन बटोरने की पल रही होगी, जो समाज के मूल्य-मानकों को ताक पर रखकर कैमरे के सामने प्रस्तुत होती हैं।" ___ आचार्य तुलसी ने अनेक बार इस सत्य को अभिव्यक्त किया है कि पुरुष नारी के विकास में अवरोधक बना है, इसमें सत्यांश हो सकता है पर नारी स्वयं नारी के विकास में बाधक बनती है, यह वास्तविकता है। दहेज की समस्या को बढ़ाने में नारी जाति की अहंभूमिका रही है, इसे नकारा नहीं जा सकता। इसी बात को आश्चर्यमिश्रित भाषा में प्रखर अभिव्यक्ति देते हुए वे कहते हैं-"आश्चर्य इस बात का है कि दहेज की समस्या को बढ़ाने में पुरुषों का जितना हाथ है, महिलाओं का उससे भी अधिक है । दहेज के कारण अपनी बेटी की दुर्दशा को देखकर भी एक मां पुत्र की शादी के अवसर पर दहेज लेने का लोभ संवरण नहीं कर सकती । अपनी बेटी की व्यथा से व्यथित होकर भी वह बहू की व्यथा का अनुभव नहीं करती।" ___ इसी संदर्भ में उनका दूसरा उदबोधन भी नारी-चेतना एवं उसके आत्मविश्वास को जागृत करने वाला है-"दहेज के सवाल को मैं नारी से ही शुरू करना चाहता हूं। मां, सास तथा स्वयं लड़की जब दहेज को अस्वीकार करेगी तभी उसका सम्मान जागेगा। इस तरह एक सिरे से उठा आत्मसम्मान धीरे-धीरे पूरी समाज-व्यवस्था में अपना स्थान बना सकता है । एक धर्माचार्य होने पर भी नारी जाति से जुड़ी ऐसी अनेक रूढियों एवं कमजोरियों की जितनी स्पष्ट अभिव्यक्ति आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में दी है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। नारी जाति को विकास का सूत्र देते हुए उनका कहना है-... "विकास के लिए बदलाव एवं ठहराव दोनों जरूरी हैं । मौलिकता स्थिर रहे और उसके साथ युगीन परिवर्तन भी आते रहें, इस क्रम से विकास का पथ प्रशस्त होता है । आचार्य तुलसी नारी की शक्ति के प्रति पूर्ण आश्वस्त हैं। उनका इस बात में विश्वास है कि अगर नारी समाज को उचित पथदर्शन मिले तो वे पुरुषों से भी आगे बढ़ सकती हैं । वे कहते हैं --- "मेरे अभिमत से ऐसा कोई कार्य नहीं है, जिसे महिलाएं न कर सकें ।"५ अपने विश्वास को १. कुहासे में उगता सूरज , पृ० ११३ । २. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० १७८ । ३. अणुव्रत अनुशास्ता के साथ, पृ० २९ । ४. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० ४५। ५. बहता पानी निरमला, पृ० २८१। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण महिला समाज के समक्ष वे इस भाषा में रखते हैं- "महिलाओं की शक्ति पर मुझे पूरा भरोसा है । जिस दिन मेरे इस भरोसे पर महिलाओं को पूरा भरोसा हो जाएगा, उस दिन सामाजिक चेतना में क्रान्ति का एक नया विस्फोट होगा, जो नवनिर्माण की पृष्ठभूमि के रूप में सामने आएगा।" नारी जाति के प्रति अतिरिक्त उदारता की अभिव्यक्ति कभी-कभी तो इन शब्दों में प्रस्फुटित हो जाती है - "मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूं, जब स्त्रीसमाज का पर्याप्त विकास देखकर पुरुष वर्ग उसका अनुकरण करेगा।'' एक पुरुष होकर नारी जाति के इस उच्च विकास की कामना उनके महिमामंडित व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। युवक युवक शक्ति का प्रतीक और राष्ट्र का भावी कर्णधार होता है पर उचित मार्गदर्शन के अभाव में जहां वह शक्ति विध्वंसक बनकर सम्पूर्ण मानवता का विनाश कर सकती है, वहां वही शक्ति कुशल नेतृत्व में सृजनात्मक एवं रचनात्मक ढंग से कार्य करके देश का नक्शा बदल सकती है। आचार्य तुलसी ने युवकों की सृजन चेतना को जागृत किया है। उनका विश्वास है कि देश की युवापीढ़ी तोड़-फोड़ एवं अपराधों के दौर से तभी गुजरती है, जब उसके सामने कोई ठोस रचनात्मक कार्य नहीं होता है। आचार्यश्री ने युवापीढ़ी के समक्ष करणीय कार्यों की एक लम्बी सूची प्रस्तुत कर दी है, जिससे उनकी शक्ति को सृजन की धारा के साथ जोड़ा जा सके। उनकी अनुभवी, हृदयस्पर्शी और ओजस्वी वाणी ने सैकड़ों धीर, वीर, गंभीर, तेजस्वी, मनीषी और कर्मठ युवकों को भी तैयार किया है । आचार्य तुलसी ने अपने जीवन से युवकत्व को परिभाषित किया है। वे कहते हैं० युवक वह होता है, जिसकी आंखों में सपने हों, होठों पर उन सपनों को पूरा करने का संकल्प हो और चरणों में उस ओर अग्रसर होने का साहस हो, विचारों में ठहराव हो, कार्यों में अंधानुकरण न हो।" ० जहां उल्लास और पुरुषार्थ अठखेलियां करे, वहां बुढ़ापा कैसे आए ? ___ वह युवा भी बूढ़ा होता है, जिसमें उल्लास और पौरुष नहीं होता। आचार्य तुलसी की युवकों के नवनिर्माण की बेचैनी को निम्न शब्दों में देखा जा सकता है- "मुझे युवकों के नवनिर्माण की चिन्ता है, न कि उन्हें शिष्य बनाए रखने की। मैं युवापीढ़ी के बहुआयामी विकास को देखने के लिए बेचैन हूं। मेरी यह बेचैनी एक-एक युवक के भीतर उतरे, उनकी ऊर्जा का केन्द्र प्रकम्पित हो और उस प्रकम्पन धारा का उपयोग सकारात्मक काम १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ११४५ । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन में हो तो उनके जीवन में विशिष्टता का आविर्भाव हो सकता है ।"" उन्होंने अपने साहित्य में आज की दिग्भ्रान्त युवापीढ़ी की कमजोरियों का अहसास कराया है तो विशेषताओं को कोमल शब्दों में सहलाया भी है । कहीं उन्हें दायित्व - बोध कराया है तो कहीं उनसे नई अपेक्षाएं भी व्यक्त की हैं । कहीं-कहीं तो उनकी अन्तः वेदना इस कदर व्यक्त हुई है, जो प्रत्येक मन को आंदोलित करने में समर्थ है - " यदि भारत का हर युवक शक्ति सम्पन्न होता और उत्साह के साथ शक्ति का सही नियोजन करता तो भारत की तस्वीर कुछ दूसरी ही होती । " आचार्य तुलसी अपने साहित्य में स्थान-स्थान पर अकर्मण्य, आलसी और निरुत्साही युवकों को झकझोरते रहते हैं । औपमिक भाषा में युवकों की अन्तःशक्ति जगाते हुए वे कहते हैं- "जिस प्रकार दिन जैसे उजले महानगरों में मिलों के कारण शाम उतर आती है, वैसे ही संकल्पहीन युवक पर बुढ़ापा उतर आता है ।' 23 वे आज की युवापीढ़ी से तीन अपेक्षाएं व्यक्त करते हैं १. युवापीढ़ी का आचार-व्यवहार, खान-पान तथा रहन-सहन सादा तथा सात्त्विक हो । २. युवापीढ़ी विघटनमूलक प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर अपने संगठन पथ को सुदृढ़ बनाए । १८५ ३. युवापीढ़ी समाज की उन जीर्ण-शीर्ण, अर्थहीन एवं भारभूत परंपराओं को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध हो, जिसका संबंध युवकों से है । ११२ 113 युवापीढ़ी में बढ़ती नशे की प्रवृत्ति से आचार्य तुलसी अत्यन्त चिंतित हैं । वे मानते हैं — "किसी भी समाज या देश को सत्यानाश के कगार पर ले जाकर छोड़ना हो तो उसकी युवापीढ़ी को नशे की लत में डाल देना ही काफी है वे भारतीय युवकों के मानस को प्रशिक्षित करते हुए कहते हैंप्रारम्भ में व्यक्ति शराब पीता है, कालांतर में शराब उसे पीने लगती है । " शराब जिस घर में पहुंच जाती है, वहां सुख, शांति और समृद्धि पीछे वाले दरवाजे से बाहर निकल जाते हैं ।' '४ आचार्य तुलसी का मानना है कि मादक पदार्थों की बढ़ती हुई घुसपैठ १. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० १०१ । २. समाधन की ओर, पृ० १० । ३. कुहासे में उगता सूरज, पृ० १२५ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० १३२० । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण नहीं रोका गया तो भविष्य हमारे हाथ से निकल जाएगा । राष्ट्र के नाम अपने एक विशेष सन्देश में समाज को सावचेत करते हुए वे अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहते हैं - "पशु अज्ञानी होता है, उसमें विवेक नहीं होता फिर भी वह नशा नहीं करता । मनुष्य ज्ञानी होने का दम्भ भरता है । विवेक की रास हाथ में लेकर चलता है, फिर भी नशा करता है । क्या उसकी ज्ञान- चेतना सो गयी ? जान-बूझकर अश्रेयस् की यात्रा क्यों ?" उनके द्वारा रचित काव्य की ये पंक्तियां आज की दिग्भ्रमित युवापीढ़ी को जागरण का नव सन्देश दे रही हैं यदि सुख से जीना है तो, त्यागो मदिरा की बोतल । यदि अमृत पीना है तो त्यागो यह जहर हलाहल ॥ सोचो यह इन्द्रधनुष सा जीवन है कैसा चंचल | फिर तुच्छ तृप्ति के खातिर क्यों है व्यसनों की हलचल ॥ आचार्य तुलसी ने निषेध की भाषा में नहीं, अपितु वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तरीके से युवा समाज के मन में नशीले पदार्थों के प्रति वितृष्णा पैदा की है । अणुव्रत के माध्यम से उन्होंने देशव्यापी नशामुक्ति अभियान चलाया है, जिससे लाखों युवकों ने व्यसनमुक्त जीवन जीने का संकल्प अभिव्यक्त किया है आदर्श युवक के लिए आचार्य तुलसी पांच कसौटियां प्रस्तुत करते ० श्रद्धाशील श्रद्धा वह कवच है, जिसे धारण करने वाला व्यक्ति भ्रांतियों और अफवाहों के नुकीले तीरों से आविद्ध नहीं हो सकता । सहनशील सहनशीलता वह मरहम है, जो मानसिक आघातों से बने घावों को अविलम्ब भर सकती है । • विचारशील- विचारशीलता वह सेतु है, जो पारस्परिक दूरियों को पाटकर एक समतल धरातल का निर्माण करती है । • कर्मशील --- कर्मशीलता वह पुरुषार्थ है, जो अधिकार की भावना समाप्त कर कर्तव्यबोध की प्रेरणा देती है । ० चरित्रशील - चरित्रशीलता वह निधि है, जो सब रिक्तताओं को भरकर व्यक्ति को परिपूर्ण बना देती है । "" आचार्य तुलसी ने युवापीढ़ी का विश्वास लिया ही नहीं, मुक्त मन से विश्वास किया भी है । यही कारण है कि उनके हर मिशन से युवक जुड़े हुए हैं और उसे सफल करने का प्रयत्न करते हैं । युवापीढ़ी पर विश्वास व्यक्त १. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० १०७ । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १८७ करने वाली निम्न पंक्तियां उनके सार्वजनिक एवं आत्मीय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है- "युवापीढ़ी सदा से मेरी आशा का केन्द्र रही है, चाहे वह मेरे दिखाए मार्ग पर कम चल पायी हो या अधिक चल पाई हो, फिर भी मेरे मन में उनके प्रति कभी भी अविश्वास और निराशा की भावना नहीं आती। मुझे युवक इतने प्यारे लगते हैं, जितना कि मेरा अपना जीवन । मैं उनकी अद्भुत कार्यजा शक्ति के प्रति पूर्ण विश्वस्त हूं।"१ समाज और अर्थ समाज से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता । क्योंकि सामाजिक जीवन में यह विनियोग का साधन है । अपरिग्रही एवं अकिंचन होने पर भी आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में समाज के सभी विषयों पर सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है। अर्थ के बारे में उनका चिंतन है कि सामाजिक प्राणी के लिए धन जीवन चलाने का साधन हो सकता है, पर जब उसे जीवन का साध्य मान लिया जाता है, तब शोषण, उत्पीड़न, अनाचरण, अप्रामाणिकता, हिंसा और भ्रष्टाचार से व्यक्ति बच नहीं सकता। ___अर्थशास्त्री उत्पादन-वृद्धि के लिए इच्छा-तृप्ति एवं इच्छा-वृद्धि की बात कहते हैं । पर आचार्य तुलसी इच्छा-तृप्ति के स्थान पर इच्छा-परिमाण एवं इच्छा-रूपान्तरण की बात सुझाते हैं, क्योंकि इच्छाओं का क्षेत्र इतना विशाल है कि उनकी पूर्ण तृप्ति असंभव है। उनके इच्छा-परिमाण का अर्थ वस्तु-उत्पादन बन्द करना या गरीब होना नहीं, अपितु अनावश्यक संग्रह के प्रति आकर्षण कम करना है। आचार्य तुलसी का चितन है कि निस्सीम इच्छाएं व्यक्ति को आनंदोपलब्धि की विपरीत दिशा में ले जाती हैं अतः इच्छाओं का परिष्कार ही समाज-विकास या जीवन-विकास है। राष्ट्र-विकास के संदर्भ में वे इच्छा-परिमाण को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं--- "इच्छाओं का अल्पीकरण विलासिता को समाप्त करने के लिए है। अनन्त आसक्ति और असीम दौड़धूप से बचने के लिए है, न कि देश की अर्थव्यवस्था का अवमूल्यन करने के लिए।" वे इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि संसारी व्यक्ति भौतिक सुखों से सर्वथा विमुख बन जाए, यह आकाशकुसुम जैसी कल्पना है किंतु अन्याय के द्वारा धन-संग्रह न हो, अनर्थ में अर्थ का प्रयोग न हो, यह आवश्यक है। __ समाज के आर्थिक वैषम्य को दूर करने हेतु वे नई सोच प्रस्तुत करते हैं ---"आर्थिक वैषम्य मिटाओ' इसकी जगह हमारा विचारमूलक प्रचार कार्य यह होना चाहिए कि 'आर्थिक दासता मिटाओ'।"२ इसके लिए आचार्य १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७११ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० ३८९ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण 729 तुलसी विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के पक्षधर हैं। क्योंकि अधिक संग्रह उपभोक्ता संस्कृति को जन्म देता है । इस संदर्भ में उनका मंतव्य है कि जिस प्रकार बहता हुआ पानी निर्मल रहता है, उसी प्रकार चलता हुआ अर्थ ही ठीक रहता है । " अर्थ का प्रवाह जहां कहीं रुकता है, वह समाज के लिए अभिशाप और पीड़ा बन जाता है । अतः स्वस्थ, संगठित, व्यवस्थित एवं संवेदनशील समाज में अर्थ के प्रवाह को रोकना सामाजिक विकास में बाधा है । संग्रह के बारे में आचार्य तुलसी का चिंतन है - "मेरी दृष्टि में संग्रह भीतर ही भीतर जलन पैदा करने वाला फोड़ा है और वही जब नासूर के रूप में रिसने लगता है तो अपव्यय हो जाता है ।" संग्रह के कारण होने वाले सामाजिक वैषम्य का यथार्थ चित्र उपस्थित करते हुए वे समाज को सावधान करते हुए कहते हैं- "एक ओर जनता के दुःख-दर्द से बेखबर विलासिता में आकंठ डूबे हुए लोग और दूसरी ओर जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं से भी वंचित अभावों से घिरे लोग । सामाजिक विषमता की इस धरती पर समस्याओं के नए-नए झाड़ उगते ही रहेंगे । "B 113 आर्थिक वैषम्य की समस्या के समाधान में वे अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत करते हैं- "मेरा चिंतन है कि अतिभाव और अभाव के मध्य से गुजरने वाला समाज ही तटस्थ चिंतन कर सकता है, अन्यथा वहां विलासिता और पीड़ा जन्म लेती रहती है ।" इसी बात को कभी-कभी वे इस भाषा में भी प्रस्तुत कर देते हैं- "गरीबी स्वयं बुरी स्थिति है, अमीरी भी अच्छी स्थिति नहीं है । इन दोनों से परे जो त्याग या संयम है, इच्छाओं और वासनाओं की विजय है, वही भारतीय जीवन का मौलिक रूप है और इसी ने भारत को सब देशों का सिरमौर बनाया था । ४ अपरिग्रह के प्रबल पक्षधर होने पर भी वे पूंजीपतियों के विरोधी नहीं हैं। पर पूंजीवादी मनोवृत्ति पर समय-समय पर प्रहार करते रहते हैं— " पूंजीवादी मनोवृत्ति ने जहां एक ओर मानव के वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन को विघटित कर डाला है, व्यक्ति को भाई-भाई के खून का प्यासा बना दिया है, पिता पुत्र के बीच वैमनस्य और रोष की भयावह दरार पैदा कर दी है, वहां सामाजिक और सार्वजनिक जीवन पर भी इसने करारी १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १९१ । २. अणुव्रत के आलोक में, पृ० ९३ । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ. १५६२ । ४. २१-११-५४ के प्रवचन से उद्धृत । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १८९ चोट पहुंचाई है । ....."जिस आवश्यकता से दूसरे का अधिकार छीना जाता है या उसमें बाधा पहुंचती है, वह आवश्यकता नहीं, अनधिकार चेष्टा हो जाती है। ......"यदि पूंजीपति लोग अपने आपको नहीं बदलेंगे तो इसके संभावित भीषण परिणाम भी उन्हें अतिशीघ्र भोगने होंगे।" ___ जीवन के यथार्थ सत्य को वे अनुभूति के साथ जोड़कर मनोवैज्ञानिक भाषा में कहते हैं-"मैं पर्यटक हूं। मुझे गरीब-अमीर सभी तरह के लोग मिलते हैं, पर जब उन कोट्याधीश धनवानों को देखता हूं तो वे मुझे अन्न व पानी के स्थान पर हीरे-पन्ने खाते नजर नहीं आते। मुझे आश्चर्य होता है कि तब फिर क्यों वे धन के पीछे शोषण और अत्याचारों से अपने आपको पाप के गड्ढे में गिराते हैं।" वे अनेक बार इस बात को अभिव्यक्ति देते हैं-"जागृत समाज वह है, जिसके प्रत्येक सदस्य के पास अपने मूलभूत अधिकार हों, सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन हों और सुख दुःख में एक-दूसरे के प्रति समभागिता हो।' समाज की इस विषम स्थिति में परिवर्तन लाने हेतु वे ऐसी समाजव्यवस्था की आवश्यकता महसूस करते हैं, जिसमें पैसे का नहीं, अपितु त्याग का महत्त्व रहे।" इसके लिए वे मार्क्स की आर्थिक क्रांति को असफल मानते हैं बल्कि ऐसी आध्यात्मिक क्रांति की अपेक्षा महसूस करते हैं, जो समाज में बिना किसी रक्तपात एवं हिंसा के सन्तुलन बनाए रख सके। उस आध्यात्मिक क्रांति के महत्त्वपूर्ण सूत्र के रूप में उन्होंने समाज को विसर्जन का सूत्र दिया।। वे खुले शब्दों में समाज को प्रतिबोध देते रहते हैं ---"विसर्जन के बिना अर्जन दुःखदायी और नुकसान पहुंचाने वाला होगा। विसर्जन की चेतना विकसित होते ही अनैतिक और अमानवीय ढंग से किए जाने वाले संग्रह पर स्वतः रोकथाम लग जाएगी।" अर्थ के सम्यक् उपयोग एवं नियोजन के बारे में भी आचार्य तुलसी ने समाज को नई दृष्टि दी है । वे लोगों की विसंगतिपूर्ण मानसिकता पर व्यंग्य करते हैं- "समाज के अभावग्रस्त जरूरतमंद लोगों के लिए कहीं अर्थ का नियोजन करना होता है तो दस बार सोचा जाता है और बहाने बनाए जाते हैं, जबकि विवाह आदि प्रसंगों में मुक्त मन से अर्थ का व्यय किया जाता है ।''... फैशन के नाम पर होने वाली वस्तुओं की खरीद-फरोख्त में कितना ही पैसा लग जाए, कभी चिन्तन नहीं होता और धार्मिक साहित्य लेना हो तो कीमतें आसमान पर चढ़ी हुई लगती हैं। क्या यह चिंतन का १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४९३ ।। २. जैन भारती, २६ जून १९५५। .. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण दारिद्र्य नहीं है ?"" उक्त उद्धरण का अर्थ यह नहीं कि वे समाज में सभी को संन्यासी जैसा जीवन व्यतीत करने का संदेश देते हैं । निम्न वक्तव्य उनके सन्तुलित एवं सटीक चिन्तन का प्रमाणपत्र कहा जा सकता है - " मैं सामाजिक जीवन में आमोद-प्रमोद की समाप्ति की बात नहीं कहता, न उसमें रुकावट डालता हूं, किन्तु यदि हमने युग की धारा को नहीं समझा तो हम पिछड़ जाएंगे । ११३ व्यवसाय सामाजिक प्राणी के लिए आजीविका हेतु व्यवसाय करना आवश्यक है । क्योंकि उसके बिना जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती । आचार्य तुलसी व्यवसाय में नैतिकता को अनिवार्य मानते हैं । इस सन्दर्भ में उनका निम्न सम्बोध अत्यन्त प्रेरक है - " व्यवसाय में नैतिक मूल्यों की अवहेलना जघन्य अपराध है । शस्त्रास्त्र द्वारा मनुष्य का विनाश कब होगा, निश्चित नहीं है, लेकिन मानव यदि नैतिक और प्रामाणिक नहीं बना तो वह स्वयं अपनी नजरों में गिर जाएगा, यह स्थिति विनाश से भी अधिक खतरनाक होगी ।''३ सम्पूर्ण व्यापारी समाज को उनका प्रतिबोध है- 'जाए लाख पर रहे साख' इस आदर्श की मीनार पर खड़े व्यक्ति कभी नैतिक मूल्यों का अतिक्रमण नहीं कर सकते । नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों की खोज करने वाला समाज प्रकाश की खोज करता है, अमृत की खोज करता है और आनन्द की खोज करता है ।' ११४ व्यापार के क्षेत्र में चलने वाली अनैतिकता एवं अप्रामाणिकता को देख-सुनकर उनका मानस कभी-कभी बेचैन हो जाता है । इसलिए वे समयसमय पर प्रवचन सभाओं में इस विषय में अपने प्रेरक विचारों से समाज को लाभान्वित करते रहते हैं । दक्षिण यात्रा के दौरान एक सभा को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं- " आप व्यापार करते हैं, पैसा कमाते हैं, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं । किन्तु व्यापार में जो बुराई है, धोखा है, लिए मैं उपदेश नहीं दूं, समाज को नई सूझ न दूं, यह कैसे आपके विरोध के भय से नैतिकता की आवाज बन्द नहीं कर सकता । शोषण और अमानवीय व्यवहार के विरोध में मैं जीवन भर आवाज उठाता रहूंगा । उसे छुड़ाने के सम्भव है ? मैं १. आह्वान, पृ० १२,१३ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७२७ । ३. वही, पृ० ८२४ । ४. वही, पृ० ८३३ । ५. २-७-१९६८ प्रवचन से उद्धृत । 1 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १९१ . कभी-कभी वे मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यापारियों की विशेषताओं को सहलाकर उन्हें नैतिकता की प्रेरणा देते हैं-''व्यापारी वर्ग को साहूकार का जो खिताब मिला है, वह किसी राष्ट्रपति या सम्राट् को भी नहीं मिला, इसलिए इस शब्द को सार्थक करने की अपेक्षा है।" । अर्थार्जन के साधन की शुद्धता पर भगवान् महावीर ने विस्तृत विवेक दिया है। आचार्य तुलसी ने उसे आधुनिक परिवेश एवं आधुनिक सन्दर्भो में व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया है। उनके साहित्य में हिंसाबहुल एवं उत्तेजक व्यवसायों की खुले शब्दों में भर्त्सना है। आचार्य तुलसी खाद्य पदार्थों में मिलावट के सख्त विरोधी हैं। वे इसे हिंसा एवं अक्षम्य अपराध मानते हैं। 'अमृत महोत्सव' के अवसर पर अपने एक विशेष सन्देश में वे कहते हैं- "मिलावट करने वाले व्यापारी समाज एवं राष्ट्र के तो अपराधी हैं ही, यदि वे ईश्वरवादी हैं तो भगवान् के भी अपराधी हैं । .... ." मिलावट ऐसी छेनी है, जो आदर्श की प्रतिमा को खंडखंड कर खंडहर में बदल देती है।"१ आचार्य तुलसी उस व्यवसाय एवं व्यापार को समाज के लिए घातक मानते हैं, जो हमारी संस्कृति की शालीनता एवं संयम पर प्रहार करते हैं, मानव की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करते हैं । विज्ञापन-व्यवसाय के बारे में उनकी निम्न टिप्पणी अत्यन्त मार्मिक है-"विज्ञापन एक व्यवसाय है । अन्य व्यवसायों की तरह ही यह व्यवसाय होता तो टिप्पणी करने की अपेक्षा नहीं थी। किन्तु जब इससे व्यक्ति के चरित्र और सूझ-बूझ दोनों पर प्रश्नचिह्न खड़े होने लगे, तो सचेत होना पड़ेगा । ......साड़ियों के विज्ञापन में एक युवा लड़की का चित्र देकर लिखा जाता है कि मैं शादी दिल्ली में ही करूंगी क्योंकि यहां मुझे उत्तम साड़ियां पहनने को मिलेंगी। पर्यटन एजेंसियों का विज्ञापनदाता विवाह योग्य कन्या के मुख से कहलवाता है कि वह उसी व्यक्ति के साथ शादी करेगी, जो उसे विदेश यात्रा करा सके । इस प्रकार के विज्ञापन युवा मानसिकता को गुमराह कर देते हैं ।"२ इसी सन्दर्भ में उनका निम्न वक्तव्य भी अत्यन्त मार्मिक एवं प्रेरक है ..."महिलाओं के लिए खासतौर से सिगरेट बनाना और उसे विज्ञापनी चमक से जोड़ना महिलाओं को पतन के गर्त में धकेलना है । सिगरेट बनाने वाली कम्पनी को उससे आर्थिक लाभ हो सकता है, पर देश की संस्कृति का इससे कितना नुकसान होगा, यह अनुमान कौन लगाएगा ?' १. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ० १७९ । २. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० ८४,८५। ३. अणुव्रत, १ अप्रैल १९९० । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण विज्ञापन व्यवसाय से होने वाली हानियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण वे इन शब्दों में करते हैं- "यह मानवीय दुर्बलता है कि मनुष्य किसी घटना के अच्छे पक्ष को कम पकड़ता है और गलत प्रवाह में अधिक बहता है । बच्चे तो नासमझ होते हैं अतः विज्ञापन की हर चीज की मांग कर बैठते हैं । खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने अथवा किसी अन्य काम में आने वाली नई चीज का विज्ञापन देखते ही वे उसे पाने के लिए मचल उठते हैं। ऐसी स्थिति में माता-पिता के लिए समस्या खड़ी हो जाती है ।" "" १२ 113 फिल्म - व्यवसाय को वे राष्ट्र के चरित्रबल को क्षीण करने का बहुत बड़ा कारण मानते हैं । यद्यपि वे फिल्म - व्यवसाय पर सर्वथा प्रतिबन्ध लगाने की बात अव्यावहारिक और अमनोवैज्ञानिक मानते हैं, फिर भी उनका सुझाव है - " एक उम्र विशेष तक फिल्म देखने पर यदि प्रतिबन्ध हो तो मैं इसमें लाभ ही लाभ देखता हूं । भारत की युवापीढ़ी इस प्रतिबन्ध के लिए कहां तक तैयार है, यह अवश्य ही शोचनीय प्रश्न है । किन्तु इसके सुखद परिणाम सुनिश्चित हैं ।' फिल्म व्यवसाय से होने वाले दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं - " फिल्म के कामोत्तेजक दृश्य और गाने, वासना को उभारने वाले पोस्टर अंग प्रत्यंगों को उभारकर दिखाने वाली या अधनंगी पोशाकें ये सब युवापीढ़ी के चरित्र को गुमराह करती हैं। मैं मानता हूं, फिल्म व्यवसाय राष्ट्र के चारित्रिक पतन का मुख्य कारण है ।' बढ़ती बेरोजगारी का कारण आचार्य तुलसी विज्ञान द्वारा आविष्कृत नए-नए यन्त्रों को मानते हैं । यद्यपि आचार्य तुलसी यन्त्रों के विरोधी नहीं हैं पर उनके सामने चेतन प्राणी का अस्तित्व शून्य हो जाए, वह निष्क्रिय और अकर्मण्य बन जाए, इसके वे विरोधी हैं । इस सन्दर्भ में उनकी निम्न टिप्पणियां वैज्ञानिकों को भी कुछ सोचने को मजबूर कर रही है -- " यन्त्र का अपना उपयोग है पर यन्त्र का निर्माता और नियंता स्वयं यन्त्र बन गया तो इस दिशा में नए आयाम कैसे खुलेंगे ?४ प्रश्न होता है कि क्या करेंगे इतने यन्त्र मानव ? मनुष्य तो वैसे भी निकम्मा होता जा रहा है। मशीनों की कार्यक्षमता इतनी बढ़ रही है कि एक मशीन सैकड़ों सैकड़ों मनुष्यों का काम कुछ ही समय में निपटा देती है। मशीनी मानवों के सामने इतना कौन-सा काम रहेगा, जो उनको निरन्तर व्यस्त रख सके अन्यथा ये यंत्र मानव निकम्मे होकर आपस में लड़ेंगे, मनुष्यों को तंग करेंगे या और कुछ १. कुहासे में उगता सूरज, पृ० ४९ । २. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १७२ । ३. वही, पृ० १७१ | ४. बैसाखियां विश्वास की, पृ० १८, १९ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १९३ करेंगे। इनमें कुछ पार्टस गलत लग गए अथवा इनके उपयोग में कहीं प्रमाद रह गया तो ये मनुष्यों को मारने पर उतारू हो जाएंगे। यह क्रम शुरू भी हो चुका है । समाचार पत्रों में तो यह आशंका व्यक्त की गई है कि ये अलग देश की माँग करेंगे या इन्सान पर राज करेंगे । ऐसा कुछ न भी हो, फिर भी यह तो सम्भव लगता है कि ये उत्पात मचाए बिना नहीं रहेंगे । „„ इस उद्धरण का तात्पर्य उनकी भाषा में इन शब्दों में रखा जा सकता है - " भौतिक विकास एवं यन्त्रों का विकास कभी दुःखद नहीं होगा यदि वह संयम शक्ति के विकास से सन्तुलित हो । "* स्वस्थ समाज-निर्माण आचार्य तुलसी के महान् एवं ऊर्जस्वल व्यक्तित्व को समाज सुधारक के सीमित दायरे में बांधना उनके व्यक्तित्व को सीमित करने का प्रयत्न है । उन्हें नए समाज का निर्माता कहा जा सकता है । आचार्य तुलसी जैसे व्यक्ति दो-चार नहीं, अद्वितीय होते हैं। उनका गहन चिन्तन समाज के आधार पर नहीं, वरन् उनके चिन्तन में समाज अपने को खोजता है । उन्होंने साहित्य के माध्यम से स्वस्थ मूल्यों को स्थापित करके समाज को सजीव एवं शक्तिसम्पन्न बनाने का प्रयत्न किया है । समाज निर्माण की कितनी नयी-नयी कल्पनाएं उनके मस्तिष्क में तरंगित होती रहती हैं, इसकी पुष्टि निम्न उद्धरण से हो जाती है - - " मेरा यह निश्चित विश्वास है कि यदि हम समाज को अपनी कल्पना के अनुरूप ढाल पाते तो आज उसका स्वरूप इतना भव्य और सुघड़ होता कि मैं बता नहीं सकता 13 आचार्य तुलसी केवल व्यक्तियों के समूह को समाज मानने को तैयार नहीं हैं । उनकी दृष्टि में समाज के सदस्यों में निम्न विशेषताओं का होना आवश्यक है – “जिस समाज के सदस्यों में इस्पात सी दृढ़ता, संगठन में निष्ठा, चारित्रिक उज्ज्वलता, कठिन काम करने का साहस और उद्देश्य पूर्ति के लिए स्वयं को झोंकने का मनोभाव होता है, वह सनाज अपने निर्धारित लक्ष्य तक बहुत कम समय में पहुंच जाता है । ११४ आचार्य तुलसी समाज निर्माण की आधारशिला के रूप में मर्यादा और अनुशासन को अनिवार्य मानते हैं । उनका निम्न वक्तव्य इसका स्वयंभू साक्ष्य है -- " समाज हो और मर्यादा न हो, वह समाज अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता । समाज हो और मर्यादा न हो तो विकास के नए १. बैसाखियां विश्वास की पृ० १५, १९ । २. मेरा धर्म : केन्द्र और परिधि, पृ० ३२ । ३. आह्वान, पृ० २१ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० १३८६ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण रास्ते नहीं खुलते । समाज हो और मर्यादा न हो तो न्याय और समविभाग नहीं मिल सकता । समाज को स्वस्थ और गतिशील बनाए रखने के लिए मर्यादा की अहंभूमिका रहती है ।" स्वस्थ समाज-संरचना के लिए वे सुविधावाद और विलासिता को बहुत बड़ा खतरा मानते हैं। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-"विलास का अन्त विनाश में होता है- पानी में से घी निकल सके तो विलासिता में लिप्त रहकर दुनिया सुख पा सकती है। कभी-कभी तो वे इतने भावपूर्ण शब्दों में यह तथ्य जनता के गले उतारते हैं कि देखते ही बनता है - "मैं आपको यह कैसे समझाऊं कि विलास में सुख नहीं है । यह कोई पदार्थ होता तो आपके सामने रख देता पर यह तो अनुभव है । अनुभव बिना स्वयं के आचरण के प्राप्त नहीं हो सकता।" . आज मानव श्रम को भूलकर यंत्राश्रित हो रहा है, इसे वे उज्ज्वल समाज के भविष्य का प्रतीक नहीं मानते । उनका मानना है कि जीवन की धरती पर सत्य, शिव और सौन्दर्य की धाराएं प्रवाहित करने के लिए यंत्रों पर निर्भर रहने से काम नहीं बनेगा।"२ __गांधीजी ने आदर्श समाज के लिए रामराज्य की कल्पना प्रस्तुत की। आचार्य तुलसी ने आदर्श, निर्द्वन्द्व, स्वस्थ एवं शोषणमुक्त समाज-संरचना के लिए अणुव्रत समाज की संकल्पना की । वे कहते हैं --- "मेरे मस्तिष्क में जिस आदर्श समाज की कल्पना है, वह समूचे विश्व के लिए नए सृजन की दिशा में वर्तमान युग और युवापीढ़ी के लिए उदाहरण बन सकती है पर उस आदर्श तक पहुंचने के लिए केवल कल्पना के ताने-बाने बुनने से काम नहीं होगा । उसके लिए तो दृढ़ संकल्प और निष्ठा से आगे बढ़ने की जरूरत है।"पदयात्रा के दौरान एक प्रवचन में वे अपने संकल्प को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं.--"स्वस्थ समाज की संरचना के लिए कार्य करना मेरी जीवनचर्या का अंग है। इसलिए जब-तक वैयक्तिक साधना के साथ-साथ ये सारी बातें नहीं होतीं, तब तक मेरी यात्रा सम्पन्न कैसे हो सकती है ? स्वस्थ समाज की कल्पना आचार्य तुलसी के शब्दों में यों उतरती है-"मेरी दृष्टि में वह समाज स्वस्थ है, जिसमें व्यसन न हो, कुरूढ़ियां न हो, जिसकी जीवन-शैली सात्त्विक, सादगीपूर्ण और श्रम पर आधारित हो। दूसरे शब्दों में ज्ञान-दर्शन व चारित्र की त्रिवेणी से आप्लावित समाज, स्वस्थ समाज है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का प्रतिनिधि शब्द है-धर्म या १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४९६ । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० १८ । ३. जैन भारती २८ अक्टूबर, १९६२ । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १९५ अध्यात्म । जहां धर्म विकसित होता है, वहां जीवन का निर्माण होता है और समाज स्वस्थ रहता है। उनकी दृष्टि में वह समाज रुग्ण है, जहां संग्रह, शोषण, चोरी एवं छीनाझपटी चलती है। अतः जहां सब अपने अधिकारों में सन्तुष्ट तथा सहयोग और सामंजस्य की भावना लिए चलते हों, वही स्वस्थ एवं आदर्श समाज हो सकता है। अणुव्रत द्वारा वे एक ऐसे समाज का स्वप्न देखते हैं, जहां हिंसा व संग्रह न हो । न कानून हो और न दण्ड देने वाला कोई सत्ताधीश हो । न कोई अमीर हो न गरीब । एक का जातिगत अहं और दूसरे की हीनता समाज में वैषम्य पैदा करती है । अतः अणुव्रत प्रेरित समाज समान धरातल पर विकसित होगा। इसके लिए वे अनुशासन और संयम की शक्ति को अनिवार्य मानते हैं। ___अणुव्रत के द्वारा शोषण-विहीन स्वस्थ समाज-रचना के कुछ करणीय बिन्दु प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं -- “१. वह समाज अल्पेच्छा और अपरिग्रह को पहला स्थान देगा । अल्पेच्छा से तात्पर्य है कि उसकी आकांक्षाएं निरंकुश नहीं होंगी। आकांक्षाओं का विस्तार संग्रह या परिग्रह का कारण बनता है और संग्रह शोषण का कारण बनता है । .......इच्छा-संयम के साथ संग्रह-संयम स्वयं हो जाएगा। २. अणुव्रत अर्थ और सत्ता के केन्द्रीकरण को, फिर चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या राष्ट्रीय स्तर पर, प्रश्रय नहीं देगा। अर्थ और सत्ता का केन्द्रीकरण ही शोषण और संग्रह की समस्याओं को जन्म देता ३. उस समाज में श्रम और स्वावलम्बन की प्रतिष्ठा होगी । व्यक्ति आत्मनिर्भर बने और श्रम का मूल्यांकन सामाजिक स्तर पर हो, यह प्रयत्न किया जाएगा। ४. संग्रह करने वाले को उसमें सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। मनुष्य बहुधा अधिक संग्रह प्रतिष्ठा पाने के लिए ही करता है । आवश्यकता पूर्ति के लिए मनुष्य को अधिक धन अपेक्षित नहीं होता। फिर भी धन के प्रति उसकी जो लालसा देखी जाती है, उसका एक मात्र कारण प्रतिष्ठा ही है । ....."यही कारण है कि वह सब प्रकार के छल, प्रपंच, फरेब और षड्यन्त्र रचकर भी पैसा कमाना चाहता है। आज यदि अर्थ की भूमिका में से सामाजिक प्रतिष्ठा को निकाल लिया जाए तो दूसरे ही क्षण संग्रह का महल ढह जाएगा। - १. आगे की सुधि लेइ, पृ० २६८ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५. उस समाज के आधार में अहिंसा होगी । उसका यह विश्वास होगासमस्या का सही समाधान अहिंसा में ही है । अपनी हर समस्या को वह अहिंसा के माध्यम से ही सुलझाने का प्रयत्न करेगा । "" अणुव्रत जिस आदर्श एवं शोषणविहीन समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करता है, साम्यवाद के सामने भी वही कल्पना है पर इन दोनों की प्रक्रिया में भिन्नता है । इस भेदरेखा को स्पष्ट करते हुए आचार्य तुलसी कहते हैं। " शोषण विहीन और स्वतन्त्र समाज की रचना साम्यवाद और अणुव्रत दोनों का उद्देश्य है पर दोनों की प्रक्रिया भिन्न है । साम्यवाद व्यवस्था देता है और अणुव्रत वृत्तियों को परिमार्जित करता है । व्यवस्था की गति तीव्र हो सकती है किंतु वह उत्तरोत्तर लक्ष्य से प्रतिकूल होती जाती है । अणुव्रत की गति मंद है पर वह उत्तरोत्तर लक्ष्य के अनुकूल है। त्वरित गति का उतना महत्त्व नहीं है, जितना लक्ष्य-प्रतिबद्ध गति का है । साम्यवादी देशों का व्यक्तिवाद की ओर बढ़ता हुआ झुकाव देखकर यह सहज ही जाना जा सकता है कि व्यवस्था परिवर्तन की अपेक्षा वृत्ति-परिवर्तन का क्रम प्रशस्य है ।"२ समग्र मानव समाज के लिए गहन एवं हितावह चिन्तन करने वाले युगद्रष्टा आचार्य तुलसी ने अपने आध्यात्मिक आंदोलनों द्वारा जिस शोषणविहीन एवं सुखसमृद्धि से परिपूर्ण अणुव्रत समाज की कल्पना की है, उस कल्पना की पूर्ति सभी समस्याओं का निदान बनेगी, ऐसा विश्वास है । कहा जा सकता है कि आचार्य तुलसी के समाज-चिंतन में जो क्रांतिकारिता, परिवर्तन एवं नए दिशाबोध हैं, वे समाजशास्त्रियों को भी चिन्तन की नयी खुराक देने में समर्थ हैं । १९६ १. अणुव्रत : गति-प्रगति, पृ० १३६ । २. अणुव्रत के आलोक में, पृ० २२ । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-परिचय "उत्तम पुस्तक महान आत्मा की प्राणशक्ति होती है" -मिल्टन की इस उक्ति को आचार्य तुलसी की प्रत्येक पुस्तक में चरितार्थ देखा जा सकता है। आचार्य तुलसी ने सलक्ष्य कुछ लिखा हो, ऐसा नहीं लगता पर सहज रूप से जो भी परिस्थिति उनके सामने आई, जो भी प्रसंग उनके सामने उपस्थित हुए या जिन भावों ने उन्हें उद्वेलित किया, वही सब कुछ कलम की नोक से या वाणी की शक्ति से मुखर हो गया । यह सब इतना स्वाभाविक एवं मार्मिक ढंग से चित्रित हुआ है कि किसी भी संवेदनशील पाठक का हृदय तरंगित एवं स्पंदित हुए बिना नहीं रह सकता। सन् १९५६ में जब आचार्य तुलसी दिल्ली पहुंचे, तब उनके प्रवचन को सुनकर बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने अपनी अनुभूति को शब्दों का जामा पहनाते हुए कहा-“आचार्य तुलसी का प्रवचन सुनकर मेरे हृदय में श्रद्धा का स्रोत बह चला । उनके प्रवचन में मुझे द्रष्टा की वाणी सुनाई दी। जो केवल पढ़ लेता है, वह ऐसा भाषण नहीं कर सकता । अनुभूति से ही ऐसा बोला जा सकता है । साधारण व्यक्ति आंखों देखी बात कहता है, इसलिए उसकी वाणी का कोई महत्त्व नहीं होता। अनुभूत वाणी में वेग होता है, उसका असर भी होता है। अनुभव तपस्या का फल है। आचार्यश्री का जीवन तपस्वी का जीवन है।" शरच्चंद्र कहते थे- "सबसे जीवंत और उत्प्रेरक रचना वही है, जिसे पढ़ने से लगे कि ग्रन्थकार अपने अन्दर की उर्वरा से सब कुछ बाहर फूल की भांति खिला रहा हो'- यह उक्ति आचार्य तुलसी के साहित्य की सफल कसौटी कही जा सकती है। __ आचार्य तुलसी की पुस्तकों का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि वे बृहत्तर मानव समाज की चेतना को झंकृत करके उनमें सांस्कृतिक मूल्यों को संप्रेषित करने में शत-प्रतिशत सफल हुए हैं। इसके अतिरिक्त विचारों की नवीनता के बिना कोई भी कृति अपनी अहमियत स्थापित नहीं कर सकती। आचार्य तुलसी ने लगभग सभी विषयों पर अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया है अतः उनके द्वारा लिखित पुस्तकों के अक्षरों के भीतर जो तथ्य उद्गीर्ण हुए हैं, उसे काल की अनेक परतें भी आवृत या धूमिल नहीं कर सकतीं। ___ महर्षि अरविंद मानते थे- "किसी भी सद्ग्रंथ की पहचान दो बातों Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण 3 से होती है - प्रथम उसमें सामयिक, नश्वर, देशविशेष और कालविशेष से संबंध रखने वाली बातों का उल्लेख हो तथा दूसरी शाश्वत, अविनश्वर सब कालों तथा सब देशों के लिए समान रूप से उपयोगी और व्यवहार्य हो ।' आचार्य तुलसी ने शाश्वत एवं सामयिक का समायोजन इतनी कुशलता से किया है कि उसकी दूसरी मिशाल मिलना मुश्किल है । बेकन की प्रसिद्ध उक्ति है- "कुछ पुस्तकें चखने की होती हैं, कुछ निगलने की तथा कुछ चबाने एवं पचा जाने की ।" आचार्य तुलसी की प्रत्येक पुस्तक चखने योग्य, निगलने योग्य तथा चबाकर पचाने योग्य है" - ऐसा कथन अत्युक्तिपूर्ण नहीं होगा । १९८ यहां हम उनकी गद्य साहित्य की कृतियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे पाठक उनके साहित्य का विहंगावलोकन और रसास्वादन कर सके । पुस्तक - परिचय में हमने सलक्ष्य सभी पुस्तकों का परिचय दिया है चाहे वे पुनर्मुद्रण में नाम परिवर्तन के साथ प्रकाशित हुई हों । यदि पुनर्मुद्रण में पुस्तक का नाम परिवर्तित हुआ है तो उसका हमने उल्लेख कर दिया है, जिससे पाठकों को भ्रांति न हो । किन्तु अणुव्रत की आचार संहिता से सम्बन्धित अनेक पुस्तकें अनेक नामों से प्रकाशित हुई हैं। जैसे- 'अणुव्रत आचार-संहिता', 'अणुव्रत : नैतिक विकास की आचार-संहिता', 'अणुव्रत आंदोलन', ‘अणुव्रत’, ‘अणुव्रत आंदोलन : एक दृष्टि' आदि पर हमने केवल अणुव्रत आंदोलन का ही परिचय दिया है । पुस्तकों के साथ कुछ विशेष संदेशों की पुस्तिकाओं का परिचय भी हमने इसमें समाविष्ट कर दिया है । 'अशांत विश्व को शांति का संदेश ' आदि कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण संदेश हैं, जिनका अंग्रेजी एवं संस्कृत में भी रूपान्तरण मिलता है । अणुव्रत आंदोलन अणुव्रत एक ऐसी मानवीय आचार संहिता है, जिसका किसी उपासना या धर्म विशेष के साथ संबंध न होकर सत्य, अहिंसा आदि मूल्यों से है । " अणुबम एक क्षण में करोड़ों का नुकसान कर सकता है तो अणुव्रत करोड़ों का उद्धार कर सकता है" -- आचार्य तुलसी की यह उक्ति अणुव्रत आंदोलन के महत्त्व को उजागर कर रही है । इस आंदोलन ने भारत की नैतिक चेतना को प्रभावित कर आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों की सुरक्षा करने का प्रयत्न किया है । 'अणुव्रत आंदोलन' पुस्तिका में अणुव्रत की आचार संहिता एवं उसके मौलिक आधार की चर्चा की गयी है । सामान्य रूप से अणुव्रत १. गीता प्रबन्ध, भाग. १ पृ. ३ । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १९९ की पृष्ठभूमि को समझने में यह पुस्तिका सफल मार्गदर्शन करती है । __ अणुव्रत के आलोक में "अणुव्रत ने अब तक क्या किया? कितना किया ? और कैसे किया? इसका पूरा लेखा-जोखा एकत्रित करना दुःसंभव है। किंतु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मानवीय मूल्यों के संदर्भ में वैचारिक क्रांति की दृष्टि से भारत के धरातल पर यह एक प्रथम उपक्रम है । अणुव्रत भारत की जनता के लिए संजीवनी का कार्य करने वाला है, इस तथ्य से आज किसी को सहमति हो या न हो, पर कोई इतिहासकार जब नव भारत का इतिहास लिखेगा, तब अणुव्रत का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होगा ।" लगभग ५० साल पूर्व अभिव्यक्त आचार्य तुलसी का यह आत्मविश्वास इसके उज्ज्वल भविष्य का द्योतक है । अणुव्रत ने देश के अनैतिक वातावरण के विरोध में सशक्त आवाज उठाई है। अणुव्रत दर्शन को स्पष्ट करने के लिए प्रचुर साहित्य का निर्माण हुआ। उसमें "अणुव्रत के आलोक में" पुस्तक का अपना विशिष्ट स्थान है। आलोच्य कृति में नैतिकता का सर्वांगीण विश्लेषण हुआ है। यह विश्लेषण सैद्धांतिक ही नहीं, व्यवहारिक भी है। इसमें यह भी प्रतिपादित है कि नैतिकता देश, काल, परिवेश, वर्ग एवं संप्रदाय से परिछिन्न नहीं, अपितु सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। इसमें विषयों का स्पष्टीकरण वार्ताओं के रूप में हुआ है। साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी की जिज्ञासाएं इतनी सामयिक और सटीक हैं कि हर पाठक यह अनुभव करता है मानो उसकी भीतरी समस्या को ही यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रस्तुत कृति अणुव्रत की राजनैतिक, आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक महत्ता को तो स्पष्ट करती ही है साथ ही इनसे सम्बन्धित समस्याओं का समाधान भी करती है। लगभग ५१ वार्ताओं को अपने भीतर समेटे हुए यह पुस्तक अणुव्रत की आचार-संहिता एवं उसके इतिहास का विस्तृत एवं वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करती है, साथ ही समाज की विविध विसंगतियों की ओर अंगुलिनिर्देश करके उसे दूर करने की प्रेरणा भी देती है। भारत के आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को नए स्वरूप एवं नए परिवेश में प्रस्तुत करने वाली यह कृति आज की भटकती युवापीढ़ी को नयी दिशा दे सकेगी, ऐसा विश्वास है। अणुव्रत के संदर्भ में अणुव्रत एक साधना है, मानवीय आचार संहिता है पर आचार्य तुलसी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ने उसे युगबोध के साथ इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि वह दिग्भ्रांत मानस के लिए पुष्ट आलम्बन बन सकता है। 'अणुव्रत के संदर्भ में' पुस्तक अणुव्रत के विविध पक्षों पर प्रश्नोत्तर शैली में प्रकाश डालती है। इसमें राष्ट्र, धर्म, नैतिकता और विज्ञान सम्बन्धी अनेक जिज्ञासाओं का अणुव्रत के परिप्रेक्ष्य में उत्तर दिया गया है तथा प्राचीन एवं अर्वाचीन, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय अनेक समस्याओं पर अणुव्रत-दर्शन का समाधान प्रस्तुत है । अणुव्रत दर्शन को जन-भोग्य बनाने का यह सार्थक प्रयत्न है । आज नैतिक मूल्यों में जो गिरावट आ रही है, उसे रोकने एवं जीवन-मूल्यों के प्रति आस्था जगाने में इस प्रकार का साहित्य अपनी अहंभूमिका रखता है। यह पुस्तक अपने अगले संस्करण में कुछ संशोधन एवं परिवर्धन के साथ 'अणुव्रत : गति प्रगति' शीर्षक से प्रकाशित है। अणुव्रत : गति-प्रगति किसी भी वैचारिक क्रांति को व्यापक बनाने में साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर अणुव्रत से सम्बन्धित आचार्य तुलसी की अनेक पुस्तकें प्रकाश में आई हैं । 'अणुव्रत : गति-प्रगति' में 'अणुव्रत' पाक्षिक पत्र में स्थायी स्तम्भ "अणुव्रत के संदर्भ में" आयी वार्ताएं तथा अन्य भी कुछ महत्त्वपूर्ण लेखों का संकलन है। इस पुस्तक में नैतिकता के विविध रूपों की बहुत सुन्दर व्याख्या की गई है। कुछ लेखों में अणुव्रत आंदोलन का इतिहास एवं आचार-संहिता तथा कुछ वार्ताओं में सामाजिक, राष्ट्रीय, धार्मिक क्षेत्र में उत्पन्न समस्याओं का अणुव्रत द्वारा सटीक समाधान की चर्चा की गई है। 'अणुव्रत ग्राम' की सुन्दर परिकल्पना भी इसमें सन्निहित है। इसके अतिरिक्त प्रश्नोत्तरों के माध्यम से आंदोलन के अनेक वैचारिक एवं व्यावहारिक पक्ष भी आधुनिक शैली में इस पुस्तक में गुम्फित हैं। 'समाज व्यवस्था और अहिंसा' आदि कुछ वार्ताएं अहिंसा विषयक नवीन एवं मौलिक अवधारणाओं की अवगति देती हैं। इसमें कुल ६१ लेख हैं, जिनमें १९ प्रवचन तथा ४२ वार्ताएं हैं। इस पुस्तक के प्रश्न जितने सटीक, आधुनिक और मौलिक हैं, उत्तर भी उतने ही सजीव, क्रांतिकारी और मौलिकता लिए हुए हैं। पूरी पुस्तक का मुख्य विषय अणुव्रत और नैतिकता है । अणुव्रत प्रेमी एवं अध्यात्मजिज्ञासुओं के लिए यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तक है । अणुव्रती क्यों बनें ? आज के अनैतिक एवं भ्रष्ट वातावरण में अणुव्रत संजीवनी बूटी है। अणुव्रत के माध्यम से आचार्य तुलसी ने हर धर्म के व्यक्तियों को सही मानव बनने की प्रेरणा दी है तथा जीर्ण-शीर्ण मानवता का पुनरुद्धार करने का प्रयत्न Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २०१ किया है । इस पुस्तिका में अणुव्रत - अधिवेशन पर दिए गए एक महत्त्वपूर्ण प्रवचन का संकलन है । समीक्ष्य आलेख संयम एवं सादगी की पृष्ठभूमि पर आधारित अणुव्रत आंदोलन की महत्ता स्पष्ट करता है । अणुव्रती संघ " जो देश, काल की सीमा को लांघकर जीवन के शाश्वत मूल्यों का उद्घाटन करती है, वह श्रेष्ठ पुस्तक है" 'अणुव्रती संघ' पुस्तिका इसका एक उदाहरण है । इस कृति में 'अणुव्रत आंदोलन', जो अपने प्रारम्भिक काल में 'अणुव्रती संघ' के रूप में प्रसिद्ध था, उसके विधान एवं नियमावलियों की जानकारी दी गयी है । पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर भूतपूर्व राष्ट्रपति डा० राजेन्द्रप्रसाद के अणुव्रत के बारे में विचार अंकित हैं । उसका कुछ अंश इस प्रकार है "अणुव्रती संघ की स्थापना करके और उसके काम को बढ़ाने के लिए अपना समय लगाकर आचार्यजी देश के लिए कल्याणकारी काम कर रहे हैं । .." यह संतोष की बात है कि आचार्यजी काल और देश की परिस्थिति को हमेशा सामने रखकर कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और जो भिन्न-भिन्न श्रेणी के लोग हैं, उनकी भिन्न-भिन्न समस्याएं होती हैं, उन सबमें घुसकर भिन्न-भिन्न रीति से संगठित रूप से सदाचार और चरित्र को प्रोत्साहन देने का काम कर रहे हैं ।" इसमें अणुव्रती संघ के ८३ नियमों का उल्लेख है, जिनका समाहार आज ११ नियमों में हो गया है। अणुव्रत के नियमों की ऐतिहासिक जानकारी देने में इस पुस्तक का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अन्त में " अणुव्रत और अणुव्रती संघ" नामक एक लेख भी प्रकाशित है । यह लेख 'अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् के सतरहवें अधिवेशन के 'जैनदर्शन एवं प्राकृत विभाग' में प्रेषित किया गया था । इस महत्त्वपूर्ण लेख में अणुव्रती संघ की स्थापना का उद्देश्य तथा उसकी महत्ता का सर्वांगीण विवेचन है । मैत्री, संयम, समन्वय और त्याग पर आधारित अणुव्रत आंदोलन की संक्षिप्त जानकारी देने में इस पुस्तक का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अतीत का अनावरण भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक आचार्य तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी की संयुक्त कृति है । इसमें आगम एवं उपनिषदों के आधार पर २५ शोधपूर्ण निबंधों का संकलन है । आलोच्य ग्रंथ में इतिहास एवं भूगोल से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण एवं खोजपूर्ण लेखों का समाहार है । श्रमण संस्कृति की ऐतिहासिकता एवं महावीर के वंश के बारे में अनेक नयी Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण स्थापनाओं का प्रस्तुतीकरण इस ग्रन्थ में हुआ है। इस पुस्तक में अनेक संदर्भ ग्रन्थों का भी उपयोग हुआ है। अतः शोध विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत तनावमुक्त, सार्थक एवं सफल जीवन का सूत्र है-अतीत की स्मृति एवं भविष्य की कल्पना से मुक्त होकर वर्तमान में जीना। आचार्य तुलसी ने इस सूत्र को प्रायोगिक रूप में अपने जीवन में उतारा है। इस सूत्र को जनता तक पहुंचाने के विशेष उद्देश्य से लिखे गये निबंधों का संकलन है-'अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत' । इस पुस्तक में एक ओर युवापीढ़ी को जैन दर्शन व संस्कृति से परिचित कराया गया है तो दूसरी ओर अहिंसा के विविध रूपों को भी मौलिक सोच के साथ प्रस्तुत किया गया है । इसमें भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग को जहां रचनात्मक दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा है तो वहां समाज एवं राष्ट्र की चेतना को झकझोरने का सफल एवं सार्थक प्रयत्न भी है। _ प्रस्तुत पुस्तक के प्रारम्भिक लेख भगवान् महावीर एवं अणुव्रत आंदोलन की जानकारी देते हैं तथा शेष लेखों में अनेक सामयिक विषयों पर ऊहापोह किया गया है। 'समस्या के बीज : हिंसा की मिट्टी' तथा 'लोकतंत्र और अहिंसा' जैसे कुछ लेख अहिंसक विश्व व्यवस्था का आधार प्रस्तुत करते हैं एवं युद्ध, हिंसा तथा आणविक नरसंहार से समूची दुनिया को बचाने के लिए एक नयी सोच तथा नया दिशादर्शन देते हैं। प्रस्तुत पुस्तक के ४२ लेखों में युगबोध एवं नैतिक अवधारणाओं को युगीन संदर्भ में अभिव्यक्ति दी गयी है । इसी कारण सोच एवं व्यवहार को संस्कारों एवं आदर्श मूल्यों से अनुप्राणित करने में यह पुस्तक अच्छी भूमिका अदा करती है। हर वर्ग के पाठक को नयी सामग्री परोसने वाली यह कृति वैचारिक क्रांति घटित करने में सक्षम है। अनैतिकता की धूप : अणुवत की छतरी ___ नैतिक आंदोलनों में अणुव्रत का अपना महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोपरि स्थान है। इस आंदोलन ने व्यक्ति-चेतना और समूह-चेतना को समान रूप से प्रभावित किया है। इसे जनता तक पहुंचाने तथा नैतिक-मूल्यों का अवबोध कराने के लिए प्रश्नोत्तरों एवं निबंधों का एक संकलन 'अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी' के नाम से प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक में प्राच्य एवं पाश्चात्य आचारशास्त्र विषयक चितन की धाराओं में कितना भेद और अभेद है, उसका सूक्ष्म विश्लेषण तथा दोनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । यह पुस्तक आचारशास्त्र और नीतिशास्त्र का तुलनात्मक Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २०३ अध्ययन प्रस्तुत करती है। समीक्ष्य ग्रन्थ में प्रायः प्रश्न पाश्चात्य दर्शन से प्रभावित हैं पर आचार्य तुलसी ने उनमें भारतीय दर्शन के अनुसार सामञ्जस्य बिठाने का प्रयत्न किया है तथा कहीं-कहीं उन विचारों के प्रति विरोध भी प्रकट किया है। फिर भी सम्पूर्ण पुस्तक में उत्तर देते हुए लेखक ने अनैकान्तिक दृष्टि को नहीं छोड़ा है। सामान्यतः आचार्य तुलसी सहज, सुबोध एवं सरल शैली में बोलते अथवा लिखते हैं पर इस पुस्तक में नैतिकता, आचारशास्त्र, पाश्चात्य-दर्शन तथा अणुव्रत के विविध पक्षों का अत्यन्त गूढ़ एवं गंभीर विवेचन हुआ है। नैतिकता की नई व्याख्या एवं परिकल्पना जिस रूप से इस पुस्तक में उकेरी गई है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। प्रारम्भिक ४२ लेखों में प्रश्नोत्तरों के माध्यम से भारतीय एवं पाश्चात्य आचार-विज्ञान का विश्लेषण है तथा द्वितीय खण्ड 'जीवन मूल्यों की तलाश' में २४ निबंधों के माध्यम से अणुव्रत एवं उससे सम्बन्धित नैतिक मूल्यों का विवेचन है। इस प्रकार अणुव्रत-दर्शन को तुलनात्मक रूप से गंभीर एवं प्राञ्जल भाषा में प्रस्तुत करने का सफल एवं स्तुत्य प्रयास यहां हुआ है। अमत-संदेश आचार्य तुलसी के आचार्यकाल के ५० वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में समाज ने अमृत महोत्सव की आयोजना कर उनका अभिनंदन किया क्योंकि आचार्य तुलसी ने स्वयं विष पीकर भी देश, समाज और राष्ट्र को अमृत ही बांटा है। आलोच्य कृति का प्रारम्भ अमृत-संदेश से होता है, जो लेखक ने अपने जन्मदिन पर सम्पूर्ण देश की जनता के नाम दिया था । पुस्तक में अमृत वर्ष के अवसर पर दिए गए विशेष पाथेय, दिशाबोध एवं संदेश समाविष्ट हैं । इन विशिष्ट आलेखों में मानवीय मूल्यों को उजागर करने के साथ-साथ सांप्रदायिकता, कट्टरता एवं जातिवाद की जड़ों को भी काटने का सफल उपक्रम हुआ है। ___'एक मर्मान्तक पीड़ा : दहेज' 'व्यवसाय जगत् की बीमारी : मिलावट' आदि लेखों में रचनात्मक एवं सृजनात्मक वातावरण निर्मित करने का सफल अभियान छेड़ा गया है । 'समाधान का मार्ग हिंसा नहीं' आलेख में लेखक ने लोंगोवालजी से मिलन के प्रसंग को अभिव्यक्ति दी है । मजहब के नाम पर विकृत साहित्य लिखने वालों के सामने यह कृति एक नया आदर्श प्रस्तुत करती है तथा समाज में व्याप्त विकृतियों को धूं-धूकर जलाने की शक्ति रखती है। विश्व के क्षितिज पर मानवधर्म के रूप में अणुव्रत आंदोलन का प्रतिष्ठापन करके आचार्य तुलसी ने अध्यात्म का नया सूर्य उगाया है। अणुव्रत आंदोलन के विविध रूपों को स्पष्ट करने हेतु दिए गए दिशाबोधों का Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण महत्त्वपूर्ण संकलन इस पुस्तक में है। इन लेखों में भारतीय मानसिकता में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों, विकृतियों एवं विसंगतियों पर भी प्रभावी ढंग से प्रहार किया गया है। ३६ आलेखों में लेखक ने सामयिक एवं शाश्वत सत्यों के समन्वय का सुन्दर एवं सार्थक प्रयास किया है। यह कृति लोगों को पुरुषार्थी बनकर शक्तिशाली बनने का आह्वान करती है। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं वैचारिक खुराक की दृष्टि से साहित्य-जगत् में यह कृति अपना विशिष्ट स्थान रखती है तथा समस्या के तमस् को समाधान के आलोक में बदलने का सामर्थ्य रखती है। अगले संस्करण में इसके प्रायः लेख 'सफर : आधी शताब्दी का' पुस्तक में समाविष्ट कर दिए गए हैं। अर्हत वंदना __ महावीर के प्रत्येक शब्द में वह शक्ति है, जो सोए मानस को जगा सके, घोर तिमिर में आलोक प्रदान कर सके तथा लड़खड़ाते कदमों को अस्खलित गति दे सके । आचार्य तुलसी महावीर की परम्परा के कीर्तिधर एवं यशस्वी पट्टधर हैं। उन्होंने अनेक माध्यमों से महावीर-वाणी को दिगदिगन्तों तक फैलाने का कार्य किया है। उसी का एक लघु एवं सशक्त उपक्रम है --'अर्हत् वंदना'। प्रायः सभी धर्म-सम्प्रदायों में प्रार्थना का महत्त्व स्वीकृत है। इस युग के महापुरुष महात्मा गांधी कहते थे -"प्रार्थना के बिना मैं कब का पागल हो गया होता । मैं कोई काम बिना प्रार्थना नहीं करता। मेरी आत्मा के लिए प्रार्थना उतनी ही अनिवार्य है, जितना शरीर के लिए भोजन"--ये पंक्तियां प्रार्थना के महत्त्व को स्पष्ट उजागर कर रही हैं । आचार्य तुलसी ने जैन दर्शन के आत्मकर्तृत्व के सिद्धांत के अनुरूप प्रार्थना शब्द को स्वीकृत नहीं किया क्योंकि उसमें याचना का भाव होता है। अतः इसका नाम दिया -- 'अर्हत् वंदना' । अर्हत् अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्मा का वाचक शब्द है । उनके प्रति वंदना या श्रद्धा की अभिव्यक्ति व्यक्ति के भीतर भी शक्ति जगाने में निमित्त बन सकती है। आचार्य तुलसी कहते हैं- "व्यक्तित्व के निर्माण एवं रूपांतरण में इसकी शक्ति अमोघ है। शक्ति से शक्ति का जागरण, यही है अर्हत् वंदना की एक मात्र प्रेरणा ।" अर्हत् वंदना आचार्य तुलसी की स्वोपज्ञ कृति नहीं है। महावीरवाणी का संकलन है. पर आज लाखों-लाखों कंठ प्रतिदिन इसका संगान कर आध्यात्मिक संबल प्राप्त करते हैं। यह अपने आपको देखने तथा शांति प्राप्त करने का सशक्त उपक्रम है । इसका प्रत्येक पद व्यक्ति को झंकृत करता है तथा मानसिक एवं भावनात्मक पोषण देता है।। अर्हत् वंदना पुस्तक की महत्ता इसलिए बढ़ गयी है कि इसका Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २०५ सरल हिंदी एवं अंग्रेजी अनुवाद कर दिया गया है। साथ ही आचार्यश्री ने सब सूक्तों एवं पदों की इतनी सरस एवं सरल व्याख्या प्रस्तुत कर दी है कि सामान्य व्यक्ति भी उनका हार्द समझ कर उसमें तन्मय हो सकता है । लघु होते हुए भी यह कृति अध्यात्मरसिक लोगों को अध्यात्म के नए रहस्यों का उद्घाटन कर उन्हें आत्मदर्शन की प्रेरणा देती रहेगी । अशांत विश्व को शांति का संदेश यह संदेश २९.६.४५ को सरदारशहर से लंदन में आयोजित 'विश्व धर्म सम्मेलन' के अवसर पर प्रेषित किया गया था। इस ऐतिहासिक संदेश में आज की विषम स्थिति का चित्रण करते हुए प्राचीन एवं अर्वाचीन युद्ध के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही शांति की व्याख्या और उसकी प्राप्ति के उपायों का विवेचन भी बहुत मार्मिक शैली में हुआ है। अंत में विश्वशांति के सार्वभौम १३ उपायों की चर्चा है । इस कृति में करुणा, शांति, संवेदना एवं अहिंसा की सजीव प्रस्तुति हुई है। - आचार्य तुलसी के इस प्रेरक और हृदयस्पर्शी लेख को पढ़कर महात्मा गांधी ने अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए कहा--"क्या ही अच्छा होता, जब सारी दुनिया इस महापुरुष के बताए हुए मार्ग पर चलती।" ___ यह संदेश निश्चित रूप से अशांति से पीड़ित मानव को शांति की राह दिखा सकता है तथा अणुअस्त्रों की विभीषिका से त्रस्त मानवता को त्राण दे सकता है। ____ अहिंसा और विश्वशांति हिंसा और अहिंसा का द्वन्द्व सनातन है । आदमी हिंसा के दुष्परिणामों से परिचित होते हुए भी हिंसा के नए-नए आविष्कारों/उपक्रमों की ओर अभिमुख होता जा रहा है, यह बहुत बड़ा विपर्यास है। आचार्य तुलसी ने 'अहिंसा और विश्वशांति' पुस्तिका में अहिंसा के वैज्ञानिक स्वरूप को प्रकट किया है तथा शांति प्राप्त करने के उपक्रमों को व्याख्यायित किया है । जो व्यक्ति अहिंसा को कायरों का अस्त्र मानते हैं, उनकी भ्रांति का निराकरण करते हुए वे कहते हैं ---"कायरता अहिंसा का अंचल तक नहीं छू सव.ती । सोने के थाल बिना भला सिंहनी का दूध कब और कहां रह सकता है ? अहिंसा का वास वीर हृदय को छोड़कर और कहीं नहीं होता। वीर वह नहीं होता, जो मारे, वीर वह है, जो मर सके पर न मारे"। अहिंसक ही सच्चा वीर होता है, वह स्वयं मरकर दूसरे की वृत्ति को बदल देता है।" अहिंसा के अमृत का रसास्वादन वही कर सकता है, जो उसके परिणाम को जानता है । लेखक की दृष्टि में सद्भावना, मंत्री, निष्कपटवृत्ति, हृदय की स्वच्छता -ये सब अहिंसा देवी के अमर वरदान हैं। इस पुस्तिका Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण में अहिंसा के प्रभाव को नए संदर्भ में प्रस्तुत करते हुए लेखक का कहना है-- "दूसरे की सम्पत्ति, ऐश्वर्य और सत्ता को देखकर मुंह में पानी नहीं भर आता, यह अहिंसा का ही प्रभाव हैं।" सम्पूर्ण लेख में अहिंसा को नए परिवेश के साथ प्रस्तुत किया गया है । आज के हिंसा-संकुल वातावरण में यह लेख अहिंसा की सशक्त भूमिका तैयार करने में अपनी अहंभूमिका रखता है। आगे की सुधि लेइ प्रवचन-साहित्य जन-साधारण को नैतिकता की ओर प्रेरित करने का सफल उपक्रम है। 'आगे की सुधि लेइ' प्रवचन पाथेय ग्रन्थमाला का तेरहवां पुष्प है। यह १९६६ में गंगाशहर (राज.) में प्रदत्त आचार्य तुलसी के प्रवचनों का संकलन है। प्रवचनकार श्रोता, समय एवं परिस्थिति को देखकर अपनी बात कहते हैं, अतः उसमें विषय-वैविध्य और पुनरुक्ति होना स्वाभाविक है । पर प्रवचनकार आचार्य तुलसी का मानना है कि भिन्न-भिन्न दृष्टियों से प्रतिपादित एक ही बात अपनी उपयोगिता के आगे प्रश्नचिह्न नहीं लगने देती। इन प्रवचनों में जागरण का संदेश है, आत्मोत्थान की प्रेरणा है तथा व्यक्ति से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरने वाली समस्याओं का समाधान भी गुंफित है । प्रवचन-साहित्य की कड़ी में यह एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है, जो अज्ञान के अंधेरे में भटकते मानव को सही मार्गदर्शन देने में सक्षम है। पुस्तक के अंत में तीन परिशिष्ट जोड़े गए हैं, जिससे यह ग्रन्थ अधिक उपयोगी बन गया है। ___ आज से २७ वर्ष पूर्व के ये ५४ प्रवचन अपनी उपयोगिता के कारण आज भी ताजापन लिए हुए है। आचार्य तुलसी के अमर संदेश - प्रसिद्ध विद्वान् विद्याधर शास्त्री कहते हैं-"आचार्य तुलसी के अमर संदेश पुस्तक विश्व दर्शन की उच्चतम पुस्तक है ।" यह सर्वोदय ज्ञानमाला का चौथा पुष्प है। इसमें चारित्रिक बल को जागृत कर आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाने की चर्चा है। प्रस्तुत पुस्तक में विशिष्ट अवसरों पर दिए प्रवचनों एवं महत्त्वपूर्ण आयोजनों में प्रेषित संदेशों का संकलन है । जैसे- लंदन में आयोजित 'विश्व-धर्म सम्मेलन' के अवसर पर भेजा गया महत्त्वपूर्ण लेख'अशांत विश्व को शांति का संदेश' आदि । राजनीति और धर्म के अनेक अनछुए एवं महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रस्तुत पुस्तक नए विचारों की प्रस्तुति देती है साथ ही अन्तश्चेतना को झकझोरने में भी पर्याप्त सहायक बनती है। ये प्रवचन पुराने होते हुए भी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २०७ वर्तमान के संदर्भ में उतने ही सामयिक, उपयोगी, सार्थक एवं प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। इनकी उपजीव्यता आज भी उतनी ही है, जितनी पहले थी। अहिंसा और स्वतंत्रता को जिस मौलिक चिंतन के साथ इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है, वह पठनीय है। ये लघु आलेख व्यक्ति, समाज एवं देश के आसपास घूमती समस्याओं को हमारे सामने रखते हैं, साथ ही सटीक समाधान भी प्रस्तुत करते हैं। आत्मनिर्माण के इकतीस सूत्र सन् १९४८ का चातुर्मास गुलाबी नगरी जयपुर में हुआ । चातुर्मास के दौरान भाद्रव शुक्ला नवमी से पूर्णिमा तक सात दिन के लिए आत्मनिर्माण सप्ताह का आयोजन किया गया । उस सप्ताह के अन्तर्गत आचार्य तुलसी द्वारा उद्बोधित ज्ञान-कणों का संकलन इस पुस्तिका में किया गया है। इसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का आंशिक पालन करने के नियमों का उल्लेख है। एक गृहस्थ अपने जीवन में अहिंसा आदि का पालन किस प्रकार कर सकता है, इसका सुंदर दिशादर्शन इस पुस्तिका में मिलता है। आकार में लघु होते हुए भी यह पुस्तक मानवीय आचार-संहिता को प्रस्तुत करने वाली है। ये ३१ सूत्र वैयक्तिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर को समुन्नत बनाने में भी इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आह,वान आचार्य तुलसी का प्रत्येक वाक्य प्रेरक और मर्मस्पर्शी होता है, पर उनके कुछ विशेष उद्बोधन इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि काल का विक्षेप भी उन्हें धूमिल नहीं कर सकता । एक धर्माचार्य होते हुए भी आचार्य तुलसी समाज के बदलते परिवेश के प्रति जागरूक हैं। ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि उनके पास जीवन की मार्मिकता को समझने एवं व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता एवं सूक्ष्म दृष्टि है। 'आआह्वान' पुस्तिका में बगड़ी मर्यादा महोत्सव (१९९१) में हए एक विशेष वक्तव्य का संकलन है। इस ओजस्वी वक्तव्य ने प्रवचन-पंडाल में बैठे हजारों व्यक्तियों की चेतना को झंकृत कर उन्हें कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया। लोगों की मांग थी कि यह प्रवचन जन-जन तक पहुंचना चाहिए, जिससे अनुपस्थित लोग भी इससे प्रेरणा ले सकें। इस प्रवचन का एक-एक वाक्य वेधक है । इसमें आचार्य श्री ने सामाजिक बुराइयों के प्रति समाज का ध्यान आकृष्ट किया है तथा युग को देखते हुए उन्हें रूपान्तरण की प्रेरणा भी दी है । इस प्रवचन को पढ़ने से लगता है कि इसमें उनकी अथाह पीड़ा Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण व्यक्त हुई है, पर घुटन नहीं है । इसमें उनके हृदय की वेदना बोल रही है, पर निराशा नहीं है । २०८ आचार्यश्री ने सफलता की अनेक सीढ़ियों को पार किया है, पर सफलता के मद ने उनकी अग्रिम सफलता को प्राप्त करने वाले रास्ते को अवरुद्ध नहीं किया । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वे अपनी असफलता को भी देखते रहते हैं । इस दृष्टि से लेख का निम्न अंश पठनीय है " धर्मसंघ की सफलता का व्याख्यान सिक्के का एक पहलू है । इसका दूसरा पहलू हैउन बिन्दुओं को देखना, जहां हम असफल रहे हैं अथवा जिन बातों की ओर अब तक हमारा ध्यान नहीं गया है । इसके लिए हमारे पास एक ऐसी आंख होनी चाहिये, जो हमारी कमियों को, असफलताओं को देख सके और हमें अपने करणीय के प्रति सचेत कर सके ।संघ के एक-एक सदस्य का दायित्व है कि वह उस पृष्ठ को देखे, जो अब तक खाली है । जिन लोगों के पास चिन्तन, सूझबूझ और काम करने की क्षमता है, वे उस खाली पृष्ठ को भरने के लिए क्या करेंगे, यह भी तय करें ।" ऐश्वर्य के उच्च शिखर पर आरूढ़ प्रदर्शन एवं आडम्बरप्रिय व्यक्तियों को यह संदेश त्याग, संयम, सादगी एवं बलिदान का उपदेश देने वाला है । उद्बोधन अणुव्रत आंदोलन किसी सामयिक परिस्थिति से प्रभावित तात्कालिक क्रान्ति करने वाला आन्दोलन नहीं, अपितु शाश्वत दर्शन की पृष्ठभूमि पर टिका हुआ है । इस आंदोलन के माध्यम से आचार्य तुलसी ने केवल विभिन्न वार्तमानिक समस्याओं को ही नहीं उठाया, बल्कि सटीक समाधान भी प्रस्तुत किया है । सामयिक संदर्भों पर 'अणुव्रत' पत्रिका में प्रकाशित संक्षिप्त विचारों का संकलन ही 'उद्बोधन' है । इसमें नैतिकता के विषय में नए दृष्टिकोण से विचार किया गया है । अतः प्रस्तुत कृति व्यक्ति को प्रामाणिकता के सांचे में ढालने हेतु अनेक उदाहरणों, सुभाषितों एवं घटनाओं को माध्यम बनाकर विषय की सरस एवं सरल प्रस्तुति करती है। यह पुस्तक साम्प्रदायिकता, प्रान्तीयता आदि विकृत मूल्यों को वदलकर समन्वय एवं समानता के मूल्यों की प्रस्थापना करने का भी सफल उपक्रम है । इसमें अणुव्रत-दर्शन को अध्यात्म, संस्कृति, समाज और मनोविज्ञान के साथ जोड़ने का सार्थक प्रयत्न किया गया है । परिवर्धित रूप में इसका नवीन संस्करण 'समता की आंख : चरित्र की पांख' के नाम से प्रकाशित है । कुहासे में उगता सूरज 'कुहासे में उगता सूरज' १०१ आलेखों का महत्वपूर्ण संकलन है । ये Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २०९ विचार समय-समय पर साप्ताहिक बुलेटिन "विज्ञप्ति' में छपते रहे हैं । इस पुस्तक में केवल धर्म और अध्यात्म की ही चर्चा नहीं है, अपितु दूरदर्शन, सोवियत महोत्सव, संयुक्तपरिवार, दक्षेससम्मेलन तथा पर्यावरण आदि अनेक सम-सामयिक विषयों पर मार्मिक एवं सटीक प्रस्तुति हुई है। ये आलेख लेखक के चौतरफी ज्ञान को तो प्रस्तुत करते ही हैं, साथ ही उनके समाधायक दृष्टिकोण को भी उजागर करने वाले हैं। इस कृति में भौतिकवाद से उत्पन्न खतरे के प्रति समाज को सावधान किया गया है। पुस्तक में समाविष्ट विषयों के बारे में स्वयं प्रश्नचिह्न उपस्थित करते हुए आचार्य तुलसी कहते हैं ..... "प्रश्न हो सकता है कि धर्माचार्यों को सामयिक प्रसंगों से क्यों जुड़ना चाहिए ? उनका तो काम होता है शाश्वत को उजागर करना।"""""पर मेरा विश्वास है कि शाश्वत के साथ पूरी तरह अनुबंधित रहने पर भी सामयिक की उपेक्षा नहीं की जा सकती। शाश्वत से वर्तमान को निकाला भी नहीं जा सकता । यदि धर्मगुरु के माध्यम से समाज को पथदर्शन न मिले, दिशाबोध न मिले, गतिशील रहने की प्रेरणा न मिले तो जागरण का संदेश कौन देगा? जनता को जगाने का दायित्व कौन निभाएगा ?" इसी उद्देश्य से इस पुस्तक में अनेक जागतिक समस्याओं के संदर्भ में चिन्तन किया गया है। यह पुस्तक भौतिकता की चकाचौंध में अपनी मौलिक संस्कृति को भूलने वाली पीढ़ी को एक नया दिशादर्शन देगी तथा असंयम और हिंसा के कुहासे में संयम और अहिंसा के तेज से युक्त नए सूरज को उगाने में भी सहयोगी बन सकेगी। इस पुस्तक में चिंतन की मौलिकता, विवेचन की गंभीरता, विश्लेषण की सूक्ष्मता एवं शैली की प्रौढ़ता सर्वत्र दृग्गोचर है । इसका प्रत्येक आलेख संक्षिप्त, सारगर्भित और अन्तःकरण को छूने वाला है। समाज एवं देश के प्रत्येक क्षेत्र के अन्धकार की चर्चा कर आचार्यश्री ने भारतीय संस्कृति के अनुरूप अध्यात्म की लौ प्रज्वलित करने का प्रशस्य प्रयत्न किया है। अतः इस पुस्तक के शीर्षक को भी सार्थकता मिली है। क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? साहित्य ऐसा होना चाहिए, जिसके आकलन से दूरदर्शिता बढ़े, बुद्धि को तीव्रता प्राप्त हो, हृदय में एक प्रकार की संजीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जाएं तथा आत्मगौरव की उद्भावना पराकाष्ठा तक पहुंच जाए---महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा दी गई सत्साहित्य की कसौटी पर आचार्य तुलसी की कृति 'क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?' को परखा जा सकता धर्म का सम्बन्ध प्रायः परलोक से जोड़ दिया जाता है। जो केवल Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण श्रद्धालु व्यक्ति के लिए गम्य है । एक तार्किक और बौद्धिक व्यक्ति धर्म के इस रूप को स्वीकार करने में हिचकता है । आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से धर्म को व्यवहार के साथ जोड़कर उसे बुद्धिगम्य बनाने का प्रयत्न किया है । पुस्तक के आत्म-वक्तव्य में वे इस बात की पुरजोर पुष्टि करते हैं......"जिस धर्म से इस जन्म में मोक्ष का अनुभव नहीं होगा, उस धर्म से भविष्य में मोक्ष-प्राप्ति की कल्पना का क्या आधार हो सकता है ?" पुस्तक में ४१ आलेखों के माध्यम से धर्म का क्रान्तिकारी स्वरूप, अणुव्रत आंदोलन, जैन-सिद्धान्त तथा लोकतंत्र से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें धर्म, संस्कृति एवं परम्परा के विषय में एक नया दृष्टिकोण एवं नई सोच से विचार किया गया है तथा धर्म का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत कर नयी मान्यताओं को भी जन्म दिया गया है । इस पुस्तक के माध्यम से आचार्य तुलसी ने सभी धर्माचार्यों को पुनः एक बार धर्म के बारे में सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि धर्म का शुद्ध स्वरूप क्या है ? लेखक का स्पष्ट मन्तव्य है कि चरित्र की प्रतिष्ठा ही धर्म का सक्रिय स्वरूप है। सम्प्रदाय को ही धर्म मानकर संघर्ष करने वालों को इसमें नया प्रतिबोध दिया गया है। यह पुस्तक निश्चय ही धर्मप्रेमी लोगों को धर्म के बौद्धिक और वैज्ञानिक स्वरूप का बोध कराने में सफल है। साथ ही धार्मिक जगत् के समक्ष एक ऐसा स्वप्न प्रस्तुत करती है, जिसको साकार करने में मानव-समुदाय पुरुषार्थ और लगन से जुट जाए। . खोए सो पाए वर्तमान युग की व्यस्त दिनचर्या में आकार छोटा और निष्कर्ष बड़ा, ऐसे साहित्य की नितान्त आवश्यकता है। आचार्य तुलसी ने युगीन मानसिकता को समझा और 'खोए मो पाए' पुस्तक द्वारा इस अपेक्षा की पूर्ति की । इस पुस्तक में नैतिकता एवं जीवन-मूल्यों की मार्मिक अभिव्यक्ति देने के साथ ही साधनापरक अनुभवों को भी नई भाषा दी गई है। सहज ग्राह्य शैली में लिखी गयी इस पुस्तक के ८० लेखों में नैतिकता जीवन्त होकर मुखर हुई है, ऐसा प्रतीत होता है। साथ ही भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना को एक विशेष अभिव्यक्ति मिली है । आचार्य तुलसी एक महान साधक हैं। उन्होंने अपने जीवन में साधना के अनेक प्रयोग किए हैं। हिसार चातुर्मास १९६३ में उन्होंने एकांतवास के साथ साधना के कुछ नए प्रयोग भी किए। उस अनुष्ठान के दौरान हुए अनेक अनुभवों को उन्होंने अपनी डायरी में लिखा । उसी डायरी के कुछ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २११ पृष्ठ इस पुस्तक में प्रतिबिम्बित हैं । प्रस्तुत कृति में अनुभवों की इतनी सहज अभिव्यक्ति हुई है कि पाठक पढ़ते ही उससे तादात्म्य स्थापित कर लेता है । पुस्तक के प्रायः सभी शीर्षक साधनापरक हैं। ___आचार्यश्री स्वयं इस पुस्तक के प्रयोजन को अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं-'खोए सो पाए' को पढ़ने वाला साधक अपने आपको पूर्ण रूप से खोना, विलीन करना सीख ले, यह उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो सकती है।" संक्षेप में प्रस्तुत कृति अपने घर को देखने, संवारने और निरन्तर उसमें रह सकने का सामर्थ्य भरती है। गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का भगवान् महावीर ने साधु-संस्था को जितना महत्त्व दिया, उतना ही महत्त्व गृहस्थवर्ग को भी दिया तथा उनके लिए धार्मिक आचार-संहिता भी प्रस्तुत की है। इस पुस्तक के प्रारम्भिक लेखों में अहिंसा, सत्य आदि पांच व्रतों का विवेचन है, तत्पश्चात् धर्म और दर्शन के अनेक विषयों का संक्षेप में विश्लेषण किया गया है। साधारणतः तात्त्विक एवं दार्शनिक साहित्य जनसामान्य के लिए रुचिकर नहीं होता क्योंकि इनका विषय जटिल और गम्भीर होता है लेकिन आचार्य तुलसी की तत्त्व-प्रतिपादन शैली इतनी सरस, सरल और रुचिकर है कि वह व्यक्ति को उबाती नहीं । इतने संक्षिप्त पाठों में गम्भीर विषयों का प्रतिपादन लेखक की विशिष्ट शैली का निदर्शन है। जहां विषय विस्तृत लगा उसको उन्होंने अनेक भागों में बांट दिया हैजैसे -... 'श्रावक के विश्राम', 'श्रावक के मनोरथ' आदि। ___आचार्य तुलसी अपने स्वकथ्य में इस कृति के प्रतिपाद्य को सटीक एवं रोचक भाषा में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- "कुछ लोगों की ऐसी धारणा है कि धर्माचरण और तत्त्वज्ञान करने का ठेका साधुओं का है। गृहस्थ अपनी गृहस्थी संभाले, इससे आगे उनको कोई अधिकार नहीं है । इस धारणा को तोड़ने के लिए तथा गृहस्थ समाज को इसकी उपयोगिता समझाने के लिए अब 'गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का' पुस्तक पाठकों के हाथों में पहुंच रही है। जैन दर्शन के सैद्धांतिक तत्त्वों की अवगति पाने के लिए, श्रावक की चर्या को विस्तार से जानने के लिए तथा बच्चों को धार्मिक संस्कार देने के लिए इसका उपयोग हो, यही इसके संकलन की सार्थकता इस कृति में १११ लघु पाठों का समावेश है। प्रत्येक पाठ अपने आपमें पूर्ण है तथा 'गागर में सागर' भरने के समान प्रतीत होता है । जैनेतर पाठकों के लिए जैनधर्म एवं उसके सिद्धांतों को सरलता से जानने तथा कलात्मक जीवन जीने के सूत्रों का ज्ञान कराने हेतु यह पुस्तक बहुत उपयोगी Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण है । समग्रदृष्टि से प्रस्तुत कृति तत्त्वज्ञान एवं जीवन-विज्ञान का जुड़वां स्वाध्याय ग्रंथ है। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 'मुक्तिपथ' शीर्षक से प्रकाशित है। घर का रास्ता 'घर का रास्ता' प्रवचन पाथेय ग्रंथमाला की श्रृंखला में सतरहवां पुष्प है। यह श्रीचन्दजी रामपुरिया द्वारा संपादित प्रवचन-डायरी भाग-३ में संकलित सन् ५७ के प्रवचनों का ही परिवधित एवं परिष्कृत संस्करण है। ९८ प्रवचनों से युक्त इस नए संस्करण में अनेकों विषयों पर सशक्त एवं प्रभावी विचाराभिव्यक्ति हुई है। युग की अनेक समस्याओं पर गम्भीर चिन्तन एवं प्रभावी समाधान है। साथ ही भारतीय संस्कृति के प्रमुख पहलुओं- धर्म, अध्यात्म, योग, संयम आदि की सुन्दर चर्चा है। निःसन्देह घर के रास्ते से बेखबर दर-दर भटकते मानव का पथदर्शन करने में यह पुस्तक आलोक-दीप का कार्य करेगी और पथ-भटके मानव के लिए मार्गदर्शक बनकर उसके पथ में आलोक बिखेरती रहेगी। - इन प्रवचनों की भाषा सरल, सहज एवं अन्तःकरण का स्पर्श करने वाली है। इसमें घटनाओं, रूपकों एवं कथाओं के माध्यम से शाश्वत घर तक पहुंचने के लिए कंटीले पथ को साफ किया गया है । अध्यात्मचेता पाठक इस पुस्तक के माध्यम से नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास कर सकेगा, ऐसा विश्वास है। __ जन-जन से आचार्य तुलसी ने अपने प्रवचनों में उन सब बातों का जीवन्त चित्रण किया है, जो उन्होंने अनुभव किया है, देखा एवं सोचा-समझा है। 'जन-जन से' पुस्तक में आचार्य तुलसी के १९ क्रांतिकारी युग-सन्देश समाविष्ट हैं। इन संदेशों में समाज के विभिन्न वर्गों की त्रुटियों की ओर अंगुलिनिर्देश है, साथ ही जीवन को प्रेरक और आदर्श बनाने के सूत्र भी समाविष्ट हैं। _ 'सुधारवादी व्यक्तियों से' 'धर्मगुरुओं से' 'जातिवाद के समर्थकों से' तथा 'विश्वशांति के प्रेमियों से' आदि ऐसे सन्देश हैं, जिनको पढ़कर ऐसा लगता है कि एक अत्यन्त तपा तथा मंजा हुआ आत्मनिष्ठ और मनोबली योगी ही इस भाषा में दूसरों को प्रेरणा दे सकता है। आकार में लघु होते हुए भी इस पुस्तक की महत्ता इस बात में है कि ये प्रवचन या सन्देश हर वर्ग के मर्म को छूने वाले तथा रूपांतरण की प्रेरणा देने वाले हैं । सुधारवादी व्यक्तियों को इसमें कितने स्पष्ट शब्दों में प्रेरणा दी गयी है-"जिस बात पर स्वयं अमल नहीं कर सकें, जिसे अपने Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २१३ व्यावहारिक जीवन में स्थान नहीं दे सकें, उसका औरों के लिए प्रवचन करना, क्या विडम्बना या धोखा नहीं है ?" पुस्तक नवसमाज के निर्माण में उत्प्रेरक का कार्य करने वाली अमूल्य सन्देशवाहिका है। जब जागे. तभी सवेरा योगक्षेम वर्ष आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व निर्मित करने का एक हिमालयी प्रयत्न था, जिसमें अन्तर्मुखता प्रकट करने तथा विधायक भावों को जगाने के अनेक प्रयोग किए गए । समीक्ष्य वर्ष में प्रज्ञा-जागरण के अनेक उपक्रमों में एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम था-प्रवचन । 'जब जागे, तभी सवेरा' योगक्षेम वर्ष में हुए प्रवचनों का द्वितीय संकलन है। इसमें मुख्यतः 'उत्तराध्ययन सूत्र' पर हुए ५१ प्रवचनों का समावेश है, साथ ही तेरापंथ, प्रेक्षाध्यान तथा कुछ तुलनात्मक विषयों पर विशिष्ट सामग्री भी इस कृति में देखी जा सकती है। आज के प्रमादी, आलसी और दिशाहीन मानव के लिए यह पुस्तक पथ-दर्शक का काम करती है। व्यक्तित्व-निर्माण के साथ-साथ जीवन को समग्रता से कैसे जिया जाए, इसका समाधान भी इस ग्रन्थ में है। ___ 'शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ता प्रदूषण' आदि कुछ लेख आज की शिक्षाप्रणाली पर करारा व्यंग्य करते हैं। निष्कर्षतः यह अपनी संस्कृति एवं सभ्यता से जुड़ी एक जीवन्त रचना है। लेखक ने हजारों किलोमीटर की पदयात्रा करके इस देश की स्थितियों को बहुत नजदीकी से देखा है और उनको समाधान की रोशनी भी दी है। इन लेखों/प्रवचनों में प्रवचनकार ने अनेक संस्कृत श्लोकों, हिन्दी के दोहों तथा सोरठों आदि का भी भरपूर उपयोग किया है तथा प्रतिपाद्य को स्पष्ट करने हेतु अनेक रोचक कथाओं तथा संस्मरणों का समावेश भी इस ग्रन्थ में किया गया है। कहा जा सकता है कि भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित तथ्यों को आज के सांचे में ढालने का सार्थक प्रयत्न इन आलेखों में किया गया है। जागो ! निद्रा त्यागो !! . मानव जीवन को सूक्ष्मता से देखने, समझने और नया बल देने की परिष्कृत दृष्टि आचार्य तुलसी के पास है। यही कारण है कि उनके प्रवचनसाहित्य में सामाजिक, नैतिक एवं मानवीय पहलुओं के साथ गंभीर दार्शनिक चितन के स्वर भी हैं। प्रस्तुत पुस्तक ऐसे ही ५८ प्रवचनों का संकलन है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, यह पाठक को जागरण का संदेश देती है। इसमें विविध भावों का समाहार है। आचार, संस्कार, राष्ट्रीयभावना, साधना, शिक्षा तथा धर्म आदि विषयों से युक्त यह पुस्तक पाठक Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण की दृष्टि को विशाल एवं ज्ञानयुक्त बनाने में सक्षम है । जीवन और मृत्यु इन दोनों को कलात्मक कैसे बनाया जाए, इसके विविध गुर भी इस कृति में गुंफित हैं। इसमें अनेक छोटे-छोटे दृष्टांत, उदाहरण, कथानक, रूपक तथा गाथाओं के द्वारा गहन विषय को सरल शैली में स्पष्ट करने का सुंदर प्रयत्न हुआ है। सैद्धांतिक दृष्टि से भी यह पुस्तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन पड़ी है क्योंकि इसमें सरल भाषा में क्रिया, गुणस्थान, पर्याप्ति आदि का सुंदर विवेचन मिलता है। ___ आलोच्य पुस्तक प्रवचन-साहित्य की कड़ी में बारहवां पुष्प है। तत्त्वजिज्ञासु पाठक इससे जैन तत्त्व एवं सिद्धांत के कुछ प्रत्ययों की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे, ऐसा विश्वास है । जीवन की सार्थक दिशाएं 'जीवन अनन्त संभावनाओं की कच्ची मिट्टी है'-आचार्य तुलसी के ये विचार जीवन के बारे में एक नयी सोच पैदा करते हैं। जीवन सभी जीते हैं, पर सार्थक जीवन जीने की कला बहुत कम व्यक्ति जान पाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक सामाजिक, राष्ट्रीय और वैयक्तिक जीवन की अनेक सार्थक दिशाएं उद्घाटित करती है । ३३ आलेखों के माध्यम से प्रस्तुत कृति में व्यापक संदर्भो में नवीन आध्यात्मिक मूल्यों का प्रकटीकरण हुआ है। ___इस पुस्तक में कुछ आलेख व्यक्तिगत अनुभूतियों से संबंधित हैं तो कुछ समाज, परिवार एवं राष्ट्र से जुड़ी विसंगतियों एवं विकृतियों पर भी मार्मिक प्रहार करते हैं । 'धर्मसंघ के नाम खुला आह्वान' लेख विस्तृत होते हुए भी आधुनिकता के नाम पर पनप रही भोगविलास एवं ऐश्वर्यवादी मनोवृत्ति पर करारा व्यंग्य करता है तथा लेखक की मानसिक पीड़ा का सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है। प्रस्तुत कृति मानव जीवन से जुड़ी सच्चाइयों की सच्ची अभिव्यक्ति है। इसे पढ़ते समय व्यक्ति अपना चरित्र सामने महसूस करता है। समीक्ष्य कृति में लीक से हटकर कुछ कहने का तथा लोगों की मानसिकता को झकझोरने का सघन प्रयत्न हुआ है। यह कृति हर वर्ग के पाठक को कुछ सोचने, समझने एवं बदलने के लिए उत्प्रेरित करेगी तथा अहिंसक समाजसंरचना की दिशा में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करेगी, यह विश्वास है। . जैन तत्व प्रवेश भाग-१.२ । जैन दर्शन के सिद्धांत रूढ़ नहीं, अपितु विज्ञान पर आधारित हैं। इसकी तत्त्व-मीमांसा भी समृद्ध है। इसमें जहां विश्व-व्यवस्था पर गहन चितन है, वहां आत्म-विकास के लिए उपयोगी तत्त्वों का भी गहन विवेचन Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २१५ हुआ है । 'जैन तत्त्व प्रवेश भाग-१,२' में नवतत्त्व, कर्मवाद, भाव, आत्मा आदि की प्राथमिक जानकारी मिलती है तथा अन्य स्फुट विषयों का ज्ञान भी इसमें प्राप्त होता है। इसके दूसरे भाग में-लेश्या, भाव, गुणस्थान आदि का विवेचन है। साथ ही आचार्य भिक्षु के मौलिक सिद्धांत दान, दया आदि को भी आधुनिक भाषा में प्रस्तुत किया गया है। ___ जैन तत्त्व ज्ञान में प्रवेश पाने के लिए ये दोनों कृतियां प्रवेश द्वार कही जा सकती हैं । दार्शनिक और तात्त्विक विवेचन को भी इसमें सरल एवं सहज भाषा में प्रस्तुत किया गया है। ये कृतियां आचार्य भिक्षु द्वारा रचित 'तेरह द्वार' के आधार पर निर्मित की गयी हैं। आज भी सैकड़ों मुमुक्षु और तत्त्वजिज्ञासु इन दोनों कृतियों को संस्कृत श्लोकों की भांति शब्दशः कंठस्थ करते हैं तथा इनका पारायण करते हैं। जैन तत्त्व विधा तत्त्वज्ञान जहां हमारी दृष्टि को परिमार्जित करता है, वहां जीवन रूपांतरण में भी सहयोगी बनता है। आचार्य तुलसी का मंतव्य है कि बड़ेबड़े सिद्धांतों का मूल्य बौद्धिक समुदाय तक सीमित रह जाता है किंतु 'जैन तत्त्व विद्या' पुस्तक में सामान्य तत्त्वज्ञान को बहुत सरल और सुवोध शैली में प्रस्तुत किया गया है । प्रस्तुत कृति शिक्षित और अल्पशिक्षित दोनों वर्गों के पाठकों के लिए उपयोगी है। यह कृति 'काल तत्त्व शतक' की व्याख्या के रूप में लिखी गयी है। जैन विद्या के लगभग १०० विषयों का विश्लेषण इस ग्रन्थ में है। आकार में छोटी होते हुए भी यह कृति ज्ञान का आकर है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जैन विद्या का प्रारम्भिक ज्ञान कराने में यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। जैन दीक्षा भारतीय संस्कृति में संन्यस्त जीवन की विशेष प्रतिष्ठा है। बड़े-बड़े चक्रवतियों ने भी भौतिक सुखों को तिलाञ्जलि देकर साधना के बीहड़ पथ पर चरण बढ़ाए हैं। जैन परम्परा में तो दीक्षित जीवन का विशेष महत्त्व रहा है। कुछ भौतिकवादी व्यक्ति दीक्षा को पलायन मानते हैं पर आचार्य तुलसी ने इस पुस्तिका के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि दीक्षा कोई पलायन या कर्त्तव्यविमुखता नहीं, अपितु स्वयं, समाज व राष्ट्र के प्रति अधिक जागरूक होने का एक महान् उपक्रम है। पुस्तिका में दीक्षा का स्वरूप, दीक्षा ग्रहण के कारण, दीक्षा-ग्रहण की अवस्था आदि अनेक विषयों का स्पष्टीकरण है। इस पुस्तिका में मूलतः बालदीक्षा के विरोध में उठने वाली शंकाओं का समाधान देने वाले विचारों Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण का संकलन है । यह पुस्तिका अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों को अपने में समेटे हुए ज्योति के कण अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से आचार्य तुलसी ने भारतीय जनता को रचनात्मक एवं सृजनात्मक जीवन का प्रेरक एवं उपयोगी संदेश दिया है। यह आंदोलन जहां गरीव की झोंपड़ी से राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा, वहां सामान्य अनपढ़ ग्रामीण से लेकर प्रबुद्ध शिक्षाविद् भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । 'ज्योति के कण' पुस्तिका अणुव्रत के स्वरूप एवं उसके विभिन्न पक्षों का सुन्दर विश्लेषण करती है । यह लघु कृति अणुव्रत की ज्योति को जन-जन तक पहुंचाने में समर्थ रही है। ज्योति से ज्योति जले "शरीर पर जितने रोम हैं, उससे भी अधिक आशा और उम्मीद युवापीढ़ी से की जा सकती है। उसे पूरा करने के लिए युवकों को इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति का जागरण करना होगा"-आचार्य तुलसी का यह उद्बोधन आज की दिशाहीन और अकर्मण्य युवापीढ़ी को एक नया बोधपाठ पढ़ाता है। ऐसे ही अनेक बोधपाठों से युक्त समय-समय पर युवकों को प्रतिबोध देने के लिए दिए गए वक्तव्यों एवं निबन्धों का संकलन ग्रन्थ है-'ज्योति से ज्योति जले।' यह पुस्तक युवकों के आत्मबल और नैतिकबल को जगाने की प्रेरणा तो देती ही है साथ ही 'श्रमण संस्कृति की मौलिक देन' तथा 'चंद्रयात्रा : एक अनुचिन्तन' आदि कुछ लेख सैद्धांतिक एवं आगमिक ज्ञान भी प्रदान करते हैं। पुस्तक में गुम्फित छोटे-छोटे प्रेरक उद्बोधनों से प्रेरणा पाकर युवासमाज निश्चित ही रचनात्मक एवं सृजनात्मक दिशा में गति कर सकता है। तच्व क्या है ? 'तत्त्व क्या है ?' 'ज्ञानकण' की श्रृंखला में प्रकाशित होने वाला महत्त्वपूर्ण पुष्प है। इसमें धर्म के संदर्भ में फैली कई भ्रांतियों का निराकरण है । प्रस्तुत पुस्तिका में धर्म का क्रान्तिकारी स्वरूप अभिव्यक्त हुआ है । इसमें अध्यात्म को भौतिकता से सर्वथा भिन्न तत्त्व स्थापित किया गया है। लेखक का मानना है- “भौतिकता स्वार्थमूलक है, स्वार्थ-साधना में संघर्ष हुए बिना नहीं रहते । आध्यात्मिकता का लक्ष्य परमार्थ है-इसलिए वहां संघर्षों का अन्त होता है।" उनका यह कथन अनेक भ्रांतियों को दूर करने वाला है। धर्म और राजनीति को सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता अतः धर्म के विविध पक्षों को उजागर करते हए आचार्य तुलसी राजनीतिज्ञों को Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २१७ चेतावनी देते हुए कहते हैं.