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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन तो मैं उसे संस्कृति की संज्ञा नहीं दे सकता । मुसलमान होने का अर्थ यदि हिंदू के विरोध में खड़ा होना हो तो उसे भी मैं संस्कृति की संज्ञा देना नहीं चाहूंगा।' उनकी दृष्टि में संस्कृति की श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता ही किसी संस्कृति का मूल्य-मानक है । इससे हटकर साम्प्रदायिकता, जातीयता आदि के बटखरों से उसे तोलना यथार्थ से परे होना है ।
___ आचार्य तुलसी शिक्षा को संस्कृति के पूरक तत्त्व के रूप में ग्रहण करते हैं । उनकी दृष्टि में शिक्षा संस्कृति को परिष्कृत करने का एक अंग है। इस क्षेत्र में उनका स्पष्ट कथन है कि शिक्षा का सम्बन्ध आचरण के परिष्कार के साय होना चाहिए। यदि आचरण परिष्कृत नहीं है तो शिक्षित और अशिक्षित में कोई अंतर नहीं हो सकता है । शिक्षा के संदर्भ में उनकी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी है--- "शिक्षा प्राप्त करने का उद्देश्य केवल बौद्धिक विकास या डिग्री पाना ही हो, यह दृष्टिकोण की संकीर्णता है । क्योंकि शिक्षा का सम्बन्ध शरीर, मन, बुद्धि और भाव सबके साथ है। एकांगी विकास की तुलना शरीर की उस स्थिति के साथ की जा सकती है, जिसमें सिर बड़ा हो जाए और हाथ पांव दुबले-पतले रहें। शरीर की भांति व्यक्तित्व का असंतुलित विकास उसके भौंडेपन को प्रदर्शित करता है। वे शिक्षा के साथ नैतिक विकास का होना अत्यन्त आवश्यक मानते हैं। यदि शिक्षा का आधार नैतिक बोध नहीं हुआ तो वह अशिक्षा से भी अधिक भयंकर हो जाएगी। वे मानते हैं जिस शिक्षा के साथ अनुशासन, धैर्य, सहअस्तित्व, जागरूकता आदि जीवन-मूल्यों का विकास नहीं होता, उस शिक्षा की जीवंत दृष्टि के आगे प्रश्नचिह्न उभर आता है । अतः शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है, जीवन मूल्यों को समझना, यथार्थ को जानना तथा उसे पाने की योग्यता हासिल करना।'
आज की यांत्रिक एवं निष्प्राण शिक्षापद्धति में जीवन विज्ञान के माध्यम से उन्होंने नव प्राणप्रतिष्ठा की है तथा इसके अभिनव प्रयोगों से शिक्षा द्वारा अखंड व्यक्तित्व निर्माण की योजना प्रस्तुत की है।
जीवन विज्ञान के साथ-साथ वे शिक्षा में क्रांति लाने हेतु त्रिआयामी चर्चा प्रस्तुत करते हैं। वे मानते हैं शिक्षा तभी प्रभावी बनेगी जब विद्यार्थी, शिक्षक और अभिभावक तीनों को प्रशिक्षित और जागरूक बनाया जाए। शिक्षा संस्थान में पवित्रता बनाए रखने के लिए वे तीन बातें आवश्यक मानते
१. साम्प्रदायिकता से मुक्ति
१. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४२२ २. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?, पृ० १३७ ३. जैन भारती, २२ जून ८६
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