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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन बहुत अनुगृहीत हुआ। ... जिस सुलभ रीति से आप धर्म के गूढ़ तत्त्वों का प्रचार कर रहे हैं उन्हें सुनकर मैं बहुत प्रभावित हुआ और आशा करता हूं कि इस तरह का शुभ अवसर मुझे फिर मिलेगा।" आचार्यश्री तुलसी अपने प्रवचनों में अनेक बार इस बात को दोहराते हैं कि धर्म सादगी और संयम का संदेश देता है। वहां भी यदि आडम्बर, दिखावा एवं विलासिता का प्रदर्शन होता है तो फिर संयम की संस्कृति को सुरक्षित कौन रखेगा ? धर्म की स्थिति का विश्लेषण उनकी दृष्टि में इस प्रकार है-"धर्म का क्रांतिकारी स्वरूप जनता के समक्ष तभी आएगा, जब वह जनमानस को भोग से त्याग की ओर अग्रसर करे किन्तु आज त्याग भोग के लिए अग्रसर हो रहा है । यह वह कीटाणु है जो धर्म के स्वरूप को विकृत बना रहा है।' उनका स्पष्ट कथन है कि धर्म कहने, सुनने और समझाने का तत्त्व नहीं, अपितु अनुभव करने और जीने का तत्त्व है। वे तो निर्भीकतापूर्वक यहां तक कह देते हैं- "आज के चन्द्रयान व राकेट के युग में केवल मन्दिरों, मस्जिदों एवं धर्मस्थानों की शोभा बढ़ाने वाला धर्म अब बहुत दिनों तक चलने वाला नहीं है । "२ यदि धर्म और अध्यात्म को प्रयोगात्मक नहीं बनाया तो एक दिन वह अमान्य हो जाएगा। धर्म के क्षेत्र में उनकी यह दृष्टि कितनी वैज्ञानिक और व्यावहारिक है। धर्म और विज्ञान का समन्वय एक सम्प्रदाय के गुरु एवं धर्मनेता होते हुए भी उनके प्रवचन केवल धर्म की व्याख्या ही नहीं करते वरन् विज्ञान का समावेश भी उनमें है। व्यवहार में दोनों की दिशाएं भिन्न-भिन्न हैं क्योंकि साहित्य में भावनाओं और संवेगों को प्राथमिकता दी जाती है जबकि विज्ञान के लिए ये काल्पनिक हैं। उनकी पैनी दृष्टि ने दोनों के बीच पूरकता को देखा ही नहीं उसे समझने का भी प्रयत्न किया है। उनकी दृष्टि में कोरा विज्ञान विध्वंसक तथा कोरा अध्यात्म रूढ़ है, अतः "आध्यात्मिक-वैज्ञानिक-व्यक्तित्व" की कल्पना ही नहीं की उसे प्रयोग की धरती पर उतार कर इतिहास में एक नए अध्याय का सृजन भी किया है। धर्मशास्त्र के विरुद्ध विज्ञान की नयी खोज का प्रसंग उपस्थित होने पर भी उनका बौद्धिक, उदार एवं अनाग्रही मानस वैज्ञानिक सत्य को स्वीकारने में हिचकिचाता नहीं और न ही धर्मशास्त्र के प्रति अनास्था व्यक्त करता है। चन्द्रयात्रियों ने चांद का जो स्वरूप व्यक्त किया उसे सुनकर आचार्य तुलसी ने १. जैन भारती, २४ जुलाई १९६६ . २. जैन भारती, १० अक्टू० १९७१ ३. जैन भारती, जन० १९६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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