--"मैं राजनीतिज्ञों को भी एक चेतावनी देता हूं कि हिंसात्मक क्रांति ही सब समस्याओं का समुचित साधन है, इस भ्रांति को निकाल फेंके अन्यथा उन्हें कटु परिणाम भोगना होगा। आज के हिंसक से कल का हिंसक अधिक क्रूर होगा, अधिक सुख-लोलुप होगा।" यह प्रेरक वाक्य इस ओर इंगित करता है कि राजनीति पर धर्म का अंकुश अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार आकार में छोटी होते हुए भी यह पुस्तिका वैचारिक खुराक की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। तत्त्व-चर्चा भारतीय संस्कृति में तत्त्वज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। महावीर ने मोक्ष मार्ग की प्रथम सीढ़ी के रूप में तत्त्वज्ञान को स्वीकार किया आचार्य तुलसी महान् तत्त्वज्ञ ही नहीं, वरन् तत्त्व-व्याख्याता भी हैं। समय-समय पर अनेक पूर्वी एवं पाश्चात्य विद्वान् आपके चरणों में तत्त्वजिज्ञासा लिये आ जाते हैं। हर प्रश्न का सही समाधान आपकी औत्पत्तिकी बुद्धि में पहले से ही तैयार रहता है। तत्त्वचर्चा पुस्तक में दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा० के. जी. रामाराव व आस्ट्रिया के यशस्वी पत्रकार डा. हर्बर्ट टिसि की जिज्ञासाओं का समाधान है। इसमें दोनों विद्वानों ने आत्मा, जीव, कर्म, पुद्गल, पुण्य आदि के बारे में तो प्रश्न उपस्थित किए ही हैं, साथ ही साधुजीवन की चर्या से संबंधित भी अनेक प्रश्नों का उत्तर है। यह पुस्तिका जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अतः तत्त्वज्ञान में रुचि रखने वालों के लिये पठनीय एवं मननीय है। तीन संदेश 'तीन संदेश' पुस्तिका में आचार्य तुलसी के तीन महत्त्वपूर्ण संदेश संकलित हैं। प्रथम 'आदर्श राज्य' जो एशियाई कांफ्रेंस के अवसर पर प्रेषित किया गया था। दूसरा 'धर्म संदेश' अहमदाबाद में आयोजित 'धर्म परिषद् में पढ़ा गया था तथा तीसरा 'धर्म रहस्य' दिल्ली में एशियाई कांफ्रेंस के अवसर पर 'विश्व धर्म सम्मेलन' में प्रेषित किया गया। लगभग ४७ वर्ष पूर्व लिखित ये तीनों संदेश आज भी धर्म और राजनीति के बारे में अनेक नई धारणाओं और विचारों को अभिव्यक्त करने वाले हैं। इन संदेशों में कुछ ऐसी नवीनताएं है, जो पाठकों को यह अहसास करवाती हैं कि हम ऐसा क्यों नहीं सोच पाए ? प्रस्तुत कृति युग की ज्वलंत समस्याओं का समाधान है तथा रूढ़ लोकचेतना को झाकझोरने में भी कामयाब रही है। यह पुस्तक भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के विषय में नया दृष्टिकोण Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण तथा गांधीजी के रामराज्य की आदर्श कल्पना का प्रायोगिक रूप प्रस्तुत करने वाली है। तेरापंथ और मूर्तिपूजा तेरापंथ मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करता । वह किसी भी व्यक्तिगत उपासना-पद्धति का खंडन या आलोचना नहीं करता, पर सही तथ्य जनता तक पहुंचाने में उसका एवं उसके नेतृत्व का विश्वास रहा है। समय-समय आचार्य तुलसी के पास मूर्तिपूजा को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते रहते हैं। उन सब प्रश्नों का सटीक एवं तार्किक समाधान इस पुस्तिका में दिया गया है । आगमिक आधार पर अनेक नए तथ्यों को प्रकट करने के कारण यह पुस्तिका अत्यन्त लोकप्रिय हुई है तथा लोगों के समक्ष धर्म का सही स्वरूप प्रस्तुत करने में सफल रही है। दायित्व का दर्पण : आस्था का प्रतिबिम्ब यह पुस्तक दूधालेश्वर महादेव (मेवाड़) में युवकों को संबोधित कर प्रेषित किए गए सात प्रवचनों का संकलन है । युवक अपनी क्षमता को पहचानक र शक्ति का सही नियोजन कर सकें इसी दृष्टि से दूधालेश्वर में साप्ताहिक शिविर का आयोजन हुआ। आचार्यश्री की प्रत्यक्ष सन्निधि न मिलने के कारण वाचिक सन्निधि को प्राप्त कराने के लिए सात प्रवचनों को ध्वनि-मुद्रित किया गया। वे ही सात प्रवचन इस कृति में संकलित हैं। ये प्रवचन भारतीय संस्कृति, जैनदर्शन, तेरापंथसंघ तथा श्रावक की आचार-संहिता की विशद जानकारी देते हैं। आकार-प्रकार में छोटी होने पर भी यह कृति भाषा, भाव एवं शैली की दृष्टि से काफी समृद्ध है। इसमें आधुनिक विकृत जीवन-शैली तथा पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण पर तो प्रहार किया ही है, साथ ही चरित्रहीनता एवं आस्थाहीनता को समाप्त कर नैतिक एवं प्रामाणिक जीवन जीने का संदेश भी दिया गया है। अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में कई मौलिक एवं आधुनिक प्रश्नों का सटीक समाधान भी इस कृति में प्रस्तुत है। उदाहरण के लिए इसकी कुछ पंक्तियां पठनीय हैं- "कई बार भावावेश में आकार युवावर्ग कह बैठता है-"नहीं चाहिए हमें ऐसी अहिंसा और शांति, जो समाज को दब्बू और कायर बनाती है युवावर्ग ही क्यों, मैं भी कहता हूं मुझे भी नहीं चाहिए ऐसी अहिंसा और शांति, जो समाज को कायर बनाती है।" यह कृति युवापीढ़ी की उखड़ती आस्था को पुनःस्थापित करने में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाती है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन दीया जले अगम का 'दीया जले अगम का' ठाणं सूत्र के आधार पर दिए गए प्रवचनों का संकलन है। यह योगक्षेम वर्ष में हुए प्रवचन-साहित्य की श्रृंखला में चौथा पुष्प है। इस पुस्तक के ४१ आलेखों में सैद्धांतिक, दार्शनिक, व्यावहारिक, मनोवैज्ञानिक आदि अनेक दृष्टियों से नए तथ्य प्रकट हुए हैं। आचार्य तुलसी के शब्दों में – “इस पुस्तक में कहीं धर्म और राजनीति की चर्चा है तो कहीं पर्यावरण-विज्ञान का प्रतिपादन है, कहीं क्रियावाद और अक्रियावाद जैसे दार्शनिक विषय हैं तो कहीं स्वास्थ्य की आचार संहिता है। कहीं चक्षुष्मान का स्वरूपबोध है तो कहीं व्यक्तित्व की कसौटियों का निर्धारण है । कहीं अहिंसा की मीमांसा है तो कहीं मरने की कला का अवबोध है। कुल मिलाकर मुझे लगा कि इस पुस्तक की सामग्री जीवन को अनेक कोणों से समझने में सहयोगी बन सकती है। महावीर-वाणी के आधार पर प्रज्वलित यह अगम का दीया चेतना की सत्ता को आवृत करने वाले अंधेरे से लड़ता रहे, यही इस पुस्तक के संकलन, संपादन और प्रकाशन की सार्थकता है।" प्रस्तुत कृति निषेधात्मक भावों के स्थान पर विधायक भाव, भौतिक शक्तियों के स्थान पर आध्यात्मिक शक्तियों का साक्षात्कार कराने में सार्थक भूमिका निभाती है । इसके आलेख हैवान से इन्सान तथा इन्सान से बेहतर इन्सान बनाने की दिशा में अपना सफर जारी रखेंगे, ऐसा विश्वास है । दोनों हाथ : एक साथ आचार्य तुलसी ने अपने आचार्यकाल में नारी-जागरण के अनेक प्रयत्न किए हैं। उनका मानना है कि स्त्री को उपेक्षा या संकीर्ण दृष्टि से देखना रूढ़िगत मानसिकता का द्योतक है। महिला जाति को दिशादर्शन देने के साथ-साथ उन्होंने युवाशक्ति को भी प्रतिबोध देकर उसे रचनात्मक दिशा में अग्रसर किया है। दोनों हाथ : एक साथ' पुस्तक में आचार्य तुलसी द्वारा समय-समय पर युवकों एवं महिलाओं को सम्बोधित कर लिखे गए लेखों का संकलन है। पुस्तक के प्रथम खंड में २३ निबंध नारी-शक्ति से सम्बन्धित हैं । तथा दूसरे खंड के २२ निबंधों में युवाशक्ति को दिए गए प्रेरक उद्बोधन समाविष्ट हैं। प्रथम खंड में नारी जीवन से जुड़ी पर्दाप्रथा, दहेज, अशिक्षा जैसी विसंगतियों एवं विकृतियों पर करारा प्रहार किया गया है। नारी की आंतरिक शक्ति को जागृत करने की प्रेरणा देते हुए लेखक यहां तक कह देते हैं - "समाज में लक्ष्मी और सरस्वती का जितना महत्त्व है, दुर्गा का भी Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण उससे कम महत्त्व नहीं है । केवल लक्ष्मी और सरस्वती बनने से महिलाओं का काम नहीं चलेगा, उन्हें दुर्गा भी बनना होगा ।" इस खंड के सभी लेख नारी - जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूने वाले हैं तथा उसकी सोयी अस्मिता को जगाने वाले हैं । यह पुस्तक स्वस्थ समाज - संरचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । पुस्तक में प्रतिपादित क्रांतिकारी विचार आने वाली शताब्दियों तक भी युवापीढ़ी को दिशादर्शन देते रहेंगे, ऐसा विश्वास है । धर्म : एक कसौटी : एक रेखा भारतीय संस्कृति के कण-कण में धर्म की चर्चा है, इसलिए यहां अनेक धर्म और धर्माचार्य प्रादुर्भूत हुए । समय के अंतराल में धर्म जैसे निखालिस तत्त्व में भी कुछ अन्यथा तत्त्वों का समावेश हो जाता है, इसलिए उसकी कसौटी की आवश्यकता हो जाती है । आचार्य तुलसी ने धर्म को बुद्धि, तर्क और श्रद्धा की कसौटी पर कसकर उसका शुद्ध रूप जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है । 'धर्म : एक कसौटी : एक रेखा' पुस्तक में उन्होंने इसी परिप्रेक्ष्य में चिंतन किया है । इसकी प्रस्तुति में वे कहते हैं- "धर्म की कसौटी है- मानवीय एकता की अनुभूति । हृदय और मस्तिष्क पर अभेद की रेखा खचित होते ही धर्म परीक्षित हो जाता है । अहिंसा का आधार अभेद बुद्धि है । मानवीय एकता की अनुभूति इसी की एक लय है । इसी लय में मैंने अनेक समस्याओं का समाधान देखा है ।" सम्पूर्ण पुस्तक तीन अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय में अध्यात्म के विविध परिप्रेक्ष्यों की चर्चा है । दूसरा अध्याय जैन धर्म से संबंधित है तथा तीसरा अध्याय 'विविधा' के रूप में है । इसके प्रथम खंड में 'पत्र एवं प्रतिनिधि' शीर्षक के अन्तर्गत अनेक शहरों में हुई पत्रकार वार्ताओं का समावेश है । द्वितीय खंड 'व्यक्ति' में अनेक गणमान्य एवं प्रसिद्ध व्यक्तियों, श्रावकों के बारे में आचार्यश्री के उद्गार संकलित हैं । तृतीय 'मत- अभिमत' में लगभग ११ पुस्तकों के बारे में लेखक की सम्मति प्रकाशित है । चतुर्थ 'संस्थान' खंड में विभिन्न संस्थानों एवं सम्मेलनों के लिए दिए गए संदेशों एवं विचारों का संकलन है । इनमें कुछ संदेश संस्कृत भाषा में भी हैं । पंचम 'पर्व' खंड में कुछ विशेष 'नैतिक संदर्भ' खंड में एक, दो आदि समावेश है । पुस्तक में समाविष्ट लेखों सोचने की प्रेरणा भी है । उत्सवों के बारे में तथा अंतिम शीर्षकों से नैतिक विचारों का में वेधकता तो है ही, कुछ नया मुनि दुलहराजजी द्वारा संपादित इस पुस्तक में विविध विधाओं में Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २२१ विचारों का प्रस्तुतीकरण हुआ है । यह पुस्तक दक्षिण यात्रा के परिव्रजन काल की कुछ सामग्री हमारे सामने प्रस्तुत करती है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह पुस्तक अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । क्योंकि अनेक व्यक्तियों के बारे में इस पुस्तक में आचार्य तुलसी के विचारों का संकलन है । अहिंसा में आस्था रखने वाले पाठक को यह पुस्तक नया आलोक देगी, ऐसा विश्वास है । धर्म और भारतीय दर्शन आचार्य तुलसी की इस पुस्तिका में 'भारतीय दर्शन परिषद्' के रजत जयंती समारोह के अवसर पर कलकत्ते में पठित एक विशेष लेख का संकलन है । यह लेख धर्म के शुद्ध स्वरूप का बोध तो कराता ही है साथ ही धर्म क्यों, इस पर भी दार्शनिक दृष्टि से विवेचन प्रस्तुत करता है । प्रस्तुत निबन्ध तथाकथित धार्मिकों को कुछ नए सिरे से सोचने को मजबूर करता है । धर्म : सब कुछ है, कुछ भी नहीं १९५० में हुए 'सर्वधर्म संकलित है । इस लेख वर्णित धर्म का स्वरूप इस पुस्तिका में दिल्ली में जनवरी सन् सम्मेलन' में आचार्य तुलसी का प्रेषित प्रवचन का शीर्षक ही आकर्षक नहीं है अपितु इसमें भी मार्मिक हृदयस्पर्शी और नवीनता लिए हुए है। आचार्य तुलसी मंतव्य है कि यदि धर्म इस जन्म में शांति और सुख उससे पारलौकिक शांति की कल्पना व्यर्थ है । इसलिए परक और क्रियाकांडयुक्त धर्म को महत्त्व न देकर धर्म के में उतारने की बात जनता के समक्ष रखी है । इसी तथ्य की पुष्टि प्रवचन के उपसंहार में इन शब्दों में होती है "मैं तो यही कहूंगा कि यदि धर्म का आचरण किया जाए तो वह विश्व को सुखी करने के लिए सर्वशक्तिमान् है और यदि धर्म का आचरण न किया जाए तो वह कुछ भी नहीं कर सकता है : " धर्म-सहिष्णुता अणुव्रत के माध्यम से धर्मक्रांति का जो स्वर आचार्य तुलसी ने बुलन्द किया है, वह भारत के इतिहास में अविस्मरणीय है । उनके ओजस्वी विचारों ने मृतप्रायः धार्मिक क्रियाकांडों को नवीनता प्रदान कर उन्हें जीवंत करने का प्रयत्न किया है । सांप्रदायिकता एवं धार्मिक असहिष्णुता को मिटा कर सर्वधर्मसमन्वय का वातावरण बनाया है । धार्मिक संकीर्णता के दुष्परिणामों को देखकर अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति लेखक ने पुस्तिका की भूमिका में इन शब्दों में की है---" सब धर्मों नहीं देता है तो उन्होंने उपासनासंदेश को जीवन Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण का समन्वय मेरा प्रिय विषय है। जब मैं धर्मों में परस्पर टकराव देखता हूं तो मुझे वेदना होती है । धर्म की पृष्ठभूमि मैत्री है, अहिंसा है और करुणा ___ इसमें आचार्य तुलसी ने साहित्यिक शैली में अनेक रूपकों द्वारा धार्मिक उदारता को प्रस्तुति दी है। उसका एक निदर्शन द्रष्टव्य है--. "समुद्र मेरे लिए है पर वह केवल मेरे लिए नहीं है क्योंकि वह महान् है, असीम है । मेरा घड़ा केवल मेरा हो सकता है, क्योंकि वह लघु है, ससीम इस पुस्तक में अठारहवें अखिल भारतीय अणुव्रत सम्मेलन का दीक्षांत प्रवचन भी समाविष्ट है । इस अवसर पर प्रदत्त मोरारजी देसाई का भाषण भी इसमें सम्मिलित है। इस प्रकार यह पुस्तिका अहिंसा के विषय में नए विचारों को प्रकट करने वाली महत्त्वपूर्ण कृति है । धवल समारोह जैन परम्परा की प्रभावक आचार्य-श्रृंखला में आचार्य तुलसी का आचार्यकाल एक कीर्तिमान है । उनका नेतृत्व ही दीर्घकालीन नहीं, अपितु उस काल में हुये नवोन्मेषों की श्रृंखला भी बहुत लम्बी है । उनके आचार्यकाल के २५ वर्ष पूरे होने पर समाज ने 'धवल समारोह' की आयोजना की। इस अवसर पर उनका एक विशिष्ट प्रवचन 'धवल समारोह' के नाम से प्रकाशित हुआ । इस लेख का तेरापंथ इतिहास की दृष्टि से ही महत्त्व नहीं, वरन् सम्पूर्ण मानवजाति को भी इसमें नया मार्गदर्शन दिया गया है। वे समाज से क्या अपेक्षा रखते हैं, इसका निर्देश इस आलेख में स्पष्ट भाषा में है । लेख के अन्त में वे स्वयं अपने संकल्प की अभिव्यक्ति इन शब्दों में करते हैं-"मैं संकल्प करता हूं कि मैंने जो किया, उससे और अधिक करूं । मैंने जो पाया, उससे और अधिक पाऊं । मुझसे जनता को जो मिला, उससे और अधिक मिले । मेरा जीवन अपने गण, राष्ट्र और समूचे विश्व के लिये हितकर हो, यही मेरी मंगलकामना है।" .. सम्पादित होने के बाद इस ऐतिहासिक प्रवचन का कथ्य इतना सशक्त हो गया है कि दर्पण की भांति तेरापंथ समाज इसमें अपने चहुंमुखी विकास का दर्शन कर सकता है। ३५ साल पूर्व दिया गया यह प्रवचन आज भी उतना ही प्रासंगिक एवं महत्ता लिये हुये है। इस विस्तृत प्रवचन में एक युग, एक जीवन और एक राष्ट्र अपने आपमें पूर्ण रूप से विद्यमान नया मोड़ . अणुव्रत आंदोलन के अन्तर्गत नए मोड़ के द्वारा आचार्य तुलसी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २२३ ने समाज में एक नयी क्रांति लाने का प्रयास किया है। एक हाथ के चूंघट में रहने वाली महिलाओं ने 'नए मोड़' के माध्यम से नयी करवट लेकर समाज में अपनी नयी पहचान बनायी है। 'नया मोड' पुस्तिका में आचार्य तुलसी ने सामाजिक कुरूढ़ियों की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट किया है तथा जन्म, विवाह, मृत्यु के अवसर पर होने वाले आयोजन को जैन संस्कृति के अनुसार संयम से कैसे मनाएं, इसका दिशानिर्देश दिया है । इस पुस्तक में सामाजिक परम्पराओं में आई जड़ता को तोड़कर उनमें नवप्राण फूंकने का कार्य किया गया है। पुस्तक का वैशिष्ट्य है कि यह केवल उपदेश ही नहीं देती, बल्कि जन्म-संस्कार, विवाह-संस्कार एवं मृत्यु-संस्कार का प्रायोगिक रूप भी प्रस्तुत करती है । इस पुस्तक से प्रेरणा पाकर समाज आडम्बर एवं प्रदर्शनमुक्त जीवन जीने की प्रेरणा ले सकेगा तथा नए समाज की संरचना हो सकेगी, ऐसा विश्वास है। नयी पीढ़ी : नए संकेत __ आचार्य तुलसी की आशाओं का केन्द्रबिन्दु है-'युवा समाज' । उनका मानना है कि युवकों के हाथ में यदि मशाल प्रज्वलित हो तो सामाजिक जीवन चमत्कृत हो उठता है। युवापीढ़ी को अनुशासित और संयमी बनाए रखने के लिए वे समय-समय पर दिशाबोध देते रहते हैं । 'नयी पीढ़ी : नए संकेत' पुस्तक दिल्ली में आयोजित युवक-प्रशिक्षण शिविर में प्रदत्त वक्तव्यों का संकलन है । इसमें ७ वक्तव्यों के अन्तर्गत धर्म, तेरापंथ, मानसिक शांति, ईश्वर, अनेकांत, विसर्जन आदि विषयों का विश्लेषण हुआ है । आकार-प्रकार में लघु होते हुए भी यह पुस्तक धर्म, दर्शन एवं सिद्धांत के बारे में नवीन सामग्री के साथ प्रस्तुत है । नवनिर्माण की पुकार आचार्य तुलसी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक महापुरुष हैं । अणुव्रत के माध्यम से उन्होंने सांस्कृतिक चेतना को जागृत कर मानव नवनिर्माण का बीड़ा उठाया है । राजधानी दिल्ली से लेकर छोटे-बड़े गांवों तक हजारों किलोमीटर की पदयात्राएं उन्होंने की हैं। 'नवनिर्माण की पुकार' पुस्तक में दिल्ली यात्रा के अनुभवों एवं कार्यक्रमों का संक्षिप्त विवरण है । कई यात्रा-संस्मरण भी पुस्तक में अनायास ही जुड़ गए हैं। अनेक महान् राष्ट्रीय व्यक्तित्वों के विचारों एवं उनके साथ हुए आचार्यश्री के वार्तालापों का समावेश भी इसमें कर दिया गया है। आचार्य तुलसी के अनेक प्रवचनों का संकलन इसमें ऐतिहासिक क्रम Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण से हुआ है, अतः आचार्यप्रवर के बहुमूल्य विचारों के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस पुस्तक का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण पुस्तक तीन प्रकरणों में विभाजित है। प्रथम प्रकरण 'आयोजन' में अनेक महत्त्वपूर्ण विद्वद् गोष्ठियों की रिपोर्ताज है एवं आचार्य श्री के मौलिक विचारों का संकलन है। दूसरा प्रकरण 'प्रवचन' नाम से प्रकाशित है । इसमें लगभग उन्नीस विषयों पर आचार्यश्री के प्रेरक विचारों एवं उद्बोधनों का संकलन है । तथा तीसरे प्रकरण 'मंथन' में पंडित नेहरू, दलाईलामा जैसे ३४ अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय व्यक्तियों के साथ हुए वार्तालापों की संक्षिप्त प्रस्तुति हुई है। परिशिष्ट में आचार्यश्री से सम्बन्धित अनेक प्रेरक संस्मरणों का समावेश है। ३५ साल पूर्व मुद्रित होने पर भी यह पुस्तक साहित्यिक दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखती है । नैतिकता के नए चरण यह ‘अणुव्रत विचार माला' का चौथा पुष्प है । इसमें ७ लघु प्रवचनों का संकलन है । इन प्रवचनों/लेखों में अणुव्रत के विविध पक्षों का नैतिक संदर्भ में चिंतन किया गया है। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से नैतिक क्रांति की अलख जगाई है। उनकी उदग्र उत्कंठा है कि धर्म और नैतिकता का गठबंधन हो। यदि धार्मिक होकर व्यक्ति नैतिक नहीं है तो वह भलावामात्र है। अपनी इसी उत्कंठा को वे इस पुस्तक में इन शब्दों में व्यक्त करते हैं --- "नैतिक पुनर्निर्माण की परिकल्पना मुझे बहुत प्रिय है। उसकी क्रियान्विति को मैं अपने ही लक्ष्य की क्रियान्विति मानता हूं।" __ अंतिम भयमुक्ति' प्रवचन में भय से मुक्त होने के ९ उपाय निर्दिष्ट हैं । वे उपाय आध्यात्मिक होने के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक भी हैं। लघुकाय होते हुए भी यह पुस्तिका अणुव्रत और नैतिकता की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत करने में समर्थ है। नैतिक-संजीवन भाग-१ मूच्छित मानव के लिए संजीवनी प्राणदायिनी होती है, वैसे ही मूच्छित मानवता नैतिक-संजीवन से ही पुनरुज्जीवित हो सकती है । आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से मानवता के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया है । 'नैतिक संजीवन' पुस्तक इसी की फलश्रुति है। आचार्य तुलसी अपने आत्मकथ्य में इस पुस्तक की प्रस्तुति इन शब्दों में प्रकट करते हैं ----नैतिक ऊर्ध्व संचार के लिए जो एक संयमप्रधान आचार संहिता प्रस्तुत की गई, उसे लोगों ने 'अणुव्रत आंदोलन' कहा और उसी उद्देश्य से जो प्रेरक विचार मैं देता रहा, वह 'नैतिक संजीवन' बन गया।" Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन प्रदत्त प्रस्तुत कृति में अणुव्रत आंदोलन के वार्षिक अधिवेशनों पर मंगल प्रवचन एवं समापन समारोह के उद्बोधन संकलित हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे प्रवचनों का संकलन भी है, जो अणुव्रत के विशेष समारोहों के अवसर पर दिये गए हैं । इस छोटी-सी कृति में आंदोलन के इतिहास, रूपरेखा, उद्देश्य तथा उसकी निष्पत्तियों का ज्ञान हो जाता है । प्राचीन होने पर भी यह पुस्तक भाषा, भाव एवं शैली की दृष्टि से उत्कृष्ट कोटि की है । इस कृति के सभी आलेख आज की विषम परिस्थितियों में भी आशा, विश्वास, रचनात्मकता एवं मानवता का संदेश देते हैं । जो व्यक्ति प्रतिदिन हजारों पृष्ठ स्याही से रंग देते हैं, जिनमें ढूंढने पर भी जीवन-तत्त्व नहीं मिलता, उन लोगों के लिए आचार्य तुलसी की यह कृति प्रेरणा - दीप का कार्य करेगी तथा जीवन की उर्वर भूमि में आध्यात्मिक वर्षा कर चरित्र की पौध लहलहा सकेगी । २२५ प्रगति की पगडंडियां लगभग ३७ साल पूर्व दिए गए प्रवचनों का एक लघु संस्करण है .. 'प्रगति की पगडंडियां' । इस पुस्तिका के १३ आलेखों में नैतिकता, शांति, अनुशासन और अहिंसा की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है, साथ ही इन्हें जीवन में उतारने की प्रेरणा भी है । इसमें औपदेशिक भाषा का प्रयोग अधिक है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्धितत्त्व और हृदयतत्त्व दोनों का समन्वित रूप प्रस्तुत हुआ है । प्रज्ञापर्व आचार्य तुलसी प्रायोगिक जीवन जीने में विश्वास करते हैं । उनके जीवन का एक बहुत बड़ा सामूहिक प्रयोग का वर्ष था -- - 'योगक्षेमवर्ष' जिसे 'प्रज्ञापर्व' के रूप में मनाया गया । इस वर्ष का प्रयोजन था - मौलिकता की सुरक्षा के साथ धर्मसंघ को आधुनिकता के साथ जोड़ना तथा आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण करना । इस पूरे वर्ष में सैकड़ों साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं को प्रशिक्षण दिया गया । प्रशिक्षण देने की दृष्टि से प्रशिक्षुओं को अनेक वर्गों में बांटा गया । जैसे—- स्नातक वर्ग, प्रबुद्ध वर्ग, तत्त्वज्ञ वर्ग तथा बोधार्थी वर्ग आदि । पूरे वर्ष में साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक प्रशिक्षण का क्रम भी चला, जिसमें अनेक कार्यकर्ताओं तथा प्रेक्षाध्यान के प्रशिक्षकों के प्रशिक्षण का कार्यक्रम भी रखा गया । इस वर्ष का प्रतीक था 'पण्णा समिक्खए' - प्रज्ञा से देखो । साप्ताहिक बुलेटिन विज्ञप्ति में 'पण्णा समिक्खए' स्तम्भ के अन्तर्गत आचार्य तुलसी के विशेष संदेश एवं विचार प्रकाशित होते रहे। उन्हीं विचारों को Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सुरक्षित रखा गया है-'प्रज्ञापर्व' पुस्तक में । इसमें अनेक सामयिक विषयों पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। ___ इन निबन्धों का संकलन मुनिश्री सुखलालजी ने तैयार किया है। पुस्तक के परिशिष्ट में इस वर्ष के सम्पूर्ण इतिहास को भी सुरक्षित कर दिया है। लगभग १५ शीर्षकों में 'योगक्षेमवर्ष' के पूरे इतिहास का लेखा-जोखा इसमें प्रस्तुत है। यह पुस्तक आचार्यवर के नाम से प्रकाशित है अतः यह परिशिष्ट कुछ अलग-थलग सा लगता है। ४५ लघु निबन्धों से युक्त यह पुस्तक अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । प्रत्येक लेख आधुनिक संदर्भ में जीवन की समस्याओं से जूझता-सा प्रतीत होता है। यह पुस्तक निःसंदेह दीर्घकाल तक लोगों को प्रज्ञापर्व की स्मृति दिलाती रहेगी तथा अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की सार्थक प्रतीति कराती रहेगी। प्रज्ञापुरुष जयाचार्य तेरापंथ की तेजस्वी आचार्य-परम्परा में जयाचार्य चतुर्थ आचार्य थे। उन्होंने अपने नेतृत्वकाल में अनुशासन और मर्यादा के विविध प्रयोग किए । राजस्थानी भाषा में इतने विशाल साहित्य का निर्माण उनकी अनूठी प्रत्युत्पन्न मेधा का परिचायक है । जयाचार्य का जीवन बहुमुखी प्रवृत्तियों का केन्द्र था। उनके विशाल व्यक्तित्व को शब्दों की परिधि में बांधना असंभव नहीं, तो दुःसंभव अवश्य है। पर आचार्य श्री की उदग्र आकांक्षा ने उनकी जीवन-यात्रा को प्रस्तुत करने का निर्णय लिया और वह 'प्रज्ञापुरुष जयाचार्य' के रूप में रूपायित हो गई ।। लगभग ४४ अध्यायों में विभक्त यह जीवनी-ग्रंथ जयाचार्य के समग्र व्यक्तित्व की संक्षिप्त प्रस्तुति देने वाला है। जयाचार्य ने अपने धर्मसंघ को संविभाग और अनुशासन का उदाहरण कैसे बनाया, इसके विविध प्रयोग भी इसमें दिए गए हैं । इस ग्रंथ में उनकी योग-साधना, साहित्य-साधना और संघ-साधना की त्रिवेणी बही है। यह त्रिवेणी निश्चय ही पाठकों की मानसिक शुद्धि में उपयोगी बनेगी। यह पुस्तक आचार्य तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ की संयुक्त कृति है। संपादन-कला में कुशलहस्त मुनि दुलहराजजी इसके संपादक हैं। यह कृति जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष्य में लिखी गयी है। जयाचार्य के योगदान की झलक को प्रस्तुत करने वाली यह कृति जीवनी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है तथा जयाचार्य के व्यक्तित्व एवं कर्तत्व को समझने में अहंभूमिका निभाती है । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २२७ प्रवचन डायरी भाग १-३ आचार्य तुलसी एक तेजस्वी धर्मसंघ के अनुशास्ता हैं। उनके लाखों अनुयायी हैं । लगभग ६० वर्षों से वे अनवरत प्रवचन दे रहे हैं। पदयात्रा के दौरान तो दिन में चार-चार बार भी जनता को उद्बोधित किया है । यदि उन सबका संकलन किया जाता तो आज एक विशाल वाङमय तैयार हो जाता। फिर भी संकलित प्रवचन-साहित्य विशाल मात्रा में उपलब्ध है। सन् ५३ से ५७ तक के प्रवचनों का संपादन श्री श्रीचंदजी रामपुरिया ने 'प्रवचन डायरी' के रूप में किया है। आचार्य तुलसी ने इन प्रवचनों में अन्तरात्मा की आवाज को मानवता के हित में नियोजित करने का सत्प्रयास किया है। उनके विचारों का मूल है कि व्यक्ति-सुधार ही समष्टिसुधार का मूल है अत: व्यक्ति-सुधार की विविध प्रेरणाएं इन प्रवचनों में निहित हैं। प्रवचन डायरियों में अणुव्रत आंदोलन के विविध पक्षों का वर्णन भी बड़े प्रभावी ढंग से किया गया है। विषय का स्पष्टीकरण अनेक उद्बोधक कथाओं से हुआ है अत: ये प्रवचन अधिक सरस बन गए हैं। आचार्य तुलसी ने अपने प्रवचनों में धर्म के सार्वभौम स्वरूप को उजागर किया है। इन प्रवचनों में वर्णित धर्म किसी सम्प्रदाय की सीमा में बन्धा हुआ नहीं है। 'प्रवचन डायरी' में संकलित अनेक प्रवचन स्कूल एवं कालेजों में हुए हैं अतः इनमें शिक्षा से जुड़ी विसंगतियों तथा धर्म एवं अध्यात्म के नाम पर पनपती विकृतियों की तस्वीर को यथार्थ रूप से प्रस्तुत कर उनका स्थायी समाधान भी प्रस्तुत किया गया है। ___ इन प्रवचनों में भारतीय संस्कृति की आत्मा छिपी हुई है, इसलिए इस साहित्य की मौलिकता एवं महत्ता पर कभी प्रश्नचिह्न नहीं लग सकता। जब कभी इनको पढ़ा जायेगा, पाठक नयी प्रेरणा एवं आध्यात्मिक खुराक प्राप्त करेगा। आचार्य तुलसी ने इनमें तर्क को नहीं, अपितु श्रद्धा और आंतरिक प्रतिध्वनि को अभिव्यक्ति दी है । इसलिए ये प्रवचन सीधे अंतर्मन को छूते प्रवचन डायरी के प्रथम भाग में सन् ५३ एवं ५४ के, द्वितीय भाग में सन् ५५,५६ के तथा तृतीय भाग में सन् ५७ के प्रवचनों का संकलन है। द्वितीय संस्करण में प्रवचन डायरी की सामग्री 'प्रवचन-पाथेय' भाग-९ तथा ११', 'भोर भई,' 'सूरज ढल ना जाए', 'संभल सयाने !' एवं घर का रास्ता' में परिवर्धित एवं परिष्कृत रूप में प्रकाशित हुई है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रवचन - पाथेय भाग १- ११ प्रवचन साहित्य जनमानस को नैतिकता एवं अध्यात्म की ओर प्रेरित करने का सफल उपक्रम है । आचार्य तुलसी के प्रवचन किसी पूर्वाग्रह या संकीर्णता से बंधे हुए नहीं होते हैं, अतः उनमें सत्यं शिवं सुन्दरं की समन्विति सहज ही हो जाती है। इन प्रवचनों में ऐसी शक्ति निहित है, जो मोहाविष्ट चेतना को जगाने में सक्षम है । 3 आचार्य तुलसी के प्रवचन - साहित्य की एक लम्बी श्रृंखला जैन विश्व भारती लाडनूं ( राज ० ) से प्रकाशित हुई है, जो प्रवचन- पाथेय के नाम से संकलित है । महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी उनके प्रवचनों के बारे में अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहती हैं- "उनके प्रवचनों में एक ओर सत्य की गहराई रहती है तो दूसरी ओर व्यवहार का धरातल भी बहुत प्रशस्त रहता है । आचार्यश्री की बहुश्रुतता हर प्रवचन में झांकती है ।" यह प्रवचन - साहित्य जीवन के विविध पहलुओं से सम्बन्धित समस्याओं को उठाता ही नहीं, बल्कि समाधान भी देता है । पहले उनके प्रवचनों का संकलन 'बूंद बूंद से घट भरे', भाग - १, २ 'मंजिल की ओर' भाग - १, २ 'सोचो समभो' भाग १ - ३ इन नामों से प्रकाशित हुआ था। प्रवचन साहित्य को एकरूपता देने के लिए इन्हें " प्रवचन - पाथेय" नाम से कई भागों में प्रकाशित किया गया, जिसकी सूची इस प्रकार है प्रवचन - पाथेय भाग - १ प्रवचन - पाथेय भाग - २ प्रवचन - पाथेय भाग-३ प्रवचन - पाथेय भाग-४ प्रवचन - पाथेय भाग - ५ बूंद-बूंद से घट भरे भाग - १ बूंद-बूंद से घट भरे भाग - २ मंजिल की ओर भाग - १ सोचो ! समझो !! सोचो ! समझो !! सोचो ! समझो !! भाग-३ भाग - १ भाग- २ प्रवचन - पाथेय भाग-६ प्रवचन - पाथेय भाग - ७ मंजिल की ओर भाग - २ प्रवचन - पाथेय भाग-८ स्वतंत्र प्रवचन - पाथेय भाग-९ प्रवचन डायरी भाग- १ स्वतंत्र प्रवचन - पाथेय भाग- १० प्रवचन - पाथेय भाग- ११ प्रवचन डायरी भाग- १ आचार्यश्री ने इन प्रवचनों में उन अनछुए पहलुओं का स्पर्श किया है, जिनका सम्बन्ध आज समग्र विश्व में व्याप्त व्यक्तिगत, पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं से है । लेखक की पैनी दृष्टि से शायद ही कोई मुद्दा छूटा हो, जिन पर उनके विचार प्रवचन के माध्यम से हमारे सामने न आए हों। किसी भी विषय का विश्लेषण करते समय वे जहां अतीत में खो जाते हैं, वहीं उन्हें वर्तमान का भी भान रहता है, साथ ही भविष्य के Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २२९ प्रति भी सावधान रहते हैं । निःसंदेह प्रवचन-साहित्य की यह लम्बी शृंखला हर घर में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित कर 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का संदेश देती है। प्रवचन साहित्य की यह लम्बी शृंखला जीवन की विसंगतियों को दूर करके व्यक्ति-चेतना को जगाने में महत्त्वपूर्ण कड़ी का कार्य करेगी। ऐसा विश्वास है। प्रश्न और समाधान प्रश्नोत्तरों के माध्यम से दिया गया बोध पाठक के लिए अधिक सहज एवं हृदयग्राही होता है। 'प्रश्न और समाधान' पुस्तक में जिज्ञासा करने वाले हैं ---मुनिश्री सुखलालजी तथा समाधानकर्ता हैं-आचार्य तुलसी । इसमें प्रश्नोत्तरों के माध्यम से अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का स्वरूप विश्लेषित हुआ है। लगभग प्रश्न अणुव्रत आंदोलन के नियमों को व्याख्यायित करते यह कृति साम्प्रदायिक मनोभूमिका से दूर हटकर घृणा, हिंसा आदि के दलदल से उबार कर मानव जाति को अखण्ड आत्मविश्वास और मंत्री के साम्राज्य में ले जाती है। इस पुस्तक में समाज के सच्चे चित्र को उकेरकर समष्टिगत चेतना को जगाने के उपाय निर्दिष्ट हैं। . प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा प्रेक्षा अपने द्वारा अपने को देखने की ध्यान की विशिष्ट पद्धति है। यह अशांत विश्व को शांति की राह बताने का महान् उपक्रम है। प्रेक्षा की प्राथमिक जानकारी देने हेतु आचार्य तुलसी ने 'प्रेक्षासंगान' की संरचना की, जिसमें ३०० पद्यों के माध्यम से प्रेक्षाध्यान की विधि, स्वरूप तथा महत्त्व को स्पष्ट किया है। इन पद्यों पर प्रश्नोत्तरों के माध्यम से व्याख्या लिखी गई, वही 'प्रेक्षाः अनुप्रेक्षा' पुस्तक के रूप में रूपायित हुई है । इसमें लगभग ५१ आलेखों में प्रेक्षाध्यान के उद्भव का इतिहास, उसका आधार लेश्याध्यान आदि का विस्तार से वर्णन है तथा अन्त में 'पुलिस अकादमी', जयपुर में हुए कुछ प्रवचनों का संकलन है। पूरी पुस्तक प्रेक्षाध्यान की परिक्रमा करते हुए चलती है । प्रश्नोत्तरों का क्रम भी सरल एवं सुबोध है । 'प्रेक्षासंगान' के पद्यों की अनुप्रेक्षा करते समय ऐसा महसूस होता है, मानो गागर में सागर भर दिया गया हो।। प्रस्तुत कृति अस्तित्व को समझने का नया दृष्टिकोण प्रस्तुत कर आत्मशक्ति को जगाने के सूत्रों को व्याख्यायित करती है। साथ ही यह आज के परिवेश में व्याप्त तनाव, अशांति एवं कुण्ठा की सलवटों को दूर करने तथा भौनिक एवं पदार्थवादी मनोवृत्ति के अन्धकार को प्रकाश में रूपान्तरित करने का एक रचनात्मक, सृजनात्मक एवं प्रायोगिक उपक्रम है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रेक्षाध्यान: प्राणविज्ञान प्रेक्षाध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए "जीवन विज्ञान ग्रंथ माला" की शृंखला में अनेक पुष्प प्रकाशित हुए हैं। उन्हीं पुष्पों में एक पुष्प है - 'प्रेक्षाध्यान : प्राणविज्ञान' । इसमें प्राणशक्ति का महत्त्व तथा उसको जगाने के विविध प्रयोगों की चर्चा हुई है । आकार में लघु होते हुए भी यह पुस्तिका अनेक नए रहस्यों को प्रकट करने वाली है । बीति ताहि विसारि दे आचार्य तुलसी की यह उदग्र आकांक्षा है कि संसार को अध्यात्म का एक ऐसा आलोक मिले, जिससे संपूर्ण मानव जाति आलोकित हो उठे । आज हर व्यक्ति अतीत के झूले में झूल रहा है। इसका फलित है - तनाव | मानव को इस दुविधा से मुक्त करने के लिए 'बीति ताहि विसारि दे' पुस्तक अनुपम पाथेय बन कर सामने आई है। जिनका अथक श्रम इस पुस्तक के संपादन में लगा है, वे महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी पुस्तक की प्रस्तुति में कहती हैं 'बीति ताहि विसारि दे' आचार्यश्री द्वारा समय-समय पर प्रदत्त और लिखित प्रवचनों एवं निबंधों का संकलन है । इसमें युवकों और महिलाओं के सम्बन्ध में जो सामग्री है, वह सोद्देश्य तैयार की गयी है । यह युवापीढ़ी को दिशाबोध देने वाली है और महिला जाति को उसकी अस्मिता की पहचान करवाकर उसके पुरुषार्थ की लो को प्रज्वलित करने वाली है" परिश्रम के पसीने से पनपी धान की सुनहरी बाली जितनी मोहक होती है, उतनी ही मोहक है आचार्यश्री की यह कृति, जिसमें नैतिक और आध्यात्मिक विचारों का अखूट पाथेय भरा पड़ा है ।" इसमें योगसाधना, धर्म, भगवान् महावीर, युवक, नारी आदि अनेक विषयों पर मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी प्रस्तुति हुई है । ३८ आलेखों से संयुक्त यह कृति सत्य का साक्षात्कार कराने तथा महान् बनने की दिशा में एक अनुपम प्रेरणा - पाथेय है । बूंद-बूंद से घट भरे, भाग- - १,२ आज के वैज्ञानिक युग में वक्ताओं की कमी नहीं है, पर प्रवचनकार दुर्लभ हैं । आचार्य तुलसी धर्माचार्य हैं, पर रूढ़ प्रवक्ता नहीं । उनके प्रवचन में धर्म, दर्शन, विज्ञान, समाज, राजनीति एवं मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का समावेश होता है । सन् ६० में 'प्रवचन डायरी' के प्रकाशन के बाद प्रवचन - साहित्य की प्रथम कड़ी 'बूंद-बूंद से घट भरे' भाग १ और २ प्रकाश में आईं। इन इन पुस्तकों में सन् ६५ और ६६ के प्रवचनों का संकलन है । प्रवचनों में विषयों की विविधता है पर लक्ष्य एक ही है कि व्यक्ति की Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन चेतना को अध्यात्म की ओर उन्मुख किया जाए । "सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, राष्ट्र स्वयं सुधरेगा" आचार्यश्री द्वारा दिया गया यह उद्घोष पुस्तक के नाम की सार्थकता प्रकट करता है, जैसे बूंद-बूंद से घट भरता है, वैसे ही व्यक्ति-सुधार से समाज, राष्ट्र एवं विश्व का सुधार अवश्यंभावी है । लगभग प्रवचन जैन आगमों की परिक्रमा करते हुए प्रतीत होते हैं, अतः इनको महावीर वाणी का आधुनिक प्रस्तुतीकरण कहा जा सकता है । इसमें भृगुपुरोहित आदि आगमिक आख्यानों के माध्यम से त्याग, संयम, अनासक्ति और सादगी आदि भावों को जागृत करने की प्रेरणा दी गयी है । पुस्तक में समाविष्ट आध्यात्मिक सामग्री इतनी सरल एवं सरस शैली में गुम्फित है कि पाठक कभी भी इसे पढ़कर अपने अशांत मन को शांति की राहों पर अग्रसर कर सकता है । संपादिका महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी का विश्वास भी इन शब्दों को दोहराता है कि "जिस प्रकार एक-एक बूंद को सोखता सहेजता माटी का घड़ा एक दिन पूरा भर जाता है, वैसे ही आचार्य प्रवर के उपदेशामृत की इन बूंदों को पीते-पीते हमारे जीवन का घट भी भर जाएगा ।" इसके प्रथम भाग में ५३ तथा द्वितीय भाग में ५१ प्रवचनों का समाहार है । प्रवचन - पाथेय की श्रृंखला में भी ये भाग १ एवं भाग २ के नाम से प्रसिद्ध हैं । २३१ बूंद भी : लहर भी कथा वह माध्यम है, जिसके द्वारा आम जीवन से जुड़ी बात सहज और सरल ढंग से कही जा सकती है । कथा सुनने में जितनी सुखद है, समझने में उतनी ही सहज होती है । सुप्त चैतन्य के जागरण में कथा का प्रभाव विलक्षण है | आचार्य तुलसी का यह कथा - संकलन जीवन-मूल्यों एवं नैतिक प्रेरणाओं से संवलित है । ऐतिहासिक, पौराणिक, काल्पनिक, सामाजिक एवं आगमिक कथाओं से युक्त यह कथाग्रंथ जीवन के समग्र परिवेश को प्रस्तुति देने वाला है । ये कथाएं लोक-संस्कृति को उजागर करने वाली तथा नई प्रेरणा एवं आदर्श भरने वाली हैं । मानव को मानव होने का बार-बार अहसास करवाकर व्यस्त जीवन में भी अध्यात्म की ओर प्रेरित करती हैं । प्रस्तुत कहानी-संग्रह आज की कथाओं की भांति केवल भावनाओं को जगाने वाला या सस्ता प्रेम-प्रदर्शन करने वाला नहीं, अपितु त्याग, स्नेह, सहानुभूति, स्वावलम्बन और सहिष्णुता का स्पर्श करने वाला है । आचार्यश्री द्वारा कही गयी कथाओं को शब्दों का परिधान महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने दिया है। वे इस पुस्तक के बारे में आश्वस्त Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण हैं कि इस कृति के माध्यम से पाठक सत्य की राह में गतिशील बनेंगे और स्वयं सत्य का साक्षात्कार कर सकेंगे। बैसाखियां विश्वास की ___ आज के यांत्रिक युग में मानव जिस भाग-दौड़ की जिंदगी जी रहा है, उसमें ऐसे उद्बोधनों की अपेक्षा है, जिसमें संक्षेप में गंभीर एवं उपयोगी तत्त्व का निरूपण हो । 'बैसाखियां विश्वास की' पुस्तक में लेखक ने गागर में सागर भरने का प्रयत्न किया है । अतः यह पुस्तक उन लोगों के लिए विशेष उपयोगी है, जिनके पास समय की समस्या है। आज देश में ऐसे धर्माचार्यों की संख्या नगण्य है, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की समस्याओं पर चिन्तन करते हैं और समस्या का मूल पकड़कर उसको समाहित करने का प्रयत्न करते हैं। यह पुस्तक इस बात की साक्षी है कि इसमें विविध समस्याओं को उठाकर उसका आधुनिक संदर्भ में समाधान दिया गया है। . इस कृति में राष्ट्रीय, सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करने की बात बार-बार दोहरायी गयी है । आज जनजीवन में जो अनैतिकता, अप्रामाणिकता, चरित्रहीनता और भ्रष्टाचार फैलता जा रहा है, उसे अणुव्रत के माध्यम से मिटाकर व्यक्ति के जीवन को सृजनात्मक एवं रचनात्मक रूप में बदलने का आह्वान किया गया है। इसके अधिकांश लेख सम-सामयिक हैं। पुस्तक में समाविष्ट प्रायः सभी शीर्षक आकर्षक एवं रहस्यमय हैं। शीर्षक पढ़कर ही पाठक लेख पढ़ने के लोभ का संवरण नहीं कर सकता। जैसे-'सपना : एक नागरिक का, एक नेता का', 'देश की बागडोर थामने वाले हाथ' 'फूट आईने की या आसपास की' आदि । आचार्य तुलसी ने अपने जीवन से आत्मविश्वास की एक नई मशाल प्रस्तुत की है। यही कारण है कि उनके जीवन के शब्दकोश में असम्भव जैसा कोई शब्द है ही नहीं। उनके लेखों में आत्मविश्वास की जो ज्योति विकीर्ण हुई है, वह पग-पग पर देखी जा सकती है। ये लेख निराशा से प्रताड़ित व्यक्ति में भी नयी आशा का संचार करने वाले हैं। आचार्य तुलसी स्वयं इस पुस्तक के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं---"अनैतिकता बढ़ रही है, यह चिन्ता का विषय है। इससे भी बड़ी चिन्ता है, नैतिक मूल्यों के प्रति विश्वास समाप्त होता जा रहा है । लोकजीवन में उस विश्वास को उच्छ्वसित रखने के लिए समय-समय पर कुछ छोटे-छोटे आलेख लिखे गए। उन्हीं आलेखों का संकलन है-बैसाखियां विश्वास की। इस संकलन को पढ़कर कुछ लोग भी यदि नैतिक मूल्यों के प्रति Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन अपना विश्वास जगा पाएं तो इसमें लगे क्षणों की सार्थकता है।" इन आलेखों में आध्यात्मिक मूल्यों को पुनरुज्जीवित करने की लेखक की तड़प दर्शनीय है । ये प्रेरक सन्देश भटके व्यक्तियों को भी उजली राहों पर ले जाने में सक्षम हैं तथा आज की भ्रष्ट राजनीति को सही दिशादर्शन देने वाले हैं। ११३ आलेखों का यह संकलन जन-जन के विश्वास को तो जगाएगा ही, साथ ही साथ शाश्वत और सम-सामयिक विषयों पर हमारी ज्ञान-राशि की वृद्धि भी करेगा। भगवान महावीर महापुरुष देश, काल की सीमा से परे होते हैं। वे समय को अपने साथ बहाकर ले जाने की क्षमता रखते हैं तथा अपने दर्शन से जन-चेतना में एक नई स्फूर्ति भरने का कार्य करते हैं। भगवान् महावीर भारतभूमि पर अवतरित एक ऐसे महापुरुष थे, जिनके व्यक्तित्व में विकास की ऊंचाई एवं विचारों की गहराई एक साथ संक्रांत थी। उनका अपार्थिव चिन्तन आज भी हिंसा से आक्रांत भूली-भटकी मानवता को नया दिशा-दर्शन दे रहा है। भगवान महावीर के जीवन पर आज तक अनेकों ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं। उसी शृंखला में जन्म से परिनिर्वाण तक की घटनाओं को संक्षिप्त शैली में भगवान महावीर' पुस्तक में उभारा गया है। यह पुस्तक बहुत सीधी-सरल भाषा में महावीर के जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करती है। हजारों पृष्ठों में जो बात नहीं समझाई जा सकती, वह इस पुस्तक के १३६ पृष्ठों में समझा दी गयी है। अतः महावीर के तेजस्वी व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को समझने में यह जीवनीग्रंथ आबालवृद्ध के लिए उपयोगी है। . भोर भई श्रीचन्द रामपुरिया को आचार्यश्री के प्रवचनों का प्रथम संकलनकर्ता कह सकते हैं। उन्होंने सन् ५३ से ५७ में हुए प्रवचनों को 'प्रवचन डायरी, भाग-१, २, ३' में संकलित किया है। 'भोर भई' प्रवचन डायरी भाग-२ का द्वितीय संस्करण है । इस द्वितीय संस्करण में प्रवचन के शीर्षकों में भी अनेक परिवर्तन हुए हैं तथा सामग्री को भी परिवर्धित एवं परिष्कृत कर समय के अनुरूप बनाया गया है । यह पुस्तक 'प्रवचन-पाथेय' की शृंखला का चौदहवां पुष्प है। इन प्रवचनों में जो सजीवता, कलात्मकता एवं सुबोधता उभरी है, उसका कारण है-उनकी गहरी साधना, अनुभूति की क्षमता एवं जन्मजात संवेदनशील मानस। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आचार्य तुलसी के चिन्तन में भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना प्रतिबिम्बित है, इसलिए उनके प्रवचन अध्यात्म की परिक्रमा करते रहते हैं । विविध विषयों से सम्बन्धित ये ८३ प्रवचन लोगों के आंतरिक शक्ति-जागरण में निमित्त बन सकेंगे तथा मनुष्य के खोए देवत्व को पुन: स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर पाएंगे। ___ अष्टाचार की आधारशिलाएं मन में उत्पन्न विचार जब भाषा का परिधान पहनकर जनता के समक्ष उपस्थित होते हैं, तब वे प्रवचन, लेख या निबन्ध का रूप धारण कर लेते हैं । भिन्न-भिन्न विषयों पर आचार्य तुलसी की चिन्तनधारा कभी मौखिक रूप से तो कभी लिखित रूप से जनता के समक्ष अभिव्यक्त होती रही है। 'भ्रष्टाचार की आधारशिलाएं' उनका ऐसा कालजयी हस्ताक्षर है, जिसकी उपयोगिता कभी धूमिल नहीं हो सकती। क्योंकि हर युग में भ्रष्टाचार अपना रूप बदलता है और विविध रूपों में अपना प्रभाव बताता है। इस आलेख में समाज, राष्ट्र एवं व्यक्तिगत जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना एवं उसकी उपयोगिता पर खुलकर चर्चा हुई है। समाज एवं देश में जो जड़ता है, भ्रष्टाचार है उसे दूर कर सुन्दर समाज की कल्पना का चित्र इस आलेख में प्रस्तुत किया गया है । अतः यह पुस्तिका राष्ट्र को संवारने, समाज को दिशादर्शन देने एवं व्यक्ति को नई सोच देने में समर्थ मंजिल की ओर, भाग-१.२ मंजिल की खोज हर व्यक्ति को अभीष्ट है पर उसके लिए कुशलमार्गदर्शक, सही राह तथा सही चाह की आवश्यकता रहती है । 'मंजिल की ओर' भाग-१,२ सचमुच मंजिल की ओर ले जाने वाली महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं । ये दोनों पुस्तकें विवेक-जागृत कराने में मार्गदर्शक का कार्य करती हैं। आचार्य तुलसी कुशल प्रवचनकार हैं। उनके प्रवचन केवल औपचारिक नहीं, अपितु अनुभव की गहराइयां लिए हुए होते हैं, इसीलिए उनके प्रवचन में एक सामान्य व्यक्ति जितना आनन्दविभोर होता है, उतना ही एक विद्वान् भी। बच्चे यदि प्रसन्न होते हैं तो वृद्ध भी भाव-विभोर हो उठते हैं। 'मंजिल की ओर, भाग-१' में १०४ तथा द्वितीय भाग में ८८ प्रवचनों का संकलन है। समाज, धर्म, नीति, राजनीति आदि विविध विषयों से सम्बन्धित आलेख इनमें समाविष्ट हैं। इन दोनों पुस्तकों में आगम के अनेक सूक्तों तथा आख्यानों की सरल, सुबोध एवं सरस शैली में व्याख्या हुई है। 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' इस लोकोक्ति के पीछे छिपे नए इतिहास Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २३५ को नए परिप्रेक्ष्य में जनता के समक्ष प्रस्तुत किया गया है । तात्त्विक ज्ञान की दृष्टि से भी ये दोनों पुस्तकें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन पड़ी हैं। इन पुस्तकों में सन् ७६ से ७८ तक के प्रवचन संकलित हैं । ये दोनों पुस्तकें धर्म और अध्यात्म की नई दिशाएं उद्घाटित कर हरेक व्यक्ति को मंजिल की ओर ले जाने में सक्षम हैं । इन दोनों पुस्तकों का संपादन साध्वीश्री जिनप्रभाजी ने किया है । मनहंसा मोती चुगे साहित्य प्रकाश का रूपांतर है । अन्तः प्रकाश को प्रकट करने वाली " मनहंसा मोती चुगे" पुस्तक योगक्षेम वर्ष के प्रवचनों की श्रृंखला में पांचवीं और अन्तिम पुस्तक है । इसमें ४६ प्रवचनों का संकलन है । प्रारम्भ के छह प्रवचन नमस्कार मंत्र का दार्शनिक विवेचन प्रस्तुत करते हैं । कुछ लेख जीवन के व्यावहारिक विषयों का प्रशिक्षण देने वाले हैं तो कुछ अणुव्रत एवं प्रेक्षाध्यान की पृष्ठभूमि को अभिव्यक्त करते हैं । कुछ अध्यात्म की नई दिशाएं उद्घाटित करते हैं तो कुछ समाज की बुराइयों की ओर भी इंगित करते हैं । कुल मिलाकर इस कृति में पाठक को मिलेगा सत्य का साक्षात्कार तथा जीवन को सजाने-संवारने के मौलिक सूत्र । पुस्तक का नाम जितना आकर्षक एवं नवीन है, तथ्यों का प्रतिपादन भी उतनी ही सरल एवं नवीन शैली में हुआ है । व्यक्तित्व रूपान्तरण एवं विधायक दृष्टिकोण का निर्माण करने के इच्छुक पाठकों के लिए यह कृति दीपशिखा का कार्य करेगी । महामनस्वी आचार्यश्री कालूगणी : जीवनवृत्त साहित्यिक विधाओं में जीवनी - साहित्य का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवनी साहित्य पढ़ने में तो सरस होता ही है, साथ ही जीवन्त प्रेरणा भी देता है । आचार्य तुलसी ने अपने दीक्षागुरु के जीवन-प्रसंग को संस्मरणात्मक शैली में लिखा है, जिसका नाम है- 'महामनस्वी आचार्यश्री कालूगणी जीवनवृत्त ।' कालूगणी का जीवन ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी में अभिस्नात था । उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक और चुम्बकीय था, आंतरिक व्यक्तित्व उससे हजार गुणा अधिक निर्मल और पवित्र था। वे व्यक्तित्व निर्माता थे । तेरापन्थ में उन्होंने सैकड़ों व्यक्तित्वों का निर्माण किया । यही कारण है कि वे तेरापन्थ धर्मसंघ को आचार्य तुलसी जैसा महनीय एवं ऊर्जस्वल व्यक्तित्व दे पाए । इस पुस्तक में आचार्यश्री ने सर्वत्र इस बात का ध्यान रखा है कि भाषा कहीं जटिल नहीं होने पाए। इसके अध्याय भी इतने छोटे हैं कि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण पाठक कहीं ऊबता नहीं। पुस्तक का प्रकाशकीय इस ग्रंथ की महत्ता इन शब्दों में प्रकट करता है -"प्रस्तुत पुस्तक एक महापुरुष के जीवन के विविध पक्षों का संक्षिप्त लेखा-जोखा है, जिसमें अध्यात्म की ज्योत्स्ना, साधना की आभा और ज्ञान की ज्योति सर्वत्र अनुस्यूत है। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' के अनुसार शैशव से ही निखरता आचार्यश्री कालूगणी का असाधारण व्यक्तित्व किस प्रकार उत्तरोत्तर विराट् बनता गया, युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने अपनी सिद्ध लेखनी द्वारा प्रस्तुत किया है।" जीवनी साहित्य में इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि अनेक दिलचस्प घटनाओं के कारण यह ग्रन्थ इतना रोचक बन गया है कि पाठक बार-बार इसको पढ़ने की इच्छा रखेगा। मुक्ति : इसी क्षण में "मोक्ष केवल पारलौकिक ही नहीं है, वर्तमान जीवन में भी जितनी शांति, जितना आनन्द और जितना चैतन्य स्फुरित होता है, वह सब मोक्ष का ही अनुभव है" । इन विचारों को अभिव्यक्ति देने वाली लघुकाय पुस्तक है-'मुक्ति : इसी क्षण में ।' ___ यह कृति शारीरिक, मानसिक और वैचारिक कुंठाओं, तनावों एवं विकृतियों को दूर करने का सक्षम माध्यम बनी है। इससे सत्य से साक्षात्कार तथा मोक्ष से तादात्म्य स्थापित करने के लिए सहज मार्गदर्शन प्राप्त होता है। द्वितीय संस्करण में इस कृति के अधिकांश आलेख 'मंजिल की ओर' भाग २ पुस्तक में समाविष्ट कर दिए गए हैं। २३ प्रवचनों/लेखों से युक्त यह लघुकाय पुस्तक जीवन की अनेक सार्थक दिशाओं का उद्घाटन करती मुक्तिपथ साहित्य मनुष्य को जीवन की खुराक देता है। जो साहित्य केवल शब्दजाल में गुम्फित होता है, वह जीवन को विशेष रूप से प्रभावित नहीं कर सकता पर जो जीवन-चर्या को रूपांतरण की प्रेरणा देकर जीवन के सही आचार का वर्णन करता है, वही साहित्य जनभोग्य हो सकता है । 'मुक्तिपथ' एक ऐसी ही कृति है, जो गृहस्थ जीवन के सामने आगमिक धरातल पर ऐसे छोटे-छोटे आदर्शों को प्रस्तुत करती है, जिससे वह सफल एवं शांत जीवन जी सके । वर्तमान के स्वच्छंदताप्रिय युग में यह कृति व्रतों का नया आलोक फैलाने वाली है तथा अहिंसा, सत्य आदि का आधुनिक सन्दर्भ में विश्लेषण करती है । यह जैन तत्त्व के अनेक पहल जैसे अनेकांत, रत्नत्रयी, सप्तभंगी, आत्मा, भाव आदि का सहज, सरल एवं संक्षिप्त शैली में विवेचन करती है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २३७ पुनर्मुद्रण में यही पुस्तक 'गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का' इस. नाम से प्रकाशित हुई है। इसके नाम-परिवर्तन के बारे में आचार्य तुलसी कहते हैं-'मुक्तिपथ' नाम अच्छा ही था पर नाम पढ़ते ही यह ज्ञात नहीं होता था कि यह पुस्तक गृहस्थ समाज को तत्त्व-बोध देने की दृष्टि से लिखी गयी है। अतः पुनर्मुद्रण में इसका नाम रखा गया है 'गहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का।' मुखड़ा क्या देखे दरपन में अपने जीवन के ७५वें वर्ष के उपलक्ष्य में आचार्य तुलसी ने किसी बड़े समारोह का आयोजन न करके अन्तर्मुखता जगाने, दृष्टिकोण का परिमार्जन करने तथा आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण करने हेतु साधु-साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं को प्रशिक्षित करने का सजीव उपक्रम चलाया। 'मुखड़ा क्या देखे दरपन में' पुस्तक में योगक्षेम वर्ष में हुए ७१ प्रवचनों का संकलन है, जिसमें अन्तःचेतना जगाने के लिए दिए गये दिशाबोध एवं दिशादर्शन हैं। आचार्य तुलसी की यह कृति व्यक्ति को भाषा और तर्क में न उलझाकर भावों की गहराई में ले जाने में सक्षम है। प्रस्तुत पुस्तक व्यक्ति को अपने बारे में सोचने, अन्तःकरण में झांकने एवं स्वयं का मूल्यांकन करने के लिए विवश करती है । इसमें सहनशीलता एवं संवेदनशीलता का ऐसा स्रोत वहा है, जो समाज के सभी कूड़े-कर्कट को बहा ले जाने में सक्षम पुस्तक में महावीर के जीवन एवं दर्शन के सम्बन्ध में भी महत्त्वपूर्ण जानकारियां दी गयी हैं। लेखक ने आध्यात्मिक और वैज्ञानिक इन दो धाराओं को जोड़ने का जो प्रयत्न किया है, वह निःसन्देह भारत के सांस्कृतिक एवं चिन्तन के क्षितिज पर एक नया सूर्य उगाएगा। आज मूल्यांकन का हर पैमाना वैज्ञानिक है । इस परिप्रेक्ष्य में विज्ञान को अध्यात्म से जोड़ने का सशक्त प्रयास वास्तव में स्तुत्य है, दूरदर्शिता का परिचायक है और वर्तमान के अनुकूल है। यह कृति हर वर्ग के पाठक को अभिभूत और चमत्कृत करने में सक्षम है। मेरा धर्म : केन्द्र और परिधि ___ आचार्य तुलसी ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने देश और काल की सीमा से परे होकर सार्वभौम सत्य की प्रतिष्ठा करके मानवता का पथ आलोकित किया है। वे सुलझे हुए चिन्तक हैं। उन्हें समाज में Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जो बात ठीक नहीं लगती, उसका वे बेहिचक प्रतिवाद करते हैं । फिर चाहे उन्हें कितना ही विरोध सहना पड़े । 'मेरा धर्म : केन्द्र और परिधि' कृति धर्म के उस रूप को प्रकट करती है, जो क्रियाकांडों एवं जड़ उपासना पद्धति से अनुबंधित नहीं, अपितु जीवन को भौतिकता की चकाचौंध से निकालकर अध्यात्म की गहराइयों में ले जाने में सक्षम है । सांप्रदायिकता का जहर आज मानवता को मृतप्रायः बना रहा है। इस सांप्रदायिक समस्या को समाधान देते हुए आचार्य तुलसी इस पुस्तक में कहते हैं " सम्प्रदाय उपयोगी है यदि वह धर्म का प्रतिबिम्बग्राही हो । जब सम्प्रदाय कोरा संप्रदाय रह जाये, उसमें धर्म का प्रतिबिम्ब ग्रहण करने की क्षमता न रहे तो वह अनिष्टकर हो जाता है ।" इस प्रकार सांप्रदायिकता और धर्मान्धता के विरुद्ध यह कृति ऐसा वातावरण तैयार करती है, जो धर्म या मजहब के नाम पर मानवीय एकता को तोड़ने वाली शक्तियों को सबक दे सके । अड़तीस लेखों के इस संकलन में लेखक ने धर्म और सम्प्रदाय के सम्बन्ध में न केवल अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट किया है। बल्कि पाठकों के बीच बनी धर्म एवं सम्प्रदाय सम्बन्धी भ्रांतियों का निराकरण भी किया है । इसके अतिरिक्त " हिन्दू : नया चिन्तन, नयी परिभाषा" में हिन्दू शब्द की नयी व्याख्या प्रस्तुत की है, जो हमारी राष्ट्रीय अखण्डता को बनाए रखने में सक्षम है । " धार्मिक समस्याएं : एक अनुचिन्तन" लेख में धर्म के नाम पर फैली अशिक्षा, अन्धविश्वास एवं रूढ़िवादिता पर करारा व्यंग्य किया है । तेरापंथ से सम्बन्धित अनेक लेख तेरापन्थ के इतिहास एवं उसके दर्शन की समग्र जानकारी देते हैं । इसके अतिरिक्त विश्वशांति, निःशस्त्रीकरण जैसे अन्य सामयिक विषयों का भी इसमें सुन्दर आकलन किया गया है। यह पुस्तक नास्तिक व्यक्ति को भी धर्म एवं अध्यात्म की ओर उन्मुख करने में समर्थ एवं सक्षम है निःसन्देह कहा जा सकता है कि इसमें समझदार, संवेदनशील एवं संस्कारवान् पाठक को जीवन की नई दिशा देने का सार्थक एवं रचनात्मक प्रयास हुआ है । राजधानी में आचार्यश्री तुलसी के सन्देश आचार्य तुलसी का दिल्ली में प्रथम प्रवास सन् १९५० में हुआ । यह प्रवास अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक और प्रभावकारी रहा। आचार्य तुलसी ने इस प्रवास में अपने उपदेशों द्वारा अहिंसक क्रांति उत्पन्न करने का अभिनव प्रयास किया । अणुअस्त्रों में ही शांति का दर्शन करने वाले विश्वमानस का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया कि अणुबम और उद्जनबम के Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन संहार का प्रतिकार करने वाली महाशक्ति बाहरी साधनों में नहीं, मानव के अन्तर् में ही निहित है । उसको उसी में से जगाना होगा। इस दिव्य ध्वनि ने संसार को अपनी ओर आकृष्ट किया और संसार को कुछ सोचने के लिए मजबूर किया। . अणुबम की विभीषिका से त्रस्त मानव को अणवत के संजीवन से पुनरुज्जीवित करने का सत्प्रयास आचार्य तुलसी ने किया है। दिल्ली के दो मास के अल्पप्रवास में उन्होंने अज्ञान की निद्रा में सोते मानव को झकझोर कर खड़ा कर दिया। इस छोटे से प्रवास में आचार्यश्री के सैकड़ों प्रवचन हुए पर इस पुस्तक में केवल सात क्रांतिकारी एवं महत्त्वपूर्ण प्रवचनों को संकलित किया गया है। इन सात प्रवचनों में प्रथम एवं अन्तिम प्रवचन स्वागत एवं विदाई का है । इस पुस्तक के संपादक सत्यदेव विद्यालंकार कहते हैं-"राजधानी के पहले भाषण की प्रभात बेला में यदि आचार्य तुलसी ने अपने काम की रूपरेखा उपस्थित की थी तो अन्तिम विदाई के भाषण की पुण्यबेला में अपने कर्तव्य का प्रतिपादन किया। आदि और अन्त तथा मध्य में दिए गए समस्त भाषणों का समन्वय किसी एक शब्द में किया जा सकता है तो वह है 'अहिंसा।' ____ आज से ४४ साल पूर्व प्रदत्त इन प्रवचनों में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सभी समस्याओं का हल है। आचार्य तुलसी के प्रवचनों का यह प्रथम लघु प्रवचन संकलन है । पुस्तक की भाषा प्रवचन की शैली में न होकर साहित्यिक शैली में गुम्फित है। ये सातों प्रवचन आचार्य तुलसी के अमर संदेश कहे जा सकते हैं। इनको जब कभी पढ़ा जाएगा, दिग्भ्रमित मानव समाज एक नई प्रेरणा प्राप्त करेगा। राजपथ की खोज समय-समय पर लिखे गए ५४ लेखों एवं ७ वार्ताओं से युक्त यह पुस्तक वैचारिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध और ज्ञानवर्धक है । प्रस्तुत पुस्तक चार खण्डों में विभाजित है। इसके प्रथम खण्ड 'महावीर : जीवन सौरभ' में भगवान महावीर के जीवन एवं उनके शाश्वत विचारों से सम्बन्धित १३ लेख संकलित हैं। ये लेख महावीर के सिद्धांत को नवीन परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्ति देते हैं। दूसरे 'शाश्वत स्वर' खण्ड में १४ लेखों के अन्तर्गत अहिंसा, अनेकांत तथा गांधीजी के जीवन-दर्शन के बारे में अमूल्य विचारों को संकलित किया गया है। 'जीवन-मूल्य' नामक तृतीय खण्ड लोकतन्त्रचुनाव, अध्यात्म और धर्म आदि के विषय में नई सोच उपस्थित करता है। अंतिम खंड 'प्रश्न और समाधान' में दर्शन और सिद्धांत सम्बन्धी अनेक प्रश्नों का सटीक समाधान दिया गया है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रस्तुत कृति आज की घिनौनी राजनीति पर तो व्यंग्य करती ही है साथ ही लोकतन्त्र को स्वस्थ एवं तेजस्वी बनाने के सूत्रों का भी विश्लेषण करती है । सत्ता के इर्द-गिर्द विकृतियों को दूर कर राजनीति के क्षितिज को रचनात्मक दिशा देने का सार्थक प्रयास प्रस्तुत कृति में हुआ है । साथ ही ऐसे स्वच्छ एवं प्रेरक राजनैतिक व्यक्तित्व की छवि उकेरी गयी है, जो लोकतन्त्र के सुदृढ़ आधार बन सकें।' बहुविध विषयों को अपने भीतर समेटे हुए यह पुस्तक एक विशिष्ट कृति के रूप में उभरी है। क्योंकि इसमें वर्तमान ही नहीं, आने वाला कल भी प्रतिबिम्बित है अतः ऐसी कृतियों की महत्ता सामयिक नहीं, अपितु त्रैकालिक है। __यह पुस्तक 'विचार दीर्घा' एवं 'विचार वीथी' में मुद्रित सामग्री का ही नया संस्करण है। लघुता से प्रभुता मिले हर व्यक्ति प्रभुता सम्पन्न बनना चाहता है । आचार्य तुलसी कहते हैं-"प्रभुता पाने का रास्ता है-प्रभुता पाने की लालसा का विसर्जन । क्योंकि जब तक यह लालसा मनुष्य पर हावी रहती है, वह अपने करणीय के प्रति सचेत नहीं रह सकता।" अतः लघुता ही एकमात्र उपाय है-प्रभुता पाने का । प्रस्तुत पुस्तक में प्रभुता सम्पन्न बनने की अनेक दिशाओं एवं प्रयोगों का उद्घाटन हुआ है। समीक्ष्य ग्रंथ में पुराने सन्दर्भो, मूल्यों एवं आदर्शों को नए सन्दर्भो एवं नए मूल्यों के साथ प्रकट किया गया है। ___ इस पुस्तक में आचारांग के सूक्तों की गम्भीर एवं सरस व्याख्या है। सम्पादन-कुशलता के कारण इन प्रवचनों ने निबन्ध का रूप ले लिया है। 'आयारो' ग्रन्थ पर आधारित ये ५१ प्रवचन विविध विषयों को अपने भीतर समेटे हुए हैं। ये सभी प्रवचन वार्तमानिक समस्याओं से सम्बद्ध हैं तथा आगमों के आलोक में समाधान की नई दिशा प्रस्तुत करते हैं। ____ इस कृति के बारे में महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी का विचार है कि इस पुस्तक के द्वारा आचार्यवर ने जन-साधारण और प्रबुद्ध---दोनों वर्गों को समान रूप से उपकृत किया है....। ऐसी भास्वर कृतियों के अध्ययन-मनन से हमारे अज्ञान तिमिर की उम्र कुछ तो घटेगी ही। ___ यह पुस्तक योगक्षेम वर्ष में हुए प्रवचनों का तृतीय संकलन है, साथ ही साहित्यिक , आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक लेखों का उपयोगी संग्रह है। विचार दीर्घा 'विचार दीर्घा' कृति आचार्यश्री के विभिन्न सन्दर्भो में व्यक्त विचारों का संकलन है। इस पुस्तक में राजनैतिक परिवेश में व्याप्त अनैतिक स्थितियों Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २४१ पर खुलकर चर्चा के साथ-साथ मर्यादा एवं अनुशासन की आवश्यकता पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इसमें भगवान् महावीर के विचारों का आधुनिक सन्दर्भ में प्रस्तुतीकरण है और जैन दर्शन के कुछ प्रमुख सिद्धांतों को मूल्यों के सन्दर्भ में व्याख्यायित किया गया है। इस प्रकार ४७ निबंधों से युक्त यह संकलन अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । इसकी भाषा सहज, सरल एवं स्पष्ट है । सामान्य पाठक भी इसमें अवगाहन कर अमूल्य रत्नों को प्राप्त कर सकता है । विचार वीथी वैचारिक क्रांति में साहित्य अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है | आचार्य तुलसी समय-समय पर प्रवचनों और लेखों के माध्यम से अपने क्रांतिकारी विचार जनता तक पहुंचाते रहते हैं । उनके साहित्य की लम्बी कड़ी में बहुरंगी विषयों से युक्त 'विचार वीथी' पुस्तक अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । विध्वंसात्मक कार्यों की ओर बढ़ते मानव को संरचनात्मक दृष्टिकोण देने व शक्ति को सही दिशा में नियोजित करने में यह पुस्तक काफी उपयोगी है । इसमें भगवान महावीर, अणुव्रत, महिला समाज तथा तेरापन्थ आदि अनेक विषयों पर संक्षिप्त एवं मार्मिक ५१ लेख समाविष्ट हैं । राष्ट्रीय एकता की भावना को जागृत करने एवं नैतिकता से ओत-प्रोत जीवन जीने की प्रेरणा देने वाली इस पुस्तक में आधुनिक समस्याओं के संदर्भ में नए सिरे से चिन्तन किया गया है । दूसरे संस्करण में 'विचार दीर्घा' एवं 'विचार atat' के अधिकांश लेख 'राजपथ की खोज' में सम्मिलित कर दिए गए हैं। विश्वशांति और उसका मार्ग यह ऐतिहासिक लेख शांति निकेतन में होने वाले 'विश्व शांति सम्मेलन' (१९४९) में प्रेषित किया गया था । इस लेख में अशांति के हेतु और उसके निराकरण पर महत्त्वपूर्ण चर्चा की गयी है। इसके साथ ही सुधार का केन्द्र व्यक्ति है या समाज, इस पर गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है । अन्त में शांति प्राप्त करने के १३ उपाय इस पुस्तिका में निर्दिष्ट हैं, जो आज के अशांत मानस को शांति की राह दिखाने में सक्षम हैं । इस आलेख में कम शब्दों में समाज, देश और राष्ट्र को अध्यात्म की नई स्फुरणा एवं विश्वशांति के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा मिलती है । व्रतदीक्षा व्रत मानव समाज की रीढ़ है अतः भगवान् महावीर ने श्रावक के लिए व्रती जीवन की महत्ता प्रतिष्ठित की। उन्होंने श्रावक के लिए १२ व्रत Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૨ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण तथा उनके खण्डित होने के कारणों का भी वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। "व्रत दीक्षा" पुस्तिका में आचार्य तुलसी ने २५०० वर्ष पूर्व दिए गए इन व्रतों को विस्तार से आधुनिक भाषा में प्रकट करने का प्रयत्न किया है तथा बच्चों को भी व्रत-दीक्षा से दीक्षित करने की विधि का संकेत किया है। यह लघु पुस्तिका संयम की महत्ता को प्रकट कर बालकों को आत्मानुशासन का बोधपाठ देने वाली है। शांति के पथ पर (दूसरी मंजिल) 'शांति के पथ पर' (दूसरी मंजिल) सर्वोदय ज्ञानमाला का पांचवा पुष्प है । ५८ छोटे-छोटे आलेखों एवं प्रवचनों से युक्त यह पुस्तक विविध विषयों का संस्पर्श करती है। लगभग ४० साल पूर्व हुए प्रवचनों को इस पुस्तक में संकलित कर सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं साहित्यिक परम्पराओं का सुन्दर प्रस्तुतीकरण किया गया है। यह पुस्तक त्याग और संयम की संस्कृति को उज्जीवित रखने की प्रेरणा देती है, साथ ही आज के अशांत वातावरण में शांतिपूर्ण जीवन कैसे जीया जा सके, इसका अवबोध भी हमें इससे मिलता है। प्रवचनों में प्रयुक्त दोहे, श्लोक सुग्राह्य एवं गहरे अर्थ लिए हुए हैं। इस कृति के विचार बौद्धिक स्तर पर ही नहीं, अनुभूति के स्तर पर लिखे एवं बोले गए हैं इसलिए यह और अधिक मूल्यवान् कृति बन गई है। श्रावक आत्मचिन्तन आचार्य तुलसी आत्मद्रष्टा ऋषि हैं। वे चाहते हैं कि उनके अनुयायी भौतिकता में रहकर भी आत्मा की परिधि में रहें। आत्मद्रष्टा बनने के लिए आत्म-चिन्तन अनिवार्य है। 'श्रावक आत्मचिन्तन' कृति में आत्म-चिन्तन के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का निर्देश है। ये चिन्तन-बिन्दु आध्यात्मिक, नैतिक व लौकिक इन तीन भागों में विभक्त हैं । यदि इन प्रेरक बिन्दुओं पर व्यक्ति प्रतिदिन आत्म-चितन करे तो सुख और शांति स्वतः जीवन में अवतरित हो जाएगी । इस कृति में आत्म-चिन्तन के साथ-साथ व्यसन, मांस, मदिरा वेश्यागमन, निरपराध हिंसा, चोरी, परस्त्रीगमन आदि विषयों पर प्रेरक सूक्तियां भी संकलित हैं। ये सूक्तियां सप्तव्यसनों से मुक्त जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। इस लघुकाय पुस्तिका में नवसूत्री तथा तेरहसूत्री योजना का उल्लेख भी है, जो चरित्रनिष्ठ जीवन जीने के आदर्श सूत्र हैं । अन्त में कुछ प्रेरक गीत भी पुस्तिका में संकलित हैं। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २४३ श्रावक सम्मेलन में 'श्रावक सम्मेलन में' पुस्तिका आचार्य तुलसी के क्रांतिकारी विचारों का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। यह आचार्यश्री का ऐतिहासिक प्रवचन है, जो लगभग ४००० श्रावकों के मध्य हांसी में दिया गया। इसमें तेरापन्थ धर्मसंघ में किए गए अनेक परिवर्तनों का स्पष्टीकरण है तथा उनकी युगीन महत्ता को स्पष्ट किया गया है । तेरापन्थ के विकास-क्रम का इतिहास इस पुस्तिका के माध्यम से भलीभांति जाना जा सकता है । मौलिक सिद्धांतों को सुरक्षित रखते हुए लेखक ने जिन युगीन परिवर्तनों का सूत्रपात किया है, वह क्रांतिकारी एवं सामयिक है । ___ इस प्रवचन में एक धर्मनेता का अमित आत्मबल और साहस मुखर हो रहा है। चूहे-बिल्ली के रूप में प्रसिद्ध तेरापन्थ आज जैन धर्म का पर्याय बन गया है, इसका राज भी इसमें विश्लेषित है। आचार्यश्री ने धर्मसंघ में किए गए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों का स्पष्टीकरण भी इसमें किया संदेश 'सन्देश' आत्मदर्शन माला का दूसरा पुष्प है। इसमें तत्त्वज्ञान तथा भारतीय संस्कृति के तत्त्वों को उजागर किया गया है। इस कृति में धर्म के कुछ मौलिक सिद्धांतों का विश्लेषण भी है। पुस्तक के परिशिष्ट में कवि सम्मेलन में हुआ आचार्य तुलसी का उद्घाटन भाषण तथा अन्य साधुसाध्वियों की संस्कृत आशु कविताएं हिंदी अर्थ के साथ प्रकाशित हैं । अतः संस्कृत भाषा के प्रेमी लोगों के लिए भी यह पुस्तक विशेष महत्त्व रखती है । अन्त में स्वाधीनता दिवस पर गाए गए गीतों का संकलन है। आकार में लघु होने पर भी यह कृति हमारी ज्ञान-पिपासा को शांत करने में सक्षम है। संभल सयाने! आचार्य तुलसी के प्रवचन ज्ञान और भावना-इन दोनों गुणों से समन्वित हैं । ज्ञानप्रधान प्रवचन जहां कर्त्तव्य-अकर्तव्य, उचित-अनुचित का बोध कराते हैं, वहां भावनाप्रधान प्रवचन पाठक के मन में बल और पौरुष का सचार करते हैं। 'संभल सयाने !' एक ऐसा ही प्रवचन संकलन है, जिसमें बुद्धि और हृदय का समन्वय हुआ है। इसमें सन् १९५४ में बंबई में हुए प्रवचनों का संकलन है। यह कृति अपने प्रथम संस्करण में प्रवचन डायरी, भाग-२ के रूप में प्रकाशित थी। समीक्ष्य कृति में समाज, देश एवं राष्ट्र को नया दिशाबोध तथा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अनेक विषयों पर चिन्तन-मनन प्रस्तुत किया गया है। प्रवचनों का संकलन होने के कारण पुस्तक की शैली औपदेशिक अधिक है तथा आकार में भी कई प्रवचन अत्यन्त लघ और कई अत्यन्त विस्तृत हैं। अधिकांश प्रवचनों में स्थान एवं दिनांक का निर्देश है, इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस कृति का विशेष महत्त्व है। ११५ प्रवचनों से संवलित यह कृति समाज के विभिन्न वर्गों का मार्गदर्शन करने में सक्षम है। विशेष रूप से इसमें अणुव्रत आंदोलन का स्वर अधिक मुखरित हुआ है, क्योंकि इसी आंदोलन के माध्यम से आचार्यश्री ने देश के आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान का बीड़ा उठाया है। ४० साल पुराने होते हुए भी ये प्रवचन आज भी समीचीन एवं पाठक की चेतना को उबुद्ध करने में उपयोगी बने हुए हैं। सफर : आधी शताब्दी का 'सफर : आधी शताब्दी का' पुस्तक में आचार्य तुलसी ने अपनी पचास वर्ष की उपलब्धियों एवं अनुभूतियों का सरस आकलन किया है। इसके अतिरिक्त सामाजिक , राष्ट्रीय, धार्मिक एवं राजनैतिक अनेक समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है । 'रचनात्मक प्रवृत्तियां' जैसे कुछ लेखों में उन्होंने अपने भावी कार्यक्रमों का विवरण प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त युवकों एवं महिलाओं को लक्ष्य करके लिखे गये कुछ प्रेरक लेख भी इसमें समाविष्ट हैं। इस पुस्तक में 'राजस्थान की जनता के नाम' शीर्षक आलेख एक नए समाज एवं राज्य की संरचना के सूत्र प्रस्तुत करता है तथा राजस्थान की जनता की सुप्त चेतना को जागृत करने की अर्हता रखता है। यह पुस्तक लेखक के जीवन, चिंतन, दर्शन एवं उपलब्धियों का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है । इसमें कुल ३७ लेखों में जैन-धर्म के मूलभूत सिद्धांत तथा भारतीय संस्कृति के अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का अनावरण हुआ है। संक्षेप में कहें तो इसका सिंहावलोकन वर्तमान क पर्यालोचन एवं भविष्य का दिशानिर्धारण है । 'अमृत-संदेश' के प्रायः सभी लेखों का समाहार इस पुस्तक में कर दिया गया है। समण दीक्षा ‘समण दीक्षा' आचार्य तुलसी के क्रांतिकारी अवदानों की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है । इसे आधुनिक युग का नया संन्यास कहा जा सकता है। सन् १९८० में आचार्य तुलसी ने विलक्षण दीक्षा देने की उद्घोषणा की। इस नए पथ पर चलने का साहस छह बहिनों ने किया। दीक्षा के अवसर पर इस श्रेणी का नाम 'समण श्रेणी' रखा गया। 'समण दीक्षा' पुस्तिका में Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २४५ समण दीक्षा की पृष्ठभूमि, उसका इतिहास तथा आचार-संहिता का वर्णन है । इसके परिशिष्ट में मुमुक्षु श्रेणी की आचार संहिता भी संलग्न है | लघुकाय होते हुए भी यह पुस्तिका समण दीक्षा के प्रारम्भिक इतिहास की जानकारी देने में पर्याप्त है । इस पुस्तक में समण दीक्षा का स्वरूप साहित्यिक शैली में प्रस्तुत किया गया है । इसके कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं • समण दीक्षा है, अपने आप की पहचान का एक अमोघ संकल्प | • समण दीक्षा है, मन को निर्ग्रन्थ बनाने का एक छोटा-सा उपक्रम । • समण दीक्षा है, जीवन का वह विराम, जहां से एक नए छंद का प्रारम्भ होता है । • समण दीक्षा है, अध्यात्मविद्या को सीखने और मुक्तभाव से बांटने का एक नया अभिक्रम । • समण दीक्षा है, समय के भाल पर उदीयमान नये निर्माण का एक संकेत | अनेक ऐतिहासिक चित्रों से युक्त यह कृति आचार्य तुलसी की नयी सोच एवं क्रियान्विति की साक्षी बनी रहेगी । समता की आंख : चरित्र की पांख 'उद्बोधन' का तृतीय संस्करण 'समता की आंख : चरित्र की पांख' के रूप में प्रकाशित है। नए संस्करण में कुछ लेखों को और जोड़ दिया गया है । इस पुस्तक में अति संक्षिप्त शैली में छोटी-छोटी घटनाओं, संस्मरणों, रूपकों या कथाओं के माध्यम से अणुव्रत के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट किया गया है तथा नैतिक सन्दर्भों का समाज के साथ कैसे सामंजस्य बिठाया जा सकता है, इसका सरस और व्यावहारिक विवेचन है । पुस्तक में प्रयुक्त प्रायः कथाएं और घटनाएं ऐतिहासिक, सामाजिक एवं लोक-जीवन से जुड़ी हुई हैं। अनेक कथाओं में जीवन की किसी समस्या एवं उसके समाधान का निरूपण है । इन कथाओं का उपयोग केवल मनोरंजन हेतु नहीं, अपितु सरलता से तत्त्वबोध कराने के लिए हुआ है । ये जीवन्त कथाएं व्यक्ति को नए सिरे से सोचने के लिए बाध्य करती हैं । पुस्तक को पढ़कर ऐसा लगता है कि आचार्यश्री ने मौखर्य या विस्तार की अपेक्षा मौन को अधिक महत्व दिया है । इसे अभिव्यक्ति का संयम कहा जा सकता है । इसमें कम शब्दों में बहुत कुछ कहने का अद्भुत कौशल प्रकट हुआ है । सम्पूर्ण कृति विविध शीर्षकों में गुम्फित होते हुए भी अणुव्रत - दर्शन से प्रभावित है तथा उसे ही व्याख्यायित करती है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण समाधान की ओर जिज्ञासा व्यक्ति को सत्य की यात्रा करवाती है और समाधान लक्ष्य-प्राप्ति का साधन है। 'समाधान की ओर' पुस्तक में युवकों की जिज्ञासाएं एवं आचार्यश्री तुलसी के सटीक समाधान गुम्फित हैं । यह पुस्तक युवापीढ़ी से जुड़ी समस्त समस्याओं के समाधान का अभिनव उपक्रम है । प्रश्नोत्तरों में धर्म की वैज्ञानिक परिभाषा एवं आज के सन्दर्भ में उसकी उपयोगिता पर भी खुलकर चर्चा की गई है । समाधायक आचार्य तुलसी ने उत्तर में सर्वत्र अनेकांत शैली का प्रयोग किया है अतः समाधान में कहीं भी ऐकांतिकता का दोष नहीं दिखाई पड़ता। आचार्य तुलसी का मंतव्य है कि समस्याएं मनुष्य की सहजात हैं । अतः समस्याएं रहेंगी, पर उनका रूप बदलता रहेगा। कोई भी समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान प्रस्तुत न किया जा सके । 'समाधान की ओर' पुस्तक इसी बात की पुष्टि करती हुई केवल व्यक्तिगत ही नहीं, सम्पूर्ण मानव जाति के सामने खड़ी समस्याओं का समाधान करती है। इसमें जीवन के व्यावहारिक पथ को समाधान की वर्णमाला में पिरोने का प्रशस्य प्रयत्न किया है अतः बहुविध समस्या एवं समाधानों को अपने भीतर समेटे हुए यह पुस्तक विशिष्ट कृति के रूप में समाज को प्रकाश दे सकेगी। साधु जीवन की उपयोगिता देश के नैतिक और चारित्रिक उत्थान में साधु-संस्था का विशेष योगदान रहता है। वह देश सम्पन्न होते हुए भी विपन्न है, जहां साधु-संस्था के प्रति जन-मानस में सम्मान का भाव नहीं होता। पुस्तक में साधु-संस्था का सामाजिक और राष्ट्रीय महत्त्व प्रतिपादित है, साथ ही वैयक्तिक स्तर पर जीवन-निर्माण की बात भी साधु-संस्था द्वारा ही संभव है, यह तथ्य भी स्पष्ट हुआ है। इस कृति में आचार्य तुलसी ने साधु-संस्था को भार समझने वाले लोगों के समक्ष यह स्पष्ट किया है कि देश के विकास में केवल कृषि उत्पादन ही महत्त्वपूर्ण नहीं, चरित्रबल का उत्थान अधिक आवश्यक है । साधु देश के चरित्रबल को ऊंचा उठाते हैं। अतः देश में उनकी सर्वाधिक आवश्यकता है। एक सच्चा साधु मौन रहकर भी अपने आभामण्डल के शुद्ध परमाणुओं से जगत् के विकृत वातावरण को शुद्ध बना सकता है अतः साधु-संस्था की उपयोगिता के सामने कभी प्रश्नचिह्न नहीं लग सकता। . . सूरज ढल ना जाए आचार्य तुलसी ने राजनेता की भांति केवल बाह्य परिस्थितियों Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन को ही अभिव्यक्ति नहीं दी अपितु 'गहरे पानी पैठ' इस आदर्श के साथ विचारों को प्रस्तुति दी है । 'सूरज ढल ना जाए' ऐसे ही १४८ महत्त्वपूर्ण प्रवचनों का संकलन है । यह पुस्तक सन् १९५५ में विविध स्थानों में दिए गए प्रवचनों / वक्तव्यों का संकलन है । आचार्य तुलसी यायावर हैं अतः प्रतिदिन नए-नए श्रोताओं के लिए उनके प्रवचन विविधता लिए हुए होते हैं। प्रस्तुत संकलन में अणुव्रत सम्बन्धित लेख अधिक हैं । आचार्य तुलसी ने गांव-गांव, नगर- नगर घूमकर अणुव्रत आंदोलन द्वारा देश के कोने-कोने में व्याप्त अन्धभक्ति, व्यसन, दुराचार, भ्रष्टाचार आदि विकृतियों को दूर कर स्वस्थ समाज - संरचना की प्रेरणा दी है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्मिक मूल्यों को जीवन्त बनाए रखने का भरसक प्रयास किया गया है । ये प्रवचन आध्यात्मिक क्षितिज पर खड़े होकर समूची दुनिया और उससे जुड़ी परिस्थितियों को गम्भीरता से समझने में सहयोगी बनते हैं । प्रवचन अति प्राचीन होने पर भी सीधे हृदय का स्पर्श करते हैं । यह ग्रन्थ प्रवचन डायरी, भाग २ का नवीन संस्करण है तथा प्रवचन पाथेय के १५ वें पुष्प के रूप में प्रकाशित है । सोचो ! समझो !! भाग-१-३ मानव और पशु के बीच एक महत्त्वपूर्ण भेदरेखा है- सोचना और समझना । प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस क्षमता को पाकर भी व्यक्ति उसका सही उपयोग नहीं करता । सोचो ! समझो !! के तीनों भाग व्यक्ति की दृष्टि को परिमार्जित कर उसे नए ढंग से सोचने-समझने एवं करने की प्रेरणा देते हैं । जीवन को उन्नत बनाने वाले मूल्यों का जीवन में अवतरण कैसे करें, इसका सुन्दर विवेचन इन कृतियों में मिलता है । द्वितीय संस्करण में सोचो ! समझो ! ! भाग १ प्रवचन - पाथेय भाग ४ के रूप में, सोचो ! समझो !! भाग दो प्रवचन पाथेय भाग ५ के रूप में तथा सोचो ! समझो !! भाग तीन स्वतंत्र रूप से भी प्रकाशित है तथा प्रवचन - पाथेय की शृंखला में यह भाग ६ के रूप में प्रसिद्ध है । अनेक प्रवचनों से संवलित ये कृतियां अनेक कथाओं एवं रूपकों से संबद्ध होने के कारण बालक, युवा एवं वृद्ध सबके लिए पठनीय बन गयी हैं । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलित एवं संपादित साहित्य आचार्य तुलसी के साहित्य से संकलन किया गया साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है । यहां हम उन पुस्तकों का परिचय दे रहे हैं, जो निबंध या प्रवचन के रूप में प्रकाशित नहीं हैं, वरन् दूसरों के द्वारा संकलित संपादित हैं। साथ ही आचार्यश्री के नाम से प्रकाशित उन पुस्तकों का परिचय भी दिया जा रहा है, जिनमें विचारों की अभिव्यक्ति स्फुट रूप से हुई है जैसे हस्ताक्षर, सप्त व्यसन आदि । शैक्षशिक्षा आचार्यश्री की स्वोपज्ञ कृति नहीं है, वरन् संकलन के रूप में इसका प्रणयन किया गया है अतः इसे मूल साहित्य के परिचय के अन्तर्गत नहीं दिया है। अणुव्रत अनुशास्ता के साथ इसमें मुनि सुखलालजी ने २६ विषयों पर आचार्य तुलसी के साथ हुई वार्ताओं का संकलन किया है। इसमें प्रश्नकर्ता मुनि सुखलालजी हैं। उत्तर आचार्य तुलसी के हैं पर उनको भाषा मुनिश्री ने दी है अतः संकलित एवं संपादित ग्रंथ सूची में इसका परिचय दे रहे हैं । समाज, राष्ट्र, धर्म, शिक्षा एवं संस्कृति आदि से सम्बन्धित अनेक व्यावहारिक जिज्ञासाओं का सटीक समाधान इसमें प्रस्तुत है । प्रश्नोत्तरों के माध्यम से आचार्यश्री के मौलिक विचारों की अवगति देने वाली यह पुस्तक अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। अनमोल बोल आचार्य तुलसी के मुनि मधुकरजी द्वारा संकलित इस लघु पुस्तिका में यद्यपि सूक्तों की संख्या बहुत कम है पर इन सुभाषितों में एक वक्रता है, जिससे उनमें मर्मभेदन की कला प्रकट हो गयी है। उक्ति-वैचित्य के कारण ये सभी वाक्य मानव को कुछ सोचने, समझने एवं बदलने को मजबूर करते हैं। ___ लघु आकार की इस पुस्तिका को हर क्षण अपना साथी बनाया जा सकता है तथा तनाव से बोझिल मन को शांत करने के लिए कभी भी पढ़कर शांति प्राप्त की जा सकती है। एक बूद : एक सागर (भाग १-५) साहित्य के मूल्यपरक. दिशासूचक एवं सारपूर्ण वाक्य का नाम सूक्ति है । सूक्तियों में मर्म का स्पर्श करने की शक्ति होती है। सूक्ति साहित्य का प्राचीन काल से अपना विशिष्ट महत्त्व रहा है, क्योंकि इसमें नीति और Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २४९ उपदेश की प्रेरणा गागर में सागर की भांति निहित रहती है । सूक्त / सुभाषित की एक बूंद में भी चेतना का अथाह सागर लहराता है, जो अन्तर् एवं बाह्य को आमूलचूल बदलने की क्षमता रखता है । रामप्रताप त्रिपाठी का मंतव्य है कि विधाता की इस मानव सृष्टि में सूक्तियां कल्पतरु के समान हैं । इनकी सुविस्तृत सघन छाया में जीवनपथ की थकान को ही दूर करने की शक्ति नहीं, प्रत्युत् भविष्य की दुर्गम यात्रा को सुखपूर्वक सम्पन्न करने का अक्षय तथा देवी सम्बल इनमें निहित रहता है । आचार्य तुलसी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की दिव्य मशाल हैं। उन्होंने प्रयत्नपूर्वक सूक्तियां नहीं लिखीं पर उनकी तपःपूत एवं अनुभवपूत वाणी ने स्वतः ही सूक्तियों का रूप धारण कर लिया है। इनमें उनके जीवन के अनुभवों का अमृत निहित है । वे ६० वर्षों से अनवरत प्रवचन दे रहे हैं । अनेक संदेश एवं पत्र भी उन्होंने प्रदत्त किए हैं। उन सब प्रवचनों / लेखों / संदेशों एवं काव्यों का स्वाध्याय कर पांच खंडों में लगभग २२०० पृष्ठों में सूक्तियों का संकलन तैयार गया किया है, जिसका नाम है-एक बूंद : एक सागर | आज के तीव्रगामी युग में इतने विशाल वाङमय का समग्र अध्ययन सबके लिए संभव नहीं है अतः पांच खंडों में प्रकाशित यह सूक्ति-संकलन पाठकों की इस समस्या का हल करने वाला है । इसकी हर बूंद में पाठक को अस्तित्व की पूर्णता का अनुभव होगा तथा साथ ही आचार्यवर की बहुश्रुतता का दिग्दर्शन भी । किसी अन्य लेखक ने ४००० से अधिक विषयों पर ज्ञानामृत की वर्षा की हो, विषय की आत्मा का स्पर्श कर उसे जनभोग्य एवं विद्वद्भोग्य बनाया हो, यह शोध का विषय है । किसी एक ही लेखक की २५ हजार सूक्तियों का संकलन भी आश्चर्य का विषय है । इसके प्रत्येक खंड में मूर्धन्य विद्वान् एवं समालोचक का मंतव्य भी प्रकाशित है । इसके प्रथम खंड में विजयेन्द्र स्नातक कहते हैं- "आचार्य तुलसी के सार्थक प्रयोगों को संकलित करने का समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने स्तुत्य प्रयास किया है । यह प्रयास असाधारण है, श्रमसाध्य है, मंगलमय है, स्थायी महत्त्व का है । यह ग्रंथ केवल पढ़ने और मनोरंजन का विषय न होकर मननीय, विचारणीय, वंदनीय, संग्रहणीय और दैनन्दिन जीवन के पग-पग पर हमारा पथ प्रशस्त करने वाला है । मैंने इस ग्रंथ की एक-एक बूंद में जीवन ज्योति का प्रकाश विकीर्ण होते देखा है। एक-एक बिन्दु में अमृत-बिन्दु का आह्लाद रस पाया है । जीवन - जागृति, बल और बलिदान की भावना का जैसा आलोक इस ग्रंथ की पंक्ति-पंक्ति में समाया हुआ है, वैसा मुझे अन्यत्र सुलभ नहीं हुआ ।" दूसरे खंड में आचार्य विद्यानंदजी तथा डा० रामप्रसाद मिश्र, तीसरे Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण में पंडित दलसुखभाई मालवणिया, चौथे खंड में विश्वम्भरनाथ पांडे तथा पांचवें खंड में डा० नागेन्द्र तथा डा० निजामुद्दीन की समालोचना संलग्न ये पांचों खंड सभी वर्गों के व्यक्तियों को जीवन की खुराक दे सकेंगे, ऐसा विश्वास है। । तुलसी-वाणी __ आचार्य तुलसी के प्रवचनों से मुनिश्री दुलीचंदजी ने एक संकलन तैयार किया, जिसका नाम है-'तुलसी वाणी'। इस पुस्तक में लगभग ६८ शीर्षकों पर विचार संकलित हैं। संकलयिता ने न इसे सूक्ति का आकार दिया है और न पूरे प्रवचन का, पर विचारों की दृष्टि से यह पुस्तक छोटी होते हुए भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । इन प्रवचनांशों में विशुद्ध अध्यात्म की पुट है तो साथ ही सामयिक समस्याओं का समाधान भी है। पथ और पाथेय पथ पर चलने वाले हर पथिक को पाथेय की अपेक्षा रहती है । छोटी सी यात्रा में भी पथिक अपने पाथेय के साथ चलता है फिर संसार के अनंत पथ को पार करने के लिए तो पाथेय की अनिवार्यता स्वतः सिद्ध हो जाती है। 'पथ और पाथेय' पुस्तक मुनिश्री श्रीचंदजी द्वारा संकलित की गयी है। इसमें लगभग २३ विषयों पर आचार्य तुलसी की सूक्तियों एवं प्रेरक वाक्यों का संकलन है । पॉकेट बुक के रूप में इस पुस्तक को पाठक हर वक्त अपना साथी बनाकर प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। आचार्य तुलसी की आध्यात्मिक गगरी से छलकने वाली ये बूंदें पाठक के लिए पाथेय का कार्य करती रहेंगी। सप्त व्यसन व्यसन जीवन के लिए अभिशाप है। एक व्यसन भी जीवन के सारे सुखों को लील जाता है फिर सात व्यसनों से ग्रस्त मनुष्य का तो कहना ही क्या ? आचार्य तुलसी पिछले ६० सालों से व्यसनमुक्ति का अभियान छेड़े हए हैं और उसमें कामयाबी भी हासिल की है। 'सप्त व्यसन' नामक लघु पुस्तिका में सात व्यसनों के ऊपर प्रेरक सूक्तियों का संकलन है। यह. निबन्ध के रूप में स्वतंत्र रचना नहीं, अपितु संकलनात्मक है। अत्यन्त प्राचीन संग्रह होने पर भी इसके वाक्य भाषा की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध एवं प्रेरक हैं । उदाहरण के लिए निम्न सूक्तों को प्रस्तुत किया जा सकता है १. व्यसन आत्मा का अभिशाप है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २. जुआ एक अग्नि है, उसकी ज्वाला व्यक्ति को सांय-सांय कर जला देती है। ३. मांस-भक्षण आत्मदुर्बलता का सूचक है। ४. शराब एक व्यसन है, जिससे मनुष्य अपने ज्ञान और चेतना सब कुछ खो देता है। सीपी सूक्त साहित्य जीवन के अनुभवों की सरस अभिव्यक्ति है। आचार्य तुलसी के साहित्य में अनेक ऐसे वाक्य हैं, जिन्हें प्रेरक, मर्मस्पर्शी और जीवन्त कहा जा सकता है। उनके साहित्य से सूक्ति-संकलन का कार्य अनेक रूपों में प्रकाशित हुआ है। उन्हीं में एक प्राचीन संकलन है ... सीपी सूक्त । ये सूक्तियां किसी एक विषय से सम्बन्धित नहीं, पर समय-समय पर सन्त-मन में उठने वाले विचारों की अभिव्यक्तियां है । इन वाक्यों में मानवता का दिव्य संदेश है। ये विचार पाठक की संवेदनाओं को तो जागृत करते ही हैं साथ ही जनता को उद्बोधित करने का व्यंग्य भी इनमें समाहित हस्ताक्षर _ 'हस्ताक्षर' आचार्य तुलसी के विचारों का नवनीत है । इसमें प्रतिदिन लिखे गए प्रेरक वाक्यों का संकलन है। ये विचार दिनांक एवं स्थान के साथ प्रस्तुत हैं, इसलिए इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्त्व भी बढ़ जाता है। इसमें मुख्यतः सन् ७०,७१,८३,८४ एवं ८५ में लिखे गए अनुभूत वाक्यों का समाहार है। अनेक वाक्य महावीर एवं आचार्य भिक्षु की वाणी के अनुवाद खणं जाणाहि क्षण को पहचानो (बालोतरा ९ अग. १९८३) तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ? महान् समुद्र को तर गया तो फिर तीर पर आकर क्यों रुका ? (रायपुर, १० सित० १९७०) कहीं कहीं संस्कृत के सुभाषितों को भी प्रतिदिन के विचार में लिख दिया गया है। जैसे अग्निदाहे न मे दुःखं, न दुःखं लोहताड़ने । इदमेव महदुःखं, गुजया सह तोलनम् ॥ (पर्वतसर १८ जन० १९७१) अवर वस्तु में भेल हुवे, दया में हिंसा रो नहिं भेलो। पूरब ने पश्चिम रो मारग, किणविध खावं मेलो रे ॥ (भादलिया, २१ जन० १९७१) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण इस प्रकार इसमें विविधमुखी सूक्तियों का संकलन है। इस कृति का महत्त्व इसलिए अधिक बढ़ जाता है कि यह आचार्यप्रवर के हाथ से लिखे गए सूक्तों का संकलन है, किसी अन्य व्यक्ति द्वारा चयनित सूक्त उसमें नहीं हैं। शैक्षशिक्षा आचार्य तुलसी एक जागरूक अनुशास्ता हैं। अपने अनुयायियों को विविध प्रेरणाएं देने के लिए वे नई-नई विधाओं में साहित्य-सर्जना करते रहते हैं। उन्होंने लगभग १००० व्यक्तियों को अपने हाथों से संन्यास के मार्ग पर प्रस्थित किया है । अतः नवदीक्षित साधु-साध्वियों को संयम, अनुशासन, सहिष्णुता आदि जीवन-मूल्यों की प्रेरणा देने हेतु उनकी एक महत्त्वपूर्ण संकलित कृति है-- 'शैक्षशिक्षा'। सोलह अध्यायों में विभक्त इस कृति में आगम तथा आगमेतर अनेक ग्रंथों के पद्यों का सानुवाद उद्धरण है तथा आचार्य भिक्षु, जयाचार्य द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण गेय गीतों का समावेश भी है। इस ग्रंथ में अनेक विषयों से सम्बन्धित जानकारी भी एक ही स्थान पर मिल जाती है। जैसे स्वाध्याय से सम्बन्धित प्रकरण में स्वाध्याय, उसके भेद, स्वाध्याय का महत्त्व आदि । अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का समाहार होने से यह संकलित कृति प्रवचनकारों के लिए भी महत्त्वपूर्ण वन गयी है । यह अप्रकाशित कृति जीवन को सुन्दर बनाने एवं मानवीय मूल्यों को लोकचित्त में संचरित करने में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य तुलसी के जीवन से संबंधित साहित्य आचार्य तुलसी ने स्वयं तो मानव-चेतना को जगाने के लिए विपुल साहित्य की सर्जना की ही है, पर दूसरों द्वारा उनके जीवन पर लिखा गया साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। उन पर लिखे गए साहित्य को हम चार भागों में बांट सकते हैं--- १. जीवनी-साहित्य २. यात्रा-साहित्य । ३. संस्मरण-साहित्य । ४. अभिनन्दन ग्रंथ, पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक एवं स्वतंत्र __ पत्रिकाएं। यहां हम उन पर लिखे गए ग्रन्थों एवं पुस्तिकाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे शोध विद्यार्थी उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को जानने के लिए प्रामाणिक स्रोतों का ज्ञान कर सके । जीवनी-साहित्य आचार्य तुलसी ने अपने प्रत्येक क्षण को जिस चैतन्य एवं प्रकाश के साथ जीया है, वह भारतीय ऋषि परम्परा के इतिहास का महत्त्वपूर्ण अध्याय है । उन्होंने स्वयं ही प्रेरक जीवन नहीं जीया, लोकजीवन को ऊंचा उठाने का जो हिमालयी प्रयत्न किया है, वह भी अद्भुत एवं आश्चर्यकारी है । अपनी कलात्मक अंगुलियों से उन्होंने इतने नए इतिहासों का सृजन किया है कि उन सबका प्रस्तुतीकरण किसी एक ग्रंथ में करना समुद्र को बाहों से तरने का प्रयत्न जैसा होगा । आचार्यश्री के जीवन पर बहुत साहित्य लिखा गया है उनमें जीवनीग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ___ भूतपूर्व राष्ट्रपति डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने अपनी पुस्तक living with purpose में भारत के १४ महापुरुषों का जीवन अंकित किया है। उसमें एक नाम आचार्यश्री तुलसी का है। इसमें महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन चौदह व्यक्तियों में वर्तमान में एकमात्र आचार्य तुलसी ही अपने कर्तृत्व एवं नेतृत्व से देश और समाज को लाभान्वित कर रहे हैं । राष्ट्रपति जी ने उनके अणुव्रत अनुशास्ता रूप को ही अधिक उभारा है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आचार्यश्री तुलसी (जीवन पर एक दृष्टि ) आचार्यश्री के जीवन पर लिखा गया संभवतः यह प्रथम जीवनी ग्रंथ है । इसके लेखक मुनिश्री नथमलजी ( वर्तमान युवाचार्य महाप्रज्ञ ) हैं । आज से ४२ वर्ष पूर्व (१९५२) लिखी गयी यह पुस्तक मुख्यतः तीन भागों में विभक्त है बालजीवन, मुनिजीवन एवं आचार्य जीवन । प्रथम दो खंड संस्मरण प्रधान अधिक हैं किन्तु तीसरे 'आचार्य' खंड में उनके विराट् व्यक्तित्व का आकलन प्रस्तुत है । इसमें केवल प्रशस्ति नहीं, अपितु उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं की विचारात्मक अभिव्यक्ति है । कहा जा सकता है कि लेखक ने केवल श्रद्धा के बल पर नहीं, अपितु उनके व्यक्तित्व को विचारात्मक प्रस्तुति दी है । प्रस्तुत जीवनी ग्रन्थ में आचार्य तुलसी के जीवन से सम्बन्धित अनेक संस्मरणों का समावेश कर देने से अत्यन्त रोचक हो गया है। इसकी भूमिका में प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व को निम्न शब्दों में प्रस्तुति देते हैं- " तुलसीजी को देखकर लगा कि यहां कुछ है, जीवन मूच्छित और परास्त नहीं है । व्यक्तित्व में सजीवता है और एक विशेष प्रकार की एकाग्रता । वातावरण के प्रति उनमें ग्रहणशीलता है और दूसरे व्यक्तियों एवं समुदायों के प्रति संवेदनशीलता ।" आचार्यश्री तुलसी : जीवन और दर्शन यह मुनि नथमलजी ( वर्तमान युवाचार्य महाप्रज्ञ ) का आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व को प्रस्तुति देने वाला दूसरा जीवनी ग्रन्थ है। लगभग ३१ वर्ष पूर्व लिखा गया यह जीवनी ग्रन्थ १० अध्यायों में विभक्त है । इस ग्रंथ में श्रद्धा एवं तर्क का समन्वय देखा जा सकता है । लेखक स्वयं प्रस्तुति में अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहते हैं- " मैं आचार्यश्री को केवल श्रद्धा की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवन-गाथा के पृष्ठ दस से अधिक नहीं होते । उनमें मेरी भावना का व्यायाम पूर्ण हो जाता । आचार्य श्री को मैं केवल तर्क की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवन-गाथा सुदीर्घ हो जाती, पर उसमें चैतन्य नहीं होता ।" इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें आचार्यश्री के व्यक्तिगत डायरियों से अनेक स्थल उद्धृत हैं stefरयों के उद्धरणों से अनेक नई जानकारियां प्राप्त होती हैं । धर्मचक्र का प्रवर्त्तन यह युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा लिखित तीसरा जीवनी ग्रन्थ है । यद्यपि इसमें 'आचार्य श्री तुलसी : जीवन और दर्शन' के काफी अंशों का समाहार कर लिया गया है, फिर भी ३१ वर्षों के बीच आचार्यश्री ने अपनी Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २५५ कर्तृत्वशक्ति से जो भी अवदान समाज एवं राष्ट्र को दिए हैं, उनका समावेश भी इसमें कर दिया गया है । साहित्यिक शैली में लिखा गया यह जीवनीग्रन्थ आचार्यश्री के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की कुछ रेखाओं को खींचने में समर्थ हो सका है, क्योंकि स्वयं युवाचार्यश्री इस बात को स्वीकारते हैं - "इतना लम्बा मुनि जीवन, इतना लम्बा आचार्यपद, इतना आध्यात्मिक विकास, इतना साहित्य-सृजन, इतने व्यक्तियों का निर्माण वस्तुतः ये सब अद्भुत हैं । आचार्यश्री की जीवन-गाथा आश्चर्यों की वर्णमाला से आलोकित एक महालेख है ।' ऐसे विराट् व्यक्तित्व को मात्र ३७१ पृष्ठों में बांधना संभव नहीं है पर वर्तमान में उनके जीवन पर प्रकाश डालने वाले जीवन-वृत्तों में यह सर्वोत्कृष्ट जीवनीग्रन्थ कहा जा सकता है । यह ग्रन्थ मुख्यतः ७ अध्यायों में विभक्त है। अध्याय अनेक शीर्षकों में विभक्त हैं। परिशिष्ट में उनके साहित्य की सूची तथा चातुर्मास एवं मर्यादा महोत्सव के स्थान एवं समय का भी उल्लेख है। - इसमें स्थान-स्थान पर आचार्यश्री के उद्धरणों का प्रयोग हुआ है, इस कारण यह वैचारिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध हो गया है। आचार्यश्री तुलसी "जैसा मैंने समझा" सीताशरण शर्मा द्वारा लिखी गयी यह जीवनी बहुत सरल एवं सहज भाषा में निबद्ध है । सम्पूर्ण ग्रन्थ छह भागों में विभक्त है ० जब बालक थे ० जव मुनि बने ० जब आचार्य बने ० जब व्यापक बने ० जनता की नजरों में ० नेताओं की नजरों में इस ग्रन्थ की एक विशेषता है कि इसका लेखक कोई जैन या उनका अनुयायी नहीं, अपितु सनातन धर्म में आस्था रखने वाला है । भाषा में साहित्यिकता नहीं है, पर श्रद्धा से पूरित हृदय से लिखी जाने के कारण इसमें स्वाभाविकता है तथा बच्चों को सम्बोधित करके लिखी जाने के कारण उसमें सरलता एवं सरसता का समावेश हो गया है । आचार्य तुलसी : जीवन दर्शन ___ मुनिश्री बुद्धमलजी आचार्य तुलसी के प्रारम्भिक छात्रों में प्रतिभाशाली छात्र रहे हैं । मुनिश्री द्वारा लिखी गयी यह जीवनी दस अध्यायों में विभक्त है। अध्याय भी अनेक उपशीर्षकों में बंटे हुए हैं। इसमें मुनिश्री ने बहुत सरस, सरल एवं प्राञ्जल भाषा में आचार्यश्री के व्यक्तित्व को प्रस्तुति दी ० ० ० ० ० Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण है। इसमें उनके कर्तृत्व के अनेक आयाम जैसे पदयात्राएं, साहित्य-सृजन, अणुव्रत आंदोलन, नया मोड़ आदि का भी विवेचन प्रस्तुत किया है। उनके जीवन के अनेक प्रेरक संस्मरणों को जोड़ने से यह जीवनीग्रंथ अत्यन्त उपयोगी बन गया है । ग्रन्थ के अन्त में तीन महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट भी जोड़े गए हैं। आज से ३१ वर्ष पूर्व लिखित यह पुस्तिका उनके जीवन-दर्शन को समझने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आचार्य तुलसी : जीवन-यात्रा पुस्तिका के रूप में प्रकाशित इस जीवनवृत्त में आचार्य तुलसी के महनीय व्यक्तित्व की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत की गयी है। इसमें महाश्रमणी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की कलम ने तो उनके सतरंगे व्यक्तित्व को उभारा ही है साथ ही अनेक रंगीन चित्रों को देने से उनका व्यक्तित्व अधिक मुखर हो उठा है । आहार, विहार, प्रवचन, स्वाध्याय, ध्यान, आसन आदि अनेक क्रियाओं से सम्बन्धित रंगीन चित्रों को देने से यह पुस्तक नयनाभिराम एवं हृदयग्राही बन पड़ी है। अपने दूसरे संस्करण (१९९२) में यह पुस्तक बिना चित्रों के केवल जीवनी रूप में छपी है। अमृत पुरुष आचार्य काल के ५० वर्ष सम्पन्न होने पर उनके अभिनंदन में विशालस्तर पर अमृत महोत्सव की आयोजना की गयी। समाज के गरल को पीने वाले इस अमृत पुरुष के जीवन के विविध आयामों की जीवन्त प्रस्तुति 'अमृत पुरुष' पुस्तक में हुई है। क्योंकि इस पुस्तक में शब्द कम, पर चित्र अधिक बोल रहे हैं। विशिष्ट व्यक्तियों से राष्ट्रीय एवं सामाजिक संदर्भ में चिन्तन-विमर्श करते हुए तथा विभिन्न मुद्राओं में कार्य करते हुए उनके चित्र दर्शक को बांध लेते हैं। साथ ही इसमें अन्य विचारकों के विचारों को भी उद्धृत किया है। ये विचार उनको सम्पूर्ण मानव जाति के महान उद्धारक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। निःसंदेह एक अपरिचित व्यक्ति भी इस पुस्तक में उनकी छवि को देखकर श्रद्धा से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकेगा। आचार्यश्री तुलसी: जीवन झांकी छगनलाल शास्त्री द्वारा लिखी गयी यह लघु पुस्तिका आचार्यश्री के अणुव्रत अनुशास्ता रूप को उजागर करने वाली है। इस आलेख में शास्त्रीजी ने उनकी पदयात्राओं का भी संक्षिप्त ब्यौरा प्रस्तुत किया है । एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व : आचार्यश्री तुलसी इस पुस्तिका की लेखिका साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी हैं। उन्होंने Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २५७ इस आलेख में संक्षेप में उनके कर्तृत्व को उजागर करने का प्रयत्न किया है । आचार्यकाल के पचास वर्ष पूरे होने पर 'अमृत महोत्सव राष्ट्रीय समिति द्वारा उनके जीवन को उजागर करने का यह लघु प्रयास किया गया । आचार्यश्री तुलसी : कलम के घेरे में इस बुकलेट की लेखिका साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी हैं। इसमें मुख्य रूप से आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व के महत्त्वपूर्ण पहलू - साहित्य-सृजन को उजागर किया गया है । यह पुस्तिका अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद् के ‘सत्संस्कार माला' का आठवां पुष्प है । युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी बच्चों को आचार्यश्री के जीवन से परिचित कराने के लिए मुनिश्री विजयकुमारजी द्वारा लिखी गयी यह जीवनी कामिक्स के रूप में है । ५० पृष्ठों में इसमें आचार्यश्री के सम्पूर्ण जीवन की मुख्य-मुख्य घटनाओं को रेखाचित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है । बालकों में सत्संस्कार भरने तथा एक महापुरुष के जीवन से परिचित कराने की दृष्टि से यह कृति बहुत उपयोगी है । इन स्वतंत्र जीवनी ग्रन्थों एवं लघु पुस्तिकाओं के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी उनके जीवन-दर्शन को जाना जा सकता है । मुनिश्री नवरत्नमलजी ने तेरापंथ में दीक्षित सभी साधु-साध्वियों के इतिहास को शासन - समुद्र ग्रंथमाला के रूप में निबद्ध कर दिया है, उसमें आचार्यश्री का जीवन चौदहवें भाग में है । मुनिश्री बुद्धमल्लजी ने 'तेरापंथ का इतिहास' पुस्तक में आचार्यश्री के जीवनवृत्त को प्रस्तुत किया है । साध्वी संघमित्राजी के 'जैन धर्म के प्रभावक आचार्य' पुस्तक से सरस शैली में उनके जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है । साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी की साहित्यिक कृति ' दस्तक शब्दों की ' पुस्तक में अनेक लेख आचार्यश्री के विविध आयामी व्यक्तित्व को साहित्यिक शैली में उजागर करते हैं । आचार्य तुलसी केवल भारत के लिए ही नहीं, विदेशी लोगों के लिए भी आकर्षण एवं श्रद्धा के केन्द्र हैं । अतः अंग्रेजी भाषा में मुनि बुद्धमलजी की Acharya Shri Tulsi, मुनि महेन्द्रकुमारजी की Light of India, सोहनलाल गांधी की Acharya Tulsi ( A peacemaker par Excellence), Acharya Tulsi ( Fifty years of Selfless Dedication) आदि जीवनी ग्रंथ भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण यात्रा-साहित्य पदयात्रा जैन मुनियों की जीवन-शैली का अनिवार्य तत्त्व है । यह केवल पद-घर्षण नहीं, अपितु उनकी साधना और तपस्या का जीवन्त रूप है। पदयात्रा से दृष्टि ही पैनी नहीं बनती, अनुभव का खजाना भी समृद्ध होता है तथा अनेक व्यक्तियों के सम्पर्क से मानव-स्वभाव के विश्लेषण में सहायता मिलती है। पदयात्रा के अनेक उद्देश्य हो सकते हैं । कुछ लोग केवल पर्यटन के लिए यात्रा करते हैं। कुछ लोग राजनैतिक एवं व्यावसायिक दृष्टि से यात्रा करते हैं तो कुछ कीर्तिमान स्थापित करने के लिए भी। जैन मुनियों की यात्रा संस्कृति को उज्जीवित करने वाली होती है, क्योंकि उनका एक मात्र उद्देश्य होता है-आत्म-साधना एवं सम्पूर्ण मानवता का कल्याण । __आचार्य तुलसी इस सदी के कीर्तिधर यायावर हैं, जिन्होंने भारत के लगभग सभी प्रांतों की पदयात्रा की है। गांव-गांव, नगर-नगर एवं प्रांतप्रांत में घूमते हुए उन्होंने मैत्री, समन्वय एवं सद्भाव की प्रतिष्ठा करने में अपूर्व योगदान दिया है तथा लाखों-लाखों लोगों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर उन्हें व्यसनमुक्त जीवन जीने की प्रेरणा दी है । उनके इस चरैवेतिचरैवेति जीवनक्रम को देखकर निम्न वेदमन्त्र की सहसा स्मृति हो उठती है -'पश्य सूर्यस्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन्' अर्थात् सूर्य चिरकाल से भ्रमण कर रहा है पर कभी थकता नहीं, चलता ही जाता है ।। आचार्य तुलसी अपनी पदयात्रा के मुख्य तीन उद्देश्य मानते हैं--- धर्मक्रांति, धर्म-समन्वय तथा मानवता का विकास। साध्वीप्रमुखाजी के शब्दों में आचार्य तुलसी की यात्रा स्वार्थ और परार्थ दोनों भूमिकाओं से ऊपर परमार्थ की यात्रा है । अपनी यात्रा का प्रयोजन बताते हुए एक प्रवचन में आचार्य तुलसी स्वयं कहते हैं.---'भाषा, रंग एवं भौगोलिकता में बंटी मानव जाति क्या सचमुच एक है, इस तथ्य की शोध करने के लिए मैं गांवगांव में घूम रहा हूं।' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि उनके मन में मानव जाति की एकता की कितनी तड़प है ? डा० निजामुद्दीन आचार्यश्री की यात्रा के बारे में अपनी विचाराभिव्यक्ति इन शब्दों में करते हैं --'आचार्यश्री की यात्रा धर्मयात्रा है, मैत्रीयात्रा है, प्रेमयात्रा है, समतायात्रा है और सेवायात्रा है।' दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य विद्यानन्दजी कहते हैं --'आचार्य तुलसी ने अल्पकाल में ही सम्पूर्ण भारत की पदयात्रा कर अध्यात्म से प्रेरित लोक कल्याणकारी भावनाओं का संकलन किया है और भारतीय जीवन में नैतिकशक्ति का संचार किया है।' Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २५९ महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी आचार्य तुलसी की लम्बी यात्राओं में सहयात्री रही हैं । उन्होंने यात्रा के संस्मरणों एवं अनुभवों को अपनी कलम की नोक से उतारने का प्रयत्न किया है। यात्रा में घटित घटनाओं एवं तथ्यों को इतिहास की भांति नीरस नहीं, अपितु कहानी की भांति सरस शैली में प्रस्तुत किया है । यात्रावृत्तों में उन्होंने भौगोलिक एवं सांस्कृतिक जानकारी तो दी ही है साथ ही आचार्य तुलसी एवं विशिष्ट व्यक्तियों के वक्तव्यों का सारांश भी जोड़ दिया है, जिससे कि यात्राग्रन्थ वैचारिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हो गए हैं । उनकी लेखनी इतनी सजीव है कि इन ग्रन्थों को पढ़ते समय पाठक स्वयं उन स्थानों की यात्रा करने लगता है । विद्वानों ने यात्रा - साहित्य में निम्न तत्त्वों का होना अनिवार्य माना - स्थानीयता, तथ्यपरकता, आत्मीयता, वैयक्तिकता, कल्पनाप्रियता और रोचकता । यात्रा साहित्य के ये सभी तत्त्व उनके साहित्य में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं । इन यात्रा ग्रन्थों का वैशिष्ट्य आचार्य तुलसी की निम्न पंक्तियों को पढ़कर समझा जा सकता है-" यात्रा ग्रन्थों के शब्दों का संयोजन, भाषा का माधुर्य एवं भावों की सहज सजावट जन-जन के लिए मनोहारी है । .....साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा के यात्रा - साहित्य ने हमारे धर्मसंघ की साहित्यिक गतिविधियों में एक नया पृष्ठ जोड़ा है । " इन ग्रन्थों में परिशिष्ट जोड़ने से ये ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हो गए । पदयात्रा के दौरान आए गांव, उनकी दूरी तथा उन गांवों में पड़ाव डालने की तारीख का उल्लेख भी इनमें है । दक्षिण के अंचल में यह महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी द्वारा लिखित प्रथम यात्राग्रन्थ है | इस बृहत्काय ग्रन्थ में मुख्यतः आचार्य तुलसी की दक्षिण प्रदेश की यात्रा का वर्णन है । यह ग्रन्थ लगभग १००० पृष्ठों को अपने भीतर समेटे हुए हैं । यात्रा का क्रम राजस्थान से प्रारम्भ होकर गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और मध्यप्रदेश से होता हुआ पुन: राजस्थान में सम्पन्न होता है । अतः लेखिका ने इन सब प्रांतों के आधार पर इस यात्रा ग्रन्थ को अनेक खण्डों में बांट दिया है। इसमें तीन महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट भी जुड़े हुए हैं । प्रथम परिशिष्ट में सम्पूर्ण दक्षिण यात्रा के दौरान समय-समय पर आचार्य तुलसी द्वारा आशुकवित्व के रूप में रचित दोहों का संकलन है । दूसरे परिशिष्ट में इस यात्रा में भारत सरकार के संस्थानों से मिले सहयोगात्मक राजकीय निर्देश-पत्र हैं। तीसरे परिशिष्ट में गांवों के नाम, Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण उन गांवों में पहुंचने की तारीख तथा कितने मील की पदयात्रा हुई, इसकी सूचनाएं हैं । पांव पांव चलने वाला सूरज पंजाब भारत का उर्वर क्षेत्र है । क्षेत्र की भांति यहां का मानस भी उर्वर है । पंजाब यात्रा के दौरान आचार्य तुलसी ने जो अध्यात्म और संयम की पौध लगाई, उसे सिंचन दिया, उस सबका आलेखन हुआ है - 'पांव पांव चलने वाला सूरज' में । यात्रापथ में घटित घटना-प्रसंगों को लेखिका ने जिस सूक्ष्मता के साथ उकेरा है, वह पठनीय है। यात्राग्रन्थ की शृंखला में यह दूसरा ग्रन्थ है । ५०४ पृष्ठों का यह ग्रन्थ पंजाबी भाइयों को सदैव एक महापुरुष द्वारा की गयी ऐतिहासिक यात्रा की स्मृति कराता रहेगा । जब महक उठी मरुधर माटी इस ग्रन्थ में मारवाड़-यात्रा का वर्णन है । लगभग ४०५ पृष्ठों की इस पुस्तक में अनेक सन्देश, वक्तव्य एवं संस्मरणों का समावेश है । साथ ही कुछ दुर्लभ चित्र देने से यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हो गया है । इसमें कुल ३३७ दिनों की यात्रा का विवरण है । सम्पूर्ण पुस्तक अनेक छोटे-छोटे आकर्षक शीर्षकों में बंटी हुई है । बहता पानी निरमला इसमें आचार्य तुलसी की एक वर्ष की यात्रा का जीवन्त चित्र उकेरा गया है । प्रस्तुत यात्राग्रन्थ में मुख्यतः गुजरात, मरुधर एवं थोड़ी-सी थली यात्रा का वर्णन है । ३८१ पृष्ठों की यह पुस्तक राजस्थान और गुजरात इन दो भागों में बंटी है । जैसा कि इस कृति का नाम है 'बहता पानी निरमला' वैसा ही इसमें यात्रा का प्रवाहपूर्ण वर्णन गुंफित है । कहीं भी नीरसता बोझिलता या उबाऊपन दृग्गोचर नहीं होता । परस पांव मुसकाई घाटी मेवाड़ की पावनधरा पर आचार्य तुलसी द्वारा हुए चरणस्पर्श की सजीव प्रस्तुति है 'परस पांव मुसकाई घाटी' । इस ग्रन्थ का ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अतिरिक्त महत्त्व है, क्योंकि इसमें अमृत महोत्सव के दो चरणों का वर्णन है । आचार्यकाल के पचास साल पूर्ण होने के अवसर पर अमृत कलश पदयात्रा की आयोजना हुई, जिसमें लाखों लोगों ने संकल्प-पत्र ' १. अमृत संकल्पपत्र में पांच नियम थे— (१) मद्य-निषेध (२) दहेज उन्मूलन (४) अस्पृश्यता निवारण (५) भावात्मक एकता । (३) मिलावट - निरोध Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २६१ को भरकर अपनी श्रद्धा आचार्यश्री के चरणों में अर्पित की । ४८५ पृष्ठों के इस यात्रावृत्त में पाठक को मेवाड़ी जनता के उत्साह, आस्था एवं संकल्प के साथ एक महापुरुष की तेजस्विता, पुरुषार्थ एवं प्रभावकता का सशक्त एवं जीवन्त दिग्दर्शन भी मिलेगा । अमरित बरसा अरावली में आचार्यकाल के ५० वर्ष पूर्ण होने पर समाज ने आयोजना की । चूंकि आचार्य तुलसी मेवाड़ की पट्टासीन हुए थे, अतः मेवाड़ी लोगों को सहज ही यह मनाने का अवसर मिल गया । अमृत महोत्सव के इस चरणों में बांटा गया था, जो मेवाड़ के विशिष्ट क्षेत्रों में समापन उत्सव 'लाडनूं' में मनाया गया । इस यात्राग्रन्थ की उसी मेवाड़ - यात्रा का सजीव चित्र खचित हुआ है । 'जब महक उठी मरुधर माटी' का ही पूरक यात्रा ग्रन्थ कहा जा सकता है । ३८१ पृष्ठों में निबद्ध यह ग्रन्थ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक आदि अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण सामग्री पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता 1 अमृत महोत्सव की पुण्यधरा गंगापुर में महत्त्वपूर्ण आयोजन आयोजन को चार मनाया गया तथा 3 महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी ने लगभग ३००० से अधिक पृष्ठों में यात्रावर्णन लिखकर एक कीर्तिमान् स्थापित किया है । उनसे पूर्व भी कुछ लेखकों ने आचार्यश्री की अमर यात्राओं के इतिहास को सुरक्षित रखने का प्रयास किया है । उनमें प्रमुख लेखक हैं-मुनि मधुकरजी, मुनि श्रीचंदजी 'कमल', मुनि सुखलालजी, मुनि सागरमलजी मुनि गुलाबचंदजी 'निर्मोही', मुनि किशनलालजी, मुनि धर्मरुचिजी, साध्वी कानकुमारीजी आदि । मुनि श्रीचंदजी 'कमल' एवं मुनि सुखलालजी द्वारा लिखित यात्राएं प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण हम नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं पर शेष लेखकों की यात्राएं जैनभारती के 'आंखों देखा: कानों सुना' तथा 'मेवाड़ पाद विहार का प्रथम सप्ताह, द्वितीय सप्ताह आदि शीर्षकों में पढ़ी जा सकती हैं, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाई हैं । जनपद विहार आचार्य तुलसी की प्रथम दिल्ली यात्रा इतनी प्रभावी एवं सफल रही कि उसने अग्रिम यात्राओं के लिए सशक्त भूमिका तैयार कर दी । साथ ही अणुव्रत आंदोलन को भी इतनी व्यापक प्रसिद्धि मिली कि उसकी गूंज विदेशों तक पहुंच गई । 'जनपद विहार, भाग-२' में आचार्य तुलसी की प्रथम दिल्ली - यात्रा का इतिहास सुरक्षित है। मात्र दो महीनों के दिल्ली - प्रवास के विविध कार्यक्रम, अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से हुई भेंट-वार्ता तथा उनके में आचार्य तुलसी एक दृष्टि से इसे Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण वक्तव्यों का सुन्दर समाकलन प्रस्तुत पुस्तक में हुआ है। जन-जन के बीच, आचार्य तुलसी भाग १.२ ___ मुनि सुखलालजी द्वारा लिखित इन दो लघु यात्रावृत्तों में राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा बंगाल (कलकत्ता) की यात्रा का वर्णन है। लगभग ३६ वर्ष पूर्व प्रकाशित ये दोनों पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक तथ्यों एवं संस्मरणों को अपने भीतर समेटे हुए हैं। यह यात्रा अणुव्रत आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने में काफी कामयाब रही, ऐसा इन ग्रन्थों से स्पष्ट है। बढ़ते चरण मुनि श्रीचंदजी 'कमल' को गुरुचरणों में रहने का अलभ्य अवसर मिलता रहा है । 'बढ़ते चरण' ग्रन्थ में उन्होंने आचार्य तुलसी की ४० दिनों की यात्रा का वर्णन प्रस्तुत किया है । सन् १९५९ में बंगाल और बिहार की पदयात्रा के दौरान घटी घटनाओं, अनुभवों एवं संस्मरणों को इस पुस्तक में सरल एवं सरस भाषा में प्रस्तुत किया है। पदचिह्न मुनि श्रीचंद 'कमल' द्वारा लिखित इस पुस्तक में १९६२,६३ की यात्रा का वर्णन है। यह यात्रा देशनोक से प्रारम्भ होकर राजनगर में सम्पन्न होती है । लगभग ४०० पृष्ठों की इस पुस्तक में मुनि श्रीचंदजी ने अनेक कार्यक्रमों, घटनाओं एवं क्रांतिकारी प्रवचनों का भी समावेश किया है। पुस्तक के नाम की सार्थकता इस बात से है कि आचार्यश्री के 'पदचिह्न' न केवल इस धरती पर अपितु यात्रा के दौरान लोगों के दिलों में भी अंकित हुए हैं। जोगी तो रमता भला मुनि सुखलालजी द्वारा लिखित यह यात्रावृत्त सन् १९८१ से १९८६ तक के यात्रापथ की घटनाओं को अपने भीतर समेटे हुए है। आचार्यश्री के आस-पास प्रतिदिन अनेकों संस्मरण घटित हो जाते हैं पर इस दृष्टि से मुनिश्री ने संभवतः इतना ध्यान नहीं दिया। यदि इस ग्रन्थ में उनके संस्मरणों की पुट रहती तो यह ग्रन्थ और भी अधिक रोचक एवं प्रेरक रहता । बीच-बीच में कुछ महत्त्वपूर्ण भेटवार्ताएं तथा विशेष कार्यक्रमों की रिपोर्ट भी संकलित है। लेखक ने इस ग्रन्थ को यात्रावृत्त न बनाकर विचारप्रधान अधिक लिखा है, जैसा कि स्वकथ्य में वे स्वयं स्वीकारते हैं। आचार्य तुलसी के विचारों की सरस प्रस्तुति लेखक ने की है, उसमें कोई सन्देह नहीं है। कहा जा सकता है कि सभी यात्रा-लेखकों ने यात्रा-काल में आचार्य तुलसी के साहस, आत्मविश्वास, मनोबल एवं प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुकूल बना लेने की क्षमता एवं धैर्य का सजीव एवं यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २६३ आचार्य तुलसी पदयात्रा-मान-चित्रावली धर्मचंदजी संचेती (सरदारशहर) द्वारा अत्यन्त श्रमपूर्वक आचार्यश्री की पदयात्रा को मानचित्र (नक्शा) के द्वारा दरसाया गया है। इसमें सन् १९८५ तक की हुई यात्राओं का संकेत है। यद्यपि इस ग्रन्थ को यात्रावृत्त नहीं कहा जा सकता पर आचार्यश्री के यात्रापथ को दरसाने वाला यह ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से संग्रहणीय एवं उपयोगी है। संस्मरण-साहित्य महापुरुष के एक दिन का महत्त्व सामान्य व्यक्ति के सैकड़ों दशकों से भी अधिक होता है। उनके आसपास इतनी प्रेरणाएं बिखरी रहती हैं कि उनका प्रत्येक आचरण, प्रत्येक शब्द एक संस्मरण का रूप धारण कर लेता है। साहित्य की सबसे रोचक एवं सरस विधा संस्मरण है। यह जीवन्त प्रेरणा देती है । अत: हर वर्ग का पाठक इससे लाभान्वित होता है । वैसे तो हर व्यक्ति के जीवन में संस्मरण घटित होते हैं, पर महापुरुषों का जीवन तो संस्मरणों का अखूट खजाना ही होता है। आचार्य तुलसी के ऊर्जस्वल जीवन के प्रतिदिन के संस्मरणों का आकलन यदि सलक्ष्य किया जाता तो उनकी संख्या हजारों में होती । क्योंकि उनकी पकड़, उनकी प्रेरणा, उनके शब्द तथा घटना को विधायक भाव से देखने की विलक्षण दृष्टि-ये सब ऐसे तत्त्व हैं, जो प्रतिदिन अनेक संस्मरणों को उत्पन्न करते रहते हैं। आचार्य तुलसी के कुछ संस्मरणों का संकलन महाश्रमण मुनि मुदित कुमारजी, मुनि मधुकरजी, मुनि श्रीचंदजी, मुनि गुलावचंदजी तथा साध्वी कल्पलताजी आदि ने किया है । मुनि मधुकरजी की अभी तक कोई स्वतंत्र पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है पर जैन भारती में 'मेवाड़ यात्रा के मधुर संस्मरण' एवं तेरापंथ टाइम्स में 'कुछ देखा : कुछ सुना' नाम से वे सैकड़ों संस्मरणों का संकलन कर चुके हैं । इसके अतिरिक्त यात्रा-ग्रन्थों एवं जीवनवृत्तों में भी अनेक संस्मरण संकलित हैं । प्रकाशित संस्मरणों की अपेक्षा अभी अप्रकाशित संस्मरणों की संख्या अधिक है, इतना होने पर भी यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि यदि सलक्ष्य जागरूकता के साथ इस महापुरुष के जीवन से जुड़े संस्मरणों को कलम की नोक से उतारा जाता तो भावी पीढ़ी को एक नयी रोशनी मिलती । संस्मरण साहित्य के अन्तर्गत निम्न पुस्तकें रखी जा सकती हैं १. रश्मियां-- मुनि श्रीचंद 'कमल' २. बोलते चित्र-मुनि गुलाबचंद ३. आचार्य श्री तुलसी : अपनी ही छाया में --मुनि सुखलाल Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ४. संस्मरणों का वातायन - साध्वी कल्पलता । ५. आस्था के चमत्कार ।' अभिनन्दन ग्रंथ एवं पत्र-पत्रिका विशेषांक आचार्यश्री के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को उजागर करने वाले साहित्य का चौथा स्रोत अभिनंदन ग्रंथ, विशिष्ट सामयिक स्मारिकाएं तथा पत्रपत्रिकाओं के विशेषांक हैं । किसी एक व्यक्ति पर उसके जीवन काल में ही समाज ने इतने विशेषांक निकाले हों या खुले शब्दों में उसके कर्तृत्व का इतना मूल्यांकन किया हो, यह इतिहास का दुर्लभ दस्तावेज है । अब तक उनके अभिनंदन में जैन भारती, अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, युवादृष्टि, तुलसी प्रज्ञा, तेरापंथ टाइम्स तथा विज्ञप्ति के सैकड़ों विशेषांक निकल चुके हैं। उन सबका ब्यौरा प्रस्तुत करना असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य है । अनेक राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय पत्र-पत्रिकाओं ने भी आचार्य तुलसी को विशेषांक के रूप में अपनी श्रद्धा अर्पित की है । यहां गद्य रूप में प्रकाशित मुख्य अभिनंदन ग्रंथों एवं कुछ मुख्य स्मारिकाओं का परिचय दिया जा रहा है आचार्यश्री तुलसी अभिनंदन ग्रंथ आचार्यकाल के २५ वर्ष पूर्ण होने पर धवल समारोह के अवसर पर एक विशालकाय अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया गया । यह अभिनंदन ग्रंथ चार अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय में आचार्यश्री के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर अनेक मूर्धन्य विचारकों एवं साधु-साध्वियों के विचारों का समाहार है । इसमें आचार्यश्री के ऊर्जस्वल एवं तेजस्वी व्यक्तित्व की परिक्रमा अनेक लेखों, कविताओं, गीतों, संस्मरणों एवं अनुभूतियों के माध्यम हुई है । संक्षिप्त रूप है । अनेक विद्वानों, दूसरा अध्याय 'जीवनवृत्त' नाम से है, जो मुनिश्री बुद्धमलजी द्वारा लिखित 'आचार्य श्री तुलसी : जीवन दर्शन' पुस्तक का ही तृतीय 'अणुव्रत' अध्याय में अणुव्रत आंदोलन के बारे में राजनेताओं एवं साहित्यकारों के विचार एवं प्रतिक्रियाएं संकलित हैं । चतुर्थ 'दर्शन और परंपरा' खंड में दार्शनिक और जैन परम्परा के इतिहास से संबंधित अनेक शोधपूर्ण निबंधों का समावेश है । यह अभिनंदन ग्रंथ उपराष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्लि राधाकृष्णन् द्वारा १ मार्च १९६२ को गंगाशहर की पुण्यधरा पर आचार्यश्री को समर्पित किया गया । १. इस पुस्तक को पूर्ण रूप से संस्मरण - साहित्य के अन्तर्गत नहीं रख सकते पर आचार्य तुलसी के नाम-स्मरण से होने वाली चामत्कारिक घटनाओं का उल्लेख है, अत: इसे संस्मरण साहित्य के अन्तर्गत रखा है । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन २६५ __अभिनंदन ग्रंथों की परंपरा में यह ग्रंथ अपना विशिष्ट स्थान रखता है। क्योंकि इतना जीवन्त एवं मुखर कर्तृत्व बहुत कम अभिनंदन ग्रंथों में देखने को मिलता है। आचार्यश्री तुलसी षष्टि पूर्ति अभिनंदन पत्रिका आचार्य तुलसी के गौरवशाली जीवन के ६० वें बसन्त के प्रवेश पर देश ने षष्टिपूर्ति अभिनंदन का कार्यक्रम बड़े उल्लास के साथ मनाया। इस अवसर पर एक पुस्तकाकार स्मारिका का प्रकाशन किया गया, जिसमें देश के मूर्धन्य साहित्यकार, राजनेता तथा धर्मगुरुओं के लेखों का संकलन है, जो उन्होंने आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व को लक्ष्य करके लिखे हैं। इस पत्रिका के संपादक मण्डल में भी देश के मूर्धन्य साहित्यकारों का नाम है । जैसे -... हरिवंशराय बच्चन, डॉ. विजयेन्द्र स्नातक, राजेन्द्र अवस्थी, अक्षयकुमार जैन, प्रभाकर माचवे, जैनेन्द्रकुमारजी, श्री रतनलाल जोशी तथा डॉ० शिवमंगलसिंह 'सुमन' आदि । __ यह अभिनंदन ग्रंथ चार भागों में विभक्त है। प्रथम में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि अनेक गणमान्य व्यक्तियों के शुभकामना संदेश हैं। दूसरे में विभिन्न विद्वानों ने अपनी लेखनी से उनके व्यक्तित्व एवं विचारों को प्रस्तुति दी है। तीसरा खंड 'प्रश्न हमारे : उत्तर आचार्यश्री के' नाम से है । इसमें अनेक विशिष्ट व्यक्तियों से हई वार्ताओं का संकलन है तथा चौथे परिशिष्ट 'भारतदर्शन' में उनकी यात्राओं का सजीव चित्रण है, जो साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी द्वारा लिखा गया है। ___ सम्पूर्ण पत्रिका आचार्यश्री के व्यापक एवं विराट व्यक्तित्व को प्रस्तुति देती है। साथ ही उनके यशस्वी कर्तृत्व की रेखाएं भी इसमें खचित इस ग्रंथ का समर्पण तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम फखरुद्दीन अली अहमद के द्वारा नई दिल्ली, अणुव्रत विहार में किया गया । अणुविभा यह अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं अहिंसा की प्रतिष्ठा करने के उद्देश्य से निकाली गयी महत्त्वपूर्ण स्मारिका है। इसमें आचार्य तुलसी के अहिंसक व्यक्तित्व, अहिंसक कार्यक्रम एवं उनके अहिंसा सम्बन्धी विचारों की प्रस्तुति है । साथ ही उनके सान्निध्य में हुए दो अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा सम्मेलनों का संक्षिप्त विवरण तथा अन्य विद्वानों के लेखों का समाहार भी है। अनेक ऐतिहासिक चित्रों से युक्त २०० पृष्ठों की यह स्मारिका अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों को अपने भीतर समेटे हुए है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अमृत महोत्सव आचार्य तुलसी की धर्मशासना के ५० वर्ष पूर्ण होने पर समाज द्वारा विशाल स्तर पर 'अमृत महोत्सव' की आयोजना की गयी। इस संदर्भ में हुए विविध रचनात्मक कार्यक्रमों का लेखा-जोखा तथा आचार्य तुलसी के विविध विषयों पर कान्त विचारों की प्रस्तुति इस पत्रिका में है। यह केवल पत्रिका नहीं, बल्कि इसे रचनात्मक एवं संग्रहणीय ग्रंथ कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। इसकी संयोजना में भाई महेन्द्र कर्णावट का अथक श्रम बोल रहा है। उपसंहार अनेक ग्रंथ लिखे जाने के बावजूद भी ऐसा लगता है कि आचार्य तुलसी के व्यक्तित्व के अनेक पहल ऐसे हैं, जो अभी तक अनछुए हैं । आचार्य तुलसी को जानने और समझने की ललक उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है । ___आचार्य तुलसी का हर क्षण एक अलौकिक नवीनता, पवित्रता और कल्याणवाहिता से अनुप्राणित है, इसीलिए उनकी रमणीयता हर क्षण प्रवर्धमान है । उनकी भावधारा में शंख सी धवलिमा, मधु सी मधुरिमा और आदित्य सी अरुणिमा एक साथ दर्शनीय है। उनके चिन्तन और विचारों में अमाप्य ऊंचाई और अतल गहराई है । भीष्म के व्यक्तित्व को प्रतिध्वनित करने वाली दिनकर की निम्न पंक्तियों को कुछ अंतर के साथ आचार्य तुलसी के लिए उद्धृत किया जा सकता है.---- ब्रह्मचर्य के व्रती, धर्म के महास्तंभ बल के आगार । परम विरागी पुरुष, जिसे गाकर भी गा न सके' संसार ॥ १. पाकर भी पा न सका (कुरुक्षेत्र Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य तुलसी के जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियां २० अक्टूबर १९१४ : जन्म, लाडनूं (राज.) ५ दिसम्बर १९२५ : दीक्षा, लाडनूं (राज.) २१ अगस्त १९३६ : युवाचार्यपद, गंगापुर (राज.) २७ अगस्त १९३६ : आचार्यपद, गंगापुर (राज.) २ मार्च १९४९ : अणुव्रत-प्रवर्तन, सरदारशहर (राज.) १२ अप्रैल १९४९ : अणुव्रत यात्रा-प्रारंभ, रतनगढ़ (राज.) ८ जुलाई १९६० : तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह, केलवा (राज.) १८ सितम्बर १९६१ : धवल-समारोह, बीकानेर (राज.) ८ फरवरी १९६५ : मर्यादा महोत्सव शताब्दी, बालोतरा (राज.) ४ फरवरी १९७१ : युगप्रधान आचार्य के रूप में सम्मान, बीदासर (राज.) १९७२ : प्रेक्षाध्यान का शुभारंभ, जयपुर (राज.) १३ जनवरी १९७२ : साध्वीप्रमुखा मनोनयन, गंगाशहर (राज.) १६ नवम्बर १९७४ : षष्टिपूर्ति समारोह, दिल्ली १८ नवम्बर १९७४ : महावीर पचीसौवीं निर्वाण शताब्दी, दिल्ली २३ दिसम्बर १९७५ : पचासवां दीक्षा-कल्याणक, लाडनूं (राज.) २० फरवरी १९७७ : कालू जन्म शताब्दी, छापर (राज.) ४ फरवरी १९७९ : उत्तराधिकारी का मनोनयन, राजलदेसर (राज.) ९ नवम्बर १९८० : जैन शासन में संन्यास की अभिनव श्रेणी-समण-दीक्षा, ११ फरवरी १९८१ : जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में अनुशासन वर्ष का प्रारम्भ, सरदारशहर (राज.) २६ अगस्त १९८१ : जयाचार्य निर्वाण शताब्दी समारोह, दिल्ली २२ सितम्बर १९८५ : अमृत महोत्सव १४ फरवरी १९८६ : भारत ज्योति अलंकरण, राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह द्वारा राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर का सर्वोच्च अलंकरण २१ फरवरी १९८९ से ११ जनवरी १९९० योगक्षेमवर्ष, लाडनूं (राज.) १९९२-९३ : भिक्षु चेतना वर्ष १४ जून १९९३ : वाक्पति अलंकरण ३१ अक्टूबर १९९३ : इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार १९९३-९४ : अणुव्रत चेतना वर्ष १८ फरवरी १९९४ : आचार्यपद का विसर्जन, नए आचार्य की नियुक्ति Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-वर्गीकरण Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म - मुखड़ा १६ ११९ २३८ कुहासे कुहासे शीर्षक पुस्तक अध्यात्म की एक किरण ही काफी है कुहासे जो दिल खोजूं आपना प्रस्थान के नए बिन्दु मुखड़ा अतीत की स्मृति और संवेदन मुखड़ा हम यंत्र हैं या स्वतंत्र मुखड़ा अध्यात्म सबको इप्ट होता है मनहंसा आत्मदर्शन का आईना मनहंसा जीवन की दिशा में बदलाव सत्य की खोज आगे यह सत्य है या वह सत्य है कौन सा देश है व्यक्ति का अपना देश जब जागे ऐसी प्यास जो पानी से न बुझे जब जागे अध्यात्म की यात्रा : प्रासंगिक उपलब्धियां क्या धर्म अध्यात्म क्या है ? प्रवचन ४ संपिक्खए अप्पगमप्पएणं' मुक्ति : इसी आत्मनिरीक्षण सुख अपने भीतर है समता राम मन में, काम सामने समता प्रभु बनकर प्रभु की पूजा समता कल्याण का रास्ता समता रूपान्तरण का उपाय समता सोना भी मिट्टी है समता संवाद आत्मा के साथ समता शिखर से तलहटी की ओर वैसाखियां घर में प्रवेश करने के द्वार वैसाखियां १. १५-३-६६ हनुमानगढ़ । २. १९-५-७६ छापर । १३० १४८ घर २८२ २१७ २२५ २२८ २३८ २४३ २४८ १५७ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण वैसाखियां वैसाखियां राज राज/वि. वीथी राज/वि. वीथी राज/वि. वीथी १६३ १७०/६१ u १७८ m G प्रज्ञापर्व av s X १५३ निर्माण सम्यग् दृष्टिकोण का उपाय की खोज वर्तमान में जीना अध्यात्म साधना की प्रतिष्ठा आत्माभिमुखता जीवन का परमार्थ वाहरी दौड़ शांति प्रदान नहीं कर सकती दुनिया एक सराय है। अन्तर् निर्माण सच्चे सुख का अनुभव स्वयं के अस्तित्व को पहचानें आत्मगवेषणा का महत्त्व आत्मदर्शन की प्रेरणा आत्मविकास और उसका मार्ग भीड़ में भी अकेला अध्यात्म की लौ जलाइए जीवन विकास और युगीन परिस्थितियां सबसे बड़ा चमत्कार दुःख का हेतु : ममत्व अपने आपकी सेवा असली आजादी स्वयं की पहचान अस्तित्व का प्रश्न निष्काम कर्म और अध्यात्मवाद वास्तविक सौन्दर्य की खोज अध्यात्म पथ और नागरिक जीवन २१९ १२६ मंजिल १ संभल संभल प्रवचन ८ नवनिर्माण १५८ शांति के शांति के खोए १४३ शांति के प्रवचन ९ १९७ सोचो !३ २५६ प्रवचन ९ प्रवचन ९ १५२ प्रवचन ९ मंजिल २ राज/वि. दीर्घा १५३/१०२ राज/वि. दीर्घा १४३/१०८ मंजिल २ ८५ प्रवचन ११ १८७ ७८ १५४ २२ १. २२-११-७६ चूरू । '२. ८-३-५६ अजमेर । ३. १९-३-५६ बोरावड़ । ४. १२-८-७८ गंगाशहर । ५. २९-१२-५६ दिल्ली। ६. १९-९-५२ रोटरी क्लब जोधपुर ७. २३-७-५३ जोधपुर । ८. २-८-५३ जोधपुर । ९. १६-६-७८ जोरावरपुरा। १०. १९-४-५३ गंगाशहर । ११. ३०-६-७६ राजलदेसर । १२. ६-१०-७६ सरदारशहर । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X अध्यात्म २५६ १२२ MOWor m २०१ १८३ १८६ ० २४ १७७ आत्मदर्शन की भूमिका प्रवचन ९ जो एग जाणइ सो सव्वं जाणइ सोचो ! १ विजेता कौन ?' मंजिल सुख-प्राप्ति का मार्ग : अध्यात्म सोचो ! ३ जोड़ते चलो और कोमल रहो' सोचो ! ३ जीवन निर्माण के मूत्र सोचो ! ३ सुख-दुःख अपना अपना प्रवचन १० आध्यात्मिक एवं सामाजिक चेतना प्रवचन १० सच्ची शांति का साधन संभल बहिर्मुखी चेतना : अशांति, अन्तर्मुखी चेतना : शांति प्रेक्षा साम्यवाद और अध्यात्म अणु गति पर्यटकों का आकर्षण : अध्यात्म अणु गति अध्यात्म की खोज आगे अध्यात्म और व्यवहार अणु गति कौन करता है कल का भरोसा ? मनहंसा स्वयं की उपासना आगे कल्पना का महल सूरज अध्यात्म की उपासना सूरज आपद्धर्म कैसा?१४ सूरज अध्यात्म का विकास हो सूरज आत्ममंथन'६ सूरज सच्ची मानवता संभल ११ ~ ० ० ११० ११५ ११७ १३१ १. १९-९-५३ जोधपुर। ८. १-४-७९ दिल्ली। २. ४-९-७७ लाडनूं । ९. १४-२-६६ भादरा। ३. १७-५-७७ छापर। १०. २३-२-६६ नोहर । ४. २-२-७८ सुजानगढ़ । ११. २६-२-६६ सिरसा। ५. २९-१-७८ सुजानगढ़ । १२. १८-२-५५ खण्डाला। ६. १५-५-७८ लाडन, अध्यापकों के १३. ९-१-५५ मुलुंद । अध्यात्मयोग एवं नैतिक शिक्षा १४. ११-५-५५ जलगांव । प्रशिक्षण शिविर। १५. १५-५-५५ जलगांव । ७. ३१-३-७९ दिल्ली । १६. १६-५-५५ जलगांव। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैभव संपदा की भूलभुलैया' आत्मार्थी के लिए प्रेरणा' जीवन का लक्ष्य आत्मजागरण* जीवन के श्रेयस् अध्यात्म पथ पर आएं बुराइयों के साथ युद्ध हो आत्मजयी कौन ?' आत्मरक्षा के तीन प्रकार आंतरिक सौन्दर्य का दर्शन " शांति का पथ " जीवन विकास के चार साधन " हृदय परिवर्तन" दासता से मुक्ति शाश्वत सुख का आधार अध्यात्म " अध्यात्मवाद की प्रतिष्ठा अनिच्छु बनो" प्रतिस्रोत की ओर" कल्याण : अपना भी, औरों का भी " आत्मदर्शन ही सर्वोत्कृष्ट दर्शन है" आनंद के ऊर्जाकण १. १९-५-५५ गुजर पीपला । २. २९-५-५५ बड़ाला । ३. ६-६-५५ डांगुरना । ४. ८-६-५५ दोंडाईचा । ५. २५-८-५५ उज्जैन । ६. २२-६-५४ माटुंगा (बम्बई ) । ७. २७-७-५४ बम्बई । ८. २४-७-६५ दिल्ली । ९. २७-५-७८ लाडनूं । १०. ११-४-७७ लाडनूं । आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सूरज सूरज सूरज सूरज सूरज भोर भोर बूंद बूंद २ सोचो ! ३ मंजिल १ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ५ प्रवचन ९ प्रवचन ५ प्रवचन ११ प्रवचन ४ प्रवचन ११ प्रवचन ९ प्रवचन ४ समता / उद्बो ११. १८-११-५३ जोधपुर । १२. ३०-५-५४ सूरत । १३. २७-११-७७ लाडनूंं । १४. १५-९-५३ जोधपुर । १५. १३-११-७७ लाडनूं । १६. ४-५-५४ माण्डल । १७. २७-७-७७ लाडनूं । १८. १२-१२-५३ ब्यावर । १९. २४-३-५३ बीकानेर । २०. ७-१०-७७ लाडनूं । १२३ १३७ १४१ १४२ १९९ ४४ ८५ ५९ १९४ १३४ ७८ २३६ ४८ २४७ २९ २०८ २० १०० ५३ १८६ १३८/१४० Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म आत्मा का स्वरूप' मृत्यु का दर्शन जागरण विवेक का वैराग्य का मूल्य ૨ द्वन्द्वमुक्ति जीने की कला प्राप्तव्य क्या है ? मानव जीवन की सार्थकता संस्कृति और युग * प्रमाद से बचो वे आज कहां ?" सच्चे मानव बनें नियम को समझें आज के युग की समस्याएं मूल्यों की चर्चा व्यष्टि और समष्टि' अनुभव के दर्पण में आत्मदर्शन साम्यवाद और साम्ययोग आध्यात्मिकता एवं राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण जागृति कैसे और क्यों ? ९ आस्था के अंकुर चेतना का ऊर्ध्वारोहण जीवन विकास और आज का युग" १. ३०-९-७७ लाडनूं । २. ५-१-७९ डूंगरगढ़ | ३. १९-६-७८ नोखामंडी | ४. १९-९-५३ जोधपुर । सोचो ! मुखड़ा क्या धर्म प्रवचन १० समता/ उद्बो समता/ उद्यो खोए सोचो ! ३ प्रवचन ९ खोए शांति के भोर खोए आतुर मनहंसा बूंद बूंद १ समता / उद्बो समता / उद्बो अणु संदर्भ राज बागे समता / उद्बो समता / उद्बो शांति के '9 १६६ ६७ १२१ १० १२४/१२५ १३२/१३३ ११३ २७५ २५७ १५९ २५५ ६.२ १२८ ६९ २७ ५७/५५ १०१/१८३ ६. ८-७-५४ मांडवी बंदर (बम्बई ) । ७. पार्लियामेंट सदस्यों के बीच | ८. १७-३-६५ समदड़ी । ९. २७-४-६६ गजसिंहपुर । ५. २७-११-५३ छितर पैलेस, जोधपुर । १०२ -८-५३ जोधपुर । १०८ ११= २१६ १६५/१६७ १४२/१८४ १४० Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव के स्वर Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक अमृत संदेश' समीक्षा अतीत की सपना भविष्य का सफर आधी शताब्दी का मेरे धर्मशासन के पचास वर्ष अनुभव के स्वर क्या खोया : क्या पाया धर्मक्रान्ति की पृष्ठभूमि कुछ अपनी कुछ औरों की धर्मसंघ के नाम खुला आह्वान' दायित्व का विकास मेरी आकांक्षा : मानवता की सेवा उद्देश्यपूर्ण जीवन : कुछ पड़ाव चाबी की खोज जरूरी सृजन के द्वार पर दस्तक भारतीय जीवन की मौलिक विशेषताएं हम जागरूक रहें* अकेले में आनन्द नहीं सामाजिक बुराइयों का बहिष्कार ' आगे बढ़ने का समय मैं क्यों घूम रहा हूं ? मैं क्यों घूम रहा हूं ? मेरी यात्रा मेरी यात्रा : जिज्ञासा और समाधान १. अमृत महोत्सव पर प्रदत्त संदेश । २. भेंटवार्ता पत्रकार से । ३. बगड़ी मर्यादा महोत्सव सन् १९९१ एक विशेष उद्बोधन । पुस्तक अमृत / सफर सफर सफर सफर अमृत / सफर अमृत / सफर राज/ वि. वीथी जीवन मेरा धर्म मेरा धर्म मेरा धर्म मेरा धर्म सफर जीवन भोर बूंद बूंद २ मंजिल १ प्रज्ञापर्व अतीत का धर्म : एक अतीत का धर्म : एक ४. ६-९-५४ बम्बई । ५. ६-९-६५ दिल्ली । ६. १२-८-७६ सरदारशहर । पृष्ठ १/३६ ६३ १ १४/४९ ९/४४ १० २३७/१७३ ७७ १५० १६६ १७५ १०५ ३० १५७ १२९ १५८ ५ ४० १२५ ५९ १२८ ५३ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १३४ - २११ १८२ १६३ खोजने वालों को उजालों की कमी नहीं अमृत जहां उत्तराधिकार लिया नहीं, दिया जाता है। बीती ताहि मेरी कृति : मेरा आत्मतोष' मेरा धर्म संस्कार, जो मेरी मां ने दिए बीती ताहि एक विश्लेषण वि. वीथी जीवन-निर्माण के सूत्र प्रवचन १० इतिहास का एक पृष्ठ वि. दीर्धा प्रश्न है मूल्यांकन का' दीया समस्याओं का समाधान प्रवचन ९ जीवन के सुनहले दिन सूरज राजधानी में पहला भाषण राजधानी जीवन को ऊंचा उठाओ१ प्रवचन ९ विश्वशांति का मूलमंत्र मेरा धर्म हमारी नीति प्रवचन ९ हमारा सिद्धान्त" प्रवचन ११ एक मिलन प्रसंग राज/वि. वीथी साहित्य के क्षेत्र में समन्वय अणु: गति असली भारत में भ्रमण अमृत/सफर आत्मविकास और लोकजागरण ५ भोर जन्मदिन कैसे मनाएं ? १६ प्रवचन ५ २४९ १२९/१०० ११४/१४८ ३२ १. उत्तराधिकारी का मनोनयन । ८. १८-६-५३ । २. उत्तराधिकारी बनाने के बाद लिखा ९. १८-२-५५ खण्डाला। • गया लेख। १०. ६-४-५० दिल्ली । ३. साध्वी-प्रमुखा कनकप्रभाजी के बारे ११. २५-३-५३ बीकानेर। ' में लिखा गया लेख। १२. १७-९-५३ जोधपुर । ४. अग्निपरीक्षा कांड विश्लेषण। १३. ९-११-५३ जोधपुर। ५. १३-९-७८ गंगानगर। १४. संत विनोबा से मिलन प्रसंग के ६. साध्वी-प्रमुखाजी की नियुक्ति का संस्मरण । ___ इतिहास । १५. इकचालीसवां जन्मदिन । ७. पं० नेहरू से संबंधित संस्मरण । १६. १४-११-७७ चौंसठवां जन्मदिन Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव के स्वर २५ २१ ५८ १५५ २१७ १८३ समाधान का मार्ग हिंसा नहीं' सफर सच्ची मानवता के सांचे में ढलें प्रवचन ५ अध्यात्म : भारतीय संस्कृति का मौलिक आधार प्रवचन ५ सिंहावलोकन का दिन प्रवचन ५ खुद से खद की पहचान मंजिल १ धवल समारोह धवल तीन अभिलाषाएं बूंद बूंद २ उत्तरदायित्व का परीक्षण शांति के मेरी नीति शांति के संकल्प की अभिव्यक्ति प्रवचन ९ नया वर्ष : नया संकल्प वैसाखियां विश्व के लिए आशास्पद" जागो ! प्रेरणा के पावन क्षण सोचो ! ३ हमारा कर्तव्य घर यथार्थ की ओर संभल अध्यात्म का अभिनन्दन१४ मेरा धर्म समष्टि सुधार का आधार व्यष्टि सुधार प्रवचन १० सिंहावलोकन की वेला प्रवचन ९ अभिनंदन शाब्दिक न हो" मंजिल १ दो शुभ संकल्प सूरज ५५ १५३ २१६ २८४ १२३ १४६ २५० १. आमेट में संत लोंगावाल से वार्ता। ९. १७-९-५३ जोधपर, पट्टोत्सव । २. १३-११-७७ लाडनूं, जन्मदिन। १०. १८-९-५३ जोधपुर, पट्टोत्सव । ३. १२-११-७७ जैन विश्व भारती, ११. २६-१०-६५ बावनवां जन्मदिन । __ चौंसठवां जन्मदिन । १२. १-६-७८ लाडनं। ४. ३०-१२-७७ जैन विश्व भारती १३. १२-६-५६ सरदारशहर । तेपनवें दीक्षा दिन पर। १४. पट्टोत्सव पर प्रदत्त । ५. ११-१२-७६ चूरू, इक्यावनवां १५. ११-९-७८ गंगानगर, तैयालीसवां दीक्षा दिवस । पट्टोत्सव । ६. धवल समारोह पर प्रदत्त विशेष १६. १७-९-५३ जोधपुर, पट्टोत्सव। ___ संदेश (पुस्तिका)। १७. २१-२-७७ छापर । ७. ५-९-६५ दिल्ली, पट्टोत्सव । १८. ५-४-५५ औरंगाबाद, महावीर ८. ९-९-५१ दिल्ली, पट्टोत्सव । जयंती। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १८७ जीवन प्रवचन ११ मेरा धर्म सोचो ! १ खोए खोए घर १४३ २०५ घर or २२२ १०० ऐसे मिला मुझे अहिंसा का प्रशिक्षण एक साधक का जीवन अपूर्व रात : विलक्षण बात आत्म-गवेषणा के क्षणों में खोना और पाना प्रतीक का आलम्बन साधना बनाम शक्ति आत्मचिंतन' आत्मानुशीलन का दिन साधना में बाधाएं साधना और विक्षेप में द्वन्द्व पहला अनुभव आनन्द का रहस्य एक अमोघ उपचार भारहीनता का अनुभव नकारात्मक चिन्तन निंदक नियरे राखिये ऊर्ध्वगमन की दिशा सिंहावलोकन एक विवशता का समाधान जीवन की रमणीयता खोए खोए खोए समता/उद्बो खोए खोए १०४/१४२ १०६ ११७ १८१ २१५ कुहासे कुहासे कुहासे २१० सूरज २०७ १०५ ११८ १. जोधपुर, जन्मदिन के अवसर पर। ४. २४-१०-५७, लाडनूं । २. २१-९-७७ जैन विश्व भारती, लाडनूं । ५. २९-८-५५ उज्जैन । ३. १६-१०-५७, सुजानगढ़। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० o अहिंसा अहिंसा अहिंसक शक्ति अहिंसा : विविध संदर्भों में • युद्ध और अहिंसा ० हिंसा m Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक अहिंसा अहिंसा के आधारभूत तत्त्व शांति और अहिंसा का उपक्रम अहिंसा का परिप्रेक्ष्य अहिंसा शास्त्र ही नहीं, शस्त्र भी अस्वीकार की शक्ति अहिंसा सार्वभौम हंस प्रकाश है मानव संस्कृति का आधार : अहिंसा अहिंसा का प्रयोगः असंदीन द्वीप मृ अहिंसा क्या है ?" अहिंसा : एक विश्लेषण अहिंसा का स्वरूप अहिंसा का आलोक अहिंसा का आलोक हिंसा को प्रयोग - प्रतिष्ठित किया जाए अहिंसा का आधा अहिंसा के समक्ष एक चुनौती अहिंसा और शिशु-सा मन शास्त्र का सत्य : अनुभव का सत्य विश्वास बनता है बुनियाद लकीर खींचने की अपेक्षा सिंहवृत्ति और श्वानवृत्ति १. वि सं. २००६ दिल्ली । २. १५-२-६६ भादरा । अहिंसा पुस्तक जीवन जीवन दीया कुहासे मुखड़ा सफर / अमृत कुहा राज राज समता आ. तु आगे राज राज उद्बो / समता प्रज्ञापर्व शांति के अणु गति वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां पृष्ठ १० १०२ १७२ १०५ ६१/२६ २५ ५५ ६३ २१५ १६२ १३ ६१ ६५ १५०/१४८ १ ५६ १५३ ६९ ७२ ૪ ७६ ८० ३. ६-९-५१ अहिंसा दिवस के अवसर पर, दिल्ली । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण क्या धर्म कुहासे १४ ६९/६९ १५२ ११/९ १५/१३ २१/१९ २१९ बड़ा और छोटा अहिंसक जीवन शैली अहिंसा का रहस्य' अहिंसा का मूल्य अहिंसा सार्वभौम सत्य है। क्रान्ति के स्वर शाश्वत धर्म अहिंसा की संभावना अहिंसा का पराक्रम अहिंसा का अभिनय अहिंसा अहिंसा के तीन मार्ग अहिंसा के तीन मार्ग धर्म की आत्माः अहिंसा' धर्म की आत्माः अहिंसा धर्म की आत्माः अहिंसा अहिंसा दर्शन शांति का सच्चा साधन अहिंसा का चमत्कार समस्या का स्थायी समाधानः अहिंसा धर्माराधना का सच्चा सार' सच्चा विज्ञान जीवन निर्माण का महत्त्व अहिंसा के तत्त्व लोक जीवन अहिंसा की प्रयोगशाला बने'' अल्पहिंसा : महाहिंसा प्रवचन-४ उद्बो/समता घर घर गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ अनैतिकता वि. वीथी प्रवचन-९ गृहस्थ/मुक्तिपथ सूरज शांति के सूरज खोए प्रवचन-९ सूरज सूरज सूरज प्रवचन ११ भोर गृहस्थ/मुक्तिपथ सपथ १६५ १७५/१५८ १. २३-८-७७ लाडनूं । २. २०-५-५७ लाडनूं । ३. ३-५-५३ बीकानेर। ४. १७-७-५५ उज्जन । ५.५-३-५२ सरदारशहर। ६. २८-२-५५ पूना। ७. २-१०-५३ जोधपुर। ८.७-१-५५ मुलुन्द । ९. ११-३-५५ नारायणगांव । १०. १६-११-५३ जोधपुर । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा १२४ १९९ . " سالہام ہم mr २१२ अहिंसा का स्वरूप प्रवचन ११ अहिंसा दिवस घर अहिंसा प्रवचन ११ २३० भहिंसा सूरज अहिंसा प्रवचन ९ अहिंसा प्रवचन ९ १२२ अहिंसा सूरज अहिंसा का आदर्श प्रवचन ११ अहिंसा का आदर्श सूरज अहिंसा की उपयोगिता सूरज भारतीय जीवन का आदर्श तत्त्वः अहिंसा" भोर १४० जीवन में अहिंसा भोर १७१ वाद का व्यामोह प्रगति की अहिंसा की उपासना सूरज २२६ अहिंसा का चिंतन प्रवचन ५ डॉ. किंग ने अहिंसा को तेजस्वी बनाया है अणु संदर्भ अहिंसा का आचरण" भोर १८३ थके का विश्राम शांति के स्वार्थ का अतिरेक५ शांति के जीवन का आलोक शांति के २५२ चुनाव की कठिनाई प्रगति की अहिंसा का व्यवहार्य रूप बूंद-बूंद-२ १.७-१-५४ ब्यावर। ११. ७-११-५४ बम्बई । २. अहिंसा दिवस, लाडनूं १२. १५-१२-६६ लाडनूं। ३. २४-३-५५ राहता। १३. ९-१२-५४ बम्बई। ४. ४-५-५३ बीकानेर। १४. २-८-५३ केवलभवन, जोधपुर । ५. १४-५-५३ बीकानेर। १५. ४-१०-५३ बम्बई, जीवदया मंडल ६. २६-५-५५ आमलनेर । का विशेष अधिवेशन। ७. ३०-१-५४ देवरग्राम । १६. १५-११-५३ अहिंसा दिवस ८. २५-९-५५ उज्जैन । कंस्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली। ९.११-४-५५ संतोषबाड़ी। १७. २७-७-६५ दिल्ली १०. १९-९-५४ बम्बई । १३८ २३३ ur Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० आत्मधर्म क्या है ? कर्तव्यबोध युग चुनौती दे रहा है दयाप्रेमियों का दायित्व अहिंसा : एक विमर्श दया का मूल मंत्र अहिंसा की अपेक्षा क्यों ? अनर्थदण्ड से बचें संवेदनहीन जीवन शैली हिंसा और अहिंसा के प्रकम्पन हिंसा और अहिंसा आलोक और अंधकार' हिंसा का प्रतिकार अहिंसा ही है शांति के दो पथ हिंसा और अहिंसा का द्वन्द्व हिंसा और अहिंसा का द्वन्द्व हिंसा और अहिंसा आज के युग की समस्याएं हिंसा और अहिंसा को समझें समाधान के आईने में युग की समस्याएं समाजवादी व्यवस्था और हिंसा का अल्पीकरण अहिंसा विवेक' १० शांति और क्रांति का भ्रम वर्तमान युग और जैनधर्म" १. ९-९-७७ जैन विश्व भारती, लाडनूं २. ६-१२-५३ डूंगरगढ़, अहिंसा दिवस | ३. ८-१२-७७ जैन विश्व भारती ४. २७-४-७९ चंडीगढ़ | ५. अहिंसा दिवस, जोधपुर । ६. २०-९-५३ साधना मंडल जोधपुर द्वारा आयोजित विचार परिषद् में । ७. दिल्ली, अहिंसा दिवस । तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सोचो ! १ नैतिकता के शांति के प्रगति की संभल भोर ज्योति के आ० प्रवचन ५ कुहासे वैसाखियां प्रवचन १० प्रवचन ११ प्रज्ञापर्व शांति के शांति के आलोक में गृहस्थ / मुक्तिपथ राजधानी प्रज्ञापर्व अमृत अणुगति जागो ! शांति के शांति के १२६ १ १०१ १५ १९४ ११३ २२ ७६ ११ ७० १० ४९ २२३ ३६ ४९ २३/२१ १४ ५ ४३ ९० २८ ६७ ४५ ८. १६-४-५० भारतीय पालियामेंट दिल्ली के सदस्यों के सम्मुख कौंस्टीट्यूशन क्लब में । ९. २५-९-६५ दिल्ली । १०. २०-१०- ५२ जामनगर, सांस्कृतिक सम्मेलन में प्रेषित । ११. १६-५-४९ दिल्ली । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ७९ अहिंसक नियंत्रण' अहिंसा विवेक अभयदान वीर कौन ? अहिंसक समाज व्यवस्था अहिंसात्मक समाज की रचना हो मोक्ष का मार्ग' विश्व की विषम स्थिति शांतिवादी राष्ट्रों से शांतिवादियों से राजधानी ४० जागो ! १७२ प्रवचन ९ प्रवचन ११ नैतिक भा. १ प्रवचन ११ १३७ सूरज १२८ आ. तु के राजधानी ११४/१७ जन जन प्रगति की IS US अहिंसक शक्ति युग की चुनौतियां और अहिंसा की शक्ति अहिंसक शक्तियों का संगठन अहिंसा की शक्ति अहिंसा की शक्ति अहिंसात्मक प्रतिरोध अहिंसात्मक प्रतिरोध प्रयोग और प्रशिक्षण अहिंसा का अहिंसक शक्तियां संगठित कार्य करें अहिंसा : विविध संदर्भो में अहिंसा के विभिन्न रूप अहिंसा और वीरत्व क्रांति और अहिंसा लोकतंत्र और अहिंसा सामाजिक विकास और अहिंसा सफर/अमृत ५७/२२ धर्म : एक राज गृहस्थ/मुक्तिपथ २५/२३ भणु गति/अणु संदर्भ १४०/२८ धर्म : एक वैसाखियां भोर P Mx mr गृहस्थ/मुक्तिपथ १९/१७ अणु संदर्भ अणु संदर्भ/अणु गति ३५/१४३ धर्मः एक धर्मः एक २६ १.८-६-५० राजधानी से विदाई के अवसर पर। २. १३-११-६५ दिल्ली। ३. ९-४-५३ बीकानेर। ४. २०-११-५३ जोधपुर । ५.४-२-५४ राणावास। ६. २३-५-५५ एरण्डोल । ७. २१-४-५० संपादक सम्मेलन, दिल्ली ८. १६-७-६७ अहमदाबाद । ९. २०-६-५४ अंधेरी (बम्बई) १०. १६-८-६९ आकाशवाणी, बेंगलोर Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १३७ २०६ १०५ २३० ९७ , १४ २१३ ९९ ९७ समाज व्यवस्था और अहिंसा अहिंसा और नैतिकता समाजवाद, व्यक्तिवाद और अहिंसा लोकतंत्र और अहिंसा अहिंसा और अनासक्ति' अहिंसा और स्वतंत्रता अहिंसा और कषायमुक्ति अहिंसा और समन्वय अहिंसा से ही संभव है विश्वशांति अहिंसा और सह-अस्तित्व अहिंसा और समता समाजवाद और अहिंसा अहिंसा और वीरत्व खादी और अहिंसा समाज और अहिंसा अहिंसा और दया का ऐक्य' अहिंसा और दया वैचारिक अहिंसा अहिंसा और सर्वोदय अहिंसा और समता अहिंसा और दया समाजवाद, कांग्रेस और अहिंसा खादी और अहिंसा • खादो : उसका गिरता हुआ मूल्य और अहिंसा समाज व्यवस्था और अहिंसा अहिंसा और विश्वशांति अहिंसा और विश्वशांति अहिंसा और विश्वशांति अणु गति गृहस्थ/मुक्तिपथ जब जागे अतीत का आगे भगवान् भगवान् भगवान् संभल भगवान् भगवान् अणु गति अणु गति अणु गति मनहंसा शांति प्रवचन ९ गृहस्थ/मुक्तिपथ भोर सूरज प्रवचन ११ अणु संदर्भ अणु गति अणु संदर्भ अणु संदर्भ आ. तु अहिंसा प्रश्न १६४ १४६ १९४ १०२ २३९ २७९ १७/१५ १४२ १४५ २१६ ७३ १६१ ६५ २४ १४४ १. ३०-४-६६ रायसिंहनगर । २.४-१२-५६ अणुव्रत सेमीनार, दिल्ली। ३-४.४-१०-५३ जोधपुर। ५. १९-९-५४ बम्बई। ६. १२-६-५५ शहादा । ७. १४-५-५४ साबरमती आश्रम । ८. १७-१२-४८ लाडनूं। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भहिंसा युद्ध और अहिंसा युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है युद्ध समस्या है, समाधान नहीं अहिंसा : युद्ध का समाधान है युद्ध की संस्कृति कैसे पनपती है ? एटमी युद्ध डालने की दिशा में पहला प्रयास युद्ध की लपटों में कांपती संस्कृति युद्ध का समाधान : अहिंसा युद्ध और अहिंसक प्रतिकार युद्ध और संतुलन युद्धारम्भ पर विराम समर के दो पहलू शक्ति की स्पर्धा में शांति होगी ? विश्वशांति और अणुशस्त्र शस्त्र-बनाने वाली चेतना का रूपान्तरण शस्त्र विवेक है निःशस्त्रीकरण विश्वशांति का सपनाः अहिंसा और अनेकान्त की आंखें महिंसा : विश्वशांति का एकमात्र मंत्र समाधान का मार्ग हिंसा नहीं विश्वशांति के लिए अहिंसा' विश्वशांति और अध्यात्म मनुष्य मूढ़ हो रहा है कैसे मिटेगी अशांति और अराजकता ? विश्व बंधुत्व का आदर्श अशांत विश्व को शांति का संदेश अणु अस्त्रों की होड़ वैसाखियां कुहासे अणु संदर्भ कुहासे कुहासे अनैतिकता अणु गति क्या धर्म मेरा धर्म वैसाखियां मेरा धर्म प्रगति की मेरा धर्म कुहासे ४८ लघुता लघुता १४४ ११९ २६४ भोर अमृत भोर प्रवचन ९ ज्योति के अतीत का प्रवचन ११ आ. तु १९ १८० १८७ घर १. २३-९-५४ बम्बई। २. २-१०-५४ बम्बई। ३. २०-९-५३ जोधपुर। ४. १४-४-५४ बाव। ५. लंदन में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन के अवसर पर प्रेषित, - आषाढ़ कृष्णा ४ वि. सं. २००१ । ६. चूरू Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ हिसा हिंसा का स्रोत कहां ? पगडंडिया हिंसा की हिंसा के नए नए रूप मन से भी होती है हिंसा समस्या के बीज: हिंसा की मिट्टी समस्या के बीज : हिंसा की मिट्टी हिंसा का कारण अभाव और अतिभाव हिंसा का नया रूप आतंकवाद : आंतरिक टूटन कुछ अनुत्तरित सवाल पशु-शोषण का नया तरीका प्रसाधन सामग्री में निरीह पशुओं की आहें आत्महत्या पाप है' हिंसा की समस्या सुलझती है संयम से आक्रामक मनोवृत्ति के हेतु अस्पृश्यताः मानसिक गुलामी हिंसा भय लाती है" १. २-४-५३ बीकानेर । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण वैसाखियां वैसाखियां लघुता कुहासे धर्म : एक अतीत का अणु गति वैसाखियां प्रज्ञापर्व कुहासे कुहासे कुहासे प्रवचन ९ लघुता आलोक में धर्म : एक घर २. २२-५-५७ सुजानगढ़ । ५९ ६७ ४२ ३४ ३ ܐܐ १५८ ६१ ९८ १५७ ७९ ५० ५७ ६३ ४५ ७६ ४९ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम शीर्षक पुस्तक पृष्ठ जैन आगमों के सम्बन्ध में आगम का उद्देश्य' जीवन की सुई और आगम का धागा विज्ञान और शास्त्र वर्तमान संदर्भो में शास्त्रों का मूल्यांकन निर्ग्रन्थ प्रवचन : दुःख विमोचक आगम अनुसंधान : एक दृष्टि जैन आगमों में देववाद की अवधारणा धर्म और कला आहत मन का आलम्बन मूल पूंजी की सुरक्षा का उपाय व्यक्तित्व की कसौटियां प्रमाद से बचो जैन आगमों में सूर्य आगमों की परम्परा कैसे चुकता है उपकार का बदला ऋणमुक्ति की प्रक्रिया (१) ऋणमुक्ति की प्रक्रिया' (२) सुखशय्या और दुःखशय्या पत्र के साथ संवाद मीमांसा सनाथ और अनाथ की अनुकरण की सीमाएं राज/वि वीथी ७८/६६ मुक्ति इसी/मंजिल २ ४२/२५ मुक्ति इसी/मंजिल २ ४८/३० अणु गति १८३ धर्म : एक १३५ गृहस्थ मुक्तिपम १३५/१३० ज.गो! जीवन शांति के वि. दीर्घा लघुता दीया वि. दीर्घा १०५ वि. दीर्घा/राज १७८/८० घर दीया मंजिल २ १३७ मंजिल २ १२३ दीया मुखड़ा मुखड़ा खोए १.१-५-७६ छापर। ४. ३-५-५७ लाडनूं । २. २०-११-६५ दिल्ली। ५. २९-४-७८ लाडनूं । ३. २३-१०-५१ दिल्ली में आयोजित ६.२८-४-७८ लाडनं । विचार परिषद् के अवसर पर। ७. ३०-९-७३ हिसार । १ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विसर्जन किसका ?" सुननी सबकी करनी मन की पुरुष के तीन प्रकार चार प्रकार के आचार्य * अभिमान किस पर ? स्थविरों की महत्ता' दो पथ : एक घाट" मूर्च्छा का हेतु : राग-द्वेष सिद्धि का द्वार धर्म का अनुशासन तट पर अधिक सजगता " इंद्र की जिज्ञासा : राजर्षि के समाधान " क्या गृहस्थाश्रम घोराश्रम है ? १२ संसरण का कारण : प्रमाद संसार का स्वरूप : बोध और विरक्ति" एक का बोध: सबका बोध विरक्ति और भोग १५ सार्थक जीवन के लिए " सत्य क्या है ? ९७ ऐश्वर्य : सुरक्षा का साधन नहीं" अमृतत्व की दिशा में १९ सबसे उत्कृष्ट कला २० १.७-९-८० । २. २ -८-७६ सरदारशहर । ३. १८-४-७८ लाडनूं । ४. १९-८-७६ सरदारशहर । ५. २३-११-७६ चूरू । ६. ७-८-७७ लाडनूं । ७. ८-७-७८ गंगाशहर । ८. ७-४-७८ लाडनूं । ९. ३०-५-७८ लाडनूं । १०. १८-३-६५ समदड़ी । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण खोए मंजिल १ मंजिल २ मंजिल १ मंजिल १ प्रवचन ४ प्रवचन १० सोचो ! ३ सोचो ! ३ गृहस्थ / मुक्तिपथ बूंद बूंद १ बूंद बूंद १ बूंद बूंद १ बूंद बूंद १ बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ १८. १२-७-६५ दिल्ली । १९. २०-७-६५ दिल्ली । २०. ६-७-६५, दिल्ली । १२ १२ ११५ १० ४८ ५० १८६ २११ १२७/१२२ ११. १-५ -६५ जयपुर । १२. २०-५-६५ जयपुर । १३. १३-६-६५ अलवर । १४. ७-७-६५ दिल्ली । १५. ८-७-६५ दिल्ली । १६. १७-७-६५ दिल्ली ( हिंदूसभा भवन ) । १७. ९-७-६५ दिल्ली । ३१ १२७ १३८ २०६ १६ २२ २६ ३१ ३४ ३७ ४६ १७७ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ८२/८१ ४४ उद्बो समता दीया मुक्ति इसी मुक्ति इसी खोए _७७ ७७ __ ५९ १ जागो ! १७८ १०३ मृत्यु का आगमन मनुष्य की दृष्टि में होते हैं गुण और दोष मानव स्वभाव की विविधता आर्य कौन ? ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः मिलन की सार्थकता : एक प्रश्नचिह्न अवर्णवाद करना अपराध है। आर्य कौन ?' पाप से बचने का उपाय साधना में अवरोध जीव दुर्लभबोधि क्यों होता है ?" विनय के प्रकार उन्माद को छोड़ें आगमों में आर्य-अनार्य की चर्चा किसके लिए होती है बोधि की दुर्लभता ? कैसे बनता है जीव सुलभबोधि ? वीरता की कसौटी कौन किसका ?१२ आगम साहित्य के दो प्रेरक प्रसंग13 १०३ ७३ १४९ जागो! मंजिल २ जागो! जागो! जागो ! मंजिल १ प्रवचन ५ अतीत दीया जब जागे नवनिर्माण प्रवचन ९ मंजिल २ प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ९ मंजिल १ २७ १२२ मन४ ११ ४५ थावच्चा पुत्र" मोहजीत राजा तीन लोक से मथुरा न्यारी" १६८ १६७ १.१-५-७६ छापर। २. ३-५-७६ छापर। ३.४-९-८० । ४. १६-१०-६५ दिल्ली । ५. ३-५-७६ छापर। ६. २६-९-६५ दिल्ली। ७. १४-१०-६५ दिल्ली। ८.१५-१०-६५ दिल्ली। ९. २४-२-७७ छापर । १०. ७-१२-७७ लाडनूं । ११. १८-१२-५६ दिल्ली। १२. जितशत्रु राजा की कथा । १३. २२-४-७८ लाडनूं । १४. २२-२-५३ लूणकरणसर, भावदेव नागला कथानक । १५. २०-३-५३ बीकानेर। १६. ९-५-७७ चाडवास । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार ० आचार ० सम्यग् ज्ञान • सम्यग् दर्शन ० सम्यक् चारित्र ० श्रमणाचार ० श्रावकाचार ० तप ० रात्रिभोजन विरमण ० समाधिमरण ० मोक्षमार्ग ० प्रायश्चित्त ० सत्य • अस्तेय ० ब्रह्मचर्य • अपरिग्रह . . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार शीर्षक पुस्तक पृष्ठ आचार भारतीय आचारशास्त्र की मौलिक मान्यताएं आचारविज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आचार का आधार : वर्तमान या भविष्य ? भारतीय आचार विज्ञान के मूल आधार प्रश्न पूरकता का सदाचार के मूल तत्त्व असदाचार के कारण विवेक संवारता है आचार को भाचार साध्य भी है और साधन भी सदाचार की नई लहर असदाचार का खेल आचार की प्रतिष्ठा' जीवन आचार-सम्पन्न बने आचार और विचार की समन्विति जीवन के दो तत्त्व समस्याओं का समाधान अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता राज/ज्योति से १३३/११९ बूंद बूंद १ लघुता जागो ! क्या धर्म क्या धर्म प्रवचन ९ २४६ १ मंजिल ? संभल १९५ ११९ घर १७१ सम्यगज्ञान पढमं णाणं तओ दया पढमं णाणं तओ दया' सम्यग्ज्ञान मनहंसा प्रवचन ११ गृहस्थ मुक्तिपथ १५४ २१५ ८६/८२ १. १३-४-६५ सदाचार समिति गोष्ठी, अजमेर। २. १५-११-६५ दिल्ली। ३. १४-९-५३ जोधपुर। ४. १२-३-५५ पीपल । ५. १५-५-७७ चाडवास । ६. २९-५-५६ पडिहारा। ७. १२-५-५४ अहमदाबाद । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ज्ञान का उद्देश्य सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा ज्ञान का सम्यग् उपयोग सम्यग्ज्ञान का विषय अज्ञानम् खलु कष्टम्' विकास का सही पथ अच्छे और बुरे का विवेक ज्ञान प्रकाशप्रद है ज्ञानी भटकता नहीं ज्ञान और ज्ञानी ज्ञान के दो प्रकार हैं ज्ञान के दो प्रकार मतिज्ञान के प्रकार श्रुतज्ञान : एक विश्लेषण श्रुतज्ञान के भेद अवधिज्ञान के दो प्रकार १२ मनःपर्याय के प्रकार केवलज्ञान केवलज्ञान के आलोक में१५ केवलज्ञान की उत्कृष्टता आठ प्रकार के ज्ञानाचार" भा• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मंजिल १ १२६ मुक्तिपथ/गृहस्थ ८३/८८ मंजिल १ १७५ मुक्तिपथ/गृहस्थ ८५/९० प्रवचन १० प्रवचन ११ २१९ आगे २०७ घर जब जागे प्रवचन ५ १९८ प्रवचन ५ १०५ प्रवचन ४ ०. प्रवचन ८ प्रवचन ८ १७४ ० प्रवचन ८. १९१ १९९ प्रवचन ८ प्रवचन ८ प्रवचन ८ मंजिल २ बूंद बूंद २ सोचो! ३ २३६ W८ १. ४-४-७७ लाडनूं । २. १०-५-७७ चाडवास । ३. २०-८-७८ गंगानगर । ४. १२-५-५४ बम्बई। ५. २५-४-६६ पदमपुर। ६. ६-१-७८ लाडनूं । ७. १७-१२-७७ लाडनूं । ८. ११-८-७७ लाडनूं। ९. १४-८-७८ गंगाशहर । १०. १५-८-७८ गंगाशहर । ११. १६-८-७८ गंगाशहर । १२. १७-८-७८ गंगाशहर । १३. १८-८-७८ गंगाशहर । १४. १९-८-७८ गंगाशहर । १५. १८-१०-७८ गंगाशहर । १६. ३१-७-६५ दिल्ली। १७. २१-१-७८ लाडनूं । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मंजिल २/मुक्ति : इसी ३४/५३ प्रवचन ५ बूंद बूंद २ प्रवचन ८ प्रवचन ९ प्रवचन ४ प्रवचन ५ प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन २ E १०२ ज्ञान के पलिमंथु ज्ञान-प्राप्ति का पात्र ज्ञान के लिए गंभीरता जरूरी परिवर्तन का प्रारम्भ कहां से ?" जीवन विकास के सूत्र ज्ञान और अज्ञान अज्ञानी जनों का उपयोग . ज्ञान-प्राप्ति का सार श्रद्धा और ज्ञान ज्ञानचेतना हिंसा और परिग्रह" सम्यग्दर्शन श्रद्धा है आश्वासन दृष्टिकोण, संकल्प और पुरुषार्थ सम्यगदृष्टि की पहचान दृष्टिकोण का सम्यक्त्व १३ सम्यक्त्व४ दर्शन के आठ प्रकार दर्शनाचार के आठ प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन के परिणाम सम्यग्दृष्टि के लक्षण सम्यग्दर्शन के विघ्न ४३ १७७ १५५ २० मनहंसा वैसाखियां मंजिल १ जागो! सोचो !३ मंजिल १ सोचो!३ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ २८३ १३५ ७८/७४ ८०/७६ ८२/७८ ८४/८० १. २०-५-७६ पडिहारा २. ३१-२-७७ लाडनूं । ३. ३०-७-६५ दिल्ली । ४. १३-८-७८ गंगाशहर। ५. २२-८-५३ जोधपुर । ६. ४-८-७७ लाडनूं। ७. १-१-७८ लाडनूं। ८. १९-७-५३ पाटवा। ९. २२-१-५३ सरदारशहर । १०. २९-८-७७ लाडनूं । ११. ५-१२-७७ लाडनूं । १२. २-५-७७ चाडवास । १३. २२-९-६५ दिल्ली । १४. २४-६-७८ नोखामण्डी। १५. १२-४-७७ बीदासर । १६. २४-१-७८ लाडनूं । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ सम्यक्त्व का दूषण : शका श्रद्धा और आचरण धर्म और सम्यक्त्व ' शांति का मार्ग दृष्टिभेद' श्रद्धा की निष्पत्ति श्रद्धा व आत्मनिष्ठा ज्ञान और दर्शन* सम्यक्त्व ५ दर्शन व उसके प्रकार सम्यग्दर्शन के दो प्रकार दर्शन के दो प्रकार ' सम्यग्दर्शन : मिथ्यादर्शन' श्रद्धा और चरित्र श्रद्धा और आचार की समन्विति " श्रद्धा : उर्वरा भूमि " श्रद्धाशीलता : एक वरदान सम्यक चारित्र चरित्र का मानदण्ड यंत्र का निर्माता यंत्र क्यों बना ? विकास की अवधारणा चरित्र सही तो सब कुछ सही प्रगति के लिए कोरा ज्ञान पर्याप्त नहीं मशीन का स्क्रू ढीला सबसे बड़ी पूंजी १. १३ - ६-५७ बीदासर । २. लाडनूं । ३. ४-१२-५६ दिल्ली । ४. १६-११-६५ दिल्ली । ५. २२-१२-७७ लाडनूं । ६. २१-८-७८ गंगाशहर । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मंजिल २ गृहस्थ / मुक्त घर घर घर गृहस्थ / मुक्तिपथ नवनिर्माण जागो ! प्रवचन ५ प्रवचन ८ प्रवचन ५ प्रवचन ५ प्रवचन ५ प्रवचन ९ आगे घर घर मनहंसा वैसाखियां वैसाखियां सफर / अमृत क्या धर्म समता भोर १८७ _१३७/१३२ १२९ ७४ ७९ १३९ / १३४ १४१ १८७ १२६ २०४ ८३ ७९ ८९ ६१ १३४ १६९ २५० ७९ १७ १२३ १०९/१६९ ३८ २४६ १७२ ७. १०-१२-७७ लाडनूं । ८. ९-१२-७७ लाडनूं । ९. १२-१२-७७ लाडनूं । १०. ३१-३-६६ गंगानगर । ११. सुजानगढ़, अहिंसा दिवस पर प्रदत्त । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ا माचार . ر ११३ ९५ و ة १०१ १७९ س आगे م १८२ सबसे बड़ी त्रासदी वैसाखियां चरित्र को सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त हो भोर चरित्र और उपासना भोर चरित्र की प्रतिष्ठा आचार और नीतिनिष्ठा जागे मानव समाज की मूल पूंजी सच्चरित्र क्यों बनें चरित्र का मापदण्ड संभल चारित्र और योग विद्या" जागो! १९२ सम्यकचारित्र गृहस्थ/मुक्तिपथ ९४/८९ चारित्र के दो प्रकार प्रवचन ५ चरित्र की महत्ता सूरज १५२ उच्चता की कसौटी प्रवचन ११ १७६ जीवन में आचरण का स्थान प्रवचन ११ चरित्रार्जन आवश्यक प्रवचन ११ संयम की साधना जागो! मोहविलय और चारित्र बूंद बूंद २ सबसे बड़ा काम चरित्र का विकास'५ बूंद बूंद १ चरित्र निर्माण और साधना बीती ताहि चारित्रिक गिरावट क्यों ? १६ भोर मानवता प्रवचन ९ श्रमणाचार सामाचारी संतों की मुखड़ा १. ११-८-५४ बम्बई (चीच बंदर)। १०. २५-३-५४ शिवगंज । २. ११-७-५४ बम्बई (सिक्का नगर)। ११. ७-४-५४ खिमतगांव । ३. २४-४-५४ बम्बई। १२. जोधपुर । ४. २०-८-५४ बम्बई (सिक्का नगर)। १३. ११-११-६५ दिल्ली। ५.७-१२-५४ बम्बई (कुर्ला)। १४. १३-९-६५ दिल्ली। ६. २४-४-६६ पद्मपुर। १५. १५-४-६५ मदनगंज । ७. १७-११-६५ दिल्ली। १६. २१-६-५४ बम्बई (अंधेरी)। ८. २०-१२-७७ लाडनं । १७. २५-४-५३ गंगाशहर । ९. १४-६-५५ जूलवानिया। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मुखड़ा दीया बूंद बूंद ! बूंद बूंद १ अतीत का १७३ १३४ ११९ १५९ १४४ जब जागे अतीत बूंद बूंद २ बूंद बूंद १ घर घर Ww साधुओं की चर्या खिड़कियां सचाई की संन्यासी और गृहस्थ के कर्त्तव्य' मुनिचर्या : एक दृष्टि' जैन मुनि की आचार परम्परा : एक सुलगता हुआ सवाल जीवन यापन की आदर्श प्रणाली पार्श्वस्थ अनुकरण किसका ? धर्मोपदेश की सीमाएं साधु का विहार-क्षेत्र साधु की श्रेष्ठता केशलुञ्चन : एक दृष्टि वस्त्रधारण की उपयोगिता क्या साधु वस्त्र रख सकता है ? अनार्य देशों में तीर्थंकरों और मुनियों का विहार चातुर्मास और विहार प्रमाद और उसकी विशुद्धि" साधु-साध्वियों के परस्पर सम्बन्ध व्यवहार का प्रयोग कब और कैसे ? १३ भिक्षाचरी : एक विवेक संघीय प्रवृत्ति का आधार ५ उपधि परिज्ञा ७ ९० मंजिल २ मंजिल २ मंजिल २ १६४ अतीत १६१ १४४ 4 س बूंद बूंद २ जागो ! जागो! जागो! जागो ! जागो ! जागो! س ) ة م uror १. २८-४-६५ जयपुर । २. ३०-४-६५ जयपुर । ३. ५-७-६५ दिल्ली । ४. ५-५-६५ जयपुर। ५. १८-३-५७ लाडनूं । ६. बीदासर। ७. १०-४-७८ लाडनं । ८. २४-५-७८ लाडनूं। ९. २३-५-७८ लाडनूं । १०. १९-९-६५ दिल्ली । ११. १६-९-६५ दिल्ली। १२. २०-९-६५ दिल्ली। १३. ६-१०-६५ दिल्ली। १४. ९-१०-६५ दिल्ली। १५. ५-१०-६५ दिल्ली। १६. ३०-९-६५ दिल्ली। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार संभल ३ १८३ ६० ५५ साधु की भिक्षाचर्या श्रावकाचार जीवन को दिशा देने वाले संकल्प श्रावक की आचार संहिता मेरे सपनों का श्रावक समाज जैन जीवन शैली जैन जीवन शैली को अपनाएं भविष्य का दर्पण : योजनाओं का प्रतिबिम्ब श्रावक समाज को कर्तव्य बोध अहिंसा और श्रावक की भूमिका अहिंसा का सिद्धान्त : श्रावक की भूमिका श्रावकदृष्टि और अपरिग्रह अपरिग्रह और जैन श्रावक श्रावक की भूमिका ऐसे भी होते हैं श्रावक महावीरकालीन गृहस्थधर्म की आचारसंहिता श्रावक की चार कक्षाएं श्रावक जन्म से या कर्म से ? (१) श्रावक जन्म से या कर्म से ?(२) श्रावक के गुण श्रावक की साप्ताहिक चर्या श्रावक की आत्मनिर्भरता श्रावक की धर्मजागरिका श्रावक के त्याग श्रावक की दिनचर्या (१-३) श्रावक की दिनचर्या (१-३) श्रावक जीवन के विश्राम (१-२) श्रावक जीवन के विश्राम (१-२) श्रावक के मनोरथ (१-३) श्रावक के मनोरम (१-३) १. १४-४-५६ लाडनूं । २. १९-५-७३ दूधालेश्वर महादेव । दीया अनैतिकता वि० दीर्घा लघुता १८६ प्रज्ञापर्व जब जागे मंजिल २ दायित्व अतीत का दायित्व/अतीत का २७/६१ गृहस्थ/मुक्तिपथ ६८/६५ गृहस्थ मुक्तिपथ १५३/१३६ दीया १५६ अणु गति गृहस्थ मुक्तिपथ १६५/१४८ गृहस्थ मुक्तिपथ १८७/१७० गृहस्थ/मुक्तिपथ १८९/१७२ गृहस्थ मुक्तिपथ १६७/१५० गृहस्थ/मुक्तिपथ १८६/१६९ गृहस्थ मुक्तिपथ १६९/१५२ गृहस्थ/मुक्तिपथ १९१/१७४ गृहस्थ/मुक्तिपथ १७१/१५४ गृहस्थ १८१-८५ मुक्तिपथ १६४-६८ गृहस्थ मुक्तिपथ १४४-४६ गृहस्थ १५५-५९ मुक्तिपथ १३८-४२ ३. २०-५-७३ दूधालेश्वर महादेव । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण श्रावक का दायित्व' सामायिक अर्हन्नक की आस्था श्रावक समाज को कर्तव्यबोध' सामायिक भय का हेतु : दुःख आचार और मर्यादा' प्रवचन ९ प्रवचन ५ गृहस्थ/मुक्तिपथ मुक्ति इसी प्रवचन ९ मंजिल २ आगे २०७ १०८ १७३/१५६ ८५ / १५७ २६५ तप १६५ २८ तपस्या का कवच तप है आंतरिक बीमारी की औषधि बहिरंग योग की सार्थकता सम्यक् तप तप साधना का प्राण है प्रदर्शन बनाम दर्शन तपस्या स्वयं ही प्रभावना है। अनुत्तर तप और अनुत्तर वीर्य ९६/९१ ७३ कुहासे जब जागे जब जागे गृहस्थ/मुक्तिपथ ज्योति से मंजिल १ प्रवचन ४ बूंद बूंद २ सूरज जागो ! १३६ तप १६८ गृहस्थ/मुक्तिपथ प्रवचन ९ ७२/६९ १२४ ८० तप और उसका आचार" रात्रिभोजन विरमण रात्रिभोजन का औचित्य रात्रिभोजन त्याग : एक तप१३ समाधिमरण अनशन किसलिए? मृत्युञ्जयी बनने का उपक्रम : अनशन१४ १.८-८-५३ जोधपुर । २. १८-१२-७७ लाडनूं । ३. श्रावक सम्मेलन । ४. २५-२-५३ लूणकरणसर । ५. २१-५-७८ लाडनूं। ६.१५-५-६६ पीलीबंगा। ७. १-८-७० रायपुर। १७२ मेरा धर्म सोचो ! ३ ८. १०-१०-७६ सरदारशहर । ९. १६-९-७७ लाडनूं । १०. १४-९.६५ दिल्ली। ११.७-७-५५ उज्जैन । १२. १६-५.५३ बीकानेर । १३. १८-११.६५ दिल्ली। १४. २-४-७८ लाडनूं । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार १६५ सोचो ! ३ मंजिल २ १६६ कुहासे १२७ १८७ १६९ ११९ सूरज सोचो !३ अनैतिकता राज/वि०दीर्घा दीया जागो! प्रवचन ४ १७४/२३१ ५७ कलामय जीवन और मौत' मृत्यु दर्शन : एक दर्शन उत्तर की प्रतीक्षा में जीने की कला : मरने की कला बालमरण से बचें आत्महत्या और अनशन मृत्युदर्शन और अगला पड़ाव जीना ही नहीं, मरना भी एक कला है मरना भी एक कला है अन्त मति सो गति' मोक्षमार्ग पहले कौन ? बीज या वृक्ष ? श्रुत और शील की समन्विति जैन दर्शन : समन्विति का पथ" मुक्ति का मार्ग मुक्ति का मार्ग मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान मोक्ष का अधिकारी कौन ?११ मुक्ति का मार्ग : ज्ञान व क्रिया'२ ज्ञान और आचार की समन्विति3 मुक्तिपथ मुक्ति का आकर्षण मुक्ति का साधन : वैयावृत्त्य१४ ज्ञान और क्रिया १२१ २७८ जब जागे लघुता सोचो! ३ आगे प्रवचन ५ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ४ मंजिल २ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ बूंद बूंद २ भोर १९८ १७३ ११७ १८ ७६/७२ ९८/९३ ११२ १. १.४.७८ लाडनूं । २. २३-३-८३ अहमदाबाद । ३. ५-८-५५ उज्जैन । ४, १-४-७८ लाडनूं । ५. ४-१०-६५ दिल्ली। ६. २८-९-७७ लाडन। ७. २३-६-७८ नोखामण्डी। ८. २८-२-६६ सिरसा। ९. २-१२-७७ लाडनूं । १०.२१-४-५४ बाव। ११. २२-३-५४ खींवेल। १२. २-९-७७ लाडनूं । १३.५-५-७६ छापर। १४. १७-५-६५ दिल्ली। १५. २१-९-५४ बम्बई। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अनुत्तर ज्ञान और दर्शन' बंधन और मुक्ति परीक्षा रत्नत्रयी की मुक्तिमार्ग * आदर्श, पथदर्शक और पथ' संसार और मोक्ष' कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव प्रायश्चित्त व्रत और प्रायश्चित्त' प्रायश्चित्त : दोष विशुद्धि का उपाय' विशुद्धि का उपाय : प्रायश्चित्त" ११ .१२ प्रायश्चित्त का महत्त्व अनुशासन और प्रायश्चित्त ‍ प्रायश्चित्त देने का अधिकारी आलोचना का अधिकारी " भूल और प्रायश्चित्त ५ सत्य सापेक्षता से होता है सत्य का बोध सत्य ही भगवान् है असार संसार में सार क्या है ? युद्ध का अवसर दुर्लभ है सत्य क्या है ? सत्य का उद्घाटन १. ३ ९ ६५ दिल्ली । २. लाडनूं ३. ७-५ -५३ बीकानेर । ७ 93 ४. ५-५-७६ छापर । ५. २६-४-६५ जयपुर । ६. २१-९-६५ दिल्ली । ७. १०-४-५६ सुजानगढ़ । ८. ११-१०-७६ सरदारशहर आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण बूंद बूंद २ घर प्रवचन ९ मुक्ति इसी बूंद बूंद १ जागो ! संभल मंजिल २ मंजिल १ मंजिल २ मंजिल १ बूंद बूंद मंजिल १ मंजिल १ मंजिल १ दीया राज/ वि. वीथी लघुता लघुता गृहस्थ / मुक्तिपथ गृहस्थ / मुक्तिपथ ९. १८-१०-७६ सरदारशहर । १०. २२-५-७८ लाडनूं । ११. १९ - ३-७७ लाडनूं । १२. १९-१०-६५ दिल्ली । १३. २१-३-७७ लाडनूं । १४. २९-६-७७ लाडनूं । १५. २४-६-७७ लाडनूं । १४९ २७५ ९७ ३१ १५२ १६ १०३ ८७ २६ १५९ १२२ १२० १२४ २४६ २३९ १२९ १५५/९९ १५५ १६४ २८ / २६ ३० / २८ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार गृहस्थ मुक्तिपथ बूंद बूंद २ प्रवचन ९ मंजिल १ मनहंसा संभल घर आलोक में आलोक में समता मुखड़ा वैसाखियां संभल १४७ ३८ १८२ १७ १२५ १९३ सत्य : शाश्वत और सामयिक सत्य और संयम' सत्य की साधना सत्यदर्शन' सत्य : स्वरूप मीमांसा सत्य की सार्थकता घर का स्वर्ग व्यवसाय तंत्र और सत्य साधना सत्याग्रह : परिपूर्णता के आयाम झूठ का दुष्परिणाम जब सत्य को झुठलाया जाता है सत्याग्रही और सत्यग्रही सहु सयाने एक मत अस्तेय वृत्तिशोधन की प्रक्रिया अचौर्य व्रत' अचौर्य की दिशा अचौर्य की कसौटी अप्रामाणिकता का उत्स प्रामाणिकता का आचरण ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के प्रयोग यौन उन्मुक्तता और ब्रह्मचर्य साधना ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य धर्म और सेक्स स्वरूपबोध की बाधा आलोक में प्रवचन ९ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ मुक्तिपथ ३६/३४ ४२/४० ३६/३४ ४०/३८ १६० ४४/४२ लघुता आलोक में गृहस्थ/मुक्तिपथ सूरज समाधान बूंद बूंद २ १०७ १.६-८-६५ दिल्ली। २. ६-५-५३ बीकानेर । ३. १८-१२-७६ रतनगढ़। ४. २२-७-५६ सरदारशहर । ५. २२-४-५७ चूरू। ६.८-५-५३ बीकानेर । ७. २५-८-६५ दिल्ली। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ वासना उभार की समस्या और समाधान ब्रह्मचर्य का महत्त्व ब्रह्म में रमण करो' इन्द्रिय और अतीन्द्रिय सुख ब्रह्मचर्य की ओर २ ब्रह्मचर्य की महत्ता ब्रह्मचर्य की सुरक्षा मोहविलय की साधना ब्रह्मचर्य और उन्माद कुछ शास्त्रीय : कुछ सामयिक' अपरिग्रह अपरिग्रहवाद शांति का मार्ग : अपरिग्रह परिग्रह पर अपरिग्रह की विजय साढे तीन हाथ भूमि चाहिए अपरिग्रह व्रत अपरिग्रही चेतना का विकास वर्तमान विषमता का हल अपरिग्रहः परमो धर्मः लघुता वर्तमान समस्या का समाधान : अपरिग्रहवाद वैसाखियां / शांति के अपरिग्रह संग्रह देता है सुख को जन्म " समाजवादी व्यवस्था और परिग्रह का अल्पीकरण परिग्रह है पाप का मूल शांति का मार्ग १. ८-५ -५३ बीकानेर | २. २५-११-६५ दिल्ली । ३. १९-९-६५ दिल्ली । ४. २३-६-५२ चूरू, नागरिक स्वागत समारोह | ५. २२-७-५४ बम्बई । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मेरा धर्म गृहस्थ / मुक्तिपथ प्रवचन ९ गृहस्थ / मुक्तिपथ गृहस्थ / मु जागो ! गृहस्थ / मुक्तिपथ गृहस्थ / मुक्तिपथ गृहस्थ / मुक्तिपथ जागो ! भोर भोर आगे मंजिल १ मंजिल १ प्रवचन ९ गृहस्थ / मुक्तिपथ शांति के भोर अणु गति घर घर ४५ ५६/५४ १०० ५०/४८ ५२/५० २१६ ५४ /५२ ४६/४४ ४८/४६ ८ १०६ १६१/९५ ८२ १२४ १०६ १४० १३० १०५ ६०/५६ ३ २७ ८६ ६. १ - ९-५४ बम्बई । ७. २०-४-६६ हनुमानगढ़ । ८. १५-४-७७ बीदासर । ९. ९-४-७७ लाडनूं । १०. १० - ५ - ५३ बीकानेर | ११. १५-६-५४ बोरीवली ( बम्बई ) । २२५ १७३ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार बूंद बूंद २ आगे कुहासे ६४ १४६ ६४/६२ ५८/५६ ६६/६४ शांति का आधार : असंग्रह की वृत्ति' आकांक्षाओं का संक्षेप समस्या का मूल : परिग्रह चेतना परिग्रह क्या है ? परिग्रह के रूप परिग्रह की परिभाषा परिग्रह का मूल परिग्रह साधन है, साध्य नहीं संग्रह भऔर त्याग लाभ और अलाभ में संतुलन हो एक सार्थक प्रतिरोध परिग्रह का परित्याग संग्रह की परिणति : संघर्ष अपरिग्रह का मूल्य संघर्ष कैसे मिटे ? विसर्जन विसर्जन क्या है? विसर्जन : आंतरिक आसक्ति का परित्याग अपरिग्रह और विसर्जन समाजवाद और अपरिग्रह पूंजीवाद बनाम अपरिग्रह अपरिग्रह और अर्थवाद' लोभ का सागर : संतोष का सेतु जब आए संतोष धन संतोषी : परम सुखी असंग्रह की साधना : सुख की साधना" मंजिल २ गृहस्थ/मुक्तिपथ प्रवचन ५ गृहस्थ/मुक्तिपथ मंजिल १ गृहस्थ/मुक्तिपथ प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व सूरज आलोक में घर प्रगति की नयी पीढी/धर्म : एक समता/उद्बो मेरा धर्म गृहस्थ/ मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ समता राजधानी/आ०तु० लघुता समता आगे संभल ६३/५१ १९९/२०२ १४० ७०/६६ ६२/६० १९८ २६१ १. १९-७-६५ दिल्ली। २. २२-४-६६ श्री कर्णपुर । ३. १-५-७८ लाडनूं। ४. ४-१२-७७ जैन विश्व भारती, लाडनूं। ५. २०-१०-७६ सरदारशहर। ६. १५-५-५५ जलगांव । ७. १५-६-७५ दिल्ली। ८. २४-४-६६ पद्मपुर। ९. २८-५-५० दिल्ली, साहित्य गोष्ठी। १०. २८-२-६६ सिरसा । ११. २-४-५६ लाडनूं । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. आहार और स्वास्थ्य शीर्षक पुस्तक पृष्ठ २०३ २०५/९६ खोए १३४ १२० ८०/८० १५० अस्वाद की साधना वैसाखियां मनुष्य का भोजन वैसाखियां/खोए खाना पशु की तरह : पचाना मनुष्य की तरह खोए साधना की पृष्ठभूमि : आहारविवेक साधना और स्वास्थ्य का आधार : खाद्यसंयम' बूंद बूंद २ खाद्य संयम का मूल्य प्रवचन १० ध्यान और भोजन समता/उद्बो जीवन की साधना' नवनिर्माण संसार : जड़ चेतन का संयोग मंजिल २ शाकाहारी संस्कृति पर प्रहार वैसाखियां अखाद्य क्या है ? राज/वि. दीर्घा खाद्य-पेय की सीमा का अतिक्रमण सोचो ३ मांसाहार वर्जन भोजन और स्वादवृत्ति' घर स्वास्थ्य के सूत्र मुखड़ा स्वास्थ्य स्वास्थ्य की आचार संहिता दीया रोगोत्पत्ति के कारण" (१) मंजिल की १ रोगोत्पत्ति के कारण (२) मंजिल की १ अकाल मृत्यु सोचो!३ उपवास, साधना और स्वास्थ्य आलोक में २१० २२५/२२६ २५० १८५ १५७ सूरज ८८ खोए १८९ १६० - १. १२-८-६५ दिल्ली। २. ८-२-७९ राजलदेसर। ३. १२-१२-५६ । ४. २१-१०-७८ गंगाशहर । ५. १०-६-७८ सांडवा। ६. सुजानगढ़। ७.४-५-७७ चाड़वास । ८.५-५-७७ चाडवास। ९. १६-३-७८ लाडनूं। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण समता/उद्बो १२८/१२९ १३० कुहासे भोर स्वभाव की दिशा राष्ट्रीय चरित्र और स्वास्थ्य खानपान की संस्कृति प्रकृति बनाम विकृति राज १२२ १८२ १.८-१२-५४ बम्बई । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसूत्र ० ० ० ० ० • अनासक्ति ० अनुशासन ० क्षमा और मैत्री ० त्याग ० पुरुषार्थ ० मानवजीवन ० शांति ० संकल्प ० संयम ० संस्कारनिर्माण ० समता ० सेवा ० स्वतन्त्रता ० ० ० ० ० ० ० Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसूत्र शीर्षक पुस्तक पृष्ठ ११३/९१ ३ ३५ २५२ १८८/१९० १९१ जीवनसूत्र जीवन : एक कला तलहटी से शिखर पर पहुंचने का उपाय अभय एक कसौटी है व्यक्तित्व को मापने की एक क्षण ही काफी है जब जागे तभी सवेरा अक्षमता अभिशाप है स्वस्थ जीवन के तीन मूल्य काले कालं समायरे निमित्तों पर विजय अभिमान धोखा है। बिम्ब और प्रतिबिम्ब परीक्षण योग्यता का अभावुक बनो भोगी भटकता है प्रगति का प्रथम सूत्र कल्याणकारी भविष्य का निर्माण जीवन का सही लक्ष्य जीवन स्तर ऊंचा उठे' सच्ची शूरवीरता बिंदु बिंदु विचार कैसे होता है गुणों का उद्दीपन सफलता के सूत्र राज/वि वीथी लघुता जब जागे कुहासे जब जागे राज/वि दीर्घा लघुता मनहंसा वैसाखियां मंजिल १ समता समता समता मुखड़ा खोए मनहंसा संभल संभल संभल अतीत का दीया राज/वि दीर्घा २.