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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
धर्मनेता होने के कारण वे कर्तव्य की एक लम्बी शृखला व्यक्ति या वर्गविशेष के सम्मुख रख देते हैं, जिससे कम-से-कम एक विकल्प तो व्यक्ति अपने अनुकूल खोज कर उसके अनुरूप स्वयं को ढाल सके। यह शैलीगत वैशिष्टय उन्हें अन्य साहित्यकारों से विलक्षण बना देता है । युगों से प्रताड़ित अवहेलित नारी जाति के सामने करणीय कार्यों की सूची प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं---
"महिलाएं अपनी क्षमताओं का बोध करें, स्वाभिमान को जागृत करें, युगीन समस्याओं को समझे, समस्याओं को समाज के सामने रखें, उन्हें दूर करने के लिए सामूहिक आवाज उठाएं और आगे बढ़ने के लिए स्वयं अपना रास्ता बनाएं।"
'स्त्री को अपने व्यक्तित्व को उजागर करने के लिए चारित्रिक सौंदर्य को निखारना होगा, आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा, आत्मनिर्भरता की भावश्यकता का अनुभव करना होगा, चितन एवं अभिव्यक्ति को नया परिवेश देना होगा, स्वाभिमान को जगाना होगा, निरभिमानता का विकास करना होगा, अनासक्ति का अभ्यास करके संग्रहवृत्ति को नियंत्रित करना होगा, युगीन समस्याओं को समझना होगा, प्रदर्शनप्रियता से ऊपर उठकर आत्माभिमुख बनना होगा, अनाग्रही वृत्ति को विकसित करना होगा तथा सहिष्णुता, मृदुता एवं विनम्रता को आत्मसात् करना होगा।"
__यद्यपि समानान्तरता का प्रयोग काव्य में अधिक मिलता है, पर हिंदी साहित्य में रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद एवं हजारीप्रसाद द्विवेदी ने गद्य साहित्य में भी इसका प्रचुर प्रयोग किया है। इसी क्रम में आचार्य तुलसी की भाषा में भी प्रचुर मात्रा में लयात्मकता एवं समानान्तरता प्रवाहित होती दृग्गोचर होती है।
समानान्तरता का आशय है कि समान ध्वनि, समान शब्द, समान पद एवं समान उपवाक्यों की पुनरुक्ति । जैसे बेकन अपने निबंधों में तीन शब्द, तीन पदबंध तथा तीन वाक्य समानान्तर रखते थे
कुछ पुस्तकें चखने की होती हैं, कुछ निगलने की होती हैं और कुछ चबाकर खाने और पचाने की।
रूपीय समानान्तरता के प्रयोग आचार्यश्री के साहित्य में अधिक मिलते
० कुछ लोग निराशा की खोह में सोये रहते हैं। वे अतीत में जाते हैं, भविष्य में उड़ान भरते हैं । जो नहीं किया, उसके लिए पछताते हैं। नयी आकांक्षाओं के सतरंगे इन्द्रधनुष रचते हैं। कभी समय को कोसते हैं। कभी परिस्थिति को दोष देते हैं और कभी अपने भाग्य का रोना रोते हैं। ऐसे लोग निषेधात्मक भावों के खटोले में बैठकर जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं।' १. मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, पृ० ९
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