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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
अपनी सन्तुलित एवं सटीक टिप्पणी व्यक्त करते हुए कहा-"यह अच्छा ही हुआ, जिस सत्य से हम आज तक अनजान थे वह आज अनावृत हो गया । हो सकता है, सत्य का यह अनावरण हमारी परम्पराओं पर चोट करने वाला हो, हमारे लिए प्रिय नहीं हो, फिर भी वे लोग बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने अथक परिश्रम से एक महान् तथ्य का उद्घाटन किया है । हम न तो प्रत्यक्ष तथ्यों को असत्य या अप्रामाणिक बनाने की चेष्टा करें और न ही अध्यात्म के प्रति अपनी आस्था को शिथिल करें।" दो विरोधी तथ्यों में तराजू के पलड़े की भांति निष्पक्ष मध्यस्थता करने वाला व्यक्ति ही महान हो सकता है, सत्यद्रष्टा हो सकता है । उनकी यह उदार टिप्पणी निश्चित ही रूढ़ धर्माचार्यों के लिए एक चुनौती है।
आचार्यश्री तुलसी के चिन्तन एवं कर्तृत्व ने डा० वी० डी० वैश्य की निम्न पंक्तियों को सार्थक किया है-"भारत की जीनियस (प्रतिभा) के सच्चे प्रतिनिधि वैज्ञानिक नहीं, अपितु सन्त हैं।' जीवन-मूल्यों का विवेचन
आचार्य तुलसी की अवधारणा है कि इस धरती का सबसे महत्त्वपूर्ण प्राणी मानव है । यदि उसका सही निर्माण नहीं होगा तो निर्माण की अन्य योजनाएं निरर्थक हो जाएंगी। सामाजिक दृष्टि से भी इकाई को पृथक रख कर निर्माण की बात करना असम्भव है। निर्माण की प्रक्रिया में आचार्य तुलसी व्यक्ति-सुधार से समाज-सुधार की बात कहते हैं। वे अपने विश्वास को इस भाषा में दोहराते हैं - "जब तक व्यक्ति-निर्माण की ओर ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक समष्टि निर्माण की बात का महत्त्व दिवास्वप्न से ज्यादा नहीं होगा।"२ वे मानते हैं मैत्री, प्रमोद, करुणा और अहिंसा की पौध से मनुष्य के मन और मस्तिष्क को हरा-भरा बनाया जाए, तभी इस धरती की हरियाली अधिक उपयोगी बनेगी।"
___ जीवन-निर्माण के सूत्रों का सहज, सरल भाषा में जितना उल्लेख आचार्य तुलसी ने अपने प्रवचन साहित्य में किया है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी भाषा में जीवन-कला का व्यावहारिक सूत्र सन्तुलन है"जो व्यक्ति थोड़ी-सी खुशी में फूल जाता है, और थोड़े से दुःख में संतुलन खो देता है, आपा भूल जाता है, वह जीवन-कला में निपुण नहीं हो सकता।" उनके विचार में जीवन के सम्यक निर्माण के लिए आवश्यक है कि मानव को जीवन के उद्देश्य से परिचित कराया जाए। उनकी दृष्टि में जीवन का
१. साहित्य और समाज, पृ० ३० १. जैन भारती, ३० नव० १९६९ २. तेरापंथ दिग्दर्शन, पृ० १३५
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