१० २५९ १७३ ८८ ७७ २१६ ३६ १५४ ३५ १५०/१८५ ३. २२-१-५६ जालमपुरा । १. १०-४-७७ लाडनूं । २. ७-१२-५६ पहाड़गंज । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ € ५० अपभाषण सुनना भी पाप है सम्बन्धों की मिठास नया युग : नया जीवन दर्शन मुसकान की मिठास जन साधारण का आदर्श क्या है ? " जीवन को संवारें ? मूल्यांकन विनय का अमृत क्या है ? जहर क्या है ?" बाणी की महत्ता * जीवन निर्माण के दो सूत्र सोचो ! समझो !! जीवन और लक्ष्य शुद्ध जीवन चर्या सफलता के साधन ' जीवन विकास का मार्ग" जीवन का निर्माण " क्रोध के दो निमित्त प्रमाद ही भय आत्म प्रशंसा का सूत्र कसौटी के क्षण मानव धर्म अपनाएं? (अप्रमाद) समय का मूल्य" सार्थक जीवन १४ कसौटी ५ १. ३१-३-५४ आबू । २. २५-५-५५ हाकरखेड़ा । ३. ११-१०-६५ दिल्ली । ४. १७-२-५३ कालू ५. २१-४-७९ शाहबाद । ६. २१-७-७७ लाडनूं । ७. २९-३-५६ डीडवाना । ८. ५-४-५६ लाडनूं । आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण 1 कुहासे कुहासे कुहासे खोए प्रवचन ११ सूरज जब जागे जागो ! प्रवचन ९ प्रवचन १० प्रवचन ४ संभल संभल भोर सूरज प्रवचन ११ सोचो ! ३ प्रज्ञापर्व खोए खो भोर प्रवचन ९ प्रवचन ९ शांति के ९. ७-१२- ५४ कुर्ला (बम्बई ) । १०. १४-१-५५ मुलुन्द । ११. ३०-३-७८ लाडनूं । १२. २१-६-५४ (अंधेरी) बम्बई । १३. २४-७-५३ जोधपुर । १४. ९-७-५३ बड़लू । १५. ७-७-५२ बीदासर, सम्मेलन के अवसर पर १८४ २१२ ३ १०४ १७८ १३० १८७ ८४ ३५ २१२ १ ८८ १०१ १८० ११ ९० १६० ७६ ४० ९१ ४३ १९४ १७४ ९३ नागरिक Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसूत्र ७९ २०७ शांति के मुक्तिपथ बूंद बूंद २ संभल १७४ १४० १८ मनहंसा जब जागे लघुता लघुता बूंद बूंद २ सूरज २२२ .६२ ११२ ५८ जीवन कल्प की दिशा द्वन्द्वमुक्ति का अभाव व्यक्ति और समाज स्वार्थ की मार अनासक्ति सबसे बड़ा सुख है अनासक्ति अविद्या आदमी को भटकाती है सम्बन्धों का आईना : बदलते हुए प्रतिबिम्ब आसक्ति छूटती है उपनिषद् से आसक्ति का परिणाम अनासक्त भावना अनुशासन अनुशासन से होता है जीवन का निर्माण सम्भव है व्यक्तित्व का निर्माण अनुशासन आज्ञा और अनुशासन की मूल्यवत्ता पराक्रम की पराकाष्ठा कौन सा रास्ता? अपने से अपना अनुशासन निज पर शासन : फिर अनुशासन अनुशासन का हृदय अनुशासन निषेधकभाव नहीं धर्मसम्प्रदायों में अनुशासन आत्मानुशासन का सूत्र जीवन मूल्य जीवन मर्यादामय हो अनुशासन की त्रिपदी २३२ जब जागे लघुता बीती ताहि लघुता दीया वैसाखियां बूंद बूंद १ समता मंजिल २ प्रज्ञापर्व बीती ताहि १९३ २३४ १९२ खोए सूरज संभल दीया १. १९५२ सरदारशहर । २. १०-९-६५ दिल्ली। ३. २३-३-५६ बोरावड़। ४. २५-७-६५ दिल्ली । ५. १२-५-५५ जलगांव । ६. १६-४-६५ किशनगढ़ । ७. २४-९-७८ गंगाशहर। ८. १०-३-५५ नारायणगांव । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखड़ा १२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अनुशासन है मुक्ति का रास्ता दीया २० समूह और मर्यादा निर्देश के प्रति सजग समता/उद्बो १७७/१८० विपर्यय हो रहा है ज्योति के क्षमा और मैत्री क्षमा है अमृत का सरोवर कुहासे १६७ क्षमा बड़न को होत है राज/वि वीथी १५९/१०६ मैत्री और सेवा बीती ताहि मैत्री का रहस्य समता/उद्बो २०१/२०४ मैत्री और राग' आगे की २४१ मैत्री क्या क्यों और कैसे ? अमृत/सफर १०३/१३७ मैत्री भावना से शक्ति संचय बूंद बूंद १ मैत्री दिवस मंजिल १ न स्वयं व्यथित बनो, न दूसरों को व्यथित करो । मंजिल २/मुक्ति इसी ४३/६५ सुख का मूल : मैत्री भावना बूंद बूंद १ विश्वमैत्री प्रवचन ९ विश्वमैत्री का मार्ग संभल १७१ श्रामण्य का सार : उपशम घर १९५ जीवन का शाश्वत मूल्य : मैत्री बूंद बूंद २ हम निःशल्य बनें" सोचो ! १ १३८ समझौतावादी बनें सोचो ! १ १३२ खमतखामना भोर १२६ शांति के १२ '५० ७३ क्षमा २०६ त्याग अर्चा त्याग की" सोचो ! ३ २२६ १. २-५-६६ रायसिंहनगर। २. ३०-१०-७६ सरदारशहर । ३. ११-४-५३ गंगाशहर । ४. ३०-११-५६ सप्रू हाऊस, दिल्ली। ५. सुजानगढ़। ६. १२-९-६५ दिल्ली। ७. १९-९-७७ लाडनूं । ८. १२-९-७७ लाडनूं । ९. ३-९-५४ बम्बई। १०. १३-९-५३ क्षमापना दिवस । ११.४-६-७८ चाडवास । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसूत्र ५३ ८५ ११ १७६ भोर प्रवचन १० प्रवचन ११ प्रवचन ५ ज्योति के प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ५ प्रवचन ११ प्रवचन ११ संभल संभल घर १५० १५० दीया त्याग का महत्त्व त्याग : हमारी सांस्कृतिक धरोहर' सुख का मार्ग : त्याग' त्याग : मुक्तिपथ जीवन की उच्चता का मापदण्ड त्याग का मूल्य त्याग बनाम भोग सचित्त परित्याग का मूल" सबसे बड़ी आवश्यकता त्याग की महत्ता त्याग के आदर्श की आवश्यकता त्याग और सदाचार की महत्ता त्याग का महत्त्व पुरुषार्थ परम पुरुषार्थ की शरण जीवन सफलता के दो आधार" पुरुषार्थ की गाथा श्रम से न कतराएं क्या भारत अमीर हो गया ? जैनधर्म का मूलमंत्र : पुरुषार्थ सुख का सीधा उपाय श्रम की संस्कृति स्वयं का ही भरोसा करें३४ स्वर्ग कैसा होता है ? जीवन का अभिशाप १. ११-७-५४ बम्बई। २. ३-४-७९ (कोतिनगर) दिल्ली। ३. जोधपुर। ४. २९-११-७७ लाडनूं । ५. ११-७-५३ पीपाड़। ६. १५-३-५३ उदासर । ७. २८-१२-७७ लाडनूं। ६ आगे मंजिल १ प्रज्ञापर्व वैसाखियां बूंद बूंद २ वैसाखियां समता सोचो! ३ समता समता T २३६ २४० २३१ ८. जोधपुर । ९. ५-५-५४ चिरमगांव। १०. २८-५-५६ पडिहारा। ११.६-३-६६ भटिण्डा। १२. १०-११-७६ सरदारशहर । १३. १५-७-६५ दिल्ली। १४. ११-१-७८ जैन विश्व भारती। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० तु० साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रवचन ४ १४६ प्रवचन ११ संभल १३८ २१० १२० १६२ घर सोचो ! ३ मंजिल ? सोचो! १ आगे की प्रवचन ५ मनहंसा सोचो! ३ जीवन की ३५ २०२ ९८ कुहासे १५५ १४९ सोचो ! १ घर घर श्रमनिष्ठा और कर्तव्यनिष्ठा को जगाएं कल्याण का सूत्र पुरुषार्थवाद' विकास का दर्शन प्रतिरोधात्मक शक्ति जगाएं भाग्य और पुरुषार्थ नियति और पुरुषार्थ नियति और पुरुषार्थ प्रकृति और पुरुषार्थ समाज और स्वावलम्बन स्वावलम्बन अपना भविष्य अपने हाथ में कर्तृत्व अपना धैर्य और पुरुषार्थ का योग" श्रम और संयम पुरुषार्थ के भेद" मानव जीवन अनूठी दुकान : अनोखा सौदा मानवता की परिभाषा४ मनुष्य महान् कब तक'५ मनुष्य जीवन का महत्त्व १६ जीवन और लक्ष्य समय को पहचानों १. २३-९-७७ जैन विश्व भारती। २. ९-१२-५३ निमाज । ३. १५-७-५६ सरदारशहर । ४. १०-१०-५७ सुजानगढ़। ५. १५-१-७८ जैन विश्व भारती। ६. २०-३-७७ जैन विश्व भारती। ७. २९-९-७७ जैन विश्व भारती। ८.२१-२-६६ नोहर। ९.७-१-७८ जैन विश्व भारती। ४८ W राज/वि दीर्घा १६०/१६१ सूरज सोचो ! ३ २३३ प्रवचन ११ प्रश्न प्रवचन ११ १०. १४-१-७८ जैन विश्व भारती। ११. २५-९-७७ जैन विश्व भारती । १२. २६-५-५७ लाडनूं । १३. लाडनूं । १४. १०-७-५५ उज्जैन । १५. ५-६-७८ बीदासर । १६. १२-३-५४ जोजावर । १७. ३-१२-५३ सिलारी। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसूत्र ५५ प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ११ भोर बूंद बूंद १ समता सूरज घर २१८ २०५ १६५ घर २२० मनुष्य का कर्तव्य मानव जीवन की मूल्यवत्ता पशुता बनाम मानवता मानव जीवन की सफलता मनुष्य जन्म और उसका उपयोग मूल बिना फूल नहीं चातुर्मास का महत्त्व मूल्यांकन का आधार" सच्ची जिंदगी शांति कामना निवृत्ति से शांति खोज शांति की, कारण अशांति के शांति का सही मार्ग११ शांति आत्मा में है१२ शक्तिमय जीवन जीने की कला13 शांति की चाह किसे है ? शांति कहां है ? शांति की खोज जीवन चर्या का अन्वेषण सबसे बड़ी पूंजी शक्ति का सदुपयोग दुःख का मूल ७१ २४५ ९८ बूंद बूंद १ मंजिल २ आगे की प्रवचन ११ सोचो! ३ समता/उद्बो वैसाखियां भोर सूरज भोर सोचो! ३ २३८ ४९/४९ १७९ १६९ सूरज १.९-७-५३ बडलू । २. ६-३-५३ चाडवास । ३. १६-१-५४ दूधालेश्वर । ४. १२-१२-५४ कुर्ला (बम्बई)। ५. २८-६-६५ दिल्ली। ६. ४-७-५५ उज्जन । ७. ८-४-५७ चूरू। ८. २४-१०-५७ चूरू। ९.६-४-६५ ब्यावर। १०. २२-१०-७८ गंगाशहर । ११. १२-२-६६ किराड़ा। १२. ८-१२-५३ गरणी। १३. ६-६-७८ बीदासर । १४.७-११-५४ बम्बई । १५. २५-२-५५ पूना । १६. ३-६-७८ छापर । १७. २१-६-५५ धामनोद । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तु० साहित्य : एक पर्यवेक्षण __९८ संभल प्रवचन ९ प्रवचन ११ ज्योति के जन जन धर्म : एक आ तु/विश्वशांति प्रगति की ज्योति के २०५ शांति का पथ' शांति का साधन शांति की ओर वादों के पीछे मत पड़िए विश्वशांति के प्रेमियों से शांति और लोकमत विश्वशांति और उसका मार्ग बाह्य भेदों में मत उलझिए अशांति की चिनगारियां : उन्माद संकल्प संकल्प का मूल्य संकल्प : क्यों और कैसे ? दृढ़ संकल्प : सफलता की कुंजी वही दरवाजा खुलेगा, जिसे खटखटायेंगे सफलता का दूसरा सूत्र जैसी सोच, वैसी प्राप्ति साधना की आंच : संकल्प का घट संयम मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता का मानक संयम से होता है शक्ति का जागरण संयम का मूल्य प्राकृतिक आपदा और संयम संयम ही सच्ची स्वतंत्रता प्राकृतिक समस्या और संयम आनन्द का द्वार प्रवाह को बदलिये संयम एक महल है। मुखड़ा प्रवचन ५ प्रवचन ५ कुहासे वैसाखियां समता आलोक में ६ २१४ ९० ११३ mm - मनहंसा जब जागे वैसाखियां कुहासे प्रज्ञापर्व कुहासे वैसाखियां क्या धर्म मंजिल १ १६९ १. ४-४-५६ लाडनूं । २. २३-३-५३ बीकानेर। ३. शांति निकेतन में आयोजित विश्व शांति सम्मेलन के अवसर पर । ४. ५-११-७७ लाडनूं । ५.८-१-७८ लाडनूं । ६. ३१-१-७७ राजलदेसर । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ मंजिल २ भोर मंजिल १ धर्म : एक १४२ प्रज्ञापर्व संभल संभल घर २०६ १४३ भोर १५० . जीवनसूत्र धर्म का मूल : संयम संयम ही जीवन है संयम : एक सेतु जीवन शुद्धि संयम की आवश्यकता संयम ही जीवन है अंतिम साध्य संयम सर्वोच्च मूल्य है जीवन की सही रेखा संयम संघर्ष बुराई का अंत संयम से होगा संयम के दो प्रकार सुख का राजमार्ग संयमः खलु जीवनम् जीवन में संयम की महत्ता सुख मत लूटो, दुःख मत दो१२ त्याग और संयम का महत्त्व काल को सफल बनाने का मार्ग : संयम संयम ही जीवन है सादा जीवन : उच्च विचार संयम : जैन संस्कृति का प्राण नव समाज के निर्माताओं से ५ ज्योति के ज्योति के प्रवचन ५ प्रवचन ११ प्रवचन ५ प्रवचन ११ प्रवचन ११ सूरज प्रवचन ८ प्रश्न भोर ज्योति से जन जन १२५ ३ १९४ ९३ १. ७-५-७८ लाडन। ९. जोधपुर। २. बम्बई। १०. २६-१२-७७ लाडन । ३. २०-४-७७ बीदासर । ११. ४-३-५४ सुधरी। ४. १८-३-५५ राहता। १२. १०-१-५४ जैन सांस्कृतिक परिषद् ५. २९-५-५६ पड़िहारा। कलकत्ता में प्रेषित। ६. २-१२-५६ बाई. एम. सी ग्राउण्ड १३. २२-५-५५ एरण्डोल । दिल्ली। १४. ३०-७-७८ गंगाशहर । ७. १-१०-५४ बम्बई। १५. २६-१२-५४ (माण्डूप) बम्बई । ८. २१-१२-६६ लाडनूं। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तु० साहित्य : एक पर्यवेक्षण संभल ७८ १६१ १५० मुखड़ा दोनों हाथ वैसाखियां जागो! जागो ! सूरज प्रवचन १० १०७ १२७ २१९ २४ जीवन में संयम का स्थान' संस्कार निर्माण कितना जटिल : कितना सरल संस्कार निर्माण की यात्रा अनमोल धरोहर उपासना कक्ष और संस्कार निर्माण व्यक्ति निर्माण और धर्म अच्छा संस्कार सुसंस्कारों को जगाया जाए समता कैसे खुलेगी भीतर की आंख समत्व के द्वार से नहीं होता है पाप का प्रवेश सहिष्णुता का कवच जो सहना जानता है, वह जीना जानता है जो सहता है, वह रहता है सहना आत्म धर्म है जो चोटों को नहीं सह सकता, वह प्रतिमा नहीं बन सकता समता की पौध प्रियता में उलझ नहीं जीवन का शाश्वत क्रम : उतार चढ़ाव साधना का मार्ग : तितिक्षा' समता का दर्शन समता का प्रयोग समत्व दृष्टि मध्यस्थ रहें १७० लघुता लघुता वैसाखियां जब जागे लघुता खोए १०४ ६ प्रज्ञापर्व उद्बो/समता खोए प्रवचन ५ ३१/३१ o ६ m मंजिल १ x सोचो ! ३ खोए मंजिल १ प्रवचन ४ १५८ २५ १. २२-३-५६ बोरावड़। २. १-१०-६५ दिल्ली ३. १७-१०-६५ दिल्ली ४. २३-५-५५ एरण्डोल ५. १३-७-७८ गंगाशहर ६. २४-११-७७ लाडनूं ७. २-११-७६ सरदारशहर ८. ३०-१-७८ सुजानगढ़ . ९. ३-५-७७ चाडवास १०. २८-७-७७ लाडनूं Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसूत्र १४४ २७३ मनहंसा आगे की खोए बूंद बूंद २ प्रेक्षा कुहासे प्रवचन ११ १४६ १७७ १४१ १६२ दीया मंजिल १ मंजिल १ २३५ ३० सहने की सार्थकता है समभाव समता का दर्शन समता की साधना तितिक्षा और साधना जीवन में समत्व का अवतरण विषमता की धरती पर समता की पौध सुख का मार्ग सेवा साध्य तक पहुंचने का हेतु : सेवाभाव सेवा का महत्त्व वैयावृत्त्य : कर्मनिर्जरण की प्रक्रिया सच्ची सेवा स्वतंत्रता स्वतंत्रता क्या है ? स्व की अनुभूति ही सच्ची स्वतंत्रता मानसिक स्वतंत्रता पराधीन सपनहु सुख नाही स्वतंत्रता : एक सार्थक परिवेश स्वतंत्रता का मूल्य स्वतंत्रता की चाह, धर्म की राह स्वतंत्र चिंतन का मूल्य स्वतंत्र भारत के नागरिकों से स्वतंत्र चिंतन का अभाव स्वतंत्रता में अशांति क्यों ? सूरज ११५ प्रगति की प्रज्ञापर्व ज्योति के प्रवचन ४ राज अतीत का प्रवचन ११ गृहस्थ जन जन मुक्तिपथ संभल १४३ १४७ २०५ १५८ १. २९-५-६६ सरदारशहर २. २-९-६५ दिल्ली ३. ९-१-५४ राजियावास ४. २०-६-७७ लाडनूं ५. २१-१०-८६ सरदारशहर ६. ५-४-५५ औरंगाबाद ७. २२-७-७७ लाडनूं ८. २४-२-५४ सिरियारी ९. १९-८-५६ सरदारशहर, (अणुवत प्रेरणा समारोह) Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ जैनदर्शन ० . ० ० ० ० भारतीय दर्शन • दर्शन के विविध पहलू ० तत्त्व मीमांसा ० द्रव्य गुण पर्याय ० सृष्टि ० ईश्वर ० आत्मा ० कर्मवाद ० शरीर ० कालचक्र ० अनेकांत ० ० ० ० ० Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक -भारतीय दर्शन सत्य की खोज दो दर्शन' जैनदर्शन भारतीय दर्शन की धारा पाश्चात्त्य दर्शन और मूल्य निर्धारण दर्शन की पवित्रता के दो कवच : अहिंसा और मोक्ष' वाद का व्यामोह * दर्शन और विज्ञान दार्शनिकों से भारतीय दर्शनों में मोक्ष सम्बन्धी धारणाएं भारतीय दर्शन : अन्तर्दर्शन गीता की अद्वैत दृष्टि और संग्रह नय जैन दर्शन की मौलिक आस्थाएं जैन दर्शन की मौलिक आस्थाएं जैन दर्शन और अणुव्रत गीता का विकर्म : जैन दर्शन का भावकर्म नियतिवाद : एक दृष्टि धर्म और धर्मसंस्था १. ३-९-७७ लाडनूं २. २६-९-५३ राजपूताना विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग की ओर से आयोजित व्याख्यानमाला का उद्घाटन भाषण । ३.१९५२ में मंसूर में आयोजित पुस्तक गृहस्थ / मुक्तिपथ प्रवचन ४ शांति के अनैतिकता शांति के आ० तु० प्रश्न जन-जन अनैतिकता संभल अतीत / शांति के दायित्व का अतीत अनैतिकता बीती ताहि प्रवचन ११ गृहस्थ / मुक्तिपथ ५. २३-२-५६ भीलवाड़ा ६. २४-५-७३ ७. ४-१२-५३ पिचाग पृष्ठ १००/९५ १२० २२६ ८० १०४ ८ ६६ ३६ ७० ૪ ८३/२१ ६३ ८३ २३७ ६१ फिलोसोफिकल कांग्रेस मीटिंग में । ४. आषाढ़ शुक्ला १४, सं० २००७, भिवानी ९५ ५/३ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ दक्षिण भारत के जैन आचार्य महाभारत और उत्तराध्ययन भारतीय दर्शनों का सार जैन दर्शन के विविध पहलू जैन धर्म की मौलिक विशेषताएं जैन धर्म : एक वैज्ञानिक धर्म धर्म की यात्रा : जैन धर्म का स्वरूप जैन धर्म : पहचान के कुछ घटक क्या जैनधर्म जनधर्म बन सकता है ? जैन धर्म जनधर्म कैसे बने ? 3 जैन धर्म : जनधर्म * जैनधर्म का स्वरूप सत्य की जिज्ञासा मूल्यहीनता की समस्या जैनत्व की पहचान : कुछ कसौटियां जैन दर्शन क्या है ? जैन दर्शन की देन जैन धर्म के पूर्वज नाम आस्तिक नास्तिक की भेदरेखा आस्तिक नास्तिक जैनधर्म और तत्त्ववाद' आधुनिक सन्दर्भों में जैनदर्शन' जैन दर्शन जैन दृष्टि जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांत' १. १०-१-५६ रतलाम २. ३१-३-६६ गंगानगर ३. ७-१-७९ डूंगरगढ़, भारत जैन महामंडल द्वारा आयोजित जैन संस्कृति सम्मेलन पर प्रदत्त आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्म : एक मुखड़ा संभल जीवन आगे की मेरा धर्म मेरा धर्म जीवन प्रवचन १० प्रवचन ५ मुखड़ा मेरा धर्म क्या धर्म लघुता गृहस्थ / मुक्तिपथ भोर अतीत राज / वि वीथी आगे की घर प्रवचन ५ सूरज प्रवचन ९ प्रवचन ९ ४. ९-५-६६ सूरतगढ़ ५. २२-६-५७ सुजानगढ़ ६. १०-१-७८ लाडनूं ७. २५-६ - ५३ नागौर ८. १७- ५-५३ बीकानेर १२९ ३५ १६ જ १३९ ७० ७५ ६० १०१ ९६ १९४ ७९ १०४ १८० १०२/९७ ७४ ५६ १८५/७५ २४७ १६० २१३ २०३ १४३ १२७ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन प्रवचन ११ प्रवचन १० सूरज १२९ सूरज ११२ १३३/१२८ ७४/७१ - ९१ जैन दर्शन : समता का दर्शन' जैन धर्म के प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया वीतरागता के तत्त्व जैनधर्म और उसका साधना पथ" सच्चे धर्म की प्राप्ति क्या है निर्ग्रन्थ प्रवचन निर्ग्रन्थ प्रवचन ही प्रतिपूर्ण है जैन धर्म जैनधर्म और अहिंसा आत्मकर्तृत्ववादी दर्शन निर्ग्रन्थ प्रवचन निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है जैनधर्म में सर्वोदय की भावना शाश्वत तत्त्व' पूर्व और पश्चिम की एकता नए अभिक्रम की दिशा में जैन कौन ? जैनों की जिम्मेवारी जैन धर्म में आराधना का स्वरूप जैन धर्म का अहिंसा दर्शन जैन धर्म : बौद्ध धर्म इस्लाम धर्म और जैन धर्म जैन दर्शन और वेदांत ज्ञेय के प्रति सत्य की यात्रा १२९/१२४ १३१/१३६ १०५ सूरज प्रवचन १० गृहस्थ मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ आगे संभल गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ मुक्तिपथ सूरज प्रवचन १० प्रगति की/आ. तु. जीवन बूंद-बूंद २ सूरज मनहंसा प्रवचन ५ मुखड़ा जब जागे अतीत गृहस्थ मुक्तिपथ सोचो ! ३ १२/१३२ १५३ ४० २२१ ६२ १०४/९९ १. १७-५-५४ वरकाणा २. ८-८-७८ गंगाशहर ३. २४-५-५५ एरण्डोल ४. २-४-५५ औरंगाबाद ५. १४-२-५५ पनवेल ६. ९-१-७९ डूंगरगढ़ ७.१-३-६६ सिरसा ८. १७-२-७९ चूरू ९. लंदन में आयोजित जैन धर्म सम्मेलन के अवसर पर प्रेषित संदेश १०. २७-२-५५ पूना ११. ४-११-७७ लाडनूं १२. १२-१-७८ लाडनूं Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ११३ १८५ r r r ur ११. आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण निश्चय और व्यवहार गृहस्थ/मुक्तिपथ १२५/१२० अवधारणा : क्रियावाद और अक्रियावाद की दीया देव गुरु और धर्म' बूंद-बूंद १ तीर्थंकर और सिद्ध अतीत/धर्म : एक १२१/११६ प्रत्येकबुद्ध और बुद्धबोधित बूंद-बूंद १ त्रिपदी : एक ध्रुव सत्य' प्रवचन ४ ९९ अप्रावृत और प्रतिसंलीनता अतीत गुणस्थान दिग्दर्शन मंजिल २ २२८ योग और करण वि वीथी योग और करण' मंजिल २ क्रिया : एक विवेचन [१] जागो! क्रिया : एक विवेचन [२] जागो ! क्रिया : एक विवेचन [३] जागो ! सिद्धांत विज्ञान की कसौटी पर मंजिल २ २४० जैनधर्म जनधर्म कैसे बने ? घर योग परिज्ञा" जागो ! अर्हतों की स्तवना जागो ! जैनों और वैदिकों के चार वर्ण१२ जागो ! १२८ समिति, गुप्ति और दण्ड मंजिल २ १०८ विक्रिया कैसे होती है ? मंजिल २ केवली और अकेवली५ प्रवचन ४ संघ व्यवस्था संचालन और पांच व्यवहार दीया १४५ उत्सर्ग और अपवाद६ बूंद-बूंद २ अनुमोदना : उपसम्पदा : विजहणा" सोचो ३ २१३ १. २८-२-६५ बाड़मेर १०. ३-१०-६५ दिल्ली २. २७-४-६५ जयपुर ११. १८-१०-६५ दिल्ली ३. २८-८-७७ लाडनूं १२. २१-१०-६५ दिल्ली ४. ३१-१०-७८ गंगाशहर १३. १७-४-७८ लाडनूं ५. १३-४-७८ लाडनूं १४. १२-४-७८ लाडनूं ६. २७-९-६५ दिल्ली १५. ८-८-७७ लाडनूं ७. २८-९-६५ दिल्ली १६. १५-९-६५ दिल्ली ८. २९-९-६५ दिल्ली १७. ३१-५-७८ लाडनूं ९.२०-१०-७८ गंगाशहर ११४ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन सुपात्र कौन ? प्रश्न और समाधान कषाय मुक्ति बिना शांति संभव नहीं विचार समीक्षा' प्रतिसेवना के प्रकार अनन्तक * शक्ति का सदुपयोग हो (पर्याप्ति) पर्याप्ति : एक विवेचन ' अहिंसा की भूमिका (प्राण) और नीचे कहां ?" ( गुणस्थान ) धरती पर स्वर्ग बना सकते हैं कर्मणा जैन बनें " संसार में भ्रमण क्यों करता है प्राणी ? तत्त्व मीमांसा तत्त्व बोध" तत्त्वदर्शन नव तत्त्व का स्वरूप १२ तत्त्व चर्चा जीव और अजीव विवेचन : जीव और अजीव का १४ १. २ -१०-६५ दिल्ली २. २६-१०-६८ ३. २४-६-७७ लाडनूं ४. २३-६-७७ लाडनूंं ५. १९-११-६५ दिल्ली ६. १९-१०- ७८ गंगाशहर ७. २३-१०- ७८ गंगाशहर ८. १०-१०-७८ गंगाशहर संदेश राज / वि वीथी जागो ! धर्म : एक मंजिल १ मंजिल १ जागो ! मंजिल २ मंजिल २ मंजिल २ प्रवचन ४ मंजिल २ दीया प्रवचन ८ भगवान मंजिल १ तत्त्व सोचो १ प्रवचन ९ ९. १०-८-७७ लाडनूं १०. ९-१०-७८ गंगाशहर २०९/१५५ ५८ १२७ २४१ २३७ २०१ २३८ २४७ २१७ ६६ २१३ ६७ १४९ १०४ १५२ १ १६७ १५५ ११. ११-८-७८ गंगाशहर १२. ३०-४-७७ बीदासर १३. के० जी० रामाराव तथा हर्बर्टटिसि के प्रश्नों का उत्तर १४. १-१०-७७ लाडनूं 8 19 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मंजिल १ १८५ बूंद-बूंद १ मंजिल १ १८९ मंजिल १ मंजिल १ २२१ १२६ प्रवचन ८ ११८ प्रवचन ८ १३४ पुण्य के नौ प्रकार धर्म और पुण्य' पाप के नौ प्रकार संवर धर्म जैन दर्शन का मौलिक तत्त्व-संवर' द्रव्य गुण पर्याय गुण क्या है ? विशेष गुण : एक विमर्श द्रव्य के विशेष गुण प्रदेशवत्त्व और अगुरुलघुत्व' हम पर्याय को पहचानें" पर्याय के लक्षण और पर्याय पर्याय : एक शाश्वत सत्य षड्द्रव्यों की स्थिति बूंद-बूंद से घट भरे१४ प्राथमिक कर्तव्य धर्मास्तिकाय : एक विवेचन अधर्मास्तिकाय की स्वरूप मीमांसा आकाश के दो प्रकार आकाश को जानें प्रवचन ८ प्रवचन ८ १२४ प्रवचन ८ एए १४४ प्रवचन ८ प्रवचन १० प्रवचन ८ सोचो! ३ प्रवचन ५ १६२ १०४ प्रवचन ८ ११ प्रवचन ८ १९ प्रवचन ५ १७४ २३ प्रवचन ८ सोचो! ३ ११० काल२० १.१२-५-७७ चाड़वास २. २९-६-६५ दिल्ली (ग्रीन पार्क) ३. १३-५-७७ चाडवास ४. १४-५-७७ चाडवास ५. २२-३-७७ लाडनूं...... ६. ४-८-७८ गंगाशहर ७. ७-८-७८ गंगाशहर ८.८-८-७८ गंगाशहर ९.५-८-७८ गंगाशहर १०.८-८-७८ गंगाशहर ११. १०-८-७८ गंगाशहर १२. २१-३-७९ दिल्ली (महरौली) १३. १-८-७८ गंगाशहर १४. १७-१-७८ लाडनूं १५. २९-१२-७७ लाडनूं १६. १५-७-७८ गंगाशहर १७. १५-७-७८ गंगाशहर १८. २-१-७८ लाडनूं १९. १६-७-७८ गंगाशहर २०. २१-३-७८ लाडनूं Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन प्रवचन १० प्रवचन ८ १८० १०१ १०८ ४८ ३७ प्रवचन ८ प्रवचन ८ प्रवचन ७ सोचो! ३ प्रवचन ८ प्रवचन ९ प्रवचन ८ प्रवचन ८ प्रवचन ८ ३७ प्रवचन ८ प्रवचन ८ १८९ काल का स्वरूप क्या काल पहचाना जाता है ? ' पुद्गल धर्म व अधर्म की स्थिति पुद्गल : एक अनुचिंतन पुद्गल के लक्षण बन्धन का हेतु : राग-द्वेष पुद्गल की विभिन्न परिणतियां' शब्द की उत्पत्ति क्या अंधकार पुद्गल है ?' क्या छाया स्वतंत्र पदार्थ है ? परमाणु का स्वरूप परमाणु : एक अनुचिन्तन परमाणु संश्लेष की प्रक्रिया संसार में जीवों की अवस्थिति जीवों के वर्गीकरण जीव के दो वर्ग विस्मृति भी जरूरी है। सृष्टि अस्तित्त्ववाद जैनदर्शन में सृष्टि सृष्टि क्या है ?" संसार क्या है ?२० १. २६-३-७८ दिल्ली २. ३१-७-७८ गंगाशहर ३. २-८-७८ गंगाशहर ४. २२-७-७८ गंगाशहर ५. २३-७-७८ गंगाशहर ६. १९-१-७८ लाडनूं ७. २४-७-७८ गंगाशहर ८. १८-२-५३ कालू ९. २५-७-७८ गंगाशहर १०.२७-७-७८ गंगाशहर प्रवचन ८ मंजिल २ सोचो ! ३ प्रवचन ४ १६३ १७७ ३५ मुखड़ा सोचो! ३ प्रवचन ८ मुक्ति : इसी ११. २७-७-७८ गंगाशहर १२. २८-७-७८ गंगाशहर १३. २९-७-७८ गंगाशहर १४. ३-८-७८ गंगाशहर १५. २०-९-८५ गंगाशहर १६. ३१-३-७८ लाडनूं १७. १-८-७७ लाडनूं १८.४-४-७८ लाडनूं १९. १८-७-७८ गंगाशहर २०. ८-६-७६ राजलदेसर Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० संसार क्या है ? संसार क्या है ?? सृष्टिवाद : एक विवेचन ' लोक अलोक की मीमांसा' लोकस्थिति : एक विश्लेषण * जैनधर्म और सृष्टिवाद ईश्वर जैन दर्शन में ईश्वर जैन धर्म में ईश्वर उसको पाप नहीं छूते परमात्मा कौन बनता है ? आत्मा परमात्मा मोक्ष का अर्थ " आत्मा आत्मस्वरूप क्या है ?" जैन दर्शन में आत्मवाद' जैन दर्शन में आत्मा" आत्मा द्वैत है या अद्वैत" ? आत्मवाद : अनात्मवाद २ आत्मा और परमात्मा मात्मा और शरीर " आत्मा और पुद्गल १४ अवधारणा : आत्मा और मोक्ष की " १. १२-७-७८ गंगाशहर २. १९-७-७८ गंगाशहर ३. २५-८-७८ लाडनूं ४. १७-७-७८ गंगाशहर ५. १२-६-७५ दिल्ली ६. २६-१०-७८ गंगाशहर ७. २१-५-५७ लाडनूं ८. २५-८-७८ लाडनूं आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मंजिल २ प्रवचन ८ प्रवचन ८ प्रवचन ४ प्रवचन ८ घर नयी पीढ़ी क्या धर्म मनहंसा मंजिल २ खो घर प्रवचन ८ मंजिल १ मंजिल १ प्रवचन ४ प्रवचन २० गृहस्थ / मुक्तिपथ बूंद-बूंद २ आगे की अतीत ७३ ५ ३९ ९१ ३१ १७६ ३६ ८७ १५० २५१ ६६ १०१ २२७ २२२ २१ ८७ १६७ १४१/१२१ ८ १ १२१ १६० ९. १-६-७७ लाडनूं १०. १४-१०-७६ सरदारशहर ११. २४-८-७७ लाडनूं १२. २२-३-७९ दिल्ली १३. २ ८-६५ दिल्ली १४. २८-३-६६ गंगानगर १५. वार्ता - संसद सदस्य सेठ गोविन्द दास के साथ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन कर्मवाद १६५ . २३४ १२६ १८२ २४ १२२ १०८ १९७ २०२ कर्मवाद कर्म कर्ता का अनुगामी जीव अजीव का द्विवेणी संगम कर्म एवं उनके प्रतिफल सुख दुःख का सर्जक स्वयं कठिन है बुराई का भेदन कर्मवाद के सूक्ष्म तत्त्व कर्मसिद्धांत कर्मवाद का सिद्धांत उपयोगितावाद दृष्टि की निर्मलता संबंधों की यात्रा का आदि बिंदु कर्मबंधन का हेतु : राग द्वेष' कर्मबंधन के स्थान कर्मबंध के कारण अल्पायुष्य बंधन के हेतु" अल्पायुष्य बंधन के हेतु" दीर्घायुष्य बंधन के कारण१२ शुभ अशुभ दीर्घायुष्य बंधन के कारण" देव आयुष्य बंधन के कारण कर्म को प्रभावहीन बनाया जा सकता है उपादान निमित्त से बड़ा मंजिल १ बूंद-बूंद १ जब जागे सोचो ! ३ बूंद-बूंद २ जब जागे भोर भगवान् प्रवचन ११ मुखड़ा मुखड़ा जब जागे प्रवचन ५ मंजिल २ सोचो! ३ मंजिल २ मंजिल २ मंजिल २ मंजिल २ मंजिल २ जब जागे मुखड़ा W ... ९२ १२४ १०१ १०४ ५२ १०२ १. ६-५-७७ चाडवास २. ३०-६-६५ दिल्ली ३. ६-४-७८ लाडनूं ४. २८-७-६५ दिल्ली ५. ३१-८-५४ बम्बई ६.५-२-५४ राणावास ७. २७-११-७७ लाडनूं ८. ११-१०-७८ लाडन ९. २३-३-७८ लाडनूं १०. १४-४-७८ लाडनूं ११. १५-४-७८ लाडनूं १२. १६-४-७८ लाडनूं १३. १७-४-७८ लाडनूं १४. ५-१०-७६ सरदारशहर Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ गौण को मुख्य न मानें' शक्तिशाली कौन: कर्म या संकल्प ? कर्म मोचन : संसार मोचन कर्म व पुरुषार्थ की सापेक्षता' कर्मविच्छेद कैसे होता है ? ४ बंधन और मुक्ति क्षण-क्षण मुक्ति कर्मों की मार आत्मरमण को प्राप्त हों कर्म और भोग' मोह एक आवर्त है" मोहनीय कर्म क्या है ? आत्मोपलब्धि का पथ : मोहविलय सुधार का प्रारम्भ स्वयं से हो प्रश्न गोविन्ददासजी के, उत्तर आचार्य तुलसी के शरीर शरीर एक नौका है शरीर का स्वरूप ४ शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् " शरीर के दो प्रकार" शरीर को जानें अपवित्र में पवित्र आत्मा का आधार १. १२-१०-६५ दिल्ली २. ५-४-७८ लाडनूं ३. २२-८-७७ लाडनूं ४. ३०-८-७७ लाडनूं ५. ३-१-७८ लाडनूं ६. २६-८-७७ लाडनूंं ७. २३-७-७७ लाडनू ८. २५-१०-७७ लाडनूं ९. २६-८- ७८ गंगाशहर ર आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जागो ! जब जागे सोचो ! ३ प्रवचन ४ प्रवचन ४ प्रवचन ५ प्रवचन ४ प्रवचन ४ प्रवचन ४ प्रवचन ८ मंजिल १ सोचो ! ३ सोचो ! ३ मंजिल १ धर्म : एक प्रवचन ५ खोए खोए १०. २६-३-७८ लाडनूं ११. ३०-५-७७ लाडनूं १२. २७-३-७८ लाडनूं १३. १५-३-७७ लाडनूं मुखड़ा मंजिल १ मुक्ति: इसी / मंजिल २६१/४० प्रवचन ५ १४. ११-५-७७ चाड़वास १५. १८-५-७८ पड़िहारा १६. २-१-७८ लाडनूं १७. ९-१-७८ लाडनूं ८७ १३७ १८० ७८ १०८ १८१ ९४ ८ १९७ २३० २१८ १५.० १३० ११२ ८ १ १५९ १८२ १७७ २०८ १५ ६४ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन गृहस्थ मुक्तिपथ मंजिल १ वैसाखियां प्रवचन ४ बूंद-बूंद २ दीया १७७ कालचक्र धर्म प्रवर्तन काल के विभाग सृष्टि का भयावह कालखण्ड सतयुग कलियुग युग की आदि और अन्त की समस्याएं अस्तित्वहीन की सत्ता अनेकांत अनेकांत है तीसरा नेत्र अनेकांत क्या है ? सब कुछ कहा नहीं जा सकता स्याद्वाद : जैन तीर्थंकरों की अनुपम देन" अनंत सत्य की यात्रा : अनेकांतवाद अनाग्रह का दर्शन अनेकांत अनेकांत अनेकांत अनेकांतवाद समन्वय का मूल अनेकांतदृष्टि जैनदर्शन और अनेकांत जैन दर्शन और अनेकांत यथार्थ का भोग अनेकांत और वीतरागता अनेकांत और वीतरागता जैनविद्या का अनुशीलन करें १. १२-२-७७ छापर २. ९-८-७७ लाडनूं ३. २-८-६५ दिल्ली ४. ५-१०-७७ लाडनूं ५. १२-१-७८ लाडनूं ६. २६-९-५३ जोधपुर मनहंसा १८८ राज/वि दीर्घा ७१/१६८ मनहंसा १६२ सोचो ! १ १७८ सोचो ! ३ प्रवचन ९ २६९ भोर शांति के प्रवचन ९ १९१ गृहस्थ मुक्तिपथ ११७/११२ घर गृहस्थ मुक्तिपथ ११९/११४ नव निर्माण १७९ प्रवचन ११ १११ समता उद्बो १८७ आगे की २२६ प्रज्ञापर्व ७. १०-८-५४ बम्बई (सिक्कानगर) ८. १९-१-५६ बिड़ला विद्याविहार, पिलाणी ९. राजपूताना विश्वविद्यालय, दार्शनिक व्याख्यानमाला, जोधपुर १०. २९-४-६६ रायसिंहनगर १८५ ३० ___ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ १५० W 1 अनेकांत और स्याद्वाद स्याद्वाद : सापेक्षवाद' स्याद्वाद जैनदर्शन' अनेकांत : स्यादवाद स्याद्वाद स्याद्वाद स्याद्वाद सर्वधर्म समभाव और स्याद्वाद स्याद्वाद और जगत् सप्तभंगी सर्वांगीण दृष्टिकोण अस्तित्व और नास्तित्व नित्य और अनित्य सामान्य और विशेष वाच्य और अवाच्य वस्तु की सापेक्षता वस्तुबोध की प्रक्रिया शब्दों में उलझन न हो' शब्दों में उलझन क्यों ? आत्मोदय की दिशा चार आवश्यक बातें आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण राज/वि दीर्घा ६७/१७३ मंजिल २ नयी पीढ़ी संभल संभल क्या धर्म गृहस्थ/मुक्तिपथ १०६/१०१ मंजिल १ १२८ मेरा धर्म अतीत गृहस्थ मुक्तिपथ १२१/११६ गृहस्थ मुक्तिपथ ८७/९२ गृहस्थ मुक्तिपथ १०८/१०३ गृहस्थ मुक्तिपथ ११०/१०५ गृहस्थ मुक्तिपथ ११२/१०७ गृहस्थ/मुक्तिपथ ११४/१०९. गृहस्थ/मुक्तिपथ ११६/१११ गृहस्थ/मुक्तिपथ १२३/११८ बूंद-बूंद १ बूंद-बूंद १ प्रवचन ९ सूरज KG - १. २०-५-७८ लाडनूं २. १३-६-६५ दिल्ली ३. सरदारशहर ४. १५-१-५६ मन्दसौर ५. ८-४-७७ लाडनूं ६. २८-३-६५ पाली ७. २२-४-६५ जोबनेर ८. २२-३-५३ बीकानेर ९. २८-२-५५ पूना Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ ० तेरापंथ 0 तेरापंथ के मौलिक सिद्धांत 0 तेरापंथ : मर्यादा और अनुशासन मर्यादा महोत्सव ० योगक्षेम वर्ष Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक तेरापंथ हे प्रभो ! यह तेरापंथ तेरापंथ है तीर्थंकरों का पथ तेरापंथ की उद्भवकालीन स्थितियां तेरापंथ के प्रथम सौ वर्ष दूसरी शताब्दी का तेरापंथ वर्तमान शताब्दी की छोटी सी झलक तेरापंथ क्या और क्यों ? " तेरापंथ : क्या और क्यों ? तेरापंथ : एक विहंगावलोकन तेरापंथ धार्मिक विशालता का महान् प्रयोग तेरापंथ का इतिहास समर्पण का इतिहास है ' तेरापंथ का विकास तेरापंथ मंजिल तक पहुंचाने वाला पथ है तेरापंथ संघपुरुष : एक परिकल्पना एक अद्भुत धर्मसंघ शासन समुद्र है जैनधर्म और साधना सत्य की लौ जलती रहे अस्मिता का आधार कैसा होता है संघ और संघपति का सम्बन्ध आस्था : केन्द्र और परिधि * १. १० - ६.७५ नई दिल्ली । २. २१-१-७८ जैन विश्व भारती, पुस्तक कुहासे में जब जागे मेरा धर्म जब जागे जब जागे जब जागे नयी पीढ़ी मेरा धर्म मेरा धर्म मेरा धर्म सोचो ! ! ३ वि० वीथी जब जागे लघुता प्रज्ञापर्व संभल घर प्रज्ञापर्व मुखड़ा दीया नयी पीढ़ी / मेरा धर्म ३. ३१-५-५६ रतनगढ़ । ४. १४-६-७५ दिल्ली । पृष्ठ २२१ १५३ ९६ १६७ १७२ १७९ १६ ८८ ११० ११६ ५० १८१ १५८ २३६. ५१. १२२ १८२ १५. २३ १५२ ५४/८२ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २२६ २७८ १८३ १८८ १४३ १४४ २१ प्रवचन ११ संदेश आगे मुखड़ा मुखड़ा मुखड़ा प्रवचन ५ सफर मुखड़ा सोचो! ३ अतीत का घर मंजिल १ अतीत का मंजिल १ दायित्व का वि० दीर्घा ज्योति से कुहासे जब जागे प्रवचन १० प्रवचन १० कुहासे २६९ तेरापंथ की मंडनात्मक नीति' जहां विरोध है, वहां प्रगति है संघ का गौरव श्रम और सेवा का मूल्यांकन संघ में कौन रहे ? भेद में अभेद की खोज वैयक्तिक और सामूहिक साधना का मूल्य रचनात्मक प्रवृत्तियां संगठन के तत्त्व नई पोढ़ी और धार्मिक संस्कार शरीर को छोड़ दें, धर्मशासन को नहीं स्थिरवास क्यों ? एक स्वस्थ पद्धति : चिन्तन और निर्णय की दायित्वबोध के सूत्र संघ और हमारा दायित्व संघ, संघपति और युवा दायित्व श्रावक अपने दायित्व को समझे युगबोध : दिशाबोध : दायित्वबोध सर्वोत्तम क्षण यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा संस्कार से जैन बनें" कर्तव्यबोध जागे अमृत संसद सीमा में असीमता पुण्य स्मृति संस्कृत भाषा का विकास ७७ २१२ ४९ १३६ १५३ १३८ १९३ ११४ ७९ २३५ कुहासे १४२ प्रवचन ११ मंजिल १ १. १५-५-५४ अहमदाबाद । ७. २७-५-७७ लाडनूं । २. ३०-५-६६ सरदारशहर । ८. २२-५-७३ दूधालेश्वर महादेव । ३. २७-१२-७७ जैन विश्व भारती, ९ १६-२-७५ डूंगरगढ़ । ४. १३-१-७८ जैन विश्व भारती, १०.५-२-७९ राजलदेसर । ५. लाडनूं, स्थिरवास शताब्दी महोत्सव ११. १२-९-७८ गंगाशहर । ६. १३-१-७७ राजलदेसर। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ ११३ १४४ २५९ अमृत महोत्सव का चतुःसूत्री कार्यक्रम अमृत/सफर दायित्व का बोध' मंजिल २ खोजने वालों को उजालों की कमी नहीं सफर क्रांति और विरोध बूंद बूंद १ २०४ स्वस्थ समाज संरचना के सूत्र जोवन १७३ किशोर डोसी धर्म : एक समाधान के स्वर अतीत का १६६ पुनीत कर्त्तव्य" सोचो ! ३ पुण्य स्मृति प्रवचन ११ १४२ श्रद्धा संघ का प्राण तत्त्व है संभल तेरापंथ के मौलिक सिद्धांत तेरापंथ की मौलिकता वि० वीथी १९२ तत्त्वज्ञान बाहर ही नहीं, अंदर भी फैलाना है प्रज्ञापर्व शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन जरूरी अमृत/सफर ८९/१२३ धर्म के दो बीज : दया और दान सन्देश दान के दो प्रकार सोचो ३ २८६ दया और दान सूरज २३० मंजिल के भेद से मार्ग का भेद जब जागे १९८ सिद्धांत का महत्त्व उसके सदुपयोग में है सन्देश साध्य साधन विवेक सूरज साधर्म्य और वैधर्म्य प्रवचन १० अधिकारों का विसर्जन ही अध्यात्म प्रज्ञापर्व धर्म की कसौटियां कुहासे तेरापंथी कौन ? मंजिल १ संघीय संस्कार गृहस्थ १५१ धार्मिक संस्कार मुक्तिपथ २०३ १. १८-४-७८ लाडनूं । ७. १४-२-५६ भीलवाड़ा। २. १२-६-६५ अलवर । ८. २८-६-७८ नोखामण्डी। ३,४. ३०-६-६८ टाइम्स ऑफ इण्डिया ९. ५-१२-५५ बड़नगर। के संवाददाता किशोर डोसी के १०.२३-२-५५ पूना । साथ वार्ता। ११. २१-७-७८ गंगाशहर । ५. १६-६-७८ जोरावरपुरा। १२. २०-१२-७६ राजलदेसर । ६. २३-२-५४ सिरियारी। . ५१ ६५ ७० Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण भोर प्रवचन ५ प्रवचन १० ३५ १२१ २६८ २१५ मनुष्य जीवन की सार्थकता' मूल्यांकन की आंख तृप्ति कहां है ? तेरापंथ मर्यादा और अनुशासन साधना : संगठन और संविधान तेरापंथ की मौलिक मर्यादाएं मर्यादा : संघ का आधार हमारा धर्मसंघ और मर्यादाएं तेरापंथ के शासनसूत्र मर्यादा : संघ का आधार संघ का आधार : मर्यादाएं संघीय मर्यादाएं संघीय मर्यादाएं मर्यादा की सुरक्षा : अपनी सुरक्षा मर्यादा की उपयोगिता मर्यादा बंधन नहीं संघीय मर्यादाओं के प्रति सजग रहें। परम कर्त्तव्य'२ संघ धर्म१३ २६८ १५० १०१ १९८ जब जागे सोचो ! ३ सोचो ! ३ वि० वीथी वि० वीथी सोचो ! ३ मंजिल २ मंजिल १ मंजिल १ वि० दीर्घा मंजिल १ मंजिल १ प्रवचन ४ प्रवचन ४ प्रवचन ४ मंजिल १ वि० वीथी प्रवचन १० १२१ २२० २४८. २१ ४ हाजरी ११८ २०५ मर्यादा का महत्त्व शाश्वत और सामयिक मर्यादाएं१५ मर्यादा महोत्सव संसार का विलक्षण उत्सव १. १२-६-५४ बम्बई (बोरीवली)। २. १८-११-६६ तेरापंथ भवन लाडनूं का उद्घाटन समारोह। ३. ९-२-७९ राजलदेसर। ४. २३-१-७८ जैन विश्व भारती ५. १७-६-७८ नोखामण्डी । ६. ६-५-७८ लाडनूं । ७. १७-२-७७ छापर । मनहंसा १७९ ८. १७-५-७७ चाड़वास । ९. ३१-५-७७ लाडनूं । १०. १५-७-७७ लाडनं । ११. २६-९-७७ जैन विश्व भारती, १२.३०-१०-७७ जैन विश्व भारती, १३. ३-८-७७ जैन विश्व भारती, १४. १८-३-७७ जैन विश्व भारती, १५.७.२-७९ राजलदेसर । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ संगठन का आधार : मर्यादा महोत्सव एक अलौकिक पर्व : मर्यादा महोत्सव संसार का विलक्षण उत्सव मर्यादा महोत्सव' विसर्जन का प्रतीक : मर्यादा महोत्सव मर्यादा से बढ़ती है सृजन और तेरापंथ संगठन का मेरुदण्ड : मर्यादा महोत्सव मर्यादा महोत्सव : एक रसायन मर्यादा निर्माण का आधार मर्यादा : एक सुरक्षा कवच धर्मसंघ के दो आधार : अनुशासन और एकता मर्यादा के दर्पण में संगठन की मर्यादा मर्यादा महोत्सव* मर्यादा महोत्सव' मर्यादा की मर्यादा मर्यादा महोत्सव समाधान की क्षमता योगक्षेम वर्ष एक सपना जो सच में बदला व्यक्तित्व निर्माण का वर्ष बेहतर भविष्य की सम्भावना सूरज की सुबह से बात निर्माण यात्रा की पृष्ठभूमि नयी दृष्टि का निर्माण व्यक्ति से समाज की ओर सत्य से साक्षात्कार का अवसर १. सरदारशहर । २. १९-५-७६ पड़िहारा । राणावास, ३. १०-२-५४ महोत्सव | मर्यादा सफर / अमृत जीवन सफर / अमृत घर मेरा धर्म जीवन प्रज्ञापर्व सूरज मेरा धर्म संभल मनहंसा कुहासे कुहासे ५६ वि० दीर्घा ११५ वि० वीथी २०७ वि० दीर्घा १२७ वि० वीथी १९९ मंजिल २ / मुक्ति : इसी ६७ / ९४ प्रवचन ११ १४० प्रवचन ९ कु कुहासे मुखड़ा प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व १४१/१०७ ९९ १४४ / ११० १४ १३६ ८ १ ५. ३०-१-५५ महोत्सव | ६. १४-२-५६ भीलवाड़ा । बम्बई, ९४ २० १३३ ४२ २०२ २२३ २२६ २२८ २३१ २१९ ४. २१-१-५३ सरदारशहर, मर्यादा महोत्सव | ७ १० मर्यादा Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५४ प्रज्ञापर्व एक अद्भुत यज्ञ प्रज्ञापर्व आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण प्रज्ञापर्व तेरापंथ की कुंडली का श्रेष्ठ फलादेशः प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व योग्यताओं का मूल्यांकन हो प्रज्ञापर्व सम्प्रदाय के सितार पर सत्य की स्वर संयोजना प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व : एक अपूर्व अभियान प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व की पृष्ठभूमि प्रज्ञापर्व प्रशिक्षण यात्रा प्रज्ञापर्व सन्दर्भ शास्त्रीय प्रवचन का प्रज्ञापर्व ११४ १४२ १४६ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ० धर्म ० धर्म और जीवन व्यवहार ० धर्म और राजनीति ० धर्मसंघ ० धर्म और सम्प्रदाय ० धर्मक्रान्ति ० धर्म : विभिन्न सन्दर्भों में 0 धार्मिक ० संन्यास ० साधु संस्था ० पंचपरमेष्ठी १० Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म शीर्षक पुस्तक पृष्ठ । ८१ १२४ २२७ दीया लघुता लघुता मुखड़ा क्या धर्म मेरा धर्म क्या धर्म धर्म सब आ० तु बूंद बूंद १ समता खोए जब जागे बूंद बूंद १ संभल १०० ६५ २२९ धर्म धर्म की आधार शिला शाश्वत धर्म का स्वरूप धर्म की एक कसौटी धर्म अमृत भी जहर भी क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? धर्म का तेजस्वी रूप धर्म का अर्थ है विभाजन का अंत धर्म सब कुछ है, कुछ भी नहीं धर्म सब कुछ है कुछ भी नहीं धर्म का व्यावहारिक रूप नौका वही, जो पार पहुंचा दे क्यों हुई धर्म की खोज सार्वभौम धर्म का स्वरूप धर्म : रूप और स्वरूप मानवता का मापदण्ड धर्म क्या सिखाता है ? आत्म साधना सबसे उत्कृष्ट कला धर्म व्यवच्छेदक रेखाओं से मुक्त हो धर्म निरपेक्षता : एक भ्रांति धर्म की शरण : अपनी शरण १-२. सन् १९५०, सर्वधर्म सम्मेलन, दिल्ली। ३. ५-४-६५ ब्यावर । ४. २७-३-७९ दिल्ली (महरौली)। ८८ संभल ६७ १७७ ३१/८० संभल बूंद बूंद २ अणु सन्दर्भ अमृत/सफर खोए ५. १२-१-५६ जावरा। ६. १०-३-५६ अजमेर। ७. १३-३-५६ पुष्कर । ३७ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ 0 UP CM mr 6 २३ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अभी नहीं तो कभी नहीं बीती ताहि धर्म सन्देश आ० तु० धर्म सन्देश तीन धर्म रहस्य' तीन धर्म रहस्य धर्म रहस्य धर्म सिखाता है जीने की कला वैसाखियां धार्मिक परम्पराएं : उपयोगितावादी आशय क्या धर्म धर्म की परिभाषा बूंद बूंद १ ३४ सच्चा तीर्थ संभल सच्ची धार्मिकता क्या है ? संभल धर्म के आभूषण' संभल धर्म : सर्वोच्च तत्त्व आगे धर्म का स्वरूप आगे समता का मूर्त रूप : धर्म बूंद बूंद १ पूर्व और पश्चिम की एकता प्रगति की धर्म सार्वजनिक तत्त्व है। प्रवचन ११ धर्म की परिभाषा प्रवचन ११ १९९ धर्म परम तत्त्व है। प्रवचन १० २२० धर्म का स्वरूप प्रवचन ४ धर्म का स्वरूप : एक मीमांसा प्रवचन ११ धर्म का स्वरूप प्रवचन ९ धर्म का स्वरूप प्रवचन ९ १५० १-२. हिन्दी तत्त्वज्ञान प्रचारक समिति ८. ६-२-६६ डाबड़ी। अहमदाबाद द्वारा ११-३-४७ को ९. २२-२-६६ नौहर । आयोजित 'धर्म परिषद्' में प्रेषित। १०. १०-३-६५ टापरा। ३-४. दिल्ली एशियाई कांफ्रेंस के ११.८-४-५४ धानेरा। अवसर पर सरोजनी नायडू की १२. २२-४-५४ बाव । अध्यक्षता में २१-३-४७ को १३. २३-४-७९ अम्बाली। आयोजित 'विश्व धर्म सम्मेलन' में १४. २७-७-७७ लाडनूं । प्रेषित। १५.७-१०-५३ जोधपुर । ५. १४-३-५६ ईडवा। १६. २३-६-५३ नागौर । ६. १८-१-५६ जावद । १७. २९-६-५३ मंडवा । ७. २१-७-५६ सरदारशहर । १८३ १८४ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ८७ घर २७१ घर २६४ १७९ १४३ १३८ २४३ ७८ धर्म की परिभाषा आत्मौपम्य की दृष्टि धर्म के लक्षण धर्म का सही स्वरूप धर्म एक राजपथ है। जीवन सुधार का मार्ग : धर्म धर्म : कल्याण का पथ धर्म आकाश की तरह व्यापक है। धर्म का रूप धर्म क्या है ? धर्म की पहचान धर्म क्या है ? सबके लिए उपादेय आत्मशुद्धि का साधन निश्चय व्यवहार की समन्विति:२ धर्म की पहचान धर्म आत्मगत होता है तत्त्व क्या है ? १५ धर्म और भारतीय दर्शन सन्दर्भ का मूल्य प्रश्नों का परिप्रेक्ष्य प्रवचन ११ प्रवचन १० मंजिल १ सोचो ! ३ सोचो! ३ सोचो! ३ नवनिर्माण प्रवचन १० मंजिल १ प्रवचन ११ प्रवचन ११ घर जागो ! जागो ! जागो ! तत्त्व आ० तु० धर्म और आ० तु० समता/उद्बो वि०दीर्घा/राज १८१ १८७ २२६ १६४ ११८ १/१०४ १/७९ १५९/१६१ २१३/२१४ १. १-४-५४ आबू। २. २२-२-७९ सादुलपुर । ३. १४-४-७७ बीदासर । ४. २९-१-७८ जसवंतगढ़। ५.८-६-७८ सांडवा। ६. २७-१-७८ लाडनूं। ७. १९-१२-५६ दिल्ली। ८.५-९-७८ गंगाशहर । ९. १४-३-७७ लाडनं । १०. ४-४-५४ मण्डार । ११. सुजानगढ़, अणुव्रत प्रेरणा दिवस । १२. २७-११-६५ दिल्ली। १३. २१-११-६५ दिल्ली। १४. १९-१०-६५ दिल्ली। १५. बम्बई में आयोजित अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन में प्रेषित। १६. कलकत्ता में डा० राधाकृष्णन की अध्यक्षता में आयोजित 'भारतीय दर्शन परिषद्' की रजत जयंती समारोह के अवसर पर प्रेषित । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ४९ २२५ धर्माराधना का प्रथम सोपान' आत्मधर्म और लोकधर्म' धर्म का सामाजिक मूल्य धर्म और स्वभाव' धर्म और दर्शन आत्मधर्म और लोकधर्म धर्म का क्षेत्र धर्म की सामान्य भूमिका सुख शांति का पर्थ धर्म का तूफान आत्मदर्शन : जीवन का वरदान धर्मशासन है एक कल्पतरु आत्मधर्म और लोकधर्म" ग्रामधर्म : नगरधर्म१२ कुलधर्म मानव धर्म व्यक्ति का कर्तव्य आवरण जीवन शुद्धि का प्रशस्त पथ" धर्म का व्यावहारिक स्वरूप१६ धार्मिक समस्याएं : एक अनुचितन । आलोचना मुक्ति : इसी क्षण में सूरज प्रवचन ११ भगवान् प्रवचन ४ प्रवचन १० जागो! १७७ घर १५४ आ० तु. १५७ भोर १९८ आगे आगे मनहंसा १७० शांति के २४२ प्रवचन ४ प्रवचन ४ गृहस्थ १४९ सूरज १६० घर २३८ घर मंजिल २ मेरा धर्म खोए मुक्ति : इसी/मंजिल २ ११/१ १५ ३१ मोती १. ६-१२-५५ बड़नगर । २.६-१०-५३ जोधपुर। ३. ५-८-७७ लाडनं । ४. २०-३-७९ दिल्ली (महरौली)। ५. १४-११-६५ दिल्ली। ६. सुजानगढ़। ७. १९५०, दिल्ली। ८. २९-१२-५४ बम्बई। ९. २८-४-६६ रायसिंहनगर। १०. २०-४-६६ श्रीकर्णपुर । ११. ७-१०-५३ केवलभवन, चौक, जोधपुर। १२. १-८-७७ लाडनूं । १३. ५-८-७७ लाडनूं। १४. २७-६-५५ इंदौर। १५. १९-३-५७ चूरू । १६. २३-४-७८ लाडनूं । १७. कठौतिया भवन, दिल्ली। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म १६७ भोर खोए २८ १४९ मानवधर्म का आचरण' आराधना जीवन की सार्थकता मूल्य परिवर्तन आंतरिक शांति जीवन निर्माण के पथ पर सच्चा साम्यवाद धर्मगुरुओं से तुलनात्मक अध्ययन : एक विमर्श सच्चा धर्म दुर्लभ क्या है ? जागृत धर्म धर्म का सत्य स्वरूप धर्म की व्याख्या धर्म जीवन शुद्धि का साधन है१२ सर्वोपरि तत्त्व मानवीय मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा हो१४ धर्म : जीवन शुद्धि का पथ५ धर्म के दो प्रकार१६ धर्म से जीवन शुद्धि मानव धर्म१८ सच्चे धर्म का प्रतिष्ठापन भोर भगवान् सूरज प्रवचन ११ प्रवचन ११ जन जन प्रवचन १० प्रवचन ९ मंजिल १ सोचो! ३ १३८ २७० १५४ १५६ सूरज भोर प्रवचन १० प्रवचन १० सूरज प्रवचन ४ सूरज बूंद बूंद १ १२. २६ ८ १६४ २३९ १.६-११-५४ बम्बई। १०. २६-६-५५ इन्दौर । २. २८-९-५४ बम्बई । ११. २७-६-५५ इन्दौर । ३. १२-१-५५ मुलुन्द । १२. १३-८-५४ बम्बई । ४. २७-१०-५३ जोधपुर, विचार- १३. ९-७-७८ गंगाशहर । गोष्ठी। १४. ७-७-७८ गंगाशहर । ५. १२-४-५४ थराद । १५. १८-५-५५ पालधी। ६. १८-२-७९ चूरू। १६. ३१-७-७७ लाडनूं । ७. १२-२-५३ कालू । १७. ११-३-५५ नारायणगांव । ८. ३०-१२-७६ राजलदेसर । १८. २-५-६५ जयपुर। ९. २०-६-७८ नोखामण्डी । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० धन से धर्म नहीं गुमराह दुनिया धर्म की व्यापकता धर्म से मिलती है शांति धर्म और मनुष्य ' धर्माराधना क्यों ? धर्म का स्थान अंतर्मुखी बन निःस्वार्थ भक्ति' संघर्ष का मूल : स्वार्थ चेतना " अमरता का दर्शन " धर्माचरण कब करना चाहिए‍ ? धर्म और अधर्म जीवन शुद्धि के दो मार्ग * धन नहीं, धर्मसंग्रह करें५ नर से नारायण" ७ जीवन में धार्मिकता को प्रश्रय दें " बुराइयों की भेंट" सही दृष्टिकोण" धर्म के चार द्वार धर्म की शरण १. ५-१२-५५ बड़नगर । २. १८-१-५५ मुलुन्द । ३. १० - ४ - ५३ गंगाशहर । ४. ९-७-५३ बड़लू ५. ९-२-५३ घडसीसर । ६. २६-११-७७ लाडनूं । ७. १९-१२-७६ रतनगढ़ । ८. १९-११-७६ रतनगढ़ । ९. १८-५-७७ सुजानगढ़ । १०. २५-४-६५ जयपुर । तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सूरज सूरज प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ५ मंजिल १ मंजिल १ मंजिल १ आ० बूंद बूंद १ मंजिल १ मंजिल १ प्रवचन ९ बूंद बूंद १ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ समता प्रवचन ९ ११. २५-११-७६ चूरू । १२. १५-१२-७६ राजलदेसर । १३. २८-६-५३ नागौर । १४. ८-४-६५ ब्यावर । १५. २४-३-५४ सुमेरपुर । १६. २३-३-५४ सांडेराव । १७. २१-३-५४ राणाग्राम । १८. ९ - ४ - ५४ धानेरा । १९. ९-५-५४ अहमदाबाद । २०. ३०-४-५३ नाल । २२९ १४ ७२ १७३ ७ ४० ६८ ४० २०५. १४८ ५०. ६१ १४५ ८१ १७५. १७४ १६ १८४ २१० २४९ ८६. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म आत्मधर्म और परधर्म' मंजिल और पथर धर्म और जीवन व्यवहार धर्म और व्यवहार धर्म और जीवन व्यवहार धर्म और जीवन व्यवहार धर्म व्यवहार में उतरे धर्म और जीवन व्यवहार' नागरिक जीवन और चरित्र विकास धार्मिक जीवन के दो चित्र उपासना के सर्व सामान्य सूत्र आत्मालोचन धर्म और वैयक्तिक स्वतंत्रता धर्म और व्यवहार की समन्विति' धर्म कब करना चाहिए ?" मानवधर्म" धार्मिकता को सार्थकता मिले " धर्म आचरण का विषय है प्रामाणिक जीवन का प्रभाव धर्मनिष्ठा जो चलता है, पहुंच जाता है जीवन और धर्म उपासना और चरित्र " धर्म और त्याग मानवता एवं धर्म १. २५-३-६५ पाली । २. ६ - ९-६५ दिल्ली । ३. २०-२-६६ सम्मेलन । नौहर, व्यापारी ४. १-१२-७६ रामगढ़ । ५. ३-७-५३ रूण । ६. ९-६-७५ दिल्ली । बूंद बूंद १ बूंद बूंद २ आगे क्या धर्म मंजिल १ प्रवचन ९ नयी पीढ़ी सूरज मुक्तिपथ / गृहस्थ क्या धर्म समता / उद्बो क्या धर्म बूंद बूंद १ बूंद बूंद १ नवनिर्माण संभल घर उद्बो / समता गृहस्थ / मुक्तिपथ उद्बो / समता क्या धर्म बूंद बूंद १ प्रवचन ९ प्रवचन ९ ७. २४-७-५५ उज्जैन । ८. १०-६-६५ अलवर । ९. ११-६-६५ अलवर । १०. ९-१२-५६ दिल्ली । ११. १४-२-५६ भीलवाड़ा । १२. १२-३-६५ अजमेर । ९१ ४५. १६१ २५ ७५ ५३ १७१ ९ १७७ १६२/१७९ १७ १६३/१६५ १५ १९६ २०० १४३ ४९ १४७ २१/२१ १७७/१७० १/१ २० ८८ १४८ ११५. Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ सच्ची प्रार्थना व उपासना उपासना का मूल्य उपासना का सोपान धर्म का प्रासाद उपासना की तात्त्विकता धर्म बातों में नहीं, आचरण में उपासना और आचरण त्रिवेन्द्रम् केरल जीवन की तीन अवस्थाएं ' धर्म और राजनीति राजनीति पर धर्म का अंकुश जरूरी धर्म और राजनीति धर्मनीति और राजनीति राजनीति और धर्म धर्म पर राजनीति हावी न हो जनतंत्र और धर्म राष्ट्र-निर्माण में धर्म का योगदान धर्म निरपेक्षता बनाम सम्प्रदाय निरपेक्षता * राजतंत्र और धर्मतंत्र धर्मसंघ धर्म और धर्मसंघ' धर्मसंघ में विग्रह के कारण अनुशासन और धर्म संघ " धर्म और सम्प्रदाय क्या सम्प्रदाय का मुकाबला संभव है ? धर्म आत्मा : सम्प्रदाय शरीर धर्म और मजहब सुरक्षा धर्म की या सम्प्रदाय की ? १. ४-५-७८ लाडनूं । २. ८-११-७८ भीनासर । ३. २७-३-६६ गंगानगर । ४. २७-९-५३ जोधपुर । आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण नवनिर्माण भोर जब जागे प्रवचन ११ प्रवचन ९ उद्बो / समता धर्म : एक मंजिल २ सफर / अमृत कुहासे दीया वैसाखियां मंजिल २ आगे प्रवचन ११ प्रवचन ९ कुहासे बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ जीवन की कुहासे वैसाखियां वि वीथी / राज ५. ९-९-६५ दिल्ली । ६. २२-६-६५ दिल्ली । ७. १८-१०-६५ दिल्ली । १४७ १८८ १०० १३१ १८० २५/२५ १५३ १४७ १००/५० ७२ ८५ ९६ २५४ ११४ १६५ २७१ ६८ १७१ १२८ ११५ १६९ १४३ १६७ ९४ / १८१ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म प्रवचन ११ प्रवचन ८ प्रवचन ११ संभल घर अणु गति ९४ कुहासे १४५ ८३/३४ सफर अमृत उद्बो समता ज्योति से मंजिल २ १४७ १७३ धर्म सम्प्रदाय से ऊपर है। धर्म सम्प्रदाय की चौखट में नहीं समाता' सम्प्रदायवाद का अंत साम्प्रदायिक मैत्री भाव जागे साम्प्रदायिक समन्वय की दिशा धर्मक्रांति धर्मक्रान्ति की अपेक्षा क्यों ? धर्मक्रांति के सूत्र जरूरत है धर्म में भी क्रान्ति की धक्रांति के सूत्र राष्ट्रीय चरित्र और धर्मक्रान्ति धर्म क्रान्ति मांगता है। युग और धर्म पूजा पाठ कितना सार्थक : कितना निरर्थक धर्म : व्यक्ति और समाज धर्म : विभिन्न संटों में धर्म और अध्यात्म धर्म और दर्शन धर्म और परम्परा धर्म और सिद्धांत धर्म व नीति धर्म और विज्ञान धर्म और समाज समाज व्यवस्था और धर्म धर्म और समाज भोर १८९ २२८ राज घर O मंजिल १ २७ समाधान समाधान समाधान नव निर्माण प्रवचन ५ प्रश्न प्रश्न १३४ ९४ ६० . समाधान १. २८-११-५३ जोधपुर । २. ११-७-७८ गंगाशहर । ३. ४-५-५४ माण्डल। ४. १९-१-५६ जावद । ५. २८-५-५७ लाडनूं। ६. २७-३-८३ अहमदाबाद । ७. १९-१२-५४ बम्बई (घाटकोपर)। ८. १८-५-५७ लाडनूं । ९. ६-१२-७६ चूरू। १०. १-१२-५६ मार्डन हायर सेकेण्डरी स्कूल, दिल्ली। ११. १३-१२-६६ लाडनूं । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ धर्म सिद्धांतों की प्रामाणिकता : विज्ञान की कसौटी पर ' युवक और धर्म धार्मिक पंडित होकर भी अपंडित धार्मिकता की कसौटियां धार्मिक कौन ? मनुष्य धार्मिक क्यों बने ? धर्म और धार्मिक एक है या दो ? ऋजुता साधना का सोपान है सच्चे धार्मिक बनें धार्मिक और ईमानदार धर्म अच्छा, धार्मिक अच्छा नहीं संन्यास संन्यास के लिए कोई समय नहीं होता आध्यात्मिक प्रयोगशाला : दीक्षा' योग्यता की कसौटी भोग से अध्यात्म की ओर दीक्षा क्या है ? " दीक्षा सुरक्षा है दीक्षा क्या है ? समर्पण ही उपलब्धि " भोग से अध्यात्म की भोर समर्पण ही उपलब्धि ३ १० १. २०-१२-६७ लाडनूं । २. २४-४-५७ चूरू । ३. २३-२-७९ राजगढ़ । ४. २६-८-६५ दिल्ली । ५. १३-४-७९ सोनीपत । ६. ११-११-५१ दिल्ली । दीक्षा समारोह, आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रवचन ५ घर मुखड़ा वैसाखियां उदबो/ समता वैसाखियां प्रवचन १० बूंद बूंद २ प्रवचन १० वैसाखियां कुहासे मुखड़ा शांति के कुहासे मंजिल २ मंजिल १ प्रवचन १० मंजिल १ मुक्ति: इसी मुक्ति: इसी मंजिल २ १०. १६-१०-७६ सरदारशहर । ११. २३-५-७६ पड़िहारा । १२. ६-६-७६ राजलदेसर । १३. २३-५-७६ पड़िहारा । ११६ ४२ २०६ १६५ २३/२३ १६३ १४७ १०३ २० १५९ ७० ३७ ७२ २०५ २३ २३३ १४९ २४ ७. ७-६-७६ राजलदेसर । ८. १९-६-७७ लाडनूं, दीक्षांत प्रवचन | ९. २४-२-७९ राजगढ़ ३६ ३९ २१ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म जैन दीक्षा क्या बाल दीक्षा उचित है ? १ अभयदान की दिशा जैन दीक्षा `एक महत्त्वपूर्ण कदम' 'दीक्षा का महत्त्व' जैन दीक्षा का महत्त्व भारतीय संस्कृति और दीक्षा' दीक्षा : सुख और शांति की दिशा में प्रयाण शांति सुख का मार्ग : त्याग जैनधर्म में प्रव्रज्या ' मुक्ति क्या ?" दीक्षान्त प्रवचन योग्य दीक्षा साधु संस्था साधुता के पेरामीटर निराशा के अंधेरे में आशा का चिराग कम्प्यूटर युग के साधु साधु संस्थाओं का भविष्य राष्ट्र के चारित्रिक मानदंडों की प्रेरणा स्रोत : साधु संस्कृति साधु समाज की उपयोगिता " संतजन : प्रेरणा प्रदीप " साधु जीवन की उपयोगिता सच्चे श्रमण की पहचान " १. १६-१०- ७८ गंगाशहर । २. १७-१०- ५७ सुजानगढ़ । ३. ३-१-५४ ब्यावर । ४. १-११-५३ जोधपुर । ५. १८ - १० - ५३ जोधपुर । ६. १०-४-६६ अबोहर । ७. २-५-६६ रायसिंहनगर । जैन दीक्षा मंजिल २ वैसाखियां संभल घर प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ आगे आगे सोचो ! ३ प्रवचन ९ धर्म : एक घर अमृत / सफर क्या धर्म क्या धर्म कुहासे अणु संदर्भ बूंद बूंद १ सोचो ! ३ साधु जीवन मंजिल १ १०. २९-४-६५ जयपुर । ११. ६-७-७८ भीनासर । १२. १७-६-७७ लाडनूं । ९५ १ २२६ १७१ ४ २१७ २२३ ४७ ३८ १७५ २३६ १८९ २१ १२५ १६७ ९३/१२७ १२४ १०१ ८२ ८. ११-५-७८ लाडनूं । ९. २६-२-५३ लूणकरणसर, दीक्षांत भाषण । ७८ १२३ २९६ १ २३० Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ साधना का प्रभाव' परमार्थ की चेतना साधु जनता को प्रिय क्यों ? साधु संस्था की उपयोगिता साधु की पहचान भिक्षु कौन ? ४ संतों का स्वागत क्यों ?" संतों के स्वागत की स्वस्थ परम्परा' पाप श्रमण कौन ? कसौटियां और कोटियां मुनित्व के मानक ७ जो सब कुछ सह लेता है त्याग और भोग की सत्ता ' पंच परमेष्ठी णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं आचार्यपद की अर्हताएं आचार्य की संपदाएं ९ संघ में आचार्य का स्थान आचार्य महान उपकारी होते हैं" आचार्यों का अतिशेष " णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं एसो पंच णमुक्का चत्तारि सरणं पवज्जामि मंगल क्या है ? १२ मंगल और शरण ३ १. १-४-६६ गंगानगर । २. ७-९-७७ लाडनूं । ३. २६-३-५६ खाटे (छोटी) । ४. ७-२-५७ सरदारशहर । ५. २२-२-५३ लूणकरणसर । ६. ५-७-५४ बम्बई ( सिक्कानगर ) । ७. ८-१-७९ श्रीडूंगरगढ़ । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आगे कुहासे प्रवचन ४ अणु गति संभल घर प्रवचन ९ भोर मुखड़ा मुखड़ा प्रवचन १० खो जागो ! मनहंसा मनहंसा मनहंसा दीया मनहंसा जागो ! जागो ! जागो ! मनहंसा मनहंसा मनहंसा मनहंसा संभल संभल ८. ८-१०-६५ दिल्ली । ९. २६-१२-६५ दिल्ली । १०. २०-११-६५ दिल्ली । ११. २७-१२-६५ भिवानी । १२. २२-१-५६ जालमपुरा । १३. १२-४-५६ सुजानगढ़ । १४४ ७४ १२४ २०० ८७. १२ १८ ५९. २९ २७ १०८ ४२ ७७ १ ७ ११ ११८ १७४ २२१. १२३ २३५ १६ २० २५ २९ ३५ १९६. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता और अणुव्रत ० व्रत • अणुव्रत अणुव्रती ० ० अणुव्रत ० अणुव्रत- अधिवेशन • नैतिकता • नैतिकता : विभिन्न सन्दर्भों में के विविध रूप ११ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता और अणुव्रत शीर्षक पुस्तक व्रत आलोक में आलोक में आलोक में मंजिल १ बूंद बूंद २ प्रगति की प्रगति की समता/मुक्तिपथ नैतिक ज्योति के ज्योति के संभल समता/उद्बो प्रगति की मनहंसा संभल संभल ३५/३५ ९१ ३५ बंधन और मुक्ति का परिवेश व्रतग्रहण की योग्यता व्रतों की भाषा और भावना व्रत का महत्त्व' व्रत के प्रति आस्था अनुशासन की लौ व्रत से जलेगी दोष का प्रतिकार : व्रत व्रत बंधनं नहीं, कवच है व्रत का जीवन में महत्त्व व्रती बनने के बाद व्रत और व्रती आत्मानुशासन मन का अंधेरा : व्रत का दीप व्रत ही अभय का मार्ग व्रतों से होता है व्यक्तित्व का रूपांतरण व्रत का फल व्रत और अनुशासन अणुव्रत मानव का धर्म : अणुव्रत अणुव्रत की क्रांतिकारी पृष्ठभूमि अणुव्रत आंदोलन की पृष्ठभूमि १. १२-१०-७६ सरदारशहर। । २. २२-७-६५ दिल्ली । ३. २१-७-६५ दिल्ली। १७४ १७६ अतीत का अतीत का अणु गति ४. सरदारशहर ५. ९-१-५६ रतलाम । ६. सरदारशहर। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणु गति १०० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अणुव्रत की परिकल्पना अणु गति नामकरण की प्रक्रिया से गुजरता हुआ अणुव्रत अणु गति अणुव्रत यात्रा का प्रारम्भ अणु गति प्रतिक्रिया और प्रगति अणु गति जनसम्पर्क और विकासमान विचारधारा अणु गति अणुव्रत कार्य में अवरोध अणु गति अणुव्रत से अपेक्षाएं अणु गति अणुव्रत आंदोलन के पूरक तत्त्व अणु गति अतीत के सन्दर्भ में भविष्य की परिकल्पना नैतिक मूल्यों का स्थिरीकरण : एक उपलब्धि ११० नैतिक चेतना को जागृत करने का प्रयोग अणु गति ११७ अणुव्रत संकल्प भी, समाधान भी अणु गति/अणु संदर्भ १२३/१७ एक व्यापक आंदोलन अणु गति १२६ चरित्र की समस्या : अणुव्रत का समाधान बूंद बूंद १ १८७ अणुव्रत प्रेरित समाज रचना अनैतिकता २०८ आर्षवाणी का ही सरल रूप घर २३५ अणुव्रत आंदोलन की मूल भित्ति' घर २१२ आत्मविद्या का मनन २१४ अणुव्रत ने क्या किया? सफर चरित्र निर्माण का प्रयोग मनहंसा स्वर्णिम भारत की आधारशिला : अणुव्रत दर्शन मनहंसा समस्या के मेघ : समाधान की पवन मनहंसा आरंभ परिग्रह की नदी : अणुव्रत की नौका दीया सुख और शांति का मार्ग आगे १७० युग चेतना की दिशा : अणुव्रत वि वीथी अणुव्रत आंदोलन का भावी चरण वि वीथी आचार और विचार से पवित्र बनें आगे २४४ दुःखमुक्ति का आह्वान महाव्रत से पूर्व अणुव्रत आगे १. २२-५-६५ जयपुर। ५.८-५-६९ सूरतगढ़ । २. १२-१०-५७ सुजानगढ़। ६. १४-५-६६ पीलीबंगा। ३. १५-१०-५७ सुजानगढ़ । ७. १२-५-६६ पीलीबंगा। ४. ८-४-६६ अबोहर । घर १०६ ९४ ५२ आगे २५६ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे १७१ २१३ घर घर घर ५२ घर नैतिकता और अणुव्रत अणुव्रत : जागृत धर्म' एक क्रांतिकारी अभियान शिक्षा में अणुव्रत आदर्शों का समावेश हो स्वस्थ जीवन जीने का मार्ग शांति का निर्दिष्ट मार्ग निष्ठा का दीवट : आचरण का दीप प्रतिदिन आता है सूरज युगधर्म की पहचान अगुव्रत की परिभाषा युग की त्रासदी देश और राजनैतिक दल कालिमा धोने का प्रयास अहंकार की दीवार वियोजित कर्म की आवश्यकता मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का समय मानव-निर्माण का पथ : अणुव्रत अणुव्रत' अणुव्रती कार्यकर्ताओं की जीवन दिशा अणुव्रत जीवन सुधार का सत्संकल्प जन सामान्य के लिए अणुव्रत की योजना सुरक्षा के लिए कवच अणुव्रत स्वरूप बोध अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी अणुव्रत है सम्प्रदायविहीन धर्म चाबी की खोज जरूरी राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं और अणुव्रत विश्वास का प्रथम बिंदु वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां वैसाखियां प्रज्ञापर्व १६९ ७) प्रज्ञापर्व 0 २८ प्रज्ञापर्व घर घर घर अतीत का आलोक में अनैतिकता अनैतिकता अमृत सफर अमृत/सफर मेराधर्म आलोक में ३६/२७ ५५/१०५ १. २८-५-६६ सरदारशहर । २. १४-१०-५७ सुजानगढ़ । ३. १८-५-५७ फतेहपुर । ४. सुजानगढ़। ५. ७-७-५७ सुजानगढ़। ६. २३-४-५७ चूरू। ७. ४-४-५७ सरदारशहर । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ११७ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आलोक में २८ क्या धर्म क्या धर्म क्या धर्म धर्म : एक जीवन १५५ उपलब्धि और नयी योजना विकास का मानदण्ड वर्तमान समस्याएं अणुव्रत आंदोलन मानव धर्म आस्था और संकल्प को जगाने का प्रयोग राष्ट्रीय चरित्र निर्माण का उपक्रम : अणुव्रत मान्दोलन समस्या आज की : समाधान अणुव्रत का अणुव्रतों की महत्ता नैतिक जागरण का कार्यक्रम' अणुव्रत आंदोलन क्यों? भूले विसरे जीवन मूल्यों की तलाश अणुव्रत है सम्प्रदायविहीन धर्म चरित्र सही तो सब कुछ सही आस्थाहीनता के आक्रमण का बचाव : अणुव्रत अणुव्रत आंदोलन का भावी चरण युग चेतना की दिशा : अणुव्रत मानव-मानव का धर्म : अणुव्रत अणुव्रत की क्रांतिकारी पृष्ठभूमि ग्राम-निर्माण की नयी योजना जीवन : एक प्रयोगभूमि स्वार्थ चेतना : नैतिक चेतना कभी गाड़ी नाव में अणुबम नहीं, अणुव्रत चाहिए सतत स्मृति की दिशा में संयम की साधना : परिस्थिति का अंत जीवन जीवन संभल संभल २०२ घर अनैतिकता अनैतिकता १५९ अनंतिकता अनैतिकता १६५ अनैतिकता २०२ अनैतिकता अनैतिकता २२१ अनैतिकता २२५ अनैतिकता/अतीत का २३१/२२ अनैतिकता २४५ अनैतिकता/अतीत का २४९ कुहासे १७६ कुहासे आलोक में क्या धर्म २१२ २०८ १०१ १. २-१०-५६ सरदारशहर, अणुव्रत विचार शिविर । २. १-१२-५६ प्रेस कांफ्रेंस, दिल्ली। ३. २-२-५७ अणुव्रती कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर, सरदारशहर । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता और अणुव्रत १६५ १०२ १५६ १५८ भोर १९६ २४० २२२ अणुव्रत का नया अभियान : बुराइयों के साथ संघर्ष क्या धर्म सच्ची सेवा संभल कथनी और करनी में एकता आए' . संभल शांति के उपाय घर अणुव्रत चरित्र निर्माण का आंदोलन है। भोर अणुव्रत आंदोलन : एक आध्यात्मिक आंदोलन भोर सुख शांति का आधार अणुव्रत आंदोलन का घोष सुख शांति का मार्ग सुखी समाज की रचना जीवन सुधार की योजना भोर अणुव्रत : एक रचनात्मक कार्यक्रम प्रवचन ९ अणुव्रत भावना का प्रसार सूरज चरित्र विकास और शांति का आंदोलन सूरज मानव-सुधार का आंदोलन सूरज अनुभव के दर्पण में उद्बो भारतीय संस्कृति का प्रतीक संभल एक आध्यात्मिक आंदोलन सूरज मानवता का आंदोलन सूरज एक विधायक कार्यक्रम१४ अणुव्रत का मूल५ सूरज कागज के फूल सूरज धर्म का शुद्ध स्वरूप १. १६-९-५६ सरदारशहर । १०. २०-११-५५ उज्जैन । २. ६-४-५६ सुजानगढ़ । ११. १४-५-५५ जलगाँव । ३. १८-७-५४ बम्बई। १२. २८-८-५५ उज्जैन । ४. २७-६-५४ बम्बई (माटुंगा)। १३. २५-१-५५ बंबई । ५. १३-६-५४ बम्बई (बोरीवली)। १४. २३-२-५५ पूना । ६. १७-१०-५४ बम्बई। १५. २३-३-५५ राहता। ७. २९-१२-५४ बम्बई (थाना)। १६. ३-४-५५ औरंगाबाद । ८. ६-९-५३ जोधपुर । १७. २७-२-५५ पूना। ९. २३-१-५५ मुलुन्द । २०५ सूरज ३३ GK सूरज Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ४४ १३१ १४८ १८३ १९७ १६९ ज० G जीवन का पर्यवेक्षण' बौद्धिक विपर्यय' प्रभु का पंथ' समस्या का हल गमन और आगमन अणुव्रत और अणुव्रत आंदोलन एक दिशा सूचक यंत्र जीवन का परिष्कार' चरित्र विकास की ज्योति अणुव्रत की उपादेयता सम्यग्दृष्टिकोण आत्मविस्मृति का दुष्परिणाम" समत्व का विकास मानव मानव का धर्म : अणुव्रत जागरण का शंखनाद अणुव्रत आंदोलन का प्रवेशद्वार मान्यता परिवर्तन अणुव्रत के अनुकूल वातावरण अणुव्रत : जागरण की प्रक्रिया अणुव्रत क्रांति क्या है ? जीने की कला अणुव्रत का आदर्श सूरज सूरज सूरज सूरज सूरज संभल संभल सूरज सूरज प्रवचन ४ प्रवचन ४ नवनिर्माण मंजिल १ मंजिल १ सूरज अणुव्रत नैतिकता के नैतिकता के प्रवचन १० संभल सूरज मंजिल १ ३८ ७४ २३३ १४७ १. १२-६-५५ शाहदा । २. २६-५-५५ आमलनेर । ३. १-२-५५ बम्बई (सिक्कानगर)। ४. २८-५-५५ बम्बई (बडाला)। ५. १३-६-५५ खेतिया। ६. २३-३-५६ बोरावड़। ७. ३-७-५५ उज्जैन। ८. २१-८-५५ उज्जैन । ९. २-१०-७७ लाडनूं । १०. २६-७-७७ लाडनूं । ११. ५-१-५७ दिल्ली। १२. १४-११-७६ सरदारशहर । १३. ९-१-७७ राजलदेसर । १४. ६-१२-५५ बड़नगर । १५. ३-९-७८ गंगानगर । १६. २९-३-५६ डीडवाना। १७. २३-१-५५ बम्बई (सिक्कानगर)। १८. २५-४-७७ बीदासर । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O عمر १७० १८२ २०९ م م م م १८७ م م नैतिकता और अणुव्रत आदर्श जीवन की प्रक्रिया : अणुव्रत' अणुव्रत के परिप्रेक्ष्य में । अणुव्रत क्या चाहता है ? अणुव्रत का महत्त्व अणुव्रत अणुव्रत मनुष्य लड़ना जानता है। विरोध से समझौता अणुव्रतों का रचनात्मक पक्ष युगचिन्ता अन्तर् जागृति का आंदोलन वृत्तियों को संयमित बनाएं। भयमुक्ति का राजमार्ग आज की स्थिति में अणुव्रत" नैतिक निर्माण की योजना१२ आत्मसुधार की आवश्यकता जन-जन का मार्गदर्शक'४ चरित्र-निर्माण का आंदोलन : अणुव्रत१५ व्यष्टि ही समष्टि का मूल सुख और शांति का सही मार्ग" हृदय परिवर्तन की आवश्यकता वृत्तियों का परिष्कार मंजिल १ मंजिल २ मंजिल २ प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ९ बूंद बूंद १ प्रश्न धर्म : एक संभल संभल प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ९ is my waar my om or w 9 م १६३ سه १. ९-५-७७ चाड़वास । २. १७-४-८३ अहमदाबाद । ३. ८-१०-७८ गंगाशहर । ४. १५-२-५३ काल, अणुव्रत प्रचार दिवस । ५. ११-५-५३ बीकानेर। ६. ११-५-५३ बीकानेर । ७. ७-५-६५ जयपुर । ८. ८-१-५६ रतलाम । ९. १-१-५६ पेटलावद । १०. १५-१०-५३ जोधपुर । ११. १४-५-५४ अणुव्रत प्रेरणा दिवस, अहमदाबाद। १२. २८-५-५४ भडौंच । १३. ३०-५-५४ सूरत । १४. २०-१२-५३ ब्यावर । १५. ८-२-५४ राणावास । १६. २१-१२-५३ अजमेर । १७. २५-२-५४ कंटालिया। १८. २०-३-५४ राणीस्टेशन । १९. १६-४-५३ गंगाशहर। . Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ उद्देश्य १०६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आत्मशक्ति को जगाएं संभल १८५ शांति का पथ संभल. आंदोलन की भावना ज्योति के ज्योति के अणुव्रतों की भावना का स्रोत ज्योति के अणुव्रत का आदर्श ज्योति के शांति के लिए अणुव्रतों की उपेक्षा मत कीजिए। ज्योति के नैतिक प्रयत्न को प्राथमिकता दें ज्योति के राजशेखर धर्म : एक बेंगलोर धर्म : एक १५० प्रभावशाली प्रयास प्रवचन ११ संयम ही जीवन है भोर बम्बई धर्म : एक अणुव्रत का उद्देश्य प्रश्न व्यक्ति बनाम समाज प्रवचन ११ संघर्ष कैसे मिटे ? आ. तु/राजधान १२/३० राष्ट्रीय समस्याएं और अणुव्रत १६१ अणुव्रतों की भूमिका जागो! समस्याओं का समाधान : चेतना जागृति जागो ! २३१ शिकायत बनाम आत्मनिरीक्षण जागो ! २१० धर्म न अमीरी में है, न गरीबी में अतीत का क्रिया, प्रतिक्रिया और प्रेरणा अणु गति ४७ लोकतंत्र को सच्ची राह दिखाएं प्रज्ञापर्व or www ४० जागो! ० ० १७१ १. इंडियन एक्सप्रेस, बेंगलोर । २. १८-१०-५३ जोधपुर । ३. १८-१०-५४ बम्बई। ४. ९-१-६८ बम्बई ५. जोधपुर। ६. १६-५-५० सम्पादक सम्मेलन, दिल्ली। ७. ३१-१०-६५ दिल्ली । ८. ३०-१०-६५ अखिल भारतीय अणुव्रत समिति का सोलहवां अधिवेशन। ९. २८-११-६५ संसद सदस्यों के बीच, दिल्ली। १०. २१-११-६५ व्यापारी गोष्ठी, दिल्ली। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता और अणुव्रत १०७ उद्बो उद्बो समता उद्बो/समता उद्बो/समता प्रवचन ११ प्रवचन ११ आलोक में नैतिक नैतिक १९१/१८९ ९५/९४ १९/१९ १९७ १५४ ४२ १०० १०४ नैतिक १२१ १३४ १४१ सुखी जीवन की चाबी संयम के संस्कार अमोघ औषध धर्म : एक अखण्ड सत्य दानवता की जगह मानवता' नैतिक क्रांति का सूत्रपात व्रत और अप्रमाद के संस्कार अणुव्रत की आधारशिला अणुव्रत ग्रहण में दो बाधाएं अणुव्रत का मार्ग अणुव्रत का महत्त्व अणुव्रत : भारतीय संस्कृति का प्रतीक सब धर्मों का नवनीत" आत्म शक्ति को जगाइये अणुव्रत : आत्म-शुद्धि का साधन आदमी नहीं है धर्म को नई दिशाएं जीवन की न्यूनतम मर्यादा जनतंत्र की स्वस्थता का आधार सामाजिक सम्पर्क के सेतु विश्व-शांति की आचार संहिता ऊर्जा का केन्द्र अणुव्रत : एक सार्वजनिक मंच अणुव्रत की गूंज अणुव्रत का कवच शाश्वत सत्य : नयी प्रस्तुति मानवता का मानदण्ड अणुव्रत : एक प्रकाश स्तम्भ १४६ २७ १६ नैतिक नैतिक नैतिक नैतिक नैतिक बीती ताहि ज्योति से शांति के आलोक में आलोक में आलोक में समता/उद्बो समता/उदबो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो १४ १६९ ९६/९७ ७१/७१ ८४/८५ ७३/७३ ७८/७८ ९०/९१ १. १७-४-५४ बाव । २. १-३-५४ सुधरी। ३.७-७-५६ ४. १-१-५६ ५. ११-३-५६ अजमेर। ६. १९-९-७५ जयपुर। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ९१/९२ ९८/९९ १५१/१५३ १५३/१५५ १४६/१४८ १६९/१७१ १५५/१५७ १९५/१९८ २०३/२०६ १७९/१८१ १५/१५ अणुव्रत का निर्देश अणुव्रत : एक सेतु सत्य की उपलब्धि तीन वैद्य दष्टि परिमार्जन लम्बा यात्रा-पथ भाषा नहीं, भावना जागरण का सन्देश स्वस्थ समाज का निर्माण अहिंसा की प्रतिष्ठा का आंदोलन' अणुव्रत : सब धर्मों का नवनीत' अणुव्रत आंदोलन रूपान्तरण आत्मनिग्रह का पथ आदर्श जीवन की पद्धति अणुव्रत : जीवन की मुस्कान अणुव्रत : एक अभिक्रम अणुव्रत से आत्मतोष अगुव्रत : एक राजपथ सत्य और सौन्दर्य शांति का उपाय आत्महित का मार्ग सम्यग्दर्शन का पृष्ठ पोषक अणुव्रत : एक प्रयोग जागरण ही जीवन शक्ति का विस्फोट अणुव्रत का मूलमंत्र अणुव्रत और जीवन व्यवहार अगुव्रत : एक दर्पण भय और प्रलोभन से ऊपर १-१४-२-५६ भीलवाड़ा। २. ११-३-५६ अजमेर। समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो संभल संभल संभल समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उदबो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो ३. १८-१-५६ जावद । ५/५ १०३/१०५ १०७/१०९ १९७/२०० १४४/१४६ १३६/१३८ १०२/१०३ ५९/५९ ७/७ १६१/१६३ १६७/१६९ ८८/८९ १००/१०१ ८२/८३ ४१/४१ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता और अणुव्रत समता/उदबो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो संभल संभल प्रवचन ९ अणुव्रती २७/२७ ३९/३९ २९/२९ १७१/१७३ २१८ १३७ आनन्द का सागर आदर्श समाज की नींव का पत्थर अनुपम पाथेय सच्चे मानव की उपाधि व्यक्ति व्यक्ति का चरित्रबल जागे अमोघ औषधि अणुव्रती संघ का उद्देश्य अणुव्रती संघ और अणुव्रत अणुवती अणुव्रती जीवन अणुव्रती कैसे चले ? अणुव्रती क्यों बनें? ग्राम-निर्माण की नई योजना समाजवाद का आधार : नैतिक विकास आस्थाहीनता के आक्रमण का बचाव सत्य का अणुव्रत शिविर जीवन दुर्गुणों की महामारी अणुव्रतियों का लक्ष्य अणुव्रत के विविध रूप धर्म और अणुव्रत लोकजीवन, अध्यात्म और अणुव्रत अध्यात्म और अणुव्रत धर्मसम्प्रदाय और अणुव्रत अणुव्रत और साम्प्रदायिकता समग्रक्रांति और अणुव्रत अणुव्रत और राज्याश्रय जैन दर्शन और अणुव्रत १. १३-१२-६५ सप्रू हाऊस, दिल्ली । २. ९-१-५६ रतलाम। ३. १२-५-५५ जलगांव । सूरज ज्योति के अणुव्रती अतीत का वि वीथी वि दीर्घा गृहस्थ मुक्तिपथ सूरज सूरज भोर ३४/३२ ९४ २४१ १६२ समाधान की आलोक में १८६ नैतिकता के अणु गति १२९ अणु सन्दर्भ वि दीर्घा/ अनैतिकता ७९/१७२ अणु गति/अणु सन्दर्भ १९५/३२ अतीत का/धर्म : एक २८/९७ ४. १०-४-५५ संतोषबाड़ी। ५. ११-१२-५५ बदनावट । ६. २१-१०-५४ बम्बई। À Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्म : एक अनैतिकता १९७ जीवन २४ जीवन ३४ १०५ १३०/१३१ बूंद बूंद २ समता/उद्बो वि वीथी वि वीथी बूंद बूंद २ प्रश्न W ० ० प्रश्न प्रश्न प्रश्न ७ जैन धर्म और अणुव्रत अणुव्रत और जनतंत्र लोकतन्त्र और अणुव्रत चुनावी रणनीति में अणुव्रत का घोषणापत्र अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र और अणुव्रत' लोकतंत्र और अणुव्रत अणुव्रत और जनतंत्र अणुव्रत प्रेरित समाज रचना विश्व शांति और अस्त्र निर्माण अहिंसा और अणुव्रत सत्य और अणुव्रत अचौर्य और अणुव्रत ब्रह्मचर्य और अणुव्रत अपरिग्रह और अणुव्रत धर्म और अणुव्रत राजनीति और अणुव्रत अणुव्रत और संगठन अस्पृश्यता और अणुव्रत नीति और अणुव्रत विश्वसंघ और अणुव्रत सर्वोदय और अणुव्रत' समन्वय का मंच समन्वय का मंच : अणुव्रत (१-२) अणुव्रत और महाव्रत अणुव्रत और महाव्रत धर्मनिरपेक्षता और अणुव्रत सर्वोदय और अणुव्रत प्रश्न प्रश्न प्रश्न प्रश्न प्रश्न प्रश्न ५० प्रश्न सूरज समता/उद्बो अणु गति ५३/५३ ६८-७६ २२ ४ प्रवचन ५ मनहंसा नैतिक १. १४-१०-६५ मैक्समूलर भवन, दिल्ली। २. १०-७-६५ दिल्ली। ३. १२-४-५५ संतोषवाड़ी। ४. ३०-१-५५ बम्बई । ५. ३०-११-६६ लाडनूं। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ३ ५० नैतिक १४ २६ N नैतिक नैतिकता और अणुव्रत अणुव्रत अधिवेशन सच्ची सेवा नैतिक अणुव्रत का प्रथम अधिवेशन अणु गति धर्म का मूलमंत्र नैतिक राजधानी जीवन का मोह और मृत्यु का भय' नैतिक वार्षिक पर्यवेक्षण नैतिक आर्थिक दृष्टि के दुष्परिणाम नैतिक दुविधाओं से पराभूत न हों। दुःखमुक्ति का उपाय" नैतिक २८ आह्वान शांति के २४५ आत्मदमन नैतिक अणुव्रत : प्रतिस्रोत का मार्ग नैतिक आंदोलन का घोष नैतिक अशांति की चिनगारियां नैतिक व्रत साध्य नहीं, साधन २३ सुधार का सही मार्ग ४ नैतिक १५० १. १-३-४९ सरदारशहर में अणुव्रती ८. १५-१०-५३ जोधपुर, अणुव्रत का संघ का उद्घाटन । चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन । २. ३०-४-५० दिल्ली में अणुव्रती संघ ९.१८-१०-५३ जोधपुर, अणुव्रत का ___ का प्रथम वार्षिक अधिवेशन । चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन । ३. २४-९-५० हांसी में अणुव्रती संघ का १०. १४-५-५४ अहमदाबाद, गुजरात अर्धवार्षिक अधिवेशन । प्रादेशिक भारत सेवक समाज द्वारा ४. २-५-५१ लुधियाना (पंजाब) में आयोजित प्रेरणा दिवस । __ अणुव्रती संघ का द्वितीय अधिवेशन। ११. १७-१०-५४ बम्बई, अणुव्रत का ५. ३-५-५२ लुधियाना (पंजाब) में पंचम वार्षिक अधिवेशन । अणुव्रती संघ का द्वितीय अधिवेशन। १२. २०-१०-५५ उज्जैन, अणुव्रत का ६. २३-९-५१ सरदारशहर, अणुव्रत छठा वार्षिक अधिवेशन । आंदोलन का तृतीय वार्षिक १३. २५-१०-५५ उज्जैन, अणुव्रत का अधिवेशन । छठा वार्षिक अधिवेशन । ७. १७-१०-५३ अणुव्रती संघ द्वारा १४. १९-८-५६ सरदारशहर, अणुव्रत आयोजित चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन प्रेरणा दिवस । के अन्तर्गत कवि सम्मेलन । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण नैतिक ११३ संभल १७१ संभल संभल संभल संभल २ १ अणुव्रत क्या देता है ?' सम्यक्करण का महत्त्व व्रतों का प्रयोग नैतिक निर्माण का आंदोलन समस्या की धूप : समाधान की छतरी सुख और शांति का मूल : संयम सादगी व सरलता निर्धनता की पराकाष्ठा नहीं व्रत और अनुशासन अणुव्रत : एक दिशासूचक यंत्र आंदोलन के दो पक्ष आचार-संहिता की आवश्यकता" कर्त्तव्य की पूर्ति के लिए नया मोड़ पांच साधनों की साधना धर्म का पहला सोपान मंगल सन्देश संभल संभल नैतिक नैतिक १२२ नैतिक १० नैतिक नैतिक नैतिक मंगल १. १०-१०-५६ सरदारशहर, अणुव्रत का सातवां वार्षिक अधिवेशन । के सातवें वार्षिक अधिवेशन पर ९. २६-१०-५६ सरदारशहर, अणुव्रत युवक सम्मेलन । प्रेरणा समारोह। २. १२-११-५६ सरदारशहर, अणुव्रत १०.२-२-५७ सरदारशहर, अणुवती समिति का सप्तम अधिवेशन । कार्यकर्ता शिक्षण शिविर । ३. २-१२-५६ दिल्ली, अणुव्रत ११. १९-१०-५८ कानपुर, अणुव्रत का सेमिनार । नवम वार्षिक अधिवेशन। ४. ३-१२-५६ दिल्ली, अणुव्रत १२. १६-१०-५९ कलकत्ता, अणुव्रत का सेमिनार । दशम वार्षिक अधिवेशन । ५. २-१२-५६ अणुव्रत सेमीनार । १३. १८-१०-५९ कलकत्ता, अणुव्रत का ६.४-१२-५६ अणुवत सेमीनार । दशम वाषिक अधिवेशन । ७. १२-१०-५६ सरदारशहर, अणुव्रत १४. १-१०-५६ राजनगर, अणुव्रत का का सातवां वार्षिक अधिवेशन । ग्यारहवां अधिवेशन । ८. १४-१०-५६ सरदारशहर, अणुव्रत १५. अणुव्रत का सतरहवां अधिवेशन । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ५८ नैतिकता और अणुव्रत जीवन : एक प्रयोग भूमि' धर्म : एक अतीत का २९/३६ समाजवाद का आधार : नैतिक विकास अनैतिकता २१७ राष्ट्रीय चरित्र बनाम लोकतंत्र' राज १३७ निरीक्षण और प्रस्तुतीकरण का दिन आलोक में १०४ अणुव्रतों की दार्शनिक पृष्ठभूमि नैतिक अणुव्रत : राष्ट्रीय जीवन का अंग' प्रवचन ४ धर्म और व्यवहार बूंद बूंद १ नैतिकता नैतिकता क्या है ? अणु गति नैतिकता क्यों ? अणु गति नैतिक मूल्यों का आधार आलोक में नैतिकता : कल्पना या यथार्थ ? अणु गति नैतिकता : कितनी आदर्श, कितनी यथार्थ ? अनैतिकता नैतिकता : स्वभाव या विभाव ? अनैतिकता नैतिकता : इतिहास के आइने में अनैतिकता दण्ड संहिता कब से ? अनैतिकता नैतिक मूल्य : एक सापेक्ष दृष्टि अनैतिकता ६४ नैतिक मूल्य : कितने शाश्वत कितने सामयिक ? अनैतिकता नैतिकता का अनुबन्ध अनैतिकता क्या नैतिकता अनिर्वचनीय है ? अनैतिकता स्वार्थ चेतना : नैतिक चेतना धर्म : एक बीमारी आस्थाहीनता की क्या धर्म भ्रष्टाचार की आधारशिलाएं क्या धर्म नैतिकता का रथ क्यों नहीं आगे सरकता ? प्रज्ञापर्व नीतिहीनता के कारण कुहासे १. अठारहवां अखिल भारतीय अणुव्रत अधिवेशन में 'जनदर्शन व प्राकृत सम्मेलन, अहमदाबाद । विभाग' में पठित । २. अणुव्रत का बीसवां अधिवेशन । ५. ७-८-७७ अखिल भारतीय अणुव्रती ३. अणुव्रत का अट्ठाइसवां वार्षिक कार्यकर्ता शिविर । अधिवेशन । ६. २१-५-६५ राजस्थान प्रादेशिक ४. अहमदाबाद, अखिल भारतीय अणुव्रत सम्मेलन । प्राच्य विद्या परिषद् के सतरहवें ११२ ३५ ६१ ७४ ३४ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पतन के मार्ग : प्रलोभन और प्रमाद लोकजीवन और मूल्यों का आलोक संकट मूल्यों के बिखराव का मूल्यहीनता का संकट जीवन के मापदण्डों में परिवर्तन' प्रतिष्ठा और दुर्बलताएं मानवीय मूल्यों की बुनियाद मूल्य निर्धारण : एक समस्या प्राचीन और अर्वाचीन मूल्यों का संगम प्रामाणिकता का मानदण्ड नैतिक मूल्यों का मानदण्ड नैतिक मूल्यों के लिए आंदोलनों का औचित्य नैतिक व्यक्ति की न्यूनतम योग्यता दृष्टिकोण का मिथ्यात्व नीति के प्रहरी नैतिक संघर्ष में विजय कैसे ? नैतिक निर्माण नैतिकता का पुनर्निर्माण या पुनःशस्त्रीकरण सत्य की प्रतिपत्ति के माध्यम नीति का प्रतिष्ठापन परम अपेक्षित * सत्यनिष्ठा की सर्वाधिक आवश्यकता आस्था का निर्माण सपना एक नागरिक का, एक नेता का ૬ समस्या और समाधान दोष किसी का, दोष किसी पर मूल्यों का प्रतिष्ठाता : व्यक्ति या समाज पवित्रता की प्रक्रिया जहां अनैतिकता, वहां तनाव १. १४-३-५६ थांवला । २. ५-६ - ५७ बीदासर । ३. ५-३-६५ बाड़मेर । ४. १-१२-५६ नई दिल्ली, संसद आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आलोक में वैसाखियां वैसाखियां कुहासे संभल घर वैसाखियां अनैतिकता अनैतिकता आलोक में अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता बूंद बूंद १ वैसाखियां अनैतिकता नैतिकता के शांति के अनैतिकता संभल संभल खोए साखियां सूरज वैसाखियां अनैतिकता बूंद बूंद १ उद्बो / समता ५. २२-२-५६ भीलवाड़ा । ६. २७-६-५५ इन्दौर | सदस्यों के बीच प्रदत्त प्रवचन । १३२ १२१ ७२ ३० ७० १२५ ९६ १२८ ७७ १०० १३४ ५ ३७ १३८ ११ ६७ २०४ ५२ ११४ ८५ १५८ १८७ १२७ २११ ३७/३७ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता और अणुव्रत ११५ ११६/११७ ११८/११९ ११०/१११ ३७ ११४/११५ नैतिकता का अनुबंध नैतिकता का विस्तार नैतिक मन का जागरण मूल्यों में श्रद्धा रखें जीवन के आवश्यक तत्त्व नैतिक मूल्यों की यात्रा अनैतिकता का चक्रव्यूह सत्य की चाबी : नैतिकता नैतिकता का प्रयोग आत्मप्रेरणा नैतिकता का प्रकाश स्वत्व का विस्तार मूल्यांकन का दृष्टिकोण संयम का मूल्य परिस्थितिवाद : एक बहाना श्रद्धाहीनता सबसे बड़ा अभिशाप है मानवता का आधार पकड़ किसकी ? पहला सोपान चरित्रनिष्ठा : एक प्रश्नचिह्न सफलता का प्रथम सूत्र नीति और अनीति सुख और उसके हेतु विश्वास का आधार मूल्यांकन का दृष्टिकोण जब मुख्य गौण हो जाए समाज और व्यक्ति की सफलता चरित्रनिष्ठा प्रेम की जीत समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो संभल संभल समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो समता/उद्बो ११२/११३ १७५/१७७ १०७/१०९ १२०/१२१ १८७/१८९ ६१/६१ संभल संमता/उद्बो १२६/१२७ समता/उद्बो १९१/१९४ समता/उद्बो ८६/८७ अणु गति ११३ वैसाखियां २४ प्रश्न ४४ अनैतिकता १०४ समता २३२ प्रवचन ५ १२९ समता सूरज २५ उद्बो/समता १५९/१५७ मुक्तिपथ १९७ ४. २४-१२-७७ लाडनूं । ५. २-२-५५ लाडनूं । २०६ १. १८-१-५६ जावद २. २६-१-५६ हमीरगढ़ ३. ८-३-५६ अजमेर । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण एक २३८ धर्म : एक धर्म : एक २४० १७२ १७५ तीन नैतिकता : विभिन्न सन्दर्भो में नैतिकता विभिन्न परिवेशों में अध्यात्म और नैतिकता नैतिकता : अध्यात्म का व्यावहारिक परिपाक । न्याय और नैतिकता यान्त्रिक विकास और नैतिकता सुखवाद और नैतिकता दण्ड और नैतिकता अर्थतन्त्र और नैतिकता मूलवृत्तियां और नैतिक मूल्य शासनतन्त्र और नैतिक मूल्य साम्यवाद और अध्यात्म लोकतन्त्र और नैतिकता शिक्षा, अध्यात्म और नैतिकता विवाह के संदर्भ में नैतिकता लोकतन्त्र और नैतिकता १०८ आलोक में अणु गति आलोक में प्रवचन ५ अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता अनैतिकता मंजिल १ राज अनैतिकता १४१ २१५ १४५ १४८ सफर १. २०-१०-६० Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान ० मनोविज्ञान ० भाव ० लेश्या ० इन्द्रिय Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान शीर्षक पुस्तक पृष्ठ मुखड़ा २५ १५ १५५ मुखड़ा मुखड़ा मुखड़ा दीया दीया प्रवचन ८ प्रवचन ४ दीया २२० ११२ प्रेक्षा मनोविज्ञान मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति भटकाने वाला कौन : चौराहा या मन ? मन के जीते जीत काहे को विराह मन संभव है मनोवृत्ति में बदलाव कितना विशाल है भावों का जगत् मन : एक मीमांसा मन की कार्यशीलता मौलिक मनोवृत्तियां क्या मन चंचल है ? मन को साधने की प्रक्रिया मानव स्वभाव की विविधता मानसिक शांति का प्रश्न वर्तमान तनाव और आध्यात्मिकता मानसिक तनाव और उसका समाधान मानसिक शांति के प्रयोग इच्छामंडल और व्यक्तित्व का निर्माण अपराध का उत्स : मन या नाड़ी संस्थान आवेश का उपचार आदत परिवर्तन की प्रक्रिया कैसे हो मनोवृत्ति का परिष्कार ? मंजिल २ मंजिल २ प्रेक्षा क्या धर्म प्रेक्षा क्या धर्म/नयी पीढ़ी ९१/२९ अनैतिकता ८४ अनैतिकता क्या धर्म वैसाखियां अतीत का १५७ ११५ १२७ १. २४-८-७८ गंगाशहर २. १-९-७७ लाडनं ३. १८-४-७८ लाडनूं ४. १-५-७६ छापर ५. ११-६-७५ दिल्ली Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ६७ सूरज आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मंजिल २/मुक्तिः इसी ९/२० वैसाखियां १९६ प्रवचन ९ समता २१३ खोए १३१ वैसाखियां १३५ २११ संभल घर खोए समता/उद्बो समता/उद्बो ४५/४५ खोए समता/उद्बो १८३/१८५ समता उद्बो १३४/१३६ नैतिकता के मंजिल १ २२८ २० बूंद बूंद २ १४२ खोए दमन बनाम शमन' अपराध के प्रेरक तत्त्व तीन वृत्तियां अखंड व्यक्तित्व के सूत्र मनोबल कैसे बढाएं ? स्मरण शक्ति का विकास अवधान क्रिया अवधान विद्या अवधान विद्या आभामण्डल का प्रभाव असंतुलन के कारण संघर्ष से शान्ति क्या आदतें बदली जा सकती हैं ? बड़ा कौन ? शांति का मूल भयमुक्ति चार प्रकार के पुरुष अस्वीकार की शक्ति तनाव मुक्ति का उपाय जीने का दर्शन लेश्या भावधारा से बनता है व्यक्तित्व भावधारा की विशुद्धि से मिलने वाला सुख लेश्या और रंगों का संबंध अंत समय में होने वाली लेश्या का प्रभाव उत्थान व पतन का आधार : भावधारा रस, गंध और स्पर्श चिकित्सा ११२ खोए जब जागे जब जागे जब जागे जब जागे प्रवचन ८ प्रेक्षा २४८ १६० १. २९-५-७६ पडिहारा २. ८-४-५३ बीकानेर ३. ४-९-५५ उज्जैन ४. २४-२-५६ भीलवाड़ा ५. १९-५-५७ लाडनूं ६. १६-६-७७ लाडनूं ७. २८-८-६५ दिल्ली ८. २९-८-७८ गंगाशहर Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान तेजोलेश्या' भाव भाव और उनके प्रकार औदयिक भाव और स्वभाव' औदयिक भाव का विलय : मुक्तिद्वा पारिणामिक भाव : एक ध्रुव सत्य भाव और आत्मा (१-२) भाव और आत्मा (१-२) औयिक भाव ( १ - ३ ) औदयिक भाव ( १ - ३) औपशमिक भाव क्षायिक भाव क्षायोपशमिक भाव पारिणामिक भाव सान्निपातिक भाव इन्द्रिय इन्दियां : एक विवेचन ' इन्द्रिय के प्रकार " इन्द्रियां और द्रष्टाभाव' इन्द्रियों के प्रति हमारा दृष्टिकोण' १. १२-८-७७ जैन विश्व भारती २. २८-८-७८ गंगाशहर ३. २७-८-७८ गंगाशहर ४. ३१-८-७८ गंगाशहर ५. १-९-७८ गंगाशहर प्रवचन ४ प्रवचन ८ प्रवचन प प्रवचन ८ प्रवचन ८ गृहस्थ मुक्तिपथ गृहस्थ मुक्तिपथ गृहस्थ / मुक्तिपथ गृहस्थ / मुक्तिपथ गृहस्थ / मुक्तिपथ प्रवचन5 प्रवचन ८ सोचो ! ३ सोचो ! ३ ६. २३- ८-७८ गंगाशहर ७. २२ -८-७८ गंगाशहर ८. २०-१७८ लाडनूं ९. २२-३-७८ लाडनूं १२१ ७१ गृहस्थ / मुक्तिपथ १८९ / १८७ गृहस्थ / मुक्तिपथ २०७/१८९ २४२ २३२ २५२ २५९ १९५-१९६ १७८-१७९ १९८-२०१ १-१-१८३ २०२ / १८४ १८५ / २०३ २०४ / १८३ २१६ २१० ४५ ११४ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगसाधना ● ध्यान • साधना ० प्रेक्षाध्यान ० दीर्घश्वास प्रेक्षा ० शरीरप्रेक्षा ० चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा ० लेश्याध्यान • अनुप्रेक्षा १३ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगसाधना शीर्षक पुस्तक दीया मनहंसा खोए जब जागे जब जागे अतीत लघुता ६४ ७५ ७९ ७२ FEEEEEEEEEEE प्रेक्षा ध्यान खोज अपने आपकी निर्विचारता : ध्यान की उत्कृष्टता परम पुरुषार्थ आलम्बन से होता है ध्यान का प्रारम्भ सफल जीवन की पहचान : भाव विशुद्धि ध्यान का प्रथम सोपान : धर्म्यध्यान द्रष्टा की आंख का नाम है प्रज्ञा क्या जैन धर्म में ध्यान की परम्परा है ? भगवान महावीर के बाद ध्यान की परम्परा ध्यान परम्परा का विच्छेद क्यों ? ध्यान की भूमिका ध्यान-साधना और गुरु ध्यान का गुरुकुल ध्यान प्रशिक्षण की व्यवस्था ध्यान की मुद्रा चौबीसी में ध्यान के तत्त्व ध्यान के पूर्व तैयारी परिवर्तन की प्रक्रिया ध्यान क्या है ?' धर्मध्यान : एक अनुचिंतन तपस्या और ध्यान प्रयोग : प्रयोग के लिए १. २-९-७८ गंगाशहर । २. १६-१-७८ लाडनूं। ४६ प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा ९२ प्रेक्षा जीवन प्रेक्षा १४१ ८८ प्रेक्षा प्रवचन १० सोचो ! ३ बूंद-बूंद १ खोए ३. १९-५-६५ जयपुर । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण खोए १२२ १४४ १२४ खोए मनहंसा आलोक में खोए १५० ७० ३० ८२ । आंख मूंदना ही ध्यान नहीं केवल सुनने से मंजिल नहीं एकाग्रता है ध्यान की कसौटी शरीर और मन का संतुलन स्वयं सत्य खोजें साधना सफलता का प्रमाण लघुता से प्रभुता मिले क्या अरति ? क्या आनन्द ? साधना की भूमिकाएं आत्मदर्शन का राजमार्ग आओ, जलाएं हम आत्मालोचन का दीया घर के भीतर कौन ? बाहर कौन ? भोगातीत चेतना का विकास आत्मा ही बनता है परमात्मा स्वयं को खोजना है समाधान पहचान : अन्तरात्मा और बहिरात्मा की जहां से सब स्वर लौट आते हैं जागरण के बाद प्रमाद क्यों ? साधना कब और कहां ? सावधानी की संस्कृति मन चंगा तो कठौती में गंगा खोने के बाद पाने का रहस्य तन्मयता जैनमुनि और योगासन' उपशम रस का अनुशीलन आत्म पवित्रता का साधन कौन होता है चक्षुष्मान् ? साधना का उद्देश्य मंजिल तक ले जाने वाला आस्था सूत्र जीवन का पहला बोधपाठ मुखड़ा लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता लघुता कुहासे जब जागे जब जागे खोए बूंद-बूंद २ संभल संभल १०० १३१ १४६ १३६ १४१ १७० २०४ १०८ १३५ ११३ दीया दीया कुहासे २५८ मनहंसा ३३ १. १६-८-६५ दिल्ली । