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________________ ४६ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण आस्था और तर्क के सम्बन्ध में उनकी मौलिक विचारणा इस विषय का एक निदर्शन है। वे कहते हैं-'उत्तम तर्क वही होता है, जो श्रद्धा के प्रकर्ष में फूटता है।" उनके चिंतन में सत्य दृष्टि यही है कि जहां तक काम करे, वहां तर्क से काम लो और जहां तर्क काम नहीं करे, वहां श्रद्धा से काम लो, क्योंकि आस्था में गतिशीलता है पर देखने-विचारने की क्षमता नहीं है। तर्क शक्ति हर तथ्य को सूक्ष्मता से देखती है पर चलने की सामर्थ्य नहीं रखती। . वे अपने जीवन का अनुभव बताते हुए एक प्रवचन में कहते हैं-'यदि हम कोरे आस्थावादी होते तो पुराणपन्थी बन जाते। यदि हम कोरे तार्किक होते तो अपने पथ से दूर चले जाते । हमने यथास्थान दोनों का सहारा लिया, इसलिए हम अपने पूर्वजों द्वारा खींची हुई लकीरों पर चलकर भी कुछ नई लकीरें खींचने में सफल हुए हैं ।'. धर्म की व्यावहारिक प्रस्तुति आचार्य तुलसी आध्यात्मिक जगत् के विश्रुत धर्मनेता हैं। उनके प्रवचनों में धर्म और अध्यात्म की चर्चा होना बहुत स्वाभाविक है। पर उन्होंने जिस पैनेपन के साथ धर्म को वर्तमान युग के समक्ष रखा है, वह सचमुच मननीय है। जीवन की अनेक समस्याओं को उन्होंने धर्म के साथ जोड़कर उसे समाहित करने का प्रयत्न किया है । ईश्वर, जीव, जगत् पुनर्जन्म आदि आध्यात्मिक चिन्तन बिन्दुओं पर उन्होंने व्यावहारिक प्रस्तुति देकर उसे जनभोग्य बनाने का प्रयत्न किया है । धर्म की रूढ़ परम्पराओं एवं धारणाओं का जो विरोध उनके साहित्य में प्रकट हुआ है, उसने केवल बौद्धिक समाज को ही आकृष्ट नहीं किया वरन् प्रधानमन्त्री से लेकर मजदूर तक सभी वर्गों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। कहा जा सकता है कि उनका प्रवचन साहित्य धर्म के व्यापक एवं असाम्प्रदायिक स्वरूप को प्रकट करने में सफल रहा है। वे अपनी यात्रा के तीन उद्देश्य बताते हैं--१. मानवता या चरित्र का निर्माण । २. धर्म समन्वय । ३. धर्मक्रांति । यही कारण है कि उन्होंने केवल धर्म को व्याख्यायित करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मानी बल्कि धार्मिक को सही धार्मिक बनाने में भी उनके चरण गतिशील रहे हैं। क्योंकि उनका मानना है "धर्म को जितनी हानि तथाकथित धार्मिकों ने पहुंचाई है उतनी तो अधार्मिकों ने भी नहीं पहुंचाई।" २१ अक्टू० १९४९ को डा० राजेन्द्रप्रसाद आचार्यश्री से मिले । उनके ओजस्वी विचार सुनकर वे अत्यन्त प्रभावित हुए। राष्ट्रपतिजी ने पत्र द्वारा अपनी प्रतिक्रिया इस भाषा में प्रेषित की-"उस दिन आपके दर्शन पाकर मैं १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १३५९ २. वही, पृ० ४११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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