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगसाधना कैसे होती है सुगति ? परिवर्तन भी एक सचाई है साधना संघबद्ध भी होती है चैतन्य - विकास की प्रक्रिया ज्ञान अतीन्द्रिय जगे अनुराग से विराग' साध्य और सिद्धि' आत्मा : महात्मा सिद्ध बनने की प्रक्रिया * परमात्मा' साधना का मर्म भावक्रिया करें कुशल कौन ? साधना और लब्धियां " निष्काम साधना' अर्हत् बनने की प्रक्रिया' भक्त से भगवान् कैसे बनें ? १० अनुस्रोत : प्रतिस्रोत " आत्म विकास को प्रक्रिया १२ समाधि के सूत्र समाधि का सूत्र समाधि के सूत्र विकास का सोपान : जागृति" प्रथम सोपान दिशा का बदलाव १. १७-१०- ७८ गंगाशहर । २. १६-२-६६ भादरा । ३. २७-२-६६ सिरसा । ४. १६-१२-७७ लाडनूं । ५. ५-१-७८ लाडनूं । ६. १-२-७८ सुजानगढ़ । ७. ४-१-७८ लाडनूं । मनहंसा मनहंसा मुखड़ा मंजिल २ प्रज्ञापर्व मंजिल २ आगे आगे प्रवचन ५ प्रवचन ५ सोचो ! ३ संभल प्रवचन ५ प्रवचन ४ सोचो ! ३ सोचो ! ३ सोचो ! ३ आगे मनहंसा लघुता मंजिल १ सोचो ! ३ खोए खोए ८. २५-७-७७ लाडनूं । ९. २-६-७८ सुजानगढ़ । १०. १-७-७८ रासीसर । ११. ८-६-७८ सांडवा | १२. २१-२-६६ नोहर । १३. १५-६-७७ लाडनूं । १४. २३-३-७८ लाडनूं । १२७ ५६ १९३ १४७ १३ ७९ २३३ २१ ७६ १०३ १९४ ९२ १५९ १९१ १४ २१८ २८९ २४६ ४.१ १३६ ८६ २२५ ११७ ૪ ३३ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण भोर ४५ सदेह भी विदेह होते हैं। साधना और शरीर देहे दुक्खं महाफलं विकथा : साधना का पलिमंथु'. साधना का प्रशस्त पथ" व्यवहार और साधना योग और भोग भोग दुःख, योग सुख जीवन का सही लक्ष्य मुक्ति का सोपान : आत्मनिंदा श्रवणीय क्या है ? सद्गति : दुर्गति" मंदकषाय बनें१२ करणीय और अकरणीय का विवेक विशुद्धि के स्थान कषाय-विजय के साधन शत्रु विजय५ समाधान की दिशा जप : एक मानसिक चिकित्सा बदलाव संभव है जीवन धारा में अन्तर्मुखी परिशुद्धि" शक्ति की पहचान जागो! ९२ मंजिल २ १४६ गृहस्थ मुक्तिपथ १४५/२०९ मंजिल १ बूंद बूंद १ बूंद बूंद १ १३३ बूंद बूंद २ ७३ प्रवचन १ १५८ १४६ प्रवचन ५ प्रवचन १० १७० प्रवचन १० प्रवचन १० १३० जागो ! प्रवचन ९ प्रवचन ९ १८४ प्रवचन ९ ज्योति से प्रेक्षा जब जागे सूरज १२२ मंजिल २ २०५ १ ० १. १३-१०-६५ दिल्ली। २. ३०-४-७८ लाडनूं । ३. १६-२-७७ छापर । ४. ५-८-६५ दिल्ली। ५. ३-५-६५ जयपुर। ६. २९-७-६५ दिल्ली । ७. १६-३-५४ राणीस्टेशन । ८. २७-९-५४ बम्बई । ९. २७-११-७७ लाडनूं । १०. २३-३-७९ दिल्ली । ११. ५-४-७९ दिल्ली । १२. १३-२-७९ रतनगढ़। १३. २३-१०-६५ दिल्ली। १४. २३-७-५३ जोधपुर । १५. २५-४-५३ बीकानेर । १६. १५-६-७७ लाडनूं । १७. १४-५-५५ चावलखेड़ा। १८. ३-४-८३ अहमदाबाद । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगसाधना नए द्वार का उद्घाटन ' साधना की आयोजना वैयक्तिक साधना का अधिकारी आदर्श साधक कौन ! दो प्रकार के साधक * स्थितात्मा : अस्थितात्मा आत्मोदय होता है आस्था, ज्ञान और पुरुषार्थ से मौन से होता है ऊर्जा का संचय सबल कौन ? ६ आत्मानुभव की प्रक्रिया श्रेय और प्रेय वृत्तियों का शोषण : विचारों का पोषण आत्मसाक्षात्कार की दिशा वर्तमान में जीना चैतन्य विकास की प्रक्रिया आगे की सुधि लेइ जीवन विकास के क्रम अकर्म से निकला हुआ कर्म आत्मदर्शन का पथ' साधना की सफलता का रहस्य उपासक संघ : एक नया प्रयोग अस्तित्व की जिज्ञासा जागो ! निद्रा त्यागो' जागरूकता से बढ़ती है संभावनाएं प्रारम्भ सरस, अन्त विरस " चार" १. १८-६-७८ नोखामण्डी । २. १७ - ३-७७ लाडनूं । ३. ३०-१२-५४ थाना । ४. २-४-७९ दिल्ली । ५. २४-३-७९ दिल्ली (महरौली) । ६. २६-५-७६ पडिहारा । सोचो ! ३ वि. वीथी मंजिल १ भोर प्रवचन १० प्रवचन १० राज खोए खोए खोए वि वीथी लघुता लघुता मुक्ति: इसी / मंजिल २८०/५६ मुक्ति: इसी आगे प्रवचन ११ खोए प्रवचन १० आगे बूंद बूंद प्रेक्षा जागो ! लघुता बूंद बूंद १ धर्म : एक १२९ २६३ ६८ ११४ २०० १९१ १७५ २०० २१५ २२२ ૪ १३७ ६८ १०३ २५ २५१ २०१ १२८ १२६ ६४ १९४ ५५ ७५ १७३ २२८ २४१ ७. १०-५-६६ सूरतगढ़ । ८. १२-२-७९ रतनगढ़ । ९. १-१०-६५ दिल्ली । १०. १-७-६५ दिल्ली (ग्रीनपार्क ) । ११. मृगसिर कृष्णा २, २०२३ ॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १३० संघर्ष सत् और असत् के बीच जागरण क्या है ? आधि और उपाधि की चिकित्सा द्वन्द्वमुक्ति का उपाय प्रेक्षाध्यान iferay अप्पमप्पएणं' प्रेक्षा का दर्शन अन्तर्यात्रा है धर्म की यात्रा पथ, पाथेय और मंजिल दोषमुक्ति का नया उपाय प्रेक्षा है एक चिकित्सा विधि प्रेक्षा : आत्मदर्शन की प्रक्रिया प्रेक्षा का उद्भव और विकास प्रेक्षा का कार्यक्रम प्रेक्षा का आधार की अर्हता अन्तर्यात्रा मूल्यांकन की निष्पत्ति चेतना जागृति का उपक्रम' आत्मा से आत्मा को देखो कभी नहीं जाने वाली जवानी चेतना के केन्द्र में विस्फोट * सुखी जीवन का मंत्र : प्रेक्षाध्यान देश और काल को बदला जा सकता है। प्रेक्षाध्यान और अणुव्रत का सम्बन्ध स्वयं की पहचान' अन्तर्दृष्टि का उद्घाटन १. २ - ११-७७ लाडनूं । २. १०-४-८३ अहमदाबाद, प्रेक्षाध्यान शिविर का उद्घाटन । ३. ११-१२-७७ लाडनूं, प्रेक्षाध्यान शिविर का समापन समारोह । आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मुखड़ा १६४ खोए १०८ जब जागे ६७ गृहस्थ १४३ प्रवचन ५ मुखड़ा मुखड़ा मुखड़ा मुखड़ा खोए मंजिल २ प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रवचन ५ खोए खोए सोचो ! ३ प्रवचन १० बीती ताहि प्रेक्षा मुक्ति: इसी खोए ६ ८ १ १३५ ८५ १२० ८६ १७९ ५ ९ १६ ९६ ४९ ८५ १५७ ८२ १४१ ६५ १५ १३ ३७ ८४ ४. १८ - ३ - ७८ जैन विश्व भारती, चतुर्थ प्रेक्षाध्यान शिविर का समापन समारोह | ५. ४-९-७८ गंगानगर । ६. ३०-६-७६ राजलदेसर । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ ७३ १८५ ८४ ८० ४९ Mr योगसाधना प्रेक्षाध्यान और विपश्यना मनहंसा चित्त की एकाग्रता के प्रकार ज्योति से प्रयोग ही सर्वोत्कृष्ट प्रवचन है। प्रवचन ५ आत्म दर्शन का प्रथम बिन्दु बीती ताहि बदलने की प्रक्रिया खोए शिविर साधना प्रेक्षा संस्कार-निर्माण का स्वस्थ उपक्रम : शिविर दोनों उपसंपदा के सूत्र प्रेक्षा प्रेक्षाध्यान की उपसंपदा प्रेक्षा प्रयोगों की मूल्यवत्ता मुखड़ा जप, ध्यान और कायोत्सर्ग खोए दीर्घश्वास प्रेक्षा श्वास प्रेक्षा प्रवचन ५ श्वास को देखना : आत्मा को देखना मुखड़ा श्वास दर्शन' मंजिल १ दीर्घश्वास की साधना प्रेक्षा एक क्षण देखने का चमत्कार बीती ताहि दीर्घश्वास प्रेक्षा बीती ताहि ध्यान से अहं चेतना टूटती है या पुष्ट होती है ? प्रेक्षा कायोत्सर्ग : तनाव-विसर्जन की प्रक्रिया' जागो ! शरीर प्रेक्षा शरीर प्रेक्षा है शक्ति दोहन की कला प्रेक्षा स्वभाव परिवर्तन की प्रक्रिया : शरीर प्रेक्षा प्रेक्षा चैतन्य केन्द्रप्रेक्षा आध्यात्मिक विकास के लिए अनुपम अवदान । प्रेक्षा भाव परिवर्तन का अभियान प्रेक्षा चैतन्य केन्द्रों का जागरण : भाव तरंगों का परिष्कार प्रेक्षा चैतन्य केन्द्रों का प्रभाव प्रेक्षा N १०४ १९ २१४ ११२ १०८ १२९ ११७ १२५ १२१ १.१-९-७० रायपुर। २. ३१-१०-७७ जैन विश्व भारती। ३. १-११-७७ लाडनूं । ४. १३-२-७७ छापर। ५. २४-११-६५ दिल्ली। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा १३३ १३७ १४१ १४५ प्रेक्षा १४९ प्रेक्षा १५३ १५७ प्रेक्षा प्रेक्षा लेश्याध्यान जैन योग में कुंडलिनी आभामण्डल तेजोलब्धि : उपलब्धि और प्रयोग मानसिक शांति का आधार शांति का हेतु : पर्यावरण की विशुद्धि लेश्या के वर्गीकरण का आधार भावधारा और आभावलय की पहचान अप्रशस्त भावधारा और उससे बचने के उपाय व्यक्तित्व-निर्माण में भावधारा का योग भावविशुद्धि में निमित्तों की भूमिका आत्मिक अनुभूति क्या है ? अनुप्रेक्षा ध्यान और स्वाध्याय का सेतु अभ्यास की मूल्यवत्ता अनुप्रेक्षा से दूर होता है विषाद शांति का बोधपाठ बदलाव का उपक्रम : भावना' प्रेक्षा १६८ १७१ १८१ १८५ प्रेक्षा प्रक्षा दीया दीय। प्रवचन १० ७२ १५२ १. १९-३-७९ दिल्ली (महरौली)। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र चिंतन ० राष्ट्र-चिंतन ० संसद • राष्ट्रीय चरित्र (विधायक) ० चुनाव शुद्धि ० लोकतंत्र / जनतंत्र ० राष्ट्रीय एकता ० नागरिकता १४ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्र चितन शीर्षक पुस्तक पृष्ठ १४१ २३० १८९ १७४ २३ राष्ट्र चिंतन आदर्श राज्य तीन/आ.तु. ३/३४ समाधान के आईने में युग की समस्याएं सफर राष्ट्रीय चरित्र विकास की अपेक्षाएं क्या धर्म समाधान के दर्पण में देश की प्रमुख समस्याएं क्या धर्म राष्ट्र-निर्माण का सही दृष्टिकोण' शांति के सच्चा राष्ट्र निर्माण सूरज मैत्री सम्बन्ध या शक्ति का प्रभाव अणु गति खतरा दुश्मन से दोस्ती का समता २४१ जितने प्रश्न : उतने उत्तर कुहासे स्वतंत्रता का मूल्य धर्म : एक राजनीति और राष्ट्रीय चरित्र अनैतिकता राष्ट्र की तस्वीर कैसे सुधरे ? प्रवचन ४ भारत कहां है ? वैसाखियां गणतंत्र की सफलता का आधार : अध्यात्मवाद आ.तु. समाधान की अपेक्षा क्या धर्म समस्या : समाधान बीती ताहि समाधान की अपेक्षा नैतिकता के एक सपना, जो अब तक सपना। वैसाखियां ११९ समस्याओं के मूल में खड़ी समस्या वैसाखियां ११७ १. २३-३-४७ दिल्ली में पं. नेहरू विचार परिषद' में पठित। के नेतृत्व में आयोजित एशियाई ३. ६-८-५५ उज्जैन । कांफ्रेंस में प्रेषित। ४. १५-८-७७ जैन विश्व भारती । २. २७-९-५३ कुमार सेवा सदन, ५. २६-१-५१ हांसी । जोधपुर की ओर से आयोजित ७ १४० Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ राष्ट्र के चारित्रिक पतन में फिल्म व्यवसाय का हाथ राष्ट्रहित और लाटरी राष्ट्र - विकास का सक्रिय कदम' राष्ट्र की समृद्धि और कृषक लाटरी योजना का सुदूरगामी परिणाम देश का चारित्रिक आर्थिक दारिद्रय राजस्थान की जनता के नाम राष्ट्रधर्म संसद २ संसद की पीड़ा संसद खड़ी है जनता के सामने संसद राष्ट्र की तस्वीर है ? " राष्ट्रीय चरित्र (विधायक) राष्ट्रीय चेतना में विधायकों का योगदान देश की बागडोर संभालने वाले हाथ देश का मालिक कौन ? भारत का भावी नेतृत्व बड़े लोग पहल करें यथा राजा तथा प्रजा सुखी जीवन की चाबी यथा जनता तथा नेता निर्माण का शीर्षबिन्दु' चुनाव शुद्धि सावधान ! चुनाव सामने है समन्दर चुनाव का : नौका सिद्धान्त की ऐसे सुधरेगी भारत में चुनाव की प्रक्रिया निर्वाचन आचार संहिता और मतदान लोकतंत्र और चुनाव वोटों की राजनीति देश का भविष्य १. २१-५ -५४ बड़ौदा | २. ५-८-७७ लाडनूं । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अणु संदर्भ अणु गति प्रवचन ११ आलोक में अणु संदर्भ सफर / अमृत प्रवचन ४ कुहासे राज / वि दीर्घा प्रवचन १० आलोक में वैसाखियां प्रज्ञापर्व अणु संदर्भ क्या धर्म वि दीर्घा / राज समता वैसाखियां घर जीवन कुहासे क्या धर्म आलोक में मेरा धर्म समता वैसाखियां ९३ २३३ २२७ १४० ८९ १७१/१३७ ३६ ७६ १३९/७४ १९८ ३. ४-४-७९ संसद भवन, दिल्ली । ४. २६-४-५७ चुरू । १९६ ८४ १०८ ९७ ६२ ६४/१२६ ९ ८६ ४४ ३८ ८७ १४८ ६९ २६ २१९ ९२ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रचिंतन आगे ० ० WG १८१ २३ ७० जागृत जीवन १८३ जनमत का जागरण जरूरी बूंद बूंद १ नैतिक निर्माण और जीवन शुद्धि' नवनिर्माण लोकतंत्र/जनतंत्र लोकतंत्र का प्रशिक्षण आवश्यक जीवन ४३ क्या है लोकतंत्र का विकल्प ? अतीत १७६ एशिया में जनतंत्र का भविष्य मेरा धर्म लोकतंत्र और नैतिकता अमृत लोकतंत्र के आधार स्तम्भ मेरा धर्म जनतंत्र से पहले जन बीती ताहि क्या जनतंत्र की रीढ टूट रही है ? अणु संदर्भ १०० दलतंत्र से जनतंत्र की ओर मंजिल २ दलतंत्र से जनतन्त्र की ओर मुक्तिः इसी जनतंत्र का मौलिक आधार : जागृत जनमत सोचो ! ३ राष्ट्रीय चरित्र बनाम लोकतंत्र वि दीर्धा राज ८५/१३७ राष्ट्रीय एकता राष्ट्रीय एकता का स्वरूप वैसाखियां चाणक्य का राष्ट्रप्रेम वैसाखियां १०० राष्ट्रीय एकता के पांच सूत्र वैसाखियां १०५ राष्ट्रीय एकता पर आक्रमण वैसाखियां १०२ प्रश्न मित्रता का नहीं, शक्ति और सामर्थ्य का है अणु संदर्भ १०४ राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय चरित्र वैसाखियां राष्ट्रीय भावात्मक एकता १२२ विघटन के हेतु अणु गति २३० वसुधैव कुटुम्बकम् समता राष्ट्रीय एकता के लिए पारस्परिक विश्वास की आवश्यकता अणु संदर्भ १२८ १. २१-४-६६ श्री कर्णपुर । ६. २६-१-७८ लाडनूं। २. २३-५-६५ जयपुर । ७. राष्ट्रीय एकता परिषद् के लिए। ३. २०-१-५७ पिलाणी। प्रेषित संदेश । ४-५. अणुव्रत भवन, दिल्ली । ९० १०४ राज २६५ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अणु संदर्भ १३७ धर्म : एक २३७ अणु गति २२१ अणु गति २२४. संदर्भ राष्ट्र की अखंडता बलिदान मांगती है राष्ट्रीय एकता दिवस' उत्तर और दक्षिण का सेतु : विश्वास राष्ट्र भाषा का प्रश्न और दक्षिण भारत राजनीति के मंच पर उलझा राष्ट्रभाषा ___ का प्रश्न और दक्षिण भारत नागरिकता नागरिकता का बोध आदर्श नागरिक नागरिकता की कसौटी' नागरिकता का जीवन नागरिकों का कर्तव्य १४४ १०८ आलोक में भोर सूरज प्रवचन ११ प्रवचन ११ ११० १.२-१०-६८। २. २२-८-५४ बम्बई (सिक्कानगर)। ३. २-४-५५ औरंगाबाद । ४. ब्यावर, नगरपालिका में । ५. १८-१-५४ मगरा । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीर्षक विज्ञान आदमी का आदमी पर व्यंग्य मशीनी मानव के खतरे विज्ञान के सही संयोजन की आवश्यकता विज्ञान और अध्यात्म वैज्ञानिक प्रगति से मानव भयभीत क्यों ? चंद्रयात्रा : एक अनुचितन' चंद्रयात्रा और शास्त्रप्रामाण्य शक्ति के उपयोग की सही दिशा सूक्ष्म जीवों की संवेदनशीलता वनस्पति का वर्गीकरण अल्फा तरंगों का प्रभाव पर्यावरण वनस्पति की उपेक्षा : अपने सुख की उपेक्षा मानव के अस्तित्व को खतरा पर्यावरण व संयम पर्यावरणविज्ञान धीरे बोलने का अभ्यास करें विज्ञान १. १-८-६९ बेंगलोर । पुस्तक कुहासे वैसाखियां अणु संदर्भ अणु गति राज / वि दीर्घा ज्योति से अणु संदर्भ वैसाखियां लघुता अतीत खोए लघुता वैसाखियां वैसाखियां दीया प्रज्ञापर्व १५ पृष्ठ ३७ १९. ११२ १८० ९४/२३३ १२५ १२४ १८५ ५८ १७१ २. १९ - ३-७९ दिल्ली (महरौली) । ७२ ५३ ४५ ४७ १११ ८ १ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध ० विविध ० प्रतिमापूजा ० स्वाध्याय ० समन्वय ० सुख-दुःख ० सुधार ० स्वागत एवं विदाई संदेश Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध शीर्षक पुस्तक मंजिल १ प्रवचन ४ भोर प्रवचन ११ शांति के जन जन धर्म : एक जन जन १२८ १३४ २३५ विविध चर्चा के तीन पक्ष प्रवचन-प्रभावना मानव धर्म वीरों की भूमि सार्मिक मिलन सुधारवादी व्यक्तियों से सम्मेद शिखर असत्यवादियों से बहत्तर भारत के दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध की विभाजक रेखा : वेअड्ढ पर्वत जिज्ञासु और जिगीषु प्रवचन का अर्थ प्रतिमा-पूजा प्रतिमापूजा : एक मीमांसा द्रव्यपूजा और भावपूजा पूजा किसकी हो ? हम भाव पुजारी हैं पूजा पाठ कितना सार्थक ! कितना निरर्थक ! अतीत ११७ घर २३३ मनहंसा प्रज्ञापर्व मंजिल १ प्रवचन ५ वि दीर्घा १. २४-४-७७ बीदासर। २. २४-७-७७ लाडनूं । ३. ६-९-५४ बम्बई। ४. २५-१-५४ देवगढ़ । ५. ३-१०-५३ आमलनेर में आयोजित __ खानदेश का त्रैवार्षिक अधिवेशन । ६. २३-८-७६ सरदारशहर । ७. १९-१२-६६ लाडनूं । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १८५ १८ दीया मंजिल २ मुक्ति : इसी मंजिल २ मुक्ति : इसी प्रवचन ४ प्रवचन ५ प्रवचन ९ ज्योति से जव जागे १०४ १५ १३५ ४८ १९५ १४७ स्वाध्याय क्यों पढ़ें और क्यों पढ़ाएं ? स्वाध्याय' स्वाध्याय प्रेमी बनें स्वाध्याय प्रेमी बनें आत्मा ही परमात्मा कैसे पढ़ें ? स्वाध्याय और ध्यान सामूहिक स्वाध्याय स्वाध्याय : साधना का प्रथम सोपान' स्वाध्याय एक आईना है समन्वय सबहु सयाने एक मत नयी संभावना के द्वार पर दस्तक अनेकता में एकता का दर्शन सैद्धान्तिक भूमिका पर समन्वय समन्वय मंच की अपेक्षा भेद को समझे, भेद में उलझे नहीं विचारभेद और समन्वय समन्वय सर्वधर्मसद्भाव सर्वधर्मसद्भाव भावात्मक एकता भावात्मक एकता और स्वभाव-निर्माण विश्वबंधुत्व और अध्यात्मवाद विश्वशांति और सदभाव' सीमा में निःसीमता १. २२-५-६६ पडिहारा। २. २१-५-७६ पडिहारा । ३. २२-५-७६ पडिहारा । ४. २९-८-७७ लाडनूं। ५. ६-११-६६ लाडनूं । ६४ १५ २८ लघुता मुखड़ा अतीत का अणु गति वैसाखियां १०९ मुखड़ा बूंद बूंद १ धर्म : एक १३४ अनैतिकता १८८ अमृत अमृत/अनैतिकता ६२/१८५ क्या धर्म शांति के शांति के .. ३८ अणु गति ६. २२-५-५३ गंगाशहर । ७. १-७-७० रायपुर। ८. ५-४-६५ बाड़मेर । ९. ४-५-४९ जैन निशी मंदिर, दिल्ली। ५७ . २०४ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध १४५ २३७ १८१ १३२ m धर्मों का समन्वय समाधान के दो रूप अन्याय का प्रतिवाद कैसे हो ? सामञ्जस्य खोजें संगठन की अपेक्षा जैन एकता का एक उपक्रम : कुछ बिंदु जैन एकता पंचसूत्री कार्यक्रम' जैन समन्वय का पंचसूत्री कार्यक्रम जैन एकता : क्यों ? कैसे? विघटन और समन्वय दो जैन समाज सोचे भारतीय कहां रहते हैं ? संवत्सरी कब : सावन में या भाद्रपद में ? वर्तमान की अपेक्षा जैन एकता की दिशा में सर्वधर्म-समन्वय धार्मिक सद्भाव अपनाएं सुख-दु:ख सुख-दुःख की अवधारणाएं सुख और दुःख : स्वरूप और कारण-मीमांसा सुख क्या है ? सुख का आधार' दुःखमुक्ति का रास्ता सुख के साधन सूरज वैसाखियां वैसाखियां प्रवचन १० धर्म : एक सफर अमृत शांति के सूरज सूरज जागो! जागो ! धर्म : एक भोर कुहासे सफर अमृत आलोक में धर्म : एक धर्म : एक भोर १५५ २३९ १७८ १७९ ११६/८२ १३२/९८ ११५ सफर/अमृत लघुता सोचो!१ प्रवचन ४ जब जागे सूरज १७२ १३८ १.९-१२-५५ बड़नगर। २. ६-८-७८ गंगाशहर । ३. १-३-५५ पूना। ४. १४-११-६५ दिल्ली। ५. २७-१०-६५ दिल्ली। ६. २३-१०-६० राजसमन्द । ७. २७-८-५४ बम्बई। ८.३-१०-७७ लाडनूं । ९. २८-७-७७ लाडनूं । १०.२-६-५५ धूलिया। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सूरज सूरज प्रवचन ९ मुखड़ा वैसाखियां १४१ ५१ २११ समता खोए २३ भोर G . W सुख का रस्ता व्यक्ति की मनोभूमिका सुखी कौन ? सुख को सहना कठिन है कैसे दूर होगा मन का अंधकार ? सुधार सुधार का मूल : व्यक्ति सुधार की बुनियाद व्यक्ति-सुधार ही समष्टि-सुधार है। सुधार का प्रारम्भ स्वयं से सर्वजनहिताय : सर्वजनसुखाय' सुधार की क्रान्ति शुभ शुरूआत स्वयं से हो व्यक्तिवादी दृष्टिकोण बने" जीवन-सुधार का सच्चा मार्ग" सुधार का मार्ग१२ सुधार का आधार स्वागत एवं विदाई-संदेश संतों की स्वागत-सामग्री : त्याग वास्तविक स्वागत स्वागत और विदाई५ . विदाई-संदेश प्रवचन ११ सूरज सूरज भोर प्रवचन ११ संभल संभल १४१ १६८ १५४ घर २८० शांति के सूरज प्रवचन ११ आ.तु. १२३ २४२ ७६ १२१ १. २१-४-५५ मोकरधन । २. १२-७-५५ उज्जैन। ३. नोखा। ४. ११-९-८० लाडनूं। ५. २७-६-५४ बम्बई (मागा)। ६. २१-११-५३ जोधपुर। ७. २-१-५५ बम्बई (मुलुन्द)। ८. ५-७-५५ उज्जैन। ९. ६-९-५४ बम्बई। १०.११-२-५४ राणावास । ११. २३-९-५६ सरदारशहर । १२. १९-८-५६ सरदारशहर । १३. २२-७-५३ जोधपुर, नागरिक स्वागत समारोह। १४. २७-१२-५५ पेटलावद । १५. १७-११-५३ जोधपुर । १६. आषाढ कृष्णा ८, गुरुवार, दिल्ली (करौलबाग)। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ २७ विदाई-संदेश जीवन की सार्थकता सच्चा स्वागत जीवन का सार रमणीयता सदा बनी रहे मन और आत्मा की सफाई करें चातुर्मास की सार्थकता स्वागत : विदाई नैतिक क्रान्ति के क्षेत्र अणुव्रतों की अलख सूरज भोर सोचो !३ सूरज मंजिल १ संभल १७४ २५५ २२८ संभल १४३ संभल घर. ११५ घर १.८-२-५५ बम्बई। २. ११-११-५४ बम्बई। ३. १३-६-७८ जसरासर । ४. ३०-११-५५ विदाई संदेश, उज्जैन। ५.७-११-७६ सरदारशहर । ६. २५-३-५६ खाटू (छोटी) ७. १६-७-५६ सरदारशहर । ८. २०-१-५६ जावद। ९. २७-५-५७ लाडनूं । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • तीर्थंकर ऋषभ एवं पार्श्व • महावीर : जीवन-दर्शन ● आचार्य भिक्षु : जीवन-दर्शन जयाचार्य o व्यक्ति एवं विचार • अन्य आचार्य विशिष्ट संत O ● महात्मा गांधी : जीवन-दर्शन • विशिष्ट व्यक्तित्व १७ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति एवं विचार शीर्षक पुस्तक पृष्ठ ११७ १२० १२३ १२६ १२९ १३२ १४० ७५ २१/७ तीर्थंकर ऋषभ एवं पार्श्व तीर्थंकर ऋषभ प्रवचन ९ उपयुक्त समय यही है मुखड़ा राजतंत्र का उदय मुखड़ा समाज-व्यवस्था का परिवर्तन क्यों? मुखड़ा धर्मचक्र का प्रवर्तन मुखड़ा एक मार्ग : दो समाधान मुखड़ा विजय और पराजय के बाद की विजय मुखड़ा श्रमण परम्परा और भगवान पार्श्व भगवान् महावीर : जीवन-दर्शन निर्वाणवादी भगवान् महावीर दीया अंगारों पर खिलते फूल मुखड़ा सत्य के प्रयोक्ता : भगवान् महावीर वि. वीथी/राज अनुभूत सत्य के प्रयोक्ता : भगवान् महावीर बीती ताहि सामाजिक क्रांति के सूत्रधार : भगवान् महावीर बीती ताहि वैज्ञानिक धर्म के प्रवक्ता : भगवान् महावीर मेरा धर्म मंडनात्मक नीति के प्रवक्ता : भगवान महावीर मुखड़ा भूख और नींद के विजेता : भगवान् महावीर मुखड़ा महान वैज्ञानिक : भगवान महावीर बीती ताहि चेतना के केन्द्र में विस्फोट वि. वीथी/राज महावीर कर्म से या जन्म से ? २ मंजिल २ महावीर सम्प्रदायातीत थे मंजिल २ महावीर स्वयं आकर देखें बीती ताहि आज फिर एक महावीर की जरूरत है वि दीर्घा/राज १. १६-५-५३ बीकानेर।। ३. २४-४-७८ लाडनूं। २. २१-४-७८ महावीर जयंती, लाडनं । ४४ ६० XG १/१० १२१ १३५ १२/३८ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२१/४ १३९ १३१ ११७ १११ १९५ १५५ ३ यदि महावीर तीर्थंकर नहीं होते ? भगवान महावीर और नागवंश भगवान् महावीर ज्ञातपुत्र थे या नागपुत्र ? क्या महावीर वैश्य थे ? महावीर बनना कौन चाहता है ? भगवान महावीर का प्रेरणास्रोत भगवान् महावीर का आदर्श जीवन महावीर की ध्यानमुद्रा महावीर को शब्द में नहीं, चेतना में खोजें सच्चा कीर्ति-स्तम्भ महावीर कितने सोये ? अर्हतों की नियति मानवता का योगक्षेम : सबका योगक्षेम महावीर के पदचिह्न महावीर के चरण-चिह्न महावीर-दर्शन भगवान महावीर महावीर-दर्शन महावीर का दर्शन भगवान् महावीर की देन महावीर : जीवन और दर्शन भगवान् महावीर और निःशस्त्रीकरण भगवान् महावीर और आध्यात्मिक मानदण्ड भगवान् महावीर और सदाचार भारतीय समाज को भगवान् महावीर की देन अतीत का/धर्म एक अतीत अतीत मुखड़ा मंजिल २ __शांति के प्रवचन ११ खोए प्रज्ञापर्व प्रवचन १० मुखड़ा अतीत बैसाखियां राज/वि. दीर्घा प्रवचन ९ मंजिल २ घर मंजिल २ मुक्ति : इसी धर्म : एक भोर मेरा धर्म अतीत का/धर्म एक राज/वि. वीथी राज/वि. वीथी ५३ १४/१७ مہ اللى १३० لسه १३२ १०९ ३४ ७/१०३ २३/५ २७/१० १. २८-३-५३ महावीर जैन मंडल ५. २८-२-५३ बीकानेर । द्वारा आयोजित महावीर जयन्ती, ६. २३-४-७८ लाडनूं । बीकानेर। ७. २८-६-५७ बीदासर । २. २१-४-७८ महावीर जयंती, लाडनूं। ८. १६-५-७६ पड़िहारा । ३. १६-४-५४ बाव। ९. १६-५-७६ पड़िहारा। ४. ६-१-७९ महावीर कीर्तिस्तम्भ १०. २१-६-५४ बम्बई (अन्धेरी)। का उद्घाटन समारोह, डूंगरगढ़ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति एवं विचार १५३ ४८ ९२ भारतीय आचारशास्त्र को महावीर की देन अनैतिकता भगवान् महावीर के सपनों का समाज बीती ताहि वर्तमान समाज-व्यवस्था के मूल्य और महावीर - के सिद्धांत राज/वि. वीथो ३१/१४ भगवान् महावीर का जीवन-संदेश संभल लोकतंत्र को बुनियाद : महावीर का दर्शन राज/वि. वीथी समन्वय को खोजें प्रज्ञापर्व २८ भोग से त्याग की ओर प्रवचन ५ जन्मदिन : एक समूची सृष्टि का राज/वि. दीर्घा जन्मदिन कैसे मनाएं ? सफर/अमृत ११८/८४ कैसे मनाएं महावीर को ? २ आगे १५५ 'महावीर को कैसे मनाएं ?3 प्रवचन १० २०१ आस्था की रोशनी : अविश्वास का कुहासा बैसाखियां निर्वाण महोत्सव और हमारा दायित्व । राज/वि. वीथी ४२/३० पच्चीससौवां निर्वाण महोत्सव कैसे मनाएं ? राज/वि. वीथी ४५/२४ निर्वाण शताब्दी के संदर्भ में राज/वि. दीर्घा ५०/२०८ आचार्य भिक्ष : जीवन-दर्शन कितना विलक्षण व्यक्तित्व ! ज्योति से १३९ धर्म की अवधारणा और आचार्य भिक्षु जब जागे २०२ आचार्य भिक्षु : समय की कसौटी पर मेरा धर्म १२३ संकल्प का बल : साधना का तेज १९४ शास्त्रों में गुंथा चरित्र जीवन में कुहासे क्रांति के लिए बदलाव कुहासे १९९ आदर्श जीवन-पद्धति के प्रदाता वि. वीथी २२४ आचार्य भिक्षु और महर्षि टालस्टाय जब जागे आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी जब जागे आचार्य भिक्षु का जीवन-दर्शन' प्रवचन १० आचार्य भिक्षु का जीवन दर्शन . वि. दीर्घा आचार्य भिक्षु के तत्त्व चिंतन की मौलिकता वि. दीर्घा १. ६-१२-७७ महावीर दीक्षा कल्याण ३.८-४-७९ दिल्ली । दिवस, लाडनूं । ४. १-९-७४ दिल्ली। २. ३-४-६६ महावीर जयंती, ५. १४-९-७८, १७६ वां भिक्षु गंगानगर। चरमोत्सव, गंगाशहर। कुहासे २१६ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पौरुष का प्रतीक आचार्य भिक्षु का दार्शनिक अवदान सत्यशोध के लिए समर्पित व्यक्तित्व : आचार्य भिक्षु आत्मशुद्धि की सत्प्रेरणा लें आचार्य भिक्षु : संगठन और आचार के सूत्रधार आदर्श विचार पद्धति अवधूत का दर्शन और एक विलक्षण अवधूत अठारहवीं सदी के महानतम महापुरुष : आचार्य भिक्षु बलिदान की लंबी कहानी : आचार्य भिक्षु आचार्य भिक्षु : एक क्रान्तद्रष्टा आचार्य असीम आस्था के धनी : आचार्य भिक्षु सत्य के प्रति समर्पण' आध्यात्मिक क्रांतिकारी सन्त आचार्य भिक्षु की जीवन-गाथा" आचार्य श्री भिक्षु" आचार्य भिक्षु और तेरापंथ जयाचार्य बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी भविष्यद्रष्टा व्यक्तित्व श्रीमद्जयाचार्य'" जयाचार्यः व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व" वे अनुपमेय थे आत्म साधना के महान् साधक ? -१५ १. २५-९-७७ लाडनूंं । २. १७-९-५६ सरदारशहर। ३. बीदासर । ४. २७-९-७७ लाडनूं । ५. २४-१२-७७ लाडनूं । ६. ८-९-६५ दिल्ली । ७. १६-१२-७६ राजलदेसर । ८. ९-४-७७ लाडनूं | आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मुखड़ा १७५ मेरा धर्म ११८ सोचो ! १ संभल संभल घर लघुता सोचो १ प्रवचन ५ बूंद-बूंद २ मंजिल १ मंजिल १ प्रवचन ११ भोर सूरज प्रवचन १० बीती ताहि वि दीर्घा मंजिल १ सोचो ! १ बीती ताहि प्रवचन ९ १२. २०-७-७८ गंगाशहर । १३. २१-८-७६ सरदारशहर । १४. १०-९-७७ लाडनूं । १५. ५-९-५३ जोधपुर । १५२ १६६ १७८ २४४ २०८ १५७ १३१ १६४ ६४ २०७ २६. १३२ २०९ ३० ५४ ४९. १४ ९. १९५३ भिक्षु चरमोत्सव, जोधपुर । १०. १०-९-५४ बम्बई । ११. ३१-८-५५ उज्जैन । १३९ ५७ २३८ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति एवं विचार ११० २४१ अन्य आचार्य एक दिव्य पुरुष : आचार्य मघवा' सोचो ! ३ १३५ दिव्य आत्माः आचार्य श्री कालूगणी सोचो ! १ १४२ महनीय व्यक्तित्व के धनी : पूज्य कालगणी मंजिल १ पूज्य कालूगणी की संघ को देन मंजिल १ ८४ पूज्य कालगणी का पुण्य स्मरण संभल विशिष्ट संत मंत्री मुनि मगनलालजी धर्म एक ऋजुता के प्रतीक; सेवाभावीजी (चम्पालालजी) वि वीथी २३० स्मृति को संजोए रखें प्रवचन १० २३९ वे हमारे उपकारी हैं प्रवचन १० युवाचार्य महाप्रज्ञः मेरी दृष्टि में वि दीर्घा मुनि चौथमल धर्म एक १७२ आचार्य जवाहरलालजी धर्म एक तपस्या संघ की प्रगति का साधन (साध्वी पन्नाजी) घर २६२ महात्मा गांधी : जीवन दर्शन अहिंसा के प्रयोक्ता गांधीजी राज/वि दीर्घा ८४/१९२ गांधी एक; कसौटियां अनेक धर्म एक अतीत का ७१/१११ आधुनिक समस्याएं और गांधी दर्शन अणु गति गांधीजी के आदर्श : एक प्रश्नचिह्न राज/वि वीथी ९२/१४६ उपवास और महात्मा गांधी धर्म एक अतीत का ६३/११५ गांधी शताब्दी धर्म एक २३४ अहिंसा, गांधी और गांधी शताब्दी अणु संदर्भ ५६ गांधी शताब्दी और उभरते हुए साम्प्रदायिक दंगे वि वीथी/राज १४१/९६ गांधी शताब्दी और गांधीवाद का भविष्य अणु संदर्भ गांधी शताब्दी क्या करना, क्या छोड़ना अणु गति १. २८-३-७८ लाडनूं ६. २३-१-७७ लाडनूं २. १९-९-७७ लाडनूं ७. १२-८-७८ गंगाशहर ३. २०-२-७७ छापर ८. १५-१०-६७ अहमदाबाद ४. ११-२-७७ छापर ९. २०-९-६८ मद्रास ५. १५-४-५६ लाडनूं Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ विशिष्ट व्यक्तित्व श्रीमद्राजचन्द्र' तटस्थता के सूत्रधार : पंडित नेहरू नेहरू शताब्दी वर्ष और भारतीय संस्कृति की गरिमा स्वतंत्र चेतना का सजग प्रहरी (लोकमान्य तिलक ) डा. राजेन्द्र प्रसाद (१) राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद (२) डा. जाकिर हुसैन - लालबहादुर शास्त्री मोरारजी भाई एक शक्तिशाली महिला : श्रीमती गांधी कला और संस्कृति का सृजन (जैनेन्द्रकुमारजी ) सूक्ष्म दृष्टि वाला व्यक्तित्व (जैनेन्द्रकुमारजी ) एक सुधारवादी व्यक्तित्व ( रामेश्वर टांटिया) वह व्यक्ति नहीं, संस्था था ( शोभाचंद सुराणा ) निष्काम कर्मयोगी सोहनलाल दूगड़ चंपतराय जैन श्री जुगलकिशोर बिड़ला देवीलाल सांभर सुगनचंद आंचलिया जयचन्दलाल दफ्तरी सेठ सुमेरमलजी दूगड़ भंवरलाल दूगड़ सोहनलाल सेठिया ' मोहनलालजी खटेड़' गणेशमल कठौतिया " .६ धनराज बैद १. २०२४ कार्तिक शुक्ला ९, अहमदाबाद | २. १-३-६३ । ३. २०२४ मार्गशीर्ष कृष्णा १३ । ४. ८-६-६९ चिकमंगलूर । अ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्म एक धर्म एक जीवन वि वीथी धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक सफर / अमृत कुहासे जीवन वि दीर्घा वि दीर्घा वि वीथी धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक १७७ १६१ १३३ १५० १५८ १६० १६६ १६४ १६७ १५७/१२३ ५. ९ - १-७४ बम्बई । ६. २- १०-६६ बीदासर । ७. १४-२-६८ पूना । ८. २०-१०-७४ अहमदाबाद । ५३ १३९ २०१ २०५ २३३ १७१ १७३ १७९ १८० १८३ १८५ १८७ १९० १९१ १९४ १९५ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति एव विचार मदनचन्द गोठी' सागरमल बैद मानसिंह पन्नालाल सरावगी * तखतमल पगारिया स्वस्थ और शालीन परम्परा' (चुन्नीभाई मेहता) जो दृढधर्मिणी थी और प्रियधर्मिणी भी १. २०-३-६६ हनुमानगढ़ । २. १२-३-६६ चुटाला । ३. ३-८-६६ बीदासर । धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक धर्म एक वि वीथी ४. ११-६-६३ लाडनूं । ५. १-९-६६ बीदासर । ६. २३-१०-७७ लाडनूं । १५७ १९६ १९७ १९८ १९९ २०० २३७ २३७ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संस्कृति ० शिक्षा ० शिक्षक ० शिक्षार्थी • संस्कृति ● भारतीय संस्कृति ० श्रमण संस्कृति ० सत्संगति 0 गुरु ० पर्व ० दीपावली 0 होली 0 अक्षय तृतीया O पर्युषण पर्व • पन्द्रह अगस्त १८ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संस्कृति - ४० १३४ कुहासे १३३ १४० शीर्षक पुस्तक शिक्षा शिक्षा का उद्देश्य कुहासे शिक्षा का उद्देश्य : आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व जब जागे शिक्षा की निष्पत्ति : अखंड व्यक्तित्व का निर्माण क्या धर्म विद्या की निष्पत्ति : विनय और प्रामाणिकता के संस्कार आलोक में शिक्षा का उद्देश्य : प्रज्ञा-जागरण आलोक में शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग का अवसर प्रायोगिक आस्था का निर्माण मुखड़ा शिक्षा की सार्थकता बैसाखियां जीवन और जीविका : एक प्रश्न बैसाखियां शिक्षा और जीवन-मूल्य बैसाखियां विद्याध्ययन का लक्ष्य नवनिर्माण साक्षरता और सरसता वैसाखियां शिक्षा जीवन-मूल्यों से जुड़े प्रज्ञापर्व शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ता प्रदूषण जब जागे शिक्षा का ध्येय संभल शिक्षा का आदर्श संभल सन्तुलन की समस्या : एक चिन्तनीय प्रश्न क्या धर्म विद्यार्जन का ध्येय प्रवचन ९ विद्या वही हैं। प्रवचन ११ विद्या किसलिए? प्रगति की १४६ १४९ १३९ १४२ ८७ २०८ १२८ १३८ २४८ १७७ १. ५-१२-५६ दिल्ली। २. २-१२-५६ दिल्ली। ३. १-७-५६ सरदारशहर ४. १५-९-५३ जोधपुर। ५. २५-३-५४ शिवगंज। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १६१ १८३ आगे सूरज सूरज प्रवचन ५ प्रवचन ५ भोर भोर समता शांति के प्रवचन १० आ० तु० ज्योति के १०९ १०० २२१ २५० विद्याध्ययन : क्यों और कैसे ?' विद्यार्जन की सार्थकता शिक्षा का सही लक्ष्य' शिक्षा का फलित : साधना ज्ञान का फलित : विनय सत्यं शिवं सुंदरम्' शिक्षा का उद्देश्य विसंगति विकास या ह्रास ? शिक्षा व साधना की समन्विति' जीवन-विकास विद्या जीवन-निर्माण की दिशा बने जीवन-विकास के साधन शिक्षा शिक्षा का फलित आचार ? १२ शिक्षा का कार्य है चरित्र-निर्माण जीवन का सौन्दर्य सुधार की शुभ शुरूआत स्वयं से हो१५ शिक्षानुशीलन ज्ञानमंदिर की पवित्रता सा विद्या या विमुक्तये" ६२ १३५ ३१ २४३ १२४ सूरज २५ सूरज भोर प्रवचन ९ सूरज २०६ भोर २९ सूरज आलोक में घर १२४ १. ५-४-६६ विद्यार्थी सम्मेलन, ९. १०-९-७८ गंगानगर । गंगानगर। १०. फाल्गुन शुक्ला १२, वि० स० २. १८-१-५५ मुलुन्द । २००५ गंगा गोल्डन जुबली हाई ३. २७-७-५५ उज्जैन। स्कूल, सरदारशहर। ४. १५-११-७७ लाडनूं । ११. २१-५-५५ धरणगांव । ५. ३-११-७७ ब्राह्मी विद्यापीठ का १२. १५-६-५४ बम्बई (बोरीवली)। __उद्घाटन समारोह, लाडनूं १३. ४-८-५३ जोधपुर । ६. २४-८-५४ बम्बई। १४. ७-८-५५ उज्जैन। ७. १९-८-५४ बम्बई। १५. १७-६-५४ बम्बई (मलाड)। ८. १२-११-५३ टी० सी० टीचर्स १६. ७-८-५५ उज्जैन । ट्रेनिंग स्कूल, जोधपुर । १७. १८-१-५७ पिलाणी । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संस्कृति परीक्षा की नई शैली प्रौढ़ शिक्षा मुखड़ा मंजिल २ २१७ २०० १२० १७८ आलोक में नवनिर्माण सूरज बैसाखियां १४४ सूरज शांति के १५७ १६१ प्रवचन ५ समता समता २४५ शिक्षक शिक्षक का दायित्व अध्यापकों का दायित्व' शिक्षकों की जिम्मेवारी शिक्षक गुरु बने अध्यापक मानवकल्याण और शिक्षक समाज' अध्यापक निर्माता कैसे ? महामारी चरित्रहीनता की घर क्यों छोड़ना पड़ा? सुधार का मूल आध्यात्मिक संस्कृति और अध्यापक सफल मनुष्य जीवन शिक्षक होता है जीवन अध्यापकों से शिक्षा-शास्त्रियों से ज्ञानी सदा जागता है अध्यापकों का दायित्व विद्यार्थियों का निर्माण ही राष्ट्र-निर्माण है" सबसे बड़ी पूंजी परिमार्जित जीवनचर्या घर २५९ १८९ प्रवचन ११ सूरज प्रवचन ९ २२१ जन जन ५ जन जन लघुता संभल संभल घर घर १. ३-१०-७८ गंगाशहर। ६. ३१-१२-७७ लाडनूं । २. १९-१-५७ बिडला बिहार ७ ९-४-५४ देलवाड़ा। इंजीनियरिंग कालेज, पिलाणी । ८. ११-३-५५ नारायणगांव । ३. २०-८-५५ उज्जैन । ९. २३-८-५३ जोधपुर । ४. १५-४-५५ सन्तोषबाड़ी। १०. २३-३-५६ बोरावड़। ५. २८-८-५३ मारवाड़ टीचर्स यूनियन ११. अजमेर मेयो कालेज । जोधपुर की ओर से आयोजित १२. ८-४-५७ चूरू । शिक्षक सम्मेलन १३. २१-४-५७ चूरू । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जीवन का आभूषण' शिक्षार्थी जीवन विकास और विद्यार्थी गण रुचि - परिष्कार की दिशा विद्यार्थी जीवन : एक समस्या एक समाधान पूजा पुरुषार्थ की विलक्षण परीक्षण मेधावी कौन ? उत्कृष्ट विद्यार्थी कौन ? ४ विद्यार्थी जीवन का महत्त्व विद्यार्थियों के रचनात्मक मस्तिष्क का निर्माण विद्यार्थी और जीवन-निर्माण की दिशा नैतिकता और जीवन व्यवहार' विद्यार्थी वर्ग का नैतिक जीवन विद्यार्थी का जीवन लक्ष्य : एक कवच विद्यार्थी जीवन : जीवन-निर्माण का काल ' राष्ट्र-निर्माण और विद्यार्थी विद्यार्थी का चरित्र संस्कार निर्माण की बेला " विद्यार्थी दृढ़प्रतिज्ञ बने" विद्यार्थी कौन होता है ? छात्रों का दायित्व " १२ १. २८-४-५७ चूरू । २. २६-८- ५३ उम्मेद हाई स्कूल, जोधपुर | ३. २१-१२-५६ कठौतिया भवन दिल्ली । ४. २५-८-५५ उज्जैन । ५. २३-२-६६ नोहर । ६. १९-१-५७ बालिका विद्यापीठ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ४६ घर शांति के आलोक में धर्म एक समता कुहासे नवनिर्माण सूरज नवनिर्माण अणु सन्दर्भ आगे नवनिर्माण सूरज सूरज घर भोर सूरज प्रवचन ९ प्रवचन ११ प्रवचन ११ प्रवचन ९ प्रवचन ९ ८. १६-८-५४ बम्बई । ९. १०-१२ - ५५ ढोलाना । १०. ६-३-५४ सोजतरोड़ । १७४ ११७ बिड़ला विद्या विहार, पिलाणी । ७. १०-३-५५ नारायणगांव | ८५ २६३ ९३ १५६ २०१ १६३ ६९ ५५ १७६ ५३ ५७ २६७ ९७ २४० ८ १ १५६ १ १३२ ३८ ११. ४-१०- ५३ जोधपुर । १२. २०-२-५३ छात्र सम्मेलन, कालू I Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संस्कृति १६८ १८९ नवनिर्माण शांति के प्रवचन ११ प्रवचन ९ संभल संभल २१४ घर २५३ प्रवचन ११ १३४ विद्यार्थी भावना का महत्त्व' सफलता का मार्ग और छात्र जीवन' निर्माण का समय साधना का जीवन शिक्षक और शिक्षार्थी आत्मोन्मुखी बनें तीन बहुमूल्य बातें शिक्षार्थी की अर्हता अंतर्मुखी बनने का उपक्रम महत्त्वपूर्ण वय कौन-सी ?' धर्म की प्रयोगशाला विद्यार्थियों से शिक्षा और शिक्षार्थी जीवन का प्रवाह राष्ट्र की वास्तविक नींव छात्राओं का चरित्रनिर्माण विद्यार्थी और नैतिकता१४ बहुश्रुत कौन ? विद्यार्थी के कर्तव्य भारतीय विद्या का आदर्श राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य का आधार प्रवचन ५ प्रवचन ९ सूरज जन जन २५ ५१ प्रश्न सूरज सूरज सूरज भोर मुखड़ा संभल संभल घर ११७ १५२ १. १६-१-५७ बिड़ला मांटेसरी अध्यात्म योग शिविर का उद्घाटन, पब्लिक स्कूल, पिलाणी। लाडनूं। २. ४-९-५३ जसवंत कालेज, ९. १८-८-५३ जोधपुर । जोधपुर। १०. ३०-३-५५ राहता। ३. १-१-५४ ब्यावर । ११. २३-३-५५ राहता । ४. २६-८-५३ जोधपुर । १२.७-१२-५५ बड़नगर । ५. ४-३-५६ गुलाबपुरा । १३. १-३-५५ पूना । ६. ५-१२-५६ माडर्न हायर सैकेण्डरी १४. २९-८-५४ बम्बई । __ स्कूल, दिल्ली। १५. २०-१-५६ जावद । ७. १७-३-५३ वरकाणा। १६. सरदारशहर ८. २५-१२-७७ नैतिक शिक्षा और Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण शांति के शांति के प्रवचन ९ अणु गति प्रवचन ९ २३६ २१५ २७५ २११ २२१ कुहासे १०३ १० भोर घर कुहासे ०० विद्यार्थी या आत्मार्थी' श्रद्धा तथा सत्चर्या का समन्वय करिए आत्मनिर्माण ग्रीष्मावकाश का उपयोग अवबोध का उद्देश्य बालक कुछ लेकर भी आता है निर्माण की आवश्यकता विद्यार्थी जीवन और संयम' संस्कृति सांस्कृतिक मूल्यों का विनिमय संस्कृति की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न संस्कृति संवारती है जीवन" संस्कृति संस्कृति की सुरक्षा का दायित्व शाश्वत मूल्यों की उपेक्षा संस्कृति का सर्वोच्च पक्ष सांस्कृतिक विकास क्यों ? बदलाव जीवन-शैली का प्रतिस्रोतगामिता से होता है निर्माण भारतीय संस्कृति भारतीय संस्कृति का प्राण-तत्त्व भारतीय संस्कृति की एक विशाल धारा भारतीय परम्परा विश्व के लिए महान् आदर्श' १०१ १३५ बैसाखियां प्रवचन ११ सूरज मंजिल १ बैसाखियां भोर शांति के कुहासे बैसाखियां ३५ १७५ १०८ २६१ १७५ बैसाखियां मा० तु आ० तु ११५ १७० १७५ १. २१-१०-५३ अखिल भारतीय ५. १७-८-५४ बम्बई (सिक्कानगर) विद्यार्थी परिषद, जोधपुर की ओर ६. १७-१-५७ पिलाणी। से विद्यार्थी सम्मेलन । ७. १९-१२-५३ ब्यावर । २. १६-९-५३ महाराजकुमार कालेज, ८. २७-५-५५ आमलनेर । जोधपुर। ९. १०-५-७७ चाडवास । ३. ४-१०-५३ जोधपुर (केवल १०. १९-१२-५३ संस्कृति सम्मेलन, भवन)। गांधी विद्या मंदिर, सरदारशहर । ४. १९५३, जोधपुर ११. १३-९-४९ हांसी। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संस्कृति भारतीय संस्कृति' एक गौरवपूर्ण संस्कृति भारतीय संस्कृति के जीवन तत्त्व भारतीय संस्कृति का आदर्श पर्यटकों को भारतीय संस्कृति से परिचित किया जाए भारतीय पूंजी भारतीय संस्कृति में बुद्ध और महावीर जीवन क्या है ? भारतीय संस्कृति की पहचान क्या जैन हिन्दू हैं ? ४ हिन्दू : नया चिंतन : नयी परिभाषा क्या हिन्दू जैन नहीं हैं ?" ऋषिप्रधान देश ७ एलोरा की गुफाएं अजन्ता की गुफाएं साढ़े पचीस आर्य देशों की पहचान अध्यात्म-प्रधान भारतीय संस्कृति' भारतीय संस्कृति के जीवन-तत्त्व " त्याग और संयम की संस्कृति " भारतीय संस्कृति की एक पावनधारा श्रमण संस्कृति श्रमण संस्कृति‍ श्रमण संस्कृति श्रमण संस्कृति का प्राग्वैदिक अस्तित्व १. १२-६-५५ शहादा । २. ६-१-७९ भारत जैन महामंडल द्वारा आयोजित जैन संस्कृति सम्मेलन, डूंगरगढ़ । ३. २१-७-५४ बम्बई । ४. २-८-७७ लाडनूं । ५. २३-५-७३ । सूरज प्रवचन १० भोर प्रवचन ११ अणु संदर्भ ज्योति के अतीत कुहासे समता प्रवचन ४ मेरा धर्म दायित्व / अतीत का नवनिर्माण सूरज सूरज अतीत संभल संभल संभल संभल भोर राज / वि वीथी अतीत ६. १६-१-५७ पिलाणी । ७. ३० - ३ - ५५ एलोरा । ८. २३-४-५५ अजन्ता । ९. १७-१-५६ नीमच । १०. १२-३-५६ अजमेर । ११. १४-३-५६ थांवला । १२. ३-१०-५४ बम्बई । १६७ १४६ ९३ १०३ १४९ ११६ ९ १२२ १६३ २२३ ४२ १२ ५७/७९ १६१ ७९ १०८ १६१ २२ ६५ ६८ १९८ १५४ ७५/७८ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ २२८ १६८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण उपनिषद्, पुराण और महाभारत में श्रमण संस्कृति का स्वर अतीत उपनिषदों पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव अतीत श्रमण संस्कृति का स्वरूप नवनिर्माण १३० यज्ञ और अहिंसक परम्पराएं अतीत पापश्रमणों को पैदा करने वाली संस्कृति मुखड़ा श्रमण संस्कृति की मौलिक देन ज्योति से जैन संस्कृति भोर १२० आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन अतीत श्रमण संस्कृति संभल २०५ जैन संस्कृति घर २५६ सत्संगति संत-दर्शन का माहात्म्य आगे संत-दर्शन का माहात्म्य" प्रवचन १० १७ सत्संग है सुख का स्रोत प्रवचन ११ संतसमागम बूंद बूंद १ सत्संगति प्रवचन ९ १७२ सत्संग प्रवचन ९ २५ जाति न पूछो साधु की प्रवचन ११ मानवधर्म" प्रवचन ११ २३७ सुख की खोज प्रवचन ९ १३९ सत्संग का महत्त्व आगे १५० अभावुक बनो उद्बो १७५ सत्संग लाभ कमा ले ४ संभल ७२ १. ३०-११-५६ दिल्ली। ८. ४-७-५३ असावरी। २. ३०-८-५४ बम्बई । ९. रुणियां सिवेरेरां। ३. १-२-५६ बौद्ध प्रतिनिधि सम्मेलन, १०.८-१-५४ राजियावास । दिल्ली। ११. ३१-५-५४ सूरत (हरिपुरा) । ४. २५-३-६६ कलरखेड़ा। १२. २१-७-५३ गोगोलाव । ५. १०-७-७८ गंगाशहर । १३. २-४-६६ गंगानगर । ६. २१-५-५४ बड़ौदा। १४. १७-३-५६ डेगाना। ७. १५-३-५५ कनाना। २३ १२६ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संस्कृति १६ ११५ १४० १८५ दीया मुखड़ा मुखड़ा समता प्रवचन ९ प्रवचन ९ प्रवचन ९ घर गृहस्थ मुक्तिपथ २०९/१८१ २४२ गुरु अकथ कथा गुरुदेव की . गुरु बिन घोर अंधेर मार्ग और मार्गदर्शक कौन होता है गुरु ? सद्गुरु की शरण' सद्गुरु की पहचान गुरुदर्शन का वास्तविक उद्देश्य संयमी गुरु पर्व पर्व का महत्त्व दीपावली आलोक का त्यौहार तमसो मा ज्योतिर्गमय दीपावली : भगवान् महावीर का निर्वाण' जीवन-शैली में बदलाव जरूरी कभी नहीं बुझने वाला दीप अन्तर् दीप जलाएं दीपावली कैसे मनाएं ? आत्मजागृति की लौ जले होली होली : एक सामाजिक पर्व सच्ची होली क्या है ? अक्षय तृतीया अक्षय तृतीया का पर्व १. ५-५-५३ बीकानेर। २. ५-५-५३ बीकानेर । ३. १४-८-७७ लाडनूं। ४. चूरू। ५. ६-११-५३ जोधपुर। ६. ११-११-७७ लाडनूं । कुहासे कुहासे शांति के कुहासे राज/वि दीर्घा प्रवचन ५ जागो! २४५ २४७ १५२ १८/६ १४२ २१८ घर १०८ मंजिल १ सोचो! ३ १५४ ११० मुखड़ा ७. २४-१०-६५ दिल्ली। ८. १९५७, भगवान् महावीर निर्वाण दिवस, सुजानगढ़। ९. ५-३-७७ सुजानगढ़। १०. २९-३-७८ लाडनूं । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण गृहस्थ मुक्तिपथ २१५/१९९ बूंद बूंद १ १६९ वि बीथी प्रज्ञापर्व घर जीवन प्रज्ञापर्व वि दीर्घा मंजिल १ कुहासे ११३ १४७ १४९ कुहासे कुहासे २१८ अक्षय तृतीया अक्षय तृतीया अक्षय तृतीया चैतन्य जागृति का पर्व : अक्षय तृतीया अंधकार को मिटाने का प्रयास पयुषण पर्व अपने घर में लौट आने का पर्व चेतना की जागृति का पर्व पर्युषण पर्व : एक प्रेरणा पर्युषण पर्व दो रत्ती चंदन मन की ग्रंथियों का मोचन पर्युषण पर्व : प्रयोग का पर्व स्वास्थ्य का पर्व विश्वमैत्री का पर्व : पर्युषण पर्युषण क्षमा और मैत्री का प्रतीक है। संवत्सरी" पर्युषणा मैत्री का पर्व आत्मशोधन का पर्व जीवन का सिंहावलोकन आराधना मंत्र खमतखामणा : एक महास्नान' पर्युषण पर्व अपेक्षा है एक संगीति की त्रिवेणी स्नान संवत्सरी कब ? सावन में या भाद्रपद में १. ४-५-६५ जयपुर। २. २-५-५७ लाडनूं । ३. २२-८-७६ सरदारशहर । ४. २५-८-५४ बम्बई (सिक्कानगर)। ५. १९६७, अहमदाबाद । ६. १३-९-५३ जोधपुर। २३६ कुहासे २४० अतीत का १५१ भोर धर्म एक २३५ धर्म एक गृहस्थ मुक्तिपथ २११/१९३ प्रवचन ९ २४३ आ० तु १८० गृहस्थ/मुक्तिपथ २१३/१९५ प्रवचन १० प्रवचन ९ २३९ राज/वि दीर्घा २०४/२३६ शांति के २०५ अमृत ७. ७-९-५० हांसी।। ८.७-९-७८ गंगानगर। ९.५-८-५३ जोधपुर। १०.५-९-५३ पर्युषण पर्व समारोह, जोधपुर। ८२ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संस्कृति संभल १५५ ७० २३२ क्षमा का पावन संदेश देने वाला पर्व' पन्द्रह अगस्त बीती ताहि विसारि दे आत्ममन्थन का पर्व नियम का अतिक्रम क्यों ? स्वतंत्रता और परतन्त्रता गणराज्य दिवस स्वयं से शुभ शुरूआत करें क्या भारत स्वतंत्र है ? असली आजादी अपनाओ' स्वतंत्रता की उपासना अनाचार का त्याग करो भारत के आकाश में नया सूर्योदय स्वतंत्र भारत और धर्म स्वतंत्रता क्या है ? १० आत्मानुशासन सीखिए" बीती ताहि बीती ताहि शांति के जब जागे धर्म एक प्रवचन १० प्रवचन ९ संदेश आ० तु आ० तु संदेश जीवन आ० तु/संदेश आ० तु शांति के २०८ १८/१८६ १९८ १३ ४५ २०२/३ २१० ५० १.१६-९-५६ सरदारशहर । दिवस, छापर। २. १५-८-५३ स्वतन्त्रता दिवस, ८. १५-८-४८ द्वितीय स्वाधीनता जोधपुर। दिवस, छापर। ३. २६-१-६८ बम्बई । ९. १५-८-४९ तृतीय स्वतन्त्रता दिवस, ४. १५-८-७८ गंगाशहर । जयपुर। ५. १५-८-५३ जोधपुर। १०. १५-८-५० चतुर्थ स्वाधीनता दिवस, ६. १५-८-४७ प्रथम स्वाधीनता हांसी। - दिवस, रतनगढ़। ११. १५-८-५१ पंचम स्वाधीनता दिवस, ७. १५-८४८ द्वितीय स्वाधीनता दिल्ली । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ शीर्षक समसामयिक नए निर्माण के आधार - बिंदु नए वर्ष के बोधपाठ जापान और भारत का अन्तर मूल्यांकन का क्षण जरूरतों में बदलाव दूरदर्शन से मूल्यों को खतरा दूरदर्शन : एक मादक औषधि दूरदर्शन की संस्कृति संस्कारहीनता की समस्या रामायण और महाभारत का अन्तर फूट आइने की या आपस की बुराई की जड़ : तामसिक वृत्तियां saataai सदी के निर्माण में युवकों की भूमिका saaraai सदी का जीवन समसामयिक अतीत की समस्याओं का भार दृश्य एक: दृष्टियां अनेक साधुवाद के लिए साधुवाद शिकायत का युग' आदमी : समस्या भी समाधान भी स्थितियों के अध्ययन का दृष्टिकोण बदले १. २१ - ४ - ६५ जोबनेर । पुस्तक आलोक में दोनों बैसाखियां कुहासे मुखड़ा सम्पन्नता का उन्माद और राबर्ट केनेडी की हत्या अणु संदर्भ रूस की धरती पर मुरझा रही है पौध सोवियत संघ में बदलाव बैसाखियां बैसाखियां कुहासे बैसाखियां बैसाखियां कुहासे कुहासे कुहासे कुहासे कुहासे बैसाखियां बैसाखियां बैसाखियां क्या धर्म बूंद बूंद १ प्रज्ञापर्व ज्योति के पृष्ठ १११ ११ ३२ २३ २१ ४२ ૪૪ ४७ १०६ २४७ १७९ १३६ ९३ १५ ३९ १९९ ५२ १३१ १३३ १५३ १०४ १०३ २३ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज ० समाज ० सामाजिक रूढ़ियां ० संस्थान • परम्परा और परिवर्तन • परिवार • नारी ० मा ० युवक ० जातिवाद ० व्यसन ० व्यवसाय ० कार्यकर्ता Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज शीर्षक पुस्तक पृष्ठ समाज १२५ २६८ १०८ १२८ - १८४ २२५ समाज-रचना के आधार समाज-परिवर्तन का आधार समूह-चेतना का विकास सामूहिक जीवन-शैली स्वस्थ समाज रचना समाज-विकास का भाधार संगठन के मूलसूत्र संगठन के सूत्र संगठन जड़ता नहीं, प्रेरणा के केन्द्र बनें संघीय स्वास्थ्य के सूत्र स्वस्थ समाज संरचना व्यक्ति और ममाज-निर्माण व्यक्ति और समुदाय संघ की महनीयता जीवन-शैली के तीन रूप व्यक्ति और संघ युग समस्याएं और संगठन केकड़ावृत्ति अकेली लकड़ी, सात का भारा सामाजिक चेतना का विकास' परिवर्तन की मूल भित्ति सामाजिक क्रांति और उसका स्वरूप आलोक में नैतिक आलोक में दीया आगे क्या धर्म नैतिक भोर अणु संदर्भ मनहंसा प्रवचन १० मेरा धर्म बैसाखियां मंजिल १ बैसाखियां खोए बैसाखियां वि दीर्घा बैसाखियां प्रवचन ११ प्रवचन ११ आलोक में २०१ १०१ Mor mr १९१ २०० २११ १७९ १. २५-५-६६ सरदारशहर । २. १५-६-५४ बम्बई (बोरीवली)। ३. २८-४-७९ चंडीगढ़। ४. २-३-७७ सुजानगढ़ । ५.७-१०-७३ हिसार। ६. २९-४-५४ राधनपुर। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ २ ६७ घर २२९ कुहासे आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण शोषणमुक्त समूह चेतना आलोक में शोषणविहीन समाज-रचना अणु संदर्भ/अणु गति २१/१३५ शोषणविहीन समाज का स्वरूप अणु संदर्भ/अणु गति १४१/१३२ दोनों हाथ : एक साथ दोनों शोषण : सामाजिक बुराई उद्बो/समता ६७/६७ महावीर के शासनसूत्र मेरा धर्म पहल कौन करे ? १०५ परिष्कार का प्रथम मार्ग घर सामाजिक रूढ़ियां सामाजिक परम्परा : रूढ़ि से कुरूढ़ि तक आलोक में ७८ एक मर्मान्तक पीड़ा : दहेज अनैतिकता/अमृत १७६/६८ सतीप्रथा आत्महत्या है अपव्यय ज्योति से संग्रह और अपव्यय से मुक्त जीवन-बोध आलोक में प्रदर्शन राज/वि. वीथी २००/१११ परम्परा, आस्था और उपयोगिता आलोक में अनुकरण किसका ? उद्बो/समता १२३/१२२ एकादशी व्रत वि दीर्घा पर्दाप्रथा घर संस्थान संस्थाएं : अस्तित्व और उपयोगिता २०२ चरित्र के क्षेत्र में विरल उदाहरण : पारमार्थिक शिक्षण संस्था सफर/अमृत १०५/१४१ संयुक्त राष्ट्र संघ बैसाखियां १२९ एक तपोवन, जहां सात सकारों की युति है कुहासे २५५ जैन विश्व भारती प्रेक्षा ५२ विश्व का आलोक स्तम्भ प्रवचन ४ १९५ विश्व भारती : कामधेनु" मंजिल १ २०९ ९३ m २२९ ८४ कुहासे १. महिला एवं युवक का संयुक्त अधिवेशन, दिल्ली। २. सुजानगढ़। ३. १४-५-५७ लाडनूं । ४. १४-८-७७ लाडनूं । ५. २३-५-७७ लाडनूं । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज प्रवचन ५ प्रवचन ५ कुहासे बैसाखियां बूंद-बूंद १ . कुहासे १७४ x २०२ x भारतीय और प्राच्य विद्या का केन्द्र जैन विश्व भारती नया आयाम परम्परा और परिवर्तन परिवर्तन और विवेक शाश्वत मूल्यों की सत्ता परिवर्तन : एक अनिवार्य अपेक्षा शाश्वत और सामयिक परिवर्तन : एक शाश्वत सत्य परिवर्तन वस्तु का धर्म है। सत्य का सही सोपान वर्तमान के वातायन से परिवर्तन नए और प्राचीन का व्यामोह चक्षुष्मान् मनुष्य और एक दीपक परिवर्तन : सामयिक अपेक्षा परिवार आदर्श परिवार का स्वरूप संयुक्त परिवार की वापसी आवश्यक रुचिभेद और सामञ्जस्य बालक के निर्माण की प्रक्रिया पूरी दुनिया : पूरा जीवन निर्माता कौन ? निर्माण बच्चों का अभिभावकों से प्रज्ञापर्व मंजिल २ बूंद-बूंद १ वि वीथी/राज भोर बंद-बूंद १ बैसाखियां जागो! ११५/१९६ x १३३ x मंजिल १ ४ कुहासे ० १८३ क्या धर्म अतीत का बैसाखियां मंजिल १ प्रवचन ९ जन-जन . १३४ ur १.१-१२-७७ लाडनूं। २.९-११-७७ सेवाभावी कल्याण केन्द्र का उद्घाटन समारोह । ३. २६-३-६५ पाली। ४. ४-१०-७८ गंगाशहर । ५. ७-४-६५ ब्यावर। ६. २-३-६५ बाडमेर । ७. १८-९-६५ दिल्ली। ८.१६-७-७७ लाडनूं । ९. १८-८-७६ सरदारशहर । १०. २१-५-५३ गंगाशहर । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.७८ परिवार नियोजन का स्वस्थ आधार : संयम सबसे सुन्दर रचना पारिवारिक सौहार्द के अमोघ सूत्र बच्चों का निर्माण : बुनियादी काम सबसे सुन्दर फूल मुक्ति का मार्ग प्रभाव वातावरण का कैसे हो बालजगत् का निर्माण ? भावी पीढ़ी का निर्माण नारी सुघड़ महिला की पहचान भारतीय नारी का आदर्श भारतीय नारी के आदर्श' नारी के सहज गुण' नारी के तीन गुण नारी के तीन रूप नारी को लक्ष्मी सरस्वती ही नहीं, दुर्गा भी बनना होगा जागरण की दिशा में बढ़ने का संकेत महिलाएं युग को सही दिशा दें क्रांति के विस्फोट की संभावना सोचो, फिर एक बार जागृति का मंत्र संकल्पों की मशाल आवश्यक है अर्हताओं का बोध और विकास विकास के मौलिक सूत्र महिलाएं संकल्पों की मशाल थामें महिलाओं के लिए त्रिसूत्री कार्यक्रम स्त्री का कार्यक्ष ेत्र : एक सार्थक मीमांसा महिलाओं का दायित्व १. १५-४- ५५ संतोषबाड़ी । २. २७-८-५५ उज्जैन । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अणु गति बैसाखियां बीती ताहि बूंद-बूंद १ समता समता समता जीवन बैसाखियां दोनों / बीती ताहि अतीत का / दोनों सूरज सूरज सूरज दोनों अतीत का दोनों बीती ताहि / दोनों दोनों / वि दीर्घा वि दीर्घा वि दीर्घा वि दीर्घा जीवन बीती ताहि सफर / अमृत अतीत का जीवन दोनों / वि. वीथी ३. २४-१०-५५ उज्जैन । २१४ १५२ ६५ २१५ २५१ २५५ २५३ १७९ १३७ २३/९३ १४४/५८ १०२ २०२ २१९ १९ १३२ ७९ १०६/५० २८/१५६ १० ५४ ३८ १४५ ९८ १६७/१३३ १३६ १०४ ७५/१६८ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज ० ० x ११७ २२२ स्थिति के बाद गति दोनों महिला निर्माण : परिवार निर्माण दोनों महिला का निर्माण : पूरे परिवार का निर्माण बीती ताहि महिला विकास : समाज विकास दोनों संस्कारी महिला समाज का निर्माण सोचो ! १ स्वस्थ समाज-निर्माण में नारी की भूमिका भोर बदलाव भी : ठहराव भी दोनों संघर्ष की नई दिशा दोनों अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत अतीत १४० मूल्यांकन का आईना दोनों अपने पांवों पर खड़ा होना दोनों महिलाओं के कर्तव्य आगे संदर्भ योगक्षेम वर्ष का : भूमिका नारी की। जीवन महिलाएं स्वयं जागे बीती ताहि ११५ महिलाएं स्वयं जागृत हों वि. वीथी १६५ महिला शक्ति जागृत हो मंजिल २ बहिनें अपनी शक्ति को पहचानें मंजिल २ २१९ प्रगति की ओर बढ़ते चरण मंजिल २ २२४ जागृति का मंत्र वि. वीथी १६१ महिला जागृति सोचो ! १ नारी जागरण प्रवचन ११ नारी जागरण २२० नारी जागरण शान्ति के ११५ सुधार का माध्यम : हृदय परिवर्तन बीती ताहि ११९ १. २६-१०-७७ अखिल भारतीय ७. १५-१०-७८ गंगाशहर । तेरापंथ महिला मंडल का पांचवां ८.४-१०-७७ जैन विश्व भारती। वाषिक अधिवेशन, जैन विश्व भारती ९. २८-१-५४ देवगढ़ । २. २१-७-५४ बम्बई। १०. ६-११-५५ उज्जैन । ३. ९-३-५५ नारायणगांव । ११. ४-४-५३ 'महिला-जागृति परिषद्' ४. योगक्षेम वर्ष, नारी अधिवेशन। बीकानेर की ओर से आयोजित ५. १४-१०-७८ गंगाशहर । महिला सम्मेलन । ६. १३-१०-७८ गंगाशहर । १६५ १३५ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कुहासे ७२ १५ ३२ ८ कुहासे १८० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण बंद खिड़कियां खुलें दोनों व्यक्तित्व की कमी को भरना है ११८ प्रगति के साथ खतरा भी बीती ताहि ११२ पाथेय दोनों विशेष पाथेय बीती ताहि विश्व के लिए महिलाएं : महिलाओं के लिए विश्व जीवन महिलाएं हीन भावना का विसर्जन करें। संभल ११८. राष्ट्र की बहुमूल्य सम्पत्ति' घर महिलाओं को स्वयं जागना होगा' सोचो! १ अन्तर् विवेक जागृत हो सोचो! १ २०९ सुझाव और प्रेरणा प्रवचन ४ २१२ महिलाओं का आत्मबल सूरज विवेक है सच्चा नेत्र प्रवचन ११ नारी शोषण का नया रूप महिलाएं अपने गुणों का विकास करें- सूरज बहिनों का जीवन सूरज २३६. सच्ची भूषा" सूरज आज की नारी" सूरज २१४ एक एक ग्यारह सोचो ३ परिवार की धुरी : महिला" प्रवचन ९ बहिनों का कर्तव्य संभल ५१ १. २९-५-५६ पडिहारा । वार्षिक अधिवेशन का समापन २. १४-४-५७ चूरू। समारोह, जैन विश्व भारती। ३. २७-१०-७७ अखिल भारतीय ६. ४-४-५५ औरंगाबाद । तेरापंथ महिला मंडल का पांचवां ७. १०-१०-५३ जोधपुर । वाषिक अधिवेशन, जैन विश्व भारती ८. १६-३-५५ संगमनेर । ४. २८-१०-७७ अखिल भारतीय ९. ८-१०-५५ बड़नगर । तेरापंथ महिला मंडल का पांचवां १०. ३-६-५५ धूलिया। वाधिक अधिवेशन, जैन विश्व ११. ५-१०-५५ उज्जैन । भारती। १२. २५-१-७८ जैन विश्व भारती । ५. २९-१०-७७ अखिल भारतीय १३. ४-४-५३ बीकानेर । तेरापंथ महिला मंडल के पांचवें १४. २०-२.५६ भीलवाड़ा। १४० ७१ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज महिलाएं जीवन को सही दिशा में मोड़ें ' जितनी सादगी, उतना सुख' महिलाओं में धर्मरुचि ' जीवन को सजाएं * महिला वर्ष की उपलब्धि बहिनों से zait feran संतान का कोई लिंग नहीं होता शिक्षा और स्वावलम्बन मानविकी पर्यावरण में असंतुलन आत्मविकास का अधिकार सबको हैं शिक्षा की पात्रता दक्षेस : बालिका वर्ष महिलाएं आंतरिक सौन्दर्य को निखारें मां मां का स्वरूप माता का कर्तव्य जहां माताएं संस्कारी होती हैं बच्चों के संस्कार और महिलावर्ग जरूरत है ऐसी मां की युवक युवक कौन ? युवक शक्ति का प्रतीक " युवापीढ़ी की सार्थकता " १. ५-४-५६ लाडनूं २. मेवाड़ प्रदेश में आयोजित महिला सम्मेलन । ३. १८-५ -५३ गंगाशहर । ४. ८-६-५५ दोंडाईचा । ५. महारानी गायत्री देवी गर्ल्स हाई स्कूल, जयपुर | ६. १०-४-५६ सुजानगढ़ । संभल दोनों प्रवचन ९ सूरज दोनों जन जन कुहासे बीती ताहि कुहासे संदेश समता कुहासे संभल मंजिल १ सूरज प्रवचन ९ आलोक में दोनों बीती ताहि ज्योति से दोनों / ज्योति ७. १९-१०-७६ सरदारशहर । ८. २६-५-५५ आमलनेर । ९. १६-५ -५३ बीकानेर । १०. १५-१०-७२ छठा अधिवेशन, चूरू । ११.१-१०-७६ दसवां अधिवेशन, सरदारशहर । १८१ ९९ ६८ १२८ १४३ ३२ १२ १०९ ११७ ९६ ४५ २०९ ११५ १०५ २८ १३४ १२२ १४८ ८७ ८४ ७ १३६/४१ वार्षिक वार्षिक Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सफलता के पांच सूत्र' ज्योति से युवाशक्ति : समाज की आशा' ज्योति से युवापीढ़ी निराश क्यों ? ज्योति से युवकों का दायित्वबोध ज्योति से दायित्वबोध के मौलिक सूत्र' ज्योति से दोनों युवापीढ़ी कितनी सक्षम ?' ज्योति से ज्योति से ज्योति जले सोचो १ मेरी आशा का केन्द्र युवापीढ़ी सोचो १ १८८ युवकों का सर्व सुरक्षित मंच प्रवचन ४ आदर्श युवक के पंचशील दोनों १०४ युवापीढ़ी कितनी सक्षम ? दोनों १२४ संस्कार : विकास और परिमार्जन दोनों ११८ युवापीढ़ी और संस्कार बीती ताहि/दोनों ७९/१४७ इक्कीसवीं सदी के निर्माण में युवकों की भूमिका सफर/अमृत १६१/१२७ युवापीढ़ी का दायित्व अतीत का युवापीढ़ी का उत्तरदायित्व" दायित्व युवापीढ़ी और मूल्यबोध दोनों युवकों का दिशाबोध ज्योति से युवक यंत्र नहीं, स्वतंत्र बनें दोनों युग की चुनौतियां और युवाशक्ति जीवन १२२ १. २७-९-७१ पांचवां वार्षिक युवक ७. २२-१०-७७ ग्यारहवां वार्षिक अधिवेशन, लाडनूं । युवक अधिवेशन, जैन विश्व भारती। २. १७-१०-७२ छठा वार्षिक युवक ८. २१-१०-७७ ग्यारहवां वार्षिक __ अधिवेशन, दीक्षान्त प्रवचन, चूरू। युवक अधिवेशन, जैन विश्व भारती। ३. १२-१०-७३ सातवां वार्षिक युवक ९. २३-१०-७७ अखिल भारतीय युवक अधिवेशन, हिसार। परिषद् के इग्यारहवें वार्षिक ४. १५-२-७५ आठवां वार्षिक युवक अधिवेशन का समापन समारोह, ___ अधिवेशन, डूंगरगढ़। जैन विश्व भारती। ५. ५-१०-७६ नवां वार्षिक युवक १०. १८-५-७३। अधिवेशन, जयपुर। ११. १४-१२-७३ हांसी युवक दिवस ६. २१-१०-७७ ग्यारहवां वाषिक (आ. तु. का जन्म दिवस)। युवक अधिवेशन, लाडनूं । १२. योगक्षेम वर्ष, युवक अधिवेशन । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज युवक नई दिशाएं खोलें युवक पुरुषार्थ का प्रतीक बनें युवापीढ़ी की मंजिल क्या ? युवापीढ़ी : वरदान या अभिशाप यौवन की सुरक्षा : भीतरी रसायन प्रगति के दो रास्ते युवक कहां से कहां तक ? संगठन के बुनियादी तत्त्व गति, प्रगति और युवापीढ़ी ' युवापीढ़ी से तीन अपेक्षाएं युवापीढ़ी स्वस्थ परम्पराएं कायम करें* जीवन-निर्माण की दिशा नई संस्कृति का सूर्योदय अतीत की पृष्ठभूमि : अनागत के चित्र सफल युवक युवक उद्बोधन संकल्प की स्वतंत्रता युवक अपनी शक्ति को संभालें धर्म और युवक युवकों से युवकों से" हम शरीर को छोड़ दें, धर्मशासन को नहीं " नए सृजन की दिशा में वर्तमानयुग और युवापीढ़ी युवक संस्कारी बनें १. १-१०-७८ गंगाशहर । २. १-१-७३ सरदारशहर । ३. १-३-७२ सरदारशहर । ४. १-१२-७२ सरदारशहर । ५. १६-६-७४ युवक प्रशिक्षण शिविर, दीक्षान्त प्रवचन, दिल्ली । ६. २-११-५२ सरदारशहर । अतीत मंजिल २ दोनों दोनों दोनों दोनों दोनों दोनों ज्योति से ज्योति से ज्योति से ज्योति से दोनों दोनों शांति के शांति के कुहासे भोर समाधान प्रवचन ९ प्रवचन ९ दायित्व वि दीर्घा वि दीर्घा ज्योति से १८३ ९६ १९७ १७३ १७८ १७६ १८० १६७ १५७ १६५ १६९ १८३ १७५ : ९९ १४२ १०० ९१ १२० ६० १ .१९५ १३० ३९ १४५ १५० १६१ ७. ४-५-५२ युवक सम्मेलन, लाडनूं । ८. ५-७- ४ बम्बई ( सिक्कानगर ) । ९. २७-७-५३ जोधपुर । १०. १३-५-५३ गंगाशहर । ११. २१-५-७३ दूधालेश्वर महादेव । १२. १-२-७४ दिल्ली । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १५३ ५८ १२६ १२७ दोनों प्रश्न संभल संभल जीवन धर्म एक दोनों मंजिल २ मंजिल २ मंजिल २ संभल १८८ मेरा सपना : आपको मंजिल युवक समाज और अणुव्रत नैतिक शुद्धिमूलक भावना' युवकों की जीवन-दिशा' आओ, हम पुरुषार्थ के नए छंद रचें युवक-शक्ति सफलता के सूत्र युवापीढ़ी और उसका कर्त्तव्य' क्या युवापीढ़ी धार्मिक है ? पाथेय" आलोचना की सार्थकता जातिवाद अस्पृश्यता अस्पृश्यता : मानसिक गुलामी मानवीय एकता : सिद्धांत और क्रियान्वयन हरिजनों का मंदिर प्रवेश क्या जातिवाद अतात्विक है ? एकव मानुषी जाति णो हीणे णो अइरित्ते' अस्पृश्यता-निवारण मानदण्डों का बदलाव विचारक्रांति के बढ़ते चरण समाज और समानता जैनदर्शन और जातिवाद जीवन-विकास और सुख का हेतु" अमृत/अनैतिकता ६५/१८२ अतीत का अनैतिकता ३२/२४१ आलोक में कुहासे अणु संदर्भ वि दीर्घा सोचो ! ३ सोचो ! १ १८१ उदबो/समता ४७/४७ प्रवचन ४ मनहंसा अणु गति २०८ सूरज १०० ० MM १. १२-६-५६ सरदारशहर । २. २६-५-५६ पड़िहारा। ३. ५-१०-७६ सरदारशहर । ४. २-१०-७६ सरदारशहर । ५. ३-१०-७६ सरदारशहर। ६. ३-४-५६ युवक सम्मेलन, लाडनूं । ७. ३-२-७८ सुजानगढ़। ८. ६-१०-७७ जैन विश्व भारती । ९.८-८-७७ हरिजन महिला का तप अभिनन्दन समारोह । १०. १-१-५५ बम्बई (थाना)। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज मानव एकता : भावी दिशा और प्रक्रिया जातिवाद अतात्त्विक है' जीवन बदलो' जातिवाद के समर्थकों से पालघाट केरल प्रतिक्रिया का घेरा उच्चता का मानदण्ड व्यसन बुराइयों की जड़ : मद्यपान अनेक बुराइयों की जड़ मद्यपान मादक पदार्थ : निषेध का आधार सभ्यता के नाम पर कौन किसको कहे ? मनुष्य और बन्दर नशे की संस्कृति मद्यपान : एक घातक प्रवृत्ति' मद्यपान : राष्ट्र की ज्वलन्त समस्या * स्वर्णपात्र में धूलि अंधेरी खोह मद्यपान : औचित्य की कसौटी पर नशा : एक भयंकर समस्या मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया नशाबन्दी, राजस्व और नैतिकता व्यसनमुक्ति में जैन धर्म का योगदान व्यवसाय पूंजीवाद बनाम साम्यवाद व्यापार और सच्चाई ' १. ९-११-५३ जोधपुर । २. १-५ -५३ बीकानेर । ३. २९-३-६६ गंगानगर । ४. १२-९-७७ जैन विश्व भारती । अणु गति प्रवचन ४ प्रवचन ९ जन जन धर्म एक उद्बो / समता उद्बो / समता अमृत अनैतिकता आलोक में कुहासे कुहासे बैसाखियां बैसाखियां आगे सोचो ! १ समता बैसाखियां सोचो ! ३ प्रज्ञापर्व सूरज सूरज १८५ २१७ ६४ १०३ १६ १५५ १३/१३ ११/११ मंजिल २ २०७ अणु गति / अणु संदर्भ १६९/८६ अनैतिकता ३८ ७४ १७२ ८२ १२५ १३० १६५ २०७ १३० १३४ २२७. २१३ २०६ ९५ ५. ३०-५-७८ जैन विश्व भारती । ६. ५-१०-७८ गंगाशहर । ७. १५-३-५५ संगमनेर । ८. १२-४-५५ संतोषवाड़ी । ६६ १०० Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-६ अच्छा व्यापारी कौन ? १ व्यापारी स्वयं को बदले र पूंजी का निरा महत्त्व' अर्थ का नशा व्यवसाय जगत् की बीमारी : मिलावट मिलावट भी पाप है फिल्म व्यवसाय अर्थ : समस्याओं का समाधान नहीं व्यापारी जीवन-धारा को बदलें व्यापारी वर्ग से अपेक्षा सुरक्षा और निर्भयता का स्थान कार्यकर्त्ता E आदर्श कार्यकर्त्ता की पहचान आदर्श कार्यकर्त्ता : एक मापदण्ड कार्यकर्ता की कसौटी आदर्श बनने के लिए आदर्श कौन हो ? कार्यकर्त्ताओं का लक्ष्य अच्छा कार्यकर्ता कौन ? कार्यकर्ता पहले अपना निर्माण करें कार्यकर्त्ता कैसा हो ?" कार्यकर्त्ताओं की कार्यदिशा " १. २८-२-५५ पूना । २. १६-१२-५४ बम्बई ( कुर्ला) । ३. २५-७-५५ उज्जैन । ४. २२-८-५६ सरदारशहर, व्यापारी सम्मेलन । ५. ७-१-५६ रतलाम । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सूरज भोर सूरज समता अनैतिकता / अमृत उद्बो / समता अणु गति नैतिक संभल संभल घर दोनों बीती ताहि आलोक में बीती ताहि प्रवचन ९ सूरज बूंद बूंद २ प्रवचन १० घर ६. ६-७-५७ सुजानगढ़ । ७. २५-६-५३ नागौर । ८. २०-८-६५ दिल्ली । ९. २०-८-६५ दिल्ली । १०. ७-१-७९ डूंगरगढ़ । ११. कार्यकर्ता सम्मेलन | ४६ १८६ १७९ २१६ १७९/७१ ५१/५१ १७१ १३२ १६२ ११ १३८ १२८ १२३ १५३ १३१. १६६. १५० १२४. १०६ ५६. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य ० साहित्य ० भाषा ० हिन्दी ० संस्कृत 0 काव्य २१ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य पुस्तक पृष्ठ आलोक में शांति के प्रवचन ११ शांति के प्रवचन ५ बूंद बूंद २ १५८ १८८ ३७ ११७ १६८ १४४ १५७ १८९ . शीर्षक साहित्य साहित्य और कला का सामाजिक मूल्य साहित्य साधना का लक्ष्य साहित्य में नैतिकता को स्थान राजस्थानी साहित्य की धारा' आदर्श पत्रकारिता की कसौटी लेखक की आस्था भाषा भाषा है व्यक्तित्व का आईना जैन साहित्य में सूक्तियां शब्दों के संसार में जैन आगमों में कुछ विचारणीय शब्द. हिन्दी हिन्दी का आत्मालोचन अतीत के आलोक में हिन्दी की समृद्धि संस्कृत संस्कृत ऋषिवाणी है। १. ३०-८-५३ प्रेरणा संस्थान द्वारा आयोजित साहित्यगोष्ठी। २. १७-१०-५३ जोधपुर । ३. ९-४-५३ राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट, बीकानेर की ओर से आयोजित राजस्थानी साहित्य परिषद् । मनहंसा अतीत अतीत अतीत १७६ अतीत अतीत २०७ २१२ शांति के १२० ४. १-२-७८ जैन पत्र-पत्रिका प्रदर्शनी का उद्घाटन समारोह लाडनूं । ५. २९-८-६५ दिल्ली । ६. २२-५-५३ ऋषिकेश में अखिल भारतवर्षीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन के बीसवें अधिवेशन पर प्रेषित। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० संस्कृत भाषा अपनी धरती पर उपेक्षा का दंश संस्कृत और संस्कृति संस्कृत और संस्कृति संस्कृत भाषा का माहात्म्य * संस्कृतज्ञ क्या करें ? ५ काव्य काव्य बहुजनसुखाय हो कवि का दायित्व कवि और काव्य का आदर्श कवि से कविता कैसी हो ?" १. १७-५ -५५ जलगांव । २. जोधपुर । ३. २ - १० - ५३ जोधपुर । ४. ११-८-७६ सरदारशहर, संस्कृत दिवस | ५. २९।३।५३ प्रांतीय राजस्थान आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सूरज ११९ कुहासे ९० प्रवचन ११ ४६ प्रवचन ९ २७४ मंजिल १ ३ शान्ति के ११३ प्रवचन ११ प्रवचन ९ आ. तु. जन जन घर संस्कृत साहित्य सम्मेलन की ओर से आयोजित संस्कृत साहित्य परिषद् | ६. ३०-८-५३ जोधपुर । ७. १५-८-४९ कवि सम्मेलन । ८. २३-५-५७ लाडनूं । २१७ २३७ १८३ २८ १०७ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट परिशिष्ट : १. पुस्तकों के लेखों की अनुक्रमणिका परिशिष्ट : २. पत्र-पत्रिका के लेखों की अनुक्रमणिका परिशिष्ट : ३. प्रवचन-स्थलों के नाम एवं विशेष विवरण परिशिष्ट : ४. पुस्तक संकेत सूची Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ (शोध विद्यार्थियों की सुविधा हेतु इस परिशिष्ट में हम पुस्तकों में आए प्रवचनों/लेखों की अनुक्रमणिका दे रहे हैं : शीर्षक पुस्तक अ ७५ ५८ मुखड़ा संभल जब जागे संभल ९६ ११७ घर अंगारों पर खिलते फूल अंतर निर्माण अंत समय में होने वाली लेश्या का प्रभाव अंतिम साध्य अंधकार को मिटाने का प्रयास अकथ कथा गुरुदेव की अकर्म का मूल्य अकर्म से निकला हुआ कर्म अकाल मृत्यु अकेली लकड़ी सात का भारा अकेले में आनन्द नहीं अक्षमता अभिशाप है अक्षय तृतीया ७४ दीया खोए खोए १२८ सोचो ! ३ १०५ बैसाखियां बूंद बूंद २ १५८ राज/वि दीर्घा १८८/१९० मुक्तिपथ गृहस्थ १९९/२१५ वि वीथी/बंद बूंद १ १२०/१६९ मुखड़ा ११० समता २१३ वि दीर्घा राज २२७/२२५ प्रश्न मुक्तिपथ/गृहस्थ ४०/४२ मुक्तिपथ/गृहस्थ ३४/३६ प्रवचन ९ सूरज अक्षय तृतीया का पर्व अखंड व्यक्तित्व के सूत्र अखाद्य क्या है ? अचौर्य और अणुव्रत अचौर्य की कसौटी अचौर्य की दिशा अचौर्य व्रत अच्छा कार्यकर्ता कौन ? अच्छा व्यापारी कौन ? सूरज Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २०७ ५९ १०० अच्छा संस्कार सूरज १२७ अच्छे और बुरे का विवेक आगे अजन्ता की गुफायें सूरज १०८ अज्ञानं खलु कष्टम् प्रवचन १० अज्ञानी जनों का उपयोग प्रवचन ५ १६७ अठारहवीं सदी के महानतम महापुरुष : आ. भिक्षु प्रवचन ४ १५७ अणुअस्त्रों की होड़ घर अणुबम नहीं, अणुव्रत चाहिए कुहासे २०८ अणुव्रत प्रवचन ९/घर १०,१०९/१३९ अणुव्रत आंदोलन संभल क्या धर्म २५/२२ अणुव्रत आंदोलन : एक आध्यात्मिक आंदोलन भोर अणुव्रत आंदोलन का घोष भोर १५६ अणुव्रत आंदोलन का प्रवेश द्वार अणुव्रत आंदो अणुव्रत आंदोलन का भावी चरण अनैतिकता/वि वीथी २०२/५२ अणुव्रत आंदोलन की पृष्ठभूमि अणु गति अगुव्रत आंदोलन की मूल भित्ति घर २१२ अणुव्रत आंदोलन के पूरक तत्त्व अणु गति अणुव्रत आंदोलन क्यों ? घर अणुव्रत : आत्मशुद्धि का साधन नैतिक १४६ अणुव्रत : एक अभिक्रम समता/उद्बो अगुव्रत : एक दर्पण समता/उद्बो ८२/८३ अणुव्रत : एक दिशासूचक यंत्र नैतिक १२३ अणुव्रत : एक प्रकाश स्तम्भ समता/उद्बो ९०/९१ अणुव्रत : एक प्रयोग समता/उद्बो ७७ अणुव्रत : एक रचनात्मक कार्यक्रम प्रवचन ९ २४० अणुव्रत : एक राजपथ समता/उद्बो १९७/२०० अणुव्रत : एक सार्वजनिक मंच समता/उद्बो १७/१७ अणुव्रत : एक सेतु समता/उद्बो ९८/९९ अणुव्रत और अणुव्रत आंदोलन संभल ८० अणुव्रत और जनतंत्र अनैतिकता/वि वीथी १९७/४३ अणुव्रत और जीवन व्यवहार समता/उद्बो १००/१०१ अणुव्रत और महाव्रत सूरज ___ २२ अणुव्रत और राज्याश्रय अणु गति/अणु संदर्भ १९५/३२ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ अणुव्रत और संगठन अणुव्रत और साम्प्रदायिकता अणुव्रत का आदर्श अणुव्रत का उद्देश्य प्रश्न अणुव्रत का कवच समता / उद्बो व्रत का नया अभियान : बुराइयों के साथ संघर्ष क्या धर्म अणुव्रत का निर्देश उद्बो / समता अणुव्रत का प्रथम अधिवेशन अणुव्रत का महत्त्व अणुव्रत का मार्ग अणुव्रत का मूल अणुव्रत का मूल मंत्र अणुव्रतों का रचनात्मक पक्ष अणुव्रत - कार्यकर्ताओं की जीवन-दिशा अणुव्रत कार्य में अवरोध अणुव्रत की आधारशिला अणुव्रत की उपादेयता अणुव्रत की क्रान्तिकारी पृष्ठभूमि अणुव्रत की गूंज अणुव्रत की परिकल्पना अणुव्रत की परिभाषा अणुव्रत के अनुकूल वातावरण अणुव्रत के परिप्रेक्ष्य में अणुव्रत क्या चाहता है ? अणुव्रत क्या देता है ? अणुव्रत क्रान्ति क्या है ? अणुव्रत ग्रहण में दो बाधाएं अणुव्रत चरित्र निर्माण का आंदोलन है अणुव्रत : जागरण की प्रक्रिया अणुव्रत : जागृत धर्म अणुव्रत : जीवन की मुस्कान अणुव्रत : जीवन सुधार का सत्संकल्प अणुव्रत ने क्या किया ? प्रश्न अणु संदर्भ मंजिल १ / ज्योति के १४७/२१ अणु गति प्रवचन ९ / नैतिक नैतिक सूरज समता / उद्बो प्रश्न घर अणु गति नैतिक संभल नैतिक भोर १९५ प्रवचन १० आगे समता / उद्बो घर सफर २९ ९ ८४/८५ १५७ ९१/९२ ५१ ३१/११६ १०८ ७५ ८८/८९ प्रवचन ४ अनैतिकता / अतीत का २२५/१६ उद्बो / समता ७१/७१ २५ अणु गति बैसाखियां ७ नैतिकता के मंजिल २ मंजिल २ नैतिक ३२ ४० ६४ १०० १६९ १८२ २०९ ११३ ९० १०४ ७२ ६३ २७१ /릿 २८ १६ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ९४ ३९/२०८ १२१ १५ अणुव्रत : प्रतिस्रोत का मार्ग अणुव्रत प्रेरित समाज-रचना अणुव्रत : भारतीय संस्कृति का प्रतीक अणुव्रत भावना का प्रसार अणुव्रत यात्रा का प्रारम्भ अणुव्रत : राष्ट्रीय जीवन का अंग अणुव्रत : संकल्प भी समाधान भी अणुव्रत : सब धर्मों का नवनीत अणुव्रत से अपेक्षाएं अणुव्रत से आत्मतोष अणुव्रत स्वरूप-बोध अणुव्रत है सम्प्रदाय-विहीन धर्म १२३/१७ नैतिक वि वीथी/अनैतिकता नैतिक सूरज अणु गति प्रवचन ४ अणु गति/अणु संदर्भ संभल अणु गति समता/उद्बो अनैतिकता सफर/अमृत अनैतिकता भोर ज्योति के अणुव्रती सूरज अणुवती प्रवचन ९ १०५/१०७ २७/३७ १५९ १०२ अणुव्रतियों का लक्ष्य अणुवती कैसे चले ? अणुव्रती क्यों बनें ? अणुव्रती जीवन अणुव्रती संघ और अणुव्रत अणुव्रती संघ का उद्देश्य अणुव्रतों का रचनात्मक पक्ष अणुव्रतों की अलख अणुव्रतों की दार्शनिक पृष्ठभूमि अणुव्रतों की भावना का स्रोत अणुव्रतों की भूमिका अणुव्रतों की महत्ता अतीत की पृष्ठभूमि : अनागत के चित्र अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत अतीत की समस्याओं का भार अतीत की स्मृति और संवेदन अतीत के आलोक में हिन्दी की समृद्धि अतीत के संदर्भ में भविष्य की परिकल्पना अधर्मास्तिकाय की स्वरूप मीमांसा अधिकारों का विसर्जन ही अध्यात्म घर नैतिक ज्योति के जागो ! संभल दोनों अतीत का १५८ १७० १४२ १४० कुहासे ४० २१२ मुखड़ा अतीत अणु गति प्रवचन ४ प्रज्ञापर्व Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ १९७ नैतिकता के अणु गति आगे मेरा धर्म सूरज सूरज ११५ कुहासे अध्यात्म और अणुव्रत अध्यात्म और नैतिकता अध्यात्म और व्यवहार अध्यात्म का अभिनन्दन अध्यात्म का विकास हो अध्यात्म की उपासना अध्यात्म की एक किरण ही काफी है अध्यात्म की खोज अध्यात्मवाद की प्रतिष्ठा अध्यात्म की यात्रा : प्रासंगिक उपलब्धियां अध्यात्म की लौ जलाइये अध्यात्म क्या है ? अध्यात्म-पथ और नागरिक जीवन अध्यात्म-पथ पर आएं अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति अध्यात्म: भारतीय संस्कृति का मौलिक आधार अध्यात्म सबको इष्ट होता है अध्यात्म साधना की प्रतिष्ठा अध्यापक अध्यापक निर्माता कैसे ? अध्यापकों का दायित्व अध्यापकों से अनन्तक अनन्त सत्य की यात्रा : अनेकांतवाद अनमोल धरोहर अनर्थदंड से बचें अनशन किसलिए? अनाग्रह का दर्शन अनाचार का त्याग करो अनार्य देशों में तीर्थंकरों और मुनियों का विहार अनासक्त भावना अनिच्छ बनो आगे प्रवचन ११ २०९ क्या धर्म शान्ति के प्रवचन ४ १४८ प्रवचन ११ १८७ भोर संभल प्रवचन ५ २१ मनहंसा ११५ वि वीथी/राज ६१/१७० सूरज १०३ प्रवचन ५ संभल/नवनिर्माण [६२/१७८ जन-जन मंजिल १ २३७ सोचो ! ३ बैसाखियां प्रवचन ५ मेरा धर्म प्रवचन ९ संदेश अतीत सूरज ११२ प्रवचन ४ २५ 0 0 0 १३: Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अनुकरण किसका ? १४९ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण बूंद बूंद २/उद्बो १३/१२३ समता १२२ खोए बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ १९० समता/उद्बो २९/२९ दीया उद्बो/समता ५७/५७ बीती ताहि सोचो ! ३ मंजिल २ बीती ताहि बूंद बूंद २ बूंद बूंद २ १२० मंजिल २ १९२ २१३ अनुकरण की सीमाएं अनुत्तर ज्ञान और दर्शन अनुत्तर तप और वीर्य अनुपम पाथेय अनुप्रेक्षा से दूर होता है विषाद अनुभव के दर्पण में अनुभूत सत्य के प्रवक्ता : भगवान् महावीर अनुमोदना : उपसम्पदा : विजहणा अनुराग से विराग अनुशासन अनुशासन और धर्मसंघ अनुशासन और प्रायश्चित्त अनुशासन का हृदय अनुशासन की त्रिपदी अनुशासन की लौ व्रत से जलेगी अनुशासन निषेधक भाव नहीं अनुशासन से होता है जीवन का निर्माण अनुशासन है मुक्ति का रास्ता अनुस्रोत-प्रतिस्रोत अनूठी दुकान : अनोखा सौदा अनेकता में एकता का दर्शन अनेक बुराइयों की जड़ : मद्यपान अनेकान्त ११५ दीया प्रगति की प्रज्ञापर्व जब जागे दीया सोचो ! ३ वि दीर्घा/राज अतीत का अनैतिकता शांति के भोर प्रवचन ९ आगे वि दीर्घा राज वि दीर्घा राज मुक्तिपथ/गृहस्थ मुक्तिपथ गृहस्थ संभल मनहंसा २४६ १६१/१९० १४७ १७२ २७/८९ १९१ अनेकान्त और वीतरागता अनेकान्त और स्याद्वाद अनेकान्त क्या है ? अनेकान्तदृष्टि अनेकान्तवाद अनेकान्त : स्याद्वाद अनेकान्त है तीसरा नेत्र २२६ १७३/६७ १६८/७९ ११४/११९ ११२/११६ २० १८८ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ६५/६५ उद्बो/समता अनैतिकता प्रवचन ४ संभल खोए २०९ १०५ १९ १२२ १३४ प्रवचन ४ बूंद बू द २ प्रवचन ५ सूरज प्रवचन ५ मंजिल १ प्रेक्षा बैसाखियां बैसाखियां जीवन ९६ अनैतिकता का चक्रव्यूह अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी अन्त मति सो गति अन्तर्जागृति का आंदोलन अन्तदेष्टि का उद्घाटन अन्तर् विवेक जागृत हो अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र और अणुव्रत अन्तर्-दीप जलाएं अन्तर्मुखी परिशुद्धि अन्तर्मुखी बनने का उपक्रम अन्तर्मुखी बनो अन्तर्यात्रा अन्धेरी खोह अन्याय का प्रतिवाद कैसा हो ? अपना भविष्य अपने हाथ में अपनी धरती पर उपेक्षा का दंश अपने आपकी सेवा अपने घर में लौट आने का पर्व अपने पांवों पर खड़ा होना अपने से अपना अनुशासन अपभाषण सुनना भी पाप है अपराध का उत्स : मन या नाड़ी संस्थान ? अपराध के प्रेरक तत्व अपरिग्रह अपरिग्रहवाद अपरिग्रह और अणुव्रत अपरिग्रह और अर्थवाद अपरिग्रह और जैन श्रावक अपरिग्रह और विसर्जन अपरिग्रह का मूल्य अपरिग्रहः परमो धर्मः अपरिग्रहवत अपरिग्रही चेतना का विकास G COM . w W कुहासे 0 ८२ प्रवचन ९ जीवन दोनों बूंद बूंद १ कुहासे १९४ अनैतिकता ११५ बैसाखिया १९९ भोर १२४ प्रश्न आ. तु./राजधानी, ३/३६ मुक्तिपथ/गृहस्थ ६५/६८ मुक्तिपथ गृहस्थ ६६/७० घर ७२ लघुता/बैसाखियां १०६/१६१ प्रवचन ९ १०५ मुक्तिपथ/गृहस्थ ५८/६० भोर १६ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १५ १११ १८७ २०४/२३७ १६४ ३७/३८ १८५ १७५/१७३ ९० ४८ १३२ २७ ८९ अपवित्र में पवित्र अपव्यय अपूर्व रात : विलक्षण बात अपेक्षा है एक संगीति की अप्रशस्त भावधारा और उससे बचने के उपाय अप्रामाणिकता का उत्स अप्रावृत और प्रतिसंलीनता | अभय एक कसौटी है व्यक्तित्व को मापने की अभयदान अभयदान की दिशा अभावुक बनो अभिनंदन शाब्दिक न हो अभिमान किस पर ? अभिमान धोखा है अभिभावकों से अभी नहीं तो कभी नहीं अभ्यास की मूल्यवत्ता अमरता का दर्शन अमृत क्या है ? जहर क्या है ? अमृत महोत्सव का चतुःसूत्री कार्यक्रम अमृत-संदेश अमृत-संसद अमृतत्व की दिशा में अमोघ औषध अमोघ औषधि अर्चा त्याग की अर्थ का नशा अर्थतंत्र और नैतिकता अर्थ : समस्याओं का समाधान नहीं अहं की अर्हता अर्हत् बनने की दिशा अर्हत् बनने की प्रक्रिया अर्हन्नक की आस्था खोए ज्योति से मेरा धर्म राज/वि दीर्घा प्रेक्षा मुक्तिपथ/गृहस्थ अतीत जब जागे प्रवचन ९ बैसाखियां उद्बो/समता मंजिल १ मंजिल १ मंजिल १ जन जन वीती ताहि प्रेक्षा मंजिल १ जागो ! अमृत सफर अमृत कुहासे सफर बूंद बूद २ उद्वो समता संभल सोचो ! ३ समता अनैतिकता नैतिक प्रेक्षा खोए सोचो ! ३ मुक्तिपथ गृहस्थ १८५ ८४ ३/३८ २३५/३६ ४६ ९५/९४ १४ २२६ २१६ ९२ १३२ xx २१८ १५६/१७३ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २०१ ११४ १७५/१५८ ९८-१०१ २११ ५५/९७ १६० १७२ १८६ २०८ २२१ १०३ जागो ! अर्हतों की नियति अतीत का अहंतों की स्तवना जागो! अल्पहिंसा : महाहिंसा गृहस्थ मुक्तिपथ अल्पायुष्य बंधन के हेतु (१-२) मंजिल २ अल्फा तरंगों का प्रभाव खोए अवधान क्रिया सूरज अवधान विद्या संभल/घर अवधारणा : आत्मा और मोक्ष की अतीत का अवधारणा : क्रियावाद और अक्रियावाद को । दीया अवधिज्ञान के दो प्रकार प्रवचन ८ अवधूत का दर्शन और एक विलक्षण अवधूत लघुता अवबोध का उद्देश्य प्रवचन ९ अवर्णवाद करना अपराध है अविद्या आदमी को भटकाती है जब जागे अशांत विश्व को शान्ति का संदेश आ. तु. अशांत अशांति की चिनगारियां नैतिक अशान्ति की चिनगारियां : उन्माद ज्योति के असंग्रह की साधना : सुख की साधना संभल असंग्रह देता है सुख को जन्म भोर असंतुलन के कारण समता/उद्बो असदाचार का खेल क्या धर्म असत्यवादियों से जन-जन असदाचार का कारण बूंद-बूंद १ असली आजादी आ. तु./प्रवचन ९ असली आजादी अपनाओ संदेश असली भारत में भ्रमण सफर/अमृत असार संसार में सार क्या है ? लघुता असीम आस्था के धनी : आचार्य भिक्षु मंजिल १ अस्तित्व और नास्तित्व गृहस्थ मुक्तिपथ अस्तित्व का प्रश्न राज/वि. दीर्घा अस्तित्व की जिज्ञासा प्रेक्षा अस्तित्वहीन की सत्ता दीया अस्तित्ववाद मुखड़ा - ० m ९२ १८६/१५४ १४८/११४ १५५ ६४ १०८/१०३ १५३/१०२ १७७ १९१ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ०३ अस्मिता का आधार अस्पृश्यता अस्पृश्यता और अणुव्रत अस्पृश्यता-निवारण अस्पृश्यता : मानसिक गुलामी मुखड़ा अमृत/अनैतिकता प्रश्न प्रवचन ४ अनैतिकता अतीत का/धर्म एक बैसाखियां खोए मुखड़ा बैसाखियां खोए ६५/१८२ ३९ १८१ २४१ ३२/७६ २०३ २०/१०५ अस्वाद की साधना अस्वीकार की शक्ति अहंकार की दीवार अहम् से अर्हम् अहिंसक जीवन शैली अहिंसक नियंत्रण अहिंसक शक्तियां संगठित कार्य करें अहिंसक शक्तियों का संगठन कुहासे भहिंसा १९४ m w २३० राजधानी भोर धर्म एक गृहस्थ/मुक्तिपथ २१/१९ प्रवचन ९,११ १२२,८९/२३० सूरज ७७,१३२ संभल आगे प्रश्न आगे भगवान् प्रवचन ११/प्रवचन ९ २१६/२७९ शान्ति के मुक्तिपथ/गृहस्थ १/९ प्रश्न आ.तु. ६९/१४४ अणु गति/अणु संदर्भ १४६/३९ बैसाखियां दायित्व सूरज/भगवान् १४५/९१ भगवान् भोर __१४२ भगवान् अहिंसा : एक विमर्श अहिंसा : एक विश्लेषण अहिंसा और अणुव्रत अहिंसा और अनासक्ति अहिंसा और कषायमुक्ति अहिंसा और दया अहिंसा और दया का ऐक्य अहिंसा और नैतिकता अहिंसा और विश्व शांति अहिंसा और वीरत्व अहिंसा और शिशु सा मन अहिंसा और श्रावक की भूमिका अहिंसा और समता अहिंसा और समन्वय अहिंसा और सर्वोदय अहिंसा और सह-अस्तित्व २३९ १७ १०१ ९९ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ अहिंसा और स्वतंत्र' अहिंसा का अभिनय अहिंसा का आचरण अहिंसा का आदर्श अहिंसा का आधार अहिंसा का आलोक अहिंसा का चमत्कार अहिंसा का चिंतन अहिंसा का पराक्रम अहिंसा का परिप्रेक्ष्य अहिंसा का प्रयोग : असंदीन दीप अहिंसा का मूल्य अहिंसा का रहस्य अहिंसा का व्यवहार्य रूप अहिंसा का सिद्धान्त : श्रावक की भूमिका अहिंसा का स्वरूप अहिंसा की अपेक्षा क्यों है ? अहिंसा की उपासना अहिंसा की उपयोगिता अहिंसा की प्रतिष्ठा का आंदोलन अहिंसा की भूमिका अहिंसा की शक्ति अहिंसा की संभावना अहिंसा के आधारभूत तत्त्व अहिंसा के तत्व अहिंसा के तीन मार्ग अहिंसा के प्रयोक्ता : गांधीजी अहिंसा के विभिन्न रूप अहिंसा के समक्ष एक चुनौती अहिंसा के प्रयोग प्रतिष्ठित किया जाए अहिंसा क्या है ? अहिंसा, गांधी और गांधी शताब्दी भगवान् मुक्तिपथ / गृहस्थ भोर प्रवचन ५ गृहस्थ / मुक्तिपथ दीया राज उद्बो / समता प्रवचन ४ प्रवचन ११ / सूरज शांति के ५६ राज / उद्बो / समता ६५ /१५०/१४८ खोए बूंद-बूंद २ अतीत का प्रवचन ११ / राज ज्योति के सूरज सूरज संभल मंजिल २ गृहस्थ / राज मुक्तिपथ गृहस्थ / मुक्तिपथ जीवन प्रवचन ११ अनैतिकता / वि वीथी राज / वि दीर्घा गृहस्थ / मुक्तिपथ अणु गति प्रज्ञापर्व आ. तु. अणु संदर्भ २०३ ९७ १३/१५ १८३ १३६/२१२ ९८ १०१ १३/११ १०२ ६३ ६९/६९ ८ १ ६६. ५५ १२४/६१ २२ २२६ ९५. ४७ २४७ २५/५८ २३ ११/९ ७ ७२ २१९/५९ ८४/१९२ १९/१७ १५३ ܕ १६२ ५६. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अहिंसात्मक प्रतिरोध ० ० आ० तुलसी साहित्य एक पर्यवेक्षण धर्म एक/अगु संदर्भ ११/२८ अणु गति १४० प्रवचन ११ शांति के घर कुहासे अणु संदर्भ जागो! १७२,२८ भोर १४४ कुहासे १७२ अमृत सफर २६/६१ घर संभल २१३ २१५ समता ६८ अहिंसात्मक समाज की रचना हो अहिंसा-दर्शन अहिंसा दिवस अहिंसा प्रकाश है अहिंसा युद्ध का समाधान है अहिंसा-विवेक अहिंसा : विश्व-शान्ति का एकमात्र मंत्र अहिंसा शास्त्र ही नहीं, शस्त्र भी अहिंसा सार्वभौम अहिंसा सार्वभौम सत्य है अहिंसा से ही संभव है विश्व शान्ति अहिंसा है अमृत आ आओ जलाएं हम आत्मालोचन का दीया आओ हम पुरुषार्थ के नए छंद रचें आंतरिक शान्ति आकांक्षाओं का संक्षेप आकाश के दो प्रकार आकाश को जानें आक्रामक मनोवृत्ति के हेतु आंख मूंदना ही ध्यान नहीं आगम अनुसंधान : एक दृष्टि आगम का उद्देश्य आगम साहित्य के दो प्रेरक प्रसंग आगमों की परम्परा आगमों में आर्य-अनार्य की चर्चा आगे की सुधि लेइ आगे बढ़ने का समय आचार और नीतिनिष्ठा जागे आचार और मर्यादा लघुता जीवन सूरज आगे १७४ प्रवचन ५ प्रवचन ८ २३ आलोक में खोए १२२ जागो! २०५ मंजिल २/मुक्ति इसी २५/४२ मंजिल २ घर अतीत १४९ १२२ आगे! प्रज्ञापर्व भोर मागे १०१ २६५ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २०५ ४९ १७४ १७६ २११ आचार और विचार की समन्विति आचार और विचार से पवित्र बनें आचार का आधार वर्तमान या भविष्य आचार की प्रतिष्ठा आचार : विज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आचार संहिता की आवश्यकता आचार साध्य भी है और साधन भी आचार्य की संपदाएं आचार्य जवाहरलालजी आचार्यपद की अर्हताएं आचार्य भिक्षु : एक क्रांतद्रष्टा आचार्य आचार्य भिक्षु और तेरापंथ आचार्य भिक्षु और महर्षि टालस्टाय आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी आचार्य भिक्षु का जीवन दर्शन आचार्य भिक्षु का दार्शनिक अवदान आचार्य भिक्षु की जीवन गाथा आचार्य भिक्षु के तत्त्व चिन्तन की मौलिकता आचार्य भिक्षु : संगठन और याचार के सूत्रधार आचार्य भिक्षु : समय की कसौटी पर आचार्य महान् उपकारी होते हैं आचार्यश्री भिक्षु आचार्यों का अतिशेष आज की नारी आज की स्थिति में अणुव्रत आज के युग की समस्याएं आज फिर एक महावीर की जरूरत है आज्ञा और अनुशासन की मूल्यवत्ता आठ प्रकार के ज्ञानाचार आतंकवाद आंतरिक टूटन आत्म-कर्तृत्ववादी दर्शन आत्म-गवेषणा का महत्त्व आत्म-गवेषणा के क्षणों में मंजिल १ १९५ आगे २४४ अनैतिकता प्रवचन ९ २४० अनैतिकता नैतिक १० जागो! १८३ मनहंसा धर्म एक दीया ११९ बूंद बूंद २ प्रवचन १० जब जागे जब जागे प्रवचन १०/वि दीर्घा ८४/२२ मेरा धर्म ११८ भोर वि दीर्घा संभल १७८ मेरा धर्म १२३ जागो! १२३ सूरज २०९ जागो! २३५ सूरज २१४ प्रवचन ११ २२० राजधानी/आ० तु. १४/१२८ राज/वि दीर्घा ३८/१२ लघुता २३२ सोचो ! ३ ५२ प्रज्ञापर्व ९८ संभल १३३ नवनिर्माण प्रवचन ४ १३२ ४५ ** १५८ १४३ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आत्मचिंतन आत्मजयी कौन ? आत्म- जागरण आत्मजागृति की लौ जले आत्म-दमन आत्मदर्शन आत्मदर्शन का आईना आत्मदर्शन का पथ आत्मदर्शन का प्रथम बिन्दु आत्मदर्शन का राजमार्ग आत्मदर्शन की प्रेरणा आत्मदर्शन की भूमिका आत्मदर्शन : जीवन का वरदान आत्म-दर्शन ही सर्वोत्कृष्ट दर्शन है आत्म-धर्म और पर-धर्म आत्म धर्म और लोक धर्म आत्म धर्म क्या है ? आत्म निग्रह का पथ आत्म-निरीक्षण आत्म-निर्माण आत्मपवित्रता का साधन आत्म-प्रशंसा का सूत्र आत्म प्रेरणा आत्म-मंथन आत्म मंथन का पर्व आत्म-रक्षा के तीन प्रकार आत्म- रमण को प्राप्त हों आत्मवाद : अनात्मवाद आत्म-विकास और उसका मार्ग आत्म-विकास और लोक जागरण आत्म-विकास का अधिकार सबको है आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण घर बूंद-बूंद २ सूरज घर नैतिक समता / उद्बो मनहंसा प्रवचन १० बीती ताहि प्रवचन ९ संभल खोए समता / उद्बो सूरज बीती ताहि लघुता शांति के प्रवचन ९ आगे प्रवचन ४ बूंद बूंद १ प्रवचन ११ जागो ! / शांति के १७७/२४२ प्रवचन ४ समता / उद्बो घर सोचो ! ३ प्रवचन ४ प्रवचन १० शांति के भोर संदेश २१६ ५९ १४२ २१८ ४० १८१/१८३ ११९ १२६ १३ १२८ २१९ २५६ १७९ १८६ ४५ १२६ १५/१५ २८२ २७५ ११३ ४० १७५/१७७ ११७ ५ १९४ १९७ १६७ १२६ १६३ ४५ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २०७ आगे घर अतीत नवनिर्माण नैतिक संभल १४१ १८५ घर १८७ २४३ २३८ २३५ २२७ ११९ आत्म-विकास की प्रक्रिया आत्म-विद्या का मनन आत्म-विद्या : क्षत्रियों की देन आत्मविस्मृति का दुष्परिणाम आत्मशक्ति को जगाइए आत्मशक्ति को जगाएं आत्मशुद्धि का साधन आत्मशुद्धि की सत्प्रेरणा लें आत्मशोधन का पर्व मात्मसाक्षात्कार की दिशा आत्मसाधना के महान् साधक आत्मसुधार की आवश्यकता आत्मस्वरूप क्या है ? आत्महत्या और अनशन आत्महत्या पाप है आत्म हित का मार्ग आत्मा और परमात्मा आत्मा और पुद्गल आत्मा और शरीर आत्मा का आधार आत्मा का स्वरूप आत्मा द्वैत है या अद्वैत ? आत्मानुभव की प्रक्रिया आत्मानुशासन आत्मानुशासन का सूत्र आत्मानुशासन सीखिए आत्मानुशीलन का दिन आत्मा-परमात्मा आत्माभिमुखता आत्मा : महात्मा : परमात्मा आत्मार्थी के लिए प्रेरणा आत्मालोचन आत्मा से आत्मा को देखो ५७ :::::::::::11::333335:३: 3 संभल प्रवचन ९ खोए प्रवचन ९ प्रवचन ११ प्रवचन ८ अनैतिकता प्रवचन ९ समता/उद्बो गृहस्थ/मुक्तिपथ आगे बूंद बूंद २ खोए प्रवचन ४ प्रवचन ४ वि दीर्घा/राज संभल खोए शांति के. घर खोए वि वीथी/राज आगे सूरज समता/उद्बो खोए १०२/१०३ १४१/२०१ १२१ ६४ १६६ ७ २२३/२२२ १७४ : २२२ ८६/१६६ ७६ १३७ १६३/१६५ १५७ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ २१४ घर २७ १०३ १२३ २०८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आत्मा ही बनता है परमात्मा लघुता १३१ आत्मिक अनुभूति क्या है ? प्रेक्षा १७४ आत्मोदय की दिशा प्रवचन ९ आत्मोदय होता है आस्था, ज्ञान और पुरुषार्थ से लघुता २०० आत्मोन्मुखी बनें संभल आत्मोपलब्धि का पथ : मोह-विलय सोचो! ३ १३० आत्मोपलब्धि की बाधा खोए आत्मौपम्य की दृष्टि २६४ आदत-परिवर्तन की प्रक्रिया बैसाखियां २१५ आदमी का आदमी पर व्यंग्य कुहासे आदमी नहीं है बीती ताहि आदमी : समस्या भी समाधान भी प्रज्ञापर्व आदर्श कार्यकर्ता : एक मापदंड बीती ताहि आदर्श कार्यकर्ता की पहचान दोनों १२८ आदर्श जीवन की पद्धति उद्बो/समता ५५/५५ आदर्श जीवन की प्रक्रिया-अणुव्रत मजिल १ १७० आदर्श जीवन-पद्धति के प्रदाता वि वीथी आदर्श नागरिक भोर आदर्श पत्रकारिता की कसौटी प्रवचन ५ १६८ आदर्श, पथदर्शक और पथ बूंद बूंद १ १५२ आदर्श परिवार का स्वरूप मंजिल १ आदर्श बनने के लिए आदर्श कौन हो ? बीती ताहि १३१ आदर्श युवक के पंचशील दोनों आदर्श-राज्य आ० तु/तीन संदेश ३४/१३ आदर्श विचार-पद्धति घर २४४ आदर्श समाज की नींव का पत्थर उद्बो/समता ३९/३९ आदर्श साधक कौन ? भोर २०० आधि और उपाधि की चिकित्सा जब जागे ६७ आधुनिक संदर्भो में जैन दर्शन प्रवचन ५ आधुनिक समस्याएं और गांधी दर्शन अणु गति आध्यात्मिक एवं सामाजिक चेतना प्रवचन १० १८६ आध्यात्मिक क्रांतिकारी संत प्रवचन ११ २७. आध्यात्मिकता एवं राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण राज २२४ १०८ २५१ १०४ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ आध्यात्मिक प्रयोगशाला -दीक्षा आध्यात्मिक विकास के लिए अनुपम अवदान आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण आध्यात्मिक संस्कृति और अध्यापक आनंद का द्वार आनंद का रहस्य आनंद का सागर आनंद के ऊर्जाकण आन्तरिक शांति आन्तरिक सौन्दर्य का दर्शन आन्दोलन का घोष आन्दोलन की भावना आन्दोलन के दो पक्ष आपद्धर्म कैसा ? आभामंडल आभामंडल का प्रभाव आरंभ - परिग्रह की नदी : अणुव्रत की नौका आराधना आराधना मंत्र आर्थिक दृष्टि के दुष्परिणाम आर्य कौन ? वाणी का ही सरल रूप आलंबन से होता है ध्यान का प्रारम्भ आलंबन, स्वावलंबन और चिरालंबन आलोक और अंधकार आलोक का त्यौंहार आलोचना आलोचना का अधिकारी आलोचना की सार्थकता आवरण आवश्यक है अर्हताओं का बोध और विकास आवेश का उपचार शांति के प्रेक्षा प्रज्ञापर्व प्रवचन ११ बैसाखियां समता / उद्बो समता / उद्बो समता / उद्बो सूरज मंजिल १ नैतिक ज्योति के नैतिक सूरज प्रेक्षा जब जागे खोए १४३ ११० १३७ खोए ११२ दीया ९४ खोए २८ मुक्तिपथ / गृहस्थ १९५/२१३ नैतिक ४७ मुक्ति इसी / मंजिल २ ५९ / ३८ घर २३५ ६४ ५२ ४९ प्रवचन ११ कुहासे खोए मंजिल १ संभल घर जीवन क्या धर्म २०९ ७२ १२९ २१ १८० ३० १४०/१४२ २७/२७ १३८ / १४० ८ १३४ २७ २४२ २१ २४६ ९६ २३८ १४५ १२७ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आसक्ति का परिणाम आसक्ति छूटती है उपनिषद् से आस्तिक नास्तिक आस्तिक नास्तिक की भेदरेखा आस्था और संकल्प को जगाने का प्रयोग भास्था का निर्माण आस्था की रोशनी : अविश्वास का कुहासा आस्था के अंकुर आस्था : केन्द्र और परिधि आस्थाहीनता के आक्रमण का बचाव : अणुव्रत आहत मन का आलंबन आह्वान इक्कीसवीं सदी का जीवन इक्कीसवीं सदी के निर्माण में युवकों की भूमिका इच्छा मंडल और व्यक्तित्व का निर्माण इतिहास का एक पृष्ठ इन्द्र की जिज्ञासा : राजर्षि के समाधान इन्द्रिय और अतीन्द्रिय सुख इन्द्रिय के प्रकार इन्द्रिय विजय ही वास्तविक विजय है। इन्द्रियां : एक विवेचन इन्द्रियां और द्रष्टाभाव इन्द्रियों के प्रति हमारा दृष्टिकोण इस्लाम धर्म और जैन धर्म उच्चता का मानदण्ड उच्चता की कसौटी उत्कृष्ट विद्यार्थी कौन ? उत्तर और दक्षिण का सेतु : विश्वास उत्तर की प्रतीक्षा में 3 आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण बूंद बूंद २ लघुता आगे वि वीथी / राज जीवन खोए बैसाखियां समता नयी पीढ़ी / मेरा धर्म वि दीर्घा / अनैतिकता वि दीर्घा शांति के बैसाखियां सफर / अमृत दोनों अनैतिकता वि दीर्घा बूंद बंद १ गृहस्थ / मुक्तिपथ प्रवचन ८ जागो ! प्रवचन प सोचो ! ३ सोचो ! ३ जब जागे समता / उद्बो प्रवचन १९ सूरज अणु गति कुहासे ६२ २२२ २४७ ७५/१८५ १७ ११४ ५१ १६५ ५४ / ८२ ६९/१६५ ९९ २४५ १५ १६१/१२७ ९३ ५४ २११ १२७ ५०/४८ २१० १४८ २१६ ४५ ११४ २२१ ११/११ १७६ २०१ २२१ १२७ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २११ ६२ २४८ १९४ १६४ शांति के प्रवचन ८ बूंद बूंद २ प्रज्ञापर्व ज्योति के मेरा धर्म प्रवचन ५ जागो ! अतीत १७५ mr ०. ४२ उत्तरदायित्व का परीक्षण उत्थान व पतन का आधार उत्सर्ग और अपवाद उत्सव के नये मोड़ उद्देश्य उद्देश्यपूर्ण जीवन : कुछ पड़ाव उन्माद को छोड़े उपधि परिज्ञा उपनिषद्, पुराण और महाभारत में श्रमण ___ संस्कृति का स्वर उपनिषदों पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव उपयुक्त समय यही है उपयोगितावाद उपलब्धि और नई योजना उपवास और महात्मा गांधी उपवास, साधना और स्वास्थ्य उपशम रस का अनुशीलन उपसंपदा के सूत्र उपादान निमित्त से बड़ा उपाय की खोज उपासक संघ : एक नया प्रयोग उपासना और आचरण उपासना और चरित्र उपासना-कक्ष और संस्कार-निर्माण उपासना का मूल्य उपासना का सोपान : धर्म का प्रासाद उपासना की तात्त्विकता उपासना के सर्व सामान्य सूत्र उसको पाप नहीं छूते अतीत मुखड़ा मुखड़ा आलोक में २८ धर्म एक अतीत का ६३/११५ आलोक में संभल १३५ प्रेक्षा मुखड़ा १०२ बैसाखियां बूंद बूंद १ १९४ समता/उद्बो २५/२५ बूंद बूंद १ ८८ जागो ! भोर १८८ जब जागे १०० प्रवचन ११ क्या धर्म मनहंसा ऊ समता/उद्बो ऊर्जा का केन्द्र ऊर्ध्वगमन की दिशा कुहासे २१० Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण वि वीथी बूंद बूंद २ मंजिल २ नवनिर्माण २३० १३८ १३७-१३९ १६१ धर्म एक २३८ प्रज्ञापर्व खोए १०६ ९९ २०५ ७१ १९ २५२ ऋजुता के प्रतीक, सेवाभावीजी (चम्पालालजी) । ऋजुता साधना का सोपान है ऋण मुक्ति की प्रक्रिया (१-२) ऋषि प्रधान देश ए एक एक अद्भुत धर्मसंघ एक अमोघ उपचार एक अलौकिक पर्व : मर्यादा महोत्सव एक आध्यात्मिक आंदोलन एक-एक ग्यारह एक का बोध : सबका बोध एक क्षण देखने का चमत्कार एक क्षण ही काफी है एक क्रांतिकारी अभियान एक गौरवपूर्ण संस्कृति एक तपोवन, जहां सात सकारों की युति है एक दिव्य पुरुष : आचार्य मघवा एक दिशा सूचक यंत्र एक मर्मान्तक पीड़ा : दहेज एक महत्त्वपूर्ण कदम एक मार्ग : दो समाधान एक मिलन-प्रसंग एक विधायक कार्यक्रम एक विवशता का समाधान एक विश्लेषण (अग्नि परीक्षा कांड) एक व्यापक आंदोलन एक शक्तिशाली महिला : श्रीमती गांधी एक सपना, जो अब तक सपना एक सपना, जो सच में बदला एक साधक का जीवन ९३ २५५ १३५ जीवन सूरज सोचो ! ३ बंद बूंद २ बीती ताहि कुहासे घर प्रवचन १० कुहासे सोचो ३ संभल अनैतिकता/अमृत घर मुखड़ा राज/वि वीथी सूरज खोए वि वीथी अणु गति सफर अमृत बैसाखियां मनहंसा प्रवचन ११ १७६/६८ २१७ १२९ १००/१२९ १०५ २१८ १२६ १५७/१२३ ११९ २०२ ६० Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २१३ २०१ ७७ १२४ एक सार्थक प्रतिरोध एक सुधारवादी व्यक्तित्व एक स्वस्थ पद्धति चिंतन और निर्णय की एकाग्रता है ध्यान की कसौटी एकादशी व्रत एकव मानुषी जाति एटमी युद्ध टालने की दिशा में पहला प्रयास एलोरा की गुफायें एशिया में जनतन्त्र का भविष्य एसो पंच णमुक्कारो प्रज्ञापर्व वि दीर्घा मंजिल १ मनहंसा वि दीर्घा वि दीर्घा कुहासे सूरज मेरा धर्म मनहंसा १८८ २२ २० ऐश्वर्य : सुरक्षा का साधन नहीं ऐसी प्यास, जो पानी से न बुझे ऐसे भी होते हैं श्रावक ऐसे मिला मुझे अहिंसा का प्रशिक्षण ऐसे सुधरेगी भारत में चुनाव की प्रक्रिया बूंद बूंद २ जब जागे दीया जीवन क्या धर्म १५६ १४८ औ औदयिक भाव (१-३) औदयिक भाव (१-३) औदयिक भाव भऔर स्वभाव मौदयिक भाव का विलय औपशमिक भाव और नीचे कहां? गृहस्थ मुक्तिपथ प्रवचन ८ प्रवचन ८ मुक्तिपथ/गृहस्थ मंजिल २ १९८-२०१ १८१-१८३ २३२/५ २५२ १८४/२०२ २१७ क २४ जब जागे संभल १०२ १७६ कुहासे कठिन है बुराई के व्यूह का भेदन कथनी और करणी में एकता आए कभी गाड़ी नाव में कभी नहीं जाने वाली जवानी कभी नही बुझने वाला दीप कम्प्यूटर युग के साधु करणीय और अकरणीय का विवेक ८२ खोए वि दीर्घा/राज क्या धर्म जागो ! १३९ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २२४ १४१ २१३ १२४ ४३ ९२ १८० ७९ कर्त्तव्य की पूर्ति के लिए नया मोड़ कर्तव्य बोध कर्तव्य बोध जागे कर्तृत्व अपना कर्म एवं उनके प्रतिफल कर्म और भाव कर्म कर्ता का अनुगामी कर्म को प्रभावहीन बनाया जा सकता है कर्मणा जैन बनें कर्म-बध का कारण कर्म-बंधन का हेतु : राग-द्वेष कर्म-बंधन के स्थान कर्म मोचन : संसार मोचन कर्म व पुरुषार्थ की सापेक्षता कर्मवाद कर्मवाद का सिद्धांत कर्मवाद के सूक्ष्म तत्त्व कर्म विच्छेद कैसे होता है ? कर्म सिद्धांत कर्मों की मार कला और संस्कृति का सृजन कलामय जीवन और मौत कल्पना का महल कल्याण अपना भी औरों का भी कल्याण का रास्ता कल्याणकारी भविष्य का निर्माण कल्याण का सूत्र कवि और काव्य का आदर्श कवि का दायित्व कविता कैसी हो ? कवि से कषायमुक्ति बिना शांति संभव नहीं कषायमुक्ति : किल मुक्तिरेव नैतिक नैतिकता के प्रवचन १० कुहासे सोचो ! ३ प्रवचन ८ बूंद-बूंद १ जब जागे मंजिल २ सोचो ! ३ प्रवचन ५ मंजिल २ सोचो !३ प्रवचन ४ मंजिल १ प्रवचन ११ भोर प्रवचन ४ भगवान् प्रवचन ४ कुहासे सोचो ! ३ सूरज प्रवचन ९ समता मनहंसा प्रवचन ११ आ. तु प्रवचन ९ घर १३८ १२२ १०८ १०८ S M X २९ २२८ ८८ १८३ २३७ १०७ २८ जन-जन जागो ! संभल १०३ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २१४ १६६ १५३ १२४ कषाय विजय के साधन कसौटी कसौटियां और कोटियां कसौटी के क्षण कागज के फूल कामना निवृत्ति से शांति कायोत्सर्गः तनाव विसर्जन की प्रक्रिया कार्यकर्ताओं का लक्ष्य कार्यकर्ताओं की कार्य दिशा कार्यकर्ता की कसौटी कार्यकर्ता कैसा हो? कार्यकर्ता पहले अपना निर्माण करे काल काल का स्वरूप काल के विभाग काल को सफल बनाने का मार्ग : संयम कालिमा धोने का प्रयास काले कालं समायरे काव्य बहुजन सुखाय हो काहे को विराह मन कितना जटिल : कितना सरल कितना विलक्षण व्यक्तित्व ! कितना विशाल है भावों का जगत् किशोर डोसी किसके लिए होती है बोधि की दुर्लभता कुछ अनुत्तरित सवाल कुछ अपनी, कुछ औरों की कुछ शास्त्रीय : कुछ सामयिक कुल-धर्म कुशल कौन ? केकड़ावृत्ति केवलज्ञान प्रवचन ९ शांति के मुखड़ा खोए सूरज बूंद-बूंद १ जागो! प्रवचन ९ घर आलोक में प्रवचन १० बूंद-बूंद २ सोचो ! ३ प्रवचन १० मंजिल १ प्रवचन ८ बैसाखियां मनहंसा प्रवचन ११ मुखड़ा मुखड़ा ज्योति से दीया धर्म एक दीया कुहासे वि. वीथी/राज १८० १२७ २१७ १६७ २१ १३९ ४८ १४४ ४० १५७ १७३/२३७ जागो ! ३९ प्रवचन ४ संभल वि दीर्घा प्रवचन ८ १५९ १८३ १९९ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण बूंद-बूंद २ ७७ मंजिल २ २३६ खोए १४४ प्रवचन ४ मंजिल २ दीया १५२ लघुता २१९ दीया १२३ बैसाखियां प्रवचन ४ १०४ जब जागे १०९ आगे अतीत का दीया मनहंसा जीवन १७९ अतीत का मनहंसा प्रवचन ९ कुहासे जब जागे बैसाखियां १९३ समता दीया १८० केवलज्ञान की उत्कृष्टता केवलज्ञान के आलोक में केवल सुनने से मंजिल नहीं केवली और अकेवली केश लुञ्चन : एक दृष्टि कैसा होता है संघ और संघपति का संबंध कैसे खुलेगी भीतर की भांख कैसे चुकता है उपकार का बदला कैसे दूर होगा मन का अंधकार ? कैसे पढ़ें? कैसे बनता है जीव सुलभ-बोधि ? कैसे मनाएं महावीर को ? कैसे मिटेगी अशांति और अराजकता ? कैसे होता है गुणों का उद्दीपन ? कैसे होती है सुगति ? कैसे हो बालजगत् का निर्माण ? कैसे हो मनोवृत्ति का परिष्कार ? कौन करता है कल का भरोसा? कौन किसका ? कौन किसको कहे कौन सा देश है व्यक्ति का अपना देश कौन सा रास्ता ? कौन होता है गुरु ? कौन होता है चक्षुष्मान ? क्या अन्धकार पुद्गल है ? क्या अरति ? क्या आनंद ? क्या आदतें बदली जा सकती हैं ? क्या काल पहचाना जाता है ? क्या खोया : क्या पाया? क्या गृहस्थाश्रम घोराश्रम है ? क्या छाया स्वतंत्र पदार्थ है ? क्या जनतंत्र की रीढ़ टूट रही है ? क्या जातिवाद तात्विक है ? ३५ ५२ २७ १५ प्रवचन लघुता 50 खोए १०१ प्रवचन ८ अमृत/सफर बूंद बूंद १ प्रवचन ८ अणु संदर्भ ६४ १०० अणु संदर्भ १२० Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ क्या जैन धर्म जन धर्म बन सकता है ? क्या जैन धर्म में ध्यान की परम्परा है ? क्या जैन हिन्दू नहीं है ? जैन हिन्दू है ? क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? क्या नैतिकता अनिवर्चनीय है ? क्या बाल दीक्षा उचित है ? क्या भारत अमीर हो गया ? क्या भारत स्वतंत्र है ? क्या मन चंचल है ? क्या महावीर वैश्य थे ? क्या युवापीढ़ी धार्मिक है ? क्या सम्प्रदाय का मुकाबला संभव है ? क्या साधु वस्त्र रख सकता है ? क्या हिन्दू जैन नहीं हैं ? क्या है निर्ग्रन्थ-प्रवचन ? क्या है लोकतंत्र का विकल्प ? क्यों पढ़ें और क्यों पढ़ाएं ? क्यों हुई धर्म की खोज ? क्रांति और अहिंसा क्रांति और विरोध क्रांति के लिए बदलाव क्रांति के विस्फोट की संभावना क्रांति के स्वर क्रिया : एक विवेचन (१-३) क्रिया, प्रतिक्रिया और प्रेरणा क्रोध के दो निमित्त क्षण-क्षण मुक्ति क्षमा क्षमा का पावन संदेश देने वाला पर्व क्षमा बड़न को होत है क्षमा है अमृत का सरोवर जीवन प्रेक्षा दायित्व प्रवचन ४ क्या धर्म अनैतिकता मंजिल २ बैसाखियां प्रवचन ९ प्रेक्षा मुखड़ा मंजिल २ जीवन मंजिल २ अतीत का प्रवचन १० अतीत का दीया खोए घर जागो ! अणु गति सोचो ! ३ प्रवचन ४ शांति के संभल वि वीथी / राज कुहासे २१७ ६० ३९ ५७ ४२ अणुसंदर्भ / अणु गति ३५/१४३ बूंद-बूंद १ २०४ कुहासे १९९ दोनों / वि दीर्घा २८ / १५६ १५२ ३८-४६ ४७ ९ ७४ २२६ ९४ २०८ ३१ ५३ ७८ १६९ १६१ ७९ ११२ १७६ १८५ ८५ १६० ९४ २०६ १६४ १०६/१५९ १६७ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ क्षायिक भाव क्षायोपशमिक भाव खतरा दुश्मन से दोस्ती का खमतखामणा खमतखामणा : एक महास्नान खादी और अहिंसा खादी, उसका गिरता हुआ मूल्य और अहिंसा खाद्य-पेय की सीमा का अतिक्रमण खाद्य - संयम का मूल्य खानपान की संस्कृति खाना पशु की तरह पचाना मनुष्य की तरह खिड़कियां सचाई की खुद से खुद की पहचान खोज अपने आपकी खोजने वालों को उजालों की कमी नहीं खोज शांति की कारण अशांति के खोना और पाना खोने के बाद पाने का रहस्य ख गणतंत्र की सफलता का आधार गणराज्य दिवस गणेशमल कठौतिया गति, प्रगति और युवापीढ़ी गमन और आगमन गांधी एक : कसौटियां अनेक गांधीजी के आदर्श : एक प्रश्नचिह्न गांधी शताब्दी ग गांधी शताब्दी और उभरते हुए साम्प्रदायिक दंगे गांधी शताब्दी और गांधीवाद का भविष्य गांधी शताब्दी : क्या करना, क्या छोड़ना आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मुक्तिपथ / गृहस्थ मुक्तिपथ / गृहस्थ समता भोर प्रवचन १० अणु गति अणु संदर्भ सोचो ! ३ प्रवचन १० कुहासे खोए दीया मंजिल १ दीया सफर / अमृत मंजिल २ खोए जब जागे आ. तु. धर्म एक धर्म एक ज्योति से सूरज धर्म एक / अतीत का राज / विवीथी धर्म एक राज / वि वीथी अणु संदर्भ अणु गति १८५/२०३ १८६ / २०४ २४१ १२६ ६९ १९४ ६५ २५० १२० १२२ ६ १३४ ५८ ७८ ५३/१८ २४५ ११६ ११ ७५ २३२ १९४ १६५ १४८ ७१/१११ ९२/१४६ २३४ ९६/१४१ ६१ १९१ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ गीता का विकर्म : जैन दर्शन का भावकर्म गीता की अद्वैत दृष्टि और संग्रह नय गुण क्या है ? गुणस्थान दिग्दर्शन गुरु-दर्शन का वास्तविक उद्देश्य गुरु बिन घोर अंधेर गुमराह दुनिया गौण को मुख्य न मानें ग्राम धर्म : नगर धर्म ग्राम-निर्माण की नयी योजना ग्रीष्मावकाश का उपयोग बीती ताहि शांति के प्रवचन ८ मंजिल २ २२८ प्रवचन ४ मुखड़ा सूरज जागो ! प्रवचन ४ अनैतिकता/अतीत का २३१/२२ अणु गति ७८ घर का स्वर्ग घर के भीतर कौन ? बाहर कौन ? घर क्यों छोड़ना पड़ा? घर में प्रवेश करने के द्वार घर लघुता समता बैसाखियां २४५ १५७ १२५ १२४ ज्योति से अणु संदर्भ धर्म : एक बैसाखियां मनहंसा भोर मनहंसा १३९ चंद्रयात्रा : एक अनुचिन्तन चंद्रयात्रा और शास्त्र-प्रामाण्य चंपतराय जैन चक्षुष्मान् मनुष्य और एक दीपक चत्तारि सरणं पवज्जामि चरित्र और उपासना चरित्र का मानदण्ड चरित्र की प्रतिष्ठा चरित्र की महत्ता चरित्र की समस्या : अणुव्रत का समाधान । चरित्र के क्षेत्र में विरल उदाहरण : पारमार्थिक शिक्षण संस्था चरित्र को सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त हो चरित्र-निर्माण और साधना चरित्र-निर्माण का आंदोलन : अणुव्रत भोर १५२ सूरज बूंद बूद १ १८७ १४१/१७५ अमृत/सफर भोर बीती ताहि प्रवचन ११ ९५ २३ १३९ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ७४ चरित्र-निर्माण का प्रयोग चरित्र निष्ठा चरित्र निष्ठा : एक प्रश्नचिह्न चरित्र विकास और शांति का आंदोलन चरित्र विकास की ज्योति चरित्र सही तो सब कुछ सही १५७/१५९ ११३ २२२ १९७ ५९/१०९ १४४ १०० १४३ १०५/५५ २४१ मनहंसा समता/उद्बो अणु गति सूरज सूरज अनैतिकता अमृत/सफर प्रवचन ११ मंजिल १ बैसाखियां बूंद बूंद २ सूरज संभल सफर/अमृत धर्म एक सूरज मंजिल १ मंजिल १ जागो ! संभल प्रवचन ५ भोर ज्योति से प्रगति की जीवन उदबो/समता प्रज्ञापर्व सोचो ! ३/राज वि वीथी प्रवचन ५ चरित्रार्जन भावश्यक चर्चा के तीन पक्ष चाणक्य का राष्ट्र प्रेम चातुर्मास और विहार चातुर्मास का महत्त्व चातुर्मास की सार्थकता चाबी की खोज जरूरी चार चार आवश्यक बातें चार प्रकार के आचार्य चार प्रकार के पुरुष चारित्र और योग विद्या चारित्र का मापदण्ड चारित्र के दो प्रकार चारित्रिक गिरावट क्यों ? चित्त की एकाग्रता के प्रकार चुनाव की कठिनाई चुनावी रणनीति में अणुव्रत का घोषणा पत्र चेतना का ऊर्ध्वारोहण चेतना की जागृति का पर्व चेतना के केन्द्र में विस्फोट ४४ २२८ १९२ २४ ३४ १४४/१४२ १४१/१० चेतना जागृति का उपक्रम चैतन्य केन्द्रों का जागरण : भाव तरंगों का परिष्कार चैतन्य केन्द्रों का प्रभाव प्रेक्षा प्रेक्षा १२५ १२१ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ चैतन्य जागृति का पर्व - अक्षय तृतीया चैतन्य - विकास की प्रक्रिया चोटों को नहीं सह सकता, वह प्रतिमा नहीं बन सकता चौबीसी में ध्यान के तत्त्व छात्राओं का चरित्र-निर्माण छात्रों का दायित्व जन-जन का मार्गदर्शक जनतंत्र और धर्म जन साधारण का आदर्श क्या है ? जन सामान्य के लिए अणुव्रत की योजना जन्म दिन : एक समूची सृष्टि का जन्म दिन कैसे मनाएं ? जनतंत्र का मौलिक आधार -- जागृत जनमत जनतंत्र की स्वस्थता का आधार जनतंत्र से पहले जन जनमत का जागरण जरूरी जन-सम्पर्क और विकासमान विचारधारा जप : एक मानसिक चिकित्सा जप तप की गंगा जप, ध्यान और कायोत्सर्ग जब आए सन्तोष धन जब जागे तभी सवेरा जब मुख्य गौण हो जाए जब सत्य को झुठलाया जाता है। जयचंदलाल दफ्तरी जयाचार्य : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व जरूरत है ऐसी मां की जरूरत है धर्म में भी क्रांति की ज 15 प्रज्ञापर्व ५९ मंजिल २ / मुक्ति इसी १३/२५ प्रज्ञापर्व जीवन सूरज प्रवचन ९ प्रवचन ११ आगे सोचो ! ३ आलोक में बीती ताहि बंद बूंद १ अणु गति प्रवचन ११ अतीत का वि दीर्घा / राज प्रवचन ५ सफर / अमृत प्रेक्षा प्रज्ञापर्व खो समता जब जागे समता मुखड़ा धर्म एक प्रवचन ४ दोनों सफर / अमृत २२१ ४२ १४१ ५१ ३८ १०३ ११४ ७३ १६२ ८ १९० ६० १७८ १८६ १/३ ३२ ११८/८४ २० १६९ ११५ २६१ १ २०६ १७ १८३ १२९ ८७ ८३/३४ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २१ ३७/३७ १३४ १२२ २३३ १९५/१९८ जरूरतों में बदलाव जहां अनैतिकता, वहां तनाव जहां उत्तराधिकार लिया नहीं, दिया जाता है जहां माताएं संस्कारी होती हैं जहां विरोध है, वहां प्रगति है जहां से सब स्वर लौट भाते हैं जागरण का शंखनाद जागरण का संदेश जागरण की दिशा मे बढ़ने का संकेत जागरण के बाद प्रमाद क्यों ? जागरण क्या है ? जागरण विवेक का जागरण ही जीवन है जागरूकता से बढ़ती है संभावनाएं जागृत जीवन जागृत धर्म जागृति का मंत्र जागृति कैसे और क्यों ? जागो ! निद्रा त्यागो !! जाति न पूछो साधु की जातिवाद अतात्त्विक है जातिवाद के समर्थकों से जापान और भारत का अंतर जिज्ञासा और जिगीषु जितनी सादगी : उतना सुख जितने प्रश्न : उतने उत्तर जीना ही नहीं, मरना भी एक कला है जीने का दर्शन जीने की कला बैसाखियां उद्बो/समता बीती ताहि प्रवचन ९ संदेश लघुता सूरज समता/उद्बो दोनों लघुता खोए क्या धर्म उद्बो/समता लघुता आगे सोचो! ३ वि वीथी/दोनों आगे जागो! प्रवचन ११ प्रवचन ११ जन जन १७० १०८ १२१ १६३/१६१ १७३ १८३ २७० २१६ १२६ ६४ कुहासे घर दोनों कुहासे दीया खोए सूरज /समता उद्बो सूरज जब जागे प्रवचन ४ जीने की कला : मरने की कला जीव अजीव का द्विवेणी संगम जीव और अजीव ५७/१३२ १३३ १८७ १२६ . १६७ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २२३ जीव के दो वर्ग जीव दुर्लभबोधि क्यों होता है ? जीवन आचार सम्पन्न बने जीवन : एक कला जीवन : एक प्रयोग भूमि ९० सोचो ! ३ जागो ! ९८ सूरज राज/वि वीथी ११३/९१ धर्म एक/अनैतिकता २९/२४५ अतीत का बैसाखियां १४६ क्या धर्म प्रश्न/संभल ४८/८८ शान्ति के समता २३१ घर शान्ति के २५२ प्रवचन ११ राज १७८ सूरज सूरज १४४ मनहंसा सूरज नैतिक सूरज १४१ प्रवचन ५ ३८ बूंद बूंद २ १८१ संभल/भोर ७७/१४६ सूरज २२८ आ. तु. १८० सूरज ज्योति के मंजिल २ १४७ कुहासे शान्ति के खोए जीवन और जीविका : एक प्रश्न जीवन और धर्म जीवन और लक्ष्य जीवन कल्प की दिशा जीवन का अभिशाप जीवन का आभूषण जीवन का आलोक जीवन का निर्माण जीवन का परमार्थ जीवन का परिष्कार जीवन का पर्यवेक्षण जीवन का पहला बोधपाठ जीवन का प्रवाह जीवन का मोह और मृत्यु का भय जीवन का लक्ष्य जीवन का शाश्वत क्रम : उतार-चढ़ाव जीवन का शाश्वत मूल्य : मैत्री जीवन का सही लक्ष्य जीवन का सार जीवन का सिंहावलोकन जीवन का सौन्दर्य जीवन की उच्चता का मापदंड जीवन की तीन अवस्थाएं जीवन की दिशा में बदलाव जीवन की न्यूनतम मर्यादा जीवन की रमणीयता १६३ १९ ११८ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १४३ १५० १४८,१७४ ३०/४८ ११९ ७० १९९ x o wc - १३० जीवन की सही रेखा जीवन की साधना जीवन की सार्थकता जीवन की सूई और आगम का धागा जीवन के आवश्यक तत्त्व जीवन के दो तत्त्व जीवन के मापदण्डों में परिवर्तन जीवन के श्रेयस् जीवन के सुनहले दिन जीवन को ऊंचा उठाओ जीवन को दिशा देने वाले संकल्प जीवन को संवारे जीवन को सजाएं जीवन क्या है ? जीवन-चर्या का अन्वेषण जीवन-निर्माण का महत्त्व जीवन-निर्माण की दिशा जीवन-निर्माण के दो सूत्र जीवन-निर्माण के पथ पर जीवन-निर्माण के सूत्र जीवन बदलो जीवन मर्यादामय हो जीवन-मूल्य जीवन में अहिंसा जीवन में आचरण का स्थान जीवन में धार्मिकता को प्रश्रय दें जीवन में संयम का स्थान जीवन में संयम की महत्ता जीवन में समत्व का अवतरण । जीवन यापन की आदर्श प्रणाली जीवन-विकास जीवन-विकास और आज का युग जीवन-विकास और युगीन परिस्थितियां घर नवनिर्माण भोर मंजिल २/मुक्ति इसी संभल संभल संभल सूरज सूरज प्रवचन ९ दीया सूरज सूरज कुहासे सूरज सूरज ज्योति से प्रवचन १० प्रवचन ११ प्रवचन १०/सोचो ! ३ प्रवचन ९ संभल सूरज भोर प्रवचन ११ प्रवचन ११ संभल प्रवचन ११ ३७ १७५ २१२ ४४ ८२/२०१ १०३ १७१ १८२ १६४ प्रेक्षा ७८ १५५ १७७ १४४ १३५ जब जागे आ. तु. शान्ति के प्रवचन ९ १४० १९७ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २२५ शान्ति के १७४ सूरज २०१ ११ २२६ २४३ २११ ४२ ३४ १४ १५२ १६८ जीवन-विकास और विद्यार्थीगण जीवन-विकास और सुख का हेतु जीवन-विकास का क्रम जीवन-विकास का मार्ग जीवन-विकास के चार साधन जीवन-विकास के साधन जीवन-विकास के सूत्र जीवन शुद्धि जीवन शुद्धि का प्रशस्त पथ जीवन शुद्धि के दो मार्ग जीवन शैली के तीन रूप जीवन शैली में बदलाव जरूरी जीवन सफलता के दो आधार जीवन सुधार का मार्ग : धर्म जीवन सुधार का सच्चा मार्ग जीवन सुधार की योजना जीवन स्तर ऊंचा उठे जीवों के वर्गीकरण जुगलकिशोर बिड़ला जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ जैन आगमों के कुछ विचारणीय शब्द जैन आगमों के संबंध में जैन आगमों में देववाद की अवधारणा जैन आगमों में सूर्य जैन एकता जैन एकता का एक उपक्रम : कुछ बिंदु जैन एकता की दिशा में जैन एकता क्यों ? कैसे ? जैन कौन ? जैन जीवन शैली जैन जीवन शैली को अपनाएं जैनत्व की पहचान : कुछ कसौटियां जैन दर्शन प्रवचन ११ सूरज प्रवचन ११ सूरज प्रवचन ९ धर्म एक घर बूंद बूंद १ बैसाखियां कुहासे आगे सोचो !३ संभल भोर संभल मंजिल २ धर्म एक प्रवचन ४ अतीत वि वीथी/राज जीवन वि दीर्घा राज शान्ति के सफर/अमृत धर्म एक जागो ! बूंद बूंद २ लघुता प्रज्ञापर्व लघुता संभल/सूरज १८९ १२२ १७६ ६६/७८ १७८/८० ११२/७८ ११२ १७९ १८६ २३ १८० १५०/२०३ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जैन दर्शन और अणुव्रत २०८ १२७ २१ जैन दर्शन और अनेकांत जैन दर्शन और जातिवाद जैन दर्शन और वेदान्त जैन दर्शन का मौलिक तत्त्व-संवर जैन दर्शन की देन जैन दर्शन की मौलिक आस्थाएं जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्त जैन दर्शन क्या है ? जैन दर्शन तथा अनेकान्तवाद जैन दर्शन में आत्मवाद जैन दर्शन में आत्मा जैन दर्शन में ईश्वर जैन दर्शन में सृष्टि जैन दर्शन : समता का दर्शन जैन दर्शन : समन्विति का पथ जैन दीक्षा जैन दीक्षा का महत्त्व जैन दृष्टि जैन धर्म जैन धर्म : एक वैज्ञानिक धर्म जैन धर्म और अणुव्रत जैन धर्म और अहिंसा जैन धर्म और उसका साधना पथ जैन धर्म और तत्त्ववाद जैन धर्म और साधना जैन धर्म और सृष्टिवाद जैन धर्म का अहिंसा-दर्शन जैन धर्म का मूल मंत्र : पुरुषार्थ जैन धर्म का स्वरूप जैन धर्म की मौलिक विशेषताएं जैन धर्म के पूर्वज नाम अनैतिकता २३७ अतीत का/धर्म एक २८/९७ प्रवचन ११ अणु गति अतीत मंजिल १ १२६ भोर ७४ अतीत का/दायित्व ८३/६३ प्रवचन ९ गृहस्थ मुक्तिपथ १०२/९७ नवनिर्माण १७९ मंजिल १ २२२ मंजिल १ नयी पीढी सोचो ! ३ १७७ प्रवचन ११ १५९ सोचो !३ २७८ संभल/जैन प्रवचन ११ प्रवचन ९ १४३ गृहस्थ मुक्तिपथ ७४/७१ आगे धर्म एक आगे सूरज घर १६० घर १८२ घर १७६ प्रवचन ५ बूंद बूंद २ मुखड़ा जीवन अतीत ४१ १३९ ५६ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २२७ २६ प्रवचन १० प्रवचन ५ घर प्रवचन १० ११९/१०१ मेरा धर्म ७५ मुखड़ा २१३ मनहंसा क्या धर्म ८७. सोचो !३ सूरज बूंद बूंद २ १०८ अतीत का १०५ ४८ १३३ जैन धर्म के प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया जैन धर्म : जन धर्म जैन धर्म जन धर्म कैसे बने ? जैन धर्म : पहचान के कुछ घटक जैन धर्म : बौद्ध धर्म जैन धर्म में आराधना का स्वरूप जैन धर्म में ईश्वर जैन धर्म में प्रव्रज्या जैन धर्म में सर्वोदय की भावना जैन मुनि और योगासन जैन मुनि की आचार-परम्परा : . एक सुलगता हुआ सवाल जैन योग जैन योग में कुंडलिनी जैन विद्या का अनुशीलन करें जैन विश्व भारती जैन विश्व भारती-कामधेनु जैन-संस्कृति जैन समन्वय का पंचसूत्री कार्यक्रम जैन समाज सोचे जैन साहित्य में सूक्तियां जैनों और वैदिकों के चार वर्ण जैनों की जिम्मेवारी जैसी सोच, वैसी प्राप्ति जो चलता है, पहुंच जाता है जोड़ते चलो और कोमल रहो जो दिल खोजू आफ्ना जो दृढ़मिणी थी और प्रियर्मिणी भी जो सब कुछ सह लेता है जो सहता है, वह रहता है जो सहना जानता है,वह जीना जानता है ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ? ज्ञान अतीन्द्रिय जगे, १६१ १७८ मेरा धर्म/अतीत का ४८/७३ प्रेक्षा प्रज्ञापर्व प्रेक्षा ५२ मंजिल १ २०९ घर/भोर २५६/१२० सूरज भोर अतीत १८९ जागो ! १२८ सूरज समता समता/उद्बो सोचो ! ३ मुखड़ा वि वीथी खोए लघुता जब जागे खोए प्रज्ञापर्व ४० ८६ १०४ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ज्ञान और अज्ञान ज्ञान और आचार की समन्विति ज्ञान और क्रिया ज्ञान और ज्ञानी ज्ञान और दर्शन ज्ञान का उद्देश्य ज्ञान का फलित-विनय ज्ञान का सम्यक् उपयोग ज्ञान के दो प्रकार ज्ञान के दो प्रकार हैं ज्ञान के पलिमन्थु ज्ञान के लिए गम्भीरता जरूर ज्ञान चेतना ज्ञान प्रकाशप्रद है ज्ञान प्राप्ति का पात्र ज्ञान प्राप्ति का सार ज्ञान मन्दिर की पवित्रता ज्ञानी भटकता नहीं ज्ञानी सदा जागता है ज्ञेय के प्रति ज्योति से ज्योति जले प्रवचन ४ मंजिल २ भोर प्रवचन ५ १६८ जागो! १८७ मंजिल १ १२७ प्रवचन ५ मंजिल १ १७५ प्रवचन ४ प्रवचन ५ १०५ मंजिल २/मुक्ति इसी ३४/५३ बूंद बूंद २ ७४ प्रवचन ४ १०२ घर प्रवचन ५ प्रवचन ९ १७८ आलोक में जब जागे ४६६ - 5:55. 52 २२४ १२४ ५१ लवुता गृहस्थ/मुक्तिपथ प्रवचन ४ १०४/९९ १९० झ झूठ का दुष्परिणाम समता २५६ ४८ डा० किंग ने अहिंसा को तेजस्वी बनाया है डा० जाकिर हुसैन डा. राजेन्द्र प्रसाद अणु संदर्भ धर्म एक धर्म एक १६६ १५८ णमो अरहंताणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं मनहंसा मनहंसा मनहंसा .. Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ णमो लोए सव्व साहूणं णमो सिद्धाणं णो होणे णो अइरित्ते मनहंसा ममहंसा सोचो! ३ २०० ३१ १६१ १/१०४ १५० ४९ १०४ १४२ १०९ १९७ ७३ तखतमल पगारिया तट पर अधिक सजगता तटस्थता के सूत्रधार : पण्डित नेहरू तत्व क्या है ? तत्त्वचर्चा तत्त्वज्ञान के मोर्चे पर तत्त्वज्ञान बाहर ही नहीं, अन्दर भी फैलाना है तत्त्वदर्शन तत्त्व-बोध तनाव-मुक्ति का उपाय तन्मयता तप तप और उसका आचार तप साधना का प्राण है तपस्या और ध्यान तपस्या का कवच तपस्या : संघ की प्रगति का साधन तपस्या स्वयं ही प्रभावना है तप है आंतरिक बीमारी की औषधि तमसो मा ज्योतिर्गमय तलहटी से शिखर पर पहुंचने का उपाय तितिक्षा और साधना तीन तीन अभिलाषाएं तीन बहुमूल्य बातें तीन लोक से मथुरा न्यारी तीन वृत्तियां तीन वैद्य धर्म एक बूंद बूद १ धर्म एक तत्त्व/आ० तु. तत्त्वचर्चा प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व भगवान् प्रवचन ८ बूंद बूंद २ खोए सूरज जागो! ज्योति से बूंद बूंद २ कुहासे घर प्रवचन ४ जब जागे कुहासे लघुता बूंद-बूंद २ धर्म एक बूंद बूंद २ घर मंजिल १ प्रवचन ९ उद्बो/समता १८ x २६२ २८ २४५ १३ २४० १५५ २५३ १६७ ६७ १५५/१५३ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० बा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२१ तीर्थंकर ऋषभ तीर्थंकर और सिद्ध तुलनात्मक अध्ययन : एक विमर्श तृप्ति कहां है ? तेजोलब्धि : उपलब्धि और प्रयोग तेजोलेश्या तेरापंथ : एक विहंगावलोकन तेरापंथ का इतिहास समर्पण का इतिहास है तेरापंथ का विकास तेरापंथ की उद्भवकालीन स्थितियां तेरापंथ की जन्म कुंडली का श्रेष्ठ फलादेश तेरापंथ की मंडनात्मक नीति तेरापंथ की मौलिकता तेरापंथ की मौलिक मर्यादाएं तेरापंथ के प्रथम सो वर्ष तेरापंथ के शासन सूत्र तेरापंथ क्या और क्यों? तेरापंथ : धार्मिक विशालता का महान प्रयोग तेरापंथ : संगठन का मेरुदंड-मर्यादा महोत्सव तेरापंथ है तीर्थंकरों का पन्थ तेरापंथी कौन ? त्याग और भोग की सत्ता त्याग और संयम का महत्व त्याग और संयम की संस्कृति त्याग और सदाचार की महत्ता त्याग का महत्त्व त्याग की महत्ता त्याग का मूल्य त्याग के आदर्श की आवश्यकता त्याग बनाम भोग त्याग : मुक्तिपथ त्याग : हमारी सांस्कृतिक धरोहर प्रवचन ९ ११८ अतीत का/धर्म एक १२१/११६ प्रवचन १० १३८ प्रवचन १० प्रेक्षा १४१ प्रवचन ४ मेरा धर्म ११० सोचो! ३ वि वीथी १८१ मेरा धर्म प्रज्ञापर्व प्रवचन ११ २२६ वि वीथी १९२ सोचो !३ जब जागे १६७ वि बीथी १९६ नयी/मरा धर्म मेरा धर्म प्रज्ञापर्व जब जागे १५३ मंजिल १ ७० जागो! सूरज १२५ संभल संभल भोर/घर ६९/६८ प्रवचन ११ प्रवचन ९ संभल प्रवचन ९ प्रवचन ५ प्रवचन १० १९५ १६/८८ ७७ ६८ १७५ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ त्रिपदी : एक ध्रुव सत्य त्रिवेणी स्नान त्रिवेन्द्रम्, केरल प्रवचन ४ शांति के २०५ धर्म एक १५३ थके का विश्राम थावच्चापुत्र शांति के प्रवचन ९ १२९ १०४ ६९ दक्षिण भारत के जैन आचार्य धर्म एक दक्षेस : बालिका वर्ष कुहासे ११५ दंड और नैतिकता अनैतिकता दंड संहिता कब से? अनैतिकता ११२ दमन बनाम शमन मुक्ति इसी/मंजिल २ २०/९ दया और दान सूरज २३० दया का मूल मंत्र भोर दयाप्रेमियों का दायित्व प्रगति की दर्शन और उसके प्रकार प्रवचन २०४ दर्शन और विज्ञान प्रश्न दर्शन की पवित्रता के दो कवच : अहिंसा और मोक्ष शांति के दर्शन के आठ प्रकार मंजिल १ १३५ दर्शन के दो प्रकार हैं प्रवचन ५ दर्शनाचार के आठ प्रकार सोचो!३ दलतन्त्र से जनतंत्र की ओर मंजिल २/मुक्ति इसी ७०/९८ रान के दो प्रकार सोचो! ३ २८६ वनवता की जगह मानवता प्रवचन ११ दयित्व का बोध मंजिल २ दारित्व का विकास मेरा धर्म दायिव बोध के मौलिक सूत्र ज्योति से दोनों ३३/१०९ दायित बोध के सूत्र अतीत का दार्शकिों से जन-जन दासता। मुक्ति प्रवचन ९ दिव्य अत्मा-आचार्यश्री कालूगणी प्रवचन ४ १४२ दिशा काबदलाव दीक्षा का महत्त्व प्रवचन ११ १२३ १९७ ७४ खोए Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ था. तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २४,२३३ १२५ १७५ १४९ मंजिल १ धर्म एक आगे प्रवचन १० जागो ! शांति के खोए प्रेक्षा बीती ताहि मंजिल २ २४७ १०३ १०४ १५३ २६१ २८ दीक्षा क्या है ? दीक्षान्त प्रवचन दीक्षा : सुख और शक्ति की दिशा में प्रयाण दीक्षा सुरक्षा है दीपावली कैसे मनाएं ? दीपावली : भगवान् महावीर का निर्वाण दीर्घजीविता का हेतु दीर्घश्वास की साधना दीर्घश्वास प्रेक्षा दीर्घायुष्य बन्धन के कारण दुःख का मूल दुःख का हेतु-ममत्व दुःख मुक्ति का आवाहन-अणुव्रत दुःख मुक्ति का उपाय दुःख मुक्ति का रास्ता दुनिया एक सराय है दुर्गुणों की महामारी दुर्लभ क्या है ? दुविधाओं से पराभूत न हों। दूरदर्शन : एक मादक औषधि दूरदर्शन की संस्कृति दूरदर्शन से मूल्यों को खतरा दूसरी शताब्दी का तेरापन्थ दृढ़ संकल्प : सफलता की कुंजी दृश्य एक : दृष्टियां अनेक दृष्टि की निर्मलता दृष्टिकोण का मिथ्यात्व दृष्टिकोण का सम्यक्त्व दष्टिकोण, संकल्प और पुरुषार्थ दृष्टि-परिमार्जन दृष्टि भेद देव आयुष्य बंधन के कारण देव, गुरु और धर्म प्रवचन ९ आगे नैतिक जब जागे मंजिल १ सूरज मंजिल १ नैतिक २४१ ७२ ४४ कुहासे ४७ कुहासे कुहासे ४२ २० १२९ जब जागे प्रवचन ५ मुखड़ा मुखड़ा बूंद बूंद १ जागो! बैसाखियां समता/उद्बो घर मंजिल २ बूंद-बूंद १ १७७ १४/१४८ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ १२५ देवीलाल सांभर देश और काल : एक बहाना देश और काल को बदला जा सकता है देश और राजनैतिक दल देश का भविष्य देश का मालिक कौन ? देश की बागडोर थामने वाले हाथ देहे दुक्खं महाफलं १०८ ८० २०९/१४५ २३९ धर्म एक खोए बीति ताहि बैसाखियां बैसाखियां प्रज्ञापर्व बैसाखियां मुक्तिपथ गृहस्थ धर्म एक प्रवचन ४ दोनों प्रवचन १० प्रवचन १० कुहासे सूरज प्रगति की बैसाखियां लघुता प्रवचन ८ प्रज्ञापर्व लघुता समता/उद्बो मुक्तिपथगृहस्थ १९१ १४७ दो दर्शन दोनों हाथ : एक साथ दो पथ : एक घाट दो प्रकार के साधक दो रत्ती चंदन दो शुभ संकल्प दोष का प्रतिकार : व्रत दोष किसी का, दोष किसी पर दोष मुक्ति का नया उपाय द्रव्य के विशेष गुण द्रव्यपूजा और भावपूजा द्रष्टा की आंख का नाम है प्रज्ञा द्वंद्वमुक्ति द्वंद्व मुक्ति का उपाय ५१ २ १८७ १२० १३४ ७२ ७२ १२४/१२५ २०७/१४३ १७५ २२९ धन नहीं, धर्म संग्रह करें धनराज बैद धन से धर्म नहीं धरती को स्वर्ग बना सकते हैं धर्म अच्छा, धार्मिक अच्छा नहीं धर्म अमृत भी, जहर भी धर्म आकाश की तरह व्यापक है धर्म : आचरण का विषय प्रवचन ११ धर्म एक सूरज प्रवचन ४ कुहासे मुखड़ा सोचो !३ घर ९९ ७८ १४७ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्म आत्मगत होता है धर्म आत्मा; सम्प्रदाय शरीर धर्म : एक अखंड सत्य धर्म : एक राजपथ है धर्म और अणुव्रत धर्म और अधर्म धर्म और अध्यात्म धर्म और कला धर्म और जीवन व्यवहार १४५ जागो! ११८ कुहासे १४३ उद्बो/समता १९/१९ मंजिल १ प्रश्न/समाधान २९/७९ प्रवचन ९ मंजिल १ शान्ति के नयी/क्या धर्म मंजिल १ प्रवचन ९ १४८ समाधान/प्रवचन १० १९/१५७ बूंद बूंद २ १७१ मुक्तिपथ/गृहस्थ प्रवचन १० १४७ समाधान ३३ बूंद बूंद १ २२१ धर्म और/आ. तु. बैसाखियां प्रवचन ९ समाधान १/७९ १६७ धर्म और त्याग धर्म और दर्शन धर्म और धर्मसंघ धर्म और धर्मसंस्था धर्म और धार्मिक एक है या दो? धर्म और परम्परा धर्म और पुण्य धर्म और भारतीय दर्शन धर्म और मजहब धर्म और मनुष्य धर्म और युवक धर्म और राजनीति धर्म और विज्ञान धर्म और वैयक्तिक स्वतंत्रता धर्म और व्यवहार धर्म और व्यवहार की समन्विति धर्म और समाज धर्म और सम्यक्त्व धर्म और सिद्धांत धर्म और सेक्स धर्म और स्वभाव धर्म कब करना चाहिए? कुहासे १५. २५/१४२ १९६ १५/५३ प्रवचन ५ क्या धर्म आगे/बूंद-बूंद १ बूंद-बूंद १ प्रश्न समाधान घर समाधान समाधान प्रवचन ४ बूंद बूंद १ १२९ ६७ १०७ २०० Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ धर्म कल्याण का पथ धर्म का अनुशासन धर्म का अर्थ है विभाजन का अंत धर्म का क्षेत्र धर्म का तूफान धर्म का तेजस्वी रूप धर्म का पहला सोपान धर्म का मूलमंत्र धर्म का मूल : संयम धर्म की रूप धर्म का व्यावहारिक रूप धर्म का शुद्ध स्वरूप धर्म का सत्य स्वरूप धर्म का सही स्वरूप धर्म का सामाजिक मूल्य धर्म का स्थान धर्म का स्वरूप धर्म का स्वरूप : एक मीमांसा धर्म की अवधारणा और आचार्य भिक्षु धर्म की आत्मा -अहिंसा धर्म की आधारशिला धर्म की एक कसौटी धर्म की कसौटियां धर्म की नई दिशाएं धर्म की परिभाषा धर्म की पहचान धर्म की प्रयोगशाला धर्म की यात्रा : जैन धर्म का स्वरूप धर्म की व्याख्या सोचो ! ३ गृहस्थ / मुक्तिपथ क्या धर्मं घर आगे मेरा धर्म नैतिक नैतिक / राजधानी मंजिल २ नवनिर्माण बूंद बूंद १ मंजिल २ सूरज सूरज प्रवचन १० भगवान् मंजिल १ आगे / प्रवचन ४ प्रवचन ९ प्रवचन ११ जब जागे गृहस्थ / प्रवचन ९ मुक्तिपथ / सूरज दीया लघुता कुहासे ज्योति से सूरज मेरा धर्म सूरज २३५ २४३ १२७/१२२ १२ १५४ २२१ १ ५६/२२ १५२ १५५ ६५ १२७ ३८ १५४ १४३ ८९ ६८ ४६/२२ १५०,१६४ ४१ २०२ २६/८८ २४/१७५ प्रवचन ११ / घर बूंद-बूंद १ ३४ जागो / मंजिल १ १६४/१०९. ८१. २२७. १८६. १३३. १९९/२७१ ७३. ७० १५६ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रवचन ९ प्रवचन ९ खोए धर्म की व्यापकता धर्म की शरण धर्म की शरण : अपनी शरण धर्म की सामान्य भूमिका धर्म के आभूषण धर्म के चार द्वार धर्म के दो प्रकार धर्म के दो बीज; दया और दान धर्म के लक्षण धर्म क्या सिखाता है ? धर्म क्या है ? धर्म क्रान्ति की अपेक्षा क्यों ? धर्म क्रान्ति की पृष्ठभूमि धर्म क्रान्ति के सूत्र १७३ १० ५ आ. तु. संभल समता प्रवचन ४ संदेश प्रवचन ११ संभल प्रवचन १०/११ ६७/१८१ अणु गति सफर उद्बो कुहासे १९६/१४५ समता मंजिल २ जन-जन मुखड़ा सूरज १२० भोर ८७ सोचो!३ अतीत का १७१ अमृत/सफर मनहंसा प्रवचन ९ गृहस्थ/मुक्तिपथ १७७/१६० दीया प्रवचन १० मंजिल २ २५४ गृहस्थ मुक्तिपथ प्रवचन ९ १८० आ. तु./तीन ५७/३१ बूंद बूंद १ धर्म क्रान्ति मांगता है धर्मगुरुओं से धर्मचक्र का प्रवर्तन धर्म : जीवन-शुद्धि का पथ धर्म जीवन-शुद्धि का साधन है धर्म-ध्यान : एक अनुचिंतन धर्म न अमीरी में है, न गरीबी में धर्म निरपेक्षता : एक भ्रान्ति धर्म-निरपेक्षता और अणुव्रत धर्म निरपेक्षता बनाम सम्प्रदाय निरपेक्षता धर्मनिष्ठा धर्मनीति और राजनीति धर्म परम तत्त्व है धर्म पर राजनीति हावी न हो धर्म प्रवर्तन धर्म बातों में नहीं, आचरण में धर्म रहस्य धर्म : रूप और स्वरूप ६४ २७१ २२० Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ ७७ १२९ ३१ १८३ धर्म व नीति नवनिर्माण धर्म : व्यक्ति और समाज घर धर्म व्यवच्छेदक रेखाओं से मुक्त हो अणु संदर्भ धर्म व्यवहार में उतरे प्रवचन ९ धर्म शासन के दो आधार : अनुशासन और एकता वि वीथी धर्मशासन है एक कल्पतरु मनहंसा १७० धर्मसंघ के नाम खुला आह्वान जीवन धर्मसंघ में विग्रह के कारण बूंद बूंद २ १२८ धर्म संदेश आ. तु./तीन ४३/१५ धर्म सब कुछ है, कुछ भी नहीं आ. तु./धर्म सब १००/१ धर्म सम्प्रदाय और अणुव्रत अणु गति धर्म सम्प्रदाय की चौखट में नहीं समाता प्रवचन ८ धर्म सम्प्रदाय से ऊपर है प्रवचन ११ धर्म सम्प्रदायों में अनुशासन बीती ताहि धर्म : सर्वोच्च तत्त्व आगे धर्म : सार्वजनिक तत्त्व है प्रवचन ११ धर्म सिखाता है जीने की कला बैसाखियां १५५ धर्म सिद्धांतों की प्रामाणिकता : विज्ञान की कसौटी पर प्रवचन ५ ११६ धर्म से जीवन शुद्धि सूरज धर्म से मिलती है शान्ति प्रवचन ९ धर्माचरण कब करना चाहिए ? मंजिल १ धर्माराधना का प्रथम सोपान सूरज २३२ धर्माराधना का सच्चा सार सूरज धर्माराधना क्यों? प्रवचन ५ धर्मास्तिकाय : एक विवेचन प्रवचन ८ धर्मों का समन्वय सूरज २३७ धर्मोपदेश की सीमाएं १७३ धवल समारोह धवल धार्मिक और ईमानदार बैसाखियां १५९ धार्मिक कौन ? समता/उद्बो २३/२३ धार्मिक जीवन के दो चित्र गृहस्थ/मुक्तिपथ १७९/१६२ धार्मिकता की कसौटियां बैसाखियां १७३ ६१ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २०३ ११५ धार्मिकता को सार्थकता मिले धार्मिक परम्पराएं : उपयोगितावादी आशय धार्मिक संस्कार धार्मिक सद्भाव अपनाएं धार्मिक समस्याएं : एक अनुचिंतन धीमे बोलने का अभ्यास करें धैर्य और पुरुषार्थ का योग ध्यान और भोजन ध्यान और स्वाध्याय का सेतु ध्यान का गुरुकुल ध्यान का प्रथम सोपान-धर्म्यध्यान ध्यान की पूर्ण तैयारी ध्यान की भूमिका ध्यान की मुद्रा ध्यान क्या है ? ध्यान परम्परा का विच्छेद क्यों ? ध्यान प्रशिक्षण की व्यवस्था ध्यान-साधना और गुरु ध्यान से अहं चेतना टूटती है या पुष्ट होती है ? संभल क्या धर्म मुक्तिपथ भोर मेरा धर्म प्रज्ञापर्व प्रवचन ४ उद्बो/समता प्रेक्षा प्रेक्षा अतीत प्रेक्षा १८ ६९ प्रेक्षा ५८ ८८ प्रेक्षा प्रवचन १० प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा ६२ १०० २६३ नई पीढ़ी और धार्मिक संस्कार नई संस्कृति का सूर्योदय नए और प्राचीन का व्यामोह नए द्वार का उद्घाटन नए निर्माण के आधार बिंदु नए वर्ष के बोधपाठ नए सृजन की दिशा में नकारात्मक चिंतन नया आयाम नया युग : नया जीवन दर्शन नया वर्ष : नया संकल्प नयी दृष्टि का निर्माण सोचो ! ३ दोनों बूंद बूंद १ सोचो! ३ बैसाखियां बैसाखियां वि दीर्घा कुहासे प्रवचन ५ कुहासे बैसाखियां मुखड़ा १४५ Umm २१९ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ १५२ नयी संभावना के द्वार पर दस्तक नये अभिक्रम की दिशा में नर से नारायण नव तत्त्व का स्वरूप नव समाज के निर्माताओं से नशा : एक भयंकर समस्या नशाबंदी, राजस्व और नैतिकता नशे की संस्कृति न स्वयं व्यथित बनो, न दूसरों को व्यथित करो। नागरिक जीवन और चरित्र विकास नागरिकता का बोध नागरिकता की कसौटी नागरिकता के जीवन सूत्र नागरिकों का कर्तव्य नामकरण की प्रक्रिया से गुजरता हुआ अणुव्रत नारी के तीन गुण नारी के तीन रूप नारी के सहज गुण नारी को लक्ष्मी, सरस्वती ही नहीं, दुर्गा भी बनना होगा नारी जागरण मुखड़ा १०८ जीवन १५३ प्रवचन ११ १७४ मंजिल १ जन जन प्रज्ञापर्व अणु संदर्भ/अणु गति ८६/१६९ बैसाखियां मंजिल २/मुक्ति इसी ४३/६५ सूरज १७७ आलोक में सूरज प्रवचन ११ प्रवचन ११ १३३ अणु गति २०७ १४४ ८० ११० ३८ सूरज २१९ दोनों सूरज अतीत का २०२ १३२ प्रवचन ११ शान्ति के सूरज १३५ ११५/२२० कुहासे २३४ ११०/१०५ २१५ नारी शोषण का नया रूप निज पर शासन : फिर अनुशासन नित्य और अनित्य निन्दक नियरे राखिये निमित्तों पर विजय नियति और पुरुषार्थ नियतिवाद : एक दृष्टि नियम का अतिक्रम क्यों? नियम को समझे नियोजित कर्म की आवश्यकता समता गृहस्थ मुक्तिपथ कुहासे बैसाखियां आगे/प्रवचन ४ प्रवचन ११ शान्ति के खोए प्रज्ञापर्व ३५/१६२ १५५ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ ६९ २४० आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण निराशा के अंधेरे में आशा का चिराग क्या धर्म १२४ निरीक्षण और प्रस्तुतीकरण का दिन आलोक में १०४ निर्ग्रन्थ प्रवचन गृहस्थ/मुक्तिपथ १२९/१२४ निथ प्रवचन : दुःख विमोचक गृहस्थ/मुक्तिपथ १३५/१३० निर्ग्रन्थ प्रवचन ही प्रतिपूर्ण है गृहस्थ/मुक्तिपथ १३३/१२८ निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है गृहस्थ मुक्तिपथ १३१/१२६ निर्देश के प्रति सजग उद्बो/समता १७९/१७७ निर्माण का शीर्ष बिंदु घर ४४ निर्माण का समय प्रवचन ११ १२१ निर्माण की आवश्यकता भोर निर्माण बच्चों का प्रवचन ९ १३४ निर्माण यात्रा की पृष्ठभूमि कुहासे २३१ निर्माण सम्यक् दृष्टिकोण का बैसाखियां निर्माता कौन ? मंजिल १ निर्वाचन-आचार-संहिता और मतदान आलोक में निर्वाण-महोत्सव और हमारा दायित्व राज/वि वीथी ४२/३० निर्वाणवादी भगवान् महावीर दीया १४० निर्वाण शताब्दी के संदर्भ में राज/वि दीर्घा ५०/२०८ निर्विचारता : ध्यान की उत्कृष्टता मनहंसा १२९ निश्चय और व्यवहार मुक्तिपथ/ गृहस्थ १२०/१२५ निश्चय व्यवहार की समन्विति जागो! २२६ निष्काम कर्म और अध्यात्मवाद वि दीर्घा/राज १०८/१४३ निष्काम कर्मयोगी सोहनलालजी दूगड़ वि वीथी २३३ निष्काम साधना प्रवचन ४ १४ निष्ठा का दीवट : आचरण का दीप बैसाखियां निःस्वार्थ भक्ति मंजिल १ २०५ नीति और अणुव्रत प्रश्न नीति और अनीति प्रश्न नीति का प्रतिष्ठापन परम अपेक्षित संभल नीति का प्रहरी बैसाखियां नीतिहीनता के कारण कुहासे नेहरू शताब्दी वर्ष और भारतीय संस्कृति की गरिमा जीवन १३३ २०४ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ १५४ घर ११७ २०२ १७५ १७६ ११७/११६ ११ १०९/१०७ ११२/११३ १०० ११८/११९ ५८ नैतिक क्रान्ति का सूत्रपात प्रवचन ११ नैतिक क्रान्ति के क्षेत्र नैतिक चेतना को जागृत करने का प्रयोग अणु गति नैतिक जागरण का कार्यक्रम संभल नैतिकता : अध्यात्म का व्यावहारिक परिपाक आलोक में नैतिकता : इतिहास के आईने में अनैतिकता नैतिकता और जीवन का व्यवहार नवनिर्माण नैतिकता : कल्पना या यथार्थ ? अणु गति नैतिकता का अनुबंध अनैतिकता उद्बो/समता नैतिकता का पुनर्निर्माण या पुनःशस्त्रीकरण शान्ति के नैतिकता का प्रकाश उद्बो/समता नैतिकता का प्रयोग समता/उद्बो नैतिकता का रथ क्यों नहीं आगे सरकता ? प्रज्ञापर्व नैतिकता का विस्तार समता/उद्बो नैतिकता : कितनी आदर्श, कितनी यथार्थ ? अनैतिकता नैतिकता क्या है ? अणु गति नैतिकता क्यों ? अणु गति नैतिकता : विभिन्न परिवेशों में आलोक में नैतिकता : स्वभाव या विभाव अनैतिकता नैतिक निर्माण नैतिकता के नैतिक निर्माण और जीवन शुद्धि नवनिर्माण नैतिक निर्माण का आंदोलन नैतिक नैतिक निर्माण की योजना प्रवचन ११ नैतिक प्रयत्न को प्राथमिकता दें ज्योति के नैतिक मन का जागरण समता/उद्बो नैतिक मूल्य : एक सापेक्ष दृष्टि अनैतिकता नैतिक मूल्य : कितने शाश्वत, कितने सामयिक ? ___ अनैतिकता नैतिक मूल्यों का आधार आलोक में नैतिक मूल्यों का मानदंड अनैतिकता नैतिक मूल्यों का स्थिरीकरण : एक उपलब्धि अणु गति नैतिक मूल्यों की यात्रा समता/उद्बो नैतिक मूल्यों के लिए आंदोलनों का औचित्य अनैतिकता १७२ १८१ ८६ २२९ ३५ ११० ११४/११५ १०० Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ नैतिक व्यक्ति की न्यूनतम योग्यता नैतिक शुद्धिमूलक भावना नैतिक संघर्ष में विजय कैसे ? नौका वही, जो पार पहुंचा दे न्याय और नैतिकता पंचसूत्री कार्यक्रम पंडित होकर भी अपंडित पकड़ किसकी ? पगडंडियां हिंसा की पचीस सौवां निर्वाण महोत्सव कैसे मनाएं ? पढमं नाणं, तओ दया पतन के मार्ग : प्रलोभन और प्रमाद पथ, पाथेय और मंजिल पन्नालाल सरावगी परम कर्त्तव्य परम पुरुषार्थ परम पुरुषार्थ की शरण परमाणु : एक अनुचितन परमाणु का स्वरूप परमाणु संश्लेष की प्रक्रिया परमात्मा कौन बनता है ? परमार्थ की चेतना परम्परा: आस्था और उपयोगिता पराक्रम की पराकाष्ठा पराधीन सपनहुं सुख नांही परिग्रह का परित्याग परिग्रह का मूल परिग्रह की परिभाषा परिग्रह के रूप परिग्रह क्या है ? परिग्रह पर अपरिग्रह की विजय प आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अनैतिकता संभल अनैतिकता समता प्रवचन ५ सूरज मुखड़ा समता बैसाखियाँ वि वीथी / राज मनहंसा / प्रवचन ११ आलोक में मुखड़ा धर्म एक प्रवचन ४ खो दीया प्रवचन ८ प्रवचन ८ प्रवचन ८ मंजिल २ कुहासे आलोक में दीया प्रवचन ४ सूरज मुक्तिपथ / गृहस्थ प्रवचन ५ गृहस्थ / मुक्तिपथ मंजिल २ मंजिल १ १३४ १२६ १३८ २२९ २३ ४९ २०६ १९१ ६७ २४/४५ १५४ / २१५ १३२ ८५ १९९ २१५ २५ १ ७५ ७१ ८३ २५१ ७४ ७३ ६ ११४ ५६/५८ ६४ ६४/६२ १४६ १४० Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २४३ २९ मंजिल १ घर घर २२५ ३६ भोर १९७ १६० ७६ बंद बूंद १ प्रज्ञापर्व कुहासे प्रवचन ८ प्रेक्षा प्रवचन ११ मनहंसा मंजिल २ जागो ! प्रवचन ९ अणु गति २११ - २१४ घर २२९ परिग्रह साधन है : साध्य नहीं परिग्रह है पाप का मूल परिमार्जित जीवन-चर्या परिवर्तन परिवर्तन : एक अनिवार्य अपेक्षा परिवर्तन : एक शाश्वत सत्य परिवर्तन और विवेक परिवर्तन का प्रारम्भ कहां से ? परिवर्तन की प्रक्रिया परिवर्तन की मूल भित्ति परिवर्तन भी एक सचाई है परिवर्तन वस्तु का धर्म है परिवर्तन : सामयिक अपेक्षा परिवार की धुरी : महिला परिवार नियोजन का स्वस्थ आधार : संयम परिष्कार का प्रथम मार्ग परिस्थितिवाद : एक बहाना परीक्षण योग्यता का परीक्षा की नयी शैली परीक्षा रत्नत्रयी की पर्दाप्रथा पर्यटकों का आकर्षण : अध्यात्म पर्यटकों को भारतीय संस्कृति से परिचित किया जाये पर्याप्ति : एक विवेचन पर्याय : एक शाश्वत सत्य पर्याय के लक्षण और प्रकार पर्यावरण व संयम पर्यावरण-विज्ञान पर्युषण क्षमा और मैत्री का प्रतीक है पर्युषण पर्व पर्युषण पर्व : एक प्रेरणा पर्युषण पर्व : प्रयोग का पर्व उद्बो समता समता मुखड़ा प्रवचन ९ २५९ २१७ घर ८४ अणु गति १९७ अणु संदर्भ १४४ मंजिल २ २३८ प्रवचन १० १६२ प्रवचन ८ बैसाखियां दीया १११ भोर प्रवचन ९/मंजिल १ २३९/१६ वि दीर्घा कुहासे २१८ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ पर्युषणा पर्व का महत्त्व पवित्रता की प्रक्रिया पशुता बनाम मानवता पशु शोषण का नया तरीका पहचान : अन्तरात्मा और बहिरात्मा की पहल कौन करे ? पहला अनुभव पहली सोपान पहले कौन : बीज या वृक्ष ? पांच साधनों की साधना पाथेय पाप के प्रकार पाप श्रमण कौन ? पाप श्रमणों को पैदा करने की संस्कृति पाप से बचने का उपाय पारिणामिक भाव पारिणामिक भाव : एक ध्रुव सत्य पारिवारिक सौहार्द के अमोघ सूत्र पार्श्वस्थ पालघाट, केरल पाश्चात्य दर्शन और मूल्य-निर्धारण पुण्य के नौ प्रकार पुण्य स्मृति पुत्र के साथ संवाद पुदगल : एक अनुचितन पुद्गल की विभिन्न परिणतियां पुद्गल के लक्षण पुद्गल, धर्म व अधर्म की स्थिति पुनीत कर्त्तव्य पुरुष के तीन प्रकार पुरुषार्थ की गाथा आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्म एक गृहस्थ / मुक्तिपथ बूंद बूंद १ प्रवचन ११ कुहासे लघुता घर खोए उद्बो / समता जब जागे नैतिक दोनों / मंजिल २ मंजिल १ मुखड़ा मुखड़ा जागो ! गृहस्थ / मुक्तिपथ प्रवचन 5 ताहि अतीत धर्म एक अनैतिकता मंजिल १ प्रवचन ११ मुखड़ा प्रवचन द प्रवचन प्रवचन ८ प्रवचन प सोचो ! ३ मंजिल २ मंजिल १ २३६ २०९/१९१ २११ १३२ ७९ १३६ १०५ ९० ८७/८६ १२१ Ε ७२/८० १८९ २९ ३१ ३१ २०५/१८७ २५९ ६५ १८१ १५५ ८० १८५ १४२ ४२ ४५ ५३ ४८ १०८ २५९ ११५ . ४४ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ पुरुषार्थ के भेद पुरुषार्थवाद पूंजी का निरा महत्त्व पूंजीवाद बनाम अपरिग्रह पूंजीवाद बनाम साम्यवाद पूजा किसकी हो ? पूजा पाठ कितना सार्थक ! कितना निरर्थक ! पूजा पुरुषार्थ की पूज्य कालगणी का पुण्य स्मरण पूज्य कालगणी की संघ को देन पूरी दुनिया पूरा जीवन पूर्व और पश्चिम की एकता पौरुष का प्रतीक प्रकृति और पुरुषार्थ प्रकृति बनाम विकृति प्रगति का प्रथम सूत्र प्रगति की ओर बढ़ते चरण प्रगति के दो रास्ते प्रगति के लिए कोरा ज्ञान पर्याप्त नहीं प्रगति के साथ खतरा भी प्रज्ञापर्व : एक अद्भुत यज्ञ प्रज्ञापर्व : एक अपूर्व अभियान प्रज्ञापर्व : एक सिंहावलोकन प्रज्ञापर्व की पृष्ठभूमि प्रतिक्रिया और प्रगति प्रतिक्रिया का घेरा प्रतिदिन आता है सूरज प्रतिमा पूजा : एक मीमांसा प्रतिरोधात्मक शक्ति जगाएं प्रतिष्ठा और दुर्बलताएं प्रतिसंलीनता प्रतिसेवना के प्रकार प्रतिस्रोत की ओर घर संभल सूरज समता सूरज मंजिल १ वि दीर्घा / राज समता संभल मंजिल १ बैसाखियां प्रगति की / आ. तु. मुखड़ा प्रवचन ५ भोर खोए मंजिल २ दोनों क्या धर्म बीती ताहि प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व अणु गति उद्बो / समता बैसाखियां मनहंसा सोचो ! ३ घर जागो ! मंजिल १ प्रवचन ११ २४५. ६३ १३८ १७९ १९८ ६६ १७ ८८ / २२८ २६३ ११० ८४ १८३ १२/१३२ १७५ २०२ १८२ ३५ २२४ १८० ३८ ११२ १७ ११४ १७४ १२१ ५५ १३/१३ ३ १९७ १६ १२५ १३३ २४० १०० Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० प्रज्ञापर्व २४६ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रतिस्रोतगामिता से होता है निर्माण बैसाखियां १७५ प्रतीक का आलंबन खोए १६३ प्रत्येकबुद्ध और बुद्धबोधित बूंद बूंद १ ११३ प्रथम सोपान खोए प्रदर्शन वि वीथी/राज १११/२०० प्रदर्शन बनाम दर्शन मंजिल १ प्रदेशवत्त्व और अगुरुलधुत्व प्रवचन ८ १२४ प्रभाव वातावरण का समता २५३ प्रभावशाली प्रयास प्रवचन ११ प्रभु का पंथ सूरज २४ प्रभु बनकर प्रभु की पूजा समता २२५ प्रमाद और उसकी विशुद्धि जागो ! प्रमाद से बचो खोए/वि दीर्घा १५९/१०५ प्रमाद ही भय प्रयोग और प्रशिक्षण अहिंसा का बैसाखियां प्रयोग : प्रयोग के लिए प्रयोग ही सर्वोत्कृष्ट प्रवचन है प्रवचन ५ प्रयोगों की मूल्यवत्ता मुखड़ा प्रवचन का अर्थ घर प्रवचन-प्रभावना प्रवचन ४ प्रवाह को बदलिये क्या धर्म प्रशिक्षण यात्रा प्रज्ञापर्व १३४ प्रश्न और समाधान वि वीथी/राज १५५/२०९ प्रश्न पूरकता का भनैतिकता प्रश्न मित्रता का नहीं, शक्ति और सामर्थ्य का है अणु संदर्भ प्रश्न : संसद सदस्य सेठ गोविन्ददासजी के, धर्म एक उत्तर : अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी के । प्रश्न है मूल्यांकन का दीया १८२ प्रश्नों का परिप्रेक्ष्य राज/वि दीर्घा २१४/२१३ प्रसाधन सामग्री में निरीह पशुओं की आहे कुहासे प्रस्थान के नये बिन्दु मुखड़ा प्राकृतिक आपदा और संयम कुहासे खोए १४९ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २४७ ११३ २१/२१ ३८/४० कुहासे अनैतिकता प्रवचन ५ खोए उद्बो/समता मुक्तिपथ/गृहस्थ आलोक में मंजिल १ मंजिल १ मंजिल १ मुखड़ा बूंद बूंद १ खोए मंजिल २ १२८ १२२ १२४ २६ प्राकृतिक समस्या और संयम प्राचीन और अर्वाचीन मूल्यों का संगम प्राथमिक कर्तव्य प्राप्तव्य क्या है ? प्रामाणिक जीवन का प्रभाव प्रामाणिकता का आचरण प्रामाणिकता का मानदंड प्रायश्चित्त का महत्त्व प्रायश्चित्त देने का अधिकारी प्रायश्चित्त : दोष विशुद्धि का उपाय प्रायोगिक आस्था का निर्माण प्रारम्भ सरस, अन्त विरस प्रियता में उलझे नहीं प्रेक्षा : आत्म दर्शन की प्रक्रिया प्रेक्षा का आधार प्रेक्षा का उद्भव और विकास प्रेक्षा का कार्यक्रम प्रेक्षा का दर्शन प्रेक्षाध्यान और अणुव्रत का संबंध प्रेक्षा ध्यान और विपश्यना प्रेक्षा ध्यान की उपसंपदा प्रेक्षा है एक चिकित्साविधि प्रेम की जीत प्रेय और श्रेय प्रेरणा के पावन क्षण प्रौढशिक्षा २२८ प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा " ~ १३३ मुखड़ा प्रेक्षा मनहंसा प्रेक्षा खोए मुक्तिपथ खोए सोचो ! ३ मंजिल २ १९७ ४८ २१६ २०० फिल्म व्यवसाय फूट आईने की या आपस की अणु गति बैसाखियां १७१ १७८ बंधन और मुक्ति बंधन का हेतु : राग-द्वेष घर/प्रवचन ५ सोचो ! ३ २७५/१८१ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ बड़ा और छोटा बड़ा कौन ? बड़े लोग पहल करें बच्चों का निर्माण : बुनियादी काम बच्चों के संस्कार और महिला वर्ग बदलने की प्रक्रिया बदलाव का उपक्रम : भावना बदलाव जीवनशैली का बदलाव भी : ठहराव भी बदलाव संभव है जीवन धारा में बन्द खिड़कियां खुले बन्धन और मुक्ति का परिवेश बम्बई बलिदान की लंबी कहानी : आचार्य भिक्षु बहिनें अपनी शक्ति को पहचानें बहिनों का कर्त्तव्य बहिनों का जीवन बहिनों से बहिरंग योग की सार्थकता बहिर्मुखी चेतना : अशांति ; अन्तर्मुखी चेतना : शांति बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बहुश्रुत कौन ? बालक कुछ लेकर भी आता है बालक के निर्माण की प्रक्रिया. बालमरण से बचें बाहरी दौड़ शांति प्रदान नहीं कर सकती बाह्य भेदों में मत उलझिये बिन्दु - बिन्दु विचार बिम्ब और प्रतिबिंब बीत ताहि विसारि दे बीमारी आस्थाहीनता की बुराइयों की जड़ : मद्यपान आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण क्या धर्म उद्बो / समता क्या धर्म बूंद बूंद १ आलोक में खोए प्रवचन १० कुहासे दोनों जब जागे दोनों आलोक में धर्म एक प्रवचन ५ मंजिल २ संभल सूरज जन जन जब जागे प्रेक्षा बीती ताहि मुखड़ा कुहासे अतीत का सोचो ! ३ प्रज्ञापर्व प्रगति की अतीत का समता ताहि क्या धर्म अमृत ६४ १८५ / १८३ ७२ २१५ १४८ ७८ १५२ २६१ ४२ ८० १४ ७ १४२ १३१ २१९ ५१ २३६ १२ ३१ २४ 3288 28 ५४ १५ १०३ ९० १६९ ७३ २२ १५४ २१० २ ११२ ७४ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ बुराइयों की भेंट बुराइयों के साथ युद्ध हो बुराई का अन्त संयम से होगा बुराई की जड़ : तामसिक वृत्तियां बूंद बूंद से घट भरे बैंगलोर बौद्धिक विपर्यय ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य और अणुव्रत ब्रह्मचर्य और उन्माद ब्रह्मचर्य का महत्त्व ब्रह्मचर्य की ओर ब्रह्मचर्य की महत्ता ब्रह्मचर्य की सुरक्षा ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के प्रयोग ब्रह्म में रमण करो प्रवचन ११ भोर ज्योति के आलोक में सोचो ! ३ धर्म एक सूरज गृहस्थ/मुक्तिपथ प्रश्न मुक्तिपथ/गृहस्थ मुक्तिपथ/गृहस्थ गृहस्थ/मुक्तिपथ जागो ! गृहस्थ/मुक्तिपथ लघुता प्रवचन ९ १३१,२१६ ४४/४२ १७ ४६/४८ ५४/५६ ५२/५० २१७ ५४/५२ १६० . १०० . भ १८७ २८९ १३२ ७/१०३ १३९ भंवरलाल दूगड़ भक्त से भगवान कैसे बनें ? भगवान् महावीर भगवान महावीर और आध्यात्मिक मानदण्ड भगवान् महावीर और नागवंश भगवान महावीर और निःशस्त्रीकरण भगवान् महावीर और सदाचार भगवान् महावीर का आदर्श जीवन भगवान् महावीर का जीवन संदेश भगवान् महावीर का प्रेरणा स्रोत भगवान् महावीर की देन भगवान् महावीर के बाद ध्यान की परंपरा भगवान् महावीर के सपनों का समाज भगवान् महावीर ज्ञातपुत्र थे या नागपुत्र ? भटकाने वाला कौन : चौराहा या मन ? । धर्म एक सोचो ! ३ घर अतीत का/धर्म एक अतीत मेरा धर्म राज/ वि वीथी प्रवचन ११ संभल शांति के धर्म एक प्रेक्षा बीती ताहि अतीत मुखड़ा ९२ १०९ ४३ १३१ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ عر لل मंजिल १ ० २५ २५० आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण भय और प्रलोभन से ऊपर समता/उद्बो ४१/४१ भय का हेतु : दुःख मंजिल २ भयमुक्ति नैतिकता के भयमुक्ति का राजमार्ग प्रवचन ११ भविष्य का दर्पण : योजनाओं का प्रतिबिंब जब जागे भविष्यद्रष्टा व्यक्तित्व (जयाचार्य) वि दीर्घा भाग्य और पुरुषार्थ भारत कहां है ? बैसाखियां भारत का भावी नेतृत्व अणु संदर्भ भारत के आकाश में नया सूर्योदय जीवन भारतीय आचार विज्ञान के मूल आधार अनैतिकता भारतीय आचार-शास्त्र की मौलिक मान्यताएं। अनैतिकता भारतीय आचार-शास्त्र को महावीर की देन अनैतिकता भारतीय और प्राच्य विद्या का केन्द्र : जैन विश्व भारती प्रवचन ५ भारतीय कहां रहते हैं ? कुहासे १७९ भारतीय जीवन का आदर्श तत्त्व : अहिंसा भोर भारतीय जीवन की मौलिक विशेषताएं जीवन १५७ भारतीय दर्शन : अन्तर्दर्शन संभल भारतीय दर्शन की धारा शांति के २२६ भारतीय दर्शनों का सार संभल भारतीय दर्शनों में मोक्ष संबंधी धारणाएं अनैतिकता ७० भारतीय नारी का आदर्श दोनों/अतीत का ५८/१४४ भारतीय नारी के आदर्श सूरज १०२ भारतीय परंपरा विश्व के लिए महान आदर्श मा. तु. भारतीय पूंजी ज्योति के भारतीय विद्या का आदर्श संभल १५२ भारतीय समाज को भगवान महावीर की देन राज/वि वीथी २७/१० भारतीय संस्कृति सूरज १४६ भारतीय संस्कृति और दीक्षा प्रवचन ११ ३८ भारतीय संस्कृति का आदर्श प्रचचन ११ १४९ भारतीय संस्कृति का प्रतीक संभल १९१ भारतीय संस्कृति का प्राण तत्त्व बैसाखियां 323:33.5:: : *3534 .28 2352; ई १४० १६ १७५ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २५१ १९९ १७० २२३ संभल आ. तु. समता भोर/संभल अतीत खोए मुक्तिपथ गृहस्थ प्रवचन ८ सोचो! ३ प्रेक्षा जब जागे जब जागे १२२ ११७ १७८-१७९ १९५-१९६ २४२ प्रेक्षा भारतीय संस्कृति की एक पावन धारा भारतीय संस्कृति की एक विशाल धारा भारतीय संस्कृति की पहचान भारतीय संस्कृति के जीवन तत्त्व भारतीय संस्कृति में बुद्ध और महावीर भारहीनता का अनुभव भाव और आत्मा (१-२) भाव और आत्मा (१-२) भाव और उसके प्रकार भावक्रिया करें भावधारा और आभावलय की पहचान भावधारा की विशुद्धि से मिलने वाला सुख भावधारा से बनता है व्यक्तित्व भाव परिवर्तन का अभियान भावविशुद्धि में निमित्तों की भूमिका भावात्मक एकता भावात्मक एकता और स्वभाव-निर्माण भावी पीढ़ी का निर्माण भाषा नहीं, भावना भाषा है व्यक्तित्व का आईना भिक्षाचरी : एक विवेक भिक्षु कौन ? भीड़ में भी अकेला भीतरी वैभव भूख और नींद के विजेता : भगवान् महावीर भूल और प्रायश्चित्त भूले बिसरे जीवन-मूल्यों की तलाश भेद को समझे, भेद में उलझे नहीं भेद में अभेद की खोज भोग दुःख, योग सुख भोग से अध्यात्म की ओर भोग से त्याग की ओर भोगातीत चेतना का विकास प्रेक्षा अनैतिकता/अमृत क्या धर्म बैसाखियां समता/उद्बो मनहंसा जागो ! घर खोए १७१ १८५/६२ ५७ १३७ १५५/१५७ १५७ १२ १४० खोए ५८ ६० मुखड़ा मंजिल १ अनैतिकता मुखड़ा मुखड़ा प्रवचम ११ मंजिल २/मुक्ति इसी प्रवचन ५ लघुता २३९ १५५ ६४ १४३ १५८ २३/३९ १०० Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १५७ भोजन और स्वादवृत्ति भ्रष्टाचार की आधारशिलाएं घर क्या धर्म संभल १०६ संभल ३५ मंगल बूंद बूंद २ जब जागे जब जागे १९८ १५८ कुहासे २५८ १६९ १३० १७० १९६ २०६ मंगल और शरण मंगल क्या है ? मंगल सन्देश मंजिल और पथ मंजिल के भेद से मार्ग का भेद मंजिल तक पहुंचाने वाला पथ है तेरापन्थ मंजिल तक ले जाने वाला आस्था सूत्र मंडनात्मक नीति के प्रवक्ता भगवान महावीर मंत्री मुनि मगनलालजी मंद कषाय बनें मत बोलो, बोलो मतिज्ञान के प्रकार मदनचन्दजी गोठी मद्यपान : एक घातक प्रवृत्ति मद्यपान : औचित्य की कसौटी पर मद्यपान : राष्ट्र की ज्वलंत समस्या मध्यस्थ रहें मन मन : एक मीमांसा मन और आत्मा की सफाई करें मन का अन्धेरा, व्रत का दीप मनुष्य का कर्तव्य मनुष्य का भोजन मन की कार्यशीलता मन की ग्रन्थियों का मोचन मन के जीते जीत मन को साधने की प्रक्रिया मन चंगा तो कठौती में गंगा मन से भी होती है हिंसा मनःपर्याय ज्ञान के प्रकार मुखड़ा धर्म एक प्रवचन १० खोए प्रवचन ८ धर्म एक आगे सोचो ! ३ प्रवचन ४ प्रवचन ४ प्रवचन ९ प्रवचन ८ संभल समता/उद्बो प्रवचन ९ बैसाखियां/खोए प्रवचन ४ १३४ २५ २२० ८५ ६३/६३ १७५ २०५/९६ ११२ १४९ १५५ ११० कुहासे मुखड़ा मंजिल २ जब जागे कुहासे प्रवचन ८ ३४ १९१ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ मनुष्य और बन्दर मनुष्य की दृष्टि में होते हैं गुण और दोष मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति मनुष्य जन्म और उसका उपयोग मनुष्य जीवन का महत्त्व मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता का मानक मनुष्य जीवन की सार्थकता मनुष्य धार्मिक क्यों बने ? मनुष्य महान् कब तक ? मनुष्य मूढ़ हो रहा है मनुष्य लड़ना जानता है मनोबल कैसे बढ़ाएं ? मरना भी एक कला है मर्यादा : एक सुरक्षा कवच मर्यादा का महत्त्व मर्यादा की उपयोगिता मर्यादा की मर्यादा मर्यादा की सुरक्षा, अपनी सुरक्षा मर्यादा के दर्पण में मर्यादा निर्माण का आधार मर्यादा बन्धन नहीं मर्यादा महोत्सव मर्यादा महोत्सव मर्यादा महोत्सव : एक रसायन मर्यादा : संघ का आधार मर्यादा से बढ़ती है सृजन और समाधान की क्षमता मशीन का स्क्रू ढीला मशीनी मानव के खतरे महत्त्वपूर्ण वय कौन सी ? महनीय व्यक्तित्व के धनी : पूज्य कालगणी महान वैज्ञानिक भगवान् महावीर बैसाखियां दीया मुखड़ा बूंद-बूंद १ प्रवचन ११ मनहंसा भोर बैसाखियां सोचो ! ३ ज्योति के प्रवचन ९ खोए जागो ! वि दीर्घा वि वीथी १२७ २०५ २२० १३३ १२१ मंजिल २ / मुक्ति इसी ६७/९४ वि वीथी २०७ २४८ मंजिल १ सूरज / संभल / घर २०/४२/१४ प्रवचन ९ वि दीर्घा सोचो ! ३ जीवन मंजिल १ मेरा धर्म वि० दीर्घा समता बैसाखियां प्रवचन ९ मंजिल १ बीती ताहि २५३ १९५ ૪૪ २५ २१८ १५७ ३९ १ १६३ २३३ १९ ८७ १३१ ६६ १ ११५ २६८ ९४ २४६ १९ २१० ८६ ४० Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २६७ १२१ मुखड़ा समता मंजिल २ मुक्ति इसी अणु गति मुखड़ा ३३ २१ ७३ खोए ६७ ४६ १४९ महाभारत और उत्तराध्ययन महामारी चरित्रहीनता की महावीर कर्म से या जन्म से? महावीर का दर्शन महावीरकालीन गृहस्थधर्म की आचार-संहिता । महावीर कितने सोये ? महावीर की ध्यान मुद्रा महावीर के चरणचिह्न महावीर के पदचिह्न महावीर के शासन सूत्र महावीर को कैसे मनाएं ? महावीर को शब्द में नहीं, चेतना में खोजें महावीर : जीवन और दर्शन महावीर-दर्शन महावीर बनना कौन चाहता है ? महावीर-वाणी महावीर सम्प्रदायातीत थे महावीर स्वयं आकर देखें महाव्रत और अणुव्रत महाव्रत-मीमांसा महावत से पूर्व अणुव्रत महिलाएं अपने गुणों का विकास करें महिलाएं आंतरिक सौन्दर्य को निखारें महिलाएं जीवन को सही दिशा में मोड़ें महिलाएं युग को सही दिशा दें महिलाएं संकल्पों की मशाल थामें महिलाएं स्वयं जागृत हों महिलाएं स्वयं जागे महिलाएं हीनभावना का विसर्जन करें महिलाओं का आत्मबल महिलाओं का दायित्व महिलाओं के कर्त्तव्य महिलाओं के लिए त्रिसूत्री कार्यक्रम ३६ प्रवचन ९ वि दीर्घा/राज १७/१६ मेरा धर्म प्रवचन १० २०२ प्रज्ञापर्व भोर मंजिल २ १९,१३० मंजिल २ मंजिल १ मंजिल २ १३५ बीती ताहि प्रवचन ५ बूंद बूंद २ आगे सूरज संभल १०५ संभल बीति ताहि/दोनों १०६/५० अमृत/सफर ___ १३३/१६७ वि वीथी बीती ताहि ११५ संभल ११८ सूरज वि वीथी/दोनों १६८/६५ सूरज ५५ अतीत का १३६ om Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २५५ २०५ १२८ १०२ १७५ दोनों WKW २२२ २८ १८५ ८२ ४७/४७ २१७ १५७ महिलाओं को स्वयं जागना होगा प्रवचन ४ महिलाओं में धर्म रुचि प्रवचन ९ महिलाओं का निर्माण : पूरे परिवार का निर्माण बीती ताहि महिला-जागृति प्रवचन ४ महिला-निर्माण : परिवार-निर्माण दोनों महिला वर्ष की उपलब्धि महिला-विकास समाज-विकास दोनों महिलाशक्ति जागृत हो मंजिल २ माँ का स्वरूप मंजिल १ मांसाहार वर्जन सूरज माता का कर्तव्य सूरज मादक पदार्थ : निषेध का आधार आलोक में मानदण्डों का बदलाव उद्बो/समता मानव एकता : भावी दिशा और प्रक्रिया अणु गति मानव-कल्याण और शिक्षक समाज शांति के मानव के अस्तित्व को खतरा बैसाखियां मानव जीवन की मूल्यवत्ता प्रवचन ९ मानव जीवन की सफलता भोर मानव जीवन की सार्थकता सोचो ! ३ मानवता प्रवचन ९ मानवता एवं धर्म प्रवचन ९ मानवता का आंदोलन सूरज मानवता का आधार समता/उद्बो मानवता का मानदण्ड समता/उद्बो मानवता का मापदंड संभल मानवता का योगक्षेम : सबका योगक्षेम बैसाखियां मानवता की परिभाषा सूरज मानव धर्म बूंद बूंद १/भोर गृहस्थ/धर्म एक प्रवचन ११ नव निर्माण मानव धर्म अपनाएं भोर १८५ २७५ ८२ ११५ १९ १२६/१२७ ७८/७८ १८ १७१ १६४/१२८ १४९/४७ २३७ १४३ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मानव धर्म का आचरण मानव-निर्माण का पथ : अणुव्रत मानव-मानव का धर्म : अणुव्रत भोर १६७ प्रज्ञापर्व अनैतिकता/ २२१ अतीत का/मंजिल १ १२/६४ ५५ भोर १७९ सूरज ११३ मुक्ति इसी/मंजिल २ ७७/५३ कुहासे आलोक में प्रवचन १० प्रज्ञापर्व १४५ मानव संस्कृति का आधार-अहिंसा मानव समाज की मूल पूंजी मानव सुधार का आंदोलन मानव स्वभाव की विविधता मानविकी पर्यावरण में असन्तुलन मानवीय एकता : सिद्धांत और क्रियान्वयन मानवीय मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा हो मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का समय मानवीय मूल्यों की बुनियाद मानसिक तनाव और उसका समाधान मानसिक शांति का आधार मानसिक शांति का प्रश्न मानसिक शांति के प्रयोग मानसिक स्वतंत्रता मानसिंह मार्ग और मार्गदर्शक मान्यता परिवर्तन मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया मिलन की सार्थकता : एक प्रश्नचिह्न मिलावट भी पाप है मीमांसा : सनाथ और अनाथ की मुक्ति : इसी क्षण में मुक्ति का आकर्षण मुक्ति का मार्ग २९/९१ २७ १९८ १८५ बैसाखियां प्रेक्षा प्रेक्षा प्रेक्षा नयी/क्या धर्म ज्योति के धर्म एक मुखड़ा नैतिकता के मंजिल २ मुखड़ा समता/उद्बो मुखड़ा मंजिल २/मुक्ति इसी गृहस्थ/मुक्तिपथ आगे प्रवचन ५ समता प्रवचन ४ बूंद-बूंद २ प्रवचन ५ प्रवचन ९ २०७ १७८ ५१/५१ १/११ ९८/९३ ८६/५९ २५५ मुक्ति का मार्ग : ज्ञान व क्रिया मुक्ति का साधन : वैयावृत्त्य मुक्ति का सोपान : आत्म-निंदा मुक्ति क्या ? Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २५७ ७६/७२ १७२ १०४ १८६ ९५ मुक्ति चर्या : एक दृष्टि मुक्तिपथ मुक्ति मार्ग मुनि चौथमल मुनित्व के मानक मुस्कान की मिठास मूर्छा का हेतु-राग-द्वेष मूल पूंजी की सुरक्षा का उपाय मूल बिना फूल नहीं मूल वृत्तियां और नैतिक मूल्य मूल्य निर्धारण : एक समस्या मूल्य परिवर्तन : धर्म का सामाजिक रूप मूल्यहीनता का संकट मूल्यहीनता की समस्या मूल्यांकन का आईना मूल्यांकन का आधार मूल्यांकन का दृष्टिकोण २०५ बूंद-बूंद ? गृहस्थ मुक्तिपथ मुक्ति इसी धर्म एक प्रवचन १० खोए सोचो ! ३ लघुता समता अनैतिकता अनैतिकता भगवान् कुहासे क्या धर्म दोनों घर समता/उद्बो प्रवचन ५ प्रवचन ५ १०४ ६४ प्रेक्षा __२३ १८७ ६९ मूल्यांकन की आंख मूल्यांकन की निष्पत्ति मूल्यांकन क्षण का मूल्यांकन विनय का मूल्यों का प्रतिष्ठाता : व्यक्ति या समाज मूल्यों की चर्चा मूल्यों में श्रद्धा रखें मृत्यु का आगमन मृत्यु का दर्शन मृत्युञ्जयी बनने का उपक्रम : अनशन मृत्यु दर्शन : एक दर्शन मृत्यु दर्शन और अगला पड़ाव मेधावी कौन ? मेरा सपना : आपकी मंजिल मेरी आकांक्षा : मानवता की सेवा बैसाखियां जब जागे अनैतिकता मनहंसा संभल समता/उदबो मुखड़ा सोचो ! ३ मंजिल २ राज/वि दीर्घा नवनिर्माण दोनों मेरा धर्म ८१/८२ ६७ १७२ १६६ १७४/२३१ १५६ १५३ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JMM २५८ मेरी आशा का केन्द्र : युवापीढ़ी मेरी कृति : मेरा आत्मतोष मेरी नीति मेरी यात्रा मेरी यात्रा : जिज्ञासा और समाधान मेरे धर्म शासन के पचास वर्ष मेरे सपनों का श्रावक समाज मैं क्यों घूम रहा हूं ? मैत्री और राग मैत्री और सेवा मैत्री का पर्व मंत्री का रहस्य मैत्री क्या, क्यों और कैसे ? मैत्री दिवस मैत्री भावना से शक्ति संचय मैत्री सम्बन्ध या शक्ति का प्रभाव मोक्ष का अधिकारी कौन ? मोक्ष का अर्थ मोक्ष का मार्ग मोक्ष मार्ग का प्रथम सोपान मोरारजी भाई मोह एक आवर्त है मोहजीत राजा मोहनलाल खटेड़ मोहनीय कर्म क्या है ? मोह विलय और चारित्र मोह विलय की साधना मौन से होता है ऊर्जा का संचय मौलिक मनोवृत्तियां यज्ञ और अहिंसक परम्पराएं यथा जनता तथा नेता य • तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रवचन ४ १८८ मेरा धर्म १८३ शांति के २१७ अतीत का १२८ धर्म एक ५३ सफर / अमृत ४९/१४ वि दीर्घा १२९ धर्म एक / अतीत का ५९/१२५ आगे २४१ ७० बीति ताहि मुक्तिपथ / गृहस्थ उद्बो / समता अमृत / सफर मंजिल १ बूंद बूंद १ अणु गति प्रवचन ११ घर सूरज प्रवचन ११ धर्म एक मंजिल १ प्रवचन ९ धर्म एक सोचो ! ३ बूंद-बूंद २ मुक्तिपथ / गृहस्थ लघुता दीया अतीत बैसाखियां १९३/२११ २०४/२०१ १०३/१३७ ३२ १२ १७४ १७३ १०१ १२८ १२८ १६७ २१८ १६८ १९१ १५० १८७ ४४/४६ २१५ २५ ४९ ८६ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ १७ १९३ ४९ यथा प्रजा तथा राजा यथार्थ का भोग यथार्थ की ओर यदि महावीर तीर्थंकर नहीं होते ? यन्त्र का निर्माता यंत्र क्यों बना ? यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा यह सत्य है या वह सत्य है ? यांत्रिक विकास और नैतिकता युग और धर्म युग की आदि और अंत की समस्याएं युग की चुनौतियां और अहिंसा की शक्ति युग की चुनौतियां और युवाशक्ति युग की त्रासदी युग-चिन्ता युग चुनौती दे रहा है युग-चेतना की दिशा : अणुव्रत युग धर्म की पहचान युग बोध : दिशा बोध : दायित्व बोध युग समस्याएं और संगठन युद्ध और भहिंसक प्रतिकार युद्ध और संतुलन युद्ध का अवसर दुर्लभ है युद्ध का समाधान : अहिंसा युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है युद्ध की लपटों में कांपती संस्कृति युद्ध की संस्कृति कैसे पनपती है ? युद्ध समस्या है, समाधान नहीं युद्धारम्भ पर विराम युवक अपनी शक्ति को संभाले युवक उद्बोधन युवक और धर्म युवक कहां से कहां तक युवक कौन ? राज/वि दीर्घा १२६/६४ समता/उद्बो १८५/१८७ संभल १२३ अतीत का/धर्म एक ४/१२१ बैसाखियां जब जागे कुहासे अनैतिकता ५५ भोर १८९ बूंद बूंद २ ८७ अमृत सफर २२/५७ जीवन १२२ बैसाखियां धर्म एक शांति के १०१ वि वीथी/अनैतिकता ३४/२१२ बैसाखियां ज्योति से १५३ बैसाखियां १८९ क्या धर्म ७१ मेरा धर्म लघुता अणु गति १४९ बैसाखियां अनैतिकता १२२ १६ कुहासे बैसाखियां भोर शांति के घर. दोनों बीती ताहि ६३ कुहासे Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० युवक नयी दिशाएं खोलें युवक पुरुषार्थं का प्रतीक बने युवक यंत्र नहीं, स्वतंत्र बनें युवक शक्ति युवक शक्ति का प्रतीक युवक संस्कारी बने युवक समाज और अणुव्रत युवकों का दायित्व बोध युवकों का दिशाबोध युवकों का सर्व सुरक्षित मंच युवकों की जीवन दिशा युवकों से युवाचार्य महाप्रज्ञ: मेरी दृष्टि में युवापीढ़ी और उसका कर्त्तव्य युवापीढ़ी और मूल्यबोध युवापीढ़ी और संस्कार युवापीढ़ी का उत्तरदायित्व युवापीढ़ी का दायित्व युवापीढ़ी कितनी सक्षम ? युवापीढ़ी की मंजिल क्या ? युवापीढ़ी की सार्थकता युवापीढ़ी निराश क्यों ? युवापीढ़ी : वरदान या अभिशाप युवापीढ़ी से तीन अपेक्षाएं युवापीढ़ी स्वस्थ परम्पराएं कायम करें युवाशक्ति : समाज की आश योग और करण योग और भोग योग परिज्ञा योग्य दीक्षा योग्यताओं का मूल्यांकन हो योग्यता की कसौटी यौन उन्मुक्तता और ब्रह्मचर्यं साधना आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अतीत का मंजिल २ दोनों धर्म एक ज्योति से ज्योति से प्रश्न ज्योति से ज्योति से प्रवचन ४ संभल प्रवचन ९ वि दीर्घा मंजिल २ दोनों बीती ताहि / दोनों दायित्व अतीत का ज्योति से / दोनों दोनों ज्योति से / दोनों ज्योति से दोनों ज्योति से ज्योति से ज्योति से विवीथी / मंजिल २ बूंद-बूंद २ जागो ! घर प्रज्ञापर्व कुहासे आलोक में ९६. १९७ १७० ९१ 67 १६१ ५८ २५. ५९ १९३ ११५ १३०,१९५ ५५ ७५ ११३ ७९/१४७ ११ ५१ ५१/१२४ १७३ ४१/१३६ १९ १७८ १६९ १८३ १३ ८२/९६ ७३ ६३ १६७ ८३ २०५ ६५ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ यौवन की सुरक्षा : भीतरी रसायन रचनात्मक प्रवृत्तियां रमणीयता सदा बनी रहे रस, गंध और स्पर्श चिकित्सा राजतन्त्र और धर्मतन्त्र राजतंत्र का उदय राजधानी में पहला भाषण राजनीति और अणुव्रत राजनीति और धर्म राजनीति और राष्ट्रीय चरित्र राजनीति के मंच पर उलझा राष्ट्र भाषा का प्रश्न और दक्षिण भारत राजनीति पर धर्म का अंकुश जरूरी राजशेखर राजस्थान की जनता के नाम राजस्थानी साहित्य की धारा राम मन में, काम सामने रात्रि भोजन का औचित्य ? रात्रि भोजन त्याग : एक तप रामायण और महाभारत का अन्तर राष्ट्र की अखंडता बलिदान मांगती है राष्ट्र की तस्वीर कैसे सुधरे ? राष्ट्र की बहुमूल्य सम्पत्ति राष्ट्र की वास्तविक नींव राष्ट्र की समृद्धि और कृषक राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य का आधार राष्ट्र के चारित्रिक पतन में फिल्म व्यवसाय का हाथ राष्ट्र के चारित्रिक मानदण्डों की प्रेरणा स्रोत : साधु संस्कृति राष्ट्र-धर्म दोनों सफर मंजिल १ प्रेक्षा कुहासे मुखड़ा राजधानी प्रश्न बैसाखियां अनैतिकता अणु संदर्भ सफर / अमृत धर्म एक सफर / अमृत शांति के समता मुक्तिपथ / गृहस्थ प्रवचन ९ अणु संदर्भ प्रवचन ४ घर सूरज आलोक में घर अणु संदर्भ अणु संदर्भ प्रवचन ४ २६१ १७६ २१ ३६ १६० ६८ १२० ११ २४ ९६ ३२ १३२ १००/५० १५० १७१/१३७ ११७ २१७ ६९/७२ १२४ २४७ १३७ ७६ ३२ २३५ १४० २१ ९३ ७८ ३६ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २४० १६० २२४ सूरज शांति के प्रवचन ११ धर्म एक अणु गति प्रवचन ११ अणु गति मेरा धर्म बैसाखियां बैसाखियां बैसाखियां २२७ २३३ ४० १०५ राष्ट्र निर्माण और विद्यार्थी राष्ट्र निर्माण का सही दृष्टिकोण राष्ट्र निर्माण में धर्म का योगदान राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद राष्ट्र भाषा का प्रश्न और दक्षिण भारत राष्ट्र विकास का सक्रिय कदम राष्ट्रहित और लॉटरी राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं और अणुव्रत राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय चरित्र राष्ट्रीय एकता का स्वरूप राष्ट्रीय एकता के पांच सूत्र राष्ट्रीय एकता के लिए पारस्परिक विश्वास की आवश्यकता राष्ट्रीय एकता दिवस राष्ट्रीय एकता पर आक्रमण राष्ट्रीय चरित्र और धर्मक्रांति राष्ट्रीय चरित्र और स्वास्थ्य राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण का उपक्रम : अणुव्रत आंदोलन राष्ट्रीय चरित्र बनाम लोकतंत्र राष्ट्रीय चरित्र विकास की अपेक्षाएं राष्ट्रीय चेतना में विधायकों का योगदान राष्ट्रीय भावात्मक एकता राष्ट्रीय समस्याएं और अणुव्रत रुचि परिष्कार की दिशा रुचिभेद और सामञ्जस्य रूपांतरण रूपांतरण का उपाय रूस की धरती पर मुरझा रही पौध रोगोत्पत्ति के कारण (१-२) अणु संदर्भ धर्म एक बैसाखियां ज्योति से राज १२६ २३७ १०२ १३७/८५ जीवन राज/वि दीर्घा क्या धर्म आलोक में राज/वि वीथी जागो! आलोक में क्या धर्म उद्बो/समता समता बैसाखियां मंजिल १ १२२/१२४ १६१ ११७ १८१/१७९ २६८ १३१ १६०-१६३ लकीरें खींचने की अपेक्षा लक्ष्य : एक कवच बैसाखियां घर ७६ २६७ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ लघुता समता/उद्बो १६९/१७१ परिशिष्ट १ लघुता से प्रभुता मिले लम्बा यात्रा पथ लाटरी योजना का सुदूरगामी परिणाम : देश का चारित्रिक आर्थिक दारिद्र्य । लाभ और अलाभ में संतुलन हो लालबहादुर शास्त्री लेखक की आस्था लेश्या और रंगों का संबंध लेश्या के वर्गीकरण का आधार लोक-अलोक की मीमांसा लोकजीवन, अध्यात्म और अणुव्रत लोकजीवन अहिंसा की प्रयोगशाला बने लोकजीवन और मूल्यों का आलोक लोकतंत्र और अणुव्रत १४४ अणु संदर्भ प्रज्ञापर्व ६८ धर्म एक बूंद-बूंद २ जब जागे प्रेक्षा १५३ प्रवचन ४ आलोक में भोर बैसाखियां १२१ जीवन उद्बो/समता १३१/१३० अतीत का/धर्म एक १०५/२७ मेरा धर्म सफर/अमृत ९७/४७ मंजिल १ २१५ जीवन ४३ वि वीथी/राज १७/३४ मेरा धर्म प्रज्ञापर्व प्रवचन ८ लघुता लोकतंत्र और अहिंसा लोकतंत्र और चुनाव लोकतंत्र और नैतिकता २७ लोकतंत्र का प्रशिक्षण आवश्यक लोकतन्त्र की बुनियाद : महावीर का दर्शन लोकतन्त्र के आधार स्तंभ लोकतन्त्र को सच्ची राह दिखायें लोकंस्थिति : एक विश्लेषण लोभ का सागर : संतोष का सेतु ३१ १७१ वनस्पति का वर्गीकरण वनस्पति की उपेक्षा : अपने सुख की उपेक्षा वर्तमान की अपेक्षा वर्तमान के वातायन से वर्तमान तनाव और आध्यात्मिकता वर्तमान में जीना वर्तमान युग भऔर जैन धर्म अतीत लघुता आलोक में वि वीथी/राज क्या धर्म राज/वि वीथी शांति के ११५/१९६ ४२ १६३/१०३ ४५ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण वर्तमान युग और युवापीढ़ी वि दीर्घा वर्तमान विषमता का हल शांति के वर्तमान शताब्दी की छोटी सी झलक जब जागे १७९ वर्तमान संदर्भ में शास्त्रों का मूल्यांकन धर्म एक वर्तमान समस्याएं क्या धर्म वर्तमान समस्या का समाधान : अपरिग्रहवाद शांति के वर्तमान समाज-व्यवस्था के मूल्य और महावीर के सिद्धांत राज/वि वीथी ३१/१४ वसुधैव कुटुम्बकम् समता २६५ वस्तु की सापेक्षता गृहस्थ/मुक्तिपथ ११६/१११ वस्तुबोध की प्रक्रिया गृहस्थ/मुक्तिपथ १२३/११८ वस्त्रधारण की उपयोगिता मंजिल २ १६४ वह व्यक्ति नहीं, संस्था था वि दीर्घा २०५ वही दरवाजा खुलेगा, जिसे खटखटाएंगे कुहासे वाच्य और अवाच्य गृहस्थ मुक्तिपथ ११४/१०९ वाणी की महत्ता प्रवचन ९ वाद का व्यामोह प्रगति की/आ. तु. वादों के पीछे मत पड़िये ज्योति के वार्षिक पर्यवेक्षण नैतिक वासना उभार की समस्या और समाधान मेरा धर्म वास्तविक सौन्दर्य की खोज मंजिल २ वास्तविक स्वागत सूरज विकथा : साधना का पलिमन्थु मंजिल १ विकास का दर्शन घर २१० विकास का मानदंड क्या धर्म विकास का सही पथ प्रवचन ११ २१९ विकास का सोपान : जागृति सोचो ! ३ विकास की अवधारणा बैसाखिया १२३ विकास की नई दिशा प्रज्ञापर्व विकास के मौलिक बिन्दु बीती ताहि विकास या ह्रास? शांति के विक्रिया कैसे होती है ? मंजिल २ विघटन और समन्वय जागो! १५५ X FU० ८५ २४२ ९६ Mrrora ९३ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'परिशिष्ट १ २६५ २३० و مہر و १३२ २०१ १८० مہ و سل ११२ १२१/२७ ३४ ३ विघटन के हेतु अण गति विचार-क्रांति के बढ़ते चरण प्रवचन ४ विचार भेद और समन्वय बूंद-बूंद १ विचार-समीक्षा धर्म एक विजय और पराजय के बाद की विजय मुखड़ा विजेता कौन ? मंजिल १ विज्ञान और अध्यात्म अणु गति विज्ञान और शास्त्र अणु गति विज्ञान के सही संयोजन की आवश्यकता अणु संदर्भ विदाई संदेश आ. तु./सूरज विद्या किसलिए? प्रगति की विद्या की निष्पत्ति : विनय और प्रामाणिकता के संस्कार आलोक में विद्या जीवन-निर्माण की दिशा बने ज्योति के विद्याध्ययन का लक्ष्य नवनिर्माण विद्याध्ययन क्यों और कैसे ? आगे विद्यार्जन का ध्येय प्रवचन ९ विद्यार्जन की सार्थकता सूरज विद्यार्थियों का निर्माण ही राष्ट्र निर्माण है संभल विद्यार्थियों के रचनात्मक मस्तिष्क का निर्माण । अणु संदर्भ विद्यार्थियों से जन-जन विद्यार्थी और जीवन-निर्माण की दिशा आगे विद्यार्थी और नैतिकता भोर विद्यार्थी का कर्तव्य संभल विद्यार्थी का चरित्र प्रवचन ९ विद्यार्थी का जीवन सूरज विद्यार्थी कौन होता है ? प्रवचन ९ 'विद्यार्थी जीवन : एक समस्या, एक समाधान धर्म एक 'विद्यार्थी जीवन और संयम घर विद्यार्थी जीवन का महत्त्व नवनिर्माण विद्यार्थी जीवन : जीवन-निर्माण का काल भोर विद्यार्थी दृढ़प्रतिज्ञ बने प्रवचन ११ UM USO ११७ ३३ ८१ १३२ ८८ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १६८ २३७ ५३ १७७ १०3 २७. १७७ १४८ १४ १५५ १५९ ४१ बिद्यार्थी भावना का महत्त्व नवनिर्माण विद्यार्थी या आत्मार्थी ? शांति के विद्यार्थी वर्ग का नैतिक जीवन सूरज विद्या वही है प्रवचन ११ विनय के प्रकार मंजिल १ विपर्यय हो रहा है ज्योति के विरक्ति और भोग बूंद-बूंद २ विरोध से समझौता बूंद बूंद १ विलक्षण परीक्षण कुहासे विवाह के संदर्भ में नैतिकता अनैतिकता विवेक संवारता है आचार को लघुता विवेक है सच्चा नेत्र प्रवचन ११ विवेचन जीव और अजीव का प्रवचन ९ विशुद्धि का उपाय : प्रायश्चित्त मंजिल २ विशुद्धि के स्थान प्रवचन ९ विशेष गुण : एक विमर्श प्रवचन ८ विशेष पाथेय बीती ताहि विश्व का आलोक स्तंभ प्रवचन ४ विश्व की विषम स्थिति राज/आ. तु. विश्व के लिए आशास्पद जागो विश्व के लिए महिलाएं : महिलाओं के लिए विश्व जीवन विश्वबंधुत्व और अध्यात्मवाद शांति के विश्वबंधुत्व का आदर्श अपनाएं प्रवचन ११ विश्वमैत्री प्रवचन ९ विश्वमैत्री का पर्व : पर्युषण अतीत का विश्वमैत्री का मार्ग संभल विश्वशांति और अणुशस्त्र मेरा धर्म विश्व शांति और अध्यात्म प्रवचन ९ विश्व शांति और अस्त्रनिर्माण बूंद-बूंद २ विश्व शांति और उसका मार्ग विश्वशांति/आ. तु. विश्व शांति और सद्भाव शांति के विश्व शांति का मूलमंत्र मेरा धर्म ११० १९५ १७/११४ १५३ १८७ २६४ १/८७ १९१ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २६७ १६९ १५३ لم للب r ७४ कुहासे २२१ विश्व-शांति का सपना : अहिंसा और अनेकांत की आंखें लघुता २११ विश्व शांति की आचार संहिता आलोक में विश्व शांति के प्रेमियों से जन-जन विश्व शांति के लिये अहिंसा भोर विश्व संघ और अणुव्रत प्रश्न विश्वास का आधार समता २३२ विश्वास का प्रथम बिन्दु आलोक में विश्वास बनता है बुनियाद बैसाखियां विषमता की धरती पर समता की पौध १४१ विसंगति समता विसर्जन धर्म एक नयी पीढ़ी ५१/६३ विसर्जन : आंतरिक आसक्ति का परित्याग मेरा धर्म १४० विसर्जन का प्रतीक : मर्यादा महोत्सव मेरा धर्म १३६ विसर्जन किसका? खोए विसर्जन क्या है ? समता/उद्बो १९९/२०२ विस्मृति भी जरूरी है प्रवचन ४ वीतरागता के तत्त्व सूरज वीर कौन ? प्रवचन ११ वीरता की कसौटी नवनिर्माण वीरों की भूमि प्रवचन ११ १३४ वृत्तियों का परिष्कार प्रवचन ९ वृत्तियों का शोषण : विचारों का पोषण १३७ वृत्तियों को संयमित बनायें संभल वृत्तिशोधन की प्रक्रिया आलोक में बहत्तर भारत के दक्षिणार्ध और उत्तराधं की विभाजक रेखा : वेयड़ढ पर्वत अतीत १९९ वे अनुपमेय थे बीती ताहि ५७ वे आज कहां? शांति के २५५ वे हमारे उपकारी हैं प्रवचन १० २४१ वैचारिक अहिंसा मुक्तिपथ/गृहस्थ १५/१७ वैज्ञानिक धर्म के प्रवक्ता : भगवान् महावीर मेरा धर्म ५९ वैज्ञानिक प्रगति से मानव भयभीत क्यों? राज/वि दीर्घा २३३/९४ १२९ ७९ ७४ खोए १०. རྩྭཊོའི # པའི ༢ ཚེ ཛ ཛི ཚེ ༔ པ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२३ १४४ ११४ 30 २१९ १०१ १७४ २०१ १७३ ११८ वैभव सम्पदा की भूलभुलैया वैयक्तिक और सामूहिक साधना का मूल्य वैयक्तिक साधना का अधिकारी वैयावृत्त्य : कर्म निर्भरण की प्रक्रिया वैराग्य का मूल्य वोटों की राजनीति व्यक्ति और संघ व्यक्ति और समाज व्यक्ति और समाज-निर्माण व्यक्ति और समुदाय व्यक्ति का कर्तव्य व्यक्ति की मनोभूमिका व्यक्तित्व की कमी को भरना है व्यक्तित्व की कसौटियां व्यक्तित्व-निर्माण का वर्ष व्यक्ति निर्माण और धर्म व्यक्तित्व-निर्माण में भावधारा का योग व्यक्ति बनाम समाज व्यक्तिवादी दृष्टिकोण बने व्यक्ति-व्यक्ति का चरित्र बल जागे व्यक्ति सुधार ही समष्टि सुधार है व्यक्ति से समाज की ओर व्यवसाय जगत की बीमारी : मिलावट व्यसाय तंत्र और सत्य साधना व्यवहार और साधना व्यवहार का प्रयोग कब और कैसे ? व्यष्टि और समष्टि व्यष्टि ही समष्टि का मूल व्यसनमुक्ति में जैन धर्म का योगदान व्यापार और सच्चाई व्यापारी जीवन-धारा को बदले व्यापारी वर्ग से अपेक्षा व्यापारी स्वयं को बदलें सूरज प्रवचन ५ मंजिल १ मंजिल १ प्रवचन १० समता खोए बंद-बूंद २ मेरा धर्म बैसाखियां सूरज सूरज कुहासे दीया कुहासे जागो ! प्रेक्षा प्रवचन ११ प्रवचन ११ संभल भोर प्रज्ञापर्व अनैतिकता/अमृत आलोक में बूंद-बूंद १ जागो ! बूंद-बूंद १ प्रवचन ११ अनैतिकता सूरज संभल २२३ १०७ १६८ ४७ ७ १७९/७१ 1 ०G WWM १०० १६२ संभल भोर १८६ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २६९ ___१६/१७६ व्रत और अनुशासन व्रत और अप्रमाद के संस्कार व्रत और प्रायश्चित्त व्रत और व्रती व्रत का जीवन में महत्त्व व्रत का फल व्रत का महत्त्व व्रत ग्रहण की योग्यता व्रत बंधन नहीं, कवच है व्रत साध्य नहीं, साधन व्रत ही अभय का मार्ग व्रती बनने के बाद व्रतों का प्रयोग व्रतों की भाषा और भावना व्रतों के प्रति भास्था क्तित्व का रूपान्तरण नैतिक/संभल आलोक में मंजिल २ ज्योति के नैतिक संभल मंजिल १ आलोक में समता/उद्बो नैतिक प्रगति की ज्योति के नैतिक आलोक में बूंद-बूंद २ मनहंसा ११६७/१६९ T २० ०७ १८५ शक्ति का विस्फोट शक्ति का सदुपयोग शक्ति का सदुपयोग हो शक्ति की पहचान शक्ति की स्पर्धा में शान्ति होगी शक्ति के उपयोग की दिशा शक्तिमय जीवन जीने की कला शक्तिशाली कौन : कर्म या संकल्प ? शक्ति संगोपन की साधना शत्रु-विजय शब्द की उत्पत्ति शब्दों के संसार में शब्दों में उलझन क्यों ? शब्दों में उलझन न हो २३८ समता/उद्बो सोचो ! ३ जागो! मंजिल २ प्रगति की बैसाखियां सोचो! ३ जब जागे खोए प्रवचन ९ प्रवचन ९ अतीत बूंद-बूंद १ बंद-बंद १ १४७ १०८ ५३ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० शरीर एक नौका है शरीर और मन का संतुलन शरीर का स्वरूप शरीर के दो प्रकार शरीर को छोड़ दें, धर्मशासन को नहीं शरीर को जानें शरीर प्रेक्षा है शक्ति दोहन की कला शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् शस्त्र बनाने वाली चेतना का रूपान्तरण शस्त्र - विवेक है निःशस्त्रीकरण शाकाहारी संस्कृति पर प्रहार शान्ति आत्मा में है शांति और अहिंसा - उपक्रम शांति और क्रांति का भ्रम शांति और लोकमत शान्ति कहां है ? शांति का आधार : असंग्रह की वृत्ति शान्ति का उपाय शान्ति का निर्दिष्ट मार्ग शान्ति का पथ शान्ति का बोधपाठ शान्ति का मार्ग शान्ति का मार्ग : अपरिग्रह शान्ति का मूल शान्ति का सच्चा साधन शान्ति का सही मार्ग शान्ति का साधन शान्ति का हेतु : पर्यावरण की विशुद्धि शान्ति की ओर शान्ति की खोज शान्ति की चाह किसे है ? शान्ति के उपाय शान्ति के दो पथ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मुखड़ा १५९ आलोक में ८६ मंजिल १ १८२ १७७ ६८ २०८ ११२ ४०/६१ प्रवचन ५ अतीत का प्रवचन ५ प्रेक्षा मंजिल २ / मुक्ति इसी कुहासे लघुता बैसाखियां प्रवचन ११ जीवन शांति के धर्म एक बैसाखियां बूंद-बूंद २ समता / उद्बो घर संभल / प्रवचन दीया घर आगे उद्बो / समता सूरज आगे प्रवचन ९ प्रेक्षा प्रवचन ११ भोर समता / उद्बो घर शान्ति के २७ ४८ २१० ९८ १० ९७ २० १७९ ४२ १३६/१३८ १९१ १९९८,१८७/७८ ७२ ७४,१७३ १०६ १३६/१३४ ४८ ५ ५१ १४९ २१४ १६९ ४९/४९ २८६ २२३ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ शान्ति के लिए अणुव्रतों की उपेक्षा मत कीजिये ज्योति के शान्तिवादियों से प्रगति की शान्तिवादी राष्ट्रों से शान्ति: सुख का मार्ग शाश्वत और सामयिक शाश्वत और सामयिक मर्यादायें शाश्वत तत्त्व शाश्वत धर्म शाश्वत धर्म का स्वरूप शाश्वत मूल्यों की उपेक्षा शाश्वत मूल्यों की सत्ता शाश्वत सत्य : नयी प्रस्तुति शाश्वत सुख का आधार : अध्यात्म शासन तंत्र और नैतिक मूल्य शासन समुद्र है शास्त्र का सत्य : अनुभव का सत्य शास्त्रों में गुंथा चरित्र जीवन में शिकायत का युग शिकायत बनाम आत्म-निरीक्षण शिक्षक और शिक्षार्थी शिक्षक का दायित्व शिक्षक गुरु बने शिक्षक होता है जीवन शिक्षकों की जिम्मेवारी शिक्षा शिक्षा, अध्यात्म और नैतिकता शिक्षा और जीवन मूल्य शिक्षा और शिक्षार्थी शिक्षा और स्वावलंबन शिक्षा का आदर्श शिक्षा का उद्देश्य शिक्षा का उद्देश्य : आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व जन-जन आगे कुहासे प्रवचन प्रवचन १० गृहस्थ / मुक्तिपथ लघुता बैसाखियां बैसाखियां उद्बो / समता प्रवचन ५ अनैतिकता संभल बैसाखियां कुहासे बूंद-बूंद १ जागो ! संभल आलोक में बैसाखियां प्रवचन ९ सूरज सूरज राज बैसाखियां प्रश्न बाहि संभल कुहासे / भोर बब जागे २७१ ३२ २० 9 २३६ १७४ ११६ १३३ ७/५ १२४ ३५ १३ ७३/७३ २९ १३० १२२ ७२ १९१ १०४ २१० ५६ १२० १४४ २२१ १९५ १२४ १४७ १४९ ४१ ११७ १२८ १३६/१०० ४० Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ शिक्षा का उद्देश्य : प्रज्ञा जागरण शिक्षा का कार्य है चरित्र-निर्माण शिक्षा का ध्येय शिक्षा का फलित-आचार शिक्षा का फलित-साधना शिक्षा का सही लक्ष्य शिक्षा की निष्पत्ति : अखंड व्यक्तित्व का निर्माण शिक्षा की पात्रता शिक्षा की सार्थकता शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग का अवसर शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ता प्रदूषण शिक्षा जीवन-मूल्यों से जुड़े शिक्षानुशीलन शिक्षा में अणुव्रत - आदर्शों का समावेश हो शिक्षार्थी की अर्हता शिक्षा व साधना की समन्विति शिक्षाशास्त्रियों से शिखर से तलहटी की ओर शिविर जीवन शिविर साधना शुद्ध जीवन-चर्या शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधना जरूरी शुभ - अशुभ दीर्घायुष्य बंधन के कारण शोषण मुक्त समूह - चेतना शोषण विहीन समाज का स्वरूप शोषण विहीन समाज रचना शोषण : समाज की बुराई श्रद्धा : उर्वरा भूमि श्रद्धा और आचरण श्रद्धा और आचार की समन्विति श्रद्धा और चारित्र श्रद्धा और ज्ञान आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आलोक में प्रवचन ९ संभल भोर प्रवचन ५ सूरज क्या धर्म समता बैसाखियां कुहासे जब जागे प्रज्ञापर्व सूरज घर प्रवचन ११ प्रवचन १० जन-जन बैसाखियां सूरज प्रेक्षा संभल सफर / अमृत मंजिल २ आलोक में अणु गति / अणु संदर्भ अणु गति / अणु संदर्भ समता / उद्बो घर मुक्तिपथ / गृहस्थ आगे प्रवचन ९ प्रवचन ९ १०९ २०६ २०८: २५. ३३ १८३ १३४ २०९ १४० १३३ ५५ ८७. १९३ ४८ १६० ६२ २२ ३४ ९४ ७३ १०१ १२३/८९ १०६. २० १३२/१४१ १३५/२१ ६७/६७ १६९ १३२/१३७ १३४ ६१ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २७३ १३९/१३४ २१५ १४१ २५० श्रद्धा की निष्पत्ति श्रद्धा तथा सत्चर्या का समन्वय करिये श्रद्धा व आत्मनिष्ठा श्रद्धाशीलता : एक वरदान श्रद्धा संघ का प्राण तत्त्व है श्रद्धाहीनता सबसे बड़ा अभिशाप है श्रद्धा है आश्वासन श्रम और संयम श्रम और सेवा का मूल्यांकन श्रम की संस्कृति श्रमण परम्परा और भगवान् पार्श्व श्रमण संस्कृति १०८ १८३ २३६ ७५/७८ २०५/१५४ १३० ८५ गृहस्थ/मुक्तिपथ शान्ति के नवनिर्माण घर संभल संभल मनहंसा घर मुखड़ा समता भगवान् राज/वि वीथी संभल/भोर अतीत नवनिर्माण ज्योति से प्रवचन ४ प्रज्ञापर्व प्रवचन १० घर वि दीर्घा प्रवचन ९ अनैतिकता मुक्तिपथ/गृहस्थ मुक्तिपथ/गृहस्थ गृहस्थ मुक्तिपथ मुक्तिपथ/गृहस्थ गृहस्थ/मुक्तिपथ मुक्तिपथ/गृहस्थ गृहस्थ/मुक्तिपथ मुक्तिपथ गृहस्थ गहस्थ १४६ २७ श्रमण संस्कृति का प्राग्वैदिक अस्तित्व श्रमण संस्कृति का स्वरूप श्रमण संस्कृति की मौलिक देन श्रमनिष्ठा और कर्तव्यनिष्ठा को जगाएं श्रम से न कतरायें श्रवणीय क्या है ? श्रामण्य का सार : उपशम श्रावक अपने दायित्व को समझे श्रावक का दायित्व श्रावक की आचार-संहिता श्रावक की आत्म-निर्भरता श्रावक की चार कक्षाएं श्रावक की दिनचर्या (१-३) १७० २०७ २० श्रावक की धर्म-जागरिका श्रावक की भूमिका श्रावक की साप्ताहिक चर्या श्रावक के गुण श्रावक के त्याग श्रावक के मनोरथ (१-३) १५२/१६९ १४८/१६५ १८१-८५ १६४-६८ १७४/१९१ १५३/१३६ १६९/१८६ १६७/१५० १५४/१७१ १५५-५९ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण श्रावक के मनोरथ (१-३) श्रावक जन्म से या कर्म से (१-२) श्रावक जीवन के विश्राम (१-२) मुक्तिपथ १३८-४२ मुक्तिपथ १७०-७२ गृहस्थ १८७-१८९ गृहस्थ १६१-६३ मुक्तिपथ १४४-४६ दायित्व/अतीत का २७/६१ मंजिल २/मुक्ति इसी ६०/८५ मंजिल १ धर्म एक १७७ लघुता १५० प्रवचन ८ १७४ प्रवचन ८ १७९ मुखड़ा १३७ मंजिल १ प्रवचन ५ श्रावक दृष्टि और अपरिग्रह श्रावक समाज को कर्तव्य-बोध श्रीमज्जयाचार्य श्रीमद्राजचन्द्र श्रुत और शील की समन्विति श्रृंत ज्ञान : एक विश्लेषण । श्रुतज्ञान के भेद श्वास को देखना, आत्मा को देखना श्वास-दर्शन श्वास-प्रेक्षा १४ षड्द्रव्यों की स्थिति प्रवचन ८ १०४ बैसाखियां कुहासे १९४ मुखड़ा प्रवचन ९ कुहासे १२० १३ संकट मूल्यों के बिखराव का संकल्प का बल : साधना का तेज संकल्प का मूल्य संकल्प की अभिव्यक्ति संकल्प की स्वतंत्रता संकल्प क्यों और कैसे ? संकल्पों की मशाल संगठन का आधार : मर्यादा-महोत्सव संगठन की अपेक्षा संगठन की मर्यादा संगठन के तत्त्व संगठन के बुनियादी तत्त्व संगठन के मूल सूत्र प्रवचन ५ दोनों सफर/अमृत धर्म एक प्रवचन ११ मुखड़ा दोनों नैतिक/भोर १४१/१०७ १३२ १४० १८१ १५७ १२८/२० Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ संगठन जड़ता नहीं, प्रेरणा के केन्द्र बनें संग्रह और अपव्यय से मुक्त जीवन-बोध संग्रह और त्याग संग्रह की परिणति संघर्ष संघ और हमारा दायित्व संघ का आधार : मर्यादाएं संघ का गौरव संघ की महनीयता संघ-धर्म संघपुरुष : एक परिकल्पना संघ में आचार्य का स्थान संघ में कौन रहे ? संघ - व्यवस्था संचालन और पांच व्यवहार संघर्ष संघर्ष का मूल : स्वार्थ - चेतना संघर्ष की नई दिशा संघर्ष कैसे मिटें ? संघ, संघपति और युवा दायित्व संघर्ष सत् और असत के बीच संघर्ष से शांति संघीय प्रवृत्ति का आधार संघीय मर्यादाएं संघीय मर्यादाओं के प्रति सजग रहें संघीय संस्कार संघीय स्वास्थ्य के सूत्र संतजन : प्रेरणा प्रदीप संत दर्शन का माहात्म्य संतान का कोई लिंग नहीं होता संतों का स्वागत क्यों ? संतों के स्वागत की स्वस्थ परम्परा संदर्भ योगक्षेम वर्ष का : भूमिका नारी की संदर्भ शास्त्र - वाचना का अणु सन्दर्भ आलोक में गृहस्थ / मुक्तिपथ आलोक में मंजिल १ मंजिल २ आगे मंजिल १ प्रवचन ४ लघुता जागो ! मुखड़ा दीया ज्योति के बूंद-बूंद १ दोनों प्रगति की / राजधानी आ० तु० दायित्व मुखड़ा समता जागो ! मंजिल १ प्रवचन ४ गृहस्थ मनहंसा सोचो ! ३ प्रवचन १० / आगे कुहासे प्रवचन ९ भोर जीवन प्रज्ञापर्व २७५ ७७ ९३ ६६/६४ १२ २१२ १५० २७८ १०५ ४२ २३६ २२१ १८८ १४५ १६ १४८ ८२ ५/३० १२ ४९ १६४ ४५ ६९ १०१,१९८ १५५ १५१ १८४ २९६ १६/१११ १०९ १८ ५९ ११७ १४६ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण संदर्भ शास्त्रीय प्रवचन का संपिक्खए अप्पगमप्पएणं १४२ /४ ६ २१२ १३२ २७ संबन्धों का आइना : बदलते हुए प्रतिबिंब संबन्धों की मिठास संबन्धों की यात्रा का आदि-बिंदु संभव है मनोवृत्ति में बदलाव संयम संयमः खलु जीवनम् संयम एक महल है संयम : एक सेतु संयम का मूल्य १४० १४२ १८७/१८९ प्रज्ञापर्व प्रवचन ५/मंजिल २ मुक्ति इसी लघुता कुहासे जब जागे दीया भोर प्रवचन ५ मंजिल १ मंजिल १ समता/उद्बो बैसाखियां सूरज जागो! क्या धर्म प्रवचम ५ समता/उद्बो ज्योति से संभल जब जागे भोर/प्रश्न प्रज्ञापर्व प्रज्ञापर्व घर ४३ संयम की आवश्यकता संयम की साधना संयम की साधना : परिस्थिति का अन्त संयम के दो प्रकार संयम के संस्कार संयम : जैन संस्कृति का प्राण संयम सर्वोच्च मूल्य है संयम से होता है शक्ति का जागरण संयम ही जीवन है १२२ १८९/१९१ २०६ ७७,१६०/३ कुहासे संयम ही सच्ची स्वतन्त्रता संयमी गुरु संयुक्त परिवार की वापसी आवश्यक संयुक्त राष्ट्रसंघ संवत्सरी संवत्सरी कब ? सावन में या भाद्रपद में संवर धर्म संवाद आत्मा के साथ संवेदनहीन जीवन-शैली संसद् की पीड़ा बैसाखियां धर्म एक अमृत/सफर मंजिल १ समता कुहासे ८२/११६ १९३ ४२४८ कुहासे Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २७७ १९८ संसद् खड़ी है जनता के सामने संसद् राष्ट्र को तस्वीर है संसरण का कारण : प्रमाद संसार और मोक्ष संसार का विलक्षण उ सव संसार का स्वरूप-बोध और विरक्ति संसार क्या है ? ७३ २४३ ७४ १५६ वि दीर्घा/राज ७४/१३९ प्रवचन १० २०६ जागो ! सफर/मनहंसा १४४/१७९ अमृत ११० बूंद-बूद २ मंजिल २ प्रवचन ८/मुक्ति इसी ५/१०२ मंजिल २ प्रवचन ८ १४४ दीया बीती ताहि दोनों १८५ प्रवचन ११ दोनों १६१ दोनों ११८ प्रवचन १० कुहासे प्रवचन ४ २०२ शांति के १२० प्रवचन ९ २७४ शांति के ११३ सूरज ११९ मंजिल १ मंजिल १ सूरज १३५ प्रवचन ९ २५७ प्रवचन ११ ४६ भोर १७५ बैसाखियां मंजिल १ १७९ प्रवचन ११ संसार : जड़-चेतन का संयोग संसार में जीव की अवस्थिति संसार में भ्रमण क्यों करता है प्राणी ? संस्कार, जो मेरी मां ने दिये संस्कार-निर्माण का स्वस्थ उपक्रम : शिविर संस्कार-निर्माण की वेला संस्कार-निर्माण की यात्रा संस्कार-विकास और परिमार्जन संस्कार से जैन बनें संस्कारहीनता की समस्या संस्कारी महिला-समाज का निर्माण संस्कृत ऋषि-वाणी है संस्कृत और संस्कृति संस्कृतज्ञ क्या करें? संस्कृत भाषा संस्कृत भाषा का माहात्म्य संस्कृत भाषा का विकास संस्कृति संस्कृति और युग संस्कृति और संस्कृत संस्कृति का सर्वोच्च पक्ष संस्कृति की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न संस्कृति की सुरक्षा का दायित्व संस्कृति संवारती है जीवन ११४ ४९ १०१ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कुहासे प्रवचन ५ आगे २०२ १५० २०३ प्रवचन १० ९७ संभल १८९ प्रवचन ९ सूरज सूरज प्रवचन ११ सोचो! ३ ४२ संस्थाएं : अस्तित्व और उपयोगिता सचित्त परित्याग का मूल सच्चरित्र क्यों बनें ? सच्चा कीति-स्तम्भ सच्चा तीर्थ सच्चा धर्म सच्चा राष्ट्रनिर्माण सच्चा विज्ञान सच्चा साम्यवाद सच्चा स्वागत सच्ची जिन्दगी सच्ची धार्मिकता क्या है ? सच्ची प्रार्थना व उपासना सच्ची भूषा सच्ची मानवता सच्ची मानवता के सांचे में ढलें सच्ची शांति का साधन सच्ची शूरवीरता सच्ची सेवा १८५ २५५ घर २२० २३ १४७ १४० १३१ २५ ३.४६६१०६:४६६१:233-34353, ६ ४११: ६३/१६५ संभल नवनिर्माण सूरज संभल प्रवचन ५ संभल संभल नैतिक/संभल सूरज सोचो ! ३ सूरज सूरज प्रवचन १० उद्बो/समता भोर मंजिल १ संभल आलोक में १५४ २३९ mr २०९ सच्ची होली क्या है ? सच्चे धर्म का प्रतिष्ठापन सच्चे धर्म की प्राप्ति सच्चे धार्मिक बनें सच्चे मानव की उपाधि सच्चे मानव बनें सच्चे श्रमण की पहचान सच्चे सुख का अनुभव सतत-स्मृति की दिशा में सतीप्रथा आत्महत्या है सत्य और अणुव्रत सत्य और संयम सत्य और सौन्दर्य १७३/१७१ २३० कुहासे ६१ प्रश्न बूंद-बूंद २ उद्बो/समता १४६/१४४ . Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २७९ सत्यं शिवं सुन्दरम् सत्य का अणुव्रत सत्य का उद्घाटन सत्य का सही सोपान सत्य की उपलब्धि सत्य की खोज १०९ ३४/३२ ___३०/२८ ७५ १५१/१५३ १०१ १००/९५ ३३/३३ भोर गृहस्थ/मुक्तिपथ गृहस्थ/मुक्तिपथ बूंद-बूंद १ समता/उद्बो आगे गृहस्थ/मुक्तिपथ समता/उद्बो मेरा धर्म अनैतिकता सोचो! ३ प्रज्ञापर्व प्रवचन ९ संभल मंजिल १ वि वीथी/राज बूंद-बूंद २ गृहस्थ/मुक्तिपथ मंजिल १ संभल मुक्तिपथ/गृहस्थ सत्य की चाबी : नैतिकता सत्य की जिज्ञासा सत्य की प्रतिपत्ति के माध्यम सत्य की यात्रा सत्य की लौ जलती रहे सत्य की साधना सत्य की सार्थकता सत्य के प्रति समर्पण सत्य के प्रयोक्ता : भगवान महावीर सत्य क्या है ? १५ १४ १४७ २०७ २१/७ ३४ २८/२६ ६५ ५२ ३०/३२ १५२ सत्य-दर्शन सत्यनिष्ठा की सर्वाधिक आवश्यकता सत्य : शाश्वत और सामयिक सत्यशोध के लिए समर्पित व्यक्तित्व : आचार्य भिक्षु सत्य से साक्षात्कार का अवसर सत्य : स्वरूप-मीमांसा सत्य ही भगवान है। सत्याग्रह : परिपूर्णता के आयाम सत्याग्रही और सत्यग्राही सतयुग और कलियुग सत्संग सत्संग का महत्त्व सत्संग लाभ कमाले सत्संग है सुख का स्रोत ११० ९९/१५५ प्रवचन ४ प्रज्ञापर्व मनहंसा वि वीथी/राज आलोक में बैसाखियां प्रवचन ४ प्रवचन ९ आगे संभल प्रवचन ११ १२५ ६२ २५ ६२ २२८ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सत्संगति सदाचार की नयी लहर सदाचार के मूल तत्त्व सद्गति : दुर्गति सद्गुरु की शरण सद्गुरु की पहचान संतोष परमसुखी सन्त समागम संतुलन की समस्या : एक चितनीय प्रश्न संतों की स्वागत सामग्री - त्याग सन्दर्भ का मूल्य संन्यास के लिए कोई समय नहीं होता संन्यासी और गृहस्थ के कर्तव्य सपना एक नागरिका का एक नेता का सप्तभंगी सफर : आधी शताब्दी का सफल जीवन की पहचान - भाव विशुद्धि सफलता का दूसरा सूत्र सफलता का प्रमाण सफलता का मार्ग और छात्र - जीवन सफलता का प्रथम सूत्र सफलता के पांच सूत्र सफलता के साधन सफलता के सूत्र सफल मनुष्य जीवन सफल युवक सब कुछ कहा नहीं जा सकता सबके लिए उपादेय सब धर्मों का नवनीत सबल कौन ? सबसे उत्कृष्ट कला सबसे बड़ा काम चरित्र का विकास आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रवचन ९ क्या धर्म ज्योति से / राज प्रवचन १० प्रवचन ९ प्रवचन ९ आगे बूंद-बूंद १ क्या धर्म शांति के समता/ उद्बो मुखड़ा बूंद-बूंद १ बैसाखियां मुक्तिपथ / गृहस्थ सफर जब जागे बैसाखियां मुखड़ा शांति के बैसाखियां ज्योति से भोर वि दीर्घा राज / दोनों सूरज शांति के मनहंसा प्रवचन १९ नैतिक मंजिल २ / मुक्ति इसी बूंद-बूंद २ बूंद-बूंद १ १७२ ५१ ११९/१३३ २०५ १२ ९१ ८९ २३ १३८ १२३ १५९/१६१ ३७ ११९ ८८ ११६/१२१ १ . ७५ २६ ७० १८९ २४ १ १८० १८५ १५० /१८८ ६१ १०० १६२ ९४ १३४ ५६/८० १७७ ९५ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २८१ २५६ १४० कुहासे सबसे बड़ा चमत्कार सबसे बड़ा सुख है अनासक्ति सबसे बड़ी आवश्यकता सबसे बड़ी पूंजी सबसे बड़ी त्रासदी सबसे सुन्दर फूल सबसे सुन्दर रचना सबहु सयाने एक मत सभ्यता के नाम पर समग्र क्रांति और अणुव्रत समझौतावादी बनें समता का दर्शन समता का प्रयोग समता का मूर्त रूप : धर्म समता की पौध समता की साधना समत्वदृष्टि समत्व का विकास समत्व के द्वार से नहीं होता है पाप का प्रवेश समन्दर चुनाव का : नौका सिद्धांत की समन्वय समन्वय का मंच समन्वय का मंच : अणुव्रत (१-२) समन्वय का मूल समन्वय को खोजें समन्वय मंच की अपेक्षा समय को पहचानो समय का मूल्य समर के दो पहलू समर्पण ही उपलब्धि समष्टि सुधार का आधार-व्यष्टि सुधार समस्या नाज की : समाधान अणुव्रत का समस्या और समाधान सोचो ! ३ मनहंसा प्रवचन ११ घर/भोर ३०/१७२ बैसाखियां समता २५१ बैसाखियां १५२ लघुता १९५ १२५ वि दीर्घा/अनैतिकता ७९/१९२ प्रवचन ४ १३२ आगे/सोचो ! ३ २७३/९० खोए बूंद-बूंद १ उद्बो/समता ३१/३१ खोए मंजिल १ १५८ मंजिल १ लघुता ९५ ८६ २४ कुहासे ८७ धर्म एक समता/उद्बो अणु गति १३४ ५३/५३ ६८-७६ घर ९३ १९४ प्रज्ञापर्व २८ बैसाखियां १०९ प्रवचन ११ प्रवचन ९ मेरा धर्म मंजिल २/मुक्ति इसी २१/३७ प्रवचन १० ७५ जीवन सूरज १५८ ३३ ३० Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ २८२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण समस्या का मूल : परिग्रह चेतना कुहासे समस्या का स्थायी समाधान-अहिंसा प्रवचन ९ २७३ समस्या का हल सूरज समस्या की धूप : समाधान की छतरी संभल २१२ समस्या के बीज : हिंसा की मिट्टी अतीत का/धर्म एक १०१/३ समस्या के मेघ : समाधान की पवन मनहंसा १०६ समस्या : समाधान बीति ताहि १४० समस्याओं का समाधान घर प्रवचन ९ १७१/१६३ समस्याओं का समाधान-चेतना जागृति जागो! २३१ समस्याओं के मूल में खड़ी समस्या बैसाखियां ११७ समाज और अहिंसा मनहंसा १०२ समाज और व्यक्ति की सफलता सूरज समाज और समानता मनहंसा समाज और स्वावलम्बन मनहंसा समाज-परिवर्तन का आधार नैतिक समाज-रचना के आधार आलोक में समाज-विकास का आधार : विधायक भाव क्या धर्म १०८ समाजवाद और अहिंसा अणु गति १६४ समाजवाद और अपरिग्रह गृहस्थ/मुक्तिपथ ६२/७० समाजवाद का आधार-नैतिक विकास वि वीथी/अनैतिकता ४९/२१७ समाजवाद, कांग्रेस और अहिंसा अणु संदर्भ समाजवाद, व्यक्तिवाद और अहिंसा जब जागे समाजवादी व्यवस्था और हिंसा का अल्पीकरण अणु गति समाजवादी व्यवस्था और परिग्रह का अल्पीकरण अणु गति समाज व्यवस्था और अहिंसा अणु गति/अणु संदर्भ १३७/२४ समाज व्यवस्था और धर्म प्रश्न ६० समाज व्यवस्था का परिवर्तन क्यों ? मुखड़ा १२३ समाधान का मार्ग हिंसा नहीं सफर/अमृत १५३/११९ समाधान की अपेक्षा नैतिकता के क्या धर्म ६९ समाधान की दिशा ज्योति से १०३ समाधान के आईने में युग की समस्याएं सफर/अमृत ९३/४३ समाधान के दर्पण में देश की प्रमुख समस्याएं क्या धर्म ७३ २०६ ९० ८६ १४१ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २८३ १०८ २४ १८ समाधान के दो रूप बैसाखियां १०५ समाधान के स्वर अतीत का समाधि का सूत्र खोए/लघुता ७०/८६ मनहंसा/मंजिल १ १३६/२२५ समिति, गुप्ति और दण्ड मंजिल २ समीक्षा अतीत की : सपना भविष्य का सफर समूह और मर्यादा मुखड़ा ११४ समूह-चेतना का विकास आलोक में सम्यक्त्व सोचो ! ३/प्रवचन५ २८३/१२६ सम्यक्करण का महत्त्व संभल १७१ सम्यक् चारित्र मुक्तिपथ/गृहस्थ सम्यक तप मुक्तिपथ/गृहस्थ ९१/९६ सम्यक्त्व का दूषण : शंका मंजिल २ १८७ सम्यक् दृष्टि की पहचान मंजिल १ सम्यक् दृष्टिकोण प्रवचन ४ सम्यग् ज्ञान मुक्तिपथ गृहस्थ ८२/८६ सम्यग्ज्ञान का विषय गृहस्थ/मुक्तिपथ ९०/८५ सम्यग् ज्ञान की अपेक्षा मुक्तिपथ/गृहस्थ ८३/८८ सम्यग्दर्शन मुक्तिपथ गृहस्थ ७४/७८ सम्यग् दर्शन का पृष्ठपोषक समता/उद्बो सम्यग्दर्शन के दो प्रकार प्रवचन ५ सम्यग्दर्शन के परिणाम गृहस्थ/मुक्तिपथ ८०/७६. सम्यग्दर्शन के विघ्न मुक्तिपथ गृहस्थ ८०/८४ सम्यग्दर्शन : मिथ्यादर्शन प्रवचन ५ सम्यग्दृष्टि के लक्षण मुक्तिपथ/गृहस्थ ७८/८२ सम्पन्नता का उन्माद और राबर्ट केनेडी की हत्या अणु संदर्भ सम्प्रदाय के सितार पर सत्य की स्वर संयोजना प्रज्ञापर्व सम्प्रदायवाद का अन्त प्रवचन ११ २०७ सम्भव है व्यक्तित्व का निर्माण लघुता सम्मेद शिखर धर्म एक . सर्वजन हिताय : सर्वजन सुखाय सूरज सर्वधर्मसद्भाव अमृत/अनैतिकता २८/१८८ १७६ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सर्वधर्म समन्वय सर्वधर्म समभाव और स्याद्वाद सर्वांगीण दृष्टिकोण सर्वोत्तम क्षण सर्वोदय और अणुव्रत सर्वोपरि तत्त्व सहना आत्म धर्म है. सहने की सार्थकता है समभाव सहिष्णुता का कवच सही दृष्टिकोण सहु सयाने एक मत सांस्कृतिक मूल्यों का विनिमय सांस्कृतिक विकास क्यों ? साक्षरता और सरसता सागरमल बैद साढ़े तीन हाथ भूमि चाहिए साढ़े पच्चीस आर्य देशों की पहचान सादा जीवन उच्च विचार सादगी व सरलता निर्धनता की पराकाष्ठा नहीं साधना में बाधाएं साधना और लब्धियां साधना और विक्षेप में द्वन्द्व साधना और शरीर साधना और सेवा साधना और स्वास्थ्य का आधार - खाद्य संयम साधना कब और कहां ? साधना का उद्देश्य साधना का जीवन साधना का प्रभाव साधना का प्रशस्त पथ साधना का मार्ग : तितिक्षा साधना की आंच : संकल्प का घट साधना की आयोजना आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्म एक मेरा धर्म मुक्तिपथ / गृहस्थ कुहासे नैतिक / सूरज प्रवचन १० खोए मनहंसा बैसाखियां प्रवचन ११ संभल कुहासे शान्ति के बैसाखियां धर्म एक मंजिल १ अतीत भोर नैतिक खोए प्रबचन ५ खोए मंजिल २ प्रश्न बूंद-बूंद २ लघुता दीया प्रवचन ९ आगे बूंद-बूंद २ मंजिल १ आलोक में वि वीथी ४४ १९ ८७/९२ १३८ १५३/९६ ९ ९९ १४४ १७० २१० १९३ ६ १०८ १४२ १९७ १३० १६१ १९४ १३ १०० १९१ १०७ १४६ ६२ १०१ २०४ ८९ २२२ १४४ ९१ ३५ ९० ६८ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २८५ खोए साधना की पृष्ठभूमि-आहार विवेक साधना की प्रथम निष्पत्ति खोए साधना की भूमिकाएं लघुता साधना की सफलता का रहस्य आगे साधना के प्राथमिक लाभ खोए साधना बनाम शक्ति घर साधना में अवरोध जागो! साधना, संगठन और संविधान जब जागे साधना संघबद्ध भी होती है मुखड़ा १४७ साधर्मिक मिलन शान्ति के २३५ साधुओं की चर्या मुखड़ा १७३ साधु का विहार घर ८८ साधु की पहचान संभल ८७ साधु की भिक्षाचर्या संभल १०८ साधु की श्रेष्ठता घर साधु जनता को प्रिय क्यों ? प्रवचन ४ १२४ साधु-जीवन की उपयोगिता साधु साधुता के पेरामीटर अमृत/सफर ९३/१२७ साधुवाद के लिए साधुवाद क्या धर्म १५३ साधु-संस्थाओं का भविष्य कुहासे साधु-साध्वियों के पारस्परिक संबंध जागो ! साधु-संस्था की उपयोगिता अणु गति २०० बूंद-बूंद १ १२३ साध्य और सिद्धि आगे साध्य तक पहुंचने का हेतु : सेवाभाव दीया १६२ साध्य-साधन विवेक सूरज ३५ साधर्म्य और वैधर्म्य प्रवचन १० सान्निपातिक भाव गृहस्थ/मुक्तिपथ २०७/१८९ सापेक्षता से होता है सत्य का बोध दीया १२९ सामञ्जस्य खोजें प्रवचन १० सामाजिक क्रान्ति और उसका स्वरूप आलोक में १७९ सामाजिक क्रान्ति के सूत्रधार-भगवान् महावीर बीती ताहि सामाजिक चेतना का विकास प्रवचन ११ २०० :: :: : ::: : 23.32 2 55252. ८२ mr ४२ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सामाजिक परंपरा : रूढ़ि से कुरूढ़ि तक सामाजिक बुराइयों का बहिष्कार सामाजिक विकास और अहिंसा सामाजिक सम्पर्क के सेतु सामाचारी संतों की सामायिक आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आलोक में मंजिल १ धर्म एक आलोक में मुखड़ा प्रवचन ९/ प्रवचन ५ दीया ९७ प्रवचन ९ गृहस्थ/मुक्तिपथ ११२/१०७ संभल २८ घर अणु गति १७७ अनैतिकता अणु संदर्भ प्रवचन ९ बूंद-बूंद २ जब जागे जीवन सामूहिक जीवन-शैली सामूहिक स्वाध्याय सामान्य और विशेष साम्प्रदायिक मैत्री-भाव जागे साम्प्रदायिक समन्वय की दिशा साम्यवाद और अध्यात्म १३५ १७४ १४८ ३८ कुहासे घर १५८ ७७ साम्यवाद और साम्ययोग सार्थक जीवन सार्थक जीवन के लिए सार्वभौम धर्म का स्वरूप सावधान ! चुनाव सामने हैं सावधानी की संस्कृति सा विद्या या विमुक्तये साहित्य और कला का सामाजिक मूल्य साहित्य के क्षेत्र में समन्वय साहित्य में नैतिकता को स्थान साहित्य-साधना का लक्ष्य सिंहवृत्ति और श्वावृत्ति सिंहावलोकन सिंहावलोकन का दिन सिंहावलोकन की वेला सिद्ध बनने की प्रक्रिया सिद्धान्त का महत्त्व उसके सदुपयोग में है सिद्धान्त विज्ञान की कसौटी पर सिद्धि का द्वार ३७ १८७ २०७ आलोक में अणु गति प्रवचन ११ शान्ति के बैसाखियां सूरज प्रवचन ५ प्रवचन ९ प्रवचन ५ संदेश मंजिल २ सोचो ! ३ १५७ २५० १०३ २४० २११ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ कुहासे २०७ १०४ ११५ २४ १२७ x . १०७ २८ १३९ सीमा में असीमता सीमा में निःसीमता सुख अपने भीतर है सुख और उसके हेतु सुख और दुःख : स्वरूप और कारण-मीमांसा सुख और शांति का मार्ग सुख और शान्ति का मूलः संयम सुख और शान्ति का सही मार्ग सुख का आधार सुख का मार्ग सुख का मार्ग : त्याग सुख का मूल : मंत्री-भावना सुख का राजमार्ग सुख का रास्ता सुख का सीधा उपाय सुख की खोज सुख के साधन सुख को सहना कठिन है सुख क्या है ? सुख-दुःख अपना-अपना सुख दुःख का सर्जक स्वयं सुख दुःख की अवधारणा सुख प्राप्ति का मार्ग-अध्यात्म सुख मत लूटो, दुःख मत दो सुखवाद और नैतिकता सुखशय्या और दुःखशय्या सुख-शान्ति का आधार सुख-शान्ति का पथ सुख-शान्ति का मार्ग सुखी कौन ? सुखी जीवन का मंत्र--प्रेक्षाध्यान सुखी जीवन की चाबी अणु गति समता अनैतिकता लघुता आगे नैतिक प्रवचन ११ प्रवचन ४ प्रवचन ११ प्रवचन ११ बूंद-बूंद १ प्रवचन ११ सूरज बैसाखियां प्रवचन ९ सूरज मुखड़ा प्रवचन ४ प्रवचन १० बूंद-बूंद २ सफर/अमृत सोचो !३ प्रवचन ११ अनैतिकता दीया भोर भोर भोर प्रवचन ९ प्रवचन १० समता/उद्बो १३८ १७२ १८३ ७० १३२/९८ ९४ १२८ १६८ १८ १९८ १८८ ६५ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण घर भोर १९२ धर्म एक १८० बीती ताहि दोनों ९३/२३ प्रवचन ४ २१२ २८० प्रवचन ११/मंजिल १ ८०/११२ बीती ताहि संभल २५९ समता २११ घर नैतिक २३ सुखी समाज की रचना सुगनचंद आंचलिया सुघड़ महिला की पहचान सुझाव और प्रेरणा सुधार का आधार सुधार का प्रारम्भ स्वयं से सुधार का माध्यम-हृदय-परिवर्तन सुधार का मार्ग सुधार का मूल सुधार का मूल-व्यक्ति सुधार का सही मार्ग सुधार की क्रान्ति सुधार की बुनियाद सुधार की शुभ शुरूआत स्वयं से हो सुधारवादी व्यक्तियों से सुननी सबकी; करनी मन की सुपात्र कौन ? सुरक्षा और निर्भयता का स्थान सुरक्षा के लिए कवच सुरक्षा : धर्म की या सम्प्रदाय की ? सुसंस्कारों को जगाया जाए सूक्ष्म जीवों की संवेदनशीलता सूक्ष्म दृष्टि वाला व्यक्तित्व सूरज की सुबह से बात सृजन के द्वार पर दस्तक सृष्टि : एक विवेचन सृष्टि का भयावह कालखंड सृष्टि क्या है ? सेठ सुमेरमलजी दूगड़ सेवा का महत्त्व सेवा के मोर्चे पर सैद्धान्तिक भूमिका पर समन्वय सोचो, फिर एक बार ५७ सूरज खोए भोर जन-जन मंजिल १ संदेश घर आलोक में वि वीथी/राज प्रवचन १० लघुता जीवन ९४/१८१ २५ १३९ कुहासे २२८ ० ० सफर प्रवचन ८ बैसाखियां प्रवचन ८ धर्म एक मंजिल १ प्रज्ञापर्व अणु गति दोनों १८५ २३५ १५२ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ २८९ सोचो ! समझो !! सोना भी मिट्टी है सोवियत संघ में बदलाव सोहनलाल सेठिया स्त्री का कार्यक्षेत्र : एक सार्थक मीमांसा स्थविरों की महत्ता स्थितात्मा : अस्थितात्मा स्थिति के बाद गति स्थितियों के अध्ययन का दृष्टिकोण बदले स्थिरवास क्यों ? स्मरण-शक्ति का विकास स्मृति को संजोए रखें स्याद्वाद ९० प्रवचन ४ समता २४३ बैसाखियां धर्म एक जीवन १०४ प्रवचन ४ प्रवचन १० १७५ दोनों ६१ ज्योति के २३ घर २६९ बैसाखियां १३५ प्रवचन १०/गृहस्थ २३९/१०६ क्या धर्म/मुक्तिपथ ८०/१०१ नई पीढ़ी/मंजिल १ ४३/१२८ अतीत प्रवचन ४ १७८ मंजिल २ १५४ प्रज्ञापर्व मुक्तिपथ २०५ गृहस्थ वि वीथी राज ११५ जब जागे ७० धर्म एक अतीत का २३/१०८ आ. तु. १९८ प्रवचन ११ १४३ आ. तु./प्रगति की २१०/२९ संभल १५७ आ. तु./संदेश २०२/३ जन-जन समता/उद्बो १२०/१२१ समता/उद्बो १२८/१२९ प्रेक्षा १०८ स्याद्वाद और जगत् स्याद्वाद : जैन तीर्थकरों की अनुपम देन स्याद्वाद : सापेक्षवाद स्व की अनुभूति ही सच्ची स्वतंत्रता स्वतंत्र चिंतन का अभाव स्वतंत्र चिंतन का मूल्य स्वतंत्र चेतना का सजग प्रहरी स्वतंत्रताः एक सार्थक परिवेश स्वतंत्रता और परतंत्रता स्वतंत्रता का मूल्य स्वतंत्रता की उपासना स्वतंत्रता की चाह, धर्म की राह स्वतंत्रता क्या है ? स्वतंत्रता में अशान्ति क्यों ? स्वतंत्र भारत और धर्म स्वतंत्र भारत के नागरिकों से स्वत्व का विस्तार स्वभाव की दिशा स्वभाव-परिवर्तन की प्रक्रिया-शरीर-प्रेक्षा १४७ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० स्वयं का ही भरोसा करें स्वयं की उपासना स्वयं की पहचान स्वयं के अस्तित्व को पहचानें स्वयं को खोजना है समाधान स्वयं सत्य खोजें स्वयं से शुभ शुरूआत करें स्वरूप बोध की बाधा स्वर्ग कैसा होता है ? स्वर्ण - पात्र में धूलि स्वर्णिम भारत की आधारशिला --- अणुव्रत दर्शन स्वस्थ और शालीन परंपरा स्वस्थ जीवन के तीन मूल्य स्वस्थ जीवन जीने का मार्ग स्वस्थ समाज का निर्माण स्वस्थ समाज निर्माण में नारी की भूमिका स्वस्थ समाज रचना स्वस्थ समाज संरचना स्वस्थ समाज-संरचना के सूत्र स्वागत और विदाई स्वाध्याय स्वाध्याय एक आईना है स्वाध्याय और ध्यान स्वाध्याय प्रेमी बनें स्वाध्याय : साधना का प्रथम सोपान स्वार्थ का अतिरेक स्वार्थ का भार स्वार्थ चेतना : नैतिक चेतना स्वावलंबन स्वास्थ्य स्वास्थ्य का पर्व स्वास्थ्य की आचार संहिता आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सोचो ! ३ आगे मुक्ति इसी / मंजिल प्रवचन प लघुता खोए प्रवचन १० बूंद-बूंद २ समता समता मनहंसा प्रवचन O लघुता घर समता / उद्बो भोर आगे प्रवचन १० जीवन प्रवचन ११ / संभल मंजिल २ जब जागे सोचो ! ३ खोए कुहासे दीया १ ७० ३७/२२ १५३ १४६ १५० ५२ १३३ २४० २२७ ८२ २३७ १९१ ५२ २०३ / २०७ ७७ २६८ २२५ १७३ ७६/३० प्रवचन ५ १५ मंजिल २ / मुक्ति इसी ३६/५६ ज्योति से ६५ शान्ति के २३३ संभल ८३ अतीत का / धर्म एक ४० /३४ अनैतिकता २४९ १३ ६० २४० १८९ ७ ४८ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ स्वास्थ्य के सूत्र मुखड़ा हम जागरूक रहें हम निःशल्य बनें हम पर्याय को पहचानें हम भाव-पुजारी हैं हम यंत्र हैं या स्वतंत्र ? हम शरीर को छोड़ दें, धर्म-शासन को नहीं हमारा कर्तव्य हमारा धर्मसंघ और मर्यादाएं हमारा सिद्धान्त हमारी नीति हरिजनों का मन्दिर-प्रवेश २८४ २१५ ६३ कुहासे हाजरी हिंसा और अहिंसा हिंसा और अहिंसा का द्वन्द्व हिंसा और अहिंसा के प्रकम्पन हिंसा और अहिंसा को समझे हिंसा और परिग्रह हिंसा का कारण : अभाव और अतिभाव हिंसा का नया रूप हिंसा का प्रतिकार अहिंसा ही है हिंसा का स्रोत कहां? हिंसा की समस्या सुलझती है संयम से हिंसा के नये-नये रूप हिंसा भय लाती है हिन्दी का आत्मालोचन हिंदू : नया चिंतन, नयी परिभाषा हे प्रभो ! यह तेरापंथ होली : एक सामाजिक पर्व हृदय-परिवर्तन हृदय-परिवर्तन की आवश्यकता भोर १२९ प्रवचन ४ १३८ प्रवचन ८ प्रवचन ५ ११२ मुखड़ा दायित्व ३९ घर वि वीथी प्रवचन ११ प्रवचन ९ ५९ मंजिल १ ११८ गृहस्थ मुक्तिपथ २३/२१ प्रवचन १० २२२ आलोक में शान्ति के ४९/३६ बैसाखिया प्रज्ञापर्व प्रवचन ५ अणु गति बैसाखियां प्रज्ञापर्व बैसाखियां लघुता लघुता घर अतीत २०७ मेरा धर्म कुहासे मंजिल १ १०८ प्रवचन ५ or .» प्रवचन ११ or Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ (आचार्य तुलसी के लेख राष्ट्रीय स्तर की अनेक पत्रपत्रिकाओं में छपते रहते हैं-जैसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, हिंदुस्तान, नवभारत टाईम्स, राजस्थान पत्रिका कादम्बिनी, नवनीत आदि । पर वे सभी अंक उपलब्ध न होने से इस परिशिष्ट में हम उनका समावेश नहीं कर सके। इसमें केवल तेरापंथ संघ से सम्बन्धित पत्र-पत्रिकाओं के लेखों की सूची ही दी जा रही है। यहां केवल सन् ५५ तक आए लेखों का विवरण ही दिया जा रहा है क्योंकि सन् ८४ से आगे की पत्र-पत्रिकाओं के प्रायः सभी लेख पुस्तकों में आ चुके हैं। अतः पुनरुक्तिभय से हमने उन लेखों का समावेश नहीं किया है। _ 'प्रेक्षाध्यान' पत्रिका जो कि पहले 'प्रेक्षा' नाम से निकलती थी, उसका प्रकाशन सन् ७८ से प्रारम्भ हुआ है। उसके कुछ लेखों के अतिरिक्त प्रायः सभी लेख 'प्रेक्षा अनुप्रेक्षा' पुस्तक में हैं। इसी प्रकार 'तुलसी प्रज्ञा' में भी पुस्तकों के अतिरिक्त नए लेख कम हैं अतः इन दोनों पत्रिकाओं के आलेखों का एक साथ निर्देश कर दिया गया है। यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से पत्र-पत्रिकाओं के सभी लेखों की सूची देनी चाहिए थी पर उन लेखों की संख्या हजारों में हो गयी अतः हमने सूची बनाने के बाद भी पुस्तक में आए सभी लेखों को इस अनुक्रमणिका से निकाल दिया है। कहीं-कहीं शीर्षक परिवर्तन के साथ जो लेख पुस्तक में छपे हैं, उनका पृथक्करण सम्भव न होने से वे पुनरुक्त हो सकते हैं। इसमें सर्वप्रथम साप्ताहिक पत्रिका 'जैन भारती' के लेखों की सूची है, जो वर्तमान में मासिक पत्रिका है। इसके साथ ही प्राचीन 'विवरण पत्रिका' के आलेख भी इसमें आबद्ध Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ २९३ हैं क्योंकि पहले जैन भारती ही 'विवरण पत्रिका' के रूप में प्रकाशित होती थी। जिन लेखों के आगे तारीख का उल्लेख नहीं है, वे मासिक पत्रिका से सम्बन्धित हैं क्योंकि सन् ४७ से ५२ तक जैन भारती मासिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित होती थी तथा सन् ६५ से ७१ में मासिक तथा साप्ताहिक दोनों रूप से जैन भारती का प्रकाशन होता रहा। अणुव्रत के साथ जनपथ के लेखों का समाहार है क्योंकि अणुव्रत अपने पूर्वरूप में जनपथ के रूप में प्रकाशित होता था। अणुव्रत पाक्षिक पत्र है, प्रेक्षाध्यान, युवादृष्टि मासिक तथा तुलसीप्रज्ञा त्रैमासिक पत्रिका है।) जैन भारती अखंड के प्रतिपादन की पद्धति २३ जुलाई ७२ अचौर्य की दिशा में प्रयाण २१ नव० ७१ अजीव पदार्थ २ जुलाई ५३ अज्ञानता और अहं ही अशांति का कारण २ जन० ६६ अज्ञान : दुःख की खान १७ जन० ७१ अणुअस्त्रों की होड : मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा १९ मई ५७ अणुव्रत जून ५१/अक्टू० ६९ अणुव्रत' १९ दिस० ६५ अणुव्रत' : अध्यात्म पक्ष दृढ़ करने का आंदोलन मई ५९ अणुव्रत आंदोलन ११ अप्रैल ५६ अणुव्रत आंदोलन : आत्मसंयम और आत्मसुधार का आंदोलन १० मई ५९ अणुव्रत आंदोलन : आज के युग में मानव बनाने की मशीन १८ जन० ५६ भणुव्रत आंदोलन : एक आचरणमूलक मानव धर्म १० मई ५९ अणुव्रत आंदोलन चरित्र विकास और शांति का आंदोलन है। ४ दिस० ५५ १. १९५२ सरदारशहर ४. अणुव्रत विचार परिषद्, २. सोलहवां वार्षिक अणुव्रत अधिवेशन सरदारशहर ३. ११-३-५६ अजमेर ५. २०-११-५५ उज्जैन Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अणुव्रत : एक औषधि जन०६९ अणुव्रत और व्यक्ति सुधार १५ दिस०६८ अणुव्रत का अभियान : जीवन शुद्धि का मध्यम मार्ग ८ मार्च ५९ अणुव्रत की अपेक्षा १७ सित० ६७ अणुव्रत की पृष्ठभूमि २४ फर० ८० अणुव्रत धर्म का आंदोलन है या नहीं ? १३ दिस० ७० अणुव्रत ने क्या किया ? १६ अक्टू० ६६ अणुव्रत भावना और वैयक्तिक स्वातंत्र्य का मूल्य' १५ अग० ५४ अणुव्रत : विश्वधर्म ५ सित० ७१ अणुव्रती जीवन का आदर्श १४ अग० ६६ अणुव्रती संघ : आध्यात्मिक दृष्टिकोण ११ जुलाई ५४ अणुव्रती संघ और जीवन विकास अप्रैल से अक्टू० ५० अध्यात्म और विज्ञान' १६ मार्च ६९ अध्यात्म का गूढ़ रहस्य फर० ६८ अध्यात्म-भारत की सम्पत्ति अक्टू० ६९ अध्यापकों और छात्रों से १६ मई ७१ अध्यापकों का जीवन छात्रों के लिए खुली किताब ११ जन० ५८ अनशन : पुरुषार्थ का प्रतीक जन०-फर० ७१ अनशन या लम्बी तपस्या २७ अक्टू० ६८ अनासक्त योग २१ अप्रैल ६३/९ जन० ६६ अनासक्ति ११ अग०७४ अनासक्ति : एक प्रयोग २९ नव० ७० अनासक्ति के विविध प्रयोग ३१ जन० ७१ अनुभव और चिंतन का योग फर० ६९ अनुशासन १६ फर० ५८/१३ एवं २० जून ७१ अनुशासन और एकता : संघ के दो आधार २ मार्च ७५ अनुशासन और विवेक २२ सित० ८४ अनेकांतवाद २६ मई ६८ अनेकांतवाद-समन्वयवाद २ मार्च ६९ अन्तर अनुप्रेक्षा का दर्शन १३ जुलाई ८० १. स्वतंत्रता दिवस ३. १३-९-६८ मद्रास २. ३१-७-६७ अहमदाबाद Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट अन्तर् अंतर निरीक्षण का दिवस गांठों को खोलने वाला दिन अन्तर्-निर्माण अन्तर्मुखता अन्याय का प्रतिकार अन्वेषण आवश्यक है अपनी वृत्तियों को संयमित बनाइये अपने आपको सुधारें अपने दुर्गुणों को भी देखें अपने दोषों और दुर्गुणों से लड़ाइयां लड़नी होंगी अपव्यय अप्रामाणिकता का प्रत्याख्यान ब्रह्मचर्य से ब्रह्मचर्य की ओर अभाव, अतिभाव और स्वभाव अभिनंदन मेरा नहीं, अध्यात्म का है अभिभावकों के आचरण अभिभावकों का कर्त्तव्य अभिमान कौन करता है ? " अरिहंत किसे कहते हैं ? अर्थवाद एवं यथार्थवाद अविश्वासी विश्वस्त नहीं बन सकता अशांति का मूल --- संग्रह अस्पृश्यता मानवता का कलंक है अहिंसक और कायरता अहिंसा अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत अहिंसा और जनतंत्र' अहिंसा और जीवन के पहलू अहिंसा और जैन समाज अहिंसा और विश्वशांति अहिंसा और शाश्वत धर्म १. ३१-१०-६७ अहमदाबाद २. ४-८-६८ मद्रास २९५ २३ अग०७० २३ सित० ७३ १४ अप्रैल ६८ अक्टू ० ६९ ६ अक्टू० ६८ २६ मई ६३ २० दिस० ७० १२ जुलाई ५९ ११ जन ७० १० अक्टू० ६५ २७ जून ७१ २८ नव० ७१ २३ जन० ७२ २ अग० ७० ४ मई ६९ मई ४९ १२ सित० ६५ १४ दिस० ६९ ३१ अक्टू० ६५ १७ जन० ६५ / ८ सित० ६८ १ सित० ७४ २६ अप्रैल ७० वि० २० सित० ५१ ४ अग० ५७ दिस० ४८ ९ दिस० ८४ २४ जून ८४ ४ अग० ६८ ९ जुलाई ६१ ६ जुलाई ५८ मई ६९ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अहिंसा का क्रियात्मक प्रशिक्षण हो २२ अक्टू० ६७ अहिंसा का फलित २९ जून ६९ अहिंसा कायरों का नहीं, वीरों का धर्म है २० जन० ५७ अहिंसा की प्राथमिकता १८ अग०६८ अहिंसा की व्यापकता ९ नव० ५८ अहिंसा की समृद्धि के लिए त्याग की समृद्धि चाहिए २७ अप्रैल ५८ अहिंसा क्या है ? मार्च ५२/वि० अप्रैल ४७ अहिंसा दिवस का उद्देश्य १३ अक्टू० ५७ अहिंसा पञ्चशील २६ सित० ६५ अहिंसा में प्रतिरोध की शक्ति आए १० सित० ६७ अहिंसा जीवन का भाचार धर्म है १२ नव० ६७ अहिंसा में विश्वास करने वालों का संगठन हो ९ नव० ६९ अहिंसा साधे सब सधे ६ अग० ७२ आगम-अनुसंधान की आवश्यकता १५ जून ६९ आगमों की मान्यता १६ जून ५७ आग्रहवृत्ति लक्ष्यप्राप्ति में बाधक है। १७ अप्रैल ६६ आचार-संहिता की आवश्यकता १४ दिस० ५८ आचारांग का प्रतिपाद्य २ मार्च ६९ आचार्य भिक्षु की महान् देन १३ फर० ५५ आज का युग और धर्म ३० अग० ५९ आज की संयम शून्य विद्या शैली ८ जून ५८ आज धर्म बलिदान चाहता है २१ मार्च ६५ आत्मजागृति की लौ जलाएं ३ नव० ५७ आत्म-दमन २८ मार्च ६५ आत्म-दर्शन ही परमात्म-दर्शन है ३१ मार्च ६३ आत्म-नियमन १८ फर० ७१ आत्म निरीक्षण २४ अग० ६९ आत्म निरीक्षण करें दिस० ५० आत्म निरीक्षण का पर्व ३१ मई ७० १. अहिंसा दिवस, सुजानगढ़ ४. बम्बई, मर्यादा महोत्सव । २. १५-२-६६ भादरा, स्वागत समारोह। ५. २२-८-६७ अहमदाबाद । ३. २६-७-६७ अहमदाबाद । ६.१-९-६८ मद्रास । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ २९७ आत्मनिर्भरता आत्मपथ का निर्माण आत्मवाद आत्मवाद और विद्यार्थी समाज* आत्म विजेता ही सच्चा वीर आत्मशुद्धि के साथ जनशुद्धि आत्म-समाधि का मार्ग-आर्जव' आत्म-सुरक्षा आत्महत्या के दो पहलू आत्महत्या महापाप है आत्मा एक त्रैकालिक सत्य है आत्मा और दया दान आत्मा का भस्तित्व श्रद्धागम्य है आत्मा का स्वरूप आत्मानुशासन आत्मा सबमें है आत्माभिमुखता-साधुता आत्मिक स्वतन्त्रता ही सुख व शान्ति का मार्ग है आदर्श जीवन का नैतिक मूल्य" आदर्श समाज-रचना के लिए आदर्श ही जीवन का सच्चा तीर्थ है आधि-व्याधि का मूल आध्यात्मिक जगत में पूंजी का कोई मूल्य नहीं आध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि आन्तरिक स्वच्छता आनन्द का मार्ग : मुक्ति आनन्द का स्रोत : संयम आप अपने को न भूल जाएं १० अक्टू० ७०/१८ अक्टू० ७० ___ मई ४९ ४ मई ६९/४ नव० ६२ २१ फर० ५४ २५ जन० ५९ ५ जुलाई ५९ २३ नव० ६९ ३१ अक्टू० ७१ १६ अप्रैल ५३ ७ मार्च ६५ नव० ६९ मार्च ५१ १३ अग० ६१ २७ अप्रैल ६९ १९ नव० ६७/२७ जुलाई ६९ १५ मार्च ६४ २४ अग० ७५ वि. २३ अग० ५१ २० जन० ५७ १२ दिस० ७१ २७ दिस० ६४ २१ दिस० ८० वि० ३० अग० ५१ २२ जुलाई ७९ १४ नव० ७१ ४ अप्रैल २ २ जन० ७२ ५ फर० ६१ १. ७-८-६७ अहमदाबाद । २. १६-९-५३ जोधपुर । ३. १-९-६७ अहमदाबाद । ४. ९-११-६८ मद्रास। ५. २-४-५३ बीकानेर । ६. ५-८-६८ अहमदाबाद । ७. २८-१२-५७ ८.१०-११-६८ मद्रास । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ आपको कैसा बनना है ? आपद्धर्म दुर्बलता का प्रतीक है आराधक अवश्य बनें आर्थिक विषमता का मूल - अविवेक आवरण आस्तिक नास्तिक र आस्तिक नास्तिक की पहचान आस्तिक और नास्तिक की भेद रेखा उ णो माय उत्कृष्ट मंगल -- धर्म १ आस्था का केन्द्र आहार विवेक इच्छाओं का अल्पीकरण इन्द्रियों को दबाओ मत, उनका समाधान करो उत्तम मंगल और शरण* उन तथाकथित धार्मिकों को आस्तिक कैसे बनाया जाए ? उपदेश किसके लिए ?" उपासक, उपास्य और उपासना उपासना ऊंच-नीच ईश्वर - निर्मित नहीं ऊंचाई का मार्ग ऊंचे लक्ष्य के लिए ऋजु मार्ग एक असाधारण महामानव : आचार्य भिक्षु' एकता का आधार एकता शासन का अथ है एक दिशासूचक आंदोलन एक बुनियादी सवाल एक विवेक १. २७-१०-६८ मद्रास । २. २००९ कार्तिक बदी सरदारशहर । ३. ५-१०-६७ अहमदाबाद । आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ३० मई ७१ २६ जून ६६ २४ नव० ६८ ३१ जुलाई ६६ ५ जन० ६४ २७ अग० ५३ २१ अग० ६१ ६ जुलाई ६९ १० अग० १९ १८ अक्टू० ६४ २२ अग० ७१ २४ जून ६२ ३ अक्टू० ६५ ७ सित० ६९ २९ अप्रैल ५६ सप्तमी ११ जुलाई ६५ २२ जुलाई ६९ ३१ मई ५९ ६ मार्च ६० २२ जुलाई ७३ २८ अप्रैल ६३ मई ७० ८ मार्च ७० ८ मार्च ७० २५ नव० ६२ जून ६१ २० अक्टू० ६३ अग० ७० वि० अक्टू० ४७ ४ ४. १२-४-५६ सुजानगढ़ । ५. २८-९-६७ अहमदाबाद । ६. १७-७-६७ अहमदाबाद । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ २९९ एक वृक्ष की दो शाखा एषणा एक ही सिक्के के दो बाजू ऐक्य , अनुशासन एवं संगठन ऐकान्तिक आनंद का हेतु कन्याएं क्रांति करें कर्तव्य-निष्ठा कर्तव्य भावना कर्नाटक में जैन धर्म कर्म : आवरण और निवारण कर्म और अकर्म : एक समाधान कर्म क्या है ? कर्म पर धर्म का अंकुश हो कर्म मुक्ति के साधन : स्वाध्याय और ध्यान कर्मों से अच्छा और बुरा कला और जीवन-विकास कलियुग-सतयुग कहना-सुनना-समझना काम वासना का अनुद्दीपन और निर्मूलन कार्यकर्ता अपना आत्मनिरीक्षण करें कार्यकर्ता निष्ठावान् बनें काल का मूल्य आंके कुरूढ़ियों पर प्रहार केवल दृष्टिकोण की बात कोई खाली हाथ न लौटे क्या तेरापंथ में कुआं खुदवाने का निषेध है ? क्या मोक्ष के रास्ते बंद हैं ? क्या राजनीति का अपना कोई चरित्र नहीं ? क्या हिंसात्मक उपद्रव और तोड़-फोड़ राष्ट्रीयता है ? ८ अग० ७० मार्च ७१ २ जुलाई ६३ १२ जुलाई ६४ ४ अक्टू० ७० २८ अग० ६० १ नव० ७० ९ मई ७१ ११ अग० ६८ ७ जून ७० २९ अप्रैल ८१ २९ जन० ७७ २३ अक्टू. ६६ २१ मार्च ७१ १९ अक्टू० ६९ अक्टू० ६८ १० मार्च ६८ २ फर० ६९ ३० जन०७२ १९ मई ५७ ३१ अग० ५८ २० फर० ७२ १३ जून ७१ ४ नव० ५६ ७ अक्टू० ६२ २० मई ७३ १२ अक्टू० ६९ १९ दिस० ७९ १५ अक्टू० ६७ १.७ मई, छोटी खाटू। २. ९-११-६७ अहमदाबाद । ३. ३०-८-६८ मद्रास । ४. चूरू, कार्यकर्ता सम्मेलन । ५. ३०-१०-६८ मद्रास। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण क्रांति जून ४९ क्रांति, धर्म की समाप्ति के लिए नहीं, शुद्धि के लिए १५ नव० ७० क्षमत-क्षमापन ७ दिस० ५८ क्षमा १० जून ७३ क्षमा बड़न की होत है १ जुलाई ७५/१५ सित०७४ क्षमा याचना १९ सित० ६५/२ अक्टू० ६६ खाद्यसंयम १५ मार्च ८१ गरीबी की परिभाषा ९ नव० ५८ गांधीजी का आध्यात्मिक जीवन फर० ४९ गुण-ग्राहकता' ३ अक्टू० ७१ गुणों का स्रोत : मनुष्य ९ जून ६८ गुरु कैसा हो? १ अप्रैल ५९ ग्राह्य और त्याज्य ३१ मई ५९ घर को बड़ा बनाइए ६ सित० ७० चतुर्विध संघ विशेष ध्यान दे ४ अक्टू० ८४ चरित्र को सम्मान मिले, धन और पद को नहीं नव०-दिस० ६८ चरित्र धर्म ही विश्व धर्म बन सकता है १७ सित० ६७ चरित्र निर्माण का प्रशिक्षण आवश्यक २४ दिस० ६७ चरित्र निर्माण की आवश्यकता मई-जून ५० चरित्र निर्माण के बिना राष्ट्र ऊंचा नहीं उठ सकता ३१ अग० ५८ चरित्र विकास के लिए समन्वित प्रयास हो २१ जूम ७० चरित्र सम्पन्न व्यक्ति नव०-दिस० ६९ ६ अग• ५३ चातुर्मास : धर्म की खेती का समय ५ अग० ५६ चारित्रिक और नैतिक कसौटी को चुनाव के साथ नत्थी किया जाय २३ दिस० ८४ चारित्रिक रोगों की प्राकृतिक चिकित्सा-अणुव्रत-आंदोलन १ मार्च ५९ चिन्तन की दो दृष्टियां २ सित० ७९ चेतावनी ३१ मार्च ६८ छात्र राजनीति के दुश्चक्र में न पड़कर सदाचारी बनें ११ जन० ५९ जन-जन का धर्म : जैन धर्म २४ मार्च ६३ चातुर्मास' - १. २०-९-६६ बीदासर । २.४-११-६८ मद्रास । ३. २५-७-५३ जोधपुर। ४. १६-७-५७ सरदारशहर । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ जन-जन का मार्गदर्शक: अणुव्रती संघ जन-जन से जनतंत्र की सफलता कैसे ? जनतंत्र ही अहिंसक हो सकता है। जनता से दो बातें जननेता स्वार्थवृत्ति का त्याग करें जनमानस बदले जन्म और मृत्यु : दो अवस्थाएं जब भगवान् भक्तों पर हंसते हैं जय-पराजय जयाचार्य की साहित्य साधना' जहां द्वन्द्व है, वहां दुःख है जहां परिग्रह, वहां लड़ाई जागरण का रहस्य जातिभेद कृत्रिम है। जिन खोजा तिन पाइया जीने की कला जीवन : एक अमूल्य निधि जीवन और लक्ष्य जीवन और सम्यक्त्व * जीवन का ध्येय : संयम की साधना जीवन का मूल्य समझें जीवन का लक्ष्य जीवन का सच्चा विकास आत्म शुद्धि में है जीवन का सर्वांगीण विकास शिक्षा का उद्देश्य जीवन की दुर्गति : क्रोधमान आदि जीवन की दो धाराएं जीवन की पवित्रता जीवन की सार्थकता " १. ४-७-६५ दिल्ली । २. ९-२-८१ । ३. १०-१२-६८ मद्रास । ३०१ ७ मार्च ५४ वि० १८ सित० ५२ ५ जून ६६ २८ नव० ६५ १० जन० ५४ १८ जुलाई ६५ २५ नव० ७३ १९ जुलाई ५९ २६ मई ६२ ३ अग० ६९ १ मार्च ८१ ७ सित० ६९ ७ नव० ६५ ९ फर० ६९ २५ मई ६९ ११ अक्टू० ७० २६ अक्टू० ६९ / ४ जन० ७० ३० मई ७१ २५ दिस० ६६ १२ जुलाई ७० २४ मई ५९ १० जून ७९ ९ अग० ६४ ७ मार्च ७१ ५ मई ७९ १५ अक्टू० ७२ १ दिस० ६३ २४ अप्रैल ६९ २० जुलाई ७१ ४. १९-९-६७ अहमदाबाद । ५. १८-७-७० रायपुर Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जीवन की सुरक्षा का आश्वासन जीवन के दो पक्ष जीवन को ऊंचा उठाओ जीवन क्या है ? जीवन क्षण भंगुर है जीवन : जागरण का प्रशस्त पथ जीवन में त्याग का महत्त्व जीवन में संयम का स्थान जीवन विकास का मंत्र : पुरुषार्थ जीवन विकास का मूल : अहिंसा जीवन विकास का सर्वोच्च साधन जीवन विकास का साधन : ध्यान जीवन विकास के दो सूत्र जीवन विकास क्रम जीवन व्यवहार में साधना का महत्त्व जीवन शुद्धि का मार्ग जीवन सात्त्विक बने जैन एकता क्यों ? जैन की जनसंख्या जैन-दर्शन जैन दर्शन और अणुव्रत जैन दर्शन और कर्मवाद जैन दर्शन का मौलिक स्वरूप जैन दर्शन की मौलिक विचार धारा जैन धर्म: आत्म विजेताओं का धर्म जैन धर्म आस्तिक है जैन धर्म और ऐक्य जैन धर्म और जातिवाद जैन धर्म की तेजस्विता ८ नव० ७० २९ अग० ७१ २० अक्टू० ६८ ६ जुलाई ६९ ५ अक्टू० ६९ २० जन० ५७ ८ अग० ५४ १५ दिस० ६३ ३ नव०६८ सित० ६९ अग० ६९ २६ मार्च ७२ २८ नव० ७१ १७ मई ५४ २० मई ७९ वि० ६ नव० ५२ नव० ६९ ५ दिस० ६५ ३१ मई ७० २२ नव०७० १५ दिस०६८ १७ अक्टू० ५४ २४ मई ५९ ३० जन० ६६ १५ मार्च ५९ १४ सित० ६९ अप्रैल ४९ अक्टू० ६९ १ सित०६८ १.१५-१२-६८ मद्रास २. २७-९-६७ अहमदाबाद ३. विदाई समारोह ४. ११-७-५४ बम्बई ५. २८-११-६८ मद्रास ६.३१-८-५४ पर्यषण पर्व, बम्बई Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३०३ जैन दर्शन की भूमिका पर अनेकांत' ३ दिस० ५३ जैन धर्म की महत्ता ३ मई ८१ जैन धर्म के दो चरण : अहिंसा और साम्य १५ अग० ७१ जैन धर्म पुरुषार्थ प्रधान है ___ मई ६९ जैन धर्म में व्यक्ति का नहीं, गुण का महत्त्व है २८ सित० ५८ जैन युवकों से जुलाई ५२ जैन शासन एक शृखला में आबद्ध हो २४ जन० ६५ जैन समाज एकत्व के धागे में बंधे' २७ सित० ६४ जैन समाज के लिए तीन सुझाव ६ दिस० ६४ जैनों का कर्तव्य ९ जून ६३ जैनों की संख्या २५ अग० ६८ जैसा करो, वैसा कहो २५ जून ६१ जो समता को नहीं खोता, सही माने में वही योगी है १८ अप्रैल ७१ ज्ञान अत्यंत आवश्यक है १८ मई ६९ ज्ञान का उद्भवः १३ अप्रैल ६९ ज्ञान का फल २० अप्रैल ६९ ज्ञान : दिव्य चक्षु १३ अग० ७२ ज्ञान प्रकाशकर है १० नव० ५७ ज्ञान प्रकाशप्रद है १४ अक्टू० ६२ ज्ञान प्राप्ति का सार २६ जुलाई ६४ ज्वलंत अहिंसा २९ अग० ५४ तट पर सजगता २६ अक्टू० ६९ तत्त्वज्ञान २६ अग० ५६ तप के बिना आत्मिक प्रभुता संभव नहीं वि० ९ अग० ५१ तपस्या का महत्त्व ५ अक्टू० ६९ तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ २६ अक्टू० ५८ तीन चेतावनी नव० ६९ तीन शक्तियां और तीन अंकुश ५ जुलाई ७० तीर्थंकर महावीर का अनेकान्त और स्याद्वाद दर्शन १४ अक्टू० ७९ १. २९-९-५३ जोधपुर, ४. ४-७-६७ अहमदाबाद २. पट्टोत्सव के अवसर पर ५. पर्युषण पर्व ३. ३-७-६७ अहमदाबाद ६. २९-८-६७ अहमदाबाद । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण तीर्थस्थल तेरापंथ एक जैन सम्प्रदाय है तेरापंथ का विकास तेरापंथ क्या है ? तेरापंथ दिवस की प्रेरक शक्ति त्याग ऊंचा रहा है और रहेगा त्याग : नैतिक चेतना त्याग बनाम भोग त्याग और भोग' त्रिवेणी दंभ : जीवन का अभिशाप दक्षिण भारत दक्षिण भारत धर्म-प्रधान दक्षिण भारत में जैन धर्म दया का मूल दर्शन और विज्ञान दर्शन और संस्कृति दर्शन का मूल क्या है दर्शन का स्वरूप दान से संयम श्रेष्ठ है ? दिशा बोध दीक्षा : एक अनुचिंतन दीक्षा : त्यागमूलक संस्कृति का प्रतीक दीपावली कैसे मनाएं ? दुःख और दुःख विमुक्ति दुःख से मुक्ति दुनिया सराय है दुश्चिन्तन भी हिंसा है देश का नया नक्शा देश का नैतिक पतन १५ फर० ७० १५ जुलाई ६२ ३ जुलाई ६० ११ जुलाई ८२ ४ जुलाई ७१ ७ मई ६१ १२ जुलाई ७० ११ जुलाई ६१ १९ अक्टू० ६९ २७ अग० ६७ दिस० ६९ जून-जुलाई ६९ १ मार्च ७० १५ सित० ६८ ४ दिस० ६६ ७ नव० ५४ १४ फर० ६५ अप्रैल ५२ १ नव० ६४ १८ जून ७२ १६ अप्रैल ६१ ३० मार्च ६९ ३१ मई ७१ ७ मार्च ७१ २८ अक्टू० ७१ जुलाई ६९ १८ जन० ७० १३ अप्रैल ६९ ६ अप्रैल ६१ ७ अप्रैल ६८ ३० नव• ६९ ३. २१-१०-६८ मद्रास । १. २६-८-६७ अहमदाबाद । २. १-८-६७ अहमदाबाद। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ परिशिष्ट २ देश, काल, भाव के अनुसार परिवर्तन' देश, धर्म और धर्माचार्य दो धारा' धन बनाम संयम धर्म : अनुभूति का तत्त्व धर्म अफीम नहीं, संजीवनी है धर्म आत्म-वृत्तियों को सुधारने में है धर्म आत्मशुद्धि में है धर्म-आराधना का पर्व धर्म उत्कृष्ट मंगल है धर्म : एक वस्तु चिंतन धर्म एक है धर्म और अनुशासन धर्म और उसका प्रभाव धर्म और कर्तव्य धर्म और जीवन धर्म और जीवन-निर्माण धर्म और धार्मिक धर्म और मनोविज्ञान धर्म और राजनीति धर्म और राष्ट्र-निर्माण धर्म और राष्ट्रीयता धर्म और विकार धर्म और विज्ञान धर्म और व्यवस्था का योग धर्म और समाज धर्म और समाज-विकास धर्म और सम्प्रदाय धर्म का अनुशासन धर्म का उत्स : पवित्रता २३ नव० ६९ १३ अक्टू० ६८ ६ मार्च ६० ५ मई ६८/२९ मई ६६ ३ नव०६८ १४ सित० ५८ ११ मई ५८ वि० १९ जून ५२ २२ अग० ६५ १३ दिस० ६४ ६ अग०६७ २७ अप्रैल ६९ १५ अप्रैल ७९ वि० मई ४७ वि० दिस० ४७ . १ सित० ५७ वि० १ मई ५२ २९ जुलाई ७३ २९ मार्च ७० १६ अग० ७. ९ दिस० ७३ __ अग० ७० वि० जून ४७ १७ मई ५९ १० सित० ६७ २० दिस० ५९ ९ मार्च ६९ १९ दिस० ८२ ५ नव० ७२ १० अक्टू० ७१ १. ६-११-६९ बैंगलोर । २. त्रिवेणी संगम पर प्रदत्त । ३. ५-७-६८ मद्रास । ४. २७-७-६७ अहमदाबाद । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण धर्म का उद्देश्य : कर्म निरण, आत्मशुद्धि धर्म का पालन धर्म का राष्ट्रीय महत्त्व धर्म का वास्तविक स्वरूप धर्म का विभाजन : क्षमता का मूल्यांकन धर्म का सच्चा लक्ष्य धर्म का स्वरूप धर्म की अनिवार्यता धर्म की आत्मा अहिंसा है धर्म की आवश्यकता धर्म की पहचान धर्म की प्रयोगशाला निरंतर खुली रहे धर्म की बुनियाद : मैत्री 'धर्म की भावना 'धर्म की व्यापकता 'धर्म की सच्ची परिभाषा 'धर्म कृत्रिम बंधनों से ऊपर की चीज 'धर्म के तीन प्रकार धर्म के दो पक्ष : लौकिक और पारलौकिक धर्म के दो पहलू धर्म केवल चिंतन का विषय नहीं है धर्म क्या ? धर्म क्या, कब और कहां ? धर्म क्या देता है ? धर्म क्या है ? धर्म क्या है। धर्म क्षेत्र में नयी क्रांति धर्म : जीने की एक कला २५ जन० ५९ ६ जुलाई ६९ २७ अप्रैल ५८ २९ मार्च ६४ २१ सित०८० १२ फर० ५३ १७ जुलाई ६६ १ जून ६९ १३ अक्टू० ६८ २५ मई ६९ १९ दिस० ७१ १७ जून ७३ १७ मार्च ६८ १५ दिस० ५७ २७ अक्टू० ५७ २८ अग० ६६ ८ जुलाई ७३ ९ मई ७१ १७ जन० ५४ ३० भग०६४ ४ मई ५८ वि० मार्च ४८ ३१ अग० ८० ७ दिस० ६९ अक्टू० ६९/वि० १८ दिस० ५२ ३० जन०६६ २८ सित० ६९ १० अग० ८० १. १६-१-५३ सरदारशहर । २. २९-७-७१ लाडनूं । ३. जन्म दिवस, अणुव्रत प्रेरणा परिषद् । ४.७-१०-५४ बम्बई। ५. २७-१०-६७ अहमदाबाद । ६. १९-६-६६ । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ धर्म : जीने की कला' धर्म तुम्हें शांति देगा, सुख देगा धर्म तर्क नहीं, आचरण है धर्म तेजस्वी कब बनेगा ? धर्म दर्शन को समझने के लिए धर्म: निषेधात्मक दृष्टि धर्म प्रधान देश में नैतिकता का अभाव क्यों ? धर्म बुद्धि, विज्ञान और शक्ति से ऊपर हो धर्म या अधर्म प्रधान देश धर्म व्यापक सार्वजनीन तत्त्व है धर्म शांति देता है धर्मसंघ की चतुर्दिक् प्रगति धर्म सत्य और अहिंसा धर्म सर्वशक्तिमान् कब ? धर्म ही शरण है धर्मे जय पापे क्षय धार्मिक कैसे बनें ? धार्मिक कौन ? धार्मिक कौन ? ४ धार्मिक क्रांति की आवश्यकता धैर्य ध्यान का महत्त्व ध्वंस नहीं, निर्माण नए वर्ष का शुभ संदेश नकारात्मक दृष्टिकोण न दाता, न याचक नया वर्ष -- नया चिंतन नया - पुराना नरक स्वयं स्वर्ग में बदल जायेगा नवनिर्माण की रूपरेखा १. २६-९-६८ मद्रास । २. २१ अप्रैल श्रीकरणपुर, रोटरी क्लब । ३०७ १२ अप्रैल ७० १८ जुलाई ७१ ११ अग० ५७ ६ सित० ७० ३ फर० ७४ १२ मई ६८ १५ मई ६६ २४ जुलाई ६६ २९ जून ६९ २५ अग० ७४ १३ दिस० ७० १८ मई ६९ ३० जुलाई ६७ जन० ५० १६ अप्रैल ७२ ११ अप्रैल ८२ १५ मार्च ७० २० जुलाई ६९ १ फर० ७० नव० ६९ दिस० ७० १९ अप्रैल ८१ १८ नव० ७३ ४ जन० ७० १६ फर० ६९ १७ नव० ६८ ३ जन० ७१ २७ फर० ७२ १ मार्च ६४ बि० सित० ४६ ३. १-१२ ७० बेतूल । ४. २०-९-६७ अहमदाबाद । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण नवनिर्माण के लिए शांति, समन्वय और सहृदयता की अपेक्षा है १७ अग० ५८ नवीनता बनाम प्राचीनता मई ४९ नवीनता ही क्रांति नहीं १ नव० ४८ नागरिक कर्तव्य २ फर० ६९ नारी अपने आत्मबल को जागृत करे १७ जन०६० नारी उत्थान ___जून ६९ नारी-समाज का दायित्व २० दिस० ७० निःश्रेयस् का मार्ग' १७ अक्टू० ७१ निर्जरा तत्त्व २६ अग० ७९ निर्वाण-शताब्दी पर जैनों का कर्तव्य २३ जून ६८/३० जून ६८ निवृत्ति और प्रवृत्ति वि० नव०-दिस०४४/१ अक्टू० ४८ निष्पक्ष दृष्टिकोण २० सित० ७० निस्सार में भी सार २९ जून ८० नेता कालस्य कारणम् १७ मई ७० नैतिक उत्थान' २७ अग० ५३ नैतिक चेतना जागरण का अभियान : अणुव्रत २१ फर० ७१ नैतिकता का आधार ३ अक्टू० ६५ नैतिकता का उपदेश नहीं, प्रशिक्षण जरूरी ३ मार्च ६८ नैतिक दुभिक्ष सबसे बड़ा संकट ३० जन० ५९ नैतिक पतन का मूल कारण : अनास्थावाद ११ मई ५८ नैतिक बल बलवान होता है १८ नव० ६२ नैतिक वातावरण के लिए परिवर्तन आवश्यक १ फर० ७० नैतिक शक्ति के सामने अनैतिक शक्ति टिक नहीं सकती ११ नव० ६२ नैतिक शस्त्रीकरण से ही अनैतिकता का नाश सम्भव वि० ६ सित० ५१ नैतिक संकट २० जुलाई ६९ न्यायवादी बनाम सत्यवादी १३ सित० ६४ पतन और उत्थान मार्च ५२ पर चिन्ता नहीं, स्व चिन्ता ४ नव० ७३ परदा तो उठाएं १९ दिस०७१ १. ३-११-६८ मद्रास । २. २७-१०-५२ सरदारशहर । ३. ८ अग०, दिल्ली, अणुव्रत विचार- परिषद् । ४. पत्रकारों के बीच, बम्बई । ५. ७-३-५२ रतनगढ़ । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३०१ परमात्मा परमार्थ साधना का मार्ग : धर्म परिग्रह का अंत करो परिग्रह के गर्भ में दुःख और पश्चात्ताप परिवर्तन का आधार परिवर्तन का सिद्धांत परिवर्तन को परखें परिवर्तन : जीवन का आवश्यक अंग' परिस्थिति का अनुगमन मानसिक दुर्बलता है परिस्थितियों का दास बनना कायरता है पर्दा कायरता का प्रतीक और असंयम का पोषक पर्युषण, उसका महत्त्व और भावना पर्युषण का आराधना मंत्र पर्युषण : जागरण, प्रतिगति और प्रगति का प्रतीक पर्व दिन की प्रेरणा पर्व धर्म की उपयोगिता पवित्रता का अर्थ ऊपरी सफाई नहीं पात्र कौन ? पाप छोड़ने में कभी शीघ्रता नहीं होती पुरुषार्थ का अंकन पुरुषार्थ की सफलता पुरुषार्थ ही विकास का हेतु' पूंजीवादी मनोवृत्ति : जीवन शुद्धि का प्रशस्त पथ । पैसों से मिलने वाली शिक्षा जीवन तक कैसे पहुंचेगी ? प्रकृति और विकृति प्रतिस्पर्धा की पराजय प्रमाद को छोड़ों प्रमाद त्यागें प्रवचन का अधिकारी ६ जुलाई ६९ २९ अक्टू० ७२ वि० नव० ४७ २३ जुलाई ७२ २५ मई ६९ ६ अप्रैल ६९ १९ अग० ७३ ९ मई ६५ २० नव० ६६ २५ सित०६० १८ सित०६० सित० ५२ १४ सित०६९ २९ अग० ७६ १९ मार्च ७२ __ जन० ६९ १० जून ७३ ४ अग० ६३ वि० १९ अग० ५१ ३ मई ८१ जन०७० ७ नव० ७१ ११ अग० ७३ ४ सित० ६० २२ जून ६९ २४ अग० ८० १७ मई ७० १८ जून ७२ २३ फर० ६९ १. १०-८-६७ अहमदाबाद । २. मर्यादामहोत्सव शताब्दी समारोह, अणुव्रत प्रेरणा दिवस । ३.१-१२-६८ मद्रास । ४. २२-८-६८ मद्रास । ५. २४-७-६७ अहमदाबाद । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रवचन क्यों? प्रवाह में न बहें प्रवृत्ति और निवृत्ति के कारण प्रांतीयता की समस्या प्रेक्षाध्यान प्रेतात्मा : भदृश्य शक्ति बंधन और मोक्ष बंधन के हेतु बंधन-मुक्ति का हेतु बंधन-मुक्ति के लिए बहिनों से बाल दीक्षा बाहरी आकर्षण हिंसा है बुराइयों की भिक्षा बाह्य और आंतरिक शुद्धि बोधिस्थल : जन-जन का बोधिस्थल हो ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य और खाद्य संयम ब्रह्मचर्य और संयम का हेतु क्या है ? ब्रह्मचर्य का महत्त्व क्यों ? ब्रह्मचर्य : मोह-विलय की साधना ब्रह्मचर्य : साधना का एक सहकारी तत्त्व भगवान महावीर और निर्वाण दिवस भगवान महावीर के जीवन की विशेषतायें भगवान् महावीर जिन थे, जैन नहीं भगवान् महावीर ने कहा भगवान् महावीर स्वयं संबुद्ध थे भय की विभीषिका भव्य जीवमात्र मोक्ष पाने का अधिकारी भारत अभय और अहिंसा पर टिका रहे १. १६-८-६७ अहमदाबाद । २. १४-८-६७ अहमदाबाद । ८ अक्टू० ७२ १९ जन०६९ १७ जून ७३ ३ सित० ६७ ६ जून ८२ ४ मई ६९ ९ मार्च ५८ ८ जून ६९ १ जून ६९ १५ जुलाई ७३ सित०, अक्टू ४९ २२ सित० ५७ १० नव० ६३ २२ जून ६९ १ दिस० ६८ २ जुलाई ७२ १४ दिस० ५८ ३० जुलाई ७२ १२ मार्च ५३ ६ फर० ७२ २ जन० ७२ १३ नव० ५५ वि० १५ नव ० ५१ वि० २७ नव० ५२ २१ अप्रैल ७३ २ मई ६५ २२ सित० ६३ २५ अग० ५७ १४ जून ७० १५ अग० ६५ ३. १३-४-६५ महावीर जयन्ती, अजमेर Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ भारत की प्रतिष्ठा का मूल : चरित्र ९ जुलाई ६७. भारत की संस्कृति अग०६९. भारत के निर्माण का प्रश्न १४ मार्च ६५ भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं, सम्प्रदाय से निरपेक्ष बने १ अग० ६५ भारत : संस्कृतियों का केंद्र २१ सित० ६९ भारतीय दर्शन का मूल : समन्वय २९ अग० ६५ भारतीय दर्शन : अंतर्दर्शन १६ जुलाई ६७ भारतीय संस्कृति और आज का युग' २४ जन० ५७ भारतीय संस्कृति का लक्ष्य : चरित्र-विकास २१ जून ५९ भारतीय संस्कृति का आदर्श १ सित०६८ भारतीय संस्कृति की रक्षा २० जुलाई ६९ भारतीय संस्कृति में व्रत और संयम की प्रधानता ११ जन० ५९ भावात्मक एकता २६ सित० ७१ भावात्मक एकता के लिए संयम व धैर्य जरूरी ९ अक्टू०.६६ भावी योजना पहले बने' २१ नव० ७१ भाषण और प्रशिक्षण २७ अक्टू० ६८ भूत मरकर पलीत हो गया ३० जून ५७ भेद विज्ञान : जीवन विकास का सही मार्ग १५ मई ५९ भोगवाद को छोड़ें २९ अप्रैल ५६ भोग और त्याग वि० जन० ४५ भौतिकवाद पर अध्यात्म का अंकुश हो ५ सित० ६५ मंगल क्या है ? २३ सित० ६० मंगलमय बनने की प्रक्रिया ६ जुलाई ८० मद्य-निषेध १६ नव • ५८ मधु बिन्दु वि० जुलाई-अग० ४४ मन की अशांति २० अप्रैल ६९ मन की रिक्तता ही ध्यान है ११ जून ७२ मन को शिक्षित करें ७ मई ७२ मन-नियंत्रण सित० ५० मनुष्य और पशु का अन्तर २३ मार्च ६९ १. १९-९-५३ जोधपुर ३.५-६-५७ बीदासर २. १२-११-६८ मद्रास Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मनुष्य और मनुष्य के बीच की दूरी १५ जून ६९ मनुष्य कर्त्तव्य से विमुख ७ सित० ६९ मनुष्य का आध्यात्मिक व नैतिक विकास ही वास्तविक विज्ञान है' ७ जून ५९ मनुष्य की खोज में १५ जून ६९ मनुष्य की शक्ति विशाल है १५ मार्च ७० मनुष्य जीवन अनमोल है २५ जन० ७० मनुष्य जीवन और आनन्द ___ मई ६९ मनुष्य जीवन कीमती है ८ जून ६९ मनुष्य जीवन की सफलता २२ फर० ७० मनुष्य पुरुषार्थहीन होता जा रहा है जून-जुलाई ७० मनुष्य मनुष्य का शत्रु नहीं होता २० अप्रैल ५८ मनुष्य सत्य से विमुख १७ अग० ६९ मनुष्यो भव १ फर० ७० मनोवृत्तियां १७ जुलाई ७९ मर्यादा : उपेक्षा या अपेक्षा ४ फर०६३ मर्यादाओं का मूल्य २५ अप्रैल ७१ मर्यादा का अतिक्रमण ही अशान्ति का मूल है १३ मई ७९ मर्यादा का फलित-तेरापंथ २३ जुलाई ६१ महान् कौन ? २५ जन० ७० महान व्यक्ति के आभूषण ५ दिस० ७१ महामंत्र : एक विवेचन १२ अक्टू० ८० महारंभ और महापरिग्रह के परिणाम १४ जून ५९ महावीर का जीवन संदेश २९ अप्रैल ५६ महावीर का निःशस्त्रीकरण २७ अप्रैल ७४ महावीर जयंती १९ अप्रैल ७० महावीर जयन्ती की सार्थकता १५ अप्रैल ७३ महावीर : जीवन दर्शन १९ अप्रैल ७० महावीर निर्वाण दिवस वि० २९ नव० ५१ मां की महत्ता ६ फर० ७१ १. पत्रकार सम्मेलन में ४.४-११-६७ अहमदाबाद २. २३-९-६७ अहमदाबाद ५. २३-८-६८ मद्रास ३. १८-९-६७ अहमदाबाद Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ मांगने नहीं देने आये } मांस अभक्ष्य है मांस खाना राक्षसी वृत्ति है मांसाहार मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है मानव मानव की घोर पराजय मानव-जीवन और धर्म मानव-जीवन के मौलिक गुण मानवता का अवमूल्यन' मानवता का इतिहास और उसका त्राण मानवता का पाठ मानवता का विकास हो मानवता का संदेश मानवता की सर्वोच्च प्रतिष्ठा हो मानवता की सुरक्षा के लिए सक्रिय बनें मानवता के उत्थान के लिए अणुव्रत मानव विकास मानवीय तनाव कैसे कम हो ? मानसिक एकाग्रता और धर्म मार्ग मार्दव का महत्त्व मुक्त कौन होता है ? मुक्ति का अधिकार सबको है मुक्ति का मार्ग : सहिष्णुता मुक्ति के लिए मुझसे बुरा न कोय मूल आधार - अध्यात्म मृत्यु : एक महत्त्वपूर्ण कला मेरा कार्यं मनुष्य को संस्कारी बनाना मेरा धर्म : मानव धर्म १. ५-१० - ६७ अहमदाबाद । २. १०-८-६९ । ३१३ १२ अप्रैल ७० १६ मार्च ६९ १० अग० ६९ ३ जुलाई ६६ ३० जून ५७ १ जून ५८ जून ४९ २५ मई ५८ १७ अग० ६९ १७ सित० ७२ २२ फर० ७० २७ जुलाई ६९ ११ मई ६९ २५ अप्रैल ६५ २५ अग० ६८ १६ नव० ६९ वि० सित० ४७ ७ अग० ६६ १२ एवं १९ सित० ७१ जुलाई-अग० ४९ १५ फर० ७० ३० नव० ६९ मई ६९ ३१ मई ५९ २४ जून ६३ २८ दिस० ६९ सित० ६९ २६ जुलाई ७० ११ नव० ६३ २२ अप्रैल ७३ ३. २५-७-७० रायपुर । ४. २-९-६७ अहमदाबाद । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मेरा परिचय : मेरे स्वप्न १९ दिस०७१ मेरा विश्वास भाव पूजा में २९ मार्च ७० मेरे लिए गरीब-अमीर सब समान २२ मार्च ७० मैंने अहिंसा द्वारा हिंसा की अग्नि को बुझाने का प्रयत्न किया है। १० अक्टू ७२ मैं निराश नहीं होता १ अक्टू० ६७ मोह नष्ट कैसे होता है ? सित० ६९ मौन की निष्पत्ति : निविचारता २६ मई ६३ यति-परंपरा १३ जुलाई ६९ यथार्थवादी महावीर अक्टू० ५० यात्रा में सजगता अग० ६९ युग की मांग ७ जून ७० युग धर्म और अणुव्रत ३० अक्टू० ६० युवक और धार्मिक संस्कार १५ सित०६८ युवक जीवन को संयम का नया मोड़ दें १० मार्च ६३ युवक शक्ति का संयोजन १९ अग० ७३ युवापीढ़ी अपने दायित्व के प्रति जागरूक बने १६ मार्च ७५ योगक्षेम २६ अप्रैल ७० यौवन और बुढ़ापा ५ अग० ७९ रक्तक्रांति बनाम अहिंसकक्रांति १५ जन०६१ राम को मैं आत्माराम मानता हूं; जिसमें राम नहीं है; वह निकम्मा है ३ सित० ७२ राष्ट्र-निर्माण में धर्म २२ नव ०६४ रूढ़ियां और संशोधन १४ फर० ७१ रूढ़िवाद की जंजीरें तोड़ो १ मार्च ५९ रूपांतरण का प्रतीक : पुरुषार्थ १४ सित० ८० रोग-मुक्ति की ओर १८ अप्रैल ७१ रोग, औषधि और पथ्य ११ अप्रैल ७१ लक्ष्य मोक्ष है जून ६९ लाघव' ८ फर० ७० लेश्या सित० ५२ लोक का स्वरूप मई ६९ १. ५-९-६७ अहमदाबाद । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३१५ लोकतंत्र नेताओं की पसंदगी का परिणाम है लोक व्यवस्था का एक तत्त्व : धर्मास्तिकाय लोगों के मन भय से आशंकित हैं वक्ता की योग्यता वक्ता के गुण वर्तमान की ओर देखें वर्तमान के संदर्भ में नैतिकता वर्तमान को देखो वर्तमान को शुद्ध रखना होगा वर्तमान भौतिकवादी युग में धर्म वर्तमान युग और मानव वर्तमान समस्याओं का समाधान वर्धमान महोत्सव वास्तविक जैन कौन ? विकार का परित्याग; मोक्ष का हेतु विकारों के दलदल से भलाइयों के राजमार्ग पर विकास का हेतु विकास दुर्लभ है, विनाश सुगम विकृति एक की : परिणाम सबको विचार और व्यवहार में एकता विचार-स्वतंत्रता विचित्र प्रकार के शस्त्र विज्ञान का युग विदेशों में जैन धर्म की योजना विद्या और अविद्या विद्या का लक्ष्य क्या है ? विद्या की वास्तविक शोभा : विनय, विवेक और आचार विद्यार्थियों का सही निर्माण विद्यार्थी जीवन ८ अक्टू० ६७ ७ फर० ६० १४ जून ६४ १६ फर० ६९ २३ जन० ७२ २१ दिस० ५८ २२ मार्च ७० १३ जन० ७४ २ नव० ६९ २८ जुलाई ६८ वि० ३० अक्टू० ५२ १० जुलाई ५५ २२ फर० ८१ २५ जुलाई ६५. १९ जुलाई ५९ १७ जन० ७१ २१ दिस० ६९. ३१ अग० ६९ ९ अग० ७० वि० २६ जुलाई ५१ जुलाई ६९ अप्रैल ६९ ३ अग० ६९. २९ दिस०६८ ८ फर० ७० १५ दिस० ५७ ४ जन० ५९ सित० ६९ नव० ६९ १. २५-६-६७ अहमदाबाद । २. १८-१-८१ । ३. ९-१०-६७ अहमदाबाद । ४. २४-१२-५८ काशी विश्वविद्यालय, बनारस । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण विद्यार्थी दमितेन्द्रिय हो १७ नव० ७४ विरोध : प्रगति का साधक ३ नव० ६८ विरोध भावना व्यक्ति की अपनी उपज होती है २६ जन० ५८ विरोध में ही क्रांति है १६ अक्टू० ४९ विवशता ९ जून ५७ विवशता ही जेल है ३ जन० ६० विवेक और साधना २८ जून ६४ विवेक में धर्म है। २१ जुलाई ६३ विश्व का महान शान्तिदूत ७ जून ६४ विश्व शान्ति में अणुव्रत का योग १२ जून ६६ विसर्जन २९ जून ६९ विसर्जन का अर्थ १२ अक्टू० ६९ विसर्जन की पद्धति १ मार्च ७० विसर्जन स्वस्थता का चिह्न है १३ जुलाई ६९ वीतराग कौन है ? ५ अग० ६३ वीर कौन है ? २ नव० ६९ वे ही मेरे आराध्य हैं ५ मई ६३ वैराग्य का अमिट रंग ५ अप्रैल ७० व्यक्ति अपने स्वार्थों का उत्सर्ग करना सीखे २ मई ६५ व्यक्ति और संघ १९ जन० ६९ व्यक्ति का संस्कार ही मूल बात १९ अग० ५६ व्यक्ति के मूल्यांकन का आधार ८ दिस० ६३ व्यक्तिगत परिग्रह और सामुदायिक परिग्रह ५ मार्च ७२ व्यक्तिवादी मनोवृत्ति १३ नव० ६६ व्यक्ति सुधार से ही शासन सुधार संभव है १५ सित० ६३ व्यक्ति ही समष्टि का मूल २७ जून ७१ व्यापकता की छाया में ७ जुलाई ६३ व्यापारियों से १९ अप्रैल ५९ व्यापारी प्रामाणिक हो जुलाई ६९ १. २८-६-६३ । ४. १०-८-५६ अणुव्रत प्रेरणा समारोह, २. ७-९-६७ अहमदाबाद। सरदारशहर। ३. ३०-८-६७ अहमदाबाद । ५. २३-६-७३ सुजानगढ़ । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ व्यावहारिक जीवन में अणुव्रतों की उपयोगिता व्रत ज्ञान देता है और कानून दंड शक्ति, अभिव्यक्ति और विरक्ति शस्त्र-परिज्ञा शान्ति और सद्भावना के वातावरण को बढ़ाएं शान्ति : कहां और कैसे ?२ शान्ति का द्वार : क्षमा शान्ति का मार्ग : संयम शान्ति का मूल : अहिंसा शान्ति का राजमार्ग : संयम शान्ति का साधन : संयम और आत्म-नियंत्रण शान्ति का स्रोत-आत्मा शान्ति की खोज शान्ति की खोज में शान्ति की प्यास भभक उठी शान्ति की समस्या शान्ति के बिना आनन्द कहां ? शान्ति के लिए जड़वाद को मिटाएं शान्ति धर्म-सापेक्ष है शाश्वत सत्य शाश्वत सत्य और सामयिक सत्य शासन-व्यवस्था में जैन धर्म शास्त्र विवेचन शिक्षक और शिक्षार्थी शिक्षकों और विद्यार्थियों से शिक्षण और नैतिक विकास शिक्षा : एक अनुचितन शिक्षा का लक्ष्य अर्थार्जन नहीं, जीवन विकास शिक्षा के साथ अध्यात्म का योग शिक्षार्थियों का प्रमुख कर्तव्य : चरित्र-निर्माण २ फर० ५८ ३१ मार्च ६१ फर० ६९ २८ दिस०६९ १८ अक्टू० ७० १० अप्रैल ६६ २८ मार्च ८२ २९ अप्रैल ५६ २ जून ६८ २६ जुलाई ८० १५ मार्च ५९ १५ मार्च ५९ ६ अप्रैल ६९,२४ मई ७० १ फर० ७० १ फर० ५९ २७ जुलाई ६९ ३ जन० ६५ ५ नव० ६१ २४ नव०६३ ९ नव० ६९ ७ नव० ७१ ५ अक्टू० ६९ मार्च ६९ १७ दिस० ७२ जून ६९ २० अक्टू० ६८ ७ जून ८१ ४ जन० ५९ ५ सित०७१ २८ मार्च ५४ १. १४-९-६७ अहमदाबाद । ३.३१-३-५६। २. १४-२-६६ स्वागत समारोह, भादरा। ४. १९-१०-६७ अहमदाबाद । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण शुद्ध मन से प्रायश्चित्त करें २७ अप्रैल ६९ शुद्ध साधु का स्वरूप __ अक्टू० ५२ शोषण, मिलावट और अनाचार : मानवता का कलंक ११ जन० ५९ श्रद्धा और आचरण : उत्पत्ति और निष्पत्ति १७ दिस० ७२ श्रद्धा और तर्क ४ जन० ५९ श्रद्धा और तर्क का समन्वय हो २४ अप्रैल ६० श्रद्धा की अभिव्यक्ति विनय में २० मई ७३. श्रद्धा ज्ञान तथा चारित्र १५ दिस० ५७ श्रम और विनय २० मई ६२ श्रमण संस्कृति का संदेश ११ जन० ५९ श्रावक : एक चिन्तम ९ फर० ६९ श्रावक की पहिचान २१ अग० ६० श्रावक व्रत और उसके अतिचार ५ नव० ७२ श्री भिक्षु स्वामी : एक झांकी वि० ११ सित० ५२ श्रीमदाचार्य : कालगणी ६ मई ५६ श्रेय पथ का मंगल दीप २८ सित०८० श्रेष्ठ महामंत्र ८ जून ६९ संकल्प : एक वरदान ६ दिस० ७० संकल्प की दृढ़ता ५ अक्टू० ५८ संकल्प पहरुआ है ११ मई० ६९ संकल्प शक्ति बढ़ाइए २७ दिस० ५९ संकल्पी हिंसा का त्याग और दृष्टि १९ मई ६८ संगठन आचार प्रधान रहे ३१ जन० ७१ संगठन का आधार ९ सित० ६२ संगठन के मौलिक सूत्र १५ मार्च ७० संग्रह करने में क्या धर्म है ? १४ अप्रैल ६३ संग्रहवृत्ति २६ जन० ६९ संतों की महिमा क्यों ? १८ जन० ७० १. चिदम्बरम्, महासभा का छप्पनवां ४. ४-१०-६८ अखिल भारतीय तेरापंथी अधिवेशन । युवक सम्मेलन, मद्रास। २. १६-४-५६ । ५. २१-९-६७ अहमदाबाद । ३. २०-९-६९ मद्रास। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ संयम : आत्मविकास की राढ़ संयम : एक कसौटी संयमः खलु जीवनम् संयम की सहचरी मर्यादाएं संयम जीवन की मर्यादा है संयम से ही शान्ति और प्रगति संभव संवत्सर प्रतिलेखन संवत्सरी मानवता का पर्व है। संवेग और उसका परिणाम संसार की दशा संसार चरित्र को भूलता जा रहा है। संसार परिवर्तनशील है संस्कार डालने की कला संस्कार ही मूल है सच्च लोयम्मि सारभूयं ' सच्चा अहिंसक सच्ची आजादी : धर्ममय जीवन - सच्ची शान्ति त्याग में सच्चे श्रावक सतयुग की अपेक्षा क्या है ? 3 - सत्य एक है - सत्य और अहिंसा व्यवहार में आए सत्य और जीवन सत्य का व्यावहारिक प्रयोग सत्य की उपासना सत्य की साधना सत्य के बिना काम नहीं चल सकता सत्यग्राही दृष्टि सत्यवादी कौन ? सत्य विजयी नहीं, सत्य सार है। १. २१-८-६८ मद्रास । २. २४-७- ५३ जोधपुर । ३१९ १० मई ७० २ अप्रैल ७२ २८ मार्च ६८ ९ जुलाई ७२ १८ मई ५८ १ सित० ८० २२ अग० ७१ ११ सित ० ६० ६ अक्टू० ६३ १६ मई ६५ २८ मई ६१ ७ सित० ७४ १६ मई ७१ २० दिस० ६४ ६ अगस्त ५३ १४ दिस० ६९ १४ मार्च ५४ / २६ जन० ५४ वि०८ फर० ५२ अक्टू० ५० २१ दिस० ६९ जून ६९ २९ नव० ७० अप्रैल ५२ ५ अक्टू० ८० १२ जन० ५८ २९ मार्च ५९ ३१ मार्च ५७ १० मई ७० ९ दिस० ६२ ११ जून ६१ ३. १४-११-६७ अहमदाबाद । Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सत्य स्वयं अन्विष्ट है सत्संग का लाभ सत्संग की महिमा सदाचार की पौध कैसे फले ? सदा जागृत सद्भावना का विकास सबके लिए द्वार खुला है सब नेता बनना चाहते हैं सबसे बड़ा खतरा सबसे बड़ा धर्म क्या है ? सबसे बड़ा पाप' सबसे बड़ा पाप : मिथ्यात्व सबसे बड़ा बाधक तत्त्व : स्वार्थ सबसे बड़ा भय : दुःख सबसे बड़ा भ्रष्टाचार : मिथ्यात्व सबसे बड़ा शत्रु सबसे बड़ा सिद्धान्त-अहिंसा का सिद्धान्त समता मेरा आत्म धर्म है' समन्वय : एक युगान्तकारी चरण समन्वय का रचनात्मक रूप : अणुव्रत आंदोलन समन्वय की दिशा समन्वय की लगन समय का दुरुपयोग समरेखा समस्याओं का समाधान समस्या और उसका समाधान समाज-उत्थान में नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान समाज-कल्याण के लिए व्यक्ति-कल्याण समाज-निर्माण और बुद्धिजीवी १५ नव० ६४ '३१ अग० ६९ २८ दिस० ६९ २१ अप्रैल ६८ २२ जुलाई ६९ २२ दिस० ६८ जुलाई ६९ ९ नव० ६९ ___ जून ६९ ७ जून ५९ ११ जन० ७० २२ जून ५८ २७ दिस० ७० १० नव०६८ ८ अग० ६५ ३ अग० ६९ ७ सित०५८ २० सित० ७० २३ मई ६५ २४ मार्च ५७ ११ अप्रैल ६५ ___ मार्च ७० १७ फर० ६३ २० अप्रैल ५८ २८ अक्टू० ६२ २९ मार्च ८१ १५ अग० ५४ ३० अप्रैल ६१ २६ अग० ७३ - १. १९-९-६७ अहमदाबाद । २. ४-१०-६७ अहमदाबाद । ३. ९-९-७० रायपुर। ४. अणुव्रत आंदोलन के १३वें वार्षिक अधिवेशन पर। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ समाज परिवर्तन की दिशा' समाज में परिवर्तन आवश्यक समाजभूषण स्व० छोगमलजी चौपड़ा समाज-सेवकों से समूचा राष्ट्र आज लक्ष्मी की पूजा करने में पागल हो रहा है सम्प्रदाय सत्य का माध्यम बना रहे, स्वयं सत्य न बने सम्यग्ज्ञान और सर्वांगीण दृष्टिकोण सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्र सम्यग्ज्ञान - दर्शन- चारित्राणि मोक्षमार्गः सम्यग्दृष्टि सम्यग् दृष्टिकोण की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि के व्यवहार के आधार स्तंभ सर्वधर्म समन्वय का प्रतीक सही देखो, समझो और करो सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति साधना : आत्म धर्म साधना : एक रहस्य साधना और अनुशासन साधना का पथ क्या है ? 3 साधना का प्रभाव ३ साधु का क्या स्वागत और क्या विदाई साधुता और सच्चरित्रता साधु संस्था का भविष्य सापेक्ष सत्य ४ सामाजिक जीवन और अहिंसा की सम्भावना सामाजिक परिवर्तन सामायिक साम्प्रदायिकता से सावधान साम्प्रदायिक मतभेदों को चिन्तन का ही विषय रखें १. १०-२-५४, राणावास । २. ५-४-८३ । ३. २५-८-६७ अहमदाबाद । ३२१ २३ मई ५४ २४ अग० ६९ ३ मई ७० २१ सित० ५८ २४ मई ६४ ३१ दिस० ६७ २१ मई ७२ १४ दिस० ६९ १८ जून ६१ २४ अप्रैल ८३ ३ जन० ७१ २३ अप्रैल ७२ ६ दिस० ७० २६ जन० ६४ २४ मई ७० १० जन० ७१ १० मई ८१ २ मई ७१ ९ फर० ५८ १२ अक्टू० ६९ सित० ६९ जन० ५१ ६ अक्टू० ६८ ७ दिस० ६९ १० अक्टू० ७१ मई ४९ २३ फर० ६९ २५ अक्टू० ७० ३० जून ५७ ४. ३०-१०-६७ अहमदाबाद ५. १८-१०- ७० रायपुर Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण साम्ययोग की साधना साम्ययोग के बिना अन्य कलाएं अधूरी हैं साम्य-संदेश सिंहपुरुष आचार्य भिक्षु के जीवन की स्मृति सुन्दर-सात्त्विक जीवन सुख और शान्ति सुख का स्रोत-आत्म-विसर्जन सुख का हेतु-धर्म सुख-दुःख की कुंजी मनुष्य के हाथों में सुख बनाम दुःख सुख संयम से आता है सुधरने के तीन मार्ग सुधरो और सुधारो सुधार का प्रारंभ स्वयं से हो सुधार का सूत्र सृष्टि की विचित्रता का हेतु सेवा सोचो, समझो और सही प्रयोग करो' स्थिरयोगी और गुरुभक्त स्याद्वाद स्वतन्त्रता स्वतन्त्रता का आनन्द स्वतन्त्रता का महत्त्व स्वतन्त्र भारत और जीवन स्वप्न साकार बने स्वयं की शक्ति का ज्ञान कर कृत्रिम बंधनों का परित्याग करें स्वयं पर अनुशासन स्व शक्ति का जागरण स्वस्थ परम्परा को निभाना अन्धानुकरण नहीं २६ दिस० ७१ ३ सित. ६७ २८ अप्रैल ६८ ३ अक्टू० ५४ १५ जून ६९ ५ अप्रैल ७० २५ अप्रैल ७१ २ मई ७१ ३० अक्टू० ६६ १७ मई ६४ २३ मार्च ५८ ८ जून ६९ २९ नव० ६४ २१ जून ७० १८ अग० ५७ ११ मई ६९ १४ मई ५३ ९ मई ७१ १४ सित० ६९ मई ४९ वि० जुलाई १९४७ ९ अग० ७० अग० ५० जुलाई-अग० ४९ ७ सित०८० २२ नव० ५९ २ नव० ६९ ११ अप्रैल ७१ २३ मई ७१ १. ३०-८-७० रायपुर । २. १-१-७० वल्लारी। ३. १०-७-५७ सुजानगढ़ । ४. ९-८-६७ अहमदाबाद । ५. २३-१०-६८ मद्रास । ६. १५-६-६७ अहमदाबाद । Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३२३ स्वादवत्ति स्वाधीन भारत की आत्मसाधना' स्वाध्याय का महत्त्व हमें भीड़ को नहीं, कार्य को देखना है हर स्थिति में धैर्य और संतुलन आवश्यक हरिजन अछूत कैमे हुए ? हरिजन स्वयं उठने का प्रयास करें हार्दिक खमत-खामणा हिन्दू कौन ? हिन्दू : नया चिंतन, नई परिभाषा हिन्दुस्तान लोकतंत्रीय देश है हिंसक उपद्रव हिंसा-अहिंसा हिंसा और अन्याय के सामने हम कभी नहीं झुक सकते हिंसा की समस्या हिंसा कौन करता है ?' हृदय की भाषा १९ जन० ५८ वि० अग० ४७ १६ अग० ७० ३ अग० ५८ २. मई ७३ २९ जन० ६१ १० जून ६२ २३ सित० ७३ ६ दिस०८१ २६ दिस० ६५ १३ सित० ७० २६ नव ६७ १३ अग० ६७ २५ अक्टू० ७० १४ जून ७० १५ जून ६९ १९ अक्टू० ६९ अणुवत अग्नि परीक्षा : समाधान १ दिस०७० अणुव्रत आंदोलन किसलिए? १ अग० ८२ अणुव्रत आंदोलन के तीन मूल लक्ष्य १६ जुलाई ८१ अणुव्रत आन्दोलन चरित्र-जागृति और नैतिक-विकास का आन्दोलन है १५ नव० ५५ अणुव्रत और सांप्रदायिकता १ दिस० ६७ अणुव्रत के आगामी पचीस वर्ष अग० ७६ अणुव्रत दिवस १६ नव० ६९ १. १५-८-४७ स्वतंत्रता दिवस, विज्ञान भवन । रतनगढ़ । ३. १६-८-६७ अहमदाबाद । २. ९-१२-६५ विश्व हिन्दू परिषद्, Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अणुव्रत : नैतिक चेतना को जागृत करने का प्रयोग १ नव० ६८ अणुव्रत संन्यास का मार्ग नहीं १ नव० ८४ अणुव्रत : समाजमुखी धर्म की आचार-संहिता १६ अग० ८२ अणुव्रत समाज-व्यवस्था १५ दिस० ५८ अणुव्रती बनने का अधिकार सबको है १६ मई ८४ अणुव्रती बनने का अधिकारी १ जन० ५९ अतीत के शाश्वत आदर्शों को न भूल बैठे १५ सित० ५८ अपने आपको भूलकर पीढ़ियों की बातें करना पागलपन है १ मई ५७ अपने आपको सुधारें १ अग० ५९ अपने खजाने की खोज जन० ७९ अभाव और अतिभाव १ सित० ५९ अभिभावकों का कर्तव्य १९ सित० ६५ अभ्युदय के लिए मद्य-निषेध आवश्यक १६ मई ७२ अराजकतापूर्ण स्थिति में लोकतंत्र १ अप्रैल ६६ अशांति के अन्तर्-दाह से झुलसा मनुष्य शान्ति के लिए दौड़ रहा है १५ सित० ५६ अशांति स्वयं उत्पन्न नहीं होती १ दिस० ८१ अस्तित्व की सुरक्षा अहिंसा से सम्भव १ जन० ७१ अहिंसक दल की आवश्यकता १ सित० ६७ अहिंसक समाज की कल्पना १ दिस० ५८ अहिंसा-अहिंसा की रट लगाने मात्र से कुछ नहीं होने वाला है १५ नव० ५६ अहिंसा आचार की वस्तु है १ अप्रैल ५९ अहिंसा युद्ध का समाधान है १ जन ६८ अहिंसा विनिमय नहीं चाहती १६ सित० ७२ अहिंसा वीरों का भूषण है १६ मार्च ८१ आज का युग १५ अप्रैल ५७ आज की आवश्यकता १५ मार्च ५९ आज की राजनीति १६ मार्च ६७ आज के निराश वातावरण में एक नया आलोक करना होगा १५ जन ५७ आज के निर्माणकारी धर्म की कसौटी अगला जीवन नहीं, यही जीवन है १ अक्टू० ५७ १. १-८-६५ अणुव्रत विहार, दिल्ली । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३२५ आज के युग की समस्याएं २६ जन० ६० आज जागृत होना है १५ फर० ५९ आज व्यक्ति धन के लिए एक-दूसरे को निगलना चाहता है १५ मार्च ५७ आज सिर्फ प्रचार करने की जिम्मेदारी ही नहीं है १५ फर० ५७ आत्मघाती कुप्रथा को छोड़ें १ अप्रैल ५९ आत्मदर्शन की साधना : दीक्षा' जन० १५ अग० ४९ आत्मनिरीक्षण का रास्ता १ जन० ५७ आत्मरक्षा या प्राणरक्षा ? जन० ८ सित० ४९ आत्मशुद्धि और लोकतंत्र जन० १५ अग० ४९ आत्मशुद्धि की आवश्यकता जन० १ व ८ जुलाई ४९ आत्मशोधन, आत्मालोक की आवश्यकता जन० १ नव० ४९ आत्मशोधन का मार्ग १५ जून ५८ आदर्शों के लम्बे-लम्बे गीत गाने से क्या बनेगा ! १ फर० ५६ आध्यात्मिक शिक्षा का अभाव आत्मविस्मृति है जन० १५ दिस० ४९ आनन्दमय जीवन का रहस्य १ मार्च ७७ आंतरिक निर्माण के लिए १६ सित० ६७ आपका विश्वास राष्ट्रीयता में है या नहीं ? १६ मार्च ८२ आहारविवेक १ जन० ६५ आह्वान १ अक्टू० ८२ इंसान को दृढ़-संकल्प होना है १ जन० ५७ इन खाइयों को पाटा जाय १ फर० ५८ इस रोग का सही निदान क्या है ? १ अक्टू० ५७ उपदेश देना ही नहीं पड़ेगा १५ जन० ५८ उपलब्धि और नई योजना १६ अप्रैल ७२ ऊंचापन और नीचापन जाति व जन्म से नहीं जनः १३ अप्रैल ४९ एक भारी उत्तरदायित्व १ जुलाई ५६ एक व्यवहार्य उपक्रम १५ जन० ५९ एक संदेश' जन० १८ अक्टू० ४८ ऐशो-आराम छोड़े बिना अणुव्रत पाले जाने मुश्किल हैं १५ दिस० ५६ और आगे बढ़ना चाहिए १ फर० ५८ कहने के बजाय करने का समय १५ जुलाई ५८ १. ११-९-४८ छापर। २. पट्टोत्सव पर प्रदत्त । Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कहीं अवश्य भूल है अक्टू० ५८ कानून या शक्ति के प्रयोग से सुधार सम्भव नहीं १५ मार्च ५९ कार्यकर्ता साहस और दृढ़ निश्चय से काम लें १५ अग० ५८ केवल धर्माचरण का बाहरी स्वांग रचने से आत्महित नहीं होता १ मार्च ५६ कौन थे आचार्य भिक्षु ? १६ सित० ८२ क्या धर्म हमारे विकास का बाधक तत्त्व है ? १६ सित ० ८४ क्या मानवता पैसों के हाथ बिक जायेगी ? १ जन० ५७ क्या मेरी अहिंसा विफल हुई ? १ फर० ७१ क्रांति की चिनगारियां जन० १ जून ४९ क्रोध रोग की औषधि क्या है ? १६ दिस० ८४ गांधीजी और उनका कर्तृत्व १६ अक्टू० ६९ गांधीजी के भक्त कहलाने वाले लोग भी अनैतिकता में किसी से पीछे नहीं हैं १५ जुलाई ५७. गुरु कैसा हो ? १ अप्रैल ५९ गोहत्या, अस्पृश्यता और भारतीयकरण १६ मई ७० घटनाओं के सन्दर्भ में अनेकांत १ अग० ७८ चरित्र और शांति परस्पर परिव्याप्त हैं १ दिस० ५५ चारित्रिक क्रांति का अग्रदूत : विद्यार्थी १ जून ५८ चारित्रिक दुर्बलता : राष्ट्रीय अभिशाप १६ सित० ७२ छात्र और धर्म १६ फर० ६८ छोटे-बड़े की भावना आने पर आत्मा का अस्तित्व भुला दिया जाता है १५ जून ५६ जटिल पहेली १५ दिस० ५८ जनतंत्र की सफलता के मौलिक सूत्र १६ अग० ८४ जनता का तन्त्र २६ जन० ६० जनता का धर्म १ जुलाई ६६ जब तक लोग धनकुबेरों को महान् मानेंगे, स्थिति कभी __ नहीं सुधरेगी १५ अग० ५७ जयन्ती उत्सव' जन० २१ नव० ४८ जहां अनेकांतिकता है, वहां कलह है, चिनगारियां हैं १ अप्रैल ५७ जीता जागता उपदेश १५ सित० ५६ जीवन का क्लेश कैसे मिटे ? १५ जन० ५९/१५ मार्च ६५ १. जन्मदिन पर प्रदत्त । - Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३२७ जीवन का नैतिकस्तर और सत्साहित्य १६ मई ७३ जीवन का मूल्य आंको जन० १५ जून ४९ जीवन का मूल्य बदलें संयम अंक ५८ जीवन का सत्य-पक्ष डगमगा उठा है १ जुलाई ५७ जीवन के मूल्य बदलकर आत्मशुद्धि की ओर बढ़ना ही विवेक की उपयोगिता है १५ जुलाई ५६ जीवन-परिमार्जन का मार्ग : प्रेक्षा मई-जून ७९ जीवन में सत्य-निष्ठा, संतोष व अशोषण जैसी सद्वृत्तियां संजोनी हैं १५ मार्च ५६ जीवन में सादगी ही वास्तविक सुधार है जन० २३ जून ४९ जीवन में हमें आचरण की प्रतिष्ठा करनी है १५ अग० ५६ जीवन व्यवहार में अणुव्रतों की उपयोगिता १५ अग० ६० जो क्रोधदर्शी है, वह मानदर्शी है जन० ७ मार्च ४९ जो रागदर्शी है, वह द्वेषदर्शी है जन० २८ फर० ४९ जो शाश्वत है, वही धर्म है १ सित० ८२ ज्ञानी और पडितों की नहीं, क्रियाशील व्यक्तियों की आवश्यकता है १५ फर० ५६ झूठी प्रतिष्ठा की बीमारी ने आज सब कुछ खोखला कर दिया है १५ फर० ५८ तीन मौलिक धाराओं का दिग्दर्शन १६ अप्रैल ८४ तीर्थंकर महावीर का अनेकांत और स्याद्वाद दर्शन ___ अप्रैल ७८ तृप्ति का पथ १ अक्टू० ५९ तो दृढ़ संकल्प करना होगा १५ मार्च ५९ थोड़ा गहराई से सोचें १ दिस० ५८ दबाव या अहसान नहीं होना चाहिए १ नव० ५६ दिशाबोध १ मार्च ७३ दुःख से प्रताड़ित मानव समाज जन० १३ सित० ४८ दूसरों के सुखों को लूटनेवाला भला कैसे सुखी बन सकता है ? १५ अप्रैल ५६ दृढ़धर्मिणी श्राविका भूरी बाई १ अग० ७० दृष्टिकोण को बदले बिना कोई भी समस्या हल नहीं होगी १ दिस० ५६ देश की सीमा से पार अणुव्रत की अपेक्षा १६ जुलाई ७६ देश में चरित्र का भयंकर अकाल १ मई ६७ देश में धर्म क्रांति की आवश्यकता है २२ मार्च ८१ दोनों के लिये १५ जन० ५८ धर्म १५ मई ५९ धर्म अवनति का कारण नहीं जन० १५ नव० ४८ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ धर्म और पूंजीवाद धर्म और सदाचार की बातें केवल कहने के लिये नहीं, करने के लिये हैं धर्म और स्वतंत्रता धर्म का उद्देश्य है मानसिक शांति धर्म का क्षेत्र भी आज पूंजीवादी मनोवृत्ति का शिकार हुए बिना न रहा धर्म का गला - सड़ा रूप सुधारने की क्रांति आवश्यक धर्म का परिणाम : दृष्टिकोण का स्पष्टीकरण धर्म का स्रोत : प्रेम और मैत्री धर्म को कहने और परम्परा पालने तक सीमित नहीं रखना है धर्म खतरों और बाधाओं से सदा दूर रहे धर्म परिवर्तन का औचित्य ? धर्म बुद्धिगम्य है धर्म राष्ट्र के उत्थान का प्रतीक है। धर्म राष्ट्रोन्नति में आवश्यक धर्म : संसार सागर की नाव धर्म : मृत्यु की कला धर्म संस्थानों में अणुव्रत धर्म समता है, वैषम्य की दीवाल नहीं धर्म है जीवन की पवित्रता धार्मिकता के लिए वातावरण बनाएं ध्यान और स्वतंत्रता आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण जन० २५ अक्टू० ४८ नई दिशा : नई प्रेरणा नये विकास की चकाचौंध नव समाज रचना का आधार : संयम नवीनता ही क्रांति नहीं नारी निर्भयतापूर्वक आगे बढ़े निर्माण के लिए जीवन के मूल्य बदलने हैं नैतिक जागरण का अग्रदूत नैतिकता के अभाव में धर्म नहीं टिकेगा नैतिक दिवालियापन जन-जीवन को खोखला कर रहा है नैतिक-विकास में ही आज की समस्याओं का समाधान १५ जून ५७ जन० १५ अग० ४८ १ अक्टू० ०८२ १५ मई ५७ १६ अग० ६६ १६ दिस० ६६ १ जून ७३ १ अग० ५६ १ मई ५८ १ मई ७९ १ अग० ७० जन० २९ नव० ४८ जन० ८ नव० ४८ जन० १ जून ४९ २५ मई ८३ १ नव० ८१ १ अप्रैल ७३ १६ नव० ८१ १६ जुलाई ८२ १ सित० ७० १ नव० ७१ १५ सित० ५८ १६ जन० ८१ जन० १ नव० ४५ १ नव० ५५ १ नव० ५६ १५ अक्टू० ५६ १ जून ६७ १ फर० ५७ १ जन० ५७ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ पक्ष-विपक्ष को समझें पथदर्शन परिवर्तनशील परिस्थितियों में अणुव्रत परिवार नियोजन एक प्रश्न प्रकाश की आवश्यकता प्रतिबोध प्रत्येक कार्य में सत्य के बिना काम नहीं चल सकता प्राकृतिक चिकित्सा प्रेक्षाध्यान की प्रेक्षा व समीक्षा प्रेम और सत्य एक ही हैं प्रेयस् और श्रेयस् बंगला देश का नरसंहार मानवता के लिए लज्जाजनक बच्चों के संस्कार और महिला वर्ग बढ़ते सुविधावाद पर अंकुश जरूरी बड़ा कौन ? बलिदान की भावना का विकास आवश्यक बालकों का भाग्यनिर्माण और अभिभावक बुराई को मिटाने के लिए संस्कार- परिवर्तन की आवश्यकता है। भगवान् महावीर का अणुव्रत धर्म भगवान् महावीर की जीवन गाथा की बिभीषिका आज एक दूसरे में अविश्वास उत्पन्न कर रही है भागो नहीं, अपने को बदलो भारत अन्तरंग स्वतंत्रता प्राप्त करे भारत के महान् आदर्श उजागर हों भारतीय उन्नति की रीढ़ भारतीय जनमानस में कुण्ठाएं क्यों ? भारतीय जीवन का मौलिक स्वरूप भारतीय विज्ञान और विश्वशांति भारतीय शिक्षा के सन्दर्भ में अणुव्रत भावी समाज की नींव भिक्षा नोटों की नहीं, खोटों की ३२९ १ नव० ८२ १६ अप्रैल ८४ १६ मार्च ७१ १ अग० ६९ १ जन० ५९ १ जन० ७७ १५ अप्रैल ५७ १५ फर० ५९ जुलाई/अग०७९ १ मार्च ७४ १ अक्टू० ५९ १ मई ७१ १ फर० ७५ १६ जून ८४ १ अप्रैल ५८ १६ नव० ६९ जन० २३ अप्रैल ४९ १ सित० ५६ १ मई ८२ अक्टू ४८ जन० ४ १५ सित० ५७ जन० १५ जून ४९ जन० २३ अग० ४९ १६ जन० ७२ १ मार्च ६२ १ जन० ६९ संयम अंक ५८ जन० १६ दिस० ४८ १ जुलाई ४८ संयम अंक ५८ १६ मई ७३ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण भौतिकता केवल स्वार्थमूलक है १६ जन० ८४ भारहीनता का रहस्य १ जुलाई ७३ मद्यपान का अहिंसात्मक प्रतिकार १६ जून ७२ मन और आत्मा शांति का प्रतिष्ठान है १ अप्रैल ६७ मन का पहरेदार १५ नव० ५७ मन, वाणी और इन्द्रियों पर अनुशासन करो जन० १ अग० ४९ मनुष्य ने अलक्ष्य को लक्ष्य के आसन पर बिठा दिया है १ मई ५६ मनुष्य स्वयं अपने विकास और ह्रास के लिये उत्तरदायी है १ अप्रैल ५९. मांगना : हीनता का द्योतक १ जुलाई ५८ मानव जीवन और धर्म जन० १ जून ४९ मानवता का त्राण १ अप्रैल ५९ मानवता का प्रतीक : अणुव्रत १ अप्रैल ७३ मानवता का यह पतन देखकर दिल में दर्द होता है, ठेस पहुंचती है। १ जुलाई ५७ मुक्ति की विशाल कल्पना १ सित० ५८ मूल बात है जीवन का रूपान्तरण १ मई ८१ मूढ़ अज्ञ से भी बुरा है १ जून ५९ मृत्यु दण्ड तथा सजा से अपराधों की कमी नहीं होती १ जून ६५ मेरे तीन जीवन लक्ष्य १६ अक्टू० ७३ मैं क्या देखना चाहता हूं? १५ सित० ५६ मैंने कभी व्यक्तिगत जीवन जीया ही नहीं १ दिस०७४ मैत्री संदेश १ अक्टू० ५९ मोक्ष-मार्ग की पगडंडियां जन० १ सित० ४९ यह आदर्श की बातें ! १ अक्टू० ५९ यह कैसी उपासना ! १ अक्टू० ५९ यह भी तो सम्भव है १ जन० ५८ युद्ध और आध्यात्मिक मूल्य १६ दिस०७१ युद्ध की पागल मनोवृत्ति मनुष्य को जन्मान्ध बनाये रखती है १ अग० ५७ युद्ध को भड़काने वाली परिस्थितियां सदा के लिये मिटें १ अक्टू० ६५ युवक नींव के पत्थर बनें १ जून ६६ युवापीढ़ी का आक्रोश क्यों ? १६ अक्टू० ७० ये जहरीली सपिणियां १ जून ५७ योग : जीवन परिवर्तन का उपाय १ मार्च ८२ योजनाबद्ध उपक्रम १ मार्च ५९ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ रचनात्मक मस्तिष्क का निर्माण राष्ट्र की एक ही अपेक्षा — अनुशासन राष्ट्र की वर्तमान स्थितियों में खाद्यसंयम आवश्यक राष्ट्र की स्थिति और धर्म राष्ट्र-निर्माण और धर्म राष्ट्रीय चेतना के विकास में अणुव्रत राष्ट्रीय समस्याएं और गणतंत्र राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान - - अनुशासन राष्ट्रीय हित के लिए धर्मगुरु भी जिम्मेवार रोग का सही निदान लड़के-लड़कियों को ही नहीं, अपने आपको भी बेच डाला लोकतंत्र के लिए सत्य और अहिंसा की प्रतिष्ठा आवश्यक लोकपथ व आत्मपथ का निर्माण वर्तमान युग में अणुव्रत की अपेक्षा वस्तुतः शोषणकर्ता धार्मिक है ही नहीं वास्तविक ज्ञान तो वह है, जिससे आत्मा का चैतन्य प्रकाश में आये विचार- परिवर्तन के साथ व्यवस्था परिवर्तन आवश्यक विचारों के उजलेपन के बिना व्यक्ति पवित्र नहीं, अपवित्र है विज्ञान का दुरुपयोग विद्या क्यों पढ़ी जाए ? विद्यार्थियों से बहुत बड़ी आशा है विधार्थी जीवन का निर्माण विद्यार्थी राष्ट्र की अमूल्य निधि है विलक्षण उपहार विश्व मैत्री का आधार — अहिंसा विश्वशान्ति एवं अणुव्रत व्यक्ति और समाज निर्माण का मार्ग : अणुव्रत व्यापारी सत्य व ईमानदारी को प्रश्रय दें व्रत जीवन की कला है व्रत - पालन में किसी प्रकार का दबाव या अहसास नहीं होना चाहिए व्रतबोध व्रतों का महत्व शराबबन्दी लोकहित के लिए अपेक्षित है ३३१ १ जून ६८ १६ जन० ८२ १५ नव० ६६ १ मई ७० १५ अक्टू० ५७ १ फर० ८१ १६ जन० ६८ १ सित० ८१ १६ जून ६७ संयम अंक ५८ १ मार्च ५७ १ दिस० ६९ जन० २३ मई ४९ १ अक्टू० ५८ १५ मार्च ५८ १ जून ५७ १६ सित० ७५ १ अप्रैल ५६ २६ दिस० ८२ संयम अंक ५८ १५ सित० ५८ १ जन० ७० १६ अग० ६७ नव० ७९ जन०८ जुलाई ४९ १ अग० ६५ १ नव० ६५ १ अप्रैल ५९ १६ अप्रैल ६७ १ नव० ५६ १५ अग० ६२ १ व १५ फर० ५९ १ मार्च ७३ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण शरीर को भोजन क्यों देना पड़ता है ? १५ जून ५७ शरीर प्रेक्षा फर-मार्च ७९ शान्ति का मार्ग १ मार्च ६२ शान्ति की खोज में संयम अंक ५८ शान्ति मिले तो कहां से १ मार्च ५९ शासन मुक्त समाज रचना १ जून ७० शिक्षक समाज से ज्ञान, दर्शन और चरित्र की अपेक्षा है १ जून ८४ शिक्षा का आदर्श और उसका वर्तमान रूप जन० २३ अग० ४८ शिक्षा का लक्ष्य आत्मविकास व चरित्र-निर्माण हो जन० २३ नव० ४९ शिक्षा जीवन-निर्माण के लिए है १५ अग० ६५ शिक्षा व्यवस्था और जीवन की समग्रता १६ जून ६८ शुद्ध वातावरण : नैतिक मूल्यांकन १ जून ७१ श्रम, पुरुषार्थ और युवाशक्ति १६ मई ८२ संग्रह और अनासक्ति का उद्गम विन्दु एक है १६ नव० ७७ संयम : अपने लिए अपना नियंत्रण १ अग० ८४ संयम और समाजवाद १६ अग० ७१ संयम जीवन का सच्चा विकास है जन० १ जन० ५० संयम : जीवन की सर्वोच्च साधना जन० १५ जुलाई ४९ संस्कृति संस्कार को कहते हैं । १ अप्रैल ५९ सच्चा विद्वान् १ जन० ५९ सच्ची शान्ति अध्यात्म साधना में है १६ जुलाई ६७ सत्य की कसौटी १५ अप्रैल ५७ सत्य को व्यवहार में संजोये बिना ऊंचे-ऊंचे आदर्शों से क्या बनेगा ? १ जुलाई ५६ सदाचार का राजपथ १५ जन० ५९ समण-दीक्षा : आन्तरिक साधना की नव भूमिका १ फर० ८१ समस्याएं और निष्पत्तियां १६ मई ७६ समस्याओं का समाधान १६ अक्टू० ७७ समस्याओं का हल ; स्वामित्व का विसर्जन १६ फर० ८१ समाज के नैतिक चिकित्सिक : साधु जन० १ अक्टू० ४९ समाधान सापेक्षता में १ अप्रैल ७४ समूचे संसार को सुधारने की डींग भरनेवाले पहले अपने को सुधारें १ जून ५६ १.२-१०-४८, छापर। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ ३३३ सम्प्रदाय और साम्प्रदायिकता जन० २३ जून ४९ सरस जीवन का आधार : क्षमा १ अक्टू० ७७ सही मार्ग १ दिस० ५७ साधन बिना साध्य नहीं मिलता जन० २३ दिस० ४९ साधना का अन्तिम लक्ष्य-अयोग १६ जुलाई ७७ साधना का अर्थ १ जुलाई ७० साधना का पहला सूत्र १ मई ७३ साधना है आनन्दानुभूति १ सित० ५६ साधु-संस्कृति १ अप्रैल ६८ सार्थक जीवन-आचरण की विशुद्धता १६ दिस० ७० सुख, शांति और एकता का मार्ग' जन० २३ जुलाई ४९ सुखी कब ? १ मार्च ५९ सुधार का बीज : अनुशासन १ अग० ७३ सोमरस का पान करें १६ जून . स्वतन्त्रता : एक मूलभूत आस्था १६ अग० ८१ स्वयं के प्रकाश से पथ खोजो सित० ७९ स्वयं को होम कर लक्ष्य तक पहुंचना है १५ दिस० ५५ स्वार्थ, दंभ और अनाचार का त्याग करो जन० ३० अग० ४८ स्वार्थवृत्ति पर नियंत्रण किए बिना शान्ति के प्रयत्न सफल होंगे ? १५ मई ५६ स्वार्थ-सिद्धि के लिए दूसरों के अधिकारों को कुचलने से शान्ति १ अक्टू० ५६ नहीं मिलेगी स्वार्थियों के बिछाए हुए जाल १५ दिस० ५८ स्वस्थ जनतंत्र में शराब को प्रोत्साहन १६ मई ६६ हमारा यह दृष्टिकोण अशान्ति की चिनगारियां उछाल रहा है १५ अग० ५६ हमारा लक्ष्य १ दिस० ५८ हमारी सच्ची धर्माराधना क्या है ? १५ जन० ५६ हर तेरापंथी अणुव्रती बने १६ अप्रैल ८४ हर बात की नकल घातक है १५ फर० ५७ हिंसा और प्रतिक्रिया का नैतिक समाधान : विसर्जन १ मार्च ७१ हिंसा का प्रतिरोध-अहिंसा १ नव० ७० हिन्दु पृथक्तावादी मनोवृत्ति को त्यागें १ दिस० ८२ १.१८-७-४९ जयपुर । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण हिप्पी: सामाजिक नियंत्रण का अस्वीकरण हृदय परिवर्तन के लिए प्रभावी शिक्षा १ जून ६९ १ जून ८४ युवादृष्टि (युवादृष्टि पहले युवाशक्ति एवं युवालोक के नाम से प्रकाशित होती थी। अतः हमने उन अंकों को युश तथा युलो से अंकित किया है।) अक्षय तृतीया मई ७७/मई ७८ अध्यात्म ही सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक अप्रैल ८४ अनुशासन : एक प्रयोग मार्च ८४ अपने दायित्व को समझे अप्रैल ८३ अभिमान व प्रदर्शन से बचें दिस० ८४ अभी तो सवेरा ही है जून ८२ आत्मविश्वास जागृत करें नव० ८२ आस्था की अभिव्यंजना : संकल्प का पुनरुच्चारण अक्टू० ८२ कर्त्तव्य-निर्वाह अग० ७२ गर्हा : त्याज भी, ग्राह्य भी मई ७९ चिन्तन का चमत्कार जन० ८२ जयाचार्य : उनका साहित्य : हमारा दायित्व मार्च ८१ जयाचार्य के प्रति नव० ८१ जीवन की पवित्रता ही धर्म का मौलिक उद्देश्य फर० ८० जीवन की सफलता का स्वर्णसूत्र : ऋजुता जुलाई ८२ जीवन में आध्यात्मिकता एवं राष्ट्रीय चरित्र सित० ७८ जैन धर्म : एक नई अनुभूति अप्रैल ७८ जैन धर्म के दो चरण : अहिंसा और साम्य युलो० अप्रैल ७३ तेरापन्थ धर्मसंघ में स्वर्णिम युग के प्रणेता मार्च ७७ दोहरा जीवन खतरनाक होता है। अग० ७९ धर्म और अनुशासन में कोई अन्तर नहीं फर० ८२ नई पीढ़ी से तीन अपेक्षाएं पुलो० मार्च ७३ नये सृजन के प्रतीक : जयाचार्य सित०१ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ नारी जाति का मूल्यांकन आवश्यक परिवर्तन; जो मैंने देखे भगवान् महावीर का साधना सूत्र : संयम भगवान् महावीर के मौलिक मंतव्य मर्यादाएं : धर्मसंघ की आधार महावीर दर्शन के कुछ आकर्षक बिन्दु महावीर : समूचे विश्व की धड़कन महिलाएं करवट लें महिलाओं में आत्मविश्वास का उदय हो मानव जाति के आराध्य - मानसिक शक्तियां और शराब मुक्ति का उपाय युवक जीवन-निर्माण की दिशा में जागरूक बनें युवकों में करणवीर्य का प्रस्फोट हो युवकों को दिशाबोध युवापीढ़ी अपनी क्षमता को पहचाने लक्ष्य हमारा एक हो लक्ष्य की ओर बढ़ो वर्धमान से महावीर विधायकों का दायित्व शान्ति : कितनी बाहर, कितनी भीतर ? श्रमण संस्कृति के तीन सूत्र श्रावकत्व की गरिमा संकल्प का सुपरिणाम संकल्प की धुरी पर सत्य का दर्पण : मैत्री का प्रतिबिम्ब समाज सावधान ! सफलता की कुंजी स्याद्वाद को प्रायोगिक रूप दें हर क्षण जागरूकता की अपेक्षा ३३५ जन० ८४ मई, सित० ७७ मई ७४ दिस० ८२ मार्च ८३ अप्रैल ८२ अप्रैल ८१ जन० ८१ दिस० ७८ अग० ७२ युश० मई-जून ७२ जून ८० अग० ७४ नव० ७८ जन० ७४ अक्टू० ७९ फर० ८३ दिस० ८३ अप्रैल ८४ जून ७९ जुलाई ७९ अग० ८१ मार्च-अप्रैल ७९ मई ८१ दिस० ७६ अग० ८२ अग० ७२ जुलाई ८४ अप्रैल ८० अग० ८० Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ प्रेक्षाध्यान एवं तुलसी - प्रज्ञा ( इसमें प्रे उल्लेख वाले प्रेक्षाध्यान के लेख हैं बाकी तुलसीप्रज्ञा के हैं) । अनासक्ति क्रोध : आत्मा का विभाव गमन योग जाति और संस्कार जीवन परिवर्तन का अमोघ उपाय - योग धर्म : आत्मा का स्वभाव धर्म और अणुव्रत धर्म का फल -आनन्द धर्म का माहात्म्य धर्म विषयक विविध अवधारणाएं धैर्यपूर्वक पुरुषार्थं करें प्रायोगिक ज्ञान की अनिवार्यता प्रेक्षा प्रेक्षा की पृष्ठभूमि प्रेक्षा की स्रोतस्विनी प्रेक्षा है जीवन की सही दिशा भगवान् महावीर और गोशालक मैत्री भावना लब्धियां ---साधना का मूल नहीं विचार को आचार की भूमिका पर उतारें विधायक भावों का विकास वैज्ञानिक अध्यात्म की कलम लगाएं शिक्षक विद्यार्थी बनें साधना का अर्थ साधना का मर्म साधना के तीन सूत्र साधना के विघ्न स्याद्वाद या अनेकान्तदृष्टि स्वस्थ और आत्मस्थ बनने की प्रक्रिया मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण फर० मार्च ७९. जून - जुलाई ७९ जून ८७ फर० मार्च ८० प्रे० मार्च ८२ अप्रैल - जुलाई ८० दिस० ७९ / जन० ८० जुलाई-सित० ७८ दिस० - जन० ७८-७९ सित० ८६ अप्रैल ८१ जून० ८८ प्रे० अप्रैल ७८ प्रे० जुलाई ७८ प्रे० अग० ७८ ० सित० ७८ अक्टू० - नव० ७९ अक्टू० ० नव० ७८ प्रे० जुलाई ८२ जून ८५ सित०८८ प्रे० दिस० ८४ प्रे० जुलाई ८१ अप्रैल-सित० ७७ प्रे० जून ८२ प्रे० सित० ८१ दिस०८८ जून ९० प्रे० सित० ८२ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ प्रवचन-स्थलों के नाम एवं विशेष विवरण आचार्यश्री के विशाल प्रवचन-साहित्य में सब प्रवचनों में स्थल एवं दिनांक उपलब्ध नहीं है फिर भी जो उपलब्ध हैं उसका हमने वर्गीकृत विषय वाले प्रवचनों/ लेखों में टिप्पण के साथ उल्लेख कर दिया है। अनेक प्रवचनों में दिनांक का उल्लेख न होकर केवल सन् का संकेत है, कहीं क वल स्थान या सन् का उल्लेख। इस परिशिष्ट के अन्तर्गत हम गांवों के नाम तथा वहां हुए प्रवचनों के दिनांक का उल्लेख कर रहे हैं ताकि कोई भी पाठक क्षेत्रीय दृष्टि से भी इन प्रवचनों का संकलन या ज्ञान कर सके। परिशिष्ट में अनेक स्थलों पर एक ही तारीख दो-तीन या कहीं-कहीं चार बार भी आई है, उसके दो कारण हैं १. एक ही दिन में कई प्रवचनों का होना । जैसे 'संभल सयाने' में एक ही तारीख में अनेक प्रवचनों का उल्लेख मिलता है। २. कहीं-कहीं शीर्षक बदलकर या उसी शीर्षक में एक ही प्रवचन भिन्न-भिन्न पुस्तकों में प्रकाशित हुआ है । जैसे 'मुक्तिः इसी क्षण में' के लगभग प्रवचन 'मंजिल की ओर भाग २' में हैं. तथा 'शांति के पथ पर (दूसरी मंजिल) के कई प्रवचन शीर्षक परिवर्तन एवं कुछ सामग्री-परिवर्तन के साथ 'प्रवचन पाथेय भाग है' में हैं। वहां भी दिनांकों की पुनरुक्ति हुई है। इस परिशिष्ट में दिनांक के आगे जो पृष्ठ संख्या है वह इसी पुस्तक की है, क्योंकि उसी पृष्ठ संख्या के फुटनोट में यह दिनांक देखकर पाठक उस लेख एवं पुस्तक का नाम खोज सकेंगे। यहां पुनः लेख एवं Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण पुस्तकों के नाम देने से अनावश्यक विस्तार हो जाता। यदि दो भिन्न-भिन्न पृष्ठों पर एक ही लेख है तो हमने उन दोनों पृष्ठों का उल्लेख किया है तथा जहां एक ही पृष्ठ पर दो बार वही दिनांक है तो पृष्ठ का उल्लेख एक ही बार किया है। आचार्य श्री तुलसी के कुछ महत्त्वपूर्ण लेख या संदेश विशेष अवसरों पर प्रेषित भी किए गए हैं उनके सामने हमने 'प्रेषित' का संकत कर दिया है जिससे पाठक को अम न हो कि इस सन् में आचार्य तुलसी अमुक स्थान पर कैसे पहुंच गए. क्योंकि हमने प्रेषित स्थान का उल्लेख किया है। जहां दिनांक एवं सन का उल्लेख नहीं है वहां हमने (-) का निशान दे दिया है। जहां प्रवचन में कवल काल का निर्देश है स्थान का नहीं है उनको हम इस परिशिष्ट में सम्मिलित नहीं कर सके । दिल्ली. बम्बई जैसे बड़े शहरों के उपनगरों में हुए प्रवचनों को हमने उस शहर के अन्तर्गत ही रखा है। जैसे बगला, सिक्का नगर, थाला आदि को बम्बई में तथा कीर्तिनगर, महरौली, सब्जी मंडी आदि को दिल्ली में। टिप्पण में दिए गए सन् एवं महीने में यदि कहीं त्रुटि रही है तो उसे हमने उस परिशिष्ट में सुधार दिया है लेकिन दिनांक का सुधार नहीं किया क्योंकि इससे पाठक को देखने में असुविधा रहती। इसी प्रकार पुस्तक के टिप्पण में ५-७ स्थानों पर सन् ७८ में गंगाशहर क स्थान पर गंगानगर छप गया है उसे भी हमने परिशिष्ट में 'गंगाशहर' में ही प्रकाशित किया है। . ... इसके अंत में इसी परिशिष्ट में विशिष्ट प्रवचनों की सूची भी दी है। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ अजन्ता १९५५ २३ अप्रैल अजमेर १९५३ २१ दिस० १९५६ ८ मार्च १९६५ १२ अप्रैल १३ अप्रैल १० मार्च ११ मार्च १०७,१०८,२९३ १२ मार्च अबोहर १९६६८ अप्रैल १० अप्रैल अम्बाली १९७९ २३ अप्रैल अलवर १९६५ १० जून ११ जून १२ जून १३ जून असावरी १९५३ ४ जुलाई अहमदाबाद १९४७ ११ मार्च (प्रेषित ) १९५४९ मई १२ मई १४ मई १५ मई १९६७ २५ जून ३ जुलाई ४ जुलाई १६ जुलाई १६७ १०५ ४,११५ ८५ १६७ १६३ ९१ ३१,३१० १०० ९५ ८६ ९१ ९१ ७९ २६ १.६८ ८६ ९० ३१ २२,१०५,१११ ७८ ३१५ ३०३ ३०३ २१ १७ जुलाई २४ जुलाई २६ जुलाई २७ जुलाई ३१ जुलाई १ अग० ५ अग० ७ अग० अग० १० अग० १४ अग० १५ अग० १६ अग० २२ अग० २५ अग० २६ अग० २९ अग० ३० अग० १ सित० २ सित ० ५ सित ० ७ सित ० १४ सित० १८ सित० १९ सित० २० सित० २१ सित० २३ सित० २७ सित २८ सित० ४ अक्टू० ० ५ अक्टू० ९ अक्टू ३३९ २९८ ३०९ २९६ ३०५ २९४ ३०४ २९७ २९७ ३२२ ३०९ ३१० ३२२ ३१०, ३२३ २९६ ३२१ ३०४ ३०३ ३१६ २९७ ३१३ ३१४ ३१६ ३१७ ३१२ ३०१, ३२० ३०७ ३१८ ३१२ ३०२ २९८ ३२० २९८, ३१३ ३१५ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० . आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ३८ ३२१ २९५ ३१२ ३१९ १६२ १७० W १५ अक्टू० १५५ ५ जुलाई १४६ १९ अक्टू ७ जुलाई २७ अक्टू ३०६ १० जुलाई ३० अक्टू० १२ जुलाई १४६ ३१ अक्टू० १७ जुलाई १५ अक्टू० २४ जुलाई ४ नव० २५ जुलाई १८६ ९ नव० २९९ २७ जुलाई १६२ (२०२४ कार्तिक शुक्ला ९) ५ अग० ११ नव० .६ अग० १४ नव० ७ अग० २० अग० १९८३ २३ मार्च २१ अग० १०४ २७ मार्च २५ अग० ६, १६४ ३ अप्रैल १७८ १२८ २७ अग० १० अप्रैल २८ अग० १३० १७ अप्रैल २९ अग० १०५ ३१ अग० आबू ४ सित० १९५४ ३१ मार्च २५ सित० १ अप्रैल ५ अक्टू० १८० आमलनेर २० अक्टू० १११ १९५३ ३ अक्टू० (प्रेषित) १४३ . २४ अक्टू० १९५५ २६ मई १९,१०४,१८१ २५ अक्टू० २७ मई १६६ ६ नव० १७९ इन्दौर २० नव० १०३, २९३ १९५५ २६ जून ३० नव० १४७ ८८, ११४ उदासर ईडवा १९५६ १४ मार्च १९५३ १५ मार्च उज्जैन ऋषिकेश १९५५ ३ जुलाई १०४ १९५३ २२ मई (प्रेषित) १८९ ४ जुलाई २० ८९ २७ जून Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३४१ ५, १२ १४७ १६७ १०४ . एरण्डोल खण्डाला १९५५ २२ मई ५७ १९५५ १८ फर० २३ मई २१, ५८ खाटू (छोटी) २४ मई ६५ १९५६ २५ मार्च एलोरा २६ मार्च १९५५ ३० मार्च - ७ मई औरंगाबाद खिमतगांव १९५५ १ अप्रैल १९५४ ७ अप्रैल २ अप्रैल खीवेल ३ अप्रैल १०३ १९५४ २२ मार्च ४ अप्रैल १८० ५ अप्रैल १३, ५९ खेतिया कंटालिया १९५५ १३ जून १९५४ २५ फर० गंगानगर कनाना १९६६ २७ मार्च १९५५ १५ मार्च २८ मार्च कलकत्ता २९ मार्च १९५४ १० जन० (प्रेषित) ५७ ३१ मार्च १९५९ १६ अक्टू० ११२ १ अप्रैल कलरखेड़ा २ अप्रैल १९६६ २५ मार्च १६७ ३ अप्रैल कानपुर ५ अप्रैल १९५८ १९ अक्टू० ११२ गंगाशहर काल १९५३ १० अप्रैल १९५३ १२ फर० ८९ ११ अप्रैल १५ फर० १०५ १६ अप्रैल १७ फर• १९ अप्रैल १८ फर० २५ अप्रैल २० फर० १३ मई किराड़ा १८ मई १९६६ १२ फर० २१ मई किशनगढ़ २२ मई १९६५ १६ अप्रैल ५१ १९७८ ७ जुलाई १८५ ३४, ६४ ९६ १६८ १६२ २० ५२ ६९ ३५ १ १८१ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ८ जुलाई ३३ ९ जुलाई ३२ ३२, १७१ mr ७० mr m ज mm Y r ७० me ६९ १२१ १२१ ० १५४ १० जुलाई ११ जुलाई १२ जुलाई १३ जुलाई १५ जुलाई १६ जुलाई १७ जुलाई १८ जुलाई १९ जुलाई २० जुलाई २१ जुलाई २२ जुलाई २३ जुलाई २४ जुलाई २५ जुलाई २७ जुलाई २८ जुलाई २९ जुलाई ३० जुलाई ३१ जुलाई १ अग० २ अग० ३ अग० ४ अग० ५ अग० अग० ७ अग० ८ अग० १० अग० ११ अग० १२ अग० १३ अग० १४ अग १५ अग० १६ अग० १७ अग० १८ जग० १९ अग० २० भग० २१ अग० २२ अग० २३ अग० २४ अग० २६ अग० २७ अग० २८ अग० २९ अग० ३१ अग० १ सित० २ सित० ३ सित. ४ सित० ५ सित० ७ सित० १० सित० ११ सित. १२ सित० १३ सित. १४ सित. २४ सित० १ अक्टू० ३ अक्टू० ५ अक्टू० ८ अक्टू० ७२ १२१ १२१ १२० १२१ १२१ १२५ १०४ - ur १३० ८७ x.ru १७० १६२ १३ x ८ . ७८ १२ x w a १४५ ६८ ६५, ६८ s १८३ १८५ १०५ ४,१५५ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ mr. ६७ १९७७ २ मई ३ मई ४ मई १७९ १५३,१७९ १७९ ५ मई ६ मई mr mmsxx. XrMU ९५ ९ मई १२७ १० मई xnnnn GG ६७ ४५ ५५ .६७ ११ मई १२ मई १४ मई १५ मई १७ मई १९७८ ४ जून चावलखेड़ा १९५५ १४ मई ਸਗੜ੍ਹ १९६९ ८ जून चिदम्बरम् ७० ९ अक्टू० १० अक्टू० १३ अक्टू १४ अक्टू० १५ अक्टू० १६ अक्टू १७ अक्टू० १८ अक्टू० १९ अक्टू० २० अक्टू० २१ अक्टू० २२ अक्टू० २३ अक्टू २६ अक्टू० ३१ अक्टू० गजसिंहपुर १९६६ २७ अप्रैल गरणी १९५३ ८ दिस० गुजरपीपला १९५५ १९ मई गुलाबपुरा १९५६ ४ मार्च गोगोलाव १९५३ २१ जुलाई घड़सीसर १९५३ ९ फर० चंडीगढ़ १९७९ २७ अप्रैल २८ अप्रैल चाड़वास | १९५३ ६ मार्च १२८ चिरमगांव १९५४ ५ मई चुटाला १९६६ १२ मार्च चूरू १९५२ २३ जून १९५७ १९ मार्च ८ अप्रैल १४ अप्रैल २१ अप्रैल २२ अप्रैल २३ अप्रैल २४ अप्रैल २६ अप्रैल १८० २० mr MM Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ २८ अप्रैल २४ अक्टू० १९७२ १५ अक्टू० १७ अक्टू० १९७६ २२ नव० २३ नव० २५ नव० ६ दिस० ११ दिस० १९७९ १७ फर० १८ फर० छापर १९४८ १५ अग ० ११ सित० १९७६ १ मई ३ मई ५ मई १९ मई १९७७ ११ फर १२ फर० १३ फर० १६ फर० १७ फर० २० फर० २१ फर० २४ फर० १७ मई १९७८ ३ जून जयपुर १९४९ १५ अग० १९६५ २५ अप्रैल १६४ ५५ २३,१६९ १८१ १८२ ४ २६ ९० ९३ १३ ६५ ८९ २९९ १७१ ३२५ २५,२७,११९ २७ ३९,४० ३ १५५ ७३ १३१ १२८ το १५५ १३ २७ ५ ५५ १७१,१९० ९० आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २६ अप्रैल २७ अप्रैल २८ अप्रैल २२ अप्रैल ३० अप्रैल १ मई २ मई ३ मई ४ मई ५ मई ७ मई १९ मई २० मई २१ मई २२ मई २३ मई १९७५ १९ सित ० १९७६५ अक्टू जलगांव १९५५ ११ मई १२ मई १४ मई १५ मई १६ मई १७ मई जसरासर १९७८ १३ जून जसवंतगढ़ १९७८ २९ जन० जामनगर १९५२ २० अक्टू० ( प्रेषित ) ४० ६६ ३६ .९५ ३६ २६ ८९ १२८ १७० ३६ १०५ १२५ २६ ११३ ܘܘܐ १३७ १०७ १८२ १८१ ५१,१०९ १०३ ५,४३ ५ १९० १४७ ८७ २० Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३४५ ३१ ८६,१०८,११५ ६३,७३ जालमपुरा १९५६ २२ जन जावद १९५६ १८ जन० १९ जनः २० जन० जावरा १९५६ १२ जन० जूलवानिया १९५५ १४ जून जोजावर १९५४ १२ मार्च जोधपुर १९५३ २२ जुलाई २३ जुलाई २४ जुलाई २५ जुलाई २७ जुलाई २ अग० ४ अग० १८ १४६ ४,१२८ ५०,३१९ ३०० १३ सित० ५२,१७० १४ सित. १५ सित० ६,१६१ १६ सित० १७ सित. १२,१३ १८ सित० १९ सित. २० सित० २०,२३ २६ सित० २७ सित० ९२,१३५ २९ सित० २ अक्टू ४ अक्टू० २२,१६४,१६६ ६ अक्टू० ८८ ७ अक्टू० ८६,८८ १० अक्टू० १८. १५ अक्टू० १०५,१११ १७ अक्टू० १११,१८९ १८ अक्टू० ९५,१०६,१११ २१ अक्टू० २७ अक्टू० २८ अक्टू० १नव० ६ नव० १६९ ९ नव० १२,१८५ ११ नव० १२ नव० १६२ १६ नव० १७ नव० १४६ १८ नव० २० नव० २१ नव० २७. नव० १६६ ४,७,१९ १६२ १७० १९० ५ अग० ८ अग० ५. १५ अग० १७१ १६५ १८ अग० २२ अग० ३३ २३ अग० १६३ १६४,१६५ २६ अग० १६३ १८९,१९० २८ अग० ३० अग० ४ सित० ५ सित० ६ सित २१ १५४,१७० Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ २८ नव० जोबनेर १९६५ २१ अप्रैल २२ अप्रैल जोरावरपुरा १९७८ १६ जून टापरा १९६५ १० मार्च डांगुरना १९५५ ६ जून ਫ਼ਾਰਤੀ १९६६६ फर० डीडवाना १९५६ २९ मार्च डूंगरगढ़ १९५३६ दिस० १९७५ १५ फर० १६ फर० १९७९५ जन० ६ जन० ७ जन० ८ जन० ९ जन० डेगाना १९५६ १७ मार्च ढोलाना १९५५ १० दिस० थराद १९५४ १२ अप्रैल ९३ (३५, ५३ १४,२०,५७,७३, १०६,१५४,१६६ ४,७९ १७२ १९४९ ४ मई ७४ १६ मई ८६ ८६ ५०, १०४ २० १८२ ७८ १५२,१६७ ६४, १८६ ९६ ६५ १६८ १६४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण थांवला १९५६ १४ मार्च दिल्ली ८९ १९४७ २१ मार्च (प्रेषित ) २३ मार्च (प्रेषित) १९५० ६ अप्रैल १६ अप्रैल २१ अप्रैल ३० अप्रैल १६ मई २८ मई ८ जून ३० नव० १ दिस० २ दिस० १९५१ १५ अग० ६ सित० ९ सित ० २३ अक्टू० ११ नव० १९५३ १५ नव० ( प्रेषित) १९५६ १ फर० दिस ० ४ दिस० ५ दिस ९ दिस० १८ दिस० १९ दिस० ११४,१६७ ० ८६ १३५ १४४ २० १७ १२ २० २१ १११ १०६ ४३ २१ २०,८५,८८ १७१ १७ १३ २५ ९४ १९ १६८ ५२,१६८ ९३,१०२,११४ ५७,११२,१६१ ११२ २२,३४,११२ १६१,१६५ ९१ २७ ८७ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३४७ ३०८ १०४ ३९ १२६ ७४ ५५ ४ १२९ ३०१ १२० १८९ ४ ११,९१ ११० २१ दिस० २९ दिस० १९५७ ५ जन० १९६५ १७ मई १३ जून २८ जून २९ जून ३० जून १ जुलाई ४ जुलाई ५ जुलाई ६ जुलाई ७ जुलाई ८ जुलाई ९ जुलाई १० जुलाई १२ जुलाई १७ जुलाई १८ जुलाई १९ जुलाई २० जुलाई २१ जुलाई २२ जुलाई २४ जुलाई २५ जुलाई २७ जुलाई २८ जुलाई २९ जुलाई ३० जुलाई ३१ जुलाई १ अग० २ अग० २६ ६ अग० ८ अग० १२ अग० १६ अग० २० अग० २२ अग० २५ अग० २६ अग० २८ अग० २९ अग० २ सित० ३ सित० ५ सित० ६ सित० ८ सित० ९ सित० १० सित० १२ सित० १३ सित० १४ सित० १५ सित० १६ सित० १८ सित० १९ सित० २० सित० २१ सित० २२ सित० २५ सित० २६ सित० २७ सित० २८ सित० २९ सित० की WW ९९ ६ १७७ ३६,४२ ७१ १ ३२४ ७०,७३ १२८ ५अग० Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ३० सित० १ अक्टू० २ अक्टू० ३ अक्टू० ४ अक्टू० ५ अक्टू० ६ अक्टू ० ८ अक्टू० ९ अक्टू ० ११ अक्टू० १२ अक्टू० १३ अक्टू ० १४ अक्टू० १५ अक्टू० १६ अक्टू० १७ अक्टू० १८ अक्टू० १९ अक्टू० २१ अक्टू० २.३ अक्टू० २४ अक्टू ० २६ अक्टू० २७ अक्टू० ३० अक्टू० ३१ अक्टू० १० नव० ११ नव० १३ नव० १४ नव० १५ नव० १६ नव० १७ नव० ३६ ५८,१२९ ६७ ६६ ३९ ३६ ३६ ९६ ३६ ५० ७२ १२८ २७,११० २७ २७ ५८ ६६,९२ ४०,८७ ६६ १२८ १६९ १३ १४५ १०६ १०६ ३८ ३५ २१ ८८, १४५ ३१ ३४ ३५ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १९ नव० २० नव० २१ नव० २४ नव० २५ नव० २७ नत्र ० २८ नव० ९ दिस० १३ दिस० २६ दिस० १९७४ १ फर० १६ जून १ सित ० १९७५ ९ जून १० जून ११ जून १२ जून १४ जून १५ जून १९७९ १९ मार्च २० मार्च २१ मार्च २२ मार्च २३ मार्च २४ मार्च २६ मार्च २७ मार्च ३१ मार्च १ अप्रैल २ अप्रैल ३ अप्रैल ४ अप्रैल ५ अप्रैल ६७ २५,९६ ८७,१०६ १३१ ४२ ८७ १०६ ३२३ १०९ ९६ १८३ १८३ १५३ ९१ ७७ ११९ ७० ७७ ४३ १३२,१३९ ८८ ६८ 061 १२८ १२९ ६९ ८५ ५ ५ १२९ ५३ १३६ १२८ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३४९ १७९ ५१,१६४ १८,८९,१६३ नाल ७८ देवगढ़ ८ अप्रैल १५३ नारायणगांव ८९,१३७ १९५५ ९ मार्च दृधालेश्वर महादेव १० मार्च १९५४ १६ जन० ५५ ११ मार्च १९७३ १९ मई (प्रेषित) २० मई (प्रेषित) ३७ १९५३ ३० अप्रैल २१ मई (प्रेषित) १८३ निमाज २२ मई (प्रेषित) १९५३ ९ दिस० नीमच देलवाड़ा १९५६ १७ जन० १९५४ ९ अप्रैल नोखामंडी १९७८ १७ जून १९५४ २५ जन० १८ जून २८ जन० १७९ देवरग्राम १९५४ ३० जन० दोंडाईचा १९५५ ८ जून ६,१८१ २८ जून धरणगांव १९५५ २१ मई नोहर १६३ १९६६ २० फर० धानेरा २१ फर० १९५४ ८ अप्रैल २२ फर० ९ अप्रैल २३ फर० धामनोद पड़िहारा १९५५ २१ जून १९५६ २६ मई धूलिया २८ मई १९५५ २ जून २९ मई १९७६ १६ मई नागौर १८ मई १९५३ २३ जून १९ मई २५ जून ६४,१८६ २० मई २८ जून २१ मई ५४,१२७ uy ५,१६४ ५ १८४ ३१,५७,१८० १५२ ७२ ८ १ ३३ ९० १४४ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० १२० १४६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २२ मई १४४ पीलीबंगा २३ मई ९४ १९६६ १२ मई २६ मई १२९ १४ मई १०० २९ मई १५ मई पदमपुर पुष्कर १९६६ २४ अप्रैल ३५,४३ १९५६ १३ मार्च . २५ अप्रैल पूना पनवेल १९५५ २३ फर० ७९,१०३ १९५५ १४ फर० २५ फर० पहाड़गंज २७फर० ६५,१०३ १९५६ ७ दिस० २८ फर० १८,७४,१८६ पाटवा १ मार्च १४५,१६५ १९५३ १९ जुलाई १९६८ १४ फर० (प्रेषित) १५६ पाली पेटलावद १९६५ २५ मार्च १९५५ २७ दिस० २६ मार्च १७७ १९५६ १ जन० १०५ २८ मार्च फतेहपुर पालधी १९५७ १८ मई १९५५ १८ मई ਭਗਵਾਂ पिचाग १९९१ - १९५३ ४ दिस० ६३ बड़नगर पिलाणी १९५५ ८ अक्टू० ५ दिस० ७९,९० १९५७ १६ जन १६५,१६७ ६ दिस० ८८,१०४ १७ जन० ७ दिस० १८ जन० १६२ ९ दिस० १४५ १९ जन० ७३,१६३,१६४ बड़लू २० जन० १३७ १९५३ ९ जुलाई ५०,५५,९० पीपाड़ बड़ौदा १९५३ ११ जुलाई १९५४ २१ मई १३६,१६८ पीपल ਕਟa १९५५ १२ मार्च - ३१ १९५५ ११ दिस० ७४ १०१ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३५१ mm १७ जून २१ 6 बनारस ३० अग० १६८ १९५८ २४ दिस० ३१५ ३१ अग० ७१,३०२ बम्बई १ सित० ४२ १९५३ ४ अक्टू० (प्रेषित) ३ सित० ५२ १९५४ २४ अप्रैल ६ सित० ११,१४३,१४६ १२ मई १० सित० १५४ १२ जून १९ सित. १९,२२ १३ जून १०३ २१ सित० १५ जून ४२,१६२,१७५ २३ सित० १६२ २७ सित २. जून २८ सित० २१ जून ३५,५०,१५२ १ अक्टू० २२ जून २ अक्टू० २७ जून १४६,१०३ ३ अक्टू० १६७ ५ जुलाई ९६,१८३ ७ अक्टू० ३०६ ८ जुलाई १७ अक्टू० १०३,१११ ११ जुलाई ५३,३०२ १८ अक्टू० १८ जुलाई २१ अक्टू० २१ जुलाई १६७,१७९ ६ नव० २२ जुलाई ७ नव० १९,५५ २७ जुलाई ११ नव० १० अग० ७ दिस० ३५,५० ११ अग० ८ दिस० १३ अग० ९ दिस० १६ अग० १६४ १२ दिस० १७ अग० १६ दिस० १८६ १९ अग० १६२ १९ दिस० ९३ २० अग० २६ दिस० २२ अग० २९ दिस० ८८,१०३ २४ अग० ३० दिस० १२९ २५ अग० १७० १२,५७ २७ अग० १४५ १९५५१ जन० १८४ २९ अग २ जन० १४६ १०६ १४७ G १३८ १६२ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ७ जन० ९ जन० १२ जन० १४ जन० १८ जन० २३ जन० २५ जन० ३० जन० १ फर० २ फर० ८ फर० २८ मई २९ मई १९६७ ३० नव० ( २०२४ मार्गशीर्ष, कृष्णा १३ ) १९६८ ९ जन० बाव २६ जन० बाडमेर १९६५२८ फर० २ मार्च ५ मार्च १९५४ १४ अप्रैल १६ अप्रैल १७ अप्रैल २१ अप्रैल २२ अप्रैल बीकानेर १९५३ २८ फर० १८ ५ ८९ ५० ९०,१६२ १०३.१०४ १०३ ८१,११० १०४ ११५ १४७ १०४ १५६ १०६ १७१ २९६,३०८ ६६ १७७ ११४, १४४ २३ १५२ १०७ ३९ ८६ १५२ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २० मार्च २२ मार्च २३ मार्च २४ मार्च २५ मार्च २८ मार्च २९ मार्च २ अप्रैल ४ अप्रैल अप्रैल ९ अप्रैल २५. अप्रैल १ मई ३ मई ४ मई ५ मई ६ मई ७ मई मई १० मई ११ मई १४ मई १६ मई १७ मई बीदासर १९५२ ७ जुलाई १९५७ ५ जून १३ जून २८ जून १९६६ ३ अग० १ सित ० २० सित ० २७ ७४ ५६ ६ १२ १५२ १९० २४,२९७ १७९,१८० १२० २१,१८९. १२८ १८५ १८ १९ १६९ ४१ ४० ४१, ४२ ४२ १०५ १९ ३८,१५१,१८१ ६४ ५० ११४, ३११ ३४ ३६,१५२ १५७ १५७ ३०० Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३५३ १७७ २ अक्टू० १९७७ १२ अप्रैल १४ अप्रैल १५ अप्रैल २० अप्रैल २४ अप्रैल २५ अप्रैल ३० अप्रैल १९७८ ५ जून ५७ भट . १४३ . ও জল ८ अप्रैल भटिण्डा ४२ १९६६ ६ मार्च भड़ौच १९५४ २८ मई १०४ भादरा ६७ १९६६ १४ फर० १५ फर० १६ फर० १५४ भिवानी १९६५ २७ दिस० भीनासर १९७८ ६ जुलाई ८ नव० ३१३ भीलवाड़ा २१ १९५६ १४ फर० ५४ ७, २९६ ५५ १२७ ३०७ बेतूल १९७० १ दिस० बैंगलोर १९६९ १ अग० १० अग० १६ अग० ६ नव० Pा ७९, ८१ ९१, १०८ १८० १०६ ११४ ६३ ७४ २० फर० बोरावड़ २२ फर. १९५६ १९ मार्च २३ फर० २२ मार्च २४ फर० २३ मार्च ५१, १०४, १६३ मंदसौर ब्यावर १९५६ १५ जन. १९५३ १२ दिस० मगरा १९ दिस० १९५४ १८ जन० २० दिस. १०५ मण्डार १९५४ ४ अप्रैल १९५४ १ जन० मदनगंज ३ जन० ७ जन० १९६' १५ अप्रैल १९६५ ५ अप्रैल ८५ मद्रास ६ अप्रैल ५५ १९६८ ५ जुलाई १३८ mr ५५ ९५ ३०५ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ४ अग० २१ अग० २२ अग० २३ अग० ३० अग० १ सित ० १३ सित० २० सित ० २६ सित० ४ अक्टू २१ अक्टू० २३ अक्टू० २६ अक्टू० २७ अक्टू ० ३० अक्टू० ३ नव० ४ नव० ९ नव० १० नव० १२ नव० २८ नव० १ दिस O १० दिस० १५ दिस० माण्डल १९५४ ४ मई मूंडवा १९५३ २९ जून मैसूर १९५२ (प्रेषित) मोकरधन १९५५ २१ अप्रैल २९५ ३१९ ३०९ ३१२ २९९ २९६ २९४ १५५, ३१८ ३०७ ३१८ ३०४ ३२२ ६७ २९८ २९९ ३०८ ३०० २९७ २९७ ३११ ३०२ ३०९ ३०१ ३०२ ६, ९३ ८६ १४६ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण रतनगढ़ १९४७ १५ अग० १९५२ ७ मार्च १९५६ ३१ मई १९७६ १९ नव० १८ दिस० १९ दिस० १९७९ १२ फर० १३ फर० रतलाम १९५६ ७ जन० ८ जन० ९ जन ० १० जन० राणाग्राम १९५४ २१ मार्च राणावास १९५४ ४ फर० ५ फर० ८ फर० १० फर० ११ फर० राणी स्टेशन १९५४ १६ मार्च २० मार्च राजगढ़ १९७९ २३ फर० २४ फर० राजनगर १९६० १ अक्टू राजलदेसर १९७६ ६ जून १७१,३२३ ३०८ ७७ ९० ४१ ९० १२९ १२८ १८६ १०५ ९९,१०९ ६४ ९० २१ ७१ १०५ ८१, ३२१ १४६ १२८ १०५ ९४ ९४ ११२ ९४ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ १५४ १०३,१६५ १९ ११६ रद ७ जून ८ जून ३० जून १५ दिस० १६ दिस० २० दिस० ३० दिस० १९७७ ९ जन० १३ जन० ३१ जन० १९७९ ५ फर० ७ फर० ८ फर० ९ फर० राजसमन्द १९६० २० अक्टू० २३ अक्टू० राजियावास १९५४ ८ जन० .. ९ जन० રાઘનપુર १९५४ २९ अप्रैल रामगढ़ १९७६ १ फर० रायपुर १९७० १ जुलाई १८ जुलाई २५ जुलाई १ अग० ३० अग० १ सित० ९ सित १८ अक्टू० ९४ रायसिंहनगर ६९ १९६६ २८ अप्रैल ४,१३० २९ अप्रैल ३० अप्रैल २ मई ७९ रासीसर १९७८ १ जुलाई राहता १९५५ १८ मार्च २३ मार्च २४ मार्च ३० मार्च रूण १९५३ ३ जुलाई रूणियां सिवेरेरो १९५३ १४५ लाडनू १९४८ १७ दिस० १९५२ ४ मई १९५६ २ अप्रैल ३ अप्रैल ৮ অর্সল ५ अप्रैल १४ अप्रैल १५ अप्रैल १९५७ १८ मार्च ३०१ २ मई ३१३ ३८ १४ मई १८ मई १३१ १९ मई ३२० २० मई २१ मई २२ १८३ ४३ १८४ १७५ ५०,१८१ १५५ or ३६ १७० m m ३ मई २५ m ३२२ Mmm m Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २४ जून १४ ३०६ mwww २५ जून २९ जून १५ जुलाई १६ जुलाई २१ जुलाई २२ जुलाई २३ जुलाई २४ जुलाई २५ जुलाई २६ जुलाई २७ जुलाई २८ जुलाई ३१ जुलाई १ अग० २ अग० ३ अग० अग० ५ अग० १२७ १०४ ७२ ९ ५८,१४५ २३ मई २६ मई २७ मई १४७ २८ मई ९३ २४ अक्टू० १९,३४,४०,५४ १९७१ २९ जुलाई २७ सित० १८२ १९७७ २३ जन० १५५ १४ मार्च ८७ १५ मार्च १७ मार्च १८ मार्च १९ मार्च २० मार्च २१ मार्च २२ मार्च ४ अप्रैल ८ अप्रैल ९ अप्रैल ४२,१५४ १० अप्रैल ११ अप्रैल २३ मई २७ मई ७८ ३० मई ३१ मई १ जून १५ जून १२७,१२८ १२० . ६९,८८ १६७ wo G < ७४ x ७अग० ८ अग० ८८,१३६ २६,११३ ६६,१८४ ७३ • ६७ १२१ १६९,१७६ ९ अग० १० अग० ११ अग० १२ अग० १४अग० १५ अग० २२ अग० २३ अग० २४ अग० २५ अग० २६ अग० २८ अग० ६७ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३५७ ३३,१४४ १७९ ७२ १८० १८० ३९ و १८० س عر २० १३० १६२ ५२ १४ २९ अग० ३० अग० १ सित० २ सित० ३ सित० ४ सित० ७ सित० ९ सित० १० सित० ११ सित० १२ सित० १६ सित १८ सित० १९ सित० २१ सित० २३ सित० २५ सित० २६ सित० २७ सित० २८ सित० २९ सित० ३० सित० १ अक्टू० २ अक्टू० ३ अक्टू० ५२ ३ . . ६: 5:३८ . ६५ ६ : ३ ३ ३ ६ : 5 5 5 :: 2:5 ५४,१५४ २६ अक्टू २७ अक्टू २८ अक्टू० २९ अक्टू० ३० अक्टू० ३१ अक्टू० १ नव० २ नव० ३ नव० ४ नव० ५ नव० ६ नव० ९ नव० ११ नव० १२ नव० १३ नव० १४ नव० १५ नव० १८ नव० २४ नव० २६ नव० २७ नव० २९ नव० ३० नव० १ दिस० २ दिस० ३ दिस० ४ दिस० ५ दिस० ६ दिस० ७ दिस० ८ दिस० ९दिस० १६२ १५४ ५८ ६,७१,१२८ ६७ ५३ १०४ १४५ १७७ ४ अक्टू० ३९ mr m १८४ = mr m mr ५ अक्टू० ६ अक्टू० ७ अक्टू० २१ अक्टू० २२ अक्टू० २३ अक्टू० २५ अक्टू० १५३ २७ १८२ १५७,१८२ ७२ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ५४ ५४ १५ १४ जन० १५ जन० १६ जन० १७ जन० १९ जन० २० जन० २१ जन २३ जन० २४ जन २५ जन० २६ जन० १२१ ३२,७७ ३३ . १४३ ९४,३५ १० दिस० ११ दिस० १२ दिस० १३ दिस० १५ दिस० १६ दिस० १७ दिस० १८ दिस० १९ दिस० २० दिस० २१ दिस० २२ दिस० २४ दिस० . २५ दिस० २६ दिस० २७ दिस० २८ दिस० ... २९ दिस० ३० दिस० ३१ दिस० १९७८ १ जन० १८० ३४ ८७ २७ जन० मार्च ११५,१५४ ४५ १८ मार्च १३० मार्च २२ मार्च २३ मार्च मार्च १२१ ७१,१२७ ७२ ७२ १५५ १६९ १६३ ३३,१८९ ६८,७२ ७२ ० २ जन० ० ० ३ जन० ४ जन० ५ जन० ६ जन० ७ जन० ० २७ मार्च मार्च २९ मार्च ३० मार्च ३१ मार्च १ अप्रैल २ अप्रैल ४ अप्रैल ५ अप्रैल ६ अप्रैल ७ अप्रैल १० अप्रैल १२ अप्रैल १३ अप्रैल १४ अप्रैल ८ जन० ४१६४६: ९ जन० १० जन० ११ जन० १२ जन० १३ जन० ६५,७३ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ १५ अप्रैल १६ अप्रैल १७ अप्रैल १८ अप्रैल २१ अप्रैल २२ अप्रैल २३ अप्रैल २४ अप्रैल २८ अप्रैल २९ अप्रैल ३० अप्रैल १ मई ४ मई ६ मई ७ मई ११ मई १५ मई २० मई २१ मई २२ मई २३ मई २४ मई २७ मई ३० मई ३१ मई १ जून ११ अक्टू० १९८० ४ सित० ७ सित० ११ सित ० ७१ ७१ ६६,७१ २६,७९,११९ १५१,१५२ २७ ८८, १५२ १५१ २५ २५ १२८ ४३ ९२ ८० ५७ ९५ ५ ७४ ३८ ४० ३६ ३६ ६ २६,१८५ ६६ १३ ७१ लुधियाना १९५१२ मई ३ मई लूणकरणसर १९५३२२ फर० २५ फर० २६ फर० वरकाणा १९५४ १७ मार्च वल्लारी १९७० १ जन० शहादा १९५५ १२ जून शिवगंज १९५४ २५ मार्च शाहबाद १९७९ २१ अप्रैल श्रीकरणपुर १९६६ २० अप्रैल २१ अप्रैल २२ अप्रैल संगमनेर १९५५ १५ मार्च १६ मार्च सन्तोषबाड़ी १९५५ १० अप्रैल ११ अप्रैल १२ अप्रैल १५ अप्रैल १८२ २७ २६ समदड़ी १४६ १९६५ १७ मार्च १८ मार्च ३५९ १११ १११ २७,९६ ३८ ९५ ६५, १६५ ३२२ २२,१०४,१६७ ३५, १६१ ५० SS १३७, ३०३ ४३ १८५ १८० १०९ १९ ११०,१८५ १६३,१७८ ७ २६ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२ नव० १११ १६२ - ११२ ७४, ९९,२९३ १०२,११२ १९५७ २ फर० ७ फर० ४ अप्रैल १६ जुलाई १०१ ३०० ८१, १६५ १७५ ७८ Sm १८३ W १८२ ३८ सरदारशहर १९४९ १ मार्च ११ मार्च (२००५ फाल्गुन शुक्ला १२) १९५१ २३ सित० १९५२ ५ मार्च १२ अक्टू० २९८ (२००९ कार्तिक बदी सप्तमी) २७ अक्टू० ३०८ २ मव० १८३ ५१,२९३ १९५३ १६ जन० ३०६ २१ जन० २२ जन० १९ दिस० (प्रेषित) १६६ १९५६ १२ जून १३,१८४ १ जुलाई १६१ १५ जुलाई १६ जुलाई १४७ २१ जुलाई २२ जुलाई १. अग० ३१६ १९ अग० ५९,१११,१४६ २२ अग० १८६ १६ सित. १०३,१७१ १७ सित० १५४ २३ सित० १४६ २ अक्टू० १०२ १० अक्टू० ११२ १२ अक्टू० ११२ १४ अक्टू० ११२ २६ अक्टू० ११२ १९० ५४ १७७ २८ १९६६ २५ मई २८ मई २९ मई ३० मई १९७२ १ मार्च १ दिस० १९७३ १ जन० १९७६ २ अग १० अग० ११ अग. १२ अग. १८ अग० १९ अग० २१ अग. २२ अग० २३ अग० १ अक्टू० २ अक्टू० ३ अक्टू० ५ अक्टू० ६ अक्टू ११ अक्टू० १२ अक्टू० १४ अक्टू० १६ अक्टू० १५४ १७० १८४ १८४ ७१,१८४ ७० Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ mm ४० ३२२ 02 ६४ १८ अक्टू. १९ अक्टू० २० अक्टू. ३० अक्टू० २ नव० r १०० १० जुलाई २२ अग० १० अक्टू० १२ अक्टू० १४ अक्टू १५ अक्टू० १६ अक्टू० १७ अक्टू० १०१ ७ नव० १४७ ० - १०४ ५९ ८७,१२७ ४५ ९५ ३४,४५,५२ ८७,८८,१०१ १६९,१७६ २९६ ३१६ १७५ १६९ १९७३ २३ जून १९७७ २ मार्च ५ मार्च १२७ १० नव० १४ नव० १९८६ २१ अक्टू० सांडवा १९७८ ८ जून १० जून सांडेराव १९५४ २३ मार्च सादुलपुर १९७९ २२ फर० सिरसा १९६६ २६ फर० २७ फर० २८ फर० १ मार्च सिरियारी १९५४ २३ फर० २४ फर० सिलारी १९५३ ३ दिस० सुजानगढ़ १९५६ ६ अप्रैल १० अप्रैल १२ अप्रैल १९५७ २२ मई ६ जुलाई ७ जुलाई ३९,४३ ६५ १८४ १२७ १८ मई १९७८ २९ जन० ३० जन० १२७ १ फर० २ फर० ३ फर० २ जून सुधरी १९५४ १ माचं ४ मार्च सुमेरपुर १९५४ २४ मार्च १०३ सूरत ४०,१८१ १९५४ ३० मई ९६,२९८ ३१ मई २४ सूरतगढ़ १८६ १९६६ ८ मई १०१ ९ मई ५० ६,१०५ १६८ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १२९ १९५० १५ अग० १७१ ७ सित० १७० १६४ २४ सित० १९५१ २६ जन० १३५ ९४ १९७३ १४ दिस० हाकरखेड़ा ४२,१५७ १९५५ २५ मई हिसार ११५ १९७३ ३० सित० ७ अक्टू० १७५ ___१६६ १२ अक्टू० १० मई सोजतरोड १९५४ ६ मार्च सोनीपत १९७९ १३ अप्रैल हनुमानगढ़ १९६६ २० मार्च हमीरगढ़ १९५६ २६ जन० हांसी १९४९ १३ सित० १८२ २५ आचार्य तुलसी प्रखर प्रवक्ता हैं। उन्होंने अपने ६० साल के जीवन में केवल धर्मसभाओं को ही संबोधित नहीं किया, अनेक सामाजिक, राजनैतिक एवं शैक्षणिक सभाओं को भी उन्होंने अपनी अमृतवाणी से लाभान्वित किया है। डाक्टर, वकील, सांसद, इंजीनियर, पुलिस, पत्रकार, साहित्यकार, व्यापारी, शिक्षक, मजदूर आदि अनेक गोष्ठियों एवं वर्गों को उन्होंने प्रतिबोधित किया है। यदि उन सबका इतिहास सुरक्षित रखा जाता तो यह विश्व का प्रथम आश्चर्य होता कि किसी धर्मनेता ने समाज के इतने वर्गों को उद्बोधित किया हो। जितनी जानकारी मिली. उतने विशिष्ट प्रवचनों की सूचि यहां प्रस्तुत है। वैसे तो उनका हर प्रवचन विशेष प्रेरणा से ओतप्रोत होता है पर विशेष अवसर से जुड़ने पर उसका महत्त्व और ऐतिहासिकता बढ़ जाती है अतः विशेष अवसरों एवं स्थानों पर दिए गए प्रवचनों का संकेत इस परिशिष्ट में दिया जा रहा है। इसमें जन्मोत्सव और पट्टोत्सव के संकेत आचार्य तुलसी के जन्मदिन एवं अभिषेक दिन से संबंधित हैं। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३६३ १११ १११ ११२ ११२ ११२ ११२ अधिवेशन अणुव्रत अधिवेशन १९५०, २४ सित. अर्धवार्षिक अधिवेशन, हांसी १९५०, ३० अप्रैल प्रथम वार्षिक अधिवेशन, दिल्ली १९५१, २ मई द्वितीय वार्षिक अधिवेशन, लुधियाना (पंजाब) १९५१, ३ मई द्वितीय वार्षिक अधिवेशन, लुधियाना (पंजाब) १९५१, २३ सित. तृतीय वार्षिक अधिवेशन, सरदारशहर १९५३, १५ अक्टू. चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन, जोधपुर १९५३, १८ अक्टू. चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन, जोधपुर १९५४, १७ अक्टू. पंचम वार्षिक अधिवेशन, बम्बई १९५५, २० अक्टू. छठा वार्षिक अधिवेशन, उज्जैन १९५५, २५ अक्टू. छठा वार्षिक अधिवेशन, उज्जैन १९५६, १० अक्टू. सातवां वार्षिक अधिवेशन, सरदारशहर १९५६, १२ अक्टू. सातवां वार्षिक अधिवेशन, सरदारशहर १९५६, १४ अक्टू. सातवां वार्षिक अधिवेशन, सरदारशहर १९५६, १२ अक्टू. सातवां वार्षिक अधिवेशन, सरदारशहर १९५८, १९ अक्टू. नवम वार्षिक अधिवेशन, कानपुर १९५९, १६ अक्टू. दशम वार्षिक अधिवेशन, कलकत्ता १९६०, १ अक्टू. ग्यारहवां वार्षिक अधिवेशन, राजनगर १९६३, तेरहवां वार्षिक अधिवेशन, उदयपुर १९६५, ३० अक्टू. सोलहवां वार्षिक अधिवेशन, दिल्ली १९६५, ३१ अक्टू. सोलहवां वार्षिक अधिवेशन, दिल्ली १९६६, सतरहवां वार्षिक अधिवेशन, बीदासर १९६७, अठारहवां वार्षिक अधिवेशन, अहमदाबाद १९६७, अठारहवां वार्षिक अधिवेशन, अहमदाबाद १९६९, बीसवां वार्षिक अधिवेशन - अठाइसवां वार्षिक अधिवेशन महिला अधिवेशन १९७७, २६ अक्टू. पांचवां अधिवेशन, लाडनूं १९७७, २७ अक्टू. पांचवां अधिवेशन, लाडनूं १९७७, २८ अक्टू. पांचवा अधिवेशन, लाडनूं १९७७, २९ अक्टू. पांचवा अधिवेशन, लाडनूं १९८७, महिला एवं युवक का संयुक्त अधिवेशन, दिल्ली १९८९, योगक्षेम वर्ष, महिला अधिवेशन, लाडनूं ११२ ११२ ११२ ३२० १०६ २९३ ११२ १८० १८० १८० १७६ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ १८२ १०६ ३६४ मा० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण युवक मधिवेशन १९७१, २७ सित. पंचम वार्षिक अधिवेशन, लाडन १८२ १९७२, १५ भक्टू. छठा वार्षिक अधिवेशन, चूरू १९७२, १७ अक्टू. छठा वार्षिक अधिवेशन, चूरू १८२ १९७३, १२ अक्टू. सप्तम वार्षिक अधिवेशन, हिसार १८२ १९७५, १५ फर. अष्टम वार्षिक अधिवेशन, डूंगरगढ़ १८२ १९७६, ५ अक्टू. नवम वार्षिक अधिवेशन, जयपुर १८२ १९७६, १ अक्टू. दशम वार्षिक अधिवेशन, सरदारशहर १९७७, २१ अक्टू. ग्यारहवां वार्षिक अधिवेशन, लाडनूं १८२ १९७७, २२ अक्टू. ग्यारहवां वार्षिक अधिवेशन, साडनूं १९७७, २३ अक्टू. ग्यारहवां अधिवेशन का समापन समारोह, लाडनं १८२ १९८९ २३ दिस. योगक्षेम वर्ष, लाडनूं पत्रकारों के मध्य १९५०, २१ अप्रैल संपादक सम्मेलन, दिल्ली २१ १९५०, १६ मई, संपादक सम्मेलन, दिल्ली १९५६, १ दिस० (प्रेस कान्फ्रेन्स), दिल्ली १९६८, ३० जून टाइम्स ऑफ इण्डिया के संवाददाता किशोर डोसी के साथ वार्ता, मद्रास १९६८, २० जून इंडियन एक्सप्रेस पत्रकार-वार्ता, बैंगलोर १०६ --- पत्रकार वार्ता, बम्बई ३०८ --- पत्रकार सम्मेलन विचार परिषद् (सेमिनार) अणुव्रत सेमिनार (विचार परिषद्) १९५६, २ दिस० दिल्ली ११२ १९५६, ३ दिस० दिल्ली ११२ १९५६, ४ दिस० दिल्ली २२ १९५६, ४ दिस० दिल्ली ११२ --- ८ अग० दिल्ली ३०८ - -सरदारशहर २९३ राजस्थानी साहित्य परिषद् १९५३, ९ अप्रैल, राजस्थानी रिसर्च इंस्टीट्यूट, बीकानेर द्वारा आयोजित ३१२ १८९ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ विचार परिषद् १९५१, २३ अक्टू० दिल्ली १९५३, २० सित० साधना मंडल, जोधपुर द्वारा आयोजित १९५३, २७ सित० कुमार सेवा सदन, जोधपुर द्वारा आयोजित विश्व हिन्दू परिषद् १९६५, ९ दिस० दिल्ली, विज्ञान भवन संस्कृत साहित्य परिषद् १९५३, २९ मार्च राजस्थान प्रान्तीय साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित, बीकानेर जन्मोत्सव १९५३ जोधपुर १९५४ बम्बई १९६५, २६ अक्टू० दिल्ली १९७३, १४ दिस० ( युवक दिवस) हांसी १९७७, १२-१३ नव० लाडनूं १९७७, १४ नव० लाडनूं पट्टोत्सव १९५१, ९ सित० दिल्ली १९५३, १७ सित ० जोधपुर १९५३, १८ सित० जोधपुर पच्चीसवां पट्टोत्सव (धवल समारोह ) १९६५, ५ सित० दिल्ली १९७८ ११ सित० गंगाशहर पर्व - प्रसंग पचासवां पट्टोत्सव (अमृत महोत्सव ) भिक्षु चरमोत्सव १९५३ जोधपुर १९७८, १४ सित० गंगाशहर ३६५ २५ २० १३५ ३२३ १९० १४ १२ १३ १८२ १३ १२ ३२६ १३ १३ ३३ १३ १३ १३ ११ १३,३०३,३२६ १५४ १५३ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ पर्युषण पर्व १९५३, ५ सित०, जोधपुर १९५३, १३ सित०, जोधपुर १९५४, ३१ अग०, बम्बई मर्यादा - महोत्सव १९५४, १० फर० राणावास १९५५, ३० जन० बम्बई बम्बई बगड़ी १९९१ महावीर जयन्ती १९५३, २८ मार्च महावीर जैन मंडल द्वारा आयोजित, बीकानेर १९५५, ५ अप्रैल, औरंगाबाद १९६५, १३ अप्रैल, अजमेर १९६६, ३ अप्रैल, गंगानगर १९७८, २१ अप्रैल, लाडनूं १९७८, २१ अप्रैल, लाडनूं महावीर निर्वाण दिवस १९५७ सुजानगढ़ स्वतंत्रता दिवस १९४७, १५ अग०, रतनगढ़ १९४८, १५ अग०, छापर १९४९, १५ अग०, जयपुर १९५०, १५ अग०, हांसी दिल्ली १९५१, १५ अग०, १९५३, १५ अग०, जोधपुर आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण प्रेषित संदेश १९४७, २१ मार्च, एशियाई कांफ्रेंस के अवसर पर सरोजिनी नायडू की अध्यक्षता में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन, दिल्ली १९४७, २३ मार्च, पण्डित नेहरू के नेतृत्व में आयोजित एशियाई कांफ्रेंस, दिल्ली 1 १७० ५२ ३०२ ३०३ ८१ ८१ २९६ ११ १५२ १३ ३१० १५३ १५१ १५२ १६९ १७१,३२३ १७१ १७१ १७१ १७१ १७१ २९४ ८६ १३५ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३. ३६७ ५६ WC ८७ - शान्ति निकेतन में आयोजित विश्व शान्ति सम्मेलन १९४७, ११ मार्च, हिन्दी तत्त्व ज्ञान प्रचारक समिति द्वारा आयोजित धर्म परिषद्, अहमदाबाद डा० राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में आयोजित 'भारतीय दर्शन परिषद्' का रजत जयन्ती समारोह, कलकत्ता लंदन में आयोजित जैन धर्म सम्मेलन १९५२, ३१ जून, विश्व धर्म सम्मेलन, लंदन १९५२, २० अक्टू० सांस्कृतिक सम्मेलन, जामनगर १९५२ फिलोसोफिकल कांग्रेस मीटिंग, मैसूर १९५३, २२ मई अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन का बीसवां अधिवेशन, ऋषिकेश १९५३, ३ अक्टू० खानदेश का त्रैवार्षिक अधिवेशन, आमलनेर १४३ १९५४, १५ नव० लोकसभा के अध्यक्ष जी. बी. मालवंकर का अध्यक्षता में अहिंसा दिवस कंस्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली १९५४, १० जन०, जैन सांस्कृतिक परिषद्, कलकत्ता ----- राष्ट्रीय एकता परिषद के लिए प्रेषित संदेश १३७ - अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन, बम्बई १९७३, १९ मई, युवक प्रशिक्षण शिविर, दूधालेश्वर महादेव १९७३, २० मई, युवक प्रशिक्षण शिविर, दूधालेश्वर महादेव ३७ १९७३, २१ मई, युवक प्रशिक्षण शिविर, दूधालेश्वर महादेव १९७३, २२ मई, युवक प्रशिक्षण शिविर, दूधालेश्वर महादेव १९७९, ७ जन० भारत जैन महामंडल द्वारा आयोजित जैन संस्कृति सम्मेलन, डूंगरगढ़ अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् का सतरहवां अधिवेशन, अहमदाबाद विशिष्ट अवसरों पर अहिंसा दिवस १९५० दिल्ली १९५१, ६ सित०, दिल्ली १९५३, ६ दिस०, डूंगरगढ़ १९५३ जोधपुर १९५७ सुजानगढ़ - सुजानगढ़ २९६ ३७ ७८ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ अणुव्रत प्रेरणा एवं प्रचार दिवस १९५३, १५ फर•, कालू १९५४, १४ मई, गुजरात प्रादेशिक भारत सेवक समाज द्वारा आयोजित १९५६, १० अग०, सरदारशहर १९५६, १९ अग०, सरदारशहर १९५६, २६ अक्टू०, सरदारशहर १९५७ सुजानगढ़ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण उद्घाटन प्रवचन १९४९, १ मार्च, अणुव्रती संघ का उद्घाटन, सरदारशहर १९५३, २६ सित०, राजपूताना विश्व विद्यालय के दर्शन विभाग द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला का उद्घाटन भाषण, जोधपुर १९६६, १८ नव०, तेरापंथ भवन का उद्घाटन, लाडनूं १९७७, ३ नव०, ब्राह्मी विद्यापीठ का उद्घाटन, लाडनूं १९७७, ९ नव०, सेवाभावी कल्याण केन्द्र का उद्घाटन, लाडनूं १९७७, २५ दिस०, नैतिक शिक्षा और अध्यात्म योग शिविर का उद्घाटन, लाडनूं १९७८, १ फर०, जैन पत्र-पत्रिका प्रदर्शनी का उद्घाटन, लाडनूं १९७८, १५ मई, अध्यापकों के अध्यात्म योग एवं नैतिक शिक्षा प्रशिक्षण का उद्घाटन, लाडनूं १९७९, ६ जन० महावीर कीर्तिस्तम्भ का उद्घाटन, डूंगरगढ़ संगोष्ठियों में साहित्य गोष्ठी १९५०, २५ मई, दिल्ली १९५३, ३० अग०, प्रेरणा संस्थान द्वारा आयोजित, जोधपुर विचार गोष्ठी १९५३, २७ अक्टू०, जोधपुर व्यापारी गोष्ठी १९६५, २१ नव०, दिल्ली सदाचार समिति गोष्ठी १९६५, १३ अप्रैल, अजमेर १०५ १११ ३१६ ५९,१११ ११२ ८७ १११ ६३ ८० १६२ १७७ १६५ १८९ ५ १५२ ४३ १८९ ८९ १०६ ३१ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ १२,१२ १२,१२ १५६ WW ११२,१०२ ११३ आकाशवाणी १९६९, १६ अग०, आकाशवाणी, बेंगलोर विशिष्ट आलेख एवं वार्ता अग्नि परीक्षा कांड : एक विश्लेषण युवाचार्य पद की नियुक्ति । साध्वी प्रमुखा का मनोनयन डा० राजेन्द्र प्रसाद के प्रति उद्गार संत विनोबा से मिलन संत लोंगोवाल से वार्ता के. जी. रामाराव एवं हर्बर्ट टिसि से वार्ता शिविर अणुवती कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर १९५७, २ फर० सरदारशहर १९७७, ७ अग० लाडनूं अणुव्रत विचार शिविर १९५६, २ अक्टू० सरदारशहर प्रेक्षाध्यान शिविर १९७७, ११ दिस० समापन समारोह, लाडनूं १९७८, १८ मार्च समापन समारोह, लाडनूं युवक प्रशिक्षण शिविर १९५४, १६ जून दीक्षान्त प्रवचन, दिल्ली संसद-सदस्यों के मध्य १९५०, १६ अप्रैल कंस्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली १९५६, १ दिस० दिल्ली १९६५, २८ नव० दिल्ली १९७९, ४ अप्रैल संसद भवन, दिल्ली सांसद सेठ गोविंददासजी से वार्ता संस्थान शिक्षण संस्थान १९५३, २६ अग० उम्मेद हाई स्कूल, जोधपुर १३. १८३ ७० १६४ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ Drur mr mr १६५ mm x १६३ ३७० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १९५३, ४ सित० जसवंत कालेज, जोधपुर १९५३, १२ नव० टी. सी. टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल, जोधपुर १६२ १९५३, महाराजकुमार कालेज, जोधपुर १९५६, १९ जन० बिड़ला विद्या विहार, पिलाणी १९५६, १ दिस० मार्डन हायर सेकेण्डरी स्कूल, दिल्ली १९५६, ५ दिस० मार्डन हायर सैकेण्डरी स्कूल, दिल्ली १९५६, अजमेर मेयो कालेज १६३ १९५७, १६ जन० बिड़ला मांटेसरी पब्लिक स्कूल, पिलाणी १९५७, १९ जन० बिड़ला बिहार इंजिनियरिंग कालेज, पिलाणी १९५७, १९ जन० बालिका विद्यापीठ बिड़ला विद्या विहार, पिलाणी १६४ १९५८, २४ दिस० काशी विश्वविद्यालय, बनारस ___ महारानी गायत्री देवी गर्ल्स हाई स्कूल, जयपुर १८१ रोटरी क्लब १९५३, १९ सित० जोधपुर १९५३, २१ अप्रैल श्रीकरणपुर ३०७ सप्रू हाऊस १९५६, ३० नव० दिल्ली ५२ १९६५, १३ दिस० दिल्ली हिंदूसभाभवन १९६५, १७ जुलाई दिल्ली मैक्समूलरभवन १९६५, १४ अक्टू० दिल्ली समारोह अभिनंदन समारोह १९७७, ८ अग० हरिजन महिला का तप अभिनंदन समारोह, लाडनूं दीक्षा समारोह १९५१, ११ नव० दिल्ली १९५३, २६ फर० लूणकरणसर १९७७, १९ जून, लाडनूं नागरिक स्वागत समारोह १९५२, २३ जून नागरिक स्वागत समारोह, चूरू १०९ ११० १८४ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३७१ १४६ ३१७ २९६ १९५३, २२ जुलाई, जोधपुर १९६६, १४ फर० भादरा १९६६, १५ फर० भादरा विदाई समारोह १९५५, ८ जून दिल्ली १९५५, ३० नव० उज्जैन २१ १४७ ३०२ ३०९ ७६ १३ १९० शताब्दी समारोह मर्यादा महोत्सव शताब्दी समारोह (अणुव्रत प्रेरणा दिवस) स्थिरवास शताब्दी समारोह, लाडनूं सम्मेलन अणुव्रत सम्मेलन १९६५, २१ मई राजस्थान प्रादेशिक अणुव्रत सम्मेलन, जयपुर कवि सम्मेलन १९४९, १५ अग० जयपुर १९५३, १७ अक्टू० अणुव्रती संघ द्वारा आयोजित, जोधपुर कार्यकर्ता सम्मेलन १९५७, चूरू नागरिक सम्मेलन १९५२, ७ जुलाई बीदासर बौद्ध प्रतिनिधि सम्मेलन १९५६, १ फर० दिल्ली महिला सम्मेलन मेवाड़ १९५३, ४ अप्रैल महिला जागृति परिषद् बीकानेर द्वारा आयोजित युवक सम्मेलन १९५२, ४ मई, लाडनूं १९५६, ३ अप्रैल, लाडनूं १९६८, ४ अक्टू०, मद्रास १७९ १८३ १८४ ३१८ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ३७२ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण विद्यार्थी सम्मेलन १९५३, २० फर०, कालू १९५३, २१ अक्टू० अ० भा० विद्यार्थी परिषद्, जोधपुर द्वारा आयोजित १९६६, ५ अप्रैल, गंगानगर व्यापारी सम्मेलन १९५६, २२ अग० सरदारशहर १९६६, २० फर० नोहर शिक्षक सम्मेलन १९५३, २८ अग० मारवाड़ टीचर्स यूनियन जोधपुर द्वारा आयोजित १६३ संस्कृति सम्मेलन १९७९, ६ जन० जैन संस्कृति सम्मेलन, डूंगरगढ़ १९५३, १९ दिस० गांधी विद्या मंदिर, सरदारशहर सर्वधर्म सम्मेलन १९५०, दिल्ली १६७ विशिष्ट व्यक्तियों से भेंट-वार्ताएं (विशेष अवसरों पर प्रदत्त प्रवचनों की सूची के अतिरिक्त यहां विशिष्ट व्यक्तियों से हुई वार्ता की जानकारी भी प्रस्तुत की जा रही है । आचार्य तुलसी के विराट् व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करने एवं विचार-विनिमय हेतु समय-समय पर देश-विदेश की महान् हस्तियां उनके चरणों में उपस्थित होती रहती हैं। उन सारी भेट-वार्ताओं की यदि सुरक्षा रहती तो वह भारत की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर होती। साथ ही वह साहित्य परिमाण में इतना विशाल होता कि उसे कई खंडों में प्रकाशित करना पड़ता। परिशिष्ट के इस भाग में हमने 'जैन भारती', 'नवनिर्माण की पुकार', 'जनपद विहार' तथा 'आचार्यश्री तुलसी षष्टिपूर्ति Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ परिशिष्ट ३ अभिनंदन पत्रिका'-इन चार ग्रंथों में आई वार्ताओं का संकेत दिया है । 'नवनिर्माण की पुकार' एवं 'जनपद विहार' में वार्ताएं बहुत संक्षिप्त दी गयी हैं, पर इतिहास की सुरक्षा हेतु हमने संक्षिप्त वार्ताओं का भी संकेत दे दिया है। आचार्यश्री तुलसी षष्टिपूर्ति अभिनंदन पत्रिका' के तीसरे खंड में वार्ताएं हैं अतः हमने पृष्ठ संख्या तीसरे खंड की दी है । कहीं-कहीं वार्ताओं की पुनरुक्ति भी हुई है, पर उनके निर्देश का कारण भी हमारे सामने स्पष्ट था । क्योंकि 'नवनिर्माण की पुकार' में जो बौद्ध भिक्षु नारद थेरो के साथ वार्ता है, वह अत्यन्त संक्षिप्त है लेकिन वही 'षष्टिपूर्ति अभिनंदन पत्रिका' में काफी विस्तृत है। इसके अतिरिक्त दोनों स्थलों का निर्देश होने से शोधार्थी को जो पुस्तक आसानी से उपलब्ध होगी, वह उसी से अपने कार्य को आगे बढ़ा सकेगा। यद्यपि संक्षिप्त वार्ताएं तो अन्य पत्रिकाओं, यात्रा-ग्रन्थों जीवनवृत्तों एवं पुस्तकों में भी प्रकाशित हैं, पर उनका समाकलन संभव नहीं हो सका। पाठक इस सूची को देखते हुए भी उस विशाल सूची को नजरंदाज नहीं करेंगे, जिनकी किन्हीं कारणों से सुरक्षा नहीं हो सकी है अथवा हम अपनी असमर्थता से उन्हें यहां प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। एक बात स्पष्ट कर देना और आवश्यक है कि इस खंड में हमने मुक्त-चर्चाओं एवं सामान्य वार्ताओं का समावेश नहीं किया है क्योंकि उनकी संख्या परिमाण में बहुत अधिक थी। इस परिशिष्ट में जैन, षष्टि, नव तथा जनपद-ये चारों सांकेतिक पद हैं। ये क्रमशः 'जैन भारती', 'आचार्यश्री तुलसी षष्टिपूर्ति अभिनंदन पत्रिका', 'नवनिर्माण की पुकार' तथा 'जनपद विहार' के वाचक हैं। हमने इन वार्ताओं को व्यक्तियों के आधार पर कुछ शीर्षकों में बांट दिया है, जिससे पाठकों को सुविधा हो सके । 'मंत्रिमंडल के सदस्यों से' शीर्षक में केन्द्रीय एवं राज्यस्तरीय मंत्रियों के साथ हुई वार्ताओं का उल्लेख है। इस परिशिष्ट में हम चार बातों का संकेत दे रहे हैं । वार्ता की दिनांक, स्थान, व्यक्ति एवं वह संदर्भ ग्रंथ, जिसमें वार्ता उपलब्ध है। कहीं-कहीं स्थान एवं समय का उल्लेख नहीं मिला, उसे हमने खाली छोड़ दिया है । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण साधु-संन्यासियों से ६-४-५० दिल्ली, बौद्ध भिक्षु भदन्त आनंद कौसल्यायन (जनपद पृ०७) २९-११-५६ बौद्ध भिक्षु नारद थेरो (षष्टि २५, नव पृ० १८५) २-१२-५६ दिल्ली, दलाईलामा (नव पृ० १९३) ५-१२-५६ दिल्ली, बौद्ध भिक्षु-मंडल के प्रधान __ महास्थविर 'धर्मेश्वर' (नव पृ० १९४) स्वामी करुणानंद जैन २२-४-६२) ५-१-६३ बम्बई, साध्वियों से मिलन प्रसंग (जैन २६-११-६७) २२-१-६८ मद्रास, इटालियन फादर वेलोजिया (जैन २९-१२-६८) २०-९-६८ दक्षिणभारत, बौद्ध भिक्षु कामाक्षीराव (जैन ६-१०-६८) २५-३-६९ हिरिऊर (कर्नाटक), त्रिवेन्द्रम् क्रिश्चियन हाई स्कूल के पादरी (जैन ४-५-६९) २-४-७० गोपुरी, संत विनोबा (जैन १९-४-७०, २६-४-७०) ३-४-७० गोपुरी, संत विनोबा (जैन १७-५-७०) २८-१०-७४ दिल्ली, फूजी गुरुजी (जैन १७-११-७४) राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री से २९-४-५० दिल्ली, राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (जनपद पृ० ९४) --- राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (जैन सित० अक्टू० ५०) ४-१२-५६ दिल्ली, राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (नव पृ० २५३) ८-१२-५६ दिल्ली, प्रधानमंत्री श्री नेहरू (नव पृ० २०६) १५-१२-५६ उपराष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन् (नव पृ० २३०) जयपुर, राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (जैन १-११-५९) ---- दिल्ली, राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (जैन २६-२-६१) २०-४-६४ दिल्ली, प्रधानमंत्री पं० नेहरू (जैन २४-५-६४) ३०-११-६५ दिल्ली, राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन् (जैन १३-२-६६) ३१-१-६८ उपप्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई (जैन ३०-६-६८, षष्टि पृ० ११) ६-७-६८ मद्रास, भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन् (जैन ४-८-६८, षष्टि पृ० १९) १९-६-७४ दिल्ली, प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी (षष्टि पृ० ३) ५-४-७९ दिल्ली, प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई (जैन २४-६-७९) राज्यपाल १८-५-६५ राजस्थान के राज्यपाल डॉ० सम्पूर्णानन्द (जैन २०-६-६५) Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ २७-७-६७ गुजरात के राज्यपाल नित्यानंद कानूनगो १५-१-६८ बम्बई, महाराष्ट्र के राज्यपाल श्री पी० बी० चैरियन मद्रास, बिहार के राज्यपाल श्री आर० आर० दिवाकर २९-१० - ६९ बेंगलोर, मैसूर के राज्यपाल धर्मवीर २८-११-६८ मन्त्रिमण्डल के सदस्यों से १२-४-५० दिल्ली, बीकानेर राज्य के मुख्यमंत्री श्री मनुभाई मेहता तथा सांसद जयश्रीराय १४-४-५० दिल्ली, जोधपुर राज्य के शिक्षामंत्री श्री मथुरादास माथुर' १५-४-५० दिल्ली, संयुक्त राजस्थान के भूतपूर्व मुख्यमंत्री तथा सांसद श्री माणिक्यलाल वर्मा ९-१२-५६ दिल्ली, केन्द्रीय योजना मंत्री श्री गुलजारीलाल नंदा दिल्ली, केन्द्रीय योजना मंत्री श्री गुलजारीलाल नंदा दिल्ली, केन्द्रीय श्रम उपमंत्री श्री आविद अली गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा २२-८-६७ भूतपूर्व गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा २३-१-६८ बम्बई, भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री एस० के० पाटिल १३-१२-५६ २९-१२-५६ राजस्थान के उद्योगमंत्री श्री बलवन्तसिंह मेहता भारत के गृहमंत्री कैलाशनाथ काटजू २९-४-६८ ९-७-६८ १५-७-६८ बैकुंठधाम, मैसूर के गृहमंत्री श्री पाटिल मद्रास, तमिलनाडु के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री भक्तवत्सलम् मद्रास, मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम् तथ। न्यायाध्यक्ष श्री एन० के० कृष्ण रेडीयार १७-८-६८ मद्रास, यातायात विभाग मंत्री श्री बलरामय्या अपलेट ३७५ ( षष्टि पृ० १७ ) (जैन ११-२-६८, षष्टि पृ० १५) ( जैन १६-१-६९ ) (जैन २३-११-६९, षष्टि पृ० ३२ ) ( जनपद पृ० ३८ ) ( जनपद पृ० ४७ ) ( जनपद पृ० ४९ ) (जैन ८-११-५१) ( जैन ४-४-५३ ) ( नव पृ० २१४ ) ( नव पृ० २२१ ) ( नव पृ० २४८ ) ( १०-५-६४ ) (पष्टि १४ ) ( जैन ११-२-६८ ) ( जैन १९-५-६८) ( जैन १३-१०-६८ ) ( जैन १९६८ ) (जैन २२-९-६८) Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १७-३-६९ त्रिवेन्द्रम्, केरल के मुख्यमंत्री नम्बुद्रीपाद (जैन २७-४-६९) २०-३-६९ मणम्बूर, भूतपूर्व विदेश राज्यमंत्री _ श्रीमती लक्ष्मी मेनन । (जैन २७-४-६९) २९-४-७० मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री श्यामाचरण शुक्ल (षष्टि २०, जैन ७-६-७०) २४-६-७४ रक्षामंत्री श्री स्वर्ण सिंह (षष्टि ६) राजनयिक १२-४-५० दिल्ली, सांसद श्री जयनारायण व्यास तथा राज्य के भूतपूर्व सदस्य मंत्री श्री कुम्भाराम आर्य (जनपद पृ० ३७) १६-४-५० दिल्ली, लोकसभा अध्यक्ष अनंतशयनम् आयंगर (जनपद, पृ० ६०) १६-४-५० दिल्ली, सांसद मिहिरलाल चट्टोपाध्याय (जनपद, पृ० ५७) २०-४-५० दिल्ली, सांसद नेमिशरण जैन (जनपद, पृ० ६७) २३-४-५० दिल्ली, सांसद श्री ब्रजेश्वरप्रसाद (जनपद, पृ० ८२) २२-५-५० दिल्ली, राष्ट्रपति के सैनिक सचिव श्री बी० चटर्जी (जनपद, पृ० २०९) १२-४-५० दिल्ली, कांग्रेस कमेटी के मंत्री श्री के० पी० शंकरन् (जनपद, पृ० ३९) २२-४-५० दिल्ली, कांग्रेस अध्यक्ष श्री पट्टाभिसीतारमैया (जनपद, पृ० ७५) १-१२-५६ दिल्ली, सांसद श्रीमती सावित्री निगम (नव पृ० १९०) ६-१२-५६ दिल्ली, श्री मोरारजी देसाई (नव पृ० २०२) १०-१२-५६ दिल्ली, कांग्रेस कमेटी के जनरल सेक्रेटरी श्री महेन्द्र मोहन चौधरी (नव पृ० २१५) १६-१२-५६ दिल्ली, लोकसभा अध्यक्ष श्री अनन्त शयनम् आयंगर (नव पृ० २३४) मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य (जैन ६-५-६२) २१-८-६५ दिल्ली, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महामंत्री श्री टी० मनयन (जैन ५-९-६५) २६-७-६८ मद्रास, श्री सी० सुब्रह्मण्यम् (जैन ३-१-७१) जयप्रकाश नारायण (जैन १५-९-६८) १५-११-६८ मद्रास, राजनीति के चाणक्य (जैन २२-११-६८, श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य षष्टि पृ० १२, Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ न्यायविदों से २४-८-६८ मद्रास, उच्च न्यायालय के न्यायधीश सौन्दरम् कैलासम् । (जन १-९-६८) ७-९-६८ मद्रास, हाईकोर्ट के जज श्री वेंकटादरी (जैन २९-९-६८) २४-७-६९ उच्चन्यायालय मद्रास के न्यायाधीश श्री कैलास एवं श्रीमती सुन्दरम् कैलासम् (षष्टि पृ० ३०) २१-९-८० लाडनूं, उच्चन्यायालय के न्यायाधीश गुमानमल लोढा (जैन १६-११-८०) राजदूतों से ८-४-५० दिल्ली, पूर्व चीन में भारत के राजदूत श्री के० एम० पणिक्कर (जनपद पृ० १३) २७-४-५० दिल्ली, फिनलैण्ड के भारत स्थित राजदूत मि० हुगो वेलवाने (जनपद पृ० ८७) १-५-५० दिल्ली, फिनलैण्ड के राजदूत की धर्मपत्नी ब्रिगेटा वेलवाने (जनपद पृ० १३६) ६-५-५० दिल्ली, फिनलैण्ड राजदूत की पत्नी ब्रिगेटा (जनपद पृ० १५३) १३-१२-५६ जर्मन दूतावास के श्री वाल्टर लाइफर और श्री वार्नहार्ट हाइवेच (नव पृ० २२३) ५-१-५७ दिल्ली, फ्रांस के राजदूत ल-कोम्स (नव पृ० २५६, स्तानिस्लास ओस्त्रोराग षष्टि पृ० १०) २८-७-६५ दिल्ली, अमरीका के भारतस्थित राजदूत चेस्टर वोल्स के सहयोगी श्री डगलस बेनेट (जैन ३१-१०-६५) ५-८-६५ दिल्ली, जापान के भारत स्थित कार्यवाहक राजदूत श्री टेनेटानी (जैन १२-१२-६५) शिक्षाविदों से ३-५-५० दिल्ली, पंडित दलसुखभाई मालवणिया (जनपद पृ० १४५) ३-६-५० दिल्ली, यूनिवर्सिटी के उपकुलपति श्री एस० एन० सेन (जनपद पृ० २२४) २५-९-५१ डा० महादेवन तथा डा० निकम (जैन ११-१०-५१) २२-१-५५ बम्बई, विल्सन कालेज के प्रिंसिपल श्री केलॉक (जैन ३०-१-५५) १३-१०-६८ मदुराई विश्वविद्यालय के उपकुलपति (जैन २७-१२-७०) Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ साहित्यकारों से ९-४-५० जैन साहित्यकार परिषद् के कार्यकर्त्ता १-५-५० श्री जैनेन्द्रकुमारजी २८-८-५२ सरदारशहर, श्रीरामकृष्ण भारती, एम० ए० बी० टी० दिल्ली, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त दिल्ली, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त सुमित्रानंदन पंत तथा श्री हरिवंशराय बच्चन मद्रास, तमिल साहित्यकार वर्ग १- १२-५६ २१- १२-५६ ११ - ११ - ५९ पत्रकारों से १३- ४-५० दिल्ली, नवभारत के सहसम्पादक अक्षयकुमार व ब्रह्मदत्त विद्यालंकार ४-५-५० दिल्ली, 'स्टेट्स मैन' के सम्पादक सर आर्थर मूर आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २२-५-५० दिल्ली, 'प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया' के सह सम्पादक ज्योतिसेन गुप्ता तथा नैयर दिल्ली, 'आजकल' के सम्पादक श्री देवेन्द्र सत्यार्थी बीकानेर, प्रेस कान्फ्र ेन्स दिल्ली, यूनेस्को के प्रेस - प्रतिनिधि श्री एलविरा २-६-५० २५-३-५३ १-१२-५६ ६-१२-५६ दिल्ली, 'इंडियन एक्सप्रेस' के सम्पादक श्री चमनलाल सूरी १२-१२-५६ दिल्ली, 'यूनाइटेड प्रेस ऑफ इण्डिया' के डाइरेक्टर श्री सी० सरकार १२-१२-५६ दिल्ली, 'टाइम्स आफ इण्डिया' के मुख्य संवाददाता श्री रामेश्वरन् १५-१२-५६ दिल्ली, 'स्टेट्समैन' दिल्ली संस्करण के सम्पादक श्री कोश लैन २१- १२-५६ दिल्ली, 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के सम्पादक श्री दुर्गादास ३०-१२-५६ दिल्ली, 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के सम्पादक श्री दुर्गादास ( जनपद पृ० २७ ) ( जनपद पृ० १३२ ) (जैन १९-२-५३) ( नव पृ० १८८ ) ( नव पृ० २४५) ( जैन २६-२-६१ ) ( जैन ६-१०-६८ ) ( जनपद पृ० ४३ ) ( जनपद पृ० १४९ ) ( जनपद पृ० २०८ ) ( जनपद पृ० २२३ ) ( जैन १६-४-५३) ( नव पृ० १९२ ) ( नव पृ० २०१ ) ( नव पृ० २१६ ) ( नव पृ० २१८ ) ( नव पृ० २३३ ) ( नव पृ० २४२ ) ( नव पृ० २५० ) Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३७९ २८-८-६८ मद्रास, प्रधान सम्पादक श्री शिवरामन (जैन २०-१२-७०) 'युवादृष्टि' के सम्पादक कमलेश चतुर्वेदी (जैन १९६८) ८-४-६९ केरल, 'इण्डियन एक्सप्रेस' के संवाददाता (जैन ८-६-६९) 'दैनिक हिन्दुस्तान' के सम्पादक श्री रतनलाल जोशी (जैन २७-७-७०) ५-८-७० एक पत्रकार से धर्म और राजनीति विषयक वार्ता (जैन २३-८-७०) - जैन भारती के प्रतिनिधि (जैन ३०-११-८०) राजेन्द्र मेहता (जैन ३-१-८१) ललित गर्ग 'बसन्त' (जैन २२-१२-८५) 'नवज्योति' के प्रधान सम्पादक कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी (जैन १७-११-८६) विशिष्ट व्यक्तियों से १८-४-५० अनेक मिल मैनेजर (जनपद पृ० ६२) १२-५-५० दिल्ली, आकाशवाणी के देहाती कार्यक्रमों के व्यवस्थापक (जनपद पृ० १८८) १४-५-५० दिल्ली, कुमारी राकेशनन्दिनी (जनपद पृ० १९२) ९-१२-५६ दिल्ली, समाजवादी नेता श्री अशोक मेहता (नव पृ० २११) १७-१२-५६ दिल्ली, राष्ट्रपति के प्राइवेट सेक्रेटरी श्री विश्वनाथ वर्मा (नव पृ० २३७) १८-१२-५६ दिल्ली, हिन्दू महासभा के अध्यक्ष श्री एन० सी० चटर्जी तथा महामंत्री श्री वी० जी० देशपांडे (नव पृ० २३८) २८-१२-५६ दिल्ली, नैतिक प्रचारक श्री मोहन शकलानी (नव पृ० २४७) मद्रास, गांधी सेवक (जैन ६-१०-६८) २-५-६३ राजस्थान विश्वविद्यालय के विद्यार्थी (जैन १९६३) विश्वयात्री श्री कपिलेश्वर शर्मा तथा आदित्य प्रसाद दीक्षित (जैन १९६५) १३-११-६८ बेंगलोर, सेनाध्यक्ष जनरल करिअप्पा (षष्टि पृ० २७) २९-११-६८ खादी बोर्ड के अध्यक्ष यू० एन० ढेबर (जैन १६-१-६९) १. ७ वर्षों से १२० देशों की शांति यात्रा करने वाले । Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण २७-१२-६८ पाण्डिचेरी, पाण्डिचेरी आश्रम के सचिव श्री नवजात (जैन २६-१-६९) ९-४-७० नागपुर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के (जन १४-६-७०, संचालक सदाशिव गोलवलकर षष्टि पृ० ३४) उद्योगपतियों सो १४-४-५० दिल्ली, श्री रामकृष्ण डालमिया (जनपद पृ० ४५) १९५६ दिल्ली, सेठ जुगलकिशोर बिड़ला (नव पृ० २५८) तमिलनाडु के प्रसिद्ध उद्योगपति श्री महालिंगम् (जैन २५-८-६८) उद्योगपति साहू श्रेयांसप्रसादजी जैन (जैन २२-३-७०) पाश्चात्य विद्वानों से ९-४-५० दिल्ली, हंगरी के प्राच्य विद्या (जनपद पृ० २३) विशेषज्ञ डा० फैलिक्स वैली (जन १-१-१९५१) ९-४-५० अमेरिकन औद्योगिक परामर्शदाता श्री ट्रोन (जनपद पृ० १८) १०-४-५० दिल्ली, सेंट स्टीफन्स कालेज के ___ -- अमेरिकन प्रो० डा० बुशनल अमेरिका (जनपद पृ० ३०) अमेरिकन विद्वान श्री जे० आर० बर्टन तथा श्री डब्ल्यू डी वेल्स (जैन २८-११-५४) १२-५-५५ जलगांव, केनेडियन दम्पत्ति (जैन २९-५-५५) अंतर्राष्ट्रीय शाकाहारी मंडल के उपाध्यक्ष तथा यूनेस्को के प्रतिनिधि श्रीवुडलैण्ड केलर (जैन २०-२-५५) २९-११-५६ दिल्ली, हाजीमे नाकामुरा और सोसन मियो मोटो (नव पृ० १८७) ५-१२-५६ विदेशी नैतिक आंदोलन के सदस्य मि० डब्ल्यू० इ० पार्टर, मि० जी० एफ० स्टीफेन्स तथा मि० जे० एस० हडसन (नव पृ० १९८) ७-१२-५६ दिल्ली, जर्मन विद्वान श्री अल्फेड वायर, फेल्ड वाल्टर तथा लाइफर हाईवेच (नव पृ० २०५) १४-१२-५६ दिल्ली, अमेरिकन महिलाएं (नव पृ. २२५) १९-१२-५६ परराष्ट्र मंत्री डॉ० सैयद महमूद (नव पृ० २४१) Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ३८१ ४-८-६१ बीदासर, वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर इ० यन स्टीवेन्शन एवं एन० बनर्जी (जैन २०-८-६१) २९-६-६५ दिल्ली, कनाडा के हाईकमिश्नर श्री एच० ई० डोलेण्ड मेचनर (जैन १-८-६५) १८-७-६५ दिल्ली, अर्जेन्टाइनावासी श्रीमती आरगोलिया (जैन ३०-८-६५) २५-७-६५ यहूदी धर्म के प्रधान अमेरिकन श्री मेसिड्ज (जैन १२-९-६५) २७-७-६५ दिल्ली, जापान दूतावास के प्रथम कौंसिलर श्री हकसा कबायसी (जैन २४-१०-६५) २९-७-६५ दिल्ली, मेक्समूलर भवन के डायरेक्टर जर्मनवासी श्री हाइमोराड (जन ७-११-६५) ९-८-६५ दिल्ली, फ्रेंच विद्यार्थियों के साथ (जैन ६-२-६६) अर्जेण्टाइनावासिनी श्रीमती आरगोलिया डी० बरविया (जैन १९-९-६५) १२-१-६८ बम्बई, डा० डब्ल्यू० नार्मन ब्राउन (जैन १०-३-६८) शोधकर्ता डॉ० ट्रेड (जैन १-६-६९) २९-१०-६९ बेंगलोर, कनाडा निवासी श्रीरीड (जैन २३-११-६९) ८-७-८० अमेरिका-निवासी शोधविद्यार्थी डुगलस (जैन २७-७-८०) Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट। पुस्तक संकेत-सूची भूमिका में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रंथ-सूची (पुनरुक्ति के भय से इस सूची में हमने आचार्यश्री की उन पुस्तकों का उल्लेख नहीं किया है, जो हम विषय-वगीकरण की सूची में दे रहे हैं।) अणुविभा (सं-सोहनलाल गांधी, अणुव्रत विश्व भारती, १९८९) अणुव्रत (पाक्षिक) (अखिल भारतीय अणुव्रत समिति) अणुव्रत अनुशास्ता के साथ (मुनि सुखलाल, आदर्श साहित्य संघ) अमरित बरसा अरावली में (साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा, आदर्श साहित्य संघ) अमृत महोत्सव, स्मारिका (सं०-महेन्द्र कर्णावट, अमृत महोत्सव राष्ट्रीय समिति) आचार्य तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ (श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा) आधुनिक गद्य एवं गद्यकार (जेकब पी० जार्ज, कानपुर ग्रंथम्, रामबाग) आधुनिक निबंध (रामप्रसाद किचल, द्वादश सं १९७४ राजकिशोर प्रकाशन) आह्वान (आचार्य तुलसी, जैन विश्व भारती, लाडनूं) एक बूंद : एक सागर (सं०- समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनं) कबीर (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) कबीर साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन (डा० आर्या प्रसाद त्रिपाठी, किताब घर-दिल्ली) कला और संस्कृति (डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, साहित्य भवन, प्रयाग) जब महक उठी मरुधर माटी (सा० प्रमुखा कनकप्रभा, आदर्श साहित्य संघ) जैन भारती' (पत्रिका) (श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा) तुलसीदास (डॉ० माताप्रसाद गुप्त, हिंदी परिषद्, प्रयाग विश्वविद्यालय) तेरापंथ टाइम्स (समाचार पत्र) (अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद्) तेरापंथ दिग्दर्शन (सं०-मुनि सुमेरमल, जैन विश्व भारती) दिनकर के पत्र (सं०-कन्हैयालाल फूलफगर, दिनकर शोध संस्थान) दक्षिण के अंचल में (साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा, आदर्श साहित्य संघ) १. सन् १९८४ तक यह पत्रिका साप्ताहिक थी, किंतु अब मासिक है । Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ धर्म और भारतीय दर्शन ( श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा) धर्मचक्र का प्रवर्तन (युवाचार्य महाप्रज्ञ, अमृत महोत्सव राष्ट्रीय समिति ) पथ और पाथेय (सं० - मुनि श्रीचंद, अजंता प्रिंटर्स, जयपुर) पांव पांव चलने वाला सूरज (साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा, आदर्श साहित्य संघ ) प्रवचन डायरी (आचार्य तुलसी, श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा) प्रेमचंद (नरेन्द्र कोहली, वाणी प्रकाशन, दिल्ली) प्रेमचंद के कुछ विचार ( प्रेमचंद) Problems of style (M. Murre) बहता पानी निरमला ( साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा, आदर्श साहित्य संघ ) भरतमुक्ति (आचार्य तुलसी, आदर्श साहित्य संघ, द्वितीय सं० १९९०) मां वदना (आचार्य तुलसी, आदर्श साहित्य संघ ) मेरे सपनों का भारत ( महात्मा गांधी ) युवादृष्टि (पत्रिका) ( अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद्) रश्मियां (मुनि श्रीचंद 'कमल', आदर्श साहित्य संघ ) रसज्ञ रंजन (महावीरप्रसाद द्विवेदी ) रामराज्य (पत्रिका) ( कानपुर से प्रकाशित ) विचार और तर्क (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ) विचार और विवेचन ( डॉ० नगेन्द्र ) विज्ञप्ति ( समाचार बुलेटिन ) ( आदर्श साहित्य संघ ) विवरणपत्रिका (पत्रिका) (श्री जैन श्वेतांबर तेरापन्थी महासभा ) व्यावहारिक शैली विज्ञान (डॉ० भोलानाथ तिवारी, शब्दकार, दिल्ली) संस्मरणों का वातायन ( साध्वी कल्पलता, आदर्श साहित्य संघ ) समीक्षात्मक निबंध (विजयेन्द्र स्नातक, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, दिल्ली साहित्य और समाज (सं० जगदीशप्रसाद चतुर्वेदी, राज्यपाल एण्ड सन्स) साहित्य का उद्देश्य (प्रेमचंद) साहित्य का मर्म (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ) साहित्य का श्रेय और प्रेय (जैनेन्द्र कुमार ) साहित्य विवेचन ( क्षेमचन्द्र सुमन तथा योगेन्द्र कुमार मल्लिक ) साहित्य : समाज शास्त्रीय संदर्भ (सं०-डा० विश्वम्भरदयाल गुप्ता ) साहित्यालोचन (डा० श्यामसुन्दरदास इंडियन प्रेस लि० प्रयाग ) सिद्धांत और अध्ययन ( बाबू गुलाबराय ) दिल्ली) हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-७ ( राजकमल प्रकाशन, हस्ताक्षर ( आचार्य तुलसी, आदर्श साहित्य संघ ) हिंदी साहित्य का इतिहास ( आचार्य रामचंद्र शुक्ल ) हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय काव्य (डा० के० के० शर्मा ) ३८३ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विषय- वर्गीकरण में प्रयुक्त ग्रन्थ संकेत-सूची अणु आन्दो अणुव्रत आंदोलन का प्रवेश द्वार ( आदर्श साहित्य संघ ) अणु: गति अणुव्रत : गति प्रगति (वही, तृतीय सं० १९८६ ) अणुव्रती अणुव्रती क्यों बनें ? ( अणुव्रत समिति, कलकत्ता) अणुव्रती संघ अणुव्रती संघ और अणुव्रत ( वही ) अणु संदर्भ अतीत अणुव्रत के संदर्भ में ( ( आदर्श साहित्य संघ, प्र० सं० १९७१) अतीत का अनावरण (भारतीय ज्ञानपीठ, प्र० सं० १९६९ ) अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत अतीत का अनैतिकता अमृत अशांत आलोक में उद्बो कुहासे क्या धर्म खोए गृहस्थ घर जन-जन जब जागे जागो ! जीवन जैन ( आदर्श साहित्य संघ, द्वि० सं० १९९१) अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी (वही, तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता) अहिंसा और अहिंसा और विश्व शांति (श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा) आगे आगे की सुधि लेइ (जैन विश्व भारती, प्र० सं० १९९२) आचार्य तुलसी के अमर संदेश ( आदर्श साहित्य संघ, आ ० तु० प्र० सं० १९५०) अमृत - संदेश (वही, प्र० सं० १९८६ ) अशांत विश्व को शांति का संदेश (श्री जैन श्वेतांबर द्वि० सं० १९८७ ) अणुव्रत के आलोक में (वही, द्वितीय सं० १९८६ ) उद्बोधन (वही, द्वितीय सं० १९८७ ) कुहासे में उगता सूरज (वही, प्रथम सं० क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? (वही, प्रथम सं० खोए सो पाए (वही, तृतीय सं० १९९१ ) गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का १९८९ ) ( वही, चतुर्थ सं० १९९२) घर का रास्ता (जैन विश्व भारती, प्र० सं० १९९३) जन-जन से ( अणुव्रत समिति, कलकत्ता) जब जागे, तभी सवेरा (आदर्श साहित्य संघ, द्वि० सं० १९९० ) जागो ! निद्रा त्याग ! ! ( जैन विश्व भारती, प्र० सं० १९९१) जीवन की सार्थक दिशाएं (आदर्श साहित्य संघ, द्वि०सं० १९९२) जैन दीक्षा (आदर्श साहित्य संघ ) १९८८ ) Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ ३८५ ज्योति के ज्योति के कण (अ० भा० अणुव्रत समिति, प्र० सं० १९५८) ज्योति से ज्योति से ज्योति जले (अ० भा० तेरापंथ युवक परिषद्, प्र० सं० १९७७) तत्त्व तत्त्व क्या है ? (आदर्श साहित्य संघ) तत्त्व चर्चा तत्त्व-चर्चा (वही) तीन तीन संदेश (वही, द्वि० सं० १९५३) दायित्व दायित्व का दर्पण : आस्था का प्रतिबिम्ब (अ० भा० तेरापंथ युवक परिषद्, प्र० सं० १९७६) दीया दीया जले अगम का (आदर्श साहित्य संघ, प्र० सं० १९९१) दोनों दोनों हाथ : एक साथ (वही, द्वि० सं० १९९२) धर्म : एक धर्म : एक कसौटी, एक रेखा (वही, प्र० सं० १९६९) धर्म और धर्म और भारतीय दर्शन (श्री जैन श्वे० तेरापंथी महासभा) धर्म सब धर्म सब कुछ है, कुछ भी नहीं (वही) धवल धवल समारोह (आ० तु० धवल समारोह समिति, दिल्ली) नयी नयी पीढ़ी : नए संकेत (अ०भा० तेरापंथ युवक परिषद्) नवनिर्माण नवनिर्माण की पुकार (आदर्श साहित्य संघ, प्र० सं० १९५७) नैतिक नैतिक-संजीवन भाग-१ (आत्माराम एण्ड सन्स, १९६७) नैतिकता के नैतिकता के नए चरण (अ० भा० अणुव्रत समिति, दिल्ली) प्रगति की प्रगति की पगडंडियां (अणुव्रत समिति, कलकत्ता) प्रज्ञा प्रज्ञापर्व (जैन विश्व भारती, प्र० सं० १९९२) प्रवचन प्रवचन-पाथेय, भाग १-११ (जैन विश्व भारती, लाडन) प्रश्न प्रश्न और समाधान (आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली) प्रेक्षा प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा (आदर्श साहित्य संघ, द्वि० सं० १९८८) बीती ताहि बीती ताहि बिसारि दे (आदर्श साहित्य संघ, प्र० सं० १९८४) बूंद-बूंद बूंद-बूंद से घट भरे, भाग १,२ (जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्र० सं० १९८५) बैसाखियां बैसाखियां विश्वास की (आदर्श साहित्य संघ, प्र० सं० १९९२) भगवान् भगवान् महावीर (जैन विश्व भारती, लाडनूं) भोर भोर भई (जैन विश्व भारती, द्वि० सं० १९९२) मंजिल १ मंजिल की ओर, भाग १ (वही, प्र० सं० १९८६) मंजिल २ मंजिल की ओर, भाग २ (वही, प्र० सं० १९८८) मनहंसा मनहंसा मोती चुगे (आदर्श साहित्य संघ, प्र० सं० १९९२) मुक्ति : इसी मुक्ति : इसी क्षण में (अ० भा० ते युवक परिषद्, १९७८) मुक्तिपथ मुक्तिपथ (आदर्श साहित्य संघ, प्र० सं० १९७८) मुखड़ा मुखड़ा क्या देखे दरपन में (आदर्श साहित्य संघ, १९८९) Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण मेरा धर्म मेरा धर्म : केन्द्र और परिधि (वही, प्रथम सं० १९८८) राजधानी राजधानी में आचार्य तुलसी के संदेश (मारवाड़ी प्रकाशन) राजपथ राजपथ की खोज (आदर्श साहित्य संघ, द्वि० सं० १९८८) वि दीर्घा विचार दीर्घा (वही, प्र० सं० १९८०) वि वीथी विचार वीथी (वही) विश्व शांति विश्वशांति और उसका मार्ग (श्री जैन श्वे० तेरापंथी महासभा) शांति के शांति के पथ पर दूसरी मंजिल (आदर्श साहित्य संघ) संदेश संदेश (वही) संभल सयाने ! (जैन विश्व भारती, द्वि० सं० १९९२) सफर सफर : आधी शताब्दी का (आदर्श साहित्य संघ, १९९१) समता समता की आंख : चरित्र की पांख (वही, प्र० सं० १९९१) समाधान समाधान की ओर (अ० भा० तेरापंथ युवक परिषद्) साधु साधु जीवन की उपयोगिता (श्री जैन श्वे० तेरापंथी महासभा) सूरज ढल ना जाए (जैन विश्व भारती, द्वि० सं० १९९२) सोचो! सोचो ! समझो !! १-३ (जैन विश्व भारती, प्र० सं० १९८८) संभल Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकों का ऐतिहासिक क्रम विषय वर्गीकरण में हम लेखों या प्रवचनों को ऐतिहासिक क्रम से नहीं दे सके, इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि आचार्यश्री के सभी प्रवचनों एवं निबंधों में दिनांक का उल्लेख नहीं मिलता है। यहां हम कालक्रमानुसार पुस्तकों की सूची प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे शोध - विद्यार्थी किसी भी विषय पर ऐतिहासिक क्रम से उनके विचारों का अध्ययन कर सके । समय के अनुसार हर व्यक्ति का चिंतन बदलता है । आचार्य तुलसी जैसे युगद्रष्टा और प्रखर चिंतक ने समय के अनुसार अपने चिंतन को ही नहीं, जीवन को भी बदला है । यहां हमने पुस्तकों का ऐतिहासिक क्रम केवल प्रकाशन - समय के आधार पर निश्चित नहीं किया है क्योंकि अनेक प्रवचनों की पुस्तकों में प्रवचन बहुत पुराने हैं पर प्रकाशन बहुत बाद में हुआ है । अतः जिन पुस्तकों में प्रवचनों की दिनांक आदि का उल्लेख है, वहां हमने उसी के आधार पर समय-निर्धारण किया है। जहां केवल निबंधों की पुस्तकें हैं, जिनमें समय का उल्लेख नहीं है उनको प्रकाशन के प्रथम संस्करण के आधार पर रखा है । योगक्षेम वर्ष के प्रवचनों की छह पुस्तकों में यद्यपि दिनांक आदि का उल्लेख नहीं है किंतु योगक्षेम वर्ष से सम्बन्धित होने के कारण उनको १९८९ वर्ष के अन्तर्गत रखा है । यद्यपि यह सूची पूर्ण नहीं कही जा सकती क्योंकि किसीकिसी पुस्तक में अनेक वर्षों के प्रवचन संकलित हैं । जैसे- 'शांति के पथ पर', 'खोए सो पाए। इसके अतिरिक्त कहीं कहीं कुछ निबंध जो बहुत पहले की पुस्तक में आए हैं, वे ही बाद की प्रकाशित पुस्तक में समाविष्ट हैं । जैसे 'धर्म : एक कसौटी, एक रेखा' जो सन् १९६९ में प्रकाशित हुई थी । उसके अनेक लेख 'अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत' में है । फिर भी स्थूल रूप से पाठक आचार्य तुलसी के विचारों की यात्रा ऐतिहासिक क्रम से कर सकेंगे, ऐसा विश्वास है । 1 I Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १९४५ १९४८ १९४८ १९४९ १९४९ १९४९ १९४९ १९४९ १९५० १९५० १९५० १९५१-५३ १९५१ १९५३ १९५३ १९५४ १९५५ १९५६ १९५७ १९५७ १९५८ अशांत विश्व को शांति का संदेश तीन संदेश आत्मनिर्माण के इकतीस सूत्र साधु जीवन की उपयोगिता विश्वशांति और उसका मार्ग संदेश जैन दीक्षा तत्त्व क्या है ? राजधानी में आचार्य तुलसी के संदेश धर्म सब कुछ है, कुछ भी नहीं अणुव्रती संघ और अणुव्रत आचार्य तुलसी के अमर संदेश शांति के पथ पर (दूसरी मंजिल) अणुव्रत आंदोलन, अणुव्रत आंदोलन का प्रवेश द्वार अणुव्रती क्यों बनें ? प्रवचन डायरी, भाग-१/प्रवचन पाथेय, भाग-९ एवं ११ प्रवचन डायरी, भाग-२/भोर भई प्रवचन डायरी, भाग-२/सूरज ढल ना जाए प्रवचन डायरी, भाग-३/संभल सयाने ! प्रवचन डायरी, भाग-३/घर का रास्ता नवनिर्माण की पुकार ज्योति के कण जन-जन से अणुव्रती क्यों बनें ? नैतिक-संजीवन, भाग-१ धवल समारोह नया मोड़ क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? बूंद-बूंद से घट भरे भाग-१,२/प्रवचन पाथेय, भाग-१,२ जागो ! निद्रा त्यागो !! धर्म-सहिष्णुता आगे की सुधि लेइ मेरा धर्म : केंद्र और परिधि अतीत का अनावरण xxxurururror or or १९६५ १९६६ १९६७ १९६९ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ ३८९ १९६९ १९७० १९७३ १९७५ १९७६ १९७६ १९७६ १९७६ १९७६-७७ १९७७ १९७७ १९७७ १९७७ १९७७-७८ १९७८ १९७८ १९७८ १९७८ १९७८ १९७८ १९७८-७९ १९७९ १९८० धर्म : एक कसौटी, एक रेखा/अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत अणुव्रत के संदर्भ में अणुव्रत गति-प्रगति खोए सो पाए अणुव्रत के आलोक में नयी पीढ़ी : नए संकेत दायित्व का दर्पण : आस्था का प्रतिबिंब जैन तत्त्व प्रवेश, भाग-१,२ समाधान की ओर मंजिल की ओर, भाग-१ ज्योति से ज्योति जले उद्बोधन/समता की आंख : चरित्र की पांख सोचो ! समझो !! भाग-१/प्रवचन पाथेय, भाग-४ महामनस्वी आचार्यश्री कालूगणी जीवनवृत्त सोचो ! समझो !! भाग-२/प्रवचन पाथेय, भाग-५ सोचो ! समझो !! भाग-३/प्रवचन पाथेय, भाग-६ प्रवचन पाथेय भाग-८ मंजिल की ओर भाग-२/मुक्ति : इसी क्षण में मुक्तिपथ/गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का विचार वीथी/राजपथ की खोज विचार दीर्घा/राजपथ की खोज प्रवचन पाथेय, भाग-१० अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी समण दीक्षा प्रज्ञापुरुष जयाचार्य प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा बूंद भी : लहर भी बीती ताहि बिसारि दे प्रेक्षाध्यान : प्राण-विज्ञान अमृत-संदेश हस्ताक्षर दोनों हाथ : एक साथ १९८१ १९८३ १९८४ १९८४ १९८५ १९८६ १९८७ १९८८ १-२. इनमें कुछ लेख नए एवं बाद के भी हैं। ३. कुछ लेख एवं प्रवचन इसमें १९८१ के भी हैं। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण १९८९ १९८९ १९८९ १९८९ १९८९ १९८९ १९८९ १९९१ १९९१ १९९२ १९९२ १९९४ कुहासे में उगता सूरज मुखड़ा क्या देखे दरपन में जब जागे, तभी सवेरा लघुता से प्रभुता मिले दीया जले अगम का मनहंसा मोती चुगे प्रज्ञापर्व जीवन की सार्थक दिशाएं सफर : आधी शताब्दी का बैसाखियां विश्वास की तेरापंथ और मूर्तिपूजा अर्हत् वंदना Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्य एवं संस्कृत साहित्य (इस पुस्तक में हमने आचार्य तुलसी के गद्य साहित्य का ही परिचय एवं पर्यवेक्षण प्रस्तुत किया है। किंतु आचार्य तुलसी उत्कृष्ट कोटि के कवि ही नहीं, मधुर संगायक भी हैं । चरित काव्य एवं गीति काव्य की दृष्टि से इस शताब्दी के कवियों में उनका नाम शीर्ष पर रखा जा सकता है । विभिन्न प्रसंगों पर आशुकवित्व के रूप में निःसृत हजारों पद्य तो अभी अप्रकाशित ही पड़े हैं। यहां हम पाठकों की जानकारी हेतु उनकी काव्य कृतियों एवं संस्कृत-भाषा में लिखित ग्रंथों का नामोल्लेख मात्र कर रहे हैं।) पद्य-साहित्य अग्नि परीक्षा नंदन निकुंज'/ अणुव्रत गीत पानी में मीन पियासी अतिमुक्तक आख्यान (अप्रकाशित) भरत मुक्ति आचार बोध मगन चरित्र कालूयशोविलास मां वदनां चंदन की चुटकी भली माणक महिमा चंदनबाला आख्यान (अप्रकाशित) योगक्षेम वर्ष व्याख्यान जागरण (संकलित) शासन संगीत डालिम चरित्र श्रद्धेय के प्रति तेरापंथ प्रबोध श्री कालू उपदेश वाटिका थावच्चापुत्र आख्यान (अप्रकाशित) संस्कार बोध सेवाभावी सोमरस' संस्कृत साहित्य कर्तव्य षटत्रिंशिका भिक्षुन्यायकणिका कालूकल्याणमन्दिर मनोनुशासनम् जैन सिद्धान्त दीपिका शिक्षाषण्णवति: संघट्विंशिका पंचसूत्रम् १. श्री कालू उपदेश वाटिका का परिवर्धित एवं परिष्कृत संस्करण । २. 'श्रद्धेय के प्रति' का परिवधित एवं परिष्कृत संस्करण । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में सामाजिक जीवन के उस पक्ष को प्रकट करने की कोशिश की है, जो नहीं है पर जिसे होना चाहिए। वे इस बात को मानकर चलते हैं कि साहित्यकार मात्र छायाकार या अनुकृतिकार नहीं होता, वह स्रष्टा होता है। स्रष्टा होने के कारण अनेक संघर्षों को झेलना उसकी नियति होती है। वह समाज के एक-एक घटक के जीवन से ओत-प्रोत हो कर उसकी सारी समस्याओं को आत्मसात् कर अपने साहित्य में उन सभी समस्याओं का सटीक समाधान प्रस्तुत करता है। साहित्यकार विषपायी होता है, पर अमृत उगलता है। आचार्य तुलसी ने यही किया है इसलिए उनके साहित्य में जीवन्त तत्त्वों का बाहुल्य है। समणी कुसुमप्रज्ञा For Private & Pe Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं कहूँगा कि मैं राम नहीं, कृष्ण नहीं, बुद्ध नहीं, महावीर नहीं, मिट्टी के दीए की भांति छोटा दीया हूँ। मैं जलूंगा और अंधकार को मिटाने का प्रयास करूंगा। आचार्य तुलसी Jam Education